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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र १७७ सलक्षणकरुणरसनिरूपणम् निर्विकारम्-स्वभावेन प्रकृत्या निर्विकार विभूषाभूक्षेपादिविकाररहितम् । न तु मायास्थानतो निस्किारम् , तथा-उपशान्तप्रशान्तसोमदृष्टिकम्-उपशान्तारूपालोकनायौत्सुक्यत्यागात्, प्रशान्ता-क्रोधादिदोपरिहारात् , अत एव सोमा भद्रा दृष्टिर्यत्र तत्तथाभूतम् , अतएव पीवरश्रीकम्-पीवरा-सान्द्रा श्रीः-शोभा यस्य तत्तथाविधं मुनेः मुखकमलं 'ही' इत्याश्चर्ये, यथा शोभते, तथा पश्य। एवंविधं प्रशान्तं मुनि दर्शयन् कश्चित् कंचित् पूर्वोक्तां गाथां कथयतीत्यवतरणिका बोध्या। सम्प्रति नवकाव्यरसानुपसंहर्तुमाह-एए नव' इत्यादि। द्वात्रिंशदोषविधिसमु. कारतास्वरूप , ऐसा (जो) जो (पसंतभावेणं) प्रशान्त भाव (सो) वह (पसंतोत्ति रसो णायव्यो) 'प्रशान्त ऐसा रस जानना चाहिये । यह प्रशांत रस जिस प्रकार से जाना जाता है , सूत्रकार (पसंतो रसो जहा) इन पदों द्वारा उसे कहते हैं जैसे-(सम्भावनिविगारं) मायाचारी से नहीं किन्तु स्वभाव से ही निर्विकार-विभूषा, भ्रूक्षेप आदि विकार से रहित (उवसंतपसंत. सोमदिट्ठीयं) रूपादिक विषयों के अवलोकन की उत्सुकताके परित्याग से उपशांत बनी हुई एवं क्रोधादिक दोषों के परिहार से प्रशान्त हुई ऐसी भद्रदृष्टि से युक्त (मुणिणो मुहकमलं ) मुनि का मुख कमल (ही) कैसे आश्चर्य की बात है जो (पीवरसिरियं) परिपुष्ट शोभा वाला होकर (सोहइ) शोभित हो रहा है । यह उक्ति प्रशान्त मुनि को दिख. लाने वाले किसी एक मनुष्य की है , जो इस गाथा द्वारा प्रकट की गई है। यही इस गोथा की अवतरणिका है । (एए नव कन्वरसा बत्तीस (पसंतभावेणं) प्रशन्तमा (सो) ते (पसंतोत्ति रसो णायव्वो) 'प्रशान्त' રસ જાણવો જોઈએ આ પ્રશાંત રસ જે રીતે જાણવામાં આવે છે, સૂત્રકાર (पसंतो रसो जहा) मा ५४ १ २५ट ४२ छ भ-(सम्भावनिविगार) भायायथा नही ५५ २१मावि शत ४।२-विभूषा, अ५ पोरे विशथी २हित, (उवसंतपसंतसोमविट्ठीय) રૂપ વગેરે વિષયના દર્શનની ઉત્સુકતાના પરિત્યાગથી ઉપશાંત બનેલી તેમજ ક્રોધ વગેરે દોષના પરિહારથી પ્રશાન્ત થયેલી એવી ભદ્ર દષ્ટિથી યુક્ત (मुणिणो महकमलं) मुनिनु भुम भण (ही) आश्चय साथे ४ ५ । (पीवरसिरीयं) परिपुष्ट शनासपन्न यर (सोहइ) सुशीमित 25 २घुछ પ્રશાન્ત મુનિને ઉદ્દેશીને કેઈ એક માણસે આ જાતના વિચારો વ્યકત કરેલાં છે. જે આ ગાથા વડે પ્રકટ કરવામાં આવ્યા છે એજ આ ગાથાની અવત२डि छे. (एए नव कव्वरसा बत्तीसदोसविहिसमुप्पण्णा गाहाहिं मुणियव्वा) अ०२ For Private And Personal Use Only
SR No.020967
Book TitleAnuyogdwar Sutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1968
Total Pages928
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_anuyogdwar
File Size21 MB
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