SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 54
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org अनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र १८२ संयोगस्वरूपनिरूपणम् ३९ मायया मायी, लोमेन लोभी । स एषोऽप्रशस्तः । स एष भावसंयोगः । तदेतत् संयोगेन ॥ मृ० १८१ ॥ टीका -' से किं तं ' इत्यादि अथ किं तत् संयोगेन ? संयोगेन यन्नाम निष्पद्यते तत् किम् ? इति शिष्य प्रश्नः । उत्तरयति संयोगो हि द्रव्यसंयोग क्षेत्रसंयोगकालसंयोगभावसंयोगभेदेन चतुर्विधः । तत्र - द्रव्यसंयोगः सचित्ताचित्तमिश्रभेदेन त्रिविधः प्रज्ञप्तः । तत्र सचित्तद्रव्यसंयोगेन - गोमान् महिषीमान् इत्यादि नाम निष्पद्यते । अचित्तद्रव्यसंयोगेन - छत्री दण्डीत्यादि । मिश्रद्रव्यसंयोगेन - हालिकः शाकटिक इत्यादि । अत्र इलादीनामचेतनत्वं बलीवर्दादीनां सचेतनत्वमितिमिश्रता बोध्या, एवंविधानि नामानि द्रव्यसंयोगजानि विज्ञेयानि । क्षेत्रसंयोगेन भरतैरण्यवतादीनि मागधमाळवकादीनि वा नामानि निष्पद्यन्ते । कालसंयोगेन - सुषमसुषमाजादीनि प्रावृषिकादीनि वा निष्पन्न होता है, वह प्रशस्त भाव संयोगज नाम है । (से किं तं अपसत्थे ) हे भदन्त ! अप्रशस्त भाव कौन है ? उत्तर -- ( अपसत्थे) अप्रशस्त भाव इस प्रकार है । (कोहेणं कोही, माणेणं माणी, मायाए मायी, लोहेणं लोही, से तं अपसत्थे ) क्रोध, मान, माया, और लोभ ये अप्रशस्त भाव हैं। इनके संबंध को लेकर यह क्रोधी है, यह मानी है, यह मायावी है, यह लोभी है। तात्पर्य यह है कि क्रोध के संबन्ध से क्रोधी मान के संबन्ध से मानी आदि नाम निष्पन्न होते हैं । ये सब ज्ञान आदि और क्रोध आदि आत्मा के ही प्रशस्त और अप्रशस्त भाव हैं । ( से तं भावसंजोगे) इस प्रकार यह भाव संयोगज नाम है । ( से तं संजोगेणं) इस प्रकार अपसत्थे) हे अह'त ! પ્રશસ્ત लाव संयोग नामो छे. (से कि त અપ્રશસ્ત ભાવે કયા કયા છે? Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir उत्तर- (अपसत्थे) अप्रशस्त लावो या प्रमाणे छे. (कोहेणं कोही माणेणं माणी, मायाए मायी, लोहेणं लोही, से त अपसत्थे) डोध, मान, भाया अने ઢાલ આ અધા અપ્રશસ્ત ભાવે છે. આ ભાવાના સ`ખધથી આ ક્રોધી છે, આ માની છે, આ માયાવી છે આ લેાભી છે એવાં નામે નિષ્પન્ન થાય છે. તાપય આ છે કે ક્રોધના સંબંધથી ક્રોધી, માનના સંબંધથી માની વગેરે નામા નિષ્પન્ન થાય છે. આ બધા જ્ઞાન વગેરે અને ક્રોધ વગેરે આત્માના ४ प्रशस्त तेभन म प्रशस्त लावो छे. ( से त भावसंजोगे) या प्रभा या भाव सौंयोग न नाम छे, ( से तं संजोगेणं) या प्रमाणे सयोग क For Private And Personal Use Only
SR No.020967
Book TitleAnuyogdwar Sutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1968
Total Pages928
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_anuyogdwar
File Size21 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy