________________
योग माहात्म्य, सनत्कुमार चक्रवर्ती को रूप पर गर्व और वैराग्य
योगशास्त्र प्रथम प्रकाश श्लोक ५ से 6 को बताने के लिए कहते हैं कि आगम रूपी समुद्र से, अपने गुरुजनों के मुख से और स्वानुभव से निर्णय कर यह योग-शास्त्र रचा जा रहा है। यही बात इस ग्रंथ के अंत में कहेंगे। शास्त्र से, गुरु के मुख से और अपने अनुभव से जो कुछ मैंने जाना है, वह योग का उपनिषद् विवेकियों की परिषद् के चित्त को चमत्कृत करने वाला है। अतः चौलुक्यवंश के राजा कुमारपाल की अत्यंत प्रार्थना से आचार्य भगवान्
श्री हेमचंद्रसूरीश्वरजी ने वाणी के माध्यम से इस योगशास्त्र की रचना की है।।४।। अब योग का ही माहात्म्य बताते हैं।५। योगः सर्वविपद्वल्लीविताने परशुः शितः । अमूलमन्त्रतन्त्रं च, कार्मणं निर्वृतिश्रियः ।।५।। अर्थ :- योग सर्व-विपत्ति रूपी लताओं के समूह को काटने के लिए तीखीधार वाला कुठार है तथा मोक्ष-लक्ष्मी
को वश करने के लिए यह जड़ी-बूटी, मंत्र और तंत्र से रहित कार्मण वशीकरण है।।५।। आशय :- योग आध्यात्मिक, भौतिक, दैविक सर्व-विपत्ति रूपी लता समूह का छेदन करने के लिए तीक्ष्ण परशु के
समान है। वह अनर्थफल का नाश करता है। उत्तरार्द्ध के आधे श्लोक से योग से परम पुरुषार्थ मोक्षलक्ष्मी की प्राप्ति बतायी है। जगत् में कार्मण (जादू) करने के लिए जड़ी-बूटी, मंत्र-तंत्र की विधि करनी पड़ती है, परंतु योग जड़ी-बूटी, मंत्र और तंत्र के बिना ही मोक्ष-लक्ष्मी को वश करने का अमोघ उपाय
है।।५।। कारण को दूर किये बिना विपत्ति रूपी कार्य का नाश कैसे हो सकता है? इसी हेतु से कारणभूत पापों का नाश करने वाले योग के बारे में कहते हैं।६। भूयांसोऽपि हि पाप्मानः, प्रलयं यान्ति योगतः । चण्डवाताद् घनघना, घनाघनघटा इव ॥६॥ अर्थ :- प्रचंड वायु से जैसे घने बादलों की श्रेणी बिखर जाती है, वैसे ही योग के प्रभाव से बहुत से पाप भी
. नष्ट हो जाते हैं।।६।। प्रश्न होता है कि एक जन्म में उपार्जित किये हुए पाप योग के प्रभाव से कदाचित् नष्ट हो सकते हैं; किन्तु जन्मजन्मांतर में उपार्जित अनेक पापों का विनाश योग से कैसे हो सकता है? इसका उत्तर कहते हैं
७। क्षिणोति योगः पापानि, चिरकालार्जितान्यपि । प्रचितानि यथैधांसि, क्षणादेवाशुशुक्षणिः ।।७।। अर्थ :- जैसे चिरकाल से इकट्ठी की हुई लकड़ियों को प्रचंड अग्नि एक क्षण में जला देती है। वैसे ही अनेकानेक
भवों के चिरसंचित पापों को भी योग क्षणभर में क्षय कर देता है ।।७।। योग का दूसरा फल भी बताते हैं1८। कफविपुण्मलामर्श, - सर्वौषधि-महर्द्धयः । सम्भिन्नस्रोतोलब्धिश्च, योगं ताण्डवडम्बरम् ॥८॥ अर्थ :- योगी को कफ, श्लेष्म, विष्ठा, स्पर्श आदि सभी औषधिमय महासंपदाएँ (प्रभावशाली) तथा
संभिन्नस्रोतलब्धि (किसी भी एक इन्द्रिय से सारी इन्द्रियों के विषयों का ज्ञान हो जाने की शक्ति) प्राप्त होना
योगजनित अभ्यास का ही चमत्कार है।।८।। व्याख्या :- योगी के कफ, श्लेष्म, विष्ठा, कान का मैल, दांत का मैल, आँख और जीभ का मैल, हाथ आदि का स्पर्श, विष्ठा, मूत्र, केश, नख आदि कथित या अकथित सभी पदार्थ योग के प्रभाव से औषधि रूप बन जाते है। वे औषधि का काम करते हैं। जो काम औषधियाँ करती हैं, वही काम कफादि कर सकते हैं। इतना ही नहीं; योग से अणिमादि संभिन्नस्रोत आदि लब्धियाँ (शक्तियाँ) भी प्राप्त होती है। यह योग का ही प्रभाव था कि सनत्कुमार जैसे योगी को अपने योग-प्रभाव से कफबिन्दुओं द्वारा सब रोग मिटाने की शक्ति प्राप्त हुई।।८।।
नीचे हम सनत्कुमार चक्रवर्ती का दृष्टांत दे रहे हैं