Book Title: Padmapuran Bhasha
Author(s): Digambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
Publisher: Digambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
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पदा
॥६
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हो, तुम सारिषे पुरुषोंकी उत्पत्ति लोक में आश्चर्य कारिणी है, और चक्र रत्नके स्वामी कितने होवेंगे. तथा वासुदेव बलभद कितने होवेंगे, इसभांति सगर ने प्रश्न किये तब भगवान् अपनी ध्वनि से देव दुन्दुभीकी ध्वनिको निराकरण करते हुऐ ब्याख्यान करते भए, अर्घ मागधी भाषा भाषण हारे भगवान उनके होंठन हालें यह बड़ाआश्चर्य है उस दिव्य ध्वनिने श्रोताओंके कानोंको उत्साह उपजा रक्खा है उत्सर्पिणी अवसर्पिणी प्रत्येककालमें चौबीस तीथकर होय हैं, जिस समय मोहरूप अन्धकारसे समस्त जगत् अच्छादितथा, धर्मका विचार नहीं था, और कोई भी राजा नहीं था, उस समय भगवान् ऋषभ देव उपजे उन्होंने कर्म भूमिकी रचना करी तबसे कृतयुग कहाया भगवानने क्रिया के भेदसे तीन वर्ण थापे और उनके पुत्र भरतने विप्र वर्ण थापे भरतका तेजभी ऋषभसमानहै भगवान ऋषभदेवने जिन दीक्षा घरी और भवतापकर पीड़ित भब्यजीवोंको शमभावरूप जलसे शान्त किया श्रावकके धर्म और यतीके धर्म दोऊ प्रगट कीए । जिनके गुणों के कहनेको जगत्में कोईभी समर्थ नहीं कैलाश के शिखर से आप निर्वाण को पधारे ।ऋषभदेव का शरण पाय अनेक साधु सिद्ध भऐ कई एक स्वर्ग के सुखको प्राप्त भये कई एक भद परिणामी मनुष्यभवको प्राप्त भए, और कई एक मारीचादिक मिथ्योत्त्व के राग से अत्यन्त उज्ज्वल भगवान के मार्गको अवलोकन करते भए जैसे घुग्गू ( उल्लू) सूर्य के प्रकाशको न जाने तैसे कुधर्म को | अंगीकारकर कुदेव भए और नरक तिर्यंच गतिको प्राप्त भए भगवान ऋषभको मुक्ति गए पचास लाख
कोटि सागर गये तव सर्वार्थ सिद्धसे चय द्वितीय तीर्थकर हम अजित भए जब धर्मकी ग्लानि होय और | मिथ्यादृष्टियोंका अधिकार होय प्राचार का अभाव होय तब भगवान तीर्थकर प्रगट होयकर धर्मका उद्योत
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