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चारण लब्धि और उसके विविध प्रकार
योगशास्त्र प्रथम प्रकाश श्लोक ९ से १० ___इसके अलावा और भी अनेक प्रकार के चारणमुनि होते हैं। कई पालथी मारकर, बैठे हुए और कायोत्सर्ग किये हुए पैरों को ऊंचे-नीचे किये बिना आकाश में गमन कर सकते हैं। कितनेक तो जल, जंघा, फल, फूल, पत्र-श्रेणी, अग्निशिखा, धूम, हिम-तुषार, मेघ-जलधारा, मकड़ी का जाला, ज्योतिष्किरण, वायु आदि का आलंबन लेकर गति करने में कुशल होते हैं। उसमें कई चारणलब्धि वाले मुनि बावड़ी, नदी, समुद्र आदि जलाशयों में जलकायिक आदि जीवों की विराधना किये बिना पानी पर जमीन की तरह पैर ऊँचे-नीचे करते हुए रखने में कुशल होते हैं; वे जलचारणलब्धिमान् मुनि कहलाते हैं। जो जमीन से चार अंगुलि-प्रमाण ऊपर अधर आकाश में चलने में और पैरों को ऊँचे-नीचे करने में कुशल होते हैं, वे भी जंघाचारणलब्धिमान मुनि कहलाते हैं। कई भिन्न-भिन्न वृक्षों के फलों को लेकर फल के आश्रित रहे हुए जीवों को पीड़ा न देते हुए फल के तल पर पैर ऊँचे-नीचे रखने में कुशल होते हैं, वे फलचारणलब्धिधारी मुनि कहलाते हैं। इसी प्रकार विभिन्न प्रकार के वृक्षों, लताओं, पौधों या फूलों को पकड़कर उनके आश्रित सूक्ष्म जीवों की विराधना किये बिना फूल की पंखुड़ियो का आलंबन लेकर गति कर सकते हैं, वे पुष्पचारणलब्धिधर मुनि कहलाते हैं। विविध प्रकार के पौधों, बेलों, विविध अंकुरों, नयी कोंपलो, पल्लवों या पत्तों आदि का अवलंबन लेकर सूक्ष्मजीवों को पीड़ा दिये बिना अपने चरणों को ऊंचे-नीचे रखने और चलने में कुशल होते हैं, वे पत्रचारणलब्धिधारी मुनि कहलाते हैं। चार सौ योजन ऊंचाई वाले निषध अथवा नील पर्वत की शिखर-श्रेणी का अवलंबन लेकर जो ऊपर या नीचे चढ़ने-उतरने में निपुण होते हैं, वे श्रेणीचारणलब्धिमान मुनि कहलाते हैं। जो अग्निज्वाला की शिखा ग्रहण करके अग्निकायिक जीवों की विराधना किये बिना और स्वयं जले बिना विहार करने की शक्ति रखते हैं वे, अग्निशिखाचारणलब्धियुक्त मुनि कहलाते हैं। धुंए की ऊंची या तिरछी श्रेणि का अवलंबन लेकर अस्खलितरूप से गमन कर सकने वाले धूमचारणलब्धिप्रास मुनि कहलाते हैं। बर्फ का सहारा लेकर अप्काय की विराधना किये बिना अस्खलित गति कर सकने वाले नीहारचारणलब्धिधारी मुनि कहलाते हैं। कोहरे के आश्रित जीवों की विराधना किये बिना उसका आश्रय लेकर गति कर सकने की लब्धि वाले अवश्यायचारण लब्धिमान मुनि कहलाते
आकाश मार्ग में विस्तत मेघ-समह में जीवों को पीडा न देते हए चलने की शक्ति वाले मेघचारणलब्धिवंत मनि कहलाते हैं। वर्षाकाल में वर्षा आदि की जलधारा का अवलंबन लेकर जीवों को पीड़ा दिये बिना चलने की शक्ति वाले वारिधाराचारणलब्धिवंत मुनि कहलाते हैं। विचित्र और पुराने वृक्षों के कोटर में बने मकड़ी के जाले के तंतु का आलंबन लेकर उन तंतुओं को टूटने न देते हुए पैर उठाकर चलने में जो कुशल होते हैं, वे मर्कटकतंतुचारणलब्धिधारी मुनि कहलाते हैं। चंद्र, सूर्य, ग्रह, नक्षत्र आदि किसी भी ज्योति की किरणों का आश्रय लेकर नभस्तल में जमीन की तरह
लने की शक्ति वाले ज्योतिरश्मिचारणलब्धिवंत मुनि कहलाते हैं। अनेक दिशाओं में प्रतिकूल या अनुकूल चाहे जितनी तेज हवा में, वाय का आधार लेकर अस्खलित गति से पैर रखकर चलने की कशलता वाले वायुचारणलब्धिप्राप्त मुनि कहलाते हैं।
तप और चारित्र के प्रभाव के बिना दूसरे गुणों के अतिशय से भी लब्धियाँ और ऋद्धियाँ प्राप्त होती हैं। आशीविषलब्धि वाला अपकार और उपकार करने में समर्थ होता है। अमुक सीमा में रहे हुए सभी प्रकार के इंद्रियपरोक्ष द्रव्यों का हस्तामलकवत् प्रत्यक्ष ज्ञान प्राप्त करने की लब्धि अवधिज्ञान लब्धि कहलाती है।
मनुष्यक्षेत्रवर्ती ढाई द्वीप में स्थित जीवों के मनोगत पर्यायों या मनोगत द्रव्यों को प्रकाशित करने वाली लब्धि मनःपर्यायज्ञानलब्धि कहलाती है। इसके दो भेद हैं-ऋजुमति और विपुलमति। विपुलमति-मनः पर्यायज्ञान एक बार प्राप्त होने पर फिर नष्ट नहीं होता और विशुद्धतर होता है। ऋजुमति कम विशद्ध होता है और जा सकता है।।९।। __ अब योग का माहात्म्य एवं उसके फलस्वरूप प्राप्त होने वाले केवलज्ञान रूपी फल का निरुपण करते हैं।१०। अहो योगस्य माहात्म्यं, प्राज्यं साम्राज्यमुद्वहन् । अवाप केवलज्ञानं, भरतो भरताधिप ॥१०॥ अर्थ :- अहो! योग का कितना माहात्म्य है कि विशाल साम्राज्य का दायित्व निभाने वाले भरतक्षेत्र के अधिपति
श्रीभरत चक्रवर्ती ने भी केवलज्ञान प्राप्त कर लिया।
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