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मनुयोगद्वार अप्राप्तवार्धकस्य निरूपक्लिष्टस्य-पूर्व सम्प्रति च रोगरहितस्य जन्तोः=मनुष्यस्य य एक उच्छ्वासनिःश्वास: उच्छ्वासयुक्तो निःश्वासो भवति, स एष प्राण इत्युकाते । शोकनरादिभिरस्वस्थस्य पाणिन उछासनिःश्वासस्त्वरित चलति, अत: स स्वाभाविको न भवति, अतए पात्र हृष्टादि विशेषणमुपात्तम् । हृष्टादिविशेषणविशिष्टस्य माणिनस्तु उच्छ्वासनिःश्वासः स्वभावस्थो भवतीति । तथा-ये सप्त मागाः स एकः स्तोका, सप्तस्तोका एको लवा, तथा-सप्त सप्तत्या लवानां
आवलिका निष्पन्न होती है । (संखेज्जामो आवलियाओ ऊसाओ) संख्यात आवलिकाओं का एक उच्छ्वास होता है (संखिज्जाओ आवलियाओ नीसासो) संख्यात आवलिकाओं का एक निश्वास होता है। (हस्त अणवगल्लास निरुक्किट्ठस्स जंतुणो । एगे ऊसासनीसासे एस पाणुत्ति बुच्चइ) संतुष्ट तथा अनवकल्प-वृद्धता रहित ऐसे निरुपक्लि.
पूर्व में और अब भी व्याधि से अनभिभूत हुए मनुष्य आदि प्राणी का उच्छवास युक्त जो एक नि:श्वास है उसका नाम प्राण है। शोक एवं जरा आदि से अस्वस्थ प्राणी का उच्छ्वास नि:श्वास शीघ्र चला करता है, इसलिये वह स्वाभाविक नहीं माना गया है। परन्तु जो ऐसा नहीं है हर्षितचित्त एवं स्वस्थ होता है-उसका उच्छ्वास निश्वास स्वाभाविक होता है । इसी बात को कहने के लिये सूत्रकार ने हष्टादिविशेषणों का पाठ रक्खा है । (सत्त पाणूणि से थोवे, सत्त थोवाणि से लवे, लवाणं सत्तहत्तरीए एसमुहुत्ते वियाहिए ॥२॥) सात प्राणों का एक स्तोक होता है । सात स्तोकों का एक लव होता है।" 'लवों का आसानी से निश्वास थाय छे. (हदुस्स अणवगल्लस्म निरुक्किदुस्स जंतुणो। एगे ऊसासनीसासे, एस पाणुत्ति वुच्चइ) संतुष्ट तर अन१४६५-वृद्धता રહિત એવા નિરૂપકિલષ્ટ-પૂર્વમાં અને અત્યારે પણ વ્યાધિથી અભિભૂત થયેલ મનુષ્ય વગેરે પ્રાણીને ઉછુવાસ યુક્ત જે એક નિશ્વાસ છે, તે “પ્રાણ કહેવાય છે. શેક તેમજ જરા વગેરેથી અસ્વસ્થ પ્રાણીને ઉચ્છવાસ નિ:શ્વાસ શીવ્ર ગતિથી ચાલતું રહે છે, તેથી તે સ્વાભાવિક ગણાય નહિ પરંતુ જે હર્ષિત-ચિત્ત તેમજ સ્વસ્થ હોય છે તેને ઉશ્વાસ તેમજ નિશ્વાસ સ્વાભાવિક હોય છે આ વાતને સ્પષ્ટ કરવા માટે જ સૂત્રકારે હુષ્ટાદિ વિશેષણેને Gedy ये छ. (सत्त पाणूणि से थोवे, सत्त थोवाणि से लवे, लवाणं सत्तहत्तरीए एस मुत्ते वियाहिए ॥२॥) सात प्राशनी मे : थाय छ सात २२ मे १ थाय छ, ७७ बवानु मे मुडूत थाय छे. (तिण्णि
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