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योग के प्रभाव से प्राप्त होने वाली विविध लब्धियाँ
योगशास्त्र प्रथम प्रकाश श्लोक ८ को बर्बाद कर देता है। शरीर शिथिल हो जाता है, मगर आशा शिथिल नहीं होती; रूप चला जाता है, परंतु पापबुद्धि नहीं जाती; वृद्धावस्था बढ़ती जाती है, परंतु ज्ञानवृद्धि नहीं होती। धिक्कार है, संसारी जीवों के ऐसे स्वरूप को! घास की नोक पर पड़े ओसबिन्दु के समान इस संसार में रूप, लावण्य, कांति, शरीर, धन आदि सभी पदार्थ चंचल है। शरीर का स्वभाव आज था, वह कल नहीं रहता। अतः इस शरीर से तपस्या करके कर्मों की सकाम निर्जरा करना (क्षीण करना) यही महाफल-प्राप्ति का कारण है। इस प्रकार वैराग्यभावना में डूबे हुए चक्रवर्ती को मुनि दीक्षा लेने की अभिलाषा जागृत हुई। उसने तत्काल अपने पुत्र को राज्याभिषिक्त करके राजपाट सौंप दिया और स्वयं विनयपूर्वक उद्यान में जाकर श्री विनयधरसूरिजी के पास मुनिदीक्षा लेकर सर्वसावद्यविरति रूप संयम अंगीकार किया।
महाव्रतों और उत्तरगुणों को धारण कर राजर्षि एक गांव से दूसरे गांव समताभाव से एकाग्रचित्त होकर विहार करते थे। हाथियों के यूथपति के पीछे-पीछे जैसे उसका समुदाय चलता है, वैसे ही राजर्षि के पीछे-पीछे गाढ़-अनुराग से प्रजामंडल चलने लगा। उन कषायरहित, उदासीन, ममत्वरहित, निष्परिग्रह राजर्षि की प्रजा ने छह महीने तक सेवा की। फिर भी किसी प्रकार भी वापस लौटने का उनका मन नहीं होता था। (तब परिवार चला गया) वे यथाविधि भिक्षा ग्रहण करते थे। भोजन समय पर न मिलने से तथा अपथ्य भोजन करने से अनेक व्याधियों ने उनके शरीर में डेरा जमा लिया। खुजली, सूजन, बुखार, श्वास, अरुचि, पेट में दर्द और आंखों में वेदना, इन सात प्रकार की व्याधियों की वेदना को सातसौ वर्ष तक राजर्षि ने समता पूर्वक सहन किया। समग्र दुःसह परिषहों के सहन करने से तथा उनके निवारण का उपाय नहीं करने से उन्हें अनेक लब्धियां प्राप्त हो गयी। उस समय हृदय में आश्चर्य होने से इन्द्र महाराज ने देवों के सामने उस मुनि की प्रशंसा की-'जलते हुए घास के पुले के समान चक्रवर्ती-पन का वैभव छोड़कर यह सनत्कुमार मुनि दुष्कर तप कर रहे हैं, तप के प्रभाव से उन्हें समस्त लब्धियां प्राप्त हुई है। फिर भी वे अपने शरीर के प्रति निरपेक्ष है। यहां तक कि अपने रोगों की चिकित्सा भी नहीं करते।' इन्द्र के इस वचन पर विजय और वैजयंत नामक देवों को विश्वास न होने से वे वैद्य का रूप बनाकर सनत्कुमार मुनि के पास आये और कहने लगे-'भाग्यशाली मुनिवर! आप रोग से क्यों दुःखी होते हैं? हम दोनों वैद्य हैं। हम सारे विश्व के रोगियों की चिकित्सा करते हैं, और आप रोगग्रस्त हैं | तो हमें आज्ञा दीजिए न! हम एक ही दिन में आपका रोग मिटा देते हैं।' यह सुनकर सनत्कुमार मुनि ने प्रत्युत्तर दिया'चिकित्सको! इस जीव को दो प्रकार के रोग होते हैं-एक तो द्रव्यरोग और दूसरा भावरोग। क्रोध, मान, माया और लोभ आदि भावरोग है, जो शरीरधारी आत्माओं को होते हैं और हजारों जन्मों तक जीव के साथ चलते हैं और असीम दुःख देते हैं। अगर आप उन रोगों को मिटा सकते हों तो चिकित्सा कीजिए। किन्तु यदि केवल शरीर के द्रव्यरोग मिटाते हों| | तो ऐसे रोग मिटाने की शक्ति तो मेरे पास भी है।' यों कहकर उन्होंने मवाद से भरी अपनी सड़ी अंगुली पर अपने | कफ का लेप किया। सिद्धरस का लेप करते ही जैसे तांबा चमकने लगता है, वैसे ही वह अंगुली कफ का लेप करते ही सोने-सी चमक ने लगी। सोने की सलाई के समान अंगुली देखकर वे देव उनके चरणों में गिर पड़े, और कहने लगे-'मुनिवर! हम वे ही देव हैं, जो पहले आपका रूप देखने आये थे। इन्द्र महाराज ने कहा था कि 'लब्धियां प्राप्त होने पर भी सनत्कुमार राजर्षि स्वेच्छा से व्याधि की पीड़ा सहन करते हुए अद्भुत तप कर रहे हैं।' इसी कारण हम यहाँ आये हैं। हमने यहाँ आकर आपकी प्रत्यक्ष परीक्षा की। उसमें आप उत्तीर्ण हुए।' यों कहकर वे दोनों देवता उन्हें नमस्कार करके अदृश्य हो गये। उनको प्राप्त कफलब्धि का तो एक उदाहरण हमने दिया है। उन्हें दूसरी अनेक लब्धियाँ | प्राप्त थीं, परंतु ग्रंथ बढ़ जाने के डर से हम उनका वर्णन यहाँ नहीं करते। योग के प्रभाव से प्राप्त अन्य लब्धियाँ :. योग के प्रभाव से योगी पुरुष की विष्ठा भी रोग नाश करने में समर्थ होती है और उसमें कमल की-सी महक | भी आती है। सभी देहधारियों का मल दो प्रकार का माना है। एक तो कान, नेत्र आदि से निकलने वाला और दूसरा शरीर से निकलने वाला मल, मूत्र, पसीना आदि। योगियों के योग का इतना जबर्दस्त प्रभाव होता है कि उनके पूर्वोक्त दोनों प्रकार के मल समस्त रोगियों के रोग को मिटा देते हैं। उक्त दोनों प्रकार के मलों में कस्तूरी की-सी सुगंध आती
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