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ग्वाले का उपसर्ग
योगशास्त्र प्रथम प्रकाश १-२ भगवान महावीर के द्वारा इन्द्र को इस प्रकार शब्दानुशासन के कहने से उपाध्याय तथा अन्य लोगों में यह ग्रंथ 'ऐन्द्र व्याकरण' के नाम से प्रसिद्ध हुआ।
दीक्षा की उत्कंठा होने पर भी प्रभु अट्ठाइस वर्ष तक माता-पिता के आग्रह से विरक्त-से होकर गृहवास में रहे। माता-पिता का स्वर्गवास होने पर प्रभु ने राज-संपत्ति छोड़कर मुनि-दीक्षा लेने की इच्छा प्रकट की। तब उनके बड़े भाई नन्दीवर्धन ने कहा-'हे भाई! माता-पिता के ताजे विरह को सहन करने में मैं अकेला असमर्थ हूँ। तुम्हारे रहने से मुझे बहुत ही सहयोग मिलेगा। अतः तुम ताजे घाव पर नमक छिड़कने के-से वचन मत बोलो। यों बहुत कुछ कहकर प्रभु को दीक्षा लेने से रोका। परंतु इस दौरान प्रभु विविध प्रकार के अभिग्रह रूपी आभूषण, गहने-पहने चित्रशाला में भी कायोत्सर्ग (ध्यान) में रहे, भाव से साधुत्व का पालन करते हुए साधु के कल्प (आचार) के समान अचित्त आहार-पानी से प्रभु निर्वाह करते रहे। इस प्रकार विशाल आशय के धारक भगवान् ने एक वर्ष बिताया। तत्पश्चात् लोकान्तिक देवों ने आकर प्रभु को नमस्कार करके कहा-'स्वामिन्! अब आपका दीक्षा ग्रहण का समय निकट आ गया है। इसलिए उसकी तैयारी करिए, तीर्थस्थापना कीजिए।'
प्रभु महावीर ने अपना दीक्षा-समय निकट जानकर एक वर्ष तक याचकों को मुक्त हस्त से दान देना प्रारंभ किया। उन्होंने पृथ्वी को ऋणमुक्त कर राजलक्ष्मी को तिनके के समान समझकर दूसरे वर्ष उसका त्याग किया। सभी निकाय के देवों ने प्रभु का दीक्षा महोत्सव किया। हजार देवताओं ने चंद्रप्रभा नाम की पालकी उठाई। प्रभु उसमें बैठकर, ज्ञातृखंड नामक उद्यान में पधारें। वहाँ सर्वसावध (सदोष) व्यापारों (प्रवृत्तियों) का त्याग करके दिन के चौथे प्रहर में प्रभु ने दीक्षा अंगीकार की। उन समय भगवान् को सभी प्राणियों के मन के भावों को जान सकने वाला चौथा मनःपर्यायज्ञान, उत्पन्न हुआ। प्रभु वहाँ से विहार कर संध्या-समय कुमारग्राम के बाहर मेरुपर्वत की तरह अडोल होकर कायोत्सर्ग में खड़े रहे। उसी रात को अकारण क्रुद्ध होकर आत्म-शत्रु रूप ग्वाला भगवान् को उपसर्ग (भयंकर कष्ट)। देने लगा। उस समय इन्द्र ने अवधिज्ञान से प्रभु पर आने वाले उपद्रवों की वृद्धि की संभावना जानकर सोचा कि चूहा जैसे महापर्वत को खोदना चाहता है, वैसे ही यह दुष्कर्मी ग्वाला भी प्रभु को उपद्रव देना चाहता है। अतः | कल्याणकारिणी भक्तिवश इन्द्र उसी समय प्रभु के चरणों में उपस्थित हुए। इससे उपद्रव करने वाला ग्वाला खटमल की तरह कहीं भाग गया। इन्द्र ने तीन बार प्रदक्षिणा देकर भगवान् को मस्तक झुकाकर प्रणाम किया और प्रभु से प्रार्थना की-स्वामिन्! आप पर बारह वर्ष तक उपसर्गों की झड़ी लगने वाली है। अतः आपके श्री चरणों में रहकर मैं उन उपद्रवों को रोकने का प्रयास करना चाहता हूँ।" कायोत्सर्ग पूर्ण कर भगवान् ने इन्द्र से कहा-'इन्द्र! अरिहंत कभी दूसरे की सहायता की अपेक्षा नहीं रखते।' उसके बाद चन्द्र के समान शीतलेश्या वाले, सूर्य के समान प्रखर एवं दुःख पूर्वक देखे जा सके ऐसे तप-तेज वाले, हाथी के समान बलवान, मेरुपर्वत के समान अटल, पृथ्वी के समान सब कुछ सहन करने वाले, समुद्र के समान गंभीर, सिंह के समान निर्भय, मिथ्यादृष्टियों के लिए प्रचंड आग के समान, गेंडे के सींग के समान एकाकी, महान वृषभ के समान बलवान, कछुए के समान गुसेन्द्रिय, सर्प के समान एकान्तदृष्टि वाले, शंख के समान निरंजन, स्वर्ण समान उत्तम रूप वाले, पक्षी की तरह मुक्त उड़ान भरने वाले, चैतन्य की भाँति अप्रतिहत (बेरोकटोक) गति वाले, आकाश के समान निरालंब, भारंड पक्षी के समान अप्रमत्त, कमलिनीपत्र के समान निर्लेप; शत्रु और मित्र, तृण और राज्य, सुवर्ण और पत्थर, मणि और मिट्टी, इहलोक और परलोक, सुख और दुःख, |संसार और मोक्ष, इन सभी पदार्थों पर समभावी; निःस्वार्थभाव से करुणा करने में तत्पर, मनोबली होने से संसारसमुद्र में डूबते हुए एवं अपना उद्धार चाहने वाले जीवों के उद्धारकर्ता, वायु के समान अप्रतिबद्ध, जगद्गुरु महावीर, समुद्र रूपी करधनी पहनी हुई, अनेक गांवों, नगरों और वनों से सुशोभित पृथ्वी पर विचरण करने लगे।
विचरण करते-करते एक बार वे दक्षिण जाबाल प्रदेश में पहुँचे। वहाँ से विहार करते हुए प्रभु श्वेताम्बिका नगरी जा रहे थे। रास्ते में कुछ गोपालकों ने कहा- 'हे देवार्य! श्वेताम्बी नगरी की ओर जाने के लिए यह रास्ता सीधा जरूर हैं, परंतु इसके बीच में कनकखल नामक तापस का एक सूना आश्रम पड़ता है, वहाँ अब एक दृष्टिविष सर्प अपनी 1. यहां भी संक्षिप्ति करण है।
संपादक