Book Title: Padmapuran Bhasha
Author(s): Digambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
Publisher: Digambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
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पुराण
पन | तुम्हारा रूप उपमा रहित है और प्रमाण बलके धारण हारे हो इस नगर में तुम समान और नहीं है
तुम पूर्ण परमानन्द हो कृतकृत्य हो, सदा सर्वदर्शी सर्व के बल्लभ हो किसी के चितवनमें नहीं पाते हो जाने हे सर्व पदार्थ के जाननेवाले सब के अन्तर्यामी सर्वज्ञ जगत् के हितु हो हे जिनेन्द्र संसाररूप बन्धकप में पड़े यह प्राणी इनको धर्मोपदेश रूप हस्तावलंबनही हो इत्यादिक बहुत स्तुति करी और पह दोनों मेघवाहन और सहसनयन गदगद वाणी होय अश्रुपातकर भीग गए हैं नेत्र जिनके परम हर्ष को पास भए भौरविधि पूर्वक नमस्कारकर तिष्ठे सिंह वीर्यादिक मुनि इन्द्रादिकदेव सगरादिक राजा परम आश्चर्य को प्राप्त भए
अथानन्तर भगवान के समोशरण में राक्षसोंका इन्द्र भीम और सुभीम मेघवाहन से प्रसन्न भए भोर कहते भए कि हे विद्याधरके बालक मेघवाहन तू धन्यहै जो भगवान अजितनाथकी शरणमें श्राया हम ते रेपर अतिप्रसन्न भए हैं हम तेरी स्थिरताका कारण कहे हैं तू सुन इस लवणसमुद्र में अत्यन्त । विषम महारमपीक हजारों अन्तर द्वीपहें लवण समुद्रमें मगरमच्छादिको समूह बहुतहैं और तिन अंतर द्वीपों केमें कहीं तो गन्धर्व क्रीडाकरे हैं कहीं किन्नरोंकेसमूह रमें हैं कहीं यक्षों के समूह कोलाहल करे हैं कहीं किंपुरुष जातिके देव केलि करे हैं उनके मध्यमें राक्षस दीपहै जो सातसौ योजन चौड़ा और सात सौ योजन लम्बा है उसके मध्यमें त्रिकूटाचल पर्वत है जो अत्यन्त दुष्प्रवेशहै, शरणकी ठौरहै, पर्वत के शिखर सुमेरु के शिखर समान मनोहर है, और पर्वत नव योजन ऊंचा पचास योजन चौड़ा है नाना | प्रकारको रत्नों की ज्योति के समूह कर जड़ित है सुवर्ष मई सुन्दर तट हैं नाना प्रकार की बेलों कर
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