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संगमदेव द्वारा अंतिम उपसर्ग
योगशास्त्र प्रथम प्रकाश ३ आसक्ति में क्षुब्ध नहीं हुआ। अतः प्रभु जहाँ ध्यानस्थ थे, उनके पास ही दुष्ट देव ने सेना का पड़ाव डाला। वहाँ रसोइये | को चूल्हा बनाने लिए पत्थर नहीं मिला, तो ध्यानस्थ प्रभु के दोनों पैरों को चूल्हा बनाकर उस पर हंडिया रखी। नीचे आग जलाई। वह ऐसी प्रतीत हो रही थी, मानो पर्वत की तलहटी में दावानल प्रकट हुआ हो। आग की प्रचंड ज्वालाओं के अत्यधिक जल जाने पर भी प्रभु के शरीर की कांति फीकी न हुई, बल्कि तप्त सोने के समान अधिकाधिक बढ़ती ही गयी। तब उस अधम देव ने जंगली भीलों की बस्ती बनायी, जहाँ भील लोग जोर-जोर से चिल्लाते थे। भीलों ने प्रभु के गले, कानों, बाहों और जांघों में क्षुद्र पक्षियों के पीजरे लटका दिये। जिससे उन पक्षियों ने चोंच और नख मारमारकर प्रभु का शरीर छिद्रमय बना डाला। वह ऐसा लगता था, मानो अनेक छेदों वाला कोई पीजरा हो। देव के लिए | यह प्रयोग भी पक्के पत्ते के समान निःसार सिद्ध हुआ। तब उसने संवर्तक नामक महान अंधड़ चलाया, जिससे विशाल वृक्ष तिनके के समान आकाश में उड़ते और फिर नीचे गिरते-से प्रतीत होने लगे। प्रत्येक दिशा में कंकड-पत्थर धूल के समान उड़ने लगे। धौंकनी की तरह हवा भरकर भगवान् को वह आकाश में उछाल-उछालकर नीचे धरती पर फेंकने लगा। परंतु उस महावायु से भी देव का मनोरथ सिद्ध न हुआ, तब उस देव-कुलकलंक ने वायु-वर्तुल चलाया। बड़े-बड़े पर्वतों को हिला देने वाले उस चक्करदार अंधड़ ने प्रभु को भी, चाक पर चढ़ाये हुए मिट्टी के पिंड के समान घुमाया। परंतु समुद्र के अंदर जल के समान उस चक्करदार अंधड़ के चलाने पर भी प्रभु अपने ध्यान से टस-से-मस नहीं हुए। तब देव सोचने लगा 'अहो! वज्रमय मनोबल वाले इस पुरुष को अनेक प्रकार की यातनाएँ देने पर जरा भी क्षुब्ध नहीं हुआ। अतः अब मैं प्रतिज्ञाभ्रष्ट होकर इसे ध्यान से विचलित किये बिना देवसभा में कैसे जाऊं? इसलिए अब तो यही अच्छा होगा कि इसके प्राणनाश का कोई उपाय करूं। तभी इसका ध्यानभंग होगा, अन्यथा नहीं। यों विचारकर अधम देव ने एक हजारपल वजन वाले लोहे का ठोस वज्रमय कालचक्र बनाया और रावण ने जैसे कैलाशपर्वत को उठाया था; वैसे ही इस देव ने उसे उठाया। पृथ्वी को लपेटने के लिए मानो यह दूसरा वेष्टन तैयार किया हो, ऐसे कालचक्र को ऊपर उठाकर प्रभु पर फेंका। निकलती हुई ज्वालाओं से समस्त दिशाओं को भयंकर बनाता हुआ, समुद्र में वड़वानल के समान वह प्रभु पर गिरा। बड़े-बड़े पर्वतों को चूर्ण करने में समर्थ उस चक्र के प्रभाव से भगवान् घुटने तक जमीन में धंस गये। ऐसी स्थिति में भी भगवान् विचार करने लगे कि विश्व के समग्र जीवों को तारने का अभिलाषी होने पर भी मैं इस बेचारे के लिए संसार-परिभ्रमण कराने का निमित्त बना हूँ। ___संगमदेव ने विचार किया-'अहो! मैंने कालचक्र के प्रयोग का अंतिम उपाय भी अजमाया, लेकिन यह तो अभी भी जीता-जागता बैठा है। अतः अब शस्त्र-अस्त्र के अलावा और कोई उपाय करना चाहिए। संभव है
उपसर्ग से यह किसी प्रकार विचलित हो जाय।' ऐसी नीयत से विमान में बैठे-बैठे वह प्रभ के आगे आकर कहने लगा-'हे महर्षि! तुम्हारे सत्त्व से और प्राणों की बाजी लगाकर प्रारंभ किये गये तप के प्रभाव से मैं तुम पर संतुष्ट हुआ हूँ। अतः अब छोड़ो, इस शरीर को क्लेश देने वाले तप को। ऐसे तप से क्या लाभ? तुम जो चाहो सो मांग लो। बोलो, मैं तुम्हें क्या-क्या दे दूं? इस विषय में जरा भी शंका मत करना; तुम्हारा जो मनोरथ होगा, पूर्ण किया जायगा। कहो तो मैं तुम्हें इस शरीर द्वारा ही स्वर्ग प्राप्त करा दूं? या कहो तो अनंत-अनंत जन्मों के किये हुए कर्मों से मुक्त करके एकांत परमानंदप्राप्ति-स्वरूप मोक्ष मैं तुम्हें प्राप्त करा दूं? अथवा समस्त राजा तुम्हारी आज्ञा शिरोधार्य करें, ऐसा अक्षय-संपत्ति वाला साम्राज्य तुम्हें दिला दूं? इस तरह की देव की प्रलोभनभरी बातों से भी जब प्रभु का मन चलायमान नहीं हुआ और उसे कोई प्रत्युत्तर प्रभु से नहीं मिला तो पापी देव ने फिर यों विचार किया कि इसने मेरे सारे प्रयोगों और शक्तियों को असफल बना दिया। अब तो केवल एक ही अमोघ उपाय शेष रह जाता है, वह है काम-शास्त्र का। उसे भी अजमाकर देख लूँ। क्योंकि काम के अस्त्र के समान कामिनियों की दृष्टि पड़ते ही बड़े-बड़े योगी पुरुषों तक का भी पुरुषत्व खंडित हो जाता है।' चित्त में यों निश्चिय करके उसने देवांगनाएँ और उनके विलास में सहायक छह ऋतुएँ बनायी। साथ ही उन्मत्त कोकिला के मधुर शब्दों से गूंजायमान कामदेव नाटक की मुख्य नटी के समान वसंत-लक्ष्मी वहाँ सुशोभित होने लगी। विकसित कदंबपुष्पों के पराग से मुख की सुगंध फैलाती हुई दिशा-बंधुओं से कला सीखी हुई दासी के समान ग्रीष्म ऋतु शोभायमान होने लगी। कामदेव के राज्याभिषेक में मंगलतिलक-रूप केवड़े के फूल के बहाने से रोमांचित
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