Book Title: Padmapuran Bhasha
Author(s): Digambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
Publisher: Digambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
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पद्म
पुरास
॥६६॥
फिरे है भारचमर दुरे हैं, अनेक निशान ( झंडे ) चले जायहें, अनेक विद्याधर सीस निवावे हैं, इसभांति || राजा चलते २ लवणसमुद्र ऊपर आए पह समुद्र आकाश समान विस्तीर्ण और पाताल समान डूंघा || तमाल वन समान श्याम है तरंगों के समूह से भरा है अनेक मगरमच जिसमें कलोलकरे हैं, उस समुद् | को देख राजा हर्षित भए, पर्वत के अधोभाग में कोट और दरवाजे और खाइयोंकर संयुक्त लंका मामा | महा पुरी है वहां प्रवेश किया, लंका पुरी में रत्नोंकी ज्योतिसे आकाश सन्ध्या समान अरुण (लाल)हो
रहा है कुन्द के पुष्प समान उज्ज्वल ऊंचे भगवान् के चैत्यालयों से मण्डित पुरी शोभे है चैत्यालयोंपर | ध्वजा फरग रहे हैं चैत्यालयों को वन्दना कर राजा ने महल मे प्रवेश किया और भी यथा योग्य घरों में तिष्ठे रत्नों की शोभा से उसके मन और नेत्र हरगए। ..
अथानन्तर किन्नरगीत नामा नगर में रतिमयूख राजा और राणी अनुमती तिन के सुप्रभा नामा कन्या, नेत्र और मन की चुराने वाली, काम का निवास, लक्ष्मी रूप, कुमुदनी के प्रफुल्लित करणे को चन्द्रमा की चांदनी, लावण्य रूप जलकी सरोवरी, आभूषणों का आभूषण, इन्द्रियों को प्रमोद की करण हारी, सो राजा मेघवाहन ने उस को महा उत्साहकर परणी, उसके महारक्षनामा पत्रभया, जैसे स्वर्ग में इन्द्र इन्द्राणी सहित तिष्ठे तैसे राजा मेघवाहन ने राणी सुप्रभा सहित लंका में बहुत काल राज किया ।।
एक दिन राजा मेघवाहन अजित नाथ स्वामी की बन्दना के लिये समोशरण में गए वहां जबू | और कथा होचुकी तब सगर ने भगवान को नमस्कार कर पूछा कि हे प्रभो इस अवसर्पणी काल में धम | चक्र के स्वामी तुम सारिषे जिनेश्वर कितने भए और कितने होवेंगे, तुम तीनलोक के सुख के देनेवाले
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