Book Title: Padmapuran Bhasha
Author(s): Digambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
Publisher: Digambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
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पद्य पराया
जिन कर्मों से यह जीव आताप को प्राप्त होय है उन्ही कर्मों को मोह मदिरासे उनमत्त हुआ यह जीव बांधे है यह विषय विषवत् प्राणों के हरण हारे कल्पना मात्र मनोज्ञ हैं। दुःख के उपजावन हारे हैं इन में रति कहां इस जीव ने धन त्री कुटम्बादि में अनेक भव राग कीया परन्तु वे पपदार्थ इसके नहीं हुये यह सदा अकेला संसार में परिभ्रमण करे हैं यह सर्व कुटंबादिक तबतकही स्नेह करे हैं जबतक दानकर उनका सम्मान करे है जैसे श्वान के बालक को जब लग टूक डारिये तोलग अपना है अन्तकाल में पुत्र कलत्र बान्धव मित्र धनादिक की साथ कौन गया और यह किसके साथ गए यह भोग काले सर्प के फण समान भयानक हैं नरक के कारण हैं इनमें कौन बुद्धिमान संग करे ग्रहो यह बड़ा आश्चर्य है। लक्ष्मी बानी अपने प्राश्रिनों को उगे है इसके समान और दुष्टता कहाँ जैसे स्वप्न में किसी वस्तुका || समागम होय है जैसे कुटम्ब का समागम जानना और जैसे इंद्र धनुष क्षण भंगुर है तैसे परिवार का सुख चाणभंगुर जानना यह शरीर जल के बुदबुदेवत् असारहै ओर यह जीतव्य बिजलीके चमत्कारख असार चंचल है इसलिये इन सबको तज कर एक धर्मही का सहाय अंगीकार कर धर्म सदा कल्याण कारीही है। कदापि विघ्नकारी नहीं और संसार शरीर भोगादिक चतुरगतिके भ्रमणके कारण हैं महा दुःख रूप हैं असा जानकर उससजा मेघवाहनने जिसके बकलर महा वैयन्यही है महारक्ष नामा पुत्र को राज्य देकर भगवान् । श्रीअजितनाथके निकट दीचाधारी राजाके साथाएकसौ दस राजा नैराग्य पाय घर रूप बंदीखानेसे निकसे।
अथानन्तर मेघवाहन का पुत्र महारक्ष गज पर बैठा सो चन्द्रमा समान दान रूपी किरणानके । समूहसे कुटम्ब रूपी समुहको पूर्ण करता सन्वा वका रूपी भाकाशमें मनाश करता भया, बहे बड़े |
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