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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ५१२ अनुयोगद्वारसूत्रे मीयते । यथा हि-कमलपुष्पमिदं तथाविधगन्धोपलम्भात् पूर्वीपलब्धकमलवदिति । एवं कवणं रसेन इत्यत्रापि बोध्यम् । यद्यपि मदिरा नखादयोऽनेकविधाः पृथक्पृथगास्वादस्पर्शाः, तथापि तत्तज्जातीयमदिरावस्त्रादेस्तथाविधास्वादस्पर्शोपलब्धेरास्वादेन मदिरायाः, स्पर्शेन वस्त्रस्य चानुमानं भवतीति । अथ अवयवे - नावयविनोऽनुमानं दर्शयति- 'महिसं सिंगे' इत्यादि । वाऽपि प्रदेशे महिषशृङ्गदृष्ट्वा महिं च कुड्यादिव्यवहितत्वाददृष्ट्वा कश्चिदनुमिनुते - महिषवान् अयं प्रदेशः, तदविनाभूतशृङ्गोपलब्धेः पूर्वोपलब्धो भयसम्मतप्रदेशवदिति । कुडया वहितमहिपसत्तायां तु महिषस्य प्रत्यक्षत्वेन न तत्रानुमानं भवति । एवं अनुमान प्रयोग इस प्रकार से हैं-कमलपुष्पमिदं तथाविधगन्धोरलम्भात् पूर्वोपलभ्धकमलवत् । इसी प्रकार रस से लवण का यह लक्षण अमुक जाति का है ऐसा अनुमान होता है । यद्यपि मदिरा एवं वस्त्रादिक अनेक प्रकार के होते हैं और इनका आस्वाद तथा स्पर्श भी विविध प्रकार का होता है तो भी तत्-तज्जातीय मदिरा एवं वस्त्रादिकों को तथाविध आस्वाद एवं स्पर्शं उपलब्ध होने से मदिरा का 1 स्वाद से और वस्त्र का स्पर्श से अनुमान होता है । 'महिस सिंगेण' इससूत्रपाठ द्वारा अवयव से अवयवी का अनुमान सूत्रकार ने दिख लाया है। किसी स्थान में महिषश्रृंग को देखकर और कुंडय आदि से व्यवहित होने के कारण महिष को नहीं देखकर किसीने अनुमान किया 'अयं प्रदेशः महिषवान् तदविनाभून गोपलब्धेः पूर्वोपलब्धो भयसम्म प्रदेशवत्' जब महिष कुडयादि से अन्तरित नहीं हो और स्पष्ट रूप से प्रतीत हो रहा हो, ऐसी स्थिति में उसका अनुमान नहीं 5 अड्डी' अनुमान प्रयोग मा प्रभा छे. 'कमलपुष्पमिदं तथाविधगन्धोपम्भात् पूर्वोपलब्ध कमलवत् ' या प्रमाणे रसथी सवनुं अनुमान थाय छे है या લવજી અમુક જાતિ વિશેષનુ' છે. જો કે મદિરા તેમજ વસ્ત્રાદિક અનેક પ્રકા રનાં હાય છે અને એમના આસ્વાદ તેમજ સ્પ ઉપલબ્ધ હાવાથી મદિरानु शास्वाथी मने वखतुं स्पर्शश्री अनुमान थाय छे 'महिस सिगेण ' આ સૂત્ર પાઠ વડે અવયવથી અવયવનું અનુમાન સૂત્રકારે સ્પષ્ટ કર્યું છે. કોઈ સ્થાને મહિષશ્ર’ગને જોઇને અને કુડય આદિધી વ્યવહિત હોવાથી भषिने न लेत असे अनुमान यु' 'अयं प्रदेशः महिषत्रान् सदविनाभूत 'गोपलब्धेः पूर्वोपलब्धोभयसम्मत प्रदेशवत्' न्यारे महित उड्याहिथी रमन्ते સ્તિ ડાય નહિ અને સ્પષ્ટ રૂપમાં પ્રતીત થઈ રહ્યો હોય. એવી સ્થિતિમાં તેનું અનુમાન કરવામાં આવતું નથી કેમકે તે પ્રત્યક્ષ રૂપમાં જોવામાં આવી For Private And Personal Use Only
SR No.020967
Book TitleAnuyogdwar Sutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1968
Total Pages928
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_anuyogdwar
File Size21 MB
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