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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir . . अनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र २२९ प्रदेशदृष्टान्तेन नयप्रमाणम् ५९५ न्धिकस्य देशमदेशोऽपि तत्संबन्धिक एवेति भावः । तत्-तस्माद् हेतोः माभणपण्णां प्रदेश इति, अपि तु पश्चानां प्रदेश इति भण । पश्चानां प्रदेशो यथाधर्मप्रदेशः अधर्मपदेशः आकाशपदेशो जीवप्रदेशः स्कन्धप्रदेश इति । अत्रेदं बोध्यम्-आन्तरद्रव्ये सामान्यायाश्रित्याविशुद्धः संग्रहनय एवं धर्मास्तिकाया. दीनि पश्चद्रव्याणि तत्प्रदेशांश्च मनुते । विशुद्रस्तु संग्रहनयो द्रव्यबाहुल्यं प्रदेश कल्पनां च न स्वीकरोति, अपि तु वस्तुत्वेन सर्वाश्यप्येकत्वेनैव सीकरोतीति । यादिकों के प्रदेश द्वय आदि से निष्पन्न देश का प्रदेश भी धर्मास्तिकायादिक का संबन्धी ही होगा-स्वतन्त्र नहीं- (तं मा भणाहि छण्णं पएसो भणाहि पंचण्हं पएसो) इसलिये तुम ऐसा मत कहो कि षण्णां प्रदेश:-षटू प्रदेशः'। किन्तु ऐसा कहो 'पश्चानां प्रदेशा-पञ्च प्रदेशः । (तं जहा) जैसे (धम्मपएसो, अधम्मपएसो, आगासपएसो, जीवपएसा, खच पएसो) धर्मप्रदेश, अधर्मप्रदेश, आकाशप्रदेश, जीव प्रदेश स्कन्धप्रदेश । यहां इस प्रकार से समझना चाहिये । कि अवान्तर द्रव्य में सामान्य आदि को आश्रित करके अविशुद्ध संग्रहनय ही धर्मास्तिकायादिक पांचद्रव्यों को और उनके प्रदेशों को मानता है। परन्तु जो विशुद्ध संग्रहनय है, वह द्रव्यबाहुल्य और प्रदेशकल्पना को नहीं मानता है। वह तो ऐसा मानता है धर्मास्तिकायादिक सप द्रव्य एक वस्तुस्व सामान्य की अपेक्षा से एक ही हैं । तात्पर्य कहने का यह है-कि संग्रहनय के दो भेद हैं । एक विशुद्ध संग्रहनय और दूसरा अविशुद्ध संग्रहनय। इनमें जो अविशुद्ध संग्रहनय है, वह ५५ स्वतत्र न ५२'तु स्तियाहिनी. साथे ४. सन थरी (तं मा भणाहि छगं पएसो, भणाहि पंचण्हं पएसो) मेथी तभे आयु न "पण्णां प्रदेशः" ५२ माम ही है 'पञ्चानां प्रदेशः पञ्चप्रदेशः' (तंजहा) २ (धम्मपएमो अधम्मपएसो, आगासपएसो, जीवपएसो, खंधपएसो) धम प्रदेश, मधम प्रदेश, माशप्रदेश, प्रदेश, २४५प्रदेश. मही એવી રીતે સમજવું જોઈએ કે અવાર દ્રવ્યમાં સામાન્ય આદિના આશ્રિત અવિશુદ્ધ સંગ્રહનય જ ધર્માસ્તિકાયાદિક પાંચે પાંચ દ્રવ્યોને અને તેમના પ્રદેશને માને છે. પરંતુ જે વિશુદ્ધ સંગ્રહનય છે, તે દ્રવ્ય બાહુલ્ય અને પ્રદેશ કલ્પનાને માનતા નથી. તેની માન્યતા આ પ્રમાણે છે કે ધર્માસ્તિકાયાદિક સર્વ દ્રવ્ય એક વસ્તુ સામાન્યની અપેક્ષાએ એક જ છે. તાત્પર્ય આ પ્રમાણે છે કે “સંગ્રહનયના બે પ્રકારે છે. વિશુદ્ધ સંગ્રહનય અને અવિશુદ્ધ સંગ્રહાય, આમાં જે અવિશુદ્ધ સંગ્રહનય છે, તે અવાન્તર સામાન્ય રૂપ અપર સત્તાને For Private And Personal Use Only
SR No.020967
Book TitleAnuyogdwar Sutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1968
Total Pages928
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_anuyogdwar
File Size21 MB
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