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भगवान् महावीर की महाकरुणा, संगम देवकृतघोर उपसर्ग
योगशास्त्र प्रथम प्रकाश श्लोक ३ | मेरी अवज्ञा करके ढीठ बनकर खड़ा है? इसने इस जंगल में घुसने का साहस ही कैसे किया ? अतः अभी इसे जलाकर | भस्म करता हूँ।' इस प्रकार क्रोध से जलते हुए उस सर्प ने फन ऊँचा किया। अपने मुँह से विषज्वालाएँ उगलता हुआ और वृक्षों को जलाती हुई दृष्टि से भयंकर फुफकार करता हुआ प्रभु को एकटक दृष्टि से देखने लगा । आकाश से पर्वत | पर गिरते हुए दर्शनीय उल्कापात के समान उसकी जाज्वल्यमान दृष्टि - ज्वालाएँ भगवान् के शरीर पर पड़ी, परंतु जैसे | महावायु मेरुपर्वत को चलायमान करने में समर्थ नहीं हो सकता, वैसे ही महाप्रभावशाली प्रभु का वह कुछ भी नुकसान नहीं कर सका । "अरे! अभी तक यह काष्ठ की तरह जला क्यो नहीं?" यह सोचकर क्रोध से अधिक तप्त होकर वह सूर्य की ओर बार-बार दृष्टि करके फिर ज्वालाएँ छोड़ने लगा । परंतु वे ज्वालाएँ भी प्रभु के लिए जलधारा के समान | बन गयी । अतः उस निर्दयी सर्प ने प्रभु के चरणकमल पर दंश मारा और अपना जहर उगला। इस प्रकार कई बार | लगातार डसकर वह वहाँ से हटता जाता था, यह सोचकर कि कहीं यह मेरे जहर से मूर्च्छा खाकर मुझ पर ही गिरकर | मुझे दबा न दे। फिर भी प्रभु पर उसके जहर का जरा भी असर नहीं हुआ। उनके अंगूठे से दूध की धारा के समान | उज्ज्वल सुगंधित रक्त बहने लगा। उसके बाद वह प्रभु के सामने आश्चर्य पूर्वक टकटकी लगाकर देखने लगा और सोचने लगा- 'अरे! यह कौन है, जिस पर मेरे विष का कोई प्रभाव न हुआ? बाद में जगन्नाथ महावीर के अद्भुत रूप को | देखकर उसकी कांति और सौम्यता से उसकी आंखें सहसा चकाचौंध हो गयी । सर्प को शांत जानकर भगवान् ने उसे | कहा - 'चंडकौशिक ! अब भी बोध प्राप्त कर, समझ जा, जागृत हो जा, मोह मत कर।' भगवान् के ये वचन सुनकर मन | ही मन उन पर उहापोह ( चिन्तन-मनन) करते-करते उसे पूर्व जन्म का ज्ञान - जातिस्मरण हो गया । अब चंडकौशिक कषायों से मुक्त व शांत हो चुका था। उसने भगवान् की तीन बार प्रदक्षिणा देकर मन से अनशन अंगीकार कर लिया। | महाप्रभु ने पापकर्म से रहित और प्रशमरस में तल्लीन उस महासर्प द्वारा स्वीकृत अनशन को देखकर उसे उपदेश दिया| 'वत्स ! अब तूं कहीं पर भी मत जाना, तेरी आँखों में जहर भरा हुआ है।' यह सुनकर वह बांबी में मुंह डालकर समता | रूप अमृत का पान करने लगा। उस पर अनुकंपावश भगवान भी वहीं रुके रहे। सच है - महापुरुषों की प्रवृत्तियां दूसरों | के उपकार के लिए होती है।' ऐसी स्थिति में भगवान् को देखकर आश्चर्य से आँखें फाड़ते हुए ग्वाले एकदम वहाँ दौड़े हुए आये । वृक्षों की ओट में छिपकर वे हाथ में जो पत्थर व ढेले आदि लाये थे, उनसे महात्मतुल्य बने हुए सर्प पर | निर्दयतापूर्वक प्रहार करने लगे। किन्तु उसे अडोल और स्थिर देखकर उन्हें विश्वास हो गया कि यह शांत है; तब उसके | पास जाकर उसके शरीर को लकड़ी छुआ कर कुरेदने लगे; फिर भी वह स्थिर रहा। ग्वालों ने यह बात गांव के लोगों | से बतायी तो वे लोग भगवान् की और उस महासर्प की पूजा करने लगे। उस मार्ग से घी बेचने जाती हुई ग्वालिनें | नागराज के शरीर पर घी और मक्खन चुपड़ने लगी, उसकी गंध से तीक्ष्णदंशी चींटीयों ने काट-काटकर उसके शरीर को छलनी के समान बना दिया । 'मेरे क्रूर कर्मों की तुलना में यह वेदना तो कुछ भी नहीं है;' इस तरह अपनी आत्मा | को समझाता हुआ वह महानुभाव सर्प उस अतिदुःसह वेदना को सहन करने लगा । ये बिचारी निर्बल चींटियाँ कहीं | मेरे इधर-उधर हिलने-डुलने से दबकर मर न जायें ! इस विचार से वह महासर्प अपने अंग को अब जरा भी चलायमान | नहीं करता था । भगवान् की कृपामयी सुधावृष्टि से सिंचित व स्थिरचित्त वह सर्प पंद्रहवें दिन मरकर सहस्रार नामक | वैमानिक देवलोक में देव बना ।
इस प्रकार अपने पर विविध उपसर्ग करने वाले दृष्टिविष फणिधर और भक्ति करने वाले इन्द्र, इन दोनों पर चरम तीर्थंकर, तीन जगत् के अद्वितीय बंधु, श्री महावीर परमात्मा समान भाव रखते थे ।।२।।
।३। कृतापराधेऽपि जने, कृपामन्थरतारयोः । ईषद् - बाष्पार्द्रयोर्भद्रं, श्रीवीरजिननेत्रयोः ||३||
अर्थ :- अपराध करने वाले जीवों पर भी दया से पूर्ण और करुणाश्रू से आर्द्र (गीले) श्री महावीरप्रभु के नेत्रों का कल्याण हो ।
व्याख्या
:- भगवान् महावीर की आँखें अपराध करने वाले संगमदेव आदि पर भी अगाध करुणा से परिपूर्ण थी। अंतर में महान करुणा से आप्लावित उनकी आँखें सदैव अश्रुजल से भीगी रहती थी। भगवान् महावीर की ऐसी
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