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चण्डकोशिक सर्प को प्रतिबोध एवं उसकी समता
योगशास्त्र पथम प्रकाश श्लोक १-२ बांबी बनाकर रहता है। वहाँ पशु-पक्षी, मनुष्य या कोई भी प्राणी सही सलामत नहीं जा सकते। अतः आप इस मार्ग को छोड़कर थोड़े से चक्कर वाले इस मार्ग से चले जायें। कहावत है-जिस सोने से कान कट जाय, उसे पहनने से क्या लाभ?' भगवन् ने अपने आत्मज्ञान में डुबकी लगाकर जाना कि वह सर्प और कोई नहीं, वही पूर्वजन्म का तपस्वी साधु है, जो भिक्षा के लिए जा रहा था कि मार्ग में उसका पैर एक मेंढकी पर पड़ने से वह मर गयी। एक छोटे साधु ने उससे उस दोष की आलोचना करने का कहा और उसे मरी हुई मेंढ़की भी बतायी। मगर वह तपस्वी साधु अपनी गलती की आलोचना करने के बदले अन्य लोगों के पैरों तले कुचल जाने से मरी हुई मैढ़कियाँ बताकर कहने लगा'अरे! दुष्ट, क्षुल्लक मुनि! बता, ये सारी मेंढ़कियाँ क्या मैंने ही मारी है?' पवित्र बुद्धि वाले, बालमुनि ने कुछ भी उत्तर नहीं दिया और ऐसा माना कि अभी यह महानुभाव भले ही इसे न मानें, परंतु संध्या को तो आलोचना करके प्रायश्चित्त ले ही लेंगे। मगर शाम को प्रतिक्रमण के समय वह मुनि आलोचना करके प्रायश्चित्त लिये बिना ही बैठ गये। तब बालमुनि ने विचार किया कि ये उस मेंढ़की की विराधना की बात भूल गये मालूम होते हैं। इर की बात याद दिलाने हेतु उसने कहा-'मुनिवर! आप उस मेंढकी की विराधना की आलोचना व प्रायश्चित्त क्यों नहीं करते? ऐसा कहते ही यह तपस्वी साध क्रोध से आग-बबला होकर बालमुनि को मारने के लिए दौड़ा। उग्रतम क्रोध के कारण वह तपस्वी साध स्तंभ के साथ ऐसा टकराया कि वहीं खत्म हो गया। साधुत्व की विराधना के कारण वह ज्योतिष्क देवलोक में उत्पन्न हआ। वहाँ से च्यव कर यह कनकखल आश्रम में पाँच सौ तापसों के कुलपति की स्त्री से कौशिक नाम का पुत्र हुआ। वहाँ कौशिक गोत्र वाले और भी बहुत-से साधु रहते थे। किन्तु यह कौशिक अतिक्रोधी होने से लोगों ने इसका नाम चंडकौशिक रखा था। अपने पिता के मर जाने के बाद चंडकौशिक कुलपति बना। यह कुलपति वनखंड की आसक्ति से दिन-रात वन में भ्रमण करता था। और इस वन से किसी को भी पुष्प, फल, मूल, पत्ते आदि नहीं लेने देता था। नष्ट हुए निरुपयोगी फलादि को भी कोई ग्रहण करता तो उसे लकड़ी, ढेला, पत्थर, कुल्हाड़ी आदि से मारता था। अतः फलादि नहीं मिलने से वे तापस बड़े दुःखी होने लगे। जैसे ढेले फेंकने से कौएँ उड़ जाते हैं, वैसे ही वे तापस इस कौशिक के अत्याचार से तंग आकर अलग-अलग दिशाओं में चले गये।
एक दिन यह चंडकौशिक तापस कांटेदार झाड़ी लेने के लिए आश्रम से बाहर गया हुआ था। पीछे से श्वेताम्बरी नगरी से बहुत से राजकुमारों ने आकर उसके आश्रम और बाग को उजाड़ दिया। कौशिक कंटिका लेकर वापस लौट रहा था तो ग्वालों ने उसे कहा कि-'आज तो आपका बगीचा कोई तहस-नहस कर रहा है! जल्दी जाकर सँभालो!' घी से जैसे आग भड़कती है, वैसे ही क्रोध से अत्यंत भड़ककर वह कौशिक तीखी धार वाला कुल्हाड़ा लेकर उन्हें मारने दौड़ा। जैसे बाज से डरकर दूसरे पक्षी भाग जाते हैं, वैसे ही वे राजपुत्र भी चंडकौशिक को कुल्हाड़ी लिये आते देख नौ-दो-ग्यारह हो गये। तपस्वी बेतहाशा दौड़ा आ रहा था कि, क्रोध में भान न रहने से अचानक यम के मुख सदृश एक गहरे कुंए में गिर पड़ा। गिरते समय हाथ में पकड़ी हुई कुल्हाड़ी मुंह के सामने हो जाने से उसकी धार मस्तक में गड़ गयी और उसका मस्तक फट गया। सच है, "कृत कमों के फल अवश्य ही भोगने पड़ते हैं!" वही चंडकौशिक तापस मरकर इसी वन में अतिक्रोधी दृष्टिविष सर्प बना हुआ है। वास्तव में, तीव्र अनंतानुबंधी क्रोध अन्य जन्मों में भी साथ जाता है। लेकिन 'यह अवश्य ही बोध प्राप्त करेगा।' ऐसा विचारकर विश्ववत्सल प्रभु अपने कष्ट को कष्ट न समझकर उस सर्प की भव-भ्रमण-पीड़ा मिटाने हेतु उसी मार्ग से चले। वह जंगल मनुष्यों के पैरों का संचार न होने से ऊबड़-खाबड़ और वीरान हो गया था। वहाँ की छोटी-सी नदी का पानी पीया न जाने से प्रवाह रहित रेतीला व गंदला हो गया था। वहां के पेड-पौधे ढूंठ बन गये थे, उनके पत्ते सूख गये थे। पेड़ों पर जगह-जगह दीमकों ने अपने टीले बना डाले थे। झोंपड़ियाँ उजड़ गयी थी। विश्ववत्सल प्रभु ने इस वीरान जंगल में प्रवेश किया। और यक्ष के जीर्णशीर्ण मंदिर के मंडप में वे नासिका के अग्रभाग पर दृष्टि टिकाकर कायोत्सर्ग (ध्यान) में खड़े हो गये। अहंकारी चंडकौशिक सर्प कालरात्रि की तरह जीभ लपलपाता हुआ अपनी बांबी से निकला। वह वन में घूमता हुआ रेती में संक्रमण होती हुई अपने शरीर की रेखा से मानो अपनी आज्ञा का लेख लिख रहा था। ज्योहि उसने महाबली प्रभु को देखा, त्योंही अपने अहं को चुनौती समझकर सोचने लगा-'यह कौन ढूंठ-सा निःशंक होकर मुझे जताए बिना ही