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योग के प्रभाव से प्राप्त लब्धियाँ
योगशास्त्र प्रथम प्रकाश श्लोक ८ है । अमृतरस के सिंचन की तरह योगियों के शरीर का स्पर्श भी तत्क्षण सर्व रोगों का विनाश करने में समर्थ होता है। योगियों के शरीर के नख, बाल, दांत आदि विभिन्न अवयव भी औषधिमय बन जाते हैं। इसीलिए उन्हें भी सर्वौषधिलब्धिमान कहा है। इसी कारण तीर्थंकरदेवों के शरीर के हड्डी आदि सर्व अवयव देवलोक में सर्वत्र प्रतिष्ठित किये जाते हैं, पूजे जाते हैं। इसके अतिरिक्त योगियों के शरीर में और भी अनेक लब्धियां प्रकट हो जाती है।
योगी के शरीर के स्पर्शमात्र से वर्षा का पानी, नदियों, सरोवरों या जलाशयों का पानी सभी रोगों को हरण करने | वाला बन जाता है। उनके शरीर-स्पर्श से विषाक्त वायु निर्विष हो जाती है; मूर्च्छित प्राणी होश में आ जाता है। विष| मिश्रित अन्न योगी के मुख में प्रवेश करते ही निर्विष बन जाता है। महाविष या महाव्याधि से पीड़ित व्यक्ति भी उनके | वचन - श्रवण मात्र से या दर्शन - मात्र से भी विष रहित व रोग रहित हो जाता है । सर्वौषधि का यही रहस्य है। कहने | का तात्पर्य यह है कि योगियों के कफ आदि महान् ऋद्धियों के समान है, अथवा ऋद्धियों के अलग-अलग भेद हैं। | वैक्रियलब्धि भी अनेक प्रकार की है। उसके अणुत्व, महत्त्व, लघुत्व, गुरुत्व, प्राप्ति, प्राकाम्य, ईशित्व, वशित्व, अप्रतिघातित्व, अंतर्धान, कामरूपित्व आदि अनेक भेद हैं।
अणुत्व का अर्थ है= अणु जितना शरीर बनाकर बारीक से बारीक छेद में प्रवेश करने का सामर्थ्य | महत्त्व= मेरु | पर्वत से भी महान् बनने का सामर्थ्य । लघुत्व= वायु से भी हल्का शरीर बनाने की शक्ति । गुरुत्व = इन्द्रादि के लिए दुःसह | तथा वज्र से भी अधिक वजनदार शरीर बनाने की शक्ति | प्राप्ति = धरती पर रहे हुए ही अंगुली के अग्रभाग से मेरुपर्वत | के सिरे को और सूर्य को भी स्पर्श कर सकने का सामर्थ्य । प्राकाम्य = भूमि पर चलने की तरह पानी पर चलने की और | पानी पर तैरने की तरह भूमि पर तैरने व डूबने की शक्ति । ईशित्व = तीन लोक की प्रभुता, तीर्थंकर और इन्द्र की सी ऋद्धि पाने की शक्ति और कामरूपित्व = = एक साथ ही अनेक रूप धारण करने की शक्ति । ये सब वैक्रिय - लब्धियां भी | महाऋद्धियों के अंतर्गत है । इसके अतिरिक्त विद्या और बुद्धि से संबंधित अनेक लब्धियाँ हैं, जो योगाभ्यास से प्राप्त होती | है। जैसे श्रुतज्ञानावरणीय एवं वीर्यान्तराय कर्म के प्रकर्ष क्षयोपशम से साधक को असाधारण महाप्रज्ञा ऋद्धि प्राप्त होती है, जिसके प्रभाव से वह द्वादशांग और चतुर्दश पूर्व का विधिवत् अध्ययन न होने पर भी बारह अंगों और चतुदर्श पूर्वो के ज्ञान का निरूपण कर सकता है। तथा उस महाप्रज्ञावान् श्रमण की बुद्धि गंभीर से गंभीर और कठिन से कठिन अर्थ | का स्पष्ट विवेचन कर सकती है। कोई विद्याधारी श्रमण विद्यालब्धि प्राप्त कर दसपूर्व तक पढ़ता है; कोई रोहिणी, प्रज्ञि | आदि महाविद्याओं व अंगुष्ठप्रश्न आदि अल्पविद्याओं के जानकार हो जाते हैं, फिर वे किसी ऋद्धिमान के वश नहीं होते । | कई साधक पढ़े हुए विषय के अतिरिक्त विषयों का प्रतिपादन एवं विश्लेषण करने में कुशल होते हैं। उक्त विद्याधरश्रमणों में से कइयों को बीज, कोष्ठ व पदानुसारी बुद्धि की लब्धि प्राप्त होती है। बीजबुद्धि के लब्धिधारी वे कहलाते हैं, जो ज्ञानावरणीयादि कर्मों के अतिशय क्षयोपशम से एक अर्थ रूपी बीज को सुनकर अनेक अर्थ वाले बहुत से बीजों | को उसी तरह प्राप्त कर लेता है जिस तरह एक किसान अच्छी तरह जोती हुई जमीन में वर्षा या सिंचाई के जल, सूर्य की धूप, हवा आदि के संयोग से एक बीज बोकर अनेक बीज प्राप्त कर लेता है। जैसे - कोष्ठागार (कोठार) में रखे हुए | विविध धान्य एक दूसरे में मिल न जाय, सड़कर बिगड़ न जाय इस दृष्टि से कुशल बुद्धि वाला किसान बहुत-सा धान्य कोठारों में अच्छी तरह संभालकर सुरक्षित रखता है; वैसे ही दूसरे से सुनकर अवधारण किये हर श्रुत (शास्त्र) के अनेक अर्थों को या बार-बार आवृत्ति किये बिना ही विभिन्न अर्थों को भलीभाँति याद रखता है, भूलता नहीं है, इस प्रकार | मस्तिष्क रूपी कोष्ठागार में अर्थ सुरक्षित रखता है, वह कोष्ठ-बुद्धिवान कहलाता है। पदानुसारी बुद्धि वाले तीन प्रकार के होते हैं - अनुस्रोत, प्रतिस्रोत और उभयपद । १. जिनकी बुद्धि ग्रंथ के प्रथम पद के अर्थ को दूसरे से सुनकर अंतिम | पद तक के संपूर्ण ग्रंथ का विचार (स्मरण) करने में समर्थ बुद्धि अत्यंत तीव्र होती है, वह अनुस्रोतपदानुसारी-बुद्धिवान् | कहलाता है । २. जिसकी बुद्धि अंतिम पद के अर्थ या ग्रंथ को दूसरे से सुनकर आदि पद तक के अर्थ या ग्रंथ को स्मरण कर सकने में समर्थ हो, वह प्रतिस्रोत - पदानुसारी बुद्धिवान् कहलाता है और ३. जिसकी बुद्धि ग्रंथ के बीच के अर्थ या पद को दूसरे से जानकर आदि से अंत तक के तमाम पद समूह और उनका प्रतिनियत अर्थ करके सारे ग्रंथ - समुद्र को पार करने में समर्थ असाधारण तीव्र हो, वह उभयपदानुसारी बुद्धिवान् कहलाता है। बीजबुद्धि और पदानुसारीबुद्धि में यही अंतर है कि बीजबुद्धि तो एक पद का अर्थ बताने पर अनेक पदों का अर्थ बताने में कुशल होती है, जब कि पदानुसारीबुद्धि एक पद को जानकर दूसरे तमाम पदों को जानने में समर्थ होती है।
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