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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ७६४ ___ अनुयोगद्वारसूत्रे यदा हि सर्वभूतेषु साम्यग्दृष्टिर्भवति तदैव श्रमणत्वमुपलभ्यते, एवंविध एव साधुः श्रमणो भण्यते इत्याह-'जह मम ण' इत्यादि। यथा मम दुःख-वधताडनादिजनितं पियं न भवति, एवमेव सर्वजीवानामपि दुःखं प्रियं न भवति, इति ज्ञात्वा =मनसि विचार्य यः समस्तानपि पाणिनो न स्वयं इन्ति, न चान्यैर्यातयति, चस्योपलक्षणवाद नतश्चान्यानपि नानुमोदते, प्रत्युत समस्तमपिजीवजातंसं-समं =स्वात्मतुल्यं अणतिमन्यते, तेन हेतुना स समण इभ्युच्यते ॥३॥ इत्थं समं मन्यते सनिपि जीवान् यः स श्राण इत्येवं निर्वचनेन एक पर्यायम् उक्त्वा सम्पति किया है। (जह मम ण पियं दुक्ख, एमेव सव्वजीवाणं, न हणइ, न हणावेह य समणइ तेण सो समणो) जब समस्त भूतों के कार साम्पदृष्टि होती है । तभी श्रमणत्व प्राप्त होता है-ऐसा ही साधु श्रमण कहलाता है-इसी बात को इस गाथा द्वारा कहा जा रहा है। जिस प्रकार वधताडन आदि जन्य दुःख मुझे प्रिय नहीं लगता है उसी प्रकार से समस्त जीवों को भी वह दुःख प्रिय नहीं लगता है। ऐसा मन में विचार करके जो मनुष्य समस्तप्राणियों को स्वयं नहीं मारता हैं, दूसरों से उन्हें नहीं मरवाता है, और चकार से उन्हें मारनेवालों की अनुमोदना नहीं करता है, प्रत्युत समस्त भी जीवजातको अपने समान मानता है इसी कारण वह श्रमण कहा जाता है। इस प्रकार जो 'समं मन्यते सर्वानपि जीवान यः सः श्रमणः' समस्त जीवों को आत्मोपम्यरूप से मानता है, देखता है- वह श्रमण है। इस प्रकार श्रमण शब्द के निवेचन से श्रमणरूप एकपर्याय कहकर अब 'समं. प्रतिपहित ४२ छ. (जह मम ण पिय दुक्खं, एमेव सबजीवाणं, न हणइ, न हणावेइ य समणइ तेण सो समणो) पारे समस्त भूत। प्रत्ये सभ्यष्टि हाय छे, त्यारे । श्रमत्व प्राप्त थाय छे. ३॥ साधुन समण (श्रम) 3. વામાં આવે છે. જેમ વધ, તાડન વગેરે જન્ય દુઃખ મને ગમતા નથી. તેમજ તે સમસ્ત જીવેને પણ તે દુઃખ પ્રિય લાગતું નથી. આમ મનમાં વિચારીને જે માણસ સમસ્ત પ્રાણિઓને પિતે મારતું નથી, બીજા પાસે તેમની વિરાધના કરાવતું નથી અને ચકારથી તેમની વિરાધના કરનારાઓની અનુમોદના કરતે નથી, અને સમસ્ત અને પિતાની જેમ જ માને છે, તેથી જ તે શ્રમણ उपाय छे. भा प्रभारी २ "सम मन्यते सर्वानपि जीवान् यः सः श्रमणः" સમસ્ત જીવેને આત્મૌપમ્ય રૂપથી જૂએ છે, માને છે, તે શ્રમણ છે. આ प्रमाणे श्रम शन नियनथी अभय ३५ मे पर्याय दीन व 'मम For Private And Personal Use Only
SR No.020967
Book TitleAnuyogdwar Sutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1968
Total Pages928
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_anuyogdwar
File Size21 MB
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