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अनगार
भी हो जानेपर प्राप्त उत्पन्न होनेवाला और निरवधि-अनंत है, तथा आप्तोपदेशसे सिद्ध किंतु अनिर्वचनीय सुखरूपी अमृतके समुद्रमें स्वच्छन्दतया अवगाहनके समान है।
भावार्थ-धर्मके प्रसादसे जीवको भोक्षफलकी प्राप्ति होती है। यही धर्मका मुख्य फल है । किंतु जबतक मोक्षकी प्राप्ति नहीं होती तबतक सांसारिक अभ्युदयोंकी प्राप्ति होती है। इन अभ्युदयोंका प्राप्त होना धर्मसेवनका आनुषंगिक फल है । ___अब तेईस पद्योंमें धर्मके अभ्युदयरूप फलका वर्णन करेंगे। जिसमेंसे यहांपर चौदह श्लोकोंमें उसका सामान्यसे स्पष्टीकरण करते हैं।
वंशे विश्वमहिम्नि जन्म महिमा काम्यः समेषां शमो , मन्दाक्षं सुतपोजुषां श्रुतमृषिब्रह्मदिसंघर्षकृत् । त्यागः श्रीददुराधिदाननिरनुक्रोशः प्रतापो रिपु,
स्त्रीशृङ्गारगरस्तरङ्गितजगडर्माद्यशश्चाङ्गनाम् ॥ २६ ॥
धर्मके प्रसादसे प्राणियोंको सभी अभ्युय प्राप्त होते हैं । यथाऐसे वंशमें जन्म कि जिसके माहात्म्यसे जगकी सभी महिमाएं -सर्वोत्कृष्ट पद प्राप्त हो सकते हैं। प्राणिमात्रके लिये स्पृहणीय तीर्थकरत्वादिक पद । अपने अपराधियोंको दंड देनेकी सामर्थ्यके रहते हुए भी उनके अपराधोंको सहन - क्षमा करनेकी ऐसी शक्ति कि जिसके सामने बडे बडे तपस्वियोंकी भी आंखें लज्जासे नीची पड़ जाती हैं। आप्त भगवान्के वचन आदिके निमिचसे उत्पन्न हुआ अर्थ - पदार्थोंका ऐसा ज्ञान कि जो तपके बलसे बुद्धयादिक ऋद्धियोंको प्राप्त करनेवाले ऋषियोंके ज्ञानातिशयके साथ भी स्पर्धा करता हो-टक्कर लेता
अन०प०७
अध्याय