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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अनुयोगद्वारसूत्र स्ववैपरीत्येन निर्वर्तना तत्सकाशादुत्पन्नः। रूपस्य विपरीतविडम्बना-पुरुषस्य स्त्रीरूपधारणम् , स्त्रिया वा पुरुषरूपधारणम् । वयसो विपरीतविडम्बना तरुणस्य वृद्धजनवद् , वृद्धस्य तरुणजनवचेष्टाकरणम् । वेषस्य विपरीतविडम्बना स्ववर्गीयं स्वदेशीयं वा वेषं परित्यज्य परवर्गीयस्य परदेशीयस्य वा वेषस्य धारणम् , यथा राजपुत्रादे वणिग्वेषधारणम् , गुर्जरादीनां मालवीयादिवेषधारणम्। भाषाया विपरीतविडम्बना स्वदेशीयां भाषां परित्यज्य परदेशीयभाषया भाषणम्। एतद्दर्शनश्रवणादिसंजात इत्यर्थः, तथा-मनः प्रहर्षः मनः महर्षजनकः प्रकाशलिङ्ग:-प्रकाशः= भनेत्रवत्रादीनां विकासो लिङ्ग-चिह्न, प्रकाशानि-प्रस्फुटानि उदरपकम्पनाहहारूप धारण करना यह रूप की विपरीत विडंबना है। तरुण जन द्वारा वृद्ध पुरुष की तरह और वृद्ध पुरुषों द्वारा तरुण व्यक्तियों की तरह चेष्टाएँ करना यह वय की विपरीत विडंबना है । अपने वर्ग के या देश के वेष को छोड़ कर परवर्ग के या परदेश के वेष को अपनाना जैसेराजपुत्र आदिकों का वणिग्वेष धरना, गुजरातियों का मालवीय वेष धारना यह वेष विपरीत विडंबना है । अपने देश की भाषा का परित्याग कर परदेशी भाषा से भाषण करना-बोलना , यह भाषा विपरीत विडंयना है। इनरूपादिकों की विपरीत विडंबना देखने से तथा सुनने से इस हास्य रस की उत्पत्ति होती है। यह (पगोसलिंगों) 5 नेत्र और वक्त्र=मुख , आदि का विकाश होना इसका चिह्न है । अथवा पेटका प्रकम्पन होना, अट्टहास आदि होना ये सब इसके चिह्न हैं । ऐसा વિપરીત વિડંબના છે. તરૂણ વ્યક્તિ વડે વૃદ્ધ વ્યક્તિની જેમ અને વૃદ્ધ વ્યક્તિ વડે તરણ વ્યક્તિની જેમ ચેષ્ટાઓ કરવી આ વયની વિપરીત વિડં. બને છે પિતાના વર્ગના અથવા પિતાના દેશના વેષને ત્યજીને પરવર્ગના અથવા પરદેશના વેષને ધારણ કરવું, જેમ કે રાજપુત્ર વગેરેએ વણિવેષ ધારણ કરે, ગુજરાતીઓને માલવીયવેષ ધારણ કર આ વેષ વિપરીત વિડંબના છે. પિતાના દેશની ભાષાને છોડીને પરદેશી ભાષામાં બોલવું આ ભાષા વિપરીત વિડંબના છે. આ રૂપ વગેરેની વિપરીત વિડંબના જેવાથી तभर साथी । वास्यरसनी पत्ति थाय छे. मी (मणप्पहासो) मनः प्रड न थेटवे -मनने पति ४२ना२ छे. (पगास लिंगो) अनेत्र भने વકૃત્ર-મુખ વગેરેનું વિકસિત થવું આનું ચિહ્ન છે. અથવા તે પેટ ધ્રુજવું, मडास वगेरे थषु भासा मेना चिह्नो छे. मेवो 2 "हासो रसो होइ" For Private And Personal Use Only
SR No.020967
Book TitleAnuyogdwar Sutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1968
Total Pages928
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_anuyogdwar
File Size21 MB
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