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बनगार
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अध्याय
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जिस प्रकार वक्ता और श्रोता धर्मोपदेशके अङ्ग हैं उसी प्रकार उसकी प्रवृत्तिका एक अङ्ग धर्मका फल भी । अत एव वक्ता और श्रोताके स्वरूपका निरूपण करके अब धर्मके फलका वर्णन करते हैं।
सुखं दुःखनिवृत्तिश्च पुषार्थावुभौ स्मृतौ । धर्मस्तत्काणं सम्यक् सर्वेषामविगानतः ॥ २२ ॥
प्राचीन आचार्योंने पुरुषार्थ दो बताये हैं; एक सुख, दूसरा दुःखकी निवृत्ति । क्योंकि इन दो बातोंको छोडकर पुरुषके लिये और कोई भी अभिलापाका विषय बाकी नहीं रहता । समस्त प्राणियोंके लिये चाहे वे आज्ञाधानी हों, चाहे परीक्षा प्रधानी; धारण किया हुआ समीचीन धर्म ही इन दोनो पुरुषार्थोंकी सिद्धिका कारण है | समीचीन इसलिये कि उसमें किसीको किसी भी तरहका विवाद नहीं है ।
उक्त अर्थको ही स्पष्टतया बतानेकेलिये मुख्य फलके देने में समर्थ धर्मके समस्त आनुषंगिक फलक प्रशंसा करते हैं।
मुक्ति पुंसि वास्यमाने जगच्छ्रियः ।
स्वयं रज्यन्त्ययं धर्मः केन वयनुभावतः ॥ २३ ॥
मुक्तिलक्ष्मी - अनंतज्ञानादि संपत्तिको प्राप्त करनेकेलिये जिस धर्मके धारण करनेपर मनुष्यको तीनो लोककी विभूतियां स्वयं आकर प्राप्त होजाती हैं उस धर्मके माहात्म्य - प्रभाव - फलका वर्णन कौन कर सकता है ? ब्रह्मा भी नहीं कर सकता । भावार्थ धर्मके प्रसादसे जब मुक्तितक प्राप्त हो सकती है तब दूसरे लौकिक प्रयोजनों-अभ्युदयोंका प्राप्त होना कुछ कठिन नहीं है ।
यहा पर यह प्रश्न हो सकता है कि संसारके अभ्युदयोंकी प्राप्ति पुण्यबन्धका फल है और मोक्ष समस्त कम अभावसे प्राप्त होती है । पुण्यफल और मोक्ष दोनो कार्य परस्परमें विरुद्ध हैं । अतएव विरुद्ध दो कार्यों
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