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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir मनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र २२१ अनुमानप्रमाणनिरूपणम् ५०५ : "दृष्टान्ते सदसत्वाभ्यां हेतुः सम्यग् पदारु ते । लोहलेख्यं भवेद्वनं पार्थिनत्वाद् द्रुमा ददन्।। इति । किंच-पक्षधमत्यस पक्षसविपक्षासत्त्वरूपं हेतुलक्षणं-स्वीकृत्यापि यथोक्तदोषभयात् साध्याऽन्यथाऽनुपपन्नत्यरूपं लक्षणं स्वीकर्तव्यमेव स्यात् , तर्हि तदेवक लक्षणं स्वीकुरु, किं पक्षधर्मवादित्रयेण ? इति । उक्त च 'अन्यथाऽनुपपन्नत्वं, यत्र तत्र त्रयेण किम् ? ।। नाऽन्यथाऽनुपपन्नत्वं, यत्र तत्र त्रयेण किम् ? ॥ इति । गमक होना चाहिये । परन्तु इस हेतु को स्वसाध्य का गमक नहीं माना गया है 'यही बात' दृष्टान्ते मरसत्वाचा 'इत्यादि लोक द्वारा कही गई है। किंच बौद्धों की ऐसी मान्यता है कि जिस हेतु में पक्षधर्मता, सपक्षे सत्ता और विपक्षाद् व्यावृत्ति ये त्रिरूपता रहती है, वही हेतु अपने साध्य का गमक होता है-अनः यह त्रिरूपता ही हेतुका लक्षण है, सो उनका भी ऐमा कथन सम्यक् नहीं है। क्योंकि हेतु का लक्षण त्रिरूपता मानने पर भी यथोक्त हेतु दोष का परिहार नहीं होता है । यदि कहा जावे कि-'विपक्षात् व्यातिरूप हेतुः' का लक्षण जहां नहीं होगा-वहां हेतु पक्षधर्मत्वसपक्षसत्ववाला होने पर भी अपने साध्य धर्म का निश्चायक नहीं होगासो उनका ऐसा कथन प्रकारान्तर से अन्यथानुपपत्तिरूप हेतु लक्षण को ही स्वीकार करने का प्रदर्शक है । इसलिये यही मानना चाहिये किઆ હેત વજમાં લેહલેખ્યત્વ રૂપ સાધ્યને ગમક હૈ જોઈએ. પરંતુ मातुने २१साध्यन। म मानवामा माये। नथी. “से वात' 'दृष्टान्ते सदसत्वाभ्यां त्याला १3 वामां माथी छ. य-मीद्धोनी सेवा માન્યતા છે કે “જે હેતુમાં પક્ષધર્મતા”, “સપક્ષે સત્તા અને વિપક્ષાદું વ્યાવૃત્તિ” આ ત્રિરૂપતા રહે છે, તે જ હેતુ પોતાના સાધ્યને ગમક હોય છે. એટલા માટે આ ત્રિરૂપતા જ હેતુનું લક્ષણ છે, તે તેમનું પણ આ જાતનું કથન ઉચિત નથી. કેમકે હેતુનું લક્ષણ ત્રિરૂપતા માનવા છતાંએ યકત દેવને परिहार थ।। नथी. २ ४ाम मावे 'विपक्षात् व्यावृत्तिरूपहेत' नुं લક્ષણ જ્યાં થશે નહિ ત્યાં હિતુ પક્ષધર્મત્વ, સપક્ષ સત્વયુક્ત હોવા છતાં પિતાના સાધ્યનો નિશ્ચાયક થશે નહિ. તો તેમનું એવું કથન પ્રકારાન્તરથી અન્યથાનુ પપત્તિ રૂપ હેતુ લક્ષણને જ સ્વીકૃતિ આપવા માટે છે. એવું લાગે છે. એટલા માટે એમ જ માની લેવું જોઈએ કે “પક્ષધર્મવ આદિ હેતુમાં अ० ६४ For Private And Personal Use Only
SR No.020967
Book TitleAnuyogdwar Sutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1968
Total Pages928
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_anuyogdwar
File Size21 MB
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