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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अनुयोगहारो शङ्खत्वमपि नास्ति, ओ द्विभविकादिद्रव्यशङ्खत्वेन नोक्त इति । एकमविकादित्रिविधोऽपि शङ्खः कालतः क्रियचिरं भवतीत्याह-एगमविए णं भंते ! इत्यादि। एकमविकः खलु भदन्त ! शङ्खः एकभविक इति व्यपदेशेन कालतः कियश्चिरं भवति ? उत्तरयति-जघन्येन अन्तर्मुहूर्त भवति उत्कर्षेण पूर्वकोटीम् । अयं भावःशंखता का अव्यवहित कारण नहीं होता है । एक भविक जीव ही भाव शंखता का अव्यवहित कारण होता है । अतः उसे ही द्रव्यशंख कहा गया है। जीव मरकर शंख की ही पर्याय में उत्पन्न होनेवाला हो उसी का नाम एक भविक द्रव्यशंख है । द्विभविक आदि ऐसे नहीं होते हैं । क्योंकि वे मरकर शंख की पर्याय में ही प्रथम भवरूप से उत्पन्न नहीं होते-दुसरी पर्याय में उत्पन्न हो जाते हैं । इसलिये उनमें भावखिता के प्रति कारणता नहीं बनती । और इसलिये उनमें द्रव्यशंखता? भी नहीं कही गई है। एकभविक आदि जो तीनों प्रकार के ये शंख जीव हैं, उनमें से जो (एगभविए णं भंते) हे भदन्त ! जो एकमविक जीव है, वह (एगभविएत्ति) एकभविक इस नामवाला (कालओ) काल की अपेक्षा (केविरं भवह) कितने समय तक रहता है ? उत्तर--(जहण्णेणं अंतोमुहुत्त उक्कोसे णं पुवकोडी) एक भविक जीव एकभविक इस नामवाला जघन्य से तो एक अन्तमुहर्त तक रहता है । इसका तात्पर्य यह है कि-'पृथिवी आदि किसी શંખતાના અવ્યહિત કારણ થતા નથી. એકભાવિક જીવ જ ભાવ શખતાના અવ્યવડિત કારણ હોય છે. એથી તેને જ દ્રશંખ કહેવામાં આવેલ છે. જે જીવ મરણ પામીને શંખ પર્યાયમાં જ જન્મ પામનાર હોય તેનું જ નામ એક ભવિક દ્રવ્યશંખ છે દ્વિભાવિક વગેરે એવા હોતા નથી, કેમકે તેઓ મરણ પામીને શંખ પર્યાયમાં જ પ્રથમ ભવરૂપમાં ઉત્પન્ન થતા નથી, પરંતુ બીજી પર્યાયમાં ઉત્પન્ન થઈ જાય છે. એટલા માટે તેમનામાં ભાવશંખતા પ્રત્યે કારણુતા ઉપસ્થિત થતી નથી અને તેથી જ તેમનામાં દ્રવ્યશંખતા પણ કહેવામાં આવી નથી. એક भावि पोरे २ त्रय प्रशना मा २५ वे छे. तमामाथी (एगभविए णं भंते) BRE! २ सेमपि ७१ छ, त (एगभविएत्ति) : मावि नाम: पाणी (कालओ) सनी अपेक्षासे (केवविरं भवइ) मा समय सुधी २७ छ ? उत्तर-(जहण्णेणं अंतोमुहुत्तं उसेणं पुवकोडी) मेqि४ ७१ નામવાળે જઘન્યથી તે એક અન્તર્મુહૂર્ત સુધી રહે છે અને ઉત્કૃષ્ટથી તે એક For Private And Personal Use Only
SR No.020967
Book TitleAnuyogdwar Sutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1968
Total Pages928
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_anuyogdwar
File Size21 MB
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