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॥ अनंतलब्धिनिधान श्री गौतमस्वामिने नमः ।।
॥ योगनिष्ठ आचार्य श्रीमद् बुद्धिसागरसूरीश्वरेभ्यो नमः ॥
॥ कोबातीर्थमंडन श्री महावीरस्वामिने नमः ॥
आचार्य श्री कैलाससागरसूरि ज्ञानमंदिर
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पुनितप्रेरणा व आशीर्वाद
राष्ट्रसंत श्रुतोद्धारक आचार्यदेव श्रीमत् पद्मसागरसूरीश्वरजी म. सा.
श्री
जैन मुद्रित ग्रंथ स्केनिंग प्रकल्प
ग्रंथांक : १
महावीर
श्री महावीर जैन आराधना केन्द्र
आचार्यश्री कैलाससागरसूरि ज्ञानमंदिर कोबा, गांधीनगर - श्री महावीर जैन आराधना केन्द्र आचार्यश्री कैलाससागरसूरि ज्ञानमंदिर
कोबा, गांधीनगर-३८२००७ (गुजरात) (079) 23276252, 23276204 फेक्स: 23276249
जैन
।। गणधर भगवंत श्री सुधर्मास्वामिने नमः ।।
॥ चारित्रचूडामणि आचार्य श्रीमद् कैलाससागरसूरीश्वरेभ्यो नमः ।।
अमृतं
आराधना
तु
केन्द्र कोबा
विद्या
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卐
शहर शाखा
आचार्यश्री कैलाससागरसूरि ज्ञानमंदिर शहर शाखा
आचार्यश्री कैलाससागरसूरि ज्ञानमंदिर त्रण बंगला, टोलकनगर परिवार डाइनिंग हॉल की गली में पालडी, अहमदाबाद - ३८०००७ (079) 26582355
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मेनाचार्थ-जैनधर्मदिवाकर-पूज्य-श्री-घासीलालजी महाराजविरचितया प्रमेयचन्द्रिकाख्यया व्याख्यया समलङ्कृतं हिन्दी - गुर्जर भाषाऽनुवादसहितम्
श्री- अनुयोगद्वारसूत्रम्
(द्वितीयो भागः)
नियोजकः
संस्कृत-प्राकृतज्ञ - जैनागमनिष्णात-प्रियव्याख्यानिपण्डितमुनि श्री कन्हैयालालजी - महाराजः
प्रथमा-बावृत्तिः प्रति १२००
प्रकाशकर
अमीचंदभाई गीरधरभाई बाटवी याप्रदत्त द्रव्यसाहाय्येन
अ० मा० ० स्था० जैनशास्त्रोद्धारसमितिप्रमुखः श्रेष्ठि- श्री शान्तिलाल - मङ्गलदासभाई-महोदयः
मु० राजकोट
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चीर संवद्
२४९५
विक्रम-संसद
२०२५
मूल्यम् -२५-००
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ईसीस
१९६८
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- जैनाचार्य-जैनधर्मदिवाकर-पूज्यश्री-घासीलालजी-महाराज
विरचितया प्रमेयचन्द्रिकाख्यया व्याख्यया समलङ्कृतं
हिन्दी-गुर्जर-भाषाऽनुवादसहितम्
॥श्री-अनुयोगद्वारसूत्रम् ॥
(द्वितीयो भागः)
नियोजकः
संस्कृत-प्राकृतज्ञ-जैनागमनिष्णात-प्रियव्याख्यानि
पण्डितमुनि-श्रीकन्हैयालालजी-महाराजः
प्रकाशकः
खाखीजालियानिवासी अमीचंदभाई गीरधरभाई बाटवीया प्रदत्त-द्रव्यसाहाय्येन
अ. भा० श्वे० स्था० जैनशास्त्रोद्वारसमितिप्रमुखः __ श्रेष्ठि-श्रीशान्तिलाल-मङ्गलदासभाई-महोदयः
मु० राजकोट प्रथमा-आवृत्तिः वीर संवत् विक्रम संवत् ईसवीसन् प्रति १२०० २४९४ २०२४
मूल्यम्-रू० २५-०-०
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મળવાનું ઠેકાણું : श्री म. सा. ३. स्थानवासी
જૈનશાસ્ત્રોદ્ધાર સમિતિ, है. गरेडिया वा रोड, २०४८, (सौराष्ट्र ).
Published by: Shri Akhil Bharat S. S. Jain Shastroddhara Samiti, Garedia Kuva Road, RAJKOT, (Saurashtra), W. Ry, India.
ये नाम केचिदिह नः प्रथयन्त्यवहां, जानन्ति ते किमपि तान् पति नैप यत्नः । उत्पल्स्यतेऽस्ति मम कोऽपि समानधर्मा, कालो ह्ययं निरवधिविपुला च पृथ्वी ॥१॥
हरिगीतच्छन्दः करते अवज्ञा जो हमारी यत्न ना उनके लिये। जो जानते हैं तत्त्व कुछ फिर यत्न ना उनके लिये ॥ जनमेगा मुझसा व्यक्ति कोई तत्त्व इससे पायगा । है काल निरवधि विपुलपृथ्वी ध्यान में यह लायगा ॥१॥
भूक्ष्यः ३. २५00
પ્રથમ આવૃત્તિ પ્રત ૧૨૦૦ વીર સંવત્ ૨૪૯૪ વિક્રમ સંવત ૨૦૨૪ ઈસવીસન ૧૯૬૮
: मुद्र: મણિલાલ છગનલાલ શાહ નવપ્રભાત પ્રિન્ટીંગ પ્રેસ,
ઘીકાંટા રેડ, અમદાવાદ.
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पृष्ठाङ्क
अनुयोगद्वारसूत्र भा०२ की विषयानुक्रमणिका अनुक्रमाङ्क विषय १ बीभत्स रस के लक्षण का निरूपण २ हास्य रस के लक्षण का निरूपण
३-६ ३ करुण रस के लक्षण का निरूपण
६-७ ४ प्रशान्त रस के लक्षण का निरूपण
८-११ ५ दश प्रकार के नाम का निरूपण
१२-२१ ६ प्रतिपक्ष धर्म वाले के नाम का निरूपण
२१-३२ ७ संयोगके स्वरूप का निरूपण
३३-४० ८ प्रमाणके स्वरूप का निरूपण
४०-४१ ९ स्थापना प्रमाण के स्वरूप का निरूपण
४२-५३ १० द्रव्यममाण के स्वरूप का निरूपण
५३-५४ ११ भावप्रमाण के स्वरूप का निरूपण
५५-६५ १२ तदित के नाम का निरूपण
६६-७७ १३ उपक्रम के प्रमाणनाम के तीसरा भेद का निरूपण ७८-७९ १४ द्रव्यममाण का निरूपण
८१-९५ १५ उन्मान के प्रमाण का निरूपण
९६-९८ १६ अवमान के और गणिम के प्रमाण का निरूपण १७ प्रतिमानप्रमाण का निरूपण
१०६-११० १८ क्षेत्रप्रमाण का निरूपण
१११-१२१ १९ आत्मामुलपमाण के प्रयोजन का निरूपण
१२१-१३२ २० उत्सेधागलप्रमाग का निरूपण
१३३-१५४ २१ नैरयिकों के शरीर की अवगाहना का निरूपण
१५४-१६५ २२ पृथीकाय आदि के शरीर की अवगाहना का निरूपण १६६-१७४ २३ पंचेन्द्रियतिर्यग्योनिकों के शरीर के अवगाहना का निरूपण १७४-२०१ २४ बाणमंतर आदि के शरीर की अगाहना का निरूपण २०२-२११ २५ प्रमाणाहुल का निरूपण
२११-२२७ २६ कालप्रमाण का निरूपण
२२८-२३० २७ समय का निरूपण
२३१-२४७
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२८ समय आरलिका आदि का निरूपण
२४७-२५४ २९ पल्योपम आदि काल के औपमिक प्रमाण आदि का निरूपण २५४-२७३ ३० अद्धापल्योपम काल का निरूपण
२७३-२८२ ३१ नैरयिकों के आयुपरिमाण का निरूपण
२८२-२८९ ३२ असुरकुमार आदि के आयु और स्थिति का निरूपण २९०-३५२ ३३ क्षेत्रएल्योपम का निरूपण
३५२-३६५ ३४ द्रव्य की संख्या का निरूपण
३६६-३७४ ३५ औदारिक आदि शरीरों का निरूपण
३७४-३८२ ३६ औदारिक आदि शरीरों की संख्या का निरूपण ३८२-३९३ ३७ ओघते वैक्रिय आदि शरीरों की संख्या का निरूपण ३९४-४०८ ३८ नारक आदि के औदारिक आदि शरीरों का निरूपण ४०८-४२३ ३९ पृथ्वीकाय आदि के औदारिक आदि शरीर आदि का निरूपण ४२४-४३७ ४० द्वीन्द्रिय आदि के औदारिक आदि शरीर का निरूपण ४३७-४५० ४१ मनुष्यों के औदारिक आदि शरीर वगैरह का निरूपण ४५०-४६६ ४२ व्यन्तर आदि के औदारिक आदि शरीरादि का निरूपण ४६६-४८० ४३ भावप्रमाण का निरूपण
४८०-४८२ ४४ गुणप्रमाण का निरूपण
४८२-४८७ ४५ जीवगुणप्रमाण का निरूपण
४८८-४९३ ४६ अनुमानप्रमाण का निरूपण
४९३-५१४ ४७ दृष्टसाधर्म्यवदनुमानपमाण का निरूपण
५१४-५२७ ४८ उपमानप्रमाण का निरूपण
५२७-५३८ ४९ आगम प्रमाण का निरूपण
५३८-५४६ ५० दर्शनगुणपमाण का निरूपण
५४६-५५२ ५१ चारित्रगुण प्रमाण का निरूपण
५५२-५६२ ५२ प्रस्थक के दृष्टान से नय के प्रमाग का निरूपण ५६२-५७५ ५३ वसति के दृष्टान्त से नय के प्रमाण का निरूपण ५७५-५८८ ५४ प्रदेश के दृष्टान्त से नय के प्रमाण का निरूपण ५८८-६१० ५५ संख्याममाण का निरूपण
६१०-६२६ ५६ औपम्प संख्या का निरूपण
६२६-६३५ ५७ परिमाण संख्या का निरूपण
६३५-६४२ ५८ गणना संख्या का निरूपण
६४२-६४७
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५९ जघन्य संख्येयक का निरूपण ६० नव प्रकार के संख्येयक का निरूपण ६१ आठ प्रकार के अनन्तक का निरूपण ६२ भावसंख्या प्रमाण का निरूपण ६३ वक्तव्यता द्वार का निरूपण ६४ अर्थाधिकार द्वार का निरूपण ६५ समवतार द्वार का निरूपण ६६ क्षेत्रममवतार आदि का निरूपण ६७ निक्षेपद्वार का निरूपण ६८ अक्षीण का निरूपण ६९ आयनिक्षेत्र का निरूपण ७० क्षपणा का निरूपण ७१ नाम निष्पन्न का निरूपण ७२ सूत्रालापक निष्पन्न का निरूपण ७३ अनुगम नाम अनुयोगद्वार का निरूपण ७४ सूत्रस्पर्शक नियुक्त्यनुगम का निरूपण ७५ नय के स्वरूप का निरूपण । ७६ शास्त्र प्रशस्ति
॥ समाप्त॥
६४८-६६२ ६६२-६७५ ६७६-६८४ ६८५-६८७ ६८७-७०२ ७०३-७०४ ७०४-७१३ ७१४-७३१ ७३१-७४० ७४१-७४९ ७४९-७५४ ७५४-७५७ ७५८-७७० ७७०-७७३ ७७४-८५९ ८५९-८७१ ८७१-९१० ९११-९१२
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દીપથી દીપ જલે યાને બાટવીયા કુટુંબની જીવનઝરમર
કોઈ પણ કુટુંબ કે સંપ્રદાયમાં નિહાળતાં તુરત જ સ્વાભાવિક રીતે આપણી દ્રષ્ટિ કુટુંબ કે સંપ્રદાયના વડા તરફ દેડી જાય છે તે વ્યક્તિનું ચારિત્ર, જ્ઞાન વિગેરે આખા કુટુંબરૂપિ તરુવરના મૂળરૂપ હોય છે આ બાટવિયા કુટુંબની આટલી ધર્મ પરાયણ વૃત્તિ જતાં તુરત જ તે કુટુંબના વડાના વ્યક્તિત્વને જાણવા આપણું મન ઉત્સુક બની જાય છે તે કુટુંબના વડા છે, શ્રી ગિરધરભાઈ તેનું તથા તેમનાં કુટુંબીજનેના જીવન વિષે કંઈક જાણીએ.
ખાખિજાળીયા નામનું નાનકડું ગામ તે સૌરાષ્ટ્રમાં આવેલી એક સુંદર મેજ નદીને કિનારે આવેલું છે ત્યાં બાટવિયા કુટુંબ ધાર્મિક પ્રવૃત્તિમાં ખૂબ જ આગળ પડતું છે. તે કુટુંબમાં સંવત ૧૯૪૦ માં શ્રી ગિરધરભાઈને જન્મ થયે. તેઓ શ્રી શિવકાળથી જ ધર્મના રંગે રંગાયેલા હતા આ ગામના લેકો તેમના સદ્વર્તનને અને ધર્મપરાયણ જીવનને જોઈ અને જાણી શક્યા હતા. ભૌતિક અને આધ્યામિક બંને પ્રકારના જ્ઞાને તેમના જીવનમાં સુંદર સમન્વય સાથે હતા, તેઓ શ્રી સાધનસંપન્ન હોવા છતાં પિતાનું શેષ જીવન ઘણુ સાદાઈથી અને ધાર્મિક કાર્યોમાં વ્યતીત કરી રહ્યા છે. શ્રાવકના બારે વ્રતના પાલનથી તેમના આત્માની ઉજજવલ પ્રગતિ થઈ રહી છે. તેઓશ્રી કહે છે કે,
દુનિયાની વ્યથાઓ કયાં કમ છે? ઈછાનો વધારો શા માટે મન હાય ! ન જાણે વહોરે છે, એ સાપને ભારો શા માટે
તેઓ આરંભ સમારંભથી ઘણું જ ડરતા રહ્યા છે, અને આજે પણ રહે છે. છતાં પણ એ તે સ્વાભાવિક છે કે સાંસારિક જીવન જીવતા હોવાથી અમુક દે તે થાય અને તે દેશના નિવારણાર્થે તેઓ બંને સમય પ્રતિક્રમણ કરે છે. અને ૮૫ વર્ષની વૃદ્ધ વયે પણ આયંબિલ અને ઉપવાસ જેવી તપશ્ચર્યા કરીને કર્મોને બાળવા તપની ભઠ્ઠી પ્રગટાવે છે. વળી અન્ન-વસ્ત્ર તથા દિશાઓની મર્યાદા બાંધીને તેમના વ્યક્તિત્વને વધારે ઉચ્ચ અને આદર્શ બનાવી રહેલ છે. આ રીતે તેમનામાં તપ અને ત્યાગને નિધિ અખૂટ અને અદભૂત છે હાલમાં શ્રી ગિરધરભાઈ તેમના પુત્ર અને પત્ર સાથે બહેળા કુટુંબમાં તેમનું જીવન વ્યતીત કરી રહ્યા છે. તેમનું આવું ઉચ્ચતમ જીવન બંગલેરમાં ઘણું જ લેકેના ઉદ્ધાર માટે પ્રેરણાદાયી બન્યું છે.
તેમના સુપુત્ર શ્રી અમીચંદભાઈ પણ પિતાની માફક શ્રાવક ધર્મથી રંગાયેલા છે. તેઓશ્રી બરાબર જાણે છે કે, ધર્મ સિવાય આપણી સાથે કંઈ આવવાનું નથી આથી તેમનું આચરણ પણ એ પ્રકારનું છે. તેઓશ્રી પિતાના વિશાળ ધંધામાંથી સારો સમય કાઢીને ઘણાજ ઉત્સાહપૂર્વક ધાર્મિક કાર્યો કરી રહેલ છે. તેમના ધર્મપત્ની અ, સૌ. વ્રજકુંવર બહેન ઘણુંજ થમિક તેમજ શાંત અને સરળ રવભાવી છે. તેઓ પણ પોતાનું જીવન સાદાઈથી વ્યતીત કરી રહ્યા છે.
શ્રી અમીચંદભાઈને ત્રણ પુત્રીને અને એક પુત્રીરત્ન પ્રાપ્ત થયેલ
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ગ્રુપ ફોટો જમણી સાઈડ ઉભેલ-જયેશકુમાર તથા રાજેન્દ્ર. જમણું બાજુથી બેઠેલ-(૧) ચંદ્રકાન્ત (૨) વનેચંદ (8) ગીરધરલાલભાઈ (૪) અમીચંદભાઈ (૫) રમેશચંદ્ર. જમણી બાજુથી નીચે બેઠેલ-(૧) મનોજકુમાર (૨) હીમાલ્યુ (૩) પ્રતીષકુમાર.
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છે. આ ચારે સતાનેમાં માષિતા અને દાદાના ધાર્મિક સ`સ્કારા પડેલા છે. અમીચ’દભાઈના જ્યેષ્ઠ પુત્ર શ્રી વનેચ'દભાઇના જન્મ સ’વત ૧૯૮૪ના આસે સુદ ૩ ને બુધવાર ૩૧-૧૦-૧૯૨૮ માં થયેા. દ્વિતીય પુત્ર શ્રી ચંદ્રકાન્તભાઈ ને જન્મ સંવત ૧૯૨૨ ના કાક સુદ ૧૧ ને બુધવાર તા. ૬-૧૧-૧૯૩૫માં થયા. સુપુત્રી ઇન્દુમતીબેનના જન્મ સ ́વત્ ૧૯૯૪ના આસા વદ ૨ને મગળ વાર તા. ૧૦-૧૦-૧૯૩૮માં થયા. કનિષ્ઠ પુત્ર ચી. રમેશચન્દ્રને જન્મ સવત ૧૯૯૭ના ચૈત્ર વદી ૧ ને શનિવાર તા. ૧૨-૪-૪૧માં થયેા. આ ચારે ભાઈ-જ્જૈનના જન્મથી ખાખજાળીયા નામના નાનકડા ગામને પવિત્ર અનાવ્યુ. આમ આ ચારે ભાઇ-હેનના જન્મ માખિજાળીયામાં થયેા હતેા.
જયેષ્ઠ પુત્ર શ્રી વનેચંદભાઇ એક મોટા સાહસિક વેપારી હોવા ઉપરાંત ધાર્મિક વૃત્તિવાળા છે. વ્યવસાય થૈ તેઓએ પાતાની જન્મભૂમિ ખાખિજાળીચાથી એગલેાર સ્થળાંતર કર્યુ હતુ` કે, જ્યાં તેઓ હાલ મહેાળા કુટુંબ સાથે નિવાસ કરી રહ્યા છે. ત્યાં તેઓએ પ્રથમ નાના પાયા પર શ્રી મહાવીર ટેકસ ટાયલ સ્ટેટસના નામે વ્યયસાય શરૂ કરેલા જે આજે એક વૃક્ષની જેમ વિકસ્યા છે. તેઓએ પેાતાના અને ભાઇઓને પણ એગ્લાર એલાવ્યા ચદ્રકાન્તભાઈને પેાતાના ધધામાં સહભાગી બનાવ્યા અને સૌથી નાનાભાઈ રમેશભાઇએ ત્યાં આવી વધુ અભ્યાસ કર્યાં રમેશભાઇએ મિકેનિકલ એ'જિનિયરની ડિપ્લેામાંની ડીગ્રી મેળવી છે. હાલમાં ત્રણે ભાઇઓ સાથે રહીને પેાતાના વ્યવસાયને પ્રગતિને પંથે દોરી રહ્યા છે. આ કુટુબ એલેરના જૈનસમજના ઉત્કર્ષ માટે ઘણા રસ લઇ રહ્યુ છે.
ખાટવિયા કુટુંબ જૈન ધર્મની ઉચ્ચ ભાવનાથી ખૂબ જ ર'ગાયેલું છે. તેના ઉદાહરણ રૂપ શ્રી અમીચંદ્રભાઇની સુપુત્રી ચી. ઈન્દુમતી હૅન છે. દાદા તેમજ માત-પિતાના ધર્મના સહ્કારે કુમારી ઈન્દુમતિબ્ડનમાં સચર્યા હતા. કહેવત છે ને જેવે! સંગ તેવા રંગ' આચાર વિચારની અસર આજીમાજુના વાતાવરણ પર પડ્યા વિના રહેતી નથી તેજ રીતે દાદા અને માત પિતાના ત્યાગી અને ધમ પરાયણ જીવનની અસર તેમની નાજુક અને પુષ્પ સમી પુત્રી પર પડી તેમના નાજુક અને નિદોષ હૃદય પર ત્યાગના રંગ ચઢતા ગયા. તેમના માત-પિતા શાન્તીની પળોમાં તેમને સમાવતા હતા અને કહેતા કે બેટા! તારે આ કીચડ સમાસ'સારમાં પડી દેડકા કે પશુ અનવાનુ નથી તારે તા ખીલીને કમળ અનવાનુ છે અને તારી જીવન સુવાસ જગતને આપવાની છે ત્યારથી જ એટલે ૧૬ વર્ષની કુમળી વયથી તેમના જીવનમાં ભાગવતી દીક્ષા અંગીકાર કરવાનું ખીજ રાપાયેલુ તે ઘરે રહી ધાર્મિ ક સાચન તેમજ સતસમાગમમાં પેાતાને સમય વ્યતીત કરતા હતા.
ઈન્દુમ્હેને વિશ્વની વિશાળ અટવીના પ્રખર સ્તંભ, પ્રતાપી પરમ પ્રભાવક સૂત્ર સિદ્ધાંતના જાણકાર, શાસનદીપક, મધ્યાત્મ પ્રેરણાનાં અમીપાન આપતાર, જ્ઞાનના ફુવારામાં ભવ્યજીવાને સ્નાન કરાવનાર, પૂ. જૈન દિવાકર ઘાસીલાલજી મહારાજ સાહેબ પાસે સારા પ્રમાણુમાં ધાર્મિક અભ્યાસ કર્યાં કાદવ
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માંથી જેમ કમળ પાકે તેમ સ'સારરૂપી કાઢવમાં સતા પાકે છે. આ રીતે પૂ. આચાય દિવાકર ઘાસીલાલજી મહારાજ સાહેખનું જીવન પણ કમળ સમાન છે. પૂ. આચાર્ય દિવાકર ઘાસીલાલજી મહારાજ સાહેબની બાટવિયા કુટુંબ પર ઘણી જ અમીદિષ્ટ છે. તેમના ઉપદેશ અને પ્રેરણાથી આખું કુટુંબ ધર્માંના રંગે ર ંગાયેલુ છે. તેના ઉદાહરણરૂપ ઇન્દુમ્હેન હાલના ઇન્દિરાબાઇ મહુાસતીજી ઈંદુમ્હેન ત્રણ ભાઇની એકની એક વહાલી છ્હેન હતી. જ્યારે તેઓએ ભાગવતી દીક્ષા અંગીકાર કરવાના વિચાર પ્રદર્શિત કર્યાં ત્યારે ભાઇએ અને ભાભીએ એ સમજાવવા અથાગ પ્રયત્ન કર્યાં પણ જેનું હૃદય વૈરાગ્યના રરંગે ર'ગાયેલુ હાય તેને કઈ અસર થાય ખરી ? ભાઇએ અને ભાભીએએ કહ્યુ' ‘સ'સારમાં રહે. તે સારૂં સંયમ માર્ગ એ તા કાંટાળો માગ છે. તે માર્ગ વિચરવું' કઠીન છે. સસારના સુખા છેડવા સહેલા નથી, ખાવીશ પરિ પહેા સહેવા કઠીન છે. તમારી પુષ્પ સમી નાજુક વય છે અને આત્માન્નતિના માર્ગ ખૂબ જ કઠીન છે. અને ઘણી સાધના માંગે છે.' તેઓએ પૂછ્યું' કે, આ કાંટાની ધારે ચાલી શકશે ? માત-પિતાની મમતા છેાડી શકશે? ઇન્દુùને પ્રત્યુત્તર આપ્યું
મળે છે કષ્ટ લીધા વિષ્ણુ, જગતમાં ઉન્નતિ કેાને ? વિહંગા પાંખ વીજે છે, પ્રથમ નિજ ઉડ્ડયન માટે’
આમ કહી તેમણે જણાવ્યુ કે મારી સંપૂર્ણ તૈયારી છે આ અંતરના ઉંડાણુના વૈરાગ્ય હતા વળી તેમણે કહ્યું કે, જેને મન સંસાર એક અનની ખાણુ છે, અને અનર્થની ખાણમાંથી જેને ઉગરવુ છે, છૂટવુ` છે તેને કાણુ રાકનાર છે ? ક્ષણિક સુખને છેડી નિત્ય અને આધ્યાત્મિક સુખ પ્રાપ્ત કરવાની મારી ઈચ્છા છે. આ જિંદગીને શું ભરેસા છે? મારૂં મન વૈરાગ્યના રંગે રંગાયેલું છે તેમાંથી ટુ' પીછેહઠ કરવાની નથી.
પૂ. આચાર્યશ્રીની પ્રેરણાથી પ્રેરાઈને શ્રી આઠકોટી દરિયાપુરી સ’પ્રદાયના પંડિતરત્ન શાંતત્રભાવી સરલ હૃદયી, વ્યાખ્યાનવાચસ્પતિ જીવનની ભૂમિમાં જ્ઞાનદર્શન અને ચારિત્રના ચાગ્ય બીજ વાવનાર સફળ કૃષક ! વિદુષી
પુ તારાબાઇ મહાસતીજી તથા જ્ઞાન ધ્યાનના પ્રેમી, ચિંતનશીલ, પ્રભાવશાળી, કર્તવ્યનિષ્ઠા શાંત સ્વભાવી પૂ હીરાભાઇ મહાસતીજી પાસે સંવત ૨૦૨૨ ના વૈશાખ સુદ્ર ૧૧ ને રવીવારે તા ૧-૫-૬૬ ના રાજ મહામુલી ભાગવતી દીક્ષા અંગિકાર કરીને માતા-પિતાના નામને દીપાવી બાટવિયા કુટુંબને ધન્ય કરેલ છે. જેમ વૈભવ સામે ત્યાગ, સમૃદ્ધિ સામે સમર્પણુ, તેમ આ કુટુબે ત્યાગી વ્યક્તિની જૈન સમાજને ભેટ આપી.
આ રીતે દાદાના ધાર્મિક સસ્કારી પૌત્રી પર પડ્યા અને આખા કુટુંબને જેણે દીપાવ્યું અમ આખું' કટુબ એક વ્યક્તિના સંસ્કારથી ધર્માંના રંગે રંગાઇ ગયુ તે આપણે જોઈ શકવા અને દ્વીપથી દીપ જલે' શીક સાક મન્યુ' છે,
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આધમુરબ્બીશ્રીઓ
શેઠશ્રી શાંતિલાલ મંગળદાસભાઈ
અમદાવાદ.
(સ્વ) શેઠશ્રી શામજીભાઈ વેલજીભાઈ
વીરાણી-રાજકોટ.
(સ્વ.) શેઠશ્રી છગનલાલ શામળદાસ ભાવસાર - અમદાવાદ,
-
શેઠશ્રી રામજીભાઈ શામજીભાઈ
વીરાણી-રાજકેટ,
વચ્ચે બેઠેલા લાલાજી કિશનચંદજી સા. જોહરી ઉભેલા સુપુત્ર ચિ. મહેતાબચન્દજી સા નાના – અનિલકુમાર જૈન (દાયત્તા )
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આમુરબ્બીશ્રીઓ
(રૂ.) શેઠશ્રી હરખચંદ કાલીદાસ વારિઆ
ભાણવડ.
(સ્વ.) શેઠ રંગજીભાઈ મોહનલાલ શાહ
અમદાવાદ,
(સ્વ.) શેઠશ્રી દિનેશભાઈ કાંતિલાલ શાહ
અમદાવાદ,
શ્રી વિનોદભાઈ વીરાણી
શેઠશ્રી જેસિંગભાઈ પાચાલાલભાઈ
અમદાવાદ,
-
સ્વ. શેઠશ્રી આત્મારામ માણેક્ષાલ
અમદાવાદ
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આધમુરબ્બીશ્રીઓ
શ્રી વૃજલાલ દુર્લભજી પારેખ
રાજકેટ,
કોઠારી હરગોવિંદ જેચંદભાઈ
રાજકોટ,
૫. ડોસાભાઈ ગોપાલદાસ શેઠશ્રી મિશ્રીલાલજી લાલચંદજી સા, લુણિયા મુ. સાણંદ (જી. અમદાવાદ) તથા શેઠશ્રી જેવંતરાજજી લાલચંદજી સા.
(સ્વ) શેઠશ્રી ધારશીભાઇ જીવણલાલ
બારસી,
સ્વ. શ્રીમાન શેઠશ્રી મુકનચંદજી સા.
બાલિયા પાલી મારવાડ
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આઘમુરબ્બીશ્રીઓ
સ્વ. શેઠશ્રી હરિલાલ અનોપચંદ શાહ
ખંભાત,
. શેઠ તારાચંદ્રની સાહેa wer
मद्रास.
श्रीमान् शेठ सा. चीमनलालजी सा. ऋषभचंदजो सा. अजीतवाले (सपरिवार)
વચ્ચે બેઠેલા મોટાભાઈ શ્રીમાનું મૂલચંદજી
જવાહરલાલજી બરડયા ૨ બાજુમાં બેઠેલા ભાઈમિથીલાલજી બરડિયા ૩ ઉભેલા સૌથી નનાભાઈ પૂનમચંદ બરડિયા
श्रीमान् सेठश्री સીમરાનના સા. ચોરડિયા
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॥ श्री वीतरागाय नमः ॥
श्री जैनाचार्य - जैनधर्मदिवाकर - पूज्यश्री घासीलाल व्रतिविरचितया अनुयोगचन्द्रिकाख्यया व्याख्यया समलङ्कृतम्
श्री अनुयोगद्वारसूत्रम्
( द्वितीयो भागः )
अथ षष्ठं बीभत्सरसं सलक्षणं निरूपयति
मूलम् - असुइकुणिमदुद्दसणसंजोगब्भासगंधनिष्फण्णो । निsaहिंसाक्खो रसो होइ बीभच्छो ॥ १ ॥ बीभच्छो रसो जहा - असुइमलभरियनिज्झरसभाव दुग्गंधि सङ्घकालंपि । घण्णा उ सरीरकलिं बहुमलकसं विमुंचति ॥२॥ सू० १७५॥
छाया - अशुचि कुणपदुर्दर्शनसंयोगाभ्यासगन्धनिष्पन्नः । निर्वेदाविहिंसालक्षणः रसो भवति बीभत्सः॥ १ ॥ बीभत्सो रसो यथा - अशुचिमलभृतनिर्झर स्वभावदुर्गन्धि सर्वकालमपि । धन्यास्तु शरीरकलिं बहुमलकलुषं विमुञ्चन्ति ॥ २ ॥ सू० १७५।। टीका- 'असुर' इत्यादि
अश्शुचिकूण पदुर्दर्शन संयोगाभ्यास गन्धनिष्पन्नः, तत्र - अशुचिः = मूत्रपुरीषादिकम्, कुणपः = शवः, अपरमपि यद् दुर्दर्शनं गळलालादिकरालं शरीरादि एतेषां अब सूत्रकार छठे बीभत्सरसर का लक्षण निर्देश पुरस्स कथन करते हैं- "असुर कुणिम" इत्यादि ।
शब्दार्थ - (असुरकुणिमदुषं सणसं जोगभास गंध निष्फण्णो, निब्वेasaहिंसा लक्खणो रसो होइ यीभच्छो) - यह बीभत्स रस मूत्र, पुरीष आदि अशुचिपदार्थों के, कुणप-शव के, तथा बहती हुई लार आदि से घृणित - शरीर आदि को बार २ देखने रूप अभ्यास से तथा उनकी गंध
હવે સૂત્રકાર છઠ્ઠા ખીભત્સરસના લક્ષણુનું' કથન કરે છે—
"
असुइ कुणिम" इत्याहि
शुम्हार्थं-(असुइकुणिमदुदंसणसं जोगब्भावगंध निष्फण्णो, निव्वेयऽविहिंसालraणो रसो होइ बीमच्छो) मा मीलत्स ૨૪ મૂત્ર, પુરીષ વગેરે અશુચિ પદાર્થો, કુશુપ-શવ, તેમજ વહેતી લાળ વગેરેથી ધૃણિત શરીર વગેરેને વારવાર જોવાથી તેમજ તેમની દુર્ગધથી ઉત્પન્ન થાય છે. આ રસનું લક્ષણુ
अ० १
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अनुयोगद्वारसूत्रे संयोगाभ्यासात्-मुहर्मुहुस्तदर्शनरूपात संयोगात्, तथा-तद्गतगन्धाच्च निष्पन्ना= संजातः, तथा-निर्वेदाविहिंसालक्षणः-निर्वेदः-उद्वेगः, अविहिंसा=शरीरादेरसारत्वं निर्धाय हिंसादिपापेभ्यो विनिवर्त्तनम् , एतदुभयं लक्षणं चिद्रं यस्य स तथाभूतोबीभत्सो रसो भवति । उदाहरणमाह-बीभत्सो रसो यथा-अशुचिमलभृतनिझरम्अशुचिमलैः भृताः-पूर्णा निर्झराः-श्रोत्रादि विवररूपा यस्मिन् स तथा तम् , तथा सर्वकालमपि सर्वस्मिन्नपि काले स्वभावदुर्गन्धि-स्वभावेन प्रकृत्या दुर्गन्धयुक्तम् , तया-बहुमलकलुषं विविधप्रकारकैर्मलिनं शरीरकलिम्-शरीरमेव कलि:-कलहः सर्वकलहमूलत्वात् , शरीरकलिस्तं धन्यास्तु-शरीरमू परित्यागेन मुक्तिगमनकाले से उत्पन्न होता है। तथा इसके लक्षण निर्वेद-अविहिंसा हैं। उद्वेग का नाम 'निवेद' है। तथा शरीर आदि की असारता जानकर हिंसादिक पापों से दूर होना इसका नाम 'अविहिंसा' है । ये दोनों इस बीभत्सरसके चिह्न हैं । यह बीभत्सरस जिस प्रकार से जाना जाता है, सूत्रकार उस प्रकार की (वीभच्छो रसो) इन पदों द्वारा प्रकट करने की सूचना करते हुए कहते हैं कि (जहा) जैसे-(असुइमलभरियनिझर-सभावदुरगंधि सव्वकालंपि, धण्णा उ सरीरकलिं बहुमलकलुसं विमुंचंति) अपवित्रमलों से भरे हुए श्रोत्रादिइन्द्रियों के विकाररूप झरने जिसमें हैं, समस्त काल में भी जो स्वभावतः दुर्गन्धयुक्त है, और विविध प्रकार के मलों से जो मलिन बना हुआ है, ऐसे शरीररूप कलिकलह को सर्वकलह का मूल होने के कारण उस विषयक मूर्छा के परित्याग से तथा मुक्ति गमन समय में सर्वथा उसके त्याग से નિર્વેદ અને અવિહિંસા છે. ઉદ્વેગનું નામ “નિર્વેદ” છે તથા શરીર વગેરેની નિસાતા જાણીને હિંસા વગેરે પાપથી દૂર રહેવું તે અવિહિંસા છે તેઓ બને આ બીભત્સ રસના ચિહ્યો છે. આ બીભત્સરસ જેના વડે જાણવામાં भाव छे सूत्रा२ तेने (वीभच्छो रसो) मा ५४ ५ २५७८ ४२वानुं सूचन २i 3 छ है (जहा) म. (असुइमलभरियनिज्झरसभावदुग्गंधिसब्ब काल प, धण्णा उ सरीरकलिं बहुमलकलुसं विमुंचंति) अपवित्र माथी परપતિ શ્રેત્ર વગેરે ઇન્દ્રિયના વિકાર રૂપ ઝરાઓ જેમાં છે, તેમજ જે સદા સવ કાલમાં સ્વભાવતઃ દુધવાળું છે અને જાતજાતના મલાથી જે મલિન થયેલું છે–એવા શરીર રૂપ કલિ-કલહ-ને સર્વ કલહનું મૂલ લેવા બદલ તે વિશ્યક મૂચ્છના પરિત્યાગથી તેમજ મુક્તિગમન વખતે તેને સર્વથા ત્યાગ કરીને
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अनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र १७६ सलक्षणहास्यरसनिरूपणम् सर्वथा त्यागेन धन्यता प्राप्ता एव केचित् प्राणिनो मुञ्चन्ति परित्यजन्ति । शरीरासारतां सम्यगुपलब्धत्य वैराग्यवतः कस्यचिदियमुक्तिः ॥ १७॥
अथ सप्तमं हास्यरसं सलक्षणमाह
मूलम्-रूववयवसभासाविवरीयविडंबणा समुप्पण्णो। हासो मणप्पहासो पगासलिंगो रसो होइ ॥१॥ हासो रसो जहापासुत्तमसीमंडिअपडिबुद्धं देवरं पलोयंति । ही जह थणभरकंपणपणमियमज्झा हसइ सामा ॥२॥सू०१७६॥
छाया-रूपवयोवेषभाषा विपरीतविडम्बनासमुत्पन्नः। मनः महासः प्रकाशलिङ्गो रसो भवति ॥१॥ हास्यो रसो यथा-प्रसुप्तमषीमण्डितमतिबुद्धं देवरं मलोकमाना ही यथा स्तनभरकम्पनपणतमध्या हसति श्यामा॥२॥० १७६॥
टीका-'रूववय' इत्यादि
रूपवयोवेषभाषाविपरीतविडम्बनासमुत्पन्नः-रूपस्य आकृतेः, वयसःअवस्थायाः, वेषस्य-वस्त्रपरिधानपरिपाटयाः भाषायाश्च या विपरितविडम्बनाधन्य बने हुए कितनेक भाग्यशाली जन ही छोड़ते हैं । शरीर की असारता को भली भांति ज्ञात करचुकने वाले किसी वैरागी की यह पूर्वोक्त उक्ति है। सू० १७५ ॥ ____ अब सूत्रकार सातवां रस जो हास्य रस है, उसका निर्देशपूर्वक कथन करते हैं-"रूववय वेस" इत्यादि ।
शब्दार्थ-(रूववयवेसभासाविवरीयविडंबणासमुप्पण्णो) यह हास्यरस रूप, वय, वेष और भाषा की विपरीत विडंबना से उत्पन्न होता है । पुरुष द्वारा स्त्री का रूप धारण करना स्त्री द्वारा पुरुष का કેટલીક ભાગ્યશાલી વ્યક્તિઓ પિતાની જાતને ધન્ય બનાવે છે. શરીરની અસારતાને સારી રીતે જાણનારા કોઈ વૈરાગ્યયુકત સજજનની આ ઉક્તિ છે. સૂ૦૧૭પા
હવે સૂત્રકાર સાતમાં હાસ્યરસનું કથન કરે છે– "रूववयवेस" त्याल
avar-(रूववयवेसभासाविवरीयविडं वणास मुप्पण्णो) म स्यरस રૂપ, વય, વેષ અને ભાષાની વિપરીત વિડંબનાથી ઉત્પન્ન થાય છે પુરૂષ વડે સ્ત્રીનું રૂપ ધારણ કરવું, ઓ વડે પુરુષનું રૂપ ધારણ કરવું આ રૂપની
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अनुयोगद्वारसूत्र स्ववैपरीत्येन निर्वर्तना तत्सकाशादुत्पन्नः। रूपस्य विपरीतविडम्बना-पुरुषस्य स्त्रीरूपधारणम् , स्त्रिया वा पुरुषरूपधारणम् । वयसो विपरीतविडम्बना तरुणस्य वृद्धजनवद् , वृद्धस्य तरुणजनवचेष्टाकरणम् । वेषस्य विपरीतविडम्बना स्ववर्गीयं स्वदेशीयं वा वेषं परित्यज्य परवर्गीयस्य परदेशीयस्य वा वेषस्य धारणम् , यथा राजपुत्रादे वणिग्वेषधारणम् , गुर्जरादीनां मालवीयादिवेषधारणम्। भाषाया विपरीतविडम्बना स्वदेशीयां भाषां परित्यज्य परदेशीयभाषया भाषणम्। एतद्दर्शनश्रवणादिसंजात इत्यर्थः, तथा-मनः प्रहर्षः मनः महर्षजनकः प्रकाशलिङ्ग:-प्रकाशः= भनेत्रवत्रादीनां विकासो लिङ्ग-चिह्न, प्रकाशानि-प्रस्फुटानि उदरपकम्पनाहहारूप धारण करना यह रूप की विपरीत विडंबना है। तरुण जन द्वारा वृद्ध पुरुष की तरह और वृद्ध पुरुषों द्वारा तरुण व्यक्तियों की तरह चेष्टाएँ करना यह वय की विपरीत विडंबना है । अपने वर्ग के या देश के वेष को छोड़ कर परवर्ग के या परदेश के वेष को अपनाना जैसेराजपुत्र आदिकों का वणिग्वेष धरना, गुजरातियों का मालवीय वेष धारना यह वेष विपरीत विडंबना है । अपने देश की भाषा का परित्याग कर परदेशी भाषा से भाषण करना-बोलना , यह भाषा विपरीत विडंयना है। इनरूपादिकों की विपरीत विडंबना देखने से तथा सुनने से इस हास्य रस की उत्पत्ति होती है। यह (पगोसलिंगों) 5 नेत्र और वक्त्र=मुख , आदि का विकाश होना इसका चिह्न है । अथवा पेटका प्रकम्पन होना, अट्टहास आदि होना ये सब इसके चिह्न हैं । ऐसा વિપરીત વિડંબના છે. તરૂણ વ્યક્તિ વડે વૃદ્ધ વ્યક્તિની જેમ અને વૃદ્ધ વ્યક્તિ વડે તરણ વ્યક્તિની જેમ ચેષ્ટાઓ કરવી આ વયની વિપરીત વિડં. બને છે પિતાના વર્ગના અથવા પિતાના દેશના વેષને ત્યજીને પરવર્ગના અથવા પરદેશના વેષને ધારણ કરવું, જેમ કે રાજપુત્ર વગેરેએ વણિવેષ ધારણ કરે, ગુજરાતીઓને માલવીયવેષ ધારણ કર આ વેષ વિપરીત વિડંબના છે. પિતાના દેશની ભાષાને છોડીને પરદેશી ભાષામાં બોલવું આ ભાષા વિપરીત વિડંબના છે. આ રૂપ વગેરેની વિપરીત વિડંબના જેવાથી तभर साथी । वास्यरसनी पत्ति थाय छे. मी (मणप्पहासो) मनः प्रड न थेटवे -मनने पति ४२ना२ छे. (पगास लिंगो) अनेत्र भने વકૃત્ર-મુખ વગેરેનું વિકસિત થવું આનું ચિહ્ન છે. અથવા તે પેટ ધ્રુજવું, मडास वगेरे थषु भासा मेना चिह्नो छे. मेवो 2 "हासो रसो होइ"
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अनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र १७६ सलक्षणहास्यरसनिरूपणम् सादीनि लिङ्गानि-चिह्नानि वा यस्य स तथाभूतो हास्यो रसो भवति । उदाहरणमाह-हास्यो रसो यथा-प्रसुप्तमपीमण्डितपतिबुद्धम्-पूर्व प्रमुप्तः पश्चाद् मषीमण्डितः कज्जलालङ्कृतस्ततः प्रतिबुद्धस्तं तथाभूतं देवरं प्रलोकमाना-पश्यन्ती स्तन. कम्पनप्रणतमध्या-स्तनयोः भरेण अतिशयेन कम्पनेन प्रणतम् अवनतं मध्यमध्यशरीरं यस्याः सा तथा-स्तनयोरतिकम्पनेनावनतमध्यभागा श्यामा युवती स्त्री ही 'ही' इति शब्दोच्चारणपूर्वकं यथा हसति तथा पश्य। रात्रौ पत्न्या सहकशय्यायां प्रसुप्तस्तन्मषीमण्डितमुखः प्रातः प्रबुद्धः। तथाविधं तं दृष्ट्वा तद्भ्रातृपत्नी सातिशयं हसति । तथा हसन्तीं तां कश्चित् कमपि दर्शयन् कथयति । यद्वा-भ्रातृपल्येव देवरस्य मुखं कज्जलेनालङ्कृतवती । भ्रातपत्नीकृतहास्यप्रयोगयह (हासो-रसो होइ) हास्य रस होता है अब सूत्रकार यह हास्य रस जिस प्रकार से जाना जाता है उस प्रकार को प्रकट करते हैं। (जहा) जैसे-(पासुत्तमसीमंडिअपडिबुद्धं देवरं पलोयंति, ही जह थणभरकंपियपणमिय मज्झा हसइ सामा) रात्रि में अपनी पत्नी के साथ एक शय्या में सोये हुए देवर के मुख ऊपर पत्नी के कज्जल की लगी हुई रेखा को देखकर कोई उसकी युवती भ्रातृपत्नी-भाभी कि-जिसका मध्यभाग स्तन युगल के अतिशय भार से झुक रहो था, ही ही करके हँसी। इस गाथा का अवतरण इस प्रकार से जानना चाहिये-कोई एक व्यक्ति अपनी धर्मपत्नी के साथ एक ही शय्या पर रात्रि के समय में सो गया । स्त्री के आखों की कज्जल रेखा उसके मुखपर लग गई। प्रातः जब वह उठा-तो उसकी युवती भाभी ने उसे देखा तो, वह खूष हँसी। अथवा भ्रातृपत्नी ने ही देवर-के मुख पर काजल की रेखा लगा दी. હાસ્યરસ હોય છે. હવે સૂત્રકાર આ હાસ્યરસ જે રીતે જાણવામાં આવે છે ते२ २५०८ ४२di 3 छे. (जहा) भ-(पासुत्तम सीमंडि अपडिबुद्धदेवर पलोयति, ही जह थणभरकंपियपणमियमज्झा हसइ सामा) त्रिभा पातानी पत्नी સાથે એક શય્યા પર સૂતેલા દિયરના મે પર પત્નીના કાજલની થયેલી લીટીને જોઈને તેની કઈ યુવતી બ્રાતૃપત્ની-ભાભી-કે જેને મધ્યભાગ સ્તનયુગલના અતિશય ભારથી લળી રહ્યો હત-હ–હી કરીને હસી આ ગાથાનું અવતરણ આ પ્રમાણે જાણવું જોઈએ કે માણસ રાત્રે પોતાની ધર્મપત્ની સાથે શય્યા પર સુઈ ગયે પત્નીના આંખોના કાજળની રેખા તેના મોં પર થઈ ગઈ સવારે જ્યારે તે જાગે ત્યારે તેની યુવતી ભાભી તેને જોઈને પૂબ હસવા લાગી અથવા ભાભીએ જ દિયરના અજાણતા કાજળની રેખા
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अनुयोगद्वारसूत्र मजानन् उत्थितः स स्वावश्यककार्य प्रचलितः। ततस्तद्भ्रातृपत्नी सातिशयं हसितवती । तथा हसन्तीं तां कश्चित् करपि दर्शयन् कथयति । इदमवतरणमस्या बोध्यम् । मोडविजृम्भितमेतत् , कर्मबन्धहेतुत्वावर्जनीयम् । भू० १७६।। अथाष्टमं करुणरसं सलक्षणमाह
मूलम्-पियविप्पओगबंधववाहिविणिवायसमुप्पण्णो। सोइ अविलत्रिय पम्हणरुग्णलिंगो रसो करुणो ॥१॥ करुणो रसो जहा-पज्झायकिलामि अयं बाहागयपप्पु अच्छियं बहुसो। तस्स वियोगे पुत्तिय! दुब्बलयं ते मुहं जायं ॥२॥सू०१७७॥
छाया-पिय विप्रयोगवन्धवधव्याधिविनिपातसंभ्रमोत्पन्नः। शोचितविलपितप्रम्लानरुदितलिङ्गो रसः करुणः॥१॥ करुणो रसो यथा-प्रध्यातलान्तकं वाष्पगत पप्लुताक्षिकं बहुशः। तस्य वियोगे पुत्रिके ! दुबैलकं ते मुखं जातम् ॥२ मू०१७७।। टीका-'पियविप्पभोग' इत्यादि
पियविप्रयोगबन्धवधव्याधिविनिपातसंभ्रमोत्पन्न:-पियस्य प्रेमास्पदस्य पतिपुत्रादेः विप्रयोग विरहः, बन्धः बन्धनम् , वधाताडनम् , व्याधिः रोगः, विनिपात:मरणम् , संभ्रमः परचक्रादिभयम् , तेभ्यः समुत्पन्ना=संजातः । तथाजो उसे ज्ञात नहीं हुई। जब उठकर आवश्यक कार्य से वाहर-जाने लगातो भ्रातृपत्नी को इस स्थिति पर खूब हँसी आई। यह हास्यरस मोह की लीला है अतः कर्म बन्ध का हेतु होने से वर्जनीय है ॥ सू० १७६ ॥ __ अब सूत्रकार आठवां जो करुणरस है उसे लक्षण निर्देश पूर्वक कहते हैं-'पियविप्पओगबंध" इत्यादि .. शब्दार्थ-(पियविप्पओगबंधवहवाहिविणिवायसंभमुप्पण्णो) प्रेमास्पद पति पुत्रादि के वियोग से बन्ध-बन्धन से, यध-ताडन से. व्याधि-रोग से , विनिपात-मरण से और संग्राम-परचक्र आदि के બનાવી દીધી જ્યારે તે જાગીને આવશ્યક કાર્ય માટે બહાર જવા લાગ્યો ત્યારે. ભાભી તેની તે સ્થિતિ પર ખૂબ હસવા લાગી આ હાસ્યરસ મોહની લીલા છે. એથી કર્મબન્ધ હેતુ હોવા બદલ વર્જનીય છે. સૂ૦૧૭૬
હવે સૂત્રકાર આઠમા કરૂણ રસનું લક્ષણ કથન કરે છે– "पियविप्पओगबंध" त्याह
साथ-(पियविप्पभोगधंधववाहिवि णिवायसंभमुप्पण्णो) प्रेमा२५६ पति पुत्र वगेरेना वियोगी, 4-नया, १५-distथा, व्याधि-गयी,
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अनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र १७७ सलक्षणकरुणरस निरूपणम्
शोचितविलपितप्रम्लानरुदितलिङ्गः- शोचितं शोकः, विलपितम् = विलापः, पम्लानम् = मुखशुष्कता, रुदितम् = रोदनम् - एतानि लिङ्गानि = चिह्नानि यस्य स तथाभूतः करुण रसो भवति । उदाहरणमाह- करुणो रसो यथा दे पुत्रिके! तस्य निष्करुणस्य पत्युर्वियोगे= विरहे ते तव मुखं मध्यातकान्तम्- मध्यातम् - प्रियतमविषयिणी चिन्ता, तेन क्लान्तं - शुष्कम्, बहुशः = अभीक्ष्णं वाष्पागतमप्लुताक्षिकम् वाष्पाणाम्=अश्रूणाम् आगतेन = आगमनेन प्रप्लुते - व्याप्ते अक्षिणी यस्मिंस्ततथाभूतम् पुनः- दुर्बलकं कृशं च जातम् । प्रियत्रियोगशुचा शुष्यद्वदनां कांचित कादि वृद्धाया मुक्तिः ॥ सू० १७७ ॥
भय से, करुण रस उत्पन्न होता है। तथा (सोहविलबियपम्हणरुग्णलिंगो रसो करुणो ) शोक, बिलाप' मुखशुरू, रोदन ये इसके लिङ्ग हैं ; ऐसा यह करुण रस होता है । (करुण रसो जहा) यह करुण रस इस प्रकार जाना जाता है। जैसे- (पज्झाघ किलामि अयं बाहागयपप्पु अच्छयं बहु । तस्स वियोगे पुत्तिय ! दुब्बलयं ते मुहं जाये) पुत्तिय है पुत्रिके । उस निष्करुण पति के वियोग में तेरा मुख " पज्झाय किलोमिअयं " - प्रध्यात क्लान्तक-प्रियतम विषयक चिन्ता-से क्लान्तशुष्क, और " बहुसो " बार बार " बाहागयपतु अच्छियं " अश्रुओं के आगमन से जिसमें दोनो आंखें भरी रहती हैं ऐसा और “दुब्बलयं" कृश हो गया है। यह किसी वृद्धा की प्रिय विद्योग के शोक से शुष्यइदना किसी नायिका के प्रति उक्ति है । ॥ सू० १७७ ॥
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ق
વિનિપાત–મરણથી અને સભ્રમ પરચક્ર વગેરેના ભયથી, આ કરૂણૢ રસ उत्पन्न थाय छे तेस४ ( खोइअविल वियपम्हणरुण्णलिंगो रसो करुणो) शोउ, विसाय, भुष्णशुष्टुता, रोहन या सर्व या रसना यिह्नो छे. (करुण रखो जहा) || ४३७५ २स आ प्रमाणे श्वामां आवे छे प्रेम है- (पज्झाय किलामि अयं वाहागयपप्पु अच्छिय बहुखो । तस्स वियोगे पुत्तिय ! दुब्वलय वे मुहं जाय') युत्तिय ! डे पुत्रि ! ते निष्३ पतिना वियोगमा ताइ
શુષ્ક,
भों (पज्झाय किलामिअयं) -अध्यात सान्त:- प्रियतम विषय खिताथी सांतઅને "जडुसो" वारवार " बाहागयपप्पु अच्छिय” मञ्जुखोना આગમનથી બન્ને આંખો અશ્રુયુકત રહે છે એવું અને દુસ્ખલય* ” કૃશ થઈ ગયું છે. આ કાઇ વૃદ્ધાની પ્રિયવિચાગના થયેલી ફાઇ નાયિકાપ્રતિ કૃિત છે. સૂ॰૧૭૭ll
શાકમાં
મ્યાન વદના
66
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अनुयोगद्वारसूत्रे अथ नवमं प्रशान्तरसं सलक्षणमाह
मूलम्-निदोसमणसमाहणसंभवो जो पसंत भावेणं। अविगारलक्खणो सो रसो पसंतोत्ति णायव्वो॥१॥ पसंतो रसो जहा-सब्भावनिविगारं उवसंतपसंतसोमदिट्टीयं। ही जहमुणिणो सोहइ मुहकमलं पीवरसिरीयं ॥२॥ एए नव कवरसा बत्तीसदोसविहिसमुप्पण्णा। गाहाहि मुणियन्वा, हवंति सुद्धा वा मीसा वा ॥३॥ से तं नवनामे।सू० १७८॥ ___ छाया-निर्दोषमनःसमाधानसंभवः यः प्रशान्तभावः खलु। अविकारलक्षणः स रसा प्रशान्त इति ज्ञाताः॥१॥ प्रशान्तरसो यथा-सद्भावनिर्विकारम् उपशान्तसौम्यदृष्टिकम् । ही यथा मुनेः शोभते मुखकमलं पीवरश्रीकम् ।।२।। एते नव काव्यरसाः, द्वात्रिंशदोषविधिसमुत्पन्नाः। गाथाभितिव्याः, भवन्ति शुदा वा मिश्रा वा ॥३॥ तदेतत् नवनाम ।।मू० १७८ ।
टीका-'निदोस' इत्यादि
निर्दोषमनः समाधानसंभवः-निर्दोष-हिंसादिदोषरहितं यन्मनस्तस्य यत्स. माधानम्-विषयाद्यौत्सुक्यविनिवृत्त्या ऐकाय, तस्मात्संभव:-उत्पत्तिर्यस्य स तथाभूत:-निर्मलमनएकाग्र्यात् समुत्पन्न इत्यर्थः । तथा-अविकारलक्षण:-अविकार: विकारराहित्य, स लक्षणं-चिह्नं यस्य स तथा-निर्विकारतास्वरूपो यः प्रशान्त भावः स खलु प्रशान्त इति रसो ज्ञातव्यः । उदाहरणमाह-प्रशान्तो रसो यथा-स्वभाव
अब सूत्रकार नौथे प्रशान्त रस का लक्षण निर्देशपूर्वक कथन करते हैं-"निहोसमणसमाहण" इत्यादि ।
शब्दार्थ-(निहोसमणसमाहणसंभवो) हिंसादिक दोषों से रहित बने हुवे मन की एकाग्रता से है उत्पत्ति जिसकी तथा (अविगारलक्षणो) विकार रहितपना यही है लक्षण जिसका- अर्थात् निर्वि
હવે સૂત્રકાર નવમા પ્રશાસનું લક્ષણ કથન કરે છે– 'निहोसमणसमाहण" ऽत्याहि
शा-(निहोसमणसमाहणसंभवो) बसा वगेरे होपोथी २हित थयेर भननी ताथा नापत्ति थये। छतमा (अविगार लक्षणो) विकार રાહિત્ય જેનું લક્ષણ છે અર્થાત્ જે નિર્વિકાર સ્વરૂપ છે, એ (m) જે
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अनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र १७७ सलक्षणकरुणरसनिरूपणम् निर्विकारम्-स्वभावेन प्रकृत्या निर्विकार विभूषाभूक्षेपादिविकाररहितम् । न तु मायास्थानतो निस्किारम् , तथा-उपशान्तप्रशान्तसोमदृष्टिकम्-उपशान्तारूपालोकनायौत्सुक्यत्यागात्, प्रशान्ता-क्रोधादिदोपरिहारात् , अत एव सोमा भद्रा दृष्टिर्यत्र तत्तथाभूतम् , अतएव पीवरश्रीकम्-पीवरा-सान्द्रा श्रीः-शोभा यस्य तत्तथाविधं मुनेः मुखकमलं 'ही' इत्याश्चर्ये, यथा शोभते, तथा पश्य। एवंविधं प्रशान्तं मुनि दर्शयन् कश्चित् कंचित् पूर्वोक्तां गाथां कथयतीत्यवतरणिका बोध्या। सम्प्रति नवकाव्यरसानुपसंहर्तुमाह-एए नव' इत्यादि। द्वात्रिंशदोषविधिसमु. कारतास्वरूप , ऐसा (जो) जो (पसंतभावेणं) प्रशान्त भाव (सो) वह (पसंतोत्ति रसो णायव्यो) 'प्रशान्त ऐसा रस जानना चाहिये । यह प्रशांत रस जिस प्रकार से जाना जाता है , सूत्रकार (पसंतो रसो जहा) इन पदों द्वारा उसे कहते हैं
जैसे-(सम्भावनिविगारं) मायाचारी से नहीं किन्तु स्वभाव से ही निर्विकार-विभूषा, भ्रूक्षेप आदि विकार से रहित (उवसंतपसंत. सोमदिट्ठीयं) रूपादिक विषयों के अवलोकन की उत्सुकताके परित्याग से उपशांत बनी हुई एवं क्रोधादिक दोषों के परिहार से प्रशान्त हुई ऐसी भद्रदृष्टि से युक्त (मुणिणो मुहकमलं ) मुनि का मुख कमल (ही) कैसे आश्चर्य की बात है जो (पीवरसिरियं) परिपुष्ट शोभा वाला होकर (सोहइ) शोभित हो रहा है । यह उक्ति प्रशान्त मुनि को दिख. लाने वाले किसी एक मनुष्य की है , जो इस गाथा द्वारा प्रकट की गई है। यही इस गोथा की अवतरणिका है । (एए नव कन्वरसा बत्तीस (पसंतभावेणं) प्रशन्तमा (सो) ते (पसंतोत्ति रसो णायव्वो) 'प्रशान्त' રસ જાણવો જોઈએ આ પ્રશાંત રસ જે રીતે જાણવામાં આવે છે, સૂત્રકાર (पसंतो रसो जहा) मा ५४ १ २५ट ४२ छ
भ-(सम्भावनिविगार) भायायथा नही ५५ २१मावि शत ४।२-विभूषा, अ५ पोरे विशथी २हित, (उवसंतपसंतसोमविट्ठीय) રૂપ વગેરે વિષયના દર્શનની ઉત્સુકતાના પરિત્યાગથી ઉપશાંત બનેલી તેમજ ક્રોધ વગેરે દોષના પરિહારથી પ્રશાન્ત થયેલી એવી ભદ્ર દષ્ટિથી યુક્ત (मुणिणो महकमलं) मुनिनु भुम भण (ही) आश्चय साथे ४ ५ । (पीवरसिरीयं) परिपुष्ट शनासपन्न यर (सोहइ) सुशीमित 25 २घुछ પ્રશાન્ત મુનિને ઉદ્દેશીને કેઈ એક માણસે આ જાતના વિચારો વ્યકત કરેલાં છે. જે આ ગાથા વડે પ્રકટ કરવામાં આવ્યા છે એજ આ ગાથાની અવત२डि छे. (एए नव कव्वरसा बत्तीसदोसविहिसमुप्पण्णा गाहाहिं मुणियव्वा)
अ०२
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अनुयोगद्वारसूत्रे त्पन्ना:-'अलियमुवघायजणयं निरत्थयभवत्थयं छलं दुहिलं' इत्यादयोऽत्रैव वक्ष्यमाणा ये द्वात्रिंशत्संख्यकाः मूत्रदोषास्तेषां यो विधिः-विधानं विरचनं ततः समुत्पन्ना एते वीरादयो नव काव्यरसाः गाथाभिः अनन्तरोक्ताभिर्जातव्याः। द्वात्रिंशत्सूत्रदोषैर्यथाऽमीषां प्रादुर्भावस्तथा किंचिदुच्यते । तत्र-अलीकतालक्षणो यः सूत्रदोषस्तेनान्यतमो रसो निष्पद्यते । यथा-"तेषां कटितटभ्रष्टैगजानां मदबिन्दुभिः । प्रावर्चत नदी घोरा हस्त्यश्वरथवाहिनी।।१॥” इति । इदमलौकता रूपसूत्रदोषदुष्टम् । अत्र चाद्भुतो रमः। ततोऽनेनालीकतालक्षणेन सूत्रदोषेण अद्भुतो रसो निष्पन्नः। तथा-उपघातलक्षणेन सूत्रदोषेणान्यतमो रसो निष्पद्यते । यथा"स एव प्राणिति प्राणी, प्रीतेन कुपितेन च। वित्तैविपक्षरक्तैश्च, मीणिता येन दोसविहिसमुप्पण्णा गाहाहि मुणियव्वा ) अथ सूत्रकार इस पाठ द्वारा यह कह रहे हैं कि-इन अनन्तरोक्त गाथाओं द्वारा कहे गये ये नौ काव्य रस “अलियमुवघायजणयं निरस्थयभवत्थयं छलं दुहिलं" इन ३२ बत्तीस दोषों की विरचना से उत्पन्न होते हैं । ३२ सूत्र दोषों से जैसे इन नौ काव्य रसों की उत्पत्ति होती है उस विषय में थोड़ा सा कहा जाता है-अलीकता रूप जो सूत्र दोष है , उससे इन रसों में से किसी एक रस की निष्पत्ति इस प्रकार से होती है। जैसे-तेषां कटितटभ्रष्टैः गजानां मदविन्दुभिः। प्रावर्तत नदी घोरा हस्त्यश्वरथवाहिनी उन हाथियों के कटतट से निकली हुई मदविन्दुओं से एक थोर नदी बह निकली -जिसमें हाथी घोड़ा रथ और सेना बह गई। इस कथन में अलीकता दोष दुष्टता है । यही अद्भुत रस है । अतः इस अलीकतारूप सूत्रदोष से अद्भुत रस उत्पन्न हुआ है । तथा-"स હવે સૂત્રકાર આ પાઠ વડે આ પ્રમાણે કહે છે કે આ અનન્તરેત ગાથાઓ १४ ४ मा न ४०य २से। “अलियमुवघायजणयं निरत्थयभवत्थयं छलं दुहिल” मा मत्रीस होषानी पिश्यनाथी G५-- थाय छे. मत्रीस होषाथी જે પ્રમાણે નવ કાવ્યરસોની ઉત્પત્તિ થાય છે તે વિષે અહીં સામાન્ય રૂપમાં સ્પષ્ટતા કરવામાં આવે છે અલીતા રૂપ જે સૂત્ર દેષ છે, તેથી આ નવ सोमाथी ६४ २सनी निपत्ति मा शत थाय छे. २भ-" तेषां कटितटभ्रष्टैः गजानां मदबिन्दुभिः । प्रावर्तत नदीघोरा हत्यश्वरथवाहिनी ॥” त હાથીઓના કટિતટથી નિસુત થયેલ મદબિન્દુએથી એક મોટી નદી વહેવા લાગી–જેમાં હાથી, ઘોડા, રથ અને સેના (બધા) વહી ગયાં આ કથનમાં અલકતા રૂપ દેષ દુષ્ટતા છે. માટે આ અલકતારૂપ
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अनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र १७७ सलक्षणकरुणरसनिरूपणम् मार्गणाः॥१॥" इति । इदमुपघातरूपसूत्रहोषदुष्टम् । वीररसश्चात्र इत्थमुपघातरूपेण भूत्रदोषेण वीररसः समुत्पन्नः । इत्थमन्यत्रापि यथासंभवं मूत्रदोषनिष्पन्नो रसो बोध्यः । इदं तु 'एए नव कव्वरसा' इति गाथा मनुसृत्योक्तम् । तपश्चरणविषयस्य वीररसस्य प्रशान्तादिरसानां च अलीकादि सूत्रदोषानन्तरेणापि संभवादिति । पुनः कथंभूता अमी? इत्याह-एते रसा हि शुद्धा वा मिश्रा वा भवन्ति । कचित् काव्ये शुद्ध एक एव रसो भवति, कचित्तु द्वयादिरससंयोगो वा भवतीति एव प्राणिति प्राणी, प्रीतेन कुपितेन च वित्तर्विपक्षरक्तश्च प्रीणिता येन मार्गणा" वही प्राणी जीवित है। कि-जिसने प्रसन्न होने पर अपने द्रव्य से और कुपित होने पर अपने शत्रु ओं के खून से मार्गणों कोयाचकों को- और बाणों को सन्तुष्ट कर दिया है । अर्थात् प्रसन्न होने पर द्रव्य वितरण से याचकजनों को और कुपित होने पर शत्रुओं के शोणित से अपने शरों को तुष्ट कर दिया है । यह कथन उपघातरूप सूत्र दोष से दुष्ट है । यहां वीर रस है । इस तरह उपघातरूप सूत्र दोष से वीररस निष्पन्न होता है । इसी प्रकार से दूसरी जगह भी यथासंभव सूत्र दोष से निष्पन्न हुए रस जानना चाहिए । यह जो कहा है वह " एए नव कव्वरसा" इस गाथा को अनुसरण करके कहा गया है। तपश्चरण विषयक जो वीररस होता है, उसकी तथा और जो प्रशांत आदि रस है उनकी निष्पत्ति अलीकादि सूत्र दोषों के विना भी होती है । (सुद्धा वा मिस्सा वा हवंति) ये रस शुद्ध भी होते हैं सूत्रोपथी मसुत२५ ५न्न येत छ त “स एव प्राणिति प्राणी, प्रीतेन कुपितेन च। वित्तविपक्षरक्तैश्च प्रीणिता येन मार्गणा॥" ते પ્રાણી જ જીવિત છે કે જે પ્રસન્ન થાય છે ત્યારે પિતાના દ્રવ્યથી અને કુપિત થાય છે ત્યારે પિતાના શત્રુઓના લેહીથી અનુક્રમે માર્ગને-યાચકોને અને બાણેને પરિતૃપ્ત કરી દે છે. એટલે કે પ્રસન્ન થાય છે ત્યારે દ્રવ્ય વિતરણથી યાચકજનેને અને કુપિત થાય છે ત્યારે શત્રુઓના શેણિતથી પિતાના બને તેમ કરી દે છે આ કથન ઉપઘાત રૂપ સૂદેષથી દુષ્ટ છે. અહીં વીરરસ છે આ પ્રમાણે ઉપઘાત રૂપ સૂત્ર દેષથી વીરરસ નિષ્પન થાય છે. આ પ્રમાણે અન્યત્ર પણ યથાસંભવ સૂત્રદોષથી નિષ્પન્ન થયેલ રસ MINS मारे ४ामा मान्छे ते 'एए नव कव्वरसा" ॥ ગાથાને અનુસરીને કહેવામાં આવ્યું છે. તપશ્ચરણ વિષયક જે વીરરસ હોય છે તેની તેમજ પ્રશાંત વગેરે રસ છે તેમની નિષ્પત્તિ અલીકાદિ સૂત્ર દે १२ ५५ थाय छे. (सुद्धा वा मिस्सा वा वंति) मे २से शुद्ध ५५ डाय छ
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अनुयोगद्वारसूत्रे भावः। इत्थं वीरशृङ्गारादिभिर्नवभिर्नामभिरत्र विवक्षितस्य सर्वस्यापि रसस्याऽप्यभिधानान्नवनामेत्युच्यते । संप्रति प्रकृतमुपसंहरन्नाह-तदेतद् नानामेति॥मू.१७८॥
अथ दशनाम निरूपयतिम्लम्-से किं तं दसनामे ? दसनामे--दसविहे पण्णते, तं जहागोण्णे नोगोण्णे आयाणपएणं पाडिवक्खपएणं पहाणयाए अणाइ. सिद्धतेणं नामेणं अवयवेणं संजोगेणं पमाणेणं से किं तं गोण्णे ? गोण्णे-खमईत्ति खमणो, तव इति तवणो, जल इत्ति जलणो, पवइत्ति पवणो, से तं गोण्णे।से किं तं नोगोण्णे? नोगोण्णे-अकुंतो सकुंतो अमुग्गो समुग्गो अमुद्दो समुद्दो अलालं पलालं अकुलिया सकुलिया नो पलं असइत्ति पलासो अमाइवाहए माइवाहए अबीयवावए बीयवावए नो इंदगोवए इंदगोवए। से तं नोगोण्णे। से किं तं आयाणपएणं? आयाणपएणं आवंती चाउरंगिज असंखयं अहातथिजं अद्दइज्जं जण्णइयं पुरिसइजं उसुकारिजं एलइजं वीरियं धम्मो मग्गो समोसरणं जमईयं। से तं आयाणपएणं ॥सू० १७९॥ और मिश्र भी होते हैं । किसी काव्य में शुद्ध एक ही रस होता है और किसी काव्य में दो आदि रसों का संयोग होता है । इस प्रकार धीर, शङ्गार आदि नौ नामों से यहाँ विवक्षित सब भी रस का कथन हो जाता है । इससे नव नाम ऐसा कहा जाता है । (सेत्तं नवनामे) इस प्रकार यह नव नाम है। ॥ मू०१७८॥
અને મિશ્ર પણ હોય છે. કઈ પણ કાવ્યમાં શુદ્ધ રસ એકજ હોય છે અને કઈ કાવ્યમાં બે આદિ રસોનો સંગ હોય છે. આ પ્રમાણે વીર શૃંગાર વગેરે નવ નામથી અહીં વિવક્ષિત બધા રસનું કથન થઈ જાય છે. मेथी नवनाम' माम वामां आवे छे (से तं नवनामे) या प्रमाणे આ નવનામ છે. સૂ૦૧૭૮
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अनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र १७९ दशनामनिरूपणम् ___ छाया-अथ किं तत् दशनाम ? दशनाम दशविधं प्रज्ञप्तम् , तद्यथा-गौणम् , न गौणम् आदानपदेन प्रतिपक्षपदेन प्रधानतया अनादिकसिद्धान्तेन नाम्ना अवयवेन संयोगेन प्रमाणेन । अथ किं तत् गौणम् गौणम्-क्षमते इति क्षमणः, तपतीति तपनः, ज्वलतीति ज्वलनः, पवते इति पश्नः। तदेतद् गौणम् । अथ किं तत् नो गौणम् ? नो गौणम्-अकुन्तः शकुन्तः अमुद्गः समुद्गः अमुद्रः समुद्रः अलालं पलालं अकुलिका सकुलिका नो पलं अश्नाति इति पलाशः, अमा. सृवाहकः मातृवाहकः, अबीजवापकः बीजवापकः, नो इन्द्रगोपका इन्द्रगोपकः । तदेतत् नो गौणम् । अथ किं तत् आदानपदेन ? आदानपदेन-आवन्ती चतुरङ्गीयं असंस्कृतं याथातथ्यम् आर्द्रकीयं यज्ञीयम् , पुरुषीयम् , इषुकारीयम् , एडकीयम् , वीर्य धर्मः मार्गः समवसरणं यमतीतम् । तदेतत् आदानपदेन ॥ १७॥
टोका-'से कि तं' इत्यादि
अथ किं तदशनाम ? इति प्रश्नः । उत्तरयति-दशनाम-दशविधं नाम दशनाम, तद्धि दशविधं प्रज्ञप्तम् । दशविधत्वमेवाह-तद्यथा-'गौणं न गौणम्' इत्यारम्य प्रमाणेनेत्यन्तेन । तत्र दशविधे नाम्नि प्रथमस्य नाम्नः प्ररूपणाय शिष्यः पृच्छतिअथ किं तद् गौणम् ? इति। उत्तरयति-गौणम्-गुणैर्निष्पन्न-यथार्थमित्यर्थः
अब सूत्रकार दशनाम का निरूपण करते हैं"से किं तं दसनामे ?" इत्यादि। शब्दार्थ-(से किं तं दसनामे ) हे भदन्त ! वह दशनाम क्या है?
उत्तर-(दसनामे-दसविहे पण्णत्ते) दश विधरूप नाम दश प्रकार का कहा है । (तं जहा) उसके वे दश प्रकार ये हैं (गोण्णे नोगोण्णे) गौण नाम नोगौण नाम (आयाण पएणं) आदान पद निष्पन्न नाम (पडिवक्खपएणं) प्रतिपक्ष पदनिष्पन्न नाम (पहाणयाए) प्रधानतापद निष्पन्न नाम, (अणाइसिद्धतेणं नामेणं) अनादि सिद्धांत निष्पन्न माम, (अवयवेणं) अवयवय से निष्पन्न नाम (संजोगेणं) संयोग से
હવે સૂત્રકાર દશનામનું નિરૂપણ કરે છે– “से कि तं दसनामे" त्याशहाथ-(से किंतं दसनामे) 3 महन्त ! मा शनाम शुछ ?
उत्तर-(दसनामे-दसविहे पण्णत्ते) शिविध नाम शविध उपाय छे. (तंजहा) तना ते ४२ प्रा। मा प्रमाणे छ. (गोण्णे नोगोण्णे) गीरनाम नागौनाम (आयाणपएणं) माहान५: निष्पन्न नाम (पडिवक्खपएणं) प्रति. पक्ष ५६ निपन्न नाम (पहाणयाए) प्रधानता ५४ विपन्न नाम (अणाइ. सिद्धतेणं नामेणं) मना सिद्धान्त नि५- नाम, (अवयवेणं) अवयवथी
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ર
अनुयोगद्वारसूत्रे
तद्धि अनेकमकाम्, यथा- क्षमते इति क्षमः क्षागुण निष्पन्नत्वादस्य गौणत्वं बोध्यम् । एवं वदतीति तपनः जलतीति जलन, पकने पुनातीति वा पचनः saaraatवैर्निष्पन्नाः, अत एवैतेषां गत्वं विज्ञेयम् । एतदुपसंहरन्नाह तदेतद् गौणमिति । किं तद् नोगणम् इति प्रश्नः । उत्तरयति
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निष्पन्न नाम ( पमाणेणं) और प्रमाण से निष्पन्न नाम । ( से किं तं गोणे ) इन दशविध नामों में से प्रथम जो गौण नाम है, उसकी प्ररूपणा निमित्त शिष्य पूछता है कि- 'हे भदन्त ! गुणों से निष्पन्नयथार्थ -गौण नाम क्या है ?
उत्तर- (गोण्णे) वह गौण नाम इस प्रकार से है - ( खमईति खमणो, तवहन्ति तबणो जलइत्ति जलगो पवइति पवणो ) " क्षमते इति क्षमणः क्षमण ऐसा नाम क्षमा गुण से निष्पन्न हुआ है-अर्थात् जिसमें क्षमागुण होता है वह उस गुण से समन्वित होने के कारण “क्षमण" इस नाम वाला कहा जाता है। अतः यह नाम गुण निष्पन्न होने से गौण - यथार्थ नाम है । " तपतीति तपनः " जो तपता है उसका नाम तपन - सूर्य है । "तान " यह नाम तपन गुण को लेकर निष्पन्न हुआ है अतः तपन गुण निषन्न यह नाम गौण है । " ज्वलतीतिज्वलनः ज्वलन यह नाम जो जलता है दीपित होता है-इस गुण को लेकर हुआ है । इसी प्रकार से "पवते इति पवनः" यहां पर भी
"
निष्यन्तनाम, (संजोगेणं) सयोगथी निष्पन्न नाम ( पमाणेण) मने प्रभाणुश्री निष्पन्न नाम (से किं तं गोण्णे) या दृशविध नाभीभांधी प्रथम ने गोगु નામ છે, તેની પ્રરૂપણા માટે શિષ્ય પ્રશ્ન કરે છે કે છે ભદન્ત ! શુભેાથી निष्यन्न- यथार्थ -गौशुनाम शुद्ध छे ? (गोण्णे).
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उत्तर-ते गौशु नाम मा प्रमाणे छे (खमईत्ति खनगो तत्र त्ति तव 1. अल इत्ति जलणो पत्रइत्ति पवणो ) " क्षमते इति क्षमणः " ક્ષમ વુ' નામ ક્ષમા ગુણુથી નિષ્પન્ન થયેલ છે-એટલે કે જેમાં ક્ષમા ગુગુ હાય છે તે ક્ષમા ગુણથી સમન્વિત હેાવા બદલ ક્ષમણું આ નામથી સમેધિત કરવામાં आवे छे. आ नाम शुशु निष्पन्न होवाथी गौथु - यथार्थ - नाम छे " तपतीति तपनः "मे तये छे तेतु नाम सूर्य छे " तपन " નામ તાન ગુણુને લઈને નિષ્પન્ન થયેલ છે, માટે તપન ગુઝુ નિપુ! આ નામ ગૌણુ નામ छे. " ज्वलतीति ज्वलनः :, જ્વલન આ નામ જે પ્રલિત હાય દે દીપિત હાય તે
वाय हे. या प्रमाये " पवते
इति पत्रनः " गडी यागु
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अनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र १७९ दशनामनिरूपणम् नोगौणम्-यन्नाम गुण ननपेक्ष्यैव प्रार्तते, तद् नोगोणम्-अयथार्थ मित्यर्थः । तद्यथा-अकुंने सकुंते इति । कुन्तालयशस्त्ररहितोऽपि 'सकुंत' इत्युच्यते । इदमुदा. हरणं प्राकृतशैल्या निझेनन् । संस्कृते पक्षिवाचकस्य शान्तशब्दस्य तालशकारवत्वात् ' अमुद्गः समुद्गः, अमुद्रः समुद्र इति । मुद्गाख्यधान्यरहितोऽपि पेटिकाजानना चाहिये। इस प्रकार तपन, ज्वलन, पवन रूप गुणों से निष्पन्न होने के कारण ये सब नाम गौण निष्पन्न नाम जानना चाहिये। (से तं गोण्णे) इस प्रकार यह गौण नाम का स्वरूप कथन है। (से कितं नो गोण्णे ?) हे भदन्त ! नोगौण नाम क्या है ? - उत्तर-(नोगोण्णे ) नोगौण-जो नाम गुणों की अपेक्षा किये विना ही निष्पन्न होता है अर्थात् अयथार्थ होता है-वह इस प्रकार से
(अकुंगो सकुंनो अमुग्गो, समुग्गो, अमुद्दो, सशुदो , अलालं , पलालं, अकुलिया सकुलिया, नो पलं अस इत्ति पलासो, अमाइवा. हए माइवाहए, अबीयवावए वीयवावर नो इंदगोवए इंदशोवए) "सकुन्त" यह नाम अयधार्थ नाम है । क्यों कि कुन्त नामक शस्त्र से जो युक्त होता है वही सकुन्त होना चाहिये । यह "सकुन्त" शब्द प्राकृत शैली से लिखा गया है। संस्कृत में "सकुन्त" की जगह "शकुन्त" ऐसा शब्द है । इसका अर्थ पक्षी होता है। पक्षी कुन्त भाले वाला नही होता है-फिर भी उसे जो "शकुन्त" कहा जाता है , सो यह उसका नाम “नोगौण" अगुण निष्पन्न नाम है । " अमुद्दः समुद्र જાણવું જોઈએ આ રીતે તપન, જવલન, પવન રૂપ ગુણોથી નિપન્ન હોવા मंहस मा स नाभाने गौर नाम सभा म (से तं गोण्णे) मा प्रभा मा जो नामर्नु २१३५ ४थन छ (से किं तं नो गोण्णे ?) महन्त। ન ગણનામ શું છે? ... उत्तर-(नो गोण्णे) नो गौ-२ नाम मुशानी अपेक्षा ११२ निष्पन्न थाय छ मेरो यथाथ डाय छे-ते या प्रमाणे छे. (अकुंतो सकुंतो अमुग्गो, समुग्गो, अमुद्दो समुद्दो, अलालं, पळालं, अकुलिया, सकुलिया, नो पलं अस इत्ति पलासो, अमाइवाहए माइवाहए, अबीयवावए बीयवावए नो इंद गोए
गोव) "सकन्त" 24नाम अयथार्थ छ म त नाम शखथी २ मा युतीय छे ते सन्त
सकुन्त " शv प्राकृत शैलीथी मामा मान्य छे. सतभा “ सकुन्त" ना स्थान "शकुन्त " प्रयोग थाय छ, माने। मर्थ पक्षी थाय छे पक्षी हुन् युत એટલે કે ભાલાવાળું હેતું નથી છતાં એ તે “શકુન્ત” કહેવાય છે તો તેને नाम . “नोगौण" सगुण नियन्न नाम छे. "अमुद्गः” “समुद्गः" समुहू
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अनुयोगद्वारसूत्रे विशेषः समुद् इन्युच्यते । मुद्रया अङ्गुलीयकेन रहितोऽपि पयोनिधिः समुद्र इत्युच्यते । 'अलालं पलालं अकुलिया सकुलिया' इति । लालारहितमपि पलालं' प्रचुरलालायुक्तमुच्यते । पलालं-धान्यरहितस्तृणविशेषः । कुलिका भित्तिः, तद्रहिताऽपि पक्षिणी सकुलिकेत्युच्यते । एतद्वयमुदाहरणम्-पाकृतशैल्या बोध्यम् । तथा-यः पलं-मांसं नो अश्नाति सोऽपि पलाश इत्युच्यते । पलाशो वृक्षविशेषः । अमातृवाहकोऽपि-मातरमवहन्नपि मातृवाहक इत्युच्यते। अबीजवापका-वीजा. समुद्ग नाम कटोरदान पेटिका विशेष का है। वैसे तो जो मुद्ग-मूंग नामक धान्य से युक्त हो, उसे समुद् कहना चाहिये-परन्तु मुद्गनामक धान्य से रहित होने पर भी जो समुद् ऐसा नाम है , यह नोगौण नाम है। समुद्र यह नाम मुद्राअंगूठी-से जो युक्त हो, वह समुद्र है, परन्तु-सागर का यह नाम मुद्रा से युक्त न होने पर भी जो निष्पन्न हुआ है। वह नोगोण नाम है। प्रचुर लार युक्त जो हो उसका नाम पलाल है। परन्तु पलाल-पिंयार धान्य रहित घास विशेष-प्रचुर लार युक्त होने के अभाव में भी जो इस नाम से कहा जाता है वह उसका नाम नोगौण नाम है । कुलिक-भित्ति-से जो युक्त हो उसका नाम सकुलिक है । परन्तु सकुलिक का ऐसा नाम जो-पक्षिणी का है, वह नोगौण नाम है। पलाश एक वृक्ष होता है । यह उसका नाम नोगौण नाम है । क्योंकि पल-मांस को जो खाता है' वह पलाश है। ऐसा शान्दिक अर्थ इसमें घटित नहीं होता है। मातृवाहक ऐसा नाम माता
નામ કરદાન-પત્રિકા વિશેષનું છે. આમ તે જે મુદ્દગ-મગ નામે ધાન્યથી યુક્ત હોય છે તે જ સમુદ્ગ કહેવાય છે પણ મુદ્ગ નામક ધાન્યથી રહિત હોવા છતાં જે આ સમુદ્ગ એવું નામ છે, એ નેગૌણ નામ છે સમુદ્ર આ નામ મુદ્રા-વટીથી જે યુકત હોય તે સમુદ્ર છે–પરંતુ મુદ્રા-વીંટી-થી યુકત ન હોવા છતાં એ સાગરનું આ નામ નિપન્ન થયેલ છે તે નાગૌણ નામ છે પ્રચુર લાળથી જે યુકત હોય તેનું નામ પલટલ છે. પણ પલાલપિયાર ધાન્ય રહિત ઘાસ વિશેષ-પચુર લાળથી રહિત હોવા છતાં એને આ નામથી સંબંધિત કરવામાં આવે છે, તેથી તેનું પલાલ નામ નેગૌણ નામ છે. કુલિક-ભિત્તિ-થી જે યુકત હોય તેનું નામ સકલિક છે. પણ સકુલિકા એવું નામ જે પક્ષિણીનું છે તે ગૌણ નામ છે. પલાશ એક વૃક્ષ હોય છે તેનું પલાશ નામ ગૌણ નામ છે. કેમકે પલ-માંસને જે ખાય છે તે પલાશ છે એવા પલાશ શબ્દને અર્થ આમાંથી ઘટિત થતું નથી માતવાહક
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अनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र १७९ दशनामनिरूपणम्
१७
नवपन्नपि बीजापक इत्युव्यते । नो इन्द्रगोपकः = इन्द्रस्य गा अपालयन्नपि इन्द्रगोप इत्युच्यते । मावाहकादयस्त्रयः शब्दाः क्षुदकीटवाचकाः । सकुंतादयः शब्दा अगुणनिष्पन्नाः, अत एवैते नोगणनामान्तर्गताः । प्रकृतमुपसंहरन्नाह - तदेतद् नोगौणमिति । तृतीयं भेदं जिज्ञासमानः शिष्यः पृच्छति - अथ किं तत् आदानपदेन ? इति | आदानपदेन आदीयते-अध्ययनस्यारम्भे यदुच्चार्यते तदादानम् = प्रथमोच्चारितं तच्च तत्पदं चेस्यादानपदं तेन यन्नाम निष्पद्यते तत् किम् ? इत्यर्थः । उत्तरयति आदानपदेन यन्नाम निष्पद्यते तदेवं विज्ञेयम् । तथाहि आवन्ती
·
को कंधे पर वहन नहीं करने पर भी जो कहा जाता है, वह भी नो गौण नाम है। बीजों को नहीं बोने पर भी जो बीज बापक ऐसा नाम हैं, वह नोगौण नाम है । इन्द्रगोर नाम का एक कीट विशेष होता है । यह इन्द्र की गायों को पालना नहीं करता है, फिर भी इन्द्रगोप ऐसा इसका नाम जो पड़ा है वह नो गौण नाम- अयथार्थ नाम है । मातृवाहक, बीजवापक ये दो नाम भी क्षुद्र कीटविशेष के हैं । ये 'सकुन्त आदि शब्द अगुण निष्पन्न हैं । इसलिये इनका अन्तर्भाव aritr नाम में किया गया है । ( से तं नोगोणे ) इस प्रकार यह नागौण नाम है । (से किं तं आघाणपणं) हे भदन्त ! आदानपद् से जो नाम निष्पन्न होता है - वह क्या है ?
उत्तर- (आगाणपणं- आवंती चाउरंगिज्जं असंखयं अहातस्थिज्जं अछहज्जं जण्णइज्जं पुरिसइज्जं उसुकारिज्जं एलइज्जं वीरियं धम्मो मग्गोसमो मरणं जभईयं) अध्ययन के आरम्भ में जो पद उच्चारित
એવુ નામ માતને ખભા પર વહન ન કરવા છતાં એ જે કહેવાય છે તે પણ ને ગૌણ નામ છે ખીજને ન વાવવા છતાં એ બીજઞાપક એવું નામ છે. તે નાગૌણુ નામ છે ઈન્દ્રગેપ નામે એક કીટ વિશેષ છે. તે ઈન્દ્રની ગાયાનુ પાલન કરતા નથી છતાં એ ઇન્દ્રગેાપ કહેવાય છે, તે તેનું આ નામ નાગૌણુ નામ- અયથ નામ છે માતૃવાહક, ખીજવાપક આ બે નામા પણ ક્ષુદ્ર કીટ વિશેષતા છે. આ સકુન્ત વગેરે શબ્દો અગુણુ નિષ્પન્ન છે એથી भेन। अन्तर्भाव नोगो नाममा ४२वामां आव्या हे, (से तं नो गोणे) या प्रमाणे या नो गोधु नाम छे, (से किं तं आयाणपणं) हे लत ! આદાનપદથી જે નામ નિષ્પન્ન થાય છે તે શું છે?
उत्तर- (आयाणवणं आवंती चाउरंगिज्जं असंखयं अहातत्थिज्जं अद्दइज्जं जणइज्जं पुरिसइज्जं उनुकारिज्जं एलइज्जं वीरियं धम्मो मग्गो समोसरणं जमईयं) अध्ययननां आलम ने पहउयस्ति थाय छे, ते 'आहान यह ' छे
अ० ३
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अनुयोगद्वारसूत्रे -इति, आचाराङ्गस्य पञ्चमाध्ययनमारम्भे 'आवंती केयावंती' इत्यालापको वर्तते, अत इदमध्ययनम्-'आवंती' इत्युच्यते। 'चाउरंगि' इति, उत्तराध्ययनस्थ तृतीयाध्ययनपारम्भे-'चत्तारि परमंगाणि दुल्लहाणीह जंतुणो' इत्युक्तम्, तत्रस्थं पदद्वयमादायेदमध्ययनं 'चाउरंगिज्ज' इत्युच्यते । 'असंखय' इति, उत्तराध्ययनस्य चतुर्थाध्ययनमारम्भे 'असंखयं जीवियं मा पमायए' इत्यस्ति, तत्स्थम् 'असंखयं' इत्युच्यते । 'अहातथिज्ज' इति, मूत्रकृताङ्गस्य त्रयोदशाऽध्ययनमारम्भे-'जह सुत्तं तह अत्थो' इति वर्तते, तत्स्थं 'जह तह' इति पदद्वयमुपादायेदमध्यनम्'अहातथिज्जं' इत्युच्यने । 'अदइज्ज' इति, मुत्रकृताङ्गस्य द्वितीयश्रुतस्कन्धस्यहोता है, वह 'आदान पद' है । इस पद से जो नाम निष्पन्न होता है, वह आदान निष्पन्न नाम है। वह इस प्रकार से है-आवन्ती-आचाराङ्ग के पांचवें अध्ययन के प्रारम्भ में “आवंती केयावंती" ऐसा आलापक है। इसलिये आवन्ती पद को लेकर इस अध्ययन का नाम "आवंती" ऐसा हुआ है। उत्तराध्ययन के तृतीय अध्ययन के प्रारम्भ में "चत्तारि परमंगाणि दुल्लहाणीह जंतुणो) ऐसा कहा है , सो वहां के पदद्वय को लेकर इस अध्ययन का नाम " चाउरंगिज्ज" ऐसा हुआ है। उत्तराध्ययन के चतुर्थ अध्ययन के प्रारम्भ में " असंखयं जीवीयं मा पमायए" ऐसा कहा है, सो " असंखयं" इस पद को लेकर अध्ययन का नाम " असंखयं " ऐसा हो गया है। सूत्र कला के १३ वें अध्ययन के प्रारम्भ “में जहसुत्तं तह अत्थो" ऐसा कहा है, सो वहां के "जह तह" इन दो पदों को लेकर "जह तह" ऐसा उस अध्ययन આ પદથી જે નામ નિષ્પન્ન થાય છે. તે આ નિષ્પન્ન નામ उपाय छ, ते मा प्रमाणे छ-माता-मायारांगना पांयमा मध्याયના પ્રારંભમાં “આવંતી કે યાવંતી” આલાપક છે માટે આવંતી પદથી લઈને આ અધ્યયનનું નામ “આવંતી” એવું રાખવામાં આવ્યું છેઉત્તરાध्ययनना श्रीan अध्यायन प्रारममा “चत्तारि परमंगाणि दुल्लहाणीहजंतुणो" આમ કહેવામાં આવ્યું છે તે ત્યાંના પદયના આધારે આ અધ્યયનનું નામ " चाउरंगिज" वामां माथ्यु छे उत्त२.ध्ययनना यतु अध्ययनना प्रार ममा “असंखयं जीवीयं मा पमायए " आम ४ाम भाव्यु छ त। " असंखयं" भा पहने दीधे अध्ययन नाम “असंखयं" से 5 युछे. सूत्रतांना तरमा मध्ययनना प्रारममा "जहसुत्तं तह अत्थो” माम अहवामां मायूछे, तो त्यांना “ जहतह" मा में होने दीधे “ जहतह"
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अनुयोगन्द्रिका टीका सूत्र १७९, दशनामनिरूपणम् षष्टाध्ययनपारम्भे-'पुराकड अदइमे सुणेह' इत्यादि गाथाऽस्ति, तत्स्थम् 'अद्द' इति पदमादाय इदमध्ययनम् अदइज्ज' इत्युच्यते। उक्तश्च-'अद्दपुरा अहसुभो, नामेण अदगो य अणगारो ! ततो समुद्दियभिणं, अज्झयणं अद्दइज्जति" ॥१॥ 'जण्णइज्ज' इति, उत्तराध्ययनस्य पश्चविंशतितमाध्ययनपारम्भे-'माहणकुलसंभूओ, आसी विप्पो महाजसो। जायाई जम्मजण्णम्मि, जयघोसित्ति नामओ' इति गाथाऽस्ति, तत्स्थं 'जण्ण' इति पदमादायेदमध्ययनं 'जण्णीयं' इत्युच्यते । 'उसु. यारिज्' इति. उत्तराध्ययनस्य चतुर्दशाध्ययनमारम्भे-'देवा भवित्ता णपुरे भवम्मि, केईचुया एग विमाणवासी । पुरे पुराणे उसुयारनामे, खाए समिद्धे सुरलोगरम्मे' इति गाथास्ति, तत्स्थम्-'उनुयार'-पदमादायास्याध्ययनस्य नाम 'उसुयारिज्ज' बोध्यम् । 'एलइज्ज' इति, उत्तराध्ययनस्य सामाध्ययनमारम्भे-'जहाएसं समुदिका नाम हो गया है। सूत्रकृताङ्ग के द्वितीय श्रुतस्कंध के छठे अध्ययन के प्रारम्भ में 'पुराकडं अद्दइमं सुह' ऐसी गाथा है, सो वहां के अग पद को लेकर इस अध्ययन का नाम " अद्दहज्ज" ऐसा हो गया है। उत्तराध्ययन के २५ वें अध्ययन के प्रारम्भ में “माहणकुलसंभूओ आसी विप्पो महाजमो जाबाई जम्भजण्णम्मि जयघोसोत्ति नामओ" ऐसी गाथा है। उस गाथास्थ 'जण्ण" इस पद को लेकर यह अध्ययन " जण्णीय" इस नाम से कहा गया है। उत्तराध्ययन के चौदहवें अध्ययन के प्रारम्भ में " देवा भचित्ताण पुरे भवम्मि, केईचुया एग विमाण वासी । पुरे पुराणे उसुयारनामे खाए समिद्धे सुरलोगरम्मे" ऐसी गाथा है । उसके ' उसुधार ' इस पद को लेकर इस अध्ययन का नोम " उसुशारिजन' हुआ है । उत्तराध्ययन के सप्तम अध्यय के એવું તે અધ્યયનનું નામ રાખવામાં આવ્યું છે, સૂત્રકૃતાગના દ્વિતીએ श्रुत २४ घना ७४१ मध्ययनना प्रारममा "पुराकडं" अहइमं सुणेह' मेवी गाथा छ तो त्यांना '६५४'ने सन अध्ययननु नाम "अदइज्ज" मे ७ आयु छ. उत्तराध्ययनना २५ मा अध्ययनना प्रारममा "माहणकुलसंभूओ आसी विप्पो महाजसो जायाई जनजण्णम्नि जयघोस्रो ति नामओ" मेवा ॥॥ छ. २ आयामां आवेस "जण्ण" ५६ने धन ! अध्ययन "जण्णीय" AL नामयी समाधाय छे. उत्तराध्ययनना १४ मा अध्ययनना प्रारमना “ देवा भविताण पुरे भवन्मि, केई चुया एग विमाणवासी । पुरे पुराणे उसुयारन मे खारसमिद्दे सुरलोगरम्मे" मेवी या छे. तेना उसुयार' ५४थी मा अध्ययननु नाम 'उसुयारिज्ज' छ. उत्त२॥ध्ययनमा सातमा
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अनुयोगद्वारसूत्रे
स, कोइ पोसेज्ज एलये ' । इत्यादि गाथाऽस्ति । अत्रस्थमू - 'एल' पदमादायेदमध्ययनम् 'एलइज्जं' इत्युच्यते । 'वीरियं' इति । 'दुहा वेयं सुक्खायं वीरियंति इत्यादि गाथा सूत्रकृताङ्गस्याष्टमाध्ययनमारम्भेऽस्ति, अत्रत्यं - ' वीरियं' इति पदमादाय इदमध्ययनं ' वीरियज्झयणं' इत्युच्यते । 'धम्बो' इति । सूत्रकृताङ्गस्य नवमाध्ययनारम्भे- 'कयरे धम्मे अक्खाए माहणेण मईमया ||" इत्यादि गाथाऽस्ति, अत्रत्यं 'धम्म' इति पदमादाय अस्य अध्ययनस्य 'धम्मज्झयणं' इति संज्ञा कृता 'मग्गो' इति सूत्रकृताङ्गस्य एकादशाध्ययन प्रस्तावे - ' कयरे मग्गे अक्खाए माहणं मईया - इत्यादि गाथा वर्त्तते, अत्रत्थं 'मग्ग शब्दगुपादाय - अस्याध्ययनस्य ' मग्गज्झयणं' इति नाम कृतम् । तथाऽस्यैव द्वादशास्तावे ' चत्तारि प्रारम्भ में " जहा एसं समुद्दिस कोइ पोसेज्ज एलयं " इत्यादि गाथा है | इस गाथास्थ " एल " पद को लेकर इस अध्ययन का नाम एलइज्ज " ऐसा हुआ है। "दुहावेयं लुक्वायं वीरियंति प च्चइ " इत्यादि गाथा सूत्रकृताङ्ग के अष्टम अध्यय के प्रारंभ में है । सो उसके " वीरिय " इस पद को लेकर यह अध्ययन वीरियज्झ. यणं " इस नाम से कहा गया है । सूत्रकृताङ्ग के नौवें अध्ययन के प्रारम्भ में " कमरे धम्मे अक्खाए माहणे ग मईया" इत्यादि गाथा है । उसके धम्म " इस पद को लेकर इस अध्ययन का यणं" ऐसा नाम हुआ है । सूत्रकृताङ्ग के ११ वें अध्ययन के प्रस्ताव में "करे मग्गे अक्खाए माहणेणं मईमया" इत्यादि गाया है। सो वहां के " मग्ग " इस शब्द को लेकर इस अध्ययन का नाम " मग्गज्झ
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અધ્યયનના પ્રાર’ભમાં जहा एसं समुद्दिस कोइ पोसेज्ज एलय " वगेरे गाथा छे, या गाथामां आवे 'एलय'' पहना सधारे मा अध्ययननु नाम " एलइज्ज" मेवु छे, दुहावेयं सुक्खायं वीरयति पबुच्चइ " वगेरे गाथा सूत्रङ्कृतांगना अष्टम अध्ययनना प्रारंभ हे ते तेना "वीरिय" या पहना आधारे मा अध्ययन " वीरियज्झयणं" मा नाभथी हेवाय छे.
સૂત્રકૃતાંગના નવા અધ્યયનના પ્રારંભમાં " कयरे धरमे अक्खाए माहणेण मई मया " वगेरे गाथा छे तेना ધર્મ આ પત્રને લઇને આ अध्ययनतुं " धम्मज्झयणं ” એવું નામ રૉખવામાં આવ્યું છે. સૂત્રકૃતાંગનાં ૧૧ મા અધ્યયનના પ્રસ્તાવમાં ' कयरे मग्गे अक्खाए माइणेगं मईमया " વગેરે ગાથા છે. તા તેમાંના ” શબ્દને લઇને આ અધ્યયનનું નામ
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मग्ग
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'धम्मज्ज्ञ
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अनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र १७९ दशनामनिरूपणम्
समोसरणाणि माणि' इत्यादि गायाऽस्ति तत्रत्यं 'समोसरणाणि' इति पदमादायस्याध्ययनस्य 'समोसरणज्झयणं ' इति नामकृतम् । अस्यैव सूत्रस्य 'आयाणिय ज्झयण' नामकं पञ्चदशमध्ययनं 'जमईये' इत्यप्युच्यते । तत्र हेतुस्तु अध्ययनार म्भे या 'जमईये पपन्नं' इत्यादि गाथास्थं 'जमईये ' इति पदं बोध्यम् । संपति प्रकृतमुपसंहरन्नाह - तदेतत् आदानपदेनेति ॥ १७९॥
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मूलम् - से किं तं पडिवक्खपणं ?, पडिक्क्खपणं नवेसु गामागरणयरखेड कब्बड मडंब दोहमुहपट्टणासम संवाहसन्निवेसे सु संनिविस्समाणे असिवा सिवा अग्गी सीयलो विसं महुरं कलालघरे अंबिलं साउयं जे रत्तए से अलतए जे लाउए से अलाउए जे सुंभय से कुसुंभए आलवंते विवली अभासए । से तं परिणं । से किं तं पाहण्गयाए ? पाहण्णयाएअसोगवणे सत्तवण्णवणे चंपगवणे चूअवणे नागवणे पुन्नागवणे उच्छ्रवणे दक्खवणे सालिवणे, से तं पाहण्याए । से किं तं यण " ऐसा किया गया है। तथा इसी के द्वादश अध्ययन के प्रारम्भ में " चत्तारि समोसरणाणि माणि " इत्यदि गाथा है । सो वहां के समोसरणाणिमाणि इस पद को लेकर इस अध्ययन का नाम “समोसरणज्झगणं " ऐसा हो गया है। इसी सूत्र का " आयाणियज्ज्ञपण नाम का १५ वां अध्ययन जमइयं " इस नाम से भी कहा जाता है। सो इसका कारण यह है कि अध्ययन प्रारम्भ में “जमईयं पपन्नं" इत्यादि गाथा में "जमईये " यह पद है! (सेतं आयापए) इस प्रकार यह आदान पद से निष्पन्न नाम है ।। सूत्र० १७९ ।।
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એજ સૂત્રના ખારમા અધ્યमाणि” वगेरे गाथा छे, तो आधारे श्री अध्ययननुं नाभ
गज्झणं ” રાખવામાં આવ્યું છે તેમજ મનના પ્રારંભમાં " चत्तारि समोसरणाणि तेभांना "समोसरणाणि माणि " मा पढना " समोसरणज्झयणं" होवु रामदामां मायुं छे. या सूत्रना - "आयाणियज्झयणं" नामः १५भु अध्ययन " जमइयं " नाभथी पशु हेवाय छे, तेनुं अणु से છે કે મા અધ્યયનના પ્રારભમાં जमईथं पडुपन्नं " ” વગેરે ગાથામાં आवेस" जमइयं "छे (सेतं आयाण पए) मा प्रभा मा साहान પદથી નિષ્પન્ન નામ છે. સૂ॰૧૭૯ના
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अनुयोगद्वारसूत्रे अणाइसिद्धतेणं? अणाइसिद्धतेणं-धम्मस्थिकाए अधम्मत्थि. काए आगासत्थिकाए जीवत्थिकाए पुग्गलत्थिकाए अद्धासमए, से तं अणाइयसिद्धतेणं। से किं तं नामेणं? नामेणं पिउपियामहस्त नामेणं उन्नामिजइ । से तं जाणं । से किं तं अबयवेणं ? अवयवेणं-सिंगी सिही विसाणी, दाढी पक्खी खुरी नहीं बाली। दुपयचउप्पयबहुपया, नंगुली केसरी कउही । परियरबंधेग भडं, जागिजा महिलियं निवसणेणं ॥१॥ सित्येणं दोणवायं कविं च इक्काए गाहाए॥से तं अवयवेणं ॥सू० १८०॥ ____ छाया-अथ किं तत् प्रतिपक्षपदेन ? प्रतिपक्षपदेन नवेषु ग्रामागरनगरखेटकर्बटमडम्बद्रोणमुखपत्तनाश्रमसंबाधा निवेशेषु सन्नि वेश्यमानेषु, अशिवा शिवा, अग्निः शीतलः, विषं मधुरं, कल्यपालगृहेषु अग्लं स्वादुकं, यो रक्तः सः अरक्तः, यद्लाबु तद् अलाबु, यः सुम्भकः स कुसुम्भकः, आलापन् विपरीतभाषकः, तदेतत् प्रतिपक्षपदेन । अथ किं तत् प्रधानतया ?? प्रधानतयाअशोकवनं सप्तपर्णवनं चम्पकवनं आम्रवणं नागवनं पुन्नागवनं इक्षुवणं, द्राक्षावणं शालिवनम् । तदेतत् प्रधानतया। अथ किं तन् अनादिसिद्धान्तेन ? अनादिसिद्धान्तेन-धर्मास्तिकायः अधर्मास्तिका यः आकाशास्तिकायः जीवास्तिकायः पुद्गलास्तिकायः अद्धासमयः । तदेतत् अनादिसिद्धान्तेन । अथ किं तत् नाम्ना ? नाम्ना-पिपितामहस्य नाम्ना उन्नाम्यते । तदेतत् नाम्ना । अथ किं तत् अवयवेन?,२ अवयवेन-शृङ्गी, शिखी, विषाणी, दंष्ट्री, पक्षी खुरो नखी बाली। द्विपदचतुष्पदबहुपदाः लागली केसरी ककुदी। परिकरवन्धेन भटं जानीयात् महिलां निवसनेन । सिक्थेन द्रोणपाकं कविंच एकया गाथया । तदेतत् अवयवेन।।मू.१८०॥
"से किं तं पडिव क्खपएणं ?" इत्यादि।
शब्दार्थ-(से किं तं पडिवक्खपएणं ) हे भदन्त ! प्रतिपक्षपद से निष्पन्न हुआ नाम क्या है ?
" से किं तं पडिवखपणं ?" त्या
२४ा-(से किं तं पडिवक्खपएण) , महन्त ! प्रतिपक्ष ५४थी निष्पन्न થયેલ નામ શું છે?
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अनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र १८० प्रतिपक्षनामनिरूपणम्
टीका- 'से कि तं' इत्यादि
अथ किं प्रतिपक्षपदेन ? इति शिष्य प्रश्नः। उत्तरयति-प्रतिपक्षपदेन विवक्षितवस्तुधर्मस्य विपरीतो धर्मः प्रतिपक्षस्तद्वाचकं यत्पदं तेन यन्नाम निष्पद्यते तदेवं विज्ञेयम्-नवेषु-नवीनेषु ग्रामाकरनगरखेटकर्बटमडम्बद्रोणमुखपट्टणाश्रमसं. बाधसन्निवेशेषु-तत्र-ग्रामः-वृतिवेष्टितः, आकरः सुवर्णरत्नाद्युत्पत्तिस्थानम् , नगरम् अष्टादशकरवर्जितम् , खेट-धूलिपाकारपरिक्षिप्तम् , कर्बर्ट-कुनगरम् , मडम्बं= सार्द्धकोशद्वयान्तामान्तररहितम् , द्रोणमुखं जलस्थलपथोपेतो जननिवासः, ___उत्तर-(पडिवखपएणं ) विवक्षित वस्तु के धर्म का जो विप. रीत धर्म है, वह प्रतिपक्ष शब्द का वाच्यार्थ है। इस प्रतिपक्ष का वाचक जो पद है, उस पद से जो नाम निष्पन्न होता है वह प्रतिपक्षपद निष्पन्न नाम है। वह इस प्रकार से है-(नवेसु गामागरणयरखेडकब्बडमडंबदोणमुहपट्टणासमसंबाहसन्निवेसेसु) नवीन, वृति वेष्टितस्थान रूप ग्राम, आकर, नगर, खेट, कर्बट, मडम्ब, द्रोणमुख, पत्तन, आश्रम, संबाह, और सन्निवेश इनके बसाये जाने पर मंगल के निमित्त ( असिवा सिवा ) अशिवा की जगह 'शिवा' ऐसा शब्द कहते हैं। जहां चारों ओर कांटों आदि की बाड़ लगी रहती है, उसे 'ग्राम' कहते हैं । सुवर्ण रत्न आदि की जो उत्पत्ति का स्थान होता है, वह 'आकर' कहलाता है। १८ प्रकार के कर से जो मुक्त होता है, वह 'नगर' कहलाता है। जिस की चारों ओर धूलि का कोट होता है, वह 'खेट' कहलाता है। कुत्सित जो नगर होता है, वह 'कर्बट' कह
उत्तर-(पडिवक्ख प एण) विवक्षित परतुना भने २ विपरीत ध छ, તે પ્રતિપક્ષ શબ્દને વાચ્યાર્થ છે. આ પ્રતિપક્ષનું વાચક જે પદ છે, તે પદથી २ नाम निपन्न थाय छ, (नवेसु गामागरणयरखेडकब्बडमडंबदोणमुहपट्टणासमसंवाहसन्निवेसेसु) नवीन वृत्ति ष्टित स्थान ३५ श्राम, ५ ४२, नगर, पेट, ४, मम, दामु पत्तन, माश्रम, स भने सन्निवशने सावधामा मा छे त्यारे भ निमित्त (असिवा सिवा) 'शि. વાને સ્થાને “શિવા એ શબ્દ ઉચ્ચારિત કરવામાં આવે છે. જ્યાં ચોમેર કાંટાઓ વગેરેની વાડ કરવામાં આવે છે તેને ગ્રામ કહે છે સુવર્ણ, રત્ન વગેરે જ્યાં ઉત્પન્ન થાય છે. તે સ્થાન “આકર” કહેવાય છે અઢાર જાતના ટેકસ (કર) થી જે મુક્ત હોય છે તે “નગર” કહેવાય છે. જેના મેર માટીનો કોટ હોય છે તે “ખેટ” કહેવાય છે. જે નગર કુલિત હોય છે તે
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अनुयोगद्वारसूत्रे पत्तनं समस्तवस्तुप्राप्तिस्थानम् , तद् द्विविध भवति-जलपत्तनं स्थलपत्तनं चेति, नौभियंत्र गम्यते तज्जलपत्तनं, यत्र च शकटादिभिर्गम्यते तत्स्थलपत्तनम् , यद्वाशकटादिभिन! भिर्वा यद् गम्यं तत् पत्तनं, यत् केवलं नौभिरेव गम्यं तत् पट्टनम् । उक्तंच-"पत्तनं शकटैगम्यं, घोटकै नौंभिरेव च ।
__नौभिरेव तु यद् गम्यं, पट्टनं तत् प्रचक्षते ॥इति । निगमः प्रभूततरवणिग्रजननिवासाः, आश्रम: तापसैरावासितः पश्चादपरोऽपि लोकस्तत्रागत्य वसति, संवाहः कृपीवलैधान्यरक्षार्थ निर्मितं दुर्गभूमिस्थानम् , लाता है । ढाई कोश तक जिप्लके आस पास में कोई गांव नहीं होता है, वह 'मडम्ब' कहलाता है । जिसमें जाने के लिये जलमार्ग और स्थल मार्ग, ये दोनों ही मार्ग होते हैं, ऐसे जननिवास का नाम 'द्रोण. मुख' है। समस्त वस्तुभों की प्राप्ति का जो स्थान होता है, वह 'पत्तन' कहलाता है । यह दो प्रकार का होता है-एक जलपत्तन और दूसरास्थलपत्तन । नौकाओं से होकर मनुष्य जहां पर जाते हैं, वह 'जल पत्तन' और शकट-गाड़ी-आदि से जहां पर जाने का मार्ग होता है, वह 'स्थलपत्तन' है । अथवा-शकट आदि या नौका आदि से जिसमें जाने का रास्ता होता है, वह 'पत्तन' है और जिसमें केवल नौकाओं से जाने का मार्ग होता है, वह 'पट्टन' है। यही बात 'उक्त च' करके "पत्तनं शकटैगम्यं " इत्यादि श्लोक द्वारा कही गई है। जिसमें वणिक जनों की संख्या सबसे अधिक होती है वह 'निगम' कहलाता है। तापस जन पहले जिस स्थान को बसाते हैं, उस स्थान का नाम કટ' કહેવાય છે. જેની આસપાસ અઢી ગાઉ સુધી કોઈ ગામ ન હોય તે “મટુંબ” કહેવાય છે. જેમાં જવા માટે જલમાર્ગ અને સ્થળમાર્ગ એ બને માગ હોય છે એવા લેકના નિવાસસ્થાનનું નામ “ દ્રોણમુખ છે. જ્યાં બધી વસ્તુઓ મળી શકતી હોય તે “પત્તન” કહેવાય છે. આ પત્તન બે પ્રકારનું છે–એક જલપત્તન અને બીજું સ્થળપત્તન જ્યાં માણસે નૌકાઓથી જાય છે તે જલપત્તન અને શકટ–ગાડી-વગેરેથી જ્યાં જવાય છે તે
સ્થળપત્તન” છે અથવા શકટ વગેરે અથવા નૌકા વગેરેથી જેમાં જવાને રસ્તે હોય તે “પત્તન” છે અને જેમાં ફક્ત નૌકાઓથી જવાતું હોય તે
पटना.सन वात उक्तंच ४शन "पत्तनं शकटैगम्यं" मेरे शोध વકે કહેવામાં આવી છે. જેમાં વણિકને નિવાસ હોય તે નિગમ કહેવાય છે. તાપસે પહેલાં જે રથાનને વસાવે છે તે સ્થાનને “આશ્રમ” કહે છે. પાછળથી ત્યાં ભલે બીજા માણસે આવીને રહેવા લાગે ધાન્યની
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अनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र १८० प्रतिपक्षनामनिरूपणम् २५ पर्वतशिखरस्थितजननिदासः, समागनप्रभूतपथिकजननिवासो वा, सनिवेश:समागतसार्थवाहादिनिवासस्थानम् , एतेषां द्वन्द्वः, तेषु तथोक्तेषु सन्निवेश्यमानेषुसंनिवासयत्सु सत्सु मङ्गलार्थम् अशिक्षा शिवा इत्युच्यते शिवेति शृगाली। तथाकोऽपि कदाचिन् कारण शात् 'अग्निः शीतल', विषं मधुरम्' इति ब्रवीति । तथा-कल्यपालगृहेषु 'अग्लं स्शदुकम्' इत्युच्यते । अम्लशब्दे समुच्चारिते सुरा विनश्यति, अतोऽम्दाशब्दे समुच्चारयितव्ये 'स्वादु' शब्दः समुच्चार्यते। इत्थं 'आश्रम' है। पीछे से चाहे वहां पर और भी दूसरे मनुष्यजन आकर भले ही रहने लग गये हों। धान्य की रक्षा के निमित्त किसानों द्वारा जो दुर्गमस्थान निर्मित किया जाता है, वह 'संवाह' कहलाता है। यह स्थान पर्वत की चोटी पर बनाया जाता है। अथवा जिसमें सब तरफ से आकर पधिकजन विश्राम पाते हों वह स्थान 'संवाह' कहा जाता है। जिन स्थान को इधर उधर से आये हुए सार्थवाह आदि जनों ने अपने निवास के लिये बनाया होता है उसका नाम " सन्निवेश है। 'शिवा' नाम शृगाली का है और अशिवा-यह शब्द अमंगल रूप है, परन्तु मंगलार्थक शिव शब्द वाली होने से लोग मंगलनिमित्त अशिया की जगह शिवा इस शब्द का प्रयोग करते हैं। (अग्गी नीयलो) तथा-कारणवशात् कोई कोई अग्नि पद के स्थान में शीतल शब्द का विसं महुरं) विष के स्थान में मधुर शब्द का प्रयोग भी कर देता है। लथा- (कलालघरेसु अंबिलं साउयं) कलालों के घर में मलं राहुकम्' अग्ल्ड शब्द की जगह स्वादु शब्दों को રક્ષા માટે ખેડ વડે જે દુર્ગમ ભૂમિસ્થાન બનાવવામાં આવે છે તે સંવાહ” કહેવાય છે. આ સ્થાન પર્વતના શિખર પર બનાવવામાં આવે છે. અથવા–જેમાં બધથી પશ્ચિમે આવીને વિશ્રામ મેળવે છે તે સ્થાન “સંવાહ” કહેવાય છે. સાર્થવાહ વગેરે આવીને જે સ્થાનને પિતાને રહેવા માટે વસાવે છે તે “સન્નિવેશ” છે. “શિવા” શિયાળનું નામ છે. અને
અશિવા” આ શબ્દ અમંગળ રૂપ છે. પણ મંગલાર્થક શિવ શબ્દવાળી હવાથી લેકે મંગલ નિમિત્ત અશિવાના સ્થાને “શિવા” આ શબ્દને प्रयोग ४२ . ( अग्नी सीयलो) तेम ४२वशात् टस भनि पहना स्थाने शीतल शनी ( विसं महुरं) विषना स्थाने मधुर शहने प्रयास ४२ छ. तमश (कल्लालघरेसु अंबिलं साउयं) वासोना घशमा “अम्लं स्वादुकम् ' at १६ स्थान स्वादु होन। व्यवहार ४२ छ. म
अ० ४
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अनुयोगद्वारसूत्रे शिवादीनि विशेषविषयाणि नामानि प्रदर्शितानि । सम्प्रयविशिष्टानि यानि नामानि तान्याह-यो रक्तकः सोऽलक्तक इत्युच्यते । यो रक्तपणों भवति स एव अलक्तका अरक्तवर्ण इत्युच्यते । रलयोरभेदात्-अक्तकाऽयक्त केति शब्दद्वयं बोध्यम् । तथायद् लावुलाति आदत्ते प्रक्षिप्तं जलादि वस्तु इति लाबु-पात्रम् , तदेव अलाबुतुम्बकम् इत्युच्यते । तथा-यः सुम्भक =शुभ्रवर्णकारी, स एव कुमुम्भक इत्युच्यते । आळपन्=अत्यर्थेमसमञ्जस भाषमाणो विपरीतभाषक-भापका विपरीत विरुद्ध अभाषक इत्युच्यते । लोके हि यो बहसंबद्धं प्रलपति तं जनाः कथयन्ति-अभापक प्रयोग में लाते हैं । क्यों कि वे लोग ऐसा मानते हैं कि अम्ल शब्द का उच्चारण करने पर मदिरा नष्ट हो जाती है । इस प्रकार ये शिवादिक नाम विशेष अर्थ को विषय करने वाले नाम हैं । अब सूत्रकार जो सामान्य नाम हैं, उन्हें कहते हैं-(जे रत्तए से अलत्तए जे लाउए से अलाउए जे सुंभए से कुसुभए, आलावंते विवलीयभा. सए) जो रक्त होता है, वह 'अलत्ता' ऐसा कहा जाता है अर्थात् जो रक्तवर्ण होता है वही अलक्तक-अरक्तवर्ण ऐसा कहा जाता है "रलयोरभेदात्" इस परिभाषा के अनुसार 'अर तक' और 'अलक्तक' ये दोनों समान शब्द हैं। तथा-जो लावु-प्रक्षिप्त जलादि वस्तु को अपने में ठहराता है, वह पात्र लाघु कहलाता है। वही 'अलावु'-कहा जाता है। तथा-जो सुम्भक-शुभवर्णकारी-होता है, वही 'कुसुम्भक' ऐसा कहा जाता है। जो पहुन असमंजम बोलता हैवह भाषक से विपरीत बोलने से अभाषक कहा जाता है। लोक में
તેઓ એમ માને છે કે અમ્લ શબ્દના કથનથી મદિરા નષ્ટ થઈ જાય છે. આ પ્રમાણે આ શિવાદિક નામો વિશેષ અને સ્પષ્ટ કરનારા નામે છે. હવે सत्र २ रे सामान्य नाम छ तमनु जयन ४२ छे-(जे इत्तए से अलत्तए जे लाउए से अलाउए जे सुंभए से कुसुभए, आलावंते विवलीयभासए) २ २४त હોય છે, તે અલકૂતક કહેવાય છે. એટલે કે જે રક્તવર્ણ હોય છે તે જ અલ इत म२५त उपाय . "रलयोरभेदात्" मा परिभाषा भुराम
१२४त' मने 'मत' मा पन्ने | स२॥ छे. तमासा - પ્રક્ષિપ્ત જલાદિ વસ્તુને પોતાના વડે સ્થિર કરે છે. તે પાત્ર “લાબુ’ કહેવાય छ, त 'महाभु' उपाय छे. तेमा सुभा- 11-डीय छ, तर કસંભક” આ પ્રમાણે કહેવાય છે. જે બહુજ અસમંજસ લે છે તે ભાષકથી વિપરીત બોલવાથી અભાષક કહેવાય છે. લેકમાં જે વ્યક્તિ બહુ જ
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अनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र १८० प्रतिपक्षनामनिरूपणम्
२७
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एवायं विज्ञेोऽसावचनखादिति । एतानि नामानि प्रतिपक्षपदेन बोध्यानि । ननु नोगणादस्य को भेदः ? इति चेदाह - नोगणं हि कुन्तादिप्रवृत्तिनिमित्ताभावमात्रमादाय प्रवर्धते इदं तु प्रतिपक्षधर्मवाचकत्वमादायेत्यनयोर्भेद इति नास्ति दोषः । इदमुपसंहरन्नाह - तदेतत् मतिपक्षपदेनेति । अथ किं तत् प्रधानतया ? प्रधानस्य भावः प्रधानता तथा यन्नाम निष्यते तत् किं किं विधम् ? इति प्रश्नः । उत्तरयति - प्रधानतया - ' अशोकवनम्' इत्यारभ्य 'शालिवनम्' इत्यन्तं
जो व्यक्ति बहुत ही अधिक असंबद्ध बोलता है, लोग उसे 'अभाषक ' कहते हैं, क्योंकि इस के वचन सारविहीन होते हैं। ये नाम प्रतिपक्षपद से जानना चाहियें ।
शंका- नो गौण पद से इस में क्या अन्तर है ?
उत्तर - नोगौण जो पद है, वह कुन्तादि की प्रवृत्ति के निमित्त के अभाव मात्र को लेकर प्रवृत्त होता है । परन्तु यह प्रतिपक्ष के धर्म का वाचक जो शब्द है उसको लेकर प्रवृत्त होता है । इस प्रकार से इन दोनों में भेद है । ( से तं पडिवक्खपणं) इस प्रकार यह प्रतिपक्षपद से निष्पन्न हुआ नाम है। (से किं तं पाहण्णयाए) हे भदन्त । प्रधानता से जो नाम निष्पन्न होता है, वह किस प्रकार होता है ?
उत्तर --- ( पाहण्णयाए) प्रधानता से जो नाम निष्पन्न होता है, वह इस प्रकार का होता है- (असोगवणे सत्तपगवणे चपगवणे चुअवणे नागवणे पुन्नागवणे उच्छुवणे दखवणे सालिवणे - से तं पाहण्णयाए )
અસંબદ્ધ ખેલે છે, લેકે તેને 'भाषा' हे छे. प्रेम सेना वयन अर्थ. વિહીન હાય છે, એ નામે પ્રતિપક્ષ પદેથી જાણવાં જોઈએ.
શ’કા–ના ગૌણ પદ કરતાં આમાં શે। તફાવત છે.
ઉત્તર-ના ગૌણ જે પદ છે, તે કુન્તા–િપ્રવૃત્તિ-નિમિત્તના અભાવ માત્રને લઇને પ્રવૃત્ત થાય છે. પણ આ પ્રતિપક્ષના ધર્મ'ના વાચક જે શબ્દ छेतेने प्रवृत्त होय छेप्रमाणे तेथे जन्नेमा ३२४ छे. ( से तं पडिवक्खपरणं) मा प्रमाणे प्रतिपक्षपढथी निष्यन्न तं पाहण्णयाए ) डे लहन्त !
પ્રધાનતાથી જે
તે કેવા પ્રકારના હોય છે ?
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थयेस नाम छे. ( से कि નામ નિષ્પન્ન થાય છે
उत्तर--(पाहृष्णयाए ) प्रधानताथी ने नास निष्यन्न प्रहार होय छे - (जसोगवणे सत्तपण्णवणे संपवणे चुअवणे वणे उच्णे दखवणे साविणे से तं पाहण्णयाए) अशोवन, सप्तयालुवन,
थाय छे, ते या नागवणे पुन्नाग
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૨૮
अनुयोगद्वारसूत्रे
बोध्यम् । अशोकवनादौ वृक्षान्तराणां सच्चेऽपि अशोकादीनां बाहुल्येन प्राधान्यादशोकवनादि व्यवहारो भवति । ननु गौणादस्य को भेद: ? इति चेदाह - क्षमादिगुणेन क्षमणादिशब्दवाच्यार्थः सामस्त्येन व्याप्यते, अशोकवनादौ तु अशोकादीनां सामस्त्येन व्याप्तिर्नास्ति, वृक्षान्तराणामपि तत्र सद्भावात्, अतो गौणादस्य भेद बोध्यः । सम्मति प्रकृतमुपसंहर्तुमाह- तदेतत् प्रधानतयेति । अथ किं तत् अशोकवन, सप्तपर्णवन, चम्पकवन, आम्रवन, नागवन, पुन्नागवन, इक्षुवन, द्राक्षावन, शालिवन । इस प्रकार यह प्रधानता निष्पन्न नाम है । कहने का यह है कि - ' अशोकवन आदि वनों में अन्य वृक्षों का भी सद्भाव रहता है, फिर भी जो यह अशोक वन कहलाता है, सो इस का कारण यह है कि वहां अशोक की प्रचुरता पाई जाती है, इसलिये अशोकवृक्षों की प्रचुरता लेकर उस वन को अशोकवन इस नाम से अभिहित किया जाता है। सप्तपर्ण आदि नामों में भी यही कारण जानना चाहिये ।
शंका- गौण नाम से इस प्रधानता निष्पन्न नाम में क्या अन्तर है ?
उत्तर - क्षमादिगुण से जो क्षमण आदि शब्दों का वाच्यार्थ होता है, वह सम्पूर्णरूप से व्याप्त होता है, परन्तु अशोकवन आदि नामों में ऐसा नहीं होता है। क्योंकि वहां तो उस नाम के वाक्यार्थ की ही केवल प्रचुरता रहती है । इस प्रचुरता के सद्भाव में वहां अन्य वृक्षों का अभाव नहीं है। वे भी वहां पर हैं। इस प्रकार अशोक बनादि में
अभ्पष्टुवन, साम्रवन, नागवन, पुन्नागवन, क्षुपन, द्राक्षयन, शाशिवन, मा પ્રમાણે આ પ્રધાનતા નિષ્પન્ન નામ છે. તાત્પર્યાં આ પ્રમાણે છે કે ‘અશેકવન ’ વગેરે વનેામાં બીજા વૃક્ષાના પણ સદ્ભાવ રહે છે, છતાંએ તે અશે કવન કહેવાય છે, તે આની ૫.૭ળ એ કારણુ છે કે ત્યાં અશેક વૃક્ષા અધિક પ્રમાણમાં હાય છે. અશોક વૃક્ષાના પ્રાચુને લીધે જ તે વનને અશેાકવન આ નામથી અભિહિત કરવામાં આવે છે. સપ્તપર્ણ વગેરે નામેામાં પણ આ પ્રમાણે જ જાણવું.
શકા-ગૌણ નામથી આા પ્રધાનતા નિષ્પન્ન નામેામાં શે તફાવત છે ? ઉત્તર-ક્ષમા વગેરે ગુણેથી જે ક્ષમણ વગેરે શબ્દના વાગ્યાથ છે, તે સ'પૂર્ણ રૂપે વ્યાપ્ત ય છે. પણ અશેકવન વગેરે નામેામાં આવુ થતુ નથી કેમકે ત્યાં તે નામના વાચ્યાની જ માત્ર પ્રચુરતા રહે છે. આ પ્રચુરતાના સદ્ભાવમાં ત્યાં બીજા વૃક્ષાને અભાવ નર્યા તે ખીા વૃક્ષે પણ ત્યાં છે જ આ પ્રમાણે અશેવન વગેરેમાં અશાક વગેરેની સામસ્ત્યન ન્યાસિ
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अनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र १८० प्रतिपक्षनार्मानरूपणम् अनादिसिद्धान्तेन ? अमनम्-अन्तः-अमनम् अम-गतो' इत्यस्माद ल्युट् वाच्य. वाचकरूपतया परिच्छेदः, अनादिसिद्धश्चासौ अन्तश्चेति कर्मधारयस्तेन, अर्थात्अनादिकालादारभ्येदं वाचकम् इदं वाच्यमित्येवं सिद्धः प्रतिष्ठितो योऽन्तः परि च्छेदो-निर्णयर तेन यन्नाम निष्पद्यते तत् किं-किं विधम् ? इति शिष्यप्रश्नः । उत्तरयति-अनादिसिद्धान्तेन यन्नाम निष्पयते तदेवं विशेयम् । तथाहि-धर्मास्तिकायाघारम्यादासमयपर्यन्तानि पडू नामानि अगादिसिद्धान्तनिष्पन्नानि बोध्या नि । धर्मास्तिकायादयः प्राग्व्याख्याताः । गोगनाम्नोऽस्य भेद एवं विज्ञेयः । अशोक आदिकों को सामस्त्येन व्याप्ति नहीं है। इस प्रकार गुण निष्पन्न नाम से इस प्रधानता निष्पन्न नाम में बहुत अन्तर है। इस प्रकार से यह प्रधानता से निष्पन्न नाम है। (से कितं अणाइसिद्धतेणं) हे भदन्त ! अनादिसिद्धान्त से निष्पन्न नाम किस प्रकार का होता है ?
उत्तर--(प्रणादिसिद्धतेणं) अनादिसिद्धान्त से निष्पन्न नाम इस प्रकार का होता है-शब्दवाचक है और उसका अर्थ वाच्य है, इस प्रकार का जो वाच्य वाचकरूप से ज्ञान होता है, वह 'अन्त है। यह अन्त अनादिकाल से सिद्ध है-अर्थात् अनादि काल से लेकर यह वोचक है और यह वाच्य है-इस रूप से सिद्ध प्रतिष्ठित है-इस अनादि सिद्ध अन्त-निर्णध-से जो नाम निष्पन्न-उत्पन्न होता है वह अनादिसिद्धान्त निन्न नाम है-वह इस प्रकार से जानना चाहिये(धम्मत्यिकार, अधम्नस्थिकाए, आगामयिकाए, जीवस्थिकाए, पुग्गलस्थिकाप, अद्धासना) धर्मास्ति साय, अधर्मासिकाय, आकाशास्तिकाय, નથી આ રીતે ગુણ નિષ્પન્ન નામથી આ પ્રધાનતા નિપન્ન નામમાં બહુજ मत२ . माम मा प्रधानाबी निपन्न नाम छ. (से कि तं अणाइसिद्धतेणं) ભત! અનાદિ સિદ્ધાન્તથી નિષ્પન્ન નામ કેવા પ્રકારનું હોય છે?
6त्तर-(श्रणादिसिद्धतेणं) सनात तिथी नि०पन्न नाम ! પ્રકારનું હોય છે--વાચક છે અને તેને અર્થે વાચ્ય છે, આ પ્રમાણે જે વાચવાચક રૂપનું જ્ઞાન થાય છે તે રાત છે. આ “અંત ” અનાદિકાલથી સિદ્ધ છે. એટલે કે અનાદિ કાલથી જ આ વાચક છે અને આ વાચ્ય છે. આ રૂપથી સિદ્ધ પ્રતિષ્ઠિત છે. આ અનાદિ સિદ્ધ અંતનિર્ણયથી જે નામ નિપ્પન-ઉત્પન્ન થાય છે તે અનાદિ સિદ્ધાન્ત નિષ્પન નામ છે–તે આ प्रमाले यस. (धम्माथिकार, अधम्मत्यिकाए, आगासस्थिकाए, जीवत्थिकाए, पुग्गलत्यिकाए, अद्धासमए) याताय, अपरताय, माशास्ति
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अनुयोगद्वारसूत्रे गौणनाम्नः प्रदीपादिकस्याभिधेयं दीपकलिकादिकं स्वरूपं त्यजत्यपि, धर्मास्तिकायादयस्तु कदाचिदपि स्वरूप न परित्यजन्तीति इदं पृथगुक्तम् ! उपसंहरन्नाहतदेतत् अनादिसिद्धान्तेनेति । अथ किं तत् नाम्ना नाम-पितृपितामहादीनामभिधेयं तेन यन्नाम संपद्यते तत् किम् ? इति प्रश्नः । उतस्यनि-नाम्ना निष्पद्यमानं नामैवं विज्ञेयम् , तथाहि-यो जनः पितृपितामहस्य-पि वी पितामहस्य वा, यद्वा-पितुः पितामहः-पितृपितामहः पपितामहस्तस्य नाम्नायज्ञदत्तदेवदत्त जीवास्तिकाय, पुद्गलास्तिकाय, अद्धासमय । इन धर्मादिकों की व्याख्या पहिले कर दी गई है। गौगनाम से इस अनादि सिद्धान्त नाम में अन्तर है इस प्रकार से जानना चाहिये कि-'जो गौण निष्पन्न नाम का अभिधेय होता है, वह अपने स्वरूपका परित्याग भी कर देता हैजैसे दीपकलिका यह प्रदीपनाम का अभिधेय है-सो यह अपने रूप का परित्याग भी कर देती है।
परन्तु जो अनादि सिद्धान्त निष्पन्न नाम होगा वह अपने स्वरूप का कभी भी परित्याग नहीं करेगा। इसीलिये सूत्रकार ने इसका पृथक निर्देश किया है । (से तं अणाइसिद्धतेणं) इस प्रकार से यह अनादि सिद्धान्त से निष्पन्न नाम है। (से कि तं नामेणं ?) हे भदन्त ! जो नाम-नाम से निष्पन्न होता है, वह किस प्रकार का होता है ? ___उत्तर-(नामेणं पिउपियाभहस्स नामेणं उन्नामिजाइ) नाम से जो नाम. निष्पन्न होता है, वह इस प्रकार का होता है-जैसे पिना या पितामह अथवा पिता के पितामह का जो नाम होता है वह કાય, છાસ્તિકાય, પુત્લાસ્તિકાય, અદ્ધાસમય આ ધર્માદિકની વ્યાખ્યા પહેલાં કરવામાં આવી છે. ગૌણ નામથી આ અનાદિસિદ્ધાન્ત નામમાં જે અંતર છે તે આ પ્રમાણે જાણવું–જે ગૌણ નિપૂન નામને અભિધેય હોય છે, તે પોતાના સ્વરૂપને પરિત્યાગ પણ કરે છે જેમ કે દીપમાલિકા આ પ્રદીપ નામને અભિધેય છે એટલે આ પોતાના સ્વરૂપને પરિત્યાગ પણ કરે છે. પરંતુ જે અનાદિ સિદ્ધાન્ત નિષ્પન નામ હશે તે પિતાના સ્વરૂપને ત્યાગ કદાપિ કરશે નહીં એથી જ સૂત્રકારે આનો પ્રથક નિર્દેશ કર્યો છે. (से तं अणाइसिद्धतेणं) मा प्रमाणे मा मनाहि सिद्धान्तथी नि04-नाम छ. (से कि तं नामेणं १) 3 महन्त र नाम नामी नि५-
नय छ, ते આ પ્રકારનું હોય છે. જેમ કે પિતા કે પિતામહનું અથવા પિતા કે પિતામહનું જે નામ હોય છે તે નામથી બનેલ નામ ગણાય છે. મતલબ એ છે કે પિતા પિતામહ વગેરે જાતે એક પ્રકારના નામે છે. વ્યવહાર માટે જ
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अनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र १८० प्रतिपक्षनामनिरूपणम् ब्रह्मदत्तायन्यतराभिधानेन उन्नाम्य ते शब्दयते तद् नाम्ना निष्पनं नाम बोध्यम्। एतदुपसंहरति-तदेतत् नाम्नेति । अथ कि तत् अवयवेन अवयवोऽत्रयविन एकदेशस्तेन यद् नाम निष्पद्यते तत् किं किं विधम् ? इति प्रश्नः। उत्तरयति अवयवेन निष्पन्नं नामैवं बोध्यम् । तथा हिशृङ्गी-शृङ्गरूपेणावयवेन शृङ्गीति नाम भवति। एवं 'शिखी विषाणी' इत्यारभ्य 'केशरीककुदी' इत्यन्तानि नामानि 'शिखा विषाण' इत्याद्यवयवनिष्पन्नानि बोध्यानि । तथा-परिकरबन्धेन-विशिष्टरचनायुक्तवसननिवसनेन भटंनाम से बना हुभा नाम माना जाता है-तात्पर्य इसका यह है कि 'पिता पितामह' आदि स्वयं एक प्रकार के नाम हैं-व्यवहार चलाने के लिये जो इनका फिर यज्ञदत्त, देवदत्त, ब्रह्मदत्त ऐसा नाम रख लिया जाता वह नाम निष्पन्न नाम है । ( से तं नामेणं) इस प्रकार यह नाम से निष्पन्न नाम है। (से किं तं अवयवेणं) हे भदन्त ! अवयव निष्पन्न नाम कैसा होता है ?
उत्तर-(अवयवेणं-सिंगी सिही, विसाणी, दाढी, पक्खी, खुरी नही वाली) अवयव निष्पन्न नाम ऐसा होता है-शृङ्गी, शिखी, विषाणी दंष्ट्री पक्षी, खुरी, नखी, वाली (दुपय च उप्पय, बहुपया, नंगुली, केसरी, कउही) द्विपद, चतुष्पद, बहुपद, लागली, केशरी, ककुदी तात्पर्य इसका यह है कि-अवयव अवयवी का, एकदेश कहलाता है-इस एक देश रूप अवयव से जो नाम पड़ जाता है, वह अवयव निष्पन्न नाम है। शृङ्गरूप अवयव के संबन्ध से शृंगी शिखा के संबन्ध से शिखी, कहा जाता है । इसी प्रकार से विषाणी, दंष्ट्री आदि नाम भी जानना
એમનું યજ્ઞદત્ત, દેવદર, બ્રહ્મદત્ત, જેવાં નામ રાખવામાં આવે છે. એ નામે विपन्न नामी छे. (से तं नामेणं) माम मा नामथी निष्पन्न नाम छ. (से कि त अवयवेणं) 3 महन्त ! मय नियन्न नाम य छ?
उत्तर-(अवयवेणं सिंगी, सिही, विसाणी. दाढी, पक्खी, खुरी नही वाली) अवयव नि०पन्न नाम से डाय छे. शुभी, शिभी, विषाणी, ट्री,, पक्षी भुरी, नमी, पाली (दुपयचउप्पय, बहुपया, नंगुली, केसरी, कउही) दि५४, ચતુપદ, બહુપદ, લાંગલી, કેશરી, કુદી તાત્પર્ય એ છે કે અવયવ-અવયવી નો એકદેશ કહેવાય છે. આ એકદેશ રૂપ અવયવથી જે નામ અસ્તિત્વમાં આવે છે તે અવયવ નિષ્પન્ન નામ છે. ઈંગ રૂપ અવયવના સંબંધથી જંગી શિખાના સંબંધથી શિખી નામો અસ્તિત્વમાં આવ્યાં છે. આ પ્રમાણે જ विषारी, ट्री, वगेरे नामी विष ५ न न तभा (परियर
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अनुयोगद्वारसूत्रे योधं जानीयात् , तथा निवनेन-महिलोचितवस्त्रपरिधानेन महिलिका महिलां जानीयात्। तथा-सिक्थेन-एककणेन द्रोणपा-द्रोणपरिमितालामन्नानां पाकं जानीयात् । च=पुनः एकया गाथयाप्रसादादिगुण विशिष्टया एकया गाथया कवि जानीयात् । अयं भाव-भट महिलापाककवि शब्दप्रयोगः परिकरवन्धनादिप्रत्यक्षेण क्रियते, अतोऽवयवप्राधान्येनैषां प्रवृत्तत्वादेते शब्दा अपि अवयव निष्पन्ननामत्वेनोक्ता इति । अस्य नाम्नोऽवयवप्राधान्यमाश्रित्य प्रवृत्तत्वाद् गौणनाम्नो भेदः । गौणनाम तु सामान्यतया प्रार्तते, गो गौणनामाऽभेदत्तेनास्य निरर्थकत्वशङ्का न कार्येति ।मु०१८०॥ चाहिये । तथा-(परियरबंधेणभडं, जाणिज्जा महिलियं निवसणेणं, सिस्थेणं दोणवायं, कविं च इक्काए माहाए ) विशिष्ट रचनायुक्त वस्त्रों के पहिरने से यह भट 'योधा' है ऐला जान लिया जाता है और महिलोचित वस्त्र के परिधान से यह स्त्री है ऐसा जान लिया जाता है तथा एक कण दाने के पक जाने से द्रोण परिमित अन्न का पकना जान लिया जाना है, और प्रसाद आदि गुण विशिष्ट एक ही गाथा के देखने से यह कवि है' ऐना जान लिया जाता है। इसलिये भट, महिला पाक, कवि शब्दों का प्रयोग जो होता है, वह परिकर बन्धन आदि को प्रत्यक्ष में देख कर होता है, इसलिये ये शब्द अवयव की प्रधानता से निष्पन्न होने के कारण 'अवयव निष्पन्न' नाम रूप से कहे गये, जानना चाहिये । यह अवयव निष्पन्न नाम अवयव की प्रधानता को लेकर प्रत्रत होता है, इसलिये गौण नाम से इसकी
बंधेणं भडं जाणिज्जा महिनिय निवस्रणेणं, सित्थेणं दोणवाय कवि च इक्काए गाहाए) विशिष्ट श्यना युत पसो धारा ४२वायी म स ट है योद्धो છે, એવું જણાઈ આવે છે. અને સ્ત્રીએ જે વસ્ત્રો પરિધાન કરવાથી સ્ત્રી છે એવું જણાઈ આવે છે. તેમજ એક અનાજને કણ જાય તે દ્રોણ ચડીમાં જેટલું અનાજ હોય તે બધું જ ચડી ગયું છે એવું જણાઈ આવે છે. અને પ્રાસાદ વગેરે ગુણ વિશિષ્ટ એકજ ગાથાના પરીક્ષણથી “આ કવિ છે” એવું ४ मा छ. मेथी ४ म, महिमा, ५४,
बिशहाना प्रयोग પ્રચલિત થઈ જાય છે. તે પરિકર બંધન વગેરેને પ્રત્યક્ષમાં જોઈને થાય છે. એથી જ આ શબ્દ અવયવની પ્રધાનતાથી નિષ્પન હોવા બદલ “અવયવ નિષ્પન' નામથી નિષ્પન્ન થયેલ જાણવાં જોઈએ આ અવયવ નિષ્પન્ન નામ અવયવની પ્રધાનતાને લીધે પ્રવૃત્ત થાય છે. એથી ગૌણ નામથી તે ભિન્ન છે.
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अनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र १८१ संयोगस्वरूपनिरूपणम्
मूलम्-से किं तं संजोगेणं? संजोगे चउविहे पण्णत्ते, तं जहा-दव्वसंजोगे खेत्तसंजोगे कालसंजोगे भावसंजोगे । से किं तं दध्वसंजोगे? दव्वसंजोगे तिविहे पण्णत्ते, तं जहा-सचित्ते अचित्ते मीसए । से कि तं सचित्ते ? सचित्ते गोहिं गोमिए, महिसीहि महिसिए, ऊरणीहिं-ऊरणिए, उट्टीहिं उट्टीवाले। से तं सचित्ते । से किं तं अचित्ते ? अचित्ते-छत्तेणं छत्ती, दंडेन दंडी, पडेण पडी, घडेग घडी, कडेण कडी, से तं अचित्ते । से किं तं मीसए ? मीसए-हलेणं हालिए, सगडेणं सागडिए रहेणं रहिए, नावाए नाविए, से तं मीसए। से तं दधसंजोगे से किं तं खित्तसंजोगे? खित्तसंजोगे-भारहे एरवए हेमवए एरण्णवए हरिवासए रम्मगवासए देवकुरुए उत्तरकुरुए पुखविदेहए अवरविदेहए। अहवा मागहए मालवए सोरट्टए मरहट्रए कुंकणए । से तं खेत्तसंजोगे। से किं तं कालसंजोगे?, कालसंजोगे-सुसमसुसमाए. सुसमाए,सुसमदूसमाए दूसमसुसमाए, दूससाए दूसमदूसमाए। अहवा पावसए वासारत्तए, सरदए हेमंतए वसंतए गिम्हए। से तं कालसंजोगे । से कितं भिन्नता हैं । तात्पर्य यह है कि-गौण नाम गुण की प्रधानता को लेकर सामान्यरूप से प्रवृत होता है। और यह नाम अवयव रूप विशेष को लेकर प्रवृत होता है । अतः गौण नाम के साथ इसके अभेद की आशंका करना निरर्थक है ॥ सू० १८० ॥ તાત્પર્ય આ પ્રમાણે છે કે ગૌણ નામ ગુણની પ્રધાનતાને લઈને સામાન્ય રૂપમાં પ્રવૃત્ત થાય છે અને આ નામ અવયવરૂપ વિશેષને લઈને પ્રવૃત્ત હોય છે. એથી ગળણ નામની સાથે એના અભેદની આશંકા નિરર્થક ગણાય. સાસુ ૧૮૦
अ०५
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अनुयोगद्वारसूत्रे भावसंजोगे ? भावसंजोगे-दविहे पण्णते, तं जहा-पसत्थे य अपसत्थे य। से किं तं पसत्थे पसत्थे-नाणेणं नाणी दंसणं दसणी, चरित्तेणं चरित्ती। सेतं पसथे। ले कि तं अपसत्थे ? अपसत्थे-कोहेणं कोही, माणेणं मागी,माधाए लायी, लोहेणं लोही। से तं अपसत्थे।से तं भावसंजोगे। ते तं संजोगेणं ॥सू० १८१॥
छाया-अथ किं तत् संयोगेन ? संयोगः चतुर्विध प्रज्ञप्तः, तद्यथा-द्रव्यसंयोगः, क्षेत्रसंयोगः, कालसंयोगः, भावसंयोगः। अथ कोऽसौ द्रव्यप्रयोगः ? व्यसंयोगः त्रिविधः प्रज्ञप्तः, तद्यथा-सचितः अचित्तो मिश्रः। अथ कोऽसौ सचितः? सचित्त:
"से किं तं संजोगेणं' इत्यादि ।
शब्दार्थ-(से किं तं संजोगेणं ) हे भदन्त ! जो नाम संयोग से निष्पन्न होता है वह कैसा है ?
उत्तर-(संजोगे चउबिहे पण्णत्ते ) संयोग चार प्रकार का कहा गया है (तं जहा) वह इस प्रकार से है-(वसंजोगे खेत्तसंजोगे, कालसंजोगे, भावसंजोगे ) द्रव्य संयोग, क्षेत्र संयोग, कालसंयोग
और भाव संयोग। (से किं तं व्यसंजोगे ?) हे भदन्त ! द्रव्यसंयोग से जो नाम निष्पन्न होता है वह कैसा होता है ? (दव संजोगे तिविहे पण्णत्ते)
उत्तर-द्रव्य संयोग तीन प्रकार का होता है इसलिये इनके संयोग उत्पन्न नाम भी तीन प्रकार के होते हैं। (तं जहा) जैसे(सचित्ते अचित्ते मीसए) सचिस संयोग, अचित्त संयोग, मिश्र
" से कि त संजोगेणं " त्या
शहाथ-(से कि तं संजोगेण) मत ! २ नम सयोगयी निरूपन्न હોય છે તે કેવું છે?
उत्तर-(संजोगे चउविहे पण्णत्त) सया या प्रा२ने। ४ामा माये छ. (त'जहा) ते 20 प्रमाणे छ. (दव्वसंजोगे खेत्तसंजोगे, कालसंजोगे, भावसंजोगे) द्र०यस यस क्षेत्रसयस, ससये, भने मासयोग. (से कि त दव्वसंजोगे ?) 8 मत! द्रव्यसये गयी नाम नि०५-1 थाय ते ७ डाय छे ? (दव्वसंजोगे तिविहे पण्णत्त).
ઉત્તર-દ્રવ્ય સંગ ત્રણ પ્રક રને હોય છે. એથી એમના સંગ Fत्पन्न नामी ५९ ४२॥ हाय छे. (तंजहा) 243 (सचित्त अचित्ते
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अनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र १८१ संयोगस्वरूपनिरूपणम् गोभि गोमान् , महिषीभिर्म हिषिकः, ऊरणामिः ऊरणिकः, उष्ट्रीभिः उष्ट्रीपालः । स एष सचित्तः। अथ कोऽसौ अचित्तः ? अचित्तः-छत्रेण छत्री, दण्डेन दण्डी, पटेन पटी, घटेन घटी, कटेन कटौ । स एषोऽचित्तः । अथ कोऽसौ मिश्रः ?मिश्रःसंयोग-सचित्तसंयोगज नाम इस प्रकार से है (गोहिं गोमए ) गायों के संयोग से जैसे गोमान्-(महिसीहि महिसिए) भैंसो के संयोग से महिषीमान् (ऊरणीहिं अरणिए) मेषियों के संयोग से मेषीमान् उट्टीहि उट्टीवाले) ऊंटनियों के संयोग से उष्ट्रपाल । तात्पर्य यह है-किग्वाला ऐसा जो नाम होता है, वह गायों के पालने आदि से निष्पन्न होता है। गायें सचित्त पदार्थ हैं, अतः ग्वाला ऐसा नाम सचित्त द्रव्य संयोगज है। इसी प्रकार से पहिषीमान् आदि नामों को भी जानना चाहिये। (से किं तं अचित्ते) हे भदंत! अचित्त द्रव्य संयोगज नाम कैसा होता है ?
उत्तर-(अचित्ते) अचित्त द्रव्यसंयोगज नाम इस प्रकार होता हैछत्तेणं छत्ती, दंडेणं दंडी, पडेण पड़ी घडेण घडी कडेण कडी (से त्तं अचित्ते) छत्र के संयोग से छत्री, दण्ड के संयोग से दण्डी, पट के संयोग से पटी घट के संयोग से घटी, कट के संयोग से कटी, ये सब अचित्त द्रव्य संयोगज नाम हैं। इस नाम की निष्पत्ति में अचित्त द्रव्य का संयोग मापेक्ष होता है-छत्र, दण्ड, पट, घट, कट, ये सब अचित्त मीसह) सयित्तसयास, अयित्तसयोस, भिसयाग, सचित्तस यो नाम मा प्रमाणे छे. (गोहि गोमिए) गायोना संयोगथी रेभ गोमान (महिसीहि महिसिए) सोन! सयोगथी महिषीमान् (ऊरणीहि ऊरणिए) भेषाना सयोगथा भेषीमान् (उट्टीहि उट्टीवाले) 21ना सयोगथी ट्रीप ता५ આ પ્રમાણે છે કે ગોવાળ એવું જે નામ હોય છે તે ગાયના રક્ષણ વગેરેથી નિષ્પન્ન હોય છે. ગાયે સચિત્ત પદાર્થ છે એથી ગોવાળ એવું નામ સચિત્ત દ્રવ્ય સંયોગ જ છે. આ પ્રમાણે મહિષીમાન વગેરે નામો વિષે પણ જાણી सेन (से कि तं अचित्ते) 3 Hin! अथित द्र०५ सय नाम यु डाय छ ?
उत्तर-(अचित्ते) मथित्त द्रव्य भयो ४ नम । प्रभार हाय छे. (छत्तेणं, छत्ती, दंडेणं दंडो, पडेण पड़ी, घडेण धडी, कडेण, कडी सेतं अचित्त) છત્રના સંગથી છત્રી, દંડના સંયોગથી દંડી, પટના સંગથી પટી, ઘટના સંગથી ઘટી, કટના સંગથી કટી, આ બધાં અચિત્ત દ્રવ્ય સંગ જ નામે છે. આ નામની નિષ્પન્નતામાં અચિત્ત દ્રવ્યને સગ અપેક્ષિત ગણાય છે. છત્ર, દંડ, પટ, ઘર, કટ આ સર્વે અચિત્ત દ્રવ્ય છે. છત્ર જેની પાસે
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अनुयोगद्वारसूत्रे हलेन हालिकः, शकटेन शाकटिकः, रथेन रथिकः, नावा नाविकः । स एष मिश्रः। स एष द्रव्यसंयोगः। अथ कोऽसौ क्षेत्रसंयोगः ?, क्षेत्रसंयोगः-भारतः एरवतः, हैमवतः ऐरण्यवतः, हरिवर्षः, रम्यकवर्षः देवकुरुजः उत्तरकुरुनः, पूर्ववैदेहकः, अपरद्रव्य हैं । छत्र जिसके पास है, वह 'छत्री' । दण्ड जिसके पास है, वह 'दण्डी' पट जिसके पास है, वह 'पटी' इत्यादि नामवाला कहलाता है। (से किं तं मीसए ? मीसए-हलेा हालिए सागडेणं सागडिए, रहेणं रहिए नावाए नाविए, से तं मीसए से तं दव्य संजोगे) हे भदन्त! मिश्र द्रव्य संयोगज नाम कैसा होता है ?
उत्तर-मिश्र द्रव्य संयोगज नाम ऐसा होता है-जैसे-हल के संयोग से हालिक, शकट के संयोग से शाकटिक, रथ के संयोग से रथिक नाव के संयोग से नाविक ये सब नाम सचित्त अचित्त उभय द्रव्य संयोगज हैं। इस मिश्र द्रव्य संयोगज नाम में सचित्त द्रव्य संयोग नाम हालिक, शाकटिक आदि में हल आदि पदार्थ अचित्त
और बलीवर्द-बैल आदि पदार्थ सचित्त हैं। इस प्रकार के और भी जितने नाम हों वे सब द्रव्य संयोगज नाम जानना चाहिये। (से किं तं खित्त संजोगे) हे भदन्त ! क्षेत्र संयोग-क्षेत्र संयोग से निष्पन्न नाम कैसा होता है ? ___ उत्तर-(खित्तसंजोगे) क्षेत्रसंयोगज नाम ऐसा होता है-(भारहे છે તે છત્રી, દંડ જેની પાસે છે તે દંડી, પટ જેની પાસે છે તે પટી, વગેરે नामयी नापित थाय छे. (से कि तं मीसए ? मीसप-हलेण हालिए सागडेणं मागडिए, रहेणं रहिए नावाए, नाविए, सेत्तं मीत्रए सेत्तं दब संजोगे) हे महत! મિશ્ર દ્રવ્ય સંયોગ જ નામ કેવું હોય છે?
ઉત્તર-મિશ્ર કવ્ય સંયોગ જ નામ એવું હોય છે જેમ કે હળના સંગથી હાલિક, શકટના સંગથી શાકટિક, રથના સંયોગથી રથિક, નાવના સગથી નાવિક, આ સર્વનામો સચિત્ત અચિત્ત અને ઉભય દ્રવ્ય સાગ જ છે. આ મિશ્ર દ્રવ્ય સંગ જ નામમાં સચિત્ત દ્રવ્ય સંગ નામ હાલિક, શાકટિક વગેરેમાં હલ વગેરે પદાર્થ અચિત્ત અને બલી વર્લ્ડ (બળદ) વગેરે પદાર્થ સચિત્ત છે. આ જાતના બીજા પણ જેટલાં નામે છે તે સર્વે દ્રવ્ય સંગ नाम छ मेम सम यु. (से कि त खित्तसंजोगे) 8 महन्त ! क्षेत्र સંગ-ક્ષેત્ર સંગથી નિષ્પન નામ કેવું હોય છે?
उत्तर-(खित्तसंजोगे) क्षेत्र सये! 4 नाम से डाय छे. (भारहे
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अनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र १८१ संयोगस्वरूपनिरूपणम् वैदेहकः। अथवा-मागधक्का, मालवकः, सौराष्ट्रकः, महाराष्ट्रीयः, कोकणकः । स एष क्षेत्रसंयोगः । अथ कोऽसौ कालसंयोगः ? कालसंयोग-सुषमसुषमानः, सुषमाजः, सुषमदुस्समाजः, दुस्समसुषमाजा दुस्समाजः दुस्समसुपमाजः। अथवाएरवए, हेमवए, एरण्णवए, हरिवामए, रम्मगवासए, देवकुरुए, उत्तरकुरुए, पुव्वविदेहए, अवरविदेहए) यह भारतीय है, यह ऐरवत क्षेत्रीय है, यह हैमवत क्षेत्रीय है, यह ऐरण्यवत क्षेत्र का है, यह हरिवर्ष क्षेत्र का है, यह रम्यकवर्ष का है, यह देवकुरु को है, यह उत्तरकुरु का है, यह पूर्वनिदेह का है यह अपरविदेह का है । अथवा(मागहए, माल वए, सोरट्टए, मरहट्टए, कुंकणए, से तं खेत्तसंजोगे) यह मागधक है, यह मालवक है, यह सौराष्ट्रक है, यह महाराष्ट्रीय है, यह कौङ्कणक है, इस प्रकार सब पूर्वोक्त जितने भी क्षेत्र के संयोग जन्य नाम हैं, वे सब क्षेत्र संयोगज नाम हैं। (से किं तं कालसंजोगे) भदन्त ! काल के संयोग से जो नाम उत्पन्न होता है, वह कैसा होता है?
उत्तर-(काल संजोगे) काल के संयोग से जो नाम निष्पन्न होता है वह ऐसा होता है-(सुसमसुसमाए, सुसमाए, सुसमदूसमाए, दुसमसुसमाए, दूसमाए, दूसमदूसमाए) यह सुषम सुषमा काल में जन्मा हुआ होने से सुषमसुषमाज है, यह सुषमादुस्समाकाल में जन्मा होने से सुषम दुस्ममाज है । इसी प्रकार से यह दुस्सम सुषमोज है।
एरवर हेमवए, एरण्णवए, हरिवासए, रम्मगवासए, देवकुरुए, उत्तरकुरुए, पुव्वविदेहए, अवरविदेहए) 4. भारतीय छ, मा भैरवत क्षेत्रमा छ, म भक्त ક્ષેત્રના છે, આ ઐરણ્યવત ક્ષેત્રીય છે, આ હરિવર્ષ ક્ષેત્રીય છે, આ રમ્યક વર્ષાય છે, આ દેવકુરુ ક્ષેત્રીય છે આ ઉત્તર કુરુને છે, આ પૂર્વવિદેહને छ । ५५२ विद्वेडने छ मया (मागहए, मालवए, सोरदए, मरहट्ठए, कुंकणए, से त'खेत्तसंजोगे) मा भाग छ, सा भास छ मा सौराष्ट्र छ, આ મહારાષ્ટ્રીય છે, આ કેકણક છે આ પ્રમાણે પૂર્વોક્ત જેટલાં સોગજન્ય नाम छ त स क्षेत्र सयोजनामा छ. (से कि त कालसंजोगे) 3 ભદન્ત ! કાલના સંયોગથી જે નામ ઉત્પન હેાય છે, તે કેવું હોય છે?
उत्तर-(काल संजोगे) सना सयौगयी रे नाम निष्पन्न थाय थे, ते मे डाय छे. (सुस्रमसुसमाए, सुसमाए, सुसमदूसमाए, दूसमसुसमाए, दूसमाए, सुममदूसमाए) । सुषम सुषमा मां मेरा पाथी सुषुमा ४ छे. मा સુષમ દુક્સમામાં જન્મેલ હોવાથી સુષમદુસ્સામાં જ છે. આ પ્રમાણે આ દુસ્લમ સુષમા જ છે. આ દુસમા જ છે આ દુસ્સમાં દુસ્સામાં જ છે. અથવા
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३८
अनुयोगद्वारसूत्रे प्रावृषिकः वर्षारात्रिकः शारदः हैमन्तकः वासन्तकः श्रेष्मकः । स एष कालसंयोगः । अथ कोऽसौ मावसंयोगः ? भावसंयोगो द्विविधः प्रज्ञप्तः, तद्यथा-प्रशस्तश्च अपशस्तश्च । अथ कोऽसौ प्रशस्तः ? प्रशस्तः-ज्ञानेन ज्ञानी, दर्शनेन दर्शनी, चारित्रेण चारित्री । स एष प्रशस्तः। अथ कोऽसौ अपशस्तः ? क्रोधेन क्रोधी, मानेन मानी, यह दुस्समाज है । यह दुस्प्तम दुस्समाज है । अथवा-(पावसए वासारत्तए, सरदए, हेमंतए, वसंनए, गिम्हए) यह प्रावृषिक है, वर्षा रात्रिक है, शारद है, हेमन्तक है, वासन्तक है, ग्रीष्मक है । (से तं कालसंजोगे) इस प्रकार ये सब नाम काल के संयोग को लेकर निष्पन्न होने के कारण काल संयोगज हैं । (से किं तं भावसंजोगे ?) हे भदन्त ! भाव के संयोग को लेकर जो नाम उत्पन्न होता है वह कैसा होता है ?
उत्तर-(भावसंजोगे-दुविहे पण्णत्ते) भाव संजोग को लेकर जो नाम निष्पन्न होता है, वह इस प्रकार से होता है-यह भाव संयोग दो प्रकार का प्रज्ञप्त हुआ है-(तंजहा) जैसे-(पसत्थे य अपसत्थे य) एक प्रशस्त भाव संयोग और दूसरा अप्रशस्त भाव संयोग। (से किं तं पसत्थे) हे भदन्त ! प्रशस्त भाव कौन हैं ?
उत्तर-(नाणेणं नाणी, दंसणेण, दंसणी, चरित्तेणं, चरित्ती) ज्ञान, दर्शन, चरित्र ये प्रशस्त भाव हैं, इनके संयोग को लेकर ज्ञान से ज्ञानी, दर्शन से दर्शनी और चारित्र से चारित्री ऐसा जो नाम (पावसए वा सारत्तए, सरदए, हेमंतए, वसंतए, गिम्हए) मा प्रावृषि छे, वर्षा रात्रि छ, शा२६ छ भन्त छ, वासन्त छ मा श्रीभ छ, (खे त काल संजोगे) આ પ્રમાણે આ સર્વ નામે કાળને સંયોગથી નિષ્પન્ન હોવા બદલ કાલ सयान छे. (से कि त भावसंजोगे ?) महत! भावना संयोगन લઈને જે નામ થાય છે તે કેવું હોય છે.
उत्तर-(भाव संजोगे-दुविहे पण्णत्ते) मार सयोगना साधारे नाम નિષ્પન્ન થાય છે, તે આ પ્રમાણે હોય છે આ ભાવ સંયોગ બે પ્રકારને प्रज्ञा यये। छे. (तजहा) रेभ (पसत्थे य अपसत्थेय) से प्रशस्त माप संयोग मने मान्न प्रशस्त मा सयोग (से कि तपसत्थे) 3 महन्त ! પ્રશસ્ત ભાવો કયા છે? ____उत्तर-(नाणेणं नाणी दंसणेणं, दसणी, चरित्तेणं चरित्ती) ज्ञान, शन, ચારિત્ર આ પ્રશસ્ત ભાવે છે. આ ભાવોના સંગથી જ્ઞાનથી જ્ઞાની, દર્શન નથી દર્શની, અને ચારિત્રથી ચારિત્રી એવાં જે નામો નિષ્પન્ન થાય છે, તે
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अनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र १८२ संयोगस्वरूपनिरूपणम्
३९
मायया मायी, लोमेन लोभी । स एषोऽप्रशस्तः । स एष भावसंयोगः । तदेतत् संयोगेन ॥ मृ० १८१ ॥
टीका -' से किं तं ' इत्यादि
अथ किं तत् संयोगेन ? संयोगेन यन्नाम निष्पद्यते तत् किम् ? इति शिष्य प्रश्नः । उत्तरयति संयोगो हि द्रव्यसंयोग क्षेत्रसंयोगकालसंयोगभावसंयोगभेदेन चतुर्विधः । तत्र - द्रव्यसंयोगः सचित्ताचित्तमिश्रभेदेन त्रिविधः प्रज्ञप्तः । तत्र सचित्तद्रव्यसंयोगेन - गोमान् महिषीमान् इत्यादि नाम निष्पद्यते । अचित्तद्रव्यसंयोगेन - छत्री दण्डीत्यादि । मिश्रद्रव्यसंयोगेन - हालिकः शाकटिक इत्यादि । अत्र इलादीनामचेतनत्वं बलीवर्दादीनां सचेतनत्वमितिमिश्रता बोध्या, एवंविधानि नामानि द्रव्यसंयोगजानि विज्ञेयानि । क्षेत्रसंयोगेन भरतैरण्यवतादीनि मागधमाळवकादीनि वा नामानि निष्पद्यन्ते । कालसंयोगेन - सुषमसुषमाजादीनि प्रावृषिकादीनि वा निष्पन्न होता है, वह प्रशस्त भाव संयोगज नाम है । (से किं तं अपसत्थे ) हे भदन्त ! अप्रशस्त भाव कौन है ?
उत्तर -- ( अपसत्थे) अप्रशस्त भाव इस प्रकार है । (कोहेणं कोही, माणेणं माणी, मायाए मायी, लोहेणं लोही, से तं अपसत्थे ) क्रोध, मान, माया, और लोभ ये अप्रशस्त भाव हैं। इनके संबंध को लेकर यह क्रोधी है, यह मानी है, यह मायावी है, यह लोभी है। तात्पर्य यह है कि क्रोध के संबन्ध से क्रोधी मान के संबन्ध से मानी आदि नाम निष्पन्न होते हैं । ये सब ज्ञान आदि और क्रोध आदि आत्मा के ही प्रशस्त और अप्रशस्त भाव हैं । ( से तं भावसंजोगे) इस प्रकार यह भाव संयोगज नाम है । ( से तं संजोगेणं) इस प्रकार
अपसत्थे) हे अह'त !
પ્રશસ્ત लाव संयोग नामो छे. (से कि त અપ્રશસ્ત ભાવે કયા કયા છે?
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उत्तर- (अपसत्थे) अप्रशस्त लावो या प्रमाणे छे. (कोहेणं कोही माणेणं माणी, मायाए मायी, लोहेणं लोही, से त अपसत्थे) डोध, मान, भाया अने ઢાલ આ અધા અપ્રશસ્ત ભાવે છે. આ ભાવાના સ`ખધથી આ ક્રોધી છે, આ માની છે, આ માયાવી છે આ લેાભી છે એવાં નામે નિષ્પન્ન થાય છે. તાપય આ છે કે ક્રોધના સંબંધથી ક્રોધી, માનના સંબંધથી માની વગેરે નામા નિષ્પન્ન થાય છે. આ બધા જ્ઞાન વગેરે અને ક્રોધ વગેરે આત્માના ४ प्रशस्त तेभन म प्रशस्त लावो छे. ( से त भावसंजोगे) या प्रभा या भाव सौंयोग न नाम छे, ( से तं संजोगेणं) या प्रमाणे सयोग क
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अनुयोगद्वारसूत्रे निष्पधन्ते ।भावसंयोगः- भावा पर्यायस्तस्य संयोगः प्रशस्ताप्रशस्तभेदेन द्विविधः। तत्र प्रशस्तसंयोगेन ज्ञानीत्यादि नाम निष्पद्यते । अप्रशस्तसंयोगेन तु क्रोधीमानीत्यादि । इत्थं चतुर्विधानि संयोगजानि नामानि बोध्यानि । इदमपि संयोगप्रधानतया प्रवृत्तत्वाद् गौणाद् भिद्यते। एतदुपसंहरन्नाह-तदेतत् संयोगेनेति ॥५० १८१॥
मूलम्-से किं तं पमाणेणं? पमाणे चउविहे पण्णत्ते, तं जहा-नामप्पमाणे ठवणप्पमाणे दयप्पमाणे भावप्पमाणे । से किं तं नामप्पमाणे?,२ जस्स णं जीवस्स वा अजीवस्स वा, जीवाण वा, तदुभयस्स वा, तदुभयाण वा पमाणेत्ति नामं कजइ। से तं णामप्पमाणे ॥सू० १८२॥
छाया-अथ किं तत् प्रमाणेन ? प्रमाणं चतुर्विधं प्रज्ञप्तम् , तद्यथा-नामप्रमाणं स्थापनाप्रमाणं द्रव्यप्रमाणं भावपमाणम् । अथ किं तत् नामप्रमाणं ? नाममाणं जो संयोगज नाम चार प्रकार का कहा गया है वह इस प्रकार से होता है ऐसा जानना चाहिये-इस संयोगज नाम में संयोग के प्रधानता की विवक्षा है-अतः संयोग की प्रधानता से यह प्रवृत होता है, इसलिये गौण नाम से इसमें भिन्नता जाननी चाहिये ।।सू० १८१।।
"से किं तं पमाणेणं " इत्यादि।
शब्दार्थ-(से किं तं पमाणेणं?) हे भदन्त ! प्रमाण से जो नाम निष्पन्न होता है वह कैसा या कितने प्रकार का होता है ?
उत्तर-(पमाणे चउब्धिहे पण्णत्ते) प्रमाण चार प्रकार का प्रज्ञप्त हुआ है। अतः प्रमाण निष्पन्न नाम भी चार प्रकार का होता है। (तंजहा) वह चतुष्प्रकारता इस प्रकार से है। (नामप्पमाणे, નામ ચાર પ્રકારથી વિભક્ત કરેલ છે તે આ પ્રમાણે જ છે. તેમ સમજવું આ સંગ જ નામમાં સંગના પ્રાધાન્યની વિવક્ષા છે. એથી સંવગની પ્રધાનતાથી જ આ પ્રવૃત્ત હોય છે એથી ગૌણ નામથી આમાં ભિન્નતા સમજવી જોઈએ સૂ૦૧૮ના
“से कि त पमाणेणं" त्याह
हाथ-(से कि त पमाणेण?) महत ! प्रभाथी रे नाम निपन्न થાય છે તે કેવાં અને કેટલાં પ્રકારના હોય છે?
उत्तर-(पमाणे चउविहे पण्णत्ते) प्रभा या२ २ प्रशस थयेस छे. मेथी प्रभा निष्पन्न नाम पर या२ प्रा२नु डाय छे. (तजहा) ते यार.
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अनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र १८२ संयोगस्वरूपनिरूपणम् यस्य खलु जीवस्य वा अजीवस्य वा जीवानां वा अजीवानां वा तदुभयस्य वा तदुभयेषां वा प्रमाणमिति नाम क्रियते । तदेतत् नामप्रमाणम् ॥मू० १८२॥
टीका-'से कि तं' इत्यादि--
अथ किं तत् प्रमाणेन-प्रमीयते परिच्छिद्यते-निश्चीयते वस्तु अनेनेति प्रमाणं तेन यन्नाम निष्पद्यते तत् किं-किं विधम् ? इति शिष्य प्रश्नः । उत्तरयति. प्रमाणं हि नाम स्थापनाद्रव्यभावभेदेन चतुर्विधम्। तत्र नामप्रमाणं जिज्ञासितुमनाः शिष्यः पृच्छति-अथ किं तत् नाम प्रमाणम् ? इति। नामैव वस्तुपरिच्छेदहेतुत्वात् प्रमाणं नामप्रमाणं, तेन हेतु भूतेन किं नाम भवतीति प्रश्नाभिप्रायः । ठवणप्पमाणे, दयप्पमाणे, भावप्पमाणे ) नाम प्रमाण, स्थापना प्रमाण, द्रव्य प्रमाण, भाव प्रमाण । (से किं तं नामप्पमाणे) हे भदन्त ! नाम प्रमाण क्या है ?
उत्तर-( जस्स ण जीवस्स वा, अजीवस्स वा, जीवाण वा, अजीवाण वा, तदुभयस्स वा, तदुभयाण वा पमाणेत्ति नाम कज्जइ से तं णामप्पमाणे) जिस किसी जीव का, अथवा अजीव का, अथवा जीवों का, अथवा अजीवों का, अथवा जीव अजीव दोनों का अथयो जीवों अजीवों दोनों का प्रमाण ऐसा जो नाम किया जाता है, वह नाम प्रमाण है। जिसके द्वारा वस्तु का निश्चय किया जाता है, बह 'प्रमाण है। इस प्रमाण से जो नाम निष्पन्न होता है, वह चार प्रकार का होता है । वस्तु के परिच्छेद का हेतु नाम होता है, इसलिये नाम को ही यहां प्रमाण कहा है। किसी जीव आदि पदार्थ का प्रमाण ऐसा जो नाम रखलिया जाता है, वह ' नाम प्रमाण' है। यह प्रमाण
या प्रा२ ॥ प्रभारी छे. (नामप्पमाणे, ठवणप्पमाणे, दवप्पमाणे भावप्पा माणे) नामप्रमाण, स्थानाप्रमाण, द्रव्यमार, भावप्रमाण. (से कितनामप्पमाणे) हे महत! नाममाय शु छ ।
उत्तर-(जस्स गं जीवस्स वा, अजीवस्स वा, जीवाण वा, अजीवाण वा, तदुभयरस वा, तदुभयाण पा पमाणेत्ति नाम कज्जइ से तणामप्पमाणे) गमे તે જીવનું, અથવા અજીવનું, અથવા છાનું અથવા અજીનું, અથવા જીવે અજીવ બને અથવા જો અજી બન્નેનું પ્રમાણ એવું જે નામ રાખવામાં આવે છે તે નામ પ્રમાણ છે જેના વડે વરતુને નિશ્ચય કરવામાં આવે છે, તે પ્રમાણ છે. આ પ્રમાણથી જે નામ નિષ્પન્ન થાય છે, તે ચાર પ્રકારનાં હોય છે. વસ્તુના પરિચ્છેદને હેતુ નામ હોય છે, એથી નામને જ અહીં પ્રમાણ કહેવામાં આવ્યું છે, ગમે તે જીવ વગેરેનું પ્રમાણ એવું જે નામ રાખવામાં આવે છે તે “નામ પ્રમાણુ” છે. આ પ્રમાણ સ્થા
अ.६
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अनुयोगद्वारसूबे एवं सर्वत्रापि भावना कार्या । उत्तरयति-नामप्रमाणं हि-यस्य जीवस्य अजीवस्य वेत्यादीनां प्रमाणमिति संज्ञा क्रियते तद् बोध्यम् । इदं हि न स्थापनाद्रव्यभावहेतुकम् , अपि तु नाममात्रविरचनमेव, अत इदं नामप्रमाणमित्युच्यते । एतदुपसंहरन्नाह-तदेतत् नामपमाणमिति ।।सू० १८२॥ ___मूलम्-से किं तं ठवणप्पमाणे ?, ठवणप्पमाणे सत्तविहे पण्णत्ते, तं जहा-णक्खत्तदेवयकुले पासंडगणे य जीवियाहेउं । आभिप्पाइयणामे ठवणानामं तु सत्तविह॥१॥ से कि तं णक्खतणाम?, णक्खत्तणामे-कित्तिआहिं जाए-कित्तिए कित्तिआदिपणे, कित्तिआधम्मे, कित्तिासम्मे, कित्तिआदेवे, कित्तिआदासे, कित्तिआसेणे, कित्तिआरक्खिए। रोहिणीहिं जाए-रोहिणिए, रोहिणिदिन्ने, रोहिणिधम्मे, रोहिणिसम्मे, रोहिणिदेवे रोहिणिदासे, रोहिणिसेणे, रोहिणिरक्खिए य। एवं सत्वनक्खत्तेसु नामा भाणियवा। एत्थं संगहणिगाहाओ-कित्तियरोहिणिमिगसिर,-अझै य पुणवसु य पुस्से य। तत्तो य असिलेसी, महा स्थापना द्रव्य और भाव हेतुक नहीं होता है। किन्तु नामहेतुक होता है, इसलिये वह नाम प्रमाण ऐसा कहा जाता है। नामप्रमाण में केवल प्रमाण की जीवादिक पदार्थों में संज्ञा मात्र ही की जाती है। इसलिये यह नाम प्रमाण कहा गया है । तात्पर्य कहने का यह है-कि-'किसी भी जीव अजीव आदि पदार्थ में " यह प्रमाण है" ऐसा जो नाम निक्षेप किया जाता है, वह नाम प्रमाण है । सू०१८२॥ પના દ્રવ્ય અને ભાવ હેતુક ગણાતું નથી પણ નામ હતુક હોય છે. એથી તે નામ પ્રમાણ એમ કહેવાય છે. નામ પ્રમાણમાં ફક્ત પ્રમાણની જીવ વગેરે પદાર્થોમાં સંજ્ઞા માત્ર જ રાખવામાં આવે છે. એથી આ નામ પ્રમાણ કહેવાય છે તાત્પર્ય એ છે કે “ગમે તે જીવ અજવ વગેરે પદાર્થોમાં આ પ્રમાણ છે એવું જે નામ નિક્ષેપ કરવામાં આવે છે, તે નામ પ્રમાણ છે. સૂ૦૧૮૨ા
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अनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र १८३ स्थापनाप्रमाणनिरूपणम् उदो फरगुणीओ य ॥१॥ हत्थो चित्ती सोती, विसाहाँ तहय होई अणुराहो। जेट्टी मूलौं पुवासौंढा तह उत्तरी चेव ॥२॥ अभिई सवर्ण धनिट्टी, सत्तभिसदा दो य होति भयो। रेवेई अस्सिणि भरणी, एसा नक्खत्तपरिवाडी ॥३॥ से तं नक्खत्तनामे। से किं तं देवयाणामे ?, देवयाणामे-अग्गिदेवयाहिं जाएअग्गिए, अग्गिदिण्णे, अग्गिसम्मे, अग्गिधम्मे, अग्गिदेवे, अग्गिदासे, अग्गिसेणे, अग्गिरक्खिए। एवं सम्वनक्खत्तदेवयां नामा भाणियवा। एत्थंपि संगहणिगाहाओ-अग्गि पयावई सोमे, रुः अदिती विहस्सई सप्पे। पिति भर्ग अजम सवियों तटों वाऊंय इंदांगी ॥१॥ मित्तो इंदो निरई, आऊँ विस्सो य बंभे विण्हयौ । वसु वरुण अर्थ विवधी पूंसे आँसे जमे चेव॥२॥ से तं देवया णामे । से किं तं कुलनामे ? कुलनामे-उग्गे भोगे रायण्णे खत्तिए इक्खागे णाए कोरव्वे ।से तं कुलनामे । से कि तं पासंडनामे?, पासंडनाम--समणेय पंडुरंगे, भिक्खू कावालिए य तावसए। परिवायगे। से तं पासंडनामे।से किं तं गणनामे, गणनामे मल्ले मल्लदिन्ने मल्लधम्म मल्लप्लम्ने मल्लदेवे मल्लदासे मल्लसेणे मल्लरक्खिए। से तं गणनामे। से किं तं जीवियनामे ? जीवियनामे--अवकरए उक्कुरुडए उज्झिअए कज्जवए सुप्पएं। से तं जीवियनामे। से किं तं आभिप्पाइय णामे ? आभिप्पाइयनामे -अंबए निंबए बकुलए पलासए सिणए पिलूए करीरए। से तं आभिप्पाइयनामे।से तं ठवणप्पमाणे ॥सू०१८३॥
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अनुयोगद्वारसूत्रे .... छाया-अथ किं तत् स्थापनाप्रमाणम् ? स्थापनाप्रमाणं-सप्तविधं प्रज्ञप्तं, तद्यथा-नक्षत्रदेवताकुलं पापण्डगणं च जीवितहेतु । अभिप्रायिकनाम स्थापनानाम तु सप्तविधम् । अथ किं तत् नक्षत्रनाम ?, नक्षत्रनाम-कृत्तिक.सु जातः कार्तिकः, कृत्तिकादत्तः कृत्तिकाधर्मः कृतिकाशर्मा कृत्तिकादेवः कृत्तिकादास., कृत्तिकासेनः, कृत्तिकारक्षितः । रोहिणीषु जातः-रौहिणेयः, रोहिणीदत्तः रोहिणीधर्मः, रोहिणीशर्मा, रोहिणीदेवः, रोहिणीदासः, रोहिणीसेनः, रोहिणीरक्षितश्च । एवं सर्व नक्षत्रेषु नामानि भणितव्यानि । अत्र संग्रहणीगाथा:-कृत्तिका१ रोहिणी२ मृगशिराः३ आश्वि४ पुनर्वभू च५ पुष्यं च६ । ततश्च अश्लेषा७ मघाट द्वे फल्गुन्यौ च९-१०॥१॥ हस्तः११ चित्रा१२ स्वातिः१३ विशाखा१४ तथा च भवति अनुराधा१५ । ज्येष्ठा१६ मूला१७ पूर्वाषाढा१८ तथा उत्तरा१९. चैव ॥२॥ अभिजित् २० श्रवणा२१ धनिष्ठा२२ शतभिषग् २३ द्वे च भवतः भाद्रपदे २४-२५। रेवती२६ अश्विनी२७ भरणी२८ एषा नक्षत्रपरिपाटिः ॥३॥ तदेतत् नक्षत्रनाम । अथ कि तत् देवता नाम ? देवतानाम-अग्निदेवतासु जातः आग्निकः, अग्निदत्तः, अग्नि. शर्मा, अग्निधर्मः, अग्निदेवः, अग्निदासः, अग्निसेनः अग्निरक्षितः। एवं सर्वनक्षत्रदेवतो नामानि भणितव्यानि। अत्रापि संग्रहणी गाथा:-अग्निः१ प्रजापतिः२ सोमो३ रुद्रः४ अदितिः५ बृहस्पतिः६ सर्पः७। पितरो८ भर्गोऽर्यमा९-१० सविता११ त्वष्टा१२ वायुश्च१३ इन्द्राग्निः१४॥१॥ मित्र १५ इन्द्रो१६ नि तिः१७ अम्भः१८ विश्वश्व१९ ब्रह्मा२० विष्णुः२१। वसुबरुगः२२-२३ अजो२४ विवद्धिः२५ पूषा२६ अश्वो२७ यमश्चैव२८ ॥१॥ तदेतत् देवतानाम । अथ किं तत् कुलनाम?, कुलनाम-उग्रः, भोगः, राजन्यः, क्षत्रियः, ऐक्ष्वाका, ज्ञातः, कौरव्यः । तदेतत् कुलनाम । अथ किं तत् पाषण्डनाम ? २ श्रमणश्च पाण्डुराङ्गो भिक्षुः कापालिकश्च तापसः । परिव्राजकः। तदेतत् पाषण्डनाम। अथ किं तद् गणनाम ? गणनाम-मल्ला, मल्लदत्तः, मल्लधर्मः, मल्लशर्मा, मल्लदेवः, मल्लदासः, मल्लसेनः, मल्लरक्षितः। तदेतद् गणनाम । अथ किं तत् जीवितनाम ?, जीवितनाम-अवकरकः, उत्कुरुटकः, उज्झितका, कचवरकः, शूर्पकः । तदेतत् जीवितनाम । अथ किं तत् अभिपायिकनाम ? अभिप्रायिकनाम,-अम्बकः, निम्बकः, बकुलका, पलाशका, स्नेहकः, पीलुकः, करीरकः, तदेतत् अभिप्रायिकनाम। तदेतत् स्थापनाप्रमाणम् ॥ सू० १८३ ॥
टीका-'से किं तं ठवणप्पमाणे' इत्यादि
अथ किं तत् स्थापनाप्रमाणम् ? स्थापनाप्रमाणेन यद् नाम निष्पद्यते तत् कि-किंविधम् ? इति शिष्यपश्नः। उत्तरयति-स्थापनानाम हि नक्षत्रनामदेवनाम
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अनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र १८३ स्थापनाप्रमाणनिरूपणम् कुलनाम पाषण्डनामगणनाम जीवितहेतुनामाभिधायिकनामभेदेन सप्तविधं प्रज्ञप्तम् । अयं भावः-नक्षत्र देवता-कुलगणादीन्याश्रित्य यकस्यचिन्नामस्थापन क्रियते, सा इह स्थापना गृह्यते, सैव प्रमाणं तेन हेतृभूतेन सप्तविधं नाम निष्पद्यते इति । तत्र
अब सूत्रकार स्थापना प्रमाण से जो नाम निष्पन्न होता है उसके विषक में कहते हैं-" से किं तं ठवणप्पमाणे" इत्यादि
शब्दा-(से किं तं ठवणप्पमाणे ?) हे भदन्त ! स्थापना प्रमाण से जो नाम निष्पन्न होता है वह कितने प्रकार का होता है ? (ठवणप्पमाणे सत्तविहे पण्णत्ते) स्थापना प्रमाण से जो नाम निष्पन्न होता है, वह सात प्रकार का कहा गया है (तंजहा) जैसें (नक्खत्त देवयकुले पासंडगणे य जीवियाहेउं । आभिप्पाइयणामे ठवगा नाम तु सत्तविहं) नक्षत्र नाम देवनाम, कुलनाम, पाषण्डनाम, गणनाम, जीवितहेतुनाम, अभिप्रायिकनाम । तात्पर्य यह है-नक्षत्र देवता, कुल, गण, आदि का आश्रय करके जो किसी के नाम का स्थापन किया जाता है, वह यहां स्थापना से गृहीत हुआ है। यह स्थापना ही प्रमाण है । इस हेतुभूत स्थापना प्रमाण से सात प्रकार का नाम निष्पन्न होता है । इन सप्तविध नामों के बीच में नक्षत्रों को आश्रित करके जो नाम स्थापित किया जाता है-उसे अब सूत्रकार कहते हैं
હવે સૂત્રકાર સ્થાપના પ્રમાણુથી જે નામ નિષ્પન્ન થાય છે તે વિષે કહે છે"से कि त ठवणापमाणे" त्यात
शहाथ-(से कि त ठवणापमाणे ?) 3 R'त ! स्थापना प्रमाथी २ નામ નિષ્પન્ન થાય છે તેના કેટલા પ્રકાર હોય છે?
उत्तर-(ठवणप्पमाणे सत्तविहे पण्णत्ते) स्थापनाप्रमाथी २ नाम निपान थाय छे, ते सा1 अपामा मा०यां छे. (तजहा) २ (नक्खत्त देवयकुले पासंडगणे य जीवियाहेउं । आभिप्पाइयणामे ठवणानाम तु सत्तविहं) नक्षत्रनाम, हेवनाम, असनाम, नाम, आशुनाम, तहेतुनाम, અભિપ્રાયિકનામ તાત્પર્ય એ છે કે નક્ષત્ર દેવતા, કુલ, ઠાણ વગેરેના આધારે જે નામની સ્થાપના કરવામાં આવે છે. તે અહીં સ્થાપના શબ્દથી ગૃહીત થયેલ છે. આ સ્થાપના જ પ્રમાણ છે. આ હેતુભૂત સ્થાપના પ્રમાણથી સાત પ્રકારના નામે નિષ્પન્ન થાય છે. આ સવિધ નામમાં નક્ષત્રના આધારે જે નામની સ્થાપના કરવામાં આવે છે, સૂત્રકાર હવે તે વિષે કહે છે,
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अनुयोगद्वारसूत्र सप्तविधनाममध्ये नक्षत्राण्याश्रित्य यन्नाम स्थाप्यते तदर्शयति-कृत्तिकामु जात:कार्तिकः कृत्तिकाभिर्दत्तः-कृत्तिकादत्त इत्यादि। एवं रोहिण्याधवशिष्टनक्षत्रेष्वपि समूह्यानि । सकलनक्षत्राणि संग्रहीतुं तिस्रःसंग्रहणी गाथाः प्राह-'कित्तियरोहिणी'
प्रश्न-(से किं तं णवत्त णामे ?) हे भदन्त ! वह नक्षत्र नाम क्या है अर्थात् नक्षत्रों को आश्रित करके जो किसी का नाम स्थापित किया जाता है। वह कैसा होता है ? __उत्तर-(णक्खत्तणामे ) वह नक्षत्र नाम इस प्रकार से स्थापित होता है-(कित्तिमाहिं जाए, कित्तिए, कित्तिमादिण्णे, कित्तियाधम्मे, कित्तियासम्मे, कित्तियादेवे, कित्तिआदासे, किलिआसेणे, कित्तिारक्खिए) कार्तिक, कृत्तिकादत्त, कृत्तिकाधर्म, कृत्तिकाशर्मा, कृत्तिकादेव, कृत्तिकादास, कृत्तिकासेन, कृत्तिकारक्षित इस प्रकार ये नाम कृत्तिका नक्षत्र में जन्म होने के कारण होते हैं। (रोहिणीहिं जाएरोहिणिए रोहिणीदिन्ने रोहिणिधम्मे, रोहिणिसम्मे, रोहिणिदेवे, रोहिणिदासे, रोहिणिसेणे, रोहिणिरक्विए) रौहिणेय, रोहिणीदत्त, रोहिणी धर्म, रोहिणीशर्मा, रोहिणीदेव, रोहिणीदास, रोहिणिसेन, रोहिणी. रक्षित । इस प्रकार ये नाम रोहिणी नक्षत्र में जन्म लेने के कारण होते हैं। ( एवं सव्वनक्खत्तेलु नामा भागियव्वा ) इसी प्रकार से और भी अवशिष्ट नक्षत्रों को आश्रित करके नाम उनमें जन्म होने के कारण
प्रश्न-(से कि त णखत्तणामे ?) 3 महत ! नक्षत्र नाम छ ? એટલે કે નક્ષત્રના આધારે જે નામ રાખવામાં આવે છે, તે કેવું હોય છે?
उत्तर-(णखत्तणामे) ते नक्षत्रनाम मा प्रमाणे स्थापित ४२पामा भावे छ. (कित्ति आहि जार, कित्तिए, कित्तिआदिण्णे कित्तियाधम्मे कित्तिआसम्मे; कित्तिआदेवे, कित्ति आदासे, कित्तिआसेणे कित्ति प्रारक्खिए) ति, इतिકાદત્ત, કૃત્તિકાધર્મ, કૃત્તિકા શર્મા, કૃત્તિકાદેવ, કૃત્તિકાદાસ કૃત્તિકાન, કૃત્તિકારક્ષિત આ જાતના નામે કૃત્તિકા નક્ષત્રમાં જન્મેલાઓના રાખવામાં આવે છે. (रोहिणीहिं जाए-रोहिणीए, रोहिणीदिन्ने, रोहिणीधम्मे, रोहिणीसम्मे, रोहिणिदेवे, रोहिणीदासे, रोहिणीसेणे, रोहिणी रक्खिए) शैहियेय. २.
लित, पिएम રે.હિણીશર્મા, રેડિણીદેવ, રોહિણદાસ, રોહિણીસેન, હિણીરક્ષિત, આટલા नाम मा नक्षत्रमा सामाना रामपामा मावे . (एवं सव्व नक्खत्तेसु नामा भाणियव्वा) मा प्रभारी श्री ५ मा २७ नक्षत्री परथी २२ નામ પાડવામાં આવે છે તે વિષે જાણું લેવું જોઈએ. બધા નક્ષત્રોના નામે
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४७
अनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र १८३ स्थापनाप्रमाणनिरूपणम् इत्यादि । आसामर्थः सुस्पष्टः । ननु नक्षत्रक्रमस्तु अश्विनीभरणीत्यादिक्रमेण दृश्यते, तत् कथमत्र कृत्तिकादिक्रमेण पठितम् ? इति चेदाह-यदाभिजिन्नक्षत्रेण सहाष्टाविंशति नक्षत्राणि पठ्यन्ते तदा कृत्तिकारोहिणीत्यादिक्रम एव दृश्यते, अतस्तं जान लेना चाहिये । समस्त नक्षत्रों के नाम संग्रहणी की इन तीन गाथाओं द्वारा इस प्रकार से कहे गये हैं-(कित्तीयरोहिणि मिगसिरं अहा य पुणवस्तु य पुस्से य) १ कृत्तिका, २ रोहिणी, ३ मृगशिरा, ४ा, ५ पुनर्वसु ६ पुष्य (तत्तो य असिलेसा महा उ दो फग्गुणीओ य)७ अप्लेषा ८ मघा ९ पूर्वा फाल्गुनी १० उत्तरा फाल्गुनी (हत्थो चित्ता साती विसाहा तह य होइ अणुराहा ) ११ हस्त १२ चित्रा १३ स्वाति १४ विशाखा१५ अनुराधा (जेट्ठा भूला पुव्वासाढा तह उत्तरा चेन) १६ ज्येष्ठा १७ मूला, १८ पूर्वाषाढा, १९ उतराषाढा, (अभिई सवण धणिट्ठा, सत्तभिः सया दो य होति भवया) २० अभिजित् २१ श्रवण २२ धनिष्ठा २३ शतभिषग् २४ उत्तराभाद्रपदा २५ पूर्वाभाद्रपदा, (रेवहअस्सिणि भरणी एसा नक्खत्तपरिवाड़ी) २६ रेवती २७ अश्विनी २८ भरणी यह नक्षत्रों की परिपाटी है।
शंका-अश्विनी, भरणी इत्यादिक्रम से नक्षत्रों का क्रम देखा जाता है-फिर संग्रहणीकारने कृत्तिकादि के क्रम से ऐमा क्रम क्यों रखा है ?
उत्तर-जिस समय अभिजित् नक्षत्र के साथ २८ नक्षत्र पढे जाते सघशानी मात्र था। मा प्रमाणे वाम माव्यां छ. (१ कित्तिय रोहिणी मिगसिर अद्दा य पुणव्वसु य पुस्से य) १ ति। २ २४ी , ३ भृगशिरा, ४ भाद्री, ५ पुनर्वसु १ पुष्य (तत्तो य असिलेसा महा उदो फग्गुणीओ य) ७ अश्लेषा, ८ मघा, ८ पूर्वाशगुनी, १. उत्तराशगुनी, (हत्थो चित्ता साती विसाहा तह य होइ अणुराहा) ११ ४२d, १२ चित्रा, १३ स्वाति, १४ विशामा, १५ अनुराधा (जेट्ठा मूला पुवासाढा तह उत्तरा चेव) १६ ज्येष्ठा, १७ भूसा, १८ पूर्वाषाढा, १८ उत्तराषाढा, (अभिई सवणधणिट्ठा, सत्तभिसया, दो य होति भवया) २० सामान, २१ श्रवण, २२ धनिष्ठा, २३ शतभिषयू, २४ उत्तराभाद्रपा, २५ लाद्रपा (रेवइ अस्सिणि, भरणी एसा नक्खत्तपरिवाडी) २६ २वती, २७ मश्विनी, २८ १२९ मा नक्षत्रानी परिपाटी छ.
શંકા-અશ્વિની, ભરણ વગેરે કમથી નક્ષત્રની પરિગણના થાય છે. તે પછી સંગ્રહણકારે કૃતિકાદિ કમથી નક્ષત્રની પરિગણના કેમ સ્વીકારી છે?
ઉત્તર-જે વખતે અભિજિત નક્ષત્રની સાથે ૨૮ નક્ષત્રની ગણના કર
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अनुयोगद्वारसूत्रे नक्षत्रक्रममाश्रियात्र पाठो बोध्यः, अतो नास्ति दोष इति । एतानि कृत्तिकादी. न्यष्टाविंशतिनक्षत्राणि अग्न्याधष्टाविंशतिदेवताभिरधिष्ठितानि, अतः कश्चित् कृत्तिकाधन्यतमनक्षत्रजातस्य तन्नक्षत्राधिष्ठातुरग्न्यायन्यतमस्य नामाश्रित्य नामस्थापनं करोति, तद्दर्शयितुमाह-'अथ किं तद् देवतानाम' इत्यादि । तत्र देवता. नाम-अग्निदेवतासु जात आग्निकः, अग्निदत्त इत्यादि बोध्यम् । एवं रोहिण्यादि हैं उस समय कृत्तिका रोहिणी इत्यादि क्रम ही देखा जाता है। इसलिये इस प्रकार के नक्षत्र क्रम को आश्रित करके पाठ विन्यास में कोई दोष नहीं है। (से तं नक्खत्तनामे ) इस प्रकार यह नक्षत्र नाम हैं ये कृत्तिका आदि २८ नक्षत्र अग्नि आदि २८ देवताओं से अधिष्ठित हैं । इसलिये यदि कोई इन कृत्ति का आदि किसी एक नक्षत्र में उत्पन्न होता है तो उसका नामस्थापन उस नक्षत्र के अधिष्ठायक अग्नि आदि किसी एक देवता के नाम को लेकर किया जाता है-इसी बात को सूत्रकार यों दिखलाते हैं-(से कि तं देवयाणामे) हे भदन्त ! वह देवता नाम क्या है-अर्थात् देवताओं को आश्रित करके जो नामस्थापित किया जाता है, वह कैसा होता है ?
उत्तर-(देवयाणामे) वह देवतानाम इस प्रकार से है-(अग्गि देवयाहिं जाए, अग्गिए) क्यों कि, वह अग्निदेवता में उत्पन्न हुआ है इसलिये ये आग्निक (अग्गिदिण्णे) अग्निदत्त (अग्गिसम्मे) अग्निशर्मा (अग्निधम्मे) अग्निधर्म (अग्गिदेवे) अग्निदेव (अग्गिरक्खिए) अग्निવામાં આવે છે, તે વખતે કૃતિકા રહિણી વગેરે કમજ જોવામાં આવે છે, એથી આ જાતના નક્ષત્રક્રમને આધારભૂત માનીને પાઠવિન્યાસ કરવામાં આવે तो त्रुटि न गयाय (से तं नक्खत्तनामे) मा प्रमाणे ॥ नक्षत्राना નામે છે. આ કૃતિકા વગેરે ૨૮ નક્ષત્ર અગ્નિ વગેરે ૨૮ દેવતાઓથી અધિષ્ઠિત છે. એથી જે કઈ આ કૃતિકા વગેરે કોઈ એક નક્ષત્રમાં ઉત્પન્ન થાય તે તેનું નામ તે નક્ષત્રના અધિષ્ઠાયક અગ્નિ વગેરે કે એક દેવતાના નામ પરથી રાખવામાં આવે છે. એ જ વાતને સૂત્રકાર આ પ્રમાણે સ્પષ્ટ કહે છે. (से कि तं देवयाणामे) सन्त ! हेवता नाम शुछ? सटसे देवताએના આધારે જે નામે સ્થાપિત કરવામાં આવે છે તે કેવાં હોય છે?
6त्तर-(वयाणामे) ते देवता नाम मा प्रमाणे छे. (अग्गि देवयाहिं जाए, अग्गिए) मत मनि टेवतामा पनि येस छ. मेथी त मानि (अग्गिदिण्णे) मनिहत्त, (अग्गिसम्मे) निर्मा, (अगिधम्मे) भनिधी, (अग्गिदेवे) निव, (अग्गिदासे) मनिहास, (अग्गिसेणे) मनसेन, (अग्गि
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अनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र १८३ स्थापनाप्रमाणनिरूपणम् ४९ तत्तन्नक्षत्रस्याधिष्ठाता प्रजापत्यादिः स स देवो बोध्यः । तत्तन्नाम्नाऽपि नामस्थापनं क्रियते । तत्तु प्राजापतिकः प्रजापतिदत्त इत्यादिरूपेण स्वयमभ्युह्यम् । पत्र देवतानामानि संग्रहीतुं सूत्रकारो द्वे-संग्रहणी गाथे माह-'अग्गिपयावइ' इत्यादि । अनयोव्याख्या स्पष्टा । इत्थं देवतानाम बोध्यम् । एतदेव दर्शयति'तदेतद् देवतानाम' इत्युपसंहारवाक्येनेति । अथ कुलनाम दर्शयति-यो हि यस्मिन् कुले जातस्तत्कुलनाम्ना तस्य नामस्थापनं चेत् क्रियते तदा कुलनामरूपं रक्षित। (एवं सव्वनक्खत्त देवया नाम भाणियव्वा) इसी प्रकार से
और भी अवशिष्ट देवताओं को आश्रित करके उनके नाम उनमें जन्म होने के कारण स्थापित करलेना चाहिये । जैसे-रोहिणी नक्षत्र का अधिष्ठाता प्रजापति देवता है। सो जो इस नक्षत्र में उत्पन्न होता है उसका नामस्थापन उस नक्षत्र के अधिष्ठाता देवता के नाम को लेकर दिया जाना है-यथा-पाजापतिक, प्रजापति दत्त इत्यादि-यहां देवतानामों को संग्रह करने के लिये सूत्रकार ने ये दो संग्रहणीकी गाथाएँ कहीं हैं-(अग्गिपयावई सोमे, रुद्दो अदिती विहस्सई सप्पे) अग्नि, प्रजापति, सोम, रुद्र, अदिति, बृहस्पति, सर्प (पितिभगअज्जम, सविया, तहा वाऊय इंदग्गी) पिता, भग अर्यमा, सविता, स्वष्टा, वायु, इन्द्राग्नि, (मित्तो इंदो निरई आऊ विस्सो य बंभ विण्हया) मित्र इन्द्रनिति, अम्भ, विश्व, ब्रह्मा, विष्णु, (वसुवरुणअय विवद्धी, पूसे
आसे जमे चेय) वसु, वरुण, अज, विवर्द्धि, पूषा, अश्व यम। (से तं देवरक्खिए) भनिरक्षित, (एवं सव्वनक्खत्तदेवया नाम भाणियव्वा) मा प्रमाणे બીજા પણ સર્વ દેવતાઓના આધારે તેમના નામે તેમનામાં જન્મ પ્રાપ્ત કરવા બદલ સ્થાપિત કરી લેવાં જેમ કે રોહિણી નક્ષત્રને અધિષ્ઠાતા પ્રજાપતિ દેવ છે. તે આ નક્ષત્રમાં જે ઉત્પન્ન થયો હોય છે, તેનું નામ તે નક્ષત્રના અધિષ્ઠાતા દેવતાના નામના આધારે રાખવામાં આવે છે. જેમ કે પ્રાજાપતિક, પ્રજાપતિદત્ત વગેરે અહીં દેવતાઓના નામના સંગ્રહ માટે સૂત્રકારે બે स नी थामे ही छे. (अग्गिपयावई सोमे, रुहो अदिती विहस्सई सव्वे) Mन, पति, सोम, , हित, ९५ति, सव' (पित्ति भगअज्जम, सविया, तढा पाऊय इंदग्गी) पिal, an अभा, सविता, स्पष्ट, पायु,
-NA (मित्तो इंदो निरई आऊ विस्सो य बंभ विल्हया) मित्र, न्द्र, निति, मन, विश्व, ब्रह्मा, विY (वसु वरुण, अय विषद्धी पूसे आसे जमे चेव) वसु, १३१, २, विद्धि, पा, १११, यम (से तं देवयाणामे)
अ०७
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अनुयोगद्वारसूत्रे स्थापना नाम भवति । यथा-उग्रो भोग इत्यादि । उग्रांशोद्भवत्वेन उग्र इति नाम स्थाप्यते, भोगवंशोहरत्वेन भोग इति । एवं राजन्यादिष्यपि बोध्यम् । अथ पाष. ण्डनाम यथा भवति तथाऽऽह-पाषण्डनाम हि येन यत्पापण्डमाश्रितं तस्य तन्नाम्ना स्थाप्यते । यथा श्रमणः पाण्डुराङ्गो भिक्षुः कापालिकस्तापसः परिव्राजक याणामे ) इस प्रकार, ये २८ देवताओं के नाम है । ( से किं तं कुलनामे) हे भदन्त ! कुल नाम क्या है ?
उत्तर-जो.जिस कुल में उत्पन्न होता है उस कुल के नाम से यदि उसका नाम स्थापन होता है, तो वह कुल नामरूप स्थापन होता है । (कुल नामे) कुल नाम इस प्रकार हैं-( उग्गे, भोगे, रायपणे, खत्तिए, इक्खागे, णाए' कोरव्वे-सेतं कुलनामे) उग्रकुल, भोगकुल, राजन्य कुल, क्षत्रियकुल, ऐक्ष्वाककुल, ज्ञातकुलं कौरव्यकुल । उग्र वंश में जन्म लेने से उग्र ऐसा नाम स्थापित किया जाता है। भोगवंश में उत्पन्न होने से भोग। इसी प्रकार राजन्य आदि में भी जानना चाहिये। इस प्रकार ये कुल के नाम हैं । (से कि तं पासंडनामे) हे भदन्त ! पाषण्ड नाम क्या है ? .
उत्तर-(पासंडनामे) जिसने जिस पाषण्उ को आश्रित किया उससे जो उसका नाम स्थापित किया जाता है वह पाषण्ड नाम है। वह इस प्रकार से है-जैसे-(समणे य पंडुरंगे भिक्खू कावालिए य या प्रमाणे मा २८. पिता-माना नाम छे. (से कि त कुलनामे) 3 HE!:दानाम छ ?
ઉત્તર-જે વ્યક્તિ જે કુલમાં ઉત્પન્ન થાય છે, તે કુલના નામથી જે તેનું नाम रामपामा मावेत नाम ३५ स्थापना नाम उवाय छे. (कुलनामे) ga नाम मा प्रमाणे छे. (उग्गे, भोगे, रायण्णे, खत्तिए, इक्खागे, णाए, कोरव्वे, से त कुलनामे) Suga, गव, सरन्य, क्षत्रियस, मेवाકુલ, જ્ઞાનકુલ, કૌરવ્યકુલ, ઉગ્રવંશમાં જન્મ પ્રાપ્ત કરવાથી ઉગ્ર એવું નામ સ્થાપિત કરવામાં આવે છે. ભગવંશમાં ઉત્પન્ન થવાથી ભેગનામ રાખવામાં આવે છે. આ પ્રમાણે જ રાજન્ય વગેરે માટે પણ જાણી લેવું न म प्रमाणे म. सोन नामी छ. (से किं त' पासंडनामे है ભદંત ! પાખંડ નામ શું છે?
उत्तर-(पासंड नामे) २२ पाउने। माश्रय सीधा य तथा ने तेनुं નામ રાખવામાં આવ્યું તે નામ પાવંડ નામ છે. તે આ પ્રમાણે છે. જેમ કે
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अनुयोवन्द्रिका टोका सूत्र १८३ स्थापनाप्रमाणनिरूपणम्
५१
इति । तत्र - श्रमणाः - निर्ग्रन्थशाक्य तापस गैरिकाऽऽजीवाः पञ्चविधाः । निर्ग्रन्थादीनि पञ्च पापण्डान्याश्रित्य श्रमण इति नाम स्थाप्यते । पाण्डुराङ्गः = भस्मोद्धूलितशरीरः शैत्रः पापण्डिविशेषः । भिक्षुर्बुद्धदर्शनाश्रितः । कापालिकः = चिताभस्मोधूलितशरीरः पाषण्डिभेदः । तापसः - सतरस्को वनवासी पाषण्डिविशेषः । परिव्राजक :- परिवजति गृहाद् गच्छतीति परिव्राजकः - पाषण्डिविशेषः । एतान् श्रमणादीन् पापण्डानाश्रित्य यन्नाम स्थाप्यते तत्पापण्डस्थापनानामे बोध्यम् । अथ गणनाम निर्दिशति - गणः = आयुधजीविनां संघः, तन्नाम्ना यत्कस्यचिन्नाम तावसए । पारिवापगे-से तं पाडनामे) श्रमण, पाण्डुराङ्ग, भिक्षु, कापालिकतापस, परिव्राजक । इनमें जो श्रमण हैं - वे निर्ग्रन्थ, शाक्य, तापस गैरिक और आजीवक ये पांच प्रकार के हैं । इन निर्ग्रन्थादिक पांच पाषण्डों को आश्रित करके श्रमण ऐसा नाम स्थापित होता है । भस्म से जिनका शरीर लिप्त होता है, ऐसे शैव पाण्डुराङ्ग कहलाते हैं । बुद्ध दर्शन को मानने वाले भिक्षु कहलाते हैं । चिता की भस्म को जो अपने शरीर पर लिप्स करते हैं, वे पापण्डविशेष 'कापालिक ' हैं । जो तप करते हैं और वन में रहते हैं, वे पापण्ड विशेष 'तापस' कहलाते हैं । जो घर से चले जाते हैं अर्थात् घर छोड़ देते हैं- वे पाषण्डि विशेष परिव्राजक कहलाते हैं । इन श्रमणादिक पाषण्डों को आश्रित कर जो नाम स्थापन किया जाता है, वह पाषण्ड स्थापननाम है । इस प्रकार यह पाषण्ड नाम है । ( से किं तं गण नामे ? ) हे भदन्त वह गण नाम क्या है ? ( गणनामे) आयुधजीवियों का जो संघ
(समणे य पंडुरंगे भिक्वुकावालिए य तावसए । पारिवायगे-से त पाडनामे) श्रमण, पांडुरंग, भिक्षु, अपसिङ, तापस, परिवाब, आमां ने श्रमाणु छे तेथे निर्थंथ, शास्य, तापस, गैरिस भने आलवा आम पांयारना छे. આ નિગ્રંથાર્દિક પાંચ પાડાને આશ્રિત કરીને શ્રમણ એવુ નામ સ્થાપિત થાય છે. ભસ્મથી જેનું શરીર લિપ્ત હૈાય છે. એવા રૌત્ર પાંડુરાંગ કહેવાય છે, બુદ્ધ દનને માનનારા ભિક્ષુ કહેવાય છે. ચિતા ભસ્મને પેાતાના શરી પર લગાડનારા તે ‘કાપાલિક’ કહેવાય છે. જેએ તપ કરે છે અને વનમાં રહે છે, તે પાપડ વિશેષ ‘તાપસ ’ કહેવાય છે. જેએ ઘરથી જતા રહે છે, એટલે કે ઘરને ત્યાગ કરે છે પાષંડ વિશેષ ‘ પરિવ્રાજક' કહેવાય છે. આ શ્રમદિક પાખડાને આ શ્રત કરીને જે નામની સ્થાપના કરવામાં આવે छे, ते पात्र छे. आ प्रमाये या पापडेनाम है. (से किंव
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अनुयोगद्वारसूत्रे स्थाप्यते तद् गगनाम बोध्यम् । यथा-मल्लो मल्लदत्तो मल्लधर्म इत्यादि । यस्या अपत्यं जातमात्रमेव म्रियते सा स्वापत्यजिवितहेतोर्यकिमपि नाम करोति तज्जीवितनाम, यथा-अवकरक उत्कुरुटक इत्यादि । तथा-यन्नाम गुणनिरपेक्षं स्वाभिमायवशेन लोकरूढया व्यवस्थाप्यते तत् आभिमायिकनाम । यथा-अम्बको निम्बक होता है, वह यहां गण शब्द को अर्थ है । उस नाम से जो किसी का नाम स्थापित किया जाता है वह गण नाम है। जैसे (मल्ले, मल्लदिन्ने, मल्लधम्मे, मल्लसम्मे, मल्लदेवे मल्लदासे, मल्लसेणे, मल्लरक्खिए) मल्ल, मल्लदत्त, मल्लधर्म, मल्लशर्मा, मल्लदेव, मल्लदास, मल्लसेन, मल्लरक्षित । (से तं गणनामे) इस प्रकार यह गण नाम है। (से किं तं जीवियनामे ) हे भदन्त ! जीवित नाम क्या है ? (जीवियनामे) जिस स्त्री का अपत्य-(संतान) उत्पन्न होते ही मर जोता है, वह उसके जीवित निमित्त उसका चाहे जो नाम रख लेती है, वह 'जीवित नाम' है । वह इस प्रकार से है-(अवकरए, उक्कुरडए, उजिझभए, कज्जा. वए, सुप्पए) अवकरक, उत्कुरूटक, उज्झितक, कचवरक, शूर्पक। (से तं जीवियनामे ) इस प्रकार से यह जीवित नाम । (से किं तं
आभिप्पाइयनामे) हे भदन्त ! आभिप्रायिक नाम क्या है ? ___ उत्तर-(आभिप्पाइयनामे) गुण की अपेक्षा किये विना जो नाम अपने अभिप्राय के वश से लोकरूढी को लेकर रख लिया जाता है वह गणनामे?) मत! ते गणनाम शुछ १ (गणनामे) आयुध विमान २ સંધ હોય છે, તે અહીં ગણ શબ્દથી સંબધિત સમજવો જોઈએ આ નામથી ગમે તેનું નામ રાખવામાં આવે છે, તે ગણનામ છે. જેમ કે (मल्ले, मल्लदिन्ने, मल्लधम्मे, मल्लसम्मे, मल्लदेवे, मलदासे, मल्लसेणे मल्लरक्खिए) मस, भत्त, मसयम, मशर्मा, महेव, भतहास, भासेन, HEA२ क्षत. (से कि त जीवियनामे) ! पित नाम शु ७. (जीविय नामे) २ श्रीनु सतन 6पन्न थdir भर पाम छे, ते તેના જીવિત નિમિત્તે તેનું ગમે તે નામ રાખી લે છે. તે કવિતનામ છે.
॥ प्रभारी छ. (अवकरए, उक्कुरुडए, उझि भए, कज्जावए, सुपए) १४२४, २८४, Glrsds, ध्य१२४, शू५४ (से कि त जीवियनामे) या प्रमाणे ॥ वितनाम छ. (से कि त आभिप्पाइय नामे) 3 मत ! આભિપ્રાયિક નામ શું છે?
उत्तर-(आभिप्पाइय नामे) अपना आधारे नहि पोशति भुराम જે નામે પિતાના અભિપ્રાય મુજબ રાખવામાં આવે છે, તે આભિપ્રાયિક
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अनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र १८४ द्रव्यप्रमाणनिरूपणम् इत्यादि । इदं सर्व स्थापनानाम बोध्यम्। एतदुपसंहरन्नाह-तदेतत्स्थापना प्रमाणमिति ॥मू०१८३॥
मूलम्-से किं तं दव्वप्पमाणे ? दव्वप्पमाणे-छविहे पण्णत्ते, तं जहा-धम्मस्थिकाए जाव अद्धासमए।से तंदवप्पमाणे॥सू.१८४॥
छाया-अथ किं तद् द्रव्यपमाणम् ? द्रव्यप्रमाणं षड्विधं प्रज्ञप्तम् , तद्यथाधर्मास्तिकायो यावत् अद्धासमयः। तदेतत् द्रव्यप्रमाणम् ।।पू० १८४॥
टीका-'से किं तं' इत्यादि
अथ किं तद् द्रव्यप्रमाणं द्रव्यप्रमाणं हि धर्मास्तिकायाधर्मास्तिकायादि यावददासमयान्तं पइविधमित्युत्तरम् । धर्मास्तिकायाधर्मास्तिकायादीनि षइविषयाणि नामानि द्रव्यपमाणेन निष्पन्नानि, अतो धर्मास्तिकायादीनि द्रव्याणि विहाय अभिप्रायिक नाम कहलाता है । जैसे (अंबए, निंबए, यकुलए, पलासए, सिणए, पिलूए, करीरए) अंचक, निंबक, बकुलक, पलाशक, स्नेहक, पीलुक, करीरक। (से तं अभिप्पाइयनामे) इस प्रकार यह अभिप्रायिक नाम है ( से तं ठवणप्पमाणे ) यह स्थापना प्रमाण है ॥सू० १८३ ॥
"से किं तं दवप्पमाणे" इत्यादि ।
उत्तर-(से कि तं व्यापमाणे) हेभदन्त ! वह द्रव्य प्रमाण क्या है। अर्थात् द्रव्यप्रमाण से जो नाम निष्पन्न होता है, वह कितने प्रकार का है ?
उत्तर-(दव्यप्पमाणे छबिहे पण्णत्ते) द्रव्यप्रमाण छह प्रकार का प्रज्ञप्त हुआ है-(तं जहा) वह इस प्रकार से है-(धम्मस्थिकाए जाब अद्धासमए-से तं दवप्पमाणे) धर्मास्तिकाय यावत् अद्धासमय-यह नाम उपाय छे. रेभ है-अंबए, निबए, बकुलए, पलासए, सिणए, पिलूए करीरए) , नि५४, ४, ५माश, स्नेह, पा, श्री२४, (से त
आभिप्पाइय नामे) मारे 40 मालिप्रायि नाम छ (से कि त ठवणप्पमाणे) मा स्थापना प्रभाय छे. । सू०१८३॥ ___“से कि तं दव्वप्पमाणे त्याह
शहाथ:-(से कि त दव्वप्पमाणे) ३ महत! ॥ द्रव्यप्रभा छ? એટલે કે દ્રવ્યપ્રમાણથી જે નામ નિષ્પન્ન થાય છે તે કેટલા પ્રકારનાં છે ?
उत्तर-(दव्वापमाणे छव्विहे पण्णत्ते) द्र०५प्रमाण ७ प्रश्नी प्रज्ञा यय छे. (तजहा) - प्रमाणे छे. (धम्मस्थिकाए जाव अद्धासमए-से त
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अनुयोगद्वारसूत्र न कदाचिदन्यत्र तिष्ठन्तीति तद्वेनुकानीमानि नामानीति भावः। ननु एतानि अनादिसिद्धान्तत्वेनयोक्तानि कथं पुनरिह द्रव्यप्रमाणत्वेनोक्तानि ? इति चेदाहभात्वेषामनादिसिद्धान्तनिष्पन्नलम्, तथाप्येषां द्रव्यप्रमाणत्वे बाधाऽभावः, अनन्तधर्मात्मके वस्तुनि तत्तद्वीपेक्षवाऽने व्यपदेशताया निर्दोषत्वात् । एवमन्य. त्रापि यथासंभवं वक्तव्यम् । प्रकृतमुपसंहरति-तदेतत् द्रव्यप्रमाणम् इति ॥सू० १८४॥
मूलम्-से किं तं भावप्पमाणे ?, भाअप्पमाणे-चउबिहे पण्णत्ते, तं जहा--सामासिए तद्धियए धाउए निरुत्तिए । से कि द्रव्यप्रमाण है । धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, आकाशास्तिकाय जीवास्तिकाय, पुद्गलास्तिकाय और अद्धासमय ये जो छह नाम हैं, वे द्रव्यप्रमाण निष्पन्न नाम हैं । क्यों कि ये नाम धर्मास्तिकाय आदि द्रव्यों के सिवाय और किसी में लागू नहीं होते हैं। - शंका-ये तो अनादि सिद्धान्त निष्पन्न नाम से पहले कहे जा चुके हैं। फिर यहां इन्हें द्रव्य प्रमाण निष्पन्न नाम से क्यों कहा गया है ?
उत्तर-ठीक है, इनमें अनादि सिद्धान्त निष्पन्न नामता भले रहे फिर भी इनमें द्रव्यप्रमाण निष्पन्न नामता में कोई बाधा नहीं है। क्यों कि, वस्तु अनंत धर्मात्मक है। उसमें तत्तद्धर्न की अपेक्षा से अनेक नामों द्वारा व्यपदिष्ट होने में कोई विरोध नहीं आना है । इसी प्रकार से दूसरि जगह भी यथासंभव जानना चाहिये। सू. १८४ ॥ दव्यप्पमाणे) मस्तिय यावत् मद्धा समय मा द्रव्यमाय छे. पस्ति . કાય, અધર્માસ્તિકાય, આકાશાસ્તિકાય, જીવાસ્તિકાય, પુલાસ્તિકાય, અને અઢાસમય એ ૬ નામે છે, તે દ્રવ્ય પ્રમાણ નિષ્પન્ન નામે છે કેમકે એ નામ ધર્માસ્તિકાય વગેરે દ્રવ્ય સિવાય બીજા કેઈ માટે વપરતા નથી.
શંકા-આ તે અનાદિ સિદ્ધાન્ત નિષ્પન્ન નામથી પહેલાં કહેવામાં આવ્યાં જ છે, પછી અહીં દ્રવ્યપ્રમાણુ પિન નામથી ફરી શા માટે કહેવામાં આવ્યાં છે ?
ઉત્તર-બરાબર છે, આ બધામાં અનાદિસિદ્ધાન્ત નિપજ નામતા ભલે રહે પણ છતાંએ એ સર્વમાં દ્રવ્ય પ્રમાણ નિન નામતામાં કોઈ પણ જાતને વધે દેખાતું નથી. કેમકે વસ્તુ, અનંત ધા છે. તેમાં તત્ત
ની અપેક્ષાથી અનેક નામે વડે પવિષ્ટ થવામાં કે ઈ પણ જાતને વિરોધ દેખાતું નથી આ પ્રમાણે બીજે પણ જાણી લેવું જોઈએ. માસૂ૦૧૮૪
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अनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र १८५ भावप्रमाणनिरूपणम् तं सामासिए ?२ सत्त समासा भवंति, तं जहा-दंदे य बहवीही, कम्मधारय दिग्गु य। तप्पुरिल अब्बईभावे, एकससे य सत्तमे॥१॥ से किं तं दंदे ?, दंदे-दंता य ओटा य दंतोडे, थणा य उयरं य थणोयरं, वत्थं य पत्तं य वत्थपत्तं, आसा य महिसा य आसमहिसं, अही य नउलो य अहिनउलं, से तं दंदे समासे। से किं तं बहुव्वीही समासे? बहुव्वीहीसमासे-फुल्ला इमंमि गिरिमि कुडयकरंबो सो इमो गिरी फुल्टुकुडयक यंबो। से तं बहुव्बाही समाते। से कि त कम्माधारए?, कम्माधारए धवलो वसहो धवलवसहो, किण्हो मियो किण्हमियो, सेतो पडो सेतपडो, रत्तो पडो रत्तपडो, से तं कम्मधारए। से किं तं दिगुसमासे ? दिगुसमासे-तिण्णि कडुगाणि तिकडुगं, तिणि महुराणि तिमहुरं, तिपिण गुणाणि तिगुणं, तिणि पुराणि तिपुरं, तिणि सराणि तिसरं, तिषिण पुक्खराणि तिपुक्खरं, तिगि विदुआणि तिबिंदुअं, तिण्णि पहाणि तिपह, पंच नईओ पंचगयं, सत्तगयां सत्तगयं, नवतुरंगा नवतुरंगं, दसगामा दसगाम, दस पुराणि दसपुरं, से तं दिगु तमासे।से किं तं तप्पुरिसे?, तप्पुरिस-तित्थे कागो तित्थकागो, वणे हत्थी वणहत्थी, वणे वराहो वणवराहो, वणे माहिसो वणमाहसो, वणे मऊरो वणमऊरो। सेतं तत्पुरिसे। से किं तं अन्यभावे ?, अवइभावे-गामस्स पच्छा-अणुगाम एवं अणुणइयं अणुफरिसं, अणुचरियं । से तं अवईभावे समासे। से किं तं एगसेसे?, एगसेसे जहा एगो पुरिसो तहा बहवे पुरिसा,
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अनुयोगद्वारसूत्रे जहा बहवे पुरिसा तहा एगो पुरिसो, जहा एगो करिसावणो तहा बहवे करिसावणा, जहा बहवे करिसावणा तहा एगो कारसावणो, जहा एगो साली तहा बहवे साली, जहा बहवे साली तहा एगो साली। से तं एगसेसे समासे। से तं समासिए ॥सू० १८५॥
छाया-अथ किं तत् भावप्रमाणम् ?, भावप्रमाणं-चतुर्विधं प्रज्ञप्तं, तद्यथासामासिकं तद्धितजं धातुकजं निरुक्तिनम् । अथ किं तत् सामासिकं १२ सप्तसमासाः भवन्ति, तद्यथा-द्वन्द्वश्व बहुव्रीहिः कर्मधारयो द्विगुश्च। तत्पुरुषः अव्ययीभावः एकशेषश्च सप्तमः।।१।। अथ कोऽसौ द्वन्द्वः-दन्ताश्च ओष्टौ च दन्तोष्ठम् , स्तनों च उदरं च स्तनोदरम् , वस्त्रं च पात्रं च वस्त्रपात्रम् , अश्वाश्च महिषाश्च अश्वमहिषम् , अहिश्च नकुलश्च अहिनकुलम् । स एष द्वन्द्वः समासः। अथ कोऽसौ बहुव्रीहिः समासः ? बहुव्रीहिः समाप्तः-फुल्ला अस्मिन् गिरौ कुटजकदम्बा सोऽयं गिरिःफुल्लकुटजकदम्बः। स एष बहुव्रीहिसमासः। अथ कोऽसौ कर्मधारयः? कर्मधारयःधवलो वृषभो धवलकृषभः, कृष्णो मृगः कृष्णमृगः, श्वेतः पटः श्वेतपटः, रक्तः पटो रक्तपटः । स एष कर्मधारयः । अथ कोऽप्तौ द्विगुसमासः १ द्विगुसमास:श्रीणि कटुकानि त्रिकटुकम् , त्रीणि मधुराणि त्रिमधुरम् , त्रयो गुणाः-त्रिगुणम् , श्रीणि पुराणि त्रिपुरम् , त्रयः स्वरात्रिस्वरम् , त्रीणि पुष्कराणि त्रिपुष्करम् , त्रीणि बिन्दुकानि त्रिबिन्दुकम् , त्रयः पन्थानः-त्रिपथम् , पश्च नघः पश्चनदम् , सप्त गजाः सप्तगजम् , नव तुरङ्गाः-नवतुरङ्गम् , दश ग्रामाः-दशग्रामम् , दशपुराणिदशपुरम् । स एष द्विगुसमासः। अथ कोऽसौ तत्पुरुषः? तत्पुरुषः-तीर्थ काकःतीर्थकाकः, वने इस्ती-वनहस्ती, वने वराहः-वनवराहः, वने महिष:-वनमहिषः, वने मयूर:-चनमयूरः । स एष तत्पुरुषः। अथ कोऽसौ अव्ययीभावः? अव्ययीभावः-ग्रामस्य पश्चा अनुग्रामम् , एवम् अनुनदिकम् , अनुस्पर्शम् , अनुवरितम् । स एषोऽव्ययीभावः समासः । अथ कोऽप्तौ एकशेषः-एकशेषो यथा एकः पुरुषस्तथा बहवः पुरुषाः, यथा बहवः पुरुषास्तथा एकः पुरुषः, यथा एकः कार्षापणस्तथा बहवः कार्षापणाः, यथा-बहवः कार्षापणास्तथैकः-कार्षापणः, यथा एकः शालिस्तथा बहवः शालयः, यथा बहवः शालयस्तथैकः शालिः। स एष एकशेषः समासः । तदेतत् सामासिकम् ॥१८५॥
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५७
अनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र १८५ भावप्रमाणनिरूपणम्
टीका-'से किं तं' इत्यादि
अथ किं तद् भावप्रमाणम् ?=भावः-युक्तार्थत्वादिको गुणः, स एव वस्तुपरिच्छेदकत्वाद् प्रमाणं तत् किं-किंविधम् ? इति प्रश्नः। उत्तरयति-भावप्रमाणं सामासिक तद्धितजधातुजनिरुक्तिजभेदाच्चतुर्विधं प्रज्ञप्तम् । तत्र सामासिकं द्वन्द्वबहुव्रीहि कर्मधारयद्विगुतत्पुरुषाव्ययीभावैकशेषेति सप्तविधम् । तत्र प्रत्येकं सोदाहरणमाह-'से किं तं दंदे ?' इत्यादि । शिष्यः पृच्छति-अथ कोऽसौ द्वन्द्वः? द्वन्द्वो
“से किं तं भावप्पमाणे ?" इत्यादि ।
शब्दार्थ-(से किं तं भावप्पमाणे) हे भदन्त ! भाव प्रमाण क्या है ? " भाव एव प्रमाणं" भावप्रमाणं " इस व्युत्पत्ति के अनुसार भावरूप जो प्रमाण है, यह भावप्रमाण है । यह भाव प्रमाण कितने प्रकार का होता है ?
उत्तर--(भावप्पमाणे-वउविहे पपणत्ते) भावप्रमाण चार प्रकार का होता है-(तं जहा) जैसे (सामासिए, तद्धियए, धाउए निरुत्तिए) सामासिक, तद्वितज, धातुज, निरुक्तिज । ( से किं तं सामासिए ?) हे भदन्त ! सामासिक भावप्रमाण क्या है ?
उत्तर-(सत्तसमासा भवंति ) समास सात होते हैं-(तं जहा) वे इस प्रकार से हैं (दंदेय बहुव्वीही, कम्मधारय दिग्गुय । तप्पुरिस, अव्वईभावे, एक्कसेसेय सत्तमे) बन्छ, बहुव्रीहि, कर्मधारय, द्विगु, तत्पु. रुष, अव्ययीभाव, सातवां एकशेष (से किं तं दंदे) हे भदन्त ! बन्छ समास क्या है ?
" से कि त भावप्पमाणे १" त्याह
शहाथ-(से कि त भावप्पमाणे) ३ मत । माक्प्रभा शु छे! 'भाव एव प्रमाणं भावप्रमाणं' मा व्युत्पत्ति भुम मा ३५२ प्रमा છે, તે ભાવ પ્રમાણ છે આ ભાવ પ્રમાણ કેટલા પ્રકાર હોય છે?
उत्तर-(भावप्पमाणे-चउठिवहे पण्णत्ते) मा प्रमाण या२ प्रश्न काय छ. (तंजहा) रेभ (सामासिए तद्धियए धाउए निरुत्तिए) सामासि, तद्धिता, धातु, निहित (से किं तं सामासिए?) Ra ! सामामिला. પ્રમાણ એટલે શું? ___ उत्तर-(सत्त समासा भवंति) समास सात सय छे. (तंजहा) l प्रभा छे. (देय बहुव्वीही, कम्मधारय दिग्गु य तप्पुरिसं, अव्वईभावे एक्क. सेसे य सत्तमे) Tra, मीडि, भधारय, विY, त५३५, भव्ययीला, भने शेष. (से कि तं दंदे ) 3 महत ! समास मेट शु? ..
अ००८
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अनुयोगद्वारसूत्रे हि-दन्ताश्च ओष्ठौ चेति दन्तोष्ठम् , स्तनौ च उदरं चेति स्तनोदरम् । उभयत्रापि प्राण्यङ्गत्वादेकवद्भावः। वस्त्रं च पात्रं चेति वस्त्रपात्रम् । “जातिरमाणिना"-मित्येकबद्भावः । अश्वाश्च महिपाश्चेति अश्वमहिषम् , अहिश्च नकुलंचेति-अहिनकुलम् । "येषां च विरोधः शाश्वतिकः" इत्येकवद्भावः। एवमन्यान्यप्युदाहरणानि स्वयमभ्यूह्यानि । तथा-फुल्ला:=पुष्पिताः अस्मिन् गिरौ कुटजकदम्बाः सोऽयं
उत्तर-(दंदे दंता य ओहा य दंतोटुं, थणाय उरे य, थणोरे पत्थं य पत्तं य बत्थपत्तं, आसाय महिसाय आसमहिसं, अही य नउला य अहिनउलं-सेत्तं दंदे समासे ) द्वन्द्व समास इस प्रकार से है- दन्ताश्च औष्ठौ च इति दन्तोष्ठम् - स्तनौ च उदरं च इति स्तनोदरम् यहां दोनों जगह प्राणी का अंग होने के कारण "प्राण्यङ्गत्वात्" इस सूत्र से एकवद्भाव हुआ है । "वस्त्रं च पात्रं च इति वस्त्रपात्रम् यहां पर जातिरप्राणिनाम्" इस सूत्र से एकवद्भाव हुआहै।" अश्वाश्च महिषाश्च इति अश्वमहिषम् अहिश्च नकुलं च इति अहिनकुलम्" यहां पर " येषां च विरोधः शाश्वतिकः” इस नियमानुसार एकवद्भाव हुआ है। इसी प्रकार के और भी उदाहरण कल्पित कर लेना चाहिये । इस प्रकार यह बन्छ समास है । (से किं तं बहुब्बीही समासे) हे भदन्त ! बहुश्रीहि समास क्या है ?
उत्तर-(बहुव्वीहीसमासे ) बहुव्रीहि समास इस प्रकार से है(फुल्ला इमंमि गिरिंमि कुडयकयंवा सो इमो गिरी फुल्लकुडयकयंषो)
उत्तर-(दंदे देता य ओद्वाय दंतोटुंथणाय उदरं य थणोदरं वत्थं य पत्तं य वत्थपत्त, आसा य महिसाय आसमहिसं अही य नउठा य अहिनहुलं, से त्तं देदे समासे) द्वन्द्व समास मा प्रमाणे छ. "दन्ताश्च औष्ठौ च इति दन्तोष्ठम्, स्तनौ च उदरं च इति स्तनोदरम्." मी भन्ने समासमा प्राणीमान भने
पाथी प्राण्यङ्गत्वात् ' मा सूत्रधी वला येत छ. “ वस्त्रं च पात्रं च इति वस्त्रपात्रम्' मही 'जातिरप्राणिनाम् ' मा सूत्रथा उपमा थयो छे. 'अश्वाश्च महिषाश्च इति अश्वमहिषम्, अहिश्च नकुलं च इति अहिनकुलम् । मही ' येषां च विरोधः शाश्वतिकः' । नियम भुम बदलाव थये छे. આ પ્રમાણે બીજા ઉદાહરણ માટે પણ જાણી લેવું જોઈએ આ પ્રમાણે આ समास छ. (से किं तं बहुव्वीही समासे) 3 महत ! माह समास शुछ?
उत्तर-(बहुव्वीही समासे) मनीls समास 20 प्रमाणे 2. (फुल्ला इमंमि गिरिमि कुडय कयंबा सो इमो गिरी फुल्लकुडयकयंत्रो) l त ५२
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अनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र १८५ भावप्रमाणनिरूपणम् गिरिः फुल्लकुटजकदम्बः। अत्र बहुव्रीहिसमासः । अयं हि अन्यपदार्थप्रधानो बोध्यः । तथा-धवलो वृषभो-धवलवृषभः, कृष्णो मृगः कृष्णमृग इत्यादिः कर्मधारयो बोध्यः। समानाधिकरणस्तत्पुरुष एवं कर्मधारयः। तथा-त्रीणि कटुकानि समाहृतानि त्रिकटुकम् , त्रीणि मधुराणि समाहृतानि त्रिमधुरम् , इत्यादिः द्विगुइस पर्वत पर कुटज और कदंब पुष्पित हैं, इसलिये यह गिरि फुल्ल कुटज कदंय" है। "फुल्लकुटजकदम्ब" यह पद बहुव्रीहि समास है । बहुव्रीहि समास मे जो पद आते हैं-उनका अर्थ नहीं लिया जाता, किन्तु उन पदों वाला जो होता है, ऐसा अन्य पद लिया जाता है। क्यों कि यह समास अन्य पद प्रधान होता है। (से तं बहव्वीही समासे ) इस प्रकार यह बहुव्रीहि समास है । (से किं तं कम्मधारए) हे भदन्त ! कर्मधारय समास क्या है ?
उत्तर-(कम्मधारए धवलो वसहो धवलवसहो, किण्हो मियो किण्हमियो, सेतो पडो सेतपडो, रत्तो पडो रत्तपडो, से तं कम्मधारये) कर्मधारय समास इस प्रकार से है-धवलो वृषभः-धवलवृषभा, कृष्णो मृगः -कृष्णभृगः, श्वेतः पट:-श्वेतपटः, रक्तः पट:-रक्तपटः। समान अधिकरण वाला तत्पुरुष समास ही कर्मधारय समास कहलाता है। (से किं तं दिगु समासे) हे अदन्त !द्विगु समास क्या है ? द्विगु समास इस प्रकार से है-(तिणि कडुगाणि तिकडुगं,तिणि महुराणि तिमहुरं કુટજ અને કદબ પુષ્પિત છે, એથી આ ગિરિ કુલ કુટજ કદંબ છે. “કુલ કુટજકદબ” આ પદ બહુવીહિ સમાસ છે. બહુવતિ સમાસમાં જે પદ આવે છે, તેને અર્થ અભિપ્રેત ગણાતું નથી પણ તે પદેવાળે જે હોય છે. એવું અન્ય પદ ગ્રહણ કરવામાં આવે છે. કેમકે આ સમાસ અન્ય ૫૪ प्रधान डाय छे. (से त बहुब्बीही समासे) मा प्रमाणे माहुनील सभास छ. (से किं त' कम्मधारए) BRE! मधारय समास शु छ ?
उत्तर- कम्मधारए धवलो वसहो धवलव सहो, किण्हो मियो किण्हमियो, सेतो पडो सेतपडो, रत्तो पडो रत्तपडो, से तं कम्मधारए) ४मधारय समास मा प्रमाणे छे. 'धवलो घृषभः धवल वृषभः, कृष्णो मृगः कृष्णमृगः: श्वेतः पटः श्वेतपटः, रक्तः पटः रक्तपट:' समानाधिारी त५३५ समास भधारय उपाय छे. (से कि त दिगु समासे) हे महत ! द्विगु समास मेरो शु
उत्तर-(दिगुसमासे) द्विशुसमास भा प्रमाणे डाय छे. (तिण्णि कडुणाणि तिकडगे, तिमि मरागि, तिनहुरं, तिणि मुगागि, ति तुणं, तिणि पुराणि
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अनुयोगद्वारसूत्रे योध्यः। संख्यापूर्वः कर्मधारयो द्विगुरित्युच्यते । तीर्ये काकः-तीर्थकाकः। अन्न निन्दार्थे 'ध्वाङ्क्षण क्षेपे' इति सप्तमी तत्पुरुषः। यो हि तीर्थ काक इव ग्राह्याग्राह्यविवेकशून्यो वसति स एवमभिधीयते। तीर्थकाकादयस्तत्पुरुषोदाहरणानि । तिणि गुणाणि तिगुणं, तिणि पुराणि तिपुरं, तिणि सराणि तिसरं, तिणि पुक्खराणि तिपुक्खरं तिणि विंदुआणि तिबिंदुअं, तिण्णि पहाणि तिपह, पंचनईयो पंचणयं सत्त गया सत्त गयं, नव तुरंगा नव तुरंगं, दस गामा दसगामं दस पुराणि दसरं-से तं दिगु समासे ) त्रीणि कटुकानि-त्रिकटुकम् , त्रीणि मधुराणि-त्रिमधुरं, प्रयो गुणा-त्रिगुणम्, त्रीणि पुराणि-त्रिपुरम्, त्रयः स्वराः त्रिस्वरम्, त्रीणि पुष्कराणि त्रिपुष्करम्, त्रीणि बिन्दुकानि-त्रिविन्दकम् , त्रयः पन्थानः त्रिपथम् , पञ्च नथा-पंचनदम् , सप्त गजाः-सप्तगजम् , नव तुरङ्गा नवतुरङ्गम् , दश ग्रामाः-दशग्रामम् , दशपुराणि-दशपुरम् । इस प्रकार यह द्विगु समास है। (से किंतं तत्पुरिसे) हे भगवन् ! तत्पुरुष समास क्या है ? (तप्पुरिसे) तत्पुरुष इस प्रकार से है-(तित्थे कागो तित्थकागो, वणे हत्थी वणहत्थी, वणे वराहो वणवराहो, वणे महिसो वणमहिसो, वणे मऊरो वणमऊरो, से तं तप्पुरिसं) तीर्थे काकः-तीर्थकाका, बने हस्तीबनहस्ती, वने वराहः-वनवराहः, बने महिषः-बनमहिषः, वने मयूरः-वनमयूरः । यह तत्पुरुष समास है। यहां पर निन्दा अर्थ में " ध्वाक्षेण क्षेपे" इससे सप्तमी तत्पुरुष समास हुआ है । जो व्यक्ति तिपुरं, तिणि सराणि, तिसरं, तिण्णि पुक्खराणि तिपुक्खरं, तिण्णि बिंदुआणि तिबिंदुअं, तिण्णि पहाणि तिपह, पंच नईओ, पंवणयं सत्त गया सत्त गय, नवतुरगा, नवतुरगं, दसगामा, दसगामं, दसपुराणि, दसपुर, से तदिगु समासे) त्रीणि, कटुकानि-त्रिकटुम् त्रीणि मधुराणि त्रिकमधुरं, त्रयोगुणा, त्रिगुणम् , त्रीणि पुराणि त्रिपुरम् त्रयः घराः त्रिस्वरम्, त्रीणि पुष्कराणि त्रिपुष्करम्, त्रीणि. बिन्दु कानि-त्रिबिन्दुकम्, त्रयः पन्थानः-त्रिपथम्, पञ्च नद्यः-पंचनदम्, सप्तगजाःसप्तगजम्, नवतुरङ्गाः-नवतुरंगम्, दशग्रामाः-दशग्रामम्. दशपुराणि-दशपुरम् मा प्रमाण मा द्विगु समासना !२छे. (से कि त तप्पुरिसे) . महत ! तर५३५ समास शु छ ? (तपुरिसे) तत्५३५ मा प्रमाणे छे. (तित्थे कागोतित्यकागो, वणे हत्थी वणहत्थी, वणे वराहो वणवराहो, वणे महियो वणमहिसो, पणे मऊरो वणमऊरो, से त तप्पुरिसं) तीथे काकः, तीर्थ काकः, वने महिषः बनमहिषः वने मयूरः वनमयूरः) . तर५३५ समासना GlsQ। छे. डी. नि अर्थमा माक्षेण क्षेपे' मा सूत्रथा ससमी तत्५३५ समास येस
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अनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र १८५ भावप्रमाणनिरूपणम् तत्पुरुषे हि उत्तरपदार्थप्राधान्यं बोध्यम् । तथा-अनुग्रामम्-ग्रामस्य पश्चादिति विग्रहः । 'अव्ययं विभक्तिः ' इत्यादिनाऽव्ययीभावसमासः । एवम् 'अनुनदिकम्' इत्यापि बोध्यम् । अव्ययीभावे हि पूर्वपदार्थस्य प्राधान्यं बोध्यम् । तथा-सरूपयोद्धयोः पदयोः सरूपाणां बहूनां वा पदानां समासे 'सरूपाणामेकशेषएकविभक्तों इत्यनेनैकमवशिष्यान्यपदलोपे सति अवशिष्यमाणं पदं द्वित्वस्य बहुतस्य च वाचर्क भवति । तस्य द्विवचनान्तता बहुवचनान्तता वा भवति । यथा-पुरुषश्च पुरुषश्व तीर्थ पर कौवे की तरह ग्राह्य अग्राह्य के विवेक से शून्य होकर रहता है, वह इस प्रकार से कहा जाता है। ये तीर्थ काक आदि उदाहरण तत्पुरुष समास के हैं । तत्पुरुष समास में उत्तर पदार्थ की प्रधानता रहती है। (से किं तं अव्वई भावे) हे भदन्त ! अव्ययी भाव समास क्या है ?
उत्तर-(अम्बई भावे) अव्ययीभाव समास इस प्रकार से होता है-(गामस्स पच्छा अणुगामं, एवं अणुणइयं, अणुफरिसं, अणुचरियं) ग्रामस्य पश्चात्-अनुग्रामम् , इसी प्रकार से अनुनादिकम् , अनु. स्पर्शम् , अनुचरितम् में जानना चाहिये। ( से तं अव्वई भावे समासे) इस प्रकार यह अव्ययीभाव समास है । (से किं तं एगसेसे ?) हे भदन्त ! एकशेष समास क्या है ? ___उत्तर-(एगसेसे ) एक शेष समास इस प्रकार से है-(जहा एग्गो पुरिसो तहा यहवे पुरिसा जहा बहवे पुरिसा तहा एग्गो पुरिसो, जहा एगो करिसावणो तहा बहवे करिसावणा, जहा बहवे करिसावणा, છે. જે વ્યક્તિ તીર્થક્ષેત્રમાં કાગડાની જેમ ગ્રાહ્ય-અગ્રાહાના વિવેકથી રહિત થઈને રહે છે, તેને આ પ્રમાણે કહેવામાં આવે છે. આ તીર્થજા વગેરે ઉદાહરણે તપુરૂષના છે. તપુરૂષ સમાસમાં ઉત્તર પદાર્થની પ્રધાનતા રહે છે. (से कि त अव्वई भावे) 3 R ! अन्यथा आप सभास ने उपाय ?
उत्तर-(अव्बई भावे) अव्ययीभाव समास २मा प्रमाणे छ-(गामस्स पच्छा अणुगामं एवं अणुणइयं अणुफरिस, अणुचरिय) ग्रामस्य पश्चात् अनुग्रामम्,
। प्रमाणे मीn GIR२Q। मेवी शते छे-अनुनदिकम्, अनुस्पर्शम्, अनुचरितम्, (से त अव्वई भावे समासे) मा प्रमाणे । अव्ययी भाव समास छ. (से कि त एगसेसे ?) महन्त ! शेष समास ने उपाय ?
उत्तर-(एगसेसे) मे शेष समास मा प्रमाणे छ. (जहा एग्गो पुरिसो तहा बहवे पुरिसा जहा बहवे पुरिसा तहा एग्गो पुरिम्रो, जहा एगो करेसावणो तहा वहवे कारिसावणा, जहा बहवे कारीसावणा, तहा, एगो करिसावणो.
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६३
अनुयोगद्वारसूत्रे पुरुषो, पुरुषश्च पुरुषश्च पुरुषश्च-पुरुषा इति। अत्रैकशेषो बोध्यः। विरूपाणामपि समानार्थानामेकशेषो भवति । यथा-चक्रदण्डश्च कुटिलदण्डश्चेति-चक्रदण्डौ कुटिलदण्डौवेति । इत्थमे कशेषो बोध्यः। अत्र मूत्रानुसारेणोच्यते । यथा-एकव्यक्ति विवक्षायामेशः पुरुषः, तथा बहुव्यक्तिविवक्षायां बहवः पुरुणा इति भवति । अत्रेक तहा एग्गो करिसावणो, जहा एगो साली तहा बहवे साली जहा बहवे साली तहा एग्गो साली-से तं एगसेसे समासे-से तं समासिए ) जैसे'एकः पुरुषः' ऐसा होता है, उसी प्रकार से 'बहवः पुरुषाः' ऐसा भी होता है । तात्पर्य कहने का यह है समान रूपवाले दो पदों का अथवासमान रूप वाले बहुत पदों का समास होने पर "सरूपाणामेकशेषएकविभक्तो" इस सूत्र के अनुसार एक ही शेष रहता है, और अन्य पदों का लोप हो जाता है । जो वह एकशेष पद रहता है, वह द्विवचन में द्वित्व का और बहुवचन में बहुत्व का वाचक होता है।
और इसी से उसमें द्विवचनान्तता अथवा बहुवचनोन्तता होती है। जैसे-पुरुषश्च पुरुषश्च पुरुषो, पुरुषश्च, पुरुषश्च, पुरुषश्च पुरुषाः। यहां पर एकशेष समास जानना चाहिये । समानार्थक विरूपपदों में भी एकशेष समास होता है। जैसे वक्रदण्डश्च कुटिल दण्डश्चेति वक्रदण्डौ अथवा कुटिलदण्डौ । इस प्रकार यहां पर एकशेष समास जानना चाहिये । जब एक व्यक्ति की विवक्षा होती है, तब ‘एकः पुरुषः' ऐसा जहा एगो साली तहा बहवे साली जहा बहवे सालो तहा एग्गो सालो से त' एगसेसे समासे-से त समाखिए) म 'एकः पुरुषः' थाय छे तमा 'बहवः पुरुषाः' मेम पाय थय छे. तात्पर्य मा प्रभारी छ, समान ३५१ मे पह। अथवा समान ३५वा घi पहोना सभासथी " मरूपा. णामकरोष एकविभक्तौ " २५ सूत्र भु४५ मे १ शेष २२ छ भने भीon પનો લેપ થઈ જાય છે. જે તે એકશેષ પદ રહે છે, તે દ્વિવચનમાં હિન્દુ અને બહુવચનમાં બહત્વને વાચક હોય છે. અને એથી જ એમાં દ્વિવચના•तता अथवा मायनान्तता डाय छे. भ , पुरुषश्च पुरुषश्च पुरुषौ, पुरुपश्च, पुरुषश्च, पुरुषश्च, पुरुषाः मही शेष समास ये छे. समानाथ वि३५ पढीमा ५ शेष समास थाय छ, २ "वक्रदण्डश्च कुटिलदण्डश्चेति वक्रदण्डौ अथवा कुटिलदण्डौ". मा प्रमाणे मही. शेष सभासत न्यारे में व्यतिनी विवक्षा डाय छे, त्यारे 'एकः पुरुषः । એ સમાસ થાય છે. અને જ્યારે ઘણી વ્યક્તિઓની વિવેક્ષા હોય છે,
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भनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र १८५ भावप्रमाणनिरूपणम् पुरुषपदमवशिष्यान्यानि पुरुषपदानि लुप्यन्ते, बहुत्वविवक्षया बहुवचनं भवति । तथा-यथा पुरुषा इति बहुव्यक्तिविवक्षायां भवति, तथैव जातिविवक्षायामेकः पुरुषो भवति । अत्र पक्षेऽप्येकं पुरुषपदमवशिष्यान्यानि पुरुषपदानि लुप्यन्ते । परमत्रजातेर्विवक्षणात्तस्याश्चैकत्वादेकवचनम् । एवं यथा एक कार्षापणस्तथा बहवः कार्पापणाः, यथा बहवः कार्यापणास्तथा एकः कार्षापण इत्याद्यपि बोध्यम् । इत्थं सामासिकं भाव प्रमाणमुक्तम् । एतदेव दर्शयितुमाह-तदेतत् सामासिकमिति।सू.१८५॥ प्रयोग होता है और जब बहुत व्यक्ति की विवक्षा होती है तब 'बहवः पुरुषाः' ऐसा प्रयोग होता है । इस बहुवचन की विवक्षा में एक पुरुष पद अवशिष्ट रहता है और बाकी के पुरुष पद लुप्त हो जाते हैं। तथा-जिस प्रकार से "पुरुषः" ऐसा प्रयोग बहुत व्यक्तियों की विवक्षा में होता है उनी प्रकार से जाति की विवक्षा में "एकः पुरुषः" ऐसा प्रयोग होता है। इस पक्ष में भी एक पुरुष पद अवशिष्ट रहता है और अन्य पुरुष पद लुप्त हो जाते हैं । परन्तु यहां जाति की विवक्षा होने से जाति को एक होने से एक वचन होता है। इसी प्रकार से "एकः कार्षापणः तथा बहवः कार्षापणाः" इत्यादि पदों में भी जानना चाहिये । इस प्रकार यह एकशेष समास है । इस प्रकार सामासिक भाव प्रमाण क्या है यह कहा। -
भावार्थ-इस सूत्र द्वारा सूत्रकार ने भावप्रमाण सामासिक-तद्धितज धातुज और निरुक्तिज इन चार भेदों में विभक्त किया है। इनमें स्यारे 'बहवः पुरुषा:' मा तनो प्रयास थाय छे. या मइयननी वि. ક્ષામાં એક પુરૂષ પદ અવશિષ્ટ રહે છે. અને બીજા પુરૂષ પદે લત થઈ जय छे. तमा २ प्रमाणे 'पुरुषाः' म तने प्रयास पक्षी व्यतिमानी विपक्षमा थाय छे. या प्रमाणे तिनी विपक्षामा 'एकः पुरुषः' । પ્રોગ થાય છે. આ પક્ષમાં પણ એક પુરૂષ પદ અવશિષ્ટ રહે છે. અને અન્ય પુરૂષ પદે લુપ્ત થઈ જાય છે. પણ અહીં જાતિની વિવેક્ષા હેવાથી भने जति से वाथी मे क्यन थाय छे. मी प्रमाणे 'एकः कार्षापणः' तथा 'बहवः कार्षापणाः' वगैरे ५मा ५ ४ मा प्रमाणे या એકશેષ સમાસ છે. એવી રીતે સામાસિક ભાવ પ્રમાણુ શું છે. તે વિષે સ્પષ્ટતા કરવામાં આવી છે.
ભાવાર્થઆ સૂત્રમાં સૂત્રકારે ભાવપ્રમાણને સામાસિક, તદ્ધિતજ, ધાતુજ અને નિરૂકૃતજ આ ચાર પ્રકારોમાં વિભકત કર્યું છે. આમાં પરસ્પર
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अनुयोगद्वारसूत्रे परस्पर संवन्ध रखने वाले दो या दो से अधिक पदों के बीच की विभक्ति का लोप करके मिले हुए पदों का नाम समास या समस्तपद है। इसके मुख्य भेद चार हैं। द्वन्द्व तत्पुरुष, बहुव्रीहि और अव्ययी भाव । कर्मधारय और द्विगु ये तत्पुरुष के ही दो भेद हैं । तथा समास का एक भेद और है, जिसका नाम एकशेष है । बन्द्व समास में दो या दो से अधिक पदों का मेल होता है । इसमे सभी पद प्रधान होते हैं। इनका संबन्ध च-और, से होता है । बन्द समास में दोनों पद प्रथमा. विभक्ति एकवचनान्त हों तो समास के अन्त में द्विवचन होगा, नहीं तो बहुवचन । यह समास समाहार द्वन्द्व और इतरेतर द्वन्छ के भेद से दो प्रकार का होता है । समाहार द्वन्द्व समास में प्रत्येक पद की प्रधानता नहीं होती है प्रत्युत सामूहिक अर्थ का बोध होता है । इसमें सदा नपुंसक लिंग तथा किसी एक विभक्ति का एकवचन ही रहता है। जिसमें अन्तिम पद प्रधान होता है और प्रथम पद प्रथमा विभक्ति से भिन्न किसी दूसरी विभक्ति में होता है तथा दूसरा पद प्रथमान्त होता है। उस समास का नाम तत्पुरुष है । इसके प्रथम पद में द्वितीया से लेकर सप्तमी पर्यन्त ६ विभक्तियों के रहने के कारण इसके ६ भेद સંબંધિત બે કે બેથી વધારે પદેની વચ્ચેની વિભકિતને લેપ કરીને જે પદે ભેગા થાય છે તેને સમાસ કહેવાય છે. અને તે પદને સમસ્તપદ કહેવાય છે. આના મુખ્ય ભેદ ચાર છે. દ્વન્દ, તપુરૂષ, બહુત્રીહિ, અને અવ્યયીભાવ કર્મધારય અને દ્વિગુ આ તપુરૂષના જ બે ભેદે છે. તેમજ આ સમાસને એક ભેદ “એકશેષ” પણ છે. તંદ્વ સમાસમાં બે અથવા બેથી વધારે પદને સમાસ થાય છે. આમાં બધા પદ પ્રધાન હોય છે. આ પદેનો સંબંધ “ર” એટલે કે “અને ”થી થાય છે. તંદ્વ સમાસમાં બને પદ પ્રથમ વિભક્તિ એકવચનાન હોય તે સમાસના અને દ્વિવચન થશે નહિંતર બહવચન થશે દ્રઢ સમાસ સમાહાર દ્રુદ્ધ તેમજ ઈતરેતર ઢંઢના રૂપમાં બે પ્રકાર હોય છે. સમાહાર વંદ્વ સમાસમાં દરેકે દરેક પદની પ્રધાનતા હતી નથી પરંતુ સામૂહિક અર્થને બંધ હોય છે. આમાં સદા નપુંસકલિંગ તેમજ કોઈ પણ એક વિભક્તિનું એકવચન જ રહે છે. જેમાં અંતિમ પદ પ્રધાન હોય છે અને પ્રથમ પદ પ્રથમ વિભક્તિથી ભિન્ન ગમે તે બીજી વિભક્તિમાં હોય છે. તેમજ બીજું પદ પ્રથમત હોય છે, તે સમાસનું નામ તત્પરૂષ છે. આના પ્રથમ પદમાં દ્વિતીયાથી માંડીને સપ્તમી સુધી ૬ વિભતિઓ રહે છે. તેથી એના ૬ ભેદ થાય છે. કર્મધારયમાં ઉપમાન, ઉપમેય
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६५
अनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र १८५ भावप्रमाणनिरूपणम्
होते हैं । कर्मधारय में उपमान उपमेय तथा विशेषण विशेष्य का समास होता है । यदि विशेषण प्रथम हो तो विशेषण पूर्वपद कर्मधारय, उपमान प्रथम हो तो उपमानपूर्वपद कर्मधारय, उपमान बाद में हो तो उपमानोत्तर पद कर्मधारय कहलाता है । यथा 'कृष्णः मृगःकृष्णमृगः' यह विशेषणपूर्वपद कर्मधारय है । 'घन इव श्यामः घनश्यामः' यह उपमानपूर्वपद है । 'पुरुषः सिंह इव पुरुषसिंहः' यह उपमानोत्तर कर्मधारय है । जिस समास में प्रथय पद संख्यावाचक हो और समाहार का बोध हो तो, वह समास द्विगु कहलाता है । यह नपुंसकलिंग तथा प्रथमा विभक्ति का एक वचन ही आता है । जैसे 'त्रिकटुकम् ' आदि जिसमें अन्य पद की प्रधानता होती है, वह बहुव्रीहि समास है । इसके विग्रह में इदम् या यत् शब्द की प्रथमा विभक्ति को छोड़कर कोई न कोई विभक्ति लगी हुई होती है। जैसे फुल्ल कुटुज कदम्ब । संघपति आदि जिसमें पूर्वपद प्रधान हो, वह अव्ययीभाव समास है इसमें पूर्वपद अव्यय और दूसरा नाम होता है । इनके अंत में सदा नपुंसकलिङ्ग प्रथमा एकवचन रहता है। अनुग्रामम् अनुनदिकम् उपनदि इत्यादि । एक शेष समास का स्वरूप सुगम है | सू०१८५ તેમજ વિશેષણ વિશેષ્યને સમાસ થાય છે. જે વિશેષણુ પ્રથમ હાય ત વિશેષણુ પૂ પદ્મક ધારય, ઉપમાન પ્રથમ હાય તા ઉપમાન પૂર્વ પદ કમ - ધારય, ઉપમાન પછી હાય તેા ઉપમાનેાત્તર પદ કર્મધારય કહેવાય છે. જેમ
- कृष्णः मृगः, कृष्णमृगः, या विशेषण पूर्व यह उमधारय छे घनइव श्यामः, घनश्यामः, भी उपमान पूर्व यह छे. पुरुषः सिंह इव पुरुषसिंहः मा उपमाનાત્તર કમ ધારય છે. જે સમાસમાં પ્રથમ પદ્ય સખ્યાવાચક હાય અને સમાહારના મેધ થાય તે, તે સમાસ દ્વિગુ કહેવાય છે. આમાં નપુંસકલિંગ तेभन प्रथमा विभक्तिना मेऽवयननी अपेक्षा रहे छे. प्रेम - ' त्रिकटुकम् ' વગેરે જેમાં અન્ય પદની પ્રધાનતા હાય છે, તે બહુવ્રીહિ સમાસ છે. આના विश्रडभां ' इदम् ' अथवा ' यत्' शब्हनी प्रथमा विभक्ति सिवाय गमे ते भील विलति ससग्न होय ४ छे. प्रेम है- 'फुल्ल कुटुजकदम्ब, संघपति' वगेरे જેમાં પૂર્વીપદ પ્રધાન હેાય તે અવ્યયીભાવ સમાસ છે. આમાં પૂર્વપદ અવ્યય અને ખીજું નામ હોય છે. આના અંતમાં સદા નપુÖસક લિંગ અને પ્રથમા मेऽवयन रडे छे. 'अनुग्रामम्, अनुनदिकम्, उपनदि, वगेरे. शेशेष सभास સરળ જ છે. તે વિષે અહીં કંઈ કહેવું ચૈગ્ય નથી, પ્રસૂ॰૧૮૫૫)
अ० ९
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अनुयोगद्वारसूत्रे मूलम्-से किं तं तद्धितए ?, तद्धितए अट्टविहे पण्णत्ते, तं जहा-कम्मे सिप्पसिलोए, संजोगसमीवओ य संजूहो। इस्सरिय अवच्चेण य, तद्धितणामंतु अट्टविहं ॥१॥से कि तं कम्मणामे ? कम्मणामे-तण्णहारिए, कट्टहारिए, पत्नहारिए, दोसिए, सोत्तिए, कप्पासिए, भंडवेआलिए कोलालिए । से तं कम्मनामे। से किं तं सिप्पनामे?, सिप्पनामे-तुण्णिए तंतुवाइए पट्टकारिए उव्वट्टिए बरुडिए मंजकारिए कट्टकारिए छत्तकारिए वज्झकारिए पोत्थकारिए चित्तकारिए दंतकारिए लेप्पकारिए सेलकारिए कोट्टिमकारिए । से तं सिप्पनामे। से कि तं सिलोयनामे ? सिलोयनामे-समणे माहणे सत्वातिही। से तं सिलोयनामे। से किं तं संजोगनामे ? संजोगनामे-रणो ससुरए रणो जामाउए रणो साले रपणो भाउए रणो भगिणीवई। से तं संजोगनामे। से किं तं समीवनामे ?, समीक्नामे-गिरिसमीवे गयरं-गेरं गिरिणयरं विदिसासमीवेणयरं-वेदिसं, वेन्नाए समीवे णयरं-वेन्नं वेन्नायडं तगराए समीवे णयरं-तागरं तगरायडं। से तं समीवनामे। से किं तं संजूहनामे?, संजहनामतरंगवइकारे, मलयवइकारे, अत्ताणुसहिकारे बिंदुकारे। से तं संजूहनामे। से किं तं ईसरियनामे-रायए ईसरए तलवरए माडंबिए कोडंबिए इन्भे सेटिए सत्थवाहए सेणावइए ! से तं ईसरियनामे। से किं तं अवच्चनामे ? अवच्चनामे-अरिहंतमाया
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अनुयोगचन्द्रिका रीका सूत्र १८६ तद्धितनामनिरूपणम् चक्कवट्टिमाया बलदेवमाया, वासुदेवमाया, रायमाया मुणिमाया वायगमाया से तं अबच्चनामे, से तं तद्धितए। से किं तं धाउए ?, धाउए- भूमत्ताए परस्सभासा, एधवुड्डीए, फद्धसंघरिसे, गाहपइट्ठालिच्छासु गंथे य, बाह लोयणे। से तं धाउए। से कि तं निरुत्तिए?, निरुत्तिए-महीए सेए-महिसो, भमइ य रोवइय भमरो, मुहं मुहं लसइत्ति मुसलं, कविस्सविलंबए स्थेत्ति य करेइ कवित्थं; चित्ति करेह खल्लं च होइचिक्खल्लं, उड्डकन्नो उलूगो, मेहस्स माला मेहला। से तं निरुत्तए। से तं भावप्प. माणे। से तं पमाणनामे। से तं दसनामे। से तं नामे। नामेत्ति पयं सम्मत्तं सू० १८६॥ ___ छाया-अथ किं तत् तद्धितजम् ?, तद्धितजम्-अष्टविधं प्रज्ञप्त, तद्यथाकर्म? शिल्पं२ श्लोकः३ संयोगसमीपतश्च४-५ संयूथः६। ऐश्वर्यम् ७ अपत्यं८ खलु च तद्धित नाम तु अष्टविधम् ॥१॥ अथ किं तत् कर्मनाम ? कर्मनाम वार्णमा. रिक, काष्ठभारिकः, पात्रमारिकः, दौष्यिकः, सौत्रिका, कार्यासिका, भाण्डवैचारिका, कौलालिकः । तदेतत् कर्मनाम । अथ किं तत् शिल्पनाम ?, शिल्पनामतौन्निकः, तान्तुवायिकः, पाहकारिकत, वृत्तिक, वारुण्टिकः, मौञ्जकारिकः, काष्ठकारिकः, छात्रकारिकः, बाह्यकारिकः, पौस्तकारिकः, चैत्रकारिका, दान्तकारिकः, लैप्यकारिकः, शैलकारिकः, कोटिमकारिकः, तदेतत् शिल्पनाम । अथ किं तत् श्लोकनाम?, श्लोकनाम-श्रमणः ब्राह्मणः सर्वातिथी । तदेतत् श्लोकनाम । अथ किं तत् संयोगनाम ? संयोगनाम-राज्ञः श्वशुरः, राज्ञो जामाता, राज्ञःशाला, राज्ञो भ्रातृका, राज्ञो भगिनीपतिः, तदेतत् संयोगनाम । अथ किं तत् समीपनाम?, समीपनाम-गिरिसमोपं, नगरं गैर-गिरिनगरं, विदिशासमीपं नगरं वैदिशम् , वेन्नायाः समीपे नगरं वैन्न-वेन्नातटं, तगराया समीपे नगरं-तागरं तगरातटम् । तदेतत् समीपनाम । अथ किं तत् संयूथनाम-संयूथनाम-तरङ्गवतीकार!, मलय. वतीकारः, आत्मानुपष्टिकारः, विन्दुकारः। तदेतत् संयूथनाम । अथ किं तत् ऐश्वर्यनाम २ ऐश्वर्यनाम-राजकः, ईश्वरकः, तलारकः, माडम्बिकः, कौटुम्बिका, इभ्यः, श्रेष्ठिकः, सार्थवाहकः, सेनापतिकः । तदेतत् ऐश्वर्य नाम । अथ किं तत् अपत्यनाम ? अपत्यनान-अर्हन्माता, चक्रपतिमाता, बलदेवमाता, वासुदेवमाता, राजमाता, मुनिमाता, वावकमाता । तदेतद् तद्धिवजम् । अथ किं तत् धातुजस्,
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अनुयोगद्वारसूत्रे धातुजम्-भू सत्तायां परस्मैभाषा। एध वृद्धौ, स्पर्द्ध संघर्षे, गाधृप्रतिष्ठालिप्सयोग्रन्थे च, बाध लोडने, तदेतत् धातुनम् । अथ किं तत् निरुक्तिनम् ?, निरुक्तिजम्-मह्यां शेते महिषः, भ्रमति च रौति च भ्रमरः, मुहु मुंहुलसतीति मुसलं, कपेरिव सम्बते हथेति च करोति कपित्थं, चिदिति करोति खल्लंच भवतिचिक्खल्लम् , ऊचकर्णः उलूकः मेखस्य माला मेखला, तदेतत् निरुक्तिजम्। तदेतत् भावप्रमाणम् । तदेतत् प्रमाणनाम। तदेतद् दशनाम । तदेतत् नाम । नामेति पदं समाप्तम् ॥मू० १८६॥
टीका-'से कि तं' इत्यादि।
अथ किं तत् तद्धितजम् ?-तद्धितेन यन्नाम निष्पद्यते तत् कीदृशम् ? इति शिष्यप्रश्नः। उत्तरयति-तद्धित नाम-कर्मशिल्प श्लोकादिभेदैरष्टविधम् । तत्रकर्मनाम-तार्णभारिकः, काष्ठभारिकः, पात्रभारिकः, दोषियक इत्यादि । कर्मशब्दे.
" से किं तं तद्धितए" इत्यादि।
शब्दार्थ-(से किं तं तद्धितए) हे भदंत ! तद्धित से जो नाम निष्पन्न होता है वह कैसा होता है ? ___उत्तर-(तद्धितए अट्टविहे पण्णत्ते) तद्धित से जो नाम निष्पन्न होता है, वह कर्म शिल्प, श्लोक आदि के भेद से आठ प्रकार का होता है। (तं जहा ) वे आठ प्रकार ये हैं-(कम्मे, सिप्पे, सिलोए संजोगसमीवओ य संजहो । इस्सरिय अवच्चेण य तद्वितणाम तु अट्ठविहं ॥१॥) कर्म, शिल्प, श्लोक, संयोग, समीप संयूय, ऐश्वर्य अपत्य । इस प्रकार से ये तद्भित नाम के आठ प्रकार हैं। (से किं तं कम्मणामे ?) हे भदन्त ! वह कर्म नाम क्या है ? - उत्तर-(तण्णहारिए कट्टहारिए पत्तहारिए दोसिए सोत्तिए,
" से कि त तद्धितए" त्याह
शहाथ-(से कि त तद्धितए) 3 मत ! तद्वितथी २ नाम निपन्न थाय थे, ते वा य छे
उत्त२-(तद्धितए अट्रविहे पण्णत्ते) तद्धितथा २ नामी निष्पन्न थाय छे. त भ', शि६५, सो वोरेना मेथी 48 रन थाय छे. (तजहा)
म -(कम्मे सिप्पे, सिलोए संजोग समीवओ य संजूहो। इस्सरिय, अवच्चे ण य तद्धितणाम तु अटुविहं" शा) ४भ, शिक्ष५, als, सयाग, सभी५, સંયૂથ, ઐશ્વર્ય, અપત્ય આ પ્રમાણે આ તદ્ધિતનામના આઠ પ્રકાર છે. (से कि त कम्मणामे?) : महन्त ! भनाम भेट ?
उत्तर-(तण्णहारिए कट्ठहारिए पत्तहारिए दोसिए सोत्तिए, कपासिए,
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अनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र १८६ तद्धितनामनिरूपणम् नेह पण्यं विवक्षितम् । विग्रहस्तु तृणभारः पण्यमस्येति बोध्यः। एवं काष्ठभारिकादावपि विग्रहो बोध्यः । 'नदस्य पण्यम्' (पा. ११४५१) इति सूत्रेण ठक् प्रत्यये सिद्धिः । तथा-शिल्पार्थ दिलमत्ययेन यन्नाम निष्पद्यते तत् शिल्पनाम । उदा. हरणमाह-'तुन्निए' इत्याद। तुन्नं शिल्पमस्येति तौग्निकः। वयन=सूत्राणां कप्पासिए, भंडालिए, कोलालिए) तार्ण भारिक, काष्ठभारिक, पात्रभारिक, दौष्यिक, सौत्रिक, कार्पासिक, भाण्डवैचारिक, कौलालिक ये सब (कम्मणामे ) कर्म नाम हैं । कर्म शब्द यहां पण्य "बेचने योग्य पदार्थ) इस अर्थ में आया है । "तृगभारः पण्यं अस्थ" ताणभारिकः" इसका ऐसा विग्रह है । इसी प्रकार का विग्रह "काष्ठभारः पण्यमस्य काष्ठभारिकः" पात्रभारः पण्यमस्य पात्रभारिकः" इत्यादि नामरूप शब्दों को भी जानना चाहिये। " तदस्य पण्यं" इस सूत्र से इन सब में ठक् प्रत्यय हुआ है। ठक् को इकू होकर तब ये तार्ण भारिक आदि नामरूप शब्द निष्पन्न हुए हैं । (से किं तं सिप्पनामे ?) हे भदन्त ! शिल्प नाम क्या है ? अर्थात् शिल्पार्थ में तद्धिन प्रत्यय के करने से जो नाम निष्पन्न होता है, वह कैसा होता है ?
उत्तर-(सिप्पनामे) शिल्पार्थ में तद्वित प्रत्ययठक के करने पर जो नाम निष्पन्न होता है वह शिल्प नाम है और वह इस प्रकार से है-(तुगिए, तंतुवाइए, पट्टकारिए, उच्चहिए, वरुंडिए, मुंजकारिए, भंडवेआलिए, कोलालिए) तामा४ि, पात्रमाRe, allous, सौत्रित, अपासिड, मवैयारिख, सालिs भास (कम्माणामे) भनामा छ. भ.vg मही ५५५ मेटले है क्या ४ पहा " तृणभारः पण्य अस्य, तार्णभारिकः " मा श७४न। विडमा प्रभारी थशे. मा प्रमाणे "काष्टभारः पण्यम् अस्य काण्टभारिकः पात्रभारः पण्यम् अस्य पात्रभारिक:'' पोरे नाम ३५ शहोमi ५५ युन. 'तदस्य पण्य " म। सूत्रथा साधा शहोमi 'ठक्' प्रत्यय यो छ. ' ठक्' २ 'इकु' प्रत्यय ये! छे तथा मा 'तार्णभारिक' पोरे शह नियन्न च्या छ. (से कि त सिप्पनामे?) 3 ભદંત ! શિલ્પ નામ એટલે શું? અર્થાત્ શિલ્પાર્થમાં તદ્ધિત પ્રત્યય લગાડ વાથી જે નામ નિષ્પન્ન થાય છે, તે કેવું થાય છે?
उत्तर-(सिप्पनामे) शिल्पा भi तद्धित प्रत्यय 'ठ' ४२वाथी २ नाम निपन्न थाय छे, ते शि५म छ भने ते मी प्रमाणे छे. (तुण्णिए, तंतुवा. इए पट्टकारिए उबट्टिए, वरुंडिए, मुंजकारिए, कटुकारिए, छत्तकारिए, वज्झकारिए,
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अनुयोगद्वारसूत्रे प्रसारणं वायः, तन्तूनां वायः-तन्तुवायः, स शिल्पमस्येति तान्तुवायिकः । करणं कार:-पट्टस्य कारः-पट्टकारः, स शिल्पमस्येति-पाशारिकः । उद्वृत्तम्-उद्वर्त्तनंपिष्टादिना शरीरमलदूरीकरणं, तत् शिल्पमस्येलि-औवृत्तिकः । वरुण्टः शिल्प. मस्येति बारुण्टिकः । वरुण्टः शिल्पविशेषो बोध्यः । एवं मौञ्जकारिक इत्यादयः प्रयोगा बोध्याः। 'शिल्पम् ' (पा. ४१४।५५) इति सूत्रेण ठक् प्रत्यये सिद्धिः । कहकारिए, छत्तकारिए, वज्झकारिए, पोत्यकारिए, चित्तकारिए, दंत. कारिए, लेप्पकारिए, सेलकारिए, कोटिमकारिए) तौन्निक, तान्तुवायिक, पाट्टकारिक, औदवृत्तिक, वारुण्टिक, मौञ्जकारिक, काष्ठकारिक, छात्रकारिक, बाह्यकारिक, पौस्तककारिक चैत्यकारिक, दान्तकारिक, लैप्य. कारिक, शैलकारिक, कौटिमकारिक । यहां सर्वत्र "शिल्पम्" इस सूत्र से ठक् प्रत्यय हुआ है । तुन्न जिसका शिल्प है, वह तौमिक-दर्जी है। सूत्रों का पसारना इसका नाम 'वाय' है। तंतुओं का वाय जिसका शिल्प है वह तान्तुनायिक-जुलाहा है। करण कारः-करना इसका नाम कार है-पट्ट (वस्त्र) का करना यह जिसका शिल्प है वह पाट्टकारिकजुलाहा-या बढ़ई है। पिष्ठ-पीठी-आदि से शरीर के मल को दूर करना यह जिसका शिल्प है वह औवृत्तिक-नापिन है। वरुण्ट जिसका शिल्प है वह वारुण्टिक है। वरुण्ट यह एक शिल्प विशेष का नाम है। इसी प्रकार मौञ्जकारिक आदि प्रयोगों को भी जानना चाहिये। ( से तं सिप्पनामे ) इस प्रकार यह शिल्प नाम है । (से किं तं सिलोयनामे) पोत्यकारिए, चित्तकारिए, दंतकारिए, लेप्पकारिए, सेलकारिए, कोट्टिमकारिए) तान्न, तन्तुयि, पारिश, मौवृत्ति, ३५, भी।४।२४, ४४४. ४२४, छात्र, मा२ि४, पौरत२ि४, येत्या४ि, til२४, वैष्य. रि, NasRs, हिमा२४, मी सर्वत्र 'शिल्पम् ' ॥ सूत्र १ ठक' प्रत्यय ये छ. तुन्न र शिक्ष्य छ तानि
छ, सूत्राने वायु मेनु नाम 'वाय' छे. ततुमानु पाय रेनु शि६५ छ. ते तान्तुवाxि-१४४२-छ. 'करणं कारः' ४२ तेनु नाम '२' छ. ५४ तैयार કરવું જેનું શિ૯૫ છે, તે પાટ્ટકારિક-વણકર-છે. પિષ્ટ-પીડી-વગેરેથી શરીરના મલને દૂર કરે આ જેનું શિલ૫ છે તે વૃત્તિક-હજામ છે. વરૂણ જેનું શિલ્પ છે તે વારૂણિક છે. વરૂણ એ શિલ્પ વિશેષનું નામ છે. આ પ્રમાણે भौर मेरे प्रयोग व ५५ Me से नये. (सेत सिपः मामे) ॥ प्रभारी मा शिपनाम छे. (से कि त सिलोयनामे) 3 Ad!
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अनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र १८६ तद्धितनामनिरूपणम् तथा-श्लोकार्थे यशोरूपेऽर्थे तद्वितमत्यये सति यद्पं निष्पद्यते तत् श्लोकनाम । श्रमणो ब्राह्मणः सर्वातिथी। श्रमणब्राह्मणौ प्रशस्तत्वेन सर्वेषां वर्णानामतिथी विज्ञेयौ । तत्र श्रम्यते इति श्रमणं-तपश्चर्यादिरूपं, प्रशस्तं श्रमणमस्यास्तीति श्रमणः। प्रशस्तं ब्रह्मास्यास्तीति ब्रह्मणः स एव ब्राह्मणः। उभयत्रापि प्रशंसार्थे मतुबर्थोऽचू प्रत्ययोऽर्शादित्वाद् वध्यः । संयोगार्थे संबन्धार्थे तद्धितमत्यये सति यन्नाम निष्पद्यते तत् संयोगनाम। यथा-राज्ञोऽयं श्वशुरो-राजकीयः श्वशुरः। राज्ञोऽयं जामाता-राजकीयो जामाता, इत्यादि । 'राज्ञःकच' (पा. ४२।१४०) हे भदन्त ! श्लोक नाम क्या है ? अर्थात् श्लोक-यश-रूप अर्थ में तद्धित प्रत्यय होने पर जो नाम निष्पन्न होता है-अर्थात् जो रूप धनता हैवह कैसा होता है ?
उत्तर-(समणे माहणे सव्वातिही) श्रमण, ब्राह्मण, ऐसा रूप होता है- यहां पर प्रशस्तार्थ में मत्वर्थीय "अच्" प्रत्यय" अर्श आदिभ्योऽच्" से हुआ है। इसीलिये ये सर्ववर्गों के अतिथि माने जाते हैं । तपश्चर्यादिरूप श्रम जिसके पास है वह "श्रमण" एवं प्रशस्त ब्रह्म जिसका है वह "ब्रह्मण" है। यह ब्राह्मण ही ब्रह्मण है । ( से तं सिलोय नामे ) इस प्रकार यह श्लोक नाम है। (से कि तं संजोग नामे) हे भदन्त ! संयोग नाम क्या है ? अर्थात् संबन्धार्थ में तद्धित प्रत्यय होने पर जो नाम निष्पन्न होता है वह कैसा होता है ? ___ उत्तर-(संजोग नामे) वह संयोग नाम इस प्रकार का होता है(रण्णो ससुरए, रणो जामाउए, रणो साले, रणो भाउए, रणो भगिणीवई-(से तं संजोगनामे ) राज्ञः अयं-राजकीयः श्वशुर:-राजा શ્લેક નામ શું છે એટલે કે શ્લેક-યશ-રૂપ અર્થમાં તદ્ધિત પ્રત્યય લેવાથી જે નામ નિષ્પન્ન થાય છે એટલે કે જે રૂપ બને છે, તે કેવું હોય છે?
उत्तर-(समणे माहणे सव्वातिही) श्रम प्राय मेवु ३५ थाय छे. मही प्रशस्ताभा मत्वर्थीय 'अच्' प्रत्यय 'अर्श आदिभ्योऽचू' सूत्रथी ये છે એથી જ એ સર્વ વર્ગોના અતિથિ માનવામાં આવે છે. તપશ્ચર્યાદિ રૂપ શ્રમ જેની પાસે છે તે “શ્રમણ” તેમજ પ્રશસ્ત બ્રહ્મ જેમને છે તે બ્રહ્માણ छ. या प्रसाए । प्राय छ. (से कि त सिलोयनामे) मा प्रमाणे ॥ as नाम छे. (से कि त संजोगनामे) मत ! सा नाम से શું ? એટલે કે સંબંધાર્થ માં તદ્ધિત પ્રત્યય હોવાથી જે નામ નિષ્પન્ન થાય છેતે કેવું હોય છે?
उत्तर-(संजोग नामे) सयो नाम मा प्रमाणे छ. (रणो ससुरए, रणो जामाउए, रणो साले, रण्णो भाउए, रण्णो भगिणीवई-से त संजोगनामे)
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अनुयोगद्वारसूत्रे इति सूत्रेण छप्रत्यये सिद्धिः । मूले-'रण्णो ससुराए, रणो जामाउर' इत्यादि विग्रहमा निर्दिष्टम् । तथा-समीपार्थ अदूरभवाथै 'अद्भवश्व' इत्यण तद्धितप्रत्ययेन यन्नाम निष्पद्यते-तत् समीपनाम । यथा-गिरेः समीपे नगरं-गैर-गिरिवटम् , विदिशायाः समीपे नगरं वैदिशं नगरम्, वेन्नायाः समीपे नगरं वैन्वेन्नातटं, तगरायाः समीपे नगरं तागरं-तगरावटामिति । गिरि नगरम् , वेन्नातटम् , तगरातटमिति लोकप्रसिद्धिः। का ससुर राजकीय जामाता-राजा का जमाई इत्यादि । इन प्रयोगों में . राज्ञा कच' इस सूत्र से राजन् शब्द में छ प्रत्यय होकर छ को ईय् प्रत्यय हुआ है। मूल में "रणो ससुराए, रणो जामाउए" इत्या. दिविग्रहमात्र दिखलाया है ! (से तं संजोगनामे ) इस प्रकार यह संयोग नाम है। (से किं तं समीवनामे ?) हे भदन्त ! समीप नाम क्या है ? अर्थात् समीप अर्थ में तद्धित प्रत्यय संबन्धी अण् के होने पर जो नाम बनता है वह कैसा होता है ? (समाव नामे) वह समीप नाम ऐसा होता है-जैसे (गिरि समीवेणघरं गेरं-गिरिणयरं, विदिसा समीवे जयरं-वेदिसं, वेन्नाए समीवे णथरं-बेन्नायडं, तगराए समीवे जय तागरं तगरायडं-से तं समीवनामे) गिरि के समीप का नगरगैर, गिरि नगर, विदिशा के समीप का नगर वैदिश, वेन्ना के समीप का नगर वैन्न वेन्नातट, तगरा के समीप का नगर तागर-तगरातटगिरिनगर, वेन्नातट, तगरातट ऐसी लोक में प्रसिद्धि है । इस प्रकार राज्ञः अयं राजकीयः-श्वसुरः-२० ससरे, राजीय माता-२ मा कोरे । प्रयोगमा 'राज्ञ: कच' या सूत्र १ २४ ७४मा 'छ' प्रत्यय था 'ई' ये छे. भूगमा 'रण्णो ससुराए, रणो जामाउए' वगैरे ३४त विघड । २५ष्ट ४२वामा मा०ये। छे. (से त संजोगनामे) मा प्रमा) मा सयो नाम छे. (से कि त समीवनामे) लत ! सभी५ નામ શું છે? એટલે કે સમીપ અર્થમાં તદ્ધિત પ્રત્યય સંબંધી “r” પ્રત્યય थवाथी नाम निपन थाय छे, ते डाय छे. (समीवनामे) ते सभी५ नाम भी प्रभारी डाय छ रेम (गिरी समीवे णयरं गैरं-गिरिणयर. बना ममीले यर-वेदिसं, वेन्नाए समीवे णयर वेन्नं वेन्नाउय तगराए समीवे णयर तागर तगरायडं-से त' समीवनामे) GIRनी पासेनु न॥२-२, ગિરિનગર વિદિશાની પાસેનું નગર વૈદિશ, વેનાની પાસેનું નગર વેન્ન વૈજ્ઞાતટ. તગરાની પાસેનું નગર તાગર, તગરતટ, ગિરિનગર વેન્નાતટ તગशतः मेवी मां प्रसिद्धि छे. भप्रमाणे मा समी५ नामा छ. (से कि
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अनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र १८६ तद्धितनामनिरूपणम्
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तथा - संयूथो - ग्रन्थरचना, स सूच्यते येन तद्धितप्रत्ययेन स संयूथार्थ तद्धितप्रत्ययोऽपि बोध्यः । येन यन्नाम - निष्पद्यते तत् संयूक्तद्धितनाम । तथा-तरङ्गवती - तरङ्गवतीमधिकृत्य कृताऽख्यायिका तरङ्गवती । अत्र 'अधिकृत्य कृते ग्रन्थे ' इति शैषिकमत्यये 'लुत्राख्यायिकार्यां बहुतम्' इति लुप् । एवं मलयवती, आत्मानुषष्टिः, विन्दुक इत्यादिष्वपि बोध्यम् । मूले- तरङ्गवतीकारो मलयवतीकार यह समीप नाम है । ( से किं तं संजूहना मे) हे भदन्त ! वह संजूथ नाम क्या है ? (संजूह नामे- तरंगवईकारे, मलयवहकारे, अन्त्ताणु संहिकारे, बिंदुकारे - से तं संजूह नामे ) यह ग्रन्थरचना का नाम संयूध
| यह ग्रन्थ रचनोरूप संयूथ जिस तद्धित प्रत्यय के द्वारा सूचित किया जाता है वह संयूथार्थ प्रत्यय भी संयूध है । इससे जो नाम निष्पन्न होता है वह संयूथ नाम है । जैसे तरंगवती को लेकर जो कथा-कहानी-लिखी गई हो उस ग्रन्थ को तरङ्गवती कहना । इसी प्रकार से मलयवती आत्मानुषष्टि, बिन्दुक इत्यादि ग्रन्थों के नामों में भी जानना चाहिये । इन " तरङ्गवती " आदि नामो में " अधिकृत्य ग्रन्थे " इस शैषिक प्रकरणगत सूत्र से " अधिकृत्य कृतो ग्रन्थः अर्थ में अनादि और घादि प्रत्यय होते हैं और उनका "लुवाख्यायिकानां बहुलम् " इससे लोप हो जाता है। मूल में तरङ्गवतीकार मलयवतीकार" ऐसा जो निर्देश किया गया है उसका तात्पर्य " तरङ्गवती ग्रन्थ का करना मलयवती ग्रन्थ का करना " ऐसा है । इसी प्रकार से
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त' संजूइनामे) डे ल ! ते संयूथ नाम शुं छे ? संजूहनामे तरंगवइकारे, मलय इकारे, अत्ताणुसंट्ठिकारे, बिंदुकारे, से त संजूहना मे ) ग्रंथ रथनानु નામ સયૂથ છે. આ ગ્રંથ રચના રૂપ સયૂથ જે તદ્ધિત પ્રત્યય વડે સૂચિત કરવામાં આવે છે તે સયૂથાર્થ તદ્ધિત પ્રત્યય પણ સયૂથ છે, એનાથી જે નામ નિષ્પન્ન થાય છે તે સયૂથ નામ છે, જેમ કે તરંગવતીને લઈને જે કથા વાર્તા-લખવામાં આવી છે, તે ગ્રંથને તરંગવતી કહે છે. આ પ્રમાણે મલયવતી, આત્માનુષષ્ટિ, બિંદુક વગેરે ગ્રંથાના નામે વિષે પણ જાણવું જોઇએ या तरंगवती वगेरे नाभेोभां ' अधिकृत्य ग्रन्थे ' मा शैषिङ अम्लु ગત सूत्रथी ' अधिकृत्य कृतो ग्रन्थः ' मा अर्थमां माहि भने धाहि प्रत्ययो थाय हे मने तेमना 'लुवाख्यायिकानां बहुलम् ' मा सूत्रथी सोय थ लय छे મૂળમાં તરંગવતીકાર, મલયવીકાર આમ જે નિર્દેશ કરવામાં અબ્યા છે. તેનુ' તાત્પ ‘ તર‘ગવતી ગ્રન્થની રચના કરવી, મલયવતી ગ્રન્થની રચના
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अनुयोगद्वारसूत्रे इत्यादिषु तरङ्गवत्याः करणं मलयवत्याः करणम् इत्यादि रूपेण व्याख्या कार्यां । तथा निर्देशस्तु ग्रन्थरचनारूपार्थमात्रोपलक्षको बोध्य इति। तथा-ऐश्वर्यद्योतकैः शब्दस्तद्वितमत्यये सति यद्रूपं निष्पद्यते तदैश्वर्यनाम। यथा-राजैव राजकः । ईश्वर एव ईश्वरकः । तलवर एव-तलवरकः। एषु स्वार्थिकः कः। माडम्बिका कौटुम्बिकः इभ्यः एते तु तद्धितान्ता एव । श्रेष्ठिकः सार्थवाहकः सेनापतिकः, एतेष्वपि स्वार्थिकः कः। तथा-अपत्यार्थ तद्धितात्यये सति यन्नाम निष्पद्यते तदपत्यनाम। अर्हन्माता चक्रवर्तिमाता बलदेवमातेत्यादिभिः शब्दैरहंदादीनां
आस्मानुषष्टिकार आदि को भी जानना चाहिये । इस प्रकार यह संयूथ नाम है । (से किं तं ईसरियनामे ) हे भदन्त ! ऐश्वर्य नाम क्या है ? (ईसरियनामे)
उत्तर-ऐश्वर्य नाम इस प्रकार से है-अर्थात् ऐश्वर्यद्योतक शब्दों से तद्धित प्रत्यय करने पर जो रूप निष्पन्न होता है वह ऐश्वर्य नाम है-जैसे (रायए ईसरए, तलवरए, माडंथिए, कोडुबिए, इन्भे, सेटिए, सस्थवाहए, सेणावइए) राजक, ईश्वरक, तलवरक, माडंबिक, कौटुम्बिक इभ्य,श्रेष्ठिक, सार्थवाहक, सेनोपतिक। इनमें माडम्बिक, कौटुम्बिक, इभ्य ये ऐश्वर्य नाम तो तद्धित प्रत्ययान्त हैं। तथा राजा, ईश्वर, तलवर श्रेष्ठी, सार्थवाह, सेनापति ये ऐश्वर्य नाम स्वार्थ में कप् प्रत्यय होने से निष्पन्न हुए हैं ( से तं ईसरियनामे ) इस प्रकार यह ऐश्वर्य नाम है । (से किं तं अवच्चनामे ?) हे भदन्त ! अपत्यनाम क्या है ? ( अवच्चनामे) કરવી.” એવું થાય છે. આ પ્રમાણે આત્માનુષષ્ટિકાર વગેરે વિષે પણ જાણી व समा प्रमाणे या स यूथ नाम छे. (से कि त ईसरिय नामे) 3 मत! अश्व नाम शुछ १ (ईसरिय नामे)
ઉત્તર-એશ્વર્યા નામ આ પ્રમાણે છે. અર્થાત ઐશ્વર્ય દ્યોતક શબ્દોથી તદ્ધિત પ્રત્યય કરવામાં આવે અને જે રૂપ નિષ્પન્ન થાય છે, તે ઐશ્વર્ય નામ छ रेभ (रायए, ईसरए, तलवरए, माडंबिए, कोडुबिए, इन्भे, सेटिए, सत्थवाहए, सेणावइए) २४, श्व२४, २४, मामि, मि, ध्क्ष्य, શ્રેષ્ટિક, સાર્થવાહક, સેનાપતિક, આમાં માડંબિક, કૌટુંબિક, ઈભ્ય, આ બધા એશ્વર્ય નામ તે તદ્ધિત પ્રત્યયાન્ત છે, તેમજ રાજા, ઈશ્વર, તલવર, શ્રેણી, સાર્થવાહ, સેનાપતિ આ બધાં ઐશ્વર્ય નામે સ્વાર્થમાં “g" પ્રત્યય થવાથી निष्पन्न थये। छे. (से त ईसरियनामे) मा प्रमाणे ॥ भैश्वय' नाभा छे. (से कि त अवचनामे १) ३ महन्त ! अ५त्यनाम थेट शु? (अवचनामे)
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अनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र १८६ तद्धितनामनिरूपणम् मातृनामान्दुपलक्षितानि । ततोऽपत्यार्थे तद्धितप्रत्ययेन यन्नाम निष्पद्यते, तदपत्यनाम । यथा - मरुदेव्या अपत्यं मारुदेवेय ऋषभोऽर्हन् । त्रिशलाया अपत्यं त्रैशलेयो महावीरोऽन् । सुमङ्गलाया अपत्यं सौमङ्गलेयो भरतश्चक्रवर्ती | रोहिण्याः अपत्यं रौहिणेयो बलदेवः । देवक्या अपत्यं दैवकेयः कृष्णो वासुदेवः । वेळनायाः अपत्यं चैलनेयः कूणिको राजा । धारिण्या अपत्यं धारिणेयः - मेघकुमारो मुनिः । रुद्रसोमाया अपत्यं रौद्रसोमेयः- आर्यरक्षितो वाचक इति । एतानि अष्टविधानि तद्धितजानि नामानि बोध्यानि । अमुमेवार्थे सूचयितुमाह - तदेतत्तद्धितजमिति ।
उत्तर - अपत्य नाम इस प्रकार से है - ( अरिहंत माया चक्क बट्टिमाया, बलदेवमाया, वासुदेव माया, राय माया, मुणिमाया वायग माया, सेतं अवच्चनामे ) अपत्य अर्थ में तद्धित प्रत्यय करने पर जो नाम निष्पन्न होता है वह अपत्य नाम है, जैसे मरुदेव का पुत्र मारुदेवेय - ऋषभनाथप्रभु, त्रिशला का पुत्र शलेय- भगवान महावीर, सुमंगला का अपत्य - सौमंगलेव - चक्रवर्ती भरत, रोहिणी का अपत्यरौहिणेय - पलदेव, देवकी का पुत्र दैवकेय- कृष्ण वासुदेव, चेलना का पुत्र चैलनेय-कूणिक राजा, धारिणी का पुत्र धारिणेय - मेघकुमार मुनिरुद्र सोमा का पुत्र रौद्र सौमेय- आर्यरक्षितवाचक इस प्रकार ये अपत्य अर्थ में हुए तद्धित प्रत्यय से जन्य नाम हैं । ( से तं तद्धित ) ये उपर्युक्त आठ प्रकार के नाम तद्धित प्रत्यय से निष्पन्न होने के कारण तद्वितज नाम कहलाते हैं । अब सूत्रकार धातुज नामों का कथन करते हैं - (से किं तं धाउए) हे भदन्त ! धातुज ( धातुओं से उत्पन्न होने वाला ) नाम क्या है ? (घाउए)
उत्तर-अपत्यनाभ या प्रमाये छे. (अरिहंत माया चक्कवट्टिमाया, बलदेवमाया, वासुदेवमाया, रायमाया, मुणिनाया, वायगमाया, से त अवच સામે) અપત્યનામ અ માં તષ્ઠિત પ્રત્યય લગાડવાથી જે નામ નિષ્પન્ન થાય છે. તે અપત્ય નામ છે. જેમ કે મરૂદેવીના પુત્ર, માર્દવેય ऋषभनाथ प्रलु. त्रिशसानो पुत्र त्रैशसेय, लगवान महावीर, सुभगલાનું અપત્ય સૌમગલેય, ચક્રવર્તી ભરત, રાહિણીનુ અપત્ય-રોહિણેય મલદેવ, દેવકીના પુત્ર દકેય, કૃષ્ણે અથવા વાસુદેવ, ચેલાનાના પુત્ર ચૈલનેય, ણિક રાજા. ધારણના પુત્ર ધારિણેય-મેઘકુમાર મુનિ, સામના પુત્ર રૌદ્ર સૌમેય-આય રક્ષિત, આ પ્રમાણે આ અપત્ય અર્થમાં થયેલ તદ્ધિત પ્રત્યયથી निष्पन्न नामो छे. ( से तं तद्धितर) या उपयुक्त आ प्रहारना नाभेो तद्धित પ્રત્યયથી નિષ્પન્ન થયેલા હોવા બદલ તદ્ધિતજ કહેવાય છે. હવે સૂત્રકાર धातुनामनु उथन रे छे. (से कि त धाउए) हे लहांत ! धातु-धातुथी उत्पन्न थयेस नाम इया या छे ? (धाउए)
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अनुयोगद्वारसूत्रे अथ धातुजनामानि निरूपयति-धातुः क्रियापदं, तेन यन्नाम निष्पद्यते तद्धातुजम् । यथा-भूसत्तायां, परस्मैपदभाषेत्यादि । भूत्यं परस्मैपदी धातुः । तेन निष्पन्नं नाम । यथा-भवतीति भवः संसारः। वृद्धयर्थवाचकत्वेन एध इति धातुस्तेन निष्पन्न नाम । यथा-एधतइति-एधमानः । एवं 'स्पर्द्ध संघर्षे' इत्यादावपि विभाव्यम् । अथ निरुक्तिजानि नामान्याह-निर्वचनं निरुक्तिः। क्रियाकारकभेदपर्यायैः शब्दा. र्थकथनमित्यर्थः । तया यन्नाम निष्पद्यते तन्निरुक्तिजम् । यथा-मयां शेते महिपः।
उत्तर-धातुज नाम इस प्रकार से है-(भूसताए, परस्स भासा फद्धसंघरिसे, गाह पइहालिच्छास्लु गंथे य, बाहलोयणे-से तं धाउए ) भू धातु सत्ता अर्थ में है। यह परस्मैपदी धातु है। इससे जो नाम निष्पन्न होता है-जैसे भव-संसार-वह धातुज नाम है। इसी प्रकार एध् धातु वृद्धि अर्थ में है। यह आत्मनेपदी है। इससे " एधमान" बनता है। इसी प्रकार से " स्पर्द्धसंघर्ष" इत्यादि धातुओं में भी जानना चाहिये । अर्थात्-स्पर्धा, वाधा ये सब धातुज नाम हैं। (से किं तं निरुत्तए) हे भदन्त ! निरुत्तिज नाम क्या है ?
- उत्तर-(निरुत्तिए, महीए सेए-महिसो, भमइय रोवय-भमरो, मुहं मुहं लसइत्ति-मुसलं, कविस्स विवलंबएस्थेत्ति य करेह कवित्थं, चित्ति करेइ, खल्लं च होइ चिक्खिल्लं, उड़कन्नो उलूगो, मेहस्म माला मेहला-सेत्तं निरुत्तिए) निरुक्तिज नाम इस प्रकार से है-महिष, भ्रमर, मुसल, कपिस्थ, चिक्खल्ल, उलूक, मेखला । क्रियाकारक, भेद एवं
उत्तर-धातु नाम । प्रभारी छे. (भूसत्ताए, परस्स भासा फद्ध संघरिसे, गाह पइटालिच्छासु गंथे य, बाहलोयणे-से त धाउए) भू धातु सत्ता અર્થમાં છે. આ પરૌપદી ધાતુ છે. એનાથી જે નામ નિષ્પન્ન થાય છે, જેમકે ભવ-સંસાર-તે ધાતુજ નામ છે. આ પ્રમાણે એધ ધાતુ વૃદ્ધિ અર્થમાં છે. આ આત્મપદી છે. એનાથી “એપમાન” શબ્દ નિષ્પન્ન થાય છે. આ પ્રમાણે “સ્પદ્ધ સંઘર્ષ” વગેરે ધાતુઓના વિશે પણ જાણવું જોઈએ. એટલે है २५/-HIN A मा पातु नामा छे. (से कि त निहत्तए) 3 महत! નિરૂક્તિજ નામ એટલે શું?
उत्तर--(निरुत्तिए, महीए सेए, महिसो, भमइय रोवइय भमरो, मुहुं मुहुँ लसइति, मुसलं कविस्स विवलंबएत्थेत्ति य करेइ कवित्थं, चित्ति करेइ, खल्लं च होइ चिक्खिल्लं उन्नो उलूगो, मेहस्स माला, मेहलो-से तं निरुत्तिए) नि३ति नाम मा प्रमाणे छे. महिप, प्रभ२, भुसत, पित्य, ચિકખલ, ઉલૂક, મેખલા, ક્રિયાકારક, ભેદ અને પર્યાયવાચી શબ્દો વડે
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अनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र १८६ तद्धितनामनिरूपणम् भ्रमति च रौति च भ्रमरः : एमादीनि अन्यान्यगि निरुक्तिजानि नामानि पृषोदरादित्वात् साधूनि बाध्यानि। एवं सामासिक-तद्धि गज-धातुजनिरुक्तिजरूपं भावप्रमाणमुक्तम् । अमुगे । भूचयितुमाह-तदेतद् भानप्रमाणमिति । इत्थं चतु विध प्रमाणपसंहृतमि चिथितुमाह-तदेतत्पमाणगामेति । इत्थं गौणादि दशनान प्ररूपितमिति दर्श तुमाह-तदेतद् दशनामेति । एकादि दशनाम निरूपणेन सकलं नाम निरूपितमित्याह-तदेतत् नामेति। इत्थमु क्रमस्य नामेति संज्ञको द्वितीयो भेदः समुद्दिष्ट इति सूचयितुमाह-नामेति पदं समाप्तमिति ॥५० १८६।। पर्यायवाची शब्दों द्वारा शब्दार्थ का कथन करना, इसका नाम 'निरुक्ति' है। इस निरुक्ति से जो नाम निष्पन्न होता है, वह निरुक्तिज नाम हैजैसे महिषादि । “मह्यां शेते इति महिषः, भ्रमन् सन् रौतीति भ्रमरः, मुहः मुहुः लसतीति मुसलं" इत्यादि रूप से इन महिष आदि नामों की निरुक्ति है । ये सब नाम पृषोदरादिगण में पठित हैं। इसलिये वहां से इनकी सिद्धि हुई है । इस प्रकार यह निरुक्तिज नाम है । इस निरु. क्तिज नाम में इसी प्रकार के और भी दूसरे नाम समझ लेना चाहिए। इस प्रकार सामासिक, तद्वितज, धातुज और निरुक्तिज रूप भावप्रमाण का कथन किया। इसी अर्थ को सूचित करने के लिये सूत्रकार ने ( से तं भावप्पमाणे ) ऐसा कहा है । ( से तं पमाणनामे ) इस सूत्र पाठ से सूत्रकार यह प्रकट कर रहे हैं कि यहां तक हमने इस पूर्वोक्त प्रकार से १७७ सूत्र से लेकर यह प्रमाण नाम का कथन किया है। (से तं दस नामे ) यह सूत्रपाठ इस बात की सूचना देता है कि-'एक नाम से लेकर दश नाम तक का यह कथन इस प्रकार से समाप्त हुआ है।' શબ્દાર્થનું કથન કરવું. તે “નિરૂક્તિ” કહેવાય છે. આ નિરૂક્તિ વડે જે નામ निष्पन्न थाय छ, त नि३ति नाम छे. भ. मडिप वगैरे 'मह्यां शेते इति महिषः, भ्रमन् सन् रोतीति भ्रमरः, मुहुः, मुहुः, लसतीति मुसलं,' ३ રૂપમાં આ મહિષ નગેરે નામોની નિરૂક્તિ સમજવી. આ બધા નામે પ્રોદરાદિ ગણામાં પઠિત છે. એથી ત્યાંથી જ એમની સિદ્ધિ થયેલી છે. આ પ્રમાણે આ નિરૂક્તિ જ નામ છે. આ નિરૂક્તિજ નામમાં આ જાતના બીજા પણ નામે સમજી લેવાં. આ રીતે સામાસિક તદ્ધિતજ, ધાતુ અને નિરૂક્તિજ ૩૫ ભાવ પ્રમાણનું કથન પૂર્ણ થયું. આ અર્થને સૂચિત કરવા માટે સૂત્રકારે (से तं भावपमाणे) म ४थु छ. (से त पमाणनामे) ॥ सूत्रयाथी सूत्र કાર આ પ્રમાણે સ્પષ્ટ કરે છે કે અહીં સુધી અમે આ પૂર્વોક્ત રૂપમાં १७७ सूत्री मांडीन २मा प्रभा नाम थन यु छे. (से त दसनामे)
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अनुयोगद्वारसूत्रे
अथ - उपक्रमस्य प्रमाणेति नामकं तृतीयं भेदं निरूपयतिमूलम् - से किं तं पमाणे ? पमाणे- चउत्रिहे पण्णत्ते, तं जहाGoatमाणे खेपमाणे कालप्पमाणे भावपमागे॥सू० १८७॥
छाया-अथ किं तत् प्रमाणम् ?, प्रमाणं चतुर्विधं प्रज्ञप्तम्, तद्यथा - द्रव्यप्रमाणं क्षेत्रममाणं कालममाणं भावममाणम् ॥ म्रु० १८७॥
( से तं नामे ) यह सूत्रपाठ " नाम संबन्धी समस्त वक्तव्य समाप्त कर चुका है। "इस बात की पुष्टि करता है। नामेति पयं सम्मत्तं) इस प्रकार उपक्रम का द्वितीय भेद जो नाम है वह समुद्दिष्ट हो चुका ॥ सू०१८६ ॥
अब सूत्रकार उपक्रम के तृतीय भेद प्रमाण का निरूपण करते हैं"से किं तं पमाणे " - इत्यादि
K
शब्दार्थ - शिष्य प्रश्न - ( से किं तं पमाणे) हे भदन्त ! उपक्रम का तृतीय भेद जो प्रमाण है, उसका स्वरूप क्या है ?
उत्तर- ( पमाणे चव्विहे पण्णत्ते) उपक्रम का तृतीय भेद जो प्रमाण है, उसका स्वरूप इस प्रकार से हैं वह प्रमाण चार प्रकार का प्रज्ञप्त हुआ है ( तं जहा ) वे चार प्रकार इस तरह से है - ( दव्वप्यमाणे, खेत्तपमाणे, कालयमाणे, भात्रप्पमाणे ) द्रव्यप्रमाण, क्षेत्रप्रमाण, काल
આ સૂત્રપાઠ આ વાતને સૂચિત કરે છે કે એક નામથી લઈને દશનામ सुधीतुं या उथन गया प्रमाणे समाप्त थयुं छे. (सेत नामे) मा
સત્રપાઠ
66
નામ સંખ`ધી સંપૂર્ણ કથન પુરૂ થયુ છે' એ વાતને સ્પષ્ટ उरे छे. (नामेत्ति पयं सम्मत्तं) या प्रमाणे उपमता जीले लेह के नाम छे, ते समुद्दिष्ट थह गयेस छे. ॥सू० १८६ ।।
હવે સૂત્રકાર ઉપક્રમના તૃતીય ભેદ પ્રમાણુનુ નિરૂપણ કરે છે—— " से किं त पमाणे " इत्याहि
शब्दार्थ - शिव प्रश्न (से किं तं पमाणे) हे लहांत ! उपमना तृतीय ભે જે પ્રમાણ છે, તેનું સ્વરૂપ કેવું છે ?
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उत्तर- (पमाणे चउब्जिहे पण्णत्ते) उपमना ने तृतीय लेड प्रमाणु छे, તેનુ' સ્વરૂપ આ પ્રમાણે છે. તે પ્રમાણ ચાર પ્રકારના સ્વરૂપમાં પ્રજ્ઞપ્ત થયેલ छे. (तंजा) ते यार प्रहार भी प्रभा छे. (दुव्वप्रमाणे, खत्तप्पमाणे, कालप्पमाणे, भावप्पमाणे) द्रव्यप्रभाणु क्षेत्रप्रभाणु, असप्रमायु, भावप्रभायु, ધાન્ય
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अनुयोगन्द्रका टीका सूत्र १८७ प्रमाणनामकतृतीय भेदनिरूपणम्
टीका-' से किं तं' इत्यादि
अथ किं तत् प्रमाणम् ? इति शिष्यप्रश्नः । उत्तरयति -प्रमाणं - प्रमीयते = परिच्छिद्यते धान्याद्यनेनेति प्रमाणम् - असृतिप्रसृत्यादिकम्, यद्वा-' इदमीदृक्स्वरूपम् - इदमीदृक्स्वरूपं च भवति' इत्येवं प्रतिनियतस्वरूपतया यत् प्रत्येकं प्रमीयते = परिच्छिद्यते तत्प्रमाणम् । अथवा - धान्यद्रव्यादेरेव प्रमितिः- परिच्छेदः - स्वरूपावगमः । अत्रपक्षेऽतिप्रसृत्यादीनां प्रमितिहेतुत्वात् प्रमाणत्वं बोध्यम् । एतच्च प्रमेयस्य द्रव्यादेचतुर्विधत्वात् चतुर्विधम् । चतुर्विधत्वमेवाह- द्रव्यप्रमाणं क्षेत्रप्रमाणं कालप्रमाणं भावप्रमाणम् ॥ सू० १८७ ॥
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प्रमाण, भाव प्रमाण । (धान्य आदि पदार्थ जिसके द्वारा नापे जाते हैं, वह प्रमाण है । यह प्रमाण शब्द की व्युत्पत्ति लभ्य अर्थ है । ऐसे प्रमाण असृति प्रसृति आदिक हैं । अथवा - इस वस्तु का स्वरूप यह है, इस प्रकार प्रतिनियत स्वरूप से जो प्रत्येक वस्तु का परिज्ञान होता है, वह प्रमाण है । अथवा धान्य आदि जो द्रव्य है, उनके ही स्वरूप का अवगम वह प्रमाण है । यहां धान्यादिक द्रव्यों की प्रमिति को प्रमाण माना गया है और असृति प्रसृति आदिकों को प्रमिति के हेतुभूत होने से प्रमाण माना गया है। तात्पर्य इसका यह है कि-' प्रमिति यह प्रमाण का फल है - जब फलरूप प्रमिति को प्रमाण कहा जाता है जब उस प्रमिति के सोधक भूत जो असृति प्रसृति आदिक हैं, वे मुख्य रूप से प्रमाण नहीं पड़ते हैं किन्तु प्रमिति के जनक होने के कारण उन्हें प्रमाण माना जाता है । यह प्रमाण प्रमेयभूत द्रव्यादिकों की चतुर्विधता के कारण चार प्रकार का कहा गया है | सू०१८७ ॥
વિગેરે પદાર્થોનુ માપ જેના વડે જાણવામાં આવે છે, તે પ્રમાણ છે. આ પ્રમાણુ શબ્દના વ્યુત્પત્તિલક્ષ્ય અથ છે. એવા પ્રમાણુ અરુતિ, પ્રકૃતિ વગેરે
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છે. અથવા આ વસ્તુનું સ્વરૂપ એવુ છે આ રીતે પ્રતિનિયત સ્વરૂપથી જે દરેકે દરેક વસ્તુનુ પરિજ્ઞાન થાય છે, તે પ્રમાણ છે અથવા ધાન્ય વગેરે જે દ્રવ્યેા છે, તેમના સ્વરૂપના અવગમ તે પ્રમાણુ કહેવાય અહી ધાન્ય વગેરે દ્રબ્યાની પ્રમિતિને જ પ્રમાણ માનવામાં આવ્યુ' છે અને અમ્રુતિ, પ્રસૃતિ વગેરેને પ્રમિતિના હેતુભૂત હોવા બદલ પ્રમાણ માનવામાં આવ્યાં છે. તાપ આ પ્રમાણે છે કે ‘ પ્રમિતિ આ પ્રમાણુનું ફળ છે, જ્યારે ફળ રૂપ પ્રમિતિને પ્રમાણ કહેવામાં આવે છે ત્યારે તે પ્રમિતિના સાધભૂત જે અસૃતિ પ્રસૃતિ વગેરે છે, તે મુખ્ય રૂપમાં પ્રમાણુ કહેવાતા નથી પરતુ પ્રમિતિજનક હાવા બદલ તેને પ્રમાણ માનવામાં આવ્યા છે. આ પ્રમાણે પ્રમેયભૂત દ્રવ્યાક્રિકાની ચતુવિધતાને લીધે પ્રમાણ ચાર પ્રકારનું કહેવામાં આવ્યુ છે. સૂ૦૧૮૭ા
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अनुयोगद्वारसूत्रे मूलम्-से किं तं दव्वप्पमाणे ?, दवप्पमाणे-दुविहे पण्णत्ते, तं जहा-पएसनिष्फण्णे य विभागनिफ्फणे य । से किं तं पएसनिष्फन्ने ? पएसनिफण्णे-परमाणुपोग्गले दुप्पएसिए जाव दसपएसिए संखिजपएसिए असंखिज्जपए. सिए अणंतपएसिए। से तं पएसनिप्फण्णे। से किं तं विभागनिप्फण्णे?, विभागनिप्फण्णे--पंचविहे पण्णत्ते, तं जहा. माणे उम्माणे ओमाणे गणिमे पडिमाणे । से किं तं माणे ? माणे-दुविहे पण्णत्ते, तं जहा-धन्नमाणप्पमाणे य रसमाणप्पमाणे य। से कि तं धन्नमाणप्पमाणे? धन्नमाणप्पमाणे--दो अप्सईओ पसई, दो पसईओ सेतिया, चत्तारि सेईआओ कुलओ, चत्तारि कुलयो पत्थो, चत्तारि पत्थया आढगं, चत्तारि आढगाई दोणो, सट्ठि आढयाइं जहन्नए कुंभे, असीइ आढयाई मज्झिमए कुंभे, आढयसयं उक्कोसए कुंभे, अट्ट य आढयसइए वाहे। एएणं धण्णमाणप्पमाणेणं किं पओयणं?, एएणं धण्णमाणपमाणेणं मुत्तोलीमुखइ दुर अलिंदओचारसंसियाणं धण्णाणं धण्णमाणप्पमाणनिवित्तिलक्खणं भवइ, से तं धण्णमाणप्पमाणे । से किं तं रसमाणप्पमाणे? रसमाणप्पमाणे धण्णमाणप्पमाणाओ चउभागविवड्डिए अभितरसिहाजुत्ते रसमाणप्पमाणे विहिजइ, तं जहा-चउसट्रिया४ चउपलपमाणा बत्ती. सिया८ सोलसिया१६ अटुभाइआ३२ चउभाइया ६४ अद्धमाणी १२८ माणी २५६ दो चउसट्रियाओ बत्तीसिया, दो बत्तीसियाओ सोलसिया, दो सोलसियाओ अट्ठभाइया, दो अटुभाइयाओ
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अनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र १८८ द्रव्यप्रमाणनिरूपणम् चउभाइया, दो चउभाइयाओ अद्धमाणी, दो अद्धमाणीओ माणी। एएणं रसमाणप्पमाणेणं किं पओषण?२ एएणं रसमाणप्यमाणं वारकघडककरककलसियगागरिथदिइयकरो। डियकुंडिअसंसियाणं रसाणं रसमाणप्पमाणनिवित्तिलक्षणं भवइ । से तं रसमाणप्पमाणे। से तं माणे सू०१८८॥
छाया-अथ किं तत् द्रव्यप्रमाणम् ? द्रव्यप्रमाणम्-द्विविधं प्रज्ञप्तं, तद्यथाप्रदेशनिष्पन्नं च विभागनिष्पन्नं च । अथ किं तत् प्रदेशनिष्पन्नम् ?, प्रदेशनिष्पन्नपरमाणुपुद्गलो द्विपदेशिको यावत् दशपदेशिका, संयातमदेशिकः, असंख्यातः प्रदेशिकः, अनन्तमदेशिकः । तदेतत् प्रदेशनिष्पन्नम् । अथ किं तत् विभागनिष्प'नम् ?, विभागनिष्पन्नं पंचविधं प्रज्ञप्तं, तद्यथा-मानम् उन्नाम् अवमानम् गतिमं प्रतिमानम् । अथ किं तत् मानं ?, मानं द्विविधं प्रज्ञप्तं, तद्यथा-धान्यमानप्रमाणं च रसमानममाणं च । अथ किं तद् धान्यमानममाणम् १, धान्यमानप्रमाणम्-२ अमृतीप्रमृतिः, द्वे प्रसृती सेविका, चतस्रः सेतिकाः कुडवा, चत्वारः कुडवाः प्रस्था, चत्वारः प्रस्थाः आठकः, चत्वार आठकाः द्रोणः, षष्टिः आढकाः जपः न्यकः कुम्भः, अशीतिः आढकाः मध्यमकः कुम्भा, आढकशतम् उत्कृष्टः कुम्मा, अष्ट च आढकशतानि वाहः । एतेन धान्यमानप्रमाणेन किं प्रयोजनम् ?, एतेन धान्यमानप्रमाणेन मुक्तोलीमुखे दुरालिन्दापचारसंश्रितानां धान्यानां धान्यमानप्रमा णनितिलक्षणं भवति, तदेतत् धान्यमानप्रमाणम् । अथ किं तत् रसमानप्रमाणम् १, रसमानप्रमाणम्-धान्यमानप्रमाणतः चतुर्विभागद्धया अभ्यन्तरशिखायुक्तः रसमानप्रमाणं विधीयते, तद्यथा-चतुःषष्टिका द्वात्रिंशिका८ षोडशिका१६ अष्टभागिका ३२ चतुर्भागिका ६४ अर्धमानी १२८ मानी २५६ द्वे चतुःषष्टिके द्वात्रिंशिका, द्वे द्वात्रिंशिके षोडशिका, द्वे पोडशिके अष्टभागिका, द्वे अष्टभागिके चतुर्भागिका, द्वे चतुर्भागिके अर्धमानी, द्वे अर्धमानीके मानी। एतेन रसमानप्रमाणेन किं प्रयोजनम् !, एतेन रसमानप्रमाणेन वारकघटककरकलशिका गर्गरिदृतिकाकरोडिकाकुण्डिकासंश्रितानां रसानां रसमानप्रमाणनित्तिलक्षणं भवति । तदेतत् रसमानप्रमाणम् , तदेतत् मानम् ॥मू० १८८॥
टीका-'से किं तं दव्यप्पमाणे' इत्यादि
तत्र द्रव्यप्रमाणं-द्रव्यविषयं प्रमाणं प्रदेशनिष्पन्नविभागनिष्पन्नेति द्विविधम् । तत्र-प्रदेशनिष्पन्न-प्रदेशाः एकद्विव्याधणवः, तैनिष्पन्न-सिद्धं यत्तद्विज्ञेयम् । यथा
अ० ११
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अनुयोगद्वारसूत्रे एकप्रदेशनिष्पन्नः परमाणुः, द्विप्रदेशनिष्पन्नो द्विप्रदेशिका, त्रिप्रदेशनिष्पन्नस्त्रिप्रदेशिकः । एवं चतुष्पदे शकादि यावत् अनन्तपदेशिकान्तो बोध्यः । यो यो यात्रता यावता प्रदेशेन निष्पद्यते स स तत्तत्मदेशिको बोध्य इति भावः । नन्विदं परमाणु
"से कि तं दवप्पमाणे" इत्यादि ।
शब्दार्थ-(से किं तं वप्पमागे) शिष्य पूछता है कि-हे भदन्त ! द्रव्य प्रमाण क्या है ?
उत्तर-(दव्वप्पमाणे दुविहे पण्णत्ते) द्रव्यविषयक वह द्रव्य प्रमाण दो प्रकार का कहा गया है-(तं जहा) वे दो प्रकार ये हैं-(पएसनि
फण्णे य विभागनिप्फण्णे य ) एक प्रदेश निष्पन्न और दूसरा विभाग निष्पन्न । (से किं तं पएसनिष्फण्णे) हे भदन्त ! प्रदेश निष्पन्न द्रव्य प्रमाणक्या है ?
उत्तर-(पएसनिप्फण्णे) प्रदेशनिष्पन्नद्रव्यप्रमाण-इस प्रकार से है-(परमाणुरोग्गले दो पएसिए जाव दसपएसिए' सखिज्जपएसिए असंखिज्जपएसिए, अर्णतपएसिए-से तं पएसनिष्फण्णे) जो द्रव्य प्रमाण एक दो तीन आदि प्रदेशों से निष्पन्न-सिद्ध होता है, वह प्रदेश निष्पन्न द्रव्य प्रमाण माना गया है-इस प्रदेश निष्पन्न द्रव्य प्रमाण में एक प्रदेश निष्पन्न परमाणु, दो प्रदेशों से निष्पन्न हुआ द्विपदेशिक द्रव्य तीन प्रदेशों से निष्पन्न हुआ त्रिप्रदेशिक द्रव्य इसी प्रकार
" से किं त दव्वप्पमाणे" त्याह
शहाथ-(से किं त दवप्पमाणे) शिष्य प्रश्न ४३ छ । महत ! द्रव्य. प्रभा शुछे ?
उत्तर-(दव्वप्पमाणे दुविहे पण्णत्ते) द्रव्य विषय ते द्र०यप्रभा में २- ४ामा माव्यु छे. (तजहा) ते थे ५४ा। मा प्रमाणे छ. (पएस निष्फण्णे य विभागनिएफणे य) में प्रदेश निरूपन्न भने मात्र विना निष्पन्न (से कि त पएसनिप्पण्णे) 8 महत ! प्रदेश निष्पन्न द्रव्यमाय शु छ ?
उत्तर-(पएसनिष्फण्णे) प्रदेश नि०पन्न द्रव्य प्रभा प्रमाणे छे. (परमाणुपोग्गले दो पएसिए जाव दस पएसिए, संखिज्जपएसिए असंखिज्जपएसिए, अणंतपएसिए-से त पएसनिप्फण्णे) रे द्रव्यप्रभार मे, मे, १५ कोरे પ્રદેશોથી નિષ્પન્ન-સિદ્ધ–થાય છે, તે પ્રદેશ નિષ્પન્ન દ્રવ્યપ્રમાણુ કહેવાય છે. આ પ્રદેશ નિષ્પન્ન દ્રવ્ય પ્રમાણમાં એક પ્રદેશ નિષ્પન્ન પરમાણુ, બે પ્રદેશથી નિષ્પન્ન થયેલ દ્વિદેશિક દ્રવ્ય, ત્રણ પ્રદેશથી નિષ્પન્ન થયેલ ત્રિપ્રદે
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अनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र १८८ द्रव्यप्रमाणनिरूपणम् प्रभृत्यनन्तमदेशिकस्कन्धपर्यन्तं दव्यत्वात् प्रमेयमेव, न तु प्रमाणं, कथं तर्हि एषा प्रमाणत्वमुक्तमिति चेदाह-प्रमेयस्यापि द्रव्यादे रूढिवशात् प्रमाणत्वं विज्ञेयम् । चार प्रदेशों से निष्पन्न हुआ चतुष्प्रदेशिक द्रव्य यावत् अनन्त प्रदेशों से निष्पन्न हुआ अनंत प्रदेशिक द्रव्य आ जाता है । अर्थात् एक प्रदेशवाले परमाणु से लेकर अनंत प्रदेश वाले स्कंध तक के जितने भी द्रव्य है, वे इस प्रदेश निष्पन्न द्रव्य प्रमाण से गृहीत हो जाते हैं।
शंका-परमाणु से लेकर अनन्त प्रदेशों वाला जितना भी द्रव्य है, वह सब प्रमेय ही-प्रमाण का विषय -है-स्वयं प्रमाण नहीं है-अता फिर क्यों इन्हें प्रमाणरूप कहा है ? शंकाकार का अभिप्राय यह है कि 'पुद्गल का परमाणु जो कि एकप्रदेशवाला होता है तथा दो पुद्गलपरमाणुओं के, तीन पुद्गल परमाणुओं के यावत् अनंत पुल परमाणुओं के संयोग से निष्पन्न हुए जितने भी स्कंच द्रव्य हैं, वे सब प्रमाण के द्वारा ग्राह्य होने के कारण प्रमेय ही हैं-फिर आप प्रदेश निष्पन्नों को प्रमाण की कोटि में क्यों रख रहे हो?
उत्तर-प्रमेयभूत भी द्रव्यादिकों को जो यहां प्रमाणभूत कहा जा रहा है, वह रूढि के वश से ही कहा गया जानना चाहिए। क्यों શિક દ્રવ્ય આ પ્રમાણે ચાર પ્રદેશથી નિષ્પન્ન થયેલ ચતુuદેશિક દ્રવ્ય થાવત અનંત પ્રદેશથી નિષ્પન્ન થયેલ અનત પ્રદેશિક દ્રવ્યને સમાવેશ થઈ જાય છે. એટલે કે એક પ્રદેશવાળા પરમાણુથી માંડીને અનંત પ્રદેશ વાળા સ્કંધ સુધીના જેટલા દ્રવ્યું છે, તે બધા આ પ્રદેશ નિષ્પન્ન દ્રવ્યપ્રમાણુથી ગ્રહણ થઈ જાય છે.
શંકા–પરમાણુથી લઈને અનંત પ્રદેશવાળા જેટલાં દ્રવ્ય છે તે સર્વ પ્રમેયે જ-પ્રમાણને વિષય છે જ-પિતે પ્રમાણ નથી, તે પછી એમને પ્રમાણુ સ્વરૂપ શા માટે કહેવામાં આવ્યાં છે? શંકાકારને અભિપ્રાય આ પ્રમાણે છે કે પુલનું પરમાણુ જે કે એક પ્રદેશ યુક્ત હોય છે તેમજ બે પુલ પરમાણુઓના, ત્રણ પુલ પરમાણુઓના યાવત અનંત પુલ પરમાણુઓના સાગથી નિષ્પન્ન થયેલ જેટલાં સ્કંધ દ્રવ્યો છે, તેઓ સર્વે પ્રમાણ વડે ગ્રાહ્ય હવા બદલ પ્રમેય જ છે તે પછી તમે પ્રદેશ નિષ્પને પ્રમાણુની કોટિમાં શા માટે સ્થાન આપે છે?
ઉત્તર-પ્રમેયભૂત દ્રવ્યાદિકેને અહીં જે પ્રમાણભૂત કહેવામાં આવ્યાં છે, તે રૂદ્ધિને લીધે જ કહેવામાં આવ્યાં છે. કેમકે લેકમાં આ જાતને
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अनुयोगद्वारसूत्र
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तथाहि दृश्यतेsपि द्रोणप्रमाणपरिमिते व्रीहौ द्रोणो व्रीहिरिति व्यवहारः । अत्रेद बोध्यम्- एकद्वित्र्यादिप्रदेशनिष्पन्नत्वलक्षणेन स्वस्वरूपेणैव प्रमीयमाणत्वात् परमाण्वादिद्रव्याणामपि 'प्रमीयते यत्तत्प्रमाणम्' इति कर्मसाधन प्रमाणशब्दवाच्यता कि लोक में ऐसा व्यवहार देखा जाता है कि - ' जो धान्यादिक द्रव्य द्रोण प्रमाण से परिमित होता है' उसे स्वयं " द्रोणो व्रीहिः" यह व्रीहि द्रोण है ऐसा स्वयं प्रमाणरूप से कह दिया जाता है । तात्पर्य कहने का यह है कि -' परमाणु आदि द्रव्य एक दो तीन आदि प्रदेशों से निष्पन्न होते हैं; इसलिये इन प्रदेशों से निष्पन्न होना ही इनका स्व स्वरूप है । इसी स्वरूप से ये जाने जाते हैं अतः " प्रमीयते यतप्रमाणम् " जो जाना जावे वह प्रमाण है - इस प्रकार का कर्म साधनरूप जो प्रमाण शब्द है तद्वाच्यता इन परमाणु आदि द्रव्यों में सुसंगत हो जाती है । तात्पर्य इस कथन का यह है कि- 'जब परमाणु आदि द्रव्यों को प्रमाण कोटि में रखा जाता है तब वहां पर करणसाधनरूप प्रमाण शब्द में वाच्यता नहीं आती है क्यों कि 'जो जाना जावे वह प्रमाण है ' ऐसा कर्म साधनरूप प्रमाण शब्द है-सो ये परमाणु आदि पुल द्रव्य अपने २ एक दो तीन आदि परमाणुओं द्वारा निष्पन्न होने रूप निज स्वरूप से ही जाने जाते हैं । अतः जाना जाना " यह जो प्रमाण शब्द की व्युत्पत्ति लभ्य अर्थ है वह इन में घटित हो जाती है-इसलिये ये स्वयं प्रमाणभूत बन जाते हैं । और जब “प्रमीयतेऽनेन इति प्रमाणं "
6:
વ્યવહાર જોવામાં આવે છે કે જે ધાન્યાદિક દ્રવ્ય દ્રોણુ પ્રમાણુથી પરિમિત होय छे, तेने 'द्रोणो- त्रीहिः' या व्रीडि द्रोरा छे मेवु प्रमाणु ३५भां કહેવામાં આવે છે. તાત્પર્ય આ પ્રમાણે છે કે પરમાણુ વગેરે દ્રવ્ય એક, બે, ત્રણ વગેરે પ્રદેશેથી નિષ્પન્ન હોય છે. એથી જ આ પ્રદેશથી નિષ્પન્ન થવુ જ એમનું સ્વ-સ્વરૂપ છે. આ સ્વરૂપથી જ એ જાણવામાં આવે છે એથી 'प्रमीयते यत् तत्प्रमाणम्' के नथुरामां आवे ते प्रभा છે. આ પ્રકારને ક્રમ સાધન રૂપ જે પ્રમાણુ શબ્દ છે. તારયતા
આ પરમાણુ વગેરે દ્રબ્યામાં સુસંગત થઈ જાય છે. તાત્પ આ છે કે જ્યારે પરમાણુ વગેરે દ્રબ્યાને પ્રમાણ કોટિમાં મૂકવામાં આવે છે ત્યારે ત્યાં કારણુ સાધન રૂપ પ્રમાણુ શબ્દવાચ્યતા આવતી નથી પરંતુ કમ સાધન રૂપ પ્રમાણુ શબ્દવાચ્યતા આવે છે. કેમકે જે જાણવામાં આવે તે પ્રમાણુ છે, એવા કસાધન રૂપ પ્રમાણુ શબ્દ છે. તે આ પરમાણુ વગેરે પુદ્ગલ દ્રવ્ય પાતપેાતાના એક, બે, ત્રણ વગેરે પરમાણુએ વડે નિષ્પન્ન હાવાથી પેાતાના સ્વરૂપથી જ જાણવામાં આવે છે. એથી ‘ જાણવામાં આવે’ એ જ પ્રમાણ શબ્દના વ્યુત્પત્તિલક્ષ્ય અથ છે, તે આમાં ઘટિત થઈ જાય છે એથી જ
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अनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र १८८ द्रव्यप्रमाणनिरूपणम् संगतैत्र । 'प्रमोयतेऽनेनेति प्रमाणम्' इति करणसाधनपक्षे तु-एकद्विव्यादिपदेशनिष्पन्नत्वलक्षणं स्वरूपमेव मुख्यतया प्रमाणमुच्यते, द्रव्यं तु तत्स्वरूपयोगादुपवारतः प्रमाणमित्युच्यते। ममितिः प्रमाणम्' इति भावसाधनपक्षे तु-पमितेः प्रमाणप्रमेयोभयाधीनत्वादुपचारात्तयोरपि प्रमाणशब्दव्यवहारः । इत्थं कर्मसाधनपक्षे परमावादि द्रव्यं मुख्यतया प्रमाणम्। करण पायसाधनपक्षयोस्तु तत्रोपचारात प्रमाण शब्द की व्युत्पत्ति इस प्रकार से करण साधन में रखी जाती है-तब ये परमाणु आदि द्रव्य स्वयं प्रमाणभूत नहीं पड़ते हैं किन्तु "जिसके द्वारा जाना जावे वह प्रमाण है" इस व्युत्पत्ति के अनुसार उनका जो एक दो तीन आदि परमाणुओं से निष्पन्न होना निज स्वरूप है वही मुख्यतया प्रमाणरूप है-क्यों कि वे उसके द्वारा ही जाने जाते हैं । तथा इस स्वरूप के साथ संबंधित होने के कारण परमाणु
आदि जो द्रव्य हैं, वे उपचार से प्रमाणभूत कहे जाते हैं। तथा-"प्रमितिः प्रमाण" जय प्रमाण शब्द की ऐली व्युत्पत्ति भाव साधन में की जाती है-तब प्रमिति ही प्रमाण शब्द वाच्य ठहरती है। और प्रमाण एवं प्रमेय ये दोनों प्रमिति को प्रमाण एवं प्रमेय इन दोनों के आधीन होने के कारण उपचार से ही प्रमाण शब्द के वाच्य ठहरते हैं। इस प्रकार कर्मसाधन पक्ष में परमाणु आदि द्रव्य मुख्य रूप से प्रमाण हैं और करण एवं भाव माधन पक्ष में वे उपचार से प्रमाण हैं । परमाणु तमा पोते प्रमाणभूत ई नय छे. भने न्यारे 'प्रमीयते अनेन इति प्रमाणम्' प्रभा शनी व्युत्पत्ति मारीत ४२५ साधनमा भूपामां आवे छे. ત્યારે આ પરમાણુ વગેરે દ્રવ્ય જાતે પ્રમાણભૂત હેતા નથી પરંતુ જેના વડે જાણવામાં આવે તે પ્રમાણ છે. આ વ્યુત્પત્તિ મુજબ તેમનું જે એક બે ત્રણ વગેરે પરમાણુઓથી નિષ્પન્ન થવું તે નિજ સ્વરૂપ છે તેજ મુખ્યતયા પ્રમાણ રૂપ મનાય છે. કેમકે તે તેમના વડે જ જાણવામાં આવે છે. તેમજ આ રવરૂપની સાથે સંબંધ હોવાથી પરમાણુ વગેરે જે દ્રવ્ય છે તે ઉપચારથી अभाभूत उवाय छे. तथा 'प्रमितिः प्रमाणं' न्यारे प्रभाए शनी मेवी વ્યુત્પત્તિ ભાવ સાધનમાં કરવામાં આવી છે, ત્યારે પ્રમિતિ જ પ્રમાણ શબ્દવાચ્ય છે એવું સિદ્ધ થાય છે. અને પ્રમાણ અને પ્રમેય તેઓ બન્ને પ્રમતિને પ્રમાણ અને પ્રમેય એ બન્નેને આધીન હોવા બદલ ઉપચારથી જ પ્રમાણ શબ્દના વાચ્ય રૂપમાં સિદ્ધ થાય છે. આ પ્રમાણુ કર્મસાધન પક્ષમાં પરમાણુ વગેરે દ્રવ્ય મુખ્ય રૂપમાં પ્રમાણ છે અને કરણ અને ભવ સાધન પક્ષમાં તે ઉપચારથી જ પ્રમાણ રૂ૫ ગણાય પરમાણુ વગેરે દ્રવ્યમાં જે આ
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८६
अनुयोगद्वारसूत्रे
प्रमाणत्वमिति । परमाण्वादिकं हि यथोत्तरमन्यान्यसंख्योपेतैः स्वगतैरेव प्रदेशैनिंपद्यमानलात् प्रदेशनिष्पन्नमित्युच्यते । अथ विभागनिष्पन्नं द्रव्यमाणस्य द्वितीयं भेदमाह - 'अथ किं तद् विभागनिष्पन्नम् ? इति । उत्तरयति - विभागनिष्पन्नम् - विविधो विशिष्टो वा भागो-भङ्गो विकल्पः प्रकार इति यावत् विभागस्तेन निष्पन्नम्, स्वगत प्रदेशान् विहायापरेण विभागेन यन्निष्पद्यते तद् विभागनिष्पन्नमित्यर्थः । धान्यमानादेः स्वगतमदेशाश्रयेण न स्वरूपं निरूप्यते, किन्तु - 'दो असईओ पसई'
आदिक द्रव्यों में जो इस प्रकार की प्रदेश निष्पन्नता कही गयी है वह यथोत्तर अन्यान्य संख्योपेत स्वगत प्रदेशों से ही जाननी चाहिये परगत प्रदेशों से नहीं क्यों कि इन में स्वगत प्रदेशों द्वारा ही यह प्रदेश निष्पन्नता कही गई है । अब सूत्रकार द्रव्य प्रमाण का द्वितीय भेद जो विभाग निष्पन्नता है उसका कथन करते हैं - (से किं तं विभाग निष्पन्ने ? ) हे भदन्त ! वह विभाग निष्पन्नता क्या है ?
उत्तर- विविध अथवा विशिष्ट जो भाग-भङ्ग-विकल्प-प्रकार है, वह विभाग है । इस विभाग से जिस द्रव्य प्रमाण की निष्पत्ति होती है, वह विभाग freeन द्रव्य प्रमाण है । इस द्रव्यप्रमाण की निष्पत्ति विभाग से होती है, सो इसका यह तात्पर्य है कि - ' धान्य आदि रूप द्रव्य के मान आदि के स्वरूप का निरूपण स्वगत प्रदेशों के आश्रय से नहीं किया जाता है किन्तु, किसी दूसरे ही प्रकार से किया जाता है । इस प्रकार धान्यादिक द्रव्यों का मान विभाग निष्पन्न सघ जाता
જાતની પ્રદેશ નિષ્પન્નતા કહેવામાં આવી છે. તે યથાત્તર અન્યાન્ય સખ્યાપેત સ્વગત પ્રદેશેાથી જ જાણવી જોઇએ પરગત પ્રદેશાથી જાણવી જોઈએ નહિ કેમકે આ સČમાં સ્વગત પ્રદેશ વડે જ આ પ્રદેશ નિષ્પન્નતા કહેવામાં આવી છે. હવે સૂત્રકાર દ્રવ્યપ્રમાણના બીજો ભેદ જો વિભાગ નિષ્પન્નતાના नामथी उथित छे ते विषे ४ हे. (से किं तं विभागनिष्पन्ने?) हे लढत ! તે વિભ ગ નિષ્પન્નતા શું છે ?
उत्तर- विविध अथवा विशिष्ट ने भाग- लौंग-वि प्रहार छे, ते વિભાગ છે આ વિભાગથી જે દ્રવ્યપ્રમાણની નિષ્પત્તિ થાય છે, તે વિભાગ નિષ્પન્ન દ્રવ્યપ્રમાણ છે. આ દ્રશ્યપ્રમાણની નિષ્પત્તિ વિભાગથી થાય છે. તાત્પર્ય એ છે કે ધાન્ય વગેરે રૂપ દ્રવ્યના માન વગેરેના સ્વરૂપનું નિરૂપણ સ્વગત પ્રદેશેાના આશ્રયથી કરવામાં આવતું નથી પરંતુ કાઈ ખીજા જ પ્રકારથી કરવામાં આવે છે. આ પ્રમાણે ધાન્યાદિક દ્રવ્યાના માન વિભાગ
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अनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र १८८ द्रव्यप्रमाणनिरूपणम् इत्यादि-रूपो यो विशिष्टः प्रकारस्तेन निष्पन्नमिति भावः। तच मानोन्मानावमानगणिमप्रतिमानभेदैः पञ्चविधम् । तत्र मानं द्विविधं मज्ञप्तम् , तद्यथा-धान्यमान प्रमाणं च रसमानममाणं च । तत्र-धान्यमानप्रमाणम्-मानमेव प्रमाणं-मानप्रमाणम् , धान्यविषयं मानप्रमाणं-धान्यमानप्रमाणम्। तच्च-"द्वे अमृतीप्रसूति रित्यादि है। ये धान्यादिक द्रव्य १ सेर है या दो सेर है। इस प्रकार से जो इनके वजन आदि रूप स्वरूप का निरूपण करने में आता है वह धान्यादिक द्रव्यगत प्रदेशों के सहारे से नहीं होता है किन्तु, १ सेर २ सेर रूप जो विशिष्ट प्रकार रूप विभाग है, तत्साध्य होता है, अर्थात् उससे निष्पन्न होता है इसलिये :स्वगत प्रदेशों को छोड़ कर अपर विभाग से इसकी निष्पत्ति कही गई है। इसी बात को सूत्रकार ने "दो असईओ पसई" इत्यादि रूप से व्यक्त किया है। (विभाग निष्फण्णे पंचविहे पण्णत्ते-तं जहा-माणे, उम्माणे, ओमाणे, गणिमे, पडिमाणे) यह विभाग निष्पन्न द्रव्यप्रमाण मान, उन्मान, अवमान, गणिम प्रतिमान के भेद से पांच प्रकार का कहा गया है । ( से किं तं माणे) हे भदन्त ! वह मान क्या है ?
उत्तर- (माणे दुविहे पण्णत्ते) वह मान दो प्रकार का होता है (तं जहा) वे प्रकार ये हैं-(धन्नमाणप्पमाणे य रसमाणप्पमाणे य) एक धान्यमान प्रमाण और दूसरा रस मान प्रमाण । धान्य विषयक मानरूप जो प्रमाण है वह धान्यमान प्रमाण है । (से किं तं धन्नमाનિષ્પન્ન થઈ જાય છે. આ ધાન્યાદિક દ્રવ્ય “એક શેર છે કે બશેર છે. આ પ્રમાણે જે એમના વજન વગેરે સ્વરૂપનું નિરૂપણ કરવામાં આવે છે, તે ધાન્યાદિક દ્રવ્યગત પ્રદેશોના આધારે નહિ પરંતુ ૧ ર, ૨ શેર રૂપ જે વિશિષ્ટ પ્રકાર રૂપ વિભાગ છે તેના આધારે હોય છે, એટલે કે એનાથી જ નિષ્પન્ન હોય છે એટલા માટે જ સ્વાગત પ્રદેશને બાદ કરીને અપર વિભા
थी अनी नि०५त्ति उपामा भावी छ. मे पातने सूत्र ‘दो असई ओ पसई' वगेरे ३५मां व्यरत ४री छे. (विभागनिप्पण्णे-पंचविहे पण्णत्तेतजहा-माणे, उमाणे, ओमाणे, गणिमे, पडिमाणे) मा विमा नपन्न द्रव्य પ્રમાણના માન, ઉન્માન, અવમાન, ગણિમ, પ્રતિમાન ભેદથી પાંચ પ્રકાર छ. (से कि त' माणे) 8 सहत! ते भान शुछे ?
उत्तर-(माणे दुविहे पण्णत्ते) ते मानना में प्रा२ . (तजहा) ते ४२ मा प्रारी छ. (धन्नमाणप्पमाणे य रसमाणप्पमाणे य) धान्य भान प्रमाण भने २स मान प्रमाण (से कि त धन्नमाणप्पमाणे ? धन्नमाणप्पमाणे
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अनुयोगद्वारसूत्रे रूपं बोध्यम् । अथ भाव:-अधोमुखबद्धहस्ततलरूपा, तत्परिमितं धान्यमप्यमृतिरित्युच्यते । तथा-द्वे अमृती एका प्रतिः नावाकारतया व्यवस्थापितमाञ्जलिकरणप्पमाणे ? धन्नमाणप्पमाणे दो असईओ पसई, दो पसईओ सेतिया, चत्तारि सेइयाओ कुलमो, चत्तारि कुलया पत्थो चत्तारि पत्थया, आढगं, चत्तारि आढगाइं दोनो, सहि आयाइं जहन्नए, कुंभे, असीइ, आढयाई मज्झिमए कुंभे, आदवलयं उकोसए कुंभे अयं आइयतइए वाहे) यह धान्यमान प्रमाण दो अमृति, प्रकृति आदि रूप है। अमृति यह धान्यादिक रूप का एक माप विशेष है । धान्यादिक द्रव्यों के जितने भी माप हैं उन सब की उत्पत्ति इसी असृति रूप माप से हुई है। जैसे इकाई से दुहाई आदिकों की। " अश्नुते-ध्यानोति सकलधान्यमानानि स्वप्रभवत्वेन या सा अमृतिः" इस व्युत्पत्ति का यही अर्थ है। हाथ की हथेली को अधोमुख व्यवस्थापित करने पर जितना भी धान्य समा जावे उसका नाम एक असृति है। वैसे तो अधोमुख व्यवस्थापित हथेली का नाम ही अमृति है । इस अमृति में जितना भी धान्मादिक द्रव्य समाया हुआ होता है उसको भी अमृति कह दिया जाता है। इस लिये इस अमृति परिमित जितना भी धान्यादिक द्रव्य है वह यहाँ असति शब्द का वाच्यार्थ जानना चाहिये। दो अहतियों की एक प्रसूति होती है । इस प्रकृति का आकार नाव के आकार जैसा होता है। अर्थात दो असईओ पसई, दो पसईओ सेतिया, चत्तारि सेइयाओ कुलओ, चत्तारि कुलया, पत्थो, चत्तारि पत्थया आढगं, चत्तारि आढगाई, दोणो सवि आढयाई जहन्नए, कुंभे, असीइ अढयाई माज्झमए कुंभे, सादगाय उकोसए कुंभे अट्य आढय सइए वाहे) मा धान्य मान प्रभाष्य में सति, असति पणे ३५ છે. અમૃતિ આ ધાન્યાદિક દ્રવ્યોનાં જેટલાં માપે છે તે સર્વેની ઉત્પત્તિ આ असति ३५ भा५थी ये छे. रेम है मेथी मे परे ‘अनतेव्याप्नोति सकलधान्यमानानि स्व प्रभवत्वेन या सा अमृतिः' मा व्यु.५. ત્તિને એજ અર્થ છે. અધે મુખ હાથમાં જેટલું ધાન્ય સમાવિષ્ટ થઈ જાય તેનું નામ અમૃતિ છે. આમ તે અધમુખ વ્યવસ્થાપિત હથેલીનું નામ જ અમૃતિ છે. આ અમૃતિમાં જેટલું ધાન્ય વગેરે દ્રવ્ય સમાવિષ્ટ થઈ જાય, તેને પણ અસુતિ કહેવામાં આવે છે. એટલા માટે આ અતિ પીમિત જેટલાં ધાન્યાદિક દ્રવ્યો છે, તે અહીં અસુતિ શબદલે વાચ્ય થયે જાણવા જોઈએ બે અતિઓની એક પ્રસૂતિ થાય છે. આ સૃતિને આકાર હેડીના
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अनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र १८८ द्रव्यप्रमाणनिरूपणम्
८९
तलरूपा । द्वे प्रसृती एका सेतिका, सेतिकेति मागधः प्रमाणविशेषः । चतस्रः सेतिकाः एकः कुडवः, चत्वारः कुडवा एकः प्रस्थः, चत्वारः प्रस्था एक आढकः, चत्वार आढकाएको द्रोणः, षष्टिराढका जघन्यकः कुम्भः, अशीतिराढका मध्यमकुम्भः, आढकशतम् - शतसंख्यका आढका एक उत्कृष्टः कुम्भः, तथा अष्ट च आढक शतिका:- अष्टशतसंख्यका आढका एको वा इति । असृत्यादिवाहांन्ता धान्यमानप्रमाणा मगधदेशप्रसिद्धा बोध्याः, मागधधान्यमानानामेवात्र विवक्षितत्वात् । एतेन धान्यमानप्रमाणेन यत्प्रयोजनं तत्पृच्छापूर्वकमाइ - एतेन = उपरिनिर्दि
सीधी दोनों हाथों की परस्पर जुड़ी हुई नाव के आकार में फैली हथेलियां एकप्रसृति है । दो प्रसृतियों से एक सेतिका बनती है। सेतिका यह मगध देश का एक विशेष प्रमाण है । चार सेतिकाओं का एक कुडव होता है। चार कुडवों का एक प्रस्थ होता है। चार प्रस्थों का एक आढक होता है । चार आढकों का एक द्रोण होता है। सात आढकों का एक जघन्य कुंभ होता है । अस्सी आढकों का एक मध्यम कुंभ होता है । १०० आढकों का १ उत्कृष्ट कुंभ होता है। आठ सौ आठकों का एक वाह होता है । असृति से लेकर वाह तक के ये जितने भी धान्यमान प्रमाण हैं, ये सब मगध देश में प्रसिद्ध हैं। उन्हीं की यहां विषक्षा है, अतः वे ही यहां लिये गये हैं ।
(एएणं घण्णमागमाणेणं किं पओयणं ) शिष्य पूछता है कि है भदन्त ! इस धान्यमान प्रमाण से किस प्रयोजन की सिद्धि होती है ? આકાર જેવા હાય છે. એટલે કે બન્ને સીધા હાથેાની હથેલીઓ ખાખાના આકારે હાડીના જેવી ફેલાઇ ગયેલી હોય તે તે એક પ્રસૃતિ કહેવાય છે. એટલે કે બન્ને હાથેાને છતા જોડવાથી જે ખાખાની આકૃતિ થાય છે તેમાં જેટલુ દ્રવ્ય સમાવિષ્ટ થાય તે એક પ્રકૃતિ પરિમિત કહેવાય. એ પ્રકૃતિની એક સેતિકા થાય છે સેતિકા આ મગધ દેશનુ એક વિશેષ પ્રમાણુ છે ચાર સેતિકાઓનું એક કુડવ કહેવાય છે. ચાર કુડવ બરાબર એક પ્રસ્થ હાય છે. ચાર પ્રસ્થ ખરાખર એક ઢક હાય છે. ચાર આઢકાના એક દ્રોણુ હાય છે સાત આઢકાના એક જધન્ય કુભ હોય છે. એંશી આઢકાના એક મધ્યમ કુલ હાય છે ૧૦૦ આઢકાના એક ઉત્કૃષ્ટ કુંભ હોય છે. આસા માઢક ખરાખર એક વાહુ હાય છે. અસૃતિથી માંડીને વાહ સુધીના આ જેટલાં ધાન્ય માન પ્રમાણેા છે. તે સર્વે મગધ દેશમાં પ્રસિદ્ધ છે તેમની જ અહીં વિવક્ષા સમજવી.
अ० १२
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अनुयोगद्वारसूत्रे
कटेन धान्यमानममाणेन किं प्रयोजनम् ? एतेन धान्यमानप्रमाणेन मुक्तोल्यादिषु निक्षिप्तानां धान्यानां या मानप्रमाणनिरृतिइयत्तालक्षणस्य मानप्रमाणस्य निरृत्तिः- निष्पत्तिस्तस्यालक्षणं - परिज्ञानं भवति । तंत्र - मुक्तोली-अब उपरि च सङ्कीर्णा .मध्ये वीद्विशाला कोष्ठिका 'कोठी' इति लोकमसिद्धा बोध्या । मुखं शकटीपरि स्थापयमानो धान्याधारविशेषः । इदुरम् - केशशणकादिनिर्मितो धान्याधारविशेषः 'गुणती' इति भाषा प्रसिद्धः | अलिन्दम् = धान्याधारविशेषः, अपचारि=
उत्तर- (एएणं घण्णमाणपत्राणं मुत्तोली, मुख, इदुर, अलिंद ओचार संसियाणं वण्णाणं घण्णमाणप्यमाणनिव्त्रित्तिलक्खणं भवइसेतं घण्णमाणपमाणे ) इस धान्यमान प्रमाण से धान्य के माणरूप प्रमाण से - मुक्तोली, मुख' इदुर, अलिंद तथा अपचारि इनमें रखे हुए धान्य के प्रमाण का परिज्ञान होता है । मुक्तोली नाम कोठी का है । यह नीचे और ऊपर में कुछ सकरी होती है - तथा बीच में नीचे ऊपर की अपेक्षा विस्तृत रहा करती है। ग्रामों में ऐसी कोठियां मिट्टी की बनी हुई होती हैं । इनमें धान्य भरा जाता है । मुख नाम फटका हैजिसमें अनाज भर कर लोग बेचने के लिये ले जाते हैं। यह सूत या सन का बना हुआ होता है। गाड़ी में यह रखा जाता है इदुर नाम are का है । यह बालों की अथवा सुत या सूतली की बनी हुई होती है । लोग इसे अपनी पीठ पर रख कर इसमें अनाज भर कर लाते हैं ।
(एएणं घण्णमाणपमाणेणं किं पश्रयणं) शिष्य प्रश्न उरे छे ! हे लढत ! આ ધાન્યમાન પ્રમાણુથી કયું પ્રયાજન સિદ્ધ થાય છે ?
उत्तर- एएणं घण्णमाणापमाणेणं मुत्तोली, मुख इदुर अलिंद ओचार सियाणं घण्णाणं घण्णमाणाप्यमाणनिव्वित्तिलक्खणं भवइ-से त घण्णमाण. पमाणे) या धान्यमान प्रभाणुधी- धान्यना भाष ३५ प्रभालुधी - भुतोसी, મુખ, ઈંદુર, અલિ, તેમજ અપચારિમાં મુકેલ ધાન્યના પ્રમાણનું પરિજ્ઞાન થાય છે. મુકતાન્ની એટલે કે કાઠી આ નીચે અને ઉપરના ભાગમાં થાડી સાંકડી હાય છે. તેમજ વચ્ચે નીચે અને ઉપરની અપેક્ષાએ પહાળી હાય છે. ગામામાં એવી કાઢીએ માર્ટીની થાય છે આમાં ધાન્ય ભરવામાં આવે છે મુખ એ ફટ્ટનુ નામ છે જેમાં અનાજ ભરીને લેકે વેંચવા માટે લઈ જાય છે. આ સુતર અથવા શણુ વર્ડ નિર્મિત થયેલ હાય છે આ ગાડીમાં મૂકવામાં આવે છે. ઇદુર નામ ગુણુનુ છે તે વાળની અથવા સૂતર અથવા સૂતળીની બનેલી ડેાય છે. અનાજ ભરેલી ગુણુને લેાકેા પીઠ પર મૂકીને
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अनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र १८८ द्रव्यप्रमाणनिरूपणम् दीर्घतरं धान्यकोष्ठकम् । एषु संश्रितानां निक्षिप्तानां धान्यानाम्-'एतावदत्र धान्यमस्ति' इति प्रकारेण मानप्रमाणपरिज्ञानं भवतीत्यर्थः। एतदुपसंहरन्नाहतदेतद् धान्यमानप्रमाणमिति । अथ किं तद् रसमानप्रमाणम् ? इति शिष्यप्रश्नः। उत्तरयति-रसमानप्रमाणम्-रस: इक्षुरसादिस्तद्विषयं मानमेव प्रमाणं-रसमान. प्रमाणं, तद् यथा विधीयते तदुच्यते। तदेवं विज्ञेयम्-धान्यमानप्रमाणात् सेतिकादेश्चतुर्मागविवद्रितं चतुर्भागाधिकम् आभ्यन्तरशिखायुक्तं रसप्रमाण कहीं कहीं इसे गुणती भी कहते हैं । अलिन्द यह भी धान्य रखने का एक आधार विशेष है । अपचारि नाम बंडा का है। यह बहुत बड़े कोठ जैसा होता है। मानप्रमाण से इन सब में भरे हुए अनाज के प्रमाण का परिज्ञान होता है-कि इसमें इतना अनाज भरा हुआ है
और इसमें इतना । इस प्रकार यह धान्यमान प्रमाण है। (से किं तं रसमाणपमाणे ? ) हे भदन्त ! वह रसमान प्रमाण क्या है ? (रसमाण. प्पमाणे-धण्गमाणप्पमाणाओ चउभागविवड़िए, अभितरसिहाजुत्ते रसमाणप्पमाणे विहिज्जइ) - उत्तर-द्रवरूप पदार्थ ही जिसका विषय है ऐसा वह रसमान प्रमाण सेतिकादिरूप धान्यमान प्रमाण से चतुर्भागाधिक होता है और अभ्यन्तर शिखा से युक्त होता है । धान्य द्रव्य ठोस द्रव्य है,वह द्रव रूप पदार्थ नहीं है इसलिये उसकी शिखा होती है रस द्रव्य ठोस द्रव्य नहीं होता है वह द्रवरूप होता है इसलिये बाहिर में उसकी शिखा લઈ જાય છે અને કઈ કઈ પ્રદેશમાં ગુણતી પણ કહે છે. અહિંદ આ પણ એક ધાન્ય મૂકવાને આધાર વિશેષ છે. અપચારિ નામ બંડાનું છે. આ બહુજ મેટા કેઠા જે હેય છે. માન પ્રમાણથી આ સર્વેમાં ભરેલાં અનાજના પ્રમાણનું પરિજ્ઞાન થાય છે, કયા પાત્રમાં કેટલું અનાજ ભરેલું છે. તેનું પરિજ્ઞાન આ પૂર્વોક્ત માન પ્રમાણથી જ થાય છે આ પ્રમાણે આ धान्य भान प्रमाण छ. (से कि त रसमाणप्पमाणे) ७ मत! २स भान प्रभा अन ४उवाय १ (रसमाणापमाणे-धण्ण नाणप्पमाणाओ चउभागविवढिए, अभितरसिहाजुत्ते रस माणापमाणे विहिज्जइ).
ઉત્તર-દ્રવ રૂપ પદાર્થ જ જેને વિષય છે. એવું તે રસમાન પ્રમાણુ સેતિકાદિ રૂપ ધાન્ય પ્રમાણથી ચતુર્ભાગાધિક હોય છે. તેમજ અભ્યન્તર શિખાયુક્ત હોય છે ધાન્ય દ્રવ્ય નકકર દ્રવ્ય છે, તે દ્રવપદાર્થ નથી એથી તેની શિખા હેય છે રસ દ્રવ્ય નકકર હેતું નથી, દ્રવરૂપ હોય છે. એથી
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६२
अनुयोगद्वारसूत्रे विधीयते-क्रियते। धान्यस्याद्रवरूपत्वात् शिखा भवति, रसस्य तु द्रवरूपत्वात् बहिः शिखाया असंभवादन्तः शिखा भवति। धान्यमानाचतुर्भागवृद्धिलक्षणया अभ्यन्तरशिखया युक्तत्वादिदं रसमानप्रमाणभ्यन्तरशिखायुक्तमित्युच्यते । रसमानप्रमाणं यथा क्रियते तथोच्यते-तद्यथा-चतुःपष्टिकेत्यादि । अयं भावः-षट्पञ्चाशदधिकद्विशतपलप्रमाणं मानिकेत्याख्यं वक्ष्यमाणं रसमानं भवति । तस्या मानिकायाश्चतुषष्टितमभागनिष्पना-अर्थात् चतुष्पलप्रमाणा नहीं होती है-भीतर में होती है-अतः यह रसमान प्रमाण धान्यमान से चतुर्भागवृद्धिरूप आभ्यन्तर शिखा से युक्त कहा गया है । (तं जहा) रस का मानरूप प्रमाण जिस प्रकार से किया जाता है उस प्रकार को अब सूत्रकार कहते हैं-(चउसट्टिया ४ चउपलषमाणा बत्तीसिया ८ सोलसिया १६ अट्ठमाइया ३२ चउमाझ्या ६४ अद्धमाणी १२८ माणी २५६) २५६ पल का एक मानी नाम का रसप्रमाण होता है। इस मानी का ६४ वां भाग प्रमाण अर्थात् ४ पलप्रमाण चतुष्पष्टिका नाम का रस प्रमाण होता है । मानी का ३२ वां भाग अर्थात् ८ पलप्रमाण द्वात्रिंशका नाम का रस प्रमाण होता है। मानी का १६ वां भाग अर्थातू १३ पल प्रमाण षोडशिका नाम का रस प्रमाण होता है। मानी के आठवें भागप्रमाण अर्थात् ३२ पल प्रमाण अष्टभागिका नाम का रस प्रमाण होता है। मानी के चतुर्भागप्रमाण अर्थात् ६४ पल प्रमाण चतु. आंगिका नामक रस प्रमाण होता है। मानी के आधे भागप्रमाण अर्थात् બહાર તેની શિખા હોતી નથી અંદર હોય છે. એટલા માટે જ આ રસમાન પ્રમાણ ધાન્યમાનથી ચતુર્ભાગ વૃદ્ધિરૂપ આત્યંતર શિખાથી યુક્ત કહેવાય છે (तजहा) २सनुं मान ३५ प्रभारीत ४२वामां भाव छ त समयमा सूत्र२ ४३ छ-(चउसट्ठिया ४ चउपलपमाणा बत्तीसिया ८ सोलसिया १६, अटुमाइआ ३२, चउमाइया ६४ अद्धमाणी १२८ माणी २५६) २५६ ५बनु એક માની નામક રસ, પ્રમાણ હોય છે. આ માનીને ૬૪ મે ભાગ પ્રમાણ એટલે કે ૪ પલ પ્રમાણુ ચતુષષ્ટિક નામક રસપ્રમાણ હોય છે. માનીને ૩૨ મો ભાગ એટલે કે ૮ પલપ્રમાણ દ્વત્રિશિકા નામક રસપ્રમાણુ હોય છે. માનીને ૧૬ મે ભાગ એટલે કે ૧૬ પલપ્રમાણ છેડશિકા નામક રસ પ્રમાણ હોય છે. માનીને ૮ મે ભાગ પ્રમાણ એટલે કે ૩૨ પલ પ્રમાણે અષ્ટ ભાગિકા નામક રસ પ્રમાણુ હોય છે. માનીને ચતુર્ભાગ પ્રમાણ એટલે કે ૬૪ પલ પ્રમાણ ચતુર્ભાગિકા નામક રસપ્રમાણ હોય છે. માનીને અર્ધા
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अनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र १८८ द्रव्यप्रमाणनिरूपणम् चतुष्पष्टिका । एवं मानिकाया:-द्वात्रिंशत्तमभागवर्तित्वादष्टपलप्रमाणा द्वात्रिशिका, षोडशभागवर्तित्वात्-षोडशपलप्रमाणा षोडशिका, अष्टमभागवर्तित्वात् द्वात्रिंशत्पलपमाणा अष्टभागिका, चतुर्भागवर्तित्वात् चतुष्पष्टिपलमाना चतुर्भागिका, अर्ध भागवर्तिनी अष्टाविंशत्यधिकशतपलमाना चार्धमानिका बोध्या। तथा-पट्पश्चाशदधिकशतद्वयमानप्रमाणा मानिका बोध्या। अमुमेवार्थमाह-द्वे चतुष्पष्टिके द्वात्रिंशिका, द्वे द्वात्रिंशके षोडशिका-इत्यादिना 'द्वे अर्द्धमान्यौ मानी' इत्यन्तेन पदसमूहेन। एतेन रसमानप्रमाणेन किं प्रयोजनम् ? इति प्रश्नस्यो. त्तरमाह-एतेन रसमानप्रमाणेन वारकपटककरकादिस्थानां रसानां मानप्रमाण१२८ पल प्रमाण अर्धमानिका नाम का रस प्रमाण होता है । २५६ पल प्रमाण मानी नाम का रसप्रमाण होता है । इस प्रकार रसमान को कह कर अब सूत्रकार इसी अर्थ को इस प्रकार से कहते हैं-(दो चउसद्वि. याओ बत्तीसीया, दो बत्तीसियाओ सोलसिया, दो सोलसियाओ अट्ठभाइया, दो अभाझ्याभो चउभाइया, दो चउभाइयाओ अद्ध. माणी, दो अद्धमागीओ माणी) दो चतुष्पष्टिका की १ द्वात्रिशिका होती है। दो द्वात्रिंशिकाओं की १ षोडशिका होती है । दोपोडशिकाओं की १ अष्टभागिका होती है । दो अष्टभागिकाओं की १ चतुर्भागिका होती है। दो चतुर्भागिकाओं की १ अर्द्धमानी होती है। दो अर्द्धमानियों की १ मानी होती है। (एएणं रसमाणपमाणेणं वारघडकारक कालसिय गागरियदिइयकरोडिय कुंडिअ संसियाणं रसाणं रसमोणप्पमाण निवित्तिलक्खणं भवइ-से तं रसमाणप्पमाणे-से तं माणे) इस रसमान ભાગ પ્રમાણ એટલે કે ૧૨૮ પલકમાણ અર્ધમાનિક નામક રસપ્રમાણ હોય છે ૨૫૬ પલપ્રમાણ માની નામક રસપ્રમાણુ હોય છે. આ પ્રમાણે २समानने डीन सूत्रा२ मे अर्थ ने मारी १५८ ४२ छ-(दो चउसदिथाओ बत्तोसिया, दो बत्तीसियाओ सोलसिया, दो सोलसियाओ, अदभाइया, दो अदभाइयाओ च उभाइया दो चउभाइयाओ अद्धमाणी, दो अद्धमाणीओ माणी ચતુષષ્ટિકાની ૧ કાત્રિશિકા થાય છે. બે દ્રાવિંશિકાઓની ૧ ડિશિકા થાય છે. બે છેડશિકાઓની ૧ અષ્ટભાગિકા થાય છે બે અષ્ટભાગિકાઓની ૧ ચતુભગિકા થાય છે. બે ચતુર્ભાગિકાઓની ૧ અદ્ધમાની થાય છે બે અર્ધમાनमानी १ मानी थाय छे. (एएणं रसमाणप्पमाणेण वारकघडककरककल. सियगागरियदिइयकरोडियकुंडिअसंसियाणं रसाणं रसमाणप्पमाणनिवि त्तिलक्खणं भवइ-से तरसमाणे-से त माणे) मा समान प्रभाथी ॥
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अनुयोगद्वारसूत्र. निर्वृत्तिलक्षणं भवति । तत्र-वारका लघुघटः, घटः प्रसिद्धः, करको घटविशेषः, कलशिका-लघुकलशः, घटकलशयोराकारकृतो भेदो बोध्या, गर्गरी='गगरी' इति भावाप्रसिद्धा, दृतिका धर्ममयो 'मसक' इति प्रसिद्धः, करोडिका अतिविशालाखा कुग्डिका, कुण्डिका= 'कुंडी' इति प्रसिद्धा, एतेषु पात्रविशेषेषु स्थितानां रसानाम् 'एतावानत्र रसोऽस्ति' इति रूपेण मानप्रमाणपरिज्ञानं भवतीत्यर्थः । एतदुपसंहरन्नाह-तदेतद्रसमानप्रमाणमिति। इत्थं मानप्रमाणस्य भेदद्वयनिरूपणेन मानप्रमाणं निरूपितमिति सूचयितुमाह- तदेतद् मानम्' इति ॥मू० १८८॥ प्रमाण से किस प्रयोजन की सिद्धि होती है तो इसका उत्तर यह है कि इस रसमान प्रमाण से वारक, घटक, करक आदि में रखे हुए रसों के वजन का कि इतना रस इनमें भरा हुआ है ज्ञान होता है । छोटे घड़ें का नाम वारक है । सामान्य कलश का नाम घट है । घट विशेष का नाम करक है। छोटी कलशियाका नाम कलशिका है घट और कलश में
आकार कृत भेद होता है । गर्गरो-गगरी-यह प्रसिद्ध वर्तन है । दृति नाम मसक है । जिसका मुख बहुत बड़ा होता है ऐसे वर्तन का नाम करोडिका है । कुण्डी कुण्डिका ये पर्यायवाची शब्द हैं । इस प्रकार से यह रसमान प्रमाण है । मानप्रमाग का इसके दो भेदों के इस निरूपण से निरूपण हो चुका यह बात सूत्रकार ने “से तं माणे" इस सूत्रपाठ द्वारा व्यक्त की है।
- भावार्थ-सूत्रकार ने इस सूत्र द्वारा उपक्रम का तृतीय भेद जो प्रमाण है उसके चतुर्भेदों में से द्रव्य प्रमाण का कथन किया है। इसमें પ્રયજનની સિદ્ધિ થાય છે. તે આના ઉત્તરમાં આમ કહી શકાય કે આ રસભાન પ્રમાણુથી વારક, ઘટક, કરક વગેરેમાં મૂકેલાં રસના વજનનો અમુક પ્રમાણ પૂરતો રસ આમાં છે આ જાતનું જ્ઞાન થાય છે. નાને દેગડા વારક કહેવાય છેસામાન્ય કલશને ઘટ કહે છે. ઘટ વિશેષનું નામ કરક છે. નાના કળશનું નામ કલશિકા છે ઘટ અને કલશના આકારમાં ભિન્નતા હોય છે. ગર્ગરી-ગાગર આ પ્રવિદ્ધ વાસણ છે. હૃતિ મશકનું નામ છે જેનું મુખ બહુજ પહેલું હોય છે. એવા વાસણનું નામ કરેડિકા છે. કુંડી, કુંડિકા પર્યાયવાચી શબ્દ છે આ પ્રમાણે આ રમાન પ્રમાણ છે માન પ્રમાણુના બને ભેદનું नि३५५५ ४२वामा मायुं छे । पात सूत्रधारे ‘से त' माणे' मा સૂત્રપાઠ વડે વ્યક્ત કરી છે. - ભાવાર્થ–સ્વકારે આ સૂત્ર વડે ઉપક્રમને તૃતીય ભેદ પ્રમાણ છે તેના ચતુર્ભે જેમાંથી દ્રવ્ય પ્રમાણ વિષે સ્પષ્ટતા કરી છે. આમાં તેમણે આ પ્રમાણે
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अनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र १८८ द्रव्यप्रमाणनिरूपणम् उन्हों ने यह कहा है कि द्रव्य को विषय करने वाले प्रमाण का नाम द्रव्य प्रमाण है । इस द्रव्य प्रमाण में द्रव्यों के-एक प्रदेशी पुद्गल परमाणु
आदिकों के तथा धान्यादिक द्रव्यों के प्रमाण को कहने वाले अन्तरंग बहिरंग साधनों का विचार प्रकट किया है । अन्तरंग साधनों में द्रव्य के प्रदेश और बहिरंग साधनों में इन प्रदेशों से अतिरिक्त धान्यादिकों के माप के साधन गृहीत किये गये हैं। पुद्गल द्रव्य का यह अविभाज्य अंश परमाणु है-इस विषय को कहने वाला उसका एक प्रदेश से निष्पन्न होना है। क्योंकि पुद्गल का परमाणु एक प्रदेश वाला ही होता है यह द्विप्रदेशी स्कंध है, यह त्रिप्रदेशी स्कंध है यावत् यह अनंत प्रदेशी स्कंध है इस बात को कहने वाली उनका दो प्रदेशों से, तीन प्रदेशों से यावत् अनंत प्रदेशों से निष्पन्न होना है। क्यों कि द्विप्रदेशी स्कंध दो पुद्गल परमाणुओं के संयोग से, त्रिप्रदेशी स्कंध तीन पुद्गल परमाणुओं के संयोग से यावत् अनंत प्रदेशी स्कंध अनंत पुदल परमाणुओं के संयोग से निष्पन्न होता है । इस प्रकार प्रदेश, एवं प्रदेशों से निष्पन्न द्रव्य-पुद्गल परमाणु और द्विप्रदेशी आदि स्कंधों का जानना यह द्रव्यप्रमाण है यह प्रदेशों से निष्पन्न हुआ है अतः यह द्रव्यप्रमाण प्रदेशनिष्पन्न कहा गया है। तथा विभागनिष्पन्न द्रव्यप्रमाण इस प्रदेशनिष्पमप्रमाण કહ્યું છે કે દ્રવ્યના વિષયી પ્રમાણુનું નામ દ્રવ્ય પ્રમાણ છે. આ દ્રવ્ય પ્રમણમાં દ્રવ્યના એક પ્રદેશી પુલ પરમાણુ વગેરેના તેમજ ધન્ય વગેરેના દ્રના પ્રમાણને કહેનારા અંતરંગ બહિરંગ સાધને વિષે વિચાર કર્યો છે. અંતરંગ સાધનોમાં દ્રવ્યના પ્રદેશ અને બહિરંગ સાધનોમાં આ પ્રદેશ સિવાય ધાન્યાદિકેના માપના સાધને સંગૃહીત કરવામાં આવેલ છે. પુદ્ગલ દ્રવ્યને આ અવિભાજ્ય અંશ પરમાણું છે. આ વિષયને કહેનાર તેનું એક પ્રદેશથી નિષ્પન્ન થવું છે. કેમકે પુલને પરમાણુ એક પ્રદેશ યુક્ત જ હોય છે. આ ઢિપ્રદેશી સ્કંધ છે, આ ત્રિપ્રદેશી ઔધ છે યાવત્ આ અનંત પ્રદેશી સ્કંધ છે. આ વાતને કહેનાર તેમનું બે પ્રદેશોથી, ત્રણ પ્રદેશથી યાવત અનંત પ્રદેશોથી નિષ્પન્ન થવું છે. કેમકે-દ્ધિપ્રદેશી ધ બે પુદ્રલ પરમાણુઓના સંગથી યાવત્ અનંત પ્રદેશ સ્કંધ અનંત મુદ્ર પરમાણુઓના સંગથી નિષ્પન્ન થાય છે. આ પ્રમાણે પ્રદેશ અને પ્રદેશથી નિષ્પન્ન દ્રવ્ય, પુલ પરમાણુ અને દ્વિદેશી વગેરે ક ધોનું જ્ઞાન દ્રવ્ય પ્રમાણ છે આ પ્રદેશથી નિષ્પન્ન થયેલ છે એથી આ દ્રવ્ય પ્રમાણ પ્રદેશ નિષ્પન્ન કહેવાય છે. તેમજ વિભાગ નિષ્પન્ન દ્રવ્ય પ્રમાણ
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अनुयोगद्वारसूत्रे
अथ उन्मानप्रमाणं निरूपयति
मूलम् - से किं तं उम्माणे ? उम्माणे जपणं उम्मिणिज्जइ, तं जहा - अद्धकरिसो करिसो, अद्धपलं पलं, अद्धतुला तुला, अभारो भारो, दो अद्धकरिसा करिसो, दो करिसा अद्धपलं, दो अपलाई पलं, पंच पलसइया तुला, दस तुलाओ, अद्धभारो, वीसं तुलाओ भारो । एएणं उम्माणपमाणेणं किं पओयणं ?, एएणं उम्माणप्यमाणेणं पत्तागरतगरचोयय कुंकुम खंडगुलमच्छंडिआइणं दव्त्राणं उम्माणपमाणनिव्वित्तिलक्खणं भवइ । सेतं उम्माणपमागे ॥ सू० १८९ ॥
छाया- - अथ किं तत् उन्मानम् ?, उन्मानं - यत् खलु उन्मीयते, तद्यथाअर्धकर्षः कर्षः, अर्धपलम् पलम्, अर्धतुला, तुला, अर्ध मारो भारः । द्वौ अर्धर्षो कर्षः, at a अर्धपलं, द्वे अर्धपले पलं, पञ्चपकशतिका तुला, दशतुलाः अर्धभारः, विंशतिस्तुला भारः । एतेन उन्मानप्रमाणेन किं प्रयोजनम् ?, एतेन उन्मान
"
से जुदा है। इसमें द्रव्यों का प्रमाण जानना बहिरंग साधन रूप जो असृति प्रसृति आदि हैं उनसे होता है। विभाग निष्पन्न द्रव्यप्रमाण मान उन्मान आदि के भेद से ५ प्रकार का कहा गया है। मान प्रमाण धान्यमानप्रमाण और रसमानप्रमाण के भेद से दो प्रकार का है । ठोस पदार्थों को कहने वाले असृति प्रसृति आदि सब धान्यमान प्रमाण में परिगणित किये गये हैं और द्रव पदार्थों को कहने वाले दो चतुष्यforका आदि रसमान प्रमाण में | सू० १८८ ॥
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આ પ્રદેશ નિષ્પન્ન પ્રમાણ કરતાં ભિન્ન છે. આમાં દ્રવ્યેનું પ્રમાણુ જ્ઞાન અહિરગ સાધન રૂપ અસૃતિ પ્રસૃતિ વગેરેથી જ થાય છે. વિભાગ નિષ્પન્ન દ્રવ્ય પ્રમાણુ માન ઉન્માન વગેરેના ભેદથી પંચવિધ કહેવાય છે. માનપ્રમાણુ, ધાન્યમાન પ્રમાણુ અને રસમાન પ્રમાણના ભેદથી બે પ્રકારનું કહેવાય છે. નક્કર પદાર્થોં વિષે કહેનારા અસૃતિ પ્રસૃતિ વગેરે સવ" ધાન્ય માનપ્રમાણમાં પરિગણિત કરવામાં આવેલ છે અને દ્રવ્ય પદાર્થને કહેનારા એ ચતુષ્ટિકા વગેરે રસમાન પ્રમાણમાં પરિણિત કરવામાં આવેલ છે. પ્રસૂ॰૧૮૮॥
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अनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र १८९ उम्मानप्रमाणनिरूपणम् प्रमाणेन पत्रागुरुतगरचोयककुङ्कुमखण्डगुडमत्स्यण्डिकादीनां द्रव्याणाम् उन्मानः प्रमाणनित्तिलक्षणं भवति । तदेतत् उन्मानप्रमाणम् ॥सू० १८९।।
टीका-'से कि तं' इत्यादि
अथ किं तत् उन्मानम् ? उन्मानम् यत् उन्मीयते तद् बोध्यम् । तुलायां धृत्वा यत् उन्मीयते ऊर्ध्वमुत्थाप्य तोल्यते तत् उन्मानमिति भावः । इदं कर्मसाधनपक्षमधिकृत्योक्तम् । अस्योन्मानप्रमाणस्य भेदानाह-तद्यथा-अर्द्धकर्षः कर्ष इत्यादि । तत्र-अधकपः-सर्वलघुमानविशेषः । एतेषां निष्पत्तिर्यथा भवति तथाह'दो अद्धकरिसा करिसो' इत्यादिना वीसं तुलाओ भारो' इत्यन्तपदसमूहेन ।
अब सूत्रकार उन्मान प्रमाण का स्वरूप निरूपण करते हैं"से कि तं उम्माणे" इत्यादि।
शब्दार्थ ( से किं तं उम्माणे) शिष्य पूछता है कि हे भदन्त ! वह उन्मान रूप प्रमाण क्या है ? (जण्णं उम्मिणिज्जइ उम्माणे)
उत्तर-तुला-तराजू में रखकर जो वस्तु तोली जाती है वह उन्मान रूपप्रमाण है।-" यत् उन्मीयते तत् उन्मानम्" यह उन्मान की व्युत्पत्ति कर्मसाधन पक्ष को लेकर की गई जानना चाहिये। इसलिये इस पक्ष के अनुसार तेजपत्र आदि सब उन्मान प्रमाण में गृहीत होते हैं। (तंजहा) इस उन्मान प्रमाण के भेद इस प्रकार हैं-(अद्धकरिसो) अर्धकर्ष यह सब से छोटा प्रमाण है। (करिसो) कर्ष, (अद्धपलं) अर्द्धपल, (पलं) पल, (अद्धतुला, तुला) अर्धतुला, तुला, (अद्धभारो भारो भद्धभार, भार इन पूर्वोक्त प्रमाणों की निष्पत्ति इस प्रकार से होती
હવે સૂત્રકાર ઉન્માન પ્રમાણના સ્વરૂપનું નિરૂપણ કરે છે. "से कि त उम्माणे" त्याहि
शहाथ-(से कि त उम्माणे) शिष्य प्रश्न ४२ छ । महत! ते जन्मान ३५ प्रमाण शुछ १ (जण्णं उम्मिणिज्जइ उम्माणे.)
ઉત્તર-ત્રાજવામાં મૂકીને જે વસ્તુ ખવામાં આવે છે તે ઉન્માન રૂપ प्रमाण छ. 'यत् उन्मीयते तत् उन्मानम् ' म माननी व्युत्पत्ति शुभ સાધન પક્ષના આધારે કરવામાં આવી છે. એથી જ આ મુજબ તેજપત્ર વગેરે સર્વ Gमान प्रभाथी सडात थाय छे. (तंजहा) मा मान प्रमाना । मा प्रमाणे छ-(अद्ध करिसो) अध४१, मा सौ ४२i सधु प्रभार छे. (करिसो) ४५, (अद्धपलं) अद्ध ५, (पलं) ५१, (अद्धतुला तुला) मातुरातुसा, (अद्धभारोभारो) सद्धभार, मा२ मा पूर्वरित प्रभावी नियत्तिमा प्रमाणे
अ० १३
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अनुयोगद्वारसूत्रे उन्मानप्रमाणस्य प्रयोजनजिज्ञासायागाह-एतेन उन्मानप्रमाणेन द्रव्याणाम् उन्मानप्रमाणशरिज्ञानं भवति । केषां द्रव्यागां भवति ? इत्याह-पत्रागुरुतगरचोय. ककुङ्कुमखण्डगुडमत्स्य ण्डिकादीनामिति। तन-पत्रम्-तैजसादिपत्रम् , अगुरुः 'अगर' इति भाषाप्रसिद्धः, तगरः तमरेदि नाम्ना प्रसिद्धस्य वृक्षस्य काष्ठम् , चीयका गन्धद्रव्यविशेषः, कुश्मः प्रसिद्धः, खण्डम्='खाँड' इति भाषा प्रसिद्धम् , गुडः प्रसिद्धः, मत्स्य ण्डिका 'मिसरी' इति भाषा प्रसिद्धा। पत्रादिमत्स्यण्डिकान्ता. दिद्रव्याणामेतेन उन्मानप्रमाणेन प्रमाणपरिज्ञानं भवतीति भावः। प्रकृतमुपसंहर्तुमाह-तदेतदुन्मानप्रमाणमिति । सू० १८९॥ है-(दो अद्धकरिसा, करिसो) दो अर्धकर्षों का १ कर्ष होता है। (दो करिसा अद्धपलं) दो कर्षों का १ अर्द्धपल होता है। (दो अद्धपलाई पलं) दो अर्धपलों का १ पल होता है । (पंचपलसइया तुला) पांच सौ पलों की एक तुला होती है । (दस तुलाओ अद्ध भारो) दस तुलाओं का १ अर्धभार होता है। (एएणं उम्माणपमाणेणं किं पओयणं) हे भदंत ! इस उन्मान प्रमाण से किस प्रयोजन की सिद्धि होती है ? ____उत्तर-(एएणं उम्माणपमाणेणं) इस उन्मान प्रमाण से (पत्तागरतगरचोययकुंकुमखंडगुलमच्छंडिआइणं दवाणं) तेजपत्र आदि पत्र अगर, तगर, गंधद्रव्य विशेष चोयक कुंकुम, खांड, गुड़, मत्स्यण्डि का-मिसरी, इत्यादि द्रव्यों के (उम्माणपमाण निश्चित्तिल०) इयत्ता. रूप मान प्रमाण की निष्पति का परिज्ञान होता है । (से तं उम्माणपमाणे) इस प्रकार यह उन्मान प्रमाण है। पत्रादि द्रव्यों के प्रमाण का परिज्ञान इस उन्मानप्रमाण से होता है। सू०१८९॥ डाय छे. (दो अद्ध करिसा करिसो) मे स मम२ १ . थाय छे. (दो करिमा अद्धपलं) मे नि मद्ध५ थाय छे. (दो अद्धपलाई पलं) मे अ. पक्षोनु । ५ थाय छे. (पंचपलसइया तुला) पांयस पानी मे तुम थाय छ (दस तुलाओ अद्धभारो) ४॥ तुसामना १ मा२ थाय छे. (वीसं तुलाओ भारो) वी तुमासान। १ मार थाय छ (एएणं सम्माणपमाणेणं कि पओयणं) महत ! Sमान प्रमाथी या प्रयोगनना सिद्धि थाय ?
उत्तर-(एएणं उम्माणपमाणेणं) मा भान प्रभाथी (पत्तागरतगर चोययकुंकुमखंडगुलमच्छंडिआइणं व्याण) पत्र वगेरे पत्र, मगर, त१२, मध, द्रव्य विशेष, याय४, शुभ, मांड, गण, मत्स्य 8-भिसरी, पोरे द्रव्याना (उम्मानपमाणनिवित्तिल०) ध्यत्ता ३५ भान प्रमाणुनी निम्पत्तिन परिज्ञान थाय छे. (सेत उम्माणपमाणे) मा प्रमाणे मा 6-भान प्रभार છે પત્રાદિ દ્રવ્યોના પ્રમાણનું પરિજ્ઞાન આ ઉન્માન પ્રમાણથી થાય છે. સૂ૦૧૮લા
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अनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र १९० अवमानगणिमप्रमाणं च निरूपणम् ९९
अथावमानप्रमाणं गणिमप्रमाणं चाहमूलम्-से किं तं ओमाणे?, ओमाणे-जपणं ओमिणिजइ, तं जहा-हत्थेण वा दंडेण वा धणुकेण वा जुगेण वा नालियाए वा अक्खैणवामुसलेण वा दंडधणुजुगनालियाय अक्खमुसलं च चङहत्था दललालियं च रज्जु, वियाण ओमाणसण्णाए॥१॥वत्थुमि हत्थमेजं, खित्ते दंडं धणुं च पत्थंमि। खायं च नालियाए वियाण
ओमाणसण्णाए॥२॥ एएणं अवमाणपमाणेणं किं पओयणं? एएणं अवमाणपमाणेणं खायचियरइयकर कचियकडपडभित्तिपरिक्खेवसंसियाणं दवाणं अवमाणपमाणनिठयत्तिलक्खणं भवइ ।सेतं अवमाणे । सेकि तं गणिमे? गणिमे-जपणंगणिज्जइ, तं जहा-एगो, दस, सयं, सहस्तं, दस सहस्साई सयसहस्सं, दससयसहस्लाइं कोडी। एएणं गणिमप्यमाणेणं किं पओयणं?, एएणं गणिप्यमाणेणं भित्तगभित्तिभत्तवेषणआयव्वयसंसियाणं दवाणंगणियप्पमाणनिवित्तिलक्खणंभवहा सेतं गणिमोसू.१९०॥
छाया --अथ किं तत् अवमानम् ? अवमान-यत् खलु अश्मीयते, तद्यथाहस्तेन या दण्डेन वा धनुष्केण वा युगेन वा नालिकया वा अक्षेण वा मुसलेन वा। दण्डधनुयुगनालिकाश्च अक्षमुसलं च चतुर्हस्तम् । दशनालिकां च रज्जु विजानीहि अवमानसंज्ञायाम् । वास्तौ हस्तं मेयं क्षेत्रे दण्डं धनुश्च पथि । खातं च नालिकया विजानीहि अमानसंज्ञायाम् । एतेन अवमान प्रमाणेन किं प्रयोजनम् ?, एतेन अवमानप्रमाणेन खातचितरचितककचितकटपटभित्तिपरिक्षेपसंश्रितानां द्रव्याणा अवमानप्रमाणनितिलक्षणं भवति । तदेतत् अवमानम् । अथ किं तत् गणिमम् ! गणिमं यत् खलु गण्यते, तद्यथा-एको, दश, शतं, सहस्रं, दशसहस्राणि शतसहस्रहम् , दशशतसहस्राणि कोटिः । एतेन मणिमयमाणेन किं प्रयोजनम् । एतेन गणि. मममाणेन भृतकभृतिभक्तवेतनायव्ययसंश्रितानां द्रव्याणां गणिमप्रमाणनिति. लक्षणं भवति । तदेतद् गणिमम् ।।५० १९०॥
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अनुयोगद्वारसूत्र टीका --'से किं तं' इत्यादि
अथ किं तत् अवमानम् ? अवमीयते परिच्छियते यत्तदवमानम् वातादिकं वस्तु, यद्वा-अवमीयते परिच्छिद्यते-निणीयते खातादिमानमनेनेति-अवमानं हस्तदण्डादिकम् । इति कर्मकरणोभयसाधनपक्षेऽत्रावमानशब्दः किं साधन इति शिष्यप्रश्नः। अवमानशब्दस्य उभयसाधनत्वमङ्गीकृत्य प्रथमं कर्मसाधनतावलम्बनेनोत्तरयति-अवमानं-यत्खलु अवमीयते-परिच्छिद्यते तत् खातादिकं बोध्यम् । __ “से किं तं ओमाणे ?" इत्यादि।
शब्दार्थ-(से किं तं ओमाणे ?) हे भदन्त ! वह अवमान क्या है ?
उत्तर-(जण्णं ओमिज्जइ ओमाणे) जो नापा जाता है वह अव. मान है । (तंजहा-हत्थेण वा दंडेग वा) नापा जाता है हाथ से, अथवा दण्ड से (धणुक्केण वा) अथवा धनुष से (जुगेण वा) अथवा युग से अथवा नालिका से, अथवा अक्ष से अथवा मुसल से। यहां पर अवमान शब्द कर्म और करण इन दोनों साधनों में व्यवहत हुआ है। "अवमीयते यत् तत् अवमानम्" जो प्रमाणित किया जावे-नापा जावे वह अवमान है। इस कर्मसाधन संबन्धी व्युत्पत्ति के अनुसार अवमान शब्द का वाच्यार्थ खातादिक-कूपादिक-वस्तुएँ पड़ती हैं। और जब “अवमीयते अनेन इति अवमानम्" ऐसी अवमान शब्द की व्युत्पत्ति करण साधन पक्ष में की जाती है-तब हस्त दण्डादिक अबमान शब्द के वाच्यार्थ पड़ते हैं ! जय कर्मसाधन पक्ष में अवमान शब्द
" से किं त ओमाणे ?" त्याहशहाथ-(से कि ओमाणे ) 3 महत! ते अवमान छ ?
उत्तर--(जण्णं ओमिज्जइ ओमाणे) २ भावामा मा छे ते समान छ. (तजहा-हत्थेण वा दंडेण वा) हाय अथवा 43 भावामां आवे छे. (धणुक्केण वा) अथवा धनुषथी (जुगेण वा) अथवा युगथी मथ नलिथी, અથવા અક્ષથી અથવા સાંબેલાથી માપવામાં આવે છે. અહીં અવમાન શબ્દ
म भने ४२९१ मा भन्ने साधनामा व्यपाहत ये छे. 'अवमीयते यत् तत् अवमानम् '२ प्रमाणित ४२वामां आवे मायामा माव-ते समान छ આ કર્મ સાધન સંબંધી વ્યુત્પત્તિ મુજબ અવમાન શબ્દને વાચ્યાર્થ-કૃપા
विष समन्वो मने ब्यारे 'अवमीयते अनेन इति अवमानम् ' मा જાતની અવમાન શબ્દની વ્યુત્પત્તિકરણ–સાધન પક્ષમાં કરવામાં આવે છે ત્યારે હસ્ત, દંડ વગેરે અવમાન શબ્દના વાચ્યાર્થ હોય છે, જ્યારે કર્મ સાધન
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अनुयोगचन्द्रिका टोका सूत्र १९० अवमानगणिमप्रमाणं च निरूपणम् १०१ अत्रावमानशब्दःकर्मसाधनो बोध्यः । इदं केनावभीयते ? इत्याह-तद्यथा-हस्तेन वा दण्डेन वा धनुष्केण वा युशेन वा नालिकया वा अक्षेण वा मुसलेन वा अअमीयते। तत्र-हस्ता चतुर्विशत्या कात्मकः। दण्डधनुर्युगनालिकाऽक्षमुसलेषु दण्डादिकं प्रत्येकं चतुर्हस्तममाणम् । तथा दशनालिकाप्रमाणा रज्जुर्योध्या। करणाधनाक्षे हस्तादयोऽप्यवमानशब्दवाच्याः। एतदेव सूचयितुमाह-'दंडधणु' इत्यादि । दण्ड. धनुर्युगनालिकाश्चतुर्हस्तमिताः, अक्षमुसलम्-अक्षं मुसलं च प्रत्येकं चतुर्हस्तप्रमाणम् । तथा-दशनालिकां च रज्जु दशनालिकाममितां रज्जुच अत्रमानसंज्ञया विजानीहि । हस्तादिरज्ज्वन्ताः शब्दाः अवमानार्थका बोध्या इति गाथाऽभि रखा जाता है तब यह प्रश्न उपस्थित होता है कि ये किससे प्रमाणित किये-नापे जाते-हैं-तो इसका उत्तर सूत्रकार ने यों दिया है कि ये दण्डादिक से नापे जाते हैं । चौबीस अंगुल का एक हाथ होता है। दंड, धनुष, युग, नालिका, अक्ष और मुसल ये सब प्रत्येक चार २ हाथ के होते हैं । यही बात (दंडधणु जुग नालिया य अश्वप्नु पलं च चउ हत्थं) इस गाथा द्वारा कही गई है। तथा-(दस नालियं च रज्जें वियाणभोमाणसण्णाए) दस नालिका की अर्थात् ४० हाथ की एक रज्जु होती है । इस प्रकार अवमान संज्ञा में यह प्रमाण कहा गया है। करण साधनपक्ष में अवमान शब्द के वाच्यार्थ हस्तादिक पड़ते हैं। इसी घात की सूचना के लिये दंड धणु इत्यादि गाथा कही गई है। हस्तादि से लेकर रज्जु तक के ये शब्द अवमान के अर्थ को कहनेवाले हैं ऐसा પક્ષમાં અવમાન શબ્દ મૂકવામાં આવે છે ત્યારે એ પ્રશ્ન ઉપસ્થિત થાય છે કે તેઓ કોના વડે પ્રમાપિત કરવામાં આવે છે? તે આના ઉત્તરમાં સૂત્રકારે આ પ્રમાણે કહ્યું છે કે આ સેવે દંડાદિકથી માપવામાં આવે છે. ચોવીશ આંગળનો એક હાથ કહેવાય છે દંડ, ધનુષ, યુગ, નાવિકા, અક્ષ અને भुशव मामाथी हरे ६२४ या२ या२ डायना डाय छे से पात (दंडधणुजुग नालिया य अक्ख मुसलं च चउहत्य) 24गाथा १3 उपामा भावी तभार (दस नालियं च रज्जु वियाण ओमाण सण्णए) ४श नातिनी सटसे કે ૪૦ હાથની એક રજજુ હોય છે આ પ્રમાણે અવમાન સંજ્ઞામાં આ પ્રમાણુ કહેવામાં આવ્યું છે કરણ સાધન પક્ષમાં અવમાન શબ્દના વાચ્યાર્થ હસ્તાદિક હોય છે. એજ વાતને સૂચિત કરવા માટે દંડ ધણુ વગેરે ગાથા કહેવામાં આવી છે. હસ્તાદથી માંડીને રજજુ સુધીના શબ્દ અમાન અને સ્પષ્ટ કરનારા છે. આ પ્રમાણે આ ગાથાને અભિપ્રાય છે દંડાદિક દરેક
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अनुयोगद्वारसूत्रे
प्रायः । दण्डादयो यदि चतुर्हस्तप्रमाणास्तर्हि एक तमोपादानेन सिद्धे कथं पुनर्दण्डादीनां षण्णामुपादानं कृतम् ? इति मा कश्विद् विप्रतिपद्येतेति दण्डादीनां विषयभेदानाह - 'वत्थुम्मि' इत्यादिना । वास्तौ = गृहभूमौ मेयं = मानं हस्तं विजानीहि । मूले- 'हत्थ' इति लुप्तद्वितीयान्तम् । हस्तेनैव वास्तुमीयते इति भावः । तथा-क्षेत्रे = धान्यवपनयोग्य भूमिविषये मेयं दण्डं विजानीहि । लोके हि दण्डेनैव क्षेत्रमान भवति । क्षेत्रमापकं वंशखण्डं लोका 'दण्डे' ति संज्ञया अभिदधति । पथि मार्गविषये मेयं धनुः = धनुरभिधानं वंशदण्डं विजानीहि । मार्गगव्यूतादिप्रमाणपरिच्छेदो धनु संज्ञ के नैवावमानविशेषेण भवति न तु दण्डादिना । लोके तथैव रूढेः सच्चात् । इस गाथा का अभिप्राय है । " दण्डादिक प्रत्येक का प्रमाण जब चार हाथ का है तो फिर दण्डादिक छहों का पाठ क्यों सूत्रकार ने किया है ? "ऐसी कोई आशंका न करें इसके लिये सूत्रकार इन सबका विषय भेद, प्रकट करते हैं - वे कहते हैं कि ( वत्थुम्मि हत्थमेज्जं, खित्ते, दंडं, धणुं च पत्थमि, खायं च नालियाए, वियाण, ओमाण सण्णाए ) कि वास्तु-गृहभूमि में मान हस्त होता है अर्थात् गृह का प्रमाण हाथ से जाना जाता है - यह घर इतने हाथ का है यह घर इतने हाथ का - इस प्रकार से गृह का नाप आंका जाता है । हथ " यह पद लुप्त द्वितीयान्त है । क्षेत्र में-खेत में दण्ड प्रमाण माना जाता है अर्थात् खेन का प्रमोण दण्ड से आंका जाता है । क्षेत्रमापक एक वांस का खंड होता है । जिसे लोक
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दण्ड " इस नाम से कहते हैं । मार्ग के नापने में धनुष प्रमाणभूत माना गया है - अर्थात् मार्ग के गव्यूतादि प्रमाण का परिच्छेद धनुष् नामक अवमान प्रमाण विशेष से होता है। दण्डकादि से नहीं। क्योंकि
દરેકનું પ્રમાણ જ્યારે ચાર હાથ જેટલુ છે તેા પછી દાર્દિક ના પાઠ સૂત્રકારે શા માટે કર્યા છે? આ જાતની કઈ શકા ન કરે સૂત્રકાર આ સના विषयमा लेह अउट उरत छे - ( वत्थुम्मि इत्यमेज्जं खित्ते, दंड, धणुं च पत्थमि, खायं च नालियाए वियाण ओमाणसंण्णा) वास्तु-गृभूमि-मां भान હસ્ત હાય છે, એટલે કે ગૃહનુ' પ્રમાણ હાથ વડે જાણવામાં આવે છે. આ धर भेटला हाथ सांगु-पालु छेया प्रमः ये घर हाथ वडे भयाय छे. 'हत्या' मा ५४ છે. લુપ્ત દ્વિતીયાન્ત છે. ક્ષેત્રમાં-ખેતરમાં-દડપ્રમાણુ માનવામાં આવે છે. એટલે કે ખેતર દંડ વડે માપવામાં આવે છે. ક્ષેત્રમાપક એક વાંસના ખડ ય છે જેને લેાકેા દંડ ' કહે છે, માગના માપમાં ધનુષ્ય પ્રમાણભૂત મનાય છે એટલે કે માના ગબૂતાદિ પ્રમાણુના પરિચ્છેદ ધનુનામક અવમાન પ્રમાણુ વિશેષથી
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अनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र १९० अवमानगणिमप्रमाणं च निरूपणम्
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तथा - नालिकया = चतुर्हस्तममाणया नालिकाख्ययष्ट्या खातं = कूपादि मीयते । एवं युगामुलैरपि प्रदेशविशेषे तत्तद्विषये एतानि मेयत्वेनोपादीयन्ते । एतानि हस्तदण्डादीनि अवमानसंज्ञया विजयानीहीति द्वितीयगाथाऽर्थः । एतस्यामानप्रमाणस्य प्रयोजनमभिधातुमाह-एतेन हस्तादिना अवमानप्रमाणेन खातचितरचितक्ररुचितकटपटमित्तिपरिक्षेपसंश्रितानाम् तत्र - खातं = कूपादि चितम् = लोक में इसी प्रकार से रूढ़ि प्रचलित है । कूपादि का प्रमाण चार हाथ प्रमाण वाली नलिका से इस नामकी लकड़ी से मापा जाता है। इसी प्रकार से प्रदेश विशेष में युग, हस्त, मुसलइ न से भी तत् तत् विषय मापे जाते हैं । ये सब हस्त दण्डादिक अवमान संज्ञक जानना चाहिये । ऐसा द्वितीय गाधा का अर्थ है ।
1
अब सूत्रकार इस अवमान प्रमाण का क्या प्रयोजन है ? इसबात को शंका पुरस्सर प्रकट करते हैं -
शंका - (एएणं अवमाणपमाणेणं किं पओयणं) हे भदन्त ! इस अवमान प्रयाण से कौन सा प्रयोजन सिद्ध होता है ?
उत्तर- (एएणं अवमाणपमाणेणं खाय, चिरइय, करकचिय, कड, पड, भित्ति परिक्खेव संसियाणं दव्वाणं अवमाणपमाणनिव्वित्तिलक्खणं भवइ) इस हस्तादिरूप अवमान प्रमाण से खात, चित, रचित, क्रकचित, कट, पट, भित्ति, परिक्षेप अथवा नगर की परिखा इनमें संश्रित द्रव्यों के अवमान प्रमाण का परिज्ञान होता है।
જ થાય છે. ઈંડાદિકથી નહીં કેમકે લેાકમાં આ પ્રમાણે જ રૂઢિ પ્રચલિત છે. કૃપાદિક પ્રમાણુ ચાર હાથ જેટલી નાલિકાથી જાણવામાં આવે છે આ પ્રમાણે પ્રદેશ વિશેષમાં યુગ, હસ્ત, મુશલ આ બધા વડે પણ એમનાથી સંબધિત વિષયે માપવામાં આવે છે આ સર્વે હસ્તદ'ડાર્દિક અવમાન સજ્ઞક જાણવાં જોઇએ એવા દ્વિતીય ગાથાના અથ છે.
હવે સૂત્રકાર આ અવમાન પ્રમાણુના પ્રયજન વિષે પ્રશ્ન કરે છે.
- (एएणं अवमाणरमाणेणं किं पओयणं) डे लहांत ! या अवमान પ્રમાણથી કયુ* પ્રયજન સિદ્ધ થાય છે ?
उत्तर- (पण अवमाणपमाणेणं खाय चियरइय, करकचिय, कड, पड, भित्ति परिक्खेव संखियाणं दव्वाणं अवमाणपमाण निव्वित्तिक्खणं भवइ) मा हस्तादि ३५ अवमान प्रभाथी भात, थित, रथित, उचित, उट, पट, ભિત્તિ, પરિક્ષેપ અથવા નગરની પખિા આ બધામાં સ'ક્ષિત દ્રવ્યેાના અવમાન પ્રમાણુનું પરિજ્ઞાન હોય છે. રૂપાદિકને ખાત કહે છે. ઇષ્ટકાદિ ઈં
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अनुयोगद्वारसूत्रे इष्टकादि-राशिः, रचितं-प्रासादपीठादिकं, क्रकचितं करपत्रविदारितं काष्ठादिकं, कटपटौ प्रसिद्धी मितिः कुडचम्, परिक्षेपा=गरिधिः मियादेः, नगरपरिखादिर्या, एतत्संश्रितानां द्रव्याणां खातादीनामित्यर्थः, अभेदेऽप भेदकल्पनया खातादिसंश्रितानां द्रव्याणामि युक्तम्, अवमानप्रमाणनितिलक्षणं-अवमानप्रमाणत्वपरिज्ञानं भवति । एतदुपसंहरन्नाइ-तदेतदवमानमिति। ___ अथ किं तद् गणिमम् ?-गण्यते-संख्यायते यत्तदू गणिमम्। रूप्यकादि, गण्यते संख्यायते वस्त्वनेनेति गणिमम्-एकद्वयादिकम् , इति कर्मकरणोभयकूपादिक खात कहलाते हैं । इष्टकादि-ईट आदिकों से बना ये हुए प्रासादपीठादिक चित कहलाते हैं। करोत से विदारित काष्ठादिक क्रकचित कहलाते हैं। कट नाम चटाई का और पट नाम वस्त्र का है। भीत का नाम भित्ति है। भीत की परिधिका नाम परिक्षेष है । अथवा नगर की जो खाई होती है उसका नाम परिक्षेप है। इनमें संश्रित खातादिरूप द्रव्यों के प्रमाण का परिज्ञान होता है। अभेद् मे भी भेद की कल्पना से “खातादि संश्रिता नां द्रव्याणां" ऐसा पाठ सूत्रकार ने कहा है । अर्थात् ये खातादिक द्रव्य इतनी नालिका प्रमाण हैं, ये गृह इतने हाथ प्रमाण हैं, यह खेत इतने दण्ड प्रमाण है इत्यादि रूप से खातादिकों के अवमान प्रमाण का परिज्ञान होता है । (से तं अवमाणे) इस प्रकार यह अवमान प्रमाण है। (से किं तं गणिमे) हे भदन्त ! वह गणिम प्रमाण क्या है ? (जण्णं गणिज्जइ गणिमे)
उत्तर-जो गिना जावे वह गणिम है । ऐसा वह गणिम रूप्यक आदि जानना चाहिये। अथवा-जिसके द्वारा वस्तु गिनी जावे वह વગેરેથી નિર્મિત પ્રાસાદ પીઠ વગેરે ને ચિત કહેવામાં આવે છે. કરવત વડે વહેરાયેલ કાષ્ઠાદિક કેકચિત કહેવાય છે અને પટ નામ વસ્ત્રનું છે ભીંતનું નામ ભિત્તિ છે. ભીંતની પરિધિનું નામ પરિક્ષેપ છે અથવા નગરની જે પરિખા હોય છે તેનું નામ પરિક્ષેપ છે આમાં સંશ્રિત ખાતાદિ રૂપ દ્રવ્યના प्रभानु परिज्ञान डाय छे. महमा ५४ हनी ४८५नाथा “ खातादि संधितानां द्रव्यागाम्" माता 3 सूत्र१२ वडे ४ामा मा छे सेट ખાતદિક દ્રવ્ય આટલી નાલિકા જેટલું છે, આ ઘર એલા હાથ પ્રમાણ છે, આ ખેતર આટલા દંડ પ્રમાણ છે, વગેરે રૂપથી ખાતાદિકોના અવમાણ પ્રમાણનું परिज्ञान डाय छे. (से तं अवमाणे) मा प्रमाणे ॥ अवमान प्रमाण छ. (से कि त गणिमे) मत! शुभ प्रभाछ ? (जण्णं गणिज्जइ गणिमे.)
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अनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र १९० अवमानगणिमप्रमाणं च निरूपणम् १०५ साधननिष्पन्नयोर्मध्ये गणिमशब्दः किं साधनोऽत्र विवक्षितः ? इति शिष्यप्रश्नः। कर्मसाधनमेवात्र विवक्षितमिति अभिधातुमाह-गणिमं हि यत् खलु गण्यते तदः बोध्यम् । केनेदं गण्यते इत्याह-तद्यथा-एको दश शतमित्यादि संख्यया एतस्य गणिमप्रमाणस्य प्रयोजनाभिधित्सया माह-एतेन गणिमप्रमाणेन भृतक भृति गणिम है । इस पक्ष में एक दो तीन संख्या गणिम जाननी चाहिये । क्योंकि वस्तु इनके द्वारा गिनी जाती है। " संख्यायते यत् तत् गणिमं" यह गणिम शब्द की व्युत्पत्ति जब कर्मसाधन में की जाती है-तब रूपया आदि गणिम शब्द के वाच्यार्थ पड़ते हैं क्यों कि वेही गिने जाते हैं। और जब गणिम शब्द की व्युत्पत्ति करण साधन में की जाती है तब ये रूपया आदि जिसके द्वारा गिने जाते हैं ऐसी वह १, २, ३, आदि की गिनती गणिम शब्द का वाच्यार्थ पड़ती है । परन्तु यह सूत्रकार ने गणिम शब्द को कर्म साधन में ही गृहीत किया है। अतः यह प्रश्न हो सकता है-कि ये रूपया आदि गणिम किससे गिने जाते हैं इसके लिये सूत्रकार कहते हैं । (एगो, दस, सयं सहस्सं दस. सहस्साई दससयसहस्साई कोड़ी) एक, दश, सौ, हजार, दस हजार एक लाख, दस लाख, एक करोड़ इत्यादि गणना से गिने जाते हैं।
ઉત્તર-જે ગણવામાં આવે છે તે ગણિમ છે. ગણિમ રૂપિયા આદિ હેય છે અથવા જેના વડે વતુ ગણવામાં આવે તે ગણિમ છે આ પક્ષમાં એક, બે, ત્રણ વગેરે સંખ્યા ગણિમ છે એવું સમજવું જોઈએ કેમકે એમના વડે " alमा मा छे. 'संख्यायते यत् तत् गणिमम्' मा गनिम शनी વ્યુત્પત્તિ જ્યારે કર્મ સાધનમાં કરવામાં આવે છે, ત્યારે રૂપિયે વગેરે ગણિમ શબ્દના વાગ્યાથે કહેવાય છે કેમકે તેમની જ ગણના થાય છે. અને જ્યારે, ગણિમ શબ્દની વ્યુત્પત્તિ કરણ સાધનમાં કરવામાં આવે છે ત્યારે આ રૂપિયા વગેરે જેના વડે ગણાય છે, એવી તે એક, બે, ત્રણ વગેરે સંખ્યા ગણિમ શબ્દના વાચ્યાર્થમાં આવે છે. પરંતુ અહીં સૂત્રકારે ગણિમ શબ્દને કમ સાધનમાં જ ગૃહીત કરેલ છે એથી આ પ્રશ્ન ઉપસ્થિત થઈ શકે છે કે આ રૂપિયા વગેરે ગણિમ કેના વડે ગણવામાં આવે છે તેના માટે સૂત્રકાર કહે. छ. (एगो, दस, सयं, सहस्सं दस सहस्साई, सय सयसहस्साइं कोड़ी) मे, ४२२, सो, २, ४ २, सास, शाम, ४२१७ वगैरे मना 43 गवामा आवे छे. (एएणं गणिमप्पमाणेणं कि पओयणं) मा राशिम . प्रभानु प्रयोजन शु.१ सेना भाटे ४२ ४३ छे है (एएणं गणिमप्पमा.. अ० १४
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अनुयोगद्वारसूत्रे भक्तवेतनायव्ययसंश्रिताना-भृतका कर्मकरः, भृतिः पदात्यादीना वृत्तिः, भक्तं भोजनम् , वेतन-तन्तुवायव्यूतवस्त्रोपलक्षेऽर्थप्रदानम् , एतेषु य आयोव्ययश्च तत्संश्रितानाम् तत्प्रतिबद्धानां द्रव्याणां रूप्यकादि द्रव्याणां गणितप्रमाणनित्तिलक्षणम्-गणितस्य गणनाया या प्रमाणनित्तिः -प्रमाणनिष्पत्तिस्तस्या लक्षणं परिज्ञानं भवति । सम्प्रत्येतदुपसंहरन्नाह-तदेतद् गणिममिति । ० १९०॥
अथ प्रतिमानपमाणं निरूपयति
मूलम्-से किं तं पडिमाणे ? पडिमाणे-जणं पडिमिणिजइ, तं जहा-गुंजा कागणी निप्फाओ कम्ममासओ मंडलओ सुवण्णो। पंच गुंजाओ कम्ममासओ, चत्तारि कागणीओ, कम्ममासओ, तिणि निप्फावा कम्ममासओ, एवं चउको कम्ममासओ, बारस कम्ममासया मंडलओ एवं अडयालीसं कागणीओ मंडलओ, सोलसकम्ममासया सुवगो, एवं चउसहि (एएणं गणिमापमाणेणं किं पओयणं) इस गणिम प्रमाण का क्या प्रयोजन है ? इसके लिये मूत्रकार कहते हैं कि (एएणं गणिमप्पमाणेणं भित्तगभित्तिभत्तवेयणआयव्वयसंसियाणं दवाणं गणिमप्पमाणनिवित्तिलक्खणं भवइ, से तं गणिमे) इस गणिम प्रमाण से भृतककर्मकर, भृति-पदाति आदिकों की वृत्ति, भक्त-भोजन, वेतन-जुलाहों द्वारा चुने गये वस्त्रों के उपलक्ष में मजूरी देना इनमें जो आयव्यय होता है उस आयव्यय से संबंधित् रुपया आदि द्रव्यो के गणना के प्रमाण की निवृत्ति का-ये इतने हैं-इस प्रकार के प्रमाण की निष्पत्ति का-परिज्ञान होता है। इस प्रकार यह गणिमरूप प्रमाण है। स०१९०॥
यो भित्तगभित्ति भत्तवेयण आयव्यय संसियाणं दव्वाणं गणिमपमाणनिव्वित्तिलक्खणं भवइ, से तं गाणिमे) 24. लिम प्रमाथी मृत-भ४२-भूति-पाति વગેરેની વૃત્તિ, ભક્ત-ભજન, વેતન-વણકર વગેરે વડે તૈયાર કરેલા વસ્ત્રોના ઉપલક્ષમાં મજુરી આપવી, આનાથી જે આય-વ્યય હોય છે, તે આય-વ્યયથી સંબંધિત રૂપિયા વગેરે દ્રવ્યોના પ્રમાણનું પરિણાન થાય છે. આ પ્રમાણે આ ગણિમ રૂપ પ્રમાણ છે. પ્રસૂ૦૧૮)
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अनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र १९१ प्रतिमानप्रमाण निरूपणम्
१०७
कागणीओ सुवण्णो । एएणं पडिमाणप्पमाणेणं किं पओयणं ?, एएणं पडिमाणप्रमाणेणं सुदण्णरजतमणिमोत्तिय संखसिलप्पवालाईणं दव्वाणं परिमाणापमाणनिव्वित्तिलक्खणं भवइ । से तं परिमाणे । से तं विभागनिष्फण्णे । से तं व्वप्यमाणै॥सू. १९१॥
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छाया- -अथ किं तत् प्रतिमानम् ? प्रतिमानं यत् खलु प्रतिमीयते, तद्यथा. गुञ्जाका कणनिष्पावः कर्ममासः मण्डलकः सुवर्णः । पञ्च गुञ्जाः कर्ममासकः चतस्रः काकिण्यः कर्ममासकः, त्रयो निष्णात्राः कर्ममासकः, एवं चतुष्कः कर्ममासकः, द्वादशकर्ममाका: मण्डलकः, एवम् अष्टचत्वारिंशत् काकिण्यः मण्डलकः, षोडशकर्ममासकाः, सुवर्णकः एवं चतुष्षष्टिः काकिण्यः सुवर्णः । एतेन प्रतिमानप्रमाणेन किं प्रयोजनम् ?, एतेन प्रतिमानममाणेन सुवर्णरजत मणिमौक्तिकशंख शिलाsararatti outri दिमानप्रमाणनि चित्रक्षणं भवति । तदेतत् प्रतिमानम् । तदेतद् विभागनिष्पन्नम् । तदेतद् द्रव्यमाणम् || सू० १९१ ॥
"
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टीका- 'से किं तं' इत्यादि -
अथ किं तत् प्रतिमानम् ? - प्रतिमीयतेऽनेनेति प्रतिमानम् - मेयस्य सुवर्णादेः प्रतिरूपं=सदृशं मानं गुञ्जादिकमित्यर्थः । प्रतिमीयते यत्तत् प्रतिमानं सुवर्णादि
अब सूत्रकार प्रतिमानप्रमाण का निरूपण करते हैं" से किं तं परिमाणे " इत्यादि ।
शब्दार्थ - ( से किं तं पडिमाणे) हे भदंत ! वह प्रतिमान क्या है ? (जण्णं पडिमिणिज्जह परिमाण)
હવે સૂત્રકાર પ્રતિમાન પ્રમાણનું નિરૂપણ કરે છે—
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से कि तं पडिमणे " इत्याहि
उत्तर- जिससे माप किया जावे वह मान है मेय- सुवर्णादि द्रव्य के सदृश मान-माप का नाम प्रतिमान है । वह प्रतिमान गुंजादिरूप है। तात्पर्य इसका यह है कि सुत्रर्णादि द्रव्य का जिसके द्वारा माप
शब्दार्थ - (से किं तं पडिमाणे) हे लत! ते अतिमान शुद्ध छे ? (जण्णं पडिमिणिज्जइ परिमाण)
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ઉત્તર-જેના વડે માપામાં આવે તે માન છે મેય-સુવણ વગેરે દ્રષ્ય सदृश-मान-भायनु' नाम प्रतिभान छे ते प्रतिमान गुलहि ३५ छे. तात्पर्य એ છે કે સુવર્ણાદિ દ્રષ્યનુ જેના વડે માપવજન કરવામાં આવે છે. તે પ્રતિમાન
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अनुयोगद्वारसूत्रे कम् । उभयसाधनयोः कतरदभिप्रेतमिति प्रष्टुरभिप्रायः। अत्र प्रतिमानशब्दः कर्मसाधनोऽभिप्रेत इति वक्तुमुत्तरयति-प्रतिमानं यत् खलु प्रतिमीयते इति । केनेदं प्रतिमीयते ? इत्याह-तद्यथा-गुञ्जा काकिणीत्यादि । तत्र-गुञ्जा'करजनी' चणौठी, घोंगची' इत्यादि नाम्ना प्रसिद्धा। सपादगुञ्जा-एका काकिणी । सत्रि. भागकाकिण्या त्रिभागेन गुमाद्वयेन निष्पन्न:-एको निष्पावः । त्यो निष्पावा एकः वजन-किया जावे वह प्रतिमान है । इस करण साधन में व्युत्पत्ति प्रतिमान शब्द से यहां गुंजादि मापक पदार्थ प्रतिमान रूप कहा है क्यों कि सुवर्ण आदि द्रव्यों का वजन गुंजादि से ही तौल कर जाना जाता है । तथा-" प्रतिमीयते यत्तत् प्रतिमानम् " जिसका वजन किया जावे यह प्रतिमान है। इस कर्मसाधनरूप व्युत्पत्ति के आधार पर सुवर्ण आदि द्रव्य प्रतिमानरूप पड़ते हैं । कर्मसाधन में प्रतिमान शब्द की व्युत्पत्ति रखने पर सुवर्ण आदि द्रव्य स्वयं प्रतिमान कहा जाता है फिर भी वहां यह स्वतः जिज्ञासा होती है कि ये सुवर्ण आदि द्रव्य किससे मापित किए जाते हैं-तब इसका उत्तर यह है कि ये-(गुंजा कागणी, निप्फाओ, कम्ममासाओ, मंडलओ, सुवण्णो ) गुंजा-रत्ती, काकिणी, निष्पाव, कर्ममाषक, मंडलक, सुवर्ण इनसे मापित किये जाते हैं । रत्ती, घोंगची, चणोठी ये गुंजा के नाम हैं । सवा रत्ती की एक काकिणी होती है। विभागयुक्त गुंजाबय से अर्थात् पौने दो गुंजा से एक निष्पाव निष्पन्न होता है। तीन निष्पाव से १ कर्ममासक घनता છે આ કરણ સાધનમાં વ્યુત્પત્તિ કહી છે. પ્રતિમાન શબ્દથી અહીં ગુંજાદિ માપક પદાર્થ પ્રતિમાન રૂપ ગણાય છે. કેમકે સુવર્ણાદિ દ્રવ્યોનું વજન ગુંજાદિ पोथी नेभीर तवामां आवे छे. तथा-'प्रतिमीयते यत् तत् प्रतिमानम् ' नुं न ४२वामा भाव त प्रतिमान छे. या साधन ३५ વ્યુત્પત્તિના આધારે સુવર્ણાદિક દ્રવ્ય પ્રતિમાન રૂપ કહેવાય કર્મ સાધનામાં પ્રતિમાન શબ્દની વ્યુત્પત્તિ કરીએ તે સુવર્ણાદિ દ્રવ્ય જાતે પ્રતિમાન ગણાય છતાંએ ત્યાં સ્વતઃ જિજ્ઞાસા હોય છે કે આ સુવર્ણાદિ દ્રવ્ય કેના વડે જે ખपाभा भाव छ त्यारे मान नाम मा प्रभारी छ , मा (गुंजा कागणी, निफाओ, कम्ममासाओ, मंडलओ सुवण्णो) Jan-२त्ती, sell, निण्याव, કર્મમાષક, મંડલક, સુવર્ણ આ સર્વથી જે ખવામાં આવે છે. રત્તી, ઘગચી, થશેઠી આ બધા ગુંજાના નામે છે. સવા રત્તીની એક કાકિણું થાય છે વિભાગ યુક્ત ગુંજા દ્રયથી એટલે કે પિણા બે ગુંજાથી એક નિપાવ નિષ્પન્ન થાય છે. ત્રણ નિપાવથી ૧ કર્મમાસક અને ૧૨ કર્મમાસકથી ૧ મંડળ,
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अनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र १९१ प्रतिमानप्रमाणनिरूपणम् १०९ कर्ममासकः । द्वादशकर्ममाषका एको मण्डलकः, षोडशकर्ममाषकः एकः सुवर्णः । अमुमेवार्थ सूत्रकारोऽपि किंचित् सूचयति-पंच गुंजाओ' इत्यादिना। व्याख्या स्पष्टा । एतस्य प्रतिमानप्रमाणस्य प्रयोजनमभिधित्सुशह-एतेन प्रतिमानप्रमाणेन सुवर्णरजतमणिमौक्तिकश वशिलामवालादीनाम्-सुवर्ण-हेम, रजतं रूप्यम् , मणयः चन्द्रकान्तादयः, मौक्तिकानि-मुक्ताः, शङ्खो रत्नविशेषः, शिला-राजपट्टको है। १२ कर्ममासकों का १ मंडल होता है । १६ कर्ममाषकों का एक सुवर्ण होता है । इसी बात को सूत्रकार ने (पंचगुंजाओ कम्म मासओ, चत्तारि कागणीओ कम्ममासओ, तिण्णि, निप्फावा कम्ममासओ एवं चउक्को कम्म मासओ, बारस कम्ममासया मंडलओ, एवं अडयोलीसं कागणीओ मंडलओ, सोलसकम्ममासया सुवण्णो, एवं चउसहि कागणीओ सुवण्णो ) इस सूत्रपाठ द्वारा स्पष्ट किया है। इसमें वे कह रहें हैं कि पांच गुंजा से १ कर्ममाषक निष्पन्न होता है । अथवा. चार काकिणी से १ कर्ममाषक निष्पन्न होता है। या तीन निष्पावों से १ कर्ममाषक बनता है। इसी प्रकार चार काकिणियों से चौथा कर्ममाषक निष्पन्न होता है ।१२ कर्ममाषकों का १ मंडल होता है । इसी प्रकार से ४८ काकिणियों से १ मंडलक होता है । १६ कर्ममाषकों का १ सुवर्ण होता है। अथवा-चौंसठ काकिणियों का १ सुवर्ण होता है । (एएणं पडिमाणप्प. माणेणं किं पओयणं ?) हे भदन्त ! इस प्रतिमान प्रमाण से किस प्रयोजन की सिद्धि होती हैं ?
બને છે. ૧૬ કર્મમાષકનું એક સુવર્ણ હોય છે. એજ વાતને સૂત્રકારે (पंच गुंजाओ कम्ममासओ, चत्वारि कागणीओ कम्ममासओ, तिण्णि, निष्फावा कम्ममासओ एवं चउक्को कम्ममासओ, बारस कम्ममाया मंडलओ, एवं अयालीसं कागणीओ मंडलओ, सोलसकम्ममासया सुवण्णो, एवं चउसद्रि कागणीओ सुवण्णो) मा सूत्रा8 43 २५ष्ट यु छ ? पांय Yatवी १ भभाष નિષ્પન્ન થાય છે અથવા ચાર કાકણીથી ૧ કર્મમાષક નિષ્પન્ન થાય છે અથવા ત્રણ નિષ્પાથી ૧ કર્મમાષક નિષ્પન્ન થાય છે આ પ્રમાણે ચાર કાકણીઓથી ચતુર્થ કર્મમાષક નિષ્પન્ન થાય છે ૧૨ કર્મમાષકનું ૧ મંડળ થાય છે આ પ્રમાણે ૪૮ કાકણીએ બરાબર ૧ મંડલક હોય છે. ૧૬ કર્મમાષક બરાબર ૧ સુવર્ણ હોય છે અથવા ૬૪ કાકણ બરાબર ૧ સુવર્ણ હોય છે. (एएणं पडिमाणपमाणेणं किं पओयणं ?) महत! मा प्रतिमान प्रभाथी કયા પ્રોજનની સિદ્ધિ થાય છે?
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अनुयोगद्वारसूत्रे गन्धपट्टकश्च, पवालो विद्रुमः, एतदादीनां द्रव्याणां प्रतिमानप्रमाणनित्तिलक्षणं पतिमानप्रमाणस्य या, नितिः निष्पत्तिः तस्यालक्षणं-परिज्ञानं भवति । एतदुपसंहरनाह-तदेतत् प्रतिमानमित्ति । इत्थं मानादि प्रतिमानान्ताः पश्चापि विभागनिष्पन्नभेदा निरूपिता इति सूचयितुमाह-तदेतत् विभागनिष्पन्नमिति । इत्थं प्रदेशनिष्पन्न विभागनिष्पन्नयोनिरूपणेन द्रव्यप्रमाणं निरूपितमिति सूचयितुमाहतदेतद् द्रव्यप्रमाणमिति ॥५० १९१॥
उत्तर-(एएणं पडिमाणप्पमाणेणं सुवण्णरजतमणिमोत्तियसंख सिलपवालाईणं दव्वाणं पडिमाणप्पमाणनिन्वितिलक्खणं भवइ ) इस प्रतिमान प्रमाण से सुवर्ण, रजत, मणि, मौक्तिक, शंख, शिला, प्रवाल, इत्यादि द्रव्यों के प्रतिमान प्रमाण की निष्पत्ति का ज्ञान होता है। मणि शब्द से यहां चन्द्रकान्त सूर्यकान्त आदि मणियां गृहीत हुई हैं। मौक्तिक से मुक्ता, शंख से रत्न विशेषरूप शंख, शिला से राजपटक और गंधपक एवं प्रवाल से विद्रुम-मूंगा ये लिये गये हैं । (से तं पडिमाणे-से तं विभागनिष्फण्णे-से तं दव्यप्पमाणे ) इस प्रकार यह प्रतिमान प्रमाण का स्वरूप है । मानादि प्रमाण से लेकर प्रतिमान प्रमाण तक के पांचों भेदों का जो कि विभाग निष्पन्न द्रव्यप्रमाण के भेद हैं निरूपण हो चुका-इस प्रकार प्रदेश निष्पन्न और विभागनिष्पन्न भेदों के निरूपण करने से द्रव्यप्रमाण निरूपित हो गया जानना चाहिए ।। सू० १९१ ।।
उत्तर-(एएणं पडिमाणपमाणेणं सुषण्णरजतमणिमोत्तियसंखसिलप्पवालाईण दव्वाणं पडिमाणप्पमाणनिव्वितिलक्खणं भवइ) मा प्रतिमान प्रभारथी सुपर २०४त, मणि, भौति, शम, प्रवास कोरे द्रव्योना प्रतिमान प्रमा.
ની નિષ્પત્તિનું જ્ઞાન થાય છે. મણિ શબ્દથી અહીં ચન્દ્રકાંત, સૂર્યકાંત વગેરે મણિઓ ગૃહીત થયેલ છે મૌકિતકથી મુકતા, શખથી રત્ન વિશેષ શંખ શિલાથી રાજપટ્ટક અને ગંધપટ્ટક અને પ્રવાલથી વિદ્ગમ ગૃહીત થયેલ છે. (से तं पडिमाणे-से तं विभागनिष्फण्णे-से तं वप्पमाणे) मा प्रमाणे भा પ્રતિમાન પ્રમાણ સ્વરૂપ છે માનાદિ પ્રમાણે થી માંડીને પ્રતિમાનું પ્રમાણ સુધી પાંચેપાંચ ભેદ-કે-જેઓ વિભાગ નિષ્પન્ન દ્રવ્ય પ્રમાણુના ભેદે છે તેનું નિરૂપણ થઈ ગયું છે. આ પ્રમાણે પ્રદેશ નિષ્પન્ન અને વિભાગ નિષ્પન્ન ભેદના નિરૂપણથી અહીં દ્રવ્ય પ્રમાણુ નિરૂપિત થઈ ગયેલ છે તેમ સમજવું સૂ૦૧૯૧
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अनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र १९२ क्षेत्रप्रमाणनिरूपणम् अथ क्षेत्रप्रमाणं निरूपयति
मूलम्-से किं तं खेत्तप्पमाणे?, खेत्तप्पमाणे-दुविहे पण्णत्ते, तं जहा-पएसनिप्फण्णे य विभागनिफण्णे य । से किं तं पएसनिप्फणणे?, पएसनिप्फपणे-एगपएसोगाढे दुप्पएसोगाढे तिप्पएसोगाढे जाव संखिजपएसोगाढे असंखिज्जपएसोगाढे, से तं पएसनिप्फण्णे। से किं तं विभागणिप्फण्णे ?, विभागनिप्फण्णेअंगुलविहत्थिरयणीकुच्छीधणुगाउयं च बोद्धव्वं । जोयणसेढी पयरं लोगमलोगऽवि य तहेव॥१॥ से किं तं अंगुले ? अंगुलेतिविहे पण्णते, तं जहा-आयंगुले उस्लेहंगुले पमाणगुले। से किं तं आयंगुले ?, आयंगुले-जे णं जया मणुस्सा भवंति तेसिं णं तया अप्पणो अंगुलेगं दुवालस अंगुलाई मुहं, नवमुहाई पुरिसे पमाणजुत्ते भवइ, दोषिणए पुरिसे माणजुत्ते भवइ, अद्धभारं तुल्लमाणे पुरिसे उम्माणजुत्ते भवइ, माणुम्माणपमाणजुत्ता लक्खणवंजणगुणेहिं उववेया। उत्तमकुलप्पसूया उत्तमपुरिसा मुणेयव्वा॥१॥ होति पुण अहियपुरिसा, अट्ठसयं अंगुलाण उव्विद्धा। छण्णउइ अहमपुरिसा, चउत्तरं मज्झिमिल्ला उ॥१॥ हीणा वा अहिया वा, जे खलु सरसत्तारपरिहीणा । ते उत्तमपुरिसाणं, अवस्स-पसत्तण मुवेति॥३॥ एएणं अंगुलपमाणेणं छ अंगुलाई पाओ, दो पाया विहत्थी, दो विहत्थीओ रयणी, दो रयणीओ कुच्छी, दो कुच्छीओ दंडं, धणु, जुगे, नालिया, अक्खे, मुसले, दोधणुसहस्साइं गाउयं, चत्तारि गाउयाइंजोयणासू.१९२॥
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११२
अनुयोगद्वारसूत्र छाया-अथ किं तत् क्षेत्रमाणम् ?, क्षेत्रप्रमाणं-द्विविधं प्रज्ञप्तं, तद्यथाप्रदेशनिष्पन्नं च विभागनिष्पन्नं च। अथ किं तत् प्रदेशनिष्पन्नम् ?, प्रदेशनिष्पमम्-एकप्रदेशावगाढं द्विपदेशावगाद त्रिप्रदेशावगाढं संख्येयप्रदेशावगाहम् असंख्येयप्रदेशावगाढम् । तदेतत् प्रदेशनिष्पन्नम्। अथ किं तद् विभागनिष्पन्नम् ?, विभागनिष्पन्नम्-अगुलं वितस्तिः रत्निः कुक्षिः धनुः गव्यूतं च बोध्यम् । योजन श्रेणी पतरं लोकोऽलोकोऽपि च तथैव । अथ किं तत् अङ्गुलम् ?, अङ्गुलं त्रिविधं प्राप्तम् , तद्यथा-आत्माङ्गुलम्, उत्सेधाङ्गुलम् , प्रमाणाङ्गुलं च। अथ कि तत् आत्माङ्गुलम् ?, आत्माङ्गुलम्-ये खलु यदा मनुष्या भवन्ति तेषां खलु तदा आत्मनः अगुलेन द्वादश अङ्गलानि मुखं, नवमुखानि पुरुषः प्रमाणयुक्तो भवति, द्रौणिकः पुरुषो मानयुक्तो भवति, अर्धभारं तुलयन् पुरुष उन्मानयुक्तो भवति, मानोन्मानप्रमाणयुक्ताः लक्षणव्यञ्जनगुणैरुपपेताः । उत्तमकुलपमूता उत्तमपुरुषा ज्ञातव्याः। भवन्ति पुनरधिकपुरुषा अष्टशतम् अगुलानाम् उद्विद्धा। पण्णवतिम् अधमपुरुषाः चतुरुत्तरं मध्यमास्तु ॥ हीना वा अधिका वा ये स्वर सत्त्वसारपरिहीनाः। तम् उत्तमपुरुषाणाम् अवश्याः प्रेष्यत्वमुपयन्ति। एतेन अङ्गुलपमाणेन षडङ्गुलानि पादः, द्वौ पादौ वितस्तिः, द्वौ वितरितः रत्निा, द्वौ रस्नी कुतिः, द्वौकुक्षी-दण्डः धनुः, युगं, नालिका, असं, मुसलं, द्वे धनुः सहस्रं गव्यूतं, चत्वारि गव्यूतानि योजनम् ॥सू० १९२॥
टीका-'से कि तं' इत्यादि
अथ किं तत् क्षेत्रप्रमाणम् ? इति शिष्य प्रश्नः। उत्तरयति-प्रदेशनिष्पन्न विभागनिष्पन्नोभयभेदेन क्षेत्रप्रमाणं द्विविधं प्रज्ञप्तम् । तत्र-प्रदेशनिष्पन्नम्
" से किं तं खेत्तप्पमाणे" इत्यादि।
शब्दार्थ-(से किं तं खेत्तप्पमाणे ) हे भदन्त ! वह क्षेत्ररूप प्रमाण क्या है ?
उत्तर-(खेत्तप्पमाणे-दुविहे पण्णत्ते) वह क्षेत्ररूप प्रमाण दो प्रकार का प्रज्ञप्त हुआ है। (तं जहा) वे दो प्रकार ये हैं-(पएसनिष्फण्णे य विभागनिप्फण्णे य) एक प्रदेश निष्पन्न, दूसरा विभाग निष्पन्न ।
હવે સૂત્રકાર ક્ષેત્રપ્રમાણુનું નિરૂપણ કરે છે– · “से कि त खेत्तप्पमाणे" त्याह
Aw14-(से कि त खेत्तपमाणे) RE ! मा क्षेत्रमा पटले १
उत्तर-(खेत्तप्पमाणे-दुविहे पण्णत्ते) ते क्षेत्र ३५ प्रभार से मारनु प्रशस थये छ. (तजहा) ते मा प्रमाणे छ (पएमनिटफण्णेय विभाग
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भनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र १९२ क्षेत्रप्रमाणनिरूपणम् एकप्रदेशावगाढाद्यसंख्येयप्रदेशावगाढान्तं बोध्यम् । प्रदेशास्त्वत्र क्षेत्रस्य निर्विभागा भागा विवक्षिताः, तैर्निष्पन्नं प्रदेशनिष्पन्नम् । तत् एकप्रदेशावगाढादिकम् । एकादिभिः क्षेत्रप्रदेशनिष्पन्नत्वाद् अस्य एकादिप्रदेशावगाढत्वं बोध्यम् । एकप्रदेशावगाहित्वादिना स्वस्वरूपेणैव प्रतीयमानस्वादेषां प्रमाणत्वं विज्ञेयम् । विभाग (से कि तं पएसनिफण्णे ) हे भदन्त ! वह प्रदेश निष्पन्न क्षेत्रप्रमाण क्या है?
उत्तर-(पएसनिप्फण्णे) वह प्रदेश निष्पग्न क्षेत्र प्रमाण इस प्रकार से है-(एगपएसोगाढे दुप्पएसोगाढे, तिप्पएसोगाढे, जाव संखिजपएसोगाढे असंखिज्जपएसोगाढे) एक प्रदेशावगाढ, दो प्रदेशावगाढ, तीन प्रदेशावगाढ यावत् संख्यातप्रदेशावगाढ असंख्यातप्रदेशावगाढ जो क्षेत्ररूपप्रमाण है, वह प्रदेशनिष्पन्न क्षेत्र प्रमाण है । क्षेत्र के निर्विभाग जो भाग हैं वे यहां प्रदेशरूप से विवक्षित हुए हैं। इन प्रदेशों से निष्पन्न होने का नाम “प्रदेश निष्पन्न" है । प्रदेश निष्पन्न क्षेत्र प्रमाण वह एक प्रदेशावगाढादिरूप है । क्यों कि वह एक प्रदेशादिअवगाढरूप क्षेत्र एक आदि क्षेत्र प्रदेशों से निष्पन्न हुआ है । इसलिये इसमें एकादि प्रदेशावगाढता जाननी चाहिए । ये क्षेत्र प्रदेश एकादि क्षेत्र प्रदेशों में अवगाही होने रूप अपने निज स्वरूप से ही प्रतीति में आते हैं इसलिये इनमें प्रमाणता जाननी चाहिये । तात्पर्य इसका इस प्रकार निएफपणेय) प्रदेश पन्त द्वितीय विमा नि0पन्न (से कि त पएस निष्फण्णे) RE ! प्रदेश नि०५. प्रभा भेट. शु.१
उत्तर-(पएस निफण्णे) ते प्रदेश निष्पन्न क्षेत्रमाण प्रभारी छ (एगपएसोगाढे दुप्पएसोगाढे, तिप्पएसोगाढे, जाव संखिज्जपएसोगाढे असंखिग्जपएसोगाढे) : प्रा6, मे प्रशासन, ay प्रशा॥ यावत् સંખ્યાતપ્રદેશાવગાઢ, અસંખ્યાત પ્રદેશાવગાઢ જે ક્ષેત્રરૂપ પ્રમાણ છે, તે પ્રદેશ નિષ્પન્ન ક્ષેત્રપ્રમાણ છે. ક્ષેત્રના નિવિભાગ જે ભાગ છે તે અહીં પ્રદેશરૂપમાં વિવક્ષિત થયેલ છેઆ પ્રદેશથી નિષ્પન્ન થવાનું નામ પ્રદેશ નિષ્પન્ન છે. પ્રદેશનિષ્પન્નક્ષેત્રપ્રમાણ એક પ્રદેશાવગાઢાદિ રૂપ છે. કેમકે તે એક પ્રદેશાદિ અવગાઢ રૂ૫ ક્ષેત્ર એક આદિ ક્ષેત્ર પ્રદેશોથી નિષ્પન્ન થયેલ છે એટલા માટે આમાં એકાદિ પ્રદેશવગાઢતા જાણવી જોઈએ આ ક્ષેત્ર પ્રદેશ એકાદિ ક્ષેત્રપ્રદેશોમાં અવગાહી હોવા બદલ પિતાના ૨વરૂપથી જ પ્રતીતિમાં આવે છે એથી જ આમાં પ્રમાણતા
अ० १५
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अनुयोगद्वारसूत्रे निष्पन्नं स्वगतान् प्रदेशान् विहाय अपरो विविधो विशिष्टो वश भागो विभागः । भङ्गो विकल्पः प्रकार इति समानार्थकाः । तेन निष्पन्नम् , तद्भि-अङ्गुलवितस्त्यासे है कि क्षेत्र एक, दो, तीन, आदि संख्यात असंख्यातरूप अपने निर्विभाग भाग रूप प्रदेशों से निष्पन्न है। इन प्रदेशों से निष्पन्न होना ही इसका निज स्वरूप है । इसी स्वस्वरूप से ही यह जाना जाता है अतः " प्रमीयते यत् तत् प्रमाणम्" जो जाना जावे वह प्रमाण है । इस प्रकार का कर्म साधन रूप जो प्रमाण शब्द है तद्वाच्यता क्षेत्र में आने से वह प्रमाणरूप पड़ जाता है । " परन्तु जब प्रमीयतेऽनेन यत्तत् प्रमाणम्" इस प्रकार प्रमाण शब्द की व्युत्पत्ति करण साधन में रखी जाती है, तब क्षेत्र स्वयं प्रमाण रूप नहीं पड़ता है किन्तु एक प्रदेशादि अवगाढरूप जो इसका स्वरूप है वह प्रमाणभूत पड़ता हैक्यों कि ये एक दो तीन आदि अपने अपने निर्विभाग भागों से निष्पन्न है। और उसी से यह जाना जाता है। और उस स्वरूप के साथ इसका संबन्ध है-अतः यह भी उपचार से प्रमाणभूत हो जाता है । ' से तं पएसणिप्फण्णे' यह हुआ प्रदेश निष्पन्न । विभाग निष्पन्न किसको कहते हैं ? विभाग निष्पन्न स्वगत प्रदेशों को छोडकर दूसरा जो विविध अथवा विशिष्ट भाग है उसका नाम विभाग है । भङ्ग, विकल्प प्रकार જાણવી જોઈએ તાત્પર્ય આ પ્રમાણે છે કે ક્ષેત્ર એક, બે, ત્રણ વગેરે સંખ્યાત અસંખ્યાત રૂપ પિતાના નિર્વિભાગરૂપ પ્રદેશોથી નિષ્પન્ન છે. આ પ્રદેશથી નિષ્પન્ન થવું જ એનું નિજ સ્વરૂપ છે આ સ્વ સ્વરૂપથી જ એ જાણવામાં भाव छ. “ प्रमीयते यत् तत् प्रमाणम्" २ मा मात्र ते प्रमाण छ આ જાતનો કમ સાધન રૂપ જે પ્રમાણુ શબ્દ છે, તવાચ્યતા ક્ષેત્રમાં આવपाथी त प्रमाण मानवामां आवे छे. ५२'तु यारे ‘प्रमीयते ऽनेन यत् तत् प्रमाणम्' मा प्रमाणे प्रमाण शनी व्युत्पत्ति ४२२१ साधनमा ४२वामा આવે ત્યારે ક્ષેત્ર પિતે પ્રમાણ રૂપ છે એવું સિદ્ધ થતું નથી પરંતુ એક પ્રદેશાદિ અવગાઢ રૂપ જે એનું સ્વરૂપ છે તે પ્રમાણભૂત સિદ્ધ થાય છે કેમકે એ એક, બે, ત્રણ વગેરે પોતપોતાના નિવિભાગથી નિષ્પન્ન થયેલ છે અને તેનાથી જ એ જાણવામાં આવે છે અને તે સ્વરૂપની સાથે જ એને સંબંધ छ मेथी मा५ पयारथी प्रमालत 45 Mय छे. (से त पएसणि फण्णे) અહી સુધી પ્રદેશ નિષ્પન વિભાગના સંબંધમાં ચર્ચા થઈ હવે વિભાગ નિષ્પન્ન કોને કહેવાય? વિભાગ નિષ્પન્ન સ્વગત પ્રદેશ સિવાય બીજે જે વિવિધ અથવા વિશિષ્ટ ભાગ છે તેનું નામ વિભાગ છે ભંગ, વિકલ્પ, પ્રકાર
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अनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र १९२ क्षेत्रप्रमाणनिरूपणम्
दिरूपं बोध्यम् । तत्र - अङ्गुलम् - आत्मागुलौत्सेचा गुलममाणा गुलेति त्रिवि'धम् । तत्र-आत्माङ्गुलम् - आत्मनः- स्वस्य अङ्गुलम् । अत्रात्मशब्देन तत्तत्कालसमुत्पन्नो भरतसगरादिर्विवक्षितः, तत्तत्सम्बन्धि अङ्गुलम् - आत्माङ्गुलमित्यर्थः ।
ये समानार्थक शब्द हैं । इस विभाग से निष्पन्न होना उसका नाम विभागनिष्पन्नता है । यह विभागनिष्पन्नता अगुल वितस्ति (वेत) आदि रूप जानना चाहिये। क्यों कि इस प्रकार से क्षेत्र जाना जाता है । प्रदेश निष्पन्नता में क्षेत्र अपने ही प्रदेशों द्वारा जाना जाता है तब कि विभाग निष्पन्नता में विविध अंगुल वितस्ति आदि रूप प्रकारता से जाना जाता है। यह कथन प्रमाण शब्द की करणसाधनरूप व्युत्पत्ति की अपेक्षा जानना चाहिये । (से किं तं अंगुले) हे भदंत ! वह अंगुल क्या है ।
उत्तर- ( अंगुले तिबिहे पण्णत्ते) वह अंगुल तीन प्रकार का होता है - (तंजा) उसके वे प्रकार ये हैं- ( आरंगुळे, उस्सेहंगुळे पमाणंगुले) आत्मांगुल उत्सेधांगुल और प्रमाणांगुल (से किं तं आयंगुले) हे भदन्त ! वह आत्माङ्गुल क्या है ?
उत्तर - (आयंगुले) वह आत्माङ्गुल इस प्रकार से है - ( जेणं जया मगुस्सा भवति, तेसिणं तथा अप्पणी अंगुलेग दुबालस अंगुलाई मुंहं, नवमुहाई पुरिसे, पमाणजुते भवइ) आत्मांगुल में आत्मा का अर्थ
આ બધા સમાનાર્થી શબ્દો છે મ્યા વિભાગથી નિષ્પન્ન થવુ તે વિભાગ નિષ્પન્નતા છે આ વિભાગ નિષ્પન્નતા અ'ગુલ વિતસ્તિ (વેંત) વગેરે રૂપમાં જાણુવી જોઈએ, કેમકે આ રીતે જ ક્ષેત્ર જાણવામાં આવે છે. પ્રદેશ નિષ્પન્નતામાં ક્ષેત્ર પ્રદેશે! વડે જ જાણવામાં આવે છે ત્યારે વિભાગ નિષ્પન્નતામાં વિવિધ અંશુલ, વિતસ્તિ વગેરે રૂપ પ્રકારતા વડે તે જાણવામાં આવે છે. આ કથન પ્રમાણુ શબ્દની કરણ સાધન રૂપ વ્યુત્પત્તિની અપેક્ષાએ જાણવું જોઈએ (से कि त अंगुले) हे लहंत ! अंगुल भेटले शु?
उत्तर- (अंगुले तिविहे पण्णत्ते) अगुवना शु प्रहारो छे (तजहा) ते प्रभाछे (आयंगुले, उससे हंगुले पमाणंगुळे) आत्मांगुल, उत्सेधांगुल अपने प्रमायांगुन (से किं तां आयंगुले) हे महंत । ते आत्मांगु शु छे ? उत्तर- (आयंगुले) ते आत्मगु साप्रमाणे छे. (जे णं जया मणुस्खा भवंति, ते सिणं तया अपणो अंगुलेण दुबालख अंगुलाई, मुहं, नवमुहाई पुरिसे, पमाणजुत्ते भवइ) आत्मगुसमा मात्मा શબ્દના અપાતાતાના
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अनुयोगद्वारसूत्रे तदेवं विज्ञेयम्- ये खलु भरतसगरादयः-प्रमाणयुक्ता मनुष्या यदा यस्मिन् काले भवन्ति-उत्पधन्ते, तदा-तस्मिन् काले यत्तेषामगुलं तदिह आत्माऽङ्गुलं विवक्षितम् । तेनाङ्गुलेन द्वादश अगुलानि एकं मुखं भवति, नवमुखममाणः पुरुषः प्रमाणयुक्तो भवति । अयं भावः-यस्मिन् काले यः पुरुष उत्पद्यते, तस्य तत्कालानुसारेण यत्पमाणमङ्गुलं भवति, तैदिभिरगुलैरेकं मुखं भवति, तथा नव. मुखपमाणश्च पुरुषः प्रमाणयुक्त इत्युच्यते । अत्रात्मशब्देन तत्तत्कालिकः पुरुषो विवक्षितः। पुरुषाणां कालभेदेनानवस्थितप्रमाणत्वादिदमनियतममाणं द्रष्टव्यम् । अपना है। अपना जो अंगुल है वह आत्मांगुल है। यहां आत्म शब्द से उस २ काल में उत्पन्न हुए भरत, सगर आदि चक्रवर्ति विवक्षित हुए हैं। इसलिये उस २ काल में उत्पन्न हुए भरत सगर आदि व्यक्तियों का जो अंगुल है, वह आत्मांगुल है-ऐसा आत्मांगुल का वाच्यार्थ जानना चाहिये । निष्कर्षार्थ इसका यही है कि अपने २ कालवी मनुष्यों का अंगुल ही आत्मांगुल है। यह इस प्रकार से जानना चाहिये-इस आत्माङ्गुल से १२ अंगुलों का एक मुख होता है, नौ मुख प्रमाणवाला एक पुरुष होता है। ऐसा पुरुष ही प्रमाणयुक्त कहा जाता है। तात्पर्य इसका यह है कि जिस काल में जो पुरुष उत्पन्न होता है उसका उस काल के अनुसार जितने प्रमाण का १ अंगुल होता है ऐसे १२ अंगुलों का एक मुख होता है ९ मुखों का जितना प्रमाण होता है अर्थात् १०८ अंगुल होते हैं-इतने अंगुल प्रमाण की ऊँचाइवाला एक पुरुष होताहै। इस प्रकार इस आत्मांगुल का प्रमाण अनियत होता है । क्यों कि જે અંગુલ છે, તે આત્માગુલ છે. અહીં આત્મા શબ્દથી તત્ તત્ કાળમાં ઉત્પન્ન થયેલ ભરત સગર વગેરે વિવક્ષિત થયેલ છે. એટલા માટે તત્ તત્ કાળમાં ઉત્પન્ન થયેલ ભરત સગર વગેરે વ્યક્તિઓના જે અંગુલ છે, તે આમાંગુલ છે. એ આત્માગુલને વાચ્યાર્થી જાણ તાતપર્ય આ પ્રમાણે છે કે પિતાપિતાના કાલવતી માણસેના અંગુલ જ આભાંગુલ છે. આ આત્માગુલના ૧૨ અંગુલેનું એક મુખ થાય છે, અને નવ મુખ પ્રમાણવાળે એક પુરુષ હોય છે એ પુરૂષ જ પ્રમાણુ યુક્ત કહેવાય છે તાત્પર્ય આ પ્રમાણે છે કે જે કાળમાં જે પુરૂષ ઉત્પન્ન થાય છે, તેને તે કાળ મુજબ તેટલા પ્રમાણને ૧ અંગુલ હોય છે એવા ૧૨ અંગુલની બરાબર ૧ મુખ હોય છે નવ મુખના પ્રમાણ મુજબ-એટલે કે ૧૦૮ અંગુલ પ્રમાણ જેટલી ઉંચાઈવાળો એક પુરૂષ હોય છે આ પ્રમાણે આ આત્માગુલનું પ્રમાણ અનિયત હોય છે
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अनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र १९२ क्षेत्रप्रमाणनिरूपणम्
११७ इत्थं च प्रतिकालिकः पुरुषः स्वीयाङ्गुलेनाष्टोत्तरशतप्रमाणालो यदि भवति तदा स प्रमाणयुक्त उच्यते इति । द्रौणिकः पुरुषस्तु मानयुक्तो भवति । अयं भावःद्रोणी-महती जलकुण्डि का, तस्यां जलपरिपूर्णायां प्रविष्टे करिमश्चिद् पुरुषे ततो द्रोण्या द्रोणप्रमाणपरिमितं जलं बहिर्गच्छेत्तदा स पुरुषो मानयुक्त इश्युच्यते । यद्वाद्रोणप्रमाणजलन्यूनायां तस्यां द्रोण्यां कश्चित पुरुषः प्रविष्टः । प्रविष्टे तस्मिन् सा द्रोणी पूर्णजला जाता, तदा स पुरुषो मानयुक्त इत्युच्यते, इति । तथा-अर्द्धभारं जिस काल में जो मनुष्य उत्पन्न होता है उस काल के मनुष्य का अंगुल ही आत्मांगुल कहा गया है अतः ऐसे मनुष्य का अंगुल काल भेद से पुरुषों को अवस्थित प्रमाणवाला होने के कारण अनियत प्रमा. णवाला कहा गया है । इस प्रकार हरएक काल का मनुष्य अपने २ अंगुल से १०८ अंगुल प्रमाण यदि होता है-तब वह प्रमाण युक्त कहलाता है। (दोण्णिए पुरिसे पमाणजुत्ते भवइ) द्रौणिक पुरुष प्रमाण युक्त होता है। इसका भाव इस प्रकार हैं-बड़ी भारी जलकुण्डिकाहौज का नाम द्रोणी है। उसमें परिपूर्ण जलभर देने पर पुरुष जब उसमें प्रवेश करता है तो उससे उसके प्रवेशित होने पर द्रोण प्रमाण जल यदि बाहर निकल जाता है तो ऐसा पुरुष मानयुक्त माना जाता है। अथवा द्रोण प्रमाण जल से न्यून उस द्रोणी में यदि कोई पुरुष निविष्ट हो जावे और वह द्रोणी द्रोणप्रमाण जल से भर जावे अर्थात् द्रोण प्रमाण जल उसमें ऊपर उठ ओवे तो भी वह पुरुष मानयुक्त કેમકે જે કાળમાં જે માણસ ઉત્પન્ન થાય છે, તે કાળના માણસને અંગુલ જ આત્માગુલ કહેવાય છે એથી એવા માણસને અંગુલ કાલ ભેદથી પર
ના અવસ્થિત પ્રમાણુ યુકત હોવાથી અનિયત પ્રમાણવાળ કહેવામાં આવે છે આ પ્રમાણે દરેકે દરેક કાળને માણસ પોત–પિતાના અંગુલથી જે ૧૦૮ અંગુલપ્રમાણ જેટલે ઉચા હોય છે, તે તે પ્રમાણયુક્ત उपाय छे, (दोण्णिए पुरिसे पमाणजुत्ते भवइ) द्रोणि ५३५ प्रभार યુકત હોય છે અને ભાવ આ પ્રમાણે સ્પષ્ટ કરી શકાય કે બહ મટી જલકુડીનું નામ શું છે. તેમાં પરિપૂર્ણ જળ ભરવામાં આવે અને ત્યાર બાદ પુરૂષ તેમાં પ્રવેશે અને પુરૂષના જલ પ્રવેશથી જે દ્રોણ પ્રમાણ જલ બહાર નીકળી આવે તે એ પુરૂષ માનયુકત માનવામાં આવે છે. અથવા દ્રોણ પ્રમાણ જલથી ન્યૂન-તે દ્રોણમાં જે કંઈ પુરૂષ પ્રવિષ્ટ થઈ જાય અને તે દ્રો પ્રમાણ જલ જેટલી પરિપૂર્ણ થઈ જાય એટલે કે દ્રોણ પ્રમાણ જલ તેમાં ઉપર આવી જાય તો પણ તે પુરૂષ માનયુકત માન. वामां आवे छे. (अद्धभारं तुल्लमाणे पुरिसे उम्माणजुत्ते भवइ) RAM भार
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अनुयोगद्वारसूत्रे तुलयन् पुरुषः उन्मानयुक्तो भवति । अयं भावा-तुलायामारोपितो यः पुरुषः सारपुद्गलचितत्वात् अर्द्ध भारं तुलयति स उन्मानयुक्त इत्युच्यते, इति । तत्रोत्तम पुरुषाः उपर्युक्तः-प्रमाणमानोन्मानैस्तथाऽन्यैश्च गुणैर्युक्ता एव भवन्तीति दर्शयितु. माह - 'माणुम्माणपमाण.' इत्यादि। अयं भाव:-ये पुरुषा मानन्मानममाणयुक्ताःउपरिनिर्दिष्टानोन्मानप्रमाणः सहिताः, तथा-लक्षणव्यञ्जनगुणैः-लक्षणानि% शङ्खस्वस्तिकादीनि, व्यञ्जनानिमपी तिलकादीनि, गुणा: औदायोदयस्तैरुपपेताः= युक्ताः, तथा-उत्तमकुलप्रनताः--उतमकुलानि-उग्रादिकुलानि तेषु प्रभूताः समुत्पन्नाश्च सन्ति, ते उत्तमपुरुषा:-क्रवदियो विज्ञेया इति। एषामुञ्चत्वप्रमाणं माना जाता है। (अद्धभारं तुल्लमाणे पुरिसे उम्प्राणजुत्ते भवइ) अर्द्ध भार प्रमाण तुला हुआ व्यक्ति-पुरुष-उन्मानयुक्त होता है-इसका तात्पर्य यह है कि तराजू पर आरोपित हुआ पुरुष सार पुद्गलों से निर्मित होने के कारण अर्द्धभार प्रमाण तुलता है-अर्थात् उसका वजन अर्द्धभार प्रयाग बैठता है तो वह पुरुष उन्मानयुक माना जाता है। जो उत्त। पुरुष होते हैं वे इन उपर्युक्त मान उन्मानप्रमाण वाले होते हैं तथा अन्य गुणों से युक्त ही होते हैं । इसी बात को अब सूत्रकार प्रदर्शित करते हैं-(माणुम्माणपमाणजुता लखगवंजण. गुणेहिं उववेया) जो पुरुष मान उन्मानप्रमाग संपन्न होते हैं, तथा शंख स्वस्तिक आदि लक्षगों से मषा, तिलक-तिल-आदि व्यंजनों से, एवं औदार्य आदि गुणों से युक्त होते हैं ( उत्तमकुलप्पसु या उत्तमपुरिसा मुणेषव्या) उग्रादि उत्तमकुलों में उत्पन्न होते हैं वे चक्र वर्ती आदिरूप उत्तम पुरुष जानना चाहिये। (होति पुण अहीय पुरिसा પ્રમાણ તુલિત વ્યકિત-પુરૂષ-ઉન્માન યુકત હોય છે તાત્પર્ય આ પ્રમાણે છે કે ત્રાજવા પર આરેપિત થયેલ પુરૂષ સાર પુલે વડે નિર્મિત લેવા બદલ અર્ધાભર પ્રમાણે થાય છે. એટલે કે તેનું વજન આર્યભાર પ્રમાણ સુધી હોય તે તે પુરૂષ ઉન્માન યુકત માનવામાં આવે છે જે ઉત્તમ પુરૂષ હોય છે તે ઉપર્યુકત માન-ઉન્માન પ્રમાણુ યુક્ત હોય છે તેમજ બીજા शुगथी युताय छे से वात सूत्रा२ व २५०४ ४३ छे. (माणुम्माणपमाणजुत्ता लक्खणवंजणगुणेहिं उबवेया) २ १३५ भान हन्मान प्रभार સમ્પન હોય છે, તેમજ શંખ, સ્વસ્તિક વગેરે લક્ષણેથી, મેષ, તિલક, તલ ५२२ ०ी मनोहर परेकी ५-
नय . (उत्तमकुलप्प सुया उत्तमपुरिसा मुणेयव्वा) GUE Gत्तम सोमा म प्रात ४२ छ, ते
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अनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र १९२ क्षेत्रप्रमाणनिरूपणम्
११९
निर्दिशति - ' होंतिपुण' इत्यादिना । पुनरधिकपुरुषाः = उत्तमपुरुषाः, अगुलानाम् अष्टशतम् - उद्विद्धा:उच्छ्रिता भवन्ति । उत्तमपुरुषा अष्टोत्तरक्ताङ्गुलोच्छ्राया भवन्तीति भावः । तथा-अधमपुरुषाः पण्णवत्यङ्गुलोच्छ्रिता भवन्ति, मध्यमपुरुषास्तु चतुरङ्गुलाधिकशत लोच्छ्राया भवन्ति । अष्टोत्तरशताङ्गुलेभ्यो हीना वा अधिक वा स्वरसचसारहीनाः - स्वरः = सकलजनोपादेयो धीरगम्भीरो ध्वनिः, सच्चे= दैन्यविनिर्मुक्तोमानसोऽवष्टम्भः, सारः = शुभपुद्गलोपचयजः शारीरिकः शक्ति विशेषस्तैः परिहीनाः ये पुरुषास्ते अवश्या: = अस्वतन्त्राः सन्तोऽशुभकर्मवशत उत्तम पुरुषाणाम् = उपचितपुण्यानां प्रेष्यत्व = भृत्यत्वमुपयान्ति=माप्नुवन्ति । स्वरादिअसयं अंगुलाण उग्विद्धा । छण्णउड् अहमपुरिसा, च उत्तरं मज्झमिल्लाउ) ये उत्तम पुरुष १०८ अंगुल के ऊँचे होते हैं - अर्थात् इनका शरीर १०८ अंगुल प्रमाण ऊँचा होता है । जो अपन होते हैं वे ९६ अंगुल ऊँचे होते हैं । और जो मध्यम पुरुष होते हैं वे १०४ अंगुल ऊँचे होते हैं। (हीणा वा अहिया वा जे खलु सरसत्तसारपरिहीणा । ते उत्तमपुरिसाणं अवस्स पेसत्तणमुर्वेति ) ये हीन पुरुष अथवा अधिकमध्यम पुरुष - जो कि १०८ अंगुल शरीर की ऊँचाई से विहीन होते हैं - वे सकल जनोपादेय एवं धीर गम्भीर ध्वनि से हीन दीनता विहीन मानसिक स्थिति से हीन और शुभ पुगलों के उपचयजन्य शारीरिकशक्तिविशेष से हीन रहा करते हैं । तथा अस्वतंत्र होते हुवे ये अशुभ कर्मों के प्रभाव से उपचित पुण्य वाले उत्तम पुरुषों की सेवा चाकरी किया करते हैं। स्वरादि लक्षणों से रहित होने पर ही
यवर्ती वगेरे ३५भां उत्तम पुरषो होय छे. (होंति पुण अहिय पुरिसा असयं अंगुलाण उठिबद्धा, छण्णउइ अहम पुरिसा, च उत्तरं मज्झमिल्लाउ) मा ઉત્તમ પુરૂષા ૧૦૮ અંશુલ જેટલા ઊંચા .ય છે જે અધમ પુરૂષ હોય છે તે ૯૬ અબુલ ઊંચા હેાય છે અને જે મધ્યમ પુરૂષ હાય છે તે ૧૦૪ अंगुत्र अया होय छे. (हीणा वा अहिया वा जे खलु सरसत्तसारपरिहीणा । उत्तमपुरिसाणं अवस्सपेस त्तणमुवेंति) या मधा हीन पु३षा अथवा મધ્યમ પુરૂષો કે જેએ ૧૦૮ અંશુલ કરતાં ઊ ંચાઈમાં નાના હોય છે બધા જને પાદેય અને ધીર ગંભીર ધ્વનિ–રહિત દૈન્યવિહીન, માનસિકસ્થિતિ-હીન અને શુભ પુàાના ઉપચય જન્ય શારીરિક શકિત વિશેષથી રહિત હૈાય છે તેમજ અવતત્ર રહીને તેએ અશુભકર્માંદયના પ્રભાવથી ઉપચિત પુણ્યશાલી ઉત્તમ પુરૂષાની સેવાચાકરી કરતા રહે છે સ્વરાદિ લક્ષણેાથી રહિત હાવા
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१२०
अनु योगद्वारसूत्रे लक्षणरहिताश्चेद्यथोक्त प्रमाणात् हीना वा अधिका भवान्न, तदैव ते प्रेष्यतामुपयान्ति । स्वरादिगुणयुक्तास्तु यथोक्तप्रमाणात् अधिका हीना वा ऽयुत्तमकोटावेव गण्यन्ते । श्रूयते हि भरतचक्रवर्तिनः स्वाङ्गुलैर्विंशत्यधिकोच्छ्रायः। भगवतो महावीरस्य स्वागुलैश्चतुरसीत्यङ्गुलोच्छायोऽपि केषांचिन्मते । अतो विशिष्टाः स्वरादय एव प्रधानफलदायिनो भवन्ति । यत उक्तमपि
"अस्थिष्वर्थाः सुखं मांसे, खचि भोगाः स्त्रियोऽक्षिषु ।
गतौ यानं स्वरे चाज्ञा, सर्व सत्त्वे प्रतिष्ठितम्" ॥इति॥ एतेन अङ्गुलप्रमाणेन षडङ्गुलानि-पडङ्गुलविस्तीर्णः पादः-पोदस्य मध्यतलप्रदेशो भवति । पादैकदेशत्वात् पाद इत्युच्यते । तथा-द्वौ पादौ संयुक्तं पादद्वयं ये हीन, मध्यम प्रमाणवाले पुरुष उत्तम पुरुषों की सेवा चाकरी किया करते हैं। यदि ये हीन और अधिक हों भी परन्तु यदि स्वरादि गुण से संपन्न हैं तो ये उत्तम कोटि में ही गिने जाते हैं । शास्त्रों में ऐसा सुना जाता है कि भरत चक्रवर्ती अपने अंगुलों से १२० अंगुल ऊंचे थे। और भगवान महावीर प्रभु ८४ अंगुल ऊँचे थे। यह मान्यता किसी २ की है । इस लिये विशिष्ट स्वरादिक ही प्रधान फलदायी होते हैं। कहा भी है-अस्थिवर्धाः इत्यादि । इस श्लोक का अर्थ सुगम है। (एएणं अंगुलपमाणेणं छ अंगुलाई पाओ) इस अंगुल प्रमाण से ६ अंगुल विस्तीर्ण पाद का मध्यतल प्रदेश होता है । पाद का एक देश होता है इसलिये उसे यहां पाद् शब्द से कह दिया है। (दो पाया विहत्थी दो विहत्थीओ रयणी दो रयणीओ कुच्छी दो कुच्छीओ दंड,
બદલ પણ આ હીન, મધ્યમ પ્રમાણુવાળા પુરૂષે ઉત્તમ પુરૂષોની સેવા–ચાકરી કરતા રહે છે જે આ હીન તેમજ અધિક હોય પરંતુ જે સ્વરાદિ ગુણોથી સપન હોય તે એ બધા ઉત્તમકેટિમાં જ પરિગતિ થાય છે. શાસ્ત્રોમાં કોઈ કહેવામાં આવ્યું છે કે ભરત ચક્રવતી પોતાના અંગુથી ૧૨૦ અંગુલ જેટલા ઊંચા હતા, અને ભગવાન મહાવીર પ્રભુ ૮૪ અંગુલ ઊંચા હતા આ માન્યતા કેટલાકની છે એટલા માટે વિશિષ્ટ સ્વરાદિક જ પ્રધાન રૂપમાં ફળ
आपनार डाय छ बु ५५ छे. 'अस्थिवर्थाः त्यादि मा नो मथ सुगम छे. (एएणं अंगुलपमाणेणं छ अंगुलाई पाओ) ॥ भya प्रभारथी દ અંગલ વિસ્તીર્ણ પાદનું મધ્યતલ પ્રદેશ હોય છે પાદને એક દેશ હોય छ सेटमा भाटतेने माडी ५६ २०४थी अवामा माये. (दो पाया विहत्थी दो विहत्थीओ रयणी दो रयणीओ कुच्छी, दो कुच्छीओ दंडे, धणु, जुगे,
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अनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र १९३ आत्माङ्गुलप्रमाणप्रयोजननिरूपणम् १२१ वितस्ति भवति । एवं क्रमेण सत्रोक्तप्रकारेण योजनपर्यन्तं क्षेत्रमाणं बोध्यम् ॥ म्रु० १९२ ॥
मूलम् - एएणं आयंगुलप्पमाणेणं किं पओयणं ? एएणं आयंगुलप्पमाणेणं जे णं जया मणुस्सा हवंति तेसि णं तया णं आयंगुलेणं अगडतलागदहनईवावी पुक्खरिणीदीहिय गुंजालियाओ सरा सरपंतियाओ सरसरपंतियाओ बिलपंतियाओ आरामुजाणकाणणवणवण संडवणराईओ देउलसभापवाथूमखाइअपरिहाओ पागारअहालयचरियदारगोपुरपासायघर
सरणलयण आवणसिंघा डगतिगच उक्कच चरच उम्मुहमहापहपहसगडरहजाण जुग्गगिल्लिथिलिसिविय संद्माणियाओ लोहीलोहकडाहकडिल्लय मंडमत्तोवगरणमाईणि अज्ज कालियाई च जोयणाई मविजति । से समाप्तओ तिविहे पण्णत्ते, तं जहा
धणु, जुगे, नालिया, अक्खे, मुमले, दो धणुसहस्साइं गाउयं चत्तारि गाउयाइं जोघणं ) पाद्रय की एक वितस्ति होती है। दो वितरित की एक रत्नि होती है। दो रत्नि की एक कुक्षी होती है। दो कुच्छी का एक दण्ड होता है । एक धनुष होता है एक युग होता है एक नालिका होती है, एक अक्ष होता है और एक मुसल होता है । ये ६ प्रमाण विशेष दो कुक्षी के होते हैं। दो हजार धनुष का एक गव्यूत होता है । चार गव्यूतों का एक योजन होता है । अर्थात् ४ कोश का एक योजन होता है | सृ० १९२ ॥
नालिया, अक्खे, मुसले, दो धणुसहस्साईं गाउयं चत्तारि गाउयाई जोयणं) पाह યની એક વિદ્ધસ્તિ હાય છે એ વિતસ્તિની એક રત્નિ હોય છે એ પત્નિની એક કુક્ષી હાય છે એ કુક્ષીના એક દડ હેય છે. એક ધનુષ હાય છે એક યુગ હેાય છે, એક નાલિકા હેાય છે એક અક્ષ હાય છે એક મુસલ હાય છે આ ૬ પ્રમાણુ વિશેષ એ કુક્ષીના હાય છે બે હજાર ધનુષને એક ગબૂત (કેાસ) હાય છે ચાર ગભૂત ખરાખર એક ચેાજન હોય છે એટલે કે ચાર ગાઉ બરાબર એક ચેાજન હેાય છે. સૂ૦૧૯૨।।
अ०. १६
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१२२
अनुयोगद्वारसूत्रे सूईअंगुले पयरंगुले, घणंगुले। अंगुलायया एगपएसिया सेढी सूईअंगुले, सूई सूई गुणिया पथरंगुले, पयरं सूइए गुणितं घणंगुले। एएसि णं भंते! सूईअंगुलपयरंगुलघांगुलाणं कयरे कयरहितोपा वा बहुया वा तुल्ला वा विसेसाहिया वा ? सबथोवे सूई अंगुले, पयरंगुले, असंखेजगुणे, घणंगुले असं. खिजगुणे। से तं आयंगुले।सू० १९३॥
छाया-एतेन आत्माइगुलप्रमाणेन किं प्रयोजनम् ? एनात्मागुलप्रमाणेन ये खल् यदा मनुष्या भवन्ति तेषां खलु तदा खलु आत्माङ्गुलेन अटतडागहूदनदोवापीपुष्करिणीदीर्घिकागुञालिकाः सगंसि रारपतयः
'एएणं आयंगुलप्पमाणेणं इत्यादि ।'
शब्दार्थ-(एएणं आयंगुलप्पमाणेणं) हे भदन्त ! इम आत्मां गुलप्रमाण से (किं पओयणं ) किस प्रयोजन की सिद्धि होती है ?
उत्तर-- ( एएणं आयंगुलप्पमाणेणं ) इस आत्मागुल प्रमाण से इस प्रयोजन की सिद्धि होती है कि (जेणं जया मणुस्सा हति) जिस काल में जो मनुष्य होते हैं । तेमि तथाणं आयंगुलेग ) उनका उस समय का जितना अंगुल होता है उस अंगुल से ( अगइनलागदहनईवावीपुक्खरिणी दोहिय गुंजालियाओ सरा सरपंतिधाओ) अक्ट तडाग-तालाप हद, नदी, वापी चौकोर-बावड़ी-पुष्करिणी कमलयुक्त जलाशय अथवा गोल मुँहवाली बावड़ी, दीर्विका बहुत लंबी चौड़ी बावड़ी, गुंजालिका
" एएणं आयंगुलप्पमाणेणं " त्या
शहाथ-(एएणं आयंगुलप्पमाणेणं) 3 मत ! 4 मामiyष्ण प्रमाथी (किं पओयणं) या प्रयोगनी मिद्धि थाय छ ?
उत्तर (एएण आयंगुलप्पमाणेण) मा मात्भाशु प्रमाथी 24 तना प्रयोजनासद्धि थाय छ है (जे णं जया मणुस्सा हवंति) २ मां २ ५३५ भन्भे छे. (तेसिं तयाणं आयगुलेण) तमना ते समयनारेमा भा५ प्रभावना म डाय छे, ते असाथी (गडतलाग दहनईवावीपुक्खरिणीदीहियगुंजालिया ओ सरा सरपंतियाओ) १८ त11તળાવ, હદ-ની, વાપી –ચાર ખૂણાવાળી વાવ પુષ્કરિણી –કમળ યુકત નાની તલાવડી અથવા કીર્ણિકા ઘણી લાંબી પાળી વાવ, જાલિકા વક્રાકાવાવ, સર
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अनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र १९३ आत्माश्गुलप्रमाणप्रयोजननिरूपणम् १२३ सरः सरः पङ्कको विपक् आरामोद्यानकाननवनवन पण्डवनराजयः देवकुलसमापार वातिकापरिखाः प्राकाराद्दालक चरिकाद्वार गोपुरमासादगृहशरणलयनापणशृङ्गाट त्रिकचतुष्कचत्वर चतुर्मुखमहापथपथिशकटस्थानयुग्य गिल्लि थिल्लिशिविकास्पन्दमानिया लौडीलोहकटाएक टिल्लक भण्ड।मत्रोपकरणादिकानि अधकालिकानि च योजनानि माध्यन्ते । तत् समासतः त्रिविधं प्रज्ञसम्
वक्राकार वाली बावड़ी, सर-अपने आप बना हुआ जलाशय विशेष, सरःपंक्ति ( सरसरपंतियाओ ) सरःसरपंक्ति (बिलपंतियाओ ) बिलपंक्ति, ( आरामुज्जाणकाणणवणवण संडवणराईओ देउलसभा पवा धूमखाह अपरिहाओ ) आराम, उद्यान, कानन, वन वनषंड, वनराजि, देवकुल, सभा, प्रपा स्तूप, खातिका परिवा, (पागार अहालय चरियदारगोपुर पासायंघरसरणलयण आपण सिंघाडगतिगच उक्कचच्चरच उम्मापपगड रह जाणजुग्गगिल्लि थिल्लि सिविधसंदमा - णियाओ) प्राकार, अट्टालिका, चरिका द्वार, गोपुर, प्रासाद, गृह, शरण, लगन, आपण, शृंगाटक, त्रिक, चतुर, चरवर - चतुर्मुख, महापथपत्र, शकट, रथ, यान, युग्य, निहिल, थिल्लि, शिविका, स्यन्दमानिका (लोहिलोहक डाक डिल्लय मंडमत्तो बगरणमाईणि अज्ज कालियाइं च जोयणाई मविज्जति) लौही, लोहकटाइ, कटिल्लक, भाण्डअमत्र, उपकरण अपने २ समय में उत्पन्न हुई वस्तुएँ और योजन इन सबका माप किया जाता है। तात्पर्य यह है कि आत्मगुल का इन पूर्वोक्त
પોતાની મેળે જ બનેલ જલાશય એટલે કે મેટુ સરોવર, સરઃ કેત ( सरखर पंतियाओ) सरः सरः पंडित (त्रिपंतियाओ) पिडित, (आरामुजाणकाणणवणवण संडवणराईओ देउसभापवाभाइ अपरिहाओ) આરામ, उद्यान, कानन, वन, वनषडे, वनरानि, हेवटुस, सला, अया, स्तूप, जातिभ, परिया, (पागार अदृ/लय वरियदारगो पुरवासायघरसरणलयण आवण सिंघाडगलिगचउक्कचच्चरच उम्मुमहापहपहसगड र ह जोण जुग्गगिलिथिलिसिविय संद्माणियाओ ) आहार, अट्टासि यरि, द्वार, गोपुर, साह, गृह, शरणु, वयन, आपणु, श्रृंगार, त्रिः तुष्ट, यत्वर, यतुर्भु', महापथ, पथ, शउट, २थ, यान, युभ्य, जिल्सि, थिंडिस, शिक्षित, स्यंद्वभानिश, (लोहिलोहक डाहक डिल्लयभंडमत्तोड़गरणमा ईणि अकालियाई व जोयण ई मनिज्जति) बोडी, बोटाड, उटिल्स, लांड, अमंत्र, ઉપકરણ, પોતાના સમકાલીન યુગમાં ઉત્પન્ન થયેલ વસ્તુઓ તેમજ યાજન
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१२४
अनुयोगद्वारसूत्रे तद्यथा-सूरझुलं, प्राराङ्गुलं, घनागुलम् । अनलायता एकमदेशिका श्रेणी सूच्यगुलं, सूची मूचिगुणिता प्रतुरागुलं, प्रतरं सूच्या गुणितं घना लम् । एतेषां खलु भदन्त ! शूच्यअलपतरालघमाङ्गलानां कनमानि कतमेभ्योऽल्पानि वा वहुकानि वा तुल्यानि वा विशेषाधिकानि वा ? सर्वस्तो मूच्यङ्गुलं, प्रतराङ्गुलम् असंख्येयगुणम् , घनाशुलम् असंख्येयगुणम् तदेतत् आत्माङ्गुलम् ॥मू. १९३॥
टीका-एएणं' इत्यादि
एतस्य आत्माहुलस्य प्रयोजनविषये पृष्टः प्राह-एतेनात्माङ्गलेन अवटा. दीनि माप्यन्ते । एतदेव स्पष्टपतिपत्त ये सविस्तरमाह--ये खलु यदा भरतचक्रवादयो मनुष्या भवन्ति, तेषां तदा यदात्माङ्लं-स्वकीयाशुलं भाति, तेनालेन-अवटा कूपः, तडाग: वनितो जलाशयविशेषः, हृदः प्रसिद्धः, नदीप्रसिद्धा, वाप्यचतुरस्रा जलाशयविशेषाः, पुष्करिण्यो-बत्तुलाः सकमला वा जला. शयाः, दीपिकाः दीर्घाकारा वाप्यः, गुञ्जालिकाः वक्रा वाप्यः, एषां द्वन्द्वः, तथाअवटआदिकों को माप करना ही प्रयोजन है । अवट नाम कूप का है। भाषा में इसे कुंआ कहते हैं। तडाग नाम उस तालाब का है जो मनुष्य द्वारा खोद कर बनाया जाता है। भाषा में हद का नाम द्रह है। यह नदी आदि जलाशयों में या पर्वत के ऊपर एक बहुत अधिक गहरे खड़े के आकार में होता है । इसमें अथाह पानी भरा रहता है । गंगा आदि प्रसिद्ध जलाशय नदी कहलाती है। वापी उस जलाशय का नाम है जो चौकोर होता है और जिसमें चारों तरफ से नीचे उतरने के लिये सीढ़ियां लगी रहती हैं । पुष्करिणी वह कहलाती है जिसमें कमल खिले रहते हैं अथवा जो गोल होती है। दीपिका वह कहलाती है जो
आकार में बहत लम्बी चौडी होती है। जिस वापी का आकार वक्र होता है वह गुंजालि का कही जाती है । जो जलाशय स्पयं बना हुआ આ બધાનું માપ કરવામાં આવે છે, તાત્પર્ય આ પ્રમાણે છે કે આત્માગુલનું પ્રોજન ઉપર્યુક્ત અવટાદિકનું માપ કરવું જ છે. અવટ કૃપનું નામ છે ભાષામાં એને “એ” કહે છે તડાગ-તે તળાવનું નામ છે જેને માણસો
દીને તૈયાર કરે છે. ભાષામાં હદ પ્રહને કહે છે આ નદી વગેરે જલાશમાં અથવા પર્વત પર એક ખૂબ જ ઉંડા આકારના ખાડાના રૂપમાં હોય છે. આમાં પુષ્કળ પાણી રહે છે અંગા વગેરે પ્રસિદ્ધ જલાશ નદી કહેવાય છે. વાપી તે જલાશયનું નામ છે જે ચાર ખૂણાવાળી હોય છે અને જેમાં ચીમેર અંદર ઉતરવા માટે પગથીયાઓ હોય છે પુષ્કરિણી તે કહેવાય જેમાં કમળ પ્રકુલિત રહે છે અથવા જે ગોળાકાર હોય છે. દીધિકા તે કહેવાય કે જે આકા
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अनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र १९३ आत्माइगुलप्रमाणप्रयोजननिरूपणम् १२५ सरोसि-स्वयं संजातो जलाशयः सर इत्युच्यते, सरपङ्क्तिकाः पङ्क्तिभिः श्रेणिभिर्व्यवस्थितानि सशंसि, सरः सरः पङ्क्तयायालु सरः पङ्क्तिषु एकस्मात्सरसोऽस्मिन् सरलि ततोऽन्यस्मिन सरसि जलं कपाटादि संचारेण गच्छति, एवंविधाः सरः पतयः सरःसरपङ्क्तय उच्यन्ते । विलपतयः-बिलानीव बिलानि सङ्कीर्णमुवकूयास्तेषां पङ्क्तयः।
तथा-आरामोद्यानकाननवनवनपण्डयनराजयः-तत्र-आरामः-आरमन्ति-क्रीडन्ति स्त्रीपुरुषादयो यत्र मः, उद्यानम्=पुष्पफलादिसमृद्धानेकवृक्षसङ्कुलमुत्सवादी बहुजनपरिभोग्यं राज्ञः सर्वसाधारणं बनम् , काननं-सामान्यरक्षनातियुक्तं नगरसमोपवत्तिं यत् तत् , यद्वा-स्त्रीणामे पुरुषाणामेव वा परिभोग्य काननम् , अपवा होता है किसी के द्वारा बनाया नहीं जाता वह सर कहलाता है । श्रेणि रूप में व्यवस्थित जलाशयो का नाम सरः पंक्ति है । जिन सर पंक्तियों में एक तालाब से अन्य तालाब में उससे भी अन्य तालाब में नालियों द्वारा जल जाता रहता है इस प्रकार की जो सरः पंक्तियां होती हैं वे वे सरासर:पंक्तियां कहलाती हैं । जिन कूपों के मुख बिलों के समान संकीर्ण होते हैं वे बिल कहलाते हैं इनकी जो पंक्तियां होती हैं वे बिल पंक्तिमं कहलाती हैं । जिसमें स्त्री पुरुष आनंद से क्रीडा करते हों, वह आराम है । पुष्पफल आदिक से समृद्ध ऐसे अनेक वृक्षों से युक्त जो स्थान हो, उत्सव आदि के समय में जहाँ पर बहुत सी जनता जाकर उत्सव मनाती हो ऐसे स्थान का नाम जो कि राजा के द्वारा आम जनता के उपभोग के निमित्त पनवाया जाता है उद्यान है। जिसमें अनेक वृक्षों का झुंड का झुंड लगा हो, ऐसे स्थान का नाम जो नगर ૨માં ખૂબજ લાંબી–અને પહેલી હોય છે જે વાવ આકારમાં વક હોય છે, તે શું જાલિકા કહેવાય છે. જે જલાશય પિતાની મેળે જ તૈયાર થઈ ગયેલ હોય તે સર કહેવાય છે શ્રેણિરૂપમાં વ્યવસ્થિત જલાશ સરઃ પંકિતના નામથી ઓળખાય છે. જે સર પંકિતઓમાં એક તળાવમાંથી બીજા તળાવમાં તે પછીના અન્ય તળાવમાં પણ નાલિકાઓ વડે પાણી વહેતું રહે છે તે સર: સરઃ પંકિતઓ કહેવાય છે જે કૂવાઓના મુખ દરોની જેમ સંકીર્ણ હોય છે તે બિલ પંકિતઓ કહેવાય છે. જેમાં સ્ત્રી પુરુષે આનંદપૂર્વક કીડા કરે છે, તે આરામ છે પુષફળથી સભર એવાં અનેક વૃક્ષે થી યુકત જે સ્થાન હોય છે, અને ઉત્સવાદિના સમયમાં જ્યાં નાગરિકે એકત્ર થઈને ઉત્સવ ઉજવે છે એવા સ્થાનનું નામ ઉદ્યાન છે. રાજા લેકે આવા ઉધના નગરજનેના આમોદ-પ્રમોદ માટે તૈયાર કરાવડાવે છે જેમાં ઘણું વૃક્ષે હેય, એવા નગ
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१२६
अनुयोगद्वारसूत्रे
यस्मात् परतः पर्वतो नवी वासवति तत् सर्वनापेक्षा पन्त कानूनमुच्यते, शीर्णक्षक वा काननम्। वनम् = एकनावीष्टक्षसमाकीर्णम्, यनखण्डम् = अनेक जातीयोत्तमसंकीर्णम्, वनराजिः = एकजातीयाने कजातीयवृक्षश्रेणिः, ए द्वन्द्वः । तथा देवकुलसभा मपाखातिकापरिवाः तत्र देवकुलम् = यक्षा यतनम्, सभा=सन्तो भजन्त्येतामिति सभा पुस्तकवाचनभूमिर्वहु जनसमागमस्थानं वा, खातिका उपरि च खाता, परिखान् अधः सङ्कीर्णा उपरि विस्तीर्णा खातरूपा, एषां द्वन्द्वः । प्राकाराट्टालकच रिकाद्वारगोपुरमासादगृहशरणलचना
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के समीपवर्ती प्रदेश में होता है कानन कहलाता है । अथवा जिसमें केवल स्त्रियां या केवल मनुष्य ही जावें वह कानन है । अथवा - जिसके बाद या तो अटवी हो या पर्वत हो वह सर्वधन की अपेक्षा से कानज कहलाता है अथवा शीर्ग (जूने पुराने ) वृक्षों से जो युक्त हो वह कानन है । जिसमें एक ही जाति के ही वृक्ष हो वह वन कहलाता है । अनेक जाति के उत्तम वृक्षों से जो युक्त होता है वह वनखंड कहलाता है । अथवा जिसमें एक जाति के अथवा अनेक जाति के वृक्षों की हो वह वनखण्ड कहलाना है । यक्ष के आयतन का नाम देवकुल है । पुस्तकों के वाचने का जो स्थान होता है अथवा जिस स्थान पर अनेक पुरुषों का समागम होता है ऐसे स्थान का नाम सभा है । जो नीचे और ऊपर में एक सी खुदी हुई होती हैं वह खानिका है। लीचे संकीर्ण
રના નિકટવર્તી પ્રદેશનું નામ કાન છે. અથવા તે જેમાં ફક્ત ખ્રિએ કે પુરૂષા જ પ્રવિષ્ટ થાય તે કાનન છે અથવા જેના પછી કાંતા અટવી હાય કે પત હોય તે સવ વનની અપેક્ષાએ કાનન કહેવાય છે અથવા શીણુ (જુન) વૃક્ષેાથી જે યુકત થાય છે તે કાનન છે. જેમાં એકજ જ્ઞતનાં વૃક્ષા હાય છે તે વન કહેવાય છે ઘણી જાતના ઉત્તમ શ્ર્વર્યાથી જે યુકત હેય છે, તે વનખંડ કહેવાય છે. અથવા જેમાં એક જાતિના હું ઘણી જાતિના વૃક્ષાની શ્રેણીઓ હોય તે વનખંડ કહેવાય છે યાનાં આયતનું નામ દેવકુલ છે. પુસ્તકા વાંચવાનુ જે સ્થાન હેાય છે અધવા જે સ્થાન ઘણુ પુરૂષ એકત્ર થાય છે એવા સ્થાનનું નામ સભા છે જે નીચે અને ઉપર એક સરખી ખાઢેલી હાય તે ખકિા છે નીચે સાંકડી અને ઉપર પહેાળી હાય છે તે પરિખા કહેવાય છે આને ખાઇ પડ્યું કહું છે કેટનુ નામ પ્રાકાર છે. પ્રાકા
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आश्रय
त्रयः
अनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र १५३ आत्माङ्गुलप्रमाणप्रयोजननिरूपणम् १२७ पणाटकनिकचतुष्कचस्चर चतुर्मुखमहाप पथिशकटस्थ यानयुग्यलिपिलिशिचि कास्यन्दमानिकाः- तत्र - प्राकारः =पसिद्धः, अट्टालकः = नाकारोपरि विशेष : 'अटारी' इति प्रसिद्ध चरिक=हार्णा प्राकारस्य चान्तरे अष्टहस्तविस्तारी हस्त्यादिसंचारमार्गः, गोपुरम् = पुरद्वारम् प्रासादः भूपानां भवनम् उत्सेधचहुलो वा प्रासादः, गृहम् = सामान्यजननिवासस्थानम् शरणम् = तृणनिर्मित गृहम्, लगनम् = उत्कीर्णपर्वतगृहम् गिरिगुद्दा वा काटिकावासस्थानं वा, आपणाः=हट्टाः, शृङ्गाटकम् - नानाहट्टगृहाभ्यासितत्रिकोणो भूभागविशेषः, पन्यानो यत्र संमिलिता भवन्ति तदपि शृङ्गाटकमित्युच्यते, त्रिकं तु त्रिपथसङ्गऔर ऊपर में विस्तीर्ण जो होती है वह परिखा कहलाती है। इसे खाई कहते हैं । कोट का नाम प्राकार है। प्राकार के ऊपर जो आश्रयविशेष होता है जिसे भाषा में अटारी कहा जाता है वह अट्टालक है। घरों और प्राकार के बीच में जो आठ हाथ का विस्तार वाला मार्ग होता है कि जिमसे हाथी आदि आते जाते रहते हैं उस मार्ग का नाम चरिका है । पुर के दरवाजे का नाम गोपुर है । राजाओं के भवन का नाम प्रासाद है अथवा जिसका उत्सेध बहुत होता है वह प्रासाद है । सामान्य जनों के निवासस्थान का नाम गृह है । जो निवास घास फूस का बना लिया जाता है वह शरण कहलाता है । पर्वत को खोद कर जो निवास स्थान बना लिया जाता है वह लगन है । अथवा पर्वत की गुफा का नाम लगन है । अथवा कार्शटिक आदिकों के रहने का जो स्थान होता है वह लयन है । हाट का नाम आपण है । जिस मार्ग में अनेक हह दुकानों की पंक्ति तथा घर हो ऐसे त्रिकोण मार्ग का नाम शृंगाटक है। श्रृंगाटक नाम सिंघाड़े का है। सिंघाड़े के आकार का जो मार्ग
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રની ઉપર જે આશ્રય વિશેષ હાય છે, જેને ભાષામાં અટારી કહે છે તે અટ્ટાલક છે ધરા અને પ્રાકારની વચ્ચે જે આઠ હાથના વિસ્તારવાળે માગ હાય છે જેના પર થઈને હાથી વગેરે આવજા કરે છે-તે મ! નું નામ ચરિકા છે. પુરના દ્વારનુ' નામ ગેાપુર છે રાજાએના ભવનનુ નામ પ્રાસાદ છે અથવા જેની ઊંચાઈ બહુ ય છે તે પ્રાસાદ છે સામાન્યજનોના નિવા સસ્થાનનું નામ ગૃહ છે જે નિવાસસ્થાન ઘાસ વગેરેનુ' હાય તે શરણ કહેવાય છે તેને કેતરીને જે નિવાસસ્થાન બનાવવામાં આવે છે તે લયન છે, અથવા પતની ગુફ્ નું નામ લયન છે અથવા કાટિક વગેરે માટે જે રહે. વાનું સ્થાન હેાય છે તે લત છે હાટનુ નામ આપણ છે જે માર્ગમાં ઘણી દુકાને । શ્રેણિ (હટ્ટ શ્રેણિ) હાય તેમજ ઘરા હાય એવા ત્રિકે માનું નામ શ્રીંગાટક છે. ઝાટક વિગેડાનું નામ છે શિંગાડાના આકારના જે
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अनुयोगद्वारसूत्रे ममात्रम् , चतुम्=प्रभूतगृहाश्रयश्चतुष्कोणो भूभागश्चतुष्पथसमागमो वा, चत्वरं चतुष्पथसमागम एव षट्पथसमागशे वा, चतुर्मुखम् यस्माचतमृष्वपि दिक्षु मार्गा निस्सरन्ति, महारथ राजमार्गः पन्थाःसामान्य मार्गः, शकटान्त्री, रथो द्विविधो यानरथः संघामरथश्व । तत्र संग्रामरथस्योपरि पाकारसदृशी कटिप्रमाणाफलकमयी वेदिका क्रियते । यात्ररथे त्वेवं न क्रियते । यानम् गन्व्यादिकम् , युग्यम् गौडदेशसिद्धो द्विहस्तप्रमाणश्चतुरस्र वेदिकोपशोभितः शिविकाविशेषः, होता है वह मार्ग श्रृंगाटक कहलाता है । अथवा जिस रास्ते में तीन रास्ते मिले होते हैं वह भी शृंगाटक कहा जाता है। त्रिक मागे वह है कि जिसमें केवल तीन ही मार्ग मिले हों। चतुक मार्ग वह है कि जिसमें अनेक घर हों और जो चौकोण हो । अथवा जिसमें चार रास्ते आकर मिले हो । चत्वर उस मार्ग का नाम है कि जिसमें केवल चार ही या छह रास्तों का मेल हो । चतुष्क पथ उस मार्ग का नाम है कि जहां से चारों दिशाओं की ओर रास्ते जाते हो । राजमार्ग का नाम महापथ है । सामान्य मार्ग का नाम पन्था है । गाड़ी का नाम शकट है। यानरथ और संग्रामरथ के भेद से रथ के दो प्रकार हैं-इनमें जिसके ऊपर प्राकार जैसी कटिप्रमाण पटियों की वेदिका बनाई जाती है वह संग्रामरथ है । और जिस पर ऐसी वेदिका नहीं बनी होती है वह यानरथ है । साधारण गाड़ी आदि का नाम भान है। गौड़ देश में प्रसिद्ध तथा द्विहस्त प्रमाण वाली एवं चौकोर वेदिका से उपशोभित માર્ગ હોય છે તે માર્ગ શૃંગાટક કહેવાય છે અથવા જે રસ્તામાં ત્રણ માગે એકત્ર થયેલા હોય તે પણ અગાટક કહેવાય છે ત્રિક માર્ગ તે છે કે જેમાં ફક્ત ત્રણ જ માર્ગ એકત્ર થતા હે ય ચતુષ્ક માર્ગ તે કહેવાય કે જેમાં ઘણાં ઘરો હોય અને જેઓ ચાર ખૂણાવાળા હોય અથવા જેમાં ચાર રસ્તાઓ આવીને એકત્ર થયા હોય, તે માર્ગ અવર કહેવાય કે જેમાં ફક્ત ચાર જ અથવા છ રસ્તામાં એકત્ર થયેલા હોય ચતુષ્કપ તે માગે છે કે જ્યાંથી ચારે બાજુએ મા જતા હોય રાજમાર્ગનું નામ મહાપથ છે. સામાન્ય મા નું નામ પળ્યા છે ગાડીનું નામ શટક છે યાનરથ અને સંગ્રામરથ આમ રથના બે પ્રકાર છે આમાંથી જેની ઉપર પ્રાકાર જેવી કટિપ્રમાણુ પટ્ટિકાઓની વેદિકા તૈયાર કરવામાં આવે છે તે સંગ્રામરથ છે અને જેની ઉપર એવી વેદિકા હોતી નથી તે વાનરથ છે સ ધા રણ ગાડી વગેરે યાન કહેવાય છે. ગૌડ દેશમાં–પ્રસિદ્ધ તેમજ દ્વિહસ્ત પ્રમાણ–યુક્ત અને ચીકેરેવેદિકાથી ઉપ
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अनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र १९३ क्षेत्रप्रमाणप्रमाणनिरूपणम् गिल्लिा='हौदा' इति प्रसिद्धा, थिल्लिा=यानविशेषः, लाटदेशे स । 'अड्डपल्लाणम्' इत्युच्यते, शिबिका-'पालखी' इति लोकप्रसिद्धा, स्यन्दमानिका-पुरुषप्रमाणायामो जम्पानविशेषः । एषां द्वन्द्वः।। ___ तथा-लौहीलोहकटाहकटिल्लकमाण्डामत्रोपकरणादीनि-तत्र-लौही-लोहनिमितो लघुकटाहः-'लोहिया' इति कचित् देशे प्रसिद्धः, लोहकटाहा लोहनिर्मिती मध्यमः कटाहः, कटिल्लफः-लोहनिर्मितो बृहत्कटाहः, भाण्डम्-मृन्मयादि भाजनम्, अमत्रम्-कांस्यभाननविशेषः, उपकरणम्-कटपिटशूधनेकविधम् , तथा-अद्य मालिकानि-स्वस्वकाल प्रादुर्भूतानि वस्तूनि योजनानि च माप्यन्तेऐसी जो एक विशेष प्रकार की पालखी होती है उसका नाम युग्य है। हौदा का नाम गिल्लि है । यान विशेष-विशेष प्रकार की सवारी का नाम पिल्लि है। लाटदेश में इसका नाम अडुपल्लाण है । सामान्य पालखी का नाम शिबिका है। जिसकी लंबाई पुरुष प्रमाण हो, ऐसे जम्पानविशेष का नाम स्यन्दमानिका है । लोहे की छोटी सी कडाई होती है उसका नाम लौही है । किसी किसी देश में इसे " लोहिया" कहते हैं । लोहे की जो लोहिया से कुछ बड़ी मध्यम प्रमाण वाली कड़ाई बनाई जाती है वह लोहकटाह है । तथा जो बहुत बड़ी कडाई बनाई जाती है वह कटिल्लक है । मट्टी आदि के बने हुए बर्तनों का का नाम भाण्ड है। कांसे के बने हुए बर्तनों का नाम अमत्र है । कटचटाई पिटक-पिटारी सूपा आदि अनेक प्रकार की गार्हस्थ्यिक काम में आने वाली चीजों का नाम उपकरण है । ये सब पदार्थ चाहे किसी भी काल के, क्यों न हो ये आत्मांगुल से मापित किये जाते हैं। (से समासओ શોભિત એવી જે એક વિશેષ પ્રકારની પાલખી હોય છે તેનું નામ યુગ્ય છે હદાનું નામ ગિલ્લિ છે એક વિશેષ પ્રકારની સવારીનું નામ થિલિ છે લાટ દેશમાં આને અડપલાણ કહે છે સામાન્ય પાલખીનું નામ શિબિકા છે જે પુરૂષ પ્રમાણે જેટલું લાંબુ હોય એવું જે યાન વિશેષ હોય તે સ્વન્દમાનિક કહેવાય છે લેખંડની નાની કડાઈનું નામ લહી છે કઈ કઈ દેશમાં આને “લેહિયા” કહે છે લેખંડની જે લહિયાથી સહેજ મોટી મધ્યમ પ્રમાણવાળી કડાઈ હેય તેને લેહકટાહ કહેવામાં આવે છે તેમજ જે બહુજ મોટી કડાઈ હોય તે કટિલ્લક કહેવાય છે માટી વગેરેના વાસણે ભાંડ કહેવાય છે. કાંસાના વાસણે અમત્ર કહેવાય છે કટ-સાદડી-પિટક-પિટારી, સૂપડું વગેરે ઘણી જાતની ગાઈસ્થિક કામમાં વપરાતી ચીજોનું નામ ઉપકરણ છે. આ સર્વ पार्था गमे ते न भ न डाय ते भांगुलथी । भपाय छे. (से समा
अ० १७
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अनुयोगद्वारसूत्र मापविषयी क्रियन्ते । अवटादीनां मापकरणमेव आत्माशुलस्य प्रयोजनं बोध्यम् । आत्मा लस्य भेदं प्रदर्शयितुमाह-तत्-आत्मा झुलं समासतः संक्षेपतः मूच्यशुलप्रतराजुलघनाङ्गुलेति त्रिविधं प्रज्ञप्तम् । तत्र-दैर्येण अङ्गुलायता वाहल्यतस्त्वेकमादेशिकी नमःपदेशश्रेणिः च्यङ्गुलमित्युच्यते । एतच्च सद्भावतोऽसंख्येयम देशमपि असत्कल्पनया धूच्याकारव्यवस्थापितनभाभदेशत्रयनिष्पन्न द्रष्टव्यम् । तद्यथा-०००इति । तथा-मूच्यैव गुणिता सूची प्रतराङ्गुलमित्युच्यते। इदमपि वस्तुतोऽसंख्येयप्रदेशात्मकम्। असद्भावतस्त्वेषेवानन्तरदर्शिता त्रिप्रदेशास्मिका मूचिस्तयैव गुण्यते । इत्थं च प्रत्येकं प्रदेशत्रयनिष्पन्नमूचीत्रयात्मकं नवतिविहे पण्णत्ते) यह आत्मांगुल संक्षेप से तीन प्रकार का कहा गया है(सुई अंगुले, पयरंगुले, घणंगुले) सूच्यंगुल, प्रतरागुल, और घनाङ्गुल (अंगुलायया एगपएसिया सेढी सुई अंगुले ) दीर्घता की अपेक्षा से एक अंगुल लंबी, तथा बाहल्य की अपेक्षा एक प्रदेश प्रमाण (चौड़ी) मोटी नभः प्रदेश श्रेणी का नाम सूच्यङ्गुल है। यह सूच्यङ्गुल सद्भाव से असंख्यात प्रदेश वाला है-अर्थात् सूच्यगुल परिमित स्थान में सिद्धान्त की दृष्टि से असंख्य प्रदेश हैं फिर भी इस सूच्यङ्गुल को समझने के लिये कल्पना करके यह कहा जाता है कि- मान लो सूची के आकार में व्यवस्थापित आकाश के तीन प्रदेश ही मुच्यङ्गुल हैं इन तीन प्रदेशों को ००० इस तरह से सूची के आकार में रखो । प्रतर नाम वर्ग का है-अर्थात् सूच्यंगुल को सूच्यंगुल के साथ गुणा करने पर प्रतरांगुल बनता है। जैसे २ का वर्ग ४ होता है। यह प्रतरांगुल भी असं. सओ तिविहे) मा मात्मांशुस सक्षम र प्रारथी विभत ४२वामा मा०या छे. (सूई अंगुले, पयरंगुले, धणंगुले) सूय शुस, प्रतYa मने धनi. गुर. (अंगुलपया एगपएसिया सेढी सूईअंगुले) सीतानी अपेक्षा मे અંગુલ લાંબી તેમજ બાહલ્યની અપેક્ષાએ એક પ્રદેશ પ્રમાણ (૫હેળી) મોટી ના પ્રદેશ શ્રેણીનું નામ સૂટ્યગુલ છે આ સૂટ્યગુલના સદૂભાવથી અસં
ખ્યાત પ્રદેશ યુક્ત છે એટલે કે સૂટ્યગુલ પરિમિત સ્થાનમાં સિદ્ધાન્તની દૃષ્ટિએ અસંખ્યાત પ્રદેશ છે છતાંએ આ સૂટ્યગુલને સમજવા માટે આ જાતની કલ્પના કરવામાં આવી છે કે માને કે સૂચ્યાકારમાં વ્યવસ્થિપિત આકાશના ત્રણ પ્રદેશ જ સૂયંગુ છે આ ત્રણ પ્રદેશને૦૦૦આ પ્રમાણે સૂચીને આકાર મુજબ ગોઠે પ્રતર વર્ગને કહે છે એટલે કે સૂર્યંગુલને સૂચંગુ
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अनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र १९३ क्षेत्रप्रमाणप्रमाणनिरूपणम्
૨ प्रदेशसंख्यकं प्रतराङ्गुलं निष्पद्यते । तद्यथा - : : : इति । प्रवरश्व सूच्या गुणितो दैविष्कम्भपिण्डतः समसंख्यं घनाङ्गुलं भवति । घनस्य दैर्ध्य विष्कम्भविण्डेषु समत्वं भवति । प्रतरस्य तु दैर्ध्य विष्कम्भयोरेव समत्वं, न पिण्डे, पिण्डस्य एकप्रदेशमात्रात् । वस्तुत इदं घनाड्गुलमपि असंख्येयप्रदेशमानम् । असत्प्ररूपणया ख्यात प्रदेशात्मक होता है । असत्कल्पना मे सूच्याकार व्यवस्थापित ३ प्रदेशों को ३ प्रदेशों से गुणा करने पर ९ प्रदेश आते हैं । ये नव प्रदेश ही प्रतरांगुलरूप में जानना चाहिये। इसकी स्थापना ००० इस प्रकार से है । घन में लम्बाई, चौड़ाई और ::: मोटाई ली जाती है । इस प्रतर को जब सूचि से गुगा किया जाता है वह दैर्ध्य - लम्बाई विष्कंभ-चौड़ाई और पिण्ड मोटाई की अपेक्षा समसंख्या वाला घनाङ्गुल बन जाता है । घन में दैर्ध्य, विष्कंभ, और पिण्ड इनमें समानता होती है । प्रतर में दैर्ध्य और विष्कंभ में समानता होती है । पिण्ड में नहीं, क्यों कि पिण्ड एकप्रदेश मात्र होता है । तात्पर्य कहने का यह है कि यहां पर सूच्यंगुल में लंबाई तो कही गई हैं कि वह एक अंगुल प्रमाण लंबा होता है । तथा मोटाई एक प्रदेश प्रमाग होने से वही चौड़ाई जाननी चाहिये। क्योंकि एकप्रदेश की मोटाई और चौड़ाई बराबर ही होती है । प्रतराङ्गुल में दीर्घता और विष्कंभ में समानता आती
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। घनाङ्गुल में तीनों में । यह घनाङ्गुल भी असंख्यात प्रदेशात्मक લની સાથે ગુણાકાર કરવાથી પ્રતરાંશુલ ખને છે જેમ ૨ ને વગ ૪ થાય છે આ પ્રતરાંશુલ પણુ અસંખ્યાત પ્રદેશાત્મક હોય અસત્કલ્પનાથી સૂચ્યાકાર વ્યવસ્થાપિત ત્રણ પ્રદેશેશને ત્રણ પ્રદેશેાથી ગુણિત કરવામાં આવે તે હૃ પ્રદેશ થાય છે આ નવ પ્રદેશે। જ પ્રતરાંગુલરૂપ જાણવા જોઇએ એમની સ્થાપના આ પ્રમાણે છે ધનમાં લખાઇ પહેાળાઈ અને મેટાઈ લેવામાં આવે છે આ પ્રતરને જયારે સૂચિ વડે ગુણત કરવામાં આવે તે તે દૈથ્યૂ-લખાઇ, વિષ્ણુ ભ–પહાળાઈ અને પિડ-માટાઇની અપેક્ષા સમસ`ખ્યાત યુક્ત ધનાંગુલ થઈ જાય છે. ધનમાં ધ્રુઘ્ન, વિકલ, અને પિંડ એ ત્રણેની સમાનતા હૈાય છે પ્રતરમાં દૈધ્યું અને વિષ્ણુંનમાં જ સમાનતા હાય છે તાપ આ પ્રમાણે છે કે અહી' સૂચ્ચાંગુલમાં લંબાઈ તા કહેવામાં આવી જ છે કે તે એક અંગુલ પ્રમાણુ દ્વીધ હાય છે તેમજ માટાઈ એક પ્રદેશ પ્રમાણ હેાવાથી તેજ પહેાળાઈ છે એમ જાણી લેવું જોઇએ કેમકે એક પ્રદેશની માટાઇ અને પહેાળાઈ ખરાબર જ હાય છે પ્રતરાંગુલમાં દીર્ઘતા અને વિશ્વભમાં સમાનતા આવે છે આ ઘનાંગુલમાં ત્રણેમાં સમાનતા હાય છે. આ ઘનાંશુલ પણુ અસ‘ખ્યાત
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अनुयोगद्वारसूत्रे तु सप्तविंशतिपदेशात्मकं बोध्यम् । प्रदेशानां सप्तविंशतिः संख्यातु नवप्रदेशात्म के प्रतरे त्रिप्रदेशात्मिकया सूच्या गुणिते समुपलभ्यते । एषां स्थापना पूर्वोक्त नवप्रदेशात्मकमतरस्याध उपरि च नव नव प्रदेशान् दत्त्वा कर्तव्या-तद्यथाइत्थं चेदं घनाङ्गुलं दैयविष्कम्भपिण्डैस्तुल्यं भवति। अथैषामल्पबहुत्वादि निर्देष्टुमाह'एएसिणं भंते' इत्यादि । अर्थस्तु स्पष्ट एव। एतदुपसंहरबाह-तदेतदात्माङ्गुलमिति ॥मू० १९३॥ होता है- । इसे यो समझना चाहिये कि नौ प्रदेशात्मक प्रतर में तीन का गुणा करने पर २७ जो आते हैं वे ही घनाङ्गुल के दृष्टान्त रूप है। ३४३=९ यह प्रतरागुल है। इस प्रतराङ्गुल में त्रिप्रदेशात्मक सूची का गुणा करने पर ये २७ आते हैं। इनका कोष्टक पूर्वोक्त नव प्रदेशास्मक प्रतर के नीचे ऊपर नौ नौ प्रदेशों को देकर करनी चाहिएतद्यथा-::: इस प्रकार यह घनाङ्गुल देय, विष्कंभ और पिण्ड ::: इन सब से तुल्य होता है। (सुई सुईगुणिया पयरंगुले :: पयरं सुइए गुणितं घणंगुले ) इस मुत्रपाठ द्वारा यही कहा गया है कि सूची को सूची से गुणा करने पर प्रतराङ्गुल होता है
और प्रतर को सूची से गुणा करने पर घनाङ्गुल होता है । जब यह बात है तो यह स्वतः प्रश्न उपस्थित होता है कि (एएसिणं भंते ! सुई अंगुलपयरंगुलघणंगुलाणं कयरे कयरेहितों अप्पा व बहुया वा तुल्ला घा विसे साहिया वा? ) हे भदन्त ! सूच्यगुल, प्रतराङ्गुल और પ્રદેશાત્મક હોય છે અને આ પ્રમાણે સમજવું જોઈએ કે ૯ પ્રદેશાત્મક પ્રતરમાં ત્રણને ગુણાકાર કરવાથી જે ૨૭ આવે છે તેજ ધનાંગુલના દૃષ્ટાંત રૂપ ૩*૩=૯ આ પ્રતરગુલ છે. આ પ્રતરાંગુલમાં ત્રિપ્રદેશાત્મક સૂચીને ગુણાકાર કરવાથી ૨૭ આવે છે તેનું કોષ્ટક નવપ્રદેશાત્મક પ્રતરની જેમજ નીચે ઉપર નવ નવ પ્રદેશને આપીને તૈયાર કરવું જોઈએ કેમકે આ પ્રમાણે આ ઘનાંગુલ દેધ્ય, વિષ્કભ અને પિંડ આ सपथी तुस्य डाय छे. (सूई सूईगुणिया पयरंगुले पयरं सूईए गुणितं घणंगुले) આ સૂત્રપાઠ વડે આ પ્રમાણે જ કહેવામાં આવ્યું કે સૂચીને સૂચીથી ગુણા કાર કરવામાં આવે તે પ્રતરાંગુલ થાય છે અને પ્રતરને સૂચીથી ગુણાકાર કરવામાં આવે તે ઘનાંગુલ થાય છે. અહીં હવે એ પ્રશ્ન ઉપસ્થિત થાય છે है (एएसि णं भंते ! सूई-अंगुल पयरंगुलघण गुलाणं कयरे कयरेहितो अप्पा बा बहुया वा तुल्ला वा विसेसाहिया वा !) 3 महत ! सूश्यांगुल, प्रत
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अनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र १९४ उत्सेधाङ्गुलप्रमाणनिरूपणम्
अथ उत्सेधाशुलपमाणं निरूपयतिमूलम्-से किं तं उस्सेहंगुले? उस्सेहंगुले-अणेगविहे पण्णते, तं जहा-परमाणू तसरेणू, रहरेणू अग्गयं च वालस्स लिक्खा जया य जवो, अट्टगुणवडिया कमसो ॥१॥से किं तं परमाणू ?, परमाणूदुविहे पण्णत्ते, तं जहा-सुहुमे यववहारिए य, तत्थणंजे से सुहुमे से ठप्पे । तत्थ णं जे से ववहारिए से णं अणंताणताणं सुहम पोग्गलाणं समुदयसमिईसमागमेणं ववहारिए परमाणुपोग्गले निप्फ जइ। से णं भंते ! असिधारं वा खुरधारं वा ओगाहेजा ? हंता ओगाहेजा । से णं तत्थ छिजेज वा भिज्जेज्ज वा? नो इणट्रे समटे, नो खलु तत्थ सत्थं कमइ। से णं भंते! अगणिकायस्य मज्झं मझेणं वीइवएजा ? हंता विइवएज्जा । से णं भंते ! तत्थ डहेज्जा ? नो इणटे, समढे, नो खलु तत्थ सत्थं कमइ। से णं भंते! पुक्खरसंवगस्स महामेहस्स मज्झं मज्झेणं वीइवएज्जा?, घनागुल इनमें से कौन कौन से अल्प हैं ? कौन किनसे बहुत हैं ? कौन किनसे तुल्य हैं ? तथा कौन किनसे विशेषाधिक हैं ?
उत्तर-(सम्पत्योवे सुईअंगुले, पयरंगुले, असंखेज्जगुणे, घणं. गुले, असंखिज्जगुणे-से तं आयंगुले) इनमें सबसे कम सूच्यंगुल है। सूच्यंगुल से असंख्यात गुणा प्रतरांगुल है। और प्रतरांगुल से असं. ख्यात गुना घनाङ्गुल है इस प्रकार यह आत्माङ्गुल है ।। सू० १९३ ॥ અને ઘનાંગુલ આમાં કોણ તેનાથી અ૯પ છે? કોણ તેનાથી વધારે છે, કે કેની બરાબર છે? તેમજ કોણ કેનાથી વિશેષાધિક છે?
उत्तर-(सव्वत्थोवे सूई अंगुले, पयरंगुले, असंखेजगुणे, घणंगुले, असं खिज्ज गुणे, से तं आयंगुले) मामा सौथी म५ सूय शुस छ. सूश्य तथा અસંખ્યાત ગુણે પ્રતરાંગુલ છે અને પ્રતરાંગુલથી અસંખ્યાત ગુણે ઘનાંગુલ છે. આ પ્રમાણે આ આત્માગુલ છે, સૂ૦૧૯૩
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१३४
अनुयोगद्वारसूत्र हंतावीइवएज्जा। सेणं तत्थ उदउल्ले सिया? नो इणठे समढे,णो खलु तत्थ सत्थं कमइ। से णं भंते ! गंगाए महाणईए पडिसोयं हवमागच्छेज्जा?, हंता हा मागच्छेज्जा। से णं तत्थ विणि. घायमावज्जेज्जा?, नो इगट्टे समढे, णो खलु तत्थ सत्थं कमइ। से गं भंते! उदगावत्तं वा उदगबिंदुं वा ओगाहेज्जा? हंता
ओगाहेज्जा। से णं तत्थ कुच्छेज्जा वा? परियावजेज्जा वा?, णो इणढे समढे, नो खल्लु तत्थ सत्थं कमइ॥ सत्थेणं सुतिक्खेण वि, छित्तुं भेत्तुं च जो किर न सको। तं परमाणुं सिद्धा, वयंति आहं पमाणाण॥१॥सू०१९४॥
छाया-अथ किं तत् उत्सेधाङ्गुलम् ? उत्सेघाङ्गुलम्-अनेकविधं प्रज्ञप्तम् , तद्यथा-परमाणुः त्रसरेणुः रथरेणुः अग्रजं च वालस्य । लिक्षा यूका च यवः अष्ठगुणवर्धिता क्रमशः। अथ कोऽसौ परमाणु ?, परमाणुः-द्विविधः प्रज्ञप्तः, तद्ययासूक्ष्मश्च व्यावहारिकश्च । तत्र खलु यः स सूक्ष्मः स स्थाप्यः । तत्र खलु यः स व्यावहारिकः स खलु अनन्तानन्तानां मूक्ष्मपुद्गलानां समुदयसमितिसमागमेन व्यावहारिकः परमाणुपुद्गलो निष्पद्यते । स खलु भदन्त ! असिधारां वा क्षुरधारां वा अवगाहते ?, हन्त गाहते । स खलु तत्र छियेत वा भिद्येत वा?, नो अय. मर्थः समर्थः, नो खलु तत्र शस्त्रं कामति । स खलु भदन्त ! अग्निकायस्य मध्यमध्येन व्यतिव्रजेत् ? हन्त ! व्यतिव्रजेत् । स खलु भदन्त ! तत्र दह्येत ! नो अय मर्थः समर्थः । नो खलु तत्र शस्त्रं क्रामति। स खलु भदन्त! पुष्कलसंवर्तकस्य महामेघस्य मध्यमध्येन व्यतिव्रजेत् ? हन्त व्यतिव्रजेत् । स खलु तत्र उदकाः स्यात् ? नो अयमर्थः समर्थः। नो खलु तत्र शस्त्रं क्रामति । स खलु भदन्त ! गङ्गाया महानद्याः प्रतिस्रोतो हव्यमागच्छेत् ? हन्त ! हव्यमागच्छेत् । स खलु तत्र विनिघातपापयेत ? नायमर्थः समर्थः नो खलु तत्र शस्त्रं कामति । स खलु भदन्त ! उदाकावर्त वा उदकविन्दु वा अवगाहेत? हन्त ! अवगाहेत । स खलु तत्र कुथ्येद् वा ? पर्यापद्येत वा ? नो अयमर्थः समर्थः । नो खलु तत्र शस्त्र क्रामति । शस्त्रेण सुतीक्ष्णेनापि छेत्तुं भेत्तुं च यः किल न शक्यः । तं परमाणु सिद्धा वदन्ति, आदि प्रमाणानाम् ।।सू० १९४॥
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अनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र १९४ उत्सेधाङ्गुलप्रमाणनिरूपणम्
टीका' से किं तं ' इत्यादि -
अथ किं तत् उत्सेधाङ्गुलम् ? इति शिष्यप्रश्नः । उत्तरयति - उत्सेधा गुलम्उत्सेधः = अनंताणं सुदुमपरमाणुपोग्गकाणं' इत्यादि क्रमेण उच्छ्रायणं-वर्द्धनं तस्माज्जातमङ्गुलम् । यद्वा - उत्सेधो = नारकादिशरीराणामुच्चैस्त्वं तत्स्वरूपनिरूपणार्थमङ्गुलम् । एतच्च परमाणुत्रसरेण्वादिरूपकारणस्यानेकविधत्वात् अनेकविधं बोध्यम् । तत्रानेकविध कारणप्रदर्शनाय प्राह- तद्यथा- परमाणुः त्रसरेणुः रथरेणुः अब सूत्रकार उत्सेधाङ्गुल का कथन करते हैं" से किं तं उस्से हंगुले ? " इत्यादि ।
शब्दार्थ - ( से किं तं उस्सेहंगुले ) हे भदन्त ! वह उत्सेधागुल क्या है ?
उत्तर - (उस्सेहंगुले ) यह उत्सेधाङ्गुल (अणेगविहे पण्णत्ते ) अनेक प्रकार का प्रज्ञप्त हुआ है। " अणंताणं सुहुमपरमाणुपोग्गलाणं". इत्यादि वक्ष्यमाण क्रम से बढ़ना इसका नाम उत्सेध है। इससे जो अंगुल उत्पन्न होता है उसका नाम उत्सेधांगुल है । अथवा नारक आदि के शरीरों की जो उच्चता है उस उच्चता के स्वरूप को निरूपण करने के लिये जो अंगुल काम में आता है, वह उत्सेधाङ्गुल है । यह उत्सेधाङ्गल परमाणु त्रपरेणु आदिरूप कारणों की विविधता से अनेक प्रकार का कहा गया है - इसी विषय को सूत्रकार ' तं जहा' इस पाठ द्वारा प्रदर्शित करते हैं - (परमाणु, तसरेणु, रहरेणु अग्गयं च वालस्स, लिक्खा, ज्या य जयो अट्ठगुणवड़िया कमसो) परमाणु, त्रमरेणु रथ
હવે સૂત્રકાર ઉત્સેધાંશુલ વિષે કહે છે. " से कि त उस्सेहंगुले " इत्याहि
शब्दार्थ - (से कि तं उस्सेहंगुले) हे महत! ते उत्सेधांशुद्ध शुद्ध छे ?
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उत्तर- (उस्सेहंगुले) ते उत्सेधांशुल (अणेगविहे पण्णत्ते) मने अारने अज्ञप्त थयेस छे. “ अणंताणं सुहुमपरमाणुपोग्गलाणं " इत्यादि उभथी मलिવર્ધિત થવુ' તે ઉત્સેધ છે આનાથી જે અંગુલ ઉત્પન્ન થાય છે, તે ઉત્સેધાંગુલ કહેવાય છે અથવા નારક વગેરેના શરીરેાની જે ઉચ્ચતા છે તે ઉચ્ચતાના સ્વરૂપને નિરૂપિત કરવા માટે જે અંશુલ કામમાં આવે છે, તે ઉત્સેધાંગુલ છે. આ ઉત્સેધાંશુલ પરમાણુ ત્રસરેણુ આદિ રૂપ કારણેાની વિવિધતાથી અનેક प्रारना डेवामां मान्यो मे विषयने सूत्रार (तंजहा) मा पाई वडे अहर्शित ४२ छे ( परमाणू, तसरेणू. रहरेणू, अग्गयं च वालरस, लिक्खा, जूयायज्ञवो, अट्टगुणवडूढिया कमसो) परभालु, त्रसरे, रथरेलु मासाग्रतिक्षा,
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अनुयोगद्वारसूत्रे वालाग्रम् लिक्षा गृका यव इति । एनेषु पूर्वपूर्वापेक्षया उत्तरोत्तरमष्टगुणाधिकं बोध्यम् । अथ परमाणुस्वरूपनिरूपणाय माह-अथ कोऽसौ परमाणुः ? इति । उत्तरयति-परमाणुः सूक्ष्मव्यावहारिकेति द्विविधः । तत्र-मुक्ष्मः प्रकृतानुपयोगिस्वात् स्थाप्या अव्याख्येयः। तथा यो व्यावहारिकः परमाणुः स किल किद्भिः सूक्ष्मपुद्गले निष्पन्नो भवति ? इत्याह-
तमूक्ष्म व्यावहारिकमध्ये योऽसौ व्यावहारिकः परमाणुपुद्गलः, स खलु व्यावहारिकः परमाणुपुद्गलः अनन्तानन्तानां सूक्ष्मपुद्गलानां समुदयसमितिसमागमेन-समुदया:-समुदायाः-द्वयादिसमुदायात्मकानि वृन्दानि तेषां याः समितयो बहूनि मीलनानि तासां समागम संयोगःएकीभवनं वा तेन निष्पद्यते-निष्पन्नो भवति । अयं भावः-"कारणमेव तदन्त्यं, सूक्ष्मो नित्यश्च भवति परमाणुः । एकरस वर्णगन्धो, द्विस्पर्शः कार्यलिङ्गश्च ॥" रेणु बालाग्र, लिक्षा, यूक, यव ये क्रमशः उत्तरोत्तर अठगुने जानना चाहिये । (से किं तं परमाणू) हे भदन्त ! परमाणु क्या है ?
उत्तर-(परमाणू दुविहे पण्णत्ते) परमाणु दो प्रकार का कहा है । (तं जहा) जैसे (सुहमेय ववहारिए य) एक सूक्ष्म परमाणु दूसरा व्यवहारिक परमाणु (तत्थणं) इनमें (जे से सुहुमे से ठप्पे ) जो सूक्ष्म परमाणू है वह प्रकृत में अनुपयोगी होने से अव्याख्येय है । (तत्थणं जे से ववहारिए, से णं अणंताणताणं सुहुमपुग्गलाणं समुदयसमिइ समागमेणं ववहोरिए परमाणुपोगले निफ्फज्जइ) तथा वह जो व्यावहारिक परमाणु है, वह अनंतानंत सूक्षन परमाणुओं की समुदय समिति के समागम से-अनेक द्वयादि परमाणुओं के एकीभवन रूप संयो. गात्मक मिलन से उत्पन्न होता है । इसका तात्पर्य यह है कि जो पुद्गल ५४, ३१ मा मा अनु उत्तरोत्तर भाउ ! onjan से (से कि तं परमाणू) ९ मत ! ५२माए शु छ ?
उत्तर-(परमाणू दुविहे पण्णत्ते) ५१मा मे ५४.२ ४ामा माव्या छ. (तंजहा) भ (सुहुमे य ववहारिए य) मे सूक्ष्म ५२मा भने भान व्यावसा२ि४ ५२भा (तत्थणं) मामा (जे से सुहुमे से ठप्पे) २ सूक्ष्म ५२भार , ते प्रकृतमा अनु५०० पाथी भव्याभ्येय छे (तत्थणं जे से ववहारिए, से गं अर्थतार्ण सुहमपुग्गलाणं समुदयसमिइसमागमेणं ववहारिए परमाणु पोग्गले निफज्जइ) तेभ ने व्यापा२ि४ ५२मा छ, मनतात सूक्ष्म પરમાણુઓની સમુદાય સમિતિના સમાગમથી અનેક યાદિ પરમાણુઓના એકી ભવન રૂપ સંયોગાત્મક મિલનથી ઉત્પન્ન થાય છે. કહેવાનું તાત્પર્ય આ
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अनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र १९४ उत्सेधाश्गुलप्रमाणनिरूपणम् १३७ इत्यादिलक्षणनिर्विभागमेव परमाणुमिच्छति निश्चयनयः । यस्तु एतैरनेकर्जायते स सांशत्वात् स्कन्ध एयोच्यते । व्यवहानामते हि सूक्ष्मानेकपरमाणुनिष्पन्नो यः शस्त्रच्छेदाग्निदाहादिविषमो न भवति, सोऽद्यापि तथाविधस्थलताया अतिक्या परमाणुरिति व्यवहियते । इत्थं च निश्चयन यमरोन स्कन्धोऽपि व्यवहारनयमतेन व्यावहारेकः परमाणुरुक्त इति । अयं शस्त्रच्छेदादिविषयो न भवतीति दर्शयितुंद्रव्यकारणरूप है कार्यरूप नहीं है वह अन्त्य द्रव्य कहलाता है। ऐसा द्रव्य सूक्ष्म परमाणु होता है । यह नित्य होता है । और इसमें कोई एक रस, एक गंध एक वर्ण, और दो समर्श रहते हैं। ऐसे परमाणु द्रव्य का ज्ञान इन्द्रियों से तो हो नहीं सकता आगम या अनुमान से होता है। परमाणु का अनुमान कार्यलिङ्ग से माना गया है। जो जो पौद्ग लिक कार्य दृष्टिगोचर होते हैं, वे सब मकारणफ हैं । इसी प्रकार से जो अदृश्य अंतिम कार्य होगा उसका भी कारण होना चाहिये-वही कारण परमाणु द्रव्य है । उसका कारण और कोई द्रव्य नहीं होने से उसे अन्त्य कारण कहा है । परमाणु द्रव्य का कोई विभाग नहीं हो सकता है और न है ऐसी मान्यता निश्चयनय की है । और ? जो इन अनेक परमाणुओं के एकीभावरूप संयोग से उत्पन्न होता है वह सांश होने से स्कंध ही कहा जाता है। किन्तु ? व्यवहारनय के मत में मुक्ष्म अनेक परमाणुओं से निष्पन्न हुभा है, वह शत्र से छिद नहीं सकता પ્રમાણે છે કે જે પુદ્ગલ દ્રવ્ય કારણ રૂપ છે અને કાર્ય રૂપ નથી, તે અન્ય દ્રવ્ય કહેવાય છે. એવું દ્રવ્ય સૂક્રમ પરમાણુ હોય છે. એક નિત્ય હોય છે અને આમાં કઈ પણ એક ગંધ, એક વર્ણ એક રસ, અને બે સ્પર્શ રહે છે એવા પરમાણુ દ્રવ્યનું જ્ઞાન ઇન્દ્રિયો વડે તે થઈ શકે જ નહી, ફક્ત આગમ અથવા તો અનુમાન વડે જ જ્ઞાન થાય છે. પરમાણુનું અનુમાન કર્યલિંગથી માનવામાં આવ્યું છે, જે જે પૌલિક કાર્ય જોવામાં આવે છે, તેઓ સર્વે સકારક છેઆ પ્રમાણે જે આદરથ અંતિમ કાર્ય થશે તેનું પણ કારણ હોવું જ જોઈએ તે કારણે જ પરમાણુ દ્રવ્ય છે. તેનું કારણે અન્ય કઈ પણ દ્રવ્ય નથી એટલે તે અન્ય કારણ કહેવાય છે પરમાણુ દ્રવ્યને વિભાગ થઈ શકો નથી વિભાગ થઈ શકશે નહિ અને વિભાગ થયેલ પણ નથી એવી નિશ્ચય નયની માન્યતા છે પણ જે આ અને પરમાણુઓના એકીભાવ રૂપ સંગથી ઉત્પન્ન થાય છે તે સાંશ હોવાથી સ્કંધ જ કહેવામાં આવે છે પણ વ્યવહાર નયના તમાં રમ અનેક પરમાણુઓથી નિ પન્ન થયેલ છે, તે શસ્ત્રથી કાપી શકાય તેમ નથી, અગ્નિ વગેરેથી બાળી શકાય તેમ નથી-નાશ કરી
अ० १८
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अनुयोगद्वारसूत्रे प्रश्नोत्तरपूरक.माह-से णं' इत्यादिना । स पर णुपुद्गलः खलु भदन्त ! असिधारां वा अवगाहेत आक्रामेत् ? उत्तरति-हन्त ! अवगाहेन । 'हन्त' इति कोमला. मन्त्रणे। पुनः पृच्छति-हे भदन्त ! स परमाणुपुद्गलः खलु तत्र-अनिधारायां शुरधाराणं वा-छियेत वा=छिन्नो भवेद् द्विधा क्रियतेति यावत् , भिद्ये अनेकया विदार्यत, मृच्यादिना वस्त्रादिवद् वा सच्छिद्रः क्रियेल ? उत्तरमाइ-नायमर्थः समर्थः-एवं न भवतीति भावः। अत्र युक्तिमाह-न खलु तत्र शस्त्र क्रामतीति ।
है, अग्नि आदि से जल नहीं सकता है, नष्ट नहीं किया जा सकता है ऐसा वह व्यवहारिक परमोणु जब तक स्थूलता को प्राप्त नहीं हो जाता है तब तक व्यहारनय के मन्तव्य अनुसार परमाणुरू से व्यवहित होता है । निश्चयनय के मतानुसार तो यह स्कंध ही माना गया है। इस प्रकार निश्चयनय के मतानुसार स्कंध भी व्यवहारनय की मान्यता के अनुसार व्यवहारिकपरमाणु कहा गया है । यह शस्त्रच्छेदादि का विषयभूत नहीं होता है, इस बात को दिखलाने के लिये अब सूत्रकार प्रश्नोत्तरपूर्वक कहते हैं-(से णं भंते ! असिधारं वा खुरधारं वा ओगाहेज्जा ? हंता ओगाहेना) हे भदन्त ! वह व्यवहारिक पुद्गलप्रमाण क्या तलवार की धार को या छुरे की धार को अवगाहित कर सकता है ? अर्थात् उस पर आक्रमण कर सकना है
उत्तर--हां कर सकता है । (से णं तत्य छिज्जेज्ज वा भिज्जेज्ज था ? णो इणढे समढे-नो खलु सत्य सत्थं कमइ ) तो क्या वह उससे શકાય તેમ નથી એ તે વ્યાવહારિક પરમાણુ જ સુધી સ્થૂલતા પ્રાપ્ત કરી શકતું નથી, ત્યાં સુધી વ્યવહારનયના મન્તવ્ય મુજબ પરમાણુ રૂપથી વ્યવહત થાય છે. નિશ્ચયનયના મત મુજબ તે આને સ્કંધ જ માનવામાં આવે છે. આ પ્રમાણે નિશ્ચયનયના મત મુજબ અંધ જ માનેલ છે. આ રીતે નિશ્ચયનયના મત પ્રમાણે સ્કંધ પણ વ્યવહારનયની માન્યતા મુજબ વ્યાવહારિક પરમાણુ કહેવામાં આવે છે આ શ દાદિને વિષયભૂત થતો નથી આ વાતને સ્પષ્ટ કરવા માટે હવે સૂત્રકાર પ્રશ્નોત્તરપૂર્વક કહે છે. (से णं भंते ! असिधारं वा खुरधारं वा ओगाहेज्जा १ हंता ओगाहेज्जा) महत ! તે વ્યાવહારિક મુદ્દલ શું તરવારની ધારને કે છુરાની ધારને અવગાહિત કરી શકે છે? એટલે કે તેની ઉપર આક્રમણ કરી શકે છે.
उत्तर-1, ४॥ श छ. (से णं तत्थ छिज्जेज वा भिज्जेज्ज वा ? नो इणट्रे समटू नो खलु तत्थ सत्थं कमइ) तो शुत तनाथी छिन्न यश
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अनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र १९४ उत्सेधाङ्गुलप्रमाणनिरूपणम् १३९ अयं भावः-अनन्तः परमाणु मिनि पन्नाः काष्ठादयः शस्त्रलियन्ते । अयं व्यावहा रिकः परमाणुपुद्गलोऽनन्तभेदभिन्नस्यानन्तरस्य तावत्यमाणेना परमानन्त केन निष्पद्यते, याव-प्रमाणः परमाणुपुद्गलः ममत्वात् शस्त्रच्छेदभेदादिकं न लभते छिन्न हो सकता है-दो टुकड़ों के रूप में किया जा सकता है ? अनेक प्रकार से विदारित हो सकता है-अथवा-सूची आदि से वस्त्रादिक की तरह सच्छिद्र किया जा सकता है ?
उत्तर-नहीं-ऐसा अर्थ यहां समर्थित नहीं है-अर्थात् ऐसा नहीं हो सकता है। क्योंकि उस पर शस्त्र का प्रभाव नहीं पड़ता है-शस्त्र उस पर अपना आक्रमण का काम नहीं कर सकता है । तात्पर्य इसका यह है कि अनंत परमाणुओं से निष्पन्न हुए जो काष्ठादिक हैं, वे तो शस्त्रों से छिन्न भिन्न कर दिये जाते हैं क्यों कि इसका परिणमन स्थूल रूप में हो जाता है परन्तु व्यावहारिक परमाणु है वह यद्यपि अनन्त पुद्गल परमाणुओं से निष्पन्न होता है फिर भी वह सूक्ष्मरूप से ही परिणमित बना रहता है अतः स्थूलाकार रूप में परिणत न होने के कारण उसका शस्त्रादि द्वारा छेदन भेदन नहीं हो सकता ! अनन्त परमाणुओं से निष्पन्न होने पर भी जो उसमें स्थूलाकारता नहीं आती उसका कारण यह है कि अनंत के भी अनन्त भेद होते हैं । इसीलिये अनन्त पुद्गल परमाणुओं से निष्पन्न होने पर भी वह व्यावहारिक परमाणु माना जाता છે. બે કકડાઓના રૂપમાં વિભાજિત થઈ શકે છે? ઘણા રૂપમાં વિદ્યારિત થઈ શકે છે અથવા સૂચી વગેરેથી વસ્ત્રાદિકની જેમ સચ્છિદ્ર કરી શકાય છે?
ઉત્તર-નહિ, અહીં આવે અર્થ સમર્થિત નથી એટલે કે આમ થઈ શકે નહી કેમકે તે વ્યાવહારિક પુદ્ગલ પર શસ્ત્રની કોઈ પણ જાતની અસર થઈ શકતી નથી શસ્ત્ર તેના ઉપર આક્રમણ કરી શકતું નથી તાત્પર્ય આ પ્રમાણે છે કે અનંત પરમાણુઓથી નિબત્ત થયેલ જે કાષ્ટ વગેરે છે તેઓ તે શસ્ત્રોથી છિન્ન-ભિન્ન થઈ શકે છે, કેમકે થુલ રૂપમાં તેમનું પરિણમન થઈ જાય છે પણ જે વ્યાવહારિક પરમાણુ છે તે જો કે અનંત પુલ પરમાણુઓથી નિપન્ન હોય છે છતએ તે સૂમરૂપથી જ પરિમિત થઈને રહે છે. એથી સ્થૂલાકાર રૂપમાં પરિણત ન હોવા બદલ તેનું શસ્ત્રાદિ વડે છેદન, ભેદન થઈ શકતું નથી અનંત પરમાણુઓથી નિષ્પન્ન થયેલ હોવા છતાંએ જે તેમાં સ્થૂવાકારતા આવતી નથી તેનું કારણ એ છે કે અનંતના પણ અનંત ભેદે હોય છે. એથી અના પુલ પરમાણુઓથી નિષ્પન્ન હોવા છતાં એ તે વ્યાવ
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अनुयोगद्वारसूत्रे
इति । पुनः पृच्छति स खलु मदना ! अग्निकापस्य = अग्नेः मध्यमध्येन=मध्यभागेन व्यतिव्रजेत्=च्छेत् ? उदयति-दत! व्यतिव्रजेत् । पुनः पृच्छति-स खलु भदन्त ! तत्र दह्येत ? उत्तरयति - नायमर्थः समर्थः । यतो न खलु तत्र शस्त्रं क्रामति । शस्त्रमिहाग्निशस्त्रं बोध्यम् । पुनः पृच्छति स खलु परमाणु भदन्त !
है और वह इसी कारण स्थूलता को प्राप्त नहीं होता है । सूक्ष्माकार वाला ही बना रहता है । तथा कितनेक ऐसे भी होते हैं जो अनन्त परमाणुओं से निष्पन्न होकर व्यावहारिक परमाणु नहीं कहलाते हैं- वे स्थूलाकार में परिणत हो जाते हैं । उनका ही शस्त्रादिकों द्वारा छेदन भेदन होता है। व्यावहारिक परमाणु का नहीं (से णं भंते! अगणिकायस मज्झं मज्झेणं वीइवएज्जा ? हंता विश्वज्जा से णं भंते ! तत्थ डहेज्जा ? नो इट्टे मठ्ठे नो खलु तन्ध सत्थं कमइ) हे भदन्त ! वह व्यावहारिक परमाणु क्या अग्नि के मध्य भाग से होकर निकल जाता है'
उत्तर - हां निकल जाता है । तो हे भदन्त ! जब वह अग्नि के मध्य भाग से होकर निकलता है तब वह उससे जल जाना है क्या ? उत्तर - ऐसा अर्थ समर्पित नहीं हुआ है अर्थात् वह अग्नि के मध्य भाग से निकलने पर भी उससे वह जलता नहीं है । क्योंकि उस पर अग्निरूप शस्त्र अपना काम नहीं कर सकता है। (से णं भंते! पुक्खर
હારિક પરમાણુ માનવામાં આવે છે અને તે એટલા માટે જ સ્થૂલતા પ્રાપ્ત કરતા નથી તે સૂક્ષ્મ આકાર યુકત જ બની રહે છે. તેમજ કેટલાક એવા પગુ હાય છે કે જેએ. અનંત પરમાણુએથી નિષ્પન્ન થઈ ને વ્યાવહારિક પરમાણુ કહેવામાં આવતા નથી તે સ્થૂલાકારમાં પરિણત થઇ જાય છે. તેમનું જ શસ્ત્ર વગેરેથી છંદન-ભેદન થાય છે. વ્યાવહારિક પરમાણુનું છેદનलेहन तु नही. (से णं भंते ! अगणिकायस्त मज्झं मज्झेणं वीरवज्जा १ हंता विश्वएज्जा, से णं भंते ! तत्थ डछेजा ? नो इट्टे समट्ठे तो खलु तत्थ सत्थं कमइ) डे लहांत! ते व्यावहारिङ परमाणु शु' अग्निना मध्यभागमां धर्धने પણ પસાર થઇ જાય છે ?
ઉત્તર-હા, પસાર થઈ જાય છે ! હે ભદત ! જ્યારે તે અગ્નિના મધ્યભાગમાં થઈને પસાર થઈ જાય છે ત્યારે તે તેમાં શુ મળી જાય છે ? ઉત્તર-આ અથ સમર્થિત નથી એટલે કે તે અગ્નિના મધ્યભાગમાં થઇને પસાર થાવ છે છતાંએ તે તેનાથી મળતે। નથી કેમકે અગ્નિ રૂપી शस्त्रनी तेनी उपर असर थती नथी ( से णं भंते! पुक्खरसंवट्टगस्स महामे -
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अनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र १९४ उत्सेधाङ्गुलप्रमाणनिरूपणम्
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पुष्करसंवर्त्तस्य महामेघस्य मध्यमध्ये व्यतिव्रजेत् ? हन्त । व्यतित्रजेत् । स खलु भदन्त ! तत्र-पुष्करसंवर्त्तके महामेवे उदकाद्रः जलक्किन्नः स्यात् ? आह-नायमर्यः समर्थः थेः । नो खलु तत्र शस्त्रम् अकार क्रामति । अत्रे बोध्यम् - अस्यां उत्सर्पिण्या एकविंशतिसहस्रवर्षात्मके दुःसमदुःसमालक्षणे प्रथमारकेऽतिक्रान्ते द्वितीयारकप्रारम्भे सकलजनाभ्युदयाय क्रमेण पञ्च मेवः प्रादुर्भवन्ति । तत्र प्रथमः पुष्करसंवर्तकः, द्वितीयः क्षीरोदः, तृतीयो वृतोदः, चतुर्थः अमृतोदः, पञ्चमो रमोदः । एषु प्रथमः पुष्करसंवर्त्तकः- भूमिगतं सर्वमशुभानुभावं रूक्षतातापादिकं
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संवगस्त महामेहस्स मज्झे मज्ज्ञेणं वीहवएज्जा ? हंता वीहवएज्जा, से णं तत्थ उदउल्लेसिया ? तो इगडे समट्ठे, जो खलु तत्थ सत्थं कम ) हे भदन्त ! वह व्यावहारिक पुद्गल परमाणु क्या पुष्कर संवतक नामक महामेघ के बीचोंबीच होकर निकल जाता है ? हां निकल जाता है । तो फिर वह वहां पानी से गीला हो जाता होगा ? नहीं वह पानी से गीला नहीं होता है। क्योंकि उस पर अकायरूप शस्त्र का प्रभाव नहीं पड़ता है । यहां पर ऐसा जानना चाहिए- - जब उत्सर्पिणी काल को २१ हजार वर्ष का दुःसम दुःसम नाम का पहिला आरक समाप्त हो जाता है तब द्वितीय आरक के लगते ही सकल जनों के अभ्युदय के निमित्त क्रम से पांच मेघ प्रकट होते हैं- इनमें प्रथम मेघ का नाम पुष्कर संवर्तक है, दूसरे का नाम क्षीरोद, तीसरे का नाम वृतोद, चौथे का नाम अमृतोद और पांचवें का नाम रसोद है । पुष्करसंवर्त्तक नाम का जो मेघ है वह भूमिगत समस्त रूक्षता आताप आदिरूप अशुभ
इस्स म मज्झेणं वीइवएज्जा ? हंता वीइएज्जा, से णं तत्थ सत्थं उदउल्लेसिया ? नो इट्ठे समट्टे, णो खलु तत्थ सत्यं कमइ) हे लत! ते व्यावडाરિક પુદ્ગલ પરમાણુ શું પુષ્કર સવત્તક નામક મહામધના મધ્યમાં થઈ ને પસાર થઈ જાય છે ? હા, તે પસાર થઈ જાય છે. તે પછી શું તે તેના પાણીમાં ભીના થઈ જતા હશે ? નહિ, તે પાણીમાં ભીના થતુ નથી કેમકે તેની ઉપર અષ્ટાયરૂપ શસ્ત્રની અસર થતી નથી અહીં આ જાણવું આવશ્યક છે કે જ્યારે ઉત્સર્પિણી કાલના ૨૧ હજાર વર્ષના દુઃસમ દુઃસમા નામના પહેલા આરક સમાપ્ત થઈ જાય છે ત્યારે બીજા આરકને પ્રારંભ થતાં જ બધા માણુસાના અભ્યુદય માટે અનુક્રમે પાંચ મેઘ પ્રકટ થાય છે આમાં પ્રથમ મેઘ પુષ્કર સવક છે, ખીને મેઘ ક્ષીરેઇ, ત્રીજે મેધ તેદ, ચેાથે મેદ્ય અમૃતાઢ અને પાંચમે મેઘ રસેદ છે. પુષ્કર સવત્તક નામે જે મેધ છે
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अनुयोगद्वारसूत्र प्रशमय्य पुष्कलम्-धान्याघभ्युदयं स्वकीयेनोदकेन संवर्तयति-म्पादयतीतिपुष्कलसंवर्तकः । यद्वा-पुष्कल-प्रवुरमपि सर्वमशुभानुभावं भूमिरूक्षता तापादिकं प्रशस्तोदकेन संवर्तयति-नाशयतीति-पुष्कल संवर्तकः। अत्र र-लयारेक्यम् । एवम्-क्षीरोदादिविषयेऽपि भावना कार्येति । पुनः पृच्छति-स खलु भदन्त ! गङ्गाया महानद्याः प्रतिस्रोतःस्रोतोऽभिमुख हव्यंशीघ्रम् आगच्छेन् । पूर्वाभिमुखे गङ्गाप्रवाहे पश्चिमाभिमुखः सन् स प्रवाहमध्येन गन्तुं शक्रुयात् ? इति भावः। प्रभाव को प्रशमित करके धान्यादि के अभ्युदय को अपने जल से सम्पादित करता है । इसलिए इसका नाम पुष्करसंवतक ऐसा सार्थक है। अथवा-पुष्कल-प्रचुर-भी समस्त भूमिगत रूक्षता संताप आदि अशु. भानुभाव को अपने प्रशस्त उदक से नष्ट कर देता है इसलिये भी वह पुष्करसंवर्तक कहलाता है। यहां "रलयोः डलयोरमित्" इस नियम के अनुसार "ल" के स्थान में "र" पठित हुआ है। इसी प्रकार का विचार क्षीरोद आदि के विषय में भी कर लेना चाहिए। (से णं भंते। गंगाए महानइए पडिसोयं हव्धमागच्छेज्जा) पुनः प्रश्न-हे भदन्त ! घह व्यावहारिक पुद्गल परमाणु क्या गंगा महानदी के प्रवाहाभिमुख होकर जल्दी आ सकता है ? अर्थात् गंगा नदी का पूर्वाभिमुख प्रवाह है सो क्या वह व्यावहारिक परमाणु पश्चिमाभिमुख होकर प्रवाह के बीच से जाने के लिये समर्थ हो सकता है ? તે ભૂમિગત સમસ્ત રૂક્ષતા આતાપ વગેરે રૂપ અશુભ પ્રભાવને શમિત કરીને ધાન્ય વગેરેના અવૃદયને પોતાના પાણીથી સંપાદિત કરે છે એથી આનું જે પુષ્કલ સંવત્તક એ પ્રમાણેનું નામકરણ કરવામાં આવ્યું છે તે સાર્થક જ છે અથવા પુષ્કલ–પ્રચુર-રૂપમાં જે સમસ્ત ભૂમિગત રૂક્ષતા, સંતાપ વગેરે અશુભાનુભાવને પિતાના પ્રશસ્ત ઉદંકથી નષ્ટ કરી નાખે છે, એથી પણ તે घुस सत्त: ४वाय छे. मी " रलयोः डल योरमित्" मा नियम भुस
લ” ના સ્થાને “ર” પતિ થયેલ છે. આ પ્રમાણે જ ક્ષીરદ વગેરેના स' मा ५५] area से नये. (से णं भंते ! गंगाए महानई र पडिसोय हव्यमागच्छेजा) ३री प्रश्न ४२वामा मावे महत! ते व्यापार પદ્રગલ પરમાણુ શું ગંગા મહાનદીના પ્રવાહાભિમુખ થઈને શીવ્ર ગતિ કરી શકે છે? એટલે કે ગંગાની પૂર્વાભિમુખ થઈને વહી રહી હોય તે શું તે વ્યાવહારિક પરમાણુ પશ્ચિમાભિમુખ થઈને પ્રવાહની મધ્યમાં થઈને પસાર થવા સમર્થ છે?
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अनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र १९४ उत्सेधाङ्गुलप्रमाणनिरूपणम्
१४३
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उत्तरयति - हन्त ! हव्यमागच्छेत् । पुनः पृच्छति स खलु भदन्त ! तत्र प्रतिस्रोसिविघातिस्खलनम् आपद्येत=प्राप्नुयात् ? आई- नायमर्थः समर्थः । न खलु तत्र शस्त्रं क्रामति । पुनः पृच्छति स खलु भदन्त । उदकाव वा उदकचिन्दु वा अवगाहेत = अवगाह्य तिष्ठेत् ? हन्त । अवगाहत । किं स तत्र कुध्येत् = पूतिभावमाप्नुयात् ? वा = अथवा पर्यापद्ये 1= जलरूपतया परिणमेत् ? आह - नायमर्थः समर्थः । न खलु तत्र शस्त्रं क्रामति । अनन्तरोक्तमेवार्थ संक्षेपतो गाथया माह
उत्तर- (हंता हव्य मागच्छेज्जा ) हां प्रवाह के बीच से शीघ्र जा सकता है । ( से णं तस्थ विणिद्यायमावज्जेज्जा ?) तो क्या वह उल्टेप्रतिकूल-प्रवाह में - अर्थात् प्रवाह में प्रतिकूल चलने पर प्रतिस्खलना को प्राप्त करता होगा ? ( णो इण्डे समट्ठे ) नहीं - यहां पर ऐसा अर्थ समर्पित नहीं हुआ है। क्योंकि उसके ऊपर प्रतिस्खलना - रुकावट - रूप शस्त्र अपना प्रभाव नहीं जमा सकता है । ( से णं भंते ! उद्गावन्तं वा उदग बिंदु वा ओगाहेज्जा ? हंता ओगाहेज्जा-से णं तस्थ कुच्छेज्जा वा ? परियावज्जेज्जा वा ? णो इण्डे समझें, णो खलु तत्थ सत्थं कम ) हे भदन्त | वह व्यावहारिक परमाणुपुद्गल क्या उदकावर्त्त - जलभ्रम में अथवा उदक बिन्दु में अवगाहित होकर ठहर सकता है ? हां ठहर सकता है। तो क्या वह वहां पूर्तिभाव = सडान, को प्राप्त हो जाता है अथवा जलरूप से परिणम जाता है । नहीं यह अर्थ समर्थित नहीं हुआ है - तात्पर्य यह है जलभ्रम में या उदक बिन्दु में व्यावहारिक
उत्तर- (हंता हव्वमागच्छेज्जा ) ह्रां प्रवाहनी मध्यमां थने ते प्रतिस प्रवाह तर शीघ्र गतिथी पसार थई शडे छे. ( से णं तत्थ विणिघायमावज्जेज्जा ? ) તે શુ. તે પ્રતિકૂલ પ્રવાહ તરફ ગતિ કરવાથી પ્રતિસ્ખલના પ્રાપ્ત કરતા હશે ? ( णो इणट्टे समट्टे) नहीं, यहीं भाव अर्थ घटित थतो नधी डेम तेनी उपर प्रतिस्सना ३५ शखनी असर थती नथी ( से णं मते ! उदगावत्तं वा safir वा ओगज्जा १ हंता ओगाहेज्जा-से णं तत्थ कुच्छेज्जा वा ? परियावज्जेन्जा वा ? णो इण े सभ णो खलु तत्थ सत्थं कम) हे महंत ! ते વ્યાવßારિક પરમાણુ પુલ શુ ઉદકાવત્ત-જલભ્રમમાં-અથવા તે ઉદ્ઘબિંદુમાં અવગહિત થઇને સ્થિર થઈ શકે છે ? હા, સ્થિર થઈ શકે છે. તે શું તે પૂર્તિસ્રાવ (સડા)ને પ્રાપ્ત કરે છે. અધવા જલરૂપમાં પરિમિત થઇ જાય છે ? નહીં, આ અં અહીં ઘટિત થતા નથી તાપ આ પ્રમાણે છે કે aa. ભ્રમમાં ફ્રે ઉદકબિ ંદુમાં વ્યાવહારિક પરમાણુની સ્થિરતા થઈ જાય છે છતાંએ
"
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अनुयोगद्वारसूत्रे सुतीक्ष्णेनापि शास्त्रेण य: न्-किल छेत्तुं भेत्तुं च न शक्यः। सिद्धाः-ज्ञानसिद्धाः केलिनः प्रमाणानामादि प्रमाणकटौ सर्वतोऽग्रेऽवस्थितं तं परमाणुं वदन्ति । यः किल निशितशनधारयाऽप छेदं भेदं वा नाप्नोति । स सर्वप्रमाणाप्रती सिद्धैः परमाणुरित्युच्यते इति भावः । अत्र सिद्धपदेन ज्ञानसिद्धाः केवलिनो गृह्यन्ते न तु सिद्धिं गताः। तेषां भाषण तत्वाभावात् ।।मु० १९४॥ परमाणु के ठहर जाने पर भी वह वहां न पूतिभाव को प्राप्त होता है
और न जलरूप से ही परिणमित होना है, क्यों कि इन शस्त्रों का उस पर यत्किञ्चित् भी प्रभाव नहीं पड़ सकता है । इनका प्रभाव तो स्थूलाकार रूप में परिणत हुए स्कंध पदार्थों पर ही पड़ता है। व्यावहारिक परमाणु पर नहीं-क्योंकि वह सूक्ष्माकाररूप से परिणत होता है। (सत्थेणं सुतिक्खेण वि छित्तुं भेनुं च जो किर न सको । तं परमाणु सिद्धा वयंति आई पमाणाणं) अब सूत्रकार इसी अनन्तरोक्त अर्थ को संक्षेप से इस गाथा द्वारा स्पष्ट करते हुए कह रहे हैं कि केवलज्ञानियों ने ऐसा कहा है कि परमाणु सुतीक्ष्ण भी शस्त्र से छेदा भेदा नहीं जा सकता है। तथा यह परमाणु प्रमाग कोटि में सब प्रमाणों का अग्रवर्ती हैअर्थात् त्रसरेणु आदि जोप्रमाण कहे गये हैं उनकी उत्पत्ति इसी से होती है। इस गाथा में सिद्धपद से सिद्धिगति को प्राप्त हुए सिद्ध परमेष्ठी गृहीत नहीं हुए हैं क्योंकि उस अवस्था में भाषण करने का संपन्ध उनमें बनता नहीं है । अतः सिद्ध पद से यहां केवलज्ञानी आस्मा ही गृहीत हुई है। તે ત્યાં સડી પણ જતો નથી અને તે જ રૂપમાં પણ પરિમિત થતા નથી કેમકે આ શસ્ત્રોની તેની ઉપર થોડી પણ અસર થતી નથી એની અસર તે યૂલાકાર રૂપમાં પરિણત થયેલ સ્કંધ પદાર્થો પર જ પડે છે. વ્યાવહારિક પરમાણુ પર તેની કોઈ પણ જાતની અસર થતી નથી કેમકે તે સૂફમાકાર ३मा परिण1 25 ५ छे. (सत्येणं सुतिखेण वि छित्तुं भेत्तुं च जो किर न सक्को, तं परमाणु सिद्धा वयंति आई पमाणाणं) एक सूत्र २ मा मनन्तરક્ત અને સંક્ષેપમાં આ ગાથા વડે સ્પષ્ટ કરતાં કહે છે કે-કેવલજ્ઞાનિઓએ કહ્યું છે કે પરમાણુનું સુતીક્ષણ શસ્ત્રો વડે છેદન કે ભેદન કરી શકતું નથી તેમજ આ પરમાણુ પ્રમાણ કે ટિમાં સર્વ પ્રમાણેની અગ્રવર્તે છે. એટલે કે ત્રસરેણુ વગેરે જે પ્રમાણે કહેવામાં આવ્યા છે તેમની ઉત્પત્તિ એનાથી જ થાય છે. આ ગાથામાં સિદ્ધ પદથી સિદ્ધિ ગતિને પ્રાપ્ત થયેલ સિદ્ધ પરમેષ્ઠી ગ્રહીત થયેલ નથી કેમકે તે અવસ્થામાં તેમની ભાષણ કરવાની વાત બંધ બેસતી નથી એટલે સિદ્ધ પદથી અહીં કેવલજ્ઞાની આત્મા જ ગૃહીત થયેલ છે.
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अनुयोगन्द्रिका टीका सूत्र १९५ उत्सेधाङ्गुलप्रमाणनिरूपणम् १४५
मूलम्-अणंताणं ववहारिय परमाणुपोग्गलाणं समुदयस. मिइसमागमेणं सा एगा उसण्हसण्हियाइ वा साहसपिहयाइ वा उड्डरेणूइ वा तसरेणूइ वा रहरेणूइ वा । अट्ठ उसण्ह सहियाओ सा एगा सहसण्हिया। अट्ट सहसण्हियाओ सा एगाउडरेणू, अट्ट उड्डरेणूओ सा एगा तसरेणू। अट्ट तसरेणूओ सा एगारहरेणू। अट्ट रहरेणूओ देवकुरु उत्तरकुरूणं मणुआणं से एगे वालगे। अट्ट देवकुरु उत्तरकुरूणं मणुयाणं वालग्गा हरिवासरम्मगवासाणं मणुयाणं से एगे वालग्गे। अट्ट हरिवासरम्मगवासाणं मणुस्साणं वालग्गा हेमवयहेरण्णवयाणं मणुस्साणं से एगे वालग्गे। अट्ट हेमवयहेरण्णवयाणं मणुस्साणं वालग्गा पुव्वविदेहअवरविदेहाणं मणुस्ताणं से एगे वालग्गे। अट्रपुव्वविदेह
भावार्थ-नारक तिर्यच, मनुष्य और देवगति के जीवों के शरीर की अवगाहना जिस अंगुल से मापी जाती है वह उत्सेधान्गुल है। इस उत्सेधाङ्गुल की निष्पत्ति अनंत सूक्ष्म पुद्गलों के समुदय समिति समागम से होती है। परमाणु त्रसरेणु आदि के भेद से यह अनेक प्रकार का होता है। सूक्ष्म और व्यावहारिक परमाणु के भेद से परमाणु पुद्गल दो प्रकार का है । इनका स्वरूप टीका में स्पष्ट कर दिया गया है । व्यावहारिक परमाणु का किसी भी प्रकार से किसी भी शस्त्र आदि द्वारा छेदन भेदन आदि नहीं होता है । सू० १९४॥
ભાવાર્થ–નારક, તિર્યંચ, મનુષ્ય અને દેવગતિને એના શરીરની અવગાહના જે અંગુલથી માપવામાં આવે છે, તે ઉત્સધાંગુલ છે આ ઉલ્લે ધાંગુલની નિષ્પત્તિ અનંત સૂક્ષ્મ પુલેને સમુદયસમિતિ સમાગમથી થાય છે. પરમાણુ, ત્રસરેણુ વગેરેને ભેદથી આ અનેક પ્રકારનો હોય છે. સૂમ તેમજ વ્યાવહારિક પરમાણુના ભેદથી પરમાણુ પુદ્ગલ બે પ્રકારનો હોય છે. આના સ્વરૂપ વિષે ટીકામાં સ્પષ્ટતા કરવામાં આવી છે, વ્યાવહારિક પરમાણુનું કઈ પણ જાતના શસ્ત્ર વગેરે વડે છેદન-ભેદન વગેરે થતું નથી. સૂ૦૧૯૪ા
अ० १९
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१४६
अनुयोगद्वारसूत्रे
अवरविदेहाणं मणुस्ताणं वालग्गा भरहएरवयाणं मणुस्साणं से एगे वालग्गे, अट्ट भर हेरवयाणं मणुस्ताणं वालग्गा सा एगा लिक्खा, अटु लिक्खाओ सा एगा जूया, अट्ठ ज्याओ से एगे जवझे, अट्ठ जवमज्झा से एगे अंगुले । एएणं अंगुलाणं पमाणेणं छ अंगुलाई पादो, वारस अंगुलाई विहत्थी, चउवीसं अंगुलाई रयणी, अडयालीसं अंगुलाई कुच्छी, छन्नवइअंगुलाई से एगे दडेइ वा धणूइ वा जुगेइ वा नालियाइ वा अक्खेइ वा, मुसलेइ वा । एएणं धणुप्पमाणेणं दो धणुसहस्साईं गाउयं, चत्तारि गाउयाइं जोयणं । एएणं उस्सेहंगुलेणं किं पओयणं?, एएणं उस्सेहंगुलेणं णेरइयतिरिक्खजोणियमणुस्स देवाणं सरीरोगाहणा माविजइ ॥ सू० १९५॥
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छाया - अनन्तानां व्यावहारिकपरमाणुपुद्गलानां समुदयसमितिसमागमेन सा एका उच्छ्रलक्षणलक्ष्मिका इति वा लक्ष्णलक्ष्णिका इति वा उर्ध्वरेणुः, इति वा त्रसरेणुः इति वा रथरेगुः इति वा । अष्ट उच्छू टलक्षिकाः सा एका श्लक्ष्णश्लक्ष्णिका, अश्लक्ष्णलक्षिकाः सा एका ऊर्ध्वरेणुः, अ ऊर्ध्वरेणवः सा एका त्रसरेणुः । अष्ट त्रसरेणवः सा एका रथरेणुः, अष्ट रथरेणवः देवकुरूत्तरकुरूणां मनुजानां स एको बालाग्रः, अष्ट देव कुरूत्तरकुरूणां मनुजानां वालाग्रा हरिवर्ष रम्यकवर्षाणां मनुजानां स एको वालाग्रः, अष्ट हरिवर्षरम्यकवर्षाणां मनुष्याणां वालाग्रा: हैमवत हैरण्यवतानां स एको मनुष्याणां वाल ग्रः, अष्ट हैरण्यमतानां मनुष्याणां वालाग्राः पूर्वविदेहापरविदेदाणां मनुष्याणां स एको वालाग्रः, अष्टपूर्वविदेहापर विदेहानां मनुष्याणां वालाग्रा भरतेस्वतानां मनुष्याणां स एको बालाग्रः, अष्ट भरतैश्वतानां मनुष्याणां वालाग्राः, सा एका लिक्षा, अष्ट लक्षाः सा एका यूका, अष्ट यूगः तदेकं यत्रमध्यम्, अष्ट यमध्यानि तदेकमङ्गुलं, एतेन अज्ञानां प्रमाणेन षडङ्गुलानि पादः, द्वादश अङ्गुलानि वितस्तिः चतुर्वितिरः अष्टचत्वारिंशद् अङ्गुलानि कुक्षिः, पतिः अङ्गुलानि स एको दण्ड इति वा धनुरिति वा युग इति वा नालिका इति वा अक्ष इति वा मुसलमिति वा । एतेन धनुःप्रमाणेन द्वे धनुः सहसे
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अनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र १९५ उत्सेधाङ्गुलप्रमाणनिरूपणम् १४७ गव्यूतं, चत्वारि मतानि योजनम् । एतेन उत्सेध शुलेन कि प्रयोजनम् ? एतेन उत्सेधाङ्गुलेन नैयिक तियग्योनिक मनुष्यदेवानां शरीरावगाइनामाप्यताम्.१९५।
टीका-अनन्तव्यावहारिकपरमाणुपुद्गलसंमिलनेन यत्सम्पद्यते तदाह'अगंताणं' इत्यादिना। अनन्तानां व्यावहारिकपरमाणुपुद्गलानां समुदयसमिति समागमेन यन्निष्पद्यते सा एका उच्छ्लक्ष्णश्लक्षिणका इति बोच्यते, उत-प्राबल्येन श्लक्ष्णश्लक्षिणका-उच्छ्रलक्षणलक्षिणका, श्लक्ष्णशक्षिणकाधुत्तरप्रमाणापेक्षया लघुतमेत्यर्थः । श्लक्ष्णश्लक्षिणका इति वाच्यते । एवम् ऊर्ध्वरेणुरित्यादिरथरेणुपर्यन्तेष्वपि बोध्यम् । सम्प्रति-उच्छूक्ष्णश्लक्षिणकादिकानेव विभागशो ब्रवीति-या अष्ट उच्छ. लक्ष्णश्लक्ष्णिकाः सा एका लक्ष्णश्लक्षिणका । तथा-या अष्टलक्षणश्लक्षिणकाः सा एका उर्वरेणुः। एवं पूर्वस्मात् पूर्वस्मादुत्तरोत्तरम् अष्टगुणितं बोद्धव्यं यावदङ्गुलम् ।
"अणंताणं ववहारिय इत्यादि।"
शब्दार्थ-(अगंताणं ववहारियपरमाणुगोग्गलाणं समुदयसमिइसमागमेणं सा एगा उसहसण्हियाइ वा सहसहियाइ वा उरेणूइवा तसरेणइ बा रह रेणूइवा ) अनंतानंन व्यावहारिक परमाणुओं के समुदय समिति के समागम से जो उहान होता है वह एक उत्श्लक्ष्ण श्लक्षिणका है। यह लक्षणश्लक्षिणका आदि जो उत्तरवर्ती प्रमाण है उन सबकी अपेक्षा लघुनम है । इससे उल्लक्षणलक्षिणका से-एक लक्षणलक्षिणका उत्पन्न होती है । इससे एक उर्वरेणु, इससे एक प्रसरेणु, ब्रसरेणु से एक स्थरेणु उत्पन्न होता है। ( अट्ठउसहसहि याओ सा एग सहमणिया अट्ठमण्डसण्हियाओ सा एगा उडुरेणू) आठ उच्छलक्षणलक्षिणकाओं से एक लक्ष्ण लक्ष्णिका उत्पन्न होती
"अणंताणं वहारिय" त्याह
श -(अणनाणं ववहा रयपरमाणुपोग्गलाणं समुदयसमिइसमागमेणं मा एगा उसण्इसण्यिा सण्डसण्हियाइ वा उड्डुरेणूइ वा तसरेणूइ वा रहरेणूड વા) અનંતાનંત વ્યાવહારિક પરમાણુઓના સમુદાય સમિતિના સમાગમથી જે ઉત્પન્ન થાય છે, તે એક ઉ ફ ફિકા છે. આ ક્લફરુક્ષણિકી વગેરે જે ઉત્તરવર્તી પ્રમાણ છે, તે સર્વની અપેક્ષા લઘુતમ છે. એનાથી એટલે કે ઉલણ લણિકાથી એક લક્ષણણિકા ઉત્પન્ન થાય છે. એનાથી એક ઉર્વરેણુ, એથી એક ત્રણ, ત્રસરેથી એક રથરેણુ ઉત્પન્ન થાય છે. (अटू उसण्ह सहिया ओ मा एगा सण्डसहिया अदु सहसण्हियाओ सा एगा उडरेणू) मा असक्ष्य २६क्षिामाथी थे २०६४ सदि। उत्पन्न ५
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१४८
अनुयोगद्वारसूत्रे है। आठ लक्षणलक्षिणकाओं से एक उर्ध्वरेणु उत्पन्न होता है । (अट्ट. उडरेणुओ सा एगा तसरेणु ) आठ उर्ध्वरेणुओं से एक त्रसरेणु होता है। ( अट्ठतसरेणुओ सा एगा रहरेणू, अट्ठ रहरेणु भो देवकुरुउत्तर कुरूण मणुआणं से एगे बालग्गे) आठ नमरेणुओं से एक रथरेणु होता है। आठ रथरेणुओं से देवकुरु और उत्तरकुरू के मनुष्यों का वह एक बालाग्र होता है। (अट्ठदेवकुरु-उत्तरकुरूणं मणुपाणं बालग्गा हरिवासरम्मगवासाणं मणुयाणं से एगे वालग्गे) देवकुरुउत्तरकुरु के मनुष्यों के आठ घालानों से हरिवर्ष और रम्यकवर्ष के मनुष्यों का वह एक बालाग्र होता है । (अट्ठ हरिवामरम्मगवासाणं मणुस्साणं वालग्गा) हरिवर्ष और रम्पकवर्ष के मनुष्यों के आठ बालागों से (हेमवय हेरण्ण बयाणं मणुस्साणं से एगे वालग्गे ) हैमवत और हैरणवत क्षेत्र के मनुमनुष्यों का एक बालाग्र होता है । (अट्ट हेमवयहेरणवयाणं मणुस्साणं बालग्गापुव्वविदेह अवरविदेहाणं मणुस्साणं से एगे वालग्गे) हैमवत
और हैरण्यवत के मनुष्यों के आठ बालानों का पूर्व विदेह और अपर विदेह के मनुष्यों का एक बालाग्र होता है। (अह पुत्वधिदेहअवरविदेहाणं मगुस्साणं वालग्गा भरह एरवयाणं मणुस्साणं से एगे वालग्गे) छ. मा २१६१२३क्षिामाथी से
न थाय छे. (अटू उट्टरेणुओ सा एगा तसरेणु) मा रेमोथी ये 4 थाय छे. (अट्ठ तम्ररेणूओ सा एगा रइरेणू. अटुरह रेणूओ देवकुरु उत्तरकुरूणं मणुआणं से एगे बालग्गे) मा सरेशुमाथी से २थ। थाय छे. माठ २थमाथी तुव२ भने उत्तन मासेनु से माता थाय छे. (अटू देवकुरु उत्तरकुरूणं मणुयाणं बालगगा हरिवासरम्मगवासाणं मणु पाणं से एगे वालग्गे) १४२ ઉત્તરકુરુના માણસેના આઠ વાલાોથી હરિવર્ષ અને રમ્યક વર્ષના માણસનું
पाय छ (अट्ट हरिवासरम्मगवाम्राणं मणुस्साणं वारगा) ६२१५ भने २भ्यवर्ष ना भएसोना 3 पोयी (हेमायहेरण्णवयाणं मणुस्साणं से एगे वालग्गे) डेभयत अने २९यक्त क्षेत्रना भासान मे थाय छे. (अढ हेमवयहेरण्णवयाणं मणुस्साणं बालग्गा पुत्रविदेह अवरविदेहाणं से एगे वालग्गे) भरत भने १२९य१तना भासेना मा पासोथी पूपावि भने ५५२विना माणसानु मे पास थाय छे. (अट्ठ पुव्वविदेहअवरविदेहाणं मणुस्साणं वालग्गा भरहएरवयाणं मणुस्साणं से एगे वालगे) वा अपविना भासोना मा3 पासानु १२त भने
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अनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र १९५ उत्सेधाङ्गुलप्रमाणनिरूपणम् पूर्वविदेह अपरविदेह के मनुष्यों के आठ यालागों का भरत और ऐरवन क्षेत्र के मनुष्यों का एक बालाग्र होता है। (अट्ठभरहेरवयाणं मणुत्मागं वालग्गा सा एगा लिक्खा) भरत और और ऐरक्त क्षेत्र के मनुष्यों के आठ बालारों की एक लिक्षा होती है । ( अलिक्खाओ सा एगो जूपा) आठ लिक्षाओं की एक यूका होती है। ( अट्ट जूयाओ से एगे जवमझे) आठ यूकाओं का एक यवमध्य होता है । (अट्ठजवमझा से एगे अंगुले) आठ यवमध्यों का एक अंगुल होता है । इस प्रकार
आठ उच्छ्रलश्ण लक्षिणका की एक श्लक्ष्ण लक्षिणका आठ लक्षण. श्लक्षिणका का एक उर्ध्वरेणु, आठ उर्ध्वरेणु का एक त्रसरेणु इस प्रकार से ये सय पूर्व पूर्व की अपेक्षा उत्तरोत्तर अंगुल पर्यन्त आठ २ गुणित होते हैं । ( एएणं अंगुलाणं पमाणं छ अंगुलाई पादो) अंगुलों के इस प्रमाण से छह अंगुलों का एक पाद होता है । (बारस अंगुलाई विहस्थी) १२ अंगुलों की एक वितस्ति होती है । ( चाउथीसं अंगुलाई रयणी) २४ अंगुलों की एक रत्नि होती है। (अडयालीसअंगुलाई कुच्छी) ४८ अंगुलों की एक कुक्षि होती है । (छन्नवह अंगुलाई से एगे दंडेहवा) ९६ वें अंगुलों का एक दण्ड होता है । (धणूडवा जुगेहवो नालियाइ वा अक्खेइ वा मुसलेहवा) एक धनुष होता है, एक युग, एक नालिका एक
रवत अत्रना भासोनु से मात थाय छे. (अटु भरहेरवयाणं मणुस्साणं वालग्गा सा एगा लिक्खा) १२त सने औ२१त क्षेत्रना मा सोना 18 mat. योनी से सिक्षा थाय छे. (अटू लिक्खाओ सा एका जूया) 418 सिक्षायानी 23 यू। (Y) थाय छ (अटू जू शओ से एगे जवभज्जे) 13 साथी मे य१मध्य थाय छे, (अट्ठ जवमझा से एगे अंगुले) 418 यमध्यनो मे અંગુલ થાય છે. આ પ્રમાણે આઠ ઉલક્ષણશ્લફિણકાની એક સ્લણ
લક્ષિણક, આઠ ક્ષણિકાની એક ઉર્વરેણુ, આઠ ઉર્ધ્વરેણની એક ત્રસરેણુ આ પ્રમાણે આ સર્વે પૂર્વ પૂરની અપેક્ષા ઉત્તરોત્તર અંગુવ સુધી આઠ मा शुक्षित थाय छे. (एएणं अंगुलणं पमाणेणं , अंगुलाई पादो) भसीना या प्रमाथी ६ मोना से पा४ थाय छे. (बारस लाई विहत्थी) मार गुनी से वितरित ५.५ छ. (चउबीसं अंगुलाई रयणी) २४ अबेनी से २लि थाय थे. (अडयालीसं अंगुलाई कुच्छी) ४८ असानी से युक्षि थाय छे. (छन्नवइ अंगुलाई से एगे दंडेइवा) ८६ मोना मे थाय छे. (धणूइवा जुगेइवा नालियाइ वा अक्खेइ वा मुसलेइ वा) मे ધનુષ થાય છે, એક યુગ, એક નલિકા, એક અક્ષ અથવા એક મુસલ થાય
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१५०
अनुयोगद्वारसूत्रे तथा- एतेन अङ्गुलप्रमाणेन षडालानि एकः पादः' इत्यादि, 'चत्वारि गव्यूतानि योजनम् ' इत्यन्तं मुलभम् । एतस्य उत्सेधागुलण्य किं प्रयोजनम् ? इत्याह-एतेन उत्सेवाशुलेन नैरयिकतिर्यग्योनिकमनुष्याणां शरीरावगाहनामाप्यते इति । अत्रेदं बोध्यम् ननु उच्छलक्ष्णाश्लक्षिणकादिषु पूर्वस्मात् पूर्वस्मात् उत्तरोत्तरमष्टगुणितमुक्तम् , तथा व अनन्तव्यावहारिकपरमाणुपुद्गलैकीभवनेना. प्येते निष्पधन्ते इत्यप्युक्तम् इति विरोधो जायते ? इति-चेदाह-एते हि अनन्त परमाणुनिष्पनत्वं न व्यभि वरन्तीति प्रथमं निर्विशेषेणोक्ताः, पश्चात्तु विशिष्य प्रोक्ताः, इति न कोऽपि दोषः । तथा च-स्वतः परतो वा अधिस्तियश्चलनधर्मा रेणुः-ऊर्ध्वरेणुः । त्रस्यति-पौरस्त्यादिवायुप्रेरितो गच्छति यो रेणुः सत्र सरेणुः । स्थगमनोरखातो रेणुः-रथरेणुः । वालाग्रलिक्षादयः प्रतीताः देवकुरूत्तर कुर्वादिवासिमनुष्याणां केशस्थूलताक्रमेण तत्तत् क्षेत्रशुभानुभावहानिर्भावनीया। उच्छ्लक्ष्ण श्लक्षिणकालक्ष्गश्लक्ष्णिका ऊर्ध्वरेणुरिति पत्रयं 'परमाणु तसरेणु' इत्यादि गाथायामनुक्तमप्युपलक्षितव्यमिति ।।मू० १९५॥ अक्ष, अथवा एक मुसल होता है । (एएणं धणुप्पमाणेणं दो धणुसहस्साई गाउयं, चत्तारिगाउयाइं जोयणं) इस धनुषप्रमाण से दो हजार धनुष का एक गव्यूत-क्रोश-होता है। चार गब्यूनों का १ योजन होता है। (एएणं उस्सेहंगुलेणं किं पायणं)
शंका-इस उत्सेधागुल से किस प्रयोजन की सिद्धि होती है ?
उत्तर-(एएणं उस्सेहंगुलेणं णेरइयतिरिक्खजोणियमणुस्सदेवाणं सरीरोगाहणा माविज्जइ ) इस उत्सेधांगुल से नारक, तिर्थश्च, मनुष्य और देव इनके शरीर की अवगाहना मापी जाती है ।
भावार्थ-इस सूत्र द्वारा सूत्रकार ने उत्सेधांगुल की निष्पत्ति कैसे होती है ? यह बात प्रकट की है तथा इसका प्रयोजन क्या है ?छ (पएणं धणुपमाणेणं दो धणुसहस्साई गाउयं चत्तारि गाउयाई जोयण) मा ધનુષ પ્રમાણથી બે હજાર ધનુષને એક ગભૂત (કે સ) થાય છે. ચાર सन्यता या सन) मे 21 थाय छे. (पणं उसे हंगुलेणं किं पओयण)
શંકા-આ ઉત્સધાંગુલથી કયા પ્રજનની સિદ્ધિ થાય છે?
उत्तर-(एणं उस्सेहंगुलेणं णेरइयतिरिक्खजोणियमणुस्सदेवाणं सरीरो. गाहणा माविज्जइ) मा संघiyaथी ना२४, तिय"य, मनुष्य भने ३१ मे मना શરીરની અવગાહના માપવામાં આવે છે.
ભાવાર્થ-આ સૂત્ર વડે સૂત્રકારે ઉત્સુઘાંગુલની નિષ્પત્તિ કેવી રીતે થાય છે? આ વાત સ્પષ્ટ કરી છે, તેમજ તેનું પ્રયોજન શું છે? તે વિષે ચર્ચા
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अनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र १९५ उत्सेधाङ्गुलप्रमाण निरूपणम् १५१ यह बात कही गई है। यहां पर ऐमी आशंका नहीं करनी चाहिए कि सूत्रकार ने पहिले तो ऐसा कहा है कि-उच्छलक्षणश्लक्षिणका आदिकों में पूर्व पूर्व की अपेक्षा आगे आगे के लक्षण लक्षिणणका आदिकों में अठगुनारना है। फिर बाद में ऐसा कहा है कि ये अनंत व्यावहारिक परमाणुओं के एकीभवनरूप-संयोग से भी निष्पन्न होते हैं-अतः इन दोनों प्रकार के कथनों में परस्पर में विरोध आता है-क्योंकि पूर्वकथनानुसार से उत्तरोत्तर में पहिले पहिले की अपेक्षा अष्टगुणता और द्वितीय कथन प्रकार से अनंत परमाणु निष्पन्नलारूप समानता जाहिर होती है । क्योंकि इन सबमें अनंत परमाणुओं से निष्पन्न होनापना जो समान धर्म है, वह व्यभिचरित नहीं होता है । इस प्रकार प्रथम कथन प्रकार सामान्य रूप से है । और द्वितीय प्रकार विशेष रूप से है ऐसा जानना चाहिये तात्पर्य कहने का यह है कि इन सबमें "अनंत परमाणुओं से उत्पन्न होना" यह समान धर्म है-परन्तु यह समान धर्म सबमें होने पर भी पूर्व पूर्व की अपेक्षा उत्तरोत्तर में अष्ट गुणाधिकता रूप वैशिष्टय है। अपने आप या पर के निमित्त से जो ऊर्च, अधः एवं तिर्यक् प्रचलन धर्मवाली रेणु है यह ऊर्ध्वरेणु है। रेणु नाम धूलीका है। यह स्वतः કરવામાં આવી છે. અહીં આ જાતની આશંકા થવી જ ન જોઈએ કે સૂત્ર કારે પહેલાં તે એમ કહ્યું છે કે ઉછૂલ સ્લસિકા વગેરે જે છે તે પૂર્વ પૂર્વની અપેક્ષાએ ત્યાર પછીના-લફણલહિણકા વગેરે કરતાં આઠ ગણા વધારે છે. ત્યાર પછી આ પ્રમાણે કહ્યું છે કે આ અનંત વ્યાવહારિક પર માણુઓના એકીભવન રૂપ સ વેગથી પણ નિષ્પન્ન થાય છે. એથી આ બને જાતના કથનમાં પરસ્પર વિરોધ જેવું દેખાય છે કેમકે પૂર્વકથન પ્રકારથી ઉત્તરોત્તરમાં પૂર્વ પૂર્વની અપેક્ષાએ અષ્ટગુણતા અને દ્વિતીય કથન પ્રકારથી અનંત પરમાણુ નિષ્પન્નતા રૂપ સમાનતા સ્પષ્ટ થાય છે. કેમકે આ સર્વેમાં અનંત પરમાણુઓથી નિષ્પન્નતા રૂપ જે સમાનધર્મ છે, તે વ્યભિચરિત થત નથી આ પ્રમાણે પ્રથમ કથન પ્રકાર સામાન્ય રૂપથી જ છે. અને દ્વિતીય પ્રકાર વિશેષ રૂપથી છે, એમ જા વું જોઈએ તાત્પર્ય આ પ્રમાણે છે કે, આ સર્વમાં “અનંત પરમાણુઓથી ઉપન્ન થવું ? આ સમાન ધર્મ છે. પણ આ સમાન ધર્મ સર્વમાં છે છતાંએ પૂર્વ પૂર્વની અપેક્ષા એ ત્યાર પછીના સર્વમાં અણગુણધિકતા રૂપ વિશિષ્ટ છે. પાતાની મેળે જ અથવા બીજાથી પ્રેરિત થઈને જે ઉર્વ, અધઃ અને તિય પ્રચલન ધર્મ યુક્ત રણ છે, તે ઉર્વશુ છે. રેણુ ધૂલિનું નામ છે આ પિતાની મેળે અથવા તે પવન વગેરેથી પ્રેરિત
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अनुयोगद्वारसूत्रे या पर-हवा-आदि का संबन्ध पाकर ऊपर की ओर भी उड़ती है. नीचे की ओर भी ड़ती है, तथा तिरछे रूप में भी उड़ती है। इसी का नाम ऊर्ध्वरेणु है। घर के भीतर छित में होकर पड़ती हुई दण्डाकार मूर्य के प्रकाश में इस प्रकार से यह स्पष्ट प्रतीत होती है । हवा आदि के निमित्त से जो धूलिकण इधर उधर उड़ा करते हैं वे सरेणु कहलाते हैं । रथ के चलने पर जो धूलो चक्र के जोर से उखड़कर पीछे पीछे उड़नी है वह रथरेणु है। बालान, लिक्षा आदि शब्दों का वाच्यार्थ प्रसिद्ध है। देवकुरु, उत्तर कुरु, हरिवर्ष, रम्यक आदि क्षेत्र में निवास करने वाले मनुष्यों के केशों की स्थूलता के क्रम से उम उस क्षेत्र संबन्धी शुभ अनुभाव की हीनता जाननी चाहिये । तात्पर्य कहने का यह है कि कालचक्र का परिवर्तन भरतक्षेत्र और ऐरवत क्षेत्र में ही होता है। शेष क्षेत्रों में नहीं। शेष पांच क्षेत्रों में निवास करने वाले प्राणियों के उपभोग आयु शरीर का परिमाण, पुण्यप्रभाव आदि मध अपने २ क्षेत्र के अनुसार सदा एक से रहते हैं किन्तु जैसा भरत और ऐरवत क्षेत्र में इनका परिवर्तन होता रहता है वैसा परिवर्तन इनका वहां नहीं होता। इसे इस प्रकार समझना चाहिये-हैमवत क्षेत्र के प्राणियों की स्थिति एक पल्य प्रमाण होती है। यहां निरन्तर उत्सर्पिणी के चौथे काल या अवसर्पिणी થઈને ઉપરની તરફ પણ ઉડે છે, નીચેની તરફ પણ ઉડે છે. તેમજ ત્રાંસી પણ ઉડે છે એનું જ નામ ઉર્વરેણુ છે. ઘરની અંદર કાણામાંથી દંડાકાર સૂર્યના પ્રકાશમાં તે સ્પષ્ટ રૂપે દેખાય છે પવન વગેરેથી પ્રેરિત થઈને જે ધૂલિકણ આમતેમ ઉડતા રહે છે, તે ત્રસરે શું કહેવાગ છે રથ ચાલવાથી જે ધૂલિ ચકને લીધે ઉખડીને રથની પાછળ પાછળ ઉડે છે, તે રથયું છે બાલાર, શિક્ષા આદિ શબ્દના વાગ્યાથે પ્રસિદ્ધ જ છે. દેવકુર, ઉત્તરકુર, હરિવર્ષ, ૨મ્યક વગેરે ક્ષેત્રમાં રહેતા માણસોના વળોની સ્કૂલતાના કમથી તત્ તત્ ક્ષેત્ર સંબંધી શુભ અનુભાવની હીનતા જાણુવી જોઈએ તાત્પર્યા આ પ્રમાણે છે કે કાલચક્રનું પરિવર્તન ભરત ક્ષેત્ર અને એિરવત ક્ષેત્રમાં જ થાય છે. બાકીના ક્ષેત્રમાં નહિ બાકીના પાંચ ક્ષેત્રમાં રહેતા પ્રાણીઓના ઉપભોગ, આયુ શરીરનું પરિમાણ, પુણ્ય, પ્રભાવ વગેરે સર્વ પિત પિતાના ક્ષેત્ર મુજબ સદા એક સરખા જ રહે છે. પણ જેવું ભારત અને અરવત ક્ષેત્રમાં એમનામાં પરિવર્તન થતું રહે છે, તેવું પરિવર્તન તેમનામાં ત્યાં થતું નથી અને આ પ્રમાણે સમજવું જોઈએ હૈમવત ક્ષેત્રના પ્રાણીઓની સ્થિતિ એક પલ્ય પ્રમાણ જેટલી હોય છે અહીં નિરંતર ઉત્સપિના ચેથા કાલ
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अनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र १९५ उत्सेधाङ्गुलप्रमाणनिरूपणम्
१५३
के तीसरे काल जैसा अनुभाव प्रवर्तता है। मनुष्यों के शरीर की ऊचाई दो हजार व होती है। हरिवर्ष क्षेत्र के प्राणियों की अपेक्षा यहां के प्राणियों का पुण्य प्रभाव कम हीन होता है। हरिवर्ष क्षेत्र के प्राणियों की स्थिति दो पल्य प्रमाण होती है। यहां निरन्तर उत्सर्पिणी के पांचवें या अर्पण के दूसरे काल जैसा अनुभव प्रवर्तता है। मनुष्यों के शरीर की ऊँचाई चार हजार धनुष होती है । इनका पुण्यवभाव आदि हैमवत क्षेत्र के मनुष्यों की अपेक्षा विशिष्ट होता है परन्तु देवकुरु के मनुष्यों की अपेक्षा वह हीन होता है। देवकुरु के मनुष्यों की स्थिति तीन पल्पप्रमाण होती है । यहाँ निरन्तर उत्सर्पिणी के छठे काल या अवसर्पिणी के पहले काल जैसा अनुभाव मर्तता है। मनुष्यों के शरीर की ऊँचाई छह हजार धनुष होती है । इनका पुण्य प्रभाव उपर्युक्त दोनों क्षेत्रों की अपेक्षा विशिष्टतम होता है । यही क्रम उत्तर दिशा के उत्तर कुरु, रम्यक और हैरण्यवत् इन तीनों क्षेत्रों में समझना चाहिये । उत्तर कुरु में देवकुरु के समान, रम्पक में हरिवर्ष के समान और हैरण्यवत में हैमवत के समान पुण्यप्रभाव आदि हैं । किन्तु विदेहों की स्थिति इन भोगभूमि के क्षेत्रों की अपेक्षा बिल्कुल जुदी है। यहाँ
તે
કે અવસર્પિણીના ત્રીજા કાલ જેવા અનુભવ પ્રત્રતે છે. માસાના શરીરની ઊ'ચાઇ એ હાર ધનુષ જેટલી હાય છે હરિવષ ક્ષેત્રના પ્રાણીઓની અપેક્ષા अहींना अमानो पुष्यप्रभाव मध्य (डीन) हेय हो, हरिवर्ष क्षेत्रना પ્રાણીઓની સ્થિતિ મેં પથ્ય પ્રમાણુ જેટલી ડાય છે અહી નિર'તર ઉત્સર્પિણીના પાંચમાં અથવા અવસર્પિણીના ખીજા કાલ જેવા અનુભવ પ્રવર્તે છે. માણસેના શરી ની ઊંચાઈ ચાર હાર ધનુષ જેટલી હાય છે એમને પુણ્યપ્રભાવ વગે૨ે હૈમવત ક્ષેત્રના મનુષ્યની અપેક્ષાએ વિશિષ્ટ હાય છે. પણ દેવકુરૂના મનુાની અપેક્ષએ કુરૂના મનુષ્ચાની સ્થિતિ ત્રણ પલ્ય પ્રમાણુ હાય છે પિણીના છઠ્ઠા કાલ કે અવસર્પિણીના પહેલા કાલ જેવા માણસના શરીરની ઊંચાઈ છ હુંજાર ધનુષ જેટલી હેય છે એમના પુણ્યપ્રભાવ ઉપયુક્ત બન્ને ક્ષેત્રાની અપેક્ષા વિશિષ્ટતમ હોય છે. એજ ક્રમિકતા ઉત્તર દિશાના ઉત્તરકુરૂ, રમ્ય અને હૈરણ્યવત આ ત્રણે ક્ષેત્રમાં સમજવી જોઈએ. ઉત્તરકુરૂમાં દેત્રકુની જેમ, રમ્યકમાં હરિની જેમ અને હરણ્યવતમાં હૈમવતની જેમ પુણ્યપ્રભાવ વગેરે છે. પરંતુ વિદેહાની સ્થિતિ આ ભુગભૂમિના ક્ષેત્રેની અપેક્ષા સાવ જુદી છે. અહી ઉત્સર્પિણીના ત્રીજા કાલ કે અવસીના ચાથા કાલ જેવો અનુભાવ સદા વિદ્યમાન રહે છે.
હીન હાય છે દેવ અહી નિર'તર ઉત્સ અનુભાવ પ્રવર્તે છે.
अ० २०
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अनुयोगद्वारसूत्रे ___ मूलम् -णेरइयाण भंते ! के महालिया सरीरोगाहणा पण्णता? गोयमा ! दुविहा पण्णता, तं जहा-भवधारणिज्जा य उत्तर येउ ब्विया य । तत्थ णं जा सा भवधारणिज्जा साणं जहणणेणं अंगुलस्स असंखेजहभागं, उक्कोसेणं पंच धणुसयाई। तत्थ णं जा सा उत्तरवेउध्विया सा जहण्णेणं अंगुलस्स संखेज्जइभागं उक्कोसेणं धणुसहस्स। रयणप्पहाए पुढवीए नेरइयाणं भंते ! के महालिया सरीरोगाहणा पण्णत्ता ? गोयमा! दुविहा पण्णत्ता, तं जहा-भवधारणिज्जा य उत्तरवेउब्धिया य, तत्थ णं जा सा भवधारणिज्जा साजहन्नेणं अंगुलस्स असंखिज्जइभाग उक्कोसेणं सत्त धणूई तिण्णि रयणीओ छच्च अंगुलाई, तत्थ णं जा उत्तरवेउठिवया सा जहपणेणं अंगुलस्त संखेज्जइभागं उकासेज उत्सर्पिणी के तीसरे काल या अवसणी के चौथे काल जैसा अनु. भाव सदा विद्यमान रहता है। यहां १ कोटि पूर्व की स्थिति होती है। यहां का पुण्यप्रभाव पूर्वोक्त भोगभूमि के क्षेत्रों की अपेक्षा कम होता है। और इसकी अपेक्षा भरत और ऐरवत क्षेत्र के मनुष्यों का कम होता है। " परमाणू तसरेणू" इत्यादि गाथा में गधषि उच्छलक्षण श्लक्षिणका, क्षणलक्षिणका और ऊर्ध्वरेणु ये तीन पद नहीं कहे गए हैं-तौभी ये यहां उपलक्षण से गृहीत किये गये हैं, ऐसा जानना चाहिये ।। मृ० १९५ ॥ અહીં એક કટિ પૂર્વની સ્થિતિ હોય છે અહી ને પુણ્ય પ્રભાવ પૂર્વોક્ત ભોગભૂમિના ક્ષેત્રની અપેક્ષા કામ હોય છે અને આની અપેક્ષાએ ભરત અને १२वत क्षेत्रना मनुष्यांना मुख्य प्रभाव ५६५ :य छे. “परमाणू तसरेणू" વગેરે ગ થામાં જે કે ઉલક્ષણક્ષણિકા, ક્ષણિકા અને ઉર્વશુ આ ત્રણ પદ કહેવામાં આવ્યાં નથી છતાં એ અહી ઉપલક્ષણથી ગૃહીત थयेछ, मेभ यु मे ॥ सू० १८५।।
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अनुयोगचन्द्रिका ढोका सूत्र १९६ नैरयिकाणां शरीरावगाहनानि. पण्णरसघणू दोन्निरयणीओ वारसअंगुलाई । सक्करप्पहा पुढ वीए रइयाणं भंते! के महालिया सरीरोगाहणा पण्णत्ता ?, गोयमा ! दुविहा पण्णत्ता, तं जहा भवधारणिज्जा य उत्तरविउच्त्रिया य । तत्थ णं जा सा भवधारणिज्जा सा जहणेणं अंगुलस्स असंखेजइभागं उक्कोसेणं पण्णरस धणू दुण्णि रयणीओ वारस अंगुलाई, तत्थ णं जा उत्तरवेउब्विया सा जहण्णेणं अंगुलस्त संखेज्जइभागं उक्को सेर्ण एकतीसं धणूई एक्करयगी य । वालुयप्पहापुढवीए रइयाणं भंते! के महालिया सरीरोगाहणा पण्णत्ता, गोयमा ! दुविहा पण्णत्ता, तं जहा भवधारणिज्जा य उत्तरवेउनिया य तत्थ णं जा सा भवधारणिज्जा सा जपणेणं अंगुलस्त असंखेज्जइभागं उक्कोसेणं एकतीसं धणूइं इक्करयणी य, तत्थ णं जा सा उत्तरवेडविया सा जगेणं अंगुलस्त संखेज्जइभागं उक्कोसेणं वासट्टि घणू दो रयणीओ य । एवं सव्वासिं पुढवीणं पुच्छा भाणियन्त्रा । पंकपहाए पुढवीए भवधारणिज्जा जहणेणं अंगुरस असंखेजइभागं उक्कोसेणं वासट्ठि धणूइं दो रयणीओ य, उत्तरवेउच्त्रिया जहणेणं अंगुलस्त संखेज्जइभागं उक्कोसेणं पणवीसं धणुलाई । धूमप्पहए भत्रधारणिज्जा जहणणं अंगुलस्स असंखेज्जइभागं उक्कोसेणं पणवीसं धणुसयाई, उत्तरवेउत्रिया अंगुला संखेज्जइभागं उक्कोसेणं अड्डाइज्जाई धणुसयाई । तमाए भवधारणिज्जा जहन्नेणं अंगुलस्स असंखेज्ज -
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१५६
अनुयोगद्वारसूत्रे
इभागं उक्का सेणं अड्डाइजाइं धणुसयाई, उत्तरवेउब्विया जहणेणं अंगुलस्त संखेज्जइभागं उक्कोसेणं पंत्र धणुमयाई । तमतमाए पुढवए नेरइयाणं भंते ! के महालिया सरीरोगाहणा पण्णत्ता ?, गोयमा ! दुविहा पण्णत्ता, तं जहा - भवधारणिज्जा य उत्तरवे उब्विया । तत्थ णं जा सा भवणधारणिज्जा सा जहण्णेणं अंगुलरूस असंखेज्जइभागं उक्कोसेणं पंच धणुलयाई, तत्थ णं जा उत्तरवेउब्विया सा जहण्णेणं अंगुलस्त संखेज्जइभागं उक्कोसेणं धणुसहस् । असुरकुमाराणं भंते! के महालिया सरीरोगाहणा पण्णत्ता ? गोयमा ! दुविहा पण्णत्ता, तं जहा-भवधारणिउजा य उत्तरवेउच्त्रिया य, तत्थ णं जा सा भवधारणिज्जा सा जहण्णेणं अंगलस्त असंखेज्जइभागं उक्कोसेणं सत्त रयणीओ, जा उत्तरवेउनिया सा जहणणं अंगुलस्स संखेज्जइभागं उक्कोसेणं जोयणसय सहस्साइं । एवं असुरकुमारगमेणं जात्र थणियकुमाराणं भाणियव्वं ॥ सू०१९६ ॥
छाया - नैरयिकाणां भदन्त । कियन्महती शरीरावगाहना प्रज्ञप्ता ? गौतम ! द्विविधा प्रज्ञता, तद्यथा - भवधारणीयश च उत्तरवैक्रिया च । तत्र खलु या सा मत्रधारणीया सा खलु जघन्येन अङ्गुलस्य असंख्येयभाग, उत्कर्षेण पञ्च धनुःशतानि, तत्र खलु या सा उत्तरखैक्रिया सा जघन्येन अङ्गुलस्य संख्येयभागं उत्कर्षेण धनुस्सहस्रं । रत्नप्रभायां पृथिव्यां नैरयिकाणां भदन्त ! कियन्महती शरीरावगाहना प्रज्ञप्ता ?, गौतम ! द्विविधा प्रज्ञता, तद्यथा-भवधारणीया च उत्तरवैक्रिया च तत्र खलु या सा भवधारणीया सा जघन्येन अङ्गुलस्य असंख्येयभागं उत्कर्षेण सप्त धनूंषि त्रयो रत्नयः षडङ्गुलानि, तत्र खलु या सा उत्तरवैक्रिया सा जघन्येन अङ्गुलस्य संख्येयभागम् उत्कर्षेण पञ्चदशधनूंषि द्वौ रत्नी द्वादशअडलांनि । शर्करम मापृथिव्यां नैरयिकाणां मदन्त । कियन्महती शरीरावगाहना
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अनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र १९६ नैरयिकाणां शरीरावगाहनानि. १५७ प्रज्ञमा ? गौतम ! द्विविधा प्रज्ञता, तद्यथा भवधारणीया च उत्तरक्रिया च, तत्र खलु या सा भवधारणीया सा जघन्येन अङ्गुलस्य असंख्येयभागम उत्कर्षण पश्चदशधषि द्वौ रत्नी द्वादश अशलानि, तत्र खलु या सा उत्तरक्रिया सा जघन्येन अङ्गुलस्य संख्येयभागम् उत्कर्षण एकत्रिंशद धनंषि एको रत्निश्च । वालुकाप्रभापृथिव्यां नैरयिकाणां भदन्त ! कियन्महती शरीरावगाहना प्रज्ञप्ता, गौतम ! द्विविधा प्रज्ञप्ता, तद्यथा-भवधारणीया च उत्तरवैक्रिया च, तत्र खलु या सा भवधारणीया सा जघन्येन अगुलस्य असंख्येयभागं उत्कर्षेण एकत्रिंशत् धषि एको रस्निश्च, तत्र खलु या सा उत्तरक्रिया सा जघन्येन अङ्गुलस्य संख्येयभागम् उत्कर्षेण द्विषष्टि धनूंषि द्वौ रत्नी च। एवं सर्वासां पृथिवीनां पृच्छा भणितव्या, पङ्कप्रभायां पृथिव्यां भवधारणीया जघन्येन अङ्गलस्य असंख्येयभाग उत्कर्षेण द्विषष्टि धनूंषि द्वौ रत्नी च, उत्तरवैक्रिया जघन्येन अगुलस्य संख्येयभागम् उत्कर्षण पश्चविंशतिः धनुःशतानि । धूमपभायां भवधारणीया अगुलस्य संख्येयभागम् उत्कर्षेण पञ्चविंशतिः धनुःशतानि, उत्तरक्रिया जघ. न्येन अङगुलस्य संख्येय भागम उत्कर्षेग अर्धतृतीयानि धनुःशतानि, तमसि भवधारणीया जघन्येन अङ्गुलस्य असंख्येयभागम् उत्कर्षण अद्धतृतीयानिधनु शतानि, उत्तरक्रिया जयन्येन अङ्गुलस्य संख्येयमार्ग उत्कर्षण पश्च धनुःशतानि, तमस्तमायां पृथिव्यां नैरयिकाणां भदन ! कियन्महती शरीरावगाहना प्रज्ञप्ता ?, गौतम ! द्विविधा प्रज्ञप्ता, तद्यथा-म धारणीया च उत्तरवैक्रिया च, तत्र खलु या सा भवधारणीया सा जघन्येन अा उस्य असंख्येयभागम् उत्कर्षण पञ्च धनु:शतानि, तत्र खलु या सा उत्तरवैक्रिया सा जघन्येन अगुलस्य संख्येयभागम् उत्कर्षण धनुःसहस्रम् । अपुरकुमाराणं भदन्त ! कियन्महती शरीरावगाहना प्रज्ञप्ता, गौतम । द्विविधा प्रज्ञप्ता, भवधारणीया च उत्तरक्रिया च, तत्र खलु या सा भव. धारीया सा जघन्येन अङ्गुलस्य असंख्येयभागम् उत्कर्षण सप्त रश्नयः, या उत्तरवैक्रिया सा जघन्येन अङ्गु लस्य संख्येयभाग उत्कग योजनशतसहस्राणि । एवम अमुरकुमारगमेन यावत् स्तनितकुमाराणां भणितव्यम् ॥मू० १९६॥
टीका-'जेरइयाणं' इत्यादि'एतेनोत्सेधाङ्गुलेन नैरयिकतिर्यग्योनिकमनुष्यदेवानां शरीरावगाहना. "णेरड्याणं भंते" इत्यादि।
शब्दार्थ-त्सेधाङ्गुल से नारक तिर्यश्च, मनुष्य और देवों के शरीर की अवगाहना मापी जाती है। ऐमा जो पहिले १८९ वें सूत्र
"णेरइयाण भंते !" (या
શબ્દાર્થ–ઉભેધાંગુલથી નારક, તિર્યંચ, મનુષ્ય અને દેવોના શરીરની અવગાહના માપવામાં આવે છે. આ પ્રમાણે જે પહેલાં સૂત્ર ૧૮૯ માં કહે
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अनुयोगद्वारसूत्रे
माध्यते' इत्युक्तम् । तत्र तेषां शरीरावगाहना कियन्महती भाति ? इति जिज्ञासितुकामः पृच्छति - 'रइयाणं मंते' इत्यादि । हे भदन्त ! नैरयिकाणां - नारकजीवानां शरीरावगाहना - अवगाहन्ते = अवतिष्ठन्ते जीवा अस्यामिति अवगाहना=नारकादि ageमगार्ड क्षेत्रं नारकादितनुरेव वा शरीरस्यावगाहना शरीरमेव वा अवगाहना सा कियन्महती कियत्ममाणा पज्ञता = परूपिता भवताऽन्यैश्व तीर्थकुद्धिरिति गौतमस्वामिनः प्रश्नः । उत्तरयति भगवान् हे गौतम! नैरविकाणां शरीरावगाहना भधारणीया उत्तरबैंकियेति द्विविधा मज्ञता । तत्र भवे नारकादिपर्याय भवनलक्षणे आयुः समाप्ति यावत् या सततं धियते सा भवधारणीया शरीरावगाहनामें कहा है- उस विषय में गौतम पूछते हैं कि ( रइयाणं भंते ! के महालिया सरीरोगाहणा पण्णत्ता ) हे भरन्त ! नारक जीवों के शरीर की आप ने तथा अन्य तीर्थकरों ने अवगाहना कितनी कही है ?
-
उत्तर- ( गोपमा ! दुविहा पण्णत्ता ) हे गौतम! नारक जीवों के शरीर की अवगाहना दो प्रकार की कही गई है। जिसमें जीव रहे, उसको नाम 'अवगाहना ' है । नारक आदि के शरीर में अवष्टब्ध जो आकाशरूप क्षेत्र है वह अथवा - नारक आदि जीवों का जो शरीर है वह अवगाहना है, ऐसा इस अवगाहना शब्द का निष्कर्थ है । यह दो प्रकार की कही गई है - एक भवधारणीय, और दूसरी उत्तरवै क्रिय । जो अवगाहना नरकादि पर्याय रूप भव में अपनी २ आयु की समाप्ति पर्यन्त धारण की जाती है वह भवधारणीय अवगाहना है । तथा जो स्वाभाविक शारीरिक अवगाहना के बाद किसी कार्य के वश से
वामां आव्यु छे, ते समधमां गौतम स्वामी प्रश्न ४३ छे हैं (णेरइयाणं भवे ! के महालिया सरीरोगाहणा पण्णत्ता) हे लहांत ! ना२४ જીવાના શરીરની આપશ્રીએ તેમજ બીજા તીર્થંકરેાએ અવગાહના કેટલી કહી છે ?
उत्तर- (गोयमा ! दुविहा पण्णत्ता) हे गौतम ! नार वोना शरीरनी અવગાહના બે પ્રકારની કહેવામાં આવી છે. જેમાં જીવ રહે છે, તેનું નામ અવગાહના છે. નરક વગેરેના શરીરથી અવષ્ટબ્ધ જે આકાશ રૂપ ક્ષેત્ર છે,
અથવા નારક વગેરે જીવાનુ જે શરીર છે તે અવગાહના છે, એવે આ અવગ હતા શબ્દના નિષ્કર્ષોંથ છે. આ બે પ્રકારની કહેવામાં આવી છે એક ભવધારણીય અને બીજી ઉત્તરવૈક્રિય જે અવગાહના નરકાદિ પય ३५ ભવમાં પોતપોતાના આયુની સમાપ્તિ સુધી ધારણ કરવામાં આવે છે, તે लवધારણીય અવગાહના છે તેમજ જે સ્વાભાવિક શારીરિક અવગાહૂના પછી કાઈ
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अनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र १९६ नरयिकाणां शरीरावगाहनानि. १५९ सहजशरीरगतावगाहनेत्यर्थः । या तु उत्तरं भवोत्तरकालं कार्यकका क्रियते सा उत्तरक्रिया । शरीरावगाहनाप्रमाणे पृष्टे शरीरावगाहनाया भेदकथनं शरीरावगाहनाप्रमाणप्रतिपयर्थ बोध्यम् । मेदिकथनमन्तरा च शरीरावगाहनापमाणकथनमअवगाहना की जाती है वह उत्तरवैक्रिय अवगाहना है । तात्पर्य कहने का यह है कि नर नारक आदि गति में प्राप्त जो शरीर है, वह भवधारणीय अवगाहना है । और इस प्राप्त अवगाहना रूप शरीर से जो और शरीर को विकुर्वणा होती है वह उत्तर वैक्रिय अवगाहना है ।जैसे देव आदि अपने शरीर से कारणवश और २ शरीर बना लिया करते हैं।
शंका-शरीर की अवगाहना का प्रश्न ही प्रकृति में पूछा गया है, फिर यहां उसके अप्रकृन भेदों का कथन क्यों किया गया ?
उत्सर-शंका-ठीक नहीं है क्योंकि इस प्रकार का कथन जो सूत्रकार ने किया है उसका कारण शरीर की अवगाहना के प्रभाग को स्पष्ट करने का है। क्योंकि भेद कथन किये विना शरीर की अवगाहना के प्रमाण का कथन हो नहीं सकता है । इसी बात को सूत्रकार स्पष्ट करते हैं-(तत्थ णं जा सा भवधारणिज्जा सा णं जाहण्णेणं अंगुलस्स असंखेज्जहागं. उक्कोसेणं पंच धणुमयाई ) इनमें जो भवधारणीय अवगाहना है वह जघन्य से अंगुल के असंख्यातवें भागप्रमाण है
પણ નિમિત્તથી અવગાહના કરવામાં આવે છે, તે ઉત્તરકિય અવગાહના છે. તાત્પર્ય આ પ્રમાણે છે કે નર, નારક, વગેરે ગતિમાં પ્રાપ્ત જે શરીર છે તે ભવધારણીય અવગાહના છે અને આ પ્રાપ્ત અવગાહના રૂપ શરીરથી જે બીજા શરીરની વિકુર્વણ થાય છે તે ઉત્તવૈક્રિય અવગાહના છે. જેમ દેવ વગેરે પિતાના શરીરથી કારણવશ અન્ય શરીર ધારણ કરી લે છે.
શંકા-શરીરની અવગાહના વિષે જે પ્રશ્ન કરવામાં આવ્યો છે તે પ્રકૃતિ રૂપમાં જ પૂછવામાં આવ્યું છે. તો પછી અહીં તેને અપ્રકૃત ભેદનું કથન કેમ કરવામાં આવ્યું છે ?
ઉત્તર-આ શંકા ઉચિત નથી કેમ કે આ જાતનું કથન જે સૂત્રકારે કર્યું છે, તેનું કારણ શરીરની અવગાહન ના પ્રમાણને સ્પષ્ટ કરવું એ છે, કેમકે ભેદ કથન કર્યા વિના શરીરની અવગાહનાના પ્રમાણુનું કથન થઈ શકે જ નહિ मे पातने सू३४१२२५५ ४२-(लत्थ णं जा सा भवधारणिज्जा सा णं जहण्णेणं अंगुलम्स असंखेज्जइभागं, उनकोसेणं पंचधणुसयाई) मेमा २ लय:२०ीय अप. ગાહના છે, તે જઘન્યથી અંગુલના અસંખ્યાતમાં ભાગ પ્રમાણે છે અને
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अनुयोगद्वारसूत्रे और उत्कृष्ट से, पांच सौ धनुषप्रमाण है। तथा उत्तरवैक्रिश जो अव गाहना है वह जघन्य से अंगुल के संख्यातवें भाग है और उत्कृष्ट से एक हजार धनुष प्रमाण है । यह सामान्य जवानरूप अवगाहना का प्रमाण नरकगति की अपेक्षा से किया गया है । ___ अब इसी विषय को सूत्रकार विशेषरूप से भिन्न २ पृथिवियों में भवधारणीय और उत्तरवैक्रिय रूप अवगाहना का प्रमाण कितना है ? इस विषय को प्रश्नोत्तर पूर्वक कहते हैं-( रयणप्पहाए पुढवीए नेरइयाणं भंते ! के महालिया सरीरोगाहणा पण्णत्ता)
प्रश्न-हे भदंत ! प्रथम रत्नप्रभा पृथिवी में नारकों की कितनी शरीरावगाहना कही है ?
उत्तर- (गोयमा ! दुविहा पण्णत्ता-तं जहा-भवधारणिज्जा य उत्सरवे उम्विया य) वहां नारकों की शरीरावगाहना भवधारणीय
और उत्तरवैक्रिय के भेद से दो प्रकार की कही गई है। (तस्थ णं जा सा भवधारणिज्जा सा जहन्नेणं अंगुलस्स असंखिज्जाभागं उक्कोसेणं सत्तधणूइं तिणि रयणीओ छच्च अंगुलाई) इनमें जो भवधारणीय अवगाहना है वह जघन्य की अपेक्षा अंगुल के असंख्यातवें भाग प्रमाण है, और उत्कृष्ट की अपेक्षा सात धनुष तीन रत्नि एवं ६ अंगुल प्रमाण ઉત્કૃષ્ટથી પાંચસે ધનુષ પ્રમાણ છે. તેમજ ઉત્તવૈક્રિય જે અવગાહના છે, તે જઘન્યથી અંગુલના સંખ્યામાં ભાગ છે અને ઉત્કૃષ્ટથી એક હજાર ધનુષ પ્રમાણ છે આ સામાન્ય કથન રૂપ અવગાહનાનું પ્રમાણ નરકગતિની અપેક્ષાએ કરવામાં આવ્યું છે.
હવે એજ વિષયને સૂત્રકાર વિશેષ રૂપમાં વિભિન્ન-પૃથિવીઓમાં ભવધારણીય અને ઉત્તરક્રિય રૂપ અવગાહના પ્રમાણ કેટલું છે, તે પ્રશ્નોત્તરપૂર્વક
छे. (रयण पहाए पुढवीए नेरइयाणं भंते ! के महालिया सरीरोगाहणा पण्णत्ता)
પ્રશ્ન–હે ભદત ! પ્રથમ રત્નપ્રભા પૃથિવીમાં નારકાની કેટલી શરીરાવ ગાહના કહેવામાં આવી છે?
उत्तर-(गोयमा ! दुविहा पण्णत्ता-तंजहा-भवधारणिज्जा य उत्तरवेविया ૫) ત્યાં નારકની શરીરવગાહના ભવધારણીય અને ઉત્તરવૈક્રિયના રૂપમાં બે प्रहारनी वाभा माथी छे. (तत्थणं जा मा भवधारणिज्जा था जहन्नेणं अंगुलस्स असंखिज्जइभागं उक्कोसेणं सत्तधणूई तिण्णि रयणीओं छच्च अंगुलाई) मामा જે ભવધારણીય અવગાહના છે તે જઘન્યની અપેક્ષા અંગુલના સંખ્યામાં ભાગ પ્રમાણ છે અને ઉત્કટની અપેક્ષા સાત ધનુષ, ત્રણ ત્નિ અને ૬
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अनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र १९६ नैरयिकाणां शरीरावगाहनानिरूपणम् १.६११ है । (तस्थ णं जा उत्तरवे उब्विा सा जहण्जेणं अंगुलास मेखेज्जहभागं उक्को सेणं पणसणू दोन्नि रयणीओ वारस अंगुलाई) तथा जो उत्तर वैक्रियरूप अवगाहना है वह जघन्य की अपेक्षा अंगुल के संख्यातवें भाग प्रमाण है, और उत्कृष्ट की अपेक्षा पन्द्रह धनुष, दो रहिन, १२ अंगुल प्रमाण हैं । ( सकरप्पहा पुढवीए णेरइयाणं भंते ! के महालिया सरीरोगाहणा पणत्ता ) हे भदन्त ! शर्करा पृथिवी में नारकों की शरीरावगाहना कितनी होनी है ?
उत्तर - (गोमा ! दुविधा पण्णत्ता) हे गौतम! यह शरीरावगाहना हां दो प्रकार को कही गई है ( तं जहा ) वह इस प्रकार से हैं- (भवधारणिज्य उत्तरवेविया य) एक अवधारणीय दूसरी उत्तरविक्रिया । (तत्थ णं जा सा भववारणिज्जा, सा जहणेणं अंगुलस्स असंखेज्जभाग, उफोलेणं पण्यरसपणू दुष्णि रयणीओ, वारस अंगुलाई ) इनमें जो भवधारणीय अवगाहना है वह जघन्य से अंगुल के असंख्यातवें भाग प्रमाण है और उत्कृष्ट से १५ धनुष दो रत्नि एवं १२ अंगुल प्रमाण है । (तत्थ णं जा सा उत्तरवेउब्विया सा जहणेणं अंगुलस्स संखेज्जभागं उक्कोसेणं एकतीसं घणू एकरयणीय) उत्तर
गुल प्रभाष छे. (तत्थ णं जा उत्तरवेउच्त्रिया सा जइण्णेणं अंगुलस्स संखेज्जइ भागं उक्कोसेणं पण्णरसधणू दोणि रयणीओ बारस अंगुलाई) तेभन ने उत्तरવૈક્રિય રૂપ અવગ!હુના છે તે જઘન્યની અપેક્ષા અંગુલના સખ્યાતમા ભાગ પ્રમાણ છે અને ઉત્કૃષ્ટની અપેક્ષા પદર ધનુષ, એ રત્નિ, ૧૨ અંશુલ પ્રમાણ छे. ( करपहा पुढवीए णेरइयाणं भंते ! के महालिया सरीरोगहणा पण्णत्ता) હે ભત! શર્કરા પૃથિવીમાં નારકની શીરાવગાડુના કેટલી છે ?
उत्तर- (गोयमा ! दुबिहा पण्णत्ता) हे गौतम! आा शरीरावगाडना त्यां मे अञ्जारनी Łडेवामां आवी छे (तंजहा) ते आा अमाशे छे. ( भवधारणिज्जा य उत्तरवे उब्विया य) भेड लवधारणीय भने मील उत्तरसैडिय (तत्थ णं जा सा भवधारणिज्जा, सा जहणेणं अंगुलरस असंखेज्जइभागं, उक्कोसेणं पण्णरसघणूई दुण्णि रयणीओ, बारस अंगुलाई) समां ने अवधारणीय अवगाहना छे, ते જન્મથી અંશુલના અસંખ્યાતમા ભાગ પ્રમાણ છે અને ઉત્કૃષ્ટથી ૧૫ धनुष मे रत्नि भने १२ अशुद्ध प्रमाणु छे. (तत्थ णं जा सा उत्तरवेउब्विया सा जहणणं अंगुलस्स संखेज्जइभागं उक्कोसेणं एकतीसं धणूई एक्करयणी य )
अ० २१
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अनुयोगद्वारसूत्रे
सम्भव्यपि विज्ञेयम् । अत्र ओघतो विशेषतश्च द्विविधशरीरावगाहनाया जघन्योस्कूटप्रमाणमुक्तं तत् सुविज्ञेयतया न व्याख्यायते । विशेषश्चात्रेदं बोध्यम्-उत्कृटावगाहा सर्वास्वपि पृथिवीषु स्वकीयस्वकीयचरमपस्तटेषु भवति । भवधारणीयायावोत्कृष्टायाः सकाशादुत्तरवैक्रिया सर्वत्र द्विगुणा बोध्या । इत्थं नैरयिकाणां वैक्रिय अवगाहना जो है, वह जघन्य से अंगुल के संख्यातवें भाग प्रमाण और उत्कृष्ट से ३१ धनुष तथा १ रस्नि प्रमाण है । (वालुयप्पहा पुढवीए जेरइयाणं भंते ! के महालिया सरीरोगाहणा पण्णत्ता ? ) हे भदन्त । तीसरी पृथिवी वालुकाप्रभा में नारकियों के शरीर की अवगाना कितनी है ?
उत्तर - (गोयमा ! दुविहा पण्णत्ता) गौतम ! दो प्रकार की है। (तं जहा ये प्रकार ये हैं - ( भवधारिणिज्जा य उत्तरवे उब्विया य ) एक भवधारणीय और दूसरी उत्तरविक्रिया । (तत्थ णं जा सा भवधारणिज्जा सा जहणणं अंगुलस्स असंखेज्जइभागं, उक्कोसेणं एकतीसं घणूइं इक्करयणीय) भवधारणीय अवगाहना जघन्य से अंगुल के असंख्यातवें भाग प्रमाण, और उत्कृष्ट से ३१ धनुष और १ र स्निप्रमाण है । (तस्थ णं जासा उत्तरवेउच्विया सा जहणेणं अंगुलस्स संखेज्जइभागं उक्को सेणं बास धणूई दो रयणीओ य ) उत्तरवैकिय अवगाहना जघन्य से अंगुल के संख्यातवें भाग प्रमाण, और उत्कृष्ट से ६२ धनुष दो रहिन प्रमाण है । ( एवं सव्वासिं पुढवीणं पुच्छा भाणियन्त्रा ) इसी प्रकार से ઉત્તરવૈક્રિય અવગાહના જઘન્યથી અ*શુલના સખ્યાતમા ભાગ પ્રમાણ અને उत्सृष्टथी ३१ धनुष तेम १ रत्नि प्रमाणु छे. (वालुयप्पहा पुढवीए रइया भंते ! के महालिया सरीरोगाहणा पण्णत्ता १) हे लहांत ! त्री पृथिवी વાલુકા પ્રભામાં નારકીએના શરીરની અવગાહના કેટલી છે?
उत्तर- (गोयमा ! दुबिहा पण्णत्ता) गौतम मे अमरनी छे. (तंजहा) ते प्रभारी या प्रभाणु छे. ( भत्रधारणिज्जाय उत्तरवेउब्बिया य) ये भवधारणीय मने मील उत्तरसैंडिया (तत्थ णं जा खा भवधारणिज्जा सा जहणेणं अंगुलस्स असंखेज्जइभागं, उक्कोसेणं एक्कतीसं धणूइं इक्करयणी य) लवधारणीय अवजाહના જઘન્યથી અંગુલના અસખ્યાતમાં ભાગ પ્રમાણ ઉત્કૃષ્ટ ૩૧ ધનુષ ाने १ रत्नि प्रमाणु छे (तत्थ णं जा ना उत्तरवेउब्विया स्रा जहण्णेणं अंगुलरस्र संखेज्जइभागं उक्कोसेणं बासट्ठि धणूइं दो रयणीओ य ) उत्तर वैडिय અવગાહના જઘન્યથી અંગુલના સંખ્યાતમાં ભાગ પ્રમાણુ અને ઉત્કૃષ્ટથી ६२ धनुष मे शन प्रभाष छे. ( एवं सव्वासिं पुढवीणं पुच्छा भाणियव्वा )
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अनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र १९६ नैरयिकाणां शरीरावगाहनानिरूपणम् १६३ शरीरावगाहना प्रमागमुक्त्वाऽसुरादीनां शरीरावगाहनाप्रमाणमाह-'असुरकुमाराणं भंते! इत्यारभ्य ' थणियकुमाराणं भाणियव्त्रं ' इत्यन्तेन सन्दर्भेण । व्याख्या निगदसिद्धा ।। सू० १९६ ॥
समस्त पृथिवियों के विषय में प्रश्न का उद्भावन कर लेना चाहिए - ( पंकपहा पुढवी भवधारणिज्जा जहण्जेणं अंगुलस्स असंखेज्जइभागं, कोसेणं वासfs aणूइं दो रयणीओ य) पंकप्रभा में भवधारणीय अवगाहना जघन्य से अंगुल के असंख्यातवें भागप्रमाग और उत्कृष्ट से बासठ धनुष प्रमाण दो रहिन हैं। (उत्तरवे उच्चिया जहणणं अंगुलस्स संखेज्जइभागं उक्कोसेणं पणवीसं धणुसयाई) उत्तरवैक्रिय अवगाहना जघन्य से अंगुल के संख्यातवें भाग प्रमाण और उत्कृष्ट से १२५ धनुष प्रमाण है । ( धूमप्पहाए भवधारणिज्जा जहण्णेणं अंगुलस्स असंखेज्जहभाग, उक्कोसे पणवीसं धणुसयाई ) धूमप्रभा में भवधारणीय अबगाहना जघन्य से अंगुल के असंख्यातवें भाग प्रमाण और उत्कृष्ट से १२५ धनुष प्रमाण है । ( उत्तरवेउच्त्रिया अंगुलस्त संखेज्जइ भागं उक्कोसेणं अड्डाइज्जाई धणुसयाई ) उत्तर वैक्रिय अवगाहना जघन्य से अंगुल के संख्यातवें भाग प्रमाण और उत्कृष्ट से ढाई सौ २५० धनुष प्रमाण है । (तमाए भवधारणिज्जा जहणणेणं अंगुलस्स असंखेज्जइ भागं, उक्कोसेणं अड्डाइज्जाई घणुसयाई ) तमः प्रभा नाम की छठी
આ પ્રમાણે સમસ્ત પ્રથિવીએના સબધમાં પ્રશ્નોની ઉદ્ભાવના કરી લેવી
ये (पंक पहाए पुढवीए भवधारिणिज्जा जहणणेणं अंगुलरल असंखेज्जइ भागं, उक्केसेणं बाखधिणू दो रयणीओ य) प४अलाभां अवधारीय अवगाना જઘન્યથી 'ગુલના અસખ્યાતમાં ભાગ પ્રમાણ ઉત્કૃષ્ટથી ૬૨ ધનુષ પ્રમાણુ गाने मे रलि छे. (उत्तरवेउच्त्रिया जहणेणं अंगुलरस संखेज्जइभागं उक्को सेन पणवीस घणुसयाई) उत्तरखैप्रिय अवगाहना धन्यथी अगुझना सभ्यातभा लाग प्रभाणु भने उत्सृष्टथी १२५ धनुष प्रमाणु छे. (धूमप्पहार भषधारजिज्जा जहणेणं अंगुलस्स असंखेज्जइभ गं, उ होसेणं पणवीसं धणुसयाई ) धूभ પ્રભામાં ભધારણીય અવગાહના જઘન્યથી અ‘ગુલના અસખ્યાતમા ભાગ प्रभाणुमने ष्टथी १२५ धनुष प्रमाणु छे. ( उत्तरवेउच्विया अंगुलस्स संखेज्जइभागं उक्कोसेणं अड्डाइज्जाई धणुसयाई) उत्तस्वैप्रिय व्यवजाना જઘન્યથી અ'ગુલના સખ્યાતમાં ભાગ પ્રમાણુ અને ઉત્કૃષ્ટથી ૨૫૦ ધનુષ प्रमाणु छे. (तमाए भवधारणिज्जा अद्दण्णेणं अंगुलस्य असंखेज्जइभागं उक्को -
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अनुयोगद्वारसूत्रे पृथिवी में भवधारणीय अवगाहना जघन्य से अंगुल के असंख्यातवें भागप्रमाण, और उत्कृष्ट से अढाई मो धनुषप्रमाण है । (उत्तरवेउ. विया जहण्णेणं अंगुलस्स संखेज्जइ भागं उक्कोसेणं पंचधणुसयाई) उत्तरवैक्रिय अवगाहना जघन्य से अंगुल के संख्यातवें भाग प्रमाण,
और उत्कृष्ट से पांचसौ धनुष की है। (तमतमाए पुढवीए नेरइयाणं भंते ! के महालिया सरीरोगाहणा पण्णता) तमस्तमा पृथिवी में नारकियों की हे भदन्त ! कितनी अवगाहना है ? (गोयमा! दुविहा पण्णत्ता) हे गौतम ! वहां दो प्रकार की अवगाहना कही गई है । (तं जहा) जैसे-(भवधारणिज्जाय उत्तरवेउविया य) १ भवधारणीय अव. गाहना और दूसरी उत्तरवैक्रिय अवगाहना । (तस्य णं जा सा भवधारणिज्जा सा जहण्णेणं अंगुलस्स असंखेज्जाभागं, कोसेणं पंचधनु सयाई ) भवधारणीय अवगाहना वहां जघन्य से अंगुल के असंख्यातवें भागप्रमाण है और उत्कृष्ट से पांचसौ धनुष प्रमाण है । (तत्थ णं जा उत्तरवेउव्विया सा जहण्णेणं अंगुलस्स संखेज्जाभागं उक्कोसेणं धणुसहस्सं) तथा वहां जो उत्तरवैक्रिय अवगाहना है वह जघन्य से अंगुल के संख्यातवें भागप्रमाण है और उत्कृष्ट से १ हजार धनुष सेणं अड्डाइज्जाइ धणुसयाइ) तभ:प्रम नामनी ७४ी पृथिवीमा सपधा२य અવગાહના જઘન્યથી અંગુલના અસંખ્યાતમા ભાગ પ્રમાણ અને ઉત્કૃષ્ટથી २५० धनुष प्रमाण छ, (उत्तरवे उव्विया जहण्णेणं अंगुलस्स संखेज्जइभाग उक्कोसेणं पंच धणुसयाई) उत्तरवैठिय मानधन्यथा शुखना सध्यातभा मा प्रमाण भने टथी ५८० धनुष २०ी छे (तमतमाए पुढवीए मेरयाणं भंते ! के महालिया सरीरोगाहणा पण्णता) 3 महत! तमस्तमा पृथिवीमा ना२श्रीमानी 2ी अाहना छ ? (गोयमा ! दुविहा पण्णत्ता) 3 गौतम ! त्यां में प्रा२नी A418ना म मावी छ. (तंजहा) रेभ (भवधारणिज्जा य उत्तरवेउठिक्या य) मे अवधा२०ीय अपमान भने भी उत्तरवैठिय असा (तत्थ जे जा सा भवधारणिज्जा सा जहाणेणं अंगुलस्स असंखेज्जइभागं, उनकोसेणं पंच धणुसयाई) अवधारणीय साना त्यां જઘન્યથી અંગુલના અસંખ્યાતમાં ભાગ પ્રમાણ છે અને ઉત્કૃષ્ટથી ૫૦૦ धनुष प्रभार छे. (तत्थ णं जा उत्तरवे उबिया सा जहण्णेणं अंगुलस्स संखेज्जइ भागं उक्कोसेणं धणुसहस्स) तभन त्यां२ उत्तय माना , ते જઘન્યથી અંગુલના સંખ્યામાં ભાગ પ્રમાણ છે અને ઉત્કૃષ્ટથી ૧ હજાર
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अनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र १९६ नैरयिकाणां शरीरावगाहनानिरूपणम् १६५ प्रमाण है । सूत्रकार ने जो सामान्य रूप से और विशेषरूप से दोनों प्रकार की अवगाहना का प्रमाण जघन्य और उत्कृष्ट का कहा है वह सुज्ञेय होने के कारण टीका में व्याख्यात नहीं किया है। उत्कृष्ट अवगाहना सातों पृथिवियों में अपने २ अन्तिम प्रस्तरों में होती है । भवधारणीय अवगाहना का जो उत्कृष्ट प्रमाण होता है उससे दूनो प्रमाण सर्वत्र उत्तरवैक्रिय अवगाहना का होता है - ऐसा जानना चाहिए। इस प्रकार नारक जीवों की शरीरावगाहना का प्रमाण कहकर अब सूत्रकार असुर आदिकों की शरीरावगाहना का प्रमाण कहते हैं - (असुरकुमाराणं भंते ! के महालिया सरीरोगाहणा पण्णत्ता )
प्रश्न - हे भदन्त ! असुरकुमार देवों की शरीरावगाहना कितनी है ? उत्तर - (गोयमा ! ) हे गौतम ! (दुबिहा पण्णत्ता ) यहाँ शरीरावगाहना दो प्रकार की प्राप्त हुई है - ( जहां वे प्रकार ये हैं- (भवधारणिज्जाय उत्तर वे उच्चियाय ) एक भगवारणीय और दूसरा उत्तरवैकिय । (तत्थ णं जा सा भवधारणिजा सा जहणेणं अंगुलस्स असंखेज्जइ भागं उक्कोसेणं सत्त रयणीओ) इनमें जो भवधारणीय अवगाहना है वह जघन्य से वहां पर अंगुल के असंख्यातवें भागप्रमाण है, और
ધનુષ પ્રમાણ છે. સૂત્રકારે જે સામાન્ય રૂપથી અને વિશેષ રૂપથી અને પ્રકારની અવગાહનાનું પ્રમાણ જઘન્ય અને ઉત્કૃષ્ટની અપેક્ષાએ કહ્યું છે તે સુજ્ઞેય ઢાવાથી ટીકામાં ચવામાં આવ્યું નથી ઉત્કૃષ્ટ અવગાહના સાતેસાત પૃથિવીએમાં પોતપોતાના અ ંતિમ પ્રસ્તરામાં હોય છે ભવધારણીય અવગાહનાનુ` જે ઉત્કૃષ્ટ પ્રમાણુ હાય છે તેના કરતાં બમણુ' પ્રમાણુ સત્ર ઉત્તરવૈક્રિયઅવગાહનાનું હૅ:ય છે એમ જાણવુ. જોઈએ આ પ્રમાણે નારક જીવાની શરીરાવગાહનાનું પ્રમાણુ કહીને હવે સૂત્રકાર અસુરકુમાર વગેરેની શરીરાવગાડુનાનું પ્રમાણ કહે છે.
(असुरकुमाराणं मंते ! के महालिया सरीरोगाहणा पण्णत्ता )
પ્રશ્ન-૩ ભદત ! અસુરકુમાર દેવાની શરીરાવગાહના કેટલી કહી છે ? उत्तर- (गोयमा !) हे गौतम ( दुबिहा पण्णत्ता) मड़ी शरीरावगाडेना मे अहारनी अज्ञप्त थयेस हे (तंजहा) ते प्रहारो आप्रमाणे छे. (भवधार णिज्जा य उतरवेउब्विया च) = लवधारणीय ने मील उत्तरवैस्य (तत्थ णं जा सा भवधारणिज्जा सा जहष्णेणं अंगुलस्स असंखेज्जइभागं उक्कोसेणं सत्त रयणीओ) આમાં જે ભવધારણીય અવગાહના છે, તે જન્યથી ત્યાં અંગુલના અસ’ખ્યા
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अनुयोगद्वारसूत्रे मूलम्-पुढविकाइयाणं भंते! के महालिया सरीरोगाहणा पण्णता ? गोयमा! जहन्नेणं अंगुलस्स असंखेजहभागं उकोण वि असंखेज्जइभागं। एवं सुहुमाणं ओहियाणं अपज्जत्तगाणं च भाणियव्यं । एवं जाव बादरवाउकाइयाणं पज्जत्तगाणं भाणियव्वं । वणस्सइकाइयाणं भंते! के महालिया सरीरोवगाहणा पण्णता? गोयमा! जहन्नेणं अंगुलस्स असंखेज्जइभागं उकोसेणं सातिरेगं जोयणसहस्सं। सुहुमवणस्सइकाइयाणं ओहियाणं अपज्जत्तगाणं पज्जत्तगाणं तिण्हपि जहन्नेणं अंगुलस्स असंखेज्जइभागं उक्कोसेण वि अंगुलस्त असंखेज्जइभागं। उत्कृष्ट से सात रत्नि प्रमाण है। (जा उत्तरवे उधिया सा जहण्णेणं अंगुलस्स संखेन्जहभाग, उक्कोसेणं जोयणसयसहस्साई) तथा जो वहां पर उत्तरवैक्रियअवगाहना है वह जघन्य से अंगुल के संख्यातवें भागप्रमाण है और उत्कृष्ट से १ लाख योजन प्रमाण है (एवं असुरकुमारगमेणं जाव थणियकुमाराणं भाणियव्वं) यहां पर असुरकुमारों की दोनों प्रकार की अवगाहना का जितना प्रमाण कहा गया है उतना ही प्रमाण नागकुमार, विद्युत्कुमार, सुवर्णकुमार, अग्निकुमार, धायुकुमार और स्तनितकुमारादि भवनवासिनिकाय के देवों की दोनों प्रकार की अवगाहना जोननी चाहिये ॥ सू० १९६ ॥ तमा मास प्रमाण छ, भने उत्कृष्टथी सात नि प्रभाय छ (जा उत्तरघेउव्विया सा जहण्णेणं अंगुलस्स संखेज्जइभाग, उक्कोसेणं जोयण सयसहस्साई)तमा જે ત્યાં ઉત્તરકિય અવગાહના છે, તે જઘન્યથી અંગુલના સંખ્યામાં ભાગ प्रभा छ भने थी १ ५ यापन प्रमाण छ (एवं असुरकुमारगमेणं जाव थणियकुमाराणं भाणियब्ध) मही असुरभारनी भन्ने प्रा२नी अगाड. નાનું જેટલું પ્રમાણ કહેવામાં આવ્યું છે, તેટલું જ પ્રમાણુ નાગકુમાર, વિધુતકુમાર, સુવર્ણકુમાર, અગ્નિકુમાર, વાયુમાર અને સ્વનિતકુમાર વગેરે ભવનવાસિનિકાયના દેવાની અને પ્રકારની અવગાહનાનું જાણવું જોઈએ. સૂ૦૧૯દા
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अनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र १९७ पृथ्वीकायिकादीनां शरीरावगाहनानि. १६७ . बादरवणस्तइकाइयाणं जहन्नेणं अंगुलस्स असंखेज्जइभागं उक्कोसेणं सातिरेगं जोयणसहस्सं, अपज्जत्तगाणं जहणणेणं अंगुलस्स असंखेज्जइभागं उक्कोसेण वि अंगुलस्त असंखेजइभागं पज्जत्तगाणं जहन्नेणं अंगुलस्त असंखेज्जइभागं उक्कोसेणं सातिरेगं जोयणसहस्सं । बेइंदियाणं पुच्छा, गोयमा! जहन्नेणं अंगुलस्स असंखेज्जइभागं उक्कोसेणं बारसजोय. णाई। अपज्जत्तगाणं जहण्णेणं अंगुलस्स असंखेज्जइभागं उकोसेण वि अंगुलस्स असंखेज्जइभागं। पज्जत्तगाणं जहन्नेणं अंगुलस्स असंखेज्जइभागं उकोसेणं बारसजोषणाई। नेइंदियाणं पुच्छा, गोयमा ! जहन्नेणं अंगुलस्त असंखेज्जइभागं उक्कोसेणं तिण्णि गाउयाई। अपज्जत्तगाणं जहण्णेणं अंगुलस्स असंखेज्जइभागं उक्कोसेण वि अंगुलस्स असंखेज्जइभागं। पजत्तगाणं जहनेणं अंगुलस्स असंखेजइभागं उक्कोसेणं तिण्णि गाउयाई। चउ. रिदियाणं पुच्छा, गोयमा! जहण्णेणं अंगुलस्त असंखेज्जइभाग, उक्कोसेणं चत्तारि गाउयाइं। अपज्जत्तगाणं जहन्नेणं उक्कोसेण वि अंगुलस्स असंखेज्जइभागं। पज्जत्तगाणं जहन्नेणं अंगुलस्स असंखेज्जइभागं उक्कोसेणं चत्तारि गाउयाइं ॥सू० १९७॥
छाया-पृथिवीकायिकानां भदन्त ! कियन्महती शरीरावगाहना प्रज्ञप्ता? गौतम ! जघन्येन अंगुलस्य असंख्येयभागं उत्कर्षेणापि अंगुलस्यासंख्येयभागम् एवं सूक्ष्माणाम् औधिकानाम् अपर्याप्तकानां च भणितव्यं । एवं यावद् बादरवायुकायिकानां पर्याप्त कानां भणितव्यम् वनस्पतिकायिकानाम् भदन्त! कियन्महती शरीरावगाहना प्रज्ञप्ता? गौतम ! जघन्येन अंगुलस्य असंख्येयभागम् उत्कर्षेण सातिरेकं योजनसहस्रम् । सूक्ष्मवनस्पतिकायिकानाम् औधिकानाम् अपर्याप्तकानां पर्याप्तकानां त्रयाणामपि जघन्येन गुलभ्य असंख्येयमागम् उत्कर्षणापि अंगुलस्य असंख्येयभागम् बादरवनस्पतिकायिकानां जघन्येन अंगुलस्य असंख्येयभागम् , उत्कर्षेण सातिरेकं योजनसहस्रम् , अपर्याप्तकानां जघन्येन अंगुलस्य असंख्येयभागम् , उत्कर्षेगापि अंगुलस्य असंख्येयभागम् , पर्याप्तकानां जघन्येन अंगुलस्य असंख्येय.
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__ अनुयोगद्वारसूत्रे भागम् उत्कर्षेण सातिरे योजनसहस्रम् । द्वीन्द्रियाणां पृच्छा, गौतम ! जघन्येन ! अंगुलस्य असंख्य पागम् उकर्षेण द्वादशयोजनानि, अपर्याप्तकानां जघन्येन अंगुलस्य असंख्येयभागम् उत्कर्पणापि अंगुलस्य असंख्येपभागम् , पर्याप्तकानां जघन्येन अगुलस्याऽसंख्य भागम् उत्कर्षेण द्वादश योजनानि । त्रीन्द्रियाणां पृच्छा, गौतम ! जघन्येन अंगुलस्य असंख्येयभागम् उत्कर्षेग त्रीणि गव्यूतानि अपर्याप्तकानां जघन्येन अंगुलस्य प्रसंख्येय भागम् , उत्कर्षे गापि अंगुलस्य, असख्य भागम्, पर्याप्तकानाम् जयन्येन अंगुलस्याऽसि वभाग उत्कग त्रीगि गव्युतानि। चतुरीन्द्रियाणां पृच्छा, गौतम! जघन्येन अंगुलस्य असंख्पेयभागम् , उत्कर्षेण चत्वारि गव्यूतानि, अपर्याप्तकानां जघन्येन उत्करर्षेगापि अंगुलस्य असंख्थेयभागम् , पर्याप्तकानां जघन्येन अंगु उस्याऽख्येयभागं उत्कर्षेण चत्वारि गव्यूनानि ॥मू० १९७ ।।
टीका--" नेरइया असुराई, पुढाई दियाद यो तहय ! पंवेदियतिरिय नरा, वंतरजोइसियवेमाणी"। छाश-नरयिका अमुरादयः पृथिव्यादयो द्वोन्द्रि यादयस्तथा च । पञ्चेन्द्रिविर्य झरा व्यन्तरज्योति वैमानिकाः । इति समय प्रसिद्ध चतुर्विशतिदण्डकस्थ प्रथमद्वितीयपदयोरवगाइनामानं निरूपितम् । सम्पति पृथिव्यादिपदेऽवगाहनामाह 'पुढवीकाइयाणं भंते !' इत्यादि । इह प्रथमम् औधिक
"पुढविकाइयाणं भंते" इत्यादि।
शब्दार्थ-(पुढविकाइयाणं भंते ! के महालिया सरीरोगाहणा पण्णत्ता ? ) हे भदन्त ! पृथिवीकायिक जीवों की शरीरावगाहना कितनी कही गई है?
उत्तर-(जहन्नेणं अंगुलस्य असंखेज्जाभार्ग उक्कोसेणं वि अंगुलस्स असंखेज्जहभागं) पृथिवीकायिक जीवों की शरीरावगाहना जघन्य से अंगुल के असंख्यातयें भाग प्रमाण प्रज्ञप्त हुई है । और उत्कृष्ट से भी अंगुल के असंख्यातवें भाग ही प्रज्ञप्त हुई है । " नेरच्या अस्तुराई, पुढ
" पुढविकाइयाणं भंते !" त्या
शहाथ-(पुढविकाइयाणं भंते ! के महालिया सरीरोगाहणा पण्णत्ता १). ભત ! પૃથિવીકાયિક ની શરીરવગાહના કેટલી પ્રજ્ઞપ્ત થયેલી છે?
उत्तर-(जहन्नेणं अंगुलस्स असंखेज्जइभागं उक्कोसणं वि अंगलस्स असं खेज्जइ भाग) पृथि 4 वानी शरीरावगाडना धन्यथा मसुखना અસંખ્યાતમા ભાગ પ્રમાણે પ્રજ્ઞપ્ત થયેલી છે. અને ઉત્કૃષ્ટથી પણ અંગુલના असभ्यातमा मास प्रमाण प्रशस थयेटी छ. “ नेरइया असुराई, पुढवाई "
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अनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र १९७ पृथ्वीकायिकादीनां शरीरावगाहनानि. १६९ पृथिवीकायिकानावरगाहनामानं निरूप्य ते १, ततस्तेपामेव ओघतः सूक्ष्माणाम् २, ततः सूक्ष्माणामप्यपर्याप्तानाम् ३, तथा पर्याप्तानाम् ४, तत औधिकबादराणाम् ५, तत एषामेव अपर्याप्त विशेषितानां ६, तथा पर्याप्त विशेषितानां चायगाहनामानं निरूप्यते । एषु सप्तस्वपि स्थानेषु पृथिवीकायिकानामगुलासंख्येयभाग एवाववाई" इस सिद्धान्तसमत गाथा द्वारा जो २४ दण्डक-स्थान प्ररूपित किये गये हैं सो उनमें जो ये नारक एवं असुमादि दो पद हैं, इन दो पदों के वाच्यार्थ नार और असुरकुमार आदि भवनवासिनिकाय के देवों की शरोगगाहना लो १९१ थे सूत्र द्वारा प्रतिपादित की जा चुकी है। अब इस स्त्र द्वारा सूत्रकार " पुढबाई" इस पद वाच्यार्थ को शरीरावगाहना मनिपादित कर रहे हैं-इसमें सर्वप्रथम उन्होंने सामान्यरूप से पृथिवीकाधिक जीवों का अवगाहनामान प्रदर्शित किया है । इससे सामान्य रूप से उन्हीं पृथिवीकायिक संपन्धी सूक्ष्म जीवों का, बाद में पृथिवीकायिक सूक्ष्म अपर्याप्तकों का पृथिवीकायिक सूक्ष्म पर्याप्तकों का, सामान्य रूप से बादर पृथिवीकायिक जीवों का बादरपृथिवीकायिक अपर्याप्तक जीवों को और बादर पृथिवीकायिक पर्याप्तकों का, अवगाहना मान निरूपित हो जाता है। तात्पर्य कहने का यह है कि इन सप्त स्थानों में पृथिवीकायिक जीवों का अवगाहना प्रमाण अंगुल के असंख्यातवें भागप्रमाण ही जानना चाहिये। આ સિદ્ધાન્તસંમત ગાથા વડે જે ૨૪ દંડક-સ્થાન પ્રરૂપિત કરવામાં આવ્યાં છે.. તેમાં જે નારક અને અસુરાદિ બે પદે છે, આ બે પદેના વાર્થ નારક અને અસુરકુમાર વગેરે ભવનવાસિનિકાયના દેવોની શરીરવગાહના ૧૯૧મા સૂત્ર વડે प्रतिपाहित ३२वामा पानी छे. वे मासूत्र 3 सूत्र॥२ " पुढवाई" मा ५४ વાચ્યાર્થીની શરીરવગાહના પ્રતિપાદિત કરી રહ્યા છે. આમાં સૌ પ્રથમ તેમણે સામાન્ય રૂપથી પૃથિવીકાયિક જીવોનું અવગાહનામાન પ્રદર્શિત કર્યું છે. એનાથી સામાન્ય રૂપથી તે પૃથિવીકાયિક સંબંધી સૂક્ષ્મ જીવોનું, ત્યાર પછી પૃથિવી કાયિક સૂક્ષમ અપર્યાપ્તકોનું, પૃથિવીકાયિક સૂક્ષમ પર્યાપકનું, સામાન્ય રૂપથી બાદર પૃથિવીકાયિક જીવોનું બાદર પૃથિવીકાયિક અપર્યાપ્તક જીવોનું અને બાદર પૃથિવીકાયિક પર્યાપ્તકોનું અવગાહનામાન નિરૂપિત થઈ જાય છે. કહેવાનું તાત્પર્ય આ પ્રમાણે છે કે આ સપ્ત સ્થાનમાં પૃથિવીકાયિક જીવનું અવગાહના પ્રમાણુ અંગુલના અસંખ્યાતમા ભાગ પ્રમાણ જ જાણવું જોઈએ.
अ० २२
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अनुयोगद्वारसूत्रे
गाना | ननु यदि अङ्गुला संख्येयभाग एवावगाहना तर्हि एषां जघन्योत्कृष्टताविचारी विरुध्येतेति चेदाह - यद्यप्येषामङ्गुला संख्येयभाग एवावगाहना, तथापि असंख्येयकस्य असंख्येयभेदत्वेन तस्यापि तारतम्य संभवाज्जघन्योत्कृष्टता विचारो # विरुध्यते । एवमप्तेजोवायुवनस्पतिसम्बन्धिषु सप्तसु स्थानेष्वसंख्येयभागावगाहना बोध्या । नवरम् - औधिकवादर वनस्पतिषु पर्याप्तेषु तेषु जघन्यतोऽङ्गुलासंख्येयभागरूपा, उत्कृष्टतस्तु समुद्राद्युत्पन्न कमलनाला द्याश्रित्य सातिरेकयोजनसह - मानाऽवगाहना बोध्या । अत्रोच्यते ननु यद्येवं भेदतोऽवगाहना स्वीक्रियते तर्हि
शंका- यदि पृथिवीकायिक जीवों का अवगाहनामान अंगुल के असंख्यातवे भागमात्र ही है, तो फिर इनका जघन्य और उत्कृष्टरूप से जो अवगाहना का प्रमाण प्रकट किया गया है, वह विरुद्ध पड़ता है क्योंकि जघन्य और उत्कृष्ट अवगाहना में यहां कोई फर्क तो है ही नहीं । उत्तर - ऐसा नहीं है, क्योंकि अंगुल के असंख्यातवें भाग के भी असंख्यात भेद होते हैं, इसलिये अंगुल के असंख्यातवें भाग में तरतमता की वजह से जघन्य उत्कृष्ट का विचार वहां विरुद्ध नहीं पड़ता है। इसी प्रकार अप तेज, वायु और वनस्पतिकायिक जीवों संबन्धी सात स्थानों में अंगुल के असंख्यातवें भाग प्रमाण अवगाहना जघन्य उत्कृष्टरूप से जाननी चाहिये । परन्तु सामान्य वनस्पतिकायिक जीवों मैं, तथा पर्याप्तकवनस्पतिकायिक जीवों में जघन्य अवगाहना का प्रमाण अंगुल के असंख्यातवें भाग है, और उत्कृष्ट अवगाहना का प्रमाण समुद्र आदि में उत्पन्न हुए कमलनाल की अपेक्षा कुछ अधिक एक हजार योजन का है ।
શંકા-જો પૃથિવીકાયિક જીવાતુ. અવગાહનામાન અગુલના અસખ્યાતમાં ભાગ માત્ર જેટલુ' જ છે તેા પછી એમનું જઘન્ય અને ઉત્કૃષ્ટ રૂપથી જે અવગાહના-પ્રમાણુ પ્રકટ કરવામાં આવ્યુ છે, તે વિરૂદ્ધ રૂપમાં લાગે છે. કેમકે જઘન્ય અને ઉત્કૃષ્ટ અવગાહનામાં અઢી' કાઈ પણ જાતના તફાવત નથી. ઉત્તર-આ ખરાખર નથી કેમકે અંગુલના અસંખ્યાતમા ભાગના પશુ અસખ્યાત ભેદે થાય છે. એટલા માટે અંગુલના અસંખ્યાતમા ભાગમાં તારતમ્યતાને લીધે જઘન્ય ઉત્કૃષ્ટના વિચાર ત્યાં વિરૂદ્ધ રૂપે દેખાતા નથી. આાજ પ્રમાણે અપ્, તેજ, વાયુ અને વનસ્પતિકાયિક જીવા સબધી સાત સ્થાનામાં અંગુલના અસખ્યાતમાં ભાગ પ્રમાણુ અવગાહના જઘન્ય ઉત્કૃષ્ટરૂપથી જાણવી જોઈએ પણુ સામાન્ય વનસ્પતિકાયિક જીવેામાં તેમજ પર્યાસક વનસ્પતિકાયિક જીવેામાં જઘન્ય અવગાહનાનું પ્રમાણુ અશુલના અસ`ખ્યાતમા
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अनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र १९७ पृथ्वीकायिकादीनां शरीरावगाहनानि. १७५ नारकासुरकुमारादिष्वपि अपर्याप्तभेदतोऽवगाहना कस्मानोक्ता ? इति चेदाहनारकासुरकुमारादयो हि सर्वेऽपि लब्धिसम्पन्नत्वात् पर्याप्ता एव भवन्ति नस्वपर्याहा, अतोऽपर्याप्तत्वलक्षणस्य प्रकारान्तरस्य तेष्वसभवान्नभेदतोऽवगाहना चिन्त्यते, इति। अथ द्वीन्द्रियादिपदेऽवगाहनामानं प्ररूपयितुमाह-'बेइंदियाणं पुच्छा! इत्यादि अनौधिकद्वीन्द्रियाणामपर्याप्तानां पर्याप्तानां चेति स्थानत्रयेऽवमाना
शंका-यदि इस प्रकार से अवगाहना प्रमाण में भेद स्वीकार किया जाता है तो फिर नारक, असुरकुमार आदि में भी अपर्याप्त की अपेक्षा लेकर अवगाहना प्रकट करनी चाहिये थी-परन्तु वहां इस रूप से अवगाहना तो कही नहीं है-सो इसका क्या कारण है ?
उत्तर-नारक एवं असुरकुमार आदि सब पर्याप्त लब्धिसंपन्न होने के कारण पर्याप्त ही होते हैं अपर्याप्तक नहीं। इसलिये अपर्याप्तस्वरूप प्रकारान्तर को लेकर वहां अवगाहनाका मान प्रकट नहीं किया गया है। क्योंकि इस प्रकारान्तर को वहां संभावना ही नहीं है। अब सूत्रकार द्वीन्द्रियादि पद वाच्य द्वीन्द्रियादि जीवों में अगाहना के मान को प्रश्नोत्तर पूर्वक प्रकट करते हैं-(बेईदियाणं पुच्छा गोयमा जाइन्नेणं अंगुलस्स असंखेज्जहभागं उक्कोसेणं वारस जोयणाई)
प्रश्न-हे भदन्त ! बीन्द्रिय जीवों में अवगाहना का मान कितना है? ભાગ પ્રમાણ છે અને ઉત્કૃષ્ટ અવગાહનાનું પ્રમાણ સમુદ્ર વગેરેમાં ઉત્પન્ન થયેલ કમલનાલની અપેક્ષાએ કંઈક વધારે એક હજાર જન જેટલું છે.
શંકા-જે આ પ્રમાણે અવગાહના પ્રમાણમાં ભેદ સ્વીકાર કરવામાં આવે છે તે પછી નારક, અસુરકુમાર વગેરેમાં પણ અપર્યાપ્તકની અપેક્ષાથી અવગા. હના પ્રકટ કરવી જોઈતી હતી. પણ ત્યાં તે આ રૂપમાં અવગાહના કહેવામાં આવી નથી, તે આનું શું કારણ છે ?
ઉત્તર-નારક અને અસુરકુમાર વગેરે સર્વ પર્યાપ્ત લબ્ધિસંપન્ન હેવાથી પર્યાપ્ત જ હોય છે, અપર્યાપ્તક હોતા નથી એટલા માટે અપર્યાપક રૂપ પ્રકારાન્તરને લઈને ત્યાં અવગાહનાનુંમાન પ્રકટ કરવામાં આવ્યું નથી કેમકે આ પ્રકારાન્તરની ત્યાં સંભાવના જ નથી. હવે સૂત્રકાર દ્વીન્દ્રિયદિ પદવાઓ દ્વીકિ याहि मां अपना नामानने प्रश्नोत्त२५१४ ५८ ४२ छ. (बेइंदियाण पुच्छा, गोयमा, जहन्नेणं अंगुलस्स असंखेज्जइभागं उक्कोसेणं बारस जोयणाई)
પ્રશ્ન-હે ભદંત ! દ્વીન્દ્રિય જીમાં અવગાહનાનુંમાન કેટલું છે?
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१७२
अनुयोगद्वारसूत्रे
विचार्यते । एतेषु वादरत्वमेव संभवति न तु सूक्ष्मत्वम्, अतो नात्र सूक्ष्मत्वेन चिन्ता क्रियते । द्वादरायोजन परिमिता शरीधरगाहना स्वयम्भू मणादि जातानां शङ्खानां बोध्या । एवमेव त्रीन्द्रियेषु चतुरिन्द्रियेषु च स्थानत्रयेऽवगाहना बोध्या । उत्तर :- हे गौतम! जघन्य से अंगुल के अलंश भाग प्रमाण है और उत्कृष्ट से बारह योजन प्रमाण है । यह सामान्यरूप से दीन्द्रि यजीवों की अवगाहना का प्रमाण कहा गया है । (अज्जन्तगाणं जहनेणं अंगुलस्त असंखेज्जहभाग, उक्कोसेणं त्रि अंगुलस्त असंखेज्जह भाग) अपर्याप्तक जो द्वीन्द्रिय जीव है उनकी अवगाह्ना जघन्य से और उत्कृष्ट से भी अंगुल के असंख्यातवें भाग प्रमाण है । (पज्जन्त गाणं जहन्नेणं अंगुलस्स असंखेज्जहभाग, उक्कोसेणं बारसजोषणाई पर्यातक जो द्वीन्द्रिय जीव है उनकी अवगाहना जघन्य में अंगुल के असंपातवें भाग प्रमाण है और उत्कृष्ट से १२ योजन प्रमाण है । यह १२ योजन प्रमाण अवगाहना स्वयंभूरमण आदि में उत्पन्न हुए शंखो की अपेक्षा कही गई जाननी चाहिये। (तेइंदियाणं पुच्छा-गोयमा ! जह न्नेणं अंगुलस्स असंखेज्जइभागं उक्को सेणं तिरिण गाउयाई)
प्रश्न - हे भदन्त ! त्रीन्द्रिय जीवों की अवगाहना का क्या प्रमाण है? उत्तर:- हे गौतम! नीन्द्रिय जीवों की जघन्य अवगाहना अंगुल के असंख्यातवें भाग प्रमाण है और उत्कृष्ट अवगाहना तीन कोश की
ઉત્તર-હે ગૌતમ ! જઘન્યથી અગુલના અસંખ્યાતમાં ભાગ પ્રમાણ છે અને ઉત્કૃષ્ટથી ખાર ચેજન પ્રમાણુ છે. આ સામાન્ય રૂપથી દ્રન્દ્રિય જીવાની अवगाडुनानु प्रभाणु उडेवामां आव्यु छे. ( अपज्जत्तगाणं जहन्ने अंगुलस्स असंखेज्जइभागं, उक्कोसेणं वि अंगुलस्स असंखेज्जइ भाग) अपर्याप्त हीन्द्रिय જીવા છે, તેમની અવગાહના જઘન્યથી અને ઉત્કૃષ્ટથી પણ અંગુલના અસभ्यातमा लाग प्रभाशु छे. (पज्जत्तगाणं जहन्नेणं अंगुळस्स असंखेज्जइभागं, उक्को सेण बारस जोयणाई) पर्यास के द्वीन्द्रिय व छे तेमनी अवगाडुना જઘન્યથી અંગુલના અસંખ્યાતમા ભાગ પ્રમાણુ છે અને ઉત્કૃષ્ટથી ૧૨ ચેાજન પ્રમાણ છે. આ ખાર ાજન પ્રમાણ અવગાહના સ્વયંભૂ મણ વગેરેમાં उत्पन्न थयेव श'भेोमी अपेक्षा वामां आवी छे (ते इंदियाणं पुच्छागोयमा ! जहन्नेणं अंगुलस्स असंखेज्जनागं, उक्कोसेणं तिष्णि गाउयाई)
પ્રશ્ન હૈ ભદ ́ત ! ત્રીન્દ્રિય જીવેની અવગાહનનું પ્રમાણ કેટલું છે? ઉત્તર-હે ગૌતમ! ત્રીન્દ્રિય જીવાની જઘન્ય અવગાહના અંગુલના અસ ખ્યાતમાં ભાગ પ્રમાણુ છે અને ઉત્કૃષ્ટ અવગાહના ત્રણ ગાઉં જેટલી
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अनुयोगचन्द्रिका टोका सूत्र १९७ पृथ्वीकायिकादीनां शरीरावगाहनानि. १७३ है। यह त्रीन्द्रिय जीवों की अवगाहना का प्रमाण सामान्य रूप से कहा गया जानना चाहिये। (अपज्जत्ताणं जहन्नेणं अंगुलस्त असंखेज्जइ भागं उक्कोसेण वि अंगुलस्स असंखेज्जहभागं) श्रीन्द्रिय जीवों में अपप्तिक त्रीन्द्रिय जीवों की अवगाहना जघन्य और उत्कृष्ट से अंगुल के असंख्यातवे भाग प्रमाण है । (पज्जत्तगाणं जहणं अंगुलम्स असंखेजइ. भागं उक्कोसेणं तिण्णि गाउयाई) पर्याप्तक त्रीन्द्रिय जीवों की अवगाहना जघन्य से अंगुल के असंख्यातवें भाग प्रमाण, और उत्कृष्ट से तीन कोस प्रमाण है। त्रीन्द्रिय जीवों की यह ३ तीन कोल की जो उत्कृष्ट अवगाहना कही गई है वह ढाई द्वीप से बाहिरी द्वीपों में रहने वाले कर्णशृगाली आदि त्रीन्द्रिय जीवों की अपेक्षा कही गई जाननी चाहिये । (चरइंदियाणं पुच्छा)
प्रश्न-हे भदन्त ! चौइन्द्रिय जीवों की अवगाहना का क्या प्रमाण है ?
उत्तर:- (गोधमा! जहन्नेणं अंगुलाल असंखेजहभाग उक्को. सेणं चत्तारि गाउयाई) हे गौतम ! चौइन्द्रिय जीवों की जघन्य अव. गाहना अंगुल के असंख्यातवें भाग प्रमाण है और उत्कृष्ट अवगाहना चार कोश प्रमाण है । (यह अवगाहना का कथन सामान्यरूप से कहा गया जानना चाहिये । (अपज्जत्तगाणं जहन्नेणं उक्कोण वि अंगुलस्स છે. આ ત્રીન્દ્રિય જીની અવગાહનાનું પ્રમાણ સામાન્ય રૂપથી કહેવામાં भाव्युछे (अपज्जत्ताणं जहन्नेणं अंगुलस्स असंखेज्जइभागं उक्कोसेण वि . लस्स असंखेज्जइभाग) श्रीन्द्रिय वामां अपर्याप्त न्द्रिय वानी म१ગાહના જઘન્ય અને ઉત્કૃષ્ટથી અંગુલના અસંખ્યાતમાં ભાગ પ્રમાણ છે. (पज्जत्तगाणं जहन्नेणं अंगुलास असंखेज्जइमागं उक्कोडेणं तिण्णि गाउयाई) પર્યાસક ત્રીન્દ્રિય જીવે ની અવગાહના જઘન્યથી અંગુલના અસંખ્યાતમાં ભાગ પ્રમાણ અને ઉત્કૃષ્ટથી ત્રણ ગાઉ પ્રમાણ છે. ત્રીન્દ્રિય જીવોની આ ત્રણ ગાઉની જે ઉત્કૃષ્ટ અવગાહના કહેવામાં આવી છે તે અઢી દ્વીપથી બહારના દ્વીપમાં રહેનારા કર્ણશગાલી વગેરે ત્રાદ્રિય જીની અપેક્ષાએ કહેपामा मावी छ (चउ इंदियाण पुच्छा) ...
પ્રશ્ન-હે ભદંત! ચૌઈન્દ્રિય જીવોની અવગાહનાનું પ્રમાણ કેટલું છે?
उत्तर-(गोयमा ! जहन्नेण अंगुलस्स असंखेज्जइभाग उक्कोसेणं चत्तारि गाउयाई) गीतम! यौन्द्रिय ७वानी धन्य माना शुसना અસંખ્યાતમાં ભાગ પ્રમાણ છે. આ અવગાહનાનું કથન સામાન્ય રૂપથી જ वामां आयु तम समान (अपज्जत्तगाणं जहन्नेणं उक्कोसेण
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૨૭૪
अनुयोगद्वारसूत्रे
विशेषश्चायमत्र - श्रीन्द्रियाणां वहिद्ववर्ति कर्ण शृगाल्यादीनां शरीरावगाहना गच्यूतत्रयपरिनिता बोध्या । चतुरिन्द्रियाणां वहिद्वपवर्त्तीनां भ्रमरादीनां शरीरावगाहना गव्युतचनुष्टयपरिमिता बोध्या । सू० १९७ ॥
मूलम् - पंचेंदियतिरिक्खजोणियाणं भंते! के महालिया सरीरोगाहणा पण्णत्ता ? गोयमा ! जहणणेणं अंगुलस्स असंखेज्जइभागं, उक्कोसेणं जोयणसहस्सं । जलयरपंचेंदियतिरिक्खजोणियाणं पुच्छा, गोयमा ! एवं चैव ! संमुच्छि मजलयरपंचदियतिरिक्ख जोणियाणं पुच्छा, गोयमा ! जहण्णेणं अंगुलरस असंखेज्जइभागं उक्कोसेणं जोयणसहस्सं । अपजत्तगसंमुच्छि
असंखेज्जइभागं, पज्जत्तगाणं जहन्नेणं अंगुलस्ल असंखेज्जहभागं उक्को सेणं चत्तारि गाउयाई ) अपर्याप्त चतुरिन्द्रिय जीवों की जघन्य अवगाहना का प्रमाण और उत्कृष्ट अवगाहना का प्रमाण अंगुल को असंख्यातवां भाग है । तथा पर्याप्तक चतुरिन्द्रिय जीवों की अवगाहना का प्रमाण जघन्य से अंगुल का असंख्यातवां भाग है और उत्कृष्ट से चार कोस का है । यह चार कोस का अवगाहना प्रमाण ढाई द्वीप सें बाहिर के द्वीपों में रहने वाले भ्रमर आदि जीवों की अपेक्षा कहा गया जानना चाहिये। डीन्द्रिय, श्रीन्द्रिय और चतुरिन्द्रिय जीवों में बाद भेद ही होता है-सूक्ष्म भेद नहीं । इसलिये यहां सूक्ष्म भेद की अपेक्षा से कोई भी विचार नहीं किया गया है। सूत्र “१९७ ’
अंगुलरस असंखेज्जइभाग, पज्जतगाणं जहन्नेणं अंगुलस्स, असंखेज्जइभाग उक्कोसेणं चत्तारि गाउयाई) अपर्याप्त चतुरिन्द्रिय भवानी धन्य अवगाडनातु પ્રમાણુ અને ઉત્કૃષ્ટ અવગાહુનાનું પ્રમાણુ અગુલના અસ ંખ્યાતમા ભાગ પ્રમા• શુનુ છે. તેમજ પર્યાપ્તક ચતુરિન્દ્રિય જીવેની અવગાહનાનું પ્રમાણુ જઘન્યથી અંશુલના અસંખ્યાતમા ભાગનું અને ઉત્કૃષ્ટથી ચાર ગાઉ જેટલું છે. આ ચાર ગાઉ જેટલું અવગાહના પ્રમાણ અઢી દ્વીપથી બહારના દ્વીપામાં રહેનારા ભ્રમર વગેરે જીવાની અપેક્ષાએ કહેવામાં આવ્યુ છે તેમ જાણવુ' જોઇએ દ્વીન્દ્રિય, શ્રીન્દ્રિય અને ચતુરિન્દ્રિય જીવેામાં આદર ભેદ જ હાય છે, સૂમ ભેદ હાતા નથી એટલા માટે અહીં સૂક્ષ્મ ભેદની દૃષ્ટિએ કાઇ પણ જાતના વિચાર કરવામાં આવ્યા નથી. પ્રસૂ॰૧૯૭૪/
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अनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र१९८ पञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनिकानांशरीरावगाहनानि.१७५ मजलयरपंचिंदियतिरिक्खजोणियाणं पुच्छा, जहण्णणं अंगुलस्स असंखेजइभागं उक्कोसेण वि अंगुलस्स असंखेजइभाग। पजत्तगसंमुच्छिमजलयरपंचिंदियतिरिक्खजोणियाणं पुच्छा, गोयमा! जहण्णेणं अंगुलस्त असंखेजइभागं उक्कोसेणं जोयणसहस्सं। गम्भवक्कंतियजलयरपंचिंदियतिरिक्खजोणियाणं पुच्छा, गोयमा! जहण्णेणं अंगुलस्स असंखेजइभागं उक्कोसेणं जोयणसहस्सं। अपजत्तगगब्भवतियजलयरपंचिंदियतिरि
खजोणियाणे पुच्छा, गोयमा! जहण्णेणं अंगुलस्स असंखेजइभागं उक्कोसेण वि अंगुलस्स असंखेजइभागं। पज्जत्तगगब्भवक्कंतियजलयरपंचिंदियतिरिक्खजोणियाणं पुच्छा, गौयमा! जहाणेणं अंगुलस्स असंखेज्जइभागं उक्कोसेर्ण जोयणसहस्सं। चउप्पयथलयरपंचिंदियतिरिक्खजोणियाणं पुच्छा, गोयमा! जहणणे अंगुलस्त असंखेज्जइभागं उक्कोसेणं छ गाउयाइं। समुच्छिमच उप्पयथलयरपंचिंदियतिरिक्खजोणियाण पुच्छा, गोयमा! जहण्णेणं अंगुलस्स असंखेज्जइभागं उक्कोसेणं गाउयपुहुत्तं । अपज्जत्तगसंमुच्छिमचउप्पयथलयरपंचेंदियतिरिक्खजोणियाणं पुच्छा, गोयमा !जहणणेणं अंगुलस्स असंखेज्जइभागं उक्कोसेण वि अंगुलस्स असंखेज्जइभागं। पज्जत्तगसंमुच्छिमघउप्पयथलयरपंचेंदियतिरिक्खजोणियाणं पुच्छा, गोयमा! जहन्नेणं अंगुलस्स असंखेजइभागं उक्कोसेणं गाउयपुहत्तं। गन्भवतियचउप्पयथलयरपंचेंदियतिरिक्खजोणियाणं
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१७६
अनुयोगद्वारसूत्रे
पुच्छा, गोयमा ! जहन्नेणं ! अंगुलस्त असंखेज्जइभागं उक्कोसेणं छ गाउयाई | अपजत्तगगव्भवक्कंतियच उप्पयथलयर पंचेंदियतिरिक्खजोणियाणं पुच्छा, गोयमा ! जहण्णेणं अंगुलस्स असंखेजइभागं उक्कोसेण वि अंगुलस्स असंखेजइभागं । पजत्तगगव्भवक्कंतियच उप्पयथलपर पंचेदि यतिरिक्खजोणियाणं पुच्छा, गोयमा ! जहणेणं अंगुलस्त असंखेज्जइ भागं उक्कोसेण छ गाउयाई । उरपरिसपथलय (पंबिंदियतिरिक्ख जोणियाणं पुच्छा, गोयमा ! जहन्नेणं अंगुरस असंखेजइभागं उक्कोसेण जोयणसहस्सं संमुच्छिमउरपरिसप्पथलयरपंचिंदियतिरिक्ख जोणियाणं पुच्छा, गोयमा ! जहपणेणं अंगुलस्त असंखेजइभागं उक्कोसेण जोयणपुहुत्तं । अपजत्तगसंमुच्छिम उरपरिसप्पथलयरपंचेंदियतिरिक्खजोणियाणं पुच्छा, गोयमा ! जहणणेणं अंगुलस्स असंखेज्जइभागं उक्को सेण वि अंगुलस्स असंखेज्जइभागं । पज्जत्तगसंमुच्छिमउर परिसप्पथलय रपंचेंदियतिरिक्खजोणियाणं पुच्छा, गोयमा ! जहणणेणं अंगुलस्त असंखेज्जइभागं उक्कोसेणं जोयणपुहुत्तं । गभवक कंतिय उरपरिसप्पथलयरपंचेंदियतिरिक्खजोणियाणं पुच्छा, गोयमा ! जहन्नेणं अंगुलस्स असंखेजइभागं उक्कोसेण जोयणसहस्सं । अपजत्तगब्भवक्कंतियउरपरिसप्पथलयरपंचेंद्रियतिरिक्खजोणियाणं पुच्छा, गोयमा ! जहणणेणं अंगुलस्स असंखेज्इभागं उक्को सेण वि अंगुलस्स असंखेज्जइभागं । पजत्तग
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अनुयोगचन्द्रिकाटीका सू१९८ पञ्चेन्द्रियतिर्थग्योनिकादीनां शरीरावगाहनानि.१७७ गब्भवक्कंतियउरपरिसप्पथलयरपंचेदियतिरिक्खजोणियाणं पु. च्छा, गोयमा! जहण्णेणं अंगुलस्स असंखेजइभागं उक्कोसेणं जोयणसहस्स। भुयपरिसप्पथलयरपंचिंदियतिरिक्खजोणियाणं पुच्छा, गोयमा ! जहण्णेणं अंगुलस्स असंखेज्जइभागं उक्कोसेणं गाउयपुहुत्तं। संमुच्छिमभुयपरिसप्पथलयरपंचिंदियतिरिक्ख. जोणियाणं पुच्छा, गोयमा! जहन्नेणं अंगुलस्स असंखेज्जइ. भागं, उक्कोसेणं धणुपुहुत्तं। अपजत्तगसंमुच्छिमभुयपरिसप्प. थलयरपंचिंदियतिरिक्खजोणियाणं पुच्छा, गोयमा! जहन्ने] अंगुलस्स असंखेजइभागं उक्कोसेण वि अंगुलस्त असंखेज्जइ. भागं। पज्जत्तगसंमुच्छिमभुयपरिसप्पथलयरपंचिंदियतिरिक्खजोणियाणं पुच्छा, गोयमा! जहण्णेणं अंगुलस्स असंखेजइ. भागं उक्कोसेणं धणुपुहुत्तं। गब्भवक्कंतिय भुयपरिसप्पथलयरपंचिंदियतिरिक्खजोणियाणं पुच्छा, गोयमा! जहन्नेणं अंगुलस्स असंखेज्जइभागं उक्कोसेणं माउयपहुत्तं। अपज्जत्तगगब्भवतियभुयपरिसप्पथलयरपंचिंदियतिरिक्खजोणियाणं पुच्छा, गोयमा! जहन्नेणं अंगुलस्त असंखेजइभागं उक्कोसेण वि अंगुलस्त असंखेज्जइभागं। पज्जतगगब्भवक्कंतियभुयपरिसप्पथलयरपंचिंदियतिरिक्खजोणियाणं पुच्छा, गोयमा! जहण्णेणं अंगुलस्स असंखेज्जइभागं उक्कोसेण गाउयपुहत्तं । खहयरपंचिंदियतिरिक्खजोणियाणं पुच्छा, गोयमा! जहन्नणं अंगुलस्स असंखेज्जइभागं उक्कोसेणं धणुपुहृत्तं । संमुच्छिमखहयराणं जहाभुयपरिसप्पसंमुच्छिमाणं तिसु
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अनुयोगद्वारसूत्रे
विगमेसु तहा भाणियव्यं । गब्भवष कंतियख हयरपंचिंदियतिरिकखजोणियाणं पुच्छा गोयमा ! जहण्णेणं अंगुलस्त असंखेज्जइभागं उक्कोसेणं धणुपुहुत्तं । अपज्जत्तगगव्भवक्कंतिय खहयरपंचिंदियतिरिक्ख जोणियाणं पुच्छा, गोयमा ! जहन्नेणं अंगुलस्स असंखेजइभागं उक्कोसेण वि अंगुलस्स असंखेज्जइभागं । पज्जत्तगगब्भवक्कंतियखयहयरपंचोंदियतिरिक्खजाणियाणं पुच्छा, गोयमा ! जहन्नेणं अंगुलस्स असंखेज्जइभागं उक्को सेणं धणुपुहुत्तं । एत्थ संगहणिगाहाओ भवति, तं जहा जोयणसहस्लगाउयपुहुत्तं तत्तो य जोयणपुहुत्तं । दोहं तु धणुपुहुत्तं, संमुच्छिमे होइ उच्चत्तं ॥ १॥ जोयणसहस्सं छग्गाउयाइं तत्तो य जोयणसहस्सं । गाउयपुहुत्तं भुयगे, पक्खीसु भवे धणुपुहुत्तं ॥ २॥ मणुस्साणं भंते! के महालिया सरीरोगाहणा पण्णत्ता ? गोयमा ! जहपणेणं अंगुलस्स असंखेज्जइभागं उक्कोसेणं तिष्णि गाउयाई । संमुच्छिममणुस्साणं पुच्छा, गोयमा ! जहन्नेणं अंगुलस्त असंखेज्इभागं उक्कोसेण वि अंगुलस्स असंखेज्जइभागं । गब्भवक्कंतियमणुस्साणं पुच्छा, गोयमा ! जहपणेणं अंगुलस्स असंखेज्जइभागं उक्कोसेण तिण्णि गाउयाई । अप्पज्जत्तगगब्भवक्कंतियमणुस्साणं पुच्छा, गोयमा ! जहन्नेणं अंगुलस्स असंखेज्जइभागं उक्कोसेण वि अंगुलस्स असंखेज्जइभागं । पज्जत्तगगब्भवकंतियमणुस्साणं पुच्छा, गोयमा ! जहण्णेणं अंगुलस्त असंखेज्जइ भागं उक्को सेणं तिष्णि गाउयाइं ॥ सू० १९८ ॥
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अनुयोगचन्द्रिका टीका सू१९८ पश्चेन्द्रियतिर्यग्योनिकादीनां शरीरावगाहनानि.१७९.
छाया-पञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनिकानां भदन्त ! कियन्महती शरीरावगाहना प्राप्ता गौतम ! जघन्येन अंगुलस्य असंख्येयभागम्, उत्कर्षेण योजनसहस्रम् । जलचरपश्च. न्द्रियतिर्यग्योनिकानां पृच्छा, गौतम! एवमेव । संमूच्छिमजलचरपश्चेन्द्रियतियों निकानां पृच्छा, गौतम ! जघन्येन अंगुलस्य असंख्येयभागम् उत्कर्षेण योजनेसहस्रम् । अपर्याप्तकसंपूच्छिम नल वरपञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनिकानां पृच्छा, जघन्येन
" पंचेंदियतिरिक्खजोणियाणं " इत्यादि।
शब्दार्थ-(पंचेंदियतिरिक्खजोणियाणं भंते ! के महालिया सरीरोगा हणा पण्णत्तो) हे भदन्त ! पंचेन्द्रियतिर्यञ्चों की शरीरावगाहना कितनी है। (गोयमा!जहण्णेणं अंगुलस्सअसंखेज्जाभार्ग, उक्कोसेणं जोयणसहस्से)
उत्तर:- हे गौतम ! पंचेन्द्रियतिर्यश्चजीवों की शरीरावगाहना जघन्य से अंगुल के असंख्यातवें भाग प्रमाण है, और उत्कृष्ट से एकहजार योजन प्रमाण है। (जलयरपंचेंदियतिरिक्खजोणियाणे पुच्छा-गोयमा ! एवंचेव) जलचर तिर्यञ्च जो पंचेन्द्रिय जीव हैं उनकी शरीरावगाहना हे गौतम ! इसी प्रकार से है (समुच्छिमजलयरपंचे. दियतिरिक्खजोणियाणं पुच्छा गोयमा! जहणणेणं अंगुलस्स असंखे.
जहभागं उक्कोसेणं जोयणसहस्सं) समुश्छिम पंचेन्द्रिय तियत्र जीवों की शरीरावगाहना हे गौतम ! जघन्य से अंगुल के असंख्यातवें भाग प्रमाण है और उत्कृष्ट से १ हजार योजन प्रमाण है। (अपजसगसमुच्छिमजलयरपंचेंदियतिरिक्खजोणियाणं पुच्छा-जहणणं
"पंचेदियतिरिक्ख जोणियाणं " त्याह
शहाथ-(पंचेदियतिरिक्खजोणियाणं भंते ! के महालिया सरीरोगाहणा पण्णता) BRE! पयन्द्रिय तिय यानी शरीन टक्षी छ ? (गोयमा ! जहण्णेणं अंगुलस्स असंखेज्जइभागं, उक्कोसेणं जोयणसहस्स)
ઉત્તર-હે ગૌતમ ! પંચેન્દ્રિય તિર્યંચ છાની શરીરવગાહના જઘન્યથી અંગુલના અસંખ્યાતમાં ભાગ પ્રમાણ છે અને ઉત્કૃષ્ટથી એક હજાર જન प्रभाय छे. (जलयरपंचे दियति रक्ख जोणियाण पुच्छा गोयमा ! एवं चेव) જલચરતિર્યંચ જે પંચેન્દ્રિય જીવે છે, તેમની શરીરવગાહના હે ગૌતમ! मा प्रमाणे छे. (समुच्छिमजलयरपंचेदियतिरिक्खजोणियाण पुच्छा गोयमा! जहण्णेणं अंगुलस्स असंखेज्जइभागं, उक्कोसेणं जोयणसहस्स) भूमि પંચેન્દ્રિય તિર્યંચ ની શરીરવગાહના હે ગૌતમ! જઘન્યથી અલના અસંખ્યાતમા ભાગ પ્રમાણે છે અને ઉત્કૃષ્ટથી એક હજાર યોજન પ્રમાણ છે. (अपज्जत्तगसमुच्छिमजलयरपंचिदियतिरिक्खजोणियाणं पुच्छा जहण्णेणं अंगुलस्त्र
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१८०
अनुयोगद्वारसूत्रे
अंगुलस्य असंख्येयभागम्, उत्कर्षेणापि अंगुलस्य असंख्येय भागम् | पर्याप्तकसंमृछिमजलचर पञ्चेन्द्रिय तिर्यग्योनिकानां पृच्छा, गौतम ! जघन्येन अंगुलस्य असंख्येयभागं उत्कर्षेण योजनासहस्रम् | गर्भव्युत्क्रान्तिक जलचरपञ्चेन्द्रियतिर्यअंगुलस्स असंखेज्जइभाग, उक्कोसेण वि अंगुलस्स असंखेज्जइभागं समूच्छिमजलचर जीवों में जो अपर्याप्त संमूच्छिम जलचर जीव हैं उनकी शरीरावगाहना जघन्य और उत्कृष्ट से अंगुल के असंख्यातवें भाग प्रमाण है । (पज्जन्तगसंमुच्छिम जलयर पंचे दियतिरिक्खजोणिपाणं पुच्छा - गोयमा ! जहणेणं अंगुलस्स असंखेज्जहभागं उक्कोसेणं जोयणसहस्सं ) संमूच्छिमजलचरजीवों में जो पर्याप्त समूर्च्छिम जलचर जीव हैं उनकी शरीरावगाहना हे गौतम! जघन्य से तो अंगुल के असंख्यातवें भाग प्रमाण है और उत्कृष्ट से एक हजार योजन प्रभाग है । इसका निष्कर्षार्थ यह है कि तिर्यञ्च पंचेन्द्रिय जीव जलचर, स्थलघर और खेचर के भेद से ३ प्रकार के होते हैं। इन में जो जलचर तिर्यञ्च पंचेन्द्रिय जीव हैं उनके सात अवगाहना स्थान हैं । इनमें सब में जो उत्कृष्ट अवगाहना एक हजार योजन की कही है, वह स्वयंभूरमण समुद्र के मत्स्यों की अपेक्षा से कही गई जाननी चाहिये । स्थलचर पंचेन्द्रियतिर्यञ्चों के चतुष्पद, उरः परिसर्प और भुजपरिसर्प के भेद से तीन भेद हैं। इनमें जो चतुष्पद असंखेज्जइभागं, उक्कोसेण वि अंगुलस्त असंखेज्जइभागं ) संभूमि ४सयर જીવામાં જે અપર્યાપ્ત સમૂચ્છિમ જલચર જીવા છે તેએની શરીરાવગાહના
धन्य ते उत्सृष्टथी मगुसना असण्यातमा लाग प्रमाणु छे. (पज्जत्तगसंमुच्छिमजलयर पंचिंदियतिरिक्खजोणियाणं पुच्छा, गोयमा ! जहणणेणं अंगुलस्व असंखेज्जभागं उक्कोसेणं जोयणसहस्सं ) सभूमि सयर वामां ने पर्या પ્તક સ`સૂચ્છિ`મ જલચર જીવે છે તેની શરીરાવગાહના હૈ ગૌતમ ! જધન્યથી અ'ગુલના અસખ્યાતમા ભાગ પ્રમાણ છે અને ઉત્કૃષ્ટથી એક હજાર ચેાજન પ્રમાણુ છે. આના ભાવાર્થ આ પ્રમાણે છે કે તિય ચ પંચે ન્દ્રિય જીવા જલચર, સ્થલચર અને ખેચરના ભેદથી ત્રણ પ્રકારના હોય છે. આમાં જે જલચર તિય ચ પંચેન્દ્રિય જીવ! છે-તેમના સાત અવગાહનાનાં સ્થાના છે. આ બધામાં જે ઉત્કૃષ્ટ અવગાહના એક હજાર ચેાજન જેટલી કહેવામાં આવી છે, તે સ્વયંભૂરમણ સમુદ્રના મત્સ્યાની અપેક્ષાથી કહેલી જાણવી જોઈએ, સ્થલચર પાંચેન્દ્રિય તિય ચાની ચતુષ્પદ, ઉર:પરિસર્પ અને ભુજપરિસપ્ના ભેદથી ત્રણ ભેદો છે. આમાં જે ચતુષ્પદ સ્થલચર તિયચ
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अनुयोगचन्द्रिका टीका सू१९८ पञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनिकादीनां शरीरावगाहनानि.१८१ ग्योनिकानां पृच्छा गौतम ! जघन्येन अंगुलस्य असंख्येयभागम् उत्कर्षेण योजन सहस्रम् । अपर्याप्तकगर्भव्युत्क्रान्तिकजलचरपञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनिकानां पृच्छा, स्थलचर निर्यञ्च पंचेन्द्रिय जीव हैं उनके भी अवगाहना के सात स्थान हैं। तथा सादिक जो उरःपरिसर्प तिर्यश्चपंचेन्द्रियजीव हैं उनके भी सात अवगाहना स्थान हैं । गोधा, नकुल आदि जो भुजपरिसपैतिर्यञ्चपंचेन्द्रियजीव हैं। उनके भी सोत अवगाहना स्थान हैं। इस प्रकार चतुष्पद स्थलचर पंचेन्द्रिय तिर्यञ्चों के अवगाहनास्थान २१ होते हैं । खेचर जो पंचेन्द्रियतियश्चजीव हैं उनके भी अवगाहना स्थान ७ हैं। तथा एक अवगाहनास्थान सामान्यरूप से पंचेन्द्रिय तिर्यञ्चों का है। इस प्रकार पंचेन्द्रिय तिर्यश्च जीवों के ये अवगाहनस्थान ३६ हैं । इसी विषय को सूत्रकार आगे के सूत्रपाठ से स्पष्ट करते हैं-(गम्भवक्कंतिय जलयरपंचिदियतिरिक्ख जोणियाणं पुच्छा, गोयमा ! जहण्णेणं अंगुलस्स असंखेज्जइभाग उक्कोसेणं जोयणस. हस्सं ) गर्भजन्नवाले जो जलचरतियश्च पंचेन्द्रिय जीव है, उनकी .अवगाहना हे गौतम ! जघन्य से अंगुल के असंख्यातवें भागप्रमाण है, और उत्कृष्ट से एक हजारयोजन प्रमाण है । यह इनकी अव. गाहना सामान्यरूप से कही गई है। ये गर्भज पंचेन्द्रिय तिर्यश्च पर्याप्त પચેન્દ્રિય જીવે છે, તેમના પણ અવગાહનાના સાત સ્થાને છે, તેમજ સર્પાદિ જે ઉર પરિસર્પ તિર્યંચ પંચેન્દ્રિય જીવે છે તેમનાં પણ સાત અવગાહના સ્થાને છે, ઘે, નકુલ વગેરે જે ભુજપરિસર્પ તિર્યંચ પંચે ન્દ્રિય જીવે છે, તેમના પણ સાત અવગાહના સ્થાન છે. આ પ્રમાણે ચતુષ્પદ સ્થલચર પંચેન્દ્રિય તિર્યનાં અવગાહના સ્થાને ૨૧ હેાય છે. ખેચર કે જેઓ પંચેન્દ્રિય તિર્યંચ જીવે છે તેમના પણ અવગાહના સ્થાન સાત છે. તેમજ એક અવગાહના સ્થાન સામાન્ય રૂપથી પંચેન્દ્રિયતિયનું છે. આ પ્રમાણે પંચેન્દ્રિય તિર્યંચ ઇવેના આ અવગાહના સ્થાને ૩૬ છે. ने विषयने सूत्रा२ ३ ॥ सूत्र १५८८ रे छे-(गन्भवतियजलयरपंचिंदियतिरिक्खजोणियाणं पुच्छा, गोयमा ! जहण्णेणं अंगुलस्स असंखेज्ज इभाग उक्कोसेणं जोयणसहस्स) मा २ सय२ तिय"य पथेन्द्रिय । છે તેમની અવગાહના હે ગૌતમ! જઘન્યથી અંગુલના અસંખ્યાતમાં ભાગ પ્રમાણ છે અને ઉત્કૃષ્ટથી એક હજાર જન પ્રમાણ છે. આ એમની અવગાહના સામાન્ય રૂપમાં કહેવામાં આવી છે. આ ગજ પંચેન્દ્રિય તિયચ
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अनुयोगद्वारसूत्र गौतम ! जघन्येन अंगुलस्य असंख्येयभागम् उत्कर्षे णापि अंगुलस्य असंख्येयभागम् । पर्याप्तगर्मव्युत्क्रान्तिक जलचरपश्चेन्द्रियतिर्यग्योनि कानां पृच्छा, गौतम ! जघन्येन अंगुलस्य असंख्येयभागं उत्कर्षेण योजनसहस्रम् । चतुष्पदस्थलचरपञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनिकानां पृच्छा, गौतम ! जघन्येन अंगुलस्य असंख्येयभागम् उत्कर्षेण पड्गव्यूतानि । संमूच्छिमचतुष्पदस्थलचरपञ्चन्द्रियतिर्यग्योनिकानां
और अपर्याप्त दोनों प्रकार से होते हैं सो (अपज्जत्तगगम्भवक्कंतिय जलयरपंचेदियतिरक्खजोणियाण पुच्छा, गोयमा ! जहन्नेणं अंगुलस्म असंखेज्जहभागं उक्कोसेण वि अंगुलस्स असंखेज्जहभाग) जो अपर्याप्तकगर्भजतिर्यश्चपंचेन्द्रियजीव हैं उनकी अवगाहना हे गौतम ! जघन्य और उत्कृष्ट रूप से अंगुल के असंख्यातवें भाग ही है। (पज्जत्तगम्भवक्क तिय जलयरपंचेदियतिरिक्खजोणियाणं पुच्छा, गोयमा! जहण्गेणं अंगुलस्स असंखेज्जइभाग, उक्कोसेणं जोयणसहस्स) तथा जो पर्याप्त गर्भज पंचेन्द्रियतिर्यश्चजीव है उनकी हे गौतम ! जघन्य अवगाहना अंगुल के असंख्यातवें भाग प्रमाण है
और उत्कृष्ट अवगाहना १ हजार योजन प्रमाण है। (च उप्पयथलघरपंचिंदियतिरिक्खजोणियाणं पुच्छा, गोयमा ! जहण्णेणं अंगुलस्स असंखेजहभागं उक्कोसेणं छ गाउयाई ) जो चतुष्पद स्थलचर तिर्यच पंचेन्द्रिय जीव है उनकी अवगाहना हे गौतम ! जघन्य की अपेक्षा अंगुल के असंख्यातवें भाग प्रमाण हैं और उस्कृष्ट की अपेक्षा ६ गव्यूति पर्याप्त म२ ५५ति मन्ने ४२ डाय छ, त (अपज्जत्तगगब्भवतियजलयरपंचेदियतिरिक्खजोणियाणं पुच्छा गोयमा ! जहण्णेणं अंगुलस्स असं. खेज्जइभार्ग उक्कोसेण वि गुलस्स असंखेजइभागं) २ अर्यात nar તિર્યંચ પંચેન્દ્રિય છે, તેમની અવગાહના હે ગૌતમ! જઘન્ય અને ઉત્કૃષ્ટ રૂપથી અંગુલના અસંખ્યાતમા ભાગ જેટલી જ છે. (पज्जत्तगगब्भवकं तिय जलयरपंचिदियतिरिक्खजोणियाणं पुच्छा, गोयमा! जहण्णेणं अंगुलस्त असंखेज्जइभार्ग, उकोसेणं जोयणसहस्सं) तमन २ पर्याप्त Int પંચેન્દ્રિય તિર્યંચ જ છે, તેમની હે ગૌતમ! જઘન્ય અવાહના અંગુલના અસંખ્યાતમાં ભાગ પ્રમાણ છે અને ઉત્કૃષ્ટ અવગાહના ૧ હજાર યોજન પ્રમાણ 2. (च उपयथलयरपंविदियतिरिक जोणियाणं पुच्छा, गोयमा! जहण्णेर्ण अंगु. लस्स असंखेज्जइ भागं उकोसेणं छ गाउयाई)२ यतु०५६ २५सय२ तियय પંચેન્દ્રિય જીવે છે તેમની અવગાહના, હે ગૌતમ! જઘન્યની અપેક્ષા અંગુલના અસંખ્યાતમા ભાગ પ્રમાણ છે અને ઉત્કૃષ્ટની અપેક્ષા ૬ ગભૂતિ
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अनुयोगचन्द्रिका टीकासू१९८ पश्चेन्द्रियतिर्यग्योनिकादीनां शरीरावगाहनानि.१८३, पृच्छा गौतम ! जघन्येन अंगुलस्य असंख्येयभागम् , उत्कर्षेण गव्य॒तपृथक्त्वम्, अपर्याप्तकसमूच्छिम चतुष्पदस्थळचरपञ्चेन्द्रियतिर्यम्योनिकानां पृच्छा, गौतम ! जघन्येन अंगुलस्य असंख्येयभागम् उत्कर्षेणापि अंगुलस्य असंख्येयभागम् , प्रमाण है । यह चतुष्पद स्थलचर तिर्यश्च पंचेन्द्रिय जीवों की अवगाहना का प्रमाण सामान्य रूप से कहा गया है । ये चतुष्पद स्थलचर तिर्यश्च पंचेन्द्रिय जीव संमूछिम जन्म वाले होते हैं और ये पर्याप्त और अप. याप्त दोनों प्रकार के होते हैं-सो इनमें जो (संमुच्छिमचउप्पयथलयर पंचिदिय तिरिक्खजोणियाणं पुच्छा, गोषमा ! जहण्णेणं अंगुलस्स असंखेज्जहभागं उक्कोसेणं गाउयपुहुत्तं) संमूच्छिम जन्म वाले चतु. पद स्थलचरपंचेन्द्रियतियश्चजीव है उनकी अवगाहना का प्रमाण हे गौतम ! जघन्य से तो अंगुल का असंख्यातवां भाग है और उत्कृष्ट से गव्यूतपृथक्त्व है। पृथक्त्व यह पारिभाषिक संज्ञा है। मुख्यतः इसका अर्थदो से लेकर नौ तक ऐसा लिया जाता है कहीं २ बहुत इस अर्थ में भी पृथक्त्व शब्द आता है (अपज्जत्तगसमुच्छिमचउप्पयथलयरपंचेंदिय तिरिक्खजोणियाण पुच्छा, गोयमा ! जहण्णेणं अंगुलस्स असंखेज्जा भागं उक्कोसेण वि अंगुलस्स असंखेज्जहभागं) जो संमूछिम जन्म घाले चतुष्पद स्थलचरपंचेन्द्रियतिर्यंच जीव अपर्याप्तक हैं उनकी अवપ્રમાણ છે. આ ચતુષ્પદ સ્થલચર તિર્યંચ પંચેન્દ્રિય જીવોની અવગાહનાનું પ્રમાણુ સામાન્ય રૂપથી કહેવામાં આવ્યું છે. આ ચતુષ્પદ સ્થલચર તિર્યંચ પંચેન્દ્રિય જીવે સંમૂછિમ જન્મવાળા હોય છે અને આ સર્વે પર્યાપ્ત भने अपर्याप्त मन्२ २॥ डाय छे, तो मेमनामा २ (समुच्छिमच:प्पयथलयरपंचिंदियतिरिक्खजोणियाणं पुच्छा, गोयमा ! जहण्णेणं अंगुलस्स असंखेज्जाभार्ग उक्कोसेणं गाउयपुहुत्तं) सभूरिभ मा यतु०५४ स्थसयर પંચેન્દ્રિય તિયચ જીવે છે તેમની અવગાહનાનું પ્રમાણ હે ગૌતમ! જઘન્યથી તે અંગુલના અસંખ્યાતમા ભાગનું છે અને ઉત્કૃષ્ટથી ગભૂતિ પૃથવ છે. આ પારિભાષિક સંજ્ઞા છે. ઘણું કરીને આનો અર્થ બેથી લઈને નવ સુધી એ થાય છે, કેટલિક જગ્યાએ “ઘણું આ અર્થમાં પણ પૃથકૃત્વ શબ્દ मावे . (अपज्जत्तासमुच्छिमचउप्पयथलयरपंचेदियतिरिक्खजोणियाणं पुच्छा, गोयमा ! जहण्णेणं अंगुलस्स असंखेज्जइभार्ग उक्कोसेण वि अंगुलस्स असंखेज्जई भाग) જે સંમૂચ્છિ જન્મવાળા ચતુષ્પદ સ્થલચર પંચેન્દ્રિય તિર્યંચ છે અપર્યાપ્તક
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१८१
अनुयोगद्वारसूत्रे पर्याप्तकसंमूच्छिमचतुष्पदरथलचरपञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनिकानां पृच्छा, गौतम ! जघन्येन अंगुलस्य असख्येयभागम् उत्कर्षेण षट् गव्यूतपृथक्त्वम् , गर्भव्युत्क्रा. न्तिकचतुष्पदस्थलचरपञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनिकानां पृच्छा, गौतम! जघन्येन अंगुलस्य असंख्येयभागम् , उत्कर्षेण षड्गव्यूतानि। अपर्याप्तकगर्भव्युत्क्रागाहना हे गौतम ! जघन्य से अंगुल के असंख्यातवें भागप्रमाण है और उत्कृष्ट से भी अंगुल के असंख्यातवें भागप्रमाण है । (पज्जत्तग समुच्छिमचउपयथलयरपंचें दियतिरिक्ख जोणिगणं पुच्छा, गोयमा! जहन्नेणं अंगुलस्स असंखेज्जहभागं, उक्कोसेणं गाउयपुष्टुत्तं ) तथा जो संमूच्छिम जन्म वाले चतुष्पद स्थलचर पंचेन्द्रिय तियेच जीव पर्या. प्तक हैं उनकी अवगाहना हे गौतम! जघन्य से तो अंगुल के असंख्यातवें भाग प्रमाण है और उत्कृष्ट से-गव्यूत पृथक्त्व है ।(गम्भवक्कंति य चउप्पयथलयरपंचेंदिपत्तिरिक्खजोणियाणं पुच्छा, गोयमा ! जहण्णेणं अंगुलस्स असंखेज्जहभाग उक्कोसेणं छ गाउयाइं) जो पंचे. न्द्रिय चतुष्पदस्थलचरपंचेन्द्रियजीव गर्भजन्मवाले है उनकी अवगाहना हे गौतम ! जघन्य से अंगुल के असंख्यातवें भागप्रमाण है
और उत्कृष्ट से छ गव्यूत प्रमाण है। यह गर्भज पंचेन्द्रिय चतुष्पद स्थलचरतियश्चजीवों की अवगाहना का प्रमाण सामान्यरूप से प्रतिपादित किया गया है। पर्याप्त और अपर्याप्त की अपेक्षा इनकी अवगाहછે તેમની અવગાહના હેગૌતમ! જઘન્યથી અંગુલના અસંખ્યાતમા ભાગ પ્રમાણ छ भने यी ५ अशुलना सभ्यातमा प्रमाण छ. (पज्जत्तगसंमुच्छिमचउपयथलयरपंचेदियतिरिक्खजोणियाणे पुच्छा, गोयमा! जहन्नेणं अंगुलस्स असं. खेज्जइभागं उक्कोसेणं छ गाउयपुहुक्तं) तम २ भूरिभ भवाणा यतु. પદ સ્થલચરપંચેન્દ્રિય તિર્યંચ જ પર્યાપ્તક છે તેમની અવગાહના હે ગૌતમ! જઘન્યથી અંગુલના અસંખ્યાતમા ભાગ પ્રમાણે છે અને ઉત્કૃષ્ટથી सयत पृथत छ. (गन्भवतियच उप्पयथलयरपंचेदियतिरिक्खजोणियाणं पुच्छा, गोयमा! जहण्णेणं अंगुलस्स असंखेजइभागं उकोसेणं छ गाउयाई) २ पायेन्द्रिय ચતુષ્પદ સ્થલચર પંચેન્દ્રિય જી ગર્ભજન્મવાળા છે, તેમની અવગાહના હે ગતમ! જઘન્યથી અંગુલના અસંખ્યાતમાં ભાગ પ્રમાણ છે અને ઉત્કૃષ્ટથી ૬ ગભૂત પ્રમાણ છે આ ગર્ભજ પંચેન્દ્રિય ચતુષ્પદ સ્થલચર તિર્યંચ ની અવગાહનાનું પ્રમાણ સામાન્ય રૂપથી પ્રતિપાદિત કરવામાં આવ્યું છે. પર્યાપ્ત તેમજ અપર્યાપ્તની અપેક્ષાએ એમની અવગાહનાનું પ્રમાણુ આ પ્રમાણે છે.
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अनुयोगचन्द्रिका टीका सू१९८ पञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनिकादीनां शरीरावगाहनानि. १८५ विकचतुष्पदस्थलचरपञ्चेन्द्रिय तिर्यग्योनिकानां पृच्छा, गौतम । जघन्येन अंगुलस्य असंख्येयभागम् उत्कर्षेणापि अंगुलस्य असंख्येयभागम् । पर्याप्तगर्भन्युक्रान्तिकचतुष्पदस्थलचरपञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनिकानां पृच्छा, गौतम! जघन्येन अंगुलस्य असंख्येयभागम् उत्कर्षेण षड्गव्यूतानि । उरः परिसर्पस्थलचरपञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनिकानां पृच्छा, गौतम ! जघन्येन अङ्गगुलस्य असंख्येयभागम् उत्कर्षेण योजन सहस्रम् संमूच्छिमोरः परिसर्पस्थलचरपञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनिकानां पृच्छा, ना का प्रमाण इस प्रकार से है - ( अवज्जन्त गगन अवक्कंतियच उपयथलयर पंचेदिय तिरिक्खजोणियाणं पुच्छा, गोयमा ! जहणणेणं अगु लस्स असंखेज्जइभागं उक्कोसेण वि अंगुलस्स असंखेज्जइभागं ) अपर्याप्त गर्भजन्मवाले चतुष्पदस्थलचर पंचेन्द्रिय तिर्यच योनिवाले जीवों की अवगाहना, हे गौतम ! जघन्य और उत्कृष्ट रूप से अंगुल के असंख्यातवें भागप्रमाण है । (पज्जन्तगगन्भवक्कंतिय चउपयथलयरपंचेंदियतिरिक्खजोणियाणं पुच्छा, गोयमा ! जहणणेणं अंगुलस्स असंखेज्जइभागं उक्कोसेणं छ गाउयाइं ) तथा पर्यातक गर्भजन्म वाले जो चतुष्पद स्थलचर पंचेन्द्रिय तिर्यञ्च जीव हैं उनकी अवगाहना है गौतम! जघन्य से अंगुल के असंख्यातवें भाग प्रमाण है और उत्कृष्ट से ६ गन्यून प्रमाण है । ( उरपरि सप्पथलयर पंचिदियतिरिक्ख जोणियाणं पुच्छा गोयमा ! जहणेणं अंगुलस्स असंखेज्जहभागं उक्कोसेणं जोयणसहस्से ) जो उरः परिसर्प स्थलचर पंचेन्द्रियतिर्यश्च जीव हैं उनकी अवगाहना हे गौतम ! जघन्ध से अंगुल के अंसख्यातवें भाग
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(अपज्जतगगब्भवकंतियच उप्पयथळयरपंचे 'दियतिरिक्खजोणियाणं पुच्छा, गोयमा ! जहणणेणं अंगुलस्स असंखेज्जइभागं उक्कोसेण वि अंगुल असंखेज्जइभागं ) અપર્યાપ્તક ગ જન્મવાળા ચતુષ્પદ સ્થલચર પંચેન્દ્રિય તિયચ નિવાળા જીવાની અવગાહના હૈ ગૌતમ! જઘન્ય અને ઉત્કૃષ્ટ રૂપથી અ'ગુલના અસ ध्यातमा लाग प्रमाणु के (पज्जत्तगगन्भवक्कंतिय च उप्पयथलयर पंचे' दियतिरिक्खजोणियाणं पुच्छा, गोयमा ! जहणेणं अंगुलम्स असंखेज्जइभागं उक्कोसेणं छ गाउयाई ) તેમજ પર્યાપ્તક ગર્ભ જન્મવાળા જે ચતુષ્પદ્ સ્થલચર પાંચેન્દ્રિય તિર્યંચ જીવે છે, તેમની અવગાહના હૈ ગૌતમ ! જધન્યથી અંશુલના અસ`ખ્યાતમા ભાગ પ્રમાણુ છે અને ઉત્કૃષ્ટથી ૬ ગાઉ પ્રમાણ छे. ( उरपरिसप्पथलचरपंचि' दियतिरिक्खजोणियाणं पुच्छा - गोयमा ! जहणे णं अंगुलरस असंखेज्जइभागं उक्कोसेणं जोयणसहस्सं ) ? २:परिसर्प સ્થલચર પંચેન્દ્રિય તિય ચ જીવા છે તેમની અવગાહના, હૈ ગૌતમ ! જધન્યથી અંશુલના અસંખ્યાતમા ભાગ પ્રમાણુ છે અને ઉત્કૃષ્ટથી એક હજાર ચેાજન
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अनुयोगद्वारसूत्रे गौतम ! जघन्येन अंगुलस्य असंख्येयभागम् , उत्कर्षेण योजनपृथक्त्वम् । अपर्याप्तकसंमूछिमोर परिसर्पस्थलचरपश्चेन्द्रियातिर्यग्योनिकानां पृच्छा, गौतम ! जघन्येन अंगुलस्य असंख्येयभागम् उत्कर्षेणापि अंगुलस्य असंख्येयभागम् । पर्याप्तकसंमूछि गोरःपरिसर्पस्थलनरपश्चेन्द्रियतिर्यग्योनिकानां पृच्छा, गौतम ! जघन्येन अंगुलस्त्र असंख्येयभागम् उत्कर्षेण योजनपृथक्त्वम् । गर्भव्युत्क्रान्तिकोरः प्रमाण है और उत्कृष्ट से एक हजार योजन प्रमाण है। ( संमुच्छिम उरपरिसप्पथलयरपंचेदियतिरिक्खजोणियाणं पुच्छा-गोयमा ! जहण्णणं अंगुलस्स असंखेज्जहभागं उक्कोसेणं जोयणपुहत्तं) जो उरःपरिमपं स्थलचरपंचेन्द्रियतिर्यश्चजीव संमूच्छिम जन्म वाले हैं उनकी अवगाहना हे गौतम ! जघन्य से अंगुल के असंख्यातवें भागप्रमाण है और उत्कृष्ट से योजन पृथक्त्व है । ( अपज्जत्तग संमूच्छिमउरपरिसपयलयरपंचें दियतिरिक्ख जोणियाणं पुच्छा, गोयमा ! जहण्णेणं अंगुलस्स असंखेज्जहभागं उक्कोसेणं वि अंगुलस्स असं. खेज्जइभागं) संमूच्छिम जन्म वाले जो उरःपरिसर्प थलचर पंचेन्द्रिय तिर्यंचजीव अपर्याप्तक हैं उनकी जघन्य अवगाहना और उत्कृष्ट अवगाहना अंगुल के असंख्यातवें भाग प्रमाण हैं। (पज्जत्तगसंमुच्छिम उरपरिसप्पथलयरपंचेंदिय तिरिक्ख जोणियाणं पुच्छा-गोयमा! जहपणेणं अंगुलस्स-असंखेज्जइभागं उक्कोसेणं जोयणपुहुस)संमूछिमजन्मवाले जो उरःपरिसर्प थलचरपंचेन्द्रियतियञ्च जीव पर्याप्तक प्रमाण छ. (समुच्छिमउरपरिसप्पथलचरपंचेदियतिरिक्खजोणियाणं पुच्छा -गोयमा ! जहण्णेणं अंगुलस्स असंखेज्जइभागं उक्कोसेणं जोयणपुरत्त) २ १२ પરિસર્પ સ્થલચર પંચેન્દ્રિય તિર્યંચ છ સંમૂર્ણિમ જન્મવાળા છે તેમની અવગાહના હે ગૌતમ ! જઘન્યથી અંગુલના અસંખ્યાતમાં ભાગ પ્રમાણ છે भने ७४४थी योन पृथत्व छ. (अपज्जत्तगसंमुच्छिमउरपरिसप्पथलयरप'चेदियतिरिक्खजोणियाणं पुच्छा-गोयमा ! जहण्णेणं अगुलाम असंखेज्जइभागं उक्केसेण वि अंगुलम्स असंखेज्जइभाग) भूमि सभा २ २ પરિસર્ષ સ્થલચર પંચેન્દ્રિય તિર્યંચ છે અપર્યાપક છે. તેમની જઘન્ય અવ ગાહના અને ઉત્કૃષ્ટ અવગાહના અંગુલના અસંખ્યાતમા ભાગ પ્રમાણ છે. (पज्जत्तासमुच्छिमउरपरिसप्पथळयरपंचेदियतिरिक्खजोणियाणं पुच्छा-गोयमा ! जहण्णेणं अंगुलस्स असंखेज्जइभागं उक्कोसेणं जोयणपुहुत्तं) सभूચ્છિમ જન્મવાળા જે ઉર:પરિસર્પ સ્થલચર પંચેન્દ્રિય તિર્યંચ જીવ પર્યાપ્તક
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अनुयोगचन्द्रिका टीका सू१९८ पञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनिकादीनां शरीरावगाहनानि.१८७: परिसर्पस्थलचरपञ्चन्द्रिपतिर्यग्योनिकानां पृच्छा, गौतम ! जघन्येन अंगुलस्य असंख्येयभागम् उत्कर्षेण योजन सहस्रम् । अपर्याप्तकगर्भव्युत्क्रान्तिकोर परिसर्पस्थलचरपञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनिकानां पृच्छा, गौतम ! जघन्येन अंगुलस्य असंख्ये. यभागम्, उत्कर्षेणापि अंगुलस्य असंख्येयभागम् । पर्याप्तकगर्भव्युत्क्रान्तिकोर: परिसर्पस्थलचरपश्चन्द्रियनियंग्योनिकानां पृच्छा, गौतम ! जघन्येन अंगुलस्य असंख्येयभागं उत्कर्षेण योजनसहस्रम् । भुजपरिसर्पस्थलचरपञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनि हैं, उनकी अवगाहना हे गौतम ! जघन्य से अंगुल के असंख्यातवें भागप्रमाण है और उत्कृष्ट से योजनपृथक्त्व है। (गम्भवक्कंतिय उरपरिसप्पथलयरपंचें दियतिरिक्खजोणियाणं पुच्छा, गोयमा ! जहण्णेणं अंगुलस्स असंखेज्जहभाग उक्कोसेणं जोयणसहस्स) जो उरःपरिसर्प थलचरपंचेन्द्रियतिर्यश्च जीव गर्भजन्मवाले हैं उनकी अवगाहना हे गौतम ! जघन्य से अंगुल के असंख्यातवें भाग प्रमाण है और उत्कृष्ट से १ हजार योजन प्रमाण है। (अपज्जत्तगगम्भववकं. तिय उरपरिसप्पथलयरपंचें दियतिरिक्खजोणियाणं पुच्छा-गोयमा ! जहण्णणं अंगुलम्स असंखेज्जइभागं उक्कोसेणं वि अंगुलस्स असंखे
जहभागं) गर्भजन्मवाले जो उरःपरिसर्प थलचर तिर्यंच पंचेन्द्रिय जीव अपर्याप्तक हैं, उनकी अवगाहना हे गौतम ! उघन्य से अंगुल के असंख्यातवें भाग प्रमाण है और उत्कृष्ट से भी अंगुल के असंख्यातवें भोग प्रमाण है। (पज्जत्तगगन्भवतिय उरपरिसप्पथलयरपंचेंदियછે, તેમની અવગાહના, હે ગૌતમ | જઘન્યથી અંગુલના અસંખ્યાતમા ભાગ प्रभा छ भने ४थी यौन पृथक छ, (गब्भवतियउरपरिसप्पथल यरपंचेंदियतिरिक्खजोणियाणं पुच्छा गोयमा ! जहण्णेणं अंगुलस्स असंखेज्जह भागं उक्कोसेणं जोयणसहस्स) 8२:५रिस५ सयर पथेन्द्रिय तिय"य ગર્ભજન્મવાળા છે તેમની અવગાહના હે ગૌતમ! જઘન્યથી અંગુલના અસં.
ખ્યાતમા ભાગ પ્રમાણે છે અને ઉત્કૃષ્ટથી એક હજાર યોજન પ્રમાણે છે. (अपज्जत्तगगन्भवतिय उपरिसप्पथलयरपंचेदियतिरिक्ख जोणियाणं पुच्छा -गोयमा ! जहण्णेणं अंगुलस्स असंखेज्जइभागं उक्कोसेणं वि अंगुलस्स असंखेज्जइभाग) मा ७२:५रिस५ स्यसय तिय य यन्द्रिय
અપર્યાપ્તક છે તેમની અવગાહના હે ગૌતમ ! જઘન્યથી અંગુલના અસંખ્યાતમા ભાગ પ્રમાણે છે અને ઉત્કૃષ્ટથી પણ અંગુલના અસંખ્યાતમાં का प्रमाण छे. (पज्जत्तगगम्भवक्क तिय उरपरिसप्पथलपरपंचेदियतिरिक्त
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रेटट
अनुयोगद्वारसूत्रे
कानां पृच्छा, गौतम ! जघन्येन अंगुलस्य असंख्येयभागम् उत्कर्षेण गव्यूतपृथत्वम् । संपूछिमभुजपरिसर्पस्थलचर पञ्चेन्द्रिय तिर्यग्योनिकानां पृच्छा, गौतम ! जघन्येन अंगुलस्य असंख्येयभागम्, उत्कर्षेण धनुःपृथक्त्वम् । अपर्याप्तकसंमूच्छिमतिरिक्खजोणियाणं पुच्छा-गोयमा ! जहणेणं अंगुलस्स असंखेज्जइ भागं, उक्कोसेणं जोयणसहस्सं ) गर्भ जन्म वाले जो उरः परिसर्प थलचर तिर्यच पंचेन्द्रिय जीव पर्याप्त हैं उनकी अवगाहना हे गौतम ! जघन्य से अंगुल के असंख्यातवें भागप्रमाण है और उत्कृष्ट से १ हजार योजन प्रमाण है। (भुयपरिसप्पधलयरपंच दियतिरिक्खजोणियाणं पुच्छा - गोयमा ! जहणेणं अंगुलस्सअसंखेज्जइभागं उनको सेणं गाउयपुत्तं ) थलचर पंचेन्द्रिय तिर्यञ्च के भेद से जो भुजपिरसर्प है उनकी अवगाहना हे गौतम ! जघन्य से अंगुल के असंख्यातवें भाग प्रमाण है और उत्कृष्ट से गव्यूत पृथक्त्व है । (संमुच्छिमभुघपरिसप्पथलयरपंच दियतिरिक्खजोणियाणं पुच्छा - गोयमा ! जहणेणं अंगुलस्स असंखेज्जइभागं उक्कोसेणं धणुपुहुत्तं ) जो भुजपरिसर्प थलचर जीव संमूच्छिम जन्म वाले हैं, उनकी अवगाहना हे गौतम ! जघन्य से अंगुल के असंख्यातवें भाग प्रमाण है और उत्कृष्ट से धनुष पृथक्त्व हैं। (अपज्ज सग समुच्छिम भुय परिसप्पथलपर पंचिदियतिरि
जोणियाणं पुच्छा - गोयमा ! जहणेणं अगुलस्स असंखेज्जइमागं उक्को सेणं जोयणसहस ) शर्मन्वाजा के उपरि स्थलयर तिर्यय पथेन्द्रिय वा પર્યાપ્તક છે. તેમની અવગાહના હું ગૌતમ! જધન્યથી અંગુલના અસંખ્યાतभा लाग प्रमाणु छे ने उत्सृष्टथी १ डलर योजन प्रभाष छे. ( भुयपरिपथलयरपंचेदियतिरिक्खजानियागं पुच्छा - गोयमा ! जग अंगुलस्स असंखेज्जइभागं उक्को सेणं गाउयपुहुत्तं ) स्थसयर पथेन्द्रिय तिर्ययना लेहथी જે ભુજ રિસપ છે તેમની અવગાહના હૈ ગૌતમ ! જઘન્યથી અંગુલના असख्यातमा लाग प्रमाण छे भने त्नष्टथी गव्यत पृथत् छे ( संमुच्छिमभुयपरिसप्पथलयरपंचे दियतिरिक्खजोणियाणं पुच्छा - गोयमा ! जहजेण अंगुल असंखेज्जइभागं उक्कोसेणं धणुपुहुत्तं ) ने लुम्परिसर्प સ્થલચર જીવ સ‘મૂર્ચ્છિમ જન્મવાળા છે, તેમની અવગાહના હૈ ગૌતમ ! જધન્યથી અંગુલના અસખ્યાતમા ભાગ પ્રમાણ છે અને ઉત્કૃષ્ટથી ધનુષ પૃથ छे. ( अपज्ज सगसंमुमभुपरिसप्पथलयरपंचे 'दियतिरिक्ख जोगियाणं
पुच्छा
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अनुयोगचन्द्रिकाटीका सू१९८ पञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनिकादीनां शरीरावगाहनानि.१८९ भुनपरिमर्प स्थल वरपञ्चन्द्रियतिर्यग्योनि कानां पृच्छा, गौतम ! जघन्येन अंगुलस्य असंख्येषमागम् , उत्कर्षेणापि आलस्य असंख्येयभागम् । पर्याप्त समूच्छिमभुजपरिसर्पस्थलचरपश्चेन्द्रियतिर्यग्मोनिकानां पृच्छा, गौतम ! जघन्येन अंगुलस्य असंख्ये पभागम् उत्कर्षेण धनुःपयत पम् । गर्भव्युत्क्रानिकभु नपरिसर्पस्थल वरपञ्चे. न्द्रियतिर्यग्योनिकानां पृच्छा, गौतम ! जघन्येन अंगुलस्य असंख्येयभागम् उत्कर्षण गव्यूतपृथक्त्वम् । अपर्याप्तकगर्भव्युत्क्रान्तिकभुजपरिसर्पस्थलचरपञ्चेन्द्रियतिर्यक्ख जोणियाणं पुच्छा-गोयमा ! जहण्णेणं अंगुलस्स असंखेज्जइभागं उक्कोसेण वि अंगुलस्स असंखेज्जाभार्ग) तथा जो संमूच्छिम भुज परिसर्प थलचर जीव अपर्याप्तक हैं उनकी अवगाना हे गौतम ! जघन्य से अंगुल के असंख्यानवें भाग प्रमाण है और उस्कृष्ट से भी अंगुल के असंख्यातवें भाग प्रमाण है। (पज्जत्तगसंमुच्छिमभुयारिसप्पथलपरपंचिंदियतिरिक्ख जोणियाणं पुच्छा, गोयमा जहण्णेणं अंगु. लस्स असंखेज्जाभागं उक्कोसेणं धणुपुतं ) और जो संमूच्छिम भुजपरिसर्प थलचर पंचेंद्रिय तिर्यश्च जीव पर्याप्तक है उनकी अवगाहना हे गौतम ! जघन्य से तो अंगुल के असंख्यातवें भाग प्रमाण है और उत्कृष्ट से धनुष पृथक्त्व है। (गन्भवतियभुयपरिसपथलयरपंचिंदियतिरिक्खजोणियाणं पुच्छा-गोयमा! जहन्नेणं अंगुलस्स असंखेजहभागं उक्कोसेणं गाउयपुहत्तं) गर्भजन्मवाले जो भुजपरिसर्प थलचर पंचेन्द्रिय तिर्यश्च जीव हैं उनकी अवगाहना हे गौतम ! जघन्य गोयमा जहण्णेणं अंगुलस्स असखेज्जइभार्ग उक्कोसेण वि अंगुलस्स असंखेज्जइभाग) तेमा २ स भूमि परिस५ २५सय२ वो अपांत છે તેમની અવગાહના હે ગૌતમ, જઘન્યથી અંગુલના અસંખ્યાતમાં ભાગ પ્રમ ણ છે અને ઉત્કૃષ્ટથી પણ અંગુલના અખાતમા ભાગ પ્રમાણ છે, (पज्जत्तगसमुच्छिमभुयपरिसप्पथलयरपंचिंदियतिरिक्खजोणियाणं पुच्छा गोयमा ! जहण्णेण अंगुलस्स असंखेज्जइभागं सक्कोसेण धणुपुहुत्तं) सन २ સંમૂછિમ ભુજપરિસર્પ સ્થલચર પંચેન્દ્રિય તિર્યંચ છ પર્યાપ્તક છે તેમની અવગાહના હે ગતમ! જઘન્યથી તે અંગુલના અસંખ્યાતમાં ભાગ પ્રમાણુ छ भने यी धनुष पृथइप छ. (गब्भवक्कंतियभुयपरिसप्पथलयरपंचिंदियतिरिक्खजोणिय णं पुच्छा गोयमा! जहन्नेणं अंगुलस्स असंखेज्जइ भागं उक्कोसेणं गाउयपुहुत्तं) मा सुपरिस५ स्थसयर ५२. ન્દ્રિય તિર્યંચ જીવે છે, તેમની અવગાહના હે ગૌતમ! જઘન્યથી તે અંગુલના
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अनुयोगद्वारसूत्रे ग्योनिकानां पृच्छा, गौतम ! जघन्येन अंगुलस्य असंख्येयभागम् उत्कर्षेणापि अंगुलप असंख्येयभागम् । पर्याप्तगर्भव्युत्क्रान्तिकभुजपरिसर्पस्थलचरपञ्चेन्द्रियति योनिकानां पृच्छा. गौतम ! जघन्येन अंगुलम्य असंख्ये यभागम् उत्कर्षण गव्यूतपृथतमम् । खेचरपश्चेन्द्रियतिर्यग्योनिकानां पृच्छा गौतम ! जघन्येन अंगुलस्य असंख्येय भागम् उत्कर्षेग धनुःपृथक्त्वम् । संमूच्छिमखेवराणं यथा से तो अंगुल के असंख्यातवें भाग प्रमाण है और उत्कृष्ट से गव्यूत पृथक्त्व है। (अपज्जत्तगगम्भवक्कंतियभुयपरिसप्पथलयरपचिदियतिरिक्ख जोणियाणं पुच्छा-गोयमा! जहन्नेणं अंगुलस्स असंखेज्जा भागं उक्कोसेग वि अंगुलस्त असंखेज्जहभागं) जो भुजपरिसर्प थलघर जीव गर्भजन्म वाले हैं और अपर्याप्तावस्थापन है उनकी जघन्यावगाहना अंगुल के असंख्यातवें भाग प्रमाण होती है और उत्कृष्ट अव. गाहनो भी अंगुल के असंख्यातवें भाग प्रमाण होती है । (पज्जत्तग गम्भवतियभुयपरिसप्पथल परपंचिंदियतिरिक्व जोणियाणं पुच्छा -गोयगा! जहण्णेगं अंगुलस्त असंखेन्जहभाग उक्कोसेणं गाउय पहत्त) जो भुजपरिसर्प थलचर जीव गर्भ जन्म वाले हैं और पर्याप्तक है उनकी अवगाहना हे गौतम ! जघन्य से तो अंगुल के असंख्यातवें भाग प्रमाण है-और उस्कृष्ट से गव्यूतपृथक्त्व है । (खयरपंचिंदियतिरिक्व मोगियाणं पुच्छा-गोयमा ! जहण्णे गं अंगुलस्स असंखेन्जह भाग उक्कोसेणं धणुपुहत्तं) जो खेचर तियेच पंचेन्द्रिय जीव हैं, उनकी अस ज्यातमा मास प्रमाण छ भने यी स०यूत पृथप छ. (अप जत्तगगभवक्कंतियभुयपरिसप्पथलयरपंचिदियतिरिक्खजोणियाणं पुच्छा-गोयमा ! जहन्नेणं अंगुलस्स असंखेज्जइमागं उक्कोसेण वि अगुलरस अस'खेज्जहभाग) 2 सुपरिस५ श्यतयR Mritणा छ भने ५५.
સાવસ્થાપન્ન છે, તેમની જઘન્યાવગાહના અંગુલના અસંખ્યાતમા ભાગ પ્રમાણ હોય છે. અને ઉત્કૃષ્ટ અવગાહના પણ અંગુલના અખાતમાં ભાગ प्रभाडाय छे. (पज्जत्तगगम्भवतियभुयपरिसप्पथलयरपंचिंदियतिरिक्खजोणियाणं पुच्छा गोयमा। जहण्णेणं अंगुलस्स असंखेज्जइभाग उक्कोसेणं गाउयपुहुत्तं) २ सुभा२१५ स्थसय ७ मा छ भने पर्या. મક છે. તેમની અવગાહના હે ગૌતમ ! જઘન્યથી તે અંગુલને અસંખ્યા तभा मास प्रमाण छ. भने Gष्टथी गच्यूत पृथप छे. (खहयरपंचिं दियतिरिक्खजोणियाणं पुच्छा-गोयमा! जहण्णेणं अंगुलस अबखेज्जहभागं एक्कोसेणं धणुपुहुत्तं) २ ५२ तिय"५ ५न्द्रिय ७ छ, तमनी मा
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अनुयोगचन्द्रिका टीका सू१९८ पञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनिकादीनां शरीरावगाहनानि. १९१
सर्पमूर्च्छिमानां त्रिष्वपि गमेषु तथा भणितव्यम् । गर्भव्युत्क्रान्तिकखेचराणां पृच्छा, गौतम ! जघन्येन अंगुलस्य असंख्येयभागम्, उत्कर्षेण धनुः पृथक्त्वम् अपर्याप्त व्युत्क्रान्तिकखेचराणां पृच्छा, गौतम ! जघन्येन अंगुलस्य असंख्येअवगाहना हे गोतम । जघन्य से तो अंगुल असंख्यातवें भाग प्रमाण और उत्कृष्ट से धनुषपृथक्त्व है । (संमुिच्छमखहघराणं जहा भुषपरिसप्प समुच्छिमाणं तिसु वि गमेसु तहा भाणियव्वं ) सामान्य संमूच्छिम खेचर पंचेन्द्रिय तिर्यञ्च जीवों की अवगाहना, अपर्याप्त संमूच्छिम खेचर पंचेन्द्रिय तिर्यञ्चजीवों की अवगाहना, पर्याप्त संमूच्छिम खेचर तिर्यश्च जीवों की अवगाहना जघन्य और उत्कृष्ट रूप से जिस प्रकार संमूच्छिम जन्मबाले भुजपरिसर्प पंचेन्द्रिय तिर्यञ्चों के तीन पदों में कही गई है उसी प्रकार से समझना चाहिये । ( गग्भववकंतिय खहपरपंच दियतिरिक्ख जोणियाणं पुच्छा-गोयमा ! जहणेणं अंगुलस्स असंखेज्जइभागं उक्कोसेणं धणुपुहुतं ) गर्भजन्म वाले जो खेचर पंचेन्द्रिय तिर्यश्च हैं उनकी अवगाहना हे गौतम ! जघन्य से अंगुल के असंख्यातवें भाग प्रमाण है और उत्कृष्ट से धनुष पृथक्त्व है। (अपज्ज
भक्कंतिय खहयर पंचें दियतिरिक्खजोणियाणं पुच्छा - गोयमा ! जहणणं अंगुलस्स असंखेज्जइभागं उक्कोसेणं वि अंगुलस्स असंखेज्जहभागं ) गर्भजन्म वाले जो खेचर पंचेन्द्रिय अपर्याप्तक तिर्यञ्च हैं उनकी अवगाहना हे गौतम ! जघन्य से अंगुल के असंख्यातवें भाग
હુના હૈ ગૌતમ! જધન્યથી તે! અ'ગુલના અસ`ખ્યાતમા ભાગ પ્રમાણ છે गाने उत्कृष्टथी धनुष पृथत्व छे. ( समुष्टिमखहयराणं जहा भुयपरिसप्प संमुच्छिमाणं तिसु वि गमेसु तहा भाणियव्वं ) सामान्य सभूमि फेयर પૉંચેન્દ્રિય તિય ચજીવાની અવગાહના જધન્ય અને ઉત્કૃષ્ટ રૂપથી જેમ સમૂશ્ચિમ જન્મવાળા ભુજપરિસપ` પંચેન્દ્રિય તિય ચાના ત્રણ પદેમાં કહેवामां भावी छे, ते अभा ४ सम सेवी ले थे. ( गब्भवतिय खहयर पंचे 'दियतिरिक्खजोणियाणं पुच्छा, गोयमा ! जहणणेणं अंगुलस्स असंखेज्जइभागं उकोसेधगुपुत्तं) गर्भअन्भवाणा के मेयर पयेन्द्रिय तिर्यो छे तेमनी અવગાહના હું ગૌતમ! જઘન્યથી અશુલના અસંખ્યાતમા ભાગ પ્રમાણુ છે मने उत्सृष्टथी धनुष पृथइल छे, ( अपज्जत्त गगन्भवकं तियखहयर पंचिदियतिरिक्खजोणियाणं पुच्छा, गोयमा ! जहणेणं अंगुटम्स असंखेज्जइभागं उक्कोसेण वि अंगुलरस असंखेज्जइभार्ग ) गर्भवन्भवाजा के मेयर यथेन्द्रिय अय
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अनुयोगद्वारसूत्रे यभागम् उत्कर्षेणापि अंगुलस्य असंख्येयभागम् । पर्याप्तकगर्भव्युत्क्रान्तिकखेचराणां पृच्छा, गौतम ! जघन्येन अंगुलस्य असंख्येयभागम् उत्कर्षेण धनुःपृथक्त्वम् । अत्र संग्रहण्यो गाथा भवन्ति तद्यथा-योजनसहस्रगव्यूतपृथक्त्वं ततश्च योजनपृथक्त्वम् । इयोस्तु धनुःपृथक्त्वं संमृच्छिमे भवति उच्चत्वम् ॥१॥ योजनसहस्रस्य षड्गव्यूतानि ततश्च योजनसहस्रम् । गन्यूतिपृथप्रमाण है और उत्कृष्ट से भी अंगुल के असंख्यातवें भाग प्रमाण है। (पज्जत्तगगम्भवक्कंतियखहयरपंचे दियतिरिक्खजोणियाणं पुच्छागोयमा! जहण्णेणं अंगुलस्स असंखेज्जहभागं उक्कोसेणं धणुपुत्त) गर्भजन्म वाले जो खेचर पंचेन्द्रिय पर्याप्त तियश्च हैं उनकी अवगाहना हे गौतम ! जघन्य से तो अंगुल के असंख्यातवें भाग प्रमाण है और उत्कृष्ट से धनुष पृथक्त्व है। इस प्रकार पंचेन्द्रिय तिर्यश्चों के ३६ अव गोहन स्थानों का विस्तारपूर्वक कथन करके अब सूत्रकार संक्षेप से उनका निरूपण करने के लिये (एत्थ संगणिगाहामो भवंति) इन पदों द्वारा दो संग्रहणी गाथाओं को उद्धृत करने की सूचना देते हैं (तं जहा) वे दो गाथाएँ इस प्रकार से हैं-(जोयणसहस्स गाउय, पुसृत्तं तत्तोय जोयणपुष्टुत्तं । दोण्हं तु धणुपुहुत्तं, संमुच्छिमे होइ उच्चत्तं ॥१॥) संमुछिम जन्म वाले जो जलचर पंचेन्द्रिय तिर्यश्च हैं उनकी उस्कृष्ट शरीरावगाहना एक हजार योजन प्रमाण ही है, इससे अधिक नहीं है । संमू
પ્તક તિયરે છે, તેમની અવગાહના હે ગૌતમ! જઘન્યથી અંગુલના અસંખ્યાતમા ભાગ પ્રમાણ છે અને ઉત્કૃષ્ટથી પણ અંગુલના અસંખ્યાતમા भाग प्रमाण छे. (पज्जत्तगगन्भवतियखहयरपंचेदियतिरिक्खजोणियाणं पुच्छा, गोयमा ! जहण्णेणं अंगुलस्स असंखेज्जइभागं उक्कोसेणं धणुपुहत्तं) - જન્મવાળા જે ખેચર પંચેન્દ્રિય પર્યાપ્ત તિય ચે છે, તેમની અવગાહના હે ગૌતમ! જ ઘન્યથી તે અંગુલના અસંખ્યાતમા ભાગ પ્રમાણ છે અને ઉકષ્ટથી ધનુષપૃથક્વ છે. આ પ્રમાણે પંચેન્દ્રિય તિયોના ૩૦ અવગાહના સ્થાનનું વિસ્તારપૂર્વક કથન કરીને હવે સૂત્રકાર સંક્ષેપમાં તેના નિરૂપણ भाट (एस्थ संगहणिगाहाओ भवंति ) मा पहे। १९ मे सडक आयामान
त ४२वा सूयर ४२ छ. (तं जहा) ते मे गाया मा प्रमाणे :(जोयणसहस्स गाउयपुहुत्तं तत्तोय जोयणपुहत्तं । दोहं तु धणुपुहत्तं, समुच्छिमे होड उच्चत्तं ॥१॥ स भूमि भाणा २ सय२ पथेन्द्रिय तिय या छ તેમની ઉત્કૃષ્ટ શરીરવગાહના એક હજાર યોજન પ્રમાણ જેટલી જ છે.
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अनुयोगचन्द्रिकाटीकासूत्र१९८पञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनिकादीनां शरीरावगाहनानि.१९३ च्छिम जो पंचेन्द्रिय चतुष्पदतिर्यश्च हैं उनकी उत्कृष्ट अवगाहना केवल गव्यूत पृथक्त्व ही है। समूच्छिम जो उरः परिसर्प पश्चेन्द्रिय तिर्यच हैं उनकी उत्कृष्ट शरीरावगाहना सिर्फ योजन पृथक्त्व ही है। समूच्छिम जो भुजपरिसर्प पञ्चेन्द्रिय तिर्यश्च हैं उनकी उत्कृष्ट शरीरावगाहना और जो समूच्छिम खेचर पञ्चेन्द्रिय तिर्यश्च हैं उनकी उत्कृष्ट शरीरावगहाना केवल धनुः पृथक्त्व ही है । इस प्रकार इस गाथा में संमूच्छिम जन्म वाले तिर्यश्चों की अवगाहना के प्रमाण का यह संग्रह किया गया है। अब गर्भ जन्म वाले तिर्यञ्चों की अवगाहना के प्रमाण को संग्रह करके कहने वाली (जोयणसहस्सछग्गाउयाई तत्तो य जोयणसहस्सं । गाउयपुष्टुत्तं भुयगे, पक्खीसु भवे धणुपुहत्तं ॥१॥ यह गाथा है। इसमें यह प्रकट किया है-कि जो गर्भजन्म वाले जलचर पश्चेन्द्रिय तिर्यश्च है उनकी उत्कृष्ट अवगाहना एक हजार योजन प्रमाण ही है। गर्भज चतुष्पदों की छह गव्यूत है । गर्भज उरः परिसरों की एक हजार योजन की है। गर्भज भुजपरिसों की गव्यूत पृथक्त्व है। गर्भज पक्षियों की धनुः पृथक्त्व है। इस प्रकार पंचेन्द्रिय तिर्यञ्चों की अवगाहना को कहकर अब सूत्रकार मनुष्यों की अवगाहना का कथन करते हैं. આનાથી વધારે નથી. સંમૂછિમ જે પંચેન્દ્રિય ચતુષ્પદ તિયરે છે તેમની
કૃષ્ટ શરીરાવગાહના ફક્ત ગભૂત પ્રયત્ન જેટલી જ છે. સંમછિમ જે' ઉર પરિસર્ષ પંચેન્દ્રિય તિર્યંચે છે, તેમની ઉત્કૃષ્ટ શરીરવગાહના ફક્ત
જન પૃથકત્વ જેટલી જ છે, સંમછિમ જે ભુજ પરિસર્ષ પંચેન્દ્રિય તિય છે, તેમની ઉત્કૃષ્ટ શરીરવગાહને અને જે સંમૂછિમ ખેચર પચે. ન્દ્રિય તિય"ચો છે, તેમની ઉત્કૃષ્ટ શરીરવગાહના ફક્ત ધનુ પૃથક્વ જેટલી જ છે. આ પ્રમાણે આ ગાથામાં સંમ૭િમ જન્મવાળા તિર્યચેની અવગાહનાના પ્રમાણને સંગ્રહ કરવામાં આવ્યું છે, હવે ગર્ભ જન્મવાળા તિયાની અવગાહનાના પ્રમાણને સંગ્રહ કરીને કહેનારી ગાથા બતાવવામાં આવે છે(जोयणसहस्सछग्गाउयाई तत्तो य जोयण सहस्सं । गायउपुक्षुत्वं भुयगे, पक्खी भवे -धणुपुटुत्तं ॥१॥ मामां आ पात १५८ ४२वामा भावी छ। ગર્ભજન્મવાળા જલચર પંચેન્દ્રિય તિયરે છે તેમની ઉત્કૃષ્ટ અવગાહના એક હજાર જન પ્રમાણ જેટલી જ છે. ગર્ભજ ચતુષ્પદની ૬ ગભૂત છે. ગર્ભજ ઉપરિસર્પોની એક હજાર યોજન જેટલી છે. ગર્ભજ ભુજ પરિ. સર્પોની ગભૂત પૃથકત્વ છે. ગર્ભજ પક્ષીઓની ધનુ પૃથકત્વ છે. આ પ્રમાણે પંચેન્દ્રિય તિયની અવગાહનાનું સ્પષ્ટીકરણ કરીને હવે સૂત્રકાર
अ०२५
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अनु योगद्वारसूत्रे स्वं भुजगे पक्षिषु भवेद् धनुःपृथक्त्वम् ॥ २॥ मनुष्याणां भदन्त ! कियन्महती शरीरावगाहना प्रज्ञप्ता ?, गौतम ! जघन्येन अंगुलस्य असंख्येयभागम् उत्कर्षण श्रीणि गव्युतानि । संमूच्छिममनुष्याणां पृच्छा, गौतम ! जघन्येन अंगुलस्य असंख्येयभागम् उत्कर्षेणापि अंगुकस्य असंख्येयभागम् । गर्भव्युत्क्रान्तिकमनु. ज्याणां पृच्छा, गौतम ! जघन्येन अंगुलस्य असंख्येयभागम् उत्कर्षेण त्रीणि (मणुस्साणं भंते ! के महालिया सरीरोगाहणा पण्णत्ता ?) हे भदन्त ! मनुष्यों की शरीरावगाहना कितनी है? - उत्तर-(गोयमा) हे गौतम (जहण्णेणं अंगुलस्स असंखेज्जइ. भाग, उक्कोसेणं तिणि गाउयाई ) मनुष्यों की सामान्यरूप से शरीरावगाहना जघन्य तो अंगुल के असंख्यातवें भागप्रमाण है और उत्कृष्ट से तीन गव्यूत-कोश प्रमाण है । (संमुच्छिम मणुस्साणं पुच्छा-गोयमा! जहण्णणं अंगुलस्स असंखेज्जइभागं उक्कोसेणं वि अंगुलस्स असंखेज्जहभागं) जो समूच्छिम मनुष्य है उनकी अवगाहना हे गौतम ! जघन्य से अंगुल के असंख्यातवें भागप्रमाण है और उत्कृष्ट से भी अंगुल के असंख्यातवें भागप्रमाण है। (गन्भवतिय मणुस्साणं पुच्छा गोयमा । जहण्णेणं अंगुलस्स असंखेज्जहभागं उक्कोसेणं तिण्णि गाउयाई ) जो गर्भज मनुष्य हैं उनकी अवगाहना हे गौतम ! जघन्य से अंगुल के असंख्यातवें भाग प्रमाण है और उत्कृष्ट से तीन गव्यूत मनुष्यानी भगाना विष ४३ -(मणुस्माणं भंते ! के महालिया सरीरोगा. हणा पण्णत्ता ?) महत! मनुष्यानी शरीरा॥डनी छ ?
उत्तर-(गोयमा !) 3 गीतम! (जहण्णेणं अंगुलस्स असंखेज्जइभागं उक्कोसेणं तिण्णि गाउयाई) मनुष्यानी सामान्य ३५था शरीरावाना धन्यथा અંગુલના અસંખ્યાતમા ભાગ પ્રમાણ જેટલી છે અને ઉત્કૃષ્ટથી ત્રણ ગત
-प्रभा छे. (समुच्छिममणुस्वाणं पुच्छा-गोयमा ! जहण्णेणं अंगुलस्स असंखेज्जइभागं उक्कोसेणं वि अंगुलस्स असंखेज्जइभाग) भूमि मनुળે છે તેમની અવગાહના હે ગૌતમ! જઘન્યથી અંગુલના અસંખ્યાતમા ભાગ પ્રમાણ છે અને ઉત્કૃષ્ટથી પણ અંગુલના અસંખ્યાતમા ભાગ પ્રમાણ 2. (गन्भवक्कंतिय मणुस्साणं पुच्छा गोयमा ! जहण्णेणं अंगुलस्स असंखेज्जइ भाग उक्कोसेण तिण्णि गाउयाई) २ म भनुध्यो छे तेमनी अपना છે ગૌતમ! જઘન્યથી અંગુલના અસંખ્યાતમા ભાગ પ્રમાણ છે અને ઉત્કૃષ્ટથી
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अनुयोगचन्द्रिका टीकासूत्र १९८पञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनिकादीनां शरीरावगाहनानि. १९५
व्यूतानि | अपर्याप्तगर्भव्युत्क्रान्तिकमनुष्याणां पृच्छा, गौतम ! जघन्येन अंगु लस्य असंख्येयभागम् उत्कर्षेणापि अंगुलस्य असंख्येयभागम् । पर्याप्त कगर्भच्यु क्रान्तिकमनुष्याणां पृच्छा, गौतम ! जघन्येन अंगुलस्य असंख्येयभागम् उत्कर्षेण त्रीणि गव्यूतानि ॥ सू० १९८ ॥
टीका - इदं प्रायो निगदसिद्धं तथापि किंचिद् व्याख्यायते
अत्र संदर्भे प्रथममधिकपञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनिकानां शरीरावगाहना चिन्त्यते । सा चोत्कृष्टा योजनासहस्रम् जघन्या तु सर्वत्राङ्गुला संख्येय भागरूपत्वेनाविशेपाभोक्ता । १ । एते च पञ्चेन्द्रियतिर्यचो जलचरस्थळचरखेचरभेदात् त्रिधा प्रमाण है । ( अप्पज्जसगगन्भववकं तियमणुस्साणं पुच्छा-गोयमा ! जहणणं अंगुलस्स असंखेज्जइभागं उक्को सेणं वि अंगुलस्स असंखेज्जइ भाग) गर्भजन्म वाले अपर्याप्तक मनुष्यों की अवगाहना हे गौतम ! जघन्य से अंगुल के असंख्यातवें भागप्रमाण है और उत्कृष्ट से भी अंगुल के असंख्यातवें भागप्रमाण है । ( पज्जन्तगगन्भवक्कं तिय मणुस्साणं पुच्छा गोयमा ! जहणणेणं अंगुलस्स असंखेज्जहभाग उक्को सेणं तिणि गाडघाई ) गर्भ जन्म वाले पर्याप्तक मनुष्यों की अवगाहया हे गौतम जघन्य की अपेक्षा अंगुल के असंख्यातवें भाग प्रमाण और उत्कृष्ट से तीन गव्यूत प्रमाण है ।
भावर्थ - इस सूत्र द्वारा सूत्रकार ने पंचेन्द्रिय तिर्यञ्चों और मनुष्यों की जघन्य और उत्कृष्ट अवगाहना कही है। गर्भजन्म, संमूच्छिम जन्म और उपपात जन्म इस प्रकार जन्म तीन प्रकार का होता है ।
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ऋणु गव्यूत प्रभालु छे. ( अप्पज्जत्तगगब्भवक्कंतियमगुस्साणं पुच्छा - गोयमा ! जहणणं अंगुलस्स असंखेज्जइभागं उक्कोसेणं त्रि अंगुलस्स असंखेज्जइभाग) ગર્ભ જન્મવાળા અપર્યાપ્તક મનુષ્યની અવગાહના હૈ ગૌતમ ! જાન્યથી અંગુ લના અસખ્યાતમાં ભાગ પ્રમાણ છે અને ઉત્કૃષ્ટથી પણુ અંશુલના અસખ્યાતમા ભાગ प्रभाणु छे. (पज त्तगगब्भवक्कंतियम गुस्साणं पुच्छा गोयमा । जहणेणं अंगुलरस असंखेज्जइभागं उक्कोसेणं तिष्णि गाउयाइं ) हे गौतम ! જઘન્યની અપેક્ષા અંગુલના અસખ્યાતમા ભાગ પ્રમાણ છે અને ઉત્કૃષ્ટથી ત્રણ ગબૂત પ્રમાણ છે.
ભાવાર્થ સૂત્ર વધુ સૂત્રકારે ૫'ચેન્દ્રિય તિયખ્યા અને મનુષ્ચાની જઘન્ય અને ઉત્કૃષ્ટ અવગાહના નિરૂપિત કરેલ છે. ગજન્મ, સમૂમિ જન્મ અને ઉપપાત જન્મ આ પ્રમાણે જન્મ ત્રણ પ્રકારના હાય છે. આ
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अनुयोगद्वारस्ये भवन्ति । तत्र जलचरपञ्चेन्द्रियतिरश्चां सप्त अवगाहना स्थानानि । ८ । अत्र च सर्वत्र योजनसहस्रमानं स्वयम्भूरमणमत्स्यानां विज्ञेयम् । स्थलचरपश्चन्द्रियतिरश्च. चतुष्पदोरः परिसर्पभुजपरिसर्पभेदात् त्रिविधा बोध्याः। तेषु चतुष्पदस्थलचरपञ्चन्द्रियतिरिधामपि सप्तावगाहनास्थानानि१५॥ तथा-विषधराधुरःपरिसर्पपश्चन्द्रियतिरिश्वां सप्तावगाहनास्थानानि२२॥ गोधानकुलादि भुनपरिसर्पपश्चेन्द्रियतिरिश्चामपि सप्तावगाहनास्थानानि२९॥ इत्थं चतुष्पदस्थलचरपञ्चेन्द्रियतिरश्चामवगाहनाइनमें उपपातजन्म देव और नारकों के होता है तिर्यश्चों के और मनुष्यों के गर्भजन्म और संमूच्छिम जन्म होता है। पंचेन्द्रिय तिर्यञ्च, जलचर, स्थलचर, और खेचर के भेद से ३ प्रकार के होते हैं । इन प्रत्येक के अवगाहना स्थान यहां पर सात २ प्रकार के इस प्रकार से कहे गए हैं(१) सामान्य जलचरों की अवगाहना का स्थान, (२) संमूच्छिम. जन्मवाले जलचरों की अवगाहना का स्थान, (३) संमूञ्छिम जन्मवाले अपर्याप्तक जलचरों की अवगाहना का स्थान (४) संमूच्छिम जन्म घाले पर्याप्तक जलचों की अवगाहना का स्थान, (५) सामान्य गर्भ. जन्मवाले जल घर तिर्यश्चों की अवगाहना का स्थान, (६) गर्भजन्मवाले अपर्याप्तक जलचरों की अवगाहना का स्थान, (७) गर्भजन्मवाले पर्यातक जलचरों की अवगाहना का स्थान। इस प्रकार जलचरों के कहे गये इन सात स्थानों में सर्वत्र जघन्य अवगाहना और अपर्याप्तकों की उत्कृष्ट अंगुल के असंख्यातवें भागप्रमाण है । सामान्य जलचरों की સર્વમાં ઉપપાત જ દેવ અને નારકનાં હોય છે. તિર્યંચના અને માણ સેના ગર્ભજન્મ અને સંમૂછિમ જન્મ હોય છે પંચેન્દ્રિય તિય"ચ જલચર સ્થલચર અને ખેચરના ભેદથી ત્રણ પ્રકારના હોય છે. આમાંથી દરેકે દરેકનું અવગાહના સ્થાને અહીં સાત-સાત પ્રકારનું આ પ્રમાણે કહેવામાં આવ્યું छे. (१) सामान्य क्षयरोनी अ नानु स्थान. (२) स भूछि रामવાળા જલચની અવગાહનાનું સ્થાન. (૩) સંમૂચ્છિમ જન્મવાળા અપર્યાસક જલચરની અવગાહનાનું સ્થાન, (૪) સંમૂર્ણિમ જન્મવાળા પર્યાપક જલચરની અવગાહનાનું સ્થાન. (૫) સામાન્ય ગર્ભ જન્મવાળા જલચર તિય. ચેની અવગાહનાનું સ્થાન. (૬) ગર્ભજન્મવાળા અપર્યાપ્તક જલચરોની અવગાહનાનું સ્થાન. (૭) ગર્ભજન્મવાળા પર્યાપ્તક જલચરોની અવગાહનાનું સ્થાન આ પ્રમાણે જલયાના આ સાત સ્થાનમાં સર્વત્ર જઘન્ય અવગાહના અને અપર્યાપ્તકોની ઉત્કૃષ્ટ અવગાહના અંગુલના અસંખ્યાતમા ભાગ પ્રમાણ છે.
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अनुयोगचन्द्रिकाटीकास्त्र१९८पश्चेन्द्रियतिर्यग्योनिकादीनांशरीरावगाहनानि.१९७ स्थानानि एकविंशतिः। खेचरपश्चेन्द्रियतिरश्चामपि सप्तावगाहनास्थानानि बोध्यानि३६॥ इत्थं पश्चन्द्रियतिरश्वां पत्रिंशदवगाहनास्थानानि बोध्यानि । तदेवं व्यासेनावगाहनास्थानानि निरूप्य समासेन निरूपयितुं संग्रहणीगाथाद्वयमाह-'जोयणसहस्स' इत्यादि। संमूच्छिमानां जलचरपञ्चेन्द्रियतिरश्चामुत्कृष्टा शरीरावगाहना योजनसहस्रममाणा, न ततोऽधिका। समूच्छिमचतुष्पदानां तु गव्यूतपृथक्त्वम् । संच्छिमोरः परिसर्पाणां योजनपृथक्त्वमात्रम्। समूच्छिमोर:परिसर्पाणां योजनपृथक्त्वमात्रम् । संमूच्छिमभुजपरिसणां संमूछिमखेचराणां च धनुःपृथक्त्वमात्रम् । इत्थं संमूच्छिमविषये संक्षेपेणोत्कृष्टामवगाहनामुक्त्वा गर्भजविषयां तामाहगर्भजानां जलचरपश्चेन्द्रियतिरश्चामुत्कृष्टाऽवगाहना योजनसहस्रमात्रम् । गर्भजचतुष्पअवगाहना सामान्य पंचेन्द्रिय तियश्चों जैसी है। सामान्य पंचेन्द्रिय तिर्यश्चों को अवगाहना उत्कृष्ट से एक हजार योजनप्रमाण है और जघन्य से अंगुल के असंख्यातवें भागप्रमाण है । संमूर्छन जन्मवाले और गर्भजन्मवाले पर्याप्त जलचरों की अवगाहना उत्कृष्ट से एक हजार योजन प्रमाण है । यह अवगाहनामान अन्तिम समुद्र जो स्वयं भूरमण समुद्र है उसके मत्स्यों की अपेक्षा से जाननी चाहिये । स्थलचर तिर्यञ्चों के चतुष्पद उस परिसर्प, और भुजपरिसर्प के भेद से ३ भेद हैं। इन सबके भी अवगाहना स्थान जुदे २ सात सात हैं । इन सबकी जघन्य अवगाहना और अपर्याप्तकों की उत्कृष्ट अवगाहना अंगुल के असंख्यातवें भागप्रमाण है। संमूच्छिम जन्मवाले और गर्भजन्मवाले पर्याप्त चतुष्पदों की उत्कृष्ट अवगाहना का प्रमाण क्रमशः गव्यूत સામાન્ય જલચરની અવગાહના સામાન્ય પંચેન્દ્રિયતિયની અવગાહના જે પ્રમાણે કહી છે, તે પ્રમાણે સમજવી. સામાન્ય પંચૅન્દ્રિય તિયાની અવગાહના ઉત્કૃષ્ટથી સામાન્ય જલચરની અવગાહના સામાન્ય પંચેન્દ્રિય તિયની અવગાહના એક હજાર રોજન પ્રમાણે છે અને જઘન્યથી અંગુલના અસંખ્યાતમા ભાગ પ્રમાણે છે. સંમૂર્ણન જન્મવાળા અને ગર્ભ જન્મવાળા પર્યાપ્ત જલચરેની અવગાહના ઉત્કૃષ્ટ એક હજાર યોજન પ્રમાણ છે. આ અવગાહનામાના અંતિમ સમુદ્ર કે જે સ્વયંભૂરમણ સમુદ્ર છે, તેના મસ્યાની અપેક્ષાઓ જાણવી જોઈએ સ્થલચર તિયાના ચતુષ્પદ, ઉર:પરિસર્પ અને ભુજપરિસર્ષના ભેદથી ત્રણ ભેદે છે. આ સર્વના પણ અવગાહના સ્થાન જૂદા જૂદા સાત-સાત છે. આ સર્વની જઘન્ય અવગાહના અને અપર્યાપ્તકની ઉત્કૃષ્ટ અવગાહના અંગુલના અસંખ્યાતમાં ભાગ પ્રમાણે છે. સંમૂ૭િમ જન્મવાળા અને ગર્ભજન્મવાળા પર્યાપ્ત ચતુષ્પદોની ઉત્કૃષ્ટ અવગાહનાનું પ્રમાણ ક્રમશઃ ગતિ પ્રમાણ પૃથકૃત્વ અને ૬ ગભૂત છે.
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MEANITARAIAIL
YRIPARAS Int
अनुयोगद्वारसूत्र दानां षड्गव्यूतानि। गर्भ नोरः परिसणां योजनसहस्रम्। गर्भजभुजपरिसणागव्यूतपृथक् वम् । गर्भजपक्षिणां धनुःपृथकतामिति । इत्थं पश्चन्द्रियतिर्यक्रपदेऽत्रगाहनामुक्त्वा सम्पति मनुष्यपदेऽवगाहनामाह-'मणुस्साणं' इत्यादि । अत्र पञ्चावगाहनास्थानानि। तत्रौघिकपदे देवकुळदिमनुष्याणामुत्कष्टावगाहना त्रीणि गव्यूतानि । वातपित्तशुक्रशोणितादिषु समूच्छिममनुष्याणामुत्कृष्टाऽपि शरीरावगाहनाऽगुलासंख्येयभाग एव । ते हि एतावत्यामेवावगाहनायो वर्तमाना म्रियन्ते । अपर्याप्तकानां गर्भव्युत्क्रान्तिकमनुष्याणां शरीरावगाहनाऽपि उत्कृष्टतोऽगुला. संख्येयभाग एव । पर्याप्तकानां तु तेषामुत्कृष्ट शरीरावगाहना त्रीणि गव्यूतानि। इत्यं पश्चसु स्थानेषु मनुष्याणामुत्कृष्टाऽवगाहना बोध्या । जघन्याऽवगाहना तु मूलात् स्वयमनुसंधेया इति॥मू० १९८॥ पृथक्त्व और ६ गव्यून है। चतुष्पदों की ६ गव्यूतप्रमाण जो अवगाहना कही गई है वह देवकुरु आदि उत्तम भोग भूमिगत गर्भज हाथियों की अपेक्षा से जाननी चाहिये । समूछन जन्म वाले और गर्भजन्म वाले पर्याप्त उरः परिसर्पो की उत्कृष्ट अवगाहना क्रमशः योजनपृथक्त्य, योजन सहस्र की है। यहां एक हजार योजन की अवगाहना बहिबीपघर्ति गर्भज सर्पो की अपेक्षा कही गई जाननी चाहिये । संमूर्च्छन जन्म धाले और गर्भजन्मवाले पर्याप्त भुजपरिसरों की उत्कृष्ट अवगाहना क्रमशः धनुष पृथक्त्व और गव्यूत पृथक्त्व है। खेचर तिर्यश्चों में जघन्य अवगाहना सर्वत्र अंगुल के असंख्यातवें भागप्रमाण है । संमूर्च्छन पर्याप्त खेचरों की उत्कृष्ट अवगाहना धनुष पृथक्त्व की है और गर्भચતુષોની ૬ ગભૂત પ્રમાણે જે અવગાહના કહેવામાં આવી છે, તે દેવકુફ વગેરે ઉત્તમ ભેગ ભૂમિગત ગર્ભ જ હાથીઓની અપેક્ષાઓ જાણવી જોઈએ. સંમૂડ્ઝન જન્મવાળા અને ગર્ભ જન્મવાળા પર્યાપ્ત ઉર પરિસર્પોની ઉત્કૃષ્ટ અવગાહના ક્રમશઃ યેાજન પૃથકુત્વ અને જન સહસ્ત્ર જેટલી છે. અહી એક હજાર જનની અવગાહના, બહિ પવતિ ગર્ભજ સર્પોની અપેક્ષાએ કહેવામાં આવી છે, તેમ સમજવું જોઈએ સંપૂર્ઝન જન્મવાળા અને ગર્ભ જન્મવાળા પર્યાપ્ત ભુજ પરિસર્પોની ઉત્કૃષ્ટ અવગાહન ક્રમશઃ ધનુષ પૃથકૃત્વ અને ગવ્યત પ્રથકૃત્વ છે. ખેચર તિયામાં જઘન્ય અવગાહના સર્વત્ર અંગુલના અસંખ્યાતમા ભાગ પ્રમાણ છે. સંપૂરછન પર્યાપ્ત બેચરની ઉત્કૃષ્ટ અવગાહના ધનુષ પૃથફત્વની છે અને ગર્ભજન્મવાળા પર્યાપ્ત બેચરની ઉષ્ટ
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मनुयोगचन्द्रिकाटीकासूत्र१९८पश्चेन्द्रियतिर्यग्योनिकादीनांशरीरावगाहनानि.१९९ जन्मवाले पर्याप्त खेचरों की उत्कृष्ट अवगाहना भी धनुष पृथक्त्व है। विशेष खुलासा के लिये इस कोष्ठक को देखियेअ.क्र. नामः-सामान्यपंचेन्द्रिय जघन्य अवगाहना उत्कृष्ट अवगाहना १ , जलचर अंगुलके असं. भाग १ हजार यो. प्रमाण
संमूर्च्छन , , अपर्याप्त जलचर
अंगुल के असं.भाग , पर्याप्त जलचर
१ हजार योजन गर्भज , , अपर्या.,
, अं. अ.. ,, पर्याप्त , ___ , १ हजार यो. थलचर चतुष्पद अं अ. ६ गव्यूत संमूर्छ ,
____" " गव्यूत पृथक्त्व ,, अपर्याप्त ,
" " अ. अ. ,, पर्याप्त , असं. भा. गव्यूत पृथक्त्व गर्भज चतुष्पद
६ गव्यूत અવગાહના પણ ધનુષ પૃથફત્વ છે. આ સંબંધમાં વિશેષ સ્પષ્ટીકરણ માટે અહી નીચે મુજબ કોષ્ટક આપવામાં આવે છે. અ.ક્ર. નામ-સામાન્ય પંચેન્દ્રિય જઘન્ય અવગાહના ઉત્કૃષ્ટ અવગાહના , सय અંગુલનો અસંખ્યા ૧હજાર જનપ્રમાણ
તમે ભાગ સંમૂન અપર્યાપ્ત જલચર પર્યાપ્ત જલચર
म. मस. माग ગર્ભજ જલચર
૧ હજાર જન ,, अपर्याप्त ,
म. म. ,, पात,
૧ હજાર જન થલચર ચતુષ્પદ
म. मस. ૬ ગળ્યુત सभन्छन,
ગભૂત પૃથકૃત્વ , अपर्याप्त
म. अस. , पर्याप्त
" , ગભૂત પૃથકૃત્વ ગર્ભજ ઉર પરિસર્ષ
૬ ગભૂત
.
. .
. .
अस.
.
. . .
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२००
६
७
१
3
७
3
४
अपर्याप्तक
पर्याप्त
99
उरः परिसर्प
संमू. उरः परि.
19
"
19
99
"
गर्भज उरः परिसर्प
19
""
गर्भज
""
"
अपर्याप्त
पर्याप्त
भुज परिसर्प
समू. भुज परिसर्प
अपर्या.
पर्याप्त
अपर्याप्त
पर्याप्त
""
""
99
"
92
"9
२: परिस
सभूग्छन ७२: परि.
अपर्याप्त
पर्याप्त
ગભજ
""
અપર્યાપ્ત
પર્યાપ્ત
"2
""
"
27
ગલ જ ઉરઃ પરિસપ
11
ભુજ- પરિસપ્
संभू भू.
अपर्या
પર્યામ
"
अपर्याप्त
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પર્યાપ્ત
અપસ
પર્યાસ
અપર્ણાંક
પર્યાસ
59
""
अं.
"
17
"
19
19
99
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-
15
"9
19
99
"
म.
""
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39 99
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12:
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अ.
99
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24.
भ.
"
99
""
"
19
19
17
91
19
"9
असं
36
""
अ'.
39
""
अस
म.
"
ܙ
""
असं.
"
"
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अनुयोगद्वारसूत्रे
अ.
योजन पृथक्त्व
A.
१ हजार यो. योजन पृथक्त्व
अं.
अ.
योजन पृथक्त्व
१ हजार योजन
37.
अं. १ हजार योजन
गव्यूत पृथक्त्व धनुषपृथक्त्व
अं.
अ.
धनुष पृ.
गव्यूत पृ.
अं.
अ.
गव्यूत पृथक्त्व
म. २५.
ચૈાજન પૃથ
૧ હજાર ચાજન ૨ાજન પૃથ
म.
म.
ચેાજન પૃથત
૧ હજાર ાજન
म.
म.
૧ હજાર ચેાજન
ગભૂત પૃથવ ધનુષ પૃથવ
म.
म.
ધનુષ યુ.
અત્યંત પુ.
म.
म.
અત્યંત પુ.
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अनुयोगवन्द्रिका टीका सूत्र१९८पञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनि कानां शरीरावगाहनानि.२०१
खेचर
.."
सम्.
"
.
.
४
गर्भज
३ , अप.
" "
अं. अ. ४ , पर्या.
गर्भज ६ , अप.
अ. अ. ७ , पर्याप्त
धनु. पृ. ये पञ्चेन्द्रियतिर्यञ्चों की ३६ अवगाहना स्थान हैं मनुष्यों के अवगाहना स्थान ५ होते हैं । जिस की अवगाहना इस प्रकार से हैमनुष्य अं. अ.
३ गव्यूत प्र० २ संमू.
अं. अ. गर्भज
३ गव्यूत
अप. अं. अ. अं. अ. ५ , पर्या. अं. असं. ३ तीन गव्यू.
प्रथम सामान्य पद में देवकुरु आदि मनुष्यों की उत्कृष्ट अवगाहना तीन गव्यूत कही गई है । वात, पित्त, शुक्र शोणित आदि में संमूબેચર
, म. सभू० ,
स. स...
धनु. . सन -
" म. ,, म५. म. म.
म. म. ,, पति
, सस. प . मा . પંચેન્દ્રિય તિર્યચેના ૩૬ અવગાહન સ્થાને છે મોના અવગાહન સ્થાને પ હોય છે. જેમની અવગાહના આ પ્રમાણે છે. મનુષ્ય म. म.
3 च्यूत . भू० " , " "
म. म. 3 गाना
૩ ગભૂત , ગર્ભ જ अ५. म. म.
म. स. , पर्या० म. सा. 3 -यूत પ્રથમ સામાન્ય પદમાં દેવકુરૂ વગેરે મનુષ્યોની ઉત્કૃષ્ટ અવગાહના ત્રણ ગભૂત જેટલી કહેવામાં આવી છે, વાત, પિત્ત, શુક, શેણિત વગેરેમાં સમૂ
अ० २६
धनु. .
ܐܕ
ܙܕ
" ५५. , ५.
मस.
Gm PK
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अनुयोगद्वारसूत्रे मूलम्-वाणमंतराणं भवधारणिजा य उत्तरवेउब्विया य जहा असुरकुमाराणं तहा भाणियवा। जहा वाणमंतराणं तहा जोइ. सियाण वि । सोहम्ने कप्पे देवाणं भंते ! के महालिया सरीरोगाहना पण्णत्ता?, गोयमा! दुविहा पण्णत्ता, तं जहा-भवधारणिज्जा य उत्तरवेउव्विया य, तस्थ णं जा सा भवधारणिज्जा सा जहन्नेणं अंगुलस्स असंखेज्जइभागं उक्कोसेणं सत्तरयणीओ, तत्थ णं जा सा उत्तरजेउविया सा जहन्नेणं अंगुलस्स संखेजइभागं उक्कोसेणं जोयणसयसहस्सं। एवं ईसाणकप्पेऽविभाणियत्वं । जहा सोहम्मकप्पाणं देवाणं पुच्छा तहा सेसकप्पदेवाणं पुच्छा भाणियबा जाव अच्चुयकप्पो। सणंकुमारे कपये देवाणं भंते! के महालिया सरीरोगाहणा पण्णत्ता?, गोयमा! दुविहा पण्णत्ता, तं जहा-भवधारणिज्जा य उत्तरखे उविया य। तत्थ णं जा सा भवधारणिज्जा सा जहन्नेणं अंगुलस्ल असंखेज्जइभागं उक्को. सेणं छ रयणीओ, उत्तरवेउविया जहा सोहम्मे । जहा सणंकु. मारे तहा माहिंदे वि भाणियवा। बंभलंतगेसु भवधारणिज्जा जहन्नेणं अंगुलस्स असंखेज्जइभागं उक्कोसेणं पंच रयणीओ, उत्तरवेउविया जहा सोहम्मे। महासुक्कसहस्सारेसु भवधारणिज्जा जहन्नेणं अंगुलस्स असंखेज्जइभागं उक्कोलेणं चत्तारिछिम मनुष्यों की उत्कृष्ट भी शरीरावगाहना अंगुल के असंख्यातवें भागप्रमाण ही है। वे इतनी अवगाहना में रहते हुए ही मरते हैं।सू.१९८१
૭િ મ મનુની ઉત્કૃષ્ટથી પણ શરીરવગાહના અંગુલના અસંખ્યાતમાં ભાગ પ્રમાણ છે તેઓ આટલી અવગાહનામાં રહેવા છતાં એ મૃત્યુ પામે છે. સૂ૦૧૮
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अनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र १९९ वाणमंतरादीनां शरीरावगाहना निरूपणम् २०३ रयणीओ, उत्तरवेविया जहा सोहम्मे | आणयपाणय आरण अच्चुए उसु विभवधारणिज्जा जहन्त्रेणं अंगुलस्स असंखेज्जइभागं उक्कोसेणं तिणि रयणीओ, उत्तरवेउब्विया जहा सोहम्मे । गेवेज्जगदेवाणं भंते ! के महालिया सरीरोगाहणा पण्णत्ता ?, गोयमा ! एगे भवधारणिज्जे सरीरगे पण्णत्ते, से जहनेणं अंगुलस्स असंखेज्जइभागं उक्कोसेणं दुन्नि रयणीओ । अणुत्तरोववाइयदेवाणं भने ! के महालिया सरीरोगाहणा पण्णत्ता ?, गोयमा ! एगे भवधारणिजे सरीरगे । से जहन्नेणं अंगुलस्स असंखेज्जइभागं, उक्कोसेणं एगा रयणी । से समासओ तिविहे पण्णत्ते, तं जहा - सूईअंगुले, पयरंगुले घगंगुले । एगंगुलायया एगपएसिया सेढी सूई अंगुले सूई सूईए गुणिया पयरंगुले, पयरंसूईए गुणियं घणंगुले । एएसि णं सूईअंगुलपयरंगुलघणंगुलाणं कयरे कयरेहिंतो अप्पे वा, बहुए वा तुले वा विसेसाहियावा?, सम्वत्थोवे सृई अंगुले, पररंगुले असंखेज्जगुणे, घणं असंखेज्जगुणे । से तं उस्सेहंगुले ॥सू० १९९॥
छाया - वानव्यन्तराणां भवधारणीया च उत्तरक्रिया च यथा असुरकुमाराणां तथा भणितव्या । यथा वानव्यन्तराणां तथा ज्योतिष्काणामपि । सौधर्मे कल्पे
'वाणमंतराणं भवधारणिज्जा' इत्यादि । सू १९९ ॥
शब्दार्थः - ( वाणमंतराणं भवत्रारणिजा य उत्तर वे उब्विया य जहा असुरकुमाराणं तहा भाणियव्वा वानव्यंतरों की भवधारणी य और उत्तर वैक्रियरूप अवगाहना जिस प्रकार असुरकुमारों की पहिले कही गई है उसी प्रकार से जाननी चाहिये । (जहा वाणमंतराणं तहा जोह
'वाणमंतराणं भवधारणिज्जा' । इत्यादि ।
शब्दार्थ - (वाणमंतराणं भवधारणिज्जा य उत्तरवेउब्विया य जहा असुरकुमा• राणं तहा भणिया) वानव्यतिरौनी अवधारणीय भने उत्तरवैडिय ३५ यवગાહના જે પ્રમાણે અસુરકુમારેાની પહેલા કહેવામાં આવી છે. તે પ્રમાણે જ लाखुवी मे (जहा वाणमंतराणं तहा जोइसियाण वि) केवीलवधारणीय
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२०४
अनुयोगद्वारसूत्रे
देवानां भदन्त ! कियन्महती शरीरावगाहना मज्ञता ? गौतम ! द्विविधा प्रज्ञप्ता, तद्यथा - भवधारणीया च उत्तरक्रिया च तत्र खलु या सा भवधारणीया सा जघन्येन अंगुलस्य असंख्येयभागम् उत्कर्षेण सप्त रत्नयः, तत्र खलु या सा उत्तरवैक्रिया सा जघन्येन अंगुलस्य संख्येयभागम् उत्कर्षेण योजनशतसहस्रम् । एवं ईशान कल्पेsपि भणितव्यम् । यथा सौधर्म कल्पानां देवानां पृच्छा तथा शेपकल्पसियाण वि) जैसी भवधारणीय और उत्तरवेक्रियरूप अवगाहना arrainरों की है वैसी ही वह अवगाहना ज्योतिष्कदेवों की भी है। (सोहम्मे कप्पे देवा णं भंते ! के महालिया सरीरोगाहणा पण्णत्ता ) हे भदन्त ! सौधर्मकल्प में देवों की अवगाहना कितनी होती है ।
उत्तर- (गोयमा ! दुविहा पण्णत्ता) हे गौतम! सौधर्मकल्प में देवों को अवगाहना दो प्रकारकी कही गई है। ( तं जहा) वे प्रकार ये हैं - (भवधारणिजा य उत्तर वेउव्विद्या य ) एक भवधारणीय अवगाहना दूसरी उत्तर वैक्रिय अवगाहना । (तत्थ णं जा सा भवधारणिजा सा जहणणेणं अंगुलस्स असंखेजाइभागं उक्कोसे णं सत्त रयणीओ) इनमें जो भवधारणीय अवगाहना है- वह, जघन्य से अंगुल के असं. ख्यातवें भागप्रमाण है और उत्कृष्ट से ७ सात रत्नि प्रमाण है । - (तत्थ णं जा सा उन्नरवेउच्त्रिया सा जोगं अंगुलस्स संखेज्जइ भागं, कोसेणं जोगणसयसहस्स) उत्तरबैकिय अवगाहना जघन्य से अंगुल के संख्यानवे भाग प्रमाण है और उत्कृष्ट से एकलाख योजन प्रमाण
| 'एवं ईसाकप्पे वि भाणियव्वं ) इसी प्रकार से ईशानकल्प में भी અને ઉત્તરવૈક્રિય રૂપ અવગાહના વનભ્યતાની છે તેવી જ અવગાહના ज्योतिष्णु देवानी पशु छे. (सोहम्मे कप्पे देवाणं भंते! के महालिया सरीरोगाहणा पण्णत्ता) हे लढत ! सोधमा देवेनी अवगाहना टिसी होय छे.
उत्तर- ( गोयमा ! दुविहा पण्णत्ता) हे गौतम! सौधर्ममां देवानी अवगाहना मे प्रारी प्रज्ञप्त थयेश्री छे. (तंजा) ते प्रहारो भा प्रभायेछे( भवधारणिज्जा य उत्तरवेउच्त्रिया य) मे अवधारणीय अवगाहना भने श्रील उत्तरसैप्रिय अवगाहना (तत्थ णं जा सा भवधारणिज्जा सा जहणणं अंगुलरस असंखेज्जइभागं उक्कोसेणं सच रयणीओ) सभां ने अवधारणीय अवगाहुना છે. તે જઘન્યથી અંગુલના અમ્રખ્યાતમાં ભાગ પ્રમાણ છે, અને ઉત્કૃષ્ટથી सात रत्नि प्रमाण है. (तत्थ णं जासा उत्तरवेउन्विया सा जहण्णेणं अंगुलस्व संखेज्जइभागं उक्कोसेणं जोयणम्रयहस्स) उत्तम्बैठिय अवशाना धन्यथी અ'ગુલના સખ્યાત ભાગ પ્રમાણ છે અને ઉત્કૃષ્ટથી એક લાખ ચેજન પ્રમાણ छे, ( एवं ईसाणकप्पे वि भाणियव्वं) या प्रमाणे
शानमुदय माटे या
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अनुयोगवन्द्रिका टीका सूत्र १९९ वाणमंतरादीनां शरीरावगाहनानिरूपणम्२०५ देवानां पृच्छा भणितव्या यावत् अच्युत कल्पम् । सनत्कुमारे कल्पे देवानां भदन्त ! कियन्महती शरीरावगाहना प्रज्ञप्ता ? गौतम ! द्विविधा, प्रज्ञप्ता, तद्यथा-भधारणीया च उत्तर काच, तत्र खलु था सा भवधारणीया सा जघन्येन अंगुलस्थ असंख्येयभागम् उत्कर्षेण पत्नयः. उत्तरक्रिया यथा सौधर्म भवधारणीया। जानना चाहिये । (जहा सोहम्मकप्पाणं देवाणं पुच्छा-वहा सेस कप्प. देवाणं पुच्छा भाणियचा) सौधर्मकल्प के देवों की पृच्छा की जैसी शेषकल्पों के देवों की पृच्छा जाननी चाहिये।
प्रश्न:-यह कहां तक ?
उत्तर-(जाव अच्चुयकप्पो) अच्युतकल्प तक (लणं कुमारे कप्पे देवाणं भंते ! के महालिया सरीरोगाहणा पणता?) हे भदन्त ! सन. कुमारकल्प में देवों को शरीरावगाहना कितनी है ?
उत्तर :-(गोयमा ! दुविधा पण्णत्ता) हे गौतम ! दो प्रकार की वहां शरीरावगाहना प्रज्ञस हुई है । (तं जहा) वे यो प्रकार ये हैं(भवधारगिजाय उत्तरवे उवियो य) एक भवधारणीय दूसरी उत्तरपैकिया (नत्य णं जा मा भवधारणिजा सा जहन्नेणं अंगुलस्स असं. खेजहभागं उककोसेणं छ रयणीओ) इनमें जो यहां भवधारणीय शरीरावगाहना है वह जघन्य से तो अंगुल के असंख्यातवें भाग प्रमाण है। और उत्कृष्ट से छ रत्मिप्रमाण है। (उत्तरवेउब्धिया
otel यु नये. (जहा सोहम्मकपाणं देवाणं पुरछा त्तहा सेसकप्प देवाणं पुच्छ! भाणियव्या) सौधमपना पानी छानी भ शेष:योन દેવેની પૃચ્છા જાણવી જોઈએ.
प्रश्न-सा यां सुधी?
उत्तर-(जाव अच्चु कप्पो) अच्युत३६५ सुधी (सणंकुमारे कप्पे देवाणं भंते ! के महालिया सरीरोगाहणा पण्णत्ता) है मत! सनकुमार ७६५भां દેવેની શરીરવગાહના કેટલી છે?
उत्तर-(गोयमा ! दुविहा पण्णत्ता ?) गौतम ! प्रानी शरीरावा. ना त्या प्रशस येती छ. (तंजहा) ते मे ५७२१ मा प्रमाणे छ-(भवधारणिज्जा य उत्तरदेउब्धिया य) मे ना२३ गाने भी उत्तरवैठिय (तत्थ णं जा सा भवधारणिज्जा सा जान्नेणं अंगुलरल असंखेज्जइमागं उक्को. सेणं छ रयणीओ) ॥ सवमा रेडी माय शरीराबाहना छ, ते જ ઘન્યથી તો અંગુલના અસંખ્યાતમા ભાગ પ્રમાણ છે. અને ઉત્કૃષ્ટથી ૬
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अनुयोगद्वारसूत्रे यथा सनत्कुमारे तथा माहेन्द्रेऽपि भणिया । ब्रह्मलान्त योभधारणीया जघ न्येन अंगुलस्य असंख्येयभागम् उत्कर्षेण पश्चरायः, उत्तरक्रिया यथा सौधर्मे । महाशुक्र सहस्रारयोर्भवधारणीया जयन्येन अंगुलस्य असंख्येयभागम् उत्कर्षण चतस्रो रत्नयः, उत्तरक्रिया यथा सौधर्मे । आनतमाण तारणाच्युतेषु चतुर्णपि भवजहा सोहम्मे) उसर विक्रियारूपशरीरावगाहना वहां सौधर्मकल्प में कहे अनुसार एक लाख योजन की है। (जहा सणंकुमारे तहा माहिंदे वि माणियव्वा) सनत्कुमार के जैसा माहेन्द्रकल्प में भी छ रस्निप्रमाण अवगाहनाजानना चाहिये। (बमलंतगेसु भवधारणिज। जहन्नेणं अंगुलस्त असंखेज्जइभागं उक्कोसेणं पंच रयणीओ) ब्रह्म और लान्तक इन दो कल्पों में भवधारणीय शरीरावगाहना जघन्य से अंगुल के असंख्यातवें भाग प्रमाण और उत्कृष्ट से पांच रस्नि प्रमाण है। (उत्तरवे उब्धिया जहा सोहम्मे) उत्तरवैक्रियारूप शरीरावगाहना यहां पर सौधर्मकल्प के जैसी है । अर्थात् जघन्य से अंगुल के संख्यातवे भाग, उत्कृष्ट से एक लाख योजन का है। (महासुक्कसहस्सारेलु भवधारणिज्जा जहण्णेणं अंगुलस्त असंखेनइभार्ग उक्कोसेणं चत्तारि रयणीओ) महाशुक्र और सहस्रार इन दो कल्पों में भवधारणीय शरीरावगाहना जघन्य से अंगुल के असं ख्यातवें भाग प्रमाग और उत्कृष्ट से चार रलिप्रमाण है । (उत्तर उब्धिया जहा सोहम्मे) तथा उत्तावैक्रिया रूप शरीरावगाहना सौधलिन प्रमाण छ. (उत्तरवे उब्विया जहा सोहम्मे) उत्तविया ३५ शरीरावा.
ना त्यो सोध ८५नी भ में तम यौन सी छ. (जहा सणंकुमारे तहा माहिंदे वि भाणि यव्या) सनमारनी भ. मन्द्र४६५मा ५९ ६ नि प्रभाए समाना की मे. (बंभलंतगेसु भवधारणिज्जा जहन्नेणं अंगु. लस्स असंखेज्जइभ गं उक्कोरणं पंचरयणीओ) ब्रह्म सने त । मे કપમાં ભધારણીય શરીરવગાહના જઘન્યથી અંગુલના અસંખ્યાતમાં ભાગ प्रमाण भने ४थी पांय २नि प्रभा छे. (उत्तरवे उब्बिया जहा सोहम्मे) ઉત્તરક્રિયા રૂપ શરીરવગાહના અહીં સધમંકલ્પના જેવી છે એટલે કે જઘન્યથી અંગુલના સંખ્યામાં ભાગ ઉત્કૃષ્ટથી એક લાખ જનની છે. (महोसुक्के सहस्सारेसु भवधारणिज्जा जहण्णेणं अंगुलस्स असंखेज्जइभागं उकोसेणं चतारि रवणीओ) मा भने ससा२ मा मे ४६यामा साરહણીય શરીરવગાહના જઘન્યથી અંગુલના અસંખ્યાત ભાગ પ્રમાણ અને
५४थी यार २नि प्रमाण छ. (उत्तरवेउव्विया जहा सोहम्मे) तमा
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अनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र १९९ वाणमंतरादीनां शरीरावगाहनानिरूपणम्२०७ धारणीया जघन्येन अंगुलस्य असंख्येयभागम् , उत्कर्पण तिस्रो रत्नयः, उत्तरबैंक्रिया यथा सौधर्मे । ग्रैवेषकदेवानां भदन्त ! कियन्महती शरीरावगाहना प्रज्ञप्ता, गौतम! एक माधारणीयं शरीरकं प्रज्ञतम् , तत जघन्येन अंगुलस्य असंख्येय. भागम् उत्कर्षेण द्वे रस्नी । अनुतरोपपातिकदेवानां भदन्त ! कियन्महती शरीरामंकल्प के जैसा है। अर्थात् लाख योजनकी है। (आणयपाणय आरण अच्चुएसु वि भवधारणिजा जहण्ये गं अंगुलस्स असंखेजइभागं उक्कोलेणं लिणि रयणीओ) आनत, प्राणन,आरण और अच्युत इन कल्पों में भ पधारणीय शरीरावगाहना जघन्य से अंगुलके असं. ख्यातवें भाग प्रमाण और उत्कृष्ट से तीन रस्निप्रमाण है। (उत्तरवे उधिया जहा सोहम्मे) उत्सरवैक्रिरूप शरीरावगोहना यहां पर जैसी सौधर्म स्वर्ग में है वैसी है। अर्थात् लाखयोजन की है । (गेवेज्जगदेवाणं भंते ! के महालिया सरीरोगाहणा पण्णत्ता) हे भदन्त ! अवेयक देवों की शरीरावगाहना कितनी है ?
उत्तर :-(गोयमा ! एगे भवधारगिज्जे सरीरगे पण्णत्ते) हे गौतम ! यहां पर एक भवधारणीयशरीर ही प्रज्ञप्त हुआ है। (से जहण्गेणं अंगुलस्स असंखेन्जहभागं उक्कोसेणं दुन्नि रयणीओ) वह जघन्य से अंगुल के असंख्यातवें भाग प्रमाण है और उस्कृष्ट से दो रस्निप्रमाण है। इसीलिये यहां पर उत्तरवैक्रियारूप शरीराઉત્તરક્રિયા રૂ૫ શરીરવગાહના સૌધર્મકલ્પની જેમ છે. એટલે કે લાખ योनि की छ. (आणययाणयआरणअच्चुएसु वि भवधारणिज्जा जहण्णेणं अंगुलस्स असंखेज्जइभागं उक्कोसेणं तिण्णि रयणीओ) मानत, प्रात, भार અને અય્યત આ કલ્પમાં ભવધારણીય શરીરવગાહને જઘન્યથી અંગુલના અસંખ્યાતમાં ભાગ પ્રમાણ અને ઉત્કૃષ્ટથી ત્રણ પત્નિ (હાથ) પ્રમાણ છે. (उत्तरवेविया जहा सोहम्मे उत्तरवैठिया ३५ शरीराना सही सौधम वावी छ. मेले में साम योजनही छ. (गेवेज्जगदेवाण भंते ! के महालिया सीरोगाहणा पणत्ता) त ! धैवेय: हेवानी शरीरापाना ही छ ?
उत्तर-(गोयमा ! एगे भवधारणिज्जे सरीर गे पण्णत्ते) गौतम ! मही ये साधारणीय शरीर ४ प्रज्ञा यस छे. (से जहण्णेणं अंगुलरस असंखेज्जा भागं उकोसेणं दुन्निरयणीओ) ते धन्यथी मखना सभ्यातमा भाग પ્રમાણ છે અને ઉત્કૃષ્ટથી બે રનિં પ્રમાણ છે એટલા માટે અહીં ઉત્તર
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___ अनुयोगद्वारसूत्र वगाहना पज्ञप्ता ?, गौतम ! एकं भवधारणीयं शरीरकम् , तत् जघन्येन अंगुलस्य असंख्येयभागम् उन्कर्षेण एका रत्नी । तत् समासतः त्रिविधं प्रज्ञाम, तद्यथासूच्यालं प्रतरा शुलं घनाङ्गुलम् । एकागुलायता एकपदेशिका श्रेणी मूच्य.
गुलम् , सूची मूच्या गुणिता प्रतरागुलं, प्रतरं मूच्या गुणितं धनाङ्गालम् । एतेषां सूच्याल प्रतरालघनाालानां कतरन् कतरेभ्यः अल्पं वा बहुकं वा तुल्यं वा विशेषाधिक वा। सर्वलोकं सूच्याङ्गुलं, प्रतराङ्गुलम् असंख्येयगुणं, धनाङ्गुलम् असंख्येयगुणम् । तदेतत् उत्सेधागुलम् ।।मु० १९९।। वगाहना नहीं है। (अणुत्तरोववाइयं देवाणं भंते ! के महालिया. सरीरोगाहणा पण्णत्ता) हे भदन्त ! अनुत्तर विमानों में कितनी शरीरावगाहना प्रज्ञप्त हुई है ? । .. उत्तर-(गोयमा ! एगे भरधारणिज्जे सरीरगे, से जहन्नेणं अंगुलस्स असंखेज्जइमागं, उक्कोसेणं एगा रयणी) हे गौतम ! अनुत्तर विमानों में एक अवधारणीय शरीर होता है। वह जघन्य से अंगुल के असंख्यातवें भाग प्रमाण है और उत्कृष्ट से एक रत्निप्रमाण है। उत्तरवैक्रियारूप शरीरावगाहना नहीं है । (से समाप्त मोलिविहे पण्णते) यह उत्सेधाजुल संक्षेप से तीन प्रकार का कहा गया है। (तं जहा) उसके वे प्रकार ये-(मूई अंगुले, परंगुळे घणंगले) सूगल प्रतराङ्गुल घना गुल । (एगंगुलायया एपएमिया सेढी सूई अंगुले सूई मूईए गुणिया पथरंगुले, पयरं मईए गुणियं घगंगुले) एक अंगुल लंबी, तथा एकप्रदेश
या ३५ शरीरावाना नथी. (अणुत्तरोववाह देवाणं भंते ! के महालिया सरीरोगाणा पणत्ता) हे मत ! मनुत्तर विमानाभाटी शरीरापासना પ્રજ્ઞપ્ત થયેલી છે?
उत्तर--(गोयमा ! एगे भत्रधारणिज्जे सरीरगे, जहन्नेणं अंगुलम्स असंखेज्जइभाग, उनकोसेणं एगा रयणी) & गौतम अनुत्तरविमानामा सधारશીય શરીર હોય છે. તે જઘન્યથી અંગુલના અસંખ્યાતમાં ભાગ પ્રમાણ છે અને ઉત્કૃષ્ટ એક પત્નિ પ્રમાણ છે. ઉત્તરક્રિયા રૂ૫ શરીરવાહના નથી. (से समास ओ तिविहे पण्णते) ! त्से, शुत सपथी पानी वामां भावी छे. (तंजहा) तेना के प्रा। मा प्रमाणे 2. (सूई अंगुले, पयरंगुले घगंगुले) सूरयस, प्रतiya, अने बनiya (एगंगुलायया एगपए सिया सेढी सूई अंगुले सूई सूईए गुणिया परंगुले, पयरं सूईए, गुणियं घणगुले) मे
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अनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र १९९ वाणमंतरादीनां शरीरावगाहनानिरूपणम् २०९
टीका- 'वाणमंतराणं' इत्यादि --
व्याख्या निगदसिद्धा । ग्रैवेयकानुत्तरोपपातिकानां देवानामुत्तरक्रियाया अमावादेकं भवधारणीयं शरीरं बोध्यमिति । तत् अतुलमपाणं मृच्यङ्गुलादिभेदेन त्रिविधं बोध्यम् । व्याख्या पूर्ववद् बोध्या । एतदुपसंहरन्नाह तदेतदुरसेधाङ्गुलमिति । सू० १९९॥
मोटी जो नभः प्रदेश श्रेणी है उसका नाम सूच्यङ्गुल है। सूची को सूची से गुणा करने पर प्रतराङ्गुल बनता है। सूची से गुणित प्रतर घनगुल कहलाता है। (एएसिणं सूई अंगुलायरंगुलघणंगुलाणं कयरे करेहिंतो अप्पे वा बहुए वा तुल्ले वा विसेसाहिए वा ?) हे भदंत ! सूच्यङ्गुल, प्रतरांगुळ, घनाङ्गुल इनमें कौन किनसे अल्प है? कौन किनसे बहुत हैं ? कौन किनसे तुल्य हैं ? तथा कौन किनसे विशेषाधिक हैं ?
उत्तरः- (सव्वथोवे नई अंगुले, पयरंगुले असंखेज्जगुणे, घणंगुले असंखेज्जगुणे) इनमें सबसे कम सूच्यङ्गुल है सूच्यंगुल से असंख्यातगुणा धर्नागुल हैं । (से तं उस्ले हंगुले) इस प्रकार यह उत्से घाँगुल का स्वरूप है ।
भावार्थ - इस सूत्र द्वारा सूत्रकारने वानव्यतर, ज्योतिष्क एवं वैमानिक देवों की अवगाहना कितनी है ? यह बात कही है । व्यन्तर,
અ‘ગુલ લાંબી તેમજ એક પ્રદેશ. માટી જે નભ પ્રદેશ શ્રેણી છે તેનું નામ સૂચ્ચ'ગુલ છે. સૂચીને સૂચી વડે ગુણિત કરવામાં આવે તે પ્રતરાંગુત્ર અને छे सूचीथी गुणित प्रतर धनांशु उडेवाय छे. (एकक्षिणं सूई अंगुलपयरं गुल
गुळाणं कयरे करेहिंतो अप्पे वा बहुए वा तुल्ले वा विसेसाहिए वा १) हे ભદત ! સૂચ્યુ'ગુલ, પ્રતરાંગુલ, ઘનાંગુલ આમાંથી કાણુ દાનાથી અલ્પ છે? અને કાણુ કેાનાર્થી મહત્ છે? કાણુ કાની ખાખર-તુલ્ય છે? તેમજ કેણુ કેાનાથી વિશેષાધિક છે ?
उत्तर - ( सव्वधोत्रे सूई अंगुले, पयरंगुळे असंखेज्जगुणे, घनंगुले असंखेज्जगुणे ) આમાં સૌથી કમ સૂચ્ય શુલ છે. સૂચ્ચ ગુલથી અસંખ્યાતગણેા પ્રતરાંગુલ છે અને प्रतरांशुद्धथी असण्यात धनांगुप्त है (से तं उस्सेहंगुले) या प्रमाणे मा
ઉત્સેઘાંગુલનુ' સ્વરૂપ છે. ભાવા—આ સૂત્ર વડે સૂત્રકારે યાનન્યતર, જયેાતિક અને વૈમાનિક દેવાની અવગાહના કેટલી છે? આ વાત સ્પષ્ટ કરી છે. વ્યતર અને જ્યંતિક દેવાની અવગાહના અસુરકુમારની જેમ છે. વૈમાનિક દેવાની પણ
अ० २७
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अनुयोगद्वारसूत्रे एवं ज्योतिष्क देवों की अवगाहना असुरकुमार के कथन अनुसार है। वैमानिक देवों की भी ऐसी ही हैं । परन्तु जो इसमें-विशेषता है वह इस प्रकार से है-सौधर्म ईशान इन दो कल्पों में भवधारणीय शरीरावगाहना उत्कृष्टरूप-से सातहाथ प्रमाण है । सनत्कुमार और माहेन्द्र इन दो कल्पों में छह हाथ, ब्रह्मलोक एवं लान्तक में पांच हाथ, महाशुक्र और सहस्त्रार में चार हाथ' आनत, प्राणत, आरण एवं अच्युत में तीन हाथ, प्रैवेधकों-में दो हाथ एवं अनुत्तरविमानों में एक हाच प्रमाण है। यह उत्सेधांगुल सूची, प्रतर और घन के भेद से तीन प्रकार का है। इनका स्वरूप आत्मांगुल के प्रकरण में स्पष्ट कर दिया गया है । भवधारणीय अवगाहना सर्वत्र जघन्य से अंगुल के असंख्यातवें भाग प्रमाण कही गई है ।-इसे विशेष स्पष्ट करने के लिये यह कोष्ठक देखिये। क्रमांक देवनाम अवगाहना जघन्य उत्कृष्ट उ. वै. ज. उ. १ भवनपति भ. धारण अ.अ. ७ हाथ अं; गु. १ लाख २ व्यन्तरदेव
" ७ हाथ , असं. यो ३ ज्योतिष्कदेव
७ हाथ " , " ४ सौधर्म-ईशान આ પ્રમાણે જ છે પરંતુ જે એમાં વિશેષતા છે, તે આ પ્રમાણે છે સૌધર્મ ઈશાન આ બે કપમાં ભવધારણીય શરીરવગાહના ઉત્કૃષ્ટ રૂપથી સાત હાથ પ્રમાણ છે. સનકુમાર અને મહેન્દ્ર આ બે કલામાં ૬ હાથ, બ્રહ્મલેક અને લાંતકમાં પ હાથ, મહાશુક અને સહસ્ત્રારમાં ૪ હાથ, આનત, પ્રાણુત, આરણ. અને અચુતમાં ૩ હાથ, રૈવેયકમાં ૨ હાથ, અને અનુત્તર વિમાનેમાં એક હાથ પ્રમાણ છે. આ ઉસેધ ગુલ સૂચી, પ્રતર અને ઘનના ભેદથી ત્રણ પ્રકારની છે એમનું સ્વરૂપ આમાંગુલના પ્રકરણમાં સ્પષ્ટ કરવામાં આવ્યું છે ભવધારણીય અવગાહના સર્વત્ર જઘન્યથી અંગુલના અસંખ્યાતમાં ભાગ પ્રમાણ કહેવામાં આવી છે વિશેષ સ્પષ્ટતા માટે અહીં આ કેષ્ટક આપવામાં આવે છે – ક્રમાંક દેવનામ અવગાહના જઘન્ય ઉત્કૃષ્ટ ઉત્તરક્રિય જ, ઉ. ૧ ભવનપતિ ભવધારણીય અંગુલને ૭ હાથ , અંગુ. ૧લાખ
અસ’. ભાગ
" , यान ૨ ૦ચંતદેવ
" " " ૩ જતિષ્ણદેવ
" " " ४ सौधम शान "
" " "
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अनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र २०० प्रमाणाङ्गुलनिरूपणम् अथ प्रमाणाङ्गुलं निरूपयति
मूलम्-से किं तं पमाणंगुले ?, पमाणंगुले एगमेगस्स रणो चाउरंतचक्कवहिस्त अटुसोवष्णिए कागणीरयणे छत्तले दुवालसंस्सिए अट्रकगिए अहिंगरणसंठागसंठिए पपणत्ते, तस्सणं एगमेगा कोडी उस्सेहंगुलविक्खंभा, तं समणस्स भगवओ महावीरस्स अद्धंगुलं, तं सहस्तगुणं पमाणंगुलं भवइ। एएणं अंगुलप्पमाणेणं छ अंगुलाई पादो, दुवालसंगुलाई विहत्थी, दो विहत्थीओ रयणी, दो रयणीओ कुच्छी, दो कुच्छीओ धणू, दो धणुसहस्साई गाउयं, चत्तारि गाउयाई जोयणं। एएणं पमाणंगुलेणं किं पओयणं? एएणं पमाणंगुलेणं पुढवीणं कंडाणं पायालाणं भवणाणं भवणपत्थडाणं निरयाणं निरयावलीणं ५ सनत्कुमार-माहेद्र , , ६ हाथ " " , ६ ब्रह्मलोक-लान्तक , , ५ हाथ , " " ७ महाशुक्र-सहस्त्रार
४ हाथ " " " ८ आनत-त्राणत
३ हाथ " " ९ आरण-अच्युत
३ हाथ ,, ,,,, १०९ ग्रेवेयक
२ हाथ ,,उ.वै. नहीं करे ११ ४ अनुत्तर
१ हाथ " " " १५ ५ वां सर्वार्थसिद्ध
कुछ कम १हाथ, " "
॥सू० १९९॥ ५ सनकुमार माहेन्द्र,
हाय , , " ६ अझai aids , , ५ सय " " " ૭ મહાશુક સહસ્ત્રાર , , ४
" " " ८ मानत प्राणुत ,
3थ ६ मा अत्युत ,
૩ હાથ ૧૦ ૯ શૈવયક છે
. २ डाथ 6.वै. नथी , ૧૧ ૪ અનુત્તર ૧૨ ૫મું સર્વાર્થસિદ્ધ ,,
भाथ " "
|| સૂ૦ ૧૯૯૫
१ डाय
"
"
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२१२
___ अनुयोगद्वारसूत्रे निरयपत्थडाणं कप्पाणं विमाणाणं विमाणपत्थडाणं टंकाणं कूडाणं सेलाणं लिहरीणं पन्भाराणं विजयाणं वक्खाराणं वासाणं वासहराणं वासहरपवयाणं वेलाणं वेइयाणं दाराणं तोरणाणं दीवाणं समुदाणं आयामविखंभोच्चत्तोव्वेहपरिक्खेवा माविजति। से समासओ तिविहे पण्णते, तं जहा-सेढी अंगुले पपरंगुले घणंगुले। असंखेज्जाओ जोयणकोडाकोडीओ सेढी, सेढी सेढीए गुणिया पयरं, पयरं सेढाए गुणियं लोगो, संखेजएणं लोगो गुणिओ संज्जा लोगा, असंखेज्जएणं लोगोगुणिओ असंखेज्जालोगा, अर्णतेणं लोगो गुणिओ अणंता लोगा। एएसि णं सेढिअंगुलपयरंगुलघणंगुलाणं कयरे कयरेहितो अप्पे वा बहुए वा तुल्ले वा विसेसाहिए वा?, सम्वत्थोवे सेढिअंगुले, पयरंगुले असंखेज्जगुणे, घणंगुले असंखेजगुणे। से तं विभागनिष्फण्गे। से तं खेत्तप्पमाणे॥सू० २००॥
छाया-अथ किं तत् प्रमाणाङ्गुलम् ? प्रमाणाशुलम्-एकैकस्य राजश्चातु रन्तचक्रवर्तिनः अष्ट सौवर्णिकं काकणीरत्नं षट्तलं द्वादशास्त्रिकमष्टकर्णिकमधि. करणसंस्थानसंस्थितं प्रज्ञप्तम् । तस्य खलु एकैका कोटिरुत्सेधाङ्गुलविष्कम्भा, तत् श्रमणस्य भगवतो महावीरस्य अर्द्धाशलम् , तत् सहस्रगुणं प्रमाणालं भवति । एतेनाङ्गुलप्रमाणेन पडलानि पादः, द्वादशाशूलानि वितस्तिः द्वे वितस्ती रत्निः द्वे रत्नी कुक्षिः द्वौ कुक्षी धनुः, द्वे धनुःसहस्रे गव्यूतम् चत्वारि गव्य॒तानि योजनम् । एतेन प्रमाणाङ्गुलेन किं प्रयोजनम् ? एतेन प्रमाणाङ्गुलेन पृथिवीनां काण्डानां पातालाना भवनानां भवनप्रस्तटानां निरयाणां निरयावलीनां निरय. प्रस्तटानां कल्पानां विमानानां विमानपस्तटानां टङ्कानां कूटानां शैलानां शिखरिणां प्रारभाराणां विजयानां वक्षस्काराणां वर्षाणां वर्षधराणां वर्षधरपर्वतानां वेलानां वेदिकानां द्वाराणां तोरणानां द्वीपानां समुदाणामायामविष्कम्भोचत्तोद्वेधपरिक्षेपामाप्यन्ते । तत् समासतस्त्रिविधं प्रज्ञप्तम् । तद्यथा-श्रेण्यङ्गुलम् प्रतरा
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अनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र २०० प्रमाणाझ्गुलनिरूपणम्
गुलम् घनाङ्गुलम् । असंख्येया योजनकोटीकोटयः श्रेणिः, श्रेणिः श्रेण्या गणिता पतरम् , पतरं श्रेण्या गुणितं लोकः संख्येयेन लोको गुणितः संख्येया लोकाः, असंख्येयेन लोको गुणितोऽसंख्येया लोकाः, अनन्तेन लोको गुणितोऽन्ता लोकाः । एतेषां खलु श्रेष्यफुलपतरा गुलघनाङ्गुलानां कतमत् कतमेभ्यः अल्पं वा बहुकं वा तुल्यं वा विशेषाधिकं वा ? सर्वस्तोकं मूच्यङ्गुलम् , प्रतराशें लमसंख्येयगुणम् , घनाङ्गुलमसंख्येयगुणम् । तदेतद् प्रमाणाङ्गुलम् । तदेतत् विभागनिष्पन्नम् । तदेतत् क्षेत्रप्रमाणम् ॥ मू० २०० ॥
टोका-' से किं तं' इत्यादि
अथ किं तत् प्रमाणानुलम् ? इति शिष्य प्रश्नः । उत्तरयति-प्रमाणाङ्गुलमेवं विज्ञेयम् । यथा हि-एकैकस्य चातुरन्तचक्रवत्तिन:-चत्वारोऽन्ताश्चतुरन्ताः समुद्रत्रयहिमवत्पर्यन्ता भूभागासान चक्रेण वर्तयति अधिकरोति यः सः, तस्य
अब सूत्रकार प्रमाणाङ्गुल का कथन करते हैं'से किं तं पमाणंगुले ?' इत्यादि । स्वत्र २००॥ शब्दार्थ-(से किं तं पमाणंगुले) हे भदंत ! वह प्रमाणांगुल क्या है ?
उत्तर-(पमाणंगुले) वह प्रमाणांगुल इस प्रकार से है-(एगमेगस्स) रणो चाउरंतचक दृस्स अट्ठमोवषिणए कागणीरपणे छ तले. दुवालसंस्सिए, अरुण्णिए, अहिगरणसंठाणसंठिए पण्णत्ते) एक २ चातुरन्त चक्रवर्तीराजा का अष्ठसुवर्णप्रमाण एक काकिणी रत्न होता है। दक्षिणा, पूर्व और पश्चिम इन तीन दिशाओं में फैले हुए लवणसमुद्र तक की और हिमपत्पर्वत पर्यत तक की भूमि को-अर्थात् परिपूर्ण षट्खंडमण्डिन भरतक्षेत्र को-जो अपनेचक्र से विजित कर अधिकृत करते हैं। ऐसे राजा चातुरन्त चक्रवर्ती कहलाते हैं। भरत. क्षेत्र के ५ म्लेच्छखंड और १ आर्यखंड इस प्रकार ६ खंड हैं।
હવે સૂત્રકાર પ્રમાણગુલનું કથન કરે છે. "से किं तं पमाणंगुले ?" त्याहशहाथ-(से किं तं पमाणंगुले) ! ते प्रमख शु छ ?
उत्तर-(पमाणगुले) ते प्रभाyिa ॥ प्रमाणे छ-(एगमेगस्थ रण्णो चाउरंत चकवट्टिस्स अटुसोवण्णिए कागण रयणे छ तले दुवालसंस्सिए, अदुकपिणए, अहिगरणसंठाणसंठिए पण्णत्ते) मे से यातुरन्त यती सानु અષ્ટ સુવર્ણ પ્રમાણ એક કાકિણીરત્ન હોય છેદક્ષિણ પૂર્વ અને પશ્ચિમ આ ત્રણે દિશાઓમાં વ્યાપ્ત લવણસમુદ્ર સુધીની અને હિમવત્પર્વત પયત ભૂમિને એટલે કે પરિપૂર્ણ થડ ખંડમંડિત ભરતક્ષેત્રને–જે પિતાના ચક્રથી વિજિત કરી અધિકૃત કરે છે, એવા રાજાએ “ચાતુરન્ત ચક્રવર્તી કહેવાય
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अनुयोगद्वारसूत्रे
1
६
राज्ञः काकिणीरत्नम् अष्टसौवर्णिकम् - वारि मधुरतृणफलानि एक स षोडश सर्षपाः एकं धान्यमाषफलम् द्वे धान्यमाषकले एका गुञ्जा, पञ्चगुञ्जाः एकः कर्ममापकः, पोडश कर्ममापकाः एकः सुवः, अष्टममाणमस्येतिअष्टसौवर्णिकम् = अष्टसुवर्णप्रमाणम्, षट्तलम् चत्वारि चतुसृयपि दिक्षु द्वे ऊर्ध्वाधश्च इत्येवं षट्तलानि यत्र तत् द्वादशासिकम् - द्वादश = द्वादशसंख्यका अस्रयः= कोट्यो यत्र तत्- द्वादश कोटि युक्तम्, अष्टकर्णिकम् - अष्टकर्णिकाः चतस्र उपरि चतस्रोऽस्वादित्येवमष्टकर्णिकाः कोणा यस्य तत् अष्टकोणविशिष्टम्, तथाअधिकरण संस्थानसंस्थितम् अधिकरणम् = सुवर्णकारोप करणं, 'रण' इति भाषा प्रसिद्धं तत्संस्थानेन संस्थितम् = तत्सदृशाकारं समचतुरस्रमित्यर्थः प्रज्ञप्तं =मरूपितम् । तस्य काकिणीरत्नस्य एकैका कोटिरुत्सेधा गुलविष्कम्याउत्सेधलप्रमाण इन खंडों में चक्रवर्ती की आज्ञा चलती है । इसलिये वे इस षटूखंड भरतक्षेत्र के एकच्छत्र अधिपति हुआ करते हैं । ये १४ रत्नों के स्वामी होते हैं। उनमें १ एक काकिणीरत्न होता। इसका प्रमाण अष्ट सोनैया-भर भारवाला होता है । एक सुवर्ण १६ कर्म माकों का होता है । १ कर्ममापक पांच गुञ्जाओं का होता है। दो धान्यमाषफल की एक गुंजा होती है। एक धान्यमाषफल १३ वेतसरसों के वजन बराबर होता है। एक वेतसर्षप चार घुरतृणफलों का होता है । तथा वह का किणीरत्न ६ तलबाला होता है। चारोंदिशाओं की ओर के ४ तल और ऊपर नीचे की ओर के दो तल उस काकिणीरत्न में होते हैं । उसकी बादश कोटि होती हैं | आठ कर्णिकाएँ (आठ कोनेवाली) होती हैं इसका संस्थान सुनार की एरण
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છે. ભરતક્ષેત્રના ૫ મ્લેચ્છખડ અને ૧ આખ’ડ આ મ ६ उ छे. या હું ખંડમાં ચક્રવર્તીની આજ્ઞા મુજબ શાસન ચાલે છે. એટલા માટે તેઓ આ ષડ્ ખડ ભરતક્ષેત્રના એક છત્ર અધિપતિ હોય છે. એ ૧૪ રત્નાના સ્વામી હોય છે તેમાં ૧ એક કાર્ડણી રત્ન હાય એનુ પ્રમાણે અષ્ટસુવર્ણ જેટલુ હોય છે. એક સુત્ર ૧૬ કર્રમાકે નુ થાય છે. ૧ ક માષક પાંચ ગુન્તએ નેા થાય છે એ ધાન્યમાષ ફૂલની એક ગુઘ્ન થાય છે. એક ધાન્યમાષલ ૧૬ શ્વેત સરસવના વજન બરાબર થાય છે એક શ્વેત સ પ ચાર મધુર તુઝુ ફળનુ હોય છે તેમજ તે કાપ...ણી રત્ન તલવાળું હોય છે ચારે દિશાએની તરફના ૪ તલ અને ઉપરનીચેની તરફના એ તર્કી, આ પ્રમાણે આ ૬ તલે તે કાકકણી રત્નામાં થાય છે તેની દ્વાદશ કાટી ડાય છે આઠ કર્ણિકાએ હૈય છે. એનુ' સસ્થાન સેસનીની એરણ જેવુ
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अनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र २०० प्रमाणाङ्गुलनिरूपणम् विष्कम्भा भवति । काकिणी रत्नस्य द्वादशाप्यस्रय एकैकोत्सेधाशुलप्रमाणा भवन्तीति भावः । काकिणीरत्नं हि समचतुखं भवति, अतोऽस्यायमो विष्कम्भश्च प्रत्येकमुसेधागुलपमाणो बोध्यः । ऊ:कृता सती या कोटिरायामवती भवति सैव तिर्यकृता सती विष्कम्भरती भवति, अत आयाम विष्कम्भयोरेकतरनिर्णयेऽप्यपरोऽपि निर्णीत एवेति सूत्रे विष्कम्भ एवोपात्तः तेन आयामोऽपि स्वत एव बोध्यः । तदेवं काकिणीरत्नमुत्से धाङ्गलप्रमाणमुक्तम् । तदेकैककोटिगत मुत्से धाङ्गुलं श्रमणस्य भगवतो महावीरस्य अङ्गुिलम् । तत् सहस्रगुणं प्रमाके जैसा होता है । अर्थात् यह समचतुरस्त्र होता है। (तस्स णं एममेगा कोडी उम्से हंगुलविक्व भा) इस काकिणी रत्न की एक कोटी उत्सेधाङ्गुल प्रमाण चौड़ी होती है। तात्पर्य कहने का पह है कि काकिणी प्रस्न की जो १२ कोटियां हैं, वे एक उत्सेबोङ्गुल प्रमाण होती है । क्योंकि काकिणीरत्न लमचतुरन होना है,, इसलिये हमका आयामलम्बाई, और विष्कंभ-चौडाई, ये प्रत्येक उत्सेधांगुल प्रमाण होते हैं, ऐसा जानना चाहिये। ऊँची करने पर जो कोटि आयामवतीलंबी होती है, वही तिरछी करने पर विष्भवती-चौड़ी-हो जाती है। इसलिये आयाम और विष्कंभ इनमें से किसी एक का निर्णय हो जाने पर दूसरा भी निर्णित हो जाता है, इसी ख्याल से मूत्र. कारने सूत्र में विष्कम पद का ही पाठ रखा है। क्योंकि इसी से आयाम का बोध हो जाता है इस प्रकार काकिणीरत्न उत्सेधांगुल प्रमाण होता है, यह बात सूत्रकारने यज्ञ कही है। (तं ममणस्सडाय छे सेट है । समयतुर डाय . (तस्स णं एगमेगा कोडी उस्सेहंगुउविक्खंभा) in size २लनी से से ट सेवाशुस प्रभार પહેળી હોય છે તાત્પર્ય આ પ્રમાણે છે કે કાકિ રત્નને જે ૧૨ ખૂણાઓ છે તે એક ઉધાંગુલ પ્રમાણ છે. કેમકે કાકિ રત્ન સમચતુરસ્ય હોય છે, मेटसा भाटे भान भायाम (बा). मने १० (पा ) २४ से. ધાંગુલ પ્રમાણ હોય છે, આમ જાણવું જોઈએ ઊંચી કરવાથી જે કેટિ मायावती--(Aisी) होय छे, ते aiसी ४२वाथी विभवती-पढ़ी -था જાય છે. એટલા માટે અયામ અને વિષ્કભ આમાં ગમે તે એકની જાણ થઈ જાય તે તેના પરથી બીજા વિશે પણ જ્ઞાન થઈ જાય છે એટલા માટે જ સૂત્રકારે સૂત્રમાં માત્ર વિષ્કભ પદનું જ કથન કર્યું છે. કેમકે આનાથી જ આયામનું જ્ઞાન થઈ જાય છે. આ પ્રમાણે કાકિયું રત્ન ઉત્સાંગલ प्रभा याय छे, मा पात सूत्ररे भी ही छ. (तं समणस भगवओ
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२१६
अनुयोगद्वारसूत्रे
णाङ्गुलम् भववि-सहस्रमुत्सेधाङ्गुलानि एक प्रमाणांगुलमित्यर्थः । अथवा-परमप्रकर्षरूपं मानं प्राप्तमङ्गुलं प्रमाण गुल- नातः परं बृहत्तरमङ्गुलमस्तीति भावः । यद्वा-समस्तलोकव्यवहारराज्यादिस्थितेः प्रथमप्रणेतृत्वेन प्रमाणभूतोऽस्मिन्नवसर्पिणीका भगवानादिवो भरतो वा तस्याङ्गुलं प्रमाणाङ्गुलम् । सहस्रमुत्सेबागुलानि एक प्रमाणाङ्गुलमित्ये । वक्तव्ये मूले 'एगमेगस्स गो' इत्यादि सन्दर्भेण यत्प्रमागाङ्गुलं निरूपितं तत् काकिणीरत्नपरिज्ञानेन शिष्यबुद्धिर्विशदाभवत्यर्थं बोध्यम् । एतेनाङ्गुलममाणेन पडङगुलानि पादो द्वादशाङ्गुलानि भगवओ महावीरस्स अद्धगुलं) इसकी एक एक कोटिगत जो उत्सेघांगुल है, वह श्रमण भगवान् महावीर का एक अर्धांगुल है । (तं सहस्सगुणपमाणगुलं भवह) इस अर्धांगुल से हजारगुणा एक प्रमाणांगुल होता है । अर्थात् एक हजार उत्सेधांगुल एक प्रमाणांगुल को बनाते हैं। इसीलिये | ६ | "परमप्रकर्ष रूपं मानं प्राप्तम् अंगुलम् प्रमाणांगलं " ऐसी इसकी व्युत्पत्ति की गई है। यह वह अंगुल है कि जो परमप्रकर्ष रूप मान - परिमाण को प्राप्त है - इससे बडा और कोई दूसरा अंगुल नहीं है । अथवा -युग की आदि में समस्त लोकव्यवहार की एवं राज्यादि की स्थिति के प्रणेता होने से प्रमाणभूत भगवान् आदिनाथ या भरत हुए हैं। सो इनका जो अंगुल है-वह प्रमाणांगुल है । इस प्रकार प्रमाण पुरुष का जो अंगुल है, वह प्रमाणांगुल है । ऐसा भी इसका वाच्यार्थ निकलता है।
(6
"
शंका : - इस कथन का तो निष्कर्ष यही निकलता है कि 'एक हजार उत्सेधांगुलों का एक प्रमाणांगुल होता है।' जैसे कि ऊपर महावीरस्स अर्द्धगुलं) यानी मे मेड टिगत में उत्सेधांशुल छे, ते श्रम लगवान महावीरनो मे अर्धा गुल छे. (तं सहस्सगुणपमानंगुलं भवइ) ! અર્ધો ગુલથી એક હજાર ઉત્સેધાંશુલ એક પ્રમાણાંગુલી બનાવે છે એટલા માટે જ परमप्रकरूपं मानं प्राप्तम् अंगुरुम् प्रमाणांगुलम् ” खेवी मा શબ્દની વ્યુત્પત્તિ છે આ તે અંગુલ છે કે જે પરમ પ્રરૂપ માન–પરિ માણુ-પ્રાપ્ત છે એના કરતાં બીજો કેઇ અ ́ગુલ નથી અથવા યુગના પ્રારંભમાં સમસ્તલેાક વ્યવહારની અને રાજ્યાદિની સ્થિતિના પ્રણેતા હેાવાથી પ્રમાણભૂત ભગવાન ! આદિનાથ કે ભરત થયેલ છે તે એમને જે અચુક્ષ છે, તે પ્રમાણાંશુલ છે આ પ્રમણે પ્રમાણ પુરુષને જે અગુલ છે, તે પ્રમાણાંશુન્ન છે. એવા પણ આને વાચ્યા થઈ શકે છે.
શકા-આ ઉપર્યુક્ત સવ કથનના નિષ્કર્ષ એજ કે એક હજાર ઉત્સે ધ્રાંશુકેના એક પ્રમાણ ગુલ થાય છે, તે સૂત્રકારે આ પ્રમાણે જ કહેવું
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अनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र २०० प्रमाणाङ्गुलनिरूपणम् २१७ वितस्तिरित्यादि योजनान्तं बोध्यम् । एतस्य प्रमाणागुलस्य प्रयोजनमभिधातु. माह-एतेनाङ्गुलप्रमाणेन पृथ्वीनां रत्नपभादीनां, काण्डानां-रत्नकाण्डानाम् , पातालकलशानां, भवनानां भवनपतिदेवावासानां, भवनमस्तटानां नरकप्रस्तटा. कहा है। सो सूत्रकार को ऐमा ही कहना चाहिये था-फिर मूल में "एगमेगस्स रणो' इत्यादि पाठ द्वारा जो प्रमाणांगुल का वर्णन किया है उसका कारण क्या है ?
उत्तर-शिष्य की बुद्धि 'काकिणीरत्न कंसा होता है ? इस परिज्ञान से विशद हो जावे-कि काकिणीरत्न ऐसा होता है-इस अभिप्राय से यह वर्णन किया गया है । (एएणं अंगुलप्पमाणेणं छ अंगुलाई पादो, दुवालसंगुलोइं विहत्थी दो विहस्थीओ रयणी, दो रय. णीओ कुच्छी दो कुच्छीओ धणू, दो घणु सहसस्साई गाउयं, चत्तारिगाउयाई जोयण) इस अंगुलप्रमाण से छ अंगुलका एक पाद होता है। घोरह अंगुलों की एक वितस्ति होती है। दो वितस्ति की १ एक रस्नि-हाथ होता है। दोरस्नि की एक कुक्षि होती है। दो कुक्षियों का एक धनुष होता है। दो हजार धनुष का एक गव्यूत (कोस) होता है। चार गव्यूतों का एक योजन होता है। (एएणं पमाणगुलेण किं पोषण) इस प्रमाणांगुल से कौनसा प्रयोजन सिद्ध होता है?
मे तो पछी भूखमा " एगमेगस्स रण्णो इत्यादि" ५।४ 43 रे प्रभाgiગુવનું વર્ણન કરવામાં આવ્યું છે, તેનું કારણ શું?
ઉત્તર-શિષ્યની કાકિણી રત્ન કેવું હોય છે એ વિષયની જિજ્ઞાસાની પરિતૃપ્તિ થઈ જાય અને તે શિષ્ય “કાકિણી રત્ન કેવું હોય છે.” એ સંબંધમાં પૂર્ણજ્ઞાન મેળવી શકે તે માટે આ વર્ણન કરવામાં આવ્યું છે. (एएणं अंगुलप्पमाणेणं छ अंगुलाई पादो, दुवालसंगुलाई विहत्थी दो विहत्थिओ रयणी, दो रयणीओ कुच्छी, दो कुच्छीओ धणू , दो धणुसहस्साई गाउयं चत्तारि गाउयाई जोयणं) भ शुख प्रम.एथी ६ शुलना में पाई 3.4 छ ૧૨ અંગુલની એક વિતસ્તિ હોય છે. બે વિતસ્તિઓની ૧ શનિ-હાથહોય છે. બે રાત્નિની એક કુક્ષિ હોય છે બે કુક્ષિઓનું એક ધનુષ હોય છે બે હજાર ધનુષ બરાબર એક ગભૂત (ગાઉ) હોય છે. ચાર ગભૂતનું એક यान डाय छे. (एएण पमाणंगुलेण किं पओयण) मा प्रमाणांसथी ध्या પ્રજનની સિદ્ધિ થાય છે?
अ० २८
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भनुयोगद्वारसूत्रे न्तरे स्थितानाम् निरयाणां नरकारापानाम् , निरयावलीनाम् नरकावासपङ्क्तीनां, निरयपस्तटानां-तेरेक्कारस नत्र सत्त पंच तिन्नि य तहेव एको य' छाया-त्रयो. दशैकादश नव सप्त पञ्च त्रयस्तथैवैकश्च-इत्यादि प्रोक्तानाम् , कल्पादि विमानप्रस्तटान्ताः प्रसिद्धाः, तेषाम् , टङ्गानाम् एकादिच्छिन्नपर्वतानाम् , कूटानाम् रत्नकूटादीनाम् , शैलानाम्-मुण्डपर्वतानाम् , शिखरिणाम् शिखरवतां पर्वतानाम् , माग्भाराणाम् ईषन्नतानां शिखरिणाम् , विजयादिवर्षधरपर्वतान्ताः प्रतीताः तेषाम् , वेलानाम् जलधिवेळाविषयभूमीनां तथा-वेदिकादिसमुद्रान्तानां च आयामविष्कम्भोचत्योद्वेधपरिक्षेपाः-आयामो-दैयम् विष्कम्भः विस्तारः, उच्च
उत्तर-(एएणं पमाणंगुळेणं पुढवीकंडाणं) इस प्रमाणांगुल से रत्नप्रभा आदि पृथिवियों के रत्नकाण्डों का, (पायालाण) पातालकलशों का (भवणाणं) भवनपति देवों के आवासों का (भवनपस्थडाण) नरकों के प्रस्तटोंके अन्तर में सित भवन प्रस्तटों का (निरयाणं) नरकावासों का (निरयावलीणं) नरकावासों की पंक्तियो का (निरयपस्थडाणं) नरकों के १३, ११, ९, ७, ५, ३-१, इन प्रस्तटों का (कप्पाणं) सौधर्म
आदि कल्पों का (विमाणाणं) उनके विमानों का (विमाणपत्थडाणं) विमानों के प्रस्तटों का (टकाणं) छिन्नटंकों का, (कूडाणं) रस्नकूट आदिकों का (सेलाणं) मुण्डपर्वतों का (सिहरीणं) शिखरशाली पर्वतों का (पन्भाराणं) कुछ कुछ नमित पर्वतों का (विजयाण) विजयोंका (वक्खाराणं) वक्षस्कारों का (वासाणं) वर्षों का (वासहराणं) वर्षधरों को (वासहरपव्वयाणं) वर्षधरपर्वतों का (वेलाणं) समुद्रतट की भूमियों का (वेड्याणं) वेदिकाओं का (दाराणं)
उत्तर-(एएण पमाणगुलेण पुढवी कंडाण) मा प्रभागुिसथी रत्नप्रमा पोरे पृथ्वीमान २isiना (पायालाण) पातार aशाना (भवणाण) भवनपतिवान भावासोना (भवनपत्थडाण) नाना प्रस्तराना सतरमा स्थित भवन प्रस्ताना (निरयाण) ना२पासना (निरयावलीण) न२४पासानी पतमाना (नरयपत्थडाण) नरहना १३, ११, ६, ७, ५, 3, १ ॥ प्रस्तरोना (कप्पाण) सोयम वगेरे याना (विमाणाण') तमना विमानाना विमाणपत्थडाण) विमानाना प्रस्ताना (टंकाण) छिटोना (कमाण) २त्नकूट वगेरेना (सेलाण) भु ५वताना (सिहरीण') शिमशादी ५१ ताना (पन्भाराण) था। था। नमित पवताना (विजयाण) वियोना (वक्खाराण) वृक्षारोना (वासाण') वर्ष२ ताना (वासहराण) धराना (वासहरपवयाणं) १२ ताना (वेलाण) समुद्रतटनी भूभियाना (वेइयाण) ३६माना (दाराण) द्वाशना (समुदाण) समुद्राना (आयाम
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अनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र २०० प्रमाणाश्गुलनिरूपणम्
२१९ त्वम् = उच्चता, उद्वेधः = भूमिमध्येऽवगाहः, परिक्षेपः = परिधिः, एषां द्वन्द्वस्ते माध्यन्ते= प्रमाणविषयी क्रियन्ते । प्रमाणाङ्गुलेन पृथिव्यादीनामायामादि-प्रमाणपरिज्ञानं भवतीत्यर्थः । तदेतत्प्रमाणाङ्गुलं कतिविधम् ? इति सूचयितुमाह- तत् प्रमाणाङ्गुलं समासतः = संक्षेपतः श्रेण्यङ्गुलमतराङ्गुलघना गुलेति त्रिविधम् । श्रेण्यगुलादि विवरीतुमाह-' असं खेज्जाओ' इत्यादि । पूर्वोक्तपमाणा गुलेन यद्योजनं तेन योजनेन असंख्येया योजनकोटी कोटयः संवर्त्तितसमवतुरस्त्रीकृतलोकस्य एका
I
द्वारों का (तोरणा) तोरणों का (दीवाणं) द्वीपों का ( समुद्दाणं ) समुद्रों का ( आपामविक्खं भोच्च सोव्वेहपरिक्खेवा माविज्जति) आयाम, विष्कंभ, उच्चत्व, उद्वेधभूमि के बीच अवगाह, परिधि-परिक्षेप ये सब मापे जाते हैं । तात्पर्य यह कि - ' प्रमाणांगुल से पूर्वोत पृथिवी आदिकों के आयाम आदि का प्रमाण जाना जाता है । ( से समासओ तिविहे पण्णत्ते) यह प्रमाणांगुल संक्षेप से तीन प्रकार का कहा गया है - (तं जहा ) वे प्रकार ये है - (सेढी अंगुले, पयरंगुले, घणंगुले) श्रेण्यंगुल, प्रतरांगुल और घनांगुल । (असंखेज्जाओ जोयणकोडाकोडीओ सेढी) प्रमाणांगुल से निष्पन्न हुए असंख्यात कोड़ा कोडी योजनों की एक श्रेणि होती है। एक करोड को एक करोड ले गुणा करने पर जो संख्या आती है, उसका नाम कोड़ा कोडी है । जो योजन प्रमाणांगुल से निष्पन्न होता है वही योजन यहाँ लिया गया
विक्खं भोच्च तो वे परिक्खेवा माविज्जति) मायाम, विष्णुल ઉચ્ચત્ય, ઉદ્વેષ ભૂમિમધ્યાવગહ-પરિધિ-પરિક્ષેપ આ સર્વે માપવામાં આવે છે તાપ આ પ્રમાણે છે કે પ્રમાણાંગુલથી પૂર્વોક્ત પૃથિવી વગેરેના આયામ વગેરેનું પ્રમાણ लघुवामां आवे छे. (से समासओ तिविहे पण्णत्ते) या प्रमाणांस संक्षेपभी त्र प्रहारनो वामां आव्यो छे. (तंजहा) ते प्रहारो भा प्रमाणे छे. (सेढी, अंगुले, पयरंतुळे, घणंगुले) श्रेय गुड़, अतरांशुस भने धनांगुल (असंखेज्जाओ जोयण कोडाफोडीओ डेढी) प्रमायांगुथी निष्यन्न थयेस अस ખ્યાત કાડા-કેાડી ચેજનાની એક શ્રેત્રુી થાય છે. એક કરાડને એક કરોડ વર્લ્ડ ગુણિત કરવાથી જે સખ્યા થાય છે, તેનું નામ કાડા--કેાડી છે જે ચેાજન પ્રમાણાંગુકથી નિષ્પન્ન થાય છે, તેજ યાજન અહીં ગ્રહણ કરવામાં આવેલ છે. એવા ચેાજનેાની અસંખ્યાત કાડા-કેાડી સતિંત ચતુરસીકૃત લેાકની એક શ્રેણીકહેવાય છે.
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२२०
अनुयोगद्वारसूत्रे भेणि:-श्रेण्यङ्गुलं भवति । ननु लोकः कथं संवयं-संपिण्ड य चतुरस्रीक्रियते ? इत्याह-लोकस्तावत् स्वरूपतचतुर्दशरज्जूच्छ्रितः। तत्र-अधरताद्देशोनसप्तरज्जुषिस्तरः, तिर्यग्लोकमध्ये एकरज्जुविस्तृतः, ब्रह्मलोकमध्ये पश्चरज्जुविस्तरः, उपरि तु लोकान्ते एकरज्जुविस्तरः, शेषस्थानेषु तु नियतो विस्तरो नास्ति । इत्थं लोकश्चतुर्दशरज्जूच्छ्रितो बोध्यः । रज्जुपमाणं तु स्वयंभूरमणसमुद्रस्य पौरस्त्यपाश्चात्यवेदिकान्तं यावत् दाक्षिणात्योत्तरीयवेदिकान्तं यावत् वा विज्ञेयम् । ईट. है। ऐसे योजनों की असंख्यात कोडा कोडी संवर्तित चतुरस्त्रीकृत लोग की एक श्रेणि होती है।
शंका-लोक कोपिण्डिभूतकरके समचतुरस्ररूप कैसे किया जाता है?
उत्तर-यह लोक स्वरूपतः १४ राजू उँचा है। वह इस प्रकार से है-नीचे कुछ कम ७ राजू का इसका विस्तार है। तिर्यग्लोक के बीच में इसका विस्तार १ राजू का है । ब्रह्मलोक के बीच में पांच राजू का इसका विस्तार है और ऊपर लोक के अन्त में एक राजू का इसका विस्तार हैं। इन स्थानों से अतिरिक्त शेष स्थानों में इसका विस्तार अनियत हैं
राजू का प्रमाण स्वयम्भूरमण समुद्र की पूर्व दिशासम्बन्धी वेदिकाके अन्त से लगाकर पश्चिम दिशा की वेदिका के अन्त तक, अथवा दक्षिण दिशाकी वेदिका के अन्त से लगाकर उत्तरदिशाकी वेदिका के अन्न तक जानना चाहिए। इस प्रकार का यह वैशाख स्थान अर्थात् नीचे दोनों पैरों को फैलाकर तथा उँचे दोनों हाथो की कोहनियों को फैलाकर और कटिपर दोनों हस्ततलको लगाकर
શંકા-લોકને પિડીભૂત કરીને સમચતરસ્ત્ર કેવી રીતે કરવામાં આવે છે?
ઉત્તર-આ લેક સ્વરૂપતઃ ૧૪ રાજુ એટલે ઊંચો છે તે આ પ્રમાણે છે નીચે કંઈક અ૫ ૭ રાજુના એટલે એને વિસ્તાર છે. તિર્યગ્ર લેકની વચ્ચે આ વિસ્તાર ૧ રાજુ જેટલો છે. બ્રહ્મલકની વચ્ચે પાંચ રાજુ એટલે આ વિસ્તાર છે અને ઉપર લેકના અંતમાં એક રાજ જેટલો આ વિસ્તાર છે. આ સ્થાન સિવાય શેષ સ્થાનમાં આનો વિસ્તાર અનિયત છે.
રાજુનું પ્રમાણુ સ્વયંભૂરણ સમુદ્રની પૂર્વ દિશા સંબંધી વેદિકાના અંતથી માંડીને પશ્ચિમ દિશાની દિશાના અંત સુધી અથવા દક્ષિણ દિશાની વેદિકાના અંતથી માડીને ઉત્તર દિશાની વેદિકાના અંત સુધી જાણવું જોઈએ આ પ્રમાણે આ વૈશાખસ્થાન એટલે કે નીચે બન્ને પગ પહોળા કરીને તેમજ ઊંચે બનને હાથની કોણીઓને પાળી કરીને અને કટિભાગ પર બને હસ્તેલ લગાવીને ઉભા રહેલા પુરુષની આકૃતિવાળે લોક બુદ્ધિની કલ્પનાથી
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अनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र २०० प्रमाणांगुलनिरूपणम् शोऽयं लोको बुद्धिपरिकल्पनया संवर्ध्व घनीक्रियते । तदित्थं विज्ञेयम्-रज्जुप्रमाणविस्तीयास्त्रपनाडिकायादक्षिण दिग्बनिअधोलोकखण्डमधस्तनभागलो देशोन रज्जुत्रयविस्तीर्ण क्रमेण होयमानविस्तरम् । तदेव उपरिष्टाद् रज्जासंयेयमागविष्कम्भं सातिरेक पप्तरज्जूच्छ्रितमादाय सनाडिकाया एवोत्तरपाश्र्वे विप रीतं संपात्यते-अयोभागमुपरि कृत्वा उपरितनं चाधः कृत्वा संयोज्यते इति यावत् । इत्थं संयोजने कृते सति अधोलोकस्याई देशोनरज्जुचतुष्टयविस्तीर्ण सातिरेकसप्तरज्जुच्छ्रितं बाहल्यतोऽप्यधः कचिद् देशोनसप्तरज्जुमानम् अन्यत्र खडे हुए पुरुष की आकृतिवाला लोकधुद्धिकी कल्पना से संवर्तित करके घनाकार किया जाता है । वह यों जानना चाहिये-एक राजु. प्रमाण विस्तीर्ण प्रसनाडी के दक्षिण दिशावाले अधोलोक के खण्डको, जो कि अधस्तन भागमें कुछ कम तीन राजु विस्तृत है और क्रमसे ऊपर की ओर हीयमान विस्तारवाले हैं तथा जो ऊपर राजुके असं ख्यातवें भाग विष्कम्भ और कुछ अधिक सात राजु उँचा है, उसे ही (बुद्धिसे) उठाकर सनाडी के ही उत्तर पार्श्वभागमें उलटा करके संघाटित करते हैं, अर्थात् अधोभोग को ऊपर करके और ऊपरी भागको नीचे करके संयुक्त करते है। इस प्रकार दोनों भागों के संयुक्त करने पर अधोलोकका अर्थ भाग उत्तरदक्षिणमें कुछ कम चार राजु विस्तीर्ण, कुछ अधिक सात राजु उँचा और नीचे से ऊपर पूर्व पश्चिम में पाहल्यको अपेक्षा नीचे कहीं पर कुछ कम सात राजु प्रमाणवाला और अन्यत्र अनियत बाहल्यवाला वह होता है। यथाસંવર્તિત કરીને ઘનાકાર કરવામાં આવે છે. તેને આ પ્રમાણે જાણવું જોઈએ કે-એક રાજુ પ્રમાણુ વિરતીર્ણ ત્રસનાડીના દક્ષિણ દિશાવાળા અલેકના ખંડને જે કે અસ્તન ભાગમાં થેડી કમ ત્રણ રાજુ વિસ્તૃત છે અને ક્રમશઃ ઉપરની તરફ હીયમાન વિસ્તારવાળે છે, તેમજ જે ઉપર રાજુના અસંખ્યાતમાં ભાગ વિષ્ક અને કંઈક વધારે સાત ૨જુ ઊંચો છે, તેને જ (બુદ્ધિથી) ઉપાડીને ત્રસનાડીના જ ઉત્તર પાર્વભાગમાં ઊલટું કરીને સંઘાટિત કરે છે, એટલે કે અધેભાગને ઉપર કરીને અને ઉપરના ભાગને નીચે કરીને સંયુક્ત કરે છે. આ પ્રમાણે બને ભાગને સંયુક્ત કરવાથી અધોલેકને અર્ધભાગ ઉત્તર-દક્ષિણમાં કઈક કમ ચાર રાજુ વિસ્તીર્ણ નીચેથી ઉપર કંઈક વધારે સાત રાજુ ઊંચે અને પૂર્વ પશ્ચિમમાં બાહલ્યની અપેક્ષાએ નીચે કેઇક સ્થાને કંઈક કમ સાત રાજુ પ્રમાણયુક્ત અને અન્યત્ર અનિયત
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३२२
अनुयोगद्वारसूत्रे
स्वनिवाल्यं जायते । इदानीमूलोकावर्तनाम कारमाह-रज्जु विस्तरा
नाडिकापा दक्षिणदिखर्ति ब्रह्मलोकमध्यादधस्तनमुपरितनं च खण्डद्वयं ब्रह्मलोकमध्ये प्रत्येकं द्विरज्जु विस्तीर्णम् उपर्य लोकसमीपे अस्तु रत्नमालसमीपेऽङ्गुलसहस्रमागविस्तरं देशोनसार्द्धरज्जुत्रयोच्छ्रितं बुद्धया समादाय तस्या एव प्रसनाडिकाया उत्तरपाइ विपरीतं संघात्यते । एवं संघाते कृते उपरितनं लोका द्वाभ्यामङ्गुलसहस्रभागाभ्यामधिकं रज्जुत्रयविष्कम्भम् । इह चतुर्णां खण्डानां इसका आकार यंत्रपृष्ठ के नं. १ से चार में देख लेवें
अब उपरितन लोकार्ध के संवर्तन प्रकार को कहते हैं - एक राजु प्रमाण विस्तारवाली प्रसनाडी के दक्षिण दिग्वर्ती ब्रह्मलोक के त्रिकोण आकृतिवाले मध्यभाग को अधस्तन और उपरितन ऐसे दो खण्ड करके, उनमें से प्रत्येक खण्ड, ब्रह्मलोक के मध्य में दो राजु विस्तीर्ण है और ऊपर अलोक के समीप, तथा नीचे रत्नप्रभा पृथ्वी के क्षुल्लक प्रनर के समीप अंगुल के सहस्र भाग प्रमाण विस्तारवाला है और कुछ कम साढे तीन राजु प्रमाण विस्तारवाला है, और कुछ कम साढे तीन राजु प्रमाण उँचाईवाली है, उसे बुद्धिसे उठाकर उसही नाड़ी के उत्तरी पार्श्व में विपरीत करके स्थापित करें। इस प्रकार से संयुक्त करने पर उपरितन लोकार्ध दो अंगुलसहस्र भागों से अधिक तीन राजु विष्कम्भवाला हो जाता है।
•
इसका आकार यंत्रपृष्ठ के नं. ५ से ८ में देख लेवें.
બાહુલ્યયુકત તે હોય છે, તેના આકાર યત્રપેજમાં નં. ૧ થી ૪ સુધીમાં જોઈ સમજી લેવા.
હવે ઉપરિતન લેકાના સ્રવર્તીના પ્રકાર વિષે કહે છે-એક રાજુ પ્રમાણુ વિસ્તારવાળી ત્રસનાડીના દક્ષિણ દિગ્વી બ્રહ્માકના ત્રિકોણ આક઼તિવાળા મધ્યભાગના અધસ્તન અને ઉપરિતન એવા બે ખંડ કરીને તેએમાંથી દરેકે દરેક ખંડ બ્રહ્મલેકના મધ્યમાં એ રજૂ વસ્તીણુ છે અને ઉપર અલેાકના સમીપ તેમજ નીચે રત્નપ્રભા પૃથ્વીના ક્ષુલ્લક પ્રતરની પાસે અંગુલના સહસ્ર ભાગ પ્રમાણે વિસ્તાર યુક્ત છે, અને કંઇક કેમ સાડા ત્રણ રાજુ પ્રમાણ વિસ્તારયુક્ત છે અને કંઇક કમ સાડા ત્રત્રુ રાજુ પ્રમાણ ઊંચાઇ યુક્ત છે, તેને બુદ્ધિથી ઉપાડીને તેજ ત્રસનાડીના ઉત્તરી પાર્શ્વમાં વિપરીત કરીને સ્થાપિત કરે આ પ્રમાણે સયુકત કરવાથી ઉપરિતન લેાકા એ અંશુલ સહસ્રભાગેથી અધિક ત્રણ રાજુ વિશ્વભયુકત થઈ જાય છે. તેના આકાર યંત્રપેજમાં ન, ૫ થી ૮ માં જોઈ લેવા.
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अनुयोगद्वार भा. २ का यंत्र पृष्ठ २२२
मटा सान असनाडी
उत्तरदिश्यि भाग
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अनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र २०० प्रमाणाङ्गुलनिरूपणम्
२२३ पर्यन्तेषु चत्वारोऽङ्गुलसहस्रभागा भवन्ति । केवलमेकस्यां दिशि यौ द्वौ खण्डौ ताभ्यां द्वाभ्याम् एक एवाशुलसहस्रभागः सम्पद्यते एकदिग्वर्तित्वात् । अपराभ्यामपि द्वाभ्यामित्यमेवेत्यतस्तद् द्वयधिकत्वमुक्तं देशोनसप्तरज्जूच्छूितम् । बाहल्यतस्तु ब्रह्मलोकमध्ये पञ्चरज्जुवाहल्यमन्यत्र त्वनियतं जायते । इदं च सर्व समादाय आधस्त्य संवर्तितलोकस्योत्तरपार्वे संघात्यते । एवं च योजिते आधस्त्यखण्डस्योच्छ्रये यदितरोच्छ्रयादधिकं तत् खण्डयित्वा उपरितनसंघावितखण्डस्य बाहल्ये
इस स्थलपर चारों खण्डों के समीप में चार अंगुलसहस्रभाग होते हैं। केवल एक दिशा में जो दो खण्ड हैं, उन दोनों से भी एक अंगुलसहस्रभाग सम्पादित होता है। क्योंकि वे दोनों ही एक दिग्वर्ती हैं । अन्य जो दो भाग हैं । 'उन से इस प्रकार का प्रमाण निष्पन्न होता है, अतः उन्हें दो अंगुलसहस्र भाग से अधिक कहा है।
ऊर्ध्वलोक कुछ कम सात राजु ऊँचा है। उसका बाहल्य ब्रह्मलोक के • मध्य में पांच राजुप्रमाण है और अन्यत्र अर्थात् ऊपर और नीचे
अनियत है अर्थात् क्रम से घटता हुआ हैं । इस सर्वको उठाकर अधस्तन संवर्तित लोकार्ध के उत्तर पार्श्व में संयुक्त करना चाहिये । इस प्रकार संयोजित करने पर अधस्तन उँचाई में जो अन्य खण्डकी उँचाई से अधिक भाग है, उसे खण्डित करके उपरितन संयोजित खण्ड के
આ સ્થલ પર ચારે ખંડેની પાસે ચાર અંગુલ સહસ્ત્ર ભાગ હોય છે કકત એક દિશામાં જે બે ખંડ છે, તેનાથી પણ એક જ અંગુલ સહસ્ત્ર ભાગ સંપાદિત થાય છે, કેમકે તેઓ બને જ એક દિવર્તી છે. બીજા જે બે ભાગો છે તેનાથી પણ આ જાતનું પ્રમાણ નિષ્પન્ન થાય છે એટલા માટે તેને બે અંગુલ સહસ ભાગ કરતાં વધારે કહેલ છે ઊર્વક કંઈક કમ સત રાજ એટલે ઊંચે છે. બાહલ્ય બહાલેકના મધ્યમાં પાંચ રાજુ પ્રમાણ છે, તેમજ અન્યત્ર એટલે કે ઉપર અને નીચે અનિયત છે, એટલે કે ક્રમશઃ અલ્પ થયેલ છે. આ સર્વને ઉપાડીને અધસ્તન સંવર્તિત લેકાર્યના ઉત્તર પાર્વમાં સંયુકત કરવું જોઈએ, આ પ્રમાણે સોજિત કરવાથી અસ્તન ઊંચાઈમાં જે બીજા ખંડની ઊંચાઈ કરતાં અધિક ભાગ છે, તેને ખંડિત કરીને ઉપરિતન સોજિત ખંડને બાહમાં ઊર્ણ આયત રૂપથી સંયુક્ત
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: १२४
- अनुयोगद्वारसूत्र ऊर्वायतं संघात्यते । एवं च सातिरेकाः पश्वरजवः कचिद् बाहल्यं सिध्यति । तथा अधस्तनखण्डमध्यस्तात् यथासंभवं देशोनसप्तरज्जुवाहल्यमुक्तम् । एवमत्र उरितनवण्डवाइल्पाद् देशोनरज्जुयाधिक्यं बोध्यम् । अधस्तनवण्डाधिकवाह. ल्याद गृहीत्वा परितनखण्डवाहल्ये संयोज्यते । एवं संयोजने कृते बाहल्यतः सर्वमप्ये निमः खण्डं समवतुरस्त्रीकृतं सम्पद्यते । इदं च कियत्यपि प्रदेशे रज्ज्वसंख्येयभागाधिकपड्रज्जुप्रमाणं भवति व्यवहारतस्तु सर्वमिदं सप्तरज्जुवाहल्यमुच्यते। पाहल्य में ऊर्ध्व आयतरूप से संयुक्त करना चाहिये । इस प्रकार कुछ अधिक पान राजुपमाण बाहल्य क्वचित् सिद्ध होता है। तथा अधस्तन खण्ड नीचे यथासम्भव कुछ कम सात राजु बाहलपवाला पहिले कहा है। इस प्रकार यहां पर उपरितन खण्ड के बाहल्य से कुछ कम दो राजु से अधिक प्रमाग होता है। इस अघस्तन खण्ड अधिक बाहल्य से आधे भागको ग्रहण कर उपरितन खण्ड के बाहल्य में मिलाना चाहिये। इस प्रकार संयुक्त करने पर पाहल्य की अपेक्षा यह सभी आकाश खण्ड समचतुरस्र होता है । अर्थात् उपर्युक्त प्रकार से ऊर्ध्वलोक और अधोलोक के खण्डोंको मिलाने पर सात राजु लम्या, सात रोजु चौडा
और सात राजु ही मोटा ऐसा समचतुष्कोणवाला आकार बन जाता है। इन लम्बाई चौडाई और मोटाई का परस्पर गुणा करने पर (७४७४ = ३४३) तीन सौ तेंतालीस राजु घनफल लोक का निकल आता है। यह बाहल्य यद्यपि किसी प्रदेश पर राजु के असंख्यातवें भागसे કર જોઇએ આ પ્રમાણે કંઈક વધારે પાંચ રાજુ પ્રમાણે બાહલ્ય કુવચિત્ સિદ્ધ થાય છે. તેમજ અધસ્તન ખંડની નીચે યથાસંભવ કંઈક અ૫ સાત રાજુ બાહથયુત પહેલાં કહેવામાં આવ્યા છે. આ પ્રમાણે અહીં ઉપસ્તિન ખંડના બાહથથી કંઈક કમ બે રાજુથી અધિક પ્રમાણ હોય છે. આ અધસ્તન ખંડ અધિક બાહુલ્યથી અર્ધા ભાગને ગ્રહણ કરીને ઉપરિતન ખંડના બાહથમાં જે જોઈએ આ પ્રમાણે સંયુકત કરવાથી બાહદયની અપેક્ષા આ સંપૂર્ણ આકાશખંડ સમચતુરસ્ત્ર થઈ જાય છે એટલે કે ઉપર્યુક્ત પ્રકારથી ઊલેક અને અધલેકના ખંડેને સંયુક્ત કરવાથી સાત રાજુ લાંબી, સાત રાજુ પહોળી અને સાત રાજુ મોટી એવી સમચતુષ્કોણવાળી આકૃતિ થઈ જાય છે. આ લંબાઈ, પહોળાઈ તેમજ મોટાઈને પરસ્પર ગુણિત
पाथी सोनु (9x9x=3४३) 3४३ २ २ धन छ, ते २५ष्ट २४ જાય છે આ બાહુલ્ય છે કે કઈ પણ પ્રદેશ પર રાજુના અસંખ્યાતમાં ભાગ
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२२५
अनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र २०० प्रमाणाइगुलप्रमाणनिरूपणम् व्यवहारयो हि किचिन्नमपि पूर्वस्वेनैवाव्यवस्यति स्रष्टात्तस्य । अतस्तन्मतेनैवात्र सर्वत्र सप्तरज्जुवाहल्यता वोध्या। आयामविष्यमाभ्यां तु प्रत्येकं देशोनसप्तरज्जुममाणम् । व्यवहारनयेन तु अत्रापि प्रत्येकं सतरज्रमाणं बोध्यम् । इत्थं व्यवहारनयेनायामविष्कम्भवाहल्यैः मत्येकं सप्तरज्जुप्रमाणो घनो जातः । एतच्च सर्व वैशाखस्थानस्थित सर्वच लोकं संस्थाप्य भावनीयम् । सिद्धान्ते च यत्र कुत्रापि अविशेषिता श्रेणी गृहीता तत्र सर्वत्र सा अस्य घनीकृत
अधिक छ राजुरमाण होता है, तथापि व्यवहार से सब सात राजुप्रमाण चाल्य कहा जाता है । व्यवहारज कुछ कम को भी पूर्ण रूप से ही मानता है, क्योंकि वह स्थूल दृष्टि है। इसलिये उसके मत का आश्रय लेकर ही यहां सर्वत्र सान राजु की वाहवता जानना चाहिये । आयाम (लम्बाई) और विष्कम्भ (चौड़ाई) की अपेक्षा तो प्रत्येक खण्ड देशोन ( कुछ कम ) सात राजुप्रमाण हो जाता है, सो यहां पर भी व्यवहार से प्रत्येकको सात राजुप्रमाण ही जानना चाहिये। इस प्रकार व्यवहारनय से (वह समचतुरस्र लोक) आयाम विकम्भ और बाहल्य की अपेक्षा प्रत्येक सात राजुप्रमाण है, अतः तीनों को परस्पर गुणित करने पर वह घनाकार, राजु होता है । यह सब वैशाख (मूडा) (नाचता हुआ भूषा के आकारवाला) स्थान पर स्थित और सर्वत्र वृत्त (गोल) स्वरूप पुरुषाकार लोक को संस्थापित करके घनफल जानना चाहिये । सिद्धान्त में जहां कहीं भी बिना किसी विशेषता के सामान्य
કરતાં વધારે ૬ રાજુ પ્રમાણ હાય છે, તેા પણ વ્યવહારથી આ સપૂર્ણ સાત રાજુ પ્રમાણુ આલ્ય કહેવામાં આવે છે, વ્યવહારનય કંઈક અલ્પ હાય તા પણ પૂર્ણ જ માને છે કેમકે તે સ્થૂલ દૃષ્ટિ છે. એથી તેના મતના આધારે જ અહી સર્વત્ર સાત રાજુની ખાહુલ્યતા જાણવી જોઇએ આયામ (स) भने विण्डल (पा) नी दृष्टियो तो हरे अंड हेशन (খछ અલ્પ) સાત રાજુ પ્રમાણુ હાય છે, તે અહી' પણ વ્યવહારથી દરેકને સાત રાજુ પ્રમાણ જ જાણવુ જોઇએ આ પ્રમાણે વ્યવહારનયથી (તે સમચતુરસ લેક) આયામ, વિભ અને મહલ્યની દૃષ્ટિએ દરેક સાત રાજુ પ્રમાણ છે, એટલા માટે ત્રયને પરસ્પર ગુણિત કરવાથી તે ઘનાર ૩૪૩ રાજુ ય છે આ સવ વૈશાખ સ્થાન પર સ્થિત અને સત્ર વૃત્ત (મેળાકાર) સ્વરૂપ પુરુષાકાર લેકને સ્થાપિત કરીને ઘનફળ જાવુ જોઈએ. સિદ્ધાન્તમાં જ્યાં કંઈ પણુ વગર ફેડઇ પણ જાતની વિશેષતાએ સામાન્યથી શ્રેણી ગ્રહણ
अ० २९
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अनुयोगदारसूत्रे लोकस्य सम्बन्धिनी सप्तरज्जुप्रमाणा ग्राह्या । तथा प्रतरोऽप्येतत्पमाणो बोध्यः । तदित्थं संवर्तितममवतुरस्त्रीकृतलोकस्य प्रमाणाङ्गुलतः असंख्येययोजनकोटीकोटयः समाज्यायामा एका श्रेणियोध्या । श्रेण्या गुणिता श्रेणिः प्रतरः । प्रतरः श्रेण्या गुणितो लोकः धनः ! लोकस्य घनरूपत्वाद् लोकशब्देन घनो बोध्यः। तथासंख्येयेन राशिना असंख्येयेन राशिना अनन्तेन राशिना च गुणितो लोकः संख्येया लोका असंख्येया लोका अनन्ता लोका' अलोकवेति बोध्यम् । से श्रेणी गृहण की गई, वहां सर्वत्र वह इस घनाकार लोककी सम्बधिनी होने से सात राजुप्रमाण ही ग्रहण करना चाहिये। तथा प्रतर भी इसी प्रमाण से जानना चाहिये । वह इस प्रकार है-उपर्युक्त प्रकार से संवर्तित और समचतुरस्त्रीकृत लोक की प्रमाणागुल से असं. ख्यात कोडा कोडी योजन प्रमाण सात राजु लम्बी, एक प्रदेश मोटी एक श्रेणी जाननी चाहिये। श्रेणी से गुणित श्रेणी को प्रतर कहते हैं। अर्थात् सात राजुलम्बी, सात राजु चौडी और एक प्रदेश मोटी ऐसी श्रेणीयोंके समुदाय को प्रतर कहते हैं। इस प्रतर को श्रेणी से गुणित करने पर घनरूप लोक होता है, क्योंकि लोक घनरूप है। सामान्य लोकशब्द से बनरूप लोक जानना चाहिए । संख्यात राशि से गुणित लोक संख्यात लोक कहलाते हैं, असंख्यात राशि से गुणित लोक असं. खजात लोक कहलाते हैं, अनन्त राशि से गुणित लोक अनंत लोक कहलाते हैं । अनन्त लोक के बराबर अलोक होता है, ऐसा अर्थ अलोक का जानना चाहिए। . કરવામાં આવી છે ત્યાં સર્વત્ર તે આ ઘનાકાર લેકચંબંધિની હોવાથી સાત રાજ પ્રમાણે જ ગ્રહણ કરવી જોઈએ તેમજ પ્રતર વિષે પણ આ પ્રમાણથી જ જાણવું જોઈએ તે આ પ્રમાણે છે-ઉપર્યુંકત પ્રકારથી સંકત્તિત અને સમય ચતુરસ્ત્રીકૃત લેકની પ્રમાણુગલથી અસંખ્યાત કેડા-કેડી જન પ્રમાણ સાત રાજ લાંબી, એક પ્રદેશ માટી એક શ્રેણી જાણવી જોઈએ શ્રેણીથી ગણિત શ્રેણીને પ્રતર કહેવામાં આવે છે એટલે કે સાત રાજુ લાંબી, સાત રાજ પોળી અને એક પ્રદેશ મોટી એવી શ્રેણીઓના સમુદાયને પ્રતર કહે છે. આ પ્રતરને શ્રેણી વડે કરવાથી ઘનરૂપ લેક થાય છે, કેમકે લેક ઘનરૂપ છે સામાન્ય લેક શબ્દથી ઘનરૂપ લેક જાણ જોઈએ સંખ્યાત રાશિથી ગતિ લેક સંખ્યાતલક કહેવાય છે અસંખ્યાત લેરાશિથી ગુણિત લેક અસં ખ્યાત લેખક કહેવાય છે અનંત રાશિથી ગુણિત લેક અનંત લોક કહેવાય છે. અનત લેક જે અલેક હોય છે એ અલકને અર્થ જાણવો જોઈએ.
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अनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र २०० प्रमाणाश्गुलप्रमाणनिरूपणम् २२७
ननु अझुलादिभिर्जीवाजीवादिवस्तूनि प्रमीयन्ते इति तेषां प्रमाणत्वमुचितम् , अलोकेन तु न किंचित् प्रमीयते इति कथं तस्य प्रमाणत्वयुक्तमिति चेदाहयद्यपि वाह्यं वस्त्वनेन न प्रमीयते तथापि स्वगतं प्रमीयते एव । अन्यथाऽलोक विषया बुद्धिरेव न प्रसज्येतेति । एतेषु श्रेषगुलादिषु अल्पत्वबहुत्वादिविचारः मुगमो मृलादनुसन्धेयः । प्रकृतमुपसंहत्तुमाह-तदेतत्प्रमाणागुलमिति । इत्थम् 'अंगुलविहस्थिरयणी' इत्यादि गाथा व्याख्यातेति सूचयितुमाह-तदेतद् विभागनिष्पन्न मिति । इत्थं च समग्रं क्षेत्रमाणं प्ररूपितमिति सूचयितुमाह-तदेतत् क्षेत्रमाणमिति ।। मू० २०० ॥
शंका--अंगुल आदि प्रमाणों के द्वारा जीव, अजीव आदि वस्तुएँ नागरी (जानी) जाती है, इसलिये उनकी प्रमाणता उचित है। किन्तु अलोक से तो कुछ भी जाना नहीं जाता। इसलिए उसके प्रमाणता कैसे कही ?
समाधान-यपि अलोक के द्वारा बाह्य कोई वस्तु नहीं जानी जाती है, तथापि उसके द्वारा अपना (अलोकका) स्वरूप तोजानाही जाता है। अन्य था अलोक-विषयक बुद्धि ही उत्पन्न नहीं हो सकेगी।
इन श्रेणी, अंगुलआदिक में अल्पयत्व आदि का विचार सुगम है, अतः उसे मूल ग्रन्थ से ही जानना चाहिए । अब प्रकृत उपसंहार करने के लिये कहते हैं-वह यह प्रमाणांगुल है। इस प्रकार 'अंगुल विस्थिरयणी' इत्यादि गाथा व्याख्यात की गई है, यह सूचित करने के लिए कहते हैं-वह यह प्रमाण अविभाग निष्पम है। इस प्रकार समस्त
શંકા-આંગળી વગેરે પ્રમાણે દ્વારા જીવ અજીવ વગેરે વસ્તુઓ માપવામાં આવે છે, એટલા માટે તેમની પ્રમાણુતા ઉચિત છે પરંતુ આ લોકથી તે કંઈપણ જણાતું નથી એટલા માટે પ્રમાણુતા તેની કેવી રીતે કહેવામાં આવી છે?
સમાધાનજે કે આ લેક વડે બાહ્ય કઈ પણ વસ્તુ જાણવામાં આવતી નથી, તે પણ તેના વડે પિતાના સ્વરૂપનું તે જ્ઞાન થઈ જ જાય છે અન્યથા અલક વિષયક બુદ્ધિ જ ઉત્પન્ન થઈ શકશે નહિ.
આ શ્રેણી, આંગળ વિગેરેના અલ્પ, બહત્વ વગેરે ને વિચાર સંગમ છે એથી તેના વિષે મૂલ ગ્રન્થ વડે જ સમજી લેવું જોઈએ હવે પ્રકૃત વિષયને S५२ ४२वा माटे छे-ते मा प्रमाणांस छ मा प्रमाणे "अंगुल. विहस्थिरयणी" त्याहि गाथा व्याभ्यात ४२मा भावी छ, मा सूथित ४२१॥ માટે કહે છે કે તે આ પ્રમાણ અવિભાગ નિષ્પન્ન છે આ પ્રમાણે સમસ્ત ક્ષેત્ર
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अनुयोगद्वारसूत्रे अथ कालप्रमाण निरूपयति.. मूलम्-से किं तं कालप्पमाणे?, कालप्पमाणे दुविहे पण्णत्ते, तं जहा-पएलनिफण्णे य विभागनिप्फपणे य। से किं तं पएसनिप्फपणे ?, पएसनिप्फण्णे एगसमयटिइए दुसमयटिइए तिसमयदिइए, जाब दससमयदिइए असंखिजसमयटिइए से तं पएसनिप्फण्णे।से किं तं विभागनिप्फण्णे ? विभागानिफण्णे. समयावलियमुहुत्ता, दिवसअहोरत्तपक्खमासा य । संवच्छर जुगपलिया, सागरओसप्पिपरिया ॥१॥सू० २०१॥
छाया-अथ किं तत् कालपमागम् ? कालप्रमाणं द्विविध प्रज्ञप्त, तद्ययाप्रदेशनिष्पन्नं च विभागनिष्यन्नं च । अथ किं तत् प्रदेशनिष्पन्नम् ? प्रदेशनिष्पक्षेत्र प्रमाण की प्ररूपणा की गई जाननी चाहिए, यह सूचित करने के लिये कहते हैं-यह सब क्षेत्र प्रमाण है सूत्र ॥२०॥
अब सूत्रकार कालप्रमाण का निरूपण करते हैंसे कितं कालप्पमाणे' इत्यादि। शब्दार्थ-(से कितं कालप्रमाणे ?) हे भदंत ! कालप्रमाण क्या है?
उत्तर--(कालपपमाणे दुबिहे पत्ते) बह कालपमाण दो प्रकार का कहा गया है । (तं जहा) वे दो प्रकार उसके ये हैं (पएसनिप्फण्णे य विभागनिष्फण्णेय) एक प्रदेश निष्पन्न काल प्रमाण और दूसरा विभाग निष्पन्न कालप्रमाण । (से किं तं पएसनिफण्णे ?) प्रदेश निष्पन्नकाल. प्रमाण का क्या स्वरूप है ? પ્રમાણની પ્રરૂપણ થયેલી જાણવી જઈ એ આ સૂચિત કરવા માટે કહે છેઆ સંપૂર્ણ ક્ષેત્ર પ્રમાણ છે. સૂ૦૨૦૦
હવે સૂત્રકાર કલપ્રમાણુનું નિરૂપણ કરે છે– "से किं तं कालप्पमाणे" त्यादि। शहाथ-(से किं तं कालप्रमाणे ?) मत ! प्रमाण शु छ १ ।
उत्तर-(कालप्पमाणे दुविहे पण्णत्ते) ते सप्रमाण मे प्रा२नु वामां मा०यु छ. (तंजहा) ते २ मा प्रमाणे छे. (पएसनिष्फण्णे य विभाग. निकण्णे य) में प्रदेश नि०पन्न प्रभाय मने भी२ विमानसप्रमाण (से कितं पएसनिष्फग्गे ?) प्रदेश निश्पन्न सप्रमाणुनु स्१३५ पुंछ ?
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अनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र २०१ कालप्रमाणनिरूपणम्
૨૨૨ ना एकसमयस्थितिक द्विसमयस्थितिकं त्रिसमयस्थितिक यावत् दशसमयस्थितिकम् असंख्येयसमयस्थितिकं तदेतत् प्रदेशनिष्पन्नम् । अथ किं तत् विभागनिष्पनम् ? विभागनिष्पन्न-समयावलिका मुहूर्ता दिवसा होरात्रपक्षनासाश्च । संवत्सर युगपल्यानि सागरावसर्पिपरिवर्त्ताः ॥ सू०२० १।।
टीका- ' से किं तं' इत्यादि
अथ किं तत् कालप्रमाणम् ? इति शिष्यमनः । उत्तरयनि-कालममाणं प्रदेश निष्पन्न विभागनिष्पन्नति द्विविध प्रज्ञप्तम । तत्र प्रदेशनिष्पन्नम्-प्रदेशा:-कालस्य निर्विभागा भागास्तनियन्न, तद्धि एकसमयस्थितिक यादसंख्ये यसमयस्थिति___उत्तर-(एगसमयटिहए दुसमयट्टिइए तिलमट्टिदए जात्र दससमयटिइए संग्विन समष्टिहए असंग्वि जसमपट्टिहए) एक समय की स्थितिबाला, दो समय को स्थितिबाला यावत् दश समय की स्थिति वाला संख्यातसमयकी स्थितिबाला असंख्यात समय की स्थितिवाला पुद्गलपरमाणु अथवा स्कन्ध (पएसनिष्फण्णे) प्रदेश निष्पन्न काल प्रमाण है। (से तं परसनिष्काणे) इस प्रकार यह प्रदेश निष्पन्नकालप्रमाण का स्वरूप है । (से किं तं विभागनिएफण्णे ?) वह विभाग निष्पन्नकाल प्रमाण क्या है ? (विभागनिष्फरमे) विभाग निष्पन्नकालत्रमाण इस प्रकार से हैं-(समयावलियमुहत्ता दिवस अहोरत्तपक्षमामा य, संव. च्छा जुगपलिया-सागर ओसपिपरिया) समय, आवलिका, मुहर्त, दिवस, अहोरात्र, पक्ष, मास, संवत्सर, युग, पल्प सागर, अवस. पिंगी, उत्सर्पिणी और पुद्गलपरावर्तन काल के निर्विभाग जो भाग है
१२-(एसमयट्टिइए दुसमयदिइर तिसमयटिइए जाव दस समयदिइए संखिजसमयदिइए असंखिज्ज समय ए) मे समयनी स्थितिवाणी, ये સમયની સ્થિતિવળે, ત્રણ સમયની સ્થિતિવાળે, યાત્ દશ સમયની સ્થિતિ વાળ, ચંખ્યાત સમયની સ્થિતિવાળે, અસંખ્યાત સમયની સ્થિતિવાળ पुस ५२मा अय! २४५ (पएस निष्फण्णे) प्रदेश निसन मा छे. (से तं पएसनिष्फण्णे) मा प्रमाणे प्रदेश नन्न समानु १३५ थे. (से कि त विभागनिःफण्णे १) ते विला नि०५ सप्रमाण शु छ ? (विभाग निफण्णे) विमा नियन्न सप्रम.ए प्रभारी है-(समयावलियमुहुत्ता दिवस अहोरत्त पक्खमासा य, संवच्छरजुगपरिया सागर ओसप्पिपरि यट्टा) समय, मावा , मुडूत, Eि१८, अहेरात्र, ५६, भा, संवत्सर, યુગ, પલ્પ-સાગર, અવમર્પિણી અને પુદ્ગલ-પરાવર્તન કાલના જે નિર્વિર
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अनुयोगद्वारसूत्र कान्तं बोध्यम् । तत्र-एकसमयस्थितिका परमाणुः स्कन्धो वा एकेन कालपदेशेन निष्पमः, द्विसमपस्थितिकस्तु द्वाभ्यां कालपदेशाभ्यां निष्पन्ना, एवमेव व्याध संख्पेयस्थितिकान्ताः परमागवस्यायसंख्यकालप्रदेशनिष्पन्ना बोध्याः । इतः परं तु पुद्गलानामे केन रूपेण स्थितिरेव नास्ति । प्रदेशनिष्पनद्रव्यप्रमाणवदत्राऽपि प्रमाणता बोध्या। विभागनिष्पन्नं तु समयापलिकादिकं बोध्यम् । तच्चाने स्वय मेव विवरिष्यति सूत्रकारः ॥ सू. २०१॥ वही प्रदेश है। इस प्रदेशों से निपन्न होना इसका नाम प्रदेशनिष्पन्न है । एक समय की स्थितिवाला परमाणु अथवा स्कन्ध एककाल प्रदेश से, दो समय की स्थितिवालो परमाणु अथवा स्कन्ध काल के दो प्रदेश निष्पन्न होता है । इसी प्रकार तीन समय आदि से लेकर असंरूपात समय की स्थितिवाले जितने भी पुद्गल परमाणु अथवा स्कन्ध हैं वे-सव काल के उतने २ ही प्रदेशों से अर्थात् तीन प्रदेशों से यावत् असंख्यात प्रदेशों से-निष्पन्न होते हैं ऐसा जानना चाहिये । इससे आगे पुद्गलों की एक रूप से स्थिति ही नहीं होती है। इस प्रदेशनिष्पन्न कालप्रमाण में भी प्रदेशनिष्पन्न द्रव्यप्रमाण के जैसी प्रमाणता जाननी चाहिये । सनय आवलिका आदि रूप-जो काल प्रमाण है वह विभाग निष्पन्न प्रमाण है । सभय आदि का स्वरूप सूत्रकार स्वयं ही आगे निरूपण करेंगे। सू० २०१ ॥ ભાગ જે ભાગે છે તે જ પ્રદેશ છે. આ પ્રદેશથી નિષ્પન્ન થવું તે પ્રદેશ નિષ્પન્ન છે એક સમયની સ્થિતિવાળે પરમાણુ અથવા અન્ય એક કાલપ્રદેશથી, બે સમયની સ્થિતિ અને પરમાણુ અથવા અન્ય કાલના બે પ્રદેશથી નિષ્પન્ન થાય છે. આ પ્રમાણે ત્રણ સમય વગેરથી માંડીને અસંખ્યાત સમયની સ્થિતિવાળા જેટલા પણ પરમાણુ અથવા સ્કો છે, તે સર્વે કાલના તેટ–તેટલા જ પ્રદેશથી એટલે કે ત્રણ પ્રદેશથી યાવત્ અસંખ્યાત પ્રદેશથી નિષ્પન્ન થાય છે. આમ જાણવું જોઈએ એનાથી આગળ જુગલની એક રૂપમાં સ્થિતિ જ રહેતી નથી. આ પ્રદેશનિષ્પન્ન કાલ–પ્રમાણમાં પણ પ્રદેશ નિષ્પન્ન દ્રવ્ય પમાણની જેમ પ્રમાણતા જાણવી જોઈએ સમય આવલિકા આદિ રૂપ જે કાલ-પ્રમાણ છે, તે વિભાગ નિપન્ન કાલપ્રમાણ છે સમય વગેરેનું સ્વરૂપ સૂરકાર જાતે હવે પછી નિરૂપિત કરશે. સૂ૦૨૦૧૫
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अनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र २०२ समयस्वरूपनिरूपणम्
सर्वेषां कालभेदानां समयादित्वात् समयनिर्णयार्थमाहमूलम् - से किं तं समए ? समयस्स णं परूवणं करिस्सामि, से जहा नामए - तुण्णागदारए सिया तरुणे बलवं जुगवं जुवाणे अप्पात के थिरग्गहत्थे दढपाणिपायपास पितरोरुपरिणए तलजमलजुयल परिघणिभवाहू चम्मेदृगदुहणमुट्ठियसमाहय निचियगत्तकाए उरस्सबलसमण्णागए लंघणपवणजवणवायामसमत्थे छेए दक्खे पट्टे कुसले मेहावी निउणे निउणसिप्पोवगए एगं महई पडसाडियं वा, पट्टसाडियं वा गहाय सयराहं - हत्थमेत्तं ओसारेज्जा । तत्थ चोयए पण्णवयं एवं वयासी-जे णं कालेणं तेणं तुष्णागदारएणं तीसे पडसाडियाए वा पहसाडियाए वा सयराहूं हत्थमेत्ते ओसारिए से समए भवइ ? नो इणट्टे समट्ठे । कम्हा ? जम्हा संखेज्जाणं तंतूणं समुदयसमिइसमागमेगं एगा पडसाडिया वा पवसाडिया वा निष्फज्जइ, उवरिल्लभि तंतुंमि अच्छिणे हिडिले तंतू न छिज्जइ, अण्णांमि काले उबरिल्ले तंतु छिज्जइ अण्णमि काले हिट्ठिल्ले तंतू छिज्जइ, तम्हा से समए
२३१
न भवइ । एवं वयं तं पण्णत्रयं घोयए एवं वयासी- जेणं कालेणं तेणं तुष्णागदारएणं तीसे पडसाडियाए वा पट्टसाडियाए वा उवरिले तंतू छिपणे से समए भवइ ? न भवइ, कम्हा ?, जम्हा संखेज्जाणं पहाणं समुदय समिइ समागमेणं पगे तंतू निष्फज्जइ,
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वरिले पहे अच्छिष्णे हेहिले पम्हे न छिज्जइ, अण्णमि काले उवरिल्ले पन्हे छिज्जइ अण्णमिकाले हेडिले पम्हे छिज्जइ, तम्हा
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____ अनुयोगद्वारसूत्रे से समए न भइ। एवं वयंतं पण्णवयं चोयए एवं वयासीजे णं कालेणं तेणं तुण्णागदारएणं तस्त तंतुस्स उबग्लेि पम्हे छिपणे से समए भवइ ? न भाइ, कम्हा?, जम्हा अणंताणं संघायाणं समुदयसमिइसमागमेणं एगे पम्हे निष्फजइ, उवरिल्ले संघाए अविसंघाइए हेदिले संघाए न विसंघाइज्जइ अण्णंमि काले उवरिल्ले संघाए विसंघाइज्जइ अण्णमि काले हिट्रिले संघाए विसंघाइज्जइ, तम्हा से समए न भवइ । एत्तोऽ वि यणं सुहमतराए समए पणत्ते समाउसोसू० २०२॥
छाया-अथ कोऽसौ समयः ? समयस्य खलु प्ररूपणां करिष्यामि, अथ यथा नामकः तुम्नवायदार : स्वात् तरूणो वल्वान् युगमान युवान अल्पातङ्कः स्थिराग्रहस्तः दृढपाणिपदधाधष्ठान्सरोरुपरिणतः तलयमलयुगलपरिघनिभबाहुः चर्मष्टकद्रघणमुष्टिकसमाहतनिचितगात्रकायः औरस्यबलसमन्वागतः लङ्कनप्लवन जवनव्यायापसमर्थः छः दक्षः प्राप्तार्थ कुशलमेधावी निपुगः निपुणशिल्यो. पगतः एका महतीं पट शाटिकां वा पटशाटिकां गृहीत्वा झटिति इस्तमात्रम् अपसारयेत् , तत्र नोद का प्रयापकम् एवम् अवादी-येन कालेन तेन तुन्नया यदारकेण तस्याः पटशाटिकाया वा पट्टाटिकाया वा झटिति हस्तमात्रमपसारितम् । स समयो भाति ? नोऽयमर्थः समर्थः । कस्मात् ? यामान संख्येयाना तन्तूनां समु. दयसमितिसमागमेन एका पटशाटिका वा पट्टशाटिका वा निष्पद्यते । उपरितने तन्तौ अविच्छिन्ने अबस्तनः तन्तुः न छियते । अन्यस्मिन् काले उपरितनस्तन्तुश्यिते अन्दस्मिन् काले अपस्तनस्तनश्चिते, तस्मात् स समयो न भवति एवं वदन्तं प्रज्ञाय नोदक एवमवादी-यस्मिन् काले तेन तुन्नवायदारकेण दस्याः पटशाटिकाया वा पट्टशाटिकाया वा उपरितनस्तन्तुश्छिन्नः स समयो भवति ? न भवति, कस्मात् ? यस्मात् संख्यातानां पक्षमाणां समुदयसमितिसमागमेन एकस्तन्तुनिष्पयते उपरितने पक्षमणि अच्छिन्ने अधस्तनं पक्षण न छिचने, अन्यस्मिन् काले उपरितनं पक्ष्म छियते अन्यस्मिन् काले अधस्तनं पक्ष्म छिमते, तस्यात् स समयो न भवति । एवं वदन्तं प्रज्ञापकं नोदक एवमवादीत-यस्मिन् काले तेन तुनवायदारकेण तस्य तन्तोः उपरिरानं परम छिन्नं स समयो भवति ? न भवति,
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अनुयोगचन्द्रिका टीका सू २०२ समयस्वरूपनिरूपणम्
२३३ कस्मात् ? यस्मात् अनन्तानां संघाताना समुदयसमितिसमागमेन एकं पक्ष्म निष्पघते, उपरितने संघाते असिंघातिते अधस्तनः संघातो न विसंघात्यते, अन्य स्मिनकाले उपरितनः संघातः विसंघात्यते तस्मात् समयो न भवति । एतस्मादपि च खलु सूक्ष्मतरः समयः प्रज्ञप्तः श्रमणायुष्मन् ॥ मु० २०२॥
टीका-से किं तं' इत्यादि-अथ कोऽसौ समयः ? इति शिष्यमश्नः । समयस्यातिम्रक्ष्मत्वात् तस्य विस्तृता मरूपणाऽपेक्षिता । तां विना समयपरिज्ञानमशक्यम् । अत आह सूत्रकारः-समयस्य मरूपणां करिष्यामिम्ममयः संक्षेपतः पूर्वमुक्तोऽपि सूक्ष्मत्वान्न बुद्धिग्रामो भवति, अतस्तस्य विस्तृतां व्याख्यां करिष्या
समय, आवलिका आदिरूप जो कालके भेद हैं उनमें सर्व प्रथम समय का पाठ आया है-अतासूत्रकार इसके निर्णय निमित्त “से किं तं समए ?" इत्यादि सूत्र कहते हैं।-----
'से किं तं समए ?' इत्यादि। . शब्दार्थ-(से कि तं समए) हे भदन्त ! वह समय क्या है ?
उत्तर-(समयस्स णं परूवणं करिस्सामि) समय, काल का सब से अधिक सूक्ष्म अंश है । इसलिये जब तक इसकी विस्तृत प्ररूपणा नहीं की जायेगी तब तक इसका वास्तधिक स्वरूप प्रतिपादित नहीं हो सकेगा-इसलिये उसके वास्तविक स्वरूप का यथावत् परिज्ञान हो सके इस निमित्त सूत्रकार उसकी विस्तृतम्याख्या करेंगे। यद्यपि समय का संक्षिप्त स्वरूप पहिले कह दिया गया है-परन्तु फिर भी वह समय बहुत सूक्ष्म है, इसलिये सामान्यस्वरूप के कथन से वह बुद्धि ग्राह्य नहीं हो सकती है। इसीलिये सूत्रकार इसकी
સમય આવલિકા આદિ રૂપ જે ક લના ભેદો છે તેમાં સર્વપ્રથમ સમયનો પાઠ આવેલ છે. એટલા માટે સૂત્રકાર એના નિર્ણય નિમિત્તે ‘से किं तं समए' इत्यादि सूत्र हे छे.
" से कि तं समए ?" त्याहशहाथ-(मे कि तं समए) 3 मत ! ते समय शु ?
उत्तर-(समयस णं परवणं करिस्सामि) समय जन सी ४२त पारे સૂમાંશ છે. એથી જ્યાં સુધી આ સંબંધમાં વિસ્તૃત પ્રરૂપણ કરવામાં આવે નહીં, ત્યાં સુધી આનું વાસ્તવિક સ્વરૂપ નિરૂપિત થશે નહીં. તેના વારતવિક સ્વરૂપનું યથાવત્ પરિજ્ઞાન થાય તે માટે સૂત્રકાર તેની વિસ્તૃત વ્યાખ્યા કરશે જે તે સમયના સંક્ષિપ્ત સ્વરૂપ વિષે પહેલાં કહેવામાં આવ્યું છે, છતાં એ તે સમય અતીવ સૂક્ષ્મ છે, એટલા માટે સામાન્ય રવરૂપ કથનથી
अ०३०
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२३४
अनुयोगद्वारसूत्रे मोति भावार्थ । विस्तृतव्याख्या कर्तुमेवाह-' से जहाणामए ' इत्यादि । स यथानामकः-यथा यन्त्रकारं नाम यस्य स तथाभूत:-देवदत्तादिनामक इत्यर्थः, कश्चित् दन्नवायदारका-सौविरपुत्रः तरुण-पवर्द्धमानवाः , ननु दारकोऽपि पवईमानवया एव भवति किं पुनकरुणेत्युपादाने नेत्याह-तुन्नवायदारकत्वं तु तस्मिन्नामृत्युकालं तिष्ठति, मृत्युकाले वार्धके प्रवर्धनमानवयस्त्वं नास्ति, आस्तरुणेति पदमुपात्तम् । अथवा-तरुण-अभिनववर्णगुणाद्युपचितः । बलवान् सामर्थ्यवान् युगवान्-युगं-सुषमदुषमादिकालः, तत अदुष्टम्-उपद्रवरहितं विशिष्टबलहेतुर्यस्य स तथा, कालोएद्रवेण सामर्थ्यहानिर्भवति, अत इदं विशेषणम् । युवान:-युवा-यौरनस्थः-प्राप्तवयस्क एषः' इत्येवं भणतिव्यपदिशति लोको यमसौ निरुक्तिवशात् युवानः युवेत्यभिधेयः। तारुण्यस्येवोत्कर्षबोधनार्थ युवेति विशेषणम् । अल्पातङ्क:रोगरहितः । अल्पशब्दोऽत्रभाववाचकः । स्थिराग्रहस्त स्थिरएट पाटने कम्पन रहितः अप्रहस्तो यस्य स तथा दृढपाणिपादपार्धपृष्ठान्तरोरुपरिणतः-पाणी च पादौ च पाश्वौं च पृष्ठान्तरे च ऊरुचेति-पाणिपादपाश्वपृष्ठान्तरोरु-दृढ-शक्तं पाणिपादपार्श्वपृष्ठान्तरोरु परिणतं संजातं यस्य स तथा सर्वाश्यवैरत्युत्कृष्टसंहननचानित्यर्थः । तथा-तलयमलयुग परिघनिभवाहुः-तलस्य तालवृक्षस्य यद् यमलं= विस्तृत व्याख्या करने के लिये आगे का प्रकरण प्रारंभ करते हैंवे इस में कहते हैं - (से जहानाम ए) कि-जैसे यथा नामक-देवदत्त आदि नामवाला कोई एक (तु गागदारए) दर्जी का लडका (सिया) हो (तरुणे) और वह इन तरुणादि विशेषणों से विशिष्ट हों-अर्थात् प्रवर्धमानवयशाला हो (पलधं) सामर्थ्यशाली-हो, (जुगवं) सुषमदुषमादि काल हो-अर्थात तीमारे चौथे आरे में जन्मा हो (जुणे) प्राप्तवयस्क हो, (अप्पातं के) निरोग हो, (धिरग्गहत्थे) कपडा फाडने में स्थिर हाथवाला हो (ढपाणिपायपासपिटुंतरोरुपरिणए) दोनों हाथ पैर पार्श्वभाग पृष्ठान्त और ऊरु जिसके खूप विशाल हो (तलતે બુદ્ધિગ્રાહ્ય થઈ શકે તેમ નથી એથી સૂત્રકાર એની વિસ્તૃત વ્યાખ્યા ४२वा माटे माजनुं ५५ ५२ रे -ते। भामा छ-(से जहा नामप) म यथा नाम पहत्त पणेरे नाम । ४ (तुण्णागदारए) पुत्र (सिया) डाय (सरुणे) म२ ते मा ताहि विशेषणेथी विशिष्ट हाय, टवे, प्रभानवयानी डोय. (बलव) सामथ्यशाली હોય (gn) સુષમદુષ્યમાદિ કાળને હેાય એટલે કે ત્રીજા ચોથા આરામાં
भसा डाय (जुवाणे) प्राप्त १५४ य (अप्पात के) नि। डाय (थिरगाहत्थे) १५७ ३:41zi स्थिर रतवाणे य, (दढपाणिपायपासपि,वरोहपरिणय) मन्ने ६५ ५॥ पावभाग पृष्ठन्त मन (ona) ना
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अनुयोगचन्द्रिका टीका सू २०२ समयस्वरूपनिरूपणम् -२३५ समश्रेणीक युगर-द्वयम् , परिव = सपाटाला च, एतन्निभौ एतत्सदृसौ दीर्घसरलपीनत्वादिना बाहू यस्य स तथा । इत्यं स्वाभाविकं सामर्थ्यमुपदर्य आग न्तुकोपकारण सामर्थ्यमाह-चर्मेप्टका द्रुघणबुष्टिकसमातिनिचितगात्रकाय:चर्मामाता इष्टका-वर्मेष्टका प्रहरणविशेषः, द्रुघणः=मुद्गरः, मुष्टिक:-मुष्टिबन्धः एतैः समाहननेनपायामकाले समोहननेन निचितानि दृढानि गात्राणि-अङ्गानि यस्मिन् , एतादृशः काय:-शरीरं यस्य स तथा, चर्मेष्टिकादिप्रहारेण सशक्तशरीर इत्यर्थः । तथा औरस्पब समन्वागतः-औरस्यं-सहजं यद् बलं तेन समन्वागत = युक्तः-आन्तरोत्साहवीयवानित्यर्थः। लङ्घनप्लवनजवनव्यायामसमर्थः तत्रलङ्घनम्-कूदनम् , प्लवनम् बाहुभ्यां नद्यास्तरणम् , जवनंधावनम् , एतद्रूपो व्यायामस्तेन समर्थः सामर्थ्य सम्पन्नः। तथा छेका प्रयोगज्ञः, दक्षः शीघ्रकारी, प्राप्तार्थः स्वकर्मज्ञः, कुशला= आलोच्य कार्यकर्ता, मेधावी सकृच्छ् तदृष्टकमजमलजुयलपरिघणिमवार) दीर्घता, सरलता और पीनता की दृष्टि में जिसके दोनों घाह समश्रेणिवाले दो तालवृक्षों के समान और कपाटार्गला के जैसे हो तथा (चम्मेलुगदुहणमुष्ट्रियसभाहयनिचियगसकाए) व्यायाम करते समय चर्मेष्टिका-प्रहरणविशेष. द्रुघण-मुद्गर, मुष्टिक-मुष्टि करन्ध, इनके फेरने से जिनके शारीरिक अवयव बहुन अधिक दृढ हो गये हो, (उरस्लयलसमण्णागए) स्वाभाविकपल जिसमें खूप भरा हो, 'लंघणवणजवणायाम समस्थे) कूदना, तैरना, दोडना इसरूप व्यायाम से जो सोमय संपन्न हो, (छेए) जो छेक हो अर्थात् कपडे फाडने कि युक्ति को जानने वाला हो, (दक्खे) दक्ष हो (पत्त?) अपने कार्य का ज्ञाता हो, (कुसले) विचार के काम करनेवाला महु पि डाय, (तलजमल जुयल परिघणिभवाहू) होता, सरसता भने પીનત્વની દષ્ટિએ જેના બને બાહુઓ સમશ્રેણિવાળા બે તાલ વૃક્ષે જેવા भने पाया (313) 24 हाय तेभर (चम्मेलुगदुहणमुट्टियसमाह्यनिचियगत्तकाए) व्यायाम ४२ती मते या प्रह२५ विशेष, दुध-मुहार, मुष्टि:મુષ્ટિ-બન્ય, ફેરવવાથી જેના શારીરિક અવય બહુજ સુદૃઢ થઈ ગયા હોય (उरस्सबलसमण्गागए) साविण २मा म हाय, (लंघणपवणजवणवायामसमत्थे) , त२, हो मेरे ३५ विविध व्यायामाथी२ સામર્થ્ય સંપન્ન હય, (ર) જે છેક હોય, એટલે કે કાપડ ફાડવાની યુક્તિને सारी Na Megh। डाय (दक्खे) ४६ डाय (पत्तद्वे) पाताना या प्रवीण सराय (कुसले) ५५ पिया२५' आम ४२॥३॥ अय, (मेहावी) मेधावी डाय,
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अनुयोगद्वारसूत्रे परिज्ञानवान् , निपुणः-उपायारम्भका, तथा-निपुणशिल्पोपगतः-निपुणं-सूक्ष्म यत् शिल्पं तेन उपगतः समन्वागतः-मूक्ष्मशिल्पयानित्यर्थः । एवंविधविशेषणवि. शिष्टस्तुन्नवायदारक एका महतीं पटशाटिकां कार्पासशाटिकां वा पट्टशाटिका कृमिजतन्तुशाटिकां वा गृहीत्वा 'सयराह ' ति- झटिति हस्तमात्रम् हस्तप्रमाणम् अपसारयेत-स्फाटयेत् । तत्र-एवं गुरुगोक्ते नोदका शिष्यः प्रज्ञापकं-गुरुमेवम् अवादीतू-उक्तवान्-येन कालेन यावता कालेन तेन तुम्नवारदारकेण तस्याः पटशाटिकाया वा पट्टशाटिकाया वा झटिति हस्तमात्रमपसारितम् , स समयो भवति किम् ? गुरुराह-नायमर्थः समर्थः । कस्मात् ? यस्मात् तन्तूनां समुदयस. हो (मेहावी) मेधावी हो अर्थात् एक बार देखा सुना हुआ कार्य का ज्ञानवाला हो, (निउणे) निपुण हो-चतुर हो, (निउणसिप्पोवगए) सिनेकी कला में निपुण हो। इन विशेषणों से युक्त बना हुआ वह दर्जी का लडका (एगे महापडसाडियं वा पट्टमाडियं वा) एक बहुत बडी भारी सूत की शाटिका को अथवा रेशमी शाटिका को (गहाय) लेकर (सयराह) घडी शीघ्रता से (हत्यमेतं ओसारेजा) एक हाथ प्रमाण फाड देता है । (तस्थ चोयए पण्णवयं एवं वयासी) इस पर प्रश्न काशिष्य गुरु से ऐसा पूछता है कि (जेणं कालेणं तेणं तुण्णागदारएणं तीसे पडसाडियाए वा पट्टसाड़ियाए वा सयराहं हत्यमेत्ते ओसारिए से समए भवा ?) जितने काल में उस दर्जी के लडकेने उस सूत की शाटिका को अथवा रेशम की शाटिका को एक हाथ प्रमाण फाडा है तो क्या हे भदन्त ! वही समय है ?
એટલે કે એક વખત જેલ અને સાંભળેલ કાર્યનું જ્ઞાન ધરાવતે હેય, (निउणे) निघुगु डाय, चतुर डाय, (निउणे सिप्पावगए) सी१५ साभानिपुर हाय, मा विशेषथा समत येत ते ६७ पुत्र (एग्गे महइ पडसा. डियं वा पट्टसाडियं वा) मे भूम४ भोटी सारे सूतरनी शाटने अथवा देशभी शनि (गहाय) सधन (सयराह) ३६५ ताथी (हत्थमेत्ते ओसा. रेज्जा) मे 612 Auy a नामे छे. (तत्थ चोयए पण्णवयं एवं वयासी)
॥ विष प्रश्नत्त शिष्य गुरुने मा प्रमाणे प्रश्न ४२ छ । (जेणं कालेणं तेणं तुण्णागदारएणं तीसे पडसा डेयाए वा पट्टसाडियाए वा सयराहं हत्थमेत्ते ओसारिए से समए भवइ ?) रेसा अभी तना हीराते सूतरनी શાટિકાને અથવા રેશમની શાટિકાને એક હાથ પ્રમાણ ફાડી નાખી છે, તે शुमत! ते समय छे ?
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अनुयोगचन्द्रिका टीका सू २०२ समयस्वरूपनिरूपणम् मितिसमागमेन-द्वयादिसमुदायात्मकतन्तूनां सम्यक्संयोगेन एका पटशाटिका वा पट्टशाटिका वा निष्पन्ना भवति । तस्या उपरितने तन्तावच्छिन्ने अधस्तनस्तन्तुर्न छिद्यते । अन्यस्मिन् काले चोपरितनस्तन्तुश्छिद्यते अन्यस्मिन् काले बाधस्तनः । तस्मात् शाटिकाया हस्तमात्रस्फाटनकालः समयो न भवति । एवं वदन्तं प्रज्ञापकंगुरुं नोदकः शिष्यः पृच्छति-यावता कालेन शाटिकाद्वयमध्ये ज्यतरस्याः शाठि.
उत्तर-(णो इण्डे समढे) यह अर्थ समर्थित नहीं है-अर्थात् वह समय नहीं है । (कम्हा) क्योंकि (जम्हा संखेज्माण संतूर्ण) संख्यात संतुओं के (समुदयसमिइसमागमेणं) समुदायरूप समिति के सम्यक संयोग से अर्थात् द्वयादिसमुदायानक तंतुओं के विशिष्ट संयोग से (एगा पडसाडिया वा पट्टसाडिया वा निप्पजइ) एक सूतकी शाटिका अथवा रेशम की शाटिका बनती है। (उपरिल्लंमि तंतुम्मि अच्छिणे हिडिल्ले तंतु न छिज्जा ) सो जब तक उसका ऊपर का तंतु नहीं फटेगा, तब तक नीचे का तंतु नहीं फट सकता है। (अण्णम काले उवरिल्ले तंतू छिज्जइ अण्णम्मि काले हिटिल्ले तंतू छिज्जइ) इसलिये यह मानना चाहिये कि ऊपर के तंतु के छिदने का काल दूसरा है और नीचे के तंतु के फटने का काल दूसरा है । (तम्हा से समए न भवइ) इसलिये शाटिका का १ एक हाथ फटने का काल समयरूप नहीं है (एवं वयंतं पण्णवयं चायए एवं बयासी) इस प्रकार कहनेवाले गुरु से पुनः प्रश्न कर्ता शिष्य पूछता है कि (जेणं कालेणं तेणं तुण्णागदारएणं तीसे पडसाडियार वा पट्टसाडियाए वा उचरिल्ले तंतु छिण्णे से समए
उत्तर-(णो इणद्वे सम8) मा म समाबत नथी. मे समय नथी (कम्हा) हेम (जम्हा संखेज्जाणं तंतूग) सध्यात त तुमाने (समुदयसमिइ समागमेणं) समुदाय ३५ समितिना सभ्य साथी भेट दयाल समुदायात्म ततुना विशिष्ट साथी (एगे पडसाडिया वा पट्ट साडिया वा निष्काइ) से सूनी शी अथए। २०ी शाट तयार थाय छे. (उरिल्लंमि तंतुम्मि अच्छिणे हिल्लेि तंतु न हिज्जइ) तो न्यो सुधा તેની ઉપર તત (તાર) ફાટશે નહીં, ત્યાં લગી નીચેને તંતુ ફાટશે નહીં (अण्णमि काले उपविल्ले तंतू छिज्जइ अण्णमि काले हिडिल्ले तंतू छिज्जइ) એટલા માટે આ વાત માની લેવી જોઈએ કે ઉપરના તંતુને છેદન કાલ मन्य छे भने नायना ततुना हुन समन्य छे. (तम्हा से समए न भवइ) એટલા માટે શાટિકાને એક હાથ વસ્ત્ર ફાડવાને કાલ સમય રૂપ નથી. (एवं वयंतं पण्णवयं चोयए एवं क्यासी). २॥ प्रमाणे नारा शु३२.३
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૨૮
अनुयोगद्वारसूत्रे
काया उपरितनस्तन्तुस्तेनतुनवायेन छिन्नः, स कालः समयो भवति ? गुरुराह-न भवति । कस्मान्न भवति ? यस्मात् संख्येयानां पक्ष्मणां = वन्तुमुक्ष्मावयवानां समुदयसमितिसमागमेन=द्वद्यादिसमुदायात्मकपक्ष्मणां सम्यक्संयोगेन एकस्तन्ह निष्पन्नो भवति । तत्र तन्त्रौ उपरितने पक्षमणि अच्छिन्ने अधस्तनं पक्ष्य छिन्नं न भवति । अन्यस्मिन् काले उपस्तिनं पक्ष्म छिन्नं भवति अन्यस्मिन् कालेऽधस्वनं पक्ष्म छिन्नं भवति, उभयोछेदकाले भिन्नः, अतः स समयो न भवति । भवह) जितने समय में उस दर्जा के दारक ने उस पहशाटिका के उपरितन तंतु का छेदन किया है तो क्या है भदन्त ! वह उपरितन तंतु छेदन काल समय है ?
-
उत्तर - ( न भवह) वह समय नहीं है । (कम्हा) क्यों नहीं है ? ( जम्हा संखेज्जाणं पम्हाणं समुदयसमिइसमागमेणं एंगे तंतु निष्फज्जह) क्योंकि संख्यात तन्तु सूक्ष्मावयवों- रुमों के समुदाय रूप समिति के संयोग से एक तन्तु निष्पन्न हुआ है । (उवरिल्ले पन्हे अच्छिणे हेट्ठिल्ले पन्हे न छिज्जह) सो जब तक ऊपर का रुँआँ न छिदा जायगा तब तक नीचे का रुँआ-रोम नहीं छिद सकता है। इसलिये यह मानना चाहिये कि (अण्गम्मिकाले उबरिल्ले पन्हे छिज्जद्द, अण्णंम काले तिले पम्हे छिज्जद) भिन्न समय में ऊपर का रोम छिदा है और दूसरे भिन्न समय में नीचे का रोम छिदा है । (नम्हा से
अश्न उर्त्ता शिष्य प्रश्न १रे छे - (जेण कलेण तेण तुष्णागदारएण तीसे पडसाडया ए वा पट्ट साडिया ए उबरिल्ले तंतू छिष्णे से समए भवइ) भेटला સમયમાં તે દઈના દીકરાએ તે પટ શાટિકા અથવા પટ્ટ શાટિકાના ઉપરિતન તંતુનું છેદન કર્યુ” છે તે શું કે ભદત ! તે ઉપરિતન તંતુ
છેદન કાલ સમય છે?
उत्तर- ( न भवइ) ते सभय नथी ( कम्हा) ते समय उस नथी ? ( जम्हा संखेज्जा पहाणं समुदयस मिइसमागमेण एगे तंतू निष्फज्जइ) उभडे સખ્યાત તંતુ સૂક્ષ્માવયવેના સમુદાયરૂપ સમિતિના સ ંચાળથી તે એક તન્તુ निष्पन्न थयेस छे. (उरिल्ले पन्हे अण्णे हेट्ठिल्ले पन्हे न छिज्जइ) ते જ્યાં સુધી ઉપરના રેસા છેદાય નહી' ત્યાં લગી નીચેના રેસા છેદાય જ નહીં भेटला भाटे खायो या माती सेवु लेहये के ( अण्णम्मि काले उवरिल्ले पन्हे छिज्जइ, अण्णमि काळे हेट्ठिल्ले पन्हे छिज्जइ) भिन्न સમયમાં ઉપરના रेसो छेडायो भने जीन भिन्न समयमा नीयेने रेसो छेडायो छे. (तम्हा
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अनुयोगचन्द्रिका टीका सू २०२ समयस्वरूपनिरूपणम्
२३९ पुनः शिष्यो पृच्छति-यावताकालेन तेन तुन्नवायदारकेण उपरितने प्रक्ष्म छिन्नम् , स समयो भवति ? गुरुराइ-न भवति । कस्मात् ? यस्मात् अनन्तानां संघातानां= पक्षमसूक्षमावयवानामे परिणामरूपाणां समुदयसमितिसमागमेनसमुदायस्य सम्यक्संयोगेन एक पक्ष्म निष्पन्नं भवति । तत्रोपरितने संघाते अविसंघातितेअपृथक्कृतेऽधस्तनः संघातो न विसंघात्यते-पृथविक्रयते। उपरितनाधस्तनसंघात. समए ल भवइ) इसलिये वह समय नहीं हो सकता है। (एवं वयंत पण्णवयं चोयए एवं वपासी) इस प्रकार उत्तर देनेवाले गुरु जन से प्रश्न कर्ता शिष्य ने ऐसा पूछा कि (जेणं कालेणं तेणं तुण्णागदारएणं तस्स तंतुस्स उधरिल्ले पम्हे छिन्ने से समए भवह ?) तो क्या जितने समय में उस तुम्नामदारक ने उस तंतु के उपरितन रोम को छेदा है वह समय है ? ___उत्तर--(न भवइ) वह समय नहीं है, (कम्हा) क्यों नहीं है ? (जम्हा) क्योंकि (अणताणं संघायाणं समुदयसमिहसमागमेणं एगे पम्हे निष्फज्जह) अनंतसंघातों का-पक्ष्म सूक्ष्म अवययों का-जो समु. दयसमिति का एकपरिणामरूप संयोग है-उससे वह एक पक्ष्म निष्पन्न होता है । सो (उपरिल्ले संघाए अविसंघाइए हेडिल्ले संघाए न विसं. घाइजनह) जब तक ऊपर का संघात पृथक नहीं होगा तय तक नीचे का संघात पृथक् नहीं हो सकता । इस प्रकार यह मानना चाहिये कि से समए न भयद) भेटवा माटे ते समय या नही(एवं क्यंत पण्णवयं चोयए एवं पयासी) मा प्रभार उत्तर मापनार सुक्ने प्रश्न पत्ता शिष्ये माजतने प्रश्न या - (जेण कालेण तेण तुण्णागदारएण तस्स तंतुस्स उत्ररिल्ले पम्हे किन्ने से समय भवइ) ताशु २८९समयमा ते તુમ્નાકરારકે તે તંતુના ઉપરિતન રેમનું છેદન કર્યું છે તે સમય છે ?
उत्तर-(न भवइ) ते समय नयी (कम्हा) भ नथी ? (जम्हा) भ. (अणताण संधायाण समुदयम िइसमागमेण एगे पम्हे निष्फज्जइ) सनत સંઘ તેના-પક્ષમ સૂફ અયના–જે સમુદાય સમિતિના એક પરિણામ રૂપ अयो। छ, तनधी ते मे ५६ नि याय छे. तो (वरिल्ले संधाए अविसंधाइए हे द्वेल्ले संघाए न विसंघाइज्जइ) या सुधी ७५२ने। सात ५५ થયું નથી ત્યાં સુધી નીચે સંઘાત પૃથક્ થઈ શકે જ નહીં. આ પ્રમાણે मा भान न (अण्णंमि काले उवरिल्ले संघाए विसंघाइजह
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२४०
.. अनुयोगद्वारसूत्रे योर्विसंघातनकालो भिन्नः, अतः स सपयो न भवति । कस्तहि समयः ? इत्याहहे श्रमणायुष्मन् ! इतोऽपि च खलु मातरः स पयः प्रज्ञप्तः संघाविसंघातनकालादपि सूक्ष्म तरः सभयो बोध्य इत्यर्थः । ननु ययनन्तः परमाणुसंघातः पक्ष्म नियंते, ते संघाताश्च क्रमेणैव छियन्ते, तुः कस्य पक्ष्मणो विदारणेऽनन्ताः सम या व्यतियन्ति, एतच्चागमविरुद्धम् , आगमे हि-असंख्येथासु उत्सपिण्यवसपिणीषु असंख्येयसमयानामेव प्रतिपादनात् । उक्तं च(अण्णमिकाले उरिल्ले संघाए घिसंघाइजह अण्णमि काले हिछिल्ले संघाए विसंघाइज्जइ) ऊपर का संघात अन्यकाल में पृथक् हुआ है
और नीचे का संघात अन्यकाल में पृथक् हुआ है। (तम्हा) इसलिये (से समए न भवइ) वह समय नहीं है । तो फिर समय क्या है ?
उत्तर-(समणाउसे) हे श्रमणायुष्मन् ! (एत्तो वियणं सुष्टुमतराए समए पपणचे) इससे भी समय सूक्ष्मतर कहा गया है। अर्थात् संघात के विसंघातन काल से भी समय सूक्ष्मतर होता है ऐसा जानना चाहिये।
शंका-यदि अनन्न परमाणु संघातों से एक पक्षन निष्पन्न होता है और वे संघात क्रमशः ही छिन्न होते हैं तो ऐसी मान्यता में ऐमी बात मानना चाहिये कि एक पक्ष्म के विदारण में अनन्त समय लग जाते हैं- । परन्तु ऐसी बात मानना आगम के विरुद्ध पड़ती है कयों कि असंख्यात उत्सपिणिया अवसपिणियों में असंख्यात समयही होते हैं ऐसा आगम में प्रतिपादन किया गया है। उक्तंच अस खेअण्णभि काले हिदिल्ले संघाए विसंघाइज्जइ) 6५२ सात मन्यसwi ५५५ श्येस छ भने नीयन सात मन्यसमा पृथ५ थयेछ. (तम्हा) सटमा माटे (से समए न भवइ) समय नबी तो पछी समय शु ?
उत्तर-(समणा उसे) श्रमायुष्मन् ! (एचोऽवि य ण सुहुमतराए समए पणत्ते) सन २di पशु समय सूक्ष्मतर उपामा माया छ-मेट सघातना વિસંઘાતન કાલ કરતાં પણ સમય સૂક્ષમતર હોય છે. આમ જાણવું જોઈએ.
શકા-જે અનંત પરમાણુ સંઘાત વડે એક પક્ષ્મ નિષ્પન્ન થાય છે અને સંઘાતે અનુક્રમે જ છિન્ન થાય છે તે એવી સ્થિતિમાં આ વાત માનવી જ જોઈએ કે એક પફમના વિદ્યારણમાં અનંત સમય લાગે છે. પરંતુ આ વાત આગમ વિરૂદ્ધ છે, કેમકે અસંખ્યાત ઉ સર્પિણીઓ, અવસર્પિણીએ. માં અસંખ્યાત સમયે જ હેય છે. એવું આગમમાં પ્રતિપાદન કરવામાં
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अनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र२०२ समयस्वरूपनिरूपणम्
२४१ " असंखेज्जासु णं मंते ! उस्सपिणी अवसप्पिणीसु केवइया समया पण्णता ? गोयमा ! असंखेज्जा । अगंगासु णं भंते ! उस्तप्पिणी अवसप्पिणीसु केवड्या समया पण्णता ? गोयमा ! अणंता।"
छाया--" असंख्येयासु खलु भदन्त ! उत्सपिण्यवसर्पिणीषु कियन्तः समया: प्रज्ञप्ताः ? गौतम ! असंख्येयाः । अनन्तासु खलु भदन्त ! उत्सर्पिण्यवसर्पिणीषु कियन्तः समयाः प्रज्ञताः ? गौतम ! अनन्ताः । इति । अत्राह-सत्यम् , किन्तु पाटनमवृत्तपुरुषस्य प्रयत्नोऽचिन्त्यशक्तिसम्पन्नो भवति, अतः प्रतिसमयमनन्ताः संघा. ताश्छिद्यन्ते । इत्थं चकस्मिन् समये येऽनन्ताः सयाताश्छिन्ना भवन्ति, तैरनन्तैः ज्जास्तु णं भंते इत्यादि' हे भदन्त ! असंख्यात उत्सर्पिणी अवसर्पि णियों में कितने समय कहे गये हैं ? ____उत्तर--हे गौतम ! असंख्यात उत्सर्पिणीअवसर्पिणियों में असंख्यात और अनंत उत्सर्पिणीश्वसर्पिणियों में अनन्त समय कहे गये हैं। शंकाकार की शंका का अभिप्राय ऐसा है कि अनंतपरमाणुओं के संघातों से जो एक पक्ष्म निष्पन्न होता है-उस के विदारण करने में सिद्धान्तकारों ने असंख्यात समय का काल हो कहा है, परन्तु आपकी मान्यतानुसार वहां अनंत समय साबित होता है-तय-सिद्धान्त के साथ यह बात कैसे संगत होगी?
उत्तर-पक्ष्मपाटन में प्रवृत्त हुए पुरुष का प्रयत्नअचिन्त्यशक्तिवाला होता है । इसलिये प्रतिसमय अनंत संघातों का छेद होता है। इस प्रकार एक समय में जो अनंत संघात छिन्न होते हैं उन अनंत भाव्यु छे. तय-" असंखेज्जासु ण भंते " इत्यादि के महत! असभ्यात ઉત્સર્પિણી અવસર્પિણીઓમાં કેટલા સમયે કહેવામાં આવ્યા છે?
ઉત્તર-હે ગૌતમ! અસંખ્યાત ઉત્સર્પિણી અવસર્પિણીઓમાં અસંખ્યાત અને અનંત ઉત્સર્પિણી અવસર્પિણીઓમાં અનંત સમયે કહેવામાં આવ્યા છે. શંકાકારે જે શંકા કરી છે તેને અભિપ્રાય આ પ્રમાણે છે કે અનંત પરમાશુઓના સંઘાતોથી જે એક પક્ષમ નિષ્પન્ન થાય છે, તેને વિદીર્ણ કરવામાં સિદ્ધાન્તકારોએ અસંખ્યાત સમયને કાલ જ કહે છે, પરંતુ તમારી માન્યતા મુજબ ત્યાં અનંત સમય સિદ્ધ થયેલ છે, ત્યારે સિદ્ધાતની સાથે આ વાત કેવી રીતે ચગ્ય કહેવાય ?
ઉત્તર-પફમ પાટનમાં પ્રવૃત્ત થયેલ પુરૂષને પ્રયત્ન અચિત્ય શક્તિવાળા હોય છે એટલા માટે પ્રતિસમય અનંત સંઘાતનું છેદન થાય છે આ પ્રમાણે
अ० ३१
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अनुयोगद्वारसूत्रे संघातैरेकः स्थूलतरः संघातो विवक्ष्यते । एवंविधाः स्थूलतरसंघाता एकस्मिन् पक्षमणि असंख्येया एव भवन्ति । तेषां चासंख्येयानां संघातानां क्रमेण च्छेदनेऽ. संख्येय रेव समयैः पक्ष्म छिद्यते, अतो नास्ति कश्चिद् विरोधः । एवं च सूत्रे विशेषेगानुक्ता अपि प्रकरणवशात् स्वयमूद्याः, अन्यथा आगमस्य स्वोक्तिविरोधः प्रसज्येत संघातों से एक स्थूलतर संघात विवक्षित होता है इस प्रकार के स्थूलतर संघात एक एक पक्षण में असंख्यात ही होते हैं । इन असंख्यातसंघातो को क्रम २ से छेदन होने में असंख्यात समय ही लगते हैं। इसलिये एक पक्षम असंख्यात समय में छिन्न होता है इस कथन में कोई विरोध नहीं आता । तात्पर्य कहने का यह है-कि अनंत परमाणु संघातों से एक पक्ष्म निष्पन्न होता है और पक्षम का एक २ संघात क्रम क्रमशः छिन्न होता है, ऐसी स्थिति में एक पक्ष्म के छेदन होने में अनंत समय लगना चाहिये । परन्तु सिद्धान्त कारों ने जो एक पक्ष्म के छेदन होने में अनंत समय न कहकर असंख्यात समय वहे हैं उसका कारण यह है कि एक समय में जो अनंतपरमाणु संघात छिन्न होता है वह एक स्थूलतर संघात माना जाता है। इस प्रकार के स्थूलतर संघात पक्ष्म में असंख्यात ही होते हैं अनंत नहीं । इसलिये इन असंख्यात सघातों के छेदन में क्रमशः असंख्यात समय ही लगता है। इस प्रकार असख्यात समय लगने की यह बात सूत्रकार ने सूत्र
એક સમયમાં જે અનંત સંઘાતનું છેદન થાય છે, તે અનંત સંઘાતથી એક સ્કૂલતર સંઘાત એક એક પફમમાં અસંખ્યાત જ હોય છે. આ અસંખ્યાત સંઘતેને ક્રમશ: છેદિત કરવામાં અસંખ્યાત સમય જ લાગે છે. એટલા માટે એક પશ્ન અસંખ્યાત સમયમાં છિન્ન થાય છે, આ કથનમાં કે વિરોધ નથી તાત્પર્ય આ પ્રમાણે છે કે અનંતપરમાણુ સંઘાતેથી એક પક્રમ નિષ્પન્ન થાય છે. અને મને એક એક સંઘાતકમ કેમશઃ છિન્ન થાય છે, એવી સ્થિતિમાં એક પક્ષમના છેદનમાં અનંત સમયે લાગવા જોઈએ પરંતુ સિદ્ધાન્તકારોએ જે એક પફમના છેદનમાં અનંત સમય ન કહીને અસંખ્યાત સમયે કહેલ છે, તેનું કારણ આ છે કે એક સમયમાં જે અનંત પરમાણુ સંશાત છિન્ન થાય છે તે એક રથુલતર સંઘાત માનવામાં આવે છે. આ જાતના સ્થલતર સંઘાત-પમમાં અસંખ્યાત જ હોય છે, અનંત નહીં એટલા માટે આ અસંખ્યાત સંઘાતના છેદનમાં ક્રમશ: અસંખ્યાત સમય જ લાગે છે. આ પ્રમાણે અસંખ્યાત સમય લાગવાની આ વાત
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अनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र२०२ समयस्वरूपनिरूपणम् सूत्रं तु सुचामात्रं विज्ञेयम् , तथा च-यथोक्तं पक्ष्म असंख्पेयैरेव समयश्छिद्यते । छद्मस्थानुभवविषयं समयप्रसाधकं विशिष्ट क्रियारूपं किमपि दर्शयितुं न शक्यते, अतः 'एतो वि णं सुहुमतराए समए' इति सामान्येनैवोक्तवान् सूत्रकारः । इत्य च एकस्मादुपरितनपक्षमच्छेदनकालादसंख्याततमोऽशः समय इति स्थितम् । कि च स्फाटनप्रवृत्तपुरुषप्रयत्नोऽचिन्त्यशक्तिसम्पन्न इत्युक्तं तत्संगतिरेवं बोध्या यथामें यद्यपि प्रदर्शित नहीं की है तो भी प्रकरण वश उसे यहां समझ लेनी चाहिये । नहीं तो आगम कथित उक्ति के साथ उसका विरोध प्रसक्त होगा। आगम में एक पक्ष्म असंख्घात समयों में छिन्न है' ऐसी बात कही सो यहां जो उसे नहीं कहा है इसका कारण यह है कि सूत्र खूचामात्र होता है 'पक्षमअसंख्यात समयों में ही छिन्न होता है' इस बात को सिद्ध करने वाला कोई विशिष्ट क्रिया रूप दृष्टान्त कि जो छद्मस्थजनों के ज्ञान का विषयभून हो और जिससे समय की सिद्धि हो जावे सूत्रकार दिखलाने में असमर्थ हैं इसीलिये उन्होंने सामा. न्यरूप से ऐसा ही कह दिया है कि "एतो विणं सुहुमतराए समए' समय इस से भी अधिक सूक्ष्मतर होता है । अतः एक उपरितन पक्ष्म के छेदनकाल का असंख्यातवा भागरूप जो अंश है वह समय है ऐसा जानना चाहिये । किंच-'फाडने में प्रवृत्त हुए पुरुष का प्रयत्न अचिन्त्यशक्तिवाला होता है' ऐसा जो कहा है सो उसकी संगति इस સૂત્રકારે સૂત્રમાં જે કે પ્રદર્શિત કરી નથી છતાં એ પ્રકરણ વશ તેને અહીં અધ્યાહાર કરી લેવો જોઈએ નહીંતર આગમકથિત ઉક્તિ-સાથે તેનો વિરોધ પ્રસક્ત થશે આગમમાં “એક પક્ષમ અસંખ્યાત સમયેમાં છિન્ન થાય છે.” એવી વાત કહેવામાં આવી છે. તે અહીં તે વાત કહેવામાં આવી નથી, તેનું કારણ એ છે કે સૂત્ર સૂચા માત્ર હોય છે. “પક્ષમ અસંખ્યાત સમયમાં જ છિન્ન થાય છે. આ વાતને સિદ્ધ કરનાર કઈ વિશિષ્ટ ક્રિયારૂપ દષ્ટાન્ત કે જે છસ્થજના જ્ઞાનને વિષયભૂત હોય અને જેનાથી સમયની સિદ્ધિ થઈ જાય સૂત્રકાર બતાવવામાં અસમર્થ છે એટલા માટે જ તેમણે સામાન્ય ३५थी ' ही सीधु छ , “ एत्तो वि णं सुहुमतराए समए" समय सेना કરતાં પણ વધારે સૂક્ષ્મતર હોય છે. એટલા માટે એક ૩પરિતન પમના છેદનકાલને અપાતમો ભાગ રૂપ જે અંશ છે તે સમય છે, આમ જાગવું જોઈએ કિચ - ફાડવામાં પ્રવૃત્ત થયેલ પુરૂષને પ્રયત્ન અચિત્ય શક્તિ સંપન્ન હોય છે.” આમ કહેવામાં આવ્યું છે, તે આ વાતની સંગતિ
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अनुयोगद्वारसूत्रे
नगरादिप्रस्थितोऽनवरतप्रवृत्तिमान् कश्चित् पुरुषः प्रयत्नविशेषात् प्रतिक्षणं बहून् नमः प्रदेशान् विलङ्घ्याचिरेणैवेष्ट देशं प्राप्नोति तथैव स्फाट प्रवृतपुरुषोऽचिन्त्यशक्तिसम्पन्नपयत्नेन असंख्येयैरेव समयैः पक्षम छिनत्तीति । यदि पुत्रन्ता पुरुषः क्रमेणेकैकं व्योमपदेशं विलङ्घयेत् तदाऽसंख्येयोत्सर्पिण्यवसर्पिणीभिरेवेष्टदेश गच्छेतु, 'अंगुल सेडीमित्ते उस्सप्पिणी असंखेज्जा' छाया - अंगुळमात्र श्रेणौ उत्सपिंण्यः असंख्येयाः - इत्यादिवचनात् अतोऽतीन्द्रियेष्वर्थेषु युक्तिवादिभिर्न भवि तव्यम्, अन्यथा सर्वज्ञवचनाप्रामाण्यं प्रसज्येत । उक्तं च
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प्रकार से बैठानी चाहिये कि जैसे कोई पुरुष किसी दूसरे स्थान में जाने के लिये अपने स्थान से प्रस्थित हो और वह यदि निरन्तर गमन रूप प्रयत्न में प्रवृत्ति करता रहता है तो जिस प्रकार वह बहुत जल्दी अपने गन्तव्यस्थान पर पहुँच जाता है उसी प्रकार स्फाटन क्रियामें प्रवृत्त पुरुष भी अचिन्त्यशक्ति संपन्न अपने प्रयत्न से असंख्यात समय में ही एक पक्ष्म का छेदन कर देता है । और यदि वही गन्ता (जाने. वाला) पुरुष क्रम २ से एक २ आकाशप्रदेश को उल्लंघन करता हुआ आगे बढता रहता है तो वह अपने गन्तव्य स्थान पर असंख्यात
सर्पणी अवसर्पिणी काल में ही पहुँच सकता है । क्योंकि 'अंगुल सेढीमित्ते उस्सप्पिणीऊ असंखेज्जा' ऐसा आगम का वचन है । अतीन्द्रिय पदार्थों को जानने के लिये आगम और युक्ति दोनों का सहारा लेना चाहिये ऐसा सर्वज्ञ का आदेश है । केवल युक्ति के सहारे ही उनका निर्णय नहीं करना चाहिये । हां जहां तक युक्ति चले
આ પ્રમાણે એસ!ડવી જોઇએ કે જેમ કંઈ પુરૂષ કાઈ ખીજા સ્થાને જવા માટે પેાતાના સ્થાનથી પ્રસ્થિત થયા હાય અને તે જો નિર'તર ગમન રૂપ પ્રયત્નમાં પ્રવૃત્તિ કરતા રહે છે તેા જેમ તે શીઘ્ર પેાતાના ગન્તવ્ય સ્થાન પર પહોંચી જાય છે, તેમજ ફાટનક્રિયામાં પ્રવૃત્ત પુરૂષ પણ અચિત્ત્વ શક્તિ સ’પન્ન પેાતાના પ્રયત્નથી અસ`ખ્યાત સમયમાં જ એક પમનું છેદન કરી નાખે છે અને જો તે જનાર પુરૂષ ક્રમશઃ એક એક આકાશપ્રદેશનું ઉલ્લ’ઘન કરીને આગળ વધતા રહે છે તા તે પોતાના ગન્તવ્ય સ્થળ પર અસખ્યાત ઉત્સપિથી અવસર્પિણી કાળમાં જ પહોંચી શકે છે. કેમકે “ अंगुल ढमित् उस्सप्पिणीऊ असंखेज्जा " એવુ' આગમનુ' વચન છે અતીન્દ્રિય પદાર્થોના જ્ઞાન માટે આગમ અને સહાયભૂત થાય છે. એવી સજ્ઞની આાજ્ઞા છે. ફક્ત યુક્તિ નિષ્ણુ'ય ચૈાગ્ય કહેવાય નહિ પણ
યુક્તિ અને વડે જ તે વિશે
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अनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र२०२ समयस्वरूपनिरूपणम्
"आगमचोपपत्तिश्च सम्पूर्ण विद्धिलक्षणम् ।
अतीन्द्रियाणामांनां सद्भावप्रतिपत्तये ॥१॥ आगमश्चाप्त वचनमाप्तं दोपक्षयाद्विदुः । वीतरागोऽनृतं वाक्यं, न ब्रू गद् हेत्वसंभवात् ।।२।। उपपतिर्भवेद्युक्तिर्या सद्भावप्रसाधिका । सान्वयव्यतिरेकादिलक्षणा सूरिभिः कृता॥३॥इति। अत्र आगम उपपत्तिश्च द्वयमपि निदर्शितम् ॥मू० २०२।। वहां तक युक्ति भी चलानी चाहिये परन्तु जहां युक्ति न चले वहां आगम को प्रमाण मानकर उन्हें स्वीकार करना चाहिये। यदि ऐसा नहीं किया जावे तो सर्वज्ञ के वचनों में अप्रमाणता की प्रसक्ति होगी। ऐसा ही कहा है 'आगमश्वोपपत्तिश्च' इत्यादि ____ अतीन्द्रिय पदार्थो के सद्भाव की प्रतिपत्ति के लिये आगम
और उपपत्ति-युक्ति-ये दोनों ही लक्षण रूप जाननी चाहिये । आप्त पुरुष के वचन का नाम आगम है। दोषों के सर्वथा प्रक्षय हो जाने से ही मनुष्य आप्त बनता है। आप्त का दूसरा नाम वीतराग है। वीतराग अन्त बोलने के कारणों की असंभवता से कभी भी अनृत-झूठ-वचन नहीं बोलते। उपपत्ति-नाम युक्ति का है। यह अन्वय व्यतिरेक लक्षण. वाली होती है । और अपने साध्यके सद्भाव की आवेदिका होती है। तात्पर्य कहने का यह है कि युक्ति का दूसरा नाम हेतु है । और हेतु આટલું ચોકકસ ધ્યાનમાં રાખવું જોઈએ કે જ્યાં સુધી યુક્તિ ચાલી શક્તિ હોય ત્યાં સુધી યુક્તિને પ્રયોગ કરવો જ જોઈએ જ્યાં યુક્તિ ચાલે નહિ ત્યાં આગમને જ પ્રમાણભૂત સ્વીકારીને ચાલવું જોઈએ જે આ પ્રમાણે આચરવામાં આવે નહિ તે સર્વજ્ઞના વચનમાં અપ્રમાણુતાની પ્રસિદ્ધિ થશે
पामा मा०युं छे -" आगमश्चोपपत्तिश्च" त्यादि सटले । અતિન્દ્રિય પદાર્થોના સદ્દભાવની પ્રતિપત્તિ માટે આગમ અને ઉપપત્તિ-યુક્તિ આ બંનેને લક્ષણ રૂપ જાણવા જોઈએ આપ્ત પુરૂષના વચનનું નામ આગમ છે. દેશે સર્વથા વિનષ્ટ થઈ જાય ત્યારે જ મનુષ્ય આપ્ત બને છે આસન બીજું નામ વીતરાગ છે વીતરાગ અમૃત બેલાવાના કારણોની અસંભવતાને લીધે કઈ પણ વખતે અમૃત–જુઠું–વચન બોલતા નથી. ઉ૫પત્તિ યુકિતનું નામ છે આ અન્વય વ્યતિરેક લક્ષણવાળી હોય છે અને પિતાના સાધ્યના સદ્દભાવની અવેદિક હોય છે. તાત્પર્ય આ પ્રમાણે છે કે યુકિતનું બીજુ નામ હેતુ છે, અને જે હેતુ હોય છે તે પોતાના સાધ્યના સાથે અવિના
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२४६
अनुयोगद्वारसूत्रे
जो होता है वह अपने साध्य के साथ अविनाभावी होता है । उनमें साध्य सावन भाव का ज्ञान अन्वय और व्यतिरेक द्वारा गम्य होता होता है । यहां सूत्रकार ने आगम और हेतु इन दोनों को दिखलाया है।
भावार्थ- - इस सूत्र द्वारा सूत्रकार ने समय क्या है ? इस बात को समझाया है । घडी घंटा, पल आदि, ये सब काल के ही अंश है । परन्तु इनका विभाग होता है । इसलिये इन्हे ममयरूप नहीं माना जाता है। समय काल का वह अंश है कि जिसका फिर कोई विभाग नहीं हो सकता । जैसे- पुद्गल परमाणु निर्विभाग होता है, उसी प्रकार समय भी निर्विभाग होना है। दर्जी को युवा कुशल दारक जब किसी बडे भारी वस्त्र में से अपने हस्त की कुशलता से एक हाथ का टुकड़ा फाडता है, तब साधारण जनता यह समझती है कि इसने एकही समय में इस टुकड़े को वहां से फाड़ लिया है । परन्तु उस वस्त्र में से उस एक हाथ के टुकडे को फाडने में अस ख्यान समय लग चुके हैं। वस्त्र अनेक तंतुओं के समुदाय से बना है । और १-१ तंतु अनेक पक्ष्मों के समुदाय से बना है । फाडते समय जय तक ऊपर का तंतु नहीं फटेगा तब तक नीचे का तंतु नहीं फट सकता
ભાવી ડાય છે તેઓમાં સાધ્ય-સાધનભાવ જ્ઞાન અન્વય- તિરેક વડે ગમ્ય હાય છે અહી' સૂત્રકારે આગમ અને હેતુ આ બન્નેનુ સ્પષ્ટીકરણ કર્યું છે.
ભાવાર્થ-આ સૂત્ર વડે સૂત્રધારે ‘સમય શું છે ? ' તે વિશે સ્પષ્ટતા કરી છે ઘડી, સમય કલ્લાક, પળ વગેરે આ બધાં કાળના જ અંશે છે. પણ એમનુ વિભાજન થઈ શકે છે, તેથી એમને સમય રૂપ માની શકાય નહિં સમય ખરેખર કાલના તે અશ છે કે જેનું વિભાજન થઈ જ ન શકે જેમ પુદ્ગલ પરમાણુ નિવિભાગ હોય છે, તેમજ સમય પણ નિવિભાગ હૈાય છે. દના કોઈ કુશળ ચતુર જુવાન કાઇ મે ટા તાક.માંથી પેાતાના હસ્તકૌશલથી એક હાથ જેટલા વસ્ત્રને કકડા ફાડે છે, ત્યારે સાધારણ લેાકેા એમ સમજે છે કે એણે એકજ સમયમાં એ કકડા તેમ થી ફાડયા છે પશુ ખરેખર તે તે વજ્રમાંથી તે એક હાથ કકડાને ફાડવામાં અસખ્યાત સમયે લાગ્યા છે વસ્ત્ર ઘણા તંતુએ.ના સમુદાયથી તૈયાર થયેલ છે અને દરેકે દરેક તંતુ અનેક પક્ષ્માના સમુદાયથી તૈયાર છે. થયેલ ફાડતી વખતે જ્યાં સુધી ઉપરના તંતુ ફાટશે નહિ, ત્યાં સુધી નીચેના તંતુ ફાટશે જ નહિ, અને જ્યાં સુધી એક તંતુના ઉપરનુપમ ફાટશે નહિ, ત્યાં સુધી તે તંતુના બીજા' પમે
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अनुयोगन्द्रिका टीका सूत्र २०३ आवलिकादिनिरूपणम्
२४७ ___मूलम्-असंखिज्जाणं समयाणं समुदयसमितिसमागमेणं सा एगा आवलि अत्तिबुच्चइ, संखेज्जाओ आवलियाओ ऊ. सासो, संखिज्जाओ आवलियाओ नीसासो, हस्त अणगहै और जब तक एक तंतु का ऊपर का पक्ष्म नहीं फटेगा तबतक उस तंतु के अन्य पक्ष्न नहीं फट सकेंगे। इस प्रकार विचार करने पर यह बात समझ में आ जाती है कि 'एक हाथ कपडे के फाडने में असं. ख्यात समय व्यतीत हो चुकते हैं। और एक तंतु के छिन्न करने में भी असंख्यात समय व्यतीत हो जाते हैं। तथा एक तंतु का एक पक्षा विदारित होने में भी असंख्यात समय व्यतीत हो जाते हैं । तब इससे यह निष्कर्ष निकलता है कि तंतु के जो अनंत पक्ष्मों के समुदाय से निष्पन्न हुआ है, उस एक पक्ष्म के विदारित होने में जो असंख्यातसमय का काल व्यतीत हुआ है, उसका असंख्यात वां भाग 'समय है। समय अतीन्द्रिय पदार्थ हैं। इसकी सिद्धि यहां पर सूत्रकार ने युक्ति और आगम दोनों प्रमाणों से की है। सूत्रकारने जो तुन्नागदारक के विशेषण सूत्र में लिखे हैं, उनसे उसे विशिष्ट शक्तिशाली और अपने कार्य में विशेष निष्णात प्रकट किया गया है। ऐसी व्यक्ति अपने काम को थोडे समय में ही सम्पादित कर लेता है। यह समझना ही इन विशेषणों को सार्थकता है ।। सूत्र २०२ ॥ ફાટશે નહિ આ પ્રમાણે વિચાર કરવાથી આ વાત સ્પષ્ટ થઈ જાય છે કે એક હાથ કાપડને ફાડવાને અસંખ્યાત સમય પસાર થઈ ગયા હોય છે. અને એક તંતુને છિન્ન કરવામાં પણ અસંખ્યાત સમય પસાર થઈ જાય છે. તેમજ એક તંતુના એક પક્ષમ-વિદીર્ણ કરવામાં પણ અસંખ્યાત સમયે પસાર થઈ જાય છે. ત્યારે એનાથી આ નિષ્કર્ષ નીકળે છે કે “જે તંત ઘણાં પક્ષમ સમુદાયથી નિષ્પન્ન થયેલ છે, તે એક પલમના વિદીશ થવામાં જે અસંખ્યાત સમય કાલ પસાર થયેલ છે, તેને અસંખ્યાતમો ભાગ સમય છે સમય અતીન્દ્રિય પદાર્થ છે અહીં સૂત્રકારે યુકિત અને આગમ અને વડે આ વિશે સ્પષ્ટતા કરી છે. સૂત્રકારે જે તુન્નાગદારકના વિશેષણ સૂત્રમાં પ્રયુક્ત કર્યા છે, તેનાથી તે વિશિષ્ટ શકિતશાળી અને પોતાના કર્મમાં વિશેષ નિષ્ણાત તરીકે ચિત્રિત થયેલ છે એવી વ્યકિત પોતાનું કામ થડા સમયમાં જ પુરૂં કરી લે છેસૂત્રમાં પ્રયુકત થયેલ વિશેષણથી એજ વાત સિદ્ધ થાય છે. સૂ૦૨૮૨ા
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अनुयोगद्वारसूत्रे ल्लस्स, निरुवक्किटुस्स जंतुणो। एगे ऊसासनीसासे, एसपाणु त्ति वुच्चइ।।१॥ सत्तपाणूणि से थोवे, सत्त थोवाणि से लवे। लवाणं सत्तहत्तरीए, एस मुहुत्ते वियाहिए॥२॥ तिणि सहस्सा सत्त य सयाई तेहुत्तारं च ऊसासा। एस मुहुत्तो भणिओ, सव्वेहि अणंतनाणीहिं॥३॥ एएणं मुहुत्तपमाणेणं तीसं मुहुत्ता अहोरत्तं पण्गरस अहोरत्ता पक्खा, दो पक्खा मासा, दो मासा उऊ, तिणि उऊ, अयणं, दो अयणाई संवच्छरे, पंच संवच्छराई जुगे, वीस जुगाई वाससयं, दस वाससयाई वाससहस्सं, सयं वाससहस्साणं वाससयसहस्सं, चोरासीई वाससयसहस्साइं से एगे पुव्वंगे, चउरासीइ पुव्वंगसयसहस्साइं से एगे पुव्वे, चउरासीइं पुव्वसयसहस्साइं से एगे तुडिअंगे, चउरासीइं तुडिअंगसयसहस्साइं से एगे तुडिए, चउरासीइं तुडियसयसहस्साई से एगे अडडंगे, चोरासीई अडडंगसयसहस्साइं से एगे अडडे, एवं अववंगे अववे, हुहुअंगे हुहुए, उप्पलंगे उप्पले, पउमंगे पउमे, नलिगंगे नलिणे, अच्छनिउरंगे अच्छनिउरे, अउअंगे अउए, पउअंगे पउए, णउअंगे "उए, चूलिअंगे चूलिया, सीसपहेलियंगे, चउरासीइं सीसपहलियंगसयसहस्साइं सा एगा सीसपहेलिया। एयावया चेव गणिए, एयावया चेव गणियस्स विसए। एत्तो वरं ओवमिए पवत्तइ ॥सू०२०३॥
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अनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र २०३ समयादिस्वरूपनिरूपणम् २४९ - छाश-असंख्येयानां समयाना समुदयसमितिसमागमेन सा एका आवलिका इति उच्यते, संख्येयाः आवलिकाः उच्छ्वासः, संख्येया आवलिकाः निश्वासः, । हृष्टस्य अनवग्लानस्य निरुपक्लिष्टस्य । एकः उच्छ्रशासनिश्वासः, एष माण इत्युच्यते ॥ १॥ सप्तप्राणाः स स्तोकः, सप्त स्तोकाः स लवः । लवानां सप्तसप्ततिः, एष मुहूतों व्याख्यातः ॥२॥ त्रीणि सहस्राणि सप्त च शतानि त्रिसप्ततिश्च उच्छ्नासः । एष मुहूनों भणितः सर्वैः अनन्तज्ञानिभिः ॥ ३॥ एतेन मुहूर्तपमाणेन त्रिंशत् मुहा अहोरात्रा, पञ्चदश अहोरात्राः पक्षः, द्वौ पक्षौ मासः, द्वौ मासौ ऋतुः, त्रय ऋनाः अयनं, द्वे आने संवत्सरः, पश्च संवत्सरा युगम् , विंशतियुगानि वर्षशतं, दशवर्षशनि वर्षसहस्रं शतं वर्षसहस्राणि वर्षशतसहस्रं, चतुरशीतिः वर्षशतसहस्राणि तदेकं पूर्गॉ, चतुरशीतिः पूर्गशतसहस्राणि तदेकं पूर्व, चतुरशीतिः पूर्वशतसहस्राणि तदेकं त्रुटिताङ्गं, चतुरशीतिः त्रुटिताङ्गशतसहस्राणि खलु तदेकं त्रुटितम् , चतुरशीतिः त्रुटितशतसहस्राणि तदेकम् अडडाङ्गम् , चतुरशीतिः अडडाङ्गशत सहस्राणि तदेकम् अडडम् । एवं अववाङ्गम् अववं, हुहुकाङ्गं हुहुकम् , उत्पलाङ्गम् उत्पलं, पद्माङ्गं प, नलिनाङ्गं नछिनम् , अच्छनिकुरा अच्छनिकुरम् , अयुताङ्ग अयुतं, प्रयुताङ्गं प्रयुतं, नयुताङ्गं नयुतं, चूलिकाङ्गं चूलिका, शीर्षपहेलिकाङ्गं, चतुरशीतिः शीर्षप्रहेलिकाङ्गशतसहस्राणि सा एका शीर्षपहेलिका । एतावदेव गणितम् । एतावदेव गणितस्य विषयः । अतः परम् भापमिकः प्रवर्तते ॥ सू० २०३ ॥ . टीका-' असंखिज्जाणं' इत्यादि
'असंखिज्जाणं समयाणं' इत्यादि-नीसासो' इत्यन्तः पाठः सुगमः । सम्पति 'हस्स' इत्यादि गाथानामर्थः प्रोच्यते-हृष्टस्य-तुष्टस्य अनवग्लानस्य
'असंखिज्जाणं समयाणं' इत्यादि ।
शब्दार्थ-(असंखिज्जाणं समयाणं समुदयसमिइसमागमेणं सा एगा आवलिअत्ति चुच्चह) असंख्यात समयों के समुदयसमिति के संयोग से अर्थात् असंख्यातसमयों के समुदायरूप संयोग से एक
" असंखिज्जाणं समयाणं " त्या:
शहाथ-(असंखिज्जाणं समयाणं समुदयसमिइसमागमेणं सा एगा आवलिअत्ति वुन्चइ) अध्यात समयाना समुहय समितिना सयासयी એટલે કે અસંખ્યાત સમયના સમુદાય રૂપ સંયોગથી એક આવલિકા निष्पन थाय छे. (संखेजाओ आवलियाओ ऊसासो) सभ्यात मावलियाना मे छ्वास थाय छे. (संखिज्जाओ आवलियाओ नीसासो) सभ्यात आपति
अ० ३२
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मनुयोगद्वार अप्राप्तवार्धकस्य निरूपक्लिष्टस्य-पूर्व सम्प्रति च रोगरहितस्य जन्तोः=मनुष्यस्य य एक उच्छ्वासनिःश्वास: उच्छ्वासयुक्तो निःश्वासो भवति, स एष प्राण इत्युकाते । शोकनरादिभिरस्वस्थस्य पाणिन उछासनिःश्वासस्त्वरित चलति, अत: स स्वाभाविको न भवति, अतए पात्र हृष्टादि विशेषणमुपात्तम् । हृष्टादिविशेषणविशिष्टस्य माणिनस्तु उच्छ्वासनिःश्वासः स्वभावस्थो भवतीति । तथा-ये सप्त मागाः स एकः स्तोका, सप्तस्तोका एको लवा, तथा-सप्त सप्तत्या लवानां
आवलिका निष्पन्न होती है । (संखेज्जामो आवलियाओ ऊसाओ) संख्यात आवलिकाओं का एक उच्छ्वास होता है (संखिज्जाओ आवलियाओ नीसासो) संख्यात आवलिकाओं का एक निश्वास होता है। (हस्त अणवगल्लास निरुक्किट्ठस्स जंतुणो । एगे ऊसासनीसासे एस पाणुत्ति बुच्चइ) संतुष्ट तथा अनवकल्प-वृद्धता रहित ऐसे निरुपक्लि.
पूर्व में और अब भी व्याधि से अनभिभूत हुए मनुष्य आदि प्राणी का उच्छवास युक्त जो एक नि:श्वास है उसका नाम प्राण है। शोक एवं जरा आदि से अस्वस्थ प्राणी का उच्छ्वास नि:श्वास शीघ्र चला करता है, इसलिये वह स्वाभाविक नहीं माना गया है। परन्तु जो ऐसा नहीं है हर्षितचित्त एवं स्वस्थ होता है-उसका उच्छ्वास निश्वास स्वाभाविक होता है । इसी बात को कहने के लिये सूत्रकार ने हष्टादिविशेषणों का पाठ रक्खा है । (सत्त पाणूणि से थोवे, सत्त थोवाणि से लवे, लवाणं सत्तहत्तरीए एसमुहुत्ते वियाहिए ॥२॥) सात प्राणों का एक स्तोक होता है । सात स्तोकों का एक लव होता है।" 'लवों का आसानी से निश्वास थाय छे. (हदुस्स अणवगल्लस्म निरुक्किदुस्स जंतुणो। एगे ऊसासनीसासे, एस पाणुत्ति वुच्चइ) संतुष्ट तर अन१४६५-वृद्धता રહિત એવા નિરૂપકિલષ્ટ-પૂર્વમાં અને અત્યારે પણ વ્યાધિથી અભિભૂત થયેલ મનુષ્ય વગેરે પ્રાણીને ઉછુવાસ યુક્ત જે એક નિશ્વાસ છે, તે “પ્રાણ કહેવાય છે. શેક તેમજ જરા વગેરેથી અસ્વસ્થ પ્રાણીને ઉચ્છવાસ નિ:શ્વાસ શીવ્ર ગતિથી ચાલતું રહે છે, તેથી તે સ્વાભાવિક ગણાય નહિ પરંતુ જે હર્ષિત-ચિત્ત તેમજ સ્વસ્થ હોય છે તેને ઉશ્વાસ તેમજ નિશ્વાસ સ્વાભાવિક હોય છે આ વાતને સ્પષ્ટ કરવા માટે જ સૂત્રકારે હુષ્ટાદિ વિશેષણેને Gedy ये छ. (सत्त पाणूणि से थोवे, सत्त थोवाणि से लवे, लवाणं सत्तहत्तरीए एस मुत्ते वियाहिए ॥२॥) सात प्राशनी मे : थाय छ सात २२ मे १ थाय छ, ७७ बवानु मे मुडूत थाय छे. (तिण्णि
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अनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र २०३ समयादिस्वरूपनिरूपणम् सप्तसप्ततिसंख्यकैर्लभैरेको मुहू नो भवति । सम्पति मुहूर्तः कियदुच्छ्वासनिःश्वासात्मको भाति, तदाह-'तिणि सहस्सा' इत्यादि-त्रीणि सहस्राणि सप्त शतानि त्रिसप्ततिश्च उच्छशासनिःश्वासा एको मुहूतों भणितः सर्वैरनन्तज्ञानिमिस्तीर्थकरगणधरैः। अयं भावः-एकस्मिन् स्तोके सप्त उच्छ्वासा निःश्वासा भवन्ति । एक मुहूर्त होता है। (तिणि सहस्सा सत्सय सयाई तेहत्तरं च ऊसासा। एस मुहतो भणिओ सव्वेहि अणंतनाणीहि) तीन हजार सातसौ तिहत्तर उच्छ्वासों का एक मुहूर्त होता है। ऐसा केवलियों का कथन है । (एएणं मुहत्तपमाणेणं तीसं मुहुत्ता अहोरत्त, पण्णरसअहोरत्ता पक्खा) इस मुहूर्त प्रमाण से ३० मुहतों का एक दिन रात होता है। १५ अहोरात्र का एक पक्ष होना है। (दो पक्खमासो) दो पक्ष का एक मास होता है। (दो मासा उऊ ?) दो मास की एक ऋतु होती है। (तिणि उऊ अयणं) तीन ऋतुओं का एक अयन होता है । (दो. अयणाई संवच्छरे) दो अयनों का संवत्सर होता है । (पंच संवच्छराई जुगे) पांच संवत्सरो का एक युग होता है । (वीम जुगाई वाससयं) बीस. युगों का एक सौ वर्ष होता है। (दसवाससयाई वाससहस्स) १० सौ वर्षों का एक हजार वर्ष होता है । ( मयं वाससहस्सा ] वाससयसहस्साई) १०० हजार वर्षों का एक लाख वर्ष होता है। (चोरासीई वास सयसहस्साइं से एगे पुन्चंगे) चौरासी लाख वर्षों का एक पूर्वाङ्ग होता है। (चोरासीइं पुवंगसयसहस्साई से एगे पुब्वे) सहस्सा सत्तयसयाई तेहरिं च ऊसासा । एस मुहत्तो भणिओ सव्वेहि अणत नाणोहिं) ३७७३ २४ासानु मे मुहूत थाय छे मे पायानु । छ. (एएण मुहुत्तपमाणेण तीस मुहुत्ता अहोरत्तं, पण्णरस अहोरत्ता पक्खो) આ મુહૂર્ત પ્રમાણથી ૩૦ મુહર્તાનો એક દિવસ તેમજ રાત્રિ થાય છે ૧૫ मात्रने ५५ थाय छे. (दो पक्खा मासो) मे पक्ष मे भास थाय छे. (दो मासा उऊ) मे भासनी से तु थाय छे. (तिण्णि उऊ अयण') त्रय ऋतुमानु मे अयन थाय छे. (दो अयणाई संबच्छरे) मे अयाना सरस२ २.५ छे. (पंच संबच्छराई जुगे) पाय सवत्सशन मे युग थाय छ. (वीसं जुगाई वाससयं) २० युगाना 2 से १५ थाय छे. (दस वासस. याई वाससहस्स) १० से. वर्षाना मे १२ वर्षा थाय छे. (चोरासीई वास सयसहस्स इं से एगे पुव्वंगे) ८४ ५ वर्षानु से पूर्वा थाय छे. (चोरासीई पुज्वंगत्रयसहस्साइं से एगे पुवंगे) ८४ सास गनु मे पूर्व
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२५२
अनुयोगद्वारसूत्रे
एको लवश्च सप्तस्तोकात्मको भवति । अत एकस्मिन् लवे एकोनपञ्चाशदुच्छ्वासनिःश्वाता भवन्ति । तथा-सप्तसप्ततिलवानामेको मुहूर्ती भवति । सप्तसप्तत्या एकोनपञ्चाशता गुणने त्रीणि सहस्राणि सप्तशतानि त्रिसप्ततिश्च उच्छवासनिःश्वासा लभ्यन्ते । अत एकस्मिन् मुहूर्ते एतावत्संख्यका उच्छ्वासनिःश्वासा भवन्तीति मूळे - ' उस्साह ' इति 'उसासनीसास' परम् । 'एएणं मुहुत्तप्पमाचौरासी लाख पूर्वाङ्ग का एक पूर्व होता है । (चउरासीइं पुव्वसयसहसाइं से एगे तुडिअंगे) चौरासी लाख पूर्व का एक त्रुटिताङ्ग होता है। (उरासीइं तुड़िगसयसहस्साइं से एगे तुडिए) चौरासी लाख त्रुटि. ताङ्ग का एक त्रुटित होता है । (चउरासीहिं तुडिअसहस्साई से पगे) अडडंगे) चौरासी लाख त्रुटित का एक अडडाङ्ग होता। (चोरासीइं अडडंग सय सहस्साई से एगे अडडे ) चौरासी लाख अडडाङ्ग का एक अडड होता है । ' एवं अववंगे अववे, हुहुअंगे, हुहुए, उप्पलंगे उप्पले, पउमंगे, पउमे, नालिणंगे, नलिणे, अच्छनिउरंगे अच्छनिउरे, अऊअंगे अ उए, पअंगे पउए, णउअंगे, णउए, चूलिअगे, चूलिया, सीसपहेलिअगे चउरासीइं सीसपहेलियंगसयसहस्साई सा एगा सीसपहेलिओ) इसी प्रकार से चौरासीलाख अडड का एक अववाङ्ग चौरासी लाख अववाङ्ग का एक अवब, चौरासी लाख अवय का एक हुनुकाङ्गचौरासी लाख हुहुकाङ्ग का एक हुहुक, चौरासीलाख हुहुक का एक उत्पलाङ्ग, चौरासी लाख उत्पलाङ्ग का एक उत्पल, चौरासीलाख उत्पल का एक पद्माङ्ग चौरासीलाख पद्माङ्ग का एक पद्म, चौरासी लाख
थाय छे. (चउरासीइं पुव्व सय सहस्साई से एगे तुडिअंगे ) ८४ साथ पूर्वनु એક त्रुटितांग थाय छे. (चउरासीइं तुडिअंगप्रय सहस्त्राई से एगे तुडिए) ८४ साथ त्रुटितांग भराभर खेड त्रुटित थाय छे. ( चउरासीहि तुडिअस ह स्साई से एगे अडडंगे ) ८४ साथ त्रुटितनुं मेड सडडांग थाय छे. (चोरसीई अडडंग सहस्साई से एगे अडडे ) ८४ उडांगनुं मे अउड थाय छे. ( एवं अववंगे अव, हुहुअंगे, हुहुए, उप्पलंगे उप्पले, पउमंगे, पउमे, नहिणंगे, नलिणे, अच्छनिकरंगे, अच्छनिउरे, अऊअंगे अऊए. पउअंगे पउए, णउअंगे णउए, चूलि अंगे चूलिया, स्त्रीखपहेलिअंगे चउरासीईं सीख पहेलियंगसय सहस्सा इंसा एमा सी पहेलिआ ) या प्रमा ४८४ साउनु मे भववांग, ८४ सा અવવાંગનુ' એક અવવ, ૮૪ લાખ અવવતું એક હુડ્ડકાંગ, ૮૪ લાખ ડુડુંકાંગના એક હહુક, ૮૪ લાખ ડુહુકનું એક ઉપલાંગ, ૮૪ લાખ ઉપલાંગનુ
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अनुयोगचन्द्रिका टोका सूत्र २०३ समयादिस्वरूपनिरूपणम् णेणं तीसं मुहुत्ता अहोरत्तं' इत्यादि ‘सा एगा सीसपहेलिया' इत्यन्तः पाठः कालानुपू- निर्गीतार्थ: । एतावदेव-शीर्षपहेलिकापर्यन्तमेव गणितम् । शीर्षपहेलिकान्तानि च चतुर्नवस्यधिकशतलक्षणान्येवाङ्कस्थानानि दृश्यन्ते, अत एतावदेव गणितं नरिवतःपरमिति भावः । एतावानेव-शीर्षपहेलिकापर्यन्तः प्रमितराशिरेव गणितस्य विषयाप्रमेयम् । अतः परो गणितस्य विषयो न भवति । पन का एक नलिनाङ्ग, चौरासी लाख नलिनाङ्ग का एक नलिन, चौरासी लाख नलिन का एक अच्छनिकुराग, चौरासीलाख अच्छनिकुराङ्गका एक अच्छनिकुर, चौरासीलाख अच्छनिकुर का १ एक अयुताङ्ग चौरासीलाख अयुताङ्ग का एक अयुत, चौरासीलाख अयुत का एक प्रयुताङ्ग, चौरासीलाख मयुवाङ्गका एक प्रयुत, चौरासीलाख प्रयुत का एक नयुताङ्ग, चौरासी लाख नयुताङ्ग का एक नयुम, चौरासी लाख नयुत का एक चूलिकाङ्ग, चौरासी लाख चूलिकाङ्ग की एक चूलिका, चौरासी लाख चूलिकाका एक शीर्षप्रहेलिकाङ्ग, और चौरासी लाख शीर्षप्रहेलिकाङ्गकी एक शीर्ष प्रहेलिका होती है। ऐसा जानना चाहिये। (एयावया चेव गणिए, एयावयाचेव गणियस्स विसए एत्तोवरं ओवमिए पवत्तह) इस प्रकार शीर्ष प्रहेलिका पर्यन्त ही गणित है, इस के बाद नहीं । और शीर्ष प्रहेलिका पर्यन्त ही गणित का विषय है । इसके बाद गणित का विषय भी नहीं है । शीर्षप्रहेलिका के बाद पल्योपमादिरूप उपमान प्रमाण प्रवर्तित होता है । એક ઉત્પલ, ૮૪ લાખ ઉત્પલનું એક પક્વાંગ, ૮૪ લાખ પડ્યાંગનું એક પદ્મ, ૮૪ પદ્મનું એક નલિતાંગ, ૮૪ લાખ નલિનાંગનું એક નલિન, ૮૪ લાખ નલિનનું એક અચ્છનિકુરાંગ, ૮૪ લાખ અછનિકુરાંગનું એક અચ્છનિકુર, ૮૪ લાખ અચ્છનિકુરનું એક અયુતાંગ, ૮૪ લાખ અયુતાંગને એક અયુત, ૮૪ લાખ અયુતનું એક પ્રયુતાંગ, ૮૪ લાખ પ્રયુતાંગનું એક પ્રયુત, ૮૪ લાખ પ્રયુતનું એક નયુતાંગ, ૮૪ લાખ નયુતાંગનું એક નયુત, ૮૪ લાખ નયુતનું એક ચૂલિકાંગ, ૮૪ લાખ ચૂલિકાંગની એક ચૂલિકા, ૮૪ લાખ ચૂલિકાનું એક શીર્ષ પ્રહેલિકાંગ અને ૮૪ લાખ શીર્ષપ્રહેલિકાંગની એક शी प्रति थ य छे. (एयावया चेव गणिए एयावया चेव गणियस्व विसए एलोवरं ओवमिए पवत्तइ) मा प्रमाणे शीष सिसुधीर शरित छ, તે પછી નહિ અને શીર્ષ પ્રહેલિકા સુધી જ ગણિતને વિષય છે, એના પછી ગણિતને વિષય જ નથી શીર્ષ પ્રહેલિકા પછી પાપમાદિ રૂપ ઉપમાન પ્રમાણુ પ્રવર્તિત થાય છે.
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२५४
अनुयोगद्वारसूत्र तहि अतः परं किं भवति ? इत्याह-अतः परमोपमिकः प्रवर्तते । अतः परं सर्व मोपमिकं परोपमादिरूपं बोध्यमिति भावः ॥ सू० २०३ ॥
सम्प्रत्यौपमिकमेव निरूपयति___ मूलम्-से किं तं ओवमिए ? ओवमिए दुविहे पण्णत्ते, तं जहा-पलिओवमे य सागरोवमे य। से कि तं पलिओवमे ? पलिओवमे-तिविहे पण्णत्ते, तं जहा-उद्धारपलिओवमे अद्धा____ भावार्थ-जिस प्रकार व्यवहार गणित में इकाई से दहाई, दहाई से सैकडा आदि राशि उत्पन्न होती है-उसी प्रकार असंख्यात समय की एक आवलि का संख्यात आवलिका का एक उच्छासनिश्वास जिसका दूसरा नाम प्राण है उत्पन्न होता है। सात प्राणों का एक स्तोक होता है इसी प्रकार से आगे भी उपर्युक्त क्रमानुसार जानना चाहिये। इस गिनती में अंकस्थान कितने होते हैं ? यह इस प्रकार है-७५८२६३२५३०७३०१०२४११५७९७३५६९९७५६९६ ४८६२१८९६,६८४८०८०८१८३२७६ यहीं तक गिनती का विषय है। इसके बाद गिनती का विषय नहीं है । पल्योपम आदि उपमान प्रमाणों से फिर आगे का विषय स्पष्ट किया जाता है ।।सू०२०३।।
ભાવાર્થજેમ વ્યવહાર ગણિતમાં એકમથી દશક, દશકથી સંકડા વગેરે શશિ હોય છે, તેમજ અસંખ્યાત સમયની એક આવલિકા સંખ્યાત, આવલિકાને એક ઉચ્છવાસ, નિઃશ્વાસ, જેમનું બીજું નામ પ્રાણ છે તે ઉત્પન્ન થાય છે સાત પ્રાણેને એક સ્તક હોય છે, આ પ્રમાણે આગળ પણ ઉપસ્તકમાનુસાર જાણી લેવું જોઈએ આ ગણત્રીમાં અંક સ્થાને કેટલાં હોય છે? એ વાત નીચે મૂકેલા અંકથી સમજી લેવી. ૭૫૮૨૬૩૨૫૩૦૭૬૦૧૦૨૪ ११५७६७३५६६६७५१८६४०६२१८६१९८४८८०१८३२८६ गत्री मही સુધી જ છે અને અહીં સુધી જ ગણત્રીને વિષય છે. આ પછી ગણત્રીને વિષય નથી પાપમાદિ ઉપમાન પ્રમાણેથી પછીના વિષયનું સ્પષ્ટીકરણ ४२वामा मा छ, ॥२०२०
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मनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र२०४ पल्योपमादीनां औपमिकप्रमाणनिरूपणम् २५५ पलिओवमे खेत्तपलिओवमे य। से कि तं उद्धारपलिओवमे ? उद्धारपलिओवमे दुविहे पण्णत्ते, तं जहा-सुहमे य वावहारिए य। तत्थ णं जे से सुहुमे से ठप्पे। तत्थ णं जे से वावहारिए से जहा नामए-पल्ले सिया, जोयणं आयामे विक्खंभेणं, जोयणं उड़े उच्चत्तेणं, तं तिगुणं सविसेसं परिक्खेवेणं। से णं पल्ले“एगाहिय बेयाहिय तेयाहिय जाव सत्तरतरूढाणं । संसहे संनिचिए, भरिए वालग्गकोडी]" ॥१॥ ते णं वालग्गा नो अग्गी डहेजा नोवाऊहरेज्जा, नो कुहेजा नो पलिविद्धंसिज्जा, णो पूइत्ताए हवमागच्छेजा। तओ णं समए समए एगमेगं वालगं अवहाय जावइएणं कालेणं से पल्ले खोणे नीरए निल्लेवे निहिए भवइ, सेतं वावहारिए उद्धारपलिओवमे । “एएसिं पल्लाणं कोडाकोडी हवेज दसगुणिया। तं वावहारियस्स उद्धारसागरोवमस्स एगस्स भवे परिमाणं ॥१॥” एएहिं वावहारियउद्धारपलिओवमसागरोवमेहि किं पओयणं?, एएहिं वावहारियउद्धारपलि
ओवमसागरोवमेहि णस्थि किंचिप्पओयणं, केवलं पण्णवणा पण्णविजइ। से तं वावहारिए उद्धारपलिओवभे। से किं तं सुहुमे उद्धारपलिओवमे ?, सुहुमे उद्धारपलिओवमे-से जहा नामए पल्ले सियाजोयणं आयामविक्खंभेणं, जोयणं उव्वेहेणं, तं तिगुणं सविसेसं परिक्खेवेणं। से णं पल्ले-"एगाहिय वेयाहिय तेयाहिय जाव सत्तरतरूढाणं। संमटे संनिचिए भरिए वालग्गकोड़ीण॥१॥ तत्थ णं एगमेगे वालग्गे असंखिजाइं खंडाई
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२५६
अनुयोगद्वारसूत्रे कजइ, ते णं वालग्गखंडा दिट्ठीओगाहणाओ असंखेज्जइभागमेत्ता सुहमस्स पणग जीवस्स सरीरोगाहणाओ असंखेज्जगुणा। ते णं वालग्गखंडा णो अग्गी डहेज्जा, णो वाऊ हरेज्जा, णो कुहज्जा, णो पलिविद्धंसिज्जा, णो पूइत्ताए हव्वमागच्छेज्जा। तओ णं समए समए एगमेगं वालग्गखंडं अवहाय जावइएणं कालेणं से पल्ले खीणे नीरए निल्लो णिहिए भवइ, से तं सुहमे उद्धारपलिओवमे। “एएमि पल्लाणं, कोडाकोडी हवेज दसगुणिया। तं सुहुमस्स उद्धारसागरोवमस्स एगस्स भवे परिमाणं॥१॥” एएहिं सुहुम उद्धारपलिओवमसागरोवमेहिं कि पओयणं?, एएहिं सुहुम उद्धारपलिओवमसागरोवमोह दीवसमुदाणं उद्धारो घेप्पइ। केवइया णं भंते ! दीवसमुद्दा उद्घारेणं पणत्ता?, गोयमा! जावइयाणं अडाइज्जाणं उद्धारसागरोवमाणं उद्धारसमया एवढ्याणं दीवसमुद्दा उद्धारेणं । से तं सुहुमे उद्धारपलिओवमे ॥सू० २०४॥
छाया-अथ किं तत् औपमिकम् ? औषमिकं द्विविधं प्राप्तं, तद्यथापल्योपमं च सागरोमं च । अथ किं तत् पल्योपमम् ? पल्योपमं त्रिविधं प्रज्ञप्तम, तद्यथा-उद्धारपल्योपमम् अद्धापल्योपमं क्षेत्रपल्योपमं च । अथ किं तत् उद्धारपल्योपमम् ? उद्धारपल्योपमं-द्विविधं प्रज्ञप्तम् । तद्यथा-सूक्ष्मं च व्यावहारिकं च । तत्र खलु यत् तत् सूक्ष्मं तत् स्थाप्यम् । तत्र खलु यत् तद् व्यवहारिकं तत् यथानामकं पल्यं स्यात्-योजनम् आयामविष्कम्भेण, योजनम् ऊर्ध्वम् उच्चत्वेन, तस्त्रिगुण सविशेष परिक्षेपेण तत् खलु पल्यम् ऐकाहिक द्वयाहिक त्रैयाहिक यावत् सप्तरात्ररूढानां संसृष्ट सनिचितं भृतं वालाग्रकोटीनां तानि खल्लु वालाग्राणि नोऽग्निदेहेत् नो वायुहरेत् , नो कुथ्येयुः नो परिविध्वंसेरन् नो प्रतितया हव्यमाग ग्छेयुः । ततः खलु समये समये एकमेकंग्रम् वाला अपहाय यावता कालेन तत्
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अनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र२०४ पल्योपमादीनां श्रौपमिकप्रमाणनिरूपणम् २५७ पल्यं क्षीणं नीरजस्कं निर्लेपं निष्ठितं भवति, एतद् व्यावहारिकम् उद्धारपल्योपमम् एतेषां, पल्यानां कोटोकोटिर्भवेद् दशगुणिता । तव्यावहारिकस्य उदारसागरोपमस्य एकस्य भवति परिमाणम् ॥१॥ एतैः व्यावहारिकोद्धारपल्योपमसागरोपमैः किं प्रयोजनम् ? एतैः व्यवहारिकोद्धारपल्योपमसागरोपमैः नास्ति किश्चित् प्रयोजनम् १, केवलं प्रज्ञापना प्रज्ञाप्यते। एतद् व्यवहारिकोद्धारपल्योपमम् । अथ किं तत् सूक्ष्मोदारपल्योपमम् ? मूक्ष्मोद्धारपल्योपमम्-तद् यथानामक पल्यं स्यात्-योजनम् आयामविष्कम्भेग, योजनम् उद्वेधेन तत्रिगुणं सविशेष परिक्षेपेण । तत् खलु पल्यम् ऐकाहिक द्वैवाहिक त्रैवाहिक यावत् सप्तरात्रभरूढानां संसृष्टं संनिचितं भृतं वालाग्रकोटीनाम् ॥१॥ तत्र खलु एकमेकं वालाग्रम् असंख्येयानि खण्डानि क्रियते । तानि खलु वालाग्रखण्डानि दृष्टयवगाहनातः असंख्येयभागमात्राणि सूक्ष्मस्य पनकजीवस्य शरीरावगाहनातः असंख्येयगुणानि । तानि खलु वालाग्रखण्डानि नोऽग्निदेहेत्, नो वायुहरेत् , नो कुथ्येयुः, नो परिवंसेरन् , नो पूतितया हव्यमागच्छेयुः । ततः खलु समये समये एकमेकं वालाग्रखण्डमपहाय यावता कालेन तत् पल्यं क्षीणं नीरजस्कं निर्लेप निष्ठितं भवति. तदेतत् सूक्ष्ममुद्धारपल्योपमम् । एतेषां पत्यानां कोटीकोटयो भवन्ति दशगुणिताः। तत् सूक्ष्मस्य उद्धारसाग रोपमस्य एकस्य भवति परिमाणम् ॥१॥ एतैः सूक्ष्मो. द्धारपल्योपमसागरोपमैः किं प्रयोजनम् ? एतैः सूक्ष्मोद्धारपल्योपमसागरोपमैीपसमुद्राणाम् उद्धारो गृह्यते । कतिपयः खलु भदन्त ! द्वीपसमुद्रा उद्धारेण प्रज्ञप्ताः ? गौतम ! यावतामधेतृतीयानाम् उद्धारसागरोपमानाम् उद्धारसमयाः, एतावन्तः खलु द्वीपसमुद्रा उद्धारेण पज्ञप्ताः । तदेतत् मूक्ष्मम् उदारपरयोपमम् । तदेतद् उद्घारपल्योपमम् ।। सू० २०४ ॥
टीका-'से कि तं' इत्यादि
अथ किं तत् औपमिकम् ? इति शिष्यप्रश्नः । उत्तरयति-औपमिकम्-उपमया सादृश्येन निर्वृत्तम्-भौपमिकम्-उपमानं विना यत्कालप्रमाणमतिशयज्ञानिभिन्नैर
अय सूत्रकार इसी पल्योपम आदिरूप औपमिक प्रमाण को स्पष्ट करते हैं-'से कि तं ओवमिए ? ' इत्यादि।
शब्दार्थ-(से किं तं ओवमिए ?) हे भदंत ! वह औपमिक प्रमाण क्या है?
હવે સૂત્રકાર એજ પપમ વગેરે રૂપ પમિક પ્રમાણને સ્પષ્ટ કરે છે" से किं तं ओवमिए ?" इत्यादि। शहाथ-(से कि तं ओवमिए) 3 मत ! मो५भि शुठे ?
ઉત્તર-જે પ્રમાણ ઉપમા વડે–સાદશ્ય વડે-નિષ્પન્ન થાય છે, તે ઔપમિક પ્રમાણ છે. જે અલ્પમતિવાળા છે તેઓ માટે કાલ પ્રમાણનું જ્ઞાન
अ० ३३
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अनुयोगद्वारसूत्र विज्ञेयं तदीपमिकमुच्यते इति भावः। तद्विविधम्--पल्योपमं च सागरोपमं च । तत्र पस्योपमविषये पृच्छति-अथ किं तत्पल्योपमम् ? इति उत्तरयति-पल्योपमम्धान्यपल्यवत् पल्यं प्रक्ष्यमाणस्वरूपम् , तेन उपमा यस्मिस्तत् पल्योपममित्यर्थः । तत् उद्धारपल्योपमाद्धापल्योपमक्षेत्रपल्योपमेति त्रिविधम् । तत्र-उद्धारपल्योपमम्
उत्तर--जो प्रमाण उपमा से-सादृश्य से-निष्पन्न होता है, वह औपमिक प्रमाण है। काल का प्रमाण, जिनका ज्ञान अतिशय रहित है, ऐसे व्यक्तियों द्वारा विना उपमान के अविज्ञेय होता है-अतःकाल का प्रमाण कहने के लिये उपमानका आश्रय लिया जाता है । (ओव. मिए दुविहे पण्णत्ते) यह औपमिक प्रमाण दो प्रकार का कहा है(तं जहा) उसके वे प्रकार ये हैं-(पलिभोवमे य सागरोवमे य) एक पल्योपम और दूसरा सागरोपम ! (से किं तं पलिभोवमे ?) हे भदन्त ! वह पल्योपम क्या है ?
उत्तर-(पलिओवमे) धान्य के पल्य की तरह पल्य होता है। इस पल्य की जिसे उपमा दी जाती है वह पल्योपम है । यह पल्योपम (तिविहे पण्णत्ते) तीन प्रकार का कहा गया है। (तं जहा) वे ३ तीन प्रकार ये हैं-(उद्धारपलि भोवमे, अद्धापलिओवमे, खेसपलिओवमे य) उद्धार पल्योपम, अद्धापल्योपम और क्षेत्र पल्योपम । (से किंत उद्धारपलिओवमे ?) हे भदन्त ! उद्धार पल्योपम क्या है?
વગર ઉપમાને સમજી શકાતું નથી. એથી કાલપ્રમાણના કથન માટે ઉપમાनन। माश्रय देवामां आवे छे. (ओवमिए दुविहे पण्णते) मा मोपभिः प्रभार मे ४२नु ४ामा मा०यु छे. (तंजहा) ते मारे। मा प्रमाणे - (पलिओवमेय सागरोवमे य) मे. पक्ष्यापम भने भी सागराम (से कि तं पलिओवमे ?) BRE! ते पक्ष्या५म शु. १ ।
उत्तर-(पलिओवमे) धान्यना पक्ष्यनी २ ५६य डाय छे. या पक्ष्यनी જેને ઉપમા આપવામાં આવે છે, તે પોપમ છે. આ પાપમ પ્રમાણ (तिविहे पण्णत्ते) ३ ४२नु उपाय छे. (तंजहा) ते २१ मा प्रभाव छ(उद्धारपलिओवमे, अद्धा पलिओवमे, खेत्तपलिओवमे य) द्वा२ पक्ष्या५म, मद्धा पक्ष्यापम भने क्षेत्रपक्ष्या५म (से कि तं उद्धारपलिओवमे?) महत ! द्वार પલ્યોપમ શું છે?
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अनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र २०४ पल्योपमादीनां औपमिकप्रमाणनिरूपणम् २५६ वक्ष्यमाणस्वरूपवालाग्राणां तत्खण्डानां वा तद्द्वारेण द्वीपसमुद्राणां वा प्रतिसमयमुद्धरणम्-अपोद्धरणम्- अपहरणम् उद्धारस्तद्विविषयं तत्प्रधानं वा पल्योपमम्उद्धारपल्योपमम्- तत् सूक्ष्मव्यावहारिकेति द्विविधम् । तत्र यत् सूक्ष्मं तत् स्थाच्यम् । व्यावहारिकप्ररूपणानन्तरमिदं प्ररूपयिष्यते । नहिस्थूलज्ञानं विना सूक्ष्मज्ञानं भवितुमर्हति अतो व्यावहारिकोद्धारपल्योपमं प्रथमं प्ररूपयति' तत्थ णं जे से वावहारिए' इत्यादि । तत्र उद्धारपल्पोपममेदद्वयमध्ये यत्तद् व्यावहारिकमुद्धारपल्योपमं तद् यथानामकं पल्यं - परयमिव धान्यादिपल्यमित्र यत् तत् पल्यं - स्यात् योजनम् - उत्सेधाङ्गुलमानेन योजनं = योजनगमाणम् आयामविष्कम्भाभ्यां देय
1
उत्तर -- (उद्धारपलिओवमे दुविहे पण्णत्ते) उद्धार पत्योपम दो प्रकार का कहा गया है । (तं जहा ) - जैसे ( सुहुमे य वावहारिए य) एक सूक्ष्म उद्धारपल्य और दूसरा व्यावहारिक उद्धारपल्य । (तस्थ णं जे से सुमे से ठप्पे ) इनमें जो सूक्ष्म उद्धार पल्य है उसके विषय में अभी यहां कुछ नहीं कहा जाता है। इसके विषय में जो कुछ कहना होगा, वह व्यावहारिक उद्धारपत्य के निरूपण करने के बाद कहा जावेगा । क्योंकि स्थूल के ज्ञान हुए विना सूक्ष्म का ज्ञान नहीं हो सकता है। इसलिये सूत्रकार (तत्थ णं जे से बावहारिए से जहा नोमए पल्ले सिया) व्यावहारिक पल्य का कथन करते हैं- यह व्यावहारिक पल्य इस प्रकार है- (जोय णं ओयामविक्खंभेणं जोपणं उडू उच्चणं तं तिगुणं सविसेसं परिक्खेवेणं) एक योजन लंबा, एक योजन चौड़ा और एक ही योजन गहरा एक गोल कुंआ समझना चाहिये, इसकी परिधि
उत्तर- (उद्धारप लिओ मे दुबिहे पण्णत्ते) उद्धार पयोभ में अहारनुं वामां आव्यु छे, (तंजहा) नेम है (सुमे य वात्रहारिए य) मे सूक्ष्म उद्धार चढ्य मने मीनु व्यावहारिक उद्धार पहय ( तत्थ णं जे से सुहुमे से उप्पे) भा જે સૂક્ષ્મ ઉદ્ધાર પલ્પ છે, તે વિશે મહી' કઈ પણ કહેવામાં આવતુ નથી આ વિશે જે કઈ કહેવાનું હશે તે બ્યાવહારિક ઉદ્ધારપલ્યને નિરૂપિત પછી કહેવામાં આવશે કેમકે સ્કૂલના જ્ઞાન વગર સૂક્ષ્મનું' ज्ञान थ शडे नहि मेथी सूत्रडार (तत्थ णं जे से वावहारिए से जहा नामए पल्ले सिया ) વ્યાવહારિક પલ્યનું કથન કરે છે-તે બ્યાવહારિક પલ્ય આ પ્રમાણે છે, (जोयण' आयाम विक्खंभेण' जोयण' उड्ड' उच्चतेण तं तिगुण सविसेसं परि. कखेवेण) मेयोन सो, होणो भने थे योजन है। એક ગેાળ કૂવા જાણુવે એની પરિષિ કઈક જાજેરી
योल्न કોઈ એ
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२६०
अनुयोगद्वारसूत्र विस्ताराभ्याम् । वृत्तत्त्वात् आयामो विष्कम्भश्व तस्थ एकैकयोजनप्रमाणः । तथाऊर्ध्वमुच्चत्वेनापि तद्योजनामाणम् । तथा सविशेष-किंचिदधिकं तत्रिगुणम् पूर्वा प्रेक्षया त्रिगुणम्- किंचिदधिकं योजनत्रयं परिक्षेपेण-परिधिना । सर्वस्यापि वृत्त. परिधेः किंचिन्यूनषड्भागाधिकत्रिगुणत्वादस्यापि पल्यस्य किंचिन्न्यूनषइभागाधिकानि त्रीणि योजनानि परिधिर्भवतीति भावः । तत् खलु पल्यम् ऐकाह्निक द्वयाहिक त्रैयाह्निकीनां यावत् उत्कर्षतः सप्तरात्रभरूढानां वालाग्रकोटीनाम्-शिरसि कुछ अधिक तीन गुणी की होती है। गोल होने से इसकी लम्बाई
और चौडाई एक २ योजन प्रमाण कही गई है। यहां योजन उत्सेधांगुल से जो निष्पन्न होता है वही लिया गया है ऊंचाई का तात्पर्य यहां गहराई से है । एक योजन लंबी और १ योजन चौड़ी चीज की परिधि कुछ अधिक ३ तीन योजन की होगी। इसीलिये यहां पर किश्चित् अधिक तिगुणी परिधि कही गई है। किश्चित् अधिक से तात्पर्य यहां किश्चित् न्यून षष्ठ माग से है समस्त वृत्त परिधि कुछ कम षड् भागाधिक तिगुणी होती है । इसीलिये यहां पर इस पल्य कीधान्यादि पल्य के समान इस कुए की-परिधि कुछ कम ऐसे छह भाग से-अधिक तिगुणी कही गई है । तात्पर्य कहने का यह है कि"पल्यरूप कुए की जो वृत्त परिधि है वह कुछ अधिक तीन योजन की होती है। कुछ अधिकता यहां १ एक योजन के छ भागों से जाननी चाहिये। सो ये योजन के छ भागपूरे नहीं लेना चाहिये । ત્રણગણી હોય છે. ગોળ હેવાથી આની લંબાઈ અને પહેળાઈ એક એક .
જન જેટલી કહેવામાં આવી છે અહીં જન ઉભેધાંગુલ વડે જે નિષ્પન્ન હોય છે, તેજ ગ્રહણ કરવામાં આવે છે ઊંચાઈ એટલે અહીં ઊંડાણ જાણવું જોઈએ એક યોજન લાંબી અને એક જન પહેળી વસ્તુની પરિધિ કંઈક વધારે ત્રણ જન જેટલી થશે એથી જ અહીં કિંચિત્ અધિક તિગુણ પરિધિ કહેવામાં આવી છે. કિંચિત્ અધિક એટલે અહીં કિંચિત્ જૂન ષષ્ઠ ભાગ ગ્રહણ કરવામાં આવે છે. સમસ્ત વૃત્ત પરિધિ શેડી કમ ષડૂ ભાગાધિક તિગુણી થાય છે એથી જ અહીં આ પલ્યની-ધાન્યાદિ પલ્યની જેમ આ કૂપની પરિધિ થી કમ ષષ્ઠ ભાગ કરતાં વધારે તિગુણ કહેવામાં આવી છે તાત્પર્ય એ છે કે “પલ્યરૂપ કૂપની જે વૃત્ત-પરિધિ-છે તે કંઈક વધારે ત્રણ
જન જેટલી હોય છે. કંઈક અધિકતા અહીં એક જનના ૬ ભાગેથી જાણવી જોઈએ તે આ યોજનાના ૬ ભાગો પૂરા લેવા નહિ જોઈએ પણ
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अनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र२०४ पल्योपमादीनां औपमिकप्रमाणनिरूपणम् २६१ मुण्डि ते एकाहेन द्वयहेन व्यहेण यावत् उत्कर्षतः सप्तरात्रेण यावत्यमाणा वालाग्रकोटय उत्तिष्ठन्ति तावत्ममाणाभिर्वालाग्रकोटिभिः संसृष्टम् भाकर्ण पूरितम् । सनिचितम् अचयविशेषानिबिडीकृतम् , इत्थं तद् भृतम् परिपूर्णम् । यदि तानि कुछ कम लेना चाहिये । इस प्रकार १ एक योजन लंबा, एक योजन चौडा और एक ही योजन गहरा और कुछ कम छठा भाग अधिक ३तीन योजन की परिधिवाला एक पल्य जैसा गोल कुआ समझना चाहिये । (से णं पल्ले एगाहियबेयाहियतेयाहिय जाव सत्तरतरूढाणं संसट्टे संनिचिए भरिए बालग्ग कोडीण) फिर इस कुए को बालापों. से नीचे से ऊपर तक पूरा खूब ठसा ठस भरना चाहिये। ऐसा भरना चाहिये, कि जिससे थोड़ी सी भी जगह खाली न रहे। जिन बालानों से यह कुंआ भरा जावे वे घालाग्र एक दिन दो दिन तीन दिन यावत् अधिक से अधिक सात दिन तक के ऊगे हुए घालायों के बराबर हों। अर्थात् मुंडित करा देने पर फिर से ऊगे हुए बालों का अग्रभाग जितना बड़ा होता है, उतने ही बडे वे घाल हों। सूत्रस्थ 'समृष्ट शब्द यह बात सूचित करता है कि-'वह कुआ आकर्ण पूरित हो अर्थात् लबालब भरा हुआ हो । 'सन्निचित' शब्द यह कहता है कि-'वह कुँआ इस प्रकार से भरा जानना चाहिये कि जहां पर थोडा કંઈક કમ લેવા જોઈએ આ પ્રમાણે એક જન લાંબી, એક જન પહેલી અને એક જ જન ઊંડી તેમજ કંઈક કમ ષષ્ઠ ભાગ અધિક ત્રણ યોજના २८सी परिधिवाग ४ ५८य वो nो समन . (से गं पल्ले एगाहिय बेयाहिय तेयाहिय जाव सत्तरत्तरूढाण' संसट्टे संनिचिए भरिए बालग्गकोडीण) । पाने पछी माथी नयेथी ५२ सुधा सा पहले ખૂબ ઠાંસીને ભર જોઈએ એવી રીતે ભર જોઈએ કે સહેજ પણ જગ્યા ખાલી રહે નહિ જે બાલાગ્રોથી આ કૂપ ભરવામાં આવે, તે બાલા એક દિવસ, ત્રણ દિવસ યાવત્ વધારેમાં વધારે સાત દિવસ સુધીના મોટા થયેલા બાલાોની બરાબર હોવા જોઈએ એટલે કે મુંડિત થયા પછી શેષ રહેલ બાલાગ્રભાગ જેટલું હોય છે, તેટલા જ મેટા તે વાળે હેવા
से सूत्रस्थ 'संसृष्ट' २०४ १3 4 पात २५ थाय छ त १५ આકણ સંપૂરિત હૈ જોઈએ એટલે કે પૂરેપૂરે ભરેલ જોઈએ " सन्निचित" ५४ भाम 3 छ 3-५५ वी रीत सरवो ने थाई
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३६२
अनुयोगद्वारसूत्रे
खजु बालाग्राणि अग्निर्नो दहेत्, वायु हरेत्, अतीव निचितत्वान्न तत्राग्निवायु क्रमेते इत्यर्थः । तथा-नो कुथ्येयुः =नि वालाग्राणि पचविशेषादेव शुषिरामावात् वापोरसंमवाच्य नासारतां गच्छेयुः, अतएव च न परिध्वं सेरन् = कतिपयपरिशायङ्गीकृत्य समाप्नुरित्यर्थः, तत् एत्र च-नो पूतितया कदाचिदप्यागच्छेयुः न कदाचिद् दौर्गन्ध्यं प्राप्नुयुरित्यर्थः । ततः खलु ताभ्यो वालाकोटिभ्यः खलु समये समये =पतिसमयम् एकमेकम् वालाग्रम् अपहाय= सा भी स्थान खाली न रहने पावे । (तेणं वालग्गा नो अग्गी डहेज्जानो वाऊ हरेज्जा, नो कुहेज्जा, नो पलिबिद्धंसिज्जा) तथा जो वालाग्र उस कुंए में भरे गये हैं, वे अग्निदाह से सुरक्षित रहें, तथा वायु उन्हें उडान सके इस रूप से वे उसमें दाव कर भरे जाना चाहिये । जब वे वहां दात्र २ कर भरे जावेंगे तभी उन पर अग्नि और वायु का प्रभाव नहीं पड़ सकेगा ' यही बात इन पदों से सूचित की गई है। खूप निधिरूप में भरे जाने के कारण जब वहां शेष खाली जगह ही नहीं रहेगी तब वायु के अप्रवेश से वे असारता को भी प्राप्त नहीं कर सकेगे और इसी कारण उनमें कुछ थोडे से भी रूप में परिशाटन - सडनापना नहीं हो सकेगा । जब किञ्चित् भी सडनापना नहीं आयेगा तब वे विध्वंसको प्राप्त नहीं होंगे और ( णोपूहन्ताए
.६०) न उनमें दुर्गन्ध ही आवेगी । इस प्रकार से ही कुंर में उन बालाग्रों को भर देना चाहिये । (तओणं समए समए एगमेगं बालगं
पाय स्थान रिक्त हेपाय नहि (तेण वालग्गा नो अग्गी डद्देज्जा नो वाऊ हरेज्जा, नो कुद्देज्जानो पलि विद्धंसिज्जा) तेमन के मासाओ ते दूवामां लश्वामां આવ્યા છે, તે અગ્નિથી ખળી શકતા નથી તેમજ પવનથી પણ તે ઉડાવી શકાતા નથી તે પ્રમાણે ઠાંસી-ઠાંસીને ખાલાો કૂવામાં ભરવા જોઈએ જ્યારે ખાલ:ગ્રો ઠાંસી-ઠાંસીને ભરવામાં આવશે ત્યારે જ તેમના પર અગ્નિ તથા વાયુના પ્રભાવ પડશે નહિ એજ વાત આ પદે વડે સૂચિત કરવામાં આવી છે એકદમ ઠાંસીને ભરવાથી જ્યારે ત્યાં સહેજ પણ ખાલી જગ્યા રહેશે નહિ ત્યારે પવનના અપ્રવેશથી તેએ અસારતાને પણ પ્રાપ્ત કરશે નહિ અને એથી જ તેમાં થાડા પણ કેવાહા લાગશે નહી. જ્યારે તેઓમા થેરા પણ સા ઉત્પન્ન થશે નહિ ત્યારે તેએ સુરક્ષિત રહેશે એટલે કે વિવરત यशे नहि भने (जो पूइत्ताए.......ह.) तेथेोभां हुगंध पशु उत्पन्न थशे नहि प्रभावामां ते मासाथी लवा लेहये. (तओण समए समए एगमेगं
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अनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र२०४ पल्योपमादीनां औपमिकप्रमाणनिरूपणम् २६३ अपहृत्य यावताकालेन तत् पल्यं क्षीणम्-चालाग्रापसारणात् तद्रहितं निस्सारित. धान्यकोष्ठागारवत् , तथा-नीरजस्कम्-रजस्तुल्यानां सूक्ष्मवालाग्राणामपनयनाद् नीरजस्कम्-निस्सारितधान्यरजस्ककोष्ठागारवत् । तथा-निर्लेपम् अत्यन्तसंश्लेपात् पल्यमयतां गतानि वालाग्राणि लेगत्वेन विवक्षितानि, तेषामपसारणाद् निर्लेपम्-अपनीतभित्त्यादिगतधान्यलेपकोष्ठागारवत् । तथा-निष्ठितम्-एभिखिभिः प्रकारविंशोधनात् तत् पल्यं निष्ठितं-विशुद्धं च भवति । एतावत् काल स्वरूपं बादरमुद्धारपल्यापमं भवति । पल्यान्तर्गतबालापाणां संख्येयत्वात् संख्येअवहाय जोवइएणं कालेणं से पल्ले खीणे नीरए निल्लेवे, निटिए, भवइ, से तं बोवहारिए उद्धारपलिओनमे) इसके बाद एक एक समय में एक एक बालाग्र उसमें से निकालना चाहिये-इस प्रकार करते २ जितने काल में वह पल्य कुंवा-खाली होता है, बालानों की थोडी सी भी रज उसमें लगी नहीं रहती है, पालानों का थोडामा भी संश्लेष उसमें नहीं रहता है, अतएव वह बिलकुल उन बालानों से रहित हो जाने के कारण पहिले जैसा विशुद्ध कुंए के रूप में हो जाता है-यही कालस्वरूप बादर उद्धारपल्योपम है । तात्पर्य कहने का यह है कि-कुएँ में भरे हुए वे वालाग्र जितने समय में उससे निकाले जाते हैं-अर्थात् इन बालानों को निकालने में जितना काल समाप्त हो जाता है, यही 'चादर उद्धारपल्योपम का स्वरूप है। वह बादर उद्धारपल्योपम पल्यान्तर्गत बालानों को संख्येय होने के बालगं अवहाय जावइएण' कालेणं से पल्ले खीणे नीरए निल्लेवे, निदिए भवइ, से तं वावहारिए उद्धारपलिओवमे) त्यार पछी ४ ४ समयमा એક એક બાલાઝ તેમાંથી બહાર કાઢવો જોઈએ આમ કરતાં કરતાં જેટલા કાલમાં તે પલ્ય –ખાલી થઈ જાય છે, બાલાશોની ગેડી પણ રજ તેમાં શેષ રહેતી નથી, બાલાશોને થડો પણ સંલેષ તેમાં રહેતું નથી તેથી તે બાલાગ્રોથી એકદમ રહિત થઈ જવાથી પહેલાં જે વિશુદ્ધ થઈ જાય છે, એજ કાલસવરૂપ બાદર ઉદ્ધાર૫લ્યોપમ છે. તાત્પર્ય આ પ્રમાણે છે કે કવામાં ભરેલા બાલાઝો જેટલા વખતમાં તે કૂવામાંથી બહાર કાઢવામાં આવ્યા છે, એટલે કે આ બાલાોને બહાર કાઢવામાં જેટલો વખત પસાર થયે છે, તેજ “બાદર ઉદ્ધાર પલપમ”નું સ્વરૂપ છે. આ બાદર ઉદ્ધાર પલ્યોપમ, પલ્યાન્તર્ગત બાલાચો સંપેય હોવાથી સંખ્યાત સમય પ્રમાણ હોય છે
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अनुयोगद्वारसूत्र यः समयैस्तदपहारसंभवात् संख्येयसमयमानमिदं बोध्यम् । तदेतद् व्यवहारपल्योपमं विज्ञेयम् । इत्थं व्यवहारपल्योपमं प्ररूप्य व्यवहारसागरोपमं प्ररूपयतिएतेषां पत्यानां कोटीकोटिदशगुणिता यदि भवेत् तदा तदेकस्य व्यावहारिकस्य उद्वारसागरोपमस्य परिमाणं भवति । महत्तसाम्यात् सागरेणोपमीयमानत्वादिदं सागरोषप्रमुच्यते । एतैर्व्यावहारिकपल्योपमसागरोपमैः किं प्रयोजनम् एतैःकोऽर्थः साध्यते ? इति शिष्यप्रश्नः । उत्तरयति-एतनास्ति किंचित् प्रयोजनम् । किं तर्हि कारण संख्यात समय का होता है। क्योंकि उसमें से जो वे बालाग्र निकाले जाते हैं, वे संख्यात समय में ही निकाले जाते हैं । इस प्रकार व्यवहार पल्पोपम का कथन कर अब सूत्रकार व्यवहार सागरोपन की प्ररूपणा करते हैं-(एएहिं पल्लाणं कोडाकोडी हवेज्ज. दस गुणिया, तं वावहरियस्स उद्धारसागरोवमस्सए गस्तभवे परिमाणं) इन पल्यों की कोटिकोटी दश गुणित जब हो जाती है, तब एक व्यावहारिक उद्धारसागरोपम का प्रमाण होता है । अर्थात् दश कोटिकोटी व्यवहार पल्यों का एक व्यावहारिक उद्धार सागरोपम होता है। महत्व की समानता लेकर सागर के साथ इसकी तुलना की गई है इसलिये इसे सागरोपम कहा गया है । (एएहिं वावहारिय उद्धारपलिओवमसागरोवमेहि किं पओयणं ?)
शंका--इन व्यावहारिक उद्धारपल्योपम और व्यावहारिक सागरोपम से किस प्रयोजन की सिद्धि होती है ? કેમકે તેમાંથી જે બાલાો બહાર કાઢવામાં આવ્યા છે, તે સંખ્યાત સમયમાં જ બહાર કાઢવામાં આવ્યા છે આ પ્રમાણે વ્યવહાર પલ્યોપમ વિશે थन शन व व्यवसा२ सागरे।५मनी प्र३५९। ४२ छ. (एएसि पल्लाण कोदाकोड़ी हवेज इस गुणिया, तं वावहरियस्स उद्धारसागरोवमस्स एगस्स भवे परि. माण) भ. पक्ष्यापभानी 2-शि भुक्षित न्यारे २ लय छे त्यारे એક વ્યાવહારિક ઉદ્ધાર સાગરોપમનું પ્રમાણ કહેવાય છે એટલે કે દશ કોટિકેટિ વ્યવહાર પલ્યને એક વ્યાવહારિક ઉદ્ધાર સાગરેપમ થાય છે મહત્તવની સમાનતાના આધારે સાગરની સાથે તુલના કરવામાં આવી છે. એથી જ मान सा५५ वाम मा छे. (एएहि वावहारिय उद्धारपलिओवमसागरोवमेहि कि पओयणं ?)
શંકા- આ વ્યાવહારિક ઉદ્ધારપટોપમ અને વ્યાવહારિક સાગરોપમથી કયા પ્રજનની સિદ્ધિ થાય છે?
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अनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र२०४ पल्योपमादीनां औपमिकप्रमाणनिरूपणम् २६५ निरर्थकान्येतानि ? इत्याह-केवलमेतेः प्रज्ञापना प्रज्ञाप्यते-मरूपणामा क्रियते इत्यर्थः । ननु निरर्थकस्य प्ररूपणा व्यर्था, अकिंचित्करत्वादिति चेदाह-वादरे मरूपिते सूक्ष्मं सुखावबोधं भवति, अत: सूक्ष्मोपयोगित्वात्-बादरपरूपमा नैका. न्ततो निरथिका । ननु तहि नास्ति किंचित् प्रयोजनमिति यदुक्तं तत् कथं संगच्छते ? इति चेदाह-एतावतः प्रयोजनस्याल्पत्वेनाविवक्षणात्तथोक्तम् , अतो ___ उत्तर--'एएहिं वावहारिय उद्वारपलि मोत्रमसागरोवमेहिं गस्थि. किंचिप्पओयणं केवलं पण्णवणा पण्णविज्जइ) इन व्यावहारिक उद्धारपल्योपम और व्यावहारिक उद्धार सागरोपम से कोई भी प्रयोजन सिद्ध नहीं होता है केवल ये दोनों प्ररूपणा मात्र के लिये हैं।
शंका--जब इनसे कोई भी प्रयोजन सिद्ध नहीं होता है, तो निरर्थक होने से इनकी प्ररूपणा करना ही व्यर्थ है ?
उत्तर--ऐसा नहीं है क्योंकि जब बादर पल्योपमादि की प्ररूपणा हो जाती है अर्थात् समझली जाती है, तो उससे सूक्ष्मपल्योपमादि की प्ररूपणासुखावबोध-सरलता से समझने में आजानेवाली हो जाती है। इसलिये सूक्ष्म की प्ररूपणा में उपयोगी होने के कारण बादर की प्ररूपणा सर्वथा निरर्थक नहीं मानी जा सकती।।
शंका--तो फिर 'णस्थि किंचिप्पओयण' यह जो पाठ कहा गया है सो इस पाठ की संगति कैले बैठाली जावेगी?
उत्सर--सूक्ष्म की प्ररूपणा में यह उसका उपयोगीपना रूप प्रयो.
उत्तर-(एएहि वावहारिए उद्धारपलिओवमसागरोवमेहि पथि किचिप्पओयणं केवलं पण्णवणा पण विज्जइ) मा व्यापारिद्वार ५०५म भने વ્યાવહારિક ઉદ્ધાર સાગરોપમાંથી એક પણ પ્રજન સિદ્ધ થતું નથી આ બને ફક્ત પ્રરૂપણું માટે જ છે.
શંકા–જ્યારે એનાથી કઈ પણ પ્રોજનની સિદ્ધિ થતી નથી ત્યારે નિરર્થક હેવાથી એની પ્રરૂપણું જ વ્યર્થ છે?
ઉત્તર–ખરેખર આમ નથી કેમકે જ્યારે બાદર પોપમાદિની પ્રરૂપણા થઈ જાય છે, ત્યારે તેનાથી સૂક્ષ્મ પપમાદિની પ્રરૂપણા સલતાથી સમજમાં આવી જાય છેએથી જ સૂક્ષ્મની પ્રરૂપણમાં ઉપયોગી થઈ પડે છે, એટલા માટે બાહરની પ્રરૂપણું સાવ નિરર્થક ગણાય નહિ.
श-त५छी " णत्थि कि चिप्पओयण" 40 413 अपामा माये! છે, તે આ પાઠની સંગતિ કેવી રીતે બંધ બેસતી કરી શકાય?
अ० ३४
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२६६
अनुयोगद्वारसूत्रे नास्ति कश्चिद् दोषः । एवं बादराद्धापल्योपमादावपि बोध्यम् । एतदुपसंहमाहतदेतद् व्यावहारिकमुद्धारपल्योपममिति । अथ-यूक्ष्मम् उद्धारपल्योपमं प्ररूप. माय पृच्छति-प्रय कि तद् सूक्ष्मम् उद्धारपल्योपमम् ? इति । उत्तायति-'सुहुमं उद्धारपलियोवमं इत्यादिना । तत्र-मूक्ष्मसुद्धारपल्योपममित्यारा' भृतं वालाग्र कोटीनाम् ' इत्यन्तस्य पाठस्यार्थः पूर्ववद् बोध्यः । तत्रयालाग्रकोटिषु खलु एक वालाग्रम् असंख्येयानि खण्डानि क्रियते । पूर्व वालाग्राणि सहजान्येव जन एक अल्प प्रयोजन है। अतः सूत्रकारने इस अल्पप्रयोजन की यहाँ विवक्षा नहीं की है, इस अपेक्षा उसे प्ररूपणा मात्र यतला दिया है। इसी प्रकार से पादर अद्धापल्योपम आदि में भी जानना चाहिये । (से ते वावहारिए उद्धारपलिभोवमे) इस प्रकार यह व्यावहारिक उद्धारपल्योपम का स्वरूप है। (से कि तं सुहुमे उद्धारपलिओवमे ?) हे भदन्त ! वह सूक्ष्म उद्धारपल्योपम क्या है ?
उत्तर--(सुहुमे उद्धारपलिभोवमे) वह सूक्ष्म उद्धारपल्योपम इस प्रकार से है (से जहा नामए पल्ले सिया जोयणं आयामविखंभेणं जोयणं उब्वेहेणं तं तिगुणं सविसेसं परिक्खेवेणं) जैसे कोई एक पल्य हो
और वह लयाई में चौडाई में एवं गहराई में एक योजन प्रमाण हो । इसकी परिधि कुछ अधिक तीन योजन की हो । (से णं पल्ले एगोहिय. वेयाहियतेयाहिय जाव सत्तरतरूढाणं संसटे संनिथिए भरिए बालग्ग
ઉત્તર–સૂકમની પ્રરૂપરામાં આ ઉપગી છે, તો આ ઉપયોગિતા રૂપ પ્રજને એક રીતે અ૫ પ્રજન જ છે. એથી સૂત્રકારે આ અલ્પ પ્રજનની ત્યાં વિવક્ષા કરી નથી આ દૃષ્ટિએ જ તેને પ્રરૂપણ માત્ર કહી દીધી છે એ પ્રમાણે બાદર અદ્ધા પોપમ વગેરેના સંબંધમાં પણ સમજી લેવું
2. (से तं वावहारिए उद्धारपलिओषमे) मे प्रमाणे मा व्यापारि उद्धार पक्ष्योपभनु २१३५ छे (से कि तं सुह मे उद्धारपलिभोवमे १) महत ! તે સૂક્ષ્મ ઉદ્ધાર પલ્યોપમ શું છે?
उत्तर-(सुहुमे उद्धारपलि ओवमे) ते सूक्ष्म उद्वार ५८।५म. २॥ प्रभारी छ.-(से जहानामए पल्ले सिया जोयण आयामविक्खंभेण' जोयण उब्वेहेणं ते तिगुण सविसेमं परिक्खेवेणं) म मे ५६५ डाय सनत मां, પહોળાઈમાં તેમજ ઊંડાઈમાં એક જન પ્રમાણ હોય, એની પરિધિ કંઈક पधारे ५ योन की डाय. (से ण पल्ले एगाव्हिय बेयाहिय तेयाहिय जाव सत्तरतरूढ़ाण संसट्टे संनिचिए भरिए बालग्गकोडोण) ! ५६यने मे
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अनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र२०४ पल्योपमादीनां औपमिकप्रमाणनिरूपणम् २६७ गृहीतानि, अत्र तु एकै वालाग्रमसंख्ये यखण्डीकृतं गृह्यते इति भावः । एवं सत्येकैकखण्डस्य यन्मानं भवति तनिरूपयामाह-वानि खलु वालाग्रखण्डानि दृष्टयागाहनातः असंख्येयभागमात्राणि । दृष्टिः चक्षुद्वारोत्पन्नदर्शनरूया, साऽवगाहते-परिच्छेदद्वारेण प्रवतेते यत्र वस्तुनि तदेव वस्तु दृष्टयवगाहना मोच्यते । सा चेह वालामखण्डरूमा तदपेक्षयाऽसंख्येय मागवत्ति प्रत्येकं वालाप्रखण्डं बोध्यकोडीण) इस पल्य को एक दिन दो दिन तीन दिन यावत् सात दिन तक के पालायों से खूब ठसाठस-लबालय भर देना चाहिये । (तत्थ णं एगमेगे बालग्गे असंवि नाई खंडाई कज्जइ) इन में जो एक २ वालाग्र है, उसको केवली की धुद्धि की कल्पना से असंख्यातर खंड करना चाहिये। (ते गं वालग्गखंडा दिही ओगाहणाओ असंखेज्जहभागमेत्ता मुहमस्स पणगजीवस्स सरीरोगाहणाओ असंखेज्जगुणा) ये प्रत्येक बालाग्रखंड दृष्यवगाहना की अपेक्षो से असंख्यातवें भाग मात्र हैं। चक्षुद्वारा उत्पन्न जो दर्शन रूप दृष्टि है, वह दृष्टि जिस वस्तु में परिच्छेद करने के लिये प्रवृत्त होती है, वही वस्तु दृट्यवगाहना रूप से यहां कही गई है । अर्थात् जो वस्तु चक्षुर्दर्शन का विषय होती है वही वस्तु दृटयवगाहना है । इस प्रकार ये प्रत्येक बालाग्रखंड उसके असं. ख्येय भागवर्ती हैं । ऐसा अर्थ जानना चाहिये । तात्पर्य कहने का यह है कि जिस पुद्गलद्रव्य को विशुद्ध चक्षुर्दर्शनवाला छमस्थ प्राणी देखता है, उस दृष्ट्यवगाहना रूप वस्तु के असंख्यातवें भाग मात्र वे प्रत्येक દિવસ, બે દિવસ, ત્રણ દિવસ યાવંત સાત દિવસ સુધીના બાલાથોથી ખૂબ iसी-सीन ली वामां आवे (तत्थ ण एगमेगे बालग्गे असंखिज्जाई खंडाइं कज्जइ) मेमरे से- मलाछे, तना बक्षीनी मुद्धिनी पना १९ असभ्यात-मसात ५ ४२१ स. (तेण वालगाखंडा दिदी ओगाहणाओ असंखेज्जइभागमेत्ता सुहुमस्त्र पणगजीवस्स सरीरोगाहणाओ असंखेज्जगुणा) मा ४३१ ६२, माया म १-याइनानी अपेक्षा અસંખ્યાતમાં ભાગ માત્ર છે. ચક્ષુ વડે ઉત્પન્ન જે દર્શન રૂપ દૃષ્ટિ છે, તે દષ્ટિ જે વસ્તુમાં પરિચછેદ કરવામાં પ્રવૃત્ત હોય છે, તેજ વસ્તુ દવાહના રૂપથી અહીં કહેવામાં આવી છે એટલે કે જે વરતુ ચક્ષુદર્શનને વિષય હોય છે તેજ વસ્તુ દષ્ટ્રયવગાહના છે આ પ્રમાણે આ દરેકે દરેક બાલાગખંડ તેના અસંખ્યય ભાગવત છે. આ અર્થ જાણું જોઈએ તાત્પર્ય એ પ્રમાણે છે કે પુગલ દ્રવ્યને વિશુદ્ધ ચક્ષુદશનવાળું જુએ છે, તે દેવગાહના રૂ૫ વસ્તુના અસંખ્યામાં ભાગ માત્ર તે દરેકેદરેક ખંડી
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२६८
अनुयोगटारसूत्र मित्यर्थः । यत् पुद्गलद्रव्यं विशुद्धचक्षुर्दर्शनयुक्तश्छद्मस्थः पश्यति तदसंख्येयभागबत्ति एकेकं वालाग्रखण्डं भवतीति भावः । इत्थं द्रव्यतो मानं निरूप्य क्षेत्रतस्तन्मान माह-वानि वालाग्रखण्डानि मूक्ष्मस्य पनकजीवस्य शरीरावगाहनातोऽसंख्येयगुणानि । अयं भावः-सूक्ष्मपनकजीवशरीरं यावत क्षेत्रमवगाहते तरक्षेत्रापेक्षयाऽसं. ख्येयगुणं क्षेत्रं प्रत्येकं वालाग्रखण्डमवगाहते इति । प्रत्येकं वालाग्र वण्डं बादर. पृथिवीकायिकपर्याप्तशरीरतुल्यं बोध्यम् । तानिमालाग्रखण्डानि नो अग्निदेहेत्' खंडीकृतवालाग्र है । ऐसा अर्थ 'ते ण बालग्गखंडा दिट्ठीमोगाहणाओ असंखेज्जहभागमेत्ता' इस पाठ का जानना चाहिये । व्यावहारिक पल्य में जो बालाग्र लिये गये हैं, वे स्वाभाविक लिये गये हैं-अर्थात् वहाँ बालानों के खंड नहीं किये गये हैं। यहां मूक्ष्न पल्य में व्यावहारिक पल्य में भरे गये एक २ बालानों के असंख्यात २ खंड किये गये हैं । इस प्रकार द्रव्य की अपेक्षा एक २ बालाग्रखंड के मान का निरूपण करके अब सूत्रकार क्षेत्र की अपेक्षा उसका मान निरूपित करने के लिये कहते हैं कि वे प्रत्येक बालाग्र खंड सूक्ष्म पनक जीव के शरीर की जितनी अवगाहना होती है, उससे असंख्यातगुणे हैं । तात्पर्य इसका यह है कि-सूक्ष्मपनक जीव का शरीर जितने क्षेत्र को रोकता है, उस क्षेत्र की अपेक्षा वे प्रत्येक बालाग्रखंड असंख्यातगुणित क्षेत्र को रोकते हैं । इस प्रकार ये प्रत्येक बालाग्रखंड पर्याप्त बादर पृथिवीकायिकके शरीर बराबर हैं ऐसा जानना चाहिये । (ते णं बालग्गखंडा णो इत माता छ मा तना अथ तेणं बालग्गखंडा दिवीओगाहणाओ असं. खेज्जइभागमेत्ता " 241 पाइने nga न प्यावहारि ५६यमा मासायी ગ્રહણ કરવામાં આવ્યા છે, તે સ્વાભાવિક ગ્રહણ કરવામાં આવ્યા છે. એટલે કે ત્યાં બાલાશ્રોના ખંડ કરવામાં આવ્યા નથી અહીં સૂક્ષ્મ પલ્યમાં વ્યાવહારિક પલ્મમાં સંપૂરિત દરેકે–દરેક બાલાોના અસંખ્યાત ખંડ કરવામાં આવ્યાં છે. આ રીતે દ્રવ્યની અપેક્ષા દરેકે–દરેક બાલાગ્રખંડના માનનું નિરૂપણ કરીને હવે સૂત્રકાર ક્ષેત્રની અપેક્ષાએ તેનું માન નિરૂપિત કરવા માટે કહે છે કે તે દરેક બાલારા ખંડ સૂમ પનક (નીલકુલ) જીવના શરીરની જેટલી અવગાહના હોય છે, તેનાથી અસંખ્યાત ગણા છે તાત્પર્ય એ છે કે “સૂક્ષ્મ પનક જીવનું શરીર જેટલા ક્ષેત્રને વ્યાપ્ત કરે છે, તે ક્ષેત્રની અપેક્ષા તે દરેકે દરેક બાલાવ્ર ખંડ અસંખ્યાત ગણું ક્ષેત્રને ઘેરે છે. આ પ્રમાણે આ દરેકે દરેક બાલાગ્ર ખંડ પર્યાપ્ત બાદર પૃથિવીકાયિક શરીરની બરાબર છે,
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अनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र २०४ पल्योपमादीनां यमिक प्रमाणनिरूपणम् २६९ इत्यारभ्य 'निष्ठितं भवति, तदेतदुद्धारवल्योपमम्' इत्यन्तः पाठः सुगमः | अत्रेदं बोध्यम् एषां वाळाप्रखण्डानामसंख्येयत्वात् प्रतिसमय मे कैक वालाग्रखण्डापहारे संख्येवा वर्षटयों व्यतियन्ति, अतः संख्ये वर्ष कोटिमानमिदमिति । एतेष पल्यानां कोटीकोटिदशगुणिता एकं सूक्ष्ममुद्धारसागरोपममुच्यते । एतेषां सूक्ष्मोद्वारपल्योपमसागरोपमानां प्रयोजनं किम् ? इति पृष्टः आह एतैः सूक्ष्मोद्धारपल्योपमसागरोपमैः द्वीपसमुद्राणामुद्धारो गृह्यते । अत्र पृच्छति कियन्तः खलु भदन्त । द्वीपसमुद्रा उद्धारेण प्रज्ञप्ताः ? उत्तरयति - गौतम यावतामतृतीयानाम् उद्धारसागरोपमानामुद्धारसमया भवन्ति, एतावन्तः खलु द्वीपसमुद्रा उद्वारेण मज्ञताः । मकृतमुपसंहरति- तदेतत् सूक्ष्ममुद्धारपल्योपममिति । इत्थमुद्धारपल्योपममुपसंहृतअग्गी डहेज्जा, णो वाऊ हरेज्जा, णो कुहेज्जा, णो पलिविद्ध सिज्जा, णो हस्ताए हन्यमागच्छेज्जा) इन पदों का अर्थ व्यावहारिक पत्थ के अर्थ में लिख दिया है । (तओणं समए समए एगमेणं बालग्गखंडं अवहाय जावहणं कालेणं से पल्ले खीणे नीरए निल्लेवे गिट्टिए भवह सेतं मे उद्धारपलिओ मे) उन बालाग्रखंडों में से प्रत्येक बालाग्रखंड को समय समय पर निकालना चाहिये । इस प्रकार वे बालाग्रखंड जितने समय में उस पल्प से संपूर्ण निकल जाते हैं, उतने काल का एक सूक्ष्म उद्धारपत्योपम होता है । 'खोणे नीरए इत्यादि सूत्रस्थ शब्दों का अर्थ पहिले लिख दिया गया है सो यहां पर भी वैसा ही इन पदों का अर्थ जानना चाहिये । ( से तं सुहमे उद्धारपलिओ मे) इस प्रकार यह सूक्ष्म उद्धारपल्योपमका स्वरूप है। यहां पर यह जानना
स्याम लावु भेडो, (तेण बालगखंडा णो अग्गी डहेज्जा, णो वाऊ हरेज्जा, जो कुहेज्जा, जो पलिविद्धंसिज्जा, णो पूइत्ताए हव्त्र मागच्छेज्जा) मा पहना અર્થ વ્યાવહારિક પક્ષ્યના અર્થમાં સ્પષ્ટ કરવામાં આવ્યે છે. (સોળ' समए समय एगमेगं बालगाखंड अवहाय जावइएण कालेणं से पल्ले खीणे नीरए निल्लेवे णिट्टिए भवइ से तं सुहुमे उद्धारपलिओ मे ) ते बासाथ भडेમાંથી દરેકેદરેક ખાલાચ ખંડને સમય સમય પર મહાર કાઢવા જોઈએ
આ પ્રમાણે તે ખાલગ્ર ખડા જેટલા વખતમાં તે પથ્યથી પૂરે-પૂરા ખહાર નીકળી જાય છે તેટલા કાલના એક સૂક્ષ્મ ઉદ્ધાર પચેપમ થાય છે "खाणे नीरर " वगेरे सूत्रस्थ शब्दोनो अर्थ पडेल स्पष्ट उरवामां आव्यो छे, तो डी पशु ते प्रमाणे अर्थ व लेो. (से तं सुहुमे उद्धार पलि ओवमे) आ रीते या सूक्ष्म उद्धार पहयेोपमनु स्व३५ छे सहीं भे
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अनुयोगद्वारसूत्र मिति सूचयितुमाह-देनदारपल्पोपममिति ।। मूले-'तेगं बालागा' इति प्रथमा. स्तत्वेन द्वितीयान्तत्वेन च तन्त्रेण निर्दिष्टम् सूत्रे पुंस्त्वमाषत्वात् ।।मू० २०४॥ चाहिये कि ये जो बालाग्रखंड हैं वे असंख्योत हैं। प्रतिसमय एक एक बालाय खंड के निकालने पर संख्यात वर्ष कोटिकोटि समाप्त हो जाती है । इसलिये इसका मान संख्यात वर्ष को टिका है । (एएसि पल्लाणं कोडाकोडीहवेज्जदसगुणिया सुहमास उद्धारसागरोवमस्स एगस्स भवे परिमाणं) इन पल्योंकी १० गुणित जो कोटिकोटि है, वह एक सक्ष्म उद्धारसागरोपम का परिमाण होती है। (एएहिं सुहम उद्धारपलिभोवमसागरोवमेहिं किपओयण) हे भदन्त ! इन सूक्ष्म उद्धार पल्योपम एवं सूक्ष्म उद्धार सागरोपम से क्या प्रयोजन सिद्ध होता है ?
उत्तर-(एएहिं सुहम उद्धार पलिओषमसागरोयमेहिं दीवसमुदाणं. उद्धारो घेप्पइ) इन मूक्ष्म उद्धारपल्योपम एवं सूक्ष्म उद्धार सागरोपम से द्वीप समुद्रों का उद्धार प्रमाण ग्रहण किया जाता है। (केवयाणं भंते! दीवप्तमुद्दा उद्धारेणं पगता) यहां शिष्य पूछता है-हे भदन्त ! उद्धारपल्योपम एवं उद्धारसागरोपम कितने द्वीपसमुद्रों को बताते हैं ?
उत्तर-(गोयमा ! जावयाणं अड़ा इजाणं उद्धार सागरोवमाणं उद्धारसमया एवल्याणं दीवसमुद्दा उद्धारेणं-से तं सुहुमे उद्धारपलिજાણવું આવશ્યક છે કે આ જે બાલાગ્ર ખંડે છે, તે અસંખ્યાત છે પ્રતિ સમય એક–એક બાલાગ્ર ખંડને બહાર કાઢવાથી સંખ્યાત વર્ષ કેટ કેટિ સમાપ્ત થઈ જાય છે. એથી આનું નામ સંખ્ય ત વર્ષ કેટિનું છે. (एएलि पल्लाण कोडाकोडी हवेज दस गुणोया तं सुहमा उद्धारसागरोवमस्स एगास भवे परिमाण) । पश्येमनी १० गुणित -छि त सू६५ द्वार
गरेपभनु परिराय य छे. (एए पहमालि भोवम पागरोवमे हि कि पओयणं) ! शा सूक्ष्म उद्धा२५च्या ५५ भने सू६॥ ६२ સાગરેપમથી કયું પ્રયજન સિદ્ધ થાય છે?
उत्तर-(एएहि सुहुम उद्धारपलि भोरमसागरोवमेहि दीवस मुद्दाणं उद्धारो घेपह) मा सूक्ष्म २५६२.५म मने सूक्ष्म उद्धा२ सा३।५मथी द्वीप समुद्रोनी मत्री माटे द्वार प्रभाय ७७ ४२३॥मां भाव छ (केवइया णं भंते ! दीवस मुद्दा उद्धारेणं पण्णत्ता) ही शिष्य ५५ रे 2-3 ભત ! ઉદ્ધર પલ્યોપમ અને ઉદ્ધાર સાગરોપમ કેટલા દ્વીપ સમૂહને બતાવે છે?
उत्तर-(गोयमा ! जावइयाणं अड्डाइज्जा ण उद्धार सागरोत्रमाण उद्धारसमया एपइयाण' दीवममुद्दा उद्धारेण-से तं सुहुमे उद्धारपलिओवमे) 3 जीतम।
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अनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र२०४ पल्योपमादीनां औपमिकंप्रमाणनिरूपणम् २७१ ओक्मे ) हे गौतम! जितने अढाई उद्धार सागरोपमों के उद्धार समयपालानों को निकालने के समय है, इतने ही एक दूसरे से दूने २ विस्तारवाले द्वीप और समुद्र हैं। ऐसा उद्धार पल्योपम से निष्पन्न उद्वार सागरोपम से जाना जाता है । इस प्रकार यह सूक्ष्म उद्धार पंल्योपम का स्वरूप है।
भावार्थ--इस सूत्र द्वारा सूत्रकार ने औपमिक प्रमाण का विवेचन किया है-इसमें उन्होंने यह कहा है कि-'यह औपमिक प्रमाण मूलतः दो प्रकार का है-एक पल्योपमरूप और दूसरा सागरोपमरूप । पल्य से सागर निष्पन्न होता है धान्यादिक भरने का जो कूवे के जैसा गोल स्थान होता है उसका नाम पल्प है। इस पल्य की उपमा से जिसका अस्तित्व प्रकट किया जाता है, उसका नाम पल्योपम है। पल्योपम, उद्धार पल्योपम, अद्धापल्योपम और क्षेत्रपल्योपम के भेद से तीन प्रकार का है। सूक्ष्म उद्धार पल्योपम एवं व्यावहारिक उद्धार पल्योपम के भेद से उद्धारपल्योपम के दो भेद हैं । एक योजन लम्बा गहरा और चौड़ा गोल क्या हो वह सात दिन तक के उगे हुए बालों के टुकड़ों से कूट २ कर पूरा लबालब भा दिया जाय । इस कू वे को व्यवहार उद्धार पल्य कहते हैं । पुनः इन बालों को एक २ જેટલા અઢી ઉદ્ધાર સાગરોપમના ઉદ્ધાર સમયે–બાલારોના નીકળવાના સમજે છે, એટલા જ એક બીજાથી બમણા બમણ વિસ્તારવાળા દ્વીપ અને સમુદ્રો છે એવું ઉદ્ધાર પાપમથી નિષ્પન્ન ઉદ્ધાર સાગરોપમથી જણાઈ આવે છે. આ પ્રમાણે આ સૂક્ષમ ઉદ્ધાર પલ્યોપમનું સ્વરૂપ છે.
ભાવાર્થ—આ સૂત્ર વડે સૂત્રકારે ઔપમિક પ્રમાણ વિશે વિવેચન કર્યું છે. તેમાં તેઓએ કહ્યું છે કે આ ઔપમિક પ્રમાણના વસ્તુતઃ બે પ્રકારે છે એક પોપમ રૂપ અને બીજું સાગરે પમ રૂપ પલ્યથી સાગર નિષ્પન્ન થાય છે. ધાન્ય વગેરે ભરવાનું જે કૂવા જેવું ગોળ સ્થાન હોય છે, તેનું નામ પત્ય-કુલ-છે. આ પલ્યની ઉપમાથી જેનું અસ્તિત્વ પ્રકટ કરવામાં भाव छ, तेनु नाम 'पश्या५म' छ. दये।५म, ' द्वा२ ५८ये।५भ, मद्धा પલ્યોપમ અને ક્ષેત્રપ પમના ભેદથી ત્રણ પ્રકારનું છે. સૂક્ષમ ઉદ્ધાર૫૫મ અને વ્યાવહારિક ઉદ્ધાર પાપમના ભેદથી ઉદ્ધાર પ૫મના બે ભેદે છે. એક યોજન લાંબે, ઊંડો અને પહેળે ગળાકાર કૂવો હોય તેને સાત દિવસના ઊગેલાવાળેથી પૂબ ઠંસીઠાંસીને પૂરેપૂરો ભરવામાં આવે, તે તે કૂવાને વ્યવહાર
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२७२
___ भनुयोगद्वारसूत्रे समय में निकाला जावे । इस क्रम से सम्पूर्ण बालों के खंडों को निकालने में जितना समय लगे उतने समय को एक व्यावहारिक उद्धार पल्योपम कहते हैं । इस व्यावहारिक उद्धार पल्योएम से एक व्यावहारिक उद्धार सागरोपम बनता है। एक व्यावहारिक उद्धार सागरोपम में १० कोटी कोटि व्यावहारिक उद्धार पल्योपम होते हैं । इन व्यावहारिक उद्धार पल्यों से एवं व्यावहारिक उद्धारसागरोपमों से कर्मों की स्थिति द्वीप समुद्र आदि कुछ भी नहीं कहे जाते हैं । केवल ये दोनों प्ररूपणामात्र हैं । इनकी प्ररूपणा से सूक्ष्म उद्वार पल्यों की और सूक्ष्म उद्धार सागरों की प्ररूपणा सुखावोध हो जाती है। एक व्यवहार उद्धार पल्प में जितने पालखंड भरे हुए हैं, उन एक २ पालखंड के केवली बुद्धि की कलाना से असंख्यात २ टुकड़े करो। फिर इन एक २ टुकड़ों को एक.२ समय में वहां से निकालो इस क्रम से संपूर्ण बाल खंडों के उन टुकड़ों को निकालने में जितना समय व्यतीत हो वह एक सूक्ष्म उद्धार पल्योपम है । व्यावहारिक उद्धार पल्पोपम की अपेक्षा यह असंख्यात गुणा होता है । दश कोटी कोटि सूक्ष्म उद्धार पल्यों का एक सूक्ष्म उद्धार सागरोपम होता है। इन सूक्ष्म उद्धार पल्पोपमों एवं सूक्ष्म ઉદ્ધાર ૫થ કહેવામાં આવે છે. ત્યાર પછી તે વાળને એક–એક સમયમાં તેમાંથી બહાર કાઢવામાં આવે આ ક્રમથી તે કૂવામાંથી બધા વાળ જેટલા સમયમાં બહાર કાઢવામાં આવે તેટલા સમયને એક વ્યાવહારિક ઉદ્ધાર પાપમાંથી એક વ્યાવહારિક ઉદ્ધારસાગરોપમાં ૧૦ કેન્ટિકેટિ વ્યાવહારિક ઉદ્ધાર સાગરોપમ બને છે. આ વ્યાવહારિક ઉદ્ધાર પલ્યોપમેથી અને વ્યાવહારિક ઉદ્ધાર સાગરોપમેથી કર્મોની સ્થિતિ દ્વીપ સમુદ્ર વગેરે કંઈ પણ કહેવામાં આવતા નથી ફક્ત તેઓ અને પ્રણપણ માત્ર છે. એમની પ્રરૂપણાથી સૂક્ષમ ઉદ્ધાર પોપમની અને સૂક્ષમ ઉદ્ધાર સાગરની પ્રરૂપણા સુખાવબોધ થઈ જાય છેએક વ્યવહાર ઉદ્ધાર પલ્પમાં જેટલા બાલખંડ ભરેલા છે, તે દરેકે દરેક બાલખંડના કેવલીની બુદ્ધિની કલ્પના વડે અસંખ્યાત અસંખ્યાત કકડા કરોપછી તે દરેકે દરેક કકડાને એક એક સમયમાં તેમાંથી બહાર કાઢે આ ક્રમથી બધા રમખંડેના તે સવ કકડાઓને બહાર કાઢવામાં જેટલો સમય પસાર થાય છે તે એક સક્ષમ ઉદ્ધાર પોપમ છે વ્યાવહારિક ઉદ્ધાર પોપમની અપેક્ષાએ આ અસં.
ખ્યાત ગણે હોય છે. દશકેટી કેટી સૂક્ષ્મ ઉદ્ધાર પાનું એક સૂક્ષ્મ ઉદ્ધાર સાગરોપમ થાય છે આ સૂમ ઉદ્ધાર પાપ અને સૂક્ષમ ઉદ્ધાર
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अनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र २०५ अद्धापल्योपमस्वरूपनिरूपणम् २७३ अथ अद्धापल्योपमं निरूपयति
मूलम्-से कि तं अद्धापलिओवमे?, अद्धापलिओवमेदुविहे पण्णत्ते, तं जहा-सुहुमे य वावहारिए य। तत्थ णे जे से हमे से ठप्पे। तत्थ णं जे से वावहारिए से जहा नामए पल्ले सिया-जोयणं आयामविक्खंभेणं, जोयणं उड्डूं उच्चत्तण तं तिगुणं सविसेसं परिक्खेवेणं। से णं पल्ले एगाहिय बेयाहिय तेयाहिय जाव भरिए वालग्गकोडीणं। ते णं वालग्गा णो अग्गी डहेज्जा, जाव णो पलिविद्धंसिज्जा, नो पूहत्ताए हव्यमागच्छेज्जा। तओणं वाससए एगमेगं वालग्गं अवहाय जावइएणं कालेणं से पल्ले खीणे नीरए निल्लेवे निट्टिए भवइ, से तं वावहारिए अद्धापलिओवमे। एएसिं पल्लाणं कोडाकोडी भविज्ज दसगुणिया। तं वावहारियस्स अद्धासागरोवमस्स एगस्स भवे परिमाण॥१॥ एएहि वावहारिएहिं अद्धापलिभोवमसागरोवमेहि उद्धार सागरों से द्वीप समुद्रों का प्रमाण जाना जाता है। अढाई उद्धार सांगरों अथवा पच्चीस कोटीकोटि उद्धार पल्यों के जितने रोम खण्ड होते हैं, उतने ही द्वीपसमुद्र है। यह बात सक्षम उद्धार सागरों से अथवा उद्धारपल्यों से जानी जाती है। सूत्र में जो 'ते णं बालग्गा' ऐसा पाठ आया है उसे प्रथमान्त और द्वितीयान्तरूप से सूत्रकार ने अपनी इच्छानुसार रक्खा है ॥ सू० २०४॥ સાગરાથી દ્વીપ સમુદ્રોનું પ્રમાણ જાણવામાં આવે છે. અઢી સુમિ ઉદ્ધાર સાગરે અથવા ૨૫ કોટી કોટિ ઉદ્ધાર પ જેટલું રોમખંડ હોય છે, તેટલા જ દ્વીપ સમુદ્ર છે. આ વાત સૂક્ષ્મ ઉદ્ધાર સાગરથી અથવા ઉદ્ધાર ५४ो 4 5 मा छे. सूत्रमा २ 'तेणं वालग्गा' AL तन पाह છે, તેને પ્રથમ અને દ્વિતીયાન્ત રૂપમાં સૂત્રકારે પોતાની ઈચ્છા મુજબ જ રાખે છે. સૂ૦૨૦
०३५
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२७१
re-
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अनुयोगद्वारसूत्रे किं पयोयणं?, एएहिं ववहारिएहि अद्धापलिओवमसागरोवमहिं नत्थि किंचिप्पओयणं, केवलं पण्णवण्णा पण्णविज्जइ। से तं बावहारिए अद्धापलिओवमे । से किं तं सुहुमे अद्धापलिओवमे ?, सुहुमे अद्धापलिओवमे-से जहाणामए पल्ले सिया-जोयणं आयामविक्खंभेणं, जोयणं उठें उच्चत्तेणं तं तिगुणं सविसेसं परिक्खेवेणं। से णं पल्ले एगाहिय बेयाहिय तेयाहिय जाव भरिए वालग्गकोडीणं। तत्थ णं एगमेगे वालग्गे असंखेज्जाई खंडाई कज्जइ । ते णं वालग्गखंडा दिट्ठी ओगाहणाओ असं. खेज जइभागमेत्ता, सुहुमस्स पणगजीवस्त सरीरोगाहणाओ असंखेज्जगुणा, ते णं वालग्गखंडा-नो अग्गी डहेज्जा, जाव णो पलिविद्धंसिज्जा, णो पूइत्ताए हव्वमागच्छेज्जा। तओणं वाससए वाससए एगमेगं वालग्गखंडं अवहाय जावइएणं कालेणं से पल्ले खीणे नीरए निल्लेवे णिट्टिए भवइ, से तं सुहुमे अद्धापलिओवमे। एएसिं पल्लाणं कोडाकोडी भवेज्ज दसगुणिया। तं सुहुमस्त अद्धासागरोवमस्त एगस्त भवे परिमाण॥१॥ एएहिं सुहुमेहिं अद्धापलिओवमसागरावमेहिं किं पओयणं ? एएहिं सुहुमहिं अद्धापलिओवमसागरोवमेहिं नेग्इयतिरिक्खजोणियमणुस्सदेवाणं आउयं माविज्जइ॥सू० २०५॥
छाया-अथ किं तत् अद्धापल्योपमम् ? अदापल्योपम-द्विविधम् पाप, तद्यथा-मूक्ष्मं च व्यावहारिकं च । तत्र खलु यत् तत् मूक्ष्म तत् स्थाप्यम् । तत्र खलु यत् तद् व्यावहारिकं तद् यथानामकं पल्यं स्यात-योजनम् आयामविष्कम्भेग,
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अनुयोगर्चान्द्रका टीका सूत्र २०५ अद्धापल्योपमस्वरूपनिरूपणम् २७५ योजनम्, ऊर्ध्वमुच्यत्वेन, तत्रिगुण सविशेष परिक्षेपेण । तत् खलु पत्यम् ऐका हिक-द्वैयहिक-त्रै नि यावद् भृतं वालाग्र कोटीनाम् । तानि खलु वालाग्राणि
अब सूत्रकार अद्धापल्योपम का स्वरूप प्रकट करते हैं'से किं तं अद्धापलिओवमे' इत्यादि। सूत्र ॥ २०५ ॥
शब्दार्थ-(से किं तं अद्धापलि भोवमे ?) हे भदंत ! पल्योपम प्रमाण का जो द्वितीय भेद अद्वापल्योषम हैं-उसका क्या स्वरूप है ?
उत्तर-प्रद्धापलि प्रोवमे) अद्धाल्योपम का सारूप इस प्रकार से है-वह अदापल्पोपम (दुविहे पण्णत्ते) दो प्रकार का कहा गया है। (तं जहा) उसके वे प्रकार ये हैं-(सुटुमे य वावहारिए य) एक सूक्ष्म अद्धापल्योपम और दूसरा व्यावहारिक अद्धापल्पोपम (तस्थ णं जे से सुहुमे से ठप्पे) इनमें जो सूक्ष्म अद्धापल्योपम है, वह बाद में प्ररूपिन किया जावेगा । (नत्थ णं जे से वावहारिए से जहानामिए पल्ले सिया) पहिले जो व्यावहारिक अद्धापल्योपम है, हम उसका वर्णन करते हैं। सुनो,-जैसे कोई एक पल्प हो (जोयणं आयामविक्खभे णं, जोयणं उई उच्चत्तेणं तिगुणं सविसेसं परिक्खेवेणं) यह लंबाई में एक योजन का हो और चौडाई में भी एक योजन को हो तथा इसकी गहराई जो हो वह भी एक योजन की हो । तथा इसकी जोवृत्त-परिधि
હવે સૂત્રકાર અદ્ધા પાપમનું કથન કરે છે. " से कि तं अद्धापलिओवमे" त्याह
शहा---(से कि तं श्रद्धापलिओवमे ? ) 3 RE ! पक्ष्या५म प्रभाણને જે દ્વિતીય ભેદ અદ્ધાપલ્યોપમ છે તેનું સ્વરૂપ કેવું છે?
उत्तर-(अद्धापलिओवमे) मद्धापत्ये ५भनु २१३५ । प्रमाणे छ ते, मद्धापक्ष्य।५म (दुविहे पण्णत्ते) में प्रार। वामां भाव्यो छे. (तंजहा) त । मा प्रमाणे छ:-(सुहमे य वावहारिए य) मे सूक्ष्म मद्धापक्ष्या५म भने द्वितीय व्यापारि४ सद्धा५६।५म (तत्थ णं जे से सुहुमे से ठप्पे) આમાં જે સૂફ અદ્ધાપલ્યોપમ છે, તેનું નિરૂપણ પછી કરવામાં આવશે. (तत्थ ण जे से वावहारिए से जहा नामिए पल्ले सिया) प्रथम २ व्यावहारिक અદ્ધાપલ્યોપમ છે, હવે તેનું વર્ણન કરીએ છીએ સાંભળે, જેમ કે એક ५६य साय. (जोयणं आयामविक्खंभेण, जोयण' उर्ल्डः उच्चत्तेण' तं तिगुण सविसेसं परिक्खेवेण') 24 भां मे यान प्रभाए भने पक्षमा પણ એક જન પ્રમાણે જેટલો હોય, તેમજ તેની ઊંડાઈ પણ એક જિન જેટલી હોય તથા તેની વૃત્ત-પરિધિ પણ કંઈક વધારે ત્રણ એજન
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अनुयोगद्वारसूत्र नो ऽग्निदेहेत् , नो वायुहरेत् , नो कुथ्येयुः, नो परिविध्वं सेरन , नो पूतितया हव्यमागच्छेयुः । ततः खलु वर्षशते वर्षशते एकमेकं वालाग्रम् अपहाय यावता खलु कालेन तत् पल्यं क्षीणं नीरजस्कं निर्लेपं निष्ठितं भवति, एतद् व्यावहारिकम् हो वह भी कुछ अधिक तीन योजनकी हो-अर्थात् एक योजन के छह टुकडे करो उनमें कुछ कम छठे टुकडे अधिक तीन योजन की इस पल्य की परिधि जाननी चाहिये । (से णं पल्ले एगाहिय वेयाहियतेयाहिय जाव भरिए बालग्गकोडीणं) अब इस पल्य को एक दिन दो दिन, तीन दिन यावत् सात दिन तक के ऊगे हुए बालों की अग्रकोटि से भरो (ते णं वालग्गा गो अग्गी डहेजा जाव णो पलिविद्धंसिज्जा, नो पूइत्ताए हव्यमागच्छेज्जा) उन बालाग्रकोटियों को इस प्रकारसे दवा दवाकर भरना चाहिये कि जिससे उन्हें न अग्निजला सके और न वायु आदि ही उन्हें उड़ा सके। जैसा पाठ व्यावहारिक उद्धार पल्योपम के अर्थ करते समय लगाया है वैसा ही पाठ यहां पर लेना चाहिये । (तभोणं वाससए वाससए एगमेगं वालग्गं अवहाय जावहएणं कालेणं से पल्ले खीणे नीरए निल्लेवे निहिए भवइ, से तं वावहारिए अद्धापलिओवमे) अब इसके बाद सौ सौ वर्ष व्यतीत जब हो जावें, तब उन बालानों में से एक २ बाल જેટલી હોય એટલે કે એક એજનના ૬ કકડા કરો તે તે કકડાઓમાંથી છા કકડા કરતાં અધિક ત્રણ જન જેટલી તે પત્યની વૃત્ત–પરિધિ જાણવી. (से णं पल्ले एगाहिय बेयाहिय तेयाहिय जाव भरिए बालग्गकोड़ीण) हवे આ પત્યને એક દિવસ, બે દિવસ, ત્રણ દિવસ યાવત્ સાત पिसना मोटा थयेसा माबोनी मोरिथी पूरित ४२१. (ते णं वालग्गा णो अग्गी डहेज्जा, जाव णो पलिविद्धंसिज्जा, नो पूइत्ताए हव्वमागच्छेज्जा) ते બાલારા કેટિઓને એ રીતે ઠાંસી ઠાંસીને તે પત્યમાં પૂરિત કરવામાં આવે કે જેથી તેમને અગ્નિ બાળી શકે નહિ અને વાયુ વગેરે પણ તેમને ઉડાડી શકે નહિ અત્રે જે પાઠ વ્યાવહારિક ઉદ્ધાર પાપમને અર્થ સ્પષ્ટ કરતાં लामा माये। छ, ते ५.४ मी ५५ us न . (तओ गं वाससए वाससए एगमेगं वालग्गं अवहाय जावइएणं कालेणं से पल्ले खीणे नीरए निल्लेवे निदिए भवइ, सेत वावहारिए अद्धा पलिओवमे) 6 ल्यारे સે સો વર્ષ પસાર થઈ જાય, ત્યારે તે બાલાોમાંથી એક એક બાલાગને તેમાંથી બહાર કાઢવું જોઈએ આ કમ મુજબ જયારે સર્વબાલાગ્યો તેમાંથી
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अनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र २०५ अद्धापल्योपमस्वरूपनिरूपणम् २० अदापल्योपमम् । एतेषां पल्यानां कोटीकोटिर्भवेद् दशगुणिता । तद् व्यावहारिकस्य अद्धासागरोपमस्य एकस्य भवनि परिमाणम् ॥ १॥ एतैः व्यावहारिकैः अद्धालगोपमसागरोपमैः कि प्रयोजनम् ? एक व्यावहारिकैः अद्धापल्योपमसागवहां से निकालना चाहिये। इस क्रम से करते २ जब वे समस्त बाल उस पल्य में से निकल चुकें और इसके निकालने में जितना काल लगे, वह एक व्यावहारिक अापल्योपम है। व्यावहारिक उद्धार पल्यो। पम में और इस व्यावहारिक अद्धापल्योपम में यह अन्तर है कि वहां एक २ बालन एक एक समय में निकाला जाता है, तब यहां पर एक एक बालाग्र सौ सौ वर्ष में निकाला जाता है। खीणे नीरए' इत्यादि पदों का अर्थ व्यावहारिक उद्धार पल्य के प्रकरण में स्पष्ट किया जा चुका है-अतः इन पदों का वैसा ही अर्थ यहां पर भी लगा लेना चाहिये । (एएहि पल्लाणं कीडाकोडी भविज्ज दस गुणिया । तं ववहारियस्स अद्धासागरोवमस्त एगस्त भवे परिमाण) इन व्यावहारिक अद्धारल्यों की १० कोटीकोटि का-अर्थात् १० कोटीकोटि व्यावहारिक अद्धापल्यों का एक व्यावहारिक अद्धासागरोपम होता है। (एएहिं वावहारिएहिं अद्धापलिओ वमसागरोवमेहि किं पओयणं?) प्रश्न-इन व्यावहारिक अद्धापल्योपमों एवं व्यावहारिक अद्धा सागरोपमों से क्या प्रयोजन सिद्ध होता है ? બહાર નીકળી ચૂક્યાં હોય, ત્યારે તેમને બહાર કાઢવામાં જેટલે કાળ પસાર થાય તે એક વ્યાવહારિક અદ્ધા પાપમ છે. વ્યાવહારિક ઉદ્ધાર પલ્યોપમમાં અને આ વ્યાવહારિક અદ્ધાપલ્યોપમમાં એ તફાવત છે કે ત્યાં એક એક બાલાગ્ર એક એક સમયમાં બહાર કઢવામાં આવે છે, ત્યારે અહીં એક से पास से सौ १ मा ५६यमाथी मा२ । वामां मावे छ. 'खीणे नीरए' पोरे पनि। अथ व्यापार ५८यन ४२मा २५ष्ट ४२. વામાં આવ્યો છે. એટલા માટે આ પદેને અર્થ તે પ્રમાણે જ અહીં સમજી सेवा मे. (एएसि पल्लाण' कोडाकोडी भविज्ज दस गुणिया । त वावहारियस्स अद्धासागरोवमस्म गरम भवे परिमाण) मा व्यावहा२ि४ सद्धापक्ष्या५. મેની ૧૦ કેટીકેટિને એટલે કે ૧૦ કેટીકેટિ વ્યાવહારિક અદ્ધાપોનો से व्य.१२४ भद्धा साश५म थाय छे. (एएहि वावहारिएहि अद्धा. पलिओवमसागरोवमेहि कि पओयण ?)
પ્રશ્ન-આ વ્યાવહારિક અદ્ધા પાપમો અને વ્યાવહારિક અદ્ધા સાગરોપમેથી કયા પ્રોજનની સિદ્ધિ થાય છે?
उत्तर-(एएहि वावहारिएहि अद्धापलि ओवमसागरोवमेहि नस्थि कि चिप्पओयण', केवलं पण्णवण्णा पगविज्जइ) 0 व्या१७.२७ भद्धापत्यो
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- २७८
अनुयोगद्वार
रोपमैः नास्ति किञ्चित्प्रयोजनम्, के वलं प्रज्ञापना प्रज्ञाप्यते । तदेतद् व्यावहा रिकम् अद्धापल्योपमम् । अथ किं तत् सूक्ष्मम् अद्धापल्योपमम् ? सूक्ष्मम् अद्धापल्योपमम्-उद् यथानामकं पल्यं स्यात् योजनम् मायामविष्कम्भेग, योजनम् ऊर्ध्वमुच्चस्वेन तत्रिगुणं सविशेषं परिक्षेपेण । तत् खलु पल्यं एकाह्निक द्वैयह्निक त्रैय
उत्तर- (एएहि वा त्रहारिएहि अद्ध (पलि ओमसागरोव मेहिं नस्थि किंचिपोषणं केवलं पण्गव गविजन) इन व्यावहारिक अद्धापोंपों से और व्यावहारिक अद्धासागरोंपमों से कोई प्रोजन सिद्ध नहीं होता है केवल ये प्ररूपणा मात्र के लिये है-अर्थात् इनकी प्ररूपणा से सूक्ष्म अद्धापल्योपमों की और सूक्ष्म अद्धासागरोपमों की - प्ररूपण सुखावबोधरूप हो जाती है। (से तं वावहारिए अद्वापलिओ मे) इस प्रकार यह व्यावहारिक अद्धापल्योपम का स्वरूप है । (से किं तं सुमे अद्धापलिओ मे ?) हे भान्त ! सूक्ष्म श्रद्धापल्योपम का क्या स्वरूप है ?
उत्तर - ( सुह मे अद्धा पलि ओवमे) सूक्ष्म अद्धपिल्योपम का स्वरूप इस प्रकार से है - ( से जहाणामए पल्ले सिया) - जैसे कोई एक पल्प हो (जोगणं आयाम विक्खंभेणं जगणं उ उच्चतेगं वह एक योजन का लंबा हो और एक योजन की चौडाई वाला हो । गहराई में भी वह एक योजन का हो। (तं तिगुणं सविसेसं परिकखेत्रेण) और इसकी वृत्तपरिधि कुछ कम ६ ट्ठा भाग अधिक ३ तीन योजन की हो। (सेणं
પમેાથી અને વ્યાવહારિક અદ્ધસાગરે પમાથી કાઇ પણ જાતના પ્રત્યેાજનની સિદ્ધિ થતી નથી તેએ ફકત પ્રરૂપણા માટે જ છે. એટલે કે એમની પ્રરૂ પણાથી સૂફ અદ્ધા૨ેપમેાની અને સૂક્ષ્મ અહ્વાસાગરોપમેાની પ્રરૂપણા सुभाष ३ थपडे छे. ( से त' वावहारिए अद्धापलिओवमे) या प्रमा व्यावहारिङ सद्धापयेोमनु २१३५ छे. (से कि त सुहुने अद्धापलिओ मे १) હે ભકત ! સૂર અદ્ધ પત્થેાપમનુ સ્વરૂપ કેવુ' છે ?
उत्तर- (सुहुमे अद्धापलिओश्मे सूक्ष्म श्रद्धापयेोपयतुं स्व३५ मा प्रभाो छे - ( से जहा णामए पल्ले खिया) प्रेम है तभे विचार अर्थ मे पढ्य ये छे. (जोवणं आयाम वेक्खंभेणं जोयणं उड्ड उच्चतेणं) ते ४ योजन જેટલે લાંકે! હાય અને એક ચેાજન જેટલે પહેાળા હાય ઊડાપણામાં पशु ते खेड योजन होय (तं त्रिगुणं सविसेसं परिक्खेवेणं ) अने તેની વૃત્ત-પરિધિ થે!ડી અલ્પ છઠ્ઠા ભાગ કરતાં અધિક ત્રણ ચૈાજન જેટલી
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भनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र २०५ अद्धापल्योपमस्वरूपनिरूपणम् २७९ हिक यावद् भृतं वारानकोटीनाम् । तत्र खलु एकमेकं वालाग्रम् असंख्येयानि खण्डानि क्रियते, तानि खलु बालाग्रखण्डानि दृष्टयनगाहनात: असंख्येयभागमात्राणि मुक्ष्मस्य पनकजीवस्य शरीरावगाहनातः असेख्येयगुणानि । तानि खलु वालाग्रखण्डानि नोऽग्निदेहेत्, नो परिध्वंसेरन , नो पूतितया हव्यमागच्छेयुः । ततः खलु वर्षशते वर्षशते एकमेकं वालाग्रखण्डम् अपहाय यावता खलु कालेन तत् पल्ले एमाहिय बेयाहिय तेयोहिया जाव भरिए बालग्गकोडीण) यह पल्प पहिले कहे प्रकार से अधिक से अधिक सात दिन तक के ऊगे हुए बालानों से भरना चाहिये । (तत्थ णं एगमेगे वालग्गे असंखेजाई खंडाई कज्जा ) अब ये जो बालाग्र भरे हुए है, इनमें से एक एक बालान के असंख्यात २ खंड करना चाहिये। (तेणं वालग्गरवंडा दिट्ठीगाहणाभो असंखेज्जहभागमेत्ता) ये चालान खंड दृष्टि के विषयभूत बने हुए पदार्थ को अपेक्षा असंख्यातवें भाग मात्र है और (सुहमस्स पणजीवस्म सरीरोगाहणाओ असंखेज्जगुणा) सूक्ष्मपनक जीव के शरीरावगाहना की अपेक्षा असंख्यात गुणे हैं। (ते णं वालग्गखंडा नो अग्गी डहेज्जा जाच णो पलिविद्ध सिज्जा को पूहत्ताए हन्धमागच्छेज्जा) ये बालाग्रखंड उस पल्पमें इस रूप से ठसाके भरना चाहिये कि-जिस से अग्निदाह आदि का भय उनमें न रहे । (तोणं वाससए वाससए एगमेगं वालग्गखंडं अवहाय जावइएणंडाय. (से गं पल्ले एगाहिय वेवाहिय तेयाहिय जव भरिए बालग्गकोडीण) આ પલ્ય પહેલાની જેમ જ સાત દિવસ સુધીના ઉગેલા मार श्रोथी सर से मे. (तत्थणं एगमेगे वालग्गे असंखेज्जाई खंडाई
) હવે એ જે બાલાગ્રો ભરવામાં આવેલા છે, એમાંથી એક એક मालाना मसज्यात असण्यात भ31 ४२१। नसे. (तेणं वालग्गखंडा दिट्टी ओगाहणाओ असंखेज्जइ भागमेत्ता) २५॥ मासा 43 ष्टि विषयी भूत थये। पहायनी अपेक्षा असण्यातमi मा मात्र छ भने (सुहमस्स पगगजीवस्त सरीरोगाहणाभो असंखेज्जगुणा) सूक्ष्भपन नी शरीमानी अपेक्षाथी मसण्यात! छे. (वेणं वालगखंडा नो अग्गी इहेजा जाव णो पलिविद्धंसिज्जा णो पूइत्ताए हन्धमागच्छेज्जा) मा मात्राम' तेवामा सवारीत Bil:सीने मरवा मेथी पनि योरेना म५२ नहि. (तओणं वाससए वाससए एगमेगं वालग्गखंडं अवहाय जावइएणं कालेणं से पल्ले खीणे नीरए निल्लेवे णिदिए भवइ, से तं सुह मे अद्धा पलिओवमे) त्या२ ५.६ ते.
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२८०
अनुयोगद्वारसूत्रे पल्यं क्षीणं नोरजस्कं निर्लेप निष्ठिां भवति, तदेतत् सूक्ष्मम् अद्धापल्योपमम् । एतेषां पल्यानां कोटीको टिर्भवेद् दशगुणिता । तत् सक्षमस्य अद्धासागरोपमस्य एकस्य भवेन परिमाणम् ॥ १॥ एतैः सूक्ष्पैः अद्धापल्योपमसागरोपमैः किं प्रयो. प्रयोजनम् ?, एतै सूक्ष्मैः अदापल्योपमसागरोपमैः नैरयिकतिर्यग्योनिकमनुष्यदेवानाम् आयुष्यं मीयते ।। मू० २०५ ॥ कालेणं से पल्ले खीणे नोरए निल्लेवे णिहिए भवइ, से तं सुहमे अद्धा पलिभोवमे) इसके बाद उन बालाग्र खंडों में से एक एक घालाय सौ सौ वर्ष में निकालना चाहिये। इस क्रम से करते २ जब वह पल्य उन बोलाप्रखंडों से सर्वथा रहित जितने काल में होता है, उतना वह काल एक सूक्ष्म भद्धापल्योपम है । (एएसि पल्लाणं कोडाकोडी भवेज्ज दस गुणिया तं सुहुनस्स अद्धासागरोजमस्त एगस्स भवे परिमाणं) दश कोटीकोटी सूक्ष्म अद्धापल्यों का एक सूक्ष्म अद्धासागरोपम होता है। (एएहिं सुमेहि अद्धापलि भोवमसागरोषमेहि कि पो. यणं) प्रश्न-हे भदन्त ! इन सूक्ष्म अद्धापल्योपमों से एवं सूक्ष्म अद्धा. सागरोपमों से किस प्रोजन की सिद्धि होती है ? __उत्तर-(एएहिं सुमेहिं अद्धापलिओवमसागरोवमेहिं नेरक्ष्यति रिक्खनोणियमणुस्स देवाणं आउयं माविज्जइ) इन सूक्ष्म अापल्यो. पमों और अद्धासागरोपमों से नारक जोवों की, तियश्चगति के प्राणियों की, मनुष्य और देवों की आयु गिनी जाती है। બલા ખંડમાંથી સે સે વર્ષે એક એક બાવાગ્રખંડ બહાર કાઢજોઈએ આ કમથી બદલાગ્ર ખડે કાઢતાં કાઢતાં તે પલ્પ જ્યારે તે બા લાગ્ર ખંડોથી જેટલા સમયમાં સંપૂર્ણ ખાલી થાય તેટલા સમયને એક સૂક્રમ અદ્ધા ५६।५ । छे. (एएसिं पल्डाणं कोडा-कोडी भषेज्ज वसगुणिया त सुहुमस्स अद्धा सागरोवमस्त भवे परिमाणं) शटी-टी सूक्ष्म मद्धाच्याना से स६५ मद्धा सागरा५म थाय छे. (एएहि सुमेहि अद्धापलिओवमसागरोवमे हि किं पभोयणं)
પ્રશ્ન-હે ભદંત ! આ અદ્ધ ૫ મેથી અને સૂકમ અદ્ધા સાગરોપોથી કયા પ્રયજનની સિદ્ધિ થ ય છે ?
उत्तर-(एएहि सुमेहि अद्भापति प्रोवमसागरोवमेह नेरइयतिरिक्त जोणियमणुस्सदेवाणं आउ माविजइ) मा सू६५ भद्धा पत्यायमा अने मद्धा સાગરોપમેથી નારક જીની તિર્યંચગતિના પ્રણીઓ ની, મનુષ્ય અને દેના આયુષ્યની ગણના થાય છે.
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अनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र २०५ अद्धापत्योपमस्वरूपनिरूपणम् २८१ टीका-' से कि तं' इत्यादि
अद्धा-कालः, स चेह प्रस्तावाद् वक्ष्यमाणवालाग्राणां तखण्डानां वा प्रत्येक वर्षशतलक्षणउद्धारकालो गृह्यते, अथवा-यो नारकाधायुः कालः प्रकृतपल्योपमः मेयत्वेन विवक्ष्यते स एवात्रोपादीयते, ततस्तत्मधानं पल्पोपमम् अद्धापल्योपमम् । अस्य सूत्रस्य व्याख्या उद्धारपल्योपमवद् भावनीया । विशेषस्त्वत्रार्य बोध्यः___ भावार्थ-इस सूत्र द्वारा सूत्रकारने अद्धापल्योपमका स्वरूप प्रगट किया है। साथ में इस अद्धापल्योपम से जिस २ नाम के सागरोपम निष्पन्न होते हैं, उनको भी कहा गया है। अद्धापल्योपम के व्यावहारिक श्रद्धापल्योपम और सूक्ष्म अापल्योपभ ऐसे दो भेद कहे हैं । इनमें जो व्यावहारिक अद्धापल्योपम है, वह उन कूवे में से एक एक घालाग्र को सौ-सौ वर्ष में निकालने पर बनता है । अर्थात् उस पल्प में जितने घालाग्र भरे हुए हैं, उन यालायों से एक एक बालाग्र सौ-सौ वर्ष में निकालने पर जितना समय उन समस्त घालायों के निकालने में समाप्त होता है, यही व्यावहारिक अद्धापल्पोपम है। दश कोटीकोटि व्यावहारिक अद्धापल्यापम का एक व्यावहारिक अद्धासागरोपम पनता है। पल्य में भरे हुए पालानों के असंख्यात खंड बुद्धि से कल्पित करना चाहिये और
एक २ घालाग्र खड़ को सौ-सौ वर्ष में निकालना चाहियेइस प्रकार करते २ जब समस्त बालाग्र खंड़ उस पल्य से पूर्ण निकल चुकते हैं अर्थात् इन बालाग्र खंडों को इस क्रम से निकालने
ભાવાર્થઆ સૂત્ર વડે સૂત્રકારે અદ્ધાપત્યોપમનું સ્વરૂપ પ્રકટ કર્યું છે. સાથે સાથે આ અદ્ધા પાપમાંથી જે જે નામના સાગરોપમ નિષ્પન્ન થાય છે. તેમનું પણ સ્પષ્ટીકરણ કર્યું છે અદ્ધાપલપમના વ્યાવહારિક અદ્ધાપોપમ અને સૂમ અદ્ધાપલોપમ આ બે ભેદ કહેવામાં આવ્યા છે. આમાંથી જે વ્યવહારિક અદ્ધાપલ્યોપમ છે, તે પલ્યમાં ભરેલા બાલાશ્રોમાંથી એક એક બાલ ગ્રને સે સે વર્ષમાં બહાર કાઢવાથી તે જેટલા સમયમાં સંપૂર્ણ ખાલી થાય તેને વ્યાવહારિક પદ્ધ પલ્યોપમ કહેવામાં આવે છે. દશ કટિકેટ વ્યાવહારિક અદ્ધાપત્યેનો એક ૧૯થમાં ભરેલા બલા ગ્રોના અસંખ્યાત ખંડે બુદ્ધિથી કપિત કરવા જોઈએ અને દરેકે દરેક બાલારા ખંડને સો સો વર્ષના અંતરે બહાર કાઢવા જોઈએ આ રીતે જ્યારે સમસ્ત બાલા ખડે તે પથમાંથી બહાર નીકળી જાય એટલે કે આ બાલારા ખંડોને આ
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अनुयोगद्वारसूत्रे अत्र हि उद्धारकालः शतवार्षिको गृहीतः, अतो व्यावहारिकेऽद्धाल्योपमे संख्येया वर्षकोटयो विज्ञेयाः, सूक्ष्मेऽद्धापल्योपमे तु असंख्येया वर्षकोटय इति ।मू० २०५॥ ___एतैः सूक्ष्मेरद्धापल्योपमसागरोपमै रयिकादीनामायुष्यं मीयते इत्युक्तम् । तत्र नैरयिकादीनामायुष्यपरिज्ञानाय प्राह___मूलम्-नेरइयाणं भंते ! केवइयंकालं ठिई पण्णता?,गोयमा! जहन्नेणं दसवाससहस्साइं, उक्कोसेणं तेत्तीसं सागरोवमाइं। रयणप्पभापुढवीणेरइयाणं भंते ! केवइयं कालं ठिई पण्णता ?, गोयमा! जहन्नेणं दस वासप्तहस्साई उकोसेणं एग सागरोवमं। अपजत्तगरयणप्पहा पुढवीणेरइयाणं भंते। केवइयं कालं ठिई पपणता? गोयमा! जहन्नेण वि अंतोमुहुत्तं उक्कोसेण वि अंतोमुहत्तं । पजत्तगरयणप्पहापुढवीनेरइयाणं भंते ! केव. इयं कालं ठिई पण्णत्ता ?, गोयमा! जहन्नेणं दस. वाससहस्साइं अंतोमुहतू गाई उक्कोसेणं एगं सागरोवमं अंतो. मुहत्तोणं । सक्करप्पहापुढवीनेरइयाणं भंते ! केवइयं कालं ठिई में जितना समय लगता है वह सूक्ष्म अद्धापल्योपम है । दश कोटी. कोटि सूक्ष्म अद्धापल्यों का एक सूक्ष्म अद्धासागरोपम होता है । सूक्ष्म अापल्योपम और सूक्ष्म अद्धासागरोपम से चतुर्गति के जीवों की भवस्थिति, कायस्थिति, कर्मस्थिति आदिका ज्ञान होता है। व्यावहारिक अद्धापल्योपम में संख्यात करोड वर्ष होते हैं और मूक्ष्म अद्धापल्योपम में असंख्यात करोड वर्ष होते हैं ।। सूत्र २०५॥
કમથી બહાર કાઢવામાં જેટલે સમય પસાર થાય તે સૂક્ષ્મ અદ્ધાપાપમ છે. દશ કેટ-કેટી સૂક્ષ્મ અદ્ધ પોને એક સૂક્ષમ અદ્ધા સાગરોપમ હેય છે. સૂફમ અદ્ધાપલપેપમ અને સૂક્ષમ અદ્ધા સાગરોપમથી ચતુર્ગતિના જીવોની ભવસ્થિતિ, કાયથિતિ, કર્મસ્થિતિ વગેરેનું જ્ઞાન થાય છે. વ્યાવહારિક અદ્ધાપલ્યોપમમાં સંખ્યાત કરોડ વર્ષો હેય છે અને સૂપ અદ્ધા પાપમમાં असभ्यात ४२। पर्षा डाय छे. ॥९० २०५।।
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अनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र २०६ नैरयिकादोनां आयुपरिमाणनिरूपण २८३ पण्णत्ता ? गोयमा ! जहन्नेणं एवं सागरोवमं, उक्कोसेणं तिपिण सागरोवमाई | एवं सेसपुढवीसुवि पुच्छा भाणियव्या वालुयप्पहापुढवि नेरइयाणं जहन्नेणं तिष्णि सागरोवमाई, उक्कोसेणं सत सागरोवमाई | पंकप्पापुढवी नेरइयाणं जहन्नेणं सत्त सागरोवमाई, उक्कोसेणं दस सागरोवमाई । धूमप्पहा पुढवी नेरइयाणं जहन्नेणं दस सागरोवमाई उक्कोसेणं सत्तरससागरोमाई । तमप्पापुढवीनेरइयाणं जहन्नेणं सत्तरस्स सागरोवमाई, उक्कोसेणं बावीसं सागरोत्रमाई । तमतमापुढवीनेरइयाणं भंते! केवइयं कालं ठिई पण्णत्ता ?, गोयमा ! जहन्नेणं बावीसं सागरोमाइं उक्कोसेणं तेत्तीस सागरोवमाई || सू० २०६॥
छाया - नैरयिकाणां भदन्त ! कियन्तं कालं स्थिति प्रज्ञप्ता, गौतम ! जघन्येन दशवर्षसहस्राणि उत्कर्षेण त्रयस्त्रिंशत् सागरोपमाणि । रत्नप्रभा पृथिवी
अब सूत्रकार यहां से चारों गतियों के जीवों की आयु का परिमाण कहते हैं उसमें वे प्रथम नारक जीवों की आयु का परिमाण कितना है यह प्रकट करते हैं-नेरइयाणं भंते! इत्यादि ।
शब्दार्थ -- (नेरइयाणं भंते ! केवइयं कालं ठिई पण्णत्ता ?) हे भदन्त ! नारक जीवों की स्थिति कितने काल तक की कही गई है ?
उत्तर-- (गोयमा ! जहन्नेणं दसवाससहस्साइ, उक्कोसेणं तेत्तीसं सागरोमाई) हे गौतम! नारक जीवों की स्थिति जघन्य से
હવે સૂત્રકાર ચારેચાર ગતિવાળા જીવાના આયુષ્યનું પરિમાણ પ્રમાણુ કહે છે. તેમાંથી સર્વપ્રથમ અહી નારક જીવાના આયુષ્યનું પરિમાણુ डेंटलु छे ते अट वामां आवे छे - “नेरइयाणं भेते ! त्याहि
शब्दार्थ - (नेरइयाणं भंते! केवइयं कालं ठिई पण्णत्ता ?) डे लहांत ! નારક જીવાની સ્થિતિ કેટલા કાલની કહેવામાં આવી છે ?
उत्तर- (गोयमा ! जहन्नेणं दसवास सहरसाई उक्कोसेणं तेत्तीसं सागरोवमाई) हे गौतम! नार: भवानी स्थिति धन्यथी इस उत्तर वर्षांनी अने
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२८४
अनुयोगद्वारसूत्रे नैरयिकाणां भवन्त ! कियन्तं कालं स्थितिः प्रज्ञता ? गौतम ! जघन्येन दशवर्षसहस्राणि, उत्कण एकं सागरोपमम् । अपर्याप्तकरत्नमभापृथिवी नैरयिकाणां भदन्त ! किया, कालं स्थितिः प्रज्ञप्ता ? गौतम ! जघन्येनापि अन्तर्मुहूर्तम् । उत्कर्षेणापि अन्तर्मुहूर्तम् । पर्याप्तकरत्नपमापृथिवी नैरयिकाणां भदन्त ! कियन्तं कालं स्थितिः प्रज्ञप्ता? गौतम! जघन्येन दशवर्ष सहस्राणि अन्तर्मुहूतौनानि उत्कर्षण दस हजार वर्ष की और उत्कृष्ट से तेतीस सागरोपम की कही गई है। यह सामान्य कथन है । अब सूत्रकार प्रत्येक पृथिवी में नारक जीवों की स्थिति कितनी है यह कहते हैं-(रयणप्पभा पुढवीणेरयाणं भंते ! केवयं कालं ठिई पण्णता) हे भदन्त ! रत्नप्रभापृथिवी के नारकों की स्थिति भुज्यमान आयु-कितनी कही गई है ? ___उत्तर-(गोयमा ! जहन्नेणं दसवाससहस्साई उक्कोसेणं एगं सागरोवम) हे गौतम ! जघन्य से दस हजार वर्ष की और उत्कृष्ट से एक सागरोपम की। (अपज्जत्तगरयणप्पहा पुढवीणेरइयाण भंते केवइयं कालं ठिई पण्णत्ता) रत्नप्रभा पृथिवी के अपर्याप्त नारकों की हे भदन्त ! कितने काल की स्थिती कही गई है ?
उत्तर-(जहण्णेण वि अंतोमुहुत्तं उक्कोसेण वि अंतो मुहुत्त) जघन्य से भी अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट से भी अन्तर्मुहूर्त है । (पज्जा त्तगरयणप्पहा पुढवी नेरयाणं भंते ! केवयं कालं ठिई पणत्ता?) ઉત્કૃષ્ટથી ૩૩ સાગરોપમ જેટલી કહેવામાં આવી છે. આ સામાન્ય કથન છે. હવે સૂત્રકાર દરેકેદરેક પૃથ્વીમાં નારક જીવોની સ્થિતિ કેટલી છે. આ વિષે
छे. (रयणप्पभा पुढवी रइमाणं भंते ! केवइयं कालं ठिई पण्णत्ता) ભદત ! રત્નપ્રભા પૃથિવીના નારકેની સ્થિતિ-ભૂજ્યમાન આયુ-વિષે શું કહેવામાં આવ્યું છે? ___उत्तर-(गोयमा ! जहन्नेणं दसवाससहस्साई उक्कोसेणं एगं सागरोवमं) હે ગૌતમ ! જઘન્યથી દશ હજાર વર્ષની અને ઉત્કૃષ્ટથી એક સાગરોપમ જેટલી माय तमनी ४डी छे. (अपज्जत्तगरयणप्पहा पुढवी रइयाणं भंते ! केवइयं काल ठिई पण्णता) २नमा पृथिवीना अपर्याप्त नारनी. महत ! ८॥ કાલની સ્થિતિ કહેવામાં આવી છે?
___उत्तर-(जहणेण वि अंतो मुहत्तं उन्कोसेण वि अंतो मुहुत्त) धन्यथा - मन्तभुत भने टथी ५५ मन्तभुत ही छ (पज्जत्तगरयणप्पहा पुढत्री नेरइयाणं भंते ! केवइयं कालं लिई पण्णता ?) D RE ! २(नामा
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अनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र २०६ नैरयिकादीनां आयुपरिमाणनिरूपणम् २८५ एकं सागरोपमम् अन्तर्मुहानम् । शर्कराप्रभापृथिवी नैरपिकाणां भदन्त ! कियन्तं कालं स्थितिः प्रज्ञमा ? गौतम ! जघन्येन एकं सागरोपपा, उत्कर्षेण त्रीणि सांगोपनाणि । एवं शेषपृथिवी वपि पृच्छा भणितव्या । वालुकमभापृथिवी नैरयिकाणां जघन्येन त्रीणि सागरोपमाणि, उत्कर्षेण सप्त सागरोपमाणि । पङ्कप्रभाहे भदन्त ! रत्नप्रभा पृथिवी में पर्यासावस्थापन्न नारकों की स्थिति कितनी कही गई है?
उत्तर-(गोयमा! जहन्नेणं दसवाससहस्साई अतोमुत्तूणाई उक्कोसेणं एगं सागरोवमं अंतोमुहत्तोणं ) हे गौतम जघन्यसे अन्तर्मुहर्त कम दशहजार वर्ष को और उत्कृष्ट से अंतर्मुहर्त्त कम एक सागरोपम की कही गई है। (सकार पहापुढवीनेरइयाणं भंते ! केवायं कालं ठिई पण्णत्ता) हे भदन्न । शर्कराप्रभा नामकी जो दूसरी पृषिधी है, उसमें रहने वाले नारकों की स्थिति कितनी कही गई है? ___उत्तर-(गोयमा ! जहन्नेणं एगं सागरोवमं उक्कोसेणं तिणि सागरोवमाई) हे गौतम ! वितीयपृथिवी के नारकों की स्थिति जघन्य तो एक सागरोपम की और उत्कृष्ट तीन सागरोएम की कही गई है । (एवं सेसपुढवीसु वि पुच्छा माणि गव्वा) इसी प्रकार का प्रश्न अवशिष्ट पृथिवियों के विषय में भी जानना चाहिये-(वालुयपहापुढविनेरइयाणं जहण्णेणं तिणि सागरोवमाइं उक्कोलेणं सत्तसागरोत्रमाइं) बालुका પ્રથિવીમાં પર્યાપ્તક અવસ્થાવાળા નારકની સ્થિતિ કેટલી કહેવામાં આવી છે ?
त्त२-(गोयमा ! जहन्नेणं दसवाससहस्साइं अंतोमुहुत्तोणाई उनकोसेणं एग सागरोवम अंतोमुत्तोणं), गौतम ! -५थी अतभुत रक्षा અલપ દશ હજાર વર્ષની અને ઉત્કૃષ્ટથી અસંખ્યાત મુહૂર્ત જેટલી અલ્પ એક सागरे।पमनी वामां भावी छे. (सक्करप्पहा पुढवी नेरइयाणां भंते ! केषडयं कालं ठिई पण्णत्ता) 3 महन्त ! शरामा नामनी ने भी पृथिवी छ તેમાં રહેનારા નારકની સ્થિતિ કેટલી કહેવામાં આવી છે?
उत्तर-(गोयमा ! जहन्नणं एगं सागरोवमं उक्कोसेणं तिणि सागरोषमाइं) હે ગૌતમ! બીજી પૃથિવીને નારકેની સ્થિતિ જઘન્યથી તે એક સાગરેપમ
सी भने छुट ! सामनेटसी अपामा मापी छे. (एवं सेस पुढवीसु वि पुच्छा भाणियव्वा) मा प्रमाणे प्रश्न पशिष्ट पृथिवीया विष ५९ सभा (बालुयपहा पुढवि नेरइयाणं जहण्णेणं तिणि सागः रोबमाई उकोरणं सत्त सागरोवम ई) वायु! नाम तृतीय, पृथिवीन ना२
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अनुयोगद्वारसूत्र पृथिवो नैरयिकाणां भदन्त ! कियन्तं कालं स्थिति प्रज्ञप्ता ? गौतम ! जघन्येन सप्त सागरोपमाणि, उत्कर्षेण दश सागरोपमाणि । धूमप्रभापृथिवी नरयिकाणां भदन्त ! कियन्तं कालं स्थितिः प्रज्ञप्ता ? गौतम ! जघन्येन दशसागरोपमागि, उत्कर्षेण सप्तदशसागरोपमाणि । तमः प्रमापृथिवी नैरयिकाणां भदन्त ! कियन्तं कालं स्थितिः प्रज्ञप्ता ? गौतम ! जघन्येन सप्तदशसागरोपमाणि, उत्कर्षेण द्वाविनाम की तृतीय पृथिवी के नारकों की जघन्यस्थिति तीन सागरोपम की
और उत्कृष्ट स्थिति सातसागरोपम की कही गई है । (पंकप्पहापुढवीने. रइयाणं जहण्णेणं सत्तसागरोवमा, उक्कोसेणं दस सागरोवमाई) पंकप्रभा नामकी चतुर्थ पृथिवी के नारकों की जघन्य स्थिति सात सागरोपमकी और उत्कृष्ट स्थिति दस सागरोपम को कही गई है । (धूमपहा पुढवी नेरयाणं जहन्नेणं दस सागरोचमाइं, उकोसेणं सत्सरससागरोवमाई) धूमप्रभा नामक पंचम पृथिवी के नारकों की जघन्यस्थिति दश सागरोपम की और उस्कृष्ट स्थिति १७ सतरह सागरोपमकी कही गई है। (तमपहा पुढची नेरइयाणं जहन्नेणं सत्तरससागरोयमाई उक्कोसेणं घावीस सागरोधमाई) तमाप्रभा नाम की छठी पृथिवी के नारकों की जघन्य स्थिति सत्तरह सागरोपम की और उत्कृष्ट स्थिति २२, सागरोपम की कही गई है । (तमतमा पुहवी नेरइयाणं भंते केवइयं कालं ठिई पण्णता?)
प्रश्न--तमस्तमा नामकी सातवों पृथिवी के नारकों की स्थिति हे भदन्त ! कितनी कही गई है ? કેની જઘન્ય સ્થિતિ ત્રણ સાગરોપમ જેટલી અને ઉત્કૃષ્ટ સ્થિતિ સાત સાગरोपम २४ी ४ामा माकी छे. (पंकपहा पुढवी नेरइयाणं जहणेणं सत्त. सागरोवमाइं, उक कोसेणं दस सागरोवमाई) ५४मा नाम यतुर्थ पृथिवीना નારકેની જઘન્ય સ્થિતિ સાત સાગરેપમ ની અને ઉત્કૃષ્ટ સ્થિતિ દશ સાગરે ५म रेमी वाम मावी छ. (धूम.पहा पुढया नेरइयाणं जहन्नेणं दस सागरोवमाई, उक्कोसेणं सत्तरसागरोत्रमाई) धूमला नाम: ५यम थि. વીના નારકેની જઘન્ય સ્થિતિ દશ સાગરે પમની અને ઉત્કૃષ્ટ સ્થિતિ ૧૭ सागरेशम २८सी ४ामा सवी छ. (तमापहा पुढवी नेरइयाणं जहन्नेणं सत्तरससागरोवमाई उनकोसेणं बावीसं सागरोवमाई) तमामा नाम छी પૃથિવીન નારકની જઘન્ય સ્થિતિ ૧૭ સાગરોપમની અને ઉત્કૃષ્ટ સ્થિતિ २२ सागरे।५५ रेसी 30मा मापी छ. (तमतमा पुढवी नेरइयाणं भंते ! केवइयं कालं ठिई पण्णता)
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अनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र २०६ नैरपिकादीनां आयुपरिमाणनिरूपणम् २८७ शतिः सागरोपमाणि । तमन्तम पृथिवी नैरयिकाणां भदन्त ! कियन्तं कालं स्थितिःप्रज्ञप्ता ? गौतम ! जघन्येन द्वाविंशतिः सागरोपमाणि, उत्कर्षेण त्रय. विंशत् सागरोपमाणि ॥ सू० २०६ ॥
टीका-' नेरइयाणं' इत्यादि
यद्यप्यस्य व्याख्या स्पष्टा, तथापि किंचिदुच्यते । तथाहि-स्थीयते नारकादि भवेष्पनयेति मिति:पायुः कर्मानुभवपरिणतिः । यधपि कर्मपुद्गलानां बन्ध. कालादारभ्य निर्जरणकालं यावत् सामान्येन अवस्थितिः स्थितिरुच्यते तथाप्यायुः कर्मपुद्गलानुभव नमेव जीवितं स्थितित्वेन रूढम् । अत्रापि दशवर्षसहस्रायात्मिको
उत्तर--(गोयमा ! जहण्णेणं वावीस सागरोवमाई उक्कोसेणं तेत्तीस सागरोवमाई) हे गौतम,! जघन्य से २२ सागरोपम की और उत्कृष्ट से ३३ सागरोपम की स्थिति कही गई है।
भावार्थ--जीव को जो नारक आदि भवों में रोक कर रखता है। उसका नाम 'स्थिति' है । 'स्थीयते नारकादिभवेषु अनया इति स्थितिः' यह स्थिति शब्द की व्युत्पत्ति है । अर्थात् नारक आदि पर्यायों में जीव जिसके कारण स्थित ? रहता है, यह स्थिति शब्द का व्युत्पत्तिलभ्य अर्थ है । यद्यपि कर्म पुद्रलों का बन्धकाल से लेकर निर्भरणकाल तक आत्मा में सामान्य रूप से अवस्थान रहना, इसका नाम स्थिति है, फिर भी यहां पर स्थिति शब्द से आयु कर्म के निषेकों का अनुभवन करना
પ્રશ્ન-તમતમ નામક સાતમી પૃથિવીના નારકેની સ્થિતિ હે ભદંત ! કેટલી કહેવામાં આવી છે?
उत्तर-(गोयमा ! जहण्णेणं बाबीसं सागरोवमाई उनकोसे तेतीसं सागरोवमाइं) गौतम ! न्यथी २२ सागरेश५मानी मने थी 33 सासરેપમની સ્થિતિ કહેવામાં આવી છે.
ભાવાર્થ– જીવને જે નારક વગેરે જે રેકીને રાખે છે, તેનું નામ स्थिति... "स्थी नारकादि भवेषु अनया इति स्थितिः " म स्थिति' શબ્દની વ્યુત્પત્તિ છે એટલે કે નારક વગેરે પર્યાયમાં જીવ જેને લીધે સ્થિત રહે છે, આ “સ્થિતિ” શબ્દને વ્યુત્પત્તિને ખરે અર્થ છે જે કે કમ પુદ્ગલેને બઘકાલથી માંડીને નિર્જ રણકાલ સુધી આત્મામાં સામાન્ય રૂપથી અવસ્થાન–રહેવું તેનું નામ સ્થિતિ છે. છતાં એ અત્રે “સ્થિતિ” શબ્દને આયુ કર્મના નિષેકનું અનુભવન કરવું–જોગવું–આ અર્થમાં ગ્રહણ કરવામાં
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૨૮૮
अनुयोगद्वारसूत्र स्थिति प्रत्तिादयतस्तदेवाभिप्रेतम्। अन्यथा बद्धेनायुषा प्राग्मवें यावतं कालमत्र. तिष्ठते जन्नुस्तेन समधिकैन दशवर्षपहन धात्मिकास्थितिका स्यात्, न चैत्रमुच्यते, तस्मान्नारकादिमाप्राप्तानां प्रथमसमपादारस्यायुषोऽनुभवकाल एवारस्थितिः । सा च नारकागामौधिकपदे जघन्यतो दशवर्ष पहस्राणि, उत्कतिः त्रयस्त्रिंशत् -भोगना, यह अर्थ 'स्थिति' शब्द का लिया गया है । जब तक विव. क्षित भवका आयुकर्म बन्ध अवस्था में रहता हुआ, उदय अवस्था में रहता है तब तक जीव उस पर्याय में रहता है। विवक्षित पर्याय में आयुकर्म के सद्भाव में रहना इसीका नाम जीवित जीवन-है। और इस जीवन का नाम ही यहां स्थिति माना गया है । सूत्रकारने जो दश हजार वर्ष आदि की स्थिति कही है, उसका तात्पर्य यह है कि-जीव इतने समय तक विवक्षिन नारक अवस्था में रहता है। विवक्षित स्थान में पहुंचाना, यह तो गति का काम है और उस स्थान में अमुक मर्यादा तक रहना, यह आयु का काम है । एक बद्ध आयु और दूसरी भुज्यमान आयु इस प्रकार से आयु दो प्रकार का होता है । सो यहां पर नारक जीवों की जो आयुरूप स्थिति कही गई है, वह बद्ध आयु की अपेक्षा नहीं कही गई है, किन्तु भुज्यमान आयु की अपेक्षा कहो गई है, यदि ऐसा न होता तो सूत्रकार को ऐसा कहना चाहिये था कि-प्रध. मादिक पृथिवियों में जघन्य आयु दश हजार वर्ष आदि से कुछ આવ્યું છે જયાં સુધી વિક્ષિત ભવનું આયુષ્ય કર્મ બન્ધ અવરથામાં રહીને ઉદય અરસ્થામાં રહે છે, ત્યાં સુધી જીવ તે પર્યાયમાં રહે છે વિવક્ષિત પર્યાયમાં આયુકર્મને સદ્ ભાવમાં રહેવું–તેનું નામ-જીવિત-જીવન–છે. અને આ જીવનનું નામ જ અત્રે સ્થિતિ એ રીતે માનવામાં આવ્યું છે. સૂત્રકારે જે દશ હજાર વર્ષ વગેરેની સ્થિતિ કહી છે તેનું પ્રજન આ પ્રમાણે છે કે જીવ આટલા સમય લગી વિવક્ષિત નારક અવસ્થામાં રહે છે વિવક્ષિત સ્થાન સુધી પહોંચાડવાનું કામ તે ગતિનું છે અને તે સ્થાનમાં અમુક મર્યાદા સુધી રહેવું, આ આયુનું કામ છે. એક બદ્ધ આયું અને અપર ભુજમાન આયુ, આ રીતે આ યુ બે પ્રકારનું કહેવામાં આવ્યું છે. તે અત્રે જે નારકજીવોની જ આયુ રૂપ સ્થિતિ કહેવામાં આવી છે તે બદ્ધ આયુની અપેક્ષાએ કહેવામાં આવી નથી પરંતુ ભૂજ્યમાન આયુની અપેક્ષાએ કહેવામાં આવી છે, જે આમ ન હોત તો સૂત્રકારને આ પ્રમાણે કહેવું જોઈતું હતું કે પ્રથમાદિક પૃથિવીએમાં જઘન્ય અયુ દશ હજાર વર્ષ વગેરેથી પણ કંઈક
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अनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र २०६ नैरयिकादीनां आयुपरिमाणनिरूपणम् २८९ सागरोपमाणि बोध्या । विशेषतस्तु रत्नप्रभापृथिवी नैरयिकाणामुत्कर्षतो जघन्यतत्र स्थितिर्मूलानुसारेण बोध्या । अपर्याप्तकालस्तु सर्वत्रान्तर्मुहूर्तमेव । अपर्याप्तकाले घिस्थिते शोधिते सर्वत्र शेषापर्याप्तस्थितिर्बोध्या । अपर्याप्ताच नारका देवा असंख्येय वर्षायुष्कतिर्यङ्गमनुष्याश्च करणत एव बोध्याः । लब्धितस्तु पर्याप्ता एव । शेषाः पुनर्लब्ध्या पर्याप्ता अपर्याप्ताश्च भवन्ति । इत्थं चतुर्विंशतिदण्डकमनुसृत्य नास्काणामायुः स्थितिर्निरूपितेति । सू० २०६ ॥
अधिक है। कुछ अधिकता इसमें प्राग्भव में षद्धायुकी अपेक्षा आजायगी । परन्तु ऐसा तो सूत्रकारने कहा नहीं है अतः यह कथन भुज्यमान आयु की अपेक्षा ही जानना चाहिये । और यही स्थिति शब्द का वाच्यार्थ है । यही बात 'तारकादिभवप्राप्तानां प्रथम समयादारभ्यायुषोऽनुभवकाल एवावस्थिति:' इस पंक्ति द्वारा स्पष्ट की गई है । अर्थात् नारक आदि पर्याय में प्राप्त हुए जीवों की आयु के प्रथम- समय से लेकर आयुकर्म के अन्त समय तक का जो अनुभवन काल है, वही स्थिति है, यह स्थिति नारकों में सामान्य से दश हजार वर्ष की जघन्य है और ३३ सागरोपमकी उत्कृष्ट है विशेष से मूल सूत्र में रत्नप्रभा आदि पृथिवियों में जो जघन्य और उत्कृष्ट स्थिति स्पष्ट की गई वह है, ऐसा जानना चाहिये । अपर्याप्त अवस्था का काल सर्वत्र अन्तर्मुहूर्त्त ही है । सामान्य स्थिति में से अपर्याप्त
આ
વધારે છે. આમાં કંઇક અધિકતા પ્રાગ્ભવમાં બદ્ધાયુની અપેક્ષાએ આવી જરી પરંતુ આ રીતે તે સૂત્રકારે કહ્યું નથી એથી આ કથન જ્યમાન માયુની અપેક્ષાથી જ જાણવું જોઈએ અને એજ સ્થિતિ શબ્દના વાચ્યાય છે. એજ वात 'नारकादिभत्रप्राप्तानां प्रथमसमयादारभ्यायुषोऽनुभवकालएवावस्थितिः " પક્તિ વડે સ્પષ્ટ કરવામાં આવી છે એટલે કે નારક વગેરે પર્યાયમાં પ્રાપ્ત થયેલ જીવેના આયુષ્યના પ્રથમ સમયથી માંડીને આયુષ્મના અંત સમય સુધી જે અનુભવનકાલ છે, તેજ સ્થિતિ છે આ સ્થિતિ નારકામાં सामान्यथी दृश डेभर वर्षांनी धन्य है, अने 33 सागरेशयभनी उत्कृष्ट छे. વિશેષ રૂપમાં મૂલસૂત્રમાં રત્નપ્રભા વગેરે પૃથિનીઓમાં જે જઘન્ય અને ઉત્કૃષ્ટ સ્થિતિ સ્પષ્ટ કરવામાં આવી છે, તેજ છે આમ જાણી લેવુ જોઇએ. અપર્યાપ્ત અત્રસ્થાને કાલ સવત્ર અન્તમુહૂત્ત છે. સામાન્ય સ્થિતિમાંથી અપર્યાપ્તકાલને બાદ કરવાથી જે સ્થિતિ શેષ રહે છે, તે પર્યાપ્તકોની સ્થિતિ જાણવી
अ० ३७
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___ मनुयोगद्वारसूत्र अथासुरकुमारादीनामायुः स्थिति निरूपयति
मूलम्-असुरकुमाराणं भंते! देवाणं केवइयं कालं ठिई पण्णत्ता ? गोयमा! जहन्नेणं दसवाससहस्माइं, उक्कोसेणं साइरेगं सागरोवमं। असुरकुमारदेवीणं भंते ! केवइयं कालं ठिई पण्णता? गोयमा! जहन्नेणं दसवासलहस्साई उक्कोसेणं अद्धपंचमाइं पलिओवमाइं। नागकुमाराणं भंते! देवाणं केव. इयं कालं ठिई पण्णत्ता? गोयमा! जहन्नेणं दसवाससहस्साई, उक्कोसेणं देसूणाई दुण्णि पलिओवमाइं। नागकुमारीणं भंते! केवइयं कालं ठिई पण्णत्ता? गोयमा ! जहन्नेणं दसवाससहस्साइं, उक्कोसेणं देसूर्ण पलिओवमं । एवं जहा णागकुमाराणं देवाणं देवीण य तहा जाव थणियकुमाराणं देवाणं देवीण य भाणियव्वं । पुढवीकाइयाणं भंते ! केवइयं कालं ठिई पण्णता? गोयमा ! जहन्नेणं अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेणं बावीसं वाससहस्साई। सुहमपुढवीकाइयाणं ओहियाणं अपजत्तयाणं पजत्तयाण य तिण्हवि पुच्छा, गोयमा! जहन्नेणं अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेण वि कालको कम कर देने पर जो स्थित बचती है-वह पर्यातकों की स्थिति जानना चाहिये। नारक, देव और असंख्यात वर्ष की आयुवाले तियश्च एवं मनुष्य, ये करण की अपेक्षा ही अपर्याप्त माने गये हैं-लब्धि की अपेक्षा नहीं-लब्धि की अपेक्षा तो ये सब पर्याप्त ही हैं। इन से अतिरिक्त जीव लब्धि से पर्याप्त अपर्याप्त दोनों प्रकार के होते हैं। इस प्रकार चौवीस दण्डक के अनुसार यह नारकों की भव. स्थितिरूप आयु. स्थिति निरूपित की है। सू० २०६ ॥ જોઈએ નારક દેવ અને અસંખ્યાત વર્ષની આયુવાળા તિર્યંચ અને મનુષ્ય આ સર્વે કરણની અપેક્ષાથી જ અપર્યાપ્ત માનવામાં આવ્યાં છે. લબ્ધિની અપેક્ષાએ તે આ સર્વે પર્યાપ્ત જ છે એને અતિરિક્ત છ લબ્ધિથી પર્યાપ્ત અપર્યાપ્ત અને પ્રકારના હોય છે. આ રીતે ૨૪ દંડક મુજ આ નારકેની ભવરિથતિ રૂપ આયુરસ્થિતિ નિરૂપિત કરવામાં આવી છે. સૂ૨૦૬
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अनुयोगन्द्रिका टीका सूत्र २०७ असुरकुमारादीनामायुःस्थितिनिरूपणम् २९१ अंतोमुहुत्तं। बादरपुढवीकाइयाणं पुच्छा, गोयमा! जहन्नेणं अंतोमुहुत्तं उक्कोसेणं बावीसं वाससहस्साइं। अपजत्तगबादरपुढवीकाइयाणं पुच्छा, गोयमा! जहण्णण वि अंतोमुहृत्तं, उको. सेण वि अंतोमुहत्तं। पजत्तगबादरपुढवीकाइयाणं पुच्छा, गोयमा! जहन्नेणं अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेणं बावीसं वाससहस्साई अंतोमुत्तूणाई। एवं सेसकाइयाणंपि पुच्छावयणं भाणियवं। आउकाइयाणं जहन्नेणं अंतोमुहत्तं उक्कोसेणं सत्तवाससहस्साई। सुहुमआउकाइयाणं ओहियाणं पजत्तगाणं अपजत्तगाणं तिण्ह वि जहणणेण वि अंतोमुहत्तं उक्कोसेणवि अंतोमुहत्तं । बादर. आउकाइयाणं जहा ओहियाणं। अपजत्तगबादर आउकाइयाणं जहन्नेण वि अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेण वि अंतोमुहुत्तं। पजत्तगबादरआउकाइयाणं जहन्नेण अंतोमुहत्तं, उक्कोसेण सत्त वाससहस्साई अंतोमुहुतूणाई। तेउकाइयाणं जहण्णेण अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेण तिण्णि राइंदियाई। सुहुमतेउकाइयाणं ओहियाणं अपजत्तगाणं पजत्तगाणं तिण्ह वि जहण्णेण वि अंतोमुहुत्तं उक्को सेण वि अंतोमुहुत्तं। बादरतेउकाइयाणं जहण्णेण अंतोमुहु, उक्कोसेणं तिण्णि राइंदियाइं। अपजत्तगवादरतेउकाइयाणं जहण्णेण वि अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेण वि अंतोमुहुत्तं। पज्जत्तग बादरतेउकाइयाणं जहन्नेण अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेण तिण्णि राइंदियाइं अंतोमुहुत्तूणाई। वाउकाइयाणं जहन्नेणं अंतोमुहत्तं, उक्कोसेण तिण्णि वाससहस्साई। सुहुमवाउकाइयाणं ओहि
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૨૨
अनुयोगद्वार
यहणं अपज्जत्तगाणं पज्जत्तगाण य तिण्हवि जहणणेणऽवि अंतोमुद्दत्तं उक्कोसेण वि अंतोमुहुतं । बादरवाउकाइयाणं जहन्नेणं अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेण तिपिग वाससहरुलाई । अपज्जन्तमबादरवाउकाइयाणं जहन्नेण वि अंतोमुहुत्तं उक्कोसेण वि अंतोमुहुसं । पज्जत्तगबादरवा उकाइयाणं जहन्नेणं अंतोमुहुत्तं उक्कोसेणं तिष्णि वाससहस्साइं अंतोमुहुत्तणाई | वणस्सइकाइयाणं जहन्नेणं अंतोमुहुतं उक्कोसेणं दसवाससहस्साइं । सुहुमवणस्सइकाइयाणं ओहियाणं अपजतगाणं पजत्तगाण य तिण्ह वि जहण्णेण वि अंतोमुहुत्तं उक्कोसेण वि अंतोमुहुत्तं । बादरवणरसइकाइयाणं जहन्नेणं अंतोमुहुत्तं उक्कोसेणं दस वास सहस्साई | अपजत्तगबादरवणस्सइकाइयाणं जहण्णेण वि अंतोमुडुतं, उक्कोसेण त्रि अंतोमुहुत्तं । पजत्तगबादरवणस्सइकाइयाणं जहण्णेणं अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेणं दसवास सहरसाई अंतोमुहुणाई | बेइंदियाणं भंते! केवइयं कालं ठिई पण्णत्ता ?, गोयमा ! जहन्नेणं अंतोमुहुत्तं उक्कोसेणं बारससंवच्छराणि । अपज्जत्तगबेइंदियाणं पुच्छा, गोयमा ! जहन्त्रेण वि अंतोमुहुसं उक्कोसेण वि अंतोमुहुत्तं । पज्जत्तगबेइंदियाणं जहण्णेणं अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेणं वारससंवच्छराणि अंतोमुहुत्तूणाई । तेइंदियाणं पुच्छा, गोयमा ! जहनेणं अंतोमुहुत्तं उक्कोसेणं एगूणपण्णासं राइंदियाई | अपजत्तगतेइंदियाणं पुच्छा, गोयमा ! जहणेण वि अंतोमुहुत्तं उक्कोसेण वि अंतोमुहुतं । पजत्तगतेई
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अनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र २०७ अमुरकुमारादीनामायुःस्थितिनिरूपणम् २९३. दियाणं पुच्छा, गोयमा ! जहण्णेण अंतोमुहत्तं उक्कोसेण एगूणपण्णासं राइंदियाइं अंतोमुहतुणाई। चउरिंदियाणं भंते ! केवइयं कालं ठिई पण्णता? गोयमा! जहन्नेण अंतोमुहुक्तं उक्कोसेणं छम्मासा। अपजत्तगचउरिदियाणं पुच्छा, गोयमा! जहण्णेण वि अंतोमुत्तं उक्कोसेण वि अंतोमुहुत्तं । पज्जत्तगचउः सिंदयाणं पुच्छा, गोयमा! जहन्नेणं अंतोमुहुत्तं उक्कोसेणं छम्मासा अंतोमुहुत्तणा। पंचिंदियतिरिक्खजोणियाणं भंते! केवइयं कालं ठिई पण्णता? गोयमा ! जहणेणं अंतोमुहत्तं, उक्कोसेणं तिणि पलिओवमाइं। जलयरपंचिंदियतिरिखजोणियाणं भंते ! केवइयं कालं ठिई पण्णत्ता ? गोयमा ! जहा पणेणं अंतोमुहुत्तं उक्कोसेणं पुवकोडी। संमुच्छिमजलयरपंचिंदियतिरिक्ख जोणियाणं पुच्छा, गोयमा ! जहण्णेणं अंतोमुहुत्तं उक्कोसेणं पुवकोडी। अपज्जत्तयसमुच्छिमजलयरपंचिंदियतिरिक्खजोणियाणं पुच्छा, गोयमा जहणणेण वि अंतोमुहुत्तं उक्कोसेण वि अंतोमुहुत्तं पजत्तयसंमुच्छिमजलयरपंचिंदियतिरिक्खजोणियाणं पुच्छा, गोक्मा! जहण्णेणं अंतोमुहुत्तं उक्कोसेणं पुव्वकोडी अंतोमुहुसगा। गब्भवतियजलयरपंचिंदियतिरिक्खजोणियाणं पुच्छा, गोयमा! जहण्णेणं अंतोमुहुत्तं उक्कोसेणं पुवकोडी। अपज्जत्तगगम्भवतियजलयरपंचिंदियतिरिक्खजोणियाणं पुच्छा, गोयमा! जहण्णेण वि अंतोमुहुत्तं उक्कोसेण वि अंतोमुहुतं ।
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२९४ .
मनुबोगारसूत्रे पज्जत्तगगब्भवतियजलयरपंचिंदियतिरिक्खजोणियाणं पुच्छा, गोयमा! जहन्नेणं अंतोमुहुत्तं उक्कोसेणं पुत्वकोडी अंतोमुहुत्तणा। घउप्पयथलयरपंचिंदियतिरिक्खजोणियाणं पुच्छा, गोयमा! जहण्णेणं अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेणं तिणि पलिओवमाई। समुच्छिमघउप्पयथलयरपंचिंदियतिरिक्खजोणियाणं पुच्छा, गोयमा! जहण्णेणं अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेणं घउरासीई वाससहस्साइं। अपज्जत्तयसंमुच्छिमचउप्पयथलयरपंचिंदियतिरिक्ख जोणियाणं पुच्छा, गोयमा! जहन्नेण वि अंतोमुहुत्तं उक्कोसेण वि अंतोमुहुत्तं । पज्जत्तयसंमुच्छिमचउप्पयथलयरपंचिंदियतिरिक्खजोणियाणं पुच्छा गोयमा! जहणणेणं अंतोमुहुत्तं उक्कोसेणं चउरासीइं वाससहस्साई अंतोमुहुत्तणाई। गब्भवतियचउप्पयथलयरपंचिंदियतिरिक्खजोणियाणं पुच्छा, गोयमा! जहणणेणं अंतोमुहृत्तं उक्कोसेणं तिषिण पलिओवमाइं। अपजत्तगगम्भवक्कंतियचउप्पयथलयरपंचिंदियतिरिक्खजोणियाणं पुच्छा गोयमा ! जहण्णेण वि अंतोमुहत्तं उक्कोसेण वि अंतोमुहत्तं। पज्जत्तगगब्भवक्कंतियचउप्पयथलयरपंचिंदियतिरिक्खजोणियाणं पुच्छा, गोयमा ! जहन्नेणं अंतोमुहत्तं उक्कोसेणं तिणि पलिओवमाइं अंतोमुहत्तणाई। उरपरिसप्पथलयरपंचिंदियतिरिक्खजोणियाणं पुच्छा, गोयमा! जहन्नेणं अंतो. मुहत्तं उक्कोसेणं पुवकोडी। संमुच्छिमउरपरिसप्पथलयरपंचिंदियतिरिक्खजोणियाणं पुच्छा, गोयमा! जहन्नेणं अंतो.
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अनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र २०७ असुरकुमारादीनामायुः स्थितिनिरूपणम् २९५ मुहुत्तं, उक्कोसेणं तेवन्नं वाससहस्साइं । अप्पज्जत्तयसंमुच्छिमउरपरिसप्पथलयर पंचिदियतिरिक्खजोणियाणं पुच्छा, गोयमा ! जहन्त्रेण वि अंतोमुद्दत्तं उक्कोसेण वि अंतोमुहुत्तं । पज्जत्तय संमुच्छिम उर परिसप्पथलयर पंचिदियतिरिक्ख जोणियाणं पुच्छा, गोयमा ! जहन्नेणं अंतोमुहुत्तं उक्कोसेणं तेवण्णं वाससयसहस्साई अंतोमुहुत्तणाई । गब्भवक्कंतिय उरपरिसप्पथलयरपंचिंदियतिरिक्खजोणियाणं पुच्छा, गोयमा ! जहन्नेणं अंतोमुहुत्तं उक्को सेणं पुइकोडी । अप्पजत्तगगन्भवक्कंतिय उरपरिसप्पथलयरपंचिदियतिरिक्खजोणियाणं पुच्छा, गोयमा ! जहन्त्रेण वि अंतोमुहुत्तं उक्कोसेण वि अंतोमुहुत्तं । पज्जत्तगगब्भवक्कंतिय उर परिसप्पथलयरपंबिंदियतिरिक्खजोणियाणं पुच्छा, गोयमा ! जहन्नेणं
अंतोमुहुत्तं उकोसेणं पुत्रकोडी अंतोमुहुत्तणा । भुयपरिसप्पथलयर पंचिदियतिरिक्ख जोणियाणं पुच्छा, गोयमा ! जहणणं अंतोमुहुत्तं उक्कोसेणं पुत्रकोडी । संमुच्छिमभुयपरिसप्प - थलयरपंचिंदियतिरिक्खजोणियाणं पुच्छा गोयमा ! जहन्नेर्ण अंतोमुहुत्तं उक्कोसेणं वायालीसं वाससहस्साई | अपजत्तयसंमुच्छिम भुयपरिसप्पथलयरपंबिंदियति रिक्ख जोणियाणं पुच्छा गोयमा ! जहन्त्रेण वि अंतोमुहुत्तं उक्कोसेण वि अंतोमुहुत्तं । पजत्तगसंमुच्छिम भुयपरिसप्पथलयरपंचिंदियतिरिक्खजोणियाणं पुच्छा, गोयमा ! जहण्णेणं अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेणं वायालीसं वाससहस्साई अंतोमुहुत्तणाई | गन्भवतिय भुयपरिसप्प
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भनुयोगमा घलयरपंचिंदियतिरिक्खजोणियाणं पुच्छा, गोयमा! जहणणं अंतोमुहत्तं, उक्कोसेणं पुवकोडी। अपज्जत्तगगन्भवतियभुयपरिसप्पथलयरपंचिंदियतिरिक्खजोणियाणं पुच्छा, गोयमा! जहन्त्रेण वि अंतोमुहुत्तं उक्कोसेण वि अंतोमुहुत्तं । पजत्तगगब्भवतियभुयपरिसप्पथलयरपंचिंदियतिरिक्खजोणियाणं पुच्छा, गोयमा ! जहन्नेणं अंतोमुहुत्तं उक्कोसेणं पुक्कोडी अंतोमुहुतणा।खहयरपंचिंदियतिरिक्खजोणियाणं पुच्छा,गोयमाजहनेणं अंतोमुहत्तं, उक्कोसेणं पलिओवमस्त असंखेज्जइभागं। संमु. च्छिमखहयरपंचिंदियतिरिक्खजोणियाणं पुच्छा, गोयमा! जहनेणं अंतोमुहत्तं, उक्कोसेणं बावत्तरि वाससहस्साइं। अपजसगसंमुच्छिमखहयरपंचिंदियतिरिक्खजोणियाणं पुच्छा, गोयमा ! जहन्नेण वि अंतोमुहुत्तं उक्कोसेण वि अंतोमुहुत्तं। पजत्तगसंमुच्छिमखहयरपंचिंदियतिरिक्ख जोणियाणं पुच्छा, गोयमा ! जहन्नणं अंतोमहुत्तं उक्कोसेणं बावतरि वाससहस्साई अंतोमुहत्तूणाई। गब्भवक्कंतियखहयरपंचिदियतिरिक्खजोणियाणं पुच्छा, गोयमा ! जहण्णेणं अंतोमुहत्तं, उक्कोसेणं पलिओवमस्स असंखेजइभागं। अपजत्तगगब्भवत्तियखहयरपंचिंदियतिरिक्खजोणियाणं पुच्छा, गोयमा ! जहणणेण वि अंतोमुहत्तं उक्कोसेण वि अंतोमुहत्तं। पजत्तगखहयरपंचिंदियतिरिक्खजोणियाणं भंते ! केवइयं कालं ठिई पण्णत्ता ? गोयमा! जहम्नेणं अंतोमुहत्तं उक्कोसेणं पलिओवमस्स असंखिज्जइभागं
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अनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र २०७ असुरकुमारादीनामायुः स्थितिनिरूपणम् २९७ अंतोमुहणं । पत्थ एएसि णं संगहणिगाहाओ भवति, तं जहा - "संमुच्छिम पुव्व कोडी, चउरासीई भवे सहस्साइं । तेवण्णा बायाला, बावन्तरिमेव पक्खीणं ॥ १ ॥ गर्भमि पुव्वकोडी, तिष्णिय पलिओ माई परमाऊ । उरभुयगपुव्वकोडी, पलिओवमासंखभागो य ॥२॥” मणुस्साणं भंते! केवइयं कालं ठिई पण्णत्ता ? गोयमा ! जहन्नेणं अंतोमुहुत्तं उक्कोसेणं तिणि पलिओवमाई | संमुच्छिममणुस्साणं पुच्छा, गोयमा ! जहण्णेण वि अंतोमुद्दत्तं उक्कोसेण वि अंतोमुहुत्तं । गव्भवतियमणुस्साणं पुच्छा, गोयमा ! जहण्णेणं अंतोमुद्दत्तं उक्कोसेणं तिष्णि पलिओ माई | अपजत्तगगब्भवक्कंतियमणुस्साणं भंते! केवइयं कालं ठिई पण्णत्ता ? गोयमा ! जहण्णेण वि अंतोमुहुतं उक्कोसेण वि अंतोमुत्तं । पजत्तगगब्भवक्कंतियमणुस्साणं भंते! केवइयं कालं ठिई पण्णत्ता ? गोयमा ! जहणणं अंतोमुहुतं उक्कोसेणं तिपिण पलिओ माई अंतोमुहुत्तूणाई | वाणमंतराणं देवाणं भंते! केवड्यं कालं ठिई पण्णत्ता ? गोयमा ! जहन्नेणं दस वाससहस्साई उक्कोसेणं पलिओवमं । वाणमंतरीणं देवीणं भंते! केवइयं कालं ठिई पण्णत्ता, गोयमा ! जहपणं दस वाससहस्साईं उक्कोसेणं अद्धपलिओवमं । जोइसियाणं भंते! देवाणं केवइयं कालं ठिई पण्णत्ता ? गोयमा ! जहणेणं सातिरेगं अट्टभागपलिओवमं, उक्कोसेणं पलिओवमं वासस्यसहस्समम्भहियं । जोइसियदेवीणं भंते! केवइयं कालं
अ० ३८
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अनुयोगद्वारसूत्रे ठिई पण्णता? गोयमा! जहन्नेणं अट्ठभागपलिओवमं, उक्कोसेणं अद्धपलिओवमं पण्णासाए वाससहस्सेहिं अब्भहियं। चंदविमागाणं भंते! देवाणं केवइयं कालं ठिई पण्णत्ता? गोयमा! जहन्नेणं चउभागपलिओवमं, उक्कोसेणं पलिओवमं वाससयसहस्समब्भाहियं । चंदविमाणाणं भंते! देवीणं केवइयं कालं ठिई पण्णत्ता ? गोयमा! जहण्णेणं घउभागपलिओवमं उक्कोसेणं अद्धपलिओवमं पण्णासाए वाससहस्सेहिं अब्भहियं । सूरविमाणाणं भंते ! देवाणं केवइयं कालं ठिई पण्णता ? गोयमा! जहन्नेणं पउभागपलिओवमं, उक्कोसेणं पलिओवमं वाससहस्तमन्भहियं । सूरविमाणाणं भंते ! देवीणं केवइयं कालं ठिई पण्णत्ता ? गोयमा! जहन्नेणं पउभागपलिओवमं उक्कोसेणं अद्धपलिओवमं पंचहि वाससएहि अब्भहियं। गहविमाणाणं भंते! केवइयं कालं ठिई पण्णता? गोयमा जहन्नेणं घउभागपलिओवम उक्कोसेणं पलिओवमं । गहविमाणाणं भंते! देवीणं केवइयं कालं ठिई पण्णता ? गोयमा! जहन्नेणं पउभागपलिओवमं, उक्कोसेणं अद्धपलिओवमं। णक्खत्तविमाणाणं भंते ! देवाणं केवइयं कालं ठिई पण्णता? गोयमा! जहनेणं घ3. भागपलिओवमं उक्कोसेणं अद्धपलिओवमा णक्खत्तविमाणाणं भंते! देवीण केवइयं कालं ठिई पण्णत्ता ? गोयमा! जहन्नेणं पउभागपलिओवमं, उक्कोसेणं सातिरेगं चउभागपलिओवमं। ताराविमाणाणं भंते! देवाणं केवइयं कालं ठिई पण्णता ?
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अनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र २०७ असुरकुमारादीनामायुः स्थितिनिरूपणम् २९९ गोयमा ! जहन्नेणं साइरेगं अट्टभागपलिओवमं, उक्कोसेणं चउभागपलिओवमं । ताराविमाणाणं भंते! देवीणं केवइयं कालं ठिई पण्णसा ? गोयमा ! जहन्नेणं अट्ठभागपलिओवमं, उक्कोसेणं साइरेगं अट्ठभागपलिओवमं । वेमाणियाणं भंते! देवाणं केवइयं कालं ठिई पण्णत्ता ? गोयमा ! जहन्नेणं पलिओवमं, उक्को - सेण तेत्तीस सागरोवमाई । वेमाणियाणं भंते! देवीणं केवइयं कालं ठिई पण्णत्ता ? गोयमा ! जहनेणं पलिओवमं, उक्कोसेणं पणपण्णं पलिओ माई | सोहम्मेणं भंते! कप्पे देवाणं केवइयं कालं ठिई पण्णत्ता ? गोयमा ! जहन्नेणं पलिओवमं, उक्कोसेणं दो सागरोवमाई | सोहम्मे णं भंते! कप्पे परिग्गहिया देवीणं केवइयं कालं ठिई पण्णत्ता ? गोयमा ! जहन्नेणं पलिओवमं, उक्को सेणं सत्त पलिओ माई । सोहम्मेणं भंते! कप्पे अपरिगहिया देवीणं केवइयं कालं ठिई पण्णत्ता ? गोयमा ! जहन्नेणं पलिओवमं, उक्कोसेणं पण्णासं पलिओ माई । ईसाणे णं भंते! कप्पे देवाणं केवइयं कालं ठिई पण्णत्ता ? गोयमा ! जहन्नेणं साइरेगं पलिओवमं, उक्कोसेणं साइरेगाइं दो सागरोवमाई | ईसाणे णं भंते! कप्पे परिग्गहिया देवीणं केवइयं कालं ठिई पण्णत्ता ? गोयमा ! जहन्नेणं साइरेगं पलिओवमं उक्कोसेणं नव लिओ माई | ईसाणे णं भंते! कप्पे अपरिग्गहिया देवीणं hari कालं ठिई पण्णत्ता ? गोयमा ! जहन्नेणं साइरेगं पलिओवमं, उक्कोसेणं पणपपणपलिओ माई | सणकुमारेणं भंते!
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अनुयोगद्वारसूत्रे कप्पे देवाणं केवइयं कालं ठिई पण्णत्ता? गोयमा! जहन्नणं दो सागरोवमाइं, उक्कोसेणं सत्त सागरोवमाइं। माहिंदे णं भंते! कप्पे देवाणं केवइयं कालं ठिई पण्णता? गोयमा! जहन्नेणं साइरेगाइं दो सागरोवमाइं, उक्कोसेणं साइरेगाइं सत्त सागरोवमाइं। बंभलोएणं भंते! कप्पे देवाणं केवइयं कालं ठिई पण्णत्ता ? गोयमा! जहन्नेणं सत्त सागरोवमाइं, उक्कोसेणं दस सागरोवमाइं। एवं कप्पे कप्पे केवइयं कालं ठिई पण्णत्ता? गोयमा! एवं भाणियवं-लंतए जहन्नेणं दस सागरोवमाइं, उकोसेणं चउइससागरोवमाइं। महासुके जहन्नेणं चउद्दससागरोवमाइं, उक्कोसेणं सत्तरससागरोवमाइं। सहस्सारे जहन्नेणं सत्तरससागरोवमाई, उक्कोसेणं अट्ठारससागरोवमाई। आणए जहन्नेणं अटारससागरोवमाई, उक्कोसेणं एगूणवीसं सागरोवमाइं। पाणए जहन्नेणं एगूणवीसं सागरोवमाइं उक्कोसेणं बीसं सांगरोवमाइं। आरणे जहन्नेणं वीसं सागरोवमाइं, उक्कोसेणं एकवीसं सागरोवमाई। अच्चुए जहन्नेणं एकवीसं सागरोवमाई उक्कोसेणं बावीसं सागरोवमाइं। हेट्रिमहट्रिमगेविजगविमाणेसु णं भंते! देवाणं केवइयं कालं ठिई पण्णता ? गोयमा! जहन्नेणं बावीसं सागरोवमाइं, उक्कोसेणं तेवीसं सागरोवमाइं। हेटिममज्झिमगेवेजगविमाणेसुण भंते ! देवाणं केवइयं कालं ठिई पण्णत्ता ? गोयमा! जहन्नेणं तेवीसं सागरोवमाइं, उक्कोसेणं चउवीसं सागरोवमाइं। हेट्रिमउवरिमगेवेजविमाणेसु णं भंते ! देवाणं केवइयं कालं ठिई पण्णता? गोयमा
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अनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र २०७ असुरकुमारादीनामायुःस्थितिनिरूपणम् ३०१ जहन्नेणं चउवीसं सागरोवमाइं उक्कोसेणं पंचवीसं सागरोवमाइं। मज्झिमहेट्रिमगेवेजगविमाणेसु णं भंते ! देवाणं केवइयं कालं ठिई पण्णता? गोयमा! जहन्नेणं पणवीसं सागरोवमाइं, उक्कोसेणंछब्बीसं सागरोवमाइं। मज्झिममज्झिमगेवेजगविमाणेसुणं भंते ! देवाणं केवइयं कालं ठिई पण्णता? गोयमा! जहन्नेणं छव्वीसंसागरोवमाइं, उक्कोसेणं सत्तावीसं सागरोवमाइं । मज्झिमउवरिमगेवेजगविमाणेसु णं भंते. देवाणं केवइयं कालं ठिई पण्णता ? गोयमा ! जहन्नेणं सत्तावीसं सागरोवमाइं, उक्कोसेणं अट्ठावीसं सागरोवमाइं। उवरिमहटिमगेवेजगविमाणेसु णंभंते! देवाणं केवइयं कालं ठिई पण्णत्ता? गोयमा! जहन्नेणं अट्ठावीस सागरोवमाइं उक्कोसेणं एगूणतीसं सागरोवमाइं। उवरिममन्झिमगेवेजगविमाणेसु णं भंते ! देवाणं केवइयं कालं ठिई पण्णता? गोयमा ! जहन्नेणं एगूगतीसं सागरोवमाई, उक्कोसेणं तीसं सागरोवमाइं। उवरिमउवरिमगेवेजगविमाणेसु णं भंते ! देवाणं केवइयं कालं ठिई पण्णता ? गोयमा ! जहन्नेणं तीसं सागरोवमाई, उक्कोसेणं एकतीसं सागरोवमाई। विजयवेजयंतजयंतअपराजियविमाणेसु णं भंते! देवाणं केवइयं कालं ठिई पण्णत्ता? गोयमा ! जहन्नेणं एक्कतीसं सागरोवमाई, उकोसेणं तेत्तीसं सागरोवमाइं। सबटुसिद्धे णं भंते! महाविमाणे देवाणं केवइयं कालं ठिई पण्णता? गोयमा! अजहण्णमणुक्कोसेणं तेत्तीसं सागरोवमाई। से तं सुहमे अद्धापलिओवमे। से तं अद्धापलिओवमे ॥सू० २०७॥
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३०२
अनुयोगद्वारसूत्र - छाया-असुरकुमारणां भदन्त देवानां कियन्तं कालं स्थितिः प्रज्ञप्ता ? गौतम १ जघन्येन दशवर्षसहस्राणि, उत्कर्षेण सातिरेकं सागरोपमम् ! अमुरकुमारदेवीनां भदन्त ! कियन्त कालं स्थितिः प्रज्ञप्ता ? गौतम ! जघन्येन दशवर्षसहस्राणि, उत्कर्षेण अर्द्ध पश्चमानि पल्योपमानि । नागकुमाराणां भदन्त ! देवानां कियन्तं कालं स्थितिः प्रज्ञसा ? गौतम ! जघन्येन दशवर्षसहस्राणि, उत्कर्षेण देशोनानि
अब सूत्रकार असुरकुमार आदिकों की आयुस्थिति कहते हैं-- 'असुरकुमाराणं भंते !' इत्यादि ।
शब्दार्थ--(असुरकुमाराणं भंते ! देवाणं केवइयकालं ठिई पण्णत्ता?) हे भदन्त ! अस्तुरकुमार देवों की स्थिति कितने काल तक की कही गई है ? (गोयमा ! जहन्नेणं दसवाससहस्साई उक्कोसेणं साइरेग सागरोवम
उत्तर:-हे गौतम जघन्य से दश हजार वर्ष की और उत्कृष्ट से कुछ अधिक एक सागरोपम की कही गई है। (असुरकुमारदेवीणं भंते ! केवयं कालं ठिई पण्णता) हे भदन्त ! असुरकुमार की देवियों की स्थिति कितनी कहीं गई है ? (गोयमा ! जहणणं दसवाससहस्साई उक्कोसेणं अद्धा पंचमाइं पलिओवमाई) ___ उत्तर-हे गौतम ! जघन्य से दश हजार वर्ष की और उस्कृष्ट से ४॥ साढे चार पल्योपम की कही गई है । 'नागकुमाराणं भंते !
હવે સૂત્રકાર અસુરકુમાર વગેરેની આયુસ્થિતિ કહે છે. "असुरकुमाराणं भंते ! त्याle
शहाथ-(असुरकुमाराणं भंते ! देवाण केवइयं कालं ठिई पण्णत्ता) 3 ભત ! અસુરકુમાર દેવેની સ્થિતિ કેટલા કાલ સુધીની કહેવામાં આવી છે? (गोयमा! जहन्नेण दसवाससहस्साई उक्कोसेण साइरेग सागरोवमं.)
ઉત્તર-હે ગૌતમ! જઘન્યથી દશ હજાર વર્ષ જેટલી અને ઉત્કૃષ્ટથી BUs अधि: ४ सागरा५म २८सी ४ामा मापी छे. (असुरकुमारदेवीण भंते ! केवइयं कालं ठिई पण्णत्ता) मत ! मसुरसुभानी हवामान स्थिति tel मा मापी छ ? (गोयमा ! जहण्णेण दसवाससहस्साई उक्कोसेण भद्धपंचमाइं पलिओवमाइं.)
ઉત્તર-હે ગૌતમ! જઘન્યથી દશ હજાર વર્ષની અને ઉત્કૃષ્ટથી કાં पक्ष्य,५४ २८क्षा ४ाम की छे. (नागकुमाराण भंते ! देवाण' केवइय
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अनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र २०७ असुरकुमारादीनामायुः स्थिति निरूपणम् ३०३ द्विपल्योपमानि । नागकुमारीणां भदन्त ! कियन्तं कालं स्थितिः प्रज्ञप्ता ?, गौतम ! जघन्येन दशवर्षसहस्राणि उत्कर्षेण देशानं पल्योपमम् । एवं यथा नागकुमाराणां देवानां देवीनां च तथा यावद् स्तनितकुमाराणां देवानां देवीनां च भणितव्यम् । पृथिवीकायिकानां भदन्त । कियन्तं कालं स्थितिः प्रज्ञप्ता ? देवाणं केवइयं काळं ठिई पण्णत्ता ? ) हे भदन्त ! नागकुमार देवों की कितनी स्थिति कही गई है ?
उत्तरः -- (गोयमा ! जहन्नेणं दसवाससहस्साई उक्कोसेणं देख णाई दुणि भिमाई) हे गौतम जघन्य से दश हजार वर्ष की और उत्कृष्ट से कुछ कम दो पल्योपम की । ( नागकुमारीणं भंते! केवइयं काळं ठिई पण्णत्ता १) हे भदन्त ! नागकुमार को देवियों की कितनी स्थिति कही गई है ?
उत्तर:- (गोयमा ! जहन्नेणं दसवाससहस्साई उक्कोसेणं देणं पलिओदनं) हे गौतम! जघन्य से दश हजार वर्ष की और उत्कृष्ट से कुछ कम एक पल्प की कही गई है ( एवं जहा नागकुमाराणं, देवाणं देवीण य ता जाव धणियकुमाराणं देवाणं देवीण य भाणियव्यं) जैसी नागकुमार देवों और उनकी देवियों की स्थिति कही है उसी प्रकार से
कालं ठिई पण्णत्ता १) डे महत ! नागकुमार हेवानी स्थिति टती उडेवामां भावी छे ?
उत्तर- (गोयमा ! जहन्नेण ं दसवास सहरसाई उक्कोसेण देसूणाई दुविण पलिओ माइं) हे गौतम! धन्यथी दृश डेलर वर्षानी भने उत्ष्टथी ४४ ४भ मे पढ्यो भेटसी वामां भावी छे (नागकुमारीणं भंते ! केवइयं कालं ठिई पण्णत्ता ?) हे महंत ! नागडुभारनी देवीयोनी स्थिति टसी કહેવામાં આવી છે?
उत्तर- (गोयमा ! जहन्ने दसवास सहरसाईं उक्कोसेण देसूण' पलिओवमं) હે ગૌતમ ! જઘન્યથી દશ હજાર વર્ષની અને ઉત્કૃષ્ટથી કઇક કમ એક પલ્ય भेटली हेवामां भावी छे. (एवं जहा नागकुमाराण देवाण' देवीण य तहा जाव थणियकुमाराण देवाणं देवीण य भाणियव्वं) ने प्रभाये नागार हेवानी भने તેમની દેવીઓની સ્થિતિ કહેવામાં આવી છે, તે પ્રમાણે જ સ્તનિતકુમાર सुधीना हेवे। अने तेमनी देवीयोनी स्थिति लखुवी लेहये. (पुढवीकाइ
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३०४
अनुयोगद्वारसूत्रे गौतम १ जघन्येन अन्तर्मुहूर्तम् उत्कर्षेण द्वाविंशति वर्ष सहस्राणि । सूक्ष्मपृथिवीकायिकानाम् औधिकानाम् अपर्याप्तानां पर्याप्तानां च त्रयाणामपि पृच्छा, गौतम ! जघन्येन अन्तर्मुहूर्तम् उत्कर्षेणापि अन्तर्मुहूर्तम् । बादरपृथिवीकायिकानां पृच्छा, गौतम ! जघन्येन अन्तर्मुहूर्तम् उत्कर्षेण द्वाविशति वर्ष सहस्राणि। अपर्याप्तकबादरपृथिवीकायिकानां पृच्छा, गौतम ! जघन्येनापि अन्तर्मुहूर्तम् उत्कर्षेणापि अन्तर्मु. स्तनितकुमार तक के देवों और उनकी देवियां की स्थिति जाननी चाहिये । (पुढवीकाइयाणं भंते! केवयं कालं ठिई पण्णत्ता) हे भदन्त ! पृथिवीकायिक जीवों की स्थिति कितने काल तक की कही गई है ?
उत्तर-(गोयमा ! जहण्णेणं अंतो मुहुत्तं उक्कोसेणं बावीसं घाससहस्साई) हे गौतम ! पृथिवीकायिक जीवों की स्थिति जघन्य से अन्तर्मुहूर्त की और उत्कृष्ट से २२ हजार वर्ष की कही गई है। (सुहमपुढवीकाइयाणं ओहियाण अपज्जत्तयाणं पज्जत्तया ण य तिण्ड वि पुच्छा-गोयमा! जहन्ने णं अंतोमुहत्तं उक्कोसेण वि अंतोमुहुत्त) सामान्य से सूक्ष्म पृथिवीकायिक जीवों की, अपर्याप्तक सूक्ष्म पृथिवीकायिक जीवों की एवं पर्याप्तक सूक्ष्मपृथिवीकायिक जीवों की स्थिति जघन्य और उत्कृष्ट दोनों प्रकार की अंतर्मुहूर्त की है। (बादरपुढवी. काइयाणं पुच्छा-गोयमा! जहन्नेणं अंतोमुहुत्तं उक्कोसेणं बावीसं वाससहस्साई) जो बादर पृथिवीकायिक जीव हैं-उनकी स्थिति, हे गौतम! जघन्य से तो अंतर्मुहर्त की है और उत्कृष्ट से २२, हजार वर्ष की है। (अपज्जत्तगबादरपुढविकाइयाणं पुच्छा-गोयमा! जहन्नेण वि अंतो याण भंते ! केवइयं कालं ठिई पणत्ता) RE ! yथिवीय वान स्थिति કેટલા કાલ સુધીની કહેવામાં આવી છે ! - त्तर-(गोयमा ! जहण्णेण' अंतोमुहुत्तं उक्कोसेण बावीसं वाससहस्साई) હે ગૌતમ! પૃથિવીકાયિક જીવની સ્થિતિ જઘન્યથી અન્તર્મુહર્તાની અને ७४थी २२ १२ वर्षसी वाम मावी छे. (सुहुमपुढवीकाइयाण ओहियाण अपज्जत्तयाण पज्जत्तयाण य तिण्ड वि पुच्छा-गोयमा ! जहन्नेण अंतो मुहुत्तं उक्कोसेणं वि अंतो मुहत्तं) सामान्यथी सूक्ष्म पृथिवीयि वानी અપર્યાપક સૂમ પૃથિવીકાયિક જીની અને પર્યાપ્તક સૂમ પૃથિવીકાયિક ७वानी स्थिति धन्य भनष्ट भन्ने प्रारथी मतभुत्तानी छे. (बादरपुढवीकाइयाण पुच्छो गोयमा ! जहन्नेण अंतोमुत्तं उक्कोसेण बावीसं वास सहस्साई) २ ५.४२ पृथिवीयि । छे, तेमनी स्थिति गौतम ! જઘન્યથી તે અંતર્મુહૂર્તની છે અને ઉત્કૃષ્ટથી ૨૨ હજાર વર્ષ જેટલી છે. (अपज्जचगबादरपुढविकाइयाण पुच्छा-गोयमा! जहन्नेण वि अंतो मुहत्तं
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अनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र २०७ असुरकुमारादीनामायुःस्थितिनिरूपणम् ३०५ हूर्तम् । पर्याप्तकबादरपृथिवीकायिकानां पृच्छा, गौतम ! जघन्येन अन्तर्मुहूर्तम् उत्कर्षेण द्वाविंशति वर्षसहस्राणि अन्तर्मुहूतौनानि । एवं शेषकायिकानामपि पृच्छावचनं भणितव्यम् । अप्कायिकानां जघन्येन अन्तर्मुहूर्तम्, उत्कर्षेण सप्तवर्ष सहमुहुत्त उक्कोसेण वि अंतो मुहुत्त) अपर्याप्तक जो बादर पृथिवीकायिक जीव है उनकी स्थिति जघन्य से और उत्कृष्ट से दोनों ही प्रकार से अंतर्मुहूर्त की है (पज्जत्तगयादरपुढवीकाइयाणं पुच्छा-गोयमा ! जहगणेणं अंतोमुदत्त उक्कोसेणं बावीसं वाससहस्साई अंतो मुहत्तणाई) जो पर्याप्तक बादर पृथिवीकायिक जीव हैं, उनकी स्थिति के विषय के प्रश्न का उत्तर-हे गौतम ! इस प्रकार से है कि-इन जीवों की स्थिति जघन्य से अंतर्मुहर्त की है और उत्कृष्ट से अंतर्मुहूर्त कम २२, हजार वर्ष की है। (एवं सेसकाइयाणं वि पुच्छा वयणं भाणियव्यं) इसी प्रकार से अवशिष्टकायिक जीवों के विषय में भी प्रश्न करना चाहिये-तात्पर्य कहने का यह है कि जिस प्रकार पृथिवीकायिक जीवों के विषय में प्रश्न किया गया है उसी प्रकार से हे भदन्त ! अपकायिक आदि जीवों की स्थिति कितने काल की है-१ इस प्रकार का प्रश्न उद्भावित कर लेना -और जो कुछ आगे अप कहाँ जा रहा है, उसे उत्तर पक्ष के रूप में लगाते जाना चाहिये-(आउकाइयाणं जहन्नेणं अंतोमुहुत्त उक्कोसे गं सत्तवाससहस्साई) अप्कायिक जीवों की स्थिति जघन्य से उक्कोसेण वि अंतोमुहुत्तं) अपयश २ मा१२ पृथिवीयि ७ तेमनी स्थिति धन्यथी मने टथी भन्ने प्रा२नी मत इतनी छ. (पज्जत्तग बादरपुढवीकाइयाण पुच्छा-गोयमा ! जहण्णेण अंतोमुहत्तं उक्कोसेण' बावीसं वाससहस्साइं अंतोमुहुत्तूणाई) २ मा पृथिवीयि । छ, તેમની સ્થિતિના સંબંધમાં જે પ્રશ્ન કરવામાં આવ્યો છે તેને જવાબ આ પ્રમાણે છે. કે હે ગૌતમ! આ છની સ્થિતિ જઘન્યથી અંતર્મુહર્તાની છે भने ४थी मत इत्त भ २२ १२ १५ २८क्षी छ. (एवं सेसकाइयाण' वि पुच्छावयण भाणियव्व) मा प्रभार अपशिष्टय: वाना સંબંધમાં પ્રશ્ન કરવામાં આવે છે, તેમજ હે ભદંત ! અપૂકાયિક વગેરે જીની સ્થિતિ કેટલા કાલની છે? આ જાતને પ્રશ્ન ઉભાવિત કરી લે અને જે કંઈ હવે પછી કહેવામાં આવે છે તેને ઉત્તરના રૂપમાં માની લેવું नसे. (आउकाइयाण जहन्नेण अंतोमुहुत्तं उक्कोसेण सत्तवाससहस्साई) અપ્રકાયિક ની જઘન્યથી સ્થિતિ અંતમુહૂર્તાની છે અને ઉત્કૃષ્ટથી ૭ अ० ३९
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३०६
अनुयोगद्वारसूत्रे
स्राणि । सूक्ष्मा कायिकानाम् औधिकानां पर्याप्तकानाम् अपर्याप्तकानां त्रयाणामपि जघन्येनापि अन्तर्मुहूर्त्तम् | उत्कर्षेणापि अन्तर्मुहूर्तम्, वादराकायिकानां यथा औधिकानां । अपर्याप्तकवादराष्कायिकानां जघन्येनापि अन्तर्मुहूर्तम्, उत्कर्षेणापि अन्तर्मुहूर्त्तम् । पर्याप्त बादराकायिकानां जघन्येन अन्तर्मुहूर्त्तम्, उत्कर्षेण सप्तवर्षअंतर्मुहूर्त की है और उत्कृष्ट से ७ सात हजार वर्ष की है। (सुमआउकाइयाणं ओहियाणं पज्जन्तगाणं तिह वि जहणेण वि अतो मुद्दत्तं उक्कोसेण वि अंतोमुहत) अपूकायिक जीव पृथिवीकायिक जीव की तरह दो प्रकार के होते हैं- एक सूक्ष्म अप्कायिक और दूसरे बादर अप्रकायिक। ये दोनों प्रकार के जीव पर्याप्त और अपर्याप्त के भेद से दो दो प्रकार के और होते है । इसलिये सामान्यरूप से सूक्ष्म अकायिक जीवों की पर्याप्त सूक्ष्म अएकायिक जीवों की एवं अपर्याप्त सूक्ष्म अप्रकायिक जीवों की जघन्य और उत्कृष्ट दोनों प्रकार की स्थिति अंतर्मुहु की है। (वादर आउकाइयाणं जहा ओहियाणं) तथा जो बादर अकायिक जीव है, उनकी जघन्य और उत्कृष्ट स्थिति सामान्य अपकायिक जीवों के जैसी है। (अपज्जत्तगबायर आउकाइयाणं जहणेण वि अंतोमुहुत्तं उक्कोसेण वि अंतोमुहतं) बादर अपकायिक जीवों में जो अपर्याप्तक वादर अप्रकायिक जीव हैं,
હજાર वर्ष भेटली हे. (सुहुम आउकाइयाण ओहियाण पज्जत्तगाण अपज्जत्तगाणं तिण्ड वि जहण्णेण वि अंतोमुहुत्तं उक्कोसेण वि अंतोमुहुत्तं) અપ્રકાયિક જીવા પૃથિવીકાયિક જીવેાની જેમ એ પ્રશ્નારના હાય છે. એક સૂક્ષ્મ અપ્રકાયિક અને બીજા ખાદર અપુષ્ઠાયિક આ બન્ને પ્રકારના જીવે પર્યાસ અને અપર્યાપ્તકના લેદથી ખન્ને પ્રકારના હાય છે. એથી સામાન્ય રૂપથી સૂક્ષ્મ અાયિક જીવેાની પર્યાપ્ત સૂક્ષ્મ અસૂકાયિક જીવેાની અને અપર્યાપ્ત સૂક્ષ્મ અાિયિક જીવાની જઘન્ય અને ઉત્કૃષ્ટ બન્ને પ્રકારની સ્થિતિ
तर्तनी छे. (बादर आउकाइयाण जहा ओहियाण) तेमन भे માદર અપ્રકાયિક જીવેા છે, તેમની જધન્ય અને ઉત્કૃષ્ટ સ્થિતિ સામાન્ય અપ્રિયક
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वो लेवी ४ थे. ( अपज्जत्तग बादरआउकाइयाणं जहणेण वि अंतोमुहुत्तं उक्कोसेण वि अंतोमुत्तं) जाहर माथि भवेोमां ने अपर्याप्त महर કાયિક જીવે છે, તેમની સ્થિતિ જઘન્યથી અંત ત્તની છે અને ઉત્કૃષ્ટથી પણુ अन्तर्मुडूत॑नी छे. (पज्जत्तगबादआउकाइयाण जहणेण अंतोमुडुतं उक्कोसेण सत्त
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अनुयोगचन्द्रिका ठोका सूत्र २०७ असुरकुमारादीनामायुः स्थिति निरूपणम् ३०७
सहस्राणि अन्तर्मुहूर्तेनानि । तेजस्कायिकानां जघन्येन अन्तमुहुर्त्तम् उत्कर्षेण त्रीणि रात्रिन्दिवानि सूक्ष्म तेजस्कायिकानाम् औधिकानाम् अपर्याप्तकानां पर्याप्तकानां श्रयाणामपि जघन्येनापि अन्तर्मुहूर्तम् उत्कर्षेणापि अन्तर्मुहूर्तम् । बादरतेजस्कायिकानां जघन्येन अन्तर्मुहुर्तम्, उत्कर्षेण त्रीणि रात्रिन्दिवानि कादर तेजस्कायिकानां जघन्येनापि अन्तर्मुहूर्तम्, उत्कर्षेणापि अन्तउनकी स्थिति जघन्य से तो अंतर्मुहर्त की है और उत्कृष्ट से भी अन्तमुहूर्त की है। 'पज्जन्त्तगबादर आउकाइयाणं जहणणं अंतोमुहसं उक्को सेणं सत्तवाससहस्साई अंतोमुहुत्तूणाई' बादर अप्रकायिक जीवों में जो पर्याप्तक बांदरअपकायिक जीव है उनकी स्थिति जघन्य से तो अंतर्मुहूर्त की है और उत्कृष्ट से एक अन्तर्मुहूर्त्त कम ७ सात हजार वर्ष की है । (तेकाइयाणं जहणणं अंतो मुहुत्तं उक्काणं तिष्णि राईदियाई ) तेजस्कायिक की स्थिति जघन्य से एक अंतर्मुहूर्त की और उत्कृष्ट से तीन अहोरात्र की है। (सुमकाइयाणं ओहियाणं अपज्जन्त्तगाणं पज्जन्तगाणं तिन्ह वि जहणेण वि अंतोन्तं उक्को सेण वि अंतोमुहन्त) सामान्यरूप से सूक्ष्म तेजस्कायिक जीवों की अपर्यातक सूक्ष्म तेजस्कायिक जीवों की और पर्यासक सूक्ष्म तैजसकाधिक जीवों की स्थिति जघन्य से भी अन्तर्मुहूर्त्त की है और sense से भी अन्तर्मुहूर्त्त की है । (बादर ते काइयाणं जहणेण अंत' उक्को से णं तिष्णि राईदियाई) जो तेजस्कायिक जीव में बादर तैजसकायिक जीव हैं उनकी जघन्य से तो स्थिति एक अंतर्मुहूर्त्त की है और उत्कृष्ट से तीन अहोरात्र की है । (अपज्जन्तगबादरते उकाइयाणं जहणणेण वि अंनोमुहत्तं उक्कोसेण वि अंतोवाखस्रहस्साइं अंतो मुहुत्तणाइं) महर माथि वामां के पर्याप्त महर - કાયિક જીવા છે, તેમની સ્થિતિ જઘન્યથી તેા અંતર્મુહૂત્તની અને ઉત્કૃષ્ટથી
अन्तर्भुतं उभ सात डलर वर्ष भेटसी छे. (तेउकाइयाण जहणेण अंतोमुहुत्तं उक्कोसेण' तिष्णि राईदियाई) तेनायनी स्थिति न्धन्यथी शेड मतडूर्त्तनी भने उत्सृष्टथी त्र आहे रात्र भेटसी छे. ( सुहुमते उक! इयाण' ओहियाण' अपज्जत्तगाण' पज्जत्तगाण' तिन्ह वि जहणणे ण वि अंतोमुहुत्तं उक्कोसेण वि अंतोमुहुत्तं) सामान्य उपथी सूक्ष्म तेस्माथि भवानी पर्याप्त सूक्ष्म તેજસ્કાયિક જીવેાની અને પર્યાપ્ત સૂક્ષ્મ તેજસ્કાયિક જીવાની સ્થિતિ જધન્યથી પણુ અન્તમુહૂત્તની છે અને ઉત્કૃષ્ટથી પણુ અન્તર્મુહૂત્તની છે. (बादर तेउकाइयाणं जहणेण अंतोमुहुत्तं उक्कोसेण तिष्णि राईदियाई) ले તેજસ્કાયિક જીવમાં બાદર તૈજસ્ક યિક છવા છે, તેમની જધન્યથી તા સ્થિતિ એક મહતમ ની છે અને ઉત્કૃષ્ટથી ત્રણ અહારાત્ર જેટલી છે. (अपज्जनवादरते उकाइयाणं जहणेण वि अंतोमुद्दत्तं उक्कोसेण वि अंतोम
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अनुयोगद्वारसूत्र मुहूर्तम् । पर्याप्तकवादरतेजस्कायिकानां जघन्येन अन्तर्मुहर्तम् , उत्कर्षेण त्रीणि रात्रिन्दिवानि अन्तर्मुहूत्तौनानि । वायुकायिनां जघन्येन अन्तमुहूर्तम्, उत्कर्षण त्रीणि वर्षसहस्राणि । सूक्ष्मवायुकायिकानाम् औधिकानाम् अपर्याप्तकानां पर्याप्तकानां च त्रयाणामपि जघन्येनापि अन्तर्मुहूर्तम्, उत्कषेणापि अन्तमुंहतम् । बादरवायुकायिकानां जघन्येन अन्तर्मुहूर्तम् , उत्कर्षेण त्रीणि वर्षमुहत) जो तैजसकायिक जीवों में अपर्याप्तक बादर तैजसकायिक जीव हैं। उनकी जघन्य से भीअन्तर्मुहूर्त की है और उत्कृष्ट से भी अन्तमुहूर्त की है। (पज्जत्तगयादरतेउकायझ्याणं जहण्णेणं अंतो मुहुत उक्कोसेणं तिण्णि राईदियाई अंसोमुहत्तूणाई) तैजसकायिक जीवों में जो पर्याप्तक पादर तैजसकायिक जीव है उनकी स्थिति जघन्य से एकअंतर्मुहूर्त की है और उत्कृष्ट से तो एक अंतर्मुहूर्त कम तीन अहोरात्र की है । (वाउकाइयाणं जहण्णे. णं अंमो मुहत्तं उक्कोसेणं तिणि वाससहस्साई) वायुकायिक जीवों की स्थिति जघन्य से तो अन्तर्मुहर्त की है और उत्कृष्ट से तीन हजार वर्ष की है। (सुहमवाउकाइयाणं ओहियाणं अपज्जत्तगाणं पज्जत्तगाण य तिण्ह वि जहण्णेण वि अंतोमुहुत उक्कोसेणं वि अंतो मुहुत्त) सामान्य से सूक्ष्म वायुकायिक जीवों की अपर्याप्तक और पर्यातक सूक्ष्मवायुकायिक जीवों की स्थिति जघन्य से और उत्कृष्ट से एक अंतर्मुहूर्त की है । (पादरवायुकाइयाणं जहण्णेण अंतोमुहत्तं उक्कोसेणं हुत्त) २ त143 Wwi सपर्या मा२ यि ७३ . તેમની સ્થિતિ જઘન્યથી પણ અન્તમુહૂર્ત જેટલી છે. અને ઉત્કૃષ્ટથી પણ मन्तभुडूतनी छ. (पज्जत्तगवादरतेउकाइयाण' जहण्णेण अंतोमुहुत्तं उक्को. सेण तिण्णि राइंदियाई अंतोमुहुत्तूणाई) ते॥२४॥थि: मरे पति माइ२ તેજકાયિક જીવે છે, તેમની સ્થિતિ જઘન્યથી તે એક અન્તમુહૂર્ત કમ ત્રણ पाडारा २८सी छे. (वउकाइयाण' जहण्णेण अंतोमुहुत्तं उक्कोसेण तिणि वाससहस्साई) वायुयि वानी स्थिति धन्यथी तो मन्तभुइतनी छ भने अष्टथी र २ वर्ष २सी छे. (सुहमवाउकाइयाण ओहियाण अपउत्तगाण पज्जत्तगाण य तिण्ह वि जहण्णेण वि अंत मुहत्तं उक्कोसेण वि अंतोमहत्त) सामान्यथी सूक्ष्म वायुवि वानी अपर्याप्त अने पर्याप्त સૂમ વાયુકાયિક જીવોની સ્થિતિ જઘન્યથી અને ઉત્કૃષ્ટથી એક અંતર્મુહૂર્ત २क्षी छ. (बादरवाउकाइयाण जहण्णेण अंतोमुहुत्तं उक्कोसेण तिण्णि वास
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अंगकाठीका सूत्र २०३ अनुरकुमार दी नामायुः स्थिति निरूपणम् ३०९ सहस्राणि । अपर्याप्तकवादरवायुकायिकानां जघन्येनापि अन्तर्मुहूर्तम्, उत्कर्षे - णापि अन्तमुहूर्तम् । पर्याप्तकवादरवायुकायिकानां जघन्येन अन्तर्मुहूर्तम् उत्कर्षेण श्रीणि वर्षसहस्राणि अन्तर्मुहूर्तीनानि । वनस्पतिकायिकानां जघन्येन अन्तर्मुहूर्तम्, उत्कर्षेण दशवर्षसहस्राणि । सूक्ष्मवनस्पतिकायिकानाम् औधिकानाम् अपर्याप्तकानां पर्याप्तकानां च त्रयाणामपि जघन्येनापि अन्तर्मुहूर्तम्, उत्कर्षेणापि अन्तर्मुहूर्तम् । तिष्णि वाससहस्साइं ) बादर वायुकायिक जीवों की स्थिति जघन्य से एक अन्तर्मुहूर्त की है और उत्कृष्ट से तीन हजार वर्ष की है । (अपज्जत्तगबादरवा उकाइयाणं जहन्नेण वि अंतोमुहन्तं उक्कोसेण वि अंतमुतं) अपर्याप्त वादरवायुकायिक जीवों की जघन्य और उत्कृष्टस्थिति एक अन्तर्मुहूर्त की है। (पज्जन्सग बादरवायुकाइयाणं जहणणं अंतोन्तं उकोसेणं तिष्णि वाससहस्साई अंतोमुचूणाई) पर्याar वायुकाधिक जीवों की जघन्य से तो स्थिति एक अन्तर्मुहूर्त की है और उत्कृष्ट से अन्तरमुहूर्त्त कम तीन हजार वर्ष की है । ( वणसइकाइयाणं जहणणं अंतो मुद्दत्तं उक्कोसेणं दसवास सहस्ताइ ) वनस्पतिकायिक जीवों की स्थिति जघन्य से एक अन्तर्मुहूर्त्त की है और उत्कृष्ट से दस हजार वर्ष की है । ( सुहमवणस्सइकाइयाणं ओहियाणं अपज्जन्तगाणं पज्जत्तगाणय तिन्ह वि जहणणे वि अंतो मुहतं उक्कों सेण वि अंतो मुहुत्त ) सूक्ष्म वनस्पतिकायिक जीवों की अपर्याप्त वनस्पतिकायिक जीवों की और पर्यातक वनस्पतिकायिक
सहस्साइं) बाहर वायुअयि भवानी स्थिति धन्यथी खेड अन्तर्मुहूर्त्तनी छे भने उत्कृष्टथी त्रयु डेभर वर्ष भेटसी छे (अपज्जत्तगबादरवा उकाइयाणं जहन्नेण वितोमुत्तं उक्कोसेण वि अंतोमुहुत्तं) अपर्यास महरवायुअयि भवानी
धन्य भने उत्कृष्ट स्थिति मे अन्तर्मुहूर्त भेटसी छे. (पज्जन्त्तगबादरवायुकाइयाणं जहणणेणं अंतोमुहुत्तं उक्कोण तिष्णि वाससहस्साई अंतोमुहुतછળ ) પર્યાપ્ત વાયુકાયિક જીવાની જઘન્યથી તે એક અંતર્મુહૂત્ત જેટલી સ્થિતિ છે. અને ઉત્કૃષ્ટથી અન્તર્મુહૂત્ત કમ ત્રણ હજાર વર્ષ જેટલી છે. (वणस्वइकाइयाणं जहणणेणं अतोमुहुत्तं उक्कोसेणं दखवास सहरसाई) वनस्पतिકાયિક જીવાની સ્થિતિ જઘન્યથી એક અન્ત'હૂત્ત જેટલી છે અને ઉત્કૃષ્ટથી हश हर वर्ष भेटली छे. ( मुहुमवणरस इकाइयाण ओहियाण अपज्जन्तगाण पज्जत्तगण य तिण्ड् वि जहणेण वि अंतोमुहुत्तं उकोसेण वि अतोमुद्दत्तं ) सूक्ष्म વનસ્પતિકાયિક જીવેાની અપર્યાપ્તક વનસ્પતિકાયિક જીવાની અને પર્યાપ્તક
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३१०
अनुयोगद्वारसूत्र बादरवनस्पतिकायिकानां जघन्येन अन्तर्मुहूर्तम्, उत्कर्षेण दशवर्ष सहस्राणि । अपर्याप्तकवादरवनस्पतिकायिकानां जघन्येनापि अन्तर्मुहूर्तम् , उत्कर्षेणापि अन्तर्मुहूर्तम्। पर्याप्त कबादरवनस्पतिकायिकानां जघन्येन अन्तर्मुहूर्तम् उत्कर्षण दशवर्षसहस्राणि अन्तर्मुहू गौनानि । द्वीन्द्रियाणां भदन्त । कियन्तं कालं स्थितिः प्रज्ञता ? गौतम जघन्येन अन्तर्मुहूर्तम् , उत्कर्षेण द्वादशसंवत्सरान् । अपर्याप्तकद्वीन्द्रियाणां जीवों की स्थिति जघन्य से और उस्कृष्ट से एक अन्तर्मुहूर्त की है। (बादरवणस्लाकाइयाणं जहणणं अंमो मुहत्तं इकोसेणं दसवास सहस्साई) बादरवनस्पतिकायिक जीवों की स्थिति जघन्य से एक अन्तर्मुहूर्त की है और उत्कृष्ट से दस हजार वर्ष की है। (अपज्जत्तग बादरवणस्सइकाइयाणं जहण्णे ग वि अंतोमुहूतं उक्कोसेण वि अंतोमु. हुतं ) अपर्यातक पादरवनस्पलिकाधिक जीवों की स्थिति जघन्य से भी एक अंतर्मुहर्त की है और उस्कृष्ट से भी एक अन्तर्मुहूर्त की है। (पज्जत्तगपादरवणसइ काझ्याणं जहण्णेणं अंगोमुहुत्तं उक्कोसेणं दसवाससहस्साई अंतोमुत्तुगाई) पर्याप्तक चादर वनस्पतिकायिक जीवों की जघन्य से स्थिति तो एक अन्तरमुहूर्त की है और उत्कृष्ट से अन्तर्मुहूर्त कम दश हजार वर्ष की है। (वेह दिया णं भंते ! केवयं कालं ठिई पण्णत्ता) हे भदन्त ! बीन्द्रिय जीवों की स्थिति कितने काल तक की कही गई है ?
उत्तर-(गोयमा! जहण्णणं अंतो मुहत्तं उक्कोसेणं घारस संबच्छ. વનસ્પતિકાયિક જીવોની સ્થિતિ જઘન્યથી અને ઉત્કૃષ્ટથી એક અન્તર્મુહૂર્ત २८सी छ. (बादरवणस्सइकाइयाण' जहण्णेण' अंतोमुहुत्तं उक्कोण दसवासमहस्साई) मा६२ नति48 वानी स्थिति धन्यथा मे अन्त इतना के मन रथी १०२ १ २८वी छ. (अपज्जत्तगबादरवणस्स इकाइयाण जहण्णेण वि अंतोमुहुत्तं उक्कोसेण वि अंतोमुहुत्तं) अपर्याप्त माह बनस्पतिथि: જીવની સ્થિતિ જઘન્યથી પણ એક અંતમુહૂર્તાની છે. અને ઉત્કૃષ્ટથી પણ એક मत इतनी छ. (पज्जत्तगबादरवणस्सइकाइयाण जहण्णेण अंतोमुहुत्तं उक्कोसेण इसवामसहस्साई अंतोमुहूत्तूणाई) ५ मा४२ वनस्पतिथि: वानी ४. ન્યની અપેક્ષાએ સ્થિતિ તે એક અંતમુહૂર્તની છે અને ઉત્કૃષ્ટથી અંતર્મહત્ત मशार १२८सी छे. (बेइंदियाण भंते ! केवइयं कालं ठिई पण्णत्ता) ભત! કીન્દ્રિય ની સ્થિતિ કેટલા કાલ સુધીની કહેવામાં આવી છે?
उत्तर-(गोयमा ! जहण्णेण अंतोमुहुत्तं उक्कोण बारससंवन्छराणि) :
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अनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र २०७ असुरकुमारादीनामायुःस्थितिनिरूपणम् ३११ पृच्छा, गौतम ! जघन्येनापि अन्तर्मुहूर्त्तम् , उत्कर्षेणापि अन्तर्मुहर्तम् , पर्याप्तकद्वीन्द्रियाणां जघन्येन अन्तर्मुहूर्तम् , उत्कर्षेण द्वादशसंवत्सरान् अन्तर्मुहूत्तॊनान् । त्रीन्द्रियाणां पृच्छा गौतम ! जघन्येन अन्तर्मुहूर्तम् , उत्कर्षेण एकोनपश्चाशत् रात्रिन्दिवानि । अपर्याप्तक त्रीन्द्रियाणां पृच्छा, गौतम ! जघन्येनापि अन्तर्मुहूर्तम् , उत्कर्षेणापि अन्तर्मुहूर्तम् । पर्याप्तकत्रीन्द्रियाणां पृच्छा गौतम! जघन्येन अन्तर्मुहूर्तम् , उत्कर्षेण एकोनपश्चाशत् राबिन्दिवानि अन्तर्मुहत्तौनानि । चतुरिन्द्रयाणां भदन्त ! राणि) हे गौतम ! जघन्य से तो द्वीन्द्रिय जीवो की स्थिति एक अन्तमुहूर्त की है और उस्कृष्ट से १२ वर्ष की है। (अपज्जत्तगवेइंदियाणं पुच्छा-गोयमा ! जहण्णण वि अंतोमुहत्तं उक्कोसेण वि मुहुत्तं) अपप्तिक दोइन्द्रिय जीवों की स्थिति हे गौतम ! जघन्य से भी अन्तर्मु. हूर्त की है और उस्कृष्ट से भी अन्तर्मुहर्त की है। (पज्जत्तगयेइंदियाण जहन्नेणं अंतोमुहत्तं उक्कोसेण अंतोमुहुत्तूणाई पारस संवच्छ. राणि ) पर्याप्तक दो इन्द्रिय जीवों की स्थिति जघन्य से अंतर्मुहर्त की है और उत्कृष्ट से अन्तरमुहूर्त कम १२ वर्ष की है। (ते इंदियाण पुच्छा गोयमा ! जहन्नेण अंतोमुहत्तं उक्कोसेणं एगणपण्णासं राई दियाई) ते इन्द्रिय जीवों की स्थिति हे गौतम ! जघन्य से अंतर्मुहूर्त की है और उस्कृष्ट से ४९ अहोरात्र की है। (अपज्जत्तगतेइंदियाणं पुच्छा-गोयमा ! जहण्णेण वि अंतो मुहत्तं उक्कोसेण वि अंतो मुहुत्त) अपर्याप्तक ते इन्द्रिय जीवों की स्थिति जघन्य से भी अन्तमुहर्त की और उत्कृष्ट से भी अन्तर्मुहूर्त की है। (पज्जत्तगतेइंदियाणं ગૌતમ! જઘન્યની અપેક્ષાએ તે દ્વીન્દ્રિય જીવોની સ્થિતિ એક અન્તર્મુહની छ भने यी १२ वर्ष २८क्षी छ. (अपज्जत्ताबेइंदियाण' पुच्छा-गोयमा! जहण्णेण वि अंतोमुहुत्तं उक्कोसेण वि अंतोमुहुत्त) अ५f४ मेन्द्रिय જીની સ્થિતિ હે ગૌતમ! જઘન્યની અપેક્ષાએ પણ અન્તર્મુહૂર્ત છે અને Gटनी मपेक्षा ५ मन्तभुत्तानी छे, (पज्जत्तगबेइंदियाण जहन्नेण अंतोमुहत्तं उक्कोसेण अंतोमुत्तूणाई बारससंवच्छराणि) पयास मेन्द्रिय જીની સ્થિતિ જઘન્યની અપેક્ષાએ અંતર્મુહૂર્ત જેટલી છે અને ઉત્કૃષ્ટથી सन्तत ४८ १२ १२८मी छे. (तेइंदियाण पुच्छा गोयमा ! जान्नेण' अंतोमुहुत्तं उक्कोण एगूणपण्णासं राइंदियाई) तेन्द्रिय वानी स्थिति ગૌતમ! જઘન્યથી અન્તર્મહત્ત્વની છે અને ઉત્કૃષ્ટની અપેક્ષાએ ૪૯ અહે. रात्र २८सी छे. (अपज्जत्तग तेइंदियाण पुच्छो गोयमा! जहण्णेण वि अंतोमुहत्तं उक्कोसेण वि अंतो मुहत्तं) सपर्या तेन्द्रिय वानी स्थिति ४५. ન્યની અપેક્ષાએ પણ અન્તર્મુદ્દત્તની છે. અને ઉત્કૃષ્ટથી પણ અંતર્મુહૂર્તની
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३१२ .
अनुयोगद्वारसूत्रे कियन्तं कालं स्थितिः प्रज्ञता ? गौतम ! जघन्येन अन्तर्मुहूर्तम् , उत्कर्षेण षण्मासान् । अपर्याप्तकचतुरिन्द्रयाणां पृच्छा, गौतम ! जघन्येनापि अन्तर्मुहूर्त्तम् , उत्कर्षेणापि अन्तर्मुहूर्तम् । पर्याप्तकचतुरिन्द्रयणां पृच्छा, गौतम ! जघन्येन अन्तमुहूर्तम् , उत्कर्षेण षण्मासान् , अन्तर्मुहौनान् । पश्चेन्द्रियतिर्यग्योनिकानां भदन्त ! कियन्तं कालं स्थितिः प्रता ? गौतम जघन्पेन अन्तर्मुहूर्तम् , उत्कर्षेण त्रीणि पुच्छा-गोयमा जहण्णेणं अंतो मुहुत्त उक कोसेण अंतोमुहुत्तूणाई एगूण पण्णासं राईदियाई ) पर्याप्तक तेइन्द्रिय जीवों की स्थिति जघन्य से तो अन्तर्मुहूर्त की है और उत्कृष्ट से अन्तर्मुहूर्त कम ४९ दिन की है। (चरिदियाणं भंते ! केवइयं कालं ठिई पण्णत्ता ?) हे भदन्त ! चौइन्द्रिय जीवों की स्थिति कितने काल की कही गई है ?
उत्तर-गोयमा ! जहणेणं अंतो मुहुत्त उक्कोसेणं छम्मासा) हे गौतम ! जघन्य से तो अन्तर्मुहर्त को कही गई है और उत्कृष्ट से छह महिने की गई है। (अपजत्तगचउरिदियाण पुच्छा-गोयमा! जहण्णण वि अंतोमुहत्तं उकोसेण वि अंतोमुहुत्तं) अपर्याप्तक चौईन्द्रिय जीवों की स्थिति जघन्य से भी अन्तर्मुहूर्त की कही गई है और उत्कृष्ट से भी अन्तमुंहत की कही गई है । (पज्जत्तगचउरिदियाणं पुच्छा-गोयमा! जहण्णे ण अंगोमुत्तं उकोसेणं अंगोमुत्तूणा छम्मासा) पर्याप्तक चौइन्द्रिय जीवों की स्थिति जघन्य से तो अन्तर्मुहूर्त की है-और उत्कृष्ट से अंतमुहूर्त छ. (पज्जलगतेइंदियाण पुच्छा-गोयमा ! जहण्णेण' अंतोमुहुत्तं उफ्कोसेण अंतोमुहुत्तूणाई एगणपण्णासं राईदियाई) ५या तेन्द्रिय ७वानी स्थिति જઘન્યથી તે અત્તમુહૂત્તની છે અને ઉત્કૃષ્ટની અપેક્ષાએ અત્તમુહૂર્ત કમ ४८ 6ि रेसी छ. (चरिंदियाण भंवे! केवइयं कालं ठिई पण्णत्ता) १ है ભદત! ચ ઈન્દ્રિય જીવોની સ્થિતિ કેટલા કાલની કહેવામાં આવી છે?
___Gत्तर-(गोयमा! जहण्णेणं अंतोमुहुत्तं उक्केसेणं छम्मासा) गीतम! જઘન્યની અપેક્ષાએ તે અતમુહૂર્તની કહેવામાં આવી છે અને ઉત્કૃષ્ટની अपेक्षा छ भासनी अवामां आवी छे. (अपज्जत्तगचउरिदियाणं पुच्छागोयमा ! जहण्णेण वि अंतोमुहत्तं उक्केसेण वि अंतो मुहत्तं) २५५४ यौछન્દ્રિય જીવોની સ્થિતિ જઘન્યની અપેક્ષાએ પણ અન્તમુહૂર્ત જેટલી કહે. વામાં આવી છે. અને ઉત્કૃષ્ટની અપેક્ષાએ પણ અતર્મહત્ત જેટલી કહેવામાં भावी छ. (पज्जत्तगचउरिदियाणं पुच्छा-गोयमा ! जहण्णेणं अंतोमुहत्तं उक्कोसेणं अंतोमुहत्तूणा छम्मासा) पनि यौन्द्रिय वानी स्थिति न्यनी અપેક્ષાએ તે અન્તર્મુહૂત્ત જેટલી છે. અને ઉત્કૃષ્ટથી અંતમુહૂર્ત કમ
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अनुयोगक्षन्द्रिका टीका सूत्र २०७ असुरकुमारादीनामायुःस्थिति निरूपणम् ३१३
पल्पोपमानि । जलचरपञ्चन्द्रियतियरमोनिकानां भदन्त ! कियन्तं कालं स्थितिः प्रज्ञताः ? गौतम ! जघन्येन अन्तर्मुहूर्तम् , उत्कर्षेण पूर्वकोटिः। संछिमजलचरपञ्चेन्द्रिगतियग्योनिकानां पृच्छा, गौतम ! जघन्येल अन्तर्मुहर्तम् , उत्कर्षण कम छह मास की है। (पंचेदियतिरिक्खजोणियाणं भंते ! केवयं कालं ठिई पण्णता ?) है भदन्त ! पंचेन्द्रियतियश्चों की स्थिति कितने काल की कही गई है ?
उत्तर:- (गोयमा-जहण्णेणं अंतोमुहुत उक्कोसेणं तिणि पलिओषमाई) हे गौतम पंचेन्द्रिय तिर्यश्चों की स्थिति जघन्य से तो अति मुहूर्त की कही गई है उस्कृष्ट से तीन पल्योपग की कही गई है । (जल. यरपंचेदियतिरिक्खोणियाणे भंते ! केवयं कालं ठिई पण्णता?) हे भदन्त ! जो जलचर तिर्यश्च पंचेन्द्रियजीव हैं उनकी स्थिति कितने काल की ज्ञप्त हुई है ?
उत्तर:---(गोगमा ! जहण्णेणं अंतोनुहुत उक्कोसेणं पुचकोडी) हे गौतम ! जलचर तिर्यञ्चपंचेन्द्रिय जीवों की स्थिति जघन्य से तो अन्तर्मुहूर्त की प्रज्ञप्त हुई है और उत्कृष्ट से एक पूर्वकोटि की अर्थात् एक करोड़ पूर्व की। (संतुच्छिमजलयरपंचेदियतिरिक्खजोणियाणं पुच्छा गोषमा जहण्डोगं अंतोमुहत उक्कोसेगं पुचकोडी) जो जल. भास २८सी. (पंवेदियतिरिक्खजोणियोणं भंते ! केवइयं कालं लिई पण्णत्ता ?) હે સદંત ! પંચેન્દ્રિય તિર્યચેની સ્થિતિ કેટલા કાલ જેટલી કહેવામાં આવી છે?
उत्तर-(गोयमा ! जहण्णेणं अंतोमुहुत्तं उक्कोसेणं तिण्णि पलिओवमाई) હે ગૌતમ ! પંચેન્દ્રિય તિર્યંચોની સ્થિતિ જઘન્યની અપેક્ષાએ તે અન્તર્મહૂની કહેવામાં આવી છે. અને ઉત્કૃષ્ટધી ત્રણ પામ જેટલી કહેવામાં भावी छे. (जल परपंचेदियतिरिक्खजोणियाणं भते ! केवइयं कालं ठिई पण्णत्ता ?) ३ मत ! २ सय२ तिय य ७॥ छ, तमनी स्थिति કેટલા કાલની પ્રજ્ઞપ્ત થયેલી છે ?
उत्तर-(गोधमा ! जहणेणं अंतोमुहत्तं उकेसेणं पुव्व कोडी) गीतम! જલચર તિર્યંચ પંચેન્દ્રિય જીવોની સ્થિતિ જઘન્યની અપેક્ષાએ તે અનન્તમુહૂર્તની પ્રજ્ઞપ્ત થયેલી છે. અને કૃદની અપેક્ષાએ પણ એક પૂર્વ કોટિની सेट से 3 पूनी प्रज्ञ सी. (समुच्छिमजलयरपंचेदियतिरिक्ख. जोणियाणं पुन्छ गोयमा ! जहणेणं अंतोमुहुत्तं उक्कोसेणं पुबकोडी) हे गौतम !
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अनुयागद्वारसूत्रे
पूर्वकोटिः । असं मूर्छिम जलचरपञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनिकानां पृच्छा, गौतम ! जघन्येनापि अन्तर्मुहूर्तम्, उत्कर्षेणापि अन्तर्मुहूर्त्तम् | पर्याप्त संच्छिमजलचरपञ्चेन्द्रिय तिर्यग्योनिकानां पृच्छा गौतम ! जघन्येन अन्तर्मुहूर्त्तम् उत्कर्षेण पूर्वकोटि अन्तर्मुहतौना । गर्भव्युत्क्रान्तिकजलचरपञ्चेन्द्रिय तिर्यग्योनिकानां पृच्छा, गौतम ! जयन्येन अन्तर्मुहूर्त्तम्, उत्कर्षेण पूर्वकोटिः । अपर्याप्तगर्भव्युत्क्रान्तिक घर तिश्च पंचेन्द्रिय जीव संमूच्छिमजन्म वाले हैं उनकी स्थिति जघन्य से मुहूर्त की है और उष्कृष्ट से १ करोड पूर्व की है । ( अपज्जसमुच्मि जल पर पंचेंदियतिरिक्ख जोणियाणं पुच्छा - गोयमा ! जपणेगवितोमुत्त उनकोसेण वि अंनोमुत्त) संमूच्छिमजन्मवाले जलचर पंचेन्द्रिय तिर्यञ्च जीवों में जो अपर्यातक संमूच्छिमजमवाले जलचर पंचेन्द्रियतिर्यञ्च जीव है उनकी स्थिति जघन्य और उत्कृष्ट दोनों प्रकार से अंतर्मुहूर्त की है । (पज्जत्तय संमुच्छिमजलयरपंच दियतिरिक्ख जोणिवाणं पुच्छा-गोषमा! जहणेणं अंतोमुहत्त उक्कोसेणं अंतोमुत्तणा पुत्रबकोंडी) जो पर्याप्तक संमूच्छिम पंचेन्द्रिय जलचर तिर्यश्च है, उनकी स्थिति जघन्य से तो अंतर्मुह की है और उत्कृष्ट से अंतर्मुहर्त्तकम एक करोपूर्व की है। ( गग्भवक्कंतिय जल पर पंचेंद्रियतिरिक्खजोणियाणं पुच्छा-गोषमा ! जहणेणं अंतमुहरु उक्कोसेर्ण पुoयकोडी) गर्भजन्मवाले जो पंचेन्द्रिय जलचरतिर्यश्च है, उनकी स्थिति हे गौतम जघन्य જે જલચર પાંચેન્દ્રિય જીવે સમૂમિ જન્મવાળા છે. તેમની સ્થિતિ જાન્યની અપેક્ષાએ અંતર્મુહૂત્તની છે. અને ઉત્કૃષ્ટથી ૧ કરોડ પૂની છે. (अपज्जतासंमुच्छि जलयर पंचेद्दियतिरिक्ख जोणिगाणं पुच्छा - गोयमः ! जहणेणं वि अंतोमुत्तं उकोसेण वि अतो मुहुत्तं सभूमि नन्सवाना ४सयर पथेન્દ્રિય તિય ચ જીવેામાં જે અપર્યાપ્તક સમૂચ્છિ॰મ જન્મવાળા જલચર ૫'ચેન્દ્રિય તિયચ જીવે છે, તેમની સ્થિતિ જઘન્ય અને ઉત્કૃષ્ટ બન્ને પ્રકારે અંત भुनी छे. तसं मुजि उरपंच दियतिरिक्खजोगियाणं पुच्छा गोयमा ! जणे गं अंतोमुडुत्तं उनकोसेणं अतोमुडुतूणा पुव्वकोडी) ने पर्याप्त सभूमि पथेन्द्रिय सथर તિય ચેા છે, તેમની સ્થિતિ જઘન્યની અપેક્ષાએ તા અંતર્મુહૂત્ત'ની છે અને ઉત્કૃષ્ટથી અતર્મુહૂત્ત ન્યૂન એક કરોડ પૂર્વી જેટલી छे. (गभव कति व जलयरपंच दिगतिरिक्खजोणियाणं पुच्छा गोयमा ! - जह
अंतमहुतं कोण पुत्रकोड़ी गर्मन्सवाला ने पंचेन्द्रिय તિય ચે છે, તેમની સ્થિતિ હૈ ગૌતમ ! જન્યની અપેક્ષાએ તેા
सयर
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અંતર્મુ
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अनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र २०७ असुरकुमारादीनामायुःस्थितिनिरूपणम् ३१५ जलचरपञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनिकानां पृच्छा, गौतम ! जघन्येनापि अन्तर्मुहूर्तम् , उत्कर्षेणापि अन्तर्मुहूर्तम् । पर्याप्तकगर्भव्युत्क्रान्तिक, जलचरपञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनिकानां पृच्छा, गौतम ! जघन्येन अन्तर्मुहूर्तम् , उत्कर्षण पूर्वकोटिः, अन्तरर्मुहूततॊना । चतुष्पदस्थल वरपञ्चेन्द्रियतिर्यम्पोनिकानां पृच्छा, गौतम ! जघन्येन अन्तर्मुहूर्तम् , उत्कर्षण त्रीणि पल्योपमानि । संमूछिमचतुष्पदस्थलचरपञ्चेन्द्रियसे तो अंतर्मुहर्त की है और उत्कृष्ट से १ एक करोड़ पूर्व की है। (अपज्जत्तगगभवतियजलयरपंचेंदियतिरिक्खजोणियाणं पुच्छागोयमा! जहण्णे ग वि अंतोमुहत्तं उक्कोसेण वि अंतोमुहत्त) जो अपप्तिक गर्भजन्मवाले जलचर तिर्यश्चपंचेन्द्रिय जीव है, उनकी स्थिति जघन्य से और उत्कृष्ट से दोनों प्रकार से भी अंतर्मुहूर्त की है । (पज्जत्तगगम्भवतियजलयरपंचेदियत्तिरिक्खजोणियाणं पुच्छागोयमा जहण्णेणं अंतोमुहत्तं उककोसेणं अंतोमुत्तुणा पुधकोडी) जो गर्भ जन्मवाले पंचेन्द्रिय जलचर तिर्यश्चपर्यातक हैं, उनको स्थिति जघन्य से तो अंतर्मुहूर्त की है, और उत्कृष्ट से अंतर्मुहूतन्यून एक करोड़पूर्व की है। (चउपयथलयरपंचिंदियतिरिक्ख जोणियाणं तिणि पलिओ. वमाई) जो थलचर पंचेन्द्रियतिर्यश्च चतुष्पद है, उनकी स्थिति जघन्य से अंतर्मुहूर्त की है और उस्कृष्ट तीन पल्योपम की है। (समुच्छिमचउप्पयथलचरपंचेदियतिक्ख जोणियाणं पुच्छा गोयमा ! जहण्णेणं इत्तरी छ भने उत्कृष्ट थी १ ४३३ पूर्व रेकी छे. (अपज्जत्तग गम्भवतियजल यरपंचेंदियतिरिक्खजोणियाणं पुन्छा-गोयमा ! जहण्णेण वि अंतोमुहुत्तं उक्कोसेण वि अतोमुहत्तं) रे अपर्याप्त मा सयर તિય"ચ પંચેન્દ્રિય જીવે છે, તેમની સ્થિતિ જઘન્યની અપેક્ષાએ અને अष्टनी अपेक्षा ५५ मतभुत २८बी छे. (पज्जत्तगगब्भवतिय जलयरपंचे दिय त्तरिक्खजोणियाणं पुच्छा-गोयमा ! जहण्णेणं अतोमुहत्तं उस्कोसेणं अंतोमुत्तू गा पुचकोडी) २
ग ण पन्द्रिय सेयर તિર્યંચ અપર્યાપ્ત છે, તેમની સ્થિતિ જઘન્યની અપેક્ષાએ તે અંતમુ. સ્તની છે, અને ઉત્કૃષ્ટથી અંતમુહૂત ન્યૂન એક કરોડ પૂર્વની છે. (चउपयथल परपंचिंदियतिरिक्खजोणियाणं पुच्छा, गोयमा! जहण्णेणं अतो. मुहुत्तं उक्कोसेणं तिण्णि पलि भोवमाइं) रे ५५२ ५येन्द्रिय तिय य यतु. પડે છે, તેમની સ્થિતિ જઘન્યની અપેક્ષાએ અંતમુહૂર્તની છે અને ઉત્કૃષ્ટથી अ ५.५ रेकी छे. (समुच्छिमच उपयथलयरपंचेंदियतिरिक्खजोणि.
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अनुयोगद्वारसूत्रे
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तिर्यग्योनिकानां पृच्छा, गौतम ! जघन्येन अन्तर्मुहूर्तम् उत्कर्षेण चतुरशीतिं वर्षसहस्राणि । अपर्याप्त मूच्छिम चतुष्पदस्थलचरपञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनिकानां पृच्छा, गौतम ! जघन्येनापि अन्तर्मुहूर्त्तम् उत्कर्षेणावि अन्तर्मुहूर्त्तम् । पर्याप्तकसंमूर्ति चतुष्पदस्थलचरपञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनिकानां पृच्छा गौतम ! जघन्येन अन्तर्मुहूर्तम्' उत्कर्षेण चतुरशीतिवर्षसहस्राणि अन्तर्मुहूर्तीनानि । गर्भव्युत्क्रान्तिक चतुष्पदस्थल वरपञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनिकानां पृच्छा गौतम ! जघन्येन अन्तर्मुहूर्तम्, अंतोमुहुत्त उक्को सेणं चउरासीइं वाससहस्साइ) जो थलचरचतुष्पद् तिर्यच पंचेन्द्रिय जीव संमूर्किछमजन्मवाले हैं उनकी स्थिति जघन्य से तो अंतर्मुहूर्त की है और उत्कृष्ट से चौरासी हजार वर्ष की है । (अपज्जन्तयसंमुच्छिम उप्पल परपंचिदिद्यतिरिक्खजोणियाणं पुच्छा-गोयमा ! जहणेण वि अंतोमुहुत्त उक्कोसेण वि अंतोमुस) जो धलचर चतुष्पद तिर्यश्व पंचेन्द्रिय जीव संपूच्छिमजन्मबाले हैं और अपर्याप्तक हैं, उनकी स्थिति जघन्य से भी अंतर्मुहूर्त की है और उत्कृष्ट से भी अन्तर्मुहूर्त की है । (पज्जत्तपसमुच्छिमच उप्पयधलय र पंचेदियतिरिक्ख जोणियाणं पुच्छा-गोयमा जहणेणं अंतोमुहतं उक्कोसेणं चउरासी बाससहस्ताई' अंतो मुहुतूणाई) संमूच्छिम जन्मवाले जो चतुपद थलचर पंचेन्द्रिय तिर्यञ्च जीव पर्यातक है, उनकी जघन्य स्थिति तो अंत की है और उत्कृष्ट स्थिति अंतर्मुक ८४ चौरासी हजार वर्ष की है । (गग्भवतियच उपयथल पर पंचे दियतिरिक्खजो
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याणं पुच्छा गोयमा ! जहणेणं अतोमुहृत्तं उक्कोसेणं चउरासीइं वास सहरसाई) જે થલર ચતુષ્પદ તિયચ પંચેન્દ્રિય જીવેા સ.મૂર્ચ્છિમ જન્મવાળા છે, તેમની સ્થિતિ જઘન્યની અપેક્ષાએ તેા અંતર્મુહૂત્ત જેટથી છે. અને उत्दृष्टनी अपेक्षाये ८४ २ वर्ष भेटसी छे. ( अपज्जत्तयसंमुच्छिमच उपय थलयर पंचिदियतिरिक्खजोलियाणं पुच्छा--गोयमा ! जहणेणं वि अतोमुहुत्तं
कोसे व अतोमुत्तं) ने थसयर यतुष्पद्ध तिर्यय पथेन्द्रिय स भूચ્છિમ જન્મવાળા છે અને અપર્યાપ્તક છે, તેમની સ્થિતિ જઘન્યની અપેક્ષાએ પણ અંતર્મુહૂત્ત જેટી છે, અને ઉત્કૃષ્ટની અપેક્ષાએ પણ अन्तर्भुतनी छे. (पज्जतयसंमुच्छिमचउपयथलयर पंचे दिद्यतिरिकख जोणियाणं पुच्छा-गोथमा ! जहणेणं अतो मुहुत्तं उक्कोसेणं चउराली वालसहस्साइ अतो मुहुत्तणाइ) सभूमि भन्ने चतुष्पथसयर पथेन्द्रिय तिर्यय પર્યાપ્તક જીવા છે, તેમની જઘન્ય સ્થિતિ તેા અંતર્મુહૂત્તની છે અને ઉત્કૃષ્ટ સ્થિતિ અંતર્મુહૂત્ત ન્યૂન ૮૪ हुन्नर वर्षानी छे (गव्भवक्कंतिय
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अनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र २०७ असुरकुमारादीनामायुः स्थिति निरूपणम् ३२७ उत्कर्षेण त्रीणि पल्योपमानि । अपर्याप्तगर्भव्युत्क्रान्तिकचतुष्पदस्थलचरपञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनिकानां पृच्छा, गौतम! जघन्येनापि अन्तर्मुहूर्तम्, उत्कर्षेणापि अन्तर्मुहूर्तम् । पर्याकगर्भव्युत्क्रान्तिकचतुष्पदस्थल वरपश्चेन्द्रिय तिर्यग्योनिकानां पृच्छा, गौतम ! जघन्येन अन्तमुहूर्तम् उत्कर्षेण त्रीणि पल्योपमानि अन्तर्मुहूर्तीनानि । उ परिसर्पस्थलचरपञ्चेन्द्रियतियग्योनिकानां पृच्छा, गौतम ! जघन्येन अन्तर्मुहूर्तम्, उत्कर्षेण पूर्वकोटिः । संपूछि मोरः परिसर्पस्थलचरणियाणं पुच्छा - गोयमा ! जहण्णेणं अंतोमुहुत्त उक्कोसेणं तिष्णि पलिओमाई ) गर्भ जन्मवाले जो चतुष्पद थलचर पंचेन्द्रिय तिर्यञ्चजीव हैं, उनकी जघन्य स्थिति अंतर्मुहूर्त की है और उत्कृष्ट स्थिति तीन पल्योपम की है (अपजतगगन्भवक्कतिय चउपपद्यथयरपंचिदियतिरिक्खजोणियाणं पुच्छा-गोपमा ! जहणेण वि अंतोमुहुत्त उक्कोसेन वि अंतोमुत्त) गर्भजन्मवाले जो चतुष्पद्धलचर पंचेन्द्रिय तिर्यश्चजीव अपर्याप्त हैं, उनकी जघन्य स्थिति भी अंतर्मुहूर्त्त की है और उत्कृष्ट स्थिति भी अंतर्मुहूर्त्त की है । (पज्जत्तगगन अवक्कंतियच उप्पयथलयर पंचिदिय तिरिक्ख जोणियाणं पुच्छा, गोयमा ! जहण्णेणं अंतीमुत्त उक्कोसेणं अंतो मुहुत्तूगाई तिष्गि पलिओ माई ) गर्भजन्मवाले जो चतुष्पद थलचरपंचेन्द्रिय तिर्यञ्च जीव पर्यातक हैं, उनकी जघन्य स्थिति तो अंतर्मुहूर्त की है और उत्कृष्ट स्थिति अंतर्मुहूर्स कम तीन पल्योपम की है । ( उरपरिसप्पथलयर पंचेंदिव्यतिरिक्खजोषियाण
पुच्छाचप्पलयर पंचेदियतिरिक्खजोणियाणं पुच्छा - गोयमा ! जहणेणं अतोमुद्दत्तं उक्झोसेणं तिणि पलिओ माइ ) गर्लन्सवाना ने अतुल्य थक्षयर પચેન્દ્રિય તિયાઁચ જીવા છે, તેમની જઘન્ય સ્થિતિ અંતર્મુહૂત્ત જેટલી છે याने उत्कृष्ट स्थिति त्रयु पयोपम भेटसी छे. ( अपज्जत्तगगग्भत्रक्कंतिथच उपययलयरपंचिदियतिरिक्खजोणियाणं पुच्छा - गोयमा ! जहणणं वि तो कोण व अतोमुहुत्तं ) गर्भ न्भवाजा ने यतुष्पह થલચર પચેર્ડન્દ્રય તિર્યંચ જીવા અપર્યાપ્તક છે, તેમની જન્ય સ્થિતિ પણ અતभुहूर्त्तनी छे भने उत्सृष्टस्थिति पशु अतर्मुहूर्त्तनी छे. (पज्जत्त गगव्भ: वक्कं तेचच उप्प ययलयरपंचिदियतिरिक्त जोगियाणं पुच्छा, गोयमा ! जहणेणं अतोमुडुत्ते उक्कोसेणं अतोमुडुतूबाई विगि पलिओदमाई ) गलજન્મવાળા જે ચતુષ્પદ્મ થલચર પંચેન્દ્રિય તિય ચ જીવે. પર્યાપ્તક છે, તેમની જઘન્ય સ્થિતિ તે અંતમુત્તની છે અને ઉત્કૃષ્ટ સ્થિતિ અવત્ત-ન્યૂન ત્રશુલ્યેાપમ જેટથી छे. (उर रिप्पथ यर पंचे दियतिरिक्खजोणियाणं
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अनुयोगद्वारसूत्र पञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनिकानां पृच्छा, गौतम ! जघन्येन अन्तर्मुहूर्तम् , उत्कर्षण त्रिपश्चाशद् वर्ष पहलागि। अपर्याप्त कसंमूछिमोर परिसर्पस्थल वरपञ्चन्द्रियतिय
योनि कानां पृच्छा, गौतम ! जब येनापि अन्समुहूर्तम् , उत्कर्षेगापि अन्तर्मुहूर्तम् । पर्याप्तकसंमूछिभोर परिसर्पस्थल वरपञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनिकानां पृच्छा गौतम ! जघन्येन अन्तर्मुहूर्त्तम् , उत्कर्षेण त्रिपश्चाशद् वर्ष शतसहस्र णि अन्तर्मुहूतौनानि गोयमा ! जहणेण अंतोमुहुत्त उक्कोसेण पुचकोडी ) जो थलचर पंचेन्द्रियतिर्यश्चउरपरिसर्प है, उनकी जघन्य स्थिति तो अंतमुहूर्त की है और उत्कृष्ट स्थिति एक करोडपूर्व की है। (संमुच्छिमउरसपरिसप्पथलयरपंचिंदियतिरिक्ख जोणियाण पुच्छा-गोयमा ! जहन्नेण वि अंतोमुहुत्त उक्कोसेण तेवन्नं वातसहस्साई) जो संमूर्छि मजन्मवाले उर: परिसर्प थलचर पंचेन्द्रियतिर्यश्च जीव है, उनकी जघन्ध, से अन्तर्मु. हर्त की स्थिति है और उत्कृष्ट से ५३ हजार वर्ष की है। (अपज्जत्तय संच्छिम उरपरिसप्पथलयरपंचिंदियतिरिक्खजोणियाणं पुच्छा-गोयमा! जहण्णण अंगोमुहुत्त उक्कोण वि मुहुत्त) अपर्याप्तक संमूच्छिम जन्मवाले उम्परिसर्प थलचर पंचेन्द्रिय तिर्यश्च जीवों की स्थिति जघन्य से भी अन्तर्मुहर्त को है और उत्कृष्ट से भी अन्तमुहर्त की है। (पज्जत्तयसमुच्छिमउरपरिसपयलयरपंचिदियतिरिक्खजोणियाणं पुच्छा-गोयमा ! जहणेणं अंतोमुत्त उक्कोसेण तेवण्ण पुच्छा-गोयमा ! जहन्नेणं अंतोमुहुत्तै उनकोसेणं पुवकोडो) २ सय ५येન્દ્રિય તિર્યંચ ઉરપરિસર્યો છે, તેમની જઘન્ય સ્થિતિ તે અંતર્મુહૂર્તની છે A gre स्थिति मे४ ४२।७ ५ न छ. (समुच्छिमउरपरिसप्पथलयरपंचिंदियतिरिक्वजो णे याणं पुच्छा-गोयमा ! जहन्नेण वि अतोमुहुत्तं उक्कोसेणं तेवन्नं पाससहस्साई) २ भूमि सभामा ७२: परिस५ सयर पन्द्रिय તિર્યંચ કરે છે, તેમની જઘન્યથી અન્તર્મુહૂર્તની સ્થિતિ છે અને ઉત્કૃષ્ટથી 43 M२ १ २जी छे. (अपज्जत्तयसमुच्छिमउरपरिसप्पथल परपंचिंदियतिरिक्ख जोणियाण पुच्छा गोयमा ! जहण्णेण वि अंतोमुत्तं उन्कोसेग वि अंतोमुहत्त) अर्यात भूरिभ सन्माण 6२:५रिस५ सय ५'यન્દ્રિય તિર્યંચ ની સ્થિતિ જ ઘન્યથી પણ અન્તર્મુહૂર્તની છે અને ઉત્ક
यी ५५ मन्तभुत २८क्षी छे. (पज्जत्तयसंमुच्छिम उरपरिसप्पथल यरपंबिंदियतिरिक्खजोणियाणं पुच्छा-गोयमा ! जहण्णेणं अतोमुहत्तं उक्कोसेणं
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कम ५३ हजार
अनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र २०७ असुरकुमारादीनामायुः स्थितिनिरूपणम् ३१९ गर्भव्युत्क्रान्तिकरः परिसर्पस्थळचरपञ्चेन्द्रिय तिर्यग्योनिकानां पृच्छा, गौतम ! जघन्येन अन्तर्मुहूतम् उत्कर्षेण पूर्वकोटिः । अपर्याप्त कम भव्युत्क्रान्तिकोरः परिसर्पस्थल वरपञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनिकानां पृच्छा, गौतम ! जघन्येनापि अन्तर्मुहूर्तम्, उत्कर्षेणापि अन्तरर्मुहूर्त्तम् । पर्याप्त कगर्भव्यु क्रान्तिकोर: परिसर्पस्थळचरपञ्चेन्द्रियवाससहस्साई अंतोमुहुतूणाई) पर्यातक संमूच्छिमजन्मवाले उरः परिसर्पथलचर पंचेन्द्रियतिर्यञ्चों की जघन्यस्थिति तो अन्तमुहूर्त की है और उत्कृष्ट स्थिति अन्तर्मुहर्त्त वर्ष की है । (भवतिय परिसप्पधलयर पंचिदियतिरिक्खजोणियाणं पुच्छा-गोषमा जहन्नेणं अंतोमुद्दत्तं उकोसेणं पुचकोडी) गर्भ जन्मवाले उपरिसर्प थलचर पंचेन्द्रिय तिर्यञ्चों की स्थिति जघन्य से अंतर्मुहूर्त की है और उत्कृष्ट से एक करोड पूर्व की है। (अपजत भवतिय उरपरि सप्पलघरपंचिदियतिरिक्खजोणियाणं पुच्छा-गोयमा ! जहणेण वि अंतोमुहत्त उक्कोसेण वि अंतमुत्त) अपर्यातक गर्भजन्मवाले उरः परिसर्प थलचर पंचेन्द्रिय तिर्यञ्चों का स्थिति जघन्य से भी अंतर्मुहर्त की है और उत्कृष्ट से भी अन्तर्मुहूर्त की है । ( अपज्जन्तगगन्भवतिय उरपरिसप्पथलयर पंचिदियतिरिक्ख जोणियाणं - पुच्छा - गोयमा । जहणेणं अंतोमुहतं उक्कोसेणं अतोमुहृतॄणा पुन्यकोडी) पर्यातक गर्भज उरः परिसर्प थलचर
dवण्णं वाससहस्वाइ' अतोमुडुतूणाई) पर्यास संभूर्खिम भन्यवाणा પરિસ' થલચર પ'ચેન્દ્રિય તિય ચાની જઘન્ય સ્થિતિ તે અન્તર્મુહૂત્તની हमने उत्कृष्ट स्थिति अन्तर्मुहूर्त न्यून 43 इन्नर वर्षांनी छे (गब्भवक्कंतिय उरपरिसप्पथलयरपंचिंदियतिरिक्खजोगियानं पुच्छा - गोयमा ! जहन्नेणं अ'तोमुहुत्तं उक्कोसेण पुव्वकोडी) गर्भभन्भवाणा उरःपरिवर्य यथेન્દ્રિય તિય ચાની સ્થિતિ જઘન્યથી અન્તર્મુહૂત્તની છે અને ઉત્કૃષ્ટથી એક डरोड पूर्वनी छे. ( अपज्जत्तगब्भवक्कंतिय उरपरिसप्पथलयरपंचिंदियतिरिक्ख. जोणियाण' पुच्छा - गोयमा ! जहणेण वि अतोमुहुत्तं उक्कोसेण वि अतो मुद्दत्तं ) અપર્યામક ગભ જમવાળા ઉર:પરિસપ થલચર પચેન્દ્રિય તિય ચાની સ્થિતિ જઘન્યની અપેક્ષાએ પણ અંતર્મુહૂત્ત'ની છે અને ઉત્કૃષ્ટથી પણુ અન્તમુહૂત્તની छे. (पज्जतगगन्भवतिय उरपरिसप्पथ यरपोचदियतिरिक्खजोणियाण पुच्छागोयमा ! जण अतोमुहुत्तं उत्कोणं अतो मुहुत्तणा पुव्वक्कोडी) पर्या ગર્ભ જન્મવાળા ઉર; પરિસપ્થલચર પચેન્દ્રિય તિય ચાની સ્થિતિ જલ્લા
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€२:
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३२०
अनुयोगद्वारसत्रे
तिर्यग्योनिकानां पृच्छा गौतम ! जघन्येन अन्तर्मुहूर्तम्, उत्कर्षेण पूर्वकोटिरन्तनाथिलचर पञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनिकानां पृच्छा, गौतम ! जघन्येन अन्तर्मुहूर्तम् उत्कर्षेण पूर्वकोटिः । संमूनि परिसर्पस्थळचलपञ्चेन्द्रिय तिर्य कानां पृच्छा, गौतम ! जवन्येन अन्तर्मुहूर्तम्, उत्कर्षेणापि द्विचत्वारिंशद
पंचेन्द्रिय तिर्यञ्चों की स्थिति जवन्य से तो एक अन्तर्मुहुर्त की है और उत्कृष्ट से अन्तर्मुहुर्त कम एक करोड पूर्व की है। (भुयपरिमप्प बलपर पंचिदियतिरिकख जोणियाणं पुच्छा-गोवमा ! जहणेणं तत्त उकोसेणं पुषकोडी) भुजपरिसर्प धलवर पंचेन्द्रिय तिर्यञ्च जीवों की स्थिति जघन्य से अन्तर्मुहर्स की है और उत्कृष्ट से एक करोड पूर्व की है। (संमुच्छिममुपरि सप्पथ उधर पंचिदिद्यतिरिवख जोणियाणं पुच्छा - गोयमा ! जहणेणं अंतोमुहत उक्कोसेर्ण बागालीसं वागसहस्थाई) संमि भुजपरिसर्व थलचर पंचेन्द्रिय तिर्यञ्च जीवों की स्थिति हे गौतम! जघन्य से तो अन्तर्मुहूर्त की है और उत्कृष्ट से ४२ हजार वर्ष की है । (अवज्जन्त्तयसंमुच्छि नभुव परिसप्पथलवर पंचिदियतिरिक्खजोणियाणं पुच्छा-गोधमा ! जणेण वि अंतोमुत्त, उकोसेण वि अंतमुत्तं) अपर्यातक संमूच्छिम भुजपरिसर्प थलचर पंचेन्द्रियतिर्यञ्च की स्थिति हे गौतम! जवन्य से भी अन्तर्मुहर्त की है
ન્યની અપેક્ષાએ તેા એક અન્તર્મુહૂત્તની છે અને ઉત્કૃષ્ટથી અન્તમુત્ત ન્યૂત એક કરાડ પૂત્રની छे. ( भुयारिसप्पथ उयरपंचि' दियतिरिक्खजोणियाणं पुच्छा - गोया ! जहणेणं अतोमुहुतं उक्कोसेणं पुत्र्वकोडी) परिસપ થલચર પ ંચેન્દ્રિય તિય ચ જીવની સ્થિતિ જઘન્યની અપેક્ષાએ અત मुहूर्त्तनी छे भने उत्सृष्टया मेड रोड पूर्वनी छे ( संमुच्छिमभुयपरिसपथलयर पंचिदियतिरिक्खजोणियाणं पुच्छा - गोयमा ! जहणणं अतोमु हुतं उक्कोण बायालीस वाससहस्साइ) सभूर्च्छिम परिसर्प थंसयर પંચેન્દ્રિય તિય ચ જીવાની સ્થિતિ હૈ ગૌતમ ! જઘન્યથી તે અંતમુત્તની हे ते उत्हृष्टथी ४२ हर वर्ष भेटसी छे (अपज्जत्तय संमुच्छिमभूयप. रिसप्पथलयर पंचिदियतिरिक्खजोणियाण' पुच्छा - गोयमा ! जगेण वि अंतमुत्तं उक्कोसेण वि अंतोमुहुत्तं) अपर्याप्तः सभूमि परिसर्प થલચ પચેન્દ્રિય તિય ચાની સ્થિતિ હૈ ગૌતમ ! જઘન્યની અપેક્ષાએ પણ
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अनुयोगचन्द्रिका टीका सुत्र २०७ असुरकुमारादीनामायुःस्थितिनिरूपणम् ३२१ वर्षसहस्राणि। अपर्याप्तकसंमूछिमस्थल चरभुजपरिसर्पपञ्चन्द्रियतिर्यग्योनिकानां पृच्छा गौतम ! जधन्येनापि अन्तर्मुहूर्तम्, उत्कर्षणापि अन्तर्मुहूर्त्तम् । पर्याप्तकसंमूछिमस्थलचरभुजपरिसर्पपञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनिकानां पृच्छा, गौतम ! जघन्येन अन्तर्मुहूर्तम्, उत्कर्षेण द्विचत्वारिंशद् वर्षसहस्राणि अन्तर्मुहतोनानि । गर्भव्युत्क्रान्तिकभुजपरिसर्पस्थलचरपञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनिकानां पृच्छा, गौतम ! जघन्येन अन्तर्मुहूर्तम्, उत्कर्षेण पूर्वकोटिः । अपर्याप्तकगर्भव्युत्क्रान्तिकभु नपरिसर्पस्थलचरपश्चेन्द्रियतिर्यग्योनिकानां पृच्छा, गौतम ! जघन्येनापि अन्तर्मुहूर्त्तम्, उत्कर्षेणापि
और उत्कृष्ट से भी अन्तर्मुहूर्त की है । (पज्जत्तग संभूच्छिम भुयपरिसप्पथयरपंचिंदियतिरिक्खजोणियाणं पुच्छा-गोयमा ! जहण्णेणं अंनो. मुहत्तं, उक्कोसेणं अतोमुहत्तुंगाई बायालीसं वाससहस्साई) पर्याप्तक! संमूच्छिम भुजपरिसर्पथल चर पंचेन्द्रियतिर्यश्चों की स्थिति हे गौतम जघन्य से तोअंतर्मुहर्त की है और उत्कृष्ट अन्तर्मुहर्त कम ४२ हजार वर्ष की है। (गम्भवक्कंतिय भुघपरिसप्पथलयरपंचिंदियतिक्खजोणियाणं पुच्छा गोयमा ! जहानेणं अंतोमुखतं, उक्कोसेणं पुव्वकोड़ी) गर्भ जभुजपरिसर्पथलचर पंचेन्द्रियतिर्यश्चों की स्थिति हे गौतम ! जघन्य से तो एक अन्तर्मुहर्त की है और उत्कृष्ट से एक करोड पूर्व की है। ( अपज्जत्तगगम्भवक्कंतियभुयपरिसपाथलचरपंचिंदियतिरिख्खजोणिઅંતમુર્ત જેટલી છે અને ઉત્કૃષ્ટની અપેક્ષાએ પણ અંતર્મુદત્ત २८८ी छ. (पज्जत्तगसंमूलिछमभुयारिसप्पथलयरपंचि दियतिरिक्खजोणियाणं पुच्छा गोयमा ! जइण्णेणं अतोमुत्त उक्कोसेण अंतोमुहुत्तूणाई बायालीम वाससह. स्साई) पर्यास स भूमि परिस' २०५२ ५'यन्द्रिय तिय यानी સ્થિતિ હે ગૌતમ ! જઘન્યની અપેક્ષાએ તે અંતર્મુહૂર્તની છે અને ઉત્ક
यी मतभुइत न्यून ४२ २ वर्ष २८बी छ. (गब्भवतियभुयपरिसप्पथलयरपंचिदियतिरिकखजोणियाणं पुच्छा गोयमा ! जहन्नेणं अतो. मुहुतं, उक्कोसेणं पुवकोडी) : परिस५ २०५२ ५'येन्द्रिय तिय यानी સ્થિતિ હે ગૌતમ! જઘ યની અપેક્ષાએ તે એક અંતર્મુહુર્ત જેટલી છે 47 8 अपेक्षा में से 3 पून छ. (अपज्जत्तागभवतिय
अ० ४१
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३२२
अनुयोगद्वारसूत्रे
अन्तर्मुहूर्तम् । पर्याप्तगर्भव्युत्क्रान्ति कभुजपरिसर्पस्थल वरपञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनिकानां पृच्छा, गौतम । जघन्येन अन्तर्मुहूर्तम्, उत्कर्षेण पूर्व कोटिः अन्तर्मुहूतना । खेचरपञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनिकानां पृच्छा गौतम । जघन्येत्र अन्तर्मुहर्त्तम्, उत्कर्षेण एल्योपमस्य असंख्येयमागम् । समूच्छिम खेव र पञ्चेन्द्रिय तिर्यग्योनिकानां पृच्छा गौतम! जघन्येन अन्तर्मुहूर्तम्, उत्कर्षेण द्विसप्पति वर्षसहस्राणि अपर्याप्त संमूच्छिमखेचरपञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनिकानां पृच्छा, गौतम जघन्येनापि अन्तर्मुहूर्त उत्कपेणापि
याणं पुच्छा - गोयना ! जहन्नेण वि अंतोनुहुन्त उक्कोसेण वि अनोमुस) अपर्यातक गर्भजभुजपरिसर्पथलचरपंचेन्द्रियतिर्यञ्चों की स्थिति हे गौतम! जवन्य से भी अन्तर्मुहूर्त की है और उत्कृष्ट से भी अन्तर्मुहूर्त की है। (पज्जन्तगगभवक्कंतिय भुच परिसप्पधलयर पंचिदियतिरिक्ख तोणियाणं पुच्छा - गोयमा ! जहन्नेणं अंतोमुहन्त उक्कोसेणं अंगोमुत्तूणा पुण्बकोड़ी) पर्याप्त गर्भज भुजपरिसर्पथलचर पंचेन्द्रियतिर्यञ्चों की स्थिति हे गौतम । जघन्य से तो अंतर्मुह की है और उत्कृष्ट से एक अंतर्मुहूर्त्त कम करोड़ पूर्व की है । (खहयर पंचेदियतिरिक्खजोणियाणं पुच्छा-गोधमा ! जहणेणं अतोमुहत उक्कोसेणं पलिओदमस्स असंखेज्जइभागं ) खेचरपंचेन्द्रिय तिर्यों की स्थिति हे गौतम! जघन्य से अंतर्मुहूर्त्त की है और उत्कृष्ट से एक पल्योपम के असंख्यातवें भाग हैं। (संमुच्छिमखहपर पंचिदियतिरिक्खजोणि
भुयपरिप्पथलयरपंचिंदियतिरिक्खजोणियाणं पुच्छा गोयमा ! जद्दन्नेण वि अंतोमुत्तं उक्कोसेण वि अंतोमुहुत्तं) अपर्याप्त गर्ल लुम्परिसर्प यसપંચેન્દ્રિયતિય ચેાની સ્થિતિ હૈ ગૌતમ ! જઘન્યની અપેક્ષાએ પણ અંતર્મુ હૂત્ત જેટલી છે અને ઉત્કૃષ્ટની અપેક્ષાએ પશુ અંતર્મુહૂત્ત भेटसी छे. (पज्जतगगन्भवक्कं तियभुय परिप्पथ लयरपंचि' दियतिरिक्ख जोणियाणं पुच्छा गोयमा ! जहन्नेणं अंतोमुहुत्तं उक्कोसेणं अंतोमुहुत्तूणा पुव्वकोडी) पर्यास ગ જ ભુજરિસપ`થલચર પચેન્દ્રિય તિય ચાની સ્થિતિ હૈ ગૌતમ ! જઘન્યની અપેક્ષાએ તેા અંતમુહૂત્ત જેટલી છે અને ઉત્કૃષ્ટની અપેક્ષાએ એક અંતમુહૂત્ત ન્યૂન खेड रोड पूर्वनी छे. (खह यर पंचे दिंयतिरिक्खजोणियाणं पुच्छा - गोयमा-जहणणं अंतोमुडुत्तं उक्कोसेणं पलिओ मस्स असंखेउजइभागं ) मेयर पथेन्द्रिय तिर्यथोनी स्थिति है गौतम ! धन्यनी અપેક્ષાએ અંતર્મુહૂત્ત જેટલી છે અને ઉત્કૃષ્ટથી એક પથૈાપમના અસખ્યાતમાં ભાગ नेटशी छे. (संमुच्छि मन इयरपंचि दियतिरिक्खजोणियाणं
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अनुयोगन्द्रका टीका सूत्र २०७ असुरकुमारादीनामायुः स्थिति निरूपणम् ३२३
अन्तर्मुहूर्त संपूमि खे वर पञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनिकानां पृच्छा, गौतम ! जघन्येन अन्तर्मुहूर्तम् उत्कर्षेण द्विसप्तति वर्षसहस्राणि अन्तर्मुनानि, गर्भव्युकान्तिकखे वरपञ्चेन्द्रिय तिर्यग्योनिकानां पृच्छा, गौतम ! जयन्येन अन्तर्मुहूर्तम् उत्कर्षेण पल्योपमस्य असंख्येयमागम् | आर्याप्त कगर्भव्युत्क्रान्तिकखेचर पञ्चेन्द्रि याणं पुच्छा गोगमा ! जहणणं अंतोमुत्तं उक्कोसेणं बावन्तरिं वास सहस्साइ) संमूच्छिम खेचर पंचेन्द्रियतिर्यञ्च जीवों की हे गौतम ! स्थिति जघन्य से अंतमुहूर्त की है और उत्कृष्ट से ७२ हजार वर्ष की है । (अपज्जत्तगसंमूच्छिमख हयर पंचिंदियतिरिक्खजोणियाणं पुच्छा गोयमा ! जहणेण वि अंतोमुटु उक्को सेण वि अंतोनुस) अपर्यातक संमूच्छिम खेचर पंचेन्द्रियतिर्यञ्च जीवों की स्थिति है गौतम 1 जघन्य से भी की है और उत्कृष्ट से भी अन्तर्मुहुर्त की है। ( पज्जत्तग समुच्छिमखहथर पंचे दियतिरिक्ख जोणियाणं पुच्छागोयमा ! जहन्नेणं अतोमुहुत्त, उक्को सेणं अंतीमुत्तूगाई बावन्तरि वास सहरसाई) पर्यासक संमूच्छिम खेचर पंचेन्द्रियतियेचों की स्थिति हे गौतम ! जघन्य से अन्तमुहूर्त्त की और उत्कृष्ट से अन्तर्मुहूर्त कम ७२ हजार वर्ष की है । (गन्नवक्कतिपख हयर पंचेदिपतिरिक्खजोणियाणं पुच्छा - गोयमा ! जहनेणं अतो मुहुत्तं उक्कोसेणं पलिओवमस्स असंखेज्जइ भाग) गर्भज खेचर पंचेन्द्रियतिर्यञ्च जीवों की स्थिति हे पुच्छा गोयमा ! जइण्णेणं अंतोमुहुत्तं उक्कोसेणं बावन्तरि वाससहरसाई) સસૂચ્છિત ખેચર પંચેન્દ્રિય तिर्यय જીવાની હૈ जीतभ ! સ્થિતિ જઘન્યની અપેક્ષાએ અત જેટલી છે અને ઉત્કૃષ્ટની अपेक्षाचे ७२ डुमर वर्षानी छे ( अपज्जत्तन संमुच्छिम खहयरपंचि दियतिरिक्खजोणियाणं पुच्छा गोयमा ! जहणणेण वि अंतोनुत्तं उक्कोसेण वि अंतो मुहुसं અપર્યાપ્તક સમૂચ્છિમ ખેચર પચેન્દ્રિય તિયંચ જીજ્ઞેાની સ્થિતિ હૈ ગૌતમ ! જધન્યની અપેક્ષાએ પણ અંતર્મુહૂત્તની છે અને ઉત્કૃષ્ટની અપેક્ષાએ પણ અ'તમુહૂત્ત' भेटली हे. (पज्जत्तगसंमूच्छिमखहयरपंचेदिय तक्खि जोणियाणं पुच्छा - गोयमा ! जइन्नेण अंतोमुद्दनं, उक्को सेणं अंतो मुहुःई बाबत्तरि वाखखहरसाई) पर्याप्त भूमि मेयर पयेन्द्रिय तिर्य यांनी स्थिति ह ગૌતમ! જધન્યની અપેક્ષાએ અન્તર્મુહૂત્તની છે અને ઉત્કૃષ્ટની અપેક્ષાએ અતર્મુહૂત્ત ન્યૂન ૭૨ હજાર વર્ષ भेटसी छे. (गजवक्कं तियखहयरपंचदियतिरिकख तोणिवाणं पुच्छा- तोयमा ! जहन्नेणं अंतोमुहुत्तं उक्कोसेणं पलि. ओवमस्स असंखेज्जइभाग) जर्मन मेयर पथेन्द्रिय तिर्यय दोनी स्थिति
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३२४
अनुयोगद्वारसूत्रे
यतिर्यग्योनिकानां पृच्छा, गौतम ! जयन्येनापि अन्तर्मुहूर्तम्, उत्कर्षेणापि अन्तमुहूर्तम् । पर्याप्त वे वरपञ्चेन्द्रिय तिर्यग्योनिकानां भदन्त । कियन्तं कालं स्थितिः प्रज्ञप्त ? गौतम ! जघन्येन अन्तर्मुहूर्तम्, उत्कर्षेण परोपमस्य असंख्येयभागम् अन्तर्मुहूतनम् । अत्र एतेषां खलु संग्रहयौ गाथे भवतः, तद्यथासंमूच्छिमपूर्वकोटिश्चतुरशीतिर्भवेत् सहस्राणि ।
त्रिपञ्चाशद् द्विचत्वारिंशद् द्विसप्ततिरेव पक्षिणाम् ॥ १ ॥ गर्भे पूर्व कोटित्रीणिच पल्योपमानि परमायुः । उरो भुजगपूर्वकोटि पल्पोपमासंख्येयभागश्च ||२||
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गौतम ! जघन्य से अंतर्मुहूर्त की है और उत्कृष्ट से एक पल्योपम के असंख्यातवें भाग है (अपज्जत्तगगनभवक्कतियख हयर पंचिरियतिरिक्ख जोणियाणं पुच्छा गोगमा ! जहणेण वि अतोमुहुत्त उक्कोसेण वि अंतोमुत्त) अपर्याप्त गर्भज खेचर पंचेन्द्रियतिर्यञ्चों की स्थिति हे गौतम जघन्य से भी अन्तर्मुहूर्त्त की है और उत्कृष्ट से भी अन्तर्मुहूर्त्त की है (पजत्तगख हयर पंचें दियतिरिक्खजोणियाणं भंते ! hari कालं ठिई पण्णत्ता ) हे भदन्त ! पर्याप्त खेचर पंचेन्द्रिय तिर्य
की स्थिति कितने काल की कही गई है ? (गोयमा ! जहन्नेणं अतोमुत्त, उक्को सेणं पलिओ मस्त असंखिज्जभागं अतोमुहत्तूर्ण) हे गौतम ! जघन्य से अन्तर्मुहूर्तकी और उत्कृष्ट से एक अन्तर्मुहूर्त्त कम एक पल्योपम के असंख्यातवें भाग प्रमाण कही गई है। यहां पर ये 'संमुच्छिमपुचकोड' इत्यादि दो संग्रह गाथाएँ है उनका भाव आ चुका है હું ગૌતમ ! જઘન્યની અપેક્ષાએ અંતમુહૂત્ત જેટલી છે અને ઉત્કૃષ્ટની अपेक्षाओ मे पहयेोषमना असण्याभां भाग प्रभाणुनी है. ( अपज्जत्तग
भवतिय खयरपंचिदियतिरिक्खजोणियाणं पुच्छा गोयमा ! जहणेण वि अंतो मुहुतं उक्को सेग वि अंतोतं અપર્યાપ્તક ગજ ખેચર પચેન્દ્રિય તિય ચાની સ્થિતિ હૈ ગૌતમ ! જઘન્યની અપેક્ષાએ પણ અન્તર્મુહૂત્ત'ની છે અને ઉત્કૃષ્ટની અપેક્ષાએ પણ અતર્મુહૂત્ત' જેટલી છે. (पज्जत्तगखइयरपं वे दियतिरिक्खजोणियाणं भंते! केवइयं कालं ठिई पण्णत्ता ? ) હૈ ભદ'ત ! પર્યાપ્તક ખેચર પચેન્દ્રિય તિય ચાની સ્થિતિ કેટલા કાલની કહેવામાં भावी छे ? (गोयमा ! जहन्नेणं अंतोमुहुत्तं, उत्कोसेणं पलिओवमस्स असंखिज्जइभागं अतोमुहुत्तूण) हे गौतम! धन्यनी अपेक्षाये अतर्भुत'नी अने उत्सृष्टनी અપેક્ષાએ એક મુહૂત્ત ન્યૂન એક પલ્ટેપમના અસખ્યાતમા ભાગ પ્રમાણુ वामां भावी छे, मडियां 'संमुच्छिम पुत्र कोडी 'धत्याहि मे सअड गाथाओ
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अनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र २०७ असुरकुमारादीनामायुःस्थितिनिरूपणम् ३२५ मनुष्याणां भदन्त ! कियन्तं कालं स्थितिः प्रज्ञप्ता : ? गौतम ! जघन्येन अन्तर्मुहूर्तम्, उत्कर्षेण त्रीणि पल्योपमानि । संछिममनुष्याणां पृच्छा गौतम ! जघन्येनापि अन्तर्मुहूर्तम्, उत्कर्षेणापि अन्तर्मुहूर्तम् । गर्भव्युत्क्रान्तिकमनुष्याणां पृच्छा, गौतम ! जघन्येन अन्तर्मुहूर्तम्, उत्कर्षेग त्रीणि पल्योपमानि । अपर्याप्त कगर्भव्युक्रान्तिकमनुष्याणां भदन्त ! कियन्तं कालं स्थितिः प्रज्ञप्ता ? (मणुस्साणं भंते ! केवइयं कालं ठिई पण्णत्ता ?) हे भदन्त ! मनुष्यों की स्थिति कितने काल की कही गई है ?
उत्तर-(गोयमा! जहन्नेणं अंतोसुहुत्त उक्कोसेणं तिणि पलि भोव. माई) हे गौतम | जघन्य से अन्तर्मुहूर्त की और उत्कृष्ट से तीन पल्योपम की है। (समुच्छिममणुस्साणं पुच्छा-गोयमा ! जहण्णेण वि अंतोमुहत उक्कोसेणं वि अंतोनुहुत्तं) संमुच्छिम जन्मवाले मनुष्यों की स्थिति हे गौतम ! जघन्य भी अन्तमुहर्त की है और उत्कृष्ट से भी अन्तर्मुहर्त की है। (गम्भवतियमणुस्साणं पुच्छा-गोयमा! जहन्नेणं अंतोमुहुत्तं उक्कोसेणं तिणि पलिओवमाई) गर्भजमनुष्यों की स्थिति हे गौतम ! जघन्य से अंतर्मुहूर्त की है और उत्कृष्ट से तीन पत्योपम की है । (अपज्जत्तगगम्भवतियमणुस्साणं भंते ! केवइयं कालं ठिईपण्णत्ता ?) हे भदन्त अपर्याप्तकगर्भज मनुष्यों की स्थिति कितने काल की कही गई है ?
ही छ तेन सा२ ५3ai मापी गये। छे. (मणुस्साणं भंते ! केवइयं कालं ठिई पण्णत्ता ) 3 महत! माणुसोनी स्थिति मा सनी ४ामा सानी छ ? - 61२-(गोयमा ! अंतोमुहुत्तंउक्कोसेणं तिण्णि पलिओवमाई) 3 गौतम !
धन्यथा मन्तभुत नी भने उत्कृष्टथी त्र] पक्ष्यापम ने 2ी छ. (संमुच्छिममणुस्साणं पुच्छा-गोयमा ! जहण्णेण वि अंतोमुहुर्त उक्कोसेण वि अंतोमुहत्त) स भूमि सभा माणसानी स्थिति गौतम ! धन्यजी म. ક્ષાએ પણ અંતર્મુદ્રની છે અને ઉત્કૃષ્ટની અપેક્ષાએ પણ અંતર્મહત્ત २सी ५ छे. (गन्भवतियमणुस्साणं पुच्छा-गोयमा ! जहन्नेणं अंतोमुहुक्तं उकोसेण तिण्णि पलिओवमाई) Mr मायसोनी स्थिति गौतम। જ ઘન્યની અપેક્ષાએ અંતમુહૂર્તની છે અને ઉત્કૃષ્ટની અપેક્ષાએ ત્રણ પલ્યો५भनी छ. (अपज्जत्तगगम्भवतियमणुरसाण भंते ! केवइयं कालं ठिई पण्णत्ता १) ७ मत ! ५५र्यात म भनु यानी स्थिति e art કહેવામાં આવી છે?
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अनुयोगद्वारसूत्र गौतम ! जघन्येनापि अन्तर्मुहूर्तम्, उत्कर्षेणापि अन्तर्मुहूर्तम् । पर्याप्तकर्मव्युस्क्रान्तिकमनुष्याणां भदन्त ! कियन्तं कालं स्थितिः प्रज्ञप्ता ? गौतम ! जघन्येन अन्तर्मुहूर्तम्, उत्कर्षेण त्रीणि पल्पोपमानि अन्तर्मुहूर्तानानि । व्यन्तराणां देवानां कियन्तं कालं स्थितिः प्रज्ञप्ता ? गौतम ! जघन्येन दशवर्षसहस्राणि उत्कर्षेण पल्योपमम्
उत्तर-(गोयमा! जहण्णेण वि अंतोमुहुत्त उक्कोसेण वि अंगो. मुहुत्त) हे गौतम! जघन्य से भी अन्तर्मुहूर्त की कही गई है और उत्कृष्ट से भी अन्तर्मुहूर्त की कही गई है। (पज्जत्तगगम्भवक्कं. तियमणुस्ताण भंते ! केवइयं कालं ठिई पण्णता ?) हे भदन्त ! पर्याप्तक गर्भजमनुष्यों की स्थिति कितने काल की कही गई है ? ___ उत्तर-(गोयमा ! जहन्नेणं अतोमुहुत उक्कोसेणं तिणि पलिभोवमाइं अंतोमुत्तुगाई) हे गौतम | जघन्य से अन्तर्मुहर्तकी
और उस्कृष्ट से अन्तर्मुहूर्तन्यून तीन पल्योरम की कही गई है। (वाणमंतराणं देवाणं भंते ! केवयं कालं ठिई पण्णत्ता?) हे भदन्त ! वानन्यन्तर देवों की स्थिति कितने काल की कही गई है। (गोयमा ! जहन्नेणं दसवास सहस्साई उक्कोलेणं पलिओवम) हे गौतम! वानव्यन्तरदेवों की स्थिति जघन्य तो दश हजार वर्ष की कही गई है और उत्कृष्ट एक पल्योपम की कही गई है। (वाणमंतरीणं देवीणं भंते ! केवइयं कालं ठिई पण्णत्ता) हे भदन्त ! वानव्यन्तरदेवों की देवियों की स्थिति कितने काल की प्रज्ञप्त की गई है ? (गोधमा !
उत्तर-(गोयमा ! जहण्णेण वि अंतोमुहुत्तं उक्कोसेण वि अंतोमुहुत्तं) ગૌતમ ! જઘન્યની અપેક્ષાએ અંતર્મુહૂર્તાની કહેવામાં આવી છે અને ઉત્કघटना अपेक्षा ५ मतभुत रेटी अवाम मावी छ. (पज्जत्तग गब्भवतियमणुस्साणं भंते ! केवइयं कालं ठिई पत्ता ) महत ! પર્યાપ્તક ગર્ભજ મનુષ્યની સ્થિતિ કેટલા કાલની કહેવામાં આવી છે?
उत्त२-(गोयमा ! जहन्नेणं अंतोमुहत्तं उक्कोसेणं तिण्णि पलिओवमाइं अंतोमुहत्तगाई) 3 गौतम! धन्यनी अपेक्षा मन्तत नी अन ४છની અપેક્ષાએ અત્તમુહૂર્ત ન્યૂન ત્રણ પોપમ જેટલી કહેવામાં આવી छ. (वाणमंतराणं देवाणं भंते ! केवइयं काले ठिई पण्णता ?) मत ! पानयन्त२ वानी स्थिति सासनी अपामा मावी छ ? (गोयमा ! जहन्नेणं दसवासनहस्साई उक कोसेणं पलिओषम') हे मत ! पानव्य तर દેવેની સ્થિતિ જઘન્યની અપેક્ષા એ દશહજાર વર્ષ જેટલી કહેવામાં આવી छ भने यी ४ पक्ष्या५मनी डेपामा मानी छे. 'बागमतरीणं देवीगं भंते ! केवयं कालं ठिई पण्णता' 3 art ०५२वानी देवीयानी
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अनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र २०७ असुरकुमारादीनामायुःस्थितिनिरूपणम् ३२७ व्यन्तराणां देवीनां भदन्त ! कियन्तं कालं स्थितिः प्रज्ञप्ता ? गौतम ! जघन्येन दशवर्षसहस्राणि उत्कर्षेण अर्द्ध पल्योपमम् । ज्योतिष्काणां देवानां भदन्त ! कियन्तं कालं स्थितिः प्रज्ञप्ता? गौतम जघन्येन सातिरेकम् अष्टभागपल्योपमम्, उत्कर्षेण पल्योगमं वर्ष शतसहस्राभ्यधिकम् । ज्योतिष्कदेवीनां भदन्त ! कियन्तं कालं स्थितिः प्रज्ञप्ता ? गौतम ! जघन्येन अष्टभागपल्योपमम् , उत्कर्षेण अर्द्धपल्योपमं पश्चाशतोवर्षसहरभ्यधिकम् ! चन्द्रविमानानां भदन्त ! देवानां कियन्तं कालं स्थितिः जहण्णेणं दसवाससहस्साई उक्कोसेणं अद्धपलिओवम) हे गौतम ! जघन्य से दशहजार वर्ष की और उत्कृष्ट से आधे पल्योपम की प्रज्ञप्त की गई है। (जोइसियाणं भंते ! देवाणं केवयं कालं ठिई पण्णत्ता ?) हे भदंत! ज्योतिष्कदेवों की स्थिति कितने काल की कही गई है ? (गोधमा ! जहण्णेणं सातिरेगं अट्ठभागपलि भोवमं, उक्कोसेणं पलि. ओवमं वाससयसहस्तमन्भहियं) हे गौतम ! जघन्य स्थिति तो कुछ अधिक पल्योपम का आठवें भाग प्रमाण है और उत्कृष्ट स्थिति एक लाख वर्ष अधिक पल्योपम प्रमाण है। (जोइसियदेवीणं भंते ! केव. इयं कालं ठिई पण्णत्ता?) हे भदन्त ! ज्योतिष्क देवियों की स्थिति कितने काल की कही गई है ? (गोधमा! जहण्णेणं अट्ठभागपलिओ वमं, उक्कोसेणं अद्धपलिओवमं पण्णासाए वाससहस्सेहि अन्भहियं) हे गौतम ! जघन्य से पल्योपम के आठवें भाग प्रमाण और उस्कृष्ट से ५० हजार वर्ष अधिक आधेपल्यप्रमाण कही गई है। (चंदविमा. स्थिति ! सनी प्रज्ञH थयेकी छे १ (गोयमा ! जहण्णेणं दसवास. सहस्साई उक्कोसेणं अद्धपलि ओवम) है गौतम! धन्यथी शडलर वर्षनी अने उत्कृष्टथी अर्धा ५८यापभनी प्रज्ञी येही छे. (जोइसियाणं भंते ! देवाणं केवइय कालं ठिई पण्णत्ता १) मत ! याति देवानी स्थिति ४८सा सी उमा भावी छ ? (गोयमा ! जहण्णेणं सातिरेगं अटू. भागपलिओवम उक्कोसेणं पलिओवम वाससयसहस्समन्भहिय) है गीतम! જઘન્ય સ્થિતિ તે કંઈક વધારે પલ્યોપમના આઠમાં ભાગ પ્રમાણ છે અને Bre स्थिति में साथ ११ मधिर पक्ष्यो५५ प्रमाण छ. (जोइसिय देवीणं भंते ! केवइय कालं ठिई पण्णत्ता १) RE ! ज्योति विमान स्थिति ean सनी ४ामा मापी छ ? (गोयमा ! जहण्णेणं अटुभागपलिओक्म', उकोसेणं अद्धपलिओवम पण्णासाए वाससहस्सेहिं अब्भहिय) है ગૌતમ! જઘન્યથી પોપમના આફમાભાગ પ્રમાણ અને ઉત્કૃષ્ટથી ૫૦
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अनुयोगद्वारसूत्र प्रज्ञप्ता ?, गौतम ! जघन्येन चतुर्भागपल्योपमम्, उत्कर्षेण पल्योपमं वर्ष सहस्राभ्यधिकम् । चन्द्रविमानानां भदन्त ! देवीनां कियन्तं कालं स्थितिः प्रज्ञप्ता ? गौतम ! जघन्येन चतुर्भागपल्योपमम् । उत्कर्षेण अईपल्योपमं पश्चाशताद् वर्ष सहस्ररम्यधिकम् । मुरविमानानां भदन्त । देवानां कियन्तं कालं स्थितिः प्रज्ञप्ता ? गौतम ! जघन्येन चतुर्भागपल्योपमम्, उत्कर्षेण पल्योपमं वर्ष सहस्रा. गाणं भंते ! देवाणं केवयं कालं ठिई पण्णत्ता ?) हे भदन्त ! चंद्रविमानोंके देवों की कितने काल की स्थिति कही गई है ? (गोयमा ! जहण्णेणं चउभागपलिओवम उक्कोसेणं पलिभोवमं वाससयसहस्समन्महिय) गौतम ! जघन्य से तो पल्य के चौथे भागप्रमाण और उत्कृष्ट से एक लाख वर्ष अधिक पल्योपम प्रमाण कही गई है। (चंदविमाणाणं भंते देवीणं केवइयं कालं ठिई पत्ता ) हे भदंत ! चन्द्रविमान के देवियों की कितने काल की स्थिति कही गई है ? (गोयमा ! जहन्नेण च उभागपलि भोवम, उक्कोसेणं पलिओवमं पण्णासाए वास सहस्सेहि अन्भहियं) हे भदन्त ! चन्द्रविमानों की देवियों की स्थिति जघन्य से तो पल्य के चोथेभाग प्रमाण कही गई है और उत्कृष्ट से ५० हजार वर्ष अधिक अर्द्ध पस्योपम प्रमाण कही है। (स्रविमोणाणं भंते देवाणं केवइयं कालं ठिई पण्णता ?) हे भदन्त सूर्य विमानों के देवों की स्थिति कितने कालकी की कही गई है ? (गोयमा ! जहण्णेणं
MP4 मधि मा ५६५प्रभy ४ामा भावी छ. (चंदविमाणाणं भंवे! देवाणं केवइय कालं ठिई पण्णत्ता १) 3 महत! यं द्रविमानान वानी
eat सनी स्थिति वामां भावी छ ! (गोयमा ! जहण्णेणंचउभागपलिओवम उक्कोसेणं पलिओवम वाससयसहस्समब्भहिय)
ૌતમ ! જઘન્યની અપેક્ષાએ તે પત્યના ચોથા ભાગ પ્રમાણ અને ઉકથી એક લાખ વર્ષ અધિક પલ્યોપમ પ્રમાણ કહેવામાં આવી છે. (चंदविमाणाणं भंते ! देवीणं केवइयं कालं ठिई पण्णत्ता ) महत ! यद्रविमानना पीयानी an सनी स्थिति अपामा मावी छ ! (गोयमा ! जो चउभागपलिओवम' पण्णासाए उक्कोसेणं अद्धपलिओवम वाससहसेहिं अब्भहिय) 3 महत! यद्रविमानानी हवामान स्थितियनी અપેક્ષાએ તે પત્યના ચોથા ભાગ પ્રમાણ કહેવામાં આવી છે અને ઉત્કથી ५० २ १ मधि मई ५त्यापम प्रा ४ामा भावी छे. (सरवि. माणाणं भंते ! देवाणं केवइयं कालं ठिई पण्णत्ता ) 3 महत ! सूर्य विमानाना देवानी स्थिति ८ सनी ४३वामा भावी छ ? गोयमा ! जहण्णेणं चउ.
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अनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र २०७ असुरकुमारादीनामायुःस्थितिनिरूपणम् ३२९ भ्यधिकम् । मुरविनानानां भदन्त ! देवीनां कियन्तं कालं स्थितिः प्रज्ञप्ता ? गौतम ! जयन्येन चतुर्भागाल्योपमम्, उत्कर्षेण अर्द्धपल्योपमं पञ्चभिः वर्षशतैरभ्यधिकम् । ग्रहविधानानां भदन्त ! देवानां कियन्तं कालं स्थितिः प्रज्ञप्ता ! गौतम ! जघन्येन चतुर्भागाल्योपमम्, उत्कर्षेग, पल्योपमम् । ग्रहविमानानां भदन्त ! देसीनां कियन्तं कालं स्थितिः प्रज्ञप्ता ? गौतम ! जघन्येन चतुर्भाग घउभागपलिओवम, उक्कोसेणं पलि मोवमं वाससस्तमनहियं) हे गौतम ! सूर्यविमानों के देवों की स्थिति जघन्य से तो पल्य का चौथे भाग प्रमाण है और उत्कृष्ट से एक हजार वर्ष अधिक पल्यो पम प्रमाण है । (नूरविमाणाणं भंते ! देवीणं केवायं कालं ठिई पण्णत्ता? गोयमा! जहन्नेणं च उभापलि ओवम उक्कोसे णं अपलि. ओवमं पंचहि वाससहि अमहियं) हे भदंत ! सूर्य विमानों की देवियों की स्थिति जघन्य से लो पल्प के चौथे भाग प्रमाण है और उत्कृष्ट ५००, पाच सौ वर्ष अधिक अर्धपल्योपम प्रमाण है। (गहविमाणाणं भंते ! देवाग केवड्यं कालं ठिई पण्णत्ता?) ग्रहविमानों के देवों की स्थिति कितने काल की कही गई है ? (गोया! जहन्नेणं चउभागपलिओ. वम उक्कोण पलि मोत्रमं) हे गौतम ! ग्रहविमानों के देवों की स्थिति जघन्य से पल्प के चतुर्थ भाग प्रमाण और उत्कृष्ट से एक पल्योपम प्रमाण कही गई । (गहविभाणाणं भंते ! देवीणं केवयं काल
भागपलिओवम', उक्कोसेणं पलिओम' वामसहस्समभहिय) : गौतम ! સૂર્યવિમાનોના દેવેની સ્થિતિ જઘન્યની અપેક્ષાએ તે પત્યના ચોથા ભાગ પ્રમાણ છે અને ઉત્કૃષ્ટથી એક હજાર વર્ષ અધિક પલ્યોપમ પ્રમાણ છે. (सूरविमाणाणं भंते ! वीणं केवइय' कालं ठिई पण्णत्ता १ गोयमा ! जहन्नेणं चउ. भारापलिओवम उककोसेणं अद्धपलि ओवम पंचहि वाससएहिं अमहिय) 3 ભદંત! સૂર્યવિાનની દેવિઓની સ્થિતિ જઘન્યની અપેક્ષાએ તો પત્યના ચોથા ભાગ પ્રમાણ અને ઉત્કૃષ્ટથી ૫૦૦ વર્ષ અધિક અર્ધ પાપમ પ્રમાણ छ. (गह विमाणाणं भंते! देवाणं केवइयं कालं ठिई पण्णत्ता) 0 महत!
विमानाना हैवानी स्थिति डेटा सनी प्रज्ञ ययेकी छे ! (गोयमा ! जहन्नेणं चउभागलि प्रोवम, उकोसेणं पलिओवम) 3 गीतम! अविभा નેના દેવાની સ્થિતિ જઘન્યની અપેક્ષાએ પલ્યમના ચતુર્થ ભાગ પ્રમાણે सनष्टश्री मे ५८ये पम प्रमाण अपामा मादी छे. (गहविमाणाणं भंते । देवीणं केवइय कालं ठिई पणत्ता ?) महत! अविमानानी वि
अ० ४२
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अनुयोगद्वारसूत्रे पल्योपमम्, उत्कर्षेण अर्द्धपल्योपमम् । नक्षत्रविमानानां भदन्त ! देवानां, कियन्तं कालं स्थितिः प्रज्ञप्ताः ? गौतम जघन्येन चतुर्भागपल्योपमम् , उत्कर्षेण अर्द्धपल्योपभम् । नक्षत्रविमानानां भदन्त ! देवीनां कियन्तं कालं स्थितिः प्रज्ञप्ता ? गौतम ! जघन्येन चतुर्भागपल्योपमम् , उत्कर्षण सातिरेक चतुर्भागपल्योपमम् । ताराविठिई पण्णत्ता) हे भदंत ! ग्रहविमानों की देवियों की स्थिति-आयुकितनी कही गई है ? (गोयना! जहणेणं चउभागपलिभोवमं उक्कोसेणं अद्धपलिओवमं ) हे गौतम ! ग्रहविमानों की देवियों की आयु जघन्य से तो एकपल्य के चौथे भाग प्रमाण कही गई है और उत्कृष्ट से अर्ध पल्य प्रमाण कही गई है। (णक्खत्तविमाणाणं भंते देवाणं केवयं कालं ठिई पण्णत्ता ?) हे भदन्त ! नक्षत्र के विमानों में रहनेवाले देवों की आयु कितनी कही गई है ? ) (गोयमा !जहणणेणं च उभागपलिओवमं, उक्कोसेणं अद्धभलिभोवमं) हे गौतम ! नक्षत्र विमानों के देवों की आयु जघन्य से तो पल्य के चौथे भाग प्रमाण कही गई है और उत्कृष्ट से आधे पल्प की कही गई है । (णक्वत्तविमाणाणं भंते ! देवीणं केवयं कालं ठिई पत्ता ?) हे भदन्त ! नक्षत्रविमानो की देवियों की आयु कितने काल की कही गई है ? (गोयमा ! जहण्णेणं चउभागपलिओवमं उक्कोसेणं सातिरेगं चउभागपलिओवमं) हे गौतम! नक्षत्र विमानों की देवियों की आयु जघन्य से तो पल्प के चौथे भाग प्रमाण
सोनी स्थिति-मायु दी प्रज्ञ थयेही छ ? (गोयमा ! जहण्णेणं चउभाग पलिओवम सक्कोसेण अद्धपलिओवमं) 3 जीभत विमानानी દેવિઓનું આયુ જઘન્યથી તે એક પલ્પના ચોથા ભાગ પ્રમાણ કહેવામાં આવ્યું છે. અને ઉત્કૃષ્ટથી અર્થાપત્યના જેટલી કહી છે. (णक्खत्तविमाणाणं भंते ! देवाणं केवइय' कालं ठिई पण्णत्ता ) 3 महत ! નક્ષત્ર વિમાનમાં રહેનારા દેવનું આયુ કેટલું કહેવામાં આવ્યું છે? (गोयमा ! जहण्णेणं च उभागपलिओवम', उक्कोसेणं अद्धपलिओवम) गीतम! નક્ષત્ર વિમાનના દેવોનું આયુ જઘન્યની અપેક્ષાએ તે પત્યના ચોથા ભાગ પ્રમાણ કહેવામાં આવ્યું છે. અને ઉત્કૃટની અપેક્ષાએ અર્ધपक्ष्योपमप्रभा वाम मा०यु छे. (णखत्तविमाणाणं भंते ! देवीणं केवइय कालं ठिई पण्णत्ता ?) 3R! नक्षत्र विमानानी हुवामानु मायु रक्षा
नामा मा०यु छ ? (गोपमा ! जहण्णेण चउभागपलिओवम उक्कोसेण सातिरेगं चउभागपलिओवम) Dard ! नक्षत्र विमानानी विभानु આયુ જઘન્યની અપેક્ષાએ તે પત્યના ચોથા ભાગ પ્રમાણ જેટલું કહેવામાં આવ્યું છે અને ઉત્કૃષ્ટથી કઈક વધારે પથના ચતુર્થ ભાગ પ્રમાણ કહેવામાં
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अनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र २०७ असुरकुमारादीनामायुःस्थितिनिरूपणम् ३३१ मानानां भदन्त ! देवानां कियन्तं कालं स्थितिः प्रज्ञप्ताः ? गौतम ! जघन्येन साविरेकम् अष्टभागपल्योपमम् , उत्कर्षेण चतुर्भागपल्योपमम् । ताराविमानानां भदन्त ! देवीनां कियन्तं कालं स्थितिः पज्ञप्ता ? गौतम ! जघन्येन अष्टमाग पल्योपमम् , उत्कर्षेण सातिरेकम् अष्टभागाल्योपमम् । वैमानिकानां भदन्त ! कही गई है और उत्कृष्ट से कुछ अधिक पल्य के चतुर्थ भाग प्रमाण कही गई है। (ताराविमाणाणां भंते! देवाणे केवयं कालं ठिई पण्णत्ता ?) हे भदंत! ताराओं के विमानों के देवों की स्थिति जितने काल की कही गई है ? (गोयमा ! जहण्णेणं साइरेगं अभागपलिओवर्म उक्कोसेणं चउभागपलिभोवमं) हे गौतम ! ताराओं के विमानों के देवों की आयु जघन्य से तो कुछ अधिक एल्य के आठवें भागप्रमाण कही गई है और उत्कृष्टले पल्प के चौथे भागप्रमाण कही गई है। (तारा विमागाणं भंते ! देवाणं केवहथं कालं ठिई पाता ?) खाराओं के विमानों की देवियों की हे भदन्त ! कितनी आयु कही गई है ? (गोयमा ! जहण्णेणं अट्ठभागपलि ओवमं 'उकोसेणं साइरेणं अट्ठभाग: पलिओवम) गौतम ! ताराओं के विमानो की देवियों की आयु जघन्य से तो पल्प के आठवें भागप्रमाण कही गई है और उत्कृष्ट से कुछ अधिक पल्य के आठवें भागप्रमाग कही गई है। (वेमाणियाणं भंते ! देवाणं केवयं कालं ठिई पण्णत्ता ?) हे भदन्त ! वैमानिक देवों की मा०यु छे. (ताराविमाणाणं भंते ! देवाणं केवइय कालं ठिई पण्णत्ता ?) 3 ભદત! તારા એના વિમાનોના દેવેની સ્થિતિ કેટલા કાલની કહેવામાં આવી छ ? (गोयमा! जहण्णेणं साइरेगं अद्रभागपलिओवम', उक्कोसेण चउभागपलिओवम) 3 गौतम! तारामान विमानाना हेवानुमायु पन्यनी અપેક્ષાએ તે કંઈક વધારે પલ્યના આઠમા ભાગ પ્રમાણુ કહેવામાં આવ્યું छ. अने यी ५६यना याथा मा प्रभार ४ामा मान्यु छे. (तारा विमाणाणं भंते ! देवी केवइय कालं दिई पण्णत्ता!) ताशयाना विमानानी विमानु नत ! मायु ८९ ४उपमा मा०यु छ ? (गोयमा ! जहण्णेण अनुभागपलि ओवम' उनकोसेण साइरेग अभागपलिओवम) गौतम ! ता. એના વિમાનની દેવિઓનું આયુ જઘન્યની અપેક્ષાએ તે પલ્યના આઠમા ભાગ પ્રમાણ કહેવામાં આવ્યું છે અને ઉત્કૃષ્ટથી કંઈક વધારે પલ્યના આઠમા मा प्रभाएर उयामा मान्य छे. (वेमाणियाणं भंते ! देवाणं केवइयं कालं ठिई पण्णत्ता) : RE-1 ! वैमानि हेतु भायु ८७ ४ामा माव्यु छ ?
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अनुयोगद्वारसूत्रे देवानां कियन्तं कालं स्थितिः प्रज्ञप्ता ? गौतम ! जघन्येन पल्योपमम् , उत्कर्षण त्रयस्त्रिंशत् सागरोपमाणि । वैमानिकानां भदन्त ! देवीनां कियन्नं कालं स्थितिः प्रज्ञप्ताः ?, गौतम ! जघन्येन पल्योपमम् , उत्कर्षेण पञ्चपश्चाशत पल्योपमानि । सौधर्म खलु भदन्त ! कल्पे देवानां कियन्तं कालं स्थितिः प्रज्ञप्ता ?, गौतम ! जघन्येन पल्योपमम् , उत्कर्षेण द्वे सागरोपमे । सौश्मे खलु भदन्त ! कल्पे कितनी आयु कही गई है ? (गोयमा ! जहण्णेणं पलिओवम उकोसेणं तेत्तीसं सागरोवमाई) हे गौतम ! वैमानिक देवों की आयु जघन्य से तो एक पल्य की कही गई है और उत्कृष्ट से ३३ सागरोपम की कही गई है। (वेप्राणियाणं भंते ! देवीणं केवइयं कालं ठिई पण्णत्ता ?) हे भइन्त ! वैवानिक देवों की देवियों की कितनी आयु कही गई है ? (गोपा ! जहणणं पलिओवमं उक्कोसेणं पणषणं पलिओवमाई) हे गौतम ! वैमानिक देवों की देवियों को आयु जघन्य से एक पल्यो. पम की कही गई है और उत्कृष्ट से ५५ पल्यापम की कही गई है। (सोहम्मेणं भंते ! कप्पे देवाणं केवइयं कालं ठिई पण्णत्ता ?) हे भदन्त ! सौधर्म नामक कल्प में देवों की आयु कितनी कही गई ? (गोधमा ! जहण्णेणं पलिभोयम उनकोसणं दो सामशेवभाई) हे गौतम ! सौ. धर्म कल्प में देवों की आयु जघन्य तो एक पल्योपम की कही गई है (गोयमा ! जहण्णेण' पलिओवम उक्कोसेण तेत्तीसं सागरोवमाई 3 भीतम ! વૈમાનિક દેવેનું આયુ જઘન્યની અપેક્ષાએ તે એક પલ્પ જેટલું કહેવામાં આવ્યું छ भने ४थी 33 सागरायमर्नु ४ामा मान्छे , (वेमाणियाण मंते ! देवीण केवइय कालं ठिई पण्णत्ता ?) 3 'a ! मनि वानी विमान मायु टयु ४ामा भ.०यु छ ? (गोयमा ! जहण्णेण पलिओवम उक्कोसणं पण पण्णं पलि भोवमाई) 3 गौतम! वैमानि वानी हवसानु माय જઘન્યની અપેક્ષાએ ૫પમ જેટલું કહેવામાં આવ્યું છે અને ઉત્કૃષ્ટથી ૧૫ पक्ष्योपभर्नु ४३वामा मा०यु छे. (सोहम्मे ण भंते ! कप्पे देवाण केवइय कालं ठिई पण्णता ?) 0 RE! सौधर्म नाम: ४६५मा वानुमायु टयुवामा माय? (गोयमा! जहण्णेण पलि प्रोवम उक्कोसेण दो सागरोवमाई) 3 ગૌતમ ! સૌધર્મકલ્પમાં દેવેનું આયુ જઘન્યની અપેક્ષાએ તે એક પળેપમનું કહેવામાં આવ્યું છે અને ઉત્કૃષ્ટથી બે સાગરેપમનું કહેવામાં આવ્યું
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अनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र २०७ असुरकुमारादीनामायुः स्थितिनिरूपणम् ३३३ परिगृहीतदेवीनां कियन्तं कालं स्थितिः प्रज्ञप्ता गौतम ! जघन्येन पल्योपसम् उत्कर्षेण सप्तपल्पोपपानि । सौधर्मे खलु भदन्त ! कल्पे अपरिगृहीतदेवीनां कियन्तं कालं स्थितिः प्रज्ञपा ? गौतम ! जघन्येन पल्योपमम् उत्कर्षेण पश्चाशत्रु पल्योपमानि | ईशाने खलु भदन्त ! कल्पे देवानाँ कियन्तं कालं स्थितिः प्रज्ञप्ता ? गौतम ! जघन्येन सातिरेकं पल्योपमम्, उत्कर्षेण सातिरेके द्वे सांग
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और उत्कृष्ट दो सागरोपम की है (सोहम्मे णं भंते! कप्पे परिग्गहिया देवीणं केवrयं कालं ठिईपण्णत्ता ?) सौधर्म कल्प में हे भदन्त ! परिगृहीत देवियों की आयु कितनी कही गई है ? (गोयमा ! जहणणेणं पलिओदमं उक्को सेणं सत्तपलि भोमाई) हे गौतम! सौधर्मकल्प में परिगृहीत देवियों की आयु जघन्य से तो एक पत्थोपन की और उत्कृष्ट से सात पत्योपम की कही गई है। (सोहम्मेण भंते ! कप्पे अपरिगहिया देणं वयं कालं ठिई पण्णत्ता ?) हे भदन्त ! सौधर्म कल्प में अपरिगृहीत देवियों को आयु कितनी कही गई है ?) (गोयमा ! जहणेणं पलिश्रोत्रमं, उक्कोसेगं पण्णासपलि ओवमाई) हे गौतम! सौधर्मकल्प में अपरिगृहीत देवियों की आयु जघन्य से तो १ पल्पो पम की कही गई है और उत्कृष्ट से ५० पत्थोपम की है । (ईसाणेणं भंते! कप्पे देवाणं केवश्यं कालं ठिई पण्णत्ता ?) हे भदन्त ! ईशान कल्प मे देवों की कितनी आयु कही गई है ? (गोयमा ! जपणेणं
छे. (सोइम्मेण भंते ! कप्पे परिग्गहिया देवीण केवइयं काल ठिई पण्णत्ता ? ) સૌધ કલ્પમાં કે ભદંત ! પરિગ્રહીત દેવિઓનું આયુ કેટલું કહેવામાં मा०यु छे ? (गोयमा ! जइण्णेण पहिओवम उक्कोसेणं सत्त पलिओ माई ) હું ગૌતમ ! સૌધમ કલ્પમાં પરિગૃહીત દેવઆનુ' આયુ જઘન્યની અપેક્ષાએ તે એક પધ્યેાપમનુ અને ઉત્કૃષ્ટથી સાત પક્ષેાપમ જેટલું કહેવામાં આવ્યુ छे. (सोहम्मे भंते! कप्पे अपरिग्गहिया देवीणं केवइयं काल ठिई पण्णत्ता १) હે ભદંત ! સૌધ કલ્પમાં અપગૃિહીત દેવીએ!નું આયુ કૈટલું કહેવામાં २० छे? (गोत्रमा ! जहणेण पहिओवम उक्कोसेण' पण्णासं पलिओ माई ) હું ગૌતમ ! સૌધમ કલ્પમાં અપરિગ્રßીત દેવીઓનું માયુ જઘન્યની અપેક્ષાએ તા ૧ પક્ષેાપમ જેટલું કહેવામાં આવ્યું છે અને ઉત્કૃષ્ટથી ૫૦ यहयोपमनु वामां भाव्यु छे. (ईसाणेण भंते! कप्पे देवाण' केवइय' काढ . ठिई पण्णचा ?) डे महत | इशान उपमां देवानुं
यु
ददुः वाभा
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अनुयोगद्वारसूत्रे
रोपमे । ईशाने खलु महन्त ! कल्पे परिगृहीतदेवीनां कियन्तं कालं स्थितिः प्रज्ञप्ता ?, गौतम ! जघन्येन सातिरेकं पल्योपमम्, उत्कर्षेण नत्र पल्योपमानि । ईशाने खलु भदन्त ! कल्पे अपरिगृहीतदेवीनां भदन्त ! कियन्तं कालं स्थितिः प्रज्ञप्ता ?, गौतम जवन्येन सातिरेकं पल्योपमम् उत्कर्षेण पञ्चपञ्चाशत् पल्योप
साइरेगं पलिओयमं, उक्कोसेणं साहरेगाइ दो सागरोवमाइ ) हे गौतम ! ईशान कल्प में देवों की आयु जघन्य से तो कुछ अधिक पोपम की कही गई है और उत्कृष्ट से कुछ अधिक दो सागरोपम की है। (ईसाणे णं भंते! कप्पे परिग्गहिया देवीणं केवइयं कालं ठिई पत्ता ?) हे भदन्त ! ईशान कला मे परिगृहीत देवियों की आयु कितनी कही गई है ? (गोषभा ! जहण्णेणं साइरेगं पलिओयमं, उक्कोसेणं नव पलिभवाइ) हे गौतम! ईशानकल्प में परिगृहीत देवियों की आयु जघन्य से तो कुछ अधिक एक पल्योपम की और उत्कृष्ट से नौ पल्योपम की कही गई है। (ईसाणे णं भंते! कप्पे अपरिग्गहियाण देवीणं केवहयं कालं ठिई पण्णत्ता ? ) ईशान कल्प में हे भदन्त । अपरिगृहीन देवियों की आयु कितनी कही गई है ? (गोधमा ! जपणे साइरेगं पलिओवमं उक्कोसेणं पणपणपलिओचमाई) हे गौतम | ईशान कल्प में अपरिगृहीत देवियों की आयु जघन्य से
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मा० छे ? (गोवमा ! जहणणेग खाइरेगं पलिओवम उक्कोसेण साइरेगाई दो सागरोमाई) डे गौतम ! ईशान उपमा देवानु आयु धन्यनी अये. ક્ષાએ તે કાંઇક વધારે પલ્ટેપમ જેટલુ કહેવામાં આવ્યું છે અને ઉત્કૃષ્ટથી कुंड वधारे मे सागरोपम भेटलु उडेमां मन्युं छे. (ईसाणेण भंते ! कपे परिगहिया देवोण केवइयं काल ठिई पण्णत्ता ?) डे ल त ! ईशानउपमां परिगृडीत देवीनं आयु लुडेवामां आव्यु छे ? (गोयमा ! जह
देवीण केवइय
'साइरेगं पलिओम, उक्कोसेण नव पछिओत्रमाई) हे गौतम १ शानકલ્પમાં પરિગૃહિત દેવીએ નુ' આયુ જઘન્યની અપેક્ષાએ ત કઇક વધારે એક પલ્વેપત્ર જેટલુ' અને ઉત્કૃષ્ટની અપેક્ષાએ નવ પથૈપમ જેટલું डेवामां आव्यु छे. (ईलाणेग भंते! कप्पे अपरिगहियाण काल' ठिई पण्णत्ता ?) ईशान उपमा हे लढत ! अपरिगृद्धीत हे मोनु आयु Jeg sa Hig? (naar! agoñq' agti qfsstaa'! sealसेण पणपण्णप लिओ माई ) हे गौतम! ईशानपमा अपरिगृहीत हेवी એનું આયુ જઘન્યની અપેક્ષાએ તે કંઈક વધારે એક પત્યેપમ જેટલુ
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अनुयोगन्द्रिका टीका सूत्र २०७ असुरकुमारादीनामायुःस्थितिनिरूपणम् ३३५ मानि । सनत्कुमारे खलु भदन्त ! कल्पे देवानां कियन्तं कालं स्थितिः प्रज्ञप्ता ? गौतम ! जघन्येन द्वे सागरोपमे, उत्कर्षेण सप्तसागरोपमाणि । माहेन्द्रे खलु भदन्त ! कल्पे देवानां कियन्तं कालं स्थितिः प्रज्ञप्ता ? गौतम ! जघन्येन सातिरेके द्वे सागरोपमे, उत्कर्षेण सातिरेकाणि सप्तसागरोपमाणि । ब्रह्मलोके खलु भदन्त ! कल्पे देवानां कियन्तं कालं स्थितिः प्रज्ञप्ता ? गौतम ! जघन्येन सप्ततो कुछ अधिक एक पल्योपभ की और उत्कृस्ट से ५५ पल्पोपम की कही गई है । (सण कुमरेण भंते! कप्पे देवाण केवइयं कालं ठिई पण्णत्ता ?) हे भदन्त ! सनत्कुमार कल्प में देवों की आयु किननी कही गई है ? (गोयमा ! जहण्णेणं दो सागरोवमाई उक्को. सेणं सत्तसागरोमाई) हे गौतम ! सनत्कुमारकल्प में देवों की आयु जघन्य से तो दो सागरोपम की कही गई है और उत्कृष्ट से सात सागरोपम की है (माहिदेणं भंते ! कप्पे देवाणं केवइयं कालं ठिई पण्णत्ता?) हे भदंत ! माहेन्द्र कल्प में देवों की आयु कितने काल की गई है ? (गोयमा ! जहण्णेणं साहरेगाई दो सागरोवमाई उक्कोसेणं साइरेगाई सत्तसागरोवमाई) हे गौतम ! माहेन्द्रकल्प में देवों को आयु जघन्य से तो कुछ अधिक दो सागरोपम की और उत्कृष्ट से कुछ अधिक सात सागरोपम की कही गई है । (खंभलोएणं भंते ! कप्पे देवाणं केलयं कालं ठिई पगत्ता ?) हे भदंत ! ब्रह्मलोक नाम के कल्प में देवों की भने उनी अपेक्षा ५५ ५८यापम २ मा मायुसे. (सणं कुमारेण भंते ! कप्पे देवाण' केवइय' काल ठिई पण्णत्ता) मत सन. भार ४८५i हेवानुमायु सेतुं अपामा आयुछे १ (गोयमा ! जहण्णेण दो सागरोवमाइं उक्कोसेणं सत्तसागरोवमाई) 3 गोतम ! सनभार ४८५i દેવોનું આયુ જઘન્યની અપેક્ષાએ તે બે સાગરોપમ જેટલું કહેવામાં આવ્યું છે અને ઉત્કૃષ્ટની અપેક્ષાએ ૭ સાગરોપમ જેટલું કહેવામાં આવ્યું છે. (माहिदेण भंते ! कापे देवाण केवइय काल' ठिई पण्णत्ता ?) BR! भाडेन्द्र ४६५i विसानु मायु 21 जनु उपामा मायुं छे १ (गोयमा ! जहण्णेग साइरेगाइं दो सागरोवमाई उक्कोसेण साइरेगाइं सत्त सागरोवमाई) હે ગૌતમ ! માહેન્દ્રકલ્પમાં દેવિઓનું આયુ, જઘન્યની અપેક્ષાએ તે કંઈક વધારે બે સાગરોપમ જેટલું અને ઉત્કૃષ્ટની અપેક્ષાએ કંઈક વધારે ૭ सागरोयम २९ ४ामा भाव्युछे. (बंभलोएण' भंते ! कापे देवाण केवइय कालं ठिई पण्णत्ता !) RE ! नया नाम४ ४६५मा हेर्नु भायु तुं
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अनुयोगद्वारस्ते सागरोपमाणि, उत्कर्षेण दशसागरोपमाणि । एवं कल्पे कल्पे कियन्तं कालं स्थितिः प्रज्ञप्ता ?, गौतम ! एवं भणितव्यं-लान्तके जघन्येन दश सागरोपमाणि उत्कर्षेण चतुर्दशमागरोपमाणि । महाशुक्रे जघन्येन चतुर्दश सागरोपमाणि, उत्कर्षेण सप्तदशसागरोपमाणि । सहस्रारे जघन्येन सप्तदशसागरोपमाणि, कितनी आयु कही गई है ? (गोयमा ! जहणे णं सत्तसागरोक्माई उक्का सेणं दलसागरोवमाइं) हे गौतम ! ब्रह्मलोक में देवों की आयु जघन्य से तो सात सागरोपम की और उत्कृष्ट से दश सागरोपम की कही गई है। (एवं कप्पे २ केवयं कालं ठिई पण्णता? गोयमा! एवं भाणियन्वं) इसी प्रकार से प्रत्येक कल्प में कितनी २ आयु कही गई है ऐसा प्रश्न कर लेना और उसका हे गौतम ! उत्तर इस प्रकार से जानना कि (लंनए जहन्नेणं दस सागरोवमाइं उक्कोसेणं चउद्दससागरोबमाई) लान्तक कल्म में जघन्य से दश सागरोपम की है और उत्कृष्ट से १४ सागरोपम की है । (महासुक्के जहन्नेणं च उद्दससागरोवमाई उक्कोसेणं सत्तरस लागवमाई) महाशुक्र में जघन्य स्थिति १४ सागरोपम की है और उत्कृष्ट स्थिति १७ सागरोपम की है । (सहस्सारे जहण्णेणं सत्त रससोगरोयमाई, उक्को सेणं अट्ठारसलागरोषवाई) सहस्त्रार कल्प में जघन्य आयु १७ सागरोपम की है जऔर उत्कृष्ट आयु १८ सासारोपम की है। (आणए जहन्नेणं अट्ठारससागरोचमाई, उक्कोसेणं गूगवीसं सागरोवमाइं) आनतकल्प में जघन्य आयु अठारह १८ सागरोपम की कही है और उत्कृष्ट आयु १९ उन्नीस सागरोपम की है । (पाणए जहण्णेणं
वाभा मा०यु छे. (गोयमा ! जइण्णं सत्त सागरोवमाई उक्कोसेणं दस सागरोवमाई है गौतम ! " झम हुनु अायु वन्यनी अपेक्षा यो सात ૭ સાગરોપમનું અને ઉત્કૃષ્ટની અપેક્ષાએ ૧૦ સાગરોપમનું કહેવામાં આવ્યું छ. (एवं कार केवइय' का ठिई पण्णत्ता ! गोयमा! एवं भाणियव्वं) मा પ્રમાણે જ દરેક કલપમાં કેટલું આયુ પ્રજ્ઞપ્ત થયેલું છે? આ જાતનો પ્રશ્ન કરી લે અને હે ગૌતમ! તેને જવાબ આ પ્રમાણે જાણી લેવું જોઈએ કે (लंतर जहन्नेणं दखसागरोवमाई, उक्कोसणं चउद्दससागरोवमाइं) ends કપમાં જઘન્યની અપેક્ષાએ ૧૦ સાગરોપમ જેટલું અને ઉત્કૃષ્ટની અપે सारी १४ सागरी५ २८९ मायुछे (महा सुक्के जहन्नेणं चउदसम्रागरोवमाई' उक् कोसेणं सत्तरससागरोवमाइ) भांशुमा धन्यस्थिति १४ सागर।५मनी अ ट श्रिति १७ २१५ की छे. (सहसारे जहण्णेणं सत्तरससागरोबमाइ', उनकोसणं अट्ठारस सागरावमाइ) सखार
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अनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र २०७ असुरकुमारादीनामायुःस्थितिनिरूपणम् ३३७ उत्कर्षेण अष्टादशसागरोपमाणि । आनते जघन्येन अष्टादशसागरोपमाणि उत्कर्षेण एकोनविंशतिसागरोपमाणि । प्राणते जघन्येन एकोनविंशतिसागरोपमाणि, उत्कर्षे णविंशति सागरोपमाणि । आरणे जघन्येन विंशतिलागरोपमाणि, उत्कर्षेण एकविशतिसागरोपमाणि । अच्युते जघन्येन एकविंशतिसागरोपमाणि, उत्कर्षेण द्वाविंशति सागरोपमाणि । अधस्तनाधस्तनोवेयकविमानेषु खल भदन्त ! देवानां कियन्तं कालं स्थितिः प्रज्ञप्ता ?, गौतम ! जघन्येन द्वाविंशति सागरोपमाणि, उत्कर्षेण त्रयोविंशति सागरोपमाणि । अधस्तनमध्यमवेयकएगूणवीस सागरोवाई उक्कोसेणं वीसं सागरोवमाई) प्राणतकल्प में जघन्य आयु १९ सागरोपम की है और उत्कृष्ट आयु बीस सागरो. पम की है । (भारणे जहण्णेणं बीसं सागरोवमाई उक्कोसेणं एकवीसं सागरोवमाई) आरणकल्प में जघन्य आयु घीस सागरोपम की है और उत्कृष्ट आयु २१ सागरोपम की है । (अच्चुए जहन्नेणं एक्कवीसं सागरोपमाई उक्कोसेणं बावीसं सागरोवमाई) अच्युतकल्प में जघन्य आयुत २१ सागरोपम की है और उत्कृष्ट आयु २२ सागरोपम की है। (हेटिमटिमगेविज्जगविमाणेसु णं भंते ! देवाणं केवड्यं कालं ठिई पण्णत्ता ?) हे भदन्त ) अधस्तन अधस्तन ग्रैवेयक विमानों में देवों की कितने काल की स्थिति कही गई है। (गोयमा ! जहन्नेणं बाबीसं सागरोवमाई उक्कोसेणं तेवीसं सागरोवमाई) हे गौतम! जघन्य से २२ કપમાં જઘન્યની અપેક્ષાએ આયુ ૧૭ સાગરોપમનું અને ઉત્કૃષ્ટ આયુ साग।५म २८९ छे. (आणए जहन्नेणं अद्वारससागरोवमाइं उक्कोसेणं एगू. णवीसं सागरोवमाइं) मानत८५i धन्य आयु १८ सा॥२५ २८९ भने टायु १८ सागरे।५भ रेटयुछे (पाणए जहण्णेणं एगूणवीसं सागरोवमाई उक्कोसेणं वीसं सागरोवमाई) प्रात:६५मा ४५न्य मायु १६ साश५मनु छ भने अष्ट मायु २० सा॥३॥५मनु छ (आरणे जहण्णेणं बीसं सागरोत्रमाइं उक्कोसेणं एकवीसं सागरोवमाइं) मा२५१ ४६५i vधन्य આયુ ૨૦ સાગરોપમ જેટલું અને ઉત્કૃષ્ટ આયુ ૨૧ સાગરો પામ જેટલું છે. (अच्चुए जहन्नेणं एककवीसं सागरोवमाइं उनकोसेणं बावीतं सागरोवमाई) અશ્રુત કલ૫માં જવ આયુ ૨૧ સાગરોપમ જેટલું અને ઉત્કૃષ્ટ આયુ २२ सागरे।५ २८ अपामा मा०यु छ. (हेद्विमहे द्विमगेविजगविमाणेसु णं भंते ! देवाण केवइयं कालं ठिई पण्णत्ता ?) 3 महत! अपन अस्तन રૈવેયક વિમાનમાં દેવની કેટલા કાળની સ્થિતિ કહેવામાં આવી છે? (गोयमा ! जहन्नेणं बावीसं सागरोवमाई उक्कोणं तेवीसं सोगरोवमाई) हे गीतम! જઘન્યની અપેક્ષાએ ૨૨ સાગરોપમ જેટલી અને ઉત્કૃષ્ટની અપેક્ષાએ ૨૩
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अनुयोगद्वारसूत्रे
विमानेषु खलु महन्त ! देवानां कियन्तं कालं स्थितिः प्रज्ञप्ता ? गौतम ! जघन्येन त्रयोविंशति सागरोपमाणि, उत्कर्षेण चतुर्विंशर्ति सागरोपमाणि । अवस्तनोपरितनग्रैवेयकविमानेषु खलु भदन्त ! देवानां कियन्तं कालं स्थितिः प्रज्ञता ? गौतम ! जघन्येन चतुर्विंशति सागरोपमाणि उत्कर्षेण पञ्चविंशति सागरोपमाणि । मध्यमाधस्तन ग्रैवेयक विमानेषु खलु भदन्त ! देवानां क्रियन्तं कालं स्थितिः प्रज्ञप्ता ? सागरोपम की और उत्कृष्ट २३ सागरोपम की कही गई है । (हेहिममज्झिम वेज्जनविमाणेस गं भंते! देवाणं केवयं कालं लिई पण्णत्ता) अवस्तनमध्यम चैवेयक विमानों में हे भदन्त । देवों की स्थिति कितने काल की कही गई है ? (गोधना ! जण्णेणं तेवीसं सागरोवमाई, उक्कोसेणंचवीसं सोगरोवमाई) हे गौतम जघन्य स्थिति तो वहां २३ सागरोपम की कही गई है और उत्कृष्ट स्थिति २४ सागरोपम की है । (ट्टिमउवरिमगेवेज्जगविमाणेसु णं भंते ! देवाणं केवइयं कालं ठिई पण्णत्ता ? ) हे भदंत ! अवस्तन उपरितन ग्रैवेयक विमानों में देवों कि स्थिति कितने काल की कही गई है ? (गोयमा ! जहणेर्ण
वीसं सागरोवमाइ उक्कोसेणं पंचवीसं सागरोवमाइ ) हे गौतम ! वहां पर देव की जघन्यस्थिति २४ सागरोपम की और उत्कृष्ट स्थिति २५ सागरोपम की कही गई है। (मज्झिम हेडिमगेवेज्जगविमा
पुणं भंते! देवाणं केवइयं कालं ठिई पण्णत्ता ?) हे भदन्त ! मध्यम अधस्तन ग्रैवेयक विमानों में देवों की स्थिति कितने काल की कही
सागरोपम भेटली छे. (हेट्टिममज्झिमवेज्जगविमाणेसु णं भंते! देवाण केत्रइयं कालं ठिई पण्णत्त ) અસ્તન મધ્યમ ગ્રેવેયક વિમાનામાં ૩ ભદત ! देवानी स्थिति डेटा अजनी उडेनामा भावी छे ? (गोयमा ! जहणेण तेवीसं सागरोवमाइ', उक्कोसेण चव्वीसं सागरोवमाइ ) हे गौतम! धन्य स्थिति તે ત્યાં ૨૩ સાગરપમ જેટલી અને ઉત્કૃષ્ટ સ્થિતિ ૨૪ સાગરાપમ જેટલી ४. (हे मिरिमवेज्जव विमाणेसु णं भंते! देवाणं केवइयं कालं ठिई पण्णत्ता १) હૈ ભટ્ઠ'ત ! અધસ્તન ઉપરિતન ત્રૈવેયક વિમાનામાં ઢવાની સ્થિતિ કેટલા अजनी प्रज्ञप्त थयेसी छे ! ( गोयमा ! जणेण चडवीसं सागरोवमाइ उक्कोसेण पंचवीसं सागरोवमाइ ) हे गौतम! त्यां हेवानी स्थिति भवन्यनी अये. ક્ષાએ ૨૪:સાગરાપમ જેટલી અને ઉત્કૃષ્ટની અપેક્ષાએ ૨૫ સાગરોપમ જેટલી કહેવામાં भावी छे. ( मज्झिम हे हिमवेज्जगविमाणेषु णं भते ! दिवाण केवइयं कालं ठिई पण्णत्ता !) हे लढत ! मध्यम अधस्तन ग्रैवेयः विभानामां देवानी स्थिति डेटा अणनी प्रज्ञप्त थये श्री छे ? (गोयमा ! जहणेण
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अनुयोगर्यान्द्रका टीका सूत्र २०७ असुरकुमारादीनामायुःस्थितिनिरूपणम् ३३९ गौतम ! जघन्येन पञ्चविंशति सागरोपमाणि, उत्कर्षेण षड्वंशति सागरोपमाणि । मध्यममध्यमवेयकविमानेषु खलु भदन्त ! देवानां कियन्तं कालं स्थितिः प्रज्ञप्ता? गौतम ! जघन्येन पडूविंशति सागरोपमाणि उत्कर्षेण सप्तविंशति सागरोपमाणि। मध्यमोपरितनग्रैवेयकविमानेषु खलु भदन्त ! देवानां कियन्तं कालं स्थितिः प्रज्ञप्ता ? गौतम ! जघन्येन सप्तविंशति सागरोपमानि उत्कर्षेण अष्टाविंशति सागगई है ? ( गोयमा ! जहणेणं पण्णवीसं सागरोवमाइं उक्कोसेण छन्चीस सागरोवमाई) हे गौतम ! वहां पर देवों की स्थिति जघन्य से २५ सागरोपम की और उस्कृष्ट से २६ सागरोपम की कही गई है। (मज्झिममज्झिम्रगेवेज्जगविमाणेसु र्ण भंते ! देवाण केवइयं कालं ठिई पण्णत्ता) मध्यम मध्यम ग्रेवेयक विमानों में देवों की स्थिति कितने काल की कही गई है ? (गोयमा ! जहण्णण छन्त्रीसं सागरोवमाई. उक्कोसे णं सत्तावीसं सागरोवमाई) है गौतम! वहाँ पर देवों की स्थिति जघन्ध से तो २६ सागरोपम की कही गई है और उत्कृष्ट से २७सागरोपमकी है। (मज्झिम उवरिमगेवेज्जगविमाणेसुणं भंते ! देवाणकेवइयं कालं ठिई पण्णत्ता) हे भदन्त ! मध्यमउपरितन ग्रेवेयक विमानों में देवों की स्थिति कितने काल की कही गई है ? (गोयमा! जहण्णेग सत्तावीसं सागरोवमाई उक्कोसेणं अट्ठावीसं सागरोवमाइ) हे गौतम ! वहां पर जघन्यस्थिति तो २७ सागरोपम की कही गई है और उत्कृष्ट स्थिति २८ सागरोपम की है। (उवरिमहे हिमगेवेज्जगविपण्णवीसं सागरोवमाई, उक्कोसेण छब्बीसं सागरोवमाई) 3 गौतम! त्यां દેવોની સ્થિતિ જઘન્યની અપેક્ષાએ ૨૫ સાગરોપમ જેટલી અને ઉત્કૃષ્ટની अपेक्षा २१ सागरामनी छ. (मज्झिममझिमगेवेज्जगविमाणेसुण भते । देवाण केवइयं कालं ठिई पण्णत्ता) मध्य मध्यम अवय विमानाभा देवानी स्थिति । जनी प्रज्ञा थयेकी छे ? (गोयमा! जहण्णेणं छब्बीसं सागरो वमाई उक्कोसेणं सत्तावीसं सागरोवमाई) 3 गौतम ! त्यो वानी स्थिति જઘન્યની અપેક્ષાએ તો ૨૬ સાગરોપમ જેટલી કહેવામાં આવી છે અને Gटनी मपेक्षा २७ सागरेश५म सी अवाम मावी छे. (मज्झिम उपरिमगेवेज्जगविमाणेसु णं भते! देवाणं केवइयं कालं ठिई पण्णत्ता !) हे ભરંત ! મધ્યમ ઉ૫રિતન વેયક વિમાનમાં દેવેની સ્થિતિ કેટલા કાળની प्रशस ययेकी छे ? (गोयमा ! जहण्णेण सत्त वीसं सागरोवमाई उक्कोसेणं अट्टा. वीसं सागरोवमाई) 3 गौतम ! त्यां धन्य स्थिति तो २७ साश५मनी भने
स्थिति २८ सागरे।५मानी उमा भावी छे. (उपरिमहेट्ठिमगेवेजगविमाणेसु
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३४०
अनुयोगद्वारसूत्रे रोपमाणि ! उपरितनाधस्तनौवेयकविमानेषु ख छ भदन्त ! देवानां कियन्तं कालं स्थितिः प्रज्ञप्ता ? गौतम ? जघन्येन अष्टाविंशति सागरोपमाणि, उत्कर्षेण एकोनत्रिंशत् सागरोषमागि। उपरितनमध्यमवेयकविमानेषु खलु भदन्त ! देवानां कियन्तं कालं स्थितिः प्रज्ञप्ता ?, गौतम ! जघन्येन एकोनत्रिंशत् सागरोपमाणि, उत्कर्षेण त्रिंशत् सागरोपमाणि, उपरितनोपरितनौवेयकविमानेषु खलु भदन्त ! देवानां किषन्तं कालं स्थितिः प्रज्ञप्ता ? गौतम ! जघन्येन त्रिंशत् सागरोपमाणि, माणेसु णं भंते ! देवाण केवयं कालं ठिई पणत्ता ?) हे भदन्त ! उपरितन अधस्तन ग्रैवेयक विमानों में देवों की स्थिति कितनी कही गई है? (गोयमा ! जहणणेण अट्ठावीसं सागरोवमाई उक्कोसेणं एगूणतीसं सागरोवमाई) हे गौतम ! वहां पर देवों की जघन्यस्थिति तो २८ सागरोपम की कही गई है और उत्कृष्ट स्थिति २९ सागरोपम कि है। (उवरिममज्झिमगेज्जगविमाणेषु णं भंते! देवाण केवयं काल लिई पण्णत्ता ?) उपरितनमध्यमवेयक विमानों में हे भदंत ! देवों की स्थिति कितनी मानी गई है ? (गोयमा ! जहण्णेण एगूणतीसं सागरोषमाई', उक्कोसेण तीसं सागरोधमाई) हे गौतम ! वहां पर देवों की स्थिति जघन्य तो २९ सागरोपम की मानी गई है और उत्कृष्ट स्थिति ३० सागरोपम की है। (उपरिम उवरिमगेवेज्जगविमाणेसु ण भंते ! देवाणं केवइयं कालं ठिई पण्णत्ता) हे भदन्त ! उपरितन भंते ! देवाण केवइयं कालं ठिई पण्णत्ता १) ३ मत ! परितन अयस्तन श्रेय विभानामा हेवानी स्थिति की प्रज्ञत थयेटी छ ? (गोयमा! जहण्णेण अट्ठावीसं सागरोव माई उकोसेर्ण एगूगतीसं सागरोवामाई) 3 गौतम ! त्यांना દેવોની જઘન્ય સ્થિતિ તે ૨૮ સાગરોપમ જેટલી કહેવામાં આવી છે અને
रियति २८ सागभनी नाम मावी छ. (उवरिममज्झिमगेवेउजगविमाणेसु णं भ'ते ! देवाण केवइयं काल ठिई पण्णत्ता १) परितन મધ્યમ શૈવેયક વિમાનમાં હે ભદંતદેવેની સ્થિતિ કેટલી પ્રજ્ઞપ્ત થયેલી छ १ (गोयमा ! जहण्ोग एगणतीसं सागरोवमाई, उक्कोसेण तीसं सागरोवमाई) गौतम ! त्यां वानी स्थिति धन्यनी अपेक्षा तो २६ सास श५मनी मने स्थिति ३० सागरामनी छ. (उवरिमउवरिमगेवे. जगविमाणेसु ण भंते ! देवाण केवइयं कालं ठिई पण्णता ?) 3 मत ! ઉપરિતન ઉપરિતન શૈવેયક વિમાનમાં દેવોની સ્થિતિ કેટલા કાળની પ્રજ્ઞસ
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अनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र २०७ असुरकुमारादीनामायुःस्थितिनिरूपणम् ३४१ उत्कर्षेण एकविंशत् सागरोपमाणि । विजयवैजयन्तजयन्तापराजितविमानेषु खलु भदन्त ! देवानां कियन्तं कालं स्थितिः प्राप्ता ?, गौतम ! जघन्येन एकत्रिंशत् सागरोपमाणि, उत्कर्षेण त्रयस्त्रिंशत् सागरोपमाणि । सर्वार्थसिद्धे खलु भदन्त ! महा विमाने देवानां कियन्तं कालं स्थितिः प्रज्ञप्ता? गौतम ! अजघन्यानुत्कर्षेण प्रयस्त्रिंशत् सागरोपमाणि । तदेतत् सूक्ष्ममद्धापल्योपमम् । तदेतत् अद्रापल्योपमम् ॥सू०२०७।। उपरितन अवेयक विमानों में देवों की स्थिति कितने काल की मानी गई है? ( गोयमा ! जहण्णेणं तीसं सागरोवमाई, उक्कोसेण एकनीसं सागरोवमाई) हे गौतम! वहाँ पर देवों की स्थिति जघन्य तो ३० सागरोपम की और उत्कृष्ट ३१ सागरोपम की मानी गई है। विजयवेजयंतजयंत अपराजियविमाणेसु ण भंते ! देवाण केवइयं काल ठिई पण्णत्ता) हे भदन्त ! विजय, वैजयंत, जयंत, और अपराजित इन चार-विमानों में देवों की स्थिति कितनी कही गई है ? (गोयमा जहन्नेण एक्कतीसं सागरोवमाई, उक्कोसेण तेत्तीसं साग. रोवमाई) हे गौतम ! वहां पर जघन्य स्थिति तो ३१ सागरोपम की कही गई है और उत्कृष्ट स्थिति ३३ सागरोपमकी है। सव्वसिद्धेण भंते ! महाविमाणे देवाण केवइयं कालं ठिई पण्णत्ता ?) हे भदंत ! सर्वार्थ सिद्ध नामका जो महाविमान है, उसमें देवों की स्थिति कितने काल की मानी गई है (गोयमा! अजहण्णमणुक्कोसेण तेत्तीसं सागरोवमाइं) हे गौतम ! यहां पर देवों की स्थिति अजघन्य और अनुत्कृष्टरूप थयेटी छ ? (गोयमा ! जहण्णेण तीस सागरोवमाई, उक्कोसेण एकतासं साग रोवमाई) गौतम ! त्यां वानी गधन्यस्थिति तो 30 सागरापभनी भने अट 31 सागरामनी अपामा मावी छ. (विजयवेजयंतजयंतअपरा. जियविमाणेसु ण भते! देवाण केवइयं काल ठिई पण्णत्ता ) 3 महत ! વિજય, વૈજયંત, જયંત અને અપરાજિત આ ચાર વિમાનમાં દેવોની स्थिति की प्रत येत छ ? (गोयमा ! जहन्नेण एक्कतीसं सागरोवमाई, उक्कोसेण तेत्तीसं सागरोवमाइ) 8 गौतम! त्यो धन्यस्थिति तो 3१ સાગરેપમની મધ્યમ ૩૨ સાગરોપમ જેટલી અને ઉત્કૃષ્ટ સ્થિતિ ૩૩ સાગ२५ २जी डेपामा छ. (सम्वट्ठसिद्धेण भंते ! महाविमाणे देवाण केवइयं कालं ठिई पगत्ता ?) 3 महत ! साथ सिद्ध नाम २ महाविभान . म देवानी स्थिति जनी प्रशस येही छ ? (गोयमा ! अजहण्णमणुकोसेण तेत्तीसं सागरोवमाई) 3 गौतम ! त्या देवानी स्थिति मान्य
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अनुयोगद्वारसूत्रे 'असुरकुमाराणं' इत्यादि
टोका- अस्य सन्दर्भस्यार्थः स्पष्टः । अत्रेदं बोध्यत्-पृथिव्यादीनामपर्याप्तनां जघन्येनोत्कृष्टेन चान्तमुहूर्तमेव स्थितिः ततः परं पर्याप्तत्वेन परिणामात् मरणाद्वेति । पन्तरादिप्रभृतिर्वैमानिकपर्यन्तानामर्याप्तानां जघन्यत उत्कृष्टतश्चान्तर्मुहूर्त: मेव स्थितिः ततः परमवश्यं पर्याप्तत्वेन परिणमनात् । ग्रैवेयकविमानेषु नव प्रस्तटाः क्रमवर्तिनो भवन्ति । तत्राधस्तनास्त्रयः प्रस्तटाः अधस्तनग्रेवेयकशब्देनोच्यन्ते । मध्यमास्त्रयः पस्तटा मध्यमवेयाशब्देनोच्यन्ते । उपरितनास्त्रयः प्रस्तटा उपरितनौवेयकशब्देनोच्यन्ते । तत्र अधस्तनौवेयकेधस्तनः प्रस्तटोऽधस्तनाधस्तनअवेयकशब्देनोच्यते। मध्यमस्तु-अधस्तनमध्यमवेयकशब्देन, उपरितनश्च-अध. स्तनोपरितनगवे यकशब्देन, मध्यमवेयकेऽधस्तनः प्रस्तटो मध्यमार्धस्तनोवेयक शब्देनोच्यते । मध्यमः प्रस्तटो मध्यममध्यमवेयकशब्देन, उपरितनश्च प्रस्तटो मध्यमोपरितनपस्तटशब्देन, उपरितनोवेयकेऽधस्तनः प्रस्तट उपरितनाधस्तनअवेयक शब्देनोच्यते, मध्यमः-उपरितन मध्यमवेयकशब्देन, उपरितनश्व-उपरितनोपरितनौवेयकशब्देनेति ।।४० २०७॥ से केवल ३३ सागरोपम की है। (से तं सुहमे अद्धापलि भोवमे) इस प्रकार यह सूक्ष्म अद्धापल्योपम का स्वरूप है। (से तं अद्धापलि प्रोवमे) इसका वर्णन समाप्त होते ही अद्धापल्योपम का स्वरूप वर्णन समाप्त हुआ। __ भावार्थ--इस सूत्र द्वारा सूत्रकारने एकेन्द्रिय से लेकर संज्ञी असंज्ञी पंचेन्द्रिय तिर्यश्च जीवों की मनुष्यों की, और भवनपति व्यन्तर ज्योतिष्क एवं वैमानिक देवों की जघन्य और उस्कृष्ट स्थिति का वर्णन किया है। इसे स्पष्टरूप में समझने के लिये इस नक्शे को देखियेઅને અનુષ્કૃષ્ટ રૂપથી ફકત ૩૩ સાગરોપમ જેટલી કહેવામાં આવી છે. તેણે तं सुहेमे अद्धापलि ओवमे) मा प्रमाणे मा सूक्ष्म अापल्यापभनु ११३५ छे. (से तं अद्धापलि प्रोवमे) भानु न समास थdi मद्धापक्ष्ये।५भनु १३५ વર્ણન સમાપ્ત થયું છે.
ભાવાર્થ-આ સૂત્રવડે સૂત્રકારે એકેન્દ્રિયથી માડીને સંજ્ઞી અસંશી પંચેન્દ્રિય તિર્યંચ છની, મનુષ્યની, અને ભવનપતિ વ્યંતર, જતિષ્ક અને વૈમાનિકદેવેની જઘન્ય અને ઉત્કૃષ્ટ સ્થિતિનું વર્ણન કર્યું છે. આ સંબંધમાં વિશેષ સ્પષ્ટીકરણ માટે નીચે નકશે જુએ
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मनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र २०७ असुरकुमारादीनामायुःस्थितिनिरूपणम् ३४३ नाम
जघन्य स्थिति उत्कृष्टस्थिति असुरकुमाओंकी १० हजार वर्ष की कुछ अधिक १ सागरोपमका असुरकुमारदेवियों की , " ४॥ पत्योपम की नागकुमारोंकी
कुछ कम दो पल्योपम की वायाका , " कुछ कम एकपल्योषमकी (नागकुमार से लेकर , स्तनिल कुमार तक के
कुछ कम दो पल्योपमकी (देवों और देवीयों को पृथिवीकायिकोंकी एक अन्तर्मुहर्त, २२ हजार वर्ष सूक्ष्मपृथिवीकायिकोंकी
अन्तमुहर्त, , अपर्यास बा. पृ. का.
पर्याप्त बा. ,, , पादर पृथिवीकायिक
२२ हजार वर्ष अपर्याप्तक वा० पृ०
अन्तमुहर्त पर्याप्त बा० पृ०
२२ हजार वर्ष अप् कायिक
अंतर्मुहूर्त कम२२ हजार वर्ष सूक्ष्म अप्कायिक
७ हजार वर्ष નામ
ઉત્કૃષ્ટસ્થિતિ અસુરકુમારે ની ૧૦ હજાર વર્ષની કંઈક વધારે ૧ સાગરોપમની અસુરકુમાર દેવિઓની
કા પલ્યોપમની નાગકુમારની
કંઈક ન્યૂન બે પલ્યોપમની નાગકુમારદેવીઓની
કંઈક અ૯૫ એક પલ્યોપમની (નાગકુમારથી માંડીને સ્વનિતકુમાર સુધીના
કંઈક અલપ એક પલ્યોપમની દેવ અને દેવિઓની પૃથિવીકાયિકેની
એક અન્તર્મહત્ત ૨૨ હજાર વર્ષ સૂમ પૃથિવીકાયિકેની
અત્તમુહૂર્ત " ५५यात . ४. ., ५यात , " બાદર પૃથિવીકાયિક
૨૨ હજાર વર્ષ અપર્યાપ્ત બા. પૃ.
અન્તમુહૂર્ત ५र्यात . .
અન્ત, કમ ૨૨ હજાર વર્ષ અપ્રકાયિક
૭ હજાર વર્ષ સૂમ અપ્રકાયિક
અન્તર્મુહૂર્ત
જઘન્યસ્થિતિ
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अनुयोगद्वारस्ते अन्तर्मुहर्त
अन्त
७ सहस्र वर्ष अन्तर्मुहूर्त अ० मु० कम ७ हजार वर्ष ३ तीन अहोरात्र अन्तर्मुहूर्त
,, अपर्याप्तक अप्कायिक ,, पर्याप्तक अका० बादर अप् कायिक ,, अपर्याप्तक अपू का० ,, पर्याप्तक , तैजस्काधिक सूक्ष्मतेजस्कायिक ,, अपर्याप्त क तेज. ,, पर्याप्तक तैज० बाद तेजस्कायिक अपर्याप्तक बादर तेज पर्याप्तक , वायुकायिकसूक्ष्म वायुकायिक , अपर्याप्त वायुकायिक ,, पर्याप्त वायु का , અપર્યાપ્તક અપૂકાઇ , પર્યાપ્તક અપકા બાદર અપૂકાયિક ,, अपर्याप्त १५० , पर्याप्त , તૈજસકાયિક સૂકમ તેજસ્કાયિક ,, अपर्याप्त ते. ,, पर्याप्त ते१० બાદર તેજસ્કાયક અપર્યાપ્તક બાદર તેજ
३ अहोरात्र अन्तर्मुहूर्त अन्तर्मुहूर्त कम ३ अहोरात्र ३ हजार वर्ष अन्तर्मुहूर्त
અન્તમું છું
૭ સહસ્ત્ર વર્ષ અન્તર્મુહૂર્ત અત) કમ ૭ હજાર વર્ષ ૩ અહેરાત્ર અન્તર્મુહૂર્ત
पर्यात
,
"
૩ અહોરાત્ર અન્તર્મુહૂર્ત
, કમ ૩ અહોરાત્ર ૩ હજાર વર્ષ અન્તર્મુહૂ
વાયુનાયિક સૂમ વાયુકાયિક ,, અપયાપ્ત વાયુકા છે પર્યાપ્ત વાયુકાઇ
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मनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र २०७ असुरकुमारादीनामायुःस्थितिनिरूपणम् ५०५ बादर वायुकायिक
३ तीन हजार वर्ष अपर्याप्तक पादर ,
अन्तर्मुहूर्त पर्याप्तक , ,
अन्तमुहर्त कम३ हजार वर्ष वनस्पति का.
१० हजार वर्ष मूक्ष्म वनस्पति का०
अन्तर्मुहूर्त , अपर्याप्तक वन० , पर्याप्तक वन० का० बादर वनस्पतिकायिक
१० हजार वर्ष अपर्याप्तक बादरवनस्पति का.
अन्तर्मुहूर्त पर्याप्तक , ,
अ० मु० कम १० ह० वर्ष हीन्द्रियजीव
१२ वर्ष अपर्याप्तक द्वीन्द्रिय
अन्तर्मुहूर्त पर्याप्तक ,
अन्त मु० कम १२ वर्ष त्रीन्द्रिय जीव
४९ दिन अपर्या० ,
अन्तर्मुहूर्त पर्याप्तक
अH० कम४९ दिनरात બાદર વાયુકાયિક
૩ ત્રણ હજાર વર્ષ અપર્યાપ્તક બાદર વાયુકાયિક
અન્તર્મુહૂર પર્યાપ્તક ,
, उभ361२ १ . વનસ્પતિકાયિક
૧૦ હજાર વર્ષ સૂક્ષમ વનસ્પતિકાયિક
અન્તર્મુહૂર્ત , अ५यात वन. ,, પર્યાપ્તક વનકારા બાદર વનસ્પતિકાયિક
૧૦ હજાર વર્ષ અપર્યાપ્તક બાદર વનકાળ
અન્તર્મુહૂર્ત पयांत " "
"भ १० १२ १ દ્વીન્દ્રિય જીવ
૧૨ વર્ષ અપર્યાપ્તક દ્વીન્દ્રિય
અન્તર્મુહૂર્ત पति , ત્રીન્દ્રિય જીવ
૪૯ દિવસ अ५यां० ,
અન્તર્મુહૂર્તા पर्याप्त,
કમ ૪૯ દિવસ રાત્રિ अ० ४४
__, ४५ १२ १
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३४६ .
चतुरिन्द्रिय जीव अपर्या. , पर्याप्तक , पंचेन्द्रिय जीव (तिर्यञ्च) जलचर पंचेन्द्रिय, संमूच्छिमजलचर- अंतर्मुहूर्त अपर्याप्तक संमू० जल. पर्याप्तक , , गर्भज जलचरअपर्याप्तक , " पर्याप्तक " " चतुष्पद् स्थलचरसमूच्छिम चतुष्प० स्थ० अपर्याप्तक संमू० चतु० स्थ० पर्याप्तक , , , गर्भजचतुष्पदस्थलचर ચતુરિન્દ્રિય જીવ अ५० , पात,
येन्द्रिय०१ (तिय"य) rसय ५येन्द्रिय ,. સંમૂર્છાિમ જલચર અપર્યાપ્તક સમૂળ જલ૦ पर्याप्त , , ગર્ભજ જલચર अपर्याप्त , , पर्याप्त , , ચતુષ્પદ સ્થલચર સંમૂચ્છિક ચતુપદ સ્થ૦ अपर्याप्त सभू, यतु.स्थ. पर्यात, " ગર્ભજ ચતુષ્પદ સ્થલચર
अनुयोगद्वारसूत्रे ६ मास अन्तर्मुहूर्त अंतर्मुहर्त कम ६ मास ३पल्योपम १ पूर्व कोटि १ पूर्व कोटि अन्तर्मुहूर्त अ० मु० कम १ पूर्व कोटि एक करोड पूर्व अन्तर्मुहूर्त अ० मु. कम १ पूर्व कोटि तीन पल्योपम ८४ हजार वर्ष अन्तर्मुहूर्त अ० मु० कम ९४ हजारवर्ष तीन पल्योपम
૬ માસ અન્તર્મુહૂર્ત
"भभास ૩ પલ્યોપમ ૧ પૂર્વકેટ ૧ પૂર્વકેટિ अन्तभुडूत
, કમ ૧ પૂર્વકેટિ ૧ કરોડ પૂર્વ मन्तभुत
કમ ૧ પૂર્વ કોટિ ત્રણ પાપમ ૮૪ હજાર વર્ષ અન્તર્મુહૂ
» કમ ૯૪ હજાર વર્ષ ત્રણ પલ્યોપમ
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अनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र २०७ असुरकुमारादीनामायुःस्थितिनिरूपणम् ३४७ अपर्याप्त० " "
अन्तर्मुहूर्त पर्याप्तक "
"
अ० मु० कम तीन पल्योपम उरः परिसर्पस्थलचर
१ पूर्व कोटि संमूच्छिम , ,
५३ हजार वर्ष अपर्या० , ,
अन्तर्मुहूर्त पर्याप्तक० , ,
अ० मु० कम ५३ ह० वर्ष गर्भजउरः परि० स्थल
१ पूर्व कोटि अपर्याप्तक , ,
अन्तर्मुहूर्त पर्याप्तक ,
अ० मु० कम १ पूर्व कोटि भुजपरिसर्पस्थलचर
१ पूर्व कोटि संमूछिम , ,
४२ हजार वर्ष अपर्याप्त , "
अन्तर्मुहूर्त पर्याप्तक ,
अ०म० कम ४२ ह० वर्ष गर्भजभुजपरि०
१ पूर्व कोटि अपर्याप्तक ,, ,
अन्तर्मुहूर्त पर्याप्तक ,,
अ० मुं० कम पूर्व कोटि खेचर , ,
१ पल्य के अ० भा० प्र० अपर्या० ,
અન્તર્મુહૂર્ત
,,भत्र पस्योपम ઉર પરિસર્પ સ્થલચર
૧ પૂર્વકેટિ सूभूमि ,
૫૩ હજાર વર્ષ અપર્યા.
અન્તમુહૂર્ત પર્યાપ્તક
, 3भ ५३ २ १५ ગર્ભજ ઉર પરિ૦ સ્થલ.
૧ પૂર્વ કેરિ अपर्याप्त ,, ,
અન્તર્મુહૂર્તા पर्याप्त , ,
,, કમ ૧ પૂર્વ કેટિ ભુજપરિસપ સ્થલચર સંમૂચ્છિમ
૪૨ હજાર વર્ષ અપર્યાપ્ત છે
मन्तभुत પર્યાપ્તક
,, म ४२ १२ वर्ष ગર્ભજ ભુજ પરિ
૧ પૂર્વ કેટિ अपर्याप्त ,
सन्तभुत पात,
___ , म पूर्व दि
पात,
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" देवियां
अनुयोगद्वारसूत्रे संमूञ्छिम ,
७२ हजार वर्ष अप० , "
अन्तर्मुहूर्त पर्या० ,,,
अ० मुं० कम ७२ ह० वर्ष गर्भज खेचर
प० के अ०भा०प्र० अपर्या.,,,
अन्तर्मुहूर्त पर्याप्तक, "
अ० मु० कम प० के अ०प्र० मनुष्य ""
तीन पल्योपम संभूच्छिम मनुष्य
अन्तर्मुहूर्त मभजमनुष्य
तीन पल्योपम अपर्या ,"
अन्तर्मुहूर्त पर्या " "
अ० मु० कम तीन पल्योपम व्यन्तरदेव दश हजार वर्ष एक पल्योपम
अर्धपल्योपम ज्योतिष्क देव कुछ अधिक पल्य के १ लाख वर्ष अधिक
१ पल्योपम ખેચર
૧ પલ્યના અસં. ભાગ પ્રમાણુ સંમૂચ્છિસ
૭૨ હજાર વર્ષ અ૫૦
અન્તર્મુહૂર્ત
છે, કમ ૭૨ હજાર વર્ષ ગર્ભજ ખેચર
પો.ના અસં. ભાગ પ્રમાણ १५० ,
અન્તમુહૂર્ત ५यात ,
» કમ પલ્યોપમના
અસં. ભાગ પ્રમાણ मनुष्य ,
ત્રણ પાપમ સંમૂચ્છિક મનુષ્ય
અન્તમુહર્તા ગર્ભજ મનુષ્ય
ત્રણ પલ્યોપમ अपर्या० ,
અન્તર્મુહૂર્તા पर्या० ,
, કમ ત્રણ પલ્યોપમ વ્યંતર દેવ
દશ હજાર વર્ષ એક પાપમ
અર્ધ પાપમ જ્યોતિષ્ક દેવ
કંઈક વધારે પત્યના ૮માં ભાગ પ્રમાણુ ૧ લાખ વર્ષ અધિક
૧ પલ્યોપમ
प्रमाण
પર્યા
विमा
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अनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र २०७ असुरकुमारादीनामायुः स्थितिनिरूपणम् ३४९
५० ६० व० अ०अर्ध पल्योपम १ लाख वर्ष अ० १पल्योपम ५० ह० वर्ष अ० अ० १०
"1
देवियां पल्य के आठवें भा० प्र० चन्द्र विमानगतदेव पल्य के चौथे भा० प्र०
देवियाँ
"
सूर्य विमानगतदेव
19
ग्रह
ग्रह
नक्ष
""
ܕܕ
""
19
99
"
तारा देव
"
"
તારા
19
તારા
"
19
तारा "
वैमानिक देव वैमानिक देवियां सौधर्मकल्पगत देव
વિઆ
ચન્દ્રવિમાનગત દેવ વિએ સૂર્ય વિમાનગત દેવ
99
વિઆ
ગ્રહ વિમાનગત દેવ
ગ્રહ દેવિ
नक्षत्र"
देवियां
देव
देवियां
""
देव
देवियां
"
ܙܕ
देवियां
39
દેવ
વિ
દેવ
વિઆ
99
વૈમાનિક દેવ વૈમાનિક કેવિઆ સૌધમ કલ્પગત દેવ
"
"
"
www. kobatirth.org
"
"
57
17
39
"
59
,,
"
१३
59
19
कुछ अधिक पल्योपम के आठवें भाग प्रमाण पल्पोपम के आठवें
भाग प्रमाण
१ पल्योपम
પલ્યના ૮મા ભાગ પ્ર.
39
પચાપમના ૪થા ભાગ પ્ર
"
"
"
""
""
""
१६० व० अ० १ पल्योपम ५ सौ व० अ० आधे प०
एक पल्योपम अर्धपल्योपम अर्धपल्योपम
कुछ अ० प० का चौथा भा०
अ० प० का० चौथा भा०
,
कुछ अधिक पल्पोपम के आठवें भाग ३३ सागरोपम ५५ पल्योपम दो सागरोपम
કંઇક વધારે પત્યેાપમના
૮મા ભાગ પ્રમાણ પડ્યેાપમના
""
૮મા ભાગ પ્રમાણુ ૧ પલ્યેાપમ
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૫૦ હજાર વર્ષ અધિક અધ પચ્ચે પમ
૧ લાખ વર્ષ અધિક ૧ ૫. ૫૦ હેજાર વર્ષ અ. અન્ય પ.
१ हर वर्ष म. १ पहा.
અધિક
૫
સે વ અધ પલ્યામ ૧ પત્યે પ્રમ
અધ પલ્યાપમ અધ પળ્યે પમ
કંઈક વધારે પત્ચાપમના
કથા ભાગ પ્રમાણે પત્ચાપમના કથા
ભાગ
પ્રમાણ કંઇક વધારે પલ્યાપમના
૮માં ભાગ પ્રમાણ 33 सागरेपिभ
૫૫ પત્યેાપમ
એ સાગરાપમ
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अनुयोगद्वारसूत्र , कल्प में परिगृहीत देवियां , ७पल्योपम ,, , अपरिगृहीत ,
५० पल्योपम ईशानकल्पगत देव कुछ अ.१ पल्योपम कुछ अ. दो सागरोपम ,, , में परि. देवियां , , नौ पल्योपम , , अपरिगृहीत दे. ,
५५ पल्योपम सनत्कुमार कल्पगत देव दो सागरोपम ७ सागरोपम माहेन्द्र ,
कुछ अधिक कुछ अधिक
दो सागरोपम ७ सागरोपम ब्रह्मलोकगतदेव ७ सागरोपम १० सागरोपम लान्तक
१० सागरोपम १४ सागरोपम महाशुक्र
१४ सागरोपम १७ सहस्रार आनत
१७
"
प्राणत
२०
१९ २०
, ,
"
आरण अच्युत
, परिगृहीत દેવીઓ
૭ પપમ સૌધર્મકલ્પમાં અપરિગ્રહીત
૫૦ પોપમ ઈશાનક૯પગત દેવ કંઈક વધારે ૧ પ પમ કંઈક વધારે બે સાગરોપમ
,, परिडीत पियो , નવ પલ્યોપમ . , अपरिगडीत ४० ,
પપ પલ્યોપમ સનકુમાર કપગત દેવ બે સાગરોપમ
૭ સાગરોપમ भान्द्र, કંઈક વધારે બે સાગરોપમ કંઈક વધારે ૭ સાગરોપમાં બ્રહ્મલેક ગદેવ ૭ સાગરેપમ ૧૦ સાગરોપમ લાન્તક
૧૦ સાગરોપમ १४ , મહાશુક સહભા૨
१४
१७
"
"
આનત
પ્રાણુત આરણ અયુત
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मध्यम
उपरितन
मध्यम अधस्तन
मध्यम
उपरितन
उपरितन अधस्तन
अनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र २०७ असुरकुमारादीनामायुः स्थितिनिरूपणम् ३५१
अधस्तन अधस्तन ग्रैवेयक २२ सागरोपम
२३ सागरोपम
२३
२४
२५
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19
"
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मध्यम
,,
उपरितन विजय, वैजयंत,
जयंत अपराजित सर्वार्थसिद्ध
29
"
""
મધ્યમ અસ્તન
""
મધ્યમ
ઉપરિતન
""
મધ્યમ
ઉપરિતન
99
ઉપરિતન અધસ્તન
"
विनय, वैभ्यत
અધતન અધસ્તન ગ્રૂવેયક ૨૨
२३
"
જય'ત, અપરાજિત
સર્વાર્થ સિદ્ધ
"
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"?
"
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"
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"
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મધ્યમ
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उपरितन,, ३०
३१
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"
इसमें जघन्य और उत्कृष्ट स्थिति में अन्तर नहीं है। यहां तो ३३ सागरोपम की स्थिति है । अपर्याप्त पृथिवी आदिकों की जघन्य और उत्कृष्ट स्थिति अन्तर्मुहुर्त की ही है। इसके बाद या तो वे पर्याप्तक होजाते हैं या मरण कर जाते हैं। व्यन्तरदेवों से लेकर वैमानिक देवों
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33
૩૧
33
""
"
આમાં જઘન્ય અને ઉત્કૃષ્ટસ્થિતિમાં તફાવત નથી सहीं तो 33 સાગરોપમ જેટલી સ્થિતિ છે. અપર્યાપ્ત પૃથિવી વગેરેના જઘન્ય અને ઉત્કૃષ્ટસ્થિતિ અન્તર્મુહૂત્તની છે. એના પછી કાંા તેઓ પર્યાપ્તક થઈ જાય છે.
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अनुयोगद्वारसूत्रे
अथ क्षेत्रपल्योपमं निरूपयति
मूलम् - से किं तं खेत्तपलिओ मे ? खेत्तपलिओदमे - दुविहे पण्णत्ते तं जहा - सुहुमेय वावहारिए य । तत्थ णं जे से सुहुमे से ठप्पे । तत्थ णं जे से वावहारिए से जहा नामए पल्ले सियाजोयणं आयामविक्खंभेणं, जोयणं उब्वहेणं, तं तिगुणं सविसेसं परिवखेवेणं । से णं पल्ले एगाहिय बेयाहिय तेयाहिय जाव भरिए वालगकोडीणं । ते णं वालग्गा णो अग्गीडहेज्जा जाव
तक की भी अपर्याप्तावस्था की स्थिति जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त की ही है । इसके बाद वे नियमतः पर्याप्त हो जाते है । ग्रैवेयक विमानों में नवप्रस्ट है। नीचे की तीन प्रस्तट अघस्तन ग्रैवेयक, मध्यम के ३ प्रस्तर ग्रैवेयक और ऊपर के तीन प्रस्तट उपरितन ग्रैवेशक शब्द से कहे जाते हैं। इन में जो अधस्तन ग्रैवेयक में नीचे का ग्रैवेयक है, वह अवस्तन ग्रैवेयक कहलाता है। बीच का अस्तन मध्यम और ऊपर का अधस्तन उपरितन ग्रैवेयक कहलाता है। इसी प्रकार से मध्यम ग्रैवेयक का जो नीचे का ग्रैवेयक है, वह मध्यम अधस्तन, बीच का मध्यम २ और ऊपर का मध्यम उपरितन ग्रैवेयक जानना चाहिये। ऊपर के तीन ग्रैवेयकों में भी इसी क्रम से लगा लेना चाहिये। इस प्रकार ग्रैवेयक विमानों में ये नव प्रस्तट क्रमवर्ती हैं || सू० २०७॥
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કાં તે મરણ પ્રાપ્ત કરે છે. વ્યંતર દેવેથી માંડીને વૈમાનિક દેવા સુધીની પણ અપર્યાપ્તકાવસ્થાની સ્થિતિ જઘન્ય અને ઉત્કૃષ્ટ અંતમુહૂત્ત જેટલી છે. ત્યાર પછી તેઓ નિયમતઃ પર્યાપ્ત થઈ જાય છે. ત્રૈવેયક વિમાનામાં નવ પ્રસ્તર છે. નીચેના ત્રણ પ્રસ્તા અધસ્તન ત્રૈવેયક અને ઉપરના ત્રણ પ્રસ્તા ઉપરિતન શબ્દ વડે સ'એધિત કરવામાં આવે છે. આમાં જે અધસ્તન ગ્રેવેચક્રમાં નીચેનુ' ત્રૈવેયક છે. તે અધસ્તન મધ્યમ અને ઉપરનું અધસ્તન ઉપતિન ત્રૈવેયક કહેવામાં આવે છે. આ પ્રમાણે મધ્યમ ચૈવેયકની નીચે જે જૈવેયક છે તે મધ્યમ અધસ્તન, મધ્યનું મધ્યમ અને ઉપરનુ` મધ્યમ ઉપરિતન ત્રૈવેયક જાણવુ' જોઈએ ઉપરનાં ત્રણ ત્રૈવેયકા વિષે પણ આ ક્રમથી સમજી લેવુ જોઇએ આ પ્રમાણે ત્રૈવેયક વિમાનામાં ક્રવર્તી છે. સૂ૦૨ના
આ નવ પ્રસ્તર
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सुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र २०८ क्षेत्रपल्योपमनिरूपणम् गो पूइत्ताए हव्वमागच्छेज्जा । जे णं तस्स पल्लस्स आगास पएसा तेहिं वालग्गोहि अप्फुन्ना, तओ णं समए समए एगमेगं आगासपएसं अवहाय जावइएणं कालेणं से पल्ले खीणे नीरए निल्लेवे निहिए भवइ, से तं वावहारिए खेत्तपलिओवमे एएसिं पल्लाणं कोडाकोडी भवेज दसगुणिया। तं वावहारियस्स खेत्तसागरोवमस्स एगरस भवे परीमाणं ॥१॥ एएहिं वावहारिएहिं खेत्तपलिओवमसागरोवमेहि कि पओयणं? एएहिं वावहारिएहिं खेत्तपलिओवमेहिं नस्थि किंचिप्पओयणं, केवलं पण्णवणा पण्णविज्जइ। से तं बावहारिए खेत्तपलिओवमे। से किं तं सुहमे खेत्तपलिओवमे? सुहमे खेत्तपलिओवमे-से जहाणामए पल्ले सिया-जोयणं आयामविक्खंभेणं जाव परिक्खेवेणं। से गं पल्ले एगाहिय बेयाहिय तेयाहिय जाव भरिए वालग्गकोडीणं । तत्थ णं एगमेगे वालग्गे असंखिज्जाई खंडाई कज्जइ। ते गं वालग्गखंडा दिडिओगाहणाओ असंखेज्जइभागमेत्ता, सुहुमस्स पणगजीवस्स सरीरोगाहणाओ असंस्बेज्जगुणा। ते णं वालग्गखंडा गो अग्गी डहेज्जा जाव णो पूइत्ताए हव्वमागच्छेज्जा । जे गं तस्स पल्लस्स आगासपएसा तेहिं वालग्गखंडेहिं आफुण्णा वा अणाफुण्णा वा, तओ णं समए समए एगमेगं आगासपएसं अवहाय जावइएणं कालेणं से पल्ले खीणे जाव निट्रिए भवइ, से तं सुहमे खेत्तपलिओवमे। तत्थ चोयए पण्णवगं एवं वयासी-अस्थि णं तस्स पल्लस्स आगासपएसा जे णं तेहिं
अ० ४५
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अनुयोगद्वारसूत्रे
वालग्गखंडेहिं अणापुष्णा ? हंता अस्थि । जहा को दिहंतो ? से जहाणामए कोटुए सिया कोहंडाणं भरिए, तत्थ णं माउलिंगा पक्खित्ता, ते वि माया । तत्थ णं बिल्ला पक्खित्ता तेवि माया । तत्थ र्ण आमलगा पक्खित्ता ते वि. माया । तत्थ णं बयरा पक्खित्ता तेवि माया । तत्थ णं चणगा पक्खित्ता तेऽवि माया । तत्थ णं मुग्गा पक्खित्ता तेऽवि माया । तत्थ णं सरिलवा पक्खिता तेऽवि माया । तत्थ णं गंगावालुया पक्खित्ता सावि माया । एवमेव एएनं दिनंनेणं अस्थि णं तस्स पलस्स आगासपएसा, जेणं तेहिं वालग्गखंडेहिं अणापुण्णा । एएसिं पल्लाणं कोडाकोडी भवेज्ज दसगुणिया । तं सुहुमस्स खेतसागरोवमस्स एगस्स भवे परिमाणं ॥१॥ एहिं सुहुमेहिं खेतसागरोवमेहिं किं पओयणं । एएहि सुहुमपलिओवमसागरोवमेहिं दिट्टिवाए दव्वा मविज्जति ॥सू० २०८ ॥
छाया - अथ किं तत् क्षेत्रपल्योपमम् ? क्षेत्रपल्योपमं - द्विविधं प्रज्ञतम्, तद्यथासूक्ष्मं च व्यावहारिकं च । तत्र खलु यत् सूक्ष्मं तत् स्थाप्यम् । तत्र खलु यत्
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-
अब सूत्रकार क्षेत्रपल्योपम का स्वरूप स्पष्ट करते हैं'से किं तं खेल पलि ओवमे' इत्यादि ।
शब्दार्थ - ( से किं तं खेत्तपलि ओवमे ? ) हे भदन्त क्षेत्रपल्योपम का क्या स्वरूप है ? (खेत्तपलि भोष मे दुबिहे पण्णत्ते) क्षेत्र पल्पोपम दो प्रकार का कहा गया है। (तं जहा) वे दो प्रकार ये हैं- (सुमे य वाय
હવે સૂત્રકાર ક્ષેત્રપચાપમનું સ્વરૂપ સ્પષ્ટ કરે છે " से किं तं खेत्तपलिओ मे " धत्याहि
शब्दार्थ - ( से किं तं खेसपलिओ मे १) डे अहत ! क्षेत्र पदयेोचभनु *१३५ वु छे ? (खेचप लिओ मे दुविहे पण्णत्ते १) क्षेत्र पस्यो पसना मे प्रभा छे. (तंजा) ते प्रारे आ प्रमाये - ( सुइमे य वावहारिए य) १ सूक्ष्म
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मैनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र २०८ क्षेत्रपल्योपमनिरूपणम् तद् व्यवहारिकं तद् यथा नाम पल्यं स्याद योजनम् आयामविष्कम्भेण, योजना उद्वेधेन तत्रिगुण सविशेष परिक्षेपेण । तत् खलु पल्यम् ऐकाह्निकद्वयतिकत्रयडिक यावद् भृतं चालायकोटीनाम् । तानि खलु वालाग्राणि नो अग्निदहेत, नो पायुहरेत् नो कुथ्येयुः, नो परिध्वंसेरन् , नो पतितया हव्यमागच्छेयुः । ये खलु तस्य परयस्य आकाशपदेशाः तैालायैः आस्पृष्टाः, ततः खलु समये समये एकमेहारिए य) १ सूक्ष्म क्षेत्र पल्योपम और दूसरा व्यावहारिक क्षेत्रपल्योपम । (तत्थ णं जे से सुहमे से ठप्पे) इनमें जो सूक्ष्म है, उसका कथन व्या. वहारिक के बाद किया जावेगा-इसलिये उसे अभी नहीं कहा जाता है। (तस्थ णं जे से वावहारिए से जहानामए पल्ले सिया) इनमें जो व्यावहारिक है, वह इस प्रकार से है-कल्पना करो-कोई एक पल्य हो (जोयणं आयामविक्खंभेणं जोयणं उन्हेणं) एक योजन लंबा एक योजन चौडा और एक ही योजन गहरा वह हो। (तं तिगुणं सविसेसं परिक्खेवेण) इस की वृत्त-परिधि कुछ अधिक तिगुणी हो । (से णं पल्ले
गाहिय बेयाहिय तेयाहिय जाव भरिए बालग्गकोडीण) इस पल्य को एक दिन दो दिन तीन दिन यावत् ७ सात दिन तक के बालानों से भरा हुआ हो। (ते णं बालग्गा णो अग्गी डहेजा जाव णो पूइत्ताए इन्धमागच्छेज्जा) ये बालाग्र वहां इस रूप से भरे जावे कि-'जिन पर भग्नि वायु आदि का कुछ भी प्रभाव नहीं पड़ सके और न ये सड गल सके । अब (जे णं तस्स पल्लस्स आगासपएसा तेहिं बालग्गेहि क्षेत्र पक्ष्ये।५५ मने भी या१४.२४ ५८ये। ५म (तत्थ णं जे से सुहुमे से उप्पे) આ સર્વેમાં જે સૂક્ષમ છે, તેનું કથન વ્યાવહારિક પછી કરવામાં આવશે (સહ્ય णं जे से वावहारिए से जहानामए पल्ले सिया) मा २ व्यावहारि छ, त
। प्रभारी छ. अम विया२ ७२ : ५६य हाय. (जोयणं आयामविक्खंभेगं जोयण उठवे हेण) मे 2011 AiRI, ४ यौन पहाणे भने मे यान 31 डाय. (तं तिगुण सविसेसं परिक्खेवेणं) तेनी वृत्त-परिधि
४ यारे ! .य. (से णं पल्ले एगाहियबेयाहिय तेया हिय जाव भरिए बालग्गकोडीण) A५६५२ से हिसये ह र हिस यावत् ७ हिवस सुधीन। मालाओथी से पूरित य. (ते गं बालग्गा णो अग्गी डहेजा जाव णो पृहत्ताए हव्व मागच्छेज्जा) मा मासाश्री मां से प्रभाए भरपामा भावे, જેમની ઉપર અગ્નિ, વાયુ વગેરેની કોઈ પણ જાતની અસર થઈ શકે નહિ. भन त सडी नहि तमा सामणी श न. ३ (जेणं सस्स पलस्स
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अनुयोगद्वारसूत्र कम् आकाशप्रदेशम् अपहाय यात्रता कालेन तत् पल्यं क्षीणं नीरजस्क निर्लेपं निष्ठितं भवति तद् व्यहारिक क्षेत्रपल्योपमम् । एतेषां पल्यानां कोटीकीटिर्भवेद् दशगुणिता । तद् व्यवहारिकस्य क्षेत्रसागरोपमस्य एकस्य भवेत् परिणामम् ॥१॥ एतैः व्यावहारिकैः क्षेत्रपल गोपमसागरोपमैः किं प्रयोजनम् ?, एतैः व्यावहारिक अप्फुन्ना, तो गं समा समए एगमेगं आगासपएसं अवहोय जावह. एणं कालेणं से पल्ले वीणे नीरए, निल्लेवे, निट्ठिए, भवइ, से तं वावहारिए खेत्तपलिओवमे) जो उन पल्य के आकाशप्रदेश उन बालागों द्वारा व्याप्त हैं, वहां से उन बालाओं में से एक २ बालाग्र को एक एक समय में बाहर निकाले। जितने-समय-काल में-वह पल्य उन बालानों से सर्वथा रहित हो जाता है, वह व्यावहारिकक्षेत्रपल्योपम है। 'क्षीण, नीरजस्क, निलेप आदि पदों का अर्थ पहिले कहा ही जा चुका है।सो उसी प्रकार का अर्थ यहां पर इन पदों का संगत कर लेना चाहिये। (एएसिं पल्लाणं कोडाकोडी भवेज्ज दसगुणिया, तं वावहारियस्स खेत्तसागरोवमस्त, एगस्स भवे परिमाणं) इन पल्यों की दशगुणित कोटिकोटी एक व्यावहारिक क्षेत्र सागरोपम का परिमाण होता है । अर्थात् १० कोटिकोटी व्यावहारिक क्षेत्र पल्योपमों का एक व्यावहारिक क्षेत्र सागरोपम होता है। (एएहिं) इन (वावहारिएहिं) व्यावहारिक (खेत्तपलि भोवमसागरोवमेहिं किं पओयणं) क्षेत्रपल्योपमों एवं भागासपएसा तेहिं बालग्गेहि अप्फुन्ना, तओ ण' समए समए एगमेगं, पएसं अवहाय जावइएण कालेणं से पल्ले खीणे, नीरए, निल्लेवे, निदिएं, भवइ, से तं वावहारिए खेत्तालि ओवमे) ते ५यना २ मा प्रहाशी ते વાલાઝો વડે વ્યાપ્ત છે, ત્યાંથી તે વાલાોમાંથી એક એક વાલાઝને એક સમયમાં બહાર કાઢ જેટલા સમયમાં તે પલ્ય તે વાલાથોથી સર્વથા રહિત થઈ જાય છે, તે વ્યાવહારિકક્ષેત્રપાપમ છે. ક્ષણ, નીરજક, નિલેપ વગેરે પદોને અર્થ પહેલાં કહેવામાં આવ્યું છે. તે અહીં પણ તે प्रमाणे म सम सेवणे, (एएसिं पल्लाणं कोड़ा-कोड़ी भवेज दर गुणिया । तं बाबहारियस्थ खेजसागरोवमस्स, एगरम भवे परिमाण) मा પલ્યોપમની દશ ગુણિત કોટિ-કોટિ એક વ્યાવહારિક ક્ષેત્ર સાગરોપમનું પરિમાણ હોય છે. એટલે કે ૧૦ કોટિ-કોટી વ્યાવહારિક ક્ષેત્ર પલ્યોપમ १२।११ व्या क्षेत्र सागरी५म डाय छे. (एएहि) ॥ (वावहारिएहि) या१४२४ (खेत्तपलिओवमसागरोवमेहि कि पओयण) क्षेत्रक्ष्या
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अनुयोगवन्द्रिका टीका सूत्र २०८ क्षेत्रपल्योपमनिरूपणम्
३५७ क्षेत्रपल्योपमसागरोपमैर्नास्ति किश्चित्प्रयोजनम्, केवलं प्रज्ञापना प्रज्ञाप्यते । तदेतद् व्यापहारिक क्षेत्रपल्योपमम् । अथ किं तत् सूक्ष्मं क्षेत्रपल्योपमम् ? सूक्ष्म क्षेत्रपत्योपमं तद् यथा नामकं पलां स्याद् योजनम् आयामविष्कम्भेण, यावत् परिक्षेपेग । तत् खजु पल्यम् ऐकाह्निकद्वैयहि कत्रैयहिक यावत् भृतं वालाग्रको. सागरोपमों से कौन सा प्रयोजन सिद्ध होता है ? (एएहिं वावहरिएहिं खेत्तपलिओवमसागरोवमेहि नत्थि किंचिप्पभोयणं)
उत्तर--इन व्यावहारिक क्षेत्र पस्योपमों एवं व्यावहारिक क्षेत्र सागरोपमों से कोई प्रयोजन सिद्ध नहीं होता है। (केवलं पण्णवणापण्णविज्जइ) सिर्फ इनसे प्ररूपणा ही होती है। (से तं वावहारिए खेतपलिओवमे) इस प्रकार यह व्यावहारिक क्षेत्र पल्योपम का स्वरूप है। (से किं तं सुहुमे खेत्तपलिओवमे ?) हे भदन्त ! सूक्ष्म क्षेत्र पल्योपम का क्या स्वरूप है ?
उत्तर--(सुहुमे खेत्तपलिओवमे) सूक्ष्म क्षेत्रपल्योपम (से जहा नामए) इस प्रकार से है-जैसे (पल्ले सिया) कोई एक पल्य कुशल-हो। (जोयणं आयामविक्खंभेणं जाव परिक्खेवेणं) वह एक योजन लंबा, १ योजन चौडा और एक योजन गहरा है। उसकी वृत्त-परिधि कुछ अधिक तिगुणी हो। (से गं पल्ले एगाहिय बेयाहिय तियाहिय जाव भरिए बालग्गकोडीण) इस पल्ल में एक दिन दो दिन तीन दिन यावत् पमा तमा सागरापमाथी या प्रयोजनी सिद्धि थाय छ ? (एएहि वायहरिएहि खेतालि ओवमसागरोवमेहि नत्थि कि चिपओयणं)
ઉત્તર-આ વ્યાવહારિક ક્ષેત્રપલોપમો તેમજ વ્યાવહારિક ક્ષેત્ર સાગરો५माथी । ५ तना प्रयासननी सिद्धि यती नथी. (केवलं पण्णवणा पणविज्जइ) मेमनाथी ३४ ५३५९! १४ २१य छे. (से तं वावहारिए खेत्तपलि भोवमे) 24. प्रमाणे मा व्यापार क्षेत्र५८यो पमनु २२३५ छ. (से कि तं वावहारिए सुहुमे खेत्तपलिओवमे') असत! सूक्ष्म क्षेत्र ५८या५मनु २१३५ छ?
उत्तर-(सुहुमे खेतपलिभोवमे) सूक्ष्म क्षेत्र ५६।५म (से जहानामए) मा प्रभारी छ रेम (पल्ले सिया) ७ ५६य-शव-हाय. (जोयणं आयामविक्खंभेणं जाव परिक्खेवेण) ते मे येन aisi, १ योन પહેળે અને એક યોજન ઊંડે હોય તેની વૃત્તપરિધિ કંઈક વધારે ત્રણ गह डाय. (हेणं पल्ले एगाहियबेयाहिय तियाहिय जाव भरिए बालगा. कोडीगं) मा ५६यम ४६१,२ दिवस,
यावत् सात
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अनुयोगद्वार
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टीनाम् । तत्र खलु एकमेकं वालाग्रम् असंख्येयानि खण्डानि क्रियते । तानि खलु बालाग्रखण्डानि दृष्टयवगाहनातः असंख्येयभागमात्राणि, सूक्ष्मस्य पनकजीवस्य शरीरावगाहनाaोऽसंरूपेयगुणानि । तानि खलु वालाग्रखण्डानि नो अग्नि दहेत् यावत् नौ पूतितां हन्यमागच्छेयुः । ये खलु तस्य पत्यस्य आकाशप्रदेशास्तैर्वालाग्र खण्डे स्पृष्टा वा अनास्पृष्टा वा ततः खलु समये समये एकमेकम् आकाशप्रदेशम् अपाय यावता कालेन तत् पल्यं क्षीणं यावद् निष्ठितं भवति, तदेतत् सात दिन तक के ऊगे हुए बालाग्रों से भरो। (तस्थ णं एगमेगे बालग्गे असंखिज्जाई खंडाई कज्जइ) इन भरे हुए बालाग्रों से एक २ बालाग्र के केवली की बुद्धि से असंख्यात २ खंड करो । ( ते णं बालग्गखंडा दिट्ठि ओगाहणाओ असंखेज्जह भागमेत्ता, सुमस्स पणगजीवस्स सरीरो गाहणाओ असंखेज्जइगुणा) ये वालाग्र- खंडदृष्टिपथ प्राप्त वस्तु की अपेक्षा असंख्यातवें भाग मात्र और सूक्ष्म पणक जीव की शरीरावगाहना की अपेक्षा असंख्यात गुणें बड़े होते हैं। (ते णं वालग्गखंडा णो अग्गी डज्जा जाव णो पूहत्ताए हन्त्रमागच्छेज्जा) ये बालाग्र खंड उस पल्प में इस रीति से भरना चाहिये कि - " जिससे उन पर अग्नि हवा आदि का प्रभाव काम न कर सके और न वे सड़ गल ही सकें । (जेणं तस्स पल्लम्स आगासपएसा तेहि बालगाखंडेहि आफुण्णा वा अणाकुण्णा वा) उन भरे हुए बालाग्रखंड़ों से उस पल्य के आकाश प्रदेश चाहे व्याप्त हों चाहे न भी हों (तओ णं समए समए एगमेगं
दिवस सुधीना भासाथ लश्वामां आवे (तत्थ णं एगमेगे बालो असंखिज्जाहूं खंडाई कज्जड़) या सपूरित मात्रामाथी थे ! साधने विधीनी बुद्धि वडे अस'च्यात असख्यात अउ उरवामां आवे ( से णं बालग्गखंडा दिट्टि ओगाहणाओ असंखेज्जभागमेत्ता, सुडुमस्स पणगजीवश्स सरीरोग्गाहणाओ असंखेज्जइ गुणा २५ બાલાચ ખંડો દષ્ટિપથ પ્રાપ્ત વસ્તુની અપેક્ષા અસ’ખ્યાતમાં ભાગ માત્ર અને સૂક્ષ્મ પણુક જીવની શરીરાવગાહનાની અપેક્ષા अस'ज्यातशत्रुा होय छे. (हे बालगखंडा णो अग्गी उहेज्जा जाव पूइत्ताए हव्वमागच्छेज्जा) मा मासाश्रम । ते पदयमां सेवी रीते लवा लेह જેથી તેમની ઉપર અગ્નિ, પુત્રન વગેરેની અસર થાય નહિ તે કહી શકે नहि तेभन खोजणी शडे नडि. (जे णं तस्स परलस्स आगासपरसा तेहि बालग्गखंडेहि आफुण्णा वा अणाकुण्णा वा) ते लरेसा वासाश्रम अभांथी ते पस्यना महाशप्रदेश। लखें व्याप्त हाय है न पा होय. (तओण' समय समए एगमेग
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मनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र २०८ क्षेत्रपल्योपमनिरूपणम् सूक्ष्म क्षेत्रपरयोपमम् । तत्र खलु नोदकः प्रज्ञापकमेवमवादीत्-सन्ति स्खल तस्य पल्यस्य आकाशप्रदेशा ये खलु तैर्वालाग्रखण्डैरनास्पृष्टाः १, इन्त सन्ति ! यथा को दृष्टान्तः ? स यथानामकः कोष्ठ का स्यात् कुष्माण्डै तः । तत्र खलु मातुलिङ्गानि प्रक्षिप्तानि तान्यपि मितानि, तत्र खलु विल्वानि प्रक्षिप्तानि तान्यपि मितानि । भागासपएसं अवहाय जावहएणं कालेणं से पल्ले खीणे जाव निहिए भवद से तं सुहमे खेत्तपलि भोवमे) अब इसके बाद एक एक समय में एक आकाश के प्रदेश को छोड़कर-अर्थात् उस उस प्रदेश से उन वालाग्र खंडों को निकालकर-जितने समय में उन बालाग्र खंडों से वह पल्य रिक्त (खाली) हो जाता है उतने समय का नाम एक सूक्ष्म क्षेत्र परपोपम है । (तत्थ णं चोयए पण्णवगं एवं वयासी) अब इस पर कोई शंका करने वाला शिष्य गुरुदेव से ऐसा पूछता है कि (अस्थि णं तस्स पल्लस्स आगासपएसा ज णं तेहिं बालग्गखंडेहि अणाफुण्णा ) हे गुरुदेव ! क्या उस पल्य के आकाशप्रदेश ऐसे भी हैं, जो उन बोलानखंडों से अपात-अनाक्रान्त-हो ? (हंता) हां (अत्थि) हैं । (जहा को दिलुतो ?) इस विषय को स्पष्ट करने वाला दृष्टान्त कौन सा है-(से जहाणामए) जैसे कोई एक (कोहंडाणं भरिए कोढर सिया) कूष्माण्डों से भरा हुआ कोठा हो (तत्थ णं माउलिंगो पक्खित्ता, ते वि माया) वहां मातुलिंग-विजोरों को डालो तो वे भी वहां समा जाते हैं । 'तत्य
भागासपएसं अवहाय जावइएणं कालेणं से पल्ले खीणे जाव निदिए भवइ से तं सहमे खेत्तपलि भोवमे) व त्या२मा मे समयमा मे मे शन પ્રદેશને ત્યજીને એટલે કે તે પ્રદેશમાંથી તે બાલાગ્રખંડેને બહાર કાઢીનેજેટલા સમયમાં તે વાલાશ્રખંડથી તે પલ્ય રિકત (ખાલી થઈ જાય તેટલા समयनु नाम मे सूक्ष्म क्षेत्र५त्यापम छे. (तत्थ णं चोयर पण्णवर्ग एवं क्यासी) ७ मा संयमा । १२ना२ शिष्य शु३३१२ मा प्रभाव प्रश्न ४२ छ है (अत्थिणं तस्स पल्लस्स आगासपएसा जंणं तेहि बालग्गखंडे हिं अणाफुण्णा) ३ १३वात पक्ष्यना माशश मेवा ५५ छ र a anuथी १०या-मनात हाय ? (हंता) ही (अत्थि) छ. (जहा कोदितो ?) मा विषयने ५५०८ ३२नार टान्त मा प्रमाणे छे. (से जहा णामए) २
(कोहंशाणं भरिए कोदए सिया) ३०माथी पूरित मही डेय (तत्थ णं माउलिंगा पक्खित्ता, ते वि माया) त्या मातुली -मिराम-2 नाभी तो तो ५५ मा समाविष्ट 25 लय छे. (तत्थ गं
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अनुयोगद्वारले तत्र खलु आमलकानि प्रक्षिप्तानि तान्यपि मितानि । तत्र खलु बदराणि मधिसानि तान्यपि मितानि । तत्र खलु चणकाः प्रक्षिप्तास्तेऽपि मिताः । तत्र खलु मुद्राः प्रक्षिशास्तेऽपि मिताः । तत्र खलु सर्पपाः प्रक्षिप्तास्तेऽपि मिताः। तत्र खल गङ्गावालुका प्रक्षिप्ता साऽपि मिता । एवमेव एतेन दृष्टान्तेन अस्ति खलु तस्य पल्यस्य आकाशपदेशा ये खलु तैः वालाग्रखण्डैरनास्पृष्टाः । एतेषां पल्यानां कोटीकोटिर्भवेद् दशगुणिताः । तत् मूक्ष्मस्य क्षेत्रसागरोपमस्य एकस्य भवेत् णं बिल्ला पक्खित्ता ते वि माया) वहां बिल्लों को भी कोई डाले तो वे वहां समा जाते हैं । (तस्थ णं आमलगा पक्खित्ता ते विमाया) वहां पर
आवलों को भी कोई डाले तो वे भी वहां समा जाते हैं। (तस्थ णं बयरा पक्खित्ता ते वि माया) वहां बेरों को भी कोई डाले तो वे भी वहां समा जाते हैं । (तत्य णं चणगा पक्वित्ता ते वि माया) वहां पर चनों को भी कोई डाले तो वे भी वहाँ समा जाते हैं । (नत्य णं मुग्मा पक्खित्ता ते वि माया) वहाँ पर मूंग को भी कोई डाले तो वह भी समा जाता है । (तस्थ णं सरिसवा पक्खित्ता ते वि माया) वहां पर सरसों को कोई डाले तो वह भी समा जाता है । (तत्थ णं गंगावालुया पक्खित्ता सावि माया) वहां गंगा की बालु भी कोई डाले तो वह भी वहां समा जाती है। (एवमेव) इसी प्रकार (एएणं दिटुंतेणं) इस दृष्टान्त से (तस्स पल्लस्स) उस पल्प के (आगासपएसा अस्थि) ऐसे भी भा. काश प्रदेश हैं (जे गं) जो (तेहिं बालग्गखंडेहिं) उन बालाग्रखंडों से (अणाफुण्णा) अनास्पृष्ट-अनाकान्त-है । (एएसिं पल्लाणं, दसगुणिया बिल्ला पक्खित्ता ते वि माया) त्या भिवाने ५४ । नामे तो ते ५५ त्या
समाविष्ट तय. (तत्थ णं आमलगा-पक्खित्ता ते वि माया) त्या मामाने नात पण त्या समाविष्ट यजय. (तत्थ णं बयरा पक्खित्ता ते वि माया)
यो २ नाभी तो ते ५५ समाविष्ट 45 4. (तस्थ णं चणगा पक्खित्ता देविमाया) तम या नामे ५५ समा गय छ (तत्थ णं मुगा पक्खित्ता ते वि माया) त्यो भा नाभी तो ५५ समाविष्ट २४ सय. (तत्थ सरिसवा पक्खिचा ते वि माया) त्यां सरस नभाको ५६५ सभाविष्ट 14. (तत्थ णं गंगावालुआ पक्खिता मा वि माया) त्यांनी रेत नाभास त ५५ समाविष्ट थ य. (एवमेव) मा प्रमाणे (एएणं दिदतेणं) मा हटान्तथी (तस्स पल्लस्म) ५श्यना (आगासपएसा अस्थि) 9वा पक्ष
प्रदेश . (जे ण) २ (वेहि बालग्गखंडेहि) ते मामाथी (अणाफण्णा) अनावृष्ट-nistra siय. (एएनि पल्लाणं दसगुणिया कोडा कोडी)
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मनुयोगधन्द्रिका टीका सूत्र २०८ क्षेत्रपल्योपमनिरूपणम् परिमाणम् ॥१॥ एतेः सक्ष्मै क्षेत्रपल्योपमसागरोपमैः किं प्रयोजनम् ? एतैः सूक्ष्म पल्पोपमसागरोपमैः दृष्टिवादे द्रव्याणि मीयन्ते ॥ सू० २८८ ॥
टीका-से कि ते' इत्यादि
अस्य सन्दर्भस्य व्याख्या अदापल्योपमवदेन बोध्या । तथापि किंचिद् व्याख्यायते-क्षेत्रम्-आकाशं तदुदारमधानं पल्योपमं क्षेत्रपल्योपमम् । व्यावहा. रिकक्षेत्रपल्योपमे तस्य पल्यस्यान्तर्गवा ये नमःपदेशास्तै लानरास्पृष्टा:व्याप्ताः- आक्रान्ताः सन्ति । तेषां मूक्ष्मत्वात् पतिसमयमेकैकापहारे असंख्येया कोडाकोडी) इस पल्यों की दशगुणित कोटि कोटी (एगस्स सुहमस्स खेत्तसागरीवमस्म) एक सूक्ष्मक्षेत्र सागगेपम का (परिमाणं भवे) परिमाण होता है। (एएहिं सुहमेहिं खेत्तपलिओवमसागरोवमेहिं कि पोयणं ?) हे भदन्त ! इन सूक्ष्म क्षेत्र पस्योपम एवं सूक्ष्मक्षेत्र सागरोपम से क्या प्रयोजन सिद्ध होता है ? (एएहिं सुहमपलिओवमसागरोवमेहि दिदिवाए दवा मविज्जति) इन सूक्ष्मक्षेत्र पल्योपमों से एवं सूक्ष्मक्षेत्र सागरोपमों से दृष्टिवाद में द्रव्यों की गिनति की जाती है।
भावार्थ-इस सूत्र द्वारा सूत्रकार ने क्षेत्र पल्योपम का क्या स्व.. रूप है ?' यह स्पष्ट किया है। वैसे तो इस सूत्र की व्याख्या अद्धा. परयोपम जैसी ही है। परन्तु इप्त पल्योपम में क्षेत्र से आकाश लिया गया है। व्यावहारिक क्षेत्र पस्योपम से उस पल्य के अन्तर्गत जो नभाप्रदेश हैं, वे उन बालानों से व्याप्त कहे गये हैं । इनके अत्यन्त मा पत्यानी १० गुपित टी (एगस्स सुहुमस्स खेत्तसागरोवमस्स) मे सूक्ष्म क्षेत्र सागरे।५मनु परिणाम जाय छे. (एपहि सुहुमेहि खेत्तपलि. ओवमसागरोवमेहि कि पोयणं ?) BRE ! मा सूक्ष्म क्षेत्र पक्ष्यायम तमा सूक्ष्म क्षेत्र सागरो५मथी या प्रयोजनी सिद्धि थाय छ ? (एएहिं सुहमपलि पोवम सागरोबमेहि दिद्विवाए दव्या मविज्जति) मा सूक्ष्म क्षेत्र પાપોથી તેમજ સૂક્ષમ ક્ષેત્ર સાગરેપમેથી દષ્ટિવાદમાં દ્રવ્યની ગણના કરવામાં આવે છે.
ભાવાર્થ–આ સૂત્ર વડે સૂત્રકારે “ક્ષેત્રપલ્યોપમનું સ્વરૂપ કેવું છે?” આ વાત સ્પષ્ટ કરી છે. આમ તે આ સૂત્રની વ્યાખ્યા અદ્ધાપલ્યોપમ જેવી જ છે. પણ આ પાપમમાં ક્ષેત્રથી આકાશ ગ્રહણ કરવામાં આવ્યું છે. વ્યાવહારિક ક્ષેત્રપાપમમાં તે પલ્યમાં જે નભઃપ્રદેશે છે, તેઓ તે વાલાચોથી વ્યાપ્ત થયેલ કહેવામાં આવ્યા છે. તેઓ અત્યન્ત સૂક્ષમ છે. તેથી
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भनुयोगद्वारसूत्रे उत्सपिण्यवसर्पिण्यो व्यतियन्ति । अतोऽसंख्येयोत्सर्पिण्यवसर्पिणीमानं व्यावहारिकक्षेत्रपल्योपमं बोध्यम् । सूक्ष्मक्षेत्रपल्योपमे तु सूक्ष्मैवीलाग्रखण्डैः स्पृष्टा अस्पृष्टाश्च नमःम देशा गृह्यन्ते, अतस्तद् व्यावहारिकादसंख्येयगुणकालमानं बोध्यम्। मनु यदि स्पृष्टा अस्पृष्टाश्च नमःप्रदेशा अत्र गृह्यन्ते, तर्हि वालाग्रखण्डैः किं प्रयोजनम् ? इति चेदाह-प्रस्तुतपल्योपमेन दृष्टिवादे द्रव्याणि मीयन्ते, तेषु कानिचिद् द्रव्याणि यथोक्तवालाग्रखण्डस्पृष्टैरेव नमःप्रदेशैर्मी यन्ते, कानिविदस्पृष्टैरित्यतो सूक्षत होने के कारण प्रतिसमय एक २ बालाग्र के निकालने में असंख्य त उत्सर्पिणियां अवसागणियां समाप्त हो जाती हैं। इसलिये असंगात उत्सर्गिणी अवलनिणी स्वरूप यह व्यावहारिक क्षेत्र पल्यो. पप होना है। सूक्ष्मक्षेत्राल्योपम में उन यालानों के असंख्यात २ खंड एक एक बालान के किये जाते हैं । इन बालाग्रखंडों से उस पल्य के नमःप्रदेश स्पृष्ट भी होते हैं और अस्पृष्ट भी होते हैं। ऐसा कहा गया है । इसका काल व्यावहारिक क्षेत्र पल्योपम से असंख्यात गुणा होता है। यहां पर ऐसी आशंका हो सकती है कि-'इस क्षेत्र पल्योपम में यदि बालाप्रखंडों से स्पृष्ट और अस्पृष्ट दोनों प्रकार के प्रदेश गृहीत किये गए हैं तो फिर बालान खण्डों से क्या तात्पर्य निकला ? तो इसका उत्तर इस प्रकार से है, कि -'प्रस्तुत पल्योपम से दृष्टिवाद अंग में द्रव्य गिने जाते हैं । इनमें कितनेक द्रव्य यथोक्त चालान खंडों से स्पृष्ट हुए नभः प्रदेशों से गिने जाते हैं मापे जाते हैंપ્રતિસમય એક એક વાલીને બહાર કાઢવામાં અસંખ્યાત ઉર્પિણીઓ અને અવસર્પિણ એ સમાપ્ત થઈ જાય છે. એટલા માટે અસંખ્યાત ઉત્સર્પિણ અવસર્પિણી સ્વરૂપ આ વ્યાવહારિક ક્ષેત્રપાપમ હોય છે. સૂકમ ક્ષેત્રપોપમમાં તે વાલાોના અસંખ્યાત ખંડો એક એક વાલાઝના કરવામાં આવે છે. આ વાલાગ્રખંડથી તે પલ્યના નભઃ પ્રદેશ પૃષ્ટ પણ હોય છે. અને અસ્પષ્ટ પણ હોય છે. આમ કહેવામાં આવ્યું છે આનો કાળ વ્યાવહારિક ક્ષેત્ર પલ્યોપમથી અસંખ્યાતગણે હોય છે. અહીં એવી આશંકા ઉત્પન્ન થઈ શકે કે આ ક્ષેત્ર પાપમમાં જે વાલાખંડોથી સ્પષ્ટ અને અપૃષ્ટ અને પ્રકારના પ્રદેશે ગ્રહણ્ય કરવામાં આવ્યા છે ? તે પછી વાલાખંડથી કયા તાત્પર્યની સિદ્ધિ થાય? તે એના જવાબમાં આ પ્રમાણે કહી શકાય કે “ પ્રસ્તુત પલ્યોપમથી દષ્ટિવાદ અંગમાં દ્રવ્યની ગણના થાય છે. આ સર્વેમાં કેટલાક દ્રવ્ય યક્ત વાતાગ્રખંડથી પૃષ્ટ થયેલ નભ:પ્રદેશેથી ગણવામાં આવે છે–માપવામાં આવે છે–એટલે કે તેમનું પ્રમાણ નક્કી
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अनुयोगवन्द्रिका टीका सूत्र २०८ क्षेत्रपल्योपमनिरूपणम् दृष्टिवादोक्तद्रव्यमानोपयोगित्वाद् बालाग्रखण्डप्ररूपणा समयोजनैव, न तु निष्पयोजनेति । तत्र नमःमदेशानां स्पृष्टास्पृष्टत्वपरूपणे गुरुणा कृते सति समुत्पन्न संशयः शिष्य आचार्य मेवमवादी-हे भदन्त ! सस्य पल्पस्यान्तर्गता एवंविधा आकाशप्रदेशाः किं संभवन्ति, ये खलु तैर्वालाग्रखण्डैस्पृष्टा भवेयुः ? तत्र पल्ये वालाग्रखण्डानि निबिडतया व्यवस्थापितानि, अतस्तत्र छिद्रस्थासंभवाद बालाग्रखण्डास्पृष्टाकाशपदेशानामसम्भाव्यात् 'तत्र पल्येऽस्पृष्टा आकाशप्रदेशाः सन्ति' इति नोचितमितिपष्टुरभिप्रायः । गुरुराह-हन्त ! अस्त्येतत् ! नात्र त्वया सन्दिहानेन भवितव्यम् । शृणु-'स यथा नाम: कोष्ठकः स्यात् कूष्माडैर्भूत' अर्थात् उनका प्रमाण निश्चित किया जाता है । और कितनेक द्रव्य जो यथोक्त पालाग्र खंडो से स्पृष्ट नहीं हुए हैं, ऐसे नभःप्रदेशों से गिने जाते हैं। इसलिये दृष्टिवाद में कथित द्रव्यों के मान करने में उपयोगी होने से बालाना के खंडों की प्ररूपणा निष्प्रयोजनीभूत नहीं है, किन्तुप्रयोजनीभूत ही है । जब गुरुदेव ने इस प्रकार से स्पृष्ट अस्पृष्ट नमः प्रदेशों की प्ररूपणा की तो उत्पन्न हुए संशय वाले किसी शिष्य ने गुरुदेव से उसी समय ऐसा पूछा कि-'हे भदन्त ! जब वह पल्य उनः बालाग्र खण्डों से लबालब भर दिया जाता है, तो ऐसी स्थिति में वहां छिद्र नहीं रह सकने के कारण क्यों ऐसे भी नभाप्रदेश संभावित हो सकते हैं जो उन घालाग्र खंडों से अस्पृष्ट बने रहें । तब शिष्य की इस शंका की निवृत्ति करने के लिये गुरुदेव ने उसे इस दृष्टान्त द्वारा प्रतियोधित किया-कि हां, वहां ऐसे भी प्रदेश संवित है, जो उन કરવામાં આવે છે. અને કેટલાંક દ્રવ્ય કે જેઓ યોકત બાલાગ્રખંડથી પૃષ્ટ થયા નથી, એવા નભ:પ્રદેશથી ગણવામાં આવે છે એટલા માટે દૃષ્ટિ. વાદમાં કથિત દ્રવ્યનું પ્રરૂપણ કરવામાં ઉપોગી હોવાથી વાલાના ખડોની પ્રરૂપણ નિપ્રોજનીભૂત નથી, પરંતુ પ્રજનીભૂત જ છે. જ્યારે ગુરૂદેવે આ રીતે પૃષ્ણ તેમજ અસ્કૃષ્ટ નભ: પ્રદેશની પ્રરૂપણું કરી ત્યારે શંકા ઉત્પન્ન થયેલા કે શિષ્ય ગુરૂદેવને તત્કાલ આ જાતને પ્રશ્ન કર્યો કે હે ભદન્ત ! જ્યારે તે પલ્ય તે વાલ 2 ખડેથી પૂરેપૂરો ભરવામાં આવે છે, તે એવી સ્થિતિમાં તેમાં છિદ્રોના અભાવે શું એવા પણ નભ પ્રદેશ સંભવિત થઈ શકે છે? કે જેઓ તે વાલાગ્ર ખંડેથી અપૃષ્ટ રહે ત્યારે શિષ્યની આ શંકાની નિવૃત્તિ માટે ગુરૂદેવ આ દુષ્ટાન્ત વડે તેને પ્રતિબંધિત કર્યો કે હો ત્યાં એવા પણ પ્રદેશ સંભવિત છે કે જેઓ તે સૂકમ વાલારા ખંડ વડે અસ્પષ્ટ બનેલા છે. જેમ કે-કૂમાંડ પૂરિત કઈ એક કઠો હોય, વ્યવહારમાં
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अनुयोगबारसूत्रे इत्यादि । अयं भावः-कोष्ठके कूष्माण्डैभृते सति 'भृतः कोष्ठकः' इति स्थूलदृष्टिभिरुषादीयते, परन्तु कूष्माण्डाना बादरस्यात् तेषां परम्परान्तराले छिद्राणां संभवात् येषु पुनश्छिद्रेषु मातुलिङ्गानि-धीजपूराणि प्रक्षिप्तानि, तान्यपि मितानि। तत्तथापि 'भृतोऽयं कोष्ठकः' इति प्रतीयते । पुनर्मातुलिङ्गच्छिद्रेषु बिल्वानि मक्षिप्तानि तान्यपि मितानि । पुनः क्रमेण आमझकादि सर्पपान्ताः प्रक्षिप्ता, तेऽपि मिताः । पुनस्ता गङ्गावालुका प्रक्षिप्ताऽपि मिता । एतेन दृष्टान्तेन एवं बोध्यम्-यत्स्थूलदृष्टिभिस्तत्र पल्ये शुषिराभावादस्पृष्टनमा प्रदेशाः न संभाव्यन्ते, इक्ष्म बालाग्रखंडों द्वारा अस्पृष्ट धने हुए हैं, देखो कूष्माण्डों से भरा हुमा एक कोठा हो, व्यवहार में तब ऐसा कहा जाता है कि-'यह कोठा कूष्माण्डों से लबालब भरा हुआ है। परन्तु बादररूप में होने के कारण इन कूष्माण्डों में परस्पर में अंतराल तो होता ही है-फिर भी यह कोठा कूष्माण्डों से भरा पड़ा है, ऐसा लोग कहते ही हैं।
माडों से भरे हुए उस कोठे में जप मातुलिङ्ग पक्षिप्त किए जाते हैं, तो वे भी उसमें समा जाते हैं। क्योंकि कूष्मांडो के रहे हुए अन्तराल में वे भर जाते हैं । इसी प्रकार मातुलिङ्गों के अन्तरालों में प्रक्षिप्त बिल्वफल, बिल्वफलों के अन्तराल में आंवले प्रादि सर्षपान्त तक के पदार्थ और सरसों के अन्तराल में गंगा की वालु ये सब समा जाते हैं, क्योंकि ये सब पदार्थ बादर है । बादरों में अन्तराल होना स्वाभाविक है। इस दृष्टान्त से हम यह जान सकते हैं कि-'जब कूष्मांडों से कोठा भरा हुआ है, तब उसमें मातुलिङ्ग आदि पदार्थ नही समाना चाहिएત્યારે આમ કહેવામાં આવે છે કે “આ કે ઠે કૂમાંથી કોળું) પૂરેપૂરો ભરેલ છે. પરંતુ બાદર રૂપમાં હોવાથી આ કમાંડોમાં પરસ્પરમાં અંતરાલ તે હોય જ છે. છતાંએ આ કઠો કૂમાંડથી ભરેલું છે આમ લેકે કહે જ છે. કૂષ્માંડેથી પરિત તે કોઠામાં જયારે માતલિંગ (બિરા) પ્રક્ષિત કરવામાં આવે છે ત્યારે તેઓ પણ તેમાં સમાવિષ્ટ થઈ જાય છે. કેમકે કૂમાડાના અંતરાલમાં તેઓ સમાવિષ્ટ થઈ જાય છે. આ પ્રમાણે માતલિંગના અંતરાલોમાં પ્રક્ષિત બિલ્વફળ, બિલ્વફળોના અન્તરાલમાં અમેળાઓ વગેરે સરસવ સુધીના પદાર્થો અને સરસવના અંતરાલમાં ગંગા ની રેત આ સર્વે સમાવિષ્ટ થઈ જાય છે. કેમકે આ સર્વે પદાર્થો બાદર છે બાદરમાં અંતરાલ હોય તે સ્વાભાવિક જ છે. આ દષ્ટાન્તથી અમે એ વાત જાણી શકીએ છીએ કે જ્યારે કૂષ્માંડથી ભરેલે ઠેઠે હોય છે, ત્યારે તેમાં માતલિંગ વગેરે પદાર્થો સમાવા
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अनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र २०८ क्षेत्रपल्योपमनिरूपणम्
३६५ तथापि बालाग्रखण्डानां बादरत्वात् , आकाशप्रदेशानां तु सूक्ष्मत्वात् , सन्त्येवास्पृष्टा असंख्येया नमाप्रदेशाः । दृश्यते च निविडतया दृश्यमानेऽपि स्तम्भादौ कोलकानां प्रवेशः । स च शुषिरं विना नोत्पद्यते । एवमिहापि वालाग्रखण्डरस्पृष्टा असंख्येया आकाशपदेशा घोध्या इति ॥ सू० २०८॥ परन्तु जो समा जाते हैं, उसका तात्पर्य यही है कि-'वहां के नमः प्रदेश ऐसे हैं, जो उन कूष्माण्डों आदि से अस्पृष्ट बने हुए हैं। यदि वे उनसे स्पृष्ट होते तो, अन्य पदार्थ वहां कैसे समा सकते ? भले ही
लढष्टिवाले पुरुषों के ध्यान मे वहां अस्पष्ट नभःप्रदेश प्रतीत न ह-क्योंकि वे सूक्ष्म है। परन्तु इन प्रक्षिप्त भिन्न २ पदार्थों के वहां समा जाने से अस्पृष्ट नभाप्रदेश सिद्ध हो जाते हैं । इसी प्रकार स्थूल दृष्टिवाले पुरुषां को उस पल्य में शुषिरके अभाव से अस्पृष्ट नभाप्रदेश संभवित न हो तो भी बालाग्रखंडों के बादर होने के कारण
और आकाश प्रदेशों को सूक्ष्म होने के कारण वहां-असंख्यात प्रदेश ऐसे भी हैं, जो उन बादरपालाप्रखंडो द्वारा अस्पृष्ट बने हुए हैं। हम यह बात इस प्रकार से भी समझ सकते हैं कि जब कोई एक स्तम्भ में कील ठोकता है तो, वह उसमें ठुक जाती है। अब विचारने की बात है कि-'यदि उस स्तंभ में यदि शुषिर न हो तो वह कील उसमें कैसे ठुक सकती १ यद्यपि हमें प्रदेशों की निषिडता से उसमें शुषिर प्रतीत नहीं જોઈએ નહિ, પરંતુ આ પદાર્થો સમાવિષ્ટ થઈ જાય છે તેનું કારણ એ છે કે, ત્યાંના નભ પ્રદેશ એવા છે કે જેઓ તે માંડ વગેરેથી અસ્પષ્ટ થયેલા છે. જે તે પ્રદેશ તેમનાથી સ્પષ્ટ હેત તે અન્ય પદાર્થો તેમાં કેવી રીતે સમાઈ શક્ત ભલે સ્કૂલ દૃષ્ટિવાળા માણસેના ધ્યાનમાં ત્યાં અસ્પષ્ટ નભાપ્રદેશ પ્રતીત નહીં પણ હોય, કેમકે તેઓ સૂમ છે. પરંતુ આ પ્રક્ષિત ભિન્નભિન્ન પદાર્થોના ત્યાં સમાવાથી અસ્કૃષ્ટ નભ પ્રદેશે સિદ્ધ થઈ જાય છે. આ પ્રમાણે સ્થલ દષ્ટિવાળા પુરૂષને તે પલ્યમાં શુષિરના અભાવમાં અપૃષ્ટ નભઃપ્રદેશ સંભવિત ન હોય તે પણ બાલાગ્રખંડે બાદર છે તે માટે અને આકાશપદેશે સક્ષમ છે તેથી ત્યાં અસંખ્યાત પ્રદેશો એવા પણ છે કે જેઓ તે બાદર બાલાગ્ર ખડે વડે અસ્પૃષ્ટ બનેલા છે. અમે આ વાત આ રીતે પણ સમજી શકીએ છીએ કે જ્યારે અમે તંભમાં ખીલી ઠેકીએ છીએ ત્યારે તે ઠેકાઈ જાય છે. હવે વિચારણીય વાત આ છે કે જે તે સ્તંભમાં શષિર ન હોય તે તે ખીઢી તેમાં કેવી રીતે પેસી જાય છે? વસ્તુતઃ વાત એવી છે કે નિબિડતાને લીધે તેમાં શુષિરની પ્રતીતિ થતી નથી પણ ખીલી
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अनुयोगद्वारसूत्र - एतैः सूक्ष्मक्षेत्रपल्योपमसागरोपमैदृष्टिवादे द्रव्याणि मीयन्ते इत्युक्तम् । तत्र कतिविधानि द्रव्याणि सन्ति इति प्रदर्शयितुमाह-'कइ विहाणं' इत्यादि
मूलम्-कइविहाणं भंते ! दवा पण्णत्ता? गोयमा! दुविहाँ पण्णता, तं जहा-जीवदव्वा य अजीवदव्वा य। अजीवदवाणं भंते ! कइविहा पण्णत्ता ? गोयमा! दुविहा पण्णत्ता, तं जहा-रूवी अजीवदवाय अरूवी अजीवदवाया अजीवदवाणंभंते! कइविहा पण्णता? गोयमा! दसविहा पण्णता, तं जहा-धम्मस्थिकाए धम्मत्थिकायस्स देसा धम्मस्थिकायस्प्त पएसा। अधम्मत्थिकाए अधम्मस्थिकायस्स देसा अधम्मत्थिकायस्स पएसा। आगासस्थिकाए आगासस्थिकायस्स देसा आगासत्थिकायस्स पएसा, अद्धासमए। रूबी अजीवदवाणं भंते! कइविहा पण्णत्ता ? गोयमा! चउविहा पण्णत्ता, तं जहा-खंधा खंधदेसा खंधप्पएसा परमाणुपोग्गला। ते णं भंते ! किं संखिजा असांखिजा अणता? गोयमा! नो संखेज्जा, नो असंखेज्जा, अगंता। से केणटेणं भंते! एवं वुच्चइ नो संखेज्जा, नो असंखेज्जा, अणंता ? गोयमा ! अणंता परमाणुगग्गला अणंता दुपएसिया खंधा जाव अगंता अणंतपएलिया खंधा, से एएणऽट्रेणं गोयमा! एवं बुच्चइ-नो संखेज्जा नो असंखेज्जा अणंता। जीवदवाणं होता, फिर भी कील के टुकने से हम इस बात को समझ सकते हैंउसी प्रकार यह भी मानना चाहिये कि-'इस पल्पों भी असंख्यात नभा. प्रदेश ऐसे भी हैं, जो उन बादर बालाग्रखंडो से अस्पृष्ट हैं |स्र० २०८॥
ઠેકવાથી જેમ અમે આ વાત સમજી જઈએ છીએ તેમ આ વાત પણ માની લેવી જોઈએ કે આ પલ્યમાં પણ અસંખ્યાત નભ: પ્રદેશે એવા પણ છે કે જેએ તે બાદર બાલાગ્નિ ખંડેથી અસ્પષ્ટ છે. સૂ૦૨૦૮
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भानुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र २०९ द्रव्यस्वरूपनिरूपणम् भंते ! कि संखिज्जा असंखिज्जा अर्णता ? गोयमा! नो संखिज्जा ‘नो असंखिज्जा अणंता। से केणटेणं भंते! एवं वुच्चइ-नो
संखिज्जा नो असंखिज्जा अर्णता ? गोयमा! असंखेज्जा गेरइया असंखेज्जा असुरकुमारा जाव असंखेज्जा थणियकुमारा असंखिज्जा पुढवीकाइया जाव असंखिज्जा वाउकाइया अणंता वण्णस्सइकाइया, असंखेज्जा बेइंदिया जाव असंखिज्जा चउरिदिया असंखिज्जा पंचिंदियतिरिक्खजोणिया, असंखिज्जा मणुस्सा असंखिज्जा वाणमंतरा असंखिज्जा जोइसिया असं. खिज्जा वेमाणिया, अणंता सिद्धा, से एएणऽट्रेणं गोयमा! एवं वुचइ-नो संखिज्जा नो असंखिज्जा अणंता ॥सू० २०९॥
छाया-कतिविषानि खलु भदन्त । द्रव्याणि प्रज्ञप्तानि ? गौतम ! द्विविधानि प्रज्ञप्तानि, तद्यथा-जीवद्रव्याणि च अजीवद्रव्याणि च । अजीवद्रव्याणि
- अब सूत्रकार इस बात को कहते हैं कि जो पहिले ऐसा कहा गया है कि-'सूक्ष्म क्षेत्र पल्यापम एवं सूक्ष्म क्षेत्र सागरोपम से दृष्टिवाद में द्रव्यों की गणना की जाती है सो वहां कितने प्रकार के द्रव्य हैं इस बात को सूत्रकार कहते हैं. . “काविहा णं भंते दव्वा पण्णत्ता" इत्यादि।
शब्दार्थ-(भते) हे भदन्त ! (दवा) द्रव्य (काविहाणं) कितने प्रकार के (पण्णत्ता) कहे गये हैं ? (गोयमा) हे गौतम ! (दुविहा पण्णत्ता) द्रव्य दो प्रकार के प्रज्ञप्त हुए हैं। (तं जहा) वे उसके प्रकार से हैं-(जीव दव्या य) एक जीव द्रव्य आर दूसरा (अजीव वा य) अजीव द्रव्य ।
હવે સૂત્રકાર આ વાતને સ્પષ્ટ કરે છે કે, જે પહેલાં આ પ્રમાણે કહેઆવ્યું છે કે સૂવમ ક્ષેત્રપલપમ તેમજ સૂક્ષમ ક્ષેત્રસાગરોપમથી દષ્ટિવાજમાં દ્રવ્યોની ગણના કરવામાં આવે છે, તે ત્યાં કેટલા પ્રકારનાં દ્રવ્ય છે?
“कइविहा गं भंते ! व्वा पण्णत्ता" त्याहशा---(भंते!) त! (दवा) द्र०य। (काविहाणं) टा
ना (पण्णत्ता) वामi माया छ' (गोयमा!) ३ गौतम । (दुविहा पण्णत्ता) द्रव्ये. मे मारना प्रशस थये। छे. (तंजहा) तारे। मा प्रमाणे 2. (जीवदव्वा य) : १ द्रव्य भने द्वितीय (अजीव दरवाय) १ ० (अजीवदव्वाणं) मल द्रव्य (भंते !) 3 महत!
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३६८
अनुयोगद्वारसूत्रे
खलु भदन्त ! कतिविधानि प्रज्ञप्तानि ? गौतम ! द्विविधानि मज्ञप्तानि तद्यथारूप्य - जीवद्रव्याणि अरूप्यजीवद्रव्याणि च । अरूप्यजीवद्रव्याणि खलु भदन्त ! कतिविधानि प्रज्ञप्तानि ? गौतम ! दशविधानि प्रज्ञप्तानि तद्यथा - धर्मास्तिSarat feaster देशाः धर्मास्तिकायस्य प्रदेशाः, अधर्मास्तिकायोऽधर्मास्विकायस्प देशा अधर्मास्तिकायस्य प्रदेशाः, आकाशास्तिकाय आकाशास्तिकायस्य देशाः आकाशास्तिकायस्य प्रदेशाः अद्धामश्यः । रूप्पजीवद्रव्याणि खलु
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(अजीव दव्वा णं) अजीव द्रव्य (भंते) हे भदन्त (कविहा) कितने प्रकार का ( पण्णत्ता) प्रज्ञप्त हुआ है । (गोगमा) है गौतम ! (दुविहा) दो प्रकार का (पण्णत्ता) प्रज्ञप्त हुआ है । (तं जहा) वे उसके प्रकार ये हैं(रुवी अजीव दव्वा य, अरूवी अजीब व्वाय) एक रूपी अजीवद्रव्य और दूसरा अरूपी अजीव द्रव्य । (अरुत्री अजीवदव्वा णं भंते कहविहा पण्णत्ता) अरूपी अजीव द्रव्य हे भदंत ! कितने प्रकार का कहा गया है ? (गोयमा) हे गौतम! (दसत्रिहा पण्णत्ता) दश प्रकार का कहा गया है । (तं जहा ) वे दश प्रकार ये हैं-- ( धम्मस्थिकाए, धम्मस्थिकायस्स देसा, धम्मस्थिकायस्त परसा) धर्मास्तिकाय १ धर्मास्तिकाय के देश २, धर्मास्तिकाय के प्रदेश ३, (अधम्मस्थिकाए, अधम्मस्थिकायस्स देखो, referature परसा) अधर्मास्तिकाय ४, अधर्मास्तिकाय के देश ५, अधर्मास्तिकाय के प्रदेश ६, ( आगासत्थिकाए, आगासत्थि कायस्ल देसा, आगासात्धिकायस्स परसा) आकाशास्तिकाय ७ आकाशास्तिकाय के देश ८, आकाशास्तिकाय के प्रदेश ९, (अद्धासमए) और (कविहा) उदया प्रहार (पण्णत्ता) प्रज्ञप्त थयेस छे (गोयमा !) हे गौतम! (विहा) से प्रहार (पण्णत्ता) अज्ञप्त थयेस छे (तंजा) ते प्रहारो भा प्रभा छे (रूवी अजीवदव्वा य, अरूत्री अजीवदव्वा य) मे ३ची लव व्याने श्री सधी अलव द्रव्य ( अरूवी अजीवदव्वा णं भंते ! कइविहा पण्णत्ता) ३थी अलव द्रव्य के लङ्घत ! वा अनुज्ञप्त थयेल छे ! ( गोयमा) हे गौतम | (zafazı qona1) 82 steg sŝali anoy' §. (à 1761) A CA પ્રકાશ या प्रमाणे छे. (घम्मत्थिकार धम्मत्थिकार देखा, धम्मस्थि कायम पसा) धर्मास्तिठाय १, धर्मास्तियना हेश २, धर्मास्ति अयना प्रदेश 3, (अधम्मत्थिकाए, अधम्मत्थिकायरस देखा अधम्मात्थिकायरस परसा) अष भस्तिकाय ४, अधर्मास्तिडायना देश य, अधर्मास्तियना प्रदेश ६, (भागासत्कार आगासत्थिकायस्स देसा, आगासत्थिकायस्स पएम्ना) भाशास्तिय ७, आमशास्तिद्वायना हेश ८, आमशास्तिहायना प्रदेश (, ( बद्धा समए) भने
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महयोगचन्द्रिका टीका सूत्र २०९ द्रव्यस्वरूपनिरूपणम् भदन्त ! कतिविधानि पक्षप्तानि ? गौतम! चतुर्विधानि प्राप्तानि, तद्यथा-स्कन्धार स्कन्धदेशाः स्कन्धमदेशाः परमाणुपुद्गलाः । ते खलु भदन्त ! किं संख्येया। असंख्येयाः अनन्ता ? गौतम ! नो संख्येया नो असंख्येया अनन्ताः। तत् केनार्थेन भदन्त । एवम् उच्यते-नो संख्येयानो असंख्येयाः अनन्ताः ? गौतम! अनन्ताः परमाणुपुद्गला, अजन्ताः द्विपदेशिकाः स्कन्धा यावत् अनन्ता अनन्तप्रदेशिकाः स्कन्धाः तदेतेनार्थेन गौतम ! एवम् उच्यते-नो संख्येयाः नो असंअद्धासमय १०, । (रूवी अजीवदया भंते काविहा पण्णत्ता) रूपी अजीव द्रव्य हे भदन्त ! कितने प्रकार का प्रज्ञप्त हुआ है ? (गोयमा) हे गौतम ! (च उब्धिहा पगत्ता) वह चार प्रकार का प्रज्ञप्त हुआ है। (तं जहा) वे उसके प्रकार ये हैं (खंधा) स्कन्ध १, (खंधदेसा) स्कंधदेश २ (खंधप्पएसा) स्कंध प्रदेश ३, (परमाणु पोग्गला) और परमाणु पुद्गल ४ । (ते णं भंते ! कि संखिज्जा, असंखिज्जा, अणंता? ) स्कंधादिक द्रव्य हे भदन्त ! संख्यात है ? या असंख्यात हैं ? यो अनंत हैं ? (गोयमा! नो संखेज्जा नो असंखेज्जा, अणंता) हे गौतम ! स्कंधादिक द्रव्य न संख्यात हैं, न असंख्यात है किन्तु अनंत हैं। (से केणटेणं भंते ! एवं बुच्चा, नो संखेज्जा, नो असंखेज्जा, अर्णता) है भदन्त ! आप यह किस अर्थ को लेकर ऐसा कहते हैं कि 'स्कंधा. दिक संख्यात नहीं हैं, असंख्यात नहीं हैं, किन्तु अनंत हैं ? (गोयमा! अर्णता परमाणुपोग्गला, अर्णता दुप्पएसिया, खंधा जाव अणंता अणतपएसिया से एएणद्वेणं गोयमा! एवं बुच्चह नो संखेज्जा, नो असंसदासमय १०, (रूवी अजीवदव्वाण' भवे कइविहा पण्णत्ता) ३५ १०१ द्रव्य 8 महत! ८ रनु प्रशस्त थयेस छ ? (गोयमा 1) गीत ! (चउठिवहा पण्णत्ता) तयार प्रसार प्रज्ञत श्ये छे. (तं जहा) ते । मा प्रभारी छे. (खंधा) २४५ १, (खंध देसा) २४श २, (खंधप्पएसा) २४ महेश 3, (परमाणुपोग्गला) भने ५२मा Ya ४. (तेण भंते ! कि सखिज्जा, असंखिज्जा, अणता ?) मा १४ धाद्रि०य त ! सभ्यात छ? अयात १३ सनत छ? (गोयमा ! नो संखेज्जा नो असंखेज्जा, अणता) के गौतम! मा २४ चाहि द्रव्ये सध्यात नथी, अध्यात नयी ५५ मत छे. (से केणट्रेण भंते ! एवं वुच्चइ. नो संखेज्जा, नो असंखेज्जा, अणता) DRE! आपश्री ४२॥ सर्थना आधारे नाम हैं। छ। ३ २४ा. हि सभ्यात नथी, असयात नथी परंतु मत छ ? (गोयमा । अणतापरमाणुपोग्गठा, अणता दुप्पएसिया, खंधा जाव अर्णता अणतपएसियासे एएण
अ० ४७
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अनुयोगद्वारसूत्रे ख्येयाः अनन्ताः । जीवद्रव्याणि खलु भदन्त ! कि संख्येयानि असंख्येयानि अनन्तानि ? गौतम ! नो संख्येयानि नो असंख्येयानि अनन्तानि, तत् केनार्थेन भदन्तः ! एवमुच्यते-नो संख्येयानि नो असंख्येयानि अनन्तानि ? गौतम ! असंख्येया नैरयिकाः असंख्येया अनुरकुमार यावत् असंख्येया स्तनितकुमाराः असंख्येयाः पृथिवीकायिका यावत् असंख्येया वायुकायिकाः अनन्ता वनस्पतिकायिकाः असंख्येयाः द्वीन्द्रिया यावत् असंख्येयाः चतुरिन्द्रियाः, असंख्येयाः खेज्जा, अणंना) गौतम ! 'अनंत परमाणु पुद्गल हैं, अनंत प्रद्विदेशिक स्कंध हैं यावत् अनंत अनंत प्रदेशवाले स्कंध हैं इसलिये हम इसी अर्थ को लेकर ऐसा कहते हैं कि 'स्कंधादिक न संख्यात हैं, न असं. ख्यात हैं, किंतु अनंत हैं। (जीवव्या णं भंते! किं संखिज्जा असंखिफेजा अणंता १) हे भदन्त ! जीव द्रव्य संख्यात हैं ? या असंख्यात हैं ? या अनंत है ? (गोयमानो संखिज्जा, नो असंखिज्जा अणंता) हे गौतम ! जीवद्रव्य न संख्यात हैं न असंख्यात है किन्तु अनंत हैं ? (से केणद्वेणं भैते ! एवं बुच्चह-नो-संखिज्जा, नो असंखिज्जा, अणता) हे भदन्त ! भाप यह किस अर्थ को लेकर ऐसा कहते हैं-कि जीवद्रव्य न संख्यात हैन असंख्यात हैं किन्तु अनंत हैं ? (गोयमा ! असंखेज्जा रहया असखेज्जा असुरकुमारा जाव असंखेज्जा थणियकुमारा, असंखिज्जा पुढवीकाइया जाव असंखिज्जा वाउकाइया अणंता वणस्सइकाइया) हे ट्रेणं गोयमा! एवं वुच्चइ नो संखेज्जा, नो असंखेज्जा अणंता) 8 गौतम ! અનંત પરમાણુ યુગલો છે, અનંત ક્રિપ્રદેશિક ઔધે છે યાવત અનંત અનંત પ્રદેશવાળા સ્કધો છે.” આ જાતનું કથન આગમનું છે એથી જ. અમે આ અર્થના આધારે જ આમ કહીએ છીએ કે સકધાદિક સંખ્યાત नथी, यात नथी, ५९ मत छे. (जीवदया णं भवे! किं संखिज्जा असंखिज्जा अणंता १) ३ मत द्रव्य सभ्यात छ ? मसभ्यात छ। गत छ ? (गोयमा । नो संखिज्जा, नो असंखिज्जा अणंता) गीतम! ७ द्रव्यप्यात नथी असभ्यात नथी ५२'तु मनतले. (सेकेणट्रेणं भवे । एवं वञ्चइ नो संखिज्जा, नो असखिजजा, अणता) BRE! मा५श्री श्या मना આધારે આ પ્રમાણે કહે છે? કે છવદ્રવ્ય સંખ્યાત નથી, અસંખ્યાત નથી ५२ मन त छ १ (गोयमा! अस खेज्जा रइया असंखेज्जा असुरकुमारा जाव असंखेजा थणि यकुमारा असंखिज्जा पुढवीकाइया जाव अस खिज्जा वाउकाइया अणता वणस्सइकाइया) 3 गोतम अभ्यात ना छ, असभ्यात .
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अनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र २०९ द्रव्यस्वरूपनिरूपणम् पञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनिका, असंख्येयाः मनुष्याः, असंख्येया व्यन्तरा, असंख्येया ज्योतिष्काः, असंख्येया वैमानिकाः, अनन्ता सिद्धाः, तत् एतेनार्थेन गौतम ! एवम् उच्यते-नो संख्येयानि नो असंख्येयानि अनन्तानि ॥ मू० २०९ ॥
टोका-'कइविहा णं भंते' इत्यादि
द्रव्याणि हिं जीवद्रव्याजीवद्रव्यभेदेन द्विविधानि प्रज्ञप्तानि । तत्राल्पवक्तव्यत्वात् पश्चाभिर्दिष्टान्यपि अजीवद्रव्याणि व्याख्यातुमाह-'अजीवव्वाण' गौतम ! असंख्यात नारक है, असंख्यात असुरकुमार देव हैं यावत् असंख्यात स्तनितकुमार हैं । असंख्यात पृथिवीकायिक हैं, यावत असंख्यात वायुकायिक है, अनंतवनस्पतिकायिक हैं। (असंखेज्जा बेई. दिया) असंख्यात दो इन्द्रियवाले जीव हैं। (जाव असंखिज्जा चउरिदिया, असंखिज्जा पंचिदियतिरिक्खजोणिया) यावत् असंख्यात चार इन्द्रियवाले जीव हैं, असंख्यात पांच इन्द्रियवाले तिर्यश्च जीव हैं। (असंखिज्जा मणुस्ला असंखिज्जा वाणमंतरा, असंखिन्जा जोइसिया, असंखिज्जा वेमाणिया) असंख्यात मनुष्य हैं, असंख्यात व्यन्तरदेव हैं, असंख्यात जोतिष्कदेव हैं, असंख्यात वैमानिक देव हैं, (अणता सिद्धा) और अणंत सिद्ध हैं । (से एएणद्वेणं गोयमा ! एवं बुच्चह नो संखिज्जा नो असंखिज्जा, अणंता) इसलिये हे गौतम ! मैं, इसी अर्थ को लेकर ऐसा कहता हूँ कि जीवद्रव्य न संख्यात है, न असे. ख्यात हैं किन्तु अनंत हैं। કુમાર દે છે, યાવત્ અસંખ્યાત સ્વનિતકુમારે છે. અસંખ્યાત પૃથિવીકાયિકે છે યાવત્ અસંખ્યાત વાયુકાયિકે છે, અનંતવનસ્પતિકાયિક છે, (असंखेज्जा बेइंदिया) असभ्यात येन्द्रियाणा छ। छे. (जाव असखिज्जो चउरिदिया असं खिज्जा पंचिंदियतिरिक्खजोणिया) यावत् असभ्यात यार ઈન્દ્રિયોવાળા જીવે છે, અસંખ્યાત પાંચ ઈન્દ્રિયવાળા તિય"ચ જ છે, (अस खिज्जा मणुस्सा असंखिज्जा वाणमंतरा, अस खिज्जा जोइसिया अस खिज्जी वेमाणिया) मसात मनुष्य। छे, असभ्यात ०५२४ो छ, असभ्यात ज्योतिः वो छ, असभ्यात वैमानि: । छे. (अणंता सिद्धा) भने सातसिद्धो छ (से एएणणं गोयमा ! एवं वुच्चइ नो संखिज्जा नो असं खिज्जा अणता) એટલા માટે હે ગૌતમ! હું એજ અર્થના આધારે આ પ્રમાણે કહું છું કે જીવ સંખ્યાત નથી અસંખ્યાત નથી પરંતુ અનંત છે.
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३७२
मनुयोगद्वारसूत्र इत्यादि । अनीवद्रव्याणि-रूपयजीवद्रयारूप्यजीवद्रव्यभेदात् द्विविधानि । तत्रअरूप्यजीवद्रव्याणि धर्मास्तिकायो धर्मास्तिकायस्य देशा धर्मास्तिकायस्य प्रदेशा इत्यादीनि दशविधानि । तत्र धर्मास्तिकायो यद्यपि एकएच, तथापि नयभेदाद स त्रिविधो भवति । संग्रहनयमनेन धर्मास्तिकाय एक एव भवति । व्यवहारनयमतेन तस्यैव धर्मास्तिकायस्य द्विभागत्रिभागादिको बुद्धिपरिकल्पितो देशः । पया-सम्पूर्णो धर्मास्तिकायो जीवादिगत्युपष्टम्भकं द्रव्यमुच्यते, एवमेव तशास्त
भावार्थ-घूत्रकार ने इस सूत्र द्वारा द्रव्यों-के मूलतः कितने प्रकार है ? यह और उन प्रकारों के भी प्रकार कौन २ हैं, यह सब प्रकट किया है । अरूपी अजीव द्रव्य के जो १० प्रकार कहे गये हैं सो पह नय की विवक्षा को लेकर कहे गये हैं। इसका विवेचन इस प्रकार से है-यद्यपि धर्मास्तिकाय मूलतः एक ही द्रव्य है फिर भी संग्रहनय, पवहारनय और ऋजु सूत्रनय इन तीनों नयों के भेद से उसमें भेद आजाता है । इन तीनो नयों का अभिप्राय जुदा-जुदा है-इसलिये संग्रहनय धर्मास्तिकाय एक ही द्रव्य है ऐसा मानता है। व्यवहारनय इस द्रव्यके देश मानता है। और ऋजुत्र नय उसके निर्षिभागरूप प्रदेश मानता है। व्यवहारनय की ऐसी मान्यता है कि जिस प्रकार सम्पूर्ण धर्मास्तिकाय जीव पुद्गल की गति में सहायक-निमित्त-बनता है उसी प्रकार से उसके दो भाग तीन भोग आदि देश भी जीव पुखल की गति में निमित्त होते हैं । इसलिये वे भी पृथक द्रव्य हैं। भाजु
ભાવાર્થ-સૂત્રકારે આ સૂત્ર વડે દ્રવ્યના મૂલતઃ કેટલા પ્રકાર છે? તેમજ તે પ્રકારના પણ ઉપ પ્રકારો કયા કયા છે? આ બધું સ્પષ્ટ કર્યું છે અરૂપી અછવદ્વવ્યના જે ૧૦ પ્રકાર કહેવામાં આવ્યાં છે તે તે નયની વિવક્ષાના આધારે કહેવામાં આવ્યા છે. આનું વિવેચન આ પ્રમાણે છે જે કે ધર્માસ્તિકાય મૂલતઃ એકજ દ્રવ્ય છે છતાંએ સંગ્રહાય, અને બાજુ સૂત્રનય આ ત્રણે નાના ભેદથી તેમાં ભેદ આવી જાય છે. આ ત્રણે નયને અભિપ્રાય જુદે જુદે છે. એટલા માટે સંગ્રહ નય ધર્માસ્તિકાય એકજ દ્રવ્ય છે. એવું માને છે. વ્યવહારનય તે દ્રયના દેશ માને છે. અને જજુ સૂત્રનય તેના નિવિભાગ રૂપ પ્રદેશ માને છે. વ્યવહારનયની એવી માન્યતા છે કે જે પ્રમાણે સંપૂર્ણ ધમસ્તિકાય જીવ પુદ્ગલની ગતિમાં સહાયક-નિમિત્તિ-બને છે. તેમજ તેના બે ભાગ ત્રણ ભાગ વગેરે દેશે પણ જીવ પુદ્ગલની ગતિમાં નિમિત્ત બને છે. એટલા માટે તેઓ પણ પૃથકદ્રવ્ય છે. ઋજુસૂત્રનયની એવી માન્યતા છે કેવલીની બુદ્ધિકલ્પિત જે પ્રદેશરૂપ નિવિભાગ ભાગધર્માસ્તિકાયના છે
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अनुयोगचन्द्रिका टोका सूत्र २०९ द्रव्यस्वरूपनिरूपणम् सुक्ष्टम्भकानि पृथगेव द्रव्याणि । ऋजुसूत्राभिमायेण तु स्वकीयस्वकीयसामर्येन जीवादिगत्युपष्टम्भकाः धर्मास्तिकायस्य प्रदेशा=बुद्धिपरिकल्पिता निर्विभागा भाषाश्च पृथगेव द्रव्याणि । एसम्-अधर्मास्तिकायस्य आकाशास्तिकायस्य च त्रय. बयो भेदा बोध्याः । अद्धासमयस्तु एक एव । निश्चयनयमतेन वर्तमानकाल समयस्यैव सत्वात् अतीतानागतयोस्तु विनष्टत्वेनानुत्पनत्वेन चासत्वात् , अतएवा. अदासमये बुद्धिपरिकरिखता देशप्रदेशा नोक्ताः, वर्तमानकालरूपस्यैकसमयस्य विरंशस्वेन तत्र देशमदेशासंभवात् । इत्थं दशविधान्यरूप्यजीवद्रव्याणि प्ररूपिजानि । तथा-रूप्यजीवद्रव्याणि स्कन्धादिभेदाचतुर्विधानि । तत्र स्कन्धाःम्यगुरुपभृत्यनन्ताणुकपर्यन्ताः । स्कन्धदेशाः स्कन्धस्य द्विभागत्रिमागरूपाः । स्कन्ध, प्रदेशाः-स्कन्धस्यावयवभूना एव निरंशा भागाः । परमाणुपुद्गलाः स्कन्धत्वममाता केवलाः परमाणवः । एते च स्कन्धादयः प्रत्येकमनन्ता इति स्पष्टयतिसूत्रनय की ऐसी मान्यता है कि केवली की बुद्धिकल्पित जो प्रदेशरूप निर्विभाग भाग धर्मास्तिकाय के है वे भी अपनी २ सामर्थ्य से जीव पुदगल की गति में निमित्त होते हैं-इसलिये वे भी स्वतंत्र द्रव्य हैं। इसी प्रकार से अधर्मास्तिकाय और आकाशास्तिकाय के विषय में भी ऐसा ही समझना चाहिये । अद्धासमय एक ही है । निश्चयनय के मत पातमान काल रूप समय का ही सत्व है अतीत अनागत का नहीं क्योंकि अनागत अनुत्पन्न हैं और अतीत विनष्ट हो चुका है। इस. लिये यहां पर देश प्रदेश ये बुद्धि से परिकल्पित नहीं किये गये हैं। क्योकि वर्तमान कालरूप एक समय में निरंशता होने के कारण वहां देश प्रदेश संभावित नहीं होते हैं। स्कंध के दो भाग, तीन भाग आदि देश हैं। व्यणुक से लेकर अनंताणुक पर्यन्त सब स्कंध ही माने તેઓ પણ પિતપતાના સામર્થ્યથી જીવ પુદ્ગલની ગતિમાં નિમિત્ત હોય છે. એટલા માટે તેઓ પણ સ્વતંત્ર દ્રવ્ય છે આ રીતે અધમસ્તિકાય અને આકાશાસ્તિકાયના સંબંધમાં પણ એવું જ જાણી લેવું જાઈએ. અદ્ધાસમય એક જ છે. નિશ્ચયનયના મત મુજબ વર્તમાન કાળરૂપ સમયનું જ સત્વ છે અતીત અનાગતનું નહિ. કેમકે તે અનુત્પન્ન છે અને અતીત વિનષ્ટ થઈ ચૂકેલ છે. એટલા માટે અહીં દેશ, પ્રદેશ આ બુદ્ધિથી પરિકર્પિત કરવામાં આવ્યા નથી. કેમકે વર્તમાન કાલરૂપ એક સમયમાં નિરંશતા હોવાથી ત્યાં દેશ પ્રદેશ સંભવિત થતા નથી. કંધના બે ભાગ, ત્રણ ભાગ વગેરે દેશો છે કયણથી માંડીને અનંતાકપર્યત સર્વે & જ માનવામાં આવ્યા છે.
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३७४
अनुयोगद्वारले 'तेणं मंते !' इत्यदिना । तथा-'जीवद्रव्याण्यप्यनन्तानि बोध्यानि' इति स्पर पति-'जीपदमाणं भंते ! कि संखिज्जा असंखिज्जा अणंता' इत्यादि से एएम. टेणं गोयमा ! एवं वुच्च-नो संखिज्जा नो असंखिज्जा अर्णता' इत्यन्तेन पदसम्हे नेति ॥ सू० २०९॥ _ 'असंखेन्जा णेरड्या असंखेज्जा असुरकुमारा' इत्यादि सामान्येनोक्तम् । तेषां विशेषता प्रमाणं तु नोक्तम् । तत्सरिज्ञानं तु औदारिकादिशरीरविचार एप सिध्यति । तया-प्रौदारिकादिशरीरस्वरूपबोधश्च शिष्याणां संजायते इति मनसि कृत्य प्रस्तुते जीवाजीवद्रव्यविचारे शरीराणां तदुभयरूपत्वात्तानि विचारयितुमुपक्रमते सूत्रकार:___ मूलम्-कइविहा णं भंते! सरीरा पण्णता? गोयमा! पंच
सरीरा पण्णत्ता तं जहा-ओरालिए वेउत्रिए आहारए तेअए कम्मए। णेरइयाणं भंते ! कइ सरीरा पण्णता ? गोयमा! तओ सरीरा पण्णता, तं जहा-उबिए तेअए कम्मए। असुरकुमा. राणं भंते! कह सरीरा पण्णता? गोयमा! तो सरीरा पण्णत्ता, तं जहा-नेउव्विए तेअए कम्मए । एवं तिणि तिणि एए चेष सरीरा जाव थणियकुमाराणं भाणियव्वा । पुढवीकाइयाणं भंते। कह सरीरा पण्णत्ता ? गोयमा! तओ सरीरा पण्णत्ता, तं जहाओरालिए तेयए कम्मए। एवं आउतेउवणस्सइकाइयाणवि जाते हैं। स्कंध के अवयवभूत ही जो निर्विभाग भाग हैं-निरंश भाग हैवे स्कंधप्रदेश है । स्कंधदशा को जो अभीतक प्राप्त नहीं हुए हैं ऐसे जो स्वतंत्र परमाणु हैं, वे परमाणु पुद्गल हैं। ये सब स्कंधादिक प्रत्येक अनंत हैं । जीवद्रव्य भी अनंत है। सू० २०९ ॥ સ્કંધના આયવભૂલ જે નિવિભાગ ભાગ છે,-નિરંશ ભાગ છે, તે અંધ પ્રદેશ છે. સકધદશાને જે હજી પ્રાપ્ત થયા નથી એવા જે સ્વતંત્ર પરમાશુઓ છે તે પરમાણુ પુદ્ગલ છે. આ કંધાદિક પ્રત્યેક અનંત છે. જીવ य ५५ मत छे. ॥ सू० २०६।।
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अनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र २१० औदारिकादिशरीरनिरूपणम् ३७५ एए घेव तिणि सरीरा भाणियव्वा। वाउकाइयाणं भंते! कई सरीरा पण्णता ? गोयमा! चत्तारि सरीरा पण्णत्ता, तं जहाओरालिए वेउठिबए तेयए कम्मए। बेइंदियतेइंदियचउरिंदियाणं भंते कइ सरीरा पगत्ता, गोयमा! तओ सरीरा पण्णत्ता, तं जहा-ओरालिए तेयए कम्मए। पंचिंदियतिरिक्खजोणियाणं जहा वाउकाइयाणं। मणुस्साणं पुच्छा गोयमा! पंच सरीरा पण्णत्ता, तं जहा-ओरालिए वेउविए आहारए तेयए कम्मए। वाणमंतराणंजोइसियाणं वेमाणियाणं जहानेरइयाणं सू०२१०॥ - छाया-कतिविधानि खलु भदन्त ! शरीराणि प्रज्ञप्तानि ? गौतम ! पश्चशरीराणि प्रज्ञप्तानि, तद्यथा-औदारिकम् १ वैक्रियम् २ आहारक ३ तैनसं १ ... . असंख्यात नारक है, असंख्यात असुरकुमार हैं यह बात सामान्य रुप से कही गई है विशेषरूप से इनका प्रमाण तो कहा नहीं है। विशेषरूप से इनके प्रमाण विचार तो औदारिक आदि शरीर के विचार होने पर ही हो सकता है। तथा शिष्यों को औदारिकादिक घरीर के स्वरूप का पोध भी हो जावे, इसी अभिप्राय से सूत्रकार भव औदारिक आदिशरीरों का विचार करते हैं- 'काविहा णं भंते ! सरीरा पण्णत्ता' इत्यादि। - शन्दार्थ-(भते!) हे भदन्त ! (सरीरा काविहा)-शरीर कितने प्रकार के (पण्णत्ता) कहे गये हैं ? (गोयमा) हे गौतम (सरीरा) शरीर (पंच)
અસંખ્યાત નારકો છે, અસંખ્યાત અસુરકુમાર છે, આ વાત સામાન્ય ૨૫માં કહેવામાં આવી છે. વિશેષ રૂપમાં એમનું પ્રમાણ તે કહેવામાં આવ્યું નથી. વિશેષરૂપથી એમના પ્રમાણુ વિષે વિચાર તે ઔદારિક વગેરે શરીરના વિચાર પછી જ સંભવે છે. તેમજ શિષ્યને દારિક શરીરના સ્વરૂપને બધ પણ થઈ જાય આ અભિપ્રાયથી જ સૂત્રકાર હવે દારિક વગેરે AN२ विष पिया२ रे छ. "कइविहा गं भते ! सरीरा पण्णता" इत्यादि ।
हाय-(भंते) 3 बात ! (सरीरा कइविहा) शरीरे खा मारना (पणचा) daiwi मायां १ (गोयमा) ३ गोयम1 (सरीरा) शरीरे (पंच)
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मनुगोगद्वारको कार्मकम् ५. । नैरयिकाणां भदन्त ! कति शरीराणि प्रज्ञप्तानि ? गौतम ! त्रीणि शरीराणि प्रज्ञप्तानि, तद्यथा-वैक्रियं तैजसं कार्मकम् । असुरकुमाराणां भदन्त ! कति शरीराणि प्रज्ञप्तानि ? गौतम ! त्रीणि शरीराणि प्रज्ञप्तानि, तद्यथा-वैक्रिय तेजसं कामकम् । एवं त्रीणि त्रीणि एतान्येव शरीराणि यावत् स्तनितकुमाराणां भणितव्यानि । पृथिवीकायिकानां भदन्त ! कति शरीराणि प्रज्ञप्तान ? गौतम ! त्रीणि शरीराणि प्रज्ञप्तानि, तद्यथा-औदारिकं तैजस कामकम् । एवं अप्तेजो वनपांच प्रकार के (पण्णत्ता) कहे गये हैं । (तं जहा) वे प्रकार ये हैं-(ओरा. लिए) १ औदारिक (वेउविए)२ वैक्रिय (आहारप) ३ आहारक (तेअए) ४ तेजस (कम्मए) ५ कार्मक० (मेरइयाणं भंते ! कह सरीरा पपणत्ता) हे भदंत नारक जीवों के कितने शरीर होते हैं ? (गोथमा) हे गौतम! (तओ सरीरा पण्णता) तीन शीर होते हैं। (तं जहा) वे इस प्रकार से हैं (वेउग्विए तेयए, कम्मए) वैक्रिय, तेजस और कार्मक । (एवं तिणि तिणि एए चेव सरीरा जाव थणियकुमाराणं भाणियन्मा) इसी प्रकार से ये तीन तीन शरीर यावत् स्तनितकुमार तक के देवों का जानना चाहिये । अर्थात् चारों प्रकार के देवों के ये तीन शरीर होते है। (पुढवीकाइयाण भंते ! कइ सरीरा पण्णता ?) हे भदन्त ! पृथिवी. कायिक जीवों के कितने शरीर होते है ? (गोयमा) हे गौतम ! (तओं सरीरा पण्णत्ता) उनके ३ शरीर होते हैं। (तं जहा) वे इस प्रकार से है(ओरालिए तेयए, कम्मए) औदारिक, तैजस और कर्मक-(एवं आउते. ५/य प्रा२ना (पण्णत्ता) उपामा माया छे. (ओरालिए) १ मोहारि (वेतविए) २, वैठिय, (आहारए) 3, माडा२४, (तेजस) ४, तेस (कम्मए) ५, १५० (णेरड्या गं भंते ! कइ सरीरा पण्णत्ता) 3RE ! ना वाना tean शरीर डाय छे! (गोयमा !) 3 गौतम! (तओ सरीरा पण्णत्ता) त्रक्ष शरीश जाय छे. (तं जहा) ॥ प्रभाये थे (वेडब्बिए वेयए कम्मए) वैठिय, तेरस सनम' (एवं तिमि तिणि एए चेव सरीरा जाव थणियकुमाराण भाणियका) मा प्रभाव म य र शरीरे। यावत स्तनितभार सुबीना
ના પણ જાણવા જોઈએ. એટલે કે ચારે ચાર પ્રકારના દેવના પણ એજ या शरीर डाय छे. (पुढवीकाइयाणं भंते ! कह सरीरा पण्णत्ता १) मत! पृथिवीयि ७वाना 3eat AN३॥ जय छ १ (गोयमा ) गौतम ! (तओ सरीरा पण्णत्ता) तेमन शरी। डाय छे. (तं जहा) ते २ मा प्रभार. (बोराकिए वेयए, कम्मए) मो२ि, ते मन म० (एवं
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मानुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र २१० औदारिकादिशरीरनिरूपणम् ३७७ स्पतिकायिकानामपि एतान्येव त्रीणि शरीराणि भणितव्यानि । वायुकानिकानां भदन्त ! कति शरीराणि प्राप्तानि ? चत्वारि शरीराणि प्रज्ञप्तानि, तपथाऔदारिकं वैक्रियं तैनसं कार्मकम् । द्वीन्द्रियत्रीन्द्रियचतुरिन्द्रियाणां भदन्त ! कति शरीराणि प्राप्तानि ? गौतम ! त्रीणि शरीराणि प्रज्ञप्तानि, तद्यथा-औदारिक तैनसं कार्मकम् । पश्चेन्द्रियतिर्यग्योनिकानाम् यथा वायुकायिकानाम् । मनुष्याणां भदन्त ! कति शरीराणि प्रज्ञप्तानि ? गौतम ! पञ्चशरीराणि पज्ञप्तानि, तद्यथा-. वणस्सइकाइयाणऽवि एए चेव तिणि सरीरा भाणियव्या) इसी प्रकार से अप्कायिक, तैजस्कायिक और वनस्पतिकायिक जीवों के भी येही तीन शरीर जानना चाहिये। (वाउकाइघाणं भंते ! कइ सरीरा पण्णता) हे भदन्त ! वायुकायिक जीवों के कितने शरीर होते हैं ? (गोयमा!) हे गौतम ! (चत्तारि सरीरा पण्णत्ता) वायुकायिक जीवों के चार शरीर होते हैं । (तं जहा) वे ये हैं-(ओरालिए, वेउन्धिए, तेयए, कम्मए)
औदारिक, वैक्रिय, तैजस और कार्मक । (वेइंदियतेइंदियचरिदि. यार्ण भंते ! कह सरीरा पण्णता ?) हे भन्दत ! दो इन्द्रियवालों के, तीन इन्द्रियवालों और चार इन्द्रियवाले जीवों के कितने शरीर होते हैं ? (गोयमा !) हे गौतम ! (तभो सरीरा पण्णत्ता) तीन शरीर होते हैं(तं जहा) वे ये हैं-(ओरालिए, तेयए कम्मए) औदारिक, तैजस और • कार्मक । (पंचेंदियतिरिक्खजोणियाणं जहा वाउकाइयाण) पंचेन्द्रियति. पंचों के वायुकायिक जीवों के जैसे चार शरीर होते हैं। (मणुभाउतेउ वणस्सइकाइयाणऽवि एए चेव तिणि सरीरा भाणियव्वा) मा प्रभारी અપ્રકાયિક, તેજ કાયિક અને વનસપતિકારિક જીવના પણ એજ ત્રણ શરીરે ला . (वाउकाइयाणं भते ! कइ खरीरा पण्णत्ता ) 3 ! वायु४यिवान खi N२ ३य छ ? (गोयमा) 3 गौतम! (पत्तारि सरीरा पण्णत्ता) वायुायिः वानी या२ शरी। डाय छे. (तं जहा) ते प्रभारी छ ओरालिए वेरविए, तेयए, कम्मए.) मोहा४ि, वैजय, तेस भने '. बेइंदियतेइदियचउगिदियाणं भते ! कइ सरीरा पण्णत्ता ?) 3 लात ! मे ઈન્દ્રિયવાળા ત્રણ ઈન્દ્રિયવાળા અને ચાર ઈન્દ્રિયવાળા જીના કેટલા શરીરે सोय छ १ (गोयमा !) 3 गीतम! (तओ सरोरा पण्णता) अY शरीर हाय छ. (तं जहा) मा प्रमाणे छे. (ओरालिए, तेयए कम्मए) श्रीहरिश, तेस भने आम, (पंचेदियतिदिक्खजोणियाण जहा वाउकाइयाणं) पयन्द्रियतिय'. आना पायि सवानी २भ यार शरीरे डाय छे. (मणुस्साणं पुच्छा)
अ०४८
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मनुयोगद्वार बौदारिकं वैक्रियम् आहारकं तैजसं कार्मकम् । व्यन्तराणां ज्योतिष्काणां वैमानिकानां यथा नैरयिकाणाम् ।। २१० ॥ . टीका-'कइविहा णं भंते' इत्यादि। - हे भइन्त ! कतिविधानि शरीराणि प्रज्ञप्तानि ? इति गौतमस्वामिनः प्रश्नः। भगवानाह-हे गौतम ! औदारिकवैक्रियाहारकतैजस्सकामकभेदात् पञ्चविधानि शरोराणि सन्ति । तत्र-औदारिकम्-उदारं-तीर्थकरगणधरादि शरीरापेक्षया शेष शरीरेभ्यः प्रधानम् , तदेव औदारिकम् । अथवा-उदारम्सातिरेकयोजनसहस्रमानत्यात शेषशरीरापेक्षया महापमाणं तदेवौदारिकम् । वैक्रियम्-वि-विशिष्टा स्साणं पुच्छा) मनुष्यों के कितने शरीर होते हैं ? (गोयमा ! पंच सरीरा पण्णत्ता) हे गौतम ! मनुष्यों के ५ शरीर होते हैं । (तं जहा) वे इस प्रकार से-(ओरालिए, वेधिए आहारए, तेयए, कम्मए) औदारिक, वैक्रिय, आहारक, तेजस और कार्मक । (वाणमंतराणं जोइसियाणं वेमाणियाणं जहा नेरइयाणं) व्यन्तर देवों के, ज्योतिष्क देवों के और वैमानिक देवों के, नारक जीवों के शरीर के जैसा ही तीन शरीर होते हैं।
भावार्थ-तीर्थंकर गणधर आदि के औदारिक शरीर होता है। इसलिये यह शरीर अन्य शरीरों से उस अपेक्षा प्रधान माना गया है। अथवा उदार शब्द का अर्थ दीर्घकाय है । यह दीर्घकाय ही औदारिक है । यह शरीर वनस्पति के शरीर की अपेक्षा कुछ अधिक एक हजार योजन प्रमाणवाला होता है। अतः शेष शरीरों की अपेक्षा यह सातिरेक योजन सहस्र मानवाला होने के कारण यह दीर्घकायरूप भासाना eai शरी। राय छ १ (गोयमा ! पंच सरीरा पण्णत्ता) हे गौतम ! भनु याना पांय शरी। 1य छे. (त जहा) ते मा प्रभाये छ. (ओरालिए, वेंविर, आहारए, तेयए, कम्मए) मोहरि, लय, माडा२४, तेस भने म. (वाणमंतराणं जोइसियाणं वेमाणियाण जहा नेरइयाणं) व्य.तर देवाना,
તિષ્ક દેના, અને વૈમાનિક દેવનાં, નારક જીવોનાં શરીરની જેમ જ ત્રણ શરીરો હોય છે. - ભાવાર્થ –તીર્થંકર ગણધર વગેરેના ઔદારિક શરીર હોય છે. એટલા માટે આ શરીર બીજા શરીરની અપેક્ષા પ્રધાન માનવામાં આવ્યું છે. અથવા ઉદાર શબ્દોને અર્થ દીર્ઘકાળ છે. આ દીર્ઘકાળ જ દારિક છે. આ શરીર વનસ્પતિના શરીરની અપેક્ષા કંઈક વધારે એક હજાર જન પ્રમાણયુક્ત હોય છે. એથી શેષ શરીરની અપેક્ષા આ સાતિરેક યોજન સહસ્ત્ર માનવાળું હોવાથી આ દીર્ઘકાળ રૂપ માનવામાં આવ્યું છે. વિશિષ્ટ અથવા વિવિધ
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अनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र २१० औदारिकादिशरीरनिरूपणम् ३०९ विविधा वा क्रिया-विक्रिया तस्यां भवं क्रियम् । एतत्तूत्तरवैक्रियावस्थायामेंव लक्षयोजनप्रमाणं भवति, सहजं तु पञ्चधनुःशतप्रमाणमेव, ततः सहजशरीरापैक्षया इदमेव महाप्रमाणम् । आहारकम् किमपि विशिष्टप्रयोजनमवलम्ब्य चतुर्दश(मुनिभिर्यदाहियते-उपादीयते तदाहारकम् । अथवा-आहियन्ते =गृह्यन्ते कवलिनः समीपे सूक्ष्म जीवादयोऽनेनेति आहारकम् । तैजसम्=तेजसो विकारस्तैजसम्-रसाधाहारपाकजननं तेजोनिसर्गलब्धिनिबन्धनं च शरीरम् । कार्मकम् - अष्टविधर्म समुदायनिष्पनमौदारिकादिशरीरनिबन्धनं भवान्तरानुगामिशसरं कामकशरीरम् । इदं हि कर्मणो विकाररूपं कर्मरूपमेव वा बोध्यम् । अत्र प्रथम माना गया है। विशिष्ट अथवा विविध क्रिया का नाम विक्रिया है। इस विक्रिया में जो शरीर होता है, वह वैक्रिय शरीर है। यह शरीर उत्तर विक्रियारूप अवस्था में ही एक लाख योजन प्रमाणवाला होता है। भवधारणीयरूप सहजअवस्था में तो इसका प्रमाण ५००, धनुष का ही रहता है। इसलिये सहजशरीर की अपेक्षा से यही इसकी दीर्घकाय है । किसी भी विशिष्ट प्रयोजन को लेकर केवल चतुर्दश पूर्वधारी मुनियों द्वारा जो शरीर रचा सके उसका नाम आहारकशरीर है। जो शरीर तेजोमय होने से खाये हुए रस आदि आहार के परिपाक हेतु और दीप्ति का निमित्त हो, वह तैजस शरीर है । अष्टविध कर्मसमुदाय से जो निष्पन्न हो औदारिक आदि शरीरों का जो कारण हो, तथा जो जीव के साथ परभव में जावे उसका नाम कार्मण शरीर है अर्थात् तेजस और कार्मण शरीर परभव में साथ रहते हैं । यह ક્રિયાનું નામ વિક્રિયા છે. આ વિક્રિયામાં જે શરીર હોય છે, તે વૈક્રિય શરીર છે. આ શરીર ઉત્તર વિક્રિયારૂપ અવસ્થામાં જ એક લાખ એજન પ્રમાણુ યુક્ત હોય છે. ભવધારણીયરૂપ સહજ અવસ્થામાં તે આનું પ્રમાણ ૫૦૦ ધનુષ્ય જેટલું જ હોય છે. એટલા માટે સહજ શરીરની અપેક્ષા એજ એની દીર્ઘકાય છે. કેઈપણ વિશિષ્ટ પ્રયોજનના આધારે ફક્ત ચતુર્દશ પૂર્વ ધારી મુનિઓ વડે જે શરીરનું નિર્માણ થાય, તેનું નામ આહારક શરીર છે. જે શરીર તેજોમય હોવાથી ભક્ષણ કરેલાં રસ વગેરે આહારના પરિપાકના હતુ અને દીતિનું નિમિત્ત હોય, તે તૈજસ શરીર છે. અષ્ટવિય કર્મ સમુદાયથી જે નિષ્પન્ન હય, હારિક વગેરે શરીરનું કારણ હોય, તેમજ જીવની સાથે પરભવમાં ગમન કરે તેનું નામ કામણ શરીર છે એટલે તે તૈજસ અને કામgશરીર પરભવમાં સાથે રહે છે. આ શરીર કર્મનું વિકાર રૂપ હોય છે
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ફૂટ
अनुयोगद्वारसूत्रे
शरीर कर्म का विकाररूप होता है अथवा कर्मरूप ही होता है । सूत्रकार ने जो सर्व प्रथम औदारिक शरीर का पाठ रखा है, उसका कारण यह है कि 'यह स्वल्प पुद्गलों से निष्पन्न होता है और इसका परिणमन बादररूप से होता है । इसके बाद बहु, बहुतर और बहुतम पुगल परमाणुओं से आगे २ के शरीर निष्पन होते हैं और उनका परिणमन सूक्ष्म, सूक्ष्मतर और सूक्ष्मतम होता है । इस बात को कहने
लिये सूत्रकार ने वैक्रिय आदि शरीरों का क्रम से उपन्यास किया है । इस सब कथन का तात्पर्य यह है कि औदारिक शरीर स्वल्प पुल परमाणुओं से निष्पन्न होता है और उसकी रचना शिथिल होती है । वैकिय शरीर औदारिक शरीर की अपेक्षा असंख्यातगुणे परमाणुस्कंधों से निष्पन्न होता है और वह उसकी अपेक्षा सूक्ष्म होता है। वैक्रियशरीर की अपेक्षा आहारशरीर भी असंख्यात गुणे परमाणुओं से निष्पन्न होता है । अतः वह भी उससे सूक्ष्म होता है । औदारिक की अपेक्षा वैक्रिय में परमाणुओं की सघनता है और वैक्रिय कि अपेक्षा आहारक शरीर में सघनता है । आहारक की अपेक्षा तैजस मैं और तेजस की अपेक्षा कार्मक में । आहारक शरीर जितने पुद्गल
અથવા કમ રૂપ જ હોય છે. સૂત્રકારે જે સ` પ્રથમ ઔદારિકશરીર વિષે પાઠ કહ્યો છે, તેનું કારણ આ પ્રમાણે છે કે આ સ્વલ્પ પુદ્ગલેાથી નિષ્પન્ન દાય છે. અને એનુ પરિણમન ખાદર રૂપથી હાય છે ત્યાર પછી મહુ, બહુતર, અને અહુતમ પુદ્ગલ પરમાણુએથી પછીના શરીરા નિષ્પન્ન થાય
છે. અને તેમનુ પરિણમન સૂક્ષ્મ, સૂક્ષ્મતર અને સૂક્ષ્મતમ હાય છે. આ ભાતને કહેવા માટે સૂત્રકારે વૈક્રિય વગેરે શરીરૈાના ક્રમથી ઉપન્યાસ કર્ચી છે. આ સ` કથનનું તાત્પર્ય આ પ્રમાણે છે કે ઔદારિકશરીર સ્વલ્પ પુર્દૂગલ પરમાણુએથી નિષ્પન્ન થાય છે અને તેની શરીર રચના શિથિલ હાય છે. વૈક્રિયશરીર ઔદારિકશરીરની અપેક્ષા અસખ્યાતગણા પરમાણુ સ્કંધાથી નિષ્પન્ન થાય છે અને તે તેની અપેક્ષા સૂક્ષ્મ હોય છે. વૈક્રિયશરીરની અપેક્ષા આહારકશરીર પણ અસંખ્યાતગણુા પરમાણુએથી નિષ્પન્ન થાય છે. એથી તે પણ તેનાથી સુક્ષ્મ હેાય છે. ઔદારિકની અપેક્ષા વૈક્રિયમાં પરમાણુઓની સઘનતા છે અને વૈક્રિયની અપેક્ષા આહારક શરીરમાં સઘનતા છે; આહાર*ની અપેક્ષા તૈજસમાં અને તૈજસની અપેક્ષા ક્રાકમાં આહારકશરીર જેટલા પુદ્ગલ પરમાણુઓથી નિષ્પન્ન થાય છે, તેની અપેક્ષા અનતગણા પરમાણુઓથી
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भयोगन्द्रिका टीका सूत्र २१० औदारिकादिशरीरनिरूपणम् ३८१ मौदारिकशरीरमुपन्यस्तम् , स्वल्पपुद्गलनिष्पमत्वाद् बादरपरिणामत्वाच । ततश्च बहुबहुतरवहुतमपुद्गलनिष्पनत्वात् सूक्ष्ममूक्ष्मतरसूक्ष्मतमत्वाच्च वैक्रियादि शरीराणां क्रमेगोपन्यासः । इत्थं सामान्येन शरीराणि निरूप्य चतुर्विशतिदण्डके पनि निरूपयति-'णेरइयाणं भंते' इत्यादिना । 'णेरड्या भंते' इत्याद्यास्म्य बाणमंतराणं जोइसियाणं वेमाणियाणं जहा मेरइयाण' इत्यन्तः पदसमूहः पुस्पष्टः ॥ सू० २१ ॥ परमाणुभों से निष्पन्न होता है उसकी अपेक्षा अनन्तगुणे परमाणुओं से कार्मक शरीर निष्पन्न होता है। इसीलिये आगे २ के शरीर सूक्ष्म सूक्ष्मतरादि कहे गये हैं। तैजस और कार्मण ये दो शरीर समस्त संसारी जीवों के होते हैं और इनका 'संबन्ध आत्मा से अनादि का ही एक जीव में एक साथ चार शरीर तक हो सकते हैं। और कम से कम दो पांच शरीर एक साथ नहीं होते हैं। क्योंकि क्रियशरीर
और आहारक शरीर एक साथ नहीं रहते हैं। सूत्रकार ने जो वायुकायिक जीवों के औदारिक वैक्रिय तेजस और कार्मक इन चार शरीरों का विधान किया है, सो औदारिक तैजस और कार्मक शरीर होने में तो कोई शंका जैसी बात ही नहीं । परन्तु यहां जो वैक्रिय शरीर का सद्भाव कहा गया है सो, उसका तात्पर्य ऐसा है कि-'वैक्रियशरीर जन्मसिद्ध और कृत्रिम दो प्रकार का होता है-जन्मसिद्ध वैक्रिय शरीर देव और नारकियों के ही होता है अन्य के नहीं। कृत्रिम वैक्रिय का તેજસશરીર અને તૈજસશરીરની અપેક્ષા અનંતગણ પરમાણુઓથી કામકશરીર નિષ્પન્ન થાય છે. એટલા માટે જ તે પછીના શરીર સૂક્ષ્મ સૂકંમતરાદિ કહેવામાં આવ્યાં છે તૌજસ અને કાશ્મણ આ બને શરીરે બધાં સંસરી છનાં હેય છે અને એમને સંબંધ આત્માથી અનાદિને જ એક જીવમાં એકી સાથે ચાર શરીર સુધી થઈ શકે છે અને ઓછામાં ઓછા બે, પાંચ શરીરે એક સાથે હોતા નથી કેમકે વૈક્રિયશરીર અને આહારકશરીર એકી સાથે રહેતા નથી સૂત્રકારે જે વાયુકાયિક જીવોના ઔદારિક વેકિય, તેજસ અને કામક આ ચાર શરીરનું વિધાન કર્યું છે, તે ઔદારિક તેજસ અને કાર્યકશરીર થવામાં તે કોઈ પણ જાતની શંકા જેવી વાત નથી, પરંતુ અહી જ વૈક્રિયશરીરનો જે સદુભાવ કહેવામાં આવ્યો છે, તે તેનું તાત્પર્ય આ પ્રમાણે છે કે વેકિયશરીર જન્મસિદ્ધ અને કૃત્રિમ બે પ્રકારનું હોય છે. જન્મસિદ્ધ વૈક્રિયશરીર દેવ અને નારકીએમાં જ હોય છે, બીજામાં નહિ
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રે
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अथ शरीरसंख्या पृच्छति
मूळम् - केवइया णं भंते! ओरालिय सरीरा पण्णत्ता, गोयमा ! ओरालि यसरीरा दुबिहा पण्णत्ता, तं जहा- बद्धेलगाय मुक्केगाय । तत्थ णं जे ते बद्वेल्लगा ते णं असंखिज्जा असंखिज्जाहिं उस्सप्पिणी- ओसप्पिणाहिं अवहीरंति कालओ, खेत्तऔ असंखेज्जा लोगा । तत्थ पणं जे ते मुक्केल्लगा तेणं अनंता अणेताहिं उस्सप्पिणीओसप्पिणीहिं अवहीरंति कालओ, खेतओ अनंता लोगा, दव्वओ अभवसिद्धिएहिं अनंतगुणा सिद्धाणं अनंतभागे ॥ सू० २.११॥
छाया - कियन्ति खच मंदन्त ! औदारिकशरीराणि मज्ञानि ? गौतम ! औदारिकशरीराणि द्विविधानि प्रज्ञप्तानि तद्यथा - बद्धानि च मुक्तानि च । तत्र
अनुयोगद्वार
कारण लब्धि है । लब्धि एक प्रकार की शक्ति है जो कुछ ही गर्भजमनुष्यों और तिर्यों में संभावित है। इसलिये ऐसी लब्धि से होनेवाले बैकिय शरीर के अधिकारीगर्भजमनुष्य और तिर्यश्च ही हो सकते हैं। कृतिम वैक्रिय की कारणभूत एक दूसरे प्रकार की लब्धि मानी गई है, जो तपोजन्य न होकर जन्मसिद्ध होती है ऐसी लब्धि कुछ बाहर वायुकायिक जीवों में ही मानी गई है। इसलिये वे भी कृत्रिम वैक्रिय शरीर के अधिकारी हैं। इसीलिये यहां सूत्रकार ने वायुकायिक जीवों मैं ४ शरीर के होने का विधान किया है | सू० २१० ॥
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કૃત્રિમ વૈક્રિયનું કારણુ લબ્ધિ છે. લબ્ધિ એક પ્રકારની શક્તિ છે જે થાડાંક ગજ મનુષ્ય તેમજ તિય "ચામાં જ સભવિત છે એટલા માટે એવી લબ્ધિથી થનારા વૈક્રિયશરીરના અધિકારી ગજ મનુષ્યા અને તિય ચા જ થઈ શકે છે. કૃત્રિમ વૈક્રિયની કારણભૂત એક બીજા પ્રકારની પણ લબ્ધિ માનવામાં આવી છે, જે તપેાજન્ય હાતી નથી પણ જન્મસિદ્ધ હૈાય છે એવી લબ્ધિ કેટલાંક આંદર વાયુકાયિક જીવેામાં જ માનવામાં આવી છે. એટલા માટે તેઓ પણ કૃત્રિમ વૈક્રિયશરીરના અધિકારી છે. એથી જ અહીં સૂત્રકારે વાયુકાયિક જીવામાં જ શરીર હાવાનું વિધાન કર્યુ છે. ાસૂ૦૨૧૦ના
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मासुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र २११ औदारिकादिशरीरसंख्यानिरूपणम् ३८३ खलु यानि तानि बानि तानि खलु असंख्येयानि असंख्येयाभिरुत्सपिण्यवसर्पिणीघिरपहियन्ते कालतः, क्षेत्रतः असंख्येया लोकाः। तत्र खलु यानि तानि मुक्तानि
अब सूत्रकार औदारिक आदि शरीरो की संख्या प्रकट करते हैं'केवइया णं भंते ! इत्यादि।
शब्दार्थ--(केवड्या णं भंते ! ओरालियसरीरा पत्ता १) है भन्दत ! औदारिक शरीर कितने कहे गये हैं ? (गोयमा! ओरालिय सरीरा दुविहा पण्णत्ता) हे गौतम ! औदारिक शरीर दो प्रकार के कहे गये हैं । (तं जहा) वे प्रकार ये हैं-(बद्धेल्लगा य मुक्केल्लगा ) एक बद्ध
और दूसरा मुक्त । (तस्थ गं जे ते बरेल्लगा तेणं असंखिज्जा असं. खिजाहिं उस्सप्पिणीओसप्पिणीहिं अवहीरति कालओ) इनमें जो क्र औदारिक शरीर है वे सामान्य से असंख्यात है। यदि एक २ समय पर एक-एक औदारिक शरीर व्यवस्थापित किया जावे तो असंख्यात उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी के समस्त समयों पर एक २ मौदारिक शरीरस्थापित किये जा सकते हैं। इस प्रकार काल की अपेक्षा असंख्यात हैं। इसका तात्पर्य यह है कि असंख्यात उत्सर्पिणी और असंख्यात अवसर्पिणी काल के जितने समय हैं उतने बद्ध भोदारिक शरीर हैं। असंख्यात उत्सर्पिणी और असंख्यात अय.
હવે સૂત્રકાર ઔદારિક વગેરે શરીરની સંખ્યા પ્રકટ કરે છે– “केवइया णं भंते ! "त्याह
14-(केवइया पं. भंते ! ओसलिय सरीरा पण्णत्ता १)सत! मोहाशरी teai Bामा माव्या छ? (गोयमा ! ओरालियसरीरा विहा पण्णचा) गौतम! महरिशरी२ रन। वामां माया छे. (नहा) ते प्रा। मा प्रमाणे छे. (बद्धेल्लगाय मुक्केल्लगाय) 0
सन भी भुत. (तस्थ णं जे ते बद्धेल्लगा तेणं असंखिज्जा असंबिमाहिं उस्सप्पिणी ओसप्पिणीहिं अबहीति कालओ) मामा रे मोहार शरीर छत સામાન્યથી અસંખ્યાત છે. જે એક એક સમય પર એક એક દારિકશરીર વ્યવસ્થાપિત કરવામાં આવે તે અસંખ્યાત ઉત્સર્પિણ અને અવસર્પિણના સમસ્ત સમયે પર એક એક ઔદારિક શરીર સ્થાપિત કરી શકાય છે. આ રાતે કાળની અપેક્ષા અસંખ્યાત છે આનું તાત્પર્ય આ પ્રમાણે છે કે અસં. અયાત ઉત્સર્પિણી અને અસંખ્યાત અવસર્પિણી કાલના જેટલા સમય છે તેટલાં બદ્ધ ઔદારિક શરીરે છે. અસંખ્યાત ઉત્સર્પિણી અને અસંખ્યાત
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૨૦૦
मनुयोगद्वार
तानि खलु अनन्तानि अनन्ताभिः उत्सर्पिण्यव सपिणीभिर पहियन्ते कालतः, क्षेत्रतः अनन्ताः लोकाः, द्रव्यतः अभवसिद्धिकेभ्योऽनन्तगुणानि, सिद्धानाम् अनन्तभागे ॥ ० २११ ॥
सर्पिणी कालके, समय असंख्यात ही होते हैं इसलिये बद्ध औदारिक शरीर भी असंख्यात ही हैं । यह बद्ध औदारिकशरीरों का प्रमाण निरूपण काल की अपेक्षा से किया गया जानना चाहिये ।
अत्र क्षेत्र की अपेक्षा से औहारिक शरीर का प्रमाण सूत्रकार प्रकट करते हैं
(खेलओ असंखेज्जा लोगा) क्षेत्र की अपेक्षा बद्ध औदारिक शरीर असंख्यात लोक प्रमाण हैं- इसका तात्पर्य यह है 'असंख्यात प्रदेशारमक एक एक अपनी २ अवगाहना में यदि एक एक शरीर व्यवस्थास्थित किया जावे तो, उन शरीरों से असंख्यात लोक भर जाते हैं । यदि इस बात को यों समझाया जायें कि-'एक-एक नभःप्रदेश में एक एक शरीर रखा जावे तब भी उनसे असंख्यात लोक भर जाते है- अर्थात् एक एक नभःप्रदेश में क्रमशः रखने पर भी वे बद्ध औदारिक शरीर इतने और बचे रहते हैं कि- 'जिन्हे क्रमशः एक-एक प्रदेश पर रखने के लिये असंख्यात लोकों की आवश्यकता होती है। इतने लोक मिलने पर ही वे क्रमशः यदि एक २ प्रदेश पर रखे जावेઅવસર્પિણી કાલના સમયેા અસખ્ય,ત જ ડાય છે એટલા માટે ખદ્ધ ઔદા કિશરીર પણ અસ"ખ્યાત જ છે. આ બદ્ધ ઔદારિક શીરાનુ' પ્રમાણુ નિરૂ પશુ કાલની અપેક્ષાથી કરવામાં આવેલું છે, આ પ્રમાણે જાણવું જોઇએ હવે ક્ષેત્રની અપેક્ષાથી ઔદારિક શરીરનું પ્રમાણ સૂત્રકાર પ્રગટ કરે છે—
(खेत्तओ असंखेशा लोगा) क्षेत्रनी अपेक्षा मद्ध मोहारिक्शरीर असખ્યાત લેક પ્રમાણ છે, આનું તાત્પર્ય એ પ્રમાણે છે કે અસ ંખ્યાત પ્રદે શાત્મક એક એક પાંતપાતાની અવગાહનામાં જો એક એક શરીર વ્યવસ્થાપિત કરવામાં આવે તા, તે શરીરેથી અસંખ્યાત લેકે। ભરાઈ लय है. આ વાતને આ રીતે સમજાવવામાં આવે કે એક એક નભ પ્રદેશના એક એક શરીર મૂકવામાં આવે. તે પણ તેનાથી અસંખ્યાત લેકે ભરાય જાય છે. એટલે કે એક એક નભઃપ્રદેશમાં ક્રમશ: મૂકવાથી પણ તે બદ્ધ ઔદારિક શરીર એટલાં બધાં ખાી રહે છે કે, જેમને ક્રમશઃ એક એક પ્રદેશ પર મૂકવા માટે અસખ્યાત લેાકાની આવશ્યકતા હાય છે આટલા લોકો પ્રાપ્ત થઈ શકે અને તે ક્રમશઃ એક એક પ્રદેશ ઉપર મૂકવામાં આવે તે જ તે પુરિત થઈ શકે તેમ છે.' તેા આનાથી શી હાનિ છે ?
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अनुयोगवन्द्रिका टीका सूत्र २१० औदारिकादिशरीरसंख्यानिरूपणम् ३८५ तब कहीं वे पूरे जा सकते हैं तो क्या हानि है ? उत्तर-सिद्धान्त की प्ररूपणा ऐसी नहीं है। यह कालकी अपेक्षा बद्ध औदारिक शरीरों का प्रमाण कहा गया है। 'तत्थ पं जे ते मुक्केल्लगा तेणं अणंता अणंताहिं उस्सपिणी ओसपिणोहिं अवहीरंति कालओ) जो मुक्त औदारिक शरीर है वे सामान्य से अनंत हैं । काल की अपेक्षा अनंत हैं। इस को छोडने में अनंन उत्सर्पिणी और अवस पिणी काल व्यतीत हो जाता है । तात्पर्य इसका यह है कि मुक्त औदा. रिक शरीरों में से यदि एक एक समय में एक २ शरीर का अपहार किया जाये तो, अनंत उत्सर्पिणी अश्वसर्पिणी काल में उन सब का अपहार हो सकता है। इससे यह बात साबित होती है कि-'अनंत उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी काल के जितने समय हैं उतने मुक्त औदा. रिक शरीर हैं। यह काल की अपेक्षा मुक्त औदारिक शरीर के प्रमाण का कथन है। (खेत्तओ अणसा लोगा) अब सूत्रकार क्षेत्र की अपेक्षा मुक्त औदारिक शरीरों के प्रमाण का कथन करते हैं-इसमें वे प्रकट करते हैं। की मुक्त औदारिक क्षेत्र की अपेक्षा भी अनंत लोकप्रमाण हैं। (दवाओ अभयसिद्धेहि अनंतगुणा सिद्धाणं अणंतभागे) तथा अभव्य जीव द्रव्य की जितनी संख्या है, उससे उनकी संख्या अनंत गुणी हैइसका तात्पर्य हैं की-'उनकी संख्या सिद्धों के अनंतले भाग प्रमाण हैं ।
ઉત્તર-સિદ્ધાન્તની પ્રરૂપણ એવી નથી આ કાળની અપેક્ષા બદ્ધ દા. २४ शरीरानु प्रमाण वामां माव्यु छे. (तत्थ णं जे ते मुक्केल्लगा ते णं अणतो अणताहिं उत्सप्पिणीओसप्पिणीहिं अवहीरति कालओ) २ भुरत मोहाરિક શરીરો છે તે સામાન્યથી અનંત છે કાળની અપેક્ષા અનંત છે એના પરિત્યાગ અનંત ઉત્સર્પિણ અને અવસર્પિણી કાળ પસાર થઈ જાય છે. તાત્પર્ય આ પ્રમાણે છે કે મુક્ત ઔદ્યારિક શરીર શેમાંથી જે એક એક સમયમાં એક શરીરનો અપસ્કાર કરવામાં આવે તે અનંત ઉત્સર્પિણ અવસર્પિણી કાળમાં તે સર્વનો અપહાર થઈ શકે છે. આનાથી આ વાત સિદ્ધ થાય છે. કે અનંત ઉપિણી અને અવસર્પિણી કાળના જેટલા સમયે છે તેટલા મુક્ત દારિક શીરો છે, આ કાળની અપેક્ષા મુક્ત દારિક શરીરનું प्रभा ४थन छ. (खेत्तओ अणंता सो) सूना नी म भुत
દારિક શરીરના પ્રાણનું કથન કરે છે તેમાં તેઓ શ્રી એ પ્રકટ કરે છે કે મુક્ત ઔદારિક ક્ષેત્રની અપેક્ષા પણ અંત લોક પ્રમાણ છે. (સૂરજો. अभवसिद्धिएहि अनंतगुणा सिद्वानं आत-बागे) ते अभय द्रव्यनी જેટલી સંખ્યા છે, તેથી તેમની સંખ્યા અનંતગણું છે. આનું તાત્પર્ય એ છે કે તેમની સંખ્યા સિદ્ધોના અનંતમા ભાગ પ્રમાણ છે. '
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अनुयोगद्वारले टीका- केवइयाणं भंते' इत्यादि।
कियन्ति खलु भदन्त ! औदारिकशरीराणि प्रज्ञप्तानि ? उत्तरयति-गौतम ! औदारिकशरीराणि बद्धमुक्तभेदेन द्विविधानि प्रज्ञप्तानि । नन्वत्र औदारिकशरीरसंख्या पृष्टा, तत्र बद्धमुक्तेति तद्वैविध्यकथनममस्तुतमिति चेदाह-बदमुतेति द्विविधस्यापि औदारिकशरीरस्य पृथक पृथक् संख्यामदर्शनाय तथोक्तमिति नोऽप्रस्तुततत्वचिन्ताऽत्र कार्येति । इदं बद्धत्वमुक्तत्वविशिष्टौदारिकादिशरीरप्रमाणं कचिद् द्रव्येण=अभव्यादिना वक्ष्यते, कचित्तु क्षेत्रेण प्रतरादिना, कचित्तु कालेन समयावलिकादिना भावस्थात्र द्रव्यान्तर्गतत्वेन विवक्षणाद् भावेन प्रमाणं
भावार्थ:--इस सूत्रद्वारा सूत्रकारने औदारिकशरीरों की संख्या कही है-उसमें उन्होंने यह स्पष्ट किया है कि-'औदारिक शरीर बद्ध
और मुक्त के भेद से दो प्रकार के होते हैं। यहां पर प्रकार कहने पर ऐसी आशंका नहीं करनी चाहिये-कि 'पूछी गई संख्या और उत्तर दिया गया प्रकार है। क्योंकि सूत्रकार ने जो बद्ध और मुक्त ये दो प्रकार के भेद औदारिकोदि शरीरों के कहे हैं, सो इस कथन का उनका यह प्रयोजन है कि-'वे बद्ध और मुक्त की भी पृथक २ संख्या कहेंगे। सो यह बद्ध, मुक्त औदारिकादिकशरीरों की संख्या वे कहीं द्रव्य सेअभव्यादि राशि से, कहीं क्षेत्र से-प्रतर आदि से और कहीं काल से समय आवलिका आदि से, प्रकट करेंगे। भाव की बात जो यहां नहीं आई है, उसका कारण यह है-'भाव द्रव्य के अन्तर्गत ही विव.
ભાવાર્થ-આ સૂત્ર વડે સૂત્રકારે ઔદારિક શરીરની સંખ્યા કહી છે, તેમાં એ વાત સ્પષ્ટ કરવામાં આવી છે કે દારિકશરીર બદ્ધ તેમજ મુકતના ભેદથી બે પ્રકારના હોય છે. અહીં પ્રકારની ચર્ચા કર્યા પછી તે આ જાતની આશંકા થવી ન જોઈએ કે “પૂછવામાં આવ્યું છે સંખ્યા વિષે અને જવાબ આપવામાં આવ્યું છે. પ્રકારના સંબંધમાં કેમકે સૂત્રકારે બદ્ધ અને મુકત આ બે પ્રકારના ભેદે ઔદ્યારિકાદિ શરીરના કહ્યા છે. તે આ કથનથી તેમનું એ પ્રજન છે કે “તે બદ્ધ અને રકતની પણ જુદી જુદી સંખ્યા કહેશે તે આ બદ્ધ, મુકત ઔદારિક શરીરોની સંખ્યા કેટલાક સ્થાને દ્રવ્યથી, અભવ્યાદિ, રાશિથી કેટલાક સ્થાને ક્ષેત્રથી પ્રતર વગેરેથી અને કેટલાક સ્થાને કાળથી સમય આવલિકા વગેરેથી પ્રકટ કરશે ભાવની વાત છે અહીં સ્પષ્ટ કરવામાં આવી નથી, તેનું કારણે આ પ્રમાણે છે કે ભાવ દ્રવ્યમાં જ વિવક્ષિત થઈ ગયેલ છે. એથી અહી તેની અપેક્ષાએ
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अनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र २१० औदारिकादिशरीरसंख्यानिरूपणम् ३८७ न वक्ष्यति तत्र बद्धानामौदारिकशरीराणां कालतः क्षेत्रतश्च मानं निरूपयति'तत्थ णं जे ते बरेलगा' इत्यादिना । नारकाणां देवानां च वैक्रियशरीरत्वान तेषां बद्धान्यौदारिकशरीराणि सन्ति, अवस्तियङ्मनुष्या एव तथाविधकर्मोदयात् बद्धौदारिकशरीरभाजो भवन्ति । तानि सर्वाणि समानान्यतोऽसंख्यातानि सन्ति । तदसंख्येयं कियदिति दर्शयितुमाह-'असंखेज्जाहि' इत्यादि । यदि पतिसमयमेकैकं शरीरमपहियते तदाऽसंख्येयोत्साण्यवसर्पिणीभिस्तानि सर्वाणि शरीराण्यपहियन्ते इति, असंख्येयामूत्सपिण्यवसर्पिणीषु यावन्तः समया भवन्ति तावन्ति बद्धान्यौदारिकशरीराण्युपलभ्यन्ते इति भावः । इदं हि कालतो मानं बोध्यम् । क्षेत्रतस्तु तन्मानं निरूयति-खेतो असंखेज्जा लोगा' इति । तानि शरीराणि क्षेत्रतोऽसंख्येयलोकपरिमितानि सन्ति । अत्रेदं बोध्यम्-एकैकस्यामक्षित हो गया है-इसलिये यहां उसकी अपेक्षा से उनकी संख्या प्रकट नहीं की जावेगी। 'बद्ध का तात्पर्य है-'ग्रहण किये गये। और 'मुक्त' का तात्पर्य है-'छोड दिये गये।' अर्थात् मनुष्य और तियश्चों के द्वारा जो औदारिक शरीर ग्रहण किये जा चुके हैं और पृच्छा समय में भी जो जीवों के साथ सम्बद्ध हैं वे सय औदारिक शरीर बद्ध है अर्थात् वर्तमान में मनुष्य और तिर्यंचों का जो घृत स्थूल शरीर है. वह बद्ध और औदारिक शरीर है। यहां मनुष्य और तिर्यश्च कहने का यह तात्पर्य है कि-'औदारिक शरीर, औदारिक कर्म के उदय से इन्हीं जीवों के होता है, अन्य देव नारकी जीवों के नहीं। क्योंकि उनके तो तैजस कार्मण और वैक्रिय शरीर ही होता है।
शंका--जिस प्रकार बद्ध औदारिक शरीर का प्रमाण क्षेत्र की अपेक्षा असंख्यात लोक कहा गया है और उसे यों समझाया गया તેમની સંખ્યા પ્રકટ કરવામાં આવશે નહિ. “બદ્ધ”નું તાત્પર્ય છે “ ગ્રહણ કરવામાં આવેલા” અને “મુકત ”નું તાત્પર્ય છે “ત્યજાયેલા એટલે કે મનુષ્ય અને તિય વડે જે ઔદારિક શરીર ગ્રહણ કરવામાં આવ્યાં છે અને પૃચ્છા સમયમાં પણ છે જેની સાથે સંબદ્ધ છે. તે સર્વે ઔદારિક શરીર બદ્ધ છે, એટલે કે વર્તમાનમાં મનુષ્ય અને તિય ચાના ધારણ કરેલા જે સ્કૂલ શરીર છે તે બદ્ધ અને ઔદારિક શરીરે છે. અહીં મનુષ્ય અને તિર્યંચના પાઠનું તાત્પર્ય આ પ્રમાણે છે કે ઔદારિક શરીર, ઔદારિક કર્મના ઉદયથી એજ જીવેના જ હોય છે. બીજા દેવ નારકી છના નહિ કેમકે તેમના તે તૈજસ કામણ અને વૈક્રિયશરીર જ હોય છે,
શંકા–જેમ બદ્ધ દારિક શરીરનું પ્રમાણ ક્ષેત્રની અપેક્ષા અસં. ખ્યાત લોક કહેવામાં આવ્યું છે અને તેને આ રીતે સમજાવવામાં આવ્યું
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अनुयोगद्वारसूत्रे संख्येयपदेशात्मिकायर्या स्वकीयस्वकीयादगाहनायां यधे कैकं शरीरं व्यवस्थाप्यते तदा तैः शरीरैरसंख्येया लोका भ्रियन्ते, यदिचकैकस्मिनभःप्रदेशे एकैकं शरीरं व्यवस्थाप्यते तदाऽपि असंख्येया लोका भ्रियन्ते, इत्थं ननु शरीरस्य एकैकपदेशावगाहना कथं नोक्ता? इति चेदाह-केरलं शरीरस्य जघन्यतोऽप्यसंख्येयप्रदेशावगाहित्वादेकस्मिन् प्रदेशेऽधगाहः सिद्धान्ते निषिद्ध इति नेत्थमुक्ता । असत्कल्पनयैव मुच्यतां को दोपः? नास्ति कोऽपि दोषः, परन्तु सिद्धान्तसम्मतप्रकाहै कि-'असंख्यात प्रदेशात्मक एक एक अपनी २ अवगाहना में यदि एक एक शरीर व्यवस्थापित किया जावे तो, उन शरीरों से असंख्यात लोक भर जाते हैं । तो इस विषय को इस प्रकार क्यों न समझाया जावे कि- यदि आकाश के एकप्रदेश पर एक २ औदारिक शरीर स्थापित किया जावे तो उनसे असंख्यात लोक भर जाते हैं। यह कल्पना सीधी और सरल है तथा इससे उनका क्षेत्र प्रमाण भी जल्दी से समझ में आ जाता है ।
उत्तर--इस प्रकार की कल्पना सिद्धान्त निषिद्ध है। क्योंकि सिद्धान्त में एक शरीर की कम से कम अवगाहना लोकाकाश के असंख्यातवें भाग में कहीं गई है । एक २ प्रदेश में नहीं। और लोका. काशका असंख्यातवां भाग भी असंख्यात प्रदेशात्मक होता है । ऐसा कहा गया है । इस कारण इस प्रकार की कल्पना को स्थान नहीं दिया है ।
शंका--असत्कल्पना से यदि ऐसी प्ररूपणा समझाने के लिये की .. जावे तो क्या दोष ? - છે કે “અસંખ્યાત પ્રદેશાત્મક એક એક પોતપોતાની અવગોહનામાં જે એક
એક શરીર વ્યવસ્થાપિત કરવામાં આવે તો તે શરીરથી અસંખ્યાત લેકો ભરાઈ જાય છે. તે આ વિષયને આ રીતે કેમ ન સમજાવવામાં આવે કે- આકાશના એક પ્રદેશ પર એક એક ઔદારિકશરીર પ્રસ્થાપિત કરવામાં આવે તે તેનાથી અસંખ્યાત લોકે પૂરિત થઈ જાય છે. આ કલ્પના સીધી તેમજ સરલ છે તથા આનાથી તેમનું ક્ષેત્રમાણ પણ શીવ્રતાપૂર્વક સમજમાં આવી જાય છે.
ઉત્તર-આ જાતની કલ્પના સિદ્ધાન્તથી નિષિદ્ધ છે. કેમકે સિદ્ધાન્તમાં એક શરીરની એાછામાં ઓછી અવગાહના કાકાશના અસંખ્યાતમાં ભાગમાં કહેવામાં આવી છે. એક એક પ્રદેશમાં નહી અને કાકાશને અસંખ્યાતમો ભાગ પણ અસંખ્યાત પ્રદેશાત્મક હોય છે. આમ કહેવામાં આવ્યું નથી.
શંકા-અસત્કલ્પનાથી જે એવી પ્રરૂપણું સમજાવવા માટે કરાવવામાં આવે તે આમાં શ દે છે?
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अनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र २१० औदारिकादिशरीरसंख्यानिरूपणम् ३८९ रेण प्ररूपणा चेदुपलभ्यते तर्हि असत्कल्पनया प्ररूपणा अनावश्यकीत्यसत्कल्पना नाश्रिता । ननु औदारिकशरीरिणां मनुष्यतिरश्चामनन्तत्वात्तेषां शरीराण्यपि अन नानि वक्तव्यानि कथमसंख्येयान्युक्तानि ? इति चेदाह-प्रत्येकशरीरिणामसंख्येयत्वात्तेषां शरीराण्यपि असंख्यातानि । साधारणशरीरिणस्त्वनन्ताः, किन्तु तेषामेकैक जीवस्य एकैकं शरीरं नास्ति, अपि तु अनन्तानामनन्तानां जीवानामेकै शरीरम् , इत्यत औदारिकशरीरिणामनन्येऽपि शरीरापसंख्यातान्येव भवन्तीति ।
अथ मुनान्यौदारिकशरीराणि प्ररूपयति-तत्थ णं जे ते मुक्केल्लगा' इत्यादि । भवान्तरसंक्रमणे मोक्षगमनकाले वा जीवः यान्यौदारिकशरीराणि मुक्तानि तान्यनन्तापि भवन्ति । अनन्तान्यपि अनन्तानि सन्ति, अतो न ज्ञायते
उत्तर-दोष तो कुछ भी नहीं है । परन्तु सिद्धान्त सम्मत प्रकार से प्ररूपणा उपलब्ध होती है तो असत्कल्पना से प्ररूपणा करना अनावश्यक है।
शंका--औदारिक शरीरवाले, मनुष्य और तिर्यञ्च दोनों मिलकर अनंत हैं, इसलिये औदारिक शरीर भी अनंत ही कहना चाहिये। असंख्यात क्या कहे ?
उत्तर--प्रत्येक शरीरी असंख्यात हैं। इसलिये उनके शरीर भी असंख्यात हैं । यद्यपि साधारण शरीरी अनंन हैं, फिर उनमें एक २ जीव का एक २ शरीर जुदा जुदा नहीं है, किन्तु अनंत अनंत जीवोंएक एक ही शरीर होता है। इसलिये औदारिक शरीरी अनंत होने पर भी औदारिक शरीर असंख्यात ही होते हैं। भवान्तर में संक्र. मण करने पर अथवा मोक्ष गमन करने पर जीवों के द्वारा जो औदा
ઉત્તર-દોષ તે કોઈ પણ જાતનો નથી પરંતુ સિદ્ધાન્ત સમ્મત પ્રકારથી જ્યારે પ્રરૂપણ ઉપલબ્ધ હોય છે તે અસત્કલ્પનાથી પ્રરૂપણ કરવી मावश्य छ
શંકા-દારિક શરીરવાળા, મનુષ્ય અને તિર્યંચ અને અનંત છે. આથી દારિક શરીર પણ અનંત છે, આમ કહેવું જોઈએ અસંખ્યાત શા માટે કહેવામાં આવે ?
ઉત્તર– દરેકે દરેક શરીરી અસંખ્યાત છે એટલા માટે તેમાંના શરીર પણ અસંખ્યાત છે. જો કે સાધારણ શરીરી અનંત છે, અને તેમાં એક એક જીવનું એક એક શરીર જુદું જુદું નથી અનંત અનંત જીવોના એક એક જ શરીર હોય છે. એટલા માટે દારિક શરીરી અનંત હોવા છતાંએ દારિક શરીર અસંખ્યાત જ હોય છે ભવાન્તરમાં સંક્રમણ કરવાથી અથવા
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अनुयोगद्वारसूत्र यदिदमनन्तं कियत् ? अतः कालादिभिस्तत्ममाणं निरूपयति-तेषु मुक्तशरीरेषु प्रतिसमयमे कैकशरीरापहारे अनन्ताभिरुत्सपिणीभिस्तान्यपहियन्ते कालतः। अनन्तामूत्सपिण्यवसर्पिणीषु यावन्तः समया भवन्ति, तावन्ति मुक्तान्यौदारिकशरीराणि कालो बोध्यानीति भावः । क्षेत्रतः अनन्ता लोका:-क्षेत्रमाश्रित्य मुक्तान्यौदारिकशरीराणि अनन्तानां लोकपमाण खण्डानां प्रदेशराशितुल्यानि बोध्यानि। तथाद्रव्यतः द्रव्यमाश्रित्य अभवसिद्धिकेभ्यः-अभव्यजीवद्रव्यसंख्यातोऽनन्तगुणानि, सिद्धानामनन्तमागे-सिद्धजीवसंख्यायास्त्वनन्तभागवर्तीनि ।
ननु यः सम्यक्त पूर्व प्रतिपनम् , पुनस्तैमिथ्यात्वं पतिपन्नं ते हि प्रतिपतितसम्यग्दृष्टयः पोच्यन्ते, तेऽप्यभवसिद्धि केभ्योऽनन्तगुणाः सिद्धानां चानन्तभागवर्तिनो भवन्तीति प्रज्ञापनामहादण्डके पठ्यते, तत्किमेतानि मुक्तान्यौदारिकशरीराणि तत्तुल्यानि भवन्ति ? इति चेदाह-यघेतानि तत्समसंख्यकानि भवेयुस्तदा रिक शरीर छोडे जाते हैं, वे मुक्त औदारिक शरीर हैं, और ये मुक्त
औदारिक शरीर अनंत हैं । काल की अपेक्षा मुक्त औदारिक शरीर अनन्त उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी के जितने समय होते हैं उतने हैं। क्षेत्र की अपेक्षा अनंत लोक प्रमाण खंडों की प्रदेश राशि के तुल्य-हैं। द्रव्य की अपेक्षा अभव्यजीव द्रव्य की संख्या से अनंतगुणे और सिद्ध भगवान् के अनंतवें भाग हैं।
शंका--जिन जीवों ने पहिले सम्यक्त्व प्राप्त कर लिया और बाद वे मिथ्यादृष्टि हो गये, ऐसे जीव 'पडिवाई' प्रतिपतित सम्यग्दृष्टि कहे गये हैं । इन जीवों की भी संख्या अभवमिद्धिकों से अनंतगुणी
और सिद्ध भगवान से असंख्यातवें भाग है ऐसी प्ररूपणा महादण्डक में की गई है । तो क्या ये मुक्त औदारिक शरीर इन्ही के तुल्य होते हैं ? મક્ષ ગમન કર્યા બાદ છ વડે જે ઔદારિક શરીરે ત્યજી દેવામાં આવે છે તે મુક્ત ઔદારિક શરીરે છે. અને આ મુકત ઔદારિક શરીરે અનન્ત છે કાળની અપેક્ષાએ મુક્ત દારિક શરીર અનન્ત ઉત્સર્પિણ અને અવસપિન જેટલા સમયે હોય છે, તેટલા છે ક્ષેત્રની અપેક્ષા અનંત લેક પ્રમાણ ખંડોની પ્રદેશ રાશીની તુલ્ય છે. દ્રવ્યની અપેક્ષા અભવ્ય જીવો દ્રવ્યની સંખ્યાથી અનંતગણ અને સિદ્ધ ભગવાનના અનંતમા ભાગે છે.
શંકા–જે જીવે એ પહેલાં સમ્યકત્વ પ્રાપ્ત કર્યું છે અને ત્યાર બાદ તે भिध्यादृष्टि ४ गया छ, मेवा वो 'पडिवाइ' प्रतिपतित सभ्यष्ट કહેવામાં આવ્યાં છે. આ જીવની પણ સંખ્યા અભાવસિદ્ધિકોથી અનંતગણી અને સિદ્ધ ભગવાનથી અસંખ્યાતમા ભાગની છે એવી પ્રરૂપણું મહાદંડકમાં કહેવામાં આવી છે, તે શું આ મુક્ત ઔદારિકશરીર એમના જ તુલ્ય હોય છે ?
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मनुषोगचन्द्रिका टीका सूत्र २१० औदारिकादिशरीरसंख्यानिरूपणम् ३९१ तान्यप्यत्र सूत्रे निर्दिष्टानि स्युः, न च तानि निर्दिष्टानि दृश्यन्ते, अत एतानि
कान्यौदारिकशरीराणि प्रतिपतितसम्यग्दृष्टिराश्यपेक्षया कदाचिद् हीनानि कदाचित्तुल्यानि कदाचिदधिकानि वा भवन्तीति बोध्यम् । ननु जीवैः परित्यक्ता. नामौदारिकशरीराणामानन्त्यं यदुक्तं तत् कथं संगच्छते ? यद्येतानि यानि इमशानगतानि अक्षतानि तिष्ठन्ति तानि गृोरन् , तर्हि तेषामनन्तकालावस्थानाभावात् स्तोकत्वादानन्त्यं नास्ति । अथ चेद्यानि खण्डीभूयपरमाण्वादिभावेन परिणामान्तरापन्नानि तानि गृह्येरन् तर्हि नैतादृशः कश्चित् पुद्गलोऽस्ति, योऽतीता
उत्सर-यदि ये उनकी समसंख्यावाले होते तो उनके जैसा उनका भी इस मूत्र में निर्देश होता परन्तु यहां सूत्र में उनका निर्देश तो दिखता नहीं है-इसलिये यह जानना चाहिये कि- ये मुक्त
औदारिक शरीर प्रतिपतितसम्यग्दृष्टियों की राशि की अपेक्षा से कदा. चित् हीन, कदाचित् तत्तुल्य और कदाचित् अधिक भी होते हैं। __ शंका--जीवों द्वारा परित्यक्तरूप मुक्त औदारिक शरीरों को जो आप अनंत कह रहे हैं-वह किस अपेक्षा से कह रहे है ? क्या जो शरीर श्मशान गंत होकर अक्षत हैं, उनकी अपेक्षा से आप उनमें अनंतता कह रहे हैं ? यदि हां कहा जाय तो यह बात संभवित नहीं होती, क्योंकि उनमें अनंतकाल तक रहना संभवता ही नहीं है-वे तो स्तोककाल तक ही रहते हैं-इसलिये उनमें स्तोकता आने से अनंतता संभवित नहीं होती? यदि ऐसा कहा जाय कि-'जो औदारिक शरीर खंड
ઉત્તર–જે આ તેમની સાથે સમસંખ્યા ધરાવતા હોય તે તેમની જેમ તેમનું પણ આ સૂત્રમાં કથન કરવામાં આવ્યું હતું પરંતુ અહીં સૂત્રમાં તેમનું કથન તે જોવામાં આવતું નથી. એટલા માટે એમ સમજી લેવું જોઈએ કે મુક્ત ઔદારિક શરીરો પ્રતિપતિત સમ્યગૂદષ્ટિઓની રાશિની અપેક્ષાએ કદાચિત હીન, કદાચિત તતુલ્ય અને કદાચિત વધારે પણ હોય છે.
શકા- વડે પરિત્યકત રૂ૫ મુકત ઔદારિક શરીરને જે તમે અનંત બતાવી રહ્યા છે, તે કઈ અપેક્ષાએ બતાવી રહ્યા છે? શું જે શરીર મશાનગત થઈને અક્ષત છે, તેમની અપેક્ષાએ આપ તેમનામાં અનંતતા કહી રહ્યા છે ? જે આપ “હા” કહે તે આ વાત સંભવિત નથી કેમકે તેમનામાં અનંત કાલ સુધી રહેવું સંભવિત નથી તેઓ તે સ્તક કાલ સુધી જ રહે છે. એથી તેમનામાં સ્તકતા આવવાથી અનંતતા સંભવિત નથી? આમ કહેવામાં આવે કે જે દારિક શરીરે ખડખંડ થઈને પરમાણુ
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अनुयोगद्वारसूत्रे यामद्धायामेकैकनीवेनौदारिक शरीररूपतयाऽनन्तराः परिणमय्य न मुक्तः, ततः सर्वस्यापि पुद्लास्तिकायस्य ग्रहणमापयेत, एवं च सत्य मध्येभ्योऽनन्तगुणानि सिद्धानामनन्तमागे इत्येतद्विरुध्येत, सर्वपुद्गलास्तिकायगतपुद्गलानां सर्वजी वेभ्योऽप्यनन्तानन्तगुणत्वादिति चेदाह-अत्र उक्तपक्षद्वयं न विवक्षितम् , किन्तु जीवप्रयोगनिर्वतितमौदारिकशरीरपरिणाम परित्यज्य परिणामान्तरं नासादयन्ति ताव२ होकर परमाणु आदि रूप में परिणत हो चुके हैं, उनकी अपेक्षा उनमें अनंतता कही है, सो बात भी नहीं बनती है क्योंकि ऐसा कोई पुद्गगल नहीं है जो अतीतकाल में एक एक जीव के द्वारा औदारिक शरीररूप से अनंतवार परिणमाकर न छोड दिया गया हो। इस प्रकार से समस्त पुद्गलास्तिकाय के, ग्रहण होने का प्रसंग प्राप्त होता है। इस प्रसंग में अभव्यराशि से अनंत गुणता और सिद्ध भगवान् से अनंत. भागता विरुद्ध जाती है। क्योंकि सर्व पुनलास्तिकाय गतपुद्गलों में सर्व जीवों की अपेक्षा भी अनंतानंतगुणता है । इसलिये मुक्त औदा. रिक शरीरों में भी अनंतानंत गुणता आवेगी?
उत्तर-ऐसा नहीं है-क्योंकि इन दोनों पक्षों को यहां पर नहीं लिया गया है। किन्तु यहां तो ऐसी बात की गई है कि-'जीव द्वारा विषमुक्त एक एक औदारिक शरीर के जितने अनंत खंड हो जाते हैं, वे अनंतखंड जय तक जीव प्रयोग निर्तित औदारिक शरीररूप परि
વગેરે રૂપમાં પરિણત થઈ ગયાં છે, તેમની અપેક્ષા તેમનામાં અનંતતા કહેવામાં આવી છે. તે આ વાત પણ બંધબેસતી નથી કેમકે એવું કોઈ પદ્દલ નથી કે જે અતીત કાલમાં એક એક જીવ વડે ઔદારિટશરીર રૂપથી અનંત વખત પરિણુમાવીને છોડી ન મુકયું હેય આ રીતે સમસ્ત પુદ્ગલારિતકાયના ગ્રહણનો પ્રસંગે ઉપસ્થિત થાય છે. આ પ્રસંગમાં અભયરાશિથી અનંતગુતા અને સિદ્ધ ભગવાનથી અનંત ભાગતા વિરૂદ્ધ જાય છે કે કે સર્વ પુત્લાસ્તિકાય ગત પુર્વેમાં સર્વ જીવોની અપેક્ષાએ પણ અનંતાનંત ગુણતા છે. એટલા માટે મુક્ત બૌદારિક શરીરમાં પણ અનંતાનંત ગુણતા આવશે?
ઉત્તર–આ પ્રમાણે નથી કેમકે આ બંને પક્ષેને અહીં ગ્રહણ કરવામાં આવ્યા નથી પરંતુ અહીં તે આ વાત ગ્રહણ કરવામાં આવી છે કે જીવ વડે વિપ્રમુક્ત એક એક દારિક શરીરના જેટલા અનંત ખંડો થઈ જાય છે, તે અનંતખંડે જ્યાં સુધી જીવ પ્રાગ નિર્વર્તિત ઔદરિક શરીર રૂપ પરિણામને ત્યજીને પરિણામારને મેળવતા નથી ત્યાં સુધી ઔદારિક શરી
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मनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र २११ औदारिकादिशरीरसंख्यानिरूपणम् ३९३ः दौदारिकशरीरावयवत्वात् अवयवे समुदायोपचारात् प्रत्येकमवयवमौदारिकशरीरेत्युच्यते । अवयवे समुदायोपचारस्तु एकदेशदाहेऽपि ग्रामो दग्धः पटो दग्ध इत्यादिवदुन्नेयः । एवं चैकैकं जीवविषमुक्तमौदारिकशरीरमनन्तभेदमिन्नम् , तेषु च भेदेषु प्रत्येकं प्रस्तुतशरीरावयवतया प्रस्तुतशरीरत्वेनोपर्यते । एतेषां च भेदानां प्रकृतशरीरपरिणामस्यागे अन्येषां तत्परिणामवतामुत्पत्तिसंभवाद् यथोक्ता. नन्तसंख्यकान्यौदारिकशरीराणि न लोके कदाचिद् व्यवच्छिद्यन्ते इति । तदेवमा. घत औदारिकशरीरसंख्या मोक्ता। विभागतस्त्वने क्रमप्राप्ता वक्ष्यते इति ॥सू. २११॥ णाम को छोडकर परिणामान्तर को नहीं पा लेते हैं, तब तक औदा. रिक शरीरावय होने के कारण वे औदारिक शरीर ही कहे जाते है। यद्यपि वे औदारिक शरीररूप नहीं है-उसके खंडरूप हैं, फिर भी अप. यव में अवयवी के उपचार से प्रत्येक अवयव औदारिक शरीररूप से मानलिये जाते हैं। अवयव में समुदायरूप अवयवी का उपचार ग्राम के एक देश के जल जाने पर जैसे 'ग्राम जलगया' पट के एक देश जल जाने पर जैसे 'पट जलगया' होता है, वैसे ही यहां होने में कोई बाधा नहीं है। इस प्रकार एक एक जीव के द्वारा विप्रमुक्त औदारिक शरीर अनंत भेदवाला है इन भेदों में प्रत्येक भेद औदारिक शरीर का अवयर कहलाता है। इन अवयवों में प्रस्तुत औदारिक शरीर का उपचार कर लिया जाता है । जब ये भेद प्रकृतशरीररूप परिणाम का परित्याग कर देते हैं, तब ऐसा नहीं होता है कि-'फिर औदारिक शरीर का सर्वथा अभाव ही-व्यवच्छेद ही हो जावे क्योंकि उस समय अन्यों में રાવયવ હેવાથી તે દારિક શરીર જ કહેવામાં આવે છે. જો કે તે ઔદારિકશરીર રૂપ નથી, તેના અંડરૂપ છે, છતાં એ અવયવમાં અવયવીના ઉપચારથી તે પ્રત્યેક અવયવ દારિક શરીર રૂપથી માનવામાં આવે છે. અવયવમાં સમુદાય રૂપ અવયવીને ઉપચાર ગામના એકદેશને અગ્નિમાં ભસ્મ થઈ ગયા પછી “ગામ ભસ્મ થઈ ગયું અને એક ભાગ બળી જાય ત્યારે જેમ “વસ બળી ગયું છે... આ રીતે કહેવામાં આવે છે, તેમજ અહીં પણ કઈ જાતની બાધા નથી આ પ્રમાણે એક એક જીવ વડે વિપ્રમુક્ત ઔદારિક શરીરને અવયવ કહેવામાં આવે છે. આ અવયવેમાં પ્રસ્તુત ઔદારિક શરીરને ઉપચાર કરી લેવામાં આવે છે. જ્યારે આ ભેદે પ્રકૃત શરીર રૂપ પરિણામ ત્યજી દે છે, ત્યારે આમ થતું નથી કે “ફરી દારિક શરીરને સર્વથા અભાવ જ-વ્યવછેદ જ થઈ જાય.
भ० ५०
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अनुयोगद्वारसूत्र अथ वैक्रियादि संख्यामोघनो निरूपयति
मलम्-केवइया णं भंते ! वेउब्वियसरीरा पण्णत्ता ? गोयमा! उबियसरीरा दुविहा पण्णत्ता, तं जहा-बद्धेल्लया य मुक्कोल्लया या तत्थ णं जे ते बद्धेलया ते गं असंखिज्जा असंखिज्जाहिं उस्तप्पिणि ओसप्पिणीहिं अवहीरंति कालओ, खेत्तओ असंखिज्जाओ सेढीओ पयरस्स असंखेज्जइभागे। तत्थ णं जे ते मुक्केलया ते ण अणंता अणंताहिं उस्सप्पिणीओसप्पिणीहिं अवहीरंति कालओ, सेसं जहा ओरालियस्स मुक्केलया तहा पपवि भाणियव्वा। केवइया णं भंते! आहारगसरीरा पण्णता? गोयमा! आहारगसरीरा दुविहा पण्णत्ता, बद्धेल्लया य मुक्केल्लया या तत्थ णं जे ते बद्धेल्लया ते णं सिय अत्थि सिय नस्थि । जइ अस्थि जहण्णेणं एगो वा दोवा तिणि वा, उक्कोसेणं सहस्सपुहत्तं, मुकेल्लया जहा ओरालियसरीरा तहा भाणियव्वा। केवइया णं भंते! तेयगसरीरा पण्णत्ता ? गोयमा! तेयगसरीरा दुविहा पण्णत्ता, तं जहा-बद्धेल्लया य मुक्केल्लया य। तत्थ णं औदारिक परिणामरूप की उत्पत्ति हो जाती है। इसलिये अनंत संख्यावाले औदारिक शरीरों का लोक में कभी व्यवच्छेद भभाव-नहीं हो सकता है। इस प्रकार यह सूत्रकारने ओघसामान्य-की अपेक्षा औदा. रिक शरीर की संख्या कही है। विभाग की अपेक्षा क्रम प्राप्त इसकी संख्या सूत्रकार आगे कहेंगे ॥ २११॥
કેમકે તે સમયે અન્યમાં દારિક પરિણામ રૂપની ઉત્પત્તિ થઈ જાય છે. એટલા માટે અનંત સંખ્યાતવાળા ઔદારિક શરીરને લેકમાં કદાપિ અભાવ-વ્યવચછેદ થઈ શકતું નથી આ પ્રમાણે સૂત્રકારે ઓઘ સામાન્યની અપક્ષ ઔદારિક શરીરની સંખ્યા કહી છે. વિભાગની અપેક્ષા કમ પ્રાપ્ત ની સંખ્યા સૂત્રકાર હવે પછી કહેશે. સૂ૦૨૧૧
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अनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र २१२ ओधतो बैंक्रियादिशरीरसंख्यानिरूपणम् ३९५ जे ते बद्धेलया ते णं अणंता अणंताहिं उस्सप्पिणी ओसकिणाहिं अवहीरंति कालओ, खेत्तओ अणंता लोगा, दव्वओ सिद्धेहिं अणंतगुणा सव्वजीवाणं अणंतभागूणा । तत्थ णं जे ते मुक्केल्लया ते गं अणंता अणंताहिं उस्सप्पिणी ओसप्पिणीहिं अवहीरंति कालओ, खेत्तओ अणंता लोगा, दवओ सकजीवेहिं अणंतगुणा सव्वजीववग्गस्त अणंतभागे। केवइया भंते ! कम्मयसरीरा पण्णता? गोयमा! कम्मयसरीरा दुविहा पण्णत्ता, तं जहा-बद्धेल्लया य मुकल्लया य। जहा तेयगसरीरा तहा कम्मगसरीरावि भाणियवा॥सू०२१२॥ __छाया-कियन्ति खलु भदन्त ! वैक्रियशरीराणि प्रज्ञतानि ? गौतम । वैक्रियशरीराणि द्विविधानि प्रज्ञप्तानि, तद्यथा-बद्धानि च मुक्तानि च। तत्र खलु यानि तानि बद्धानि तानि खलु असंख्येयानि असंख्येयाभिः उत्सर्पिण्यवसपिणिभिः
अप सूत्रकार ओघ की अपेक्षा वैक्रिय आदि शरीरों की संख्या निरूपित करते हैं-"केवइया णं भंते ! वेउब्वियसरीरा पण्णत्ता" इत्यादि। ___ शब्दार्थ--(भंते !) हे भदन्त ! (वेउब्वियसरीरा) वैक्रिय शरीर (केवड्याणं पण्णसा) कितने प्रकार के कहे गये है ? (गोयमा) हे गौतम । (उब्वियसरीरा दुविहा पण्णत्ता) वैक्रिय शरीर दो प्रकार के कहे गये हैं। (त जहा) जैसे-(बद्धेल्लया थ मुक्छेल्लपाय) एक बद्ध वैक्रियशरीर और दूसरे मुक्त क्रियशरीर । (तस्थ णं जे ते बद्धेल्लयो तेणं असंखिज्जा) इनमें जो बद्ध वैक्रियशरीर हैं, वे सामान्य से असंख्यात हैं। (असंखि
હવે સૂત્રકાર એાઘની અપેક્ષા વૈક્રિય વગેરે શરીરની સંખ્યા વિ. पित रे छ-" केवइयाणं भंते ! वेउब्वियसरीरा पण्णता?" त्याल
शाय-(भंते !) 3 महत! (वेउव्वियसरीरा) यशरी। (पेपरपाणं पण्णत्ता) an नावामा माया छ ? (गोयमा) 8 गौतम! (वेउब्वियसरीरा दुविहा पण्णता) वैठियशरीर में प्रारना अपामा माया छ. (तंजहा) भ (बद्धेल्लया मुक्केल्लयाय) से प हियशश२ म२ fon भुत यि शरी२ (तत्थ णं जेते बद्धेल्लयाय वेणं असंखिय) मामा वैठिय शरी। छ, त आमा-बथी मण्यात 2. (असंखिजाहिं स्थापिणामो.
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अनुयोगद्वारसूत्रे अपहियन्ते कालतः । क्षेत्रतः असंख्येयाः श्रेणय: प्रतरस्य असंख्येयभागे। तत्र खलु यानि तानि मुक्तानि तानि खलु अनन्तानि अनन्ताभिः उत्सर्पिण्यवसर्पिणीमि अपहियन्ते कालता, शेष यथा औदारिकस्य मुक्तानि तथा एतान्यपि भणित. व्यानि । कियन्ति खलु आहारकशरीराणि प्रज्ञप्तानि ? गौतम ! आहारकशरीराणि जाहिं उस्सप्पिणिोसप्पिणीहि-अवहीरंति कालओ) असंख्यात उत्स. पिणि और अवसर्पिणी काल में ये व्यवस्थापित किये जा सकते हैं अर्थात् उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी काल के एक २ समय पर यदि ये स्थापित किये जावें तो उनके लिये असंख्यात उत्सर्पिणी और असंख्यात अवसर्पिणी काल का समय चाहिये । यह काल की अपेक्षा बद्धवैक्रियशरीरों का प्रमाण कहा है। (खेत्तभो असखिज्जाभो सेढीओ पयरस्स असंखेज्जहभागे) क्षेत्र की अपेक्षा बद्धवैक्रियशरीरों का प्रमाण पूर्वोक्त प्रतर के असंख्यातवें भाग में रही हुई असंख्यात श्रेणीरूप है। अर्थात् पूर्वोक्त प्रतर के असंख्यातवें भाग में रही हुई जो असं. यात श्रेणीयां हैं, उन श्रेणियों के नभाप्रदेशों की जो राशि है, उन राशियों की संख्या के बराबर बद्धवैक्रियशरीर है । यह क्षेत्र की अपेक्षा पद्धक्रियशरीरों का प्रमाण कहा गया है । (तत्थ णं जे ते मुक्के. एलया तेणं अणंता-अणंताहिं उसप्पणीओसप्पिणीहिं अवहीरंति कालो-सेसं जहा ओरालियस्स मुक्केल्लया तहा एए वि भाणियव्या) मप्पिणीहिं अवहीरंति कालओ) असभ्यात Gallel भने असली કાળમાં આ બધા વ્યવસ્થાપિત કહી શકાય તેમ છે. એટલે કે ઉત્સર્પિણી અને અવસર્પિણી કાળના એક એક સમયમાં જે એમની સ્થાપના કરવામાં આવે તે તેમના માટે અસંખ્યાત ઉત્સર્પિણી અને અસંખ્યાત અવસર્પિણી કાળને સમય જોઈએ આ કાળની અપેક્ષા બદ્ધ વૈકિય શરીરનું પ્રમાણ
पामा मान्यु छ. (खेत्तओ असंखिज्जाओ सेढीओ पयरस्म असंखेज्जइभागे) ક્ષેત્રની અપેક્ષા બદ્ધ વૈક્રિયશરીરનું પ્રમાણ પૂર્વોકત પ્રતરના અસંખ્યાતમાં ભાગમાં સ્થિત અસંખ્યાત શ્રેણી રૂ૫ છે. એટલે કે પૂર્વોકત પ્રતરના અસં. ખ્યાતમા ભાગમાં સ્થિત છે અસંખ્યાત શ્રેણીઓ છે, તે શ્રેણુઓના નભ:પ્રદેશોની જે રાશિ છે તે રાશિઓની સંખ્યાની બરાબર બદ્ધ વૈક્રિયશરીર છે, આ ક્ષેત્રની અપેક્ષા બદ્ધ વૈક્રિય શરીરનું પ્રમાણ કહેવામાં આવ્યું છે. (तत्य जे ते मुक्केल्लया ते णं अणंता अणताहि उसप्पणीओसप्पिणीहिं अवहीति कालो सेसं जहा ओरालियरस मुक्केल्लया तहा एएवि भाणियवा) २
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अनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र २१२ ओघतो वैक्रियादिशरीरसंख्यानिरूपणम् ३९७ द्विविधानि प्रज्ञप्तानि, तद्यथा-बद्धानि च मुक्तानि च। तत्र खलु यानि तानि बदानि तानि खलु स्यात्सन्ति स्थानसन्ति । यदि सन्ति जघन्येन एकं वा द्वे वा जो मुक्त वैक्रिय शरीर हैं, वे सामान्य से अनंत हैं । अनंत उत्सर्पिणी अवसर्पिणी के एक एक समय पर यदि, उन्हें प्रक्षिप्त किया जावे, तब कहीं जाकर उन पर समा सकते हैं। यह काल की अपेक्षा मुक्त वैक्रिय का प्रमाण है। बाकी का इस संबन्धी कथन मुक्त औदारिक शरीर के जैसा जानना चाहिये । ये वैक्रिय शरीर नारक और देवों के सर्वदा ही: बद्ध रहते हैं । परन्तु मनुष्य और तिर्यश्चों के, कि जो वैक्रिय लब्धिशाली हैं, उत्सरविक्रिय करने के समय में ही ये वैक्रियशरीर बद्ध होते है । इस प्रकार चारों गतियों के जीवों के बद्धवैक्रियशरीर असंख्यात होते हैं।
अब सूत्रकार ओध की अपेक्षा आहारक शरीरों का निरू. पण करते हैं
(केवड्या णं भंते ! आहारगसरीरा पण्णत्ता) हे भदन्त ! आहा. . रक शरीर कितने कहे गये हैं ? (गोयमा! आहारगरीरा दुविहा पण्णत्ता) हे गौतम! आहारक शरीर दो प्रकार के कहे गये हैं-- (बद्धेल्लया य मुक्केल्लया य) एक बद्ध और दूसरे मुक्त। (तस्थ णं जे ते बद्धेल्लपा, ते णं सिय अस्थि सिय नस्थि) इसमें जो बद्ध आहारक મુકત વૈક્રિયશરીર છે, તે સામાન્યથી અનંત છે અનંત ઉત્સર્પિણી અને અવસર્પિણના એક એક સમય ઉપર જે તેમને પ્રક્ષિત કરવામાં આવે, ત્યારે જ તેઓ તેમની ઉપર સમાવિષ્ટ થઈ શકે છે. આ કાલની અપેક્ષાથી મુકત વૈયિનું પ્રમાણ છે. આ સંબંધમાં વિશેષ કથન મુકત દારિક શરીરની જેમ જાણી લેવું જોઈએ આ વૈક્રિયશરીર નારક અને તેને સર્વદા બદ્ધ રહે છે. પરત મધ્ય અને તિયાને-કે “જેઓ વૈક્રિય લબ્ધિશાલી છે–ઉત્તરવિદિયા કરતી વખતે જ આ વૈક્રિયશરીરે બદ્ધ હોય છે. આ પ્રમાણે ચારેચાર ગતિ એના જીવન બદ્ધ વૈકિયશરીર અસંખ્યાત હોય છે. - હવે સૂત્રકાર એઘની અપેક્ષા આહારક શરીરનું નિરૂપણ કરે છે
(केवइया णं भंते ! आहारगसरीरा पण्णत्ता) 8 महन्त! मा२४ शरीर Bai अपामा माया छ ? (गोयमा ! आहारगसरीरा दुविहा पण्णत्ता) गीतम! मासा२३ शरी। प्रारनां वामां आव्यां छे. (बद्धेल्लया य मुक्केलया य) मे ॥ भने भी भुरत (तस्थ णं जे ते बद्धेल्लया, तेणं मिय अस्थि सिय नस्थि) भाभा २ मा शरी। छ, ते यश पारी सिवाय olm
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daun.
___अनुयोगद्वारसूरी श्रीणि वा, उत्कर्षेण सहस्रपृथक्त्वम् । मुक्तानि यथा औदारिकस्य तथा भणितध्यानि । कियन्ति खलु भदन्त ! तैजसशरीराणि प्रज्ञप्तानि ? गौतम ! तेजसशरीशरीर हैं, वे चतुर्दशपूर्वधारी के सिवाय और किसी दूसरे के नहीं होते हैं। इनका अन्तर-विरहकाल-जघन्य से एक समय का है और उत्कृष्ट से छह मास तक का है। यह बात अन्यत्र कही गई है। इसलिये जो बद्ध आहारक शरीर हैं-वे कभी होते हैं और कभी नहीं होते हैं । (जह अस्थि जहण्णेणं एगो वा दो वा तिणि वा) यदि होते हैं तो जघन्य से एक दो या तीन हो सकते हैं और (उकोसेणं सहस्सपुहुत्त) उस्कृष्ट से सहस्रपृथक्त्व तक हो सकते हैं । दो आदि से लेकर नव तक की संख्या का नाम पृथक्त्व है । (मुक्केल्लया जहा ओरालियसरीरा तहा भाणिघवा) मुक्त जो आहारक शरीर हैं, वे मुक्त औदारिकशरीर के जैसा ही जानना चाहिये । परन्तु इनमें इतनी विशेषता है कि जिस जिस प्रकार औदारिक शरीर को अनंत भेदवाला कहा गया है उसी प्रकार इस शरीर को भी भेदवाला कहा गया है-परन्तु अनन्त के अनन्त भेद होते हैं इसलिये यहां पर लघुतर अनन्त लिया गया है, ऐसा जानना चाहिये । अब सूत्रकार तेजस शरीरों का निरूपण करते हैं। (केवड्या णं भंते ! तेयगसरीरा पण्णता?) हे भदन्त ! तेजस કોઈને પણ હતાં નથી એમનું અંતર-વિરહાકાળ-જઘન્યથી એક સમય જેટલું છે. અને ઉત્કૃષ્ટથી ૬ માસ સુધીનું છે. આ વાત બીજા સ્થાને પણ કહેવામાં भावी छ. सटा भाट यारे डाय छ, अने या२४ तi नथी. (जइ अस्थि जहण्णेणं एगो वा दो तिण्णि वा) ने डाय छ त धन्यथा ये मे
छ भने (उक्कोसेणं सहस्सपुहुत्तं) Bथा सहस पृथत्व सुधी २४ ॥ ®. माहिया भासन न सुधीनी भ्यानु नाम पृथप छे. (मुक्केल्लया जहा ओरालियसरीरा तहा भाणियव्वा) भुत २ माडार ६ शरीर छ, त મુકત ઔદારિક શરીરની જેમ જ જાણવું જોઈએ પરંતુ આમાં આટલી વિશેષતા છે કે જેમ દારિક શરીરને અનંતભેદ યુકત કહેવામાં આવ્યું છે, તેમ આ શરીરને પણ અનંત જેઠવાળું કહેવામાં આવ્યું છે. પરંતુ અનંતના પણ અનત ભેદ હોય છે. એટલા માટે અહીં લઘુતર અનંતનું ગ્રહણ કરવામાં આવ્યું છે. તેમ સમજવું જોઈએ હવે સૂત્રકાર તૈજસ શરીરનું નિરૂપણ કરે છે–
(केवइयाणं भंते ! तेयगसरीरा पण्णत्ता १) मत! ते शरीर ai स्वामी यां (गोयमा ! वेयगसरीरा दुविहा पण्णत्ता) ३ गौतम !
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मनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र २१२ ओघतो वैक्रियाविशरीरसंख्यानिरूपणम् ३९९ राणि द्विविधानि प्राप्तानि, तद्यथा-वद्धानि च मुक्तानि च । तत्र खलु यानि तानि बद्धानि तानि खलु अनन्ताभिः उत्सर्पिण्यवसर्पिणीभिः अपहियन्ते काळतः । क्षेत्रतः आन्ताः लोकाः। द्रव्यतः सिद्धेभ्योऽनन्तगुणानि सर्वजीवानाम् अनन्तभागोनानि । तत्र खलु यानि तानि मुक्तानि तानि खलु अनन्ताभिः उत्सपिण्यवसर्पिणीभिः अपहियन्ते कालतः । क्षेत्रतः अनन्ताः लोकाः । द्रव्यतः सर्वजीवेभ्यः शरीर कितने कहे गये हैं। (गोयमा! तेथगसरीरा दुविहा पण्णत्ता) हे गौतम ! तैजस शरीर दो प्रकार के कहे गये हैं-(तं जहा) वे प्रकार ये हैं (बद्धेल्लया य मुक्केल्लया य) १ बद्ध और दूसरे मुक्त । (तस्थ णं जे ते बद्धेल्लया तेणं अणंता, अणंताहिं उस्सप्पिणीओसप्पिणीहिं अवहीरंति कालओ) इनमें जो बद्ध तैजस शरीर हैं, वे काल की अपेक्षा सामान्य रूप से अनन्त हैं । अनल उत्सर्पिणी अवसर्पिणी काल के समयों बराबर हैं-अर्थात् उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी काल के एक समय पर उन्हें व्यवस्थापित किया जावे तो भी ये सब व्यवस्थापित नहीं हो सकते-उन्हें रखने के लिये क्रमशः एक २ समय पर अनन्त उत्सर्पिणी और अनन्त अवसर्पिणी काल अपेक्षित होते हैं-अतः अनन्त उत्सर्पिणी और अनन्त अवसर्पिणी काल के जितने समय हैं, उतने बद्ध तैजस शरीर है। (खेत्तओ अणंता लोगो)क्षेत्र की अपेक्षा बद्ध तैजस शरीर अनंतलोक प्रमाण-अनंत तेसशरीर में १२नां अपामा माव्यां छे. (तंजहा) । । । प्रमाणे छ (बद्धेल्लया य मुक्केल्लया य) १ म अने द्वितीय भुत (तत्थ णं जे ते बद्धेस्लया वेणं अणंता, अणंताहिं उस्सप्पिणीओसप्पिणीहिं अवहीरंति कालओ) આમાં જે બદ્ધ તૈજસશરીર છે, તે કાળની અપેક્ષા સામાન્ય રૂપથી અનંત છે. અનંત ઉત્સર્પિણી અવસર્પિણી કાળના સમચની બરાબર છે. એટલે કે ઉત્સર્પિણી અને અવસર્પિણી કાળના એક સમય પર જે તેમને વ્યવસ્થાપિત કણવામાં આવે તે પણ આ બધાં વ્યવસ્થાપિત થઈ શકે નહીં તેમને મૂકવા માટે ક્રમશઃ એક એક સમય પર અનંત ઉત્સર્પિણી અને અનંત અવસર્પિણી કાળ અપેક્ષિત હોય છે. એટલા માટે અનંત ઉત્સર્પિણી અને અનંત અવસર્પિણી કાળના २८मा सभयो छ, तर म तेस शरी। छे. (खेत्तओ अणंता लोगा। क्षेत्रनी अपेक्षा र सशरीर मन ४ प्रमाण प्रदेशमा परिमित छ. (दव्वमो
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मनुयोगद्वारसूत्रे अगन्तगुगानि सर्वजीववर्गस्य अनन्तभागे। कियन्ति भदन्त ! कार्मणशरीराणि प्रजातानि ? गौतम ! कार्मकशरीराणि द्विविधानि प्रज्ञप्तानि, तद्यथा-बद्धानि च मुक्तानि च । यथा तैनसशरीराणि तथा कार्मकशरीराण्यपि भणितव्यानि ॥सू०२१२॥ लोकप्रदेश राशिपरिमित हैं । (दव्य भो सिद्धेहिं अणतगुणा, सव्वजीवाणं अणंतभागूगा) द्रव्य की अपेक्षा बद्ध तैजस शरीर सिद्ध भगवान् से अनंतगुणे और सर्वजीवों की अपेक्षा से अनन्त भाग न्यून हैं। (तस्य गं जे ते मुक्केल्लया तेणं अणंता) वहां जितने मुक्त जीव हैं वे अनन्त हैं, (अणंताहिं उस्सप्पिणिमोस्सप्पिणिहिं अबहीरति कालो) कालकी अपेक्षा उनके अपहरण करने में अनन्त उत्सर्पिणी अवसर्पिणीकाल निकल जाता है । (खेत्तओ अणंता लोगा) क्षेत्रकी अपेक्षा अनन्तलोकराशि प्रमाण हैं। (व्वमोसव्वजीवेहि अणंतगुणा सव्वजीववग्गस्स अणंतभागे) द्रव्य से वे सब जीवों से अनन्तगुणे और समस्त जीववर्ग के अनन्त भोगवर्ती होते होते हैं। अब गौतम कामर्ण शरीर के विषय में पूछते है- (केवइयाणं भंते कम्मगसरीरा पण्णत्ता) हे भदन्त ! कार्मण शरीर कितने कहे गये हैं ? उत्तर में भगवान् फरमाते हैं। (गोयमा कम्मयसरीरा दुविहा पण्णता) हे गौतम! बद्ध और मुक्तके भेद से कार्मण शरीर दो प्रकार के होते हैं । (जहा तेयगसरीरा तहा कम्मग सिद्धेहि अणंतगुणा सव्व जीवाणं अणंतभागूणा) द्रव्यनी अपेक्षा सर तसशरीर સિદ્ધ ભગવાનથી અનંતગણ અને સર્વ જાની અપેક્ષાએ અનંત ભાગ ન્યૂન ७. 'तत्थ णं जे ते मुक्केल्लया तेणं अणंता' त्या २८॥ भुत छे, ते मनात छ. 'अणंताहि उस्सपिणिोसप्पिणिहिं अवहीरंति कालो' पनि भये. ક્ષાએ તેને અપહરણ કરવામાં અનંત ઉત્સપિ અને અનંત અવસર્પિણી सनीsी जय छे. 'खेत्तओ अणतो क्षेत्री अपेक्षा सनत राशि प्रभार य छे. 'व्वओ सव्वजीवेहिं अणंतगुणा सव्वजीववग्गस्य अणंत भागे' द्रव्यथा तमा मा वाथी मानत! मन सघा वना અનંત ભાગવતિ હોય છે. व गौतमपाभी मर शरीरना
प्रभुने पूछे छे " केव इया ण भंते ! कम्मगसरीरा पण्णत्ता' सन् ! म शरीर टीરના કહેવામાં આવેલ છે? આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં પ્રભુ ગૌતમ સ્વામીને કહે
3-'गोयमा ! कम्मयसरीरा दुविहा पण्णचा ' ३ मौतम! म शरीर
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अनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र २१२ ओघतो वैक्रियादिशरीरसंख्यानिरूपणम् ४०१
टीका - 'केवइया णं भंते' इत्यादि
एतानि वैक्रियशरीराणि नारकदेवानां सर्वदेव बद्धानि भवन्ति । मनुष्यतिरक्षां तु वैकिलब्धिमताम् उत्तरवै क्रियकरणकाले एतानि वैक्रियशरीराणि बद्धानि भवन्ति । इत्थं च चतुर्गतिकानामपि जीवानां बद्धानि वैक्रियशरीराण्यसंख्येयानि भवन्ति । तानि च वैक्रियशरीराणि कालतोऽसंख्येयोत्सर्पिण्यवसर्पिणीषु यावन्तः समया भवन्ति तावन्ति, अर्थात् असंख्येयानि भवन्ति । क्षेत्रतस्तु प्रतरस्य= पूर्वोक्तमतरस्य असंख्येयभागवर्त्तिन्यः असंख्येयाः श्रेणयो बोध्याः । पूर्वोक्तप्रतरासंख्येयभाग व संख्येयश्रेणीनां यो नमःम देशराशिस्तत्संख्यकानि वैक्रियशरीराणि क्षेत्रतो बोध्यानीति भावः । मुक्तानि वैक्रियशरीराणि मुक्तौदारिकशरीरवद बोध्यानि । अथ ओघत आहारकशरीराणि निरूपयति- 'केवइया णं भंते! सरीरावि भाणियन्त्रा) जिस प्रकार तैजस शरीर की वक्तव्यता पहले कही गई हैं उसी प्रकार कार्मणशरीर के विषय में भी जान लेना चाहिये ॥ सू० २१२ ॥
"
भावार्थ - ये वैक्रियशरीर नारक और देवों के सदा बद्ध ही होते हैं किन्तु मनुष्य और तिर्थयों के तो वैक्रियलब्धिधारी होते हैं उनके वैक्रिय करने के समय में वैक्रियशरीर बद्ध होते हैं । इस प्रकार चतु गतिक जीवों के बद्धवैक्रियशरीर असंख्यात होते हैं। वे वैक्रियशरीर कालकी अपेक्षा असंख्यात उत्सर्पिणी अवसर्पिणियों में जितने समय होते हैं उतने प्रमाण के असंख्यात होते हैं । क्षेत्र से पूर्वोक्त प्रतर के असंख्यातवे भागमें असंख्यात श्रेणियां होती हैं । उन प्रतर के असंख्यात बद्ध वैक्रियशरीर होते हैं । यह बद्ध वैक्रियशरीर का कथन બુદ્ધ અને સુકેતના ભેદથી એ પ્રકારના હાય છે. जहा derसरीरा तहां कम्मगसरीरा वि भाणियव्वा' ने रीते ते सशरीरनुं प्रथन पडेसां वामां આવ્યું છે, એજ પ્રમાણે કામ ણુશરીરના સંબંધમાં સમજી લેવુ'. સૂ૦૨૧૨॥ ભાવાથૅનારક અને ઢવાને વૈક્રિયશરીર સદા અદ્ધ જ હાય છે. પરંતુ મનુષ્યા અને તિયાને તા જે વૈક્રિયલબ્ધિધારી હોય છે, તેને વૈક્રિય કરવાને સમયે વૈક્રિયશીર બદ્ધ હાય છે. એજ પ્રમાણે ચારગતિવાળા જીવાને અદ્ધ વૈક્રિયશરીર અસખ્યાત ડાય છે. તે વૈક્રિયશરીરા કાળની અપેક્ષાએ અસખ્યાત ઉપિ ણી અવસિ ણીયામાં જેટલા સમય હાય છે. એટલા પ્રમાણના અસખ્યાત હૈાય છે. એ પ્રતરના અસ`ખ્યાતમા ભાગમાં રહેલ અસ`ખ્યાત શ્રેણીયાની જેટલી આકાશપ્રદેશરાશિ છે, એટલા પ્રમાણુના
अ० ५१
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अनुयोगद्वारसूत्रे
आहारगसरीरा' इत्यादि, अत्रेदं बोध्यम् । एतानि बद्धान्याहारकशरीराणि चतुदेशपूर्वविदो विहाय नापरस्य संभवन्ति । अन्तरं चैषां जघन्यत एकं समयम्, उत्कृष्टतस्तु षण्मासान् यावदित्यन्यत्रोक्तम्, अत एवात्रोच्यते तत्र खलु यानि अनि बद्धानि तानि खलु स्यात् = कदाचित् सन्ति, स्थात् = कदाचित् न सन्ति । यदि सन्ति तदा जघन्यत एकं द्वे त्रीणि वा सन्ति, उत्कृष्टवस्तु सहस्रपृथक्त्वम् । द्विप्रभृति नवपर्यन्ता संख्या पृथक्त्वशब्देनोच्यते । मुक्तान्याहारकशरीराणि मुक्तौदारिकशरीरवद् बोध्यानि । नवरम् - अनन्तभेदभिन्नमनन्तकंत्वत्र लघुतरं बोध्यम् । तथा - तैजसशरीराण्यपि बद्धमुक्तभेदेन द्विविधानि । तत्र यानि वद्धानि तान्यहुआ | मुक्त वैक्रियशरीर का कथन मुक्त औदारिकशरीर के कथन जैसा ही समझ लेना चाहिये ।
अब सामान्य से आहारक शरीर का कथन करते हैं-बद्ध आहारक शरीर चतुर्दश पूर्वधारियों के सिवाय दूसरों के नहीं होते हैं इनका अन्तर जघन्य से एक समय का और उत्कृष्ट से छह महीने का होता है ऐसा अन्यत्र कहा है इसलिये कहते हैं कि वहां जो कोई बद्ध आहारक है शरीर वे कदाचित् होते हैं कदाचित् नहीं भी होते हैं, जब होते हैं तो जघन्य से एक दो अथवा तीन होते हैं, उत्कृष्ट सें सहपृथक्त्व अर्थात् दो हजार से नौ हजार तक होते हैं । मुक्त आहारक शरीर का वर्णन मुक्त औदारिक शरीर के वर्णन जैसा समज लेना चाहिये । अन्तर इतना ही है कि यहां अनन्त भेदों वाला जो अनन्त है वह सब से छोटा अन्तर समझना है । तथा तैजस शरीर भी बद्ध અસખ્યાત અદ્ધ વૈક્રિયશરીર ઢાય છે આ અદ્ધ વૈક્રિયશરીરનું કથન છે. મુકત વૈક્રિયશરીરનું કથન મુકત ઔદ્વારિકશરીરના કથન પ્રમાણે જ સમજી લેવુ.
હવે સામાન્યથી આહારકશરીરનું કથન કરવામાં આવે છે મદ્ધ આહારશરીર ચૌદ પૂર્વ ધારિયા સિવાય ખીજાઓને હેતુ નથી. તેનુ અંતર જલન્યથી એક સમયનું અને ઉત્કૃષ્ટથી છ માસનું હોય છે. એ પ્રમાણે અન્યત્ર કહ્યુ' છે. તેથી કહેવામાં આવ્યું છે કે-ત્યાં જે કોઇ ખદ્ધ આહારકશરીર છે, તે કદાચિત હાય છે, અને કદાચિત્ નથી પણ હાતા જ્યારે હાય છે, ત્યારે જધન્યથી એક, એ, અથવા ત્રણ હોય છે ઉત્કૃષ્ટથી સહસ્રપૃથક્ક્ત્વ અર્થાત્ બે હજારથી નવ હજાર સુધી હાય છે. મુકત આહારક શરીરનુ` વધુન મુકત ઓઢાકિશરીરના કથન પ્રમાણે સમજી લેવુ. તેમાં એટલું જ અંતર છે કે અહિયાં અનંત ભેટ્ટાવાળા જે અનત છે, તે ખધાથી નાનું અંતર છે તથા તેજારી પણ બદ્ધ અને મુક્તના ભેદથી એ પ્રકારનું હોય છે. તેમાં જે
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अनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र २१२ ओघतो वैक्रियादिशरीरसंख्यानिरूपणम् ४oi नन्तानि बोध्यानि। कालतस्तु-अनन्तामृत्सपिण्यवसर्पिणीषु यावन्तः समया भवन्ति तावन्ति, अर्थात् अनन्तानि बोध्यानि । क्षेत्रतस्तु अनन्ता लोकाः अनन्तलोकपदेशराधिपरिमितानि। द्रव्यतस्तु सिद्धेभ्योऽनन्तगुणानि सर्वजीवापेक्षया चानन्तभागन्यूनानि ! तैजसशरीरस्वामिनामनन्तत्वात्तैनसशरीराण्यनन्तसंख्यकानि बोध्यानि । नन्वौदारिकशरीरस्वामिनोऽपि सन्त्यनन्तास्तहिं तानि शरीराण्यनन्तानि कथं नोच्यते ? इत्याह-औदारिकं शरीरं नारकदेवानां न भवति किन्तु मनुष्यतिरश्चामेव भवति । तेषप्यनन्तानामनन्तानां साधारणाशरीरिणामेकेकमुक्त के भेद से दो प्रकार के होते हैं उनमें जो बद्ध हैं वे अनन्त है काल से अनन्त उत्सर्पिणी अवसर्पिणियों में जितने समय होते है उतने प्रमाण के अनन्त होते हैं, क्षेत्र, से अनन्त लोकों की प्रदेशराशि के प्रमाणवाले अनन्त होते हैं। द्रव्य से सिद्धों से अनन्त गुणे और संष जीवों की अपेक्षा से अनन्त भाग न्यून होते हैं । तैजस शरीर के स्वामी अनन्त होने से तैजस शरीर भी अनन्त होते हैं । तात्पर्य कहने का यह है कि-तैजस शरीर के स्वामी अनन्त होने के कारण तेजस शरीर अनन्त हैं। __ शंका-औदारिकशरीरों के स्वामी तो अनन्त हैं, फिर आपने उन्हें अनन्त क्यों नहीं कहा ? ।
उत्तर--औदारिक शरीर नारक और देवों के नहीं होता है किन्तु मनुष्य और तिर्यश्चों के ही होता है। उनसे जो भी બદ્ધ છે, તે અનંત છે તે કાળથી અનંત ઉત્સર્પિણી એમાં જેટલું સમય હોય છે એટલા પ્રમાણના અનંત હોય છે ક્ષેત્રથી અનંત લેકની પ્રદેશ રાશિના પ્રમાણવાળું અનંત હોય છે. દ્રવ્યથી સિદ્ધોથી અનંતગણ અને સર્વ જીવોની અપેક્ષાએ અનંતભાગ ઓછા હોય છે. તૈજસશરીરના સ્વામી અનંત હોવાથી તૈજસશરીર પણ અનંત હોય છે. તાત્પર્ય કહેવાનું એ છે કે તૈજય શરીરના સ્વામી અનંત હોવાથી તેજસ શરીર અનંત છે.
શંકા-દારિક શરીરના સ્વામી પણ અનંત છે, તે પછી આપીએ તેમને અનંત કેમ કહ્યા નથી?
ઉત્તર-દારિક શરીર નારી અને દેવેને હેત નથી, મનુષ્ય અને તિયાને જ હોય છે. તેમાં જે પણ અનંત સાધારણ શી છે, તે સર્વનું એક એક જ દારિક શરીર હોય છે એટલા માટે બદ્ધ હારિક
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४०४
अनुयोगद्वारसूत्रे मेव शरीरं भवति, अत औदारिकशरीराण्यसंख्यातान्युक्तानि नत्वनन्तानि । तैजसशरीरं तु चतुर्गतिकानां भवति । तत्रापि साधारणशरीरिणामेकैकस्यैकैक तैजस. शरीरं माति, अतस्तैजसशरीराण्यनन्तान्युक्तानि । संसारिणो जीवाः सिद्धेभ्योऽनन्तगुणाः सन्ति, अतः 'सिद्धेहि अणंतगुणा' इत्युक्तम् । सिद्धानां तैजसशरीराभावात् एतानि सर्वजीवसंख्यकानि न भवन्ति । किन्तु सिद्धानां सर्वजीवापेक्षयाऽनन्तमागवर्तित्वादेतानि तैजसशरीराणि सर्वजीवानामनन्तमागोनानि भवन्ति, अतः सन्मजीवाणं अणंतभागूगा' इत्युक्तम् । इत्थं च तैजसशरीराणि सर्वसंसारिअनन्त साधारण शरीर हैं, उन सबका एक २ ही औदारिक शरीर होता है। इसलिये बद्ध औदारिक शरीर तो-असंख्यात कहे गये हैं, अनन्त नहीं । परन्तु जो तैजस शरीर हैं, वे चारों गतियों के जीवों को होते है । इन में भी जो साधारण शरीर हैं, उनमें एक एक जीव के एक एक तेजस शरीर होता है । इसलिये तैजस शरीर अनंत कहे गये हैं । संसारी जीव सिद्धों से अनन्तगु में हैं, इसलिये 'सिद्धेहिं अणतगुणा' ऐसा कहा गया है। सिद्धों के तैजस शरीर होता नहीं है। इसलिये बद्ध तेजस शरीर सर्व जीवों की संख्या के बराबर नहीं होते हैं। किन्तु 'सिद्ध सर्वजीवों की अपेक्षा अनन्तवें भागवर्ती कहे है, इसलिये तैजस शरीर सर्वजीवों के अनन्तवें भाग से न्यून कहे गये हैं । यही बात 'सव्वजीवाणं अणंतभागूणा' इस पाठ द्वारा प्रद. शित की गई है। इस प्रकार बद्ध तैजसशरीर चाहे सिद्धों से अनन्तगुणे हैं, ऐसा कहो चाहे सर्वजीव राशि के अनन्तवें भाग से શરીર તે અનંત નહિ પણ અસંખ્યાત કહેવામાં આવ્યાં છે. પરંતુ જે તેજસ શરીર છે, તે ચારેચાર ગતિઓના જીના હોય છે. આમાં પણ જે સાધારણ શરીરે છે, તેમાં એક એક જીવનું એક એક તૈજસશરીર હોય છે. એટલા માટે તૈજસ શરીરે અનંત કહેવામાં આવ્યાં છે સંસારી જીવ सिद्धोनी अपेक्षा अननगर। छ, मेथी "सिद्धेहिं अणंतगुणा" या प्रमाणे કહેવામાં આવ્યું છે સિદ્ધોને તૈજસ શરીર હોતું નથી, એટલા માટે બદ્ધ તેજસ શરીર સર્વ જીવોની સંખ્યાની બરાબર હેતા નથી પરંતુ સિદ્ધ સર્વ
જીવોની અપેક્ષા અનંતમાં ભાગવત કહેવામાં આવ્યા છે. એથી તૈજસ ... शरी। सोना मनतमा माया न्यून अवाम माव्या छ. मेरी
पात “ सव्वजीवाणं अणंतभागूणा' मा ५8 43 प्रशित ४२वामां मावी छे. આ પ્રમાણે બદ્ધ તેજસ શરીર સિદ્ધોથી અનંતગણું છે. આમ કહીએ અથવા તે સર્વ જીવ રાશિના અનંતમા ભાગથી ન્યૂન છે, આમ કહીએ બન્નેને
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अनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र २१२ ओघतो वैक्रियादिशरीरसंख्यानिरूपणम् १०५ जीवसंख्यकानि बोध्यानि । तथा-मुक्तानि तैजसशरीराणि अनन्तानि सन्ति । कालत एतानि अनन्तामुत्सपिण्यवसपिणीषु यावन्तः समया भवन्ति, तावत्संख्यकानि बोध्यानि । क्षेत्रता-अनन्तलोकपदेशराशितुल्यानि । द्रव्यतश्व-सर्वजीवेभ्यो. ऽनन्तगुणानि सर्वजीववर्गस्य अनन्तभागवर्तीनि बोध्यानि । जीवराशिनव जीवराशिर्गुणितो जीववर्ग इत्युच्यते । जीववर्गापेक्षया एतानि मुक्तशरीराणि अनन्तभागवर्तीनि भवन्तीत्यर्थः । अत्रेदं बोध्यम्-सर्वजीवाः सद्भावतोऽनन्ता अपि न्यून है, ऐसा कहो एक ही जैसा कथन का प्रकार है। इस प्रकार के कथन से यही सिद्ध होता है कि-'ये बद्ध तैजस सर्व संसारी जीवों की जितनी संख्या है, उस संख्या के बराबर है। समस्त जीवराशि की संख्या के बराबर नहीं । (तस्थ णं जेते मुक्केल्लया तेणं अणंताहिं उस्सप्पिणी ओसपिणीहि अवहीरंति कालओ) तथा जो मुक्त तेजस शरीर हैं वे सामान्य से अनन्त है। काल की अपेक्षा भी अनन्त है अनन्त उत्सर्पिणी और अवसर्पिणीकालों में जितने समय हैं, उन समयों के बराबर है । (खेत्तमो अणंता लोगा) क्षेत्र की अपेक्षा मुक्त तैजस शरीर अनन्तलोक प्रमाण हैं । 'दघओ सम्धजीवेहि अणतगुणा, सव्धजीवगास्स अणंतभागे) तथा द्रव्य की अपेक्षा मुक्त तेजस शरीर सर्व जीवों से अनन्तगुणे हैं अथवा सर्वजीववर्ग के अनन्तवें भाग प्रमाण है । जीवराशि से जीवराशि का गुणा करने पर जो राशिउत्पन्न होती है, वह जीव वर्ग' कहलाता है । इस जीवधर्म की अपेक्षा से मुक्त तैजस शरीर अनन्त भागवर्ती होते हैं। इस प्रकार એક જે જ કથનને પ્રકાર છે. આ જાતના કથનથી એજ સિદ્ધ થાય છે. કે આ બદ્ધ તેજસ સર્વ સંસારી જીની જેટલી સંખ્યા છે, તે સંખ્યાની બરાબર છે. સમસ્ત જીવરાશીની સંખ્યાની બરાબર નહીં (तत्थ णं जे ते मुक्केल्लया ते णं अणंता. अणंताहिं उत्सप्पिणी भोसप्णिीहिं अवहोरंति कालओ) मा २ भुत तस शरी। छे ते सामा. પની અપેક્ષા અનંત છે. કાલની અપેક્ષા પણ અનંત છે. અનંત ઉત્સપિણી અને અવસર્પિણ કાલમાં જેટલા સમચા છે, તે સમયની બરાબર છે. (खेत्तओ अणंता लोगा) क्षेत्रनी अपेक्षा भुत तस शरी। मन als प्रभाय छे. (दव्वओ सव्वजोवेहिं अणंतगुणा, सव्वजीववगरस अणंतभागे) તેમજ દ્રવ્યની અપેક્ષા મુકત તેજસ શરીર સવજીથી અનંતગણું છે અથવા સર્વજીવ વર્ગના અનંતમાં ભાગ પ્રમાણ છે. જીવ રાશિથી જીવરાશિ ગુણિત કરવાથી જે શશિ ઉત્પન્ન થાય છે, તે “જીવવગ” કહેવાય છે. આ જીવવર્ગની અપેક્ષાએ આ મુકત તેજસશરીર અનંત ભાગવર્તી હોય છે. આ કથનને આ રીતે
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अनुयोगद्वारसूत्रे कल्पनया दशसहस्राणि । तानि च तैरेव गुणितानि दशकोटिसंख्यकानि भान्ति । सद्भावतोऽनन्तानन्न संख्यकोऽपि जीववर्गोऽसत्कल्पनया दशकोटिसंख्यको बोध्यः। तस्यानन्तगुण कल्पनया शततमे भागे एतानि मुक्ततैनसशरीराणि सन्ति । अतः सद्भावतोऽनन्तान्यप्येतानि कल्पनया दशलक्षसंख्यकानि । इत्थमेतानि सर्वजीवेभ्योऽनन्तगुणानि जीववर्गापेक्षयाऽनन्तभागवर्तीनि बोध्यानि । नन्वेतानि समझना चाहिये-सर्व जीवराशि अनन्त हैं-सो इस अनन्त को कल्पना से १००००, दस हजार मानकर इस दस हजार को दस हजार से गुणा करना चाहिये। इस प्रकार जो दश करोड की राशि गुणा करने पर आई है वह जीववर्ग मान लेना चाहिये। अनन्त के स्थान पर १०० रखकर दश करोड़ में उनका भाग देना चाहिये इस प्रकार करने से जो दश लाख आते हैं यही जीवराशि के वर्ग का अनन्ता भाग है सो मुक्त तैजस शरीर इतने प्रमाण में जीवराशि के वर्ग के अनन्तवें भाग रूप हैं ऐसा कल्पना से समझना चाहिये। तथा 'सर्व जीवों से अनन्तगुणां हैं। इसे यों समझना चाहिये-सर्वजीव राशि का प्रमाण कल्पना से दश हजार है और अनन्त प्रमाण १०० है, सो दश हजार के साथ १०० का गुणा करने पर भी दश लाख ही आते हैं । अतः चाहे यों कहो कि मुक्त तेजस शरीर द्रव्य की अपेक्षा सर्व जीवों से अनन्तगुण हैं, चाहे यों कहों-'मुक्त तैजस शरीर जीव वर्ग के अनन्तवें भाग प्रमाण हैं। दोनों प्रकार के कथन का एक ही
સમજવું જોઈએ સર્વ જીવરાશિ અનંત છે તે આ અનંતને કલ્પનાથી ૧૦૦૦૦ દશહજાર માનીને આ દશહજારને દશહજારથી ગુણિત કરવા જોઈએ આ રીતે જે દશકરોડની રાશિ ગુણ કરવાથી આવી છે, તે જીવવર્ગ છે એમ માની લેવું જોઈએ અનંતના સ્થાને ૧૦૦ મૂકીને દશ કરોડમાં ભાગાકાર કરે જોઈએ આ રીતે કરવાથી જે દશલાખ આવે છે, તે જ જીવરાશિના વગને અનંત ભાગ છે. તે મુકત તેજસશરીર આટલા પ્રમાણમાં જીવ રાશિના વર્ગના અનંતમાં ભાગ રૂપ છે. આમ કલ્પનાથી જાણી લેવું જોઈએ તેમજ
સર્વજીથી અનંતગણે છે. આને આ રીતે સમજવું જોઈએ કે સર્વજીવ રાશિનું પ્રમાણ કલ્પનાથી દશહજાર છે અને અનંતનું પ્રમાણ ૧૦૦ છે. તે દશહજારની સાથે ૧૦૦ સંખ્યાને ગુણિત કરવાથી પણ દશલાખ જ થાય છે એટલા માટે ભલે એમ કહો કે મુકત તૈજસ શરીર દ્રવ્યની અપેક્ષા સર્વ જીવથી અનંતગુણ છે, અથવા ભલે આમ કહે કે મુકત તેજસ શરીર
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अनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र २१२ ओघतो वैक्रियादिशरीरसंख्यानिरूपणम् ४०७ जीववर्गसंख्यकानि कयं न भवन्ति ? इति चेदाह-यानि यानि तैनसशरीराणि मुक्तानि अनन्तभेदैभियन्ते, तानि तानि असंख्येयकालावं तं परिणाम परित्यज्य नियमात् परिणामान्तरवन्ति भवन्ति, अतएषां प्रतिनियतकालावस्थायि. स्वेन उत्कृष्टतोऽपि यथोक्तसंख्यकत्वमेव, नवितोऽधिकसंख्याकत्वमिति । अथ ओघतः कर्मकशरीरं निरूपयितुमाह-'केवइयाणं भंते ! कम्मयसरीरा पण्णता' इत्यादि। कामकशरीराणां सर्वा वक्तव्यता तैनसशरीरवद् बोध्या, तैजसकार्मकयोः समानस्वामिकत्वात् सर्वदा सहचरितत्वाच्चेति ॥ सू० २१२ ॥ तात्पर्य निकलता है। केवल कधन की ही विचित्रता है, अर्थ की विचित्रता नहीं।
शंका-- ये मुक्त तैजस शरीर जीववर्ग की जितनी संख्या है, उस संख्या के तुल्य क्यों नहीं है ? ___ उत्तर--जो जो मुक्त तेजसशरीर अनन्त भेदों से विशिष्ट कहे गये हैं, वे वे मुक्त तेजसशरीर असंख्यात् काल के बाद तैजस शरीररूप परिणाम पर्याय का परित्याग करके नियम से दूसरी पर्याय को धारण कर लेते हैं । इसलिये प्रतिनियत काल तक अवस्थित होने के कारण इनकी संख्या उत्कृष्ट से भी अनन्तरूप ही है। इससे अधिक नहीं। ____अब सूत्रकार सामान्यरूप से कार्मण शरीर का निरूपण करते हैं (केवायाणं भंते ! कम्मयसरीरा पण्णत्ता?) हे भदन्त ! कामण शरीर कितने कहे गये हैं ? (गोयमा ! कम्मयसरीरा दुविहा पण्णत्ता) हे
જીવવર્ગના અનંતમા ભાગ પ્રમાણ છે. બન્ને પ્રકારના કથનનું તાત્પર્ય સરખું જ છે ફક્ત કથનની જ વિચિત્રતા છે અર્થની વિચિત્રતા નથી.
શંકા-આ મુકત તેજસ શરીર જીવવર્ગની જેટલી સંખ્યા છે, તે સંખ્યાની બરાબર કેમ નથી ?
ઉત્તર–જે જે મુકત તેજસ શરીર અનંત ભેદેથી વિશિષ્ટ કહેવામાં આવ્યાં છે, તે મુકત તેજસ શરીર અસંખ્યાત કાલ બાદ તૈજસ શરીર રૂપ પરિણામ-પર્યાય–ને પરિત્યાગ કરીને નિયમથી બીજી પર્યાયને ધારણ કરી લે છે. એટલા માટે પ્રતિનિયત કાલ સુધી અવસ્થિત હોવાથી એમની સંખ્યા ઉત્કૃષ્ટની અપેક્ષાએ પણ અનંત રૂપ જ છે. આનાથી વધારે નહિ હવે સૂત્ર१२ सामान्य ३५थी म शरीनु नि३५५५ ४२ छ. (केवइयाण भंते ! कम्मयसरीरा पण्णता ?) महन्त ! शरी। eai वाम माया छ ?
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૪૦૮
अनुयोगद्वारसूत्रे
इत्थमोघतः पञ्चविधान्यपि शरीराण्युक्तवा सम्मति नारकादिचतुर्विंशति
दण्ड के विशेषतस्तानि प्ररूपयितुमाह
मूलम् - नेरइयाणं भंते! केवइया ओरालियसरीरा पण्णत्ता ? गोयमा ! ओरालियसरीरा दुबिहा पण्णत्ता, तं जहा - बद्वेल्लया य मुक्केल्लया य । तत्थ णं जे ते बद्धेल्लया ते णं नत्थि । तत्थ पणं जे ते मुक्केल्लया ते जहा ओहिया ओरालिक्सरीरा तहा भाणियव्वा । नेरइयाणं भंते! केवइया वे उव्वियसरीरा पण्णत्ता ? गोयमा ! वेउब्वियसरीरा दुविहा पण्णत्ता, तं जहा - बद्धेल्लया य मुक्केल्लया य । तत्थ णं जे ते बद्वेल्लगा ते णं असंखिज्जा असंखिज्जाहिं उस्सप्पिणीओसप्पिणीहिं अवहीरंति कालओ, खेत्तओ असंखेज्जाओ सेंढीओ पयरस्त असंखिज्जइभागे, तासि णं सेढीणं विक्खंभसूई अंगुलपढमवग्गमूलं बिइ अवग्गमूलपडुप्पणं | अहव पणं अंगुलबिइअवग्गमूलघणपमाणगौतम ! कार्मण शरीर दो प्रकार के कहे गये है? (तं जहा वे ये हैं(बद्धेल्लया य मुक्केल्ले या य) एक बद्ध और दुसरे मुक्त | (जहा तेयग सरीरा तहा कम्मगसरीरा वि भाणियन्वा) दोनों प्रकार के शरीरों के विषय का कथन तैजस शरीर के कथन के जैसा जानना चहिये । क्योंकि तैजस और कार्मण शरीरों के स्वामी समान हैं । तथा ये दोनों शरीर साथ २ रहते हैं ।। सू० २१२ ॥
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( गोयमा ! कम्मयसरीरा दुविधा पण्णत्ता १) हे गौतम! अर्थ शरीर मे अठारनां कुडेवामां याग्या छे. (तंजहा) ते मा प्रभा छे, ( बद्धेल्लया य मुक्के ल्हया य) मे भद्ध मने जीन भुडत ( जहा वेयगसरीरा तहा कम्मगसरीरा विभाणियन्त्रा) भन्ने प्रहारना शरीराना વિષયનુ કથન તેજસ શરીરના કથનની જેમ જ જાણવુ જોઇએ કેમકે તેજસ અને કાક શરીરના સ્વામી સમાન છે. તેમજ આ બન્ને શરીર સાથે સાથે રહે છે. IIસૂ૦૨૧૨।।
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अनुयोगवन्द्रिका टीका सूत्र २१३ नारकादीनामौदारिकादिशरीरनि० ४०९ मेत्ताओ सेढीओ। तत्थ णं जे ते मुक्केल्लया तेणं जहा ओहिया ओरालियसरीरा तहा भाणियव्वा। णेरइयाणं भंते! केवइया, आहारगसरीरा पण्णता? गोयमा! आहारगसरीरा दुविहा पण्णत्ता, तं जहा-बद्धेल्लया य मुक्केल्लया य। तत्थ णं जे ते बद्धेल्लया ते णं नस्थि। तत्थ णं जे ते मुक्केल्लया ते. जहा
ओहिया ओरालिया तहा भाणियवा। तेयगकम्मयसरीरा जहा एएसि चेव वेउब्धियसरीरा तहा भाणियवा। असुरकुमाराणं भंते! केवइया ओरालियसरीरा पण्णत्ता? गोयमा! जहा नेरइयाणं ओरालियसरीरा तहा भाणियव्वा। असुरकुमाराणं भंते! केवइया वेउब्वियसरीरा पण्णता? गोयमा! वेउब्धियसरीरा दुविहा पण्णता, तं जहा-बद्धेल्लया य मुक्केल्लया य । तत्थ णं जे ते बद्धेल्लया, ते णं असंखिज्जा असंखिज्जाहिं उस्सप्पिणीओसप्पिणीहि अवहीरति कालओ, खेत्तओ असंखे. जाओ सेढीओ पयरस्स असंखिज्जइभागे। तासि णं सेढीणं विक्खंभसूई अंगुलपढमवगमूलस्त असंखिज्जइभागे। मुक्केल्लया जहा ओहिया ओरालियसरीरा। असुरकुमाराणं भंते ! केवइया आहारगसरीरा पण्णत्ता? गोयमा! आहारगसरीरा दुविहा पण्णत्ता, तं जहा-बद्धेल्लया य मुक्केल्लया य। जहा एएसि घेव ओरालियसरीरा तहा भाणियव्वा। तेयगकम्मय. सरीरा जहा एएति वेउवियसरीरा तहा भाणियहा। जहा असु. रकुमाराणं तहा जाव थणियकुमाराणं ताव भाणियव्वं ॥सू०२१३॥
अ० ५२
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अनुयोगहारो ___ छाया-नैरयिकाणां भदन्त ! कियन्ति औदारिकशरीराणि प्रज्ञप्तानि ? गौतम ! औदारिकशरीराणि द्विविधानि प्रज्ञप्तानि तद्यथा-वद्धानि च मुक्तानि प। तत्र खलु यानि तानि बद्धानि तानि खल्ल न सन्ति । तत्र खलु यानि तानि मुक्तानि तानि यथा औधिकानि औदारिकशरीराणि तथा भणितव्यानि । नैर
। इस प्रकार पांच प्रकार के शरीरों का सामान्यरूप से कथन करके अब सूत्रकार नारकादिचतुर्विशतिदंडक में विशेषरूप से उनकी प्ररूपणा करते हैं--'नेरइया णं भंते ! केवड्या' इत्यादि ।
शब्दार्थ--(भंते !) हे भदन्त ! (नेरइयाण) नारक जीवों के (केवइया) कितने (ओरालियसरीरा पण्णत्ता) औदारिक शरीर कहे गये हैं ? (गोयमा) हे गौतम ! (ओरालियसरीरा दुषिहा पण्णत्ता) औदारिक शरीर दो प्रकार के कहे गये हैं। (तं जहा) जो इस प्रकार से हैं (पद्धेल्लया य मुक्केल्लया य) एक बद्ध और दूसरे मुक्त। (तत्थ णं जे ते बद्धेल्लया तेणं णत्थि) इनमें जो बद्ध औदारिक शरीर हैं, वे तो नारक जीवों के नहीं होते हैं । क्योंकि नारक जीव वैक्रिय शरीरवाले होते हैं, इसलिये औदारिक बन्धन का अभाव होने के कारण उनके बद्ध औदारिक शरीर नहीं होते हैं । बद्ध औदारिक शरीर मनुष्य और तियश्च के ही होते हैं । (तत्थ णं जे ते मुक्केल्लया ते जहा ओहिया ओरालियसरीरा तहा भाणियव्या) तथा जो मुक्त औदारिक शरीर हैं, वे जिस प्रकार से सामान्य मुक्त औदारिक शरीर कहे गये हैं-वैसे
આ પ્રમાણે પાંચ પ્રકારના શરીરનું સામાન્ય રૂપથી કથન કરીને હવે સૂત્રકાર નારકાદિ ચતુર્વિશતિ દંડકમાં વિશેષ રૂપથી તેની પ્રરૂપણ કરે છે–
"नेरइयाणं भंते ! केवइया" त्याह
शाय-(भंते !) 3 d! (नेरइयाण) ना२४ वाना (केवइया) tea (ओरालियसरीरा पण्णत्ता) मोहरि शरी। डेवामा मा०यां छे ? (गोयमा !) 3 गौतम! (ओरालियसरीरा दुविहा पण्णता) महरि शरीर २. पान ४ामा मा०यां छे. (तंजहा) २ मा प्रमाणे छे. (बद्धेल्लया य मुक्केल्लया य) ४ प भने भी भुत (तत्थ णं जे ते बद्धेल्लया वेणं णस्थि) भाभा २ मा मोहा२ि४ शरी२ छ, त तो ना२४ २ त नयी કેમકે નારક જીવ વૈક્રિય શરીરવાળા હોય છે, એથી ઔદારિક બંધનના અભાવથી તેમને બદ્ધ ઔદ્યારિક શરીર મનુષ્ય અને તિર્યંચોને જ હોય છે. (तत्थ णं जे ते मुक्केल्लया ते जहा ओहिया ओरालियसरीरा तहा भाणियव्वा)
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अनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र २१३ नारकादीनामौदारिकादिशरीरनि० ४१५ यिकाणां भदन्त ! कियन्ति वैक्रियशरीराणि प्रज्ञप्लानि, गौतम ! वैक्रियशरीराणि द्विविधानि प्राप्तानि, तद्यथा-बद्धानि च मुक्तानि च । तत्र खलु यानि तानि बद्धानि तानि खलु असंख्येयानि असंख्येयाभ्य उत्सर्पिण्यवसर्पिणीभ्यः अपहियन्ते ही जानना चाहिये । अर्थात् पूर्व प्रज्ञापननयकी अपेक्षा से नारक जीवों के औदारिक शरीर होते हैं। क्योंकि नारक का जीव जब पूर्वभव में तिर्यगादि नाना पर्यायों में था तब वहां औदारिक शरीर था और उसे ही छोडकर यह इस नारक पर्याय में आया है। इसलिये मुक्त
औदारिक शरीर नारक जीवों के सामान्य से अनन्त होते हैं। (जेर. इयाणं भंते ! केवड्या वेउब्धियसरीरा पण्णत्ता) हे भदन्त ! नारकजीवों के कितने वैक्रिय शरीर कहे गये हैं । (गोयमा!) हे गौतम ! (वेउव्विय सरीरा दुविहा पण्णत्ता-तं जहा-बद्धेल्लया य मुक्केल्लया य) वैक्रिय शरीर बद्ध और मुक्त के भेद से दो प्रकार के कहे गये हैं-(तस्थ णं जे ते बद्धेल्लया ते णं असंखिज्जा असंखिज्जाहिं उस्सपिणीओसप्पि. णीहि अवहीरंति कालो) इनमें जो घद्ध वैक्रियशरीर हैं वे सामान्य से असंख्यात उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी काल के जितने समय है, उतने वे बद्ध वैक्रियशरीर नारक जीवों के हैं । सामान्य से असं. ख्यात कहने का कारण यह है कि-'नारक जीव असंख्यात होते हैं તેમજ જે મુકત દારિક શરીરે છે, તે જેમ સામાન્ય મુકત ઔદારિક શરીરે કહેવામાં આવ્યાં છે, તેમજ જાણવાં જોઈ એ એટલે કે પૂર્વ પ્રજ્ઞાપનનયની અપેક્ષાએ નારકના દારિક શરીર હોય છે. કેમકે નારકને જીવ જ્યારે પૂર્વભવમાં તિર્યાગાદિ અનેક પર્યામાં હતું ત્યારે ત્યાં ઔદારિકશરીર હતું, અને તેને જ ત્યજીને આ નારક પર્યાયમાં આવે છે. એટલા માટે મુકત દારિક શરીર નારકજીને સામાન્યથી અનંત હોય છે. (रइयाणं भंते ! केवइया वेउठिवयसरीरा पण्णत्ता ) महत नावनां ८ वैठिय शरी। पाम माव्यां छ ? (गोयमा !) गोतम ! (वेउब्धियसरीरा दुविहा पण्णत्ता-तंजहा- बद्धेल्लया य मुक्केल्लया य ) वैष्य शरी। पई न भुतना Aथा मे प्रान अपामा मा०यां छे. (तस्थ णं जे ते बद्धेल्लयातेणं असंखिज्जा असंखिजाहिं उस्सप्पिणी ओसप्पिणीहि अबहीरंति कालओ) मामा જે બદ્ધ વૈક્રિયશરીર છે તે સામાન્યની અપેક્ષાએ અસંખ્યાત છે. કાલની અપેક્ષા અસંખ્યાત છે. અસંખ્યાત ઉત્સર્પિણી અને અવસર્પિણી કાલના જેટલા સમય છે, તેટલાં તે બદ્ધ વૈક્રિયશરીર નારક જીવના છે. સામાન્યની
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अनुयोगद्वारसूत्र काळतः, क्षेत्रतः असंख्येयाः श्रेणयः भारस्य असंख्यातमागे । तासां खलु श्रेणीनां विष्कम्भसूचीः अङ्गुल्मथमवर्गमूलं द्वितीयवर्गमूलप्रत्युत्पन्नम् । और प्रत्येक नारक के बद्धवैक्रियशरीर एक एक होता है। (खेत्तओ असंखेज्जापो सेढ़ीओ, पयरस्स असंखिज्जहभागे)क्षेत्र की अपेक्षा प्रतर के असंख्यातवें भाग में वर्तमान असंख्यात श्रेणियों के जितने प्रदेश होते है, उतने प्रदेश प्रमाण बद्ध वैक्रियशरीर नारक जीवों के होते हैं ।
शंका--प्रतर के असंख्यात भाग में असंख्यातयोजनकोटियां भी आ जाती हैं तो क्या इतने भी क्षेत्र में जो आकाशश्रेणियां हैं वे यहां ग्रहण की गई है ? . उत्तर-(तासि णं सेढीणं विक्खं भसूई अंगुलपढमधग्गमूलं विहअवग्गमूलप उप्पण्णं) प्रतर के असंख्येय भाग में वर्तमान असंख्यात श्रेणियों की विस्तार सूचि-विस्तार श्रेणि-ही-यहाँ ग्रहण की गई हैं प्रतर के असंख्येयभाग में रही हुई है असंख्यात योजन कोटिरूप क्षेत्र वर्ती नभःश्रेणि नहीं। इस विष्कंभसूचि का प्रमाण द्वितीय वर्गमूल से गुणित जो प्रथमवर्ग मूल है, उतना ग्रहण किया है। इसका तात्पर्य અપેક્ષાએ અસંખ્યાત કહેવાનું તાત્પર્ય એ છે કે નારક જીવ અસંખ્યાત હોય છે અને દરેકે–દરેક નારકના બદ્ધ વૈક્રિયશરીર એક એક જ હોય છે. (लचलो असंखेज्जाओ सेढीओ, पयरस्स असंखिज्जइभागे) क्षेत्रनी अपेक्षा ગતરના અસંખ્યાતમાં ભાગમાં વર્તમાન અસંખ્યાત શ્રેણીઓ જેટલા પ્રદેશ હોય છે, તેટલા પ્રદેશ પ્રમાણુ બદ્ધ વૈક્રિયશરીર નારક ના પણ હોય છે.
શંકા-પ્રતરના અસંખ્યાત ભાગમાં અસંખ્યાત જન કેટીઓ પણ આવી જાય છે. તે શું આટલા ક્ષેત્રમાં જે આકાશ શ્રેણીઓ છે, તેમનું પણ અહીં ગ્રહણ કરવામાં આવ્યું છે?
उत्तर-(तासि णं सेढीणं विक्खंभसूई अंगुलपढमवग्गमूलं विइ अवग्ग भूलपउप्पण्ण) प्रतरना असण्येय सागमा पतमान अध्यात श्रीमानी વિસ્તાર સૂચિ-વિસ્તાર શ્રેણી જ અહીં ગ્રહણ કરવામાં આવી છે. પ્રતરના અસંખ્યય ભાગમાં આવેલી અસંખ્યાત જન કેન્ટિ રૂપ ક્ષેત્રવત નભ શ્રેણી નહીં. આ વિષ્ફભ સૂચિનું પ્રમાણ દ્વિતીય વર્ગમૂલથી ગુણિત જે પ્રથમ વર્ગમૂલ છે, તેટલું ગ્રહણ કરવામાં આવ્યું છે. આનું તાત્પર્ય આ પ્રમાણે છે કે અંગુલ પ્રમાણુ ક્ષેત્રને અંગુલ પ્રમાણ ક્ષેત્રની સાથે ગુણ કરવાથી પ્રતર
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४१३
igatafat टीका सूत्र २१३ नारकादीनामौदारिकादिशरीरनि० अथवा खलु अङ्गुलद्वितीय वर्गमूलघनममाणमात्राः श्रेणयः । तत्र खलु यानि तानि मुक्तानि तानि खलु यथा अधिकानि औदारिकशरीराणि तथा भणिइस प्रकार से है - 'कि अंगुल प्रमाण क्षेत्र को अंगुल प्रमाण क्षेत्र से गुणा करने पर प्रतर क्षेत्र होता है, ऐसे अंगुल प्रमाण प्रतर क्षेत्र में जो प्रदेशराशि है, उसमें असंख्यात वर्गमूल होते हैं इनमें प्रथमवर्गमूल को द्वितीयवर्गमूल से गुणा करने पर जितनी श्रेणियां लभ्य होती हैं उतने प्रमाणवाली विष्कम्मसूचि होती है। इसे यों समझना चाहिये कि वस्तुतः असंख्पेयप्रदेशात्मक प्रतरक्षेत्र में असत्कल्पना से मानलो २५६, श्रेणियां है । इनमें २५६, का प्रथम वर्गमूल १६ आता है । और द्वितीयवर्गमूल ४ आता है । इस प्रकार २५६ का वर्गमूल प्रथम १६ और द्वितीयवर्ग मूल ४ होता है। प्रथमवर्ग मूल १६ के साथ द्वितीयवर्गमूल ४ गुणा करने पर ६४ होते हैं। ये ६४, मानलो असंख्यात श्रेणियां हैं। ऐसी श्रेणीरूप विष्कंभ सूचि यहाँ ग्रहण की गई है । प्रकारान्तर से सूत्रकार इसी अर्थ को य कहते हैं - ( अहवा णं अंगुलविइअवग्गमूलघणप्यमाणमेत्ताओ से ढीओ) अंगुलप्रमाण प्रतरक्षेत्र में रही हुई श्रेणिराशि का जो द्वितीय वर्गमूल ४ है उसका घन करो अर्थात् ४ ४ ४ × इस प्रकार घन करने पर ६४ आते हैं । सो ये ६४ प्रमाणरूप श्रेणियां यहां जानना चाहिये । इस
ક્ષેત્ર થાય છે. એવા અંગુલ પ્રમાણુ પ્રતર ક્ષેત્રમાં જે પ્રદેશરાશિ છે. તેમાં અસખ્યાત વગ મૂલ હેાય છે. આમાં પ્રથમ વર્ગ મૂલને દ્વિતીય વર્ગમૂલની સાથે ગુણા કરવાથી જેટલી શ્રેણીઓ લભ્ય હોય છે, તેટલા પ્રમાણવાળી વિષ્ણુ‘ભ સૂચિ હાય છે. આને આ રીતે સમજી શકાય કે ખરેખર અસ ધ્યેય પ્રદેશાત્મક પ્રતર ક્ષેત્રમાં અસકલ્પનાથી માની લેા કે ૨૫૬ શ્રેણીએ છે આમાં ૨૫૬નુ પ્રથમ વર્ગ મૂલ ૧૬ આવે છે અને ખીજુ` વમૂલ ૪ ચાર આવે છે. આ પ્રમાણે ૨૫૬નુ વર્ગ મૂલ પ્રથમ ૧૬ અને ખીજુ વગ મૂલ ૪ ચાર હાય છે પ્રથમ વગ મૂલ ૧૬ ને દ્વિતીય વર્ગસૂત્ર ૪ની સાથે ગુણાકાર કરવાથી ૪ થાય છે આ ૬૪ વિચાર કે અસ ંખ્યાત શ્રેણિએ છે. એવી શ્રેણિરૂપ વિષ્ક’ભસૂચિ અહીં ગ્રહણુ કરવામાં આવી છે. પ્રકારાન્તરથી સુત્રકાર એજ अर्थने नहीं खेवी रीते स्पष्ट उरे छे. ( अहवा णं अंगुल अवगमूलघणमाणमेत्ताओ सेढीओ) मगुल अमाणु प्रतर क्षेत्रमां आवेली श्रेथ रोशिनु જે ખીજુ વગ મૂળ ૪ છે તેને ધન કરીએ એટલે કે ૪૪૪ આ રીતે તે ઘન કરવાથી ૬૪ આવે છે. તે આ ૬૪ પ્રમાણુ રૂપ શ્રેણિએ અહી‘
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अनुयोगद्वारसूत्र तव्यानि । नैरयिकाणां भदन्त ! कियन्ति आहारकशरीराणि प्रज्ञप्तानि ? गौतम ! आहारकशरीराणि द्विविधानि प्रज्ञप्तानि, तद्यथा-बद्धानि च मुक्तानि च । तत्र खलु यानि तानि बद्धानि तानि खलु न सन्ति । तत्र खलु यानि तानि प्रकार के कथन में केवल वर्णनशैली की ही विचित्रता है, अर्थ में कोई फर्क नहीं है । इस प्रकार असत्कल्पना से कल्पित हुई ६४ संख्यारूप श्रेणियों कि-'जिन्हें सिद्धान्त दृष्टि से असंख्येय ही माना गया। है।' प्रदेशों की जो राशि है, उस राशिगत प्रदेशों की संख्या के बराबर नारकों के बद्ध वैक्रियशरीर होते हैं । तथा प्रत्येक शरीर होने के कारण नारक जीव भी इतने ही संख्यावाले होते हैं । अर्थात् असंख्यात नारक जीव हैं और उनके बद्धवैक्रियशरीर भी असं. ख्यात ही हैं, ऐसा जानना चाहिये । पहिले तो नारक जीवों को सामा. म्यतः-ही असंख्यात कहा है, परन्तु यहां पर उनके शरीर का प्रकरण चल रहा है, इसलिये उनके बद्धवैक्रियरूप शरीर को लेकर एक २ नारक के वह एक एक बद्धवैक्रिय शरीर स्वतंत्र होता है। इस कारण वे असंख्यात हैं, यह बात भी सिद्ध हो जाती है । इसी प्रकार से दूसरे जीवों में भी कि-'जो प्रत्येक शरीरी हैं- स्वतन्त्र २ जिनका एक २ शरीर है-अपने २ षद्ध शरीर को जितनी संख्या है, उतनी संख्या उनकी है, ऐसा जानना चाहिये । (तत्य णं जे ते मुक्केल्लया ते गं
જાણવી જોઈએ આ જાતના કથનમાં ફકત વર્ણન શૈલીની જ વિચિત્રતા છે, અર્થમાં કઈ તફાવત નથી આ પ્રમાણે અસત્કલપનાથી કલ્પિત થયેલી ૬૪ સંખ્યા રૂપ શ્રેણિઓના કે જેમને સિદ્ધાન્તની દષ્ટિએ અસંચેય જ માનવામાં આવે છે–પ્રદેશોની જે રાશિ છે. તે રાશિગત પ્રદેશોની સંખ્યાની બરાબર નારકને બદ્ધ કથશરીર હોય છે. તેમજ પ્રત્યેક શરીર હોવાથી નારકજીવ પણ એટલી જ સંખ્યાવાળા હોય છે. એટલે કે અસંખ્યાત નારક જીવે છે, અને તેમના બક્રિયશરીરે પણ અસંખ્યાત જ છે એવું જાણવું જોઈએ પહેલાં તે નારક જીને સામાન્યતઃ અસંખ્યાત જ કહ્યા છે. પરંતુ અહી તેમના શરીરનું પ્રકરણ ચાલી રહ્યું છે, એથી તેમના બદ્ધવિક્રિય રૂ૫ શરીરને લઈને એક એક નારકના તે એક એક બદ્ધકિય શરીર સ્વતંત્ર હોય છે. આ રીતે બીજા જીવમાં પણ-કે જેઓ દરેકે દરેક શરીર છે સ્વતંત્ર રાતત્ર જેમનું એક એક શરીર છે, પિતાપિતાના બદ્ધ શરીરની જેટલી સંખ્યા છે તેટલી સંખ્યા તેમની છે એવું જાણવું જોઈએ...
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अनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र २१३ नारकादीनामौदारिकादिशरीर नि० ४१५. जहा ओहिया ओरालियसरीरा तहा भाणियच्वा) नारकों के जो मुक्त वैक्रिय शरीर हैं, वे मुक्त औदारिकशरीर के जैसे समसंख्यावाले हैं। मुक्त औदारिक शरीरों की संख्या सामान्यतः अनंत कही गई है । उतनी ही संख्यावाले मुक्तवैक्रियशरीर नारक जीवों के हैं। (रयाणं भंते ! केवइया आहारगसरीरा पण्णत्ता) हे भदन्त ! नारक जीवों के कितने आहारक शरीर होते हैं ? (गोयमा ! आहारगसरीरा दुबिहा पण्णत्ता) गौतम ! आहारक शरीर दो प्रकार के कहे गये हैं (तं जहा बद्धे ल्लया य मुक्केल्लयाय) एक बद्ध आहारक शरीर दूसरे मुक्त आहारक शरीर हैं, सो 'तस्थ णं जे ते बद्वेल्लया तेणं णत्थि ) आहारक शरीर है वे तो नारक जीवों के होते ही नहीं हैं। क्योंकि बद्ध आहारक शरीर चतुर्दशपूर्वधारी मुनियों के ही होते हैं। 'नारक जीवों में चतुर्दशपूर्वधारित्वका अभाव है। इस कारण ये बद्ध आहारक शरीर उनमें नहीं होते हैं । (तस्थ णं जे ते मुक्केल्लया ते जहा ओरालिया तहा भाणियव्या) मुक्त आहारक शरीर नोरक जीवों के इतने होते हैं किजितने सामान्यरूप से मुक्त औदारिक शरीरों की संख्या है। अर्थात् मुक्त औदारिकशरीरों की संख्या सामान्य से अनन्त प्रकट की गई
( तत्थ णं जे वे मुक्केल्ल्या वेणं जहा ओहिया ओरालियसरीरा तहा भाणियव्वा) नारीना के भुक्त वडिय शरीरे। छे, ते भुक्त भौहारि शरी૨ની જેવી સમસખ્યાવાળા છે મુકત ઔદારિક શીરાની સખ્યા સામાન્યતઃ અનત કહેવામાં આવી છે. તેટલી જ સ`ખ્યાવાળા મુકત વૈક્રિયશરીર નારક
वोना छे. (रइयाण भंते! केवइया आहारगसरीरा पण्णत्ता) डे लहांत ! ना२४ भवनाला आहार शरीरी होय छे ? (गोयमा ! अहारगसरीरा दुविहा पण्णत्ता) हे गौतम! आहार शरीरों में अहारना हेवामां भाव्यां छे. (तंजा बद्धेल्या या मुक्केल्लया य) शे મુદ્ધ આહારક શરીર અને द्वितीय भुक्त आहार शरीर (तत्थ णं जे वे बद्धेल्लया तेणं णत्थि ) माभां के બદ્ધ આહારક શરીર છે, તે તેા નારક જીવાના હાતા જ નથી કેમકે અદ્ધ આહારક શરીર ચતુર્થાંશપૂર્વ ધારી મુનિઓના જ હાય છે નારક જીવામાં ચતુ શપૂર્વ ધારીત્વના અભાવ છે. આનું કારણુ એ છે કે આ બદ્ધ આહારક शरीर तेमनाभां होतां नथी. (तत्थ ण जे ते मुक्केल्लया ते जहा ओरालिया तहा भाणियव्वा) भुत आहार शरीरो ना२४ वाने भेटला होय छेडे જેટલાં સામાન્ય રૂપથી મુકત ઔદ્દારિક શરીરની સખ્યા છે. એટલે કે મુકત
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४१६
अनुयोगद्वार
मुक्तानि तानि यथा औधिकानि औदारिकाणि भणितव्यानि । तैजसकर्मणशरीराणि यथा एतेषामेव वैक्रियशरीराणि तथा भणितव्यानि । असुर कुमाराणां भदन्त ! यन्ति औदारिकशरीराणि प्रज्ञतानि ? गौतम । यथा नैरयिकाणाम् औदारिकशरीराणि तथा भणितव्यानि । असुरकुमाराणां भदन्त कियन्ति पैक्रिय
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है - तो इतनी ही संख्याबाले अर्थात् अनन्त संख्यावाले मुक्त आहार क शरीर नारक जीवों के होते हैं । वे इस प्रकार से कि- 'मनुष्य अब में जिन जीवों ने चौदहपूर्वी का अध्ययन किया और आहरक शरीर धारण किये फिर वे गृहीत संयम से पतित हो गये और मरकर नारकों में उत्पन्न हुए। ऐसे इन जीवों द्वारा मुक्त आहारक शरीर मुक्त मौदारिक शरीर के जैमा अनन्त संख्योपेत होते हैं। (तेयमकम्मयसरीरा जहा एएति चेव वेउच्त्रियसरीरा तहा भाणियव्वा) इन नारक जीवों के बद्ध और मुक्त तैजस शरीरों तथा कार्मण शरीरों की संख्या बद्ध और मुक्त वैक्रिय शरीरों की संख्या के समान जाननी चाहिये। इस नारक जीवों के पाचों शरीरों को कहकर अब सूत्रकार असुरकुमारों में शरीरों की संख्या कितनी होती है। यह विषय स्पष्ट करते हैं- (असु रकुमाराणं भंते! केवइया ओशलिपसरीरा पण्णत्ता ? ) हे भदन्त ! असुरकुमारों के औदारिक शरीर कितने कहे गये हैं ? (गोधमा ! जहा
ઔદ્યારિક શરીરાની સખ્યા સામાન્યની અપેક્ષાએ અન ત પ્રકટ કરવામાં આવી છે તે આટલી જ સખ્યાલાળા એટલે કે અનંત સંખ્યાવાળા મુકત આહારક શરીરા નારક જીવાના હાય છે. તે આ પ્રમાણે છે મનુષ્ય ભવમાં જે જીવેાએ ચતુ શપૂર્વાનુ અધ્યયન કર્યું છે અને આહારક શરીર ધારણ
ક્યું છે અને પછી તે ગૃહીત સંયમથી સ્મ્રુત થઈ ગયા તથા મૃત્યુ પ્રાસ કરીને નારકામાં ઉત્પન્ન થયા એવા આ જીવે વધુ મુકત આહારક શરીર गौहारिक शरीरनी भेस यानंत संध्योपेत छे. (तेयगकम्मयसरीरा जहा एएसि चेव वेउव्जियसरीरा तहा भाणियन्त्रा) मा नारवाना मद्ध भने મુકત તૈજસ શરીરા તેમજ કામણુ શરીરાની સખ્યા બદ્ધ અને મુકત વૈક્રિય શરીરની સખ્યા સદેશ જાણવી જોઈએ આ નારકજીવેાના પાંચેપાંચ શરીરને કહીને હવે સૂત્રકાર અસુરકુમારામાં શરીરાની સંખ્યા કેટલી હૈ.ય ? આ સગથમાં સ્પષ્ટતા उरे छे. (असुरकुमाराणं भंते! केवइया ओरालियसरीरा पण्णत्ता १) डे लढत ! असुरकुमारीना मोहारि शरीश डेंटल डेवामां भाया है ? (गायमा ! जहा नेरइयाण ओरालियम्ररीरा तहा भाणियव्वा) डे
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अनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र २१३ नारकादीनामौदारिकादिशरीरनि० ४१७ शरीराणि प्रज्ञतानि ? गौतम ! बैंक्रियशरीराणि द्विविधानि प्रज्ञतानि, तद्यथाबद्धानि च मुक्तानि च । तत्र खलु यानि तानि बद्धानि तानि खलु असंख्येयानि असंख्येयाभ्य उत्सपिण्यवसर्पिणीभ्योऽपहियन्ते कालतः, क्षेत्रतः असंख्येया: नेरइया णं ओरालियसरीरा तहा भाणियबा) हे गौतम ! असुरकुमारों के औदारिक शरीर नारकों के औदारिकशरीर के जैसा ही होते है-अर्थात्-जिस प्रकार चैक्रिय शरीरवाले होने के कारण नारकों में बद्ध औदारिक शरीर नहीं होते हैं वैसे ही असुरकुमारों को वैक्रिय शरीरशाली होने के कारण उनके भी बद्धऔदारिक शरीर नहीं होते हैं। परन्तु जो मुक्त औदारिक शरीर हैं वे जिस प्रकार नारकों में सामान्यतः अनन्त होते है, उसी प्रकार यहां पर भी वे अनन्त होते हैं । (असुरकुमारणं भंते ! केवड्या वे उपिलरीरा एण्णता ?) हे भदन्त ! असुरकुमारों के वैक्रियशरीर कितने होते हैं ? (गोधमा ! देउब्वियसरीरा दुविहा परणत्ता-तं जहा-बद्धेल्लया य-मुक्ल लया य-तत्थ णं जे ते बद्धल्लया, ते णं अमखिज्जा, अमंखिजाहिं उसर्पिणीओसप्पिणीहिं अवहीरंति कालो ) हे गौतम ! वैक्रिय शरीर दो प्रकार के कहे गये हैंएक तो बद्ध क्रिपशरीर और दूसरे मुक्त क्रियशरीर इनमें जो बद्ध वैक्रिय शीर हैं, वे अरकुमारों में सामान्यरूप से असंख्यात होते हैं । काल की अपेक्षा इनके बद वैक्रिय शरीर असंख्यात उत्सर्पिणी ગૌતમ અસુરકુમારના ઔદ્યારિક શરીર નારકના દારિક શરીરની જેમ જ હોય છે એટલે કે જેમ વૈકિયશરીરવાળા હેવાથી નારમાં બદ્ધ ઔદારિક શરીર હેતા નથી, તેમજ અમુકુમારોને વૈકિયશરીરશાલી હોવા બદલ તેમના પણ બદ્ધ દારિક શરીર હોતા નથી. પરંતુ જે મુકત ઔદારિક શરીર છે, તે જેમ નારકમાં સામાન્યતઃ અનંત હોય છે, તેમજ અહીં પણ ते मनाय छे. (असुर कुमारणं भंते ! केवइया वेउव्क्यिसरीरा पण्णत्ता ?) के महत! मसुमारेशना पैठिय शश। टस डाय छे ? (गोयमा । वेउ. व्विय सरीरा दुविहा पण्णत्ता-तंजहा बद्धल्लया य मुक्केल्लया य-तत्थ णं जे ते बद्धेल्लया, ते णं असंखिज्जा, असंखिज्जाहिं उस्सपिणी ओसप्पिणीहिं अवहीरंति काल गौतम ! यसरी प्रारना उवामा माव्यां . એક બદ્ધિવપિ બીજું મુક્તવૈકિય આમાં જે બદ્ધકિય શરીર છે, તે અસુરકુમારેમાં સામાન્ય રૂપથી અસંખ્યાત છે ય છે. કાલની અપેક્ષાથી એમના આ બદ્ધવૈક્રિય શરીરે અસંખ્યાત ઉત્સર્પિણી અને અવસર્પિણી કાળના એક
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अनुयोगद्वारसूत्रे. श्रेणयः प्रतरस्य असंख्येयभागे । तासां खलु श्रेगीनां विष्कम्भमूचिः अङ्गुलप्रथमवर्गमूलस्य असंख्येयभागे । मुक्तानि यथा औधिकानि औदारिकशरीराणि । और अवसर्पिणी काल के एक प्रदेश पर व्यवस्थापित किये जा सकते हैं। इसलिये असंख्यात उत्सर्पिणी और अवसर्पिणांकाल के जितने समय होते हैं, उतने बद्ध वैक्रियशरीर असुरकुमारों के होते हैं । (वंत्तो-असंखेज्जाओ सेढीओ पधरस्स असखिजाइभागे, तासिणं सेढीणं विखंभसूई अगुलस्स पढमवगमूलस्स असंखिज्जहभागे) क्षेत्र की अपेक्षा ये बद्ध वैक्रियशरीर प्रतर के असंख्यात भाग में वर्त. मन असंख्यात श्रेणियों के जितने प्रदेश होते हैं उतने होते है। यहां पर उन श्रेणियों की विष्कंभ सूचि ही ली गई है, प्रतर के असंख्यातवें भाग में वर्तमान असंख्यात योजनकोटिरूप क्षेत्रवर्तीनभः श्रेणि नहीं । विष्कंभसूचि अंगुल के प्रथमवर्गमूल के असंख्येय भाग में होती है। इसका तात्पर्य यह है-'प्रतर के अंगुल प्रमाण क्षेत्र में जितनी श्रेणियां होती है, उन श्रेणियों का जो प्रथम वर्गमूल होता है, सो उस वर्गमूल के भी असंख्यातवें भाग में जो श्रेणियां है उन श्रेणियों के बराबर विष्कमसूचि यहां कही गई है। यह विष्कंभ सूचि नारक की विष्कंभमूचि की अपेक्षा उसके भाग प्रमाणवाली પ્રદેશ પર વ્યવસ્થાપિત કરી શકાય છે. એટલા માટે અસંખ્યાત ઉત્સર્પિણી અને અવસર્પિણી કાલના જટલા સમય હોય છે, તેટલા બદ્ધકિય શરીરે असुरशुभाशना हाय छे. (खेत्तओ असंखेज्जाओ सेढीओं पयरस्त्र असंखिज्जइ भागे, तासि ण सेढीगं विक्ख भसूई अंगुलस्स पढमवगमूलस्स असंखिज्जइभागे) ક્ષેત્રની અપેક્ષા આ બદ્ધકિય શરીરે-કતરના અસંખ્યાત ભાગમાં વર્તમાન અસંખ્યાત શ્રેણિઓના જેટલા પ્રદેશ હોય છે, તેટલા હોય છે. અહીં તે શ્રેણીઓની વિખંભ સૂચિ જ ગ્રહણ કરવામાં આવી છે, પ્રતરના અસંખ્યાતમાં ભાગમાં વિદ્યમાન અસંખ્યાત જન કેટિ રૂપ ક્ષેત્રવતી નભા ગ્રહણ કરવામાં આવી નથી. વિખ્રભસૂચિ અંગુલને પ્રથમ વર્ગમૂલના અસંખ્યયભાગમાં હોય છે. આનું તાત્પર્ય આ પ્રમાણે છે કે “પ્રતરના અંગુલપ્રમાણ ક્ષેત્રમાં જેટલી શ્રેણીઓ હોય છે, તે શ્રેણીઓના જે પ્રથમ વર્ગમૂળ હોય છે, તે વર્ગમૂળના પણું અસંખ્યાતમાં ભાગમાં જે શ્રેણીઓ છે, તે શ્રેણીઓની બરાબર વિÉભ સૂચિ અહીં ગ્રહણ કરવામાં આવી છે. આ વિષ્ફભસૂચિ નારકની વિષ્કભ સૂચિની અપેક્ષા તેના અસંખ્યાતમાં ભાગ પ્રમાણ વાળી હોય છે. આ
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अनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र २१३ नारकादीनामौदारिकादिशरीरनि० ११९ असुरकुमाराणां भदन्त ! कियन्ति आहारकशरीराणि प्रज्ञप्तानि ? गौतम ! आहा: रकशरीराणि द्विविधानि प्रज्ञप्तानि, तद्यथा-बद्धानि च मुक्तानि च । यथा एतेषामेत्र औदारिकशरीराणि तथा भणितव्यानि । तैजसकामकशरीराणि यथा होती है । इस प्रकार असुरकुमार भी नारकों की अपेक्षा उनके असं. ख्यातवें भागप्रमाण आते हैं । प्रज्ञापना महादण्डक में रत्नप्रभा पृथिवी के नारकों की जितनी संख्या कही गई है, उसकी अपेक्षा समस्त भी भवनपतिदेव उसके असंख्यातवें भाग प्रमाण कहे गये हैं । इस प्रकार समस्तनारकों की अपेक्षा असुरकुमार उनके असंख्यातवें भाग प्रमाल, हैं यह बात अपने आप बन जाती है (मुक्केल्लया जहा ओहिया ओर लियसरीरा) असुरकुमारों के जो मुक्त वैक्रिय शरीर हैं, वे सामान्य से मुक्त औदारिकशरीर के जैसा अनन्त हैं । (असुरकुमाराण भंते ! केवड्या आहारगसरीरा पण्णत्ता ? हे भदंत ! असुरकुमारों के कितने आहारक शरीर कहे गये हैं ? (गोयमा ! आहारगसरीरा दुविहा पण्णत्ता) हे गौतम ! आहारक शरीर दो प्रकार के कहे गये हैं। (तं जहा) जैसे बद्धेल्लया य मुक्केल्लया य) बद्ध आहारक शरीर और मुक्त आहारक शरीर । (जहा एएसिं चेव ओरालियसरीरो तहाभाणियव्वा) सो ये दोनों प्रकार के आहारक शरीर इन असुरकुमार देवों में
પ્રમાણે અસુરકુમારે પણ નારકની અપેક્ષાએ તેના અસંખ્યાતમાં ભાગ પ્રમાણ આવે છે. પ્રજ્ઞાપના મહાદંડકમાં રત્નપ્રભા પૃથિવીના નારકોની જેટલી સંખ્યા કહેવામાં આવી છે, તેની અપેક્ષાએ પણ બધા ભવનપતિદેવે તેના અસર
ખ્યાતમાં ભાગ પ્રમાણુ કહેવામાં આવ્યા છે. આ રીતે સર્વનારકોની અપેક્ષા અસુરકુમાર તેના અસંખ્ય તમાં ભાગ પ્રમાણ છે, આ વાત પિતાની મેળે જ सिद्ध थ य छे. (मुक्केल्लया जहा ओहिया ओरालियसरीरा) असु२भाરેને જે મુક્ત વૈકિય શરીર છે, તે સામાન્યની અપેક્ષા એ દારિક શરી२नी २म मन छे. (असुरकुमाराणं भंते! केवइया आहारगसरीरा पण्णता) હે ભદંત ! અસુરકુમારોના કેટલાં આહારક શરીરે કહેવામાં આવ્યા છે ? (गोयमा! आहारगसरीरा दुविहा पण्णत्ता) गौतम ! माहा२४ शरी३॥ मे २i 3ामा माया छे. (तंजहा) २ (बद्धेल्लया य मुक्केल्लया य) मा माडा२४ शरी२ मन भुत मा२४ शरीर (जहा एएसि चेव ओरालि यसरीरा तहा भाणियवा) ॥ भन्ने प्रश्न आहा२४ શરીરે આ અસુરકુમાર દેવામાં ઔદારિક શરીરની જેમ જાણવાં જોઈએ.
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अनुयोगद्वारसूत्रे एतेषां वैक्रियशरीराणि तथा भणि व्यानि । यथा असुरकुमारणा तथा यावत् स्तनितकुमाराणां तामद् भणितव्यानि ॥५० २१३ ॥ ___टीका-'नेपइया णं भंते' इत्यादि--
नैरपिकाणां भदन्त ! किपन्ति औदारिकशरीरान प्राप्तानि ! इति शिष्यप्रश्नः । उत्तरयति-गौतम ! औदारिकसरीराणि द्विविधानि प्रज्ञतानि, तधथाबद्धानि च मुक्तानि च नैरविकामां क्रिमशरीत्वेन औदारिकवन्धमावादौदारिकशरीराणि न सन्तीत्यत एवोक्तम् तत्र खलु यानि तानि बद्धानि तानि न सन्ति । औदारिक शरीर के जैसा जानना चाहिये । अर्थात् जिस प्रकार बद्ध औदारिक शरीर अलुरकुमारों में नहीं होते हैं, उसी प्रकार बद्ध आहारक शरीर भी असुरकुमारों में नहीं होते हैं। तथा मुक्त भौदारिक जिस प्रकार असुरकुमारों के समान होते हैं, उसी प्रकार से मुक्त आहारक शरीर भी इनके अनन्त होते हैं। (तेयय कम्तयसरी जहा एएसिं वेउब्वियसरीरा तहा भाणियव्या) दोनों प्रकार के तैजस शरीर और कार्मण शरीर बद्धमुक्तक्रिय शरीर के जैसा असुरकुमारों के जानना चाहिये । (जहा असुरकुमाराणं तहा जाव थणियकुमाराणं ताव भाणियवं) असुरकुमारों के जैसे ये पांच शरीर कहे गये है, वैसे ही ये पाँच शरीर स्तनितकुमारान्त तक के भवनपतियों के भी जानना चाहिये।
भावार्थ-इस सूत्रद्वारा मूत्रकार के 'नारकों और भवनपतियों में पांचो शरीरों का कौन २ प्रकार, कितने २ रूप में होता है ? यह सब स्पष्ट
એટલે કે જેમ બદ્ધ દારિક શરીરે અસુરકુમારોના હોતા નથી, તેમ જ બદ્ધ આહારક શરીર પણ અસુરકુમારમાં હતાં નથી. તથા મુક્ત ઔદારિક જેમ અસુરકુમારોનાં અનંત હોય છે, તેમજ મુક્ત આહારક શરીરે ५५ सनत डाय छे. (तेययकम्मयसरीरा जहा एएसि वेउव्वियसरीरा तहा भाणियबा) मन्ने तेस शरी२ अ२ मशरी२ मा भुत वैठिय शरीरनी २म असुमारानां ५ ॥ (जहा असुरकुमाराणं तहा जाव थणियकुमाराण ताव भाणियव्य) सुरेभारेशनाभ मां पांय શરીર કહેવામાં આવ્યાં છે તેમજ આ પાંચ શરીરો તનિતકુમારાત સુધીના ભવનપતિઓને પણ જાણવા જેઈ એ.
ભાવાર્થઆ સૂત્રવડે સૂત્રમારે નરકે અને ભવનપતિઓમાં પાંચેપાંચ શરીરના ક્યા કયા પ્રકારે, કેટલા રૂપમાં હોય છે ? આ બધું સ્પષ્ટ કરવામાં આવ્યું છે. નારક જીવમાં ઔદારિક શરીર હેતું નથી કેમકે ત્યાં
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अनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र २१३ नारकादीनामौदारिकादिशरीरनि० ४२१ नारकैर्युक्तान्यौदारिकशरीराणि तिर्यगा दिनानाभवेषु माक् संभवन्ति, तानि
औधिकमुक्तौदारिकशरीरवर वाच्यानि । तथा नैरपिकापां वैक्रियशरीराण्यपि बद्धमुक्तभेदेन द्विविधानि बोध्यानि । तत्र बद्धानि वैनियशरीराणि असंख्येयानि, नारकजीवानामसंख्येयत्वात् प्रविनारकजीवमेकेकक्रियशरीरसद्भागात् । एतानि शरीराणि कालवः उत्सर्पिण्यवसर्पिणीषु यावन्तः समया भवन्ति तावत्संख्यकानि बोध्यानि । क्षेत्रतः-असंख्येयाः श्रेणयः प्रतरस्यासंख्येयभागे। पारस्य असंख्येयमागे वर्तमाना या असंख्येयाः श्रेणयस्तासां ये प्रदेशास्तत्संख्यकानि भवन्ति एतानि शरीराणि क्षेत्रत इत्यर्थः । ननु प्रतरासंख्ये यमागेऽसंख्येया योजनकोटयोऽपि भवन्ति, तत्किमेतावत्यपि क्षेत्रे या नभाश्रेणयो भवन्ति ता इह गृह्यन्ते ? इति चेदाह-'तासि णं सेढीण' इत्यादि-तासां श्रेणीनांतरासंख्येयभागवयंसख्येयश्रेणीनां विष्कम्भचिः विस्तुरश्रेणिरिह गृह्यन्ते, न तु प्रतरासंख्येयभागवर्णसंख्येययोजनकोटयात्मक क्षेत्रवर्तिनमात्रेणिः । इयं विष्कम्भभूचिः कियस्ममाणा गृह्यते ? इत्याह -'अंगुलपहमवग्गमूल' इत्यादि। इयं विष्कम्भमूचिः द्वितीय वर्गमूलगुणितपथमवर्गमूलप्रमाणा बोध्या । अयं भावः-अंगुलप्रमाणे प्रतरक्षेत्रे या श्रेणिः राशिस्तनासंख्येयानि वर्गमूलानि भवन्ति । तत्र प्रथमवर्गमूलं द्वितीयवर्गमूलेन प्रत्युत्पन्नं-गुणितम् । एवं च सति यावत्योऽत्र श्रेणयो लभ्यन्ते तावत्पमागा विष्कम्भमूविर्भवतीति । अयेदं बोध्यम्-वस्तुतोऽसंख्येयपदेशात्मके प्रतरक्षेत्रे सत्कल्पनया षट्पञ्चाशदधिकद्विशतश्रेणयो (२५६) भवन्ति । अत्र प्रथम वर्गमूलं षोडश १६ द्वितीयवर्गमूलं चत्वारः ४, चतुर्भिःषोडशगुणिता जाता चतुःषष्टिः । असत्कल्पनया कल्पितैषा चतुष्षष्टिः श्रेणयो वस्तुतोऽसंख्येयाः मेणयो भवन्ति । एतावच्छेश्यात्मिका विष्कम्ममूचिरिह गृह्यते इति । प्रकारान्तरेणासमेवार्थमाह-'अहव गं' इत्यादि-अथवा खलु अंगुलद्वितीयवर्गमूलघनप्रमाणमात्रा श्रेण यः । अयं भाव:-अंगुलप्रमाण पतरक्षेत्रवर्तिनः श्रेणिराशेर्यद् द्वितीयवर्गमलं चतुःसंख्यकमनन्तरमभिहितं, तस्य यो घनाचतुषष्टिस्वरूपस्तत्प्रमाणमात्रा:-तत्संख्यकाः श्रेगयोऽत्र बोध्या । अत्र प्ररूपणैव भिद्यतेऽर्थस्तु स एव । एवं चासत्कल्पन या चतुष्पष्टिसंख्यात्वेनोक्तानां वस्तुनोऽसंख्येयानां श्रेणीनां या प्रदेशराशिस्तावत्संख्यकानि नैरयिकाणां बद्धवैक्रियशरीराणि भवन्ति । प्रत्येकशरीरत्वान्नैरयिका अप्येतावत्संख्यका भवन्ति । पूर्व तु नारकाः सामान्ये. नैवासंख्येया उक्काः, अब तु तेषां शरीरविचारः प्रस्तूयते, अतस्तेषां शरीरमपि असंख्येयकं प्रतिनियतस्वरूपं सिध्यति । एवमन्यत्रापि सर्वे प्रत्येकशरीरिणः स्वस्व. बद्धशरीरसमसंख्यका बोध्या इति । नैरयिकाणां मुक्तवैक्रियशरीराणि तु मुक्तौदा.
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अनुयोगद्वारसूत्रे
रिकशरीरसमसंख्यकानि बोध्यानि । तथा नैरविकाणामाहारकशरीराणां बद्धमुक्तेति भेदद्वये बद्धाहारकशरीराणि सन्ति बद्धान्याहारकशरीराणि चतुर्दशपूर्व धारिणामेव भवन्ति, नारकेषु चतुर्दशपूर्वधारित्वाभावादाहारकशरीराभावो भवति । एवमुक्ताहारकशरीराणि मुक्तौदारिकशरीरवद् बोध्यानि । मनुष्यभवे यैश्वतुर्दश पूर्व विद्भिराहारकशरीराणि धृतानि ते पुनः संयमाच्च्युत्वा मृताः सन्तो नारकेषु समुत्पन्नाः । तैर्मुक्तानि आहारकशरीराणि मुक्तौदारिकशरीरवदनन्तसंख्यकानीति भावः । एषां बद्धानि मुक्तानि च तैजसकर्म जशरीराणि एतद्वैकियशरीरवद् बोध्यानि । इत्थं नारकाणां पश्चापि शरीराण्युक्त्वा सम्पत्यसुरकुमाराणां तानि शरीराणि वक्तुमुपक्रमते - 'असुरकुमारणं भंते' इत्यादिना असुरकुमाराणां दन्त ! कियन्ति औदारिकशरीराणि प्रज्ञप्तानि ? गौतम ! यथा नैरविकाणामौ किया है। नारक जीवों में औदारिक शरीर नहीं होता है। क्योंकि वहां वर्तमान में भुज्यमान वैक्रिय शरीर है । वर्तमान में जिस शरीर को धोरण किये हुए हैं, वह बद्ध शरीर कहा गया है। मुक्त की अपेक्षा नारकों में औदारिकशरीर माना गया है । जिस शरीर को जीव पहिले धारण कर चुका है, उस शरीर का नाम मुक्त माना गया है । ऐसे शरीर नारकों में अनन्त हो सकते हैं। नारकों के वैकिय शरीर होना है। इसीलिये असंख्यात नारकों के ये बद्ध वैक्रिय शरीर भी असंख्यात हैं और मुक्त वैक्रिपशरीर कि 'जिन्हें वे जीव धारण करके छोड़ चुके हैं, नारक जीवों में अनन्त हो सकतें । आहोरक शरीर बद्धरूप से नारकों में नहीं होता है तो सिर्फ चतुर्दशपूर्वधारी मुनि के ही होता है। रहा अब आहारकका मुक्त
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વર્તમાનમાં જ્યમાન વૈક્રિય શરીર છે. અત્યારે જીવે જે શરીર ધારણ કર્યુ. છે તે બદ્ધ શરીર કહેવામાં આવે છે. મુક્તની અપેક્ષા નારકમાં ઔદારિક શરીર માનવામાં આવે છે, જે શરીરને જીવે પહેલાં ધારણ કર્યું છે, તે શરીરનું નામ મુક્ત માનવામાં આવ્યુ છે. એવાં શરીરે નારકામાં અન'ત થઈ શકે છે. તે નારકોને વૈક્રિય શરીર હોય છે. એટલા માટે અસખ્યાત નારકાના આ બદ્ધ વૈક્રિય શરીરા અસખ્યાત છે અને મુક્ત વૈક્રિય શરીરશ પણ જેમને તે જીવાએ ધારણ કરીને છેડી દીધાં છે, નારક જીવેમાં અનત થઇ શકે છે. આહારક શરીર ખદ્ધ રૂપથી નારકામાં હેતુ નથી. આ તે ફકત ચતુર્દશ પૂર્વ ધારી મુનિને જ હોય છે. હવે જે આહારકના મુકત પ્રકાર બાકી રહે છે તે મુત પ્રકાર રૂપ આહારક શરીરા અહીં પણ અનત
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अनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र २१३ नारकादीनामौदा रिकादिशरीरनि०
४२३
दारिकशरीराणि सन्ति, तथैवामपि वक्तव्यानि । नारकौदारिकशरीर बदसूरकुमा राणामप्यौदा रिकशरीराणि बोध्यानीति भावः । तथा असुरकुमाराणां वैक्रियशरीराणि बद्धमुक्तेतिभेदद्वय विशिष्टानि सन्ति । तत्र यानि बद्धानि शरीराणि तान्यसंख्येपानि । कालवोऽसंख्येयात्सर्पिण्यवसर्पिणीसु यावन्तः समया भवन्ति तावत्संख्यकानि बोध्यानि । क्षेत्रतः प्रतराऽसंख्येय मा गवये संख्येयश्रेणिप्रदेशप्रमाणानि बोध्यानि । अत्र वासां श्रेणीनां प्रतरासंख्येयभागवर्त्य संख्ये यश्रेणीनां विष्कम्नः - विस्तारणिर्गृद्यते, न तु प्रतरासंख्ये सभागवर्त्य संख्ये योजनकोटयात्मक क्षेत्रवर्तिनमःश्रेणिः । इयं विष्कम्भतूचिः अङ्गुलपथमवर्गमूलस्य असंख्य मागे भवति । अयं भावः - पतरस्याङ्गुलप्रमाणे क्षेत्रे यात्रत्या श्रेणी भवन्ति, तासां यत्प्रथमवर्गमूलं तस्याऽप्यसंख्येयमागे याः श्रेणयो भवन्ति तत्परि मिताऽत्र विष्कम्नवृचिवध्या इयं विष्कम्भतू चिर्नारकोक्त विष्कम्भमृचेर संख्याततमभागवर्त्तिनी भाति । इत्थं च अनुरकुनारा अपि नारकापेक्षयाऽसंख्येयभागवर्त्तिनो भवन्ति । प्रज्ञापना महादण्डके रत्नपभानारकापेक्षया समस्ता अपि भवनपतयोऽसंख्याततम भागवर्त्तिन उक्ताः । इत्थं च सकळनारकापेक्षयाऽसुकुमाराणामसंख्येयभागवर्तित्वं सुतरां सिध्यतीति । तथा एषां द्विविधान्यध्याहारकशरीराणि एतद्दशैदारिक शरीरवद् बोध्यानि । तथा - एतेषां तेजसकार्म कशरीराणि एतद्वै क्रियशरीरवद् बोध्यानि । असुरकुमाराणां यथा शरीरपञ्चकमुक्तं तथैव स्तनितकुमारान्तानामपि भवनपतीनां शरीरपञ्चकं बोध्यमिति ॥ सू० २१३ ॥
प्रकार सो यै मुक्तप्रकार रूप आहारक शरीर यहां भी अनन्त तक हो सकते हैं । बद्ध और मुक्त तैजस और कार्मण शरीर बद्ध वैक्रिय शरीर के जैसा असंख्यात और अनन्त होते हैं। असुरकुमारों के जैसा ही शेष भवनपतियों में पांच शरीर कहे गये हैं। असुरकुमारों में बद्ध औदारिक शरीर तो होते नहीं हैं परन्तु मुक्त शरीर अनन्त होते हैं । वैक्रियशरीर बद्धरूप से असंख्यात होते हैं और मुक्त वैक्रिय शरीर अनन्त होते हैं। आहारकशरीर का बद्ध प्रकार यहां नहीं
સુધી થઈ શકે છે. ખદ્ધ અને મુંકત તેજસ અને કાર્માંણુ શરીર ખુદ્ધ મુકત વૈક્રિયશરીરની જેમ અસ`ખ્યાત અને અનંત હાય છે, અસુરકુમારાની જેમ જ શેષ ભુવનપતિએમાં પાંચ શરીરા કહેવામાં આવ્યાં છે. અસુરકુમારામાં ખદ્ધ ઔદારિક શરીરે તે હાતા જ નથી પરન્તુ મુકત શરીરો અનત હાય છે. વૈક્રિય શરીરા બદ્ધ રૂપથી અસંખ્યાત ઢાય છે અને મુકત વૈક્રિય શરીર અનંત હાય છે. આહારક શરીરનેા ખદ્ધ પ્રકાર
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अनुयोगद्वारस्त्रे अथ पृथिवीकाय काहीनामौदारिकादिशरीराणि प्ररूपयितुमाह
मूलम्-पुढविकाइयाणं भंते ! केवइया ओरालियसरीरा पण्णता ? गोयमा ! ओगलियतीरा दुविहा पण्णला, तं जहाबद्धेल्लया य मुक्केलपाय। एवं जहा ओहिया अरालियसरीरा तहा भागियवा। पुढषिकाइयाणं भंते! केवइया वेउब्धियसरीरा पण्णता ? गोयमा! वेडवियसरीरा दुविहा पण्णत्ता, तं जहा-बद्धेल्लया य मुक्केलगाय। तत्थ णं जे ते बहेल्लया ते णं जत्थि। मुक्केल्लया जहा ओहियाणं आरालियसरीरा तहा भाणियध्या। आहारगसरीरावि एवं क्षेत्र भाणियव्वा । तेयगकम्मयसरीरा जहा एपसि वेव ओरालियसरीरा तहा भाणियन्वा । जहा पुढविकाइयाणं तहा आउकाइयाणं तेउकाइयाणं य सव्वलरीरा भाणियवा। बाउकाइयाणं भंते ! केवइया ओरालिशसरीरा पण्णता ? गोयमा! ओरालियसरीरा दुविहा पण्णत्ता, तं जहा-बद्धेल्लया य मुक्केल्लया य। जहा पुढविकाइयाणं ओरालियसरीरा नहा भाणियवा। वाउकाइ. याणं भंते ! केवइया वेउसिना पाणता ? गोयमा! वेडवियसरीरा दुविहा पणत्ता, तं जहा-बद्धेल्लया य मुक्केल्लया य, तत्थ णं जे ते बद्धेल्लया ते णं असंग्लिज्जा समए समए अवहीरमाणी अवहीरमाणी खेत्तपलिओवमल असंखिजइभागमेत्तेणं कालेणं अवहीरंति नो चेव णं अवहिया सिधा ! मुक्के. ल्लया वेउवियसरीरा आहारगसगरा य जहा पुढविकाइयाणं होता है मुक्तप्रकार अनन्तरूप में होता है। बद्ध और मुक्त तैजस कार्मण असंख्यान और नन्त होते हैं। सू० २१३ ॥ થતો નથી મુકત પ્રકાર અનંત રૂપમાં હોય છે બદ્ધ અને મુક્ત તેજસ કાર્પણ શરીરે અસંખ્યાત અને અનંત હોય છે કે સૂત્ર ૨૧૩
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ममुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र२१४ पृथ्वीकायिकादीनामौदारिकादिशरीरनि० ४२५ तहा भाणियवा। तेयगकम्मयसरीरा जहा पुढविकाइयाणं तहा भाणियवा। वणसइकाइयाणं ओरालियवेउवियआहारगसरीरा जहा पुढविकाइयाणं तहा भाणियबा । वणस्सइकाइयाणं भंते! केवइया तेयगसरीरा पण्णता? गोयमा! तेयगसरीरा दुविहा पण्णत्ता, जहा ओहिया तेयगकम्मयसरीरा तहा वणस्सइकाइयाणवि तेयगकम्मयसरीरा भाणियबा ॥२१॥
छाया-पृथिवीकायिकानां भदन्त ! कियन्ति औदारिकशरीराणि प्रज्ञप्तानि ? गौतम ! औदारिकशरीराणि द्विविधानि पज्ञप्तानि, तद्यथा-बद्धानि च मुक्तानि च । एवं यथा औधिकानि औदारिकशरीराणि तथा भणितव्यानि । पृथिवीकायिकानां
अथ सूत्रकार पृथिवीकायिक आदि जीवों में औदारिक आदि शरीरों की प्ररूपणा करने के निमित्त 'पुढविकाइयाणं' इत्यादि सूत्र कहते हैं-पुढविकाइयाणं भंते ! इत्यादि। __शब्दार्थ-(पुढधिकाइयाणं भते! केवड्या ओरालि यसरीरा पण्णता?) हे भदन्त ! पृधियोकायिक जीवों के औदारिक शरीर कितने कहे गये हैं ? (गोयमा ! ओरालियसरीरा दुविहा पत्ता ) हे गौतम ! औदारिक शरीर दो प्रकार के कहे गये हैं-(तं जहा) जैसे (बहेल्लया य मुक्केल्लया य) एक बद्ध औदारिक शरीर और दूमरे मुक्त औदारिक शरीर (एवं जहा. ओहिया ओरालियमरीस तहा माणियन्दा) यहा बद्ध औदारिक शरीर असंख्यात होते हैं-पर यह असंख्यातरूप प्रमाणता लघुतर असं.
હવે સૂત્રકાર પ્રકિવીક યિક વગેરે ના દારિક વગેરે શરીરની ५३५। ४२११ माटे 'पुढनिकाइयाणं' पोरे सूत्र छ, "पुढविक इयाणं भंते ! त्यादि।
हाथ-'पुढविक इयाणं भंते ! केवइया ओरालियसरीरा पण्णत्ता) 3 ભદન્ત ! પૃથિવીકાયિક જાના દારિક શરીરે કેટલાં કહેવામાં આવ્યાં છે ? (गोपमा ! ओरालियसरीरा दुविहा पण्णत्ता) : गौतम ! मोहा२ि४ शरी। मे १२ वामा मयां छे (तं जहा) रेभ (अद्धेल्लयाय मुक्केल्लया य) मे मद्ध मोहा२ि४ शी२ भने ult भु। मौरि: शरी२ (एवं जहा भोहिया धोरालियचरीरा तहा भाणियव्वा) मी सन्यात ३५ प्रमाणुता
भ० ५४
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४२६
अनुयोगद्वारसूत्रे
भदन्त ! कियन्ति वैक्रियशरीराणि प्रज्ञप्तानि ? गौतम ! वैक्रियशरीराणि द्विविधानि प्रज्ञप्तानि तद्यथा - बद्धानि च मुक्तानि च । तत्र खलु यानि तानि बद्धानि तानि खलु न सन्ति । मुक्तानि यथा औधिकानि खलु औदारिकशरीराणि तथा भणितव्यानि । आहारकशरीराण्यपि एवमेव भणितव्यानि । तैजसकार्मिकशरीराणि यथा एतेवामेव औदारिकशरीराणि तथा भणितव्यानि । यथा पृथिवीख्यातरूप से कही गई जाननी चाहिये । तथा मुक्त औदारिक शरीर अनन्त होते हैं । 'पुढविकाइयाणं भंते! केवढ्या वेडब्बियसरीरा पण्णत्ता ? ) हे भदन्त ! पृथिवीकायिक जीवों के वैक्रिय शरीर कितने कहे गये हैं ? ( गोयमा ! ) हे गौतम! (वेडव्वियसरीरा दुविहा पण्णत्ता) वैक्रियशरीर दो प्रकार के कहे हुए हैं (तं जहा) जैसे ( बद्धेल्लया य मुक्केल्लया घ) एक बद्ध वैक्रियशरीर और दूसरे मुक्त वैक्रियशरीर- (तत्थ णं जे बद्धेल्लया ते णं णत्थि ) सो जो बद्धवैक्रिय शरीर हैं, वे तो पृथिवीकायिक जीवों में होते ही नहीं हैं। (मुक्केल्लया जहा ओहिया णं ओरालिय सरीरा तहा भाणियव्वा) मुक्त जो वैक्रिय शरीर हैं, वे सामान्य मुक्त औदारिक शरीर के जैसा यहां अनन्त होते हैं। (अहारगसरीरा वि एवं चैव भाणिव्वा) अर्थात् बद्ध अहारक शरीर तो पृथिवीकायिक जीवों के होते नहीं । मुक्त आहारक शरीर मनुष्यभवों की अपेक्षा यहां अनन्त हो सकते हैं । (तेयगकम्मयसरीरा जहां एएसिं चेव ओरालिय
લઘુતર અસખ્યાત રૂપથી કહેવામાં આવેલી જાણવી એઇએ. તેમજ મુકત मोहारि शरीरेश अनंत होय छे. (पुढविकाइयाणं भवे ! केवइया वे उव्जियखरी पण्णत्ता १) डे ल ! पृथिवीयि भवानां वैडियशरीरेश Jeai staнi moyi ? (mm) 3 ilan! ((defèquudta gfâgı पण्णत्ता) वैयि शरीरे मे प्रारनां वामां भाव्यां छे. (तंजहा ) प्रेम है (बद्वेल्लया य मुकेल्लया य) मे ખદ્ધ વૈક્રિયશરીર અને ખીજું મુંકત વૈક્રિય શરીર ( तत्थ णं जे ते बद्धेल्लया तेणं णत्थि ) हुवे भे मद्ध वैडिय शरीर छे ते तो पृथिवीयि वामां होतां नथी. ( मुक्के ल्लया जहा ओहिया णं ओरालियम्ररीरा तहा भाणियव्वा ) भुस्त भे વૈક્રિયશરીરા છે, સામાન્ય મુકતઔદારિક શરીરની જેમ અહી અનત હાય छे. ( आहारगसरीरा वि एवं चेत्र भाणियव्वा ) भाडा २४ शरीर पशु આ પ્રમાણે જ જાણવાં જોઈએ. એટલે કે હુંઆહારકશરીર તે પૃથિવીકાયિક જીવાને હાતાં નથી. મુકત આહાર શરીરે મનુષ્યભવાની અપેક્ષાએ अहीं अनंत सुलवी शुई छे, (तेयगकम्मयसरीरा जहा एएसिं चेव ओरा
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अनुयोगवन्द्रिका टीका सूत्र२१४ पृथ्वीकायिकादीनामौदारिकादिशरीरनि० ४२७ कायिकानां तथाऽकायिकानां तैजसकायिकानां च सर्वशरीराणि भणितव्यानि । वायुकायिकानां भदन्त ! कियन्ति औदारिकशरीराणि प्रज्ञप्तानि ? गौतम ! औदा. रिकशरीगणि द्विविधानि पज्ञप्तानि, तद्यथा-बद्धानि च मुक्तानि च। यथापृथिवीकाथिकानाम् औदारिकशरीराणि तथा भणितव्यानि । वायुकायिकानां सरीरा तहा भाणियव्वा) तैजस कार्मण शरीर जैसे इनके औदारिक शरीर होते हैं, उसी प्रकार से जानना चाहिये । अर्थात् बद्ध तेजस एवं कार्मण, बद्ध-औदारिक शरीर के जैसा यहां असंख्यात होते हैं और मुक्त तैजस कार्मण मुक्त औदारिक शरीर के जैसा यहां अनन्त होते हैं। (जहा पुढविकाझ्याणं तहा आउकाइयाणं ते उकाइयाण य सव्यसरीरा भाणियबा) जिस प्रकार से पृथिवीकायिक जीवों के ये पांच शरीर कहे गये हैं उसी विधि के अनुसार अप्कायिक जीवों और तैजस्कोयिक जीवों में भी इन पांच शरीरों को जानना चाहिये। (वाउकाइयाणं भंते ! केवइया ओरालियसरीरा पण्णता?) हे भदन्त ! वायुकायिक जीवों के कितने औदारिक शरीर कहे गये हैं ? (गोयमा, ओरालियसरीरा दुविहा पण्णत्ता) हे गौतम ! औदारिक शरीर दो प्रकार के कहे गये हैं-(तं जहा) जैसे (बल्लिया य मुक्केल्लया य) एक बद्ध औदारिक शरीर और दूसरे मुक्त औदारिक शरीर । सो इन वायुकायिक जीवों में (जहा पुढविकाइयाणं ओरालियसरीरा पण्णत्ता तहा भाणियब्बा) पृथिवीकायिक जीवों के जैसा औदारिक लियसरीरा तहा भाणियव्वा) तेस भY । म अमन मोक्ष શરીરે હોય છે. તેમજ જાણવું જોઈએ. એટલે કે બદ્ધ તૈજસ અને કાર્માણ, બદ્ધ ઔદારિક શરીરની જેમ અહીં અસંખ્યાત હોય છે. અને મુક્ત તૈજસ કાર્માણ भुत मीर: शरीरनी म सही माय छे. (जहा पुढविकाइयाणं तहा आउकाइयाणं के उकाइयाण य सरीरा भाणियध्वा) रेभ. पृथिवीय જીના આ પાંચ શરીર કહેવામાં આવ્યાં છે તેમજ અપૂકાયિક છે અને ते४२५४ मा ५Y A! पाय शीश ongai नये. (वाउकाइया. ण भंते ! केवइया ओरालियसरीरा पण्णता ?) महत ! वायुया
वेन 32ai हरि४ शी। अपामा माया छ ? (गोयमा! ओरालिय सरीरा दुविहा पण्णत्ता) गौतम ! मो२ि४ शरी। मे १२i अपामा भाव्यां 2. (तंजहा) २ (बद्धेल्लया य मुक्केल्लया य) मे १द्ध मोही. રિક શરીર અને બીજું મુક્ત ઔદારિક શરીર તે આ વાયુકાયિક માં
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अनुयोगद्वारसूत्रे भदन्त ! कियन्ति वैक्रियशहीराणि प्रज्ञप्तानि ? गौतम ! वैक्रियशरीराणि द्विविधानि प्रज्ञप्तानि, तद्यथा-बद्धानि च मुक्तानि च । तत्र खलु यानि तानि बद्धानि तानि खलु असंख्येयानि समये समये अपहियमाणानि अपहियमाणानि क्षेत्रपल्लोपमस्य असंख्येयभागमात्रेण कालेन अपहियन्ते नो चैव खलु अपहृतानि स्युः। मुक्तानि शरीर कहे गये हैं-अर्थात् पृधिवीकाधिक जीवों में बद्ध औदारिक शरीर असंख्यात और मुक्त औदारिक शरीर अनन्त होते हैं उसी प्रकार ये बद्ध मुक्त औदारिक शरीर वायुकायिक जीवों में भी इतने ही होते हैं (वाउकाइयाणं भंते ! केवड्या उब्धियमीरा पण्णत्ता) हे भदन्त ! वायुकायिक जीवों में वैक्रिय शरीर कितने होते हैं ? (गोयमा !) हे गौतम ! (वेउविषयसरीरा दुधिहा पण्णत्ता) पैक्रिय शरीर दो प्रकार के कहे गये हैं-तं जहा) वे ये हैं (बद्धेल्लया य मुक्केल्लया थ) एक बद्ध वैक्रियशरीर और दूसरे मुक्त वैकि शरीर (तत्य णं जे ते बद्धेल्लया तेणं असंखिज्जा) सो इन में जो वे बद्धवैक्रिय शरीर हैं वे असंख्यात होते हैं । (समए समए अबहीरमाणा अबहीरमाणा खेत्तपलि भोवमस्स असंखिज्जहभागमेसेण कालेणं अवहीरंति, नो चेव णं अवहिया सिया) असंख्यातपना इनमें इस प्रकार से हैं कि-'यदि ये शरीर एक समय में निकाले जावे तो क्षेत्र पल्योपम के असंख्यातवें भाग में जितने आकाश के प्रदेश होते हैं उत्तने प्रमाण समयों में ये निकाले जा (जहा पुढविकाइयाणं ओरालियसरीरा पण्णत्ता तहा भाणियठवा) पृथिवीयि જીની જેમ દારિક શરીરે કહેવામાં આવ્યાં છે. એટલે કે પૃથિવીકાયિક જીમાં બદ્ધ દારિક શરીરે અસંખ્યાત અને મુંકત દારિક શરીરે અનંત હોય છે, તેમજ આ બદ્ધ મુક્ત દારિક શરીરે વાયુકાયિક માં પણ मleai ar डाय छे. (वाउकाइयाणं भंते! केवइया वेउब्वियसरीरा पण्णत्ता)
महत! वायुथि मां वैठियशरी२ टस डाय छ ? (गोयमा! गीतम! (वे उब्वियसरीरा दुविहा पण्णत्ता) वैठियशी। मे २i . पामा साया'छे. (तंजडा) त म प्रमाणे छ (बद्धेल्लया य मुक्केल्लया य) से मद्ध शरीर मन भी भुत वैठिय शरी२ (नत्थ णं जे ते बद्धल्लया तेणं असखिज्जा) तो मरे म जय शरी। छ त मन्यात डाय छे. (समए समए अबहीरमाणा अवहीरमाणा खेत्तपलिओवमस्स असखिज्जइभागमेत्ते गं कालेण' अवहीरंति, नो चेव णं अवहिया सिया) असभ्याता मामा मा પ્રમાણે છે કે જે આ શરીરે એક એક સમયમાં બહાર કાઢવામાં આવે તે ક્ષેત્ર પાપમના અસંખ્યાતમાં જેટલા આકાશના પ્રદેશ હોય છે, તેટલા
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अनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र२१४ पृथ्वी कायिकादीनामौदारिकादिशरीरनि० ४२५ सकते हैं । तात्पर्य कहने का यह है कि- 'क्षेत्र पल्योपम के असंख्यातवें भाग में रहे हुए आकाश के जितने प्रदेश होते हैं, उतने ये बद्ध वैक्रिपशरीर वायुकायिक जीवों के होते हैं। यह जो इनकी इस प्रकार से प्ररूपणा की गई है, वह केवल दूसरों को समझाने के लिये ही की गई है - वास्तव में अभी तक कभी भी किसीने भी इस प्रकार से इन्हें निकाला नहीं हैं ।
शंका- 'असंख्यात लोकाकाशों के जिसने प्रदेश होते हैं, उतने समस्त भी वायुकायिक जीव हैं । ऐसा कहा गया है, तो फिर क्या कारण है, जो आप उन में से वैक्रियशरीरधारी वायुकायिक जीवों को इतने कम कह रहे हो ?
उत्तर -- वायुकायिक जीव चार प्रकार के कहे गये हैं- एक सूक्ष्म अपर्याप्तवायुकायिक दूसरे सूक्ष्म पर्याप्तवायुकाधिक, तीसरे बादर अपवायुकायिक और चौथे बादर पर्याप्तवायुकाधिक । इनमें आदि के जो सूक्ष्म अपर्याप्त, सूक्ष्मपर्याप्त और बादर अपर्याप्त में तीन वायुकाविक जीव हैं, वे 'असंख्यात लोकाकाशों के जितने प्रदेश होते है उसने कहे गये हैं । इन को वैक्रिपलब्धि नहीं होती है। इसलिये ये वैंक्रिपलब्धि से
પ્રમાણ સમયે માં આ બહાર કાઢી શકાય છે. તાત્પર્યં` કહેવાનુ' આ પ્રમાણે છે કે ક્ષેત્ર પળ્યેાપમના અસખ્યાતમાં ભાગમાં આવેલા આકાશના જેટલા પ્રદેશે। હાય છે, તેટલા આ બહુઁવક્રિય શરીર વાયુકાયિક જીવેાના હાય છે. એમની જે આ પ્રમાણે પ્રરૂપણા કરવામાં આવી છે. તે કેવળ મીજાને સમજાવવા માટે જ કહેવામાં આવી છે. ખરીરીતે હજુ સુધી કેાઈપશુ દિવસે કાઈ એ મા પ્રમાણે એમને બહાર કાઢયાં નથી.
કારણથી
શકા~~‘અસખ્યાત લેાકાકાશાના જેટલા પ્રદેશા હૈાય છે, તેટલા વધ્યુ કાયિક જીવેા છે. આમ કહેવામાં આવ્યું છે, તે પછી શા આપ તમાંથી વૈક્રિયશરીરધારી વાયુકાયિક જીવેને આટલા ખતાવી રહ્ય છે ?
આછા
ઉત્તર-વાયુકાયિક જીવા ચાર પ્રકારના કહેવામાં આવ્યા છે. એક સૂક્ષ્મ અપર્યાપ્ત વાયુકાયક, ખીજા સૂક્ષ્મ પર્યાપ્ત વાયુકાયિક, ત્રીજા ખાદર અપર્યાપ્ત વાયુકાયિક અને ચેાથા ખાદર પર્યાપ્ત વાયુકાયિક સામાં પ્રથમ જે સૂક્ષ્મ અપર્યાસ, સૂક્ષ્મ પર્યાપ્ત અને ખાદર અપર્યાપ્તમાં ત્રણ વાયુકાયિક જીવે છે, તે ‘અસખ્યાત લેાકાકાશેાના જેટલા પ્રદેશે! હાય છે, તેટલા કહેવામાં આવ્યા છે. આ બધામાં
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अनुयोगद्वारसूत्रे रहित होते हैं। अब रहे बादर पर्याप्तवायुकायिक जीव सो वे सभी प्रकार के असंख्घातवें भाग में रहे हुए आकाश के जितने प्रदेश होते हैं उतने होते हैं। सो ये सब वैक्रियलब्धि सम्पन्न नहीं होते हैं, किन्तु इनमें भी जो इनके असंख्यातवें भागवर्ती जीव है, वे ही वैक्रिपलब्धि संपन्न होते हैं। इनसे अतिरिक्त नहीं । बैंक्रियलब्धि संपन्न जो जीव है उनमें भी सब बद्धवैक्रियशरीर से युक्त नहीं होते हैं किन्तु इनमें भी असंख्येय भागवर्ती जीव ही बद्धवैक्रिय शरीर धारी होते हैं-इन से अधिक नहीं । इसलिये वायुकायिक जीवों में जो यह बद्ध. वैक्रियशरीर धारी जीवों की संख्या कही गई है वह ठीक है। इस से अधिक वायुकायिक जीवों में बद्धबैंक्रिय शरीरधारी जीव नहीं हो सकते हैं।
शका-'वान्ति इति वायक' इस व्युत्पत्ति के अनुसार तो सभी वायुकायिक जीवों को बद्ध वैक्रिय शरीरधारी होना चाहिये ? नहीं तो वैक्रिय के विना इनमें चेष्टा का अभाव ही प्रसक्त होगा ?
उत्तर--समस्त भी लोक में जहां कहीं शुषिर-छेद हैं वहां सर्वत्र चल हवाएँ नियम से हैं ही-यदि ये सब भी हवाएँ वैक्रिया વૈક્રિયલબ્ધિ હોતી નથી. એટલા માટે આ બધા વૈકિય-લબ્ધિ રહિત હેય છે. હવે બાકી રહ્યા બાદરપર્યાપ્ત વાયુકાયિક જીવે તે તેઓ સર્વે પ્રતરના અસંખ્યાતમા ભાગમાં આવેલા આકાશના જેટલા પ્રદેશ હોય છે, તેટલા હોય છે. તે આ સર્વે વેકિયલધિ સમ્પન્ન લેતા નથી, પરંતુ એમનામાં પણ જે એમના અસંખ્યાતમાં ભાગવર્તી જીવો છે, તેઓ જ વૈક્રિયલબ્ધિ સંપન્ન હોય છે. એમના સિવાય નહિ વક્રિયલબ્ધિ સંપન જે જીવે છે, તેઓમાં પણ બધા બદ્ધ ક્રિય શરીર હેતા નથી. પરંતુ આમાં પણ અસં.
ગેય ભાગવર્તી જીવ જ બદ્ધ વૈકિયશરીરધારી હોય છે, આના કરતાં વધારે નહિ. એટલા માટે જ વાયુકાયિક જમાં જે આ વૈક્રિયશરીરધારી જીની સંખ્યા કહેવામાં આવી છે, તે બરાબર છે, એના કરતાં વધારે વાયુકાયિક જીમાં બદ્ધ વૈક્રિયશરીરધારી ની સંભાવના નથી.
__ - 'वान्ति इति वायवः' ! युत्पत्ति भु४५ वायुयि જેને બદ્ધ વૈશિરીરધારી હેવું જોઈએ? નહિ તે તેમનામાં કિયના અભાવે શ્રેષ્ટાને અભાવ જ પ્રસકત થશે ?
ઉત્તર-બધા લોકમાં જ્યાં-જ્યાં શુષિર-છિદ્ર-છે, ત્યાં ત્યાં સર્વત્ર ચલ પવને નિયમ મુજબ જ છે. જે આ બધા પવને વૈક્રિશરીરયુકત હોય તો
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अनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र२१४ पृथ्वीकायिकादीनामौदारिकादिशरीरनि० ४३१ शरीरवाली हो तो पद्धक्रियशरीर प्रचुर-बहुत अधिक हो जावेगेइसस्थिति में बद्धवैक्रियशरीरों का यह प्रमाण तो रहेगा नहीं। इसलिये यह मानना चाहिये कि जो हवाएँ वैक्रियशरीरधारी नहीं होती हैं वे भी चलती हैं। उक्तं च करके जो यहां सन्दर्भ उपस्थित किया गया है उससे वायुकायिक जीवों की गति में तीन प्रकार दिखलाये गये हैं-इन प्रकारों में एक स्वाभाविक गमनरूप प्रकार भी दिखलाया गया है। इस स्वाभाविक गमनरूप प्रकार का निर्देशक 'वायुयाए अहारियं रीयइ' यह पाठ है। अतः ऐसा कहना कि 'वैक्रियशरीर धारी ही वायुएँ चलती हैं "नियामक नहीं हो सकता है। इस, लिये मूलोक्त मूलपाठ प्रतिपादित-प्रकार से बद्धवैक्रियशरीर वायुकायिक जीवों में क्षेत्रपल्योपम के असंख्येय भागवर्ती नभःप्रदेश प्रमाण हैं ऐसा ही कथन निर्वाध है (मुक्केल्लयावेउब्वियसरीरा आहारगसरीरा य जहा पुढविकाइयाण तहा भाणियव्वा) वायुकायिक जीवों के मुक्त वैक्रियशरीर तथा बद्ध एवं मुक्त आहारकशरीर पृथ्वीकायिकजीवों के मुक्तवैक्रियशरीर के जैसा तथा उनके घद्ध एवं मुक्त आहारक शरीर के जैसा ही जानना चाहिये। पृथिकीकायिक जीवों में मुक्त क्रियशरीर अनंत कहे गये हैं तथा बद्ध બદ્ધ વૈકિય શરીરે પ્રચુર માત્રામાં થઈ જશે. આ સ્થિતિમાં બદ્ધકિય શરીરેનું આ પ્રમાણ તે રહેશે જ નહિ. એટલા માટે આ માની લેવું જોઈએ કે જે પવને વૈક્રિયશરીરધારી દેતા નથી તેઓ પણ વહેતા રહે છે. “ઉક્તચ' કહીને જે અત્રે સંદર્ભ ઉપસ્થિત કરવામાં આવ્યું છે, તેથી વાયુકાયિક જીવની ગતિમાં પણ ત્રણ પ્રકાર બતાવવામાં આવ્યા છે. આ પ્રકારમાં એક સ્વાભાવિક ગમનારૂપ પ્રકાર પણ બતાવવામાં આવે છે. આ સ્વાભાવિક ગમનરૂપ પ્રકારનો निश 'वायुयाए अहारिय रीयइ' मा ५४ छ. मेथी माम हे ,-वैठिय
શરીરધારી જ પવને વહે છે' એ કથન નિયામક થઈ શકે નહિ. એટલા માટે મૂકત-મૂલપાઠ પ્રતિપાદિત-પ્રકારથી બદ્ધ વૈક્રિયશરીરે વાયુકાયિક જીવેમાં ક્ષેત્રપાપમના અસંખ્યય ભાગવતિ નભ:પ્રદેશ પ્રમાણ છે, આવું કથન निधि छे. (मुस्केल्लया वेउव्वियसरीरा आहारगसरीरा य जहा पुढविकाइयाणं तहा भाणियव्वा) वायुयि वाना भुत वैठियशरीर तेभर मद्ध भने મુક્ત આહારકશરીર પૃથિવીકાયિક જીના મુત વૈક્રિયશરીરની જેમ તથા તેમના બદ્ધ અને મુકત આહાક શરીરની જેમ જાણવાં જોઈએ. પૃથિવીકાયિક
માં મુકત વકિય શરીર અનંત કહેવામાં આવ્યાં છે તેમજ બદ્ધ
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५३२
अनुयोगद्वारसूत्रे वैक्रियशरीराणि आहारकशरीराणि च यथा पृथिवीकायिकानां तथा भणितव्यानि। तैजसकामकशरीराणि यथा पृथिवीकायिकानां तथा भणितव्यानि। वनस्पतिकायिकानाम् औदारिकवैक्रियाऽऽहारकशरीराणि यथा पृथिवीकायिकानां तथा भणि तव्यानि । बनस्पतिकायिकानां भदन्त ! कियन्ति तैजसजरीराणि प्रज्ञतानि ? आहारक शरीर यहां होते नहीं हैं और मुक्त आहारक शरीर अनंत कहे गये हैं सो इसी प्रकार से वायुकायिक जीवों में भी मुक्त वैक्रिय शरीरों की तथा मुक्त आहारक शरीरों की संख्या जाननी चाहिये । (तेयगकम्मयसरीरा जहा पुढविकाइयाणं तहा भाणियव्या) वायुकायिक जीवों में बद्ध मुक्त तैजस और कार्मग इन दो शरीरों की संख्या का प्रमाण पृथिवीकायिक जीवों में कहे गये इन शरीरों की संख्या के समान जानना चाहिये। पृथिवीकायिक जीवों में बद्ध मुक्त तैजस और कार्मण शरीरों का प्रमाण क्रमशः असंख्यात और अनंत कहा है, वैसा ही प्रमाण यहां वायुकायिक जीवों के इन दोनों प्रकार के शरीरों के विषय में भी जानना चाहिये। (वणस्सइकाइयाणं ओरालियवेउ. प्रियाहारगप्तरीरा जहा पुढधिकाइयाणं तहा भाणियन्वा) वनस्पतिकायिक जीवों के औदारिक, वैक्रिय, एवं आहारक शरीरों को पृथिवीकायिक जीवों के इन शरीरों के समान समझना चाहिये। (वणस्सइकाइयाणं भंते ! केवइया तेयगकम्मयसरीरा पण्णत्ता-गोयमा! આહારક શરીરે અહીં દેતા નથી અને મુકત આહારક શરીરે કહેવામાં આવ્યાં છે, તો આ પ્રમાણે વાયુકાયિક જીવેમાં પણ મુકત વૈક્રિયશરીરની જેમ भाडा२४ शरीनी सध्या omegal ने . (तेयगकम्मयसरीरा जहा पुढविकाइयाणं तहा भाणियवा) पायु4ि3 वोमा , भुत तस भने કાર્મણ આ બે શરીરની સંખ્યાનું પ્રમાણ પૃથિવીકાયિક જીમાં કહેવામાં આવેલાં આ શરીરોની સંખ્યાની બરાબર જાણવું જોઈએ પૃથિવીકાયિક છમાં બદ્ધ, મુકત, તેજસ અને કાશ્મણ શરીરોનું પ્રમાણ કમશઃ અસંખ્યાત અને અનંત કહેવામાં આવ્યું છે. તેવું જ પ્રમાણ અહીં વાયુકાયિક જીના આ બને
२शरीराना विष ५५५ M ने मे. (वणस्सइकाइयाणं ओरालिय वेउव्वियआहारगसरीरा जहा पुढविकाइयाणं तहा भाणियव्वा) वनस्पतिशय જીવોના ઔદારિક વૈક્રિય અને આહારક શરીરને પૃથિવીકાયિક જીવોના આ शरीशनी स४॥ सम य . (वणस्सइकाहयाणं भंते ! केवइया तेयगकम्मरीश पण्णता गोयमा ! तेयासरीरा दुविहा पण्णत्ता-जहा ओहिया
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अनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र२१४ पृथ्वीकायिकादीनामौदारिकादिशरीरनि० ४३३ गौतम ! तैजसशरीराणि द्विविधानि प्रज्ञप्तानि, यथा औधिकानि तैजसकार्मणशरीराणि तथा वनस्पतिकायिकानामपि तैजसकार्मणशरीराणि भणितव्यानि॥म्.२१४॥ तेयगसरीरा दुविहा पण्णत्ता-जहा ओहिया तेयगकम्मयसरीरा तहा वणस्सइकाइयाण वि तेयगकम्भयसरीरा माणियव्या) हे भदन्त । वनस्पतिकायिक जीवों के तैजस और कार्मण शरीर कितने कहे गये है ? हे गौतम दोनों प्रकार के तैजस और कार्मण शरीरों का प्रमाण सामान्य तैजम कार्मण शरीरों के प्रमाण के जैसा वनस्पतिकायिक जीवों में जानना चाहिये। इसका तात्पर्य यह है कि-'पृथिवीकायिक जीव प्रत्येक शरीरी होते हैं, इसलिये प्रत्येक जीव में भिन्न २ रूप से औदारिक शरीर होता है, इसलिये इनके तैजस और कार्मण शरीरों को औदा. रिक शरीरों के तुल्य असंख्यातप्रमागवाला कहा गया है। परन्तु जो वनस्पतिकायिक जीव हैं, उनमें से बहुत जीवों को साधारणशरीर होता है इसलिए वनस्पतिकायिकजीव यद्यपि अनंत हैं तथापि वनस्पतिकायिक जीवों के औदारिक शरीर असंख्य ही होता हैं। क्योंकि अनंत अनंत साधारणजीवों का औदारिक शरीर एक ही होता है। परन्तु इनके जो तेजल और कार्मण शरीर होते हैं वे प्रत्येक जीव के अपने २ स्वतंत्र होते हैं इसलिये साधारणजीवों की अनंतता से इन दोनों तेयगकम्मयचरीरा भाणियठवा) ७ मत ! वनस्पतिय४ ७वाना तेस અને કામણ શરીરે કેટલાં કહેવામાં આવ્યાં છે? હે ગૌતમ ! અને પ્રકારના તેજસ અને કાર્માણ શરીરેનું પ્રમાણ સામાન્ય તૈજસ કામણ શરીરના પ્રમાણની જેમ વનસ્પતિકાયિક જીવમાં જાણવું જોઈએ આનું તાત્પર્ય આ પ્રમાણે છે કે પૃથિવીકાયિક જીવ પ્રત્યેક શરીરી હોય છે. એટલા માટે દરેકે દરેક જીવમાં ભિન્ન ભિન્ન રૂપમાં ઔદારિક શરીર હોય છે. એટલા માટે એમના તેજસ અને કાશ્મણ શરીરને દારિક શરીરની જેમ અસંખ્યાત પ્રમાણુ ચુકત કહેવામાં આવ્યાં છે. તેમાંથી ઘણું જીવોને સાધારણું શરીર હોય છે. એટલા માટે વનસ્પતિકાયિક જીવો જે કે અનંત છે છતાં એ વનસ્પતિકાયિક ના દારિક શરીર અસંખ્ય જ હોય છે કેમકે અનંત અનંત સાધારણ જીવનું દારિક શરીર એક જ હોય છે પરંતુ એમના જે તિજ સ અને કાશ્મણ શરીરો હોય છે, તે દરેકે દરેક જીવને પિતપોતાના સ્વતંત્ર હોય છે. એટલા માટે આ સાધારણ જીવની અનંતતાથી આ બને
अ० ५५
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टीका - 'पुढविकाइयाणं भंते!' इत्यादि -- पृथिवीकायिकानामौदारिकशरीराणि बद्धमुक्तेतिभेदद्वयविशिष्टानि । द्विविधान्यप्येतानि औधि कौदारिकशरीरवद् वाच्यानि । अत्रेदं बोध्यम्-औधिकबद्धानामसंख्येयं प्रमाणमुक्तम् । अत्रापि बद्धानामसंख्येयमेव प्रमाणं यद्यपि भवति, तथापीदमसंख्येयं प्रमाणं लघुतराऽसंख्येयात्मकं बोध्यम् । तत्राकायादिशरीरैः सह सामान्येन शरीराण्यभिहितानि अत्र तु पृथिवीकायमात्रं मस्तूयते, अतोऽत्र बद्धानि शरीराणि लघुतराऽसंख्येयानीति । बद्धवैक्रियशरीराणि न सन्तीति सूचयति सूत्रकारः 'तत्य णं जे ते बद्धेल्या तेणं नत्थि इति व्याख्या स्पष्टा । मुक्तानि वैक्रियशरीराणि तु औधिकौदा रिकशरीराणां बद्धमुक्तेति द्वैविध्येऽपि पृथिवीकायिकानां शरीरखद् विज्ञेयानि । आहार कशरीराण्यप्येवमेव विज्ञेयानि । पृथिवीकायिकानां यथौदारिकशरीराणि तथैव तेषां तेजसकार्मणशरीराण्यपि शरीरों में भी अनंतता है अर्थात् वनस्पतिकायिक जीवों के तेजस कार्मण शरीर अनंत होते हैं। असंख्यात नहीं।
मनुयोगद्वारसूत्रे
भावार्थ -- इस सूत्र द्वारा सूत्रकार ने पृथिवीकायिक, अष्कायिक, तेजःकायिक, वायुकायिक और वनस्पतिकायिक, एकेन्द्रिय जीवों के बद्ध, मुक्त, औदारिक, वैक्रिय, आहारक, तैजस और कार्मण शरीरों का विचार किया है। इसमें यह कहा गया है कि इन जीवों के कितने २ औदारिक आदि शरीर होते हैं। पृथिकीकायिकजीवों में बद्ध औदारिकशरीर रक्त पूर्वभवों की अपेक्षा अनंत होते है । बद्धवेंक्रिय शरीर इन जीवों के होते नहीं हैं । मुक्त वैक्रिय शरीर, अनंत होते हैं । बद्ध आहारक शरीर यहां होते नहीं हैं, मुक्त आहारक शरीर શરીરામાં પણ અનંતતા છે. એટલે કે વનસ્પતિકાયિકોને તેજસ, ક્રાણુ શરીરે અનંત હાય છે અસ્રખ્યાત નહીં.
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भावार्थ९- सूत्र वडे सूत्ररे पृथिवीयि मच्ायिक, तेः यि. વયુકાયિક અને વનસ્પતિકાયિક એકેન્દ્રિય જીવાના બદ્ધ, મુકત, ઔદારિક, વૈક્રિય, આહારક, તૈજસ અને કાણુ શરીર વિષે ચર્ચા કરી છે. આમાં એ પ્રમાણે કહેવામાં આવ્યું છે કે આ જીવાના કેટલા–કેટલા ઔદારિક વગેરે શરીરા હાય છે? પૃથિવીકાયિક જીવામાં અદ્ધ ઔદ્યારિક શરીર અસખ્યાત અને મુકત ઔદારિક શરીર ત્યકતપૂર્વ ભવાની અપેક્ષા અન ́ત છે. અદ્ધ વૈક્રિય શરીરે અનંત હાય છે. મદ્ધ આહારક શરીર અહી... હોતાં નથી મુકત આહારક શરીરો અનતા હોય છે. તૈજસ અને કાણુ શરીર બદ્ધ અને મુક્ત
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अनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र२१४ पृथ्वीकायिकादीनामौदारिकादिशरीरनि० ४३५ बोध्यानि । एवमकायिक तेजाकायिकेष्वपि बोध्यम्। वायुकायिकेषु वैक्रियकृतो विशेषो लभ्यतेऽतस्तं दर्शयितुमाह-'वायुकाइयाण मंते !' इत्यादि-वायुकायिकानां वैक्रियशरीराणि बद्धमुक्तेति द्विविधानि । तत्र बद्धानि असंख्येयसंख्यकानि भवन्ति । एतेषामसंख्येयसंख्यकत्वमतोऽस्ति, यत एतानि शरीराणि समये समये पतिसमयम् अपहियमाणानि अपहियमाणानि=निस्सार्यमाणानि निस्सार्यमाणानि क्षेत्रपल्योपमस्यासंख्येयभागवत्तिनमापदेशसमसंख्प: समयैरपहियन्ते निस्सार्यन्ते। क्षेत्रपल्योपमासंख्येयभागवतिनभःप्रदेशराशितुल्यान्येतानि शरीराणि भवन्तीत्यर्थः । इदं च परप्रत्ययार्थ प्ररूपणामात्रमवसेयम् । वस्तुतस्तु एतानि न केनाऽपि कदाचिदपहियन्ते । अमुमेवार्थ दर्शयति-नो चैव खलु अपहृतानि स्युरिति । अत्र शङ्कते कश्चित् ,-ननु सर्वेऽपि वायुकायिका असंख्येयलोकाकाशप्रदेशप्रमाणा उक्ताः, कथं तर्हि तेषां वैक्रियशरीरिणः स्तोकाः पठयन्ते ? इति चेदाहवायुकायिकाः मूक्ष्मापर्याप्तसूक्ष्मपर्याप्तबादरापर्याप्तबादरपर्याप्तेति चतुर्भेदाः। तत्र-सूक्ष्मापर्याप्त सूक्ष्मपर्याप्तबादरापर्याप्ताश्चेति त्रयो भेदा असंख्येयलोकाकाशप्रदेशप्रमाणा वैक्रियलब्धिरहिताश्च सन्ति । बादरपर्याप्तास्तु सर्वेऽपि प्रतरासंख्येयभागवतिनो ये नमःमदेशाः सन्ति, तत्समसंख्यका उच्यन्ते । बादरपर्याप्तेष्वपि तदसंख्येयभागवत्तिन एव वैक्रियलब्धि युक्ता भवन्ति नातिरिक्ताः । वैक्रियलब्धियुक्ताश्चापि ये भवन्ति, तेष्वप्यसंख्यातभागवतिन एव बद्धवैक्रियशरीरयुक्ता भवन्ति न तु ततोऽधिकाः, अतः पूर्वोक्तसंख्यकान्येव बद्धक्रियशरीराणि भवन्ति अनंत होते हैं तैजस और कार्मण शरीर बद्ध और मुक्तरूप में यहां क्रमशः असंख्यात और अनंत्व होते हैं । इसी प्रकार की अप्कायिक
और तैजसकायिक जीवों में भी इन पांच शरीरों की बद्ध और मुक्त प्रकारों को लेकर घटना कर लेनी चाहिये । वायुकाधिक जीवों में औदा. रिक आहारक ततस और कार्मण इन चारों शरीरों की संख्या पृथिवी. कायिकजीवों के इन चार शरीरों की संख्या के बराबर ही कही गई है-परन्तु यहां असंख्यात बद्धवैक्रियशरीरों का भी अस्तित्व कहा રૂપમાં અહીં કમશઃ અસંખ્યાત અને અનંત હોય છે આ પ્રમાણે જ અપ કાયિક તેમજ સૈજકાયિક જીવનમાં પણ આ પાંચ શરીરની બદ્ધ અને મુકત પ્રકારના આધારે ઘટન કરી લેવી જોઈએ વાયુકાયિક જીવમાં દારિક, આહારક, તૈજસ અને કામણ આ ચાર-ચાર શરીરની સંખ્યા પૃથિવીકાયિક જીવનાં આ ચાર શરીરોની સંખ્યાની બરાબર જ કહેવામાં આવી છે. પરંતુ અહીં અસંખ્યાત, બદ્ધ વૈકિય શરીરનું પણ અસ્તિત્વ કહેવામાં
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अनुयोगद्वारसूत्र नत्वधिकानीति । ननु ये केचन वान्ति ते वायवः, ते सर्वेऽपि वैक्रियशरीरिणो भवन्ति, वैक्रियशरीरमन्तरेण हि तेषु चेष्टाया प्रभाव एव प्रसच्येत ? इति चेदाह-सकलेऽपि लोके यत्र कचित् शुपिरं तत्र सर्वत्र चला वायवो नियमात् सन्त्येव यदि ते सर्वेऽपि वायत्रो वैक्रियशरीरवन्तः स्युस्तदा बद्धवैक्रियशरीराणि प्रचुराणि स्युः, न तु पूर्वोक्तपमाणानि । तस्माद् अवैक्रियशरीरिणोऽपि वायवो वान्ति । उक्तं चापि-"अस्थि णं भंते ! ईसि पुरेवाया पच्छावाया मंदावाया महावाया वायंति ? हंता ! अस्थि । कया णं भंते ! जाव वायंति ? गोयमा ! जया णं वाउकाए अहारीयं रीयइ, तया णं जाव वाउकाए उत्तरकिरियं रीयइ, जयाणं वाउकुमारा वाउकुमारीओ वा अप्पाणो वा परस्स वा तदुभयस्स वा अट्ठाए बाउकायं उईरंति, तयाणं ईसिं जाव वायंति"
छाया-अस्ति खलु भदन्त ! ईषत् पूर्ववाताः पश्चाद्वाताः मन्दवाता महावाता वान्ति ? हन्त ! अस्ति । कदा खलु भदन्त ! यावद् वान्ति ? गौतम यदा खलु वायुकायो यथा रीतं रीयते, यदा खलु यावद् वायुकाय उत्तरक्रियं रीयते, यदा खलु वायुकुमारा वा वायुकुमार्यों वाऽऽत्मनो वा परस्य वा तदुभयस्य वा. ऽर्थाय वायुकायमुदीरयन्ति, तदा ईषद् यावद् वान्ति ।" इति ॥ यथारीतं-रीतं रीतिः स्वभावस्तदनतिक्रम्य यथारीतं स्वभावानुसारेण रीयते गच्छति । स्वाभाविकौदारिकशरीरगत्या गच्छतीत्यर्थः । उत्तरक्रियम्-उत्तरा-उत्तरवैक्रियशरीराश्रया गतिलक्षणा क्रिया यत्र गमने तद्यथा भवति तथा रीयते गच्छतीत्यर्थः । अनेन सन्दर्भणात्र वायुकायिकानां गतो त्रयः प्रकाराः प्रदर्शिताः। तत्र तेषां स्वाभाविकगमनमप्युक्तम् । इत्थं च वैक्रियशरीरसम्पन्ना एव वायवो वान्तीति नास्ति नियमः । अतो मुलोक्ताऽसंख्येयप्रमाणानि शरीराणि बोध्यानीति । तथा-वायुकायिकानां मुक्तवैक्रियशरीराणि द्विविधान्याहारकशरीराणि च पृथिवीकायिकमुक्तवैक्रयशरीरवद् द्विविधाहारकशरीरवच बोध्यानि । एषां तैजसकामकशरीराण्यपि पृथिवीकायिकतैजसकामकशरीरवद् वोध्यानि तथा-वनस्पतिकायिकानामौदारिकवैक्रियाहारकशरीराणि पृथिवीकायिकवद् बोध्यानि । एषां द्विविधान्यपि तैजसगया है। मुक्त क्रियशरीर यहां अनंत कहे गये हैं। पृथिवीकायिकजीवों के औदारिक, वैक्रिय और आहारक शरीरों की संख्या के जैसा ही वनस्पतिकायिक जीवों में इन शरीरों की संख्या प्रकट की गई है। આવ્યું છે મુક્ત વૈક્રિય શરીરે અહીં અનંત કહેવામાં આવ્યાં છે, પૃથિવીકાયિક જીના દારિક, વૈકિય અને આહારક શરીરની સંખ્યાની જેમ જ વનસ્પતિકાયિક જીવમાં આ શરીરની સંખ્યા પ્રકટ કરવામાં આવી છે.
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अनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र २१५ द्विन्द्रियादी नामौदारिकादिशरीर नि० ४३७ कार्मकशरीराणि औधिकतै जसकार्मकशरीरवद् बोध्यानि । अयं भावः - पृथिवीकायिकानां प्रत्येकशरीरित्वात् प्रतिजीवं भिन्नं भिन्नमौदारिकशरीरमुपलभ्यते, अत औदारिकशरीर तुल्यान्येव तेषां तेजसकार्मकशरीराण्युक्तानि । वनस्पतिकायिकानां तु साधारणशरीरित्वात् शरीरिणामनन्तत्वेऽपि औदारिकशरीराण्य संख्येयान्येव । तैजसशरीरं कार्मकशरीरं च वनस्पतिकायिकेषु प्रतिजीवं पृथक् पृथगस्ति, अतो जीवानामनन्तस्वात्तै जसकार्मिकशरीराण्यनन्तानि सन्तीति ।। ० २१४ ॥
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द्वीन्द्रियादीनामौदारिकादिशरीराणि प्ररूपयति
मूलम् - बेइंदियाणं भंते! केवइया ओरालियसरीरा पण्णत्त ? गोयमा ! ओरालिय सरीरा दुविहा पण्णत्ता, तं जहा- बद्वेल्लया य मुक्केल्लया य । तत्थ णं जे ते बद्बल्लया ते णं असंखिज्जा, असंखिज्जाहिं उस्सप्पिणीओसप्पिणीहिं अवहीरंति कालओ । खेतओ असंखेज्जाओ सेढीओ पयरस्स असंखिज्जइभागे । तासि णं सेढीणं विक्खंभसूई असंखेज्जाओ जोयणकोडाकोडीओ असंखिज्जाई सेढिवग्गमूलाई । बेइंदियाणं ओरालिय बल्लएहिं परं अवहीरइ असंखिज्जाहिं उस्सप्पिणीओसप्पिणीहिं कालओ, खेत्तओ अंगुलपयरस्स आवलियाए असंखिजइभागपडिभागेणं । मुक्केलया जहा ओहिया ओरालियसरीरा तहा भाणियद्वा । वे उद्वियआहारगसरीरा बद्धेल्लया नत्थि । मुक्केल्लया जहा ओहिया ओरालियसरीरा तहा भाणियवा तेयगसरीरा जहा एएसिं चेव ओरालियसरीरा तहा भाणियद्वा । जहा इंद्रियाणं तहा तेइंदियच उरिंदियाणवि भाणियद्वा । पंचिंदिय
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इनके तेजस और कार्मण शरीर अनंत हैं बद्ध और मुक्त दोनों ही प्रकार के शरीर, औधिक बद्ध मुक्त तैजस कार्मण शरीर के समान अनंत कहना चाहिए ।। सू० २१४ ॥
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એમના વૈજસ અને કાણુ ખદ્ધ અને મુકત બન્ને પ્રકારનાં શરીરા ઔઘિક અદ્ધ મુકત વૈજ્જ કાર્માણ શરીરની જેમ અનત કહેવાં જોઇએ. ૦૨૧૪૫
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પ્રંટ
अनुयोगद्वारसूत्रे
तिरिक्खजोणियाणवि ओरालियसरीरा एवं चेत्र भाणियवा । पंचिंदियतिरिक्खजोणियाणं भंते! केवइया वेउल्वियसरीरा पण्णत्ता ? गोयमा ! वेउद्द्वियसरीरा दुत्रिहा पण्णत्ता, तं जहा बद्धेल्लया मुकेलाय । तत्थ णं जे ते बद्धेल्लया ते णं असंखिज्जा असंखिज्जाहिं उस्सप्पिणीओसप्पिणीहिं अवहीरंति कालओ । खेतओ असंखिज्जाओ सेढीओ पयरस्स असंखिज्जइभागे । तासि णं सेढीणं विक्खभसूई अंगुलपढमवग्गमूलस्स असंखिइभागे । मुक्केल्लया जहा ओहिया ओरालिया तहा भाणियद्वा । आहारयसरीरा जहा बेइंदियाणं, तेयगकम्मयसरीरा जहा ओरालिया ॥सू० २१५॥
छाया - द्वीन्द्रियाणां भदन्त ! कियन्ति औदारिकशरीराणि प्रज्ञप्तानि ? गौतम ! औदारिकशरीराणि द्विविधानि मज्ञप्तानि तद्यथा- बद्धानि च मुक्तानि च । तत्र खजु यानि तानि बद्धानि तानि खलु असंख्येयानि, असंख्येयाभिरु
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अब सूत्रकार मीन्द्रियादि जीवों के औदारिक शरीरों की मरूपणा करते हैं-
'इंदियाणं भंते! केवइया ओरालियसरीरा पण्णत्ता' इत्यादि ।
शब्दार्थः -- (भंते ) हे भदन्त ! (वेइंदिपाणं) द्वीन्द्रिय जीवों के (ओरा foreiरा) औदारिक शरीर (केवइया पण्णत्ता) कितने कहे हैं ? (गोयमा) हे गौतम ! (ओरालिपसरीरा दुबिहा पण्णत्ता) औदारिक शरीर दो प्रकार के कहे गये हैं (तं जहा) वे इस प्रकार से हैं- ( बद्धे
હવે સૂત્રકાર દ્વીન્દ્રિયાદિ જીવાના ઔદારિકશરીરોની પ્રરૂપણા કરે છે
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बेइंदियाणं भंते! केवइया ओरालियम्ररीरा पण्णत्ता इत्यादिavgl9° —(Hà !) È uɛ'a! (àgfèuñ) &lfrşu oyalıcılı (3772lfsa खरीरा) मोहारि शरीरो (केवइया पण्णत्ता) डेटा उडेवामां आव्यां छे ? (ओरालि यसरी दुविहा पण्णत्ता) मोहारि शरीरेश मे अहारना उडेवामां यां छे. (तंजा) ते या प्रमाणे छे. (बद्वेल्लया य मुक्केल्ल्या य) मे मद्ध
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अनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र २१५ द्विन्द्रियादीनामौदारिकादिशरीरनि० रसर्पिण्पवसर्पिणीभिरपहियन्ते कालतः, क्षेत्रतः असंख्येया श्रेणयः प्रतरस्यासंख्येयमागे वासां खलु श्रेणीनां विष्क्रम्मनुचिः असंख्येया योजनकोटीकोटयः । असंरूयेयानि श्रेणिवर्गमूलानि । द्वीन्द्रियाणाम् औदारिकबद्धैः प्रतरोऽपहियते, असंख्ये
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ल्लया य मुक्केल्लया य) एक बद्ध औदारिक शरीर और दूसरे मुक्त औदारिक शरीर (तस्थ णं जे ते बद्वेल्लया ते णं असंखिज्जा) इन में जो बद्र औदारिक शरीर हैं, वे यहां असंख्यात हैं । (असंखिज्जाहिं
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सपिणी ओसपिणीहिं अवहीरंति कालओ) असंख्यात उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी काल के जितने समय होते हैं, उतने समय प्रमाण वे शरीर काल की अपेक्षा हैं । (खेत्तओ असंखेज्जाओ सेढीओ पयरस्स असंखिज्जइभागे) क्षेत्र की अपेक्षा वे शरीर प्रतर के असंख्यातवें भाग में वर्तमान असंख्यात श्रेणियों के प्रदेशों की राशि प्रमाण हैं । यहाँ पर प्रतर के असंख्यातवें भाग में वर्तमान जो असंख्यात आकाशश्रेणियां हैं वे ग्रहण की गई हैं। अब इन श्रेणियों की जो विष्कंभसूचि है उसका प्रमाण कहते हैं (तासि णं सेढीणं विक्खंभसूई असंखेज्जाओ जोयणकोडाकोडीओ असंखेज्जाई सेढिवग्गमूलाई) यह विष्कंभसूचि असंख्यात कोटीकोटि योजनों की जाननी चाहिये । इतने प्रमाण वाली विष्कंभसूचि असंख्यात श्रेणियों के मूलरूप होती है। तात्पर्य इसका यह है- एक आकाश श्रेणि में रहे हुए मोहारि शरीर भने जी भुक्त मोहारिए शरीर (तत्थ णं जे से बद्वेल्लया वेणं असंखिज्ज!) मामां ने जद्ध मोहारि शरीरे। छे, ते सर्वे ही असयात थे. (असंखिज्जादि उस्सप्पिणीओसप्पिणीहिं अवद्दीरंति कालओ) अस ખ્યાત ઉત્સર્પિણી અને અવસર્પિણી કાળના જેટલા સમયેા હાય છે, તેટલા समय प्रभाणु ते शरीर हानी अपेक्षा मे छे. (खेत्तओ असंखेज्जाओ सेढीओ पयरस्स असंखिज्जइभागे) क्षेत्रनी अपेक्षा ते शरीर अतरना असंख्यात ભાગમાં વમાન અસખ્યાત શ્રેણિઓના પ્રદેશેાની રાશિ પ્રમાણ છે. અહી પ્રતરના અસખ્યાતમા ભાગમાં વત માન જે અસખ્યાત આકાશ શ્રેણિ છે, તેમનું ગ્રહણ કરવામાં આવ્યુ છે હવે આ શ્રેણિઓની જે વિષ્ય ભસૂચિ छे, तेनु प्रमाणु स्पष्ट ठरवामां आव्यु छे. (तासि णं सेढीणं विक्खंभसूई असंखेज्जाओ जोयणको डाकोडीओ, असंखेज्जाई सेटिवग्गमूलाई) मा विष्ठभ સૂચિ અસખ્યાત કાટીકેટ ચેાજનાની જાણવી જોઈએ આટલા પ્રમાણવાળી વિષ્કભ સૂચિ અસખ્યાત શ્રેણિઓના વર્ગમૂલ રૂપ હોય છે. તાત્પર્ય આનુ આ પ્રમાણે છે કે, એક આકાશશ્રેણિમાં આવેલા સમસ્ત પ્રદેશ અસંખ્યાત
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अनुयोगद्वारसूत्रे समस्त प्रदेश असंख्यात होते हैं-इस बात को हम यों कल्पना से समझे कि वे ६५५३६, हैं । ये ६५५३६, असंख्यात की पहिचान है। इस संख्या का प्रथम वर्गमूल २५६, आता है। द्वितीयवर्गमूल १६
और तृतीय वर्गमूल ४ तथा चौथा वर्गमूल २ आता है । कल्पित ये सब वर्गमूल मानों असंख्यात वर्गमूल हैं ऐसा तत्त्वदृष्टि से मान लेना चाहिये । इन वर्ग मूलों का परस्पर जोड काने पर २७८ जो संख्या आती है मान लो वही असंख्यात प्रदेश हैं। इतने प्रदेशोंवाली वह विष्कम सूचि होती है। इसी प्रस्तुतशरीर प्रमाण को अब सूत्रकार प्रकारान्तर से यों कहते हैं-कि (बेइंदियाणं ओरारियबद्धेल्लएहिं पयरं अवहीरह) द्वीन्द्रिय जीवों के जो औदारिक पद्धशरीर हैं, उनसे यदि सब भी प्रतर खाली किया जावे तो (असंखिजनाहिं उस्सप्पिणीओसपिणीहिं कालो) उसमें असंख्यात उत्सर्पिणी अवसर्पिणीकाल समाप्त हो जाते हैं-अर्थात् असंख्यात उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी कालों में जितने समय होते हैं-उतने समयों में वह समस्त प्रतर औदारिक बद्ध शरीरों से खाली किया जा सकता है। कहने का तात्पर्य यह है कि-'असंख्यात उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी कालों के जितने समय है, હોય છે. આ વાતને અમે આ જાતની કલ્પનાથી સમજીએ છીએ કે તે ૫૫૩૬ છે. આ ૬૫૫૩૬ અસંખ્યાતને ઓળખવા માટે છે આ સંખ્યાનું પ્રથમ વર્ગમૂળ ૨૫૬, આવે છે બીજુ વર્ગમૂળ ૧૬ અને ત્રીજુ ૪ અને ચોથું વર્ગમૂળ ૨ આવે છે. કલ્પિત આ બધાં વર્ગમૂળે માનો કે અસંખ્યાત વર્ગમૂળો છે, આમ તત્ત્વ દૃષ્ટિએ માની લેવું જોઈએ આ વર્ગમૂલને સરવાળે જે ૨૭૮ થાય છે. તે જ માને કે અસંખ્યાત પ્રદેશ છે આટલા પ્રદેશેવાળી તે વિષંભ સૂચિ હોય છે. આજ પ્રસ્તુત શરીર પ્રમાણને
के सा२ असन्तरथी मा प्रमाणे 3 छ है (बेइंदियाण ओरालिय बल्लएहि पयरं अवहीरइ) दीन्द्रय वाना २ मोहारि४ मद्ध शरी। छ,
मनाथी प्रतमासी ४२वामा माता (असंखिज्जाहिं उस्सप्पिणी ओसप्पिणीहि कालओ) तभी सप्यात Grallel मसjिी ११ समास થઈ જાય છે. એટલે કે અસંખ્યાત ઉત્સર્પિણી અને અવસર્પિણી કાળમાં રટલા સમય હોય છે, તેટલા સમયમાં તે સમસ્ત પ્રતર દારિક બદ્ધ શરીથી રિકત કરી શકાય છે. કહેવાનું તાત્પર્ય આ પ્રમાણે છે કે અસં. ખ્યાત ઉત્સર્પિણી અને અવસર્પિણી કાળના જેટલા સમયે છે, તેટલા
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अनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र २१५ द्वीन्द्रियादीनामौदारिका दिशरीरनि० ४४१ उतने औदारिक बद्ध शरीर दोहन्द्रिय जीवों के होते हैं । यह काल की अपेक्षा बड औदारिकशरीरों का प्रमाण का है - (खेत्तओ अंगुलपयरस्स आवलियाए असंखिज्जइ भाववडिमागणं) क्षेत्र की अपेक्षा दीन्द्रिय जीवों का प्रमाण इस प्रकार से है कि- 'अंगुल प्रतर के जितने प्रदेश होते हैं, उन सब भी प्रदेशों में यदि प्रत्येक प्रदेश एक एक बीन्द्रिय जीव से भरा जाये तो, वे सब प्रदेश उन दीन्द्रिय जीवों से भर जाते हैं । और उन मृत प्रदेशों से आवलिका के असंख्यातवें भावरूप समय में यदि एक एक २ द्वीन्द्रियजीव निकाला जावे तो समस्त उन हीन्द्रिय जीवों को उस प्रदेशों से निकालने में जितने आवलिता के असंख्यातवें भाग लगते हैं उतने प्रदेश अंगुल प्रतर के होते हैं और इन अंगुल प्रतर के प्रदेशों की जितनी संख्या होती है उतनी ही द्वीन्द्रिय जीवों की संख्या है। इस प्रकार बीन्द्रिय जीवों की संख्या क्षेत्र की अपेक्षा से असंख्यात आती है ऐसा जानना चाहिये | अथवा (बेइंदियाणं ओरालिय बल्ल एहिं ) इत्यादि सूत्र पाठ का ऐसा अर्थ करना चाहिये कि द्वीन्द्रियजीवों के जो बद्ध औदारिक शरीर हैं उनसे यदि सब प्रतर खाली किया जावे तो इसमें असंख्यात
કાળની અપેક્ષાએ (खेत्तओ अंगुलपयઅપેક્ષા âન્દ્રિય પ્રદેશેા હૈાય છે,
ઔદારિક બદ્ધ શરીર એ ઇન્દ્રિય જીવેાના હૈાય છે. આ मद्ध मोहारि शरीरे तु प्रमाणु उडेवामां आव्यु छे. रस्स आवलियाए असं खिज्जइभागपडिभागेणं) ક્ષેત્રની જીવેાનું પ્રમાણ આ પ્રમાણે છે કે અંશુલ પ્રતરના જેટલા તે સર્જે પ્રદેશેમાં જો દરેકે દરેક પ્રદેશ એક એકદ્વીન્દ્રિય જીવથી પૂતિ કરવામાં આવે તે તે સર્વ પ્રદેશે તે દ્વીન્દ્રિય જીવાથી સંપૂતિ થઈ જાય છે. અને તે ભૂત-ભરેલા પ્રદેશેાથી આવલિકાના અસ`ખ્યાતમા ભાગ રૂપ સમયમાં જે એક એક ફ્રીન્દ્રિય જીવ બહાર કાઢવામાં આવે તે સમસ્ત દ્વીન્દ્રિય જીનાને તે પ્રદેશેામાંથી કાઢવામાં જેટલા આવલિકાના અસંખ્યાતમા ભાગેા લાગે છે તેટલા પ્રદેશે! અ'શુલ પ્રતરના હૈાય છે અને આ અંશુલ પ્રતરના પ્રદેશેાની જેટલી સખ્યા હાય છે, તેટલી જ દ્વીન્દ્રિય જીવાની સખ્યા છે. આ રીતે દ્વીન્દ્રિય જીવેાની સંખ્યા ક્ષેત્રની અપેક્ષાએ અસખ્યાત હાય છે, આમ જાણી લેવું लेहो अथवा तो (बेइंदियाणं ओरालियवद्वेल्लएहि) वगेरे सूत्रपाउने आ જાતના અથ લગાડવા જોઇએ કે દ્વીન્દ્રિય જીવેાના જે અદ્ધ ઔદારિક શરીર છે, તેનાથી જે સવ પ્રતા ખાલી કરવામાં આવે તે આમાં અસખ્યાત
अ० ५६
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કર
अनुयोगद्वारसूत्रे उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी काल का समय लग जाता है-गतीत हो जाता । अब यहां ऐसा प्रश्न उपस्थित हो सकता है कि अंगुल प्रत्तर रूप क्षेत्र का कितना प्रदेशल्प क्षेत्र का कितना प्रदेश रूप अंश काल के कौन के अंश में द्वीन्द्रिय जीव से खाली करना चाहिये ? तष इसका उत्तर इस प्रकार हैं-कि अंगुलशतरक्षेत्र का जो अगुल का असंख्यातवां भागरूप अंश क्षेत्र है वह एक हीन्द्रिय जीव से आवलिका रूप काल के असंख्यातवें भागरूप समय में क्रमशः खाली करते जाना चाहिये-इस प्रकार करते २ वह अंगुल इतररूप पूरा क्षेत्र समस्त द्वीन्द्रिय जीवो से खाली किया जा सकता है । इस प्रकार से खाली करने में असंख्यात उस्मर्पिणी और अवसर्पिणीकाल समाप्त हो जाते हैं। अर्थात् असंख्यात उत्सपिभी और अवसर्पिणीकाल में वह सम्पूर्ण प्रतर खाली हो जाता है। इस प्रकार के प्रतर के एक एक अंगुल के असंख्यातवें भागरूप प्रदेश पर आवलिका के एक एक असंख्यातवें भागरूप समय को लेकर क्रमशः प्रत्येक द्वीन्द्रिय जीव शरीर को स्थापित करते २ सम्पूर्ण वह प्रतररूप क्षेत्र द्वीन्द्रिय जीवों के शरीरों से असंख्यात उत्सर्पिणी अवसर्पिणीकाल में भर जाता है। इस प्रकार का यह अर्थ और पहिला अर्थ ये दोनों ही अर्थ वास्तव में एक ઉત્સર્પિણી અને અવસર્પિણી કાળ જેટલો સમય પસાર થઈ જાય છે. અહીં આ જાતને પ્રશ્ન ઉપસ્થિત થઈ શકે કે અંગુલ પ્રતર રૂપ ક્ષેત્રના જે અંગુલના અસંખ્યાતમા ભાગ રૂપ અંશ ક્ષેત્ર છે, તે એક દ્રિય જીવથી આવલિકા રૂપ કાળના અસંખ્યાતમાં ભાગ રૂપે સમયમાં ક્રમશઃ રિત કરતાં રહેવું જોઈએ આ રીતે કરતાં કરતાં તે અંગુલ પ્રતર રૂપ રપૂર્ણ ક્ષેત્ર સમસ્ત શ્રીન્દ્રિય જીવેથી રિકત કરી શકાય છે. આ પ્રમાણે રિકત કરવામાં અસંખ્યાત ઉત્સર્પિણી અને અવસર્પિણી કાળ સમાપ્ત થઈ જાય છે. એટલે કે અસંખ્યાત ઉત્સર્પિણી અને અવસર્પિણી કાળમાં તે સંપૂર્ણ પ્રતર ખાલી થઈ જાય છે. આ રીતે પ્રતરના એક એક અંગુલના અસંખ્યાતમા ભાગ રૂપ પ્રદેશ પર આવલિકાના એક એક અસંખ્યાતમાં ભાગ રૂપે સમયને લઈને ક્રમશઃ દરેકે દરેક દ્વીન્દ્રિય જીવ શરીરને સ્થાપિત કરતાં કરતાં સંપૂર્ણ તે પ્રતરરૂપ ક્ષેત્ર દ્વીન્દ્રિય જીના શરીરેથી અસંખ્યાત ઉત્સપિણી અવસર્પિણી કાળમાં પૂરિત થઈ જાય છે. આ રીતે આ અર્થ અને પહેલે અર્થ બનને અર્થો ખરેખર એક જ છે. તે બન્નેમાં કઈ પણ જાતને તફાવત
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अनुयोगन्द्रिका टीका सूत्र २१५ द्वीन्द्रियादीनामौदारिकादिशरीरनि० ४४३ याभिरुत्सपिण्यवसर्पिणीभिः कालतः । क्षेत्रतः अङ्गुलपतरस्य आवलिकायाः, असंख्येषभागप्रतिभागेन । मुक्तानि यथा औधिकानि औदारिकशरीराणि तथाभणितव्यानि । वैक्रियाहारकशरीरागि बद्धानि न सन्ति । मुक्तानि यथा औघि कानि औदारिकशरीराणि तथा भणितव्यानि । तैजसकामकशरीराणि यथा एतेपामेव औदारिकशरीराणि तथा भणितव्यानि । यथा द्वीन्द्रियागां तथा त्रीन्द्रियवतुरिन्द्रियागामपि भगिव्यानि। पञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनिकानामपि औदारिकही है । इनमें कोई भेद नहीं है । (मुकल्लया जहा ओहिया ओरालिय सरीरा तहा भाणियव्या) द्वीन्द्रियजीवों के मुक्त औदारिक शरीर सामान्य मुक्त औदारिक शरीरों के जैसा अनन्त जानना चाहिये । (वेवियाहारगसरीस घद्धेल्लया णत्थि) द्वीन्द्रियजीवों के पद्ध वैक्रिय शरीर, और घद्ध आहारक शरीर नहीं होते हैं। (मुक्केल्लया जहा ओहिया ओरालियसरी रा तहा भाणियव्या) मुक्त वैक्रियशरीरों का एवं मुक्त आहारक शरीरों का प्रमाण मुक्त औदारिक शरीरों के प्रमाण के जैसा यहां अनंत जानाना चाहिये। (तेयगकम्मयसरीरा जहा एएसिं चेव ओरालियसरीरा तहा भाणियन्वा) तेजस और कार्मण शरीर इनके औदारिक शरीरों के जैसा जानने चाहिये । (जहा वेइं. दियाणं तहा तेइ दियचउरिदियाण वि भाणियचा) जिस प्रकार यह दीन्द्रियजीवों के शरीरों की प्ररूपणा की गई है उसी प्रकार से त्रीन्द्रिय और चतुरिन्द्रिय जीवों के शरीरों की भी प्ररूपणा समझनी चाहिये। 'पचे दियतिरिक्ख जोड्याण वि ओरालियसरीरा एवं चेव भाणि
नथी. (मुक्केल्लया जहा ओहिया ओगलिय सरीरा तहा भाणियव्वा) द्रिय જીના મુકત ઓદારિક શરીર સામાન્ય મુકત ઔદારિક શરીરની જેમ मनन्तला नसे. (वेउठिबयाहारगसरोरा बद्धेल्लया णत्थि) दीन्द्रय
वाना ५ जय शरीर मन मद्ध डा२४ शरी। उता नथी. (मुक्के ल्या जहा ओहिया ओरालियसरीरा तहा भाणियब्वा) भुत वैष्य शरीरानु અને મુકત આહારક શરીરોનું પ્રમાણ ઔદારિક શરીરના પ્રમાણની જેમ सही सनत
न से . (तेयाकम्मयसरीरा जहा एएसि चेव ओग. लियसरीरा तहा भाणियवा) समन तेस भने म । शरी। मोहार शरीरानी म Mp4 नये. (जहा बेइंदियाणं तहा तेइंदियचउरिदियाण वि भाणियब्वा) मा दीन्द्रय याना शरी।नी प्र३५६५। ४२वामा मा છે તેમજ ત્રીન્દ્રિય અને ચતુરિન્દ્રિય જીના શરીરની પ્રરૂપણા સમજવી
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अनुयोगद्वारस्त्र शरीराणि एकमेव भणितव्यानि । पश्चेन्द्रियतिर्यग्योनिकानां भदन्त ! कियन्ति वैक्रिपशरीराणि प्रज्ञप्तानि ? गौतम ! वैकि पशरोराणि द्विविधानि प्रज्ञप्तानि तद्यथा-वद्वानि च मुक्तानि च । तत्र खलु यानि तानि बद्धानि तानि खल असं. ख्येयानि असंख्येयाभिरुत्सपियवसर्पिणीभिरपहियन्ते कालतः। क्षेत्रतः असंख्येयाः श्रेणयः प्रतरस्य असंख्येयभागे । ताप्लो खलु श्रेणीनां विष्कम्भमूचिः अगुल. यव्या) पंचेन्द्रिधतिर्यञ्च जीवों के भी औदारिकशरीर, दीन्द्रिय जीवों के औदारिकशरीरों के जैसा ही जानना चाहिये । (पंचेदियतिरिक्खजोणियाणं भंते! केवड्या वेउव्वियसरीरा पण्णत्ता) हे भदन्त ! तिर्यश्च पंचेन्द्रिय जीवों के कितने वैक्रियशरीर कहे गये हैं ? (गोयमो! वे उब्धियसरीरा दुविहा-पण्णत्ता त जहा बद्धेल्लया यमुक्केल्लया य) हे गौतम। वैक्रियशरीर दो प्रकार के कहे गये हैं-एक बद्ध वैक्रियशरीर और दूसरे मुक्त वैक्रियशरीर । (लत्थ णं जे ते बद्धेल्लया तेणं असंखिज्जा) सो इनमें तिर्यश्च पंचेन्द्रियों के बद्धवैनिय शरीर हैं, वे असंख्यात हैं। (असंखिज्जाहिं उस्तप्पिणीओसप्पिणीहिं अवहीरंति कालओ-खेतो असंखिज्जाओ सेढि मओ पयरस्त असंखिज्जहभागे) असंख्यातें उत्सपिणी और अवसर्पिणी-काल के जितने समय हैं, उतने ये काल की अपेक्षा से हैं । क्षेत्र की अपेक्षा ये प्रतर के असंख्यातवें भाग में वर्तमान असंख्यात श्रेणिरूप हैं । (तासि णं सेढीणं विक्खं भसूई अंगुलपढ़मवग्गमूलस्स नये. (पंचेंदियतिरिक्खजोणियाण वि ओरालिसरीरा एवं चेव भाणियव्वा) પંચેન્દ્રિય તિર્યય ના પણ દારિક શરીર દ્વીદ્રિય જીવોના ઔદા२४ शशानी म MOn २. (पंचेदियतिरिक्खजोणियाणं भंते ! केवइया वेउब्धियसरीरा पण्णत्ता) 8 मत! तियय पन्द्रिय वाना हैस वैठियशरी। वामां मा०यां छ? (गोयमा! वे उब्धियसरीरा दुविहा पण्णत्ता तंजहा बद्धेल्लया य मुक्केल्लया य ) गीतम ! वैष्य शरीमे પ્રકારનાં કહેવામાં આવ્યાં છે. પહેલાં બદ્ધ વિદિયશરીરે અને બીજા મુકત यि शरी। (तत्थ णं जे ते बद्धेल्लया ते णं असंखिज्जा) तो मामारतिय य पायन्द्रियाना मद्ध वैजय शरी२ छ, ते २५सभ्यात छे. (असंखिज्जाहिं उस्सप्पिणीओसप्पिणीहि अवहीरंति कालओ खेत्तओ असंखिज्जाओ सेढिओ पयरस्स असंखिज्जइभागे) मसभ्यात सर्पिणी भने असमियी ना रेटता સમયે છે, તેટલા કાળની અપેક્ષાએ છે. ક્ષેત્રની અપેક્ષા આ પ્રતરના मसातमा लामा पतमान मसच्यात श्रे॥३५ छ. (तासि णं सेढीणं
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अनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र २१५ द्वीन्द्रियादीनामौदारिकादिशरीरनि० मथमवर्गमूलस्य असंख्यात भागे । मुक्तानि यथा औधिकानि औदारिकानि तथा भणितव्यानि । आहारकशरीराणि यथा द्विन्द्रियाणाम् तेजसकार्मणशरीराणि यथा औदारिकाणि ॥ सू० २१५ ।।
असंखिज्जइभागे) अंगुल के प्रथम वर्गमूल के असंख्यातवें भाग में उन श्रेणियों की विष्कंभसूचि ली गई है। इसका भाव इस प्रकार से
-प्रतर के असंख्यातवें भाग में वर्तमान जा असंख्यात श्रेणियां हैं, सो उन असंख्यात श्रेणियों के जितने प्रदेश होते हैं, उतने पंचेन्द्रियतिर्यञ्च जीव के वैक्रिय शरीर हैं। प्रति समय में एक एक करके यदि उन एक एक प्रदेश गत पंचेन्द्रियतिर्यश्च जीवों के वैक्रिय शरीरों को निकाला जावे तो, सम्पूर्णरूप से उनके निकालने में असंख्यात उत्सपिणी और अवसर्पिणी काल समाप्त हो जाते हैं । क्षेत्र की अपेक्षा वे शरीर प्रतर के असंख्यातवें भाग में वर्तमान असंख्यात श्रेणियों के प्रदेशों की राशि प्रमाण हैं। यहां प्रतर के असंख्यातवें भाग में वर्तमान असंख्यात आकाशश्रेणियां ग्रहण की गई हैं, उन श्रेणियों की जो विष्कंभसूचि है वह अंगुल के प्रथम वर्गमूल के असंख्यातवें भाग में वर्तमान जितनी श्रेणियां होती है तावत्प्रमाणरूप ली गई है । इस प्रकार यह तिर्यञ्चपंचेन्द्रिय जीवों के बद्ध वैक्रिय शरीरों का प्रमाण कहा गया है। अब मुक्तवैकियशरीरों का प्रमाण कितना है यह सूत्रकार
विक्खंभसूई अंगुलपढमवगामूलस्स असंखिज्जइभागे) भगणना प्रथम वर्ग - મૂળના અસંખ્યાતમાં ભાગમાં તે શ્રેણિઓની વિભસૂચિ ગ્રહણ કરવામાં આવી છે. આના ભાવ આ પ્રમાણે છે.-પ્રતરના અસખ્યાતમા ભાગમાં વમાન જે અસખ્યાત શ્રેણિએના જેટલા પ્રદેશેા હૈાય છે, તેટલા પચેન્દ્રિય તિર્યંચ જીવના વૈક્રિયશરીરા છે. પ્રતિસમયમાં એક એક કરીને જો તે એક પ્રદેશગત પંચેન્દ્રિય તિય ચ જીવેાના વૈક્રિયશરીરાને બહાર કાઢવામાં આવે તે સંપૂર્ણ રૂપથી તેમને કાઢવામાં અસંખ્યાત. ઉત્સર્પિણી અને અવસિવણી કાળ સમાપ્ત થઇ જાય છે. ક્ષેત્રની અપેક્ષા તે શરીર પ્રતરની અસ્રખ્યાતમા ભાગમાં વર્તમાન અસંખ્યાત શ્રેણિઓના પ્રદેશેાની રાશિ પ્રમાણ છે. અહીં પ્રતરના અસંખ્યાતમા ભાગમાં વત માન અસંખ્યાત આકાશ શ્રેણિઓની જે વિષ્ફભસૂચિ છે, તે આંગળના પ્રથમ વર્ગમૂળના અસખ્યાતમા ભાગમાં વમાન જેટલી શ્રેણિએ છે, તાજપ્રમાણુ રૂપ ગ્રહણ કરવામાં આવી છે. આ રીતે આ યિચ૫'ચેન્દ્રિય જવાના મદ્ધવૈક્રિય શરીરાનુ' પ્રમાણ કહેવામાં આવ્યુ` છે. હવે મુક્ત વૈક્રિયશરીરનું પ્રમાણ
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મુશ્કે
अनुयोगद्वार सूत्र
और
प्रकट करते हैं - (मुक्केल्लया जहा ओहिया ओरालिया तहा भाणियब्बा) मुक्तवैकियशरीरों का प्रमाण सामान्य औदारिकशरीरों के प्रमाण बराबर हैं (आहारगसरीरा जहा वेइंदियाणं, तेयगकम्नय सरीरा जहा ओरालिया) इनके आहारक शरीरों का प्रमाण द्वीन्द्रिय जीवों के आहारक शरीरों के जैसा है। तैजस कार्मण शरीरों का प्रमाण औदारिक शरीरों के जैसा है। यहां जो 'जहा वेइंदियाणं तहा तेइंदियचउरिंदियाण वि भाणियन्त्रा' ऐसा कथन किया है वह असंख्येयता सामान्य को लेकर किया गया जानना चाहिये, संख्या को लेकर किया गया नहीं जानना चाहिये । क्योंकि इन में परस्पर में संख्या की समानता नहीं है । उक्त च करके सोही कहा है । (एएसि च णं भंते!' इत्यादि हे भदन्त । इन एकेन्द्रिय, दीन्द्रिय, श्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, और पंचेन्द्रिय जीवों में कौन जीव किन से अल्प हैं ? कौन किनसे बहुत हैं ? कौन किनसे विशेषाधिक हैं ?
उत्तर - हे गौतम! सब से कम पंचेन्द्रिय जीव हैं । इनसे कुछ अधिक चतुरिन्द्रिय जीव हैं। चतुरिन्द्रिय जीवों की अपेक्षा श्रीन्द्रिय जीव कुछ अधिक हैं। इनकी अपेक्षा द्वीन्द्रिय जीव
डेंटलु छे ? मावात सूत्रार अरे छे. (मुक्केल्लया जहा ओहिया ओरोलिया तहा भाणियव्वा) भुत वैडिय शरीशनु प्रमाणु सामान्य मोहारि शरीरोना प्रभालु भराभर है. (आहारगसरीरा जहा बेइंदियाणं, तेयगकम्मय सरीरा जहा ओरालिया) खेभना आहार४ शरीशनु प्रमाणु द्वीन्द्रिय लवाना આહારક શરીરીના પ્રમાણ જેવુ' છે. તૈજસ અને કાણુ શરીરીનુ પ્રમાણુ मोहारिक शरीशना प्रमाणु भेवु छे, सही ने "जहा बेइंदियागं तहा तेइंदियउरिदियाण विभाणियन्त्रा) खाबु उथन छे, ते असंख्येयता सामान्यने बहने કહેવામાં આવ્યુ છે. સંખ્યાના આધારે કરવામાં આવ્યુ'નથી તેમ જાણવુ જોઇએ કેમકે આમાં પરસ્પરની સખ્યાની સલામતી નથી. ઉક્તચકહીને તેજ વાત स्पष्ट अश्वामां भावी छे (एएसिं च णं भंते । इत्यादि) हे लढत ! मा એકેન્દ્રિય, દ્વીન્દ્રિય, ત્રીન્દ્રિય, ચતુરિન્દ્રિય અને પચેન્દ્રિય જીવામાં કચે જીવ કયા જીવ કરતાં અલ્પ છે ? કયા કાના કરતાં વધારે છે? કાકાના કરતાં વિશેષાધિક છે?
ઉત્તર-ડે ગૌતમ! સૌથી અલ્પ પચેન્દ્રિય જીવેા છે. એમના કરતાં કઈક વધારે ચતુરિન્દ્રિય જીવે છે, ચતુરિન્દ્રિય જીવેાની અપેક્ષા ત્રીન્દ્રિય
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अनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र २१५ द्वीन्द्रियादीनामौदारिकादिशरीरनि० ४४७ टीका-'वेइंदिया ' इत्यादि
द्वीन्द्रियाणामौदारिकशरीराण्यपि बद्धमुक्तति द्विविधानि । तत्र बद्धान्यौदारिकशरीराणि असंख्येयानि । कालन एतानि असंख्योत्सपिण्यवसपिणीषु यावन्तः समया भवन्ति, तावस्तमपमानानि । क्षेत्रास्तु प्रतरस्यासंख्येयभागवयंसंस्पेयप्रदेशराशि तुल्यानि । प्रतरासंख्येयभागवर्त्य संख्येययोजनकोटथा. त्मकक्षेत्रवाकासश्रेण्योऽत्र न गृह्यन्ते, किन्तु तासां श्रेणीनां विष्कम्भसूचिरिह गृह्यते । इयं विष्कम् समुचिरसंख्येयकोटीकोटियोजनप्रमाणा बोध्या। एतावत्मविशेषधिक हैं और बीन्द्रिय जीवों की अपेक्षा एकेन्द्रिय जीव अनन्त गुणे है अतः जब इस 'एएसिं च णं भंते ' इत्यादि सूत्र द्वीन्द्रियादि जीवों की संख्या में भिन्नता कही गई है, तो इनके शरीरों की संख्या में भी विचित्रता-भिन्नता है।
भावार्थ--इन सूत्र द्वारा सूत्रकारने द्वीन्द्रियादि जीवों के औदा. रिक आदि शरीरों की संख्या कही हैं । इसमें उन्होंने यह प्रकट किया है-'दीन्द्रिय, तेइन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय जीवों के बद्ध औदारिक आदि पांच शरीरों की संख्या समान होती है। अर्थात् बीन्द्रिय जीवों के बद्ध औदारिक शरीर असंख्यात होते हैं-और मुक्त औदारिक शरीर सामान्य औदारिकशरीरों के जैसा अनंत होते हैं। इसी प्रकार से तेन्द्रिय और चतुरिन्द्रिय जीवों के बद्ध मुक्त औदारिक शरीरों के विषय में भी जानना चाहिये। इन जीवों के જ કંઈક વધારે છે. આ સર્વની અપેક્ષા દ્વીન્દ્રિય જીવો વિશેષાધિક છે અને કીન્દ્રિયની અપેક્ષા એકેન્દ્રિય જી અનંતગણું છે. એટલા માટે ज्यारे । (एएसि च णं भंते !) वगेरे सूत्र दीन्द्रियाल वानी સંખ્યામાં ભિન્નતા કહેવામાં આવી છે તે એમનાં શરીરની સંખ્યામાં પણ વિચિત્રતા ભિન્નતા છે.
ભાવાર્થ-આ સૂત્રવડે સૂત્રકારે દ્વીન્દ્રિયદિ ના ઔદારિક વગેરે શરીરોની સંખ્યા વિષે કહ્યું છે. આમાં તેમણે એ વાત સ્પષ્ટ કરી છે કે ઠીન્દ્રિય, તેઈન્દ્રિય, ચતુરિન્દ્રિય જીના બદ્ધ, મુક્ત ઔદારિક વગેરે પાંચ શરીરની સંખ્યા સમાન હોય છે. એટલે કે દ્વીન્દ્રિય જીવોના બદ્ધ ઔદા. રિક શરીર અસંખ્યાત હોય છે અને મુક્ત ઔદ રિક શરીરે સામાન્ય
દારિક શરીરની જેમ અનંત હોય છે. આ રીતે તેઈન્દ્રિય અને ચતુરિ. ન્દ્રિય જીવોના બદ્ધ મુક્ત ઔદારિક શરીરેના વિષે પણ જાણવું જોઈએ.
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अनुयोगद्वारसूत्र माणा विष्कममूचिरसंख्येयश्रेणिवर्गमूलामिका विज्ञेया अयं भावः-एकाकाशश्रेणिगताः सर्वेऽपि प्रदेशास्तत्त्वतोऽपंख्येयाः, ते कल्पनया पत्रिंशदधिकपञ्च. शताधिक्रपञ्चषष्टिसहस्राणि (६५९३६) बोध्यानि । अस्य प्रथम वर्गलं २५६, द्वितीयं १६, तृतीयं ४, चतुर्भम् २ । कल्पिनान्येतानि चत्वार्यपि वर्गमूलानि तत्वतोऽसंख्येयवर्गालानि । एतेषां चतुर्गा वर्गालानां मीलनेऽष्टमस गाविसशत द्वयं (२७८) जायते । एतत् सद्भावोऽध्ये पदेशात्मक भाति । तद एमावत्म. देशा भस्तुत विष्कम्भमुचिर्भवतीति । इदं प्रस्तुतशीयमाण मेव कारागारेगाह'बेइंदिया ओरालियबद्धेरलएहि' इत्यादि। होन्द्रयाणां यान्यौदादिकवद्वशरीराणि तैः सर्वोऽपि प्रतरः अपहियते-रिक्तः क्रि ग्तेऽसंख्येयोत्सपिण्यवसर्पिणीषु यावन्तः समया भवन्ति तावत्तु समयेषु । एतावत्समय पमाणनि कालतो बद्धौदारिकशरीराणि बोध्यानि । क्षेत्रता-अशुपतरस्य आवलिकाया असंख्येयभागप्रतिभागेन । अयं भावः-अंगुलपतरस्य यावन्तः प्रदेशाः सन्ति, तेषु सर्वेष्वपि प्रदेशेषु प्रत्येक प्रदेश एकै कद्वीन्द्रिय नीवपूर्णों भवेत् । तेभ्यः प्रदेशेभ्यो योकैकद्वीन्द्रियजीव आवलिकालक्षणस्य कालस्य असंख्येयभागपविभागेन =असंख्येयभागरूपेगांशेन अपहियते । एवं च यात्रभिसंख्येयमागमविभागैरङ्गुलमतरमदेशा द्वोन्द्रियजीवेभ्यो रहिताः स्युस्तावसंख्यका अंगुलपतरप्रदेशा भवन्ति । पतरप्रदेशसमसंख्पकाश्च द्वीन्द्रियजीवा मन्ति । इत्थं च द्वीन्द्रियजीवा असंख्येय. संख्यकाः क्षेत्रतो बोध्या इति । यद्वा एवमर्थः कर्त्तव्यः "वेइंदियाणं ओरालिय बल्लएहिं" इत्यादि । द्वीन्द्रियाणां यानि बद्धान्यौदारिकशरीराणि तैः सर्वोऽपि प्रतरोऽपहियते । कियता कालेनापहियते ? इत्याह-असख्येयोत्सपिण्यवसापिणीभिः। द्वीन्द्रियौदारिकबद्धशरीरैः सर्वोऽपि प्रतरोऽसंख्येयोत्सपिण्यवसर्पिणीकालेनापहियते इत्यर्थः । केन पुनः क्षेत्रमविभागेन कालपविभागेन वाऽहि ते ? इति हृदि कृत्वा एतावता कालविभागेनायमपहियते इति प्रदर्शयितुमाह-अंगुलप्रतरलक्षणस्य क्षेत्रस्य आवलिकालक्षणस्य च कालस्य योऽसंख्येयभागरूपपविभागा अंशस्तेन । अयं भाव:-योकेन द्वीन्द्रियशरीरेण प्रतरस्यकैकोऽशुला. संख्येयभाग एकैकेनावलिकालक्षणस्य कालस्यासंख्येयभागेन क्रमशोऽपाहूयते, तदा असंख्येयोत्सपिण्यारिणीभिः सर्वोऽपि प्रतरो रिक्तो भवति । एवं तरस्यैकैस्मिन्नगुलासंख्येयभागे एकैकेनाबालेकाऽसंख्येयभागेर प्रत्येक क्रण स्थाप्यमानानि द्वीन्द्रियशरीराण्यसंख्येयोत्सर्पिणीभिः सवै प्रतरं पूरयन्तात्यपि बोध्यं वस्तुन एकार्थत्वादिति । एषां मुक्तौदारिकशरीराणि यथा औधिकौदारिकशरीराणि तथा बोध्यानि । तथा-एषां वैक्रियाहारकबद्धशरीराणि न सन्ति ।
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अनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र २१५ द्वीन्द्रियादीनामौदारिकादिशरीरनि० ४४९ मुक्तानि वैक्रियाहारकशरीराणि औधिकौदारिकशरीरवद् बोध्यानि । तथा-द्वीन्द्रि याणां तैजसकामकशरीराणि एतेषामौदारिकशरीरवद् बोध्यानि । यथा द्वीन्द्रियाणां शरीरवक्तव्यता तथा त्रीन्द्रियचतुरिन्द्रियाणामपि बोध्या। तथा-पञ्चेन्द्रि. यतिर्यग्योनिकानामप्यौदारिकशरीराणि द्वीन्द्रियौदारिकशरीरवद् बोध्यानि । एतेषु केषांचिद् बैंक्रियशरीरसद्भावातान्निरूपयितुमाह-'पंचिंदियतिरिक्ख' इत्यादि-पञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनिकानां भदन्त ! कियन्ति वैक्रियशरीराणि प्रज्ञतानि ? उत्तरयति-हे गौतम ! वैकियशरीराणि बद्धमुक्ततिभेदद्वयविशिष्टानि । तत्र यानि बद्धशरीराणि तानि असंख्येयसंख्यकानि । तानि च असंख्येयानि उत्सपिण्यवसर्पिणीभिः कालतोऽपहियन्ते । अयं भारः प्रतरासंख्येयभागस्य संख्येय. श्रेणिपदेशराशिगताः पञ्चन्द्रियतिर्यग्योनकाः प्रतिसमयमेकैकशोऽपहरणेनासंख्येयोत्सपिण्यवसर्पिणीकालेनापहियन्ते, अतः कालतोऽसंख्येयोत्सर्पिण्यवसपिणीराशिसमयसमसंख्यकानि बद्धक्रियशरीराणि बोध्यानि । तथा-क्षेत्रतः प्रतरासंख्येयभागवय॑संख्येयश्रेणिपदेशराशिसमसंख्यकानि । इह तासां श्रेणीनां विष्कम्भसचिर्गृह्यते। विष्कम्भमूचिस्तु अंगुलपथमवर्गमूलस्यासंख्येयभागे षोध्या। षद्ध वैक्रिय और आहारक शरीर नहीं होते हैं । मुक्त वैक्रिय आहारक शरीर होते हैं । सो इनकी संख्या सामान्य मुक्त औदारिक शरीरों के जैप्ता अनन्त जानना चाहिये । बद्ध और मुक्त तेजस और कार्मण शरीरों का प्रमाण इनके बद्ध मुक्त औदारिक शरीरों के समान क्रमशः असंख्यात और अनन्त कहा गया है। पंचेन्द्रिय तिर्यश्च जीवों के बद्ध मुक्त औदारिक शरीरों को प्रमाण क्रमशः असंख्यात और अनंत है। पंचेन्द्रिय तियंञ्चों में वैक्रिय लब्धि की संभावना से किन्ही २ में बद्ध वैक्रिय शरीर पाये जाते हैं। इसलिये इनमें बद्धवैक्रियशरीरों का प्रमाण असंख्यात है और मुक्तवैक्रियशरीरों का प्रमाण सामान्य આ જીવેના બદ્ધ વૈક્રિય અને આહારક શરીર હોતાં નથી. મુક્ત વૈક્રિય આહારક શરીરે હોય છે તે એમની સંખ્યા સામાન્ય મુક્ત ઔદારિક શરીરની જેમ અનંત જાણવી જોઈએ બદ્ધ અને મુક્ત તેજસ અને કામણ શરીરોનું પ્રમાણુ એમના બદ્ધ યુક્ત ઔદારિક શરીરની જેમ ક્રમશ: અસંખ્યાત અને અનંત કહેવામાં આવ્યું છે. પંચેન્દ્રિય તિર્યંચજના બદ્ધ મુક્ત ઔદારિક શરીરોનું પ્રમાણ ક્રમશઃ અસંખ્યાત અને અનંત છે. પંચેન્દ્રિય તિર્યમાં વિકિય લબ્ધિની સંભાવનાથી કેટલાકમાં બદ્રક્રિય શરીરે મળે છે. એટલા માટે જ આમાં બદ્ધક્રિયશરીરનું પ્રમાણ અસંખ્યાત છે અને મુક્તવૈક્રિયશરીરનું પ્રમાણ સામાન્ય દારિક
अ० ५७
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अनुयोगद्वारसूत्रे अंगुलपथमवर्गमूलस्यासंख्येयभागवत्तियो यावत्यः श्रेगयो भवन्ति, तावस्ममाणा विष्कम्भमूचिरिह ग्राह्यतेति भावः । मुक्तानि वैक्रियशरीराणि औधिकौदारिकवद् बोभ्यानि । आहारकशरीराणि द्वीन्द्रियाहारकशरीरवद् बोध्यानि । तैजसकर्मणशरीराणि औदारिकशरीरवद् बोध्यानि । अत्र त्रीन्द्रियादिषु यद् द्वीन्द्रियवदतिदेशः कुतः सोऽसंख्येयता सामान्यमाश्रित्य बोध्यः । परस्परमेषां संख्यासाम्यं तु नास्ति, अतएवोक्तमपि-'एएसिणं भंते ! एगिदियबेइंदिय तेइ दियचउरिदिय पचिदियाणं कयरे कयरेहितो अप्पा वा बहुया वा विसेसाहिया वा १ गोयमा ! सम्बथोवा पंचिंदिया, चउरिदिया विसेसाहिया, तेइंदिया विसे साहिया, बेइंदिया विसेसाहिया, एगिदिया अणंतगुणा" छाया-एतेषां खलु भदन्त ! एकेन्द्रियद्वीन्द्रियत्रीन्द्रियचतुरिन्द्रियपश्चेन्द्रियाणां कतमे कतमेभ्योऽल्पा वा बहुका वा विशेषाधिका वा ? गौतम ! सर्वस्तोकाः पञ्चेन्द्रियाः, चतुरिन्द्रिया विशेषाधिकाः, त्रीन्द्रिया विशेषाधिकाः, द्वीन्द्रिया विशेषाधिकाः, एकेन्द्रिया अनन्तगुणाः । इति । अत्र सूत्रे द्वीन्द्रियादिजीवानां संख्यावैचित्र्यमुक्तम् , अतस्तछरीराणामपि संख्यावैचित्र्यं बोध्यम् , प्रत्येकशरीरिजीवसंख्यानां शरीरसंख्या तुल्यत्वादिति ॥ सू० २१५ ॥
अथ मनुष्याणामौदारिकादिशरीराणि प्ररूपयितुमाह
मूलम्-मणुस्साणं भंते! केवइया ओरालियसरीरा पण्णत्ता? गोयमा ! ओरालियसरीरा दुविहा पण्णत्ता, तं जहा-बद्धेल्लया य मुक्केल्लया य । तत्थ णं जे ते बद्धेल्लया ते णं सिय संखिज्जा सिय असंखिज्जा। जहण्णपए संखेज्जा। संखिज्जाओ कोडाकोडीओ एगूणतीसं ठाणाइं तिजमलपयस्स उवरिं चउजमलऔदारिक शरीरों के प्रमाण के जैसा अनन्त है । इनमें बद्ध आहारक शरीर नहीं होते हैं। मुक्त आहारक शरीर होते हैं सो इनका प्रमाण यहां कहा गया है। तैजस कार्मण शरीरों का प्रमाण सामान्य औदारिक शरीरोंके जैसा क्रमशः असंख्यात और अनंत जानना चाहिये॥सू.२१५॥ શરીરના પ્રમાણની જેમ અનંત છે. આમાં બદ્ધ આહારક શરીરે હતાં નથી. મુક્ત આહારક શરીર હોય છે. તેમનું પ્રમાણ અહીં કહેવામાં આવ્યું છે. તેજસ અને કાર્માણ શરીરેનું પ્રમાણ સામાન્ય ઔદારિક શરીરોની જેમ ક્રમશ: અસંખ્યાત અને અનંત જાણવું જોઈએ. જે સૂ૦ ૨૧૫ .
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अनुयोगन्द्रिका टीका सूत्र २१६ मनुष्याणामौदारिकादिशरीरनि० ४५१ पयस्त हेटा। अहब णं छट्टो वग्गो पंचमवग्गपडुप्पण्णो। अहव णं छपणउइछेयणगदाइरासी उक्कोसपए असंखिज्जा। असंखिज्जाहिं उस्सप्पिणीओसप्पिणीहि अवहीरत कालओ। खेत्तओउक्कोसपए रूवपक्खित्तेहिं मणुस्सेहिं सेढी अवहीरइ, कालओअसंखिज्जाहिं उस्सप्पिणीओसप्पिणीहि, खेत्तओ अंगुलपढमवग्गमूलं तइयवग्गमूलपडुप्पण्णं । मुक्केल्लया जहा ओहिया
ओरालिया तहा भाणियव्वा। मणुस्साणं भंते! केवइया वेउ. वियसरीरा पण्णता ? गोयमा! वेउवियसरीरा दुविहा पण्णत्ता, तंजहा-बद्धेल्लया य मुक्केल्लया य। तत्थ णं जे ते बद्धेल्लया ते णं संखिज्जा समए समए अवहीरमाणा अवहीरमाणा संखेजेणं कालेणं अवहीरंति, नो घेवणं अवहिया सिया। मुक्केल्लया जहा
ओहिया ओरालियाणं मुकेल्लया तहा भाणियव्वा। मणुस्साणं भंते ! केवइया आहारगसरीरा पण्णता ? गोयमा! आहारगसरीरा दुविहा पण्णत्ता, तं जहा-बद्धेल्लया य मुक्केल्लया य । तत्थ णं जे ते बद्धेल्लया ते णं सिय अस्थि सिय नत्थि, जइ अत्थि जहन्नेणं एक्को वा दो वा तिण्णि वा, उक्कोलेणं सहस्सपुहत्तं । मुक्केल्या जहा ओहिया। तेयगकम्मयसरीरा जहा एएसिं चेव ओरालिया तहा भाणिय वा ॥सू०२१६॥
छाया-मनुष्याणां भदन्त ! कियन्ति औदारिकशरीराणि प्रज्ञप्तानि ? गौतम! औदारिकशरीराणि द्विविधानि प्रज्ञतानि, तद्यथा-बद्धानि च मुक्तानि च । तत्र 'मणुस्साण भंते ! केवइया ओरालियसरीरा पण्णत्ता' इत्यादि। शब्दार्थ-(भंते) हे भदन्त ! (मणुस्साणं केवड्या ओरालियसरीरा 'मणुस्वाणं भंते ! केवइया ओरालियसरीरा पण्णता' त्यात avat:-(भंते) B महत! (मणुस्माण केवइया ओरालियसरीरा
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अनुयोगद्वारसूत्रे खल यानि तानि बद्धानि तानि खलु स्यात् संख्येयानि, स्यादसंख्येयानि, जघन्यपदे संख्येयानि । संख्येयाः कोटीकोटयः एकोनत्रिंशत् स्थानानि त्रियमलपदस्य उपरि चतुर्यमलपदस्य अधस्तात् । अथवा खलु षष्ठी वर्गः पञ्चमवर्गपण्णता ?) मनुष्यों के कितने औदारिक शरीर कहे गये हैं ?-(गोयमा) हे गौतम ! (ओरालियसरीरा दुविहा पण्णत्तो) औदारिक शरीर दो प्रकार के कहे गये हैं (तं जहा) वे इस प्रकार से (बहेल्लया य मुक्के. ल्लया य) एक बद्ध औदारिक शरीर और दूसरे मुक्त औदारिक शरीर (तत्थ णं जे ते बद्धेल्लया ते णंसिय संखिज्जा) इनके जो बद्ध औदारिक शरीर हैं वे कदाचित् संख्यात भी होते है और (सिय असखिज्जा) कदाचित् असंख्यात भी होते हैं । (जहण्णपए संखेज्जा) जघन्य पद में ये संख्यात कहे गये हैं-तात्पर्य इसका यह है-अनुष्य दो प्रकार के होते हैं-एक संमूछिम मनुष्य और दूसरे गर्भज मनुष्ध । इनमें गर्भज मनुष्य हैं वे सर्वकालावस्थायी होते हैं अर्थात् ऐसा कोई सा भीसमय नहीं कि-'जिस समय में गर्भज मनुष्य मौजूद नहीं हो । सभी समयों में गर्भज मनुष्य कोई न कोई अवश्य रहते हैं । समूच्छिम मनुष्यों में यह शाश्वतता नहीं पाई जाती है । क्योंकि वे कभी होते भी है और कभी नहीं भी होते हैं । इनकी आयु जघन्य और उत्कृष्ट रूप से एक पण्णत्ता १) (गोयमा !) 3 गौतम ! (ओरालियसरीरा दुविहा पण्णत्ता) मोहारि शरी। ये प्रश्न उपाi माया छ१ (तं जहा) ते सा प्रभारी छ. (बद्धेल्लया य मुक्केल्लया य) ५९९ मधे मोहानि शरी२ मन भी भुत मोहरिशरी२ (तस्थ णं जे ते बद्धेल्लया ते णं सिय संखिज्जा) એમના જે બદ્ધ ઔદારિક શરીરો છે તે કદાચ સંખ્યાત પણ હોય છે. भने (सिय असंखिज्जा) हाय असभ्यात ५६ डाय छे. (जहण्णपए संखेज्जा) જઘન્ય પદમાં એ સંખ્યાત કહેવામાં આવ્યાં છે. આનું તાત્પર્ય આ પ્રમાણે છે કે માણસ બે પ્રકારનાં હોય છે. એક સંમૂરિમ મનુષ્ય અને બીજા ગર્ભજ મનુ આમાં જે ગર્ભજ મનુ છે, તે સર્વ કાલાવસ્થાયી હોય છે એટલે કે એ કોઈપણ સમય નથી કે જે સમયમાં ગર્ભજ મનુષ્ય વિદ્યમાન ન હોય સર્વ સમયમાં કોઈ ને કોઈ ગર્ભજ મનુષ્ય અવશ્ય રહે છે. સંમૂર્ણિમ મનુષ્યમાં આ શાશ્વતતા જોવામાં આવતી નથી. કેમકે તે કઈ વખત હેય પણ ખરી અને કોઈ વખત નહિ પણ હેય. એમનું આયુષ્ય જઘન્ય અને ઉત્કૃષ્ટ રૂપથી એક અન્તર્મુહૂર્ત જેટલું
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अनुयोगवन्द्रिका टीका सूत्र २१६ मनुष्याणामौदारिकादिशरीरनि० ४५३ अन्तर्मुहूर्त की होती है। इनकी उत्पत्ति का विरहकाल अधिक से अधिक २४ मुहूर्स का कहा गया है । इस प्रकार जब संमूच्छिम मनुष्य बिलकुल उत्पन्न नहीं होते है और केवल गर्भज मनुष्य ही रहते हैं, तब वे संख्यात ही होते हैं। इस प्रकार से गर्भज मनुष्यों की अपेक्षा, मनुष्यों की जघन्यरूप से संख्या संख्यात आजाती है, क्योंकि संख्यातरूप से ही गर्भजमनुष्यों की सत्ता पाई जाती है। असंख्यातरूप से नहीं। तथा ये महाशरीर वाले और प्रत्येक शरीर वाले होते हैं । इसलिये परिमित क्षेत्रवर्ती होने के कारण भी ये संख्यात हैं। जिस समय संमूर्छिम मनुष्य रहते हैं तब समुच्चय मनुष्य असं. ख्यात हो जाते हैं। संमूर्षिछम मनुष्यों का प्रमाण अधिक से अधिक श्रेणिके असंख्यातवें भाग में नभःप्रदेशों की राशि के तुल्य कहा गया है। ये संमूर्छिम मनुष्य प्रत्येक शरीरी होते हैं-इसलिये इन दोनों के शरीर असंख्यात होते हैं। जब संमूर्छिम मनुष्य नहीं होते तब गर्भजमनुष्यों की ही सत्ता रहने से संख्यात ही होते हैं। इसलिये उनके शरीर भी संख्यात होते हैं । सब से कम मनुष्यों का होना यही जघन्य पद है। इस जघन्यपद में गर्भजमनुष्यों का ही ग्रहण हुआ है। संमूर्छिममनुष्यों का नहीं क्योंकि संमूर्छिम मनुष्यों की હોય છે. એમની ઉત્પત્તિને વિરહકાળ વધારેમાં વધારે ૨૪ મુહૂર્ત જેટલો કહેવામાં આવ્યું છે. આ પ્રમાણે જ્યારે સંમૂચ્છિક મનુષ્ય સદંતર ઉત્પન્ન થતા નથી અને ફક્ત ગર્ભજ મનુષ્ય જ રહે છે, તેમજ તે સંખ્યાત જ હોય છે. આ પ્રમાણે ગર્ભજ મનુષ્યની અપેક્ષા મનુષ્યની જઘન્ય રૂપથી સંખ્યાત સંખ્યા આવી જાય છે. કેમકે સંખ્યાત રૂપથી જ ગર્ભજ મનુષ્યની સત્તા પ્રાપ્ત થાય છે. અસંખ્યાત રૂપથી નહિ તથા આ મહાશરીરવાળા અને પ્રત્યેક શરીરવાળા હોય છે. એટલા માટે પરિમિત ક્ષેત્રવતી હોવાને લીધે પણ એ સંખ્યાત છે. જે સમયે સંમૂર્છાિમ મનુષ્ય રહે છે ત્યારે સમુચ્ચય મનુષ્ય અસંખ્યાત થઈ જાય છે. સંમૂર્ણિમ મનુષ્યનું પ્રમાણ વધારેમાં વધારે શ્રેણિના અસંખ્યાતમા ભાગમાં નભ પ્રદેશની રાશિની બરાબર કહેવામાં આવ્યું છે. આ સંમૂર્ણિમ મનુષ્ય દરેકે દરેક શરીર હોય છે. માટે એઓ બનેના શરીર અસંખ્યાત હોય છે. જ્યારે સંમૂચ્છિક મનુષ્યો હતા નથી ત્યારે ગર્ભજ મનુષ્યની જ સત્તા હોવાથી સંખ્યાત જ હોય છે. તેથી તેમના શરીર પણ સંખ્યાત હોય છે. સૌથી કમ માણસોનું અસ્તિત્વ જ જઘન્ય પદ છે. આ જઘન્ય ૫દમાં ગર્ભજ મનુષ્યનું જ ગ્રહણ કરાયું છે.
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४५४
___ अनुयोगद्वारसूत्र अपेक्षा गर्भन मनुष्य कम हैं इसीलिये उन्हें जघन्य पदवर्ती कहा गया है इस प्रकार जघन्य पदवी गर्भजजीव संख्यात संख्या में होने के कारण इनके शरीर भी संख्यात होते हैं। इसीलिये पत्रकार ने 'जहण्णपए संखेज्जा' ऐसा कहा है।
शका--संख्यात के संख्यात भेद होते हैं-इसलिये यहां कौन सा संख्यात लिया गया है? ____ उत्तर--(संखिज्जाओ कोडाकोडीओ एगूणतीस ठाणाई तिजमलपयस्स उवरि चउजमलपयस्त हेट्ठा) यहां जो संख्यातरूप गर्भज मनुष्यों का प्रमाण कहा गया है, वह संख्यात कोटीकोटिरूप लिया गया है। क्योंकि गर्भज मनुष्यों का प्रमाण इतना ही कहा हैं । ये संख्यात कोटीकोटि २९ अंकस्थानरूप होते हैं। ये २९ अंकस्थान तीन यमलपद के ऊपर और चार यमल पद के नीचे लिये गये हैतोत्पर्य इसका यह है-'यमल' यह सिद्धान्त प्रसिद्ध एक संज्ञा है। इससे आठ अंकस्थानों का बोध होता है। तीन यमलपद का तात्पर्य होता है २४ अंकस्थान ये २४ अंकस्थान यहाँ ५ अंकस्थान से अधिक लिये गये है। इसी प्रकार चतुर्यमलपद का तात्पर्य ८४ ४ = ३२ अंक સંપૂમિ મનુષ્યનું નહિ. કેમકે સંમૂછિમ મનુષ્યની અપેક્ષ ગર્ભજ મનુ અલ્પ છે એટલા માટે તેમને જઘન્ય પદવતી કહેવામાં આવ્યાં છે. આ પ્રમાણે જઘન્ય પદવતાં ગર્ભજ જીવ સંખ્યાત સંખ્યામાં હોવાથી તેમનાં શરીર પણ सज्यात डाय छे. सटा भाट सूत्रारे (जहण्णपए संखेज्जा) माम .
શંકા–સંખ્યાતના સંખ્યાત ભેદ હોય છે. એટલા માટે અહિં કયા સંખ્યાતનું ગ્રહણ કરવામાં આવ્યું છે?
उत्तर-(संखिज्जाओ कोडाकोडीओ एगूणतीस ठाणाई तिजमलपयरस्म उवरिं चउजमलपयरस्स हेढा) मीरे सच्यात ३५ गम भनु योर्नु प्रमाण કહેવામાં આવ્યું છે, તે સંખ્યાત કટિ-કેટિ રૂપ ગ્રહણ કરવામાં આવ્યું છે, કેમકે ગર્ભજ મનુષ્યનું પ્રમાણ એટલું જ કહેવામાં રમાવ્યું છે. એ સંખ્યાત કેટિ કોટિ ૨૯ અંકસ્થાન રૂપ હોય છે. આ ૨૯ અંકસ્થાન ત્રણ યમલપદની ઉપર અને ચાર યમલપદની નીચે ગ્રહણ કરવામાં આવ્યાં છે. તાત્પર્ય
॥ प्रभारी छ है 'यमल' मा सिद्धान्त प्रसिद्ध मे सज्ञा छे. मानाथा આઠ અંક સ્થાનેનું જ્ઞાન થાય છે ત્રણ યમલપદનું તાત્પર્ય છે ૨૪ અક સ્થાન આ ૨૪ અંકરથાને અહીં ૫ અંક સ્થાને કરતાં વધારે ગ્રહણ કરવામાં આવ્યાં છે. આ પ્રમાણે ચતુર્યમલ પદનું તાત્પર્ય ૮૮૪=૩૨ અંક
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D
अनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र २१६ मनुष्याणामौदारिकादिशरीरनि० ४५५ स्थानों से है । ये ३२ अंकस्थान तीन अंकस्थानों से न्यून लिये गये हैं। इस प्रकार २९ अकस्थानों में गर्भज मनुष्यों की संख्या कही गई है। (अहव ण छट्ठोवग्गो पंचमवग्गपडुप्पण्णा) अथवा छठा वर्ग पंचमवर्ग से गुणित करने पर जो संख्या आती है, उतनी संख्या प्रमाण गर्भज मनुष्य है, ऐसा जानना चाहिये। इसका तात्पर्य इस प्रकार से है एक का वर्ग एक ही होता हैं इसलिये संख्या की वृद्धि न होने के कारण एकवर्गरूप से नहीं माना गया है। दो का वर्ग चार होता है अतः यह प्रथम वर्गमाना गया है । क्योंकि इसमें संख्या की वृद्धि होती है। इसी प्रकार से आगे के वर्गों में समझना चाहिये । ४४४ =१६ यह द्वितीय वर्ग है । १६४१६ =२५६ यह तृतीयवर्ग है। २५६४ २५६ = ६५५३६, यह चौथा वर्ग है। ६५५३६४ ६५५३६४२९४९६७२९६ यह पांचवां वर्ग है । ४२९४९६७२९६४ ४२९४९६७२९६ =१८४४६७४४०७३७०९५५१६१६ यह छठा वर्ग है । इन वर्गों में छठा वर्ग पंचमवर्ग से गुणित किये जाने पर ७९२२८१६२५१४२६४३३७५९३५४३९५०३३६ इतने अंक आते हैं इनकी संख्या २९ हैं सो इस २९ अंक रूप स्थानों में गर्भज मनुष्यों की संख्या कही गई है
સ્થાને છે. આ ૩૨ અંકસ્થાને ત્રણ અંકસ્થાને કરતાં ન્યૂન ગ્રહણ કરવામાં આવ્યાં છે. આ રીતે ૨૯ અંકસ્થાનેમાં ગર્ભજ મનુષ્યોની સંખ્યા કહેવામાં मावी छ. (अहव णं छटो वग्गो पंचमवग्गपडुप्पण्णो) अथवा ७४ शनासाथ પાંચમા વર્ગને ગુણિત કરવાથી જે સંખ્યા આવે છે, તેટલી સંખ્યા પ્રમાણ ગર્ભજ મનુષ્ય છે એ સમજવું જોઈએ. તાત્પર્ય આ પ્રમાણે છે કે-એકને વગર એક જ હોય છે. એટલા માટે સંખ્યામાં કોઈપણ જાતની વૃદ્ધિના અભાવે એકની વગ રૂપમાં ગણત્રી કરવામાં આવતી નથી. બેને વર્ગ ચાર હોય છે. માટે આ પ્રથમવર્ગ માનવામાં આવ્યું છે, કેમકે આમાં સંખ્યાની વૃદ્ધિ હેય છે. આ પ્રમાણે જ હવે પછીના વર્ગો માટે પણ સમજવું જોઈએ. ૪૪૪=૧૬ આ બીજો વર્ગ છે. ૧૬૪૧=૨૫૬ આ ત્રીજે વગ છે. ૨૫૬૪૨૫૬૪૬૫૫૩૬ આ ચેાથે વર્ગ છે. ૬૫૫૩૬૪૬૫૫૩૬=૪૨૯૪૬૭૨૯૬ આ પાંચ વર્ગ છે. ૪૨૯૪૬૭૨૬૪૪૨૯૪૯૬૭૨૯૬=૧૮૪૪૬૭૪૪૦૭૩૭૦૯૫૫૧૬૧૬ આ છઠ્ઠો વર્ગ છે. આ વર્ગોમાં છઠ્ઠો વર્ગ પાંચમા વર્ગની સાથે ગુણવાથી ૭૯૨૨૮૧૬૨૫૧૪૨૬૪૩૩૭૫૯૩૫૪૩૯૫૦૩૩૬ આટલા અંકે આવે છે. આ અંકની સંખ્યા ૨૯ છે, તે આ ર૯ અંક રૂપ સ્થાનોમાં ગજ
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४५६
अनुयोगद्वारसूत्रे
प्रत्युत्पन्नः । अथवा खलु पष्णवतिच्छेदनकदायिराशिः । उत्कर्षपदे असंख्येयानि, असंख्येयाभिः उत्सर्पिण्यवसर्पिणीभिः अपह्रियन्ते कालतः क्षेत्रतः उत्कर्षपदे रूपगर्भज मनुष्य इतने अंक प्रमाण हैं । यह राशि कोटीकोटि आदिरूप से प्रतिपादित करने में नहीं आती है । इसलिये पर्यन्तक्रम को लेकर यह इन दो गाथाओं द्वारा इस प्रकार प्रकट की गई है-'छ तिन्नितिन्निसुन्नं' इत्यादि || २ || गाथा निर्दिष्ट अंकों को 'अंकानां वामतो गतिः' के अनु सार रखना चाहिये । इस प्रकार रखने पर पूर्वोक्त २९ अंकप्रमाण गर्म मनुष्यों की संख्या स्थापित हो जाती है । ( अहव णं छष्ण उइछे यणगदाईरासी, उक्को सपए असं खिज्जा) छेदनक का तात्पर्य है, राशि का आधा करना । यह इस प्रकार से समझना चाहिये जैसे प्रथम वर्ग ४ है - इसके अर्धच्छेद २ होते हैं वे इस प्रकार से ४ के आधे २ और २ का आधा १ । द्वितीय वर्ग १६ है । इसके अर्धच्छेद ३ होते है - वे इस प्रकार से- १६ के आधे ८, ८ के आधे ४, ४ के आधे २ और २ का आधा १ | तृतीय वर्ग २५६ है - इसके अर्धच्छेद ८ होते हैं-वे इन प्रकार से - २५६ के आधे १२८, १२८ के आधे ६४, ६४ के आधे ३२, ३२ के आधे १६, १६ के आधे ८, ८ के आधे ४, ४ के आधे २, २ के आधा १ । चतुर्थ वर्ग जो ६५५३६ है इसमें अर्धच्छेद १६ होते हैंમનુષ્યાની સ ંખ્યા કહેવામાં આવી છે. એટલે કે ગલ જ મનુષ્યા આટલા અક પ્રમાણુ છે. આ રાશિ કૈટીકેટ આદિ રૂપથી પ્રતિપાદિત કરવામાં આવતી નથી. એટલા માટે પન્ત ક્રમને લઈને આ એ ગાથાઓ વડે આ प्रभाछे प्रस्ट उरवामां भावी 'छ तिन्नि तिन्नि सुन्न' इत्याह ॥२॥ गाथाम निर्दिष्ट माने 'अंकानां वामतो गतिः ' मुल्य भूम्वा लेहये. मा રીતે મૂકવાથી પૂર્વોક્ત ૨૯ અંક પ્રમાણુ ગર્ભજ મનુષ્યેાની સંખ્યા સ્થાપિત થઈ लय छे. ( अहव णं छण्णउइछेयणगदाईराखी उक्कोसपए असंखिज्जा ) छेदनअनु તાત્પય છે, રાશિનેા અર્ધા ભાગ કરવેા. આને આ પ્રમાણે સમજવુ' જોઇએ કે—જેમ કે પ્રથમ વર્ગ ૪ છે, આના અચ્છેદ ૨ હાય છે, તે આ પ્રમાણે કે ૪ના અર્ધા ૨ અને ૨ ના અર્ધા એક બીજો વગ ૧૬ છે આના અર્ધો રચ્છેદ ૪ હૈાય છે. તે આ પ્રમાણે જેમકે ૧૬ ના અર્ધાં ૮, ૮ ના અર્ધા ૪, ૪ ના અર્ધાં ૨ અને એ ના અર્ધું એક. ત્રીજો વગ ૨૫૬ છે, આના ૮ અચ્છેદો હાય છે, તે આ પ્રમાણે છે. ૨૫૬ ના અર્ધાં ૧૨૮, ૧૨૮ ના અર્ધા ૬૪, ૬૪ ના અર્ધા ૩૨, ૩૨ ના અર્ધા ૧૬, ૧૬ના અર્ધો ૮, ૮ ના અર્ધા ૪, ૪ ના અર્ધા ૨ અને એ ના અર્ધાં ૧, ચતુર્કીંગ જે ૬૫૫૩૬ છે.
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अनुयोगवन्द्रिका टीका सूत्र २१६ मनुष्याणामौदारिकादिशरीरनिरूपणम् ४५७ प्रक्षिप्तैः मनुष्यैः श्रेणी अपहियते, कालाः असंख्येयाभिः उत्सपिण्यवसर्पिणीभिः, क्षेत्रतः अंगुलप्रथमवर्गमूलप्रत्युत्पन्नम् । मुक्कानि यथा औधिकानि औदारिकाणि तथा भणितव्यानि । मनुष्याणां भदन कियन्ति वैक्रियशरीराणि प्रज्ञप्तानि ? गौतम ! वैक्रियशरीराणि द्विविधानि प्रज्ञप्तानि, तद्यथा-वद्वानि च मुक्तानि च । तत्र खलु यानि तानि बद्धानि तानि खल्लु संग्ख्येयानि समये समये अपहियमाणानि अपहियमाणानि संख्येयेन कालेन अपहियन्ते नो चैत्र खलु अपहृतानि स्युः । मुक्तानि यथा औधिकानि औदारिकाणां मुक्तानि तथा भणितव्यानि । मनुष्याणां भदन्त ! कियन्ति आहारकशरीराणि प्रज्ञप्तानि ? गौतम ! द्विविधानि प्रज्ञमानि तद्यथा-बद्धानि च मुक्तानि च । तत्र खलु यानि तानि बद्धानि तानि खलु स्यात् सन्ति स्यात् न. सन्ति, यदि सन्ति जघन्येन एकं वा द्वे वा त्रीणि वा, उकर्षण सहस्रपृथक्त्वम् । मुक्तानि यथा औषितानि । तैजसकर्मणशरीराणि यथा एतेषामेव औदारिकाणि तथा भणितव्यानि ॥ मू० २१६ ॥
टीका-'मणुस्साणं भंते' इत्यादि
पृच्छति-हे भदन्त ! मनुष्याणां कियन्ति औदारिकशरीराणि प्रज्ञप्तानि ? उत्तरयति-गौतम ! बद्धमुक्तलि द्विविधान्यौदारिकशरीराणि प्रज्ञप्तानि । तत्र यानि बद्धान्यौदारिकशीराणि तानि खलु स्यात् कदाचित् संख्येयानि, स्यात्कदाचित् असंख्येयाति । अयं भावः-द्विविधा मनुष्या भवन्ति-गर्भव्युत्क्रान्तिकाः सच्छिमाच । तत्र गर्भव्यु क्रान्तिकाः सर्वकालावस्थायिनो भवन्ति । नास्स्येतादृशः कश्चित् कालो यत्र गर्भव्युत्क्रान्तिका न तिष्ठन्ति । सम्मूच्छिमास्तु कदाचिद् भवन्ति, कदाचिद् सर्वधा न भवन्ति । तेषां जघन्यत उत्कर्षतश्चान्तर्मुहूर्ता. युष्कत्यात् । उत्पनारम्य चोकर्ष तश्चतुर्विशतिमहत्तप्रमाणत्वात् । इत्थं च यदा सम्पूछिमभनुम्माः सर्वथा न भान्ति, केवला भव्युत्क्रान्तिका एम तिष्ठन्ति तदा ते संख्येया एव भवन्ति, संख्येयानामेच गर्भव्युत्क्रान्तिनां सत्त्वान् । महाशरी त्वे प्रत्येकशीत्वे च सति परिमितक्षेत्रवर्तित्वात् । यदातु सम्मृच्छिमारतदा असंख्येयाः, सम्मूछिमानामुष्कर्षतः श्रेयसंख्येयमागलिनभःप्रदेशराशिममाणस्वात् । प्रत्येकशरीरित्यादेषानुभयेषां शरीराणि असंख्येयानि, सम्पूच्छिमानामभावे गर्भनानामेव सत्त्वात् ते च संख्येया एव भवन्ति, अस्तच्छरीराणि संख्येयानि बोध्यानीति । गर्भव्युत्क्रान्तिकानां शरीराणि संख्येयानि भवन्तीति स्वय मेवाभिदधाति मूबकार:-जयपदे संख्येयानि इति । यत्र सर्वस्तोका मनुष्या भवन्ति तजयन्यपदाच्यते । जघन्यपदे तु गर्भ नानामेव मनुष्याणां ग्रहणं भवति न तु सम्मछिमानाम् । सम्मूच्छिमापेक्षया गर्भजानां स्तोकत्वमत एव तेषां
अ० ५८
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अनुयोगद्वारसूत्रे जघन्यपदवत्तित्वं बोध्यम् । इत्थं च जघन्यपदवर्तिनां गर्भजजीवानां संख्येयत्वासच्छरीराण्यपि संख्ये यानि । ननु संख्येयममाणेऽनेकसंख्ये गभेद उपलभ्यते, अत्र यत्संख्येयप्रमाणमुक्तं तत् कियत् ? इत्याह-संख्येयाः कोटीकोटयः- गर्भजमनुष्यप्रमाणं संख्येयकोटीकोटयात्मकं बोध्यम् । एताः संख्येयकोटीकोटयः एकोनत्रिंशत् स्थानानिएकोनत्रिंशदङ्कस्थानानि भवन्ति । अमुमेनार्थमाह-त्रियमलपदत्य उपरि चतुर्यमलपदस्याधस्तादिति । यमलमिति अष्टानामष्टानामङ्कस्थानानां समयप्रसिद्धा संज्ञा । त्रयाणां यमलपदानां समाहारस्त्रियमलपदम्-चतुर्विशत्यङ्कस्थानलक्षणं, तस्य उपरि तथा चतुर्यमलपदस्प-द्वात्रिंशदङ्कस्थानानाम् अधस्तात् । अयं भावः एकोनत्रिंशत् अङ्कस्थानानि चतुर्विंशत्यङ्कस्थानात्मकस्य त्रियमलपदस्य उपरिपश्चाङ्कस्थानाधिकानि तथा द्वात्रिंशदङ्कस्थानात्मकस्य चतुर्यमलपदस्य अधःस्थानात् त्रितयाङ्कस्थानहीनानीति । अथवा-षष्ठो वर्गः पञ्चमवर्गप्रत्युत्पन्न: पञ्चमवर्गगुणित एकोनत्रिंशदङ्कस्थानात्मको भवति । अयं भावः-एकस्य वर्ग एक एव भवति, अयं न वर्धतेऽतो न वर्गत्वेन गृह्यते । द्वयोगश्चत्वारः (४), एष प्रथमो वर्गः । चतुर्णा वर्गः षोडश (१६), एष द्वितीयो वर्गः । षोडशानां वर्गः षट्पश्चाशदधिकशतद्वयम्-(२५६), एष तृतीयो वर्ग: । षट्पञ्चाशदधिकशतद्वयस्य वर्ग: पञ्चषष्टिः सहस्राणि पश्चशतानि पत्रिंशदधिकानि (६५५३६) एष चतुर्थों वर्गः । एषां वर्गाः चत्वारि कोटिशतानि एकोनत्रिंशत् कोटयः एकोनपश्चाशल्लक्षाणि सप्तषष्टिसहस्राणि द्वे शते पणवतिश्चेति (४२९४९६७२९६), एष पश्चमो वर्गः। एषां वर्ग:-एक कोटीकोटिशतसहस्रं, चतुरशीतिः कोटीकोटिसहस्राणि, सप्तषष्टयधिकानि चत्वारि कोटीकोटिशतानि, चतुश्चत्वारिंशत् कोटीलक्षाणि, सप्तकोटीसहस्राणि, सप्तत्यधिकानि त्रीणिकोटिशतानि, पश्चनव तिलक्षाणि, एकपञ्चाशत्सहस्राणि षट्शतानि षोडश च (१८४४६७४४०७३७०९५५१६१६), एष षष्ठो वर्गः । एषु वर्गेषु षष्ठो वर्गः पञ्चवर्गेण गुण्यमानः-७९२२८१६२. ५१४२६४३३७५९३५४३९५०३३६-एकोनत्रिंशदङ्कस्थानात्मको भवति । अयं च राशिः कोटीकोटयादिप्रकारेण प्रतिपादयितुं न शक्यते, अतएव पर्यन्तक्रममाश्रित्य द्वाभ्यां गाथाभ्यामयं निर्दिष्टः, तथाहि-छ तिन्नि तिनि सुन्नं पंचेव य नव य तिनि चत्तारि । पंचे तिणि नव पंच सत्त तिन्नेव तिन्नेव ॥ १॥ चउ छदो चउ एक्को पण दो छक्केक्कगो य अटेर । दो दो नव सत्तेत्र य अंकद्वाणा परा हुत्ता २॥ छाया-पट्त्रीणि त्रीणि शून्यं पश्चैव च नव च त्रीणि चत्वारि । पञ्चैत्र त्रीणि नव पञ्चसप्त त्रीण्येव त्रीण्येव ॥१॥ चत्वारि षड् द्वे चत्वारि एक: पश्च द्वे षट एककश्च अष्ट्रव । द्वे द्वे नव सप्तैव च अङ्कस्थानानि पराङ्मुखानि ॥२॥
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अनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र २१६ मनुष्याणामौदारिकादिशरीरनिरूपणम् ४५९ इति । तदेवं षष्ठवर्गः पञ्चप्रवर्गगुणितः एकोनविंशदङ्कस्थानात्मको भवति । इत्थं च एकोनत्रिंशदङ्कस्थानात्मका जघन्यपदिनो मनुष्या भवन्ति । अमुमेवार्थ पुनः प्रकारान्तरेण स्पष्टयति-अथवा खलु षण्णवतिच्छेदनकदायी राशिः । यो राशिः पण्णवतिच्छेदन कानि ददाति स पण्णवतिच्छेदनकदायी राशिरुच्यते इत्यर्थः । अयं भावः-यो राशिरर्द्धनार्दैन छिद्यमानः पणवति वारान् छेई सहते पर्यन्ते च सकलमेकं रूपं पर्यवसति भवति स राशिः षण्णवतिच्छेदनकदायी राशिः । अयं राशिः पश्चमबर्गगुणितः षष्ठोवर्ग एकोनत्रिंशदङ्कस्थानात्मको बोध्यः । अस्य षष्णवतिच्छेदनकदायित्वमेव विज्ञेयम् । तथाहि-प्रथमो वर्गश्छिद्यमानो द्वे छेदवे इस प्रकार से हैं-पहिला अर्धच्छेद ३२७६५ है, द्वितीय अर्धच्छेद १६३८४, तृतीय अर्धच्छेद ८१९२, चतुर्थ अर्धच्छेद ४०९६, पांचवां अर्धच्छेद २०४८ है । इस प्रकार अवशिष्ट अर्धच्छेद निकाल लेना चाहिये। पंचमवर्ग के अर्धच्छेद ३२ होते हैं-और छठे वर्ग के अर्ध. च्छेद ६४ होते हैं । सो ३२ और ६४ अर्धच्छेदों को जोड ने पर ९६ अधच्छेद आ जाते हैं। इस प्रकार जो राशि ९६ अर्धच्छेदों को देती है वह यह 'षण्णवतिच्छेदना राशि है ऐसी राशियां यहां दो हैं एक पंचमवर्ग की और दूसरी छठे वर्ग की। इन दोनों के अर्धच्छेदों का जोड ९६, आता है। सो यह षण्णवतिच्छे नकदायी राशि २९ अंकस्थानरूप होती है। इस प्रकार यहां तक जघन्यपवर्ती संख्यात औदारिक शरीरों का प्रमाण कहा है, ऐसा जानना चाहिये । तथा આના અર્ધ દે ૧૬ હોય છે. તે આ પ્રમાણે છે. પહેલે અર્થ છે ૩૨૭૬૮ છે, બીજે અર્ધચ્છેદ ૧૬૩૮૪, ત્રીજો અર્ધચ્છદ ૮૧૯૨ છે, ચતુર્થ અર્ધચ્છેદ ૪૦૬, પાંચમો અધું છેદ ૨૦૪૮ છે. આ પ્રમાણે જ અવશિષ્ટ અર્ધચ્છદ વિષે ગણત્રી કરીને સમજી લેવું જોઈએ. પંચમા વર્ગને અધ ચછેદ ૩૨ થાય છે, અને હક વર્ગના અર્ધઅછેદે ૬૪ હોય છે. તો ૩૨ અને ૬૪ અર્ધન સરવાળે કરવાથી ૮૬ અર્ધ છેદે આવી જાય છે. मा प्रमाणे २ २.शि ८१ मधछेहोवाणी छे त मा 'षण्णवतिच्छेदनकदायी' छ. सेवी शि। महीने छ. ५यभवानी मने भी छ। વર્ગની આ બનેનાં અર્ધચહેને સરવાળે ૯૬ થાય છે. તે આ ષષ્ણુવતિ.
છેદનકદાયી રાશિ ૨૯ અંક સ્થાન રૂપ હોય છે. આ પ્રમાણે અહીં સુધી જઘન્યપદવતી સંખ્યાત ઔદારિક શરીરનું પ્રમાણ કહેવામાં આવ્યું છે, આમ જાણવું જોઈએ. તેમજ ઉત્કૃષ્ટ રૂપથી મનુષ્યનું પ્રમાણ અસંખ્યાત
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अनुयोगद्वारसूत्र नके ददाति, तद्यथा-प्रथमच्छेदनकं द्वौ, द्वितीयच्छेदनकमेक इति । द्वितीयो वर्गश्चत्वारिच्छेदन कानि ददाति । तत्र प्रथमाष्टौ, द्वितीयं चत्वारः, तृतीयं द्वौ चतुर्थ मेक इति । एवं तृतीयो वर्गोऽष्टौ छेदनकानि ददाति, चतुर्थः षोडष, पश्चमो द्वात्रिंशत् , षष्ठश्च चषष्टिम् । षष्ठार्गः पश्चमवर्गेण गुणितो भवति । इत्थं च उभयगतानि छेदनकानि मीभ्यन्ते । ततः प्रस्तुन राशौ षण्णवतिच्छेदनकानि लभ्यन्ते । एतावद्राशिपमाणानि जघन्यपदवर्तिनि संख्येयानि शरीराणि बोध्यानि । अथ उत्कृष्टपदमभिदधाति-उत्कर्षपदे असंख्येयानि औदारिकाणि मनुष्यशरीराणि भवन्ति । उत्कृष्टपदवीनां मनुष्याणामसंख्येयत्वात् मनुष्यशरीराणि असंख्येयानि भवन्तीति भावः । एतानि कालतोऽसंख्येयोत्सर्पिण्यवसर्पिणीसमयराशितुल्यानि । क्षेत्रतो दर्शयति-उत्कर्षपदे स्थितैमनुष्यैः श्रेणी अपहियते रिक्ता क्रियते, कीदृशैर्मनुष्यैः ? इत्याह-रूपमक्षिप्तैः रूपं-शरीरं पक्षिप्तं येषां तैस्तथाविधैः। अयं भावः-उस्कृष्टपदवर्तिभिर्मनुष्यैरेका नमःश्रेणियप्ता । उस्कृष्टरूप से मनुष्यों का प्रमाण असंख्यात हैं, इसलिये उत्कृष्टरूप से मनुष्य संबन्धी औदारिकशरीर भी असंख्यात ही होते हैं। (असंखिज्जाहिं उस्सप्पिणी ओसप्पिणीहिं अवहीरंति काल भो, खेत्तओ उक्कोसपए रूवपक्खित्तेहिं मणुस्तेहिं सेढी अवहीरह) काल की अपेक्षाइनका प्रमाण असंख्यात उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी काल जितने समय होते हैं उतना है। क्षेत्र की अपेक्षा इनका प्रमाणरूप प्रक्षिप्तवाले उत्कृष्टपदवी मनुष्यों से श्रेणि रिक्त की जाती है इतना है । तात्पर्य इसका इस प्रकार से है-यहां उत्कृष्टपदस्थित मनुष्यों से गर्भज और संमूर्छिम दोनों प्रकार के मनुष्य लिये गधे है-ऐसे मनुष्यों से एक नभःश्रेणिव्याप्त है। यह नभाश्रेणि प्रतिसमय एक एक છે, એટલા માટે ઉત્કૃષ્ટ રૂપથી મનુષ્ય સંબધી દારિક શરીર પણ असभ्यात य छे. (असंखिज्जाहिं उत्सप्पिणी ओसप्पिणीहि अवहीरंति काल ओ, खेत्त श्रो, उकोसपए रूवपक्खित्तेहि मणुस्सेहि सेढी अवहीरइ) ४ानी અપેક્ષા એમનું પ્રમાણ અસંખ્યાત ઉત્સર્પિણી અને અવસર્પિણી કાળના જેટલા સમયે હેય છે તેટલું છે ક્ષેત્રની અપેક્ષા એમનું પ્રમાણ રૂપ પ્રક્ષિપ્તવાળા ઉત્કૃષ્ટ પદવર્તી મનુથી શ્રેણિરિત કરવામાં આવે છે, આટલું છે, તાત્પર્ય આનું આ પ્રમાણે છે કે અહીં ઉત્કૃષ્ટ પદસ્થિત મનુષ્યોથી ગર્ભ જ અને સંમૂર્છાિમ બને પ્રકારના મનુષ્ય ગ્રહણ કરવામાં આવે છે. એવા મનુષ્યથી એક નભ શ્રેણિ વ્યાપ્ત છે. આ નભ શ્રેણિ પ્રતિસમય એક એક પ્રદે
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अनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र २१६ मनुष्याणामौदारिका दिशरीरनिरूपणम् ४६१ सा नभाश्रेणिः पतिसमयमेकै कम देशादेकैकमनुष्यापहारे रिक्ता भवतीति । इयं कियता कालेनापहियते ? इत्याह-कालतोऽसंख्येयाभिरुत्सपिण्यवसर्पिणीभिरियं श्रेणिरपहियते । कियद्भिः क्षेत्र खण्डैरपहियते ? इत्याह-क्षेत्रतः अंगुलपथमवर्गमूलं तृतीयवर्गमूळपत्युत्पन्नम्-अंगुलपथमवर्गमूले तृतीयवर्गम्लेन गुणि ते यावसंख्यासमुपलभ्यते तावद्भिः क्षेत्रखण्डैरियं श्रेणिरपहियते । अयं भावः-अंगुलमात्रक्षेत्रपदेशराशिरसत्कल्पनया षट्पञ्चाशदधिकशतद्वयमाणः । तस्य यत् प्रथमवर्गमूलं पोडशात्मकं तद् द्विसंख्यात्मकेन तृतीयवर्गमूलेन गुण्यते तदा द्वात्रिंशत् संख्या प्रदेश से एक एक मनुष्य के हटाने पर खाली हो जाती है, इस प्रकार खाली करने में कितना समय लगता है ? तो इसका उत्तर (कालओ असंखिजजाहिं उस्तप्पिणी ओसप्पिणीहिं) यह है कि इस प्रकार से प्रतिसमय एक २ प्रदेश से एक २ मनुष्य हटाने पर वह नभःश्रेणि असंख्यात उत्सर्पिणी और अनामिणी कालों में रिक्त होती है। अर्थात् उस नभःश्रेणि को उस प्रकार से खाली करने में असंख्यात उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी काल लग जाते हैं-तब कहीं जाकर वह नभाश्रेणि (खेतओ अंगुलपढमवग्गमूलं तइयवग्गमूलपडुप्पण्णं) क्षेत्र की अपेक्षा अंगुलप्रमाण क्षेत्र में वर्तमान प्रदेश राशि का प्रथमवर्गमूल तृतीयवर्गमूल से गुणित होने पर जितनी प्रदेश राशि आती है उस प्रदेशराशि प्रमाण क्षेत्रखंडों से रिक्त होती है । तात्पर्य यह है कि मानलो कि अंगुल मात्र क्षेत्र में प्रदेशों की संख्या २५६ है। इसका प्रथम वर्गमूल १६ आता है और तृतीय वर्गमूल दो आता है। प्रथम वर्ग: શથી એક એક મનુષ્યને દૂર કર્યા પછી અસંખ્યાત ઉત્સર્પિણી અને અવસર્પિણી કાળમાં રિકત હોય છે. એટલે કે તે નભ શ્રેણિને તે રીતે રિકત કરવામાં અસંખ્યાત ઉત્સર્પિણ અને અવસર્પિણી કાળ જેટલો સમય લાગે છે. ત્યારે તે नम:शि (खेतमो अंगुलपढमवगमूलं तइयवगमूलपडुप्पण्णं) क्षेत्रन सपेक्षा અંગુલ પ્રમાણ ક્ષેત્રમાં વર્તમાન પ્રદેશ રાશિનું પ્રથમ વર્ગમૂળ ત્રીજા વર્ગમૂળની સાથે ગુણિત કરવામાં આવે તે જેટલી પ્રદેશ રાશિ આવે છે, તે પ્રદેશ રાશિનું પ્રમાણ ક્ષેત્ર ખડેથી રિક્ત હોય છે. તાત્પર્ય આ પ્રમાણે છે કે-માને કે અંગુલ માત્ર ક્ષેત્રમાં પ્રદેશની સંખ્યા ૨૫૬ છે. આનું પ્રથમ વર્ગમૂળ ૧૬ આવે છે અને તૃતીય વર્ગમૂલ ૨ આવે છે. પ્રથમ વર્ગમૂળ ૧૬
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अनुयोगद्वारसूत्र भाति । असत्कल्पनया एतावद्भिात्रिंशरक्षेत्रखण्डैरपहियमाणा यावत्प्रदेशात्मिका श्रेणिनिष्ठां याति तावन्तो मनुष्या अपि निष्ठां यान्ति । इत्थं च तृतीयवर्गमूल. गुणितप्रथमवर्गमूलात्मिकायां श्रेण्यां यावन्तः प्रदेशा भवन्ति तावत्संख्यका मनुप्या भान्ति । प्रदेशाश्वासंख्येयाः, अतो मनुष्या अपि असंख्येयाः । मनुष्यजीवानां शरीराणां च समसंख्यकत्वान्मनुष्यशरीराण्यसंख्येयानि बोध्यानि । उत्कृष्टपदवीन्येतानि असंख्येयानि मनुष्यशरीराणि तृतीयवर्गमूलगुणितपथमवर्गात्मक नभाश्रेणि प्रदेशतुल्यानि क्षेत्रतो बोध्यानीति । ननु एकस्याः श्रेणेर्यथोक्तप्रमामूल १६ को तृतीय वर्गमूल २ से गुणा करने पर ३२ संख्या आती है। यह ३२ संख्या ही मानलो क्षेत्रखड हैं। इन क्षेत्रखंडों का खाली होना ही उतने मनुष्यों से उतने प्रदेशात्मक उस श्रेणि का खाली होना है। इस प्रकार तृतीय वर्गमूल से गुणित जो प्रथम वर्गमूल है उस प्रथम वर्गमूलरूप श्रेणि में जितने प्रदेश होते हैं उससे एक प्रदेश कम उतने ही मनुष्य हैं । वहां प्रदेश असंख्यात होते हैं इसलिये मनुष्य भी असंख्यात हैं । मनुष्य जीव और इनके शरीर इन दोनों की संख्यासमान है। इसलिये ये मनुष्य शरीर भी असंख्यात माने गये है। इसका निष्कर्षार्थ यही है कि उत्कृष्ट पदवर्ती ये असंख्यात मनुष्य शरीर, तृतीय वर्गमूल से गुणित प्रथमवर्ग मूलात्मक नभाश्रेणि के जितने प्रदेश होते हैं उससे एक प्रदेश कम उतने प्रदेश प्रमाण क्षेत्र की अपेक्षा हैं अर्थात् असंख्यात है ऐसा जानना चाहिये। ને તૃતીય વર્ગમૂળ ૨ની સાથે ગુણિત કરવાથી ૩૨ સંખ્યા આવે છે આ ૩૨ સંખ્યા જ માને કે ક્ષેત્રખંડ છે. આ ક્ષેત્રખંડેનું રિકત થવું જ તેટલાં મનુષ્યથી તેટલાં પ્રદેશાત્મક તે શ્રેણિનું રિકત થવું છે. આ રીતે તૃતીય વર્ગમૂળ વડે ગુણિત જે પ્રથમ વર્ગમૂળ છે, તે પ્રથમ વર્ગમૂળ રૂપ શ્રેણિમાં જેટલાં પ્રદેશ હોય છે તેનાથી એક પ્રદેશ કમ તેટલાં જ મનુ છે. ત્યાં પ્રદેશે અસંખ્યાત હોય છે. એટલા માટે મનુએ પણ અસંખ્યાત છે. મનુષ્ય જીવે અને એમના શરીર આ બંનેની સંખ્યા સરખી છે. એટલા માટે આ મનુષ્ય શરીર પણ અસંખ્યાત માનવામાં આવ્યાં છે. નિષ્કર્ષાથ આ જ છે ઉત્કૃષ્ટ પદવતી આ અસંખ્યાત મનુષ્ય શરીરે, તૃતીય વર્ગમૂળથી ગુણિત પ્રથમવર્ગ મૂલાત્મક નભણિના જેટલાં પ્રદેશ હોય જ, તેનાથી એક પ્રદેશ કમ તેટલા પ્રદેશ પ્રમાણ ક્ષેત્રની અપેક્ષાથી છે, એટલે કે અસંખ્યાત छ, मामा नये.
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अनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र २१६ मनुष्याणामौदारिकादिशरीरनिरूपणम् ४६३ खण्डैरपहरणे कथमसंख्योत्सर्पिण्यवसर्पिणीकालो व्यश्येति ? इति चेदाह - क्षेत्रस्यातिसूक्ष्मत्वात् असंख्येयोत्सवसर्पिणीकालेन तदपहारस्य युक्तत्वात्, अतो नास्ति दोषः । उक्तं च
“सुमो य होइ कालो, तत्तो मुहुमयरं हवइ खेत्तं । अंगुळढीमेत उस्सप्पिणी भो असंखेज्जा ||"
छाया - सूक्ष्म भवति कालः, ततः सूक्ष्मतरं भवति क्षेत्रम् । अंगुलश्रेणीमात्रे उत्सर्पिषोऽसंख्येयाः ॥ इति ॥
एतावता सन्दर्भेग मनुष्याणां बद्धान्यौदा रिकशरीराण्युक्तानि । एषां मुक्तान्यौदारिकशरीराणि अधिकौदारिकमुक्तसरीषद् बोध्यानि । तथा मनुष्याणां -
शंका- एक श्रेणिका यथोक्त प्रमाणोपेत खंडों द्वारा अपहरण करने में असंख्यात उत्सर्पिणी अवसर्पिणी काल कैसे व्यतीत हो जाता है ?
उत्तर - क्षेत्र अति सूक्ष्म होता हैं । इसलिये उसके अपहार में असंख्यात उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी काल का समय व्यतीत होना युक्त है। कहा भी है- 'सुहुमो य होइ कालो' इत्यादि कि काल सूक्ष्म होता है परन्तु काल से भी सूक्ष्मतर क्षेत्र होता है । अंगुल श्रेणिमात्र क्षेत्र में असंख्यात उत्सर्पिणी काल हैं। इतने संदर्भ से मनुष्यों के बद्ध औदारिक शरीर कहे अब सूत्रकार इनके मुक्त औदारिक शरीर कितने होते हैं यह बात कहते हैं - ( मुक्केल्लया जहा ओरालिया तहा भणियव्वा) मनुष्यों के मुक्त भौदारिक शरीरों का प्रमाण सामान्यमुक्त औदारिक शरीरों के जैसा अनंत हैं । ) मणुस्सा णं
શંકા-એક શ્રેણિના યથાકત પ્રમાણેાપેત ખંડ વડે અપહરણ કરવામાં અસ ́ખ્યાત ઉત્સર્પિણી અવસર્પિણી કાળ કેવી રીતે પસાર થઈ જાય છે?
ઉત્તર-ક્ષેત્ર અતિસૂક્ષ્મ હોય છે. એટલા માટે તેના અપહારમાં અસં ખ્યાત ઉત્સર્પિણી અને અવસર્પિણી કાળ જેટલેા સમય પસાર થાય તે ખરા भर छे. म्ह्युं पशु छे: है- 'सुहुमो य होइ कालो इत्यादि' आण सूक्ष्म होय छे, परन्तु કાળ કરતાં પણ સૂક્ષ્મતર ક્ષેત્ર હાય છે. અ'ગુલ શ્રેણિમાત્ર ક્ષેત્રમાં અસખ્યાત ઉત્સર્પિણી કાળ છે. આટલા સંદર્ભોથી મનુષ્યાના ખદ્ધ ઔદારિક શરીર વિષે કહ્યુ છે. હવે સૂત્રકાર એમના મુકત ઔદારિક શરીર કેટલા હાય છે ? આ वातस्यष्ट रे छे. ( मुक्केल्लया जहा ओहिया ओरालिया तहा भाणियव्वा ) મનુષ્યેાના મુકત ઔદારિક શરીરનું પ્રમાણુ સામાન્ય મુક્ત ઔદારિક શરી
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अनुयोगद्वारसूत्रे
वैक्रियशरीराणि बद्धमुक्तेति द्विविधानि । तत्र खलु यानि तानि बद्धानि तानि खलु संरूपेयानि । तानि एतानि बद्धानि वैक्रियशरीराणि समये समये एकैकशो पहियमाणानि अपहियमाणानि संख्येयेन कालेनापहियन्ते । अयं भावःवैक्रिपशरीरलब्धियोग्यता गर्भजानामेव संभवति । तत्रापि वैकियशरीरलब्धिस्तु केषांचिदेव मनुष्याणां संवति । वानि बद्धवैकियशरीराणि प्रतिसमय मे कैकशोपरिमाणानि अपह्रियमाणानि संख्यात्सर्पिव्यवसर्पिणीषु अपह्रियन्ते, अतः भंते ! केवहया वेव्वियसरीरा पण्णत्ता ?) हे भदन्न ! मनुष्यों के कितने प्रमाण में वैक्रियशरीर कहे गये हैं ? (गोधमा !) हे गौतम ! (वेरा दुबिहा पण्णत्ता) वैक्रिय शरीर दो प्रकार के कहे गये हैं । (तं जहा) जैसे - ( बद्वेल्लया व मुक्केल्लया ) एक पद्ध और दुसरे मुक्त | (तत्थ णं) इनमें (जे ते बद्वेल्लया ) जो वे बद्ध वैकिय शरीर हैं । (तं ण) वे (संखिज्जा) सामान्यरूप से संख्यात हैं । (समए समए अवहीरमाणा अब दीरमाणा संखेज्जेणं कालेणं अवहीरंति) एक एक समय में इनका एक एक का अपहार करने पर संख्यात काल में इनका अपहार होता है। तात्पर्य इसका यह है कि वैपिशरीरलब्धि योग्यता गर्भजों के ही होती है। इसमें भी यह वैक्रियशरीर लब्धि किन्हीं २ ही मनुष्यों में होती है। ये काल की अपेक्षा संख्यात इसलिये कहे गये हैं कि एक एक समय में इनका एक एक करके यदि अपहार' निकालना किया जावे तो उसमें संख्यात उत्सर्पिणी अवसर्पिणी काल
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शनी प्रेम अनंत छे. ( मणुस्ता णं भंते! केवइया वेडव्वियसरीरा पण्णत्ता १) હૈ ભદ'ત! મનુષ્યેાના કેટલા પ્રમાણમાં વૈક્રિયશરી કહેવામાં આવ્યાં છે ? (गोयमा ? ) हे गौतम! हे (वे उव्वियसरीरा दुविहा पण्णत्ता) वैयिशरीश में प्रहारना डेवामां भाव्यां छे. (तं जहा) प्रेम 3 (बद्वेल्लया य मुक्केल्ल्या य) प्रथम जद्ध भने द्वितीय भुक्त (तत्थणं) आभा ( जे ते बद्धेल्या ) भेवा बद्ध वैडिय शरीश छे. (तं णं) तेथे। (सं खज्जा ) सामान्य ३५थी संख्यात छे. (समए समए अवीरमाणा अवहीरमाणा संखेज्जेणं कालेणं अवहीर ति) मे એક સમયમાં એમના અપહાર કરવાથી સખ્યાત કાળમાં એમના અપહાર થાય છે. તાત્પર્ય આ પ્રમાણે છે કે વૈક્રિયશરીર લબ્ધિની યાગ્યતા ગભ જોની જ હાય છે. આમાં પણ આ વૈક્રિયારીર લબ્ધિ કાઇક કાઇક મનુષ્યમાં જ હાય છે. આ બધા કાળની અપેક્ષાથી સખ્યાત એટલા માટે કહેવામાં આવ્યાં
છે કે એક એક સમયમાં એમના એક એક કરીને જે અહાર‘નિકાલ’ કરવામાં આવે તે તેમાં સખ્યાત ઉત્સર્પિણી અવસર્પિણી કાળ પસાર થઈ
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अनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र २१६ मनुष्याणामौदारिकादिशरीरनिरूपणम् ४६५ काळतः संख्येथानि बद्धवैक्रिपशरीराणि बोध्यानी त । वै क्रियशरीरापहारस्तु निदनिमात्रं बोध्यः । वस्तुतस्तु न तान्यप हिन्ते । अमेवार्थ दर्शयति-नो चैव खलु अपहतानि स्थुरिति । मुक्त क्रियशरीराणि मुक्तौघिौदारिकशरीरवद् बोध्यानि । तथा-एतेषामाहारकशरीराणि बद्धमुक्तेति द्विविधानि । द्विविधान्यप्येतानि औधिकवद् बोव्यानि । जसकार्यकशरीराणि तु एतेषामौदारिकशरीरवद् बोध्यानीति ॥ ० २१६ ॥ व्यतीत होते हैं । यह जो वैक्रियशर का अपहार कहा गया है वह एक उदाहरण मात्र है । वास्तव में इनका अपहार नहीं होता है। यही बात सूत्रकार ने (जो चेव णं अवहिया मिया) इस सूत्रपाठ द्वारा प्रकट की है । (मुकल्लया जहा ओहिया ओरालियाणं मुक्केल्लया तहा भाणिया) मुक्त वैक्रियशरीरों का प्रमाण मुक्त सामान्य औदारिक शरीर के जैक्षा अनंत जानना चाहिये। (मणुस्साणं भंते ! केवइया आहारगसरीस पण्णता ?) हे भदन्त ! मनुष्यों के आहरक शरीर, प्रमाण में कितने कहे गये हैं ? (गोयना!) हे गौतम ! (आहारगसरीरा दुविहा पण्णत्ता) आहारक शरीर दो प्रकार के कहे हुए हैं। (तं जहा) जैसे बल्लियाश उल्लया य) एक बद्ध आहारक शरीर और दूसरे मुक्त आहारक शरीर । (तत्य णं जे ते बद्धेल्लया तेणं सिय अस्थि सिय नत्थि) इनमें जो वे बद्ध आहारक शरीर है वे मनुष्यों के होते भी हैं और नहीं भी होते है। (जह अस्थि जहन्नेणे एक्को वा दो वा तिणि वा થઈ જાય છે. જે આ વૈક્રિયશરીરૂને અપહાર કહેવામાં આવ્યો છે. તે ફકત એક ઉદાહરણ માત્ર છે. ખરેખર એમને અપાર સંભવતે નથી એ જ વાત सूत्रा (णो चेव णं अवहिया सिया) मा सूत्रपा8 43 ५४८ ४२वामा पानी (मुक्केल्लया जहा ओहिया ओरालियाणं मुक्केल्लया तहा भाणियव्वा) भुत डिय શરીરનું પ્રમાણ મુક્ત સામાન્ય બૌદારિક શરીરની જેમ અનંત જાણવું જોઈએ. (मगुस्सा णं भंते ! केवइया आहारगसरीरा पण्णत्ता ?) 3 महत! मनुध्याना साहा२४ शरी। प्रभामा ८i वामां माया ? (गोयमा !) 3 गीतम! (आहारगसरीरा दुविहा पण्णत्ता) माहा२४ शीमेन वामां मायां छे. (तं जहा: है (बद्धेल्लया य मुक्केल्लया य) मे मद्ध २।२४ शरीर भने भुत माहा२४ २२२ (तत्थ णं जे ते बद्धेल्लया तेणं सिय अस्थि सिय णस्थि) मारे ५ मा २४ शरी। छ त मनुष्य २ डाय ५५ ४२॥ भने नथी ५५ तi (जइ अस्थि जहन्नेणं एक्को वा दो वा तिणि वा)
अ० ५९
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मनुयोगद्वारस्त्रे अथ व्यन्तरादीनामौदारिकादिशरीराणि दर्शयति
मूलम्-वाणमंतराणं ओरालियसरीरा जहा नेरइयाणं । वाणमंतराणं भंते ! केवइया वेउब्वियसरीरा पण्णत्ता ? गोयमा! वेउबियसरीरा दुविहा पण्णता, तं जहा-बधेल्लया य मुक्केल्लया य। तत्थ णं जे ते बल्लिया ते णं असंखेजा, असंखिज्जाहिं यदि होते हैं तो जघन्य से ये एक, दो अथवा तीन तक होते हैं। (उक्कोसेणं सहस्सपुहुत्तं) और उत्कृष्ट से सहस्रपृधवस्व तक हो सकते हैं। (मुक्केल्लया जहा ओहिया) मुक्त आहारक शरीर लघुत्तर अनंत भेदवाले होते हैं । (तेयगकम्मगसरीरा जहा एएसिं चेव ओरालिया तहा भाणियवा) मनुष्यों के तैजस कार्मक शरीरों का प्रमाण इनके औदारिक शरीरों के प्रमाण के जैसा जानना चाहिये।
भावार्थ--इस सूत्र द्वारा सूत्रकारने मनुष्यों के पांचों शरीरों का प्रमाण कहा है। यद्यपि एक मनुष्य को एक साथ चार शरीर तक ही हो सकते हैं-पांच शरीर एक साथ नहीं होते। परन्तु यहां जो पांच शरीरों का होना कहा है और उनका प्रमाण स्पष्ट किया गया है सो इसका तात्पर्य यह है कि नाना मनुष्यों की अपेक्षा मनुष्यों के एक साथ पांच शरीर तक हो सकते हैं । सू० २१६ ॥ २ डाय छे तो धन्यथा समे। मे, मे मया 3 डीय छ. ( उक्कोसेणं सहस्सपुहुत्त) मने उत्कृष्टनी अपेक्षा सर पृथप सुधी हाश छे. (मुक्केल्लया जहा भोहिया) भुत भाडा२४ शरी। साधुत२ सनत हवा डाय छे. (तेयगकम्मसरीरा जहा एएसिं चेव ओरालिया तहा भाणियव्या) મનુષ્યોના તૈજસ કાર્મક શરીરનું પ્રમાણ એમના દારિક શરીરના પ્રમાनीभ यु नये.
ભાવાર્થ-આ સૂત્ર વડે સૂત્રકારે મનુષ્યોના પંચ શરીરનું પ્રમાણ કહેલું છે. જે કે એક મનુષ્યના એકી સાથે ચાર શરાજ થઈ શકે છે. પાંચ શરીરે એકી સાથે હતાં નથી, પરંતુ અહીં જે પાંચ શરીરના અસ્તિત્વ વિષે કહેલું છે, અને તેમનું પ્રમાણ સ્પષ્ટ કરવામાં આવ્યું છે, તે તેનું તાત્પર્ય આ પ્રમાણે છે કે અનેક મનુષ્યની અક્ષા મનુષ્યના એકી સાથે પાંચ શરીરે સુધી થઈ શકે છે. સૂત્ર ૨૧૬ છે
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अनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र २१७ व्यन्तरादीनामौदारिकादिशरीरनि० ४६७ उस्सप्पिणीओसप्पिणीहिं अवहीरंति कालओ, खेत्तओ असं. खिज्जाओ सेढीओ पयरस्स असंखिज्जइभागे, तासिणं सेढीणं विक्खंभसूई संखेज्जजोयणसयवग्गपलिभागो पयरस्स। मुकेल्लया जहा ओहिया ओरालिया तहा भाणियव्वा। आहारगसरीरा दुविहा वि जहा असुरकुमाराणं तहा भाणियहा। वाणमंतराणं भंते! केवइया तेयगसरीरा पण्णता? गोयमा! जहा एएसि चेव वेउब्वियसरीरा तहा तेयगसरीरा भाणियव्या। एवं कम्मयसरीरा वि भाणियवा। जोइसियाणं भंते! केवइया ओरालियसरीरा पण्णता? गोयमा! जहा नेरइयाणं तहा भाणियव्वा । जोइसियाणं भंते ! केवइया वेउब्वियसरीरा पण्णता? गोयमा! वेउब्वियसरीरा दुविहा पण्णत्ता, तं जहा-बखेल्लया य मुक्केल्लया य। तत्थ णं जे ते बद्धेल्लया जाव तासिणं सेढी णं विक्खंभसूई बेछप्पण्णंगुलसयवग्गपलिभागोपयरस्स। मुक्केल्लया जहा ओहिया ओरालियसरीरा तहा भाणियवा। आहारयसरीरा जहा नेर. इयाणं तहा भाणियव्वा। तेयगकम्मयसरीरा जहा एएसिं चेव वेउब्वियसरीरा तहा भाणियव्वा । वेमाणियाणं भंते ! केवइया ओरालियसरीरा पण्णत्ता? गोयमा! जहा नेरइयाणं तहा भाणि. यव्वा। वेमाणियाणं भंते ! केवइया वेउब्वियसरीरा पण्णत्ता ? गोयमा ! वेउव्वियसरीरा दुविहा पण्णत्ता, तं जहा-बद्धेल्लया य मुकेल्लया य। तत्थ णं जे ते बद्धेल्या ते णं असंखिज्जा । असंखेज्जाहिं उस्सप्पिणीओसप्पिणीहिं अवहीरंति कालओ,
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४६८
अनुयोगद्वारसूत्रे खेत्तओ असंखिज्जा सेढीओ पयरस्स असंखेज्जइभागे। तासि णं सेढीणं विक्खंभसूई अंगुलबीयवग्गमूलं तइयवग्गमूलपड्डप्पणं, अहव णं अंगुलतइयवग्गमूलं घणप्पमाणमेत्ताओ सेढीओ। मुक्केल्लया जहा ओहिया ओरालिया तहा भाणियव्वा। आहारगसरीरा जहा नेरइयाणं। तेयगकम्मयसरीरा जहा एएसिं चेव वेउव्वियसरीरा तहा भाणियव्वा । से तं सुहुमे खेत्तपलिओवमे। से तं खेत्तपलिओवमे। से तं पलिओवमे । से तं विभागनिष्फपणे। से तं कालप्पमाणे॥सू० २१७॥
छाया-यन्तराणाम् औदारिकशरीराणि यथा नैरथिकाणाम् । व्यन्तराणां भदन्त ! कियन्ति वैक्रियशरीराणि प्रज्ञप्तानि ? गौतम ! बैंक्रियशरीराणि द्विविधानि प्रज्ञप्तानि, तद्यथा-बद्धानि व मुक्तानि च । तत्र खलु यानि तानि बद्धानि तानि खलु असंख्येयानि, असंख्येपाभिः उत्सपिण्यवसर्पिणीमिः अपहियन्ते कालतः, क्षेत्रतः असंख्येयाः श्रेणयः प्रतरस्प असंख्येयभागे, तासां खलु श्रेणीनां विष्कम्भनचिः संख्येययोजनशतवर्गपल्यभागः पतरस्प । मुन्नानि यथा औधिकानि औदारिकाणि तथा भणितव्यानि । आहारकशरीराणि द्विविधान्यपि यथा असुरकुमाराणां तथा भणितव्यानि । व्यन्तराणां भदन्त ! क्रियन्ति तैजसशरीराणि प्रज्ञाप्तानि, गौतम ! यथा एतेषां चैव वैक्रियशरीराणि तथा तैनसरीराणि भणितव्यानि । एवं कार्म शरीराण्यपि भणियानि । ज्योतिष्काणां भदन्त ! कियन्ति औदारिकशरीराणि प्रज्ञतानि ? गौतम ! यथा नैरयिकाणां तथा भणितव्यानि । ज्योतिष्काणां भदन्त ! कियन्ति वैक्रियशरीराणि प्रजातानि ? मौतम ! वैक्रिया शरीराणि द्विविधानि प्रज्ञशानि, तद्यथा-बद्धानि च मुक्तानि च । तत्र खल्लु यानि तानि बद्वानि यावत् तासां खलु श्रेणीनां विष्कम्भमूचिः द्विषट् पश्चाशदङ्गुलशतवर्गपल्यभागः प्रतरस्य । मुक्तानि यथा औधिकानि औदारिकशरीराणि तथा भणितव्यानि । आहारकशरीराणि यथा नैरयिकाणां तथा भणितव्यानि । तेजसकाम कशरीराणि यथा एतेषामेव वैक्रियशरीराणि तथा भणितव्यानि । वैमानिकानां भदन्त ! कियन्ति औदारिकशरीराणि प्रज्ञप्तानि ! गौतम ! यथा नैरयिकाणां तथा भणितव्यानि, वैमानिकानां भदन्त ! कियन्ति वैक्रियशरीराणि प्रज्ञ
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अनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र २१७ ध्यन्तरादीनामौदारिकादिशरीरनि० ४६९ तानि ? गौतम ! वैक्रियशरीराणि द्विविधानि प्रज्ञप्तानि, तद्यथा-बद्धानि च मुक्तानि च । तर खलु यानि तानि बद्धानि तानि खलु असंख्येयानि, असंख्ये. याभिः उत्सपिण्यवसर्पिणीभिः अपहियन्ते कालतः । क्षेत्रतः असंख्येयाः श्रेणयः प्रतरस्य असंख्येय मागे । तासां खलु श्रेणीनां विष्कम्भसूचिः अंगुलद्वितीयवर्गमूल तृतीयवर्गमूलमत्युत्पन्नम् , अथवा खलु अंगुलतृतीयवर्गमूलं घनप्रमाणमात्राः श्रेयः । मुक्तानि यथा औधिकानि औदारिकाणि तथा भणितव्यानि । आहारक शरीराणि यथा नैरपिकाणाम् । तैजसकामकशरीराणि यथा एतेषामेव वैक्रियशरीराणि तथा भणितव्यानि। तदेतत मूक्ष्म पल्योपमम् । तदेतत् क्षेत्रपल्योपमम् । तदेतत् पल्योपमम् तदेतत् विभागनिष्पन्नम् । तदेतत् कालप्रमाणम् ॥मू०२१७॥
टीका-'वाणमंतराणं' इत्यादि
व्यन्तरदेवानां द्विविधान्य प्यौदारिकशरीराणि नारकौदारिकशरीरवद् बोध्यानि । तथा-व्यन्तरदेवानां वैक्रियशरीराग्यपि बद्धमुक्तेति द्विविधानि बोध्यानि ।
अब सूत्रकार व्यन्तरादिक देवों के औदारिक शरीरों का प्रति. पादन करते है --'वाणमंतराणं ओरालियसरीरा' इत्यादि।
शब्दार्थ--(वाणमंतराणं ओरालियसरीरा जहा नेरइयाणं) व्यन्तर देवों के औदारिक शरीरों का प्रमाण नारकों के औदारिक शरीरों के प्रमाण के जैसा जानना चाहिये-तात्पर्य यह है कि बद्ध और मुक्त
औदारिक शरीरों के भेदों में से बद्ध औदारिक शरीर तो व्यन्तरों के होते नहीं हैं। मुक्त जो औदारिक शरीर हैं वे पूर्वभवों की अपेक्षा अनंत होते हैं । (वाणमंतराणं भंते केवइया वेउब्वियसरीरा पण्णता?) हे भदन्त! व्यन्तर देवों के कितने वैक्रिय शरीर कहे गये है ? (गोयमा) हे गौतम ! (वे उब्धियसरीरा) वैक्रिय शरीर (दुविहा पण्णत्ता) दो
હવે સૂત્રકાર વ્યક્તના ઔદારિક વગેરે શરીરનું પ્રતિપાદન કરે છે. 'वाणमंतराणं ओरालियसरीरा' इत्यादि ।।
शहाथ-(वाणमंतराणं ओरालियसरीरा जहा नेरइयाणं) व्यतर दोना ઔદરિક શરાનું પ્રમાણ નારકના ઔદ્યારિક શરીરોના પ્રમાણની જેમ જાણવું જોઈએ. તાત્પર્ય આ પ્રમાણે છે કે બદ્ધ અને મુકત ઔદારિક શરીરના ભેદમાંથી બદ્ધ ઔદારિક શરીરે તે વ્યતરનાં હોતા નથી. મુકત જે ઔદારિક શરીરો છે, તે પૂર્વભવોની અપેક્ષાએ सनत डाय छे. (वाणमंतराणं भंते ! केवइया वेउव्वियसरीरा पण्णत्ता १) मत ! व्यतरवाना tai वैठिय शरी। वामां माया छ ? (गोयमा) 3 गीतम! (वेव्वियसरीरा) वैठिय शरी। (दुविहा पण्णत्ता) मे ॥२॥
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४७०
अनुयोगद्वारसूत्रे तत्र यानि तानि ब द्वानि तानि खलु असंख्येयानि । तानि च संख्येयोत्सपिण्यवसर्पिणी भिरपहियन्तेऽतः कालमाश्रित्यैतानि असंख्येयोत्सर्पिण्यवसर्पिणीसमयराशितुल्यानि । क्षेत्रः प्रतरस्यासंख्येय मागेऽसंख्येयाः श्रेणयः-प्रतरस्यासंख्येयभागवर्तिन्यो या असंख्येयाः श्रेणयस्तद्गता यावन्तः प्रदेशाः सन्ति तावत्पदेशममाणानि क्षेत्रतो व्यन्तरबद्धवैक्रियशरीराणि । ननु प्रतरासंख्येयभागेऽसंख्येया योजनकोटयोsपि भान्ति, तत्किमेतावत्यपि क्षेत्रे या नभाश्रेण यो भवन्ति ता प्रकार के कहे हुए हैं (तं जहा) जैसे (बद्धेल्लया य मुक्केल्लया य) एक बद्ध और दूसरे मुक्त। (तस्थ णं जे ते बल्लिया ते णं असंखिज्जा) इन में जो बद्ध वैक्रियशरीर हैं वे सामान्य से असंख्यात हैं। (असं खिज्जाहिं उस्सप्पिणीओसप्पिणीहिं अवहीरंति कालओ) काल की अपेक्षा ये असंख्यात उत्सर्पिणी काल के जितने समय होते हैं उतने हैं। (खेत्तमो असखिज्जाओ सेढीओ पयरस्स असंखिज्जइभागे, तासि णं सेढी णं विक्कंभसई सखेज्जजोयणसयवरगपलिभागो पयरसल) तथा क्षेत्र की अपेक्षा इनका प्रमाण इस प्रकार से है कि प्रतर के असंख्यातवें भाग में रही जो असंख्यात श्रेगियां हैं सो उन श्रेणियों के जितने प्रदेश हैं, उतने प्रदेश प्रमाण ये हैं-अर्थात् व्यन्तरों के ये बद्ध वैक्रियशरीर प्रतर के असंख्यातवें भाग वर्तमान असंख्यात श्रेणिरूप हैं। शंका-प्रतर के असंख्यातवें भाग में वर्तमान असंख्यात योजन कोटियां भी होती हैं। ४२१मा माया छ (तं जहा) रेभ है (बद्धेल्या य मुक्केल्या य) मे म भने भी अप (तत्य ण जे ते जे बद्धल या तेणं असं खिज्जा) मामा २ मई वैठियशरी। छ, त सामान्यनी मपेक्षा असभ्यात छे. ( असं. खिज्जाहि उस्मपिणीओसप्पिर्ण हिं अवहीरति कालओ) .नी अपेक्षा । અસંખ્યાત ઉત્સર્પિણી અને અપસર્પિણી કાળના જેટલા સમયે હોય छ, तटसा छे. (खेतो असंखिज्जाओ सेढीओ पयररस असखिज्जइभागे, तासिणं सेढीण विक्खंभसूई सखेज्जजोयणसयवम्गपलिभागो पयरस्स) भन्न क्षेत्रनी અપેક્ષા એમનું પ્રમાણ આ પ્રમાણે છે કે પ્રતરના અસંખ્યાતમાં ભાગમાં આવેલી જે અસંખ્યાત શ્રેણિએ છે તે શ્રેણિએના જેટલા પ્રદેશો છે, તેટલા પ્રદેશ પ્રમાણુ એઓ છે એટલે કે વ્યંતરના આ બદ્ધ વૈકિયશરીર પ્રતરના અસંખ્યાતમાં ભાગમાં વર્તમાન અસંખ્યાત શ્રેણિરૂપ છે. શંકા–પ્રતાના અસંખ્યાતમા ભાગમાં વર્તમાન અસવાત જન કેટીઓ પણ હોય છે.
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अनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र २१७ व्यन्तरादीनामौदारिकादिशरीर नि० ४७१ इह गृह्यन्ते ? इति चेदाह - 'तासि णं सेढीणं' इत्यादि । तासां श्रेणीनां=प्रवरासं ख्येयभागत्रर्त्य संख्येयश्रेणीनां विष्कम्भसूचिरिह गृह्यते, न तु प्रतरासंख्येयभाग
संख्येयोजनकोटयात्मक क्षेत्रवर्तिनमःश्रेणिः । यत्र विष्कम्भसूचिः पञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनिविष्कम्भवेरसंख्येयगुणहीना बोध्या । इयं विष्कम्भवविः कियत्ममाणा गृह्यते ? इत्याह संख्येययोजनशतवर्गप्रतिभागः मतरस्य' इति । प्रतरस्य= प्रतरसम्बन्धीसंख्येययोजनशत वर्ग प्रतिभागः = संख्येययोजनशतानां यो वर्गः वर्गमूलं तद्रूपो यः प्रतिनागः - अंशः तत्यमाना विष्कम्मसूचिरित्यर्थः । अयं मात्रः- 1 :- विष्कम्याः प्रतिम देशमे के कव्यन्तरबद्ध किवशरीरेण व्याप्तम् । तन एकैकपदेशात् प्रतिसमय एकैकशरीरापहरणेन यात्रता समयेन चिः शरीररहिता तो क्या इतने क्षेत्र में वर्तमान जो नमःश्रेणियां होती हैं वे यहाँ गृहीत हुई हैं ?
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उत्तर -- इस प्रकार की ये श्रेणियां यहां ग्रहण नहीं की गई किन्तु प्रतर के असंख्धावें भाग में वर्तमान असंख्यात श्रेणियों की विष्कंभसूचि हो यहां ग्रहण की गई है । विष्कंभ सूचि पंचेन्द्रियतिर्यञ्चों की यह औदारिकशरीर की विष्कंभमूचि से असंख्यात गुणहीन जाननी चाहिये। यही बात सूत्रकार ने 'संखेज्जजोयणसपवज्गपलिभागो पयरस्त' इस सूत्रपाठ से व्यक्त की है अर्थात् सौ संख्यात योजनों का वर्गमूलरूप जो अंश हैं, उस अंशरूप यहाँ विष्कंभसूचि ली गई । इस विष्कंभलूचि का प्रतिप्रदेश एक एक व्यन्तर के बद्ध वैक्रिय शरीर से व्याप्त है । इस विष्कंभ सूचि के एक एक प्रदेश से प्रतिसमय एक एक व्यन्तर शरीर का अपहार करने पर वह विष्कंभसूचि समूची તે શુ' આ ક્ષેત્રમાં વર્તમાન જે નભઃશ્રેણિએ હાય છે, તેમનું અહીં ગ્રહણુ वामां आव्यु छे ?
(1
ઉત્તર—આ જાતની નલ:શ્રેણિએ અત્રે ગ્રહણ કરવામાં આવી નથી, પરન્તુ પ્રતરના અસંખ્યાતમાં ભાગમાં વત માન અસખ્યાત શ્રેણિઓની વિષ્ણુભ સૂચિ જ અત્રે બ્રહ્મણ કરવામાં આવી છે. વિબ્ઝભસૂચિ પચેન્દ્રિયતિય ચાની ખદ્ધ ઔદારિક શરીરની વિશ્ક'ભસૂચિની અપેક્ષા એ અસખ્યાતગણી હીન જાણવી જોઇએ. એજ વાત સૂત્રકારે 'संखेज्जजोयणसयवग्गपलिभागो पयरस्स" मा सूत्रपाठ वडे વ્યકત કરી છે. એટલે કે સૈા સખ્યાત યાજનાના વગ મૂળ રૂપ જે મ‘શ છે, તે અશ રૂપ અહી વિષ્ફભસૂચિ ગ્રહણ કરવામાં આવી છે. આ વિષ્ણુભસૂચિના પ્રતિપ્રદેશ એક એક વ્યંતરના અદ્ધ વૈક્રિય શરીરથી વ્યાપ્ત છે. આ વિષ્ણુ'ભસૂચિના એક એક પ્રદેશથી પ્રતિસમય એક એક વ્યંતર શરીરના અપહાર કરવાથી તે વિષ્ફ'ભસૂચિ સમુચિ જેટલા સમ
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४७२
अनुयोगद्वारसूत्रे स्यात्तावत्प्रमाणास्तत्मदेशा बोध्या। विष्कम्भमूचिस्तु असंख्येयः समय रिक्ता स्यादतस्तम्प्रदेशा अघि असंख्येया विज्ञेया । इत्थं च क्षेत्रतोऽसंख्येयप्रदेशसमसंख्यकानि व्यन्तरबद्धवैक्रियशीराणि बोध्यानीति । व्यन्तराणां मुक्तानि वैक्रियशरीराणि औधिकौदारिकशरीरद् बोध्यानि । आहारकशरीराणि असुरकुमाराहारकशरीरवद् धोध्यानि । व्यन्नराणां सैनस कार्यकशरीराणि स्यक्रियशरीरवद् जितने समय में उन शीरों से रिक्त हो जाती है, उतने समय प्रमाण प्रदेश उस विष्फंभसूचि के जालना चाहिये। अर्शत् यह विष्भसूचि इस प्रकार से रिक्त करने पर असंख्यात समयों में ही रिक्त होगी। इसलिये इस विभाचि के प्रदेश भी असंख्यात ही मानना चाहिये। इस प्रकार से विचार करने पर यही निष्कर्ष निकलला है कि-व्यन्तर देवों के बद्ध वैक्रिय शरीरो' का प्रमाण क्षेत्र की अपेक्षा असंख्यात प्रदेश प्रमाण है-अर्थात् ये असंख्यात हैं। (मुक्केल्लया जहा ओहिया ओरालिया तहा भाणियव्या) व्यन्तर देवों के मुक्त वैक्रियशरीरों का प्रमाण सामान्य मुक्त औदारिक शरीर के जैसा अनंत है। (आहारगसरीरा दुविहा वि जहा असुरकुमाराणं तहा भाणियव्या) बद्ध और मुक्त आहारक शरीरों का प्रमाण असुर कुमारों के इन दोनों प्रकार के आहारक शरीरों के प्रमाग के जैसा जानना चाहिये। तात्पर्य यह कि 'व्यन्तरदेवों में बद्ध औदारिक शरीरो के जैसा बद्ध आहारक शरीर नहीं होते हैं। मुक्ताहारकशरीर मुक्त औदारिक शरीरो के जैसा યમાં તે શરીરેથી રિકત થઈ જાય છે, તેટલા સમય પ્રમાણે પ્રદેશ તે વિષ્કભસૂચિને જાણ જોઈએ. એટલે આ વિષ્ફભસૂચિ આ રીતે રિકત કરવાથી અસંખ્યાત સમયમાં જ રિકત (ખાલી) થશે. એટલા માટે આ આ વિધ્વંભ સચિના પ્રદેશો પણ અસંખ્યાત જ માનવા જોઈએ. આ પ્રમાણે વિચાર કરવાથી આ નિષ્કર્ષ નીકળે છે કે “વ્યંતર દેવોના બદ્ધ વૈકિય શરીરેનું પ્રમાણ ક્ષેત્રની અપેક્ષા અસંખ્યાત પ્રદેશ પ્રમાણ છે. એટલે કે એઓ અસંખ્યાત છે. (मुक्केल्लया जहा ओहिया ओरालिया तहा भाणियव्वा) व्यत२ वाना भुत वाय
सरनु प्रमाण सामान्य भुत मोहारि शीरनी २ सनत छ ? आहारग. सरीरा दुविहा वि जहा असुरकुमाराणं तहा भाणियव्वा) मद्ध मन भुत माडा२४ શરીરેનું પ્રમાણ અસુરકુમારના બન્ને પ્રકારના આહારક શરીરના પ્રમાણુની જેમ જાણવાં જોઈએ. તાત્પર્ય આ પ્રમાણે છે કે “વ્યન્તર દેવોમાં બદ્ધ ઔદારિક શરીરની જેમ બદ્ધ આહારક શરીરે હેતાં નથી. મુકત આહારક શરીરે
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मनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र २१७ व्यन्तरादीनामौदारिकादिशरीरनि० ४७३ अनंत होते हैं। (वाणमंतराणं भंते ! केवइया तेयगसरीरा पण्णता ?) हे भदन्त ! व्यन्तरदेवों के कितने तैजसशरीर कहे गये हैं ? (गोयमा) हे गौतम ! (जहा एएसिं चेव वेउवियसरीरा तहा तेयग. सरीरा भाणियन्वा) जिस प्रकार के इनके वैक्रिय शरीर कहे गये हैं, वैसे ही इनके तैजस शरीर जानना चाहिये। अर्थात् बद्धवैक्रिय के जैसा इनके बद्ध तैजस शरीर असंख्यात होते हैं और मुक्त तेजस शरीर मुक्त वैक्रियशरीर के जैसा प्रमाण में अनंत होते है। (एवं कम्मय सरीरा वि भाणियव्या) इसी प्रकार से कार्मण शरीरों का प्रमाण भी जानना चाहिये। (जोइसियाणं भंते ! केवया ओरालियसरीरा पण्णत्ता ? गोयमा जहा नेरइयाणं तहा भाणियवा) हे भदन्त ! ज्योतिष्क देवों के औदारिक शरीर कितने कहे गये हैं ? हे गौतम ! ज्यतिष्कों के औदारिक शरीर नारकों के औदारिक शरीरों के जैसा कहे गये हैं-अर्थात्-बद्ध औदारिक शरीर तो ज्योतिष्कों के होते नहीं हैं । मुक्त औदारिक शरीर होते हैं, सो वे पूर्वभवों की अपेक्षा होते हैं, इसलिये इनका प्रमाण अनंत हैं । (जोइसिया णं भंते केवइया वेउ. भुत सौहार शरीरानी म मन त डाय छे. (वाणमंतराणं भंते ! केवइया तेयगसरीरा, पण्णत्ता ?) 3 महन्त ! व्यत२ हवाना तेसशरी। ei . पामा माया छ १ (गोयमा) : गौतम ! (जहा एएसिं चेव वेउब्वियसरीरा तहा तेयगसरीरा भाणियव्वा) २ प्रमाणे समानां वैठियशरी। उवामा આવ્યાં છે, તે પ્રમાણે જ એમનાં તેજસ શરીર વિષે પણ જાણવું જોઈએ. એટલે કે બદ્ધ વૈકિયની જેમ એમનાં બદ્ધ તૈજસ શરીરે અસંખ્યાત હોય છે. અને મુકત તેજસ શરીરે મુકત વૈક્રિયશરીરોની જેમ પ્રમાણમાં અનંત હોય छे, (एवं कम्मयसरीरा वि भाणियवा) मा प्रमाणे भए शरीनु प्रमाण ५९५ नवु नये. (जोइसियाणं भंते ! केवइया ओरालियसरीरा पण्णता ? गोयमा जहा नेरइयाण तहा भाणियव्वा) महत ! न्याति हवाना मोहारिक શરીર કેટલાં કહેવામાં આવ્યાં છે ? હે ગૌતમ ! યેતિકોના ઔદારિક શરીરે નારકેના દારિક શરીરની જેમ કહેવામાં આવ્યાં છે. એટલે કે બદ્ધ દારિક શરીર તે જતિષ્કોના હતાં નથી મુકત ઔદારિક શરીરે હોય છે. તે પૂર્વભવોની અપેક્ષાથી હોય છે. એટલા માટે એમનું પ્રમાણ मन त छे. (जोइसियाणं भंते केवइया वेउव्वियसरीरा पण्णत्ता) सन्त!
अ० ६०
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अनुयोगद्वारसूत्रे
बोध्यानि । ज्योतिष्काणामौदारिकशरीराणि नैरयिकौदारिकवद् बोध्यानि । तथा ज्योतिष्काणां वैकियशरीराणि वद्रमुक्तेति द्विविधानि । तत्र यानि तानि बद्धानि तानि असंख्येयानि बोध्यानि । तानि शरीराणि असंख्येयोत्सर्पिण्यवसपिंणीसमयराशिसमसंख्यकानि काळतः । क्षेत्रतः प्रतरासंख्येयभागवयसख्येयश्रेणिगत प्रदेशप्रमाणानि बद्धवैक्रियशरीराणि । अत्र तासां श्रेणीनां विष्कम्भमुचि
ते । इयं विष्कम्ममूविः व्यन्तरविष्कम्भमूच्यपेक्षया संख्येयगुणा बौध्या, ज्योतिष्काणां व्यन्तरापेक्षया संख्येयगुणत्वेन महादण्ड के पठितत्वात् । इयं विसरीरा पण्णत्ता) हे भदन्त ! ज्योतिष्कदेवों के कितने वैक्रियशरीर कहे गये हैं । (गोधमा !) हे गौतम! (वेउब्वियसरीरा दुबिहा पण्णत्ता) वैक्रियशरीर दो प्रकार के कहे हुए है । (तं जहा) वे इस प्रकार से हैं - (बद्वेल्लया य मुक्केल्लया य) एक बद्ध वैक्रिय शरीर दूसरे मुक्त वैक्रियशरीर । (तस्थ णं जे ते बद्धेला जोब तासि णं सेढीणं विक्ख भई बे छप्पण्णंगुल सय वग्गपलि भागो पयरस्स) इनमें जो वे यद्व वैकियशरीर हैं वे असंख्यात हैं। असंख्यात उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी काल के जितने समय होते हैं, उतने वे कालकी अपेक्षा से हैं। क्षेत्र की अपेक्षा से इनका प्रमाण प्रतर के असंख्यातवें भाग में वर्तमान असंख्यात श्रेणियों के प्रदेशों के बराबर है। यहां पर इन श्रेणियों की विष्कंभसूचि ग्रहण की गई है । यह विष्कंभमूचि व्यन्तरों की विष्कंभसूचि की अपेक्षा संख्यात गुणी है । क्योंकि ज्योतिष्कों का प्रमाण व्यन्तरों के प्रमाण की अपेक्षा संख्यात गुणा महाण्डल में कहा જ્યાતિષ્ઠ દેવાના કેટલાં વૈક્રિય શરીરે! કહેવામાં આવ્યાં છે, ( गोयमा ! ) डे गौतम ! (वेडव्वियसरीरा दुविहा पण्णत्ता) वैडिय शरीरे। मे प्राश्नां डेवामां भाव्यां छे. (तं जहा ) ते अरे या प्रमाणे छे. ( बद्धेल्लया य मुक्केल्लया ) 5 अद्ध वैडिय शरीर भने जीन्नु भुत वैडियशरीर (तस्थ णं जे ते बद्धेल्लया जाव तासिणं सेढीणं विक्खंभसूई बे छप्पण्णंगुलायarroभागो पयरस्स) यामां ने जद्ध वैडिय शरीश छे, ते असण्यात છે. અસંખ્યાત ઉત્સર્પિણી અને અવસર્પિણી કાળના જેટલા સમયે। હાય છે, તેટલા તે કાળની અપેક્ષાએ છે. ક્ષેત્રની અપેક્ષાએ એમનું પ્રમાણુ પ્રતરના અસંખ્યાતમા ભાગમાં વર્તમાન અસખ્યાત શ્રેણિએના પ્રદેશેાની ખરાખર છે. અહીંઆ શ્રેણિઓની વિષ્ફભસૂચિ ગ્રહણ કરવામાં આવી છે. આવિષ્ક'ભસૂચિ જ્યંતરાની વિશ્ક ભસૂચિની અપેક્ષાએ સખ્યાતગણી છે. કેમકે જ્યેાતિકૈાનુ... પ્રમાણ વ્યંતરાના પ્રમાણુની અપેક્ષા સખ્યાત ગણા
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अनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र २१७ व्यन्तरादीनामौदारिकादिशरीरनि० १७५ विष्कम्भसूचिः कियत्ममाणा गृह्यते ? इत्याह-द्विषट्पञ्चाशदङ्गुलशतवर्गपतिभागः प्रतरस्येति । प्रतरस्य पतरसम्बन्धी द्विषट्पञ्चाशदगुलशतवर्गप्रतिभाग:द्विगुणितं यत् षट् पश्चाशदधिकमङ्गुलशतं-द्वादशाधिकमगुलशतत्रयम् , तस्य यो वर्ग:वर्गमूलं तो यः प्रतिभागः अंशस्तत्पमाणा विष्कम्भसूचिरित्यर्थः । अस्यां विष्कम्भमूच्यामसंख्येयाः प्रदेशा भवन्ति । इत्थं च क्षेत्रतो वैक्रियशरीराणि विष्कम्भमूचिप्रदेशसमसंख्पकानि बोध्यानीति भावः । मुक्तानि वैक्रियशरीराणि औधिकौदारिकवत् बोध्यानि । आहारकशरीराणि नैरयिकाहारकशरीरवद् बोगया हैं। यहां विष्कंभसूचि का प्रमाण प्रतर संबन्धी द्विषट्पञ्चाशदगुलशतवर्गप्रतिभागरूप लिया गया है। अर्थात् २५६ प्रतरांगुलों का वर्गमूलरूप जो प्रतिभाग-अंश-है उस अंशरूप यहां विष्कंभसूचिली गई हैं । इस विष्कंभसूचि में असंख्यात प्रदेश होते हैं । इस प्रकार क्षेत्र की अपेक्षा ज्योतिष्क देवों के वैक्रियशरीर विकभसूचि के प्रदेशों के बराबर हैं। (मुक्केल्लया जहा ओहिया ओरालियसरीरा तहा भाणि यया) ज्योतिष्क देवों के मुक्त वैक्रियशरीरों का प्रमाण सामान्य मुक्त औदारिक शरीरों के प्रमाण तुल्य जानना चाहिये। सामान्य मुक्त औदारिक शरीरों का प्रमाण अनंत कहा गया है-अतः इसके मुक्त वैक्रियशरीरों का प्रमाण भी अनंत है। (आहारयसरीरा जहा नेरइयाण तहा भाणियचा) ज्योतिष्क देवों के आहारक शरीरों का प्रमाण नारकियों के आहारक शरीरों के प्रमाण बराबर जाननो મહાદડકમાં કહેવામાં આવ્યું છે. અહીં વિષ્કભસૂચિનું પ્રમાણ પ્રતર સંબંધી દ્વિ ષ પંચાશદંગલ શતવ પ્રતિભાગ રૂ૫ ગ્રહણ કરવામાં આવ્યું છે. એટલે કે ૨૫૬ પ્રતરાં ગુલેના વર્ગમૂળ રૂપ જે પ્રતિભાગ અંશ છે. તે અંશ રૂપ અહીં વિષઁભ સૂચિ ગ્રહણ કરવામાં આવી છે. આ વિષ્ફભસૂચિમાં અસખ્યાત પ્રદેશ હોય છે. આ પ્રમાણે ક્ષેત્રની અપેક્ષા જ્યોતિષ્ક દેના वैठिय शरी। वि० सूथिना प्रशानी राम२ छ. (मुक्केल्लया जहा ओहिया ओरालियसरीरा तहा भाणियब्वा) wयोति देवाना भुत वैठिय શરીરનું પ્રમાણે સામાન્ય મુક્ત દારિક શરીરના પ્રમાણુ તુલ્ય જાણવું જોઈએ. સામાન્ય મુક્ત દારિક શરીરોનું પ્રમાણ અનંત કહેવામાં આવ્યું છે. એટલા માટે એમના મુકત વક્રિય શરીરોનું પ્રમાણ પણ અનંત છે. (आहारगसरीरा जहा नेर इयाणं तहा भाणियव्वा) याति०हवाना माहा२४ શરીરનું પ્રમાણ નારકીઓના આહારક શરીરના પ્રમાણુ તુલ્ય જાણવું જોઇએ.
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४७६
अनुयोगद्वारसूत्रे ध्यानि । तैजसकामगशरीराण्येषां स्ववैक्रियशीरवद् बोध्यानि । तथा-वैमानिका. नामौदारिकशरीराणि नैरयिकौदारिकशरीरवद् बोध्यानि । वैमानिकानां चैक्रियचाहिये । नारकियों के बद्ध आहारक शरीर नहीं होते हैं। इसलिये ज्योतिष्क देवों के भी आहारक शरीर नहीं है । मुक्त आहारकशरीरों का प्रमाण, वहां मुक्त औदारिक शरीरों के जैसा अनंत कहा गया है सो यहां पर भी इनका प्रमाण इतना ही जानना चाहिये । (तेयगकम्मयसरीरा जहा एएसिं चेव वेउब्धियसरीरा तहा भाणियव्या) ज्योतिष्कदेवों के बद्ध, मुक्त तैजस और कार्मण इन दो शरीरों का प्रमाण इनके बद्ध मुक्त वैक्रियशरीरों के प्रमाण तुल्य कहा गया है, ऐसा जानना चाहिये। इनके बद्ध क्रियशरीरों का प्रमाण असंख्यात और मुक्तवैक्रियशरीरों का प्रमाण अनंत कहा गया है, उसी प्रकार से इनके बद्ध तैजसकार्मणशरीरों का प्रमाण असंख्यात और मुक्त तेजस कार्मण शरीरों का प्रमाण अनंत है । (वेमाणियाणं भंते ! केव. झ्या ओरालियसरीरा पण्णत्ता ?) हे भदन्त ! वैमानिक देवों के औदारिक शरीर कितने कहे गये है ? (गोयमा !) हे गौतम ! (जहो नेरइ. याणं तहा भाणियव्वा) जिस प्रकार से नारकों के औदारिक शरीरों की प्ररूपणा की गई है उसी प्रकार से वैमानिक देवों के भी औदारिक शरीरों की प्ररूपणा समझनी चाहिये । (वेमाणियाणं भंते ! केवનારકીઓના બદ્ધ આહારક શરીરે હતાં નથી. એટલા માટે તિષ્ક દેવના પણ આહારક શરીર નથી. મુકત આહારક શરીરનું પ્રમાણ ત્યાં મુક્ત ઓદારિક શરીરોની જેમ અનંત કહેવામાં આવ્યું છે. તે અહીં પણ
मनु प्रमाण मेट all देवु नये. (तेयगकम्मयसरीरा जहा एएसिं चेव वेउब्वियसरीरा तहा भाणियव्वा) याति वोना , भुत તેજસ અને કામણ આ બે શરીરેનું પ્રમાણ એમનાં બદ્ધમુકતવૈક્રિય શરીરના પ્રમાણ તુલ્ય કહેવામાં આવ્યું છે. એમ જાણવું જોઈએ, એમનાં બદ્ધકિય શરીરેનું પ્રમાણ અસંખ્યાત તેમજ મુકતવૈકિય શરીરનું પ્રમાણ અનંત કહેવામાં આવ્યું છે. આ પ્રમાણે એમને બદ્ધ તૈજસકામણ શરીરોનું પ્રમાણ असभ्यात भने भुत तस मधु शरीरानु प्रमाण मानत छ. (वेमाणियाणं भंते केवइया ओरालियसरीरा पण्णत्ता) मत! वैमानिदेवानां
मोहारि४ शरी। 2i अपामा माव्यां छ? (गोयमा!) 3 गौतम ! (जहा नेरइयाणं तहा भाणियव्वा) २. नाना मोहारि शरी३ नी ३५। કરવા માં આવી છે, તે પ્રમાણે જ વૈમાનિક દેના દારિક શરીરની
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अनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र २१७ व्यन्तरादीनामौदारिकादिशरीरनि। ४७७ शरीराणि बद्धमुक्तेति द्विविधानि । तत्र खलु यानि तानि बद्धानि तानि खलु असंख्येयानि । तानि कालतोऽसंख्येयोत्सपिण्यवसर्पिणीसमयराशितुल्यानि । क्षेत्रतः-प्रतरस्य असंख्येयभागेऽसंख्येयाः श्रेणयः-प्रतरासंख्येभागवर्त्यसंख्येयश्रेणिगतपदेशपमाणानि बद्धवैक्रियशरीराणि बोध्यानि । अत्र तासां श्रेणीनां विष्कम्भमूचिZ ह्यते । इयं विष्कम्भमुचिः कियत्ममाणा गृह्यते ? इत्याह-अङ्गुलद्वितीयवर्गमूलं तृतीयवर्गमूलेन प्रत्युत्पन्न-गुणितम् । अयं भावः-अङ्गुलप्रमाणे इया वेउव्वियसरीरा पण्णत्ता ?) हे भदन्त ! वैमानिक देवों के वैक्रियशरीर कितने कहे गये हैं ? (गोयमा) हे गौतम ! ( वेउब्विय सरीरा दुविहा पण्णत्ता) सामान्य तथा वैक्रिय शरीर दो प्रकार के कहे गये हैं । (तं जहा) जैसे (बद्धेल्लया य मुक्केल्लया य) एक बद्ध वैक्रिय. शरीर दूसरे मुक्त वैक्रियशरीर । (तस्थ णं जे ते बद्धेल्लया तेणं असंखिज्जा, असंखेज्जाहिं उस्सप्पिणी ओसपिपणीहि अवहीरंति कोलओ, खेत्तओ असंखिज्जा सेढीओ पयरस्स असंखेज्जहभागे) इनमें जो वैमानिक देवों के बद्धवैक्रियशरीर हैं वे सामान्य से असंख्यात हैं। काल की अपेक्षा इनका प्रमाण असंख्यात उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी काल के जितने समय हैं, उतनी संख्याप्रमाण है और क्षेत्र की अपेक्षा प्रतर के असंख्यातवें भाग में वर्तमान असंख्यात श्रेणियों की जितनी प्रदेशराशि होती है उतने हैं। (तासि णं सेढीण विक्ख भई अंगुलबीयवग्गमूलं ५३५९। विष ५५ सभ यु . (वेमाणियाणं भंते ! केवइया वेउध्विय सरीरा पण्णता ?) 3 महत! वैमानि वोना वैठिय शरी। टसi प्रज्ञा थयेai छ ? (गोयमा !) 8 गौतम ! (वेउव्वियसरीरा दुविहा पण्णत्ता) सामान्य ३५मां वैठिय शरीश २ मारना अपामा मायां छ. (तं जहा) २भ है (बद्धेल्या य मुक्केल्या य) : मद्ध वैयि शरी२ मने भी भुत वैठिय शरीर (तत्थ णं जे वे बद्धेल्लया ते णं असंखिज्जा, असंखेज्जाहिं उस्मप्पिणी ओसपिणीहि अवहीरंति कालओ, खेत्तओ असंखिज्जा सेढीओ पयरस्स असं. खेज्जइभागे) भाभा २ वैमानि वाना पद्धडिय शरी। छे ते सामाન્યની અપેક્ષા અસંખ્યાત છે. કાળની અપેક્ષા એમનું પ્રમાણ અસંખ્યાત ઉસપિણી અને અવસર્પિણી કાળના જેટલા સમયે છે, તેટલી સંખ્યા પ્રમાણ છે અને ક્ષેત્રની અપેક્ષા પ્રતરના અસંખ્યાતમાં ભાગમાં વર્તમાન અસંખ્યાત श्रेणियानी रेटी प्रशशि डाय छे. hti छ (तासि णं सेढी णं विक्खं भसूई अंगुलबीइयवग्गमूलं तइयवग्गमूलपडुप्पण्णं) मडी मा श्रेमिानी
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___ अनुयोगद्वारसूत्रे पतरक्षेत्रे तत्त्वतोऽसंख्येयाः श्रेणयः सन्ति । तथापि ता असत्कल्पनया षट्पश्चा शदधिकशतद्वयात्मिका (२५६) भवन्ति । तत्र प्रथम वर्गमूलं षोडश (१६), द्वितीयं चत्वारः (४), तृतीयं द्वौ (२)। अब द्वितीयवर्गमूलं चतुःसंख्यात्मकं तृतीयवर्गमूलेन द्विकलक्षणेन गुणितमष्टसंख्यात्मकं भवति । इत्थं च तत्वतोऽसंख्येया अपि श्रेणयः कल्पनयाऽष्टौ श्रेगयो बोध्याः । अथवा-अंगुलतृतीयवर्गमूलघनममाणमात्राः श्रेणयः । अङ्गुलतृतीयवर्गमूलं द्वौ, तस्य यद् घनश्माणमष्टौ तायवग्गमूलं पडुप्पण्णं) यहां पर इन श्रेणियों की विष्कंभसूचि. ही की गई है। इस विष्कंभसूचि का प्रमाण यहां तृतीय वर्गमूल से गुणित अंगुल के द्वितीय वर्गमूलरूप लिया गया है। तात्पर्य इसका यह है कि अंगुल प्रमाण प्रतर क्षेत्र में तत्त्वतः असंख्यात श्रेणियाँ होती हैं-इन्हें हम कल्पना से इस प्रकार से समझले, कि मानलो ये असंख्यात श्रेणियाँ २५६ रूप हैं। इनका अब वर्गमूल निकालो तो २५६ का वर्गमूल १६ आता है। यह प्रथम वर्गमूल है । द्वितीय वर्गमूल ४ आता है। और तीसरा वर्गमूल २ आता है । इस द्वितीयवर्गमूल ४ को तृतीयवर्गमूल २ से गुणा करने पर ८ आते हैं। इन ८ को हम असंख्यात श्रेणियों की विष्कंभसूचि मानले । सो इन असंख्यात श्रेणियों की गिनती प्रदेश राशि होगी उतने बद्धवैक्रियशरीर क्षेत्र की अपेक्षा इन वैमानिक देवों के होते हैं । (अहव णं अंगुल तइयवग्गः मूलघणप्पमाणमेसाओ सेढीओ) अथवा-यहां पर अंगुल के तृतीय વિષ્કભસૂચિ જ ગ્રહણ કરવામાં આવી છે. આ વિષ્ફભસૂચિનું પ્રમ ણ અહીં તૃતીય વર્ગમૂળની સાથે ગુણિત અંગુલને દ્વીતિય વર્ગમૂળ રૂપ ગ્રહણ કરવામાં આવ્યું છે. તાત્પર્ય આ પ્રમાણે છે કે અંગ્રેસના પ્રમાણ પ્રતર ક્ષેત્રમાં તત્વતઃ અસંખ્યાત શ્રેણિઓ હોય છે. એમને આપણે કલ્પનાથી આ રીતે સમજી શકીએ છીએ કે માનો કે અસંખ્યાત શ્રેણિઓ ૨૫૬ રૂપ છે. એમનું વર્ગમૂળ કાઢીએ તે ૨૫૬ નું વર્ગમૂળ ૧૬ આવે છે. આ પ્રથમ વર્ગમૂળ છે. દ્વિતીય વર્ગમૂળ ૪ આવે છે. અને તૃતીય વર્ગમૂળ ૨ આવે છે. આ બીજા વર્ગમૂળ ૪ ને ત્રીજા વર્ગમૂળ ૨ ની સાથે ગુણિત કરવાથી ૮ આવે છે, આ ૮ ને આપણે અસંખ્યાત શ્રેણિઓની વિકભસૂચિ માની શકીએ. તે આ અસંખ્યાત શ્રેણિઓની ગણત્રી પ્રદેશ રાશિ થશે અને તેટલા જ पद्धवैठियशरी। क्षेत्रनी पेक्षा मा मानि वोन डाय छे. (अहव ण अंगुलतइयवगमूलं घणप्पमाणमेत्ताओ सेढीओं) मथ-मही २५ शुलना
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अनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र २१७ व्यन्तरादीनामौदारिकादिशरीरनि० ४७९ तावन्मात्राः श्रेणयः । अर्थस्तु पूर्वोक्तएव । एतावत्प्रमाणा चात्र विष्कम्भसूचिोंध्या । मुक्तानि वैक्रियशरीराणि औधिकौदारिकशरीरवद् बोध्यानि । आहारकशरीराणि नैरयिकाहारकशरीरवद् बोध्यानि । तैजसकामकशरीगणितु एतेषामेव वर्गमूल का घन करने पर जो संख्या आती है, तत्प्रमाण ये श्रेणियां ली गई हैं, ऐमा जानना चाहिये । तात्पर्य यह है कि-'अंगुल का तृतीय. वर्गमूल २ आया है। उसका घन करने पर आट आते हैं। सो आठ को हम कल्पना से असंख्यात श्रेणियां की विष्कभसूचि मानले । इस प्रकार पूर्वोक्त कथन और इस कथन में केवल शब्दों का ही भेद है, अर्थ का कोई भेद नहीं है। जो अर्थ ऊपर कहा गया है वही अर्थ यहां पर कहा गया है। (मुक्केल्लया जहा ओहिया ओरालिया तहा भाणियव्वा) मुक्त क्रियशरीरों का प्रमाण यहाँ पर सामान्य मुक्त औदारिकशरीरों के प्रमाण के जैसा अनंल जानना चाहिये। (आहा. रगसरीरा जहा नेरइयाणं) बद्ध और मुक्त आहारक शरीरों का प्रमाण यहां नारक जीवों के बद्ध मुक्त आहारक शरीरों के प्रमाण के जैसा जानना चाहिये। जिस प्रकार नारकों के बद्ध आहारक शरीर नहीं होते हैं। उसी प्रकार वैमानिक देवों के भी बद्ध आहारक शरीर नहीं होते हैं। परभवों के शरीरों की अपेक्षा ये मुक्त आहारक शरीर होते हैं, सो इनका प्रमाण यहां नारकों के मुक्त आहारक शरीरों के તૃતીય વર્ગમૂળના ઘન કરવાથી જે સંખ્યા આવે છે, તપ્રમાણ આ શ્રેણિ ગ્રહણ કરવામાં આવી છે. એમ જાણવું જોઈએ, તાત્પર્ય આ પ્રમાણે છે કે અંગુલનું તૃતીય વર્ગમૂળ ૨ આવ્યું છે. તેનું ઘન કરવાથી ૮ આવે છે. તે આઠને અમે ક૯૫નાથી અસંખ્યાત શ્રેણિઓની વિષ્કરભસૂચિ માની લઈએ આ પ્રમાણે પૂર્વોકત કથન અને આ કથનમાં ફકત શબ્દોનો જ તફાવત છે. અર્થનો તફાવત નથી. જે અર્થ ઉપર લીધો છે તેજ રીતે અહીં પણ सेवामा माव्ये। छ (मुक्केल्लया जहा ओहिया ओरालिया तहा भाणियव्वा) મુકત વક્રિય શરીરનું પ્રમાણ અહીં સામાન્ય મુકત દારિક શરીરના પ્રમા
ना रेभ मानत नवु नये. (आहारगम्ररीरा जहा नेरइयाणं) मद्ध मन મુકત આહારક શરીરોનું પ્રમાણ અહીં નારક જીવાના બદ્ધ મુકત આહારક શરીરના પ્રમાણની જેમ જાણવું જોઈએ જેમ નારકના બદ્ધ આહારક શરીર હોતાં નથી, તેમજ વૈમાનિક દેવાના પણ બદ્ધ આહારક શરીર હેતાં નથી. પરભના શરીરની અપેક્ષા આ મુકત આહારક શરીર હોય છે. તે એમનું પ્રમાણ અહીં નારકોનાં મુકત આહારક શરીરની જેમ
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अनुयोगद्वारसूत्रे
वैक्रियशरीरवद् बोध्यानि । प्रकृतमुपसंहरन्नाह - तदेतत्सूक्ष्मं क्षेत्रपल्योपममिति । इथं सूक्ष्मव्यवहारोभयविधमपि क्षेत्रपल्योपमं प्ररूपितमिति सूचयितुमाह-तदेतत् क्षेत्रमिति । इत्थं परयोपमं निरूपितमिति सूचयितुमाह = तदेतत् पल्योपम मिति । तदेव 'समयावळियमु हुना' इत्यादिगाथानिर्दिष्टास्तदुपलक्षिताश्च सर्वेऽपि कालविभागा निरूपिता इति सूचयितुमाह- तदेव द्विभागनिष्पन्नमिति । इत्थं च सभेदं कालप्रमाणं निरूपितमिति सुवयितुमाह-वदेतत् काल माणमति ॥ पृ. २१७॥ अथ भावप्रमाणं निरूपयति
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मूलम् - से किं तं भावप्यमाणे ? भावप्यमाणे- तिविहे पण्णत्ते, तं जहा - गुणप्पमाणे नयप्यमाणे संखप्यमाणे ॥सू०२१८॥
जैसा अनंत है । (तेयगकम्मगसरीरा जहा एएसिं चैव वेउच्चिसरीरा तहा माणिकवा) तैजस और कार्मण शरीर इनके ही वैक्रियशरीरों के जैसा जानना चाहिये । ( से तं सुद्धमे खेत्तप लिओ मे से तं खेत्तपलिओवमे-से तं पलिओ मे से तं विभागनिष्कण्णे-से तं कालप्यमाणे) इस प्रकार यह सूक्ष्म क्षेत्रपल्योपम का स्वरूप है । इसके निरूपित हो हो जाने पर व्यावहारिक और सूक्ष्म के भेद से दो भेदवाले क्षेत्रपत्योपम का स्वरूप पूर्णरूप से निरूपित हो जाता है अतः क्षेत्रपल्योपम का स्वरूप भी निरूपित हो चुका है । 'समयावलियमुहुत्ता' इत्यादि गाथा द्वारा निर्दिष्ट समस्त समयादिरूप काल के विभाग भी निर्दिष्ट हो चुके । इस प्रकार इनके निर्दिष्ट हो जाने पर सभेद काल प्रमाण का कथन समाप्त हो चुका ॥ सू० २१७॥
अनंत छे. (तेयगकम्मयसरीरा जहा एएसिं चेव वेउव्वियसरीरा तहा भाणि - यव्वा) तैक्स भने अशु शरीर सेभना वैडिय शरीरानी प्रेम लगुवां
ये. (से तं सुडुमे खेत्तपलिओ मे - से तं खेत्तवलिओ मे से तं पलिओबमेसे तं विभागनिष्फण्णे - से तं कालप्पमाणे) या प्रमाणे सूक्ष्म क्षेत्रपल्यो भनु સ્વરૂપ છે. આ નિરૂપિત થઇ જવાથી વ્યાવહારિક અને સૂક્ષ્મના ભેદથી ખે ભેદવાળા ક્ષેત્રપલ્યેાપમનું સ્વરૂપ પૂર્ણરૂપથી નિરૂપિત થઈ જાય છે, તેથી क्षेत्रपयत्यमनु स्व३५ प नि३पित थ युं छे. "समयावलियमुहुत्ता" ઇત્યાદિ ગાથા વડે નિર્દિષ્ટ સમસ્ત સમયાદિ રૂપ કાળના વિભાગે પણ નિર્દિષ્ટ થઈ ચૂકયા છે. આ રીતે એમના નિર્દિષ્ટ થવાથી સભેદ કાળ પ્રમા ણુનું કથન સ ́પૂર્ણ થઈ ગયુ છે. ાસૂ૦ ૨૧૭૫
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अनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र २१८ भावप्रमाणनिरूपणम्
छाया-अथ किं तत् भावपमाणं ?, भावप्रमाणं त्रिविधं प्रज्ञप्तं, तद्यथागुणप्रमाणं, नयप्रमाणं, संख्याममाणं ॥ मु० २१८ ॥
टीका-'से कि तं भावप्पमाणे' इत्यादि
शिष्यः पृच्छति-अथ किं तद् भावप्रमाणम् ? इति । उत्तरयति-भावप्रमाणम्भवनं भावः वस्तुनः परिगामो ज्ञानादिवर्णादिश्व, प्रमितिः प्रमाणम् , प्रमीयतेऽने. नेति प्रमाणम् , प्रमीयते यत्तद् वा प्रमाणम् । भाव एव प्रमाणं भावममाणम् । प्रमाणशब्दस्य भावसाधनपक्षे वस्तुपरिच्छेदोर्थः । वस्तुपरिच्छेदहेतुत्वाद् भावस्य प्रमाणता बोध्या। तद् भावप्रमाणं गुणपमाणनयप्रमाण-संख्याप्रमाणेति त्रिविधम्।।मू०२१८॥
अब मूत्रकार भावप्रमाण का निरूपण करते हैं-- 'से किं तं भावप्पमाणे' ? इत्यादि ।
शब्दार्थ--शिष्य पूछता है कि (से किं तं भावप्पमाणे ?) हे भदन्त ! पूर्व निरूपित वह भावप्रमाण क्या है ?
उत्तर--(भावप्पमाणे तिविहे पण्णत्ते) भावप्रमाण तीन प्रकार का प्रज्ञप्त हुआ है। (तं जहा) वे उसके प्रकार ये हैं-(गुण पमाणे, नयप्पमाणे, संखप्पमाणे) एक गुगप्रमाण, दूसरा नयप्रमाण और तीसरा संख्याप्रमाण। ___ भावार्थ--'भवनं भावः' यह भाव शब्द की व्युत्पत्ति है। इसका अर्थ होना है 'ऐसा है । अर्थात् जो होता है, वह 'भाव' है । यह भाव वस्तु का परिणाम रूप पड़ता है। वस्तु का परिणाम ज्ञानादिरूप अथवा वर्णादिरूप होता है। प्रमिति का नाम प्रमाण है, अथवा वस्तु जिस
હવે સૂત્રકાર ભાવ પ્રમાણુનું નિરૂપણ કરે છે – “से कि त' भावपमाणे" त्यादि।
शहाथ-शिष्य प्रश्न ४२ छ । (से कि त भावप्पमाणे ?) मत! પૂર્વનિરૂપિત ભાવ પ્રમાણ શું છે?
उत्तर-(भावप्पमाणे तिविहे पण्णत्ते) भाव प्रमाण १ २नु प्रज्ञ थयेर छे. (त' जहा) ते २ मा प्रभारी छे. (गुणप्पमाणे, नयप्पमाणे, संखप्पमाणे) प्रथम प्रमाण, मी नयप्रभाए भने तृतीय समयाअभा.
भावार्थ:-'भवन भाव:' मा मावशण्टनी व्युत्पत्ति न ' હોવાપણું” થાય છે. એટલે કે જે હોય છે તે “ભાવ” છે. આ ભાવ વરતુના પરિણામ રૂપ હોય છે. વસ્તુના પરિણામ જ્ઞાનાદિરૂપ અથવા વર્ણાદિરૂપ હોય છે પ્રમિતિનું નામ પ્રમાણ છે, અથવા વસ્તુ જેના વડે જણાય તે પ્રમાણ છે, __ अ० ६१
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ર
अथ गुणप्रमाणं निरूपयति
मूलम् - से किं तं गुणप्पमाणे ? गुणप्पमाणे - दुविहे पण्णत्ते, तं जहा - जीवगुणप्पमाणे अजीवगुणप्पमाणे य से किं तं अजीवगुणप्पमाणे ? अजीवगुणप्पमाणे- पंचविहे पण्णत्ते तं जहा - वण्णगुणप्पमाणे गंधगुणप्पमाणे रसगुणप्पमाणे फासगुणपमाणे संठाण गुणप्पमाणे । से किं तं वण्णगुणापमाणे ? वण्णगुणमाणे पंचविहे पण्णत्ते, तं जहा - कालवण्णगुणष्पमाणे जाव
अनुयोगद्वारसूत्रे
के द्वारा जानी जावे वह प्रमाण है अथवा जो जाना जावे वह प्रमाण है यह प्रमाण शब्द का व्युत्पत्तिलभ्य अर्थ है । भावरूप जो प्रमाण है वह भावप्रमाण है, प्रमाण शब्द की व्युत्पत्ति जब भावसाधन पक्ष में की जाती है तब वस्तु का परिच्छेद ही प्रमाण शब्द का अर्थ होता है । और जब प्रमाणशब्द की व्युत्पत्ति करणसाधन में की जाती है तब 'वस्तु जिस के द्वारा जानी जावे वह प्रमाण है' ऐसा अर्थ लभ्य होता है। इस अवस्था में वस्तु भाव-ज्ञानादिरूप अथवा वर्णादिरूप भाव से जानी जाती है। इसलिये यह भाव परिच्छेद का हेतु हो जाता है । तब इसमें प्रमाणता आ जाती है । कर्मसाधन पक्ष में ज्ञानादि अथवा वर्णादिरूप भाव गुणरूप से जाने जाते हैं इसलिये ये स्वयं प्रमाणरूप होते हैं ॥ २१८ ॥
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આ
અથવા જે જાણવામાં આવે તે પ્રમાણ છે, પ્રમાણશબ્દના વ્યુત્પત્તિ લભ્ય અથ છે. ભાવ રૂપ જે પ્રમાણ છે તે ભાવપ્રમાણ શબ્દની વ્યુત્પત્તિ જ્યારે ભાવ સાધનપક્ષમાં કરવામાં આવે છે, ત્યારે વસ્તુને પરિચ્છેથ્રુ જ પ્રમાણુ શબ્દના અર્થ થાય છે. અને જ્યારે પ્રમાણ શબ્દની વ્યુત્પત્તિ કરણ સાધનમાં કરવામાં આવે છે, ત્યારે વસ્તુ જેના વડે જણાઈ આવે તે પ્રમાણ છે. એવા અ લક્ષ્ય થાય छे. આ સ્થિતિમાં વસ્તુ જ્ઞાનાદિ રૂપ અથવા વદિ રૂપ ભાવથી જણાઈ આવે છે. એટલા માટે જ્યારે આ ભાવ પરિચ્છેદના હેતુ થઇ જાય છે. ત્યારે આમાં પ્રમાણુતા આવી જાય છે, ક્રમ સાધનપક્ષમાં જ્ઞાનાદિ અથવા વદિ રૂપ ભાવ ગુણુ રૂપથી જાણવામાં આવે છે, એટલા માટે આ પેાતે પ્રમાણુરૂપ હાય છે. IIસૂ૦ ૨૧૮
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अनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र २१९ गुणप्रमाणनिरूपणम् सुकिल्लवण्णगुणप्पमाणे। से तं वण्णगुणप्पमाणे। से किं ते गंधगुणप्पमाणे? गंधगुणप्पमाणे-दुविहे पण्णत्ते, तं जहा-सुरभिगंधगुणप्पमाणे दुरभिगंधगुणप्पमाणे। से तं गंधगुणप्पमाणे। से किं तं रसगुणप्पमाणे? रसगुणप्पमाणे-पंचविहे पण्णत्ते, तं जहा-तित्तरसगुणप्पमाणे जाव महुररसगुणप्पमाणे। से तं रसगुणप्पमाणे । से किं तं फासगुणप्पमाणे ? फासगुणप्पमाणेअट्टविहे पण्णत्ते, तं जहा-कक्खडफासगुणप्पमाणे जाव लुक्खफासगुणप्पमाणे। से तं फासगुणप्पमाणे। से किं तं संठाणगुणप्पमाणे? संठाणगुणप्पमाणे-पंचविहे पण्णत्ते, तं जहापरिमंडलसंठाणगुणप्पमाणे वसंठाणगुणप्पमाणे तंससंठाणगुणप्पमाणे चउरंससंठाणगुणधमाणे आययसंठाणगुणप्पमाणे। से तं संठाणगुणप्पमाणे। से तं अजीवगुणप्पमाणे ॥सू०२१९॥
छाया-अथ किं तद् गुणप्रमाणम् ? गुणपमाणं द्विविधं प्रज्ञप्तं, तद्यथा-जीवगुणप्रमाणम् अजीवगुणपमाणं च । अथ किं तत् अजीवगुणप्रमाणम् ? अजीवगुणप्रमाणं पञ्चविधं प्रज्ञप्तं, तद्यथा-वर्णगुणप्रमाणं गन्धगुणप्रमाणं रसगुणप्रमाणे
अब सूत्रकार गुण प्रमाण का निरूपण करते है-- 'से किं तं गुणप्पमाणे ? इत्यादि।
शब्दार्थ--(से कि त गुणपमाणे) हे भदन्त पूर्वप्रक्रान्त गुणप्रमाण का क्यो स्वरूप है ?
उत्तर-(गुणपमाणे दुविहे पण्णत्ते) गुणप्रमाण दो प्रकार का कहा गया है। (तं जहा) वे प्रकार ये हैं-(जीव गुणपमाणे अजीवगुण.
હવે સૂત્રકાર ગુણપ્રમાણુનું નિરૂપણ કરે છે. (से कि त गुणप्पमाणे ?) त्यादि।
साथ - (से कि त गुणप्पमाणे १) ७ मत ! ५ usin Yएप्रभानु २१३५ यु छ ?
उत्तर-(गुणप्पमाणे दुविहे पण्णत्ते) शुष्प्रभाय ४ानु अामा मा०यु छे. (त' जहा) ते २ मा प्रमाणे छे. (जीवगुणप्पमाणे अजीव
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अनुयोगद्वारसूत्रे स्पर्शगुणपमाणं संस्थानगुणप्रमाणम् । अथ किं तद् वर्णगुणप्रमाणम् , वर्णगुणपमाणं पञ्चविध प्रज्ञप्तं, तद्यथा-कालवर्णगुणप्रमाणं यावत् शुक्लवर्णगुणममाणम् । तदेतत् वर्णगुण माणं । अथ किं तत् गन्धगुणप्रमाणम् ? गन्धगुणप्रमाणं, द्विविधं प्पमाणे) एक जीव गुणप्रमाण और दूसरा अजीवगुणप्रमाण। (से किं तं अजीवगुणप्पमाणे ?) हे भदन्त ! अजीव गुणप्रमाण का क्या स्वरूप है ? (अजीवगुणप्पमाणे पंचविहे पण्णत्ते)
उत्तर--अजीव गुणप्रमाण पांच प्रकार का कहा गया है-- (तं जहा) जैसे-(वण्णगुणप्पमाणे, गंधगुणप्पमाणे, रसगुणप्पमाणे, फास गुणप्पमाणे, संठाणगुणप्पमाणे) वर्णगुणप्रमाण, गंधगुणप्रमाण, रसगुण प्रमाण, स्पर्शगुणप्रमाण, और संस्थानगुणप्रमाण । (से किं तं वण्णगुणप्पमाणे ?) हे भदन्त ! वह वर्णगुणप्रमाण क्या है ? (वण्णगुणप्पमाणे पंचविहे पण्णत्ते) वर्णगुणप्रमाण पांच प्रकार का कहा गया है (तं जहा) जैसे-(कालवण्णगुणप्पमाणे जाव सुकिल्लवण्णगुणप्पमाणे) कृष्णवर्ण गुणप्राण यावत् शुक्लवर्णगुणप्रमाण (से तं वणगुण. प्पमाणे) इस प्रकार यह वर्णगुणप्रमाण है। (से किं तं गंधगुणप्पमाणे हे भदन्त ! वह गंध गुणप्रमाण क्या है ? (गंधगुणप्पमाणे दुविहे पण्णत्ते) गंधगुणप्रमाण दो प्रकार का कहा गया है । (तं जहा) जैसे गुणप्पमाणे) मे ०१ गुण प्रमाण भने भी अ०१ शुशुप्रमाण (से कि त अजीवगुणप्पमाणे १) ७ मत ! अल गुण प्रमाणुनु २१३५ उयु छ ? (अजीवगुणप्पमाणे पंचविहे पण्णत्ते)
उत्तर-49 प्रमाण पत्र प्रा२नु ४ामा मा०यु छे. (तं जहा) म (वण्णगुणप्पमाणे, गंध गुणप्पमाणे, रसगुणप्पमाणे, फासगुणप्पमाणे, संठाणगुणप्पमाणे) व शुष्प्रभाष्य, जय शुशुप्रभाए, २४ शुष्प्रभार, २५ शुष्प्रभाए भने संस्थान शुष्पप्रमाण (से कि तं वण्णगुणप्पमाणे १)
मत ! ते १ शुशुप्रभाय शु छ ? (वण्ण गुणप्रमाणे पंचविहे पण्णत्ते) १ शुशुप्रभार पांय प्रा२नु अामा माथ्यु छ. (तौं जहा) रेभ (कालवण्णगुणप्पमाणे जाव सुकिल्लवण्णगुणप्पमाणे) व गुष्प्रभार यावत् शुस १ गुप्रभाए (से तं वण्णगुणप्पमाणे) मा रीते ॥ १ शुप्रमाणु छे. (से कि त गंधगुणप्पमाणे) 3 महत! य गुणप्रमाणु
छ १ (गंधगुणप्पमाणे दुविहे पण्णत्ते) 4 गुथुप्रभा में प्रा२नु ४
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अनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र २१९ गुणप्रमाणनिरूपणम्
૧૮ प्रज्ञप्तं, तद्यथा-सुरभिगन्धगुणप्रमाणं दुरभिगन्धगुणप्रमाणम् । तदेतत् गन्धगुणप्रमाणम् । अथ किं तद् रसगुणप्रमाणं ? रसगुणपमाणं पञ्चविध प्रज्ञप्तं, तद्यथा-तिक्तरसगुणममाणं यावत् मधुररसगुणप्रमाणम् । तदेतत् रसगुणप्रमाणम् । अथ किं तत् स्पर्शशुणप्रमाणम् ? स्पर्शगुगप्रमाणम् , अष्टविधं प्रज्ञप्तं, तद्यथा-कर्कशस्पर्शगुणपमाणं यावत् रूक्षस्पर्शगुणप्रमाणम् ? तदेतत् स्पर्शगुणप्रमाणम् । अथ किं तत् संस्थानगुणप्रमाणम् ? संस्थानगुणप्रमाणं पञ्चविधं प्रज्ञप्तं, तद्यथा-परिमण्डल(सुरभिगधगुणप्पमाणे दुरभिगंधगुणप्पमाणे) सुरभिगंधगुणप्रमाण
और दुरभिगंधगुणप्रमाण ।(से तं गंधगुणप्पमाणे) इस प्रकार यह गंधगुणप्रमाण है । (से किं तं रस गुणप्पमाणे?) हे भदन्त ! वह रस गुणप्रमाण क्या है ? (रसगुणप्पमाणे पंचविहे पण्णत्ते) रस गुण प्रमाण पांच प्रकार का कहा गया है। (तं जहा) जैसे-(तित्तरसगुण. प्पमाणे) तिक्तरसगुणप्रमाण (जाव महुररसगुणप्पमाणे) यावत् मधुररसगुणप्रमाण (से तं रसगुणप्पमाणे) इस प्रकार से यह रस गुणंप्रमाण है । (से किं तं फासगुणप्पमाणे) हे भदन्त ! वह स्पर्श गुणप्रमाण क्या है ? (फासगुणप्पमोणे अविहे पण्णत्ते०) स्पर्शगुण प्रमाण आठ प्रकार का कहा गया है । (तं जहा) जैसे (कक्खडफासगुणपमाणे जाव लुक्खफासगुणप्पमाणे) कर्कश स्पर्शगुणप्रमाण यावत् रूक्षस्पर्श गुणप्रमाण (से तं फासगुणप्पमाणे) इस प्रकार स्पर्श गुण पामा माव्यु छ. (तौं जहा) २ (सुरभिगंधगुणप्पमाणे दुरभिगंधगुणप्प. माणे) सुसम म गुरप्रमाण मन ENA गशुप्रभा (से त गंधगुणपमाणे) ॥ प्रमाणे मा गध शुष्माय छे. (खे कि त रसगुणप्पमाणे) 3 महत! ते २२ शुष्पप्रमाण शु छ? (रसगुणप्पमाणे पंचविहे पण्णत्ते) २स भुशुप्रमाण पाय प्रा२नु अपामा माव्यु छ. (त जहा) भो (तित्तरसगुणप्पमाणे) तितरस गुशुप्रभाशु (जाव महुररसगुणप्पमाणे) यापत् मधु२२सशुष्पप्रभा । प्रमाण छ. (से तं रसगुणप्पमाणे) मा २स शुशुप्रमाण छ. (से कि त फासगुणप्पमाणे ?) 3 महत! ते २५० गुएप्रमाण शु छ? (फासगुणप्पमाणे अद्वविहे पण्णत्ते) २५ गुण मा8 रनु अवाम माव्यु छ. (त जहा) २ (कक्खडफासगुणप्पमाणे जाव लुक्ख फासगुणप्पमाणे) ४ २५ गुशुप्रभाय यावत् ३क्ष २५ गुण प्रमाण (से तफासगुणप्पमाणे) या प्रमाणे मा २५० गुथुप्रभा छ, (से कि त संगणगुणप्पमाणे १) 3
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४८६
____ अनुयोगद्वारसूत्र संस्थानगुणप्रमाणं वृत्तसंस्थानगुणप्रमाणं व्यस्रसंस्थानगुणप्रमाणं चतुस्रसंस्थानगुणप्रमाणम् , आयतसंस्थानगुगप्रमाणम् । तदेतत् संस्थानगुणप्रमाणम् । तदेतत् अजीवगुणप्रमाणम् ॥ सू० २१९ ॥
टीका-'से कि तं' इत्यादि
अथ किं तद् गुगपमाणम् ? इति शिष्यप्रश्नः। उत्तरयति-गुणप्रमाणम्प्रमितिः प्रमाणम् , प्रमीयतेऽनेनेति वा प्रमाणम् , प्रमीयते यत्तद्वा प्रमाणम् । प्रमाण है । (से किं तं संठाणगुणप्पमाणे ?) हे भदन्त ! वह संस्थान गुण प्रमाण क्या है ? (संठाणगुणपमाणे पंचविहे पण्णत्ते)
उत्तर--संठाण गुणप्रमाण पांच प्रकार का कहा गया है। (जहा) जैसे-(परिमंडलठाणगुणप्पमाणे) परिमंडसंस्थानगुणप्रमाण, ( वट्टसठाणगुणपमाणे) वृत्तसंस्थानगुणप्रमाण (तं तसंठाणगुणपमाणे) ज्यस्त्र संस्थानगुणप्रमाण (चउरससंठाणगुणप्पमाणे) चतुरस्र संस्थान गुणप्रमाण (आपय ठाण गुणप्पमाणे) आयतसंस्थानगुणप्रमाण, (से तं संठाणगुणपमाणे) यह संस्थानगुणपमाण हैं। (से तं अजीवगुणप्पमाणे) इस प्रकार पूर्वप्रकान्त अजीव गुणप्रमाण हैं।
भावार्थ-यह पहिले स्पष्ट कर दिया है कि 'प्रमाण शब्द की व्युत्पत्ति भाव, करण और कर्म इन तीनों साधनों में होती है। 'पमितिः प्रमाणम्' यह प्रमाण शब्द की व्युत्पत्ति भावसाधन में है। "प्रमीयते अनेन" यह शब्द की व्युत्पत्ति करणसाधन पक्षमें है "प्रमीयते यत् तत्प्रमाणम्" यह प्रमाणशब्द का व्युत्पत्ति कर्म साधनमत ! ते संस्थान गुमाय शुछ १ (संठाणगुणप्पमाणे पंचविहे पण्णत्ते)
उत्तर-सस्थान गुमाए पांय प्रारनु उडेवामा मा०यु छ. (त जहा) २म (परिमंडलसंठाणगुणप्पमाणे) परिमाण संस्थान गुमाए (वट्टसंठाग गुणपमाणे) वृत्तस स्थान शुष्प्रमाणु (तससंठाणगुणप्पमाणे)
यस संस्थान प्रमाण (चउरंससंठाणगुणप्यमाणे) यतु संस्थान शुमार (आययसंठाणगुणप्पमाणे) भायत संस्थान गुए प्रमाण (से त संठाणगुणप्पमाणे) मा शते २थान शुष्प प्रभा छे. (से त अजीवगुणप्पमाणे) આ પ્રમાણે પૂર્વ પ્રકાન્ત અજીવ ગુણ પ્રમાણ છે.
ભાવાર્થ–આની પહેલાં સ્પષ્ટ કરવામાં આવ્યું છે કે પ્રમાણ શબ્દની व्युत्पत्ति ल. ४२५ भने म ! ये साधनामा हाय छे. 'प्रमितिः प्रमाणम्' मा प्रमाण २०४नी व्युत्पत्ति का साधनमा छ. 'प्रमीयते अनेन' या प्रमाण शनी व्युत्पत्ति ४२६१ साधन पक्षमा छे. 'प्रमीयते यत्
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मनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र २१९ गुणप्रमाणनिरूपणम् गुणाज्ञानादयो वर्णादयश्व, तएव प्रमाणम्=प्रमितिः वस्तुपरिच्छेदः, तद्धेतुत्वाद गुणा अपि पमाणम् । गुणैश्च द्रव्यं प्रमीयते, गुणाश्च गुणरूपतया प्रमीयन्ते । इत्थं भावकरणकर्मेति त्रितयसाधनपक्षेऽपि गुणानां प्रामाण्यमनुसन्धेयम्। इदं गुणप्रमाणं जीवाजीवोभय भेदेन द्विविधम् । तत्राल्पवक्तव्यत्वात्पथममजीवगुणप्रमाणमुक्तम् । व्याख्याऽस्य प्रायो निगदसिद्धा। नवरम्-परिमण्डलसंस्थानं वलयादिवत् , वृत्तमयोगोलकवत् , व्यत्रं त्रिकोणम्-शृङ्गाटकफलवत् , चतुरस्रं समचतुष्कोणम् , आयतम्-दीघमिति ॥ मु० २१९ ॥ पक्ष में हैं । यहाँ गुणप्रमाण का प्रकरण चल रहा है-इसलिये भाव साधनपक्ष में गुणों को जानने रूप प्रमिति का नाम प्रमाण होता है। गुण स्वयं प्रमाणभूत नहीं होते-परन्तु जाननारूप क्रिया गुणों की है, इसलिये क्रिया और क्रियावान् में अभेदोपचार से गुगों को प्रमाण मान लिया जाता है । करण साधनपक्ष में "जिसके द्वारा जाना जावे वह प्रमाण है" यह प्रमाण शब्द की व्युत्पत्ति कही गई है सो गुणों से द्रव्य जाना जाता है इसलिये गुणप्रमाणभूत हो जाते हैं । कर्मसाधन पक्ष में "जो जाना जावे" वह प्रमाण है ऐसी प्रमाणशब्द की व्युत्पत्ति हुई है-सो गुण गुणरूप से जाने जाते हैं, इसलिये गुणप्रमाण हैं। इस प्रकार भाव करण और कर्मसाधन पक्ष में गुणों में प्रमाणता का अनुसंधान कर लेना चाहिये। सूत्रकार ने जो व्युत्क्रम से अजीव गुणप्रमाण का कथन किया है उसका कारण यहां अल्पवक्तव्यता है। वलय आदि का जो आकार होता है, वह परिमंडल संस्थान है । अयोतत्प्रमाणम्' मा प्रभाव शहनी व्युत्पत्ति भसाधन पक्षमा छे. मी गुण પ્રમાણુનું પ્રકરણ ચાલી રહ્યું છે. તેથી ભાવસાધનપક્ષમાં ગુણેના જ્ઞાન રૂપ પ્રમિતિનું નામ પ્રમાણ હોય છે, ગુણ જાતે પ્રમાણભૂત હેતા નથી, પરંતુ જાણવા રૂપ કિયા ગુણેની છે. એટલા માટે ક્રિયા અને કિયાવાનમાં અભેદ પચારથી ગુણેને પ્રમાણ માની લેવામાં આવે છે. કરણસાધન પક્ષમાં “જેના વડે જાણવામાં આવે તે પ્રમાણ છે.” આ રીતે પ્રમાણશબ્દની વ્યુત્પત્તિ આપવામાં આવી છે. તે ગુણેથી દ્રવ્ય જાણવામાં આવે છે તેથી ગુણે પ્રમાણભૂત થઈ જાય છે, કર્મસાધનપક્ષમાં “જે જાણવામાં આવે તે પ્રમાણ છે. આ જાતની પ્રમાણુ શબ્દની વ્યુત્પત્તિ કહેવામાં આવી છે એટલા માટે ગુણ, ગુણ રૂપે જાણવામાં આવે છે, તેથી જ ગુણ પ્રમાણ છે. આ રીતે ભાવકરણ અને કર્મસાધન પક્ષમાં ગુણેમાં પ્રમાણુતાનું અનુસંધાન કરી લેવું જોઈએ. સૂત્રકારે જે વ્યુત્ક્રમથી અજીવ પ્રમાણનું કથન કર્યું છે, તેનું કારણ અહીં અલ્પ વક્ત
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अनुयोगद्वारसूत्रे
अथ जीवगुणप्रमाणं निरूपयति
मूलम् - से किं तं जीवगुणप्पमाणे ? जीवगुणप्पमाणे- तिविहे पण्णत्ते, तं जहा - णाणगुणापमाणे, दंसणगुणप्पमाणे, चरितगुणप्पमाणे । से किं तं णाणगुणप्पमाणे ? णाणगुणत्पमाणेउविहे पण्णत्ते, तं जहा - पच्चवखे, अणुमाणे, ओवम्मे, आगमे । से किं तं पच्चक्खे ? पच्चक्खे दुविहे पण्णत्ते, तं जहाइंदियपञ्चकखे य णोइंदियपञ्चवखे य। से किं तं इंदियपच्चक्खे ? इंदिपञ्चवखे पंचविहे पण्णत्ते, तं जहा- सोइंदियपञ्चक्खे चक्खुरिंदियपच्चक्खे घाणिदियपच्चक्रले जिविंभदियपच्चक्खे फासिंदियपच्चक्खे | से तं इंदियपच्चक्खे । से किं तं णोइंदियपच्चक्खे ? गोइंदियपच्चक्खे तिविहे पण्णत्ते, तं जहा - ओहि - णाणपच्चक्खे, मणपज्जवनाणपच्चक्खे, केवलणाणपच्चक्खे। से तं गोइंदियपच्चक्खे | से तं पच्चक्खे ॥सू०२२०॥
छाया - अथ किं तत् जीवगुणप्रमाणम् ? जीवगुणप्रमाणं-त्रिविधं प्रज्ञतम्, तयथा - ज्ञानगुणप्रमाण, दर्शनगुणप्रमाणं चारित्रगुणप्रमाणम् । अथ किं तत् ज्ञानगोलक का जो संस्थान होता है यह वृत्तसंस्थान हैं। सिंघाड़े के आकार जैसा जो आकार होता है वह यत्र संस्थान है । जिस संस्थान में चारों कोने बराबर होते हैं उस संस्थान का नाम चतुरस्र है। जो आकार लंबा होता है, वह आयत संस्थान है। ये सब वर्णादि गुण अजीव पदार्थ के हैं इसलिये इन्हें अजीवगुणप्रमाण में रखा है || सू० २१९ ॥
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વ્યતા છે. વલય વગેરેના જે આકાર હાય છે. તે પરિમ‘ડળ સસ્થાન છે અચેાગેાલકનુ' જે સંસ્થાન ઢાય, તે વૃત્ત 'થાન છે. શિંગાડાના જેવા જે આકાર હાય છે તે ત્ર્યસ્ત્ર સસ્થાન છે, જે સંસ્થાનમાં ચાર ચાર ખૂણાઓ ખરાખર હાય છે, તે સસ્થાનનું નામ ચતુસ્ર છે. જે સંસ્થાનના આકાર લાંબા હાય તે આયતસંસ્થાન છે. આ બધાં વર્ણાદિ ગુણ અજીવ પદાનાં છે તેથી આ બધાને અજીવગુણુ પ્રમાણમાં મૂકવામાં આવ્યાં છે. ! સૂ૦ ૨૧૯૫
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अनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र २२० जीवगुणप्रमाणनिरूपणम् गुणप्रमाणम् ? ज्ञानगुणप्रमाणं चतुर्विधं प्रज्ञप्तं, तद्यथा-प्रत्यक्षम् , अनुमानम् ,
औपम्यम् , आगमः ! अथ किं तत् प्रत्यक्ष ? प्रत्यक्षं द्विविधं प्रज्ञप्तं, तद्यथाइन्द्रियप्रत्यक्षं च नो इन्द्रियप्रत्यक्षं च । अथ किं तत् इन्द्रियप्रत्यक्षम् ? इन्द्रियम
अब सूत्रकार जीवगुणप्रमाण का निरूपण करते हैं'से किं तं जीवगुणप्पमाणे' इत्यादि ।
शब्दार्थ-(से किं तं जीवगुणप्पमाणे ?) हे भदन्त ! जीवगुणप्रमाण क्या है ?
उत्तर--(जीवगुणप्षमाणे तिविहे पण्णत्ते) जीवगुणप्रमाण तीन प्रकार का कहो गया है-(नं जहा) जैसे (णाणगुणप्पमाणे दंसणगुणप्पमाणे, चरित्तगुणप्यारागे) ज्ञानगुणप्रमाण, दर्शनगुणप्रमाण चारित्रगुण. प्रमाण (से मितं माणगुणप्पमाणे) हे भदन्त ! ज्ञानगुणप्रमाण का क्या स्वरूप है ? (णाणगुणपरमाणे चउबिहे पण्णत्ते) ज्ञानगुणप्रमाण चार प्रकार का कहा गया है । (तं जहा) उसके वे प्रकार ये हैं-(पच्चक्खे, अणुभाणे ओवम्मे, आगमे) प्रत्यक्ष अनुमान उपमान, और आगम (सेरितं पच्चक्खे ?) हे भदन्त ! प्रत्यक्ष का क्या स्वरूप हैं ? (पच्चरखे दुविहे पत्ते) वह प्रत्यक्ष दो प्रकार का कहा गया हैं। (तं जहा) जैसे-(इंदियपच्चक्खे य णोइंदियपच्चक्खे य) एक इन्द्रिय
હવે સૂત્રકાર જીવ ગુણપ્રમાણનું નિરૂપણ કરે છે. 'से कि त जीवगुणामाणे' ध्या!
शहाथ-(से किं तं जीवगुणप्पमाणे १) ! ५ शुष प्रमाण शु?
उत्तर--(जीवगुणप्पमाणे तिविहे पण्णत्ते) ७५ प्रभाय ३] प्रा२नु अपामा मयु छ (तं जहा) भ3 (णाण गुणप्पमाणे दंसणगुणप्पमाणे, चरित्तगुणप्पमाणे) ज्ञान गुख्य प्रमाण, ४शन गुरु प्रभाए यात्रिशु प्रभा] (से किं तं णाणगुणप्पम णे) 3 मत! ज्ञानगुन्य प्रभानु २१३५ . छ ? (णाणगुणप्पमाणे चउबिहे पण्णत्ते) ज्ञानगुण प्रमाण यार प्रहार डेवामा मायु छे. (तं जहा) तेना । मा प्रमाणे छ. ( पच्चक्खे, अणुमाणे, ओवम्मे, आगमे) प्रत्यक्ष अनुमान, ७५मान सने मागम (से किं तं पञ्चक्खे) 3 महत! प्रत्यक्ष १२३५ _ छ ? (पच्चरखे दुविहे पण्णत्ते) ते प्रत्यक्ष में प्रा२नु ४ामा युछे. (तं जहा) है (इंदिय पच्चक्खे य णो इंदियपच्चक्खे य) मेन्द्रिय प्रत्यक्ष भने अन्य नन्द्रिय प्रत्यक्ष
अ. ६२
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अनुयोगद्वारसूत्र स्यक्ष पञ्चविध प्रज्ञप्त, तद्यथा-श्रोत्रेन्द्रिपत्यक्षं, चक्षुरिन्द्रियपत्यक्षं घाणेन्द्रिय प्रत्यक्षं जिह्वेन्द्रियप्रत्यक्षं, स्पर्शेन्द्रियप्रत्यक्षम् । तदेतत् इन्द्रियप्रत्यक्षम् । अथ किं तत् नो इन्द्रियपत्यक्षं ? नोइन्द्रियपत्यक्ष-त्रिविध प्रज्ञप्तं, तद्यथा-अवधिज्ञानमत्यक्ष, मनापर्यवज्ञानप्रत्यक्षं, केवलज्ञानप्रत्यक्षम् । तदेतत् नो इन्द्रियमत्यक्षम् । तदेतत् प्रत्यक्षम् ॥ सू० २२० ॥ प्रत्यक्ष और दूसरा नोइन्द्रिय प्रत्यक्ष । (से किं तं इंदियपच्चक्खे) वह इंद्रियप्रत्यक्ष क्या है ? (इंदियपच्चक्खे पंचविहे पण्णत्ते) वह इन्द्रिय प्रत्यक्ष पांच प्रकार का कहा गया है । (तं जहा) वे प्रकार ये हैं(नोइंदियपच्चक्खे) श्रोत्रेन्द्रिय प्रत्यक्ष (चक्खुरिदियपच्चक्खे) चक्षु इन्द्रिय प्रत्यक्ष (घाणिदियपच्चक्खे) घ्राणेन्द्रियप्रत्यक्ष (जिभिदियपच्चक्खे) जिह्वा इन्द्रिय प्रत्यक्ष (फासिंदियपच्चक्खे) स्पर्शनइन्द्रिय प्रत्यक्ष । (से तं इंदियपच्चक्खे) इस प्रकार यह इन्द्रिय प्रत्यक्ष है । (से किं तं जो इंदियपच्चक्खे) हे भदन्त ! नोइन्द्रिय प्रत्यक्ष क्या है ? (णो इंदियपच्चक्खे तिविहे पण्णत्ते) नो इन्द्रिय प्रत्यक्ष तीन प्रकार को कहा गया है। (तं जहा) जैसे-(ओहिणाणपच्चक्खे, मणपज्जवनाणपच्च. क्खे, केवल नाणपच्चक्खे) अवधिज्ञानप्रत्यक्ष मनःपर्यवज्ञानप्रत्यक्ष
और केवलज्ञान प्रत्यक्ष । (से तं णो इंदियपच्चरखे) इस प्रकार यह नोइन्द्रिय प्रत्यक्ष है । (से तं पच्चक्खे) यही प्रत्यक्ष का स्वरूप है। (से किं तं इंदियपच्चक्खे) न्द्रिय प्रत्यक्षनु शु २१३५ छ १ (इंदियपच्चक्खे पंचविहे पण्णते) तेन्द्रिय प्रत्यक्ष पांय प्रानु उपामा मायु छ. (तं जहा) a प्र । प्रमाणे छे. (सोइंदियपच्चक्खे) श्रोत्रेन्द्रिय प्रत्यक्ष (चक्खुरिदियपच्चक्खे) यक्षुधन्द्रिय प्रत्यक्ष (घाणिदियपच्चक्खे) न्द्रिय प्रत्यक्ष जिभिदियपच्चक्खे)
लिन्द्रिय प्रत्यक्ष (फासिदिय पच्चक्खे) २५ नन्द्रिय प्रत्यक्ष (से तं इंदियपच्चकखे) प्रमाणे मान्द्रिय प्रत्यक्ष छे. (से किं तं णो इंदियपच्चक्खे) महन्त ! न न्द्रिय प्रत्यक्ष शुछ ? (णो इंदियपच्चक्खे तिविहे पग्णत्ते) नो छन्द्रिय प्रत्यक्ष त्र प्रा२नु ।अपामा माव्यु छ. (तं जहा) २५ (ओहिणाणपञ्चक्खे, मणपज्जवनाणपच्चक्खे केवल नाणपच्चक्खे) म. विज्ञानप्रत्यक्ष मन: ५वज्ञान, प्रत्यक्ष अने परज्ञान प्रत्यक्ष (से तं णो इंदिय पच्चक्खे) मा प्रभाव मा नन्द्रिय प्रत्यक्ष छ. (से त पञ्चक्खे) આજ પ્રત્યક્ષનું સ્વરૂપ છે,
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अनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र २२० जीवगुणप्रमाणनिरूपणम् टीका-'से किं तं जीवगुणप्पमाणे' इत्यादि
अथ किं तत् जीवगुणप्रमाणम् ? इति शिष्यप्रश्नः । उत्तरयति-जीवगुणममाणम्-जीवस्य ये गुणाः-ज्ञानादिरूपास्तद्रूपं प्रमाणं ज्ञानगुणप्रमाणदर्शनगुणप्रमाणचारित्रगुणप्रमाणेति त्रिविधम् । तत्र ज्ञानगुणप्रमाणम् ज्ञानरूपो यो गुणस्तद्रूपं प्रमाणं प्रत्यक्षानुमानौपम्यागमेति चतुर्विधम् । तत्र प्रत्यक्षम्-अश्नुते व्याप्नोति ज्ञानात्मनाऽर्थान् यः सोऽक्षो-जीव, अक्षजीवं प्रति प्रतिगतं प्रत्यक्षम्-'अत्यादयः क्रान्ताद्यर्थे द्वितीया' इति प्रत्यक्षम्-अर्थसाक्षात्कारेण जीवस्य यज्ज्ञानमुत्पद्यते
भावार्थ--इस सूत्र द्वारा सूत्रकार ने जीवगुणप्रमाण का निरूपण किया है-जिसमें चेतना हो जानने देखने की ताकत हो उसका नाम जीव है। इस जीव के जो ज्ञानादिक गुण है वे जीवगुण हैं । इन जीव गुणों का प्रमाग होना-अर्थात् जीवगुणों का स्वयं प्रमाणरूप होना यह जीवगुण प्रमाण है । ज्ञानगुणप्रमाण प्रत्यक्ष, अनुमान, आगम और उपमान के भेद से चार प्रकार का कहा गया है। प्रत्यक्ष शब्द में प्रति अक्ष ऐसे दो शब्द है । अक्ष शब्द का अर्थ जीव है। क्योंकि यह जीव ज्ञान से समस्त पदार्थों का व्याप्त कर लेता है-जान लेता हैअक्षणोति-व्याप्नोति-ज्ञानात्मना अर्थान् यः सोऽक्षः" ऐसी अक्षशब्द की व्युत्पत्ति है । सो इस जीव के प्रति-प्रतिगत-हो वह प्रत्यक्ष है। यहां "अत्यादयः क्रान्तायर्थे द्वितीया" जीव में इस सूत्र से दितीया विभक्ति हुई है । अर्थ के साक्षात्कार से जो जीव को ज्ञान उत्पन्न
ભાવાર્થ—-આ સૂત્રવડે સૂત્રકારે જીવગુણપ્રમાણનું નિરૂપણ કર્યું છે. જેમાં ચેતના હોય, જાણવા, જેવાની શકિત હોય તે જીવ છે. આ જીવન જે જ્ઞાનાદિક ગુણ છે, તે જીવગુણ છે. આ અવગુણેનું પ્રમાણ થવું. એટલે કે જીવગુણનું જાતે પ્રમાણ રૂપ થવું તે જીવગુણુ પ્રમાણ છે. જ્ઞાનગુણ પ્રમાણ, પ્રત્યક્ષ, અનુમાન, આગમ અને ઉપમાનના ભેદથી ચાર પ્રકારનું કહેવામાં આવ્યું છે. પ્રત્યક્ષ શબ્દમાં પ્રતિ અક્ષ એવા બે શબ્દ છે. અક્ષ શબ્દને અર્થ જીવ (આત્મા) છે. કેમકે આ જીવ જ્ઞાનથી સમસ્ત પદાર્થોને વ્યાપ્ત કરી से छे-ant a , 'अक्ष्णोति ध्यप्नोति ज्ञानात्मना यः सोऽक्षः मेवा અક્ષ શબ્દની વ્યુત્પત્તિ છે. તે આ જીવન પ્રતિ–પ્રતિગત–હોય તે પ્રત્યક્ષ છે. मही 'अत्यादयः कान्तोद्यथे द्वितीया' म माति : 43 द्वितीया विमति થયેલ છે. અર્થને સાક્ષાત્કારથી જે જીવને જ્ઞાન ઉત્પન્ન થાય છે,
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४९२
अनुयोगद्वारसूत्र तदित्यर्थः । यद्वा-अनाति-भुङ्क्ते पालयति वा अर्थान् यः सोऽक्षो जीवः । अक्षं पतिगतं प्रत्यक्षम् । अर्थः पूर्वोक्त एव अक्षमक्षं प्रतिगतमिति प्रत्यक्षमिति कैश्विद् विगृहीतं तत्र युक्तम् अव्ययीभावस्य नपुंसकत्वेन प्रत्यक्षो बोधः प्रत्यक्षा बुद्धिः प्रत्यक्ष ज्ञानम् इति लिङ्गत्रयस्यानुपपनत्वात् । तच्च प्रत्यक्षम् इन्द्रियप्रत्यक्षनो. इन्द्रियपत्यक्षेति द्विविधम् । तत्र-इन्द्रियप्रत्यक्षम्-इन्द्रिय श्रोत्रादिकं तन्निमित्तं तत्सहकारिकारणं यस्य ज्ञानस्य तदलिङ्गिकं शब्दरूपरसगन्धस्पर्शरिषयज्ञानम् । इदं च इन्द्रलक्षणजीवात् परम्-अतिरिक्तं निमित्तमाश्रित्योत्पद्यते । यथा धूममाश्रित्याग्निज्ञानम्, अत इदं ज्ञानमपि वस्तुतः परोक्षमेव, तथापीदं लोकव्यवहारतः होता है उसका नाम प्रत्यक्ष ज्ञान है। "आश्नाति-भुङ्क्ते पालयति वा अर्थान् यः सः अक्षो जीयः" इस व्युत्पत्ति का भी यही पूर्वोक्त अर्थ है जो " अक्ष अक्ष प्रति गतं प्रत्यक्षम्-ऐसी व्युत्पत्ति इस प्रत्यक्ष शब्द की करते हैं वह युक्त नहीं है। क्योंकि ऐसी व्युत्पत्ति करने में अव्ययीभाव समास होता है और वह सदा नपुंसक लिङ्ग में होता है तब "प्रत्यक्षो बोधः प्रत्यक्षा बुद्धिः, प्रत्यक्षं ज्ञानम्" इस प्रकार से त्रिलिंगता प्रत्यक्षशब्द में नहीं आ सकेगी। अतः पूर्वोक्त व्युत्पत्ति ही प्रत्यक्ष शब्द की निर्दोष है । जिस प्रत्यक्षज्ञान की उत्पत्ति में इन्द्रियों सहकारि कारण पडती है, वह इन्द्रियप्रत्यक्ष है । वैसे देखा जावे तो सिद्धान्त के अनुसार ऐसा ज्ञान परोक्ष ही माना गया है। क्योंकि इन्द्रियों की सहायता से उत्पन्न ज्ञान सब ही आत्मातिरिक्त पर की सहायता से उत्पन्न होने के कारण धूम की सहायता से उत्पन्न अग्नि तेनु नाम प्रत्यक्ष शान छे. 'अश्नाति-भुङ्क्ते पालयति वा अर्थान् यः सः अक्षो जीवः' मा व्युत्पत्ति। ५) से पूरित भय छे. २ 'अझ अक्ष प्रति गत -प्रत्यक्षम् ' AL तनी व्युत्पत्ति मा प्रत्यक्ष शनी ४२ छे, ते युत નથી. કેમકે આ જાતની વ્યુત્પત્તિ કરવામાં અવ્યયીભાવ સમાસ થાય છે. અને
भेनस विभा थाय छे. त्यारे 'प्रत्यक्षो बोधः प्रत्यक्षा बुद्धिः प्रत्यक्षं ज्ञानम् ' या शत निमिता प्रत्यक्ष शमा मावी ॥४॥ नही. तथा પ્રત્યક્ષ શબ્દની પૂત વ્યુત્પત્તિ જ નિર્દોષ કહેવાય. જે પ્રત્યક્ષ જ્ઞાનની ઉત્પત્તિમાં ઇન્દ્રિય સહકારિ કારણ તરીકે હોય તે ઈન્દ્રિય પ્રત્યક્ષ છે. આમ આપણે વિચાર કરીએ તો સિદ્ધાન્ત મુજબ એવું જ્ઞાન પક્ષ જ માનવામાં આવ્યું છે. કેમ કે ઈન્દ્રિયોની સહાયતાથી ઉત્પન્નજ્ઞાન સર્વ આત્માતિરિકત પર' ની સહાયતાથી ઉત્પન્ન થવા બદલ ધૂમની સહાયતાથી ઉત્પન્ન અગ્નિજ્ઞાનની
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अनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र २२१ अनुमानप्रमाणनिरूपणम् प्रत्यक्षमुच्यते इतिबोध्यम् । इदमिन्द्रियमत्यक्षं श्रोत्रेन्द्रियप्रत्यक्षचक्षुरिन्द्रियपत्यक्षघ्राणेन्द्रियप्रत्यक्षजिह्वेन्द्रियप्रत्यक्षस्पर्शेन्द्रियप्रत्यक्षेति पञ्चविधम्। यत्तु इन्द्रियपत्यक्ष न भवति तद् नोइन्द्रियपत्यक्षमुच्यते । नो शब्दोऽत्र सर्वनिषेधे वर्तते, तेन यत्र इन्द्रियं सर्वथैव न प्रवत्तते, किन्तु जोव एव साक्षादर्थ पश्यति, तन्नोइन्द्रियप्रत्यक्षम् । एतत् अधिज्ञानप्रत्यक्षमनःपर्यवज्ञानप्रत्यक्षकेवलज्ञान प्रत्यक्षेति त्रिविधमिति ॥मू०२२०॥
अथ अनुमानं निरूपयति - ___ मूलम्-से किं तं अणुमाणे? अणुमाणे-तिविहे पण्णत्ते, तं जहा-पुत्ववं सेसवं दिटुसाहम्मवं । से किं तं पुत्ववं? पुववं पंचविहं पण्णत्तं, तं जहा-खतेण वा १ वणेण २ वा लंछणेण वा ३ मसेण वा ४ तिलए ण वा ५ गाहाज्ञान के जैसा से परोक्ष माना गया है । जिस प्रकार अग्निज्ञान धूमरूप लिंग की सहायता से उत्पन्न होता है और वह परोक्ष होता है, उस प्रकार से इन्द्रियजन्य ज्ञान लिङ्गजन्य नहीं होता है । इसीलिये इन्द्रिय जन्य ज्ञान को वस्तुतः परोक्षरूप होने पर भी लोकव्यवहार की अपेक्षा प्रत्यक्ष मान लिया गया है। जिस ज्ञान की उत्पत्ति इन्द्रियों की सहायता से नहीं होती है, वह नोइन्द्रिय प्रत्यक्ष ज्ञान है। यहां "नो" शब्द सर्वथा इन्द्रियों की सहायता के निषेध में लिया गया है। इसका यह तात्पर्य है कि जिस ज्ञान की उत्पत्ति केवल आत्माधीन ही होती है, वह नो इन्द्रिय प्रत्यक्ष है। ऐसे नो इन्द्रिय प्रत्यक्ष ज्ञान अवधिज्ञान मनः पर्यवज्ञान और केवलज्ञान ये तीन ज्ञान है ।।सू. २२०॥ જેમ પક્ષ માનવામાં આવ્યું છે. જે પ્રમાણે અગ્નિજ્ઞાન ધૂમરૂપ લિંગની સહાયતાથી ઉત્પન્ન થાય છે અને તે પણ હોય છે, આ રીતે ઈન્દ્રિય જન્યજ્ઞાન લિંગજન્ય હેતું નથી. એટલા માટે ઈદ્રિય જન્ય જ્ઞાનને વસ્તુતઃ પરોક્ષરૂપ હોવા છતાંએ લેકવ્યવહારની અપેક્ષાએ પ્રત્યક્ષ માની લીધું છે. જે જ્ઞાનની ઉત્પત્તિ ઇન્દ્રિયની સહાયતા વડે થતી નથી. તે ઈન્દ્રિય પ્રત્યક્ષજ્ઞાન છે. અહીં નો’ શબ્દ સર્વથા ઇન્દ્રિયની સહાયતાના નિષેધમાં ગ્રહણ કરવામાં આવ્યો છે, આનું તાત્પર્ય આ પ્રમાણે છે કે “જે જ્ઞાનની ઉત્પત્તિ ફકત આમાધીન જ હોય છે, તે નેઈન્દ્રિય પ્રત્યક્ષ છે. એવા નેઈન્દ્રિય પ્રત્યક્ષજ્ઞાન અવધિજ્ઞાન મન:પર્યવજ્ઞાન અને કેવલજ્ઞાન આ ત્રણ જ્ઞાને છે. એ સૂ૦ ૨૨૦ છે
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ક૨છે
अनुयोगद्वारसूत्र "माया पुत्तं जहा नटुं, जुवाणं पुणरागयं।
काई पञ्चभिजाणेज्जा, पुवलिंगेण केणई ॥१॥" से तं पुत्ववं । से किं तं सेसवं? सेसवं पंचविहं पण्णत्तं, तं अहा-कजेणं कारणेणं गुणेणं अवयवेणं आसएणं। से किं तं कजेणं? कज्जेणं-संखं सदेणं, भेरि ताडिएणं, वसभं ढिकिएणं, मोरं केकाइएणं, हयं हेसिएणं, गयं गुलगुइएणं, रहं घणघणाइएणं। से तं कजेणं । से किं तं कारणेणं? कारणेणं तंतवो पडस्स कारणं, ण पडो तंतुकारणं, वीरणा कडस्स कारणं, ण कडो वीरणाकारणं, मिप्पिंडो घडस्स कारणं, ण घडो मिप्पिडकारणं । से तं कारणेणं। से किं तं गुणेणं? गुणणं-सुवणं निकसेणं, पुप्फ गंधेणं, लवणं रसेणं, महुरं आसायएणं, वत्थं फासेणं। से तं गुणणं। से किं तं अवयवेणं? अवयवेणं-महिसं सिंगेणं, कुक्कुडं सिहाए, हत्थिं विसाणेणं, वराहं दाढाए, मोरं पिच्छेणं, आसं खुरेणं, वग्धं नहेणं, धमरिं वालग्गेणं, वाणरं लंगूलेणं, दुपयं मणुस्सादि, चउप्पयं गवयादि, बहुपयं गोमियादि, सीहं केसरेणं वसहं ककुएणं, महिलं बलयबाहाएगाहा-पडियरबंधेणं भडं, जाणिज्जा महिलियं निवसणेणं।
सिस्थेणं दोणपागं, कविंच एकाए गाहाए ॥१॥ से तं अवयवेणं। से किं तं आसएणं? आसएणं-अरिंग धूमेणं, सलिलं बलागेणं, बुढेि अब्भविकारेणं कुलपुत्तं सीलसमायारेणं । से तं आसएणं । से तं सेसवं सू०२२१॥
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मनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र २२१ अनुमानप्रमाणनिरूपणम्
छाया-अथ किं तत् अनुमानम् ? अनुमानं त्रिविधं प्रज्ञप्तम्-तद्यथा पूर्ववत् शेषवत् दृष्टिसाधर्म्यवत् । अथ किं तत् पूर्ववत् ? पूर्ववत् पञ्चविधं प्रज्ञप्तम्-तद्यथाक्षतेन वा १ व्रणेन वा २ लाञ्छनेन वा ३ मषेण वा ४ तिलकेन वा ५, गाथा
"माता पुत्रं यथा नष्टं. युवान पुनरागतम् । काचित् प्रत्यभिजानीयात् पूर्वलिङ्गेन केनचित् ।।" अब सूत्रकार अनुमान ज्ञान की प्ररूपणा करते हैं"से किं तं अणुमाणे ?" इत्यादि ।
शब्दार्थ--(से किं तं अणुमाणे ) हे भदन्त ! वह पूर्व प्रक्रान्त अनुमान क्या है?
उत्तर--(अणुमाणे तिविहे पण्णत्ते) अनुमान तीन प्रकार का कहा गया है-(तं जहा) उसके प्रकार ये हैं-(पुत्व सेसवं दिसाहम्म) पूर्ववत् शेषवत् और दृष्टिसाधर्म्यवत् । (से किं तं पुत्ववं) हे भदन्त ! पूर्ववत् अनुमान क्या है ?
उत्तर--(पुत्ववं पंचविहं पण्णत्तं ) पूर्ववत् अनुमान पांच प्रकार का कहा गया है (तं जहां जैसे-(खत्तेण वा वणेण वा, लंछणेण वा, मसेण वा, तिलएण वा) क्षत, व्रण, लाञ्छन, मसा और तिल इन पांच चिह्नों द्वारा उत्पन्न हुआ अनुमान पूर्ववत् कहलाता है और इन्हीं चिह्नों से उत्पन्न होने के कारण वह इन २ नाम वाला हो जाता है । इसलिये उसे पांच प्रकार का कहा है । (गाहा) यहां पर यह गाथा है "माया
હવે સૂત્રકાર અનુમાન જ્ઞાનની પ્રરૂપણ કરે છે. 'से कि तं अणुमाणे त्याह।
____ शहा--(से कि त अणुमाणे ) महन्त ! ते पूर्व प्रान्त भनुमान छ ? ___ उत्तर--(अणुमाणे तिविहे पण्णत्ते ) अनुमान त्रए प्रा२नु अवामा माथ्यु छ. (तं जहा) तेना प्रा२। मा प्रमाणे छे. (पुव्व सेसवं दिवसाहम्म) पूर्ववत् , शेषवतू अनेट साधाभ्यवत् (से कितपुव्वव)मत! પૂર્વવત્ અનુમાન શું છે?
उत्तर--(पुव्ववं पंचविहं पण्णत्त) पूर्ववत् अनुमान पांय ५२नु डाय छ. (त जहा) रेभ (खत्तेण वा वणेण वा, लंछणेण वा, मसेण वा, तिलएण वा) ક્ષત, વ્રણ, લાંછન, મસા અને તિલ આ પાંચ ચિહ્ન વડે ઉત્પન્ન થયેલ અનુમાન પૂર્વવત્ કહેવામાં આવ્યું છે. અને આજ ચિહ્નોથી ઉત્પન્ન હોવા બદલ તે આ નામથી અભિહિત કરવામાં આવે છે. એટલા માટે તેને પાંચ પ્રકા
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अनुयोगद्वारसूत्रे तदेतत् पूर्ववत् । अथ किं तत् शेषवत् ? शेषवत् पञ्चविधं प्रज्ञप्तं, तद्यथा-कार्येण, कारणेन, गुणेन, अवयवेन, आश्रयेण । अथ किं तत् कार्येण ? कार्येण-शङ्ख शब्देन, भेरी ताडितेन, वृषभं गजितेन, मयूरं के कारितेन, हयं हेपितेन, गजं गुलगुलायितेन, रथं घनघनायितेन । तदेतत् कार्येण । अथ किं तत् कारणेन ? कारणेनपुत्तं इत्यादि इसका भाव यह है-किसी माता का पुत्र याल्यावस्था से ही परदेश में चला गया था-रहते २ वहां वह तरुण हो गया । जब वह वापिस आया तो, उसको मां ने उसे किसी चिह्न को देखकर पहिचान लिया। (से तं पुत्ववं) इस प्रकार मह पूर्ववत् अनुमान है। (से तिं सेमवं) हे भदन्न शेषवत् अनुमान क्या है ? (सेसवं पंचविह पण्णत्तं) शेषवत् अनुमान पांच प्रकार का कहा गया है । (तं जहा) वे प्रकार ये हैं-(कज्जेणं कारणेणं गुणेणं अवयवेणं आमरण) कार्य, कारण, गुण अवयव, और आश्रय इन पांच से उत्पन्न हुआ अनुमान शेषवत् अनुमान है। (से किं तं कज्जेणं) कार्य से उत्पन्न हुआ शेषवत् अनुमान क्या है ? (कज्जेणं मखं सद्देणं, भेरि ताडिएणं वसभं ढक्किएणं, मोरं केकाइएणं, हयं हेसिएणं गयं गुलगुलाइ. एणं, रह घणघणाइएण) कार्य से उत्पन्न हुआ शेषवत् अनुमान इस प्रकार से है जैसे-शंख के शब्द को सुनकर शंख का अनुमान करना भेरी की आवाज सुनकर भेरी का अनुमान करना, बैल का ढकित
२नु अामा मा०यु छे. (गाहा) ही 21 आथा छे. 'माया पुत्त' इत्यादि' આને ભાવ આ પ્રમાણે છે. કે કઈ માતાને પુત્ર બાલ્યાવસ્થામાં જ પરદેશમાં જતો રહ્યો હતે. પરદેશમાં જ તે તરૂણ થઈ ગયે જ્યારે તે પાછો श्या त्यारे भातास मिलना साधारे तने सभी धो (से तं पुववं) मा प्रमाणे मा पूर्ववत् अनुमान छे. (से कि सेसवं) 3 महत! शेषत् अनुमान छ १ (सेसवं पंचविहं पण्णत्त) शेषवत् अनुमान पाय प्रा२नु
अपामा मा०यु छे. (तं जहा) ते प्रा। 24 प्रमाणे 2. (कज्जेणं कारणेणं गुणेणं अवयवेणं आम्रएणं) आय, , शुश, अवयव भने आश्रय मा पांय 43 अत्पन्न ये मनुमान शेषवत अनुमान छ (से कि तं कज्जेणे) यथा उत्पन्न थये शेषवत् मनुमान शु छ ? (कज्जेण संख, सद्देणं भेरि ताडिएण, वसभ ढक्किएण, मोरं, केकाइएणं, हय हेसिएण, गयं गुलगुलाइएण, रहं घणघणाइएणं) यथा उत्पन्न थये शेषरत् अनुमान । प्रमाण छ. २३ શંખના શબ્દને સાંભળીને શંખનું અનુમાન કરવું ભેરીના શબ્દને સાંભળીને
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अनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र २२१ अनुमानप्रमाणनिरूपणम्
तन्तवः पटस्थ, कारणं, न पटस्तन्तुकारणं, वीरणा कटस्य कारणं, न कटो वीरणा कारणं, मृदिण्डो घटस्य कारणं न घटो मृत्पिण्डकारणं । तदेतत् कारणेन । अथ किं तद् गुणेन ?, गुणेन-सुर्ण निकषेण, पुष्पं गन्धेन, लवणं रसेन,
ढकालना सुनकर बैल का अनुमान करना, मयूर की वाणी सुनकर मयूर का अनुमान करना, हिनहिनाना सुनकर घोडे का अनुमान करना, हाथी का चिघाटना सुनकर या मार्ग में पतित उसकी बीट को देखकर हाथी का अनुमान करना, घनघनायित से रथ का अनुमान करना । (सेतं कज्जेणं) यह कार्य लिङ्ग से उत्पन्न हुआ शेषवत् अनुमान है । (से किं तं कारणेणं) हे भदन्त ! कारणरूप लिङ्ग से उत्पन्न हुआ शेषवत् अनुमान क्या है ? ( कारणेणं) कारण रूप लिङ्ग से उत्पन्न हुआ शेषवत् अनुमान इस प्रकार है - ( कारणेणं तंतवो पडल्स कारणं ण पडो तंतु कारणं वीरणा कडस्स कारणं, ण कडो वीरणा कारणं मि विंडो घडस कारणं, ण घडो मिखिंड कारणं-से तं कारणेणं) तंतु पट (कपड़ा) के कारण होते हैं, पट तंतु का कारण नहीं होता है, वीरणा- तृणविशेष-कट-चटाई के कारण होते हैं-चटाई वीरणा की कारण नहीं होती है । मृत्पिंड-मिट्टी-घट का कारण होता है-घट मृत्पिंड का कारण नहीं होता । यह कारणलिंग जन्य शेषवत् अनुमान है । (से किं तं गुणेणं) हे भदन्त ! गुगलिंग जन्य शेषवत् अनु
ભેરીનું અનુમાન કરવુ, ખળાના શબ્દને સાંભળીને અળદનું અનુમાન કરવું.. મયૂરનીવાણી સાંભળીને મયૂરનું અનુમાન કરવું, હૃણવું સાંભળીને ઘેાડાનું અનુમાન કરવું, હાથીની ચીસ સાંભળીને અથવા તેા માગમાં પડેલ તેની લાદ જોઇને હાથીનુ અનુમાન કરવુ, ધનધનાયિત શબ્દ સાંભળીને રથનું અનુમાન કરવું. (सेत कज्जेणं) मा कार्य सिंगथी उत्पन्न थयेस शेषवत् अनुमान छे से किं त कारणे णं) हे लहन्त ! आरश्यसि गथी उत्पन्न थयेस शेषवत् अनुमान शु छे ? ( कारणे णं) १२५३५ सिंगथी उत्पन्न थयेव शेषवत् अनुमान या प्रभारी है. ( कारणेणं तंतवो पड़स्स कारणं ण पड़ो तंतु कारणं वीरणा कंडरस कारणं, ण कडो वीरणा कारणं मिपिडो घडस्स कारणं, ण घडो मिपिडकारण से तं कारणं) तंतु पट - (वस्त्र)ना अरा होय छे, पट तंतुनु र नहि. वीरणा तृष् विशेष-१८ (साइडी) ना अरशी होय छे, साहडी वीयानुअर होती थी. મૃત્ પિંડ-માટી–ઘટનું કારણ ડાય છે, ઘટ મૃતિપટનું કારણ નથી. આ शुसिंग भन्य शेषवत् अनुभात छे. (से कि त गुणेणं) डे लहन्त ! शुष्णु
अ० ६३
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अनुयोगद्वारसूत्रे मदिराम् आस्वादनेन, वस्त्रं स्पर्शेन । तदेतद् गुणेन । अथ किं तत् अवयवेन ? अवयवेन-महिषं शृङ्गेण कुक्कुटं शिखया, हस्तिनं विषाणेन, वराहं दंष्ट्रया, मयूरं पिच्छेन, अश्वं खुरेण, व्याघ्र नखेन, चमरों वालाग्रेग, वानरं लागृलेन, द्विपदं मनुष्यादि, चतुष्पदं गावादिकं, बहुपदं गोमिकादि, सिंहकेशरेण, वृषभं ककुदा, महिला बळयबाहुना। मान क्या है ? (गुगेणं) गुगलिङ्ग जन्य शेषवत् अनुमान इस प्रकार से है-(सुवणं निकसेणं पुष्कं गंधेणं, लवणं रसेणं महरं आसाइएणं, वत्थं फासेणं सेतं गुणे) निकष-कसौटी पर घिसने पर उछरी हुई रेखा से सोने का अनुमान करना गंध से पुष्प का अनुमान करना, रस से नमक का अनुमान करना, आस्वाद से मदिरा का अनुमान करना स्पर्श से वस्त्र का अनुमान करना, ये सब गुणनिष्पन्न शेषवत् अनुमान हैं। (से किं तं अवयवेणं) हे भदन्त ! अवयवरूप लिङ्ग से निष्पन्न शेषवत् अनुमान क्या है ? (अवयवेणं) अवयवरूप लिङ्ग से निष्पन्न शेषवत् अनुमान इस प्रकार से है-(महिसं सिंगेणं कुक्कुडं सिहाए, हत्धि विसाणेणं, वसह दाढाए मोरं पिच्छेणं, आसं खुरेणं, वग्धं नहेणं, चमरिं वालग्गेणं, वाणरं लंगूलेणं दुपयं मणुस्सादि चउप्पय गवयादि, बहुप्पयं गोमियादि, सीहं केसरेणं, वसहं ककुरण महिलां वलयबाहाए) शृंग से महिष को, शिखा से कुक्कुट को, विषाण से हाथी को, दंष्ट्रा से वराह को, पिच्छ से લિંગ જન્ય શેષવતુ અનુમાન શું છે? (કુળન) ગુણલિંગ જન્યશેષવત્ અનુમાન
मा प्रमाणे छ. (सुण्ण निकसेणं पुष्फ गंधेणं लवणं रसेणं मइरं आसायएणं वत्थं फासेणं, से तगुणेणं) निष-सोटी-५२ घसाथी सेोटी ५२ थयेटी श्याએથી સોનાનું અનુમાન કરવું, ગધથી પુષ્યનું અનુમાન કરવું, રસથી લવણનું અનુમાન કરવું, આસ્વાદથી મદિરાનું અનુમાન કરવું, સ્પર્શથી વસ્ત્રનું अनुमान ४२, मा मयां शुष्यनिरूपन्न शेषवत अनुमान छे. (से कित अवयवेणं) ! अ१य१३५ विजयी नि०पन्न शेषवत् अनुमान छे. (अवयवेणं) अ१य१ ३५ लिथी नि०५ शेषवत अनुमान मा प्रभारी छे. (महिसं सिंगेणं कुक्कुडं सिहाए, हत्थि विसाणेणं, वराह दाढाए मोरं पिच्छेण यासं खुरेण, वग्धं नहेणं, चमरिं वालग्गेणं, वाणरं लंगूलेण, दुपयं मणुस्सादि चउ. पयं गवयादि, बहुप्पयं गोमियादि, सीह केसरेणं, वसई ककुरण महिलां वलय पाहाए) श्रृगयी मलिष, शिमाथी १३४८नु, विषायी साथीनु हाथी
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अनुयोगन्द्रका टीका सूत्र २२१ अनुमानप्रमाणनिरूपणम्
गाथा
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"परिकरबन्धनेन भटं, जानीयात् महिलां निवसनेन । सिक्थेन द्रोणपाकं, कविं च एकया गाथया ” ॥ १ ॥ तदेतत् अवयवेन । अथ किं तद् आश्रयेण ?, आश्रयेण - अग्निं धूमेन, सलिलं बलाकया, दृष्टिम् अभ्रविकारेण, कुत्रपुत्रं शीलसमाचारेण । तदेतत् आश्रयेण । तदेतत् शेषवत् || सू० २२१ ॥
-
मयूर को, खुर से घोडा को, नख से व्याघ्र को, बालाय से चमरी को लागूल-पूंछ से बन्दर को, द्विपद से मनुष्य आदि को, चतुष्पद से गाय आदि को, बहुपद से गोमिकादि को, केशरसा से सिंह को, ककुद (खंदोल) से बैल को, वलय युक्त बाहु से महिला को अनुमित करना यह अवयव लिङ्ग जन्य शेषवत् अनुमान है। (गाहा यहाँ ऐसी गाथा है कि- 'पडियरबंधेणं इत्यादि' इस गाथा का अर्थ पहिले लिखा जा चुका है । उसी के अनुसार यहां उसका भावार्थ लगा लेना चाहिये । (से तं अवयवेणं) इस प्रकार यह अवयवरूप लिङ्ग जन्यशेषवत् अनुमान का स्वरूप हैं । (से किं तं आस एणं ?) हे भदन्त ! आश्रयरूप लिङ्ग से आश्रयी का जो अनुमान होता है। वह क्या है ? (आसएणं) आश्रयरूवलिङ्ग से जो आश्रयी का अनुमान होता है वह इस प्रकार से है - (अरिंग धूमेणं, सलिलं बलागेणं, बुद्धिं अन्भविकारेणं कुलपुत्तं सीलसमाचारेण से तं आस एणं से तं से सवं ) धूम से अग्नि का बकपंक्ति से पानी का, मेघविकार વરાહતું, પીંછાથી મયૂરનું ખરીઓથી ઘેાડાનુ' નખથી વ્યાઘ્રતુ' માલાશ્રથી ચમરીનું, લાંગૂલ-પૂછથી વાંદરાનું, દ્વિષદથી મનુષ્ય આદિનું, ચતુષ્પદથી ગામ આદિનું બહુપદથી ગાનિકાદિનું, કેશર સટાથી સિહનું કકુદથી ખળદનુ', વલયયુક્ત માહુથી શ્ર'નું અનુમાન કરવુ તે અવયવ લિંગજન્ય શૈષવત્ અનુभान छे. ( गाहा) सहीं खेवी गाथा हे ! ' पडियरबंघेण इत्यादि' मा गाथाने। અથ પહેલાં સ્પષ્ટ કરવામા આવ્યો છે. તે પ્રમાણે જ અહી ભાવાથ समलु होवो लेह थे. (से त अवयवेणं) या प्रमाये या अवयव३५ सिग भन्य शेषवत् अनुभाननु २१३५ छे. (से कि त आखणं ?) डे कहत ! आश्रय३५ सिंगधी माश्रयीनुं ने अनुमान होय छे, ते शुं छे ? (आम्रपण) आश्रम३पति गयी ने माश्रयीनु अनुमान थाय छे, ते या प्रभा छे. (अग्नि धूमेणं, सलिलं बलागेणं वुट्ठि अन्मविकारेणं कुलपुत्त सीलसमायारेण से त आसपणं से- त' सेसवं) घूमांडाथी अग्निनुं, मसाला (मपंडित) श्री पाखीनु
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५००
अनुयोगद्वारसूत्र टीका-'से किंत' इत्यादि ।
अथ किं तत् अनुमानम् ? इति शिष्य प्रश्नः । उत्तरयति-अनुमानम्-अनु इति लिङ्गदर्शनसम्बन्धानुस्मरणयोः पश्चात् मानं ज्ञानमनुमानम् । “साध्याविनाभूतलिङ्गात् , साध्यनिश्चायकं स्मृतम् । अनुमानं तदभ्रान्तं, प्रमाणत्वात् समक्षवत् ॥" इति लक्षणलक्षितं प्रमाणभेदम् । तच्च पूर्ववत् शेषवत् दृष्टसाधर्म्यवच्चेति त्रिविधम् । से वृष्टि का, शील सदाचार से कुलपुत्र का अनुमान करना यह आश्र. यरूप लिङ्ग से आश्रयी का शेषवत् अनुमान है । इस प्रकार यह पांच प्रकार के शेषवत् अनुमान का स्वरूप है।
भावार्थ-सूत्रकारने इस सूत्र द्वारा अनुमान स्वरूप का निरूपण किया है। इसमें उन्होंने यह समझाया है-कि लिङ्गदर्शन और सम्बन्ध स्मरण इन दोनों के पश्चात होनेवाले ज्ञान का नाम अनुमान है। इस का तात्पर्य यह है कि-'साध्य के साथ अविनाभाव संबन्ध से रहनेवाले हेतु के दर्शन होते ही साध्यसाधन की व्याप्ति का स्मरण होता है। तब जहां जहां साध्याविनाभावी लिङ्ग होता है, वहां २ साध्य होता है । इस नियमानुसार यहां जप साधन दृष्टि पथ हो रहा है-तो अवश्य ही साध्य है, इस प्रकार से परोक्ष अर्थ की सत्ता कहनेवाला जो ज्ञान होता है उसका नाम अनुमान है । यह अनुमान प्रत्यक्षज्ञान के जैसा प्रमाणभूत माना गया है। इस अनुमान के पूर्ववत् शेषवत् और दृष्टसाधर्म्यवत् ये तीन भेद माने गये हैं। મેઘવિકારથી વૃષ્ટિનું, શીલ સદાચારથી કુલપુત્રનું અનુમાન કરવું આ આશ્રય ૨૫લિંગથી આશ્રયીનું શેષવત્ અનુમાન છે. આ પ્રમાણે આ પાંચ પ્રકારના શેષવત્ અનુમાનનું સ્વરૂપ છે.
ભાવાર્થ-સૂત્રકારે આ સૂત્ર વડે અનુમાન સ્વરૂપનું નિરૂપણ કર્યું છે. આમાં તેમણે આ વાત સ્પષ્ટ કરી છે કે લિંગદર્શન અને સંબંધમરણ આ બને પછી જે જ્ઞાન થાય તે જ્ઞાનનું નામ અનુમાન છે. આનું તાત્પર્ય આ પ્રમાણે છે કે “સાધ્યની સાથે અવિનાભાવ સંબંધથી રહેનારા હેતુનું દર્શન થતાં જ સાધ્યસાધનની વ્યકિતનું મરણ થાય છે. ત્યારે જ્યાં જ્યાં સાધ્યાવિનાભાવી લિંગ હોય છે, ત્યાં ત્યાં સાધ્ય હોય છે. આ નિયમ મુજબ અહીં
જ્યારે સાધનનું દર્શન થઈ રહ્યું છે ત્યારે ચોકકસ સાધ્ય છે જ, આ પ્રમાણે પરોક્ષ અર્થની સત્તા કહેનાર જે જ્ઞાન હોય છે, તેનું નામ અનુમાન છે. આ અનુમાન પ્રત્યક્ષ જ્ઞાનની જેમ પ્રમાણભૂત માનવામાં આવ્યું છે. આ અનુમાનના પૂર્વવત, શેષવતુ અને દષ્ટસાધમ્યવત્ આ ત્રણ ભેદ માનવામાં
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अनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र २२१ अनुमानप्रमाणनिरूपणम् ५०१ तत्र पूर्ववत्-विशिष्टं पूर्वोपलब्ध चिह्नमिह पूर्वमुच्यते । तदेव निमित्तं यस्यानुमानस्य तत् पूर्ववदुच्यते । पूर्वोपलब्धविशिष्टचिह्नद्वारेण गमकमनुमान पूर्ववदिति भावः । तत् पञ्चविधं प्रज्ञप्नं, तद्यथा-'खतेण' इत्यादि । क्षतेन वा स्वदेहोद्धवेन सहजेन क्षतेन ?, व्रणेन-आगन्तुकेन श्वदंष्ट्रादिकृतेन व्रणेन वा २, लाञ्छ नेन-केनचिद् विशिष्टेन चिह्वेन वा ३, मषेण मषाकृति केन चिह्वेन वा ४ तिल केन-तिलाकृतिकेन चिह्वेन वा ५ गाथा-'माया' इत्यादि । यथा बाल्यावस्थायां नष्टं-देशान्तरगतं पुत्रं युवानं सन्तं तं पुत्रं पुनरागतं वीक्ष्य काचित्-तथाविधस्मृतिचतुरा माता, केनचित् पूर्वलिङ्गेन-पूर्वदृष्टेन क्षतादिना चिडून प्रत्यभिजानीयात्-भयं मम पुत्र इत्यनुमिनुयादिति भावः । अनुमानमयोगश्चेत्थम्-अयं मम, दृष्टसाधर्म्य के स्वरूप का कथन सूत्रकार आगे करेंगे-यहां तो पूर्व बत् और शेषवत् इन दो अनुमानों को कथन किया गया है। जिस अनुमान की उत्पत्ति में पूर्वोपलब्ध कोई विशिष्ट चिह्न निमित्त होता है, वह पूर्ववत् अनुमान है अर्थात् पूर्वोपलब्ध विशिष्ट चिह्न द्वारा अपने साध्य का गमक अनुमान पूर्ववत् अनुमान है। शरीर में जो घाव स्वाभाविक होता है, वह क्षत है । और जो कुत्ता आदि के काट जाने पर घाव होता है, वह व्रण है । डाम देकर जो शरीर में एक प्रकार की निशानी बना दी जाती है, वह अथवा शरीर में जो गुदना: गुदवाते हैं वह लाश्चन है। शरीर में उड़द के
आकार का उठा हुआ काला सा जो चिह्न होता है वह मसा है और तिल के जैसा जो चिह्न होता है वह तिल है । इन चिह्नों को लेकर जो अनुमान ज्ञान होता है वह पूर्ववत् है । जैसे किसी माताने આવ્યાં છે. દષ્ટ સાધમ્યના સ્વરૂપનું કથન સૂત્રકાર હવે પછી આગળ કરશે. અહીં તો પૂર્વવત્ અને શેષવત્ આ બે અનુમાનનું કથન કરવામાં આવ્યું છે. જે અનુમાનની ઉત્પત્તિ માં પૂપલબ્ધ કઈ વિશિષ્ટ ચિહ્ન નિમિત્ત હાથ છે, એટલે કે પૂપલબ્ધ વિશિષ્ટ ચિહ્ન વડે પોતાના સાથનું ગમક અનુમાન પૂર્વવતુ અનુમાન છે. શરીરમાં જે ઘા સ્વભાવિક થાય છે, તે ક્ષત છે, અને જે કતરા વગેરેના કરડવાથી જે ઘા થાય છે, તે ઘણું છે. ડામ દઈને જે શરી૨માં એક જાતની નિશાની બતાવવામાં આવે છે. તે અથવા શરીરમાં જે શૃંદાવવું તે લંછન છે. શરીરમાં અડદના આકારનું જે કાળું સરખું ચિહ્ન હોય છે તે મસા (તલ) છે, અને તલ જેવું જે ચિહ્ન હોય છે તે તિલ છે. આ ચિહ્નોને લઈને જે અનુમાન જ્ઞાન થાય છે, તે પૂર્વવત છે. જેમ કેઈ માતાએ પરદેશથી આવેલા પોતાના યુવાન પુત્રને પૂર્વદૃષ્ટચિહુથી ઓળખી
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५०२
अनुयोगद्वारसूत्र पुत्रा, अनन्यसाधारणक्षतादिलक्षणविशिष्टलिङ्गवत्वादिति । नन्वत्र साधयंवैधर्म्यदृष्टान्तयोः सद्भावासद्भावाभावो वर्तते, अतोऽयमहेतुरिति चेदाह- हेतुहि वस्तुतया एकलक्षणत्वविशिष्टः ! तबलेनैव गमकत्वमुपलभ्यते, अतो नास्त्यस्या हेतुत्वमिति । उक्तं चअपने परदेश से आये हुए युवा पुत्र को पूर्वदृष्ट चिह्न से पहिचान लिया। यहां अनुमान प्रयोग इस प्रकार से करना चाहिये । 'अयं मम पुत्रः अनन्यसाधारणक्षतादिलक्षणविशिष्टलिङ्गवत्वात् '
शंका-इस अनुमान प्रयोग में न तो साधर्म्यदृष्टान्त है और न वैधHदृष्टान्त है। इन दोनों का अभाव है। इसलिये यह हेतु गमक नहीं हो सकता है। तात्पर्य यह है कि-'हेतु अपने साध्य का गमक तभी होता है कि-'जय उसमें अन्वय प्रदर्शक अन्वय दृष्टान्त और ध्यतिरेक प्रदर्शक व्यतिरेक दृष्टोन्त होते हैं । 'दूसरों में नहीं पाये जाने वाले क्षतादिलक्षगरूप विशिष्ट चिह्नोंवाला होने से यह मेरा पुत्र है' इतने कहने मात्र से तो काम चल नहीं सकता। व्यक्ति प्रदर्शन पूर्वक हेतु अपने साध्य के साथ अव्यभिचरितरूप से पहिले किसी स्थान विशेष में निश्चित कर लिया होता है, तो वह अपने साध्य का गमक होता है। इसीलिये उसमें साधम्य आदि दृष्टान्त दिये जाते हैं ।' ऐसी शंकाकार की यह आशंका है-तष इसका उत्तर बीपी. महीअनुमान-प्रयोग AL प्रमाणे सभा मेय. "अय मम पुत्रः अनन्यसाधारणक्षतादिलक्षणविशिष्टलिङ्गवत्वात्"
શકા–આ અનુમાન પ્રયોગમાં ન સાધમ્ય દષ્ટાત છે અને ન ધર્યું છત છે. આ બન્નેને તેમાં અભાવ છે. એટલા માટે આ હેતુ ગમક થઈ શકે નહિ તત્પર આ પ્રમાણે છે કે “હેતુ પોતાના સાધ્યને ગમક ત્યારે જ થઈ શકે છે, કે જ્યારે તેમાં અન્વય પ્રદશક, અન્વય દષ્ટાન્ત અને વ્યતિરેક પ્રદર્શક, વ્યતિરેક દષ્ટાન્ત હોય છે. “બીજાઓમાં ન હોય તેવા ક્ષતાદિલક્ષણ ૩૫ વિશિષ્ટ વિયુક્ત હોવાથી આ મારો પુત્ર છે, ફકત આટલું કહેવાથી જ કામ ચાલે એમ નથી. વ્યાપ્તિ પ્રદર્શન પૂર્વક હેતુ પિતાના સાધ્યની સાથે અવ્યભિચરિત રૂપથી પહેલાં કેઈ સ્થાન વિશેષમાં નિશ્ચિત કરી લીધેલ હોય છે. તે જ તે પિતાના સાધ્યને ગમક થાય છે. એટલા માટે તેમાં સાધમ્ય વગેરે દષ્ટાન્ત આપવામાં આવે છે.” આ જાતની શંકાકારની આ આશંકા છે. આ શંકાને ઉત્તર આ પ્રમાણે છે કે “હેતુ, દષ્ટાન્ત બળથી જ
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अनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र २२१ अनुमानप्रमाणनिरूपणम्
"अन्यथानुपपत्वमात्रं देतोः सालक्षणम् ।
सत्वासत्त्वे हि तद्धर्मों, दृष्टान्तद्वयलक्षणे ॥" इति । हेतोः स्वलक्षणम् अन्यथाऽनुपपन्नत्वमात्रं बोध्यम् । साधर्म्यवैधर्म्यरूपदृष्टान्तद्वयस्य लक्षणे निश्चायके सत्वासत्वे हि तद्धर्मो=तस्य हेतोर्धर्मो विज्ञेयावित्यर्थः । अयं भात्रः- धर्मसत्तायां सर्वदा धर्मास्तिष्ठन्त्येवेति न नियमः, पटादीनां शुक्लस्वादिधर्मव्यभिचारदर्शनात् । एवं च दृष्टान्तयोः सवासवधर्मो कचिद् हेती
५०३
यह है कि - हेतु दृष्टान्त के बल से ही अपने साध्य का निश्चायक होता है यह नियमरूप बात नहीं है। कितनी जगह साधर्म्यादिहष्टान्त के होने पर भी तो हेतु अपने साध्य का गमक होता नहीं देखा गया है । परन्तु यह नियम है कि जिस हेतु में अन्यथानुपपनश्वरूप स्वलक्षणता है, वह नियम से अपने साध्य का गमक होता है । अन्यथानुपपन्नत्व का तात्पर्य है साध्य के अभाव में हेतुका नहीं होना। ऐसा हेतु चाहे अन्वय व्यतिरेक दृष्टान्त हों या न हों नियम से अपने अविनाभावी साध्य का निश्चायक होता है । यही बात 'अन्यथानुपपन्नश्व' इत्यादि श्लोक द्वारा प्रकट की गई है। इसमें यह कहा गया है, कि हेतुका वास्तविक निजलक्षण केवल एक अन्यथानुपपनत्व ही है । साधर्म्यदृष्टान्त के निश्चायक जो सत्य और असत्व है, ये दोनों हेतु के धर्म हैं। धर्म की सत्ता में सभी धर्म सदा ही उसके साथ रहे ही, ऐसा तो नियम नहीं हो सकता। क्योंकि पटादिकों का शुक्लत्वादि धर्मों के साथ व्यभिचार देखा जाता है। इस પેાતાના સાધ્યને નિશ્ચાયક હાય છે, આ નિયમરૂપ વાત નથી. કેટલાક સ્થાના પર સાધર્માદિ દૃષ્ટાન્ત હોવા છતાંએ હેતુ પેાતાના સાધ્યના ગમક छे, खेम सागतु नथी.
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પરંતુ એવા નિયમ છે કે જે હેતુમાં અન્યથાનુત્પન્નત્વ રૂપ સ્વલક્ષણતા છે, તે નિયમથી પેાતાના સાધ્યને ગમક હાય છે. અન્યથાનુપ૫ન્નત્વનું તાત્પર્ય એ છે કે સાધ્યના અભાવમાં હેતુના અસ્તિત્વના અભાવ એવા હેતુ ભલે અન્વય વ્યતિરેક દૃષ્ટાન્ત હૈાય કે ન હાય, નિયમથી પેાતાના અવિનાભાવી साध्या निश्चाय! होय छे से वात " अन्यथानुपपन्नत्व" वगेरे इसे ४ વર્ડ પ્રકટ કરવામાં આવી છે. આમાં આ પ્રમાણે કહેવામાં આવ્યું છે કે હેતુનું વાસ્તવિક લક્ષણ ફકત એક અન્યથાનુપપન્નત્વ જ છે. સાધમ્ય વધમ્ય દૃષ્ટાન્ત નિશ્ચયાત્મક જે સત્વ અને અસત્ય છે એ અને હેતુના ધર્માં છે. ધર્મની સત્તામાં સર્વધર્માં હંમેશા તેની સાથે રહે જ આ
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५०४
अनुयोगद्वारस्ने यद्यपि न दृश्येते, तथापि धमिस्वरूपं यदन्यथाऽनुपपन्नत्वं तद् भविष्यतीति न कचिद् विरोध इति । यत्रापि धूमादौ हेतौ सत्चासत्ते दृश्येते, तत्रापि साध्यान्यथा ऽनुपपन्नत्वमात्रस्य मुख्यत्वात्तस्यैवैकस्य हेतुलक्षणता बोध्या । उक्त च
"धूमादेर्यधपि स्याता, सत्यासत्त्वे स्वलक्षणे । 'अन्यथाऽनुपपन्नत्वमाधान्याल्लक्षणैकता इति ॥” इति । अपि च-यदि दृष्टान्तस्य सत्वासचे हेतुर्गमक इति स्वीक्रियेत, तदा 'लोह लेख्य वन पार्थिवत्तात् काष्ठादिवत्' इत्यादेरपि गमकत्वं स्यात् । उक्तं चप्रकार अन्वयव्यतिरेक दृष्टान्तों के सत्व और असत्व ये दो धर्म किसी जगह हेतु में यद्यपि नहीं भी देखे जाते हों तो भी धर्मिस्वरूप जो अन्यथानुपपन्नत्व है उसके देखे जाने में कोई बाधा नहीं है । वह तो होगा ही इसका कहीं पर भी विरोध नहीं आता। जहां भी कहीं धूमादिक हेतु में इन दृष्टान्तों के सत्व असत्व प्रतीत होते हैं, वहां भी इनकी मुख्यता नहीं मानी जाती है किन्तु अन्यथानुपपन्नत्वरूप एक हेतु की ही मुख्यता मानी जाती है । अतः यही एक हेतु का लक्षण है। यहीं बात-धूमार्यद्यपि स्यात् इत्यादि श्लोक द्वारा प्रतिपादित की गई है। यदि यही बात मानी जावे कि जिस हेतु में दृष्टान्त का सद्भाव होगा वही हेतु अपने साध्य का गमक होगा-दृष्टान्त के असद्भाववाला हेतु नहीं-तो देखों-'वज्र लोहले ख्यं पार्थिवत्वात् 'अनुमान प्रयोग में प्रयुक्त' प्रार्थिवत्वात् 'इस हेतुको बज्र में लोहलेख्यत्वरूप साध्य જાતને નિયમ તે સંભવી શકે જ નહિ. કેમકે પટાદિકેનું શુકલત્વાદિ ધર્મોની સાથે અગ્યભિચારપણું (જુદાપણું વિનાનું) જેવામાં આવે છે. આ રીતે અન્વય વ્યતિરેક દૃષ્ટાન્તાના સત્ય અને અસત્વ આ બંને ધર્મે કોઈપણ સ્થાને છે કે હેતુમાં જોવામાં આવતા નથી. છતાએ ધર્મિ સ્વરૂપ જે અન્યથાનુપપન્નત્વ છે, તેને જોવામાં કે ઈપણ જાતને વાંધો નથી. તે તે થશે જ, તે વિષે કોઈપણ સ્થાને વિરોધ દેખાતું નથી. જ્યાં કંઈ ધૂમાદિક હેતુમાં આ દષ્ટાન્તના સવ અસત્વ પ્રતીત થાય છે, ત્યાં પણ એમની મુખ્યતા માનવામાં આવતી નથી. પરંતુ અન્યથાનુ૫૫ન્નત્વ રૂપ એક હેતુની જ મુખ્યતા માનવામાં આવી छे. तेथी मा0 मे तुनु सक्षय छे. मे पात 'धूमादेर्यद्यपि स्यात् ' वगैरे
ક વડે પ્રતિપાદિત કરવામાં આવી છે. જે એજ વાત માનવામાં આવે કે જે હેતુમાં દષ્ટાતને સદ્ભાવ થશે તેજ હેતુ પિતાના સાથને ગમક थरी, नली दृष्टान्तना ससदमाणे तु तो तुम।-"वनं लोहलेख्य पार्थिवत्वात् काष्ठादिवत्' मा अनुमानप्रयासमा प्रयुत 'पार्थिवत्वात् '
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मनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र २२१ अनुमानप्रमाणनिरूपणम्
५०५
: "दृष्टान्ते सदसत्वाभ्यां हेतुः सम्यग् पदारु ते ।
लोहलेख्यं भवेद्वनं पार्थिनत्वाद् द्रुमा ददन्।। इति । किंच-पक्षधमत्यस पक्षसविपक्षासत्त्वरूपं हेतुलक्षणं-स्वीकृत्यापि यथोक्तदोषभयात् साध्याऽन्यथाऽनुपपन्नत्यरूपं लक्षणं स्वीकर्तव्यमेव स्यात् , तर्हि तदेवक लक्षणं स्वीकुरु, किं पक्षधर्मवादित्रयेण ? इति । उक्त च
'अन्यथाऽनुपपन्नत्वं, यत्र तत्र त्रयेण किम् ? ।।
नाऽन्यथाऽनुपपन्नत्वं, यत्र तत्र त्रयेण किम् ? ॥ इति । गमक होना चाहिये । परन्तु इस हेतु को स्वसाध्य का गमक नहीं माना गया है 'यही बात' दृष्टान्ते मरसत्वाचा 'इत्यादि लोक द्वारा कही गई है। किंच बौद्धों की ऐसी मान्यता है कि जिस हेतु में पक्षधर्मता, सपक्षे सत्ता और विपक्षाद् व्यावृत्ति ये त्रिरूपता रहती है, वही हेतु अपने साध्य का गमक होता है-अनः यह त्रिरूपता ही हेतुका लक्षण है, सो उनका भी ऐमा कथन सम्यक् नहीं है। क्योंकि हेतु का लक्षण त्रिरूपता मानने पर भी यथोक्त हेतु दोष का परिहार नहीं होता है । यदि कहा जावे कि-'विपक्षात् व्यातिरूप हेतुः' का लक्षण जहां नहीं होगा-वहां हेतु पक्षधर्मत्वसपक्षसत्ववाला होने पर भी अपने साध्य धर्म का निश्चायक नहीं होगासो उनका ऐसा कथन प्रकारान्तर से अन्यथानुपपत्तिरूप हेतु लक्षण को ही स्वीकार करने का प्रदर्शक है । इसलिये यही मानना चाहिये किઆ હેત વજમાં લેહલેખ્યત્વ રૂપ સાધ્યને ગમક હૈ જોઈએ. પરંતુ मातुने २१साध्यन। म मानवामा माये। नथी. “से वात' 'दृष्टान्ते सदसत्वाभ्यां त्याला १3 वामां माथी छ. य-मीद्धोनी सेवा માન્યતા છે કે “જે હેતુમાં પક્ષધર્મતા”, “સપક્ષે સત્તા અને વિપક્ષાદું વ્યાવૃત્તિ” આ ત્રિરૂપતા રહે છે, તે જ હેતુ પોતાના સાધ્યને ગમક હોય છે. એટલા માટે આ ત્રિરૂપતા જ હેતુનું લક્ષણ છે, તે તેમનું પણ આ જાતનું કથન ઉચિત નથી. કેમકે હેતુનું લક્ષણ ત્રિરૂપતા માનવા છતાંએ યકત દેવને परिहार थ।। नथी. २ ४ाम मावे 'विपक्षात् व्यावृत्तिरूपहेत' नुं લક્ષણ જ્યાં થશે નહિ ત્યાં હિતુ પક્ષધર્મત્વ, સપક્ષ સત્વયુક્ત હોવા છતાં પિતાના સાધ્યનો નિશ્ચાયક થશે નહિ. તો તેમનું એવું કથન પ્રકારાન્તરથી અન્યથાનુ પપત્તિ રૂપ હેતુ લક્ષણને જ સ્વીકૃતિ આપવા માટે છે. એવું લાગે છે. એટલા માટે એમ જ માની લેવું જોઈએ કે “પક્ષધર્મવ આદિ હેતુમાં
अ० ६४
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५०६
अनुयोगद्वारसूत्रे
नन्यत्र पुत्रस्य मत्यविपयत्वादवानुमानयोगोऽनुचितः ? इति चेदाह - पुरुष - पिण्डपात्रदर्शनेऽपि 'अयं मत्पुत्रो न वा ?' इति संदेहाद युक्त एवानुमानप्रयोग इति ॥ इत्थं पूर्ववदनुमानं प्रदर्श सम्मति शेषादनुमानं प्रदर्शयति- 'से किं तं
'पक्षधर्मत्व आदि हेतु में रहें या नहीं रहें - परन्तु यह साध्यान्यथानुपपत्रस्वरूप लक्षण हेतु में अवश्य ही रहना चाहिये क्योंकि किसी भी स्थिति में हेतु इसके बिना गमक नहीं होता है अतः जहां यह है, वहां पक्षधर्मत्वादित्रय की मान्यता से क्या लाभ? और जहां यह नहीं है - वह पक्षधर्मत्वादित्रय हों भी तो भी हेतु उनके बल पर अपने सायका गम नहीं होता है। यही यात 'अन्यथानुपपन्नस्वं इत्यादि लोक द्वारा प्रतिपादिन की गई है।
शंका--' अयं मम पुत्रः अनन्यसाधारणक्षनादिलक्षणविशिष्ट लिङ्गवत्वात् ' इस अनुमानप्रयोग में जब पुत्र प्रत्यक्ष ज्ञान का विषय बना हुआ है। तब अनुमानप्रयोग करने की क्या आवश्यकता है ? यह प्रयोग अनुचित है।
उत्तर- शंका ठीक नहीं है- क्योंकि पुरुष का पिण्ड मात्र दिखने पर भी 'अयं मत्पुत्रो नवा' यह मेरा पुत्र है या नहीं है । उसे ऐसा सन्देह हो रहा है। सो इस सन्देह से 'अयं मम पुत्र: अनन्यसाधारणक्षतादिलक्षणविशिष्टलिङ्गवत्वात्' ऐसा अनुमान प्रयोग युक्त ही
રહે કે ન રહે, પરંતુ સાધ્ધાન્યથાનુપપન્ન રૂપ લક્ષણ હેતુમાં ચાક્કસ રહેવુ' જ જોઈ એ કેમકે કાઈપણ સ્થિતિમાં હતુ એના વગર ગમક થતા નથી, તેથી જ્યાં આ છે, ત્યાં પક્ષધમાદિ ત્રયની માન્યતાથી શૈા લાભ અને જ્યાં આ નથી. ત્યાં પક્ષધર્માદિ ત્રય હાય છતાંએ હેતુ તેના ખળે घोताना साध्या गंभ होतो नथी. से वात 'अन्यथानुपपन्नत्व' वगेरे Àક વડે પ્રતિપાદિત કરવામાં આવી છે.
- 'अयं मम पुत्रः अनन्यसाधारणक्षतादिलक्षणविशिष्टलिंगवत्वात् ' આ અનુમાન પ્રયાગમાં જ્યારે પુત્ર પ્રત્યક્ષ જ્ઞાનના વિષય બનેલ છે, ત્યારે અનુમાન પ્રયાગ કરવાની શી જરૂર છે? આ પ્રયાગ અનુચિત્ત છે.
ઉત્તર--શકા ખરાખર નથી. કેમકે પુરૂષના પિંડ માત્ર જોવાથી પશુ 'अयं मत्पुत्रो नवा' या भारी पुत्र छे है नहीं, तेने या भतने। सहेड था रह्यो छे. तो अहेड्थी 'अयं मम पुत्रः अनन्यसाधारणक्षतादिलक्षणविशिष्ट लिङ्गवत्वात्' એ જાતના અનુમાનના પ્રયાગ ચુત જ છે. શેષવત્ અનુમાન સબંધમાં આ
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अनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र २२१ अनुमानप्रमाणनिरूपणम् ५०७ सेस' इत्यादि । अथ किं तत् शेषवन् ? इति शिष्यपश्नः । उत्तरयति-शेषवत्पुरुषार्थोपयोगिनः परिजिज्ञासितादवादेरन्यो यो तदीयो हेषितादिः स शेषा, स गमकत्वेन यस्यास्ति तदनुमानं शेषवत् । तदनुमानं कार्येण कारणेन गुणेन अवयवेन आश्रयेण च भाति, आ इदं पञ्चविधं भवति । तत्र कार्येण कारणस्य अनुमानं यथा-शङ्ख शब्देन, भेरिताडितेनेत्यादि । अयं भावः-शङ्खस्य शब्दं श्रुत्वा जनः शङ्खमनुमिनुते, भेगास्ताडनं श्रुत्वा भेरिमनुमिनुते, तथा-गनिनेन वृषभ, के कायितेन केकारवेग मयूर, हेषितेन हय, गुलगुलायितेन गज, घनघनायितेन रथं च अनुमिनुते । इति । तथा-कारणेन कार्यस्यानुमानं भवति । यथा-कश्चिद् विशिष्टमेघाडम्बरदर्शनाद् दृष्टिमनुमिनोति । उक्त चहै। शेषवत् अनुमान के विषय में इस प्रकार समझना चाहिये-पुरुषाधोपयोगी एवं परिजिज्ञासित, ऐसे जो अश्वादिक हैं, उनसे भिन्न जो उन्हीं का हेषित आदि हैं वह-यहां शेष पद का वाच्य है। यह शेष जिस अनुमान में गमकरूप से है, ऐसा वह अनुमान शेषवत् अनुमान है। इस अनुमान में कहीं कार्यलिङ्ग से कारण का अनुमान किया जाता है, कहीं कारण से कार्य का अनुमान किया जाता है और कहीं गुण आदि से गुणी आदि का अनुमान किया जाता है । कार्य लिङ्ग से कारण का अनुमान इस प्रकार से होता है-जैसे किसी पुरुष ने नभस्थल में जल से भरे हुए काले २ मेघ देखे-तब वह अनुमान करता है कि 'वृष्टिः भविष्यति-विशिष्टमेघान्यथानुपपत्तेः' वृष्टि होगी-क्योंकि ऐसे मेववृष्टि के लिये ही होते हैं अन्यथा-यदि वृष्टि होनेवाली नहीं होती, तो ऐसे मेघ भी नहीं होते। यही विशिष्ट રીતે સમજવું જોઈએ કે-પુરૂષાર્થોપયોગી અને પરિજિજ્ઞાસિત, એવા જ અધાદિકે છે, તેમનાથી ભિન્ન જે તેમના જ હેષિત વગેરે છે, તે અત્રે શેષપદ વાચ્ય છે. આ શેષ જે અનુમાનમાં ગમનરૂપમાં છે, એવું તે અનુમાન શેષવત્ અનુમાન છે. આ અનુમાનમાં કોઈ સ્થાને કાર્યલિંગથી કારણનું અનુમાન કરવામાં આવે છે, અને કોઈ સ્થાને ગુણ આદિથી ગુણી આદિનું અનુમાન કરવામાં આવે છે. કાર્યલિંગથી કારણનું અનુમાન આ પ્રમાણે થાય છે. જેમ કેઈ પુરૂષે નભ સ્થળમાં જલપૂર્ણ કાળા કાળા વાદળે જોયા, ત્યારે તે अनुमान ४२ छ है 'वृष्टिः भविष्यति-विशिष्टमेघान्यथानुपपत्तेः' वृष्टि थरी કેમકે આ જાતનાં વાદળાએ વૃષ્ટિ માટે જ હોય છે. અન્યથા જે વૃષ્ટિ થવાની ન હેત તે એવાં વાદળાઓ પણું હેત નહિ. એક વિશિષ્ટ
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५००
भनुयोगद्वारसूत्रे रोलम्बगवलव्याल तमालमलिनत्विषः।
वृष्टिं व्यभिचरन्तीह, नैवं पायाः पयोमुचः ॥इति। तथा च-चन्द्रोदयदर्शनाज धिटद्धिः कुमुदोत्फुल्लता चानुमीयते । सूर्योदयात् कमलविकासः कौशिकमदहानिश्च । तथाविध वर्ष गात्सस्यसम्पन्नता कृषकजनमनः प्रमोदश्चेति । एवंविधस्थले कारणमेवानुमापर्क साध्यस्य न त्वकारणम् । तत्र कार्यकारण मावे एव केचिद् विप्रतिपद्यन्तेऽतस्तनिराकरणाय सूत्रकारः कारणस्य नैयत्येन कार्यानुमायकत्वं प्रदर्शयति-कारणेन तन्तः पटस्य कारणं, न पटस्तन्तुकारणम् , वीरणा कटस्य कारणं, न कटो (तृणविशेषः) वीरणा-कारमेघान्यथानुपपत्ति का अर्थ है । यही बात-'रोलम्ब गवलव्याल' इत्यादि श्लोक द्वारा प्रदर्शित की गई है । इसी प्रकार से चन्द्रोदय के देखने से जलधि की वृद्धि और कुमुदन का विकाश अनुमित किया जाता है। सूर्योदय से कमलों का विकसित होना और उल्लुओं के मद की हानि होना मेघवर्षण से सस्यसम्पन्नता और कृषक जनों के मन का प्रमोद ये सब अनुमित किये जाते हैं। इस प्रकार यह कारण से कार्य का अनुमान जो किया जाता है, वह शेषवत अनुमान है । ऐसा जानना चाहिये। कारण से जहां कार्य का अनुमान किया जाता है, वहां कारण ही अपने साध्य का अनुमापक होता है। अकारण नहीं। कितनेक व्यक्ति ऐसे भी हैं-जो कार्य कारण भाव में ही विवाद करते हैं -सूत्रकारने उसे निराकरण करने के लिये कारण की निय. मितता से कारण को कार्यानुमापक दिखलाया है । तन्तु पट के कारण है, पट तन्तुओं का कारण नहीं हैं । वीरण। ( घास विशेष ) कट का भन्यथानु५५त्तिन। अथ छे. मे पात 'रोलम्ब गवलव्याल' त्या as વડે પ્રદર્શિત કરવામાં આવી છે. આ પ્રમાણે ચન્દ્રોદયના દર્શનથી જલધિની વૃદ્ધિ અને કુમુદવનને વિકાસ અનુશ્ચિત કરવામાં આવે છે. સૂર્યોદયથી કમળ વનનો વિકાસ અને ઘુવડેની મદહાનિ, મેઘવર્ષથી સસ્યસમ્પન્નતા કૃષકજનને મનનો ઉલ્લાસ આ સર્વે અનુમિત કરવામાં આવે છે. આ પ્રમાણે કારણથી કાર્યનું જે અનુમાન આવે છે, તે શેષવત્ અનુમાન છે, તેમ જાણવું જોઈએ. કારણથી જ્યાં કાર્યનું અનુમાન કરવામાં આવે છે, ત્યાં કારણે જ પિતાના સાધ્યનું અનુમાપક હોય છે. અકારણ નહિ. કેટલાક એવાં પણ છે કે જે કાર્યકારણભાવ વિશે જ વિવાદ કરતા રહે છે. સૂત્રકારે તેના નિરાકરણ માટે કારણની નિયમિતતાથી કારણને કાર્યાનુમાપક રૂપમાં બતાવ્યું છે. તંતુ પટનું કારણ છે, ૫ટ તંતુએનું કારણ નથી. વરણા (તણ વિશેષ)
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अनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र २२१ अनुमानप्रमाणनिरूपणम्
५०९
णम्, मृत्पिण्डो घटस्य कारणं न घटो मृत्पिण्डकारणम् । इति । अयं भावःततः पटस्य कारणं भवन्ति, न तु पटस्तन्तुकारणम् । यतः पूर्वमनुपलब्धस्य पटस्य तन्तुमत्तायामेोपलब्धिर्भवति । तन्तूनां तु पटाभावेऽप्युपलम्भो दृश्यते । ननु या कवित् निगः पुरुषः पटवावेन संयुक्तानपि तन्तून् क्रमेण वियोजयति तदा पटोऽपि तन्तूनां कारणं भवत्येव ? इति चेदाह - तन्तुदशायां पटस्य सत्वेनोप
कारण है, कट वीरणा का कारण नहीं हैं। मिट्टी का पिण्ड घट का कारण है -घट मिट्टी के पिण्ड का कारण नहीं है । तात्पर्य कहने का यह है कि तन्तु पट के कारण होते हैं, पट तन्तुओं का कारण नहीं होता है क्योंकि आतानविनानीभूत बने हुए तन्तुओं को पहिले पट की उपलब्धि नहीं होती - यदि पट की उपलब्धि होती है तो, वह आतो. नविनानीभूत बने हुए तन्तुओं की सत्ता में ही होती है । परन्तु ऐसी बात तन्तुभों में नहीं है क्योंकि पट के अभाव में भी तन्तुओं की उपलब्धि होती है ।
शंका - जिस समय कोई निपुण पुरुष पटरूप से संयुक्त हुए तन्तुओं को क्रम क्रम करके उस पर से अलग करता जाता है, तब उस स्थिति में पट भी तन्तुओं का कारण होता ही है- फिर आप क्यों ऐसे कहते हैं कि-'पट तन्तुओं का कारण नहीं होता है ?
उत्तर - तन्तुदशा में पटका अस्तित्वरूप से उपलब्ध नहीं होता है, इसलिये पट तन्तुओं का कारण नहीं होता है । जो पट अपने अस्तित्व સાદડીનું કારણ છે. સાદડી વીરણાનું કારણ નથી શ્રૃત્પિડ ઘટતુ કારણ છે, ઘટમુપિંડનું કારણ નથી. તાત્પ કહેવાનું' આ પ્રમાણે છે કે ત'તુ પટનું કારણ હોય છે. પટ તંતુએનું કારણ નથી. કેમકે આતાનવિતાનીભૂત બનેલા તંતુએની પહેલાં પરની ઉપલબ્ધ થતી નથી, જો પટની ઉપલબ્ધિ થાય છે તેને આતાનવિતાનીભૂત થયેલા તતુએની સત્તામાં જ થાય છે. પર‘તુ એવી વાત 'તુઓમાં નથી, કેમકે પટના અભાવમાં તતુઓની ઉપલબ્ધિ થાય છે.
શ'કા--એ સમયે કાઈ નિપુણ પુરૂષ પટરૂપથી સયુકત થયેલ તંતુઓને ક્રમશ: તે પટથી અલગ પાડતા જાય, ત્યારે તે સ્થિતિમાં પટ પણ ત ંતુએનું કારણ હાય જ છે. પછી તમે શા માટે એમ કહેા છે કે પટ ત ́તુઓનું કારણુ થઈ શકે નહિ ?
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अनुयोगद्वारसूत्रे लम्भाभावात् पटस्तन्तुकारणं न भवति । यदेव हि लब्धप्सनाकं सत् स्वस्थितिभावेन कार्यमुपकुरुते तदेव तस्य कारणत्वेनोपदिश्यते, यथा-मृत्पिण्डो घटस्य । पटस्य वियोजनेन तु ये तन्तवः समुत्पद्यन्ते, तेषां कारणं पटो न भवितुमर्हति । न हि ज्वराभावेन संजायमानस्यारोग्यमुखस्य कारणं ज्वरो भवति । ननु पटसतायां तन्तूनामसत्वात् तन्तकः पटकारणं न स्युरिति चेदाह-पटो हि तन्तुपरिणामरूप एव । यदि पटदशायां तन्तूनां सर्वथाऽभाव एव स्यात्तहि मृदभावे घटस्येव पटस्यापि सर्वथाऽनुपलम्भ एव स्यात् । तस्मात पटदशायामपि तन्तवः को पाता हुआ अपनी स्थिति के बल पर कार्य करने लगता है वही पट उस कार्य का कारण रूप से व्यपदिष्ट होने लगता है। जैसे मिट्टी का पिण्ड घट का। पट को वियुक्त करने से जो तन्तु निकलते हैं, उनका कारण यह पट नहीं हो सकता है। ज्वर के अभाव से उत्पन्न हुआ आरोग्य सुख का कारण ज्वर थोडे ही होता है।
शंका-पट की सत्ता में तन्तुओं की सत्ता नहीं रहती है, इस कारण तन्तु पट के कारण नहीं होंगे ?
उत्तर--पट जो है, वह तन्तुओं का ही एक परिणाम है । यदि पट अवस्था में तन्तुओं का सर्वथा अभाव ही माना जावे तो, जिस प्रकार मिट्टी के अभाव में घट की उपलब्धि नहीं होती है, उसी प्रकार से पट की भी सर्वथा उपलब्धि नहीं होनी चाहिये । इसलिये यह मानना चाहिये कि 'पट अवस्था में भी तन्तु हैं । इस प्रकार उनकी सत्वरूप
ઉત્તર-તંતુદશામાં પટની સત્તા રૂપના આકારમાં દેખાતી નથી, એટલા માટે પટ તંતુઓનું કારણ નથી. જે પટ પિતાના અસ્તિત્વની સાથે પિતાની સ્થિતિના આધારે, કાર્ય કરવા તત્પર થાય છે, તેજ પટ તે કાર્યના કારણ રૂપથી પદિષ્ટ થવા લાગે છે. જેમ કે મૃપિંડ ઘટનું. પટને વિયુક્ત કરવાથી જે તંતુઓ નીકળે છે, તેનું કારણ તે ૫ટ થઈ શકે જ નહિ. વરના અભાવથી પ્રાપ્ત થયેલ આરોગ્યરૂપી સુખનું કારણ જવર કેવી રીતે હોય.
શંકા--પટની સત્તામાં તંતુએ ની સત્તા રહેતી નથી. આ કારણથી તંતુ પણ પટનું કારણ થશે નહિ?
उत्तर--रे ५८ छ, तेत तुमानु १ मे परिणाम छ, ने ५८ म. સ્થામાં તંતુઓને સર્વથા અભાવ જ ગણાય તે, જે રીતે માટીના અભાવમાં ઘટની ઉપલબ્ધિ થતી નથી, તે રીતે પટની પણ સદંતર ઉપલબ્ધિ હેવી ન જોઈએ. એટલા માટે આમ માનવું જોઈએ કે પટ અવસ્થામાં પણ તંત
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अनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र २२१ अनुमानप्रमाणनिरूपणम् सन्तीति सधेनोपलम्भात्तन्तवः पटस्य कारणमुच्यते । पटवियोजनेन यदा तन्तवः समुपलभ्यन्ते, न तदा पटपत्ता समुपलभ्यते. अतस्तदा पटस्य सत्त्वेनोपलम्मामा वान्न पटस्तन्तूनां कारणं भवितुमर्हति । एवं वीरणा (तणविशेष) कटादिष्पपि बोध्यम् । इस्थं च यस्य कार्यस्य कारणत्वेन यद् निश्चितं तत्तस्य कार्यस्य गमकमिति। अथ गुणेन यदनुमीयते तदाह-'सुवणं निकसेण' इत्यादि । सुवर्ण निकषेण अनुमीयते । अयं भावः-निकषा-कपणपट्टगता कषितसुवर्णरेखा तेन 'अमुकजातीयमिदं सुवर्णम्' इस्पनुमीयते । अनुमानप्रयोगश्चेत्थम्-इदं सुवर्ण पञ्चदशादिवर्णकोपेतं तथाविधनिकपोपलम्भात् पूर्वोपलब्धोभयसम्मतसुवर्णवदिति । तथा-गन्धेन पुष्पमनुमीयते । अयं भावः-तत्तज्जातीयपुष्पान्धोपलब्ध्या तज्जातीयं पुष्पमनुः से उस अवस्था में उपलब्धि होने के कारण तन्तु पट के कारण कहे जाते हैं । परन्तु पट वियोजन अवस्था में जब तन्तु उपलब्ध होते हैंउस समय पट की सत्ता उपलब्ध नहीं होती है । इसलिये पट का सत्व स्वतंत्र तंतुओ की अवस्था में उपलब्ध न होने के कारण पट तन्तुओ का कारण नहीं हो सकता है । उसी प्रकार की व्यवस्था वीरणो-तृणविशेष-आदि कारणों में भी लगा लेनी चाहिये । इस प्रकार जिस कार्य कारणरूप से निश्चित है, वह उस कार्य का गमक होता है । गुण से अनुमान इस प्रकार से होता है-'इदं सुवर्ण पञ्चदशादिवर्णकोपेतं तथाविधनिकषोपलम्भात् पूर्वोपलब्धोभयसम्मत. सुवर्णवत्' इस प्रकार के इस अनुमान प्रयोग से 'यह सुवर्ण अमुक जाति का है, 'यह ज्ञात हो जाता है। इसी प्रकार गंध की उपलब्धि से 'यह पुष्प अमुक जाति का है' यह बात ज्ञात हो जाती है । यहाँ છે, આ પ્રમાણે તેમની સત્યરૂપથી તે અવસ્થામાં ઉપલબ્ધિ હવા બદલ તંતુઓ પરના કારણ કહેવામાં આવ્યાં છે. પરંતુ પટ વિજન અવસ્થામાં
જ્યારે તંતુ ઉપલબ્ધ થ ય છે, તે સમયે પટની સત્તા ઉપલબ્ધ થતી નથી. માટે પટના સત્ય સ્વતંત્ર તંતુઓની અવસ્થામાં ઉપલબ્ધ ન હોવા બદલ પટ તંતુઓનું કારણ થઈ શકે નહિ. તે પ્રકારની વ્યવસ્થા વીરણા (તૃણ વિશેષ) વગેરે કારમાં પણ સમજી લેવી જોઈએ. આ રીતે જે કાર્યનું કારણરૂપથી જે નિશ્ચિત છે, તે તે જ કાર્યને શમક હોય છે. ગુણથી અનુમાન આ प्रभारी थाय छे 'इद सुवर्ण पञ्चदशादिवर्णकोपेत' तथाविधनिकषोपलम्भात् पूर्वो ग्लब्धोभ गसम्मतसुवर्णवत्' ! Mतना मा अनुमान प्रयागथी मासु અમુક જાતિ વિશેષનું છે, આ પ્રકારનું જ્ઞાન થાય છે. આ પ્રમાણે ગંધની ઉપ લધિથી “આ પુ૫ અમુક જાતિ વિશેષનું છે, આ વાત સ્પષ્ટ થઈ જાય છે.
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अनुयोगद्वारसूत्रे
मीयते । यथा हि-कमलपुष्पमिदं तथाविधगन्धोपलम्भात् पूर्वीपलब्धकमलवदिति । एवं कवणं रसेन इत्यत्रापि बोध्यम् । यद्यपि मदिरा नखादयोऽनेकविधाः पृथक्पृथगास्वादस्पर्शाः, तथापि तत्तज्जातीयमदिरावस्त्रादेस्तथाविधास्वादस्पर्शोपलब्धेरास्वादेन मदिरायाः, स्पर्शेन वस्त्रस्य चानुमानं भवतीति । अथ अवयवे - नावयविनोऽनुमानं दर्शयति- 'महिसं सिंगे' इत्यादि । वाऽपि प्रदेशे महिषशृङ्गदृष्ट्वा महिं च कुड्यादिव्यवहितत्वाददृष्ट्वा कश्चिदनुमिनुते - महिषवान् अयं प्रदेशः, तदविनाभूतशृङ्गोपलब्धेः पूर्वोपलब्धो भयसम्मतप्रदेशवदिति । कुडया
वहितमहिपसत्तायां तु महिषस्य प्रत्यक्षत्वेन न तत्रानुमानं भवति । एवं अनुमान प्रयोग इस प्रकार से हैं-कमलपुष्पमिदं तथाविधगन्धोरलम्भात् पूर्वोपलभ्धकमलवत् । इसी प्रकार रस से लवण का यह लक्षण अमुक जाति का है ऐसा अनुमान होता है । यद्यपि मदिरा एवं वस्त्रादिक अनेक प्रकार के होते हैं और इनका आस्वाद तथा स्पर्श भी विविध प्रकार का होता है तो भी तत्-तज्जातीय मदिरा एवं वस्त्रादिकों को तथाविध आस्वाद एवं स्पर्शं उपलब्ध होने से मदिरा का
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स्वाद से और वस्त्र का स्पर्श से अनुमान होता है । 'महिस सिंगेण' इससूत्रपाठ द्वारा अवयव से अवयवी का अनुमान सूत्रकार ने दिख लाया है। किसी स्थान में महिषश्रृंग को देखकर और कुंडय आदि से व्यवहित होने के कारण महिष को नहीं देखकर किसीने अनुमान किया 'अयं प्रदेशः महिषवान् तदविनाभून गोपलब्धेः पूर्वोपलब्धो भयसम्म प्रदेशवत्' जब महिष कुडयादि से अन्तरित नहीं हो और स्पष्ट रूप से प्रतीत हो रहा हो, ऐसी स्थिति में उसका अनुमान नहीं
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अड्डी' अनुमान प्रयोग मा प्रभा छे. 'कमलपुष्पमिदं तथाविधगन्धोपम्भात् पूर्वोपलब्ध कमलवत् ' या प्रमाणे रसथी सवनुं अनुमान थाय छे है या લવજી અમુક જાતિ વિશેષનુ' છે. જો કે મદિરા તેમજ વસ્ત્રાદિક અનેક પ્રકા રનાં હાય છે અને એમના આસ્વાદ તેમજ સ્પ ઉપલબ્ધ હાવાથી મદિरानु शास्वाथी मने वखतुं स्पर्शश्री अनुमान थाय छे 'महिस सिगेण '
આ સૂત્ર પાઠ વડે અવયવથી અવયવનું અનુમાન સૂત્રકારે સ્પષ્ટ કર્યું છે. કોઈ સ્થાને મહિષશ્ર’ગને જોઇને અને કુડય આદિધી વ્યવહિત હોવાથી भषिने न लेत असे अनुमान यु' 'अयं प्रदेशः महिषत्रान् सदविनाभूत 'गोपलब्धेः पूर्वोपलब्धोभयसम्मत प्रदेशवत्' न्यारे महित उड्याहिथी रमन्ते સ્તિ ડાય નહિ અને સ્પષ્ટ રૂપમાં પ્રતીત થઈ રહ્યો હોય. એવી સ્થિતિમાં તેનું અનુમાન કરવામાં આવતું નથી કેમકે તે પ્રત્યક્ષ રૂપમાં જોવામાં આવી
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अनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र २२१ अनुमानप्रमाणनिरूपणम्
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कुक्कुटं शिखया इत्यादावनुयानप्रयोगो बोध्यः । तथा द्विपदं मनुष्यादि' इत्यत्र पादद्वयदर्शनेन मनुष्योऽनुमीयते । अनुमानयोगश्चेत्थम् - मनुष्योऽयं तदविनाभूतपदद्वयोपलम्भात्, पूर्वदृष्टमनुष्यवदिति । एवं चतुष्पदं गवादि, बहुपदं गोमिकादि । तथा-'पडियरबंधेग मडं' इति गाथा पूर्वं व्याख्याता । तदनुसारेणास्या भावार्थी बोध्यः । तथा आश्रम आश्रमिणोऽनुमानं भवति । यथा- धूमेन अग्निम्, बळाकया (पं) सलिलम् अभ्रविकारेण दृष्टिम्, शीलसमाचारेण कुळपुत्रं च जनोऽनुमीयते । आश्रयतीत्याश्रयो धूमवलाकादिः । धूमवलाकादयोऽग्निसलिलाद्याया भवन्ति, अदो धूमवलाकादिदर्शनेन अग्निसलिलादीनामनुमानं भवति । ननु धूमस्थाग्निकार्यत्वात्पूर्वोक्त कार्यानुमानेनैव गतार्थस्यात्किमिह पुनरुपन्यासः ? इति चेदाह - भातु कार्यरूपेण धूमेनाग्नेरनुमानम्, परन्तु धूमस्याकिया जाता है। क्योंकि वह तो प्रत्यक्ष से ही दिखलाई पड रहा है। इसी प्रकार से 'कुक्कुटं शिखया' इत्यादि में भी अनुमान प्रयोग जानना चाहिये ।' द्विपदं मनुष्यादि' यहां दो चरणों के देखने से मनुष्य का अनुमान किया जाता है। प्रयोग इस प्रकार है- 'मनुष्योऽयं तदविनाभूतपदयोपलम्भात् पूर्वदृष्टमनुष्यवत् ऐसा होता है। इसी प्रकार से 'चतुष्पदं गवादि, बहुपदं गोमिकादि' यहां पर भी जानना चाहिये। धूम, बलाका आदि अग्नि और सलिल आदि के आश्रय से रहते हैं, इसलिये धूमबलाका आदि के देखने से इनके आश्रयी का अनुमान किया जाता है । यद्यपि धूम अग्नि को कार्य होता है और ऐसा अनुमान कार्य से कारण के अनुमान में ही अन्तभूर्त हो जाता है, फिर भी इसे आश्रय से आश्रयी के अनुमान करनेवाला कहा गया है, सो उसका कारण यह
रह्यो छे. या प्रम. ये 'कुक्कुट' शिखया' इत्याहिभां पशु अनुमान प्रयोग भी सेवे। लेखे, 'द्विषद्' मनुष्यादि' भड़ीं मे यर लेवाथी माणूस विषे अनु भान उरवामां आवे छे. प्रयोग प्रभा छे. 'मनुष्योऽयं तदविनाभूतपद द्वयोपलम्भात्' पूर्व दृष्टमनुष्यवत्' सेवा थाय छे. आ प्रभा 'चतुष्पदं गवादि, बहुपदं गोमिकादि 'अहि यागु लागवु लेहान्यो, घूम, अशा वगेरे अग्नि તેમજ સલિલ વગેરેના આશ્રયથી રહે છે. માટે ધૂમ, મલાકા વગેરેને જોવાથી એમના આશ્રયીનું અનુમાન કરવામાં આવે છે જો કે ધૂમ અગ્નિનુ` કા` હાય છે અને આ જાતનું અનુમાન કાર્યાંથી કારણના અનુમાનમાં જ અન્તભૂત થઈ જાય છે. છતાંએ એ આશ્રયથી આશ્રયીનુ' અનુમાન કરનાર કહેવામાં આવ્યું છે. તે! આનુ કારણ આ પ્રમાણે છે કે લેકમાં ધૂમ અગ્નિના આશ્રયે રહે
अ० ६५
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अनुयोगद्वारसूत्रे ग्न्याश्रयत्वेनापि लोके प्रसिद्धत्वादत्रापि तदुपन्यासः कृत इति नास्ति कश्चिदोषः। तथा-आकृत्यादिभिश्व मनसोऽप्यनुमानं भवतीत्यपि बोध्यम् । उक्तं च
आकारैरिङ्गितर्गत्या, चेष्टया भाषणेन च ।
नेत्रवाधिकारैश्व, लक्ष्यतेऽन्तर्गतं मनः ॥इति।। तदेतत् शेषवदनुमानम् ॥ सू० २२१ ॥
अथ दृष्टसाधयंवदनुमानं निरूपयति
मूलम्-से किं तं दिसाहम्मवं? दिटुसाहम्मवं दुविहं पण्णत्तं, तं जहा-सामन्नदिटुं च विसेसदिलं च । से किं तं सामन्नदिलु ? सामन्नदिटुं-जहा एगो पुरिसो तहा बहवे पुरिसा, जहा बहवे पुरिसा तहा एगो पुरिसो। जहा एगो करिसावणो तहा बहवे करिसावणा, जहा बहवे करिसावणा तहा एगो करिसावणो। से तं सामन्नदिटुं। से किं तं विसेसदिहें? विसेसदिटुं से जहाणामए-केइपुरिसे कंचि पुरिसं बहुगं पुरिसाणं मज्झे पुष्वदिटुं पच्चभिजाणेजा-अयं से पुरिसे। बहूणं करिसावणाणं मझे पुदिहं करिसावणे पञ्चभिजाणिना-अयं से करिसावणे। है कि-'लोक में धूम अग्नि के आश्रय रहता है ऐसी भी प्रसिद्धि है इसी बात को लक्ष्य में रख कर धूम को आश्रय मान कर तदाश्रयी अग्नि का उसे अनुनापरु कहा गया है। इसी प्रकार से आकृति आदि से मर का भी अनुमान होता है । 'आकारैरिङ्गितर्गत्या' इत्यादि श्लोक द्वारा यही बात कही गई है। इस प्रकार यह सब शेषव अनुमान है । सू० २२१ ॥
છે. એવી એક પ્રસિદ્ધિ છે. આ વાતને લક્ષ્યમાં રાખીને જ ધૂમને આશ્રય માનીને તેને તદાશ્રયી અગ્નિને અનુમાપક કહેવામાં આવ્યો છે. આ રીતે साति माहिथी भनन ५ अनुमान य:य छे. 'आकारैरिङ्गितर्गत्या' त्याल
ક વડે એજ વાત કહેવામાં આવી છે. આ રીતે આ સર્વ શેષવત્ અનુમાન છે કે સૂત્ર ૨૨૧
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अनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र २२२ दृष्टसाधर्म्यवदनुमाननिरूपणम् ५१५ तस्स समासओ तिविहं गहणं भवइ, तं जहा-अईयकालग्गहणं, पडुप्पण्णकालग्गहणं, अणागयकालग्गहणं। से किं तं अईयकालग्गहणं ? अईयकालग्गहणं-उत्तणाणि वणाणि, निष्फण्णसस्सं वा मेइणि, पुण्णाणि य कुंडसरणईदीहियातडागाई पासित्ता तेणं साहिजइ जहा-सुवुटी आसी। से तं अतीयकालग्गहणं। से किं तं पडुप्पण्णकालग्गहणं? पडुप्पण्णकालग्गहणंसाहुं गोयरग्गगयं विच्छड्डियपउरभत्तपाणं पासित्ता तेणं साहिजइ जहा सुभिक्खे वहई। से तं पडुप्पण्णकालग्गहणं। से कि तं अणागयकालग्गहणं? अणागयकालग्गहणं-"अब्भस्स निम्मलत्तं, कसिणा य गिरी सविज्जया मेहा। थणियं वाउभामो, संझा रत्ता पणिहाय ॥१॥ वारुणं वा महिंदं वा अण्णयरं वा पसत्थं उप्पायं पासित्ता तेणं साहिजइ जहा-सुवुट्ठी भविस्सइ। से तं अणागयकालग्गहणं। एएसिं चेव विवज्जासे तिविहं गहणं भवइ, तं जहा-अतीयकालग्गहणं पडुप्पण्णकालग्गहणं अणागयकाल. गगहण से किंतंअतीयकालग्गहणं? अइयकालग्गहणं-नित्तणाई वणाई, अनिप्फणसस्सं वा मेइणि, सुक्काणि य कुंडसरणई दिहीयतडागाइं पासित्ता तेणं साहिजइ, जहा-कुवुटी आसी, से तं अतीयकालग्गहणं । से किं तं पडुप्पण्णकालग्गहणं? पडु. प्पण्णकालग्गहणं-साहुंगोयरग्गगयं भिक्खं अलभमाणं पासित्ता तेणं साहिजइ-जहा दुभिक्खं वट्टइ, से तं पडुप्पण्णकालग्गहणं। से किं तं अणागयकालग्गहणं? अणागयकालग्गहणं
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अनुयोगद्वारसूत्रे 'धूमायंति दिसाओ सवियमेइणी अपडिबद्धा वाया। नेरइया खलु, कुवुट्ठीमेवं निवेयंति ॥१॥ अग्गेयं वा वायवं वा अण्णयरं वा अप्पसत्थं उपायं पासित्ता तेणं साहिजइ, जहा-कुवुट्टी भविस्सई। से तं अणागयकालग्गहणं। से तं विसेसदिटुं। से तं दिटुसाहम्मवं। से तं अणुमाणे ॥सू० २६२॥
छाया-अथ किं तत् दृष्टसाधयेत् ? दृष्टसाधम्र्यवद् द्विविधं प्रज्ञप्तं, तद्यथा-सामान्यदृष्टं च विशेष दृष्टं च । अध किं तत् सामान्य दृष्टं ?, सामान्यदृष्ट-यथा एकः पुरुषस्तथा बहवः पुरुषाः, यथा बहवः पुरुषास्तथा एकः पुरुषः। यथा एका कार्यापणः तथा बहरः कर्षापगाः, यथा वन कार्यापणास्तथा एकः कर्षापणः । तदेतत् सामान्यदृष्टम् । अथ किं तत् विशेषदृष्टं ? विशेषदृष्टम्-स यथानामकः कोऽपि पुरुषः कंचित् पुरुषं बहूनां पुरुषाणां मध्ये पूर्वदृष्टं प्रत्यभिजा. नीयात्-अयं स पुरुषः बहूनां कार्षापणानां मध्ये पूर्वट कपिणं प्रत्यभिजानीयात्-अयं स कर्षापणः । तस्य समासतः त्रिविधं ग्रहणं भवति, तद्यथा-अतीतकालग्रहणं प्रत्युत्पन्न कालग्रहणम् , अनागतकालग्रहणम् । अथ किं तत् अतीतकालग्रहणम् ?, अतीतकालग्रहणम्-उत्तृणानि वनानि, निष्पन्नसस्शं वा मेदिनी, पूर्णानि च-कुण्डसरो नदी दीर्घिका. तडागानि दृष्ट्वा तेन कथ्यते यथा सुवृष्टिरासीत् । तदेतत् अतीतकालग्रह गम् । अथ किं तत् प्रत्युत्पन्नकालग्रहणम् ?, मत्यु. त्पन्नकालग्रहणम्-साधु गोवरायगतं विच्छदितप्रचुरमतरानं दृष्ट्वा तेन कथ्यते, यथा-सुभिक्षं वर्तते । तदेनन् - प्रत्युत्पन्न कालग्रहणम् । अव किं तत् अनागतकाळग्रहणम् ?, अनागतकाळग्रहणम् अभ्रय निर्मलत्वं कृष्णाश्च गिरयः सविद्युतो मेपाः । स्तनितं वायूभ्रामः पंच्या रक्ता स्निग्या च ॥१॥' वारुणं वा माहेन्द्र वा अन्यतरं वा प्रशस्तम् उत्पातं दृष्ट्वा तेन कथ्यते, यथा-सुदृष्टिभविष्यति । तदेतत् अनागतकालग्रहणम् । एतेषामे। विपर्या से त्रिविधं ग्रहणं भवति, तद्यथाअतीतकालग्रहणं प्रत्युत्पन्न कालग्रह गम् , अनागाशालग्रहणम् । अथ कि तत् अतीतकाळग्रहणम् ?, अतीतकालग्रहणम्-निस्वृणानि वनानि, अनिष्पन्नसस्यां वा मेदिनी, गुष्काणि च कुण्ड सरोनदीदीपिकातडागानि दृष्ट्वा तेन कथ्यते, यथा-कुवृष्टिरासीत् । तदेतत् शीतकालग्रहणम् । अथ किं तत् प्रत्युत्पन्नकालग्रहणम् ? प्रत्युत्पन्नकालग्रहणं-साधुं गोचरानातं भिक्षामलभमानं दृष्ट्वा तेन कथ्यते, यथा-दुर्भिक्षं वर्तते । तदेतत् प्रत्युत्पन्न कालग्रहणम् । अथ किं तत् अनागतकालग्रहणम् ?, अनागतकालग्रहणम्-धूमायन्ति दिशः सवियतो मेदिनी अपति
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अनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र २२२ दृष्टसाधर्म्यवदनुमाननिरूपणम् ५१७ वद्धा बाता। नैऋतिका बलु कुष्टेमे निवेदन्ति ॥१॥ आग्नेयं वा वायव्यं वा अन्यतरं वा अपशस्तम् उपातं दृष्ट्वा तेन कथ्यते यथा-कुष्टिर्भविष्यति । तदेतत् अनागतकालग्रहणम् । तदेतत् विशेषदृष्टम् । तदेतद् दृष्टसाधर्म्यवत् । तदे. तत् अनुमानम् ॥ मू० २२२ ॥
टीका--से कि दिहिसाहम्मवं' इत्यादि
'अथ किं तद् दृष्टपाधयेत् ? इति प्रश्नः । उत्तरयति-दृष्ट साधर्म्यवत् दृष्टेन पूर्वोपलब्धेनार्थेन सह साधर्म्यम्-दृष्टसाधय, तद् गमकत्वेन यस्यास्ति तदनुमानं दृष्टायमेश । पूर्वदृष्टवाः कश्चित् सामान्यतः कश्चित्तु विशेषतो दृष्टः स्यात् । अव हादिदं द्विविधम् - सामान्यदृष्टं विशेषदृष्टं च । सामान्यतो
अब पत्रकार दृष्टसाधर्म्यवत् अनुमान का निरूपण करते हैं'से किं तं दिसाहम्मवं?' इत्यादि ।
शब्दार्थ---(हे किं तं दिसाहम् पव) हे भदन्त ! दृष्टासाधर्म्यवत् अनुमान था ? दिट्टसाहन दुहं पण्णतं)
उत्तर--दृष्टसाधयेत् अनुमान दो प्रकार का कहा गया है (तं जहा) वे प्रकार चे हैं । -सामन्लादिष्टं च विसेसदिट्ट च) एक सामान्य दृष्ट और दमा विशेषदृष्ट । पूर्व में उपलब्ध पदार्थ के साथ जो अन्य अदृष्ट का साधर्म्य है, वह दृष्टसाधर्म्य है । दृष्टसाधर्म्य जहां गमक होता है बहनुमान दृष्टयाधीत् है। पूर्व में कोई पदार्थ मामान्यरूप से दृष्ट होता है और कोई विशेषरूप से। इसलिये दृष्टपदार्थ के भेद से इस अनुमान के भी ये दो भेद हो गये हैं । एक सामान्यदृष्ट और दूसरा विशेषदृष्ट । सामान्यतः दृष्ट अर्थ के संबन्ध से सामान्यदृष्ट
હવે સૂત્રકાર દૃષ્ટસાધમ્યવત્ અનુમાનનું નિરૂપણ કરે છે. 'से कि त दिवसाहम्मव ? ' त्यादि।
शहाथ--(से कि तं दिसाहम्म) 8 सापट सापयत् अनुमान शुछ १ (दिद्विसाहम्मवं दुविहं पण्णत्त)
ઉત્તર--દષ્ટ સાધમ્યવત્ અનુમાન બે પ્રકારનું કહેવામાં આવ્યું છે. (तजा ) ते ५४२ मा प्रमाणे छे. (सामन्न दिद्वै च विसेस दिदं च) मे સામાન્ય દષ્ટ અને અન્ય વિશેષ દષ્ટ પૂર્વમાં ઉપલબ્ધ પદાર્થની સાથે જે અન્ય અદૃષ્ટનું સાધર્યું છે, તે દષ્ટ સાધમ્યું છે, આ સાધર્યા જ્યાં ગમક હોય છે, ત્યાં તે અનુમાન દષ્ટ સાધમ્યવત્ છે. પૂર્વમાં કઈ પદાર્થ સામાન્ય રૂપથી દષ્ટ હોય છે અને કેઈ વિશેષ રૂપથી એટલા માટે દષ્ટ પદાર્થના ભેદથી આ અનુમાનના પણ બે ભેદે થઈ ગયા છે. એક સામાન્ય દષ્ટ અને અન્ય વિશેષ દષ્ટ સામાન્યતઃ દષ્ટ અર્થના સંબંધથી સામાન્ય દષ્ટ અને
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५१८
अनुयोगद्वार सूत्रे
दृष्टार्थयोगात् सामान्यदृष्टम्, विशेषतो दृष्टार्थयोगाद विशेषदृष्टं चेति भावः । तत्र सामान्यदृष्टं यथा एकः पुरुषस्तथा बहवः पुरुषाः, यथा बहवः पुरुषास्तथैकः पुरुष इत्यादि । अयं भावः - नारिकेलद्वीपादायातः कश्चित् पुरुषः सामान्येनैकं पुरुषं दृष्ट्वा एवमनुमिनोति, यथा - अयमेको दृश्यमानः पुरुषएतदाकारविशिष्टस्तथा बहवोऽत्रापरिदृश्यमानाः पुरुषा अपि एतदाकारविशिष्टा एव, पुरुषत्वात्रिशेषात्, अन्याकारत्वे पुरुषत्वहानिप्रसङ्गात् गवादिवदिति । तथा कश्चित्तथाऔर विशेषतः दृष्ट अर्थ के संबन्ध से विशेषदृष्ट होता है। (से किं तं सामन्नदिट्ठ ?) हे भदन्त ! वह सामान्यदृष्ट अनुमान क्या है ?
3
उत्तर - ( सामन्नदिट्ठ) सामान्यदृष्ट अनुमान इस प्रकार से है( जहा एगो पुरिसो तहा बहवे पुरिसा जहा बहवे पुरिसा तहा एगो पुरिसो) जैसा एक पुरुष होता है, वैसे ही अनेक पुरुष होते है, जैसे अनेक पुरुष होते है, वैसा ही एक पुरुष होता है । इसका तात्पर्य यह है - नारिकेल द्वीप से आया हुआ कोई पुरुष सामान्य से एक पुरुष को देखकर ऐसा अनुमान कर लेता है कि 'जैसा यह एक दृश्यमान पुरुष इस आकार से विशिष्ट है, उसी प्रकार अन्य और भी बहुत से पुरुष कि- जिन्हें मैंने देखा नहीं ऐसे ही आकार से विशिष्ट होंगे। क्योंकि जिस प्रकार से इस दृश्यमान पुरुष में पुरुषस्वरूप सामान्य धर्म विद्यमान है, उसी प्रकार से अन्य अदृष्ट पुरुषों में भी वह विद्यमान है । उसमें कोई विशेषता नहीं है । यदि अन्य अदृष्ट पुरुषों में विशेषतः दृष्ट अर्थना समाधथी विशेष दृष्ट होय छे. (से कि त सामन्न दिट्ठ ?) डे लहांत! ते सामान्यदृष्ट अनुमान शु छे ?
उत्तर -- (सामन्न दिट्ठ) सामान्य दृष्ट अनुमान या प्रमाणे छे. (जहा एगो पुरिलो तहा बहवे पुरिसा जहा बहवे पुरिसा तहा एगो पुरिसो) नेवा એક પુરૂષ હાય છે, તેવા જ ઘણા પુરૂષા હોય છે. જેવા અનેક પુરૂષ! હાય છે, તેવા એક પુરૂષ હાય છે. આનું તાત્પર્યાં આ પ્રમાણે છે કે નારિકલ દ્વીપથી આવેલા કોઇ પુરૂષ સામાન્ય રૂપમાં એક પુરૂષને જોઈને આ જાતનુ’ અનુમાન કરી લે છે કે જે। આ એક દેશ્યમાન પુરૂષ આ આકારથી વિશિષ્ટ છે, જેમને મે' જોયા નથી એવા અન્ય સ પુરૂષો પણ આ જાતના આકારથી યુક્ત હશે જ. કેમકે જે પ્રમાણે આ દૃશ્યમાન પુરૂષમાં પુરૂષત્વરૂપ સામાન્ય ધમ વિદ્યમાન છે, તે પ્રમાણે જ અન્ય અદૃષ્ય પુરૂષામાં પણ વિદ્યમાન છે. તેમાં કાઈપણ જાતની વિશેષતા નથી. જો અન્ય અદૃષ્ય પુરૂષામાં ભિન્ના
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अनुयोगन्द्रिका टीका सूत्र २२१ दृष्टलाधर्म्यवदनुमाननिरूपणम् विधः पुरुषः प्रथमतो बहून् पुरुषान् दृष्ट्वा एवमनुमिनोति-यथा एते दृश्यमानाः पुरुषा एतदाकृतिविशिष्टास्तथाऽपरिदृश्यमान एकः पुरुषोऽप्येतदाकृतिविशिष्टः स्यात् पुरुषत्वात् , इतराकारत्वे तु तद्धानिः प्रसज्येत, अश्वादिवदिति । एवं कार्षापगादिष्वपि बोध्यम् । अथ विशेषदृष्टमनुमानं निरूपयति विशेषदृष्टं दृष्टसाधर्म्यभिन्नाकारता मानी जावेगी तो पुरूषत्त्वरूप सामान्य की हानि होने का प्रसंग प्राप्त होगा। जैसे गाय आदि में पुरुषत्व सामान्य का अभाव भिन्नाकारता की विद्यमानता से रहता है इस प्रकार एक में दृष्टपुरुषत्वरूप सामान्य अर्थ की समानता से अन्य अदृष्ट अनेक पुरुषों में भी अमुक आकाररूप विवक्षित धर्म की सिद्धि करना यह सामान्य दृष्टसाधर्म्यवत् अनुमान है। इसी प्रकार नारिकेल द्वीप से आया हुआ कोई पुरुष जब कि-पहिले पहल वह अनेक पुरुषों को देखता है, तब देखकर ऐसा अनुमान करता है कि जैसे ये देखे गये पुरुष इस आकारवाले हैं उसी प्रकार का आकार वाला नहीं देखा गया, एक पुरुष होगा। क्योंकि उसमें भी पुरुषस्वरूप सामान्य धर्म रहता है । भिन्नाकारता में पुरुषत्वरूप सामान्य धर्म की हानि होने का प्रसंग प्राप्त होता है। जैसे घोडे आदि में इतराकारता के सद्भाव से पुरुषत्व सामान्य की हानि है। इसी प्रकार से कार्षापण आदिको में भी जानना चाहिये। यही घात (जहा एगो करिसावणो तहा यहवे करिसावणा जहा यहवे करिमावणा तहा एगो करिसावणो) इस सूत्रपाठ કારતા માનવામાં આવશે તે પુરૂષવરૂપ સામાન્યની હાનિ થાય તે અભાવ મિનાકારતાની અપેક્ષાએ વિદ્યમાન છે તેમજ એકમાં દષ્ટ પુરૂષવારૂપ સામાન્ય અર્થની સમાનતાથી અન્ય અદષ્ટ અનેક પુરૂષોમાં પણ અમુક આકારરૂપ વિવક્ષિત ધર્મની સિદ્ધિ કરવી તે સામાન્ય દષ્ટ સાધમ્યવત્ અનુમાન છે. આ રીતે નારિકેલ દ્વીપમાંથી આવેલ કોઈ પુરૂષ જ્યારે સૌ પ્રથમ ઘણા પુરૂષોને જુએ છે, ત્યારે તેમને જોઈને એવું અનુમાન કરે છે કે જેમ આ જોવામાં આવેલા પુરૂષે આ આકારવાળા છે, તેવા જ પ્રકારના આકારવાળ નહિ જોવામાં આવેલ એક પુરૂષ પણું છે. કેમકે તેમાં પણ પુરૂષત્વરૂપ સામાન્ય ધર્મ રહેલ છે. ભિન્નાકારતામાં પુરૂષત્વરૂપ સામાન્ય ધર્મની હાનિ થવાને પ્રસંગે ઉપસ્થિત થાય છે. જેમ ઘડા આદિમાં ઈતરકારતાના સદૂભાવથી પુરૂષત્વ સામાન્યની हानि छ. या प्रमाणे ५४ पणेरेभा ५९ गए ये मे पात (जहा एगो करिसावणो तहा बहवे करिसावणा जहा बहवे करिसावणा तहा एगो
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५२०
अनुयोगद्वार बदनुमानमेवं भवति-यथानाम कश्चिन् पुरुषो बहूनां पुरुषाणां मध्ये कमपि पूर्व दृष्टं पुरुषं प्रत्यभिजानीयात् अयं स पुरुष इति । अनुमानप्रयोगश्चेत्यम्-य: पूर्व मयोपलब्धः स एवायं पुरुषः, तथैव प्रत्यभिज्ञायमानत्वात् , उमयाभिमतपुरुषवत् , इति । एतदनुमानं विशेषष्टमुच्यते पुरुषविशेषविषयत्तात् । एवं कार्षापणादि द्वारा कही गई है। (से तं सामनदिट्ट) इस प्रकार यह सामान्य दृष्टदृष्ट साधर्म्यवत् अनुमान का भेद है। (से किं तं विसे सदि) हे भदन्त ! वह विशेषदृष्ट क्या है ? ..
उत्तर-(विसेसदि) दृष्टसाधाय॑वत् का भेद जो विशेषदृष्ट है, वह इस प्रकार से है-(से जहाणामए केई पुरिसे कंचि पुरिसं यहूर्ण पुरिसाणं मज्झे पुवादिष्ट पच्चभिजाणेज्जा-अयं से पुरिसे) जैसे कोई पुरुष अनेक पुरुषों के बीच में किसी पूर्वदृष्ट पुरुष को पहिचान लेता है कि-'यह वह पुरुष है । यहां अनुमान प्रयोग इस प्रकार से करना चाहिये । 'यः पूर्व मयोपलब्धः स एवायं पुरुषः तथैव प्रत्यभिज्ञायमानस्वात् उ भयाभिमतपुरुषवत्' जिस पुरुष को मैंने पहिले देखा था, वही यह पुरुष है क्योंकि मैंने उसी रूप से इसे पहिचान लिया है। उभय को अभिमत पुरुष की तरह। यहां 'यः मयोपलब्धः' इतना अंश पक्ष का है 'स एवायं पुरुषः' इतना अंश साध्यकोटि का है। तथैव प्रत्यभिज्ञायमानत्वात्' इतना अंश हेतु है। 'उभयभिमतपुरुषः धत्' यह साधर्म्यदृष्टान्त है । इस अनुमान प्रयोग में (रुप विशेष करिसावणो) मा सूत्रा४ प ४31मावली छ. (सेत सामन्नदिव) भा प्रभाव मा सामान्य हट साधत अनुमानना ले. छ. (से कि त विसेमदि) 3 महत! विशेष ट शु छे.
उत्तर--(विसेसदिढ') दृष्ट साभ्यवत् । मेरो विशेष छ, ते मा प्रभाव छे. (से जहाणामए केई पुरिसे कंचि पुरिसं बहूणं पुरिसणं मज्झे पुष्वदि पच्चभिजाणेज्जा-अयं से पुरिसे) ७ ५३५ मन यानी क्यमा २६ કે પૂર્વ દૃષ્ટા પુરૂષને ઓળખી લે છે કે, “આ તે જ માણસ છે અહીં અનુમાન प्रयासमा रीते ४२ नये. "यः पू मयोपलब्धः स एवायं पुरुषः तथैव प्रत्यभिज्ञायमानत्वात् उभयाभिमतपुरुषवत्'२ ५३पने में पता नयो हतो, તેજ પુરૂષ આ છે, કેમકે મેં એને તે જ રૂપમાં ઓળખી લીધું છે. ઉભયા लिमत ५३पनी म सही 'य: पूर्वं मयोपलब्धः' माटो मा ५६ समाधी छ. 'स एवायं पुरुषः' मा भाग साटिना छे. तथैव प्रत्यभिज्ञायमान खात' मा माग छ. 'उभयाभिमतपुरुषवत्' मा साम्य हटान्त छे. આ અનુમાન પ્રયોગમાં પુરૂષ વિશેષને વિશેષરૂપથી મૂકવામાં આવ્યું છે.
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अनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र २२२ दृष्टसाधर्म्यवदनुमाननिरूपणम् ५२१ विषयेऽपि विशेषदृष्टानुमानं बोध्यम् । इदं विशेषदृष्टमनुमानं कालत्रयविषयं भवतीति दर्शयितुमाह-'तस्स समासो' इत्यादि-तस्य विशेषदृष्टस्यानुमानस्य समासत:-संक्षेपास्वविधं ग्रहणं भवति । यथा-अतीतकालग्रहणं प्रत्युत्पन्नकालग्रहणम् अनागतकाळग्रहणं चेति । तत्र-अतीतकालविषयं ग्राह्यस्य वस्तुनो ग्रहण परिच्छेदः-अतीतकालग्रहणम् । प्रत्युत्पन्नकाल: वर्तमानकालस्तद्विषयं ग्रहण प्रत्युत्पन्नकालग्रहणम् । अनागतकालो भविष्यकालस्तद्विषयम्-अनागतकालग्रह णम् । कालत्रयवर्तिनोऽपि विषयस्यानुमानात् परिच्छेदो भवतीत्यर्थः । तत्र दृष्ट है । इस प्रकार से कार्षापा आदि में विशेष दृष्ट अनुमान की प्रवृत्ति कर लेनी चाहिये । यही बात 'पहूणं करिसावणाणं मज्झे पुव्ध दिटुं करिसावणं पच्चभिज्जाणिज्जा-अयं से करिसावणे) इस सूत्रपाठ द्वारा दिखलाई गई है । यह विशेषदृष्ट अनुमान भूत, भविष्यत्
और वर्तमान इन तीनों कालों को विषय करता है। इस बात को अब सूत्रकार कहते हैं-(तस्स समासओ तिविहं गहणं भवइ) उस विशेषदृष्ट अनुमान का विषय संक्षेप से तीन प्रकार का होता है(तं जहा) जम्ने (अईधकालग्गहण, पडुप्पण्णकालग्गहणं, अणागयकाल. ग्गहणं) अतीत काल का विषय वर्तमान काल का विषय और भवि. व्यत् काल का विषय । तात्पर्य कहने का यह है कि मनुष्य इस विशेष दृष्ट अनुमान की सहायता से अतीत काल में जो बात हो गई उसे. वर्तमान काल में जो बात हो रही हो उसे और भविष्यत् में जो એટલા માટે આ અનુમાન વિશેષ દૃષ્ટ છે. આ પ્રમાણે કાર્લાપણુ વગેરેના સંબંધમાં પણ વિશેષ દષ્ટ અનુમાનની પ્રવૃત્તિ કરી લેવી જોઈએ. એ જ વાત बहूण करिसावणाणं मज्झे पुव्व दिटुं करिसावण पञ्चभिज्जाणिज्जा-अयं से करिसावणे) मा सूत्रा परे २५ ४२वामां मावी छ. म विशेष अनु. માન ભૂત, ભવિષ્યનું અને વર્તમાન આ ત્રણે કાળોને વિષય બનાવે છે. मा पातने सूत्रा२ २५०८ ४२ . (तस्स समासओ तिविहं गहण भवइ) ते વિશેષદષ્ટ અનુમાનને વિષય સંક્ષેપમાં ત્રણ પ્રકાર હોય છે. (સંદ) જેમ કે (अईयकालग्गहणं पडुपण्णकालगहणं, अणागयकालगाहणं)मतीत विषय, વર્તમાનકાળને વિષય, અને ભવિષ્યકાળને વિષય તાત્પર્ય આ પ્રમાણે છે કે મનુષ્ય આ વિશેષ દૃષ્ટ અનુમાનની સહાયતાથી અતીતકાળમાં જે વાત થઈ ચૂકી છે, વર્તમાન કાળમાં જે વાત થઈ રહી છે, અને ભવિષ્યત્વમાં
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५२२
अनुयोगद्वारसूत्रे
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अतीतकालेन ग्रहणं यथा भवति तथोच्यते यथा कश्चिज्जनः कस्मिंश्चिद् देशे तेन उत्तणानि - उद्गततृणानि येषु तानि वनानि, तथा - निष्पन्नसस्यां निष्पन्नानि= निवृत्तानि सस्यानि यस्यां सा तथा तां मेदिनीं = पृथिवीं तथापूर्णानि =जलपूरितानि कुण्डलरोनदीदीर्घिकातडागादीनि - तत्र - कुण्डं जलाशयविशेषः, सरः = कासारः, नदी प्रसिद्धा, दीर्घिका=वापी, तडागः = पसिद्धः, एतदादीनि जलस्थानानि वा एवं साध्यते = अनुमीयते यदत्र सुवृष्टिरासीदिति । अनुमानमयोगश्चेत्थम्-इह देशे सुदृष्टिरासीत् समुत्पन्नतृणवनसस्य पूर्णमेदिनी
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बात होने वाली हो उसे अनुमित कर लेता है। (से किं तं अईयकालग) हे भदन्त | वह अतीतकाल ग्रहण क्या है ?
उत्तर--(अईयकोलग्गहणं) अतीत काल ग्रहण इस प्रकार से है-( उसणाणि बणाणि, निष्कण्णसस्तं वा मेणि पुष्णाणि य कुंडसरणई दीहिया तड़ागाई पासित्ता तेणं साहिज्जह, जहा सुबुट्टी आसी) जैसे कोई मनुष्य किसी देश में गया वहाँ उसने जंगलों में घास ऊगी हुई देखी, पृथिवी को सस्याङ्कुरों से हरि भरी देखी, कुण्ड, सर, नदी, वापी, और तडाग इन सब को जल से भरा हुआ देखा, तो देखकर उसने अनुमान लगाया कि- 'यहां पर बहुत अच्छी वर्षा हुई है । तब उसने ऐसा अनुमान प्रयोग किया कि-' इह देशे सुवृष्टिः आसीत् समुत्पन्न तृणवनसस्यपूर्णमेदिनी जलपूर्णकुण्डादिदर्शनात् तदेशवत्' । ( से
अकालग्गहणं) इस प्रकार अतीत में हुई वृष्टि का परिच्छेद
थे वात थनारी छे, तेनुं अनुमान पुरी से छे. (से किं तं अईयकाल गहणं ) डे ભદત! અતીતકાળ ગ્રહણ શું છે ?
उत्तर- (उत्तणाणि, वाणि, निष्कण्णसरसं वा मेइणि पुष्णाणि य कुंड वरणईदीहिया तडागाई पासित्ता ते णं साहिज्जइ, जहा सुवुट्ठी आसी) भेभ કોઈ મનુષ્ય કોઈ દેશમાં ગયા. ત્યાં તે માણસે જ ગલમાં ઘાસ ઊગેલું જોયું, પૃથ્વીને સસ્યાંકુરાથી હરિત વણી થયેલી જોઇ, કું'ડ સર, નદી, વાળી, અને તડાગ આ સર્વને જલથી સ'પૂરિત જોયાં, આ મધુ જોક ને તે અનુમાન કરવા લાગ્યા કે અહીં બહુ જ સારી વષઁ થઈ છે. ત્યારે તેણે આ જાતના अनुभाननेो प्रयोग 'इह देशे सुदृष्टिः आसीत् समुत्पन्नतृणवन सस्यपूर्ण मेदिनी जलपूर्ण कुडादिदर्शनात् तद्देशक्त् ” ( से तं अईयकालग्गहणं ) આ રીતે અતીતમાં થયેલ વૃષ્ટિના પરિચ્છેદ, અતીતકાળ ગ્રહણ છે અહી'
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अनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र २२२ दृष्टसाधर्म्यवदनुमाननिरूपणम् जलपूर्णकुण्डादिदर्शनात्, तदेशवदिति । इत्थमतीतस्य वृष्टिलक्षणविषयस्य परि च्छेदः । अथ वर्तमान कालेन ग्रहणं यथा भवति तथाह से किं तं षडुप्पण्णकालग्गहणं' इत्यादिना । कस्मिंश्चिद् देशे कश्चिद् गतः, तत्र गोचराग्रगतं - गोचराय = मिक्षायै अग्रगतम् - प्रथमतो गतं चिच्छर्दितमचुर भक्तपानम् - त्रिच्छदितं = गृहिभिः प्रदत्तं प्रचुरं भक्तपानं यस्मै तथाविधं साधु दृष्ट्वा तेन साध्यते = अनुमीयते, यथा - सुभिक्षमिह वर्तते इति । अनुमानप्रयोगश्रेत्थम् अयं देशः सुभिक्षः, साधूनां तद्धेतुकप्रचुरभक्कमनला भदर्शनात् तद्देशवदिति । अथ भविष्यत्कालेन ग्रहणं यथा भवति तथाह - 'से किं तं अणागयकालग्गहण' इत्यादि । अयं भावःअभ्रस्य = आकाशस्य निर्मलत्वम्, कृष्णवर्णा गिरयः सविद्युतो - विद्युत्सहिता अतीतकाल ग्रहण है । यहां ग्राह्य वस्तु सुवृष्टि है । इसका अतीतकाल में होना अनुमान द्वारा ग्रहण किया-गया है । (से किं पडुप्पण्णकालi) हे भदन्त ! प्रत्युत्पन्नकाल से ग्रहण क्या है ।
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उत्तर--(पडुप्पण्ण कालग्गहणं) प्रत्युत्पन्नकाल से ग्रहण इस प्रकार है - ( साहु गोयरग्गगयं विच्छडियपउर भत्तपाणं पासित्ता तेणं साहिज्जइ जहा सुभिक्खे इ) भिक्षा के लिये निकले हुए साधुको कि'जिसे गृहस्थोंने प्रचुरभक्तपान दिया है, देखा तब देखकर उसने अनुमान लगाया कि - ' यहां सुभिक्ष है । 'अनुमान प्रयोग यहाँ ऐसा करना - 'अस्मिन् देशे ? सुभिक्षः साधूनां तद्धेतुक प्रचुर भक्तपानलाभदर्शनात् तद्देशवत्' (से किं तं अणागयकालग्गहणं) हे भदन्त ! अनागतकाल से ग्रहण क्या है ? (अणागयकालग्गहणं) अनागतकाल से ग्रहण इस प्रकार से है - ( अम्भस्स निम्मलत्तं, कसिणा य गिरी, सविज्जुया
ગ્રાહ્ય વસ્તુ સુવૃષ્ટિ છે. આનું અતીતકાળમાં થવું તે અનુમાન વડે ગ્રહણુ श्वासां भाव्यु छे. (से किं तं पडुप्पण्ण कालग्गहणं) हे लहांत ! प्रत्युत्यन्न કાળથી ગ્રહણ શું છે ?
उत्तर-(पडुप्पण्णकालग्गहणं) प्रत्युत्पन्नप्रणथी श्रथ सा प्रमाणे छे. ( साहुं गोयरग्गगयं विच्छड्डियपउर भत्तपाणं पासित्ता तेणं साहिज्जइ अहा सुभिक्खे वट्टइ) लक्षा भाडे महार नाम्जेसा साधुने हैं लेने गृहस्थाच्थे प्रयुर ભક્તપાન આપ્યુ છે, જોયા ત્યારે જોઈને તેણે અનુમાન કર્યું કે ‘અહી सुभिक्ष छे' यहीं अनुमान प्रयोग मेवी ते १२वे - " अस्मिन् देशे सुभिक्षः खाधुनां तद्धेतुकप्रचुरभक्तपानला मदर्शनात् तद्देशवत् " ( से किं तं अणागयकालग्गहणं) डे लडन्त ! अनागतात अडथं शु छे ? ( अणागयकालग्गहणं )
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अनुयोगद्वारसूत्र मेघाः, स्तनितम्-मेघगजितम् , उद्भ्रामा वायूद्मामः-तथाविधोवृष्टिविधाताजनक: प्रदक्षिणं दिक्षु भ्रमन प्रशस्तो वातः, च-पुनः प्रस्निग्धाः रक्ता-पस्नि. ग्धरक्तवर्गा सन्ध्या, इत्येतानि सर्वाणि सुदृष्टेश्चितानि तानि दृष्ट्वा, तथा-वारुणम्-आपूलादिनक्षत्रपभयं वा, माहेन्द्रम् रोहिणीज्येष्ठादिनक्षत्रप्रभवं वा, इतो. ऽन्यतरं वा उत्पातम्-उल्कापातदिग्वाहादिकं प्रशस्तं वृष्टिनिमित्तकं दृष्ट्वा तेन साध्यते= अनुमीयते, यथा मुष्टिर्भविष्यतीति । अनुमानप्रयोगश्चेस्थम्-अयं देशो भविष्यत्सुवृष्टिकः, दृष्टिनिमित्तकानामभ्रनिर्मलत्वादीनां समुदितानामन्यतमस्य वा दर्शनात् , तद्वदिति। विशिष्टमकारका निर्मलत्वादयो वृष्टिनिमित्तका मेही थणियं वाउभामो, संझारत्ता पणिट्ठाय) आकाश की निर्मलता, कृष्णवर्ण वाले पर्वन, विद्युत्साहित मेघ, मेघ की गर्जना, वृष्टि को नहीं रोकनेवाली वायु की चाल, अर्थात् पुरवाइ हवा, तथा प्रस्निग्धरक्तवर्णवाली संध्या-इन सब सुवृष्टि के चिह्नों को देखकर, तथा (वारु. णं वा महिंदं वा अण्णयरं वा पसत्थं उप्पायं पासित्ता तेणं साहिज्जइ, जहा सुवुट्ठीभविस्सइ । से तं अणागयकालग्गहणं ) आामूल इन नक्षत्रों से उत्पन्न हुए अथवा रोहिणी ज्येष्ठा आदि नक्षत्रों से उत्पन्न हुए उस्पत को अथवा इस उत्पात से भी भिन्न और दूसरे उत्पतों को-दिग्दाह, उल्कापात आदि उपद्रवों को-जो कि वृष्टि के प्रशस्त निमित्त होते हैं, देखकर कोई व्यक्ति ऐसा अनुमान करता हैं कि 'सुवृष्टि होगी। इसविषय में अनुमान प्रयोग इस प्रकार हैं-'अयं देशों भविष्यत्सुवृष्टिकः वृष्टिनिमित्तकानां अभ्रनिर्मलत्वादीनां सप्नुमनातstथी ७५ प्रमाणे छे. (अब्भस्म निम्मलत्तं कमिणाय, गिरी सविज्जुया मेहा थणि यं वाउमामो संझारत्ता पणिद्वाय) २४॥ निता, કવણુંવાળા પર્વત, વિઘસહિત મેઘ, મેઘની ગર્જના, વૃષ્ટિને નહિ રોકનાર પવનની ગતિ, અટલે કે પૂર્વને પવન, તેમજ પ્રસિનગ્ધ રક્તવર્ણવાળી સંધ્યા,
। मां सुवृष्टिना थिहीने नन तथा (वारुणं वा महिंदं वा अण्णयरं वा पसत्थं उपाय पासित्ता तेणं साहिज्जइ जहा सुवुट्ठी भविस्सइ। से तं अणागय कालग्गहणं) भाद्री, भू नक्षत्रोथी उत्पन्न येत अथवा डिली, गये! माह નક્ષત્ર વડે ઉત્પન્ન થયેલ ઉત્પાતને અથવા આ ઉત્પાત કરતાં પણ ભિન્ન અને બીજા ઉત્પાતને, દિગ્દાહ, ઉલ્કાપાત વગેરે ઉપદ્રને કે જેઓ વૃષ્ટિના પ્રશસ્ત નિમિત્તો છે, જેને કોઈ વ્યક્તિ એવી રીતે અનુમાન કરે “સુવૃષ્ટિ થશે આ समयमा अनुमान प्रयोग मा प्रमाणे छ. 'अयं देशो भविष्यत्सुवृष्टिकः घृष्टि निमित्तकानां अभ्रनिर्मलत्वादीनां समुदितानां अन्यतमस्य वा दर्शनात् तदेशवत्"
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अनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र २२२ दृष्टसाधर्म्यवदनुमाननिरूपणम् ५२५ भवन्ति, अतो असुमात्रा तब निपुणेन भाव्यमिति । तथा-एमादमागबना. दीनां विपर्यासे-परीत्येऽपि त्रिविधं ग्रहणं भवति । तच तदेवातीतिकालग्रहणादिकं बोध्यम् । तत्रासीतकालग्रहममेवं बोध्यम्-कधिज्जनः इतोऽपि देवाद देशान्तरं समावातः । तेन तत्र निस्सनानि वनानि, अनिष्पनसस्यां वा मेदिनी, शुष्काणि च कुण्डसरोनदीदीपिकातडागादीनि दृष्ट्वा साध्यते अनुमीयते, यथाकुष्टिरासीदिति । अनुमानप्रयोगश्चेत्थम् अयं देशः कुवृष्टिमान् , दुर्भिक्ष इत्यर्थः, निस्तृणवनादिदर्शनात् , तद्देशवदिति । वर्तमानकालग्रहणमेवं विनेयम्-कोऽपि जनः कस्मिंश्चिद् देशे समागतः । तत्र गोचराग्रगतं साधु भिक्षामलभमानं दृष्ट्वा दिनानां अन्यतमस्य वा दर्शनात् तद्देशवत्' इस प्रकार यह अनागतकाल ग्रहण है । (एएसिं चेव विवज्जासे तिविहं गहणं भवइ, तं जहांअतीयकालग्गहणं पडुप्पण्णकालग्गहणं अणागयकालग्गहणं) इन उद्गत तृणवनादि कों की विपरीतता में भी तीन प्रकार का ग्रहण होता हैवह इस प्रकार से है-जैसे कोई मनुष्य किसी देश से दूसरे किसी देश में आया-वहां उसने तृण रहित बनों को अनिष्पन्न धान्यवाली भूमि को एवं शुष्क, कुण्ड, सर नदी, दीर्घिका तथा तडाग आदिकों को देखा-तब देखकर उसने ऐसा अनुमान किया कि 'अयं देशः दुर्भिक्षः निस्तृणवनादिदर्शनातू तद्देशवत्' निस्तृणवनादिके देखने से, पहिले देखे हुए दूसरे देश के जैसा इस देश में वृष्टि नहीं हुई है। यह अतीत ग्रहण है। वर्तमान काल ग्रहण इस प्रकार से है-कोई मनुष्य किसी देश में आया वहां उसने पहिले से भिक्षा के लिये आये हुए किसी साधुको भिक्षा के लाभ से विहीन देखकर ऐसा अनुमान
मा प्रमाणे मी मनात घर छे. (एएसिं चेव विवज्जासे तिविहं गहणं भवइ, तं जहा अतीय कालग्गहणं पडुप्पण्णकालगणं अणागयकालग्ाहणं) मा ઉદ્દગત તૃણવનાદિકેની વિપરીતતામાં પણ ત્રણ પ્રકારનું ગ્રહણ થાય છે. તે આ પ્રમાણે છે. જેમ કોઈ માણસ કે દેશમાંથી કે ઈ બીજા દેશમાં ગયે ત્યાં તેણે તૃણ રહિત વનને, અનિષ્પન્ન ધાન્ય યુક્ત ભૂમિને તેમજ શુષ્ક, કુંડ સર નદી, દીકિા તથા તડાગ વગેરેને જોયાં, ત્યારે આ બધું જોઈને તેણે આ
तर्नु अनुमान है 'अयं देशः दुर्भिक्षः निस्तृणानादिदर्शनात् तद्देशवत् । નિર્વાણુ વનાદિ ને જેવાથી પહેલાં જોયેલા બીજા દેશની જેમ આ દેશમાં પણ વૃષ્ટિ થઈ નથી. આ અતીત ગ્રહણ છે. વર્તમાનકાળ ગ્રહણ આ પ્રમાણે છે કઈ માણસ, કોઈ દેશમાં ગયે. ત્યાં તેણે ભિક્ષાર્જન માટે આવેલા કેઈ સાધુને ભિક્ષા લાભથી વંચિત જોઈને આ જાતનું અનુમાન કર્યું કે અહીં અત્યારે
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अनुयोगद्वारसूत्रे
तेन साध्यते, यथा दुर्भिक्षं वर्तते इति । अनुमानप्रयोगश्रेत्थम् - मयं देशो दुर्भिक्षः साधूनां तद्धेतुकमक्तपानाला मदर्शनात् तद्देशवदिति । भविष्यत्कालग्रहणं चैत्र विज्ञेयम्-सत्रियतो दिशः = आकाशसहिता दिग्विभागा धूमायन्ति =धूमयुक्ता भवन्ति, तथा - मेदिनी = पृथिवी नीरसत्वात् अमतिबद्धा - सउषिरा भवति, वाताव नैऋतिका:दक्षिणात्या वान्ति एतानि सर्वाणि कुदृष्टिं निवेश्यन्ति । एतानि सधूमादिगादीनि दृष्ट्वा तथा-आग्नेयं वा वायव्यं वा अन्यतरं वा अप्रशस्तमुत्पातं दृष्ट्वा तेन साध्यते, यथा-कुदृष्टिरनावृष्टिर्भवियति । अनुमानप्रयोगश्चेत्थम् - अयं देशी भविष्यत्कुष्टकः, तनिमित्तकानां सधूमदिगादीनां समुदितानामन्यतमस्य वा दर्शनात् तद्वदिति । इत्थं विशेषदृष्टं निरूपितमिति सूचयितुमाह-तदेतद् लगाया कि यहां दुर्भिक्ष-अकाल पड रहा है। अनुमान प्रयोग इस प्रकार से करना चाहिये- 'अयं देशः दुर्भिक्षः साधूनां तद्धेतुकभक्तपानलाभादर्शनात् तद्देशयत् ' तथा भविष्यत् काल का ग्रहण इस प्रकार से जानना चाहिये - जिस समय आकाश सहित दिशाएँ धूम युक्त प्रतीत हो रही हो, नीरस होने से जहां पृथिवी फट गई हो-जगह २] जहां छेद पड़ गये हो और वायुएँ जिस दक्षिणदिशा से आती हुई चल रही हों - इस सब वृष्ट्य भाव की निशानियों को, तथा अग्नि सबन्धी या वायु संबन्धी या और कोई अप्रशस्त उत्पातो को देखकर ऐसा अनुमान लगाना कि 'इस देश में वृष्टि नहीं होगी- क्योंकि वृष्टि के अभाव के चिह्न हो रहे हैं। अनुमान प्रयोग प्रकार इस से यहाँ करना चाहिये 'अयं देशः भविष्यत् कुष्टिकः तन्निमित्तकानां सधूमादिगादीनां समुदितानां अन्यतरस्य वा दर्शनात् तदेवशत्' यही
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दुर्भिक्ष छे. अनुमान प्रयोग आमा ४२ ले मे अयं देशः दुर्भिक्षः साधूनां तद्धेतुकभक्तपानलाभादर्शनात् तदेशवत् ” तेमन लविण्यभाजनुं श्रद्ध આ રીતે જાણવું જોઈએ, જે સમયે આકાશ સહિત દિશાએ સહૂમ થઈ રહી ઢાય, નીરસ હાવા ખદલ ત્યાં પૃથિવી ફાટી ગઈ હોય, સ્થાન સ્થાન પર જયાં છિદ્રો પડી ગયા હેાય. અને પત્રને દક્ષિણ દિશા તરફથી વહેતા હાય, આ સ દૃષ્ટચભાવના ચિહ્નોને તેમજ અગ્નિ સ’બધી કે વાયુ સ''ધી કે અન્ય કાઈ અપ્રશસ્ત ઉત્પાતાને જોઈને આ જાતનું અનુમાન કર્યું કે ‘આ દેશમાં વૃષ્ટિ થશે નહિ, કેમ કે વૃષ્ટિનાં અભાવનાં ચિહ્નો જોવામાં આવી રહ્યાં છે. ाडी' अनुमान प्रयोग या रीतेश्व थे डे 'अयं देशः कुवृष्टिकः तन्निमित्तकानां सधूमादिगादीनां समुदितानां अन्यतरस्य वा दर्शनात् तद्देशवत् " से
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अनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र २२३ उपमानप्रमाणनिरूपणम्
५२७ विशेषदृष्टमिति । एवं च दृष्टपाधर्मवदनुमानमपि निरूपितमिति सूचयितुमाहतदेतत् दृष्टसाधर्म्यवदिति । इत्थमनुमानमपि प्ररूपितमिति सूचयितुमाह-तदेतदनु मानमिति ॥ सू० २२२ ॥ अथोपमानं निरूपयति--
मूलम्-से किं तं ओवम्मे? ओवम्मे-दुविहे पण्णत्ते, तं जहा-साहम्मोवणीए य वेहम्मोवणीए य। से किं तं साहम्मोवणीए ? साहम्मोवणीए-तिविहे पण्णत्ते, तं जहा-किंचिसाहम्मोवणीए, पायसाहम्मोवणीए, सव्वसाहम्मोवणीए। से कि तं किंचिसाहम्मोवणीए ? किंचिसाहम्मोवीएजहा मंदरो तहा सरिसवो, जहा सरिसवो तहा मंदरो, जहा समुद्दो तहा गोप्पयं, जहा गोप्पयं तहा समुद्दो, जहा आइच्चो तहा खजोओ, जहा खजाओ तहा आइच्चो, जहा चंदो तहा कुमुदो, जहा कुमुदो तहा चंदो । से तं किंचिसाहम्मोवणीए। से किं तं पायसाहम्मोवाए ? पायसाहम्मोवणीए-जहा गो तहा गवओ, जहा गवओ तहा गो। से तं पायसाहम्मोवणीए।
सय विषय' 'से किं तं अतीयकालग्गहणं' यहां से लेकर 'से तं अणागयकालग्गहणं' यहां तक के सूत्रपाठ द्वारा सूत्रकार ने समझाया है। (से तं विसेसदिड-से तं दिसाहम्मवं) इस प्रकार यह विशेषदृष्ट दृष्टसाधयंवत् का स्वरूप है । सामान्य दृष्ट और विशेष दृष्ट के स्वरूपों के इस निरूपण से दृष्टसाधर्म्यवत् अनुमान का स्वरूप निरूपित हो चुका ॥मू० २२२ ॥ विषय “से कि त अतीयकालगहणं" सही थी भांश “से तं अणागयकालग्गहण" मही सुधीना सूत्रपा 43 सूत्रारे २५०८ या , (से तं विसेसदिट्र-से तं दिटुसाहम्म) मा प्रभाए 4 विशेष ४०८ ६७८ साम्यवत्नु २१३५ . સામાન્ય દષ્ટ અને વિશેષ દષ્ટ સ્વરૂપના આ નિરૂપણથી દષ્ટ સાધમ્યવતું અનુમાનનું સ્વરૂપ નિરૂપિત થઈ જાય છે. જે સૂ. ૨૨૨
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अनुयोगद्वारसूत्रे से कि तं सव्वसाहम्मावणीए ? सवसाहम्मोवणीए-सव्वसाहम्मे ओवम्मे नत्थि, तहावि तेणेव तस्स ओवम्मं कीरइ, जहाअरिहंतेहिं अरिहंतसरिसं कयं, चक्कवट्टिणा चक्कवट्टिसरिसं कयं, बलदेवेण बलदेवसरिसं कयं, वासुदेवेण वासुदेवसरिसं कयं, साहगा साहुसरिसं कयं। से तं सव्वसाहम्मेावणीए। से तं साहम्मोवणीए। से किं तं वेहम्मोवणीए ? वेहम्मोवणीए तिविहे पण्णत्ते, तं जहा-किंचिवेहम्मोवणीए पायवेहम्मोवणीए सम्ब. वेहम्मोवणीए। से कि तं किंचिवेहम्मोवणीए? किंचिवेहम्मोवणीए जहा-सामलेरो न तहा बाहुलेगे, जहा बाहुलेरो न तहा सामलेरो, से तं किंधिवेहम्मोवणीए। से कि तं पायवेहम्मो. वणीए ? पायवेहम्मोवणीए जहा वायसो न तहा पायसो, जहा पायसो न तहा वायसो, से तं पायवेहम्मोवणीए । से किं तं सववेहम्मोवणीए? सव्ववेहम्मोवणीए सबवेहम्मे ओवम्म नस्थि, तहावि तेणेव तस्स ओवम्मे कीरइ, जहाणीएणं णीयसरिसं कयं, दासेण दाससरिसं कयं, काकेण काकसरिसं कयं, साणेण साण. सरिसं कयं, पाणेणं पाणसरिसं कयं, से तं सव्ववेहम्मोवणीए। से तं वेहम्मोवणीए। से तं ओवम्मे ॥सू० २२३॥ ___छाया-अथ किं तत् औपम्यम् ? औपम्यं द्विविध पक्षप्तं, तद्यथा साधम्र्योपनीतं च वैधयोंपनीतं च । अथ किं तत् साधम्योपनीतम् ? साधोपनीतं त्रिविधं प्रज्ञप्त, तद्यथा-किश्चित्साधोपनीतं. प्रायःसाधम्र्यो पनीत, सर्वसाम्योपनीनम् । भय किं ता किश्चित्साधम्र्यो पनीतम् ? किचित्साधयों पनीतं यथा मन्दर तथा सर्षपः, यथा सर्षपस्तथा मन्दः, यथा समुद्रस्तथा गोष्पदं. यथा गोष्पद तथा समुद्रा, यथा आदित्यस्तथा खद्योतः, यथा खद्योतस्तथा आदित्यः,
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मनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र २२३ उपमानप्रमाणनिरूपणम् यथा चन्द्रस्तथा कुमुदं, यथा कुमुदं तथा चन्द्रः । तदेतत् किश्चित्साधोपनीतम् । अथ किं तत् प्रायःसाधयों पनीतम् ?, प्राय साधम्शेपनीतं यथा गौ. स्तथा गवयः, यथा गवयस्तथा गौः । तदेतत् प्रायःसाधम्योपनीतम् । अथ किं तत् सर्वसाधयों पनीतम् १, २ सर्वसाधम्र्ये औषम्यं नास्ति, तथापि तेनैव तस्यौ. पम्यं क्रियते, यथा अर्हद्भिः अर्हत्सदृशं कृतम् . चक्रवतिना चक्रवर्तिसदृशं कृतं, बलदेवेन वरूदेवसदृशं कृतं, वासुदेवेन वासुदेवसदृशं कृतं, साधुना साधुसदृश कृतम् । तदेतत् सर्वसाधम्योपनीतम् । तदेतत् साधम्योपनीतम् । अथ किंतद् वैधम्योपनीतम् ?, वैधम्योपनीतं त्रिविधं प्रज्ञप्त, तद्यथा- किंचिद्वैधयोंपनीतं, प्रायोवैधोपनीतम्, सर्ववैवोपनीतम् । अथ किं तत् किञ्चिद् वैधम्र्योपनीतम् ? किचिवैधयोपनीत-यथा शाबलेयः न तथा बाहुलेयः, यथा बाहुलेयः न तथा शावलेयः । तदेतत् किंचिद्वैषम्योपनीतम् । अथ किं तत् पायोवैधयोंपनीतम् ? प्रा. योवैधयों पनीतं यथा वायसो न तथा पायमः, यथा पायसो न तथा वायसः । तदेतत् प्रायोवैधम्योपनीतम् । अथ किं तत् सर्ववैधयों पनीतम् सर्ववैधयों पनीतम्सर्ववैधये औपम्यं नास्ति, तथापि तेनैव तस्य औषम्यं क्रियते । यथा नीचेन नीवसदृशं कृतं, दासेन दाससदृशं कृतं काकेन काकपदृशं कृतम् , शुना श्वसदृशं कृतम् , चाण्डालेन चाण्डालसदृशं कृतम् । तदेतत् पर्व वैधम्यो पनीतम् । तदेतद् वैधयों पनीतम् । तदेतत् औपम्यम् ॥ मू० २२३ ।।
टीका-'से किं तं' इत्यादि
अथ किं तत् औपम्पम् ? इति शिष्यपश्नः । उत्तरयति-औपम्यम्-उपमीयतेसादृश्येन वस्तु गृह्यतेऽनयेत्युपमा, उपमैत्र औषम्यम् तच्च साधोपनीतवैधम्योप
अब सूत्रकार-उपमान प्रमाण का निरूपण करते हैं'से किं तं ओवम्मे' इत्यादि ।
शब्दार्थ--(से किं तं ओवम्मे ?) हे भदन्त ! उपमान प्रमाण का क्या स्वरूप है ?
उत्तर-(ओचम्मे दुविहे पण्णत्ते) उपमान प्रमाण दो प्रकार का कहा गया है (तं जहा) ये प्रकार ये है-(साहम्मोवणीए य वेहम्मोचणीए य)
હવે સૂત્રકાર ઉપમાન-પ્રમાણુનું નિરૂપણ કરે છે. 'से कि त ओषम्मे इत्यादि ।
साथ-(से कि तं ओवम्मे ?) त? भान प्रभात २१३५ वु छ ?
उत्तर-(ओवम्मे दुविहे पणत्ते) ५मान प्रमाण प्रा२र्नु वामां मायुं छे. (तंजहा) ते प्रजरे। मा प्रमाणे छे. (साहम्मेावणीए य वेहग्मा
अ० ६७
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अनुयोगद्वारसूत्रे नीतेति द्विविधम् । तत्र-साधम्र्योपनीत-साधम्र्येण उपनीतम्=उपनयो यत्र तत् साधोपनीतम् , तच्च किश्चित्ताधम्र्योपनीतं प्रायःसाधोपनीतं सर्वसाधम्योपनीतं चेति त्रिविधम् तत्र-किंचित् साधोपनीतं-किंचित् अल्पेन साधार्येण= सादृश्ये। उपनीतम् उपनयविषयीकृतम् , तच्च यथा मन्दरस्तथा सर्षपः यथा सर्पयस्तथा मन्दर इत्यादि । अत्र-मन्दरसर्पपयोव लत्वेन सादृश्यम् । समुद्रएक साधोपनीत, और दूसरा वैधयोपनीत । समानता को लेकर वस्तु जिसके द्वारा ग्रहण की जाती है, उसका नाम उपमा है। यह उपमा ही औपम्य है। (से किं तं साहम्मोवणीए) हे भदन्त ! साधम्र्योनीत का क्या तात्पर्य है।
उत्तर--(साहम्मोवणीए-तिविहे पणत्ते ) साधम्र्योपनीत तीन प्रकार का होता है। (तं जहा) जैसे (किंचिसाहम्मोवणीए, पायसाहम्मो वगीए, सवप्ताहम्मोवणीए) किश्चित् साधोपनीत, प्रायःसाधम्योंपनीत, और सर्वसाधम्योपनीत । (से कि तं किंचिसाहम्मोवणीए) हे भदन्त ! वह किश्चित् साधोपनीत क्या है ? (किंचिसाहम्मोवणीए)
उत्तर--वह किश्चित् साधम्योपनीत इस प्रकार है । (जहा मंदरो तहा सरिसवो) जैप्सा मंदर है, वैसा सर्षप है । तात्पर्य इसका यह है कि किश्चित् साधम्र्योपनीत में कुछ २ समानता को लेकर उपमा दी जाती है, सो ऐसा कहा है कि जैसा मन्दर (मेरु) है वैसा सर्षप है, सो वणीए य) मे साध्यापनात, भी वैधभ्यापतात. समानताना साधारे જેના વડે વસ્તુ ગ્રહણ કરવામાં આવે છે તેનું નામ ઉપમા છે. આ ઉપમા १ मी५भ्य छे. (से कि तं साहम्मोवणीए) महत! साभ्यापनातन તાત્પર્ય શું છે? ___उत्तर-(साहम्मोवणी र-तिविहे पण्णत्ते) साभ्यापनातन १ प्रा। छे. (जहा) २ (किचिसाहम्मोवणीए, पायसाहम्मी वणीए, सव्वसाहम्मोवणीए) કિંચિત્ સાધઑપનત, પ્રાય:સાધર્મોપનીત, અને સર્વસાધર્મોપનીત __ (से किं तं किंचि साहम्मावणीए) 3 RE! यित् साधण्यापनात छ (किंचि साहम्मोवणीए)..
उत्तर- यत् साधभ्योपनीत मा प्रमाणे छे. (जहा मंदरो तहा सरिसवो) रेवो भ४२ छे. तेव। स५५ छे. तात्ययमातुं ये छ वयित સાધચ્ચેપનીમાં કંઈક સમાનતાને લઈને ઉપમા આપવામાં આવે છે તો અત્રે આમ કહેવામાં આવ્યું છે કે “જે મદર (મેરુ) છે તે સર્વપ છે.
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अनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र २२३ उपमानप्रमाणनिरूपणम् गोष्पदयो यत्त्वम् , आदित्य खद्योतयोराकाशगामित्वमुद्योतकत्वं च, चन्द्रकुमु. दयोश्च शुक्लत्वं साधर्म्यम् । अथ प्रायःसाधम्योपनीतमाह -'से किं तं पायसहम्मोवणीए' इत्यादि । प्रायः अधिकावयवव्याप्त्या यत्साधम्य-सायं तेन उपनीतम् उपनयविषयीकृतं-पायःमाधोपनीतम् । तच्च-यथा गौस्तथा इसमें मंदर (मेरु) और सर्षप की गोलाई का लक्ष्य रखा गया है । इसी कारण इन दोनों में समानता कही गई है। (जहा सरिसवो तहा मंदरो) जैसा सर्षप होता है, वैसा मन्दर होता है इसको भी यही तात्पर्य है। इसी प्रकार (जहा समुद्दो तहां गोपयं जहा गोप्पयं तहा समुदो, जहा आइचो तहा खजोओ जहा खज्जोओ तहा आइच्चो, जहा चंदो तहा कुमुदो जहा कुमुदो तहा चंदो) इस सूत्रपाठ का भी तात्पर्य जानना चाहिये-इनमें समुद्र और गोष्पद (जल से भरा हुवा गाय का खुर) में जलवत्ता को लेकर, आदित्य और खद्योत (जूगुनू ) में आकाश गामित्व और उद्योतकता को लेकर, चन्द्र और कुमुद में शुक्लताको लेकर समानता प्रकट की है । (से तं किंचि साहम्मोवणीए) इस प्रकार यह किश्चित् साधम्योपनीत का स्वरूप है। (से किं तं पायसाहम्मोवजीए?) हे भदन्त ! प्रायासाधम्योपनीत का क्या तात्पर्य है । (पायसा. हम्मोवणीए) प्रायः साधोपनीत का तात्पर्य इस प्रकार से है(जहा गो तहा गवओ, जहा गवओ, तहा गो) जैसी गाय
આમાં મંદિર (મેરુ) અને સર્ષની લાકૃતિને લક્ષમાં રાખીને ઉપમા આપવામાં આવી છે, આકારથી જ બન્નેમાં સમાનતા કહેવામાં આવી છે. (जहा सरिसवो तहा मंदरो) । सष५ डाय छे. तेव। म२ सय छे. भानु ५ तात्पर्य मा छे. मा २२ (जहा समुद्दो तहा गोप्पयं जहा गोप्पय तहा समुद्दो जहा आइचो, तहा खजोओ, जहा खज्जोओ तहा आइचो, जहा चंदो तहा कुमुदो, जहा कुमुदो तहा चंदो) या सूत्रपाइने। समल લેવું જોઈએ. આમાં સમુદ્ર ગેપદ (જલ પૂરિત ગાયની ખરી)માં જલવત્તાના આધારે આદિત્ય અને ખદ્યોત (આગિ)માં આકાશ ગામિત્વ અને ઉદ્યોતકતાને લઈને, ચન્દ્ર અને કુમુદમાં શુકલતાને લઈને સમાનતા પ્રકટ ४२वामा भावी छ. (से तं किंचि साहम्मोवणीए १) मा शत भGR. સાધમ્યપનીતનું સ્વરૂપ છે.
(से कि त पायसाहम्मोवणीए) के महत ? प्राय:साभ्यापनातन तपय ४. छ. (पायसाहम्मोवणीए) प्राय:याभ्यापनातनुं तात्पर्य ।
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अनुयोगद्वारसूत्रै गवयः, यथा गवयस्तथा गौरिति । ककुदखुरावषाणलाशूलादिमत्त्वेन गोगवयोः सादृश्यम् । अन्यथा तु सास्नावान् गौः, वृतकण्ठो गवयः, अतएवानयोः प्रायः साधर्म्यवत्ता विज्ञेयेति । अथ सर्वसाधोपनीतं निरूपयति-से कि तं सबसाहम्मोवणोए' इत्यादि । सर्वतः सर्वप्रकारैः साधयं-सर्वसाधा, तेन उपनीतं-सर्वसाधम्र्योपनीतम् । ननु सर्वसाधर्म्य तु न केनापि सह कस्यापि संभवति, सर्वसाधयंसंभवे तु एकतामसङ्गः। एवं च उपमानस्य तृतीयभेदोपन्यासो होती है, वैसा गवय (गेझ) होता है-जैसा गवय होता है वैसी गाय होती है। ( से तं पायसाहम्मोवणीए) यह प्रायःसाधोपनीत का तात्पर्य है । प्रायःसाधम्र्योग्नीत में जो समानता प्रकट की जाती है वह समानता अधिकतर अनेक अवयवों में पाई जाती है। जैसा गवय है वेसी गाय है-आदि वाक्यों में ककुद, खुर, विषाण, और लाशूल आदि अवयवों को लेकर दोनों में समानता प्रकट की गई हैं । (से कि तं सवसाहम्मोवणीए ?) हे भदन्त ! सर्वसाधोपनीत का क्या तात्पर्य है ? (सव्वसाहम्मोवणीए) ___उत्तर-सर्वसाधम्योपनीत का तात्पर्य ऐसा है कि इसमें सर्व प्रकारों से समानता प्रकट की जाती है।
शंका--सर्व प्रकारों से समानता तो किसी में भी किसी के साथ घटित नहीं हो सकती । क्योंकि यदि इस प्रकार से समानता घटिन होने लगे तो, फिर उन दोनों में एकता के प्राप्त होने का प्रसंग प्रमाणे छ. (जहा गो तहा गवओ, जहा गवओ तहा गो) २वी आय छ, तेव। १५ (२) डाय छे. २३ गय हाय छ, तवी आय छे. (से तं पायसाहमोवणीर) मा प्रायःसाभ्यापनातनु ता५य छे. प्राय:साभ्यापनातमा २ સમાનતા પ્રકટ કરવામાં આવે છે, તે સમાનતા અધિકાંશતઃ અનેક અવયમાં પ્રાપ્ત થાય છે. જે ગવાય છે, તેવી ગાય છે. વગેરે વાકયમાં કકુદ, ખુર, વિષાણ અને પૂંછડું આદિ અવયને લઈને બનેમાં સમાનતા પ્રકટ કરવામાં भावी छ. (से कि त सवसाहम्मोवणीए') 8 महत | स साधभ्या५. नातनु शु ता५य छ १ (सब्बसाहम्मोवणीए)
ઉત્તર-સર્વસાધર્યાનું તાત્પર્ય આ પ્રમાણે છે કે આમાં સર્વ પ્રકારથી સમાનતા પ્રકટ કરવામાં આવી છે,
શંકા–સર્વ પ્રકારથી સમાનતા તે કેઈમાં પણ કોઈની સાથે ઘટિતા થઈ શકે જ નહિ. કેમ કે જે આ પ્રમાણે સમાનતા ઘટિત થાય તે પછી તેઓ બન્નેમાં એકતા પ્રાપ્ત થવાને પ્રસંગે ઉપસ્થિત થશે ત્યારે તો ઉપમાન
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मैनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र २२३ उपमानप्रमाणनिरूपणम् ५३३ व्यर्थ एवेति चेदाह-यद्यपि सर्वसाधर्म्यौपम्यं नास्ति, तथापि तेनैव तस्य=
औपम्यं क्रियते इति युक्त एव भेदोपन्यासः । अस्योदाहरणानि-अर्हद्भिरर्हत्सदृशं कृतमित्यादि। अयं भावः-अर्हद्भिर्यत्सों तमं तीर्थपवर्तनादिकृतं तदहन्त एव कर्तुमर्हन्ति, नापरे इति । एवं चक्रातिना चक्रवतिसदृशं कृतमित्यादीनामपि प्राप्त होगा तब यह उपमान का तीसरा भेद ही नहीं बन सकेगा। इस प्रकार की शंका का उत्तर-(सर्वसाहम्मे ओवम्मे नस्थि तहा वि तेणेव तस्स ओवम्म कीरह) इस सूत्रपाठ से दिया है। इसमें यह कहा गया है-'कि यद्यपि दूसरे के साथ दूसरे की सर्व प्रकार से समानता नहीं मिलती है, यह बात सर्वथा सत्य है परन्तु फिर भी इसमें जो सर्वप्रकार से समानता प्रकट की गई है, उसका तात्पर्य यह है कि 'वह समानता उसी के साथ प्रकट की जाती है-दूसरे के साथ नहीं। जैसे- (अरिहंतेहिं अरिहंतसरिसं कयं, चक्कवटिणा चक्कवटिसरिसं. कयं बलदेवेण बलदेसरिसं कयं, वासुदेवेण, वासुदेवसरिसं कयं साहुणा साहुसरिसं कयं से तं) अहैतोने अहंतों के समान किया, चक्रवर्तीने चक्रवर्तियों के समान किया, बलदेवा ने बलदेवों के समान किया वासुदेव ने वासुदेवों के समान किया, साधुने साधुओं के समान किया । इस कथन का तात्पर्य केवल इतना ही है कि-'अहं तो ने जो सर्वोत्तम तीर्थप्रवर्तन आदि कार्य किये हैं, उन्हें ओर कोई दूसरा नहीं कर ને ત્રીજો પ્રકાર જ અસ્તિત્વમાં આવી શકશે નહિ. આ જાતની શંકાનો उत्तर (सव्वसाहम्मे ओवम्मे नस्थि तहा वि तेणेव तस्स ओवग्मं कीरइ) આ સૂત્રપાઠ વડે આપવામાં આવે છે. આમાં આ પ્રમાણે કહેવામાં આવ્યું છે કે જે કે બીજાની સાથે બીજાની સર્વ રીતે સમાનતા મળતી નથી. આ વાત સંપૂર્ણ રીતે સાચી છે છતાંએ આમાં જે સર્વ પ્રકારથી સમાનતા પ્રકટ કરવામાં આવી છે, તેનું તાત્પર્ય આ પ્રમાણે છે કે, તે સમાનતા તેની સાથે
४८ ४२वामा भावी छे. भीतनी साथ नहि. भ. (अरिहंतेहि अरिहंतसरिसं कयं चकट्टिणा चक्कट्टिमरिसं कयं बलदेवेण बलदेवसरिसं कयं, वासुदेवेण वासुदेवसरिसं कय, साहुणा साहु सरिसं कयं से त) तामे અહંન્ત જેવું કર્યું, ચક્રવર્તીએ ચકવતીઓના જેવું કર્યું, બળદેવે બળદેવોના જેવું કર્યું, વાસુદેવે વાસુદેવે જવું કર્યું, સાધુએ સાધુઓને જેવું કર્યું. આ કથનનું તાત્પર્ય ફકત આટલું જ છે, કે “અહંતે એ જે સર્વોત્તમ તીર્થ પ્રવર્તન વગેરે કાર્યો કર્યા છે, તે કાર્યો બીજે કઈ કરી શકે જ નહિ
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अनुयोगद्वारसूत्र भावो बोध्यः। लोकेऽप्येवं दृश्यते, यथा-गगनं गगनाकारं 'सागरः साग. रोपमः, । रामरावणयोयुद्धं रामराक्षणयोरिव ॥१॥" इति । अथ वैधौंपनीतं निरू पयति-से कि तं वेहम्मोवणीए' इत्यादि । वैधम्योपनीतम्-वैधर्येण सादृश्येन उपनीतम्-उपनयो यत्र तदौपम्यं वैधम्योपनीतम् । इदमपि किंचिद् वैधयोंपनीतप्रायोवैधयोंपनीतसर्ववैधयोपनी तेति त्रिविधम् । तत्र किंचिद्वैधयोपनीतं यथाशाबलेयः-शबलाया गोरपत्यं, न तथा बाहुलेया बहुलाया गोरपत्यम् , यथा च बाहुलेयो न तथा शावलेय इति । अत्र च शेषधमै स्तुल्यत्वेऽपि भिन्ननिमत्तजसकता है उन्हें तो वे ही कर सकते हैं । इसी प्रकार चक्रवर्ती ने चक्रवर्ती के समान किया है 'इत्यादि वाक्यों का भी तात्पर्य जानना चाहिये । लोक में भी तो ऐसा देखा जाता है कि
'गगनं गगनाकारं, सागरः सागरोपमः,
रामरावणयोयुद्ध रामरावणयोरिव'। (से किं तं तं वेहम्मोवणीए ?) हे भदन्त ! वैवोपनीत का क्या तात्पर्य है ? (वेहम्मोवणीए तिविहे पण्णत्ते)
उत्तर--वैधयोंपनीत तीन प्रकार का कहा गया है । (तं जहा) जैसे (किंचिवेहम्मोवणीए, पायवेहम्मोवणीए, सव्ववेहम्मोवणीए) किञ्चित् वैधोपनीत, प्राय वैधम्योंपनीत, सर्ववैधयोंपनीत । (से कि त किश्चिवेहम्मोवणीए? ) हे भदन्त! वह किश्चत् वैधयॉंपनीत क्या है ?
उत्तर--(किंचिवेहम्मोवणीए जहा सामलेरो न तहा बाहु लेगे जहा बाहुलेरो न तहा सामलेरो से तं किंचिवेहम्मोवणीए) वह તે કાર્યોને તે તેને જ કરવાની શક્તિ ધરાવે છે. આ રીતે ચક્રવર્તીએ ચક્રવર્તી જેવું જ કર્યું છે “વગેરે વાનું તાત્પર્ય પણ સમજી લેવું જોઈએ. લેકમાં પણ આ પ્રમાણે જોવામાં આવે છે કે -
गगनं गगनाकारं, सागरः सागरोपमः ।
रामरावणयो युद्ध रामरावणयो रिव ॥१॥ (से कि वेहम्मोवणीए ?) 8 महत! वैधभ्यापनात तात्पर्य शुछ ? (वेहम्मोवणीए तिविहे पणत्ते)
उत्तर-वैधभ्यापनातना र २ छ. (तजहा) भ (किंचिवेहम्मोवणीए, पायवेहम्मोवणीए, सव्ववेहम्मोवणीए) वियित् वैधभ्यापनात, प्रायः वैधभ्यापनात. स वैधभ्यापनीत. (से कि त किचिवेहम्मोवणीए १). ભદંત ! તે કિચિત વૈધર્મોપનીત શું છે ?
उत्तर-(किचिवेहम्मोवणीए जहा सामलेरो न तहा बाहुलेगे जहा बाहुलेरो न तहा मामलेरो से तं किंचिवेहम्मोवणीए) तेथित् वैधभ्यांपनीत,
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अनुयोगवन्द्रिका टीका सूत्र २२३ उपमानप्रमाणनिरूपणम् न्मादिमात्रतस्तु वैलक्षण्यात् किंचिद्वैधयं बोध्यम् । प्रायो वैधयॉंपनीतं-मायोबाहुल्येन यद्वैधयं वैसादृश्यं तेन उपनीतम्-उपनयो यत्र तत् । तथाहियथा वायसो न तथा पायसः, यथा पायसो न तथा वायस इति । अत्र वायस. पायसयोः सवेतनाचेतनत्वादिभिर्बहुभिधर्मेविसंवादात् पदगतवर्णद्वयेन साम्याच किञ्चित् वैधयोपनीत इस प्रकार से है-जैसा शबला गाय का बछडा होता है-वैसा यहुला गाय का नहीं होता है, और जैसा बहुला गाय का होता है, वैसा शबला गाय का नहीं होता इस प्रकार के कथन में यद्यपि शेषधर्मों की अपेक्षा दोनों में तुल्यता है तो भी शवला बहुला
आदिरूप भिन्न २ निमित्तों से जन्म होने के कारण उसमें किंचित् पिलक्षणता प्रकट की गई है। इस प्रकार से यह किंचित् वैधयाँपनीत
का तात्पर्य है (से कि तं पायवेहम्मोवणीए) हे भदन्त ! प्राय:वैशेपनीत का क्या तात्पर्य है ?
उत्तर--(पायवेहम्मोवणीए जहा वायसो न तहा पायमो, जहा पायतो न तहा वायसो-से तं पायवेहम्मोवणीए) प्रायः वैधयोनीत में अधिकांशरूप में अनेक अवयवगत विसदृशता पर ध्यान न रखा जाता हैजैसे वायस होता है वैसा पायस नहीं होता, जैसा पायस होता है वैसा वायस नहीं होता। यहां पर यद्यपि पदगत दो वर्गों की अपेक्षा इनमें साम्य होने पर भी सचेतनता और अचेतनता आदि अनेक धर्मों की આ પ્રમાણે છે. જેવું શબલા ગાયનું વાછરડું હોય છે, તેવું બહુલા ગાયનું पा७२ सातु नथी. अरे २ मgar गायनु पा७२ डाय छे, ते શબલા ગાયનું હોતું નથી. આ જાતના કથનમાં જે કે શેષ ધર્મોની અપેક્ષા બનેમાં તુલ્યતા છે, છતાં એ શબલા, બહુલા આદિ રૂપ ભિન્નભિન. નિમિત્તોથી જન્ય હવા બદલ તેમાં કંઈક વિલક્ષણ્ય પ્રકટ કરવામાં આવ્યું छे. मा प्रमाणे लियित् वैधभ्यर्यापनातनु तात्पर्य छे. (से कि त पायवेहम्मो वणीए) BRE ! प्रायः वैधभ्यापनातनु शु तात्पय ?
उत्तर-(पायवेहम्मोवणीए जहा वायसो तहा पायसो, जहा पायसो न तहा वायसो-से त पायवेहम्मोवणीए) प्राय:वैधभ्यापन तमा मधिश३५i અનેક અવયવગત વિસદશતા ધ્યાનમાં રાખવામાં આવે છે. જે વાયસ (કાગો) હોય છે તેવું પાયસ હેતું નથી અને જેવું વાસ હોય છે, તે વાયસ હોતો નથી અહીં જે કે પદગત બે વર્ષોની અપેક્ષા આમાં સામ્ય હોવા છતાંએ સચેતનતા અને અચેતનતા વગેરે અનેક ધર્મોની અપેક્ષા વિધમતા
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__ अनुयोगद्वारसूत्र पायो वैधम्र्थवत्ता विज्ञेया । अथ सधोपनीतं निरूपयति-सर्वतः सर्वप्रकारै
धर्थ-सर्ववैधय॑म् , तेन उपनीतं सवैधयोपनीतम् । यद्यपि सर्ववैधये न कस्यापि केनापि संभवति, सत्त्वप्रमेयत्वादिभिः सर्वपदार्थानां समानत्वात् । सत्वप्रमेयत्वादिभिरपि साम्यास्वीकारेऽसत्त्वमसङ्गात् , तथापि तेनैव तस्य औपम्यं क्रियते । यथा- नीचेन नीचसदृशं कृतं, दासेन दाससदृशं कृतमित्यादि । ननु अपेक्षा विधर्मता होने के कारण प्रापः वैधय॑वत्ता कही गई है। (से किं तं सव्ववेहम्मोवणीए) हे भदन्त ! सर्व वैधम्योपनीत का क्या तात्पर्य है ?
उत्तर--(सच वेहम्रोवणीए ओवम्मे स्थि-तहा वि-तेणेव तस्स ओवम्म कीरइ जहा-णीपणं णीयसरियं कय, दासेणं दाससरिसं कय, काकेण काकसरिसं कयं साणेण साणमरिसं कय, पाणं पाणसरिसं कयं से तं सम्यवेहम्मोवणीए) सर्ववैधोपनीत में सर्व प्रकार से विधर्मना प्रकट की जाती है।
शंका--ऐसा कोई भी पदार्थ नहीं है कि जिस में सर्व प्रकार से एक दूसरे की अपेक्षा विधर्मता रहे, क्योंकि सत्त्व प्रमेयत्व आदि धर्मों को लेकर सघ पदार्थों में समानता है ?
उत्तर--यह कहना ठिक है-परन्तु फिर भी जो इसमें विधर्मता प्रकट की गई है 'उसका तात्पर्य यह है कि-'वह विधर्मता उसी के साथ प्रकट की जाती है, अन्य किसी दूसरे के साथ नहीं । जैसे डोपा मह प्राय:वैधम्य पत्ता ४ामा भावी छ. (से कि त सव्ववेहम्मो वणीए ?) ३ मत ! सब वैधभ्यापनातनु शु तात्पर्य छ ।
उत्तर-(सव्ववेहम्मोवणीए ओवम्मे पत्थि-तहा वि तेणेव तस्स ओवम्म कीरइ जहा-णीएणं णीयसरिसं कयं, दासेणं दाससरिसं कयं, काकेणं काकसरिसं कय, साणेण माणसरिसं कय, पाणेणं पाणसरिसं कय से त सव्ववेहम्मो वणीए) स वैधभ्यापनीतमा स २थी विधता ४ ४२वामा मावी.
શંકા-એ કઈ પદાર્થ નથી કે જેમાં સર્વ પ્રકારથી એકબીજાની અપેક્ષાએ વૈધમ્ય હોય, કેમ કે સત્તવ પ્રમેયત્વ વગેરેમાં ધમેને લઈને સર્વ પદાર્થોમાં સમાનતા છે ?
ઉત્તર-આ કહેવું બરાબર છે. પરંતુ છતાંએ જે આમાં વિધર્મતા પ્રકટ કરવામાં આવી છે, તેનું તાત્પર્ય આ પ્રમાણે છે કે “તે વિધર્મતા તેની સાથે જ પ્રકટ કરવામાં આવે છે, બીજા કેઇની સાથે નહિ. જેમ કે નીચ
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मनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र २२३ उपमानप्रमाणनिरूपणम् नीचेन नीचसदृशं कृतमित्यादि तु सर्वसाधोपनीतस्यैवोदाहरणं वक्तुमुचितम् , पुनः सर्ववैधोपनीतत्वेनेदं यदुदाहृतं तदयुक्तमेवेति चेदाह-नीचेन नीचसहर्श कृतमित्याधुदाहरणत्वेन वदतः शास्त्रकर्तुरयमभिपायो यत् नीचोऽपि न गुरुपाता. दिरूपं महापापमाचरति किं पुनरनीचः ? अनेन च सकलजगद्विरुद्धमाचरितम् , अतोऽनेन नीवेन नीवसदृशमेव कृतम् । अत्र सकलजगद्विरुद्धमवृत्तत्त्वविवक्षया सर्ववैधयोपनीतत्वम् । एवं दासेन दाससदृशं कृतम् , इत्यादिष्वपि सर्ववैधम्योपनीचने नीच के सदृश ही किया, दासने दास के समान ही किया, काकने काक के समान ही किया कुत्ते ने कुत्ते के ही समान किया, चाण्डाल ने चांडाल के ही सदृश किया।
शंका-नीच ने नीच के ही सदृश किया इत्यादि उदाहरण जो सर्ववैधोपनीत के ये प्रकट किये हैं-सो ये तो सर्वसाधोपनीत के ही मानना चाहिये--इन्हें सर्ववैधम्योपनीतरूप से कहना उचित नहीं है। - उत्तर--नीच ने नीच सदृश किया इत्यादि बात को जो यहां शास्त्रकार ने सर्व वैधम्पोपनीत के उदाहरण रूप से कहा है, सो उनका यह अभिप्राय है कि-'प्रायः नीच भी जब गुरुघात आदि रूप महापाप नहीं करता है, तो फिर अनीच तो करेगा ही कैसे ? परन्तु इस नीच ने तो कमाल ही किया जो सकल जगत के विरुद्ध ऐसा आचरण किया है। इसलिये इस नीच ने नीच के ही जैसा काम किया। यहां सकल जगत् के विरुद्ध कर्म में प्रवृत होने की विवक्षा से માણસે નીચ જેવું જ કર્યું. દાસે દાસ જેવું જ કર્યું, કાગડાએ કાગડા જેવું કર્યું, કૂતરાએ કૂતરા જેવું જ કર્યું', ચંડાલે ચંડાલ જેવું જ કર્યું.
શંકા-નીચે નીચ માણસની જેમ જ કર્યું વગેરે ઉદાહરણ જે સર્વ વૈધર્મોપનીતના ઉદાહરણમાં પ્રકટ કર્યા છે, તે આ બધાં તે સર્વ સાધર્મોપનીતના જ ઉદાહરણે માનવા જોઈએ. આ બધાને સર્વધર્યોપનીત રૂપમાં કહેવું યોગ્ય નથી.
ઉત્તર-નીચ માણસે નીચ માણસ જેવું કર્યું વગેરે વાતને જે અહીં શાસ્ત્રકારે સર્વ વૈધપુનીતના ઉદાહરણના રૂપમાં કહી છે, એને આ જાતને અભિપ્રાય છે કે ઘણું કરીને નીચ પણ જ્યારે ગુરૂવાત વગેરે રૂપ મહાપાપ કરતું નથી તે પછી અનીચ તે કરશે જ કેવી રીતે ? પરત સકલ જગતના વિરુદ્ધ એવું આચરણ કરીને આ નીચ માણસે તે ભારે કમાલ કરી કહેવાય. એથી આ નીચે નીચ જેવું જ કાર્ય કર્યું છે. અહીં સંપૂર્ણ જગતના વિરુદ્ધ કર્મમાં પ્રવૃત્ત હોવાની વિવક્ષાથી સર્વ
अ० ६८
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५३८
अनुयोगद्वारस्त्रे नीतत्वमिति । इत्थं वैधम्योपनीतं समेदं निरूपितमिति सूचयितुमाह-तदेतत् वैधयोपनीतमिति । इत्थं च साधोपनीतवैधयोपनीतेतिभेदद्वयविशिष्टमौपम्यं निरूपितमिति सूचयितुमाह-तदेतदौपम्यमिति ।।मू० २२३।।
मूलम्-से किं तं आगमे? आगमे-दुविहे पण्णत्ते, तं जहालोइए य लोउत्तरिए य। से किं तं लोइए ? लोइए-जपणं इमं अण्णाणिएहिं मिच्छादिट्टिएहिं सच्छंदबुद्धिमइविगप्पियं, तं जहा-भारहं रामायणं जाव चत्तारि वेया संगोवंगा। से तं लोइए आगमे। से किं तं लोउत्तरिए ? लोउत्तरिए-जण्ण इमं अरिहंतेहिं भगवंतेहिं उप्पण्णणाणदंसणधरेहिं तीयपच्चुप्पण्णमणागयजाणएहिं तिलकवहियमहियपूइएहिं सव्वण्णूहि सव्वदरिसीहिं पणीयं दुवालसंगं गणिपिडगं, तं जहा-आयारो जाव दिहिवाओ। अहवा आगमे तिविहे पण्णत्ते, तं जहा-सुत्तागमे अत्थागमे तदुभयागमे। अहवा आगमे-तिविहे पण्णत्ते, तं जहा-अत्तागमे अणंतरागमे परंपरागमे। तित्थगराणं अत्थस्स सर्ववैधयोपनीतता है। इसी प्रकार से 'दास ने दास के ही सदृश किया' इत्यादि वाक्यों में सर्व वैधोपनीतता जाननी चाहिये। इस प्रकार यह सर्व वैचोपनीतता को स्वरूप है । (से तं वेहम्मोवणीए) इस प्रकार यह सभेद वैधम्यों नीत उपमान का निरूपण किया-इसके निरूपित होते ही (से तं ओवम्मे) उपमान प्रमाण का यह पूर्णरूप से निरूपण हो चुका ॥ सू० २२३ ॥ વૈધનીતતા છે. આ પ્રમાણે “દાસે દાસ જેવું જ કર્યું વગેરે કથામાં પણ સર્વ વૈધર્મોપવીતતા જાણવી જોઈએ. આ પ્રમાણે આ સર્વ વૈધમ્યાपनीतता २१३५ छे. (से तं वेहम्मोवणीए) मा प्रमाणे मा समेत वैधभ्यापनीत 6पमानतुं नि३५ ४२i मायु छ, माना नि३५४थी । (से तं ओवम्मे) 6५मान प्रमापर्नु सही सपू ३५मा नि३५५ ५४ आयु २. ॥ सूत्र-२२३॥
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अनुयोगर्यान्द्रका टीका सूत्र २२४ आगमप्रमाणनिरूपणम् ५३९ अत्तागमे। गणहराणं सुत्तस्स अत्तागमे, अत्थस्स अणंतरागमे। गणहरसीसाणं सुत्तस्स अणंतरागमे अत्थस्स परंपरागमे। तेण परं सुत्तस्स वि अत्थस्स वि णो अत्तागमे, णो अणंतरागमे, परंपरागमे । से तं लोगुत्तरिए । से तं आगमे, से तं णाणगुणप्पमाणे ॥सू० २२४॥
छाया-अथ कोऽसौ आगमः ?, आगमो द्विविधः प्रज्ञप्तः, तघया लौकिकथ लोकोत्तरिकश्च । अथ कोऽसौ लौकिकः ?, लौकिको यत् खलु अयम् अज्ञानिकैः मिथ्यदृष्टिकैः सच्छन्दबुद्धिमतिविकल्पितं, तद्यथा-भारतं रामायणं यावत् चस्वारो वेदाः साङ्गोपाङ्गाः । स एष लौकिक आगमः । अथ कोऽसौं लोकोत्त. रिकः ?, लोकोत्तरिको-यत् खलु अयम् अर्हद्भिः भगवद्भिरुत्पन्नज्ञानदर्शनधरैः अतीतमत्युत्पन्नानागतज्ञायकैः त्रैलोक्यावलोकितमहितपूजितैः सर्वज्ञः सर्वदर्शिभिः प्रणीतः द्वादशाङ्गः गणिपिटकः, तद्यथा-आचारो यावत् दृष्टिवादः । अथवा आगमस्त्रिविधः प्राप्तः तद्यथा-सूत्रागमः, अर्थागमः, तदुभयागमः । अथवा-आगमस्त्रिविधः प्रज्ञप्तः, तद्यथा- आत्मागमः अनन्तरागमः, परम्परागमः । तीर्थकराणाम् अर्थस्य आत्मागमः । गणधराणां सूत्रस्य आत्मागमः, अर्थस्य अनन्तरागमः । गणधरशिष्याणां सूत्रस्य अनन्तरागमः, अर्थस्य परम्परागमः । ततः परं सूत्रस्यापि अर्थस्यापि नो आत्मागतः, नो अनन्तरागमः, परम्परागमः । स एष लोकोत्तरिकः । एष आगमः । तदेतद् ज्ञानगुणप्रमाणम् ॥मू० २२४॥
टीका-'से किं तं' आगमे' इत्यादि
अथ कोऽसौ आगमः ? इति शिव्या प्रश्नः । उत्तरयति-आगमः आगच्छति गुरुपारम्पर्येण योऽसावागमः । आ-समन्ताद् गम्यन्ते-ज्ञायन्ते जीवादयोऽनेनेति 'से किं तं आगमे' इत्यादि ।
शब्दार्थ--( से कि तं आगमे ) हे भदन्त ! आगम प्रमाण का स्वरूप क्या है?
उत्तर-(आगमे दुविहे पण्णत्ते) आगम दो प्रकार का कहा गया 'से किं तं आगमे' इत्यादि।
शा-(से किं तं आगमे) महन्त ! भागभ प्रभात २१३५ छ ? उत्तर-(आगमे दुविहे पण्णते) माम मे
2. (संजहा)
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५४०
अनुयोगद्वारसूत्र वा आगमः, अयं च लौकिकलोकोत्तरि केति भेदद्वयविशिष्टो बोध्यः । तत्र लौकिक आगम:-अज्ञानिभिमिथ्यादृष्टिभिः स्वच्छन्दबुद्धिमतिविकल्पितं यदिदं रामायणमहाभारतयावत्साङ्गोपाङ्गं वेदचतुष्टयं तद्रूपो बोध्यः । भावश्रुतमस्तावेअवास्य व्याख्यानं कृतं तत् एव प्रकृतार्थः समुपलभ्यः । लोकोत्तरिक आगमस्तु यः खलु उत्पन्नज्ञानदर्शनधरादिविशेषणविशिष्टैरर्हद्भिभगवद्भिः प्रणीतो द्वादहै। (तं जहा) वे प्रकार ये हैं-(लोहए य लो उत्तरिए य) एक लौकिक और दूसरा लोकोत्तरिक । 'गुरुपरम्परा से जो चला आ रहा है, वह आगम है अथवा जीवादि पदार्थ जिसके द्वारा भलिभांति जाने जाते हैं, वह आगम है । ऐसी यह आगम शब्द की व्युत्पत्ति है । ( से किं तं लोइए ?) हे भदन्त ! लौकिक आगम क्या है ? (लोइए-जण्णंइमं अण्णाणि एहि मिच्छादिट्टीएहि सच्छंदबुद्धिमइविगप्पियं)
उत्तर--लौकिक आगाम वह है, जो अज्ञानीमिथ्यादृष्टियों द्वारा अपनी स्वच्छंद बुद्धि और मति से रचा गया है । (तं जहा) जैसे (भारह रामायणं जाव चत्सारिवेया संगोवंग्गा) यहाँ भारत, रामायण यावत् अंगोपांग सहित चारों वेद । इस लौकिक आगम का व्याख्यान यहीं पर भावश्रुत के प्रसंग पर कह दिया गया है। वहीं से इसे समझ लेना चाहिये । (से कि त लोउत्तरिए ?) हे भदन्त ! लोकोत्सरिक आगम का क्या स्वरूप है ? (लोउत्तरिए-जण्णं इमं अरिहंतेहिं भगवंतेहिं उप्पण्ण- ४ मा प्रमाणे छ. (लोइए य लोउत्तरिए य) हो भने तरिक्ष
ગુરુ પરંપરાથી જે ચાલતું આવી રહ્યું છે, તે આગમ છે. અથવા જીવાદિ પદાર્થ જેના વડે સમ્યક રીતે જાણવામાં આવે છે, તે આગમ છે. આવી આ આગમ शहनी व्युत्पत्ति छ. (से कि तं लोइए ?) 8 मत ! दो भागम मेटले Y? (लोइए अण्णं इमं अण्णा णिएहिं मिच्छादिट्ठीएहिं सच्छंदबुद्धिमइविगप्पियं)
ઉત્તર-લેકિક આગમ તે કહેવાય છે કે જે અજ્ઞાની મિથ્યાદષ્ટિએ વડે घातानी २१२७६ मुद्धि भने भतिथी ये छे. (तंजहा) २ (भारहं रामायणं आव चत्तारिवेया संगोवंगा) मी लारत, रामायण, यात अपांग सहित થારે ચાર વેદે, આ લૌકિક આગમનું વ્યાખ્યાન ભાવAતના પ્રસંગમાં કહેपामा मा०यु छ. त्यांथी । समय से नये. (से किं त' लोउत्तरिए ?) ३. aत्तर भामर्नु २१३५ ३ छ १ (लोउत्तरिए जणं इमं अरिहं.
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अनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र २२४ आगमप्रमाणनिरूपणम् शाङ्गो गणिपिटकः स बोध्यः । स च आचारो यावद् दृष्टिवादो बोध्यः । उत्पन्नशानदर्शनधरादिपदानामर्था अत्रैव भावश्रुतप्रस्तावेऽभिहितास्तत एव बोध्याः। प्रकारान्तरैरागमं निरूपयति-अथवा-आगमस्त्रिविधः प्रज्ञप्तः, तद्यथा-सूत्रागमा सूत्रमेवागमः-सूत्रागमः। अर्थागमः-अर्थ एवागमः-सूत्राभिधेयः अर्थः, स एवा. गम:-अर्थागमः। मूत्रार्थो भयरूपस्तु आगम उमयागमः। अथवा-अन्येन प्रकारेणागमस्त्रिविधो विज्ञेयः । यथा-आत्मागमः, अनन्तरागमः, परम्परागमः । तत्रणाणदंसणधरेहिं तीयपच्चुप्पण्णमणागयजाणएहिं तिलुक्कवहियमहियह एहि सवण्णूहिं सम्बदरिसीहिं पणीयं दुवालसंग गणिपिडगं) ___ उत्तर--लोकोत्तरिक आगम का स्वरूप ऐसा है कि-'जो भूत वर्त. मान भविष्यत् के ज्ञाता तथा अनंत ज्ञान अनंतदर्शन के धारी सर्वज्ञ अर्हत भगवंतों द्वारा प्रणीन हुआ है । यह आगम १२ अंगरूप है। इसे गणिपिटक भी कहते हैं । अर्हत भगवंत तीनों लोकों में मान्य एवं पूज्य होते हैं। केवलज्ञान केवलदर्शन से ये त्रिलोकवर्ती समस्त पदार्थों के जानने वाले होते हैं। (आयारो जाव दिटिवायो) इस बाद. शांगगणिपिटक के नाम आचाराङ्ग यावत् दृष्टिवाद ऐसे हैं। (अहवा आगमे तिविहे पण्णत्ते तं जहा सुत्तागमे, अत्थागमे, तदुभयागमे) अथवा-इस प्रकार से भी आगम तीन प्रकार का कहा गया हैजैसे सूत्रागम, अर्थागम, तदुभयागम । सूत्ररूप आगम का नाम सूत्रा. गम है, अर्थरूप आगम का नाम-अर्थात् सूत्र द्वारा कहा गया अर्थतेहि भगवंतेहि उप्पण्णणाणदंसणधरेहिं तीयपच्चुप्पण्णमणागयजाणएहि तिलुक्कपहियमहियपूइएहि सवण्णूहि सम्बदरिसीहि पणीयं दुवालसंगं गणिपिडगं)
ઉત્તર-ઢોકોત્તરિક આગમનું સ્વરૂપ આવું છે કે જે “ભૂત, વર્તમાન, ભવિષ્યના જ્ઞાતા તથા અનંતદર્શનના ધારી સર્વજ્ઞ અહંત ભગવંતે વડે પ્રત થયેલ છે. આ આગમ ૧૨ અંગ રૂપ છે. આ આગમને ગણિપિટક પણ કહે છે. અહંત ભગવંત ત્રણે લોકોમાં માન્ય અને પૂજ્ય હોય છે. કેવલજ્ઞાન, કેવલદર્શનથી એ રિલેકવતી સમસ્ત પદાર્થોના જ્ઞાતા છે. (आयारो जाव दिद्विवायो) AL in पिना नाम माया यावत् दृष्टिपा छे (अहवा आगमे तिविहे पण्णसे-तं जहा सुत्तागमे, अस्थागमे, तदुभयागमे) अथ। मारीत ५५ भागभाना त्रय प्रा। छ. रेमो सूत्राગમ, અર્થીગમ તદુભયાગમ. સૂત્રરૂપ આગમનું નામ સૂત્રાગમ છે, અર્થરૂપ આગમનું નામ એટલે કે સૂત્રવડે કહેવાયેલ અર્થરૂપ જે આગમ છે, તેનું
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५४२
अनुयोगद्वारसूत्र आत्मागमः-गुरूपदेशं विनैवात्मन एव आगम:-आत्मागमः । यथा-तीर्थकृतामर्थरूप आत्मागमः । अर्थों हि तीर्थकृद्भिः स्वयमेव केवलज्ञानेनोपलभ्यते । गणधराणां सूत्ररूप आत्मागमः-मूत्राणां तद्ग्रथितत्वात् । अर्थस्तु तेषामनन्तरागम एव, तीर्थकरातेष्वागतत्वात् । उक्तं च__"अस्थं भासद अरहा, सुत्तं गंथंति गणहरा निउणा" इत्यादि । गणधर रूप जो आगम है उसका नाम अर्थागम है तथा सूत्र और अर्थ इन दोनोंरूप जो आगम है, वह तदुभयोगम है । (अहवा-आगमे तिविहे पण्णत्ते) अथवा इस प्रकार से भी भागम तीन प्रकार का है-तं जहा) जैसे ( अत्तागमे, अणंतरागमे परंपरागमे) आत्मागम, अनंतरागम, और परम्परागम। इनमें गुरु के उपदेश के विना ही जो केवल निज आत्मा का ही आगम है-वह आत्मागम है। इसका तात्पर्य यह है कि तिर्थकर प्रभु जो अर्थरूप से आगम की प्ररूपणा करते है, वह अर्थरूप आगम उनके लिए आत्मागम है । तीर्थकर भगवान् स्वयमेव केवलज्ञान से अर्थ को जानते है-इसीलिये अर्थ जानने में वे गुरु के उपदेश की अपेक्षा से रहित होते हैं । गणधरों ने जो आगम को सूत्र रूप से निबद्ध किया है वह सूत्ररूप आगम उन गणधरों के लिये आत्मागम है । इस सूत्ररूप आगम का जो अर्थ है वह इन गणधरों के लिए अनन्तरागम है। क्योंकि वह अर्थ तीर्थ करों से उनमें आया है । कहा भी है-'अत्थं भासह अरहा सुत्तं गंथंति गणहरा
નામ અથગમ છે, તેમજ સૂત્ર અને અર્થ એ બન્ને રૂપ જે આગમ છે.
तमाम छे. (अहवा आगमे तिविहे पण्णत्ते) १२ मा शत ५y भागमाना त्र २। छे. (तजहा) रेम है (अत्तागमे अणंतरागमे परंपरागमे) અભાગમ, અનંતરાગમ, અને પરંપરાગમ. આમાં ગુરુના ઉપદેશ વિના જ જે ફક્ત નિજ આત્માને જ આગમ છે, તે આમાગમ છે. આનું તાત્પર્ય આ પ્રમાણે છે કે તીર્થંકર પ્રભુ જે અર્થરૂપથી આગમની પ્રરૂપણ કરે છે તે અર્થરૂપ આગમ તેમના માટે આત્માગમ છે. તીર્થકર ભગવાન સ્વયમેવ કેવલજ્ઞાનથી અને જાણે છે એટલા માટે અર્થબંધમાં તેઓ ગુરુ ઉપદેશની અપેક્ષા રાખતા નથી. ગણધરોએ જે આગમને સૂત્રરૂપમાં નિબદ્ધ કર્યો છે તે સૂવરૂપ આગમ ગણધર માટે આત્માગમ છે. આ સુત્રરૂપ આગમને જે અર્થ છે તે ગણધર માટે અનન્તરાગમ છે. કેમ કે તે અર્થ તેમનામાં તીર્થ. २॥ ५ सुरित ये छ, ४ ५५ छ ? “अत्थं भासइ अरहा सुतं
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अनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र २२४ आगमप्रमाणनिरूपणम्
५४३
शिष्याणां जम्बूप्रभृतीनां मूत्रमनन्तरागमः - गणधरात् साक्षादेव तच्छ्रवणात्, अर्थस्तु परम्परागमः - गणधरव्यवहितत्वेन प्राप्तत्वात् । ततोऽनन्तरं प्रभवादीनां तु सूत्रमर्थ परम्परागम एव न तु आत्मागमो न चापि अनन्तरागमः । अनेनागमस्यैकान्ता पौरुषेयत्वं निवारितम् । पौरुषत्ताल्वादिव्यापारमन्तरेण नभसीव विशिष्टनिउणा । यही विषय (तिस्थगराणं अत्थस्स अन्तागमे, गणहराण सुत्तस्स अन्तागमे, अत्थस्स अनंतरोगमे ) इस सूत्रपाठ द्वारा कहा गया है । ( गणहरसीसाणं सुत्तस्स अनंतरागमे अत्थस्स परंपराग से) गणधरों के शिष्य जो जंबूस्वामी आदि हुए है उनके लिये सूत्र अनन्तरागम हैं। क्योंकि इन शिष्यों ने उन्हें साक्षात् गणधर से सुना है । तथा इन सूत्रों का जो अर्थ है, वह परंपरागम है। क्योंकि गणधर की व्यवधानता से वह प्राप्त हुआ है। इसके बाद प्रभव आदिकों के लिये जो मूत्र और अर्थ है, वह परंपरा आगम ही है। वह न तो आत्मागम है और न अनन्तरागम है । यही बात 'तेण परं सुत्तस्स वि अत्थस्स विणो अत्तागमे, णो अनंतरागमे, परम्परागमे' इस सूत्रपाठ द्वारा प्रकट की है। (से तं लोगुत्तरिए -सेत्तं आगमे से तं णाणगुण पमाणे) इस प्रकार यह लोकोत्तरिक आगमका स्वरूप है । तीर्थंकर जो आगम के प्रणेता प्रकट किये गये हैं उसका तात्पर्य यह है कि - 'आगम में जिन वादियों ने एकान्ततः अपौरुषेयता मानी गंथति गणहरा निउण" शे विषय ( तित्थगराणं अत्थस्य अत्तागमे, गणहराण सुतरस अत्तागमे, अत्थरन अणंतरागमे) या सूत्रपाठ वडे थयेस छे. ( गणहर सी बाण सुत्तरस्र अनंतरागमे अत्थरस परंपरागमे) घराना भुસ્વામી વગેરે. જે શિષ્યા થયા છે, તેમના માટે સૂત્ર અનતરાગમ છે. કૅમ કે આ શિષ્યાએ સાક્ષાત્ ગણુધરાના મુખારવદેથી તેમનું શ્રવણ કર્યુ છે. તેમજ આ સૂત્રને જે અથ છે, તે પરપરાગમ છે. કેમ કે ગણધરની વ્યવધાનતાથી તે પ્રાપ્ત થયેલ છે. ત્યાર પછી પ્રભવ આફ્રિકોના માટે જે સૂત્ર અને અથ છે, તે પર'પરા આગમ જ છે. તે ન આગમ છે અને ન अनन्तरागम छे, भेन वात "तेण परं सुत्तरस वि अत्थस्य वि णो अत्तागमे, णो अणंतरागमे, परम्परागमे" या सूत्रपाठ वडे अट वामां भावी छे ( से तं लोगुत्तरिए से तं आगमे से त्तं णाणगुणप्पमाणे ) આ પ્રમાણે લાકોત્તરિક આગમનું સ્વરૂપ છે. તીર્થંકરાને જે આગમના પ્રણેતાઓના રૂપમાં નિરૂપિત કરવામાં આવેલ છે તેનુ તાત્પય આ પ્રમાણે છે કે માગમમાં જિનવાદીઓએ એકાન્તત; અપૌરુષેયતા માની છે, તેનુ
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अनुयोगद्वारसूत्र शब्दानुपलब्धेः । ताल्वादिभिरभिव्यज्यते एव शब्दो न तु क्रियते इति तु न मन्तव्यम् । एवं चेन्मन्येत तर्हि सर्ववचसामपौरुषेयत्वमसङ्गः, तेषां भाषापुद्गल निष्पन्नत्वात् , भाषापुद्गलानां च लोके सर्वदैव स्थितेरपूर्व क्रियमाणताया अभावेन वाल्यादिभिरभिव्यक्तिमात्रस्यैव निर्वर्तनात् । न च शब्दानां पौद्गलिकत्वमसिद्धहै, उसका निराकरण हो जाता है। क्योंकि पौरुषेय ताल्वादिक का जब तक व्यापार नहीं होगा तब तक विशिष्ट शब्दों की उत्पत्ति नहीं हो सकती है। आकाश में ताल्वादिकों का व्यापार नहीं होता है, इसीलिये उससे विशिष्ट शब्दों की उत्पत्ति नहीं होती है ।
शंका-ताल्बादिकों के व्यापार से शब्द उत्पन्न नहीं होना है-किन्तु अभिव्यक्त होता है । शंकाकार का अभिपाय ऐसा है कि 'शब्द तो अनादिनिधन है, इसलिये उनका कभी विनाश नहीं होता सिर्फ उस पर आवरण आ जाता है, सो उस आवरण को ताल्वादिकों का व्यापार हटा देता है-अतः वह शब्द ताल्वादिक के व्यापार से अभिव्यक्त हो जाता है । रहे हुए पदार्थ की अभिव्यक्ति होती है-उत्पत्ति नहीं। सो ऐसा कहना भी उचित नहीं है क्योंकि ताल्वादिक व्यापारों से शब्द की कथंचित् उत्पत्ति होती है-अभिव्यक्ति नहीं। यदि ऐसा ही एकोन्ततः माना जावे तो, फिर संसार में जितने बचन हैं, वे सब अपौरुषेय ही हो जायेंगे और अपौरुषेयता के कारण आगमों में प्रमाणता का अप्रसंग प्राप्त होगा ऐसी स्थिति में अमुक आगम प्रमाण है और अमुक નિરાકરણ થઈ જાય છે. કેમ કે પૌરુષેયતા તારાદિકનો જ્યાં સુધી વ્યાપાર થશે નહિ. ત્યાં સુધી વિશિષ્ટ શબ્દની થશે નહિ. - શંકા-તાલવાદિકના વ્યાપારથી શબ્દ ઉત્પન્ન થતું નથી, પરંતુ અભિવ્યક્ત થાય છે. શંકાકારને અભિપ્રાય એ છે કે “શબ્દ તે અનાદિ અનિધન છે, એટલા માટે તેને કદાપિ વિનાશ થતો નથી. ફક્ત તેની ઉપર આવરણ આવી જાય છે, તે આવરણને તાલવાદિકોને વ્યાપાર હટાવી દે છે, એટલા માટે તે શબ્દ તાલવાદિકના વ્યાપારથી અભિવ્યક્ત થઇ જાય છે. જે પદાર્થ છે, તેની અભિવ્યક્તિ હોય છે નહિ કે ઉત્પત્તિ. આ પ્રમાણે કહેવું પણ ઉચિત નથી કેમ કે તાલ્વાદિક વ્યાપારોથી શબ્દની કથંચિત ઉત્પત્તિ થાય છે. અભિવ્યક્તિ નહિ. જે આ પ્રમાણે જ એકાન્તઃ માનવામાં આવે તે પછી સંસારમાં જેટલાં વચને છે તે સર્વે અપૌરુષેય જ થઈ જશે અને અપરણેયતાના કારણે સર્વ આગમોમાં પ્રમાણુતાને અપ્રસંગ ઉપસ્થિત થશે, એવી પરિસ્થિતિમાં અમુક આગમ પ્રમાણે છે અને
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अनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र २२४ आगमप्रमाणनिरूपणम् मिति वक्तव्यम् , पटहताडनमहाघोषपूरितश्रवणबाधिर्यकुडव्यस्खलनाद्य यथाऽनुपपत्तेः । तस्माद् नैकान्ततोऽपौरुषेयमागमवचः, ताल्वादि व्यापराभिव्यङ्गयत्वात् , देवदत्तादि वाक्यवदिति । प्रकृतमुपसंहरन्नाह-स एष लोकोत्तरिक इति । लौकिक आगम प्रमाण नहीं हैं-यह बात नहीं बन सकेगी। अपौरुषेयता शब्दों में इस प्रकार से आती है कि वे सब भाषावर्गणाओं से निष्पन्न होते हैं
और भाषा वर्गणाएँ पोद्गलिक हैं और वे लोक में सर्वदा ही स्थित रहो करती हैं- ताल्पादिक कोई अपूर्व काम करते नहीं हैं, वे तो सिर्फ तुम्हारी मानधनानुसार शब्द की अभिव्यक्ति मात्र ही करते हैंऐसी स्थिति में समस्त शब्दों में औरुषेयता आती है। शब्द भाषावर्गणाओं से निष्पन्न होते हैं यह मान्यता असिद्ध नहीं है-अर्थात् शब्द पौगलिक है ऐसा कथन असिद्ध नहीं है। क्योंकि पटहताडन जन्यमहाघोष शब्द से कान की झिल्ली तक फूट जाती है । भीत आदि से शब्दस्खलित हो जाता है । तात्पर्य यह है कि-'यदि शब्द पौगलिक नहीं होता वह अमूर्तिक होता तो, उससे कान में विघात नहीं होना चाहिये था, और न उसका भित्यादिक से अभिघात ही होना चाहिये था । परन्तु ऐसा होता है-अतः 'वह पौगलिक है' ऐसा मानना चाहिये । इसलिये आगमरूप वचन एकान्ततः अपौरुषेय नहीं અમુક આગમ અપ્રમાણ છે, આ વાત સિદ્ધ થઈ શકશે જ નહિ. શબ્દમાં અપૌરુષેયતા આ પ્રમાણે આવે છે કે તેઓ સર્વ ભાષા વર્ગણાઓથી નિષ્પન્ન હોય છે, અને ભાષા વગણાઓ પૌગલિક છે. અને તેઓ લેકમાં સદા સ્થિત રહ્યા જ કરે છે. તાલવાદિકો કોઈપણ જાતનું અદ્ભુત કામ કરે છે એવું નથી, તેઓ તે ફક્ત તમારા મત મુજબ શબ્દની અભિવ્યક્તિ જ કરે છે. એવી સ્થિતિમાં સમસ્ત શબ્દમાં અપૌરુષેયતા આવે છે. શબ્દ ભાષા વગણાઓથી નિષ્પન્ન થાય છે, આ માન્યતા અસિદ્ધ નથી, એટલે કે શબ્દ પૌગલિક છે, એવું કથન અસિદ્ધ નથી. કેમકે પટતાડન જન્ય મહાઘોષ આદિ શબદથી કાનને પડદે સુદ્ધાં ફાટી જાય છે. ભીત વગેરેથી શ૬ ખલિત થઈ જાય છે. તાત્પર્ય આ પ્રમાણે છે કે જે શબ્દ પગલિક હેત નહિ અને તે અમૂર્તિક હેત તે તેના વડે કાનમાં વિઘાત (પ્રહાર) થ ન જોઈએ અને તેને ભિત્યાદિકની સાથે અભિવાત પણ હો ન જોઈએ. પરંતુ આમ થાય છે તેથી તે પદ્ગલિક છે, એવું માનવું એગ્ય કહેવાય. એટલા માટે આગમરૂપવચને
अ०६९
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५४६
अनुयोगद्वारसूत्रे
लोकोत्तरिक भेदद्वय निरूपणेनागमो निरूपित इति सूचयितुमाह स एष आगम इति । इत्थं प्रत्यक्षानुमानौपम्यागमनिरूपणेन सभेदं ज्ञानगुणप्रमाणं निरूपित मिति सूचयितुमाह- तदेतद् ज्ञानगुगप्रमाणमिति ॥ ४० २२४ ॥
अथ दर्शन गुणप्रमाणं निरूपयति
मूलम् - से किं तं दंसणगुणप्पमाणे ? दंसणगुणष्पमाणे विहे पण्णत्ते, तं जहा - चक्खुदंसणगुणष्पमाणे, अचक्खुदंसणगुणष्पमाणे, ओहिदंसणगुणष्पमाणे, केवलदंसणगुणप्पमाणे । चक्खुदंसणं चक्खुदंसणिस्स घडपडकडरहाइ एसु दवेसु । अचक्खुदंसणं अचक्खुदंसणिस्स आयभावे । ओहिदसणं ओहिदंसणिस्स सङ्घरुविदद्देसु न पुण सवपज्जवेसु । केवलदंसणं केवलदंसणिस्स सङ्घदवेसु य सवपज्जवेसु य । से तं दंसण गुणप्पमाणे ॥ सू. २२५॥
"
छाया - अथ किं तद् दर्शनगुणप्रमाणम् ?, दर्शनगुणप्रमाणं चतुर्विधं प्रज्ञप्तं, तद्यथा-चक्षुर्दर्शन गुणप्रमाणम्, अवक्षुदर्शन गुणप्रमाणम् अवधिदर्शनगुणप्रमाणं केवलदर्शन गुणप्रमाणम् । चक्षुर्दर्शनं चक्षुर्दर्शनिनो घटपटक रथादिकेषु द्रव्येषु । अचक्षुर्दर्शनम् अचक्षुर्दर्शनिनः आत्मनावे | अवधिदर्शनम् अवधिदर्शनिनः सर्वरूपि द्रव्येषु न पुनः सर्वपर्यायेषु । केवलदर्शनं केवलदर्शनिनः सर्वद्रव्येषु च सर्वपर्यायेषु च । तदेतद् दर्शनगुणप्रमाणम् ॥ सू० २२५ ॥
हैं । कथंचित् अपौरुषेय हैं और कथंचित् पौरुषेय हैं। पौगलिक भाषावर्गणाओं से जन्य होने के कारण अपौरुषेय एवं पुरुष जन्य ताल्वादिक व्यापार से अभिव्यक्त होने के कारण पौरुषेय हैं । ऐसी निर्दोष भावना ही रखनी चाहिये । इस प्रकार यह आगम का निरूपण है । प्रत्यक्ष, अनुमान, उपमान और आगम के निरूपण से सभेद ज्ञानगुणप्रमाण यहां तक निरूपित हो चुका । ॥ सू० २२४ ॥
એકાન્તત: પૌરુષેય નથી, કથ'ચિત્ પૌરુષેય છે. અને કથ'ચિત્ અપૌરૂષય છે. પૌદ્ગલિક ભાષા વગ ણુાએથી જન્ય હાવા બદલ પૌરૂષય છે, તેમજ પુરૂષજન્ય તાવાદિક વ્યાપાર વડે અભિવ્યક્ત હોવા બદલ પૌરુષેય છે. આ જાતની નિર્દોષ ભાવના જ રાખવી જોઇએ. આ પ્રમાણે આ નિરૂપણ છે. પ્રત્યક્ષ, અનુમાન, ઉપમાન અને આગમના નિરૂપણુથી સભેદ જ્ઞાનગુણુ પ્રમાણનું અહીં સુધી નિરૂપણુ થઇ ચૂકયું છે. સૂત્ર-૨૨૪।
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अनुयोगवन्द्रिका टीका सूत्र २२५ दर्शनगुणप्रमाणनिरूपणम्
टीका-'से कि तं' इत्यादि
अथ किं तद् दर्शनगुणप्रमाणम् ? इति शिष्यप्रश्नः । उत्तरयति-दर्शनगुणप्रमाणम्-दर्शनावरणकर्मक्षयोपशमादिजं सामान्यमात्रग्रहणं दर्शनम् , उक्तं च
'जं सामन्नग्गहणं, भावाणं नेवकटुमागारं।
अविसेसिऊण अत्थे, सणमिइ वुच्चए समए ॥" छाया-यत् सामान्यग्रहणं भावानां नैव कृत्वाऽऽकारम् ।
अविशेष्यार्थान् दर्शनमित्युच्यते समये । इति॥ तद् दर्शनमेव आत्मनो गुणः, स एव प्रमाणम्-दर्शनगुणपमाणम् । तच्च-चक्षुर्दर्शनगुणप्रमाणाचक्षुर्दर्शनगुणप्रमाणावधिदर्शनगुणपमाण केवलदर्शनगुणप्रमाणेति चतु
अब सूत्रकार दर्शनगुणप्रमाण का निरूपण करते हैं'से कि तं दंसणगुगप्पमाणे इत्यादि ।
टीकार्थ--से कि त दंसणगुणप्पमाणे) हे भदन्त ! उस दर्शनगुणप्रमाण का क्या स्वरूप है ?
उत्तरः--(दसणगुणप्पमाणे चविहे पण्णत्ते) दर्शन गुणप्रमाण चार प्रकार का कहा गया है । (तं जहा) जैसे (चक्खुदसणगुणप्पमाणे, अचक्खुदंसणगुणप्पमाणे, ओहिदंसणगुणप्पमाणे, केवलदंसणगुणप्पमाणे,) चक्षुदर्शनगुणप्रमाण, अचक्षुदर्शनगुणप्रमोण, अवधिदर्शनगुण. प्रमाण, केवल दर्शनगुणप्रमाग । दर्शनावरण कर्म के क्षयोपशम आदि से जो पदार्थों का सामान्य ग्रहण होता है, वह दर्शन है। द्रव्यसंग्रह में कहा भी है कि-'जं सामनग्गहणं' इत्यादि । इसका भाव यह है, कि-'ज्ञान की दो धाराएँ हैं, एक धारा पदार्थों को सामान्यरूप
હવે સૂત્રકાર દર્શન ગુણ પ્રમાણુનું નિરૂપણ કરે છે– 'से कि त दमणगुणप्पमाणे' इत्यादि।
सहाय - (से कि त दसणगुणप्पमाणे) ३ मत! ते ४शशुप्रभाj ११३५ यु छ ?
उत्तर-(दमणगुणप्पमाणे चउबिहे पण्णत्ते) शनशुप्रभाणुना था
| छ. (तंजहा) म , (चक्खुदसणगुणप्पमाणे, अचक्खुदंसणगुणप्पमाणे, ओहिदसणगुण पमाणे, केवलईचणगुणप्रमाणे) यक्षुशन शुष પ્રમાણ, અચક્ષુદર્શનગુણું પ્રમાણ, અવધિદર્શનગુણપ્રમાણ, કેવલદર્શન ગુણપ્રમાણુ. દર્શનાવરણ કર્મના ક્ષપશમ વગેરેથી જે પદાર્થોનું સામાન્ય अक्षय थाय छ, ते ४शन छ, द्रव्य सभा घुछ है-"जं सामनग्गहण" ઇત્યાદિ. આનું તાત્પર્ય આ પ્રમાણે છે કે-“જ્ઞાનની બે ધારાઓ છેએક
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अनुयोगद्वारसूत्र विधम् । तत्र-भावचक्षुरिन्द्रियावरणक्षयोपशमाद् द्रव्येन्द्रियानुपघाताच चक्षुर्दर्शनिनः चक्षुर्दर्शनकब्धिमतो जीवस्य घटादिषु द्रव्येषु चक्षुर्दर्शनं चक्षुषो दर्शनं भवति । सामान्यविषयत्वेऽपि चास्य यद् घटादिविशेषाभिधानं तत्सामान्यविशेषयोः कथंचिदभेदात् एकान्तेन विशेषेभ्यो व्यतिरिक्तस्य सामान्यस्याग्रहणख्यापनार्थम् । उक्तं चसे ग्रहण करती है और दूसरी धारा पदार्थों को विशेषरूप से ग्रहण करती है। सामान्यरूप से पदाथों को जाननेवाली धारा का नाम दर्शन, और विशेषरूप से जाननेवाली धारा का नाम ज्ञानगुण है। भावचक्षुरिन्द्रियावरण के क्षयोपशम से और द्रव्येन्द्रिय के अनु. पघात से चक्षुदर्शनलब्धिवाले जीव को जो घटादि पदार्थों में चक्षु से सामान्यावलोकन होता है, उसका नाम चक्षुर्दर्शन है। दर्शन यद्यपि सामान्य को विषय करता है, परन्तु जो सूत्रकार ने 'चक्खुदंसणं चक्खु. दंसणिस्स घडपडकडरहाइएसु दवेलु' इस सूत्रपाठ द्वारा घटादि विशेषों का कथन किया है वह सामान्य और विशेष में कथंचित् अमेद होने से एकानता विशेष व्यतिरिक्त सामान्य का ग्रहण नहीं होता है इस बात कहने के लिये किया गया है। तात्पर्य यह है कि-'दर्शन यद्यपि सामान्य को ही विषय करता है परन्तु यदि यह सामान्य विशेष से सर्वथाभिन्न हैं, तो वह उसे विषय नहीं कर सकता है । क्योंकि विशेषरहित सामान्य खरविषाण के सरीखा
ધારા પદાર્થોને સામાન્ય રૂપથી જ ગ્રહણ કરે છે અને બીજી ધારા પદાર્થોને વિશેષરૂપથી ગ્રહણ કરે છે. સામાન્ય રૂપથી પદાર્થોને જાણનારી ધારાનું નામ દર્શન અને વિશેષ રૂપથી જાણનારી ધારાનું નામ જ્ઞાનગુણ છે. ભાવ ચક્ષુ ઈન્દ્રિયાવરણના ક્ષપશમથી અને દ્રવ્યેન્દ્રિયના અનુપઘાતથી ચક્ષુ દર્શન લબ્ધિવાળા જીવને જે ઘટાદિ પદાર્થોમાં ચક્ષુ વડે સામાન્યાવકન થાય છે, તેનું નામ ચક્ષુદર્શન છે. દર્શન જે કે સામાન્યને જ વિષય બનાવે છે, પરંતુ २ सूत्रारे "चक्खुदंसण चक्खुदंरणिस्य घडपडकडरहाइएसु व्वेसु" मा सूत्रा। વડે ઘટાદ વિશેનું કથન કર્યું છે, તે સામાન્ય અને વિશેષમાં કથંચિત્ અભેદ હોવાથી એકાન્તતઃ વિશેષ વ્યતિરિત સામાન્યનું ગ્રહણ થતું નથી. એ વાતને સ્પષ્ટ કરવા માટે જ કર્યું છે. તાત્પર્ય આ પ્રમાણે છે કે “દર્શન જે કે સામાન્યને જ વિષય બનાવે છે, પરંતુ જે તે સામાન્ય વિશેષથી સદંતર ભિન્ન છે, તે તેને વિષય બનાવી શકે જ નહિ. કેમકે વિશેષ રહિત સામાન્ય અરવિષાણુવત્ છે.
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अनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र २२५ दर्शनगुणप्रमाणनिरूपणम्
"निर्विशेष विशेषाणां, ग्रहो दर्शनमुच्यते” इति । चक्षुर्वज शेषमिन्द्रियचतुष्टयं मनचाचक्षुः, तस्य दर्शनमचक्षुर्दर्शनम् , तच्च भावा. चक्षुरिन्द्रियावरणक्षयोपशमाद् द्रव्येन्द्रियानुपघाताच अचक्षुर्दर्शनिन: अचक्षुर्दर्शन कब्धिमतो जीवस्य आत्मभावे-आत्मनि जीवे भावः विषयस्य घटादेः संश्लिष्टतया संबन्धस्तस्मिन् सति प्रादुर्भवति । अयं भावः-चक्षुरमाप्यकारि भवति, ततस्तद् दूरस्थमपि स्वविषयं परिच्छिनत्तीत्यस्यार्थस्य ख्यापनार्थ घटादिषु चक्षुर्दर्शनं भवतीति पूर्वमुक्तम् । श्रोत्रादीनि तु पाप्यकारीणि भवन्ति, ततश्च माना गया है। इसीलिये 'निविशेष विशेषाणां ग्रहोदर्शन मुच्यते' विशेषों का सामान्य ग्रहण करना दर्शन कहा गया है । ( अचक्खु. दसणं अचखुदंसणिस्स आयभावे ) चक्षु को छोड़कर शेषचार इन्द्रियों एवं मन को अचक्षु कहा है। इनमे जो पदार्थों का सामान्य ज्ञान होता है, वह अचक्षुदर्शन है । यह अचक्षुर्दर्शन भावचक्षुरिन्द्रियावरण केक्षयोपशम से और द्रव्येन्द्रियों के अनुपघात से अचा. दर्शनलब्धिसंपन्न जीव के घटादिपदार्थों का संश्लेषरूप संबंधहोने पर होता है। इसका तात्पर्य यह है कि चक्षुइन्द्रिय अप्राप्यकारी माना गया है-वह पदाथों के साथ संश्लिष्ट होकर पदार्थो का दर्शन नहीं करता है-इसलिये वह उनसे दूर रहकर ही दूरस्थ अपने विषयों को जानता है, इस बात को कहने के लिये घटादिकों में चक्षुर्दर्शन होता है, ऐसा मूत्रकारने पहिले कहा है । अब अचक्षुर्दर्शन में यह बात कही
॥ भाटे "निर्वेशेषं विशेषाणं ग्रहो दर्शनमुच्यते” विशेषानु सामान्य अड ४२. शनाय छे. (अचखुदंसणं अचखुदंसणिस्स आयभावे) ચક્ષને બાદ કરતાં શેષ ચાર ઇન્દ્રિય અને મન અચક્ષુ કહેવાય છે. એમનાથી જે પદાર્થોનું સામાન્યજ્ઞાન થાય છે, તે અચક્ષુદર્શન છે. તે અચક્ષુદર્શન ભાવચક્ષુરિન્દ્રિયાવરણના ક્ષપશમથી અને દ્રવ્યેન્દ્રિાના અનુપઘાતથી અચદશનલબ્ધિ સંપન્ન જીવને ઘટાદિ પદાર્થોના સંલેષ રૂપ સંબંધ થયા પછી જ સંભવે છે. આનું તાત્પર્ય આ પ્રમાણે છે કે ચક્ષુ ઇન્દ્રિય અપ્રાપ્યકારી મનાય છે, તે પદાર્થોની સાથે સંશ્લિષ્ટ થઈને પદાર્થોનું દર્શન કરતી નથી, માટે તે તેનાથી દૂર રહીને જ દૂરસ્થ પિતાના વિષયોને જાણે છે. આ વાતને કહેવા માટે ઘટાદિકમાં ચક્ષુદર્શન હેય છે, એવું સૂત્રકાર પહેલાં કહ્યું છે. હવે અચસુદર્શનમાં આ વાત કહેવામાં આવી રહી છે કે
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६६०
अनुयोगद्वारसूत्रे
तानि द्रव्येन्द्रियसंश्लेषद्वारेण जीवेन सह संबद्धमेव विषयं परिच्छिन्दन्तीत्येतदर्शनार्थम् आत्मभावे भवतीत्येव मिह विषयस्याभेदेनोक्तम् । अभिहितं चापि"पुढे सुणे सर्व रूवं पुण पास अपुढं तु"
9
"
छाया - स्पृष्टं शृणोति शब्दं रूपं पुनः पश्यत्यस्पृष्टं तु" इत्यादि । अवधिदर्शनम् प्रयदर्शनम् अवधिदर्शनिनः = अवधिदर्शनावरणक्षयोपशमसमुद्भूताaartooधमतो जीवस्य सर्वेष्वपि रूविद्रव्येषु भवति न पुनः सर्वषर्यायेषु भवति । यतोऽवधेर्विषयत्वेन उत्कृष्टतोऽप्येकवस्तुगताः संख्येया असंख्येया वा पर्याया उक्ताः । जघन्यतस्तु रूपरसगन्धस्पर्शलक्ष गाश्चत्वारः पर्याया इत्यर्थः । जा रही है कि- 'चक्षु के सिवाय जो श्रोत्रादिक इन्द्रियां हैं, वे प्राप्यकारी हैं। पदार्थो के साथ संश्लिष्ट होकर ही अपने विषय का अवबोध करती हैं । यह बात सूत्रकारने 'आयभावे' पद द्वारा स्पष्ट की है । अन्यत्र भी ऐसा ही कहा है कि (पुढं सुणेह सद्द) इत्यादि श्रोत्रेन्द्रिय शब्द को स्पृष्ट होने पर ही सुनती है और चक्षुरिन्द्रिय अस्पृष्ट हुए रूप को जानती है आदि । (ओहिंदसणं ओहिदंसणिस्स सम्ब रूवि दव्वेसुन पुण सव्वपज्जवेसु) अवधिदर्शनावरण के क्षयोपशम से जो समस्तरूपी पदार्थो का अवधिदर्शन लब्धिसंपन्न जीव को सामान्यावलोकन होता है, उसका नाम अवधिदर्शन है । यह अवधिदर्शन सर्व पर्यायों में नहीं होना है। क्योंकि अवधिदर्शन की विषयभूत पर्यायें उत्कृष्ट से एक ही पदार्थ की संख्यात अथवा असंख्यात कही गई हैं। और जघन्य से रूप, रस, गंध और स्पर्श ये चार पर्याये
ચક્ષુ સિવાય જે શ્રોત્રાદિક ઇન્દ્રિયા છે, તે પ્રાપ્યકારી છે.' પદાર્થીની સાથે સુશ્લિષ્ટ થઈને જ પાતાના વિષયના અવમેધ કરે છે. આ વાત સૂત્રકારે 'आयभावे' यह वडे स्पष्ट उरी छे. अन्यत्र पशु या प्रमाणे ४ उछु ४ छे है ( पुठ्ठे सुणेइ सई, इत्यादि) श्रेत्रेन्द्रिय न्यारे शह स्पृष्ट थाय छे, त्यारे સાંભળે છે, અને ચક્ષુરિન્દ્રિય અસ્પૃષ્ટ થયેલ રૂપને જ જાગે છે. વગેરે. (ओहिन्रणं ओहिदंखणिस्स सव्व रूबिद०वेषु न पुण सव्व पज्जवेसु) अवधि દનાવરણુના ક્ષયે પશમથી જે સમસ્તરૂપી પદાર્થોનુ અવધિદર્શીન લબ્ધિ સંપન્ન જીવને સામાન્યાવલેાકન થાય છે, તેનુ નામ અવધિદર્શન છે. આ અવધિદન સ`પર્યાયામાં હાતુ' નથી. કેમકે અવધિદર્શનની વિષયભૂત પર્યાચા ઉત્કૃષ્ટથી એક જ પદાર્થની સખ્યાત અથવા અસ`ખ્યાત કહેવામાં આવી છે. અને જઘન્યથી રૂપ, રસ, ગધ અને સ્પર્શે આ ચાર પર્યાય તદ્ન વિષચી
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मनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र २२५ दर्शनगुणप्रमाणनिरूपणम्
उक्तं च
"दव्वाओ असंखेज्जे, संखेज्जे यावि पज्जवे हई | दो पज्जवे दुगुणिए, लहइ उ गाउ दव्वाओ || छाया - द्रव्येषु असंख्येयान् संख्येयान् वा ऽपि पर्यवान् लभते ।
द्वौ पर्याय द्विगुणित मते चैकस्मिन द्रव्ये ॥ इति ।
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,
द्वौ पर्यायौ द्विगुणितौ चतुर इत्यर्थः, अत्रोच्यते ननु पर्याया विशेषा उच्यन्ते, न च दर्शनं विशेषविषयं भवितुमर्हति सामान्यस्यैव तद्विषयत्वात् कथं पुनः पर्याया इहावधिदर्शनविषयत्वेनोक्ताः ? इति चेदाह - घटशरावोदञ्चनादिभिः केवलं सामान्यमेव मृदादि तथा तथा विशिष्यते, न पुनस्ते तत एकान्तेन व्यतिरिज्यन्ते, अतो मुख्यतः सामान्यमेव विषयं भाति, गुणीभूतास्तु विशेषा अध्यस्य उसके विषयभूत कही गई हैं। कहा भी है- दव्वाओ असखेज्जे' इत्यादि गाथा जो कही है, उसका तात्पर्य यही है ।
शंका- पर्यायें तो विशेषरूप होती हैं और दर्शन विशेष को विषय नहीं करता - उसका विषय तो सामान्य कहा गया है। फिर क्या बात है जो पर्यायों को अवधिदर्शन को विषयभूत कहा गया है ।
उत्तर--मिट्टीरून सामान्य की जो घट, शराव, उदश्व आदि पर्यायें हैं; उन पर्यायों के द्वारा केवल सामान्यरूप मिट्टी आदि पदार्थ ही उस रूप से विशेषित किये जाते हैं वे पर्यायें अपने सामान्य से एकान्ततः जुदी तो है नहीं। इसलिये मुख्यरूप से तो दर्शन का विषय सामान्य ही होता है परन्तु गुणीभूत जो विशेष हैं, वे भी इसके विषय हो जाते हैं। इसी बात को सूचित करने के लिये सूत्रकार
भूत उडेवामां भावी छे, કહેવામાં આવી છે તેનુ' તાત્પય' એ જ છે.
५५१
पशु छे- 'दव्वाओ असंखेज्जे' वगेरे गाथा भे
શકા-પાઁચાતા વિશેષરૂપ હાય છે અને દન વિશેષને વિષય અનાવતું નથી, તેને વિષય તા સામાન્ય કહેવામાં આવ્યા છે. તા પછી આવુ શુ` છે કે જેથી પર્યાયાને અવધિદર્શન-વિષયભૂત કહેલ છે.
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ઉત્તર-માટી માટી રૂપ સામાન્યની જે ઘટ, શરાવ, ઉદાંચ વગેરે પર્યા છે, તે પાંચા વડે ફક્ત સામાન્ય રૂપ માટી આદિ પદાર્થો જ, તદ્ન તદ્ રૂપથી વિશેષિત કરવામાં આવે છે, તે પાંચ પેાતાના સામાન્યથી એકાન્તતઃ ભિન્ન તા છે જ વહિ. એટલા માટે મુખ્ય રૂપમાં તે દશનના વિષય સામાન્ય જ હાય છે. પરંતુ ગુણી ભૂત જે વિષય છે, તે પણ એના
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५५२
अनुयोगवारसत्रे विषयीभवन्तीति सूचयितु तदुपन्यासः कृतः । केवलदर्शनं-सकलदृश्यविषयत्वेन परिपूर्ण दर्शनम् , तच्च केवलदर्शनिनः केवलावरणक्षयाविर्भूततल्लब्धि पतो जीवस्य सर्वद्रव्येषु मू मूर्तेषु सर्वपर्यायेषु च भवन्तीति । मनः पर्ययज्ञानं तु तथाविधः क्षयोपशमवशात् सर्वदा विशेषानेव गृह्णाति, न सामान्यम् , अतस्तदर्शनं नोक्तम् । संपति प्रकृतमुपसंहरन्नाह-तदेतदर्शनगुणप्रमाणमिति ॥सू०२२५॥ ___ अथ चारित्रगुणप्रमाणं निरूपयति
मूलम्-से कि तं चरित्तगुणप्पमाणे? चरित्तगुणप्पमाणेपंचविहे पण्णत्ते, तं जहा सामाइयचरित्तगगुप्पमाणे छेओवट्ठावणचरित्तगुणप्पमाणे परिहारविसुद्धि य चरित्तगुगप्पमाणे सुहुमसंपरायचरित्तगुणप्पमाणे अहक्खायचरित्तगुणप्पमाणे। ने यहां पर्यायों को उसके विषयरूप से वर्णित किया है। (केवल दसणं केवलदंसिणस्स सव्वदब्वेसु य सव्वपज्जवेसु य-से तं दंसण. गुगप्पमाणे) समस्तरूपी और अरूपी पदार्थों का सामान्यरूप से जाननेवाला होने के कारण परिपूर्ण जो दर्शन है, वह केवलदर्शन है। यह केवलदर्शन, केवलज्ञानावरण कर्म के क्षय से आविर्भूत लब्धि संपन्नवाले जीव को मूर्त और अमूर्त रूप समस्तद्रव्यों और उनकी समस्त पर्यायों में होता है । मनः पर्ययदर्शन नहीं होता है। इसका कारण यह है कि-'मनःपर्ययज्ञान तथाविधक्षयोपशम के वश से सर्वदा विशेषों को ही ग्रहण करता है। सामान्य को नहीं। इस प्रकार यह दर्शनगुण का निरूपण है । सू० २२५ ॥ વિષે થઈ જાય છે. એ જ વાતને સૂચિત કરવા માટે સૂત્રકારે અહી पर्यायाने तना विषय ३५ वर्णित ४२६ छ. (केवलदसणं केवलदंसणिस्स सव्वदव्वेसु य सव्वपज्जवेसु य-से त' दंणगुणप्पमाणे) समस्त ३था भने અરૂપી પદાર્થોને સામાન્ય રૂપથી જાણનાર લેવા બદલ પરિપૂર્ણ જે દર્શન છે, તે કેવલન છે. આ કેવલદર્શન, કેવલ જ્ઞાનાવરણ કર્મના ક્ષયથી અવિત લબ્ધિ સમ્પન્નવાળા જીવને મૂર્ત અને અમૂર્ત રૂપ સમસ્ત દ્રવ્ય અને તેમની સમસ્ત પર્યામાં હાવ છે મનઃપર્યાયદર્શન હોતું નથી. આનું કારણ આ છે કે “મન:પર્યયજ્ઞાન તથાવિધ ક્ષપશમના વશથી સામાન્યને नहि ५५ सहा विशेषाने 1 6 3रे छ। ॥ सू. २२५ ॥
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अनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र २२६ चारित्रगुणप्रमाणनिरूपणम् ५५३ सामाइयचरित्तगुणप्पमाणे दुविहे पण्णत्ते, तं जहा-इत्तरिए य आवकहिए य। छेओक्ट्रावणचरित्तगुणप्पमाणे दुविहे पण्णते, तं जहा-साइयारेय निरइयारे य। परिहारविसुद्धियचरित्तगुणप्पमाणे दुविहे पण्णत्ते, तं जहा-णिविसमाणए य णिविटकाइए य। सुहुमसंपरायचरित्तगुणप्पमाणे दुविहे पण्णत्ते, तं जहासंकिलिस्समाणए य विसुज्झमाणाए य। अहक्खायचरित्तगुण. प्पमाणे दुविहे पण्णत्ते, तं जहा-पडिवाई य अपडिवाई य। अहवा-छउमथिए य केवलिए य। से तं चरित्तगुणप्पमाणे। से तं जीवगुणप्पमाणे। से तं गुणप्पमाणे॥सू० २२६॥ __ छाया-अथ किं तत् चारित्रगुणप्रमाणं ?, चारित्रगुणप्रमाण-पञ्चविधं प्रज्ञप्त, तद्यथा-सामायिकचारित्रगुणरमाणं, छेदोपस्थापनचारित्रगुण पाणं, परिहारवि. शुद्धिकचारित्रगुणप्रमाणे, सूक्ष्मसंपरायचारित्रगुणप्रमाणं, यथाख्यातचारित्रगुणपमा. णम् । सामायिकचारित्रगुणप्रमाणं द्विविधं प्रज्ञप्त, तद्यथा-इत्वरिकं च यावत्कथिक च । छेदोपस्थापनचारित्रगुणप्रमाणं द्विविधं प्रज्ञप्तं, तद्यथा-सातिचारं च निरतिवारं च । परिहारविशुद्धिकचारित्रगुगपमाणं द्विविधं प्रज्ञप्तं, तद्यथा-निर्विश्यमानकं च निर्दिष्ट कायिकं च । मूक्ष्मसंपरायचारित्रगुणपमाणं, द्विविधं प्रज्ञप्त, तद्यथा-संक्लिश्यमानकं च विशुध्यमानकं च । यथाख्यात वारित्रगुणममाणं द्विविधं प्रज्ञप्तं, तद्यथा-पतिपाति च अप्रतिपाति च । अथवा-छामस्थिकं च कैवलिक च । तदेतत् चारित्रगुणप्रमाणम् । तदेतत् जीवगुणप्रमाणम् । तदेतत् गुणप्रमाणम् ।।मु० २२६॥
टीका-'से कित' इत्यादिअथ किं तत् चारित्रगुणप्रमाणम् ? इति शिष्यप्रश्नः । उत्तरयति-चारित्रअब सूत्र कार चारित्रगुणप्रमाण का निरूपण करते हैं-- 'से कि त चरित्तगुण पमाणे' इत्यादि । शब्दार्थ--(से कि त चरित्तगुणप्पमाणे) हे भदन्त ! चारित्रगुण હવે સૂત્રકાર ચારિત્રગુણપ્રમાણનું નિરૂપણ કરે છે. "से कि त चरित्च गुणप्पमाणे" इत्यादि । शाय-से कि चरित्तगुणप्पमाणे) : RED! यात्रि गुण प्रमाण
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अनु योगद्वारसूत्रे गुणप्रभागम्-वरन्ति अनिन्दितं कर्मानेनेति चरित्रम् , चरित्रमेव चारित्रम् , तदेव गुगः, स एव प्रमाणम्-चारित्रगुणप्रमाणम्- सावधयोगविरतिरूपमित्यर्थः । तच्चसामयि चारित्रगुगपमाणच्छेदोपस्थापनचारित्रगुणप्रमाणपरिहारविशुद्धिकचारित्रगुणप्रमाण मूक्षसंपरायचारित्रगुणप्रमाणयथाख्यातचारित्रगुणप्रमाणेति पञ्चविधम् । पश्चविधाप्येतदविशेषतः सामान्यमेव, छेदादिविशपैस्तु विशिष्यमाणमिदं पञ्चधा भियते । तत्राचं सामायिकचारित्रगुणप्रमाणम् । विशेषाभावादिदं एमाण का क्या स्वरूप है।
उत्तर--(चरित्तगुणपमाणे पंचविहे पण्णस) चारित्रगुणप्रमाण पांच प्रकार का कहो गया है। (न जहा) जैसे-(मामाइयचरित्तगुणप्पमाणे छेओबहावगचरित्तगुणप्पमाणे परिहारविसुद्धि य चरित्सगुणप्पमाणे सुहमसंपरायचरित्तगुणप्पमाणे अहवायचरित्तगुणपमाणे) सामायिकचारित्रगुणप्रमाण, छेदोपस्थानचारित्रगुणप्रमाण, परिहारविशुद्धिकचारित्रगुणप्रमाण सूक्ष्मपरायनारित्रगुणप्रमाण, यथाख्यातचारित्र. गुणप्रमाण । जिसको धारण करके मनुष्य अनिन्दित कर्म आचरित करता है, उसका नाम चारित्र है। यह चारित्र आत्मा का एक गुण है। इसलिये चारित्रगुणरूप जो प्रमाण है, वही चारित्रगुणप्रमाण है। यह चारित्रगुणप्रमाण सर्व सावद्ययोग विरतिरूप पडना है । यद्यपि सामान्यरूप से चारित्र सर्वसावद्यविरतिरूप है, फिर भी सामायिकादि विशेषणों से विशेषित होना हुआ, यह चारित्र पांच प्रकार का हो जाता સ્વરૂપ કેવું છે?
उत्तर-(चरित्तगुणःपमाणे पंचविहे पण्णत्ते) यात्रि गुण प्रभाना पाय प्रा। छ. (तजहा) रेभ (सामाइयचरित्तगुणपरमाणे, छेओवठ्ठावणचरित्त गुणप्पमाणे परिहारविसुद्धियचरित्तगुणप्पमाणे सुहुमसंपरायचरित्तगुण पमाणे अहक्खायचरित्तगुणप्प माणे) सामायि: यरित्र गुण प्रभा छे । ५३थापन यात्रि ગુણ પ્રમાણ, પરિહારવિશુદ્ધિક ચારિત્ર ગુણ પ્રમાણુ, સૂક્ષ્મ સાંપરાય ચારિત્ર ગુરૂપ્રમાણ યથાખ્યાતચરિત્રગુણપ્રમાણુ જેને ધારણ કરીને મનુષ્ય અનિશ્વિત કર્મોનું આચરણ કરે છે, તેનું નામ ચારિત્ર છે. આ ચારિત્ર આત્માના જ એક ગુણ છે. એટલા માટે ચારિત્ર ગુણ રૂપ જે પ્રમાણ છે, તે જ ચારિત્ર ગુણ પ્રમાણ છે. આ ચારિત્ર ગુણ પ્રમાણ સર્વ સાવદ્યોગવિરતિરૂપ છે જે કે સામાન્ય રૂપથી ચારિત્ર સવસાવદ્યવિરતિરૂપ છે. છતાંએ સામાયિકાદિ વિશેષણેથી વિશેષિત થયેલ આ ચારિત્ર પાંચ પ્રકારનું થઈ જાય છે. આમાં જે સામાયિક
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अनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र २२६ चारित्रगुणप्रमाणनिरूपणम् सामायिकशब्देनोच्यते । सामायिकशमस्यार्थः पूर्ववद् योध्यः । इदं च इत्वरिक यावत्कथि केति द्विविधम् । तत्र-इत्वरम्-महान तस्यारोप्यमाणत्वादिदं स्वल्पकालिकम् । इदं च प्रथमचरमतीर्थकरकाले यावच्छिष्ये महावतानि नारोप्यन्ते तावद् बोध्यम् । तथा यावत्कटिकम्-आत्मनः कयां यावदास्ते तद् यावस्कथम्-यावजीवम् , तदेव यावत्कथिकम् । एतच्च भरतैरवतेषु आधचरमवर्जमध्यमद्वाविंशति तीर्थकृत्साधूनां महाविदेहतीर्थकरयतीनां च संभवति । द्वितीयं छेदोपस्थापन: चारित्रगुणप्रमाणम्-पूपर्यायस्य छेदेन महाव्रतेघूपस्थापनं यत्र तत् छेदोपस्थापनम् । एतच्च भरतैरवतप्रथमान्तिमती एव भवति, नान्यत्र । इदं च-सातिचारहै। इनमें जो सामायिकचारित्रगुणप्रमाण है, वह सामायिक शब्द से कहा गया है। 'सामायिक शब्द का क्या अर्थ है ? यह पहिले स्पष्ट कर दिया है। (सामाइयचरित्तगुगप्पमाणे दुविहे पण्णत्ते इत्तरिए य आव. कहिए य) यह सामायिक चारित्र इत्वरिक और यावत्कथिक के भेद से दो प्रकार का होता है। इत्वरिक सामायिक चारित्र महावत को ? आरोप्यमाण होने से स्वल्पकालिक होता है। प्रथम और अन्तिम तीर्थंकर के समय में जब तक शिष्य महाव्रतों का आरोपण नहीं करते हैं तब तक यह इत्वरिक सामायिक चारित्र होता है। तथा जीवन पर्यंत जो सामायिक चरित्र होता है, वह यावत्कधिक होता है। यह यावस्कधिक सामायिक चारित्र भरत, ऐरवत क्षेत्रों में आदि
और अन्त के तीर्थंकरों को छोडकर बीच के २२ तीर्थकर के साधुओं में और महाविदेह के तीर्थंकरों के साधुओं में होता है । (छेयोवठ्ठावणचरित्तगुणप्पमाणे दुविहे पण्णत्त तं जहा) जिस चारित्र में पूर्व ચારિત્ર ગુણ પ્રમાણ છે, તે સામાયિક શબ્દથી અભિહિત કરવામાં આવેલ छ. सामायि नेम ५२ai २Yष्ट ४२१ामा मावेस छ. (सामाइयचरित्तगुणप्पमाणे दुविहे पण्णत्ते, इत्तरिए य आवकहिए य) मा सामाथि सारित्र ઈQરિક અને યાવતકથિકના રૂપમાં બે પ્રકારનું હોય છે. ત્વરિક સામાયિક ચારિત્ર મહાવ્રતાપ્યમાણ લેવા બદલ સ્વલ્પકાલિક હોય છે. પ્રથમ અને અંતિમ તીર્થકરના સમયમાં જ્યાં સુધી શિવે મહાવ્રતનું આરોપણ કરતા નથી ત્યાં સુધી આ ઈતરિક સામયિક ચારિત્ર હોય છે. તેમજ જીવન પર્યંત જે સામયિક ચારિત્ર હોય છે, તે યાવસ્કથિત હોય છે, આ યાવસ્કથિત સામાયિક ચરિત્ર ભરત, અરવત ક્ષેત્રમાં આદિ અને અંતના તીર્થકરો સિવાય વચ્ચેના ૨૨ તીર્થંકરના સાધુઓમાં અને મહાવિદેહના તીર્થકરોના साधुममा डाय छे. (छेयोवढावणचरित्तगुणप्पमाणे दुविहे पण्णत्ते त' जहा) २
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अनुयोगद्वारसूत्र निरतिचारभेदाद् द्विविधम् । तत्र सातिचारम्-मूलघातिनो यत्पुर्वतारोपणं तद् बोध्यम् । तथा-इत्वरसामायिकस्य शैक्षकस्य यदारोप्यते, तीर्थान्तरं वा संक्रामतः साधोः-यथा पार्श्वनाथतीर्थान्महावीरनीर्थ संक्रामतः साधोः-यदारोप्यते तन्निरतिचारम् । तृतीयं परिहारविशुद्धिकचारित्रगुणममाणम्-परिहार: तपोविशेषस्तेन विशुदम् परिहारविशुद्धम् , यद्वा-परिहारः = भनेपणीयादेः परित्यागो विशेषणपर्याय का छेदन कर पुनः महाव्रतों की उपस्थापना की जाती है, उसका नाम छेदोपस्थापन चारित्र हैं। यह चारित्र भरत ऐश्वत क्षेत्र के प्रथम तथा अन्तिम तीर्थंकर के तीर्थ में ही होता है। अन्यत्र नहीं होता है। (माइयारे य निरहयारे य ) यह सातिचार और निरतिचार के भेद से दो प्रकार होता है । सातिचार छेदोपस्थापन चारित्र वह है, जो मूलगुणों का घात करने वाले साधु के लिये पुन: वन प्रदान किये जाते हैं । तथा इत्वरिक सामायिक चारित्र पालन करने वाले शिष्य को जो चारित्र दिया जाता है वह अथवा एक तीर्थंकर के तीर्थ से दूसरे तीर्थ कर के तीर्थ में संक्रमण करनेवाले जैसे पार्श्वनाथ के तीर्थ से महावीर के तीर्ध में जाने वाले-साधु कोजो चरित्र दिया जाता है वह निरतिचार छेदोपस्थापनचारित्र है। (परिहारविस्तुद्धिय च०) तीसरा जो परिहार विशुद्धिक चारित्रगुण प्रमाण है, वह इस प्रकार से है-तप विशेषता का नाम परिहार है, इस परिहार से जो चारित्र विशुद्ध होता है, उसका नाम परिहारविशुद्धिक ચારિત્રમાં પૂર્વ પર્યાયનું છેદન કરીને ફરી મહાવ્રતની ઉપસ્થાપના કરવામાં આવે છે, તેનું નામ છેદો પસ્થાન ચારિત્ર છે. આ ચારિત્ર ભરત અરવત ક્ષેત્રના પ્રથમ तमा मतिम तीर्थ ४२ना तीथ भांग डाय छे भन्यत्र नलि-(साइयारे य निरझ्यारे य) मा सातियार अन नितियाना मेथी म प्रा२नु डाय छे. સાતિચાર છેદેપસ્થાપનચારિત્ર તે છે કે જે મૂળ ગુણેના વિઘાતક સાધુઓ માટે પુનઃવૃતપ્રદાન કરવા રૂપ હોય છે. તેમજ ઈત્વરિક, સામાયિક, ચારિત્રનું પાલન કરનાર શિષ્યને જે ચારિત્ર અપાય છે, તે અથવા એક તીર્થકરના તીર્થથી બીજા તીર્થંકરના તીર્થમાં સંક્રમણ કરનારા, જેમકે પાર્શ્વનાથના તીર્થથી મહાવીરના તીર્થમાં જનારો-સાધુઓને જે ચારિત્ર આપમાં આવે છે,
नतिरछेही स्थापन यात्रिछे. (परिहारविमुद्धिय च.) श्री परिहार વિશુદ્ધિક રૂપ ચારિત્ર ગુણ પ્રમાણ છે, તે આ પ્રમાણે છે, તપ વિશેષનું નામ પરિહાર છે, આ પરિહારથી જે ચરિત્ર વિશુદ્ધિક હોય છે, તેનું નામ પરિહાર વિશુદ્ધિક ચારિત્ર છે. અથવા જે ચારિત્રમાં અનેકણીય વગેરેને
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अनुयोगधन्द्रिका टीका सूत्र २२६ चारित्रगुणप्रमाणनिरूपणम् शुद्धो यत्र तत् परिहारविशुद्धम् , तदेव परिहारविशुद्धिकं तदेव चारित्रगुणममाणम्। तच निश्यिमान निर्विष्टकायिकेति द्विविधम् । तत्र निविश्यमान कम् -निर्विश्य मानम्-पाधुमिरासेव्यमानं, नदेव निश्यिमानकम् । यद्वा परिहारविशुद्धिकानु. प्ठातारो मुनयो निर्षिश्यमानकाः, तत्सहयोगात्परिहारविशुद्धिकमपि निर्विश्यमानकम् । तथा-निष्टिकायिकम्-निविष्टः-आसेवितः काय-तपोविशेषो यैस्ते निविष्टकायास्त एव निर्विष्टकायिकाः, तैरासे वितत्वादिदं परिहारविशुद्धिकमपि निर्विष्टकायिकम् । अयं भावः-तीर्थकरचरणान्ति के इदं नवकेन गणेन प्रतिपद्यते, चारित्र है। अथवा-जिस चारित्र में अनेषणीय आदि का परित्याग विशेष शुद्ध हो वह परिहारविशुद्धिक चारित्र है। इसके निविदयमानक
और निविष्टकायिक इस प्रकार दो भेद हैं । साधुओं द्वारा जो चारित्र आसेवनीय होता है, वह निर्विश्यमानक है। अथवा-परिहारविशुद्धिका अनुष्ठान करनेवाले मुनिजनों का नाम निर्विश्यमानक है । इन के साथ योग होने के कारण इस चारित्र का नाम भी निविश्यमानक है। तप विशेष का अनुष्ठान जो कर चुके होते हैं वे निर्विष्टकायिक हैं। निर्विः ष्टकयिक जनों द्वारा आसेवित होने के कारण इस परिहारविशुद्धिक का नाम भी निर्विष्टकायिक हो गया है। इसका तात्पर्य इस प्रकार से है-तीर्थ कर के समीप इस चारित्र को स्वीकार करनेषोले ९ नव मुनिजन होते हैं । अथवा जिस साधुने पहिले तीर्थकर के समीप में इस चरित्र की आराधना की है-उस साधुके पास यह चारित्र धारण किया जाता है। इसे धारण करनेवाले मुनिजनों की संख्या ९ नव होली પરિત્યાગ વિશેષ શુદ્ધ હોય તે પરિહારવિશુદ્ધિક ચારિત્ર છે. એના નિર્વિશ્યમાનક અને નિવિષ્ટ કાયિક નામક બે ભેદે હોય છે. સાધુઓ વડે જે ચારિત્ર આસેવનીય હેય છે, તે નિવિદ્યમાન છે. અથવા પરિહાર વિશુદ્ધિનું અનુષ્ઠાન કરનારા મુનિઓનું નામ નિર્વિશ્યમાનક છે. એની સાથે યોગ હેવા બદલ આ ચારિત્રનું નામ પણ નિવિમાનક છે. તપ વિશેષનું અનુષ્ઠાન જેઓ કરી ચૂક્યા છે તેઓ નિર્વિષ્ટકાયિક છે. નિર્વિપ્રકાયિકજને વડે આસેવિત હોવા બદલ આ પરિહારવિશુદ્ધિકનું નામ પણ નિર્વિષ્ટકાયિક થઈ ગયું છે. આનું તાત્પર્ય આ પ્રમાણે છે. તીર્થકરની પાસે આ ચારિત્રને સ્વીકારનારા ૯ મુનિજન હોય છે. અથવા જે સાધુએ પ્રથમ તીર્થંકરની પાસે રહીને આ ચારિત્રની આરાધના કરી છે, તે સાધુની પાસે આ ચારિત્ર ધારણ કરવામાં આવે છે. આ ચારિત્રને ધારણ કરનારા મુનિઓની સંખ્યા ૯ જેટલી
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अनुयोगद्वारसूत्र तीर्थकरसमोपे पूर्वपतिपन्नस्यान्ति के वेदं नवकेन गणेन प्रतिपद्यते, नत्वन्यस्य समीपे । तत्रैक: कल्पस्थित इत्युच्यते, यत्समीपे सर्वासमाचारी क्रियते । चत्वा. रस्तु मुनयो वक्ष्यमाणं तपः कुर्वनि, ते परिहारिका उच्यन्ते । इतरे चत्वारस्तु वयात्त्यकर्तारो भवन्ति, ते चानुपरिहारिका उच्यन्ते । तत्र परिहारकाणां तप एवं बोध्यम्-ग्रीष्मे जघन्यतश्चतुर्थ, मध्यमपदे पष्ठम् , उत्कृष्टतस्त्वष्टमम् । हेमन्ते जघन्यतः षष्ठं मध्यमपदेऽष्टमम् उत्कृष्टपदे दशमम् । वर्षासु जघन्यतो ऽष्टमं, मध्यमपदे दशमम् , उत्कृष्टनो द्वादशम् । एकः कल्पस्थितः, चत्वारोऽनुपरिहारिकाः, एते पश्चापि तु प्रायो नित्यभक्ता भवन्ति, न च ते उपवास हैं । और किसी साधु के पास इसे धारण नहीं किया जाता है । इनमें एक साधु कल्पस्थित कहलाता है ! इसके ही समीप में समस्त समाचारी की जाती है । चार साधुजन जो तप करते हैं, वे परिहारिक कह. लाते हैं। और दूसरे चार साघुजन इनकी वैयावृत्ति करते हैं । वे अनु. परिहारिक कहलाते हैं । परिहारिक साधुजन इस प्रकार तपस्या करते हैं-ग्रीष्म काल में जघन्य तपस्या ये चतुर्थ भक्त की करते हैं, मध्यम तपस्या इनकी षष्ठ भक्त की और उस्कृष्ठ तपस्या अष्टमभक्त की इनकी होती है। हेमन्तऋतु में ये जघन्य तपस्या षष्ट भक्त की, मध्यमतपस्या अष्टमभक्त की और उत्कृष्ट तपस्या दशमभक्त की करते हैं। वर्षाकाल में जघन्यपतस्या अष्टमभक्त की, मध्यमतपस्या, दशमभक्त की और उत्कृष्ट तपस्या द्वादश भक्त की करते हैं। कल्पस्थित जो एक साधु होता है, वह तथा ४ जो अनुररिहारिक साघु होते हैं, ये હોય છે. અન્ય કેઈપણ સાધુની પાસેથી આ ચારિત્ર ધારણ કરી શકાતું નથી. આ સર્વમાં એક સાધુને ક૯પસ્થિત કહેવામાં આવે છે. આની પાસે જ સમસ્ત સમાચારી કરવામાં આવે છે. ચાર સાધુજને જે તપ કરે છે, તે પરિહારિક કહેવાય છે. અને બીજા ચાર સાધુજનો એમની વૈયાવૃત્તિ કરે છે. તેઓ અનુપરિહારિક કહેવાય છે. પરિહારિક સાધુજને આ પ્રમાણે તપસ્યા કરે છે–ગ્રીષ્મકાળમાં જઘન્ય તપસ્યા એએ ચતુર્થ ભક્તની કરે છે, મધ્યમ તપસ્યા એમની ઉષ્ઠભક્તની અને ઉત્કૃષ્ટ તપસ્યા એમની અષ્ટમભક્તની હોય છે. હેમન્તઝાતુમાં એઓ જધન્ય તપસ્યા ષષ્ઠભક્તની, મધ્યમ તપસ્યા અષ્ટમભક્તની અને ઉત્કૃષ્ટ તપસ્યા દશમભક્તની કરે છે. વર્ષાકાળમાં જઘન્ય તપસ્યા અષ્ટમભક્તની, મધ્યમ તપસ્યા દશમભક્તની અને ઉત્કૃષ્ટ તપસ્યા દ્વાદશ ભક્તની કરે છે. ક૫સ્થિત જે એક સાધુ હોય છે, તે તેમજ ૪ જે અનુપરિવારિક સાધુ હોય છે, એ
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अनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र २२६ चारित्रगुणप्रमाणनिरूपणम्
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कुर्वन्ति । भक्तं च तेषामात्राम्लमेव भवति नान्यत् । ततः परिहारिकाः पण्मासान् यावद्यथोक्तं तपः कृत्वाऽनुवरिहारिका भवन्ति, अनुपरिहारिकास्तु परिहा रिकाः । ते षण्मासान् यात्रतपः कुर्वन्ति । एवमष्टौ साधवः कृततपसो भवन्ति । तेषामेकः कल्पस्थितो भवति । यः पूर्वं कल्पस्थितः स परिहारिको भूत्वा
सान् यावतः करोति । सप्त च तत्परिचय कुर्वन्ति । एवमष्टादशभिर्मासै ये कल्पः पूर्वो भवति । ततस्ते तमेत्र कल्पं प्रतिपद्यते, जिनकल्पं वा गच्छमेव वा पुनः प्रतिनिवर्तन्ते इति त्रयो मार्गाः । एतच्चारित्रं छेदोपस्थापनचारित्रयता
पांचों ही प्रायः नित्यभोजी होते हैं । ये उपवास नहीं करते हैं । इनका जो आहार होता है वह आचामल (आयंबिल) ही होता है अन्य दूसरा नहीं । इस प्रकार की ६ महिने तक परिहारिकजन तपस्या करके बाद में ये अनुपरिहारिक बन जाते हैं और जो अनुपरिहारिक होते हैं, वे परिहारिक बन जाते हैं। ये भी छ महिने तक तपस्या उपर्युक्तरूप से करते हैं। इस प्रकार ये आठों साधु जब तपस्या कर चुकते हैं, तब फिर इन में से एक कल्पस्थित बनता है, और जो पहिले कल्पस्थित बना था वह परिहारिक बन ६ महिने तक तपस्या करता है । और ये ७ सात उसकी परिचर्या करते हैं । इस प्रकार १८ महिनों में यह कल्पपूर्ण होता है । कल्पपूर्ण होते ही या तो ये पुनः उसी कल्प को धारण करते हैं या जिनकल्पी बन जाते हैं । अथवा अपने गच्छ में आकर सम्मिलित हो जाते हैं ये तीन मार्ग हैं। यह चारित्र जिन्होंने छेदोस्थापन
પાંચે પાંચ ઘણું કરીને નિત્યભેજી હેાય છે. એએ ઉપવાસ કરતા નથી. शोभनुं ? लोभन होय छे, ते मायाम्स (माय मिस) न होय छे, जी નહિ. આ જાતની ૬ માસ સુધીની પરિહારિકજન તપસ્યા કરીને પછી એએ અનુપહારિક બની જાય છે, અને જેએ અનુપડારિક હોય છે, તેએ પરિહારિક ખની જાય છે. એમની તપસ્યા પણ ૬ માસની ઉપર લખ્યા મુજખ જ હોય છે, આ પ્રમાણે એએ આઠેઆઠ સાધુએ જ્યારે તપસ્યા પૂર્ણ કરે છે. ત્યારે એમનામાંથી એક કલ્પસ્થિત અને છે, અને જે પહે કલ્પસ્થિત થયા હતા તે પરિહારિક થઈને ૬ માસ સુધી તપસ્યા કરે છે. ત્યારે અકીના સાત તેની પરિચર્યા કરે છે. આ પ્રમાણે ૧૮ માસમાં આ કલ્પપૂર્ણ થાય છે. કલ્પપૂર્ણ થતાં જ કાં તે એએ ફરી તેજ કલ્પને ધારણ કરે છે કાં એએ જિનકલ્પી થઈ જાય છે, અથવા પેાતાના ગચ્છમાં જઈને ભળી જાય છે. ત્રણ માર્યાં છે. આ ચારિત્ર જેમણે છેઢાપસ્થાપન
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मनुयोगद्वारसूत्रे मेव भाति नान्येषाम् । तदित्यं यो यस्तपस्सप्वाऽनुपरिहारिकतां कल्पस्थिततांग ऽङ्गीकरोति तत्तत्सम्बन्धिपरिहारविशुद्धिकं निविष्टिकायिकमुच्यते । ये तु तपः कुर्वन्ति तत्समबन्धिकं परिहारविशुद्धिकं निश्यिमानकमुच्यते, इति बोधरम् । चतुर्थं सक्ष्मसंपरायचारित्रगुणपमाणम्-सं-सम्यक्पकारेण परैति-पर्यटति चतु. गतिकं संसारं जीवोऽनेनेति स सम्पराय:-क्रोधादि कषाया, लोभांशमात्रस्यावशेषेण सक्षमः सम्परायो यत्र तत् सूक्ष्मसम्परायम् । इदं सक्लिश्यमानकविशुध्यचारित्र अंगीकार किया होता है उन्हीं को होता है, अन्य दमरों के नहीं। इस प्रकार जो जो साधुजन तपस्या करके अनुपरिहारिकता को अशा कल्पस्थित अवस्थाको अंगीकार करते हैं उनका परिहारविशु. द्धिक चारित्र निर्विष्टकायिक कहलाता है । परन्तु जो केवल तपस्याही करते हैं, अनुपरिहोरिक अथवा कल्पस्थित अवस्था को अंगीकार नहीं करते उनका परिहारविशुद्धिकचारित्र निशिमानक कहलाता है ऐसा जानना चाहिये । (सुहमसंपरायचरित्तगुणप्पमाणे दुविहे पण्णत्ते तं जहा-संकिलिस्समाणए य विसुज्झमाणए य) सूक्ष्म संपरायचारित्र. गुगप्रभाग दो प्रकार का कहा गया है। एक संक्लिश्यमानक और दूसरा विशुध्यमानक । जीव जिसके कारण चतुर्गतरूप संसार में परिभ्रमण करता है उसका नाम संपराय है । ऐसा यह संपराय क्रोधादिकषायरूप होता है। लोभांशमात्र के अवशेष से जहां पर संपराय सक्षम होता है, अर्थात् केवल सूक्ष्म लोभ ही रहता है-उसका नाम सूक्ष्मसंपराय है।
ચારિત્ર અંગીકાર કરેલ હોય છે, તેમને જ હોય છે, બીજાઓને નહિ. આ પ્રમાણે જે જે સાધુએ તપસ્યા કરીને અનુપહારિકતાને અથવા કલ્પસ્થિત અવસ્થાને અંગીકાર કરે છે, તેમનું પરિહારવિશુદ્ધિ ચારિત્ર નિર્વિષ્ટકાયિક કહેવાય છે. પરંતુ જેઓ ફક્ત તપસ્યા જ કરે છે, અનુપહારિક અથવા કલ્પસ્થિત અવસ્થા અંગીકાર કરતા નથી તેમનું પરિહારવિશુદ્ધિક ચારિત્ર नविश्यमान उपाय छे. (सुहमसंपरामचरित्तगुणप्पमाणे दुबिहे पण्णत्ते त' जहा संकिलिस्समाणए य विसुज्झमाणए य) सू६५ सपराय यारित्र गुए પ્રમાણ બે પ્રકારનું છે. એક સંકિલશ્યમાનક અને બીજુ વિશુદ્ધમાનક, જીવ જેના લીધે ચતુર્ગતિરૂપ સંસારમાં પરિભ્રમણ કરે છે, તેનું નામ સપરાય છે. એવું આ સપરાય ક્રોધાદિ કવાય રૂપ હોય છે. લેભાંશમાત્રના અવશેષથી
જ્યાં સંપાય સૂકમ હોય છે, એટલે કે ફક્ત સૂક્ષ્મ લેભ જ રહે છે, તેનું નામ સૂફમ સં૫રાય છે. આ સંકિલશ્યમાનક અને વિશુદ્ધમાનકના ભેદથી
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मनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र २२६ चारित्रगुणप्रमाणनिरूपणम् मानकेति द्विविधम् । तत्र श्रेणिमारोहतो विशुध्यमानकं मुक्षरसम्परायं भवति । श्रेण्याः प्रच्यवतस्तु संक्तिश्यमानकं भवति । पञ्चमं यथाख्यातचारित्रगुणममाणम्पथा शब्दो याथातथ्ये, 'आङ् शब्दोऽभिविधौ, यथा याथातथ्येन आ-समन्तात् रूपातम्-यथाख्यातम्-कषायोदयाभावतो निरतिचारत्वात् पारमार्थिकरूपेण ख्यातमित्यर्थः । एतत् प्रतिपात्यपतिपातिभेदेन द्विविधम् । तत्र उपशान्तमोहस्य पतिपाति भवति क्षीण मोहस्य स्वप्रतिपाति । अथवेदं छानस्थिकं वैवलिक चेति यह संक्लिश्यमानक और विशुध्यमानक के भेद से दो प्रकार का होता है। इनमें जो जीवश्रेणी पर आरोहण करता है, उसका सूक्ष्म संपराय चारित्र विशुध्यमानक होता है और जो जीव श्रेणि से च्युत हो जाता है उसका सूक्ष्मसंपरायचारित्रसंक्लिश्यभानक होता है। (अह. क्खायचरित्सगुणप्पमाणे दुषिहे पण्णत्तेत जहा-पडियाई व अप्पडि. वाई य, अहया अहक्खायचरित्तगुणप्पमाणे दुविहे पण्णत्ते तं जहाछउमस्थिए य केवलिए य) यथाख्यातचारित्रगुणप्रमाण दो प्रकार का होता है । एक प्रकार है प्रतिपाति और दूसरा प्रकार है अप्रतिपाति । इस चारित्र में कषायोदय नहीं रहता है, उसका सर्वथा अभाव हो जाता है इसलिये इसमें किसी भी प्रकार का अतिचार नहीं लगता, अतः यह चारित्र पारमार्थिकरूप से प्रसिद्ध हो जाता हैं-यही यथाख्यात चारित्र शब्द का अर्थ है । इसके दो भेद हैं एक प्रतिपाति और दूसरा अप्रतिपाति । जिस जीव का मोह उपशांत होता है, उसका यह चारित्र प्रतिपाति होता है और जिस जीव का मोह सर्वथा क्षीण हो બે પ્રકારનું હોય છે. તેઓમાં જે જીવશ્રેણી પર આરોહણ કરે છે, તેનું સૂક્ષ્મ સંપરાય ચારિત્ર વિશુદ્ધમાનક હોય છે, અને જે જીવશ્રેણીથી-ટ્યુત
। १५ छ, तनुं सू३५. स.५२॥य यात्रि विश्यमान डाय छे. (अहक्खाय चरित्त गुणप्पमाणे दुविहे पण्णते-त जहा-पडिवाईय अप्पडिवाईय अहवा अहक्खायचरित्तगुणप्पमाणे दुविहे पण्णत्ते तं जहा- उमथिए य केवलिए य) યથાખ્યાત ચારિત્ર ગુણ પ્રમાણ બે પ્રકારનું હોય છે. એક પ્રતિપાતિ અને બીજુ અપ્રતિપાતિ. આ ચારિત્રમાં કષાયદયનો સદ તર અભાવ રહે છે, તેથી આમાં કઈપણ જાતના અતિચારની સ્થિતિ ઉન્ન થતી નથી, એટલા માટે આ ચારિત્ર પારમાર્થિકરૂપમાં પ્રસિદ્ધ થઈ જાય છે. એ જ યથાખ્યાત ચારિત્ર શબ્દને અર્થ છે. એના બે પ્રકાર છે, એક પ્રતિપાતિ અને બીજુ અપ્રતિપતિ જે જીવને મોહ ઉપશાંત હોય છે, તેનું આ ચારિત્ર પ્રતિપાતિ હેય
अ० ७१
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५६२
अनुयोगद्वारसूत्रे
द्विविधम् । उपशान्तक्षीणमोहस्य केवलिनस्थस्य चेदं भवतीत्याश्रयद्वैविध्यादिदं छान स्थिकं कालिकं चेत्युच्यते । इति । प्रकृतमुपसंहरन्नाह - तदेतच्चारित्रगुणमागमिति । इत्ये ज्ञानगुनमाणादीनां त्रयाणामपि निरूपणं कृतमिति सूचयितुमाह-तदेवज्जीवगुणप्रमाणमिति । गुणप्रमाणस्य भेदद्रयनिरूपणेन गुणप्रमाणमपि निरूपितमिति मूचयितुमाह-तदेतद् गुणप्रमाणमिति ||१२२६ ।। अथ नयप्रमाणं निरूपयति-
मूलम् - से किं तं नयप्पमाणे ? नयप्पमाणे- तिविपपणते, सं जहा - पत्थगदितेणं वसहिदिट्टंतेणं पएसदितणं । से किं तं पत्थगदिहं तेणं? पत्थगदिवंतेणं-से जहा नामए केई पुरिसे परसुं गहाय अडवीसमहुतो गच्छेजा, तं पासित्ता केई व एजाजाता है उसका यह चारित्र अप्रतिगति होता है । अथवा छाद्मस्थिक और कैलिक ऐसे भी इसके दो भेद हैं । यह चारित्र क्षीण मोही केवली और छद्मस्थ को होता है। इसलिये आश्रय के भेद से इस चारित्र के भी ये दो भेद कहे गये हैं। (से तं चरितगुणप्पमाणे से त जीवगुणमाणे से तं गुणप्पमाणे) इस प्रकार से यह चारित्र गुणप्रमाण का स्वरूप कथन जानना चाहिये। ज्ञानगुणप्रमाण दर्शनगुणप्रमाण और चरित्रगुणप्रमाण का यह कथन समाप्त होते ही जीवगुणप्रमाण का कथन समाप्त हो जाता है, और इस कथन की समाप्ति में ही गुणप्रमाण का पूर्णकथन समाप्त हो जाता है-इस प्रकार से यह गुणप्रमाण का कथन समाप्त हो गया ऐसा जानना चाहिये ॥ सृ० २२६ ॥
એના
છે, અને જે જીવના મેહ સદ'તર ક્ષીણુ થઈ જાય છે, તેનું આ ચારિત્ર અપ્રતિપાતિ હોય છે. અથવા છાાસ્થિક અને કૈલિકના રૂપમાં પણુ એ ભેઢે છે. આ ચારિત્રક્ષીણ માહી કેવલી અને છદ્મસ્થનાડાય છે. એટલે આશ્રયના ભેદથી આ ચારિત્રના પણ એ એ ભેદે કહેવામાં આવ્યાં છે. ( से तं चरितगुणप्पमाणे, से व जीवगुणप्पमाणे- से तं गुणप्पमाणे) या प्रमा આ ચારિત્રગુણપ્રમાણુનુ સ્વરૂપ કથન નણુવુ જોઈએ. જ્ઞાનગુજીપ્રમાણુ દન ગુણુ પ્રમાણ અને ચારિત્ર ગુણુ પ્રમાણુ વિષેનું આ કથન પૂરું થતાં જ જીવણુપ્રમાણનું કથન પૂરું થઈ જાય છે અને આ કથનની સમાપ્તિમાં જ ગુણપ્રમાણનું કથન સમાસ થઈ જાય છે. આ પ્રમાણે આ ગુણ પ્રમાણુનું કથન સમાપ્ત થઈ ગયું છે. ! ત્ર-૨૨૬ ॥
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अनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र २२७ प्रस्थकदृष्टान्तेन नयप्रमाणनिरूपणम् ५६३ कहिं तुवं गच्छसि ? अविसुद्धो नेगमो-भणइ-पत्थगस्स गच्छामि। तं च केई छिंदमाणं पासित्ता वएजा-किं तुवं छिंदसि ? विसुद्धो नेगमो भणइ-पत्थयं छिंदामि। तं च केई तच्छमाणं पासित्ता-वएना-किं तुवं तच्छसि ? विसुद्धतराओ णेगमो भणइ-पत्थयं तच्छामि। तं च केइ उकीरमाणं पासित्ता वएज्जा-किं तुवं उकीरसि ? विसुद्धतराओ णेगमो भणइ-पत्थयं उकीरामि। तं च केई विलिहमार्ग पासित्ता वएजा-किं तुवं विलिहसि ? विसुद्धतराओ णेगमो भणइ-पत्थयं विलिहामि । एवं विसुद्धतरस्स णेगमस्ल नामाउडिओ पत्थओ। एवमेव ववहारस्सवि। संगहस्स चियमियमेजसमारूढो पत्थओ। उज्जुसुयस्त पत्थओ, वि पत्थओ मेजपि पत्थओ। तिण्हं सदनयाणं पत्थयस्स अस्थाहिगारजाणओ जस्स वा वसेणं पत्थओ निप्फज्जइ । से तं पत्थयदिट्टतेणं सू० २२७॥
छाया-अथ कि तत् नयप्रमाणं ?, नयपमाणं त्रिविधं प्रज्ञप्तं, तधथा प्रस्थक दृष्टान्तेन वसतिदृष्टान्तेन प्रदेशदृष्टान्तेन । अथ किं तत् प्रस्थकदृष्टान्तेन ?,
अब सूत्रकार नयप्रमाण का निरूपण करते हैं। 'से किं तं नयप्पमाणे ?' इत्यादि।
शब्दार्थ--(से कि त नगप्पमाणे ? ) हे भदंत उस नयरूप प्रमाण का क्या स्वरूप है ?
उत्तर--(नयमाणे निविहे पणत) उस नयरूप प्रमाण को तीन प्रकार से कहा गया है-अर्थात नय प्रमाण का स्वरूप तीन दृष्टान्तों
હવે સૂત્રકાર નયપ્રમાણનું નિરૂપણ કરે છે. 'से कि त नयापमाणे ? ' इत्यादि।
शहाथ-(से कि तं नयप्पमाणे १) ७ मत I त नय३५ प्रभानु ५१३५ वु छ ?
उत्तर-(नयापमाणे ति विहे पण्णत्ते) ते नयभाना त्र प्रा। छे. એટલે કે નયપ્રમાણુનું સ્વરૂપ ત્રણ દષ્ટાતો વડે સ્પષ્ટ કરવામાં આવ્યું
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६६४
अनुयोगद्वारसूत्रे
प्रस्थक दृष्टान्तेन-अथ यथानाम कोऽपि पुरुषः परशुं गृहीत्वा अटवीसम्मुखं गच्छति तं दृष्ट। कोऽपि वदति-कुत्र एवं गच्छसि ? अविशुद्ध गमो भणति
द्वारा स्पष्ट किया गया है- (त जहा) जैसे (पत्थगदितेणं, वसहिदितेणं परसदिते) प्रस्थक के दृष्टान्त से, वसति के दृष्टान्त से और प्रदेश के दृष्टान्त से । तात्पर्य कहने का यह है कि- 'प्रत्येक जीवादिक वस्तु अनन्त धर्मात्मक है । उन अनंतधमों में से अन्यधमों को गौण कर के और विवक्षित धर्म को मुख्य करके वस्तुका प्रतिपादन करनेवाला वक्ता का जो अभिप्राय होता है, उसका नाम नय है । इस नयरूप प्रमाण का नाम नय प्रमाण है । इसकी प्ररूपणा प्रस्थक दृष्टान्त से वसति दृष्टान्त से और प्रदेश दृष्टान्त से करने में आई है, इसलिये नय को तीन प्रकार का कहा गया है। (से किं तं पत्थगदिइंतेणं) हे भदन्त ! प्रस्थक दृष्टान्त को लेकर जो नयप्रमाण कि प्ररूपणा की गई है, वह किस प्रकार से है ?
उत्तर -- ( पत्थगदिई सेणं) प्रस्थक दृष्टान्त को लेकर जो नयप्रमाण कि प्ररूपणा की गई है वह इस प्रकार से है- ( से जहाना मए केई पुरिसे परसुं महाय अडबीसमहुतो गच्छेन्ना) जैसे कोई पुरुष परशु (कुठार) लेकर जंगल की ओर जा रहा था (लं पासित्ता) उसे उस ओर जाता
छे. ( त जहा ) मेन (पत्थदिवे, वसहिदितेणं पएसदितेणं) प्रस्थना દૃષ્ટાન્તથી વસતિના દૃષ્ટાન્તથી અને પ્રદેશના દૃષ્ટાન્તથી, તાપ કહેવાતુ. આ પ્રમાણે છે કે પ્રત્યેક જીવાદિક વસ્તુ અનંતધર્માત્મક છે. તે અનત ધર્મોમાંથી અન્ય ધર્મોને ગૌણુ કરીને અને વિવક્ષિત ધર્માંને મુખ્ય ક્રરીને વસ્તુ પ્રતિપાદક વકતાના જે અભિપ્રાય હોય છે તે નયપ્રમાણુ છે.
આ નયરૂપ પ્રમાણુનું નામ નયપ્રમાણ છે. આની પ્રરૂપણા પ્રસ્થક દૃષ્ટાંતથી, વસતિ દૃષ્ટાંતથી અને પ્રદેશ દૃષ્ટાન્તથી કરવામાં આવી છે, એથી નયના ત્રણ પ્રકાર કહેવામાં આવ્યા छे. (से किं तं पत्यगदितेणं) हे महन्त ! પ્રસ્થક દૃષ્ટાન્તને લઈને જે તયપ્રમાશુની પ્રરૂપણા કરવામાં આવી છે, તે કઇ રીતે કરવામાં આવી છે?
उत्तर - ( पत्थगदितेणं) प्रस्थउना - पाली दृष्टान्तना आधारे के नयप्रभाणुनी प्र३षणा ४२वाभां भावी छे, ते मा प्रभा छे. ( से जहानामए केई पुरिसे परसुं गहाय अडवी समहुत्तो गच्छेज्जा) प्रेम । पुरुष परशु (मुहार) सहने भगस त२३ ४४ रह्यो हते. (तं पाखित्ता) तेने ते त२३ तो लेने (केई वएज्जा)
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igeriefद्रका टीका सूत्र २२७ प्रस्थकदृष्टान्तेन नयप्रमाणे निरूपणम् ५६५
त्व
मस्काय गच्छामि । तं च कोऽपि छिन्दन्तं दृष्ट्वा वदति-किं छिन्दसि त्रिशुद्धो नैगमो भणति - प्रस्थकं छिनद्मि तं च कोऽपि तक्षन्तं दृष्ट्वा वदति, किं त्वं क्षसि ? विशुद्धको नैगमो भगति - प्रस्थक तक्षामि । तं च कोऽपि उल्कितं दृष्ट्रा वदति विमुरिकरसि विशुद्धतरको नैंनो भणति - प्रस्थकम् उत्क
हुआ देखकर (केई एज्जा) किसी ने उससे पूछा- (कहिं तुयं गच्छसि ? ) तुम कहां जा रहे हो (अविसुद्धो नेगमो भणह) तब उससे अविशुद्ध नैगमनय के मतानुसार होकर कहा - (पथगस्स गच्छामि ) मैं प्रस्थक (पायली) लेने के लिये जा रहा हूँ । ( तं च केई छिंदमाणं पासित्ता वजा, कि तुवं छिंदसि ? विस्रुद्धो नेगमो भणइ - पत्थयं छिंदामि ) जब वह प्रस्थक बनाने के निमित्त किसी वृक्ष को छेदने लगा । तब यह देखकर उससे किसी ने पूछा कि तुम यह क्या छेद रहे हो-तब उसने विशुद्ध नैगम नय के मतानुसार होकर ऐसा कहा- मैं प्रस्थक छेद रहा हूं । (तं च कोई तच्छमार्ण पासित्ता वएजा, किंतुवं तच्छसि ?) जब वह काष्ठ को छीलने लगा तब उससे किसीने ऐसा पूछा कि 'यह तुम क्याछोल रहे हो ? (विसुद्धतराओ गमो भणह) तब विशुद्धतर नैगमनय के मतानुसार होकर उसने उत्तर दिया (पत्थयं तच्छामि ) मैं प्रस्थक छील रहा हूं । (तं च केह उक्कीरमाणं पासित्ता वएज्जा, किं तुवं उक्की: रसि ? विद्वतराओ गमो जेणह पत्थयं उक्कीरामि) जब उसे किसी
मेछो तेने अश्न भ्यो. ( कहि तुवं गच्छसि १ ) तमे यां ४४ रह्या छो. (अविसुद्धो नेगमो भणई) त्यारे तेथे अविशुद्ध नैगमनयना मत भुण धुं. (पत्थर गच्छामि) हुँ प्रस्थ सेवा कर्ध रह्यो भुं. (तं च केई छिरमाणं पाखित्ता वपज्जा, किं तुवं छिंदासि १ विसुद्धो नेगमो भणइ पत्थयं छिदामि) न्यारे ते प्रस्थ तैयार रखा भाटे अर्थ वृक्षने वा तत्पर थये। ત્યારે તેને આમ કરતા જોઇને કાઇએ આ પ્રમાણે પૂછ્યુ કે તમે આ શુ કાપી રહ્યા છે ?, ત્યારે તેણે વિશુદ્ધ નૈગમનય મુજબ આ પ્રમાણે જવામ माया है 'हु' अस्थायी रह्यो छु . (तं च केई तच्छमाणं पासित्ता वजा, कि तुवं तच्छसि ?) क्यारे ते अष्टने छोटवा लाग्यो, त्यारे ते माणुसने अर्धो पूछयु है या तभे शुद्ध छोती रह्या छ ? (विसुद्वतराओ गमो भणड्) त्यारे विशुद्धतर नैगमनय मुल्य तेथे श्वास मान्य है ( पत्थयं तच्छामि ) हु प्रस्थ छोटी रह्यो छ. (तं च केइ उक्कीरमाणं पाखित्ता वपज्जा, कि तुवं उक्कीरसि १ विसुद्धतराओ णेगमो भणइ - पत्थयं उक्कीरामि )
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अनुयोगद्वारसूत्र रामि । तं च कोऽपि विलिवन्तं दृष्ट्वा वदति, कि त्वं विलिखसि ? विशुद्धतरको नैगमो भणति प्रस्थकं विलिखामि । एवं विशुद्धतरस्य नैगमस्थ नामाकुट्टितः प्रस्थ कः । एवमे। व्यवहारस्यापि । संग्रहस्य चितमितमेयसमारूढः प्रस्थकः । ने प्रस्थक के निमित्त काष्ठ के मध्यभाग को निकालते हुए देखा-तो देवकर पूछा यह तुम क्या कर रहे हो-तब उसने विशुद्धतर नैगमनय के अभिप्राय के वशवर्ती बनकर उत्तर दिया मैं प्रस्थक को उकेर रहा हूं। (तं च के विलिहमाण पासित्ता वएज्जा, किं तुवं विलिहसिविसुद्धतराओ णेगमो भगइ, पत्थयं विलिहामि) जब वह उस उत्कीर्ण काष्ठ पर लेखनी से प्रस्थक बनाने के लिये चिह्नित करने लगा अर्थात् प्रस्थक के आकार की रेखाएं करने लगा तब उसे इस प्रकार देखकर किसीने उससे पूछा तुम यह क्या कर रहे हो-तब उसने विशुद्धतर नैगमनय के अभिप्राय वशवर्ती होकर कहा मैं प्रस्तक के आकार को अंकित कर रहा हूं। (एवं विसुद्धतरस्त णेगमस्सनामाउडिओ पत्थओ) उक्त रीति से इस प्रस्थक विषय में इस प्रकार से वहां तक प्रश्नोत्तर रूप में कहते चला जाना चाहिये कि जब तक विशुद्धतर नैगमनय का विषयभूत वह संकल्पित नाम प्रस्थक बनकर तैयार न हो जावे। (एव मेव ववहारस्स वि) इसी प्रकार से व्यवहार नय को आश्रित करके
જ્યારે તેને કેઈએ પ્રસ્થક-નિમિત્ત કાષ્ઠના મધ્યભાગને કહાડતાં જે તે તે જેઈને પૂછયું-“આ તમે શું કરી રહ્યા છે ? ત્યારે તેણે વિશુદ્ધતર નિગમ નય મુજબ જવાબ આપતાં કહ્યું કે હું પ્રસ્થક ઉત્કીર્ણ કરી રહ્યો છું. (तच केइ विलिहमाणं पासित्ता वएन्जा, कि तुवं विलिहसि-विसुद्धतराओ णेगमो भणइ पथयं विलिहामि) न्यारे ते Grsh ष्ठ ७५२ लेमनी पडे પ્રસ્થક માટે ચિહ્નો કરવા લાગે એટલે કે પ્રથકના આકારની રેખાઓ ઉકીર્ણ કરવા લાગે ત્યારે તેને આ પ્રમાણે કરતે જોઈને કેઈએ પૂછ્યું, તમે આ શું કરી રહ્યા છે. ત્યારે તેણે વિશુદ્ધતર નામનયના મત મુજબ घुछ ईप्रस्थ11 मारने मत रह्यो छु. (एवं विसुद्धतरस्स णेगमस्स न माउडिओ पत्थओ) मा प्रस्न समयमा 6५२ भुराण त्यां સુધી પ્રશ્નોત્તર કરતાં રહેવું જોઈએ કે જ્યાં સુધી વિશુદ્ધતર નિગમનને વિષયભૂત તે સંપિત નામ પ્રસ્થક સંપૂર્ણ રીતે તૈયાર ન થઈ જાય. (एवमेव ववहारस्ववि) मा प्रमाणे व्यपा२नयने माश्रित शने ५y are
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अनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र २२७ प्रस्थकदृष्टान्तेन नयप्रमाणनिरूपणम् ५६७ ऋजुसूत्रस्य प्रस्थकोऽपि प्रस्थकः मेयमवि प्रस्थतः । प्रयाणां शब्दनयानां प्रस्थ कस्य अर्थाधिकारज्ञायको यस्य वा वशेन प्रस्थको नियते । तदेतत् प्रस्थक दृष्टान्तेन ॥मू० २२७॥
दोका-से कि तं' इत्यादि
अथ किं तत् नयप्रमाणम् ? इति शिष्यपश्नः । उत्तरयति-नयममाणम्नीतयो नया:--अनन्तधर्मात्मकस्य वस्तुन एकांशपरिच्छित्तयः, त एव प्रमाणं नया प्रगणम् । तम पाथकदृष्टान्तेन वसतिदृष्टान्तेन २ देशदृष्टान्तेन च निरूप्यमाण. वास्त्रिविधम् । प्रस्थकादि दृष्टान्तत्रयेण हेतुभूतेन त्रिविधं नयप्रमाणं भवती. भी जानना चाहिये। ( मंगहस्स चियमियमेज्जसमारूतो पत्थो) संग्रालय के मतानुसार धान्य से पूरा भरा हुआ ही वह प्रस्तक कह. लावेगा। (उज्जुसुयरस पत्थमो वि पत्थो मेज्जपि पस्थओ) ऋजु सूत्र नय के अनुसार प्रस्थक भी स्थक है और धान्यादिक भी प्रस्थक हैं। (तिण्हं सहनयाणं पत्थयस्स अस्थाहिगार जाणो जस्स वा वसेणं पत्थओ निष्फज्जह, से तं पत्थयदिटुंतेण) तथा शब्द, समभिरूढ
और एवंभूत इन तीनों नयों के मन्तव्यानुसोर जो प्रस्थक के स्वरूप के परिज्ञान में उपयुक्त है वह प्रस्तक कहलाता है क्योंकि जिसके प्रयास से प्रस्थक बना है। इस प्रकार यह प्रस्तक के दृष्टान्त से नयरूप प्रमाण का स्वरूप कथन जानना चाहिये।
भावार्थ---स सूत्र द्वारा सूत्रकारने नय के स्वरूप का कथन प्रस्तक के दृष्टान्त द्वारा प्रदर्शित किया है । नैगम, संग्रह व्यवहार, ऋजु मत्र, शब्द, समभिरूढ और एवंभूत इस प्रकार से ये सात नय हैं-इन में २. (संगहस्स चियमियमेज्जसमारूढो पत्थओ) सहनयाना मत भुराम धान्यपूरित प्रस्थ ४ ५२५४ना नामे मनिहित री शाय छे. (उज्जु सुयस पत्थओ वि पत्थओ मेज्जंपि पत्थओ) *सूत्र नय भुक्षण ५२५४ प ५२५४ छ भने धान्याहि पए प्रस्थ४ छ. (तिण्हं सदनयाणं स्थयरस अत्याहिगारजाणओ जस्स वा पत्थओ निष्फज्जइ, से त पत्थयदि;તે) તેમજ શબ્દ, સમમિરૂઢ અને એવભૂત આ ત્રણે નાના મન્તવ્યાનુસાર જે પ્રસ્થાના સ્વરૂપના પરિજ્ઞાનમાં ઉપયુકત છે, તે પ્રસ્થક કહેવાય છે કેમકે એમના પ્રયાસથી પ્રસ્થક તૈયાર થયેલ છે. આ પ્રમાણે આ પ્રસ્થકના દૃષ્ટાન્તથી નયપ પ્રમાણનું સ્વરૂપ કથન જાણવું જોઈએ.
ભાવાર્થ-આ સૂત્રવડે સૂત્રકારે નયના સ્વરૂપનું કથન પ્રસ્થકના દૃષ્ટાન્ત વડે પ્રદર્શિત કર્યું છે. નગમ, સંગ્રહ વ્યવહાર, ઋજુ સૂત્ર શબ્દ, સમભિરૂઢ અને એવંભૂત આ પ્રમાણે એ સાત ન છે. આમાં જે પ્રથમ નૈગમન
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__ भनुयोगद्वारसूत्रे त्यर्थः । तत्र प्रथमं प्रस्थकदृष्टान्तेन नयं निरूपयति । प्रस्थकदृष्टान्तेन नय. मप्राग मे बोध्यम् । यथा हि-मगधदेशपसिद्धस्य धान्यमानविशेषस्य प्रस्थकस्य हेतुभूतं काष्ठ छेदयितुं स यथानामकः कश्चित् पुरुषः परशु कुठारं गृहीत्वा अड. वीसमहुत्तो' अश्वी संमु वः, समहुत्तो' इति देशीशब्दः सम्मुखार्थवाचकः । अटवीसम्मुखो गच्छति, तं तथाविध गच्छन्तं दृष्ट्वा कश्चित् पृच्छति-कुत्र त्वं गच्छसि ? इति । तदा सोऽविशुद्धो नैगमा अविशुद्धनैगमनयमनानुसारी सन् एवं भगतिमायुत्तरयति-प्रथकाय गच्छामीति । अयं भावः-नके अनेके प्रथम जो नैगमनय हैं -वह संकलिपन विषय में विवक्षित पर्याय का आरोप कर उसे उस विवक्षित पर्यायरूप मानता है। इसका खुलाशा अर्थ इस प्रकार से है-प्रस्थक यह मगध देश प्रसिद्ध एक नाम विशेष नाम है। इससे धान्यादिक भरकर नापे जाते हैं। बुन्देलखंड तरफ इसे चौथिया, कहते हैं । यह सवासेर का प्रमाण होता था । आजकल इसका प्रचार चन्द हो गया है। फिर भी इसी प्रकार का एक नाप अभी तक चलता है-जिसे कुरैया कहते हैं । यह कहीं २ पीतल का बना होता है और कहीं २ काष्ठ का। इनमें ५ सेर ५॥' सेर अनाज समा जाता है। अब भी इससे उस तरफ (वहाँ पर) नापा जाता है। इस प्रकार के प्रस्था को बनाने के संकल्प से प्रेरित होकर कोई व्यक्ति काष्ठ लेने के लिये जंगल की ओर जब चलने लगा-तब उससे किसीने पूछा कहां जा रहे हो उसने कहा कि मैं प्रस्थक लेने जा रहा है। देखा जावे-तो अभी प्रस्थक पर्यायसन्निहित नहीं है, છે, તે સંકલિત વિષયમાં વિવક્ષિત પર્યાયનું આરોપણ કરીને તેને તે વિવક્ષિત પર્યાયરૂપ માને છે. આનું તાત્પર્ય આ પ્રમાણે છે–પ્રસ્થક આ મગધદેરા પ્રસિદ્ધ એક પરિમાણ વિશેષનું નામ છે. આનાથી ધાન્યાદિક ભરીને માપવામાં આવે છે. બુંદેલખંડ તરફ આને ચૌથિયા કહે છે. આ સવાશેરનું પ્રમાણ છે. આજકાલ આનું ચલન નથી. છતાંએ આ જાતનું માપ હજી સુધી વ્યવહારમાં ઉપયુક્ત થાય છે. જેને કુરૈયા કહેવામાં આવે છે. આ કઈક સ્થાને પીતળનું હોય છે. અને કેઈક સ્થાને કાષ્ઠનું હોય છે. આમાં પાંચથી સાડા પાંચ સેર અનાજ સમાય છે. આજે પણ તે તરફ આ માપનું ચલન છે. આ જાતના પ્રસ્થક તૈયાર કરવાના સંકલપથી પ્રેરાઈને કેઈમાણસ
જ્યારે જંગલની તરફ ચાલવા તૈયાર થયે, ત્યારે તે માણસને કેઈએ પૂછયું કે “તમે ક્યાં જઈ રહ્યા છે' ત્યારે તેણે કહ્યું કે હું પ્રસ્થાક લેવા જઈ
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अनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र २२७ प्रस्थकदृष्टान्तेन नयप्रमाणनिरूपणम् ५६९ बहवो गमा: वस्तुपरिच्छेदा यस्य स नेगम इति नैनशनस्य निरुक्तिः । निरुक्तिशादेवात्र ककारलोपो द्रष्टव्यः। यद्यपत्र प्रस्थककारणभूतकाष्ठनिमित्त मेव तस्य गमनं, न तु प्रस्थकनिमित्तम् , तथाऽप्य नेकपकारवस्त्वभ्युपगमपरकनैगमनयपरत्वात् कारणे कार्योपचारात् तथाविधव्यवहारदर्शनादेवमप्यसौ कथयति-प्रस्थकाय गच्छामीति । तं च पुरुषं कमपि वृक्षं छिन्दन्तं दृष्ट्वा कश्चिद् सिर्फ उसमें संकल्प मात्र है। परन्तु पूछने पर जो उस व्यक्ति ने उत्तर दिया हैं, वह केवल निष्पन्न हुए प्रस्तक को मानकर दिया है। यह उसका अभिप्राय अविशुद्ध नैगमनय की मान्यतानुसार है। नैगमनय के अविशुद्ध विशुद्ध, विशुद्धतर ऐसे कई भेद हैं। अविशुद्ध इस अभिप्राय को इसलिये कहा गया है कि-'अभी प्रस्थक पर्याय किसी भी अंशरूप में उद्भूत नहीं हुई है। 'वस्तु को जानने के अभिप्राय जिस नय के अनेक होते हैं, उस नय का नाम नैगमनय है । 'नके गमाः यस्य सः नैगम:-'यह नैगमशब्द की व्युत्पत्ति है। यहां 'क' का लोप होकर नैगम बना है। यद्यपि प्रस्थक पर्याय के कारणभूत. काष्ठ को ही लेने के लिये वह जा रहा है-परन्तु पूछने पर जो वह ऐसा उत्तर देता है कि-मैं प्रस्थक लेने के लिये जा रहा हूं। इसका कारण यह है कि-नैगमनय अनेक प्रकार से वस्तु को मानता है-इसलिये कारण में कार्य का उपचार करके वह ऐसा कह देता है । और इसीका રહ્યો છું. આમ વિચાર કરીએ તે હજી પ્રસ્થા પર્યાય સન્નિહિત નથી ફક્ત તે માણસના મનમાં તે વિષે સંકલ્પ માત્ર કુરિત થયેલ છે. પરંતુ પૂછ્યા પછી તે માણસે તેને જવાબ આપે, તે નિપન્ન થયેલ પ્રસ્થકને માની ને જ આપે છે. આ તેને અભિપ્રાય અવિશુદ્ધ નૈગમનયની માન્યતાનુસાર છે. નગમનયના અવિશુદ્ધ, વિશુદ્ધ, વિશુદ્ધતર જેવા ઘણું ભેદો છે. આ અભિપ્રાયને અવિશુદ્ધ એટલા માટે કહેવામાં આવેલ છે કે “હજી પ્રથક પર્યાય કેઈપણું અંશરૂપમાં ઉદ્દભૂત થયેલ નથી. જે વસ્તુને જાણવાના ઘણા અભિપ્રાય २ नयना डाय ते नयनु नाम नैगमनय छे. "नेके गमाः यस्य सः नैगमः" આ નિગમ શબ્દની વ્યુત્પત્તિ છે. અહીં “કીને લેપ થઈને નિગમ શબ્દ સિદ્ધ થયેલ છે. જો કે તે પ્રસ્થક પર્યાયના કારણભૂત કાષ્ઠને ગ્રહણ કરવા જ તે જઈ રહ્યો છે, પરંતુ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં તે આ પ્રમાણે જવાબ આપે છે કે હું પ્રસ્થક લેવા જઈ રહ્યો છું. આનું કારણ આ પ્રમાણે છે કે “નગમનય અનેક પ્રકારથી વસ્તુને માને છે, એથી કારણમાં કાર્યને ઉપચાર કરીને તે આ
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अनुयोगद्वारसूत्रे वदति-किं त्वं छिन्दसि ? ततः स विशुदो नैगमा पूर्वापेक्षया किंचिद् विशुद्ध गमनयमतानुसारी सन् एवं भणति-प्रस्थकं छिननीति । अत्रापि कार्ये कारणोपचारात् तथाविधव्यवहारदर्शनादेव काष्ठेऽपि छिद्यमाने प्रस्थकं छिनमीत्युत्तरम् । काष्ठस्य प्रस्थकं प्रति किंचिदासनकारणत्वाद् विशुद्धत्तम् । पूर्वत्र तु अतिव्यवः हितत्वाद् विशुद्धत्वम् । पूर्वपूर्वापेक्षया उत्तरोत्तरस्य विशुद्धत्वं बोध्यम् । पुनस्तमेव काष्ठं तक्षन्तं तनूकुन्तिं तं पुरुष दृष्ट्वा कोऽपि पुरुषः पृच्छति-किं त्वं तक्षसि ? लोक में ऐसा व्यवहार भी देखा जाता है । तथा जब वह काष्ठ को प्रस्तक के निमित्त काटने लगा और पूछने पर जब उसने 'प्रस्थक काट रहा है। ऐसा उत्तर दिया तो यह उत्तर भी उसका नैगमनय की मान्यतानुसार ठीक है। यहां भी उमने कारण में कार्य का उपचार किया है। यहाँ जो नैगमनयको विशुद्ध प्रकट किया गया है, उसका भाव यह है 'काष्ठ में प्रस्थक के प्रति पूर्वकथन की अपेक्षा किश्चित् आसन कार• णता है। पहिले उत्सर में तो काष्ठ में अतिव्यवहितता होने के कारण किंचित् भी आसन्नकारणता नहीं है। इसलिये उस उत्तर को अवि. शुद्ध कहा गया है । इस उत्तर के बाद और भी जितने उत्तर प्रस्थक संबन्धी प्रकट किये हैं, उनमें पूर्व पूर्व की अपेक्षा उत्तर २ के उत्तरों में इसी कारण से विशुद्धता जाननी चाहिये। इसी प्रकार से जब वह प्रस्थक के निमित्त उस काष्ठ को छीलने लगा और पूछने पर जब उसने ऐसा उत्तर दिया कि 'मैं प्रस्थक को छील रही हूं' तब इसी नय પ્રમાણે કહે છે અને લેકમાં આ જાતને વ્યવહાર પણ જોવામાં આવે છે. તથા જ્યારે તે કાષ્ઠને પ્રસ્થક માટે કાપવા લાગ્યું અને પૂછળ્યા પછી તેણે પ્રસ્થક કાપી રહ્યો છું.” આ જાતને જવાબ આપે, તે આ જાતને જવાબ પણ નૈગમય મુજબ બરાબર જ છે. અહીં પણ તેણે કારણમાં કાર્યને ઉપચાર કર્યો છે. અહીં જે નિગમનયને “વિશુદ્ધ' કહેવામાં આવેલ છે, તેને ભાવ આ છે કે “કાષ્ઠમાં પ્રસ્થાના પ્રતિ પૂર્વ કથનની અપેક્ષાએ કિંચિત્ આસન્ન કારણુતા છે. પહેલા ઉત્તરમાં તે કાષ્ઠમાં અતિવ્યવહિતતા હોવા બદલ સહેજ પણ આસન્ન કારણતા નથી, એથી આ ઉત્તરને અવિશુદ્ધ કહેવામાં આવેલ છે. આ ઉત્તર પછી બીજા પણ જેટલા ઉત્તર પ્રથક સંબંધી પ્રકટ કરવામાં આવેલ છે, તેમાં પૂર્વ પૂર્વની અપેક્ષા ઉત્તર ઉત્તરના જવાબમાં આ કારણથી જ વિશુદ્ધતા જાણવી જોઈએ. આ પ્રમાણે જ્યારે તે પરથક માટે કાષ્ઠને છેલવા લાગે છે અને આ સંબંધમાં પ્રશ્ન કર્યા પછી તેણે આ જાતને જવાબ આપે કે હું પ્રસ્થાને છેલી રહ્યો છું ત્યારે આ નયના
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अनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र २२७ प्रस्थकदृष्टान्तेन नयप्रमाणनिरूपणम् ५७१ ततः स पूतो विशुद्धतरनैगमन यमतमनुसृत्य वति--प्रस्थक तक्षामीति । ततो काष्ठखण्डम् उत्किरन्तं काष्ठस्य मध्यभागं निस्तारयन्तं तं पुरुष दृष्ट्वा कोऽपि पृच्छति-किं त्वमुस्किरसि ? ततः पूर्वापेक्षया विशुद्धतरनैगमनयमनुसृत्य स वदति-प्रस्थकमुत्किरामीति । ततश्च उत्कीर्ण तं काष्ठं विलिखन्तं लेख्न्या मृष्टं कुर्वन्तं तं पुरुष दृष्ट्वा कोऽपि पृच्छति-किं त्वं विलिखसि ? इति । ततः स पूर्वा. पेक्षयाऽपि विशुद्रतरनयमनुमृत्य वक्ति-मस्थकं विलिवामीति । एवम्-उक्तरीत्या तावद् वक्तव्यं यावद् विशुदतरस्य नैगमस्य-विशु इतरनैगमनयानुसारेण आकु. के अभिप्रायानुसार उसका यह कथन सत्य माना जाता है । और ऐसा उसका अभिप्राय पूर्व की अपेक्षा विशुद्धतर होता है। इस प्रकार जब तक लोकव्यवहार प्रसिद्ध प्रस्थनाम की पर्याय प्रकट नहीं हो जाती-तब तक के पहिले के प्रस्थक संवन्धी जितने भी उत्तर होंगे वे सब इसी नय के अन्तर्गत माने जावेगे। व्यवहार नय लोक व्यवहार की प्रधानता को लेकर प्रवर्तित होता है। इसलिये जब लोक में पूर्वोक्त अवस्थाओं में सर्वत्र प्रस्तकव्यवहार होता है, तब नैगमनय के जैसा व्यवहार नय भी मानता है। सामान्यरूप से समस्त वस्तु को जो ग्रहण करता है, ऐसा नय संग्रह नय है । इस नय के मन्तव्यानुसार जब प्रस्थक धान्यादिक मेय वस्तु से भरा होगा-तभी वह प्रस्थक शब्द का वाच्य होगा। नैगम और व्यवहार ये दो नय अविशुद्ध हैं, इसलिये प्रस्थक के कारणभून जो वृक्षादिक हैं, वे भी प्रस्थक के कार्य के अकरण અભિપ્રાય મુજબ તેનું આ કથન સત્ય માનવામાં આવે છે. અને તેને આ આ જાતને અભિપ્રાય પૂર્વની અપેક્ષા વિશુદ્ધતર હોય છે. આ પ્રમાણે જ્યાં સુધી લેકવ્યવહાર પ્રસિદ્ધ પ્રસ્થક નામની પર્યાય પ્રકટ થઈ ન જાય ત્યાં સુધી ના પહેલાના પ્રસ્થક સંબંધી જેટલા જવાબો હશે, તે બધા આ નયના અન્તર્ગત જ માનવામાં આવશે. વ્યવહારનય લોકવ્યવહારની પ્રધાનતાને લઈને પ્રવર્તિત હોય છે. એથી જ જ્યારે લેકમાં પૂર્વોક્ત અવસ્થાઓમાં સર્વત્ર પ્રસ્થક વ્યવહાર હોય છે, ત્યારે નૈગમની જેમ વ્યવહારનય પણ માને છે. સામાન્ય રૂપથી સમસ્ત વસ્તુને જે ગ્રહણ કરે છે, એ નય સંગ્રહનય છે. આ નયના મન્તવ્યાનુસાર જ્યારે પ્રસ્થક ધાન્યાદિક મેય વસ્તુથી પૂરિત થશે. ત્યારે જ તે ખરેખર પ્રસ્થ શબ્દ વાપ્ય થશે. નિગમ અને વ્યવહારથી એઓ બને નયે અવિશુદ્ધ છે, એથી પ્રથકના કારણભૂત જે વૃક્ષાદિકે છે, તેઓ પણ પ્રથકના કાર્યના કિરણકાળમાં પણ પ્રક કહેવામાં આવ્યાં છે.
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હર્
digitaaree
हिनो नाम प्रस्थकः = लोकोपयोगी प्रस्थको निप्पयते इति । एवमेत्र व्यवहारस्यापि व्यवहारनयमाश्रित्यापि बोध्यम् । अयं भावः - लोकव्यवहारप्राधान्येन व्यवहारनयः प्रवर्त्तते । लोके च पूर्वोक्तावस्थासु सर्वत्र प्रस्थक व्यवहारो भवति, अतो नैगमनयवद् व्यवहारनयो बोध इति । संग्रहस्य = संगृह्णाति = आदत्ते सामान्यरूपतया सर्व वस्त्वयं = संप हस्तस्य मतानुसारेण चितमितमेयसमारूढः-चित्तः= धान्येन व्याप्तः, स च देशतोऽपि भवत्यत आह मित = पूरितः, अतएव मेयसमारूढः-मेयं=त्रान्यादिकं समारूढं स्थितं यत्र स तथा त्रयाणामपि कर्मधारयः, प्रस्थकः प्रस्थकत्वेनोच्यते । अयं भावः - नैगमव्यवहारनययोर विशुद्धस्वात् प्रस्थककाल में भी प्रस्थक कह दिये जाते हैं । परंतु संग्रहनय इन दोनों से विशुद्ध हैं, इसलिये इस नय के मतानुसार अपने कार्य करने में क्षम ही वह प्रस्थक का वाच्य होता है । यह नय सामान्य से सभी प्रस्थकों का एकरूप से संग्रह करता है। यदि यह नय विशेष रूप से प्रस्थकों का संग्रह करे तो विवक्षित प्रस्थक से भिन्न प्रस्थक में प्रस्थकपना ही सिद्ध नहीं हो सकता। क्योंकि सामान्य के बिना विशेषों का अस्तित्व ही नहीं बनता है । इसलिये सामान्यवादी होने के कारण यह नय समस्त प्रस्थकों को एक ही प्रस्थक मानता है। ऋजुमूत्र नय के अनुसार प्रस्थक भी प्रस्थक है और धान्यादिक मेग भी प्रस्थक है। ऐसा जो कहा हैं, उसका अभिप्राय ऐसा है कि- 'यह नय वर्तमानकालिक मान और मेय को ही मानता है । नष्ट होने से और अनुत्पन्न होने से सत्ता विहीन होने के कारण भूत और भविष्यत् कालिन मान और मेय को नहीं પરંતુ સંગ્રહ એ બન્નેથી વિશુદ્ધ છે. એથી આ નયના મત મુજમ પેાતાના કાર્ય સ`પાદનમાં સક્ષમ તે પ્રસ્થક જ ખરેખર પ્રસ્થક શબ્દ વાસ્થ્ય હાય છે. આ નય સામાન્યની અપેક્ષા એ સસ્થાને એક રૂપમાં સગ્રહ કરે છે. જો આ નય વિશેષરૂપથી પ્રસ્થાના સંગ્રહુ કરે તેા વિવક્ષિત પ્રસ્થથી ભિન્ન પ્રસ્થમાં પ્રસ્થકત્વ જ સિદ્ધ થાય નહિ. કેમકે સામાન્ય વિના વિશેષાનુ અસ્તિત્વ જ કલ્પી શકાય નહિ. એટલા માટે સામાન્યવાદી હાવા બદલ આ નય સમસ્ત પ્રસ્થાને એક જ પ્રસ્થ માને છે. ઋજુસૂત્રનય મુજખ પ્રસ્થક પશુ પ્રથક જ છે અને ધાન્યાદિક મેય પણ પ્રસ્થક છે. આમ જે કહેવામાં આવ્યુ છે, તેના અભિપ્રાય આ પ્રમાણે છે કે આ નય વર્તમાનકાલિક માન અને એય ને જ માને છે. નષ્ટ હોવાથી અને અનુપન્ન હોવાથી સત્તાવિહીન હાવા બદલ ભૂત અને ભવિષ્યત્ કાલીન માન અને પ્રેયને માનતા નથી.
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अनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र २२७ प्रस्थकदृष्टान्तेन नयप्रमाणनिरूपणम् ५७३ कारणं वृक्षादिरपि प्रस्थककार्याकरणकालेऽपि प्रस्थकः मोक्तः । संग्रहनयस्तु ताभ्यां विशुद्धः, अनोऽय नया मतानुसारेण स्वकार्यकरणक्षम एव प्रस्था इत्युच्यते । अयं नयः सामान्येन सर्वानपि प्रस्थकानू संगृहाति । यद्य विशेषतया प्रस्थकान संगृह्णीयात्तर्हि विवक्षितपस्थकभिन्न प्रस्थ के प्रस्थकत्वमेव न मिध्येत् , अतोऽयं नयः सर्वानपि प्रस्थकान एक एवं प्रस्थक इति मनुते सामान्यवादित्वादिति । ऋजुमूत्रनयस्तु काष्ठनिष्पन्न मानविशे मेयं धान्यादिकं चापि प्रस्थक इति मनुते, उमयापि प्रस्थ केति व्यवहारदर्शनात प्रस्थकत्वेन मानमेययोश्चप्रतीतेः । अयं च पूर्वस्माद् विशुद्धतरत्वाद् वर्तमानकालिकमेव मानं मेयं च प्रतिपाद्यते, न तु अतीतानागतकालिक मानं मेयं च, तयोपिनष्टानुत्पन्नत्वेनासत्यादिति ।
पाणां शहनयानाम्-शब्दप्रधानतायाः शब्दानुसारेणैवार्थमिच्छन्त्यमी, अतएते शब्दनया उच्यन्ते, आधास्तु, शब्दा यथा कथंचिद् भवन्तु मुख्यात्वर्या एवेति तेऽर्थनया उच्यन्ते, अत एषां त्रयाणां शब्दन पानां शब्दसमभिरूद्वैवंभूताख्यानां मानता है । इसलिये जिस क्षण में प्रस्थक अपना कार्य कर ने में लगा हुआ है, और धान्यादिक नापे जा रहे हैं, तभी वे पूर्व नय की अपेक्षा विशुद्धतर होने के कारण इस नय के अनुमार प्रस्थक माने जाते हैं ।
शब्द नय, समभिरुढनय और एवंभूतनय ये तीनों नय प्रधान होते हैं । इसलिये शब्द के अनुसार ही ये अर्थ का प्रतिपादन करते हैं। अतः इन्हें शब्दनय कहा है । तथा आदि के जो ४ नय हैं, वें अर्थ की मुख्यता से होते हैं-इसलिये वे अर्थनय कहलाते हैं। इन तीन शब्दनयों के मत में प्रस्थक के स्वरूप के परिज्ञान से उपयुक्त हुआ जीव प्रस्थक कहा गया है । इसका तात्पर्य यह है 'ये नय भाव प्रधान हैं।' इसलिये ये भाव प्रस्थक को ही मानते हैं। भावप्रस्थक का तात्पर्य हैंप्रस्थक का उपयोग। इसलिये इन नयों के मन्तव्यानुसारभावप्रस्थक
એટલા માટે જે ક્ષણમાં પ્રસ્થક પિતાના કાર્યમાં પ્રવૃત્ત થયેલ છે અને ધાન્યાદિક તેના વડે મપાઈ રહ્યાં છે, ત્યારે જ તે પૂર્વનયની અપેક્ષાએ વિશુદ્ધતર હોવા બદલ આ નય મુજબ પ્રસ્થક માનવામાં આવે છે. શબ્દનય, સમભિરૂઢનય અને એવંભૂતનય આ ત્રણે ના પ્રધાન હોય છે. એટલા માટે શદાનુસાર જ એ અર્થનું પ્રતિપાદન કરે છે. એથી જ એમને શબ્દનય કહેલ છે. તથા પ્રથમ જે ચાર નયે છે તે અર્થની મુખ્યતાથી હોય છે, એટલા માટે તે અર્થનય કહેવાય છે. આ ત્રણ શબ્દનના મતમાં પ્રસ્થના સવરૂપના પરિજ્ઞાનથી ઉપયુકત થયેલ છવ પ્રસ્થક કહેવામાં આવેલ છે. આનું તાત્પર્ય આ પ્રમાણે છે કે, આ ન ભાવપ્રધાન છે. એથી એ ભાવ પ્રસ્થને જ માને છે. ભાવ પ્રસ્થનું તાત્પર્ય છે. “પ્રસ્થને ઉપયોગ,
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५७.
अनुयोगद्वारसूत्रे मते प्रस्थ कस्य अर्थाधिकारज्ञा प्रस्थ स्वरूपारिज्ञानोपयुक्तः प्रस्था इत्युच्यते यतो हि यद्वशात् प्रस्थ को निष्पद्यते । अयं भाव:-'भावप्रधा ह्यने नयाः सन्ति' इत्यत एते भावस्थ मेवे छन्ति । भावस्तु प्रस्थ कोपयोगः, अतोऽत्र प्रस्थकोपयोगः प्रस्थकः । उपयोगोपयोगवतोरभेदात् उपयोगवानपि च प्रस्थकः । शब्दादिनयत्रयमते तु यो हि यत्रोपयुक्तः स एव भवति, उपयोगलक्षणो जीव इति जीवलक्षणांत् । उपयोगाश्चात्र प्रस्थकादिविषयतया परिणतोऽत इतो ऽन्यज्जीवस्य रूपान्तरं न भवितुमर्हतीति । वा अथवा यस्य प्रस्थकर्तृगतस्य उपयोगस्य वशेन प्रस्थको निष्पद्यतेसम्पन्नो भवति, तत्रोपयोगे वर्तमानः कर्ता प्रस्थक इत्युच्यते । नहि प्रस्थकोपयोगरहितः कर्ता कदाचिदपि प्रस्थकनिर्माणे समर्थः शब्द का वाच्यार्थ पडता है। उपयोग और उपयोगवान् में अभेद होता है-अतः उपयोगवान् भी प्रस्थक कहलाता है। इन शब्दादिनय के मत में तो जो जहां उपयुक्त होता है, वह वहीं होता है, क्योंकि जीव का लक्षण उपयोग कहा गया है । इसलिये जीव का लक्षणरूप यह जष प्रस्थक को विषय करता है-तब वह उस रूप परिणम जाता है-इसलिये प्रस्थक के उपयोग को प्रस्थमान लिया जाता है । इसी कारण उपयोग के अतिरिक्त और कुछ जीव का स्वरूप नहीं माना गया है। अथवाप्रस्थक को बनानेवाले व्यक्ति के जिस उपयोग के वश से प्रस्थक निष्पन्न होता है, उस उपयोग में वर्तमान वह कर्ता प्रस्थक कहा जाता है। क्योंकि कर्ता में जब तक प्रस्थक को बनाने का उपयोग नहीं जगेगा, तब तक कभी प्रस्थक को नहीं बना सकेगा। इसलिये उस प्रस्थक को निष्पन्न
એટલા માટે આ નાના મતવ્યાનુસાર ભાવ પ્રસ્થક શબ્દને વાચ્યાર્થ હોય છે. ઉપગ અને ઉપગવાનમાં અભેદ હોય છે, એથી ઉપગવાન પણ પ્રસ્થક કહેવાય છે. આ શદાદિન ત્રયના મતમાં તે જે જ્યાં ઉપયુક્ત હોય છે. તે ત્યાં જ હોય છે. કેમકે જીવનું લક્ષણ ઉપગ કહેવામાં આવ્યું છે. એથી જીવલક્ષણસ્વરૂપ આ ઉપગ જ્યારે પ્રસ્થકને પિતાને વિષય બનાવે છે ત્યારે તે તદુરૂપમાં પરિણત થઈ જાય છે. એટલા માટે પ્રસ્થકના ઉપયોગને પ્રસ્થક માની લેવામાં આવે છે. આ કારણથી જ ઉપયોગ સિવાય જીવનું કેઈપણ જાતનું સ્વરૂપ માનવામાં આવતું નથી. અથવા–પ્રસ્થકને તૈયાર કરનાર પુરુષના જે ઉપગને લઈને પ્રસ્થક નિષ્પન્ન થાય છે, તે ઉપગમાં વિદ્યમાન કહેવાય છે. કેમકે કર્તામાં
જ્યાં સુધી પ્રસ્થક ૨ચના-વિષયક ઉપગ માનવામાં આવશે નહિ, ત્યાં લગી તે પ્રસ્થક બનાવી શકશે જ નહિ. એટલા માટે તે પ્રસ્થકને નિષ્પન્ન કરનારા
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अनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र २२८ वसतिदृष्टान्तेन नयप्रमाणनिरूपणम्
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स्यात्, अत उपयोगानन्यत्वात् स एव प्रस्थकः । अयं भावः सर्वे पदार्थाः स्वात्मन्येव वर्तन्ते, नत्वात्मव्यतिरिक्ते आधारे, एतन्मतेन अन्यस्य अन्यत्र दृश्ययोगात् । अत्रेयं युक्तिः परथकश्च निश्चयात्मकं मानमुच्यते, निश्चयश्च ज्ञानं तच्च जात्मनि का भाजनेन वृत्तिमनुभवितुमर्हति चेतनाचेदनयोः सामानाधिकरण्या भावात् तस्मात् प्रस्थकोपयुक्त एव प्रस्थको बोध्य इति । प्रकृतमुपसंहरन्नाहतदेतत् प्रस्थकदृष्टान्तेनेति ॥ मु० २२७ ॥
इत्थं प्रस्थकान्तेन नयप्रमाणं निरूप्य सम्प्रति वसतिदृष्टान्तेन तत्परूपयति
मूलम् - से किं तं वसहिदिनेणं? वसहृिदितेणं-से जहा नामए केइ पुरिने कंचिपुरिसं वएज-कहिं तुवं वससि ? तं करनेवाले उपयोग से अनन्य होने के कारण वह कर्ता प्रस्थक कहा जाता है । इसका तात्पर्य यह कि - 'जितने भी पदार्थ हैं, वे सब अपनी आत्मा में रहे हुए है- महमा से भिन्न किसी अन्य आधार में नहीं । इस सिद्धान्त के अनुसार अन्य पदार्थ की अन्यत्र वृत्ति नहीं मानी गई है । इस विषय में युक्ति इस प्रकार से है कि निश्चयात्मक मान प्रस्थक कहलाता है । और यह निश्चय ज्ञानरूप पड़ता है । अब विचार करो कि- 'जो निश्चयरूप प्रस्थक है, वह जडात्मक काष्ठ में कैसे अपनी वृत्ति का अनुभव कर सकता है । क्योंकि चेतन और अचेतन में समानाधिकरणता नहीं बन सकती है। इसलिये 'प्रस्थक के उपयोग से युक्त आत्मा ही प्रस्थक हैं' ऐसा मानना चाहिये। ऐसा अभिप्राय इन तीन शब्दनयों का है । ॥ सू० २२७ ॥
ઉપયાગથી અનન્ય હાવા બદલ તે કર્તાને પ્રસ્થ કહેવામાં આવે છે. તાપ આ પ્રમાણે છે કે જેટલા પદાર્થો છે, તે સવે. આપણી આત્મામાં વિદ્યમાન છે. આમાથી ભિન્ન કોઈપણ વસ્તુમાં તેમની સત્તા નથી. આ સિદ્ધાન્ત મુજબ અન્ય પદાર્થોની અન્યત્ર વૃત્તિ માનવામાં આવી નથી. આ સબધમાં યુક્તિ આ પ્રમાણે છે કે-નિશ્ચયાત્મક માન પ્રસ્થ કહેવામાં આવે છે. અને
આ નિશ્ચયજ્ઞાન રૂપ હાય છે. હવે આપણે વિચાર કરીએ કે ‘જે નિશ્ચયરૂપ પ્રસ્થક છે, તે જડાત્મક કાષ્ઠમાં કેવી રીતે પેાતાની વૃત્તિની અનુભૂતિ કરી શકે ? કેમકે ચેતન અને અચેતનમાં સમાનાધિકરણતા હાય જ નહિ. એટલા માટે પ્રસ્થકના ઉપચેગથી યુક્ત આત્મા જ પ્રસ્થક છે. આમ માની લેવું જોઇએ, આ જાતના અભિપ્રાય ત્રણ શખ્સનાના છે. ાસૂ ૨૨૭૫
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मनुयोगद्वारस्त्र अविसुद्धो गमो भगइ-लोगे वसामि। लोगे तिबिहे पण्णत्ते, तं जहा--उड्डलोए अहोलोए तिरियलोए, तेसु सव्वेसु तुवं वससि? । विसुद्धो णेगमो भगइ-तिरियलोए वसामि। तिरिय. लोए जंबूद्दोवाइया सयंभूरमणपज्जवसाणा असंखिजा दीवसमुद्दा पण्णत्ता, तेसु सव्वेसु तुवं वससि ?। विसुद्धतराओ गमो भणइ-जंबुद्दीवे वसामि। जंबूदीवे दस खेत्ता पण्णता, तं जहाभरहे एरवए हेमबए एरण्णवए हरिवस्से रम्मगवस्से देवकुरू उत्तरकुरू पुत्वविदेहे अवरविदेहे, तेसु सव्वेसु तुवं वससि ?। विसुद्धतराओ णेगमो भणइ-भरहे वाले वसामि। भरहे वासे दुविहे पण्णत्ते, तं जहा-दाहिणभरहे उत्तड्डभरहे य, तेसु दोसु तुवं वससि?। विसुद्धतराओ णेगमा भणइ--दाहिणड्डभरहे वसामि। दाहिणभरहे अणेगाई गासागरणगरखेडकब्बडमडंब. दोगमुहपट्टगासमसंवाहसन्नि बेसाई, तेसु सम्बेसु तुवं वसपि ?। विसुद्धतराओ णेगमो भणइ-पाडलिपुत्ते वसामि। पाइलिपुत्ते अणेगाइं गिहाई, तेसु सब्बेसु तुवं वससि?। विसुद्धतराओ णेगमो भणइ-देवदत्तस्स घरे वसामि। देवदत्तस्स घरे अणेगा कोहगा, तेसु सव्येसु तुवं वससि ? विसुद्धतराओ गमो भगइ. गम्भघरे वसामि। एवं विसुद्धस्स गमस्स वसमाणो। एवमेव ववहारस्सवि। संगहस्स संथारसमारूढो वसइ। उज्जुयस्स जेसु आगासपएसेसु ओगाढो तेसु वसइ। तिण्हं सदनयाणं आयभावे वसइ। से तं वसहिदिहतेणं ॥सू०२२८॥
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भनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र २२८ वसतिदृष्टान्तेन नयप्रमाणम्
छाया-अथ किं तत् वसतिदृष्टान्तेन ?, वसतिदृष्टान्तेन स यथानामक: कोऽपि पुरुषः कश्चित् पुरुषं वदति, कुत्र वं वससि ?, तम् अविशुद्धो नैगमो भणति-लोके वसामि । लोकः त्रिविधः प्रज्ञप्तः, तद्यथा-ऊचलोकः अधोलोका तिर्यकलोकः, तेषु सर्वेषु त्वं वमसि ? विशुद्धो नैगमो भणति-तिर्यक्लोके वसामि । तिर्यक्लोके जम्बूद्वीपादिकाः स्वयंभूरमणपर्यवसानाः असंख्येयाः द्वीप
इस प्रकार प्रस्थक के दृष्टान्त से नय का स्वरूप निरूपण करके अब वसति के दृष्टन्त से उसका निरूपण सूत्रकार करते हैं'से किं तं वसहिदिट्टतेणं' इत्यादि ।
शब्दार्थ-से कितं वसहिदिटुंतेणं) हे भदन्त !वह वसति दृष्टान्त क्या है ? कि-'जिससे नय के स्वरूप का ग्रहण होता है ? (वसहिदिई तेणं) वसतिदृष्टान्त से नय स्वरूप का प्रतिपादन इस प्रकार से है-(से जहा नामए केइपुरिसे कंचिपुरिसं वएज्जा कहिं तुवं वससि ?) जैसे किसी पुरुषने किसी एक पुरुष से पूछा कि तुम कहां रहते हो ? (तं अविसुद्धो णेगमो भणह) तब उसने अविशद्ध नैगमनय के मतानुसार होकर कहाकि (लोगे वसामि) में लोक में रहता हूँ। (लोगेतिविहे पण्णत्ते) तब पूछनेवालेने फिर पूछा कि लोक तो तीन प्रकार का है । (तं जहा) जैसे-(उडुलोए, अहोलोए,तिरियलोए) उप्रलोक, अधोलक, तिर्यक्लोक (तेसु सव्वेसुतुवं
આ પ્રમાણે પ્રસ્થકના દૃષ્ટાતથી નયના સ્વરૂપનું નિરૂપણ કરીને હવે વસતિના દષ્ટાન્તથી સૂત્રકાર તેનું નિરૂપણ કરે છે.
'से कि त वसहिदिद्रुतेणं' इत्यादि।
शा-(से कि त वसहिदिवतेणं) के महन्त ! ना 43 नय २१३५नु' ७ थाय छे. सति शान्तनु २१३५ यु छ ? (वसहिदि,तेणं) ५सति दृष्टान्तथी नय २१३५नु प्रतिपादन मा प्रमाणे छे. (से जहा नामए केइपुरिसे कंचि पुरिसं वएज्जा कहिं तुवं वससि ?) भ । ५२२ से ५२पने प्रश्न यो तम या २७ छ। ? (त' अविसुद्धो णेगमो भणइ) त्यारे तेरे अविशद्वनगमनयन। मतानुसार वाम भाव्य (लोगे वसामि) २९ छु. (लोगे तिविहे पण्णत्ते) त्यारे प्रश्न भी पा२ प्रश्न यो तो त्र प्रा२न छे. (तौं जहा) मई (उड्डलोए अहोलोए तिरियलोए) Baras अपायो, भने तिय४४ (ठेसु सव्वेसु तुवं वससि) तो तमे मा तो मां से! छे! ? (विसुद्धो णेगमो भणइ) त्यारे विशुद्धनय भुण तेथे ४ (तिरियलोए वसामि) तिय मां २ छ (तिरियलोए जंबू दीवाइया
अ०७३
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मनुयोगद्वारसूत्रे समुद्राः प्रज्ञप्ताः, तेषु सर्वेषु त्वं वससि ? विशुद्रतरको नैगमो भणति-जम्बूद्वीपे वसामि । जम्बूद्वीपे दश क्षेत्राणि प्रज्ञप्तानि, तद्यथा भारतम् ऐरवतं हैमवतम् ऐरण्यवतं हरिवर्ष रम्यकर्ष देवकुरवः उत्तरकुरवः पूर्वविदेहः अपरविदेहः, तेषु सर्वेषु त्वं वससि ? विशुद्धतरको नैगमो भगति भारते वर्षे वसामि । भारतं पससि) तो क्या तुम इन सयों में रहते है। ? (विसुद्धो णेगमा भणइ) तब विशुद्ध नैगमनय के अभिप्राय के वशवर्ती बनकर उसने कहा-(तिरिए लोए वसामि) मैं तिर्यश्लोक में रहता हूँ। (तिरियलाए जंबूद्दीवाइया सयंभूरमणपज्जवसाणा असंखिज्जा दीवसमुद्दा पण्णत्ता) तब फिर पूछने वालेने पूछा कि तिर्यक्लोक में जंबूदीप आदि स्वयंभूरमण पर्यंत असंख्यात द्वीपसमुद्र कहे गये हैं, तो क्या (तेसु सम्वेसु तुवं वससि) तुम इन सयों में रहते हो? (विसुद्धतराओ णेगमा भणइ जंबहीवेवसामि) तब विशुद्धतर नैगमनय के अभिप्राय यशवर्ती बनके उसने उत्तर दिया कि मैं जंबूद्वीप में रहता हूं। (जंबूदीवे दसखेत्ता पण्णत्ता) तब फिर पूछने वाले ने पूछा कि जंबूद्वीप में दशक्षेत्र कहे गये हैं। (तं जहा) जैसे (भरहे एरवए हेमवए, एरण्णवए, हरिवस्से, रम्मगवस्से, देवकुरू, उत्तरकुरू पुव्यविदेहे अवरविदेहे,) भरत, ऐरवत, हैमवत, ऐरण्यवत, हरिवर्ष, रम्पकवर्ष, देवकुरू उत्तरकुरू पूर्वविदेह, अपरविदेह, (तेसुसम्वेसु तुवं वससि) तो क्या तुम इन दश क्षेत्रों में रहते हो? (विसुद्धतराओ णेगमो भणइ-भरहे वसामि) तब विशुद्धतर नैगमनय के अभिप्रायानुसार संयभूरमण गज्जवसाणा असंखिज्जा दीवस मुद्दा पण्णत्ता) त्यारे । પ્રશ્નક્તએ પ્રશ્ન કર્યો કે તિર્યકુ લેક જંબુદ્વીપ વગેરે સ્વયંભૂરમણ પર્યત सभ्यात ५ समुद्र छे. तो शु (तेसु सम्वेसु तुवं वससि) तमे भा सभा निवास ४२। छ। ? (विसुद्धतराओ णेगमो भणइ जंबू दीवे व सामि) ત્યારે વિશુદ્ધતર નિગમનયના અભિપ્રાય મુજ મ તેણે જવાબ આપે કે હું
मुद्वीपमा २ छु. (जंबूद्दीवे दसखेत्ता पण्णता) त्या२३२ प्रश्नामे प्रश्न ध्या है पूदी५मा ४श क्षेत्र आवे छे. (त जहा भरहे एखए, हेमवए, ऐरण्णाए, हरिवस्से, रम्मगवस्से, देवकुरु, उत्तरकुरु, पुठ्वविदेहे, अवरविदेहे) भरत, भैरवत, मत, औ२९य१त, विष, २-५४१५, ३४२, उत्त२४२,
विड, अ५२विहे. (तेसु सव्वेसु तुवं वससि) ते शुं तमे मा सर्प क्षेत्रमा निवास रे। छ। १ (विसुद्धतराओ णेगमो भणइ भरहे वसामि) प्यारे વિશુદ્ધતર નૈગમનયના અભિપ્રાયાનુસાર તેણે જવાબ આપે કે હું ભરત
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अनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र २२८ वसतिदृष्टान्तेन नयप्रमाणम् ६ द्विविधं प्रज्ञप्तं, तद्यथा-दक्षिणार्धभारत उत्तरार्धभारतं च तयोयोस्त्वं वससि ?, विशुद्धतरको नैगमो भगति-दक्षिणाभारते वसामि । दक्षिणार्धभारते अनेके ग्रामाकरन गरखेटकर्बटमडम्बद्रोणमुवपत्तनाश्रमसंवाहसन्निवेशाः, तेषु सर्वेषु त्वं वससि । विशुद्वतरको गमो भणति-पाटलिपुत्रे वमामि । पाटलिपुत्रे होकर उसे उत्तर दिया मैं भरतक्षेत्र में रहता हूँ । (भरहे वासे दुविहे पण्णत्ते) फिर पूछनेवालेने उससे पूछा कि भरत क्षेत्र तो दो प्रकार का कहा हुआ है । (तं जहा) जैसे (दाहिणभरहे उत्तरडभरहे य) एक दक्षिणार्धभरत और दूसरा उत्तरार्द्ध भरत । (तेसु दोसु तुवं वससि) सेो क्या तुम इन दोनों में रहते है। । (विसुद्धतराओ णेगमा भणइ ) तष विशुद्धतर नैगम की मान्यतानुसार उसने पूछनेवाले से कहा (दाहिण डमरहे वसामि) मै दक्षिणार्ध भरतक्षेत्र में रहता हूँ। (दाहिणभरहे अणेगाई गामागरणगरनिगमखेडकब्बडमबदाणमुहपट्टणासमसंवाहसन्निवेसाई) पूछनेवालेने फिर उससे पूछा कि दक्षिणार्ध भरत में अनेक ग्राम, आकर, नगर, निगम, खेट, कर्बट, मडंब, द्रोणमुख, पट्टन, आश्रम संवाह और सन्निवेश हैं। (तेसु सव्वेलु तुवं वसमि) तो क्या तुम इन सब में रहते है। । (विसुद्धतराओ णेगमा भणइ )तष विशुद्धतर नैगमनय के अभिप्रायानुसार होकर उसने कहा कि (पाडलिपुत्ते वसामि) मैं पाटलिपुत्र में रहता हूं। पूछनेवालेने फिर उससे पूछा क्षेत्रमा २ छु.. (भरहे वासे दुविहे पण्णत्ते) ५ प्रश्रता प्रश्न ये है मरतक्षेत्र में सागमा विभत थयेस छे. (तजहा) रेभ. (दाहिणभरहे उत्तरभरहे य) मेक्षिा मरत अने जात्रा भरत. (तेसु दोसु तुर्व वससि) तो शुं तमे से भन्नेमा से छ। १ (विसुद्धतराओ णेगमो भणइं) ત્યારે વિશુદ્ધતર નિગમનયાનુસાર તેણે પ્રશ્નકર્તાને જવાબ આપતાં કહ્યું(दाहिणड्डभरहे वसामि ) हु क्षिा १२तक्षेत्रमा पसु छु. (दाहिण भरहे अणे गाई गामागरणगरनिगखेमड कब्बडमंडबदोणमुहपट्टणासमसंवाहसन्निवेसाई) પ્રશ્નકર્તાએ ફરી પ્રશ્ન કર્યો કે દક્ષિણા ભરતક્ષેત્રમાં ગ્રામ, આકર, नार, नियम, , ४५ 2, मन, द्रो भुम, पट्टन, माश्रम, सपा, सन्नि देश छ. (तेसु सव्वेसु तुवं वससि) तेशुतमे सभा निवास ४२। छ। ? (विसद्धतराओ णेगमो भणइ) त्यारे विशुद्धतर नैगमनयना मनिप्रायानुसार ते वाम पायो (पाडलिपुत्ते वसामि) हु पाटलिपुत्रमा पसु छुः
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५८०
अनुयोगद्वार
अनेकानि गृहाणि तेषु सर्वेषु त्वं वससि ?' विशुद्धारको नैगमो भणति - देवदत्तस्य गृहे वसामि । देवदत्तस्य गृहे अनेकाः कोष्टकाः तेषु सर्वेषु त्वं बससि ? विशुद्धतरको नैगमो भणति - गर्भगृहे वसामि । एवं विशुद्धस्य नैगमस्य वसन् । एवमेव व्यवहारस्यापि । संग्रहस्य संस्तारकसमारूढो वसति । ऋजुमूत्रस्य
कि ( पाडलिपुते अगाईं गिहाई तेसु सव्वेसु तुवं वससि) पाटलिपुत्र में अनेक गृह हैं-सो क्या तुम उन सबों में रहते हो ? । (विसुद्ध - तराओ गमो भइ) तब विशुद्धतर नैगमनय के मतानुकूल होकर उसने उत्तर दिया- ( देवदन्तस्स घरे वसामि ) देवदत्त के घर में रहता हूं । (देवदत्तस्स घरे अणेगा कोट्ठगा तेसु सव्वेसु तुवं वससि ? ) पूछने वाले ने पुनः पूछा कि देवदत्त के घर में तो अनेक कोठे हैं, तो क्या तुम उन सर्षो में रहते हो ? (गन्नघरे वसामि ) तब उसने कहा कि नहीं, मैं उन सब में नहीं रहता हूं । किन्तु वहां जो गर्भगृह है, उसमें रहता हूं | ( एवं विशुद्धस्स णेगमस्स वसमाणो ) इस प्रकार विशुतर नैरमनय के मत के अनुसार यह गर्भ गृह में रहता हुआ ही 'वसति' इस रूप से व्यपदिष्ट होता है । तात्पर्य इस का यह है कि जिस गृहादि में सर्वदा निवासीरूप से विवक्षित होता यह यदि वहां उस समय में रह रहा है, तभी वह 'वहां रहता है । 'इस रूप से विशुद्धतर नैगमनय के मतानुसार व्यपदिष्ट हो सकता है। यदि
प्रश्न
इवार प्रश्न ( पाडलिपुत्ते अगाई गिहाई तेसु सव्वेसु तुवं वससि) पाटलिपुत्रमां घरो आवे छे तो शुं तमे ते सर्व धरोमां निवास पुरे। है। ? (विसुद्धतराओ णेगमो मणइ) त्यारे विशुद्धतर नैगमनय भुभ्य तेथे वाम आयो है ( देवदत्तस्स घरे वसामि ) हुँ हेवह"तना घेर २हु छु. (देवदत्तस्स घरे अणेगा कोट्टगा तेसु सब्वेसु तुवं वससि १ ) પ્રશ્નકર્તાએ ફરીવાર પ્રશ્ન કર્યાં કે દેવદેત્તના ઘરમાં તે ઘણા પ્રકૈાછો છે, તા शु' तसे ते सर्व अठोभां निवास ४रे । हो ? (गन्मघरे वसामि ) त्यारे तेथे જવાખ આપતાં કહ્યુ કે, હુ' તે સર્વ પ્રકાષ્ઠામાં રહેતા નથી પણુ ફક્ત તેના गर्भगृहमां निवास ई छ (पवं विसुद्धास णेगमस्त वसमाणो) या प्रमाणे विशुद्धतर नैगमनयना भत भुभम मा गर्भगृहमां रडेतां ४ 'वसति' मा રૂપથી બ્યપષ્ટિ થાય છે, તાત્પ આ પ્રમાણે છે કે જે ગૃહાદિમાં સદા નિવાસ કરનારના રૂપમાં વિવક્ષિત થતાં જો તે ત્યાં જ રહેતા હાય તાજ શ્મા ત્યાં રહે છે' આ રૂપમાં વિશુદ્ધતર નૈગમનયના મત મુજબ વ્યપશ્ચિ
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अनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र २२८ वसतिदृष्टान्तेन नयप्रमाणम् कारण वश किसी गली आदि में वह उस समय है तो उस समय 'उस विवक्षित घर में यह रहता है ऐसा अतिप्रसङ्ग होने के कारण नहीं कहा जा सकता है। (एवमेव ववहारस्त वि) इसी प्रकार व्यवहारनय भी लोकव्यवहार के अनुसार चलता है। इसलिये लोकव्यवहार में जैसे नैगमनय के ये उक्त प्रकार देखने में आते हैं, वैसे ही प्रकार व्यवहारनय के भी इसलिये नैगमनय के जैसा व्यवहारनयको भी जानना चाहिये । ___ शंका--अन्तिन नैगमनय का जो यह प्रकार आपने कहा है कि यदि वह वर्तमान में जिस घर में रहा है यदि उसी घर में मौजूद है तो यह 'वहां रहता है। ऐसा कहा जा सकता है नहीं तो नहीं। सो यह चरम नैगमोक्त प्रकार लोक में नहीं माना जाता है क्योकि 'ग्रामा न्तर में गया हुभा भी देवदत्त 'अयं पाटलिपुत्रे वसति' यह पाटलिपुत्र में रहता है-इस प्रकार से पाटलिपुत्र के निवासी रूप से व्यपदिष्ट होता ही है । इस प्रकार से जब यह चरमनैगमोक्त प्रकार नहीं माना जाता है तो फिर व्यवहार नप भी नैगमनय के अनुसार जानना चाहिये' यह कथन भी कैसे युक्त माना जा सकता है ? થઈ શકે તેમ છે. જે તે ગમે તે કારણથી કઈ શેરી વગેરેમાં તે સમયે વિદ્યમાન હોય તે, તે સમયે “તે વિવક્ષિત ઘરમાં તે રહે છે. આવુ અતિ अस वाथी ४ामा मातुनधी. (एवमेव ववहारस्सवि) मा प्रभारी
વ્યવહારનય પણ લેકવ્યવહાર મુજબ ચાલે છે. આથી લોકવ્યવહારમાં જેમ નિગમનયના આ ઉપર્યુંકત પ્રકારો જોવામાં આવે છે, તેવા જ પ્રકારે વ્યવહારનયના પણ હોય છે તેમ સમજી લેવું. એટલે કે નૈગમનયની જેમ વ્યવહારનય વિષે પણ જાણી લેવું જોઈએ.
શંકા-અંતિમ નિગમનયને જે આ પ્રકાર આપશ્રીએ સ્પષ્ટ કરેલ છે કે જે તે વર્તમાનમાં જે ઘરમાં રહેતું હોય તે જે તે તેજ ઘરમાં વિદ્યમાન હોય તે “આ ત્યાં રહે છેઆ રીતે કહેવામાં આવે છે. અન્યથા નહિ; પગ આ ચરમ નૈમિત પ્રકાર લેકમાં માન્ય નથી, કેમકે “પ્રામાतरमा गयो छे, छतां पात्त 'अयं पाटलिपुत्रे वसति' मा पालि પુત્રમાં રહે છે. આ પ્રમાણે પાટલિપુત્રના નિવાસી રૂપમાં પદિષ્ટ થાય છે. આ રીતે આ ચરમ નૈગમકત પ્રકાર ગણાય જ નહિ તે પછી “વ્યવહારનય પણ નિગમનાય મુજબ જ છે” આ કથન ચોગ્ય કઈ રીતે ગણાય?
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अनुयोगद्वारसूत्र येषु आकाशप्रदेशेषु अबगाढः तेषु वसति । त्रयागां शब्दनयानाम् आत्मभावे वसति । तदेतद् वसतिदृष्टान्तेन ॥मू० २२८॥
उत्तर--शंका, ठीक है-परन्तु ऐसा इस कथन का अभिप्राय नहीं है इसका अभिप्राय तो ऐसा है कि ग्रामान्तर में गये हुए देवदत्त के विषय में जब कोई यह पूछता है कि-'देवदत्त यहां रहता है कि नहीं रहता है तब इसके उत्तररूप में कोई ऐसा कह देता है कि 'ग्रामन्तर गया हुआ देवदत्त यहां नहीं रहता है। ऐसा लोकव्यवहार देखा जाता है। इसलिये 'एवमेव व्यवहारस्थापि' ऐसा कथन युक्त ही है। नैगमव्यवहारनय की अपेक्षा (संगहस्स) संग्रहनय विशुद्ध होता है इस कारण इस नय के अनुसार (संथारसमारूढो वसइ) 'वसति' ऐसाप्रयोग तब ही हो सकता है कि जब वह संस्तारक पर आरूढ हो। तात्पर्य कहने का यह है कि वसति शब्द का अर्थ निवास है-और यह निवास संस्तारक पर उपविष्ट होने पर ही बन सकता है अन्यत्र गृहादिक में ठहरने पर नहीं। क्योंकि मार्गादि में प्रवृत्त हुए पुरुष आदि में जैसे चलनादिक्रियावत्व होने के कारण निवासार्थरूप वसति संगत नहीं होती है, उसी प्रकार से इस नय के मतानुसार संस्तारक पर समारूढ हुए व्यक्ति के विषय में 'गृहादी वसति' यह गृहादि में रहता है ऐसा व्यपदेश संगत नहीं हो सकता
ઉત્તર-આ જાતની શંકા ઉચિત જ છે. પરંતુ આ કથનનો અભિપ્રાય એ થતું નથી. આને અભિપ્રાય તે એ થાય કે ગ્રામાન્તરમાં ગયેલ દેવદત્તના સંબંધમાં જ્યારે કેઈ પ્રશ્ન કરે છે કે “દેવદત્ત અહીં રહે છે કે નહીં? ત્યારે એના જવાબમાં કેઈ આ પ્રમાણે કહે છે કે “ગ્રામાન્તર ગયેલ દેવદત્ત અહીં રહેતું નથી. લેકવ્યવહારમાં પણ આ પ્રમાણે જ થતું જોવામાં भाव छ. 'एवमेव व्यवहारस्यावि' २॥ ४थन यित ॥ छे. नाम व्यवहारनयनी अपेक्षा (संगहस्स) हुनय विशुद्ध हाय छे. मेथी । नय भु०४५ (संथारसमारूढो वसइ) 'वसति' मा लतने प्रयास त्यारे ४ ४१ शय જયારે તે સંસ્તારક-પથારી પર આરૂઢ હોય. તાત્પર્ય કહેવ નું આ પ્રમાણે છે કે વસતિ શબ્દને અર્થ નિવાસ છે. અને આ નિવાસ સંસ્મારક પર ઉપવિષ્ટ હોવાથી જ સંભવી શકે તેમ છે. ગુહાદિ અન્ય સ્થાનમાં નિવાસ કરવાથી નહિ. કેમકે માગદિમાં પ્રવૃત્ત થયેલ પુરુષ આદિમાં જેમ ગત્યાદિ કિયાવત્વ રહેવાથી નિવાસાર્થ રૂપ વસતિ સંગત થતી નથી, તેમજ આ નયના મત મુજબ सता२३ ५२ सभा३८ थयेर ०यतिना समयमा “गृहादौ वसति" भा
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अनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र २२८ वसतिदृष्टान्तेन नयप्रमाणम् ५८३ है। नहीं तो अतिप्रसंग दोष की आपत्ति आवेगी । तब फिर 'क्वासो वसति' यह कहाँ रहता है ? इस प्रकार की निवास विषयक जिज्ञासा होने पर संस्तारके वसति' यह संस्तारकपर रहता है, गृहादि में नहीं' ऐसा कथन इस के मतानुसार होता है। संस्तारक अनेक प्रकार के होते हैं-इसलिये वे सब यहां एकरूप से विवक्षित हो जाते हैं। क्योंकि संग्रहनय सामान्य को ग्रहण करता है । (उज्जुसुयस्त जेसु. आगासपएसेसु ओगाढो तेसु वसइ) ऋजुसूत्रनय के मतानुसार जिन आकाशप्रदेशों पर अवगाढ-अवगाहना युक्त-है उन आकाशप्रदेशों पर ही वह रहता है। यह उसका निवास वहां वर्तमान काल में ही हो रहा है-अनीत अनागत काल में नहीं क्योंकि ये दोनों विनष्ट एवं अनुत्पन्न हैं इसलिये इनका असत्य है । ऐसा यह नय मानता है। (तिण्हं सहनयाणं आयभावे यसइ-से तं वसहिदिटुंतेणं) शब्द समभिरूढ़ और एवंभूत इन तीन नयों के मतानुसार समस्त जन अपने आत्मस्वरूप में ही रहते हैं क्योकि अन्य की अन्य में वृत्ति होती नहीं हैं। यदि अन्य की अन्य में वृत्ति होने लगे तो हम यह पूछ सकते हैं कि'वह वहां सर्वात्मक रहेगा-या देशात्मक रहेगा ? यदि सर्वात्मना वहां
ગૃહાદિમાં રહે છે આ વ્યપદેશ ઉચિત છે એમ લાગતું નથી. નહિતર અતિ प्रसहोप लपस्थित थशे. तो ५७ी "कासौ वसति" मा यां २ छे १ ॥
तनी निवास विषय लिज्ञासा पाथी 'संस्तारके वसति' ॥ सस्ता२४ પર રહે છે. ગૃહાદિમાં નહિ. એવું કથન નય મુજબ સ્પષ્ટ થાય છે. એથી તે સર્વે અહીં એક રૂપથી વિવક્ષિત થઈ જાય છે. કેમકે સંગ્રહનય સામાન્યને अ ४२ छ. (उज्जुसुयस्स जेसु आगासपएसेसु ओगाढो तेसु वसइ) ઋજુ સૂત્રનયના મતાનુસાર જે આકાશપ્રદેશ પર અવગાઢ-અવગાહના યુક્ત છે. તે આકાશપ્રદેશ પર જ તે રહે છે, તેમનું આ નિવાસકાર્ય ત્યાં વર્તમાનકાળમાં જ થઈ રહ્યું છે. અતીત કે અનાગતકાળમાં નહિ. કેમકે એ બને વિનષ્ટ તેમજ અનુત્પન છે. એથી જ એમનું અસત્ત્વ છે. भा. मा नय भाने छे. (तिहं सहन याणं आयभावे वसइ से तं वसहिद्दिदंतेणं) શબ્દ, સમભિરૂઢ અને એવં ભૂત આત્મ સ્વરૂપમાં જ નિવાસ કરે છે, કેમકે અન્યની અન્યમાં વૃત્તિ હોય જ નહિ. જે અન્યની અન્યમાં પ્રવૃત્તિ થવા માંડે તે અમે આ જાતનો પ્રશ્ન કરી શકીએ કે “તે ત્યાં સર્વાત્મતા નિવાસ કરે છે કે દેશાત્મના ? જે તે ત્યાં સર્વાત્મના રહેશે, આ વાત માની લઈએ
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५८४
अनुयोगद्वारसूत्रे
वह रहेगा ऐसी बात मानी जावे तो फिर आधार से भिन्न अपने निज रूप से उसकी प्रतीति ही नहीं हो सकेगी जैसे आधार पर बिछे हुए संस्तारक आदि आधार के स्वरूप से भिन्न अपने स्वरूप से प्रतिभासित नहीं होते हैं किन्तु आधार स्वरूप से ही प्रतिभासित होते हैं इसी प्रकार देवदत्तादि भी यदि सर्वात्मना वहां रहेंगे तो वे तद्भिन्नस्वरूप से उपलब्ध नहीं हो सकेंगे। किन्तु आधारस्वरूप से ही उपलब्ध होंगे । यदि द्वितीय पक्ष स्वीकार किया जावे तो यह माना जा सकता है कि'अन्य अन्य में देशात्मना ठहर सकता है' परन्तु वहां फिर भी यह प्रश्न हो सकता है कि 'उस देश में वह क्या सर्वात्मना ठहरेगा या देशात्मना ? सर्वात्मना ठहरने में स्वरूप हानि होने का प्रसंग प्राप्त होता है और देशस्वरूपता की आपत्ति आती है । देशात्मना ठहरने पर वही पुनः प्रश्न होगा कि वह वहां सर्वात्मना ठहरेगा या देशात्मना । इस प्रकार स्वरूप हानि और विकल्पद्वय की अनावृत्ति होने से अनबस्थादोष आता है। अतः यही मानना चाहिये कि सर्व अपने स्वरूप में ही बसते हैं अन्यत्र नहीं । इस प्रकार वसति के दृष्टान्त से यह नय स्वरूप का प्रतिपादन किया।
તા પછી આધારથી ભિન્ન પેાતાના સ્વરૂપથી તેની પ્રતીતિ થઈ શકે જ નહિ જેમ આધાર પર પાથરેલા સસ્તારક વગેરે આધારના સ્વરૂપથી ભિન્ન પેાતાના સ્વરૂપથી પ્રતિભાસિત થતા નથી પણ આધાર સ્વરૂપથી જ પ્રતિભાસિત થાય છે. આ પ્રમાણે દેવદત્ત વગેરે પણ જો સર્વાત્મના ત્યાં રહેશે તે તેએ તદ્ભિન્ન સ્વરૂપથી ઉપલબ્ધ થશે નહિ. પરંતુ આધારસ્વરૂપથી જ ઉપલબ્ધ થઈ શકશે જો દ્વિતીયપક્ષ સ્વીકારવામાં આવે તે એમ માની શકાય કે અન્ય અન્યમાં દેશાત્મના રહી શકે છે. આમ છતાંએ ત્યાં આ જાતના પ્રશ્ન ફરી ઉપસ્થિત થઈ શકે છે કે તે દેશમાં શું તે સર્વાત્મના રહેશે કે દેશામના ? સર્વાત્મના નિવાસ કરવામાં સ્વરૂપ હાનિનેા પ્રસ`ગ ઉપસ્થિત થાય છે. અને દેશસ્વરૂપતાની ખાધા ઉપસ્થિત થાય છે. દેશાત્મના નિવાસ કરવામાં ફરી તે જ પ્રશ્ન ઉપસ્થિત થશે કે ‘તે ત્યાં સર્વાત્મના રહેશે કે દેશાત્મના
આ રીતે સ્વરૂપ હાનિ અને વિકલ્પયની અનતિવૃત્તિ હૈાવામાં અનવસ્થા દોષ ઉપસ્થિત થાય છે. એથી એમજ માની લેવુ' જોઈ એ કે બધાં પેાતાનાં સ્વરૂપમાં જ વસે છે, અન્યત્ર નહિ, આ પ્રમાણે વસતિના દૃષ્ટાંત વડે આ નયસ્વરૂપનું પ્રતિપાદન કરવામાં આવ્યુ છે,
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अनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र २२८ वसतिदृष्टान्तेन नयप्रमाणम् टीका-'से कि त' इत्यादि
अथ कि तद् वसतिदृष्टान्तेन नयपमाणम् ? इति शिष्यप्रश्नः । उत्तरयतिपसतिदृष्टान्तेन नयपमाणमेवं विज्ञेयम्-यथा-स यथानामकः कोऽपि पुरुषः कंचित् पुरुष वदति-पृच्छति-कुत्र त्वं वससि ? इति । तत एवं पृच्छन्तत पुरुषं स पुरुषः अविशुद्धो नया अविशुद्धनै गमनयानुसारी सन् भणति-लोके वसाभीति । एवमुत्तरोत्तरं क्रमेग विशुद्रविशुद्धतरनैगमन यानुसारेण तावन्नेयं
भावार्थ-इस सूत्र द्वारा मूत्रकारने वसति दृष्टान्त द्वारा नय स्वरूप का प्रतिपादन किया है । इसमें यह कहा गया है कि 'तुम कहां रहते हो' ऐसा प्रश्न जय किसीने किसीसे पूछा-तब उसने ऐसा कहा कि 'मैं लोक में रहता हूँ । 'अलोक में रहना संवित नहीं-अतः ऐसा कहना कि मैं लोक में रहता हूं, यह नैगमनय के मतानुसार ठीक है । परन्तु इस प्रकार का समाधान देनेवाला यह बय उचित उत्तर के बहुत दूर होने से अविशुद्ध है । जब उससे यह पूछा जाता है कि-'हे भाई ! तुम लोक में रहते हो तो किस लोक में रहते हो तो वह झट कह देता है कि-'मैं तिर्यकू लोक में रहता हूं। यह भी उसका कथन नैगमनय की मान्यतानुसार ठीक है । इस नय को विशुद्ध इसलिये कहा गया है कि'पहिलेकी मान्यतानुसार यह मान्यता उचित उत्तर के किचित् निकट में
आ गई होती है। इसी प्रकार से आगे २ के उत्तर नैगमनय के विशुद्धतर मत के अनुसार होते जाते हैं। इस प्रकार चलते २ जब
ભાવાર્થ-આ સૂત્રવડે સૂત્રકારે વસતિ દષ્ટાન્તવડે નયસ્વરૂપનું પ્રતિપાદન કર્યું છે આમાં આ જાતની સ્પષ્ટતા કરવામાં આવી છે કે “તમે કયાં રહે છે ?' આ જાતને કેઈએ કેઈને પ્રશ્ન કર્યો. ત્યારે તેણે કહ્યું કે હું લેકમાં २९. छु ' भा २हे समवित नथी, तथा याम ४३
मा રહું છું' આ નૈગમનય મુજબ ગ્ય જ કહેવાય. પરંતુ એક રીતે આ પ્રમાણે સમાધાન આપનાર આ નય ઉચિત ઉત્તર આપનાર ન હોવાથી અવિશુદ્ધ છે. જ્યારે તેને આમ પૂછવામાં આવે છે કે હે ભાઈ! તમે જે લેકમાં રહે છે તે પછી ક્યા લેકમાં રહે છે! ત્યારે તે તરત જ જવાબ આપે છે કે “હું તિય લેકમાં રહું છું. તેનું આ કથન પણ નગમનાય મુજબ ઉચિત જ છે. આ નયને વિશુદ્ધ એટલા માટે કહેવામાં આવેલ છે કે પ્રથમ માન્યતા મુજબ આ માન્યતા ઉત્તરતા ઔચિત્યાંશને પર્શ કરતી દેખાય છે. આ રીતે આ પછીના ઉત્તરે નૈગમનયના વિશુદ્ધતર મત મુજબ
अ०७४
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अनुयोगद्वारसूत्रे यावत् स भगति गर्भगृहे वसामीति । एवं विशुद्धनैगमनयमतानुसारेण गर्भगृहे वसन्नेव वसतीति व्यपदिश्यते । अयं भाषा-विशुदनैगमनयानुसारेण यत्र गृहादी सर्वदा नियापित्वेनासौ विवक्षितस्तत्र तिष्ठन्नेवासौ तत्र तिष्ठतीति
पदिश्यते । यदि च कारणवशादन्यत्र रथयादौ वर्तते, तदा तत्र विवक्षिते गृहादौ वसतीति नोच्यते, अतिप्रसङ्गादिति । एवमेव व्यवहारस्यापि । व्यवहारनयो हि लोकव्यवहारे वर्त्तते । लोकव्यवहारे च नैगमोक्तमकारा एव दृश्यन्ते, अतो नैगमाद् व्यवहारनयोऽपि बोध्य इति भावः । ननु चामनगमोक्तप्रकारो सोके नेष्यते, ग्रामान्तर गतोऽपि देवदत्तः 'अयं पाटलिपुत्रे वसतीति' पाटलि. पुत्रशासित्वेन व्यपदिश्यते, एवं च-'एवमेव व्यवहारस्यापी'-ति कथनमयुक्तम् ? इति चेदाह-प्रामान्तरं गते देवदत्ते स इह वसति न वेति केनचित्पृष्टः कश्चित् कथयति-ग्रामान्तरं गतो देवदत्तो नेह वसतीति । एवं च लोकव्यवहारदर्श नात् एवमेव व्यवहारस्थापि' इति कथनं युक्त मेवेति । संग्रहनयस्य नैगमव्यवहारा. पेक्षया विशुद्धत्वादेतनयानुसारेण संस्तारकपमारूढ =संस्तारकोपविष्ट एव वस. विशुद्धतर नैगमनय की मान्यतानुसार ऐसा कहा जाता कि-मैं गर्भ गृह में रहता हूं। तब नैगमनय की मान्यता समाप्त हो जाती है। यद्यपि यहां पर भी यह प्रश्न हो सकता है कि-'तुम क्या समस्त गर्भगृह में रहते हो या एक कोने में ? तात्पर्य कहने का यह है जि-'जितने भी उत्तर के प्रकार इस सूत्र द्वारा स्पष्ट किये गये हैं, वे सब नामनय के स्वरूप पर अच्छा प्रकार डालते हैं। इससे नेगमनय का स्वरूप क्या है ? यह बात अच्छी प्रकार से हमें समझ में आ जाती है। व्यवहार नय की भी मान्यता वसति के संबन्ध में नैगमनय के ही जैसी है। क्योंकि यह नय लोकव्यवहार के अनुमार चलता है। सग्रहनय की मान्यतानुसार वसति शब्द का प्रयोग गर्भगृह आदि में रहने સ્પષ્ટ થતા જાય છે. આ પ્રમાણે જ્યારે વિશુદ્ધતરનગમનયની માન્યતા મુજબ આમ કહેવામાં આવે છે કે “હું ગર્ભગૃહમાં રહું છું ત્યારે નિગમનની માન્યતા સમાપ્ત થઈ જાય છે. જો કે અહીં પણ આ પ્રશ્ન ઉપસ્થિત થઈ શકે તેમ છે કે “શું તમે આખા ગર્ભગૃહમાં રહે છે કે એક ખૂણામાં રહે છે?” તાત્પર્ય કહેવાનું આ પ્રમાણે છે કે જેટલા ઉત્તરોના પ્રકારો આ સૂત્ર વડે સ્પષ્ટ કરવામાં આવેલા છે, તે સર્વે નૈગમનયન સ્વરૂપ વિષે સારો એવો પ્રકાશ પાડે છે. આથી ને બમનયનું સ્વરૂપ કેવું છે. તે વાત અમારી સામે સારી રીતે સ્પષ્ટ થઈ જાય છે વ્યવહારનયની પણ માન્યતા વસતિના સંબંધમાં નિગમનની જેમ જ છે. કેમકે આ નય લેકવ્યવહાર મુજબ જ ચાલે છે, સંગ્રહાયની માન્યતા મુજબ વસતિ શબ્દને પ્રયોગ ગર્ભગૃહ
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अनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र २२८ वसतिदृष्टान्तेन नयप्रमाणम् तीति व्या देवते, न तु संसारकादन्यत्र गृहादौ तिष्ठन्नपि । अयं भावःसंस्तारकादन्यत्र निवासार्थो न संगच्छते, चलनादिक्रियावचात् मार्गादिप्रवृत्त वत् । एवं चैतन्मतेन संस्तारके बसती गृहादौ वसतीति व्यपदेशो न भवति, अतिप्रसङ्गात् । ततश्च कासौ वसतीति निवासजिज्ञासायां संस्तारके वसतीति' एवमेवेतन्मतमाश्रित्योच्यते, न तु गृहादो वप्ततीत्यादि। संस्तारकश्च भिन्नभिन्नगतो. ऽनेकोऽप्यत्रैकत्वेन विवक्षितः, संग्रहस्य सामान्यग्राहकत्वादिति भावः । ऋजु. मूत्रस्य ऋजुमूत्रमतानुसारेण येषु आकाशप्रदेशेषु स जनोऽवगाढा अवगाहनायुक्तो भवति तेष्वाकाशपदेशेष्वेव स वसति । स च वासो वर्तमानकाल एवं भवति, नत्वतीतानागतकालयोः, विनष्टानुत्पन्नत्वेन तयोरेतन्मतेऽसत्वादिति । तथा त्रयाणां शब्दनानां शब्दसमभिरूढवभूतानां मते सर्वोऽपि जनः आत्मभावे स्वस्वरूपे वसति अन्यान्यत्र वृत्तेसंबन्धात् । अन्यो यद्यन्यत्रापि वर्तत के अर्थ में नहीं हो सकता है क्योंकि वसति शब्द का अर्थ निवास है है और यह निवासरूप अर्थ संस्तारक पर आरूढ होने पर ही घटित होता है-गृहादिक में ठहरने पर नहीं । ऋजुसूत्र नय की मान्यतानुसार संस्तारक पर आरूढ होने पर वसति शब्द का अर्थ घटित नहीं होता है। क्योंकि यह नय वर्तमान समय को ग्रहण करता है-इसलिये वर्त मान क्षण में जिन आकाश प्रदेशों में वह रह रहा है वही वसति शब्द का अर्थ है ऐसा जानना चाहिये । शब्दसमभिरूढ और एवंभूत इन तीन नयों की मान्यतानुसार आकाशप्रदेशों में रहना यह वसति शब्द का अर्थ नहीं हो सकता है क्योंकि आकाशप्रदेश परद्रव्य है। परद्रव्य में कोई भी द्रव्य नहीं रह सकता है। इसलिये प्रत्येक द्रव्य વગેરેમાં રહેવાનો અર્થમાં થઈ શકે તેમ નથી કેમકે વસતિ શબ્દનો અર્થ નિવાસ છે અને આ નિવાસરૂપ અર્થ સંસ્મારક પર આરૂઢ થયા પછી જ ઘટિત થઈ શકે છે. ચૂડાદિકમાં રહેવાથી નહિ. બાજુનની માન્યતા મુજબ સંસ્મારક ઉપર આરૂઢ થવાથી વસતિ શબ્દનો અર્થ ઘટિત થતું નથી. કેમકે આ નય વર્તમાન સમયને જ ગ્રહણ કરે છે. એટલા માટે વર્તમાન ક્ષણમાં જે આકાશપ્રદેશોમાં તે નિવાસ કરી રહેલ છે, તેજ વસતિ શબ્દને અર્થ છે. આમ જાણવું જોઈએ. શબ્દસમમિરૂઢ અને અવંભૂત આ ત્રણે ત્રણ નાની માન્યતા મુજબ આકાશ પ્રદેશમાં રહેવું આ વસતિ શબ્દનો અર્થ થાય નહિ કેમકે આકાશપ્રદેશ ઉપર દ્રવ્યો છે. પરદ્રવ્યમાં કોઈપણ દ્રવ્ય સંભવી
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अनुयागद्वारसूत्र वहि स कितत्र सर्वात्मना वर्तेत ? उत देशात्मना ?, यदि सर्वात्मना वर्तेत तदाऽऽधारभिन्नस्वकीयरूपेण स न प्रतिमासेत । यथा-आधारे आस्तृतः संस्तारकादिराधारस्वरूपमिनस्वस्वरूपेण न प्रतिभासते किन्तु आधारस्वरूपेणैव भासते । एवं देवदत्तादिरपि सर्वात्मना तबाधीयानस्तद्भिनस्वस्वरूपेण नोपलभ्येत । अथ यदि द्वितीयः पक्षः स्त्रक्रियेत तर्हि अयोऽन्यत्र देशात्मना तिष्ठेत् । तत्र देशे ऽपि स किं सर्वात्मना तिष्ठेत उत देशात्मना ?, सर्वात्मना यदि तिष्ठेत्तदा तस्य स्वस्वरूपहानिर्देशस्वरूपतापत्तिश्च संजायेत । यदि देशात्मना तिष्ठेत् तदा पुनः स एव प्रश्न आपद्येत-किं स सर्वात्मना निष्ठेत् , किं वा देशात्मना ? सर्वात्मपक्षे पूरोक्त एप दोषः । देशात्मपक्षे पुनस्तदेव विकलाद्वयम् । इत्थं विरामाभावादनवस्था प्रसज्ज्येत, अतः सोऽपि स्वस्वभाव एव निवसति नान्यत्रेति मन्तव्य. मिति । प्रकृतमुपसंहरबाह-तदेतद् वसतिदृष्टान्तेनेति ॥० २२८॥
अथ प्रदेशदृष्टान्तेन नयप्रमाणं निरूपयति
मूलम्-से किं तं पएसदिटुंतेणं? पएसदिटुंतेणं--णेगमो भणइ-छाहं पएसो, तं जहा-धम्मपएसो अधम्मपएसो आगासपएसो जीवपएसो खंधपएसो देसपएसो। एवं वयं णेगमं संगहो भणइ-जं भणसि-छह पएसो तं न भवइ, कम्हा? जम्हा जो देसपएसो सो तस्तेव दव्वस्त जहा को दिर्सेतो? दाप्लेण मे खरो कीओ दासोऽवि मे खरोऽवि मे, तं मा भणाहि. 'छण्हं पएसो', भणाहि-पंधण्हं पएसो', तं जहा-धम्मपएसो अधम्मपएसो आगासपएसो जीवपएसो खंधपएसो। एवं वयंतं संगहं ववहारो भगइ-जं भणसि-पंचण्हं पएसो, तं न भवइ, अपने २ आत्मस्वरूप में निवास करता है, यह वप्तति शब्द का अर्थ इन तीन नयों की मान्यतानुसार है । इस प्रकार से वसति दृष्टान्त को लेकर सूत्रकारने नयस्वरूप का प्रतिपादन किया है। सू०२२८॥ શકે જ નહિ. એથી દરેકે દરેક દ્રવ્ય પિતાના આત્મસ્વરૂપથી નિવાસ કરે છે, આ વસતિ શબ્દનો અર્થ આ ત્રણ નાની માન્યતાનુસાર છે. આ પ્રમાણે વસતિદષ્ટાન્તને લઈને સરકારે નયસ્વરૂપનું પ્રતિપાદન કર્યું છે. સૂ ૨૨૮
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अनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र २२९ प्रदेशदृष्टान्तेन नयप्रमाणम् ५८९ कम्हा? जइ जहा पंचण्हं गोटियाणं पुरिसाणं केइ दव्वजाए सामण्णे भवइ, तं जहा-हिरणे वा सुवण्णे वा धणे वा धण्णे वा, तं न ते जुत्तं वत्तुं जहा पंचण्हं पएलो, तं मा भणिहिपंचण्हं पएसो, भणाहि-पंचविहो पएसो, तं जहा-धम्मपएसो अधम्मपएसो आगासपएसो जीवपएसो खंधपएसो। एवं वयंतं ववहारं उज्जुसुओभणइ-जं भणसि-पंचविहो पएसो, तेन भवइ, कम्हा ? जइ ते पंचविहो पएसो, एवं ते एकेको पएसो पंचविहो, एवं ते पणवीसइविहो पएसो भवइ, तं मा भणहि-पंचविहो पएसो, भणाहि-भइयवोपएसो-सियधम्मपएसोसिय अधम्मपएसो सिय आगासपएसो सिय जीवपषसो सिय खंधपएसो। एवं वयंतं उज्जुसुयं संपइ सदनओ भणइ-जं भणसि भइयव्यो पएसो, तं न भवइ,कम्हा? जइ भइयवो पएसो, एवं ते धम्मपएसोऽविसिय धम्मपएसोसिय अधम्मोपएसोसिय आगासपएसो सिय जीवपएसोसिय खंधपएसो, अधम्मपएसोऽवि-सिय धम्मपएसो जाव सिय खंध पएसो, आगासपएसोवि-सिय धम्म. पएसो जाव सिय खंधपएसो, जीवपएसोऽवि-सिय धम्मपएसो जाव सिय खंधपएसो, खंधपएसोऽवि-सिय धम्मपएसो जाव सिय खंधपएसो, एवं ते अगवस्था भविस्सइ, तं मा भणाहिभइयवो पएसो, भणाहि-धम्मे पएसे धम्मे, अहम्मे पएसे से पएसे अहम्मे, आगासे पएसे से पएसे आगासे, जीवे पएसे से पएसे नो जीवे, खंधे पएसे से पएसे नो खंधे। एवं
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अनुयोगद्वारसूत्र वयं सदनयं समभिरूढो भणइ-जं भणसि-धम्मे पएसे से पएसे धम्मे, जाव जीवे पएसे से पएसे नो जीवे, खंधे पएसे से पएसे नो खंधे, तं न भवइ, कम्हा ? इत्थं खलु दो समासा भवंति, तं जहा-तत्पुरिसे य कम्मधारए य । तं ण णजइ कयरेणं समाणेणं भणसि? किं तप्पुरिसेणं किं कम्मधारएणं? जइ तत्पुरिसेणं भगसि तो मा एवं भगाहि। अह कम्मधारएणं भगसि, तो विसेसओ भणाहि-धम्मे य से पएसे य से पएसे धम्मे, अहम् य से पएसे य से पएसे अहम्मे, आगासे य से पएसे य से पएसे आगाले, जीवे य से पएसे य से पएसे नो जीवे, खंधे य से पएसे य से परसे नो खंधे। एवं वयं समभिरूढं संपइ एवंभूओ भगइ-जं जं भणसि तं तं स कलिणं पडि पुराणं निरवसेसं एगगहणगहियं । देसेऽवि मे अवस्थू, पएसे. ऽवि मे अवत्थू।से तं पएसदिटुंतेणं। से तं नयप्पमाणे॥सू० २२९॥
छाया-अथ किं तत् प्रदेशदृष्टान्तेन ? प्रदेशदृष्टान्तेन-नैगमो भगतिषण्णां प्रदेशः, तयधा-धर्मपदेशः अधर्मपदेशः आकारापदेशः जीवप्रदेशः स्कन्धप्रदेशः देशपदेशः। एवं गदन्तं नेगमं संघहो भगति, यद् भगसि-पण्णां प्रदेशः, त न भाति, कस्मात् ? यस्माद् यो देवपदेशः स तस्यैव द्रव्यय, यथा को दृष्टान्तः ?, दासेन मम खरः क्रीतो दामोऽपि मम ज्वरोऽपि मम, तन्मा भण षणां पदेशः, भग पश्चानां प्रदेशः, तद्यथा-धर्मपदेशः अधर्म प्रदेशः आकाशपदेशो जीवपदेशः, स्कन्धपदेशः । एवं वदन्तं संग्रह व्यवहारो भगति, यद् भणसि, पश्चानां प्रदेशः, तद् न भवति, कस्मात् ? यदि यथा पञ्चानां गोष्ठिकानां पुरु. षाणां किश्चिद् द्रव्यमान सामान्यं भवति, तद्यथा-हिरण्यं वा सुवर्ण वा धनं वा धान्यंगा, तन्न ते युक्तं वक्तुं यथा पश्चानां प्रदेशः, तन्मा भण-पञ्चानां प्रदेशः,
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अनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र २२९ प्रदेशदृष्टान्तेन नयप्रमाणम् भण पञ्चविधः प्रदेशः, तद्यवा-धर्मपदेशः अधर्मप्रदेशः आकाशपदेशो जीवमदेशः स्कन्धमदेशः । एवं वदन्तं व्यवहारम् ऋजुसूत्रो भगति, यद् भणसि पञ्चविधः प्रदेशः, तद् न भवति, कस्मात् ?, यदि ते पञ्चविधः प्रदेशः, एवं ते एकैकः प्रदेशः पञ्चविधः, एवं ते पञ्चविंशतिविधः पदेशो भवति, तद् मा भग-पञ्चविधः प्रदेशः मण भक्तवः प्रदेशः स्याद् धर्मपदेशः स्यात् अधर्मप्रदेशः स्यात् आकाशप्रदेशः, स्वाद जीवपदेशः स्यात् स्कन्धपदेशः । एवं वदन्त ऋजुमूत्रं सम्पति शब्दनयो भगति यद् भणसि - भक्तपः पदेशः, तद् न भवति कस्मात् ? यदि भक्तयः प्रदेशः, एवं ते धर्मपदेशोऽपि स्याद् धर्मपदेशः स्यात् अधर्मप्रदेशः स्यात् आकाश प्रदेशः, स्थात् जीव प्रदेशः स्यात् स्कन्धपदेशः । अधर्मप्रदेोऽपि स्यात् धर्मपदेशः, यावत् स्थान स्कन्धप्रदेशः आदेशोऽपि स्थाद धर्म |देश यावत् स्यात् स्कन्धप्रदेशः देशोऽदि-हयाद धर्मप्रदेशो यावत् स्वदेशः स्कन्ध देशोऽपि स्याद् धर्म देश यावत् स्यात् स्कन्धपदेशः, एवं ते अनवस्था भविष्यति, तन्मा भण भक्तव्यः प्रदेशः, भण-'धम्मे परसे से सेम्मे धर्मपदेशः स प्रदेशो धर्मः 'अहम्मे परसे से परसे अहम्मे' अधर्मः प्रदेशः स प्रदेशोऽधर्मः 'आगा से परसे से पए से आगासे' आकाशः प्रदेशः स प्रदेश आकाशः, 'जीवे परसे से पएसे नो जीवे' जीवः प्रदेशः स प्रदेशो नो जीवः, 'खंधे परसे से पएसे नो खंधे' स्कन्धः प्रदेशः स प्रदेशो नो स्कन्धः । एवं वदन् शब्दन समभिरूढो भगति यद् भणसि - धम्मे परसे से पए से धम्मे जाव जीवे पए से परसे नो जी, खंधे परसे से पए से नो खंधे' धर्मे प्रदेशः स प्रदेशो धर्मः - धर्मः प्रदेशः स प्रदेशो धर्मः, यावत् जीवे प्रदेशः स प्रदेशी नो जीवः -- जीवः प्रदेशः स प्रदेशो नो जीवः, स्कन्धे प्रदेशः स प्रदेशो नो स्कन्धः - स्कन्धः प्रदेशः स प्रदेशो नो स्कन्धः, तद् न भवति, कस्मात् ? अत्र खलु द्वौ समासौ भवतः, तथा तत्पुरुषच कर्मधारयश्च तद् न ज्ञायते कतरेण समासेन भणसि ? किं तत्पुरुषेण किं कर्मधारयेण ? यदि तत्पुरुषेण भणसि तर्हि मा एवं भण । अथ कर्मधारयेण भणसि तर्हि विशेषतो भण 'धम्मे य से पए से य से पसे धम्मे' धर्मश्च स प्रदेशश्च स प्रदेशो धर्मः, 'अहम्मे य से पसे य से परसे अहम्' अधर्मश्व स प्रदेशश्च स प्रदेशोऽधर्मः, 'आगासे य से परमे य से पए से आगासे' आकाशव स प्रदेशश्च स प्रदेश आकाशः 'जीवे य से पए से य से पए से नो जीवे' जीवश्च स प्रदेशश्च स प्रदेशो नो जीवः 'खंधे य से परसे य से पसे नो वे' स्कन्धश्च स प्रदेशश्च स प्रदेशो न स्यः । ' एवं वदन्तं समभिरूतं सम्प्रति एवंभूतो मणति यद् यद् भणसि तत् सर्वं कृत्स्नं प्रतिपूर्ण निरवशेषम् एक ग्रहणगृहीतम् । देशेऽपि मे अवस्तु प्रदेशेऽपि मे अवस्तु । तदेतरम देशष्टान्तेन । तदेतद् नेयममाणम् ||० २२९ ॥
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अनुयोगद्वारसूत्र टीका-'से कि त' इत्यादि
अथ किं तत् प्रदेशष्टान्तेन नयप्रमाणम् ? इति शिष्यप्रश्नः। उत्तरयति-प्रदेश दृष्टान्तेन-प्रकृष्टो देशः प्रदेशा-निर्षिभागो भागः, स एव दृष्टान्तस्तेन नय. भमाणमेवं विज्ञेयम्-नैगमनयो भणति-पण्णां प्रदेशः, तद्यथा-धर्मप्रदेशः, अधर्मप्रदेशः आकाशप्रदेशः, जीवप्रदेशः, स्कन्धप्रदेशः, देशपदेश इति । अत्र धर्मशब्देन धर्मास्तिकायो विवक्ष्यते तस्य प्रदेशो धर्मप्रदेशः । एवमधर्माकाशजीवशरैरपि अस्तिकायविशिष्टा अवर्मा काश नीया विवक्षिताः । तथा स्कन्धः पुद्गलद्रव्यसमूहसार प्रदेशः-स्कन्धप्रदेशः । देश: उपरिनिर्दिष्टानां धर्मास्तिकायाः __ अब सूत्रकार प्रदेश दृष्टान्त से नय के स्वरूप का प्रतिपादन करते हैं-'से किं तं पएसदिलुतेणं ?' इत्यादि।
शब्दार्थ--(से कितपएसदिहतेणं) हे भदन्त ! प्रदेशदृष्टान्त से नय के स्वरूप का प्रतिपादन किस प्रकार से है ?
उत्तर--(पएसदिलुतेणं) प्रदेशरूप दृष्टान्त से नपके स्वरूप का प्रतिपादन इस प्रकार होता है-(णेगमो भणइ) नैगमनय कहता है (छण्हं पएसा) कि छह द्रव्यों का प्रदेश है-(तं जहा) जैसे-(धम्मपएसो, अधम्मपएमो आगासपएसो, जीवपरसो, खंधपएसो, देसपएसो,) धर्मास्तिकाय का प्रदेश, अधर्मास्तिकाय का प्रदेश, आकाशास्तिकाय का प्रदेश, जीवास्तिकाय का प्रदेश, स्कंध प्रदेश और देश प्रदेश । प्रकृष्ट देश का नाम प्रदेश है । अर्थात् जिसका दूसरा विभाग न हो सके ऐसा जो भाग है वह प्रदेश है । पुद्गल द्रव्य के समूह का नाम
હવે સૂત્રકાર પ્રદેશ દષ્ટાન્તથી નય-સ્વરૂપનું પ્રતિપાદન કરે છે– 'से कि तं पएसदिदंतेण १' ।
शपथ-(से कि त पएसदिद्ववेणं) है मत ! प्रदेश तथा નયના સ્વરૂપનું પ્રતિપાદન કેવી રીતે થાય છે ?
उत्तर - (पएसदिट्टतेण) प्र. ३५ दृष्टान्तथी नयना २१३५नु प्रति पाहन मारीत थाय छ, (णेगमो भणइ) नैरामनय ४९ छे. (छण्हं पएसा)
द्रव्याता प्रदेश (तंजहा) मई (धम्मपएसो, अधम्मपएसो, आगासपरसो, जीव एसो, खंधपएसो, देसपएसो) धातिय प्रदेश, मस्तिय प्रदेश, આકાશાસ્તિકય પ્રદેશ, છતિકાય પ્રદેશ, કંધ પ્રદેશ અને દેશ પ્રદેશ, પ્રકૃષ્ટ દેશનું નામ પ્રદેશ છે. એટલે કે જેનું બીજી કોઈ પણ રીતે વિભાજન થાય નહિ, એ જે ભાગ છે, તે પ્રદેશ છે. પુદગલ દ્રવ્યના સમૂહનું નામ
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अनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र २२९ प्रदेशदृष्टान्तेन नयप्रमाणम् दीनां पञ्चानां प्रदेशद्वयादिनिष्पन्नः, तस्य प्रदेशो देशपदेश इति । धर्मास्तिकाया. दिषु प्रदेशस्य सामान्येन सत्वात् षण्णां प्रदेश इत्युक्तम् । विशेषविवक्षायां तु षट् प्रदेशा इति वक्तव्यम् । एवं वदन्त नैगमं ततो निपुणः संग्रहनयो भणति, यत् भणसि-पण्णां प्रदेश इति, तन्न भवतिनन्न युज्यते । कस्मात्तन्न युज्यते ।
स्कंध है इस स्कन्ध का जो प्रदेश है स्कंधप्रदेश है । धर्मास्तिकायादिक इन पांच द्रव्यों के दो आदि प्रदेशों से जो निष्पन्न होता है, उसका नाम देश है। इस देश का जो प्रदेश है, वह देशप्रदेश है। धर्मास्ति. कायादिकों में सामान्य रूप से प्रदेश की सत्ता रहती है इसलिये षण्णा पदेशः' ऐमा नैगमनय ने कहा हैं । और जब विशेष विवक्षा होती हैसब वही नैगमनय षण्णां प्रदेशाः' षट् प्रदेशाः' ऐसा बहुवचनान्त प्रयोग भी करता है। तात्पर्य कहने का यह है कि-'नैगमनय सामान्य और विशेष इन दोनों को ग्रहण करनेवाला होता है। अतः जब धर्मास्ति. कायादिक द्रव्यों में प्रदेश सामान्य की विवक्षा से प्रदेश व्यवस्था की जाती है, तब नेगम नय षट् प्रदेश शब्द का समास 'षण्णां प्रदेशः षट् प्रदेशः' ऐसा एकवचनान्त शब्द परक करता है और जब प्रदेश विशेष विवक्षा की जाती है, तब 'षण्णां प्रदेशाः प्रप्रदेशाः, ऐसा बहुवचनान्त शब्द परक करता है। (एवं वयं णेगम संगहो भणइ) नैगमनप के इस कथन को सुनकर निपुण संग्रहनय ने उससे સ્કંધ છે. આ કથને જે પ્રદેશ છે તે સ્કંધ પ્રદેશ છે. ધર્માસ્તિકાયાદિક આ પાંચ દ્રવ્યના બે વગેરે પ્રદેશોથી જે નિષ્પન થાય છે, તે દેશ કહેવાય છે. આ દેશને જે પ્રદેશ છે, તે દેશ પ્રદેશ છે. ધર્માસ્તિકાયાદિકોમાં સામાન્યરૂપથી प्रशनी सत्ता २७ छ, मेथी "अण्णां प्रदेशः' मा नरामनये युछे. सन क्यारे विशेष विषक्षा डाय छे, त्यारे तनामनय "पण्णां प्रदेशाः षट् प्रदेशाः" એ બહુવચનાન્ત પ્રયોગ કરે છે, તાત્પર્ય આ પ્રમાણે છે કે
ગમનય સામાન્ય અને વિશેષ એ બંનેને ગ્રહણ કરનાર હોય છે, એથી જ્યારે ધર્માસ્તિકાયાદિક દ્રવ્યોમાં પ્રદેશસામાન્યની વિવક્ષાથી પ્રદેશવ્યવસ્થા ४२५मा आवे छे, त्यारे नेशमानय पट प्रशन। समास “षण्णां प्रदेशः षट् प्रदेशः" भाम मे क्यनान्त ५६ ५२४ ४२ . भने न्यारे प्रदेश विशेषना (११क्षा ४२वामां आवे छे, त्यारे "पण्णां प्रदेशाः षट् प्रदेशाः" माम मक्य. नान्त श६ ५२४ ४२१ामां आवे छे. (एवं वयं णेगम संगहो भणइ) नशमनयना मा पनने सामान निपुण सनये तने बु. (ज भणसि
अ० ७५
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अनुयोगद्वारसूत्रे इत्याह-'जम्हा' इत्यादि-यस्मात् यो देशपदेशः स तस्यैव द्रा । अयं भावःयो देशप्रदेशो भवता षष्ठस्थाने उक्तः, स न युज्यते, यतो देशो धर्मास्तिकायादीनां पदेशद्वयादिना निष्पन्न एवोच्यते तस्य प्रदेशस्तु धर्मप्रदेशादि सम्बन्धी एवेति । अत्र कोऽपि दृष्टान्तोऽस्ति ? इति जिज्ञासायामाह-यथा दासेन मे खरः क्रीतो दासोऽसि मे खरोऽपि मे, इति लोके व्यवहियते । दासस्य मदधीनत्वात्तत्क्रीत: खरोऽपि मत्सम्बन्धिक एवेत्यर्थः । एवमेव अत्रापि देशस्य धर्मास्तिकायादिसम्ब कहा- भईस-छणं पएसो तं न भवइ-कम्हा जम्हा जो देसपरसो सो तस्लेव दक्षस्स) हे नैगमनय । जो तुम षण्णां प्रदेशः' ऐसा कहते हो, वह नहीं बनता है। क्योंकि देश का जो प्रदेश है, वह उसी द्रव्य का है। तात्पर्य कहने का यह है कि-'जो देश प्रदेश छठे स्थान में कहा गया है, वह स्वतंत्ररूप से ठहरता नहीं है-- क्योंकि जो देश है, वह धर्मास्तिकायादिकों के प्रदेशद्वय आदि से निष्पन्न हुआ ही तो माना जाता है। अतः जो देश का प्रदेश होगा-वह धर्मास्तिकायादि प्रदेशों का संबन्धी ही होगा। (जहा कोदिटुंनो-दासेण मे खरो कीओ दासो वि मे खरो वि मे) जैसे किसी के नौकर ने गधा खरीदा तब उसने कहा नौकर भी मेरा है और गधा भी मेरा है । इमका भाव यह है कि-दाम जब मेरे आधीन है. नव उम के द्वारा खरीदा हुभा गधा भी मेरा ही है। ऐसा जब लोक में दावहार देखा जाता है-तब धर्मास्तिका. -छण्णं पएसो तं न भवइ कम्हा जम्हा जो देसपएसो सो तस्सेव दव्वस्स) उनभनय ! न त “षण्णां प्रदेशः'' आम ४ छो, तेथित नथी, म દેશને જે પ્રદેશ છે, તે તેજ દ્રવ્યથી સંબદ્ધ છે. તાત્પર્ય કહેવાનું આ પ્રમાણે છે, કે જે દેશ પ્રદેશ છઠ્ઠા સ્થાનમાં કહેવાયેલ છે, તે સ્વતંત્ર રૂપથી વિદ્યમાન છે એમ નથી કેમકે જે દેશ છે, તે ધર્માસ્તિકાયાદિકોના પ્રદેશદ્વય આદિથી નિષ્પન્ન થયેલ છેઆમ માનવામાં આવશે એથી જે દેશનો પ્રદેશ થશે તે
मस्तिया प्रशोथी समद्ध शे. १ जहा को दिर्सेतो-दासेण मे खरो कोओ दासो वि मे खरे। वि मे) २भ ओछन हासे गधेडयातु की ત્યારે તેના સ્વામીએ કહ્યું. “નેકર પણ મારે છે અને ગધેડું પણ મારૂં છે. આને ભાવ આ પ્રમાણે છે કે “દાસ જ્યારે મારી અધીનતામાં રહે છે, ત્યારે તેણે ખરીદેલું ગધેડું પણ મારું જ છે. આ જાતની વ્યવહાર પદ્ધતિ જ્યારે લેકમાં પ્રચલિત છે, ત્યારે ધમસ્તિકાયાદિકના પ્રદેશદ્વય આદિથી નિપન્ન દેશને પ્રદેશ
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अनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र २२९ प्रदेशदृष्टान्तेन नयप्रमाणम् ५९५ न्धिकस्य देशमदेशोऽपि तत्संबन्धिक एवेति भावः । तत्-तस्माद् हेतोः माभणपण्णां प्रदेश इति, अपि तु पश्चानां प्रदेश इति भण । पश्चानां प्रदेशो यथाधर्मप्रदेशः अधर्मपदेशः आकाशपदेशो जीवप्रदेशः स्कन्धप्रदेश इति । अत्रेदं बोध्यम्-आन्तरद्रव्ये सामान्यायाश्रित्याविशुद्धः संग्रहनय एवं धर्मास्तिकाया. दीनि पश्चद्रव्याणि तत्प्रदेशांश्च मनुते । विशुद्रस्तु संग्रहनयो द्रव्यबाहुल्यं प्रदेश कल्पनां च न स्वीकरोति, अपि तु वस्तुत्वेन सर्वाश्यप्येकत्वेनैव सीकरोतीति । यादिकों के प्रदेश द्वय आदि से निष्पन्न देश का प्रदेश भी धर्मास्तिकायादिक का संबन्धी ही होगा-स्वतन्त्र नहीं- (तं मा भणाहि छण्णं पएसो भणाहि पंचण्हं पएसो) इसलिये तुम ऐसा मत कहो कि षण्णां प्रदेश:-षटू प्रदेशः'। किन्तु ऐसा कहो 'पश्चानां प्रदेशा-पञ्च प्रदेशः । (तं जहा) जैसे (धम्मपएसो, अधम्मपएसो, आगासपएसो, जीवपएसा, खच पएसो) धर्मप्रदेश, अधर्मप्रदेश, आकाशप्रदेश, जीव प्रदेश स्कन्धप्रदेश । यहां इस प्रकार से समझना चाहिये । कि अवान्तर द्रव्य में सामान्य आदि को आश्रित करके अविशुद्ध संग्रहनय ही धर्मास्तिकायादिक पांचद्रव्यों को और उनके प्रदेशों को मानता है। परन्तु जो विशुद्ध संग्रहनय है, वह द्रव्यबाहुल्य और प्रदेशकल्पना को नहीं मानता है। वह तो ऐसा मानता है धर्मास्तिकायादिक सप द्रव्य एक वस्तुस्व सामान्य की अपेक्षा से एक ही हैं । तात्पर्य कहने का यह है-कि संग्रहनय के दो भेद हैं । एक विशुद्ध संग्रहनय और दूसरा अविशुद्ध संग्रहनय। इनमें जो अविशुद्ध संग्रहनय है, वह ५५ स्वतत्र न ५२'तु स्तियाहिनी. साथे ४. सन थरी (तं मा भणाहि छगं पएसो, भणाहि पंचण्हं पएसो) मेथी तभे आयु न "पण्णां प्रदेशः" ५२ माम ही है 'पञ्चानां प्रदेशः पञ्चप्रदेशः' (तंजहा) २ (धम्मपएमो अधम्मपएसो, आगासपएसो, जीवपएसो, खंधपएसो) धम प्रदेश, मधम प्रदेश, माशप्रदेश, प्रदेश, २४५प्रदेश. मही એવી રીતે સમજવું જોઈએ કે અવાર દ્રવ્યમાં સામાન્ય આદિના આશ્રિત અવિશુદ્ધ સંગ્રહનય જ ધર્માસ્તિકાયાદિક પાંચે પાંચ દ્રવ્યોને અને તેમના પ્રદેશને માને છે. પરંતુ જે વિશુદ્ધ સંગ્રહનય છે, તે દ્રવ્ય બાહુલ્ય અને પ્રદેશ કલ્પનાને માનતા નથી. તેની માન્યતા આ પ્રમાણે છે કે ધર્માસ્તિકાયાદિક સર્વ દ્રવ્ય એક વસ્તુ સામાન્યની અપેક્ષાએ એક જ છે. તાત્પર્ય આ પ્રમાણે છે કે “સંગ્રહનયના બે પ્રકારે છે. વિશુદ્ધ સંગ્રહનય અને અવિશુદ્ધ સંગ્રહાય, આમાં જે અવિશુદ્ધ સંગ્રહનય છે, તે અવાન્તર સામાન્ય રૂપ અપર સત્તાને
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अनुयोगद्वारसूत्र एवं वदन्तं संग्रहनयं ततोऽपि निपुणो व्यवहारनयो भगति-यत्वं भणसि, पश्चानां प्रदेश इति, तन युज्यते । कस्मात् ? यथा पञ्चानां गोष्ठिकपुरुषाणां किमपि द्रव्यजातं सामान्यम्-अमिन्नं भवति, यथा हिरण्यं वा सुवर्ण वा धनं वा धान्य वेति, तत्-स्मात् न ते वक्तुं युक्तं यथा पश्चानां प्रदेश इति । अयं भाव:अवान्तर सामान्यरूप अपरसत्ता को विषय करता है और जो विशुद्ध संग्रहनय है वह परसत्ता रूप महा सामान्य को विषय करता है। अवान्तर सामान्य अनेक प्रकार का होता है
और महासामान्य केवल एक ही रूप होता है। इसलिये अवान्तर सामान्य को ग्रहण करनेवाला जो अविशुद्ध संग्रहनय है, उसकी दृष्टि में छह का प्रदेश षट् प्रदेश ऐसा कथन संगत नहीं होता है क्योंकि छठा देश प्रदेश धर्मास्तिकायादिकों के प्रदेशरूप ही पडता है स्वतन्त्र नहीं। एवं वयंतं संगहं ववहारो भाइ ज भणसि-पंचण्हं पएसा तं न भगइ, कम्हा जइ जहा पंचण्हं गोहियाणं पुरिमाणं केहदव्वजाए समण्णे भवइ) इस प्रकार कहनेवाले संग्रहनय से व्यवहार नय ने कहा कि जो तुम पंचानां प्रदेशः' ऐसा कहते हो, वह बनता नहीं है। क्योंकि पांच गोष्ठिक पुरुषों का काई द्रव्य जात सामान्य होता है-(तं जहा) जैसे (हिरणे वा सुवण्णे वा धणे वा धण्णे वा) हिरण्य, सवर्ण, धन अथवा धान्य। (तं न ते जुत्तं वत्तुं जहा पंचण्हं पएसो) इस लिये तुम्हे ऐसा बोलना कि 'पंचानां प्रदेशः' यह युक्त नहीं है। વિષય બનાવે છે અને જે વિશુદ્ધ સંગ્રેડ નય છે, તે પર સત્તા રૂપ મહાસામાન્યતે વિષય બનાવે છે. અવાનર સામાન્યના ઘણા પ્રકારે છે. અને મહા સામાન્યનું ફક્ત એક જ રૂપ હોય છે. એથી અવાત્ર સામાન્યને બહણ કરનાર જે અવિશુદ્ધ સંગ્રહાય છે, તેની દષ્ટિએ છને પ્રદેશ ષષ્ટ્ર પ્રદેશ આ જાતનું કથન ઉચિત નથી કેમકે છો દેશ પ્રદેશ ધર્માસ્તિકાયાદિકોને પ્રદેશ રૂપ જ डाय छ, स्वतंत्र नलि. (एवं क्यंत संगहं ववहारो भणइ, जं भणसि-पंचण्हं परसो तं न भगइ, कहा जई जहा पंवण्हं गो द्रुयाणं पुरिसाणं केइ दव्यज्जाए समण्णे भवइ) मा प्रमाणे ना२१ सयडयने त्यारे प्यारनये युने तमे "पंचानां प्रदेशः" भाभ छ। ते ते योग्य नथी. भ. पाय जो पुरुषाने ही द्रव्यात सामान्य डाय छे. (तं जहा) २ (हिरण्णे वा सुवण्णे वा धणेवो धण्णे वा) रिश्य, सुवर्थ, धन भया धान्य, (तं न ते जुत्तं वत्तुं जहा पंचण्ह पएसो) भेटमा भाटे तमारे भाउन्ने "पंचानां प्रदेशः"
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अनुयोगन्द्रिका टीका सूत्र २२९ प्रदेशदृष्टान्तेन नयप्रमाणम् यथा पश्चानां गोष्ठिकपुरुषाणां हिरण्यमुवर्णादिकं सामान्यं भवति, ययेवं पञ्चानां धर्मास्तिकायादिद्रव्याणां कश्चित् सामान्यप्रदेशः स्यात् तदा शक्यते वक्तुं पश्चानां पदेश इति, न चैवमस्ति, प्रतिद्रव्यं प्रदेशभेदात् , तस्मात्या न शक्यते वक्तुं पश्चानां प्रदेश इति, तस्माद् मा भग पञ्चानां प्रदेश इति, अपि तु भण-पश्च. विधः प्रदेश इति, तद्यथा-धर्मपदेशः, अधर्मप्रदेशः, आकाशप्रदेशो, जीवप्रदेशः, स्कन्धपदेश इति । एवं वदन्तं व्यवहारम् ऋजुमूत्रनयो भणति-यत्वं भणसि पञ्चविधः प्रदेश इति, तद् न युज्यते । कुतो न युज्यते ? इत्याह - यदि त्वत्संगतः पश्चविधः प्रदेशः स्यात्तदा धर्मास्तिकायादीनामकैकस्य प्रदेशः पञ्चविधः स्यात् । तात्पर्य यह है कि जैसे पांच गोष्ठिक पुरुषों का हिरण्य सुवर्णादिक सामान्य होता है उसी प्रकार से यदि इन धर्मास्तिकायादिक द्रव्यों का केाई सामान्य प्रदेश हो तो ऐसा कह सकते हैं कि 'पंचानां प्रदेशः । परन्तु ऐमा तो है नहीं। क्योंकि प्रत्येक द्रा के प्रदेश भिन्न २ हैं । इसलिये सामान्य प्रदेश के अभाव में 'पंचानां प्रदेश.' ऐसा कहना युक्त नहीं है। (तं मा भणिहि पंचहं पएसो भणाहि पंचविहो पएसो) अतः ऐसा मत कहो किंतु ऐसा कहो कि-'पंचविधः प्रदेशः पंचप्रदेशः।' (तं जहा धम्मपएसे, अधम्मपएसो, आगासपएसे जीवपएसो खंध पएसे) वे पांच प्रकार के प्रदेश ये हैं-धर्मप्रदेश, अधर्मप्रदेश, आकाश प्रदेश, जीव प्रदेश, स्कंध प्रदेश । (एवं वयंतं ववहारं उज्जुसुओ भणह, ज भणसि पंचविहो पएसेा, तं न भवइ, कम्हा जइ ते पंच. विही पएसा एवं ते एक्केको पएसो पंचविहो एवं ते पणवीसहविहो
આ યુક્તિ સંગત નથી. આનું તાત્પર્ય આ પ્રમાણે છે કે જેમાં પાંચ ગોષ્ઠિક પુરુષનું હિરણ્ય સુવર્ણાદિક સામાન્ય હોય છે, તેમ જ જે આ ધર્માસ્તિકાયાદિકને કોઈ सामान्य प्रदेश सय तो माम दीशाय "पंचानां प्रदेशः” ५२'तु मम छे નહિ. કેમકે દરેકે દરેક દ્રવ્યના પ્રદેશે ભિન્નભિન્ન છે. એટલા માટે સામાન્ય प्रटेशन। अभावमा ‘पंचानां प्रदेशः" माम अ योग्य ४२वाय नलि. (तं मा भणिहि पंवह पएसो भणाहि पंचविहो पएसो) मेथी माम नहि ५२'तु माम ४। , "पंचविधः प्रदेशः पंचप्रदेशः” (तं जहा धम्मपएसो, अधम्मपएसो, आगासपरसो जीवपएसो खंधपएसो) ते पाय प्रश्न प्रदेश साप्रमाणे छ ५ प्रदेश, मधम प्रदेश, माशश, पश, २४५प्रदेश. (एवं वयंतं ववहार उज्जुसुओ भणइ, जं भगसि पंचविहो पएसो, तं न भवइ, कम्हा-जइ ते पंचविहो पएसो एवं ते एककेकको पएसो पंचविहो एवं ते पणवी.
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अनुयोगद्वारसूत्रे अयं भावः-अर्थोपलब्धिस्तु शब्दादेव भवति, पञ्च वेधः प्रदेश इति कथनेन प्रत्येकद्रव्यप्रदेशस्य पश्चविधत्वमापद्यते इति । एवं च तत्र मतेन पञ्चविंशतिविधः प्रदेश स्यात् , तस्मात् मा भग-पञ्चविधः प्रदेशः, अपि तु-भक्तव्या-भजनीयः प्रदेश इति वक्तव्यम् । कियद्भिविभागैर्भक्तव्यः स्यात् ? इत्याह-स्याद् धर्मपदेशः, स्यादधर्मपदेशः, स्यादाकाशमदेशः, स्याज्जीवप्रदेशः, स्यात् स्कन्धप्रदेश इति । पएसेो भवइ) इस प्रकार कहने वाले व्यवहार से ऋजुसूत्रनय ने कहा जो तुम 'पंचविधः प्रदेशः। ऐसा कहते हो तो वह बनता नहीं है, क्योंकि यदि स्वसंमत पांच प्रकार का प्रदेश माना जावे तो धर्मास्तिकायादिकों में से एक एक अस्तिकाय का प्रदेश पांच पांच प्रकार का हो जायगा । इसका तात्पर्य यह है कि-'अर्थ की उपलब्धि शब्द से ही होती है । जब 'पंचविधः प्रदेशः' ऐसा कहा जावेगा-तष इस कथन से प्रत्येक द्रव्य प्रदेश में पंचविधता स्वतः प्रतिभासित होगी ही। इस प्रकार तुम्हारे मन्तव्यानुसार 'पंचविंशतिविधः प्रदेशः 'ऐसा 'पंचविधः प्रदेशः' का वाक्यार्थ होगा। (तं) इसलिये (मा भणाहि) मत कहो कि (पंचविहो पएसो) 'पंचविधः प्रदेशः' ऐसा (भणाहि) किन्तु ऐसा कहो (भयन्यो पएसो) कि प्रदेश भजनीय है। (सिय धम्मपएसो, सिय अधम्मपएसो, सिय आगासपएसो, सिय जीवपएसो, सिय खंध पएसो) धर्मपदेश भजनीय है, अधर्मप्रदेश भजनीय है, आकाशप्रदेश भजनीय है, जीव प्रदेश भजनीय है, स्कंत्र प्रदेश भजनीय है । तात्पर्य सइविहो पएसो भवइ) A! प्रमाणे ना२। ०५१९२२ सूत्रनये ४यु,' ने तमे "पंचविधः प्रदेशः" मम हे तो त योग्य नथी. भर ત્વસંમત પાંચ પ્રકારને પ્રદેશ માનવામાં આવે તે ધર્માસ્તિકાયાદિકોમાંથી એક એક અસ્તિકાયને પ્રદેશ પાંચ પાંચ પ્રકરને થઈ જશે. આનું તાત્પર્ય मा प्रमाणे छ ? 'अर्थनी Gall vथी ४ थाय छे. न्यारे "पंचविधः प्रदेशः" वी शत उडवामा मापते त्यारे मा थनथी ४२३ ४२४ ०५ પ્રદેશમાં પંચવિધતા સ્વયમેવ ભાસિત થઈ જશે જ. આ પ્રમાણે તમારા "भत भुरा "पंचविशतिविधः प्रदेशः मेव। 'पंचविधःप्रदेशः"नवाया थशे (तं) मेटा माटे (मा भणाहि) आम न । ४ (पंचविहो पएसो) "पंचविधः प्रदेशः (भणाहि) ५२'तु माम है (भइयव्यो पएसो) प्रदेश सभनीय छे. (सिय धम्म एसो सिप अधम्मपरसो, सिय आगासपएस्रो, सिय जीवपएसो, सियखंचपएघो) धर्म प्रदेश सनीय छ, मधमहेश सनीय छ, माश પ્રદેશ ભજનીય છે, જીવ પ્રદેશ ભજનીય છે, કંધ પ્રદેશ ભજનીય છે, આ
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अनुयोगवन्द्रिका टीका सूत्र २२९ प्रदेशदृष्टान्तेन नयप्रमाणम् अयं भावः-भक्तव्यः प्रदेश इति कथनेन पश्चपकारक एवं प्रदेशो भाति, स्वस्थ. प्रदेशस्यैव ग्रहणात् , परकोयप्रदेशस्तु न गृह्यते, तस्यार्थक्रियासाधकत्वाभावादेत. न्मतानुसारेणासत्त्वादिति । एवं वदन्तम् ऋजुत्रं सम्पति शब्दनयो भणतियत्त्वं भणसि, भक्तव्यः प्रदेश इति, तन्न युज्यते । कुतो न युज्यते ? इत्याह-यदि तव मते भक्तव्यः प्रदेशः, एवं तर्हि तब मते धर्मप्रदेशोऽपि स्याद धर्मप्रदेशः, स्यादधर्ममदेशः, स्यादाकशपदेशः, स्थानीवपदेशः; स्यात् स्कन्धपदेशः । एकइसका यह है कि जब 'भक्तव्यः प्रदेशः' ऐसा कहा जाता है, तब प्रदेश पांच प्रकार का ही सिद्ध होता है, क्योंकि अपने २ प्रदेश का ही इस कथन से ग्रहण होता है। परसंबन्धी प्रदेश का नहीं। क्योंकि परसंबन्धी प्रदेश में अर्थक्रिया के प्रतिसाधकस्य का अभाव है। इसलिये इस नय की मान्यतानुसार परप्रदेश असतरूप है । ( एवं वयंत) इस प्रकार कहनेवाले ( उज्जुसुयं) ऋजुमूत्रनय से (संगइ) उसी समय (सहनगो भणइ) शब्दनय ने कहा-(जं भणसि भाययो पएसो तं न भवह) जो तुम 'भक्तव्यः प्रदेशः 'ऐसा कहते हो, वह कहना तुम्हारा ठीक नहीं बनता है (कम्हा) क्योंकि (जइ भइयम्यो पएसो) यदि 'प्रदेश भजनीय है' ऐसा तुम्हारा मत हो तो (१वं ते धम्मपएसो वि सिय धम्मपएसो सिथ अधम्मपएसो, सिय आगासपएसो, मिय जीव पएसो सिय खंधपएसो) इस प्रकार के मत से धर्मास्तिकाय का जो प्रदेश है, वह धर्मास्तिकाय का भी हो सकता है, अधर्मास्तिकाय का सबनु तार५ मा प्रमाणे छ ? “भक्तव्यः प्रदेशः" मा शत ४qvi मावे છે ત્યારે પ્રદેશના પ્રકારે પંચ જ છે. આમ સિદ્ધ થાય છે. કેમકે આનાથી પિતા પોતાના પ્રદેશનું જ ગ્રહણ થાય છે. પર સંબંધી પ્રદેશનું ગ્રહણ થતું નથી કારણ કે પરસંબંધી પ્રદેશમાં અર્થ ક્રિયા પ્રત્યે સાધકતત્વને અભાવ છે. पेटमा माटे मा नयनी मान्यता भु५ ५२ प्रश असत् ३५ छे. (एवं वयंत) मा उना। (उज्जुसुर्य) *सूत्रनयन (संपइ) ते समये (सहनयो भणइ)
नये यु (जं भणसि भइयव्वो पएसो तं न भवइ) तमे "भक्तव्यः प्रदेशः" 2414 381 छो, तो माम 33 योग्य नथी (कम्हा) मई (जइभइयव्वो पएसो) ने प्रदेश मनीय छ, मेवी मान्यता छ त। (एवं ते धम्म परसो वि सिय धम्मपएसो सिय अधम्मपएसो, सिय आगासपएसो सिय जीवपएसो सिय खंएसो) मा ततना भतथा स्तियना २ प्रदेश छ, ते ધમસ્તિકાયને પણ થઈ શકે છે, અધર્માસ્તિકાયને પણ થઈ શકે છે, આકાશા
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मनुयोगद्वारसूत्रे मधर्मपदेशादिष्वप्येकैकः पश्चविधः स्यात् , एवं चानवस्था भविष्यति । अयं भाव-भजनाया अनियतत्वाद् धर्मप्रदेशः कदाचिद् धर्मप्रदेशः स्यात् कदाचिदधर्मप्रदेशादिरपि स्यात् । एवमधर्मपदेशादिविषयेऽपि बोध्यम् । लोकेऽपि दृश्यते यथा देवदत्तादिः पुरुषः कदाचिद् राज्ञो भृत्यो भवति कदाचिदमात्यादेः । इत्थं भी हो सकता है आकाशास्तिकाय का भी हो सकता हैं, जीवास्तिकाय का भी हो सकता है, स्कंध का भी हो सकता है । (अधम्मपएसोवि सिय धम्मपएसो जाय सिय खधपएसो, भागासपएसोऽवि सिघ धम्मः पएसो जाव खंधपएसो, वि सिय धम्मपएसो जाव खंधपएसो एवं ते अगवस्या भविस्सइ) अधर्मास्तिकाय का जो प्रदेश है, वह भी धर्मास्तिकाय का प्रदेश हो सकता है यावत् स्कंध का प्रदेश हो सकता है। आकाशास्तिकाय जो प्रदेश है, वह भी धर्मास्तिकाय का प्रदेश हो सकता है यावत् स्कंध का प्रदेश हो सकता है। जीवास्तिकाय का जो प्रदेश है, वह भी धर्मास्तिकाय का प्रदेश हो सकता है यावत् स्कंध का प्रदेश हो सकता है। इस प्रकार होने से अनवस्था-वास्तविक प्रदेश स्थिति का अभाव-होगा। इसका तात्पर्य यह है कि भजना अनि यत होती है। इसलिये जो धर्मास्तिकाय का प्रदेश होगा-वह अधर्मास्ति. काय आदि का भी हो जावेगा-इसी प्रकार जो अधर्मास्तिकाय आदिका प्रदेश होगा-वह अपने २ अस्तिकाय का होकर भी अन्य का भी हो जावेगा-तब जिस प्रकार देवदत्तादिपुरुष में कदाचित् राजा के सेवक સ્તિકાયને પણ થઈ શકે છે. જીવાસ્તિકાયને પણ થઈ શકે છે, અને પણ થઈ श छ. (अधम्मपएसोऽवि सिय धम्मपएसो जाव मिय खंधपएसो, आगासपएस्रो ऽवि पिय धम्मपरसो, जाव खंधपएसो जीवपएसो वि सिय धम्मपएसो जाव खंधपएसो एवं ते अणवत्था भविस्सइ) मधमास्तियना २ प्रदेश छ, તે પણ ધર્માસ્તિકાયને પ્રદેશ થઈ શકે તેમ છે યાવત્ સ્કંધને પ્રદેશ થઈ શકે છે. આકાશસ્તિને જે પ્રદેશ છે, તે પણ ધર્માસ્તિકાયને પ્રદેશ થઈ શકે છે. જીવાસ્તિકાયને જે પ્રદેશ છે, તે પણ ધર્માસ્તિકાયને પ્રદેશ થઈ શકે છે યવત સકંધને પ્રદેશ થઈ શકે છે, આ રીતે તે અનવસ્થાથીવાસ્તવિક પ્રદેશસ્થિતિને અભાવ જ થશે. આનું તાત્પર્ય આ પ્રમાણે છે કે ભજન અનિયત હોય છે. એથી જે ધર્માસ્તિકાયનો પ્રદેશ થશે, તે અધર્મા. સ્તિકાય વગેરેને પણ થઈ જશે. આ પ્રમાણે જે અધર્માસ્તિકાય આદિને પ્રદેશ થશે તે પિતપિતાના અસ્તિકાયને થઇને બીજાને પણ થઈ જશે ત્યારે જેમ દેવદત્તાદિ પુરુષમાં કદાચ રાજાના સેવક હવાની અથવા કયારેક અમાત્ય
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मनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र २२९ प्रदेशदृष्टान्तेन नयप्रमाणम् च नैयस्याभावात्तव मतेऽनवस्था प्रमज्येतेति, तस्माद् मा भण भक्तव्यः प्रदेश इति, अपि तु इत्यं भण 'धम्मे एएसे से पएसे धम्मे' (धर्मः प्रदेशः स प्रदेशो धर्मः) इत्यादि । धर्म: धर्मात्मकः प्रदेशः, स प्रदेशो धर्मः । अत्रे बोध्यम्-अयं धर्मात्मकः प्रदेशः समस्तादपि धर्मास्तिकायाइभिन्नः सन्नेव धर्मात्मक उच्यते न तु धर्मास्तिकायैकदेशामिनः सन् सकलजीशस्तिकायैकदेशभिन्नजीवात्मकप्रदे. शवत् । अतएव स प्रदेशो धर्म:=पकलधर्मास्तिकायादव्यतिरिक्त उच्यते । अयं भावः-जीवास्तिकायेऽनन्तजीवद्रव्याणि परस्परं पृथग्भूतानि सन्ति, अतएव एकहोने पर और क श्री अमात्य आदि के सेवक होने पर नयत्य नहीं बनता है। उसी प्रकार प्रदेश में भी नै पत्य का अभाव होने से तुम्मारे मत में अनवस्था होगी । (तं मा भणाहि भइयच्चो पएसो) इसलिये ऐसा मत कहो कि प्रदेश भजनीय है। किन्तु (भणाहि) ऐसा कहो (धम्मेपएसे से परसे, धम्मे, अहम्मे पएसे से पएसे अहम्मे, आगासे पएसे से पएसे आगासे, जीवे पएसे से पएसे नो जीवे, खंघे पएसे से पएसे नोखंधे) कि जो प्रदेश धर्मात्मक है वह प्रदेश धर्म है। इसका तात्पर्य यह है-यह धर्मात्मक जो प्रदेश है वह समस्त धर्मास्तिकाय से अभिन्न होकर ही धर्मात्मक कहलाता है। सकल जीवास्तिकाय के एकदेश से अभिन्न होकर जीवात्मक प्रदेश के जैसा कह लानेवाले धर्मास्तिकाय के एकदेश से अभिन्न होकर वह धर्मात्मा नहीं कहलाता है । कहने का तात्पर्य यह है कि-जीवास्तिकाय में अनन्त जीव द्रव्य परस्पर जुदे जुदे हैं इसलिये एक जीवद्रव्य का जो प्रदेश है वह समस्त जीवा. વગેરેના સેવક હોવાથી નેત્ય બનતું નથી, તેમ પ્રદેશમાં પણ રૈયત્યના અભાવે तमा। मत भु गनवा -1 थशे. (त भणाहि भइयव्यो पएसो) सटमा माटे तमे माम न ४ ते प्रदेश मनीय छे. परंतु (भणाहि) माम
डा (धम्मे पएसे से परसे, धम्मे, अहम्मे पएसे, से पएसे अहम्मे, आगासे पएसे से पएसे आगासे जीवे पएसे से पएसे नो जीवे, खंधे परसे से पएसे नो खंधे) २ प्रश घाम छे. ते प्रदेश ५ छे. सानु तात्य या प्रमाणे છે કે આ ધર્માત્મક જે પ્રદેશ છે તે સમસ્ત ધમરિતકાયથી અભિન્ન થઈને જ ધર્માત્મક કહેવાય છે. સકલ જવાસ્તિકાયના એકદેશથી અભિન્ન થઈને જવાત્મક પ્રદેશની જેમ કહેવડાવનારા ધર્માસ્તિકાયના એકદેશથી અભિન્ન થઈને તે ધર્માત્મક છે તેમ કહી શકાય નહિ. કહેવાનું તાત્પર્ય આ પ્રમાણે છે કે છવાસ્તિકાયમાં અનંત જીવ દ્રો પરરપર જુદા જુદા છે. એટલા માટે એક अ० ७६
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मनुयोगद्वारसूत्रे जीवद्रव्यस्य यः प्रदेशो भवति स समस्तजीवास्तिकायैकदेशे वर्तमान एव जीवास्मक उच्यते, अत्र धर्मास्तिकाये तु एकमेव द्रव्यं भवति, अतः समस्तधर्मास्तिकायादभिन्न एव सन् तत्मदेशो धर्मात्मको भवति । इत्थं च स प्रदेशो धर्म एवेति । अधर्मास्तिकायाकाशास्तिकायोरपि प्रदेशविषये एवमेव विज्ञेयम् , उभयोरप्येकद्रव्यत्वादिति । तथा-'जीवे पएसे से पएसे नो जीवे'-जीवः प्रदेशः सप्रदेशो नो जीवः । समस्तजीवास्तिकायैकदेशो य एकजीवो भवति, तदात्मको य एकप्रदेशः स नो जीवो भवतीत्यर्थः । नो शब्दोऽत्र देशवचनो नत्वमारवचनः । एकजीवद्रपसंबन्धिनः प्रदेशस्य अनन्त जीवद्रव्यात्मकसमस्तजीवास्तिकायवृत्तित्वास्तिकाय के एक देश में वर्तमान होता हुआ ही जीवात्मक कहलाता है। परन्तु ऐसी व्यवस्था यहां नहीं है। यहां तो धर्मास्तिकाय में एक ही द्रव्य है-इसलिये समस्त धर्मास्तिकाय से अभिन्न होता हुआ ही वह उसका प्रदेश धर्मात्मक कहलाता है। इस प्रकार यह प्रदेश धर्म ही होता है । अधर्मास्तिकाय एवं आकाशास्तिकाय इन दोनों को भी प्रदेश विषय में ऐसा ही जानना चाहिये । क्योंकि ये दोनों एक एक द्रव्य हैं। 'जीवे परसे से पएसे नो जीवे' एक जीवात्मक जो प्रदेश है, वह प्रदेश नो जीव है । अर्थात् समस्तजीवास्तिकाय का एकेदेशभून जो एक जीव है उस एकजीवात्मक जो एक प्रदेश है वह नो जीव है । यहां 'नो' शब्द अभाव का वाचक नहीं है किन्तु एकदेश का वाचक है। एक जीवद्रव्य संबन्धी जो प्रदेश है उस प्रदेश की, अनंत जीव द्रव्यास्मक जो जीवास्तिकाय है, उसमें वृत्तित्व का अभाव है । इसलिये उस
જીવ દ્રવ્યને જે પ્રદેશ છે, તે સમસ્ત જવાસ્તિકાયના એક દેશમાં વિદ્યમાન થઈને જ જીવાત્મક કહેવાય છે. પરંતુ એવી વ્યવસ્થા અહીં નથી. અહીં તે ધર્માસ્તિકાયમાં એક જ દ્રવ્ય છે. એથી સમસ્ત ધર્માસ્તિકાયથી અભિન્ન થઈને જ તેને પ્રદેશ ધર્માત્મક કહેવાય છે. આ પ્રમાણે તે પ્રદેશ ધર્મ જ હોય છે. અધર્માસ્તિકાય અને આકાશાસ્તિકાય એ બન્નેના પ્રદેશ વિષયના સંબંધમાં પણ એવી રીતે જ જાણી લેવું જોઈએ. કેમકે એ બને એક
४ द्र०ये। छ. "जीवे परसे से पएसे नो जीवे" से पाम २ प्रदेश છે, તે પ્રદેશ નેજીવ છે એટલે કે સમસ્ત જીવાસ્તિકાયના એકદેશ ભૂત જે એક જીવ છે, તે એક જીવાત્મક જે એકપ્રદેશ છે તે જીવ છે અત્રે “ના” શબ્દ અભાવ વાચક નથી, પરંતુ એકદેશ વાચક છે. એક જીજદ્રવ્ય સંબંધી જે પ્રદેશ છે, તે પ્રદેશના અનંત છવદ્રવ્યાત્મક જે જીવાસ્તિકાય છે, તેમાં
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अनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र २२९ प्रदेशदृष्टान्तेन नयप्रमाणम् भावात् नो जीवत्वं बोध्यमिति भावः । एवं--खंधे परसे से पएसे नो खंधे'स्कन्धः प्रदेवः स प्रदेशो नो स्कन्धः । अन्तस्कन्धात्मकसमस्तस्कन्धैकदेशैंक स्कन्धवर्तिनः प्रदेशस्य समस्तस्कन्धयत्तित्वाभावाद् नो स्कन्धत्वमिति भावः । एवं वदन्तं शब्दनयं समभिरुढः नानार्थसममिरोहणात् समभिरुढो नयो भणतियत्वं भणसि,-'धम्मे परसे से पए से धम्मे' इत्यादि, तन्न युज्यते वक्तुम् । कुतो न युज्यते वक्तुम् ? इत्याह-यदुच्यते-'धम्मे परसे से पएसे धम्मे' इत्यादि । अत्र धर्मे प्रदेशः, धर्मःपदेशश्चेति द्विविधच्छायायाः संभवात् 'धम्मे' इति सप्तम्यन्तं प्रथमान्तं वा पदमिति संदेहः संजायते । सप्तम्यां तत्पुरुषः, वने हस्तीवनहस्ती. एक प्रदेश को नो जीव कहा है । 'खंधे पएसे से पएसे नो खंधे' इसी प्रकार जो एक स्कन्धात्मक प्रदेश है वह नो स्कंध है। तात्पर्य यह है है-कि अनन्तस्कन्धात्मक जो समस्त स्कंध है-पुद्लास्तिकाय है-उसका एकदेश भूत जो एक स्कन्ध है, उसमें रहने वाले प्रदेश का समस्त स्कंधरूप पुद्लास्तिकाय में रहना नहीं है-अर्थात् उसकी उसमें वृत्ति नहीं है इसलिये एक स्कंधात्मक प्रदेश को नो स्कंध कहा है। (एवं वयंतं सद्दनयं समभिरूढो जं भणइ, जं भणसि धम्मे पएसे से पएसे धम्मे जीवे पएसे से पएसे नो जीवे, खंधे पएसे से पएसे नो खंधे-तं न भवद कम्हा इत्थं खलु दो समासा भति-तं जहा-तप्पुरि से य कम्मधारए य-तं ण णजइ कयरेणं समासे गंभणसि किं तप्पुरिसेणं किं कम्मधारएणं) इस प्रकार कहनेवाले शब्दनय से समभिरूद नय ने कहा-जो तुम कहते हो कि जो प्रदेश धर्मात्मक है वह धर्माવૃત્તિત્વને અભાવ છે. એથી તે એક પ્રદેશને જીવ કહેવામાં આવેલ છે. "खंधे पएसे से परसे नो खंधे" मा प्रभार मे यात्म प्रदेश छ, તે નોસ્કંધ છે. તાત્પર્ય આ પ્રમાણે છે કે અનંત સ્કંધાત્મક જે સમસ્ત સ્કંધ છે.-પુલાસ્તિકાય છે, તેને એક દેશ ભૂત જે એક કંધ છે, તેમાં રહેનાર પ્રદેશનું સમસ્ત સ્કંધ રૂપ પુકૂલારિતકામાં રહેવું થતું નથી. એટલે કે તેની તેમાં વૃત્તિ નથી. એટલા માટે એક સ્કંધાત્મક પ્રદેશને નેસ્ક
पामा भाव छ. (एवं वयंत सदनयं समभिरूढो भणइ, जं भणसि- धम्मे पएसे, से पएसे धम्मे जीवे पएसे से पएसे नो जीवे, खंधे पएसे से पएसे नो खंधे -त न भवइ कम्हा इत्थं खलु दो समामा भवंति-तजहा-तप्पुरिसे य कम्मधारए य त ण णज्जइ कयरेणं समासेणं भणासि कि तप्पुरिसेणं कि कम्मधारएणं) मा प्रभाव ना। शहनयने समलि३८ नये ४ह्यु-ले तमा કહો છો કે જે પ્રદેશ ધર્માત્મક છે, તે ધર્માસ્તિકાયરૂપ છે, યાવત્ જે પ્રદેશ
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अनुयोगद्वारसूत्र तिवत् संभाव्यते । प्रथमायां नीलमुत्पलं-नीलोत्पलमितिवत् कर्मधारगश्च । एवं चात्र तत्पुरुषकर्मधारयसमासद्वयस्य संदेहो जायते, तन्न ज्ञायते, के संमासं मनसिकृत्य भणसि । यदि तत्पुरुषेण भणसि तहिं एवं मा मण । अयं भाव:-यदि तत्पुरुषसमासं मनसि कृत्य 'धम्मे पएसे' इति सप्तम्या भणसि, तर्हि धर्मप्रदेशयोः भेदः प्रसज्येत, कुण्डे बदराणि इतित । अथ कर्मधारयेण भणसि ? तर्हि विशे. स्तिकायरूप है यावत् जो प्रदेश एकजीवात्मक है वह प्रदेश नो जीव है, जो प्रदेश एक स्कंधात्मक है वह प्रदेश नो स्कंध है सो यह बात तुम्हारी नहीं बनती है। क्योंकि 'धम्मे पएसे' यहां दो प्रकार की इन पदों की संस्कृत छाया होनी संभवित है-एक 'धमें प्रदेशः' ऐसी और दूसरी 'धर्मः प्रदेशः' ऐसी। इसलिये 'धम्म' पद में संशय होता है कि यह पद सप्तम्यन्त है या प्रथमान्त है । यदि इसे सप्तम्यन्त पद माना जावे तो, यहां सप्तमी तत्पुरुष समान होना चाहिये जैसे बने इस्ती-बनहस्ती में हुआ है । यदि 'धम्मे' पद को प्रथमान्त माना जाता है तो, प्रथमा में नीलमुत्पलम्-नीलोत्पलम् के जैसा कर्मधारय समास होना चाहिये । इस प्रकार तत्पुरुष और कर्मधारय ये दो समास होने का संदेह होता है । इसलिये यह पता नही पडता है कि-'तुम किस समास को मन में रखकर 'धम्मे पएसे' ऐसा कह रहे हो ?' (जह तप्पुरिसेण भणसि, तो मा एवं भणाहि अह कम्मधारएणं भगसि तो विसेसओ भणाहि) यदि कहो कि हम तत्पुरुष समास को आश्रित करके ऐसा એક જીવાત્મક છે તે પ્રદેશ નેજીવ છે. જે પ્રદેશ એક સ્કંધાત્મક છે, તે प्रदेश ना छे, तो मातमारी पात योग्य ती नथी. उभो "धम्मे पएसे" मही से प्रहारनी या पहानी सत छाया सलवी शतम छ से "धमें प्रदेशः" मेवी मने मी "धर्मः प्रदेशः" अवी. मेथी "धम्मे" પદમાં સંશય ઉપસ્થિત થાય છે કે આ પદ સમ્યન્ત છે કે પ્રથમાન્ત છે જે એને સમ્યક્ત પદ માનવામાં આવે તે, અહીં સમી તપુરુષ સમાસ योग्य ४ायम 'वने हस्ती-वनहरती" मां ये छ. 'धम्म' पहने प्रथमान्त मानवामा भावतो प्रथमान्त "नीलमुत्पलम् नीलोत्पलम्" ની જેમ કર્મધારય સમાસ ગ્ય કહેવાય, આ પ્રમાણે તપુરુષ અને કર્મધારય આ બને સમાસે થવાથી અહીં સંદેહાત્મક સ્થિતિ ઉપન્ન થાય છે. मेथी से वात २५५५ यती नथी , तमे च्या समासना आधारे "धम्मे परसे" ही २ह्या छ ? (जइ तप्पुरिसेणं भणसि, तो मा एवं भणाहि अह कम्मधारएणं भणसि तो विसेसओ भणाहि) ने त म ४
तत्५२५
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अनुयोगचन्द्रिका टीकों सूत्र २२९ प्रदेशदृष्टान्तेन नयप्रमाणम्
६०५ पतो भण-पम्मे य से पएसे य से पएसे धम्मे-धर्मश्च स प्रदेशश्च स प्रदेशो धर्मः इत्यादि । इत्थं च सप्तमीतत्पुरुष सन्देहो न भाति । अत्र धर्मात्मकः प्रदेशः समस्तधस्तिकायाभेदेन समानाधिकरणतयोच्यते, अतः प्रदेशोऽपि धर्मः । एवम् अधर्मात्मकः प्रदेशः अधर्मः, आकाशात्मकः प्रदेशः आकाश इति । तथाजीवश्च स प्रदेशश्च स प्रदेशो नो जीवः, स्कन्धश्च स प्रदेशश्च म प्रदेशो नो स्कन्धः। अथ भावः-अनन्त जीवात्मकसमस्त जीवास्तिकायस्यैकदेश एक जीवो भवति, तस्य प्रदेशः समस्त नीवास्तिकायाद् भिन्न एव भवति, अतः कहते हैं तो ऐसा मत कहो-तात्पर्य यह है कि यदि सप्तम्यन्त तत्पुरुष समास को लेकर 'धम्मे पएसे ऐसा कहते हो तो धर्म और प्रदेश में भेद प्रसक्त होता है । जैसे 'कुण्डे बदराणि' में भेद है । यदि कर्म धार य समास को आश्रित कर कहते हो तो ऐसा कहो कि 'धम्मे य पएसे य से धम्मे' इस प्रकार से कहने पर सप्तमी तत्पुरुष समास का संदेह नहीं होता है । कर्मधारय समास में धर्माः त्मक जो प्रदेश है उसका समस्त धर्मास्तिकाय के साथ अभेदरूप होने के कारण समानाधिकरण हो जाता है । इसलिये प्रदेश भी धर्मा. स्मिकायरूप बन जाता है। इसी प्रकार (अधर्मात्मकः प्रदेशः अधर्मः, आकाशात्मकः प्रदेशः आकशः 'जीवश्च स प्रदेशश्च स प्रदेशो नो जीवः स्कन्धश्च स प्रदेशश्च स प्रदेशो नो स्कन्धः) यहां पर भी जानना चाहिये। तात्पर्य कह है कि-'अनन्त जीवात्मक समस्त जीवास्तिकाय है उसका સમાસના આધારે કહી રહ્યા છીએ તે આ બરોબર નથી તાત્પર્ય એ છે કે न सभ्यन्त तत्पुरुष समासना माघारे "धम्मे परसे" मा छ। त। घम अने प्रदेशमा मह प्रसत थाय छे. २म "कुण्डे बदरणि"भा ह . न त मधारय सभासना आधारे ४ छ। तमाम ही है 'धम्मे य से परसे य से परसे धम्मे'। शत पाथी सभी तत्पुरुष समास विष સંદેહ ઉપ્તન્ન થતું નથી. કર્મધારય સમાસમાં ધર્માત્મક જે પ્રદેશ છે, તેને સમસ્ત ધર્માસ્તિકાયની સાથે અભેદરૂપ હોવાથી સમાનાધિકરણ થઈ જાય છે. એટલા માટે આ પ્રદેશ પણ ધર્માસ્તિકાયરૂપ થઈ જાય છે. मा प्रमाणे (अधर्मात्मकः प्रदेशः अधर्मः, आकाशात्मकः प्रदेशः आकाशः जीवश्च म प्रदेशश्च स प्रोशो नो जीवः स्कन्धश्च स 'प्रदेशश्च स प्रदेशो नोस्कन्धः) અહીં પણ જાણી લેવું જોઈએ. તાત્પર્ય આ પ્રમાણે છે કે “અનંત જીવાત્મક સમસ્ત જીવાસ્તિકાય છે, તેને એક દેશ એક જીવ છે, તેને જે
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६०६
अनुयोगद्वारसूत्रे
स नो जीव इस्युच्यते । एवम् अनन्तस्कन्धात्मक समस्त स्कन्धस्यैकदेशस्य एकस्कन्धस्य प्रदेशः समस्तस्कन्धभिन्नत्वात् नोस्कन्ध इत्युच्यते इति भावः । एवं वदन्तं समभिरूढनयं सम्प्रति एवंभूतनयो भणति त्वं यद् यद् धर्मास्तिकायादिकं वस्तु भगसि तत् तत् सबै सपस्तं कृत्स्नं= देश देशकल्पनारहितं परिपूर्णम् = आत्मस्वरूपेणाविकलम् निरवशेषम् = एकत्वादवयवरहितम् अत एकग्रहणगृहीतम् एकेन ग्रहणेन नाम्ना गृहीतम् = अभिहितम् एकाभिधानाभिधेयमस्ति अत
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,
एकदेश एक जीव है । इसका जो एक प्रदेश है, वह समस्त जीवास्तिकाय से भिन्न ही होता है। इसलिये वह नोजीव कहा है । तथा अन तस्कन्धात्मक जो समस्त स्कंध है उसका एकदेश एकस्कंध होता है । से। इस एकदेशरूप एकस्कन्ध का जो प्रदेश है वह समस्त स्कन्ध से भिन्न होने के कारण ने। स्कंध कहा गया है । ( एवं वयंतं समभिरुद संह एवंभूओ भगह, जं जं भणसि तं तं सव्वं कसिणं पडणं निरवसे से एगगहण गहियं देसेऽवि मे अवन्धू, परसेऽवि मे अवस्थ से सेत पणिं से तं नयपमाणे) इस प्रकार कहनेवाले समभिरूढनय से अब एवंभूत नय ने इस प्रकार कहा कि तुम जो २ कह रहे हो वह २ सब इस प्रकार से कहो कि ये जो धर्मास्तिकायादिक हैं वे समस्त हैं कृत्स्न देश, प्रदेश की कल्पना से विहीन है, प्रतिपूर्णआत्मस्वरूप से अविकल हैं, निरवशेष-एक होने के कारण अवयव रहित है, और एक ग्रहण गृहीत हैं - एक नाम से कहे गये हैं। इसलिये ये सब एकवस्तुरूप है भिन्न २ वस्तुरूप नहीं है, ऐसा मत कहो कि,
એક પ્રદેશ છે, તે સમસ્ત જીવાસ્તિકાય કરતાં ભિન્ન જ હાય છે. એથી તે “ના” જીત કહેલ છે. તેમજ અન તસ્કધાત્મક જે સમસ્ત સ્કંધ છે, તેના એક દેશ એક સ્કંધ હાય છે, તેા આ એક દેશરૂપ એક સ્કધના જે પ્રદેશ છે, તે સમસ્ત કધ કરતાં ભિન્ન હોવાથી ‘“ના” સ્કંધ કહેવાય છે. " एवं वयंत समभिरूढं संपइ एवंभूओ भणइ, जं जं भणसि त त सव्वं कक्षिणं पडणं निरवसेसं एगगहणगहियं देसेs वि मे अवत्थू, परसेऽवि मे अवत्थू सेत पए दितेण से त नयापमाणे) या प्रमाणे नारा समभि३८ નયને એવભૂતનયે આ પ્રમાણે કહ્યુ કે તમે જે કઈ કહી રહ્યા છે, તે એવી રીતે કહા કે આ બધા જે ધર્માસ્તિકાયાદિ છે તે સમસ્ત, કૃન દેશ, પ્રદેશની ૪૯૫નાથી વિહીન છે, પ્રતિપૂર્ણ આત્મસ્વરૂપથી અવિલ છે, નિરવશેષ-એક હાવાથી અવયવરહિત છે. અને એક ગ્રહણુ ગૃહીત થયેલા છે.
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अनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र २२९ प्रदेशदृष्टान्तेन नयप्रमाणम् ६०७ एवमेव तद्धर्मास्तिकायादिकं भण । प्रदेशरूपतया तु मा भण । यतो मम मते देशोऽपि अवस्तु- अपदार्थः, प्रदेशोऽप्यपदार्थः । अवण्डस्यैव वस्तुनः सत्वेनोपयोगात् । अत्रेदं बोध्यम् प्रदेशप्रदेशिनौ भिन्नौ वा अभिन्नौ ? यदि प्रथमः स्वी. क्रियेत तर्हि भेदेनोपलम्भः प्रसज्येत, न चैवमस्ति । अथाभेदपक्षः स्वीक्रियेत, तदा प्रदेशपदेशिनोः पर्यायता प्रसज्येत, एकार्थविषयत्वात् । न च पर्यायशब्द. ये प्रदेशरूप है क्योंकि मेरे सिद्धान्तानुसार जो वस्तु देशरूप है वह अव. स्तु पदार्थ-है तथा जो प्रदेशरूप है वह भी अपदार्थ है । हम वस्तु को खंडरूप नहीं मानते-किन्तु अखंडात्मक वस्तु को ही हमसत् रूप मानते हैं। तात्पर्य कहने का यह कि-'जय हम इस प्रकार से विचार करते हैं कि, प्रदेश और प्रदेशी ये दोनों आपस में भिन्न है या अभिन्न ?' तो कोई भी विचार युक्तियुक्त प्रतीत नहीं होता जैसे-यदि यही माना जावे कि-'प्रदेश और प्रदेशी ये दोनों भिन्न हैं तो, इस स्थिति में दोनों की स्वतंत्ररूप से उपलब्धि होनी चाहिये-परन्तु ऐसा होता नहीं हैं। प्रदेश विना प्रदेशी की और प्रदेशी विना प्रदेश की त्रिकाल में भी उपलब्धि नहीं होती । यदि दोनों का अभेद पक्ष स्वीकार किया जावे तो इस स्थिति में प्रदेश प्रदेशी में पर्यायशब्दता की प्रसक्ति प्राप्त होती है। क्योंकि दोनों का विषय एक पडेगा। कहने का अभिप्राय यह है कि जब दोनों सर्वथा अभिन्न होंगे तो जो अर्थ प्रदेश शब्द का होगा वही એટલા માટે એ બધાં એક વતુરૂપ છે. ભિન્નભિન્ન વસ્તુરૂપ નથી. તમે એમ પણ કહી નહિ કે આ પ્રદેશ રૂપ છે કેમકે મારા સિદ્ધાન્ત મુજબ જે વસ્તુ દેશરૂપ છે, તે અવસ્તુ-અપદાર્થ છે તેમજ જે પ્રદેશરૂપ છે, તે પણ અપદાર્થ છે. અમે વસ્તુને ખંડ રૂપમાં જોતા નથી, પરંતુ અખંડાત્મક વસ્તુને જ અમે સતરૂપમાં માનીએ છીએ. તાત્પર્ય આ છે કે જ્યારે અમે આ પ્રમાણે વિચાર કરીએ છીએ કે પ્રદેશ અને પ્રદેશી એ બને પરસ્પર ભિન્ન છે કે અભિન્ન! તે કઈપણ વિચાર ઉચિત લાગતું નથી. જે એમ જ માની લેવામાં આવે કે પ્રદેશ અને પ્રદેશી એ બને ભિન્ન ભિન્ન છે તે આ સ્થિતિમાં બનેની સ્વતંત્ર રૂપથી ઉપલબ્ધિ થવી જોઈએ પરંતુ આમ થતું નથી. પ્રદેશ વગર પ્રદેશની અને પ્રદેશ વિના પ્રદેશની ત્રિકાળમાં પણ ઉપલબ્ધિ થતી નથી. જે બનેને અભેદપક્ષ સ્વીકાર કરવામાં આવે તે આ સ્થિતિમાં પ્રદેશ પ્રદેશમાં પર્યાય શબ્દતાની પ્રસકિત ઉપસ્થિત થાય છે કેમકે બનેને વિષય એક જ થશે. તાત્પર્ય આ પ્રમાણે છે કે જ્યારે સર્વથા અભિન્ન થશે તે જે
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६०८
अनुयोगद्वारसूत्रे योर्युगपदुचारणं युज्यते, एकेनैव तदर्थोक्तौ द्वितीयस्य वैययात् । तस्मान्मम मते कृत्स्नं प्रतिपूर्ण निरवशेष मेवाभिधानाभिधेयमेकमेव वस्तु विद्यते इति । तदेवमेते सानयाः स्वस्वमत सत्यताप्रतिपादनयराः परस्परं विप्रतिपद्यन्ते । एवं च परस्परं निरपेक्ष या वर्तमाना एते नया दुर्नया भवन्ति, तथागतादिसमयवत् । अर्थ प्रदेशी का होगा और जो अर्थ प्रदेशी का होगा वही अर्थ प्रदेश का होगा-जैसे वृक्ष और पादप ये दो शब्द पर्यायवाची शब्द है, तो इन दोनों का एक ही वृक्षरूप अर्थ होता है। अतः जब यही बात स्वीकार की जावेगी तो फिर दो पर्याय शब्दों का युगपद् उच्चारण करना व्यर्थ होगा-क्योंकि एक शब्द के उच्चारण से ही द्वितीयशब्द के अर्थ की प्रतिपत्ति हो जावेगी । इसलिये मैं तो यही मानता हूं कि 'ये धर्मादिक वस्तुएँ समस्तरूप है, देश प्रदेश की कल्पना से रहित हैं, आस्मस्वरूप से अविकल हैं, एक होने के कारण अवयव रहित है और अपने २ एक २ नाम से कही गई हैं । इसलिये ये सब एक ही हैं। जुदी २ नहीं हैं । इस प्रकार ये सातोनय अपने २ मत की सत्यता के प्रतिपादन करने में कटिबद्ध रहते हैं । अत: आपस में एक दूसरे नय के मत से एक दूसरे नय की मत की समानता नहीं मिलती है। इस प्रकार इन में विवाद बना रहता है। ये सातों नय जय अपने मत की स्थापना में एक दूसरे नय की अपेक्षा नहीं रखते हैं । तब ये तथा અર્થ પ્રદેશ શબ્દનો થશે, તે જ અર્થ પ્રદેશી શબ્દને પણ થશે, અને જે અર્થ પ્રદેરીને થશે, તે જ અર્થ પ્રદેશને થશે. જેમ વૃક્ષ અને પાદપ એ બને પર્યાયવાચી શબ્દ છે, તે એ બનેને એક જ વૃક્ષરૂપ અર્થ હોય છે. એથી જયારે એજ વાત સ્વીકારવામાં આવશે તે પછી બે પર્યાય શબ્દનું યુગપદ ઉચ્ચારણ કરવું નિરર્થક લાગશે. કેમકે એક શબ્દના ઉચ્ચારણથી જ બીજા શબ્દના અર્થની પ્રતિપત્તિ થઈ જશે. એથી હું તે એમ જ માનું છું કે, “આ ધર્માદિક વસ્તુઓ સમસ્ત રૂપ છે, દેશ પ્રદેશની કલપનાથી રહિત છે, આત્મસ્વરૂપથી અવિક છે. એક હેવા બદલ અવયવરહિત છે, અને પિતાના એક એક નામથી કહેવામાં આવેલ છે એથી એ સર્વે એક જ છે, ભિન્નભિન્ન નથી. આ પ્રમાણે એ સાતે સાત નય પિતા પોતાના મતની સત્યતાને પ્રતિપાદિત કરવામાં તત્પર રહે છે. એથી પરસ્પર એકબીજા નયના મતમાં એકબીજાના નયના મતની સમાનતા મળતી નથી. આ રીતે આમાં વિસંવાદિતા બની રહે છે. આ સાતે સાત નય જ્યારે પિતાના મતની સ્થાપનામાં એકબીજાના નયન
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अनुयोगन्द्रिका टीका सूत्र २२९ प्रदेशदृष्टान्तेन नयप्रमाणम् ६०१ परस्परमपेक्ष्य वर्तमाना एते नयाः सुनया भवन्ति । एतैः परस्परसापेक्षैः समुदितैरेव नयः सम्पूर्ण जिनमतं भवति नत्वेककावस्थामा उक्तच
"उदधाविव सर्वसिन्धवः, समुदीर्णास्त्वयि नाथ ! दृष्टयः । न च तासु भवान् पश्यते, प्रविभका सरिल्वियोदधिः" इति।।
एतेषां नयानां ज्ञानरूपतया, ज्ञानस्य च गुणत्वेन गुगप्रमाणेऽन्तभीवो भवति गत-चौद्ध-सिद्धान्त के अनुसार दुनय कहलाते हैं । परस्पर सापेक्षवाद में एक दूसरे के सिद्धान्त का विलोप नही किया जाता है। वहाँ तो 'वेसा भी है और ऐसा भी है। यही बात रहती है। इसलिये इन नयों को सापेक्ष स्थिति में सुनय कहा गया है। इन सापेक्ष समुदित. नयों में ही सम्पूर्ण जिनमत प्रतिष्ठित है। एक एक की अवस्था में नहीं । उक्तं च करके जो कारिका लिम्वी गई है उसका तात्पर्य यह है कि-'जिस प्रकार से समुद्र में समस्त नदियां आकर मिलती हैं-- समाती हैं-उसी प्रकार से हे नाथ! आप ले समस्त एकान्तदृष्टियांसमाई हुई हैं। परन्तु उन अलग रही हुई दृष्टियों में-मान्यताओ में -आप इस प्रकार से नहीं दिखलाई देते हो कि जिस प्रकार से भिन्न २ रही हुई नदियों में समुद्र दिखलाई नहीं देता। कहने का निष्कर्ष यही है कि परस्पर सापेक्ष नयसिद्धान्त ही जैन लिद्धान्त है और निर. पेक्ष नयवाद मिथ्यावाद है ? ये सब नय ज्ञानरूप हैं और ज्ञान आत्मा का गुण है इसलिये इन नयों का यद्यपि ज्ञानगुण में अन्तर्भाव हो અપેક્ષા રાખતા નથી ત્યારે આ બધા ગત-ૌદ્ધ સિદ્ધાન્તની જેમ દુય કહેવાય છે. પરસ્પર સામેક્ષવાદમાં એકબીજાના સિદ્ધાન્તને વિલેપ કરવામાં આવતો. નથી ત્યાં તો “આમ પણ છે અને તેમ પણ છે. એ જ સિદ્ધાન્ત રહે છે. એટલા માટે આ નની સાપેક્ષસ્થિતિમાં સુનય કહેવામાં આવેલ છે આ સાપેક્ષ સમુદિત નોમાં જ સંપૂર્ણ જિનમત પ્રતિષ્ઠિત છે. એક એકની અવસ્થામાં નહિ. ઉકચ કરીને જે કારિકા લખવામાં આવી છે, તેનું તાત્પર્ય આ પ્રમાણે છે કે “જેમ સમુદ્રમાં સમસ્ત નદી એ જઈ મળે છે, તેમજ હે નાથ ! આપમાં સમeત એકાન્ત દષ્ટિએ સમાહિત થયેલ છે. પરંતુ તે ભિન્નભિન્ન રહેલી દષ્ટિએમાં, (માન્યતાઓમાં) આપશ્રી જેમ જુદી જુદી નદીઓમાં સમુદ્રના દર્શન થતા નથી તેમ દેખાતા નથી. તાત્પર્ય એ છે કે પરસ્પર સાપેક્ષ નય સિદ્ધાન્ત જ જૈન સિદ્ધાન્ત છે. અને નિરપેક્ષ નવવાદ મિથ્યાવાદ છે. આ સર્વ ન જ્ઞાનરૂપ છે અને જ્ઞાન આત્માને ગુણ છે. એટલા માટે આ સર્વ નેનો જે કે જ્ઞાનગુણમાં અન્તર્ભાવ થઈ જાય છે છતાં પ્રત્યક્ષ વગેરે પ્રમાણેથી જે
अ० ७७
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मनुयोगद्वारसूत्रे
तथापि एव प्रत्यक्षादिप्रमाणेभ्यो नयरूपतामात्रेण पृथक्मसिद्धत्वाद् बहुविचारविषयत्वाद् जिनागमे प्रतिस्थानमुपयोगित्वाच्च पृथगुक्तिरिति । प्रकृतमुपसंहन्नाह - तदेतत् प्रदेशदृष्टान्तेनेति । अनेन प्रस्थकादिदृष्टान्तत्रयेण नयप्रमाणं निरूपितमिति सूचयितुमाह- तदेतन्नयममागमिति । एतद् दृष्टान्तत्रयमुपलक्षणमात्रम्, जोवादिविषयेषु सर्वत्र, नयविचारस्य प्रस्तुतत्वादिति ।। ० २२९ ।
अथ संख्याप्रमाणं निरूपयति
मूळम् - से किं तं संखप्पमाणे ? संखष्पमाणे- अट्टविहे पण्णसे, तं जहा - नामसंखा, ठेवणसंखा, दवमंखा, ओवम्मसंखा, परिमाणसंखा, जाणणासंखा, गणणा संखा, भावसंखा से किं तं नामसंखा ? नामसंखा जस्स णं जीवस्स वा जाव से तं नामसंखा । से किं तं ठवणसंखा ? ठवणसंखा-जपणं कटुकम्मे वा
1
जाता है फिर भी प्रत्यक्ष आदि प्रमाणों से जो इन्हें भिन्न कहा गया है उसका कारण यह कि एक तो ये नयरूप है, दूसरे बहुत विचार के ये विषय हैं। तीसरे जिनागम में स्थान २ पर इनका उपयोग हुआ है। इस प्रकार प्रदेश दृष्टान्त से यह नयस्वरूप का निरूपण है । प्रस्थक
तसे वसतिदृष्टान्त से एवं प्रदेश दृष्टान्त से जो यह नय स्वरूप का निरूपण सूत्रकारने किया है वह केवल उपलक्षण मात्र है क्योंकि ऐसे कई दृष्टान्त है कि जिन से नयों के स्वरूप का निरूपण किया गया है। इन नयों जीवादिक पदार्थों का क्या स्वरूप है, यह जाना जाता है ।। सूत्र २२९ ॥
એમને મિન્ન કહેવામાં આવેલ છે, તેનુ કારણ એ છે કે એક તે આ બધા नय३यो छे, અને બીજી વાત આમ છે કે એ સવે ઘણા વિચારાના વિષયા છે. ત્રીજી વાત આ છે કે જિનાગમમાં ઘણાં સ્થળે એમને ઉપયેગ થયેલ છે. આ રીતે પ્રદેશ દૃષ્ટાન્તથી આ નય સ્વરૂપનુ નિરૂપણ છે. પ્રસ્થક દૃષ્ટાન્તથી વસતિ દૃષ્ટાન્તથી તેમજ પ્રદેશ દૃષ્ટાન્તથી જે આ નયસ્વરૂપનુ નિપશુ સૂત્રકારે કરેલ છે તે ફક્ત ઉપલક્ષણ માત્ર જ છે. કેમકે એવા ઘણા દૃષ્ટાન્તા છે કે જેમનાથી નય સ્વરૂપાનુ નિરૂપણ કરવામાં આવેલ છે. આ નચે ૧ જીવાદિક પદાર્થોનું સ્વરૂપ કેવુ` છે, આ વાત સ્પષ્ટ થાય છે. સૂ. ૨૨ા
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अनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र २३० संख्याप्रमाणनिरूपणम् पोत्थकम्मे वा जाव से तं ठवणसंखा। नामठवणाणं को पइविमेसो? नाम आवकहियं, ठवणा इत्तरिया वा होजा आवकहिया वा होज्जा। से किं तं दवसंखा? दवसंखा-दुविहा पण्णत्ता, तं जहा-आगमओ य नो आगमओ य जाव, से किं तं जाणयसरीर-भवियसरीरवइरित्ता दवसंखा ? जाणयसरीरभवियसरीर वइरित्ता दवसंखा-तिविहा पण्णत्ता, तं जहा-एगभविए, बद्धाउए, अभिमुहणामगोत्ते य। एगभविए णं भते! एगभविएत्ति कालओ केवच्चिरं होइ ? जहण्णेणं अंतोमुहुत्तं उक्कोमेणं पुव. कोडी। बद्धाउएणं भंते! बद्धाउएत्ति कालओ केवचिरं होइ ? जहण्णेणं अंतोमुहृत्तं उक्कोसेणं पुचकोडीतिभागं। अभिमुहनामगोएत्ति कालओ केवच्चिरं होइ ? जहन्नेणं एकं समय उक्कोसेणं अंतोमुहुत्तं । इयाणिं को णओकं संखं इच्छइ, तत्थ णेगमसंगहववहारा तिविहं संखं इच्छंति, तं जहा-एगभवियं बद्घाउयं अभिमुहनामगोत्तं च। उन्जुसुओ दुविहं संखं इच्छइ, तं जहा-बद्धाउयं च अभिमुहनामगोत्तं च। तिपिण सदनया अभिमुहणामगोत्तं संखं इच्छति। से तं जाणयसरीरभवियसरीरवइरित्ता दवसंखा। से तं नो आगमओ दवसंखा। से तं दध्वसंखा ॥सू०२३०॥ ___ छाया-अथ किं तत् संख्यापमाणम् ?, संख्याप्रमाणम्-अष्टविधं पज्ञप्त, तद्यथा-नामसंख्या, स्थापनासंख्पा, द्रव्पसंख्या, औषम्यसंख्या, परिमाणसंख्या, ज्ञानसंख्या, गणनासंख्या, भावसंख्या । अथ काऽसौ नामसंख्या ?, नामसंख्यायस्य खलु जीवस्य वा यावत् सा एपा नामसंख्या । अथ काऽसौ स्थापनासंख्या?
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अनुयोगद्वारसूत्र
स्थापनासंख्या-यत्खलु काष्ठकोणि वा पुस्तकर्माणि वा यावत् सा एपा स्था. पनासंख्या । नामस्थापनयोः कः प्रतिविशेषः ?, नाम याकथिकं, स्थापना इत्वरिका वा भवेत् यावत्कयिका वा भवेत् । अथ कोऽसौ द्रव्यशङ्खः ? द्रव्यशङ्खो द्विविधः प्रज्ञप्ता, तद्यथा-भागमतश्च नो आगमतश्च यावत् , अथ कोऽसौ ज्ञायकशरीरभन्यशरीव्यतिरिक्तो द्रव्यशङ्खः ?, ज्ञान क्रशरीरभव्यशरीरव्यतिरिक्तो द्रव्य शङ्खः त्रिविधः प्रज्ञप्तः, तद्यथा एव भरिको बदायुष्कः अभिमुखनामगोत्रश्च । एकभविकः खलु भदन्त ! एकमविक इति कालतः क्रियत् चिरं भवति ?, जघन्येन अन्तर्मुहूर्तम् उत्कर्षेण पूर्वकोटीम् । बद्घायुष्कः खलु भदन्त ! बद्धायुष्क इति कालतः कियत् चिरं भवति ? जयन्येन अन्तर्मुहूर्तम् उत्कर्षेण पूर्व कोटीत्रिभागम् । अभिमुखनामगोत्रः खलु भदन्त ! अभिमुखनामगोत्र इति कालनः कियत् चिरं भवति ?, जघन्येन खलु एकं समयम् , उत्कर्षेण अन्तर्मुहूर्तम् । इदानी को नयः कं शङ्खम् इच्छति नैगमसंग्रहव्यवहाराः त्रिविध शङ्खम् इच्छन्ति, तद्यथा-एकमविक बदायुष्कम् अभिमुखनामगोत्रं च । ऋजुमूत्रको द्विविधं शङ्खम् इच्छति, तद्यथाबद्वायुष्कं च अभिमुखनामगोत्रं च । त्रयः शब्दनयाः अभिमुखनामगोत्रं शङ्खम् इच्छन्ति । स एप ज्ञायकशरीरमधशरीरव्यतिरिक्तो द्रव्यशङ्खः । स एप नो आगमतो द्रव्यशङ्खः । स एष द्रव्यशङ्खः ।।५० २३०॥
टीका-'से कि तं' इत्यादि
अथ किं तत् संख्याप्रमाणम् ? इति शिष्यमनः । उत्तरयति-संख्याप्रमाणेसंख्यान संख्या, संख्यायतेऽनयेति वा संख्या, सैव प्रमाणम् - संख्याप्रमाणम् ।
इस प्रकार नयरूप प्रमाण का निरूपण कर अप सूत्रकार संख्याप्रमाण का निरूपण करते हैं-'से किं तं संखप्पमाणे' इत्यादि ।
शब्दार्थ-(से किं तं संखप्पमाणे ?) हे भदंत ! वह संख्या प्रमाण क्या है ? संख्याप्रमाण आठ प्रकार का कहा गया है । (तं जहा) जैसे (नामसंखा, ठवणसंखा, दवसंता, ओमान, परिमाणसंखा, जाणणासखा, गणणासंखा, भावसंग्खा) नामसंख्या, स्थापना संख्या,
આ પ્રમાણે નયરૂપ પ્રમાણુનું નિરૂપણ કરીને હવે સૂત્રકાર સંખ્યા प्रभानु नि३५ ४२ छ:-'से कि तं संखपमाणे' इत्यादि
Ava-(से कि तं संखप्पमाणे ?) महत! ते सध्यानुप्रभाय शु छ १ सध्याअभाना मा प्रा। छे. (तं जहा) २ (नामसंखा, ठवण. संखा, वसंखा, ओखम्मसंखा, परिमाणसंखा, जाणणा संखा, गणणा संखा, भावसंखा) नामसम्या, स्थापनासण्या, द्र०यस च्या, मो५भ्यस च्या, परि
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अनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र २३० संख्याप्रमाणनिरूपणम् आ 'संख' शब्देन संख्याशङ्खयोरुभयोरपि ग्रहणम् , द्विविधाया अपि च्छायायाः संभवात् । अथवा-अनेकार्थकशब्दवत् 'संव' शब्दस्य संख्या शङ्खश्वेत्यर्थ द्वयम् । दृश्पते च अनेकार्थक गो शब्दस्य पशुभूम्मादिरने कविधोऽर्थः । उक्तं चापि
"गोशब्दः पशुभूम्यंशुवाद्गिर्थमयोगवान् ।
मन्दमयोगे दृष्टयम्धु-वनस्वर्गाभिधायकः "॥इति इत्यं च संख्या शङ्खयोरुभयोरपि संख' शब्देन ग्रहणात् अत्र नामस्थापनादिविचारे यत्र संख्या शब्दो यत्र च शशब्दो घटते, तत्र तत्र स स एव शब्दो ग्राह्य इति । द्रव्यसंख्या, औपम्यसंख्या, परिमाणसंख्या, ज्ञानसंख्या, गणनासंख्या, भावसंख्या। वस्तु के परिच्छेद का नाम संख्या है । अथवा जिसके द्वारा वस्तु का परिच्छेद किया जावे, उसका नाम संख्या है संख्यारूप जो प्रमाण है, वह संख्याप्रमाण है। यहां 'संख' शब्द से संख्या और शंख इन दोनों का भी बहण हुआ है। क्योंकि इस शब्द की दोनों प्रकार की संस्कृत छाया होती है । अथवा-अनेक अर्थ वाले शब्द के जैसा 'संख' शब्द के अर्थ संख्या और शंख ये दो होते हैं। अनेकार्थ गो शब्द के पशु, भूमि आदि अनेक अर्थ होते है, यह बात तो सर्वविज्ञ विदित ही है। उक्तं च करके जो 'गो-शब्दः पशुभूम्यंशु' इत्यादि श्लोक लिखा है, उसका तात्पर्य यही हैं कि-गो शब्द इतने अर्थ का वाचक है, इस प्रकार संख्या और शंख इन दोनों का भी 'संख' शब्द से ग्रहण होने के कारण यहां नाम स्थापना आदि के
માણુ સંખ્યા, જ્ઞાનસંખ્યા, ગણના સંખ્યા, ભાવસંખ્યા. વસ્તુના પરિચ્છેદનું નામ “સંખ્યા” છે. અથવા જેના વડે વસ્તુ પરિદિત કરવામાં આવે તે “સંખ્યા કહેવાય છે. સંધ્યારૂપ જે પ્રમાણ છે, તે સંખ્યા પ્રમાણ છે અહીં “સંખ શબ્દથી સંખ્યા અને શંખ એ બંનેનું ગ્રહણ કરવામાં આવેલું છે કેમકે આ શબ્દની સંસ્કૃત છાયા અને પ્રકારની થાય છે અથવા અને કાર્યો શબ્દની જેમ “સંખ” શબ્દના અર્થો સંખ્યા અને શંખ અને થઈ શકે તેમ છે અનેકાર્થક “ગ” શબ્દના પશુ, ભૂમિ, વગેરે ઘણા અર્થો થાય છે એ पात सहित छ तय डीने रे 'गो शब्द पशुभूम्यंशु' वगेरे श्यो। લખવામાં આવેલ છે, તેનું તાત્પર્ય આમ છે કે “ગ” શબ્દ આટલા બધા અર્થોનો વાચક છે. આ પ્રમાણે “સંખ” શબ્દના સંખ્યા અને શંખ આ બને અર્થો ગ્રહણ કરવામાં આવેલ છે તેથી અહીં નામ સ્થાપના આદિના સંબંધમાં વિચાર કરતાં આ શબ્દથી જે જે સ્થળે સુખ શબ્દને જ્યાં સંખ્યા
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अनुयोगद्वारसूत्रे
तच्च नामसंख्या स्थापनासंख्येत्यादि अष्टविधम् । तत्र नामसङ्ख्या यस्य खलु जीवस्य वा अजीवस्य वा जीवानां वा अनीवारां वा तदुभयस्य वा तदुभयेषां वा संख्या इति नाम क्रियन्ते सा बोध्या । तथा-स्थापनासंख्या - यत्खलु काष्ठकर्मणि वा पुस्तकर्मणि वा चित्रकर्मणि वा अन्यत्रापि वा संख्येति स्थापना स्थाप्यते सा स्थापनासंख्या नामस्थापनयोः को विशेषः ? इत्याह-नाम यात्र
विचार में इस शब्द से जहां संख्याशब्द का और जहां शंख शब्द का अर्थ घटित होता हो अर्थात् लागू पडता हो वहां २ उस उस शब्द की योजना कर लेनी चाहिये। (से किं तं नाम संखा) हे भदन्त ! नाम संख्या क्या है ? (नाम संखा) नाम संख्या (जस्स णं जीवस्स वा जाव से तं नाम संखा ) जिस एक जीव का अथवा अजीव का अथवा अनेक जीवों का या अजीवों का अथवा एक जीव अजीव दोनों का या अनेक जीव, अजीव इन दोनों को 'संख्या' ऐसा जो नाम रख लिया जाता है, वह नामसंख्या है | ( से किं तं ठेवणासंवा) हे भदन्त ! स्थापना संख्या क्या है ? (ठवणासंखा) स्थापना संख्या (जपणं कटुकम्मे वा) काष्ठ कर्म में (पोकम्मे वा जाव से तं ठवणसंखा) अथवा पुस्तकर्म में, या किसी चित्र में अथवा और भी किसी वस्तु में ' संख्या' इस रूप से जो आरोपित किया जाता है, वह स्थापना संख्या है ।
शंका - ( णामठवणागं को पह विसेसो) नाम और स्थापना में क्या अन्तर है ?
અથ ઘટિત થતા હાય ત્યાં સખ્યા અથ તેમજ જ્યાં શાખ અથ ઘટિત થતા હાય ત્યાં શખ અર્થ કરવા योग्य छे. (से किं त नामसंखा ) हे महत! नाम संख्या शुं छे ? ( नाम संखा) नाभ सभ्या ( जस्स णं जीवस्त्र वा जाव से तं नाम संखा) ने थोड व अथवा આ અજીવનુ' અથવા ઘણા જીવાનુ અથવા ઘણા જીવ અજીવ એ બન્નેનુ 'संख्या' भावु' के नाम रामवामां आवे छे. ते नाम संख्या छे. (से कि त ठवणा संखा ) ३ लहंत! स्थापनासंख्या शु छे ? (ठवणासंखा) स्थापनासंख्या, (जण्णं कटुकम्मे वा) 3. मां (पोत्थकम्मे वा जाव से त ठवणसंखा) अथवा स्तम्भ मां अथवा अध्य चित्रमां अथवा गमे ते वस्तुभां સખ્યા' આ રૂપમાં જે આરાપ કરવામાં આવે છે, તે સ્થાપનાસ’ખ્યા છે.
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अनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र २३० संख्याप्रमाणनिरूपणम्
कथिकम् स्थापना तु इत्वरिका वा यावत्कथिका भवति । नामसंख्यास्थापनासंख्याविषये विशेषभावना नामावश्यकस्थापनावश्यकानुसारेण कर्तव्या । तथाद्रव्यशङ्खः आगमनो भागमभेदेन द्विविवः । तत्र नोआगमतो द्रव्यशङ्खस्त्रिविधो ज्ञायकशरीरद्रव्यशङ्खः भव्यशरीरद्रव्यशङ्खः ज्ञायकशरीर भव्यशरीरव्यतिरिक्तो द्रव्यशङ्खथ । अत्र आगमतो द्रव्यशङ्खः, नो आगमतो द्रव्यशङ्खस्याद्यभेदद्वयं च द्रव्यावश्यकस्येव विज्ञेयम् । तृतीयभेदस्य ततो विलक्षणत्वात् तं वकुमुपक्रमते 'से
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उत्तर--(णामं ? आवकहियं, ठवणा इत्तरिया वा होज्जा आवकहिया वा होज्जा) नाम यावत्कथिक होता है तथा स्थापना इश्वरिक भी होती है और यावत् कथिक भी होती है । नाम संख्या एवं स्थापना संख्या इन दोनों के विषय का खुलाशा अर्थ और भेद नाम आवश्यक और स्थापना आवश्यक के अनुसार समझ लेना चाहिये । यह प्रकरण पीछे स्पष्ट लिखा जा चुका है । (से किं तं दव्वसंखा ?) हे भदन्त ! द्रव्यशंख का क्या तात्पर्य है ?
उत्तर -- (द०वसंखा दुविहा पण्णत्ता) द्रव्यशंख दो प्रकार का कहा गया है । (तं जहा) जैसे (आगमओ य नो आगमओ य जाव) आगम ror शंख और नो आगमद्रव्यशंख । इनमें नो आगम की अपेक्षा से doria तीन प्रकार का होता है-एक ज्ञायक शरीर द्रव्यशंख, दूसरा भव्य शरीर द्रव्य शंख, और तीसरा ज्ञायकशरीर भव्यशरीर व्यति. रिक्त द्रव्य शंख | आगम की अपेक्षा से द्रव्यशंख का और नोआगम की अपेक्षा से द्रव्यशंख के प्रथम और द्वितीय भेद का स्वरूप द्रव्या
- (णामठत्रणा को पइविसेसो) नाम भने स्थापनामा थे। तावत है ? उत्तर-- णाम आवकहियं, ठत्रणा इत्तरिया वा होज्जा आत्रकहिया वा होज्जा) नाम यावत् थित होय छे, ते स्थापना त्वरि पशु होय छे. અને યાવત્ કથિત પશુ હોય છે. નામસંખ્યા અને સ્થાપનાસખ્યા આ બન્ને વિષયે વિષે અર્થ અને ભેદ નામઆવશ્યક તેમજ સ્થાપના આવશ્યક મુજબ સમજી લેવું જોઈએ. આ પ્રકરણ વિષે પહેલાં સ્પષ્ટતા કરવામાં આવી છે. (તે कि त दव्वसंखा १) डे लहांत ! द्रव्य शमनुं शुं तात्पर्य है ?
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उत्तर- ( दव्वसंखा दुविधा पण्णत्ता) द्रव्य शमना मे हा होय छे. (तं जहा) नेम (आगमओ य नो आगमओ य जाव) यागम द्रव्य श અને નાઆગમ દ્રવ્યશ‘ખ આમાં નાઆગમની અપેક્ષાએ દ્રવ્યશ ́ખના ત્રણ પ્રકારે હાય છે. ગાયક દ્રવ્યશ'ખ, ભવ્યશરીર દ્રવ્યશ'ખ અને જ્ઞાયક શરીર ભવ્યશરીર અતિરિકત દ્રવ્યશ’ખ. આગમની અપેક્ષાએ દ્રવ્ય શખના પ્રથમ અને દ્વિતીય ભેદનું સ્વરૂપ દ્રષાવશ્યકમાં પ્રતિપાદિત થયેલ આ પ્રકારેાની જેમ જ સમજવું
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अनुयोगद्वारसूत्रे
किं तं' इत्यादि । अथ कोऽसौ ज्ञायकशरीरभव्यशरीरव्यतिरिक्तो द्रव्यशङ्खः ? इति शिव प्रश्नः । उत्तरयति - ज्ञायकशरीर भव्यशरीरव्यतिरिक्तो द्रव्यशङ्ख त्रिविधः प्रज्ञतः, तद्यथा - एकभविको वायुकोऽभिमुखनामगोत्रश्चेति । तत्र - यो जीव मुवाऽनन्तरभवे शवृत्पत्स्यते, सत्तेष्वव द्वायुष्कोऽपि जन्मदिनादारभ्य एकभविकः शङ्ख उच्यते । तथा यः शङ्खप्रायोग्यं कर्म बद्धवान् स वद्धायुष्कः शङ्खः । ases में प्रतिपादित इन्हीं प्रकारों के जैसा जानना चाहिये । अब नोआगम शंख का जो तृतीय भेद है, वह इन से विलक्षण है । इसलिये सूत्रकार उसे प्रश्नोत्तर पूर्वक कहते हैं - (से किं तं जाणयसरीरrfarसरीर वहरित दव्वसंखा ?) हे भदन्त । ज्ञायकशरीर और भव्यशरीर से व्यतिरिक्त जो द्रव्यशंख है, उसका क्या स्वरूप है ?
उत्तर-- ( जाणयसरीरभविय सरीरवइरित्ता दव्यसंखा तिविहा पण्णत्ता) ज्ञायकशरीर और भव्यशरीर इन दोनों से व्यतिरिक्त द्रव्य. शंख तीन प्रकार का कहा गया है (तं जहा उसके वे प्रकार इस प्रकार 'से हैं - ( एगभविए, बद्ध उए, अभिमुहणामगोसे य-अ ) एकभविक,
ish अभिमुख नामगोत्र ! जो जीव मरकर अनन्तर भव में शंखपर्याय से उत्पन्न होगा, वह उस पर्याय में अभी तक अबद्धायुष्क है, तो भी जब से वह उत्पन्न हुआ है-तभी से लेकर वह एकभविक शंख कहलावेगा । तथा जिस जीव ने शंख पर्याय में उत्पन्न कराने योग्य कर्म का बंध कर लिया है,
ऐसा वह जीव बद्धायुष्क शंख कह
જોઇએ. હવે નાઆગમ દ્રવ્યશખના જે તૃતીય ભેદ છે. તે એના કરતાં વિક્ષણુ छे, ोधी सूत्रार तेना विषे प्रश्नोत्तर पूर्व यर्या रे छे (से कि तं जाणयसरीरभवेिसरीवइरित्ता दवसंखा ?) हे लत! ज्ञाय शरीर मने अव्य શરીરથી વ્યતિરિકત જે દ્રવ્યશ ખ છે, તેનુ સ્વરૂપ કેવુ છે?
उत्तर- ( जाणयसरीरभजियसरीरवइरित्ता दव्वसंखा
વ્યતિરિક્ત प्रकारे या
mà mlayu
જ્ઞાયક શરીર અને ભવ્ય શરીર એ બન્નેથી प्रावामां आवे छे. (तं जहा) तेना afkq, 1931, afugeaum̃à 1–4) â; alas, maıyı નામ ગેાત્ર, જે જીવ મરછુ પામીને અન ́તર ભવમાં શંખ પર્યાયમાં ઉત્પન્ન થશે, ને શ ́ખ પર્યાયમાં હજી સુધી અખદ્ધાયુ‚ છે. છતાંએ જયારથી તે ઉત્પન્ન થયેલ છે, ત્યારથી માંડીને તે એકભિવક કહેવાશે. તેમજ જે જીવે શખ પર્યાયમાં ઉપન્ન થવા ચેાગ્ય કમબંધ કરેલ છે, એવે! તે જીવ બદ્ઘાયુષ્કશખ
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तिरिहा पण्णत्ता )
દ્રવ્યશ`ખના ત્રણ प्रमाणे छे. (एग
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अनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र २३० संख्याप्रमाणनिरूपणम् तथा च-शङ्खपूत्पन्नस्य यस्य जीवस्य नामगोत्रे द्वीन्द्रियजात्यादि नीचेगोत्ररूपे कर्मणी जघन्यत एकेन समयेन उत्कृष्टतोऽन्तर्मुहूर्त्तमात्रेणैव व्यवधानात् अभिमुखे-उदयाभिमुखपाप्ते नामगोत्रे कर्मणी यस्य सोऽभिमुखनामगोत्रः शङ्खः प्रोच्यते । पूर्वोक्तस्त्रिविधोऽपि भावशङ्खताकारणत्वात् ज्ञशरीरभव्यशरोपतिरिक्तो द्रव्यशङ्ख उव्यते । नन्वेवं द्विअविकत्रिमविकादिरपि भावशङ्खताकारणत्वाद द्रव्यशङ्खवेन वक्तव्यस्तकिमिह एकमविक एवोच्यते ? इति चेदाह-द्विभविकादिरसिम्यवहितत्वेन भावशङ्खलाकारणत्वेन नाश्रीयते, तत्कारणत्वाभावात्तस्य द्रव्यलावेगा। शंखयोनि में जो जीव निकट में उत्पन्न होने वाला है अर्थात् उस जीव के द्वीन्द्रिय जाति आदिरूप नामकर्म एवं नीच गोत्ररूप कर्म जघन्य से एक समय के बाद, और उत्कृष्ट से अन्तर्मुहर्त के बाद उदयाभिमुख होने वाला हो, ऐसा वह जीव अभिमुखनामगोत्रशेख कहलावेगा। ये तीनों भी प्रकार के जीव भावखिता के कारण होने के कारण ज्ञशरीर और भव्यशरीर इन दोनों से व्यतिरिक्त द्रव्य शंख कहे गये हैं।
शंका--जिस प्रकार आपने भावशंखता के कारण होने से एक भविक को द्रव्यशंख कहा है-उसी प्रकार जो द्विभविक त्रिभविक आदि जीव हैं, उसे भी भावशंखता का कारण होने से द्रव्यशंख कहना चाहिये था, सो ऐसा क्यों नहीं कहा ? यहां तो एकविक को ही द्रव्य शंख कहा है।
उत्तर--इशंका ठीक है, परन्तु दिनविक आदि जीव को जो द्रव्यशंख नहीं कहा है, उसका कारण यह है कि 'ऐसा वह जीव भाव કહેવાશે. શંખ યોનિમાં જે જ નિકટ ભવિષ્યમાં ઉન્ન થનાર હોય તેમજ નીચ ગોત્ર રૂપ કર્મ જઘન્ય કરતાં એક સમય બાદ અને ઉત્કૃષ્ટથી અન્તમુહૂર્ત બાદ ઉદયાભિમુખ થનાર હે ય, એવે તે જીવ અભિમુખ નામ ગોત્ર શંખ કહેવાશે. આ ત્રણે પ્રકારના છ ભાવ શંખતાના કારણ હવા બદલ શરીર અને ભવ્ય શરીર એ બનેથી વ્યતિરિકત દ્રવ્યશંખ કહેવામાં આવ્યા છે.
શંકા-જેમ આપશ્રીએ ભાવશંખતાના કારણે એક ભવિકને દ્રવ્યશંખ કહેલ છે, તેમજ જે દ્વિભાવિક, ત્રિવિક વગેરે જીવ છે, તેને પણ ભાવશંખતા ના કારણે દ્રવ્યશંખ કહેવા જોઈએ, પરંતુ એવું કહેવામાં આવ્યું નથી. અહીં તે એકભાવિકને જ દ્રવ્યશખ કહેવામાં આવેલ છે.
ઉત્તર–શંકા બરાબર છે, પરંતુ દ્વિભાવિક વગેરે જીવને જે દ્રવ્યશંખ કહેવામાં આવ્યા નથી, તેનું કારણ આ પ્રમાણે છે કે “એવા તે જીવે ભાવ
अ० ७८
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अनुयोगहारो शङ्खत्वमपि नास्ति, ओ द्विभविकादिद्रव्यशङ्खत्वेन नोक्त इति । एकमविकादित्रिविधोऽपि शङ्खः कालतः क्रियचिरं भवतीत्याह-एगमविए णं भंते ! इत्यादि। एकमविकः खलु भदन्त ! शङ्खः एकभविक इति व्यपदेशेन कालतः कियश्चिरं भवति ? उत्तरयति-जघन्येन अन्तर्मुहूर्त भवति उत्कर्षेण पूर्वकोटीम् । अयं भावःशंखता का अव्यवहित कारण नहीं होता है । एक भविक जीव ही भाव शंखता का अव्यवहित कारण होता है । अतः उसे ही द्रव्यशंख कहा गया है। जीव मरकर शंख की ही पर्याय में उत्पन्न होनेवाला हो उसी का नाम एक भविक द्रव्यशंख है । द्विभविक आदि ऐसे नहीं होते हैं । क्योंकि वे मरकर शंख की पर्याय में ही प्रथम भवरूप से उत्पन्न नहीं होते-दुसरी पर्याय में उत्पन्न हो जाते हैं । इसलिये उनमें भावखिता के प्रति कारणता नहीं बनती । और इसलिये उनमें द्रव्यशंखता? भी नहीं कही गई है। एकभविक आदि जो तीनों प्रकार के ये शंख जीव हैं, उनमें से जो (एगभविए णं भंते) हे भदन्त ! जो एकमविक जीव है, वह (एगभविएत्ति) एकभविक इस नामवाला (कालओ) काल की अपेक्षा (केविरं भवह) कितने समय तक रहता है ?
उत्तर--(जहण्णेणं अंतोमुहुत्त उक्कोसे णं पुवकोडी) एक भविक जीव एकभविक इस नामवाला जघन्य से तो एक अन्तमुहर्त तक रहता है । इसका तात्पर्य यह है कि-'पृथिवी आदि किसी શંખતાના અવ્યહિત કારણ થતા નથી. એકભાવિક જીવ જ ભાવ શખતાના અવ્યવડિત કારણ હોય છે. એથી તેને જ દ્રશંખ કહેવામાં આવેલ છે. જે જીવ મરણ પામીને શંખ પર્યાયમાં જ જન્મ પામનાર હોય તેનું જ નામ એક ભવિક દ્રવ્યશંખ છે દ્વિભાવિક વગેરે એવા હોતા નથી, કેમકે તેઓ મરણ પામીને શંખ પર્યાયમાં જ પ્રથમ ભવરૂપમાં ઉત્પન્ન થતા નથી, પરંતુ બીજી પર્યાયમાં ઉત્પન્ન થઈ જાય છે. એટલા માટે તેમનામાં ભાવશંખતા પ્રત્યે કારણુતા ઉપસ્થિત થતી નથી અને તેથી જ તેમનામાં દ્રવ્યશંખતા પણ કહેવામાં આવી નથી. એક भावि पोरे २ त्रय प्रशना मा २५ वे छे. तमामाथी (एगभविए णं भंते) BRE! २ सेमपि ७१ छ, त (एगभविएत्ति) : मावि नाम: पाणी (कालओ) सनी अपेक्षासे (केवविरं भवइ) मा समय सुधी २७ छ ?
उत्तर-(जहण्णेणं अंतोमुहुत्तं उसेणं पुवकोडी) मेqि४ ७१ નામવાળે જઘન્યથી તે એક અન્તર્મુહૂર્ત સુધી રહે છે અને ઉત્કૃષ્ટથી તે એક
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अनुयगोचन्द्रिका टीका सूत्र २३० संख्याप्रमाणनिरूपणम् १९ पृथिव्यायन्यतमभवेऽन्तर्मुहूर्त जीवित्वा योऽनन्तरं शङ्खपृत्पद्यते सोऽन्तर्मुहूर्तमेकभविकः शङ्खो भवति । यस्तु जीवो मत्स्यायन्यतमभवे उत्कृष्टतः पूर्वकोटि जीवित्वैतेपुत्पद्यते स पूर्वकोटि यावदेकमविकः शङ्ख उच्यते । अत्र अन्तर्मुहूर्तादपि हीन जीवानामायुनास्ति, अतो जघन्यपदेऽन्तर्मुहूर्तग्रहणं कुतम् । यस्तु जीवः पूर्वकोटयधिकायुष्को भवति, सोऽसंख्यातवर्षायुष्कत्वाद् देवेष्वेवोत्पद्यते न तु शङ्खेषु, अतः पूर्वकोटीत्युक्तम् । तथा-बद्धायुष्कः कालतो जघन्येन अन्तर्मुहूर्त एकभव में अन्तर्मुहर्त तक जीवित रहकर फिर जो मरते ही शंख पर्याय में उत्पन्न हो जाता है, ऐसा वह एकभविक जीव अन्तर्मुहूर्त तक एक भविक शंख कहलाता है। तथा जो जीव मत्स्य आदि किसी एक भव में उत्कृष्टरूप से एक पूर्वकोटि तक जीवित रहकर मरते ही शंख पर्याय में उत्पन्न होता है वह एक पूर्व कोटि तक एकमविक शंख कहलाता है। जीवों की आयु अन्तर्मुहूर्त से कम नही होती है -अर्थात् कम से कम आयु जीवों की अन्तर्मुहूर्त की होती है इसलिये जघन्यपद में अन्तर्मुहूर्त का ग्रहण किया गया है। जो जीव पूर्व कोटी से अधिक आयुवाला होता है वह असंख्यातवर्ष की आयुवाला होने के कारण मरकर देवपर्याय में ही उत्पन्न होता है शंख पर्याय में नहीं। इसलिये उत्कृष्टपद में पूर्वकोटि रखा गया है। ( बद्धाउए णं भंते ! बद्धाउएत्तिकालओ केवच्चिरं होइ ?) हे भदन्त ! जो बद्धायुष्कजीव होता है, वह 'यह बद्धायुष्क' इस नाम वाला कब तक रहता है? પૂવકેટી સુધી રહે છે. આનું તાત્પર્ય આ પ્રમાણે છે કે “પૃથિવી વગેરે કઈ એક ભવમાં અતર્મુહૂર્ત સુધી જીવિત રહીને પછી જે મૃત્યુ થતાં જ શંખ પર્યાયમાં ઉત્પન્ન થઈ જાય છે, એવો તે એકભવિક જીવ અન્તર્મુહૂર્ત સુધી એક ભવિક શંખ કહેવાય છે. તેમ જ જે જીવ મત્સ્ય આદિ કઈ એક ભવમાં ઉત્કૃષ્ટ રૂપથી એક પૂર્વકેટિ સુધી જીવિત રહીને મૃત્યુ થતાં જ શંખ પર્યાયમાં ઉત્પન્ન થઈ જાય છે, તે એક પૂર્વકેટિ સુધી એક ભાવિક શંખ કહેવાય છે. જેનું આયુષ્ય અન્તર્મુહૂર્ત કરતાં કમ હોતું નથી. એટલે કે જેનું ઓછામાં ઓછું આયુષ્ય અંતર્મુહૂત્તનું હોય છે. એટલા માટે જઘન્યપદમાં અન્તર્મુહૂત્તનું ગ્રહણ કરવામાં આવ્યું છે જે જીવ પૂર્વકેટિ કરતાં અધિક આયુષ્યવાળે હેય છે, તે અસંખ્યાત વર્ષ જેટલું આયુષ્ય ધરાવતો હોવાથી મૃત્યુ પામીને દેવ પર્યાયમાં જ ઉત્પન્ન થાય છે. શંખ પર્યાયમાં નહિ એટલા भाटे ४ ५४i j ट रामपामा भावे छे. (बद्धाउए णं भंते ! बद्धाउए
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अनुयोगशासक भवति, उत्कर्षेण पूर्वकोटी त्रिमागम् । अयं भावः-जीवा अनुभूयमानस्यायुमो जघन्यतोऽन्तर्मुहूर्ते शेषे एवं आयुर्वन्धं कुर्वन्ति, उत्कृष्ट तस्तु पूर्वकोटित्रिभाय एक शेषे आयुर्वन्ध कुर्वन्ति, न तु ततः परतः, अतो बद्धायुष्कस्य जघन्यतोऽन्तर्मुहूर्यः मात्रं स्थितिः, उत्कृष्टतस्तु पूर्वकोटोत्रिभागमिति । अभिमुखनामगोत्रस्य जीवस्य जघन्यकाळमाश्रित्य समयमात्रस्थितिः उत्कृष्टसमयमाश्रित्य तु अन्तर्मुहूर्त्तम् ।
उत्तर-(जहण्णेणं अंतोमुहुत्त, उक्कोसेणं पुन्यकोडी तिभाग) बद्धायुष्क जीव पद्धायुष्क शंख इस नामवाला जघन्य से अन्तर्मुहूर्त तक और उस्कृष्ट से एक कोटिपूर्व के त्रिभाग तक रहता है। तात्पर्य यह है कि-'भुज्यमान आयु जघन्य से अन्तर्मुहर्स जय बाकी रह जाती है, तब जीव आयु का बन्ध करते हैं, और भुज्यमान आयु उत्कृष्ट से जब एक पूर्वकोटि के विभाग मात्र पाकी रहती है तब जीव आयु का पन्ध करते हैं । (अभिमुह नामगोए णं भंते ! अभिमुहनामगोएत्ति कालो केवच्चिरं होइ?) अभिमुखनाम गोत्र शंख हे भदन्त ! अभिमुखनाम गोत्र इस नोमवाला कालकी अपेक्षा कितने समय तक रहता है ?
उत्तर-(जहणेणं एक्कं समयं उक्को सेणं अंतोमुत्त) अभिमुखनामगोत्र शंख अभिमुख नाम गोत्र इस नामवाला जघन्य से तो एक समय तक और उत्कृष्ट से एक अन्तमुहूत तक रहता है । इसका त्तिकालओ केवच्चिरं होइ ?) B महन्त ! २ मद्धायु ७१ जय छ, ते ! બદ્ધાયુક છે.( આ નામવાળો કયાં સુધી રહે છે?
उत्तर-(जहण्णेणं अंतोमुहुत्तं, उक्केसेणं पुषकोडीतिभागं) मद्धायु ७१ બદ્ધાયુષ્ક શંખ આ નામવાળો જઘન્યથી અત્તમુહૂત સુધી અને ઉત્કૃષ્ટથી એક કટિ પૂર્વના વિભાગ સુધી રહે છે. તાત્પર્ય આ પ્રમાણે છે કે ભુજમાન આયુષ્ય જઘન્યથી અન્તર્મુહૂ જેટલું શેષ રહી જાય છે, ત્યારે જીવ આયુને બંધ કરે છે. અને ભુજ્યમાન આયુષ્ય ઉત્કૃષ્ટથી જ્યારે એક પૂર્વ
टिना निभा २ मा २९ त्यारे ४१ मायुनी रे छे. अभिमुहमामगोए णं भंते ! अभिमुहनामगोएत्ति कालओ केव चिरं होइ ?) मलि भुम નામ શેત્ર શંખ હે ભદંત! અભિમુખ નામ ગાત્ર આ નામવાળા કાળની અપેક્ષાએ કેટલા સમય સુધી રહે છે ?
उत्तर-(जहणेणं एक्कं समयं उनकोसेणं अंतोमुहत्तं) मिभुम नाम ગોત્ર શંખ અભિમુખ નામ ગાત્ર આ નામવાળે જઘન્યથી તે એક સમય સુધી અને ઉત્કૃષ્ટથી એક અત્તમુહૂર્ત સુધી રહે છે. આનું તાત્પર્ય
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अनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र २३० संख्याप्रमाणनिरूपणम् अदं बोध्यम्-आभिमुख्यं तु समीप्ये सत्येवोपपद्यते, अतोऽभिमुखनामगोत्रस्य द्रव्यशङ्खस्य जघन्यतः एक समयम् , उत्कृष्टतस्त्वन्तमुहूर्त स्थितिबोध्येति । उपरि. निर्दिष्टात् कालादनन्तरम् एकमविकादयस्त्रयोऽपि भावशङ्खतां प्रतिपद्यन्ते इति । इदानी नैगमादि सप्तनयमध्ये को नयः त्रिविधशखेषु कं शङ्खमिच्छति, तदार नैगमसंग्रहव्यवहाराः स्थूलदृष्टित्वात् त्रिविधमपि शङ्खमिच्छन्ति । दृश्यते हि स्थल: तात्पर्य यह है कि-'अभिमुखता समीपता के होने पर ही बनती है। इसलिये अभिमुख नाम गोत्रवाले द्रव्यशंख की स्थिति जघन्य से एक समय की और उत्कृष्ट से अन्तर्मुहूर्त की कही गई है। ये एकपविक आदि द्रव्यशंख इस कही हुई स्थिति के बाद फिर नियम से भावशंख पर जाते हैं। इस कथन का तात्पर्य ऐसा है कि-'एकमविकजीवद्रम्प शंख जघन्य से अन्तर्मुहूर्त तक और उत्कृष्ट से एक कोटि पूर्व तक रहता है, इसके बाद वह भावशंख बन जाता है अर्थात् शंख पर्याय में हो जाता है । इसलिये एकभविक की द्रव्यशंखरूप से रहने की स्थिति पूर्वोक्त जयन्य और उत्कृष्ट कही गई है। इमी प्रकार से बद्धायुक
आदि में भी जानना चाहिये । इयाणि को ओ के संखं इच्छा) अब सकार यह कहते है कि सातनयों में से कौन २ सा नय इन तीन शंखों में किस २ शंख को मानता है-'तत्थ णेगमसंगहववहारा तिषिई मखं इच्छंति-तं जहां एगभवियं, बद्धाउयं, अभिमुहनामगोतच) नेगमनय, संग्रहनय, और व्यवहार नय ये तीन नय स्थूल दृष्टिवाले આ પ્રમાણે છે કે “અભિમુખતા સામિપ્યને લીધે જ થાય છે એથી અભિમુખ નામ ગેત્રવાળા દ્રવ્ય શંખની સ્થિતિ જઘન્યથી એક સમયની એને ઉકષ્ટથી અન્તર્મહત્ત જેટલી કહેવામાં આવી છે. આ બધાં એક ભવિક આદિ દ્રશંખ આ કથિત સ્થિતિ પછી ફરી નિયમાનુસાર ભાવશંખ બની જાય છે. આ કથનનું તાત્પર્ય આ પ્રમાણે છે કે “એક વિક જીવ દ્રવ્ય શંખ જઘન્યથી અન્તમુહૂર્તા સુધી અને ઉત્કૃષ્ટથી એક કટિ પૂર્વ સુધી રહે છે, ત્યાર પછી તે ભાવ શંખ બની જાય છે. એટલે કે શંખ પર્યાયમાં પરિવર્તન થઈ જાય છે. એટલા માટે એકભાવિક જીવની દ્રવ્યખ રૂપમાં રહેવાની સ્થિતિ પૂર્વોકત જઘન્ય અને ઉત્કૃષ્ટ કહેવામાં આવેલી છે. આ प्रमाणे मद्धा पोरे विष ५ one से . (इयाणि को "ओ के संखं इच्छद) वे सूत्रा२ सात नयामाथी या नय मात्रय शोभायी य॥ शमन भने छ. ते विषे अथन रे थे. (तत्थ णेगमसंगहववहारा सिविहं संखं इच्छंति नहा एगभवियं बद्धाउयं, अभिमुइनामगोत्तं च) नेगभनय, सहनय, અને વ્યવહારનય આ ત્રણે ન સ્થલ દષ્ટિવાળા હોય છે, એથી એ
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अनुयोगद्वारसूत्र शो भाविकार्यकारिणि कारणे कार्योपचारं कृत्वा इत्यं व्यपदिशन्ति । यथाराज्याहे राजकुमारे राजशब्दव्यपदेशं, घृतप्रक्षेपयोग्ये घटे घृतघटशब्दव्यपदेशं कुर्वन्तीति । ऋजुभूत्रन यस्तु बद्धायुष्कम् अभिमुखनामगोत्रं च शङ्खमिच्छति । अयं भाव:-अयं नयः पूर्वनयापेक्षया विशुद्धत्वादेकभविकं शङ्खमतिव्यवहितत्वेनातिहोते है-इसलिये ये तीनों प्रकार के शंखों को मानते हैं। यह बात देखी जाती है कि-'जो स्थूल दृष्टिवाले होते हैं वे आगे होनेवाले कार्य के कारण में कार्य का उपचार करके उसे उसरूप से वर्तमान में कह दिया करते हैं-जैसे जो आगे राजा होने वाला होता है, ऐसे राजपुत्र को लोक, वर्तमान में राजा कह देते हैं-जिस घडे में घृत रखा जानेवाला है उस घडे को अभी से धृत का घडा कह देते हैं। इसी प्रकार से एगभविक षद्वायुष्क और अभिमुखनामगोत्र ये तीन प्रकार के द्रव्यशंखभविष्य में भावशंख होंगे-अभी तो हैं नहीं परन्तु इन्हें अभी से भावशंखरूप में कहनेवाले ये तीन नय हैं। इसलिये ये तीन नय इन तीनों शंखों को मानते हैं । (उज्जुसुमो दुविहं संख इच्छहतं जहा पद्धाउयं च अभिमुहनामगोतं च ) ऋजुसूत्र नय दो प्रकार के शंख को मानता है। एक बद्वायुष्क शंख को और दूसरे अभिमुख नाम गोत्रशंख को। एक भविक शंख को नहीं। क्योंकि यह नय पूर्वनयों की अपेक्षा विशुद्ध होता है-और वर्तमान समयवर्ती ત્રણે પ્રકારના શંખને માને છે. એવું જોવામાં આવે છે કે જે રત્થવ દષ્ટિવાળા હોય છે, તે ભવિષ્યમાં થનારા કાર્યના કારણમાં કાર્યોપચાર કરીને તેને તે રૂપમાં વર્તમાનમાં કહ્યા કરે છે. જેમ કે ભવિષ્યમાં રાજા થનાર હોય તે એવા રાજપુત્રને લેકે વર્તમાનમાં રાજા કહેતા હોય છે. જે ઘડામાં ઘી ભરવાનું છે, તેને પહેલેથી જ વૃતઘડે કહેવા લાગે છે. આ પ્રમાણે એક ભવિક બદ્ધાયુષ્ક અને અભિમુખ નામ શેત્ર આ ત્રણ પ્રકારના દ્રવ્ય શંખ ભવિષ્યમાં ભાવ શ થશે. અત્યારે તે છે નહિ, પરંતુ અત્યારથી જ એમને ભાવશંખરૂપમાં કહેનારા આ ત્રણ ન છે मेयी ४ मात्रणे तय नये. मात्रणे शमाने माने छे. (उज्जुसुओ दुविहं संखं इच्छह-तं जहा बद्धाउयं च अभिमुह नामगे.त्तं च" * सूत्रनय में પ્રકારના શંખને માને છે. એક બાયુષ્ક શેખને અને બીજા અભિમુખનામ ગેત્ર શંખને એક ભાવિક શંખને તે માનતા નથી. કેમ કે આ નય પૂર્વ નોની અપેક્ષા વિશુદ્ધ હોય છે અને વર્તમાન સમયવતી પર્યાને જ ગ્રહણ
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अनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र २३० संख्याप्रमाणनिरूपणम्
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मसङ्गभयान्नेच्छति, अत एतनयमते बद्धायुकाभिमु वनामगोत्रेति शङ्खद्वयमिति । तथा - शब्दसमभिरूढैवं भूताख्यास्त्रयः शब्दनया ऋजुनुत्रापेक्षयापि विशुद्धत्वात् बद्धायुकमपि अतिव्यवहितं मन्यते, अतोऽतिप्रसङ्गनिवृत्यर्थमभिमुखनामगोत्रमेकमे शङ्खमिच्छन्ति । तमुपसंहरन्नाह स एष ज्ञायकशरीर भव्यशरीर व्यतिरिक्तो द्रव्यशङ्ख इति । इत्थं नो आगमतो द्रव्यशङ्खस्य भेदयत्रयमपि निरूपितमिति सूचयितुमाह- स एष नो आगमतो द्रव्यशङ्ख इति । इत्थं सभेदो द्रव्यशङ्खः प्ररूपितइति चयितुमाह- स एष द्रव्यशङ्ख इति ॥ सू० २३०॥
पर्याय को ही ग्रहण करता है । इसलिये एकभविक इखि को नय भाव शंख के प्रति अतिव्यवहित होने के कारण अतिप्रसंग के भय से स्वीकार नहीं करता है। बद्धायुष्क और अभिमुख नाम गोत्र शंख ये भाव के प्रति अतिव्यवहित नहीं हैं, किन्तु समीर हैं । इसलिये इन्हें मानता है । (तिष्णि सहनया अभिमुहनामगोत्तं संखं इच्छंति) शब्द समभिरूद और एवंभूत ये तीन नय अभिमुख नामगोत्र शंख को मानते हैं-दो को यहीं । ये नय ऋजुसूत्र नय की अपेक्षा भी विशुद्ध होते हैं इसलिये इनकी दृष्टि में बद्धायुष्क शंख भी भाष शंख के प्रति अति व्यवहिन हैं- सिर्फ एक अभिमुखनाम गोत्र शंख नहीं, इसलिये इसे ही ये शंख मानते हैं। (से सं जाणयसरीर भवियसरीर वहरित्ता दव्यसंखा से तं नो आगमओ दव्यसंखा से सं दव्य संखा' इस प्रकार से ज्ञायकशरीर भव्यशरीरव्यतिरिक्तद्रव्यशंखों के
કરે છે. એથી એકભવિકશ’ખને આ નય ભાવશ`ખ પ્રત્યે અતિ વ્યવર્હુિત હાવા બદલ અતિ પ્રસ`ગના ભયથી સ્વીકાર કરતા નથી. અદ્ધાયુષ્ક અને અભિમુખનામગેાત્ર શંખ એએ ભાવશંખની પ્રત્યે અતિવહિત नथी, परंतु सभी मेथी खेभने माने छे (तिणि सहनया अभिमुहनामगोत्तं सखं इच्छंति) शब्द, समलि३ढ मने यखेवलून या नये नयेो અભિમુખ નામ ગોત્ર શખને માને છે. એને નહિ. આ નયે ઋજુ સૂત્ર નયની અપેક્ષા પણ વિશુદ્ધ હૈાય છે. એટલા માટે એમની દૃષ્ટિએ ખદ્ધાયુષ્ય શ ́ખ પત્ર ભાવ શ`ખની પ્રત્યે અતિભ્યવહિત હાય છે. ફક્ત એક અભિમુખ नाम गोत्र नहि. मेथी खाने शो भाना छे. (से त्तं जाणयसरीर भविय खरीर वइरित्ता दव्त्रसंखा से तं नो आगम ओ दव्वसंखा से तं दव्वसंखा) मा प्रभा સાય શરીર ચશરીર વ્યતિરિક્ત દ્રષ્ય શખામાં સ્વરૂપનું આ કથન છે ના
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अयोगद्वार सूच
स्वरूप का यह कथन है। नो आगमकी अपेक्षा द्रव्यसंख के भेर्दों का इस प्रकार कथन समाप्त होने पर द्रव्यशंख का स्वरूप कथन समाप्त हुआ ।
भावार्थ - इस सूत्र द्वारा सूत्रकार ने संख्या प्रमाण का निरूपण प्रारंभ होने का कथन किया है। इसमें उन्होंने यह कहा है कि संख्या प्रमाण - नाम संख्या १, स्थापनासंख्या २, द्रव्यसंख्या ३, औपम्यसंख्या ४, परिमाण संख्या ५, ज्ञानसंख्या ६, गणना संख्यो ७ और भाव संख्या के भेद से आठ प्रकार का होता है । आठमें तीन के स्वरूप का वन सूत्रकार यहां करते हैं और पांच के स्वरूप का वर्णन आगे करेंगे। इनमें संख्या प्रमाण के विषय में ऐसा कहा है कि- 'संख' यह शब्द संख्या और शंख इन दोनों का वाचक होता है। इसलिये जहाँ पर जिस शब्द की घटना से अर्थ प्रतीति होवे वहां पर उस शब्द की घटना करके विवक्षित अर्थ संगत कर लेना चाहिये। किसी भी जीव अथवा अजीव आदि पदार्थ को संख्या ऐसा नाम रखना इसका नाम संख्या है । काष्ठकर्म आदि में 'यह संख्या है' इस प्रकार की स्थापना करना इसका नाम 'स्थापनासंख्या ' है नामसंख्या और
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આગમની અપેક્ષાએ દ્રવ્ય શખતા ભેઢાનું આ પ્રમાણે વક્તવ્ય સમાસ થતાં દ્રવ્ય શખતા સ્વરૂપનું કથત સમાપ્ત થયુ છે તેમ સમજવું.
९.
भावार्थ:- —આ સૂત્ર વડે સૂત્રકારે સખ્યા પ્રમાણના નિરૂપણુાર ભનુ' કથન સ્પષ્ટ કર્યુ છે. આમાં તેએશ્રીએ આમ કહ્યું છે કે સખ્યા પ્રમાણુनाभस'च्या ? स्थापनासंख्या २, द्रव्यसंख्या 3, भोपभ्यसंख्या ४, પરિમાણુ સખ્યા ૫, ज्ञानस ज्या ६, ગણુનાસખ્યા ૭. અને ભાવ સખ્યાન ભેદથી આડ પ્રકારનું છે. આઠમાંથી ત્રન્ગ્યુના સ્વરૂપનું વર્ણન સૂત્રકાર અહી કરે છે અને શેષ પાંચનું વધુન હવે પછી ५२शे. આમાં સખ્યા પ્રમાણુના સંબધમાં આમ કહેવામાં આવ્યુ છે કે સઁ' આ પત્ર શખ-પ્યા અને શ" આ બન્ને અર્થાને સ્પષ્ટ કરે છે. એથી જ્યાં જે શબ્દની ઘટનાથી અ-પ્રતીતિ હાય ત્યાં તે શબ્દની ઘટના કરીને વિક્ષિત અની સગતિ બેસાડી લેવી જોઈએ. કોઈ પણ જીવ અથવા અજીવ આદિ પદ્માની સંખ્યા એવું નામ રાખવુ તે નામસખ્યા કહેવાય છે, કાષ્ટ મ વગેરેમાં ‘આ સખ્યા છે આ જાતની સ્થાપના કરવી તેનું નામ 'स्थापना સખ્યા છે' નામ સખ્યા’ અને સ્થાપના સખ્યામાં તફાવત છે, તે આ
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मनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र २३० संख्याप्रमाणनिरूपणम् ६२५ स्थापना में भेद है और वह इस प्रकार से है कि नाम यावस्कथिक होता है और स्थापना इत्वरिक भी होती है और यावत्कयिक भी होता है । इस विषय का स्पष्टीकरण नाम आवश्यक और स्थापना आवश्यक के प्रकरण में पीछे किया चुका है । 'दव्यसंखा' के विचार में 'संख' शब्द अर्थ संख्यापरक न लेकर शंख परक लिया गया है। आगम
और नो आगम के भेद से द्रव्य शंख दो प्रकार का कहा गया है। इनमें आगम शंख और नो आगम शंख के भेदरूपज्ञायक शरीर भव्य शरीर शंख इनका स्वरूप द्रव्यावश्यक के प्रकरण में कहे गये इन भेदों के अनुसार ही जानना चाहिये । इन भेदों से-ज्ञायकशरीर और भव्यशरीर शंख से-भिन्न द्रव्य शंख के एकभविक, बद्धायुष्क, अभिमुख गोत्र ये तीन भेद हैं। जिस जीव ने उत्पन्न होकर अभी तक शंख पर्याय की आयु का बन्ध तो नहीं किया है परन्तु मरकर जिसे शंख की पर्याय में उत्पन होना अवश्य है ऐसा शंख पर्याय में उत्पन्न होने के प्रथम भव में स्थित जो जीव है वह एकभविक शंख है। इसकी जघन्य स्थिति अंगमुहूर्त की और उत्कृष्टस्थिति एककोटि पूर्व की है । बदायुष्क शंख वह जीव है कि-जिसने शंख पर्याय में उत्पम
પ્રમાણે છે કે નામ યાવસ્કથિત હોય છે. અને સ્થાપના ઈવરિક પણ હોય છે અને યાવસ્કથિત પણ હોય છે. આ વિષે સપષ્ટતા નામ આવશ્યક અને स्थापना मावश्या प्र४२मा पडता ४२वामा भावी छे. 'दव्यसंखा' ना વિચારમાં “સંખ' શબ્દનો અર્થ સંખ્યા પરક લેવામાં આવ્યું નથી. પરંતુ આનો અર્થ શંખ-પરક લેવામાં આવ્યું છે. આગમ અને આગમન ભેદથી દ્રવ્ય શંખના બે પ્રકારો કહેવામાં આવ્યા છે. આમાં આગમ શંખ અને આગમ શંખના ભેદ રૂપ જ્ઞાયક શરીર ભવ્યશરીર શંખ-એમનું સ્વરૂપ દ્રવ્યાવશ્યકતાના પ્રકરણમાં કથિત ભેદ મુજબ જ જાણી લેવું જોઈએ. આ બને-ગાયક શરીર અને ભવ્ય શરીર શંખથી ભિન્ન દ્રવ્ય શંખના એક ભવિક, બદ્ધાયુક, અને અભિમુખ નામ ગોત્ર આ ત્રણે ભેદે છે. જે જીવે ઉત્પન્ન થઈને હજી સુધી શંખ પર્યાયની આયુનો બંધ કર્યો નથી પરંતુ મરણ પ્રાપ્ત કરીને જે શંખની પર્યાયમાં ચોક્કસ ઉત્પન્ન થવાનો છે, એ શંખ પર્યાયમાં ઉત્પન્ન થવાના પૂર્વ પ્રથમ ભવમાં સ્થિત જીવ તે એકભવિક શંખ છે એની જઘન્ય સ્થિતિ અંતર્મુહૂર્તની અને ઉત્કૃષ્ટ સ્થિતિ એક કટિ પૂર્વની છે. તે બદ્ધાયુષ્ક શંખ તે જીવ કહેવાય છે કે
अ० ७९
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अनुयोगद्वार
ar औपम्यसंख्यां निरूपयति
मूलम् - से किं तं ओम्मसंखा ? ओवम्मसंखा - चउव्विहा पण्णत्ता, तं जहा - अस्थि संतयं संतपणं उवमिज्जइ, अस्थि संतयं असंतपणं उवमिज्जइ, अस्थि असंतयं संतएणं उवमिज्जइ, अस्थि असंतयं असंतएणं उवभिज्जइ । तत्थ संतयं संतपणं उवमिजइ, जहा - संता अरिहंता संतपहिं पुरवरेहिं संतएहि काहिं संतहि वच्छेहिं उवमिजंति, तं जहा - " पुरवरकवाड
होने की आयु का बन्ध कर लिया है। इसकी स्थिति जघन्य अन्तहर्स की और उत्कृष्ट एककोटिपूर्व के विभाग प्रमाण है । जिसके वीन्द्रिय जाति आदिरूप नाम कर्म और नीच गोत्ररूप गोत्रधर्म जघन्य से एकसमय तक और उत्कृष्ट से अन्तर्मुहूर्त्त तक उदद्याभिमुख नहीं होते हैं ऐसा वह जीव अभिमुखनाम गोत्र शेख है। इसकी जघन्य स्थिति एक समय की और और उत्कृष्ट स्थिति अन्तर्मुहूर्त की है । अपनी २ स्थिति के समाप्त होते हो ये सब भावशेख बन जाते हैं । नैगमनय, संग्रहनय, और व्यवहार नय ये तीनों नय इस तीनो प्रकार के शंखों को मानते हैं । ऋजु सूत्रनय एकभविकशेख के सिवाय दो प्रकार के शखों को और एक अभिमुख नामगोत्र शंख को शब्द, सम भिरुढ और एवं भूत नय मानते हैं ।। सू० २३० ॥
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જેણે શખ પર્યાયમાં ઉત્પન્ન થવા જેટલા આયુષ્યના બંધ કરી લીધા છે. અ'ની સ્થિતિ જઘન્ય અન્તર્મુહૂત્તની અને ઉત્કૃષ્ટ એક કોટિ પૂના ત્રિભાગ પ્રમાણ છે. જેન દ્વીન્દ્રિય જાતિ વગેરે રૂપ નામ કમ અને નીચ ગેાત્ર રૂપ માત્ર ક જઘન્યથી એક સમય સુધી અને ઉત્કૃષ્ટથી અન્તર્મુહૂત્ત સુધી ઉદયાભિમુખ થતા નથી એવા તે જીત્ર અભિમુખ નામગાત્ર શંખ છે. આની જધન્ય સ્થિતિ એક સમયની અને ઉત્કૃષ્ટ સ્થિતિ અન્તદૂત્તની છે. પાતપેાતાની સ્થિતિ પૂરી થતાં જ આ સર્વ ભાવશ`ખ બની જાય છેનૈગમનય, સંગર્હનય અને વ્યવહારનય આ ત્રણે નય આ ત્રશ્ને પ્રકારના શાને માને છે. ઋજુ સૂત્રનય એકભવિક શખ સિવાય એ પ્રકારના શ ંખાને અને એકઅભિમુખ नामगोत्र श’मने शब्द, समलिइ भने शेवंभूत नय माने छे | सूत्र २३० ॥
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अनुयोगन्द्रका टीका सूत्र २३१ औपम्यसंख्या निरूपणम् वच्छा फलिभुया दुदुहित्यणियघोसा। सिविच्छाकयवच्छा सव्वेऽवि जिणा चउव्वीसं ॥१॥" संतयं असंतपणं उवमिज्जइ, जहा संताई नेरइयतिरिक्खजोणियमणुस्सदेवाणं आउयाई असंतएहिं पलिओमसागरोवमेहिं उवमिज्जति । असंतयंअसंतपणं उवमिज्जइ, तं जहा - "परिजूरियपेरंतं, चलंतबिंटं पडतनिच्छीरं । पत्तंसणपत्तं, कालप्पत्तं भणड़ माहं ॥१॥ जह तुम्भे तह अम्हे तुभेऽविय होहि हा जहा अम्हे । अप्पा हेइ पडतं, पंडुयपत्तं किसलयानं ॥ २ ॥ णवि अस्थि णवि य होही, उल्लावोसियल पंडुपत्ताणं । उवमा खलु एस कया, भवियजण विबोहणा ||३||" असंतयं असंतएहिं उवमिज्जइ, जहा खरविसाणं तहा ससविसाणं । से तं ओवम्मसंखा ॥ सू० २३१ ॥
छाया - अथ का सा औपम्यसंख्या ? औपम्यसंख्या - चतुर्विधा प्रज्ञप्ता, तद्यथा - अस्ति सत्कं सत्केन उपमीयते, अस्ति सत्कम् असत्केन उपमीयते,
अब सूत्रकार औपम्यसंख्या का निरूपण करते हैं
'से किं तं ओवम्मसंखा ? इत्यादि ।
દહે
शब्दार्थ - - (से किं तं ओवम्मसंखा ? ) हे भदन्त ! औपम्य संख्या का क्या है ?
उत्तर--( ओम्मसंखा चउत्रिहा पण्णत्ता) औपम्यसंख्या चार प्रकार की कही गई है । (तं जहा) जैसे- (अस्थि संतयं संतएण उवमिહવે સૂત્રકાર ઔપ્મ્ય સંખ્યાનું નિરૂપણ કરે છે.
" से किं तं ओवम्मसंखा ?" इत्यादि
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शब्दार्थ:- (से किं तं ओवम्मसंखा ? ) डे लहंत ! भोभ्य सभ्यातुं તાપય શું છે ?
उत्तर : (ओवम्मसंखा चउव्विहा पण्णत्ता) भौयभ्य संख्या यार प्रभारनी उडेवामां भावी छे. (तं जहा) प्रेम (अस्थि संतयं संतरणं क
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अनुयोगद्वारसूत्रे अस्ति असत्कं सस्केन उपमीयते, अस्ति अस असत्केन उपमीयते । तत्र सत्कं सत्केन उपमीयते, यथा-सन्तः अर्हन्तः सद्भिः पुरवाः सद्भिः कपाटैः सत्सु वक्षःसु उपमीयन्ते, तद्यथा-पुरवरकपाटवक्षसः परिधभुना दुन्दुभिस्तनितघोषाः। श्रीवत्साङ्कितवक्षसः सर्वेऽपि जिनाश्चतुर्विशतिः।।१।। सत्कम् असत्केन उपमीयते, यथा सत्कानि नरयिकतिर्यग्योनिकमनुष्यदेवानाम् आयुष्काणि असत्कैः पल्योपमसागरोपमैः उपमीयन्ते । असत्कं सत्केन उपमीयते, तद्यथा-परिजीर्णपर्यन्तं चल
वन्तं पतन्निःक्षीरम् । पत्रं व्यसनमाप्तं काळमाप्तं भगति गाथाम् ॥१॥ यथा युष्माकं तथा अस्माकं यूपमपि भविष्यथ यथा वयम् । संदिशति पतत् पाण्डुकपत्र किसलयेभ्यः ॥२॥ नापि अस्ति नापि च भविष्यति उल्लापः किसलयपाण्डुपत्राणाम् । उपमा खलु एषा कृता भविकनन विवोधनार्थम् ॥३॥ असत्कम् असत्कैः उपमीयते, यथा खरविषाणः तथा शशविषाणः । स एषा औषम्यसंख्या॥ २३१॥
टीका-से कि तं ओवम्मसंखा' इत्यादि____ अथ का सा औपम्यसंख्या ? इति शिष्यप्रश्नः । उत्तरयति औपम्पसंख्याउपमैव औपम्यम् , संख्यानं संख्या-वस्तुपरिच्छेदो वस्तुनिर्णय इति यावत् , औपम्येन औपम्य प्रधाना वा संख्या-औपम्यसंख्या । इयं च उपमानोपमेययोः सत्यासत्त्वाभ्यां चतुर्विधा भवति । यथा-सद् वस्तु सता वस्तुना उपमीयते, सद्वः स्तु असता वस्तुना उपमीयते, असद् वस्तु सता वस्तुना उपमीयते, असद वस्तु असता वस्तुना उपमीयते इति । तत्र सद् वस्तु सता वस्तुना उपमीयते इति यदुमिज्जह, अस्थि संतयं असंतए णं उवमिज्जा, अस्थि असंतयं संतएणं उवमिज्जइ) जहां सबस्तु सद्वस्तु से उपमित की जाती है वह औपम्यसंख्या का प्रथम प्रकार है। जहां सबसु असवस्तु से उपमित की जाती है वह औपम्पसंख्या का द्वितीय प्रकार है । जहां असवस्तु सबस्तु से उपमित की जाती है वह औपम्पसंख्या का तृतीय प्रकार है। (अस्थि असंतयं असंतएणं उवमिज्जइ) जहां असद्वस्तु असद्वस्तु से उपमित की जाती है वह औपम्पसंख्या का चौथा प्रकार है। औपम्य. मिज्जइ, अस्थि संतयं असंतर णं उवमिज्जइ, अस्थि संतयं संतएणं उवमिज्जइ)
જ્યાં સદુવતુ સદ્ વસ્તુની સાથે ઉપમિત કરવામાં આવે છે, તે ઔપમ્ય સંખ્યાને પ્રથમ પ્રકાર છે. જ્યાં સદ્ભવસ્તુ અસદુવસ્તુની સાથે ઉપમિત કરવામાં આવે છે તે ઔપભ્ય સંખ્યાને બીજો પ્રકાર છે. જ્યાં અસદૃવસ્તુ સદવર્તીની સાથે ઉપમિત કરવામાં આવે છે, તે પમ્ય સંખ્યાનો ત્રીજો
२ छे. (अस्थि असंतयं असंतएणं उबमिज्जइ) यां मस१२तुमसपरतुनी
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अनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र २३१ औपम्यसंख्यानिरूपणम् क्तम् , तस्य निदर्शनमाह-यथा-सन्तः अर्हन्तः सद्भिः पुरवरैः सद्भिः कपाटैः सत्सु वक्षःमु उपमीयन्ते इति । यथा ते उपमीयन्ते तथाह-'पुरवरकवाडवच्छा' इत्यादि -अयं भावः-सर्वेऽपि चतुर्विंशति जिनाः पुरवर कपाटवक्षसः-पुरवरस्य प्रधाननगरस्य यः कपाटः स इव वक्षो येषां ते तयाभूता भवन्ति ! तथा-परिघभूजाः= परिघाकारभुनयुक्ताः भवन्ति । पुनश्च-दुन्दुभिस्तनितघोषा भवन्ति, दुन्दुभिनादवद् मेघनिर्घोपवच तीर्थकृतां स्वरो भवतीत्यर्थः । तथा-चैते श्रीवत्साङ्कितवक्षसो भवन्ति-एषां वक्षःस्थलेषु श्रीवत्सचिह्नं भवतीत्यर्थः । अत्रेदं बोध्यम्-यो हि तीर्थकरान स्वरूपतो निश्चिनोति, स तान् पुरवरकपाटवक्षस्कत्वादिनैव निश्चिनोति पुरवरकपाटादिनामुपमेयभूता यधपि वक्षःस्थलादयो भवन्ति, तथापि वक्षः शब्द का अर्थ उपमा है तथा वस्तु के परिच्छेद का नाम संख्या है। उपमा देकर वस्तुका निर्णय करना अथवा उपमापधान जो वस्तु का निर्णय होता है, वह औपम्यसंख्या है । यह उपमान उपमेय की सत्ता
और असत्ता से पूर्वोक्तरूप में चार प्रकार का होता है। (नस्थ संतयं संतए णं उवमिज्जइ, जहा-संता अरिहंता संतएहिं पुरवरेहिं संतरहि कवाडेहिं संतएहिं वच्छेहिं उमिति, तं जहा-पुरवरकवाडवच्छा फलिहभुया दुंदुहित्यणियघोसा, सिरिवच्छंकियवच्छा सव्वेऽवि जिणा च उव्वीसं) इनमें औपम्य संख्या का जो प्रथम प्रकार है वह इस प्रकार मे है जैसे-अरिहंत भगवान का वक्षस्थल प्रधाननगर के कपाट के जैसा होता है । यहां पर चौवीस अरिहंत भगवंत सद्रूप हैं और पुरवर के कपाट भी सद्रूप है । सद्रूप कपाटों से अहंत भगवंतो के वक्षः સાથે ઉપનિત કરવામાં આવે છે તે ઔપભ્ય સંખ્યાને જે પ્રકાર છે.
પય શબ્દનો અર્થ ઉપમા છે તેમજ વસ્તુના પરિચ્છેદનું નામ સંખ્યા છે. ઉપમા આપીને વસ્તુને નિર્ણય કરે અથવા ઉપમા પ્રધાન જે વસ્તુને નિર્ણય હોય છે, તે ઔપચ્ય સંખ્યા છે. આ ઉપમાને ઉપમેયની સત્તા અને मसत्ताथी पूरित ३२ यार प्रा२नु थाय छे. (तत्थ संतयं संतएण उवमिज्जइ जहा संता अरिहंता संतपहिं पुरवरेहि कवाडेहि संतरहिं वच्छेहिं अमिज्जति, तं-जहा,-पुरवर कवाडअच्छा फलिहभुया दुदुहित्थगियघोसा सिरिवच्छंकियवच्छा सव्वेऽवि जिणा चउव्वीस) આમાં જે ઔપભ્ય સંખ્યાને પ્રથમ પ્રકાર છે તે આ પ્રમાણે છે, જેમ કે અરિહંત ભગવાનું વક્ષસ્થળ મુખ્ય નગરના કપાટ જેવું હોય છે. અહીં ૨૪ અરિહંત ભગવંત સાદુરૂપ છે અને પુરવરના કપાટ પણ સરૂપ છે સદરૂપ કપાટની સાથે અહંત ભગવંતેના વક્ષસ્થળો ઉપમિત કરવામાં આવ્યા
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अनुयोगद्वारसूत्र स्थलादीनां तीर्थकराविनाभूतत्वात्ते मितेषु तीर्थकरा अयुषभिता एव भवन्ति, अतएव 'संता अरिहंता संतरहि-पुरवरेहि' इत्याधुक्तम् । इत्थं चात्र उपमेयभूतानां तीर्थकृतामुपमानेन संख्या निश्चयो भवतीयोपभ्यसंख्यात्वं बोध्यम् । इति पथमो भङ्गः । अथ द्वितीय भङ्गं निरूपयति-सद् वस्तु असता वस्तुना उपमीयते । स्थल को उपमित किया गया है। यहाँ कपाट उपमानभूत हैं। और अहंत भगवंतों का वक्षस्थल उपमेयभूत है। इसी प्रकार से ऐसा कहना कि इन अहंत भगवंतों के भुज परिघा के आकार जैसे होते हैं। इनका वक्षःस्थल श्रीवत्स से अङ्किा होता है। दुदुभि के स्वर जैसा इनका निर्घोष होता हैं । इसका तात्पर्य यह है कि जो व्यक्ति तीर्थ करों के वक्षस्थल आदि कैसे होते है ? इस बात को जानना चाहता है, वह पुरवर कपाट आदि उपमानों से उन्हें जान लेता है। इस प्रकार यद्यपि उपमानभूत पुरवर कपाट आदिकों से उपमेयभूत ये वक्षः स्थल आदि हैं-फिर भी ये तीर्थंकर के अविनाभावी होने से उनके उपमित होने पर तीर्थंकर भी उपमित हो जाते है । इसलिये 'संता अरिहंता, संतएहिं पुरवरे हिं' 'इत्यादिरूप से सूत्रकार ने कहा है। इस प्रकार यहां उपमेयभूत तीर्थंकरों का उपमानभूत पुरवर कपाटादिकों से संख्या निश्चय-हो जाता है । यह औपम्यसंख्या का प्रथम प्रकार है। औपम्पसंख्या का जो 'संतयं असंनए णं उमिज्जई' यह द्वितीय છે. અહીં કપાટ ઉપમાન ભૂત છે અને અહંત ભગવંતેનું વક્ષસ્થળ ઉપમેય ભૂત છે. આ પ્રમાણે જ એમ કહેવું કે આ અહંત ભગવતેની ભુજાઓ પરિધાને આકાર જેવા હોય છે. એમનું વક્ષસ્થળ શ્રીવલ્સથી અંકિત હોય છે. દુંદુભિના સ્વર જે એમને નિર્દોષ હોય છે. આનું તાત્પર્ય આ પ્રમાણે છે કે જે વ્યક્તિ તીર્થકરોના વક્ષસ્થળે વગેરે કેવાં હોય છે? આ વાત જાણવા ઈચ્છતા હોય, તે પુરવાર, કપાટ વગેરે ઉપમાનથી જાણી લે છે આ પ્રમાણે જે કે ઉપમાન ભૂત પુરવાર, કપાટ વગેરેથી ઉપમેયભૂત આ વક્ષસ્થળ વગેરે છે, છતાં એ એઓ તીર્થંકરના અવિનાભાવી હોવાથી तमना अपमित पाथी तीय ३२ ५५५ ५मित थ य छ. मेथी (संता अरिहंता, संतएहिं पुरवरेहिं) त्या ३५थी सूत्रारे उखु छे. मा प्रभारी અહી ઉપમેય ભૂત તીર્થકરોના ઉપમાનભૂત પુરવર કપાટાદિકથી સંખ્યા નિશ્ચિત થઈ જાય છે આ ઔપભ્ય સંખ્યાને પ્રથમ પ્રકાર છે. પમ્ય સંખ્યાને रे 'संतयं असंतए णं उवमिज्जई' मा पीने २ छ, ते या प्रमाणे छ
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भनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र २३१ औपम्यसंख्यानिरूपणम् यथा-सन्ति विद्यमानानि नैरयिकतिर्यग्योनिकमनुष्यदेवानाम् आयूंषि असद्भिः पल्पोपमसागरोपमैरूपमीयन्ते । पल्योपमसागरोपमादीनामसद्वस्तुत्वं योजना प्रमाणपल्यवालाग्रादिपरिकल्पनामात्रेण प्ररूपितत्वाद् बोध्यम् । महानारकादीना मायुमहत्त्वसाधकत्वादेषां पल्पोपमसागरोपमादीनामुपमानत्वं बोध्यम् । इति द्वितीयो भङ्गः। अथ तृतीयभङ्गमाह-असद्वस्तु सता वस्तुना उपमीयते । तदाह-परिजूरियपेरंत' इत्यादि । वसन्तसमये परिजीर्णपर्यन्तं परिजीर्ण-परितः
समन्तात् जीर्णतां गतः पर्यन्तःपर्यन्तभागो यस्य तत्तथा-सकलावयवश्वेन जीर्णतां प्राप्तम् , अत एव-चलद्वत्तम्-भृन्ताद् विच्युति प्राप्नुवत् , अत एव पतत्वृक्षादधः पतत् निःक्षारम्परिणतत्वात्क्षीररहितं व्यसनपाप्तं वृक्षवियोगादिरूपं दुख माप्तं पत्रं कर्तृ' कालमाप्तम् वसन्तकालसमुत्पन्नं नवं पत्र पति गाया प्रकार है वह इस प्रकार से है-(जहा) जैसे (संसाई नेरइयतिरिक्त जोणियमणुस्स देवाणं आउयाइं असंतएहि पलिओवमसागरोवमेहं उधमिज्जंति) नारक, तियश्च, मनुष्प, और देव इनकी आयु पल्योषम प्रमाण एवं सागरोपम प्रमाण है । इस कथन में नैरयिक आदि जीवों की आयु सद्रूप है और पल्योपम सागरोपम ये असदप हैं। क्योंकि ये योजन प्रमाणपल्य में स्थापित किये गये वालाग्रादि की परिकल्पनामात्र से परिकल्पित हुए हैं। यहां नारकादिकों की आयुउपमेय और पल्पोपम सागरोपम आदि उपमान है, क्योंकि इनके द्वारा उसका महत्त्व साधित होता है । इस प्रकार यह द्वितीय प्रकार है-तृतीय प्रकार इस प्रकार से हैं-(जहा) जैसा (तं जहा परिजूरियपेरंतं चलंतविंट पड़तनिच्छीरं, पत्तं च वसणपत्तं कालप्पत्तं भणइ गाह) असतयं संत( जहा) २५ (संतई नेरइयतिरिक्खजोणि यमणुस्सदेवाणं आउयाई असंतएहिं पलिओवमसागरोव मेहिं उवमिज्जति) ना२४, तिय"य, मनुष्य અને દેવ એમનું આયુષ પલ્યોપમ પ્રમાણ અને સાગરોપમ પ્રમાણ છે આ કથનમાં નરયિક વગેરે જેનું આયુ સલૂપ છે અને પાપમ સાગરેપમ એ અસરૂપ છે. કેમ કે એઓ જન પ્રમાણ પથમાં સ્થાપિત કરવામાં આવેલ બાલાગાદિની પરિકલ્પના માત્રથી પરિકથિત થયેલાં છે. અહીં નારકાદિનું આયુષ ઉપમેય અને પલ્યોપમ સાગરોપમ વગેરે ઉપમાન છે કેમ કે એમના વડે તેમનું મહત્વ સાબિત થાય છે. આ પ્રમાણે આ દ્વિતીય
४॥२ छ. तृतीय १२ मा प्रमाणे छ. (जहा) रे ? (तं जहा परिजूरिय परंतं चलंतटिं पड़तनिच्छीरं, पत्तं च वसणपतं कालप्पत्तं भणइ गाह)
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६३२
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अनुयोगद्वारा भणति । कां गाथां भणति ? इत्याह-'जह तुब्भे' इत्यादि । यथा यूर्य सम्प्रतिस्थः तथा वयमपि पुराऽभूम, यथा च सम्पति वयं स्मस्तथा यूयमपि भविष्यथ, इत्थं पतत् किमपि पाण्डुकपत्रं किसलयेभ्यः= नवोद्तपत्रेभ्यः 'अप्पा हे' इति संदिशति
कथयति । संपूर्वक दिश् धातोः 'अप्पाह' इत्यादेशो भवति । अयं भावः-यथायूयं सम्पति आरक्तस्निग्धरूपाणि सुकोमलानि सकलजननेत्रानन्ददायीनि स्था, एणं उवमिज्जइ' यह औपम्य का तृतीय प्रकार है-सो इसमें असमस्तु सबस्तु से उपमित हुई है-जैसे-वसन्त के समयमें पुराने पसे ने कि'जो मर्व प्रकार से बिलकुल जीर्ण हो चुका है, उन्टल से जो टूट चुका है, और इसी कारण जो वृक्ष के नीचे पडा हुआ है, जिसका सार भाग बिलकुल सूख गया है, तथा वृक्ष के वियोग से जो अत्यन्त दुःखी बन रहा हैं, नवीन पत्ते से इस गाथा को कहा-कि(जह तुम्भे तह अम्हे तुम्हेऽवि य हो हि हा जहा अम्हे अप्पाहेर पडतं, पंडुयपत्तं किसलया ण) जिस प्रकार तुम इस समय हो हम भी पहिले ऐसे ही थे । तथा-इस समय हम जैसे हो रहे हैं तुम भी आगे चलकर ऐसे ही हो जाओगे। इस प्रकार से किसी गिरते हुए पुराने जीर्ण पत्ते ने नवो. द्गत किसलयों से कहा। यहां 'सं' पूर्वक 'दिश्' धातु को 'अप्पाह' यह आदेश हुआ है। इसलिये 'अप्पाहेई' का अर्थ 'संदिशति' है तात्पर्य "असंतयं संतएणं उबमिज्जइ" 20 मीपभ्यन बी १२ छ. मामा असद વસ્તુ સદુવસ્તુ વડે ઉપમિત કરવામાં આવેલ છે. જેમ કે-વસન્તના સમયમાં
સર્વ રીતે એકદમ જ થઈ ગયા છે. ડાંખળીથી જે તૂટી ગયા છે અને એથી જ જે વૃક્ષની નીચે પડેલ છે, જેને સાર ભાગ સાવ શુષ્ક થઈ ગયે છે, તેમજ વૃક્ષના વિયોગથી જે અતીવ દુઃખી થઈ રહ્યા છે એવા पाहमे न पहने 24॥ ॥ ४सी है (जह तुन्भे तह अम्हे तुम्हे ऽवि य हेो हि हो जहा अम्हे अप्पाहेइ पडतं, पंडुयपत्तं किसलयाण) २ तमा तमे અત્યારે છે. અમે પણ પહેલાં એવા જ હતા. તેમજ આ સમયે અમે જે સ્થિતિમાં છીએ, તમે પણ એક દિવસ એ સ્થિતિમાં આવશે જ, આ પ્રમાણે કોઈ ખરતા જીરું પાંદડા એ ન ગત કિસલયાને કહ્યું. અહીં “હું' પૂર્વક 'दिश' धातुने 'अपाहेई' साहे। ये छ. मे 'अप.हे.नो मथ 'संदिशति छ. ५ मान २॥ प्रमाणे छ ६ ७५ पांड, नवीन uizsi.
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मनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र २३१ औपम्यसंख्यानिरूपणम् तथा वयमपि आस्म ! यथाच वयं पाण्डु र्णानि हतप्रभाणि वृन्तपच्युत्या भूमि लुठितानि स्मस्तथैव यूयमपि भविष्यथ अनित्यत्वात् सकलभावानाम् । अतः स्वसमृद्धावई भावः परदुर्दशायां च तप्पति अनादरभावश्च न कदापि कार्य इति। ननु पत्राणि न कदाचिदपि परस्परं जयन्ति ? इत्याह-‘णवि अस्थि' इत्यादि । किसलयपाण्डुपत्राणाम् उल्लापः= परस्परभाषणं नापि अस्ति-वर्तमानकाले कापि इसका यह है-कि पुराना पत्ता, नवीन पत्तों को यह शिक्षा दे रहा है-कि 'हे नवीन किसलयो ! इस समय तुम जिस प्रकार आरक्त स्निग्ध रूपसंपन्न हो रहे हो तथा अत्यन्त कोमल दिख रहे हो, एवं सकलजनों के नेत्रों को लुभा रहे हो-याद रखो हम भी पहिले ऐसे थे। दैवदुर्विपाक ने ही आज हमारी यह दयनीय दशा बनादी है जो हम पाण्डुवर्ण और निष्पभ पनकर वृन्त से च्युत हुए हैं, एवं भूमि पर पड़ कर घूल धूसरित हो रहे हैं। आनेवाला भविष्य-विश्वासरखो, तुम्हें भी ऐसे ही बनाकर छोडेगा। क्योंकि दुनियावी कोई भी पदार्थ एक सी स्थिति में अनित्य होने के कारण कभी नहीं रह सकता है । अतः स्वाभ्युदय में अहंकार और परदुर्दशा में उसके प्रति अनादर भाव कभी नहीं करना चाहिये । (ण वि अत्यि, ण वि य हो ही उल्लायो किसलयपंडुपत्ताणं, उवमा खलु एस कया भवियजणविषोहणटाए) इस सूत्र पाठ द्वारा सूत्रकार यह स्पष्ट करते हैं कि ऊपर जो पत्तों का परस्पर संलाप वर्णित किया गया है-सो ऐमा संलाप उनका कभी એને આ શિખામણ આપે છે કે નવીન કિસલય! હમણા જેમ તમે. આરકત, સ્નિગ્ધ અને રૂપસંપન્ન છો તેમજ અતીવ કોમળ લાગે છે, બધા લોકોના નેત્રને આકૃષ્ટ કરી રહ્યા છે, યાદ રાખજો કે અમે પણ એવા જ હતા. દેવ દુર્વિપાકે જ આજે અમારી આ દયનીય હાલત કરી નાખી છે. જે અમે પાંડવણું અને નિપ્રમ થઈને વૃત્તથી ચુત થયા છીએ, તેમજ ભૂમિ પર પડીને ધૂલિ ધૂસરિત થઈ રહ્યા છીએ. તમે અમારી વાત ચોક્કસ યાદ રાખજો કે એક દિવસ એ આવશે કે તમને પણ સમય એવું બનાવી મૂકશે. કેમ કે સંસારની કેઈ પણ વસ્તુ અનિત્ય હોવાથી એક સ્થિતિમાં રહી શકે જ નહિ. એથી સ્વાભ્યદયમાં અહંકાર અને પર દુર્દશામાં तना प्रत्ये मना२मा हालिन रामे. (ण वि अस्थि, णविय होही उल्लावो किसलयपंडुपत्ताणं उवमा खलु एम कया भवियजण विबोहणद्वाए) मा સૂત્રપાઠ વડે સૂત્રકાર આ વાત સ્પષ્ટ કરે છે કે અહીં જે પાંદડાઓની વાતચીત વર્ણવવામાં આવી છે, એવી રીતે તે તેમની વાતચીત કોઈપણ
अ०८०
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मनुयोगशरएक न भवति, नापिच अनागतकालेऽपि भविष्यति । तथापि भव्यजनविवोधनार्थाय -वृक्षपत्राणां समृद्धेरसमृद्वेश्व श्रषणतो भव्यानां सांसारिकसमृद्धिषु विरागो भव. विति हेतोः खलु एषा उपमा कृतेति । अयं भावा- 'जह तुम्भे तह अम्हे' इत्यत्र किसलयपत्राणामवस्थया पाण्डुपत्रावस्था उपमीयते । उपमानभूता किसलयपत्रावस्था तत्काले विद्यमानत्वात् सती, उपमेयभूता पाण्डुपत्राणां तथाविधाऽवस्था तु अविद्यमानत्वादसती । तथा-'तुम्भे वि होहिहा जहा अम्हे' इत्यत्र पाण्डुपत्रा. वस्था तत्कालवर्तित्वात् सती, किसलयानां तथाविधाऽवस्था तु भविष्यकालभावित्वात् तत्कालेऽविद्यमानत्वादसती । इत्थमसत सता उपमीयते । इति तृतीयो होता नहीं है, कभी हुआ नहीं है और न आगे भी होगा, परन्तु ऐसी जो उपमा प्रकट की गई है, वह भव्यजनों को समझाने के लिये ही प्रकट की गई है। वृक्षपत्रों की समृद्धि और असमृद्धि के श्रवण से भव्यजीवों को संसारिक समृद्धि के ऊपर विरागभाव जगे केवल इसी अभिप्राय से यह अन्योक्ति यहां कही गई है। 'जह तुम्भे तह अम्हे 'यहां किसलय पत्रों की अवस्था से पाण्डपत्र की अवस्था उपमित हुई है। उपमानभून किसलयपत्रावस्था-तत्काल में विद्यमान होने से सद्रूप है और उपमेयभूत तथाविध पाण्डुपत्रावस्था अविद्यमान होने से अस. दूप है । तथा 'तुम्भे वि अहोहि हा जहा अम्हे 'यहां पाण्डुपत्रावस्था तत्कालवर्ती होने के कारण सद्रप है और किसलयों की तथाविध अवस्था भविष्यत् कालवर्ती होने के कारण तत्काल में मौजूद न होने से असद्रूप है। इस प्रकार असत् सत् से उपमित हुआ દિવસે સંભવી શકે જ નહિ, આવી વાતચીત ન કઇ દિવસે થઈ છે, ને હવે પછી કેઈપણ દિવસે થશે, પણ અહીં જે ઉપમા પ્રકટ કરવામાં આવી છે, તે ભજનને સમજાવવા માટે જ પ્રકટ કરવામાં આવી છે, વૃક્ષપત્રોની સમૃદ્ધિ અને આ સમૃદ્ધિના શ્રવણથી ભવ્ય જીવને સાંસારિક સમૃદ્ધિ વિશે જે વિરાગભાવ ઉત્પન થાય ફક્ત તે માટે જ આ અન્યોક્તિ અહીં કહેવામાં भावी छ, 'जह तुम्भे तह अम्हे' ही ससयपत्रानी अवस्था 43 पांडपनी અવસ્થા ઉપમિત થયેલી છે. ઉપમાનભૂત કિસલય પત્રાવસ્થા–તત્કાલમાં હોવાથી સદરૂપ છે, અને ઉપમેયભૂત તથાવિધ પાંડુપત્રાવસ્થા અવિદ્યમાન डावाथी अस६३५ छ. तर 'तुब्भे वि अहोहि हा जहा अम्हे' मही પાંડુપત્રાવસ્થા તત્કાલવર્તી હોવાથી સરૂપ છે અને કિસલની તથાવિધ અવસ્થા ભવિષ્યત્ કાલવતી હોવા બદલ તત્કાલમાં વિદ્યમાન ન હોવાથી અસદૂરૂપ છે. આ પ્રમાણે અસત્ સત્ વડે ઉપમિત થયેલ જાણવું જોઈએ,
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अनुयोगन्द्रिका टीका सूत्र २३२ परिमाणसंख्यानिरूपणम् भङ्गः । अथ चतुर्थभङ्गमाह-'असंतयं-असंतएहि' इत्यादि । असद् वस्तु असद्धि वस्तुभिरुपमीयते । यथा-खरविषाणं तथा शशविषाणमिति । अत्रोपमानभूतं खरविषाणं कालत्रयेऽप्यसत्वादसत् , उपमेयभूतं शविषाणमपि कालत्रयेऽप्यसत्त्वा दसत् । इत्थं चात्र असता असदुपमीयते । इति चतुर्थों भङ्गः । प्रकृतमुपसंहरनाह -सैषा औपम्यसंख्येति ॥ सू०२३१॥ अथ परिमाणसंख्यां निरूपयति
मूलम्-से किं तं परिमाणसंखा? परिमाणसंखा-दुविहा पण्णत्ता, तं जहा-कालियसुयपरिमाणसंखा दिट्रिवायसुयपरिमाणसंखा य। से किं तं कालियसुयपरिमाणसंखा? कालियजानना चाहिये । चतुर्थ भंग इस प्रकार से हैं-इसमें 'असंतयं असंतएहिं उवमिज्जई' असद्रूप पदार्थ असद्रूप पदार्थ से उपमित हुआ है। (जहा) जैसे-(खरविसाणं तहा ससविसाणं) खर (गधा) विषाण (शंग) हैं-वैसे ही शश विषाण (शशलाके शृंग) है । अर्थात् खरविषाण के जैसे शशविषाण हैं । इस वाक्य में उपमानभूत खरविषाण हैं, सो ये त्रिकाल में भी सत्व विशिष्ट न होने के कारण असद्रूप है और उपमेयभूत जो शशविषाग है वे भी कालत्रय में असत्व विशिष्ट होने के कारण असद्रूप हैं। इस प्रकार असत् से असत् उपमित हुआ जानना चाहिये। यह चतुर्थभंग है । (से तं ओवम्मसंखा) इस प्रकार से यह औपम्यसंख्या का निरूपण जानना चाहिये ॥ सू० २३१ ॥ यतुर्थ' मा प्रमाणे छे. मामा 'असंतयं असंतएहिं उबमिज्जइ' सस३५ पहा अस६३५ पहा १3 ७५भित थये छे. (जहा) २ (खर विसाणं तहा ससविसाणं) ५२ (16) न qिi (1) छे, ते ५ શશ વિષાણ (શિલાના શૃંગો) છે. એટલે કે ખર વિષાણની જેમ શશવિષાણ છે. આ વાકયમાં ઉપમાનભૂત ખરવિષાણુ છે, તે એઓ ત્રિકાળમાં પણ સત્વ વિશિષ્ટ ન હોવાથી અસરૂપ છે. અને ઉપમેયભૂત જે શશવિષાણુ છે, તે પણ કાત્રિયમાં અસત્વ વિશિષ્ટ હવા બદલ અસદુરૂપ છે. આ પ્રમાણે અહીં અસથી અસત્ ઉપમિત થયેલ જાણવું જોઈએ. આ ચતુર્થ ભંગ છે. (से तं ओवम्मसंखा) मा प्रमाणे भा भी५भ्यस ध्यानु नि३५ सय જોઈએ. એ સૂત્ર ૨૩૧ છે
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अनुयोगद्वारसूत्र सुयपरिमाणसंखा-अणेगविहा पण्णत्ता, तं जहा-पज्जवसंखा, अक्खरसंखा, संघायसंखा, पयसंखा, पायसंखा, गाहासंखा, सिलोगसंखा, वेढसंखा, निज्जुत्तिसंखा, अणुओगदारसंखा, उद्देसगसंखा, अज्झयणसंखा, सुयक्खंधसंखा, अंगसंखा। से तं कालियसुयपरिमाणसंखा। से किं तं दिट्टिवायसुयपरिमाणसंखा? दिदिवायसुयपरिमाणसंखा-अणेगविहा पण्णत्ता, तं जहा-पज्जवसंखा जाव अणुओगदारसंखा, पाहुडसंखा, पाहुडियासंखा, पाहुडपाहुडियासंखा, वत्थुसंखा। से तं दिट्टिवायसुयपरिमाणसंखा। से तं परिमाणसंखा । से किं तं जाणणासंखा? जाणणासंखा-जो जं जाणइ, तं जहा-सदं सहिओ, गणियं गणिओ, निमित्तं नेमित्तिओ, कालं कालणाणी, वेज्जयं वेज्जो। से तं जाणणासंखा ॥सू०२३२॥
छाया-अथ का सा परिमाणसंख्या ?, परिमाणसंख्या-द्विविधा प्रज्ञप्ता, तद्यथा-कालिकश्रुतपरिमाणसंख्या दृष्टिवादश्रुतपरिमाणसंख्या च । अथ का सा कालिकश्रुतपरिमाणसंख्या ?, कालिकश्रुतपरिमाणसंख्या-अनेकविधा प्रज्ञप्ता, तद्यथा-पर्यायसंख्या, अक्षर संख्या, संघातसंख्या, पदसंख्या, पादसंख्या, गाथासंख्या, श्लोकसंख्या, वेष्टसंख्या, नियुक्तिसंख्या, अनुयोगद्वारसंख्या, उद्देशकसंख्या, अध्ययनसंख्या, श्रुतस्कन्धसंख्या, अङ्गसंख्या । सा एपा कालिकश्रुतपरिमाणसंख्या । अथ का सा दृष्टिवादश्रुतपरिमाणसंख्या ? दृष्टिवादश्रुतपरिमाणसंख्या-अनेकविधा प्रज्ञप्ता, तद्यथा-पर्यवसंख्या यावत् अनुयोगद्वारसंख्या, भाभृतसंख्या, प्राभृतिकासंख्या, प्राभृतपाभृतिकासंख्या, वस्तुसंख्या । सा एषा दृष्टिवादश्रुतपरिमाणसंख्या। सा एषा परिमाणसंख्या । अथ का सा ज्ञानसंख्या यो यत् जानाति, तद्यथा-शब्दं शाब्दिकः गणितं गणिका, निमित्तं नैमित्तिकः, कालं कालज्ञानी, वैद्यकं वैद्यः । सा एषा ज्ञानसंख्या ॥२३२॥
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अनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र २३२ परिमाणसंख्यानिरूपणम्
टीका-'से कि त' इत्यादि
'अथ का सा परिमाणसंख्या?' इति शिष्यप्रश्नः । उत्तरयति परिमाणसंख्यासंख्यायतेऽनयेति संख्या, परिमाणरूपा-पर्थवादिरूपा संख्येति समानाधिकरणसमासः। सा च कालिकश्रुतपरिमाणसंख्या दृष्टिपादश्रुतपरिमाणसंख्या चेति द्विविधा । तत्र कालिकश्रुतपरिमाणसंख्या-पर्यवसंख्या अक्षरसंख्या-इत्यायनेकविधा । तत्र-पर्यवसंख्या-पर्यवा:= पर्यायाः धर्मा इति यावत्, तद्रूपा संख्या।
अब सूत्रकार परिमाण संख्या का निरूपण करते हैं'से किं तं परिमाणसंखा-इत्यादि ।
शब्दार्थ-(से किं तं परिमाणसंखा ?) हे भदंत ! उस परिमाण संख्या का क्या स्वरूप है ? (परिमाणसंखा दुविहा पण्णत्ता) ' ___ उत्तर-परिमाण संख्या दो प्रकार की कही गई है । (तं जहा) असे (कालियसुयपरिमाणसंखा, दिट्टिवायसुयपरिमाणसंखा य) एक कालिकश्रुतपरिमाणसंख्या, दूसरी दृष्टिवस्दश्रुतपरिमाणसंख्या पर्यव अदिरूप संख्या का नाम परिमाणसंख्या है। (से किं तं कालियसुयपरिमाण'संखा? ) हे भदंत ! कालिकश्रुतपरिमाणसंख्या क्या है ?
उत्तर-(कालियसुघपरिमाणसखा अणेगविहा पण्णता) कालिक श्रुतपरिमाणसंख्या अनेक प्रकार की कही गई है । (तं जहा) उसके वे प्रकार ये हैं-(पज्जवसंखा, अक्वरसंखा, संवायसंखा, पयसंखा, पाय.
હવે સૂત્રકાર પરિમાણ સંખ્યાનું નિરૂપણ કરે છે-- से किं तं परिमाणसंखा' त्यादि।
शा--(से कि तं परिमाणसंखा ?) 8 मत! ते परिभाष्य Aध्यानु २१३५ छ ? (परिमाणसखा दुविहा पण्णत्ता)
उत्तर--परिभाए । मे १२नी उपमा पापी छे. (त' जहा) २म (कालियसुयारिमाणसंखा, दिद्विवायसुयपरिमागसंखा य) मे ४ilesश्रुत પરિમાણ સંખ્યા, બીજી દષ્ટિવાદબુતપરિમાણુ સંખ્યા પર્યવ વગેરે રૂપ સંખ્યાનું नाम परिमाणस ज्या छे. (से कि त कालियसुपरिमाणसंखा ) महत! लिश्रुतपरिमायसन्या शु छ ?
त्तर--(कालियसुयपरिमाणसखा अणेगविहा पण्णत्ता) श्रुतपरिभाषभ्या अने। १२ वामां मावी छ. (तं जहा) तना प्रा। प्रभारी २. (पज्जवसंखा, अक्खरसंखा, संघायसंखा, पयसंखा, पायसंखा, गाहासखा,
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अनुयोगद्वारसूत्र सा च कालिकश्रुने अनन्तपर्यायात्मिका, एकैकस्याप्यकाराधक्षरस्य तदमिधेयस्य च जीवादिवस्तुनः प्रत्येकमनन्तपर्यायत्वात् । एवमन्यत्रापि बोध्यम्, परन्तु अक्षरसंख्यादयः संख्येया बोध्याः, तथाहि-अक्षरसंख्या-अकाराधक्षररूपा संख्या अकाराधक्षरार्णा संख्येयत्वादक्षरसंख्याऽपि संख्येया बोध्या। संघातसंख्या द्वथाधक्षरसंयोगरूपा, द्वथाधक्षरसंयोगानां संख्येयत्वादेपा संख्येया । पदसंख्या-पदं संखा, सिलोगसंखा, वेढसखा, निज्जुत्तिसंखा, अणु भोगदारसंखा, उद्देसगसंखा, अज्झयणसंखा, सुयक्खंवसंखा, अंगसंखा,-से तं कालिय. सुयपरिमाणसंखा) पर्यवसंख्या, अक्षरसंख्या संघातसंख्या, पदसंख्या, पादसंख्या गाथासंख्या, श्लोकसंख्या, वेष्टसंख्या, नियुक्तिसंख्या अनु. योगदारसंख्या, उद्देशकसंख्या, अध्ययनसंख्या श्रुतस्कन्धसंख्या, अङ्गसंख्या । इनमें 'पर्यव' नाम 'पर्याय' अथवा 'धर्म' का है । इस रूप जो संख्या है, वह 'पर्यवसंख्या' है । यह पर्यवरूप संख्या कालिकश्रुत में अनंतपर्यायात्मक है। क्योंकि एक एक अकार आदि अक्षर के तथा इनके वाच्यरूप जीवादिवस्तु के प्रत्येक के अनन्तपर्याय होते हैं । इसी प्रकार से अन्यत्र भी समझना चाहिये । परन्तु जो अक्षर संख्यादिक हैं, वे अनंत नहीं है, संख्यात है। आकार आदि अक्षररूप संख्या का नाम अक्षरसंख्या है। सोये अकार आदि अक्षरसंख्यात हैं, इसलिये अक्षरसंख्या भी संख्यात है । छयादिअक्षरों के संयोग का नाम संघात सिलोगसखा, वेढसखा, निज्जुत्तिस खा, अणुओगदारसखा, उद्देसगसखा, अज्झ यणसंखा, सुयक्खधसखा, अगसखा, से तं कालियसुयपरिमाणसखा) ५ सया, अक्षरभ्य। सघातसया, ५४सया, पा४सया, थासया, श्व सया, वेष्टभ्या, नियुतसया, मनुयोराबा२मभ्या देशया, अध्ययन भ्या, श्रुत:४५सय भन्या , मामा 'पर्यव' नाम 'पर्याय अथवा 'धर्म' छ. मा ३५भा २ सध्या छ, ते पर्यवसंख्या ' छे. या પર્યવરૂપ સંખ્યાકાલિકતમાં અનંત પર્યાયાત્મક છે. કેમકે એક એક અકાર આદિ અક્ષરના તેમજ એમના વાયરૂપ જીવાદિવસ્તુના દરેકે દરેકના અનંત પર્યા હોય છે. આ પ્રમાણે બીજે પણ સમજી લેવું જોઈએ. પરંતુ જે અક્ષરસંખ્યાદિક છે. તે અનંત નથી, સંખ્યાત છે. અકાર આદિ અક્ષર રૂપ સંખ્યાનું નામ અક્ષરસંખ્યા છે. તે આ આકાર આદિ અક્ષર સખ્યાત છે, એથી અક્ષરસંખ્યા પણ સંખ્યાત છે. દ્વયાદિ અક્ષરોના સંગનું નામ સંઘાત છે. આ સંઘાત રૂપ જે સંખ્યા છે, તે સંઘતસંખ્યા છે. હયાદિ અક્ષરને સંગ સંખ્યાત છે, એથી આ પણ સંખ્યાત છે.
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अनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र २३२ परिमाणसंख्यानिरूपणम् =सुप्तिङन्तादिरूपम् तद्रूपा संख्या, पदानां संख्येयत्वात्तद्रूपा संख्याऽपि संख्येया। पादसंख्या-पादा:- गाथादिचतुर्थांशरूपाः, तद्रूपा संख्या, पादानां संख्येयत्वातस्संख्याऽपि संख्येया। गाथासंख्या-गाथा प्राकृतच्छन्दोविशेषरूपा, तद्रपा संख्या, गाथानां संख्येयत्वात्तद्रूपा संख्या संख्येया। श्लोकसंख्या-श्लोकःअनुष्टुवादि छन्दोरूपस्तद्रूपो संख्या श्लोकानां संख्येयत्वात्तद्रपा संख्याऽपि संख्येव । एवं वेष्टसंख्या नियुक्तिसंख्या, अनुयोगद्वारसंख्या, उद्देशकसंख्या, अध्ययनसंख्या, श्रुतस्कन्धसंख्या, अगसंख्या च संख्येया, वेष्टकादीनां संख्येय. है। इस संघातरूप जो संख्या है वह संघातसंख्या है। व्यादिअक्षरो का संयोग संख्यात है इसलिये यह भी संख्यात है। सुबन्त तिगतरूप पद होता है। इस पदरूप संख्या का नाम पदसंख्या है। पदों के संख्यान होने से सद्रूप संख्या भी संख्यात है। गाथा आदि को जो चतुर्थ अंश है, उसका नाम 'पा' है। इस पादरूप संख्या का नाम पाद संख्या है। पाद संख्येय होते हैं इसलिये पादरूप संख्या भी संख्यात है। प्राकृतभाषा में लिखे गये छंदविशेष का नाम 'गाथा' है। इस गाथारूप संख्या का नाम 'गाथा' संख्या है। ये गाथाएँ संख्यात होती हैं, इसलिये गाथारूप मख्या भी संख्यात है। अनुष्टुप् आदि छन्दोंरूप श्लोक होता है। ये श्लोक संख्यात हैं । इसलिये इसरूप संख्या भी संख्यात ही है । इसी प्रकार से वेष्टसंख्या, नियुक्तिसंख्या, अनुयोगद्वारसंख्या, उद्देशकसंख्या अध्ययनसंख्या, श्रुतस्कंधसंख्या, अगसंख्या ये सब भी संख्यात ही हैं। क्योंकि ये वेष्टकादि संख्यात સબન્ડ અને તિગતરૂપ પદ હોય છે. આ પદરૂપ સંખ્યાનું નામ પદસંખ્યા છે. પદ સંખ્યાત હેવાથી તરૂ૫ સંખ્યા પણ સંખ્યાત છે. ગાથા વગેરેને જે ચતુર્થ અંશ છે. તેનું નામ “પાદ' છે આ પાદરૂપ સંખ્યાનું નામ પાદસંખ્યા છે. પાદ સંખેય હોય છે, એટલા માટે પાદરૂપ સંખ્યા પણ સંખ્યાત છે. પ્રાકૃતભાષામાં લખાએલા છેદ વિશેષનું નામ “રાજા” છે. આ ગાથારૂપ सध्यानु नाम 'गाथा' सभ्य छे. मा गाथा। सज्यात डाय छे, मेथी ગાથારૂપ સંખ્યા પણ સંખ્યાત છે. અનુટુપ વગેરે ઇન્દ્રરૂપ શ્લેક હાય છે. આ લેકે સંખ્યાત છે. એથી આ રૂપ સંખ્યાત જ છે. આ પ્રમાણે વેષ્ટસખ્યા નિયુકિત સંખ્યા, અનુયોગદ્વાર સંખ્યા ઉદ્દેશક સંખ્યા, અધ્યયન સંખ્યા, શ્રુતસ્કંધસંખ્યા, અંગસંખ્યા આ સર્વે પણ સંખ્યાત જ છે. કેમકે આ વેષ્ટાદિ શંખ યાત હોય છે. વેષ્ટકનામ છંદવિશેષનું છે. નિક્ષેપ
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६४०.
अनुयोगद्वारको त्वात् । तत्र-वेष्टकाः छन्दोविशेषरूपाः । नियुक्तया निक्षेप नियुक्तय उपो. द्घातनियुक्तियः सूत्रस्पर्शनियुक्तयश्चेति त्रिविधाः। अनुयोगद्वाराणि व्याख्योपायभूतानि सत्पदमरूपणतादीनि उपक्रमादीनि वा। उद्देशका अध्ययनांश विशेषः । अध्ययनम्-शास्त्रांशविशेषः। श्रुतस्कन्धः = अध्ययनसम्हात्मकः शास्त्रांश: अङ्गम् आचाराङ्गादिकम् । इत्यं कालिकश्रुतपरिमाणसंख्या निरूपितेति मुच यितुमाह-'सैषा कालिकश्रुतपरिमाणसंख्येति । तथा-दृष्टिबाद श्रुनपरिमाणासंख्याऽपि पर्यवसंख्या यावदनुयोगद्वारसंख्या प्राभृतसंख्या प्राभृतिकासंख्या होते हैं । वेष्टक नाम छंदविशेष का है। निक्षेप नियुक्तिउपोद्घातनियुक्ति, और सूत्रस्पर्शनियुक्ति के भेद से नियुक्तियां तीन प्रकार की होती है। व्याख्या के उपायभूत जो सस्पदप्ररूपणता आदि हैं वे अथवा जो उपक्रम आदि हैं, वे 'अनुयोगद्वार' है । अध्ययनों के अंश विशेष का नाम उद्देशक है' शास्त्र के अंशविशेष का नाम अध्ययन' है। अध्य. यनों के समूहरूप शस्त्रांश का नाम 'श्रुतस्कन्ध' है। आचाराङ्ग आदि आगों का नाम 'अंग है। इस प्रकार से 'यह कालिकश्रुतपरिमाणसंख्या क्या है ? यह समझाया है। अब दृष्टिवाद परिमाणसंख्या क्या हैं? यह कहते है-(से कितं दिहिवायपरिमाणसंखा ?) हे भदन्त ! दृष्टिवादपरिमाणसंख्या क्या है ?
उत्तर - दिहियायालय परिमागतखा अणेगविहा पण्णत्ता ?) दृष्टि वादश्रुन परिमाणसंख्या अनेक प्रकार को कही गई है- (तं जहा) जैसे (पज्जवसंखा जाव अणुओगदारसंखा, पाहुडसंखा पाहुडियासंखा, पाहुનિર્યુક્તિ ઉપદુધાત નિર્યુકિત અને સૂત્રસ્પર્શ નિર્યુક્તિના ભેદથી નિર્યુકિતના ત્રણ પ્રકાર છે. વ્યાખ્યાના ઉપાયભૂત જે સત્પદ પ્રરૂપણતા વગેરે છે. તે અથવા તે જ ઉપક્રમ વગેરે છે તે અનુગદ્વાર છે. અધ્યયનના અંશ विशेषतुं नाम 'देश' छ. शाखा मशविशेषनु नाम 'अध्ययन' छे. सध्य. યોના સમૂહરૂપ શાસ્ત્રાંશનું નામ શ્રતસ્કન્ધ' છે. આચારાંગ વગેરે આગમેનું નામ “અંગ છે. આ રીતે કાલિકશ્રુત સંખ્યા શું છે? તે સમજાવવામાં मा०यु छ. टिपाई परिमाण सध्या शुछ ? विष ४३ छ. (से कि तदिद्विवायपरिमाणसखा १) महत!ष्टा परिभाय सध्या शुछ ।
उत्तर--(दिद्विवायसुयपरिमाणखा अणेगविहा पण्णता ?) पाह श्रत परिमाणुस-या मने प्रा२नी वामां मावी छे. (त जहा) २ (पज्जवस खा जाव अणुओगदारसखा, पाहुडसखा, पाहुडियासखा पाहुडपाहुडिया
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अनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र २३२ परिमाणसंख्यानिरूपणम् प्राभृतमाभूतिकासंख्या वस्तुसंख्येत्यनेकविधा। पर्यवसंख्याधनुयोगद्वारसंख्यान्ताः पूर्ववद् बोध्याः । माभृतादयः पूर्वान्तर्गताः श्रुताधिकार विशेषाः । सैषा दृष्टिवादश्रुनपरिमाणसंख्या बोध्या। प्रकृतमुपसंहरनाह-सपा परिमाणसंख्येति । अथ ज्ञानसंख्या निरूपयति-अथ वा सा ज्ञानसंख्या ? इति शिष्य प्रश्नः । उत्तरयतिज्ञानसंख्या-ज्ञानरूपा संख्या-ज्ञानसंख्या, सा च यो यज्जानाति तद्रूपा बोध्या। अयं भावः-यो देवदत्तादियच्छब्दादिकं जानाति स देवदत्तादिस्तज्ज्ञानवानुच्यते। अत्र डपाहुडियालंखा, यस्थुसंखा) पर्यवसंख्या, यावत् अनुयोगद्वार संख्या, प्राभृनसंख्या, प्राभृतिकासंख्या, प्राभृतप्राभृतिकासंख्या, और वस्तुसंख्या। पर्यवसंख्या से लेकर अनुयोगद्वार संख्या तक के शब्दों का अर्थ पूर्व के जैसा ही जानना चाहिये । प्राकृत आदि जो हैं, वे पूर्व के अन्र्तगत होते हैं। और ये श्रुत के अधिकार विशेष कहे गये हैं । (से तं दिट्टिवायसुयपरिमाणसंखा) इस प्रकार से यह दृष्टिवादश्रुत की परिमाण संख्या का स्वरूप है। (से तं परिमाणसंखा) इस प्रकार यह परिमाण संख्या का स्वरूप निरूपण है। (से कि तं जाणणासंखा ?) हे भदन्त ! ज्ञानसंख्या क्या है ?
उत्तर-(जाणणासंखा-जो जं जाणइ, तं जहा-सहसद्दिो , गणियं गणियो, निमित्तं नेमित्तिो कालं कालणाणी, वेजं वेज्जो, से तं जाणणासंखा) ज्ञानरूपसंख्या का नाम ज्ञान संख्या है। यह ज्ञानसंख्या जो जिसको जानता है उसरूप होती है। इसका तात्पर्य यह है-देवदत्त आदि जिस सखा, वत्थुखा) ५५सया, यावत् अनुयोगदा२ सया, प्रामृतस-या, પ્રાભૂતિકા સંખ્યા,પ્રાભૂત પ્રભૂતિકા સંખ્યા અને વસ્તુસંખ્યા પર્યાવસંખ્યાથી માંડીને અનુયોગદ્વાર સંખ્યા સુધીના શબ્દનો અર્થ પૂર્વની જેમ જ સમજવું જોઈએ. પ્રભૂત વગેરે જે છે, તે પૂર્વમાં જ સમાવિષ્ટ થઈ જાય 2. भने । श्रुतना अधि४।२ विशेष ४ामा माया छे. (से तं दिदिवायसुयपरिमाणसखा) ॥ शत टिपातनी परिमाय सध्यानु २१३५ छे. (से त परिमाणसखा) ॥ प्रमाणे या परिणाम सभ्यानु' २१३५ नि३५९ छे. (से कि तं जाणणासंखा ?) त ! ज्ञान या शु छ ?
उत्तर--(जाणणास खा जो जे जाणइतं जहा सई सहिओ, गणियं गणिओ, निमित्तं नेमित्तिओ कालं कालणाणी, वेज्जं वेज्जो से तं जाणणास खा) ज्ञान३५ સંખ્યાનું નામ જ્ઞાનસંખ્યા છે. આ જ્ઞાનસંખ્યા છે જેને જાણે છે, તે રૂપ હેય છે. આનું તાત્પર્ય આ પ્રમાણે છે કે જે દેવદત્ત વગેરે જે શબ્દ વિગેરે જાણે
अ० ८१
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अनुयोगद्वारसूत्रे ज्ञानहानिनोरभेदोपचाराद् देवदत्तादिरपि ज्ञानसंख्येत्युच्यते इति, यथा-शब्दं जानन् शाब्दिका, गणितं जानन गणिकः, निमित्तं जानन नैमित्तिक इत्यादि ॥मू०२३२॥
अथ गणनासंख्यां निरूपयतिमूलम्-से किं तं गणणासंखा? गणणासंखा-एको गणणं न उवेइ, दुप्पभिइसंखा, तं जहा-संखेज्जए असंखेज्जए अर्णतए। से किं तं संखेज्जए ? संखेज्जए-तिविहे पण्णत्ते, तं जहा-जहपणए उक्कोसए अजहण्णमणुकोसए । से किं तं असंखेज्जए ?, असंखेज्जए-तिविहे पण्णत्ते, तं जहा-परित्तासंखेज्जए जुत्तासंखेज्जए असंखेज्जासंखेज्जए। से किं तं परित्तासंखेज्जए ? परित्तासंखेज्जए-तिविहे पण्णत्ते, तं जहा- जहण्णए उक्कोसए अजहण्णमणुकोसए। से किं तं जुत्तासंखेज्जए? जुत्ता संखेज्जएतिविहे पण्णत्ते, तं जहा-जहण्णए उकसए अजहण्णमणुकोसए। से किं तं असंखेज्जासंखेज्जए ? असंखेज्जासंखेज्जएशन्द आदि जानता है वह देवदत्त आदि उस शब्द ज्ञानवाला कहा जाता है। इसलिये ज्ञान और ज्ञानी इन दोनों के अभेदोपचार से देवदत्त आदि भी ज्ञान संख्यारूप कह दिये जाते हैं । जैसे शब्द को जाणनेवाला शाब्दिक, गणित को जाननेवाला गणिक, निमित्त को जाननेवाला नैमित्तिक, कालको जाननेवाला कालज्ञानी और वैद्यक को जाननेवाला वैद्य कह दिया जाता है। सू० २३२ ॥ છે, તે દેવદત્ત તે શબ્દ જ્ઞાનવાળો કહેવાય છે. એથી જ્ઞાન અને જ્ઞાની એ બનેના અભેદોપચારથી દેવદત્ત વગેરે પણ જ્ઞાનસંખ્યા રૂપ કહેવાય છે જેમ શબ્દને જાણનાર શાબ્દિક, ગણિતને જાણનાર ગણિક નિમિત્તને જાણનારનેમિત્તિક, કાલને જાણનાર કાલજ્ઞાની અને વિદ્યાને જાણનાર વૈદ્ય કહેવામાં આવે છે. શાસૂ૦ ૨૩રા
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अनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र २३३ गणना संख्या निरूपणम्
६४३
तिविहे पण्णत्ते, तं जहा - जहण्णए उक्कोसए अजहण्णमणुक्को - सए । से किं तं अनंतए ? अनंतए-तिविहे पण्णत्ते, तं जहापरित्ताणंतए जुत्ताणंतर अनंतानंतर । से किं तं परित्ताणंतए ? परित्ताणंतर - तिविहे पण्णत्ते, तं जहा जहण्णए उक्कोसए अजहणमणुकोसए । से किं तं जुत्ताणंतए ? जुत्ताणंतए - तिविहे पण्णत्ते, तं जहा- जहण्णए उक्कोसए अजहण्णमणुक्कोसए । से किं तं अनंतानंतर ? अनंतानंतर- दुविहे पण्णत्ते, तं जहाजहणए अजष्णमणुकोसए ॥सू०२३३॥
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छाया
-
- अथ का सा गगनासंख्या ?, गणनासंख्या-एको गणनां नोपैति, द्विप्रभृतिसंख्या, तद्यथा - संख्येयकम् असंख्येयकम् अनन्तकम् । अथ किं तत्संख्येयकम् ?, संख्येयकं-त्रिविधं प्रज्ञ ं, तद्यथा जघन्यकम् उत्कर्षकम् अजघन्यानुत्कर्षकम् | अथ किं तत् असंख्येयकम् ? असंख्येयकं - त्रिविधं प्रज्ञप्तं, तद्यथापरीता संख्येयकं युक्तासंख्येयकम् असंख्येया संख्येयकम् । अथ किं तत् परीता संख्येयकम् ? परीतासंख्येयकं त्रिविधं प्रज्ञप्तं, तद्यथा - जघन्य कम्, उत्कर्षकम् अजघन्यानुत्कर्षकम् | अथ किं तत् युक्तासंख्येयकम् ? युक्तासंख्येयकं - त्रिविधं प्रज्ञप्तं, तद्यथा - जघन्यकम् उत्कर्षकम् अनघन्यानुत्कर्षकम् । अथ किं तत् असंख्येयासंख्येयकम् ?, असंख्येयासंख्येपकं त्रिविधं प्रज्ञप्तं, तद्यथा - जघन्यकम् उत्कर्षकम् अजधन्यानुत्कर्षकम् । अथ किं तत् अनन्तकम् ? अनन्तकं-त्रिविधं प्रज्ञप्तं, तद्यथापरीतानन्तकम्, युक्तानन्तकम्, अनन्तानन्तकम् । अथ किं तत् परीतानन्तकम् ? परीतानन्तकं त्रिविधं प्रज्ञप्तं, तद्यथा - जघन्यकम् उत्कर्षकम् अजघन्यानुश्कर्षकम् । अथ किं तद्युक्तानन्तकम् ? युक्तानन्तकं त्रिविधं प्रज्ञप्तं, तद्यथा जघन्यकम् उत्क कम् अघन्यानुत्कर्षकम् । अथ किं तत् अनन्तानन्तकम् ? अनन्तानन्तकं- द्विविधं प्रज्ञप्तं ? तद्यथा जयन्तकम् अजघन्यानुत्कर्षकम् || २३३ ॥
टीका- 'से किं तं' इत्यादि
अब सूत्रकार गणनासंख्या का निरूपण करते हैं'से कि तं गणणा संखा ' इत्यादि ।
હવે સૂત્રકાર ગણુના સંખ્યાનું નિરૂપણ કરે છે, 'से किं तं गणणा संखा' इत्यादि ।
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अनुयोगद्वारसूत्रे
. अथ का सा गणनासंख्या ? इति शिष्यप्रश्नः। उत्तरयति-गणनासंख्यागणनम् एतावन्त इमे इति संख्यानं गगना, तद्रूपा संख्या, गणनासंख्या। सा च द्विमभृतिसंख्यारूपा बोध्या । एकस्तु गगनां नोपति । अयं भावः- एकस्मिन् घटादौ दृष्टे सति घादिकं तिष्ठीत्येवमेव प्रायः प्रतीतिरुत्पद्यते नत्वेकसंख्या विषयत्वेन । यद्वा-आदानप्रदानादिव्यवहारकाले एकं वस्तु गणनाविषयवं पायो नोपयाति, अतोऽसंव्यवहार्यत्वादल्यत्वाद् वा एको गणनासंख्या विषयत्वेन नोपादीयते ज्ञति । द्विमभृतिसंख्यारूपैषा गणनासंख्या संख्येयकासंख्येयका शब्दार्थ-(से किं तं गणणासंखा ?) हे भदन्त ! गणनासंख्या क्या है ?
उत्तर-(गणणासंखा) गणनासंख्या इस प्रकार से है गणना. संख्या में 'ये इतने हैं' इसरूप से गिना जाता है अतः 'ये इतने हैं' इस रूप से जो गिनती है, उसका नाम 'गणना' हैइस गणनारूप जो संख्या है, वह गणनासंख्या है-यह दो आदि संख्या रूप होती है । एक संख्यारूप नहीं, क्योंकि (एकको गणणं न उवेइ) एक गणना को प्राप्त नहीं होता है इसका तात्पर्य यह है-एक घट आदि पदार्थ के दिखने पर घटादिक रखा है, ऐसी ही प्राप्य प्रतीति होती है न कि 'एक संख्या विशिष्ट एक घट रखा है' ऐसी प्रतीति होती है । अथवा-लेने देने के समय एक वस्तु प्रायः गणना को विषयभूत नहीं होती है, इसलिये असंव्यवहार्य होने के कारण अथवा अल्प होने के कारण, एक को गगना संख्या का विषयभूत नहीं कहा गया है। (दुप्प. भिहसंखा) दो आदिरूप यह गणनासंख्या (सखेज्जए असंखेज्जए
शहाथ:-से कि तं गणणासंखा १) 8 महत! शासया शुंछे?
उत्तर-(गणणासंखा) मना सध्या भाप्रमाणे छे. जना सध्यामां એ એ આટલા છે. આ રીતે ગણત્રી કરવામાં આવે છે. એથી “એ આટલા છે આ રૂપમાં જે ગણત્રી છે, તેનું નામ “ગણના છે. આ ગણના રૂપ જે सध्या छे, ते आशुना सध्या छ, माथे पोरे स-या ३५ डाय छे. स-या ३५ नलिभ (एक्को गगणं न उबेइ) मे गणनामात्र उपाय નહિ. આનું તાત્પર્ય આ પ્રમાણે છે કે એક ઘટ વગેરે પદાર્થને જેવાથી વટાદિક છે પ્રાયઃ એવી પ્રતીતિ થાય છે, ન કે એક સંખ્યા વિશિષ્ટ એક મકેલ છે” એવી પ્રતીતિ થાય છે, અથવા-લેવડ–દેવડ કરતી વખતે એક વસ્તુની ઘણું કરીને ગણત્રી થતી નથી, એથી અસંવ્યવહાર્યું હોવા બદલ मया ५६५ 3141 महरा ने गशुनापात्र मानवामा मावत नथी. (दुप्प
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દ્વ
अनुयोगवन्द्रिका टीका सूत्र २३३ गणनासंख्या निरूपणम् नन्त केति त्रिविधा । तत्र - संख्येयकं जयत्यकोत्कर्षका जघन्यामुत्कर्ष भेदेन त्रिवि धम् । असंख्येयकम् - परीतासंख्येयक - युक्तः संख्ये यका - संख्ये या संख्येय के ति त्रिविधम् । तत्र पुनरेकैकं जघन्यकोत्कर्षकाजघन्यानुत्कर्षक भेदेन त्रिविधम् । इत्थं च नवभेदमसंख्येयकम् । कोष्ठकं चेदम्
अतए) संख्यात असंख्यात, और अनंत इस रूप से तीन प्रकार की कही गई है । इनमें जो संख्यातरूप गणनासंख्या है, वह जवन्य संख्यात, उत्कृष्टसं रूपात और अजघन्य अनुत्कृष्ट संख्यात के भेद से तीन प्रकार की होती है। असंख्यातरूप जो गणनासंख्या है वह भी परीतासंख्पात, युक्तासं ख्यात, और असंख्यात के भेद से तीन प्रकार की होती है । परन्तु इनमें भी एक एक जघन्य, उत्कृष्ट, अनुत्कृष्ट के भेद से तीन २ प्रकार का और भेद होता है । इस प्रकार असंख्यात के नौ भेद हो जाते हैं। इसे इस प्रकार समझना चाहियेमूल में असंख्यात के परीतासंख्यात, युक्तासं ख्यात, असंख्यातासंरूपान ये तीन भेद हैं। इनमें जो परीमासंख्यात है उनके तीन भेद इस प्रकार से है (१) जघन्य परीता संख्यात, (२) उत्कर्ष परितासं ख्यात, (३) अजघन्योत्कर्षकपरितासंख्यात । इसी प्रकार युक्तासंख्येय और असंख्येयासंख्येय के भी भेद जानना चाहिये ।
भिइ संखा ) मे यादि ३५ आ गणुना संख्या ( संखेज्जए असंखेज्जर अनंतए) સંખ્યાત, અસખ્યાત અને અન’ત આ રૂપમાં ત્રણ પ્રકારની કહેવામાં આવી છે. આમાં જે સખ્યાતરૂપ ગણુના સખ્યા છે, તે જઘન્ય સખ્યાત, ઉત્કૃષ્ટ સખ્યાત અને અજઘન્ય અનુત્કૃષ્ટ સખ્યાતના ભેન્નુથી ત્રણ પ્રકારની હાય છે. અસંખ્યાત રૂપ જે ગણુના સખ્યા છે, તે પશુ પરીતાસંખ્યાત, યુક્તાસખ્યાત અને અસંખ્યાતા અસંખ્યાતના ભેદથી ત્રણ પ્રકારની હોય છે. પરંતુ આમાં પણ એક જઘન્ય ઉત્કૃષ્ટ, અજધન્ય અનુભૃષ્ટના ભેદથી ત્રણ ભેદો થઈ જાય છે. આ પ્રમાણે અસ ંખ્યાતના ૯ ભેદો થઈ જાય છે. માને આ રીતે સમજવું જોઇએ કે મૂત્રમાં અસંખ્યાતના પરીતાસ ખ્યાત, ચુક્વાસ ખ્યાત, અને અસખ્યાતાસખ્યાત આ ત્રણ ભેદે છે. આમાં જે પરીતા સખ્યાત છે, તેના ત્રશુ પ્રકારો આ પ્રમાણે છે. (૧) જઘન્યપરીતાસ’ખ્યાત (२) उत्' परीता संख्यात, (३) अन्धन्यात्उष उपरीतासण्यात. भा પ્રમાણે યુકતાસ ધ્યેય અને અસ યૈયાસ ધ્યેયના પણ ભેદ જાણવા જોઇએ,
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अनुयोगद्वारसूत्रे
असंख्येयकं नवविधम्
१ परीतासंख्यकम् २ युक्तासंख्येयकम् ३ असंख्येया.
संख्येयकम् १-जघन्यपरीतासंख्येयकम् १-जघन्ययुक्तासंख्येयकम् २-उत्कर्षक परीतासंख्येयकम् २-उत्कर्षकयुक्तासंख्येयकम् १-जघन्यासंख्येया३-अजघन्योत्कर्षकपरीता. ३-अजघन्योत्कर्षक युक्ता संख्पेयकम् सख्येयकम् संख्येयकम् २-उत्कर्षकासंख्येया
संख्येयकम् ३-अजघन्योस्कर्षका
संख्येयासंख्येयकम् कोष्ठक असंख्यात
१ परीतासंख्यात युक्तासंख्यात असंख्यातासंख्यात १ जघन्यपरितासंख्यात १ जघन्य युक्तासंख्यात १ जघ- , २ उत्कृष्ट परितासंख्यात २ उत्कृष्टयुक्तासंख्यात २ उत्कृ-, ३ अजघन्योत्कृष्टपरिता ३ अजघन्योत्कृष्टयुक्ता ३ अजघन्यो संख्यात
सख्यात स्कृष्ट, तथा:--अनंतक के आठ भेद इस प्रकार से हैं-(१) परितानंतक (२)युक्ताननक, (३) अनंतानंतक । इनमें, परीतानंतक और युक्तानंतक के ३-३ भेद हैं। अनंतानंतक के दो भेद हैं। क्योंकि इनमें उत्कृष्ट की अपेक्षा अनंतानंतक भेद नहीं बनाता है । कोष्टक इस प्रकार से हैं०४:
અસખ્યાત
૧ પરીતાસંખ્યાત
યુક્તાસંખ્યાત
અસંખ્યાતાસંખ્યાત ૧ જઘન્ય પરીતાસંખ્યાત ૧ જઘન્યયુક્તાસંખ્યાત ૧ જઘન્ય ૨ ઉત્કૃષ્ટપરીતાસંખ્યાત ૨ ઉત્કૃષ્ટ યુક્તાસંખ્યાત ૨ ઉત્કૃષ્ટ , ૩ અજઘન્યત્કૃષ્ટ પરીતા ૩ અજઘન્યાકર્ષક ૩ અજઘન્ય
સંખ્યાત, યુક્તા સંખ્યાત, હર્ષક तमा सनतना मा हो या प्रमाणे छ. (१) परीतान, (२) યુક્તાનંતક, (૩) અનંતાનંતકના આમાં પરીતાનાંતક અને યુક્તાનંતકના ત્રણ ત્રણ ભેદે છે. અનંતાનતંકના બે ભેદે છે. કેમ કે આમાં ઉત્કૃષ્ટની અપેક્ષાથી અનંતાનંતંકના ભેદે થતા નથી. है।४ मा प्रभारी छे.--
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मनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र २३३ गणनासंख्यानिरूपणम् तथा अनन्तकं परीतानन्तक-युक्तानन्तका-नन्तानन्त केति त्रिविधम् । तत्राद्य भेदद्वये प्रत्येकं जघन्यकोत्कर्षकाजघन्यानुत्कर्ष केति त्रिविधम् । तृतीयस्य अनन्तानन्तकस्य उत्कर्षतः काऽप्यसंभवात् तत् जघन्यकाजघन्यानुत्कर्ष केति द्विविधम् । इत्थमष्टभेदमनन्तकमिति ! कोष्ठकं चेदम्
अनन्तकमष्टविधम्
१ परीतानन्तकम्
२ युक्तानन्तकम्
३ अनन्तानन्तकम्
१ जघन्यपरीतानन्तकम् २ उत्कर्षकपरीतानन्तकम् ३ अजघन्योत्कर्षकपरीता. नन्तकम्
१ जघन्ययुक्तानन्तकम् १ जघन्यानन्तानन्तकम् २ उत्कर्षकयुक्तानन्तकम् २ अजघन्योत्कर्षकान ३ अजघन्योत्कर्षकयुक्ता न्तकम् नन्तकम् (उत्कर्षकामावोऽत्र)
॥० २३३॥ (२) युक्तानंतक (३) अनंतानंतक
(१) परीतानंतक
१ जघन्यपरीतानंतक १ जघन्ययुक्तानंतक १ जघन्यानंन्तानंतक २ उत्कृर्षकपरीतानंक २ उत्कृर्षकयुक्तानंतक २ अजघन्योत्कर्ष३ अजघन्य उत्कृर्षक ३ अजघन्योत्कर्षक कानतानंतक
परीतानंतक युक्तानंतक यहां उत्कृष्ट अनंतानंतक ऐसा भेद कहीं पर भी संभावित न होने के कारण नहीं बनता है । सूत्र के समस्त पदों का संक्षेप से ये अर्थ सुगम्य है अतः अलग २ करके उनका अर्थ नहीं लिखा । सू०२३३॥ (१) ५रीतनत (२) युस्तान
(3) मनतात
(૧) જઘન્ય પરીતાનંતક (૧) જઘન્ય યુક્તાનંતક (૧) જઘન્યાનતાનંતક (૨) ઉત્કર્ષક પરીતાનંતક (૨) ઉત્કર્ષક યુક્તાનંતક (૨) અજઘન્યાકર્ષકાનંતા(3) मधन्य 4 (3) मगधन्या
नत પરીતાનંતક યુક્તાનંતક,
અહીં ઉત્કૃષ્ટ અનંતાનંતક એ ભેદ કઈ જગ્યાએ સંભવિત ન હોવાથી થતો નથી. સૂત્રના સમસ્ત પદોને સંક્ષેપ અર્થ સુગમ્ય છે. એથી અલગ તેને અર્થ લખવામાં આવ્યું નથી. એ સૂ. ૨૩૩ છે
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भयनोगद्वारसूत्र मूलम्-जहणणयं संखेज्जयं केवइयं होइ ? दोरूवयं, तेणं परं अजहण्णमणुकोसयाइं ठाणाइं जाव उक्कोसयं संखेज्जयं न पावइ । उक्कोसयं संखज्जयं केवइयं होइ ? उक्कोसयस्स संखे. ज्जयस्स परूवणं करिस्लामि । से जहानामए पल्ले सिया,-एगं जोयणप्तयसहस्तं आयामविकखंभेणं, तिणि जोयणसयसहस्साई, सोलससहस्साई, दोणिय सत्तावीसे जोयणलए,तिणि य कोसे, अट्रावीसं च धणुसयं, तेरस य अंगुलाई, अद्धं अंगुलं किंचि विसेसाहियं परिक्खेवेणं पण्णत्ते । से णं पल्ले सिद्धत्थयाणं भरिए। तओ णं तेहिं सिद्धत्थएहिं दीवसमुदाणं उद्धारो घेप्पइ। एगो दीवे एगो समुद्दे एवं पक्खिप्पमाणेणं पक्खिप्पमाणेणं जावइयादीवसमुदा तेहिं सिद्धत्थएहिं अप्फुण्णा एस णं एवइए खेत्ते पल्ले। पढमा सलागा। एवइयाणं सलागाणं असंलप्पालोगा भरिया तहावि उक्कोसयं संखेजयं न पावइ, जहा कोदिहतो? से जहानामए मंचे सिया आमलगाणं भरिए, तत्थ एगे आमलए पक्खित्ते सेऽवि माए, अण्णेऽवि पक्खित्ते सेऽवि माए, अन्नेऽवि पक्खित्ते सेऽवि माए। एवं पक्खिप्पमाणेणं पक्खिप्पमाणेणं हो ही सेऽवि आमलए जंसि पविखत्ते से मंचए भरिजिहिइ जे तत्थ आमलए न माहिइ ।।सू०२३४॥
अब सूत्रकार इसी विषय को विस्तार से कहने के लिये सर्वप्रथम संख्यात की प्ररूपणा करते हैं-- 'जहण्णयं संखेज्जयं केवाय होई' इत्यादि ।
હવે સૂત્રકાર એજ વિષયને વિસ્તાર પૂર્વક કહેવા માટે સર્વ પ્રથમ सातनी ५३५९।। रे छ.--
'जहण्णय संखेज् जयं केवइयं होइ' इत्यादि ।
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अनुयोगचन्द्रिका टीका स०२३४ जघन्यसंख्येयनिरूपणम्
छाया-जघन्यकं संख्येयकं कियद् भवति ? द्विरूपकम् । ततः परम् अज घ. न्यानुत्कर्षकानि स्थानानि यावत् उत्कर्षकं संख्येयकं न प्राप्नोति । उत्कर्षक संख्येयकं कतिविधं भवति ? उत्कर्षकस्य संख्येयकरय प्ररूपणां करिष्यामि । स यथानामकः पल्यः स्यात्-एकं योजनशतसहस्रम् आयामविष्कम्भेण, त्रिणि योजनशतसहस्राणि, षोडशसहस्राणि, द्वे च सप्तविंशतियोंजनशते, त्रीश्चक्रोशान् अष्टाविंशतिश्च धनुश्शतम् , त्रयोदश च अंगुलानि, अर्द्धम् अंगुलं च किश्चित विशेषाधिकं परिक्षेपेण प्रज्ञप्तः । स खलु पल्यः सिद्धार्थभृतः। ततः खलु तैः सिद्धार्थ द्वीपसमुद्राणाम् उद्धारो गृह्यते । एको द्वीपे एकः समुद्रे, एवं प्रक्षिप्य माणेन प्रक्षिप्यमाणेन द्वीपसमुद्रास्तैः सिद्धार्थैरास्पृष्टाः । एतत्खलु एतावत् क्षेत्र पल्यः। प्रथमा शलाका । एतावतीभिः शलाकाभिरसंलप्यालोका भृताः, तथापि उत्कर्षकं संख्येयकं न प्राप्नोति, यथा को दृष्टान्तः ? स यथानामको मञ्चः स्यात् आमलकै तः । तत्र एक आमलकः प्रक्षिप्यते सोऽपि मितः, अन्योऽपि प्रक्षिप्तः सोऽपि मितः, अन्यः प्रक्षिप्तः सोऽपि मितः। एवं प्रक्षिप्यमाणेन प्रक्षिप्यमाणेन भविष्यति सोऽपि आमलकः, यस्मिन् प्रक्षिप्ते स मञ्चको भरिष्यति, यत् तत्र आमलको न मास्यति ।मु०२३४॥
टोका-संक्षेपतः संख्येयकादिभेदमरूपणामात्रं कृत्वा सम्पति विस्तरतस्तत्स्वरूपं निरूपयितुमाह-'जहण्णयं' इत्यादि। जघन्यक संख्येयकं कियद् भवति ____टीकार्थ--(जहणणयं संखेज्जयं केवयं होइ ? ) हे भदन्त ! जघन्य संख्यात कितना होता है ? अर्थात् किस संख्यात से लेकर किस संख्यापर्यन्त जघन्य को संख्यात माना जाता है।।
उत्तर--(दो रूवयं-तेणं परं अजहण्णमणुक्कोसयाई ठाणाई जाव उक्कोसयं संखेज्जयं न पावह) यहां 'दो' जघन्य संख्यात होता है। इसके बाद तीन, चार आदि संख्या अजघन्य अनुत्कर्ष होता है। और यह अजघन्य अनुत्कर्ष वहां तक माना जाता है कि जहां उत्कृष्ट
हाथ:--(जहण्णयं संखेज्जय केवइयं होइ १) ३ महन्त ! धन्य સંખ્યા કેટલા હોય છે. એટલે કે કઈ સંખ્યાથી માંડીને કઈ સંખ્યા સુધીને જઘન્ય સંખ્યાત માનવામાં આવે છે.
उत्तर:--(दो रूवयं-तेण परं अजहण्ण मणुक्कोसयाई ठाणाई जाव उस्को सयं संखेज्जयं न पावइ) मी धन्य सन्यात हाय छे. २५। पछी ચાર વગેરે સંખ્યા અજઘન્ય અનુત્કર્ષ હોય છે. અને આ અજઘન્ય અનુ કર્ષ ત્યાં સુધી માનવામાં આવે છે કે જ્યાં ઉકૃણ સંખ્યાતનું સ્થાન પ્રાપ્ત थतु नथी. (उक्कोसयं संखेज्जयं केवइयं होइ ?) 3 महन्त ! अष्ट सभ्यात
अ० ८२
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अनुयोगद्वारस्त्रे इति पृच्छति । उत्तरयति-तद द्विरूपकं भवति, एकस्मादारभ्य द्विपर्यन्तं जघम्यक संख्येयकं भवतीति भावः । ततः परं त्रिचतुरादि संख्या परिमितानि स्थानानि अजघन्यानुत्कर्षकाणि भवन्ति । कियदवधि भवन्ति ? इत्याह-यावत् उत्कर्षकं संख्येयकं न प्राप्नोति। उत्कर्षकं संसपेयकं यावन्न भवति तावत् अजघन्या. नुकर्षकं संख्येयकं बोध्यमिति उत्कर्षकं संख्येयकं कियद् भाति ? इति शिष्येण पृष्टः माह-उत्कर्षकस्य संख्येपकस्य प्ररूपणां करिष्यामि । तथाहि स यथानामकः कश्चित् पल्पः स्यात्, स कियन्मानः ? इत्याह-स आयामविष्कम्भेण, आयामो दैयं विष्कम्भो विस्तारः, अनयोः समाहारस्तेन योन नशतसहस्रप्रमाणो भवति । तथा-परिक्षेपेण परिधिना स त्रीणि योजनशतसहस्राणि लक्षत्रययोजनानि, तथा -षोडशसहस्राणि सप्तविंशत्यधिके द्वेशते च योजनानि, त्रीन् क्रोशान् अष्टा. विंशत्यधिकमे कशतं धनुषि, किंचिद् विशेषाधिकानि सार्द्धत्रयोदशाङ्गुलानि च भवति । तस्य पल्यस्य परिक्षेप उक्तप्रमाणो भवतीति भावः । संख्यात का स्थान प्राप्त नहीं हो पाता। (उचकोसयं सखेज्जयं केवइयं होइ ?) हे भदन्त ! उत्कृष्ट संख्यात कहां होता है ?
उत्तर--सुनो (उक्कोसयरस संखेज्जस्स परूवणं करिस्सामि) मैं उत्कृष्ट संख्यात की प्ररूपणा करता। (से जहानामए पल्ले सिया) जैसे कोई एक पल्प हो (एगं जोयणसयसहस्स आयामविक्खभेण, तिणि जोयणसयसहस्साई सोलससहस्माई, दोणिय सत्तावीसे जोय. णसए, तिणि य कोसे अट्ठावीसं च धणुसयं, तेरसय अंगुलाई, अद्ध अंगुलं च किंचि विसेसाहियं परिक्खेवेणं पण्णत्ते) और वह लंबाई चौड़ाई में एक लाख योजन का हो, इस स्थिति में परिधि उसकी तीन लाख सोलह हजार दोसौ सत्तावीस योजन तीन कोश १२८ धनुष एवं कुछ अधिक १३॥ अंगुल प्रमाण होती है। उक्त च करके
या य छ १ उत्त२ सामना:--(उक्कोसयस्स संखेज्जयस्त्र परवणं करिस्सामि) ई ष्ट सध्यातनी प्र३५५। छु. (से जहानामए पल्ले सिया) म
मे ५८य डाय, (एगं जोयणसयसहस्सं आयामविक्खंभेणं, तिण्णि जोयणन यसहस्साई सोलमसहस्साई दोणिय सत्तावीसे जोयणसए, तिण्णिय कोसे अट्ठावीसं च धणुसयं, तेरसयअंगुलाई, अद्धं अंगुलं च किंचि विसेसा हियं परिक्खेवेण पण्णत्ते) भने त मा भने पडणाभां से काम
જન હોય. આ સ્થિતિમાં તેની પરિધિ ત્રણ લાખ સોળ હજાર બસે સત્તાવીશ જન ત્રણ ગાઉ ૧૨૦ ધનુષ અને કંઈક વધારે ૧૩ આંગળ
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अनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र २३४ जघन्यसंख्येयक निरूपणम्
उक्तं च--परिही तिलक्ख सोलसमुहस्स दो य सय सत्त वीसऽदिया । कोस तिय अवसं, धणुसयं तेरंगुळऽद्धहियं ॥
छाया - परिधित्रीणि लक्षाणि षोडशसहस्राणि द्वे शते सप्तविंशत्यधिके । क्रोश त्रिष्टात्रिंशं धनुःशतं त्रयोदशाङ्गुलानि अर्धाधिकानि ।। इति अयं पल्यो जम्बूद्वीपप्रमाणो बोध्यः । अयं चाधस्तात्] योजन सहस्रमवगाढी द्रष्टव्यः - रत्नमभाष्पृथिव्या रत्नकाण्डं मिला वज्रकाण्डे प्रतिष्ठित इत्यर्थः । स खलु पूर्वोक्तममाणः पल्पो जम्बूद्वीपवेदिकाया उपरि सप्रशिखः प्रकृष्टशिखायुक्तः सिद्धार्थकैः सर्षपैर्भृतो भवेत् ततः खलु तैः सिद्धाः द्वीपसमुद्राणामुद्धारो गृह्यते । कियतां द्वीपसमुद्राणामुद्धारो गृह्यते ? इत्याह-एकः सर्षपो द्वीपे एकः सर्पः समुद्रे, इत्येवं प्रक्षिप्यमाणेन प्रक्षिप्यमाणेन एकैकेन सर्वपेण यावन्तो द्वीपसमुद्रास्तेः सिद्धार्थकैरास्पृष्टाः व्याप्ताः । अवमभिप्रायः- ते सर्पाः असत्कल्पनया देवादिना समुत्क्षिप्य एको द्वीपे एकः समुद्रे इत्येवं सर्वेऽपि सिद्धार्थकाः प्रक्षिप्यन्ते । इत्थं यही भाव इस (परिही तिलक्खसोहस) इत्यादि गाथा द्वारा प्रकट किया गया है । इस प्रकार इस पल्य का प्रमाण जंबूद्वीप के प्रमाण जैसा हो जाता है । यह पल्य नीचे इतना गहरा चला गया है कि रत्नप्रभा पृथिवी का जो रत्नकाण्ड़ है, उसे फाड कर वज्रकाण्ड तक जा पहुँचा है। (से णं पल्ले सिद्धत्थयाणं भरिए) अब इस पल्प को सिद्धार्थोंसर्षपों से भरा हुआ हो। (तत्रो तेहिं सिद्धस्यएहिं दीवस मुद्दाणं उद्धारो घेप) इन सर्षप से द्वीपसमुद्रों का उद्धार गृहीत होता है । ( एगो दीवे, एगो समुद्दे एवं पक्खिप्पमाणे २ जावइया दीवसमुद्दा तेहि सिद्धत्थेहिं अफुगा एएणं एवइए खेते पल्ले ) कितने द्वीप समुद्रों का उद्धार ग्रहण किया जाता है इसके लिये सूत्रकार कहते हैं कि एक प्रभाणु होय छे. उडत अरीने से भाव मा (परिही तिलक्खखोलस) વગેરે ગાથા વડે પ્રકટ કરવામાં આવેલ છે. આ પ્રમાણે પલ્યનુ પ્રમાણ જમૂદ્રીપના પ્રમાણુ જેવુ હોય છે. આ પલ્ય નીચે આટલું બધુ ઊંડું, જંતુ રહ્યું છે કે રત્નપ્રભા પૃથ્વીને જે રત્નકાંડ છે, તેને ફાડીને વાકાંડ સુધી જતુ २६ छे. (से णं पल्ले सिद्धत्ययाणं भरिए) वे यह सिद्धार्थो - सर्व पोथी पूरित डेय (तओ णंतेहिं सिद्धत्थ हिं दीवस मुद्दाणं उद्धारो घेप्पइ) मा सर्प - पोथी द्वीपसमुद्रोता उद्धार गृहीत थाय छे ( एगो दीवे, एगो समुद्दे एवं पक्खिमाणेणं २ जावइया दीवसमुद्दा वेहिं सिद्धत्थेहि अष्फुण्णा एस एवइए खेत्ते पल्ले) डेटा द्वीप समुद्रोना उद्धार ने श्रणु श्वामां आवे छे, એના માટે સૂત્રકાર કહે છે કે ‘એક સપદ્રીપમાં નાખે, એક સપ
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अनुयोगद्वारसूत्रे सर्षप द्वीप में डालों एक सर्षप समुद्र में डालों इस प्रकार करते २ उन सब सर्षपों को द्वीपसमुद्रों में डाल २ कर समाप्त कर दो जिस द्वीप या समुद्र में वह अन्तिम एक सर्षप समाप्त हो जावे वहां तक के अर्थात् प्रथम जंबूद्वीप से लगाकर उस अन्तिम द्वीप या समुद्र तक के जितने भी द्वीप समुद्र हैं, वहां तक का क्षेत्र अनवस्थितपल्य माना गया हैं।। तात्पर्य कहने का यह है कि इस प्रकार से उन सर्षपों का प्रक्षेपण मनुष्य तो कर नहीं सकता-देवादिक कर सकते हैं-इसलिए ऐसी असत्कल्पना करनी चाहिये कि कोई देवादिक उन सर्षपों से उठा उठा कर एक एक सर्षप द्वीप और समुद्र में डालता जाता है-इस प्रकार से जितने द्वीप और समुद्रों में वे सर्षप एक एक करके पूरे डाल दिये जाते हैं उतने प्रमाण क्षेत्र को अनवस्थित पल्यरूप से कल्पित किया गया है । (पढमा सलागा-एव. इया णं सलागाणं असलप्पा लोगा भरिया, तहां वि उक्कोसयं सखेज्जयं न पावइ) इसके बाद १ एक सर्षप शलाका पल्य में डाला जाता है। इस प्रकार जंबूद्वीर प्रमाणवाले पल्य में स्थित उन सर्षप तुल्य शलाकाओं से भरे हुए शलाकापल्यरूप जो लोक हैं वे कितने हैं ? यह कहा नहीं जा सकता है-अर्थात् एक, दश, सौ, हजार, लाख, करोड, સમુદ્રમાં નાખે, આ રીતે કરતાં કરતાં તે સર્વ સર્ષને દ્વીપસમુદ્રમાં નાખીને સમાપ્ત કરી દે. જે દ્વીપમાં કે સમુદ્રમાં તે અંતિમ એક સર્ષપ સમાપ્ત થઈ જાય, ત્યાં સુધીના એટલે કે પ્રથમ જે બૂઢીપથી માંડીને તે અંતિમ દ્વિીપ કે સમુદ્ર સુધીના જેટલા દ્વીપ સમુદ્રો છે, ત્યાં સુધીનું ક્ષેત્ર અનવસ્થિત પલ્ય માનવામાં આવેલ છે. તાત્પર્ય આ પ્રમાણે છે કે આ રીતે આ સર્ષનું પ્રક્ષેપણ માણસ તે કરી શકે જ નહિ, દેવાદિક કરી શકે છે. એથી એવી અસત્કલ્પના કરવી જોઈએ કે કઈ દેવાદિક તે સર્ષપોમાંથી લઈ લઈને એક એક સર્ષપ દ્વીપ અને સમુદ્રમાં નાખતો જાય છે. આ પ્રમાણે જેટલા દ્વીપ અને સમુદ્રમાં તે સર્ષ ૫ એક એક કરીને બધા નાખી દેવામાં આવે છે, તેટલા પ્રમાણ क्षेत्रने मनस्थित ५८५ ३५ दि५त ४२वामा मावे छ. (पढमा सलागा एवइयाण सलागाणं असंलया लोगा भरिया, तहा वि उक्कोसयं संखेज्जयं न पावइ) त्यार पछी १ से सर्ष ५ मा ५६यमा नाममा मावे छे. मा રીતે જ બૂઢીપ પ્રમાણવાળા પલ્પમાં સ્થિત તે સર્ષપ તુલ્ય શલાકાથી પરિપૂર્ણ શલાકા પલ્ય રૂપ જે લોકે છે, તે કેટલા છે, તે કહેવાય નહિ, એટલે કે એક, દશ, સો, હજાર, લાખ કરોડ, વગેરે રૂપમાં તેમની ગણત્રી
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tigerant टीका सूत्र २३४ जघन्यसंख्येयकनिरूपणम्
६५३
प्रक्षिप्यमाणास्ते सिद्धार्थका यत्र च द्वीपे समुद्रे वा निस्तिष्ठन्ति तदन्तो जम्बूद्वीपादिर नवस्थितपल्यः कल्प्यते इति । अतएवाह - एतदेतावत् प्रमाणं क्षेत्रं पल्यः= अनवस्थितपल्यः, सर्वभूतो बुद्धचा परिकल्प्यते इत्यर्थः । ततः प्रथमा शलाका = एकः सर्षपः शलाकापल्ये प्रक्षिप्यते । असत्कल्पनया एतावतीभि. = जम्बूद्वीपमाणपल्पस्थित सर्वपसमप्रमाणाभिः शलाकाभिः असंलप्या रक दशशतसहस्रलक्ष कोटिम कारेग संळपितुं = वक्तुमशक्याः = अति बहवो लोकाःलोक्यन्ते= दृश्यन्ते केवलिना केवलाळोकेन ये ते लोकाः-शलाकापल्यरूपा यद्यपि भ्रता = आकण्ठं पूरितास्तथापि उत्कर्षकं संख्येयकं न प्राप्नोति । अयं भावः = लोके आकण्ठपूरिता अपि भ्रता उच्यन्ते । न च तथापि ते उत्कर्षक आदि, रूप से उनकी गणना नहीं की जा सकती है । एतावता वे अस ख्यात कहे जावेंगे ? सो यह बात नहीं है, किन्तु वे बहुत अधिक ही माने जावेंगे तो क्या उन्हें उत्कृष्ट संख्यात कहा जावेगा ? नहीं। इतने होने पर भी वे उत्कृष्ट संख्यात की श्रेणी में परिगणित नहीं हो सकते हैं। from यह है कि - 'अनवस्थित क्षेत्ररूा पल्प में के दाने एक २ करके प्रक्षिप्त करते २ जब समस्त सर्षप के दाने समाप्त हो जाता हैं -तब एक सर्षप का दाना जंबूद्रीप प्रमाण तुल्य पल्प में डाला जाता है । इस प्रकार करते २ जब वह शलाकापल्य काण्ड पर्यन्त भर जाता है - और ऐसे शलाकापल्य जब बहुत अनेक भर जाते हैं तब भी वहां
कृष्ट संख्यात का स्थान प्रारंभ नहीं होता। लोक में यद्यपि ऐसी प्रसिद्धि है कि आकंठ भरे हुए स्थान को यह पूरा भरा हुआ है ऐसा जो कहा जाता है वह केवल लोकरूढि से ही कहा जाता है क्योंकि वह કરવામાં આવતી નથી એટલા માટે જ તે અસંખ્યાત કહેવામાં આવશે ? તા તે ખરાખર નથી. પરંતુ તે ખૂમ વધારે જ માનવામાં આવશે, તે શુ તે ઉત્કૃષ્ટ સખ્યાત કહેવામાં આવશે ? નહિ, પણ આ બરાબર નથી. આટલુ હોવા છતાં એ તેમની ગણત્રી ઉત્કૃષ્ટ સખ્યાતની શ્રેણિમાં થતી નથી. સારાંશ આ પ્રમાણે છે કે ‘અનવસ્થિત ક્ષેત્રરૂપ પલ્યમાં એક એક કરીને નાખતાં-ના ખતાં જ્યારે બધા સપના દાણાએ પૂરા થઈ જાય, ત્યારે એક સપના દાણેા જંબુદ્રીપ પ્રમાણુ તુલ્ય પલ્પમાં નાખવામાં આવે છે. આમ કરતાં કરતાં જ્યારે તે શાલાકા પલ્પ કઢ સુધી પૂરિત થઈ જાય છે અને એવા ઘણા શલાકા પ૫ જ્યારે સપૂરિત થઇ જાય છે ત્યારે પણ ત્યાં ઉત્કૃષ્ટ સખ્યાનુ` સ્થાન પ્રારંભ થતુ‘ નથી. લેકમાં જો કે એવી પ્રસિદ્ધિ છે કે આ પૂતિ સ્થાનને આ પૂણ્ ભરેલું છે, આમ જે કહેવામાં આવે છે, તે ફક્ત લોકરૂઢિથી જ કહેવામાં
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૬૪
अनुयोगद्वारसूत्रे
संख्यक माप्नुवन्ति, किन्तु यदा आमूकशिखं भृता भवन्ति, तत्र एकोऽपि सर्पपो न मायात्, तदा उत्कर्ष संख्येयकं भवतीति । ननु आमूलशिखमभृतमपि किं किंचिद् भृतमुच्यते ? सत्यम् - आमूल शिवममृतमपिलोके भृतमुच्यते । यथा कोऽप्यत्र दृष्टान्तोऽप्यस्ति ? इति शिष्येण पृष्टो गुरुराह - स यथा नामकः कश्चिन्मश्चः स्यात् आमलकैर्भृतः। स मञ्च आमूलशिखमभूतोऽपि लोके भृत इति व्यपदिश्यते । तत्र मचे एक आमलकः प्रक्षिप्तः सोऽपि तत्र मितः, ततः अन्योऽपि आमलकस्तत्र क्षिप्तः सोऽपि मितः पुनरन्योऽपि आमलकः प्रक्षिप्तः सोऽपि मितः एवम् = अमुना प्रकारेण प्रक्षिप्यमाणेन प्रक्षिप्यमाणेन आमलकेन भविष्यति सोऽपि
वास्तविक रूप में पूरा भरा हुआ नहीं होता है । आमूल चूल ठसाठस भरा रहने पर ही पूरा भरा माना जाता है फिर उस में एक सर्षप भी डालने पर नहीं समा सकता है तभी वहाँ उत्कृष्ट संख्यात का स्थान प्रारंभ होता है ।
शंका- क्या आमूलचूल नहीं भरे होने पर भी लोक में यह पूरा भरा है ऐसा कहा जाता है ? हां कहां जाता है। क्या इसे आप दृष्टान्त देकर समझा सकते हैं ? हां समझा सकते हैं। तो समझाइये (जहा को दितो इसमें कौन सा दृष्टान्त है ? सुनो-( से जहानामए मंचे सिया) जैसे कोई एक मंच (पल्प) हो और (आमलगाणं भरिए) आंवलों से भरा हो ( तत्थ एगे आमलए पक्खित्ते सेऽवि माए ) उसमें एक आंवला यदि डाला जाता है तो वह भी समा जाता है । ( अण्णे वि
આવે છે. કેમ કે તે ખરેખર પૂર્ણ રીતે પૂરિત થયેલ નથી સંપૂર્ણ રીતે ઠાંસી-ઠાંસીને ભરેલુ. હાય તા જ પૂર્ણ-પૂતિ કહેવાય છે. તે પછી તેમાં એક સપ નાખવા જેટલી પણ જગ્યા રહેતી નથી. અને ત્યાંથી જ ઉત્કૃષ્ટ સખ્ય'તનુ` સ્થાન પ્રારભ થાય છે.
શંકા--શુ' પૂરેપૂરું ભરેલુ ન હોય છતાંએ લેકમાં આ સપૂર્ણ રીતે પૂતિ છે, આમ કહેવામાં આવે છે ? હા, કહેવામાં આવે છે. શુ તમે खाने दृष्टान्त सायने समभवी शो हो ? तो लड़े समन्नये ( जहा को दिट्टं तो) आमां हृष्टान्त यु छे ? ते सांली- से जहानामए मंचे श्रिया ) प्रेम होई गोड भय होय अने ते (आमलगाणं भरिए) सामणाोथी पूरित डेय (तत्थ एगे आमलगे पक्खित्ते सेऽवि माए ) तेमां से सामनु ले नामवामां आवे तो ते समाविष्ट था लय छे. (अण्णे वि पक्खित्ते
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भनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र २३४ जघन्यसंख्येयकनिरूपणम् ६५५ आमलको यस्मिन् प्रक्षिप्यते स मञ्चो भरिष्यति । पुनस्तत्र अन्य आमलको नैष मास्यति, मञ्चस्य आमूलशिखं भृतत्वादन्य आमलको यथा न माति, इत्थमेव अपरापराभिः शलाकामिः प्रक्षिप्यमाणाभिः प्रक्षिप्यमाणाभिर्यदा असंलप्याः अति. बहनः सपशिखा पल्या आमूलशिवम् असत्कल्पनया भृता भवन्ति तदा उत्कृष्टकं संख्येयकं भवतीत्यक्षरार्थः। भावार्थ स्वयम्-पूर्वनिर्दिष्टस्वरूपादनवस्थितपल्या दपरेऽपि जम्बूद्वीपममाणा योजनसहस्रावग. ढास्त्रयः पल्या बुद्धया परिकल्प्यन्ते तत्र प्रथमः शलाकापल्यः द्वितीयः प्रतिशलाकापल्यस्तृतीयो महाशलाकापल्यश्च । पक्खित्ते सेऽवि माए) दूसरा भी डाला जावे तो वह भी समा जाता है। (एवं पक्खिप्पमाणे ण पक्विपमाणे णं हो ही से वि आमलए जंसि पक्खित्ते से मंचे भरिजिजहिह) इस प्रकार आंचलों को डालते २ अन्त में कोई एक ऐसा भी आंवला होता है कि जिसके डाल देने पर वह मंच भर जाता है फिर वहां अन्य आंवला डालने पर समा नहीं सकता। क्योंकि मंच आमूलशिख भर जाता है। इस प्रकार आमूलशिखा भरा होने के कारण जिस प्रकार उसमें अन्य आमलक नहीं समाता है, इसी प्रकार से चार बार डाली गई अपर अपर शलाकाओं से जब असंलप्य -वे बहुत अनेक-पल्य अन्त में आमूल शिख भर जाते हैं कि जिनमें डालने पर भी एक सर्षप का दाना नहीं समा सकता है तब इसी स्थिति में उत्कृष्ट संख्यात का स्थान प्रारंभ होता है। यहां सूत्रकार ने जो अनवस्थितपल्य से अतिरिक्त एक शलाकापल्य कहा है उससे सेऽवि माए) यी ५५ नाभवामां आवे तो त ५५ समाविष्ट थ नय छ. (एवं पक्खिप्पमाणेणं पक्खिप्पमाणेणं हो ही से वि आमलए जंसि पक्खित्ते से मंचे भरिज्जिहिइ) मा प्रमाणे सामान नमिता नामतi छेले थे એવું પણ આમળું હોય છે કે જેને નાખવાથી તે મંચ પરિપૂર્ણ થઈ જાય છે. પછી તેમાં બીજું આમળું નાખવામાં આવે તે માય નહિ કેમ કે મંચ પહેલેથી જ શિખર સુધી પરિપૂર્ણ થઈ ગયેલ હોય છે. આ પ્રમાણે આમૂલ શિખ સંપરિત હેવાથી જેમ તેમાં અન્ય આમલકને સમાવેશ થાય નહીં, આ પ્રમાણે વારંવાર નાખવામાં આવેલી અપર અપર શલાકાઓથી જ્યારે અસંલય–તે ઘણા ૫ અંતમાં આમૂલશિખ પુરિત થઈ જાય છે. તે પછી તેમાં એક સર્ષ૫ જેટલી પણ જગ્યા રહેતી નથી. ત્યારે તે સ્થિતિમાં ઉત્કૃષ્ટ સંખ્યાતનું સ્થાન પ્રારંભ થાય છે. અહીં સૂત્રકારે અનવસ્થિત પલ્યોતિરિક્ત એક શલાકાપલ્ય કહેલ છે, તેથી એ
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मनुयोगद्वारस्त्रे तत्र अनवस्थितपल्यो भृतः शलाकापल्ये च प्रथमा शलाका प्रक्षिप्तेति पूर्व दर्शि. तम् । ततः पुनरप्यनवस्थितपल्यसर्षपाः समुद्धृत्य एकः सर्षपो द्वीपे एकः सर्षपः समुद्रे इत्येवं प्रक्षिप्यन्ते । इत्थं प्रक्षिप्यमाणाः सर्पपा यत्र द्वीपे समुद्रे वा निष्ठां गच्छन्ति तत्पर्यन्तः पूर्वेण सह बृहत्तरोऽनवस्थितपल्यो भवति । ततश्व शलाका पल्ये द्वितीया शलाका प्रक्षिप्यते । पुनश्च अनवस्थितपल्यसप॑पाः समुद्धृत्य ततः परमेको द्वीपे एकः समुद्रे इत्येवं प्रक्षिप्यमाणा यत्र द्वीपे समुद्रे वा निष्ठां यान्ति यह बात जानी जाती है कि सिद्धान्तकारों ने जंबूद्वीप प्रमाण तुल्य अन्य तीन पल्य और माने हैं-इनका नाम (१) शलाकापल्य (२) प्रति शलाका पल्य और (३) महाशलाकापल्य है। प्रत्येक की लंबाई चौडाई एक एक लाख योजन की और गहराई १ हजार योजन की है। यह बात पहिले दिखाला दी गई है कि, जब अनवस्थित पल्य आमूलचूल भरा जाता है, तब शलाका पल्य में एक शलाका प्रक्षिप्त की जाती है। इसके बाद पुनः अनवस्थित पल्प के सर्षप उठाकर क्रमश एक २ करके एक २ द्वीप और समुद्र में डालने चाहिये-डालते २ जप वे जहां समाप्त हो जावे, वहां तक का क्षेत्र पूर्वोक्त उस अनवस्थित पल्य के साथ बृहत्तर अनवस्थित पल्प होता है, तब द्वितीय शलाका उस शलाका पल्य में प्रक्षिप्त की जाती है । इसके बाद फिर से वही क्रम प्रारंभ होता है-इसमें भी अनवस्थित पल्प के सर्षप एक २ करके द्वीप समुद्र में प्रक्षिप्त किये जाते हैं । प्रक्षिप्त करते २ जय वे अन्त में વાત સ્પષ્ટ જણાઈ આવે છે કે સિદ્ધાન્તકારે જબૂદ્વીપ પ્રમાણ તલ્ય બીજા त्रण पक्ष्यो पधाराना भाने छे. तमना नामी-(१) मा ५८य, (२) प्रतिશલાકા પય અને (૩) મહાશલાકાપલ્ય છે. એમનાંમાંથી દરેકની લંબાઈ પહોળાઈ એક લાખ પેજન જેટલી અને ઊંડાણ ૧ હજાર જન જેટલું છે. આ વાત પહેલાં સ્પષ્ટ કરવામાં આવી જ છે કે જ્યારે અનવસ્થિત પલ્ય આમૂલચૂલ સંપૂરિત થઈ જાય છે, ત્યારે શલાકા૫લ્યમાં એક શલાકા પ્રક્ષિપ્ત કરવામાં આવે છે ત્યાર પછી ફરી અનવસ્થિત પત્યના સર્ષ લઈને ક્રમશઃ એક એક કરીને એક એક દ્વીપ અને સમુદ્રમાં નાખવા જોઈએ, નાંખતા નાખતાં જ્યારે તે સમાપ્ત થઈ જાય, ત્યાં સુધીનું ક્ષેત્ર પૂર્વોક્ત તે અનવસ્થિત પત્યની સાથે બૃહત્તર અનવસ્થિત પત્ય હોય છે. ત્યારે બીજી શલાકા તે શલાકા પલ્પમાં પ્રાક્ષિપ્ત કરવામાં આવે છે, ત્યાર બાદ ફરી તેજ કમ પ્રારંભ થાય છે. આમાં પણ અનવસ્થિત પત્યના સર્ષ એક એક કરીને દ્વીપ સમુદ્રમાં પ્રક્ષિપ્ત કરવામાં આવે છે. પ્રક્ષિપ્ત
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अनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र २३४ जघन्यसंख्येयकनिरूपणम् तत्पर्यन्तः पूर्वेग सह बृहत्तमोऽनवस्थितपल्यः । ततश्च शलाकापल्ये तृतीया शलाका प्रक्षिप्यते । बृहत्तरबृहत्तमादिरूपेणास्य परिवर्तनादवस्थितरूपाभावादयमनवस्थितपल्य उच्यते । एवं क्रमेण प्रवर्धमानस्य अनवस्थितपल्यस्य मध्ये शलाकानां प्रक्षेपणात् शलाकापल्यो भ्रियते । न पुनस्तत्रापरस्याः शलाकायाः प्रतीक्षा भवति । इत्थं शहाकापल्या उत्कर्षकं संख्येयकं प्राप्नोति । ततो ऽनवस्थितपल्यो भृतोऽपि नोद्धियते किन्तु शलाकापल्य एवोध्रियते । अमुं च शलाकापल्यं समुद्धृत्य अनवस्थितक्षेत्रात् परत एको द्वीपे एकः समुद्रे इत्येवं जहां समाप्त हो जाते हैं-तब शलाकापल्य में तीसरी शलाका प्रक्षिप्त की जाती है । इस समय जो अनवस्थितपल्य उत्पन्न होता है वह बृहत्तम अनवस्थित पल्य कहा जाता है । इस पल्य को जो अनवस्थित पत्य कहा गया है-उसका कारण यह है कि यह पल्य बृहत्तर, बृहत्तम आदि रूप से परिवर्तित होना है। इसलिये एकरूप से इसका अवस्थान नहीं रहता है । इस प्रकार जैसे यह अनवस्थित पल्य बृहत्तर आदि रूप से बढता जाता है वैसे २ बीच २ में शलाकापल्य में एक एक शलाका का प्रक्षेपण होता हुआ चला जाता है। इस प्रकार जब शलाकापल्य भर जाता हैं और जब उसमें एक भी शलाका के भरने योग्य स्थान रिक्त नहीं रहता है तब अनत्र स्थित पल्य में से सर्षप खाली नहीं किये जाते हैंवह तो भरा ही रहता है। किन्तु जो शलाका पल्य है वही खाली किया जाता है। इस शलाकापल्प में से सर्षपों को खाली करना કરતાં કરતાં જ્યારે તે અંતમાં પૂરા થઈ જાય છે, ત્યારે શલાકાપલ્યમાં ત્રીજી શલાકા પ્રક્ષિપ્ત કરવામાં આવે છે. આ વખતે જે અનવસ્થિત પલ્ય ઉત્પન્ન થાય છે, તેને બૃહત્તમ અનવસ્થિત પલ્ય કહેવામાં આવે છે. આ પલ્યને તે અનવસ્થિત પથ કહેવામાં આવેલ છે તેનું કારણ આ પ્રમાણે છે કે આ પલ્ય વૃત્તર, બૃહત્તમ વગેરે. રૂપમાં પરિવર્તિત થતું જ રહે છે. એથી એક રૂપમાં આનું અવસ્થાન રહેતું નથી. આ પ્રમાણે જેમ જેમ આ અનવસ્થિત પત્ય બૃહત્તર વગેરે રૂપમાં વૃદ્ધિગત થતું જાય છે, તેમ તેમ વચ્ચે વચ્ચે શલાકાપથમાં એક એક શલાકાનું પ્રક્ષેપણ થતું રહે છે. આ રીતે જ્યારે તેમાં એક પણ શલાકા સમાઈ શકે તેટલું સ્થાન રિક્ત રહેતું નથી ત્યારે તે અનવસ્થિત પલ્યમાંથી સર્ષ૫ ખાલી કરવામાં આવતા નથી, તે તે સંપૂરિત જ રહે છે. પરંતુ જે શલાકા પલ્પ છે, તે રિક્ત કરવામાં આવે છે. આ શલાકાપત્યમાંથી સર્ષને ખાલી કરી નાખવા જોઈએ, અને તેમને એક अ० ८३
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मनुयोगद्वारसूत्रे फ्रमेण सर्वे सर्षपाः प्रक्षिप्यन्ते । इत्थं च प्रक्षिप्यमाणास्ते निष्ठा यान्ति । ततः प्रति शलाकापल्ये प्रथमा प्रतिशलाका प्रक्षिप्यते । ततोऽनवस्थितपल्यं समुद्धृत्य पूर्वोक्तपकारेणैव शलाकापल्यो भ्रियते। ततस्तं शलाकापल्यं समुद्धृत्य एको द्वीपे एका समुद्रे इत्येवं प्रक्षिप्यमाणाः सर्पमा यत्र निष्ठां यान्ति ततः परतः पति शलाकापल्ये द्वितीया प्रतिशलाका प्रक्षिप्यते । इत्थमनवस्थितपल्यस्य समुद्धरणं शलाकापल्यस्य भरणरिक्तीकरणं प्रतिशलाकारल्यस्य प्रतिशलाकाप्रक्षेपणं च तावद् वक्तव्यं यावत् प्रतिशलाकापल्यो भ्रियते । अनवस्थितपल्यः शलाका. चाहिये। और उन्हे एक २ करके अनवस्थित पल्यरूप क्षेत्र से आगेएक सर्षप को द्वीप में और एक सर्षप को समुद्र में डालना चाहिये। इस प्रकार डालते २ वे सर्षप जितने द्वीपों और समुद्रों में समाप्त हो जावे तब प्रतिशलाका पल्य में एक सर्षपरूप प्रतिशलाका डालनी चाहिये । इसके बाद अनवस्थितपल्य को खाली करके पूर्वोक्त रीति के अनुमार शलाकापल्य में भरना चाहिये । फिर शलाका पल्य को खाली करके एक सर्षप द्वीप में और एक सर्षप समुद्र में डाल २ कर उस सर्षपराशिको समाप्त कर देना चाहिये । इनके समाप्त होने पर प्रतिशलाकापल्य में दूसरी प्रतिशलाका प्रक्षिप्त कर देनी चाहिये । इस प्रकार अनवस्थितपल्य को खाली करना और शलाकापल्य को भरना और फिर खाली करना तथा प्रतिशलाकापल्य में एक २ प्रतिशला का प्रक्षेपण करना यह काम तब तक करते चले जाना चाहिये । कि जब तक प्रतिशलाकापल्य न भर जावे । अनवस्थितपल्य और એક કરીને અનવસ્થિત પલ્પરૂપ ક્ષેત્રથી આગળ એક સર્ણપને દ્વીપમાં અને એક સર્ષપને સમુદ્રમાં નાખવું જોઈએ, આ પ્રમાણે નાખતાં, નાખતાં સર્ષપ જેટલા દ્વીપ અને સમુદ્રમાં સમાપ્ત થઈ જાય ત્યારે પ્રતિશલાકા પત્યમાં એક સર્ષપરૂપ પ્રતિશલાકા નાખવી જોઈએ. ત્યારબાદ અનવસિથત પલ્યને રિક્ત કરીને પૂર્વોક્ત રીતિ મુજબ શલાકા પલ્પમાં પૂરિત કરવા જોઈએ. પછી તે શલાકાપત્યને ખાલી કરીને એક સર્ષ દ્વીપમાં અને એક સર્ષપ સમુદ્રમાં નાખીને તે સર્ષપ રાશિને પૂરી કરી દેવી જોઈએ. ત્યારબાદ પ્રતિશલાકા પલ્પમાં બીજી પ્રતિશલાકા પ્રક્ષિપ્ત કરવી જોઈએ. આ પ્રમાણે અનવસ્થિત પલ્યને રિક્ત કરવું અને શલાકાપત્યને પૂરિત કરવું તેમજ પ્રતિશલાકા પલ્યમાં એક એક પ્રતિશલાકા પ્રક્ષેપણ કરવી આ કામ ત્યાં સુધી ચાલતું રહેવું જોઈએ કે જ્યાં સુથ્રી પ્રતિશલાકા પલ્ય પરિપૂર્ણ ન થઈ જાય. અનવસ્થિત પલ્ય અને શલાકાપલ્ય તે
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अनुयोगवन्द्रिका टीका सूत्र २३४ जघन्यसंख्येयकनिरूपणम् पल्यश्चापि भृतौ भवतः । इत्थं भूतेषु त्रिपु पल्येषु प्रतिशलाकापल्यं, समुद्धृत्य पूर्वोक्तक्रमणैव एकैशः सर्पपः प्रक्षिप्यते । इत्थं प्रक्षेपणेन ते सर्षपा यत्र निष्ठां यान्ति, ततः परं महाशलाकापल्यस्य प्रथमा महाशलाका प्रक्षिप्यते । ततः पूर्ववत् प्रतिशलाकापल्यः शलाकापरयोऽनवस्थितपल्यश्च भ्रियते । ततः पतिशलाकापल्यं पुनः समुद्धृत्य पूर्ववत् एकैकः सर्वपः प्रक्षिप्यते । यत्र च ते निष्ठा यान्ति तत्परतो महाशलाकापल्ये द्वितीया महाशलाका प्रक्षिप्यते । ततः पुनः पूर्ववत् प्रतिशलाकापल्यः शलाकापल्योऽनवस्थितपल्यश्च नियन्ते। ततश्च प्रति शलाका पल्य तो प्रतिशलाकापल्य के भर जाने पर भरे ही रहते हैं। इस प्रकार तीनों पल्यों के भर जाने पर प्रतिशलाका पल्प को खाली करके पूर्वोक्त क्रम से ही एक २ सर्षप द्वीप और समुद्र में फिर डालते जाना चाहिये। डालते २ जब वे सर्षप जहां समाप्त हो जाते हैं तब महाशलाका पल्प में एक महाशलाका प्रक्षिप्त की जाती है । इस प्रकार प्रतिशलाकापल्य, शलाकापल्य और अनवस्थितपल्य भरना चाहिये । और फिर प्रतिशलाका पल्प को खाली करना चाहिये । और पूर्व के जैसा एक एक सर्षप का दाना समुद्र में डालना चाहिये । डालते डालते जर वे समस्त सर्षप के दाने जहां पर समाप्त हो जाते हैं-तष द्वितीय महाशलाका का प्रक्षेपण महाशलाकापल्य में करना પ્રતિશલાકા પય પૂરિત થઈ જાય છે છતાં એ રહે છે. આ પ્રમાણે ત્રણે પૂરિત થઈ જાય ત્યારે પ્રતિશલાકાપલ્યને ખાલી કરીને પૂર્વોક્ત ક્રમથી જ એક એક સર્ષપ દ્વીપ અને સમુદ્રમાં ફરી નાખતા રહેવું જોઈએ. નાખતાં. નાખતાં જ્યારે તે સર્ષ પિ જ્યાં પૂરા થઈ જાય ત્યારે મહાશલાકા પલ્મમાં એક મહાશલાકા પ્રક્ષિપ્ત કરવામાં આવે છે. આ પ્રમાણે પહેલાની જેમ પ્રતિશલાકાપલ્ય, શલાકા પથ. અને અનવસ્થિત પલ્ય ભરવા જોઈએ. અને પછી ફરી પ્રતિશલાકા પલ્પને ખાલી કરવું જોઈએ અને પૂર્વની જેમ એક એક સર્ષપને દાણે સમુદ્રમાં નાખવું જોઈએ, નાખતાં નાખતાં જ્યારે તે બધા સર્ષપના દાણા સમાપ્ત થઈ જાય ત્યારે બીજી મહાશલાકાનું પ્રક્ષેપણ મહાશલાકા પલ્યમાં કરવું જોઈએ. ત્યાર પછી ફરી પહેલાની જેમ જ પ્રતિશલાકા પલ્પ શલાકાપલ્ય અને અનવસ્થિતપત્ય ભરવા જોઈએ અને ત્યાર પછી ફરી પ્રતિશલાકા પલ્પને ખાલી કરવું જોઈએ અને એક એક
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अनुयोगद्वारसूत्रे शलाकापल्यं समुद्धृत्य एकै कक्रमेण प्रक्षिप्यमाणाः सर्पपा यत्र निष्ठां यान्ति तत्परत स्तृतीया महाशलाका प्रक्षिप्यते । इयं भरणरिक्तीकरणक्रिया तावद् भवति यावद् महाशलाकाभिर्महाशलाकापल्यो भ्रियते । ततश्च प्रतिशलाकापल्या शलाकापल्योऽनवस्थितपल्यश्च भ्रियन्ते । इत्थंच चत्वारोऽपि पल्या भृता भवन्ति । इस्थं भृतेश्वेषु पल्येषु प्रत्येकस्मिन् प्रतिप्यमाण एकोऽपि सर्पपो यदा न माति तदा उत्कृष्टं संख्येयकं भवति । एवं च सप्रशिखं भृते पल्ये उत्कर्षकं संख्येयकम् एकेन चाहिये । इसके बाद फिर पहिले के जैसा ही प्रतिशलाकापल्य, शलाकापल्य और अनवस्थितपल्य भरना चाहिये और भर जाने पर फिर प्रतिशलाकापल्य को खाली करना चाहिये और एक एक सर्षप को द्वीप और समुद्र में डालना चाहिये । एक २ कर डालते २ जब वे सब सर्षप अन्त में पूरे जहां पर हाल चूके जाते हैं तष इसके उपरान्त महाशलाका पल्य में तीसरी महाशलाका प्रक्षिप्त की जाती है। इस प्रकार भरने और खाली करनेरूप यह क्रिया चालू रहती है कि, जब तक महाशलाकाओं से महाशलाकापल्य नहीं भर दिया जाता है। इसके बाद प्रतिशलाका पल्य, शलाकापल्य और अनवस्थितपल्य भरे जाते हैं । इस प्रकार जब ये चारों पल्य पूर्वोक्तविधि के अनुसार भरे સર્ષપને દ્વીપ અને સમુદ્રમાં રાખવા જોઈએ. એક એક કરીને નાખતાં, નાખતાં જ્યારે તે બધા સર્વપ અન્તમાં જ્યાં નંખાઈ જાય છે, ત્યારબાદ મહાશલાકાપલ્યમાં ત્રીજી મહાશલાકા પ્રક્ષિપ્ત કરવામાં આવે છે. આ પ્રમાણે ભરવા અને ખાલી કરવા રૂપ આ કિયા ત્યાં સુધી ચાલુ રહે છે કે જ્યાં લગી મડાશલાકાએથી મહાશલાકા પલ્ય પૂરિત ન થઈ જાય. ત્યાર પછી પ્રતિશલાકા પલ્ય, શલાકા પલ્ય અને અનવસ્થિત પદ્રય પરિત થઈ જાય છે. આ પ્રમાણે જ્યારે એ ચારે ચાર પળે પૂર્વોક્ત વિધિ પ્રમાણે પરિપૂર્ણ કરવામાં આવે છે. અને આમાંથી દરેકે દરેકમાં જ્યારે એક પણ સર્ણપને દાણા નાખીએ તો સમય નહીં ત્યારે ઉત્કૃષ્ટ સંખ્યાત થાય છે. આ પ્રમાણે આમૂલચૂલ પરિપૂર્ણ થઈ જાય ત્યારે ઉત્કૃષ્ટ સંખ્યાત એક સર્ષ રૂપથી અધિક હોય છે. આમ જાવું જોઈએ. આનું તાત્પર્ય આ પ્રમાણે છે કે પૂર્વોક્ત પ્રકારથી પૂર્વોક્ત ચારેચાર પમાં જે સર્ષ છે તેમજ ૧ અનવસ્થિત પલ્પ, ૨ શલાકાપલ્પ, ૩ પ્રતિશલાકા પત્યને ખાલી કરવું અને ભરવું આ કમથી જેટલા દ્વીપ સમુદ્ર વ્યાપ્ત થયા, તે બન્નેની સંખ્યા ભેગી
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अनुयोगबन्द्रिका टीका सूत्र २३४ जघन्यसंख्ये यकनिरूपणम् सर्ष परूपेगाधिकं सम्पद्यते इति बोध्यम् । जघन्यकं संख्येयकं द्वौ । उत्कर्षक जघन्य. कयोमध्ये यानि संख्यास्थानानि तानि अजघन्यानुत्कर्षकाणि बोध्यानि । आगमे तु यत्र क्वापि अविशेषितस्य संख्येयकस्य ग्रहणं कृतं तत्र सर्वत्रानघन्यानुत्कर्षक बोध्यम् । इदंच उत्कर्ष संख्येयकमित्यमेव प्ररूपयितव्यम्, शीर्ष प्रहेलिकान्त राशिभ्योऽतिबहूनां समतिक्रान्तत्वात् प्रकारान्तरेण वक्तुमशक्यत्वादिति ।मु०२३४॥ जाते हैं और इनमें प्रत्येक में जब एक भी सर्षप का दाना डालने पर भी नहीं समासकता है तब उत्कृष्ट संख्यात होता है। इस प्रकार आमूलचूल पल्य के भरे होने पर उत्कृष्ट संख्यात एक सर्षपरूप से अधिक होते है ऐसा जानना चाहिये । इसका भाव यह है कि-- 'पूर्वोक्त प्रकार से पूर्वोक्त चारों पल्यों में जो सर्षप है तथा १ अनवस्थितपल्य २ शलाकापल्य, प्रतिशलाकापल्य के खाली करने और भरने के क्रम से जितने द्वीपसमुद्र व्याप्त हुए, उन दोनों की संख्या मिलाने पर जो संख्या आती है वह संख्या एक सर्षप अधिक, 'उत्कृष्ट संख्येय संख्या जाननी चाहिये जघन्य संख्यात का प्रमाण दो होता है। उस्कृष्ट और जघन्य के बीच में जितने भी सख्यास्थान हैं, वे सथ अजघन्य अनुस्कृष्ट हैं। आगम में जहां कहीं भी सामान्यरूप से जो संख्यात का ग्रहण किया हुआ मिलता है, वह अजघन्यानुस्कृष्टसरुपात का ग्रहण किया गया है, ऐसा ही जानना चाहिये । उस्कृष्ट संख्यात की प्ररूपणा કરવાથી જે સંખ્યા આવે છે, તે સંખ્યા એક સર્ષય અધિક, ઉટ સંખેય સંખ્યા જાણવી જોઈએ. જઘન્ય સંખ્યાતનું પ્રમાણુ બે હેય છે, ઉત્કૃષ્ટ અને જઘન્યની વચ્ચે જેટલાં સંખ્યા સ્થાને છે, તે સર્વે અજઘન્ય અનુકૂષ્ટ છે. આગમમાં જે કોઈ સ્થાને સામાન્ય રૂપથી જે સંખ્યાતન રહણ થયેલું મળે છે, તે અજઘન્યાનુકુષ્ટ સંખ્યાતનું ગ્રહણ કરવામાં આવ્યું છે. આમ જ જાણવું જોઈએ, ઉત્કૃષ્ટ સંખ્યાતની પ્રરૂપણ એવી જ છે. અને આ પ્રમાણે આની પ્રરૂપણ કરવી જોઈએ. શીર્ષપ્રહેલિકા
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अनुयोगद्वारसूत्रे इत्यं त्रिविधं संख्येयकमुक्तमा सम्पति नवविधमसंख्येयकमाह
मूलम्-एवामेव उक्कोसए संखेज्जए रूवे पक्खित्ते जहण्णयं परित्तासंखेज्जयं भवइ, तेण परं अजहण्णमणुकोसयाई ठाणाई जाव उक्कोसयं परित्तासंखेज्जयं न पावइ । उक्कोसयं परित्तासंखे. जयं केवइयं होइ ? जहणणयं परित्तासंखेज्जयं जहण्णयपरित्तासंखेन्जमेताणं राप्तीणं अण्णमण्णब्भासो रूवूणो उकोसं परित्तासंखेज्जयं होइ, अहवा जहन्नयं जुत्तासंखेज्जयं रूवूणं उक्कोसयं परित्तासंखेज्जयं होइ। जहन्नयं जुत्तासंखेज्जयं केवइयं होइ ? जहाणयपरित्तासंखेज्जयमेत्ताणं रासीणं अण्णमण्णभासो पडि. पुण्णो जहन्नयं जुत्तासंखेज्जयं होइ, अहवा उक्कोसए परित्तासंखेज्जए रूवं पक्खित्तं जहण्णयं जुत्तासंवेज्जयं होइ। आवलियावि तत्तिया चेत्र, तेण परं अजहण्णमणुकोसयाई ठाणाई जाव उक्कोसयं जुत्तासंखिज्जयं न पावइ । उकोसयं जुत्तासंखेजयं केवइयं होइ ? जहण्णएणं जुत्तासंखेज्जएणं आवलिया गुणिया अण्णमण्णब्भासो रूवूगो उक्कोसयं जुत्तासंखेजयं होइ, ऐसी ही है। और इसी प्रकार से इसकी प्ररूपणा करनी चाहिये। शीर्ष प्रहेलिका तक की जितनी राशियां हैं उन राशियों से भी आगे बहुत अधिक राशियों का यह अग्रवर्ती है । और कोई ऐसा प्रकार नहीं है कि जिससे इसकी प्ररूपणा की जा सके ॥ २३४॥ સુધીની જેટલી રાશિઓ છે, તે રાશિઓમાં પણ આગળ ઘણું રાશિઓ કરતાં આ અગ્રવર્તે છે. અન્ય કઈ એ પ્રકાર નથી કે જેથી આની પ્રરૂપણ કરવામાં આવે. એ સૂત્ર ૨૩૪
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भनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र २३५ नवविधमसंख्येयकनिरूपणम् ६६३ अहवा जहन्नयं असंखेजासंखेजयं रूवूगं उकोसयं जुत्तासंखजयं होइ । जहण्णयं असंखेज्जासंखेजयं केवइयं होइ ? जहन्नएणं जुत्तासंखेजएणं आवलिया गुणिया अण्णमण्णब्भासो पडिपुण्णो जहणणयं असंखेजासंखेज्जयं होइ, अहवा उकोसए जुत्तासंखेजए रूवं पक्खित्तं जहण्णयं असंखेजासंखेजयं होइ। तेण परं अजहणमणुकोसयाई ठाणाई जाव उक्कोसयं असंखेज्जासंखेजर्य ण पावइ। उक्कोसयं असंखेज्जासंखेजयं केवइयं होइ? जहप्रणयं असंखेज्जासंखेज्जयमेत्ताणं राजीणं अण्णमण्णब्भासो रूवूगो उकोसयं असंखेज्जासंखेज्जयं होइ, अहवा जहाणयं परित्ताणतयंरूवूणंउक्कोसयं असंखेज्जासंखेज्जयं होइ॥सू०२३५॥
छाया-एवमेव उत्कर्ष के संख्येय के रूपे प्रक्षिप्ते जघन्यकं परीतासंख्येयकं भवति, ततः परम् अजघन्यानुत्कर्ष काणि स्थानानि यावत् उत्कर्ष के परीतासंख्येरकं न पाप्नोति। उत्कर्ष परीतासंख्येयकं कियद् भवति? जघन्यकं परीतासंख्येयकं जघन्यकपरीतासंख्यक मात्राणां राशीनाम् अन्योन्याभ्यासो रूपोनः उत्कर्ष परीतासंख्येयकं भवति । अथवा जघन्यकं युक्तासंख्येक रूपोनम् उत्कर्ष के परीतासंख्येयकं भवति । जघयकं युक्तासंख्येयकं कियद् भाति ? जघन्यकपरीता संख्येयकमात्राणां राशीनां अन्योन्याभ्यासः प्रतिपूर्गों जघन्यकं युक्तासंख्यकं भवति । अथवा उत्कर्ष के परीतासंख्पेयके रूपं पक्षिप्त जघन्यकं युक्त संख्येयकं भवति, आवलिकापि तावता एव । ततः परम् अजघन्यानुत्कर्ष काणि स्थानानि यावत् उत्कर्ष के युक्तासंख्येयकं न प्राप्नोति । उत्कर्ष के युक्तासंख्येकं कियद् भवति ? जघन्येन युक्तासंख्येयकेन आवलिका गुणिता अन्योन्याभ्यासो रूपोनः उत्कर्ष के युक्तासख्येयकं भवति, अथवा जघन्यकम् असंख्येयासंख्येयकं रूपोनम् उत्कर्ष के युक्तासंख्येयक भवति । जघन्यकम् असंख्येयासंख्येयकं कियद् भवति ? जघन्येन युक्तासंख्येयकेन आनलिका गुगिता अन्योन्याभ्यासः प्रतिपूर्णो जघन्यकम् असंख्येयासंख्ये. यकं भवति, अथवा उत्कर्ष के युक्तासंख्येयके रूपं प्रक्षिप्तं जघन्यकम् असंख्येया
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अनुयोगद्वार
संख्येयकं भवति, ततः परं अजघन्यानुत्कर्ष काणि स्थानानि यावत् उत्कर्ष कम् असंहपेयासंहोयकं न पाप्नोति । उत्कर्ष का असंख्येय संख्येयकं कियद् भवति ? जघन्यकम् असंख्येयासंख्येयकमात्राणां राशीनाम् अन्योन्याभ्यासो रूपोन उत्कर्ष कम् असंख्येयासंख्येयकं भाति, अथवा जवन्यकं परीतानन्तकरूपोनम् उत्कर्षः कम् असंख्येयासंख्येयकम् भाति ।।२३५॥
टीका-एवामेव' इत्यादि
असंख्येयास्त्र परूणावसरेऽपि एवमेव-पूर्ववदेव अनवस्थितपल्यादि निरू. पगा कर्तव्या । अवस्थितपल्यादिनिरूपणेन पूर्वम् उत्कर्षकं संख्येयकम् एक रूाधिकं दर्शितम् । तत्र उत्कर्ष के संख्येयके पूर्वदर्शितं सर्पपलक्षणम् अधिक एकं रूपं पक्षिप्यते, प्रक्षिप्ते च तस्मिन् जघन्य परीतासंख्येयकं भवति । ततः परम् परीतासंख्येयकस्य अजघन्यानुत्कर्ष काणि स्थानानि भवन्ति, यावदुत्कृष्टं
इस प्रकार तीन प्रकार के संख्यातों का स्वरूप कहकर अब सूत्रकार नौ प्रकार के असंख्यातों का वर्णन करते हैं
'एवामेव उक्कोसए संखेज्जए' इत्यादि।
शब्दार्थ--(एवामेव) असंख्यात की प्ररूपणा के अवसर में भी पूर्व के जैसा ही अनवस्थित पल्प आदिकों की प्ररूपणा कर लेनी चाहिये। अनवस्थित पल्य आदि के निरूपग से यह हम जान चुके है कि-एकरूप अधिक उत्कृष्ट संख्यान होता है। 'उक्कोसर संखेज्जए रूवे पक्खित्ते जहण्णयं परित्तासंखेज्जयं भव:) इस उत्कृष्ट संख्यात के प्रमाण में जब पूर्वदर्शित एक सर्षप और अधिक प्रक्षिप्त कर दिया जाता है, तब जयन्य परीतासंख्यक का प्रमाग होता है। (तेण परं अजहपणमणुक्कोलयाई ठाणाई जाव उककोसंयं परित्तामखेज्जयंन पावह)
આ પ્રમાણે ત્રણ પ્રકારના સંખ્યાનું સ્વરૂપ કરીને હવે સૂત્રકાર નવા પ્રકારના અસંખ્યાતનું વર્ણન કરે છે –
एवामेव उक्कोसए संखेज्जए इत्यादि ।
शहाथ:-(एवामेव) असभ्यातनी ४३५१। ४२ती मते ५५ पूना જેમ જ અનવસ્થિત પય વગેરેની પ્રરૂપણું કરી લેવી જોઈએ. અનવસ્થિત પલ્ય વગેરેના નિરૂપણથી આ અમે જાણી લીધું છે કે “એક રૂપ અધિક Score सध्यात य छे.' (उनकोसए संखेज्जए रूवे पक्खित्ते जहण्णयं संखे जयं भाइ) A! Gष्ट सभ्यातना प्रभाशुभ न्यारे पूर्व अथित से सर्षय વધારે નાખવામાં કરવામાં આવે છે ત્યારે જઘન્ય પરીતાસંખ્યકનું પ્રમાણ हाय छे. (वेण परं अजहण्णमणुक्कोसयाई ठाणाई जाव उक्कोसयं परित्ता
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अनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र २३५ नवविधमसंख्येयकनिरूपणम् ६६५ परीतासंख्येयकं न प्राप्नोति । अथ उन्कृष्टकम् परीता संख्येयकम् जिज्ञासमानः शिष्यः पृच्छति-उत्कर्ष के परीतासंख्येयकं कियद् भवति ? इति । उत्तरयतिजघन्यकं परीतासंख्येयकं यावत्पमाणं भवतीति अध्याहार्यम्, तावत्प्रमाणानां जघन्यकपरीतासंख्येयकमात्राणां जघन्यपरी तासंख्येयकगतरूपसंख्यानां राशी. नाम् अन्योऽन्याभ्याप्त: परस्परगुगनारूपः रूपोन: एकेन रूपेण-सर्षपलक्षणेन ऊना-हीनः उत्कर्षः परीतासंख्येयकं भवति । अयं भावः- एकस्मिन् परीता संख्येयके यानि रूपाणि भवन्ति तावन्तो राशय इह व्यवस्थाप्यन्ते । तैश्च परस्परगुणितैयाँ राशिभाति, ततो राशेरेकस्मिन् रूपेऽपसारिते उत्कर्षक परीतासंख्येयकं भवति । अत्र पिनेयानां खुवावबोधाय दृष्टान्तः प्रदर्यते-जघन्य के परीतासंख्येयकेऽसत्कलानया पञ्च रूपाणि भवन्तु । सा पश्चात्मिका इसके बाद परितासंख्यक के अजघन्यानुत्कृष्ट स्थान होते हैं। और ये स्थान वहां तक होते है कि 'जहां उत्कृष्ट परीतास ख्यक का स्थान नहीं आ जाता है।' (उक्कोसयं परित्तास खेज्जयं केवइयं होह ?) हे भदन्त उत्कृष्ट परीतासंख्यक का प्रमाण क्या है ?
उत्तर-(जहण्णयं परित्तासंखेज्जयं जहण्णय परित्तास खेज्जमेसाण रासीणं अण्णपण्णभासो रुखूणो उक्कोस परित्तास खेज्जयं होइ) जघन्य परितासंख्यात का जितना प्रमाण है, उतने प्रमाण में उस प्रमाण मात्र राशि को व्यवस्थापित करके उसका फिर परस्पर में गुणा करनाचाहिये और गुणाकरने पर जो संख्या आवे उसमें से एक कम कर देना चाहिये । यही उत्कृष्टपरीतासंख्यात का प्रमाण होता है। इसे संखेज्जयं न पावइ) त्या२ ५७ी परीतासन मन्यानुएट स्थान। હોય છે. અને આ સ્થાને ત્યાં સુધી હોય છે કે “જ્યાં સુધી ઉત્કૃષ્ટ पशासन स्थान मावी न य.' (उक्कोसयं परित्तासंखेज्जयं केवइयं होइ ?) मत ! Gष्ट परी भ्यनु प्राय शु छे. १
उत्तर:- (जहण्णयं परित्तासंखेज्जयमेत्ताणं रासीणं अण्णमण्णभासो रुवूणो उक्कोस परित्तासंखेज्जयं होइ) धन्य परीतास यातनु २९ प्रभाए છે, તેટલા પ્રમાણમાં તે પ્રમાણમાત્ર રાશિને વ્યવસ્થાપિક કરીને તેને ફરી પરસ્પર ગુણાકાર કરવો જોઈએ. અને ગુણાકાર કરવાથી જે સંખ્યા આવે તેમાંથી એક છે કરે જોઈએ એજ ઉત્કૃષ્ટ પરીતાસંખ્યાતનું પ્રમાણ હોય છે. આને અંક દષ્ટિએ આમ સમજવું જોઈએ-માને કે જઘન્ય
अ० ८४
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अनुयोगद्वारसूत्रे संख्या पश्चवारं व्यवस्थापनीया । यथा '५५५५५' इति । अत्र पञ्चभिः पञ्च गुणिता:- पञ्चविंशतिः, सा पुनः पञ्चभिर्गुणिता सपादशतं भवति । इदं च पञ्चमिगुणितं पञ्चविंशत्यधिकानि षट्शतानि । एतानि च पञ्चभिर्गुणितानि सपादशताधिकं सहस्रत्रयम् । असत्कल्पनया एतत्पमाणो राशि वस्तु स्थित्या ऽसंख्येयरूपो बोध्यः । अयं राशिर्जघन्यकं युक्तासंख्येयकं भाति । ततो राशेरेकस्मिन् रूपेऽपसारिते सति उत्कर्षकं परीतासंख्येयकं भवतीति । शब्दान्तरेण एतदाह-अथवा जघन्यकं युक्तासंख्येयकम् एकरूपोनम् उत्कर्म के परीतासंख्येयकं भवति । जघन्यकपरीतासंख्येयकराशीनामन्योऽन्याभ्यासे सति या संख्या अंकदृष्टि से यों समझना चाहिये कि मानलो जघन्यपरीतासंख्यात का प्रमाण ५ है इस पांच को पांच बार स्थापित कर उनका परस्पर में गुणा करने पर इस प्रकार संख्या आती है-५४५=२५, २५४५=१२५, १२५ ५-६२५, ६२५४५३१२५, इस तीन हजार एकसो पच्चीस संख्या को वास्तविक रूप में असंख्यात के स्थान पर जाननी चाहिये । परन्तु जब इसमें से एक कम कर दिया जाता है तो, यह उत्कृष्ट परीतास ख्यात रूप मानी जाती है । और जब इस में से एक कम नहीं किया जाता है तब यह जघन्य युक्ताप्त ख्यातरूप मानी जाती है। इसी विषय को सूत्रकार दूसरे शब्दों में यों समझाते हैं-कि (अहवा-जहण्णयं जुत्ता संखेज्जयं स्खूणं उक्कोसयं परित्तासखेज्जयं होइ) जघन्य युक्तासंख्यात का जितना प्रमाण है, उसमें से एक कम कर देने पर उत्कृष्ट परीता. संख्यात का प्रमाण होता है । तात्पर्य इसका यही है कि-'जघन्य परीता પરીતાસંખ્યાતનું પ્રમાણ ૫ છે, આ પાંચને ૫ વાર સ્થાપિત કરીને તેને ५२२५२ ११४.२ ४२पाथी भा प्रमाणे सध्या मावे छे-५ x ५ = २५, २५ x ५ = १२५, १२५ x ५ = १२५, १२५ x ५ = 3१२५, मा १२५ સંખ્યાને વાસ્તવિક રૂપમાં અસંખ્યાતના સ્થાને જાણવી જોઈએ. પરંતુ
જ્યારે આમાંથી એક એ છે કરવામાં આવે છે ત્યારે તે ઉત્કૃષ્ટ પરીતાસંખ્યાત રૂપ માનવામાં આવે છે. અને જ્યારે આમાંથી એક ઓછો કરવામાં આવતું નથી ત્યારે તે જઘન્ય યુક્તાસખ્યાત રૂપ માનવામાં આવે छे. 20 विषय सूत्रा२ भी रीत ॥ प्रमाणे समलव छ है (अहवा -जहण्णयं जुत्तासंखेज्जयं रूणं उक्कोसयं परित्तासंखेज्जयं होइ) धन्य ચુક્તાસંખ્યાતનું જેટલું પ્રમાણ છે, તેમાંથી એક ઓછો કરવાથી ઉત્કૃષ્ટ પરીતાસંખ્યાનું પ્રમાણ થાય છે. આનું તાત્પર્ય આ પ્રમાણે છે કે “જઘન્ય
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अनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र २३५ नवविधम संख्येयकनिरूपणम् संपद्यते, सा जयायकं युक्तासंख्येयकं भवति । तत् एकरूपेणोनं सत् उत्कर्ष के परीतासंख्येयक भवतीति भावः । इत्थं परीतासंख्येयकस्य त्रिविधं भेदं श्रुत्वा युक्तासंख्येयकस्य त्रिविधं भेदं जिज्ञासितुकामः शिष्यः पृच्छति-जघन्य युक्ता संख्येयकं कियद् भाति ? इति । उत्तरयति-जघन्यकारीतासंख्येयकमात्राणां राशीनाम् अन्योऽन्याभ्यासः प्रतिपूर्णः एकरूपापसारणरहितो जघन्य युक्ता. संख्येयकं भवति। अथवा-उत्कर्ष के परीतासंख्येय के रूपं प्रक्षिप्तं तदा जघन्य युक्तासंख्येयक भवति । आवलिकाऽपि तावत्येव भवति । जघन्यके युक्तासंख्यक की राशियों का परस्पर में गुणा करने पर जो संख्या आती है, वह जघन्य युक्तासंख्यक है । इसमें से एक कम करदेने पर उत्कृष्ट परितासंख्यात होता है । इस प्रकार से परीतासंख्यक के तीन भेदों को सुनकर शिष्य ने युक्तासंख्येय के तीन भेदों को जानने की इच्छा से गुरुमहाराज से पूछा कि हे भदन्त ! (जहन्नयं जुत्तासंखेज्जय केवयं होइ ?) जघन्य युक्ताप्तख्यात का क्या स्वरूप है ?
उत्तर--(जहणयं परित्तासंखेज्जयमेत्ताणं रासीर्ण अण्णमण्ण. भासो पडि पुणो जहन्नयं जुत्तासंखेज्जयं होइ, अहवा उक्कोसए परित्ता संखेज्जए रूवं पक्खित्त जहाणये जुत्ताप्तखेज्जयं होह) जघन्य परीता संख्यात की जितनी राशियां हैं उनका आपस में गुणा करना चाहिये और उसमें से एक रूप कम नहीं करना चाहिये सो यह जघन्ययुक्तासंख्यात का प्रमाण है। अथवा उत्कृष्ट परीतासंख्यात का जो પરીતાસંખ્યકની રાશિઓને પરસ્પર ગુણાકાર કરવાથી જે સંખ્યા આવે છે, તે જઘન્ય યુક્તાસંખ્યક છે. આમાંથી એક સંખ્યા ઓછી કરવાથી ઉત્કૃષ્ટ પરીતાસંખ્યાત થાય છે. આ પ્રમાણે પરીતાસંખ્યાતના ત્રણ ભેદે થાય છે. પરીતાસંપેયના આ ત્રણ ભેદને સાંભળીને શિષ્યએ યુકતાસંગેયના ત્રણ ભેદને જાણવાની ઈચ્છાથી ગુરુ મહારાજને
यु 3 Htra! (जहन्नयं जुत्तासंखेज्जयं केवइय होइ ?) धन्य युरतासभ्यात २१३५ शुछ ?
उत्तर:- (जहाणय' परित्तास वेज यमेत्ताणं रासीणं अण्णमण्णमासो पडिपुण्गो जहन्नयं जुत्तासंखेज्जय होइ, अहवा उक्कोसए परित्तासंखेन्जए रूवं पक्खित्तं जहण्णय' जुत्तासंखेन्जय होइ) धन्यपरीतास भ्यातना જેટલી રાશિઓ છે. તેમાંથી એક રૂપ એછું નહિ કરવું જોઈએ, તે આ જઘન્ય યુક્ત સંખ્યાતનું પ્રમાણ છે. અથવા ઉત્કૃષ્ટ પરીતાસંખ્યાતનું જે
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अनुयोगद्वारसूत्र संख्येयके यावन्ति सर्प परूपाणि भवन्ति, आवलिकायामपि तावन्त एव समया भवन्तीति भावः । इत्थं च सूत्रे यत्र आवलिका गृहीता तत्र सा जघन्यकयुक्तासंख्येयकतुल्यसमयराशिपमाणा वोध्या। ततः जघन्यकयुक्तासंख्येयकात् परम् एकैककमेग वृद्धया यावत् उत्कृष्टं युक्ता संख्येयकं न भवति तावत् अजघन्यानुरकर्ष के युक्त संख्येयकं भवति । एतदेवाह ततः परम् अजघन्यानुत्कर्षकाणि स्थानानि यावद् उत्कर्ष युक्तासंख्येयकं न प्राप्नोतीति। अथ उत्कर्ष के युक्तासंख्येयक किपद् भवति ? इति शिष्यः पृच्छति। उत्तरयति-जघन्यकेन युक्तासंख्येयकेन आवलिका गुणिता अर्थात् अन्योऽन्याभ्यासः कृतः-जघन्यक प्रमाण है उसमें एक मिला देने पर जघन्ययुक्तासंख्यात का प्रमाण होता है ।(आवलिया वि तत्तिया चेव) जघन्य युक्तासंख्यक में जितने सर्षप होते हैं, एक आवलिका में भी उतने ही समय होते हैं । अत:-सूत्र में जहां आवलिका का पाठ आवे वहां उसे जघन्य युक्ता संख्यक के तुल्य समय प्रामाणवाली जाननी चाहिये । (तेण परं अज. हण्णमणुक्कोसयाइं ठाणाई जाव उक्कोसयं जुत्तासखिज्जयं न पावइ) जघन्ययुक्तासंख्यात से आगे क्रमशः एक एक की वृद्धि करनी चाहिये सो यह वृद्धि वहां तक करते जानी चाहिये कि जहां तक उत्कृष्ट युक्तासंख्यात का स्थान न आजावे । इस प्रकार जघन्य युक्तासंख्यात और उत्कृष्ट युक्तातयात के बीच के जितने भी स्थान हैं, वे सब अजघन्य अनुस्कृष्टयुक्तासंख्यान रूप हैं। यही बात सूत्रकार ने इस 'तेग अजहणमणुकोसयाई' इत्यादि सूत्रपाठ द्वारा समझाई
પ્રમાણ છે, તેમાં એક જોડવાથી જઘન્ય યુક્તાસંખ્યાતનું પ્રમાણ થાય છે. (आवलिया वि तत्तिया चेव) धन्य यु३तासयमाटा सप । हाय छे. એક આવલિકામાં પણ તેટલા જ સર્ષ પિ હોય છે. માટે સૂત્રમાં જ્યાં આવલિકાને પાઠ આવે ત્યાં તેને જઘન્યયુકતા સંખ્યયના તુલ્ય સમય प्रभाशुपाली युवी नस (तेण पर अजहण्णमणुस्कोसयाई ठाणाई जाव उक्कोमय जुत्तामखिज्जय न पावइ) धन्य युरतासण्यातथी माग ક્રમશઃ એક એકની વૃદ્ધિ કરવી જોઈએ, અને આ વૃદ્ધિ ત્યાં લગી કરતાં રહેવું જોઈએ કે જ્યાં સુધી ઉત્કૃષ્ટ યુકતાસંખ્યાતનું સ્થાન આવી ન જાય. આ રીતે જઘન્ય યુકતા સંખ્યાત અને ઉત્કૃષ્ટ યુકતાસંખ્યાતની વચ્ચે જેટલા સ્થાને છે, તે સર્વે અજઘન્ય અનુકૃષ્ટ યુકતાસંખ્યાત રૂપ थे. मे ४ पात सूत्रा२ मा "तेण परं अजहण्णमणुक्कोसयाई" त्यात
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अनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र २३५ नवविधमसंख्येयकनिरूपणम् ६६९ युक्तासंख्येयकगतरूपराशिस्तावतैव राशिना गुणित इति तात्पर्यम् । एवं च यो राशि निष्पन्नस्तत एकस्मिन् रूपेऽपसारिते उत्कृर्षक युक्तासंख्येयकं भवति अनपसारितस्तु स राशिः जघन्यकासंख्येयकासंख्येयक भवति । अत एवाहअथवा जघन्यकम् असंख्येयासं ध्येयक रूपोनम् उत्कर्ष के युक्ताऽसंख्येयक भवतीति । इत्थं युक्तासंख्येयकस्य भेदत्रयं निरूपप संपति असंख्पेयासंख्येयकस्य मेदत्रयं निरूपयति-तत्र जघन्यकम् असंख्येयासंख्येयक कियद् भवति ? इति है। (उनकोसयं जुत्तास खेज्जयं केवयं होइ) हे भदन्त ! उत्कृष्ठ युक्तासंख्यात का क्या स्वरूप है ?
उत्तर:-(जहण्णएणं जुत्तास खेज्जएणं आवलिया गुणिया, अण्णमण्णभासो रूघुणो उक्कोसयंजुत्तासंखेखेजयं होह, अहवा-जहन्नयं असं खेवासंखेनयं ख्घुणं उक्कोतयं जुत्तासंखेजयं होह) जघन्य युक्तासंख्यात से आवलिका का गुणा करो अर्थात्-जघन्ययुक्तासंख्यात को जघन्य युक्तासंख्योत के साथ गुणो-गुणा करने पर जो राशि आवे उसमें से एक कम करो-इस प्रकार करने पर जो बचे वह उस्कृष्ट युक्तासंख्यात है। एक कम नहीं करने पर वह राशि जघन्य असं. ख्यातास ख्यात रूप मानी जाती है । इसी बात को सूत्रकार ने 'अहवा' पद से प्रकट किया है-इसमें यह कहा गया है कि 'जो जघन्य असंख्यातास ख्यात है-' उसमें से एक कम करने पर वह उत्कृष्ट युक्ता. संख्यात कहलाता है। (जहाणयं असंखेजात खेज्जयं केवयं होह) हे भदन्त ! जघन्य जो असंख्यातासंख्पात है, वह कैसा होता है?
सूत्र५४ 43 सम११प्रयत्न - छ. (उक्कोसय जुत्तास खेज्जय' केवइय होइ १) कृष्ट युत.सध्यातनु ५१३५ शु छ ?
उत्तर-(जहण्णएणं जुत्तासंखेज्जएण आवलिया गुणिया, अण्णमण्णभासो रूवूणो उक्कोसय जुत्तासंखेज्जय होइ, अहवो जहन्नय असंखेज्जासंखेज्जय' रूवूणं जुत्ता खेज्जय होइ) धन्य युद्धतास यातथी मान २ । એટલે કે જઘન્ય યુકતાસંખ્યાતને જઘન્ય યુક્તાસંખ્યાતની સાથે ગુણાકાર કરે, ગુણાકાર કરવાથી જે રાશિ આવે તેમાંથી એક ઓછો કરે. આ રીતે કરવાથી જે બાકી રહે તે ઉત્કૃષ્ટ યુક્તાસંખ્યાત છે. એક ઓછો ન કરી એ તે તે રાશિ જઘન્ય અસંખ્યાતાસંખ્યાત રૂપ માનવામાં આવે છે. એ
" पात सूत्रधारे 'अहवा' पहथा प्रगट री छे. तमां २५० ४२वामा આવ્યું છે કે જે જઘન્ય અસંખ્યાતા સંખ્યાત છે તેમાંથી એક ઓછો કરવાથી
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६७०
अनुयोगद्वारसूत्रे शिष्यप्रश्नः। उत्तरयति-जघन्यकेन युक्तासंख्येयकेन आवलिका गुणिता अर्थात्-अन्योऽन्याभ्यासः कृतः-जघन्य कयुक्तासंख्येयकगतरूपराशिस्तावतैव राशिना गुणित इति तात्पर्यम्, प्रतिपूर्णः एकरूपापसरणवर्जितो जघन्यकम् असंख्येयासंख्येयकं भवति । एतदेव शब्दान्तरेणाह-अथवा उत्कर्ष के युक्तासंख्येयके एक रूपं प्रक्षिप्तं तदा जघन्यकम् असंख्येयासंख्येयकं भवति । ततः परम् अजघन्यानुत्कर्ष काणि स्थानानि भवन्ति । कियदवधि तानि भवन्ति ? इस्याह-यावत् उत्कर्षकम् असंख्येयासंख्येयक न प्राप्नोतिएकोत्तरिकया वृदया
उत्तर--(जहन्नएणं जुत्तासंखेज एणं आवलिया गुणिया, अण्णमण्गामासो पडिपुण्णो जहाणयं असंखेनासंखेजय होइ) जघन्य युक्तासंख्यात के साथ आवलिका का गुणाकरो-इसका तात्पर्य है कि-'जघन्य युक्तासंख्यात का जयन्ययुक्तसंख्यात के साथ गुणाकरो और गुणा करने पर जो राशि आवे उसमें से एक कम मत करो-यहां जघन्य असंख्यातासंख्यात है। (अहवा उक्कोसए जुतासखेजए रूवं पक्खित्तं जहण्यं अमखेजासंखेज्जयं होइ) अथवा उत्कृष्ट युक्तासंख्यात में एक मिलादो सो जघन्य असंख्यातास ख्यात है। (तेण पर अजहण्णमणुककोसवाई ठागाइं जाव उस्को लयं असंखेजासं खेज्जयं ण पाचह) इसके बाद अजघन्यानुस्कृष्ट के स्थान होते हैं । और ये स्थान वहां तक होते हैं कि, जब तक उस्कृष्ट असंख्यातासंपात नहीं आ जाता। उत्कृष्ट असंख्यातासंख्यात स्थान लाने के लिये जघन्य असंख्यातसंख्यात से
a४५८ युतास-यात उपाय छे. (जहण्णय असं वेज्जास खेजय' केवइय होइ १) महत! धन्य मध्यातायात छे, तनु १५३५ छ ?
उत्तर-जहन्नएण जुत्ता संखेजएणं आवलिया गुणिया, अण्णमण्णभासो पडिपुण्णों जहण्णय' असंखेज्जासंखेन्जय होइ) धन्य युटतास यातनी સાથે આવલિકાને ગુણાકાર કરો આનું તાત્પર્ય આ પ્રમાણે છે કે જઘન્ય ચુકતાસંખ્યાતને જઘન્ય યુકતાસંખ્યાતની સાથે ગુણાકાર કરો, ગુણાકાર કરવાથી જે રાશિ આવે તેમાંથી એક છે કરે, નહિ તો એજ જઘન્ય असभ्यातायात छे. (अहवा उक्कोसए जुत्तासंखेज्जए एवं पक्खित्तं जहण्णय' असंखेज्जासंखेजय होइ) अ ट युद्धतासयातमा मे
तो तन्य अभ्यातास ज्यात 25 ५ छे. (तेण परं अजहण्णमणुक कोसयाई ठाणाई जाव उनकोसय' असंखेज्जामखेजय' ण पावइ) त्यार પછી અજઘન્યાનુકૂદનાં સ્થાને હોય છે. અને તે રથાને ત્યાં લગી હેય
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अनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र २३५ नवविधम संख्येयक निरूपणम्
६७१
1
यावत् उत्कर्ष कम् असंख्येया संख्येयकं न भवतीत्यर्थः । अथ उत्कर्षकम् असं येयासंख्येयक कियद् भवति ? इति शिष्यः पृच्छति - उत्तरयति - जघन्यकम् असंख्येयासंख्येयक यावद् भवति तावत्ममाणानां जघन्यासंख्येयासंख्येयकमात्राणाम् = जघन्या संख्येयासंख्येयकरूपसंख्यानां राशीनाम् अन्योऽन्याभ्यासः परस्परगुगना स्वरूपो जघन्यकं परीतानन्तकं भवति, स च रूपोनः = एकेन रूपेण ऊनः उत्कर्षकम् असंख्येयासंख्येयकं भवति अत्र च यदिकं रूप मूनं कृतं तदयत्र यदि गण्यते तदा जघन्यं परीतानन्तक संपद्यते, अतएवाह 'अहवे' त्यादि अथवा - जघन्यक परीतानन्तक रूपोनम् उत्कर्ष कम् असंख्येयासंख्येयक भवति । आगे एक एक वृद्धि करनी चाहिये-सो यह वृद्धि वहां तक करते जाना चाहिये कि जहां तक उत्कृष्ट असंख्याता संख्यात का स्थान न आजावे । (उक्कोस असंखेजस खेज्जयं केवइयं होइ ? ) इसी बात को शिष्य पूछता है कि हे भदन्त । उत्कृष्ट असं वातास ख्यात का क्या स्वरूप है ? ( जहणणयं असं खेज्जासंखेज्जयमेत्ताणं रासीणं अण्णमण्णवभासो रुवणो उक्कोसयं असंखेज्जास खेज्जयं होह अहवाजहण्णयं परित्ताणंतयं रूवणं उक्कोसयं असंखेज्जासंखेज्जयं होह ) जघन्य असंख्याता संख्यात की जितनी राशि है, उस राशि का आपस में गुणा करो और उस आगत राशि में से एक कम कर दोयही उत्कृष्ट असंख्याता संख्यात है । अथवा- जब इस राशि में से एक कम नहीं किया जावे तो, उस राशि का नाम जघन्य परितानन्तक है ।
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WHEN
છે કે જ્યાં સુધી ઉત્કૃષ્ટ અસંખ્યાતાસ ખ્યાતના સ્થાન આવી જતા નથી. ઉત્કૃષ્ટ અસખ્યાતાસ ખ્યાત સ્થાન લાવવા માટે જઘન્ય અસ ́ખ્યાતાસ’ખ્યાતથી આગળ એકએકની વૃદ્ધિ કરવી જોઇએ, આ વૃદ્ધિ ત્યાં સુધી કરતાં રહેવુ જોઈ એ કે જ્યાં સુધી ઉત્કૃષ્ટ અસખ્યાતાસ ખ્યાતનું સ્થાન આવી लय (उक्कोस अस खेज्जासंखेज्जय केवइय होइ ?) એજ વાતને શિષ્ય પૂછે છે કે હે ભદન્ત ! ઉત્કૃષ્ટ અસ ખ્યાતાસ ખ્યાતનુ’ स्व३५ ठेवु छे ? ( जहणणय अस खेज्जास खेज्जयमेत्ताणं रासीणं अण्णमण्णभासो रूवूगो उक्कोस अस' खेज्जास खेज्जय' होइ - अहवा - जहणणय परित्ताणंतयं रूवूणं उक्कोस अस खेज्जासंखेज्जयं होइ) ४धन्य असभ्याता સંખ્યાતની જેટલી રાશિ છે, તે શશિને પરસ્પર ગુણાકાર કરે અને તે રાશિમાંથી એક એછે કરી નાખે. એજ ઉત્કૃષ્ટ અસખ્યાતાસ ખ્યાત છે. અણ્ણા જ્યારે આ રાશિમાંથી એક આછે ન કરવામાં આવે તે, તે
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६७२
मनुयोगद्वारस्ते इति । अन्येतु-उत्कर्ष कम् असंख्येयासंख्येयकमेवं व्याख्यान्ति, तथा हि-जघन्या. संख्येयासंख्येयकराशेर्वर्गः कर्तव्यः । तस्य वर्गस्यापि वर्गः कर्त्तव्यः । ततो वर्गगस्यापि वर्गः कर्तव्यः । एवं त्रिकृत्वो वर्ग कृत्वा तत्र अन्येऽपि प्रत्येकमसंख्येयस्वरूपा दश राशयः प्रक्षिप्यन्ते । ते दश राशयः-(१) लोकाकाशप्रदेशाः लोकाकाशस्य सर्वे प्रदेशाः, (२) धर्मास्तिकायप्रदेशा:- धर्मास्तिकायस्य सर्वे पदेशाः, (३) अधर्मास्तिकायमदेशाः अधर्मास्तिकायस्य सर्व प्रदेशाः, (४) एक जीवपदेशाः एकस्य जीवस्य सर्व प्रदेशाः, (५) द्रव्याथिका नियोगा=म्रक्ष्माणां बादराणां च अनन्तवनस्पतिजीवानां शरीराणि (६) प्रत्येकजीवाः अनन्तकायिकान वन यित्वा पृथिव्यो जोवायुवनस्पतित्रमाः प्रत्येकशरीरिणो जीवाः । सो (अहवा-जहणणयं परित्ताणतयं रूबूणं उकको लयं असं खेज्जासंखेजयं होह) इस जघन्य परितानन्त में एक कम करने पर उत्कृष्ट असंख्यातासंख्यात होता है। दूसरे आचार्य इस उत्कृष्ट संख्याताअसंख्यात की इस प्रकार से व्याख्या करते हैं कि जो जघन्य असंख्यातासंख्यात राशि हैं उसका वर्ग करो-इस वर्ग करने पर जो राशि आवे फिर उसका वर्ग करो, इस वर्ग करने पर जो राशि आवे उसका भी वर्ग करो-इस प्रकार तीन चार वर्ग करके जो राशि आवे, उसमें इन असंख्यात स्वरूप दश राशियों को प्रक्षित करो (१) लोकाकाश के सर्वप्रदेश (२) धर्मास्तिकाय के सर्वप्रदेश (३) अधर्मास्तिकाय के समस्त प्रदेश, (४) एक जीव के समस्त प्रदेश (५) सूक्ष्म और चादर अनन्तवनस्पति जीवों के शरीर (६) प्रत्येक जीव-अनन्तकायिकों को छोडकर के प्रत्येक शरीरी शशिनु नाम धन्य परीतानन्त छ. तो (अहवा-जहण्णय परित्ताणतय रूवर्ण उनकोस य' अस खेज्जास खेज्जय' होइ) मा धन्य परीतानन्तमाथा એક એ છે કરવાથી ઉત્કૃષ્ટ અસંખ્યાતાસંખ્યાત થાય છે. બીજા આચાર્યો આ ઉત્કૃષ્ટ અસંખ્યાતાસંખ્યાતની અને પ્રમાણે વ્યાખ્યા કરે છે કે જે જઘન્ય અસંખ્યાતાસંખ્યાત રાશિ છે, તેને વર્ગ કરો. વગ કરવાથી જે રાશિ આવે તેને ફરી વર્ગ કરો, આનાથી જે રાશિ આવે તેને ફરી વગ કરો. આ પ્રમાણે ત્રણ વખત વર્ગ કરવાથી જે રાશિ આવે તેમાં આ અસંખ્યાત ११३५ ४१ राशियाने प्रक्षित 3-(१) शना सब प्रदेश (२) धा. સ્તિકાયના સર્વ પ્રદેશ. (૩) અધર્માસ્તિકાયના સમસ્ત પ્રદેશ (૪) એકજીવના સમરત પ્રદેશ. (૫) સૂમ અને બાદર અનન્ત વનસ્પતિ જીવોના શરીર (૬) પ્રત્યેક જીવ-અનંતકાયિકેને ત્યજીને પ્રત્યેક શરીરી આ પૃથ્વી, અપ,
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मनुयोगवन्द्रिका टीका सत्र २३५ नवविधमसख्येयकनिरूपणम् ६७३ लोकाकाशादयः प्रत्येकमसंख्येया बोध्याः । (७) तया-स्थितिबन्धाध्यबसायस्थानानि-स्थितिबन्धस्य कारण भूतानि अध्यनसायस्थानानि। एतान्यप्यसंख्येयानि बोध्यानि । तथाहि-ज्ञानावरणस्य जघन्योऽन्त मुहर्तप्रमाणः स्थितिवन्धः, उत्कृष्टस्तु विशत्सागरोपनकोटीकोटिरमाणः, मध्यमपदे तु एकद्वित्रिचतुरादि समयाधिकान्तर्मुहूर्तादिकोऽपंख्येयभेदः । एषां च स्थितिबन्धानां कारणभूतानि अध्यवसायस्थानानि प्रत्येक भिन्नान्येव सन्ति । एवं च सति एकस्मिन्नपि ज्ञानावरणेऽसंख्येपानि स्थितिबन्धाध्यवसायस्थानानि भवन्ति । एवं दर्शनावरणा दिवापि याच्यामिति । (८) अनुभागा: ज्ञानावरगादिकर्मणा जघन्यमध्यमादि ये पृथिवी अप, तेज, वायु, वनस्पति और अस जीव (७) स्थितिबन्ध के कारणभूत अध्यवसायस्थान (८) अनुभाग, (९) योगच्छेद प्रतिभाग, (१) एक अवसर्पिणी और दूसरी अवसर्पिणीयों दोनों के समय । ये प्रत्येक दश राशियां असंख्या २ हैं। स्थितिबन्ध के कारणभूत अध्यवसायस्थान, असंख्यात इस प्रकार से हैं-जैसे ज्ञानाचरण का जघन्य. स्थितिबंध अन्तर्मुह का है और उत्कृष्ट स्थितिबन्ध ३० कोटीकाटी सागरोपमका है। मध्यमस्थितिबन्ध एक, दो, तीन, चार, आदि समय अधिक अंतर्नुहूर्त आदिका है । इस प्रकार जघन्य और उत्कृष्ट स्थितिबन्ध के बीच के मध्यमस्थितिबन्ध के स्थान असंख्यात आते हैं। क्योंकि इन स्थितिबन्धों के कारणभून प्रत्येक अध्यवसायस्थान भिन्न २ ही हैं। इस प्रकार होने पर एक भी ज्ञानावरण कर्म में असंख्यातसंस्थितिबन्धाध्यતેજ, વાયુ, વનસ્પતિ અને ત્રસ જીવ, (૭) સ્થિતિબન્ધના કારણભૂત અધ્યવસાય સ્થાન, અનુભાગ (૯) ચોગછેદ પ્રતિભાગ, (૧૦) એક ઉત્સર્પિણ અને બીજી અવસર્પિણી, આમ બનેને સમયે, આ દરેકે દરેક દશ રાશિએ અસંખ્યાતઅસંખ્યાત છે. સ્થિતિબન્ધના કારણભૂત અધ્યવસાયસ્થાન, અસંખ્યાત આ પ્રમાણે છે જેમ જ્ઞાનાવરણને જઘન્યસ્થિતિ બંધ અન્તર્મહતનો છે અને ઉત્કૃષ્ટસ્થિતિબંધ ૩૦ કેટીકોટી સાગરોપપનો છે. મધ્યમસ્થિતિ બન્ય એક, બે, ત્રણ, ચાર વગેરે સમય અધિક અંતમુહૂર્ત વગેરેને છે. આ પ્રમાણે જઘન્ય અને ઉત્કૃષ્ટસ્થિતિબન્ધના મધ્યના મધ્યમસ્થિતિબન્ધનું સ્થાન અસંખ્યાત આવે છે કેમકે આ સ્થિતિ બન્ધોના કારણભૂત પ્રત્યેક અધ્યવસાય સ્થાન ભિન્ન ભિન્ન જ છે. આ પ્રમાણે હોવાથી એક પણ જ્ઞાનાવરણ કર્મમાં અસંખ્યાતરિથતિ બન્ધાવસાય સ્થાન થઈ જાય છે. આ પ્રમાણે દર્શનાવરણ વગેરેમાં પણ જાણી લેવું જોઈએ. अ०८५
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६७४
___ अनुयोगद्वारसूत्र भेदभिन्नार सविशेषाः। एतेषां च अनुभागविशेषाणां हेतु भूतानि असंख्येय लोकाकाशप्रदेशममाणानि अध्यव्यसायस्थानानि भवन्ति, अतोऽनुभागभेदा अपि असंख्येया बोध्या: ! कारणभेदे कार्याणामपि भेदो भवत्येवेति । (९) योगच्छेदप्रतिभागाः योगो-मनोकायविषयं वीर्य, तम्य छेदेन के वलि प्रज्ञाच्छेदेन पति-विशिष्टाः निर्विभागा भागाः । एते हि निगोदादि संझिपञ्चन्द्रियपर्यन्त. जीवाश्रिता जघन्यादिभेदभिन्ना असंख्ये या बोध्याः। तथा-(१०) द्विसमय समया:-द्वयोः समयो: उत्सविण्य वसर्पिणीकालरवरूपयोः समया असंख्येय स्वरूपा बोध्याः । एवमेते प्रत्येक संख्ये यरूपा दश प्रक्षेपा बोध्याः । उक्तंचघसायस्थान हो जाते हैं। इसी प्रकार दर्शनावरण आदि को में भी जानना चाहिये । ज्ञानावरण आदि कर्मों का जवाय उत्कृष्ट एवं मध्यम जोविविध फल देने की शक्तिरूप रस विशेष है-उसका नाम अनुभाग है । इन अनुभाग विशेषों के कारणभूत असंख्यात लोकाकाशप्रदेश प्रमित अध्यवसा. यस्थान होते हैं । इसलिये अनुभाग भेद भी असंख्यात होते हैं। कारणों में जहा भेद होता है वहां कार्यों में भी भेद हुआ ही करता है । योगच्छे. दमतिभाग निगोदिया जीवों से लेकर सज्ञी पंचेन्द्रिय तक के जीवों में हुआ करते हैं । ये असंख्यात होते हैं और इनके जघन्य आदि अनेक भेद हैं। मनवचन और काय संबन्धी वीर्य को नाम योग है, ये योग के केवलिप्रज्ञाच्छेद द्वारा जो ऐसे विभाग किये जाते हैं-कि फिर जिनका दूसरा विभाग न हो सके, वे यहां योगच्छेद प्रतिभाग से गृहीत किये हैं। उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी काल के समय भी असंख्यात होते हैं। જ્ઞાનવરણ વગેરે કર્મોનું જઘન્ય ઉત્કૃષ્ટ તેમજ મધ્યમ જે વિવિધ ફળ આપવાની શક્તિરૂ૫ રસવિશેષ છે, તેનું નામ અનુભાગ છે. આ અનુભાગ વિશેષના કારણભૂત અસંખ્યાત લોકાકોશ પ્રદેશ પ્રમિત અધ્યવસાય સ્થાન હોય એથી અનુભાગ ભેદ પણ અસંખ્યાત હોય છે. કારમાં જ્યાં ભેદ હોય છે, ત્યાં કાર્યોમાં પણ ભેદ હોય જ છે ગછેદ પ્રતિભાગ નિગોદિયા જીથી માંડીને સંજ્ઞી પંચેન્દ્રિય સુધીના માં થાય છે. આ બધા અસંખ્યાત હોય છે. અને એમના જઘન્ય વગેરે અનેક ભેદ હોય છે. મન, વચન અને કાયસંબંધી વીર્યનું નામ એગમાં કેવલિપ્રજ્ઞા છેદ વડે જે આ જાતના વિભાગ કરવામાં આવે છે કે જેમના ફરી વિભાગ થઈ જ ન શકે, તે અહીં
ગપ્રદ પ્રતિભાગથી ગૃહીત થયેલા છે. ઉત્સપિણી અને અવસર્પિણી કાલના સમય પણ અસંખ્યાત હોય છે. આ પ્રમાણે આ પ્રત્યેક દશ પ્રક્ષેપ
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अनुयोगवन्द्रिका टीका सूत्र २३५ नवविधमसंख्येयकनिरूपणम् ६७५
लोगागासपएसा१, धम्मा२ धम्मे३गजीवदेसा४ य । दव्यढ़िया निओआ५, पत्तेया६ चेव बोद्धव्या ॥१॥ ठिइवंधज्झवसागा७ अंणुभाग८ जोगछे पपलिभाग९। दोण्ह य समाण समया१०, असंखपक्खेवया दस उ ॥२॥ छाया-लोकाकाशप्रदेशा धर्माधर्मकजीवदेशाश्च ।
द्रव्याथिका नियोगाः प्रत्येकाश्चैव बोद्धव्याः॥१॥ स्थितिबन्धाध्यवसाना अनुभागा योगच्छेदप्रतिभागाः।
द्वयोश्च समयोः समया असंख्येयाः प्रक्षेपका दश तु ॥२॥ इति । एते दश प्रक्षेपाः पूर्वोक्ते वास्त्र यवगिते राशौ प्रक्षिप्यन्ते । इत्थं यो राशि: पिण्डितो भवति, तस्य पुनः पूविद् वारत्रयं वर्गः क्रियते । ततश्च एकस्मिन् रूपे ऽपसारिते उत्कर्षकम् असंख्येयासंख्येयक भवति । इत्थं नवविधमप्यसंख्येयकमुक्तमिति ।।मू० २३५॥ इस प्रकार ये प्रत्येक दश प्रक्षेप असंख्यात स्वरूप हैं । उक्त च करके जो ये दो गाथाए' लोगागासपएसा' इत्यादि 'ठिइबंधझवसाणा' इत्यादि यहां उद्धृत की गई हैं, वे इन्हीं दश प्रक्षेपकों के नाम को कहती हैं। ये दश प्रक्षेपवार प्रयवर्गित पूर्वोक्त राशि में प्रक्षिप्त किये जाते हैं । इस प्रकार इनके उस राशि में प्रक्षिप्त करने पर जो राशि आती है, उसका पुनः पूर्व के जैसा तीन बार वर्ग करना चाहिये । और फिर आगत राशि में से एक कम कर देना चाहिये । इस प्रकार जो राशि का प्रमाण बचे वह उत्कृष्ट असंख्धातासंख्यात है। इस प्रकार से यह नव प्रकार के असंख्यात का वर्णन जानना चाहिये ॥ सू० २३५ ॥
असन्यात २१३५ छ. तय ४२ रे सा आया। 'लोगागास पएसा' या 'ठिइबंधझवसाणा' वगेरे मही ६५त ४२वामां आवी छे. ते એજ દશ પ્રક્ષેપકેના નામને કહે છે. આ દશ પ્રક્ષેપ વારત્રય વર્ગિત પૂર્વોક્ત રાશિમાં પ્રક્ષિત કરવાથી જે રાશિ આવે છે, તેનો ફરી પૂર્વની જેમ જ ત્રણ વાર વર્ગ કરે જોઈએ. અને પછી આગત રાશિમાંથી એક છે કરી નાખવું જોઈએ, આ પ્રમાણે જે રાશિનું પ્રમાણ બાકી રહે તે ઉત્કૃષ્ટ અસંખ્યાતાસંખ્યાત છે. આ પ્રમાણે આ નવ પ્રકારના અસંખ્યાતનું वन मे. ॥ सूत्र-२३५ ।।
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६७६
अनुयोगद्वारसूत्र अथ पूर्वोक्तमष्टविधमनन्तरं प्ररूपयति
मूलम्-जह गयं परित्ताणतयं केवइयं होइ ? जहएणयं असंखेज्जासंखेज्जयमेत्ताणं रासीणं अण्णमण्णब्भासो पडिपुण्णो जहणणयं परित्ताशंतयं होइ, अहवा उक्कोसए असंखेज्जासंखेज्जए रूचं पक्खित्तं जहाण परित्ताणतयं होइ। तेण परं अजहण्णमणुक्कोसयाई ठाणाइं जाव उक्कोसयं परित्ताणतयं ण पावइ । उक्कोसयं परित्तागंतयं केवइयं होइ ? जहण्णयपरिताणतयमेत्ताणं रासीणं अण्णमण्गभासो रूवूणो उक्कोसयं परित्ताणतयं होई, अहबा जहष्ण जुत्तागतयं रूवूणं उक्कोसयं परित्ताणतयं होइ । जहणणयं जुत्तागंतयं केवइयं होइ ? जहण्णयपरित्ताणतयमेत्ताणं रासीणं अण्णमण्णमासो पडिपुण्णो जहप्रणयं जुत्तागंतयं होइ, अहवा उक्कोसए परिताणंतए रूवं पक्खित्तं जहाणयं जुत्ताणंत होइ। अभवसिद्धियावि तत्तियाहोति । तेण परं अजहण्णमणुककोसयाइं ठाणाइं जाव उक्कोसयं जुत्ताणतयं ण पावइ । उक्कोसयं जुत्ताणतयं केवइयं होइ ? जहण्णएणं जुतागंतएणं अभवसिद्धिया गुणिया अण्णमण्णभासो रूखूणो उक्कोलयं जुत्ताणतयं होइ, अहवा जहमयं अणंताणतयं रूवूगं उक्कोसयं जुत्तागंतयं होइ । जहणणयं अणंताणतयं केवइयं होइ ? जहाणएणं जुत्तागंतएणं अभवसिद्धिया गुणिया अण्णमण्णमालोपडिपुण्गो जहण मयं अणंतागंतयं होइ, अहवा उक्कोसए जुत्ताणतए रूवं पक्खित्तं जहणयं अणंताणं.
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अनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र २३६ अष्टविधानंतकनिरूपणम् ६७७ तयं होइ, तेण परं अजहण्जमणुक कोसयाइं ठाणाई। से तं गणणासंखा ॥सू०२३६॥
छाया- जघन्यकं परीतानन्तक कियद् भाति ? जघन्यकाऽसंख्येयासंख्ये. यकमात्राणां राशीनाम् अन्योन्याऽभ्यासः प्रतिपूर्णः-जघन्यक परीतानन्तक भवति, अथवा उत्कर्ष के असंख्येषासंख्येय के रूपं पक्षिप्त जघन्य परीता
अब सूत्रकार आठ प्रकार के जो अनंत हैं, उनका वर्णन करते हैं'जहण्णयं परित्ताणतयं' इत्यादि ।
शब्दार्थ-(जहण्णयं परित्ताणतयं केवइयं होइ) हे भदन्त ! जघन्य परीतानन्तक का क्या स्वरूप है ?
उत्तर--(जहणयं असंखेज्जा संखेजयमेसणं रासीणं अण्णमण्ण भासा पडिपुग्णो जहणयं परित्ताणतय होइ) जघन्य असंख्याता. संख्यातरूप जो राशि है, उसका अन्योन्य अभ्यास के रूप में आपस में गुणा करना चाहिये । और उसमें से एक कम नहीं करना चाहिये। यही जघन्य परीतानंतक का स्वरूप है. (अहवा उक्कोसए असंखेज्जासंखेज्जए रूवं पक्खित्तं जहण्मयं परिसाणंतयं होइ) अथवा-उत्कृष्ट असंख्यातासंख्यात में एक जोडने पर जघन्य परीतानंतक का प्रमाण बन
હવે સૂત્રકાર આઠ પ્રકારના જે અનંત છે, તેમનું વર્ણન કરે છે– 'जहण्णय परित्ताणतय” इत्यादि ।
शा--(जहण्णय' परित्ताणतय केवइय होइ) 8 मत ! धन्य પરિતાનન્તકનું સ્વરૂપ કેવું છે !
उत्तर-(जहण्णयं अस खेज्जास खेज्जयमेत्ताणं रासीण अण्णमण्णभाओ पड़िपुण्णो जहण्णय परित्ताणतय होइ) 14.4 AAVयाताभ्यात शि છે, તેને અન્ય અભ્યાસના રૂપમાં પરસ્પર ગુણાકાર કર જોઈએ. અને તેમાંથી એક એ છે ન કરે જઈએ. એજ જઘન્ય પરીતાનંતકનું ११३५ छे. (अहवा उकोसए असंखेना सखेज्जए रूवं पक्खित्तं जहण्णय' परित्ताणतय होइ) 0 Gट मसच्यात सध्यातमा मे
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૭૮
अनुयोगद्वारसूत्रे नन्तकं भवति । ततः परम् अजघन्यानुत्कर्ष काणि स्थानानि यावत् उत्कर्षक परीतानन्तक न प्राप्नोति । उत्कर्षक परीतानन्तक कियद् भवति१, जघन्यकपरीतानन्तकमात्राणां राशीनाम् अन्योन्याऽभ्यासो रूपोनः उत्कर्ष के परीतानन्तकं भवति, अथवा जवन्यक युक्तानन्तक रूपोनम् उत्कर्षक परीतानन्तक भवति । जघन्यक युक्तानन्तक कियद् भवति ? जघन्यकपरीतानन्तकमात्राणां जाता है। (तेण परं अजहण्णमणुस्कोसथाई ठाणाई जाव उक्कोसयं परित्ताणतयं ण पावइ) इसके बाद अजघन्यानुत्कृष्ट परीतानंतक के स्थान होते हैं । जघन्य परीतानंतक से आगे एक एक अंक की वृद्धि करते जानी चाहिये-तो यह वृद्धि वहां तक करनी चाहिये कि-'जहां उत्कृष्ट परीतानन्तक का स्थान न आ जावे । (उक्कोसयं परित्ताणतयं केवयं होह) हे भदन्त ! उत्कृष्ट परीतानंन्तक का क्या स्वरूप है ?
उत्तर-(जहण्यपरित्ताणतयमेत्ताणं रामीणं अण्णमण्णब्भासो रूखूणो उक्कोसयं परित्ताणतय होइ) जघन्य परीतानंन्तक का जितना प्रमाण कहा गया है, उसको आपस में अन्योन्य अभ्यास करना चाहिये और उस राशि में से एक अफ कम कर देना चाहिये-इस प्रकार जितनी राशि का प्रमाण रहे, वह उत्कृष्ट परीतानन्तक का प्रमाण जानना चाहिये । तात्पर्य यह है कि-'जघन्य परीतानन्तक में जितना सर्षपों का प्रमाण होता है-उत्त प्रमाण का आपस में अन्योन्य अभ्यास के रूप में
पाथी अन्य परीतान तनु प्रमाण भने छ. (तेण परं अजहण्णमणुनकोसयाई ठाण ई जाव उक्कोसय' परित्ताणतय ण पाबइ) त्या२ पछी અજઘન્યાનુ કૃષ્ટ પરીતાનંતકના સ્થાને હોય છે. જઘન્ય પરીતાનંતકથી આગળ એક એક અંકની વૃદ્ધિ ઉતકૃષ્ટ પરીતાનન્તકનું સ્થાન ન આવી જાય या ४२वी (उकोमयं परित्त,णतय केवइय होइ १) ! ઉત્કૃષ્ટ પરીતાનંતકનું સ્વરૂપ કેવું છે?
उत्तर-(जाइज्यपरित्ताणतयमे वाणं रासीण अण्णमण्णमाओ रूवूणो उकोसय परित्तागतय होइ) धन्य परीतान-तनु २९ प्रभार કહેવામાં આવ્યું છે, તેને પરસ્પર વગે કર જોઈએ. અને તે રાશિમાંથી એક અંક એ છે કરી નાખવું જોઈએ. આ પ્રમાણે જેટલી રાશિનું પ્રમાણ બાકી રહે, તે ઉત્કૃષ્ટ પરી ાનન્તકનું પ્રમાણ જાણવું જોઈએ, તાત્પર્ય આ છે કે જઘન્ય પરીતાનનકમાં જેટલા સર્ષનું પ્રમાણ હોય છે, તે પ્રમાણને પરસ્પર અન્ય અભ્યાસના રૂપમાં ગુણાકાર કરવાથી જઘન્ય
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अनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र २३६ अष्टविधानंतकनिरूपणम् राशीनाम् अन्योन्याऽभ्यासः प्रतिपूर्णों जघन्य युक्तानन्तकं भवति, अथवा उत्कर्ष के परीतानन्त के रूपं प्रक्षिप्तं जघन्य युक्तानन्तक भवति, अभवसिद्धिका
गुणा करने पर जघन्य युक्तानन्तक का प्रमाण आता है। और जब इसमें से एक सर्षप कम कर दिया जाता है तो, वही राशि उत्कृष्ट परीतानन्तक का प्रमाण हो जाता है । इसी बात को सूत्रकार यों समझाते हैं कि (अहवा-हाणय जुत्तार्णतयं हवूणं उक्कोसयं परित्ताणतयं होइ) जघन्य युक्तानन्तक में जितने सर्षपों का प्रमाण कहा गया हैंउसमें एक सर्षप कम कर देने पर उत्कृष्ट परीतानन्तक का प्रमाण
आ जाता है । (जहाण यं जुत्ताणंत्तयं के वइयं होइ ?) जघन्य युक्तानन्तक का प्रमाण कितना होता है ?
उत्तर-(जहण्णपरित्ताणंतमेताणं रासी अण्णमण्गम्भासा पडि. पुण्गो जहणणयं जुताणतयं होइ) जघन्य परीतानन्तक में जितनासषपों का प्रमाण होता है, उसका अन्योन्य अभ्यास के रूपमें गुणित करो और फिर उस गुणित राशि में से एक सर्षप कम नहीं करो-यही जघन्य युक्तानन्तक का प्रमाण है। (अहवा उकोसर परित्ताणतए रूवं पक्खित्तं जहण्णयं जुत्ताणतयं होइ) अथवा उत्कृष्ट परीतानन्तक का जो प्रमाण है उसमें एक सर्षप प्रक्षिप्त कर दो-सो यह प्रमाण जघन्य युक्ताચુકતાનંતકનું પ્રમાણ આવે છે. અને જ્યારે આમાંથી એક સર્ષ પ ઓછો કરવામાં આવે છે ત્યારે તે જ રશિ ઉત્કૃષ્ટ પરીતાનંતકનું પ્રમાણ થાય છે. मेरी वातने सूत्र१२ ॥ प्रमाणे समवे छे 8-(अहवा जहण्णय जुत्ताणतय रूवूण उक्कोसय परित्ताणतय होइ) धन्य युस्तान तभी रेसा સર્ષ પિનું પ્રમાણ કહેવામાં આવ્યું છે, તેમાં એક સર્ષ ૫ ઓછો કરવાથી Grube परीतान-तनु प्रभार यादी तय छे. (जहण्णय जुत्ताणतय केवइय' होइ १) धन्य सुस्तान तनु' प्रभाय २९ जाय छ ?
उत्तर--जहण्णपरित्ताणंतमेत्ताणं रासीणं अण्णमण्णब्भासो पडिपुण्णो जहण्णय-जुत्ताणतय होइ) धन्य परीतानन्तम २८ सप यानु પ્રમાણ હોય છે, તેને અને અન્ય અભ્યાસના રૂપમાં ગુણાકાર કરે અને પછી તે ગુણિત રાશિમાંથી એક સર્ષપ એ છે કે नहि, तो मे४ घन्य युतानतानु प्रभाव छ. (अहवा उक्कोसए परित्ताणतए रूवं पक्खित्तं जहण्णय जुत्ताणतयं होइ) अथवा उत्कृष्ट परीता નંતકનું જે પ્રમાણ છે, તેમાં એક સર્ષ પ્રક્ષિત કરી દે તે આ પ્રમાણ
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अनुयोगद्वारसूत्रे अपि तावन्तो भवन्ति, ततः परम् अजयन्यानुत्कर्ष काणि स्थानानि यावत् उत्कर्ष के युक्तानातक न प्राप्नोति । उत्कर्ष के युक्तानन्तक कियद् भवति ?, जघन्यकेन युक्तानन्त केन अभवसिद्धिका गुणिता अन्योन्याऽभ्यासः रूपोनः उत्कर्षक युक्तानन्तकं भवति, अथवा जघन्यकम् अनन्तानन्तकम् रूपोनम् उत्कर्षक युक्ता नन्तक भवति । जघन्यकम् अनन्तानन्तकम् क्रियद् भवति ?, जघन्यकेन युक्तानन्तकेन अभवसिद्धिका गुणिता अन्योन्याऽभ्यासः प्रति पूर्णो जघन्यकम् अनन्तानन्तक का होता है। (अभवलिदिया वितच्या होति) अभवसिद्धिक भी इतने ही हैं । तात्पर्य कहने का यह है कि-'जघन्ययुक्तानन्तक में जितना प्रमाण सर्षपों का होता है उतना ही प्रमाण केवली भगवान ने अभवसिद्धिक जीवों का कहा है। (ते परं अजहण्णमणुक्कोस. याई ठाणाई जाव उक्कोसयं जुत्ताणतयं ण पावइ) जघन्य युक्तानन्तक के बाद अजघन्य अनुस्कृष्ट युक्तानन्तक के स्थान होते हैं-और ये स्थान क्रमशः एक एक सर्ष परूप अंक की वृद्धि होते २ वहाँ तक पढते जाते हैं कि-'जय तक उत्कृष्ट युक्तानन्तक का प्रमाण नहीं आ जाता है।' (उक्कोसयं जुत्ताणतयं केवाइयं होइ) हे भदन्त ! यह उत्कृष्ट युक्तानन्तक कितना होता है ? (जहण्णएणं जुत्ताणतएणं अभ. वसिद्धिया गुणिया, अण्णम भासो रूणो उक्कोसयं जुत्ताणतयं होह) जघन्य युक्तानन्तक से अभवसिद्धिकों का गुणा करो अर्थात् जघन्ययुक्तानन्तक का अन्योन्याभ्यासरूप से गुणा करो इस प्रकार करने
धन्य युस्तानतर्नु थ य छे. (अभवअिद्धिया वि तइया होंति) समय સિદ્ધિક પણ આટલા જ છે. કહેવાનું તાત્પર્ય આ પ્રમાણે છે કે “જઘન્ય યુકતાનંતકમાં જેટલું પ્રમાણ સર્ષનું હોય છે, તેટલું જ પ્રમાણે કેવલી मसान्ना मससिद्धि वानु उपामा मयु छ. (तेण परं अजहण्णमणुक्कोस याइं ठाणाई जाव उस्कोमयं जुत्ताणतयं ण पावइ) धन्य युतानताना સ્થાન હોય છે-અને આ સ્થાને નંતક પછી અજઘન્ય અનુકૃણયુકતા કમશા એક એક સર્ષપ રૂ૫ અંકથી વૃદ્ધિ કરતાં કરતાં ત્યાં સુધી વધતાં જવું જોઈએ કે “જ્યાં લગી ઉત્કૃષ્ટ યુક્તાનંતકનું પ્રમાણ આવી ન જાય.” (उस्कोसयं जुत्ताणतयं केवइयं होइ ?) 3 स! bट युतानतर्नु प्रमाण तुं य छ १ (जहण्णरणं जुत्ताणतएणं अभवसिद्धिया गुणिया अण्णमण्णब्भासो स्वूणो उक्कोसयं जुलाणतयं होइ) धन्ययुतान तथा અભવસિદ્ધિક ગુણાકાર કરે. એટલે કે જઘન્ય સુકતાનતકને અન્યા
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अनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र २३६ अष्टविधानंतक निरूपणम्
६८१
नन्तकं भवति, अथवा उत्कर्ष के युक्तानन्त के रूपं प्रक्षिप्तं जघन्यकम् अनन्तानन्तक' भवति, ततः परम् अजघन्यानुत्कर्षकाणि स्थानानि । सा एषा गणना संख्या | २३६/
टीका- 'जहण पं परिताणंतयं' इत्यादि
अथ अनन्तकस्य प्रथमभेदं जिज्ञासितुकामः शिष्यः पृच्छति - जघन्यक परीतानन्तः कियद् भवति ? इति । उत्तरयति - जघन्यकाऽसंख्येयासंख्येयक मात्राणां राशीनामित्यादि । अस्यार्थः पूर्ववद् बोध्यः । ततः परम् अजघन्यानुकर्षकाणिस्थानानि भवन्ति, यावत् एकोत्तरिकया हृद्धया उत्कर्ष के परीतानन्तक' न प्राप्नोति । अथ उत्कर्ष कपरीतानन्तकं क्रियद् भवति ?, इति शिष्यप्रश्नः । उत्तरयति - ' जहण्य' इत्यादि । जघन्यके परीवानन्तके यावन्ति रूपाणि भवन्ति तावत्संख्यकानां राशीनां पूर्ववदन्योऽन्याभ्यासः - अन्योऽन्यगुणनया जातो यो राशिः स जघन्यकं युक्तानन्तकं भवति स राशी रूपोनः = अपसारितैकसर्षपः उत्कर्ष परीतानन्त' भवति । अशुमेवार्थ शब्दान्तरेणाह - अथवा जघन्यकं युक्तानन्तक रूपोनम् - उत्कर्षकं परीतानन्त भवतीति । जघन्यकं युक्तानन्तक' कियद् भवति ? इति शिष्येण पृष्ट उत्तरयति - 'जहण्णयं परिताणंतयं' इत्यादि । अर्थः स्पष्टः । तथा-अभवसिद्धिका अपि तावन्त एव भवन्ति । अयं भावः - जघ न्ययुक्तानन्तके यावन्ति रूपाणि भवन्ति अमरसिद्धिका अपि जीवाः केवलिना तावन्त एवोक्ताः । ततः परम् अजघन्यामुत्कर्षकाणि स्थानानि भवन्ति यावद एकोरिया वृद्धा उत्कर्ष के युक्तानन्तकं न भवतीति । उत्कर्ष के युक्तानन्तक कियद् भवति ? इति शिष्यप्रश्नः । उत्तरयति - जघन्यकेन युक्तानन्तकेन अभत्रपर जो राशि आवे वह जघन्य अनन्तानन्तक में से एक सर्षपरूप अंक कम कर दो से उत्कृष्ट युक्तानन्तक होता है । ( अहवा - जहण्णयं अणतात त्वूर्ण उक्कोसयं जुत्ताणंतयं होइ) अथवा - एक सर्षपरूप अंक कम जघन्य अनंतानन्तक उत्कृष्ट युक्तनन्तक होता है । इसका तात्पर्य यहीं पूर्वोक्तरूप से है । (जड़णयं अनंताणतयं केवड्य होइ ? ) हे भदन्त ! जघन्य अनन्तानन्तक कितना होता है ?
ભ્યાસ રૂપથી ગુાકાર કરે. આ પ્રમાણે કરવાથી જે રાશિ આવે તે જઘન્ય મન'તાન'તક છે. આ જઘન્ય અનતાન તકમાંથી એક સપ રૂપ એક આછે. કરા તે ઉત્કૃષ્ટ યુક્તાન તક થાય छे. ( अहवा- जहण्णयं अणंताणंतयं रूवूर्ण उको जुत्ताणंतयं होइ) अथवा मे सर्ष ३५ અનંતાનન્તક ઉત્કૃષ્ટ ચુતાન તક હોય છે. આનું તાત્પ ४ छे, (जइण्णयं अनंताणंतयं केवइयं होइ १) हे लहन्त ! નતકનું પ્રમાણ કેટલુ હોય છે ?
छो धन्य પહેલાની જેમ धन्य अनंता
अ० ८६
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६८२
अनुयोगद्वारसूत्रे
सिद्धिका गुणिता, अर्थात् - अन्योऽन्याभ्यासः कृतः - जघन्यत्र युक्तानन्तक गतरूपराशिस्तावतैव राशिना गुणित इति तावत्पर्यन्तम् एवं गुणनया यो राशिर्निष्पन्नः स जघन्यमनन्तानन्तकं भवति, स गुणितराशिः रूपोन: = एकेन सर्पपेण ऊनः उत्कर्ष के युक्तानन्तकं भवति । अमुमेवार्थ शब्दान्दरेणाह - अथवा जघन्यकमनन्तानन्तकमित्यादि । अथ शिष्यो जवश्यकम् अनन्तानन्तक वियद् भवति ? इति पृच्छति । उत्तरयति - जघन्यकेन युक्तानन्तकेन इत्यादि । अर्थः पूर्ववद् बोध्यः । ततः परम् = जघन्य कानन्तानन्तकात् परतोऽनन्तानन्तकस्य सव्यपि स्थानानि अजघन्यात्कर्षकाणि भवन्ति । उत्कर्षकम् अनन्तानन्तकं तु नास्त्येवेति बोध्यम् । केचित्तु उत्कर्ष कमपि अनन्तानन्तकमिच्छन्ति । ते हि एवं प्रतिपादयन्ति - जघन्यकस्य अनन्तानन्तकस्य वर्गः क्रियते । तस्य वर्गस्यापि वर्गः क्रियते । ततो वर्ग
उत्तर- (जहण्णएणं जुत्ताणंतएवं अभवसिद्धिया गुणिया अण्णमण्णभासेा पडिपुण्णो जहण्णयं अनंताणंतयं होइ) जघन्य युक्तानन्तक से अभवसिद्धिक अर्थात् जघन्य युक्तानंतक को गुणो, और इस से जो राशि प्राप्त हो, उसमें से एक सर्षपरूप अंक कम मत करो, यही जघन्य अनंतानंतक का प्रमाण है । (अहवा- उनको सए जुत्ताणंतए रूवं पविखन्तं जहण्णय अणतणतयं होइ तेण परं अजष्णमणुक्कोसथाई ठाणाई से तं गणणासंख) उत्कृष्ट युक्तानन्तक के प्रमाण में एक सर्परूप अंक जोडने पर जघन्य अनन्तानन्तक होता है । जघन्य अनन्तानन्तक से आगे अनंतानन्तक के समस्तस्थान अजघन्यानुत्कृष्ट अनंतानन्तक के होते हैं। उत्कृष्ट अनन्तानन्तक नहीं होता है । कोई २ उत्कृष्ट अनन्तानन्तक भी मानते है । इस विषय में उनका ऐसा कहना है कि जघन्य अनंतानन्त का
उत्तर:- ( जहणणं जुत्ताणंतपणं अभवसिद्धिया गुणिया अण्णमण्णभास्रो पडिपुण्णो जहणणयं अनंतानंतयं छोइ) धन्य યુકતાન તકથી જાન્ય યુતના ગુણાકાર કરો અને આ ગુણાકારથી જે રાશિ પ્રાપ્ત થાય, તેમાંથી એક સવરૂપ અંક પણ આછે કરે નહિ, એજ જઘન્ય मनतानतउनु' प्रमाणु . ( अहवा रक्कोसए जुत्ताणंतर रूवं पक्खित्तं जह
णयं अर्णतार्णत्तयं होइ तेण परं अजणमणुकोछयाई ठाणाई से तंग संखा) उत्सृष्ट युक्तान तना प्रभाशुभां मेड सर्वच ३५ : लेडवाथी જધન્ય અનન્તાન'તક થાય છે. જાન્ય અનન્તાનન્તકની આગળ અન‘તાન તકના બધાં સ્થાને અજઘન્યાન્મુત્કૃષ્ટ અનંતાનંતક હોય છે. ઉત્કૃષ્ટ અનન્તાનન્તક હાતું નથી. કાઈ કાઈ ઉત્કૃષ્ટ અન તાન તકને પણ માને છે. આ સંબધમાં તેમનુ એવુ કહેવું છે કે જઘન્ય અનતાનતકના વગ કરો. આનાથી જે
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अनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र २३६ अष्टविधानंतकनिरूपणम् वर्गस्यापि वर्गः क्रियते । एवं विकृत्वो वर्ग कृत्वा तत्रान्येऽपि प्रत्येकमनन्त स्वरूपाः पह राशयो निक्षिप्यन्ते । ते पडू राशयः-(१) सिद्धाःसर्वे सिद्धाः, (२) निगोदजीवा:-क्ष्मवादररूपाः सर्वे निगोदजीवाः, (३) वनस्पतयःप्रत्येके अनन्ताश्च सर्वेऽपि वनस्पतिजन्तवः, (४) काल =अतीतानागतवर्तमानकालसमयराशिः, (५) पुद्गला:=पूर्वपुद्गलद्रव्यसमूहः, (६) सर्वोऽलोकाकाशमदेश राशिश्च । षडेतेऽनन्तप्रक्षेगा भान्ति । उक्तंचवर्ग करो। इससे जो राशि आवे उसका फिर वर्ग करो और इसे प्राप्तराशि का भी वर्ग करो। इस प्रकार तीन बार वर्ग करके अनन्तरूप इन छह राशियों को उसमें जोड़ दो-वे छह राशि ये हैं-सिद्धा निगोयजीवा' इत्यादि (१) समस्त सिद्ध (२) सूक्ष्म बादररूप समस्त निगोद जीव (३) प्रत्येक और साधारण अनन्तकायरूप समस्त वनस्पति जीव (४) काग-अतीत, अनागत और वर्तमान कालरूप समयराशि (५) सर्व पुद्गलद्रव्यसमूह और (६) समस्त. लोकाकाश की प्रदेश राशि। इस प्रकार तीन बार वर्गीकृत जघन्य अनंतक में ये सिद्धादिक कि जो प्रत्येक अनंतराशि प्रमाण हैं-जोड़ देना चाहिये । इस प्रकार करने पर जो राशि उत्पन्न होवे-उस राशि का पुनः पहिले जैसा तीन बार वर्ग करना चाहिये । ऐसा करने पर भी वह उत्कृष्ट अनंतानन्तक का प्रमाणरूप नहीं होती है । इसलिये उसमें केवल ज्ञान और केवलदर्शन की जितनी भी पर्याय हैं, वे सब
और उसमें जोडी जाती है-तब कहीं उत्कृष्ट अनंतानन्तक का प्रमाण રાશિ આવે તેને ફરી વર્ગ કરે અને જે રાશિ આવે તેને ફરી વર્ગ કરે આ પ્રમાણે ત્રણ વખત વર્ગ કરીને અનંત રૂપ આ ૬ રાશિઓને તેમાં उमेश हो. ९ २शि मे। माछ-'सिद्धा निगोयजीवा' इत्यादि (1) समस्त સિદ્ધ, (૨) સૂમ બાદર રૂ૫ સમસ્ત નિગોદ જીવ. (૩) પ્રત્યેક અને સાધારણ અનંતકાય રૂ૫ સમસ્ત વનસ્પતિ જીવ, (૪) કાલ અતીત, અનાગત, અને पतभान ४ ३५ समय शि. (५) स पुदगल द्रव्य समूड मन (6) સમસ્ત કાલકાકાશની પ્રદેશ રાશિ. આ રીતે ત્રણ વાર વગીકૃત જઘન્ય અનંતકમાં આ સિદ્ધાદિકની જે પ્રત્યેક અનંત રાશિ પ્રમાણે છે-તે ઉમેરવી જોઈએ. આ રીતે કરવાથી જે રાશિ ઉત્પન્ન થાય તે રાશિને ફરી પહેલાની જેમ ત્રણ વખત વર્ગ કરે જોઈએ. આમ કરવાથી તે ઉત્કૃષ્ટ અનતાનન્તની પ્રમાણ રૂપ હોતો નથી. એટલા માટે તેમાં કેવળજ્ઞાન અને કેવલદર્શનની જેટલી પર્યાય છે, તે સર્વ તેમાં ઉમેરવામાં આવે છે, ત્યારે
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अनुयोगद्वार सूत्रे
सिद्धा १ निगोयजीवा२ वणस्सई ३ काल४ पुग्गलाचेत्र५ । सव्वमलोगागासं६, छप्पेतेऽणं पक्खेवा ॥'
छाया - सिद्धा निगोदजीवाः वनस्पतयः कालः पुद्गलाचैव । सर्वोऽलोकाकाशः पडप्येते ऽनन्तपक्षेपाः ॥ इति ||
.
त्रिःकृत्वो वर्गीकृते जघन्यकानन्तके सिद्धादयः प्रत्येकमनन्ताः पडपि राशयः प्रक्षिप्यन्ते । तत यो राशि जपते स पुनरपि त्रिःकृत्वः पूर्ववद् वर्गीक्रियते, तथापि उत्कर्षकम् अनन्तानन्त न भवति । ततस्तत्र केवलज्ञान केवलदर्शन पर्यायाः प्रक्षिप्यते । एवं च सति उत्कर्ष कमनन्तानन्तकं भवति । इदं च सर्ववस्तुसंग्राहकम् | अतः परं संख्याविषयस्य वस्तुनः सत्ता नास्तीति । अत्रागमे तु अजघन्यानुत्कर्षकमेवानन्तानन्तकमुक्तम् | उत्कर्षकमनन्तानन्तक तु नात्र विवक्षितम् । अतोऽत्र सूत्रे यत्र कुत्रापि अनन्तानन्वकमुक्तं तत्र सर्वत्रापि अजघन्यातुस्कर्ष' भवतीति । तदेव सविधमनन्त प्ररूपितम् । इत्थं च सभेदा गणनासंख्या प्ररूपितेति सूचयितुमाह-सेवा गणना संख्येति ॥ सू० २३३ ॥
1
।
होता है । यह उत्कृष्ट अनन्तानन्तक समस्तवस्तुओं का संग्राहक होता है । इसके बाद संख्या की वस्तु की सत्ता नहीं है । अर्थात् कोई ऐसी वस्तु अवशिष्ट नहीं रहती जो इस उत्कृष्ट अनंतनंतक रूप गणना में विषयभूत न हो चुकी हो। यदि कोई ऐसी वस्तु ही न हो तो उसका खरविषाण के जैसी कोई सत्ता नहीं मानी जा सकती । यहाँ आगम में तो अजघन्य अनुत्कृष्ट को ही अनन्तानन्तक कहा गया है । उत्कृष्ट अनंतानंनक तो यहां विवक्षित ही नहीं हुआ है। इसलिये सूत्र में जहां कहीं पर भी अनन्तानन्तक का पाठ आवे वहाँ सर्वत्र अजघन्य अनुत्कृष्ट अनंतानंतक ही समझना चाहिये । इस प्रकार अष्टभेद
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ઉત્કૃષ્ટ અન તાન તકનું પ્રમાણુ થાય છે. આ ઉત્કૃષ્ટ અનતાન'તક સમસ્ત વસ્તુઓના સગ્રાહક હાય છે. એના પછી સંખ્યાની વસ્તુની સત્તા નથી. એટલે કે કોઇ એવી વસ્તુ ખાકી રડેતી નથી કે જે આ ઉત્કૃષ્ટ અનંતા નાતક રૂપ ગણનામાં વિષયભૂત ન થઇ ચૂકી હોય, જે કાઈ એવી વસ્તુ જ ન હાય તે। તેની ખરિવષાણુની જેમ કેઇ સત્તા જ માનવામાં આવતી નથી. અહી આગમમાં તે અજધન્ય અનુભૃષ્ટને કહેવામાં આવેલ છે. ઉત્કૃષ્ટ અનતાન તક તે। અહી નથી. એથી સૂત્રમાં જ્યાં કહી પણુ અનંતાન તકના પાઠ આવે છે, ત્યાં બધે અજઘન્ય અત્કૃષ્ટ અનંતાન ́તક જ સમજવુોઈએ. આ રીતે અષ્ટ ભેદ
જ અન તાન તક વિક્ષિત જ થયેલ
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मनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र २३७ भावसंख्यानिरूपणम्
८५ मूलम्-से किं तं भावसंखा? भावसंखा-जे इमे जीवा संखगइनामगोत्ताई कम्माइं वेदेति । से तं भावसंखा। से तं संखापमाणे। से तं भावप्पमाणे । से तं पमाणे पमाणेत्ति पयं समत्तं ॥सू.२३७॥
छाया-अथ के ते भावशङ्खाः ? मात्र शङ्खा:-य इमे जीवाः शङ्खगतिनामगोत्राणि कर्माणि वेदयन्ति । त एते भावशङ्खाः । तदेतत् संख्याप्रमाणम् । तदे तद् भावपमाणम् । तदेतत् प्रमाणम् । प्रमाणेति पदं समाप्तम् ॥सू० २३७॥ सहित अनंतक की प्ररूपणा किया। इस प्ररूपणा से भेद सहित गणना संख्यापूर्व से प्ररूपित हो चुकी ॥ सू० २३६ ॥
'से किं तं भावसंखा' इत्यादि ।
शब्दार्थ--(से किं तं भावसंखा?) हे भदन्त ! वे भावशंख क्या हैं ? (भावसंखा)
उत्तर--भावशंख इस प्रकार से हैं। (जे इमे जीवा संख गहनाम गोताई कम्माई वेदेति-से तं भावसंखा) जे। ये जीव कि-'जिन्हें केवली भगवान् प्रत्यक्ष से जान रहे हैं या जो लोक की प्रतीति के विषयभूत बने हुए हैं और आयु आदि प्राणों से युक्त बने हुए हैं तथा जो उदयरूप में शंखपर्याय के योग्य तिर्यगति आदि नाम कर्म को
और नीच गोत्र को वेद रहे हैं-भोग रहे हैं-वे भावशंख जीव है। (से तं संखापमाणे-से तं भावपमाणे से तं पमाणे-पमाणेत्ति पयं समत्त) इस प्रकार संख्यान प्रमाण समाप्त हो चुका । इसकी समाप्ति होने पर સહિત અનંતકનું પ્રરૂપણ કર્યું. આ પ્રરૂપણથી ભેદ સહિત ગણના સંખ્યા પૂર્ણ રૂપથી પ્રરૂપિત થઈ ગઈ છે. એ સૂત્ર-૨૩૬ છે
'से किं तं भाव संखा' इत्यादि ।
शहाथ---(से किं तं भाव संखा ?) 3 महन्त ! ते साशन शु'छे ? (भावस खा)
उत्तर-मा ५ मा प्रमाण छ. (जे इमे जीवा संख गइनामगोताई कम्माइं वेदेति-से त भावसंखा) २ मा वो है मन पक्षी ભગવાન પ્રત્યક્ષ રૂપમાં જાણી રહ્યા છે. અથવા જેઓ લેકપ્રતીતિના વિષય ભૂત થયેલ છે અને આયુ વગેરે પ્રાણોથી યુક્ત થયેલા છે, તેમજ જે ઉદય રૂપમાં શંખ પર્યાય ગ્ય તિર્યગૂ ગતિ આદિ નામ કર્મને અને નીચ जानने वही २॥ छ, मोवी २ छे, ते माप शो . (से तं संखापमाणे से तं भावप्पमाणे से तं पमाणे पमाणेचि पय समत्त) मा
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अनुयोगद्वारसूत्र टीका-'से कि तं' इत्यादि
अत्राऽपि 'संखा' शब्देन शङ्खा गृह्यन्ते । संख्याममाणस्य नामस्थापनादि बहुविचारविषयत्वादेव गुणप्रमाणतः पृथगुक्तिः । अन्यथा संख्याया अपि गुण. त्वाद् गुणप्रमाण एष तस्यान्तर्भावः स्यादिति। शिष्यः पृच्छति-अथ के ते भावशङ्खाः ? इति। उत्तरयति-भावशङ्खास्तु य इमे केवलिप्रत्यक्षा लोकमतीता वा जीवाः आयुः-प्राणादि युक्ताः शङ्खगतिनामगोत्राणि कर्माणि-शङ्खगति नामगोत्रशब्देनेह शङ्खपायोग्यं तिर्यग्गतिनाम गृह्य ते, तस्य चोपलक्षणत्वाद् भावप्रमाण भी समाप्त हो चुका। इसकी समाप्ति होते ही समस्त प्रमाण द्वार भी समाप्त हो गया। __ भावार्थ--यहां 'संखा' यह शब्द बहुवचनान्त है-इसका अर्थ शंख है। संख्या प्रमाण का जो गुणप्रमाण से यह पृथकू कथन किया है उसका कारण यह है कि-'संख्या प्रमाण नाम, स्थापना, आदिरूप से बहुत विचार का विषयभूत हुआ है । गुणप्रमाण में यह बात नहीं है। नहीं तो फिर गुणरूप होने से संख्या प्रमाण का अन्तर्भाव उसी में हो जाता। इसे उससे पृथक् कहने की क्या आवश्यकता थी ? । इसलिये यही मानना चाहिये कि-'संख्या प्रमाण नाम स्थापनादिरूप प्रकार के विचार का विषयभूत हुआ है और गुणप्रमाण नहीं है। इसी कारण उससे भिन्न कथन किया गया है। शंखगति नाम गोत्र शब्द से यहां शंख पर्याय के प्रायोग्य तिर्यग्गति नामकर्म का एवं नीच गोत्र का પ્રમાણે સંખ્યા પ્રમાણ સમાપ્ત થઈ ગયું. આની સમાપ્તિ થવાથી ભાવ પ્રમાણ પણ સમાપ્ત થયેલ જાણવું.
नापा-मडी संखा' मा समययनान्त छ. माने। A° ५ થાય છે. સંખ્યા પ્રમાણુનું જે ગુગપ્રમાણથી આ પૃથક્ કથન કરવામાં આવ્યું છે, તેનું કારણ આ છે કે “સંખ્યા પ્રમાણે નામ, સ્થાપન આદિ રૂપથી બહુ જ વિચારને વિષય થઈ ગયેલ છે. ગુણ પ્રમાણમાં આ વાત નથી. નહીંતર ગુણરૂપ હોવાથી સંખ્યા પ્રમાણને અતર્ભાવ તેમાં જ થઈ જાત. તે અને તેનાથી પૃથક રૂપમાં કહેવાની શી આવશ્યકતા હતી. એથી એજ માનવું ગ્ય છે કે “સંખ્યા પ્રમાણુ નામ સ્થાપનાદિ રૂપ અનેક પ્રકારના વિચારોના વિષયભૂત થયેલ છે. અને ગુણ પ્રમાણે થયેલ નથી. આ કારણથી જ તેનું તેનાથી ભિન્ન કથન કરવામાં આવ્યું છે. શંખ ગતિ નામ ગોત્ર શબ્દથી અહીં શંખ પર્યાયના પ્રાયોગ્ય
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अनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र २३८ वक्तव्यताद्वारनिरूपणम्
६८७ द्वीन्द्रियजात्यौदारिकशरीराङ्गोपाङ्गादीन्यपि गृह्यन्ते, ततश्च शङ्खमायोग्यं तिर्यग्गत्यादिनामकर्मनीचैर्गोत्रलक्षणं गोत्रकर्म च विपाकतो वेदयन्ति अनुभवन्ति, त उच्यन्ते। प्रकृतमुपसंहरति-तदेतद् भावप्रमाणमिति । इत्थं सभेदं संख्या प्रमाणं प्ररूपितमिति सूचयितुमाह-तदेतत् संख्यापमाणमिति। इत्थं सभेदं भाव प्रमाणं निरूपितमिति सूचयितुमाह-तदेतद् भाव प्रमाणमिति । इत्थं च समस्त घमाणद्वारमुपसंहृतमिति सूचयितुमाह-तदेतत् प्रमाणमिति । अमुमेवार्थ स्पष्टयितुमाह-प्रमाणेति पदं समाप्तमिति । सम्पूर्ण प्रमाणद्वारमित्यर्थः ॥५० २३७।।
अथ क्रममाप्तमुपक्रमस्य चतुर्थ भेदं वक्तव्यताद्वारं निरूपयति
मूलम्-से किं तं वत्तव्वया ? वत्तवया-तिविहा पण्णत्ता, तं जहा-ससमयवत्तव्वया परसमय क्त्तव्वया ससमयपरसमयवत्तव्बया। से किं तं ससमयवत्तव्वया? ससमयवत्तव्वया-जत्थ णं ससमए आघविजइ पण्णविजइ परूविज्जइ दसिज्जइ निदंसिज्जइ उवंदसिज्जइ। से तं ससमयवत्तव्यया। से किं तं परसमयवत्तव्वया ? परसमयवत्तव्यया-जत्थ णं परसमए आघविज्जइ जाव उवदंसिज्जइ । से तं परसमयवत्तव्वया । से किं तं ससमयपरसमयवत्तव्वया ? ससमयपरसमयवत्तव्वयाजस्थ णं ससमए परसमए आधविज्जइ जाव उवदंसिज्जइ । से तं ससमयपरसमयवत्तव्वया । इयाणी कोणओ कं वत्तव्वयं इच्छइ ? तत्थ णेगमसंगहववहारा तिविहं वत्तव्वयं इच्छंति, तं जहा-ससमयवत्तव्वयं परसमयवत्तव्वयं ससमयपरसमयवत्त
ग्रहण हुआ है। उपलक्षण होने से इससे द्वीन्द्रिय जाति, औदारिक शरीर औदारिक अंगोपाङ्ग आदि गृहीत हुए है ॥ सू० २३७ ।। તિર્યગતિ નામ કર્મનું અને નીચ શેત્રનું ગ્રહણ થયેલ છે. ઉપલક્ષણ હોવાથી આનાથી શ્રીન્દ્રિય જાતિ ઔદારિક શરીર, દારિક અંગોપાંગ વગેરે પણ ગૃહીત થયેલ છે. જે સૂ. ૨૩૭ છે
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मनुयोगद्वारस्ते व्वयं। उज्जुसुओ दुविहं वत्तव्वयं इच्छइ, तं जहा-ससमयवत्तव्वयं परसमयवत्तव्वयं । तत्थ णं जा सा ससमयवत्तव्वया सा ससमयं पविटा, जा सा परसमयवत्तव्बया सा परसमयं पविटा, तम्हा दुविहा वत्तव्वया, नस्थि तिविहा वत्तवया। तिणि सदणया एगं ससमयवत्तव्वयं इच्छंति, नत्थि परसमयवत्तव्वया, कम्हा? जम्हा परसमए अणटे अहेऊ असावे अकिरिए उम्मग्गे अणुवएसे मिच्छादसणमितिकटु, तम्हा सव्वा ससमयवत्तव्वया, णत्थि परसमयवत्तव्वया, णस्थि ससमयपरसमयवत्तव्वया। से त्तं दत्तव्यया ॥सू० २३८॥
छाया-अथ का सा वक्तव्यता? वक्तव्यता-त्रिविधा प्रज्ञप्ता, तद्यथास्वसमयवक्तव्यता परसमयवक्तव्यता स्वसमयपरसमयवक्तव्यता। अथ का सा सप्तमयवक्तव्यता? स्वसम पवक्तव्यता यत्र खलु स्वसमयः आख्यायते प्रज्ञाप्यते प्ररूप्यते दयते निदश्यते उपदश्यते । सा एषा स्वसमयवक्तव्यता। अथ का सा परसमयवक्तव्यता? परसमयवक्तव्यता-यत्र खलु परसमय: आख्यायते यावत् उपदश्यते । सैषा परसमयवक्तव्यता। अथ का सा स्वसमयपरसमयवक्तव्यता ? स्वसमयपरसमयवक्तव्यता-यत्र खलु समयः परसमयः आख्यायते यावत् उपदश्यते । सा एषा स्वसमयपरसमयवक्तव्यता।
इदानी को नयः कां वक्तव्यतामिच्छति ? तत्र नैगमसंग्रहव्यवहाराः त्रि विधां वक्तव्यतामिच्छन्ति ? तद्यथा-स्वसमयवक्तव्यता परसमयवक्तव्यता स्वस मयपरसमयवक्तपताम् । ऋजुमूत्रं द्विविधां वक्तव्यता मिच्छति, तद्यथा-स्वसमयवक्तव्यतां परसमयवक्तव्यताम् । तत्र खल या सा स्वसमयवक्तव्यता सा स्वस. मयं प्रविष्टा, या सा परसमयवक्तव्यता सा परममयं प्रविष्टा। तस्मात् द्विविधा वक्तव्यता, नास्ति त्रिविधा वक्तव्यता । त्रयः शब्दनयाः एकां स्वसमयवक्तव्यता मिच्छन्ति, नास्ति परसमयवक्तव्यता । कस्मात् ? यस्मात् परसमयः अनर्थः अहेतुः असद्भावः अक्रियः उन्मार्गः अनुपदेशो मिथ्यादर्शन मिति कृत्वा, तस्मात् सर्वा स्वसमयवक्तव्यता, नास्ति परसमयवक्तव्यता। नास्ति स्वसमयवक्तव्यता सा एषा वक्तव्यता॥मू०२३८॥
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मनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र २३८ वक्तव्यताद्वारनिरूपणम् टीका-'से कि तं' इत्यादि
अथ का सा वक्तव्यता ? इति शिष्यप्रश्नः। उत्तरयति-वक्तव्यता अध्ययनादिषु एक कस्य अवयवस्य यथासमवं यत् प्रतिनियतार्थकथनं तद्रूपा, साच स्व समयवक्तव्यता परसमयवक्तव्यता स्वसमयपरसमयवक्तव्यता चेति त्रिविधा तत्र स्वसमयवक्तव्यता एवं विज्ञेया, यथाहि-यत्र खलु वक्तव्यतायां स्वसमया=
अब सूत्रकार उपक्रम के क्रम प्राप्त चतुर्थ भेद का कि-'जो वक्तव्यता द्वार रूप है' निरूपण करते हैं--
'से किं तं वत्तवया ? इत्यादि ।
शब्दार्थ-(से कि त क्त्तव्वया ?) हे भदन्त ! पूर्वप्रक्रान्त वक्तव्यता का क्या स्वरूप है ?
उत्तर-'अध्ययन आदिकों में प्रतिबद्ध एक एक अवयव का यथा संभव प्रतिनियत अर्थ का कथन करना इसका नाम वक्तव्यता है। और यह (वत्तव्वया) वक्तव्यता (तिविहा) तीन प्रकार की (पण्णसा) कही गई है। (तं जहा) उसके वे प्रकार ये हैं-(ससमयवत्तव्वया) स्वसमयवक्तव्यता (परसमयवत्तव्धया) परसमयवक्तव्यता (ससमयपरसमयवत्तव्यया) और स्वसमयपरसमयवक्तव्यता । (से किं तं ससमयवत्तव्वया) हे भदन्त ! स्वसमयवक्तव्यता क्या है ?
उत्तर-(ससमरवत्तव्या ) स्वसमयदत्तव्यता इस प्रकार से है
હવે સૂત્રકાર ઉપકમના કમ પ્રાપ્ત ચતુર્થ ભેદનું કે જે વક્તવ્યતા द्वा२ ३५ छे.' नि३५९५ ४२ छे--
से कि तं वत्तव्वया १ इत्यादि
शा--(से कि तं वत्तव्वया ?) हे मत ! पू न्त qxतव्यता સ્વરૂપ કેવું છે?
ઉત્તર--અધ્યયન આદિકમાં પ્રતિબદ્ધ એક એક અવયવના યથા सस प्रतिनियत अथर्नु ४थन ४२, १४तव्यता छे. अनेमा (वत्तव्यया) १तव्यता (तिविहा) त्रय प्रा२नी (पण्णत्ता) ४२वामा भावी छ. (तं जहा) सना रे। मा प्रमाणे छे. (ससमयवत्तव्वया) २१समय तव्यता, (परसमयवत्तव्वया) ५२समयवतव्यता (ससमयपरसमयक्त्तव्वया) भने समय ५२समयतव्यता. (से किं तं ससमयवत्तव्वया) मत! २१ समय વક્તવ્યતા શું છે?
उत्तर--(ससमयवत्तव्वया) २१ समय १तव्यता मा प्रमाणे छे. अ० ८७
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अनुयोगद्वारसूत्रे स्वसिद्धान्त आख्यायते-यथा पञ्च अस्तिकायाः, तद्यथा-धर्मास्तिकाय इत्यादि। तथा प्रज्ञाप्यते यथा गतिलक्षणो धर्मास्तिकाय इत्यादि। तथा-प्ररूप्यते-यथा स धर्मास्तिकायोऽसंख्येयप्रदेशात्मकादिस्वरूप इति । तथा दर्यते-दृष्टान्तद्वारेण कथ्यते, यथा मत्स्यानां गतिमयोजक जलमिति । तथा-निदर्यते-उपनयद्वारेण कथ्यते, यथा-तथैवैषोऽपि धर्मास्तिकायो जीवपुद्गलानां गतिपयोजक इति । तथा-उपदश्यते इत्थं स्पसमयवक्तव्यता सर्वथा निरूप्यते इति । 'आधविजई' इत्यादि पदानामियं व्याख्या दिग्दर्शनमात्र मेव । एवमेव सूत्राविरोधेना(जत्थ णं ससमए आघविज्जा, पण्गविज्जइ, परूविजनद, इंसिज्जइ, निदंसिज्जइ, उवदंसिज्जइ-से तं ससमयवत्तवया) जहां पर स्वसिद्धान्त का कथन किया जाता हो, जैसे 'धर्मास्तिकायादिरूप पांच अस्तिकाय हैं। जहां स्व सिद्धान्त की प्रज्ञापना की जाती हो-जैसे 'जीव और पुद्गल की गति में सहायक जो होता है वह धर्मारितकाय है' इत्यादि । जहाँ पर स्वसिद्धान्त की प्ररूपणा की जाती हो-जैसे-'धर्मास्तिकाय असंख्यात प्रदेशादि स्वरूप हैं । जहां पर स्वसिद्धान्त दृष्टान्त द्वारा कहा जाता हो-जैसे-मछलियों को चलने में सहायक जल होता है। जहां पर उपनय द्वारा स्वसिद्धान्त पुष्ट किया जाना हो-जैसे-जीव पुद्गलों को चलने में वैसे ही सहायक धर्म द्रनर भी होता है। इस प्रकार जहां पर सर्व प्रकार से स्वसमय वक्तव्यता का निरूपण किया जाता हो, वह स्वसमयवक्तव्यता है, यह व्याख्या केवल समझाने के लिये ही (जत्थ णं सलमए आपविजइ, पण्ण विज्जइ, परूविज्ज इ, दंसिज्जइ, निदसिज्जइ, उवदंसिज्जइ, से तं ससमयवत्तव्यया) यां स्वसिद्धान्तनु કથન કરવામાં આવેલ છે, જેમ કે 'ધમસ્તિકાયાદિરૂપ પાંચ અસ્તિકા છે?
જ્યાં સ્વસિદ્ધાન્તની પ્રજ્ઞાપના કરવામાં આવતી હોય, જેમકે “જીવ પુદ્ગલ ગતિમાં જે સહાયક હોય છે, તે ધર્માસ્તિકાય છે' ઈત્યાદિ જ્યાં સ્વસિદ્ધાન્તની પ્રરૂપણા કરવામાં આવતી હોય, જેમકે “ધર્માસ્તિકાય અસંખ્યાત પ્રદેશાદિ સ્વરૂપ છે. જ્યાં સ્વસિદ્ધાંત દષ્ટાંત વડે કહેવામાં આવતો હોય જેમકે માછલી એને ચાલવામાં જળ જેમ સહાયક હોય છે. જ્યાં ઉપનય વડે સ્વસિદ્ધાંત પુષ્ટ કરવામાં આવતો હોય, જેમ-જીવ પુદ્ગલેને ચાલવા માટે સહાયક ધર્મ દ્રવ્ય પણ હોય છે. આ પ્રમાણે જ્યાં સર્વ પ્રકારથી સ્વસમયે વક્તવ્યતાનું नि३५९ ४२वाम मातु डाय, ते २१समय१तव्यता' छे. मही' 4 'आघ.
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अनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र २३८ वक्तव्यताद्वारनिरूपणम् ऽन्यापि व्याख्या कार्येति । सैपा स्वसमयवक्तव्यता बोध्येति । तथा-परसमय. वक्तव्यता एवं विज्ञेया, यथाहि-यत्र खलु वक्तव्यतायां परसमयः अन्यमत सिद्धान्त आख्यायते यावदुपदर्यते । यथा सूत्रकृताङ्गस्य प्रथमेऽध्ययने
संति पंचमहन्भूया, इहमेगेसि आहिया। पुढवी आऊ तेऊ वा, वाऊ आगासपंचमा ॥१॥ एए पंचमहन्भूया, तेभो एगोत्ति आहिया ।
अह तेसिं विणासेण, विणासो होइ देहिणो ॥२॥ छाया-सन्ति पञ्च महाभूतानि, इह एकेपाम् आख्यातानि ।
पृथिवी आपस्तेजो वा वायुराकाशः पञ्चमः ॥१॥ एतानि पश्च महाभूतानि तेभ्य एक इति आख्यातम् ।
अथ तेषां विनाशेन विनाशो भवति देहिनः ॥२॥ इति ॥ प्रकट की गई हैं-इसी प्रकार से इन पदों की और भी प्रकार से व्याख्या कर लेनी चाहिये-परन्तु व्याख्या करते समय यह ध्यान रखना चाहिये कि-'उसमें सिद्धान्त से विरोध न आवे। (से किं तं परसमय: वत्तव्वया) हे भदंत ! परसमयवक्तव्यता क्या है ?
उत्तरः-(परसमयवत्तव्यया) पर समयवक्तव्यता इस प्रकार से है (जस्थ णं परसमए आधविज्जा, जाव उवदंसिज्जइ) जिस वक्तव्यता में परसमय-अन्यमत का सिद्धान्त कहा जाता है यावत् उपदर्शित किया जाता है। (से तं परसमययत्तश्या ) वह परसमयवक्तव्यता है। जैसे सूत्रकृनाङ्ग के प्रथम अध्ययन में यह लोकायति कों का सिद्धान्त इन दो गाथाओं द्वारा कहा गया है-कि-'संति पंचमहन्भूया' इत्यादि વિકસ' વગેરે પદની આ વ્યાખ્યા ફકત સમજાવવા માટે જ પ્રકટ આવેલ છે. આ પ્રમાણે આ પદેની બીજી રીતે પણ, વ્યાખ્યા કરી લેવી જોઈએ. પરંતુ વ્યાખ્યા કરતી વખતે આ વાત ધ્યાનમાં રાખવી જોઈએ કે “તેમાં સિદ્ધાંતનાં साथै विशेष न डाय' (से कि तं परसमयवत्तव्वया) महन्त ! ५२समय વક્તવ્યતા શું છે ?
उत्तर-( परसमयवत्तवया ) ५२समय१तव्यता मा प्रभारी छ. (जत्थ णं परसमए आधविनइ, जाव उबदसिज्जइ) २ पतव्यतामा ५२समय અન્યમતના સિદ્ધાન્તનું કથન હાય યાવતુ ઉપદર્શિત કરવામાં આવે છે. (से तं परसमयवत्तव्यया) ५२समय १०यता छ. म सूत्रतांना प्रथम અધ્યયનમાં કાતિકને સિદ્ધાન્ત આ બે ગાથાઓ વડે કહેવામાં આવે छ. है 'संति पंचमहाभूया' या . थासान। म मा प्रमाणे छ. मा
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अनुयोगद्वारसूत्र अस्य गाथा द्वयस्यायमर्थ:-इह-भत्र लोके एकेषां केषांचित् परतीथिकानां मते सकललोकव्यापीनि पञ्च महाभूतानि आख्यातानि-उक्तानि सन्ति । तानि पश्च महाभूतानि तु पृथिवी, आपः, तेजः, वायुः, वा-तथा वा शब्दोऽत्रचार्थे, पञ्चम: आकाशवेति ॥१॥ यान्येतानि पश्च महाभूतानि पोक्तानि सन्ति, तदव्यतिरिक्ता एव जीवाः, नतु तद् व्यतिरिक्ताः, इति सूचयितुमाह-'एए' इत्यादि एतानि= अनन्तरोक्तानि पृथिव्यादीनि यानि पञ्च महाभूतानि सन्ति, तेभ्यः-शरीररूपेण परिणतेभ्यः पञ्चभ्यो महाभूतेभ्य एकः कश्चित् चिद्रूपो महाभूताव्यतिरिक्तआत्मा भवति, नतु महाभूतव्यतिरिक्त इति आख्यातम् । अथ तेषां पञ्चमहा भूतानां विनाशेन देहिनो जीवस्यापि विनाशो भातीति । जीवस्य पञ्चमहाभूता. व्यतिरिक्तत्वाव, पञ्चमहाभूतानां विनाशे जीवस्यापि विनाशो भवतीति भावः । अयं लोकायतिकानां सिद्धान्तः । अतोऽयं परसिद्धान्तः । एवंविधः परसिद्धान्तो पत्र खलु वक्तव्यतायामाख्यायते यावदुपदर्यते सा एषा वक्तव्यता परसमयवक्तइन गाथाओं का अर्थ इस प्रकार से है-इस लोक में कितने परतीथिकों के मत में सकललोक व्यापी पंच महाभूत कहे गये हैं । ये पंच महाभूत -पृथिवी, जल, तेज, वायु, आकाश हैं,। इन पंचमहाभूतों से जीव अव्यतिरिक्त अभिन्न हैं-भिन्न नहीं हैं। जब ये पंचमहाभूत शरीररूप से परिणत होते हैं-तब इन से एक जीव नामका पदार्थ उत्पन्न हो जाता है। और सब ये पंचमहाभूत विनाश को प्राप्त होते हैं, तब इनके संयोग से जन्य जीव भी नष्ट हो जाता है। क्योंकि जीव पंचमहाभूतो से अभिन्न है-इसलिये उनके विनाश में जीव का भी विनाश होता है। ऐसा यह सिद्धांत लोकायतिकों-चाकों का है। जैनों का नहीं-इसलिये यह परसिद्धान्त है। इस प्रकार का परसिद्धान्त जिस वक्तव्यता में कहा गया हो यावत् उपर्शित किया हो, ऐसी वह લેકમાં કેટલા પરતીથિકે ના મતમાં સકલલેક વ્યાપી પાંચમહાભૂત કહેવામાં આવેલ છે. એ પાંચમહભૂત-પૃથ્વિી , જલ, તેજ, વાયુ અને આકાશ છે. આ પાંચમહાભૂતેથી જીવ અધ્યતિરિક્ત-અભિન્ન છે-ભિન્ન નથી. જ્યારે એ પંચમહાભ શરીરરૂપમાં પરિણત થાય છે. ત્યારે એમનાથી એક જીવ નામે પદાર્થ ઉત્પન્ન થાય છે. અને જ્યારે એ પાંચમહાભૂતે વિનષ્ટ થાય છે, ત્યારે એમના સંગથી ઉત્પન્ન થયેલ છે પણ નષ્ટ થઈ જાય છે, કેમકે જીવ પાંચમહાભૂતોથી અભિન છે. એટલા માટે એમના વિનાશમાં જીવને પણ વિનાશ થાય છે. એ આ સિદ્ધાંત લેકાયતિકોચાકે છે, જેને નથી. એથી આ પરસિદ્ધાન્ત છે. આ જાતને પરસિદ્ધાન્ત જે વક્તવ્યતામાં કહેવામાં
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अनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र २३८ वक्तव्यताद्वारनिरूपणम् व्यता बोध्या । अत्राऽपि 'आख्यायते' इत्यादि क्रियापदानामर्थः पूर्ववत् यथायोग्यं स्वधिया कल्पनीय इति । तथा-स्वसमयपरसमयवक्तव्यता एवं विज्ञेया, यथाहि यत्र खलु वक्तव्यतायां स्वसमयः परसमयश्च आख्यायते यावत् उपदयते । यथा
'आगारमावसंता वा आरण्णा वावि पन्चइया।
इमं दरिसणमावन्ना, सचदुक्खा विमुच्चई' ॥ छाया-आगारमावसन्तो वा आरण्या वाऽपि प्रबजिताः।
इदं दर्शनमापनाः सर्वदुःखेभ्यो विमुच्यन्ते ॥इति ॥ असमर्थः-आगारंगृहम् आवसन्तः-गृहस्था इत्यर्थः, वा अथवा आरण्याः-तापवक्तव्यता परसमयवक्तव्यता है, ऐसा जानना चाहिये । यहां पर भी 'आख्यायते' आदि क्रियापदों का अर्थ पूर्व के जैसा याथायोग्य बुद्धि से लगा लेना चाहिये। (से किं ते ससमयपरसमयवत्तव्यया?) हे भदन्त ! स्वसमय परसमयवक्तव्यता क्या है ?
उत्तर--(ससमयपरसमयवत्तव्वया ) स्वसमयपरसमयवक्तव्यता इस प्रकार से है-(जत्थणं ससमयपरसमए आविज्जइ, जाव उवदंसिजइ-से तं ससमयपरसमयवत्तव्वया) जिस वक्तव्यता में स्वसिद्धान्त और परसिद्धांतका कथन आदि हो वह स्वसमयपरसमयवक्तव्यता है । जैसे 'आगारमावसंता इत्यादि श्लोक द्वारा सिद्धान्त दिखलाया गया है। इसमें यह प्रकट किया गया है, कि-'जो व्यक्ति घर में रहते हैं अर्थात् આવેલ હોય યાવત્ ઉપદર્શિત કરવામાં આવેલ હોય એવી તે વકતવ્યતા, ५२समय१तव्यता छ, माम तय नसे. मडी ५६'आख्यायते' વગેરે ક્રિયાપદનો અર્થ પૂર્વની જેમ યથાયોગ્ય પોતાની બુદ્ધિવડે બેસાડી खेवन. (से किं तं ससमयपरसमय वत्तव्वया ?) 8 महन्त ! २५समय પરસમય વકતવ્યતા શું છે ?
उत्तर--(सममयपरसमयवसव्वया) २१समय ५२समय तव्यता सा प्रमाणे छ-(जत्थ णं ससमयपरसमयं आधविज्जइ, जाव उवदंसिज्जइ-से तं ससमयपरसमयवत्तव्वया) २ १तव्यतामा स्वसिद्धान्त भने ५२सिद्धांतनु अथ वगेरे हाय, ते ५१समय ५२समय १तव्यता छे. रेभ 'आगारमाव. संता' वगेरे । १3 सिद्धान्त मतावामा मावस छे. मामा माट કરવામાં આવેલ છે કે “જે માણસે ઘરમાં રહેતા હોય, તેઓ ગૃહસ્થ
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શ્ય
अनुयोगद्वारसूत्रे
सादयः, अपि वा मत्रजिताः = शाक्यादय इदम् = अस्मदीयं दर्शनम् = मतम् आपन्नाः आश्रिताः सन्तः सर्वदु खेभ्यः - शारीरमानससकल दुःखेभ्यो विमुच्यन्ते इति । इदं वचनं यदा जैनाः प्रतिपादयन्ति तदा स्त्रसमयवक्तव्यता भवति । यदा तु साख्याः प्रतिपादयन्ति तदा परसमयवक्तव्यता भवतीति । प्रकृतमुपसंहरति सैषा स्वसमयपरसमयवक्तव्यता बोध्या । 'आख्यायते' इत्यादि पदानामर्थः पूर्ववत् यथायोग्यं स्वधिया कल्पनीय इति । सम्पति वक्तव्यतामेव सप्तभिर्नयै विचारयति - 'इयाणी को नयः' इत्यादि । इदानीं = त्रिविधवक्तव्यतानिरूपणानन्तरं को नयः सप्तसु नयेषु को नयः कां वक्तव्यताम् इच्छति ? इति । इत्थं गृहस्थ हैं । अथवा जो घर छोड़कर जंगल में रहते हैं- ऐसे तापस आदि, अथवा जो प्रब्रजित शाक्यादिजन हैं, वे सब यदि हमारे सिद्धान्त को मान्य कर लेते हैं तो शारीरिक एवं मानसिक जो समस्त दुःख है। उनसे सर्वथा विमुक्त हो जाते हैं । इस कथन को जब जैन प्रतिपादित करते हैं । तब इस कथन में स्व समयवक्तव्यता होती है और जिस समय इसी कथन को सांख्य आदि प्रतिपादित करते हैं, तब इस कथन में पर समयवक्तव्यता होती है । इस प्रकार यह स्वसमय परसमयवक्तव्यता है । यहां पर भी इन 'आख्यायते' आदि क्रियापदों का अर्थ अपनी बुद्धि से पहिले के जैसा यथासंभव लगा लेना चाहिये । अब सूत्रकार इसी वक्तव्यता का सात नयों द्वारा विचार करने के अभिप्राय से प्रेरित होकर कृत शिष्य प्रश्न के उत्तर में कहते हैं कि (इयाणीं को णओ कं वत्तव्वयं इच्छ) हम यह कहते हैं कि-' कौन नय इन तीन वक्तव्यताओं में से
છેઃ અથવા જેવા ઘર છેાડીને જગલેામાં રહે છે, એવા તાપસ વગેરે અથવા જે પ્રવ્રુજિત શાકયાદિજને છે, તે સર્વે જો અમારા સિદ્ધાન્તને માન્ય કરી લે તા, શારીરિક અને માનસિક જે સમસ્ત દુ:ખેા છે, તેમનાથી સર્વથા વિમુક્ત થઇ જાય છે. આ કથનને જ્યારે જૈનોપ્રતિપાદિત કરે છે. ત્યારે આ કથનમાં સ્ત્રસમય વકતવ્યતા હોય છે અને જે સમયે એજ કથનને સાંખ્ય આદિ પ્રતિપાદિત કરે છે, ત્યારે આ કથનમાં પરસમય વકતવ્યતા છે. અહી ५९७५ मा 'आख्यायते' वगेरे प्रियाहोन अर्थ स्वण्णुद्धिधी पडेसानी भेमन યથાચેાગ્ય રીતે બેસાડી લેવે જોઇએ. હવે સૂત્રકાર એ જ વકતવ્યતા વિષે સાત નયે। વડે વિચાર કરવાની ઈચ્છાથી પ્રેરિત થઈ ને શિષ્યવડે કરાયેલ પ્રશ્નના उत्तरमा उडे छेडे (इयाणी को णओ कं वक्तव्वयं इच्छ३) 'प्रयो नय આ ત્રણ વકતવ્યતાએામાંથી કઇ વકતવ્યતાને અંગીકાર કરે છે,’ તે બતાવે છે
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अनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र २३८ वक्तव्यताद्वारनिरूपणम् शिष्येण पृष्टो गुरुराह -'तत्थ' इत्यादि । तत्र नयसप्तकमध्ये नैगमसंग्रहव्यव हारास्त्रिविधामपि वक्तव्यता मिच्छन्ति, नैगमस्य अनेकगमपरत्वात् , संग्रहस्य सथिसंग्राहकत्वात, व्याहारस्य च लोकव्यवहारपरवात् । ऋजुसूत्रन्तु स्वपमयवक्तव्यतां परसमययक्तव्यतां चेति द्विविधामेव वक्तव्यतामिच्छति । अत्र हेतुमाह-'तत्थ' इत्यादि, तत्र-तृतीयवक्तव्यताभेदे खलु या सा स्वसमयवक्तव्यता सा ससमयं प्रनिष्टा-वक्तव्यतायाः प्रथमे भेदेऽन्तर्भूना । या तु परकिस वक्तव्यता को अंगीकार करता है ?' लो कहते हैं (तस्थ णेगमसंगहयवहारा तिविहं वत्तव्वयं इच्छंति) सात नयों में जो नैगमनय संग्रहनय और व्यवहार नय ये तीन नय हैं, वे तो तीनों प्रकार की वक्तव्यता को स्वीकार करते हैं क्योंकि नैगमनय अनेक गमों में तत्पर होता है-अर्थात् नैगमनय अनेक प्रकार से वस्तु का प्रतिपादन करता है-इसकी दृष्टि में (तं जहा ससमय०) स्वसमयवक्तव्यता भी ठीक है, परसमयवक्तव्यता भी ठीक है और स्वपरसमयवक्तव्यता भी ठीक है। इसी प्रकार सर्वार्थसंग्राहक होने से संग्रहनय और लोक व्यवहार के अनुसार प्रवृत्ति करने में तत्पर होने के कारण व्यवहारनय भी इन तीनों वक्तव्यताओं को मान्य रखता है । (उज्जुसुमो दुविहं वत्तव्वयं इच्छइ, तं जहा सप्तमयवत्तव्यं, परसमयवत्तव्वयं) ऋजुसूत्र नय स्वसमयवक्तव्यता और परसमयवक्तव्यता इन दो वक्तव्यताओं को मान्य रखता है। क्योंकि (तत्य णं जा सा ससमयवत्तव्यया सा ससमय पविठ्ठा) तीसरी जो स्वसमय परसमयवक्तव्यता है उसमें (तत्थ णेगमसंगहववहारा तिविहं वत्तव्यय इच्छंति) सात नोभा २ नमः નય, સંગ્રહ નય, અને વ્યવહાર નય આ ત્રણ ન છે, તે તે ત્રણે પ્રકારની વકતવ્યતામાને છે. કેમકે ગમન અનેક ગામોમાં તત્પર હોય છે, એટલે નિગમનય અનેક પ્રકારથી વસ્તુનું પ્રતિપાદન કરે છે. આ નયની દષ્ટિએ (तं जहा ससमय०) स्वसभयतव्यता ५y 88 छ, ५२समय १४तव्यता५] ઠીક છે, અને સ્વપરસમય વકતવ્યતા પણ ઠીક છે. આ પ્રમાણે સર્વાર્થ સંગ્રાહક હોવાથી સંગ્રહનય અને લેકવ્યવહાર મુજબ પ્રવૃત્તિ કરવામાં તત્પર હોવાથી ०३१४२ नय५ मा तणे पातयतासाने मान्य से छे. (उज्जुसुओ दुविह वत्तव्वय इच्छइ, तं ससमयवत्तव्यय, परसमयवत्तव्ययं) ऋ सूत्रनय સ્વસય વકતવ્યતા અને પર વકતવ્યતા આ બે વક્તવ્યતાઓને માન્ય રાખે छे. भ. (तत्थ णं जा सा ससमयवत्तव्वया सा ससमय पविट्ठा) श्री २
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मनुयोगद्वारसूत्रे समयवक्तव्यता सा परसमयं प्रविष्टावक्तव्यताया द्वितीये भेदेऽन्तर्भूता। इत्थं चैतनयमते तृतीया वक्तव्यता नास्ति, तस्मादेतन्नयमते द्विविधा वक्तव्यता बोध्येति। तथा-त्रयः शब्दनथाः शब्दसमभिरुदैवंभूताख्या विशुद्धतमत्वा देकां स्वसमयवक्तव्यतामेवेच्छन्ति। एषां मते परसमयवक्तव्यता नास्ति । कस्मात् परसमयवक्तव्यता नास्ति ? इत्याह-यस्मात् परसमयः अनर्थः, पर समयस्यानर्थत्वं तु 'नास्त्येवात्मा' इत्यनर्थप्रतिपादनपरस्यात् । आत्मनो नास्तिस्वस्यानयत्वं च आत्मनोऽभावे तत्मतिषेयानु पत्तेः । उक्तंचसे स्वसमय वक्तव्यता के प्रथम भेद में अन्तर्भूत हो जाती है और (जा सा परसमयम्वत्तया सा परसमयं पविट्ठा) जो परसमयवक्तव्यता है वह वक्तव्यता के द्वितीय भेद में अन्तर्भूत हो जाती है । (तम्हा. दुविहा वत्तव्वया, नस्थि तिविहा वत्तव्वया) इसलिये वक्तव्यता दो प्रकार की है, तीन प्रकार की नहीं है । (तिणि सहणया एगं ससमयचत्तव्वयं इच्छति) शब्द, समभिरूढ एवंभून ये जो तीन शब्दनय हैं, वे विशुद्ध मतवाले होने के कारण एक स्वसमय वक्तव्यता को ही मान्य रखते है, इनके मतमें परसमयवक्तव्यता नहीं हैं। (जम्हा) क्योंकि (परसमए अणढे, अहेऊ, असम्भावे, अकिरिए, उम्मग्गे, अणुवए से, मिच्छादसणमिति कटु-तम्हा, सम्वा ससमयवत्तव्वया, णस्थि परसमयवत्तव्धया, णस्थि ससमयपरसमयवत्तव्वया) परसमय 'नास्त्येवात्मा' आत्मा नहीं है । इत्यादिरूप से अनर्थ के प्रतिपादन में तत्पर होने के कारण अनर्थस्वरूप है । आत्मा के नास्तित्व का प्रतिपादन
સમય પરસમય વકતવ્યતા છે, તેમાંથી સ્વસમય વકતવ્યતા, વક્તવ્યતાના प्रथमहमा मन्तभूत थ य मने (जा परसमयवत्तव्वया सा परसमयं पविट्टा) જે પરસમય વકતવ્યતા છે, તે વકતવ્યતાના બીજા ભેદમાં અન્તભૂત થઈ onय छे. (तम्हा दुविहा वत्तव्वया, नत्थि तिविहा वत्तव्वया) मेरा माटे १४त. व्यता में प्र.२नी छ, त्र प्रा२नी नथी. (सिण्णि सहणया एगं ससमयवत्तव्यय इच्छति' श७४, समलि३८ भूत मे त्रय ४५६ नया छ, ते विशुद्ध મતવાળા હોવાથી એકQસમય વકતવ્યતાને જ માન્ય રાખે છે. એમના મત भु ५२समय १०यता नथी. (जम्हा) भ (परसमए अणट्टे, अहेऊ, अस भावे, अकिरिए, उम्मग्गे, अणुवएसे, मिच्छादसण मितिकट्ठ-तम्हा, सव्व ससमयवत्तव्वया, णत्थि परसमयवत्तव्यया, णत्थि ससमयपरसमयवत्तव्वया) ५२समय नास्त्येवात्मा' मामा नथी, त्यात ३५थी अनथना प्रतिपाइनमा તત્પર હવા બદલ અનર્થસ્વરૂપ છે. આત્માના નાસ્તિત્વનું પ્રતિપાદન કરવું
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६२४
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भानु योगचन्द्रिका टीका सूत्र २३८ वक्तव्यताद्वारनिरूपणम्
'जो चिंतेइ सरीरे, नत्थि अहं स एव होइ जीवोत्ति ।
न हु जीवम्मि असंते, संसय उपायो अण्णो ॥ छाया-यश्चिन्तयति शरीरे नास्मि अहं स एव जीव इति ।
____न खलु जीवेऽसति संशयोत्पादकोऽन्यः ॥इति॥ एवमन्यदपि परसमयस्यानर्थत्वं बोध्यम् । तथा-अहेतुः, अहेतुत्वं च परसमयस्य हेत्वाभासवलेन प्रवृत्तत्वात् । यथा नास्त्येव आत्मा, अत्यन्तानुपलब्धेः। अयं च हेस्वाभासः, आत्मगुणस्य ज्ञानादेरूपलभ्यमानत्वात् । उक्त'चकरना अनर्थस्वरूप इसलिये है कि-'आत्मा के अभाव में उसका प्रतिषेध करना बनता नहीं है । 'उक्तंच करके जो यह 'जो चिंतेह सरीरे' इत्यादि 'गाथा दी गई है, उसका तात्पर्य यही है कि-'जो यह विचार करता है कि मैं शरीर में नहीं हूं-वही तो जीव-आत्मा है । जीव के अभाव में अन्य पदार्थ संशयोत्पादक नहीं हो सकता है। इसी प्रकार के और भी अनर्थता परममय में जाननी चाहिये। हेत्वाभास के बल से प्रवृत्त होने के कारण परसमय में अहेतुरूपता है। जैसे 'नास्त्येवोत्मा अत्यन्तानुपलब्धेः' 'आस्मा नहीं है यह परसमय है और यहां जो हेतु अत्यन्तानुपलब्धि है, वह सद्धेतु नहीं है-असद्धेतु-हे स्वाभास. रूप है । अतः इस हेत्वाभास के बल से प्रवृत्त होने के कारण यह पर समय अहेतुस्वरूप है। यह हेतु हेत्वाभासरूप इसलिये है कि 'आस्मा અનર્થવરૂપ એટલા માટે છે કે આમાના અભાવમાં તેને પ્રતિષેધ કરે सन नलि.' तय ४रीन २ सही 'जो चिंतेइ सरीरे' त्याहि था આપવામાં આવી છે, તેનું તાત્પર્ય આ પ્રમાણે છે કે “જે આ વિચાર કરે છે કે હું શરીરમાં નથી, તેજ જીવ-આત્મા છે. જીવના અભાવમાં અન્ય પદાર્થ સંશત્પાદક થઈ શકે જ નહિ. આ જાતની બીજી પણ અનર્થતા પરસમયમાં જાણવી જોઈએ. હેત્વાભાસના બળથી પ્રવૃત્ત થવાને લીધે પરસમयमा अहेतु ३५ता छ. रेभ 'नास्त्येवात्मा अत्यन्ता नुलब्धेः भाभा नथी. ॥ પરસમય છે, અને અહીં જે હેતુ આત્યન્તાનુપલબ્ધિ છે તે સદ્ધતુ નથી અસ. હેતુ હેત્વાભાસ રૂ૫ છે. એથી આ હેત્વાભાસના બળથી પ્રવૃત્ત હોવાને લીધે આ પરસમય અહેતુ સ્વરૂપ છે. આ હેતુ હેવાભાસ રૂ૫ એટલા માટે છે કે આત્માના ગુણે જે જ્ઞાનાદિક છે, તેમની ઉપલબ્ધિ હોય છે. ઉકૌંચ
अ० ८८
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अनुयोगद्वार 'नाणाईण गुणाणं, अणुभवो होइ जंतुणो सत्ता।
जह रूवाइ गुणाणं, उवलंमाओ घडाइणं ॥ छाया-ज्ञानादीनां गुणानाम् अनुभवतो भवति जन्तोः सत्ता।
यथा रूपादि गुणानाम् उपलम्भाद् घटादीनाम् ।।इत्यादि। तथा-असद्भावः एकान्ततः क्षणभङ्गाधसद्भूतार्थप्रतिपादकत्वात्परसमयोऽसद्भावः। युक्तिविरोधादसद्भूतत्वम् एकान्तक्षणभङ्गादेविज्ञेयम् । उक्त व
धम्माधम्मुवएसो, कयाकयं परमाइगमणं च ।
सव्वावि हु लोयठिई, न घडइ एगंतखणियम्मि ॥ छाया-धर्माधर्मोपदेशः कृताकृतं परभवादि गमनं च ।
सर्वोऽपि खलु लोकस्थिति नै घटते एकान्तक्षणिके इति। के गुण जो ज्ञानादिक हैं उनकी उपलब्धि होती है । 'उक्तं च 'नाणा. ईण गुणाणं इत्यादि जसा घटादिकों की उपलब्धि होने से उनके रूपादि गुणों की सत्ता हैं, उसी प्रकार से अनुभव करनेवाले जीव को ज्ञानादिक गुणों की सत्ता है । तात्पर्य कहने का यह है कि-'उपलभ्यमान रूपादिक गुणों का समूह ही घट होता है-उसी प्रकार जय ज्ञानादिक गुण प्रत्यक्ष आदि प्रमाणों द्वारा उपलब्ध होते हैं तो, इससे यह साषित होता है कि-'ज्ञानादिक गुणों का समूह रूप आत्मा पदार्थ है। तथा परसमय असद्भावरूप इसलिये है कि वह एकान्ततः क्षणभंग आदिरूप असदर्थ का प्रतिपादन करता है । एकान्ततः क्षणभंग आदि सिद्धांत असत् रूप इसलिये है कि इसमें युक्ति से विरोध आता है। उक्त च 'धम्माधम्मुवएसो' इत्यादि एकान्ततः पदार्थ को क्षणभंग मानने पर 'नाणाईण गुणाणं' त्या २ पटानी Selo पाथी तभन। ३५।દિગુણેની સત્તા છે, તેમજ અનુભવ કરનારા જીવને જ્ઞાનાદિક ગુણેની સત્તા છે. તાત્પર્ય કહેવાનું આ પ્રમાણે છે કે “ઉપલભ્યમાન રૂપાદિક ગુણેથી જ ઘટની સત્તા પ્રમાણિત થાય છે, કેમકે રૂપાદિ ગુણેને સમૂહ જ ઘટ હોય છે. તે જ પ્રમાણે જ્યારે જ્ઞાનાદિક ગુણ પ્રત્યક્ષ વગેરે પ્રમાણે વડે ઉપલબ્ધ હોય છે, તે એથી આ સિદ્ધ થાય છે કે “જ્ઞાનાદિક ગુણેને સમૂહ રૂપ આત્મા પદાર્થ છે તથા પરસમય અસદ્દભાવ રૂપ એટલા માટે છે કે તે એકાંતતઃ ક્ષણભંગ આદિ રૂપ અસદાર્થનું પ્રતિપાદન કરે છે. એકાતતઃ ક્ષણભંગ વગેરે સિદ્ધાંત અસત્ રૂપ એટલા માટે છે કે આમાં યુકિત સાથે विरोध भावे छे. ६ तय 'धम्माधम्मुवएसो' त्यान्त त: ५६ने क्षण
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अनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र २३८ वक्तव्यताद्वारनिरूपणम् तथा प्रक्रिया एकान्तशून्यता प्रतिपादनपरत्वात्परसमयोऽक्रियः। सर्वशून्यता ऽभ्युपगमे तु क्रियाकर्तुंरभावेन क्रियाया असंभवात्परसमयस्य अक्रियत्वं बोध्यम् । उक्तंच
सव्वं सुन्नं ति जयं, पडिवन्नं जे हि तेऽवि वत्तया ।
मुन्ना मिहाण किरिया, कत्तुरभावेण कहं घडइ ।। छाया-सर्व शून्यमिति जगत् मतिपन्नं यैस्तेऽपि वक्तव्याः ।
___ शून्याभिधानक्रिया कर्तृरभावेन कथं घटते ॥इत्यादि । धर्म, अधर्म का उपदेश नहीं बन सकता है, कृत, अकृत, की बात नहीं बन सकती है । एवं परलोक आदि में गमन नहीं बन सकता है, तथा इसी प्रकार से और भी जो लोकस्थिति-लोकव्यवहार है-वह सब कुछ भी नहीं बन सकता है। एकान्तरूप से शून्यता के प्रतिपादन करने में कटिबद्ध होने के कारण परसमय में किसी भी प्रकार की क्रिया करना संभक्ति नहीं हो सकती है। जब सर्वशून्यता रूप सिद्धांत स्वीकृत किया जावेगा, तब क्रिया करनेवाले कर्ता का अभाव ही मानना पडेगा और इससे क्रिया का अभाव आवेगा। अतः इस परसमय में अक्रिया के सद्भाव से क्रिया का सद्भाव कथमपि नहीं हो सकता । क्रिया करनेवाले का नाम कर्त्ता होता है सर्व. शन्यता में जब समस्त पदार्थ ही शून्यरूप हैं तो, कर्ता भी शून्यरूप ही ठहरेगा-ऐसी स्थिति में यह स्वाभाविक है कि-'क्रिया भी शून्यरूप ही माननी पडेगी। नहीं तो, सर्वशून्यता का सिद्धान्त ही नहीं बन ભંગ માનવાથી પરધર્મ અધર્મને ઉપદેશ બની શકતે વથી. કૃત, અકૃતની વાત બની શકે જ નહિ તેમજ પરફેક આદિમાં ગમન પણ સંભવી શકે જ નહિ. તથા આ પ્રમાણે અન્ય પણ જે લેકથિતિ-લોકવ્યવહાર છે, તે બધા પણ સંભવી શકે જ નહિ. એકાન્ત રૂપથી શૂન્યતાનું પ્રતિપાદન કરવામાં તતપર હેવા બદલ પરસમયમાં કેઈ પણ જાતની ક્રિયા કરવી સંભવી શકે જ નહિ. જયારે સર્વશૂન્યતા રૂપ સિદ્ધાંત સ્વીકૃત કરવામાં આવશે, ત્યારે ક્રિયા કરનારા કર્તાને અભાવ જ માનવે પડશે અને એથી ક્રિયાને અભાવ આવશે. એવી આ પરસમયમાં અક્રિયાના સદૂભાવથી ક્રિયાને સદૂભાવ કેઈપણ સંગમાં સંભવે જ નહિ. ક્રિયા કરનારનું નામ કતાં હોય છે. સર્વશૂન્યતામાં જ રે સમસ્ત પદાર્થ જ શૂન્યરૂપ છે, તે કર્તા પણ શૂન્યરૂપ જ થશે. એ પી રિયતિમાં આ સ્વાભાવિક છે કે ક્રિયાપણુ શૂન્ય રૂ૫ જ
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अनुयोगद्वारसूत्रे तथा-उन्मार्गः-परस्परविरुद्धवचनप्रतिपादनपरत्वात्परसमयो विषममार्गतुल्यः उन्मार्गत्वं चास्यैवं विज्ञेयम्-यथाहि
__'न हिंस्यात् सर्वभूतानि, स्थावराणि चराणि च ।
आत्मवत् सर्वभूतानि, यः पश्यति स धार्मिकः ॥' इत्याधुक्त्वा पुनः 'षट् सहस्राणि युज्यन्ते पशूनां मध्यमेऽहनि । अश्वमेधस्य वचनान्यूनानि पशुभित्रिभिः । इत्याधुच्यते परसमये । इत्थं च परसमयस्योन्मासकेगा। उक्तंच 'सव्वं सुन्नति जयं' इत्यादि जिन शून्यवादियों ने 'सर्व जगत् शून्यस्वरूप है' ऐसा सिद्धांत माना है, हम उनसे पूछते हैं कि शुन्यता को प्रतिपादन करनेवाले शब्द तथा शून्यता का कथन करने वाली क्रिया ये सब कर्ता के अभाव में कैसे घट सकती है ? यह परसमय उन्मार्ग-विषममार्ग तुल्य है। क्योंकि यह परस्पर विरुद्ध बचनों के प्रतिपादन करने में तत्पर बना हुआ है। जैसे यह कभी तो यह कहता है कि-'थावर और ऋतरूप जितने भी प्राणी हैं, उनको मारना नहीं चाहिये-' अर्थात् उनकी हिंसा नहीं करनी चाहिये-तथा समस्त. प्राणियों को अपने जैसा ही मानना चाहिये । क्योंकि इस प्रकार की प्रवृत्ति करनेवाला प्राणी धार्मिक प्राणी माना जाता है । और कभी ऐसा भी कह देता है कि 'षट्सहस्राणि युज्यन्ते पशूनां मध्यमेऽहनि, अश्वमेधस्य वचनान्यूनानि पशुभिस्त्रिभि:' अश्वमेध यज्ञ करते समय ५०९७' पशुओं की बलि चढाना चाहिये। इस प्रकार परसमय में માનવી પડશે. નહીંતર સર્વ શૂન્યતાને સિદ્ધાંત જ નહિ સંભવી શકશે.
तय 'मध्वं सुन्नं तिजयं' याहि २ शुन्यकालिमास सात शुन्य. સ્વરૂપ છે. એ જાતને સિદ્ધાન્ત માન્ય રાખે છે, અમે તેને પૂછીએ છીએ કે “શૂન્યતાના પ્રતિપાદક શબ્દ તેમજ શૂન્યતાનું કથન કરનારી આ ક્રિયા સર્વ કર્તાના અભાવમાં કેવી રીતે સંભવી શકે છે? એઓ પરસ્પર ઉન્માર્ગ વિરૂદ્ધ વચનેનું જ પ્રતિપાદન કરે છે. જેમકે આ કયારેક તે આમ કહે છે કે “સ્થાવર અને ત્રસરૂપ જેટલા પ્રાણીઓ છે, તેમને મારવા ન જોઈએ. એટલે કે તેમની હિંસા કરવી ન જોઈએ તેમજ સમા પ્રાણીઓને પિતાની જેમ જ માનવા જોઈએ. કેમકે આ જાતની પ્રવૃત્તિ કરનારા પ્રાણીને ધાર્મિક પ્રાણી માનવામાં આવે છે, અને કયારેક આમ પણ કહે છે કે “ટૂ सहस्राणि युज्यन्ते पशूनां मध्यमेऽहनि, अश्वमेधस्स वचनान्न्यूनानि पशुभित्रिभिः અમેધયજ્ઞ વખતે ૫૦૯૭ જેટલા પશુઓને બલિ અર્પિત કરે જોઈએ,
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अनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र २३८ वक्तव्यताद्वारनिरूपणम्
७०१ गत्वं स्पष्टमेवेति। तथा-अनुपदेशः सामान्येनोपदेशत्वाभाववान् परसमयः । एकान्तक्षणभङ्गादिप्रतिपादनपरत्वात् परसमयोऽहितेऽपि प्रवर्तकः स्यात् । उक्तंच
'सर्व क्षणिकमित्येतद् , ज्ञात्वा को न प्रवर्तते ? ।
विषयादौ विपाको मे, न भावीति विनिश्चयात् ॥इति॥ इत्थमनर्थत्वादियुक्तत्वात् परसमयो मिथ्यादर्शन मिति कृत्वा शब्दत्रयनयमते परसमयवक्तव्यता नास्ति । इत्थं सांख्यादिमतानामप्यनर्थत्वादि योजना स्पष्टरूप से उन्मार्गता है। तथा यह परसमय सामान्य रूप से उपदेशरूप भी नहीं है इसलिये इसे अनुपदेशप कहा है। क्योंकि इसके उपदेशरूप जो क्षणभंग आदि सिद्धान्त हैं, वे जीवों को अहित में भी प्रवृत करा सकते हैं । तात्पर्य यह है कि-'उपदेश वही कहलाता है, जो जीवों को अहित से छुड़ा कर हित में ही प्रवृत्त करावे । परन्तु परसमय ऐसा नहीं है। क्योंकि इसके उपदिष्ट सिद्धान्त ऐसे भी हैं जो जीवों को अहित की ओर ले जाते हैं । उक्त च-'सर्व क्षणिकम् , इत्यादि समस्त क्षणिक है' इस बात को जानकर कौन विषयादिकों के सेवन करने में प्रवृत्ति नहीं करेगा-अर्थात् सभी प्रवृत्ति करने लग जावेंगे। क्योंकि इस सिद्धांत के अनुसार वे यह तो जान ही लेंगे कि हमें इसका फल जो नरकादि के दुःख है, वे तो भोगना ही नहीं पडेगा। हम तो क्षणिक हैं-फल भोगने काल तक तो हम रहेनेवाले नहीं हैं । इस प्रकार अनर्थादिकों से युक्त होने के कारण परसमय આ પ્રમાણે પરસમયમાં સ્પષ્ટ રૂપથી ઉન્માર્ગીતા છે. તેમજ આ પરસમય સામાન્ય રૂપથી ઉપદેશ રૂપ પણ નથી, એથી આને અનુપદેશરૂપ કહેવામાં આવેલ છે. કેમકે આના ઉપદેશ રૂપ જે ક્ષણભંગ વગેરે સિદ્ધાંત છે, તે જન અહિતમાં પણ પ્રવૃત્તિ કરાવી શકે છે. તાત્પર્ય આ પ્રમાણે છે કે ઉપદેશ તે જ કહેવાય છે, કે જે જીવને અહિત કર્મોથી વિમુખ કરીને હિતમાં પ્રવૃત્ત કરાવે છે. પરંતુ પરસમય એ નથી કેમકે આના ઉપદિષ્ટ સિદ્ધાન્તો सेवा पय छ, रे वाने डित त२३ as on५ छ. Extय 'सर्व क्षणि
” ઈત્યાદિ સમસ્ત ક્ષણિક છે આ વાતને જાણીને કણ વિષયાદિકના સેવનમાં પ્રવૃત્ત થશે નહિ? એટલે સર્વ પ્રવૃત્ત થયા લાગશે. કેમકે આ સિદ્ધાંત મુજબ તેઓ એતે સમજવાના છે કે અમને આનું ફળ જે નરકાદિ દુખે છે, તે તે ભેગવવા જ પડશે નહીં. અમે તે ક્ષણિક છીએ, ફળ
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७०२
अनुयोगद्वारस्त्र बुद्धया कार्या । तस्मात सर्वा स्वसमयवक्तव्यता एव । एते नया लोके मसिद्धानपि परसमयान् स्यात्पदनिरपेक्षा या दुनयत्वादसत्त्वेनैव प्रतिपद्यन्ते, स्यात्पद सापेक्षत्वे तु तेषामपि स्वसमय एवान्तर्भावो भवति । उक्तंच
'नयास्तव स्यात्पदलान्छिता इमे, रसोपदिग्धा इव लोहधातवः।
भवन्त्यमि प्रेतगुणा यतस्तवो, भवन्तमार्याः प्रणता हितैषिणः ॥१॥ इत्यादि । अत एतेषां नयानां सर्वा स्वसमयवक्तव्यता एव बोध्या । न पुनरे तेषां मते परसमयवक्तव्यताऽस्ति । न वा ऽपि समयपरसमयवक्तव्यताऽस्तीति । प्रकृतमुपसंहरनाह-सैवा वक्तव्यतेति ॥सू० २३८॥ मिथ्या दर्शनरूप है । ऐसा समझकर ये तीन शब्दनय अपने मत में परसमय वक्तव्यता को नहीं मानते हैं। इसी प्रकार से अपनी बुद्धि से सांख्य आदि मतों में भी पूर्वोक्त अनर्थादिकों की संगति बैठा लेनी चाहिये । इसलिये इन नयों की मान्यतानुसार स्वसमय वक्तव्यता ही है । परसमय वक्तव्यता नहीं है। ये नय लोक में प्रसिद्ध भी परसमयों को स्यास्पद निरपेक्ष होने के कारण दुर्नयरूप होने से उन्हें असत् रूप ही मानते हैं । परन्तु जब ये स्थात्मद से सापेक्ष हो जाते हैं, तब इन्हें भी ये स्वसमय में ही अन्तर्भूत कर लेते हैं । उक्तं च 'नयास्तव इत्यादि हे जिनेन्द्र ! आपके स्थात्पद से चिहित ये नय पारद से युक्त लोहे के जैसा इच्छित गुणवाले होते हैं । इसलिये आत्महितैषी आर्य अन नमन करते हैं । इसलिये इन नयों के मन्तव्यानुसार स्वसमय ભેગવવાના કાળ સુધી તે અમે વિદ્યમાન રહેવાના નથી. આ રીતે અનર્થો. દિક થી યુકત હોવા બદલ પરસમય મિથ્યાદર્શન રૂપ છે. આમ સમજીને આ ત્રણ શબ્દને પિતાના મતમાં પર મપ વકતવ્યતાને માનતા નથી. આ પ્રમાણે સ્વબુદ્ધિથી સાંખ્ય વગેરે તેમાં પણ પૂર્વોક્ત અનર્ધાદિકની સંગતિ બેસાડી લેવી જોઈએ એવી આ નાની માન્યતા મુજબ સ્વસમય વકતવ્યતા જ છે. પરવકતવ્યતા નથી. આ નય લેકમાં પ્રસિદ્ધ પરસમને સ્યાસ્પદનિરપેક્ષ હવા બદલ દુનયરૂપ હોવાથી તેને અસતરૂપ જ માને છે. પરંતુ
જ્યારે એ સ્યાસ્પદથી સાપેક્ષ થઈ જાય છે, ત્યારે એમને પણ આ સ્વસभयभi or भतभूत Na छे. तय 'नयास्त' त्याहि जनेन्द्र ! તમારા સ્યાસ્પદથી ચિદ્વિત આ નય પારદથી યુકત ખંડની જેમ ઈચ્છિત ગુણયુક્ત હોય છે. એથી આત્મહિતૈષી આર્યજન નમન કરે છે. એવી આ
ના મંતવ્ય મુજબ સમયવક્તવ્યતા જ છે. પરસમય વક્તવ્યતા
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अनुयोगवन्द्रिका टीका सूत्र २३९ अर्थाधिकारद्वारनिरूपणम्
अथ उपक्रमस्य पञ्चमं द्वारम् अर्थाधिकारं निरूपयतिमूलम्-से किं तं अस्थाहिगार? अत्थाहिगारे-जो जस्स अज्झयणस्स अस्थाहिगारो, तं जहा-"सावजजोगविरई, उकितण गुणवओ य पडिवत्ती। खलियस्त निंदणा वणतिगिच्छ गुणधारणा चेव ॥१॥” से तं अस्थाहिगारे॥सू०२३९॥ ____ छाया-अथ कोऽसौ अर्थाऽधिकारः १, अर्थाधिकार:-यो यस्य अध्ययनस्य अर्थाऽधिकारः, तथा-सावधयोगविरति उत्कीर्तनं गुणवतश्च प्रतिपत्तिः । स्खलितरय निदना व्रणचिकित्सा गुणधारणा चैव' । स एषोऽर्थाधिकारः ।मु०॥ २३९॥
वक्तव्यता ही है-पर समयवक्तव्यता नहीं है । (सेत्तंवत्तव्वया) इस प्रकार यह वक्तव्यता विषयक कथन है। सू. २३८ ॥
अब सूत्रकार उपक्रम का पांचवां द्वार जो अधिकार है उसका निरूपण करते हैं-'से किं तं अत्यहिगारे ?' इत्यादि । __ शब्दार्थ-(से किं तं अस्थाहिगारे ?) हे भदन्त ! पूर्व प्रकान्त अर्था. धिकार क्या है ?
उत्तर--(अत्याहिगारे) पूर्व प्रकान्त वह अर्थाधिकार इस प्रकार से है कि (जो जस्स अज्झयणरस) जो जिस सामायिक आदि अध्यः यन का (अस्थाहिगारो) अर्थ विषयक अधिकार हैं, वही अथाधिकार हैं। (तं जहा) जैसे (साबजजोग विरई, उक्कित्तणगुणवओय पडिबत्ती, खलियस्स निंदणा, वणतिगिच्छगुणधारणाचेव) इस गाथा का नथी. सन २१समय५२समय१४०यता नथी. (सेत्त वत्तध्वया) 40 प्रभाये આ વકતવ્યતા વિષયક કથન છે. ૨૩૮ - હવે સૂત્રકાર ઉપક્રમનું પાંચમું દ્વાર જે અર્વાધિકાર છે. તેનું नि३५५ ४३ छे:-'से कि तं अत्थाहिगारे ?' त्याह
___महाय--(से कि तं अस्थाहिगारे १) 3 महन्त ! पूzird माधिકાર શું છે?
उत्तर--(अत्याहिगारे) पूर्व प्रान्त ते मथापि२ प्रमाणे छ (जो जरस अज्झयणस्स) २२ १m सामायि कणेरे अध्ययननी (अत्थाहिगारो) माविषय मधिर छे, ते अधि४२ छ. (तं जहा) २भ है (घावज्जजोगविरई, उकित्तणं गुणवओय पडिवत्ती, खलियरसनिंदणा, वणतिगिच्छ
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मनुयोगद्वारसूत्रे टीका-'से कित' इत्यादि
अथ कोऽसौ अर्थाधिकारः ? इति शिष्य प्रश्नः । उत्तरयति-अर्थाधिकारःयो यस्य सामायिकाघध्ययनस्य अर्याधिकारः अर्थविषयोऽधिकारः स बोध्यः। तमेवाह-तद्यथा-सावधयोगविरतिरित्यादि। अस्या गाथाया अर्थोऽत्रैवागमेऽष्टपश्चाशत्तमे सूत्रे व्याख्यातस्तत एव बोध्यः। वक्तव्यतार्थाधिकारयोस्त्वयं विशेषः-अर्थाधिकारो हि अध्ययनस्यादिपदादारभ्य अन्तपदावधि सकलपदेष्वनुवर्तते, पुद्गलास्तिकाये प्रतिपरमाणु मृतत्ववत् । वक्तव्यता तु देशादि नियतेति। प्रकृतमुपसंहरन्नाह स एषोऽर्थाधिकार इति ॥० २३९॥
अथ उपक्रमस्य षष्ठं द्वारं समवतार निरूपयतिमूलम्-से किं तं समोयारे? समोयारे-छविहे पण्णचे, तं जहा-णामसमोयारे ठवणासमोयारे दव्वसमोयारे खेत्तसमो. यारे कालसमोयारे भावसमोयारे। नामठवणाओ पुवं वण्णि. याओ जाव-से तं भवियसरीरव्वसमोयारे । से किं तं जाणयसरीरभवियसरीरवइरित्ते दव्वसमोयारे? जाणयसरीरभवियसरीरवइरित्ते दव्वसमोयारे-तिविहे पण्णत्ते, तं जहा-आयसमोयारे अर्थ इसी आगम में ५८ वे सूत्र में स्पष्ट किया जा चुका है, अतः वही से जान लेना चाहिये। वक्तव्यता और अर्थाधिकार में यह भेद है कि अर्थाधिकार जो होता है, वह अध्ययन के आदि पद से लगाकर अन्तिम पद तक संबन्धित रहता है। जैसे पुद्गलास्तिकाय में प्रतिपरमाणु में मूर्तत्व रहता है। और जो वक्तव्यता होती है वह देशादिनियत होती है। (से तं अथाहिगारे) इस प्रकार यह अर्थाधिकार विषयक कथन है ।।सू० २३९॥ गुणध रगा चेव) मा भाथाना म भागममा ५८ मा सूत्रमा २५८ ક૨વામાં આવેલ છે. તેથી જિજ્ઞાસુઓએ ત્યાંથી જાણી લે વકતવ્યતા અને અર્થાધિકારમાં આ તફાવત છે કે અર્વાધિકાર જે હોય છે. તે અધ્યયનના આદિ પદથી માંડીને અંતિમ પદ સુધી સંબંધિત રહે છે. જેમ કે “પુદ્ગલાસ્તિકાયમાં પ્રતિ પરમાણુમાં મૂર્ત રહે છે. અને જે વકતવ્યતા હોય છે. a शाह नियत डाय छे. (से तं अत्थाहिगारे) मा प्रभाय । अधिकार विषय ४थन छे. ॥ सू० २३६ ।।
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अनुयोगefront टीका सूत्र २४० समवतारद्वारनिरूपणम्
७०५
परसमोयारे तदुभयसमोयारे । सव्वदव्वावि णं आयस मोयारेणं आयभावे समोयरंति, परसमोयारेणं जहा कुंडे बदराणि तदुभयसमोयारेणं जहा घरे खंभो, आयभावे य जहा घडे गीवा आयभावे या अहवा जाणयसरीरभविय सरीरवइरित्ते दव्वसमोयारे दुविहे पण्णत्ते, तं जहा - आयसमोयारे य तदुभयसमो - यारे य । चउसट्टिया आयसमोयारेणं आयभावे समोयरइ, तदुभयसमोयारेणं वत्तीसियाए समोयरइ आयभावे य । बत्तीसिया आयसमोयारेणं आयभावे समोयरइ, तदुभयसमोयारेणं सोलसियाए समोयरइ आयभावे य । सोलसिया आयसमोयारेणं आयभावे समोर, तदुभयसमोयारेणं अट्टमाइयाए समोयरइ आयभावे य । अट्टमाइया आयसमोयारेणं आयभावे समोयरइ, तदुभयसमोयारेणं चउभाइयाए समोयरइ आयभावे य । उभाइया आयसमोयारेणं आवभावे समोयरइ, तदुभयसमोयारेणं अद्धमाणीए समोयरइ आयभावे य । अद्धमाणी आयसमोयारेणं आयभावे समोयरइ, तदुभयसमोयारेणं माणीए समोयरइ आयभावे य । से तं जाणयसरीरभवियसरीरवइरिते दवसमोयारे । से तं नो आगमओ दवसमोयारे । से तं दध्वसमोयारे सू. २४०|
छाया - अथ कोऽसौ समत्रतारः ? समत्रतारः - षडूविधः प्रज्ञप्तः, तद्यथानामसमवतारः स्थापनासमवतारः द्रव्यसमवतारः क्षेत्रसमवतारः कालसमवतारः मात्र समवतारः । नामस्थापने पूर्वं वर्णिते यावत् स एष भव्यशरीरद्रव्यसमवतारः । अथ कोऽसौ ज्ञायकशरीरमव्यशरीरव्यतिरिक्तो द्रव्यसमवतारः ? ज्ञायकशरीर भव्यशरीरव्यतिरिक्तो द्रव्यसमवतार : - त्रिविधः प्रज्ञप्तः, तद्यथाआत्मसमवतारः परसमवतारः तदुभयसमवतारः । सर्वद्रव्याण्यपि खलु आत्म सम
अ० ८९
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भयनोगधारसूत्रे बतारेण आत्मभावे समातरन्ति, परसमवतारेण यथा कुण्डे बदराणि, तदुभय समपतारेण यथा गृहे स्तम्भः आत्मभावे च, यथा घटे ग्रीवा आत्मभावे च । अथवा शायकशरीरभव्यशरीरव्यतिरिक्तः द्रव्यसमवतारो द्विविधः प्रज्ञप्तः, तद्यथा
आत्मसमवतारश्च तदुभयसमवतारश्च । चतुष्पष्टिका आत्मसमनतारेण आत्ममावे समवतरति, तदुभयसमवतारेण द्वात्रिंशिकायां समवसरति, आत्मभावेच । द्वात्रिंशिका आत्मसमवतारेण आत्मभावे समवतरति । तदुभयसमातारेण षोडशिकायां समवतरति आत्मभावे च । घोडशिका आत्मसमवतारेण आत्मभावे समवतरति, तदुमयसमवतारेण अष्टभागिकायां समवतरति आत्ममावे च । अष्टभागिका आत्म समवतारेण आत्मभावे समवतरति, तदुभयसमवतारेण चतुर्भागिकायां समवतरति आत्मभावे च । चतुर्भागिका आत्मसमवतारेण आत्मभावे समवतरति, तदुभयसमवतारेण अर्धमानिकायां समवतरति आत्मभावे च । अर्धमानी आत्मसमवतारेण आत्मभावे समवतरति, तदुभयसमवतारेग माणिकायां समवतरति आत्मभावे च। स एष ज्ञायकशरीरभव्यशरीरव्यतिरिक्तो द्रव्यसमवतारः। स एप नो आगमतो द्रव्यसमवतारः। स एष द्रव्यसमवतारः ॥२४०॥
टीका-'से किं तं' इत्यादि
अथ कोऽसौ समवतारः ? इति शिष्य प्रश्नः। उत्तरयति-समवतारः, समव तरण-समवतारः-वस्तूनां स्वपरोभयेष्वन्तर्भावचिन्तनम् , स च नाम समवतार: स्थापनासमवतार इत्यादि षइविधः । तत्र-नामसमवतारः स्थापनासमवतारश्च
अब सूत्रकार उपक्रम का छठा द्वार जो समवतार है, उसका निरूपण करते है--'से किं तं समोयारे ?' इत्यादि ।
टीकार्थ--(से किं तं समोयारे ?' हे भदन्त ! पूर्व प्रकान्त वह सम. चतार क्या है ? (समोयारे)
उत्तर--वस्तुओं के अपने में पर में तथा दोनों में अन्तर्भाव होने का विचार करना, इसका नाम समवतार है । (छविहे पण्णत्ते) यह समवतार छह प्रकार का कहा गया है । (तं जहा) जैसे (णामसमोयारे,
હવે સૂત્રકાર ઉપક્રમનું છડું દ્વાર જે સમવતાર છે, તેનું નિરૂ५५ रे छ.-'से कि समोयारे' त्याह
शा--(से कि तं समोयारे १) महन्त ! पूर्व प्रान्त ते समवतार शुछ १ (समोयारे)
ઉત્તર--વસ્તુઓને સ્વમાં, પરમાં, તેમજ બન્નેમાં અન્તર્ભાવ વિષયક विया२ ३२वी, ते समपतार छे. (छविहे पण्णत्ते) मा समता२ ६ अारने।
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अनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र २४० समवतारद्वारनिरूपणम्
७०७ नामावश्यकवत् स्थापनावश्यकवच्च बोध्यौ। द्रव्यसमवतारस्तु आगमतो नो आगमतश्चेति द्विविधः। तत्र नो आगमतो द्रव्यप्तमवतार:-ज्ञायकशरीरद्रव्य समवतारो भव्यशरीरद्रव्यसमवतारो ज्ञायकशरीरभव्यशरीरद्रव्यसमवतारश्चेति त्रिविधः । तत्र आगमतो द्रव्यसमवतारो नो आगमतो द्रव्यसमवतारस्याद्यद्वयभेदश्च द्रव्यावश्यकवद् विज्ञेयः। एतदेवाह सूत्रकार:-नामस्थापने पूर्व वर्णिते यावत् स एष भव्यशरीरद्रव्यसमवतार इति । अय ज्ञायकशरीरभव्यशरीरव्यतिठवणासमोयारे, दव्वसमोयारे, खेत्तसमोयारे, कालसमोथारे भाव समोयारे) नाम समवतार, स्थापनो समवतार, द्रव्यसमवतार क्षेत्रसमवतार, कालसमवतार, और भावसमवतार । (नाम ठवणाभो पुवं वणियाओ जाव से तं भवियसरीरदवसमोयारे) इनमें नाम समवतार और स्थापना समवतार इन दोनों को नामावश्यक एवं स्थापना आवश्यक के जैसे जानना चाहिये । द्रव्य समवतार आगम
और नो आगल की अपेक्षा लेकर दो प्रकार होता है । इनमें नो आगम की अपेक्षा लेकर द्रव्यसमवतार होता है, वह ज्ञायकशरीर द्रव्यसमवतार, भव्यशरीर द्रव्यसमवतार और ज्ञायकशरीर भव्यशरीरव्यतिरिक्त समवतार, इस प्रकार से तीन प्रकार का होता है। आगम से जो द्रव्य समवतार होता है, उसका और नो आगम से ज्ञायकशरीर द्रव्यममवतार, भव्यशरीर द्रव्यसमवतार इन दो भेदों का स्वरूप द्रव्यावश्यक के जैसा ही जानना चाहिये । (से कितं जाण.
वामां आवे छे. (तं जहा) रेभ है (णामसमोयारे ठवणासमोयारे, दब्ध समोयारे, खेत्तसमोयारे कालसमोयारे, भावसमोयारे) नाम समवतार, स्थापना સમવતાર, દ્રવ્યસમવતાર, ક્ષેત્રસમાવતાર ક લ સમવતાર અને ભાવસમવતાર (नामठवणाओ पुवं वणियाओ जाव से तं भवियसरीरदध्वसमोयारे) આમાં નામ સમવતાર અને સ્થાપના સમવતાર એ બનેને નામ આવ શ્યક તેમજ સ્થાપના આવશ્યકની જેમ જાણવા જોઈએ. દ્રવ્ય સમજતાર આગમ અને ને આગમની અપેક્ષાએ બે પ્રકારને કહેવામાં આવેલ છે. આમાં જે ને આગમની અપેક્ષાએ દ્રવ્ય સમવતાર હોય છે, તે જ્ઞાયકશરીર, દ્રવ્ય સમવતાર ભવ્ય શરીર દ્રવ્યસ અવતાર અને જ્ઞાકકશરીર ભવ્ય શરીર વ્યતિરિકત સમાવતાર આ પ્રમાણે ત્રણ પ્રકાર હોય છે. આગમથી જે દ્રવ્ય સમવતાર હોય છે. તેનું અને તે આગમથી જ્ઞાયકશરીર દ્રવ્ય સમવતાર, ભવ્યશરીર દ્રવ્યસમपता२ मा लेहानु १३५ द्रव्यायनी म Me
. (से कि
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७०८
अनुयोगद्वार
रिक्तं द्रव्यसमवतारं निरूपयति अथ कोऽसौ ज्ञायकशरीर भव्यशरीरव्यतिरिक्तो द्रव्यसमवतारः ? इति शिष्य प्रश्नः । उत्तरयति-ज्ञायकशरीर भव्यशरीरव्यतिरिक्तो द्रव्यसमवतारस्त्रिविधः, तद्यथा - आत्मसमवतारः परसमवतारः तदुभय समवतारश्चेति । तत्र सर्वद्रव्याण्यपि सर्वाण्यपि द्रव्याणि आत्मसमवतारेण चिन्त्यमानानि आत्मभावे स्वकीयस्वरूपे समवतरन्ति = वर्त्तन्ते सकलानामपि द्रव्याणाम् आत्मनोऽव्यतिरिक्तत्वात् । तथा व्यवहारमाश्रित्य परसमवतारेण परभावे समरन्ति, यथा-कुण्डे बदराणि । निश्चयनयेन तु सर्वाण्यपि वस्तूनि पूर्वोक्त यसरीरभवियसरीरवहरित दव्वसमोयारे ? ) हे भदन्त ! वह ज्ञायक शरीर भव्यशरीरव्यतिरिक्त द्रव्यसमवतार क्या है ?
उत्तर--( जाणयशरीरभवियसरीरवरिश्ते दव्वसमोयारे तिविहे पoते) ज्ञायकशरीर भव्यशरीर इन दोनों समवतारों से व्यतिरिक्त जो ज्ञायकशरीर भव्यशरीरव्यतिरिक्त समवतार है, वह तीन प्रकार का कहा गया है (तं जहा) जैसे - (आयस मोयारे, परसमोयारे, तदुभयस मोयारे) आत्मसमवतोर, पर समवतार, और 'तदुभयसमवतार, ( सम्बदन्वाणिणं आयसमोयारेणं आयभावे समोघरंति) आत्मसमवतार को लेकर जब समस्त द्रव्यों का विचार किया जाता है, तब समस्त
तं जाणयसरीरभवियसरीरवइरित्ते दव्वसमोयारे १) हे लहन्त ते ज्ञाय शरीर ભગશરીર વ્યતિરિકત દ્રવ્ય સમવતાર શુ' છે?
उत्तर- (जाणयसरीरभवियसरीर, वइरित्ते दव्वसमोयारे तिविहे पण्णत्ते) ज्ञायશરીર ભવ્યશરીર આ ખન્ને સમવતારાથી વ્યતિરિકત જે નાયકશરીર ભવ્યશરીર व्वतिरित सभवतार छे, ते त्र प्रहारनो मानवामां आवे छे. (तं जहा ) भ
(आयसमोयारे, परसमोयारे, तदुभयसमोयारे) आत्मसंभवतार, परसभवतार मने तदुभय सभवतार ( सम्वत्राणि णं आयसमोयारेणं आयभावे समोयरंति) ખાત્મસમવતારને લઈ ને જ્યારે સમસ્ત દ્રબ્સે વિષે વિચાર કરવામાં આવે છે, ત્યારે સમસ્ત દ્રવ્યે પોતાના સ્વરૂપમાં જ રહે છે. કેમકે નિજરૂપથી કાઇપણુ દ્રવ્ય ભિન્ન નથી. તેમજ વ્યવહાર નયની અપેક્ષાએ જ્યારે સમવતારને લઈ ને समस्त द्रव्ये विषे विचार वामां आवे छे, त्यारे समस्त द्रव्य ( परस्मो
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अनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र २४० समवतारद्वारनिरूपणम् युक्त्या स्वात्मन्येव वर्तन्ते, व्यवहारतस्तु स्वात्मनि कुण्डाद्याधारे च वर्तन्ते इति भावः । तथा तदुभयसमवतारेण आत्मसमवतारेण परसमवतारेण च आत्मभावे परमावे च समवतरन्ति, यथा-गृहे कटकुडयदेहली पट्टादि समुदायात्म के गृहे स्तम्भो वर्तते, स च स्तम्भ आत्मभावेऽपि वर्त्तते । यथा वा-घटे-बुध्नोदरकपाद्रव्य अपने निज रूपमें रहते हैं। क्योंकि निजरूप से कोई भी द्रव्यभिन्न नहीं है। तथा व्यवहारनय की अपेक्षा करके जब परसमवतार को लेकर समस्त द्रव्यों का विचार किया जाता है, तष समस्त द्रव्य (परसमोयारेणं जहा कुडे बदराणि) कुंड में बदर के जैसा परभाव में रहते हैं। तात्पर्य कहने का यह कि-'जब यह विचार किया जाता है कि प्रत्येक द्रव्य कहां रहते हैं ? तब इस प्रश्न का उत्तर दो नयों को आश्रित करके दिया जाता है-इनमें जष निश्चय का आश्रय किया जाता है-तब इस प्रश्न का उत्सर यह होता है कि प्रत्येक द्रव्य अपने ही निजरूप में रहते हैं । तथा व्यवहार नय की अपेक्षा जप इस प्रश्न का उत्तर विचारा जाता है तो उसका अभिप्राय यह निकलता है कि-जिस प्रकार कुण्ड में पदरिका फल रहते हैं 'उसी प्रकार से प्रत्येक द्रव्य पराश्रित भी रहते हैं तथा स्वाश्रित भी रहते हैं । (तदुभयसमोयारेणं जहा घरे खंभो,
ओयभावे यजहा घडे गीवा आयभावे य) जय तदुभय समवतार को लेकर विचार किया जाता है तो आत्मसमवतार की अपेक्षा समस्त द्रव्य
आत्म भाव में तथा परसमवतार की अपेक्षा परभाव में रहते हैं। जैसे कट, कुउय, देहली और पट्ट आदि के समुदायरूप घर में स्तम्भ रहता य रेग जहा कुंडे बदराणि) मा मारनी भ. ५२मामा २९ छ. तात्पर्य કહેવાનું આ છે કે “જ્યારે આ જાતને વિચાર કરવામાં આવે છે કે પ્રત્યેક દ્રવ્ય કયાં રહે છે? ત્યારે આ પ્રશ્નને ઉત્તર બે નાના આધારે આપવામાં આવે છે. આમાં જયારે નિશ્ચયને આશ્રય માનવામાં આવે છે, ત્યારે આ પ્રશ્નનો ઉત્તર આ પ્રમાણે હોય છે કે દરેકે દરેક દ્રવ્ય પિતાના જ સ્વરૂપમાં રહે છે. તેમજ વ્યવહારનયની અપેક્ષાએ જ્યારે આ પ્રશ્નના ઉત્તર વિષે વિચાર કરવામાં આવે છે ત્યારે તેને અભિપ્રાય આ મુજબ હોય છે કે “જેમ કંડમાં બદરિકા-બાર ફળ રહે છે. તેમજ દરેકે દરેક દ્રવ્ય પશ્રિત પણ રહે छ, तमन २॥श्रित ५८] २३ छे. (तदुभयसमोयारेणं जहा घरे खंभो, आयभाषे य जहा घडे गीवा आयभावे य) यारे तय सभतारने न पियार કરવામાં આવે છે, ત્યારે આત્મ સમવતારી અપેક્ષા સમસ્તદ્રવ્ય આત્મભાવમાં તેમજ પરસમવતારની અપેક્ષા પરભાવમાં રહે છે. જેમ કટ, કુડય દેહલી અને પટ્ટ વગેરેના સમુદાય રૂ૫ ઘરમાં સ્તંભ રહે છે, અને તે સ્તંભ પિતાના
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७१०
अनुयोगद्वारसूत्रे लात्मके घटे ग्रीवा वर्तते, सा च आत्मभावेऽपि वर्तते । ननु 'कुण्डे बदराणि' इति यत्परसमवतारस्योदाहरणं प्रदर्शितम्, इदमपि तदुभयसमवतारस्यैवोदाहरणं भवितुमर्हति, कुण्डे वर्तमानानां बदराणां स्वात्मन्यपि वर्तमानत्वादिति चेत्, श्रृणु, अत्र स्वात्मवृत्तेर्विवक्षामकृत्वैव मुमन्यासः कृतः । वस्तुतस्तु द्विविध एवं समवतारो युक्तः, अत एव सूत्र कारः स्वयमाह-'अहवा' इत्यादि । अथवा-ज्ञायक शरीरमव्यशरीरव्यतिरिक्तो द्रव्यसमवतारो द्विविधः प्रज्ञप्तः, तद्यथा-आत्मसमबतारः तदुभयसमवतारश्चेति । पू#क्तरीत्या परसमवतारस्यासंभवितामुपलक्ष्य है और वह स्तम्भ अपने रूप में भी रहता है । अथवा जैसे धुन्धोदरकपालरूप घट में ग्रीश रहती है और वह ग्रीवा आत्मभाव में भी रहती है। __ शंका-'कुण्डे पदराणि' ऐसा जो उदाहरण आपने परसमवतार का दिया है, सो यह उदाहरण तदुभयसमवतार का ही होना चाहिये । क्योंकि जिस प्रकार वे कुंडमे रहते हैं, उसी प्रकार से वे अपने आत्म भाव में भी रहते हैं ?
उत्तर-सुनों, यह जो दृष्टांत परसमवतार का दिया गया हैवैसे यदि विचार किया जावे तो समवतार दो प्रकार का ही होना चाहिये। इसी बात को सूत्रकारने निर्दिष्ट करने के लिये ( अहवा जणयसरीरभवियसीरवारित्ते दधसमोयारे दुविहे पण्णत्ते) ऐसा कहा है। इसमें वे यह कह रहे हैं कि ज्ञायकशरीर भव्यशरीर से व्यतिरिक्त जो द्रव्य समवतार है वह दो प्रकार का प्राप्त हुआ है। (तं जहा) जैसे-(आयसमोयरे य तदुभयसमोयारे य ) एक
વરૂપમાં પણ રહે છે. અથવા જેમ બુદાદર-કપાલરૂપ ઘટમાં ગ્રીવા રહે છે અને તે ગ્રીવા આત્મભાવમાં પણ રહે છે.
शा--'कुण्डे बदराणि' मेरे हाय तमे ५२समतानु मापद छ, તે આ ઉદાહરણ તદુમય સમવતારનું જ હોવું જોઈએ. કેમકે જેમ કુંડમાં તે રહે છે. તેમજ તે પિતાના આત્મભાવમાં પણ રહે છે? - ઉત્તર-સાંભળો-આ જે દષ્ટાન્ત પરસમાવતાર વિષે આપેલ છે, તેમાં સ્વાત્મવૃત્તિની વિવક્ષા કરવામાં આવી નથી. આમ જે વિચાર કરવામાં આવે તે સમાવતારના બે પ્રકાર જ હોવા જોઈએ. એ જ વાતને સૂત્રકારે નિર્દિષ્ટ ४२वा माटे (अहवा जाणयसरीरभवियसरीरवइरित्ते दव्वसमोयारे दुविहे पगत्ते) माम यु छे. मामा ती मा प्रभारी डी २४ा छ ? शाय. શરીર ભવ્ય શરીરથી વ્યતિરિકત જે દ્રવ્ય સમવત ૨ છે, તે બે પ્રકારનો ज्ञात येत छ. (तं जहा) २म है (आयसमोयारे य तदुभयसमोयारे य)
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मनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र २४० समवतारद्वारनिरूपणम्
७११ द्वैविध्यमुक्तमिति बोध्यम् । अनयोरुदाहरणान्याह-'चउसटिया' इत्यादि । चतु. पष्टिका-चतुष्पलमाना अर्धमागिकायाश्चतुष्पष्टितमो भाग इत्यर्थः आत्मसमयतारेण आत्मभावे समवतरति, उभयसमवतारेण तु सा स्वापेक्षया बृहन्मानायाम् अर्थात् अष्टपलमानायां द्वात्रिशिकायां अर्धमाणिकायां द्वात्रिंशतमभागरूपायां समवतरति । एवं द्वात्रिशिका पोडशिका, अष्टभागिका, चतुर्भागिका, अर्द्धमाणीच आत्मभावे उभय भावे च समवतरन्ति । तथाहि-अष्टपलप्रमाणा द्वात्रिंशिका आत्मसमवतारेण आत्मभावे समवतरति, उभयसमवतारेण तु षोडश पलमानायां पोडशिकायां समवतरति आत्मभावेच ! षोडशिकाऽपि आत्मसमवतारेण आत्म आत्मसमवतार और दूसरा तदुभयसमवतार । इसमें पूर्वोक्त रीति के अनुसार परसमवतार की असं भविता को ध्यान में रखकर सूत्रकार ने यह द्विविधता कही है, ऐसा जानना चाहिये । (च उसद्विया आयसमो. यारेणं आयभावे समोयरइ) दृष्टान्तान्तर से इसी विषय को स्पष्ट करने के लिये सूत्रकार कहते हैं कि-'आत्मसमवतार से जैसे चतुष्पष्टिका चारपलप्रमाणवाली अर्धमणिका का चौंसठवां भाग आत्मभाव में रहती है और (तदुभय समोयारेणं धत्तीसियाए समोयरह) तदुभयसमवतार से वह अपनी अपेक्षा से बृहन्मानवाली अर्थात् आठपल प्रमाणवाली द्वात्रिंशिका में अर्थात् अर्धमाणिका के ३२ वें भाग में रहती है-( आय भावे य) और अपने निजरूप में भी रहती है । इसी प्रकार से द्वात्रिंशिका, षोउशिका, अष्टभागिका, चतुर्भागिका, और अर्धमाणी ये सब आत्मभाव में एवं उभषभाव में समवतरित होती हैं। जैसे-(बत्तीसिया आयसमोयारेणं आयभावे समायरह, तदुभयसमायारेण सेलसियाए समायरह, ओयभावे य) अष्टपल प्रमाणवाली દષ્ટાન્તાન્તરથી આ વિષયને સ્પષ્ટ કરવા માટે સૂત્રકાર કહે છે કે “આત્મસમવે. તારથી જેમ ચતુષષ્ટિકા ચાર પલ પ્રમાણુવાળી અર્ધમાણિકાને ચોસઠમાં सा मामलामा २ छ, भने (तदुभयसमोयारेणं बत्तीसियाए समोयरइ) તદુભય સમવતારથી તે પોતાની અપેક્ષાથી બ્રહન્માન યુકત એટલે કે આઠ પલ પ્રમાણુ યુકત ત્રિશિકામાં એટલે કે અર્ધમણિકાના ૩૨ માં ભાગમાં २७ छे. (आयभावे य) मने पेरताना नि ३५ ५५ २३ छे. मा प्रभाव દ્વત્રિશિકા, ષોડશિક, અષ્ટભાગિકા, ચતુર્ભાગિક અને અર્ધમાણી આ સર્વે मात्मामा भने मयामा समवतरित उय छ. म , (बत्तीसिया बायसमोयारेणं आयभावे समोयरइ, तदुभयसमोयारेण सोलसियाए समोयरइ आयभावे य) सदर प्रभा युत निशि माम सभवतानी अपेक्षा
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भनुयोगद्वारसूत्रे भावे समवतरति, उभयसमवतारेण तु द्वात्रिंशत्पलमानायामष्टमागिकायां समवत्तरति आत्मभावेच । अष्ट मागिकाऽपि आत्मसमवतारेण आत्मभावे समत्रतरति, उभयसमवतारेण तु चतुष्पष्टिपलमानायां चतुर्मागिकायां समवतरति आत्मभावेच । चतुर्भागिकाऽपि आत्मसमवतारेण आत्मभावे समवतरति, उभय. द्वात्रिंशिका आत्मसमवतार की अपेक्षा आत्मभाव में रहती है और उभयसमवतार की अपेक्षा से षोडशपल प्रमाणवाली षोडशिका में भी रहती है और अपने भाव में भी रहती है। (सोलसिया आयसमो. यारेणं आयभावे समोयर, तदुभयसमोयारेणं अट्ठभाड्याए समोयरह, आयभावे य) इसी प्रकार से षोडशिका भी आत्मसमवतार की अपेक्षा से आत्मभाव में अवतरित होती है और उभयसमवतारकी अपेक्षा द्वात्रिंशत्पलप्रमाणवाली अष्टभागिका में एवं आत्मभाव में भी अवतरित होती है । ( अट्ठभाइया आयसमोपारेणं आयभावे समोयरह, तदुभयसमोयारेणं चउभाइयाए समोयरह आयभावे य) तथा जो अष्टभागिका है, वह आत्मसमवतारकी अपेक्षा से आत्मभाव में रहती है और तदुभयसमवतार की अपेक्षा से चतुर्मागिकामें भी रहती है और आत्मभाव में भी रहती है । (चउभाइया आयसमोयारे णं आयभावे समोयरह तदुभयसमोयारेणं अद्धमागीए समोयरइ आयभावे) चतुभांगिका आत्मसमवतार की अपेक्षा आत्मभाव में रहती
આત્મભાવમાં રહે છે, અને ઉભય સમવતારની અપેક્ષાએ પડશપલ પ્રમાણવાલી बोशिकामा छ, अन पोताना मामा ५५ २३ छे (सोलसिया आयसमोयारेणं आयभावे समोयरइ, तदुभयसमोयारेणं अटुभाइयाए समोयरइ, आयभावेय) આ પ્રમાણે ડિશિકા પણ આત્મસમવતાની અપેક્ષાએ આત્મભવમાં અવતરિત થાય છે, અને ઉભય સમવતાની અપેક્ષા એ દ્વાત્રિશત્પલ પ્રમાણયુકત અષ્ટ मानिसमा तम मात्रामा ५] अवतरित थाय छे. ( अटुमाइया आय: समोयारेणं आयभावे समोयरइ, तदुभयसमोयारेणं चउभाइयाए समोयरइ आयभावे य) तभा २ मण्टागि छे, ते आत्मसमतारनी अपेक्षा समात्मा ભાવમાં રહે છે, અને તદુભયસમવતાની અપેક્ષા એ ચતુર્ભાગિકામાં પણ રહે छ. अने मामलामा ५५ २९ छे. (चउभाइया आयसमोयारेणं आयभावे समोयरइ, तदुभयसमोयारेणं अद्धमाणीए समोयरइ आयभावे य) ચતુર્ભાગિકા આત્મસમવતાની અપેક્ષા આત્મભાવમાં રહે છે અને તદુભાય
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अनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र २४० समवतारद्वारनिरूपणम् .. समतारेग तु चतुर्भागिकाऽष्टाविंशत्यधिकै शतपलमानायाममाणिकायां समवतरति आत्मभावेच । तथा-अर्द्धमाणिकाऽपि आत्मसमवतारेण आत्मभावे समवतरति, उभयसमवतारेण तु षट्पश्चाशदधिकशतद्वयमानायामर्द्धमाणिकायां समवतरति आत्मभावे चेति । इत्थं तदुभयव्यतिरिक्तो द्रव्यसमवतारो निरूपित इति मूचयितुमाह-स एष ज्ञायक-शरीरभव्यशरीरव्यतिरिक्तो द्रव्यसमवतार इति । इत्थं नो आगमतो द्रव्यसमवतारस्य त्रिविधोऽपि भेदो निरूपित इति सूच. यितुमाह-स एष नो आगमतो द्रव्यसमवतार इति । इत्थं सभेदो द्रव्यसमवतारो निरूपित इति सूचयितुमाह-स एष द्रव्यसमवतार इति ।मु० २४०॥ है और तदुभय समवनार की अपेक्षा अर्धमाणी में भी रहती है और आत्मभाव में भी रहती है (अद्वप्राणी आयसमोयारेणं आयभावे समो. यर तदुभयसमोयारेणं अद्धमाणीए समोगरइ आयभावे य) इसी प्रकार से जो अर्धमानी है वह आत्मसमवतार की अपेक्षा से आत्मभाव में रहती है और तदुभयसमवतार की अपेक्षा से मानी में भी रहती है
और आत्मभाव में भी रहती है १२८ पल की अर्धमानी होती है और २५६ पल की मानी होती है । (से तं जाणयसरीरभवियसरीर पर. रित्ते दबसमोयारे) इस प्रकार यह पूर्व प्रक्रांत वह ज्ञायक शरीर भव्य शरीर से व्यतिरिक्त द्रव्यसमवतार होता है । (से तं नो आगमओ दव्वस०) इस प्रकार से सूत्रकार ने नो आगम की अपेक्षा लेकर द्रव्य. समवतार के तीन प्रकार के भेदों का निरूपण किया। इसके निरूपित हो जाने पर (से तं दनसमोयारे ) द्रव्यसमवतार पूर्णरूप से निरूपित हो चुका ।। सू० २४० ॥ સમવતારની અપેક્ષા અર્થમાણીમાં પણ રહે છે અને આત્મભાવમાં પણ રહે छ. (अद्धमाणी, आयसमोयारेणं आयभावे समोयरइ, तदुभयसमोयारेणं अद्ध माणीए समोयरइ आयभावे य) मा प्रमाणे २ भानी छ ते मामसमतारनी અપેક્ષાએ આત્મભાવમાં રહે છે અને તદુભય સમવતારની અપેક્ષાએ માનીમાં પણ રહે છે. અને આત્મભાવમાં પણ રહે છે. ૧૨૮ પલની અર્ધમાની डाय छे. अने. २५६ पसनी मानी हाय छे. (से तं जाणयसरीरभवियसरीर वइरित्ते दव्वसमोयारे) मा प्रमाणे मा पूर्व प्रान्त ते ज्ञाय शरी२ मध्यशरीरथी व्यतिरित द्र०य सभवतार हाय छे. (से तं नो आगमओ दव्वस०) આ પ્રમાણે સૂત્રકારે ને આગમની અપેક્ષાએ દ્રવ્ય સમવતારના ત્રણ
२ना सानु नि३५ यु छ. माना नि३५थी (से. तं दव्वसमोयारे.) દ્રવ્ય સમવતાર પૂર્ણ રૂપથી નિરૂપણ થઈ ગયો છે. એ સૂત્ર ૨૪૦
अ० ९०
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७१४
अनुयोगद्वारसूत्रे अथ क्षेत्रसमवतारादीन् निरूपयति
मूलम्-से किं तं खेत्तसमोयारे? खेत्तसमोयारे-दुविहे पण्णत्ते, तं जहा-आयसमोयारे य तदुभयसमोयारे य। भरहेवासे आयसमोयारेण आयभावे समोयरइ, तदुभयसमोयारेणं जंबुद्दीवे समोयरइ आयभावे य। जंबुद्दीवे आयसमोयारेणं आयभावे समोयरइ, तदुभयसमोयारेणं तिरियलोए समोयरइ आयभावे य। तिरियलोए आयसमोयारेणं आयभावे समोयरइ, तदुभयसमोयारेणं लोए समोयरइ आयभावे य । से तं खेत्तसमोयारे। से किं तं कालसमोयारे ? कालसमोयारे-दुविहे पण्णत्ते, तं जहा-आयसमोयारे य तदुभयसमोयारे या समए आयसमोयारेणं आयभावे समोयरइ, तदुभयसमोयारेणं आवलियाए समोयरइ आयभावे य। एवमाणापाणू थोवे लवे मुहुत्ते अहोरते पक्खे मासे ऊऊ अयणे संवच्छरे जुगे वाससए वाससहस्से वाससयसहस्से पुवंगे पुवे तुडिअंगे तुडिए अडडंगे अडडे अववंगे अववे हूहूअंगे हूहूए उप्पलंगे उप्पले पउमंगे पउमे गलिगंगे णलिणे अच्छनिउरंगे अच्छनिउरे अउअंगे अउए नउअंगे नउए पउअंगे पउए चूलिअंगे चूलिया सीसाहोलअंगे सीसपहेलिया पलिओवमे सागरोवमे आयसमोयारेणं आयभावे समोयरइ तदुभयसमोयारेणं ओसाप्पिणीउस्सप्पिणीसु समो. यरइ आयभावे य। ओसप्पिणी उस्तप्पिणीओ आयसमोयारेणं आयभावे, समोयरंति, तदुभयसमोयारेण पोग्गलपरियट्टे समो
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अनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र २४१ क्षेत्रसमवतारादीनां निरूपणम् ७१५ यति आयभावे य। पोग्गलपरियट्टे आयसमोयारेणं आयभावे समोयरइ, तदुभयसमोयारेणं तीतद्धा अणागतद्धासु समोयरइ आयभावे य। तीतद्धा अणागतद्धाउ आयसमायारेणं आयभावे समोयरंति, तदुभयसमोयारेणं सम्बद्धाए समोयरति आयभावे य। से तं कालसमोयारे। से किं तं भावसमोयारे? भावसमो. यारे दुविहे पण्णत्ते, तं जहा-आयसमोयारे य तदुभयसमोयारे य। कोहे आयसमोयारेणं आयभावे समोयरइ, तदुभयसमो. यारेण माणे समोयरइ आयभावे य। एवं माणे माया लोभे रागे मोहणिजे, अट्टकम्मपयडीओ आयसमोयारेणं आयभावे समोयरंति तदुभयसमोयारेणं छविहे भावे समोयरंति आय. भावे य। एवं छब्धिहे भावे, जीवे जीवत्थिकाए आयसमोयारेणं आयभावे समोयरइ, तदुभयसमोयारेणं सव्वदत्वेसु समोयरइ आयभावे य। एत्थ संगहणीगाहा-"कोहे माणे माया, लोहे रागे य मोहणिजे य । पगडीभावे जीवे जीवस्थिकाय दवा य॥१॥" सेतंभावसमोयारे। सेतं उवक्रमे। उवक्कम इइ पढमं दारं।सू.२४१॥
छाया--अथ कोऽसौ क्षेत्रसमवतारः ? क्षेत्रसमवतारो द्विविधः प्रजाता, तयथा-आत्मसमवतारश्च तदुभयसमवतारश्च । भारतं वर्षम् आत्मसमवतारेण आत्मभावे समवतरति, तदुमयसमयतारेण जम्बूद्वीपे समातरति आत्मभावे च। जम्बूद्वीपः आत्मसमवतारेण आत्मभावे समवतरति, तदुभयसमवतारेण तिर्यम् लोके समवतरति आत्मभावे च । तिर्यग् लोकः आत्मसमवतारेण आत्मभावे सम. वतरति, तदुभयसमवतारेण लोके समवतरति आत्मभावे च । स एष क्षेत्रसमवतार अथ कोऽसौ काळसमवतारः ? कालप्तमवतारो द्विविधः प्रज्ञप्तः, यथा-आत्म समवतारश्च तदुमयसमवतारश्च । समयः आत्मसमवतारेण आत्मभावे समवतरति, तदुभयसमवतारेण आवलिकायां समवतरति आत्मभावे च । एवमानप्राणास्तोको
वो मुहूर्तः अहोरात्रः पक्षः मासः ऋतुः अयनम् संवत्सरो युगं वर्षशतं वर्ष सहवं वर्ष शतसहस्रं पूर्षि पूर्व त्रुटिताङ्गं त्रुटितम् अटटाङ्गम् अटटम् अत्रवारम् अवयं
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अनुयोगद्वारसूत्रे हहूकाङ्गम् हूहूकम् उत्पलाङ्गम् उत्पलं पद्माङ्गं पद्म नलिनाङ्गं नलिनं अच्छनिकुराङ्गम् अच्छनिकुरम्, अयुताङ्गम् अयुतं नयुनाझं नयुतं प्रयुनाई प्रयुतं चूलिकाङ्ग चूलिका शीर्ष पहेलिकाङ्गशीर्ष पहेलिका पल्योपमं सागरोपमम् आत्मसमवतारेण आत्मभावे समवतरति, तदुभय समव तारेण अवसर्पिण्युत्सर्पिणीषु समक्तरंति आत्मभावे च । अवसर्पिण्युत्सर्पिण्यः आत्मसमवतारेण आत्मभावे समवतरति, तदुभयसमवतारेण पुद्गलपरिवर्ते समवतरन्ति आत्मभावे च । पुद्गलपरिवर्त आत्मसमवतारेण आत्मभावे समवतरति, तदुभयसमवतारेण अतीताद्वानागताद्धासु समातरति आत्ममावे च । अतीताद्धानागताद्धा आत्मसमवतारेण आत्मभावे, समवतरन्ति, तदुभयसमवतारेण सद्धिायां समवतरति आत्मभावे च । स एष कालसमवतारः । अथ कोऽसौ भाव समवतारः ? भावसमवतारो द्विविधः प्रज्ञप्तः तद्यथा-आत्मसमवतारश्च तदुभयसमव. तारश्च । क्रोध आत्मसमवतारेण आत्मभावे समवतरति, तदुभयसमवतारेण माने समवतरति आत्मभावे च । एवं मानो माया लोभो रागो मोहनीयम् अष्टकम प्रकृतयः आत्मसमवतारेग आत्मभावे समवतरति तदुभयसमवतारेण पइविधे भावे. समवतरन्ति आत्मभावे च । एवं पविधो भावः, जीवा, जीवास्तिकाय आत्मसमवतारेण आत्मभावे समवतरति, तदुभयसमवतारेण सर्वद्रव्येषु समवतरति आत्मभावे च । अत्र संग्रहणीगाथा
क्रोधो मानो माया, लोभो रागश्च मोहनीयं च ।
प्रकृति को जीवो, जीवास्तिकायो द्रव्याणि च ॥१॥ स एष भावसमवतारः । स एष समवतारः । स एष उपक्रमः । उपक्रम इति प्रथम द्वारम् ॥मू०२४१॥
टीका--'से कि तं' इत्यादि
अथ कोऽसौ क्षेत्रसमवतारः ? इति शिष्य प्रश्नः । उतरयति-क्षेत्र समवतार:धर्मादीनां द्रव्याणां यत्र वृत्तिर्भवति तत्क्षेत्रम् तस्य समवतारः, स च आत्मसमय
अब सूत्रकार क्षेत्रसमवतार आदिकों का निरूपण करते है-- 'से कि तं खेत्तसमोयारे' इत्यादि ।
शब्दार्थ--(से किं तं खेत्तसमोयारे ? ) हे भदन्त ! वह पूर्वप्रक्रान्त क्षेत्र समवतार क्या है ?
હવે સૂત્રકાર ક્ષેત્ર સમવતાર આદિનું નિરૂપણ કરે છે. 'से कि तं खेत्तसमोयारे' इत्यादि।
wat:---(से किं तं खेत्तसमोयारे :१) ३ म ! ते ५ प्रान्त ક્ષેત્ર સમવતાર શું છે?
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agrinafar टीका सूत्र २४१ क्षेत्रसमवतारादीनां निरूपणम्
७१७ वारस्तदुभयसमत्रतारश्चेति द्विविधः । तत्र भरतं वर्षमात्नसमवतारेण आत्मभावे समवतरति, तदुभयसमवतारेण तु जम्बूद्वीपे समत्रतरति आत्मभावे च । एवं जम्बूद्वीपादयोऽपि आत्मसमत्रतारेण आत्मभावे समवतरन्ति तदुभयसमत्रतारेण एते उत्तरोत्तरस्मिन स्वापेक्षया बृदत्यमाणे क्षेत्रविभागे समवतरन्ति आत्मभावे चेति
उत्तर-- (खेत्तसमोघारे) धर्मादिक द्रव्यों की जहां वृत्ति होती हैअर्थात् धर्मादिक द्रव्यों का जहां निवास होता है उसका नाम क्षेत्र है, इस क्षेत्र का जो समवतार है, वह क्षेत्र समवतार है । यह क्षेत्र समवतार (दुविहे पत्ते) दो प्रकार का कहा गया है । (तं जहा) जैसे (आयसमोयारे य तदुभयसमोयारे य) एक आत्मसमवतार और दूसरा तदुभय समवतार | (भरहे वाले आयसमोयारेणं आयभावे समोयर, तदुभयसमोयारेणं जंबूद्दीवे समोवरह आयभावे य) आत्मसमवतार की अपेक्षा लेकर जब यह विचार किया जाता है कि- 'भरतक्षेत्र कहां रहता है ? तब इसका उत्तर यह होता है कि- 'भरत क्षेत्र आत्मसमवतार की अपेक्षा आत्मभाव में रहता है, और तदुभय समवतार की अपेक्षा जंबूद्वीप में रहता है । एवं अपने निजस्वरूप में भी रहता है । (जंबूद्दीवे आपसमोयारेणं आयभावे समोयरइ, तदुभय समोयारेण तिरियलोए समोयरद्द आयभावे य) जंबूद्वीप आत्मसमतार की अपेक्षा आत्मभाव में रहता है और तदुभय समवतार की अपेक्षा तिर्यक लोक में भी रहता है और आत्मभाव में भी रहता है।
उत्तर:-- (खेलस्रमोयारे) धर्माद्रिव्योनी क्यां वृत्ति होय, भेटले કે ધર્માદિક દ્રવ્યેાનુ. જયાં નિવાસ છે, તેનું નામ ક્ષેત્ર છે. આ ક્ષેત્રસમવતાર (दुविहे पण्णत्ते) मे अारना उडेवामां आवे छे. (तं जहा ) ঈभ } (आयस मोयारे य तदुभयस्रमोयारे य ) खेड आत्मसंभवतार અને દ્વિતીય તદ્ભય समयतार (भरहे वासे आयसमोयारेणं आयभावे समोपर, आयभावे य्) आत्मसभवतारनी अपेक्षा से न्यारे या प्रभा विचार કરવામાં આવે છે કે ‘ભરતક્ષેત્રમાં રહે છે ?' ત્યારે આના જવાબ આ પ્રમાણે હાય છે કે ભરતક્ષેત્ર આત્મસમવતારની અપેક્ષા આત્મભાવમાં રહે છે અને તદ્રુભય સમવતારની અપેક્ષા જમૂદ્રીપમાં રહે છે, તેમજ पोताना निन स्वइयां पशु रहे' (जंबूद्दीवे आयसमोयारेणं आयभावे समायर, तदुभयसमायारेण तिरियलोए समोयरइ आयभावे य ) वृद्धीय આત્મસમવતાની અપેક્ષા આત્મભાવમાં રહે છે અને તદ્રુભય સમવતારની અપેક્ષા એ તિય ક્લાકમાં પશુ રહે છે, અને આત્મભાવમાં પણ રહે છે.
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७१८
मनुयोगद्वारसूत्रे बोध्यम् । प्रकृतमुपसंहरबाह-स एष क्षेत्रसमवतार इति । अथ कालसमवतारं निरूपयति । तत्र-अथ कोऽपौ कालसमवतार: ? इति शिष्यप्रश्नः। उत्तरयतिकालसमवतारः-कलयन्ति समयादिरूपेण परिच्छिन्दन्ति ज्ञानिनो यं स काला, तस्य समवतारः । स च आत्मसमवतारः तदुभयसमवतारश्चेति द्विविधः । तत्र-समय आत्मसमवतारेण आत्मभावे समवतरति, तदुमयसमवतारेण स्वापेक्षया बृहत्प्रमा णायामावलिकायां समवतरति आत्मभावे च । एवम् आवलिकादिषु प्रत्येकम् (तिरियलोए आयसमोयरे णं आयभावे समोयरह, तदुभयसमोयारे णं लोए समोयरइ आयभावे य) इसी प्रकार तिर्यक् लोक भी आत्मसमवतार की अपेक्षा आत्मभाव में रहता है और तदुभय समवतार की अपेक्षा लोक में भी रहता है एवं आत्मभाव में भी रहता है। (से तं खेत्तसमोयारे) इस प्रकार यह क्षेत्र समवतार है। (से कित कालसमोयारे ?) हे भदन्त ! वह पूर्व प्रक्रान्त काल समवतार क्या है ? - उत्तर-(कालसमोयारे) ज्ञानी जन जिसे समय आदि रूप से जानते हैं-उसका नाम काल है । इस काल जो समवतार है, वह काल समवतार है वह काल समवतार (दुविहे पण्णत्ते) दो प्रकार का प्रज्ञप्त हुआ है । (तं जहा) जैसे (आयसमोयारे य तदुभयसमोयारे य) एक आत्मसमवतार
और दूसरातदुभय समवतार । (समए आयसमोयारेणं आयभावे समो. यरइ) आत्म समवतार की अपेक्षा समय आत्मभाव में रहता है। (तदु. भय समोयारेणं आवलियाए समोयरह, आयभावे य) तदुभय समवतार 'तिरियलोए आयसमोयारेणं आयभावे समोयरइ, तदुभयसमोयारेणं लोए समोयरइ आयभावे य) या प्रमाणे तिय ४५ मामसभतारनी अपेक्षा આત્મભાવમાં રહે છે અને તદુભય સમવતાની અપેક્ષાએ લેકમાં પણ રહે २. मन माममामा ५५ २ छ. (से ते खेत्तसमोयारे) मा प्रभारी मात्र समवतार छ. (से कितं कालनमायारे १) महत! ५१ પ્રકાન્ત કાલ સમવતાર શું છે?
उत्तर--(कालसमोयारे) ज्ञानी २ समय वगेरेन। ३५मा नये છે તેનું નામ કાળ છે. આ કાળને જે સમવતાર છે. તે કાળ સમવતાર છે. a sim समत.२ (दुविहे पण्णत्ते) में मारने अज्ञात ये छे. (तं जहा) २ (आयसमोयारे य तदुभयसमोयारे य) से मामसता२ भने द्वितीय तमय समवतार (समए आयसमोयारेणं आयभावे समायरइ) मात्मसमतारनी पेक्षा समय मामलम २३ छे. (तदुभयसमोयारे णं आवलियाए समायरई,
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मनुयोगवन्द्रिका का सत्र २४१ क्षेत्रसमवतारादीनां निरूपणम् ७९ की अपेक्षा से आलिका में भी रहता है और आत्मभाव में भी रहता है। आवलिका असंख्यात समय की होती है । इसलिये अपनी अपेक्षा वह वृहत् प्रमाणवाली है। अतः समयरूप काल को तदुभय समव. तार की अपेक्षा आवलिका के आश्रित रहना कहा है। तथा ऐसा होने पर भी वह अपने निजरूप का परित्याग नहीं करता है-इसलिये आत्म. भाव में भी उसका निवास प्रकट किया है । (एवमाणापाणू, थोवे, लवे, मुटुत्ते, अहोरत्ते, पक्खे मासे उऊ, अयणे, संवच्छरे, जुगे, वाससए वास. सहस्से, वाससयसहस्से, पुवंगे, पुव्वे तुडिअंगे, तुडिए, अडइंगे अडडे अववंगे, अबवे, हुहुअंगे, हुहुए, उपलगे, उप्पले पउमंगे, पउमे, णलिणंगे, गलिणे, अच्छनि उरंगे, अच्छनि उरे, अउअंगे, अउए, नउअंगे, न उए, पउअंगे, पउए, चूलिअंगे, चूलिया, सीसपहेलिअंगे, सीसपहेलिया, पलिओवमे, सागरोवमे, आयसमोयारेण आयभावे, समोयरइ) इसी प्रकार आनप्राण, स्तोक, लव, मुहूर्त, अहोरात्र, पक्ष, मास ऋतु, अयन, संवत्सर युग, वर्षशत, वर्षसहस्र, वर्षशतसहस्र, पूर्वाङ्ग पूर्व, त्रुटिताङ्ग, त्रुटित, अटटाङ्ग अटट, अववाङ्ग अवव, हूहूकाङ्ग, हुहूक, उत्पलाङ्ग, उत्पल, पद्माङ्ग, पद्म, नलिनाङ्ग, नलिन, अच्छनिकुराङ्ग,
आयभावे य) तलय समक्तानी अपेक्षा के मामा ५५ २३ छे. सन આત્મભાવમાં પણ રહે છે. આવલિકા અસંખ્યાત સમયની હોય છે. એથી તે
અપેક્ષાએ બૂડત પ્રમાણુવાળી છે. એથી સમય રૂપકાળને તદુભય સમવતારની અપેક્ષા આવલિકાના આશ્રિત છે, એવું કહ્યું છે. તેમજ આમ થવાથી પણ તે પિતાના નિજ સ્વરૂપને પરિત્યાગ કરતા નથી. એથી આત્મભાવમાં પણ तनी निवासस्थिति ५५ ४२वामा मा छे. (एवमाणापाणू थोवे, लवे, मुहुत्ते, अहोरत्ते, पक्खे, मासे, उऊ अयणे, संवच्छरे, जुगे, वाससए, वाससहस्से, पुव्वंगे, पुटवे, तुडिअंगे, तुडिए, अडडंगे अडडे, अववंगे, अववे, हुहुअंगे, हुहुए, उप्पलंगे, उप्पले, पउमंगे, पउमे, गलिणंगे, णलिणे, अच्छनिउरंगे, अच्छनिउरे, अउअंगे, अउए, नउअंगे, नउए, पउअंगे, पउए, चूलिअंगे, चूलिया, सीसपहे. लिअंगे, सीसपहेलिया, पलिओवमे, सागरोवमे, आयसमोयारेण आयभावे समोयरइ) मा प्रमाणे माना, स्त, ११, मुत, मात्र, पक्ष, भास, *तु, अयन, सवत्सर, युग, शत, १५ सख, पान, भू त्रुहितin, त्रुटित, मांग, मट, अqain, अ१५, , डूडू, Grvain, Gra ५, ५५, नलिना, नलिन, अक्षनिराग, अनि२, मयुतin, अयुत,
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७२०
अनुयोगद्वारसूत्रे
आत्मसमवतारेण आत्मभावे समवतरति तदुभयसमत्रतारेण तु ततदपेक्षया बृहत्ममाणे उत्तरोत्तरस्मिन् कालविभागे समवतरतीति बोध्यम् । प्रकृतमुपसंदरअच्छनिकुर, अयुताङ्ग, अयुत, नयुताङ्ग, नयुत, प्रयुताङ्ग, प्रयुत, चूलिकाङ्ग, चूलिका, शीर्षप्रहेलिकाङ्ग, शीर्षप्रहेलिका, पल्योपम सागरोपम, ये सब प्रत्येक आत्मममवतार की अपेक्षा से आत्मभाव में वर्तते हैं(तदुभयसमोयारेणं ओसपिणी उसपिणी समोयरह आयभावे य) तथा उभयसमवतार की अपेक्षा ये सब अपनी २ अपेक्षा से बृहप्रमाण संपन्न आगे २ के कालविभाग में वर्तते हैं। और आत्मभाव में भी वर्तते हैं। तथा सागरोपम उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी काल में रहते हैं । (मोसपिणी उस्सप्पिीओ आपसमोवारेणं आय भावे समोघरंति, तदुभयसमोयारेणं पोग्गलपरियहे समोथरंति आयभावे य) उत्सर्पिणी अवसर्पिणी काल आत्मसमवतार की अपेक्षा आत्मभाव में रहते हैं और उभयसमवतार की अपेक्षा पुलपरिवर्तन में रहते हैं । तथा अपने निज स्वरूप में भी रहते हैं ( पोगलपरियट्टेआयसमो पारेण आयभावे समोवरह, तदुभयसमोयारेणं तीतद्धा अणागतद्वासु समोर, आयभावे य: पुद्गल परिवर्त आत्मसमवतार की अपेक्षा अपने निजरूप में रहता है, तथा उभय समवतार की अपेक्षा से अतीतकाल अनागतकाल में रहता है । और आत्मभाव में भी
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नयुतांग, नयुत, प्रयुतांग, प्रयुत, यूसिभंग बिठा, शीर्ष अडेसिमंग, शीर्षપ્રહેલિકા પન્ચેાપમ સાગરાપમ, આ સમાંથી દરેકેદરેક આત્મસમવતારની अपेक्षाखे मात्भलाषभां वर्ते छे. (तदुभयस मोयारेणं ओसप्पिणी उसप्पिणीसु समोर आयभावे य) तेमन उलय सभवतारनी अपेक्षाये भा अधांत પેાતાની અપેક્ષાએ ગૃહપ્રમાણ સમ્પન્ન આગળ આગળના કાયવિભાગમાં વર્તે છે. તેમજ સાગરોપમ ઉત્સર્પિણી અને અવસર્પિણી કાળમાં પણ રહે છે. (ओसप्पिणी उछप्पिणीओ आयसमोयारेणं आयभावें, समोयरंति, तदुभय समो यारे पोग्गपरिट्टे समोयरंति आयभावे य) उत्सर्पिषी अवसर्पिषी आज આત્મસમવતારની અપેક્ષાએ આત્મભાવમાં રહે છે, અને ઉભયસમવતારની અપેક્ષાએ પુદ્ગલ પરિવતનમાં રહે છે, તેમજ પેાતાના નિજસ્વરૂપમાં પણ २३ छे. (पोगालपरियट्टे आयसमोयारेण आयभावे समोयरइ, तदुभयसमोयारेण तीतद्धा अगागतद्धासु समोयरइ, आयभावे य) युग परिवर्त आत्मसभवतावनी અપેક્ષાએ પેાતાના નિજ રૂપમાં રહે છે, તેમજ ઉભય સમયવતારની અપેક્ષાએ અતીતકાળ અનાગતકાળમાં રહે છે, અને આત્મભાવમાં પણ રહે છે.
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अनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र २४१ क्षेत्रसमवतारादीनां निरूपणम् ७२१ माह-स एष कालसमवतार इति। अथ भावसमवतारं निरूपयति । तत्र-अथ कोऽसौ भावसमवतारः ? इति शिष्यप्रश्नः। उत्तरयति-भावसमवतार:-भावस्यक्रोधादेः समवतारः आत्मसमवतारस्तदुभयसमवतारश्चेति द्विविधः प्रज्ञप्तः । तत्र -क्रोध आत्मसमवतारेण आत्मभावे समवतरति, तदुभयसमवतारेण-माने समयतरति आत्मभावे च । तथा-मानम् आत्मसमवतारेण आत्मभावे समवतरति, तदुरहता है । (तीतद्धा अणागतद्धाउ आयसमायारेण आयभावे समोय. रति, तदुभयसमायारेणं सव्वद्धाए समोयरति आयभावे य) अतीत काल और अनागत काल ये आत्मसमवतार की अपेक्षा आत्मभाव में रहते हैं, तथा उभय समवतार की अपेक्षा सर्वाद्धा काल में रहते हैं और आत्मभाव में भी रहते हैं। (से तं कालसमोयारे) इस प्रकार यह काल समवतार का विचार है । (से कि त भावसमोयारे) हे भद्त ! भाव समवतार क्या है ? (भावसमोयारे) क्रोधादिकषायों का जो समवतार है, वह भाव समवतार है। यह भाव समवतार (दुविहे पण्णत्ते) दो प्रकार का कहा है । (तं जहा) जैसे-(आयसमो. यारे तदुभयसमोयारे) आत्मसमवतार और तदुभय समवतार ! ( कोहे आयसमोयारेणं आयभावे समोयरह, तदुभयसमोयारेणमाणे समोयरइ, आयभावे य) क्रोध आत्मसमवार की अपेक्षा आत्मभाव में-निज में रहता है तथा उभय समवतार की अपेक्षा
(तीतद्धा अणागतद्धाउ आयसमोयारेण आयभावे समोयर ति, तदुभयसमोयारेणं सव्वद्धाए समोयरंति आयभावे य) मतीत मन मनोगत से । આત્મસમવતારની અપેક્ષા આમભાવમાં રહે છે, તેમજ ઉભય સમવતારની अपेक्षा सद्धि। मां २ छे, मने मामलामा ५५ २७ छ (से त कालसमोयारे) 21 प्रमाणे या ४ सभवताना पिया२ छे. (से कि त भावसमोयारे) : महत ! भा१ सभपता२ शुछ १ (भावसमोशरे) urla पायान २ सभवता२ छ, ते मावसभरतार छ, मा मावसभवता२ (दुविहे पण्णत्ते) में प्रारना अपामा मावस छे. (जहा) र (आयसमोयारे तदुभयसमोयारे) मामसभवता२ भने तहुमय समयता२ (कोहे आयसमोयारेणं आयभावे समोयरइ, तदुभयसमोयारेण माणे, समोयरइ, आयभावे य) ५ આત્મસમવતારની અપેક્ષા, આત્મભાવમાં-નિજમાં-રહે છે, તેમજ ઉભય
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URR
अनुयोगद्वारसूत्रे भयसमवतारेण तु मायायां समवतरति, आत्मभावे च। एवं-माया लोभादिषु चापि प्रत्येकम् आत्मसमवतारेण आत्मभावे समवतरति, तदुभयसमवतारेण उत्तरोतरस्मिन समवतरति आत्म भावे च । अत्र सूत्रकारः संग्रहणी गाथामाह-कोहो माण' इत्यादि । अयं भावः-औदयिकभावरूपत्वात् क्रोधादयो भावसमवतारेऽधि कृताः। तत्र-अहङ्कारमन्तरेग क्रोधो न भाति, प्रत्युत अहङ्कारवानेव क्रुध्यति, मान में भी रहता है । और निज में भी रहता है । (एवं माणे, माया, लोभे, रागे, मोहणिज्जे अट्ठकम्मपयडीओ आयसमोयारेणं आयभावे समोयरह तदुभयसमोयारेणं छबिहे भावे समोघरह आयभावे य) इसी प्रकार मान, लोभ, राग, मोहनीय, और अष्टकर्मप्रकृतियां ये प्रत्येक आत्मसमवतार की अपेक्षा अपने २ निज भाव में अवतरित होती है। तथा उभयसमवतार की अपेक्षा से मान का माया में और आत्मभाव में, माया का लोभ में तथा आत्मभाव में लोभ का राग में और आत्मभाव में, राग का मोह में तथा आत्मभाव में मोह का अष्टकर्म प्रकृतियों में एवं आत्मभाव में अष्टकमकृलियों का छह प्रकार के भावों में तथा आत्मभाव में समवतार होता है। यहां सूत्रकारने जो 'कोहो माणं इत्यादि गाथा कही है सो इसी अभिमाय को पुष्ट करने के लिये कही है । जिसका तात्पर्य यह है-कि क्रोधादिक औदारिक भावरूप हैं। इसलिये उन्हें भावसमवतार में गिना सभवतारनी अपेक्षा मानमा २ छे. मने निभा ५६ छ. (एव माणे, माया, लोभे, रागे, मोहणिज्जे अट्टकम्मपडीओ आयसमोयारेणं आयभावे समो. याति तदुभयसमोयारेणं छविहे भावे समोयरइ आयभावे य) मा प्रमाणे માન, માયા, લેભ, રાગ, મેહનીય અને અષ્ટકમ પ્રકૃતિએ આમાંથી દરેકે દરેક આત્મસમવતારની અપેક્ષાએ પિતપતાના નિજ ભાવમાં અવતરિત હેય છે. તેમજ ઉભય સમવતારની અપેક્ષાએ માનને માયામાં અને આત્મભાવમાં લેભને રાગમાં અને આત્મભાવમાં, રાગને મેહમાં તેમજ આત્મભાવમાં, મોહને અષ્ટ કમ પ્રવૃતિઓમાં તેમજ આત્મભાવમાં અષ્ટ કર્મપ્રકૃતિઓના ૨ પ્રકારના ભામાં તેમજ આત્માભાવમાં સમાવતાર હેય છે. અહીં સૂત્રકારે २ 'कोहो माण' त्याहि गाथा ४४ी छे ते मे मनिप्राय पुष्ट ४२१॥ માટે કહી છે. જેનું તાત્પર્ય આ પ્રમાણે છે કે-કોદિક ઔદયિક ભાવરૂપ છે, એથી તેમને ભાવ સમવતારમાં ગણવામાં આવેલ છે. અહંકાર વગર કોષ ઉત્પન થાય નહિ અહંકારી પ્રાણી જ ક્રોધ કરે છે,
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अनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र २४१ क्षेत्रसमवतारादीनां निरूपणम् ७३३ अतः क्रोधस्य उमयसमवतारेण माने समवतारो भवति आत्मभावे च । आत्म समवतारेण च आत्मभावे समवतरति । तथा-जीवः क्षपणकाले मानदलिकं मायायों पक्षिप्य क्षपयति, अतो मानस्य उभयसमवतारेण मायायां समवतार आत्मभावे च, आत्मसमवतारेण तु आत्म भावे । तथा-मायादलिक क्षपणकाले लोभे पक्षिप्य क्षपयतीति माया या उभयसमवतारेण लोभे समवतारः आत्मभावे च, आत्मसमवतारेण तु आत्मभावे समवतारः । एवमेव उभयसमवतारेण लोभस्य रागे गया है। अहंकार के विना क्रोध उत्पन्न नहीं होता है। अहङ्कारी प्राणी ही क्रोध किया करता है। इसलिये उभयसमवतार की अपेक्षा क्रोध का समवतार मान में कहा गया है और अपने निजरूप में भी कहा गया है । तथा आत्मसमवतार की अपेक्षा निजरूप में ही कहा गया है । क्षपक श्रेणी में आरूढ हुआजीव जिस समय मान का क्षय करने के लिये प्रवृत्त होता है, उस समय वह मान के दलिकों को माया में प्रक्षिप्त करके क्षय करता है। इसलिये उभयस. मवतार की अपेक्षा मान का माया में और अपने निज. रूप में भी समवतार कहा गया है । तथा आत्मसमवतार की अपेक्षा अपने निजरूप में ही समवतार कहा गया है। इसी प्रकार से माया के दलिकों को, क्षपणकाल में लोभ में प्रक्षिप्त कर क्षय करता है, इस. लिये माया का उभयसवतार की अपेक्षा लोभ में समवतार कहा गया है और आत्मभाव में भी समवतार कहा गया है । तथा आत्म. समवतार की अपेक्षा आत्मभाव में ही समवतार कहा है। इसी प्रकार
એથી ઉભય સમવતારની અપેક્ષાએ ક્રોધનો સમવતાર માનમાં કહેવામાં આવેલ છે અને પોતાના નિજ રૂપમાં પણ કહેવામાં આવેલ છે. તેમજ આત્મ સમવતારની અપેક્ષાએ નિજ રૂપમાં પણ કહેવામાં આવેલ છે. ક્ષપક શ્રેણમાં આરૂઢ થયેલ જીવ જેમ સમય માનના ક્ષમાથે પ્રવૃત્ત હોય છે, તે વખતે તે માનના દલિકોને માયામાં પ્રક્ષિત કરીને ક્ષય કરે છે. એથી ઉભય સમવતારની અપેક્ષા એ માનને માયામાં અને પિતાના નિજ રૂપમાં પણ સમાવતાર કહેવામાં આવેલ છે. તેમજ આત્મસમવતારની અપેક્ષાએ નિજ રૂપમાં જ સમવતાર કહેવામાં આવેલ છે. આ પ્રમાણે માયાના દલિ. કેને ક્ષપણ કાળમાં, લેભમાં પ્રક્ષિત કરીને ક્ષય કરે છે. એથી માયાને ઉભય સમવતારની અપેક્ષાએ લેભમાં સમાવતાર કહેવામાં આવેલ છે અને આત્મભાવમાં પણ સમાવતાર કહેવામાં આવેલ છે. તેમજ આત્મસમવતારની
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अनुयोगद्वारसूत्रे आत्मभावे च समवतारः, रागस्य च मोहनीय भेदत्वान्मोहे आत्मभावे च समव. वारः, मोहस्य कर्म भेदत्वादष्टम् कर्मप्रकृतिषु आत्मभावे च समवतारः, अष्टकर्म प्रकृतीनामौदयिकौपशमिकादि भाववृत्तित्वात् षट्सु भावेषु आत्मभावे च समवतारः । षड् मावानां जीवाश्रितत्वाद् जीवे समवतारः आत्मभावे च। जीवस्य च जीवास्तिकायभेदत्वात् जीवास्तिकाये समवतार आत्मभावे च । जीवास्तिकायस्य च द्रव्याश्रितत्वात् समस्तद्रव्ये समवतारः आत्मभावे च। आत्मसमवतारेण तु उभय समवतार की अपेक्षा लोभ का राग में और आत्मभाव में समवतार कहा गया है। तथा मोहनीय का भेद होने के कारण राग का मोहनीय में एवं आत्मभाव में समवतार कहा गया है। कर्मों का .भेदरूप होने के कारण मोह का अष्टकर्मप्रकृतियों तथा आत्मभाव में समवतार कहा है । अष्ट कर्मप्रकृतियों की औदयिक औपशमिक आदि भावो में प्रवृत्ति होने के कारण छह भावों में तथा आत्मभाव में समवतार कहा गया है । छह भाव जीशश्रित होते हैं, इसलिये इनका जीव में तथा आत्मभाव में समवतार कहा है । जीवास्तिकाय का भेद होने के कारण जीव का जीवास्तिकाय में और आस्मभाव में अवतार कहा है। जीवास्तिकाय का द्रव्याश्रित होने के कारण समस्तद्रव्य में और आत्मभाव में समयतार कहा है । तथा आत्मसमवतार की अपेक्षा तो इन लोभादिकों का समवतार भात्म भाव में ही जानना चाहिये। અપેક્ષાએ આત્મભાવમાં જ સમવતાર કહેવામાં આવેલ છે. આ પ્રમાણે ઉભય સમવતારની અપેક્ષાએ લેભને રાગમાં અને આત્મભાવમાં સમાવતાર કહેવામાં આવેલ છે. તેમજ મેહનીયને ભેદ હેવા બદલ રાગને મેહનીયમાં તેમજ આત્મભાવમાં સમાવતાર કહેવામાં આવેલ છે. કર્મ ભેદ રૂપ હોવા બદલ મોહને અષ્ટ કર્મપ્રકૃતિએ તેમજ આત્મભાવમાં સમવતાર કહેવામાં આવેલ છે. અષ્ટ કર્મ પ્રકૃતિએની ઔકયિક ઔપશમિક વગેરે ભાવમાં પ્રવૃત્તિ હોવા બદલ ૬ ભામાં તેમજ અત્મભાવમાં સમાવતાર કહેવામાં આવેલ છે. ૬ ભાવ જીવાશ્રિત હોય છે, એથી એમને જીવમાં તેમજ આત્મભાવમાં સમવતાર કહેવામાં આવેલ છે. જીવાસ્તિકાયને ભેદ હોવા બદલ જીવને જીવાસ્તિકાયમાં અને આત્મભાવમાં અવતાર કહેવામાં આવેલ છે. જીવાસ્તિકાય દ્રવ્યાશ્રિત લેવા બદલ સમસ્ત દ્રવ્યમાં અને આત્મભાવમાં સમવતાર કહેવામાં આવેલ છે. તેમજ આત્મસમવતારની અપેક્ષાએ તે આ લેભાદિકને સમાવતાર આત્મભાવમાં જ જાણવું જોઈએ, આ પ્રમાણે
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अनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र २४१ क्षेत्रसमवतारादीनां निरूपणम् ७२५ लोभादीनामात्मभावेऽपि समवतारो बोध्यः । तदेवं समस्तो भावसमवतारो निरू. पित इति सूचयितुमाह-स एष भावसमवतार इति । अत्रेदं बोध्यम्-अत्र सूत्रे हि विचारणीयत्वेनावश्यकं प्रस्तुतम् । तत्र सामायिकाघध्ययनानां क्षायोपशमिकभाव. रूपत्वात् पूर्वोक्ततेषु आनुपूर्वादिभेदेषु क समवतारो भवताति निरूपणीयमेव, इस प्रकार समस्त भावसमवतार निरूपित किया। इस बात को सूचित करने के लिये (से तं भावसमोयारे) ऐसा सूत्रकारने कहा है। (एवं छबिहे भावे, जीवे, जीवस्थिकाए आयसमोयारेणं आयभावे समोयरंति, तदुभय समोयारेणं सव्वादब्वेसु समोगरह आयभावे य) इस सूत्रपाठ का अर्थ पूर्वोक्तरूप से स्पष्ट ही हो जाता है । अतः इस का स्वतन्त्ररूप से अर्थ नहीं लिखा है । तात्पर्य तो इसका यही है कि छह प्रकार के भाव आत्मसमवतार की अपेक्षा निजस्वरूप में समवत. रित होते हैं और उभयसमवतार की अपेक्षा जीव में और आत्मभाव में समवतरित होते हैं । जीव का समवतार उभयसमवतार की अपेक्षा जीवास्तिकाय में और जीवास्तिकाय का समस्त द्रव्य में एवं आत्मभाव में समवतार होता है । यहां ऐसा समझना चाहिये
इस सूत्र में विचारणीय होने से आवश्यक प्रस्तुत हैं। उसमें सामायिक आदि अध्ययनों का क्षायोपशामक भावरूप होने से पूर्वोक्त आनुपूर्वी आदि भेदों में कहां २ समवतार होता है ?' ऐसा ही निरूपण સમસ્ત ભાવ સમવતાર નિરૂપિત કરવામાં આવે છે. આ વાતને સ્પષ્ટ ४२१॥ भाटे (से त' भावसमोयारे) मा प्रमाणे सूत्रारे ४यु छे. (एवं छविहे भावे, जीवे, जीवस्थिकाए, आयसमोयारेण आयभावे समोयरति तदुभय समोयारेणं सव्व दव्येसु समोयरइ आयभावे य) मा सूत्राने। A पूर्वात રૂપમાં જ સ્પષ્ટ થઈ જાય જ છે. એથી આને સ્વતંત્ર રૂપમાં અર્થ સ્પષ્ટ કરવામાં આવ્યું નથી આનું તાત્પર્ય એ જ છે કે ૬ પ્રકારના ભાવે આત્મ સમવતારની અપેક્ષાએ નિજ સ્વરૂપમાં સમવતરિત હોય છે અને ઉભય સમવતારની અપેક્ષાએ જીવમાં અને આત્મભ વમાં સમવતરિત હોય છે. જીવને સમાવતાર ઉભય સમવતારની અપેક્ષાએ જીવાસ્તિકાયમાં અને જીવાસ્તિકાયને સમસ્ત દ્રવ્યમાં તેમજ આત્મભાવમાં સમવતાર હોય છે. અહીં આ પ્રમાણે સમજવું જોઈએ.
આ સૂત્રમાં વિચારણય લેવા બદલ આવશ્યકે પ્રસ્તુત છે. તેમાં સામાયિક વગેરે અધ્યયન ક્ષાપશમિક ભાવરૂપ તેવા બદલ પૂર્વોક્ત આનુપૂવી વગેરે ભેદેમાં ક્યાં ક્યાં સમવતાર હોય છે? એવું જ નિરૂપણ
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अनुयोगद्वारसूत्रे शास्त्रकारमवृत्तरन्यत्र तथैव दर्शनात् । अत्र तु सामायिकाद्यध्ययनादीनां समवतारः सुखबोध्यत्वात् सूत्रकृता न प्ररूपितः, तथापि मन्दमतिबोधाय स किंचिभिरूप्यते । तत्र सामायिकम्-उत्कीर्तनविषयत्वात् उत्कीर्तनानुपूर्ध्या समयतरति । तथा गणनानुपूर्यामपि समवतरति । पूर्वानुपूा गण्यमानमिदं प्रथमम् , पश्चा. नुपूातु गण्यमानं षष्ठं भवति । अनानुपूा तु द्वयादि स्थानत्तित्वात् अनियत मिति पूर्वमेवोक्तम् । नाम्नि च औदयिकादीनां षणामपि भावानां समवतारः । करना योग्य था-क्योंकि शास्त्रकारों की प्रवृत्ति अन्यत्र ऐसी ही देखी जाती है । परन्तु यहां सूत्रकारने सामायिक आदि अध्ययनों का जो समवतार नहीं कहा है, उसका कारण यह है कि-'उनका समवतार सुखा. वयोध्य है। फिर भी मन्दमतिवाले शिष्यजनों को समझाने के लिये उस विषय में कुछ कहा जाता है-सामायिक उत्कर्तन का विषय होता है-इसलिये उसका समवतार उत्कीर्तनानुपूर्वी में होता है। तथा गणनानुपूर्वी में भी होता है। पूर्वानुपूर्वी से जय इसकी गणना की जाती है, तो यह प्रथम स्थान पर आता है और पश्चानुपूर्वी से इसकी . गणना की जाती है, तब यह छठे स्थान पर आता है। तथा जब इसकी गणना अनानुपूर्वी से की जाती है तब यह दूसरे आदि स्थानों पर आता है। अतः इसका स्थान नियत नहीं। यह बात हमने पहिले ही कह दी हैं। नाम में औदयिक आदि छहों भावों का समवतार होता है। કરવું યોગ્ય કહેવાય કેમકે શાસ્ત્રકારની પ્રવૃત્તિ અન્યત્ર આ પ્રમાણે જ જોવામાં આવે છે. પરંતુ અહીં સૂત્રકારે સામાયિક વગેરે અધ્યયનને જે સમવતાર કહેલ કથી, તેનું કારણ આ પ્રમાણે છે કે તેમને સમાવતાર સુખાવબેધ્ય છે છતાં એ મન્દબુદ્ધિવાળા શિને સમજાવવા માટે તે સંબંધમાં થે ડું કહેવામાં આવે છે. સામાયિક ઉત્કીર્તનનો વિષય હોય છે, એથી તેને સમાવતાર ઉત્કીર્તનપૂર્વીમાં થાય છે. તેમજ ગણનાનુપૂર્વમાં પણ હોય છે. પૂર્વાનુપૂર્વમાં પણ હોય છે. પૂર્વાપૂર્વાથી જ્યારે તેની ગણના કરવામાં આવે છે ત્યારે આ પ્રથમ સ્થાને આવે છે. અને જ્યારે પશ્ચાનુપૂર્વીથી ગણના કરવામાં આવે છે, ત્યારે આ છઠ્ઠા સ્થાન પર આવે છે. તેમાં જ્યારે આની ગણના અનાનુપૂવથી કરવામાં આવે છે, ત્યારે આ બીજા વગેરે સ્થાને પર આવે છે. એથી આનું સ્થાન આ અપેક્ષાએ અનિયત જ રહે છે, નિયત નહિ. આ વાત અમે પહેલાં જ સ્પષ્ટ કરી દીધી છે. નામમાં ઔદયિક વગેરે બધા ૬ ભાવેને સમવતાર હેય છે. આમાં સામાયિક અધ્યયન
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अनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र २४१ क्षेत्रसमवतारादीनां निरूपणम् ७२७ तत्र-सामायिकाध्ययनं श्रुज्ञानरूपत्वेन क्षायोपशमिकभाववृत्तित्वात् क्षायोपशमिकभावरूपे नाम्नि समवतरति । उक्तंच
'छबिह नामे भावे, खओवसमिए सुयं समोयरइ ।
जं सुयनाणावरणक्खओवसमयं तयं सन् ॥१॥ छाया-पविधनाम्नि भावे क्षायोपशमिके श्रुतं समवतरति ।
यत् श्रुतज्ञानावरण क्षायोपशमजं तकत् सर्वम् ॥इति।। द्रव्यादि भेदभिन्नस्य प्राइनिर्णीतस्य प्रमाणस्य भावप्रमाणनामके भेदे जीवभाव रूपत्वादिदं सामायिकं समातरति । उक्तंच
'दाइ चउम्भेयं पमीयए जेण तं पमाणति ।
इणमज्झयणं भावोत्ति भावपमाणे समोयरइ' । छाया-द्रव्यादि चतुर्भेदं प्रमीयते येन तत प्रमाणमिति ।
इदमध्ययनं भाव इति भावप्रमाणे समवतरति ॥इति। इसमें सामायिक अध्ययन श्रुत ज्ञानरूप होने से क्षायोगशमिक भाव में आता है । इसलिये उसका समवतार क्षायोपशमिक भावरूप नाम में होता है । उक्तंच छह प्रकार के नाम में क्षायोपमिक भाव में श्रुत का समवतार होता है । क्योंकि जितना भी श्रुतज्ञान होता है, वह सष श्रुतज्ञानावरणीय कर्म के क्षयोपशम से जन्य होता है जिसका वर्णन पहिले किया जा चुका है। ऐसे प्रमाण के जिसके द्रव्य आदि अनेक भेद हैं, भावप्रमाण नाम के भेद में यह सामायिक अध्ययन जीव का भावरूप होने के कारण समवतरित होता है। उक्त च-जिसके द्वारा वस्तुका वास्तविक स्वरूप जाना जावे उसका नाम प्रमाण है और वह प्रमाण द्रव्यादिक के भेद से चार प्रकार होता है। यह अध्ययन जीव का भावरूप है इसलिये भावप्रमाण में इसका समवतार होता है। भाव. મૂત્રજ્ઞાનરૂપ હોવા બદલ ક્ષાપશમિક ભાવમાં આવે છે એથી આનો સમવતાર ક્ષારોપથમિક ભાવરૂપ નામમાં હોય છે. ઉકતંગ ૬ પ્રકારના નામમાં ક્ષાપશમિક ભાવમાં શ્રતને સમવતાર થાય છે કેમકે જેટલું પણ શ્રુતજ્ઞાન હોય છે, તે બધું શ્રુતજ્ઞાનાવરણીય કર્મના ક્ષપશમથી જન્ય હૈય છે. જેનું વર્ણન પહેલાં કરવામાં આવેલ છે. એવા પ્રમાણના કે જેના દ્રવ્ય વગેરે ઘણા ભેદે હોય છે, ભાવ પ્રમાણ નામના ભેદમાં આ સામાયિક અધ્યયન જીવ ભાવરૂપ હોવા બદલ સમવતરિત થાય છે. ઉકતંચ જેના વડે વસ્તુના વાસ્તવિક સ્વરૂપનું જ્ઞાન થાય, તેનું નામ પ્રમાણ છે, અને તે પ્રમાણુ દ્રવ્યાદિકના ભેદથી ચાર પ્રકારનાં હોય છે. આ અધ્યયન જીવન
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भनुयोगद्वारस्ये भावपमाणं तु गुणप्रमाणनयपमाणसंख्याप्रमाणेति त्रिविधम् । तत्र-गुणप्रमाणसंख्याप्रमाणयोरेव समवतारो भवति, न तु नयप्रमाणे । यद्यपि-'आसज्ज उ सोयारं नए नवसारओ बूया' ___ छाया-आसाथ तु श्रोतारं नयान् नयविशारदो ब्रूगात, इत्यादि वचनात् क्वचिन्नयपमाणेपि नयसमवतार उक्तः, तथाऽपि सम्मात तथाविधनयविचारा. भावाद याथायन तदनवतार एव । उतंवाऽपि- मढनायं सुयं कालियं तु न नया समोयरंति इह' छाया-मूढनयिकं श्रुतं कालिकंतु न नयाः समवतरन्ति इह । तथा च-'मूहनयं तु न संपई नयप्पमाणावयारो से' छाया-मूढनयं तु न सम्प्रति नय प्रमाणावतारस्तस्य इति । गुणप्रमाणं तु जीवाजीवगुणभेदाद् द्विविधम् । तत्र प्रमाण गुणप्रमाण, नयप्रमाण, और संख्या प्रमाण इस प्रकार तीन प्रकार का है, सो इस अध्ययन का सनवतार गुणप्रमाण और संख्याप्रमाण इन दो में ही होता है । नय प्रमाण में नहीं । यद्यपि 'आसज्ज. उ सोयारं नए नयविसारओ बूया' इस वचन के अनुसार कहीं २ नय. प्रमाण में भी इसका समवतार कहा गया है, तो भी इस समय तथा. विधनय के विचार का अभाव होने से यथार्थतः उसमें इसका अनवतार ही जानना चाहिये। कहा भी है-'मूढनइयं सुयं कालियं तु न नया समोयरंति' अर्थात् आचाराङ्गादिक कालिकश्रुत मूढनयवाले, अर्थात नयरहित होने से उनमें नयों का समवतार नहीं होता है। तथा 'मूढनयं तु न संपह नयषमाणावयारो से इन प्रमाण से भी यही पुष्ट होता है कि--' नयरहित सामायिक अध्ययन का समवतार नयममाण में नहीं होता है। जीव और अजीव के गुणों के भेद से गुणप्रमाण दो प्रकार का होता है। सो इस सामायिक का ભાવરૂપ છે, એથી ભાવપ્રમાણમાં અને સમવતાર હોય છે, ભાવપ્રમાણ-ગુણપ્રમાણ, નયપ્રમાણ અને સંખ્યા પ્રમાણે આ પ્રમાણે ત્રણ પ્રકારનાં છે, એથી આ અધ્યયનને સમવતાર ગુણપ્રમાણ અને સંખ્યા પ્રમાણ આ બનેમાં થાય છે. नयप्रभामा नही-है "आसज्ज उ सोयार नए नयविसारओ बूया" अथात આ વચન મુજબ કઈક સ્થાને નયપ્રમાણમાં પણ આને સમાવતાર કહેવામાં આવેલ છે, છતાં એ આ સમયે તથાવિધ નયના વિચારને અભાવ હોવા બદલ યથાર્થતઃ તેમાં આને અનવતાર જ જાણ જોઈએ. કહ્યું પણ છે કે"मढनइय' सुर्य कालिय तु न नया समोयर'ति" अर्थात् माया કાલિદ્યુત મૂઢનયવાળા એટલે કે નય વિનાના હોવાથી તેમાં નાને सभवतार थी नथी. तभ०४ "मूढनय तु न संपइ नयप्पमाणावयारो
” આ બંને પ્રમાણેથી પણ આ પુષ્ટ થાય છે કે “સામાયિક અધ્યયનને સમાવતાર પ્રમાણમાં થતો નથી જીવ અને અજીવના ગુણેના ભેદથી ગુણપ્રમાણુ બે પ્રકાર હોય છે. એથી આ સામાયિક
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अनुयोगचन्द्रिका टीका सत्र २४१ क्षेत्रसमवतारादीनां निरुपणम ७९ द्विविधे गुणेप्रमाणे माणायिकस्य जोपयोग स्वात् जी ३८ लाणे मसनतारः। जीवगुणप्रमाणपि ज्ञानदर्शनचास्त्रिभेदैविविधम् । तंत्र सामारकम्य ज्ञानरूपत्वेन ज्ञानप्रमाणे समवतारो भवति । ज्ञानपमाणमपि प्रत्यक्षानुमानोपमानागमभेदेन चतुर्विधम् । तत्र सामायिकस्य आप्तोपदेशरूपत्वेनाममत्वात् आगमपमाणेऽन्तर्भावो भवति । आगमोऽपि लौकिको लोकोत्तरश्चेति द्विविधः, तत्र सामायिकस्य तीर्थकृत्प्रणीतत्वेन लोकोत्तरे समवतारः। लोकोत्तरोऽप्यागम आत्मागमानन्तरागमपरम्परागमभेदेन त्रिविधः। तत्र त्रिविधेऽप्यस्य समवतारो बोध्या। नामादिभेदमिन्ने संख्याप्रमाणेऽप्यस्य परिमाणसंख्यायां समवतारः । क्तव्य समवतार जीव का उपयोगरूप होने के कारण जीवगुणप्रमाण में हुआ है। जीव गुणप्रमाण भी ज्ञान, दर्शन और चारित्र के भेद से तीन प्रकार का कहा हुआ है, सो उसमें से इसका समवतार ज्ञानरूप होने के कारण ज्ञानप्रमाण में होता है। ज्ञानप्रमाण भी प्रत्यक्ष, अनुमान, आगम और उपमान के भेद से चार प्रकार का होता है-सो इस माम. यिक का आप्तोपदेशरूप होने के कारण आगम होनेसे आगम प्रमाण में अन्तर्भाव होता है। आगम भी लौकिक आगम और लोकोत्तर आगम के भेद से दो प्रकार का है-सो तीर्थंकरो द्वारा प्रणीत होने के कारण सामायिक का समवतार लोकोत्तर आगम में होता है। लोकोत्तर आगम भी आत्मागम अनन्तरोगम और परम्परागम के भेद से तीन प्रकार का है-सो इन तीनों प्रकार के आगम में इसका समवतार जानना चाहिये। संख्श-प्रमाण, नाम, स्थापना, द्रव्य, औपम्य, સમવતાર જીવને ઉગ રૂપ હવા બદલ અવગુણપ્રમાણમાં થયેલ છે. જીવ ગુણપ્રમાણ પણ જ્ઞાન, દર્શન અને ચારિત્રના ભેદથી ત્રણ રૂપમાં કહેવામાં આવેલ છે. તે તેમાંથી આને સમાવતાર જ્ઞાનરૂપ હવા બદલ જ્ઞાનપ્રમાણ હોય છે. જ્ઞાનપ્રમાણ પણ, પ્રત્યક્ષ, અનુમાન, અગમ અને ઉપમાનના ભેદથી ચ૨ રૂપમાં કહેવામાં આવેલ છે. તે આ સામાયિક આસ્તેપદેશ રૂપ હેવા બદલ આગમ હોવાથી આગમ પ્રમાણમાં અન્તર્ભાવ થાય છે. આગમ પણ લૌકિક આગમ અને લોકેત્તરના ભેદથી બે પ્રકારને હેય છે. તે તીર્થકરો વડે પ્રણીત હોવા બદલ સામાયિકનો સમવતાર લોકોત્તર આગમમાં થાય છે. લેકોત્તર આગમ પણ આત્માગમ, અનન્તરાગમ અને પરમ્પરાગમના બે થી ત્રણ પ્રકારના હોય છે, તે આ ત્રણે પ્રકારના આગમમાં આને સમાવતાર જાણવું જોઈએ. સંખ્યા પ્રમાણે નામ, સ્થાપના
अ० ९२
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अनुयोगद्वारस्त्रे सायाम प इदं स्वसमयवक्तव्यताशं समवतरति । यत्रापि परोभयवर्णन तत्रापि निश्चयतः स्वप्समयवक्तव्यतैव, सम्पष्टि परिगृहीतत्वेन परोमयसमययोरपि स्व समयत्वात् । सम्पदृष्टिस्तु परसमयमपि स्वविषयविभागेनैव योजयति, नत्वेका. नपक्षमालम्बते, अतः सम्यग्दृष्टिपरिगृहीतः सर्वोऽपि स्वसमय एव भवति । सतश्च वस्तुत्या सर्वाध्ययनानामपि स्वसमयवक्तव्यतायामेव समवतारः। उक्तंचापि परिमाण, ज्ञान, गणना और भाव के भेद से आठ प्रकार का कहा है-से इसका अन्तर्भाव यहां पांचवे परिमाण संख्याप्रमाण में हुआ है । वक्तव्यता भी तीन या दो तरह की कही गई है सो उसमें भी इसका समवतार स्वसमयवक्तव्यता में हुआ है। जहां परोभयातव्यता का वर्णन है, सो वे दोनों प्रकार की वक्तव्यताएँ भी निश्चयनय की मान्यतानुसार नहीं है । उसकी मान्यतानुसार तो केवल एक स्वसमय वक्तव्यता एवं तदुभयवक्तव्यता ये दोनों भी जब सम्यग्दृष्टि जीव द्वारा परिगृहीन हो जाती है, तब ये स्वसमयवक्तव्यतारूप ही बन जाती हैं। क्योंकि सम्यग्दृष्टि जीव परसमय को भी स्वसमय के अनुरूप ही समझ कर समझाता है। एकान्त पक्ष का अवलम्बन वह नहीं करता है किन्तु स्यावाद की मुद्रा से उन्हें मुद्रित कर अपनी योग्यतानुसार अभिप्रेतार्थ साधक बनाता है । इसलिये सम्यग्दृष्टि द्वारा परिगृहीत समरत विषय भी स्वसमयरूप ही होता है। अतः समस्त अध्ययनों का अवतार वस्तुवृत्त्या स्वसमयદ્ર, ઔપમ્ય પરિમાણ, જ્ઞાન ગણના અને ભાવના ભેદથી આઠ પ્રકારનું કહેવામાં આવેલ છે. આને અન્તર્ભાવ પણ ત્યાં પરિમાણ સંખ્યા પ્રમાણમાં થયેલ છે. વક્તવ્યતા પણ ત્રણ કે બે પ્રકારની કહેવામાં આવેલ છે, તો તેમાં પણ આને સમાવતાર સ્વસમય વકતવ્યતામાં થયેલ છે. જ્યાં પરેભય વકતવ્યતાનું વર્ણન છે, તે તે બનને પ્રકારની વકતવ્યતાઓ પણ નિશ્ચયનયની માન્યતા મુજબ નથી. તેની માન્યતા મુજબ તે ફક્ત એક સ્વસમયવકતવ્યતા જ છે. પરસમય વકતવ્યતા અને તદુભયવકતવ્યતા એ બને પણ જ્યારે સમ્યગદષ્ટિ જીવ વડે પરિગૃહીત થાય છે, ત્યારે એ સ્વસમય વકતવ્યતા રૂપ જ થઈ જાય છે. કેમકે સમ્યગદષ્ટિ જીવ પરસમયને પણ સ્વસમયના અનુરૂપ જ સમજે છે. તે એકાંત પક્ષનું અવલંબન ગ્રહણ કરતું નથી પરંતુ સ્વાસ્વાદની મુદ્રાથી તેમને મુદ્રિત કરીને પિતાની યેગ્યતા મુજબ અભિપ્રેતાર્થ સાધક બને છે. એથી સમ્યગ દષ્ટિ વડે પરિગૃહીત સમસ્ત વિષય પણ સ્વસમરૂપ જ હોય છે. એથી સર્વ અધ્યયને અવતાર વસ્તુ નૃત્ય સ્વસમય વકતવ્યતામાં જ થાય છે. ઉકતંચ
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अनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र २४२ निक्षेपद्वारनिरूपणम्
'परसमो उभयं वा, सम्मदिहोस्स ससपो जेणं ।
तो सम्पज्झ यणाई, ससमयवत्तव्वया निययाई॥ छाया--परसमय उभयं वा सम्यग्दृष्टेः स्वसमयो येन ।
___ ततः सर्वाध्ययनानि स्वसमयवक्तव्यतानियतानि ॥इति। एवं चाविंशतिस्तत्रादिति विभावनी मिनि । इत्थं सभेदः समवतारो निरूपित इति सूचयितुपाह-स एप समातार इति । इत्थं सभेद उपक्रमो निरूपित इति सूचयितुमाह-स एप उपक्रम इति । इत्थं च उपक्रमनापकं प्रथमं द्वारं निरूपितमिति मुवयितुमाह-उपक्रम इ'ने प्रशमं द्वारं समाप्तमिति ॥मू० २४१॥
अथ निक्षेपद्वारं निरूपयति
मूलम्-से किं तं निक्खेवे ? निक्खेवे-तिविहे पण्णत्ते, तं जहा-ओहनिप्फपणे नामनिप्फण्णे सुत्तालावगनिप्फणे। सेकिं तं ओहनिफागे? ओहनिफाणे चउबिहे पण्णत्ते, तं जहा-अनवणे अज्झीगे आए खवणा। से किं तं अज्झयणे? अज्झयणे चउबिहे पण्णत्ते, तं जहा-णामज्झयणे ठवणज्झयणे वक्तव्यता में ही होता है । उक्त च-जिस कारण परसमय और तदुभय से ये सब सम्पदृष्टि के स्वसमय है, इसी कारण समस्त अध्ययन स्वसमय वक्तव्यता में नियत हैं । इसी प्रकार से चतुर्विशतिस्तव
आदिकों में भी समवतार का विचार कर लेना चाहिये। इस प्रकार सभेदसमवतार का वर्णन किया इसके वर्णन होने पर सभेद उपक्रम का वर्णन पूर्ण हो जाता है । इस प्रकार उपक्रम नामक इस प्रथम द्वार का वर्णन समाप्त हो चुका । यही बात सूत्रकारने (से तं उवक्कमे उव. क्कम इइ पढमं दारं) इस सूत्र पाठ द्वारा प्रदर्शित की है ॥ सू० २४१॥ જે કારણથી પરસમય અને તદુભાય આ બધા સભ્યર્દષ્ટિના સ્વસમય છે તે કારણથી જ સમસ્ત અધ્યયન સ્વસમય વકતવ્યતામાં નિયત છે –આ પ્રમાણે ચતુર્વિશતિ સ્તવ અદિકમાં પણ સમવતાર વિષે વિચાર કરી લે જોઈએ આ પ્રમાણે સભેટ સમવતારનું વર્ણન કરવામાં આવેલ છે, આ વર્ણનથી સભેદ ઉપકમનું વર્ણન પણ પૂર્ણ થઈ જાય છે. આ પ્રમાણે ઉપ
मनाम मा प्रथमदानु वन समाप्त युछे. मेवात सूत्र (से त उसकमे उवक्कम इइ पढमदार) मा सूत्र 48 43 प्रहशत री छ ।सू. २४१॥
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७३२
अनुयोगद्वारसूत्र दबज्झयणे भावज्झयणे। णामढवणाओ पुवं वणियाओ। से किं तं दवज्झयणे ? दवज्झयणे-दुविहे पण्णत्ते, तं जहाआगमओय णो आगमओ य । से किं तं आगमओ दवज्झयणे? आगमओ दवज्झयणे--जस्स पं अज्झयणत्तिपयं सिक्खियं ठियं जियं मियं परिजियं जाब एवं जावइया अणुवउत्ता आगमओ तावइआई दवज्झयणाई। एवमेव ववहारस्सवि। संगहस्त णं एगो वा अणेगो वा अणुवउत्तो वा अणुव उत्ता वा आगमओ दवज्झयणं दवज्झयणाणि वा से एगे दवज्झयणे। उज्जुसुयस्स एगो अणुव उत्तो आगमओ एकं दवज्झयणं पुहुत्तं नेच्छइ, तिण्हं सदनयाणं जागए अणुवउत्ते अवत्थु कम्हा ? जइ जाणए अणुव उत्ते न भवइ जइ अणुवउत्ते जाणएणं भवइ, तम्हा णत्थि आगमओ दवज्झयणं । से तं आगमओ दवज्झयणे। से किं तं णो आगमओ दवज्झयणे? णो आगमओ दवज्झयणे-तिविहे पण्णत्ते, तं जहा-जाणयसरीरदवज्झयणे भवियसरीरदवज्झयणे जाणयसरीरभवियसरीरवइरित्ते दवज्झयणे। से किं तं जाणयसरीरदवज्झयणे? जाणयसरीरदवज्झयणे-अज्झयणपयस्थाहिगारजाणयस्त जं सरीरयं ववगय चुयचावियचत्तदेहं जीवविप्पजढं सिज्जागयं वा संथारगयं वा निसीहियागयं वा सिद्धसिलातलगयं वा पासित्ताणं कोई भणेज्जा अहो! णं इमेणं सरीरसमुस्सएणं जिणदितुणं भावेणं अज्झयणेत्तिपयं आघवियं पण्णवियं परूवियं दसियं निदंसियं उव
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अनुयोगन्द्रिका टीका सूत्र २४२ निक्षेपद्वारनिरूपणम्
७३३ दसियं, जहा को दिटुंनो? अयं घयकुंभे आसी, अयं महुकुंभे आसी। से तं जाणयसरीरदवज्झयणे। से किं तं भवियसरीर. दवज्झयणे? भवियसरीरदबज्झयणे जे जीवे जोणिजम्मणनिक्खंले इमेणं चेव आदत्तएणं सरीरसमुस्सएणं जिणदिट्रेणं भावेणं अज्झयणेत्तिपयं सेयकाले सिक्खिस्सइ न ताव सिक्खइ, जहा को दिलुतो? अयं महुकुंभे भविस्तइ अयं घयकुंभे भविस्तइ। से तं भवियसरीरदवज्झयणे। से किं तं जायणसरीरभवियसरीरवइरिते दवझयणे ? जाणयसरीरभवियसरीरवइरिते दवज्झयणे -पत्तयपोत्थयलिहिय। से तं जाणयसरीरभवियसरीरवइरित्ते दवज्झयणे।से तं णो आगमओ दवज्झयणे । से तं दत्वज्झयणे। से किं तं भावज्झयणे ? भावज्झयणे-दुविहे पण्णत्ते, तं जहाआगमओ य, णो आगमओ य। से किं तं आगमओ भावज्झयणे? आगमओ भावज्झयणे-जाणए उववत्ते। से तं आग: मओ भावज्झयणे। से किं तं नो आगमओ भावज्झयणे ? नो आगमओ भावग्झयगे-अज्झव्यस्सागयणं कम्माणं अवचओ उवधियाणं, अणुवचओ य नवाणं तम्हा अज्झयणमिच्छंति॥१॥ से तं णो आगमओ भावज्झयणे। से तं भावज्झयणे, से तं अज्झयणे ॥सू० २४२॥
छाया--अथ कोऽसौ निक्षेपः ? निक्षेपः-त्रिविधः प्रज्ञप्तः, तद्यथा-ओघ निष्पन्नः नामनिष्पन्नः सत्रालापकनिष्पन्नः । अथ कोऽसौ ओघनिष्पन्नः ? ओघ. निष्पन्नः-चतुर्विधः प्रज्ञप्तः, तद्यथा-अध्ययनम् अक्षीणम् आयः क्षपणा । अथ किंतत् अध्ययनम् ? अध्ययन-चतुधिं प्रज्ञप्तं, तद्यथा-नामाध्ययन स्थापनाध्ययन द्रव्याध्ययन भावाध्ययन । नामस्थापने पूर्व वर्णिते । अथ किंतत् द्रव्याध्ययन?
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७३४
अनुयोगद्वारस्त्रे द्रव्याध्ययन द्विविधं प्रज्ञप्तं, तद्यथा-आगमतश्च नो आगमतश्च । अथ किं तत् आग. मतो द्रव्याध्ययनम् ? आग मतो द्रव्याध्ययन-यस्य खलु अध्ययनमिति पदं शिक्षित स्थितं जितं मितं परिजितं यावत् एवं यावन्त अनुपयुक्ताः तावन्ति आगमतः द्रव्याध्ययनानि । एवमेव व्यवहारस्यापि । संग्रहस्य खलु एको वा अनेको वा अनुयुक्तोवा अनुपयुक्ता वा आगमतः द्रव्याध्ययनं द्रव्याध्ययनानि वा, ततू एक द्रव्याध्ययनम् । ऋजुसूत्रस्य एकोऽनुपयुक्त आगमतः एक द्रव्याध्ययन पृथक्त्वं नेच्छति, त्रयाणां शब्दनयानां ज्ञायकः अनुपयुक्तः अवस्तु । कस्मात् ? यदि ज्ञायकः अनुपयुक्तो न भवति, यदि अनुपयुक्तो ज्ञायको न भवति, तस्मात् नास्ति आगमन द्रव्याध्ययनम् । तदेतत् आगमतो द्रव्याध्ययनम् । अथ किं तत् नो आगमतो द्रव्यापनम् ? नो आगमतो द्रव्याध्ययन त्रिविधं प्रज्ञ, तद्यथा ज्ञायकशरीरद्रव्याध्ययन भविकशरीरद्रव्याध्ययन ज्ञायफशरीरभविकशरीरव्यतिरिक्तं द्रवाध्ययनम् । अथ किं तत् ज्ञायकशरी'द्रव्याध्ययन ? ज्ञायकशरीरद्रव्याध्ययनम्-अध्ययनपदार्थाधिकारज्ञायकस्य यत् शरीरकं पपगतचुतच्यावितल्यक्तदेहे जीव विप्रत्यक्तं शरयागतं वा संस्कारगतं वा निषेधिकागतं वा सिद्धशिलातलगतं वा दृष्ट्वा खल कोऽपि भणेत्, अहो ! खलु अनेन शरीरसमुच्छ्रयेण जिनदृष्टेन भावेनअध्ययनमिति पदम् आख्यातं प्रज्ञापितं प्ररूपितं दर्शितं निदर्शित उपदर्शितम् , यथा को दृष्टान्तः ? अयं घृतकुम्भ आसीत्, अयं मधुकुम्भः आसीत् , तदेतत् ज्ञायकशरीर द्रव्याध्ययनम् । अथ किं तत् भविकशरीरदव्याध्ययनम् ? भविक शरीरद्रव्याध्ययनम् यो जीवो योनिजन्मनिष्क्रान्तः अनेना आदराकेन शरीरसमु. च्छ्रयेण जिनदृष्टेन भावेन अध्ययनमिति पदं एष्यकाले शिक्षिष्यते न तावत् शिक्षते, यथा को दृष्टान्तः ? अयं मधुकुम्नो भविष्यति अयं घृतकुम्भो भविष्यति । तदेतत् भविकशरीरद्रव्याध्ययनम् । अथ किं तत् ज्ञायकशरीरभविकशरीव्यतिरिक्त द्रध्याध्ययनम् ? ज्ञापकशरीरभविकशरीव्यतिरिक्तं द्रव्याध्ययन-पत्रकपुस्तक लिखितम् । तदेतद् ज्ञायकशरीरमविकशरीरव्यतिरिक्त द्रव्याध्ययनम् । तदे तद् नो आगमतो द्रव्याध्ययनम् । तदेतद् द्रव्याध्ययनम् । अथ किं तत् भावाध्ययनम् ? मावाध्ययनम्-द्विविधं प्रज्ञप्तं, तद्यथा आगमतश्च नो आगमतश्च । अथ कि तत् आगमतो भावाध्ययनम् ? आगमतो भावाध्ययन-ज्ञायकः उपयुक्तः। तदेतत् आगमतो भावाध्ययनम् । अथ किं तद् नो आगमतो भावाध्ययनम् ? नो आगमतो भावाध्ययनम्-अध्यात्मन आयन कर्मणामपचयः उपचितानाम् , अनुपचयश्च नवानां तस्मात् अध्ययनमिच्छन्ति ॥१॥ तदेतत् नो आगमतो भावाध्ययनम् । तदेतद् भावाध्ययनम् । तदेतत् अध्ययनम् ॥२४२।।
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अनुयोगवन्द्रिका टीका सत्र २४२ निक्षेपद्वारनिरूपणम् टोका- 'से कि तं' इत्यादि
अथ कोऽसौ निक्षेपः ? इति शिष्यप्रश्नः। उत्तरयति निक्षेपः-पूर्वाभिहितार्थः सः ओघनिष्पनो नामनिष्पन्नः सूत्रालापकनिष्पनश्चेति त्रिविधः । एषामर्थ एवं बोध्यः-ओघः श्रुताभिधान सामान्यमध्ययनादिक, तेन निष्पन्नः-ओघनिष्पन्नः। नाम-श्रुतस्यैव सामायिकादिविशेषाभिधान, तेन निष्पन्नो नामनिष्पन्नः । मूत्रालापकाः 'करेमि भते ! सामाइयं' इत्यादिका स्तनिष्पन्न =मूत्रालापकनिष्पन्न
अब मूत्रकार निक्षेपद्वार का निरूपण करते हैं'से किं तं निक्खे' इत्यादि ।
शब्दार्थ-(से कि त निक्खेवे ) हे भदन्त ! वह पूर्वप्रक्रान्त निक्षेप क्या है ?
उत्सर-निक्षेप का शब्दार्थ तो पहिले ही कह दिया गया है। (निक्खे निविहे पण्णत्ते) अतः पूर्व अभिहित अर्थवाला वह निक्षेप तीन प्रकार का कहा गया है । (तं जहा) जैसे-(ओहनिप्फण्णे नामनि फणे सुत्तालावगनिफण्णे) ओघनिष्पन्न, नाम निष्पन्न, सूत्रालापक निष्पन्न । इनका अर्थ इस प्रकार से हैं-श्रुतनामक सामान्य अध्ययन
आदि से जो निक्षेप निष्पन्न होता है, वह निक्षेप ओघनिष्पना है। श्रुन के हो सामायिक आदि विशेषनामों से जो निक्षेप निष्पन्न होता है, वह निक्षेप नामनिष्पन्न है। 'करेमि भंते सामाइय' इत्यादि सूत्रालापकों से जे। निक्षेप निष्पन्न होता है, वह सूत्रालापक निष्पन्न निक्षेप है। (से किं तं ओह निफण्णे ? ) हे भदन्त ! ओघनिष्पन्न निक्षेप क्या है।
'से किं तं निक्खे' त्याह। शहाथ--(से कि तं निवखेवे, मत! ते ५ . ५ शु !
ઉત્તર--નિક્ષેપને શબ્દાર્થ તે પહેલાં સ્પષ્ટ કરવામાં આવેલ જ છે. (निक्खेवे तिविहे पण्णत्ते) मेथी पूर्व ममिडित मकान मा नि५ त्रय प्रार। अपामा मावत छ. (तं जहा) २ (ओहनिप्फण्णे, नामनिष्फण्णे सुत्तालावगनिष्कण्णे) मे घनिष्पन्न, नामनि०पन्न सूत्रालाप नियन्न, माने। અર્થ આ પ્રમાણે છે. શ્રુત નામક સામાન્ય અધ્યયન આદિથી જે નિક્ષેપ નિષ્પન્ન થાય છે, તે નિક્ષેપ નિષ્ણન છે. શ્રુતના જ સામાયિક વગેરે વિશેષ नामाथी २ नि०५-डाय छ, तनि५ नाम नि०५-न छ. 'करेमि भंते सामाइयं' ઈત્યાદિ સૂવાલાપકેથી જે નિક્ષેપ નિષ્પન્ન થાય છે. તે સૂવાલાપક નિપાન निः५ छे. (से किं तं ओहनिप्पण्णे) हे महन्त ! माघनिष्पन्न निक्ष५ शुछ ?
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मनुयोगद्वारसूत्रे इति ! तत्र- ओघनिष्पन्न:-अध्ययनम् , अक्षीणम् , आया, क्षपणा, इति चतुर्विधः । अध्ययनादीनि चत्वार्य पि सामायिकचतुर्तिशतिस्तवादीनां श्रुअविशेषाणां सामान्याभिधानानि । तथाहि-यदेव सामायिकम् अध्ययनमित्युच्यते तदेव अक्षीणं, तदेव आयः, तदेव क्षपणा चेति । एवं चतुर्विंशतिस्तवादिष्वपि बोध्यम् तत्र अध्ययन नामाध्ययनस्थापनाध्ययनद्रव्याध्ययनभावाध्ययनेति चतुर्विधम् । तत्र नामाध्ययनस्थापनाध्ययनद्रव्याध्ययनानि नामावकस्थापनावश्यकद्रव्या.
उत्तर-(ओहनिष्फपणे च उबिहे पण्णत्ते ) ओघनपनिक्षेप चार प्रकार का होता है-(तं जहा) जैसे -(अन्झयणे अज्झीणे, पाए, खवणा) अध्ययन, अक्षीण, आय, क्षपणा । ये अध्ययन आदि चारों भी सामायिक, चतुर्विशतिस्तव आदिरूप जो श्रुनविशेष हैं, उनके सामान्य नाम हैं। जैसे जो सामायिक अध्ययन कहलाता है वही अक्षीण, वही आय, और वही क्षपणो कहलाता है। इसी प्रकार से चतु. विंशतिस्तव आदिकों में भी जानना चाहिये । (से कितं अज्झयणे ?) हे भदन्त ! वह अध्ययन क्या है ?
उत्तर-(अज्झयणे चउबिहे पणत्त) अध्ययन चोर प्रकार का कहा गया है । (नं जहा) आहे-गामायणे, ठवणज्यणे, दवज्झ. यणे, भावज्झयणे नाम अध्ययन, स्थापना अध्ययन, द्रव्य अध्ययन और भाव अध्ययन । इनमें (णामवणामो पुव्वं वणियाओ) नाम
उत्तर--(ओहनिष्फण्णे चउबिहे पण्णत्ते) सोधनियन GA५ यार प्रारना डाय छे. (त' जहा ) मते (अज्झयणे, अज्झीगे, आए, खवणा' અધ્યયન, અક્ષીણ, આય અને ક્ષ પણ આ અધ્યયન વગેરે ચારે ચાર પણ સામાયિક, ચતુર્વિશતિસ્તવ વગેરે રૂપ જે કૃત વિશેષે છે, તેના સામાન્ય નામે
છે. જેમ કે જે સામાયિક અધ્યયન કહેવામાં આવે છે. તે જ અક્ષણ, તેજ આય અને તેજ ક્ષ પણ કહેવાય છે આ પ્રમાણે ચતુર્વિશતિતવ આદિમાં by onea न (से किं तं अज्झयणे) 3 महन्त ! ते अध्ययन शुछ ?
उत्तर-(अज्झयणे चउम्विहे पण्णत्ते) अध्ययन। यार प्रन वामां साया छे. (तं जहा) म है (णामज्झयणे, ठवणज्झयणे दबज्झयणे, भावज्झणे) નામઅધ્યયન, સ્થાપના અધ્યયન દ્રવ્ય અધ્યયન. અને ભાવઅધ્યયન આમાં (णामढवणाओ पुत्वं वणियाओ) नाम मध्ययन भने स्थापना अध्ययन नाम
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अनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र २४२ निक्षेपद्वारनिरूपणम्
.७३७
अध्ययन और स्थापना अध्ययन नाम आवश्यक और स्थापना आबइयक के जैसा ही जानना चाहिये । (से किं तं दध्वञ्झयणे ? ) भदन्त ! द्रव्य अध्ययन का क्या स्वरूप है ?
उत्तर- (दव्वज्झणे दुविहे पण्णत्ते) द्रव्य अध्ययन दो प्रकार का कहा गया है । ( तं जहा ) जैसे (आगमओ य णा आगमओ य ) एक आगम से और दूसरा नो आगम से (से किं तं आगमओ दव्वज्झयणे ?) हे भदन्त ! आगम से जो द्रव्य अध्ययन कहा गया है उसका क्या स्वरूप है ?
उत्तर-- (आगमओ दव्वज्झयणे) आगम से जो द्रव्य अध्ययन कहा गया है, वह इस प्रकार से है - ( जस्स णं अज्झयण त्ति पयं सिविखयं ठियं, जियं मियं परिजियं, जाव एवं जावइया अणुवउत्ता आगमओ तावइआई द०ज्झयणाइं) जिसने अध्ययन इस पद को सीखा हैं, अपनी आत्मा में स्थित जित आदिरूप से किया है । (इन स्थित आदि पदों का स्पष्ट अर्थ व्यावश्यक प्रकरण में लिखा जा चुका है ) परन्तु उस जीव का उपयोग वहां नहीं लगा है। इस प्रकार जितने भी अनुपयुक्त जीव हैं, वे सब आगम से द्रव्य अध्ययन हैं । ( एवमेव वयहारस्स वि, संगहस्स णं एगो वा अणेगेो वा ) यहाँ से लेकर (से तं
कित
આવશ્યક અને સ્થાપના આવશ્યકની જેમ જ लगुवा. दव्यणे १ ) से लहंत ! द्रव्य अध्ययननु स्व३५ वु छे ?
उत्तर-- (दव्वज्झणे दुविहे पण्णत्ते) द्रव्य अध्ययन से अमर डेवाभां भावे छे. (तं जहा प्रेम है ( आगमओ य णो आगमओ य) खेड यागभथी गाने द्वितीय ने भागभथी (से किं तं आगमओ) डे लहांत ! आगमथी દ્રવ્ય અધ્યયન કહેવામાં આવેલ છે, તેનુ સ્વરૂપ કેવુ છે?
उत्तर- (आगमओ दव्वज्झयणे ) भागमथी ने द्रव्य अध्ययन हेवाभां मावेस छे, ते या प्रभा छे - (जस्स ण अज्झयणत्ति पयं सिक्खियं ठियं जियं मियं, परिजिय जाव एवं जावइया, अणुवउत्ता, आगमओ तावइआइ दव्व ज्यणाई) ने अध्ययन या पहने शोच्यो है, पोताना आत्मामा स्थित જિત વગેરે રૂપમાં કરેલ છે, (આ સ્થિત વગેરે પદોના સ્પષ્ટ અથ દ્રવ્યાવશ્યક પ્રકરણમાં લખવામાં આવેલ છે) પરંતુ, તે જીવના ઉપચાગ ત્યાં બધ એસતા નથી. આ પ્રમાણે જેટલા અનુપયુકત જીવે છે, તે સર્વે આંગभथी द्रव्य अध्ययन छे, (एवमेव ववहारख वि, संगहस्य णं एगो वा अणेगोवा) अ० ९३
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अनुयोगद्वार वश्यकबद् बोध्यानि । भावाध्ययनमपि आगमतो-नो आगमतो-भेदेन द्विविधम् । तत्र आगमतो भावाध्ययनम्-ज्ञायक उपयुक्तो भवति । अस्यार्थस्तु-आगमतो भावावश्यकवद् बोध्यः। नो आगमतो भावाध्ययन तु एवं विज्ञेयम् , तदेवाह
दव्यज्झयणे) यहां तक का समस्त सूत्रपाठ द्रव्यावश्यक के जैसा ही भावित कर लेना चाहिये। विस्तार पूर्वक वहां समस्त पदों का अर्थ लिखा जा चुका है। (से कि त भावज्झयणे?) हे भदन्त ! भाव अध्ययन का क्या स्वरूप है ?
उत्तर--(भावज्झयणे दुविहे पण्णत्ते) भाव अध्ययन दो प्रकार का कहा गया है। (तं जहा) जैसे आगमओ या आगमओ य) एक आगम से और दूसरा ना आगम से । (से किं तं आगमओ भावज्झ. यणे ?) हे भदन्त ! आगम से भाव अध्ययन का क्या स्वरूप है ? (आगम भावज्झयणे)
उत्तर--आगम से भाव अध्ययन का स्वरूप इस प्रकार से है(जाणए उववत्ते) जो ज्ञायक होता है, वह उसमें उपयुक्त हो तब आगम से भावअध्ययन कहा जाता है। इसका खुलाशा अर्थ आगम से भावावश्यक के जैसा ही जानना चाहिये । (से तं आगमओ भावज्झयणे) इस प्रकार यह आगम की अपेक्षा लेकर भावअध्ययन
महिथी भांडी (से तं दत्वज्झयणे) अलि सुधान। समस्त सूत्र५४ द्रव्याવસ્થાની જેમ જ ભાવિત કરી લેવું જોઈએ. ત્યાં સમસ્તપદોને અર્થ વિસ્તાર ५४ awali मा०ये। छे. (से किं तं भावज्झयणे १) ३ मत ! बाप અધ્યયનનું સ્વરૂપ કેવું છે?
उत्तर-(भावज्झयणे दुविहे पण्णत्ते) मा अध्ययन में प्रश्न वामi मावत छ. (तं जहा) २४ (आगमओ य णो आगमओ य) मे भागमा सन द्वीतीय नो भागमयी (से किं तं आगमओ भावज्झयणे ?) 3 महत! भागमथी मा अध्ययनर्नु ५१३५ बुंछ ? (आगमनो भावज्झणे) उत्त२-मासभथी मा ५ध्ययनk २१३५ छ१ (आगमओ भावज्झयणे)
उत्तर-मासमयी मा माश्यउनु २१३५ मा प्रभारी छे. (जाणए उववत्ते) २ ज्ञ.43 14 छे, ते तमा ५युत डाय त्यारे सामथा मार અધ્યયન કહેવામાં આવે છે. આને સ્પષ્ટ અર્થ આગમથી ભાવાવશ્યકની भर on a न . (से तं आगमओ भावज्झयणे) प्रभाये
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अनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र २४२ निक्षेपद्वारनिरूपणम् 'अज्झप्पस्साणयणं' इत्यादि । 'अज्झप्पस्स आणयणं-अज्झयणं' अत्र-निरूक्तविधिना माकृतविधिना वा 'प' कारस्य ‘स्स'कारस्य 'आ' कारस्य 'ण' कारस्य चलोपे 'अज्झपण' इति सिध्यति । अध्यात्म चित्तम् , तस्यानयनम्-अध्ययन मिति भावः। सामायिकाद्यध्ययने शोभनं चित्तमानीयते, सति च शोभने चित्तेऽशुभकर्मबन्धा का अर्थ है । (से कितने। आगमओ भावज्झयणे) हे भदन्त ! नो आगम से भाव अध्ययन का क्या स्वरूप है ?
उत्तर--(नो आगम मो भावज्झयणे-अज्झप्पस्साणयणं कम्मार्ण अवचओ, उचियाणं अणुवचओ य नवाणं, तम्हा अज्झयणमिच्छंति१) सामायिक आदि अध्ययन नो आगम से भाव अध्ययन हैं । 'अजपसाणयणं' में अज्झपस्स आणयणं ऐसा पदच्छेद होता है यह अध्ययन परक है । 'अझप्पस्साणयणं' में निरुक्त विधि से अथवा प्राकृत विधि से 'प' का 'रस' का 'आ' का और 'ण' का लोप होकर 'अध्ययन' ऐसा पद बन जाता है। वैसा तो 'अज्झप्परमाणयणं' की संस्कृत छाया' 'अध्यात्ममानयन' होती है । 'अध्यात्म' शब्द का अर्थ चित्त
और 'आनयन' शब्द का अर्थ लगाना है। तात्पर्य इसका यह है कि 'सामायिक आदि अध्ययन में चित्त का लगाना यह अध्यात्मनयन शब्द का अर्थ है । सामायिक आदि अध्ययन में चित्त के लगाने से चित्त में निर्मलताआती है । चित्त की निर्मलता होने पर अशुभ कर्मा मासमना अपेक्षा मामध्ययनन। अथ छे. (से किं तं नो भागमओ भावज्झयणे) 3 महत ! २ भागमयी ना१ मध्ययननु २१३५ ३ छ ?
उत्तर--(नो आगमओ भावज्झयणे अझ परसाणयणं कम्माणं अवधओ उपचियाणं अणुवच भो य नवाणं, तम्हा अज्मयणमिच्छंति ।१। सामायि माल अध्ययन सामथी मा अध्ययन। छे. 'अज्झप्पस्वाणयणं'भा 'अज्झप्पस्स आणयण' सवा ५४२छे डाय छ, मा ५६ मध्ययन ५२४ . 'अज्झप्पस्साणयणं' भां नित विधिथी अथवा प्राविधिथा पनि 'स' न अने 'ण न ५ २ अध्ययन मे ५४ मन छ. माम तो 'अज्झ. प्पस्त्राणयणं' नी सकृत छाय। 'अध्यात्ममानयन' थाय छे. अध्यात्म शन અર્થ ચિત્ત અને “આનયન' શબ્દનો અર્થ લગાડે છે. આનું તાત્પર્ય આ પ્રમાણે છે કે “સામાયિક વગેરે અધ્યયનમાં ચિત્તનું સંયોજન કરવું આ અધ્યાત્મનયન શબ્દનો અર્થ છે. સામાયિક વગેરે અધ્યયનમાં ચિત્ત અજિત કરવાથી ચિત્તમાં નિર્મળતા આવે છે. ચિત્ત નિર્મળ થવાથી અશુભકને
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'७४०
अनुयोगद्वारसूत्र विघटन्ते । अत एवाह-'कम्माण' इत्यादि। अयं भावः-यस्मात् अस्मिन् सति उपचिताना-पागुपनिबद्धानां कर्मणामपचयो हासो भवति, नवानां च कर्मणाम् अनुपचयः अवन्धो भवति, तस्मात् इदम् अज्झयणम् अध्ययनम् इच्छन्ति तीर्थकरगणधरादय इति । अत्र नो शब्दो देशवाची। सामायिकादिकमध्ययन तु ज्ञान क्रियासमुदायात्मकम् ततश्च आगमस्यैक देशत्तिस्मादिदं नो आगमतो भावाध्य यनमित्युच्यते, इति। सम्पति प्रकृतमुपसंहरति तदेतद् नो आगमतो भावा. ध्ययनमिति । इदं सभेदं भावाध्ययन निरूपितमिति सूचयितुमाह-तदेतत्-भावाध्ययनमिति । इत्थं च चतुर्विधमप्यध्ययन निरूपितमिति सूचयितुमाह-तदेतद. ध्ययनमिति ॥सू० २४२॥ को बंध विघटित (नष्ट) हो जाता है। इसीलिये सूत्रकार ने 'कम्माणं' इत्यादि पाठ कहा है। इसका भाव यह है कि 'चित्त जष निर्मल बन जाता है-तय पूर्व बद्ध कर्मों का हास-निर्जरा-होती है, तथा मषीन कर्मों का बन्ध नहीं होता है । इसलिये इस सामायिक आदि अध्ययन का तीर्थ कर गणधर आदि देवों ने ना आगम से भावा. ध्ययन माना है । यहां नो आगम में 'नो शब्द देशवाची है। आगम के अभाव का वाची नहीं हैं। क्योंकि सामायिक आदि अध्ययन ज्ञानक्रिया के समूहरूप होते है । इसलिये ये पूर्ण आगमरूप न होकर आगम के एकदेशरूप होते हैं। इसलिये इन्हें ना आगम की अपेक्षा भावाध्ययन माना गया है । (से तंणो आगमओ भावज्झयणे) इस प्रकार से ने। आगम की अपेक्षा भाव अध्ययन का स्वरूप है। (से तं अज्झ. यणे) इस प्रकार चार प्रकार का अध्ययन निरूपित किया है।स०२४२॥
५ विघटित 25 जय . मेथी सूत्ररे 'कम्माण' वगेरे ५४ ४ छे. माना माछे है 'चित्त' ब्यारे शुद्ध य य छे, त्यारे पूर्व કર્મોને હાસ-નિજ –થાય છે. તેમજ નવીન કર્મોને બંધ થતું નથી. એથી આ સામાયિક વગેરે અધ્યયનેને તીર્થંકર ગણધર વગેરે દેવોએ ને આગમથી ભાવાધ્યયન તરીકે માન્ય રાખેલ છે. અહીં ને આગમમાં “રો શબ્દ દેશવાચી આગમના અભાવને વાચક નથી, કેમ કે સામાયિક વગેરે અધ્યયને જ્ઞાનકિયાના સમૂઠરૂપ હોય છે. એથી એઓ પૂર્ણ આગમરૂપ હોતા નથી પણ આગમના એકદેશરૂપ હોય છે એથી એમને ને આગમથી અપેક્ષા मावाध्ययन मानवामो मावल छे. (से तणो आगमओ भावज्झयणे) मा प्रमाणे नो भागमनी मपेक्षा मामध्ययननु १३५ छ. (से तअन्झ यणे) આ પ્રમાણે ચાર પ્રકારના અધ્યયનેનું નિરૂપણ કરવામાં આવ્યું છે. સૂ. ૨૪૨ છે
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अनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र २४३ सम्प्रत्यक्षीणनिरूपणम्
सम्प्रत्यक्षीणं निरूपयति
1
मूलम् - से किं तं अज्झीणे ? अज्झीणे - उठित्र हे पण्णत्ते, तं जहाणामज्झीणे ठवणज्जीणे दव्वज्झीणे भावज्झीणे । नामठवणाओ पुत्रं वणियाओ । से किं तं दव्वज्झीणे ? दवज्झीणे - दुविहे पण्णत्ते, तं जहा- आगमओय नो आगमओय । से किं तं आगमओ दव्वज्झीणे ? आगमओ दव्वज्झीणे-जस्स णं अज्झीणेत्तिपर्यं सिक्खियं जियं मियं परिजियं जाव से तं आगमओ दबज्झीणे । से किं तं नो आगमओ दव्वज्झीणे ? नो आगमओ दव्वज्झीणेतिविहे पण्णत्ते, तं जहा - जाणयसरीरदव्वज्झीणे भवियसरीर दव्वज्झीणे जाणयसरीरभवियसरीरवइस्तेि दव्वज्झीणे । से किं तं जाणयसरीरदव्वज्जीणे ? जाणयसरीरदव्वज्झीणे-अज्झीणपत्थाहिगार जाणयस्स जं सरीरथं ववगयचुयचावियचत्तदेहं जहा दव्वज्झणे तहा भाणियव्त्रं, जाव से तं जाणयसरीरदव झीणे। से किं तं भविय सरीरव्वज्झोगे ? भवियसरीरदव्वझीणे-जे जीवे जेणिजम्मणनिक्खंते जहा दव्वज्झयणे, जाव से तं भवियसरीरदब्वज्झोगे । से किं तं जाणयसरीरभवियसरीरवइरित्ते दव्वज्झीणे ? जाणयसरीरभविय सरीरवइरित्ते सन्वागाससेढी, से तं जाणयसरीरभवियसरीवइरित्ते व्वज्झोगे । सेतं नो आगमओ दव्वज्झोणे, से तं दब्वज्झीणे । से किं तं भावज्झणे ? भावज्झीणे-दुविहे पण्णत्ते, तं जहाआगमओ य नो आगमओ य । से किं तं आगमओ भावज्झीणे?
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दब्वज्जीणे
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अनुयोगद्वारसूत्रे आगमओ भावज्झीणे-जाणए उवउत्ते। से तं आगमओ भावज्झीणे। से किं तं नो आगमओ भावज्झीणे? नो आगमओ भावज्झीणे-"जह दीवा दीवसयं, पइप्पए दिप्पए य सो दीवो। दीवसमा आयरिया, दिप्पंति परं च दीवंति ॥१॥" से तं नो आगमओ भावज्झोणे। से तं भावज्झीणे, से तं अज्झोणे॥२४३॥
छाया-अथ किं तत् अक्षीणम् ? अक्षीणं चतुर्विध प्रज्ञप्तं, तद्यथा-नामाक्षीणं, स्थापना क्षीणं, द्रव्याक्षीणं, भावाक्षीणम् । नामस्थापने पूर्व वर्णिते । अथ किं तत् व्याक्षीणम् ? द्रव्याक्षीणं द्विविधं प्रज्ञप्त, तधशा-आगमतश्च नो आगमतश्च ।
अब सूत्रकार ओघनिष्पन्न जो दूसरा भेद अक्षीण है-उसका निरूपण करते है--'से कि त अज्झीणे' इत्यादि ।
शब्दार्थ--(से कि तं अज्झीणे) हे भदन्त ! अक्षीण का क्या स्वरूप है। .. उत्तर-(अज्झीणे चउब्धिहे पण्णत्ते) अक्षीण चार प्रकार का कहा है। (तजहा) जैले (णामज्झीणे ठावणज्झीणे दवझीणे भावज्झीणे) नाम अक्षीण, स्थापना अक्षीण, द्रव्य अक्षीण, और भाव अक्षीण (नामठवणाभो पुवं वगियाओ) नाम अक्षीण और स्थापना अक्षीण का स्वरूप पूर्व में वर्णित नाम आवश्यक और स्थापना आवश्यक के जैसा जाननाचाहिये । (से कि ते दग्धज्जीणे ? ) हे भदन्त ! द्रव्य अक्षीण का क्या स्वरूप है?
હવે સૂત્રકાર ઓઘનિષ્પનને જે દ્વિતીય ભેદ અફીણ છે. તેનું नि३५५५ ४२ छ.-'से कि त अझीणे' इत्यादि । ।
शहाथ :-(से कि त अज्झीणे) ! भक्षीनु ५१३५ छ।
उत्तर :-(अज्झीणे चउविहे पण्णत्ते) भक्षी या प्रारथी अवामा आवे छे. (तौं जहा) अभडे (गामज्झीणे, ठवणज्झीणे, दवझीणे, भावझीणे) नाम मक्षा, स्थापना niley, द्रव्य मक्षी, भने माप mail, (नाम ठवणाओ पुव्वं वणियाओ) नाम, अक्षी मने स्थापना मक्षीनु ८१३५ પહેલાં વર્ણિત, નામ આવશ્યક અને સ્થાપના આવશ્યકની જેમ જ જાણી લેવું न . (से किं व्वज्झीए ?) 3 मत! द्रव्य भक्षीतुं १३५ ?
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भनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र २४३ सम्प्रत्यक्षीणनिररूपणम्
७३ अथ किं तत् आगमतो द्रव्याक्षीण ? आगमतो द्रव्याक्षीणं यस्य खलु अक्षीणमिति पदं शिक्षितं जितं मितं परिजितं यावत् तदेतत् आगमतो द्रव्याक्षीणम् । अथ किं तव नो आगमतो द्रमाक्षीणं ? नो आगमतो द्रव्याक्षीणं त्रिविधं प्रज्ञप्तं, तद्यथा ज्ञायकशरीरद्रव्याक्षीणं भव्यशरीरद्रव्याक्षीणं ज्ञायकशरीरभव्यशरीरव्यतिरिक्त द्रव्याक्षीणम् । अथ किं तत् ज्ञायकशरीरद्रव्याक्षीणम् ? ज्ञायकशरीर
उत्तर--(दवज्झीणे दुविहे पण्णत्ते) द्रव्य अक्षीण दो प्रकार का कहा है। (तं जहा) जैसे- (आगमओय नो आगमओ य ) एक आगम से और दूसरा नो आगम से । (से कितं आगमओ दव्यज्झीणे?) हे भदन्त ! आगम से द्रव्य अक्षीण का क्या स्वरूप है ? (आगमओ दव्यज्झीणेजस्स अज्झीणे ति पयं सिक्खियं जियं मियं परिजियं जाव से तं आगमो दव्यज्झीणे) आगम से द्रव्य अक्षीण का स्वरूप इस प्रकार से है-जिसने अक्षीण इस पद को सीख लिया है, जित मित परिजित आदि किया है, वह आगम से द्रव्य अक्षीण है । (से कितं नो आगमओ दव्वज्झीणे १) हे भदन्त ! नो आगम से द्रव्य अक्षीण का क्या स्वरूप है ? ___ उत्तर-(नो आगमो दव्यज्झीणे तिविहे पण्णत्ते) नो आगम से द्रव्य अक्षीण तीन प्रकार का कहा गया है । (तं जहा) जैसे-(जाणय सरीरदव्वज्झीणे, भवियसरीरदव्वज्झीणे, जाणयसरीरभवियसरीर वइ. रित्ते दव्यज्झीणे) ज्ञायकशरीर द्रव्य अक्षीण, भव्यशरीर द्रव्यअक्षीण
उत्तर :- (दव्वज्झीणे दुविहे पण्णत्ते) द्रव्य पक्षीना में | छे. (तंजहा) २ (आगमओ य नो आगमओ य) : मया मने द्वितीय भागमयी (से किं तं आगमओ दव्वज्झीणे १) ३ मत ! मामथी द्रव्य अक्षीनु. २१३५ छ ? (आगमओ दव्वज्झीणे-जस्स णं अज्झीणे त्ति पयं सिक्खियं जिय भियं परिजय जाव से तं आगमओ दव्वज्झीणे) આગમથી દ્રવ્ય અક્ષણનું સ્વરૂપ આ પ્રમાણે છે. જેણે અક્ષીણ આ પદને શીખી લીધે છે, જિત, મિત, પરિજિત વગેરે કરેલ છે, તે આગમથી દ્રવ્ય मक्षीय छे. (से कि त नो आगमओ व्वज्झीणे ?) महत? ना આગમથી દ્રવ્ય અક્ષણનું સ્વરૂપ કેવું છે ?
उत्तर :-(नो आगमओ दव्यज्झीणे तिविहे पण्णत्ते) नामासमथी द्रव्य पक्षाना ॥२॥ ४ाममा छे. (जहा) रेभ (जाणयसरीर दव्वज्झीणे, भवियम्ररीरदबझीणे जाणयसरीरभवियसरीरवइरित्ते दव्यज्झीणे) शायर शरीर દ્રવ્ય અક્ષીણ, ભવ્ય શરીર દ્રથ અક્ષણ અને જ્ઞાયકશરીર ભવ્ય શરીર વ્યતિ
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अनुयोगद्वारसत्रे द्रव्याक्षीणम् अक्षीणपदार्थाधिकारज्ञायकस्य यत् शरीकं व्यपगतच्युतच्यावितत्यक्तदेह यथा द्रव्याध्ययन तथा भणितव्यं, यावत् तदेतद् ज्ञायकशरीरद्रव्या
और ज्ञायकशरीर भव्यशरीर व्यतिरिक्त द्रव्य अक्षीण (से कि त जाणयसरीरदपज्झीणे) हे भदन्त ! ज्ञायकशरीर द्रव्यअक्षीण का क्या स्वरूप है ? (जाणयसरीरदव्यज्झीणे-अज्झीणपयत्थाहिगारजाणय. स्स जं सरीरं ववगय, चुयचाविय चत्तदेहं जहा व्वज्झयणे तहा भाणि यन्वं) ज्ञायकशरीरद्रव्य अक्षीग का यह स्वरूप है कि-'अक्षीण पद के अर्थाधिकार को जो ज्ञाता है, उस ज्ञाता का जो शरीर है, चाहे वह व्यपगत हो, च्युन हो, च्यावित हो, त्यक्त हो जैसा कि द्रव्य अध्ययन में कहा है-(जाव से तं जाणयसरीरदव्यज्झीणे) वह ज्ञायक शरीर द्रव्य अक्षीण है । इन व्यपगत आदि पदों का अर्थ द्रव्य आवश्यक के इस भेद को वर्णन करते समय स्पष्टरूप से लिखा जा चुका है। सो वहां से जान लेना चाहिये । यहाँ यावत् पद से 'जीवविप्पजढ सिज्जा. गयं आदि पदों से लेकर महुकुंभे आसी' यहां तक के पदों का संग्रह हुआ है। इन समस्त पदों का अर्थ भी द्रव्यावश्यक के इसी भेद वर्णन में कर दिया है । सो उस अर्थ को ज्ञायकशरीर द्रव्यअक्षीण परक लगा लेना चाहिये । जहां ज्ञायकशरीर द्रव्यावश्यक ऐसा पद आवे, वहां (२४त द्र०य पक्षी (से कि त जाणयसरीरव्वज्झीणे ?) 3 मत ! ज्ञाय शरीर द्र०य पक्षानु' २१३५ यु छ ? (जाणयसरीरदव्यज्झीणे-अज्झीणपयत्थाहि गारजाणयस्म जं सरीरं ववगयचुयचाविय चत्तदेहं जहा दव्वज्झयणे हा भाणियव्वं) ज्ञाय शरी२ द्रव्य सक्षीनुमा २१३५ छ , 'मक्षा पहना અર્થાધિકારનો જે જ્ઞાતા છે, તે જ્ઞાતાનું જે શરીર છે, તે ભલે વ્યગત હોય, ચુત હોય, ઐવિત હેય, ત્યક્ત કેય, જેવું કે દ્રવ્ય અધ્યયનમાં ४थु छे (जाव से त जाणयसरीरदञ्चझीणे) ज्ञाय शरीर द्रव्य भक्षी છે. આ વ્યપગત વગેરે પદેને અર્થ દ્રવ્ય આવશ્યકના આ ભેદના વર્ણન વખતે સ્પષ્ટ કરવામાં આવેલ છે.–તે જિજ્ઞાસુઓ ત્યાંથી જાણી લે. અહીં यावत् ५४थी "जीवविप्पजढ सिज्जागय" वगेरे पोथी भांडी "महुकुम्भे आसी" मी सुधान। पहोनी में ये छे. भा व पहानी અર્થ પણ દ્રવ્યાવશ્યકના આ ભેદ વર્ણનમાં કરવામાં આવેલ છે. તો તે અર્થને જ્ઞાયક શરીર દ્રવ્ય અક્ષણ પરક અર્થ બેસાડી લેવો જોઈએ જ્યાં જ્ઞાયક શરીર વ્યાવશ્યક એવું પદ આવે, ત્યાં જ્ઞાયક દ્રવ્ય અક્ષણ પદ
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अनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र २४३ सम्प्रत्यक्षीणनिरूपणम् क्षीणम् । अथ किं तत् भन्यशरीद्रमाक्षीणम् ?, भव्यशरीरद्रव्याक्षीणं-यो जीवो योनिजन्मनिष्क्रान्तो यथा द्रव्याध्ययन यावत् तदेतत् भव्यशरीरद्रध्या. क्षीणम्। अथ किं तत् ज्ञायकशरीरमव्यशरीव्यतिरिक्तं द्रव्याक्षीणम् ?, सर्वा ज्ञायकद्रव्यभक्षीण पद लगाकर उस अर्थ की सति बैठा लेनी चाहिये। इसी प्रकार से अन्यत्र भी ऐसा ही जानना चाहिये । (से कितं भवियसरीरदब्यज्झीणे ?) हे भदन्त ! भव्यशरीर द्रव्यप्रक्षीण का क्या स्वरूप है ? (भवियसरीरदवाज्झीणे) भव्यशरीर द्रव्य अक्षीण का स्वरूप इप्त प्रकार से है कि-(जे जीवे जोणिजम्मणनिक्खते जहा दव्यज्झयणे जाव से तं भवियसरीरबारित्तेदनशपणे) इन पदों का अर्थ भी भव्यशरीर द्रव्यआवश्यक में कर दिया गया है-सो उमी माफिक जानना चाहिये। क्योंकि द्रव्य अध्ययन का वर्णन करते समय लिखा है कि द्रव्यअध्ययन में के ज्ञायकशरीरद्रव्यअध्ययन का और भव्यशरीर द्रव्य अध्ययन का स्वरूप द्रव्यावश्यक के इन भेड़ों के अनुसार ही जानना चाहिये । (से कि त जाणयसरीरभवियसरीर वहरित्ते व्वज्झीणे ?) हे भदन्त ज्ञायक शरीर और भव्यशरीर इन से व्यतिरिक्त द्रव्यअक्षीण का क्या स्वरूप है ?
उत्तर-(जाणयसरीरभविघसरीरवदरित्ते दव्यज्झोणे) ज्ञायकशरीर, भपशरीर इन से व्यतिरिक्त द्रव्य अक्षीण का स्वरूप इस प्रकारસોજિત કરીને તે અર્થની સંગતિ બેસાડી લેવી જોઈએ. આ प्रमाणे भी स्थाने men देवु नये (से कि त भवियसरीरदवझीणे) 8 महत! मय शरी२ द्रव्यमशीनु स्व३५ यु छ ? (भवियसरीरदव्वज्झीणे) भव्य शरी२ द्रव्यमक्षीनु ११३५ मा प्रमाणे छ । (जे जीवे जोणिजम्मणनिक्खंते जहा दव्यज्झयणे जाव से त. भवियसरीरवइरित्ते दव्वज्झीणे) मा पहोनी म पY सव्य शरीर द्रव्य मावश्यमा
સ્પષ્ટ કરવામાં આવેલ છે. તે તે મુજબ જ જાણી લેવું જોઈએ. કેમકે દ્રવ્ય અધ્યયનનું સ્વરૂપ સ્પષ્ટ કરતી વખતે લખવામાં આવેલ છે કે દ્રવ્ય અધ્યયનમાંના જ્ઞાયક શરીર દ્રવ્ય અધ્યયનનું અને ભવ્ય શરીર દ્રવ્ય અધ્યય ननु २१३५ द्रव्यापश्यना मा । भुश onell से नये. (से कि त जाणयसरीरभवियसरीरवइगित्ते दव्वज्झीणे १) , महत! ज्ञाय शरीर भने ભવ્ય શરીર એનાથી વ્યતિરિક્ત દ્રવ્ય અક્ષણનું સ્વરૂપ કેવું છે?
उत्तर :- (जाणयसरीरभवियसरीरवइरित्ते दव्वज्झीणे) ज्ञाय शरी२, ભવ્ય શરીર એમનાથી વ્યતિરિક્ત દ્રવ્ય અક્ષણનું સ્વરૂપ આ પ્રમાણે છે, अ० ९४
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मनुयोगद्वारसूत्रे काशश्रेणिः। तदेतद् ज्ञायकशरीरभव्यशरीरव्यतिरिक्त द्रव्याक्षीणम् । तदे. सस् नो आगमतो द्रव्याक्षीणम् । तदेतत् द्रव्याक्षीगम् । अथ किं तत् भावाक्षीणम् ? भावाक्षीणं द्विविधं प्रज्ञप्तं, तद्यथा-आगमतश्च नो आगमतश्च । अथ किं तत् आगसे है-(सव्वागास सेढ़ी, से तं जाणयसरीर भवियसरीर वहरिते दचझीणे) सर्वाकाश श्रेणि जो है, वही ज्ञायकशरीर भव्यशरीर व्यतिरिक्त द्रव्य अक्षीण है। तात्पर्य यह है कि-'लोक और अलोकरूप आकाश यहां सर्वाकाश पद से गृहीत हुआ है। इन दोनों की जो प्रदेश पंक्ति है, वह सर्वाकाश श्रेणि है । उसमें यदि एक २ प्रदेश का भी अपहार किया जावे तो भी, वह कभी खाली नहीं हो सकती है। इसलिये यह ज्ञायकशरीर और भव्यशरीर से व्यतिरिक्त द्रव्य अक्षीणरूप से कही गई है। इसमें द्रव्यता आकाश र के अन्तर्गत होने के कारण है । (से तं नो ओगमी दव्यज्झीणे) इस प्रकार यह नो आगम की अपेक्षा द्रव्य अक्षीण का स्वरूप है । (से तंदव्यज्झीणे) इस प्रकार द्रव्य अक्षीण के तीनों भेदों के स्वरूप वर्णन से द्रव्य अक्षीण का समस्त स्वरूप निरूपित हो जाता है। (से कि त भाव. ज्झीणे ?) हे भदन्त ! भाच अक्षीण का क्या स्वरूप है ?
उत्तर--(भावज्झीणे दुविहे पण्णत्ते) भाव अक्षीण दो प्रकार का कहा है । (तं जहा) जैसे-(आगमोघ नो आगमो य ) एक आगम (सव्वागाससेढी, से त' जणय परोरभवियसरीरवइरित्ते दवझीणे) साथ શ્રેણિ જે છે, તે જ જ્ઞાયકશી ભવ્ય શરીર વ્યતિરિક્ત દ્રવ્ય અક્ષીણ છે. તાત્પર્ય આ પ્રમાણે છે કે “લેક અને અલેકરૂપ આકાશ અહી સકાશ પદથી ગૃહીત થયેલ છે. એમાં બનેની જે પ્રદેશ પંક્તિ છે, તે સર્વકાશ શ્રેણિ છે. તેમાં જે એક એક પ્રદેશને પણ અ૫હાર કરવામાં આવે તે પણ તે ખાલી થઈ શકે તેમ નથી એથી આ જ્ઞાયક શરીર અને ભવ્ય શરીરથી વ્યતિરિક્ત દ્રવ્ય અક્ષીણરૂપમાં કહેવામાં આવેલ છે. આમાં દ્રવ્યતા
१२ द्र०यनी मत डा म. छे. (से त' नो आगमओ व्वझणे) ॥ प्रभा । नासामनी मयेक्षाये द्रव्य पक्षी २३३५ छे. (से त दव्यज्झीणे) या प्रमाणे द्रव्य पक्षीराना १९५ होना २१३५ वर्णनथी द्रव्य अक्षीयनु समस्त २१३५ नि३पित २४ ५ (से कि त भावज्झीणे १) હે ભેદત ! ભાવ અક્ષણનું સ્વરૂપ કેવું છે?
उत्तर :-(भावज्झीणे दुविहे पण्णत्ते) मा यक्षीणना में प्रा। छ :(तजहा) २ (आगमओ य नो आगमओ य) मामी भने
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अनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र २४४ सम्प्रत्यक्षीणनिरूपणम् मतो भावाक्षी गम् ? आगमतो भावाक्षीणम्-ज्ञायक उपयुक्तः । तदेतद् आगमतो भावाक्षीणम् । अथ किं तद् नो आगमतो भावाक्षीणम् !, नो आगमतो भावा क्षीगम्-यथा-दीपाद् दीपशतं प्रदीप्यते दीप्यते च स दीपः । दीपसमा आचार्याः दीप्यन्ते परं च दीपयन्ति ।।१॥ तदेतत् नो आगमतो मागक्षीणम् । तदेतद् भावा. क्षीणम् । तदेतद् अक्षीणम् ॥२४३॥
टीका---'से कि तं' इत्यादि
अथ किं तत् अक्षीणम् ? इति शिष्यमश्नः । उतरयति-अक्षीणं हि नामाक्षीण. स्थापनाक्षीणद्रव्याक्षीणभावाक्षीणेति चतुर्विधम् । तत्र-नामाक्षीणस्थापनासे दूसरा नो आगम से । (से किंत आगमओ भावज्झीणे १ ) हे भदन्त ! आगम से भोच अक्षीण का क्या स्वरूप है ?
उत्तर--(जागए उवउत्ते) ज्ञायक होकर जो उपयुक्त हो, वह आगम की अपेक्षा भाव अशी ग है। इसका तात्पर्य यह है कि-'आग. ममें उपयोगशाली चतुर्दशपूर्वधारी के अन्तर्मुहर्त मात्र उपयोग काल में जो अर्थोपलम्भरूप उपयोग पर्याय होते हैं, उनमें से प्रतिप्तमय यदि एक २ करके वे अपहत किये जावे तो भी वे अनंत उत्सर्पिणी और अर्पिणी काल में भी समाप्त नहीं हो सकते हैं-इतने अधिक होते हैं । इसलिये वे भाव अक्षीण हैं । यही भाव अक्षीण का स्वरूप है। (से किं तं नो आगमो भावज्झोणे) हे भदन्त ! नो आगम से भाव अक्षीण का क्या स्वरूप है ? (नो आगमओ भावझीणे ) नो आगम से भाव अक्षीण का स्वरूप इस प्रकार से है। (जह दीवा दीवसयं पइपए द्वितीय ने मामी (से कि त आगमओ भावझीणे ?) B RE ! भासमयी ભાવ અક્ષણનું સ્વરૂપ કેવું છે?
उत्तर :-(जाणए उवउत्त) ज्ञाय ॥२२ ७५युत जाय, ते मागभनी અપેક્ષાએ ભાવ અક્ષણ છે. આનું તાત્પર્ય આ પ્રમાણે છે કે “આગમમાં ઉપોગશાલી ચતુર્દશ પૂર્વધારીને અન્તર્મુહૂર્ત માત્ર ઉપગ કાળમાં જે અર્થોપલંભ રૂપ ઉપગ પર્યા હોય છે, તેમાંથી પ્રતિસમય જે એક એક કરીને તે અપહત કરવામાં આવે તે પણ અનંત ઉત્સર્પિણ અને અવસર્પિણ કાળમાં પણ સમાપ્ત થાય નહિ તેટલા હોય છે એથી તે ભાવ અક્ષણ છે. એજ मा अक्षीय नु २१३५ छ. (से कि त नो आगमओ भाव झीणे ?) BRE! नो मामयी ला सक्षीनु २१३५ यु छ ? (नो आगमओ भावज्झीणे) न। भागमयी भाव पक्षीयुनु २१३५ मा प्रमाणे छे. (जह दीवा दीवसयं पहपए
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भयनोगद्वारसूत्र क्षीणे पूर्ववद् बोध्ये। द्रव्याक्षीणस्याधभेदद्वयं च द्रव्याध्ययनवद् बोध्यम् । अर्थ द्रव्याक्षीणस्य तृतीयं भेदमाह-अथ किं तद् ज्ञायकशरीरभव्यशरीव्यतिरिक्त द्रव्याक्षीणम् ? इति शिष्यपश्नः। उत्तरयति-ज्ञायकशरीरभव्यशरीरव्यतिरिक्त द्रव्याक्षीणं हि-सर्वाकाशश्रेणि बोध्यम् । अयं भावः- सर्वाकाश-लोकालोकनमः स्वरूपं, तत्सम्बन्धिनी श्रेणिः-सर्वाकाशश्रेणिः । सा च प्रदेशापहारतोऽपहि. यमाणाऽपि न कदाचित् क्षीणतामुपयाति, अन इयं ज्ञायकशरीरभव्यशरीरव्यतिरिक्तद्रव्याक्षीणतया मोच्यते। द्रव्यत्वं च आकाशद्रव्यान्तर्गतत्वाद् बोध्यमिति । अथ भावाक्षीणं निरूपयति तत्र-'अथ किं तद् भावाक्षीणम् ?' इति शिष्य प्रश्नः। उतायति-भावामीणं हि आगपतो नो आगमनो भेदेन द्विविधम् । तत्र-आगमतो भावाक्षीणं ज्ञायक उपयुक्तो बोध्यम् । अयं भावः-आगमोपयोगवतश्चतुर्दशपूर्वज्ञस्य अन्तर्मुहूर्तमानोपयोगकाले येऽर्थोपलम्भोपयोगपर्याया भवन्ति, ते प्रतिसमयमेकैकापहारेगानन्ताभिरप्युत्सपिण्यवसारिणीभि पहियन्ते, अतः स भाशक्षीगमुच्यते। इत्थं चात्र भाषाक्षीणता बोध्येति । नो आगमतो भावाक्षीणं तु शिष्येभ्यः सामायिकादि श्रुतप्रदानेऽपि स्वात्मनि तदविनाशेन बोध्यम् । तदे. वाह-'जह दीवा दीवसयं' इत्यादि । अयं भावः-यथा एकस्मात् अवधिभूताद् दीपाद् दीपशतं प्रदीप्यते, साऽवधिभूतो दीपश्च दीप्यते-दीप्त एवावस्थितो भवति नतु निर्वाणं याति। एवं दीपसमाः दीपतुल्या आचार्याः दीप्यन्ते=विव. क्षितश्रुतयुक्तत्वेन तथैवावतिष्ठन्ते, परं-शिष्यवर्ग च दीपयन्ति श्रुतसम्पदं दिपए य सो दीवो, दीवसमा आयरिया दिप्पंति परं च दीवंति) जैसे एक दीपक से सैकड़ों दूसरे दीपक प्रज्वलित कर दिये जाते हैं और प्रज्वलित करनेवाला वह दीपक जैसे जलता रहता है-वुझता नहीं है। उसी प्रकार दीपक के तुल्य आचार्य शिष्यजनों के लिये सोमायिक आदि श्रुत को प्रदान करके उन्हे श्रुतशाली बना देते हैं और आप स्वयं भी विवक्षित श्रुत से युक्त बने रहते हैं, वह उन का नष्ट नहीं होता। इस प्रकार श्रुतदायक आचार्य का जो उपयोग है, वह अनामरूप है, इसलिये यहां दिपए य सो दीवा, दीवसमा आयरिया दिप्पंति परंच दीवंति) २५ मे ५४थी એક બીજા દીપકે પ્રજવલિત કરવામાં આવે છે અને પ્રજવલિત કરનાર તે દીપક જેમ પ્રજવલિત જ રહે છે, દીપકની જેમ જ આચાર્ય શિષ્ય માટે સામાયિક વગેરે મુને આપીને તેમને શ્રુતશાલી બનાવે છે, અને પિતે પણ શ્રતથી યુક્ત રહે છે, તે શ્રત તેમના માટે નષ્ટ થાય નહિ આ પ્રમાણે શ્રત દાયક આચાર્યને જે ઉપયોગ છે, તે આગમરૂપ છે, અને વાકુ અને કાય
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अनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र २५४ आयनिक्षेपनिरूपणम्
७४२ पापयन्तीति । श्रुतदायकाचार्योपयोगस्य आगमस्वाद वाकाययोगश्चानाग मत्वादत्र नो आगमतो भावाक्षीणता बोध्येति। एतदुरसंहरन्नाह- तदेतद् नो आगमतो भावाक्षीणमिति । इत्थं समस्तमपि भाषाक्षीणं निरूपितमिति सूचयितुमाह-तदेतद् भावाक्षीणमिति । इत्थं सभेदम् अक्षीणं परूपितमिति मूचयितु. माह-तदेतदक्षीणमिति ॥मू० २४३॥ __ अथ आयनिक्षेपं निरूपयति___ मूलम्-से किं तं आए ? आए-वउविहे पण्णत्ते, तं जहानामाए ठवणाए दवाए भावाए। नामठवणाओ पुवं भणियाओ। से किं तं दबाए ? दवाए-दुविहे पण्णत्ते, तं जहाआगमओ य नो आगमओ य। से किं तं आगमओ दवाए ? आगमओ दवाए-जस्स णं आयत्तिपयं सिक्खियं ठियं जियं मियं परिजियं जाव, कम्हा? अणुवओगो दवमितिकट्ठ, नेगमस्त णं जावइया अणुव उत्ता आगमओ तावइया ते दवाया, जाव से तं आगमओ दवाए। से किं तं नो आगमओ दवाए ? नो आगमओ दवाए-तिविहे पण्णत्ते, तं जहा-जाणयसरीरदवाए भवियसरीरदव्वाए जाणयसरीरभवियसरीरवइरित्ते दव्वाए। पर नो आगम से भावाक्षीणता जाननी चाहिये । (से तं नो आग. ममो भावज्झोणे) इस प्रकार यह नो आगम से भाव अक्षीण का स्वरूप है। (से तं भावज्झोणे से तं अज्झीणे) इस प्रकार भाव अक्षीण का स्वरूप वर्णित हुआ है। द्रव्य और भाव, अक्षीण के वर्णन से अक्षीण का स्वरूप वर्णित हो चुका ॥ सू० २४३ ॥
રૂપ જે યોગ છે, તે અનાગમ રૂપ છે, એથી અહીં નો આગમથી ભાવ क्षीयता नीय, (से तनो आगमओ भावज्झीणे) मा प्रमाणे मानो भागमयी भाव २मक्षीणतानु ११३५ छे. (से त भावझीणे से त अझीणे) આ પ્રમાણે ભાવ અક્ષણનું સ્વરૂપ વર્ણિત કરવામાં આવ્યું છે. દ્રવ્ય અને ભાવ અક્ષણના વર્ણનથી અક્ષણ સ્વરૂપનું વર્ણિત થઈ ગયું છે. જે સૂ. ૨૪૩ છે
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अनुयोगद्वारसूत्र से किं तं जाणयसरीरदवाए? जाणयसरीरदवाए-आययपत्थाहिगारजागयस्त जं सरीरयं ववगयचुयचावियचत्तदेहं जहा दवज्झयणे, जाव से तं जाणयसरीरदवाए। से किं तं भवियसरीर दवाए ? भवियसरीरदवाए-जे जाव जोणिजम्मणणिक्खंते जहा दबज्झयणे जाव से तं भवियसरीरदव्वाए। से किं तं जाणयसरीरभवियसरीरवइरित्ते दवाए? जाणयसरीरभवियसरीरवइरित्तै दवाए-तिविहे पण्णत्ते, तं जहालोइए कुप्पावयणिए लोगुत्तरिए य। से किं तं लोइए? लोइए. तिविहे-पण्णते, तं जहा-सचित्ते अचित्ते मीसए य। से किं तं सचित्ते ? सचित्ते-तिविहे पण्णत्ते, तं जहा-दपयाणं चउप्पयाण अपयाणं। दुपयाणं दासाणं दासीणं, चउप्पयाणं आसाणं हत्थीणं, अपयाण अंबाणं अंबाडगाणं-आए। से तं सचित्ते। से किं तं अचित्ते ? अचित्ते सुवण्णरययमणिमोत्तियसंखसिलप्पकालरत्तरयणसंतसावएजस्स आए। से तं अचित्ते। से किं तं मीसए? मीलए-दासाणं दासीणं आसाणं हत्थीणं समाभरियाउज्जालंकियाणं आए, से तं मीसए, से तं लोइए। से किं तं कुप्पावयणिए ? कुप्पावणिए-तिविहे पण्णत्ते, तं जहा-सचित्ते अचित्ते मीसए य। तिण्णिवि जहा लोइए जीवे से तं मीसए। से तं कुप्पावयणिए। से किं तं लोगुत्तरिए? लोगुत्तरिए-तिविहे पण्णत्ते, तं जहा-सचित्ते अचित्ते मीसए य । से कि तं सचिते ? सचित्ते-सीसाणं सिस्सणियाण। सेत्तं सचित्ते। सेकिंतं अचित्ते? अचित्ते-पडिग्गहाणं वत्थाणं कंबलाणं पायपुंछणाणं। से तं
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अनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र २४४ आयनिक्षेपनिरूपणम् अचित्ते । से किं तं मीसए? मीसए-सिरसाणं सिस्सणियाणं सभंडोवगरणाणं आए। से तं मीसए। से तं लोगुत्तरिए। से तं आणयसरीरभवियसरीरवइरित्ते दवाए। से तं नो आगमओ दवाए। से तं दवाए। से किं तं भावाए? भावाए दुविहे पण्णत्ते, तं जहा-आगमओ य नो आगमओ य। से किं तं आगमओ भावाए ? आगमओ भावाए-जाणए उवउत्ते । सेतं आगमओ भावाए। से कितं नो आगमओ भावाए ? नो आगमओ भावाए-दुविहे पणत्ते, तं जहा-पसत्थे य अपसत्थे य। से कि तं पसत्थे ? पसत्थे-तिविहे पण्णत्ते, तं जहा-णाणाए दसणाए चरित्ताए। से तं पसत्थे। से कि तं अपसत्थे ? अपसस्थे-चउविहे पण्णत्ते, तं जहा-कोहाए माणाए मायाए लोहाए। से तं अपप्तत्थे। से तं णो आगमओ भावाए। से तं भावाए। से तं आए ॥सू०२४१॥
छाया--अथ कोऽसौ आयः ? आयः चतुर्विधः प्रज्ञप्तः, तद्यथा-नामाया, स्थापनायो द्रव्यायो भावायः । नामस्थापने पूर्व भणिते । अथ कोऽसौ द्रव्यायः? द्रव्यायः-द्विविधः प्रज्ञप्तः, तद्यथा-आगमतश्च नो आगमतश्च । अथ कोऽसौ आग. मतो द्रव्यायः ? आगमतो द्रव्यायो यस्य खलु आत्मा इति पदं शिक्षितं स्थितं जितं मितं परिजितं यावत् , कस्मात् १ अनुपयोगो द्रव्यमिति कृत्वा । नैगमस्य खलु यावन्तोऽनुपयुक्ता आगमतस्तावन्तस्ते द्रव्यायाः, यावत् एष आगमतः द्रव्याधः । अथ कोऽनो नो आगमतो द्रव्यायः १ द्रव्यायस्त्रिविधः प्रज्ञप्तः, तद्यथा -ज्ञायकशरीरद्रव्यायो भव्यशरीरद्रव्यायो, ज्ञायकशरीरभव्यशरीरव्यतिरिक्तो द्रव्यायः। अथ कोऽसौ ज्ञायकशरीरद्रव्यायः ? ज्ञायकशरीरद्रव्यायःआत्मादार्थाधिकारज्ञायकस्य यत् शरीरकं व्यपगतपुतच्यावितत्यक्तदेहं यथा द्रव्याध्ययन यावत् स एष ज्ञायकशरीरद्रव्यायः । अथ कोऽसौ भव्यशरीर
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भनुयोगद्वारसूत्रे द्रव्यायः ? भव्यशरीरद्रव्याय:-यो जीनो योनिजन्मनिष्क्रान्तो यथा द्रव्या. ध्ययन यावत् तदेतद् भव्यशरीरदव्यायः। अथ कोऽसौ ज्ञायकशरीरभव्यशरीरव्यतिरिक्तो द्रव्यायः ? ज्ञायकशरीरमव्यशरीरव्यतिरिक्तो द्रमायस्त्रिविधः प्रज्ञप्तः, तद्यथा-लौकिकः कुमावचनिको लोकोत्तरिकश्च, अथ कोऽसौ लौकिक:कोविकस्विविधः प्रज्ञप्तः, तद्यथा-सचितः अचित्तः मिश्रकश्च । अथ कोऽसौ सचित्तः ? सचित्तः त्रिविधः प्रज्ञप्तः, तथथा-द्विपदानां चतुष्पदानाम् अपदानाम् , द्विपदानां-दासानां दासीनां, चतुष्पदानाम्-अश्वानां हस्तिनाम् , अपदानाम् आम्रा. णाम् आम्रातकानाम् आयः। स एष सचित्तः । अथ कोऽसौ अचित्तः? अचित्तः सुवर्णरत्नमणिमौक्तिकशङ्खशिलापवाळरक्तरस्नसत्स्वापतेयस्य आयः। स एषोऽचित्तः। अथ कोऽसौ मिश्रका ? मिश्रको-दासानां दासीनाम् अश्वानां हस्तिनां समाभरितातोद्यालङ्कृतानाम् आय: । स एष मिश्रकः । स एष लौकिकः। अथ कोऽसौ कुमावनिकः? कुपावचनिका-त्रिविधः प्रज्ञप्तः, तद्यथा-सचित्तः अचित्तः मिश्रकश्च । त्रयोऽपि यथा लौकिके, यावत् स एष मिश्रका, स एष कुपामचनिकः । अथ कोऽसौ लोकोत्तरिकः? लोकोत्तरिकः-त्रिविधः प्रज्ञप्तः, तद्यथा सचित्तः अचित्तो मिश्रकश्च । अथ कोऽसौ सचित्तः ? सचित्तः-शिष्याणां स एव सचित:-अथ कोऽसौ अचित्तः ? अचित्तः पतनहाणां वस्त्राणां कम्बलानां पादपोञ्छनानाम् आयः । स एष अचित्तः । अथ कोऽसौ मिश्रकः ? मिश्रका-शिष्याणां सभाण्डोपकरणानां आयः। स एष मिश्रकः। स एष लोकोत्तरिकः। स एष ज्ञायकशरीरभव्यशरीर-व्यतिरिक्तो द्रव्यायः । स एष नो आगमतो द्रव्यायः। स एप द्रव्यायः। अथ कोऽसौ भावायः ? भावायो द्विविधः प्रज्ञप्तः, तद्यथा-आगमतश्च नो आगमतश्च । अथ कोऽसौ आगमतो भावाय.? आगमतो भावायः-ज्ञायक उपयुक्तः । स एष आगमतो भावायः । अथ कोऽसौ नो आगमतो भावायः? नो आगमतो भावायो-द्विविधः प्रज्ञप्तः, तद्यथा-प्रशस्तश्च अपशस्तश्च । अथ कोऽसौ प्रशस्तः ? प्रशस्तः त्रिविधः प्रज्ञप्तः, तद्यथा-ज्ञानायो दर्शनायः चारित्रायः। स एष प्रशस्तः । अथ कोऽसौ अप्रशस्तः १, अपशस्तःचतुर्विधः प्रज्ञप्तः, तद्यथा-क्रोधायो मानायो मायायो लोभायः। स एष अपशस्तः । स एष नो आगमतः भावायः। स एष भावायः। स एष आयः ॥ मू० २४४ ॥
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अनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र २४४ आयनिक्षेपनिरूपणम्
टीका - से किं तं' इत्यादि
अथ कोsal आयः ? इति शिष्यप्रश्नः । उत्तरयति - आय: - आयः प्राप्तिर्लाभ इति पर्यायाः, स एष आयो नामायः स्थापनायो द्रव्यायो भात्रायश्चेति चतुर्विधः । एषां नामायादीनां सभेदानां व्याख्या पूर्ववत् स्वधिया कार्या । तथापि पदद्वयस्य व्याख्या क्रियते सरलमतिसुबोधाय । तथाहि - सुवर्णरजतमणिमौक्तिकशङ्ख शिळा प्रवालरक्तरस्नसत्स्वापतेयस्य-तत्र सुवर्ण = हेम, रजतं = ' चान्दी' इति प्रसिद्धम्, मणिः = चन्द्रकान्तादिः, मौक्तिकम् = 'मोती' इति प्रसिद्धम्, शङ्खः - रत्नविशेषः, शिला= रत्नविशेषः, प्रवाळ = 'मूँगा' इति प्रसिद्धः रक्तरत्नम् - पद्मरागादिकम् एतद्रूपं यत् अब सूत्रकार आयनिक्षेप का स्वरूप कहते हैं-'से किं तं आए' इत्यादि ।
शब्दार्थ - (से कि त आए ? ) हे मदन्त ! आपका क्या स्वरूप है ? उत्तर--(आए) 'आय' नाम 'प्राप्ति' का है । आय, प्राप्ति, लाभ, ये पर्यायवाची शब्द हैं। यह आय ( चउच्त्रिहे पण्णत्ते) चार प्रकार का कहा है । (तं जहा) जैसे (नामाए, ठवणाए, दव्त्राए, भावाए) नाम आय, स्थापना आय, द्रव्य आय और भाव आय । सभेद इन नाम आय आदि की व्याख्या पूर्व की तरह अपनी बुद्धि से कर लेनी चाहिये । फिर भी पदद्वय की व्याख्या सरल बुद्धिवाले शिष्यजनों के बोध निमित्त करता हूं-सुवर्ण-सोना, रजत-चांदी, मणि-चन्द्रकान्त आदि मौक्तिक- मोती, शङ्ख-इस नामको रहन विशेष शिला - विशेष प्रकार का रत्न, प्रवाल- मुंगा रक्तरत्न पद्मराग आदि, ये सब उत्तम
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હવે સૂત્રકાર આયનિક્ષેપનું સ્વરૂપ કહે છે—
'से कि त आए ? ' इत्यादि
शब्दार्थ - (से किं तं आए ) डे लहांत ! आयनुं स्व३५ वु छे ? उत्तर–(आप) 'माय' नाम 'प्राप्ति'नुं छे. माय, आप्ति, बाल આ अधा पर्यायवाची शब्हो छे. या माय, ( चउव्विद्दे पण्णत्ते) यार प्रहारने। 'हेवामां आवेल छे. ( त जहा ) ? म ( नामाए, ठवणाए, दव्वाए, भावाए ) नाभ અને ભાવય. સભેદ આય, સ્થાપના આય, દ્રવ્યઆય આય વગેરેની વ્યાખ્યા પૂની જેમજ સ્વ બુદ્ધિથી સમજી લેવી જોઇએ છતાંએ પદ્મયની વ્યાખ્યા સરલ ખુદ્ધિવાળા શિષ્યાના મેધ માટે અહી ४२वामां आवे छे. सुवर्थ - सोनु, २४ - थांडी, मणि-यन्द्रांत वगेरे भौति -भाती, श'अ-म नाभे, रत्न विशेष शिक्षा - रत्न विशेष, प्रवास, परवाणु,
આ નામ
अ० ९५
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मनुयोगद्वारसूत्रे सत् स्वापतेयम् अकुप्यं धन तस्य तथाभूनस्य । तथा समामरितातोधालङ्कृतानाम् -समाभरिताः आभूषणभूषिताः, आतोद्यैः झल्लरी प्रमुखैश्वालङ्कृताः-आतोद्याल. कृताः, समाभरिताच आतोयालङ्कृताश्चेति तेषां तथोक्तानामिति ॥१० २४४।। अथ क्षपणां निरूपति
मूलम्-से किं तं ज्झवणा? ज्झवणा-चउबिहा-पण्णत्ता, तं जहा-नामज्झवणा ठवणज्झवणा दव्वज्झवणा भावज्झवणा। मामठवणाओ पुत्वं भणियाओ। से किं तं दवज्झवणा ? दव्यज्झवणा-दुविहा पण्णत्ता, तं जहा-आगमओ य नो आग. मओ या से किं तं आगमओ दव्यज्झवणा ? आगमओ दव्यज्झवणा-जस्स णं झवणे-ति पयं सिक्खियं ठियं जियं मियं परिजियं जाव से तं आगमओ दव्यज्झवणा। से किं तं नो आगमो दठवज्झवणा? नो आगमओ दवझवणा-तिविहा अकुप्यधन है। इसका आय अचित्त आय है। 'समाभरिया उज्जालंकियाणं' इन पदों की व्याख्या इस प्रकार से यह विशेषणभूत पद है। और यह 'दासाणं दासीण' आदि पदों का विशेषण है । आभूषणों से भूषित होना इसका नाम समाभरित है। झल्लरी आदिकों से अलंकृत होना इसका नाम आतोद्यालंकृत है । तात्पर्य यह है कि-'आभू. षणों से भूषित हुए दासी दास आदि की प्राप्ति होना तथा झज्लरी आदि वोजों से अलंकृत हुए हाथी आदिकों की प्राप्ति होना यह मिश्र आय है ॥ सू० २४४ ॥ રક્ત-રત્ન, પદ્યરાગ વગેરે, આ બધાં ઉત્તમ અકુખ્ય ધન છે. આ ને माय छे. "समाभरिया उज्जालंकियाणं' 4 पहनी याच्या प्रभार छ -241 विशेष भूत ५६ छे. अने, 'दासाणं दासीणं' वगेरे यहोर्नु विशेष थे. આભૂષણોથી ભૂષિત થવું તેનું નામ સમાજરિત છે. ઝલરી વગેરેથી અલંકૃત થવું તે આદ્યાલંકૃત છે. તાત્પર્ય આ પ્રમાણે છે “આ ભૂષણોથી ભૂષિત થયેલાં દાસીદાસ વગેરેની પ્રાપ્તિ થવી તેમજ ઝલરી વગેરે વાદ્યોથી અલંકૃત थये। हाथी पोरेनी प्राति थी मा मिश्र माय छे. ॥ सूत्र-२४४ ॥ -
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अनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र २४५ क्षपणानिरूपणम् पणत्ता, तं जहा-जाणयसरीरदव्यज्झवणा भवियसरीरदबज्झवणा जाणयसरीरभवियसरीरवइरित्ता दवझवणा। से किं तं जाणयसरीरदव्वज्झवणा ? जाणयसरीरदव्वज्झवणा? ज्झवणापत्थयाहिगार जाणयस्स जं सरीरयं ववगयचुयचावियचत्तदेहं सेसं जहा दव्वज्झयणे, जाव से तं जाणयसरीर दवज्झवणा। से कि तं भवियसरीरदव्यज्झवणा? भवियसरीरदव्यज्झवणा जे जीवे जोणिजम्मगणिक्खंते सेसं जहादवज्झयणे, जाव से तं भवियसरीरदव्यज्झवणा।से कि तं जाणयसरीरभवियसरीरवइरित्ता दवझवणा? जागयसरीरभवियसरीरवइरित्ता दवझवणा-जहा जाणयसरीरभवियसरीरवइरित्ते दवाए तहा भाणियवा। जाव से तं मीलिया। से तं लोगुत्तरिया।से तं जाणयसरीरभवियसरीरवइरित्ता दव्यज्झवणा। से तं नो आगमओ दव्यज्झवणा। से तं दवज्झवणा। से कि तं भावज्झवणा? भावज्झवणा-दुविहा पण्णत्ता, तंअहा-आगमओ यणो आगमओ य । से किं तं आगमओ भावज्झवणा? आगमओ भावझवणा-जाणए उववत्ते। से तं आगमओ भाव. ज्झवणा। से किं तं णो आगमओ भावझवणा? णो आगमओ भावज्झवणा-दुविहा पण्णत्ता, तं जहा-पसत्था य अपसत्था य। से किं तं पसत्था ? पसत्था-तिविहा पण्णत्ता, तं जहा-नाणज्झवणा दंसणज्झवणा चरित्तज्झवणा। से तं पसत्था। से कि तं अपसत्था ? अपसत्था-चउब्विहा पण्णत्ता, तं जहा
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अनुयोगद्वारसूत्र कोहज्झवणा माणज्झवणा मायज्झवणा, लोहज्झवणा। से तं अपसत्था। से तं नो आगमओ भावज्झवणा। से तं भावज्झ. वणा।से तं ज्झवणा। से तं ओहनिप्फण्णे ॥सू०२४५॥
छाया-अथ का सा क्षपणा ? क्षपणा-चतुर्विधा प्रज्ञप्ता, तद्यथा-नामक्षपणा स्थापनाक्षपणा द्रव्यक्षपणा भावक्षपणा। नामस्थापने पूर्व भणिते । अथ कासा द्रव्यक्षपणा ? द्रव्यक्षपणा-द्विविधा प्रज्ञप्ता, तद्यथा-आगमतश्च नो आगमतश्च । अथ का सा आगमतो द्रव्यक्षपणा? आगमतो द्रव्यक्षपणा-यस्य खलु क्षपणा इति पदं शिक्षितं स्थितं जितं मितं परिजित यावत् तदेतद् आगमतो द्रव्यक्षपणा। अथ का सा नो आगमतो द्रव्यक्षपणा? नो आगमतो द्रव्यक्षपणा त्रिविधा प्रज्ञप्ता तद्यथा-ज्ञायकशरीरद्रव्यक्षपणा, भपशरीरद्रव्यक्षपणा, ज्ञायकशरीरभव्यशरीरव्यतिरिक्ता द्रव्यक्षपणा। अथ का सा ज्ञायकशरीरद्रव्यक्षपणा? ज्ञायक शरीरद्रव्यक्षपणा-क्षपणा-पदार्थाधिकारज्ञायकस्य यत् शरीरक व्यपगतच्युतच्यावितत्यक्तदेह शेष यथा द्रव्याध्ययनं यावत् सैषा ज्ञायकशरीरद्रव्यक्षपणा । अथ का सा भव्यशरीरद्रव्यक्षपणा ? भव्यशरीरद्रव्यक्षपणा-यो जीवो योनिजन्मनिष्क्रान्तः शेषं यथा द्रव्याध्ययनं यावत् सैषा भव्यशरीरद्रव्यक्षपणा । अथ का सा ज्ञायकशरीरभव्यशरीरव्यतिरिक्ता द्रव्यक्षपणा? ज्ञायकशरीरभव्यशरीरव्यतिरिक्ता द्रव्यक्षपणा-यथा ज्ञायकशरीरभविकशरीरव्यतिरिक्तो द्रव्यायस्तथा भणितव्या, यावत् सैषा मिश्रिका । सैषा लोकोत्तरिका । सैषा ज्ञायक शरीरमव्यशरीरव्यतिरिक्ता द्रव्यक्षपणा। सैषा नो आगमतो द्रव्यक्षपणा, सैषाद्रव्यक्षपणा। अथ का सा भावक्षपणा? भावक्षपणा-द्विविधा प्रज्ञप्ता, तद्यथाआगमतश्च नो आगमतश्च । अथ का सा आगमतो भावक्षपणा? आगमतो भाव क्षपणा-ज्ञायक उपयुक्तः। सैपा आगमतो भावक्षपणा। अथ का सानो आगमतो भावक्षपणा?, नो आगमतो भावक्षपणा-द्विविधा प्राप्ता, तद्यथा-प्रशस्ता च अप्रशस्ता च । अथ का सा प्रशस्ता ?, प्रशस्ता-त्रिविधा प्रज्ञप्ता, तद्यथा-ज्ञान क्षपणा दर्शनक्षपणा चारित्रक्षपणा। सैषा प्रशस्ता । अथ का साअप्रशस्ता? अप्रशस्ता-चतुर्विधा प्रज्ञप्ता, तद्यथा-क्रोधक्षपणा मानक्षपणा मायाक्षपणा लोभ क्षपणा । सैषा अप्रशस्ता । सैंपा नो आगमतो भावक्षपणा। सैषा भावक्षपणा । सैषा क्षपणा । तदेतत् ओघनिष्पन्नम् ॥२४५।।
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nagarafar टीका सूत्र २४५ क्षपणानिरूपणम्
टीका--' से किं तं' इत्यादि
'अथ का साक्षपणा ?' इति शिष्यप्रश्नः । उत्तरयति-क्षपणा अपचयो निर्जरा वा । सा नामक्षपणा स्थापनाक्षपणा द्रव्यक्षपणा भावक्षपणेति चतुर्विधा । चतुविधानानां भेदप्रभेदसहितानां व्याख्या पूर्ववत् स्वयं बोध्या । इत्थं सभेदा क्षपणा निरूपितेति सूचयितुमाह-सैपा क्षपणेति । इत्थं च भेदोपभेद सहितः समस्त saroorat निक्षेपः प्ररूपित इति मूचयितुमाह- स एष ओघनिष्पन्न इति । अक्षीणादिषु त्रिष्वपि भावे विचार्यमाणेऽध्ययनमेवाऽऽयोजनीयमिति ।। ०२४५ ॥
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હવે સૂત્રકાર ક્ષપણાનું નિરૂપણ કરે છે.
'से कि' त' उझवणा १' इत्यादि ।
अब सूत्रकार क्षपणा का निरूपण करते हैं-'से किं तं ज्झवणा ?' इत्यादि ।
शब्दार्थ - - (से किं तं झवणा ?) हे भदन्त ! पूर्वप्रक्रान्तक्षपणा का क्या स्वरूप है ? | ( झवणा)
उत्तर -- 'क्षपणा' नाम 'अपचय' अथवा 'निर्जरा' का है। यह क्षपणा (चवित्रहा पण्णत्ता) चार प्रकार की कही गई है । (तं जहा ) जैसे - (नामज्झवणा, ठवणज्झरणा, दव्वज्झवणा, भावज्झवणो) नामक्षपणा, स्थापना क्षपणा, द्रव्पक्षपणा, और भावक्षपणा | भेद प्रभेद सहित इन चारों की व्याख्या पहिले के समान जाननी चाहिये । इस प्रकार से निक्षेप के भेद ओघनिष्पन्न के भेद स्वरूप, क्षपणा का वर्णन जानना चाहिये। इस वर्णन के समाप्त हो जाने पर भेद प्रभेद सहित समस्त ओघनिष्पन निक्षेप का वर्णन समाप्त हो जाता है। अक्षीण, आय और क्षपणा इनका स्वरूप जब अच्छी प्रकार से विचार लिया
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शब्दार्थ - (से कि त ज्झत्रणा) हे लहांत ! पूर्व प्रान्त क्षपणानु *१३५ ठेवु छे ? (झवणा ) 'क्षपणा' नाम 'अययय' अथवा 'निर्भरा'नुं छे. या क्षपा (चउत्रिहा पण्णत्ता) यार प्रहारनी उडेवामां आवेली छे (तजहा) प्रेम (नामज्ञवणा, ठत्रणज्झत्रणा, दव्वज्झत्रणा, भावज्झत्रणा) नाम क्षयथा, સ્થાપના ક્ષપણા, દ્રવ્ય ક્ષપણા અને ભાવ ક્ષપણા' ભેદ પ્રભેદ સહિત આ ચારેચારની વ્યાખ્યા પહેલાં જેવી જ સમજવી જોઇએ. આ પ્રમાણે નિક્ષેપના ભેદ, આદ્યનિષ્પન્નના ભેદ સ્વરૂપ, ક્ષપણાનુ વણ ન જાણવુ જોઇએ, આ વધુન પૂરુ થવાથી ભેદ, પ્રભેદ સહિત સમસ્ત એઘનિષ્પન્ન નિક્ષેપનું વણુન સમાપ્ત થઈ જાય છે. મક્ષીજી, આય, અને ક્ષપણા આ બધાનું સ્વરૂપ જ્યારે સારી રીતે
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अनुयोगद्वारसूत्रे यथ निक्षेपस्य द्वितीयं भेदं नामनिष्पन्नमाह
मूलम्-से किं तं नामनिप्फपणे ? नामनिप्फणे-सामाइए। से समासओ च उबिहे पण्णत्ते, तं जहा-णामसामाइए ठवणा. सामाइए दवसामाइए भावसामाइए। णामठवणाओ पुत्रं भणि. याओ।दवमामाइएवितहेव, जाव सेतं भवियसरीर दवसामाइए। से कितं जाणयसरीरभवियसरीरवइरित्ते दवलामाइए? जाणयसरीरभवियसरीरबारित्ते दवसामाइए-पत्तयपोत्थयलिहिय । से तं जाणयसरीरभवियसरीरवइरिते दवसामाइए। से तं णो आगमओ दवसामाइए। सेतं दबलामाइए। से कितं भावसामाइए? भावसामाइए। दुविहे पण्णत्ते, तं जहा-आगमओ य नो आगमओ। से किं तं आगमओ भावसामाइए? आगमओ भावसामाइए-जाणए उवउत्ते। से तं आगमओ भावसामाइए। से किं तं नो आगमओ भावसामाइए ? नो आगमतो भावसामाइए-"जस्स सामाणिओ, अप्पा, संजमेणियमे तवे । तस्त सामाइयं होइ, इइ केवलिभासियं ॥१॥ जो समो सबभूएसु, तसेसु थावरेसु य । तस्त सामाइयं होइ, इइ केवलिभासियं॥२॥ जह मम ण पियं दुक्खं, जाणिय एमेव सजीवाणं। न हणइ न हणावेई य, सममणइ तेण सो समणो॥३॥णस्थिय से कोई वेदेसो, पियो य सव्वेसु चेव जीवेसु। एएण होइ समणो एसो जाता है तो, अध्ययन का स्वरूप स्वयं ही विचारित हो जाता है। क्योंकि अक्षीण आदि अध्ययन के ही पर्यायवाची शब्द है । सू० २४५ । વિચારવામાં આવે છે. તે અધ્યયનનું સ્વરૂપ સ્વયમેવ વિચારિત થઈ જાય છે. કેમકે અહીણું વગેરે અધ્યયનના જ પર્યાયવાચી શબ્દ છે. એ સત્ર-૨૪૫
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मनुयोगचन्द्रिका टीका सत्र २४६ नामनिष्पन्ननिरूपणम् अन्नोऽवि पज्जाओ॥४॥ उरग गिरिजलणसागर, नहतलतरुगणसमो य जो होइ। भमरमियधरणिजलरुह-रविपवण समो य सो समणो॥५॥तोसमणो जइ सुमणोभावेण य जइण होइ पावमणो। सयणे य जणे य समो, समो य माणावमाणेसु ॥६॥” से तं नो आगमओ भावसामाइए। से तं भावसामाइए। से तं सामाइए। से तं नामानिफण्णे ॥सू० २४६॥
छाया--अथ किं तत् नाम निष्पन्नम् ?, नाम निष्पन्न-सामायिकम् । तत् समासतश्चतुर्विधं प्रज्ञप्त', तद्यथा-नामसामायिकं स्थापनासामायिक द्रव्यसामा. यिक भावसामायिकम् । नामस्थापने पूर्व भणिते। द्रव्यसामायिकमपि तथैव, यावत् तदेतत् भव्यशरीरद्रव्यसामायिकम् । अथ किं तत् ज्ञायकशरीरभव्यशरीरव्यतिरिक्तं द्रव्यसामायिकं ? ज्ञायकशरीरभव्यशरीरव्यतिरिक्तं द्रव्यसामायिक - पत्रकपुस्तकलिखितम् । तदेतत् ज्ञायकशरीरभव्यशरीरव्यतिरिक्त द्रव्यसामायिकम् । तदेतत् नो आगमतो द्रव्यसामायिकम् । तदेतत् द्रव्यसामायिकम् । अथ कि तद् भावसामायितम् ? भावसामायिकं द्विविधं प्रज्ञप्त, तद्यथा -आगमतश्च नो आगमतश्च । अथ किं तत् आगमतो भावसामायिकम् ? आगमतो भावसामायिक-ज्ञायक उपयुक्तः। तदेतत् आगमतो भावसामायिकम् । अथ किं तत् नो आगमतो भावसामायिकं ? नो आगमतो भावसामायिकं-यस्य सामानिकः आत्मा, संयमे नियमे तपसि । तस्य सामायिकं भवति, इति केवलिभाषितम् ॥१॥ यः समः सर्वभूतेषु, त्रसेषु स्थावरेषुच । तस्य सामायिकं भवति, इति केवलिभाषितम् ॥२॥ यथा मम न प्रियं दुःखं, ज्ञात्वा एवमेव सर्वजीवानाम् । न हन्ति न घातयति च समं मन्यते तेन सः श्रमणः ॥३॥ नास्ति च तस्य कोऽपि द्वेष्यः पियश्च सर्वेषु चैव जीवेषु । एतेन भवति श्रमणः एषः अन्योऽपि पर्यायः ॥४॥ उरगगिरिज्वलनसागरनभस्तल तरुगणसमश्च यो भवति । भ्रमरमृगधरणि नलरुहरविपवनसमश्च स श्रमणः ॥५॥ ततः श्रमणो यदि सुमनाः भावेन च यदि न भवति पापमनाः । स्वजने च जने च समः समश्च मानापमानयोः ॥६॥ तदेतद् नो आगमतो भावसामायिकम् । तदेतद् भावसामायिकम् । तदेतत सामायिकम् । तदेतद् नामनिष्पन्नम् ॥२४६॥ ..... ..
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७६०
अनुयोगद्वारसूत्रे टीका-- 'से कि त' इत्यादि
'अथ किं तद् नामनिष्पन्नम् ?' इति शिष्यपश्नः। उत्तरयति-नामनिष्पन्न -सामायिकम् । अध्ययनाक्षीणायपेक्षया सामायिकमिति विशेषनाम । सामायिकमिति चतुर्विंशतिस्तवादीनामप्युपलक्षणम् । तत्सामायिकं नामसामायिकस्थापना सामायिकद्रव्यसामायिकभावसामायिकेति चतुर्विधम् । तत्र नामसामायिक स्थापनासामायिक द्रव्यसामायिकं च नामावश्यकादिवत् व्याख्येयम् । भाव
अब सूत्रकार निक्षेत्र के द्वितीय भेद नामनिष्पन्न का कथन करते हैं--'से किं तं नामनिष्फण्णे ?' इत्यादि
शब्दार्थ--(से कितनामनिप्फण्णे ?) हे भदन्त ! नामनिष्पन का क्या स्वरूप है ? पूछनेवाले का यह अभिप्राय है कि- 'जो निक्षेप नाम निष्पन्न होता है उसका क्या तात्पर्य है ?"
उत्तर--(नाम निष्फणे सामाइए) नाम निष्पन्न सामायिक है। अध्ययन अक्षीण आदि की अपेक्षा 'सामायिक' यह नाम विशेष नाम है तथा सामायिक ऐसा विशेषनाम चतुर्विंशतिस्तव आदि का उपलक्षक होता है । इसलिये 'सामायिक' ऐसा नाम 'नाम निष्पन्न नाम' है । (से समासओ चउबिहे पण्णत्ते) वह सामायिक चार प्रकार का कहा गया है । (तं जहा। जैसे (णाममामाइए ठवणासामाइए दव सामाहए) नामसामायिक, स्थापनासामायिक, द्रव्यमामायिक, भावसामायिक । (नामठवणाओ पुत्वं भणियाओ) इनमें नाम सामा.
હવે સૂત્રકાર નિક્ષેપના દ્વિતીય ભેદ નામ નિષ્પન્નનું કથન કરે છે – 'से कि त नाम निष्फण्णे ?' इत्यादि ।
Avat--(से कि त नामनिप्पण्णे ?) 3 लत ! नाम निपननु સ્વરૂપ કેવું છે? પૂછનારને આ અભિપ્રાય છે કે જે નિક્ષેપ નામ નિષ્પન્ન હોય તેનું શું તાત્પર્ય છે?
उत्तर--(नामनिष्फण्णे सामाइए) नाम नियन्न सामयि छे. अध्ययन અક્ષીણ વગેરેની અપેક્ષાએ “સામાયિક આ નામ વિશેષ નામ છે, તેમજ સામાયિક એવું વિશેષ નામ ચતુર્વિશતિ સ્તવ આદિને ઉપલક્ષક હોય છે. सया सामायि' से 'नाम' नि0पन्न नाम छे. (से समाओ चउबिहे पण्णत्ते) ते सामायिनी या प्रा। अपामा मावेल छे (तजहा) अभ (णामसामाइए ठवणासामाइए, दव्वसमाइए भावसामाइए) नाम सामायि४, स्थापना समावि, द्र०य सामा४ि, मा सामायि: (नाम ठवणाओ पुत्वं
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अनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र २४६ नामनिष्पन्न निरूपणम् यिक और स्थापना सामायिक का स्वरूप नाम आवश्यक एवं स्थापना आवश्यक के जसे जानना चाहिये! (दयनामाइए वि तहेव जाव से तं भवियसरीरदब्वमामाइए) तथा द्रव्य सामायिक का स्वरूप भी द्रव्य आवश्यक के जैसा ही जानना चाहिये । और यह द्रव्य सामायिक का स्वरूप द्रव्य आवश्यक के जैसा वहां तक ही जानना चाहिये कि जहां भषशरीर द्रव्यमामायिक का कथन समाप्त होता है। (से किं तं जोगयसरीरभवियसरीरबहरित्ते दव्य सामाइए ?) हे भदंत! ज्ञाय शरीर भवपशरीर व्यतिरिक्त द्रव्य सामा. यिक क्या है ?
उत्तर--(जाणयसरीरभवियसरीरबहरिते दम्वसामाइए पत्ता यपोस्थय लिहिए) ज्ञायकशरीर भव्यशरीर व्यतिरिक्त द्रव्यसामायिक पत्र पुस्तक में लिखित । 'करेमि भंते सामाइयं' इत्यादि पाठ है। (से तं जाणयसरीरभविएसरीरवारित्ते दवसामाइए ) इस प्रकार यही ज्ञायकशरीर भव्यशरीरव्यतिरिक्त द्रव्य मामायिक का स्वरूप जानना चाहिये । (से तणो आगमओ दवलामाइए) इस प्रकार नो आगम की अपेक्षा यह द्रव्य सामायिक का स्वरूप कथन है। (से कि त भावसामाइए?) भदन्त ! भावसामायिक क्या है ? (भाव सामाभणियाओ) मामा नामसामयि: भने स्थापना सामायिनु २२३५ नाम मा५१५४ अने स्थापना भा१श्य नी म one से . (दव्व सामाइए वि तहेव जाव से त भवियसरीरदवसामाइए) तभा द्रव्य સામાયિકનું સ્વરૂપ પણ દ્રવ્ય આવશ્યકની જેમજ જાણું લેવું જોઈએ, અને આ દ્રવ્ય સામાયિકનું સ્વરૂપ દ્રવ્ય આવશ્યકની જેમ ત્યાં સુધી જ જાણવું. જોઈએ કે જ્યાં સુધી ભવ્ય શરીર દ્રવ્ય સામાયિકનું કથન સમાપ્ત થાય છે. (से कि' त' जाणयसरिरभवियसरीरवइरित्ते दवसामाइए १) महत! ज्ञाय શરીર ભવ્ય શરીર વ્યતિરિક્ત દ્રવ્ય સામાયિક શું છે?
उत्तर--(जाणयसरीरभ वेयसरीरवइरित्ते दरसामाइए पत्तयपोत्थय लिहिए) જ્ઞાયક શરીર ભવ્ય શરીર વ્યતિરિક્ત દ્રવ્ય સામાયિક પત્ર પુસ્તકમાં वि1ि 'करेमि भंते सामाइयं' त्या ५४ छ (से त जाण यसरीरभवियसरीरवहरिते दवसामाइए) मा प्रा शायशश२ सयशरीर व्यतिक्षित द्र०य सामायिनु २५३५ ०not a ने मे. (से तणो आगमओ दव्वसामाइए) 241 प्रमाणे ने मारामानी अपेक्षा से द्रव्य सामायिन २१३५नु
अ० ९६
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अनुयोगद्वारसूत्रे सामाथिकं तु आगमतो नो आगमतो भेदेन द्विविधं प्रज्ञप्तम् । तत्र आगमतो भाव. सामायिक-ज्ञायक उपयुक्तो बोध्यम् । नो आगमतो भावसामायिकं यथा भवति तथहि-'जस्स सामाणिो अप्पा' इत्यादि गाथा षट्केन । अयं भावः-यस्य मनुष्यस्य मूलगुणरूपे संयमे उत्तरगुण - मूहरूपे नियमे तपसि-अनशनादौ च इए दुबिहे पण्णत्ते) भाव सामायिक दो प्रकार को है । (तं जहा) जैसे (आगमओ य नो आगमओ य) एक आगम से दूसरा नो आगम से (से कि तं आगम भो भावसामाइए ) हे भदन्त ! आगम से भाव सामायिक क्या है? __उत्तर--(आगमओ भावसामाइए-जाणए उवउत्ते-से तं आग. मओ भावसामाइए) आगम से भावसामायिक ज्ञायक उपयुक्त है। अर्थात् सामायिक इस पदका जो ज्ञाता है और उसमें उसका उपयोग है, ऐसा वह ज्ञायक आश्मा आगम की अपेक्षा भावसामा यिक है। (से कि तं नो आगमओ भावसामाइए) हे भदन्त ! नो आगम की अपेक्षा भाव सामायिक क्या है ? ___ उत्तर--(नो आगमओ भोवलामाइए ) नो आगम की अपेक्षा भावसामायिक इसमकार से है-(जस्त सामाणिो अप्पा संजमे. णियमे तवे । तस्स सामाइयं होह, इह के वलि भासिय १। जिस मनुष्य 3थन छे. (से कि त भावमामाइए १) महत! मासामायि छ ? (भावसामाइए दुविहे पण् गत्ते) मावसामाथि ये मारना छे. (तजहा) २ (आगमओ य नो आगम ओ य) से मामयी मने द्वितीय ना मामथी (से कि त आगमओ भावसामाइए) 3 महत! माथी मार સામાયિક શું છે?
उत्तर--(आगमओ भावसामइए-जाणर उवउत्ते-से त आगमओ भावसामाइए) मामथा मासामायि ज्ञाय ७५युत छ. मेटले है સામાયિક આ પદને જે જ્ઞાતા છે અને તેમાં તેનો ઉપયોગ છે, એ તે જ્ઞાપક मामा मागमती अपेक्षाये लापसामाथि छ. (से कि त नोआगमओ भावसामाइए) ! RL Amमनी अपेक्षा माप सामायि शुछे ?
उत्तर-(नो आगमओ भावसामाइए) नो सामनी अपेक्षा सार सामायि: ॥ प्रमाणे छे. (जस्स सामाणिओ अप्पा संजमे णियमे तवे तस्स सामाइयं होइ, इइ केवलिभासिय ॥१॥) २ मनुष्यनी मात्मा भूखशुए
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अनुयोगवन्द्रिका टीका सूत्र २४६ नामनिष्पन्ननिरूपणम्
७६३ आत्मा सामानिकः सर्वकालं पापारणात् सन्निहितो भवति, तस्यैवंभूतस्य मनुष्यस्य सामायिकं भवति, इति अमुना प्रकारेण केलिभाषितम् सर्वज्ञोक्त मस्ति ॥१॥ तथा-'जो समो' इत्यादि । यो मनुष्यः सर्वभूनेषु सर्वप्राणिषु, एता. नेव विवेकतः पाह-त्रसेषु स्थाारेषु च त्रसस्थावरलक्षणेषु सर्वप्राणिषु समः मैत्रीभावपरिग्रहणात् तुल्यो भवति, तस्य सामायिकं भवतीति केवलिभाषितमस्तीति। जीवेषु समत्वं सं रमसानिध्यप्रतिपादनात् पूर्वगाथायामपि लभ्यते एव, तथापि जीवदयामूलत्वाद् धर्मस्य तत्वाधान्यख्यापनार्थ पृथगुक्तमिति ॥२॥ की आत्मा मूलगु गरूप संयत्र में उत्तरगुणसमूहरूप नियम में और अनशन आदि रूप तप में सर्वकाल लगी रहती है, उस मनुष्य के सामायिक होता है, ऐसा केवली भगवान् का कथन है। (जो समोसम्वभूएसु तसेसु थावरेसु य । तस्स सामाइयं होइ, इह केवलि भासिय) जो मनुष्य समस्त त्रस और स्थावररूपप्राणियों के ऊपरमैत्री भाव रखने से समभाव का धारक होता है-अर्थात्-समस्त प्राणियों को अपने तुल्य मानता है-उसके सामायिक होती है, ऐसा केवलि भगवान का कथन है ।
शंका-प्रथम गाथा में जब यह कहा है कि-'जो मनुष्य संयम के पालन में सदा सावधान रहता है। तब इस से यह बात लभ्य हो ही जाती है कि वह जीवों के जार समता भाव रखता है। फिर इस द्वितीय गाथा में उसके प्रतिपादन करने की क्या आवश्यकता थी?
उत्तर--धात तो ठीक है-परन्तु धर्म जीव दयामूल होता है इसकी अर्थात् जीव दया प्रधानता कहने के लिये इसे पृथकरूप से प्रतिपादित રૂપ સંયમમાં ઉત્તરગુણ સમૂહ રૂપ નિયમમાં અને અનશન વગેરે રૂપ તપમાં સર્વકાળ સંલગ્ન રહે છે, તે મનુષ્યને સામાયિક હોય છે, એવું કેવલિ. भगवान थन छ. 'जो समो सधभूएसु तसेसु थावरे सु य तस्स सामाइय होइ, इइ केलिभासिय) हे मनुष्य समस्त स स स्था१२३५ प्राणिया प्रत्ये મકીભાવ રાખીને સમભાવ ધારક બને છે, એટલે કે સમસ્ત પ્રાણિઓને પિતાની જેમ જ માને છે, તેને સામાયિક હોય છે, એવું કેવલિ ભગવાનનું કથન છે.
શકા--પ્રથમ ગાથામાં જ્યારે એમ કહેવામાં આવ્યું છે કે જે માણસ સંયમના પાલનમાં સર્વદા સાવધાન રહે છે, ત્યારે એકતાથી આ વાત લભ્ય થઈ જ જાય છે કે તે જીવોની ઉપર સમતા ભાવ રાખે છે, પછી આ દ્વિતીય " ગાથામાં ફરી તે વિષે પ્રતિપાદન કરવાની શી આવશ્યકતા હતી ?
ઉત્તર--વાત તે બરાબર છે. પરંતુ ધર્મ જીવદયા મૂળ હેય છે. આની એટલે કે જીવદયાની પ્રધાનતા કહેવા માટે અને પૃથક રૂપમાં
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७६४
___ अनुयोगद्वारसूत्रे यदा हि सर्वभूतेषु साम्यग्दृष्टिर्भवति तदैव श्रमणत्वमुपलभ्यते, एवंविध एव साधुः श्रमणो भण्यते इत्याह-'जह मम ण' इत्यादि। यथा मम दुःख-वधताडनादिजनितं पियं न भवति, एवमेव सर्वजीवानामपि दुःखं प्रियं न भवति, इति ज्ञात्वा =मनसि विचार्य यः समस्तानपि पाणिनो न स्वयं इन्ति, न चान्यैर्यातयति, चस्योपलक्षणवाद नतश्चान्यानपि नानुमोदते, प्रत्युत समस्तमपिजीवजातंसं-समं =स्वात्मतुल्यं अणतिमन्यते, तेन हेतुना स समण इभ्युच्यते ॥३॥ इत्थं समं मन्यते सनिपि जीवान् यः स श्राण इत्येवं निर्वचनेन एक पर्यायम् उक्त्वा सम्पति किया है। (जह मम ण पियं दुक्ख, एमेव सव्वजीवाणं, न हणइ, न हणावेह य समणइ तेण सो समणो) जब समस्त भूतों के कार साम्पदृष्टि होती है । तभी श्रमणत्व प्राप्त होता है-ऐसा ही साधु श्रमण कहलाता है-इसी बात को इस गाथा द्वारा कहा जा रहा है। जिस प्रकार वधताडन आदि जन्य दुःख मुझे प्रिय नहीं लगता है उसी प्रकार से समस्त जीवों को भी वह दुःख प्रिय नहीं लगता है। ऐसा मन में विचार करके जो मनुष्य समस्तप्राणियों को स्वयं नहीं मारता हैं, दूसरों से उन्हें नहीं मरवाता है, और चकार से उन्हें मारनेवालों की अनुमोदना नहीं करता है, प्रत्युत समस्त भी जीवजातको अपने समान मानता है इसी कारण वह श्रमण कहा जाता है। इस प्रकार जो 'समं मन्यते सर्वानपि जीवान यः सः श्रमणः' समस्त जीवों को आत्मोपम्यरूप से मानता है, देखता है- वह श्रमण है। इस प्रकार श्रमण शब्द के निवेचन से श्रमणरूप एकपर्याय कहकर अब 'समं. प्रतिपहित ४२ छ. (जह मम ण पिय दुक्खं, एमेव सबजीवाणं, न हणइ, न हणावेइ य समणइ तेण सो समणो) पारे समस्त भूत। प्रत्ये सभ्यष्टि हाय छे, त्यारे । श्रमत्व प्राप्त थाय छे. ३॥ साधुन समण (श्रम) 3. વામાં આવે છે. જેમ વધ, તાડન વગેરે જન્ય દુઃખ મને ગમતા નથી. તેમજ તે સમસ્ત જીવેને પણ તે દુઃખ પ્રિય લાગતું નથી. આમ મનમાં વિચારીને જે માણસ સમસ્ત પ્રાણિઓને પિતે મારતું નથી, બીજા પાસે તેમની વિરાધના કરાવતું નથી અને ચકારથી તેમની વિરાધના કરનારાઓની અનુમોદના કરતે નથી, અને સમસ્ત અને પિતાની જેમ જ માને છે, તેથી જ તે શ્રમણ
उपाय छे. भा प्रभारी २ "सम मन्यते सर्वानपि जीवान् यः सः श्रमणः" સમસ્ત જીવેને આત્મૌપમ્ય રૂપથી જૂએ છે, માને છે, તે શ્રમણ છે. આ प्रमाणे श्रम शन नियनथी अभय ३५ मे पर्याय दीन व 'मम
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aartrefront free eत्र २४६ नामनिष्पन्ननिरूपणम्
७६५
सम मनोऽस्येति समनाः, स एव श्रमण इति श्रमणशब्दस्य पूर्ववैलक्षण्येन निर्दचनं कृत्वा पर्यायान्तरमपि भवितुमईतीति प्रदर्शयितुमाह- 'स्थिय से' इत्यादि । तस्य सममनस्कत्वात् सर्वेषु चैव त्रापि जीवेषु न कश्चिद् द्वेष्यः =अभियः प्रियः = मेवा अस्ति । एतेन हेतुना स श्रमः सममता एव निरुक्तरीत्या श्रमणो भवति । एव श्रवणस्य अन्योऽपि पूर्वविलक्षणः पर्यायो योग्य इति ॥ ४ ॥ ॥ इत्थं सामायिकयुक्तस्य साधोः स्वरूपं निरूप प्रकारान्तरेण पुनस्तन्निरूपयति- 'उरग' मनोऽस्येति समनाः' इस निर्वचन से उसमें सममनसूरूप श्रमणता का प्रतिपादन करते हैं जो पहिले निर्वाचन की अपेक्षा से भिन्न है । (नस्थि य से कोइ देसेापियो य सच्चे चेव जीवेसु, एएण होइ समणो एमो अन्नोऽपिज्जाओ) समस्त जीवों के ऊपर सममनवाला होने के कारण जीवों में से जिसका कोई भी जीव द्वेष्य (द्वेष करने लायक नहीं है, और न कोई जीव जिसे प्रिय हैं- प्रेमाश्रय है - इस श्रमण ? शब्द की निरुक्ति से सममनवाला जीव श्रमण कहलाता है। भ्रमण शब्द की पहिले की अपेक्षा दूसरी प्रकार की निरुक्ति है। इस निरुक्ति की रीति के अनुसार 'समं मनोऽस्येति समनाः समना एवं श्रमण:' समनस् यह शब्द भी श्रमण शब्द का पर्यायवाची शब्द होता है । क्योंकि जो सममनवाला होता है, वही श्रमण होता है । इस प्रकार सामायिक युक्त साधु के स्वरूप का निरूपण कर के प्रकारान्तर से पुनः उसका निरूपण सूत्रकार करते हैं - ( उरगगिरिजलण सागर नहतल तरुगण - समो य जो
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मनोऽस्येति भ्रमनाः” मा निर्वाचनधी तेमां सममन३५ श्रमश्रुतानु प्रतिपादन १३ छे, ने प्रथम निर्वाचननी अपेक्षा मे लिन्न छे, (णत्थि य से कोइ देसो पियो य सव्वेसु चेव जीवेसु, एएण होइ भ्रमणो एसो अन्नोऽवि पज्जाओ) સમસ્ત જીવેા પર સમમનવાળા હાવાથી જીવમાંથી જેને કાઇ પણ અદ્વેષ્ય (द्वेष रखा योग्य) नयी, अनेन हो भेने प्रिय है, प्रेमाश्रय छे, भा શ્રમણ શબ્દની નિરુક્તિથી સમમનવાળા જીવ-શ્રમણુ કહેવામાં આવે છે. આ શ્રમણ શબ્દની પહેલાની અપેક્ષાએ ત્રીજી નિરુક્તિ છે. આ નિરુક્તિ મુજબ 'समं मनेोऽस्येति समनाः, समना एव श्रमणः ' समनस् मा शब्द पशु श्रमश શબ્દને પર્યાયવાચી શબ્દ છે. કેમ કે જે સમમનવાળા હોય છે, તેજ શ્રમણુ હૈાય છે. આ પ્રમાણે સામાયિકયુક્ત સાધુના સ્વરૂપનુ' નિરૂપણુ કરીને अकारान्तरथी श्री तेनुं नि३पशु ४२ छे. ( उरगगिरि जलणसागर नहतलत रुगणसमो ब जो होइ, भमर, मियधरणि जलरुहर विपवणसमो य सो भ्रमणो) भेव नियम
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७६६
अनुयोगद्वारसूत्रे
इत्यादि । द्वन्द्वौ द्वन्द्वान्ते वा श्रमाणं पदं प्रत्येकमभिसंबध्यते' इति न्यायात् 'सम' शब्दस्य उरगादौ पत्येक सम्बन्धः । तत उरगसमः = परकृतगृहे निवासात् सर्वसमः, तथा परीपहोपसर्गे सम्प्राप्तेऽपि निष्मकम्पत्वाद् गिरिममः - पर्वतवद कम्प्य इत्यर्थः । तथा-ज्वलनसमः - तपस्तेजः - समन्वितत्वादग्नितुल्यः यथा वा वह्निस्तृणादिषु न तृप्यति तथाऽयमपि सूत्रार्थेषु न तृप्यति, तताऽप्यत्र जलनसमो बोध्यः । तथा - सागरसनः - गम्भीरस्वभावत्वाद् ज्ञानादिगुणरत्नानामाकरत्वात्
होइ, भमर-मिय- धरणि- जलरुह - रवि-पवणस्मो य सो समणो) ऐसा नियम है कि द्वन्द्व समास की आदि में अथवा द्वन्द्व समासके अन्त में जो पद होता है वह प्रत्येक पद के साथ संबंधित किया जाता है । इस नियम के अनुसार सम शब्द का उरग आदि प्रत्येक के साथ सम्बन्ध कर लेना चाहिये । एतावता उरग सम गिरिसम, जलण सम इत्यादिरूप से इन शब्दों को समझना चाहिये । यह श्रमण उरग सम-परकृतगृह में निवास से उरग- सर्प जैसा होता है । तथा गिरिसम परीपह और उपसर्ग के आने पर भी निष्प्रकम्प होने के कारण पर्वत के जैसा होता है, अर्थात् पर्वत के समान अवस्य होता है । ज्वलन सम-तप जन्य तेज से समन्वित होने के कारण जो अग्नितुल्य होता है, अथवा अग्नि जिस प्रकार तृणादिकों से तृप्त नहीं होता है, उसी प्रकार यह श्रमण भी सूत्रों और उनके अर्थों में तृप्त नहीं होना है। तथा सागर सम-जिस प्रकार समुद्र गंभीर स्वभाव का
કે હૈં'દ્વ સમાસની પૂર્વે અથવા દ્વન્દ્વ સમાસના અંતમાં જે પદ્મ હાય છે, તે દરેકે દરેક પદની સાથે સંબધિત કરવામાં આવે છે. આ નિયમ મુજબ સમ શબ્દને ઉરગ વગેરે દરેકની સાથે સ'ખ'ધ બેસાડી લેવા જોઇએ આ પ્રમાણે જ ઉરગસમ, ગિરિસમ, જતણુસમ વગેરે રૂપથી આ શબ્દોને સમજી લેવા જોઇએ આ શ્રમણ-ઉરગ-સમ પરકૃતગૃહમાં નિવાસથી ઉરગ-સર્પ જેવા હાય છે. તેમજ ગિરિસમ પરીષહ અને ઉપસર્ગ આવવાથી પણ નિપ્રકલ્પ હાવા ખદલ પત્રત જેવા હ્રાય છે, એટલે કે પતિની જેમ અકપ હોય છે. જ્વલન સમ તપજન્ય તેજથી સમન્વિત હાવા ખદલ જે અગ્નિ તુલ્ય હાય છે, અથવા અગ્નિ જેમ તૃણાદિકથી તૃપ્ત થતા નથી, તેમજ આ શ્રમણ પણ સૂત્રો અને તેના અર્થોમાં તૃપ્ત થા નથી. સાગરસમ-જેમ સમુદ્ર ગ`ભીર સ્વભાવ યુક્ત હોય છે, રત્નાકર હાય છે, અને મર્યાદાપાલક હોય છે, તેમજ આ
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अनुयोगन्द्रिका टीका सत्र २४६ नामनिष्पन्ननिरूपणम् साधुमर्यादानुलनाच्चायं समुद्रतुल्यः । तथा-नभस्तलसम:-नभस्तलं यथा निरालम्ब भवति तथैवायमपि सर्वत्रालम्बनरहितो भवति, अत एवायं नभस्तलतुल्य इत्युच्यते । तथा तरुगणसमः-तरुणो यथा सेचके छेद के च सम एव भवति, तथैवायमपि निन्द के प्रशंसके च समवृत्ति भवति, न च निन्दया प्रशंसया वाऽस्य विक्रिया जायते, अतोऽयं तरुगणसमश्वायमुच्यते । एवं विधश्च यो भवति । तथा च-भ्रमरसमः-भ्रमरो यथा प्रतिपुष्पादीषदीपद्रसमुच्चिनुते तथैवायमपि प्रतिगृहात् किंचिस्किचित् अ हारादिकं गृह्णाति, अनोऽयं भ्रमरसम इत्युच्यते । तथा-मृगसमः यथा मृगोऽनिर्श चकितचित्तस्तिष्ठति, तथैवायमपि संसारभयाञ्चक्तिचित्तस्तिष्ठहोता है, रत्नों का आकर होता है मर्यादा का पालक होता है, उसी प्रकार यह भी गंभीर स्वभाववाला होता है, ज्ञानादिगुण रत्नों का पिटारा होता है और साधु मर्यादा का उल्लंघन कत्ती नहीं होता है इस प्रकार से समुद्र के जमा होता है। तथा यह नभस्तल जैसा होता हैं जैसे आकाश आलंबन विना का है-उसी प्रकार यह भी सर्वत्र आलं. पन रहित है। तथा यह तरुगणसम होता है-जैसे तरुण सींचनेवाले के ऊपर और अपने को काटनेवाले के ऊपर सम अवस्थावाले रहा करते हैं, उसी प्रकार यह भी अपनी निंदा करनेवाले के ऊपर सदा समवृत्ति रखता है । निन्दा से जिसके चित्त में दुःख नहीं होता और अपनी प्रशंसा से जिसके मन में प्रमोद नहीं होता है, इस प्रकार का होता है। तथा यह भ्रमर सम होता है-जैसे भ्रमर हरएक पुष्प से थोडा थोडारस संगृहीत करता है, उसी प्रकार यह भी हरएक घर से थोडा २ आहारादिक ग्रहण करता है। तथा यह मृगसम होता है-जैसे मृग પણ ગંભીર સ્વભાવ યુક્ત હોય છે, જ્ઞાનાદિ ગુગ રૂપ રત્નને પિટક (પટારે) હોય છે અને સાધુ મર્યાદાનું ઉલ્લંઘન કરતા નથી, એથી જ તે સમુદ્ર જે હોય છે. તેમજ નભસ્તલ જે હોય છે, જેમ આકાશ આલંબન વગર હોય છે, તેમ જ આ પણ સર્વત્ર આલંબન રહિત હોય છે. તેમજ આ તરુગણુ સમ હોય છે, જેમ તરુગણ સિંચિત કરનારા પ્રત્યે સમભાવ રાખે છે, તેમજ કાપનારા પ્રત્યે પણ સમભાવ રાખે છે, તેમજ આ પણ પિતાની નિંદા કરનારા પ્રત્યે તથા પિતાની પ્રશંસા કરનારા પ્રત્યે સદા સમવૃનિ રાખે છે. નિંદાથી જેના ચિત્તમાં દુઃખ ઉત્પન્ન થતું નથી અને સ્વપ્રશંસાથી જેના મનમાં પ્રમાદ થતો નથી, એ જ તે હોય છે. તેમજ આ બ્રગર સમ હેય છે. જેમ ભ્રમર દરેકે દરેક પુરપથી થોડો
ડે રસ સંગૃહીત કરે છે, તેમજ આ પણ દરેકે દરેક ઘેરથી સ્વ૫ આહારદિક ગ્રહણ કરે છે. તેમજ આ મૃગ જેવું હોય છે, જેમ મૃગ સદા ભયભીત
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अनुयोगद्वारस्त्रे तीति मृगसम इत्युच्यते । तथा-धरणिसमः-धरणियथा सर्व सहाभवति, तथैवायमपि सर्व सहो भनीत्यस्य धरणीतुल्यता बोध्या। तथा-जलरुहसमः- जलरहपनं तत्समः । अयं भावा-यथा-पद्म पङ्काजातं जलात् संवदितमपि ताभ्यामलिप्तं भवति तथैवायमपि संसारे समुम्पन्नः संदितोऽपि संपारादलिप्त एव तिष्ठीते। तथा-रविसमा-यथा रविः सर्वप्रकाशको भवति तथैलायमपि धर्मास्तिकायादिसमरत बस्तुज तं साकल्येन प्रकाशयतीति भावः। तथा-पचनसम:-पवनो यथा सर्वत्रापतिहतगतिभाति तथैवायमपि सर्वत्राऽपतिबद्धविहरणशीलो भवतीति । एवं भूतश्च यो भवति स श्रषण इत्युच्यते ॥५॥ एवंगुणविशिष्टश्च श्रमणस्तदैव सदा भयभीतचित्त रहता है, उसी प्रकार यह भी संसार के भय से पकित चित्त रहता है। तथा यह घरणिसम होता है, जैसे पृथिवी सप कुछ सहन करती है, उसी प्रकार यह भी सर्वसह होता है । तथा यह जलरुह सम होता है-जिस प्रकार जलरुह कमल-पंक से उत्पन्न होता है और जल से संवर्द्धिन होता है, तो भी इन दोनों से अलिप्त रहता है-उसो प्रकार यह भी संसार में उत्पन्न होकर और संमार में ही यहार उससे अलिप्त ही रहता है । तथा यह रविसम होता है-जैसे सूर्य प्रकाश होता है, उसी प्रकार यह भी धर्मास्तिकायादिरूप समस्त वस्तुजात का सम्पूर्ण रूप से प्रकाशक होता है, तथा यह पवन सम होता है-जिस प्रकार वायु मर्वत्र अप्रतिहत गतिवाला है। उसी प्रकार यह भी सर्वत्र अप्रतिबद्ध विहरणशील होता है। ऐसा जो होता है, वह श्रमण कहलाता है। इन गुगों से विशिष्ट श्रमण तभी होता है। ચિત્ત થઈને રહે છે, તેમજ આ પણ સંસારના ભપથી ચકિત ચિત્ત રહે છે. તથા આ ધરણિસમ હોય છે, જેમ પૃથિવી બધું સહન કરે છે, તેમજ આ પણ સર્વસડ હોય છે. તેમજ આ જલરુહ સમ હોય છે, જેમ જલરુકમળ-પકથી ઉત્પન્ન થાય છે અને પાણીથી સંવન્દ્રિત થાય છે, છતાંએ એએ બનેથી અલિપ્ત રહે છે તેમજ આ પણ સંસારમાં ઉત્પન્ન થઈને અને સંસારમાં જ સંપદ્ધિત થઈને તેનાથી અલિપ્ત જ રહે છે તથા આ રવિ સમ છે, જેમ સૂર્ય સર્વ પ્રકાશક હોય છે તેમજ આ પણ ધર્માસ્તિકાયાદિ રૂપ સમસ્ત વસ્તુ જાતને સંપૂર્ણપણે પ્રકાશક હોય છે, તથા આ પવન સમ હોય છે, જેમ વાયુ સર્વત્ર આ પ્રતિહત ગતિ કંપન્ન હોય છે. તેમજ આ પણ સર્વત્ર અપ્રતિબદ્ધ વિહરણશીલ હોય છે. એ જે હોય છે તે શ્રમણ કહેવાય છે. આ સર્વગુણથી વિશિષ્ટ શ્રમણ ત્યારે જ કહેવાય છે કે જ્યારે
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मनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र २४६ नामनिष्पन्ननिरूपणम् भवति यदाऽस्य शोभनं मनो भवति इति तदेव दर्शयितुमाह-'तो समणो' इत्यादि । श्रमणश्च तदा भवति यदि द्रव्यमन आश्रित्य स सुमना भवति, तथा-भावेन% भावमन आश्रित्य च पापमना न भवति । स एवंविधः श्रमणः स्वजने-मातापिप्रादौ पुत्रकलत्रादौ च जने सर्वसामान्ये जने च समानिर्विशेषो भवति, तथामानापमानयोश्च समो भवति । अयं भावा-श्रमणो हि स्वजनपरजनेषु मानापमानयोश्चाभेदबुद्धिर्भवति । न च स क्याऽपि न्यूनाधिकबुद्धिं कुरुते । इति ॥ इत्यं नो आगमतो भावसामायिकं रूपितमिति सूचयितुमाह-तदेतत् नो आगमतो भावसामायिकमिति । सामायिकाध्ययनं हि ज्ञानक्रियारूपम् , अतस्तद् नो आगकि जब इसका अन्तःकरण शोभन-निर्मल होता है। इसी बात को सूत्रकार अब प्रकट करते हैं-(जो समणो जइ सुमणो भावेण य जहण होह पावमाणा, समणे य जणेय समोसमोय माणावमाणेसु) ऐसाश्रमण तभी हो सकता है, यदि वह द्रव्य मन को आश्रित करके सुमनवाला होता है। तथा भावमन की अपेक्षा वह पापमनवाला नहीं होता है। ऐसा श्रमण माता पिता आदि स्वजन में और सर्व सामान्यजन में निर्विशेष होता है । तथा-मान और अपमान में सम होता है। तात्पर्य यह है कि 'श्रमण स्वजन और परजन में, मान और अपमान में अभेद धुद्धिशाली होता है । कहीं पर भी वह न्यूनाधिक बुद्धिवाला नहीं होता है। (से तं नो आगमओ भावप्तामाइए) इस प्रकार यह नो आगम की अपेक्षा भावसामायिक का स्वरूप प्ररूपित किया । तात्पर्य इसका यह है कि 'सामायिक अध्ययन ज्ञान क्रियारूप होता है, इसीलिये वह नो તેનું અંતઃકરણ શોભન-નિર્મળ હોય છે એજ વાતને સૂત્રકાર હવે પ્રકટ કરે છે. (जो समणो-जइ सुमणो भावेण य जइ ण होइ पावमणो, समणे य जणेय समो, समो य माणवामाणेसु) मेवा श्रमाय त्यारे समवीश, न्यारे ते द्रव्य મનને આશ્રિત કરીને સુમનવાળો હોય છે. તેમજ ભાવ મનની અપેક્ષાએ તે માનવાળા હેતે નથી. એ શ્રમણ માતા-પિતા વગેરે સ્વજનમાં અને સર્વસામાન્યજનમાં નિર્વિશેષ હોય છે. તેમજ માન અને અપમાનમાં સમ હોય છે. તાત્પર્ય આ પ્રમાણે છે કે “શમણ રજન અને પરજનમાં માન અને અપમાનમાં, અભેદ બુદ્ધિ સંપન્ન હોય છે. કેઈ પણ સ્થાને તે ન્યૂના घि भुद्धि पन्नात नथी. (से तं नो आगमओ भावसामाइए) ॥ પ્રમાણે આ નાઆગમની અપેક્ષાએ ભાવ સામાયિકનું સ્વરૂપ પ્રરૂપિત કરવામાં આવેલ છે. તાત્પર્ય આ છે કે “સામાચિક અધ્યયન જ્ઞાન ક્રિયારૂપ હોય છે,
अ० ९७
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मनुयोगद्वार मती भावसामायिक-भवत्येव । नो शब्दस्त्वत्र देशवचनः, आगमस्य ज्ञानक्रियारूप समुदायैकदेशत्तिस्वात् । सामायिक तद्वतोश्वात्राभेदोपचारात्साधुरपि नो आगमतों माक्सामायिक भवत्येवेति बोध्यम् । इत्थं सभेदं भावसामायिक प्ररूपितमिति अवयितुमाह-तदेतद् भावसामायिकमिति । इत्थं च सभेदं सामायिक प्ररूपितमिति प्रदर्शयितुमाह-तदेतत् सामायिकमिति । ततश्च भेदोपभेदसहितो नामनिष्पनी निरूपित इति सूचयितुमाह-स एष नामनिष्पन्न इति ॥ मू० २४६ ॥
अथ निक्षेपस्य तृतीयं भेदं निरूपयति... मूलम्-से किं तं सुत्तालावगनिप्फण्णे? सुत्तालावगनिप्फणेझ्याणि सुत्तालावयनिप्फण्णं निक्खेवं इच्छावेइ, सेय पत्तलक्खणेऽवि ण णिक्खिप्पड़, कम्हा? लाघवत्थं । अत्थि इओ तहए अणुओगदारे अणुगमेत्ति । तस्थ णिक्खित्ते इहं णिक्खित्ते भवइ, इह वा णिक्खित्ते तत्थ णिक्खित्ते भवइ, तम्हा इहंण णिक्खिप्पइ तहिं चेव निक्खिप्पइ। से तं निक्खेवे ॥सू० २४७॥ मागम की अपेक्षा भावसामायिक होता है। यहां नो शब्द आगम का एकदेश वाचीहै । वह आगम ज्ञानक्रियारूप समुदाय के एकदेश में रहता है। सामायिक और सामायिकवाले इन दोनों में यहां अभेद का उपचार हुआ है। इससे साधु भी नो आगम की अपेक्षा भावसामा. यिक हो जाता है। ऐसा जानना चाहिये। (से तं सामाइए) इस प्रकार सभेद सामायिक का वर्णन किया । (से तं नाम निफण्णे) इस वर्णन के हो जाने पर भेद प्रभेद सहित नाम निष्पन्न निरूपित हो जाता है।सू०२४६।
એથી તે ને આગમની અપેક્ષા ભાવસામાયિક જ હોય છે. અહીં નો શબ્દ આગમને એક દેશવાચી છે. તે આગમ જ્ઞાનક્રિયારૂપ સમુદાયના એક દેશમાં રહે છે. સામાયિક અને સામાયિકવાળા આ બન્નેમાં અહીં અભેદપચાર થયે છે. આથી સાધુપણાને આગમની અપેક્ષા ભાવ સામયિક હોય જ છે, माम one लेने से. (से त' सामाइए) । प्रमाणे समेह सामायिनु १ ३२वामा मा०यु छ. (सेत नामनिफण्णे) मा १ ५९ २४४५ પછી ભેદ-પ્રભેદ સહિત નામ નિષ્પન નિરૂપિત થઈ જાય છે. સૂત્ર-૨૪૬
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अनुयोगन्द्रका टीका सूत्र २४७ सूत्रालापक निष्पन निरूपणम्
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छाया - अथ कोऽसौ सूत्रालापक निष्पन्नः ? सूत्रालापक निष्पन्नः - इदानीं सूत्रालापaनिष्पन्नं निक्षेपम् एषयति, स च प्राप्तलक्षणोऽपि न निक्षिप्यते, कस्मात् ? लाघवार्थम् । अस्ति इतस्तृतीयम् अनुयोगद्वारम् अनुगम इति । तत्र निक्षिप्त इह निक्षिप्तो भवति, इह वा निक्षिप्तस्तत्र निक्षिप्तो भवति तस्मात् इह न निक्षिप्यते तत्रैव निक्षिप्यते । स एष निक्षेपः ॥०२४७ ||
टीका - 'से किं तं' इत्यादि
ar aisa सूत्रालापनिष्पन्नः ? इति शिष्यप्रश्नः । उत्तरयति सूत्रालापकनिष्पन्नो निक्षेपस्तु - 'करेमि भंते ! सामाइयं' इत्यादीनां सूत्रालापकानां नामस्थापमादि भेदभिन्नो यो निक्षेपः स बोध्य इति । सूत्रकारो हि सूत्रालापकनिष्पन्नं निक्षेपं वक्तु प्रेरितोऽपि न वक्ति, तत्र स स्वयमेव हेतुं वक्ति- 'इयाणी' इत्यादिना ।
अब सूत्रकार निक्षेप का जो तीसरा भेद है, उसका निरूपण करते हैं- 'से किं तं सुत्तालागनिष्कण्णे' इत्यादि ।
शब्दार्थ - - ( से किं तं सुत्तालावगनिप्फणे) हे भदन्त ! जो निक्षेप सूत्रालापकों से निष्पन्न होता है, वह क्या है ?
उत्तर--(सुसालावगनिष्फणे) सूत्रालापकों से निष्पन्न जो निक्षेप होता है वह - 'करेमि भंते सामाइय' इत्यादि सूत्रालापक हैं, उनका होता है और वह नाम स्थापना आदि के भेद से अनेक प्रकार का होता है । उस (सुत्तालागनिष्कण्णं) सूत्रालापक निष्पन्न (निक्खेवं ) निक्षेप को (याणि) इस समय कहने के लिये सूत्रकार (इच्छावेह ) शिष्य द्वारा प्रेरित किये जा रहे हैं क्योंकि नाम निष्पन्न निक्षेप की प्ररूपणा के
હવે સૂત્રકાર નિક્ષેપના ત્રિજા ભેદનું નિરૂપણ કરે છે ઃ-~~~
'से कि त सुत्तालागनिष्फण्णे' इत्यादि
शब्दार्थ : – (से किं त' सुत्ताला वगनि फण्णे) हे महंत ! भे निक्षेष सूत्राताय ।थी निष्यन्न होय हे, ते शु' हे ?
उत्तर:- (सुत्तालावगनिप्फण्णे) सूत्रासापोथी निष्पन्न ने निक्षेप डाय हे ते 'करेमि भन्ते सामाइय' इत्यादि ने सूत्रासार्थ छे, तेने हाय छे, मने ते नाभ स्थापना वगेरेना लेहथी भने प्रहारनो होय छे. ते ( सुत्तालागनिष्फण्णं) सूत्राखाय निष्पन्न (निक्खेव ) निक्षेपने ( इयाणि) मा वमते देवा भाटे सूत्रार (इच्छावेइ) शिष्यवडे प्रेरित हरवामां भावी रह्या छे,
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अनुयोगद्वारसूत्रे इदानी सम्पति-नामनिष्पन्ननिक्षेपप्ररूपणानन्तरं जिज्ञासुः सूत्रालापकनिष्पन्न निक्षेपं प्ररूपयितुं माम् एषयति-नामनिष्पन्न निक्षेपमरूपणां कर्तुं मम वाञ्छामुत्पादयति । स च प्राप्तलक्षणोऽपि-निरूपणावसर प्राप्तोऽपि न निक्षिप्य ते मूत्रालापक निक्षेपद्वारेण नाभिधीयते । कस्मान निक्षिप्यते ? इत्याह-लाघार्थम् । लाघवमेवदर्शयति-अस्ति इतोऽग्रे तृतीयम् अनुयोगद्वारम् अनुगम इति। तत्र अनुममप्रकरणे निक्षिप्तः सूत्रालापकसमूह इहापि निक्षिप्त एव भवति, इहवा निक्षिप्तस्तत्रापि निक्षिप्त एव भवति तस्मादयम् इह न निक्षिप्यते, अपितु तत्रैव निक्षिप्यते । ननु बाद शिष्य की यह जिज्ञासा हुई 'सूत्रालापक निष्पन्न निक्षेप क्या है ? अतः शिष्य उस सूत्रालपक निष्पन्न निक्षेप को जानने की भावना से गुरु महाराज के लिये सूत्रालापक निष्पन्न की प्ररूपणा करने की प्रेरणा कर रहा है। दूसरी बात यह भी है कि-'नाम निष्पन्न निक्षेप की जब प्ररूपणा हो चुकी है, तब (से य पत्तं लक्खगेऽवि) इसकी प्ररूपणा होने का अवसर भी प्राप्त है-फिर भी (ण मिक्खिप्पइ) जो वह यहाँ प्ररूपित नहीं जा रहा है, उसका कारण (लाघवत्थं) लाघव हैं । (अत्थि. इओ तहए अणुओगदारे अणुगमेत्ति) और वह लाघव इस प्रकार से है कि-इसके आगे अनुगम इस नाम का तीसरा अनुयोगद्वार है। (तत्थ णिक्खित्ते इहं णिक्खित्ते भवह, इहं वा निक्खित्ते तत्थणिक्खित्ते भवह-तम्हा इहंग निक्खिपई तहिं चेत्र णिक्षिपद) सो उसमें सूत्रालापक समूह निक्षिप्त हुआ है। अतः वहां निक्षिप्त हुआ वह सूत्रालापक समूह यहां पर भी निक्षिप्त हुआ ही जैसा जानना નામ નિષ્પન્ન નિક્ષેપની પ્રરૂપણા પછી શિષ્યની આ જિજ્ઞાસા થઈ કે “સૂત્રા લાપક નિષ્પના નિક્ષેપ શું છે?” એથી શિષ્ય તે સૂવાલાપક નિપાન નિક્ષેપને જાણવાની ભાવનાથી ગુરુ મહારાજ પાસે સૂત્રલા૫ક નિષ્પન્ન નિક્ષેપની પ્રરૂપણ કરવાની પ્રેરણું કરી રહ્યા છે. બીજી વાત એક આ પણ छ, 'नाम निपन नियनी मारे ५३५! 25 ४ छे, त्यारे (सेय पत्तं लक्खणेऽवि) मानी ५३५४ान। अक्स२ ५५ प्रात छे, छताये (ण णिक्खिप्पई) ने 1 मही प्र३पित ४२वामा मान्य नथी, तेनु ४.२९ (लाघवत्थं) 1 छे. (अस्थि इओ तइए अणुओगदारे अणुगमेत्ति) भने त म मा પ્રમાણે છે, કે આના પછી અનુગમ આ નામે તૃતીય અનુયાગદ્વાર છે. (तत्थ णिक्खित्ते इहं णिक्खित्ते भवइ, इहं वा निक्खित्ते तत्थ निक्खित्ते भवइ, तम्हा इई ण निक्खिप्पई तहि चेव णिक्खिप्पइ) तमां सूत्रामा५४ समूह નિક્ષિપ્ત થયેલ છે. એથી ત્યાં નિશ્ચિત થયેલ તે સૂત્રાલાપક સમૂહ, અહીં પણ નિશ્ચિત થયેલ જ છે, આમ જાણી લેવું જોઈએ. તેમજ અહીં નિક્ષિપ્ત થયેલને
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अनुयोगचन्द्रिका टीका सुत्र २४७ सूत्रालापकनिष्पन निरूपणम्
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आगमे यदस्य निक्षेपः क्रियते तदपेक्षया स निक्षेव्यः अस्य प्रथममाप्तत्वादिति चेदाह सूत्रानुगमे एक सूत्रमुचारविष्यते नचात्रोच्चार्यते, सूत्रोच्चारणमन्तरेण हि तदालापकानां निचत्वादिति । नतु यद्येवं तर्हि किमर्थं सूत्रालापक निक्षेपस्यात्रोपन्यासः कुतः ? इति चेदाह निक्षेपसाम्यमात्रात्तदुपन्यासो बोध्य इति । इत्थं निक्षेषलक्षणं द्वितीयमनुयोगद्वार रूपितत्रिति सूचवितुमाह स एप निक्षेप इति सू. २४७ | चाहिये । तथा यहां पर निक्षिप्त हुआ ही जैसा मानना चाहिये । इस लिये यहां उसका निक्षेप नहीं करते हैं. वहां पर ही उसका निक्षेप करेगा।
शंका--आगम में जो इसका निक्षेप किया गया है, सो उसकी अपेक्षा लेकर यहीं पर उसका निक्षेप करना चाहिये। क्योंकि अनुगमकी अपेक्षा यह प्रथम प्राप्त है ?
उत्तर - अनुगम के वर्णन में सूत्रानुगम और नियुक्यनुगम ऐसे दो भेद कहे हैं - सो जो सूत्रानुगम है उसमें ही सूत्रका उच्चारण होगा - यहां नहीं । इसलिये सूत्र के उच्चारण हुए विना उसके आलापकों का निक्षेपकरना अनुचित है ।
शंका- यदि यही बात है तो फिर क्यों यहां सूत्रालापकनिक्षेप का उपन्यास किया ?
उत्तर -- निक्षेप की समानता मात्र को लेकर उसका यहां उपन्यास free है, ऐसा जानना चाहिये । (से तं निक्खेवे ) इस प्रकार निक्षेपरूप अनुयोग द्वार प्ररूपित हुआ || सू० २४७ ॥
ત્યાં નિક્ષિપ્ત થયેલ જેવું જ માનવુ જોઈએ. એથી અહી. તેના નિક્ષે કરતા નથી, ત્યાં જ તેના નિક્ષેપ કરાશે.
શકા:--આગમમાં જે આના નિક્ષેપ કરવામાં આળ્યેા છે, તે તેની અપેક્ષાએ અહીં જ તેના નિક્ષેપ કરી લેવા જોઈએ, કેમકે અનુગમની અપેક્ષાએ આ પ્રથમ પ્રાપ્ત છે?
ઉત્તર:---અનુગમના વર્ણનમાં સૂત્રાનુગમ અને નિયુકત્યાનુગમ એવા એ ભેડા કહેવામાં આવેલ છે. આમાં જે સૂત્રાનુગમ છે તેમાં જ સુત્રનુ' ઉચ્ચારણ થશે, અહીં નહિ, એથી સૂત્રેાચ્ચારણ વિના આલાપકોના નિક્ષેપ કરીએ તે ચેગ્ય નથી.
શકા:--જો એવુ' જ છે તેા પછી અહી' સૂત્રાલાપકનિક્ષેપના ઉપન્યાસ શા માટે કરવામાં આવેલ છે.
ઉત્તર:--નિક્ષેપની સમાનતા માત્રથી જ અહી' તેના ઉપન્યાસ કરવામાં आवे छे. याम लाली बेषु लेो, (से त' निक्खेवे ) श्री प्रमाणे निक्षेप ३५ द्वितीय अनुयोगद्वार नि३पशु थयुं छे. ॥ सूत्र- २४७ ॥
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अनुयोगद्वार सम्प्रति अनुगमनामकं तृतीयमनुयोगद्वार निरूपयति
मूलम् -से किं तं अणुगमे? अणुगमे दुविहे पण्णत्ते, तं जहा-सुत्ताणुगमे य निज्जुत्ति अणुगमे य। से किं तं निज्जुत्ति अणुगमे ? निज्जुत्ति अणुगमे-तिविहे पण्णत्ते, तं जहा-निक्खेव निज्जुत्ति अणुगमे, उवग्घाय निज्जुत्ति अणुगमे, सुत्तप्फासियनिज्जुत्ति अणुगमे। से किं तं निक्खेवनिज्जुत्तिअणुगमे ? निक्खेवनिज्जुत्ति अणुगमे अणुगए। से तं निक्खेवनिज्जुत्तिअणुगमे। से किं तं उवग्घायनिज्जुत्ति अणुगमे ? उवग्घायनिज्जुत्ति अणुगमे-इमाहिं दोहिं मूलगाहाहिं अणुगंतवे, तं जहा. उद्देसेर निदेसे२ निग्गम खित्तेय४ काल५ पुरिसे य६ कारण। पच्चय८ लक्खण९ नए १० समोयारेणा११ऽणुमए १२॥१॥ कि१३ कइविहं१४कस्स१५कहिं१६, केसु१७कहं१८ केच्चिरं हवइ कालं ? १९ । कइ २० संतर २१ मविरहियं २२, भवा २३ गरिस २४ फासण २५ निरुत्ती२६॥२॥ से तं उवग्यायनिज्जुत्ति अणुगमे ॥सू० २४८॥
छाया-अथ कोऽसौ अनुगमः १ अनुगमो-द्विविधः प्रज्ञप्तः, तद्यथा-सूत्रानुगमश्च नियुक्त्यनुगमश्च । अथ कोऽसौ नियुक्त्यनुगमः ? नियुक्त्यनुगमः त्रिविधः प्रजातः, तद्यथा-निक्षेपनियुक्त्यनुगमः उपोद्घातनियुक्त्यनुगमः सूत्रस्पर्शकनियुक्त्यनुगमः। अथ कोऽसौ निक्षेपनियुक्त्यनुगमः ? निक्षेपनियुक्त्यनुगमः-अनुगतः। स एष निक्षेपनियुक्त्यनुगमः। अथ कोऽसौ उपोद्घातनिर्युक्त्यनुगमः ? उपोद्घात नियुक्त्यनुगम:-आभ्यां द्वाभ्यां मूलगाथाभ्याम् अनुगन्तव्यः तद्यथा-उद्देशः १ निर्देशश्च २ निर्गमः ३ क्षेत्र ४ कालः ५ पुरुषश्च ६ । कारणं ७ प्रत्ययः ८ लक्षणं ९ नयः १० समवतारणा ११ अनुमतम् १२ ॥१॥ किं १३ कतिविधं १४ कस्य
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अनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र २४८ अनुगमनामानुयोगद्वारनिरूपणम् ५ १५ कुत्र १६ केषु १७ कथं १८ कियचिरं भवति कालम् १९१ । कति २० सान्तरम् २१ अविरहितं २२ भवाः २३ आकर्षः २४ स्पर्शना २५ निरूक्तिः २६ ॥२॥ स एष उपोद्घात नियुक्त्यनुगमः ॥मू० २४८॥
टीका-'से किंत' इत्यादि
'अथ कोऽसौ अनुगमः ?' इति शिष्यप्रश्नः। उत्तरयति-अनुगमा मूत्रानु. कूलार्थकथनम् , स द्विविधः प्रज्ञप्तः, तद्यथा-सूत्रानुगमश्च, नियुक्त्यनुगमश्च । तत्र सूत्रानुगम:-पदच्छेदरूपं सूत्रव्याख्यानम् । स च सूत्रस्पर्शकनियुक्तिव्याख्याने गतार्थत्वात् पृथर नोक्त इति । अथ कोऽसौ नियुक्त्यनुगमः ? नियुक्त्यनुगम:
अब सूत्रकार अनुगम नामका जो तीसरा अनुयोग द्वार है उसका निरूपण करते हैं--'से कि अनुगमे ?" इत्यादि ।
शब्दार्थ--(से किं तं अणुगमे ?) हे भदन्त ! पूर्व प्रक्रान्त वह अनुगम क्या है?
उत्तर--(अणुगमे दुविहे पण्णत्ते) अनुगम दो प्रकार का कहा गया है-अनुगम शब्द का अर्थ-सूत्रानुकूल अर्थ का कथन करना है, सो यह अनुगम (सुत्ताणुगमे य निज्जुत्तिअणुगमे य) खत्रानुगम और नियुक्ति-अनुगम इस प्रकार से दो प्रकार का है। इनमें पदच्छेदरूप सूनव्याख्यान-अर्थात् सूत्र का पदच्छेद करना, यह सूत्रानुगम है। यह सूत्रानुगम सूत्र को स्पर्श करनेवाली नियुक्ति के व्याख्यान में आ जाता है इसलिये यहां उसे पृथक नहीं कहा है। (से किं तं निज्जुत्ति अणुगमे १ ) हे भवन्त ! नियुक्ति अनुगम क्या है?
હવે સૂરકાર અનુગામનામક જે તૃતીય અનુગદ્વાર છે, તેનું नि३५५ ४२ छ.-ते कि त अनुगमे ? इत्यादि
शाय:--(से कि त अणुगमे) ले wr-! प्रान्त त અનુગમ શું છે?
उत्तर:--(अणुगमे दुविहे पण्णत्ते) अनुगमना मे ॥२॥ छे. मनुगम सन अर्थ सूत्रानुस अनु. ४थन ४२ छे. तो मा अनुगम (सुत्ताणुगमे य निज्जुत्ति अणुगमे य) सूत्रानुगम अने नियुठित-अनुगम मा प्रमाणे ये પ્રકારનો છે. આમાં પદ છેદરૂપ સૂત્રવ્યાખ્યાન એટલે કે સૂત્રનું પદકેદ કરવું આ સૂવાનુગામ છે. આ સૂત્રાનુગમ સૂત્રને સ્પર્શનારી નિયુકિતના વ્યાખ્યાનમાં
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मनुयोगद्वारस्ये निः-निश्चयेन युक्ताः=मूत्रेण एकीभावेन संबद्धा अर्थास्तेषां युक्तिः स्फुटरूपतापादनम्-नियुक्तिः, 'युक्त' शब्दस्य निरुक्तविधिना लोपो द्रष्टव्यः। नामस्थापनादिप्रकारैः मूत्रविभजनं तदर्थः, नियुक्तिरूपोऽनुगमो व्याख्यानं नियुक्त वज्नुिगमो नियुक्त्यनुगमः । स च निक्षेपनियुक्त्यनुगमः, उपोद्घातनियुक्त्यनुगमः, सूत्रस्पर्शकनियुक्त्यनुगमवेति त्रिविधः। तत्र-निक्षेपनियुक्त्यनुगमः-निक्षेप - उत्तर--(निज्जुक्तिअणुगमे) नियुक्ति में जो 'निः' है, उसका अर्थ निश्चय से युक्त-अर्थात् सूत्र के साथ एकीभाव से संबद्ध हुए अर्थों की युक्ति स्फुट करना-इसक्षा नाम नियुक्ति है। निरुक्त विधि के अनुसार यहां युक्त शब्द का लोप हो गया है। इसका तात्पर्य यह निकलता है कि-'नाम, स्थापना आदि प्रकारों द्वारा सूत्र का विभाग करना यह नियुक्ति शब्द का अर्थ है । नियुक्तिरूप जो अनुगम व्याख्यान है वह, अथवा नियुक्ति का जो अनुगम है, यह नियुक्ति अनुगम है। यह नियुक्ति अनुगम (तिविहे पणते) तीन प्रकार का कहा गया है । (तं जहा) वे उसके प्रकार ये हैं-(निक्खेवनिज्जुत्तिअणुगमे, उवग्यायनिज्जुक्तिअणुगमे, सुसफासिनिज्जुत्तिअणुगमे) निक्षेप नियुक्तिअनुगम, उपो
द्घात नियुक्ति अनुगम, सूत्रस्पर्शक नियुक्ति अनुगम। (से किंत निक्खेव निज्जुत्ति भणुगमे ? ) हे भदंत ! निक्षेपनियुक्तिअनुगम क्या है ? . भावी आय छ, मेटा माटे मही तेनु पृथ: ५५ यु नयी (से कि तं निजत्ति अणुगमे १) है महन्त ! नियुत अनुभम शु.? - उत्तर:-- निन्जुत्ति अणुगमे) नियुतिमा नि:' छे तन म 'निश्चय' छ. ॥ निश्चयथी युत मे सूत्रनी साथै अबीमाथी समई થયેલ અર્થોની યુક્તિ-રફુટતા કરવી તેનું નામ નિયુક્તિ છે. નિરુક્ત વિધિ મુજબ અડી' યુક્ત શબ્દને લેપ થઈ ગ છે. આનું તાત્પર્ય આ પ્રમાણે છે કે “નામ સ્થાપના વગેરે પ્રકારે વડે સૂત્રને વિભાગ કરે આ નિર્યુક્તિ શબ્દનો અર્થ છે. નિર્યુક્તિરૂપ જે અનુપમ-શ્રા ખ્યાન છે, તે અથવા નિયુક્તિને અનુગમ છે તે નિયુકિત અનુગમ છે આ નિયુકિત અનુગમ (तिविहे पण्णत्ते ३ ४२ ४ामा मायेद छे. (त जहा) ते ६४२॥ २१॥ प्रमाणे छे (निक्खेवनिज्जुत्ति अणुगमे, अग्यायनिज्जुनिअणुगमे, सुत्तफासिपनिज्जुत्तिअणुगमे) निक्षेप नियुजित भक, ये दूध त नियुति अनुभ,
सूत्र२५४ नियुरित अनुगम से कि त निवखेनिन्जुत्ति अणुगमे) ! - નિક્ષેપ નિયુંતિ અનુગમ શું છે?
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अनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र २४८ अनुगमनामानुयोगद्वारनिरूपणम् नामस्थापनादिभेदभिन्नस्तद्विषया या निर्युक्तिस्तद्रूपस्तस्या वा ऽनुगमः, स च अनुगतः = अनुज्ञात एव । अयं भावः - अत्रैव सूत्रे प्रागावश्यक सामायिकादिपदानां नामस्थापनानिक्षेपद्वारेण यद् व्याख्यानं कृतं तेनैव निक्षेप नियुक्त्यनुगमोऽपि व्याख्यातो विज्ञेयः, तस्येवास्याऽपि व्याख्यानादिति । तथा उपोद्घातःच्या ख्यानादिति । तथा उपोद्घातनियुक्त्यनुगमः- उपोहननम् - उपोद्घातः या
उत्तर- (निक्वनिज्जुन्तिअणुगमे अणुगए) नाम स्थापना आदिरूप निक्षेप के विषभूत बनी हुई जो नियुक्ति है, इस नियुक्तिरूप जो अनु गम है वह, अथवा नामस्थापना आदिरूप निक्षेप के विषयभूत बनी हुई नियुक्ति का जो अनुगम है, वह नियुक्ति अनुगम है। यह अनुज्ञात ही है । तापर्य यह कि इसी सूत्र में पहिले आवश्यक, सामायिक आदि पदों का नाम स्थापना आदि द्वारा जो व्याख्यान किया गया है, उसी से निक्षेप नियुक्ति अनुगम भी व्याख्यात हो जाता है। क्योंकि उसी व्याख्यान की तरह से इसका भी व्याख्यान है। (सेत निक्खेवनिज्जुतिअणुगमे) इस प्रकार से निक्षेप नियुक्ति अनुगम का अर्थ है । (से किं तं उबग्घायनिज्जुत्ति अणुग मे ?) हे भदन्त ! उपोद्घातनियुक्तिअनुगम का अर्थ क्या है ?
उत्तर- ( उवग्धायनिज्जुन्ति अणुग मे ) उपोद्घातनियुक्ति अनुगम में जो उपोदघात शब्द है, उसका अर्थ 'उपोदहननम् उपोद्घातः इस
उत्तर-- (निक्खेव निज्जुत्तिअणुगमे अणुगए) नाम स्थापना साहि३य નિક્ષેપને વિષયભૂત થયેલ જે નિયુકિત છે, આ નિયુ`કિતરૂપ જે અનુગમ છે, તે અથવા નામ સ્થાપના આદિરૂપ નિક્ષેપના વિષયભૂત બનેલ નિયુકિતના જે અનુગમ છે. તે નિયુ"કિત અનુગમ છે. આ અનુજ્ઞાત જ છે. તાત્પર્ય આ પ્રમાણે છે કે એજ સૂત્રમાં પહેલાં આવશ્યક સામાયિક આદિપનું નામ સ્થાપના આદિ નિક્ષેપ વડે જ વ્યાખ્યાન કરવામાં આવેલ છે, તેથી જ નિક્ષેપ નિયુકિત અનુગમ પણ વ્યાખ્યત થઇ જાય છે. કેમકે તે વ્યાખ્યાનની प्रेम मानुं पशु व्याख्यान छे. ( से तं निक्खेव निज्जुत्तिअणुअगमे) या प्रभा નિક્ષેપ નિયુકિત अनुगमन अर्थ छे. (से कि त उवग्धायनिज्जुत्ति अनुगमे १) लत ! उपोधात निर्युति अनुगमनो अर्थ थे। हो ? उत्तर- ( उवग्धायनिज्जुत्तिअणुग मे ) उपोद्दधात नियुक्ति अनुगममां के (चेोद्दूघात शब्द छे, तेना अर्थ' 'उपाद् हननम् उपोद्घातः' मा नियुक्ति
अ० ९५
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gse
अनुयोगद्वारसूत्रे
ख्येयमुत्रस्य व्याख्याविधिसमीपीकरणं, तस्य तद्विषया वा या निर्युक्तिस्तयास्तद्रूपो वा योऽनुगमः स उपोद्घातनियुक्त्यनुगमः । स चानुपद वक्ष्यमाणाभ्यां द्वाभ्यां मूळगाथाभ्याम् अनुगन्तव्यः = विज्ञेयः । मूलगाथाद्वयमेवाह - 'तं जहा - उद्दे से '
निरुक्ति के अनुसार व्याख्येय सूत्र का व्याख्याविधि के समीप करना, ऐसा है। इस उपोद्घात की जो नियुक्ति है उसका अथवा इस उपोद्घात को करनेवाली जो नियुक्ति है, उसका व्याख्यान करना या उस नियुक्तिरूप व्याख्यान करना यह नियुक्ति अनुगम का अर्थ है । इस प्रकार दोनों शब्दों को मिलाकर उपोदघातनियुक्तिअनुगम का वाच्यार्थ स्पष्ट हो जाता है। इसी विषय को सूत्रकार (हमाहिं दोहिं मूलगाहाहिं अनुगंतव्वे-तं जहा ) इन निम्नलिखित दो गाथाओं द्वारा समझाने के लिये कह रहे हैं-वे गाथाएँ ये हैं
C
उसे १, निदेलेअ २, निगमे ३, विसे य ४, काल ५, पुरिसे य ६, कारण ७, पच्चय ८, लक्खण ९, नए १०, समोधारणा ११, णुमए १२, |१| किं १३ कइ विहं १४ कस्स १५ कहिं १६, केसु १७, कहं १८, केच्चिरं हवइ कालं १९, कह २०, संतर २१, मविरहियं भवा २३, गरिस २४ फासण २५ निरुत्ती २६ ||२|| (सेत उबग्घायनिज्जुन्तिअणुगमे ) यहां 'वक्तव्य' पदका संबन्ध सर्वत्र लगा लेना चाहिये । तथा च उद्देश कहना चाहिये । निर्देश कहना चाहिये । (१) 'उद्देशश- सामान्य
મુજખ વ્યાખ્યેયસૂત્રની વ્યાખ્યાવિધિ–સમીપ કરવી આવે છે. આ ઉપેાદૂધાતની જે નિયુકિત છે અથવા આ ઉપેદ્યાતને વિષય કરનારી જે નિયુકિત थे, तेतुं व्याख्यान કરવુ' અથવા તે નિયુ་કિતરૂપ વ્યાખ્યા કરવું આ નિયુકિત અનુગમને અથ છે. આ પ્રમાણે બન્ને શબ્દોને એકત્ર કરીને ઉપે ાત નિયુકિત અનુગમના વાચ્યા સ્પષ્ટ થઈ જાય છે, એજ વિષયને सूत्र४२ (इमा हि दोहि मूळगाहाहिं अणुगंतव्वे-तं जहा ) मा निम्न लिखित मे ગાથાઓ વડે સમજાવવા માટે કહી રહ્યા છે. તે ગાથાઓ આ છે. ( उसे १, निद्देसेअ २, निग्गमे ३, खित्तेय : ४ काल ५, पुरिसे ६, कारण ७, पच्चय ८, लक्खण ९, नए १०, समोयारणा ११, णुमए १२, ॥१॥ किं १३, कइविह १४, करस १५, कहि १६, केसु १७, कह १८, केच्चिरं हवका १९, कइ २०, संतर २१, मविरहियं २२, भवा २३, गरिस २४, फासण २५, निहत्ती २६ ||२|| से त उवग्धायनिज्जुत्तिअणुग मे ) अहीं 'वक्तव्य' पहने। समध सर्वत्र लगाउवो हमे तेभन उद्देश वा लेखे
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अनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र २४८ अनुगमनामानुयोगद्वारनिरूपणम् ७७९ इत्यादि । उद्देशः-उद्देशनम् उद्देशो वक्तव्यः वक्तव्येति सर्वत्र संध्यते । उद्देशश्च सामान्यतोऽभिधानम्। यथा-अध्यनमिति प्रथमं द्वारम् ।। १॥ तथा-निर्देश:निर्देशनं निर्देशः=विशेषाभिधानम् । स चापि वक्तव्यः। यथा-सामायिकमिति । ननु सामान्यविशेषाभिधानद्वयं निक्षेपद्वारे प्रोक्तमेव, कथं पुनरिहाप्युच्यते ? इति चेदाह-अब-सिद्धस्यैव सामान्य विशेषाभिधानद्वयस्य तत्र निक्षेप-मात्रामिधानं कृतमिति पुनरत्रकथने नास्ति कश्चिद् दोष इति द्वितीयं द्वारम्।।२॥ तथा-निर्गम:रूप से कथन करना इसका नाम उद्देश है जैसे 'अध्ययन' ऐसा कहना उद्देश का विशेषरूप से कथन करना नाम निर्देश है जैसे सामायिक ऐसा कहना।
शंका-सामान्य और विशेष इन दोनों को कथन निक्षेप द्वार में तो कहा ही जा चुका है, तो फिर यहाँ भी उनका कथन करना चाहिये, ऐसा आप क्यों कहते हो?
उत्तर--'यहां से सिद्ध हुए ही सामान्य और विशेष इन दोनों के निक्षेप मात्र का निक्षेप द्वार में कथन किया गयाहै। अतः फिर से यहां कहने में कोई दोष नहीं है। तात्पर्य इसका यह है कि सामान्य और विशेष इन दोनों की सिद्धि अनुगमहार में ही हुई है, जब इनकी सिद्धि हो चुकी-तब जाकर निक्षेप द्वार में इनके निक्षेप का कथन किया गया है । इस प्रकार पुनः इनके यहां कथन करने में कोई विरोध नहीं आता
નિર્દેશ કહે જોઈએ, વગેરે (૧) ઉદ્દેશ સામાન્ય રૂપથી કથન કરવું તેનું નામ ઉદેશ છે, જેમ કે “અધ્યયન’ આમ કહેવું. ઉદેશનું વિશેષરૂપથી કથન કરવું તેનું નામ નિર્દેશ છે. જેમ કે “સામાયિક’ આમ કહેવું.
શંકા--સામાન્ય અને વિશેષ એ બન્નેનું કથન નિક્ષેપ દ્વારમાં તે થયેલું જ છે, તે પછી અહીં પણ તેનું કથન અપેક્ષિત છે, એવું તમે શા માટે કહે છે ?
ઉત્તર-અહીથી સિદ્ધ થયેલ જ સામાન્ય અને વિશેષ એઓ બનેના નિક્ષેપમાત્ર નિક્ષેપઢારમાં કથન કરવામાં આવેલું છે. એથી ફરીથી અહીં કહેવામાં કોઈ દેષ નથી. તાત્પર્ય આ પ્રમાણે છે. કે સામાન્ય અને વિશેષ એઓ બનેની સિદ્ધિ અનુગમ દ્વારમાં જ થયેલી છે, જ્યારે એમની સિદ્ધિ થઈ ગઈ ત્યારે નિક્ષેપ દ્વારમાં આના નિક્ષેપનું કથન કરવામાં આવ્યું છે. આ પ્રમાણે ફરી એમનું અહીં કથન કરવામાં કઈપણ જાતને વિરોધ આવતું નથી. તેમજ નિગમ નીકળવાનું નામ છે. આમાં આ જાતને વિચાર
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अनुयोगद्वारसूत्रे निर्गमनं निर्गमः, सामायिकं कुतो निर्गतमिति च वक्तव्यम् । यथा-अर्थतः सामायिकमिदं भगवतो महावीरान्निर्गतं, सूत्रतश्च गौतमादिगणधरेभ्य इति । ननु पूर्वमागमद्वारे एकोनविंशत्यधिकद्विशततमे सूत्रे (२१९) एवं आरमागमपरम्परागमानन्तरागमतस्तीर्थकरादिभ्य एव परम्परया समागतमिदं सामायिकमित्युक्तत्त्वात्तीर्थकरादिभ्योऽस्य निर्गमनमित्युपलब्धेरिह निर्गमोपादानं किमर्थम् ? इति चेत्, आह -तत्र आगमद्वारे-सामान्योद्देशमात्रेणावगतानां तीर्थकरादीनामत्र विशेषाभिधानरूपो निर्देशः क्रियते । तथा चात्र-क्षेत्र कालपुरुषकारणप्रत्ययविशेषितं सामायिकहै।तथा-निर्गम निकलने का नाम है-इसमें ऐसा विचार होता है कि सामायिक कहां से निर्गत हुआ है ? यह द्वार भी इस उपोद्घातनियुक्ति अनुगम में कहना चाहिये । जैसे-अर्थ की अपेक्षा यह सामायिक भगवान् महावीर से निर्गत है और सूत्र की अपेक्षा गौतम आदि गणधरों से निर्गत है।
शंका-पहिले आगम द्वार में २१९ वे सूत्र में आत्मागम, परम्परागम, अनन्तरागम का जय विचार किया गया है तब ऐसा कहा गया है कि -'यह सामायिक परम्परा से तीर्थंकरों से ही चला आ रहा है-तब तीर्थ करादिकों से इसका निर्गमन है यह बात तो जान ही ली जाती हैतब फिर यहां निर्गम का उपादान क्यों किया ?
उत्तर--वहां भागम द्वार में सामान्य उद्देशमात्र से तीर्थंकरों का ज्ञान कराया गया है और यहां पर उनका विशेष अभिधानरूप निर्देश किया गया है। तथा यहां निर्गम में क्षेत्र, काल, पुरुष, कारण प्रत्यय કરવામાં આવે છે. કે સામાયિક કયાંથી નિર્ગત થયેલ છે? આ દ્વાર પણ આ ઉપદુઘાત નિયુકિત અનુગમમાં કહેવું જોઈએ. જેમકે અર્થની અપેક્ષા. આ સામાયિક ભગવાન મહાવીરથી નિર્ગત છે, અપેક્ષા ગૌતમ વગેરે ગણધરેથી નિગત છે.
શંકા--પહેલા આગમઢારમાં ૨૧૯માં સૂત્રમાં આત્માગમ, પરંપરાગમ અનંતરાગમને જ્યારે વિચાર કરવામાં આવ્યા ત્યારે આ પ્રમાણે કહેવામાં આવેલ છે કે આ સામાયિક પરંપરાથી તીર્થકરેથી જ ચાલતું આવે છે. ત્યારે તીર્થકરેથી આનું નિર્ગમન છે, આ વાત તે જણાઈ જ આવે આવે છે તે પછી, અહીં નિર્ગમનું ઉપાદાન કેમ કરવામાં આવ્યું ?
ઉત્તર--ત્યાં આગમ દ્વારમાં સામાન્ય ઉદ્દેશમાત્રથી તીર્થંકરનું જ્ઞાન કરાવવામાં આવ્યું છે. અને અહીં તેમનું વિશેષ અભિધાનરૂપ નિર્દેશ કરવામાં આવેલ છે. તેમજ અહીં નિગમમાં ક્ષેત્ર, કાળ, પુરુષ, કારણ, પ્રત્યય આ
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अनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र २४८ अनुगमनामानुयोगद्वारनिरूपणम् ७८९ निर्गमनमुच्यते, इत्यपि तस्मादत्र वैशिष्टयम् , अतो नास्ति पौनरुक्त्यशङ्केति तृतीयं द्वारम् ॥३॥ तथा-क्षेत्रं वक्तव्यम् । काल:=पमाणकालो भावकःलश्च वक्तव्यः । कस्मिन् क्षेत्रे कस्मिन् काले कस्मिन्भावे च सामायिकमुत्पन्नमिति वक्तव्यमिति भावः । यथा-क्षेत्रे-मध्प पापानगाँ महासेनवनोद्याने, काले-वैशाखशुक्लेकादश्यां प्रथमपौरुषीकाले, भावे च क्षायिकमावे वर्तमानस्य भगवतो महावीरस्य मुखादनन्तरं सामायिकं निर्गतम् । ततोऽतिरिक्तं यनिर्गतं सामायिकं तत् परम्परमिति। तदुक्तम्
वइसाह सुद्ध-इक्कार-सीए सुइ पढम पोरिसीकाले ।
महसेणवणुज्जाणे, पावापुरिमु टिए रम्मे ॥१॥ इन सब विशेषताओं से विशेषित सामायिक का निर्गमन कहा गया है । इसलिये भी वहां से इसमें विशिष्टता है । इस प्रकार आगम द्वार में सामान्यरूप से कथन होने पर भी वही कथन यहां नाना विशेषताओं को लेकर किया जाने के कारण उससे पुनरुक्तिदोष का प्रसंग प्राप्त नहीं होता है तथा क्षेत्र और काल प्रमाणकाल और भाव काल-का भी कथन करना चाहिये-जैसे-किस क्षेत्र में किस काल में, किस भाव में सामायिक उत्पन्न हुआ है । इस विषय को स्पष्ट करने के लिये कहना चाहिये कि-क्षेत्र में-मध्य पावापुरी में महासेनवनोद्यान में काल में,-वैशाख शुक्ल ११ के दिन प्रथम पौरुषीकाल में, भाव में-क्षायिक भाव में वर्तमान भगवान् महावीर के मुख से अनन्तर सामायिक निकला है, इनके अतिरिक्त जो सामायिक निकला वह परम्परसामायिक कहलाया । तदुक्तम्-'वइसाहसुद्ध' इत्यादि । इस गाथाओं સર્વ વિશેષતાઓથી વિશેષિત સામાયિકનું નિર્ગમન કહેવામાં આવેલ છે. એટલા માટે પણ ત્યાંથી તેમાં વિશિષ્ટતા છે. આ પ્રમાણે આગમ દ્વારમાં સામાન્ય રૂપથી કથન હોવા છતાં એ તેજ કથન અહીં અનેક વિશેષતાઓને લઈને કરવામાં આવેલ છે તેથી તેમાં પુનિવૃતિ દેષનો પ્રસંગે ઉપસ્થિત થતું નથી. તેમજ ક્ષેત્ર અને કાળ–પ્રમાણુકાળ અને ભાવકાળનું પણ કથન કરવું જોઈએ, જેમ કે કયા ક્ષેત્રમાં, ક્યા કાળમાં, ક્યા ભાવમાં સામાયિક ઉત્પન્ન થયેલ છે. આ વિષયને સ્પષ્ટ કરવા માટે આ પ્રમાણે કહેવું જોઈએ કે ક્ષેત્રમાં, મધથપાવાપુરીમાં મહાસેન વઘાનમાં, કાળમાં વૈશાખ શુકલ ૧૧ ના દિવસે પ્રથમ પૌરૂષીકાળમાં, ભાવમાં–ક્ષાયિક ભાવમાં, વર્તમાન ભગવાન મહાવીરના મુખથી અનંતર સામાયિક નિર્ગત થયેલ છે. એના સિવાય જે सामायि निर्गत ये छ ५२५२ सामायि४ उपायुततम्-'वइसाह सद्ध' इत्यादि मा गायानु ता५य मे पूरित ३५i छ. तथा २
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अनुयोगद्वारस्त्रे तेलुकपूइयम्स, खाइयभावे ठियस जिण रणो ।
मुहमओ निगपमेयं, अणंतरं परंपर सेसं ॥२॥ छाया-वैशाखशुद्धकादश्यां शुभपथमपौरुषीकाले ।
महासेनवनोद्याने पानापुरीषु स्थिते रम्ये ॥१॥ त्रैलोक्यपूजितस्य क्षायिकभावे स्थितस्य जिनराजस्य । मुखतो निर्गतमेतत् अनन्तरं परम्पर शेषम् ॥२॥ इति
इति चतुर्थ पञ्चमं च द्वारम् ॥४॥५॥ तथा च-पुरुषो वक्तव्यः यस्मात्पुरुषादिदं सामायिक निर्गतं स पुरुषो वक्तव्यः यथा-अर्थतो भगवतो महावीरादिदं निर्गतं, मूत्रतश्च गौतमादिगणधरेभ्यः । इति । तदुक्तम्
'अस्थी य महावीरा, सुत्तश्री गोयमाइओ ।
निग्गयं पुण अग्हाणं, पत्तं चेदमणुकमा ॥३॥ छाया-अर्थतश्च महावीरान , सूत्रतो गौतमादितः।
निर्गतं पुनरस्माकं, प्राप्तं चेदमनुक्रमात् ॥ ३ ॥ इति षष्ठं द्वारम् ॥ ६ ॥ तथा-येन कारणेन तीर्थकरः सामायिकं कथयति, येन च कारणेन गणधरास्तत् शृण्वन्ति, तत्कारणं वक्तव्यम् । यथा--'मया तीर्थकरनामगोत्र बढे, तच्च वेदयतिव्य'-मितिकारणमाश्रित्य तीर्थकरः सामायिकं कथयति । का तात्पर्य यही पूर्वोक्तरूप से है तथा जिस पुरुष से सामायिक निर्गत हुआ है, उस पुरुष का भी कयन करना चाहिये-जैसे अर्थ की अपेक्षा यह सामायिक भगवान महावीर से निकला है और सूत्र की अपेक्षा गौतमादि गणवरों से निकला है-तदुक्तम् ' अस्थओ य महावीरा' इत्यादि । इस गाथाको तात्पर्य यही पूर्वोक्त है । तथा जिस कारण से तीर्थकर सामायिक कहते हैं और जिस कारण से गणधर उसे सुनते हैं उस कारण का भी कथन करना चाहिये । जैसे-मैंने तीर्थ कर नाम गोत्र का बन्ध किया है, अतः वह मुझे वेदन करने के योग्य है' इस પુરૂષથી આ સામાયિક નિર્ગત થયેલ છે, તે પુરૂષનું પણ કથન કરવું જોઈએ જેમ અર્થની અપેક્ષા આ સામાયિક ભગવાન મહાવીરથી નિર્ગત છે. અને सूत्रना अपेक्षा गीतमा धरोथी निगत छे. ततम् 'अत्थओ य महा. वीरा' त्याहि ॥ ॥यातुं तात्५ पूरित ३५i - छे. तथा २ ४१२था તીર્થકર સામાયિક કહે છે, અને જે કારણથી ગણધરે તેને સાંભળે છે, તે કારણનું કથન પણ કરવું જોઈએ. જેમ-મેં તીર્થકર નામ ગોત્રને બંધ
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% 3A
अनुयोगचन्द्रिका टाका सूत्र २४८ अनुगमनामानुयोगद्वारनिरूपणम् ७८३ तदुक्तम्तित्थयरो किं कारणं भासइ सामाइयं तु अज्झयणं ? ।
तित्थयरनामगोतं, बद्धं मे वेइयव्यंति" ॥४॥ छाया-तीर्थकरः किं कारणं भाषते, सामायिकं तु अध्ययनम् ? ।
तीर्थकरनामगोत्रं बद्धं मया वेदयितव्यमिति ॥४॥ अत्रेदं बोध्यम्
तीर्थकरस्तीर्थकरभवग्रहणासृतीये पूर्वभवेऽग्लान्या धर्मदेशनादिभिस्तीर्थकरनामगोत्रं बध्नाति । तच्च तीर्थकरनामगोनं मनुष्यगतावेव स्त्री वा पुरुषो वा नपुंमको वा शुभलेश्यः 'अईसिद्धपवचने'-त्यादिभिः पुनः पुनरासेवितविंशत्याकारणैः विंशतिस्थानकसेवनरूपः, अन्यतरैर्वा एकद्विब्यादिभिरतिपुष्टि नीतैः कारणै बध्नाति। यत्र भवे तीर्थकरनामगोत्रं बध्नाति स मनुष्यभवः कारण को आश्रित करके तीर्थकर सामायिक का कथन करते हैं। तदुक्तम् 'तिस्थयरो किं कारणं' इत्यादि-इस गाथाका भाव यही पूर्वोक्त है । तास्पय यह है कि, तीर्थंकर तीर्थकर भवको ग्रहण करने से पहिले तीसरे भव में विना किसी ग्लानि भाव के धर्मदेशना आदि कार्य करते हैं। इससे वे तीर्थंकर नाम गोत्रकर्म का बन्ध कर लेते हैं । यह तीर्थकर नाम गोत्र कर्म का बन्ध मनुष्य गति में ही होता है, चाहे वह स्त्री हो, पुरुष हो या नपुंसक हो इनमें से कोई भी हो, यदि वह शुभलेश्यावाला है, और विशति (२०) स्थान को उसने अच्छी प्रकार से पुनः पुनः आसेवन किया है या इन बीस स्थानों में से एक दो तीन आदि स्थानों का सेवन कर उन्हें उसने अत्यन्त કર્યો છે, એથી તે મને વેદન કરવા યોગ્ય છે, આ કારણને આશ્રિત કરીને ती ४२ सामायिनु थन ४२ छ, तहतम-'तित्थयरो कि कारणं' त्यादि આ ગાથાને ભાવ પકત રૂપમાં જ છે. તાત્પર્ય આ પ્રમાણે છે કે, તીર્થકર તીર્થકર ભવને ગ્રહણ કરતાં પહેલાં તૃતીય ભવમાં વગર કોઈપણ જાતના ગ્લાનિ ભાવથી ધર્મદેશના આદિ કાર્યો કરે છે. એથી તે તીર્થકર નામ ગોત્રને બંધ કરી લે છે. આ તીર્થકર નામ ગોત્ર કર્મને બંધ મનુષ્ય ગતિમાં જ કરે છે, ભલે તે પછી સ્ત્રી હોય કે પુરુષ હોય કે નપુંસક હોય, આમાંથી કેઈપણ હય, જે તે શુભલેશ્યા યુકત છે, અને વિંશતિ (૨૦) સ્થાન કેને તેણે સારી રીતે વારંવાર આસેવન કર્યા છે કે આ વીશ સ્થાનેમાંથી એક, બેત્રણ વગેરે સ્થાનેનું સેવન
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७८४
अनुयोगद्वारसूत्र प्रथमः, द्वितीयो देवभवो नारक भवो वा, तृतीयमनुष्यभवे तु तीर्थकरो भूत्वा सामायिकपरूपणादिभिः तीर्थकरनामकर्मक्षयं कृत्वा सिद्धो भवतीति । तथागौतमादयो गणधरा येन कारणेन सामायिकं श्रृण्वन्ति, तदेवं विज्ञेयम् । तथाहिभगवन्मुखारविन्दनिर्गतसामायिकश्रवणेन ज्ञानमुत्पद्यते इति ज्ञानार्थ गणधराणां सामायिकश्रवणमिति। सामायिकश्रवणजनितज्ञानं सुन्दरासुन्दरभावाना=शुमाशुभपदार्थानाम् उपलब्धये-अवबोधाय भवति । ततश्च शुभेषु प्रवृत्तिरशुभेभ्यश्च पुष्ट कर लिया है, तो वह तीर्थंकर नाम गोत्र कर्म का पन्ध करता है। जिस भव में वह तीर्थंकर नाम गोत्र का वध करता है, उसका वह पहिला भव होता है । इसके बाद वह मरकर दूसरे भव में या तो देवपर्याय में जाता है या नारकपर्याय में-सो यह उसका दूसरा भव होता है, वहां से निकल कर फिर यह मनुष्य भव में आता है और यह उसका तृतीय भव होता है। इस भव में वह तीर्थकर होकर सामायिक प्ररूपणा आदि द्वारा तीर्थंकर नामकर्म का क्षय करके सिद्ध हो जाता है। तथा गौतम आदि गणधर जिस कारण से सामायिक का श्रवण करते हैं-वह कारण इस प्रकार से है___भगवान् के मुखारविन्द से निर्गत जो सामायिक है, उस सामामिक के श्रवण करने से इन्हें ज्ञान उत्पन्न होता है । इसलिये ज्ञान प्राप्ति के निमित्त सामायिक का श्रवण गणधर करते हैं। जो ज्ञान सामायिक श्रवण करने से उत्पन्न होता है, वह ज्ञान शुभ और કરીને તેમને તેણે અતીવ સંપુષ્ટ કરી લીધા છે, તે તે તીર્થંકર નામ ગોત્ર કમને બંધ કરે છે. જે ભવમાં તે તીર્થકર નામગોત્રને બંધ કરે છે, તેને તે ભવ પ્રથમ ભવ હોય છે, ત્યાર પછી તે મરણ પામીને બીજા ભવમાં કાંતે દેવપર્યાયમાં જાય છે, કાં નારકપર્યાયમાં, તે આમ તેને આ દ્વિતીય ભવ હોય છે. ત્યાંથી નીકળીને ફરી તે મનુષ્ય ભવમાં આવે છે. અને આ તેને તૃતીય ભવ હોય છે આ ભવમાં તે તીર્થંકર થઈને સામાયિક પ્રરૂપણુ વગેરે વડે તીર્થકર નામકર્મને ક્ષય કરીને સિદ્ધ થઈ જાય છે. તેમજ ગૌતમ વગેરે ગણુઘર જે કારણથી સામાયિકનું શ્રવણ કરે છે. તે કારણે આ પ્રમાણે છે
ભગવાનના મુખારવિંદથી નિર્ગત જે સામાયિક છે. તે સામાયિક શ્રમણ કરવાથી તેમને જ્ઞાન થાય છે. એથી જ્ઞાન પ્રાપ્તિ માટે જ ગણધરો સામા યિકનું ભ્રમણ કરે છે. જે જ્ઞાન સામાયિક શ્રમણ કરવાથી ઉત્પન્ન થાય છે, તે જ્ઞાન શુભ અને અશુભ પદાર્થોના અવધ માટે હોય
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अनुयोगन्द्रिका टीका सूत्र २४८ अनुगमनामानुधोगद्वारनिरूपणम् ७८५ निवृत्तिभवति । ते च प्रवृत्तिनिवृत्तीक्रमेण तपासंयमयोः कारणम् । तपः संयमयोः सतोः पापकर्मणोऽग्रहणम् । ततश्च कर्मविवेकः कर्म निर्जरा-जीवपदेशेभ्यः कर्मणः पृथग्भवनम् । तेन जीवस्य अशरीरिता, अशरीरितया अनाबाधता ततश्च जीवोऽवेदनो वेदनारहितो भवति । अवेदनत्वाच्च अनाकुल:अविहलो भवति । ततश्च निरूक्समस्तभावरोगरहितः । ततश्च जीवोऽचलः। अचलत्वेन सिद्धिक्षेत्रे शाश्वतो भवति । शाश्वतत्वं चोपगतः सन्नव्यायाधसुखं लभते । इत्थं परम्पराऽव्याबाधसुखनिमित्तं सामायिकश्रवणम् । तदुक्तम्
'गोयममाई सामाइयं तु किं कारणं निसामेति ? ।
नाणस्स तं तु सुंदरमंगुलभावाण उबलद्वी ॥५॥ अशुभ पदार्थों के अयोध के लिये होता है इसलिसे इससे शुभ में प्रवृत्ति और अशुभ से निवृत्ति होती है । अब जो ये शुभमें प्रवृत्ति
और अशुभ से निवृत्ति हैं, वे तप और संयम में कारण होती हैं । जब तप और संयम का सद्भाव आस्मा में हो जाता है तब पाप कर्म का ग्रहण आत्मा में नहीं होता। इससे पूर्व संचितकर्मों की निर्जरा होती है जीव के प्रदेशों से कर्मों का पृथक्करण होता है -इससे जीव में अशरीरिता और इससे अनायाधता होती है। इससे जीव वेदना रहित बन जाता है-और वेदना रहित होने के कारण वह आकुलता रहित बन समस्त भावरोग से रहित बन जाता है। भाव रोग से रहित होने के कारण फिर वह अचल होकर सिद्धिक्षेत्र में शाश्वत विराजमान हो जाता है और अन्याषाध सुख का भोक्ता हो जाता है। इस प्रकार परम्परारूप से अव्यवाध सुख प्राप्ति के निमित्त सामाછે માટે એથી શુભમાં પ્રવૃત્તિ અને અશુભથી નિવૃત્તિ થાય છે. હવે જો આ
શુભમાં પ્રવૃત્તિ અને અશુભથી નિવૃત્તિ છે, તે તપ અને સંયમમાં કારણરૂપ હેય છે જ્યારે તપ અને સંયમને સદુભાવ આત્મામાં છે, ત્યારે પાપકર્મનું ગ્રહણ આત્મામાં હોતું નથી. આનાથી પૂર્વ સંચિત કર્મોની નિર્જરા થાય છે, જીવના પ્રદેશથી કર્મોમાં પૃથકકરણ હોય છે, આથી જીવમાં અશરીરતા અને એથી અનાબાધતા હોય છે. એથી જીવ વેદના રહિત થઈ જાય છે. અને વેદના રહિત થવાથી તે આકુલતા રહિત બનીને સમસ્ત ભાવગથી રહિત થઈ જાય છે. ભાવગથી તે અચળ થઈને સિદ્ધિ ક્ષેત્રમાં શાશ્વત વિરાજમાન થઈ જાય છે. અને અવ્યાબાધ સુખકતા થઈ જાય છે. આ પ્રમાણે પરંપરા રૂપથી અવ્યાબાધ સુખ પ્રાપ્તિ નિમિત્ત સામાયિકનું શ્રમણ છે. તદુકતમ
अ० ९९
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अनुयोगद्वारसूत्रे होइ पविति निवित्ती, संजमतवपावकम्म अग्गहणं । कम्म विवेगो य तहा, कारणमसरीरया चेव ॥६॥ कम्मविवेगो असरीरयाइ असरीरयाऽणाबाहाए । होई अणबाहनिमित्तं अवेयणो अणाउलो निरुओ ॥७॥ निरुयत्ताए अयलो अयलत्ताए य सासए होई ।
सासयभावमुवगओ अब्बाबाई सुहं लहई ॥८॥ छाया--गौतमादयस्तु किं कारणं सामायिक निशामयन्ति ।
ज्ञानस्य ततस्तु सुन्दरमशुल भावनामुपलब्धिः ॥५॥ भवति प्रवृत्तिनिवृत्तिः संयमतपः पापकर्माग्रहणम् । कर्मविवेकश्च तथा कारणमशरीरता चैव ॥६॥ कर्मविवेकोऽशरीरतायाः अशरीरताऽनावाधाया। भवति अनाबाधानिमित्तम् अवेदनम् अनाकुलो नीरूक ॥७॥ नीरूक्तयाऽचलः अवलतया च शाश्वतो भवति ।
शाश्वतभावमुपगतः अव्याबाधं सुखं लभते ॥८॥ इति । तथा-येन प्रत्ययेन=विश्वासेन भगवता सामायिकमुपदिष्टं, येन च प्रत्ययेन गणधरा भगवतोपदिष्टं सामायिकं शृण्वन्ति, स प्रत्ययश्च वक्तव्यः। यथा-अहं केवलज्ञानीति प्रत्ययेन तीर्थकरः सामायिकं ब्रवीति । अयं सर्वज्ञ इति प्रत्ययेन गणधरास्तत् शृण्वन्ति । यिक का श्रवण हैं । तदुक्तम्-'गोयमाई सामाइयंतु किं कारणं निसा. मेंति ?' इत्यादि गाथाओं का भावार्थ यही पूर्वोक्तरूप से है । तथा जिस प्रत्यय-विश्वास को लेकर भगवान् सामायिक का उपदेश करते हैं और जिस विश्वास को लेकर गणधर भगवदुपदिष्ट सामायिक का श्रवण करते हैं । ऐसा वह प्रत्यय भी कहना चाहिये । जैसे 'मैं केवली हू-केवल ज्ञानवाला हूं-इस विश्वास से तीर्थ कर सामायिक का कथन करते हैं, तथा ये भगवान् सर्वज्ञ हैं इस निश्चय से गणधर उस उप'गोयमाई सामाइयं तु कि कारण निसामेति ? ' वगेरे आसामान लावाय પૂર્વોક્ત રૂપમાં જ થાય છે. તથા જે પ્રત્યય વિશ્વાસને લઈને ભગવાન સામાયિક વિષે ઉપદેશ કરે છે, અને જે વિશ્વાસના આધારે ગણધર ભગવ દુપદિષ્ટ સામાયિકનું શ્રવણ કરે છે, એ તે પ્રત્યય પણ કહે છેજેમ “હું કેવલી છું' કેવલ જ્ઞાનવાળે છું. આ વિશ્વાસથી તીર્થકર સામાયિકનું કથન કરે છે, તેમજ આ ભગવાન સર્વજ્ઞ છે. આ નિશ્ચયથી ગણધરે,
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अनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र २४८ अनुगमनामानुयोगद्वारनिरूपणम् ७८७ तदुक्तम्
'केवलनाणजुभोऽहं, तिजियो सामाइयं उवदिसेइ ।
सव्वविऊ एसो इय, पच्चयो गणी निसामिति ॥९॥ छाया-केवलज्ञानयुतोऽहमिति जिनः सामायिकमुपदिशति ।
सर्वविदेष इति प्रत्ययतो गणि निशामयन्ति ॥९॥ इति तथा-सामायिकस्य लक्षणं वक्तव्यम् । यथा-सम्यक्त्वसामायिकस्य तत्वश्रद्धानं लक्षणं, श्रुतसामयिकस्य जीवादिपरिज्ञानं लक्षणं, चारित्रप्तामायिकस्य सावधविर तिलक्षणम् , देशविरतिसामायिकस्य तु विरत्यविरतिस्वरूपं मिश्रं लक्षणम् । तदुक्तम्
'सामाझ्यस्स लक्खग,-मुत्तं चउनिहं जिणवरिंदेहि ।
सदहण जाणणा खलु, विरई मीसं चउत्थं तु ॥१०॥ छाया-सामायिकस्य लक्षणमुक्तं चतुर्विधं जिनवरेन्द्रैः। श्रद्धानं ज्ञानं खलु विरति मिश्रं चतुर्थ तु ॥१०॥ इति ।
इति नवमं द्वारम् दिष्ट सामायिक का श्रवण करते है। तदुक्तम्-केवलनाणजुओऽहंति जिणो सामाइयं उपदिसे' इत्यादि गाथाका भावार्थ यहां पूर्वोक्त है। तथा सामायिक का लक्षण भी कहना चाहिये-जैसे सम्यक्त्व सामायिक का लक्षण तत्वार्थ की श्रद्धा है । श्रुतसामायिक का लक्षण जीवादितत्त्वों का परिज्ञान होना है । चारित्र सामायिक का लक्षण सर्व सायद्ययोग से विरति होना है । देशपिरति सामायिक का लक्षण विरति अविरति. रूपिमिश्रस्वरूप है। तदुक्तम्-सामाइयस्स लक्खणमुत्तंचउन्विहं जिण. वरिंदेहि' इत्यादि गाथा का भाव यही पूर्वोक्तरूप से है। यह नवमबार है। तथा-इस दशमद्वार में नैगम आदि नयों का विवेचन करना चाहिये। a Gट सामायितुं श्रव ४२ छे. ततम्-'केवलनाणजुओऽहंति जिणो सामाइयं वदिसेई' इत्याहि थाना भावार्थ पूवात ३५i छ. तभ સામાયિકનું લક્ષણ પણ કહેવું જોઈએ-જેમ “સમ્યક્ત્વ સામાયિકનું લક્ષણ તત્વાર્થની શ્રદ્ધા છે. શ્રુત સામાયિકનું લક્ષણ છવાદિ તત્તનું પરિજ્ઞાન થવું છે. ચારિત્ર સામાયિકનું લક્ષણ સર્વ સાવદ્ય એથી વિરતિ થવું છે. દેશ विरति भविति३५० मिश्र २५३५ छ, ततम्-'सामाइयस्स लक्खणमुत्तं घउ विहं जिणवरिदेहि' वगेरे माथान मा पूर्वरित ३५मा छ मनम દ્વાર છે. તેમ જ આ દશમ દ્વારમાં નૈગમ વગેરે નાનું વિવેચન કરવું જોઈએ.
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७८
अनुयोगद्वारसूत्र तथा-नयो नैगमादि लक्षणो वक्तव्यः। ननु नयममाणे नया अभिहिताः, वक्ष्यमाणे चतुर्थे नयलक्षणे मूलानुयोगद्वारे च भणिष्यन्ते, पुनरिहोपादानं किमर्थम् ? इति चेत् , उच्यते, पूर्व नयममाणे नथानां स्वरूपमात्रमभिहितम, अत्र तु नयानां समवतारं, कस्य नयस्यानुमतं किं सामायिकमिति च दर्शयितुं नयग्रहणम् । तथा-वक्ष्यमाणे मूलद्वारे नयाः प्रतिपदं सूत्रार्थविषयाः, अत्र तु सामायिकसमुदायार्थमात्रविषया इत्यदोषः ॥इति दशमं द्वारम् १०॥
तथा-तेषां नयानां समवतारो वक्तव्यः। नैगमादिनयानां यत्र समवतारः संभवति, तत्र स दर्शनीय इति भावः । तदुक्तम्
शंका--नयप्रमाण में पहिले नथ कहदिए गये हैं, तथा वक्ष्यमाण चौथे नयलक्षण में और मूलानुयोगद्वार में ये नय कहे भी जावेंगे, तो फिर यहां इनके उपादान करने का क्या प्रयोजन है ?
उत्तर-पहिले नयरूप प्रमाणद्वार में नयों का केवल स्वरूप कहा गया है-यहां तो नयो का समवतार तथा कौन नय किस सामायिक को मानता है, यह सब कहा जाता है, इसलिये इस विषय को कहने के लिये इस द्वार का कथन आवश्यक कहा गया है । तथा वक्ष्यमाण जो मूलद्वार हैं, उसमें जो नय हैं वे हरएक पद में सूत्रार्थ को विषय करने वाले कहे गये हैं। और यहां तो सामायिक समुदाय के मात्र अर्थ को विषय करनेवाले कहे गये हैं। इसलिये यहां पुनरुक्ति दोष की प्रसक्ति होने की संभावना ही नहीं होती है। तथा उननयों के समवतार कहना चाहिये । अर्थात् नैगम आदि नयों का जहां समचतार
શંકા--જયપ્રમાણમાં પહેલાં ન કહેવામાં આવ્યાં છે, તેમ જ વશ્યમાણ ચતુર્થ નયલક્ષણમાં અને મૂલાનું ગદ્વારમાં આ ન પણ કહેવામાં આવશે પછી અહીં તેમનું ઉપાદન કરવાનું પ્રયોજન શું છે?
ઉત્તર–પ્રથમ નય રૂ૫ પ્રમાણદ્વારમાં નાનું કેવળ સ્વરૂપ કહેવામાં આવ્યું છે. અહીં મને સમવતાર તેમ જ કયે નય ક્યા સામાયિકને માને છે, આ બધું કહેવામાં આવે છે. એટલા માટે આ વિષયને કહેવા માટે આ દ્વારનું કધન આવશ્યક માનવામાં આવ્યું છે. તેમ જ વફ્ટમાણે જે મૂલધારે છે, તેમાં જે નય છે, તે દરેકે દરેક પદમાં સ્વાર્થને વિષય બનાવનાર કહેવામાં આવેલ છે. અને અહીં તે સામાજિક સમુદાયના માત્ર અર્થ ને વિષય બનાવનારા કહેવામાં આવ્યા છે, એથી અહીં પુનરુક્તિ દેષની પ્રસક્તિ થવાની સંભાવના નથી. તેમ જ તે નાના સમવતાર પણ કહેવા
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मनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र २४८ अनुगमनामानुयोगद्वारनिरूपणम् ७८९
'भृढनइयं सुयं कालियं तु न नया समोयरंति इहं ।
अपुहुत्ते समोयारो, नस्थि पुहुत्ते समोयारो॥११॥" छाया--मूढनयिक श्रृत कालिकं तु न नयाः समतुरन्तु इट।
अपृथक्त्वे समवतारो नास्ति पृथक्त्वे समवतारः ॥११॥इति । अयं भावः-कालिकं श्रुतं तु महनगिकम्-मूढाः अविभागस्था नया यस्मिस्तन्मूढनयम् , तदेव मूढनयिकम्-अविभक्तनययुक्तम् । अत इह कालिकश्रुते नया न समयतरन्ति। तथा-अपृथक्त्वे-चरणकरण-धर्मकथागणित-द्रव्यानुयोगलक्षणानां चतुर्णामनुयोगानामपृथग्भावे नयानां प्रतिमूत्रं समवतारो भवति । पृथक्त्वे चरणकरण-धर्मकथा-गणित-द्रव्यानुयोगानां पृथग्भावे समवतारो न भवतीति । अत्रेदं बोध्यम्-पूर्व चरणकरणादि चतुर्णाननुयोमानामपृथग्भावे प्रतिमत्र चतुर्णाअन्तर्भाव संभक्ति हो, वहां वह दिखलाना चाहिये । तदुक्तम् 'मूढन. इयं' इत्यादि-इस गाथा का भाव यह है कि-'कालिकश्रुन' मूढ नयिक हैअविभक्तनयों से युक्त है, इसलिये इस कालिक श्रुत में नयों का सम. वतार नहीं होता है । तथा चरण, करण, धमकथागणित और द्रव्यानु. योगरूप जो चार अनुयोग हैं-उनकी अपृथगवस्था में नयों का समवतार प्रत्येक सूत्र में होता है । तथा इनकी पृथक अवस्था में नयों का समव. तार नहीं है । यहां ऐसा समझना चाहिये, पहिले चरण करण आदि चारों अनुयोग में पृथकता नहीं थी-अर्थात् अपृथक्ता थी। सो इस अपृ. थगवस्था में-अभिन्नता में हरएक सूत्र में चारों अनुयोगों का अवतार हो जाता था, सो इस अवतार में नयों का अवतार होना निश्चित था। જોઈએ. એટલે કે નામ વગેરે ને જ્યાં સમાવતાર-અન્તર્ભાવ સંભવિત हाय, त्यांत मतावा . तम मूढनइयं' इत्यादि मा गाथाना ભાવ આ પ્રમાણે છે કે “કાલિક શ્રત મૂહનયિક છે, અવિભક્ત નોથી યુક્ત છે, એથી આ કાલિક ધુતમાં નયોને સમાવતાર હોતો નથી. તથા ચરણ, કરણ, ધર્મકથા ગણિત અને દ્રવ્યાનુગ રૂપ જે ચાર અનુગે છે, તેમની અપ્રથગવસ્થામાં મને સમવતાર દરેકે દરેક સૂત્રમાં હોય છે. તેમ જ એમની પ્રથફ અવસ્થામાં અને સમવતાર થતું નથી. અહી આમ સમજવું જોઈએ-પહેલા ચરણ કરણ વગેરે ચારે ચાર અનુગમાં પૃથતા ન હતી. એટલે કે અપૃથક્તા હતી. તે આ અપૃથગાવસ્થામાંઅભિન્નતામાં દરેકે દરેક સૂત્રમાં ચાર ચાર અનુગોને સમાવતાર થઈ જતે હતે આ અવતારમાં નો અવહાર નિશ્ચિત હતું, પરંતુ કાળ પ્રભાવથી
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७२०
भयनोगद्वारसूत्रे मप्यवतारे नयावतारो निश्चितासीत् । कालप्रभावात् शिष्याणां बुद्धिमान्धमवेक्ष्य नयानां विचारबाहुल्यमसुगमत्वं च विलोक्य चिरन्त नैराचार्यश्चत्वारोऽनुयोगाः पृथक्पृथग्व्यवस्थापिताः। तत्र- चरणकरणानुयोगे
आचाराङ्गसूत्र प्रश्नव्याकरणं चेति द्वे अङ्गमूत्रे, दशवैकालिक-मूलसूत्रम् , बृहत्कल्पादीनि चत्वारिच्छेदसूत्राणि, आवश्यकसूत्रं चेत्यष्टौ सूत्राणि। धर्मकथाऽनुयोगेज्ञाताधर्मकथाङ्गम् , उपासकदशाङ्गम् , अन्तकृदशाङ्गम् , अनुत्तरोपपातिकदशाङ्गम् , विपाकसूत्र चैतानि पञ्चाङ्ग सूगणि, औपपातिकसूत्रं, राजप्रश्नीय सूत्र, निरयावलिकादीनि पश्चेति मिलित्वा सप्तोपान सू गणि, उत्तराध्ययनं मलमूत्र
चेति त्रयोदशसूत्राणि। परन्तु काल के प्रभाव से शिष्यों की बुद्धि में मन्दता आती गई, सो इस मन्दता को देखकर तथा नयसंबन्धी विचार बाहुल्य को और उसमें असुगमता को जानकर प्राचीन आचार्यों ने पृथक पृथक रूपसे चार अनुयोग व्यवस्थापित कर दिये है। इनमें जो चरणकरणानुयोग है, उसमें आचाराङ्ग सूत्र, प्रश्नव्याकरण ये दो अंगसूत्र, दशवैकोलिक मूलसूत्र बृहत्कल्प आदिचार छेद सूत्र और आवश्यक सूत्र ये आठ सूत्र हैं। धर्मकनानुयोग में-ज्ञाताधर्म कथाङ्ग, उपासकदशाङ्ग, अन्तकृद्दशाङ्ग, अनु. सरोपपत्सिकदशाङ्ग, और विपाकमूत्र ये पांच, अङ्गसूत्र, तथा-औपपा. तिक सूत्र, राजप्रश्नीयभूत्र और निरयावलिका आदि ५ उपाङ्गमूत्र ये ७ सात उपाङ्ग सूत्र, एवं उत्तराध्ययनरूप मूल सूत्र इस प्रकार ये १३ सूत्र हैं ।गणितानुयोग में जंबूद्वीप प्रज्ञप्ति, चन्द्रवज्ञप्ति सूर्यप्रज्ञप्ति ये तीन શિષ્યની બુદ્ધિમાં મંદતા આવતી ગઈ, આ બુદ્ધિ મંદતા જોઈને તથા નય સંબંધી વિચાર બાહુલ્યને અને તેમાં અનુગમતાને જાણુને પ્રાચીન આચાર્યોએ પૃથક પૃથક્ રૂપમાં ચાર અનુગે વ્યવસ્થાપિત કરી દીધા. આમાં જે ચરણ કરણાનુગ છે, તેમાં આચારાંગસૂત્ર, પ્રસનવ્યાકરણ એ બન્ને અંગસૂત્રે, દશવૈકાલિક મૂલ સૂત્ર બૃહત્કલ્પ વગેરે ચાર છેદ સૂત્ર અને આવશ્યક સૂત્ર આ આઠ સૂત્રે છે. ધર્મકથાનુગમાં જ્ઞાતાધર્મકથાગ, ઉપાસકદશાંગ, અંતકૃદુદશાંગ, અનુત્તરપત્તિક દશાંગ, અને વિપાકસૂત્ર આ પાંચ અંગસૂત્ર તથા ઔપપાકિસૂવ, રાજપ્રશ્નીય સૂત્ર અને નિરયાવલિકા આદિરૂપ ઉપાંગસૂત્રો, આ ૭ ઉપાંગ સૂત્ર, તથા ઉત્તરાધ્યયન રૂપ મૂળ સૂત્ર આ પ્રમાણે આ બધાં ૧૩ સૂવે છે. ગણિતાનુગમાં જબૂદ્વીપ પ્રજ્ઞપ્તિ, ચન્દ્ર પ્રજ્ઞપ્તિ, સૂર્ય પ્રજ્ઞપ્તિ,
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अनुयोगचन्द्रिका टीका सत्र २४८ अनुगमनामानुयोगद्वारनिरूपणम् ७९१ गणितानुयोगे
जम्बूद्वीपपज्ञप्तिः १ चन्द्रप्रज्ञप्तिः२, सूर्यप्रज्ञप्तिश्चेति त्रीण्युपाङ्गसत्राणि । द्रष्यानुयोगे तु
सूत्रकृताङ्ग, स्थानाङ्ग, समवायाङ्ग, भगवती चेति चत्वार्यङ्गसूत्राणि, जीवाजीचाभिगमः प्रज्ञापना चेति द्वे उपागमत्रे, नन्दी अनुयोगद्वारं चेति द्वे मूलमूत्रे इति अष्टौ सूत्राणि । इत्थं चतुर्णामनुयोगानां पृथक्पृथग्व्यवस्थापनात नयानां समवतारः सम्प्रति व्यवच्छिन्न इति करणचरणानुयोगवर्तिनि सामायिके नयावतारः सम्पति न भवतीति । इत्येकादशं द्वारम् ॥११॥
तत्र-कस्य नयस्य कि सामयिक मोक्षमार्गत्वेनानुमतमित्यपि वक्तव्यम् । यथा-नैगमसंग्रहव्यवहारास्त्रयोऽपि नयास्तपः संयमरूपं चारित्रसामायिकं, निर्गउपाङ्गासूत्र हैं। द्रव्यानुयोग में सूत्रकृताङ्गस्थानाङ्ग, समवायाज, और भगः चती ये चार अंगसूत्र, तथा जीवाभिगम, और प्रज्ञापना ये दो उपाज, सूत्र, एवं नन्दी, अनुयोगद्वार ये दो मूलसूत्र इस प्रकार आठ सूत्र हैं। इस प्रकार से चार अनुयोगों की पृथक् २ रूप से व्यवस्था हुई है। इससे नयों का समवतार इस समय व्यवच्छिन्न हो गया है। इसलिये करण चरणानुयोगवर्ती सामायिक में नयों का अवतार इस समय नहीं होता है । तथा 'कौन नय सामायिक को मोक्षमार्गरूप से मानता है ? यह भी कहना चाहिये। जैसे-नैगम, संग्रह, व्यवहार ये तीनों भी नय तप संयमरूप चारित्र सामायिक को, निर्ग्रन्थ प्रवचनरूप श्रुतसामायिक को, और श्रद्धानरूप सम्यक्त्व सामायिककों इन तीनों सामायिकों को मोक्ष.
આ ત્રણ ઉપાંગસૂત્રો દ્રવ્યાનુયેગમાં સૂત્ર કૃતાંગ, થાનાંગ, સમવાયાંગ અને ભગવતી એ ચાર અંગસૂત્ર તથા જીવાભિગમ અને પ્રજ્ઞાપના આ બને ઉપાંગ સૂત્ર તથા નંદી, અનુગદ્વાર એ અને મૂલસૂત્ર આ પ્રમાણે આઠ સૂત્રો છે. આ પ્રમાણે ચાર અનુયેની પૃથક પૃથફ રૂપમાં વ્યવસ્થા થયેલ છે. એથી નોને સમવતાર આ સમયે બુચ્છિન્ન થઈગયેલ છે. એટલા માટે કરણ ચરણનુગવતી સામાયિક નાનો અવતાર આ વખતે થતું નથી. તથા કો નય સામાયિકને મે ક્ષમાર્ગ રૂપમાં માને છે? આ વિષે પણ કહેવું જોઈએ. જેમ નિગમ, સંગ્રહ, વ્યવહાર આ ત્રણે ન તપ સંયમ રૂપ ચારિત્ર સામાયિકને, નિગ્રંથ પ્રવચનરૂપ, શ્રત સામાયિકને અને શ્રદ્ધાન રૂપ સમ્યકત્વ સામાયિકને આ ત્રણે સામાયિકને ક્ષમાગરૂપમાં માને છે. જુ સૂત્રનય અને શબ, સમભિરૂઢ અને એવંભૂત એ ચારે ચાર ન સંયમરૂપ
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७९२
अनुयोगद्वारसूत्रे न्थप्रवचनरूपं श्रुतलामायिक, श्रद्धानरूपं सम्पकत्वसामायिकं चेनि सामायिकत्रयं मोक्षमार्गत्वेन मन्यते । ऋजुसूत्रनयस्वयः शब्दनयाश्च संयमरूपं चारित्रसामायिकमेव मोक्षमार्गत्वेन मन्यते इति । तदुक्तम्
तब संजमो अणुमभो, नेग्गय पवयणं च ववहारो। - सज्जुसुयाणं पुण, निव्वाणं संजमो चेव ॥१२॥ : छाया-तपः संयमोऽनुमतौ नैर्ग्रन्थं प्रवचनं च व्यवहारः।
शब्दर्जुमूत्राणां पुनर्निर्वाणं संयम एवं ॥१२॥ इति । अयं भावा-व्यवहारनयः-तप-संयमः-तपःप्रधानः संयमः-चारित्रमामायिक ममानुमतः, नैन्य प्रवचनं श्रुतसामायिकं च शब्दात् सम्यक्त्वसामायिक च ममानुमतं मोक्षमार्गत्वेनेति ब्रूते । व्यवहारग्रहणेन तत्पूर्ववर्तिनो नैगमसंग्रहयोरप्यय मेवाभिमायः। सन्दर्जुसूत्राणां त्रयाणां शब्दनानाम् ऋजुसूत्रस्य चेति चतुर्गा नयानां मते पुनः निर्वाण-प्रोक्षमार्गः संयम एव-चारित्रसामायिकमेव, नेतरे द्वे सर्व संवरचारित्रानन्तरमेव मोक्षप्राप्तेरिति । मार्गरूप से मानते हैं । ऋजुसूत्रनय और शब्द, समभिरूढ़ एवं-एवं भून ये चारों नय संयमरूप चारित्र सामायिक को ही मोक्षमार्गरूप से मानते हैं । तदुक्तम्-'तव संजमो अणुपओ' इत्यादि जो यह गाथा हैउसका भावार्थ पूर्वोक्त रूप से ही है। इसका तात्पर्य यह है कि व्यव. हार नथ तपः प्रधान संगम-अर्थात् चारित्र सामायिक मोक्षमार्गरूप से मुझे मान्य है, नैन्य प्रवचनरूप श्रुतसामायिक मोक्षमार्गरूप से मुझे मान्य है। तथा च शब्दोपात्त सम्यक्त्व सामायिक रूपसे मुझे मान्य है ऐसा करता है यहां व्यवहारनय के ग्रहण से इसके पूर्ववर्ती जो नैगम और संग्रहनय हैं, उनका भी यही अभिप्राय है। तीन शदनयों एवं ऋजुत्र नय इन चार नयों के मन में चारित्र सामायिक ही मोक्ष यारित्र सामायिन भाक्ष भाग ३५मां भान छे. तत-"तव संजमो अणमओ" त्याहि २ म! ॥था छ, तना मापाथ पूरित ३५मां न छे. આનું તાત્પર્ય આ પ્રમાણે છે કે વ્યવહારનય તપઃ પ્રધાન સંયમ એટલે કે ચારિત્ર સામાયિક મોક્ષમાર્ગ રૂપમાં મને માન્ય છે, નગ્રન્થ પ્રવચન રૂપ શ્રત સામાયિક મોક્ષમાર્ગ રૂપમાં મને માન્ય છે, તથા શબ્દોપાત્ત સમ્યક્ત્વ સામા યિક મોક્ષમાર્ગરૂપમાં મને માન્ય છે, આમ કહે છે. અહીં વ્યવહારનયના ગ્રહણથી એના પૂર્વવત જે નૈગમ અને સંગ્રહાય છે, તેને પણ એ જ અભિપ્રાય છે. ત્રણ શબ્દ ન તેમજ અનુસૂત્રનય આ ચાર નાના મતમાં ચારિત્ર સામાયિક જ મોક્ષમાર્ગ છે, બીજા બે નહિ. કેમ કે સર્વ
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अनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र २४८ अनुगमनामानुयोगद्वारनिरूपणम् ॥ उक्तगाथार्थमेव गाथात्रयेणाह
'कस्स नयस्साणुमय, किं सामाइयमिह मोक्खमग्गोत्ति । भन्नइ नेगमसंगह ववहाराणं तु सव्वाणि ॥१३॥ तवसंजमोत्ति चरितं, निग्गंथं पवयणति सुयनाणं। तरगहणे सम्मतं, च गहणाओ य बोद्धव्वं ॥१४॥ उज्जुमुयाइमयं पुण, निधाणपहोचरितमेवेगे।
नहि नाणदंसणाई, भावे वि न तेसिं जं मोक्खो ॥१५॥ छाया-कस्य नयस्यानुमतं किं सामायिकमिह मोक्षमार्ग इति ।
मण्यते नैगमसंग्रहव्यवहाराणां तु सर्वाणि ॥१३॥ तपस्संयम इति चारित्रं, नैन्थं प्रवचनमितिश्रुतज्ञानम् । तद्ग्रहणे सम्यक्त्वं, च ग्रहणाच्च बोध्यम् ॥१४॥ ऋजुसूत्रादिमतं पुननिर्वाणपथश्चारित्रमेवैकम् ।
नहि ज्ञानदर्शने, भावेऽपि तयोर्यन्न मोक्षः ॥१५॥ इति । अत्रेदं बोध्यम्
नैगमसंग्रहव्यवहाराः त्रिषु सामायिकेषु पत्येकं सामायिक मोक्षमार्गत्वेनानुमन्यन्ते, ऋजुमूत्रादयस्तु चत्वारो नयाश्चारित्र मेवैकमिति नयानां मतं प्रतिपादितम्। मार्ग है इतर दो नहीं। क्योंकि सर्व संवररूप चारित्र के बाद-अन. न्तर ही मोक्ष की प्राप्ति होती है। इसी उक्त अर्थ को ही इन तीन गाथाओं द्वारा व्यक्त किया गया है-वे गाथाएँ 'कस्स नयस्साणुमयं' इत्यादि ये यहाँ ऐसा जानना चाहिये-नगम, संग्रह और व्यवहार ये नय तीन सामायिकों में से प्रत्येक सामायिक को मोक्ष मार्गरूप से मानते हैं। तथा जो ऋजुसूत्र आदि चार नय हैं वे एक चारित्ररूप सामा. यिक को मोक्षमार्ग से मानते हैं। ऐसा नयों का मत प्रतिपादित किया है। સંવરપ ચારિત્ર પછી જ મોક્ષ પ્રાપ્તિ થાય છે. આ ઉક્ત અર્થને જ આ त्रय गाथा। १3 व्यत ४२वामां आवेत छ. २ ॥था। "कस्स नयस्सा णुमयं" मेरे छ. म मा प्रमाणे ने नाम, सय भने વ્યવહાર આ ન ત્રણ સામાયિકેમાંથી દરેક દરેક સામાયિકને મોક્ષમાર્ગ રૂપમાં માને છે. તથા જે ઋજુ સૂત્ર આદિ ચાર ન છે, તે એક ચારિત્ર રૂપ સામાયિકને જ મોક્ષમાર્ગ રૂપમાં માને છે. આ જાતને નોને મત પ્રતિપાદન કરવામાં આવેલ છે. પરંતુ જે સ્થિતિ પક્ષ છે, તેમાં તે “દર્શન __ अ० १००
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अनुयोगद्वारसूत्रे
स्थितपक्षेतु - दर्शनज्ञानचारित्राणि त्रीण्यपि सामायिकानि समुदितान्येवेष्टार्थं साधकानि, न तु प्रत्येकम् । यथा - वैद्य भैषजातुरमतिचारकाणां समुदितानामेव आरोग्यं प्रतिकारणत्वं तथैव सम्यक्त्वेन सम्यक्त्त श्रद्धते, ज्ञानेन तु जानाति, चारित्रेण तु सर्वसावद्याद् बिरमतीति समुदितान्येव मोक्षं प्रतिकारणमिति ॥ इति द्वादशं द्वारम् ||१२||
"
?
सामायिकं किं किं स्वरूपमिति वक्तव्यम् । अयं भावः - सामायिकं किं जीवः १, उताजीवः १२, जीवस्वेऽजीवत्वे वा किं गुणः सामायिकं ? ३, किं बा द्रवयम् ? ४ किंवा जीवाजीवोभयं सामायिकम् १५, किं वा जीवाजीवेभ्यो व्यतिरिक्तं शशविषाणवन्ध्यापुत्रवत् शून्यात्मकं सामायिकम् ? ६ इति षटू प्रश्नाः । परन्तु जो स्थिति पक्ष हैं, उस में तो 'दर्शन, ज्ञान और चरित्र ये तीनों ही सामायिक जब एक आत्मा में समुदित होते हैं तभी इष्ट अर्थ के साधक होते हैं- अलग २ रहकर नहीं । ऐसी मान्यता है। जैसे आरोग्य के प्रति वैध भैषज और आतुरजनके प्रतिचारक इन तीनों की एकता में कारणता है। इसी प्रकार जब आत्मा सम्यक्श्व से सच्चा श्रद्धान करता है, ज्ञान से अच्छे प्रकार जानता है और वारित्र से सर्वसावधयोग से विरक्त होता है तब इस प्रकार से समुदित हुए इन तीनों में मोक्ष के प्रतिकारणता आती है । इस प्रकार यह १२ वां द्वार है । तथा सामायिक का क्या स्वरूप है । यह भी कहना चाहिये। इसका भाव यह है - सामायिक क्या जीवरूप है ? अथवा अजीवरूप है ? या गुणरूप है ? या द्रव्यरूप है ? अथवा जीव अजीव उभयरूप है ? या जीव अजीव से भिन्न शशविषाण के जैसा या वन्ध्यापुत्र के जैस शून्यस्वरूप
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જ્ઞાન અને ચારિત્ર આ ત્રણે સામાયિકે જ્યારે એક આત્મામાં સમુદ્રિત હાય છે ત્યારે જ ઈષ્ટ અથ સાધક હાય છે. પૃથક્ પૃથક્ રહીને નહિ. એવી માન્યતા છે. જેમ આરેાગ્ય પ્રત્યે વૈદ્ય, ભૈષજ અને આતુરજન પ્રત્યે ચારક એએ ત્રણેની એકતામાં કારણતા છે, તેમ જ જ્યારે આત્મા સમ્યક્ત્વથી સાચું શ્રદ્ધાન કરે છે, જ્ઞાનથી સારી રીતે જાણે છે. અને ચારિત્રથીસમુદ્દિત થયેલ આ ત્રણેમાં મેક્ષ પ્રત્યે કારણુતા આવે છે. આ પ્રમાણે આ ૧૨ મુ' દ્વાર છે.
તથા સામાયિકનું સ્વરૂપ કેવું છે? આ વિષે પણ કહેવુ જોઇએ. આને ભાવ આ પ્રમાણે છે કે-સામાયિક શુ' જીવરૂપ છે ? અથવા અજીવરૂપ છે ? કે ગુણરૂપ છે? કે દ્રવ્યરૂપ છે? અથવા જીવ અજીવ ઉભયરૂપ છે ? યા જીવ અજીવથી ભિન્ન શશ વિષાણુની જેમ કે વન્ધ્યા પુત્રની જેમ શૂન્યસ્વરૂપ છે? આ પ્રમાણે સામાયિકના સંબંધમાં આ ૬ પ્રના ઉપસ્થિત
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अनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र २४८ अनुगमनामानुयोगद्वारनिरूपणम् ७९५ अत्रोत्तरमाह-यस्मात् जीव एव सम्यक्त्वश्रुतसामायिकाभ्यां श्रद्धत्ते जानाति च जीव एव ना जीवादिः, प्रत्याचक्षाणश्च 'प्रत्याख्यानं कुर्वन्' चारित्री यतो जीव एव भवति ना जीवो नाप्यभावः, श्रद्धान ज्ञानप्रत्याख्यानानां प्रेक्षावत्येव संभवात् , अजीवाभावयोश्च प्रेक्षाया अभावात् तेन तस्मात् स एव जीवः सामायिकं नाजीवादिरिति । यदुक्तं किं जीवाजीवोभयं सामायिकमिति ? तदपि नो विचारसहम् , जीवाजीवोभयरूपपदार्थस्यासद्भावात् , तत्र ज्ञानदर्शनचारित्राभावेन सामायिकत्वस्य सुतरामभावात् । नन्वस्तु जीवः सामायिकम् , तथापि जीवद्रव्यं सामायिकं है ? इस प्रकार सामायिक के विषय में ये ६ प्रश्न किये जा सकते हैं। इनका उत्तर इस प्रकार से है-जब यह बात है कि-जीव ही सम्यक्त्व एवं श्रुत सामायिक द्वारा श्रद्धान करता है और जानता है अजीव आदि नहीं, तथा प्रत्याख्यान करता हुआ जीव ही चारित्रवाला होता है, अजीव नहीं, और न अभावरूप पदार्थ भी ऐसा होता है क्योंकि श्रद्धान, ज्ञान, एवं प्रत्याख्यान इनका सद्भाव विचारशील आत्मा में ही है, अजीव और अभावरूप पदार्थ में नहीं, क्योंकि वहां प्रेक्षा का अभाव है-इसलिये ऐसा जीव ही सामायिक है, अजीव आदि नहीं। तथाऐसा जो पूछा है कि-'क्या सामायिक जीव अजीव उभयरूप है ? 'सो ऐसा पूछना भी उचित प्रतीत नहीं होता है। कारण कि-'जीव अजीव उभयरूप कोई पदार्थ हो नहीं है। अतः उसमें अपने आप ही ज्ञान, दर्शन और चारित्र के अभाव से सामायिक का अभाव आता है। થાય છે. આના ઉત્તર આ પ્રમાણે છે. જ્યારે આ વાત છે કે “જીવ જ સમ્યકત્વ તેમજ શ્રત સામાયિક વડે શ્રદ્ધાન કરે છે અને જાણે છે અજીવ વગેરે નહિ, તેમજ પ્રત્યાખ્યાન કરતા જીવ જ ચારિત્ર સંપન્ન હોય છે, અજીવ નહિ, અને અભાવરૂપ પદાર્થ પણ આ જાતને હેત નથી. કેમ કે શ્રદ્ધાન, જ્ઞાન, તેમ જ પ્રત્યાખ્યાન એમને સદૂભાવ વિચારશીલ આત્મામાં જ હોય છે, અજીવ અને અભાવ રૂપ પદાર્થમાં નહિ, કેમ કે ત્યાં પ્રેશાને અભાવ છે, એથી એ જીવ જ સામાયિક છે, અજીવ વગેરે નહિ. તેમ જ આમ જે પ્રશ્ન કરવામાં આવે છે કે, શું સામાયિક જીવ અજીવ ઉભયરૂપ છે? તો આ જાતને પ્રશ્ન પણ ઉચિત નથી, કેમ કે “જીવ અજીવ ઉભયરૂપ કે પદાર્થ જ નથી. એથી તેમાં પિતાની મેળે જ જ્ઞાન. દર્શન અને ચારિત્રના અભાવથી સામાયિકને અભાવ આવે છે.
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अनुयोगद्वारसूत्रे किंवा जीवगुणः सामायिकम् १ इति संशयस्तु तिष्ठत्येवेति चेत्, आह-द्रव्यार्थिक नयस्य मतेन जीवद्रव्यं सामायिकम् । पर्यायाधिकनयस्य मतेन जीवगुणः, परन्तु उभयमिलितस्यैव सामायिकत्वम् । तत्मामायिकं सर्वविरतिदेशविरतिभेदेन द्विविधम् । तत्र-सर्वविरति सामायिक-सावधयोगविरतस्त्रिगुप्तः षट्सु संयत उपयुक्तः षष्ठादिगुणस्थानस्थितो जीवः। पञ्चमगुणस्थानस्थि वस्तु जीवो देशविरति सामायिकमिति । तदुक्तम्
शंका--जीव सामायिक हो-इसमें हमें कुछ नहीं कहना-परन्तु फिर भी यह संदेह तो पना ही रहता है-'जीव द्रव्य सामायिक है या जीवगुण सामायिक है।
- उत्तर--द्रव्यापिकनय के मन से जीव द्रव्य सामायिक है। और पर्यायाधिकनय के मत से जीव गुण सामायिक है। यह सामायिक सर्व चिरति और देशविरति के भेद से दो प्रकार का होता है। इनमें जों सर्वविरति सामायिक है, वह षष्ठादिगुणस्थानवी जीव रूप होता है। यह जीव सावद्ययोग से सर्वथा विरत होता है। मन, वचन और काय इन तीन गुप्तियों से सुरक्षित होता है। छह काय के जीवों की रक्षा स्वरूप होता है। उपयोगशून्यरूप नहीं होता-प्रत्युत उपयोग युक्त होता है। अर्थात सर्वविरति की समाचारी में दत्तावधानरूप-होता है। तथा पंचमगुणस्थानवर्ती जो जीव है, वह देशविरति सामायिक है। अर्थात् देशविरति सामायिक पंचमगुणस्थानवी जीव होता है। तदु
શંકા –જીવ સામાયિક હોય, તેમાં અમારે કંઈ કહેવું નથી, છતાંએ આ જાતની શંકા તે બની રહે છે કે “જીવ દ્રવ્ય સામાયિક છે કે જીવ ગુણ સામાયિક છે?
ઉત્તર–કવ્યાર્થિક નયના મત મુજબ જીવ દ્રવ્ય સામાયિક છે, અને પર્યાયાર્થિક નયના મત મુજબ જીવગુણ સામાયિક છે. પરંતુ ઉભયની સંમિલિત અવસ્થામાં જ સામાયિકતા છે. આ સામાયિક સર્વ વિરતિ અને દેશ વિરતિના ભેદથી બે પ્રકારનું હોય છે. આમાં જે સર્વ વિરતિ સામાયિક છે, તે ષષ્ઠાદિ ગુણ સ્થાન વર્તી જીવ રૂપ હોય છે. આ જીવ સાવદ્યોગથી સર્વથા વિરત હોય છે, મન, વચન અને કાય આ ત્રણ ગુપ્તિઓથી સુરક્ષિત હોય છે, ૬ કાયના જાની રક્ષા સ્વરૂપ હોય છે. ઉપગ શૂન્ય રૂપ નહિ પરંતુ ઉપયોગ યુક્ત હોય છે. એટલે કે સર્વવિરતિની સમાચારીમાં દત્તાવધાનરૂપ હોય છે. તેમ જ પંચમ ગુણ સ્થાનવતી જે જીવ છે, તે દેશ વિરતિ સામાયિક છે. એટલે કે દેશ વિરતિ સામાયિક પંચમ ગુણ સ્થાનવત
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अनुयोगन्द्रिका टीका सूत्र २४८ अनुगमनामानुयोगद्वारनिरूपणम् ७७
'कि सामाइयं जीवो, अनीवो दव्व महगुणो होला । किं जीवाजीवभयं होज्न तदत्थंतरं वेति ॥१६॥ सद्दहइजाणइ जो पञ्चक्खायं जभो तो जीवो। नाजीवो नाभावो सोचिय सामाइयं तेण ॥१७॥ तत्थ वि कि सामाश्यं हवेज्ज दब गुणोति चिंतेयं । दवद्वियस्स दव्यं गुणो य तं पज्जवनयस्स ॥१८॥ इहरा जीवाणन्नं दबनयस्सेयरस्स भिन्नति । उभयनयोभयगाहे, घडेग्न नेकेकगाहम्मि ॥१९॥ तं सामाइयं दुविहं, सव्वविरइ देसविरइ भेएणं । सबविरइ सामइयं, जं पुग तं एवमहिजाण ॥२०॥ सावज्ज जोगविरओ, तिगुत्तो छसु संजओ । उवउत्तो जयमाणो आया सामाइयं होइ ॥२१॥ देसविरइसामइयं, पंचमगुणठाण संठिो जीयो ।
कहिओ सम्वन्नूहि भगवंतेहि जिणवरेहि ॥२२॥ छाया-कि सामायिक जीवः अजीवो द्रव्यमथ गुणो भवेत ।
कि जीवाजीवमयं भवेत्तदर्थान्तरं वेति ॥१६॥ श्रद्धत्ते जानाति यतः प्रत्याचक्षाणां यतस्ततो जीवः । नाजीवो नाभावः स एव सामायिकं तेन ॥१७॥ तत्रापि कि सामायिक भवेद द्रव्यगुण इति चिन्तेयम् । द्रव्यार्थिकस्य द्रव्यं गुणश्च तत् पर्यायनयस्य ॥१८॥ इतरथा जीवादनन्यद द्रव्यनयस्येतरस्य भित्रमिति । उभयनयोभयग्रहे घटेत नैकैकग्रहे ॥१९॥ तत सामायिकं द्विविधं सर्वविरति देशविरतिभेदेन । सर्वविरति सामायिकं यत्पुनस्तदेवमभिजानीहि ॥२०॥ सावधयोगविरतः त्रिगुप्तः षट् संयतः । उपयुक्तो यतमान आत्मा सामायिकं भवति ॥२१॥ देशविरति सामायिक पश्चमगुणस्थानसंस्थितो जीवः ।
कथितः सर्वभगवद्भिनिनवरैः ॥२२॥ इति त्रयोदशं द्वारम् ॥१३॥ क्तम्-'कि सामाइयं जीवो' इत्यादि इन मात गाथाओं का भावार्थ यहीं पूर्वोक्त प्रकार से हैं। इस प्रकार यह 'कि' नामका १३ वां द्वार ७५ डाय छे. तारतम-"कि' सामाइयं जीवो" त्या मासात थायाना ભાવાર્થ પૂર્વોક્ત રૂપમાં જ છે. આ પ્રમાણે આ “જિ' નામક ૧૩ મુ દ્વાર
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___अनुयोगद्वारसूत्रे तया-सामायिकं कतिविधम् ? इत्यपि वक्तव्यम् ।
यथा-सम्यक्षसामायिकं श्रुतसामायिकं चारित्रसामायिकं चेति त्रिविधम् । तत्र-सम्यक्त्वसामायिकम् - औपशमिकक्षायिकक्षायोपशभिकभेदात् त्रिविधम् । श्रुतसामायिकमपि सूत्रार्थतदुभयभेदेन त्रिविधम् । चारित्रसामायिकं च अगारसामायिकान गारसामायिकभेदेन द्विविधम् । तत्र अगारसामायिकम् देशविरति सामायिकम् । अनगारसामायिकम् सर्वविरतिसामायिकमिति । तदुक्तम्
सामाइयं पि तिविहं, सम्मत्सुयं तहा चरित्तं च । दुविहं चेव चरितं, अगारमणगारियं चेव । २३॥ तिविहं सुयसामाइय, मुत्ते अत्थे य तदुभए चेव ।
उपसमिय खइय ख भोव-समियं तिविहं च सम्मत्तं ॥२४॥ है। तथा-'सामायिक कितने प्रकार का होता है ?' यह भी कहना चाहिये-जैसे इस द्वार में यह प्रकट किया जाता है कि-सामायिक, सम्यक्त्व सामायिक श्रुतसामायिक, और चारित्र सामायिक इस प्रकार से तीन प्रकार का होता है। इसमें औरशमिक, क्षायिक और क्षायो. पशमिक के भेद से सम्यक्त्व सामायिक तीन प्रकार है। श्रुनसामायिक भी सूत्र, अर्थ और सूत्रार्थ के भेद से तीन प्रकार का होता है। तथा जो चारित्रसामायिक है, वह अगोरसामायिक और अनगार सामायिक के भेद से दो प्रकार का होता है। इन में जो अगार सामायिक है, वह देशविरति सामायिक है और जो अनगारसामायिक है वह सर्वविरति सामायिक है। तदुक्तं 'सामाइयंपि तिविहं' इत्यादि जो છે. તથા “સામાયિક કેટલા પ્રકારનું હોય છે? આ વિષે સ્પષ્ટતા આવશ્યક છે. જેમ કે આ દ્વારમાં આ સ્પષ્ટ કરવામાં આવે છે કે સામાયિક, સમ્યકૃત્વ, સામાયિક, શ્રત સામાયિક, અને ચારિત્ર સામાયિક આ પ્રમાણે ત્રણે પ્રકારના હોય છે. આમાં પથમિક, ક્ષાયિક અને ક્ષાપશમિકના ભેદથી સમ્યકત્વ સામાયિક ત્રણ પ્રકારનું છે. શ્રત સામાયિક પણ સત્ર અર્થ અને સુત્રાર્થના ભેદથી ત્રણ પ્રકારનું હોય છે, તેમ જ જે ચારિત્ર સામાયિક છે તે અગાર સામાયિક અને અનગાર સામાયિકના ભેદથી બે પ્રકારનું હોય છે, આમાં જે અનગાર સામાયિક છે, તે દેશવિરતિ
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अनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र २४८ अनुगमनामानुयोगद्वारनिरूपणम् ७९९ छाया-सामायिकमपि त्रिविधं सम्यक्त्वश्रुतं तथा चरित्रं च ।
द्विविधं चैव चरित्रम् अगारानगारिकं चैव ॥२३॥ त्रिविधं श्रुतसामायिक, सूत्रम् अर्थश्च तदुभयं चैत्र ।
औपशमिक क्षायिक क्षायोपशमिकं त्रिविधं च सम्यक्त्वम् ॥२४॥
'कइविह' इति चतुर्दशं द्वारम् ॥१४॥ तथा-कस्य जीवस्य सामायिकं भवति-इत्यपि वक्तव्यम् ।
यथा-यस्य जीवस्य आत्मा संयमे नियमे तपसि च सामायिक संनिहितो भवति, तस्य जीवस्य सामायिकं भवति । तथा-यः सेषु स्थावरेषु च सर्वभूतेषु
त्रप्तस्थावरात्मकेषु सकलप्राणिषु समः तुल्यो भवति, तस्य जीवस्य सामायिक भवतीति । तदुक्तम् ।
'जस्स सामाणिओ अप्पा, संजमे नियमे तवे । तस्स सामाइयं होइ, इइकेवलिभासियं ॥१॥ जो समो सवभूएम, तसेसु थावरेसु य ।
तस्स सामाइयं होइ, इइ केवलिभासियं ॥२॥ ये चार गाथाएँ इस विषय में लिखी गई हैं, उनका भावार्थ पूर्वोक्तरूप से ही है। इस प्रकार कतिविध नामका यह चौदहवां द्वार है। तथा'किस जीव के सामायिक होता है, यह द्वार भी कहना चाहिये-जैसे जीव की आत्मा संयम में, तप में और नियम में संनिहित होती है, उस जीव को सामायिक होता है, तथा जो जीव त्रस जीवों के ऊपर और स्थावर जीवों के ऊपर समता का भाव रखता है उस जीव को यह सामायिक होता है। तदुक्तं-'जस्स सामाणिओ अप्पा' इत्यादि સામાયિક છે, અને જે અનગાર સામાયિક છે, તે સર્વવિરતિ સામાયિક छ, तत-'सामाइयं वि तिविहं' त्यात २ ॥ ॥२ था। આ સંબંધમાં લખવામાં આવેલી છે, તેને ભાવાર્થ પૂર્વોક્ત રૂપમાં જ છે. આ પ્રમાણ આ કતિવિધ નામક ૧૪ મું દ્વાર છે. તેમજ કયા જીવને સામાયિક હોય છે, આ દ્વારા વિષે પણ કહેવું જોઈએ, જેમ કે જે જીવન આત્મા સંયમમાં, તપમાં, અને નિયમમા સંનિહિત હોય છે, તે જીવને સામાયિક હોય છે. તથા જે જીવ ત્રસજીવો પર અને સ્થાવર જીવે પર समतानमा २छ तपन ! सामायि४ डाय छ, तत 'जस्स सामाणिओ अप्पा' त्याहि भा था। अबी मापेक्षा छ, तेना
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मनुयोगद्वारसूत्र छाया-यस्य सामानिक आत्मा, संयमे नियमे तपसि ।
तस्य सामायिक भवति, इति केलिभाषितम् ॥ १॥ यः समः सर्वभूतेषु, त्रसेषु स्थावरेषु च ।
तस्य सामायिकं भवति, इति केवलिमाषितम् ॥२॥ इति । अत्रेदं बोध्यम्इदं सामायिक केवलिक-परिपूर्ण प्रशस्तं पवित्रं गृहस्थधर्मात् प्रधान चेति शास्वा बुधो-विद्वान् मुनिः सावधयोगपरिरक्षणार्थ सावधयोगेभ्यो विरमणार्थम् इहलोके परलोके च आत्महितम् आत्मोपकारकं तत्सामायिकं कुर्यादिति । - सम्पूर्णसंयमाङ्गीकारसामाभावेन गृहस्थोऽपि द्विघटिकाकालमानोपेतं सर्ववर्ज=सर्वशब्दवर्ज द्विविधं त्रिविधेन सामायिकं कुर्यादेत्र । जो ये दो गाथाएँ यहां दी गई है, उनका भाव पूर्वोक्तरूप से ही है। यहां इस प्रकार से जानना चाहिये-कि यह सामायिक परिपूर्ण और गृहस्थधर्म की अपेक्षा प्रधान होता है, ऐसा जानकर विद्वान मुनि सर्व सावग्रयोग से अपने को दूर करने के लिये-अर्थात् बचाने के लिये सामायिक अंगीकार करें। क्योंकि यह दोनों लोक में आत्मा का परम उपकारक होता है। गृहस्थावस्था में संपूर्ण संयम पाल नहीं सकता क्योंकि सम्पूर्ण संयम के पालन करने की उस अवस्था में शक्ति नहीं होती है। इसलिये वह सर्व सार्वद्ययोग का त्यागकर सामायिक नहीं कर सकता है । गृहस्थ के सामायिक का काल दो घडी का है। इस सामायिक में सर्व सायद्ययोग का वह त्याग नहीं कर सकता, इसका तात्पर्य यह है कि-'सर्व प्रकार से जिस प्रकार से यहां पर नहीं होता।
ભાવ પૂર્વોક્ત રૂપમાં જ છે. અહીં એવી રીતે જાણવું જોઈએ કે આ સામાયિક પરિપૂર્ણ અને ગૃહસ્થ ધર્મની અપેક્ષા પ્રધાન હોય છે. આમ જાણીને વિદ્વાન મુનિ સર્વ સાવઘયોગથી પિતાની જાતને દૂર કરવા માટે એટલે કે બચાવવા માટે સામાયિક અંગીકાર કરે. કેમ કે આ બને લોકોમાં આત્માને પરમોપકારક હોય છે. ગૃહસ્થાવસ્થામાં સંપૂર્ણ સંયમનું પાલન કરી શકાતું નથી કેમ કે સંપૂર્ણ સંયમ પાલનની તે અવસ્થામાં શક્તિ હોતી નથી. એથી તે સર્વ સાવદ્યોગને ત્યજીને સામાયિક કરી શકતા નથી. ગૃહસ્થના સામાયિકને કાળ બે ઘડી જેટલું છે. આ સામાયિકમાં સર્વ સવગને તે ત્યાગ કરી શકતું નથી, આનું તાત્પર્ય આ પ્રમાણે છે કે “સર્વ પ્રકારથી
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भनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र २४८ अनुगमनामानुयोगद्वारनिरूपणम् ८०१
ननु गृहस्थोऽपि सर्वशब्दसहितं सामायिकं करोतु, का हानिः ? इति चेत् । आह-स्वशक्तिसम्पाद्यामेव क्रियां कत्तुं जनः प्रवृत्तो भवति नेतराम् । गृहस्थस्तु पूर्वप्रवृत्ते सावधयोगेऽभिष्वङ्ग मोक्तुं न शक्नोति, अतस्त्रिविधं त्रिविधेन न प्रत्याख्याति । एवं यदि स प्रत्याचक्षीत, तदा व्रतभङ्गः प्रसज्जेत । क्योंकि गृहस्थ के अणुव्रत हो सकता है। महाव्रत नहीं। मन, वचन
और काय की कृत, कारित अनुमोदना इन तीन २ कोटियों से सावद्यः योग का त्याग मुनि अवस्था में होता है-तब कि-गृहस्थावस्था में मन संबन्धी कृतकारित और अनुमोदनारूप त्रिकोटी से सायद्ययोग का त्याग नहीं होता है। बचन और काय ही की त्रिकोटियों से सावद्ययोग का उसके त्याग होता है। इसलिये वह सावद्ययोग का परित्याग उसका सर्व शब्द से वर्जित है। सर्व शब्द का अर्थ यहां पर 'सर्व प्रकार से' ऐसा है । मन वचन और कायकी कृत कारित अनुमोदना रूप नौ कोटि से यदि यह सावधयोग का उसके त्याग होता, तब ही वह त्याग सर्व सावद्यत्याग कहलाता-परन्तु पूर्वोक्तरूप से यह ऐसा नहीं है। इसी बात को टीका में 'सर्वशब्दवर्ज विविधं त्रिविधेनसामायिकं कुर्यात् 'इस पंक्तिद्वारा स्पष्ट किया है । वचन और काय से जन्य सावधयोग का यहां परित्याग त्रिविध-कृत, कारित और अनु. मोदना से है-इसलिये यह सावद्ययोग परित्याग सर्वशब्द से वर्जित है। જેમ મુનિ અવસ્થામાં સાવઘયોગને ત્યાગ થઈ જાય છે, તે પ્રમાણે અહી કરી શકાતો નથી. કેમ કે ગૃહસ્થ અણુવ્રત કરી શકે છે, મહાવત નહિ, મન, વચન અને કાયથી કૃત, કાતિ અને અનુમોદન આ ત્રણ કટિઓથી સાવધયોગનો ત્યાગ મુનિ અવસ્થામાં હોય છે, જ્યારે ગૃહસ્થાવસ્થામાં મનસંબધી કૃત કારિત અને અનુમોદના રૂપ ત્રિકટીથી સાવધોગને ત્યાગ તેને સર્વ શબ્દથી વર્જિત છે. સર્વ શબ્દનો અર્થ અહીં “સર્વ પ્રકારથી આ પ્રમાણે છે. મન, વચન અને કાયમી કૃત, કારિત, અનુમોદના રૂપ નવ કેટથી જે આ સાવઘાગને તેને ત્યાગ હેત તે જ તે ત્યાગ સર્વ સાવઘત્યાગ કહેવામાં આવ્યું હતું, પરંતુ પૂર્વોક્ત રૂપથી આ પ્રમાણે નથી એ જ વાતને Awi 'सर्वशब्दवर्ज द्विविधं त्रिविधेन सामायिकं कुर्यात्' । पति पर સ્પષ્ટ કરવામાં આવેલ છે. વચન અને કાયથી જન્ય સાવઘયોગને અહીં
अ० १०१
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૨
अनुयोगद्वारes
ननु गृहस्थस्य त्रिविधं त्रिविधेन प्रत्याख्यानमपि आग मे दृश्यते, यथा भगवती
सूत्रे - (श. ८ उ. ५)
'समणोत्रासगस्स णं भंते ! पुव्वमेव थूळे पाणाइवाए अपञ्चक्खाए भवइ । से णं भंते ! पच्छा पच्चाइक्खमाणे किं करेइ ? गोयमा ! तीयं पडिकमइ, पपन्नं इस प्रकार दो घडी काल तक गृहस्थों को द्विविध सावद्ययोग का त्रिवि से त्याग कर सामायिक करता चाहिये ।
शंका-गृहस्थ भी सर्व सावका परित्याग कर सामायिक करें तो इसमें क्या हानि है ?
उत्तर - मनुष्य स्वशक्ति द्वारा होने योग्य ही क्रिया को करने के लिये प्रवृत्त होता है । जो अपनी शक्ति के बाहर का काम है, उसमें वह प्रवृत्त नहीं होता। इसलिये गृहस्थ के सर्व सावद्ययोग का परित्याग होना, उसकी शक्ति के बाहर की बात है। क्योंकि वह पूर्व प्रवृत्त सावद्ययोग में अभिष्वङ्ग को मानसिक विचार धारा को छोडने के लिये समर्थ नहीं है । अर्थात् मन से वह त्रिकोटिपूर्वक सावद्ययोग का परित्याग नहीं कर सकता है । इसलिये वह विविध सावद्ययोग को त्रिविध से प्रत्याख्यात नहीं करता ।
शंका - गृहस्थ के त्रिविध सावद्ययोग का विविध से प्रत्याख्यान भी आगम में देखा जाता है-जैसे भगवती सूत्र में (श० ८ उ० ५ ) ત્રિવિધ-કૃત, કારિત અને અનુમેદનાથી છે, એથી આ સાવદ્યયેાગ પરિત્યાગ સવ શબ્દથી વર્જિત છે. આ પ્રમાણે એ ઘડી કાળ સુધી ગૃહસ્થાને દ્વિવિધ સાવદ્યયેાગના ત્રિવિધથી ત્યાગ કરીને સામાયિક કરવુ જોઈ એ.
શકા-ગૃડ્રુસ્થ પણ સવ સાવધયેાગને પરિત્યાગ કરીને સામાયિક કરે तो, तेमां शी हानि छे ?
ઉત્તર:-મનુષ્ય સ્વશક્તિ વડે થવા રેગ્ય ક્રિયાને કરવા માટે જ પ્રવૃત્ત હાય છે, જે પેાતાની શક્તિની બહારનું કામ છે, તેમાં તે પ્રવૃત્ત થતા નથી એથી ગૃહસ્થના સવ સાવદ્યયેાગને પરિત્યાગ થવેા, તેની શક્તિની બહારની વાત છે. કેમ કે પુત્ર પ્રવૃત્ત સાવચેાગમાં અભિq'ગને માનસિક વિચાર ધારાને ત્યજવામાં સમ નથી. એટલે કે મનથી તે ત્રાટિપૂર્વક સાવદ્યચાગના પરિત્યાગ કરી શકતા નથી, એથી તે ત્રિવિધ સાવદ્યયેાગનુ... ત્રિવિધથી પ્રત્યાખ્યાન કરતા નથી.
શક: ગૃહસ્થના ત્રિવિધ સાવદ્યયેાગનું પ્રત્યાખ્યાન પણ આગમમાં वामां भावे है, प्रेम भगवती सूत्रां (श० ८ ७. ५. ) 'समणोवास गरस
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अनुयोगवन्द्रिका टीका सूत्र २४८ अनुगमनामानुयोगद्वारनिरूपणम् ०३ संवरेइ, अणागयं पञ्चक्खाइ । तीयं पडिक्कममाणे किं तिविहं तिविहेणं पडिक्कमेइ ? तिविहं दुविहेणं पडिकमइ ? तिविहं एगविहेणं पडिक्कमइ ? जाव एक्कविहं एकविहेणं पडिक्कमइ ? गोयमा ! तिविहं तिविहेणं पडिक्कमइ जाव एकविहं एकविहेण वा पडिक्कमइ ।'
छाया-श्रमगोपासकस्य खलु भदन्त ! पूर्वमेव स्थूलः प्राणातिपातः अपत्या. ख्यातो भवति, स खलु भदन्त ! पश्चात् प्रत्याचक्षाणः किं करोति ? गौतम ! अतीतं प्रतिक्राम्यति, प्रत्युत्पन्न संपृणोति, अनामतं प्रत्याख्याति । अतीतं प्रतिक्राम्यत् किं त्रिविधं त्रिविधेन प्रतिक्राम्यति, त्रिविध द्विविधेन प्रतिक्राम्यति, त्रिविधम् एकविधेन प्रतिक्राम्यति, यावत् एकविधमेकविधेन प्रतिक्राम्यति ? गौतम ! त्रिविधं त्रिविधेन प्रतिक्राम्यति यावत् एकविधमेकविधेन प्रतिक्राम्यति । इति । __ तर्हि कथमुच्यते भवता यत् श्रावकेण सर्ववर्ज द्विविधं त्रिविधेन सामायिक कर्तव्यमिति चेत्, आह-भगवतीमूत्रे त्रिविधं त्रिविधेन श्रावकविषयं प्रत्याख्यान यदुक्तं, तत्स्थूलमाणातिपातमृपावादादीनामेव द्रष्टव्यम् । यथा कोऽपि सिंह सर'समणोवासगस्त णं भंते ! पुवामेव थुले पाणाइवाए अपच्चक्खाए' इत्यादि यह पाठ आया है, सो इस पाठ से यह भी ज्ञात होता है कि -'श्रावक जो सामाधिक में सायद्ययोग का परित्याग करता है, वह मन, वचन और काय से करता है, त्रिकोटि से करता है। इस प्रकार प्रमाणित होता है, तब आप ऐसा क्यों कहते हो? कि-'श्रावक को सामायिक विविध सावद्ययोग का त्रिविध से प्रत्याख्यान करके करना चाहिये। ___ उत्तर--भगवती सूत्र में जो वह त्रिविध सावधयोग का विविध से प्रत्याख्यान करने का कथन है, वह स्थूल प्राणातिपात स्थूलमृषावाद आदि का ही है। जैसे कोई श्रावक सिंह, सरभ, गज, आदि णं भंते ! पुव्वमेव मूलं पाणाइनाए अपञ्चक्खाए" त्या 48 मावस छे. આ પાઠથી આ વાત પણ જાણવામાં આવે છે કે “શ્રાવક જે સામાયિકમાં સાવદ્યોગને પરિત્યાગ કરે છે, તે મન, વચન અને કાયથી કરે છે. ત્રિકટીથી કરે છે. આ પ્રમાણે સાવદ્ય ગન ત્યાગ ત્યાં સર્વ પ્રકારથી જ્યારે પ્રમાણિત હોય છે, ત્યારે તમે આમ કેમ કહે છે કે “શ્રાવકને સામાયિક દ્વિવિધ સાવઘગનું ત્રિવિધથી પ્રત્યાખ્યાન કરીને કરવું જોઈએ.
ઉત્તર –ભગવતીસૂત્રમાં જે તે ત્રિવિધ સાવદ્યાગનું ગિવિધથી પ્રત્યાખ્યાન કરીને કથન છે, તે સ્થૂલ પ્રાણાતિપાત, સ્થૂલ મૃષાવાદ વગેરેનું જ છે. જેમ
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अनुयोगद्वारसूत्रे
भगजादीनां वधादीन विवादरान्, अग्राह्यान मद्यमांसादीन् अप्राप्य, स्वयम्भूरमणसमुद्रस्थिमत्स्यादि वधादींश्च त्रिविध त्रिविधेन प्रत्याख्याति, न पुनस्तत् सामान्येन सावद्ययोगविषयं बोध्यमिति ।
अत्रायं विवेकः - श्रावकस्यापि एकादशी प्रतिमानसमये तथा भक्तप्रत्याख्यानाङ्गीकरणसमये प्राणातिपातादीनां त्रिकरणत्रियोगेन प्रत्याख्यानं भवितुमर्हतीति तथा - 'कहि' इति क सामायिकं भवति ? इत्यपि वक्तव्यम् । अमुमेवार्थ गाथा प्रयेण विशदयति । तथाहि
५
६
'खेत दिसिकालाई भयि सनि ऊसास दिट्ठिमाहारे ।
の
90
99 १२
१३ १४
१५
१६ १७
पज्जत सुत्त जम्म- द्विइवेय सण्णा कसायाज ॥ १ ॥
१८
१९ २०
२१ २२
૨૩ २४.
नाणे जो आंगे सरीरसंठाण संघयणमाणे
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1
२५
२७
२.८
लेसा परिणाम वेयणाय समुग्धाय कम्मे य | २||
33
निव्वेट्टणमुत्रट्टे आसत्र करणं वहा अलंकारं ।
33
३४ ३५
३६
सणासठाण चकमंते य किं कहिये' सामाइयम् ॥३॥
अतिबादररूप वादि का मद्य, मांस आदि जो अग्राह्य हैं उनका और अप्राप्य स्वयंभूरमण समुद्र के मत्स्यादि के बधादि का त्याग मन, वचन और काय से कृत कारित अनुमोदना पूर्वक कर देता है सो यह बात सर्वथारूप से सावद्ययोग विषयक नहीं मानी जा सकती है। यहां पर यह समझने का है कि- ग्यारहवीं प्रतिमा के वहन करते समय और भक्तप्रत्याख्यात संथारे के समय श्रावक के भी प्राणातिपातादिका तीन करण तीन योग से प्रत्याख्यान होता है । इस प्रकार यह पंद्रहवें द्वार का विवेचन है ॥ १५ ॥
કાઇ શ્રાવક સિદ્ધ, સરભ, ગજ આદિના અતિ બાદર રૂપ વધાદિક, મઘ માંસ વગેરે અગ્રાહ્ય છે. તેમનેા અને અપ્રાપ્ય સ્વયંભૂરમણ સમુદ્રનામસ્ત્યાદિના વધાનિા ત્યાગ મત, વચન અને કાયથી કૃત, કારિત અનુમેાદના પૂર્વક કરી નાખે છે, તા આ વાત સર્વથા રૂપમાં સાવદ્યયેાગ વિષયક માનવામાં આવી શકતી નથી. અહી' આ વાત સમજવી આવશ્યક છે કે ૧૧ મી પ્રતિમાનું વહન કરતી વખતે અને ભક્તપ્રત્યાખ્યાન સંથારાના સમયે શ્રાવકને પણ પ્રાણાતિપાતાદિના ત્રણ કરણ, ત્રણ ચાગધી પ્રત્યાખ્યાન હોય છે. આ પ્રમાણે આ ૧૫ માં દ્વારનું વિવેચન છે. ૫૧પા
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अनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र २४८ अनुगमनामानुयोगद्वारनिरूपणम् ८०५ छाया-क्षेत्रदिकालगति भविक संज्युच्छवास दृष्टयाहारान् ।
पर्याप्तसुप्त जन्मस्थिति वेदसंज्ञा कपायाषि ॥१॥ ज्ञानं योगोपयोगी, शरीरसंस्थानसंहननमानानि । लेश्या परिणामं वेदनां च समुद्घात कर्म च ॥२॥ निवेष्टनमुद्वर्त्तम् आस्रवकरणं तथा अलङ्कारम् ।
शयनासनस्थानस्थान् चङक्रमतश्च किं व 'सामायिकम् ॥३॥ इति । अयमर्थ:
क्षेत्रं दिशः कालं गतिं भव्यं संज्ञिनम् उच्छ्वासं दृष्टिम् आहारकं चाश्रित्य क किं सामायिकं भवतीति वक्तव्यम् । तथा-पर्याप्तमुप्तजन्मस्थिति वेदसंज्ञाकषायाऽऽयूंषि चाश्रित्य क कि सामायिक भवतीति वक्तव्यम् । तथा-ज्ञानं योगोपयोगी शरीरसंस्थानसंहननमानानि लेश्यापरिणामं वेदनां समुद्घातकर्म चाश्रित्य कि क्व ___तथा-'सामायिक कहां होता है। यह भी कहना चाहिये-इसी अर्थ को इन तीन गाथाओं द्वारा स्पष्ट किया गया है-ये गाथाएँ' खेत्तदि. सिकाल गई' इत्यादि हैं। इनका अर्थ इस प्रकार से हैं-(१) क्षेत्र, (२) दिशा, (३) काल, (४) गति, (५) भव्य, (६) संज्ञी, (७) उच्छ्वास, (८) दृष्टि, और (९) आहारक, को आश्रित करके कहां कौन सा सामायिक होता है ? यह कहना चाहिये। तथा-(१०) पर्याप्त, (११) सुस, (१२) जन्म, (१३) स्थिति, (१४) वेद, (१५) संज्ञा, (१६) कषाय, और (१७) आयु इनका आश्रय करके कहां कौन सामायिक होता है ? यह कहना चाहिये । तथा-(१८) ज्ञान, (१९) योग, (२०) उपयोग, (२१) शरीर, (२२) संस्थान, (२३) संहनन, (२४) मान, (२५) लेश्या, (२६) परिणाम, (२७) वेदना, (२९) समुद्घात कर्म
તેમજ સામાયિક કયાં હોય છે એ વિષે પણ કહેવું જોઈએ. એ જ અર્થને આ ત્રણ ગાથાઓ વડે સ્પષ્ટ કરવામાં આવેલ છે. આ ગાથાઓઃ'खेत्तदिति काल गई' या छे. माने! म मा प्रमाणे छे. (१)क्षेत्र (२) हिशा, (3) १ (४) गति, (५) अव्य, (६) सी. (७) २पास (C અને (૯) આહારકને આશ્રિત કરીને કયાં કયું સામાયિક હોય છે, આ हे नये. तेभर (१०) पात (११) सुत (१२) अन्य (13) स्थिति, (१४) ३ (१५) संज्ञा (१९) षाय भने (१७) मायु मा सना माश्रय કરીને કયાં કયું સામાયિક હોય છે? આ કહેવું જોઈએ. તથા (૧૮) જ્ઞાન, (१८) ये, (२०) ३५॥१, (२१) शरी२, (२२) संस्थान, (२3) सहनन (२४) भान, (२५) वेश्या (२६) पाराम, (२७) वना, (२८) समुद्धात
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२०६
अनुयोगद्वार
सामायिकं भवतीति वक्तव्यम् । तथा निर्देष्टनम् उद्वर्त्तनम् आस्रत्रकरणम् अलङ्कारं चाश्रित्य व कि सामायिकं भवतीति वक्तव्यम् । तथा-शयनासनस्थानस्थान चक्रमाश्रित्य का कि सामायिकं भवतीति वक्तव्यमिति ।
क्षेत्रादीन्याश्रित्य व सामायिकं भवतीति वक्तव्यमिति पूर्वमुक्तम् । तत्र प्रथमं क्षेत्रमाश्रित्य यत्सामायिकं भवति तदाह ।
"
तथाहि सम्यक्त्रसामायिकं श्रुतसामायिकं चोर्ध्वलोके मेरुसुरलोकादिषु भव्याः प्रतिपद्यन्ते । अधोलोकेऽपि अघोलौकिकग्रामेषु सलिलावतीविजये सामायिकचतुष्टयं नरकेषु च सम्यक्त्वश्रुतेति सामायिकद्वयं प्रतिपद्यन्ते । अर्द्धतृतीयद्वीपसमुद्रात्मकमनुष्यलोकं विहायावशिष्टे तिर्यग्लोके पूर्वोक्तसामायिकद्वयं इनको आश्रित करके कहां कौन सामाधिक होता है ? यह कहना चाहिये । तथा - (२९) निवेष्टन, (३०) उद्धर्तन, (३१) आस्रवकरण, (३२) अलंकार, (३३) शयन (३४) आसन, (३५) स्थान, (३६) चंक्रमण | इनको आश्रित करके कहां कौन सामायिक होता है ? यह कहना चाहिये । इस कथनानुसार पहिले क्षेत्र को आश्रित करके जो सामायिक होता है, यह कहा जाता है सम्यक्त्व सामायिक और श्रुतसामायिक को ऊर्ध्वलोक में मेरु एवं सुरलोक आदिकों में जो भव्यजीव होते हैं, वे प्राप्त करते हैं । अधोलोक में भी अधोलौकिक ग्रामों में सलिलावती विजय में सामायिकचतुष्टय को तथा नरकों में सम्यक्त्व सामायिक और श्रुतसामायिक इस सामायिक द्वय को भव्य जीव करते है । अढाई दीपात्मक मनुष्य लोक को छोडकर अवशिष्ट तिर्यક, એમને આશ્રિત કરીને કયાં કચુ· સામાયિક હોય છે, આ કહેવું જોઇએ. तथा (२७) निवेष्टन ( 30 ) वर्तन, ( 31 ) आसव १२ (३२) असर. (33) शयन (३४) आसन, (३५) स्थान, (३१) यडेभशु सेभने आश्रित उरीने કયાં કયુ' સામાયિક હાય છે? આ કહેવુ જોઈ એ. આ કથન મુજબ પહેલા ક્ષેત્રને આશ્રિત કરીને જે સામાયિક હોય છે, તે કહેવાય છે કે સમ્યક્ત્વ, સામાયિક અને શ્રુત સામાયિકને લેાકમાં મેરુ' તેમ જ સુલેાક ક્રિકામાં જે ભવ્ય જીવે. હાય છે, તે પ્રાપ્ત કરે છે. અધેલાકમાં પણ અધેાલૌકિક ગામામાં પલ્ચામાં સલિલાવતી વિજયમાં સામાયિક ચતુષ્ટયને તેમજ નરકામાં સમ્યક્ત્વ સામાયિક અને શ્રુત સામાયિક આ સામાયિક દ્રબ્યાને ભવ્ય જીવા ધારણ કરે છે. અઢાઇ દ્વીપાત્મક મનુષ્ય લેાકને ત્યજીને અવશિષ્ટ તિય ગલેાકમાં પૂર્વક્તિ
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अनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र २४८ अनुगमनामानुयोगद्वारनिरूपणम् ०७ प्रतिपद्यन्ते । मनुष्यक्षेत्रे तु सम्यक्त्वसामायिक श्रुतसामायिकं सर्वविरतिरूपं चारित्रसामायिकं चापि पतिपद्यते । सर्वविरतिरूपचारित्रसामायिकस्य प्रतिपत्तारो मनुष्या एव भवन्ति नान्ये, अतो मनुष्य क्षेत्रादतिरिक्तेषु क्षेत्रेषु सर्वविरतिरूपचारित्रसामायिकप्रतिपत्तारो न भवन्ति । देशविरतिसामायिक प्रतिपत्तारस्तु मनुष्यक्षेत्रे तबहिश्चापि केचिद् भवन्ति । तथा-सम्यक्त्व-श्रुत देशविरतिसामायिकानां पूर्वपतिपन्नका ऊर्धाधस्तिर्यग्लोकेषु नियमतो भान्ति । सर्वविरतिरूपस्य चारित्रसामायिकस्य पूर्वप्रतिपनकास्तु अधोलोकतिर्यग्लोकयोनियमतः सन्ति । ऊर्ध्वलो के तु कदाचिद् भवन्ति न वा भवन्तीति । ग्लोक में पूर्वोक्त दो सामायिकों को भा जीव धारण करते हैं। तथा जो मनुष्य लोकरूप अढाई द्वीप है, उसमें भव्यजीव सम्यक्त्व सामायिक श्रुतसामाधिक और सर्वविरतिरूप चारित्र सामायिक धारण करते हैं । इनमें जो सर्वविरतिरूप चारित्र सामायिक है, उसके पालन कर्ता केवल मनुष्य ही होते हैं-अन्य जीव नहीं। इसलिये मनुष्य क्षेत्र से बाहिर क्षेत्रों में सर्व विरतिरूप चारित्र सामायिक के पालन का नहीं होते हैं । तथा जो देशविरतिरूप सामायिक है, उसके प्रतिपत्ता भव्य जीव तो मनुष्य क्षेत्र में और इस से वाहिर भी कोई २ भी होते हैं । तथा सम्यक्त्व सामायिक श्रतसामायिक और देश विरति सामायिक इन तीन सामायिको के पूर्वप्रतिपन्नकभव्य जीव उर्ध्वलोक, अधोलोक एवं तिर्यग्लोक इनमें नियम से होते हैं। सर्व विरतिरूप चारित्र सामायिक के पूर्वप्रतिपन्नक जो भव्य जीव हैं वे तो બે સામાયિકને ભવ્ય છ ધારણ કરે છે. તેમ જ જે મનુષ્ય લેક રૂપ અઢીદ્વીપ છે, તેમાં ભવ્ય જીવ સમ્યકત્વ, સામાયિક શ્રુતસામાયિક અને સર્વવિરતિ રૂપ ચરિત્ર સામાયિક ધારણ કરે છે. આમાં જે સર્વ વિરતિ રૂપે ચારિત્ર સામાયિક છે. તેના પાલન કર્તા ફક્ત મનુષ્ય જ હોય છે. અન્ય જ નહિ. એથી જ મનુષ્ય ક્ષેત્રથી બહારના ક્ષેત્રોમાં સર્વ વિરતિ રૂપે ચારિત્ર સામાયિકના પાલનકર્તાઓ હોતા નથી. તેમ જ જે દેશ વિરતિ રૂપ સામાયિક છે, તેના પ્રતિપત્તા ભવ્ય છે તે મનુષ્યક્ષેત્રમાં અને આનાથી બહાર પણ કઈ કઈ હોય છે. તથા સમ્યક્ત્વ સામાયિક શ્રત સામાયિક, અને દેશ વિરતિ સામાયિક આ ત્રણ સામાયિકના પૂર્વ પ્રતિપન્નક ભવ્ય જીવ ઉર્વીલેક, અલેક અને તિર્યશ્લેક આમાં નિયમથી જ હેય
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मनुयोगद्वारस्ये अथ-दिशमाश्रित्य माहदिशो हि द्विविधाः क्षेत्रतो भावतश्च ।
तत्र क्षेत्रतः पूर्वादिकासु महादिक्षु चतुर्णामपि सामायिकानां यथा संभवपतिपद्यमानका भवन्ति । पूर्वप्रतिपन्नकास्त्वामु दिशामु सम्मत्वश्रुतदेशविरति सामायिकानां नियमतः सन्ति । चारित्रसामायिकस्य तु पूर्वापरदिशोनिय मेन पूर्वप्रतिपनकाः सन्ति । दक्षिणोत्तरयोस्तु भजनया, दुष्पमदुष्पमादि काले भरतैरवतयोः सर्वविरतेः सर्वथोच्छेदान् । विदिक चतुष्टये अधिोदिग्द्वये च चतुर्णामपि अघोलोक और तिर्यग्लोक में नियम से होते ही हैं परन्तु जो उर्व लोक है उसमें कदाचित् होते भी हैं-अथवा नहीं भी होते हैं।
दिशाएँ दो प्रकार की होती हैं-एक क्षेत्र की अपेक्षा और दूसरी भाव की अपेक्षा। इनमें क्षेत्र की अपेक्षा जो पूर्वादिक महादिशाएँ हैं, उनमें चारों भी सामायिकों के यथासंभव प्रतिपद्यमानक भव्यजीव हो सकते हैं ? तथा जो सम्यक्त्व सामायिक, श्रुत सामायिक एवं देश विरति सामायिक इनके पूर्व प्रतिपन्नक भव्य जीव हैं, बे तो इन दिशाओं में नियम से होते हैं । परन्तु जो चारित्र सामायिक के पूर्व प्रतिपन्नक भव्य जीव हैं वे भी पूर्व दिशा और पश्चिम दिशामें नियम से होते हैं, परन्तु दक्षिण दिशा और उत्तर दिशा में इनकी भजना होती है-हों भी नहीं भी हों । कोंकि दुषमदुषमादिकाल में भरत और ऐरवत क्षेत्र में सर्वविरति का सर्वथा उच्छेद हो जाता है। जो છે, પરંતુ જે ઉર્વ લેક છે, તેમાં કદાચ હોય પણ ખરા, અથવા ન પણ હોય. | ૧ |
| દિશાએ બે પ્રકારની હોય છે. એક ક્ષેત્રની અપેક્ષાએ અને અન્ય ભાવની અપેક્ષાએ આમાં ક્ષેત્રની અપેક્ષાએ જે પૂર્વાદિક મહાદિશાઓ છે. તેમાં ચાર ચાર સામાયિકેના યથાસંભવ પ્રતિપદ્યમાનક ભવ્ય જ હેઈ શકે છે. તથા–જે સમ્યક્ત્વ સામાયિક શ્રત સામાયિક અને દેશ વિરતિ સામાયિક એમના પૂર્વ પ્રતિપનક ભવ્ય જીવે છે, તેઓ તે આ દિશામાં નિયમથી હોય છે. પરંતુ જે ચારિત્ર સામયિકના પૂર્વ પ્રતિપન્નક ભવ્ય જીવે છે. તેઓ પણ પૂર્વ દિશા અને પશ્ચિમ દિશામાં નિયમપૂર્વક હોય છે, પરંતુ દક્ષિણ દિશા અને ઉત્તર દિશામાં એમની ભજના હોય છે, એટલે કે–હોય પણ ખરા અને નહિ પણ હોય. કેમ કે દુષમ દુષમાદિકાળમાં ભારત અને ઐરવત ક્ષેત્રમાં સર્વ વિરતિને સર્વથા ઉચ્છેદ થઈ જાય છે. જે ચાર વિદિશાઓ છે,
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मनुयोगवन्द्रिका का सूत्र २४८ अनुगमनामानुयोगद्वारनिरूपणम् ८०९ सामायिकानां पूर्वप्रतिपन्नकाः प्रतिपद्यमानकाच न भवन्ति, विदिशामेकमदेशिकत्वेन ऊर्ध्वाधोदिशोश्च चतुष्पदेशिकत्वेन तत्र जीवावगाहनाया असंभवात् । तथा-तापक्षेत्रविषये प्रज्ञापकक्षेत्रविषये च पुनरष्टास्वपि पूर्वादिकासु दिक्षु चतुर्णामपि सामा. यिकानां नियमात् पूर्वपतिपत्रकाः सन्ति । पतिपद्यमानकास्त्वासु कदाचिद् भवन्ति, कदाचिन्न भवन्तीति भाज्यास्ते । ऊर्ध्वाधोदिशोस्तु सम्यक्त्वसामायिकस्य श्रुत सामायिकस्य च पूपितिपन्नका नियमात् सन्ति, प्रतिपद्यमानकास्तु भाज्याः। चारवि दिशाएँ हैं, उनमें तथा उर्वदिशा और अघोदिशा इन दो दिशाओं में चारों साथिकों के न पूर्वप्रतिपन्नक भव्यजीव होते हैं
और न प्रतिपधमानक जीव ही होते हैं क्योंकि विदिशा एक प्रदेशिक होती है और उर्ध्व अधो दिशाएँ चतुष्प्रदेशिक होती हैं-इसलिये वहां जीवों की अवगाहना होना असंभव है। तथा-ताप क्षेत्र के विषय में और प्रज्ञापक क्षेत्र के विषय में आठों भी पूर्वादिक दिशाओं में चारों भी सामायिको के पूर्वप्रतिपन्नक भव्यजीव नियम से होते हैं। परन्तु जो प्रतिपद्यमान जीव हैं, वे इनमें कभी होते हैं और कभी नहीं भी होते हैं । उर्ध्व दिशा और अधोदिशा इन दो दिशाओं में सम्यक्त्व सामायिक और श्रुत सामायिक इन दो सामायिकों को जिन भव्य जीवों ने पहिले धारण किया है, ऐसे पूर्वप्रतिपन्नक भव्य जीव नियम से होते हैं। तथा जो प्रतिपद्यमानक भव्यजीव हैं-वे भाज्य है। तथा તેમનામાં તથા ઉર્વ દિશા અને અધ દિશા આ બે દિશાઓમાં ચાર-ચાર - સામાયિકને પૂર્વ પ્રતિપન્નક ભવ્ય છે પણ હેતા નથી અને પ્રતિપદ્યમાનક ભવ્ય છે પણ હેતા નથી. કેમ કે વિદિશા એક પ્રાદેશિક હોય છે અને ઉદવ, અધે દિશાઓ ચતુષ્પદેશિક હોય છે. એથી ત્યાં જેની અવગાહના થવી અસંભવ છે, તથા તાપ ક્ષેત્રના સંબંધમાં અને પ્રજ્ઞાપક ક્ષેત્રના વિષયમાં આઠે પૂર્વાદિક દિશાઓમાં ચારે સામાયિકના પૂર્વ પ્રતિપન્નક ભવ્ય જી નિયમપૂર્વક હોય છે. પરંતુ જે પ્રતિપદ્યમાનક જીવ છે, તે આમાં કંઈક વખતે હોય છે, અને કેઈક વખતે હતા પણ નથી. ઉર્વ દિશા અને અધ દિશા આ બે દિશાઓમાં સમ્યકત્વ સામાયિક અને શ્રત સામાયિક એ બે સામાયિકેને જિન ભવ્ય જીને પહેલા ધારણ કરેલા છે, એવા પૂર્વ પ્રતિપનક ભવ્ય જ નિયમપૂર્વક હોય છે, તેમ જ જે પ્રતિપદ્યમાનક ભવ્ય જીવે છે, તે ભાજ્ય છે, તેમ જ આ બે દિશાઓમાં દેશ વિરતિ સામાયિક
भ० १०२
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८१०
अनुयोगद्वारसूत्रे
तयेतयोरेव दिशोदेशविरतिसामायिकस्य सर्वविरतिसामायिकस्य च पूर्वप्रतिपन्नका भाज्याः, प्रतिपद्यमानास्तु नियमान्न सन्तीति ।
"
तथा - सम्मूर्च्छिममनुष्य - गर्भजकर्मभूमिमनुष्य- गर्भ जाकर्म भूमिमनुष्य - षट्पञ्चाशदन्तीं मनुष्या इति चतुर्विधा मनुष्याः, द्वीन्द्रिय-त्रीन्द्रिय- चतुरिन्द्रियपञ्चेन्द्रियतिर्यञ्च इति चतुर्विधास्तिर्यञ्चः पृथिवीकाया- काय - तेजस्काय वायुकाया इति चतुर्विधाः स्थावराः, अग्रबीज- मूलबीज- पर्व बीज-स्कन्धवीजानीति चत्वारो वनस्पतयः, तथा नरकगति देवगतिश्चेत्येता अष्टादशभावदिशः । एता भावदिशोऽधिकृत्य 'क्व किं सामायिकं भवतीत्यपि वक्तव्यम् । यथा- पृथिवीकाया - काय - तेजस्काय - वायुकाया - ग्रवीज - मूलबीज- पर्व बीज - स्कन्धवीजेषु अष्टसु इन्हीं दो दिशाओं में देशविरति सामायिक और सर्वविरति सामायिक के पूर्व प्रतिपन्नक भव्य जीव भाज्य होते हैं । और जो प्रतिपद्यमानक भव्य जीव हैं, वे यहाँ नियम से नहीं है ।
(१) संमूच्छिम मनुष्य (२) गर्भज कर्मभूमिमनुष्य, (३) गर्भजअ - कर्म भूमिमनुष्य, (४) छप्पन अन्तर्वोपजमनुष्य ये चार प्रकार के मनुष्य, दीन्द्रिय, त्रिन्द्रिय, चतुरिन्द्रय और पंचेन्द्रिय ये चार प्रकार के तिर्यञ्च, पृथिवीकाय, अष्काय, तेजस्काय, वायुकाय, ये चार प्रकार के स्थावर, अग्रबीज मूलबीज, पर्वबीज, स्कन्धबीज ये चार वनस्पति, तथा-नरकगति, देवगति ये दो गतियाँ - इस प्रकार ये सब मिलकर १८ भाव दिशाएँ हैं। इन भावदिशाओं को आश्रित करके 'कहां कौन सामाचिक होता है' यह भी कहना चाहिये-जैसे- पृथिवीकाय, अप्काय, तेजस्काय, वायुकाय, अग्रबीज, मूलबीज, पर्वबीज, स्कन्धबीज, इन आठ
અને સવરિત સામાયિકના પૂર્વપ્રતિપનક ભવ્યજીવે ભાજય હાય છે. અને જે પ્રતિપદ્યમાનક ભવ્ય જીવેા છે, તે ત્યાં નિયમથી નથી.
(१) संभूर्च्छिभ मनुष्य, (२) गर्भ भूमि मनुष्य, (3) गर्ल અક્રમ ભૂમિ મનુષ્ય, (૪) છપ્પન અન્તદ્વીપ જ મનુષ્ય એ ચાર પ્રકારના मनुष्यो, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, यतुरिन्द्रिय याने पथेन्द्रिय, ओ यार अारना तिर्यय, पृथिवीद्वाय, अच्छाय, तेश्स्साय, वायुभय, से यार प्रहारना स्थावर, अअमीन, भूसमीन, पर्व जीन, सुधमीन, मेयर वनस्पति तथा नरसुगति देवગતિ એ એ ગતિએ આ પ્રમાણે આ સ મળીને ૧૮ છે. આ ભાવિશાઓ છે. ભાવ દિશાઓને આશ્રિત કરીને ‘કયાં કયુ' સામાયિક હાય છે, આ પણ કહેવુ' જોઈ એ, पृथिवीय साय, तेक्स्साय, वायुकाय, मणी, भूसभी पर्वणी,
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अनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र २४८ अनुगमनामानुयोगद्वारनिरूपणम् ८११ चतुर्णामपि सामायिकानां न पूर्वपतिपनका नापिप्रनिपधमानकाः सन्ति । द्वीन्द्रिय त्रीन्द्रिय-चतुरिन्द्रियलक्षणेषु विकलेन्द्रियेषु त्रिषु अपर्याप्तावस्थायां सम्यक्त्वसामायिकश्रुतसामायिकयोः कदाचित् पूर्वप्रतिपन्नका भवन्ति, सास्वादनसम्यक्त्ववतां तेषु समुत्पादसंभवात् । एतयोः पुनः प्रतिपद्यमानकास्तेषु न भवन्ति, उपदेशश्रवणादिसामपभावात् । देशविरति-सर्व विरति सामायिकयोस्तु तत्र न सन्ति पूर्वप्रतिपन्नकाः, नापि प्रतिपद्यमानकाः, तथाभवस्वाभाव्यात् । पश्चेन्द्रिय तिर्यक्षु सम्यक्त्वश्रुतदेशविरतिसामायिकानां पूर्व प्रतिपनका नियमात् सन्ति । भाव दिशाओं में चारों भी सामायिकों के न पूर्वप्रतिपत्रक भव्य जीव होते हैं और न प्रतिपद्यमानक भव्यजीव ही होते हैं। बीन्द्रिय, त्रिन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय इन तीन विकलेन्द्रिय तियञ्च जीवों में अपर्याप्तावस्था में सम्यक्त्व सामायिक और श्रुतसामायिक इन दो सामायिकों के पूर्वप्रति. पन्नक भव्यजीव कदाचित होते है । क्योंकि सास्वादन सम्यक्त्ववाले जीवों का उनमें उत्पाद हो जाता है । तथा इन दो सामायिकों के जो प्रतिपद्यमानक जीव हैं वे वहां नहीं होते हैं। क्योंकि सामायिकों की सामग्री जो उपदेश श्रवण आदि है वह वहां नहीं होता है उसका अभाव है । देशविरति सामायिक इन दो सामायिकों के पूर्वप्रतिपन्नक जीव तथा प्रतिपद्यमानक जीव-वहां नहीं होते हैं। क्योंकि इन पर्यायों का ऐसा ही स्वभाव है । पंचेन्द्रियतिर्यश्चों में सम्यक्त्व, श्रुत और देशविरति इन सामायिकों के पूर्व प्रतिपनक जीव नियम से होते हैं। કંધમીજ આ આઠ ભાવદિશાઓમાં ચારે સામાયિકના પૂર્વ પ્રતિપન ભવ્ય જી હેતા નથી અને પ્રતિપદ્યમાનક ભવ્ય છે પણ હોતા નથી. હીન્દ્રિય, ત્રીન્દ્રિય, ચતુરિન્દ્રિય ત્રણ વિકસેન્દ્રિય તિર્યંચ છમાં અપર્યાપ્તાવસ્થામાં સમ્યક્ત્વ સામાજિક અને શ્રત સામાયિક આ બે સામાયિકના પૂર્વ પ્રતિપન્નક ભવ્ય જ કદાચિત હોય છે. કેમ કે સાસ્વાદન સમ્યક્ત્વવાળા અને તેમાં ઉરપાદ હોય છે. તથા એ બે સામાયિકના જે પ્રતિપદ્યમાનક જ છે, તે ત્યાં હેતા નથી. કેમ કે આ સામાયિકની સામગ્રી જે ઉપદેશ શ્રવણ વગેરે છે, તે ત્યાં હોતાં નથી, તેને અભાવ છે. દેશ વિરતિ સામાયિક અને સર્વવિરતિ સામાવિક આ બે સામાયિકાના પૂર્વ પ્રતિપન્નક છે ત્યાં હોતા નથી. કેમ કે આ પર્યાને એવો જ સ્વભાવ છે. પંચેન્દ્રિય તિર્યંચામાં સમ્યક્ત્વ શ્રત અને દેશવિરતિ આ સામાયિકના પૂર્વ પ્રતિપન્નક છે નિયમથી હોય છે, તેમ જ જે આ સામાયિકોને પ્રતિપદ્યમાનક જીવે છે,
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अनुयोगद्वारसूत्रे प्रतिपद्यमानकास्तु भजनया बोध्याः । सर्वविरतिसामायिकस्य तु न पूर्व पतिपन्नकाः, नापि प्रतिपद्यमानकाः, तथा-भवस्वाभाव्यात् । तथा-नारकदेवोऽकर्मभूमिमनुष्येषु त्रिषु सम्यक्त्वश्रुतसामायिकयोः पूर्व प्रतिपन्नका नियमात् सन्ति, प्रतिपद्यमानकास्तु नारकदेवाकर्मभूमिजमनुष्येषु त्रिषु कदाचिद् भवन्ति कदाचिन्नेति भाज्यास्ते । अन्तरद्वीपजमनुष्येषु तु पूर्व प्रतिपन्नकाः प्रतिपद्यमानकाच सर्वथा न भवन्ति, तेषामेकान्तमिथ्यादृष्टिकत्वात् । देशविरतिसविरति सामायिकयोस्तु नारकाकर्मभूमिजान्तरद्वीपजमनुष्येषु त्रिषु न पूर्वप्रतिपन्नकाः, नापि प्रतिपद्यमानका:, तथा स्वाभाव्यात् । कर्मभूमिज-मनुष्येषु चतुर्णामपि सामायि. तथा जो इन सामायिकों के प्रतिपद्यमानक जीव हैं उनकी यहां भजना हैं। हों भी और न भी हों । सर्व विरतिरूप चारित्र सामायिक के न तो यहां पूर्वप्रतिपन्नक जीव होते हैं और न प्रतिपद्यमानक जीव ही होते हैं। क्योंकि इस पर्याय का ऐसा ही स्वभाव होता है । तथानारक, देव, अकर्मभूमिजमनुष्य इन तीनों में सम्यक्त्व, श्रुत इन दो सामायिकों के पूर्वपतिपनक जीव नियम ले उत्पन्न होते हैं । तथा जो जीव इन सामायिकों के प्रतिपद्यमानक हैं वे नारक देव, और अकर्मभूमिजमनुष्य इन तीन में कदाचित् होते हैं और कदाचित् नहीं भी होते हैं इसलिये इनकी भजना हैं । जो अन्तर द्वीपजमनुष्य हैं उनमें तो इन दो सामायिकों के पूर्वप्रतिपन्न और प्रतिपद्यमानक जीव सर्वथा होते ही नहीं है, क्योंकि ये अन्तर द्वीपजमनुष्य एकान्त मिथ्यादृष्टि होते हैं। देशविरति और सर्व विरतिरूप जो सामायिक है, इनके पूर्वप्रतिपनक जीव और प्रतिपद्य मानक जीव तथाविधस्वभावके તેમની અહીં ભજન છે, હેય પણ ખરી, અને નહીં પણ હેય સર્વવિરતિ રૂપ ચારિત્ર, સામાયિકના અહીં ન તે પૂર્વ પ્રતિપનક જ હોય છે. અને ન ભૂતપદ્યમાનક જ હોય છે. કેમ કે આ પર્યાયનો એ જ સ્વભાવ હોય છે. તેમ જ નારક, દેવ, અકર્મ ભૂમિ જ મનુષ્ય એઓ ત્રણેમાં સમ્યકુવ, શ્રત આ બે સામાયિકના પૂર્વ પ્રતિપન્નક જી નિયમથી ઉત્પન્ન થાય છે. તથા જે જ આ સામાયિકોના પ્રતિપદ્યમાનક છે, તે નારક દેવ અને અકર્મભૂમિ જ મનુષ્ય આ ત્રણેમાં કદાચિત હોય છે. અને કદાચિત્ ન પણ હોય, એથી એમની ભજના છે, જે અંતર દ્વીપ જ મનુષ્યો છે, તેમનામાં આ બે સામાયિકના પૂર્વ પ્રતિપદ્યમાનક જ સર્વથા દેતા નથી, કેમ કે આ અંતર દ્વીપ જ મનુષ્ય એકાંત મિથ્યાષ્ટિ હોય છે, દેશવિરતિ અને સર્વ વિરતિ રૂપ જે સામાયિક છે, એમના પૂર્વ પ્રતિપન્નક જીવ અને પ્રતિપદ્યમાનક
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अनुयोगचन्द्रिका टीका सत्र २४८ अनुगमनामानुयोगद्वारनिरूपणम् ११३ कानां पूर्वप्रतिपन्नका नियमतः सन्ति, प्रतिपद्यमानकास्तु भाज्याः। सम्मूछिममनुष्येषु चतुर्णामपि सामायिकानां न सन्ति पूर्वप्रतिपन्नका नापि प्रतिपद्यमानका इति।२। ____तथा-कालमाश्रित्य 'का किं सामायिकं भवति ? इत्यपि वक्तव्यम् । यथासम्यक्त्वश्रुतसामायिकयोः प्रतिपद्यमानकाः अपसपिण्याः सुषमसुषमादिके षडविधेऽपि काले, उत्सर्पिण्या दुष्षमदुष्पमादिके षविधेऽपि काले संभवन्ति । अनयोः कारण नारक अकर्मभूमिज और अन्तरदीपजमनुष्य इन तीनों में नहीं होते हैं (१)। कर्मभूमिज मनुष्यों में चारों भी सामायिकों के पूर्व प्रतिपनक जीव नियमतः होते हैं । तथा जो प्रतिपद्यमानक होते हैं वे भाज्य होते हैं। सम्मूच्छिम मनुष्यों में चारो भी सामायिकों के पूर्व. प्रतिपनक और प्रतिपद्यमानक जीव नहीं होते हैं ॥२॥ ___तथा-काल को आश्रित करके 'कहां (किस काल में) कौन सामा यिक होता है ?' यह भी कहना चाहिये । जैसे सम्यक्त्व और श्रुत इन सामायिकों के प्रतिपद्यमानक जीव अवसर्पिणी के सुषमसुषमादिक छह प्रकार के भी काल में तथा उत्सर्पिणी के दुषम दुष्षमादिक छह प्रकारके भी काल में भाज्य होते हैं । और इन सामायिकों के जो पूर्व प्रतिपन्नक जीव हैं, वे भी होते ही हैं। तेथा-देशविरति, सर्वविरति इन सामायिकों के उत्सर्पिणी में दुष्यनलुबमा, सुषम दुष्षमारूप दोनों कालों में, तथा-अवसर्पिणी में सुषमदुधना, दुष्पमासुषमा और दुष्षमा इन तीन कालों में प्रतिपद्यमानक जीव भाज्य' होते हैं । तथा इनके જવ તથાવિધ માવના કારણે નારક અકર્મભૂમિજ અને અંતરીપ જ મનુષ્ય એ ત્રણેમાં હોતા નથી. (૧) કર્મભૂમિ જ મનુષ્યમાં ચારે સામાયિકના પૂર્વ પ્રતિપન્નક છે નિયમત: હેય છે. તેમ જ જે પ્રતિપદ્યમાનક હોય છે, તે ભ' જ હોય છે, સમૂર્ણિમ મનુષ્યમાં ચારે સામાયિકના પૂર્વ પ્રતિપન્ન અને પ્રતિપદ્યમાનક જ હોતા નથી.
તથા કાળને આશ્રિત કરીને “કયાં (કયા કાળમાં કયું સામાયિક હેય છે? આ પણ કહેવું જોઈએ. જેમ સમ્યક્ત્વ અને શ્રત આ સામાયિકના પ્રતિપદ્યમાનક જીવ અવસર્પિણીના સુષમસુષમાદિક ૬ પ્રકારના કાળમાં તથા ઉત્સર્પિણીના દુષમ દુરુષમાદિક ૬ પ્રકારના કાળમાં ભાજ્ય હોય છે. અને આ સામાવિકોના જે પૂર્વ પ્રતિપનક જીવે છે, તેઓ પણ હોય જ છે. તથા દેશવિરતિ, સર્વવિરતિ, આ સામાયિકના ઉત્સપિણમાં દુ૫મસુષમા, સુષમદુષ્પમારૂપ બને કાળમાં, તથા અવસર્પિણીમાં સુષમદુષમા, દુષ્પમાસુષમા, અને દુષમાં આ ત્રણે કાળામાં પ્રતિપદ્યમાનક જ ભાજ્ય હોય છે, તેમજ
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अनुयोगद्वारसूत्रे पूर्व प्रतिपन्नकाः अपि विद्यन्त एव । तथा-देशविरतिसर्व विरतिसामायिकयो रुत्सपिण्यां दुष्पमसुषमा-सुपम दुष्पमारूपयोर्द्वयोः कालयोः, अवसापिण्यां सुपम दुषमा-दुष्षम-सुषमा-पुष्षमारूपेषु त्रिपुकालेषु च प्रतिपद्यमानका भवन्ति । पूर्व प्रतिपन्नास्त्वनयोः सामायिकयोरिह उत्सर्पिण्यवसर्पिणीकालयोः सन्त्येव । तथादेवकुरू तरकुरूषु सुषमसुषमाप्रतिभागः, हरिवर्षरम्यकयोः सुषमा प्रतिभागः, हैमवतहरण्यवतयोः सुषमदुषमाप्रतिभागः, पश्चनु महाविदेहेषु दुष्पमसुषमापतिभागः । एषु स्थानेषु कालो नोत्सपिण्यवसर्पिणीत्वेनाभिधीयते । एषु मत्येकस्मिन् मुषमसुषमादिकालसदृश कालस्य यथाक्रमं विद्यमानत्वात् स कालः सुषमसुषमादि प्रतिभागत्वेनोच्यते । तत्र सुषमसुपमा-सुपमा-सुषमा-सुपम दुष्पमापतिभागेषु त्रिषु सम्यक्त्पश्रुतसामायिकयोः प्रतिपद्यपानकाः संभवन्ति, पूर्व प्रतिपन्नकास्तु सन्त्येव । दुष्पममुपमारूपे चतुर्थे प्रतिभागे तु चतुर्विधस्यापि सामायिकस्य पतिजो पूर्वपतिपन्नक. जीव है, वे तो उत्सर्पिणी अवसर्पिणी दोनों के उक्त कालों में रहते ही हैं। तथा-देवकुरु उत्तरकुरु इन भोगभूमियों में सुषम सुषमा प्रतिभाग, हरिवर्ष रम्यक में सुषमा प्रतिभाग, हैमवत हैरण्यवत में सुपमदुषमा प्रतिभाग, पांच महाविदेहों में दुष्षम सुषमा प्रतिभाग सदा बना रहता है। इन स्थानों में काल न उत्सपिणीरूप से कहा जाता है और न अवसर्पिणीरूप से इनमें प्रत्येकमें सुषमादिकाल के जैसा काल यथाक्रम से विद्यमान रहता है । इसलिये वह काल सुषमसुषमादि प्रतिभागरूप से कहा जाता है। इनमें सुषम सुषमा, सुषमा, सुषमदुषमा इन तीन प्रतिभागों में सम्यक्त्व सामा. यिक और श्रुतसामायिक के प्रतिपद्यमानक जीव हो सकते हैं । पूर्व प्रतिपन्नक जीव तो इनमें होते ही हैं । दुष्पमप्तुषमारूप चौथे प्रतिभाग, એમના જે પૂર્વ પ્રતિપન્નક જીવે છે, તેઓ તે ઉત્સર્પિણી અવસર્પિણી બનેના ઉક્તકાળમાં રહે જ છે. તેમ જ દેવકુરુ, ઉત્તરકુરુ આ બેગ ભૂમિમાં સુષમસુષમાં પ્રતિભાગ, હરિવર્ષરમેકમાં સુષમાં પ્રતિભાગ, હૈમવત હૈરણ્યવતમાં સુષમ દુષમા પ્રતિભાગ, પાંચ મહાવિદેહમાં દુષ-સુષમા પ્રતિભાગ સર્વદા બની રહે છે. આ સ્થાનમાં કાળ ન તે ઉત્સર્પિણી રૂપમાં કહેવાય છે અને ન અવસર્પિણીરૂપમાં આમાં દરેકે દરેકમાં સુષમા સુષમાદિકાળના યથાક્રમથી વિદ્યમાન રહે છે. એથી તે કાળ સુષમસુષમાદિ પ્રતિભાગ રૂપથી કહેવામાં આવે છે. આમાં સુષમસુષમા, સુષમા સુષમ દુષમાં આ ત્રણ પ્રતિભાગમાં સમ્યક્ત્વ સામાયિક અને શ્રત સામાયિકના પ્રતિપદ્યમાનક જ સંભવી શકે છે. પૂવ. પ્રતિપનક જીવ તેં આમાં હોય જ છે. દુષમ સુષમારૂપ ચોથા પ્રતિભાગમાં
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मनुयोगचन्द्रिका टीका सत्र २४८ अनुगमनामानुयोगद्वारनिरूपणम् ८१५ पघमानकाः संभवन्ति, पूर्व प्रतिपन्नास्तु सन्त्येव । तथा-कालरहितेषु बाह्यद्वीपसमुद्रेषु तु सम्यक्त्वश्रुतदेशविरतिसामायिकानां प्रतिपद्यमानकाः संभवन्ति, पूर्व प्रतिपन्नकास्तु सन्त्येव । नन्दीश्वरादौ कालरहिते क्षेत्र विद्याचारणादीनां गमनेन सर्वविरतिसामायिकस्यापि तत्र पूर्व प्रतिपन्नकाः संभवन्ति । देवादिना संहरणमादाय सर्व क्षेत्रे सर्व स्मिन्नवि काले चतुर्विधानामपि सामायिकानां पूर्व प्रतिपन्नकाः संभवन्त्येवेति ॥३॥
तथा-गतिमाश्रित्य 'कब कि सामायिक भवती' त्यपि वक्तव्यम् । यथा-नारकतिर्य नरामरगतिषु चतसृष्वपि सम्यक्त्वश्रुतसामायिकयोः प्रतिपद्यमानका में तो चारों प्रकारों के सामायिक के प्रतिएध नानक जीव हो सकते हैं। तथा जो इनके पूर्वप्रतिपन्नक जीव हैं, वे तो रहते ही हैं । तथा-काल से विहीन बाहिर के द्वीप समुद्रों में सम्यक्त्व सामायिक श्रुतसामा यिक, देशविरतिसामायिक के प्रतिद्यमानक जीव हो सकते है तथा पूर्वप्रतिपन्नक जीव तो रहते ही हैं । काल रहित नंदीश्वर आदि क्षेत्र विद्याचारण आदि ऋद्धि धारकों के गमन से सर्वविरतिरूप सामायिक पूर्वप्रतिपन्नों का सद्भाव पाया जाता है। देवादि द्वारा संहरण की अपेक्षा लेकर सब क्षेत्र में सब काल में चारों प्रकार के सामायिकों के पूर्वप्रतिपन्नक जीव पाये ही जा सकते हैं ॥ सू० ३ ॥ -तथा--गति को आश्रित करके 'कहां (किस गति) में कौन सामाथिक होता है ' ऐसा भी कहना चाहिये-जैसे-नारक, तिर्यञ्च, मनुष्य और देव इन चारों भी गतियों में सम्यक्त्व सामायिक और તે ચાર ચાર પ્રકારના સામાયિકના પ્રતિપદ્યમાનક જ થઈ શકે છે. તેમ જ જે એમના પૂર્વ પ્રતિપનક જીવે છે, તેઓ તે રહે જ છે, તથા કાળથી વિહીન બહારનાં દ્વીપ સમુદ્રોમાં સમ્યક્ત્વ સામાયિક, શ્રત સામાયિક દેશ વિરતિ સામાયિકના પ્રતિપદ્યમાનક જ સંભવી શકે છે, તથા પૂર્વ પ્રતિપન્નક જ તે રહે જ છે. કાળ રહિત નંદીશ્વર વગેરે ક્ષેત્રમાં વિદ્યાચરણ વગેરે અદ્ધિ ધારકેના ગમનથી સર્વવિરતિરૂપ સામાયિકના પૂર્વ પ્રતિપન્નકોને સદ્ભાવ મળે છે. દેવાદિ વડે સંહરણની અપેક્ષાએ સર્વ ક્ષેત્રમાં, સર્વકાળમાં ચારે પ્રકારના સામાયિકને પૂર્વ પ્રતિપન્નક જ મળે જ છે. ૩
તથા-ગતિને આશ્રિત કરીને “કયારે (કઈ ગતિમાં) કયું સામાયિક હોય છે? આ વિષે પણ કહેવું જોઈએ. જેમ-નારક, તિર્યંચ, મનુષ્ય અને દેવ આ ચારે ચાર ગતિઓમાં સમ્યકત્વ' સામાયિક અને શ્રુતસામાયિકના પ્રતિ
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अनुयोगद्वारसूत्रे
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भवन्ति । पूर्वमतिपन्नका अपि सन्ति । सर्वविरति - सामायिकस्य प्रतिपद्यमानका मनुष्यगतावेव भवन्ति तत्रैव चारित्रप्रतिपत्तेः । पूर्वप्रतिपन्नकास्तु सर्वास्वपि गतिषु । देश विरतिसामायिकस्य प्रतिपद्यमानकाः मनुष्येषु तिर्यक्षु च भवन्ति, पूर्व प्रतिपन्नास्तु सर्वास्वपि गतिविति ||४||
तथा - भव्यमाश्रित्य का कि सामायिकं भवतीत्यपि वक्तव्यम् । यथा - भव्येषु कदाचित् केचित् सम्यक्त्वश्रुतसामायिकयोः प्रतिपद्यमानका भवन्ति केचित् सर्वविरतिसामायिकस्य, केचित्र देशविरतिसामायिकस्य । एषां चतुर्णामपि सामायिकानां पूर्वप्रतिपनकास्तु अव्येषु बहवो भवन्तीति | अभव्येषु सम्यक्त्ववर्ज
श्रुत सामायिक के प्रतिपद्यमान जीव भाज्य होते हैं और पूर्व प्रतिपक्षक जीव नियमसे होते हैं । सर्व विरति सामायिक के प्रतिपद्य मानक जीव मनुष्य गति में ही हो सकते हैं। क्योंकि चारित्र धारण करना, नहीं बनता है । पूर्वप्रतिपनक जीव 'सर्वदा मनुष्यगति में होते हैं । देशविरतिसामायिक के प्रतिपद्यमानक जीव मनुष्यगति में और तिर्यञ्च गति में होते हैं। तथा पूर्व प्रतिपन्नक जीव सर्वदा दोनों में हो सकते हैं || सू० ४ ॥
तथा - भव्य को आश्रित करके 'कहाँ (भव्य अभव्य में ) कौन सामायिक होता है ? यह भी कहना चाहिये । जैसे- भव्यों में कदाचित् कितनेक जीव सम्यक्त्व सामायिक श्रुतसामायिक के प्रतिपद्यमानक पाये जाते हैं । तथा कितनेक सर्वविरति सामायिक के और कितनेक देशविरतिरूप सामायिक के इन चारों भी सामायिकों के पूर्व प्रतिपक्षक जो जीव होते हैं, वे भव्यों में सर्वदा बहुत पाये जाते हैं । तथा પદ્યમાનક જીવે ભાજ્ય હાય છે, અને પૂ`પ્રતિપન્નક જીવા નિયમથી હાય છે. સવિરતિ સામાયિકના પ્રતિપદ્યમાનક થવા મનુષ્ય ગતિમાં જ સૌભવી શકે છે. કેમ કે ચારિત્ર ધારણ કરવુ ત્યાં જ સભવી શકે છે. પૂર્વ પ્રતિપન્નક જીવા સદા મનુષ્યગતિમાં હાય છે. દેશવિરતિ સામાયિકના પ્રતિપદ્યમાનક જીવા મનુષ્યગતિમાં અને તિય ચગતિમાં સંભવી શકે તેમ છે. તથા પૂ પ્રતિપન્નક સદા બન્ને ગતિમાં હૈય છે. ૫૪૫
તથા-ભત્ર્યને આશ્રિત કરીને કર્યાં (ભવ્ય અભવ્યમાં) કર્યું. સામાયિક હાય છે ?’ આ વિષે પણ કહેવુ' જોઇએ જેમ ભવ્યેામાં કદાચિત્ કેટલાક જીવા સમ્યક્ સામાયિક અને શ્રુત સામાયિકના પ્રતિપદ્યમાનક મળે છે. તેમજ કેટલાક સર્વ વિરતિ રૂપ સામાયિકના અને કેટલાક દેશ વિરતિ ३५ સામાયિકના, એ ચારે-ચાર સામાયિકાના પૂર્વપ્રતિપન્નક જે જીવા હાય છે, તે ભજ્ગ્યામાં સદા ઘણા મળે છે. તથા જે અલભ્ય જીવા છે, તેમનામાં
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अनुयोगचन्द्रिका टीका सुत्र २४८ अनुगमनामानुयोगद्वार निरूपणम्
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सामायिकत्रयं संभवति । यद्वा-अमव्यो जीवः नत्र पूर्वाणामपि ज्ञानं प्राप्तुं शक्नोति, तदपेक्षया तस्मिन् एकं श्रुतसामायिकमेव भवतीत्यन्ये । नो भव्यो नो अभव्येषु सिद्धेषु एकं सम्यक्त्व सामायिकं भवति ||५||
तथा
- संज्ञिनमाश्रित्य क्व किं सामायिकं भवतीत्यपि वक्तव्यम् । यथा-स - संज्ञिषु कदाचित् केचित् सम्यक्त्वश्रुत सामायिकयोः प्रतिपचारो भवन्ति केचिद देश विरतेः केचिच्च सर्वविरतेः । एषां चतुर्णां सामायिकानां पूर्वप्रतिपनकास्तु संज्ञिषु नियमतः सत्येवेति । असंक्षिषु एकं सम्यक्त्व सामायिकमेव भवति, तस्यापर्याप्तावस्थायां पूर्वभवापेक्षया सास्वादनसम्यक्त्व सामायिक सद्भावात् । नो जो अभव्य जीव हैं, उनमें सम्यक्त्व को छोड़कर बाकी के तीन सामायिक तक हो सकते हैं अथवा कोई ऐसा भी मानते हैं कि अभव्य जीव नव पूर्व तक का ज्ञान प्राप्त कर सकता है। उस अपेक्षा से उसमें एक श्रुतसामायिक ही होता है । नो भव्य ना अभव्य अर्थात् सिद्धों में एक सम्यक्त्व सामायिक होता है ॥ ५ ॥
तथा - संज्ञी को आश्रित करके कहां कौन सामायिक होता है ? यह भी कहना चाहिये
जैसे - संज्ञी जीवों में कदाचित् कितनेक जीव सम्यक्स्व सामाfur और शुन सामायिक के प्रतिपत्ता होते हैं, कितनेक देशविरतिरूप सामायिक के और कितनेक सर्वविरतिरूप सामायिक के । तथा इन चार प्रकार की सामायिकों के जो पूर्वप्रतिपन्नक जीव होते हैं, वे तो नियमतः संज्ञियों में होते ही हैं। असंज्ञी में सामायिक पावे एक सम्यक्त्व सामायिक अपर्याप्तावस्था में पूर्वभवकी अपेक्षा से सास्वा
સમ્યક્ત્વ સિવાય શેષનામ ત્રણ સામાયિકા સુધી સ'ભવી શકે છે. અથવા કોઈ એમ પણ માને છે કે અભવ્ય જીવ નવ પૂર્વ સુધીનું જ્ઞાન પ્રાપ્ત કરી શકે છે, તે અપેક્ષાએ તેમાં એક શ્રુત સામાયિક જ હોય છે. ના ભવ્ય ના અભવ્ય એટલે કે સિદ્ધોમાં એક સમ્યક્ત્વ સમાયિક ડાય છે. પા
તથા સંજ્ઞીને આશ્રિત કરીને કયાં કયુ· સામાયિક હાય છે ? આ વિષે પણ કહેવું જોઈએ.
જેમ સ'જ્ઞી જીવામાં કદાચિત્ કેટલાક જીવા સમ્યકૃત સામાયિક અને શ્રુત સામાયિકના પ્રતિપત્તા હોય છે, કેટલાક દેશવિરતિ રૂપ સામાયિકના તથા આ ચાર પ્રકારના સામાયિકના જે પૂર્વપ્રતિપન્નક જીવે હાય છે, તેઓ તા નિયમતઃ સ'નિએમાં હાય જ છે. અસ'જ્ઞીમાં સામાયિક મળે છે. ~એક સમ્યક્ત્વ સામાયિક અપર્યાપ્તાવસ્થામાં પૂર્વભવની અપેક્ષાથી સાસ્વાદન
अ० १०३
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अनुयोगद्वारसूत्रे सझी नो असठज्ञी प्रयोदशचतुर्दशगुणस्थानवर्ती केवली तस्य सम्यक्त्वसामा. यिकं सर्वविरतिसामायिकं चेति सामायिकद्वयं भवति । सिद्धावस्थायां तु सम्यक्त्वसामायिकमेव भवति ॥६॥
तथा-उच्छवासकनिःश्वासकम् - श्वासोच्छ्वासपर्याप्तिपरिनिष्पन्नमाश्रित्य क्व किं सामायिकं भवतीत्यपि वक्तव्यम् । यथा-उच्छ्वासक निःश्वास केषु कदाचित केचित् सम्यक्त्वश्रुतसामायिकयोः प्रतिपयमानका भवन्ति, केचिद् देशविरतेः केचिच्च सर्वविरतेः। पूर्वप्रतिपन्नकास्तु सर्वेषां सामायिकानां सन्त्येवेति ॥७॥
तथा-दृष्टिमाश्रित्य का किं सामायिकं भवतीत्यपि वक्तव्यम् । तत्र दृष्टौ दन सम्यक्त्व सामायिक होता है । नो संज्ञी ना असंज्ञी अर्थात् तेरहवें चौदहवें गुणस्थानवर्ती केवली में सम्यक्त्व सामायिक और सर्व विरतिसामायिक ऐसे दो सामायिक होते हैं । सिद्धावस्था में केवल एक सम्यक्त्व सामायिक होता है ॥ ६॥ ____तथा-उच्छवासक निःश्वासक-श्वासोच्छासपर्याप्ति से परिनिष्पन्न हुए । उच्छ्वासक निःश्वासक को आश्रित करके कहां 'कहां कौन सामायिक होता है ? यह भी कहना चाहिये-जैसे उच्छ्रवासक निःश्वासकों में कदाचित् कितनेक जीव सम्यक्त्व सामायिक और श्रुतसामायिक के प्रतिपद्यमानक होते हैं। कितनेक देशविरति सामा. यिक के और कितनेक सर्वविरति सामायिक के तथा चारों सामायिकों के तो पूर्वप्रतिपनक जीव यहां नियमत: होते ही हैं ॥७॥
तथा-दृष्टिको आश्रित करके 'कहां (कौन दृष्टिमें) कौन सामा.
સમ્યકત્વ સામાયિક હોય છે. ને સંજ્ઞી ને અસંજ્ઞી એટલે કે ૧૩ મા, ૧૪ મા ગુણસ્થાનવતર કેવલીમાં સમ્યક્ત્વ સામાયિક અને સર્વવિરતિ સામાયિક એવાં બે સામાયિક હોય છે. સિદ્ધાવસ્થામાં ફક્ત એક સમ્યકૃત્વ સામાયિક જ હોય છે. જે
તથા ઉચ્છવાસક, નિઃશ્વાસક, શ્વાસોચ્છવાસ પર્યાપ્તિથી પરિનિષ્પન્ન થયેલ ઉચ્છવાસક નિઃશ્વાસકને આશ્રિત કરીને “કયાં કયું સામાયિક હોય છે? આ પણ કહેવું જોઈએ. જેમ ઉશ્વાસન નિઃશ્વાસમાં કદાચિત કેટલાક છે સમ્યક્ત્વ સામાયિક અને શ્રત સામાયિકના પ્રતિપદ્યમાનક હોય છે. કેટલાક સર્વવિરતિ સામાયિકના તેમ જ ચારે ચાર સામાયિકના તે પૂર્વ પ્રતિપન્નક છે અહીં નિયમતઃ હોય છે. કેળા
તથા દષ્ટિને આશ્રિત કરીને કયાં (કઈ દ્રષ્ટિમાં કયું સામાયિક હોય
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अनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र २४८ अनुगमनामानुयोगद्वारनिरूपणम् १९ विचार्यमाणायां व्यवहारो निश्चयश्चेति द्वौ नयौ विचारको भवतः । तत्र व्यवहारनयमतेऽसामायिकवान् चतुर्विधं सामायिक प्रतिपद्यते । इयं प्रतिपत्तिर्दी कालेन भवति क्रियाकालनिष्ठाकालयोर्भेदादिति । निश्चयमते तु सामायिकवान् चतुर्विधं सामायिक प्रतिपद्यते । इयं प्रतिपत्तिरदीर्घकाले न भवति क्रियाकाळ निष्ठाकालयोरभेदादिति ॥८॥
तथा-आहारकमाश्रित्य क्व किं सामायिकं भवतीति वक्तव्यम् । यथा-आहारकजीवाश्चतुषु सामायिकेषु अन्यतमत् किमपि सामायिकं प्रतिपद्यन्ते । पूर्वपति यिक होता है ? ' यह भी कहना चाहिये। दृष्टि का जब विचार किया जाता है तो, उस समय व्यवहार नय और निश्चयनय ये दो नय विचारक होते हैं। इन में व्यवहार के मत में असामायिकवाला. जीव चतुर्विध सामायिक को धारण करता है। यह प्रतिपत्ति बहुत काल के बाद होती है। क्योंकि क्रिया काल और निष्ठा में भेद हैं। परन्तु जो निश्चयनय का मत है । उसमें सामायिकवाला जीव ही चतुविध सामायिक को अंगीकार करता है। यह प्रतिपत्ति दीर्घकाल में नहीं होती है। किन्तु अदीर्घकाल में कुछ काल के बाद हो जाती है। क्योंकि यहां क्रिया काल और निष्ठाकाल में भेद नहीं माना जाता है।९।
तथा-आहारक का आश्रित करके 'कहां कौन सामायिक होता है? यह भी कहना चाहिये। जैसे-आहारक जीव चार सामा. यिक में से कोई एक सामायिक को धारण करते हैं। तथा जो पूर्व છે? આ વિષે પણ કહેવું જોઈએ. દષ્ટિ વિષે જ્યારે વિચાર કરવામાં આવે છે તે વખતે વ્યવહારનય અને નિશ્ચયનય એ બે ના વિચારક હોય છે. આમાં વ્યવહારનયના મતમાં અસામાયિકવાળા જીવ ચતુર્વિધ સામાયિકને ધારણ કરે છે. આ પ્રતિપત્તિ ઘણા વખત પછી હોય છે. કેમ કે કિયા કાળ અને નિષ્ઠામાં ભેદ છે. પરંતુ જે નિશ્ચયનયને મત છે–તેમાં સામાયિકવાળા જીવ જ ચતુર્વિધ સામાયિકને અંગીકાર કરે છે. આ પ્રતિપત્તિ દીર્ઘકાળ પછી થતી નથી, કિંતુ અદીર્ઘકાળમાં ચેડા કાળ પછી થઈ જાય છે. કેમ કે અહીં ક્રિયાકાળ અને નિષ્ઠાકાળમાં તફાવત ગણવામાં આવતું નથી. ૮
તથા આહારકને આશ્રિત કરીને “કયાં કયું સામાયિક હોય છે આ વિષે પણ કહેવું આવશ્યક છે. જેમ આહારક જીવ ચાર સામાયિકોમાંથી કે એક સામાયિકને ધારણ કરે છે, તેમ જ જે પૂર્વ પ્રતિપન્નક છવા
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अनुयोगद्वारसूत्रे पन्नकास्तु सन्त्येवेति, अनाहारकाणां समुच्चयेन सम्यक्त्वश्रुत-सर्वविरतिरूपं सामायिकत्रयं भवति, चतुर्दशगुणस्थानवर्ती केवली केवलिसमुद्घातस्य तृतीय चतुर्थपश्चमसमयवर्ती केवली, चेति केवलिद्वयम् , एवं परलोकमार्गे वहमानो जीवश्चेति त्रयोऽनाहारकाः कथ्यन्ते, तेषु मध्ये केवलिद्वये सम्यक्त्वसामायिक सर्वविरतिसामायिकं चेति सामायिकद्वयं भवतीति पूर्व प्रतिपादितम् । परलोक मार्गे : वहमानस्याऽनाहारकजीवस्य सामायिकद्वयम्-एकं सम्यक्त्वसामायिकं द्वितीयं पूर्वभवापेक्षया श्रुतसामायिकं चेति द्वयं भवति । ॥९॥ - तथा-पर्याप्तिकमधिकृत्य क्व कि सामायिकं भवतीति वक्तव्यम् ।
यथा-पइभिः पर्याप्तिभिः पर्याप्तकाश्चतुर्णा सामायिकानामन्यतमत् सामायिक प्रतिपन्नक जीव हैं वे तो इनमें होते ही हैं, अनाहारक में समुच्चय से सम्यक्त्व सामायिक १ श्रुतसामाधिक २, और सर्वविरतिसामायिक होते हैं । अनाहारक तीन हो सकते है-प्रथम चतुर्दशगुणस्थानवर्ती केवली १, केवलि समुद्घात के तीसरे चौथे और पांचवें समय वर्ती केवली २, तथा वाटे बह तो जीव अर्थात् मृत्यु के बाद दूसरे भवमें जन्म लेने के बीच के समय में चलता हुवा जीव ३ इसमें दो केवलियों के सम्यक्त्व और सर्वविरति ये दो सामायिक होते हैं यह पात पहिले कह चुके हैं । पाटे वहते अनाहार जीव में एक सम्यक्त्व सामायिक और दूसरा परभवको अपेक्षा श्रुत सामायिक, ऐसे दो सामायिक होते हैं ॥९॥
तथा-पर्याप्तक को आश्रित करके 'कहां कौन सामायिक होता है ? यह भी कहना चाहिये । जैसे जो छह पर्याप्तियों से पर्याप्तक हैं-ऐसे છે, તેઓ તે આમાં હોય જ છે, અનાહારકમાં સમુચ્ચયથી સમ્યક્ત્વ સામાવિક ૧, શ્રત સામાયિક ૨ અને સર્વવિરતિ સામાયિક ૩, એવા ત્રણ સામાયિક હોય છે, અનાહારક ત્રણ હોઈ શકે છે, પ્રથમ, ચતુર્દશ ગુણસ્થાનવત કેવલી ૧, કેવલિ સમુદ્દઘાતના ત્રીજા ચેથા અને પાંચમા સમયવર્તી કેવલી ૨, તથા પાક તરફ ગતિ કરતે એટલે કે મૃત્યુ પછી બીજા ભવમાં જન્મ ગ્રહણ કરતા પહેલાં વચ્ચેના સમયમાં માર્ગમાં ચાલતે જીવ ૩, આમાં બે કેવળિઓના સમ્યક્ત્વ સામાજિક અને બીજા પરભવની અપેક્ષાને શ્રત સામાયિક, એવા બે સામાયિક હોય છે. છેલ્લા " તથા પર્યાપ્તને આશ્રિત કરીને કયાં કયું સામાયિક છે? આ વિષે પણ કહેવું જોઈએ જેમ જે ૬ પર્યાપ્તિએથી પર્યાપ્ત છે એવા જ ચાર
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अनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र २४८ अनुगमनामानुयोगद्वारनिरूपणम् १२१ पतिपद्यन्ते । द्वे त्रीणि वाऽपि युगपत् प्रतिपद्यन्ते, पूर्वप्रतिपन्नकास्तु सन्त्येवेति अपर्याप्तकानां सम्यक्त्वसामायिकं पूर्वभवापेक्षया श्रुतसामायिकं चेति सामायिकद्वयं भवति ॥१०॥ __तथा-सुप्तेषु जीवेषु क्व किं सामायिकं भवतीति वक्तव्यम् । यथा-सुप्ता द्विविधाः-द्रव्यमुप्ता भावसुप्ताश्च । तत्र-द्रव्यमुप्तेषु न कोऽपि किमपि सामायिकं प्रतिपद्यते । पूर्वप्रतिपन्नकास्तु एषु सर्वेषामपि सामायिकानां संभवन्ति । भावसुप्तास्तु मिथ्यादृष्टयः। तेषु न कोऽपि सम्यक्त्वदेशविरतिसविरतिसामापिकानां प्रतिपद्यमानकः, न चाऽपि पूर्वपतिपन्नः । श्रुतसामायिकस्य तु प्रतिपद्यमानकः, पूर्वमतिपन्नश्च संभवतीति ।११। जीव चार सामायिकों में से किसी एक सामायिक के प्रतिपत्ता होते हैं । यदि एक साथ ये जीव सामायिकों को धारण करें तो दो अथवा तीन सामायिकों को धारण कर सकते हैं। यहां पूर्वपतिपन्नक जीव तो होते ही हैं। अपर्याप्तक जीवों में सम्यक्त्व और श्रुत ये दो सामायिक होते है ॥ १० ॥ ___तथा-सुप्त जीवों में कहां कौन सामायिक होता है ? यह भी कहना चाहिये-जैसे सुप्त दो प्रकार के होते हैं । एक द्रव्य सुप्त और दूसरे भाव सुप्त-जो जीव द्रव्य लुप्त होते हैं। उनमें कोई भी जीव किसी भी सामायिकको अंगीकार नहीं करते हैं । इन समस्त भी सामायिकों के पूर्वप्रतिपन्न क जीव तो हो सकते हैं । भावसुप्त मिथ्यादृष्टि जीव होते हैं-सो इनमें कोई भी जीव ऐसा नहीं होता है जो सम्यक्त्व सामायिक, देश विरति सामायिक और सर्वविरति सामायिक को धारण સામાયિકોમાંથી કોઈ એક સામાયિકને પ્રતિપત્તા હોય છે. જે એક સાથે એ જ ચાર સામાયિકેને ધારણ કરે તે બે અથવા ત્રણ સામાયિકને ધારણ કરી શકે છે. અહીં પૂર્વ પ્રતિપન્નક જીવે તે હોય જ છે, અપપ્તક જેમાં સમ્યકત્વ અને મૃત એ બને સામાયિક હોય છે. ૧૦
તથા-સુપ્ત જીવે.માં કયાં કયું સામાયિક હેય છે? આ વિષે પણ કહેવું જોઈએ. જેમ સુપ્ત બે પ્રકારના હોય છે, એક દ્રવ્યસુપ્ત અને દ્વિતીય ભાવ સુપ્ત, જે જીવ દ્રવ્યસુપ્ત હોય છે. તેમાં કોઈ પણ સામાયિકને અંગીકાર કરતા નથી. આ સર્વ સામાયિકને પૂર્વ પ્રતિપન્નક જીવે તે સંભવી શકે છે. સુસમિથ્યાદૃષ્ટિ જ હોય છે, આમાં કેઈ પણ જીવ એ. હતે નથી કે જે સમ્મફત્વ સામાયિક, દેશવિરતિ સામાયિક અને સર્વવિરતિ
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अनुयोगद्वारसूत्रे तथा-जन्माश्रित्य का कि सामायिक भवतीति वक्तव्यम् । तत्र-जन्म अण्ड पोतजरायूपपातविषयत्वाचतुर्विधम् । तत्र-अण्डजाः सादयः, पोतजा=हस्त्यादयः जरायुना:-मनुष्याः, उपपातजाः देवनारकाः । एषु चतुर्विधेषु केऽपि अण्डजा हंसादयः पोतजाः हस्त्यादयश्च चतुर्विधसामायिकेषु आधद्वयम् आद्यत्रयं वा सामायिकं कदाचित् पतिपद्यन्ते । पूर्वपतिपन्नकास्त्वेषां सन्त्येव । जरायुजा,करता है । तथा पूर्वप्रतिपन्नक जीव भी इन सामायिकों के इनमें नहीं होते हैं। हां-जो श्रुतसामायिक है, उसके प्रतिपद्यमानक जीव यहां हो सकते हैं। और पूर्वप्रतिपन्न जीव तो यहां होते ही हैं ॥११॥
तथा-जन्म को आश्रित करके कहाँ कौन सामायिक होता है ? यह भी कहना चाहिये । समूच्छिम गर्भ और उपपात इस प्रकार से जन्म के तीन प्रकार होते हैं । जो जर से उत्पन्न होते है, अण्डे से उत्पन्न होते हैं और पोतज होते हैं । उनके गर्भ जन्म होता है। देव और नारकों का जन्म उपपात होता है । यहाँ अंड, पोत और जरायु इन तीन को और उपपात को विषय करनेवाला होने से जन्म चार प्रकार का कहा गया है । सो यह केवल कथन की ही विचित्रता है-सैद्धान्तिक भेद कुछ भी नहीं है । हंसादिक जीव अण्डज, हस्ती आदि जीव पोतज, मनुष्य आदि जरायुज और देव नारक उपपातज है। इन चार प्रकार के जन्मो में कितनेक अण्डज हंसादिक जीव और पोतजहस्ती आदिक जीव, चतुर्विध सामायिकों में से आदि के दो सामायिकों સામાયિકને ધારણ કરે તથા પૂર્વ પ્રતિપન્નક જીવ પણ આ સામાયિકમાં હોતા નથી. હાં, જે શ્રુત સામાયિક છે, તેના પ્રતિપદ્યમાનક જ અહીં સંભવી શકે છે. પૂર્વ પ્રતિપન્ન છે તે અહીં હોય જ છે, ૧
તથા જન્મને આશ્રિત કરીને કયાં કયું સામાયિક હોય છે? આ વિષે પણ કહેવું જોઈએ. સમૂર્ણિમ ગર્ભ અને ઉ૫પાત આ પ્રમાણે જન્મના ત્રણ પ્રકાર હોય છે જરથી ઉત્પન્ન થાય છે, ઇંડાથી ઉત્પન્ન થાય છે, અને પિતજ હોય છે, તેમને ગભજન્મ હોય છે. દેવ અને નારકોને જન્મ ઉપપાતથી થાય છે. અહીં અંડ, પિત અને જરાયું આ ત્રણને અને ઉપપાતને વિષય કરનાર હોવાથી જન્મના ચાર પ્રકારે કહેવામાં આવ્યા છે. તો આ કક્ત કથનની જ વિચિત્રતા છે, સૈદ્ધાંતિક ભેદ કંઈ પણ નથી હંસાદિક
જી અંડજ, હસ્તી વગેરે જી તિજ, મનુષ્ય વગેરે જીવે જરાયુજ અને દેવનારક ઉપપાત જ છે. આ ચાર પ્રકારના જમોમાં કેટલાક અંડજ હંસાદિક જી અને પિતજ હસ્તી આદિ જ, ચતુર્વિધ સામાયિકમાંથી પ્રથમ બે
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मनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र २४८ अनुगमनामानुयोगद्वारनिरूपणम् ८२३ मनुष्यास्तु चतुर्विधमपि सामायिकं प्रतिपद्यन्ते। पूर्वप्रतिपन्नकास्त्वेषां चतुर्णा सामायिकानां सन्त्येव । औपपातिका देवनारकाः सम्यक्त्वश्रुतसामायिकयोः पतिपद्यमानकाः भवन्ति, पूर्वपतिपन्नका स्त्वनयोः सन्स्येवेति ॥१२॥
तथा-स्थितिमाश्रित्य का कि सामायिक भवति, इति वक्तव्यम् । यथाआयुर्वर्जानां ज्ञानावरणादिकर्मणां त्रिंशत्सागरोपमकोटीकोटयादिकायामुत्कृष्टस्थिती वर्तमाना जीवा श्चतुर्गामपि सामायिकानां नैव प्रतिपद्यमान का न चापि पूर्वपतिपन्नका भवन्ति, तेषामतिसंक्लिष्टत्वेन तदसंभवात् । आयुषस्त्रयस्त्रिंशत्सागरोपमको अथवा आदिके तीन सामायिकों को कदाचित् धारण कर सकते हैं। इनमें इन सामायिकों के पूर्वप्रतिपन्नक जीव तो होते ही हैं । जो जरायुज मनुष्य हैं, वे चारों प्रकार के भी सामायिकों को धारण कर सकते हैं । तथा इनमें इन चारों प्रकार के सोमायिकों के पूर्वप्रतिपन्नक जीव तो रहते ही हैं । उपपात जन्मवाले जो देव और नारक जीव हैं वे सम्यक्त्व और श्रुत सामायिक को धारण कर सकते हैं । तथा इनमें इन सामायिकों के पूर्वप्रतिपन्नक जीव तो रहते ही है ॥ १२ ॥ ____ तथा-स्थिति को आश्रित करके 'कहां कौन सामायिक होता है ?' यह भी कहना चाहिये । जैसे आयुकर्म को छोड़कर ज्ञानावरण आदि सात कर्मों की त्रिंशत सागरोपमकोटीकोटि आदिरूप उत्कृष्ट स्थिति में वर्तमान जीव चारों भी सामायिकों को प्राप्त नहीं कर सकते हैं और न ऐसे जीव भी होते हैं। क्योंकि इन कर्मों की उत्कृष्ट स्थिति में સામાયિકને અથવા પ્રારંભના ત્રણ સામાયિકેને કદાચિહ્ન ધારણ કરે છે. આમાં આ સામાયિકને પૂર્વ પ્રતિપન્નક જીવતે હોય જ છે. જે જરાયુજ મનુષ્ય છે, તે ચારેચાર પ્રકારના સામાયિકેને ધારણ કરી શકે છે. તથા આમાં આ ચારે ચાર પ્રકારના સામાયિકોને પૂર્વ પ્રતિપન્નક જી રહે જ છે. ઉપપાત જન્મ વાળા જે દેવ અને નારકજીવે છે, તે સમ્યકત્વ અને શ્રત સામાયિકેને ધારણું કરી શકે છે, તેમ જ આમાં આ સામાયિકોને પ્રતિપન્નક જીવતો રહે જ છે. ૧૨ાા
तथा:-स्थितिने माश्रित ४रीन यां ध्यु सामायि हाय छ ?' । વિષે પણ કહેવું જોઈએ. જેમ આયુકમને ત્યજીને જ્ઞાનાવરણ વિગેરે સાત કર્મોની ત્રિશત સાગરોપમ કોટી કોટી વગેરે રૂ૫ ઉત્કૃષ્ટ સ્થિતિમાં વર્તમાન જીવ ચારેચાર સામાયિકને પ્રાપ્ત કરી શકતા નથી, અને એવા માં આ સામાયિકના પ્રતિપનક જીવો પણ હોતા નથી. કેમ કે આ કમેની ઉત્કૃષ્ટ
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अनुयोगद्वारसूत्रे लक्षणायामुत्कष्टस्थितौ वर्तमानोऽनुत्तरसुरः सम्यक्त्वश्रुतसामायिकयोः प्रतिएछमानकपूर्वप्रतिपन्नश्च लभ्यते । सप्तमपृथिव्यप्रतिष्ठाननरक स्थितो जीवः सम्यक्त्वश्रुतसामायिकयोः पूर्वप्रतिपन्नको भवति, षण्मासावशिष्टायुषः पूर्व तथाविधविशुदिसम्पन्नत्वात्तयोः सामायिकयोः पतिपद्यमानकश्चापि संभवति । षण्मासावशिष्टायु:काले तु पुनर्मिथ्यात्वं प्रतिपद्यते एवेति । क्षुल्लकमा ग्रहणरूपायां जघन्यायामायु:स्थितौ वर्तमानो निगोदादिश्चतुर्णामपि सामायिकानां नैव प्रतिपद्यमानको न चापि वर्तमान जीव के परिणाम अत्यन्त संक्लिष्ट रहा करते हैं । इसलिये इन सामायिकों की वहां संभवता नहीं होती है। आयुकर्म की उत्कृष्ट स्थिति जो ३३ सागरोपम की है, उसमें वर्तमान अनुत्तरवामोदेव सम्यक्त्व सामायिक और श्रुन सामायिक के पूर्वप्रतिपन्नक ही होते हैं। सप्तम पृथिवी का जो अप्रतिष्ठान नाम का नरक हैं, उसमें स्थित छह मास से अधिक शेष आयुवाला नारक जीव सम्यक्त्व सामायिक और श्रुत सामायिक का पूर्वप्रतिपन्नक होता है। और जब वहां जीव की छ: मास की आयु अवशिष्ट होने को होती है, तब इसके पहिले परिणामों में इस जाति की विशुद्धि उत्पन्न हो सकती है कि जिसके कारण वह जीव सम्यक्त्व सामायिक और श्रुत सामायिक को धारण करनेवाला भी बन सकता है। परन्तु जिस समय आयु केवल ६ मास की ही बाकी रहती है, उस समय वह जीव पुनः मिथ्यात्वी ही बन जाता है । क्षुल्लक भव ग्रहणरूप जघन्य आयु की स्थिति वर्तमान निगोदा दिजीव चारों भी सामायिकों का प्रतिपद्यमानक नहीं होती है और न સ્થિતિમાં વર્તમાન જીવના પરિણામે અત્યન્ત સંકિલષ્ટ રહે છે, એથી આ સામાયિકની ત્યાં સંભવતા હોતી નથી. આયુકમની ઉત્કૃષ્ટ સ્થિતિ જે ૩૩ સાગરોપમની છે તેમાં વર્તમાન અનુત્તરવાસી દેવ સમ્યક્ત્વ સામાયિક અને પૂર્વ પ્રતિપનક જ હોય છે. સપ્તમ પૃથિવીનું જે અપ્રતિષ્ઠાન નામક નરક છે. તેમાં સ્થિત ૬ માસ કરતાં અધિક નારક જીવ શેષ આયુવાળા સમ્યકત્વ સામાયિક અને શ્રત સામાયિકને પૂર્વ પ્રતિપન્નક હોય છે, અને જ્યારે તે જીવનું ૬ માસનું આયુ અવશિષ્ટ હોય ત્યારે તે પહેલાં પરિણામમાં આ જાતિની વિશુદ્ધિ ઉત્પન્ન થઈ શકે છે જેથી તે જીવ સમ્યકત્વ સામાયિક અને શ્રત સામાયિકને ધારણ કરનાર પણ થઈ શકે છે. પરંતુ જે વખતે આ યુ ફક્ત ૬ માસ જેટલું જ શેષ હોય, તે સમયે જીવ ફરી મિથ્યાત્વી થઈ જાય છે. ક્ષુલ્લક ભવગ્રહણરૂપ જઘન્ય આયુની સ્થિતિમાં વર્તમાન નિગોદાદિ જીવ ચારેચાર સામાયિકનું પ્રતિપદ્યમાનક હતા નથી અને ન આમાં કઈ પૂર્વ
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अनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र २४८ अनुगमनामानुयोगद्वारनिरूपणम् ८२५ पूर्व प्रतिपन्नः तस्याविशुद्धित्वेन सामायिकग्रहणयोग्यताया अभावात् । शेषे तु आयुर्व ज्ञानावरणीयादिकर्मसप्तके जघन्याम् अन्तर्मुहूर्तादिकां स्थिति बध्नन् दर्शनसप्तकातिक्रान्तोऽन्तकृत्केवलित्वं प्राप्स्यन् क्षपको देशविरतिसामायिकरहितस्य सामायिकत्रयस्य पूर्व प्रतिपन्नको भवति, तस्यातिविशुद्धावेनातिजघन्यस्थितिककर्मबन्धकत्वात् , क्षपकस्य च देशविरतेरसंभवात् , सम्यक्त्वादिप्रतिपन्नतायाः पूर्वमेव जातत्वादिति । जघन्यस्थितिककर्मबन्धकत्वेन चात्र जघन्यस्थितिकत्वं गृह्यते, न तूपातकर्मसत्तापेक्षया जघन्यस्थितिकर्मबन्धकत्वं बोध्य इनमें कोई पूर्वमतिपन्नक जीव भी होता है । क्योंकि इस जीव में अवि. शुद्धि होती है । इस कारण सामायिक ग्रहण करने की योग्यता का यहां अभाव रहता है। आयुवर्जशेषज्ञानावरणीय आदि सातकर्मों की अन्तर्मुहूर्तादिरूपजघन्यस्थिति का बन्ध करनेवाला जीव दर्शनमोहनीय की सात प्रकृतियों को क्षय करके क्षपक बनता है । सो वही आगे अन्तकृत्केवली होता है-ऐसा वह क्षपक जीव देशविरतिसामायिक से रहित सम्यक्त्वसामायिक श्रुतसामायिक और सर्वविरतिसामायिक इन तीन सामायिकों का पूर्वप्रतिपन्नक होता है। क्योंकि अतिविशुद्धहोने के कारण वह जीव अतिजघन्यस्थितिवाले कर्मों का बन्धक होता है तथा क्षपक के देशविरति का सद्भाव पाया नहीं जाता है। इसलिये सम्यक्त्व आदि की प्रतिपन्नता उसके पहिले से ही उत्पन्न हो जाती है । जघन्य स्थितिवाले कर्मों का बन्धक होने के कारण यहां कर्मों में પ્રતિપનક જીવ પણ હોય છે. કેમ કે આ જીવમાં અવિશુદ્ધિ હોય છે. એથી સામાયિક ગ્રહણ કરવાની યેગ્યતાને અહીં અભાવ રહે છે. આયુર્વજ શેષ જ્ઞાનાવરણીય આદિ સાત કર્મોની અંતર્મદૂતંદિરૂપ જઘન્ય સ્થિતિને બબ્ધ કરનાર જીવ દશમેહનીયની સાત પ્રકૃતિઓને ક્ષય કરીને લપક બને છે. અને પછી આગળ તે જ અન્તકૃકેવલી થાય છે, એવે તે ક્ષેપક જીવ દેશ વિરતિ સામાયિકથી રહિત સમ્યકત્વ સામાયિક શ્રત સામાયિક અને સર્વવિરતિ સામાયિક આ ત્રણ સામાયિકને પૂર્વ પ્રતિપન્નક હોય છે. કેમ કે અતિવિશુદ્ધ હવા બદલ તે જીવ પૂર્વ પ્રતિપન્નક અતિ જઘન્યસ્થિતિવાળા મેને બંધક હોય છે, તથા ક્ષપકના દેશ વિરતિને સદ્ભાવ મળતા નથી. એથી સમ્યકત્વ વગેરેની પ્રતિપનતા તે પહેલાં જ ઉત્પન્ન થઈ જાય છે. જઘન્ય સ્થિતિવાળા કર્મોને બંધક હોવા બદલ અહીં કર્મોમાં જઘન્ય સ્થિતિ ગૃહીત કરવામાં આવી છે. ઉપાત્ત કર્મોની સત્તાની અપેક્ષાએ જઘન્યસ્થિતિવાળા કર્મોનું બંધકત્વ લેવામાં अ० १०४
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अनुयोगद्वारसूत्र मिति । तथा-अष्टानामपि कर्मणाम् मध्यमायां स्थितौ स्थितो जीवश्चतुर्णामपि सामायिकानां प्रतिपद्यमानकः पूर्वप्रतिपन्नश्च भवतीति ॥१३॥
तथा-वेदमधिकृत्य क्व किं सामायिकं भवतीति वक्तव्यम् । यथा-विवक्षिते काले त्रिविधेऽपि वेदे चतुर्णा सामायिकानां पतिपद्यमानका भवन्ति, पूर्वपतिपन्नास्तु सन्त्येव ॥१४॥
तथा-आहारभयमेथुनपरिग्रहरूपाश्चतस्रः संज्ञा अधिकृत्य क्व किं सामायिक भवतीत्यपि वक्तव्यम् । यथा-चतसृष्यपि संज्ञासु चतुर्विधस्यापि सामायिकस्य पतिपद्यमानका भवन्ति, पूर्वप्रतिपन्नकास्तु सन्त्येवेति ॥१५॥ । जघन्यस्थितिता गृहीत की गई है। उपातकर्मों की अपेक्षा से जघन्यस्थितिवाले कर्मों का बंधकत्व नहीं लिया गया है । आठो कर्मों की मध्यमस्थिति में स्थित जीव चारों भी सामायिकों का प्रतिपद्यमानक होता है और पूर्वप्रतिपन्नक भी होता है ॥ १३ ॥
तथा-वेद को आश्रित करके कहां (किस वेद में) कौन सामायिक होता है ?-ऐसा भी कहना चाहिये। जैसे-विवक्षित काल में तीन प्रकार के भी वेद में चारों सामायिकों के प्रतिपद्यमानक जीव होते हैं । और जो इनके पूर्वप्रतिपन्नक जीव होते हैं, वे तो यहां रहते ही हैं ।१४।
तथा-संज्ञा आहार, भय, मैथुन और परिग्रह इन चार संज्ञाओं को आश्रित करके कहां (किस संज्ञा में) कौन सामायित होता है ? यह कहना चाहिये-जसे चार प्रकार की संज्ञाओं में चतुर्विध भी सामायिक प्रतिपद्यमानक जीव होते हैं और जो इनके पूर्वप्रतिपन्नक होते हैं वे तो यहां होते ही हैं ॥१५॥ આવ્યું નથી. આઠે આઠ કર્મોની મધ્યમસ્થિતિમાં સ્થિત જીવ ચારે સામાયિકને પ્રતિપદ્યમાનક હોય છે અને પૂર્વ પ્રતિપન્નક પણ હોય છે. ૧૩
તથા–વેદને આશ્રિત કરીને કયાં ક્યાં વેદમાં) કયું સામાયિક હોય છે? આ વિષે પણ કહેવું જોઈએ. જેમ-વિવક્ષિતકાળમાં ત્રણ પ્રકારના વેદમાં ચાર સામાયિકના પ્રતિપદ્યમાનક જ હોય છે. અને જે એના પૂર્વ પ્રતિપનક હોય છે. તેઓ તે અહીં રહે જ છે. ૧૪
તથા – સંજ્ઞા આહાર, ભય, મૈથુન અને અપરિગ્રહ એ ચાર સંજ્ઞાઓને આશ્રિત કરીને કયાં (કઈ સંજ્ઞામાં) કયું સામાયિક હોય છેઆ વિષે પણ કહેવું જોઈએ. જેમ ચાર પ્રકારની સંજ્ઞાઓમાં ચતુર્વિધ પણ સામાયિકના પ્રતિપદ્યમાનક જ હોય અને જે એમના પૂર્વ પ્રતિપન્નક હોય છે, તેઓ તે, भी हाय छे. ॥१५॥
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अनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र २४८ अनुगमनामानुयोगद्वारनिरूपणम्
સં
तथा - कषायमाश्रित्य व किं सामायिकं भवतीत्यपि वक्तव्यम् । यथा-सकपायो जीवचतुर्णामपि सामायिकानां प्रतिपद्यमानकः पूर्वप्रतिपन्नकश्च भवति । अकषायस्तु छद्मस्थवीतरागो देशविरतिसामायिकं वर्जयित्वा सामायिकत्रयस्य पूर्व प्रतिपन्नको भवति न तु प्रतिपद्यमानक इति ॥१६॥
तथा - आयुराश्रित्य का कि सामायिकं भवतीत्यपि वक्तव्यम् । यथा-संख्यातवर्षायुको जीवश्चतुर्णामपि सामायिकानां प्रतिपद्यमानकः संभवति, पूर्व प्रतिपन्नकस्तु भवत्येव । असंख्येयवर्षायुष्को जीवः सम्यक्त्वश्रुत सामायिकयोः पूर्व प्रतिपन्नको भवतीति ॥ १७॥
तथा - कषाय को आश्रित करके कहाँ (किस कषाय में) कौन सामायिक होता है ? - यह भी कहना चाहिये जैसे कपायसहितजीव चारों भी सामायिकों का प्रतिपद्यमानक होता है। और पूर्वप्रतिपन्नक भी होता है। कषाथरहित जो छद्मस्थवीतरागजीव है, वह देशविरतिरूप सामायिक को छोड़कर तीन सामायिक का प्रतिपन्नक होता है, प्रतिपद्यमानक नहीं ॥ १६ ॥
तथा - आयु को आश्रय करके कहां कौन सामायिक होता है ? यह भी कहना चाहिये - जैसे- संख्यात वर्ष की आयुवाला जीव चारों भी सामायिकों का प्रतिपद्यमानक हो सकता है । तथा ऐसा जीव इन सामायिकों का पूर्वप्रतिपन्नक तो होता है। जिस जीव की आयुअसंख्यात वर्ष की होती है, ऐसा जीव सम्यक्त्व सामायिक श्रुतसामायिक का प्रतिपद्यमानक हो सकता है तथा पूर्वप्रतिपन्नक होता ही है ॥ १७ ॥
તથા—કષાયને આશ્રિત કરીને કયાં (કયા કષાયમાં) કર્યું સામાયિક હાય છે? આ વિષે પણ કહેવુ' જોઇએ, જેમ કષાય સહિત જીવ ચારે ચાર સામાયિકાના પ્રતિપદ્યમાનક હોય છે, અને પૂ`પ્રતિપનક પશુ હાય છે. કષાય રહિત જે છદ્મસ્થ વીતરાગ જીવ છે, તે દેશવિરતિરૂપ સામાયિકાને છેડીને ત્રણ સામાયિકના પૂર્વીપ્રતિપન્નક હોય છે, પ્રતિપદ્યમાનક નહિ ।૧૬।
તથા:આયુને આશ્રય કરીને કયાં કયુ· સામાયિક હાય છે? આ વિષે પણ કહેવુ જોઇએ જેમ-સખ્યાત વની આયુવાળા જીવા ચારેચાર સામાયિકાના પૂર્વ પ્રતિપદ્યમાનક થઈ શકે છે, તથા એવા જીવ આ સામાયિકાના પૂર્વપ્રતિપત્ત્તક હોય જ છે, જે જીવનું આયુ અસ`ખ્યાત વર્ષ જેટલું હાય છે, એવેા છત્ર સમ્યકૃત્વ સામાયિક, શ્રુત સામાયિકના પ્રતિયદ્યમાનક થઈ શકે તથા પૂર્વ પ્રતિપન્નક હાય જ છે. ૫૧૭ણા
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टाट
अनुयोगद्वारसूत्रे
तथा - ज्ञानमाश्रित्य का किं सामायिक भवतीत्यपि वक्तव्यम् । यथा-ओघतो ज्ञानमाश्रित्य निश्चयनयमतेन ज्ञानी चतुर्णामपि सामायिकानां प्रतिपद्यमानको भवति । पूर्व प्रतिपन्नस्तु भवत्येव । व्यवहारनयमते तु अज्ञानी एवं सामायिकप्रतिपत्ता भवति । प्रतिपत्तिस्तु तस्य सम्यक्त्वश्रुतेति सामायिकद्वयस्यैव भवति । पूर्वप्रतिपन्नकस्तु चतुर्णामपि भवति । ज्ञानभेदमाश्रित्य तु मतिश्रुतज्ञानवान् सम्यक्त्वत सामायिकद्वयं युगपत्प्रतिपद्यमानो भवति । देशविरतिसर्व' विरतिसामायिकद्वयस्य तु भजनया प्रतिपद्यमानो भवति । पूर्वप्रतिपन्नस्तु चतुर्णामध्यस्येव अवधिज्ञानी तु सम्यक्त्वश्रुतसामायिकयो देश विरतिसामायिकस्य च न पति
तथा - ज्ञान को आश्रित करके कहां कौन सामायिक होता है ? यह भी कहना चाहिये - जैसे सामान्यरूप से ज्ञान को आश्रितकर निश्चयनय के मतानुसार ज्ञानी जीव चारों भी सामायिकों का प्रतिपद्य - मानक होता है। तथा यह पूर्वप्रतिपन्नक तो होता ही है । व्यवहारनय के मतानुसार जो जीव अज्ञानी होता है, उसी को सम्यक्त्व सामाfuक और श्रुतसामायिक इन दो की ही प्रतिपत्ति होती है। तथा चारों का भी पूर्वप्रतिपन्नक तो ज्ञानी होता ही है। ज्ञान के भेद को आश्रित करके मतिज्ञान और श्रुत ज्ञानवाला जीव एक ही साथ सम्यक्त्व - सामायिक और सामायिक को प्राप्त करनेवाला होता है । तथा देशविर तिसामायिक और सर्वविरतिसामायिक का वह भजना से प्रतिपद्यमान होता है । एवं चारों सामायिकों का यह पूर्वप्रतिपन्नक तो होता ही है। अवधिज्ञानी सम्यक्त्व सामायिक श्रुतसामायिक और
તથા:-જ્ઞાનને આશ્રિત કરીને કયાં કયું સામાયિક હોય છે ? આ વિષે પણ કહેવુ જોઇએ. જેમ સામાન્ય રૂપથી આશ્રિત કરીને નિશ્ચયનયના મત મુજબ નાની જીવચારે ચાર સામાયિકોના પ્રતિપદ્યમાનક હાય છે. તથા તે પૂર્વ પ્રતિપન્નક તા હાય જ છે. વ્યવહારનયના મત મુજખ જે જીવ અજ્ઞાની હાય છે, તેને જ સમ્યક્ત્વ સામાયિક અને શ્રુત સામાયિક એ બન્નેની જ પ્રતિપત્તિ થાય છે, તેમ જ ચારેચારના પૂર્વ પ્રતિપન્નક તે જ્ઞાની હાય જ છે, જ્ઞાનના ભેદને આશ્રિત કરીને મતિજ્ઞાન અને શ્રુતજ્ઞાનવાળા જીવ એકીસાથે સમ્યક્ત્વ સામાયિક અન શ્રુત સામાયિકને પ્રાપ્ત કરનાર હાય છે. તેમ જ દેશવરતિ સામાયિક અને સવિરતિ સામાયિકને તે ભજનાથી પ્રતિપદ્યમાન હાય છે. અને ચારેચાર સામાયિકાના આ પૂÖપ્રનિપન્નક હાય
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अनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र २४८ अनुगमनामानुयोगद्वारनिरूपणम् ८२५ पद्यमानको भवति, सर्वविरतिसामायिकस्य प्रतिपत्ता तु भवत्येव । पूर्वप्रतिपन्नस्तु सर्वेषामपि सामायिकानां भवति। मनःपर्ययज्ञानी तु देशविरतिरहितस्य सामायिक त्रयस्य पूर्वपतिपत्रक एव भवति, न तु पतिपद्यमानकः । भवस्थ केवली तु सम्यक्त्वचारित्रसामायिकयोः पूर्वप्रतिपन्न एव भवति, न तु प्रतिपद्यमानक इति ॥१८॥ ____ तथा-मनोवाकायलक्षणं त्रिविधमपि योगमाश्रित्य क्व किं सामायिकं भवतीति वक्तव्यम् । यथा-ओघतस्त्रिविधमपि योगमाश्रिता जीवा विवक्षिते काले चतुर्णामपि सामायिकानां प्रतिपद्यमानका भवन्ति, पूर्वपतिपन्नास्तु सन्त्येव । विभा. गतस्तु-औदारिककाययुक्ते योगत्रये चतुर्णामपि सामायिकानां प्रतिपद्यमानकाः देशविरति सामायिक इन तीन सामायिकों का प्रतिपत्तो नहीं होता है। किन्तु सर्वविरति सामायिक का ते। यह प्रतिपत्तो हो सकता है। तथा यह चारों सामायिकों का पूर्व प्रतिपन्नक तो होता ही है। मनः पर्ययज्ञानी जो है, वह देशविरति सामायिक को छोडकर तीन सामा. यिकों का पूर्वप्रतिपन्नक होता है-प्रतिपद्यमानक नहीं होता। जो भवस्थ केवली हैं वे सम्यक्त्व सामायिक और चारित्रसामायिक के पूर्व प्रति. पन्नक ही होते है। प्रतिपद्यमानक नहीं होते ॥ १८ ॥ ___ तथा-मन, वचन और काय इन तीन योगों को आश्रित करके 'कहां कौन सामायिक होता है ? यह भी कहना चाहिये-जैसे-सामान्य रूप से तीन योगों को लेकर जीव विवक्षित समय में चारों भी सामा. यिकों के प्रतिपत्ता हो सकते हैं। तथा इनके-चारों के तो-ये पूर्वप्रतिपन्नक होते ही हैं। विभाग की अपेक्षा विचार करने पर-औदा. છે. અવધિજ્ઞાની સમ્યફ સામાયિક, શ્રત સામાયિક અને દેશવિરતિ સામાયિક આ ત્રણ સામાયિકને તે તે પ્રતિપત્તા હેતું નથી. પરંતુ સર્વવિરતિ સામાયિકનો તે એ પ્રતિપત્તા થઈ શકે છે. તથા આ ચારેચાર સામાયિકોને પૂર્વ પ્રતિપન્નક તે હોય જ છે. મન:પર્યયજ્ઞાની જે છે તે દેશવિરતિ સામાયિકને છોડીને ત્રણ સામાયિકને પૂર્વ પ્રતિપનક હોય છે, પ્રતિપદ્યમાનક હેતું નથી. જે ભવસ્થ કેવલી છે તે સમ્યક્ત્વ સામાયિક અને ચારિત્ર સામાયિકના પૂર્વ પ્રતિપન્નક જ હોય છે, પ્રતિપદ્યમાનક હોતા નથી. ૧૮
તથા -મન, વચન અને કાય આ ત્રણ વેગેને આશ્રિત કરીને “ક્યાં કયું સામાયિક હોય છે? આ વિષે પણ કહેવું જોઈએ, જેમ-સામાન્ય રૂપથી ત્રણ ગાને લઈને જીવ વિવક્ષિત સમયમાં ચારે ચાર સામાયિકને પ્રતિપત્તા થઈ શકે છે, તથા એમના ચારેચારને તે એ પૂર્વ પ્રતિપનક હોય જ છે.
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अनुयोगद्वारसूत्रे पूर्वप्रतिपनकाश्च भवन्ति। वैक्रियशरीरयुक्ते योगत्रये सम्यक्त्वश्रुतसामायिकयो प्रतिपत्तारो भवन्ति, पूर्वप्रतिपन्नकास्तु चतुर्णामपि सामायिकानाम् । आहारक शरीरयुक्ते तु योगत्रये देशविरतिरहितस्य सामायिकत्रयस्य पूर्वपतिपत्रका भवन्ति । तैजसकार्मणशरीरयोगे एव केवलेऽपान्तरालगतावाधसामायिकद्वयस्य पूर्वपति. पनका भवन्ति । केवलिसमुद्घाते तु सम्पक्स्वचारित्रसामायिकयोः पूर्वप्रतिपन्नका भवन्ति । केवले मनोयोगे-केवले वाग्योगे चन किमपि सामायिकं भवति, केवलस्य मनोयोगस्य वाग्योगस्य चाभावात् । कायवाग्योगद्वये तु द्वीन्द्रियादिपूत्पन्नमात्रस्य सास्वादनस्य सम्यक्त्वश्रुतेति सामायिकद्वयं पूर्वप्रतिमन्नं भवतीति ॥ १९॥ रिककाययुक्तयोगत्रप में वर्तमान जीव सम्यक्त्वसामायिक और श्रुतसामायिक के प्रतिपत्ता हो सकते हैं, तथा चारों भी सामायिकों के ये पूर्व प्रतिपन्नक होते ही हैं । आहारक शरीर युक्त योगत्रय में वर्तमान जीव देशविरति सामायिक को छोडकर अवशिष्ट तीन सामायिकों के पूर्वप्रतिपन्नक होते ही हैं। केवल तैजस कार्मणशरीरयुक्त कार्मणकाय योग में ही वर्तमान जीव अपान्तराल गति में आदि के दो सामायिकों के पूर्व प्रतिपन्नक ही हो सकते हैं तथा केवलि समुद्घात में तो जीव सम्यक्त्व, और चारित्र इन दो सामायिकों के पूर्व प्रतिपन्नक होते ही हैं। केवल मनोयोग में और केवल धाग्योग में कोई भी सामायिक नहीं होता क्यों कि न तो केवल पाग्योग होता है और न केवल मनायोग होता है काययोग વિભાગની અપેક્ષાએ વિચાર કરવાથી-દારિક કાયયુક્ત યે ગવયમાં વર્તમાન
જીવ ચારેચાર સામાયિકના પ્રતિપદ્યમાનક હોઈ શકે છે, અને પૂર્વ પ્રતિપન્નક તે હોય જ છે. વૈક્રિય શરીર યુક્ત ગત્રયમાં વર્તમાન જી સમ્યક્ત્વસામાયિક અને શ્રત સામાયિકના પ્રતિપત્તા થઈ શકે છે, તથા શારે ચાર સામાયિકેના એ પૂર્વ પ્રતિપન્નક હોય જ છે. આહારક શરીર યુક્ત ગત્રયમાં વર્તમાન જીવ દેશવિરતિ સામાયિક સિવાય અવશિષ્ટ ત્રણ સામાયિકને પૂર્વ પ્રતિપન્નક હોય જ છે. ફક્ત તેજસ કામણ શરીર યુક્ત કાર્પણ કાર્ય યોગમાં જ વર્તમાન જીવ અપાન્તરાલ ગતિમાં આદિના બે સામાયિકના પૂર્વ પ્રતિપન્નક જ થઈ શકે તેમ છે. તથા કેવલિ સમુઘાતમાં તે જીવ સમ્યક્ત્વ અને ચારિત્ર આ બે સામાયિકના પૂર્વ પ્રતિપન્નક હોય જ છે. કેવલ મનેથિગમાં અને કેવલ વાગમાં કોઈપણ સામાયિક હેતું નથી કેમ કે ન તે ફક્ત વાગ હેાય છે અને ન ફક્ત મનેયેગ હોય છે. કાયોગ અને
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अनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र २४८ अनुगमनामानुयोगद्वारनिरूपणम् ८३१
तया-उपयोगमाश्रित्य क्व किं सामायिकं भवतीति वक्तव्यम् । यथा-साका. रानाकार भेदेन भेदद्वयविशिष्टे उपयोगे चतुर्णामपि सामायिकानां प्रतिपद्यमानका भवन्ति, पूर्वपतिपन्नकास्तु सन्त्येवेति ॥२०॥
तथा-शरीरमधिकृत्य का किं सामायिकं भवतीत्यपि वक्तव्यम् । यथाऔदारिकशरीरे चतुर्णामपि सामायिकानां प्रतिपद्यमानकाः पूर्वमतिपन्नकाश्च भवन्ति । क्रियशरीरे सम्यक्त्वश्रुतसामायिकयोः प्रतिपद्यमानका भाज्याः । देशविरतिसर्वविरतिसामायिकयोः प्रतिपद्यमानका देवनारकाः नैव संभवन्ति । और वाग्योग इन दो योग में वर्तमान सास्वादन जीव के कि जो धीन्द्रिय आदिकों में उत्पन्न हो गया है, सम्यक्त्वसामाधिक और श्रुतसामायिक ये दो सामायिक पूर्वप्रतिपन्न हो सकते है ।१९।
तथा-उपयोग को आश्रित करके कहां कौन सामायिक होता है ? यह भी कहना चाहिये। जैसे साकार उपयोग और अनाकारउपयोग इन दो उपयोगों में चारों भी सामायिकों-के प्रतिपद्यमानकजीव हो सकते हैं । तथा इनके जो पूर्वप्रतिपन्नक जीव होते हैं वे तो यहां होते ही हैं ॥ २०॥
तथा-शरीर को आश्रित करके कहां कौन सामायिक होता है ? यह भी कहना चाहिये। जैसे-औदोरिक शरीर में चारों भी सामा. यिकों के प्रतिपद्यमानक जीव हो सकते हैं और पूर्व प्रतिपन्नक जीव होते ही हैं। वैक्रिय शरीर में सम्यक्त्वसामायिक और श्रुतसामा. यिक इन दो सामायिकों के प्रतिपद्यमानक जीव भाज्य होते हैं । किन्तु વાગ આ બે ગેમાં વર્તમાન સારવાદન જીવને કે જે દ્વીન્દ્રિય આદિમાં ઉત્પન્ન થઈ ગયેલ છે, સમ્યક્ત્વ સામાયિક અને શ્રુત સામાયિક એ બે સામાયિક પૂર્વ પ્રતિપનક થઈ શકે છે. એના
તથા–ઉપગને આશ્રિત કરીને કયાં કયું સામાયિક હોય છે? આ વિષે પણ કહેવું જોઈએ. જેમ સાકાર ઉપગ અને અનાકાર ઉપગ આ ઉપગમાં ચારેચાર સામાયિકના પ્રતિપદ્યમાનક જીવ થઈ શકે છે. તથા એમના જે પૂર્વ પ્રતિપન્નક જ હોય છે, તેઓ તે અહીં હોય જ છે. ૨
તથા–શરીરને આશ્રિત કરી કયાં કયું સામાયિક હોય છે? આ વિષે પણ કહેવું જોઈએ. જેમ ઔદારિક શરીરમાં ચારેચાર સામાયિકાના પ્રતિપદ્યમાનક જ હોઈ શકે છે. અને પૂર્વ પ્રતિપનક જ હોય જ છે, વૈક્રિય શરીરમાં સમ્યક્ત્વ સામાયિક અને શ્રત સામાયિક આ બે સામાયિકના પ્રતિ
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मनुयोगद्वारसूत्रे वैक्रियशरीरधारिणस्तियश्चो मनुष्या अपि न तयो देशविरतिसर्वविरतिसामायिकयोः प्रतिषधमानका भवन्ति, विक्रियामवृत्तत्वेन तेषां प्रमत्तत्वात् । पूर्वप्रतिपन्नकास्तु चतुर्णामपि सामायिकानां वैक्रियशरीरधारिणो भवन्त्येव । आहारकशरीरिणस्तु देशविरतिरहितस्य सामायिकत्रयस्य पूर्वप्रतिपन्नका भवन्ति । तैजसकामणशरीरिणस्तु सम्यक्त्वश्रुतसामायिकयोः पूर्व प्रतिपन्नका भवन्तीति ॥२१॥
तथा-समचतुरस्रन्यग्रोधपरिमण्डलादिषड्विधं संस्थानमाश्रित्य क्व किं सामायिकं भवतीति वक्तव्यम् । यथा-सर्वेष्वपि संस्थानेषु चतुर्णामपि सामायिकानां प्रतिपद्यमानका भवन्ति, पूर्व प्रतिपन्नकास्तु सन्त्येवेति ॥२२॥ पूर्व प्रतिपन्नक तो होते ही हैं । तथा देशविरति और सर्वविरति इन दो सोमायिकों के देव और नारकी प्रतिपत्ता नहीं होते हैं। वैक्रिय शरीरधारी जो तिर्यश्च एवं मनुष्य होते हैं वे भी देशविरति सामायिक और सर्वविरति सामायिक के प्रतिपत्ता नहीं होते हैं । क्योंकि विक्रिया में प्रवृत्त होने के कारण उनमें प्रमत्सता आ जाती है। तथा पूर्व प्रतिपन्नक तो चारों भी सामायिकों के वैक्रियशरीरधारी होते हैं। जो आहारक शरीरधारी होते हैं, वे देशविरतिसामायिक को छोडकर बाकी के तीन सामायिकों के पूर्व प्रतिपन्नक होते ही हैं। तैजस और कार्मणशरीरधारी जीव सम्यक्त्वसामायिक और श्रुत सामायिक इन दो सामायिकों के पूर्व प्रतिपन्नक हो सकते हैं ।२१॥
तथा-समचतुस्रन्यग्रोधपरिमंडल आदि छह प्रकार के संस्थान को आश्रित करके 'कहां कौन सामायिक होता है ? यह भी कहना પદ્યમાનક જીવો ભાજ્ય હોય છે, પરંતુ પૂર્વ પ્રતિપનક તે હોય જ છે. તથા દેશવિરતિ અને સર્વવિરતિ આ બે સામાયિકોના દેવ અને નારકી પ્રતિજ્ઞા હેતા નથી. વૈકિય શરીરધારી જે તિર્યંચ અને મનુષ્ય હોય છે, તેઓ પણ દેશવિરતિ સામાયિકના પ્રતિપત્તા હોતા નથી. કેમ કે વિકિયામાં પ્રવૃત્ત હેવા બદલ તેમાં પ્રમત્તતા આવી જાય છે. તથા પૂર્વ પ્રતિપનક તે ચારેચાર સામાયિકના વૈકિય શરીરધારી હોય જ છે. જે આહારક શરીરધારી હોય છે, તે દેશવિરતિ સામાયિક સિવાય શેષ ત્રણ સામાયિકના પૂર્વ પ્રતિનિક હાય જ છે. તેજસ અને કામણ શરીરધારી જીવ સમ્યક્ત્વ સામાયિક અને શ્રત સામાયિક આ બે સામાયિકના પૂર્વ પ્રતિપનક જ હોય છે. ૨૧
તથા–સમચતુરન્સ ગ્રોધ પરિમંડલ વગેરે ૬ પ્રકારના સંસ્થાનને આશ્રિત કરીને “કયાં કયું સામાયિક હોય છે? આ વિષે પણ કહેવું જોઈએ
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अनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र २४८ अनुगमनामानुयोगदारनिरूपणम् ८३३
तथा-वऋषभनाराचादिभेदेन षविधं संहननम् अस्थिसंचयविशेषमाश्रित्य का कि सामायिकं भवतीति वक्तव्यम् । यथा-सर्वेष्वपि संहननेषु चतुर्णामपि सामायिकानां पतिपद्यमानका पूर्व प्रतिपन्नकाश्च भवन्तीति ॥२३॥
तथा-मान--शरीरस्य प्रमाणम्-अवगाहनामाश्रित्य क्व किं सामायिक भवतीति वक्तव्यम् । यथा-मनुष्यस्योत्कृष्टं शरीरमानं त्रीणि गव्यूतानि, जघन्यमंगुलासंख्येयभागः एतद् द्वयं वर्जयित्वा मध्यमशरीरमाने वर्तमाना मनुष्याश्चतुर्णाचाहिये। जैसे समस्त संस्थानों में चारों प्रकार के भी सामायिकों के प्रतिपद्यमानक जीव हो सकते हैं। तथा जो इनके पूर्वप्रतिपन्नक होते हैं वे तो इनमें रहते ही हैं ।।२२।।
वज्रऋषभनाराच आदि के भेद से संहनन छह प्रकार का होता है। सो अस्थिसंचय विशेषरूप इस संहनन को आश्रित करके कहां कौन सामायिक होता है ? यह भी कहना चाहिये । जैसे-समस्त भी संहननों में चारों भी सामायिकों के प्रतिपत्ता हो सकते हैं और पूर्व प्रतिपन्नक जीव होते ही हैं ॥२३॥
तथा-मान नाम शरीर के प्रमाण का है-इस प्रमाण रूप अवगाहनो का आश्रित करके कहां कौन सामायिक होता है ? यह भी कहना चाहिये-जैसे मनुष्य की उत्कृष्ट अवगाहना भोगभूमिजकी अपेक्षा लेकर तीन कोश की होती है और जघन्य अवगाहना अंगुल જેમ સમસ્ત સંસ્થામાં ચારેચાર પ્રકારની સામાયિકના પ્રતિપદ્યમાનક છે હોઈ શકે છે. તથા જે એમના પૂર્વ પ્રતિપન્નક હોય છે, તેઓ તે એમનામાં રહે છે. મારા
વજsષભ નારાચ વગેરેના ભેદથી સંતનના ૬ પ્રકારો હોય છે. અસ્થિ સંચય વિશેષરૂપ આ સંહનને આશ્રિત કરીને કયાં કયું સામાયિક હોય છે? આ વિષે પણ કહેવું જોઈએ.
જેમસમસ્ત સંહનામાં ચારેચાર સામાયિકેના પ્રતિપત્તા હેઈ શકે છે અને પૂર્વ પ્રતિપન્નક જી હેય જ છે. પરવા
તથા માન, નામ શરીરના પ્રમાણનું છે. આ પ્રમાણરૂપ અવગાહનાને આશ્રિત કરીને કયાં કયું સામાયિક હોય છે? આ વિષે પણ કહેવું જોઈએ જેમ મનુષ્યની ઉત્કૃષ્ટ અવગાહના ભેગભૂમિ જ ની અપેક્ષાએ ત્રણ ગાઉ જેટલી હોય છે. અને જઘન્ય અવગાહના આગળના અસંખ્યાતમાં ભાગ
अ० १०५
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अनुयोगद्वार
मपि सामायिकानां प्रतिपथमानका भवन्ति, पूर्वमतिपन्नकास्तु सन्त्येव । जघन्य शरीरप्रमाणे वर्त्तमाना गर्भजमनुष्याः सम्यक्त्वश्रुतसामायिकयोः पूर्वप्रतिपन्नकाः संभवन्ति, न तु प्रतिपद्यमानकाः । त्रिगब्यूतात्मके उत्कृष्टशरीरप्रमाणे वर्त्तमाना मनुष्यास्तु सम्यक्त्वश्रुत सामायिकयोरपि प्रतिपद्यमानका भवितुम हन्ति पूर्व प्रतिपन्न कास्तु भवन्त्येव जघन्यशरीरप्रमाणा नारकदेवास्तु सम्यक्त्वश्रुतयोः पूर्व प्रतिपन्नकाः संभवन्ति, न तु प्रतिपद्यमानाः मध्यमोत्कृष्टदारी रममाणवन्तो नारकदेवास्तु सम्यक्त्वश्रुत सामायिकयोः प्रतिपद्यमानाः संवन्ति, पूर्व प्रति
के असंख्यातवें भाग प्रमाण होती है। इन दोनों प्रकार के मान को छोडकर मध्यम शरीर मान में वर्तमान मनुष्य चारों भी सामायिकों के प्रतिपद्यमानक हो सकते हैं। तथा जो इन सामायिकों के पूर्वप्रतिपनक मनुष्य होते हैं, वे तो यहां होते ही हैं । जघन्य शरीरमान में वर्त मान गर्भजमनुष्य सम्यक्त्व सामायिक और ताकि इन दो सामायिकों के पूर्वप्रतिपन्नक हो सकते हैं । परन्तु प्रतिपत्ता नहीं हो सकते हैं। तीन कोश की उत्कृष्ट अवगाहनावाले शरीर में वर्तमान मनुष्य सम्यक्त्व सामायिक और श्रुनसामायिक के पूर्व प्रतिपन्नक होते हैं । तथा जघन्यशरीर की अवगाहना में वर्तमान नारक और देव ये सम्यक्त्व और अंत सामायिक के पूर्वप्रतिपन्नक हो सकते हैं । प्रतिपद्यमानक नहीं हो सकते। मध्यम तथा उत्कृष्ट शरीरावगाहना वाले नारक और देव ये सम्यक्त्व और श्रुतसामायिक के प्रतिपत्ता हो सकते
પ્રમાણુ હાય છે. આ બન્ને પ્રકારના માનસિવાય મધ્યમ શરીરમાનમાં વતમાન મનુષ્ય ચારેચાર સામાયિકાના પ્રતિપદ્યમાનક ડાઈ શકે છે. તથા જે આ સામાયિકાના પૂર્વ પ્રતિપન્નક મનુષ્યેા હોય છે, તે તેા અહીં હોય જ છે. જઘન્ય શરીરમાનમાં વર્તમાન ગર્ભજ મનુષ્ય સંસ્કૃત સામાયિક શ્રુત સામાયિક આ એ સામાયિકાના પૂર્વપ્રતિપત્ત્તક હાઈ શકે છે, પરંતુ પ્રતિપત્તા હાઈ શકતા નથી. ત્રણ ગાઉની ઉત્કૃષ્ટ અવગાહનાવાળા શરીરમાં વર્તમાન મનુષ્ય તા સમ્યક્ત્વ સામાયિક અને શ્રુત સામાયિકના પૂર્વીપ્રતિપત્નક હોય છે. તથા જઘન્ય શરીરની અવગાહનામાં વર્તમાન નારક અને દેવ આ સમ્યક્ત્વ અને શ્રુત સામાયિકના પૂર્વપ્રતિપન્નક હાઈ શકે છે. પ્રતિપદ્યમાનક થઈ શકતા નથી. મધ્યમ તથા ઉત્કૃષ્ટ શરીરાવગાહનાવાળા નારક અને દેવ એ સમ્યક્ત્વ અને શ્રુત સામાયિકના પ્રતિપત્તા હાઇ શકે છે, પ્રતિપદ્યમાનક હોઈ શકતા નથી. મધ્યમ તથા ઉત્કૃષ્ટ શરીરાવગાહનાવાળા નારક અને દેવ એ સમ્યકૃત્વ
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अनुयोगवन्द्रिका टोका सूत्र २४८ अनुगमनामानुयोगद्वारनिरूपणम् ८५ पन्नकास्तु सन्त्येव । जघन्यशरीरममाणाः पञ्चेन्द्रियास्तिर्यश्वस्तु सम्यक्त्वश्रुतसामायिकयोः पूर्व मतिपन्नकाः संभवन्ति, न तु प्रतिपद्यमानकाः । षङ्गव्यूतात्मकोस्कृष्टशरीरप्रमाणाः स्थल वरपश्चन्द्रियास्तिर्यश्वस्तु सम्यक्त्वश्रुतसामायिकयोः प्रतिपद्यमानकाः पूर्ण प्रतिपन्नकाश्च भवन्ति । मध्यमशरीरप्रमाणास्तु पञ्चेन्द्रिया. स्तियश्च आघयो ईयोस्त्रयागां वा सामायिकानां प्रतिपद्यमानकाः संभवन्ति, पूर्व प्रतिपन्नकास्तु त्रयाणामपि संत्येवेति ॥२४॥
तथा-कृष्णनीलकापोत तेजः पद्मशुक्ललक्षणाः षडलेश्या आश्रित्य क्व कि सामायिक भवतीति वक्तव्यम् । यया-कृष्णादिकासु सर्वासु द्रव्यलेश्य सु वर्तमाना. नारकजीवाः देवजीया सम्यक्त्वश्रुतसामायिकयोः पतिपद्यमानका भवन्ति । सञ्जिहैं। तथा इनमें इनके पूर्वप्रतिपन्नक जीव तो रहा ही करते हैं। जघन्य शरीरावगाहनावाले पंचेन्द्रियतिर्यश्वसम्यक्त्वसामायिक और श्रुतसामायिक के पूर्वप्रतिपन्नक हो सकते हैं-प्रतिपत्ता नहीं। छह कोश की उत्कृष्ट शरीराबाहनावाले स्थलचर पंचेन्द्रियतियश्चसम्यक्त्व सामायिक और श्रुमसामायिक के प्रतिपत्ता हो सकते हैं और पूर्व प्रतिन्नक होते ही हैं । तथा मध्यमशरीरावगाहनावाले पंचेन्द्रियतियश्च आदि के दो सामायिकों के, अथवा तीन सामायिकों के प्रतिपद्यमानक हो सकते हैं। तथा इन में इन सामायिकों के पूर्वप्रतिपन्नक जीव तो होते ही है।२४॥
तथा-कृष्ण, नील, कापोत, तेजा, पद्म और शुक्ल-इन छह लेश्याओं को आश्रित करके कहां कौन सामायिक होता है ? यह भी कहना चाहिये-जैसे-कृष्णादिरूप समस्त द्रव्यलेश्याओ में वर्तमान नारक और देवजीव सम्यक्त्वसामायिक और श्रुतसामायिक इन અને ધૃતસામાયિકના પ્રતિપત્તા હેઈ શકે છે, તથા આમાં એમના પૂર્વ પ્રતિ પનક તો રહે જ છે. જઘન્ય શરીરવગાહનાવાળા પંચેન્દ્રિય તિર્યંચ સમ્યકુવ સામાયિક અને શ્રત સામાયિકના પૂર્વ પ્રતિપનક હોઈ શકે છે, પ્રતિપત્તા નહીં. ૬ ગાઉની ઉત્કૃષ્ટ શરીરવગાહનાવાળા સ્થલચર પંચેન્દ્રિય, તિર્યંચ સમ્યકુત્વ, સામાયિક અને યુત સામાયિકના પ્રતિપત્તા હોઈ શકે છે, અને પૂર્વ પ્રતિપન્નક હોય જ છે. તથા મધ્યમ શરીરવગાહનાવાળા પંચેન્દ્રિય તિર્યંચ વગેરેના બે સામાયિકોના અથવા ત્રણ સામાયિકોના પ્રતિપદ્યમાનક હોઈ શકે છે. તથા આમાં આ સામાયિકને પૂર્વ પ્રતિપન્નક જ હોય જ છે. ૨૪
तथा-४, नास, पात, तश:. ५५, भने शुभ मा ६ श्यामाने આશ્રિત કરીને કયાં કયું સામાયિક હોય છે? આ વિષે પણ કહેવું જોઈએ. જેમ કૃષ્ણદિરૂપ સમસ્ત દ્રવ્ય વેશ્યાઓમાં વર્તમાન નારક અને દેવ જીવ
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अनुयोगद्वारसूत्र तिर्यश्चः, एवं सब्ज्ञिमनुष्याः तेजःपद्मशुक्लरूपशुभद्रव्यलेश्यात्रये वर्तमानाः सम्यक्त्वश्रुतसामायिकयोः प्रतिपद्यमानका भवन्ति देशविरतिसर्वविरतिसामायिकयोः पतिपधमानकाः तेजःपद्मशुक्ललेश्यास्वेव भवन्ति । न तु कृष्णनीलकापोतलेश्यासु। चतुर्णामपि सामायिकानां पूर्वप्रतिपन्नकाः षट्स्वपि लेश्यासु संभवन्तीति ॥२५॥
तथा-परिणामम् अध्यवसायविशेषमाश्रित्य का किं सामायिक भवतीति वक्तव्यम् । तत्र--शुभशुभतररूपतया परिणामे वर्धमाने सति वर्धमानपरिणामाजीवाश्चतुर्णा सामायिकानां मध्ये सामायिकत्रयं प्रतिपद्यन्ते, देशविरतिसर्वविरतिदो सामाकिकों के प्रतिपत्ता हो सकते हैं। संज्ञी तिर्यश्च एवं संज्ञी मनुष्य तेजः पद्म एवं शुक्ल इन तीन शुभ द्रव्य लेश्याओं में वर्तमान
सम्यक्त्वश्रुतसामायिक के प्रतिपत्ता हो सकते हैं। देशविरतिसामायिक, और सर्वविरतिसामायिक इन दो सामायिकों के कृष्ण नील और कापोत लेश्यावाले प्रतिपत्ता-धारक नहीं होते हैं, क्योंकि दो सामायिकों के प्रतिपत्ता-धारक, तेजः पद्म और शुक्लवाले जीव ही होते हैं। चारों भी सामायिकों के पूर्वप्रतिपन्नक जीव छहों भी लेश्याओं में होते हैं ।२५।।
तथा-परिणाम नाम जीव के अध्यवसाय विशेष का है-सो इस परिणाम नाम को आश्रित करके कहां कौन सामायिक होता है ? यह भी कहना चाहिये-जब परिणाम शुभशुभतररूप से घढता है-तष उस वर्धमान परिणामवाले जीव चारों सामायिकों के बीच में तीन સમ્યકત્વ સામાયિક અને શ્રુતસામાયિક આ બે સામાયિકના પ્રતિપત્તા હે શકે છે. સંજ્ઞી તિય અને સંજ્ઞી મનુષ્ય તેજ:પદ્ધ અને શુકલ આ ત્રણ શુભ દ્રવ્યલેશ્યાઓમાં વર્તમાન સમ્યક્ત્વ તથા શ્રત સામાયિકના પ્રતિપરા હોઈ શકે છે. દેશવિરતિ સામાયિક અને સર્વવિરતિ સામાયિક આ બે સામાયિકોના કૃણ, નીલ અને કાપત લેફ્સાવાળા પ્રતિપત્તા ધારક હતા નથી. કેમ કે એ બને સામાયિકના પ્રતિપત્તાધારક, તેજઃ પદ્મ અને શુકલેશ્યાવાળા જ હોય છે. ચારેચારે સામાયિકના પૂર્વ પ્રતિપન્નક જીવ છએ લેસ્યાઓમાં હોઈ શકે છે. પરંપરા - તથા--પરિણામ નામ જીવના અધ્યવસાય વિશેષનું છે. આ પરિણામને આશ્રિત કરીને ક્યાં કયું સામાયિક હોય છે? આ વિષે પણ કહેવું જોઈએ. જ્યારે પરિણામ શુભ, શુભતરરૂપથી વૃદ્ધિ પામે છે, ત્યારે તે વર્ધમાન પરિ.
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अनुयोगन्द्रिका टीका सूत्र २४८ अनुगमनामानुयोगद्वारनिरूपणम् ८३७ सामायिकयोरेकत्रासंभवात् । एवमेवान्तरकरणादाववस्थितेऽपि शुभे परिणामे जीवाश्चतुर्णा सामायिकानां मध्ये सामायिकत्रयं प्रतिपद्यन्ते । क्षीयमाणे तु शुभे परिणामे न किमपि सामायिक प्रतिपद्यन्ते, संक्लिष्टत्वात् । पूर्वप्रतिपन्नकास्तु विष्वपि परिणामेषु वर्तन्ते एवेति ॥२६॥
तथा-साताऽसातरूपां वेदनामधिकृत्य क्व किं सामायिकं भवतीति वक्तव्यम् । यथा-साताऽसातरूपायां द्विविधायां वेदनायां वर्तमाना जीवाश्चतुर्णा सामायिकासामायिकों के प्रतिपत्ता-धारक होते हैं। क्योंकि देशविरतिसामा. यिक और सर्वविरति सामायिक इन दो सामायिकों का युगपत् एकत्र अवस्थान होता नहीं है । इसी प्रकार जीवों का शुभ परिणाम जब अन्तःकरण आदि में अवस्थित होता है उस अवस्थित परिणाम के समय जीव चारों सामायिकों के प्रतिपत्ता होते हैं । जप शुभपरिणामहीयमान होते है तब किसी भी सामायिक के प्रतिपत्ता-धारक नहीं होते हैं। क्योंकि उस समय संक्लिष्ट परिणाम रहा हैं इन सामायिकों के जो पूर्वप्रतिपन्नक होते हैं वे तो इन तीनों भी परिणामों में मौजूद रहा करते हैं । २६।
तथा-साता असातारूप वेदना को आश्रित करके कहां कौन सामा. यिक होता है ? यह भी कहना चाहिये जैसे साता असातारूप दोनों प्रकार की वेदना में वर्तमान-जीव चारों सामायिकों में से किसी एक ણામવાળા જીવે ચારેચાર સામાયિકોની વચ્ચે ત્રણ સામાયિકના પ્રતિપત્તા ધારક હોય છે કેમ કે દેશવિરતિ સામાયિક અને સર્વવિરતિ સામાયિક એ બે સામાયિકેનું યુગપત્ એકત્ર અવસ્થાન હોતું નથી. આ પ્રમાણે જેના પરિણામ જ્યારે અન્તઃકરણ આદિમાં અવસ્થિત હોય છે, તે અવસ્થિત પરિ. @ામના જ ચારેચાર સામાયિકના પ્રતિપત્તા હોય છે. જ્યારે શુભ પરિણામ હીયમાન હોય છે ત્યારે કોઈપણ સામાયિકના તે પ્રતિપત્તા ધારક હતા નથી. કેમ કે તે વખતે સંકિલષ્ટ પરિણામે રહ્યા કરે છે. આ સામાયિકના જે પૂર્વ પ્રતિનિકે હોય છે, તેઓ તે આ ત્રણે પરિણામોમાં વિદ્યમાન રહે છે. મારા
તથા--સાતા અસાતારૂપ વેદનાને આશ્રિત કરીને કયાં કયું સામાયિક હોય છે? આ વિષે પણ કહેવું જોઈએ. જેમ સાતા અસાતારૂપ બને પ્રકારની વેદનામાં વર્તમાન જી ચારે સામાયિકમાંથી કોઈ એક સામાયિકના
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अनुयोगद्वारस्त्रे नामन्यतमत् सामायिक प्रतिपद्यन्ते, पूर्वपतिपन्नका अपि चतुर्णा सामायिकानां संभवन्तीति ॥२७॥
तथा-समुद्घातकर्माश्रित्य क्व किं सामायिक भवतीति वक्तव्यम् । यथा-सम् =एकी मावेन, उत्पाबल्येन वेदनाकपायाधनुभवपरिणामेन सहकीभावमापन्नस्य जीवस्य वेदनीयादिकर्मपुद्गलानां हननं-समुद्घातः । स च-केवलि समुद्घातकषायसमुद्घात-मरणसमुद्धात-वेदनासमुद्घातवैक्रियसमुद्रात -तैनससमुद्घाता. हारकसमुद्घातभेदेन सप्तविधः । उक्तंच
'केवलिकसायमरणा, वेयणवेउवितेय आहारे ।
सत्तविह समुग्घाओ, पन्नत्तो वीयरागेहि ॥१॥ सामायिक के प्रतिपत्ता-धारक होते हैं । यहां पूर्वप्रतिपन्नक भी चारों सामायिकों के हो सकते हैं । २७॥
तथा-समुद्घातकर्म को आश्रित करके कहां कौन सामायिक होता है ? यह भी कहना चाहिये-वेदनाकषाय आदि के अनुभवरूप परि. णाम के साथ एक भाव को प्राप्त हुए जीव के द्वारा जो वेदनीयादि कर्मपुद्गलों का हनन होता है उसका नाम समुद्घात है । तात्पर्य इसका यह है कि मूल शरीर को न छोड कर वेदनादिकारणों के उपस्थित होने पर आत्मा के कुछ प्रदेशों बाहर निकालना इसका नाम समुद्घात है। यह समुद्घात केवलि समुद्रात, कषाय समुद्घात, मारणान्तिकसमु. द्घात, वेदनासमुद्घान, वैक्रिय समुद्घात, तेजस समुद्घात और आहारकसमुद्घात के भेद से सात प्रकार का होता है । ये सात प्रकार ही 'उक्तंच करके' केवलि कसायः' इत्यादि गाथा द्वारा कहे गये हैं। પ્રતિપત્તા-ધારક હોય છે. અહીં પૂર્વ પતિપન્નક પણ ચારેચાર સામાયિકના સંભવી શકે છે. રા
તથા--સમુદુઘાત કર્મને આશ્રિત કરીને કયાં કયું સામાયિક હોય છે? આ વિષે પણ કહેવું જોઈએ. વેદના કષાય આદિના અનુભવરૂપ પરિણામની સામે એક ભવને પ્રાપ્ત થયેલ છવ વડે જે વેદનીય વગેરે કર્મ પુદ્ગલેનું હનન હોય છે, તેનું નામ સમૃદુઘાત છે. તાત્પર્ય આનું આ પ્રમાણે છે કે મૂલ શરીરને ન છેડતાં વેદનાદિ કારણે જ્યારે ઉપસ્થિત થાય છે ત્યારે આત્મા કેટલાક પ્રદેશને બહાર કાઢે છે તેનું નામ સમુદૂઘાત છે. આ સમઘાતના કેવલિ સમુદ્દઘાત, કષાય સમુદ્દઘાત, મરણ સમુદુઘાત, વેદના સમુદુઘાત, વૈક્રિય સમદુઘાત, તેજસ સમુદુઘાત અને આહારક સમુદૂઘાતના ભેદથી સાત પ્રકારો डोय छे. मा सात । " ' यशन' 'केवलिकमाय०' वगेरे साथ
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मनुयोगवन्द्रिका टीका सूत्र २४८ अनुगमनामानुयोग द्वारनिरूपणम् ८३९ छाया-केवलिकषायमरणानि वेदनावैक्रियतेजआहाराः।
सप्तविधः समुद्घातः प्रज्ञप्तो वीतरागैः।। इति । तस्मिन् समुद्घाते एव कर्म-क्रिया-समुद्घातकर्म । तत्र केल्यादिसप्तविधसमु. दघातेन समाहता न किमपि सामायिक प्रतिपद्यन्ते । पूर्वपति पन्नकविषये स्वेवं विज्ञेयम्-केवलिसमुद्घातेन समवहताः सम्यक्त्वचारित्रेति सामायिकद्वयस्य पूर्वपतिपन्तका भवन्ति । आहारकसयुद्घातसमवहता देशविरतिरहितसामा• यिकत्रयस्य पूर्वपतिपन्नका भवन्ति । शेष समुद्घातसमबहतास्तु देशविरतिरहितसामायिकत्रयस्य सचिरविरहितसामायिकत्रयस्य वा पूर्वप्रतिपन्नका भवन्ति । एभिः सप्तभिः समुद्घातैरसमवहतास्तु चतुर्णामपि सामायिकानां प्रतिपद्यमानका पूर्वप्रतिपन्नकाश्च भवन्तीति ॥२८॥ इन सात प्रकार के समुद्घात कर्म से जो जीव समवहत होते हैंअर्थात् जो जीव इन मात प्रकार के समुद्रातों को करते हैं वे जीव किसी भी सामायिक के प्रतिपत्ताधारक नहीं होते हैं पूर्वप्रतिपन्नक जीवों के विषय में इस प्रकार जानना चाहिये-जा केवलिस मुद्घात करते हैं वे सम्यक्त्वसामायिक और चारित्रसामायिक के पूर्वप्रति पन्नक होते हैं। जो आहारकसमुद्घात करते हैं, वे देशविरति सामायिक को छोडकर अवशिष्ट तीन सामायिकों के पूर्वप्रतिपन्नक होते हैं। इन दो समुद्घातों के अतिरिक्त जो पांच समुद्घातों से समयहत होते हैं, ऐसे जीव देशविरतिसामायिक से रहित तीन सामा यिकों के अथवा सर्वविरतिसामायिक से रहित तीन सामायिकों के पूर्वप्रतिपन्नक होते हैं । जो इन सात समुद्घातों से असमवहत होते हैं, वे जीव तो चारों भी सामायिकों के प्रतिपद्यमानक और पूर्वप्रति. न्नक होते है ।२८। વડે કહેવામાં આવ્યા છે. આ સાત પ્રકારના સમુદુઘાત કર્મથી જે જે આ સાત પ્રકારના સમુદ્રઘાતોને કરે છે, તે જીવે કઈ પણું સામાયિકના પ્રતિપત્તાધારક હોતા નથી. પૂર્વ પ્રતિપન્નક જીવોના સંબંધમાં આ રીતે જાણવું જોઈએ. જે કેવલિ સમુદઘાત કરે છે, તે સમ્યક્ત્વ સામાયિક અને ચારિત્રસામાયિકના પૂર્વ પ્રતિપન્ન હોય છે. જે આહારક સમુંદુઘાત કરે છે, તે દેશ વિરતિ સામાયિક સિવાય અવશિષ્ટ ત્રણ સામાયિકોના પૂર્વ પ્રતિપન્નક હોય છે. આ બે સમુદઘાતે સિવાય જે પાંચ સમુદ્દઘાતે વડે સમવહત હેય છે, એવા જીવ દેશવિરતિ સામાયિકથી અથવા સર્વવિરતિ સામાયિકથી રહિત ત્રણ સામયિકના પૂર્વ પ્રતિપનક હોય છે. જે આ સાત સમુદુઘાતેથી અસમવહત હોય છે તેવા છે તે ચારે પ્રકારના સામાયિકોના પ્રતિપમાનક અને પૂર્વ પ્રતિપન્નક હોય છે. ૨૮
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अनुयोगद्वारसूत्रे तथा-द्रव्यतः सामान्येन सर्वकर्मदलिकानां, विशेषेण तु चतुर्विधसामायिकावरणरूपज्ञानावरण मोहनीयकर्मदलिकानां निर्वेष्टनं निर्जरणं, भावतस्तु क्रोधाधध्यवसायानां निर्वेष्टन-निर्जरणं चाश्रित्य का कि सामायिकं भवतीति वक्तव्यम्। यथा-द्रव्यतः सामान्येन सर्व कर्मदलिकानां निर्वेष्टने, विशेषेण चतुर्विधसामा यिकावरणरूप ज्ञानावरणमोहनीयकर्मदलिकानां निर्वेष्टने, भावतस्तु क्रोधाद्यध्यवसायानां निजीणे वर्तमाना जीवाश्चतु) सामायिकानां मध्येऽन्यतमत सामा. यिक प्रतिपद्यन्ते, पूर्व प्रतिपन्नकास्तु सन्त्येवेति । २९॥
तथा-उद्वर्तनमाश्रित्य का कि सामायिक भवतीति वक्तव्यम् । यथा नरका
तथा-निर्वेष्टन-निजरा-प्रा की अपेक्षा से-सामान्यतः समस्त. कर्म दलिकों की, और विशेषरूप से चारो प्रकार के सामायिक को आवरणकरनेवाले ज्ञानावरण और मोहनीय कर्म के दलिकों की निर्जरा को आश्रित करके तथा भाव की अपेक्षा से-क्रोधादिक भाव कर्मों की निर्जरा को आश्रित करके कहां कौन सामायिक होता है ? यह भी कहना चाहिये-जैसे सामान्यतः सर्व कर्म दलिकों की निर्जरा में, विशेषतः चारों प्रकार के सामायिक को आवृत करनेवाले ज्ञानावरण और मोहनीय कर्म के दलिकों कि निर्जरा में, तथा भावकर्मरूप क्रोधादिक अध्यवसायों की निजरा में वर्तमान जीव चारों भी सामायिकों के बीच में से किसी एक सामायिक के प्रतिपत्ता-धारक हो सकते हैं। तथा पूर्वप्रतिपन्नक जीव तो यहां होते ही हैं ॥ २९॥ तथा-उद्वर्त को आश्रित करके कहां कौन सामायिक होता है ?
तथ:--निवेष्टन-नि। द्र०यनी अपेक्षा सामान्यत: समस्त भ.. દલિકોની અને વિશેષ રૂપથી ચાર પ્રકારના સામાયિકને આવરણ કરનારા જ્ઞાનાવરણ અને મેહનીય કર્મના દલિકેની નિર્જરાને આશ્રિત કરીને તથા ભાવની અપેક્ષાએ ક્રોધાદિક ભાવકની નિર્જરને આશ્રિત કરીને કયાં કયું સામાયિક હોય છે? આ વિષે પણ કહેવું જોઈએ. જેમ સામાન્યતઃ સર્વ કર્મ દલિકાની નિજેરામાં, વિશેષતઃ ચારે પ્રકારના સામાયિકને આવૃત્ત કરનારા જ્ઞાનાવરણ અને મોહનીય કર્મના દલિકની નિર્જરામાં, તથા ભાવકમરૂપ કેધાદિક અધ્યવસાયની નિર્જરામાં વર્તમાન જી ચારેચાર સામાયિકોમાંથી કઈ એક સામાયિકના પ્રતિપત્તાધારક હોઈ શકે છે. તથા પૂર્વ પ્રતિક છે. તે અહી સંભવી શકે છે. ૨૯
તથા ઉદ્દવૃતને આશ્રિત કરીને કયાં કયું સામાયિક હોય છે? આ વિષે
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अनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र २४८ अनुगमनामानुयोगद्वारनिरूपणम् ८४१ दुवृत्तः कदाचित्तियक्षुत्पन्नः सर्व विरतिसामायिकरहितं सामायिकत्रयं प्रतिपद्यते, कदाचित्तु मनुष्ये त्पन्नश्चत्वार्यपि सामायिकानि प्रतिपद्यते । पूर्वपतिपन्नस्तु सम्यक्त्वश्रुतेति सामायिकद्वयस्यैव । तियंग्मतेरुद्वत्तो मनुष्यादिषूत्पन्नः कदाचिच्चतुष्टयं, कदाचित्त्रयं, कदाचिद्वयं वा सामायिकं प्रतिपद्यते । पूर्वपतिपभकस्तु सामायिकत्रयस्य । मनुष्येभ्य उद्वृत्तो देवनारकेषु समुत्पन्न आधसामा. यिकद्वयस्य प्रतिपद्यमानको भवति, पूर्वपतिपन्नश्च सामायिकचतुष्टयस्य, तिर्यक्षुयह भी कहना चाहिये-जैसे नरक से उद्धृत्त-निकला हुआ-जीव यदि कदाचित् तिर्यश्चों में उत्पन्न हो जाता है, तो वह सर्वविरति सामा. यिक को छोडकर तीन सामायिकों का प्रपिसा-धारक हो सकता है। यदि कदाचित् वह मनुष्यों में उत्पन्न हो जाता है तो वह चारों भी सामायिकों का प्रतिपप्सा हो सकता है। पूर्वप्रतिपन्न वह जीव तो सम्यक्त्वमामायिक और श्रुतसामायिक इन दो का ही होता है। तिर्यश्चगति से निकला हुआ जीव यदि मनुष्य आदिकों में उत्पन्न होता है तो वह कभी चारों, कभी तीन अथवा कदाचित् दो सामायिकों का प्रतिपत्ता हो सकता है । और वह यदि पूर्व प्रतिपन्नक होता है, तो तीन सामायिक का हो सकता है। मनुष्य पर्याय से उद्धृत्त होकर देव और नारकों में उत्पन्न हुआ जीव आदि के दो सामायिकों का प्रतिपत्ता-धारक हो सकता है। तथा यदि वह पूर्व प्रतिपन्नक होतो चार सामायिक का पूर्वपतिन्नक हो सकता है । तिर्यश्चपर्याय में
પણ કહેવું જોઈએ. જેમ નરકથી ઉદુવૃત્ત એટલે કે નિવૃત-જીવજે કદાચિત તિર્યમાં ઉત્પન્ન થાય છે તે સર્વવિરતિ સામાયિકોને છોડીને ત્રણ સામાયિકેના પ્રતિપત્તા-ધારક સંભવી શકે છે. જે કદાચિત તે મનુષ્યોમાં ઉત્પન્ન થઈ જાય છે તે તે ચારેચાર સામાયિકોને પ્રતિપત્તા હોઈ શકે છે. પૂર્વ પ્રતિપન તે જીવ તે સમ્યફવા સામાયિક અને શ્રુત સામાયિક એ બનેને જ હોઈ શકે છે. તિર્યંચગતિથી નિવૃત જીવ જે મનુષ્ય આદિકમાં ઉત્પન્ન થાય છે તે તે કઈ વખતે ચારેચાર, કેઈ વખતે ત્રણ અથવા કદાચિત બે સામાયિકોના પ્રતિપત્તા થઈ શકે છે. અને તે જે પૂર્વ પ્રતિપન્નક હોય છે તે ત્રણ સામાયિકને હોઈ શકે છે. મનુષ્ય પર્યાયથી ઉદૂવૃત થઈને દેવ, અને નારકોમાં ઉત્પન્ન થયેલ છવ વગેરેના બે સામાયિકોને પ્રતિપા-પારક હોઈ શકે છે. તથા જે તે પૂર્વ પ્રતિપન્નક હોય તે ચાર સામાયિકને પૂર્વ પ્રતિપન્નક
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अनुयोगद्वारसूत्रे त्पन्नः सर्वविरतिसामायिकरहितसामायिकत्रयस्य प्रतिपद्यमानको भवति, पूर्वप्रतिपन्नकश्च चतुर्णाम् । मनुष्येषु समुत्पन्नश्चतुर्णा सामायिकानां प्रतिपद्यमानकः पूर्वप्रतिपन्नश्च लभ्यते । देवेभ्य उद्वृत्तस्तियक्षुत्पन्नः सर्वविरतिसामायिकरहित सामायिकत्रयस्य प्रतिपद्यमानको भवति, पूर्व प्रतिपन्नकश्च सामायिकद्वयस्य, मनुष्येत्पन्नः सामायिकचतुष्टयस्य पतिपद्यमानको भवति, पूर्वमतिपन्नकस्तु सामायिकद्वयस्येति ॥३०॥
तथा-आस्रवकरणं = सम्यक्त्वादिसामायिकावारकमिथ्यात्वमोहनीयादिकं उत्पन्न यदि वह हो तो सर्वविरति सामायिक को छोडकर तीन सामा यिक का यह प्रतिपत्ता हो सकता है । तथा यदि वह पूर्वप्रतिपन्नक हो तो चार सामायिक का पूर्वप्रतिपन्नक हो सकता है। यदि मनुष्यपर्याय से उवृत्त होकर मनुष्यपर्याय में उत्पन्न हुआ हो तो चारों सामायिकों का प्रतिपता हो सकता है और चारों ही सामायिको का पूर्वप्रति. पन्नक होता है। देवपर्याय से उवृत्त होकर तिर्यञ्चपर्याय में उत्पन्न हुआ जीव सर्वविरतिसामायिक को छोड़कर तीन सामा. यिक का वह प्रतिपत्ता हो सकता है, और वह यदि पूर्वप्रतिपन्नक हो तो दो सामायिक का पूर्वप्रतिन्नक होता है। यदि वह मनुष्य पर्याय में उत्पन्न हुआ होतो वह चारों मामायिकों का प्रतिपत्ता हो सकता है और यदि वह पूर्वप्रतिपन्न हो तो दो सामायिको का पूर्वप्रतिपन्नक हो सकता है ॥ ३० ॥
आस्रवकरण-सम्यक्त्व आदि चार सामायिक के आवारक (आच्छाહોઈ શકે છે. તિર્યંચપર્યાયમાં જે તે ઉત્પન્ન થાય તે સર્વવિરતિ સામાયિકને ત્યજીને ત્રણ સામાયિકને તે પ્રતિપત્તા હોઈ શકે છે, તેમજ જે તે પૂર્વ પ્રતિ. પન્ન હોય તે ચાર સામાયિકને પૂર્વ પ્રતિપન્ન હોઈ શકે છે. જે મનુષ્ય પર્યાયથી ઉદુવૃત થઈને સામાયિકોના પ્રતિપત્તા હોઈ શકે છે અને ચારેચાર સામાયિકોને પૂર્વ પ્રતિપનક હોઈ શકે છે. દેવપર્યાયથી ઉદુવૃત થઈને તિર્થ ચપર્યાયમાં ઉત્પન્ન થયેલ જીવ સર્વવિરતિ સામાજિકને છેડીને સામાયિકનો તે પ્રતિપત્તા-ધારક હોઈ શકે છે, અને તે જે પૂર્વ પ્રતિપન્નક હોય તો બે સામાયિકને પૂર્વપ્રતિપન્નક હોય છે. જે તે મનુષ્ય પર્યાયમાં ઉત્પન્ન થયેલ હોય તે તે ચારેચાર સામાયિકોને પ્રતિ પત્તા હોઇ શકે છે અને જે તે પૂર્વ પ્રતિપન્નક હોય તે બે સામાયિકોનો પૂર્વ પ્રતિપન્નક હોઈ શકે છે ૩૦મી
આવકરણ સમ્યફલ વગેરે ચાર સામાયિકના આવારક (આચ્છાદક) જે
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अनुयोगचन्द्रिका टोका सूत्र २४८ अनुगमनामानुयोगद्वारनिरूपणम् ८४३ कर्म आश्रित्य कब कि सामायिक भवतीति वक्तव्यम् । प्रथा-आस्रवकरणे वर्तमानो जीवश्चतुर्णा सामायिकानां न किमपि सामायिक प्रतिपद्यते । पूर्वप्रतिपन्नकस्तु चतुर्णामपि सामायिकानां संभवतीति ॥३१॥ ___तथा-अलङ्कारं-कटककुण्डलकेयूरहारकङ्कणवस्त्रादिकमाश्रित्य क्व किं सामायिक भवतीति वक्तव्यम् । यथा-अलङ्कारे परित्यक्तेऽपरित्यक्ते परित्यज्यमाने वा सति जीवश्चतुर्णामपि सामायिकानां पतिपद्यमानकः पूर्वप्रतिपन्नकश्चापि भवतीति ॥३२॥ ___ तथा-शयनमासनं स्थानं चक्रमणं चेति चतुर्णा द्वाराणामन्यतमद् एकैकद्वारमाश्रित्य क्व किं सामायिकं भवतीति वक्तव्यम् । यथा-शयने आसने स्थाने चक्रमणे च परित्यक्तऽपरित्यक्ते परित्यज्यमाने वा सति जीवश्चतुर्णा सामायिकानां प्रतिपद्यमानकः पूर्व प्रतिपन्नकश्चापि संभवतीति । ॥३३॥३४॥३५॥३६॥ दक) जो मिथ्यात्वमोहनीय आदि कर्म हैं-उन कर्मों को आश्रय करके 'कहां कौन सामायिक होता है ?' यह भी कहना चाहिये जैसे आस्रवकरणमें वर्तमान जीव चारों सामायिकों में से किसी भी सामा. यिक का प्रतिपत्ता नहीं होता है । तथा ऐसा जीव पूर्वप्रतिपन्नक तो चारों ही सामायिको का हो सकता है ।३१। ___ तथा-अलंकार -कटक-कुण्डल, केयूर, हार, कङ्कण, और वस्त्र आदि को आश्रित करके 'कहां कोन सामायिक होता है ?' यह भी कहना चाहिये । ____ इन चारों द्वारों में भी एक एक को लेकर कहा कौन सामायिक होता है-यह भी कहना चाहिये जैसे शयन ३३, आसन ३४, स्थान ३५,
और चंक्रमण ३६, ये छोड दिये गये हों अथवा नहीं छोडे गये हों या મિથ્યાત્વ મેહનીય વગેરે કર્મો છે, તે કર્મોને આશ્રય કરીને કયાં કયું સામાયિક હોય છે? આ વિષે પણ કહેવું જોઈએ. આસ્રવકરણમાં વર્તમાન જીવ ચારેચાર સામાયિકોમાંથી કોઈ પણ સામાયિકનો પ્રતિપત્તા હોઈ શકે નહિ. તેમજ એ જીવ પૂર્વ પ્રતિપન્નક તે ચારેચાર સામાયિકોને હોઈ શકે છે. ૩૧
તથા–અલંકાર-કટક, કુંડલ, કેયૂર, હાર, કંકણ અને વસ્ત્ર વિગેરેને આશ્રિત કરીને “કયાં કયું સામાયિક હેય છે?' આ વિષે પણ કહેવું જોઈએ. ૩૨ તથા એ ચારેચાર દ્વારોમાં પણ એક-એકને લઈને “ક્યાં કયું સામાયિક હોય છે? આ વિષે પણ કહેવું જોઈએ. જેમ શયન ૩૩, આયન૩૪, સ્થાન૩૫ અને ચંક્રમણ૩૬, આ બધાં ત્યજી દીધાં છે અથવા ત્યજી દીધાં ન હોય અથવા ત્યજવામાં આવી રહ્યા હોય તે એવી સ્થિતિમાં વર્તમાન જી ચારે
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अनुयोगद्वारसूत्र इति षोडशद्वारस्य पडत्रिंशदन्तरद्वाराणि समाप्तानि ॥३६॥ इति षोडशं मूल द्वारम् १६।
अथ सप्तदशं मूलद्वारमाहकेषु द्रव्येषु पर्यायेषु च सामायिकं लभ्यते इति वक्तव्यम् ।
यथा-सर्वेषु द्रव्येषु सर्वेषु पर्यायेषु च सम्यक्त्वसामायिकं लभ्यते, सर्वव्यपर्यायश्रद्धानरूपत्वात्तस्य श्रुतसामायिकं सर्वेषु द्रव्येषु लभ्यते, सर्वपर्यायेषु तु न लभ्यते, श्रुतस्याभिलाप्यविषयत्वात् , पर्यायस्य चाभिलाप्यानभिलाप्यविषयस्वात् । चारित्रसामायिकमपि सर्वद्रव्येषु लभ्यते न पुनः सर्वपर्यायेषु देशविरति सामायिकं तु सर्वद्रव्येषु सर्वपर्यायेषु चापि नोपलभ्यते । तदुक्तम्छोडे जा रहे हों तो, ऐसी स्थिति में वर्तमान चारों सामायिकों का प्रतिपत्ता हो सकते है । और पूर्वप्रतिपन्नक भी हो सकते हैं। इस प्रकार यहां तक सोलहवें द्वार के ३६ अन्तरद्वार समाप्त हुए ।३२से३६।
किन द्रव्यों में और किन पर्यायों में सामायिक पाया जाता है यह जो सत्रहवां मूलद्वार है सूत्रकार अब उसका कथन करते हुए कहते हैं कि-सब द्रव्यों में और सब पर्यायों में सम्यक्त्व सामायिक पाया जाता है क्योंकि सम्यक्त्व जो सामायिक होता है वह समस्त द्रव्य
और समस्त पर्याय के श्रद्धानरूप होता है। श्रुनसामायिक जो होता है वह समस्त द्रव्यों में तो पाया जाता है, परन्तु समस्त पर्यायों में नहीं क्योंकि पर्यायें अभिलाप्य और अनभिलाप्प के भेद से दो प्रकार की होती हैं । सो जो अभिलाप्य पर्यायें हैं श्रुत उन्हीं के विषय करता ચાર સામાયિકોના પ્રતિપત્તા હોઈ શકે છે અને પૂર્વ પ્રતિપન્નક પણ હોઈ શકે છે. આ પ્રમાણે અહીં સુધી સેળમાં દ્વારના ૩૬ અંતર દ્વારા સમાપ્ત થયા. t૩૨ થી ૩૬
કયા દ્રામાં અને કઈ પર્યાયમાં સામાયિક પ્રાપ્ત થાય છે આ ૧૭ મું મૂલહાર છે. સૂત્રકાર હવે તે વિષે ચર્ચા કરતાં કહે છે કે–સવ દ્રવ્યમાં અને સર્વ પર્યાયામાં સમ્યક્ત્વ જે સામાયિક હોય છે તે સમસ્ત દ્રવ્ય અને સમસ્ત પર્યાયના શ્રદ્ધાન રૂપ હોય છે. શ્રતસામાયિક જે હોય છે તે સમસ્ત દ્રવ્યોમાં તે પ્રાપ્ત થાય જ છે પરંતુ સમસ્ત પર્યાયમાં નહિ કેમ કે પર્યાયે અભિલાષ્ય અને અનભિલાખના ભેદથી બે પ્રકારના હોય છે. જે અભિલાપ્ય થયે છે; છત તેમને વિષય બનાવે છે, અનભિલા પર્યાય
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अनुयोगवन्द्रिका टीका सूत्र २४८ अनुगमनामानुयोगद्वारनिरूपणम्
'सव्वगयं सम्मतं, सुपचारिते न पज्जवा सव्वे । देसविर पहुच, दोण्ट वि पडिसेहणं कुज्जा ॥ १ ॥
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छाया - सर्वगतं सम्यक्त्वं श्रुतचारित्रे न पर्यवाः सर्वे । देशविरति प्रतीत्य, द्वयोरपि (सर्व द्रव्य सर्व पर्याययोरपि ) प्रतिषेधनं कुर्यात् । || १ || इति सप्तदशं द्वारम् ॥
तथा - सामायिकं कथं लभ्यते ? इत्यपि वक्तव्यम् । यथा - मनुष्यत्वम्, आर्यक्षेत्रं, जातिः, कुलं रूपम्, आरोग्यम्, आयुष्कम्, बुद्धिः, धर्मश्रवणम्, धर्मावग्रहः = धर्मावधारणं, श्रद्धा, संयमश्चेत्येतानि द्वादशस्थानानि लोके सुदुर्लभानि । एतदवाप्तौ जीवः सामायिकं लभते इति । तदुक्तम्माणुस - खेत- जाई कुलरुवारोग्गमाउयं बुद्धी । सवणो वग्गहसद्धा संनमो य लोगम्मि दुलहाई | १॥
८४५
है अनभिलाप्य पर्यायों को नहीं । चारित्ररूप जो सामायिक है - वह भी समस्त द्रव्यों में तो पाया जाता है परन्तु समस्त पर्यायों में नहीं । देशविरतिसामायिक जो है वह न तो सर्वद्रव्यों में पाया जाता है और न सर्व पर्यायों में ही पाया जाता है ।
तदुक्तं - 'सवयं सम्मत्तं सुवचरिते न पज्जवा सव्वे' इत्यादि गाथा का भावार्थ यही पूर्वोक्त रूप से है ।—
-
अब सूत्रकार अठारहवां द्वार कहते हैं-मामायिक जीव कैसे प्राप्त करता है तो इसके विषय में यह कहा गया है कि मनुष्यत्व आर्यक्षेत्र, जाति, कुल, रूप आरोग्य, आयुष्क, बुद्धि, धर्मश्रवण, धर्माधारण, श्रद्धा, और संयम ये १२ स्थान लोक में बहुत ही अधिक दुर्लभ हैं । इनकी प्राप्ति होने पर जीव सामायिक को पाता है । तदुक्तम्- माणुस्सखेल जाई कुलरुवारोग्गमाउयं बुद्धी' इत्यादि गाथा द्वारा यही पूर्वोक्त
ને નહિ. ચારિત્રરૂપ જે સામાયિક છે તે પણ સમસ્ત દ્રવ્યેામાં તે પ્રાપ્ત થાય જ છે પરતુ સમસ્ત પાંચમાં નિહ. દેશિવરતિ જે છે તે ન તે સવ કૂખ્યામાં પ્રાપ્ત થાય છે અને ન સત્ર પર્યાયામાં પ્રાપ્ત થાય છે.
तहुत'-" सव्वगय सम्मत्तं सुयचारितेन पज्जवा सब्वे" वगेरे गाथाना ભાવાથ પૂર્વોક્ત રૂપમાં જ છે.
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હવે સૂત્રકાર અઢારમાં દ્વાર વિષે કહે છે. સામાયિક જીવ કેવી રીતે પ્રાપ્ત કરે છે, તે આ સંબંધમાં આ પ્રમાણે કહેવામાં આવ્યું છે કે મનુप्रभुत्व यार्यक्षेत्र, लति, डुंग, ३५, आरोग्य, आयुष्णु, बुद्धि, धर्म શ્રવણુ ધર્માવધારણ, શ્રદ્ધા અને સયમ આ ૧૨ થાના લેાકમાં એકદમ દુલ`ભ છે. मनी प्राप्ति थवार्थी व सामायिउने आंतरे छे तहुतम् - "माणुस्स खेत
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अनुयोगद्वारसूत्र छाया-मानुष्यक्षेत्रजातयः कुलरूपारोग्यम् आयुष्कं बुद्धिः ।
श्रवणावग्रहश्रद्धा संयमश्च लोके दुर्ल भानि ॥१॥ इति । सामायिकमाप्तौ मानुष्यादयो हेतुरिति गाथाभिपायः । इत्यष्टादशं द्वारम् ॥१८॥ तथा-तल्लब्धं सामायिक कियच कालं भवतीत्यपि वक्तव्यम् ।
यथा-सम्यक्पश्रुतसामायिकयोलब्धिमङ्गीकृत्य पूर्व कोटीपृथक्त्वाधिकानि षष्टिसागरोपमाणि उत्कृष्टा स्थिति भवति । देशविरतिसविरतिसामायि. कयोलब्धिमङ्गीकृत्य देशोनां पूर्व कोटीमुस्कृष्टा स्थितिर्भवति । सामायिकत्रयस्य लब्धिमाश्रित्य जयन्या स्थितिरन्तमहतं भवति । सर्वविरतिसामायिकस्य तु जघन्यास्थितिरेकसमयम्, चारित्रपरिणामारम्भसमयानन्धरमे वायुष्कक्षयसंभघात प्रकट की गई है । तात्पर्य कहने का यह है कि सामायिक की प्राप्ति में ये मनुष्यत्व भादि हेतु होते हैं। तथा सामायिक की स्थिति कितनी है यह जो १९ वां द्वार है वह भी कहना चाहिये-जैसे-सम्यक्त्वसामायिक और श्रुतसामायिक इनकी लब्धि की अपेक्षा इन दोनों सामायिकों की उत्कृष्टस्थिति पूर्वकोटि पृथक्त्व अधिक ६६ सागरोपम प्रमाण है। देशविरति, सर्वविरतिसामायिकों की लब्धि की अपेक्षा इन दोनों सामायिकों की उत्कृष्ट स्थिति देशोन एक पूर्व कोटि की है। तथा सामायिकत्रयकी लब्धि की अपेक्षा इन तीनों सामायिकों की जघन्यस्थिति अंगमुहर्त की है। सर्वविरति सामायिक की जघन्य स्थिति एक समय की है। क्यों चारित्रपरिणाम के आरम्म के समय के अनन्तर ही आयुष्क क्षय हो सकता है । उपयोग की अपेक्षाजाई कुलरूवारोग्गमाउयं बुद्धी" त्यात या १९ मे पात पात પ્રકટ કરવામાં આવી છે તાત્પર્ય આ પ્રમાણે છે કે સામાયિકની પ્રાપ્તિમાં મનુષ્યત્વ વગેરે બધાં હેતુ રૂપ હોય છે. તથા સામાયિકની સ્થિતિ કેટલી છે. આ જે ૧૯ મું દ્વાર છે તે પણ કહેવું જોઈએ. જેમ સમ્યક્ત્વ સામાયિક અને શ્રુત સામાયિક એમની લબ્ધિની અપેક્ષાએ એ બન્ને સામાયિકોની ઉત્કૃષ્ટસ્થિતિ પૂર્વ એટિ પૃથકૃત્વ અધિક ૬૬ સાગરોપમ પ્રમાણ છે. દેશવિરતિ અને સર્વવિરતિ સામાયિકોની લબ્ધિની અપેક્ષા એ બને સામાયિકોની ઉકષ્ટસ્થિતિ દેશના એક પૂર્વકેટિની છે. તથા સામાયિકત્રયની લબ્ધિની અપેક્ષાએ ત્રણ સામાયિકોની જઘન્યસ્થિતિ અન્તર્મુહૂર્તાની છે. સર્વવિરતિ સામાયિકની જઘન્યસ્થિતિ એક સમયની છે કેમ કે ચારિત્ર પરિણામના આરંભના સમયની પછી જ આયુષ્કને ક્ષય થઈ શકે છે. ઉપગની એપેક્ષા સમસ્ત આયુષ્કો
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अनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र २४८ अनुगमनामानुयोगद्वारनिरूपणम् ८४७ वात् । उपयोगतातु सर्वेषां सामायिकानाम् अन्तर्मुहूर्त स्थितिः । नानाजीवानां तु सर्वाणि सामायिकानि सद्धिति । तदुक्तम्
'सम्मत्तस्स सुयस्स य, छावट्ठी सागरोक्माई ठिई । सेमाण पुनकोडी, देसूणा होइ उक्कोसा ॥१॥ अंतो मुहुत्तमित्तं, जहन्नो चरणमेगसमयं तु ।
उवओगंतमुहुत्तं, नानाजीवाण सव्वद्धं ॥२॥ छाया-सम्यक्त्वस्य श्रुतस्य च, षट्पष्टि सागरोपमाणि स्थितिः।
शेषयोः पूर्व कोटी देशोना भवति उत्कृष्टा ॥१॥
अन्तम हर्त्तमात्रं जघन्यतश्चरणमेकसमयं तु । उपयोगादन्तमहतै, नानाजीवानां सद्धिा ॥२॥ इति । इत्येकोनविंशं द्वारम् ।
तथा-सम्यक्त्वादि सामायिकानां विवक्षितसमये प्रतिपयमानका पूर्व पतिपन्नकाः प्रातिताश्च कति=कियन्तो भवन्तीति वक्तव्यम् । यथा-क्षेत्रपल्योपमस्या. संख्येयभागे यावन्तः प्रदेशास्तावन्त: सम्यक्त्वदेशविरतिसामायिकयोरेकदा प्रतिपधमानका भवन्ति । तत्रापि देशविरतिप्रतिपद्यमानकापेक्षया सम्यक्त्वपतिसमस्त सामायिकों को स्थिति अन्तर्मुहर्त की है । तथा नाना जीवों की अपेक्षा सच सामायिकों की स्थिति सर्वाद्धाकाल है। तदुक्तम्सम्पत्तस्स सुयस्सय' इत्यादि गाथाओं का अर्थ यही पूर्वोक्तरूप से है।
अब सूत्रकार २० वें द्वार में कह रहे हैं कि सम्यक्त्व आदि सामायिकों के विवक्षित समय में प्रतिपद्यमानक, पूर्वप्रतिपन्नक एवं प्रपतित जीव कितने होते हैं-सो क्षेत्र पल्योपम के असंख्यातवें भाग में जितने प्रदेश होते हैं उतने प्रतिपद्यमानक जीव मम्यक्त्वसामायिक और देशविरतिसामायिक के एक काल में होते हैं इनमें भी देशविरति के प्रतिपत्ताओं-धारकों की अपेक्षा નીરિથતિ અન્તર્મુહૂર્તની છે. તથા અનેક પ્રકારના જવેની અપેક્ષા સર્વ सामायिोनी स्थिति सद्धि छे. ततम्-“सम्मत्तस्स सुयस्स य" त्यादि ગાથાઓને અર્થ આ પૂર્વોક્તરૂપમાં હોય છે.
હવે સૂત્રકાર ૨૦ માં દ્વા૨નું કથન કહી રહ્યા છે કે સમ્યક્ત્વ વગેરે સામયિ. કોના વિવક્ષિત સમયમાં પ્રતિપદ્યમાનક પૂર્વ પ્રતિપન્નક અને પ્રપતિત કેટલા હોય છે? ક્ષેત્ર પલ્યોપમના અસંખ્યાતમા ભાગમાં જેટલા પ્રદેશો હોય છે, તેટલા પ્રતિપદ્યમાનક જ સમ્યકત્વ સામાયિક અને દેશવિરતિ, સામયિકના એક કાળમાં હોય છે. આમાં પણ દેશવિરતિના પ્રતિપત્તાઓ-ધારકોની અપેક્ષા
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मनुयोगद्वारसूत्रे पद्यमानका असंख्येयगुणा बोध्याः। जघन्यपदे यदि भवेत्तदा एको द्वौ वा । तथासंपत्तितचतुरस्त्रीकृत लोकस्यैकमादेशिकीसप्तरज्जु प्रमाणा या श्रेणि भवति, तस्याः श्रेणेरसंख्याततमे भागे यावन्तो नभःप्रदेशा भवन्ति, तावन्त एककाले सम्यमिथ्याश्रुतभेदरहितस्य सामान्येनाक्षरात्मकस्य श्रुतस्योत्कृष्टतः प्रतिपद्यमानका भवन्ति, जघन्यतस्त्वेको द्वौ वा। तथा-सर्व विरतिसामायिकस्यैककाले सहस्र पृथक्त्वसंख्यका उत्कृष्टतः प्रतिपद्यमानका भवन्ति, जघन्यतस्त्वेको द्वौ वा । तथा-सम्यक्त्वदेशविरतिसामायिकयोः पूर्वपतिपन्नका एकसमये जघन्यतउत्कृष्टतवासंख्येया भवन्ति । परं जघन्यपदापेक्षयोत्कृष्टपदे विशेषाधिकाः मम्यारव सामायिक के प्रतिपत्ता-धारक असंख्यात गुणे होते है। जघन्य की अपेक्षा ये एक अथवा दो तक हो सकते हैं । तथा संश. तित चतुरस्त्रीकृत लोक की सातरज्जुप्रमाण एक प्रादेशिकी श्रेणी होती हैं। उस श्रेणी के असंख्यातवें भाग में जितने नभाप्रदेश (आकाश) होते हैं उतने प्रतिपद्यमानक जीव एककाल में सम्यक श्रुत और मिथ्याश्रुत इन भेदों से रहित ऐसे सामान्य अक्षरश्रुतात्मक श्रुत के उस्कृष्ट की अपेक्षा होते हैं। तथा-जघन्य की अपेक्षा एक, अधया दो तक होते हैं। तथा सर्वविरति सामायिक के प्रतिपत्ता-धारक जीव एक काल में उत्कृष्ट की अपेक्षा सहस्रपृथक्त्व तक होते हैं। एवं जघन्य की अपेक्षा एक अथवा दो तक होते हैं । तथा-सम्यक्त्वसामायिक और देशपिरति सामायिकों के पूर्वप्रतिपन्नक जीव एक समय में कमसे कम और अधिक से अधिक असंख्यात होते हैं। परन्तु जघन्य असंख्यात की अपेक्षा उत्कृष्ट સમ્યક્ત્વ સામાયિકના પ્રતિપત્તા–ધારક અસંખ્યાત ગણું હોય છે. જઘન્યની અપેક્ષા એ એક અથવા બે સુધી થઈ શકે છે. તથા સંવર્તિત ચતુરસ્ત્રીકૃત લેકની સાત રજુપ્રમાણ એક પ્રાદેશિક જે શ્રેણી હોય છે, તે શ્રેણના અસં. ખ્યાતમાં ભાગમાં જેટલા નભ પ્રદેશ હોય છે, તેટલા પ્રતિપદ્યમાનક છે એક કાળમાં સભ્ય શ્રત અને મિથ્યાશ્રત આ ભેદેથી રહિત એવા અક્ષરો સામાન્ય શ્રુતાત્મકશ્રતના ઉત્કૃષ્ટની અપેક્ષાએ હોય છે. તથા જઘન્યની અપેક્ષાથી એક, અથવા બે સુધી હોય છે. તથા સર્વવિરતિ સામાયિકના પ્રતિપત્તા-ધારક છ એક કાળમાં ઉત્કૃષ્ટની અપેક્ષાએ સહસ્ત્ર પૃથકત્વ સુધી હોય છે. તથા જઘન્યની અપેક્ષાએ એક અથવા બે સુધી હોય છે. તથા સમ્યકત્વ સામાયિક અને દેશવિરતિ સામાયિક એ બે સામાયિકોના પૂર્વ પ્રતિપન્નક જ એક સમયમાં ઓછામાં ઓછા અને વધારેમાં વધારે અસંખ્યાત હોય છે. પરંતુ
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अनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र २४८ अनुगमनामानुयोगद्वारनिरूपणम्
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पूर्व प्रतिपन्नका बोध्याः । प्रतिपद्यमानका पेक्षया स्वसंख्येयगुणाः । चास्त्रिसामायिकस्य पूर्व प्रतिपन्नास्तु संख्येयगुणाः । एते च प्रतिपद्यमानकापेक्षया संख्येयगुणाः । तथा सम्यङूमिथ्याभेदरहितस्य सामान्यतोऽक्षरात्मकस्य श्रुतसामायिक स्यैकका पूर्वप्रतिपन्नका घनसमचतुरस्त्रीकृतलोकपतरस्यासंख्येय भागवर्त्तिनीषु असंख्येयासु श्रेणिषु यावन्तो नमः मदेशास्तावन्तो बोध्याः । तथा चारित्रदेशविरतिसम्यक्त्व सामायिकेभ्यो ये प्रपतितास्ते सम्यक्त्वादि सामायिकानां प्रतिपचमानकेभ्यः पूर्वप्रतिपन्न केभ्यश्चानन्तगुणाः । अयं भावः - चारित्रसामायिक असंख्यात कुछ विशेष अधिक होता है । प्रतिपताओं-धारकों की अपेक्षा ये पूर्वप्रतिपन्नक जो जघन्यपद में कहे गये हैं। असंख्यातगुणे अधिक आते हैं। चारित्रसामायिक के पूर्व नियमनक जीव हैं वे संख्यातगुणे हैं। जो ये संख्यातगुणित कहे गये हैं । वे चारित्र सामायिक के प्रतिपत्ता जीवों की अपेक्षा जानना चाहिये । तथासम्यक और मिथ्या इन दो विशेषणों से रहित सामान्य अक्षरात्मक
सामायिक के एककाल में पूर्वप्रतिपन्नक जीव उतने होते हैं कि जितने नभःप्रदेश घनसमचतुरस्रीकृत लोकप्रतर के असंख्यातवें भाग में रहीं हुई असंख्यातश्रेणियों में होते हैं । तथा चारित्रसामायिक, देशविरतिसामायिक, सम्यक्त्व सामायिक हन सामायिकों से जो जीव प्रपतित हुए हैं वे सम्यक्त्व आदि सामायिकों के प्रतिपत्ता जीवों की अपेक्षा तथा पूर्व प्रतिपन्न रु जीवों की अपेक्षा अनंतगुणे
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८४९
જઘન્ય અસ ખ્યાતની અપેક્ષા ઉત્કૃષ્ટ અસંખ્યાત કઈક વિશેષાધિક ાય છે. પ્રતિપત્તાએ ધારાની અપેક્ષાએ પૂ પ્રતિપન્નક જે જઘન્યપદમાં કહેવામાં આવેલ છે, તે અસ ખ્યાતગણુા અધિક હોય છે. ચારિત્રસામાયિકના જે પૂ પતિપત્નક જીવે છે તે સખ્યાત ગણા છે. તે જે સ ́ખ્યાત ગુણિત કહેવામાં આવેલ છે તે ચારિત્રસામાયિકના પ્રતિપત્તા જીવાની અપેક્ષાએ જાણવા જોઇએ. તથા સમ્યક્ અને મિથ્યા આ બે વિશેષાથી રહિત સામાન્ય અક્ષરાત્મક શ્રુત સામાયિકના એક કાળમાં પૂપ્રતિપન્નક જીવા તેટલા હાય છે કે જેટલા નભઃપ્રદેશ ઘનસમચતુરસ્રીકૃત લેાકપ્રતરના અસ`ખ્યાતમા ભાગમાં આવેલ અસંખ્યાત શ્રેણીઓમાં હાય છે. તથા-ચારિત્ર સામાયિક, સમ્યક્ત્વ સામયિક આ સામાયિકાથી જે જીવા પ્રપતિત થયેલા છે, તે સમ્યફૂલ આદિ સામાયિકાના પ્રતિપત્તા જીવાની અપેક્ષાથી અને પૂર્વપ્રતિપન્નક જીવાની અપેક્ષાથી અન’તગણુા હૈાય છે. આનું તાત્પર્ય આ પ્રમાણે છે કેચારિત્ર સામાયિકને પ્રાપ્ત કરીને જે જીવા તેનાથી અપ્રતિત થઇ ચૂકયા છે, તે જીવે. આ સમ્યક્ત્વ વિગેરે સામાયિકના પ્રતિજ્ઞા જીવાથી અને પૂર્વ પ્રતિપન્નક
अ० १०७
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मनुयोगदारसूत्र प्राप्य ये ततः प्रपतितास्ते सम्यक्त्वादि सामायिकस्य प्रतिपधमानकेभ्यः पूर्वप्रतिपन्नकेभ्यश्चानन्तगुणाः, देशविरतिसामायिकमपतितास्तेभ्योऽसंख्येयगुणाः, सम्यक्त्वापतिताः पुनस्तेभ्योऽसंख्येयगुणाः, श्रुतमपतिता भाषालविरहिताः पृथिव्यादयस्तु तेभ्योऽनन्तगुणा इति । तदुक्तम्
'सम्मत्तदेसविरया, पलियस्स असंखभागमेत्ताओ । सेदी असंखमागो, सुए सहस्सग्गसो विरई ॥१॥ सम्मत्तदेसविरया, पडिवण्णा संपई असंखेज्जा । संखेज्जा य चरित्ते, तीसु वि पडिया अणंतगुणा ॥२॥ मुयपडिवण्णा संपइ, पयरस्स असंखेज्जभागमेत्ताओ।
सेसा संसारत्या, सुयपडिवडिया हु ते सव्वे ॥३॥ छाया-सम्यक्त्वदेशविरताः पल्यस्यासंख्येयमागमात्रा।
श्रेणिरसंख्यभागः श्रुते सहस्राप्रशो विरतिः ॥१॥ सम्यक्त्वदेशविरता: प्रतिपन्नाः सम्पत्यसंख्येयाः। संख्येयाश्च चारित्रे त्रिष्वपि पतिता अनन्तगुणाः ॥२॥ श्रुतप्रतिपन्नाः सम्पति प्रतरस्यासंख्येयभागमात्राः ।
शेषाः संसारस्थाः श्रुतपतिपतिताः खलु ते सर्वे ॥३॥ इति विंशतितमं द्वारम् ॥२०॥ होते हैं । इसका तात्पर्य यह है-कि चारित्र सामायिक को प्राप्त करके जो जीव उससे प्रपतित हो चुके हैं वे जीव इस सम्यक्त्व आदि सामायिक के प्रतिपत्ता जीवों से और पूर्वप्रतिपन्नक जीवों से अनंतगुणे होते हैं देशविरतिसामायिक से जो प्रपतित हुए हैं वे उनसे असं. ख्यातगुणे हैं। सम्यक्त्वसामायिक से प्रपतित हुए हैं वे उनसे असं. ख्यातगुणें हैं, श्रुतसामाधिक से प्रपनित ऐसे भाषालब्धि रहित जो जो पृथिव्यादिक जीव हैं वे उनसे अनन्तगुणे हैं। तदुक्तम्-'सम्मत्त. છથી અનંતગણું હોય છે. દેશવિરતિ સામાયિકથી જે પ્રપતિત થયેલા છે, તેઓ તેનાથી અસંખ્યાત ગણું છે, સમ્યક્ત્વ સામાયિકથી પ્રપતિત થયેલા છે, તે તેમનાથી અસંખ્યાત ગણ છે, શ્રત સામાયિકથી પ્રપતિત એવા ભાષા લબ્ધિ રહિત જે પૃથિવ્યાદિક જે છે, તે તેમનાથી અનંતગણુ છે. તદુતમ
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अनुयोगन्द्रिका टीका सूत्र २४८ अनुगमनामानुयोगद्वारनिरूपणम् ८५१
तथा-सान्तरं-सहान्तरेण वर्तते इति सान्तरं-किय कालान्तरितं सामायिक भवतीति च वक्तव्यम् । यथा-सम्यमिथ्याभेदरहिते सामान्ये श्रुते जघन्यतोऽन्तर्मुहूर्तमन्तरं भवति, उत्कृष्टतस्तु अनन्तं कालम् । अयं भावः-कश्चिद् द्वीन्द्रियादिर्जीव सामान्येनाक्षरात्मकं श्रुतं लब्ध्वा मृतः पृथिव्यादिष्वन्तर्मुहूर्त स्थित्या मृतो द्वीन्द्रियादावागत्य पुनरपि श्रुतं लभते तत्रान्तमुहर्तमन्तरम् । यः पुनःन्द्रियादि मतः पृथिव्यप्तेजोवायुवनस्पतिषु पुनः पुनरुत्पद्यमानोऽनन्तं कालं तिष्ठति, देसविरया' इत्यादि जो ये गाथाएँ कहीं हैं उनका यही पूर्वोक्त भाव है। इस प्रकार यह बीसवां द्वार है ॥ २० ॥
अब सूत्रकार २१ वें द्वार में यह प्रकट करते हैं कि सामायिक का विरहकाल कितना है ? क्योंकि यह भी वक्तव्य होता है। जैसे सम्यक् और मिथ्या इन विशेषणों ले विहीन सामान्य श्रुत सामायिक में जघन्य से अन्तर्मुहूर्त का अन्तर होता है। और उत्कृष्ट से अनंतकाल का । इसका तात्पर्य यह है-काई द्वीन्द्रियादि जीव सामान्य से अक्षरात्मक श्रुत को प्राप्त कर मरा और पृथिव्यादिकों में एक अन्तर्मुहत्तं तक रहा फिर वहां से गया-इस प्रकार श्रत की प्राप्ति में अन्तर्मुहर्त का अन्तर जानना चाहिये तथा कोई दीन्द्रिय जीव मर कर पृथिवी, अप् तेजः वायु एवं वनस्पति इन पांच स्थावरों में बार २ उत्पन्न होता हुआ वहां अनंत काल तक रहा-फिर वहाँ से मरकर वह 'सम्मत्तदेसविरया' त्या ३५मा २ था। अवाम मावी छ तमना मा પ્રમાણે જ પૂર્વોક્તરૂપમાં ભાવ છે. આ પ્રમાણે આ ૨૦ મું દ્વાર છે. ૨૦
હવે સૂત્રકાર ૨૧ મા દ્વારમાં એ વાત સ્પષ્ટ કરે છે કે સામાયિકને વિરહકાળ કેટલે છે? કેમ કે આ પણ વક્તવ્ય હોય છે. જેમ સમ્યક અને મિથ્યા આ વિશેષણોથી વિહીન સામાન્ય શ્રત સામાયિકમાં જઘન્યથી અન્ત
ન એટલે તફાવત હોય છે. અને ઉત્કૃષ્ટથી અનંતકાળ જેટલે તફાવત હોય છે. આનું તાત્પર્ય આ પ્રમાણે છે કે કઈ પણ કીન્દ્રિયાદિ જીવ સામાન્યથી અક્ષરાત્મક બુતને પ્રાપ્ત કરીને મરણ પામ્ય અને પૃથિવ્યાદિકમાં એક અંતમુહૂર્ત સુધી રહ્યો ત્યારબાદ ત્યાંથી એક મુહૂર્ત પછી મરણ પામીને કરી શ્રીન્દ્રિય જીવ થયે, આ રીતે મૃતની પ્રાપ્તિમાં અન્તર્મુહૂર્તનો તફાવત જાણવો જોઈએ. તથા કેઈ દ્વીન્દ્રિય જીવ મરણ પામીને પૃથિવી, અપૂ, તેજ, વાયુ અને વનસ્પતિ આ પાંચ સ્થાવરમાં વારંવાર ઉત્પન્ન થતે ત્યાં અનંત
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अनुयोगद्वारसूत्रे ततः पुनरागत्य द्वीन्द्रियादिपुत्पन्नः श्रुतं लभते, तत्रानन्तकालमन्तरं भवति । अयमनन्तकालोऽसंख्यातपुद्गलपरावर्त्तलक्षणो बोध्य इति । यश्च किल सम्यक श्रुतं प्राप्य मृतः पृथिव्यप्तेजो वायुवनस्पतिषु भ्राम्यन् भ्राम्यन मनुष्यादिप्रत्पन्न: सम्यक् श्रुतं लभते, तत्रान्तरकाल उत्कृष्टतो देशोनापार्द्धपुद्गलपरावलक्षणो बोध्यः । तथा-सम्यक्त्वदेश विरतिसर्वहिरतिसामाथिकानामन्तरकालो जघ. न्यतोऽन्तर्मुहात्मकः, उत्कृष्टतस्तु देशोनापार्धपुद्गलपरावर्तात्मकः । सम्यक्त्वसम्यक्श्रुत-देशविरति-सर्वविरति सामायिकानामुत्कृष्टत एतावान् अन्तरकाल आशातनाबहुलानां जीवानां भवतीति बोध्यम् । तदुक्तम्पुनः दीन्द्रिय जीव हो गया, इस प्रकार श्रुन की लब्धि में वह उत्कृष्ट अन्तर अनंतकाल का जानना चाहिये । यह अनंतकाल का अन्तर असंख्यात पुदगल परावर्तनरूप होता है, ऐसा जानना चाहिये। तथा जो जीव सम्यक् श्रुत को प्राप्तकर मरता है और वह पृथिव्यादिक पांच स्थावरों में बार २ उत्पन्न होतो हुआ फिर मनुष्यादिकों में उत्पन्न हो जाता है। और वहां पुनः सम्यक् श्रुत को प्राप्त करता है-इस प्रकार सम्यकश्रुत की पुनः प्राप्ति में अन्तर काल उत्कृष्ट से देशोनपार्द्ध पुद्गल पराश्र्तनरूप होता है । तथा सम्यक्त्वदेशविरति, सर्वविरनि. इन सामायिकों का अन्तरकाल जघन्य से अन्तर्मुहतं का, और उत्कृष्ट से देशोनअपार्द्ध पुद्गल परावर्तनरूप होता है। सम्यक्त्व सामायिक, सम्यकश्रुतसामायिकदेशविरतिसामायिक, और सर्वविरतिसामायिक इन सामायिकों का उत्कृष्ट से इतना बडा भारी કાળ સુધી રહ્યો પછી ત્યાંથી મરણ પામીને ફરીથી હીન્દ્રિય જીવ થઈ ગયે, આ રીતે શ્રુતની લબ્ધિમાં તે ઉત્કૃષ્ટ અંતર અનંતકાળ પ્રમાણ જાણવું જોઈએ. આ અનંતકાળ એટલે તફાવત અસંખ્યાત પુદ્ગલ પરાવર્તરૂપ હોય છે, આમ જાણવું જોઈએ. તથા જે જીવ સમ્યફ શ્રતને પ્રાપ્ત કરીને મરણ પામે છે. અને તે પૃથિવ્યાદિક પાંચ સ્થાવરોમાં વારંવાર ઉપ્તન્ન થતે મનુષ્યાદિકમાં ઉત્પન્ન થઈ જાય છે અને ત્યાં ફરી સમ્યક્ ભુતને પ્રાપ્ત કરે છે, આ રીતે સમ્ય શ્રતની પુનઃપ્રાપ્તિમાં અંતરકાળ ઉત્કૃષ્ટથી દેશન અપાદ્ધ પુદ્ગલ પરાવર્ત રૂપ હોય છે. તથા સમ્યક્ત્વ. દેશવિરતિ, સર્વવિરતિ આ સામાયિકને અંતર કાળ જઘન્યથી અન્તમુહૂર્તને અને ઉત્કૃષ્ટથી દેશને અપાદ્ધ પુગલ પરાવર્ત રૂપ હોય છે. સમ્યક્ત્વ સામાયિક, સમ્યક્ શ્રુતસામાયિક દેશવિરતિસામાયિક અને સર્વવિરતિસ્રામાયિક આ સામાયિકને ઉત્કૃષ્ટથી આટલે
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अनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र २४८ अनुगमनामानुयोगद्वार निरूपणम्
,
'कालमतं च सुर, अद्वापरियहओ य देणो । आसाणवला, उक्कोसमंतरं होई ॥१॥ मिच्छयस्वणस्स - कालो सेसस्स सेससाण्णो । दीर्ण भिणमुत्तं सव्वैसिमिगजीवस्स || || छाया - कालमनन्तं च श्रुते, अद्धापरिवर्त्तकच देशोनः । आशा तनाब हुलानाम्, उत्कृष्टमन्तरं भवति ॥ १ ॥ मिथ्याता वनस्पतिकालः शेषस्य शेषसामान्यः । हीनं भिन्नमुहूर्त्त सर्वेषामिकजीवस्य || २|| इति ॥ इत्येकविंशतितमं द्वारम् ॥ २१ ॥
तथा - अविरहित=निरन्तरं कियन्तं कालं सामायिक प्रतिपत्तारो भवन्तीत्यपि वक्तव्यम् । यथा सम्यक्त्व सामायिकयोर्निरन्तरं प्रतिषतारोऽगारिणः आबलिकाऽसंरूपेयभागकालं यावदुष्टतो भवन्ति । देशविरतिसर्वविरतिसामायि कयो निरन्तरं प्रतिपचारस्तूत्कृष्टतोऽष्टसमयान् यावद् भवन्ति । जघन्यतस्तु सर्वेषां सामाविकानां प्रतिपत्तारो द्वौ समयौ यावद्भवन्ति । तदुक्तम् - अन्तरकाल आशातना बहुल जीवों का हुआ करता है । ऐसा जानना चाहिये । तदुक्तम्' कालमणतंच सुए' इन दो गाथाओं का भावार्थ यही पूर्वोक्त रूप से है । इस प्रकार यह २१ वां द्वार है ।
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अब इस २२ वें द्वार में सरकार यह कह रहे हैं कि सामायिक का निरन्तरकाल कितना है ? जैसे सम्यक्त्व सामायिक और सामायिक इन दो सामायिकों के प्रतिपत्ता अगारी गृहस्थजन निरन्तर उत्कृष्ट से आवलिका के असंख्यातवें भागकाल तक होते हैं। देशविरति, सर्वविरति इन दो सामायिकों के प्रतिपत्ता भव्यजीव, निरन्तर उत्कृष्ट से आठ समय तक होते हैं । जघन्य से तो समस्त सामायिकों के प्रतिपत्ता दा समय तक निरन्तर बने रहते हैं । तदुक्तम्
માટે અંતરકાળ આશાતના બહુલ જીવેાના થાય છે. એમ જાણવું જોઇએ. तहुतभ्-'कालमणतं च सुए' मा मे गाथा मोनो भावार्थ ही पूर्वेतश्यमां છે. આ પ્રમાણે આ ૨૧ મુ' દ્વાર છે.
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હવે આ ૨૨ માં દ્વારમાં સૂત્રકાર કહી રહ્યા છે કે સામાયિકને નિર'તરકાળ કેટલેા છે? જેમ સમ્યક્ત્વ સામાયિક અને શ્રુત સામાયિક એએ બન્ને સામાયિકોના પ્રતિપત્તા અગારી ગૃહસ્થજન નિર'તર ઉત્કૃષ્ટથી આવલિ કાના અસ'ખ્યાતમા ભાગ કાળ સુધી હાય છે, દેશવિરતિ, સવિરતિ, એ અને સામાયિકોના પ્રતિપત્તા ભવ્ય જીવ નિર'તર ઉત્કૃષ્ટથી આઠ સમય સુધી હાય છે. જઘન્યથી તેા સમસ્ત સામાયિકોના પ્રતિપત્તા એ સમય સુધી નિર ંતર
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अनुयोगद्वारसूत्रे 'सम्मसुय अगारीणं, आवलियअसंखभागमेत्ता उ ।
अट्ठसमया चरित्ते, सम्वेसु जहण्ण दो समया ॥१॥' छाया-सम्यक्त्वश्रुतागारिणाम् आवलिकाऽसंग्यभागमात्रास्तु ।
अष्टसमयाश्चारित्रे सर्वेषु जघन्यतो द्वौ समयौ ।।१॥ इति । इति द्वाविंशतितमं द्वारम् ॥२२॥
तथा-कियद भवपर्यन्तमेकजीवः सामायिकचतुष्टयं प्रतिपद्यते इत्यपि वक्तव्यम् । यथा-क्षेत्रपल्योपमस्यासंख्येयभागे यावन्तो नमःमदेशास्तावद् भवपर्यन्तमुत्कृष्टतः सम्यक्त्वसामायिक देशविरतिसामायिकं च जीवः प्रतिपद्यते, जघन्यतस्त्वेक भवम् । ततः परं सिध्यति । अत्र सम्यक्त्वसामायिकमतिपत्तु भवासंख्येयकाद् देशविरतिसामायिकातिपत्तुभव संख्येयक लघुतरं बोध्यम् । चारित्र'सम्मसुयभगारीण' इत्यादि गाथा का भावार्थ यही पूर्वोक्तरूप से है। यहां गाथा में चारित्रपद से देशविरति, सर्वविरति ये दो सोमायिक लिये गये हैं । इस प्रकार यह २२ वां द्वार है।
तथा-इस २३ वें द्वार में सूत्रकार यह कह रहे हैं कि-कितने भव में एकजीव चारों सामायिकों का प्रतिपत्ता होता है-जैसे-क्षेत्रपल्यो. पम के असंख्यातवें भाग में जितने नभःप्रदेश होते हैं उतने भव में उस्कृष्ट से सम्यक्त्वसामायिक, और देशविरतिसामायिक का एक जीव प्रतिपत्ता होता है और कम से कम एक जीव में फिर इसके बाद वह सिद्ध हो जाता है। यहाँ सम्पत्वसामायिक के प्रतिपत्ता के असंख्यात भवों की अपेक्षा से देशविरतिसामायिक के प्रतिपत्ता के असंख्यात भव लघुतर होते हैं ऐसा जानना चाहिये । एक जीव मनी २७ छ. ततम्-'सम्मसुयअगारीणं' त्या पायानो मापा मेर પૂર્વોક્ત રૂપમાં જ છે. અહીં ગાથામાં ચારિત્રપદથી દેશવિરતિ, સર્વવિરતિ એ બે સામાયિકે ગ્રહણ કરવામાં આવ્યા છે. આ પ્રમાણે આ ૨૨ મું દ્વાર છે.
તથા આ ૨૩ માં કારમાં સૂત્રકાર આમ કહે છે કે કેટલા ભવમાં એક જીવ ચારેચાર સામાયિકને પ્રતિપત્તા હોય છે. જેમ ક્ષેત્ર ૫૫મના અસંખ્યાતમાં ભાગમાં જેટલા નભઃપ્રદેશો હોય છે, તેટલા ભવમાં ઉત્કૃષ્ટથી સમ્યક્ત્વ સામાયિક અને દેશવિરતિ સામાયિકનો એક જીવ પ્રતિપત્તા હોય છે અને કમમાં કમ એક ભવમાં હોય છે. ત્યારબાદ તે સિદ્ધ થઈ જાય છે. અહીં સમ્યક્ત્વ સામાયિકના પ્રતિપત્તાના અસંખ્યાત ભવની અપેક્ષાએ દેશ વિરતિ સામાયિકના પ્રતિપત્તાના અસંખ્યાતભવ લઘુતર હોય છે. આમ જાણવું
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अनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र २४८ अनुगमनामानुयोगद्वार निरूपणम्
८५५
1
सामायिकमतिपत्ता तु अष्ट भवपर्यन्तमुत्कृष्टतो भवति, जघन्यतस्त्वेकम् । ततः परं सिध्यति । श्रुतसामायिकप्रतिपत्ता उत्कृष्टतोऽनन्तभवान् भवति । इदं मिथ्याश्रुतापेक्षा बोध्यम् । जघन्यतस्त्वेकं भवम् । ततः परं सिध्यतीति । तदुक्तम्'सम्मत देसरिया, पलियम्स असंखभागमेत्ता उ । अट्ठभवा उ चरिते, अनंतकालं च सुयसमए ॥१॥" छाया - सम्यक्त्व देश विरताः पल्यस्यासंख्यभागमात्रास्तु | अष्टभवांस्तु चरित्रे अनन्तकालं च श्रुतसमये ॥ १॥ इति ॥ ॥ इति त्रयोविंशतितमं द्वारम् ||२३|| तथा - आकर्ष := एकस्मिन् भवे नानाभवेषु वा पुनः पुनः सामायिकस्य ग्रहणंप्रतिपत्तिरिति यावत् स चापि वक्तव्यः । यथा - सम्यक्त्वश्रुत देश विरतिसामा यिकानामेकभवे उत्कृष्टतः सहस्रपृथक्त्वसंख्यका आकर्षा भवन्ति । सर्वविरतिचारित्र सामायिक का प्रतिपसा उत्कृष्ट से आठ भव और जघन्य से एक भव में होता है, इसके बाद वह सिद्ध हो जाता हैं । एक जीव श्रुत सामायिक का प्रतिपत्ता उत्कृष्ट से अनन्त भवों में होता हैं । यह मिथ्याश्रुत की अपेक्षा जानना चाहिये । तथा जघन्य की अपेक्षा वह एक भव में श्रुतसामायिक का प्रतिपत्ता होता है । इसके बाद वह सिद्धहो जाता है । तदुक्तम्- 'सम्मत देसविरया' इत्यादि गाथा का भावार्थ यही पूर्वोक्तरूप से है । इस प्रकार यह २३ वां द्वार है ।
1
तथा - आकर्ष का भी कथन करना चाहिये - एकभव में अथवा अनेकभवों में बार २ सामायिक का ग्रहण करना इसका नाम आकर्ष है। जैसे - सम्यक्त्व सामायिक, श्रुतसामायिक, देशविरतिसामायिकों के आकर्ष एकभव में उत्कृष्ट से सहस्रपृथक्त्व होते हैं । सर्वविरतिજોઈએ. એક જીવન ચારિત્રસામાયિકના પ્રતિપત્તા ઉત્કૃષ્ટથી આઠ ભવમાં અને જઘન્યથી એકલવમાં હોય છે. ત્યારબાદ તે સિદ્ધ થઈ જાય છે. એક જીવ શ્રુતસામાયિકના પ્રતિપત્તા ઉત્કૃષ્ટથી અનંતભવામાં હાય છે. આ મિથ્યાશ્રુતની અપેક્ષા જાણવુ' જોઈએ. તેમ જ જઘન્યની અપેક્ષા તે એક ભવમાં શ્રુતસામાયિકના પ્રતિપત્તા હૈાય છે. ત્યારબાદ તે સિદ્ધ થઇ જાય છે. તદુउतम् -'सम्मत्त देखविरया' इत्याहि गाथान। ભાવાય આ પ્રમાણે પૂર્વોક્ત રૂપમાં જ છે. આ પ્રમાણે આ ૨૩ મુંદ્વાર છે.
તથા આકષકનું કથન કરવુ જોઈ એ એક ભવમાં અથવા અનેક ભવામાં વારવાર સામાયિકનું અણુ કરવું તે આકર્ષીક છે. જેમ સમ્યક્ત્વ સામાયિક, વૈશિવરતિ સામાયિક આ ત્રણ સામાયિકાના આકષક એક ભવમાં
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अनुयोगद्वारसूत्रे
सामायिकस्य तूष्कृष्टत एकस्मिन् भवे शतपृथक्त्वसंख्यका आकर्षाः। जघन्यतरत्वेकस्मिन् भवे सर्वेषां सामायिकानां एक आकर्षों बोध्यः । तथा-सम्यक्त्वदेशविरतिसामायिकयो नामवेष कृष्टतोऽसंख्येयसहस्रपृथक्त्वसंख्यका आकर्षा भवन्ति। सर्वविरतिसामायिकस्य नानाभवेषु सहस्रपृथक्त्वसंख्यका उत्कृष्टत आकर्षाः, सामान्येनाऽक्षरात्मकस्य श्रुत सामायिकस्य तु नानाभवेत्कृष्टतोऽनन्त संख्यका आकर्षा भवन्तीति । तदुक्तम्
"तिण्हं सहस्सपुहत्तं, सयं पुहुत्तं च होइ विरईए। एगभवे आगरिसा, एवइया हुंति नायया ॥१॥ दोण्डपुहुत्तमसंखा सहस्सपुहुत्तं च होइ विरईए ।
नाणभवे आगरिसा, सुए अणंता उणायब्वा ॥२॥" छाया-त्रयाणां सारंपृथक्त्वं शतं पृथक्त्वं च भवति विरते।
एकमेव आकर्षाः एतावन्तो भवन्ति ज्ञातव्याः ॥१॥ द्वयोः पृथक्त्वमसंख्याः सहस्रपृथक्त्वं च भवति विरते। नानाभवेष्वाकर्षाः श्रुते अनन्तास्तु ज्ञातव्याः ॥२॥इति॥
॥इति चतुविशतितमद्वारम् ॥२४॥ सामायिक के आकर्ष उत्कृष्ट से एकभव में शतपृथक्त्व होते हैं। जघन्य से समस्त सामायिकों का आकर्ष एकमव में एक ही होता है।
तथा-सम्यक्त्वसामायिक, और देशविरतिसामायिक इन दो सामायिकों के आकर्ष नाना भवों की अपेक्षा उत्कृष्ट से असंख्यात सहस्रपृथक्त्व होते हैं ।सर्व विरतिसाप्राधिक के नानाभवो की अपेक्षा उत्कृष्ट से आकर्षसहस्रपृथक्त्व होते हैं। सामान्य से अक्षरात्मक श्रुत सामायिक के आकर्षक भवों में उत्कृष्ट रूपसे होते हैं । तदुक्तम् - 'तिहं सहस्सपुहत्तं' इत्यादि इन दो गाथाओं का अर्थ यही पूर्वोक्त रूप से हैं। इस प्रकार यह २४ वा द्वार है। ઉત્કૃષ્ટથી સહસ્ત્ર પ્રથકૃત્વ હોય છે. સર્વવિરતિ સામાયિકના આકર્ષે ઉત્કૃષ્ટથી એક ભવમાં શતપૃથકત્વ હોય છે. જઘન્યથી સમસ્ત સામાયિકોના આકર્ષ એક ભવમાં એક જ હોય છે.
તથા સમ્યક્ત્વ સામાયિક અને દેશવિરતિ સામાયિક એ બને સામાયિકના આકર્ષો અનેક પ્રકારના જીની અપેક્ષાએ ઉત્કૃષ્ટથી અસંખ્યાત સહ પૃથક્વ હોય છે. સર્વવિરતિ સામાયિકના અનેક ભવની અપેક્ષાએ ઉત્કૃષ્ટ આકર્ષ સહઅપૃથકૃત્વ હોય છે. સામાન્યથી અક્ષરાત્મક કૃતસામાયિजना ५ भने सोमi पृष्ट ३५थी मत डाय छे. तत-तिण्हं सहस्स पुहत्तं' त्यादि से अन्न आयामोन। म मा पूर्वरित ३५i n छ. मा प्रमाणे मा २४ भु द्वार छे.
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मनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र २४८ अनुगमनामानुयोगद्वारनिरूपणम् ८५७ ___ तथा-स्पर्शीवक्तव्यः, अर्थात्-सामायिकवन्तः कियत क्षेत्र स्पृशन्तीति वकध्यम् । यथा-सम्यक्त्वसर्वविरतिसामायिकवन्तो जीवाः केवलिसमुद्घातावस्थायामुत्कृष्टतो निरवशेष लोक प्रतिपदेशव्याप्त्याऽसंख्येयप्रदेशात्मकमपि लोक स्पृशन्ति, जघन्यतस्तु लोकस्याऽसंख्येयभागं स्पृशन्ति । तथा-श्रुतसामायिकवन्तः केचित् अनुत्तरमुरेचिलिकागल्या समुत्पन्नाश्चतुर्दशरज्ज्वात्मकस्य लोकस्य च एकरज्जुपमाणश्चतुर्दशो भागस्तं सप्तगुणितम् अर्थाद-सप्तरज्ज्वात्मकं लोकभागं स्पृ. शन्ति । तथा-केचित् सम्यग्दृष्टिश्रुतज्ञानिनः पूर्व बद्धनारकायुष्काः पश्चाद् विराधिताऽत्यक्तसम्यक्त्वाः षष्ठपृथिव्यामिलिकागत्या समुत्पद्यन्ते, ते हि लोकस्य
तथा-सामायिफ का-अर्थात् सामायिकवालों का स्पर्श भी कहना चाहिये-अर्थात् सामायिकवाले जीव किसने क्षेत्र का स्पर्श करते हैं-- यह भी कहना चाहिये-जैसे-सम्यक्त्व सामायिकथाले जीव और सर्व विरति सामायिकवाले जीव केवली समुद्घात की अवस्था में प्रतिप्रदेश में व्याप्त हो जाने के कारण उत्कृष्टरूप से समस्त लोक को-असं. ख्यात प्रदेशात्मक भी लोकाकाश को छूते हैं। तथा जघन्य रूप से वे लोक के असंख्यातवें भाग का स्पर्श करते हैं। तथा-श्रुतसामयिकशाली कितनेक जीव अनुत्तरवासी देवों में इलिका गति से उत्पन्न होकर १४ राजू प्रमाण लोक के सात राजू प्रमाण लोक भाग का स्पर्श करते हैं। तथा कितनेक सम्यग्दृष्टि श्रुतज्ञानी कि जिन्होंने पहिले नारक की आयु का बंध कर लिया है और बाद में जिन्होंने विराधित हुए सम्यक्रव को छोड़ा नहीं है ऐसे जीव मरकर इलिका गति से छठी पृथिवी
તથા સામાયિક એટલે કે સામાયિકવાળાઓના સ્પર્શ વિષે પણ કહેવું જોઈએ. એટલે સામાયિકવાળા જ કેટલા ક્ષેત્રને સ્પર્શ કરે છે. આ વિષે પણ કહેવું જોઈએ. જેમ સમ્યક્ત્વ સામાયિકવાળા જી અને સર્વવિરતિ સામાયિકવાળા જી કેવલી સમુદઘાતની અવસ્થામાં પ્રતિપ્રદેશમાં વ્યાપ્ત થઈ જવા બદલ ઉત્કૃષ્ટરૂપથી સમસ્ત લેકને અસંખ્યાત પ્રદેશાત્મક પણ કાકાશને સ્પર્શે છે. તથા જઘન્ય રૂપથી તે લેકના અસંખ્યાતમાં ભાગને સ્પર્શે છે. તથા શ્રતસામાયિકશાલી કેટલાક જીવે અનુત્તરવાસી દેવમાં ઈલિકા ગતિથી ૧૪ રાજુ પ્રમાણ લેકના સાત રાજુ પ્રમાણ લોક ભાગને સ્પર્શે છે. તથા કેટલાક સમ્યગ્દષ્ટિ કૃતજ્ઞાની કે જેમણે પહેલાં નરકાયુને બંધ કરી લીધું છે અને ત્યારબાદ જેમણે વિરાધિત થયેલ સમ્યક્ત્વને ત્યજી દીધેલ નથી, એવા છે
अ० १०८
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अनुयोगद्वारस्ने पश्चचतुर्दशभागान् पश्चरज्जूः स्पृशन्ति । तथा देशविरति सामायिकवन्तोऽच्युत. सुरेषु इलिकागत्या समुत्पना लोकस्य पञ्च चतुर्दशभागान्पश्चरज्जूः स्पृशन्ति, शेषदेवलोकेषु समुत्पन्ना लोकस्य द्वे रज्जू त्रिस्रोरउजूश्चतस्रो वा रज्जूः स्पृशन्तीति । तदुक्तम् - सम्मत्तचरणसहिया, सब लोग फुसइ निरबसे ।
सत्त य चउदसभाए, पंच य मुयदेसविरईए ॥१॥ छाया-सम्यक्त्वचरणसहिताः सर्व लोक स्पृशन्ति निरवशेषम् ।
सप्त च चतुर्दशभागान् पञ्च च श्रुतदेशविरत्योः ॥१॥इति । उपर्युक्तेषु वस्तुषु ये गाथायां नोपलभ्यन्ते, ते च शब्दसंगृहीता बोध्या इति ।
इति पञ्चविंशतितमं द्वारम् ॥२५॥ में उत्पन्न होकर ५ पांच राजू प्रमाण लोक स्पर्श कर्ता माने जाते हैं। तथा-देशविरति सामायिक को धारण करनेवाले जीव अच्युतसुरों में इलिका गति से उत्पन्न होकर लोक के पांच राजू प्रमाण क्षेत्र का स्पर्श करनेवाले होते हैं। शेषदेव लोकों में उत्पन्न हुए ये जीव लोक के दो राजू प्रमाण क्षेत्र का, तीन राजू प्रमाण क्षेत्र का अथवा चार राजू प्रमाण क्षेत्र का स्पर्श करते हैं। तदुक्तम्-'सम्मत्तचरणसहिया' इत्यादि, इस गाथा का अर्थ यही पूर्वोक्त रूप से है । उपर्युक्त कथन के विषय में जो बात गाथा में उपलब्ध नहीं होती है वह यहां 'च' शब्द से संगृहीत हुई है ऐसा जानना चाहिये । जैसे दो राजू तीन राजू अथवा चार राजू स्पर्श करने का कथन इस गाथा में नहीं आया है, सो यह कथन यहां 'च' शब्द से कहा गया है, ऐसा समझ लेना चाहिये । इस प्रकार यह पच्चीसवां द्वार है। મરણ પામીને ઈલિકા ગતિથી છઠ્ઠી પૃથિવીમાં ઉત્પન્ન થઈને પંચ રાજુ પ્રમાણ લેકને સ્પર્શ કરનાર મનાય છે. તથા દેશવિરતિ સામાયિકને ધારણ કરનારા જ અમૃત સુશમાં ઈલિકા ગતિથી ઉત્પન્ન થઈને લેકના બે રાજુ પ્રમાણ क्षेत्रने ५५ ४२ छे. तदुतम्-'सम्मत्तचरणमहिया' इत्यादि थान। અર્થ આ પૂર્વોક્ત રૂપમાં જ છે. ઉપર્યુક્ત કથનના સંબંધમાં જે વાત ગાથામાં ઉપલબ્ધ થતી નથી તે અહીં “જ' શબ્દથી સંગૃહીત થયેલ છે. આમ જાણવું જોઈએ. જેમ બે રાજુ, ત્રણ રાજુ અથવા ચાર રાજુ સ્પર્શ થવાનું કથન આ ગાથામાં આવેલ નથી, તે આ કથન અહીં “' શબ્દથી કહેવામાં આવેલ છે. આમ સમજી લેવું જોઈએ. આ પ્રમાણે આ ૨૫ મુંકાર છે,
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अनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र २४८ अनुगमनामानुयोगद्वारनिरूपणम् ८५९ तथा-सामायिकस्य निरुक्तिः निश्चितोक्ति वक्तव्या। तदुक्तम्
"सम्मदिहि अमोहो, सो ही सम्भावदसणं बोही।
अविवज्जओ सुदिट्ठि, त्ति एवमाई निरुत्ताई ॥१॥" छाया-सम्यग्दृष्टिरमोहः शोधिः सद्भावो दर्शनं बोधिः ।
__ अविपर्ययः सुदृष्टिरित्येवमादीनि नामानि ॥१॥इत्यादि। ॥इति षड्विंशतितमं द्वारम्॥२६॥ इति पविंशति द्वारात्मकस्य गाथाद्वयस्य संक्षेपार्थः ___ इत्थं च उपोद्घातनियुक्त्यनुगमो निरूपितो भवतीति सूचयितुमाह-'स एष उपोद्घातनिर्युक्त्यनुगम इति ॥मू० २४८॥
अथ सूत्रस्पर्शकनियुक्त्यनुगमं निरूपयति
मूलम्-से किं तं सुत्तप्फासियनिज्जुत्ति अणुगमे ? सुत्तप्फासियनिज्जुत्ति अणुगमे-सुत्तं उच्चारेयव्वं अक्खलियं अमिलियं अवचामेलियं पडिपुण्णं पडिपुण्णघोसं कंट्रोट्रविप्पमुकं गुरुवयणोवगयं। तओ तत्थ णनिहिति ससमयपयं वा परसमयपयं
छब्बीसवें द्वार में सामायिक की निरुक्ति करना चाहिये-निश्चित उक्ति का नाम निरुक्ति है। तदुक्तम्-'सम्मदिदि अमोहो' इत्यादि गाथा का भावार्थ-यह है कि 'सम्यग्दृष्टि, अमोह, शोधि, सद्भाव, दर्शन, बोधि, अविपर्यष सुदृष्टि इत्यादि ये नाम एक सामायिक के है। यह २६ वां द्वार है । इस प्रकार यह दो गाथाओं का संक्षेपार्थ है। इस प्रकार से उपोद्घात नियुक्त्यनुगम का यह निरूपण है । यही बात (से तं उवग्घाय निज्जुत्ति अणुगमे) इस सूत्र पाठ द्वारा सूत्रकार ने प्रकट की हैं । सू० २४८ ॥
૨૬ માં દ્વારમાં સામાયિકની નિરુકિત કહેવી જોઈએ. નિશ્ચિત ઉક્તિને नाम निहित छे. तदुतम-सम्मदिट्ठि अमोहो' त्या माथा मापा । प्रमाणे छ , 'स५ ष्ट, सभा, शधि, समाव, शन, माधि, भवि५ર્થય, સુદષ્ટિ ઇત્યાદિ, આ નામે એક સામાયિકના છે, આ ૨૬ મું દ્વાર છે. આ પ્રમાણે બે ગાથાઓને સંક્ષેપાર્થ છે. આ પ્રમાણે ઉપઘાત નિયંકત્યનુआभनु मा नि३५४ छ. ४ पात (से तं उवग्यायनिज्जुत्तिअणु गमे) ॥ સૂત્રપાઠ વડે સૂત્રકારે પ્રકટ કરી છે. સૂત્ર-૨૪૮
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अनुयोगद्वारस्त्र वा बंधपयं वा मोक्खपयं वा सामायियपयं वा णो सामाइय पयं वा। तओ तम्मि उच्चारिए समाणे केसिं च णं भगवंताणं केइ अस्थाहिगारा अहिगया भवंति, केइ अत्थाहिगारा अणहिगया भवंति। तओ तेसिं अगहिगयाणं-अहिगमणट्टाए पयं पएणं वन्नइस्लामि--संहिया य पयं चेव, पयत्थो पयविग्गहो। चालणा य पसिद्धी य, छन्विहं विद्धि लक्खणं ॥” से तं सुत्तप्फासियनिज्जुत्ति अणुगमे। से तं निज्जुत्तिअणुगमे। से तं अणुगमे ॥सू० २४९॥ ___ छाया-अथ कोऽसौ सूत्रस्पर्शकनियुक्त्यनुगमः ? मूत्रस्पर्शकनियुक्त्य नुगमः-सूत्रम् उच्चारयितव्यम् अस्खलितम् अमीलितम् अव्यत्यानेडितं प्रतिपूर्ण प्रतिपूर्णघोष कण्ठोष्ठविप्रमुक्त गुरुवाचनोपगतम् । ततस्तत्र ज्ञास्यते स्वसमयपदं वा परसमयपदं वा बन्धपदं वा मोक्षयदं वा सामायिकपदं वा नो सामायिकपदं चा। ततस्तस्मिन् उच्चारिते सति केषां च खलु भगवतां केचित् अर्थाधिकाराः अधिगता भवन्ति, केचित् अर्थाधिकारा अनधिगता भवन्ति । ततस्तेषाम् अन. धिगतानाम् अधिगमनाथं पदं पदेन वर्णयिष्यामि-'संहिता च पदं चैव, पदार्थ पदविग्रहः । चालना च प्रसिद्धिश्च. षड्विध विद्धि लक्षणम् ॥" स एप सूत्रस्पर्शक नियुक्त्यनुगमः । स एष नियुक्त यनुगमः। स एषोऽनुगमः ॥५० २४९॥
टीका-'से कि तं' इत्यादि
शिष्यः पृच्छति-अथ कोऽसौ सूत्रस्पर्शकनियुक्त्यनुगमः ? इति । उत्तरयतिसूत्रस्पर्शकनियुक्त्यनुगमः-सूत्रं स्पृशतीति सूत्रस्पर्शिका, सा चासौ नियुक्ति
अब सूत्रकार सूत्रस्पर्शक नियुक्ति अनुगम का निरूपण करते हैं'से किं तं सुत्तप्फासिय' इत्यादि ।
शब्दार्थ-शिष्य पूछता है-कि (से कि तं सुत्तफासियनिज्जुत्तिअणु. गमे ?) हे भदन्त ! वह पूर्वपक्रान्त स्त्रस्पर्शकनियुक्ति अनुगम क्या है ?
હવે સૂત્રકાર સૂત્ર સ્પર્શક નિર્યુક્તિ અનુગામનું નિરૂપણ કરે છે'से कि तं सुत्तफासिय' इत्यादि ।
शाय:-शिष्य प्रश्न परे है (से कि तं सुत्तप्फासिय निम्जुत्ति अणुगमे ?) 3 RE ? ते पू त सूत्र२५४ नियुति अनुराम शुछे!
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अनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र २४९ सूत्रस्पर्शकनियुक्त्यनुगमनिरूपणम् ८६१ अति सूत्रस्पर्श कनियुक्तिस्तस्यास्तद्रूपो वा ऽनुगमः-एवं विज्ञेयः, यथाहि-सूत्रम् उच्चारयितव्यम् , कथमुच्चारयितव्यम् ? इत्याह-अस्खलितम् अमीलितम् अव्यत्या. प्रेडितम् पतिपूर्ण प्रतिपूर्णघोषं कण्ठोष्ठविप्रमुक्तमिति । अस्खलितादिपदानामोंऽत्रैव द्रव्यावश्यकपस्तावे निरूपितस्तथैवात्रापि बोध्यः । अस्खलितादिपदैः सूत्रदोष
उत्तर--( सुत्तप्कासियनिज्जुत्ति अणुगमे) सूत्रस्पर्शकनियुक्ति अनुगम में सूत्र की स्पर्शकरनेवाली नियुक्ति का व्याख्यान किया जाता है। इसलिये इसका नाम सूत्रस्पर्शकनियुक्ति अनुगम ऐसा हुआ है। अथवा-सूत्रस्पर्शकनियुक्ति अनुगम में सूत्र को स्पर्श करनेवाला नियुक्तिरूप अनुगम होता है। इसलिये इसका नाम सूत्रस्पर्शक नियुक्तिअनुगम है । यह इस प्रकार से जानना चाहिये-(सुत्तं उच्चारेयन्व) इसमें सर्व प्रथम सूत्रका उच्चारण किया जाता है-इसके उच्चारण करने की विधि इस प्रकार से है। (अक्खलियं अमिलियं, अवच्चामेलियं, पडिपुण्णं, पडिपुण्णघोसं कंट्रोढविष्पमुक्के, गुरुवायणोवगयं) सूत्र का उच्चारण अस्खलित हो, अमीलित हो, व्यत्यादंडित हो, प्रतिपूर्ण हो, प्रतिपूर्णघोषवाला हो, कंठोष्टविषमुक्त हो, तथा गुरुवचनोपगत हो । इन अस्खलित आदि पदों की व्याख्या इसी आगम में द्रव्यावश्यक के प्रकरण में की जा चुकी है। सो उसी प्रकार से यहां पर भी वही व्याख्या संगत कर लेनी चाहिये । अस्खलित आदि पदों से सूत्र
उत्तर:--(सुत्तप्फासियनिज्जुत्ति अणुगमे) सूत्र:५श नियुति मनुगममा સૂત્રને સ્પર્શ કરનારી નિયુક્તિનું વ્યાખ્યાન કરવામાં આવે છે. એથી આનું નામ સૂત્રપર્ણકનિયુક્તિ અનુગમ આ પ્રમાણે છે. અથવા સૂત્રસ્પર્શક નિયુક્તિ અનગમમાં સૂત્રને સ્પર્શ કરનાર નિયુક્તિ રૂપ અનુગમ હોય છે, એથી આનું નામ સૂત્રસ્પર્શ કનિર્યુક્તિ અનુગમ છે. मा प्रमाणे वुले (सुत्तं उच्चारेयव्वं) मेन स्यानी विधि मा प्रमाणे छे. (अक्खलिय अमिलिय' अवच्चामेलिय पडिपुण्णं, पडिपुण्णा. घोसं कंठोटविप्पमुक्कं, गुरुवायणोवगय) सूत्रनु उप्यारय समासत ते હેય, અમીલિત હેય, અવ્યત્યાગ્રંડિત હય, પ્રતિપૂર્ણ હય, પ્રતિપૂર્ણ શેષ યુક્ત હોય, કઠણ વિપ્રમુક્ત હોય, તથા ગુરુવચને પગત હોય. આ અખલિત વગેરે પદોની વ્યાખ્યા આ આગમમાં જ દ્રવ્યાવશ્યકના પ્રકરણમાં સ્પષ્ટ કરવામાં આવી છે. તે જિજ્ઞાસુઓ ત્યાંથી જાણીને અહીં તેની સંગતિ બેસાડી લેશે.
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अनुयोगद्वारसूत्रे परिहार उक्तः। एषामुपलक्षणत्वादितोऽन्योऽपि मूत्रदोपपरिहारो बोध्यः । यथा हि
'अप्पग्गंधमहत्यं, बत्तीसादोसविरहियं जं च ।
लक्खणजुतं सुनं, अट्ठहि य गुणेहि उपवेयं ॥ छाया--अल्पग्रन्थमहार्थ, द्वात्रिंशदोषविरहितं यच्च ।
लक्षणयुक्तं सूत्रम् , अष्टभिश्च गुणैरूपेतम् ॥इति॥ अयं भावः-अल्पग्रन्थमहार्थम्- अल्पग्रन्धं च तद् महाथ चेति अल्पग्रन्थमहार्थम्'उत्पादव्ययध्रौव्ययुक्त सत्' इत्यादि सूत्रम् अल्पग्रन्थ महार्य च भवतीत्यर्थः । तथा-यच्च द्वात्रिंशद्दोषरहितं भवति तत् सूत्रं भवति । सूत्र हि द्वात्रिंशदोपैर्जितं सूत्रं भवति ते द्वात्रिंशदोषाः के ? इति जिज्ञासा संभवेदतस्तानाह
"अलियमुबघायजणयं निरत्यगमपत्थयं छलं दुहिलं ।
निस्सारमहियमूर्ण पुणरुत्तं वाहयमजुत्तं ॥१॥ दोषों का परिहार किया जाता है। ये सब अस्खलित आदि पद उपलक्षणरूप हैं । इसलिये इनसे और भी जो कोई सूत्र संबन्धी दोष होते हैं-उनका भी परिहार हो जाता है । सूत्रकारों ने सूत्र के लक्षण में यह कहा है कि सूत्र ग्रन्थ की अपेक्षा तो अल्प हो-अल्प अक्षरवाला हो-परन्तु अर्थकी अपेक्षो वह महान् हो-बहुत अधिक विस्तारवाला हो । तथा ३२ जो सूत्र के दोष है। उनसे भी वह रहित हो । ग्रन्थकी अपेक्षा अल्प अक्षरवाला होकर भी अर्थ की अपेक्षा महान् सूत्र जैसे 'उत्पादव्ययप्रौव्ययुक्त सत्' यह है । इसी प्रकार से और भी अनेक सूत्र हैं । जिन ३२ दोषों से वर्जित सूत्र होता है, वे ३२ दोष ये हैं-'अलि. यमुवधायनणय इत्यादि । इनका नामनिर्देश इन चार गाथाओं में અસ્મલિત વગેરે પદેથી સૂત્રને પરિહાર કરવામાં આવે છે. આ સર્વ અખલિત વગેરે પદે ઉપલક્ષણ રૂપ જ છે. એથી એમનાથી પણ જે કંઈ સૂત્ર સંબંધી દેષ હોય છે, તેમને પણ પરિહાર થઈ જાય છે. સૂત્ર લક્ષણમાં આ પ્રમાણે કહ્યું છે કે સૂત્ર ગ્રન્થની અપેક્ષાએ તે અલ્પ હોય અ૫ અક્ષર યુક્ત હોય પરંતુ અર્થની અપેક્ષા તે મહાન હોય, બહુ જ વધારે વિસ્તાર યુક્ત હોય. તથા ૩૨ જે સૂત્રના દે છે, તેમનાથી પણ તે રહિત હોય, ગ્રન્થની અપેક્ષા અપાશ્ચરથી યુક્ત હોવા છતાંએ અર્થની અપેક્ષાએ મહાન सूत्रनी २म "उत्पादव्ययध्रौव्ययुक्तं सत्" २मा छ. 241 प्रमाणे मी पण ઘણાં સૂત્ર છે. જે ૩૨ દેષવર્જિત સૂત્ર હોય છે, તે ૩૨ દેશે આ પ્રમાણે छ:-" अलियमुवघायजणय " त्यादि मेमना नामाप मा थारे यार
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२८
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अनुयोगचन्द्रिका टीका सत्र २४९ सूत्रस्पर्शकनियुक्त्यनुगमनिरूपणम् ८६३
कमभिन्नवयणभिन्ने, विभत्तिभिन्नं च लिंगभिन्न च । अगभिडियमपयमेव य, सभावहीणं ववहियं च ॥२॥ कालजतिच्छविदोसो, समयविरुद्धं च वयणमित्तं च। अस्थावत्ती दोसो, हवइ य असमासदोसो य ॥३॥ उवमारूवगदोसो, निसपयस्थ संघिदोसो य ।
एए य मुत्तदोसा, बत्तीसा हुंति नायव्वा ॥४॥" छाया-अलीकमुपघातजनकं निरर्थकमपार्थकं छलं दुहिलम् ।
निस्सारमधिकमूनं पुनरुक्तं व्याहतमयुक्तम् ॥१॥ क्रमभिनवचनभिन्ने विभक्तिभिन्नं च लिङ्गभिन्नं च । अनभिहितमपदमेव च स्वभावहीनं व्यवहितं च ॥२॥ कालयतिन्छविदोषः समयविरुद्धच बचनमा च। अर्थापत्तिदोषो भवति चासमासदोषश्च ॥३॥ उपमारूपकदोषो निर्देशपदार्थसन्धिदोषश्च ।
एते तु सूत्रदोषा द्वात्रिंशद् भवन्ति ज्ञातव्याः ॥४॥इति॥ इस प्रकार किया गया है-(१) अलीकदोष, (२) अपघातजनक दोष, (३) निरर्थक दोष, (४) अपार्थक दोष, (५) छलदोष, (६) दुहिलदोष, (७) निस्सारदोष, (८) अधिकदोष (९) अनदोष, (१०) पुनरुक्तदोष, (११) व्याहतदोष (१२) अयुक्तदोष, (१३) क्रमभिन्नदोष. (१४) वचनभिन्न दोष (१५) विर्भाक्तभिन्नदोष, (१६) लिङ्गभिन्नदोष, (१७) अनभि. हितदोष, (१८) अपददोष. (१९) स्वभावहीनदोष, (२०) व्यवहितदोष, (२१) कालदोष, (२२) यतिदोष, (२३) छविदोष, (२४) समयविरुद्धदोष, (२५) वचनमात्रदोष, (२६) अर्थापत्तिदोष. (२७) असमासदोष, (२८) उपमादोष, (२९) रूपकदोष, (३०) निर्देशदोष (३१) पदार्थदोष (३२) ગાથાઓમાં આ પ્રમાણે કરવામાં આવે છે. (૧) અલીક દેજ, (૨) ઉપઘાત
न होष, (3) नि२४ १५, (४) मा ४ हप, (५) ७६ होष, (6) दुडिप, (७) निस्सा होष, (८) मधि होष, (८) न होष, (१०) पुनत होष, (११) व्याहत होष. (१२) अयुत होष, (१३) अभभिन्न दोष, (१४) चयन लिन्न ष, (१५) विमति लिन्न होष, (१६) सिंग भिन्न होष, (१७) अनलिहित होष, (१८) अ५६ होप, (१४) समान होष, (२०) व्यवडित होष, (२१) ४ास होष, (२२) यति ष, (२३) छवि दोष, (२४) समय विद्व होष, (२५) क्यन मात्र होष, (२९) अर्थापत्ति होष, (२७) मसमास दोष, (२८) 6५मा देष, (२८) ३५४ होष, (३०) नि २५ होष,
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अनुयोगद्वारसूत्रे ___ अलीकादि द्वात्रिशमूत्रदोषाणां व्याख्या उत्तराध्ययनसूत्रे प्रथमाध्यनस्थ प्रयोविंशतितमगाथाया व्याख्यानेऽस्मस्कृतपियदर्शिनीटीकायां स्पष्टा, तत एव जिज्ञासुभिर्भावनीयेति । एतैर्वात्रिंशत्सूत्रदोष रहितं यत्सूत्रं तद् लक्षणयुक्त मूत्र लक्षणसहितं भवति । तथा-अष्टभिश्च गुणैरुपेतं युक्त सूत्रं लक्षणयुक्त भवति । सूत्रस्याष्टौ गुणाश्च
"निटोसं सारवंतं च, हेउजुत्तमलकियं ।।
उवणीयं सोवयारं च, मियं महुरमेव य ॥" छाया-निर्दोष सारच हेत्युक्तमलकृतम् ।
उपनीत सोपचारच मितं मधुरमेव च ॥इति । केचित्तु मुत्रस्य पड़ गुणानिच्छन्ति यथा
"अप्पकावरमसंदिद्धं, सारवं विस्सओ मुहं ।
अत्योभमणवज्ज च, सुत्तं सवण्णुभासियं ॥" संधिदोष । इन अलीक-आदि ३२ दोषों की व्याख्या, उत्तराध्ययन सूत्र में प्रथम अध्ययन की २३ वीं गाथाके व्याख्यान पर हमारे द्वारा कृत प्रियदर्शिनी टीका में की जा चुकी है। इसलिये जिज्ञासुजन वहीं से इस विषय को समझलें। इन ३२ दोषों से रहित जो सूत्र होता है वह सूत्र लक्षण सहित होता है । तथा आठ गुणों से युक्त होता है। आठ गुणों से युक्त हुआ सूत्र ही लक्षण युक्त होता है । सूत्र के ये आठ गुण ही 'निदोसं सारवंत च' इत्यादि गाथा द्वारा कहे गये हैं। इनके नाम इस प्रकार से हैं--(१) निर्दोष, (२) सारवान् (३) हेतुयुक्त (४) अलंकारयुक्त, (५) उपनीत, (६) सोपचार, (७) मित और (८) मधुर। किसी के मत से सूत्र के ६ ही गुण हैं जो इस (૩૧) પદાર્થ દેષ, (૩૨) સંધિ ષ. આ અલીક વગેરે ૩૨ સૂત્રની વ્યાખ્યા ઉત્તરાધ્યયન સૂત્રના પ્રથમ અધ્યયનની ૨૩ મી ગાથાના વ્યાખ્યાનમાં અમારી પ્રિયદર્શિની વ્યાખ્યામાં કરવામાં આવેલ છે. એથી જિજ્ઞાસુઓ ત્યાંથી જાણવા પ્રયત્ન કરે. આ ૩૨ દેથી રહિત જે સૂત્ર હોય છે, તે સૂત્ર લક્ષણ સહિત હોય છે. તેમજ આઠ ગુણેથી જે યુક્ત હોય છે તે જ લક્ષણ યુક્ત डाय छे. सूत्रना ॥ मा४ गुणे। 'निहोस सारवंतं च' वगेरे या १४ કહેવામાં આવેલ છે. તેમના નામે આ પ્રમાણે છે. (૧) નિદોષ, (૨) સારવાન (3) तुयुत (४) मा२युक्त, (५) ५नीत, (6) सौ५ यार (७) भित भने (૮) મધુર. કેટલાકના મતાનુસાર સૂત્રના ૬ ગુણે માનવામાં આવ્યા છે. જે
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अनुयोगधन्द्रिका टीका सूत्र २४९ सूत्रस्पर्शकनियुक्त्यनुगमनिरूपणम् ८६५ छाया-- अल्पाक्षरमसन्दिग्धं सारवद् विश्वतोमुखम् ।
___अस्तोभमनवधं च सूत्रं सर्वज्ञभाषितम् ॥इति॥
एषां षड्गुणानां पूर्वोक्तेष्वेवान्तर्भावो भवति । एषामपि व्याख्या उत्तराध्ययनसूत्रे तत्रैवावलोकनीयेति । एवं सूत्रानुगमे समस्तदोषवर्जिले सूत्रे समुच्चारिते सति ततस्तत्र पत्रे ज्ञास्यते स्वसमयपद स्वसिद्धान्तसम्मतजीवाद्यर्थपतिपादक पद वा, परसमयपदंपरसिद्धान्तसम्मतमधानेश्वरादिप्रतिपादकं पदं वा ज्ञास्यते । अनयोः-स्वसमयपरसमयपदयोमध्ये यत्परसमयप्रतिपादकं पदं तत्माणिनां कुवा. प्रकार से हैं-(१) अल्पाक्षर (२) असंदिग्ध (३) सारवत् (४) विश्वतोमुख, (५) अस्तोम (३) अनवद्य । इन ६ गुणों का अन्तर्भाव पूर्वोक्त गुणों में ही हो जाता है। इसकी व्याख्या उत्तराध्ययन सूत्र में वहीं पर देखनी चाहिये। (तो तत्थ) सूत्रानुगम में इस प्रकार से समस्त दोषवर्जित सूत्र समुच्चारित होने पर (जिहिति) उस सूत्र में यह बात मालूम देगी कि (ससमयपयं वा परसमयपयं वो बंधपयं वा मोक्खपयं वा सामाइयपयं वा णो सामाइयपयं वा) यह स्वसमयपद है, यह परसमय पद है, यह बन्ध पद है, यह मोक्षपद है, यह सामायिक पद है अथवा नो सामायिक पद है। स्वसिद्धान्त सम्मत जीवादिक पदार्थों का प्रतिपादक णो पद है, वह स्वसमय पद है। परसिद्धान्त सम्मत प्रधान-प्रकृति - ईश्वर आदि का प्रतिपादन करनेवाला जो पद है, वह परसमय पद है। इन स्वसमय और परसमय पद के बीच में जो परसमयप्रतिपादक पद है, वह प्राणियों में कुवा.
मा प्रभार छे. (१) महाक्ष२, (२) असहिग्य, (3) सा२१त् (४) विश्वभुम, (५) सरल, (६) मनवय. ६ गुणाना अन्तर्भाव पूति गुमा જ થઈ જાય છે. એમની વ્યાખ્યા ઉત્તરાધ્યયન સૂત્રમાં આપવામાં આવી છે तो ते त्यांथी ए वी न . (तओ तत्थ) सूत्रानुगममा मा प्रमाणे समस्त दोष रित सूत्र सभुश्यरित पाथी (गज्जिहिति) [ सूत्रथी मा पातारी (ससमयपयं वा परसमयपयं वा बंधपयं वा मोक्खपयं वा सामाइयायं वा णोसामाइयपय वा) मा २१समय ५४ छ, । પરસમય પદ છે, આ બવ પદ છે, આ મેક્ષ પદ છે, આ સામાયિક પદ છે અથવા આ નોસામાયિક પદ છે. સ્વસિદ્ધાન્ત સમ્મત જીવાદિક પદાર્થોનું પ્રતિપાદક જે પદ છે, તે સ્વસમય પદ છે. પરસિદ્ધાન્તસમ્મત પ્રધાનપ્રકૃતિ-ઈશ્વર વગેરેનું પ્રતિપાદક જે પદ છે, તે પરસમયપદ છે. આ સ્વસમય અને પરસમય પદની વચ્ચે જે પરસમય પ્રતિપાદક
अ० १०९
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अनुयोगद्वारसूत्रे सनाहेतुचात् बन्धपदमुच्यते, तच्चापि ज्ञास्यते । तथा-स्वसमयपतिपादकं यत् पदं तत् प्राणिनां सद्बोधकारणत्वात् सकलकर्मक्षयलक्षणस्य मोक्षस्य प्रतिपादकं पदम् , अतस्तन्मोक्षपदम् , तच्चापि ज्ञास्यते । यद्वा-स्वसमयप्रतिपादकं पदमेव मकृतिस्थित्यनुभावप्रदेशलक्षणभेदभिन्नस्य बन्धस्य प्रतिपादकंपदं बन्धपदम् , तथा-कृत्स्नकर्मक्षयलक्षणस्य मोक्षस्य प्रतिपादकं पदं मोक्षपदम् । नन्वस्मिन् व्याख्याने बन्धपदं मोक्षपदं च स्वतमयपदादनतिरिक्तमेव, ततःकथमुभयोर्भेदेनोपन्यासः कृतः । इति चेदाह-यद्यप्युभयमपि स्वसमयपदादभिन्नमेव, तथापि स्व समयपदस्यापि विलक्षणोऽर्थों भवतीतिप्रदर्शयितुं शिष्यबुद्धिवैशधार्थ वा भेदेसना का हेतु होता है, इसलिये बन्धपद कहलाता है । तथा जो स्वस मयपद है, वह प्राणियों में सबोध का कारण होता है, इसलिये वह सकलकर्मक्षयरूप मोक्ष का प्रतिपादक पद होने से मोक्ष पद कहलाता है। अथवा स्वसमय प्रतिपादक ही प्रकृति, स्थिति अनुभाव और प्रदेश के भेद से चार प्रकार के बंध का प्रतिपादक होता है इसलिये वह बंधपद तथा कृत्स्नकर्मक्षय मोक्ष का प्रतिपादक पद मोक्ष पद हैं।
शंका-इस प्रकार का व्याख्यान करने पर बंधपद और मोक्षपद ये दोनों पद स्वसमयपद से भिन्न तो पडते नहीं हैं-फिर यहां पर इन दोनों का स्वतंत्र भेदरूप से उपन्यास क्यों किया है ? ___ उत्तर-ठीक है यद्यपि ये दोनों पद स्वसमयपद से अभिन्न ही हैं, तो भी स्वसमयपद का अर्थ और भी होता है-इस बातको दिखलाने के लिये अथवा-शिष्यजनों की बुद्धि की विशदता के लिये इन दोनों પદ છે, તે પ્રાણીઓમાં કુવાસનાઓને હેતુ હોય છે, એથી આ બન્ધપદ કહેવાય છે. તથા જે સ્વસમય પદ છે, તે પ્રાણીઓમાં દુધનું કારણ હોય છે, એથી તે સકલકર્મક્ષય રૂપ મોક્ષ પ્રતિપાદક હવા બદલ મોક્ષ પદ કહેવાય છે. અથવા સ્વસમય પ્રતિપાદક પદ જ પ્રકૃતિ, સ્થિતિ અનુભાવ અને પ્રદેશના ભેદથી ચાર પ્રકારના બંધનું પ્રતિપાદક હોય છે. એથી તે બંધ પદ, તથા કૃત્ન કર્મક્ષયરૂપ મેક્ષ પ્રતિપાદક પદ મોક્ષ પદ છે.
શંકા –આ જાતનું વ્યાખ્યાન કર્યા પછી બંધ પદ અને મોક્ષ પદ એ બને પદે સ્વ સમય પદથી ભિન્ન તે થઈ જતા નથી, છતાંએ અહીં એ બનેને સ્વતંત્ર ભેદ રૂપથી ઉપન્યાસ શા માટે કરવામાં આવેલ છે.
ઉત્તરા–બરાબર છે, જો કે એ બનને પદે સ્વ સમય પદથી અભિન્ન જ છે, છતાંએ સ્વ સમય પદને અર્થ બીજે પણ થાય છે. આ વાતને સ્પષ્ટ
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अनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र २४९ सूत्रस्पर्शकनियुक्त्यनुगमनिरूपणम् ८६७ नोपन्यासः कृतः । अत एव सामायिकपदं नो सामायिकपदाप भेदेनोपन्यस्तम् । तथा-सामायिकपदं ज्ञास्यते । तथा-सामायिकव्यतिरिक्तानां नारतियगाद्यर्थीनां प्रतिपादकं यत्पदं तद् नो सामायिकपदं, तच्चापि ज्ञास्यते । सूत्रे समुच्चारिते एव स्वसमयादिपरिज्ञानं भवति, स्वसमयादिपरिज्ञानमेव सूत्रोच्चारणस्य फलं बोध्यमिति भावः। तस्मिन् सूत्रे उच्चारिते सति ततः केषांचिद् भगवता पूज्यमुनीनां यथोक्तनीत्या केचिदर्थाधिकारा अधिगता:=परिज्ञाता भवन्ति । तथा-केषांचिद् भगवतां पूज्यमुनीनां क्षयोपशमवैचिच्यात् केचित् अर्थाधिकारा अनधिगता अपरिज्ञाता भवन्ति । ततस्तेषामनधिगतानाम् अर्थाधिकाराणाम् अधिगमनाथ परिज्ञानाय पदेन पदं वर्णयिष्यामि पदों का भिन्नरूप से उपादान किया गया है । इसीलिये सामायिकपद तथा नो सामायिक पद ये दोनों पद भी भिन्नरूप से उपन्यस्त किये गये हैं । सामाधिक से व्यतिरिक्त नारक, तिर्यग् आदि अर्थों का प्रति. पादक जो पद हैं वह नो सामायिक पद है। सूत्र के समुच्चरित होने पर ही स्वसमयादि का परिज्ञान होता है, इसलिये स्वसमयादि का परिज्ञान ही सूत्रोच्चारण का फल है ऐसा जानना चाहिये। (तओ तम्मि उच्चारिए समाणे केसिं च णं भगवंताणं केइ अस्थाहिगारा अहिगया भवंति) तथा-उस सूत्र के समुच्चारित होने पर कितनेक भगवंत-पूज्यमुनियों को अधिकार अधिगत-परिज्ञात हो जाते हैं। (केह अस्थाहिगारा अणहिगया भवति) तथा कितनेक अर्थाधिकार, क्षयोपशम की विचित्रता से अनधिगत रहते हैं । (तओ तेसिं अणहि गयाणं अहिगमणट्ठाए पयं पएणं वन्नइस्सामि) इसलिये उन मुनिजनों કરવા માટે અથવા શિષ્યજનેની બુદ્ધિની વિશદતા માટે એ અને પદનું નિરૂપમાં ઉપાદન કરવામાં આવેલ છે. એથી જ સામાયિક પદ તથા ને સામાયિક પદ એ બન્ને પદે પણ ભિન્ન રૂપથી ઉપન્યસ્ત કરવામાં આવેલા છે. સામાયિકથી વ્યતિરિક્ત, નારક, તિર્યગૂ વગેરે અર્થોના પ્રતિપાદક જે પદે છે, તે નેસામાયિક પદ છે. સૂત્રના સમુચ્ચારણથી જ સ્વસમયાદિકનું વિજ્ઞાન થાય છે, એથી સ્વ સયાદિનું પરિજ્ઞાન જ સૂત્રોચ્ચારણનું ફળ છે. એમ MEI नये. (तओ तम्मि उच्चारिए समाणे केसिं च ण भगवंताणं केइ अत्थाहिगरा । अहिगया भवंति) तथा ते सूत्रना समुच्याथा टस मत - यमुनिमान। अर्थाधि२-मधिगत-परिज्ञान-थ लय छे (केइ अस्थाहि गारा अणहिंगया भवंति) तथा ४८मा अाधिता, क्षयोपशमनी, वियतया मनधिशत २ छे. (तओ तेसिं अणहिगयाणं अहिगमणद्वाए पयं पएणं वनइ
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८६८
अनुयोगद्वार
वर्णयामि एकैकं पदं प्रज्ञापयामीत्यर्थः । व्याख्यानमकार मेवाह - 'संहिया य पयं चेव' इत्यादि । तत्र संहिता अस्खलित पदोच्चारणम्, यथा- 'करेमि भंते! सामाइयं' इत्यादि || १ || पदं - सुप्तिङन्तरूपम्, यथा- 'करेमि ' इत्येकं पदम्, 'भंते' इति द्वितीय पदम्, 'सामाइयं' इति तृतीयं पदम् ||२|| पदार्थ = 'करेमि' इत्यभ्युपगमः, 'भंते' इति गुमन्त्रणम्, 'सामाइयं' इति समस्य आयः रत्नत्रयलाभः ||३|| पदविग्रहः = प्रकृतिप्रत्ययविभागरूपो विस्तारः, यथा समस्य आय:- समायः स एव सामायिकमिति ||४|| चालना = मूत्रस्य अर्थस्य वाऽनुपपत्त्युद्भावनम् ||५|| प्रसिद्धि : = द्वारा अनधिगत अधिकारों का उन्हें अधिगम हो, इस निमित्त पद से पद का वर्णन करता हूँ । अर्थात्-एक-एक पद की प्रज्ञापना करता हूँ। (संहिया य पयं चेत्र पघत्थे। पयविग्गहो । चालणा य पसिद्वीप, छव्विहं विद्धि लक्खणं) अस्खलितरूप से पद का उच्चारण करना इसका नाम संहिता है । जैसे- 'करेमि भंते सामाइये' इत्यादि । सुबन्त और तिगन्त प्रतिपादिक शब्द की पद संज्ञा होती है। जैसे 'करेमि ' यह प्रथम तिङ्गलपद है, 'भंते' यह द्वितीय सुबन्त पद है । 'सामाइयं' यह तीसरा पद है । पद के अर्थ का नाम पदार्थ है- 'जैसे करेभि' करता हूं का अर्थ सामायिक करने का अभ्युपगम होता है । 'भंते' यह गुरुजनों के लिये आमंत्रण है । तथा-समरूप रत्नत्रय का आय-लाभ - यह सामायिक पद का अर्थ हैं। प्रकृति प्रत्यय का विभागरूप जो विस्तार है-वह पदविग्रह है । 'जैसे समस्य आयः समायः समाय एव सामायिकम् ' सूत्र की अथवा अर्थ की अनुपपत्ति का उद्भावन करना इसका नाम स्वामि) मेथी ते मुनिओ वडे अनधिगत व्यर्थाधिकारी तेभने अधिगम होय,
આ નિમિત્તપદથી વર્ણન કરું છું, એટલે કે એક એક પન્નુની પ્રજ્ઞાપના કરું छु. ( संहिया य पयं वेत्र पयत्यो पयविग्गगहो । चालणा य पसिद्धीय छव्विहं विद्धि लक्खणं) मस्यसित ३पथी पहनु उभ्यारण १२ ते सहिता छे. प्रेम 'करेमि भंते सामाइयं' इत्यादि सुत भने तिङ्गन्त प्रतिपादित शब्दनी यह संज्ञा थाय छे. प्रेम 'करेमि' आ यह तिङगन्त यह छे. 'भंते' मा द्वितीय सुत यह छे. 'सामाइयं' था तृतीय यह छे, पहना अर्थनुं नाम पहार्थ छे. प्रेम 'करेमिनो अर्थ' सामायिक श्वानो सभ्युगम होय छे. 'भंते' मा ગુરુજીના માટે આમંત્રણ છે. તથા સમરૂપ રત્નત્રયના આય-લાભ-આ સામાયિક પદના અથ છે. પ્રકૃતિ પ્રત્યયના વિભાગ રૂપ જે વિસ્તાર છે, તે यहविग्रह छे. प्रेम ' समस्य आयः समायः समायः एव सामायिकम्' सूत्रनी અથવા અંની અનુપપત્તિનું ઉર્દૂભાવન કરવું તે ચાલના છે. સૂત્ર અને તેના
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अनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र २४९ सूत्रस्पर्शकनिर्युक्त्यनुगमनिरूपणम् ८६९ सूत्रार्थयोरेव विविधयुक्तिभिस्तथैव स्थापना ॥६) एवं संहितादिरूपं पविधं लक्षणं विद्धिजानीहि पविधलक्षणत्वं च प्रक्रमाद् व्याख्याया बोध्यमिति । ननु व्या. ख्यायाः पडू विधलक्षणमध्ये कियान मृत्रानुगमस्य विषयः ? कियान मुत्रालाप कस्य ? कियान वा मूत्रस्पर्शकनियुक्त्यनुगमस्य ? किं वा नयैर्विषयी क्रियते ? इति चेदाह-सूत्रं सपदच्छेदमुक्त्वा मूत्रानुगमः कृतार्थों मप्रति । सूत्रानुगमेन सूत्रे समु. चारिते पदच्छेदे च कृते सूबालापकानामेव जामस्थापनादिनिक्षेपमात्रमुक्त्वा चालना है। सूत्र और उसके अर्थ का विविध युक्तियों द्वारा उसी प्रकार से जैसा कि वह है, स्थापन करना यह प्रसिद्धि है। इस प्रकार से यह छह प्रकार की सूत्र व्याख्या का लक्षण जानना चाहिये ।
शंका-व्याख्या के इस पविधलक्षण के बीच में सूत्रानुगम का विषय कितना है ? कितना सूत्रालापक का विषय है? कितना सूत्रः स्पर्शक नियुक्त्यनुगम का विषय है। तथा नय का विषय क्या है ? ____ उत्तर--पदच्छेद सहित सूत्र को कहकर सूत्रानुगम कृतार्थ होता है । अर्थात् सूत्रानुगम का विषय तो इतना ही है कि, वह पदच्छे । युक्त सूत्र का उच्चारण करे। सूत्र का उच्चारण करना, उसके पदच्छेद करना यह सूत्रानुगम का कार्य है। जब यह कार्य सूत्रानुगम कर चुकता है, तब सूत्रालापक निक्षेप का यह कार्य होता है कि-'वह सूत्रालापकों को नाम, स्थापना आदि निक्षेत्रों से निक्षिप्त करता है अर्थात અર્થની વિવિધ યુક્તિઓ વડે, જે પ્રમાણે તે છે તે પ્રમાણે જ સ્થાપના કરવી આ પ્રસિદ્ધિ છે. આ પ્રમાણે આ ૬ પ્રકારની સૂત્ર વ્યાખ્યાનું લક્ષણ જાણવું જોઈએ.
શંકા –વ્યાખ્યાના ષવિધ લક્ષણની વચ્ચે સૂત્રાનુગામને વિષય કેટલે છે? કેટલે સૂવાલા પકને વિષય છે? કેટલે સૂત્રસ્પર્શક નિયંત્યનગમને વિષય છે? તથા નયનો વિષય કેટલું છે?
ઉત્તરઃ–પદ છેદ સહિત સૂત્રને કહીને સૂવાનુગમ કૃતાર્થ થાય છે, એટલે કે સૂવાનુગામને વિષય તે આટલે જ છે કે તે પદચ્છેદ યુક્ત સૂત્રનું ઉચ્ચારણ કરે. સૂત્રનું ઉચ્ચારણ કરવું તેને પદ૨છેદ કરે, આ સૂત્રાગમનું કાર્ય છે. જયારે આ કામ સૂવાનુગમ કરી નાખે છે ત્યારે સૂવાલાપક નિક્ષેપનું આ કાર્ય હોય છે કે છે સૂવાલાપકોને નામ, સ્થાપના આદિ નિક્ષેપથી
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___ अनुयोगद्वारसूत्र सूत्रालापकनिक्षेपः कृतकार्यों भवति । ततध पदार्थपदविग्रहादिः सर्वोऽपि सूत्रपर्शकनियुक्त्यनुगमस्य विषयः। तथा--वक्ष्यमाणनेगमादिनयानामपि पायः पदार्थादिविचार एव विषयः। उक्तं चान्यत्रापि
"होइ कयत्थो वोत्तुं, सपयच्छेयं सुयं सुयाणुगमो । सुत्तालावगनासो, नामाइन्नासविणि भोगं ॥१॥ मुत्तप्फासियनिज्जुतिविणिोगो सेसओ पयत्थाई ।
पायं सोच्चिय नेगमनयाइ नयगोयरो होइ ॥२॥ छाया-भवति कृतार्थ उक्त्या सपदच्छेदं सूत्रसूत्रानुगमः ।
सूत्रालापकन्यासो नामादिन्यासविनियोगम् ॥१॥ सूत्रस्पर्शकनियुक्तिविनियोगः शेषकः पदार्थादिः ।
प्रायः स एव नैगमादि नयगोचरो भाति ॥इति।। नया अपि पदार्थादीनेव विषयीकुर्वन्ति, इत्थं च ते तत्वः मूत्रस्पर्शकनियुक्त्यन्तगंता एक भावनीया इति । अनेन प्रकारेण मूत्रे व्याख्यायमाने सुत्रं सूत्रानुगमः सूत्रालापकों को नाम स्थापना आदि निक्षेपों में वह विभक्त करता है। इसी कार्य से यह कृतार्थ हो जाता है। इसके बाद पदार्थ, पदविग्रह आदि जो और काम बचता है, उसे सूत्रस्पर्शक नियुक्त्यनुगम संपादित करता है। तथा-जिनका कथन आगे आनेवाला है-ऐसे जो नैगम आदि सात नय है, इसका भी प्रायः पदार्थ आदि का विचार करना ही विषय है। यही बात अन्यत्र भी कही गई है-होईकयत्यो बोत्तुं, इत्यादि इन गाथाओं का अर्थ पूर्वोक्तरूप से ही है । नैगम आदि नय भी जय पदार्थ आदि को ही विषय करते हैं तब इस दृष्टि से 'वे सूत्रस्पर्शक नियुक्त्यनुगम के ही अन्तर्गत हो जाते हैं' ऐसा जानना નિશ્ચિત કરે છે, એટલે સૂવાલાપને નામ સ્થાપના વગેરે નિક્ષેપમાં તે વિભક્ત કરે છે. આ કાર્યથી જ આ કૃતાર્થ થઈ જાય છે, ત્યારબાદ પદાર્થ, પદ વિગ્રહ વગેરે જે બીજુ કામ બાકી રહે છે તેને સૂપ સ્પર્શક નિત્યના ગમ સંપન્ન કરે છે. તથા જેમનું કથન આગળ થવાનું છે, એવા જે નિગમ વગેરે સાત ન છે, એમને પણ પ્રાયઃ પદાર્થ વગેરે વિષે વિચાર કરે જ
छ. मेरा पात अन्यत्र ५४ ४ाम मावी छे. 'होइ कयत्थो वोत्तं इत्यादि । साथ.स:ना अर्थ पूरित ३५vi ४ छे. नाम मा नय ५५५
જ્યારે પદાર્થ વગેરેને જ વિષય કરે છે. ત્યારે આ દૃષ્ટિએ તે સૂત્ર સ્પર્શક નિયફત્યનગમના અંતર્ગત જ થઈ જાય છે આમ જાણી લેવું જોઈએ.
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अनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र २५० नयस्वरूपनिरूपणम्
८७१
सूत्राला पकनिक्षेपः सूत्रस्पर्श कनिर्यु क्त्यनुगमश्च युगपत् समाध्यन्ते । उक्तं चापि - "सुतं सुत्ताणुगमो, सुत्तालावयकओ य निक्खेवो । सुत्तफासियनिज्जती नया य समगं तु वच्चति ॥ " छाया - सूत्रं सूत्रानुगमः सूत्रालापककृतश्च निक्षेपः । सूत्रस्पर्शक नियुर्निया समक' व्रजन्ति ॥ इति ॥
इथं सूत्रस्पर्शक नियुक्त्यनुगतो निरूपित इति सूचयितुमाह- स एष सूत्रस्पर्शकनियुक्त्यनुगम इति । ततच सभेदोनियुक्त्यनुगमो निरूपित इति सूचयितुमाहस एष नियुक्त्यनुगम इति । एवं च भेदोषभेदसहितोऽनुगमो निरूपित इवि दर्शयितुमाह- स एषोऽनुकम इति ॥ मू० २४९ ॥
अथ नयाभिधं चतुमनुयोगद्वारमाह
मूलम् - से कं तं गए? सत्त मूलणया पण्णत्ता, तं जहागमे संग पवहारे उज्जुसुए सद्दे समभिरूडे एवंभूए । तत्थ णेगेहिं माणेहिं, मिणइति णेगमस्स य निरुत्ती । सेसाणंपि नयाणं, लक्खणमिणमो सुणह वोच्छं ॥ १ ॥ संगहियपिंडियत्थं,
चाहिये । इस प्रकार से सूत्र जब व्याख्या का विषयभूत बनता तब सूत्र, सूत्रानुगम, सूत्रालापक निक्षेप, और सूत्रस्पर्शक नियुक्त्य नुगम ये सब युगपत् एक जगह मिल जाते हैं। उक्तं चापि 'सुप्तं, सुत्तागमो' इत्यादि इस प्रकार यह सूत्रस्पर्शक नियुक्त्यनुगम है । इसका निरूपण समाप्त होने पर नियुक्त्यनुगम का प्रकरण समाप्त हो जाता है और इसकी समाप्ति में अनुगम का कथन समाप्त हो जाता है । इस प्रकार यहां तक भेद उपभेद सहित अनुगम का निरूपण किया ० ॥ २४९ ॥
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9
આ પ્રમાણે સૂત્ર જયારે વ્યાખ્યાના વિષયભૂત થાય છે, ત્યારે सूत्र, સૂજ્ઞાનુગમ, સૂત્રાલાપક નિક્ષેપ અને સુત્ર સ્પશ કનિત્યનુગમ એ સર્વે યુગ यतो स्थाने भाजी लय छे, उस्तथापि - 'सुत्तं सुत्ताणुगमो' त्याहि આ પ્રમાણે આ સૂત્રસ્પ`કનિયુ ત્યનુગમ છે. આ નિરૂપણુ સમાપ્ત થઈ જતાંજ નિયુક્ત્યનુગમ પ્રકરણ સમાપ્ત થાય છે, અને તેની સમાપ્તિ સાથે અનુગમ' કથન પણ સમાપ્ત થાય છે. આ પ્રમાણે અહી' સુધી ભેદ, ઉપભેદ સહિત અનુગમનું નિરૂપણુ કરવામાં આવ્યું છે. । સૂત્ર-૨૪૯ ૫
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अनुयोगद्वारसूत्रे संगहवयणं समासओ विति। वच्चइ विणिच्छियत्थं, ववहारोसम्बदन्वेसु॥२॥ पच्चुप्पन्नग्गाही, उज्जुसुओ णयविहीमुणेयवो। इच्छइ विसेसियतरं, पच्चूप्पण्णे णओ सदो ॥३॥वत्थूओ संकमणं, होइ अपत्थू नए समभिरूढे। वंजपा अत्थ तदुभयं, एवं भूओ विसेसेइ॥४॥ णायंमि गिहियवं, अगिहियव्वंमि चैव अमि। जइयत्वमेव इइ जो उबएसो सो नओ नाम ॥५॥ सबैसिपि नयाणं, बहुविवत्तव्वयं निसामि ता। तं सम्वनय विसुद्धं, जं चरणगुणट्रिओ साह॥६॥से तं नए। अणुओगद्दारा सम्मत्ता॥सू०२५०॥
छाया-अथ कोऽसौ नयः?, सप्त मूलनयाः प्रज्ञताः, तथा-नैगमः संग्रहो. व्यवहार ऋजुमूत्रः शब्दः समभिरूढः एवंभूतः । तत्र-नकर्मानैमिनीतीति नैगमस्य च निरुक्तिः । शेषाणामपि नयानां लक्षणमिदं शृणुत वक्ष्ये ॥१॥ संगृहीतपिण्डितार्थसंग्रहवचनं समासतो त्रुवन्ति । जति विनिश्चितार्थ व्यवहारः सद्रिव्येषुः।२। प्रत्युत्पन्नग्राही ऋजुसूत्रो नयविधिज्ञेयः । इच्छति विशेषिततर प्रत्युतान्न नयः शब्दः ॥३॥ वस्तुनः संक्रमणं भवति अवस्तु नये समभिरूढे । व्यञ्जनार्थ तदुभयम् एवंभूतो विशेषयति ॥४॥ ज्ञाते ग्रहीतव्ये अग्रहीतव्ये चैव अर्थे । यवितव्यमेव इति यः उपदेशः स नयो नाम ॥५।। सर्वेषामपि नयानां बहुविधवक्तव्यकं निशम्य । तत् सर्वनयविशुद्धं यच्चरणगुणस्थितः साधुः ॥६॥ स एष नयः । अनुयोगद्वाराणि समाप्तानि । सू० २५०॥
टीका--अथ कोऽसौ नयः? इति शिष्यप्रश्नः। उत्तरयति-सप्तमूलनया अप सूत्रकार नय नाम के चौथे अनुयोगद्वार का कथन करते है'से किं तं गए' इत्यादि ।
शब्दार्थ-शिष्य पूछता है कि-हे भदन्त ! (से कि तं गए ) बह पूर्वप्रक्रान्त नय क्या है ?
હવે સૂત્રકાર નય નામના ચોથા અનુગદ્વારનું કથન કરે છે. (से कि त णए) इत्यादि
टी -शिष्य प्रश्न छ है नत ! (से किं तं णए) से पूर्व પ્રકાન્ત નય શું છે?
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मनुयोगचन्द्रिका टीका सत्र २५० नयस्वरूपनिरूपणम् पज्ञप्ताः, मूलत्वं चैषामुत्तरभेदापेक्षया बोध्यम् । ते मूलनयाश्च नैगमसंग्रहादयो बोध्याः । तत्र नैगमं व्याख्यातुमाह-'णेगेहि माणेहि' इत्यादि । नैकैः-न एकानि नैकानि-प्रचुराणि तैस्तथाभूतैः मानः महासत्तासामान्यविशेषादिज्ञानमिनोति= परिच्छिनत्ति वस्तूनीति नैगमः, इतीयं नैगमस्य निरुक्तिबोध्या। अथवा-निगमाः 'लोके वसामि तिर्यग्लो केबसामि' इत्यादयः पूर्वोक्ता ए। बहवः परिच्छेदास्तेषु भवो नैगम इत्यपि नैगमशब्दस्य व्युत्पत्तिर्विज्ञेया। शेषाणाम् इतोऽवशिष्टानामपि नयानां लक्षणमिदं शृणुत, यदहं वक्ष्ये ॥१॥ अथ प्रतिज्ञातमेव वक्तुमुपक्रमते'संगहिय' इत्यादि । तीर्थ करगणधरादयो हि संगृहीतपिण्डिताथै सम्यग् गृहीतान
उत्तर--(सत्त मूलणया पण्णत्ता) सात मूलनय कहे गये हैं। इनमें मूलरूपता उत्सरभेदों की अपेक्षा जानना चाहिये । (तं जहा) वे सात. मूल नय ये हैं। (णेगमे, संगहे, यवहारे, उज्जुसुए, सदे, समभिरूढे, एवंभूए) नैगम, संग्रह व्यवहार, ऋजुमूत्र, शब्दसमभिरूड़, और एवं भूत। जो नय (तस्थ गेहिं माणेहि मिणइति णेगमस्स य निरुत्ती) वस्तूनि नैकैः मानः मिनोति इति नैगमः' इस निरुक्ति के अनुसार महासत्ता, सामान्य एवं विशेष आदि प्रचुर ज्ञानों द्वारा वस्तु का परिच्छेद करता है, वह नेगम नय है। अथवा 'लोके वसामि, तिर्यग्लो के वसामि' इत्यादि पूर्वोक्त जो परिच्छेद हैं-उनका नाम निगम है। इन निगमों में जो नय होता है, वह नैगमनय है। यह भी नैगम शब्द की व्युत्पत्ति है। (सेसाणं पि नयाणं लक्खणमिणमोसुणह वोच्छं) इसके बाद जो और छह नय बाकी हैं, उनके इस लक्षण को सुनो-मैं
उत्तर--(सत्त मूलणया पण्णत्ता) सात भूसनयो अपामा मावस छे. भा सभा भूव३५उत्तरोनी अपेक्षा व मे. (तं जहा) ते सात भूख नयो । प्रमाणे छे. (णेगमे, संगहे, ववहारे, उज्जुसुए, सद्दे, समभिरूढे. एवंभूए) नेगम, सड, व्यवहार, ऋ सूत्र, शसभाम३८ भने भून २ नय (तत्थ णेगेहि माणेहिं मिण इति णेगमस्स य निरुत्तीः) 'वस्तूनि नैकैः मानैः मिनोति इति नैगमः' मा निहित भुभम महासत्ता, सामान्य એવી વિશેષ આદિ પ્રચુર જ્ઞાન વડે વસ્તુપરિચ્છેદ કરે છે, તે નિગમ નય છે. अथवा 'लोके वसामि' तिर्यग्लोके वसामि' इत्यादि पूवात २ परिछ? छे, તેનું નામ નિગમ છે. આ નિગમમાં જે નય હોય છે તે નગમનાય છે. मा ५१ नराम शनी व्युत्पत्ति छे. (सेसाणं पि नयाणं लक्खणमिणमोसुणहवोच्छं) त्या२मारे भी नाम शेष छ, तमना सक्ष। अ० ११०
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८७४
अनुयोगद्वारसूत्रे
उपात्तः, अतएव पिण्डितः = एकजातिमापन्नोऽर्थो विषयो यस्य तत्तथाभूतं संग्रहवचनं - संग्रहस्य वचनं समासतः संक्षेपतो ब्रुवन्ति । अयं भावः - संग्रहनयो हि सामान्यमेव इच्छति न तु विशेषान, अत एव संग्रहस्य वचनं संगृहीतसामान्यार्थ - मेव भवति । तत एव संगृह्णाति = सामान्यरूपतया सर्व पदार्थ क्रोडीकुरुते इति संग्रहस्य व्युत्पत्तिरुक्तैति । तथा-व्यवहारो नयः सर्वद्रव्येषु = सकलद्रव्यविषये विनिश्रयात् निःशब्द आधिक्ये, चयनं चयः = पिण्डीभवनम् - अधिकवयो निश्वयः = सामान्यं, विगतो निश्चयो विनिश्चयः = सामान्याभावः, तदर्थं तन्निमित्तं व्रजति= उसे कहता हूं । (संगहियपिंडियस्थं संगहवयणं समासओ बिंति, awar, विणिच्छियत्थं वत्रहारो सव्वद दवेसु) सम्यक् गृहीत अतएव एक जाति को प्राप्त ऐसा अर्थ-विषय है, जिसका ऐसा संग्रह का वचन है इस प्रकार तीर्थंकर गणधर आदि संक्षेप से कहते हैं । इसका तात्पर्य यह है कि - ' संग्रहनय, सामान्य को ही विषय करता है। विशेषों को नहीं । इसलिये संगृहीत सामान्य विषयवाला ही संग्रह का वचन होता है । इसलिये 'सामान्यरूपतया सर्वे पदार्थ संगृह्णाति - कोडीकरोति इति संग्रहः " यह संग्रह की व्युत्पत्ति कही गई है। तथा व्यवहारनय सर्वद्रव्यों के विषय में विनिश्चय के निमित्त प्रवृत्त होता है । विनि
शब्द का अर्थ सामान्याभाव होता है । यह इस प्रकार से यहां 'निः' शब्द का अर्थ आधिक्य है और चय का अर्थ पिण्डीभवन एक रूप होना है। इस प्रकार अधिक जो चय है वह निश्चय अर्थात् सामान्य है क्योंकि सामान्य ही विशेषरूपों की ओर उदासीनता रखकर अधिक
छु' ते सांला - (संगहिय पिंडियत्थं संगहवयणं समासओ विंति वच्चइ, विणिच्य त्थं ववहारो सव्वदव्वेसु) सभ्य गृडीत यतयेव येऊ लतिने आप्त सेवा અથ-વિષય છે. જેને! એવુ' સ'ગ્રહનુ' વચન છે, આ પ્રમાણે તીર્થંકર ગણુધર વગેરે સંક્ષેપમાં કહે છે, આનું તાત્પ આ પ્રમાણે છે કે ‘સ'ગ્રહે નય સામા ન્યને જ વિષય અનાવે છે. વિશેષાને નહિ. એથી સંગૃહીત સામાન્ય વિષય युक्त संग्रहेतुं वथन होय छे. भेटला भाटे 'सामान्यरूपतया सर्व पदार्थ संगृह्णाति - कोडी करोति इति संग्रहः' मा संग्रहनी व्युत्पत्ति छे तथा व्यव દ્વાર નય સવ દ્રવ્યેના વિષયમાં વિનિશ્ચય નિમિત્ત પ્રવૃત્ત થાય છે. વિનિશ્રય શબ્દના અર્થ સામાન્યાભાવ હોય છે. આ પ્રમાણે અહીં ‘નિઃ’શબ્દના अर्थ साधिय छे भने 'चय' नो अर्थ' पिडीलवन मे४३५ थवु छे. या
પ્રમાણે અધિક જે ચય છે તે નિશ્ચય એટલે કે સામાન્ય જ છે કેમકે સામાન્ય જ વિશેષ રૂપેાપ્રત્યે ઉદ્દાસીનતા રાખીને અધિક ચય કરે છે. ‘વિ’ ના અથ વિગત
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अनुयोगका टीका सूत्र २५० नवस्वरूपनिरूपणम्
८७५ प्रवर्त्तते । सर्वद्रव्यविषये सामान्याभावायैव व्यवहारनयः सर्वदा यतते । अयं भावः -लोके तावद्- घटादयो विशेषा एवं प्रायो जलाहरणादिक्रियासु समुपयुज्यन्ते इति सर्वगोचरम्, न पुनस्तदतिरिक्त सामान्यं तत्रोपयुज्यमानं दृश्यते, अतो व्यवहारनयो लोकव्यवहारानुपयोगित्वात् सामान्यं नेच्छति, अत एव लोकव्यवहारप्रधानोऽयं नय उच्यते इति भावः । अथवा व्यवहारनयः सर्वद्रव्येषु = सर्व द्रव्यविषयेषु विनिश्वयार्थ - विशेषेण निश्चयो विनिश्वयः - आगोपालाङ्गनासमस्तजनावबोधः तदर्थं तन्निमित्तं व्रजति = प्रवर्त्तते । अयं मावः - घटादिसमस्तपदार्थेषु वय करता है । 'वि' का अर्थ विगत होता है । इस प्रकार विगत निश्चय का तात्पर्य हुआ सामान्य का अभाव। इसके निमित्त इस नय की प्रवृत्ति होती है । सर्वद्रव्यों के विषय में सामान्य का अभाव आपादन करने के लिये ही यह प्रयत्नशील रहा करता है । यह नय यह कहता है-किं लौकिक व्यवहार में उपयोगी घटादिक विशेष ही होते हैं। क्योंकि इनके द्वारा ही जलाहरण (जललाना) आदि क्रियाएँ निष्पन्न होती हैं । लोक में यह बात सर्वजन गोचर है। इसमें किसी को भी विरोध नहीं है । अतः विशेषों से व्यतिरिक्त सामान्य का लोक व्यवहार में कोई अस्तित्व साबित नहीं होता । इसलिये व्यवहारनय लोक व्यवहार में अनुपयोगी होने के कारण सामान्य को स्वीकार नहीं करता । इसलिये लोक व्यवहार है, प्रधान जिसमें ऐसा यह नय कहा जाता है। अथवा व्यवहार नय सर्व द्रव्यों के विषय में विशेषरूप से निश्चय करने के निमित्त प्रवृत्त होता है, ऐसा भी अर्थ 'विनिश्चयार्थ' का होता है હાય છે. આ પ્રમાણે વિગત નિશ્ચયનું તાત્પર્ય થયું-સામાન્યાભાવ એના નિમિત્તે આ નયની પ્રવૃત્તિ થાય છે. સવ દ્રવ્યેાના વિષયમાં સામાન્યના અભાવ આપાદન કરવા માટે જ આ પ્રયત્નશીલ રહ્યાં કરે છે. આ નય આ પ્રમાણે કહે છે કે લૌકિક વ્યવહારમાં ઉપયાગી ઘટાદિક વિશેષ જ હોય છે. કેમકે એમના વડે જ જલાહરણ (પાણી લાવવું) વગેરે ક્રિયાએ નિષ્પન્ન થાય છે. લેાકમાં આ વાત સજન ગાચર છે. આમાં કોઇને પણ કાઇપણુ જાતના વાંધા નથી. આથી વિશેષાથી વ્યતિરિકત સામાન્યનું લેકવ્યવહારમાં કોઈ પણ પ્રકારનું અસ્તિત્વ સિદ્ધ થતું નથી. એથી વ્યવહારનય લેકવ્યવહારમાં અનુપચેગી ઢાવાથી સામાન્યને સ્વીકારતા નથી, એથી. લેાકવ્યવહાર છે, પ્રધાન જેમાં એવા આ નય કહેવાય છે. અથવા વ્યવહારનય સર્વ દ્રવ્યાના વિષચેામાં વિશેષ રૂપમાં નિશ્ચય કરવા નિમિત્ત પ્રવૃત્ત થાય છે. આ જાતના અથ પણ ‘વિ’ નિશ્ચયાથ ના થાય છે. આના ભાવ આ પ્રમાણે છે કે ઘટાદિક જે
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अनुयोगद्वारसूत्रे प्रत्येक पश्चवर्ण द्विगन्धं पश्चरसमष्ट स्पर्श च यद्यपि निश्चयेन भवति, तथापि गोपालाङ्गनादीनां सर्वत्र तद्विनिश्चयो न भवति, अपि तु यत्र कचिदेकस्मिन् स्थले कालनीलवर्णादीनां विनिश्चयो भवति । यत्रैवैषां विनिश्चयो भवति, तमेवासौ नयः सत्त्वेन प्रतिपद्यते, नातिरिक्तान् , तथाविधलोकव्यवहारपरत्वादिति । तथाऋजुसूत्रो नयविधिः प्रत्युत्पन्नग्राही-साम्प्रतमुत्पन्न प्रत्युत्पन्नम्-वर्तमानकालभावीत्यर्थः, तद् ग्रहीतु शीलमस्येति तथा-ज्ञेयः। अयं भावः-अतीतानागताभ्युपगमरूपकुटिलतापरिहारेण ऋजु अकुटिलं वर्तमानकालिकं वस्तु सूत्रयतिइसका भाव यह है कि-घटादिक जो पदार्थ हैं उनमें प्रत्येक में निश्चय से पांचवर्ण, दो गंध, पांचरस और आठ स्पर्श ये २० गुण होते हैं। तो भी गोपालाङ्गना आदि साधारण जनों को इस बात का सर्वत्र निश्चय नहीं होता है । किन्तु कहीं एक स्थल में ही इन्हें काले नील. वर्ण आदि का निश्चय होता है । जहां पर इनका विनिश्चय होता हैव्यवहारनय उसे ही वहां सत् रूप से अंगीकार कर लेता है-अति. रिक्तों को नहीं। क्योंकि यह नय इसी प्रकार के लोकव्यवहार में तत्पर होता है। तथा-(पच्चुप्पन्नग्गाही उज्जुलुओ णयविही मुणेयव्यो। इच्छा विसेसियतरं पच्चुप्पण्णं णओ सहो) 'ऋजुसूत्र नयविधि प्रत्युत्पन्न ग्राही होता है । प्रत्युत्पन्न ग्राही का तात्पर्य वर्तमानकाल भावी पर्याध को ग्रहण करने का जिसका स्वभाव है, ऐसा है । इसका भाव यह है-कि-'अतीत अनागत पर्याय को मानना यह एक प्रकार की कुटिलता है । इस कुटिलता को नहीं मानकर केवल वर्तमान क्षणवर्ती પદાર્થો છે, તેમાંથી દરેકે દરેકમાં નિશ્ચયથી પાંચ વર્ણ, બે ગંધ, પાંચસો અને આઠ પશે આ બધા ૨૦ ગુણે હેાય છે. છતાંએ ગેપલાંગનાદિ સાધારણ જનેને આ વાતનો સર્વત્ર નિશ્ચય હોતો નથી, પરંતુ કોઈ એક સ્થળમાં જ તેમને શ્યામ, નીલ વગેરે વર્ણને નિશ્ચય હોય છે. જ્યાં એમને વિનિશ્ચય હોય છે, વ્યવહારનય તેને જ ત્યાં સત્ રૂપથી અંગીકાર કરી લે છે, બીજા એને નહિ. કેમકે આ નય આ જાતના લેકવ્યવહારમાં તત્પર હેય छ. तथा (परचुप्पन्नग्गाही उज्जुसुओ णयविही मुणेयव्वो इच्छइ विसेसियतरं पच्चुप्पण्णं णओ सदो) * सूत्रनय विधि प्रत्युत्पन्नाली डाय छे. प्रत्युત્પન્નગ્રાહીનું તાત્પર્ય વર્તમાનકાળ, ભાવી પર્યાયને ગ્રહણ કરવાને જેને સ્વભાવ છે, એવું થાય છે. આને ભાવ આ પ્રમાણે છે કે “અતીત અનાગત પર્યાયને માનવું આ એક પ્રકારની કુટિલતા છે. આ કુટિલતાને નહિ માનતા
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अनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र २५० नयस्वरूपनिरूपणम् गमयति-अभ्युपगच्छति स्वीकरोतीति ऋजुसूत्रः, अतीतानागतयो विनष्टानुत्प नत्वेनासत्त्वात् । असदभ्युपगम एव कुटिलता। वर्तमानकालिकवस्तुन एव सूत्रणात्-स्वीकरणादयजुमूत्र इत्युच्यते इति भावः । अथवा-ऋजुश्रुत इतिच्छाया । ऋजु-अकुटिलं श्रुतमस्येति विग्रहः । इतरज्ञानर्मुख्यतया तथाविधपरोपकारासाध. नादयं नय एक श्रुनज्ञानमेवेच्छतीत्यर्थः । उक्तंच
"मुयनाणे य निउत्तं, केवले तयणंतरं।
अप्पणो य परेसिं च, जम्हा तं परिभावगं"॥ छाया-श्रुतज्ञाने च नियुक्त, केवले तदनन्तरम् ।
आत्मनश्च परेषां च, यस्मात्तत् परिभावकम् ॥इति।। पर्याय को कहनेवाला-माननेवाला यह नय होता है । ऋजु सूत्रयतीति ऋजुसूत्रः' ऐसी यह व्युत्पत्ति है । अतीत और अनागत ये दोनों अवस्थाएँ क्रमशः विनष्ट और अनुत्पन्न होने के कारण असत् रूप होती हैं। असत् का अभ्युपगम यही कुटिलता है । इस कुटिलता का परिहार करके केवल वर्तमान कालिक वस्तु को ही यह स्वीकार करता है-इस लिये इसका नाम ऋजुलूत्र ऐसा पडा है। अथवा 'उज्जुप्तुओ' की संस्कृत छाया 'ऋजुश्रु।' ऐसी भी होती है। जिसका शुत-ऋजु-सरल-अकु. टिल है, ऐसा इसका अर्थ है । इतरज्ञानों से मुख्यपने तथाविध परो. पकार का साधन नहीं होता है, जैसा कि श्रुतज्ञान से होता है। इस लिये यह नय एक श्रुतज्ञान को ही मानता है। उक्त च 'सुयनाणे य निउत्तं केवले तयणतर । अप्पणो थ परेसिं च जम्हा तं परिभावगं'
त वतमान क्षती पर्याय ना२ भानना२ मा नयाय छे. 'ऋजु सूत्रयतीति ऋजुसूत्रः' मेवी ते व्युत्पत्ति छे मातीत भने मनोगत से सन्न અવસ્થાઓ ક્રમશઃ વિનષ્ટ અને અનુત્પન્ન લેવા બદલ અસત્ રૂપ હોય છે. અસત્ અલ્પપગમ જ કુટિલતા છે. આ કુટિલતાને પરિહાર કરીને ફકત વર્તમાન કાલિક વસ્તુને તે સ્વીકાર કરે છે. એથી આનું નામ ઋજુ સૂત્ર मे छे. अथवा 'उज्जुसुओ' नी सकृत छाया 'ऋजुत' सेवी ५६ थाय छे. જેનું શ્રત જુ-સરલ અકુટિલ છે. એ એનો અર્થ છે. ઈતર જ્ઞાનેથી મુખ્યતયા તથાવિધ પરોપકારનું સાધન થતું નથી, જેવું કે શ્રતજ્ઞાનથી थाय छ, मेथी मानय मे श्रुतशानने भान छ. 'सुयनाणे य निउत्तं केवले तयणतरं । अप्पणो य परेसिच जम्हा तं परिभावगं' मही 'परिभावक' शहना
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अनुयोगद्वारसूत्रे परिभावक-प्रतिबोधकमित्यर्थः। अयं नयो वर्तमानकालिकमपि स्वकीयमेव पदार्थमिच्छति, न परकीयम् । परकीयस्य स्वाभिमतकार्यासाधकत्वे नैतन्मतेवस्तुतोऽसत्त्वादिति । तथा चायं नयो विभिन्नलिङ्गवचनैः शब्दैरेकमपि वस्त्वभिधीयते इति प्रतिजानीते । यथा-तटस्तटी तटम् इत्यादि । गुरुर्गुरव इत्यादि च। तथा-चायम्-इन्द्रादेमिस्थापनादिभेदानपि प्रतिपद्यते इति भावः। सम्पति शब्दनय उच्यते-'इच्छई' इत्यादिना । शब्दो नयो हि प्रत्युत्पन्न वर्तमानकालिकमपि पदार्थम् ऋजुसूत्रापेक्षया विशेषिततरम् इच्छति । अयं भावः-शब्द्यते यहां परिभावक' शब्द का अर्थ प्रतिबोध है । यह नय यद्यपि वर्तमानकालिक पदार्थ को ही वास्तविक पदार्थ मानता है। परन्तु फिर भी जो अपना है उसे ही वास्तविक पदार्थ नहीं मानता । क्योंकि वह स्वाभिमत कार्य का साधक नहीं होता है । इसलिये स्वाभिमतकार्य का असाधक होने के कारण इस नय के मत में वह वस्तुतः असत्रूप हैं। तथा-यह नय भिन्न २ लिङ्गोंवाले, भिन्न २ वचनोंवाले शब्दों द्वारा एक ही वस्तु कही जाती है ऐसा मानता है । जैसे-तटः, तटी, तटम्' ये शब्द भिन्न २ लिङ्गवाले हैं-परन्तु इनका वाच्यार्थ केवल एक तीररूप पदार्थ है। इसी प्रकार 'गुरुः गुरवः' ये शब्द भिन्न २ वचन वाले हैं, परन्तु इनका अर्थ एक गुरुरूप पदार्थ हैं-ऐसी इस नय की मान्यता है। इन्द्रादिक का नाम, स्थापना आदिरूप जो न्याम होता है उस न्यास को भी यह मानता है । ऋजु सूत्रनय की अपेक्षा शब्दઅર્થ પ્રતિબંધક છે. આ નય છે કે વર્તમાનકાલિક પદાથને જ વાસ્તવિક પદાર્થ માને છે, પણ છતાંએ જે આપણું છે તેને જ વાસ્તવિક પદાર્થ માને છે, અને પરકીયને વાસ્તવિક પદાર્થ માનતા નથી. કેમકે તે સ્વાભિમત કાર્યને અરાધક હોવા બદલ આ નયના મત મુજબ તે વસ્તુતઃ અસતું રૂપ છે. તથા આ નય ભિન્ન ભિન્ન લિંગવાળા ભિન્ન-ભિન્ન વચનેવાળા શબ્દ पडे से वस्तु अपामा मावी छे, माम भान छ. म 'तटः तटी, तटम' આ શબ્દ ભિન્ન, ભિન્ન લિંગવાળા છે. પરંતુ એમને વાચ્યાર્થ ફકત એક तीर पहा छ. मा प्रमाणे 'गुरुः गुरवः' मा शण्ड निन्न वयनावाला છે, પરંતુ એમને એક ગુરુ રૂપ પદાર્થ છે, એવી નયની માન્યતા છે. ઇન્દ્રાદિકનું નામ સ્થાપના આદિ રૂપ જે ન્યાસ હોય છે. તે ન્યાસને પણ આ નય માને છે. હજુ સૂત્ર ની અપેક્ષા શબ્દ નય સૂમ નયની અપેક્ષા શબદનય પદાર્થને વિશેશિતતાર માને છે. કેમકે વજસુત્ર વિષયયુક્ત કહેવામાં આવેલ છે. જે કે શબ્દ નયને વિષયપણ વર્તમાન
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मनुयोगवन्द्रिका टीका सत्र २५० नयस्वरूपनिरूपणम् अभिधीयते वस्त्वनेनेति शब्दः इति शब्दस्य व्युत्पत्तिः। यो नयो हि समेव गुणीभूतमर्थ मुख्यतयाऽभ्युपगच्छति स नयोऽप्युपचाराच्छन्द इत्युच्यते । मय पदार्थ को विशेषिततर करके मानता है। क्योंकि ऋजुसूत्र की अपेक्षा शन्दनय सूक्ष्म विषयवाला कहा गया है । यद्यपि शब्दनय का विषय भी वर्तमान कालवर्ती पदार्थ ही है-फिर भी इसमें यह फर्क है कि जिस प्रकार ऋजुत्रनय भिन्न २ लिङ्गवाले और भिन्न २ वचन वाले पदार्थों का वाच्यार्थ एक मानता है, उस प्रकार से यह नहीं मानता । इसकी तो ऐसी मान्यता है कि जिन शब्दों का लिङ्ग भिन्न है, वचन भिन्न है उनका वाच्यार्थ भी भिन्न है । शब्दयते वस्तु अनेन इति शब्दः' ऐसी शब्द की व्युत्पत्ति है । नय को शब्द रूप मानने का कारण यह है कि वस्तु शब्द के द्वारा कही जाती है । और बुद्धि उसी अर्थ को मुख्यरूप से मान लेती है। अतः शब्द जन्य यह बुद्धि उपचार से शब्द कह दी गई है। यह बुद्धि यह विचार करती है कि जैसे तीनों कालो में सूत्ररूप एकवस्तु नहीं है किन्तु वर्तमान कालस्थित ही एक मात्र वस्तु कहलाती है, वैसे ही भिन्न २ लिंग वचन आदि से युक्त शब्दों द्वारा कही जानेवाली वस्तु भी भिन्न २ ही है ऐसा माना जाना चाहिसे । ऐसा विचार कर बुद्धिरूप नय लिङ्ग वचनादि के भेद से अर्थ में भी भेद मानने लग जाता है। इस प्रकार से ऋजु કાળવતી પદાર્થ જ છે, છતાંએ આમાં આ જાતને તફાવત છે કે જેમ
જ સૂવનય ભિન્ન ભિન્ન લિંગવાળા અને ભિન્ન ભિન્ન વચનવાળા પદાર્થોને વાગ્યાથે એક માને છે, તેમ આ માનતો નથી. એની તે એવી માન્યતા છે કે જે શબ્દનું લિંગ ભિન્ન છે, વચન ભિન્ન છે, તેમને વાચ્યાર્થ પણ ભિન્ન छ. 'शब्द्यते वस्तु अनेन इति शब्दः' मेवी शनी व्युत्पत्ति छ. नयने । માનવાનું કારણ એ છે કે વસ્તુ શબ્દ વડે જ કહેવામાં આવે છે અને બુદ્ધિ તે અર્થને જ મુખ્ય રૂપમાં સ્વીકારી લે છે એથી શબ્દ જન્ય આ બુદ્ધિ ઉપચારથી શબ્દ કહેવામાં આવી છે. આ બુદ્ધિ આ પ્રમાણે વિચાર કરે છે કે જેમ ત્રણે કાળામાં સૂત્ર રૂપ એક વસ્તુ નથી પરંતુ વર્તમાન કાળ સ્થિત વસ્તુ જ એક માત્ર વસ્તુ કહેવાય છે, તેમજ ભિન્ન ભિન્ન લિંગ, વચન આદિથી યુક્ત શબ્દ વડે કહેવામાં આવેલ વસ્તુ પણ ભિન્ન ભિન્ન જ છે, એવું માની લેવું જોઈએ. આમ વિચાર કરીને આ બુદ્ધિ રૂપ નય લિગ વચનાદિના ભેદથી અર્થમાં પણ ભેદ માનવા તૈયાર થઈ જાય છે. આ પ્રમાણે હજુ સૂત્ર નયની
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अनुयोगद्वारसूत्रे ऋजुसूत्राभ्युपगमापेक्षयाऽयं विशेषित तरमिच्छति । ऋजुसूत्रो हि-तटस्तटी तटम्'इत्यादीन् भिन्नलिङ्गान् शब्दान् 'गुरुगुरवः' इत्यादीन् विभिन्नवचनांश्च शब्दानेका भिधेयत्वेनेच्छति। शब्दनयस्तु-एतान् भिन्नाभिधेयत्वेनेच्छति भिन्नलिङ्गवचनस्वात् , स्त्री, पुरुषः, नपुंसकं, पुरुषः पुरूषा इति शब्दवत् । तथा चायं नयो नामस्थाग्नाद्रव्यरूपानिन्द्रान् नेच्छति, नामादीनामिन्द्र कार्यकरणाक्षमत्वात् , आकाशकुसुमवत् । अस्य नयस्याभ्युपगमे पूर्वनयाऽभ्युपगमापेक्षयेदमेव विशेपिततरत्वं बोध्यम् । तथा चायम्-'इन्द्रः शक्रः पुरन्दरः' इत्यादीन् समानलिङ्गवचनान् , सूत्रनय की अपेक्षा यह नय अपने वाच्यार्थ को विशेषिततर करके मानता है। ऋजु सूत्रनय-तटः तटी तटम् हन भिन्न २ लिङ्गवाले शब्दों का तथा 'गुरुः गुरुवः इन भिन्न २ वचन वाले शब्दों का वाच्यार्य एक ही मानता है, तब शब्द नय 'स्त्री, पुरुषः नपुंसक' पुरुषः पुरुषाः' इन विभिन्न लिङ्ग और बचनवाले शब्दों के जैसा विभिन्न लिङ्ग और बचन धाले शब्दों के वाच्यार्थ को भिन्न २ मानना है । एकवाच्यार्थरूप नहीं। तथा यह नय नाम स्थापना, और द्रव्यरूप इन्द्रों को नहीं मानता। क्योंकि आकाशकुसुम के जैसा ये नामादिक इन्द्र भावान्द्र के कार्य करने में अक्षम हैं ! ऋजुमूत्रनय की अपेक्षा इस नय द्वारा सम्मत पदार्थ में यही विशेषितरतमता है। इस कथन से यह बात स्पष्ट हो जाती है कि-'जब यह नय भिन्न, वचन युक्त शब्दों का वाच्यार्थ भिन्न २ मानता है, तब जिन शब्दों का लिङ्ग एक है, वचन एक है અપેક્ષા આ નય પિતાના વાવાર્થને વિશેષિતતર કરીને માને છે. બાજુ सूत्र नय 'तटः तटो तटम्' मा भिन्न भिन्न शिवाय शहाना तथा 'गुरुः गुरवः' मिन्न - यनवा शोना पाया माने छे. त्यारे श४ नय 'स्त्री, पुरुषः, नपुसकं' पुरषः पुरुषाः' मा विभिन्न संग, વચનવાળા શબ્દોની જેમ વિભિન્ન લિંગ અને વચનવાળા શબ્દોને વાચ્યાર્થ ભિન્ન ભિન્ન જ માને છે, એક વાર્થ રૂપ નહીં. તથા આ નય નામ સ્થાપના અને દ્રવ્યરૂપ ઈન્દ્રને માનતા નથી. કેમ કે આકાશ કુસુમની જેમ આ નામાદિક ઇન્દ્ર ભાઈના કાર્યને કરવામાં અક્ષમ છે. ઋજુ સૂત્રનયની અપેક્ષા આ નય વડે સમ્મત પદાર્થમાં એજ વિશેષિતતરતમતા છે આ કથનથી આ વાત સ્પષ્ટ થઈ જાય છે કે જ્યારે આ નય ભિન્ન, વચન યુક્ત શબ્દને વાગ્યાથ ભિન્ન ભિન્ન માને છે, ત્યારે જે શબ્દોનું લિંગ એક જ છે, વચન
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अनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र २५० नयस्वरूपनिरूपणम् शब्दानेकाभिधेयत्वेनेच्छतीति । तथा-समभिरूढे नये=समभिरूढनरमते वस्तुना= इन्द्रादेरन्यत्र शक्रादौ संक्रमणम् अवस्तु-अवास्तविक भवतीति । अयं भावः वाचकभेदेन भिन्नतया वाच्यविशेषान् समभिरोहति-समभिगच्छति प्रतिपद्यते यः स समभिरूढः इति समभिरूढस्य व्युत्पत्तिः। शब्दनयो हि इन्द्रशक्रपुरन्दरादि शब्दान एकाभिधेयत्वेनेच्छति । समभिरूढनयस्तु तदपेक्षया विशुद्धतरवासान उन शब्दों के वाच्यार्थ में भिन्नता नहीं है । इस प्रकार 'इन्द्रः शक्रः पुरन्दरः' इन शब्दों का वाच्यार्थ एक ही है क्योंकि इन शब्दों में लिङ्ग और वचन की समानता है। (वत्थूओ संक्रमण होह अवस्थूनए समभिरूढे । धजण अस्थ तदुभयं एवंभूओ विसेसेइ ) समभिरूढनय में इन्द्रादिरूप वस्तु का अन्यत्र-शक्रादि-में संक्रमण अवस्तु-अवास्तविक-होता है, ऐसी इस नय की मान्यता है। तात्पर्य इसका यह है कि शादिक धर्म भेद के आधार पर अर्थ भेद करनेवाली घुद्धि ही जब
और भी आगे बढकर व्युत्पत्ति भेद का आश्रय लेने लग जाती है और ऐसा मानने पर कि 'वाचकभेदेन भिन्नतया वाच्यविशेषान् समभिरोहति इति समभिरूढः' जहां पर अनेक जुदे २ शब्दों का एक ही अर्थ मान लिया जाता है वहां पर भी वास्तव में उन सभी शब्दों का एक अर्थ नहीं हो सकता किन्तु जुदा २ ही अर्थ होता है। क्योंकि इस नय की व्युत्पत्ति ऐसी है । शब्दनय इन्द्र, शक, पुरन्दर, आदि शब्दों से छे, शहाना पा२याय मा मिन्नत नथी. मा प्रमाणे इन्द्रः, शक्रः पुरन्दरः' मा शहोना पायाथ से छे. भ. मा शमा सिंग भने क्यननी समानता छ. (वत्थूओ संकमणं होह अवत्थूनए समभिः रूढे। वंजण अत्थ तदुभयं एवंभूओ विसेसेइ) समनि३० नयमां ઈન્દ્રાદિરૂપ વરતુનું અન્યત્ર શક્રાદિમાં સંક્રમણ-અવસ્તુ-અવાસ્તવિક હેય
છે, એવી આ નયની માન્યતા છે. તાત્પર્ય આનું આ પ્રમાણે છે કે શાબ્દિક ધર્મ ભેદના આધાર પર અર્થભેદ કરનારી બુદ્ધિ જ જ્યારે વધારે આગળ વધીને વ્યુત્પત્તિ ભેદના આશ્રયે રહેવા તત્પર થાય છે. અને આમ भान्या पछी -'वाचकभेदेन भिन्नतया वाच्यविशेषान् समभिरोहति इति समभिरूढः' यो भने लिन्न निन्न शहाना ४ म भानवामां आवछ ત્યાં પણ વાસ્તવમાં તે બધા શબ્દને એક જ અર્થ સંભવી શકે જ નહિ, પરંતુ ભિન્ન ભિન્ન અર્થ જ હોય છે. કેમ કે આ નયની વ્યુત્પત્તિ એવી જ છે. શબ્દ નય ઈન્દ્ર, શક્ર, પુરન્દર વગેરે શબ્દોને વાગ્યાથે એક ઇન્દ્રરૂપ
अ० १११
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अनुयोगद्वारसूत्रे भिन्नाभिधेयत्वेनेच्छति, तेषां भिन्नमवृत्तनिमित्तस्वात् , सुरमनुजादिशब्दवत् । तथा हि-इन्दतीति इन्द्रः, शक्नोतीति शक्रः, पुरं दारयतीति पुरन्दरः इत्यादिषु परमैश्वर्यादीनि भिन्नान्येव प्रवृत्तिनिमित्तानि । भिन्नप्रवृत्तिनिमित्तत्वे सत्यपि एकार्थत्वाऽभ्युपगमे घटपटादिशब्दानामप्येकार्थत्वमापयेत । इत्थं चातिप्रसङ्गः का वाच्यार्थ एक इन्द्ररूप पदार्थ मानता है । परन्तु यह नय यह तर्क करता है कि जब लिङ्गादि के भेद से अर्थ भेद होता है-तव शब्दभेद से भी अर्थभेद क्यों नहीं होगा-अवश्य २ होगा। इसीलिये यह नय शब्द की अपेक्षा विशुद्धतरमाना गया है। क्योंकि शब्दनय में तो शब्दों की अपने अर्थ में प्रवृत्ति का निमित्त है ही नहीं और इस मय में है, अतः प्रवृत्ति का निमित्त जब भिन्न २ है तो, मनुज आदि शब्दों के जैसा उन शब्दों का वाच्यार्थ भी भिन्न भिन्न ही है। एक कैसे हो ? जैसे इन्दनीति इन्द्रः-जो परमैश्चर्य का अनुभव करता है, वह इन्द्र है, 'शनोतीति शक्रः 'जो शक्ति शाली होता है, वह शक है, 'पुरं दारयतीति पुरन्दर' जो पुर को विदारित करता है, वह पुरन्दर है, इस प्रकार यह नय इन इन्द्र शक्रादि एकार्थक शब्दों का भी व्युत्पत्ति के अनुसार जुदा २ अर्थ करता है। क्योंकि यहां परमैश्वर्यादिक प्रवृत्ति के निमित्त भिन्न २ ही हैं। शब्दों की प्रवृत्ति के निमित्त परमैश्वर्यादिक भिन्न २ होने पर भी यदि इन्द्रादिक પદાર્થ માને છે. પરંતુ આ નય આ તર્ક કરે છે કે જ્યારે લિંગાદિ ભેદથી અર્થ ભેદ હોય છે. ત્યારે શબ્દ ભેદથી પણ અર્થ ભેદ કેમ નહીં હોય. ચક્કસ થશે જ. એથી જ આ નય શબ્દનયની અપેક્ષાએ વિશુદ્ધતર માનવામાં આવે છે. કેમ કે શબ્દનયમાં તે શબ્દોની પિતાના અર્થમાં પ્રવૃત્તિનું નિમિત્ત છે જ નહિ અને આ નયમાં છે. એથી પ્રવૃત્તિનું નિમિત્ત જ્યારે ભિન્ન ભિન્ન છે ત્યારે મનુજ આદિ શબ્દની જેમ તે શબ્દને વાચ્યાર્થ પણ ભિન્ન ભિન્ન न छे. सेवी शत सवी शछ ? २५ 'इन्द्रतीति-इन्द्रः'२ ५२भैश्वयन अनमति रैछ,तन्द्र छे. 'शक्तोतीति शक्रः' २ शतशाली डाय छ, त श छे. 'पुरं दारयतीति पुरन्दरः' रे पुरने विहारित ४२ छ ते ५२४२ छ. । પ્રમાણે આ નય આ ઈન્દ્ર શાદિ એકાર્થક શબ્દોને પણ વ્યુત્પત્તિ મુજબ ભિન્ન ભિન્ન જ અર્થ કરે છે. કેમકે અહિયાં પરઐશ્વર્યાદિક પ્રવૃત્તિના નિમિત્તે ભિન્ન ભિન્ન છે. શબ્દોની પ્રવૃત્તિના નિમિત્તે પરઐશ્વર્યાદિક ભિન્ન હોવા છતાંએ જે ઈન્દ્રાદિક શબ્દોને વાચ્યર્થ એક જ માનવામાં આવે તે ઘટ-પટ
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अनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र २५० नयस्वरूपनिरूपणम् समापधेत । शब्दनस्य विशुद्धतरत्वाभावात्तन्नयमतेन इन्द्रशक्रयोरेकाभिधेयत्व स्वीकृत्य परमैश्वर्यरूपस्य वस्तुनः शकनलक्षणे वस्त्वन्तरे संक्रमणं क्रियते, तदस्य नयस्य मतेनासम्भवित्वादवस्तु । न हि य एव परमैश्वर्यपर्यायः स एव शकनपर्यायो भवितुमर्हति । अन्यथा तु सर्वपर्यायाणां साङ्कर्यमापद्येत । इत्थं च समभिरूढनयः समानलिङ्गवचनान् इन्द्रशक्रपुरन्दरादिशब्दानपि भिन्नाभिधेयत्वेनैवेच्छतीति बोध्यमिति । एवंभूतो नयस्तु व्यञ्जनार्थ तदुभयम्-पज्यतेऽर्थोऽनेनेति व्यञ्जनं शब्दा, अर्थ:शब्दप्रतिपाद्यरूपः, व्यञ्जनं च अर्थश्च व्यञ्ज नार्थी, तौ च तदुभयं चेतिशन्दा का घाच्या एक ही माना जावे तो घट पट आदि शब्दों का भी अर्थ एक होने का प्रसंग प्राप्त हो सकता है। शब्दनय में विशुद्धतरता का अभाव होने से उस नय की मान्यतानुसार इन्द्र शक्र इन दो शब्दों में एकार्यवाच्यता स्वीकार करके परमैश्व. येरूप इन्द्रवस्तु का शकनलक्षण शक्र, वस्वन्तर में संक्रमण कर लिया जाता है, सो यह संक्रमण इस समभिरूढ नय की मान्यतामें असंभवित होने से अवास्तविक है । क्योंकि जो परमैश्वर्य पर्याय है, वही शकन. पर्याय नहीं हो सकती। नहीं तो समस्त पर्यायों में एकत्व आने से संकरता का प्रसंग प्राप्त होगा। इस प्रकार समभिरूढनय समान लिङ्ग वचनवाले इन्द्र, शक्र पुरन्दर आदि शब्दों को भी भिन्न २ अभिधेयवाला मानता है। ऐसा जानना चाहिये । एवंभूतनय व्यंजन अर्थ
और तदुभय इनको नैयस्धेन स्थापित करता है । व्यञ्जन का अर्थ 'व्यज्यतेऽर्थोऽनेन' इस व्युत्पत्ति के अनुसार शब्द है। क्योंकि शब्द વગેરે શબ્દોને પણ અર્થ એક થવાની સ્થિતિ પ્રાપ્ત થાય છે. શબ્દ નયમાં વિશુદ્ધતરતાને અભાવ હોવાથી તે નયની માન્યતા મુજબ ઈન્દ્ર, શક આ બે શબ્દમાં એકાઈ વાસ્થતા સ્વીકાર કરીને “પરઐશ્વર્ય રૂપ ઈન્દ્ર વસ્તુનું શમન લક્ષણ શક્ર વત્વનતરમાં સંક્રમણ કરી લેવામાં આવે છે. તે આ સંક્રમણ આ સમભિરૂઢ નયની માન્યતામાં અસંભવિત હોવાથી અવાસ્તવિક છે. કેમ કે જે પરમેશ્વર્ય પર્યાય છે, તે જ શકન પર્યાયમાં હોઈ શકે જ નહિ, નહીંતર સમસ્ત પર્યામાં એકત્વ આવવાથી સંકરતાનો પ્રસંગે ઉપસ્થિત થશે. આ પ્રમાણે સમભરૂઢ નય સમાન લિંગ, વચનવાળા ઈન્દ્ર, શક, યુરન્દર આદિ શબ્દની પણ ભિન્ન ભિન્ન અભિધેયવાળી માન્યતા છે. આમ જાણવું જોઈએ.
એવંત નય વ્યંજન અર્થ અને તદુભાય એમને મૈયત્યેન સ્થાપિત કરે છે. व्यतन। मथ-व्यज्यतेऽर्थोऽनेन' मा व्युत्पत्ति भुराम श६ प ५ मा વ્યક્ત કરવામાં આવે છે. શબ્દ વડે જે પ્રતિપાદ્ય હોય છે, તે અર્થ કહેવાય
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ટેટર
अनुयोगद्वारसूत्रे
व्यञ्जनार्थं तदुभयम्, विशेषयति-नैयत्येन स्थापयति-शब्दमर्थेन अर्थ च शब्देन विशेषयतीति यावदिति गाथार्थः । यत्क्रियाविशिष्टं वस्तु शब्देनोच्यते तामेव क्रियां कुर्वर्तीम् एवंभूतमुच्यते, एवं = शब्देनोच्यमानं चेष्टा क्रियादिकं प्रकारं भूतं= प्राप्तमितिव्युत्पत्तेः । एवंभूतवस्तुप्रतिपादको नयोऽप्युपचारादेवम्भूत उच्यते । अथवा शब्देन यश्चेष्टा क्रियादिकः प्रकार उच्यते, तद्विशिष्टस्यैव वस्तुनोऽभ्युपगमात् एवं शब्दप्रतिपाद्योऽत्र चेष्टाक्रियादिकः प्रकारो बोध्यः तं भूतः = प्राप्तो नय एवम्भूतः । अत्रोपचारो नाश्रीयते । तदेवम् एवम्भूतशब्दस्य व्युत्पत्तिर्वोध्या ।
के द्वारा ही अर्थ व्यक्त किया जाता है । शब्द द्वारा जो प्रतिपाद्य होता है, वह अर्थ कहलाता है । व्यञ्जन और अर्थ ये तदुभय शब्द से लिये गये हैं । यह नय शब्द को अर्थ से और अर्थ को शब्द के साथ विशेषित करता है । यही सामान्यरूप में गाधा का अर्थ है। तात्पर्य कहने का यह है कि यह नय इतनी अधिक गहराई में पहुंच कर शब्द के अर्थ का और उस अर्थ को कहनेवाले उस शब्द का विचार करता है कि फिर इसके आगे और कोई कल्पना उद्भवित नहीं होती । तर्कणा फिर यहां हार मान जाती है - वह कहता है कि-'यदि व्युत्पत्ति के भेद से भेद माना जा सकता है, तब तो ऐसा भी मानना चाहिये कि जब व्युत्पत्ति सिद्धअर्थ घटित होता हो तभी उस शब्द का वह अर्थ वाच्यरूप से स्वीकार करना चाहिये तथा उस शब्द के द्वारा उस अर्थ का प्रति पादन करना चाहिये । अन्यथा नहीं । यही इस गाथा का भावार्थ है । जिस क्रिया विशिष्टवस्तु शब्द के द्वारा प्रतिपादित की जाती है,
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છે, વ્યંજન અને અર્થ એ તદુય શબ્દ વડે ગ્રહણુ કરવામાં આવ્યા છે. આ નય શબ્દને અથી અને શબ્દની સાથે વિશેષિત કરે છે, એજ સામાન્ય રૂપથી ગાયાના અર્થ છે. તાપ આ પ્રમાણે છે કે આ નય આટલી ખધી ગંભીરતાથી શબ્દના અર્થ અને તે અર્થને કહેનાર શખ્સ વિષે વિચાર કરે છે કે પછી તે વિષે કાઈપણુ જાતની કલ્પના જ સંભવી શકે નહિ. તર્ક ણા પણ અહી' પરાજિત થઇ જાય છે. તે કહે છે કે ‘જો વ્યુત્પત્તિ ભેદથી ભેદ માની શકાય તે આ પ્રમાણે પણ માનવુ જોઈએ કે ‘જ્યારે વ્યુત્પત્તિ સિદ્ધ અથ ઘટિત થતા હાય તા જ તે શબ્દને તે અથ વાચ્યરૂપથી સ્વીકાર કરવા જોઈએ. તથા તે શબ્દ વડે તે અતુ' પ્રતિપાદન કરવુ' જોઈએ. અન્યથા નહિ, એજ આ ગાથાના ભાવાય છે. જે ક્રિયા વિશિષ્ટ વસ્તુ શબ્દ વડે
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अनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र २५० नयस्वरूपनिरूपणम् अयं नयो घटते योषिन्मस्तकाधारूढश्चेष्टते इति घटशब्दस्य प्रवृत्तिनिमित्तमनुरुध्य यदैवासौ योषिन्मस्तकारूढतया जलाहरणचेष्टावान् भवति तदैवायं घट इति मनुते नान्यदा, तथा तथाविधचेष्टावत एवास्य वाचको घटशब्दो भवति न तु तथाविध चेष्टामकुर्वतो वाचको भवतीति चापि मनुते । एवं चास्य नयस्य मतेन तथाविध चेष्टाया अभावे घटपदार्थे घटत्व, घटशब्दे च घटपदार्थवाचकत्वं नास्तीति गाथाउस क्रिया को करती हुई वह वस्तु एवंभूत कही जाती है। क्योंकि वह वस्तु एवं शब्द से कहे गये हैं उस प्रकार के चेष्टा क्रिया आदि रूप प्रकार को भूत प्राप्त हो रही है। इसलिये वह एवंभूत है ऐसी एवंभूत की व्युत्पत्ति है। इस एवंभूत वस्तु का प्रतिपादक जो नय है, वह भी उपचार से एवंभूत कहलाता है । अथवा-शब्द से जो चेष्टा क्रियादिक प्रकार कहा जाता है, उस प्रकार से विशिष्ट ही वस्तु का इस नय में अभ्युपगम है । इस कारण 'एवं' शब्द द्वारा प्रति. पाद्य जो चेष्टा क्रियादिक प्रकार है, वह इस नय में लिया गया है अतः उस प्रकार को जो नय प्राप्त है, वह एवंभूत है। यहां उपचार का आश्रय नहीं लिया है । इस प्रकार से यह 'एवंभूत' शब्द की व्युत्पत्ति जाननी चाहिये। यह नय 'घटते इति घटः' इस व्युत्पत्ति के अनुसार ही घट को घट मानेगा अर्थात् जय वह स्त्री के मस्तक पर रखा हुआ होगा और जलाद्याहरण क्रियारूप चेष्टाशाली होगा, तभी वह घट शब्द की प्रवृत्ति के निमित्त को लेकर घट शब्द का वाच्य हो सकेगा, પ્રતિપાદિત કરવામાં આવે છે, તે ક્રિયાને કરતી તે વસ્તુ એવંભૂત કહેવામાં આવે છે. કેમ કે તે વસ્તુને શબ્દથી કહેવામાં આવેલ છે. તે પ્રકારના ચેષ્ટા ક્રિયા વગેરે રૂ૫ પ્રકારને ભૂત પ્રાપ્ત થઈ રહી છે. એથી તે એવંદભૂત છે. એવી એવભૂતની વ્યુત્પત્તિ છે. આ એવભૂત વસ્તુને પ્રતિપાદક જે નય છે. તેને પણ ઉપચારથી એવભૂત કહેવામાં આવે છે. અથવા શબ્દની ચેષ્ટા કિય હિક પ્રકાર કહેવામાં આવે છે તે પ્રમાણે જ વિશિષ્ટ વસ્તુને જ આ નયમાં અભુપગમ છે. આ કારણથી “પવ' આ શબ્દ વડે પ્રતિપાદ્ય જે ચેષ્ટા કિયાદિક પ્રકાર છે, તે આ નયમાં ત્રણ કરવામાં આવેલ છે. એથી તે પ્રકારને જે નય પ્રાપ્ત કરે છે, તે એવંભૂત છે. અહીં ઉપચાર:શ્રય ગ્રહણ કરવામાં मावत नथी. मा प्रमाणे मा 'एवंभूत' शनी व्युत्पत्तिवास. मा नय 'घटते इति घटः' । व्युत्पत्ति भुस १४ घटने घट मानते थेट જ્યારે તે સ્ત્રીના મરતક પર મૂકેલ હશે જલાઘાહરણ ક્રિયારૂપ ચેષ્ટાચાલી હશે. ત્યારે જ તે ઘટ શબ્દની પ્રવૃત્તિના નિમિત્તના આધારે ઘટ શબ્દને વાય
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अनुयोगद्वारसूत्र ऽभिपायः । इत्थमुक्ताः सप्त मूलनयाः । एषामुत्तरोत्तरभेदाभेदा अन्यतोऽवसेयाः। एते नयाः परस्पर निरपेक्षाः सन्तो दुनया भवन्ति, परस्परं सापेक्षास्तु सुनया इति । सर्वैश्व सुनय मिलितैः स्याद्वाद इत्यलमतिविस्तरेण । अत्र कश्चित् शङ्कतेननु य एते नया उक्तास्तेषां प्रस्तुतपकरणे किं प्रयोजनमिति चेदाह-प्रक्रान्तं ऐसा यह मानता है। यदि वह घट कहीं दूसरी जगह रखा है, और जलाद्याहरण क्रियारूप चेष्टा से शून्य है तो वह इस नयकी दृष्टि में घट नहीं कहलावेगा। तथा जय घट इस प्रकार की चेष्टा में रत हो रहा होगा-तभी जाकर उसे घर शब्द 'घट' कहेगा-परन्तु जब वह इस प्रकार की चेष्टा नहीं कर रहा होगा-तय उसका घट शब्द वाचक नहीं होगा। ऐसी भी इस नय की मान्यता है। इस प्रकार इस नय के मत से तथाविध चेष्टा के अभाव होने पर घटपदार्थ में घटत्व और शब्द में घटपदार्थ वाचकत्व नहीं होता हैं, ऐसा इस गाथा का अभिप्राय है । इस प्रकार से ये सात मूलनय कहे । इनके उत्तरोत्तर भेद प्रभेद अन्य ग्रन्थों से जानना चाहिये। ये नघ जब परस्पर निर. पेक्ष रहा करते हैं, तब ये दुनय-नयाभास-कहे जाते हैं, और जब ये परस्पर सापेक्षवाद से मुद्रित होते हैं, तब ये सुनय कहलाते हैं। इन सब मिलित सुनयों से स्याद्वाद बनता है । यहां कोई शंका करता है कि -'जो नय यहां कहे गये हैं, उनका प्रस्तुत प्रकरण में क्या प्रयोजन हैं ? થશે. આમ આ માને છે. જે તે ઘટ કેઈ બીજા સ્થાને મૂકવામાં આવેલ હોય અને જલાઘાહરણ કિયા રૂપ ચેષ્ટાથી શૂન્ય હોય છે તે આ નયની દષ્ટિમાં ઘર કહેવાશે નહિ. તથા જ્યારે ઘટ આ જાતની ચેષ્ટામાં રત થઈ રહેલ હશે ત્યારે જ તેને ઘટ શબ્દ 'વટ' કહેશે, પરંતુ જ્યારે તે આ જાતની ચેષ્ટા કરતે નહીં. હોય ત્યારે તે ઘટ શબ્દ વાચક નહીં થશે. એવી પણ આ નયની માન્યતા છે. આ પ્રમાણે આ નયના મત મુજબ તથાવિધ ચેષ્ટાને અભાવ હોવાથી ઘટ પદાર્થમાં ઘટવ અને ઘટ શબ્દમાં ઘટ પદાર્થ વાચકત્વ નહિ થાય, એ આ ગાથાને અભિપ્રાય છે. આ પ્રમાણે આ સાત મૂલ ન કહેવામાં આવ્યા છે. એમના ઉત્તરોત્તર ભેદ પ્રભેદ અન્ય ગ્રન્થોમાંથી જાણું લેવા જોઈએ. આ ને જ્યારે પરસ્પર નિરપેક્ષ રહે છે ત્યારે તેને દુનિય–નયાભાસ કહેવામાં આવે છે, અને જ્યારે એઓ પરસ્પર સાપેક્ષવાદથી મુદ્રિત થાય છે, ત્યારે એ સુનય કહેવાય છે. આ સર્વે મિલિત સુનથી સ્યાહૂવા બને છે. અહીં કોઈ શંકા કરે છે કે જે નય અહીં કહેવામાં આવ્યા છેપ્રસ્તુત પ્રકરણ સાથે તેમને શો સંબંધ છે?
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अनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र २५० नयस्वरूपनिरूपणम्
८८७
सामायिकाध्ययनं हि प्रथममुपक्रमेण उपक्रान्तं भवति, ततो निक्षेपेण यथासंभवं निक्षिप्यते, ततश्चानुगमेन अनुगम्यते, ततः पुनरेतद् नयैर्विचार्यते इति उपक्रान्त सामायिकाध्ययनस्य विश्वारणैव एषां प्रयोजनं बोध्यमिति । ननु यैषा सामायिकाध्ययनस्य नयेर्विचारणा क्रियते, सा विचारणा प्रतिसूत्रमभिप्रेता ? उत वा सर्वाध्ययनस्य ? यदि प्रथमः पक्षोऽभिमतस्तर्हि सोऽयुक्त एव, 'न नया समोयरंति इहं' इत्यनेन कालिकते प्रतिसूत्रं नयविचारस्य प्रतिषिद्धत्वात् । अथ द्वितीयः पक्षदभिमतस्तर्हि सोऽप्ययुक्त एव यतः प्रागुपोद्धारु निर्युक्तत्यनुगमे 'नए समोयार
उत्तर - पूर्वप्रक्रान्त सामायिक अध्ययन सर्व प्रथम उपक्रम से उपक्रान्त होता है । इसका निक्षेप से यथासंभव वह निक्षिप्त होता है । बाद में अनुगम से वह अनुगम्य- ( जानने योग्य) होता है । इसके बाद नयों से उसका विचार किया जाता है । इस प्रकार इनका प्रयोजन है, ऐसा जानना चाहिये ।
शंका- इन नयों से सामायिक अध्ययन की जो विचारणा की जाती है, सो क्या वह हरएक सूत्रकी की जाती है ? या सर्व अध्ययन की ? यदि प्रथमपक्ष को लेकर आप कहो कि - 'हर एक सूत्र की नयों से विचारणा की जाती हैं-सो यह बात ठीक नहीं है क्योंकि 'न नया समोयरंति इहं' इस पाठ द्वारा यह पहिले ही स्पष्ट कर दिया गया है कि 'कालिकत में प्रतिसूत्र में नयविचार नहीं होता है । यदि द्वितीय पक्ष को लेकर आप कहो कि 'समस्त सामायिक अध्ययन का
ઉત્તર:—પૂ પ્રકાન્ત સામાયિક અધ્યયન સર્વ પ્રથમ ઉપક્રમથી ઉપક્રાન્ત હૈાય છે. એના પછી નિક્ષેપથી યથાસ ંભવ તે નિશ્ચિમ હૈાય છે. ત્યાર ખાદ અનુગમથી તે અનુગમ્ય (જાણવા ચેાગ્ય) હાય છે. એના પછી નચાના આધારે તેના વિષે વિચાર કરવામાં આવે છે. આ પ્રમાણે એમના વડે ઉપક્રાન્ત સામાયિક અધ્યયનના વિચાર એજ એમનુ પ્રત્યેાજન છે, આમ જાણવું જોઇએ. શકા:—આ નસે.થી સામાયિક અધ્યયનની જે વિચારણા કરવામાં આવે છે, તે શું દરેકે દરેક સૂત્રની કરવામાં આવે છે? અથવા અધ્યયનની જો પ્રથમ પક્ષના આધારે તમે કહે કે દરેક સૂત્રની નયાના આધારે વિચારણા वामां आवे छे, तो या वात उचित नथी. भ है 'न नया समोयरंति इहूं' આ પાઠ વડે આ વાત પહેલાં જ સ્પષ્ટ કરવામાં આવી છે કે ‘કાલિક શ્રુતમાં પ્રતિસૂત્રમાં નય વિચાર થતા નથી.' જો દ્વિતીય પક્ષના આધારે તમે કહો કે સમસ્ત સામાયિક અધ્યયનના નયના આધારે વિચાર કરવામાં આવે છે તે આ
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Che
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__ अनुयोगद्वारसूत्रे णाणुमए' इत्यत्र समस्ताध्ययनविषयो नयविचार उक्त एव । तथा च-मत्रसमु. दायरूपमेव समस्ताध्ययनम् , समस्ताध्ययने नयैर्विचारिते प्रतिसूत्रमपि नयैर्विचास्तिमेव भवति । इत्थं चापि द्वितीयः पक्षोऽयुक्तः ? इति चेदाह-प्रतिसूत्रं यद् नयविचारः प्रतिषिदः सोऽनुमत एव । सोऽपि च 'आसज्ज उ सोयारं नए नयविसारओ बूया' छाया-'आसद्य तु श्रोतारं नयान् नयविशारदो यात्' इत्यने नापादिक एवानुज्ञातः । यत्तु द्वितीयपक्षमाश्रित्य प्रागुपोद्घातनियुक्तौ समस्ता. ध्यपनषियस्य नयविचारस्योपन्यस्तत्वादत्र पुनस्तदुपन्यासो निरर्थक इत्युक्तं मयों से विचार किया जाता है' सो यह भी अयुक्त ही है, क्योंकि पहिले उपोद्घात निर्युक्त्यनुगम में 'नए समोयारणाणुमए' यहां समस्त अध्ययन विषयवाला नविचार कहा ही जा चुका है । तथा-सूत्रों का समुदाय रूप ही तो समस्त अध्ययन होता है। जब समस्त अध्ययन नयों से विचारित हो जाता है, तो अध्ययन का हरएक सूत्र भी नयों से विचारित हो ही जाता है। इस प्रकार भी द्वितीय पक्ष अयुक्त ठहरता है।
उत्तर--प्रतिसूत्र में नय विचार नहीं होता है क्योंकि वहां प्रति षिद्ध कहा गया है-सो इस बात को तो हम भी मानते हैं। तथा 'आसन्ज उ सोयारं नए नयविसारओ बूया' कहीं २ जो ऐसी बात कही गई कि-'नय विशारद श्रोताजनों के अनुसार नयो का कथन करे' सो यह भी अपवादिक कथन ही माना गया है। जो द्वितीयपक्ष को लेकर यह कहा है कि 'पहिले उपोद्घात नियुक्ति में समस्त अध्ययन पात ५५५ मयुत ४ छ, म पडसा योद्धात नित्यनुगममा "नए समोयारणाणुमए" मडी समस्त अध्ययनवा नय विया२ ४ामा मास જ છે. તથા સૂત્રના સમુદાય રૂપ જ સમસ્ત અધ્યયન હોય છે. જ્યારે સમસ્ત અધ્યયન નયેના આધારે વિચારિત થઈ જાય છે. આ પ્રમાણે દ્વિતીય પક્ષ અયુક્ત સ્થિર થાય છે.
ઉત્તર–પ્રતિસૂત્રમાં નય વિચાર થતું નથી કેમ કે તે ત્યાં પ્રતિષિદ્ધ કહેવામાં આવેલ છે. અને એ વાત તે અમે પણ માનીએ જ છીએ. તથા 'आसज्ज उ सोयारं नए नयविसारओ बूया' मे स्थाने मारीत हेवामा આવ્યું છે કે “નય વિશારદે શ્રોતાઓને પિતાની સમક્ષ રાખીને નાનું કથન કરે તે આ વાત પણ આપવાદિક કથન જ માનવામાં આવેલ છે. જે દ્વિતીય પક્ષને લઈને આમ કહેવામાં આવ્યું છે કે પહેલાં ઉદ્દઘાત નિર્યુક્તિમાં
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मनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र २५० नयस्वरूपनिरूपणम् तदपि सिद्धान्ताज्ञानविलसितमेव, यतश्चतुर्थमनुयोगद्वारमेव नयवक्तव्यताया मूलस्थानम् , अत्र सिद्धानामेव नयानां तत्रोपन्यासः कृतः। यदपि चोक्त-समस्ताध्ययने नयैविचारिते प्रतिमूत्रमपि नयैविचारितमेव भवतीति, तदप्यज्ञानविलसितमेव, समुदायसमुदायिनोः कार्यादिभेदतः कथंचिद् भेदसिद्धः। तथाहि-रथस्य एकैकस्मिन्नवयवेऽपरिदृश्यमानमपि कार्यमवयवसमुदायरूपे रथे समुपलभ्यते । इत्थं चावयवावयविनोः कार्यभेदः सामर्थ्यासामर्थ्यलक्षणो विरुद्धधर्माध्यासश्च प्रत्यक्ष एव । यदि चेत्थं तेऽनभिमतं भवेत्तर्हिसमस्तं विश्वमेकं स्यात् । ततश्च सहोल्पत्तिके विषयवाला नय विचार तो किया जा चुका है, फिर यहां उसका उपन्यास करना निरर्थक ही है' सो यह कथन भी सिद्धान्त सबन्धी अज्ञान को प्रकट करता है क्योंकि-'चौथा जो अनुयोग द्वार है, वही नयवक्तव्यता का मूलस्थान हैं। क्योंकि यहां सिद्ध हुए ही नयों का वहां उपन्यास किया गया है। तथा इस विषय में जो ऐसा कहा गया हैकि-'समस्त अध्ययन नयों द्वारा विचारित हो जाता है, तब हरएक सूत्र भी नय विचार का विषय बन ही जाता है'-सो ऐसा कहना भी उचित नहीं है क्योंकि समुदाय और समुदायी में कार्य आदि के भेद की सिद्धि मानी जाती है। जैसे रथ के एक-एक अवयव में जो काम होता हुआ दिखाई नहीं पड़ता है वह कार्य उन अवयवों के समुदाय रूप रथ में उपलब्ध होता है । इस प्रकार अवयव और अवयवी में कार्य मेद तथा सामर्थ्य असामर्थ्यरूप विरुद्धधर्मों का अध्यास यह सब प्रत्यक्ष ही है। यदि इस प्रकार से तुम्हें समुदाय समुदायी में भेद अनસમસ્ત અધ્યયનના વિનયવાળો નય વિચાર તો કરવામાં આવેલ જ છે, પછી અહીં તેને ઉપન્યાસ કર નિરર્થક જ છે. તે આ કથન પણ સિદ્ધાંત સંબંધી અજ્ઞાનને જ પ્રકટ કરે છે. કેમ કે ચતુર્થ જે અનુગદ્વાર છે તે જ નયવક્તવ્યતાનું મૂલસ્થાન છે. કેમ કે અહીં સિદ્ધ થયેલ નયને ત્યાં ઉપન્યાસ કરવામાં આવેલ છે. તથા આ સંબંધમાં જે આ પ્રમાણે કહેવામાં આવેલ છે કે સમસ્ત અધ્યયન - દ્વારા વિચારિત થઈ જાય છે ત્યારે દરેકે દરેક સૂત્ર પણ નય વિચારને વિષય થઈ જ જાય છે. તે આ રીતે કહેવું ઉચિત નથી. કેમ કે સમુદાય અને સમુદાયમાં કાર્ય આદિના ભેદથી કથંચિત ભેદની સિદ્ધિ માનવામાં આવી છે. જેમ રથને એક–એક અવયવમાં જે કામ થતું દેખાતું નથી તે કાર્ય તે અવયવોના સમુદાય રૂ૫ રથમાં ઉપલબ્ધ થાય છે. આ પ્રમાણે અવયવ અને અવયવીમાં કાર્યભેદ તથા સામર્થ્ય અસામર્થ્યરૂપ વિરૂદ્ધ ધર્મોને અધ્યાસ આ બધું પ્રત્યક્ષ જ છે. જે આ રીતે તમને સમુદાય-સમુદાયીમાં ભેદ અનભિમત હોય તે પછી સમસ્ત વિશ્વ
अ० ११२
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- हा जाताहा
अनुयोगद्वारसूत्रे रपि प्रसज्जेत । न च तथा भवति तस्मात् समुदायसमुदायिनो दः सुस्पष्ट एव । संख्यासंज्ञादिभ्योऽपि तद्भेदो भावनीयः । इत्थं च नयविचारस्य क्वचित् मूत्रविषयता क्वचित समस्ताध्ययनविषयता च निर्दोषैव भवति । भवश्वेवं, तथाऽप्यध्ययनं नये विचार्यमाणं किं सर्वैरेव नयेषिचार्यते ? किंवा कियद्भिरेव ? यदि प्रथमः पक्षः स्वीक्रियते, तर्हि सर्वेषां नयानामसंख्येयत्वेन तैविचारोऽशक्य एव । यतो यावन्तो वचनमार्गास्तावन्त एवं नयाः। उक्तं च--
“जावइया वयणपहा, तावइया चेव होति नयवाया।
जावइया नयवाया, तावइया चेव परसमया ॥" भिमत हो तो फिर समस्त विश्व भी एक हो सकता है और इस स्थिति में सहोत्पत्ति होने का भी प्रसंग प्राप्त होता है। परन्तु ऐसा तो होता नहीं है। अत: समुदाय समुदायो में कथंचित् भेद सुस्पष्ट ही है, ऐसा मानना चाहिये । इसी प्रकार समुदायी में संख्या, संज्ञा आदि से भी भेद सुस्पष्ट है । इस प्रकार नय विचार में कहीं सूत्र विषयता, और कहीं समस्त अध्ययन विषयता निर्दोष ही हो जाती है।
शंका--यह बात भले रहे-परन्तु नयों से जो अध्ययन विचारित होता है-तो क्या वह सब नयों से विचारित होता है। या कुछ ही नयों से विचारित होता है । यदि प्रथम पक्ष स्वीकार किया जाये तो नय तो सब असंख्यात हैं। असंख्यातनयों से अध्ययन का विचार होना अशक्य ही है। क्योंकि ऐसा कहा गया है जितने वचनमार्ग हैं उतने ही नय हैं । 'जावया वषणपहा तावइया चेव होंति नयवाया, जावइया नयवाया, तावइया चेव परसमया'। अपने २ अभिप्राय से પણ એક થઈ શકે છે, અને આ સ્થિતિમાં સહોત્પત્તિ થવાને પણ પ્રસંગ ઉપસ્થિત થાય છે. પરંતુ આમ તે થતું નથી. એથી સમુદાય સમુદાયમાં કથંચિત ભેદ સુસ્પષ્ટ જ છે, આમ માનવું જોઈએ. આ પ્રમાણે સમુદાયસમુદાયમાં સંખ્યા, સંજ્ઞા, આદિથી પણ ભેદ સુસ્પષ્ટ છે. આ પ્રમાણે નય વિચારમાં કેઈક સ્થાને સૂત્ર વિષયતા અને કેઈક સ્થાને સમસ્ત અધ્યયન વિષયતા નિર્દોષ જ સિદ્ધ થઈ જાય છે.
શંકા –આ વાત ભલે રહે. પરંતુ નથી જે અધ્યયન વિચારિત થાય છે, તો શું તે સર્વ નથી વિચારિત થાય છે, કે સ્વ૯૫નાથી વિચારિત થાય છે. જે પ્રથમ પક્ષ સ્વીકાર કરવામાં આવે તે ન બધા અસંખ્યાત છે. અસંખ્યાત નથી અધ્યયન વિચાર અશકય જ છે. કેમ કે આ પ્રમાણે કહેવામાં આવ્યું છે કે જેટલા માર્ગો છે, તેટલા જ ન તે છે. 'जावइया वयणपहा, तावइया चेव होंति नयवाया, जावइया नयवाया, तावइया
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अनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र २५० नयस्वरूपनिरूपणम् छाया-यावन्तो वचनपथास्तावन्त एव भवन्ति नयवादाः ।
___यावन्तो नयवादास्तावन्त एव परसमयाः ॥इति॥ स्वस्वाभिप्रायविरचितानां वचनमार्गाणां संख्या नास्ति, अभिपायाणां प्रायः प्रति पाणिभिन्नत्वात् । एवं च नयानामसंख्येयत्वेन ते विचारः सर्वथाऽशक्य एवेति भावः । अथ द्वितीयः पक्षोऽपि वक्तुमशक्य एव । यतोऽसंख्येयनयेषु कियद्भिनयेविचारणा यदि क्रियेत तहिं अशिष्टैनयैरपि कथं न क्रियेत ? ते विचारणाया अकरणेऽत्र नास्ति कश्चिन्नियामकः, ततश्चानवस्था प्रसज्जेत, तस्मात् द्वितीयः पक्षोऽपि वक्तुमशक्य एव । अथ चेदेवमुच्येत, अस्तु नयानामसंख्येयत्वं, तथापि सकलसंग्राहिभिनयैरेषां विचारो विधीयते इति । एतदपि वक्तुमशक्यमेव, यतः सकलसंग्राहिनयानामप्यनेकविधत्वादनवस्था पूर्ववदेव बोध्या। अत्रेदं बोध्यम्पूर्वज्ञैः सकलनयसंग्राहीणि सप्त नयशतान्युक्तानि । उक्त चविरचित वचनमार्गों की संख्या नहीं है। क्योंकि अभिप्राय हरएक प्राणी में भिन्न २ होते है । इस प्रकार नयों में असंख्ययता आने से उन असंख्यनयों से विचार होना सर्वथा अशक्य ही है । द्वितीय पक्ष भी ठीक नहीं क्योंकि जब नय असंख्यात हैं, तब उनमें से यदि कितनेक नयों द्वारा ही विचारणा की जाती है तो अवशिष्ट नयों से भी वह क्यों नहीं की जाती ? नहीं करने में ऐसी कोई नियामकता तो है नहीं कि अमुक नयों से विचारणा की जावे और अमुक नयों से नहीं की जावे । इस प्रकार करने से अनवस्था की ही प्रसक्ति होती हैक्योंकि इस स्थिति में कोई व्यवस्था नहीं बनती है। यदि इस पर ऐसा कहा जावे-कि नयों की असंख्येयता भले बनी रहे-तो भी सकल संग्राही नय हैं उनके द्वारा इनका विचार हो जावेगा-सो ऐसा चेव परसमया" पातपातान! अमिप्रायथा वि२थित पयन भाानी सध्या નથી. કેમ કે અભિપ્રાયે દરેકે દરેક પ્રાણીમાં ભિન્ન ભિન્ન હોય છે. આ રીતે નિયામાં અસંખ્યયતા આવવાથી તે અસંખ્ય નથી વિચાર કે સર્વથા અશક્ય જ છે. દ્વિતીય પક્ષ પણ બરાબર નથી, કેમ કે નયે જ્યારે અસંખ્યાત છે ત્યારે તેમાંથી જે કેટલાક ન વડે જ વિચારણા કરવામાં આવી છે. તે અવશિષ્ટનથી પણ તે કેમ કરવામાં આવતી નથી ? નહીં કરવામાં એવી કોઈ નિયામકતા તે, છે જ નહિ કે અમુક નથી વિચારણા કરવામાં આવે અને અમુક નથી કરવામાં આવે નહિ, આ રીતે કરવાથી અનવસ્થાની જ પ્રસક્તિ થાય છે. કેમ કે આ સ્થિતિમાં કઈ વ્યવસ્થા થાય જ નહી. જે આ સંબંધમાં આ પ્રમાણે કહેવામાં આવે કે નયેની અસપેયતા ભલે બની રહે તે પણ જે સકલ સંગ્રાહી ન છે તેમના
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अनुयोगद्वारस्त्रे ___ 'एकेको य सयविहो, सत्त नयसया हवंति एक्मेव' छाया--एकैकश्च शतविधः सप्त नयशतानि भवन्ति एवमेव' इत्यादि । एषां च सप्तानां नयशतानां संग्राहका विध्यादयो द्वादश नयाः । एतेऽपि नैंगमादिभिः सप्तभिनयः संगृह्यन्ते । एते सप्तापि नया द्वाभ्यां द्रव्यास्तिकपर्यायास्तिक नयाभ्यां संगृह्यन्ते । द्रव्यास्तिकपर्यायास्तिकनयौ ज्ञानक्रियानयो निश्चयव्यवहारौ शब्दार्थनयौ च पर्यायाः । एषां संग्राहकनयानामनेकविधत्वात् पूर्वोक्ताऽनवस्था तदवस्थैव ? इति चेदाह-इह हि विचार्यत्वेन सामायिकं प्रस्तुतम् , तच्च मुक्ति फलम् । ततश्चास्य सामायिकस्य यदेव मुक्तिप्राप्तिनिबन्धन रूपं तदेव विचारणी. कहना भी अशक्य है क्योंकि सकल संग्राही नयों के भी अनेक भेद होते हैं । इसलिये अनवस्था तो पहिले के जैसी ही कायम रहेगी। इसका स्पष्टीकरण इस प्रकार जानना चाहिये कि, पूर्वज्ञों ने सकल. नयों को संग्रह करनेवाले सालसों नय कहे हैं। उक्त च 'एक्केको. य सयविहो, सत्तनयसया हवंति एमेव'। इन सातसौ नयों के संग्राहक विध्यादिक १२ नय कहे हैं। ये विध्यादिक १२ नय भी नैगम आदि सात नयों द्वारा संगृहीत हो जाते हैं। तथा ये जो सात नय हैं, सो ये भी द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक इन दो नयों द्वारा संगृ. हीत हो जाते हैं। क्योंकि पहिले के तीन नय द्रव्याधिक हैं और अव. शिष्ट चार नय पर्यायार्थिक हैं । इस प्रकार से भी सातनयों के दो विभाग किये गये हैं-शब्दनय और अर्थनय। जिसमें शब्द का प्राधान्य हो, वे शब्दनय हैं। शब्दसमभिरूढ और एवंभूत हैं । तथा વડે એમને વિચાર થઈ જશે, આમ કહેવું પણ અશકય જ છે, કેમ કે સકલ સંગ્રહી નયના પણ ઘણું ભેદ હોય છે. એટલા માટે અનવસ્થા તે પહેલાની જેમ જ કાયમ રહેશે. આ વિષે સ્પષ્ટી કરણ આ પ્રમાણે જાણવું જોઈએ કે પૂર્વજ્ઞોએ સકલ નરને સંગ્રહ કરનારા सातसे। नया ४. छे. तय:-'एक्केको य सयविहो, मत्त नयसया हुति एमेव' मा सातसे नयाना संग्राम विध्याहि १२ नये ह्या छे. मा વિધ્યાદિક ૧૨ નો પણ નિગમ વગેરે સાત ન વડે સંગૃહીત થઈ જાય છે. તેમજ આ બધા જે સાત ન છે, એઓ પણ દ્રવ્યાર્થિક અને પર્યાયાવિક આ બે નય વડે સંગૃહીત થઈ જાય છે. કેમ કે પહેલાંના ત્રણ ન દ્રવ્યાર્થિક અને અવશિષ્ટ ચાર ના પર્યાયાર્થિક છે. આ પ્રમાણે સાત નયના બે વિભાગે કરવામાં આવેલ છે. શબ્દનય અને અર્થનય જેમાં શબ્દની પ્રધાનતા હોય, તે શબ્દનાય છે. એ શબ્દ સમભિરૂઢ અને એવંભૂત છે. તથા જેનામાં અર્થને વિચાર પ્રધાનતા રૂપમાં કરવામાં
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अनुयोगचन्द्रिका टीका सुत्र २५० नयस्वरूपनिरूपणम् यम् । तच्च ज्ञानक्रियात्मकमेव । ततो ज्ञानक्रियानयाभ्यामेवास्य विचारो युक्ततरो नान्यैर्नयः, अतो नास्ति कश्चिदनवस्थाप्रसङ्ग इति ।
तत्र-ज्ञानक्रियारूपनयद्वयमध्ये ज्ञाननयो ज्ञानमेव मुक्तिसाधकं मन्यते, अत. स्तन्मतमाविष्कर्तुमाह-'गायम्मि' इत्यादि। जिनमें अर्थका विचार प्रधानरूप से किया जावे वे अर्थनय है । नैगम संग्रह, व्यवहार और ऋजुसूत्र ये अर्थनय है । ज्ञाननय और क्रियानय इस प्रकार से भी इनके दो विभाग किये गये हैं। जो विचार तत्त्वस्पर्शी होता है, वह ज्ञाननय एवं जो भाग तत्त्वानुभव को पचाने में ही पूर्णनासमझता है, वह क्रियानय है । ये सातों नय ही तत्त्वविचारक होने से ज्ञाननय में तथा उननयो के द्वारा शोधित सत्य को जीवन में उतारने की दृष्टि से क्रियादृष्टि में समा जाते हैं । निश्चय और व्यवहार इन दो में भी इन नयों का समावेश हो जाता है। इस प्रकार द्रव्यास्तिक और पर्यायास्तिक, ज्ञाननय और क्रियानय आदि ये सब पर्याय शब्द हैं। इन द्रव्यास्तिक आदि संग्राहक नयों में इस प्रकार अनेकविधता होने से पूर्वोक्त अनवस्था ज्यों की त्यों ही बनी रहती है। इस प्रकार के आक्षेप का उत्तर यह है कि यहाँ पर सामायिक अध्ययन विचार्यरूप से प्रस्तुत हुआ है। सामायिक का फल मुक्ति है । इसलिये इस सामायिक की जो मुक्ति प्राप्ति के प्रति कारणता है वही इस समय विचार करने योग्य है। यह कारणता ज्ञानक्रिया रूप ही पडेगी। इसलिये ज्ञानक्रियानयों से ही इसका विचार युक्त. આવે તે અર્થનય છે. નૈગમ સંગ્રહ, વ્યવહાર અને અનુસૂત્ર આ બધા અર્થન છે. જ્ઞાનનય અને ક્રિયાનય આ રીતે પણ એમના બે વિભાગે કરવામાં આવેલ છે. જે વિચાર તત્વસ્પશી હોય છે, તે જ્ઞાનનય અને જે ભાગ તરવાનુભવને પચાવવામાં જ પૂર્ણતા સમજે છે, તે કિયાનય છે. આ સાતે સાત ના તરવવિચારક હોવાથી જ્ઞાનનયમાં તથા તે ન વડે શોધિત સત્યને જીવનમાં ઉતારવાની દૃષ્ટિએ ક્રિયદષ્ટિમાં સમાવિષ્ટ થઈ જાય છે. નિશ્ચય અને વ્યવહાર એ બન્નેમાં પણ આ નાને સમાવેશ થઈ જાય છે. આ રીતે દ્રવ્યાસ્તિક અને પર્યાયાસ્તિક, જ્ઞાનનય અને ક્રિયાનય વગેરે આ બધા પર્યાય શબ્દ છે. આ દ્રવ્યાસ્તિક વગેરે સંગ્રાહક નમાં આ રીતે અનેકવિધતા હોવાથી પક્ત અનવસ્થા યથાવત્ બની રહે છે. આ જાતના આક્ષેપને જવાબ આ છે કે અહીં સામાયિક અધ્યયન વિચાર્યરૂપથી પ્રસ્તુત થયેલ છે. સામાયિકનું ફળ મુક્તિ છે. એથી આ સામાયિકની જે મુક્તિ પ્રાપ્તિ પ્રત્યે કારણુતા છે તેજ આ સમયે વિચારણીય છે. આ કારણુતા જ્ઞાનક્રિયારૂપ
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अनुयोगद्वारसूत्रे ग्रहीतव्ये-उपादेये अग्रहीतव्ये अनुपादेये हेय उपेक्षणीयश्चात्र अनुपादेयशब्देन गृह्यते, द्वयोरप्यग्राह्यत्वात् , च शब्दः समुच्चये, एवकारो वाक्यालङ्कारे, अथवाअग्रहीतव्ये अनुपादेये, चकारस्योपळक्षणत्वात्-उपेक्षणीये च अर्थ ऐहिकामुष्मिकरूपे, तत्र-ऐहिको ग्रहीतव्यः स्रक्चन्दनाङ्गनादिः, अग्राह्यः-अहिविषयकण्टकादिः, उपेक्षणीयस्तृणादिः। आमुष्मिको ग्रहीतव्यः सम्यग्दर्शनचारित्रादिः, अग्राह्यो मिथ्याविभूत्यादिः, उपेक्षणीयः स्वर्गविभूत्यादिः, एवंविधो योऽर्थस्तस्मिन् ज्ञाते एव तत्माप्तिपरिहारोपेक्षार्थिना यतितव्यं प्रत्यादिलक्षणः प्रयत्नः कार्यः, इति= तर होगा । अन्यनयों से नहीं। इस प्रकार अनवस्था प्राप्त होने का कोई प्रसंग ही नहीं आसकता। ज्ञाननय और क्रियानय के बीच में ज्ञाननय ज्ञान को ही मुक्तिका साधक मानता है । इसलिये सूत्रकार उसके मत को कहने के लिये कहते हैं । (णायंमि गिव्हियग्वे अगिहियव्वमि चेव अत्यमि, जइयत्वमेव इह जो उवएसो सो नओ नाम ) यहां ग्रहीतव्य का अर्थ उपादेय और अग्रहीतव्य का अर्थ हेय
और उपेक्षणीय हैं। क्योंकि ये दोनों अग्रहीतव्य होते हैं। 'च' शब्द समुच्चय में और 'एव' शब्द वाक्यालंकार में प्रयुक्त हुआ है। इह लोक संबन्धी और परलोक संबन्धी अर्थ ग्रहीतव्य और अग्रहीतव्य दोनों प्रकार का होता है । इह लोकसंबन्धी ग्रहीतव्य पदार्थ स्र, चन्दन, अङ्गना आदि हैं, अग्रहीतव्य-अनुपादेय और उपेक्षगीय क्रमशः अहिविषयकंटकादि एवं तृणादि हैं । परलोकसंबन्धी ग्रहीतव्यपदार्थ सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्र आदि हैं, अग्राह्य मिथ्याविभूति आदि हैं और उपेक्षणीय स्वर्ग विभूति आदि हैं । इस प्रकार के अर्थ જ થશે. એથી જ્ઞાનક્રિયાનથી જ આ વિશે વિચાર યુક્તતા સિદ્ધ થશે. અન્ય નથી નહિ. આ પ્રમાણે અનવસ્થા પ્રાપ્ત થવાને કઈ પ્રસંગ જ ઉપસ્થિત થાય નહિ. જ્ઞાનનય અને ક્રિયા નયની વચ્ચે જ્ઞાનનય જ્ઞાનને જ મુક્તિसाथ भान छे. मेश्री सूत्रा तना मतने 31 माटे ४ छ,(णायमि गि ण्डियव्वे आग्निहियवंमि चेव अत्थंमि, जइयव्यमेव इह जो उबएसो सो नओ नाम) અહીં રહીતગ્યને અર્થ ઉપાદેય અને અગ્રહીતવ્યને અર્થ હેય અને ઉપેક્ષણીય છે. કેમ કે એ બને અગ્રડીતવ્ય હોય છે. “રા' શબ્દ સમુચ્ચયમાં અને g” શબ્દ વાક્યાલંકારમાં પ્રયુક્ત થયેલ છે. ઈહલેાક સંબંધી અને પરલેક સંબંધી અર્થગ્રહીતવ્ય અને અગ્રહીતવ્ય પદાર્થ અફ, ચંદન, અંગના, વગેરે છે, અગ્રહીતવ્ય-અનુપાદેય અને ઉપેક્ષણીય, ક્રમશઃ અહિવિષય કંટકાદિ અને તૃણાદિ છે. પરલેક સંબંધી પ્રહીતય પદાર્થ સમ્યગૂ દર્શન જ્ઞાનચારિત્ર
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भनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र २५० नयस्वरूपनिरूपणम् इत्थं सर्वव्यवहाराणां ज्ञाननिबन्धनत्वप्रतिपादनपरो य उपदेशः स नया=पस्तुतो ज्ञाननयो बोध्यः। 'नाम' इति शिष्यामन्त्रणे । इति गाथार्थों बोध्यः । अयं भाव: ऐहिकामुष्मिकफलार्थिना तावदर्थ विज्ञायैव तत्र प्रवर्तितव्यम् । अन्यथा प्रवृत्तौ तु फलविसंवादो जायते । इत्थं ज्ञाननयो ज्ञानस्य प्राधान्यख्यापनार्थं वक्तीति । उक्त च आगमे-'पढम नाणं तओ दया' छाया-प्रथमं ज्ञानं ततो दयेति । सथा चान्यदप्युक्तम्के ज्ञान होते ही जो उसकी प्राप्ति का परिहार करने का एवं उपेक्षा करने का अर्थी है, उसको चाहिये कि वह उसकी प्राप्ति आदि के निमित्त प्रवृत्ति आदिरूप प्रयत्न करे। इस प्रकार समस्तव्यवहारों के ज्ञान होने में कारण भूत के प्रतिपादन करने में तत्पर जो उपदेश है, वह ज्ञाननय है। 'नाम' यह पद, यहां शिष्य संबोधनार्थ आया है। तात्पर्य यह है कि इहलोक संबन्धी और परलोक संबन्धी फल का आकांक्षाशाली मनुष्य को हेय उपादेय आदिरूप पदार्थ को जानकर ही उसके त्याग आदान आदि में प्रवृत्ति करनी चाहिये । यदि वह ऐसा नहीं करता है तो फल में विसंवाद होता है। इस प्रकार ज्ञाननय ज्ञान की प्रधानता कहने के लिये कथन करता है । यही बात आगम में कही है कि 'पढमं नाणं तो दया' और भी कहा है कि 'पावाओ विणिवित्तीइत्यादि' पाप से निवृत्ति, कुशलकार्य में प्रवृत्ति और विनय की प्रति पत्तिये तीनों भी घातें आत्मा में सम्यकज्ञान के द्वारा उत्पन्नकी जाती है। વગેરે છે. અગ્રાહ્ય મિથ્યાવિભૂતિ વગેરે છે અને ઉપક્ષેણીય સ્વર્ગવિભૂતિ આદિ છે. આ જાત ના અર્થનું જ્ઞાન થતાં જ જે તેની પ્રાપ્તિને પરિહાર કરવાને અને ઉપેક્ષા કરવાને અથી છે, તેને જોઈએ કે તેની પ્રાપ્તિ વગેરેના નિમિત્તે પ્રવૃત્તિ વગેરે સમસ્ત વ્યવહારોના જ્ઞાનમાં કારણભૂતના પ્રતિપાદન કરવામાં તત્પર જે ઉપદેશ છે, તે જ્ઞાનનય છે. “નામ આ પદ શિષ્ય સંબધનાર્થ છે. તાત્પર્ય આ પ્રમાણે છે કે ઈહલેક સંબંધી અને પરલોક સંબંધી ફળની આકાંક્ષા શાલી મનુષ્યને હેય ઉપાદેય આદિ રૂપ પદાર્થને જાણીને જ તેના ત્યાગ, આદાન વગેરેમાં પ્રવૃત્તિ કરવી જોઈએ. જે તે આમ કરતું નથી, તે ફળમાં વિસંવાદ હોય છે. આ રીતે જ્ઞાનનય જ્ઞાનની પ્રધાનતા કહેવા માટે थन रे छ. मेवात मागममा डामा मापी छ.--'पढम नाणं तओ दया' भन्यत्र वाम मा०युं छे , “पावाओ विणिवत्ती" इत्यादि" पायथा निवृत्ति, કુશલ કાર્યમાં પ્રવૃત્તિ અને વિનયની પ્રતિપત્તિ આ ત્રણે વાતે આત્મામાં સમ્યકજ્ઞાન વડે ઉત્પન્ન કરવામાં આવે છે.
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अनुयोगद्वारसूत्रे 'पावामी विणिवित्ती, पवत्तणा य तह कुसलपक्वम्मि ।
विणयस्स य पडिवत्ती, तिन्नि वि नाणे समप्पंति ॥" छाया--पापाद् विनिवृत्तिः, प्रवत्तना च तथा कुशलपक्षे ।
विनयस्य च पतिपत्तिः, त्रीण्यपि ज्ञाने समप्यन्ते ॥इति।। तथा चान्यैरप्युक्तम्--
'विज्ञप्तिः फलदा पुंसां, न क्रिया फळदा मता।
मिथ्याज्ञानात् प्रवृत्तस्य, फलासंवाददर्शनात् ॥इति। इस्थं ज्ञानस्यैव प्राधान्यमे तन्नयमतेन दर्शितम् , अतएव तीर्थकरगणधरैरगीतार्थाना केवलानां विहारो निपिद्धः । उक्तं च तद्विषये
विज्ञप्ति-फलदा पुंसां न क्रिया फलदा मता। मिथ्याज्ञानान् प्रवृत्तस्य फलासंवाददर्शनात्।।
सम्यग्ज्ञान ही सच्चा फलदायक होता है। सम्यग्ज्ञान शून्य क्रिया फलदायक नहीं होती। मिथ्याज्ञान से प्रवृत्ति करने वाला पुरुष फल प्राप्ति में अविसंवादी नहीं होता है। अर्थात् फलप्राप्ति में उसे बाधा का सामना ही करना पडता है। इस प्रकार इस नय के मतानुसार ज्ञान में ही प्रधानता रूपापित की जाती है-जो यहाँ यही गई है। इसलिये तीर्थंकर गणधरों ने अगीतार्थों का विहार प्रतिषिद्ध किया है । उक्तंच 'गीयस्थो य विहारो' इत्यादि । इस गाथा द्वारा जो अगीतार्थ का विहार प्रतिषिद्ध किया गया है, उसका कारण यह है कि'जिस प्रकार अन्धा किसी दूसरे अंधे के साथ चलकर अपने अभीष्ट
" विज्ञप्ति-फलदा पुंसां न क्रिया फलदा मता। मिथ्याज्ञानात् प्रवृत्तस्य फलासंवाददर्शनात "
સમ્યજ્ઞાન જ યથાર્થ રૂપમાં ફલદાયક હોય છે. સમ્યગ જ્ઞાનરહિત ક્રિયા ફલદાયક હોતી નથી. મિથ્યાજ્ઞાનથી પ્રવૃત્તિ કરનાર પુરુષ ફળ પ્રાપ્તિમાં અવિસંવાદી હેત નથી. એટલે કે ફળપ્રાપ્તિમાં તેને બાધાનો સામને કરવું જ પડે છે. આ પ્રમાણે આ નયના મત મુજબ જ્ઞાનમાં જ પ્રધાનતા ખ્યાપિત કરવામાં આવે છે. જે અહીં કહેવામાં આવી છે. એટલા માટે તીર્થકર ગણધરોએ અગીતાર્થોને વિહાર પ્રતિષિદ્ધ કરેલ છે. ઉફતંચ - "गीयत्थो य विहारो' इत्यादि मा आथा 432 मताना बिहार प्रतिबद्ध કરેલ છે, તેનું કારણ એ છે કે “જેમ કોઈ આંધળે બીજા આંધળાની સાથે થઈને પિતાના અભીષ્ટ પદ પર પહોંચી શકતા નથી, તેમજ અગીતાર્થથી સંબંધિત થયા બાદ આ સંસાર પણ સ્વેચ્છિત સ્થળ સુધી પહોંચી શકતે
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मनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र २५० नयस्वरूपनिरूपणम्
'गीयत्यो य विहारो बीयो गीयत्थमीसिओ भणिो। .
इत्तो तइयविहारो नाणुनाओ जिणवरेहिं ।' छाया--गीतार्थश्च विहारो द्वितीयोऽगीतार्थमिश्रितो भणितः ।
इतस्तृतीयविहारो नानुज्ञातो जिनवरैः ॥इति॥ यस्मादन्धोऽन्धेन नीयमानो न सम्यक् पन्थानं प्रतिपद्यते, तस्मात्तृतीयविहारस्तीर्थकरगणधरैनानुमत इति भावः । इत्थं क्षायोपशमिकं ज्ञानमाश्रित्योक्तम् । क्षायिकमप्याश्रित्य ज्ञाननयस्यैव विशिष्टफलसाधकत्वं विज्ञेयम् । यतः संसारसागरतटस्थः प्रतिपन्नदीक्षः समुत्कृष्टतपश्चरणयुक्तोऽप्यहन न तावन्मुक्तो भवति यावत्तस्य सकलजीवादिवस्तु साक्षात्कारकारकं केवलज्ञानं नोस्पद्यते, ततश्च ज्ञानमेव पुरुषार्थसिद्धनिबन्धनमिति बोध्यम् । दृश्यते च-यद्यदविनामावि भवति तलभिवन्धनमेव भवति, यथा बीजाद्यविनाभावी अङ्कुरो बीजनिबन्धन एव भवति, पद पर नहीं पहुंच सकता-उसी प्रकार अगीतार्य से संबोधित किये जाने पर यह संसार भी अपने इच्छित पथ पर नहीं पहुंच सकता है। इसलिये गीतार्थ का विहार आगमानुकूल रहा है और अगीतार्थ का बिहार निषिद्ध किया है। इस प्रकार ज्ञाननय में जो यह प्रधानता का कथन किया है वह तो क्षायोपशमिक ज्ञानकी अपेक्षा से किया है। क्षायिक ज्ञान की अपेक्षा से भी ज्ञाननय में विशिष्ट फल साधकता कही गई हैं। जो इस प्रकार से है-संसारसागर के तटस्थ रहे हुए ऐसे अहंत प्रभु दीक्षित होकर भी एवं विशिष्ट तपश्चरण करते हुए भी तब तक मुक्त नहीं होते हैं कि जब तक वे सकल जीवादिक वस्तुओं का साक्षात् करानेवाले केवलज्ञान को प्राप्त नहीं कर लेते हैं। इसलिये ज्ञान ही पुरुषार्थ सिद्धिका कारण है, ऐसा मानना चाहिये। देखा નથી. એથી ગીતાર્થને વિહાર આગમાનુકૂલ કહેવામાં આવેલ છે. અને અગી. તાર્થને વિહાર નિષિદ્ધ કરવામાં આવેલ છે. આ પ્રમાણે જ્ઞાનનયમાં જે આ પ્રધાનતાનું કથન કરવામાં આવેલ છે, તે તે લાપશમિક જ્ઞાનની અપેક્ષાએ કરવામાં આવેલ છે. ક્ષાયિક જ્ઞાનની અપેક્ષાએ પણ જ્ઞાનનયમાં જે આ પ્રમાણે વિશિષ્ટફલસાધકતા કહેવામાં આવી છે–સંસારસાગરના તટસ્થ રહેલા એવા અહંત પ્રભુ દીક્ષિત થઈને પણ વિશિષ્ટ તપશ્ચકણું કરવા છતાંએ ત્યાં સધીમક્ત થતા નથી કે જ્યાં સુધી તેઓ સકલ જીવાદિક વસ્તુઓના સાક્ષાત્કારક કેવળ જ્ઞાનને પ્રાપ્ત કરતા નથી. એથી જ્ઞાન જ પુરુષાર્થ સિદ્ધિનું કારણ છે, એવું માની લેવું જોઈએ. આમ જોવામાં આવે છે કે જે જેના વગર થતું નથી, તે, તત્કારણુક માનવામાં આવે છે, જેમ બીજ વગર નહિ થનાર . अ०११३
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अनुयगोद्वारसूत्रे
तथा ज्ञानाविनाभाविनीत्वास्स कळपुरुषार्थसिद्धिरपि ज्ञाननिबन्धना बोध्येति । अयं ज्ञाननयः सम्यक्त्वश्रुत - देशविरति सर्वविरतिरूपे चतुर्विधे सामायिके सम्यक्त्वश्रुतसामायिकेति सामायिकद्वयं प्रतिपद्यते, अस्य सामायिकद्वयस्य ज्ञानात्मकत्वेन मुक्तौ प्रधानकारणत्वात् । देशविरतिसामायिक सर्वविरतिसामायिकेति सामायिकद्वयं न प्रतिपद्यते, ज्ञानकार्यत्वेन तयोर्गौणत्वादिति ।
इत्थं ज्ञाननयमतेन सामायिकं विचारित, सम्पति क्रिया नयमतेन तद्विचार्यतेअस्य नयस्य मतेन क्रियाया एव सकलपुरुषार्थसिद्धौ प्रधानकारणत्वमित्येतन्नयमतमाश्रित्यापि पूर्वोक्ता 'नायम्मि' इत्यादि गाथा व्याख्येया । व्याख्याप्रकार जाता है कि- 'जो जिसके बिना नहीं होता है, वह तत्कारण माना जाता है-जैसे बीज के बिना नहीं होनेवाला अंकुर-बीजनिबन्धक माना जाता है। इसी प्रकार सकलपुरुषार्थसिद्धि ज्ञान अविनाभाविनी होने से ज्ञानकारणक मानी जाती है, यह ज्ञाननय सम्यक्श्व सामाचिक, असामायिक देशविरतिसामायिक और सर्वविरति सामायिक इन चार सामायिकों में से सम्यक्त्व सामायिक और श्रुत सामाfun इन दो सामायिकों का प्रतिपत्ता - धारक होता है। क्योंकि ये दोनों सामायिक ज्ञानात्मक होने से मुक्ति में प्रधान कारण माने गये हैं । देशविरति सामायिक और सर्वविरति सामायिक इन दो सामायिकों का वह प्रतिपत्ता - धारक नहीं होता। क्योंकि ये दोनों ज्ञान के कार्य हैं - इसलिये मुक्ति प्राप्ति में ये गौण माने जाते हैं। इस प्रकार ज्ञाननय के मत से यह सामायिक का विचार किया-अब क्रियानय के मत से इसका विचार इस प्रकार से है-क्रियानय क्रिया को ही અંકુર ખીજનિમ...ધક માનવામાં આવે છે, આ પ્રમાણે સકલ પુરુષાર્થ સિદ્ધિ જ્ઞાન અવિનાભાવિ ઢાવાથી જ્ઞાન કારક માનવામાં આવે છે. આ જ્ઞાનનય સમ્યક્ત્વસામાયિક, શ્રુતસામાયિક, દેશવિરતિસામાયિક અને સર્વ વિરતિસામાયિક આ ચાર સામાયિકમાંથી સમ્યક્ત્વ સામાયિક અને શ્ર1 સામાયિક આ બે સામાયિકાના પ્રતિપત્તા-ધારક હાય છે. કેમકે એએ બન્ને સામાયિક જ્ઞાનાત્મક હોવાથી મુકિતમાં પ્રધાન કારણેા માનવામાં આવ્યાં છે, દેશવિરતિ સામાયિક અને સર્વવિરતિ સામાયિક એએ બે સામાયિકાના તે પ્રતિપત્તા-ધારક થતા નથી. કેમકે એએ બન્ને જ્ઞાનના કાર્ડ છે. એથી મુકિત પ્રાપ્તિમાં એએ ગૌણુ માનવામાં આવ્યા છે. આ પ્રમાણે જ્ઞાનનયના મત મુજબ આ સામાયિક વિષે વિચાર કરવામાં આવ્યે છે, હવે ક્રિયાનયના મત મુજબ આ વિષે વિચાર આ પ્રમાણે સ્પષ્ટ કરવામાં આવે છે–ક્રિયાનય ક્રિયાને
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अनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र २५० नयस्वरूपनिरूपणम् एवं विशेषः, तथाहि-ग्रहीनव्ये-उपादेये अग्रहीतव्ये अनुपादेये उपेषणीये चैव= 'च' अप्यर्थे ज्ञाते सति समपि पुरुषार्थसिद्धिमभिलषता जनेन यतितव्यमेव प्रवृत्तिलक्षणा क्रियाकर्तव्यैत्र । अर्थे ज्ञातेऽपि क्रियैव साध्येति भावः । इत्थं ज्ञानं क्रियोपकरणत्वाद् गौणम् , क्रिया तु कार्यस्य साक्षात्साधकत्वेन मुख्येति यः उपदेशः स नयः प्रस्तुत क्रियानयो बोध्य इति । अत्रापि एतत्पक्षसाधकयुक्तिरेवं विज्ञेया, तथाहि-क्रियैत्र पुरुषार्थसिद्धि प्रति मुख्य कारणम् , अत एव तीर्थकरगणधरैनिष्क्रियाणां ज्ञानस्य नष्फल्यमुक्तम् । यथासकलपुरुषार्थ की सिद्धि में प्रधानकारण मानता है-अतः ‘णायंमि' इत्यादि जो यह गाथा है, उसकी व्याख्या इस प्रकार से करनी चाहिये -ग्रहीतब्ध-उपादेय और अग्रहीतव्य-अनुपादेय एवं उपेक्षणीय अर्थ के जान लेने पर सर्वपुरुषार्थ की सिद्धि की अभिलाषा करनेवाले मनुष्य को प्रवृत्तिरूप क्रिया अवश्य ही करनी चाहिये। तात्पर्य यह है कि-'पदार्थ के जानलेने पर भी क्रिया ही साध्य होती है। इस प्रकार क्रिया का उपकरण होने से ज्ञान गौण हो जाता है। और क्रिया कार्य की साक्षात् साधक होने से मुख्य होजाती है । तात्पर्य कहने का यह है कि जान लेने पर जब तक क्रियारूप में वह ज्ञान परिणत न किया जावे तब तक ज्ञानकी सफलता नहीं होती है-इसलिये कार्य की साक्षात् साधिका क्रिया ही होती है ज्ञान नहीं-ज्ञान तो उस कार्य का गौण कारण होता है। इसलिये कार्य सिद्धि में साक्षात्
१ सय पुरुषाना सिद्धिमा प्रधान ॥२६५ भान छे. मेथी-'णायमि' ઇત્યાદિ જે આ ગાથા છે, તેની વ્યાખ્યા આ પ્રમાણે કરવી જોઈએ, હીતવ્યઉપાદેય—અને અગ્રતવ્ય-અનુપાદેય અને ઉપેક્ષણીય અર્થના જ્ઞાન પછી સર્વ પુરૂષાર્થોની સિદ્ધિની અભિલાષા રાખનારા મનુષ્ય પ્રવૃત્તિરૂપ ક્રિયા ચોકકસ કરવી જોઈએ. તાત્પર્ય આ પ્રમાણે છે કે પદાર્થના જ્ઞાન પછી ક્રિયા જ સાધ્ય હોય છે. આ પ્રમાણે કિયપકરણ હવા બદલ જ્ઞાન ગૌણ થઈ જાય છે. અને ક્રિયા કાર્યની સાક્ષાત્ સાધક હોવાથી મુખ્ય થઈ જાય છે. તાત્પર્ય કહેવાનું આ પ્રમાણે છે કે જાણે લીધા પછી જ્યાં સુધી ક્રિયા રૂપમાં તે જ્ઞાન પરિણત કરવામાં ન આવે ત્યાં સુધી જ્ઞાન સફળ થતું નથી, એથી જ કાર્યની સાક્ષાત્, સાધિકા ક્રિયા જ હોય છે, જ્ઞાન નહીં જ્ઞાન તે તે કાર્યનું ગૌણ કારણ હોય છે. એથી કાર્યસિદ્ધિમાં સાક્ષાત્ સાધક હોવાથી ક્રિયામાં જ મુખ્યતા આવી જાય છે, આ જીતને જે ક્રિયા પ્રધાન ઉપદેશ છે, તે ક્રિયાનય રૂ૫ છે. આ
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अनुयोगद्वारसूत्र 'मुवहुंपि मुयमहीयं, कि काही चरणविप्पमुक्कस्स? । अंधस्स जह पलित्ता, दीवसयसहस्सकोडीवि ॥१॥ नाणं सविसनिययं, न नाणमित्तेण कज्जनिष्फत्ती । मग्गण्णू दिलुतो, होइ सचिट्ठो अचिट्ठो य ॥२॥ जाणतो वि य तरिउ, काय जोगं न जुजई जो उ।
सो वुज्झइ सोएणं, एवं नाणी चरणहीणो ॥३॥ जहा खरो चंदणभारवाही० ॥ छाया-सुबहपि श्रुतमधीतं किं करिष्यति चरणविषमुक्तस्य ? ।
अन्धस्य यथा प्रदीप्ता दीपशतसहस्रकोटिरपि ॥१॥ ज्ञानं स्वविषयनियतं न ज्ञानमात्रेण कार्यनिष्पत्तिः ।
मार्गज्ञो दृष्टान्तो भवति सचेष्टोऽचेष्टश्च ॥२॥ साधक होने से क्रिया में ही मुख्यता आती है इस प्रकार का जो क्रिया प्रधान उपदेश है, वह क्रियानयरूप है । इस पक्षकी सिद्धि करनेवाली युक्ति इस प्रकार से है । 'क्रियैव पुरुषार्थसिद्धिं प्रति मुख्य कारणं अत. एव तीर्थंकर गणधरैर्निष्क्रियाणां ज्ञानस्य नेष्फल्यमुक्तं' पुरुषार्थसिद्धि के प्रति कारण क्रिया ही है-इसलिये-तीर्थकरगणधरादिकों ने निष्क्रियमनुष्यों के ज्ञान को निष्फल कहां है । जैसे-'सुबटुंपि सुयमहीयं' इत्यादि बहुत अधिक श्रुत का अध्ययन करके भी जो चारित्ररूप क्रिया से रहित होता है उस व्यक्ति का वह अधीत श्रुत क्या कर सकता है। जिस प्रकार जलती हुई लाखों दीपों की पंक्ति अन्धे को प्रकाश नहीं दे सकती है ॥१॥
ज्ञान अपने विषय में नियत होता है-एतावता ज्ञानमात्र से कार्य की निष्पत्ति नहीं होती है। मार्ग को जाननेवाला होता हुआ भी उसमें पक्षी सिद्धि नारी युति 20 प्रमाणे क्रियैव पुरुषार्थसिद्धि प्रति मुख्य कारण अतएव तीर्थ करगणधरै निष्क्रियाणां ज्ञानस्य नैष्फल्यमुक्तम्' ५३पाय સિદ્ધિનું મુખ્ય કારણ કિયા જ છે, એથી તીર્થકર ગણુધરાદિકે એ નિષ્ક્રિય भनुष्याने ज्ञान भे निण हा छ २म 'सुबहु पि सुयमीयं' इत्यादि पर જ શ્રાધ્યયન કર્યા પછી પણ જે ચારિત્ર રૂપ કિયાથી રહિત હોય છે, તેનું તે અધીત શ્રત શું કરી શકે છે? જેમ સળગતી લાખે દીપપંકિતએ આંધળાને પ્રકાશ આપી શકતી નથી ૧
જ્ઞાન પિતાના વિષયમાં નિયત હોય છે, એતાવતા જ્ઞાનમાત્રથી કાર્યની નિષ્પત્તિ થતી નથી. માર્ગને જાણનાર હોવા છતાં એ તેમાં સચેષ્ટ, સક્રિય
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अनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र २५० नयस्वरूपनिरूपणम्
जानन्नपि च तरितुं कायिकयोगं न युनक्ति यस्तु ।
स उद्यते स्रोतसा एवं ज्ञानी चरणहीनः ॥३॥ यथा खरश्चन्दनभारवाही-इत्यादि ।।इति । तथा चान्येऽपि वदन्ति -
'क्रियेव फलदा पुंसां, न ज्ञानं फलदं स्मृतम् ।
यतः स्त्रीभक्ष्यभोगज्ञो न ज्ञानात् मुखितो भवेत् ।।' इति। इत्यं क्षायोपशमिकी चरणक्रियामाश्रित्य क्रियानयस्य प्राधान्यमुक्तम् । क्षायिकीमपि चरणक्रियामाश्रित्य तस्य प्राधान्यं बोध्यम् । तथाहि-संजातकेवलज्ञानो सचेष्ट सक्रिय होता है तो यथेष्ट स्थान पर पहुंच सकता है, किन्तु अचेष्ट अक्रिय व्यक्ति नहीं पहुंच सकता ॥ २॥ ____ जो व्यक्ति तैरने की विद्या जानता है वह उस विद्यो मात्र से जलाशय से पार नहीं हो सकता, जब तक कि वह तैरनेरूप काययोग-क्रिया-न करेगा । वह तो पानी के वेग से वह हो जायगा इसी प्रकार चारित्र विना के ज्ञानी के विषय में समझना चाहिये ॥३॥
इसी प्रकार का चन्दन का भार ढोनेवाले गधे के दृष्टान्त से भी समझना चाहिये
दूसरे भी इसी प्रकार से कहते हैं-क्रिया ही अपने करनेवालों को फलप्रद होतो है-कोरा ज्ञान-फलप्रद नहीं होता स्त्री आदि संबन्धी भोगज्ञान से युक्त व्यक्ति क्या केवल उस विषयज्ञान से सुख को पा सकता है यह सब इस प्रकार का क्रियानय का कथन क्षायोपशमिकથાય તે જ યથેષ્ટ સ્થાન પર પહોંચી શકે છે, પરંતુ અચેષ્ટ અક્રિય મનુષ્ય પહોંચી શકતું નથી ૨
જે માણસ તરવાની વિદ્યા જાણે છે, તે એ વિદ્યા માત્રથી જ ત્યાં સુધી જલાશયની પાર પાંચી શકતા નથી કે જ્યાં સુધી તે તરવા રૂપ કાય. યોગ ક્રિયા કરતું નથી. તે તે પાણીના વેગથી તણાઈ જ જશે, આ પ્રમાણે ચારિત્ર વગરના જ્ઞાનીના સંબંધમાં જાણી લેવું જોઈએ. . ૩
આ પ્રમાણે ચંદન ભારવાહી ગદંભના દષ્ટાન્તથી પણ સમજી લેવું જોઈએ,
બીજાએ પણ આ પ્રમાણે જ કહે છે-કે ક્રિયા જ કાર્યકરનારાઓના માટે ફળપ્રદ હોય છે, ફકત જ્ઞાન જ ફળપ્રદ હોતું નથી. સ્ત્રી આદિથી સંબદ્ધ, ગજ્ઞાનથી યુકત માણસ શું કેવળ એ વિષયના જ્ઞાનથી તે સુખ પ્રાપ્ત કરી શકે છે? આ બધું આ જાતનું કિયાનયનું કથન ક્ષાપશમિક ચારિત્ર,
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२०२
योगद्वारसूत्रे
भगवानन्नपि न तावद् मुक्तिमाप्नोति यावत्स सकलकर्मक्षपणक्षमायां शैलेश्यवस्थायां सर्ववररूपां चारित्रक्रियां न प्रतिपद्यते, तस्मात् क्रियैव पुरुषार्थसिद्धौ मुख्यं कारणम् । दृश्यते च यत् यत्समनन्तरमुत्यायते तस्य तत्कारणकत्वम्, यथाअन्त्यावस्थामाप्तपृथिव्यादि सामग्री समनन्तरभाविश्वादङ्करस्य तत्कारणकत्वम्, तथैव क्रियासमनन्तरभाविनीत्वात सकलपुरुषार्थसिद्धेरपि तत्कारणकत्वमिति । इत्थं चैष क्रियानयश्वतुर्विधसामायिके देशविरतिसर्वविरतिरूपं सामायिकद्वयमेव चारित्रक्रिया को लेकर कहा है । इस प्रकार से जो क्रियानय में प्रधान कही गई है वह क्षायोपशमिक क्रिया के आधार पर तो आतीही है परन्तु जो क्षायिक किया है। उनके भी आधार पर उसमें प्रधानता आती है-जैसे जिस अर्हत भगवान् को केवलज्ञान उत्पन्न हो चुका है ऐसे वे भगवान् अरिहन्त प्रभु भी जब तक सकलकर्मक्षपण में समर्थ शैलेशी अवस्था में सर्व संवररूपचारित्रक्रिया को प्राप्त नहीं कर लेते है तब तक वे मुक्ति को नहीं पा सकते हैं। इसलिये यही मानना चाहिये कि पुरुषार्थ सिद्धि में मुख्य कारण क्रिया ही है । यह बात देखने में आती है कि जो जिसके समनन्तर काल में उत्पन्न होता है, वह उस कारणक माना जाता है। जैसे पृथिव्यादिरूप सामग्री के समनन्तर काल में उत्पन्न हुआ अंकुर तत्कारणक होता है । इसी प्रकार क्रिया के समनन्तर काल में होनेवाली पुरुषार्थ सिद्धि भी तत्कारणक ક્રિયાને લઈને કહ્યું છે. આ પ્રમાણે જે ક્રિયાનયમાં પ્રધાન કહેવામાં આવી છે, તે ક્ષયાપશનિક ક્રિયાના આધારે તે આવે જ છે, પરંતુ જે ક્ષાયિક ક્રિયા છે, તેના આધારે પણ તેમાં પ્રધાનતા આવી જાય છે. જેમ અદ્વૈત ભગવાનને કેવળજ્ઞાન ઉત્પન્ન થયુ' છે, એવા તે ભગવાન્ અરિહંત પ્રભુ પણ જ્યાં સુધી સકળ કક્ષપણુમાં સમથ લેશી અવસ્થામાં સવ સવરરૂપ ચારિત્ર ક્રિયાને પ્રાપ્ત કરી લેતા નથી, ત્યાં સુધી તે મુકિત મેળવી શકતા નથી. એથી એ જ માની લેવું જોઈએ. કે પુરૂષાર્થ સિદ્ધિમાં મુખ્ય કારણ ક્રિયા જ છે. આ વાત જોવામાં આવે છે કે જે જેના સમનન્તર કાળમાં ઉત્પન્ન થાય છે તેને તે કારણકે માનવામાં આવે છે. જેમ પ્રતિખધક કાર@ાના અભાવે અન્ત્યાવસ્થા પ્રાપ્ત પૃથિવ્યાદિરૂપ સામગ્રીના સમનન્તર કાળમાં ઉત્પન્ન થયેલ અકુર તકારણુક હેાય છે. આ પ્રમાણે ક્રિયાના સમનન્તર કાળમાં થનારી પુરૂષ! સિદ્ધિપણુ તકારક જ માનવામાં આવે છે. આ પ્રમાણે મા ક્રિયાનય ચતુર્વિધ સામાયિકમાંથી દેશિવરતિ અને સર્વવિરતિ એ એ સામા યિકાને જ માને છે. કેમકે એ અને સામાયિકા ક્રિયારૂપ છે. એથી
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भोगवन्दिका टीका बत्र २५० मयस्वरूपनिरूपणम् मन्यते, क्रियारूपत्वेन अन्योर्मुक्ति प्रतिप्रधानकारणत्वात् । सम्यक्त्वसामायिकश्रुतसामायिक तु तदुपकारकमात्रे, अत एव ते गौणे, तस्मादेतत्सामायिकद्वयम् अयं क्रियानयो नेच्छतीति द्वितीयः पक्षः । अत्र ज्ञाननयक्रियानयावुभयावपि सयुक्तिको निर्दिष्टौ, तत्र को प्रायः क उपेक्षणीय इति शिष्या नावबुध्येरन , अतः स्वसम्मत पक्षं प्रदर्शयितुमाह-'सब्वेसिपि' इत्यादि। सर्वेषामपि स्वतन्त्रसामान्यविशेषपादिना नामस्थापनादिवादिना वा समस्तानामपि नयानां, न तु नयद्वयस्यैव, बताव्यता-परस्परविरोधिनीमुक्तिं निशम्य श्रुत्वा इह तत् सर्वनयविशुद्धं-सर्वनय. सम्मतं तस्यरूपतया ग्रासम् , यदाश्रित्य मुनिश्चरणगुणस्थितः-चरण चारित्रं क्रिया, ही मानी जानी है। इस प्रकार यह क्रियानर चतुर्विध सामायिक में से देशविरति और सर्वविरति इन दो सामायिकों को ही मानता है। क्योंकि ये तीनों सामायिक क्रियारूप हैं। इसीलिये इन में मुक्ति प्राप्ति के प्रति प्रधान कारणता है, ऐसी यह नयव्यवस्था देता है। तथा सम्यक्त्वसामाषिक और श्रुतसामायिक ये दो सामायिक केवल इसके उपकारक है। इसलिये मुक्ति प्राप्ति में ये साक्षात् कारण न होकर गौण कारण है । अतः क्रियानय की दृष्टि में इनकी मान्यना नहीं है। इस प्रकार यह द्वितीय पक्ष है। यहां ज्ञान नग और क्रियानय ये दोनों भी नय सयुक्तिक कहे गये हैं। तष शिष्य को यह संदेह हो सकता है कि इनमें कौन ग्राह्य है और कौन अग्राह्य-उपेक्षणीय है। इसलिये सूत्रकार स्वसम्मत पक्ष को प्रकट करने के लिये कहते हैं कि-- (सम्वेसि पि नयाणं बहुविहवत्तव्वयं निसामित्ता । तं सवनयविसुद्ध जं चरणगुणाष्ट्रभो साहू ) स्वतन्त्र सामान्य और विशेषवादियों की એમનામાં મુકિત પ્રાપ્તિના પ્રતિ પ્રધાન કારણતા છે, એવી આ નય વ્યવસ્થા બતાવે છે. તથા સમ્યફ વસામાયિક શ્રુતસામાયિક એ બે સામાયિક ફકત એના ઉપકારક છે. એથી મુકિત પ્રાપ્તિમાં એ સાક્ષાત્કાર નહિ પણ ગણકારણે છે. એટલા માટે કિયાનયની દૃષ્ટિમાં એમની માન્યતા નથી. આ પ્રમાણે આ દ્વિતીય પક્ષ છે. અહી જ્ઞાનનય અને ક્રિયાનય એ બને ન કહેવામાં આવ્યા છે. ત્યારે શિષ્યને આ વિષે સંદેહ ઉત્પન્ન થાય છે કે, આમાંથી કયે ગ્રાહ્ય અને ક અગ્રાહ્ય-ઉપેક્ષણ-છે એથી સૂત્રકાર સ્વસ
मत पक्षने ५४८ ४२१। भाटे हे छ -(सव्वेसि पि नयाणं बहुविश्वत्तव्वयं निसामित्ता तं सवायविसुद्धं जं चरणगुणदिओ साहू) स्वतत्र सामान्य अने વિશેષવાલીઓની નામ સ્થાપના વગેરે વાદીઓની અથવા સમતનની વકત
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अनुयोगबारसूत्रे गुणो ज्ञान, तयोः स्थितः-ज्ञानक्रियोभययुक्तः साधुः=भावसाधुः मोक्षसाधको भवतीत्यर्थः । अयं भावः-ज्ञानक्रियाभ्यां युक्त एव मुनि मोक्षसाधको भवति, न हवेकै केन युक्त इति । पूर्वमेकैकस्य मुक्तिसाधकत्वं यद् युक्त्या प्रतिपादितं तदसिद्धम् । तथाहि-यज्ज्ञानवादिना प्रतिपादितम्-यद् यदविनाभावि भवति तत्तमाम स्थापना आदि वादियों की अथवा समस्तनयों की वक्तव्यता को परस्पर विरोधिनी उक्ति को सुनकर भावसाधु को चाहिये कि वह सर्वनयसम्मतविशुद्धसिद्धांत को ग्रहण करे-क्योंकि उसीके आश्रय से वह क्रिया और ज्ञान इनमें स्थित हो सकता है । तात्पर्य कहने का यह है कि-क्रिया और ज्ञान ये दोनों परस्पर निरपेक्ष होकर सकल पुरुषार्थ की सिद्धि के कारण नहीं हो सकते हैं । ये दोनों मिलकर ही हो सकते हैं । इस प्रकार से इस बात को जाननेवाला भावसाधु ही मोक्षसाधक हो सकता है क्योंकि वह अपने जीवन में क्रिया और ज्ञान इन दोनों का आराधक होता है। केवल क्रिया या क्रिया विहीन ज्ञान की आराधना से मुक्ति नहीं मिलती है। पहिले जो अपने एक को नयने मुक्तिसाधकता कही है, वह किसी प्रकार से युक्तियुक्त नहीं हैंयह इस प्रकार से जानना चाहिये-ज्ञाननय को लेकर ज्ञानवादीने जो यह कहा है कि जिसका अविनाभावी होतो है वह तत्कारणक होता વ્યતાને પરસ્પર વિધિની ઉકિતને સાંભળીને ભાવસાધુને જોઈએ કે તે સર્વનય સમ્મત વિશુદ્ધ સિદ્ધાન્તને ગ્રહણ કરે. કેમકે તેને જ આશ્રયથી તે કિયા અને જ્ઞાન એમનામાં સ્થિત થઈ શકે છે. તાત્પર્ય કહેવાનું આ પ્રમાણે છે કે ક્રિયા અને જ્ઞાન એ બને પરસ્પર નિરપેક્ષ થઈને સકલ પુરૂષાર્થની સિદ્ધિને કારણે સંભવી શકતાં નથી, એ બને મળીને જ થઈ શકે છે.
આ પ્રમાણે આ વાતને જાણનારે ભાવસાધુ જ મેક્ષા સાધક થઈ શકે છે, કેમકે તે પિતાના જીવનમાં ક્રિયા અને જ્ઞાન એ બન્નેને આરાધક હોય છે. ફકત ક્રિયાવિહીન જ્ઞાનની આરાધનાથી મુકિત મળતી નથી. પહેલાં જે અમને એક નયે મુકિત સાધકતા કહી છે, તે કઈ રીતે યુક્તિ યુકત નથી તે આ પ્રમાણે જાણવું જોઈએ. જ્ઞાનનયને લઈને જ્ઞાનવાદીએ જે આ કહ્યું છે કે જે જેને અવિનાભાવી હોય છે તે તત્કારક હોય છે, તે આવું
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अनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र २५० नयस्वरूपनिरूपणम् निबन्धनमेव भवतीत्यादि । तत्र तदविनामाविस्वरूपो हेतुरसिद्ध एव, यतो न क्यापि ज्ञानमात्राविनाभाविनी पुरुषार्थसिद्धिदृश्यते । नहि वहिपज्वालनाणिनां प्रज्वालनपरिज्ञानमात्रादेव तसिद्धिर्भवति, अपि तु तत्र वह्निसमानयनसन्धु क्षणादि नियाऽनुष्ठानस्यापेक्षा तिष्ठत्येव । तथा तीर्थकरोऽपि न केवलज्ञानमात्रात् मुक्ति प्रतिपद्यते. किन्तु तत्र यथाख्यातचारित्रक्रियाया अपेक्षा भवति, अतः पुरुषार्थसिद्धिर्ज्ञानक्रियेत्युभयाविनाभाविन्यत्र बोध्या। पुरुषार्थसिद्धयथा ज्ञाननिवन्धनत्व तथा क्रियानिबन्धनत्वमपि, क्रियामन्तरेण पुरुषार्थसिद्धरसंभवादित्यनैकान्तिकोऽपि हेतु!ध्यः । यच्च क्रियावादिना प्रतिपादितम्-'यद् यत्समनन्तरमुत्पद्यते, तस्य है सो ऐसा कथन सिद्ध नहीं होता है। क्योंकि पुरुषार्थ सिद्धि में ज्ञानमात्रनिषन्धनता कहीं पर भी नहीं देखी जाती है अतः यहाँ हेतु असिद्ध है। तथा जो अग्नि को जलाने के अर्थी होते हैं वे केवल अग्नि इस प्रकार से जलायी जाती है, इतने ज्ञानमात्र से थोडे ही जलने की सिद्धि को पा सकते हैं । 'अग्नि तैयार हो जावे' इसके लिये तो उसे बाहर से अग्नि लानी पडेगी, उसे धोंकना पडेगा तथा
और भी जो उसे तैयार करने की प्रक्रिया होगी, वह सब करनी पडेगी तय कहीं अग्नि प्रज्वलित होगी। इसी प्रकार तीर्थंकर भगवान् भी प्राप्त केवलज्ञान मात्र से थोडे ही मुक्ति पा लेंगे? उसकी प्राप्ति में तो उन्हें यथास्यातचारित्ररूप क्रिया को भी अपेक्षा होगी अतः पुरुषार्थ की सिद्धि ज्ञान और क्रिया इन दोनों की अविनाभाविनी है, ऐसा मानना चाहिये । पुरुषार्थ की सिद्धि में जिस प्रकार ज्ञान कारण पड़ता है उसी प्रकार से क्रिया भी कारण पडती हैं। क्योंकि क्रिया के विना पुरुषार्थ की सिद्धि असंभवित होती है। इस प्रकार ज्ञान કથન સિદ્ધ થતું નથી. કેમકે પુરૂષાર્થ સિદ્ધિમાં જ્ઞાનમાત્ર નિબન્ધનતા કઈ સ્થાને દેખતી નથી, એથી અહીં હેતુ અસિદ્ધ છે. તથા જે અગ્નિને પ્રજ્વલિત કરવા ઈચ્છતા હોય તે ફકત અગ્નિ કેવી રીતે પ્રજવલિત કરવામાં આવે છે? ફકત આટલા જ્ઞાન માત્રથી જ અગ્નિ પ્રજવલિત કરવાની સિદ્ધિ પ્રાપ્ત કરી શકતા નથી. અગ્નિ પ્રજવલિત થાય તે માટે બહારથી અગ્નિ લાવશે, તેને પ્રજવલિત કરવા માટે પ્રયત્ન કરશે તથા બીજી જે પ્રક્રિયાઓ હશે તે બધી કરશે, ત્યારે અગ્નિ પ્રજવલિત થશે. આ પ્રમાણે તીર્થંકર ભગવાન પણ ફકત કેવળજ્ઞાનમાત્ર પ્રાપ્ત કરીને જ મુકિત પ્રાપ્ત કરશે એવું નથી તેની પ્રાપ્તિ માટે તેમને યથાખ્યાતચારિત્રરૂપ ક્રિયાની અપેક્ષા થશે. અતઃ પુરૂષાર્થની સિદ્ધિ અને ક્રિયા એ બને અવિનાભાવિની છે. આમ માનવું જોઈએ. પુરૂષા
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अनुयोगद्वारसूत्रे तत्कारणकत्वम्' इत्यादि । अत्र-यस्तदनन्तरोत्पत्तिलक्षणो हेतुरुक्तः सोऽप्यसिद्धो. उनैकान्तिकश्च । यतः स्त्रीमक्ष्यभोगादिक्रियाकालेऽपि ज्ञानमस्त्येव, अन्यथा तत्र प्रवृत्तिरेव न स्यात् । तथा-तीर्थ करस्य शैलेश्यवस्थायां सर्वसंवररूपक्रियाकालेऽपि केवलज्ञानमस्त्येव, अन्यथा तस्याः पाप्तिरेव न स्यात् । तस्मात् केवलक्रियानन्तरभावित्वेन पुरुषार्थस्य सिद्धेरदर्शनादसिद्धौ हेतुः । तथा-यथा च तदनन्तरभावित्वलक्षणो हेतुर्मुक्त्यादिपुरुषार्थ सिद्धौ क्रियायाः कारणत्वं साधयति, तथैव ज्ञानस्यापि कारणत्वं साधयति, क्रियायाः सत्वेऽपि ज्ञानमन्तरेण पुरुषार्थसिद्धेः निषन्धक होकर भी पुरुषार्थ सिद्धि क्रिया निरपेक्ष नहीं होती है। अतः तदविनामाविस्वरूप जो हेतु है, वह क्रियारूप निरपेक्ष के साथ भी अविनाभावी होने के कारण अनैकान्तिक भी है । तथा-जो क्रिया. चादीने क्रियानय के पक्ष को लेकर 'यत् यत्समनन्तरमुत्पद्यते तस्य तत्कारणकत्वम्' इत्यादि रूप से कहा है सो वह भी सिद्ध नहीं होता है । क्योंकि यहां हेतु असिद्ध है और अनैकान्तिक भी है। क्योंकि स्त्री तथा भक्ष्य पदार्थ की भोगादि क्रिया के समय में भी तो ज्ञान मोजूद ही है । यदि उस समय ज्ञान न हो तो उसमें प्रवृत्ति ही नहीं हो सकती है। तथा-तीर्थंकर भगवान् को शैलेशी अवस्था में सर्व संवररूप क्रियाकाल में ऐसा तो है नहीं कि ज्ञान न हो उस समय वहां केवल ज्ञान रहता ही है । नहीं तो उसकी प्राप्ति ही उन्हें नहीं हो सकती है। इसलिये केवल क्रिया के अनन्तरभावीरूप से पुरुषार्थ की सिद्धि नहीं देखी जाती है-अतः यह हेतु असिद्ध है । तथा जिस-प्रकार तदनन्तर ર્થની સિદ્ધિમાં જેમ જ્ઞાન કારણ હોય છે, તેમજ ક્રિયા પણ કારણરૂપ હોય છે. કેમકે ક્રિયા વગર પુરૂષાર્થ સિદ્ધિ અસંભવિત હોય છે. આ પ્રમાણે જ્ઞાન નિબ. વક થઈને પણ પુરુષાર્થ સિદ્ધિ ક્રિયા નિરપેક્ષ હેતી નથી. એથી તદવિનાભાવિત્વરૂપ જે હેતુ છે, તે ક્રિયારૂપ વિપક્ષની સાથે પણ અવિનાભાવી લેવા मह अनैति: छे. तेभन २ ठियावाहीसे लियानयना पक्ष र 'यत् यत्समनन्तरमुत्पद्यते तस्य तत्कारण त्वम्' त्या ३५मां युछे, तो ते ५५ सिद्ध થતું નથી. કેમકે સ્ત્રી તથા ભઠ્ય પદાર્થની ભેગાદિ કિયાના સમયમાં પણ જ્ઞાન તે વિદ્યમાન હોય જ છે જે તે સમયે જ્ઞાન ન હોય તે તેમાં પ્રવૃત્તિ થાત નહી તથા તીર્થકર ભગવાનને શૈલેશી અવસ્થામાં સર્વ સંવરરૂપ કિયા કાલમાં એવું તે છે જ નહિ કે જ્ઞાન ન હોય તે સમયે ત્યાં કેવળજ્ઞાન રહે જ છે. નહીંતર તેની પ્રાપ્તિ જ તેમને થાત નહીં એથી કેવળ ક્રિયાના અનન્તર વીરૂપથી પુરુષાર્થની
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अनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र २५० नयस्वरूपनिरूपणम् कदाचिदप्यसंमवादनेकान्तिकोऽपि हेतुर्बोध्य इति । त्वं च ज्ञानक्रियोमयस्यैव मुक्त्यादि - सिद्धौ कारणत्वं नत्वेकैकस्येति सिद्धान्तः । उक्तं च
'हयं नाणं क्रियाहीणं, हया अन्नाणओ किया । पातो पंगुलो दड्ढा, धावमाणो य अंधओ ॥१॥ संजोगसिद्धीय फल वयंति, नहु एगचकेण रहो पयाइ । अंधो य पंगू य वणे समेच्चा, ते संपउत्ता नयरं पविट्ठा ॥ २ ॥ ' छाया - हतं ज्ञानं क्रियाहीनं, हता अज्ञानतः क्रिया ।
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पश्यन् पङ्गुलो दग्धो धावंथ अन्धकः ||१||
संयोगसिद्धया च फलं वदन्ति न खलु एकचक्रेण रथः प्रयाति । अन्य पंगुव वने समेत्य तौ संपयुक्त नगरं प्रविष्टौ || २ || इत्यादि । अत्रोच्यते - नन्वेवं ज्ञानक्रिययोर्मुक्तिसाधिका शक्तिः प्रत्येकमसती समुदाये कथमुपलभ्येत ? न हि अवयवेऽवर्तमाना शक्तिः समुदाये समुपलभ्यते, यथा एकस्यां भावस्वरूप हेतु सुत्यादि के पुरुषार्थ की सिद्धि में क्रिया को कारणरूप से सिद्ध करता है, उसी प्रकार से वह ज्ञान को भी वहां कारणरूप से सिद्ध करता है । इसलिये यह हेतु अनैकान्तिक भी है। क्योंकि क्रिया के सद्भाव में भी ज्ञान के बिना पुरुषार्थ की सिद्धि कदाचित् भी होती नहीं हैं। इस प्रकार ज्ञान और क्रिया इन दोनों को ही मुक्ति आदि की सिद्धि में कारणता है केवल एक-एक को नहीं । यह अटल सिद्धांत । उक्तं च 'हयं नाणं कियाहीणं' इत्यादि ॥ २ ॥
तापर्य यह है किं क्रियाहीन ज्ञान निष्फल है और ज्ञान हीन क्रिया भी निकम्मी है। देखता हुआ पंगु जल गया और दौडता हुआ अंधा जल गया। यहां परस्पर निरपेक्ष ज्ञान और क्रिया में पंगु और अंधे के दृष्टांत से यह स्पष्ट किया गया है कि- 'ये दोनों निरपेक्ष स्थिति में कार्य साधक - मुक्तिसाधक नहीं हो सकते हैं । अधा चल तो
સિદ્ધિ જોવામાં આવતી નથી, એથી આ હેતુ અસિદ્ધ છે. તથા જેમ તદનન્તર ભાવિશ્વરૂપ હેતુ મુક્ત્યાદિના પુરુષાર્થની સિદ્ધિમાં ક્રિયાને કારણ રૂપથી સિદ્ધ કરે છે, તેમજ તે જ્ઞાનને પણ ત્યાં કારણ રૂપથી સિદ્ધ કરે છે, એટલા માટે આ હતુ અનેકાન્તિક પણ છે. કેમકે ક્રિયાના સદ્ભાવમાં જ્ઞાનિવના પુરૂષાથની સિદ્ધિ કાઈ પણ કાળે થતી નથી. આ પ્રમાણે જ્ઞાન અને ક્રિયા એકએક અલગ રૂપમાં નહિ પણ બન્ને સાથે મુકિત વગેરેની સિદ્ધિમાં २३५ होय छे. आा भरत सिद्धांत छे. अतय 'हयं नाणं क्रियाहीणं' इत्यादि ।
તાત્પ આ પ્રમાણે છે કે ક્રિયા હીન જ્ઞાન નિષ્ફળ છે, અને જ્ઞાનહીન ક્રિયાપણ વ્યથ છે. દેખવા છતાંએ પશુ મળી ગયા તા અને દોડતા હવા છતાંએ આંધળા બળી ગયા. અહી' પરસ્પર નિરપેક્ષ જ્ઞાન અને ક્રિયામાં પશુ અને
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छाया - विष्वग् न सर्वथैव सिकता तैलमिव साधनाभावः । देशोपकारिता या सा समवायेऽपि सम्पूर्णा ॥ इति ।
इत्थं च ज्ञानक्रिये समुदिते एव मुक्तिकारणं न तु प्रत्येकमिति निष्कर्षः । ततश्व यः सर्वग्राही भवति स एव भावसाधुः । तादृशश्व ज्ञानक्रियावानेव भवतीति व्यवस्थितम् -'तं सव्वनयविसुद्ध जं चरणगुगडिओ साहू' इति । तदेवं सभेदो नयः प्ररूपितः, तत्मरूपणे च सम्पूर्ण नयद्वारमिति सूचयितुमाह- स एष नय इति । इत्थमुपक्रमादीनि चत्वार्यप्यनुयोगद्वाराणि प्ररूपितानि, तत्प्ररूपणे च सम्पूर्णमनुयोगद्वारसूत्रमिति प्रदर्शयितुमाह- अनुयोगद्वाराणि समाप्तानीति ।। सू० २५० ॥ ॥ इति श्री विश्वविख्यात - जगद्वल्लभ-प्रसिद्धवाचक- पञ्चदशभापाकलितललितकलापाळापकप विशुद्धगद्यपद्यनैकग्रन्थनिर्मापक, वादिमानमर्दक- श्री शाहू छत्रपति कोल्हापुरराजप्रदत्त' जैनाचार्य ' पद भूषित - कोल्हापुरराजगुरुबालब्रह्मचारि - जैनाचार्य - जैनधर्मदिवाकर - पूज्यश्री
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घासीलालवतिविरचिता
अनुयोगद्वारसूत्रस्य - अनुयोगचन्द्रिका टीका सम्पूर्णा ॥
अनुयोगद्वार सूत्रे
'वीसुं न सव्वहच्चिय' इत्यादि । सिकता के एक कण में स्वन्तत्रावस्था में तैलांश नहीं है तब वह समुदायावस्था में कैसे आसकता है ? जिसके एकदेश में उपकारिता होती है तो, उसके समुदाय में संपूर्ण रूप से उपकारिता हो सकती है जैसे-तिलके एक दाने में स्वतंत्रतावस्था में तैलांश है, वह तिलों के समुदायावस्था में पूर्णरूप अवश्य हो सकता है । ऐसी बात भिन्न २ क्रिया और ज्ञान में नहीं है । अतः समुदायरूप में उनमें मुक्ति साधकता का आना बिलकुल उचित ही है। उसका निष्कर्ष यही है समुदित ज्ञान क्रिया ही मुक्ति
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उयां वात उपस्थित थाय छे अतयः - 'वीसुं न सव्वहच्चिय' इत्यादि ।' સિકતાના એક કણમાં સ્વાત ત્રાવસ્થામાં તૈલાશ નથી, ત્યારે તે સમુદાયવસ્થામાં કેવી રીતે સ`ભવી શકે છે. જેના એક દેશમાં ઉપકારતા હૈાય છે તેા તેને સમુદાયમાં સંપૂર્ણ રૂપમાં ઉપકારતા થઇ શકે છે. જેમ તિલના એટલામાં સ્વતંત્રાવસ્થામાં તૈલાંશ છે, તે તàાના સમુદાયાવસ્થામાં પણ રૂપમાં અવશ્ય થઈ શકે જ છે, એવી વાત ભિન્ન ભિન્ન ક્રિયા અને જ્ઞાનમાં નથી. એથી સમુદાય રૂપમાં તેમનામાં મુક્તિ-સાધકતા હેાવી સ્વાભાવિક જ છે. આ બધાને નિષ્કર્ષ આ છે કે સમુદિત જ્ઞાન, ક્રિયા જ મુક્તિનુ કારણ છે; આ પ્રમાણે
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भनुयोगान्द्रका टीका सूत्र २५० शास्त्रप्रशस्तिः
शास्त्रशस्ति:सौराष्ट्र देशे विमले, श्रावकैः समलंकृते । उपलेटानगरेऽस्मिन् , शुद्धभावसमाश्रिते ॥१॥ विक्रमाब्दे द्वि सहस्र, नवसंख्याधिके शुभे । वैशाखे प्रथमे मासे, पूर्णिमायां तिथौ कुजे ॥२॥ सूत्रेऽनुयोगद्वाराख्ये भव्यकल्याणकारिणी। एषा सम्पूर्णतां याताऽनुयोगचन्द्रिका शुभा ॥३॥ अत्रत्यः सुखदः कृपासमुदयः श्रीजैनसंघो मिथः, प्रेमाबद्धविधेयपद्धतिमिलहीनातरक्षापरः । शुद्धस्थानकवासिधर्मनिरतो रत्नत्रयाभ: शुभः,
श्रद्धावाभिगमे जिनपरचने श्रेयस्करे शोमते ॥४॥ देवे गुरौ धर्मपथे च भक्ति र्येषां सदाचाररुचिहि नित्यम् । ते श्रावका धर्मपरायणाश्च सुश्राविकाः सन्ति गृहे गृहेऽत्र ॥५॥
॥शुभमस्तु । श्रीरस्तु ॥ का कारण है । इस प्रकार जो साधु सर्वनय ग्राही होता है, वही भावप्साधु होता है, और जो भावसाधु होता है, वह ज्ञान क्रियावाला ही होता है। इसलिये 'तं सवनयविसुद्धं' इत्यादि गाथोक्त बात व्यवस्थित हो चुकी। इस प्रकार सभेद नय का यह निरूपण किया। (से तं नए-अणुभोगद्दारा सम्मत्तो) इसके निरूपित होते ही सम्पूर्णनय द्वार निरूपित हो चुका । इस प्रकार उपक्रम आदि चारों भी अनुयोग द्वार प्ररूपित हो चुके । इसके प्ररूपित हो जाने पर यह अनुयोग द्वार सूत्र समाप्त हुआ॥ २५० ॥
अनुयोगद्वार सूत्र समाप्त જે સાધુ સર્વનય બ્રાહી હોય છે, તેજ ભાવસાધુ હોય છે, અને જે ભાવ साधु डाय छ, ते ज्ञान यापन डाय छे. मेथी 'तं सवनयविसुद्ध ઈત્યાદિ ગાથાક્ત વાત વ્ય કથિત રીતે સ્પષ્ટ થઈ ગઈ છે. આ પ્રમાણે ભેદ नयनु स! नि३५ थयु. (से तं नए अणुओगद्दारा सम्मता) सना नि३५६था સંપૂર્ણનય નિરૂપિત થઈ જાય છે તેમ સમજવું. આ પ્રમાણે ઉપક્રમ વગેરે ચારે ચાર અનુગદ્વાર પ્રરૂપિત થઈ ગયાં છે. આના પ્રરૂપણાથી અહીં આ અનુયાગદ્વાર સૂત્ર સમાપ્ત થાય છે. ૨૫૦
અનુયોગદ્વારસૂત્ર સમાપ્ત ॐ शान्ति:-शान्ति:
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अनुयोगद्वारसूत्रे -- शास्त्रप्रशस्ति -- सौराष्ट्र देश में उपलेटा नामका एक षडा सुन्दर नगर है । इसमें श्रावकजनों की अच्छी संख्या है ! यहाँ निवास करने पर भावों की निर्मलता रहती है । विक्रम संवत् २००९ प्रथम वैशाख शुक्लपूर्णमासी मंगलवार के दिन, इस अनुयोग द्वार सूत्र पर रचित यह भन्यजन कल्याणकारक अनुयोगचन्द्रिका नामकी टीका संपूर्ण हुई है। __यहां का श्री जैन संघ यडा ही अधिक कृपालु है। दूसरों को हमेशां सुखी करने की चेष्टा में कटिबद्ध रहता है। आपस में इस संघ का सदा मेल बना रहता है। और श्रावक लोग दुःखी जीवों पर उपकार करते हैं। शुद्ध स्थानकवासि धर्म की आराधना में ये निरन्तर तल्लीन रहते हैं। सम्यग्दर्शन, ज्ञान और चारित्र की छाप इन पर देखने में आती है। कल्याणकारण जिन प्रवचन के ऊपर इनकी अगाध श्रदा है। ऐसे श्री जैनसंघ के श्रावक लोग इस नगर में सुशोभित होते है। यहां घर २ में देव, गुरु और धर्म के प्रति भक्ति रखनेवाले तथा सदाचार में रुचि संपन्न ऐसे धर्मपरायण श्रावक हैं और ऐसी ही श्राविकाएं हैं। पादारविन्द यदि रक्षक आपके हैं, कैसे विभो! विपद आसकती वहां पर. रक्षा भला गरुड हो करता जिन्हों की, कैसे उसे सरप डंक लगा सकेगा,
स्त्र प्रशस्तिસૌરાષ્ટ્ર પ્રદેશમાં ઉપલેટા નામે એક બહુ જ સુંદર રમ્ય નગર છે. તેમાં શ્રાવકજને બહુ જ સારી સંખ્યામાં વસે છે અહીં નિવાસ કરવાથી ભાવે નિર્મળ રહે છે. વિક્રમ સંવત્ ૨૦૦૯ પ્રથમ વૈશાખ શુકલ પૂરુંમાસી મંગલવારના દિવસે, આ અનુગદ્વાર સૂત્ર પર રચિત આ ભવ્ય જન કલ્યાણકારક અનુગચન્દ્રિકા નામની ટીકા સંપૂર્ણ થઈ છે.
અહીંને જૈન સંઘ અતીવ કૃપાલું છે. તે બીજાઓને સુખી કરવામાં જ દર વખતે તત્પર રહે છે સંઘના બધા સદ્દસ્ય પરસ્પર એકદમ મિત્રભાવથી રહે છે, અને શ્રાવકજને દીન, દુઃખી જીવો પર ઉપકાર કરે છે. શુદ્ધ સ્થાનકવાસી ધર્મની આરાધનામાં આ નિરંતર તલ્લીન રહે છે સમ્યગુદર્શન, જ્ઞાન અને ચારિત્રની છાપ આ સર્વ પર સ્પષ્ટ રીતે દેખાય છે. કલ્યાણકારક જિન પ્રવચન પર એમની અગાધ શ્રદ્ધા છે. એવે આ જૈનસંઘના શ્રાવકજને આ નગરને સુશોભિત કરે છે. અહીં દરેકે દરેક ઘરમાં દેવ, ગુરુ અને ધર્મ પ્રત્યે ભક્તિ રાખનારા તથા સદાચારમાં રુચિ ધરાવનારા ધમપરાયણ શ્રાવકે વસે છે. આ નગરની શ્રાવિકાઓ પણ શ્રાવકેની જેમ જ ધમ પરાયણા છે.
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