SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 615
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अनुयोगद्वारसूत्रे अयं भावः-अर्थोपलब्धिस्तु शब्दादेव भवति, पञ्च वेधः प्रदेश इति कथनेन प्रत्येकद्रव्यप्रदेशस्य पश्चविधत्वमापद्यते इति । एवं च तत्र मतेन पञ्चविंशतिविधः प्रदेश स्यात् , तस्मात् मा भग-पञ्चविधः प्रदेशः, अपि तु-भक्तव्या-भजनीयः प्रदेश इति वक्तव्यम् । कियद्भिविभागैर्भक्तव्यः स्यात् ? इत्याह-स्याद् धर्मपदेशः, स्यादधर्मपदेशः, स्यादाकाशमदेशः, स्याज्जीवप्रदेशः, स्यात् स्कन्धप्रदेश इति । पएसेो भवइ) इस प्रकार कहने वाले व्यवहार से ऋजुसूत्रनय ने कहा जो तुम 'पंचविधः प्रदेशः। ऐसा कहते हो तो वह बनता नहीं है, क्योंकि यदि स्वसंमत पांच प्रकार का प्रदेश माना जावे तो धर्मास्तिकायादिकों में से एक एक अस्तिकाय का प्रदेश पांच पांच प्रकार का हो जायगा । इसका तात्पर्य यह है कि-'अर्थ की उपलब्धि शब्द से ही होती है । जब 'पंचविधः प्रदेशः' ऐसा कहा जावेगा-तष इस कथन से प्रत्येक द्रव्य प्रदेश में पंचविधता स्वतः प्रतिभासित होगी ही। इस प्रकार तुम्हारे मन्तव्यानुसार 'पंचविंशतिविधः प्रदेशः 'ऐसा 'पंचविधः प्रदेशः' का वाक्यार्थ होगा। (तं) इसलिये (मा भणाहि) मत कहो कि (पंचविहो पएसो) 'पंचविधः प्रदेशः' ऐसा (भणाहि) किन्तु ऐसा कहो (भयन्यो पएसो) कि प्रदेश भजनीय है। (सिय धम्मपएसो, सिय अधम्मपएसो, सिय आगासपएसो, सिय जीवपएसो, सिय खंध पएसो) धर्मपदेश भजनीय है, अधर्मप्रदेश भजनीय है, आकाशप्रदेश भजनीय है, जीव प्रदेश भजनीय है, स्कंत्र प्रदेश भजनीय है । तात्पर्य सइविहो पएसो भवइ) A! प्रमाणे ना२। ०५१९२२ सूत्रनये ४यु,' ने तमे "पंचविधः प्रदेशः" मम हे तो त योग्य नथी. भर ત્વસંમત પાંચ પ્રકારને પ્રદેશ માનવામાં આવે તે ધર્માસ્તિકાયાદિકોમાંથી એક એક અસ્તિકાયને પ્રદેશ પાંચ પાંચ પ્રકરને થઈ જશે. આનું તાત્પર્ય मा प्रमाणे छ ? 'अर्थनी Gall vथी ४ थाय छे. न्यारे "पंचविधः प्रदेशः" वी शत उडवामा मापते त्यारे मा थनथी ४२३ ४२४ ०५ પ્રદેશમાં પંચવિધતા સ્વયમેવ ભાસિત થઈ જશે જ. આ પ્રમાણે તમારા "भत भुरा "पंचविशतिविधः प्रदेशः मेव। 'पंचविधःप्रदेशः"नवाया थशे (तं) मेटा माटे (मा भणाहि) आम न । ४ (पंचविहो पएसो) "पंचविधः प्रदेशः (भणाहि) ५२'तु माम है (भइयव्यो पएसो) प्रदेश सभनीय छे. (सिय धम्म एसो सिप अधम्मपरसो, सिय आगासपएस्रो, सिय जीवपएसो, सियखंचपएघो) धर्म प्रदेश सनीय छ, मधमहेश सनीय छ, माश પ્રદેશ ભજનીય છે, જીવ પ્રદેશ ભજનીય છે, કંધ પ્રદેશ ભજનીય છે, આ For Private And Personal Use Only
SR No.020967
Book TitleAnuyogdwar Sutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1968
Total Pages928
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_anuyogdwar
File Size21 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy