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अनगार
का कारण एक ही धर्म किस तरह हो सकता है ? इसका उत्तर दनेकोलये विरोधका परिहार करते हैं।
निरुन्धति नवं पापमुपातं क्षपयत्यपि । धर्मेनुगगाद्यत्कर्म स धर्मोभ्युदयप्रदः ॥ २४ ॥
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सम्यग्दर्शनादिकके एक साथ प्रवृत्त होनेवाले आत्माके एकाग्रतारूप शुद्ध परिणामोंको धर्म कहते हैं। इस धर्मके विषयमें जो एक विशिष्ट प्रीति होती है उसको भी उपचारसे धर्म कहते हैं। यह अनुरागरूप धर्म साता वेदनीय शुभ आयु शुभ नाम और शुभ गोत्ररूप उस पुण्य कर्मके बन्धका कारण हो सकता है जिससे कि स्वर्गादिककी संपत्ति भले प्रकार प्राप्त हो सकती है । अत एव इस धर्मके प्रसादसे अभ्युदयोंकी सिद्धि अच्छी तरह हो सकती है और पूर्वबद्ध पापकर्मका क्षय तथा नवीन पापका निरोध-संवर भी हो. सकता है।
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अध्याय
निमित्त और प्रयोजनके विना उपचारकी प्रवृत्ति नहीं हुआ करती । अतएव मुख्य धर्मके अनुराग विशेषसे प्राप्त होनेवाले पुण्यको उपचारसे धर्म कहनेमें भी निमित्त तथा प्रयोजनकी आवश्यकता है। इसीलिये यहांपर इन दोनो बातोंको स्पष्ट कर देते हैं। निमित्त-जिस विषयसे मुख्य धर्म सम्बन्ध रखता है उसी विषयसे उपचरित धर्म भी सम्बन्ध रखनेवाला है। मुख्य धर्म आत्मसिद्धिसे साक्षात् और उपत्ररित धर्भ परम्परा सम्बन्ध रखता है। किंतु दोनोंका सम्बन्ध एक ही विषयसे है । अत एव यहांपर उपचारकी प्रवृत्ति हो सकती है। प्रयोजन - इस उपचारके होनेसे लोकव्यवहार और शास्त्रव्यवहार दोनो ही सिद्ध हो सकते हैं। क्यों कि लोकमें पुण्य और धर्म पर्यायवाचक शब्द प्रसिद्ध हैं। जैसा कि कोशमें भी धर्म पुण्य 'सुकृत श्रेय और वृष इनको पर्यायवाचक शब्द. ही कहा है। इसी तरह शास्त्रमें भी पुण्यके अर्थमें धर्मशब्दका व्यवहार किया
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