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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अनुयोगवन्द्रिका टीका सूत्र २२९ प्रदेशदृष्टान्तेन नयप्रमाणम् अयं भावः-भक्तव्यः प्रदेश इति कथनेन पश्चपकारक एवं प्रदेशो भाति, स्वस्थ. प्रदेशस्यैव ग्रहणात् , परकोयप्रदेशस्तु न गृह्यते, तस्यार्थक्रियासाधकत्वाभावादेत. न्मतानुसारेणासत्त्वादिति । एवं वदन्तम् ऋजुत्रं सम्पति शब्दनयो भणतियत्त्वं भणसि, भक्तव्यः प्रदेश इति, तन्न युज्यते । कुतो न युज्यते ? इत्याह-यदि तव मते भक्तव्यः प्रदेशः, एवं तर्हि तब मते धर्मप्रदेशोऽपि स्याद धर्मप्रदेशः, स्यादधर्ममदेशः, स्यादाकशपदेशः, स्थानीवपदेशः; स्यात् स्कन्धपदेशः । एकइसका यह है कि जब 'भक्तव्यः प्रदेशः' ऐसा कहा जाता है, तब प्रदेश पांच प्रकार का ही सिद्ध होता है, क्योंकि अपने २ प्रदेश का ही इस कथन से ग्रहण होता है। परसंबन्धी प्रदेश का नहीं। क्योंकि परसंबन्धी प्रदेश में अर्थक्रिया के प्रतिसाधकस्य का अभाव है। इसलिये इस नय की मान्यतानुसार परप्रदेश असतरूप है । ( एवं वयंत) इस प्रकार कहनेवाले ( उज्जुसुयं) ऋजुमूत्रनय से (संगइ) उसी समय (सहनगो भणइ) शब्दनय ने कहा-(जं भणसि भाययो पएसो तं न भवह) जो तुम 'भक्तव्यः प्रदेशः 'ऐसा कहते हो, वह कहना तुम्हारा ठीक नहीं बनता है (कम्हा) क्योंकि (जइ भइयम्यो पएसो) यदि 'प्रदेश भजनीय है' ऐसा तुम्हारा मत हो तो (१वं ते धम्मपएसो वि सिय धम्मपएसो सिथ अधम्मपएसो, सिय आगासपएसो, मिय जीव पएसो सिय खंधपएसो) इस प्रकार के मत से धर्मास्तिकाय का जो प्रदेश है, वह धर्मास्तिकाय का भी हो सकता है, अधर्मास्तिकाय का सबनु तार५ मा प्रमाणे छ ? “भक्तव्यः प्रदेशः" मा शत ४qvi मावे છે ત્યારે પ્રદેશના પ્રકારે પંચ જ છે. આમ સિદ્ધ થાય છે. કેમકે આનાથી પિતા પોતાના પ્રદેશનું જ ગ્રહણ થાય છે. પર સંબંધી પ્રદેશનું ગ્રહણ થતું નથી કારણ કે પરસંબંધી પ્રદેશમાં અર્થ ક્રિયા પ્રત્યે સાધકતત્વને અભાવ છે. पेटमा माटे मा नयनी मान्यता भु५ ५२ प्रश असत् ३५ छे. (एवं वयंत) मा उना। (उज्जुसुर्य) *सूत्रनयन (संपइ) ते समये (सहनयो भणइ) नये यु (जं भणसि भइयव्वो पएसो तं न भवइ) तमे "भक्तव्यः प्रदेशः" 2414 381 छो, तो माम 33 योग्य नथी (कम्हा) मई (जइभइयव्वो पएसो) ने प्रदेश मनीय छ, मेवी मान्यता छ त। (एवं ते धम्म परसो वि सिय धम्मपएसो सिय अधम्मपएसो, सिय आगासपएसो सिय जीवपएसो सिय खंएसो) मा ततना भतथा स्तियना २ प्रदेश छ, ते ધમસ્તિકાયને પણ થઈ શકે છે, અધર્માસ્તિકાયને પણ થઈ શકે છે, આકાશા For Private And Personal Use Only
SR No.020967
Book TitleAnuyogdwar Sutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1968
Total Pages928
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_anuyogdwar
File Size21 MB
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