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संगमदेव द्वारा भगवान् महावीर पर घोर उपसर्ग
योगशास्त्र प्रथम प्रकाश श्लोक ३ सुधामयी आँखों का कल्याण हो। इसका आशय यह है कि ऐसे सामर्थ्ययोग से युक्त प्रभु को हमारा वंदन-नमस्कार हो।। उक्त बात की पुष्टि के लिए महावीर प्रभु के जीवन का एक वृतांत दे रहे हैंभगवान महावीर की महाकरुणा :
एक गाँव से दूसरे गाँव और एक शहर से दूसरे शहर विहार करते हुए भगवान् महावीर एक बार म्लेच्छ-कुलों की बस्ती वाली 'दृढ़भूमि' में पधारें। अष्टमभक्त-प्रत्याख्यान (तेले) की तपस्या करके वे पेढालगाँव के निकट पेढ़ाल नामक वन में पोलाश नाम के मंदिर में प्रवेश कर एक प्रासुक शिलातल पर आरूढ़ होकर घुटनों तक हाथ लंबे करके, शरीर को झुकाकर अपने स्थिर अंतःकरण से आँख बंद किये बिना एकरात्रि-संबंधी महाप्रतिमा धारण करके ध्यानस्थ खड़े रहे। उस समय सौधर्मसभा में चौरासी हजार सामानिक देवों से परिवृत, तैंतीस त्रायस्त्रिंश, तीन पारिषद्य, चार लोकपाल, असंख्य प्रकीर्णक देव तथा अपने शरीर पर चारों ओर से बख्तर और हथियार बांधे, चौरासी हजार अंगरक्षक देव-सेनाओं से परिवृत, सात सेनापति, अभियोगिक, किल्विषिक आदि देव-देवियों तथा तीन प्रकार के वाद्य आदि से सुसज्जित होकर विनोदपूर्ण समय बिताते हुए, दक्षिण लोकार्ध के रक्षक शक्र नाम के देवेन्द्र ने सिंहासन पर बैठे-बैठे अवधिज्ञान से भगवान् को उक्त स्थिति में जाना। वे तुरंत खड़े हुए और पादुका त्यागकर उत्तरासंग धारण कर, दाहिना पैर भूमि पर रखकर और बांया पैर जरा ऊँचा करके भूतल पर मस्तक झुकाकर शक्रस्तव (नमुत्थुणं) से भगवान् की स्तुति करने लगे। इन्द्र का अंग-अंग पुलकित हो रहा था। उसने खड़े होकर सारी सभा को संबोधित करते हुए कहा'सौधर्म देवलोकवासी उत्तम देवो! तुम्हें भगवान् महावीर की अद्भुत महिमा सुनाता हूं, सुनो। पाँच समिति के धारक, तीन गुप्ति से पवित्र, क्रोध-मान-माया और लोभ को वश करने वाले, आश्रवरहित, द्रव्य-क्षेत्र-काल और भाव में निर्ममत्वी, वृक्ष या एक पुद्गल पर दृष्टि एकाग्र करके कायोत्सर्ग (ध्यान) में स्थिर महावीर स्वामी को देव, दानव, यक्ष, | राक्षस, नागकुमार, मनुष्य या तीन लोक में से कोई भी ध्यान से विचलित करने में समर्थ नहीं है।'
इन्द्र के ये वचन सुनकर एक अभव्य, गाढ़मिथ्यात्वी संगम नामक इन्द्र का सामानिक देव भौंहे तान कर, विकराल आंखें बनाकर, क्रोध से ओठ चबाकर, आँखे लाल करते हुए बोला- 'हे देवेन्द्र! एक मनुष्य का इतना बढ़-चढ़कर गुणगान करके उसे ऊँचे शिखर पर चढ़ाना, सत्यासत्य के विवाद में आपकी स्वच्छंदतायुक्त प्रभुता का परिणाम है। यह असंभव है कि मर्त्यलोक के व्यक्ति को देव भी ध्यान से चलायमान नहीं कर सकते। अतः स्वामी का ऐसा उद्धत वचन हृदय में कैसे धारण किया जा सकता है? कदाचित् धारण भी कर लिया गया हो, फिर भी उसे सबके सामने प्रकट कैसे किया जा सकता है? गगनचुंबी उच्चशिखरयुक्त एवं पातालमूलगामी जिस मेरुपर्वत को देव दो हाथों से ढेले की तरह उठाकर फेंक सकता है, पर्वतों सहित समग्र पृथ्वी को डुबा सकता है। महासमुद्र को छोटी सी नदी के समान बना सकता है। अनेक पर्वतों से बोझिल विशाल पृथ्वी को अनायास ही अपने भुजदंड से उठा सकता है, ऐसी असाधारण ऋद्धि, महापराक्रम और इच्छामात्र से कार्यसिद्धि की उपलब्धि से युक्त देवों के सामने मनुष्य क्या चीज है? मैं अभी इन्द्र द्वारा प्रशंसित व्यक्ति के पास जाकर उसे ध्यान से विचलित करता हूँ। यों कहकर हाथ से पृथ्वी को ठोककर वह देव सभामंडप में आ खड़ा हुआ। इन्द्र ने उसे बहुतेरा समझाया कि श्री अरिहंतदेव दूसरों की सहायता लिये बिना स्वयं अखंड तप करते हैं' किन्तु जब वह रंचमात्र भी नहीं समझा, तब इन्द्र ने उस दुर्बुद्धिदेव की उपेक्षा की। दुर्बुद्धिदेव हठाग्रही होकर भगवान् को विचलित करने के लिए वहाँ से चला। उसके गमन से प्रचंड वायुवेग के कारण बादल भी बिखरने लगे। अपनी रौद्र आकृति के कारण वह महाभयंकर दिखने लगा। उसके भय से अप्सराएँ भी मार्ग से हट गयी। विशाल वक्षःस्थल से टक्कर मारकर उसने मानो ग्रहमंडल को एकत्रित कर दिये थे।
- इस प्रकार वह अधम देव वहाँ आया, जहाँ भगवान् प्रतिमा धारण कर ध्यानस्थ खड़े थे। अकारण जगबंधु श्रीवीरप्रभु को इस प्रकार से शांत देखकर उसे अधिक ईर्ष्या हुई। सर्वप्रथम उस दुष्ट देव ने जगद्गुरु महावीर पर अपरिमित धूल की वर्षा की। जैसे राहू चंद्रमा को ढक देता है, मेघाडंबर सूर्य को ढक देता है, वैसे ही धूलि-वर्षा से उसने प्रभु के सारे शरीर को ढक दिया। चारों ओर से धूल की वृष्टि होने से उनकी पांचों इन्द्रियों के द्वार बंद हो गये, उनका श्वासोच्छ्वास अवरुद्ध-सा होने लगा। फिर भी जगद्गुरु रंचमात्र भी चलायमान नहीं हुए। क्या हाथियों से कभी