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अनगार
जाता है। जैसे कि “धर्मके प्रसादसे ही वैभव प्राप्त हुआ है। अतएव धर्मकी रक्षा करके ही-धर्मको सुरक्षित रखते हुए ही भोगोंको भोगना चाहिये ।" अथवा "धर्म वही है कि जिससे अभ्युदय और मोक्ष दोनोंकी सिद्धि हुआ करती है।" इन दोनो व्यवहारोंकी सिद्धि उपचारसे पुण्यको धर्म माने विना नहीं हो सकती । अत एव उपचारकी आवश्यकता भी है। इन दोनो निमित्त और प्रयोजनको ध्यानमें रखकर ऊपर उपचारसे पुण्यको धर्म कहा है।
अब यह बात बताते हैं कि धर्म-पुण्य पहले आनुषंगिक फलको देता है और फिर मुख्य फलको भी पूर्णतया देता है।
धर्माद् दृक्फलमभ्युदेति करणैरुगीर्यमाणोनशं, यत्प्रीणाति मनो वहन भवरसो यत्पुंस्यवस्थान्तरम् । स्याज्जन्मज्वरसंज्वरव्युपग्मोपक्रम्यनिस्समि तत,
तादृक् शर्म सुधाम्बुधिप्लवमयं सेवाफलं त्वस्य तत् ॥२५॥ धर्मके प्रसादसे दो प्रकारके फल प्राप्त होते हैं-१ दृष्ट फल, २ सेवाफल । चक्षुरादिक इंद्रियोंके द्वारा प्रकाशित होनेवाले-साक्षात् आंखोंसे दीख सकनेवाले और दिनरात उसी तरह प्रवृत्त होनेवाले संसारके सारभूत इन्द्रादिक पदों अथवा ग्राम नगर सुवर्ण वस्त्र वाहन आदि वैभवोंको दृष्ट फल कहते हैं, जिनके कि प्राप्त होनेसे मनको तृप्ति प्राप्त होती है । तथा सांसारिक अवस्थासे विपरीत दूसरी ऐसी अवस्थाके प्राप्त होनेको सेवाफल कहते हैं जो कि जन्ममरण और मोहजनित संतापरूपी बडे भारी ज्वरके निःशेष
१-" धर्मादवाप्तविभवो धर्म प्रतिपाल्य भोगमनुभवतु ।” २-" यतोऽभ्युदय निःश्रेयससिद्धिः स धर्मः।"
अध्याय
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