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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अनुयोगद्वारसूत्र एवं वदन्तं संग्रहनयं ततोऽपि निपुणो व्यवहारनयो भगति-यत्वं भणसि, पश्चानां प्रदेश इति, तन युज्यते । कस्मात् ? यथा पञ्चानां गोष्ठिकपुरुषाणां किमपि द्रव्यजातं सामान्यम्-अमिन्नं भवति, यथा हिरण्यं वा सुवर्ण वा धनं वा धान्य वेति, तत्-स्मात् न ते वक्तुं युक्तं यथा पश्चानां प्रदेश इति । अयं भाव:अवान्तर सामान्यरूप अपरसत्ता को विषय करता है और जो विशुद्ध संग्रहनय है वह परसत्ता रूप महा सामान्य को विषय करता है। अवान्तर सामान्य अनेक प्रकार का होता है और महासामान्य केवल एक ही रूप होता है। इसलिये अवान्तर सामान्य को ग्रहण करनेवाला जो अविशुद्ध संग्रहनय है, उसकी दृष्टि में छह का प्रदेश षट् प्रदेश ऐसा कथन संगत नहीं होता है क्योंकि छठा देश प्रदेश धर्मास्तिकायादिकों के प्रदेशरूप ही पडता है स्वतन्त्र नहीं। एवं वयंतं संगहं ववहारो भाइ ज भणसि-पंचण्हं पएसा तं न भगइ, कम्हा जइ जहा पंचण्हं गोहियाणं पुरिमाणं केहदव्वजाए समण्णे भवइ) इस प्रकार कहनेवाले संग्रहनय से व्यवहार नय ने कहा कि जो तुम पंचानां प्रदेशः' ऐसा कहते हो, वह बनता नहीं है। क्योंकि पांच गोष्ठिक पुरुषों का काई द्रव्य जात सामान्य होता है-(तं जहा) जैसे (हिरणे वा सुवण्णे वा धणे वा धण्णे वा) हिरण्य, सवर्ण, धन अथवा धान्य। (तं न ते जुत्तं वत्तुं जहा पंचण्हं पएसो) इस लिये तुम्हे ऐसा बोलना कि 'पंचानां प्रदेशः' यह युक्त नहीं है। વિષય બનાવે છે અને જે વિશુદ્ધ સંગ્રેડ નય છે, તે પર સત્તા રૂપ મહાસામાન્યતે વિષય બનાવે છે. અવાનર સામાન્યના ઘણા પ્રકારે છે. અને મહા સામાન્યનું ફક્ત એક જ રૂપ હોય છે. એથી અવાત્ર સામાન્યને બહણ કરનાર જે અવિશુદ્ધ સંગ્રહાય છે, તેની દષ્ટિએ છને પ્રદેશ ષષ્ટ્ર પ્રદેશ આ જાતનું કથન ઉચિત નથી કેમકે છો દેશ પ્રદેશ ધર્માસ્તિકાયાદિકોને પ્રદેશ રૂપ જ डाय छ, स्वतंत्र नलि. (एवं क्यंत संगहं ववहारो भणइ, जं भणसि-पंचण्हं परसो तं न भगइ, कहा जई जहा पंवण्हं गो द्रुयाणं पुरिसाणं केइ दव्यज्जाए समण्णे भवइ) मा प्रमाणे ना२१ सयडयने त्यारे प्यारनये युने तमे "पंचानां प्रदेशः" भाभ छ। ते ते योग्य नथी. भ. पाय जो पुरुषाने ही द्रव्यात सामान्य डाय छे. (तं जहा) २ (हिरण्णे वा सुवण्णे वा धणेवो धण्णे वा) रिश्य, सुवर्थ, धन भया धान्य, (तं न ते जुत्तं वत्तुं जहा पंचण्ह पएसो) भेटमा भाटे तमारे भाउन्ने "पंचानां प्रदेशः" For Private And Personal Use Only
SR No.020967
Book TitleAnuyogdwar Sutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1968
Total Pages928
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_anuyogdwar
File Size21 MB
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