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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र २२१ अनुमानप्रमाणनिरूपणम् ५१३ 1 " कुक्कुटं शिखया इत्यादावनुयानप्रयोगो बोध्यः । तथा द्विपदं मनुष्यादि' इत्यत्र पादद्वयदर्शनेन मनुष्योऽनुमीयते । अनुमानयोगश्चेत्थम् - मनुष्योऽयं तदविनाभूतपदद्वयोपलम्भात्, पूर्वदृष्टमनुष्यवदिति । एवं चतुष्पदं गवादि, बहुपदं गोमिकादि । तथा-'पडियरबंधेग मडं' इति गाथा पूर्वं व्याख्याता । तदनुसारेणास्या भावार्थी बोध्यः । तथा आश्रम आश्रमिणोऽनुमानं भवति । यथा- धूमेन अग्निम्, बळाकया (पं) सलिलम् अभ्रविकारेण दृष्टिम्, शीलसमाचारेण कुळपुत्रं च जनोऽनुमीयते । आश्रयतीत्याश्रयो धूमवलाकादिः । धूमवलाकादयोऽग्निसलिलाद्याया भवन्ति, अदो धूमवलाकादिदर्शनेन अग्निसलिलादीनामनुमानं भवति । ननु धूमस्थाग्निकार्यत्वात्पूर्वोक्त कार्यानुमानेनैव गतार्थस्यात्किमिह पुनरुपन्यासः ? इति चेदाह - भातु कार्यरूपेण धूमेनाग्नेरनुमानम्, परन्तु धूमस्याकिया जाता है। क्योंकि वह तो प्रत्यक्ष से ही दिखलाई पड रहा है। इसी प्रकार से 'कुक्कुटं शिखया' इत्यादि में भी अनुमान प्रयोग जानना चाहिये ।' द्विपदं मनुष्यादि' यहां दो चरणों के देखने से मनुष्य का अनुमान किया जाता है। प्रयोग इस प्रकार है- 'मनुष्योऽयं तदविनाभूतपदयोपलम्भात् पूर्वदृष्टमनुष्यवत् ऐसा होता है। इसी प्रकार से 'चतुष्पदं गवादि, बहुपदं गोमिकादि' यहां पर भी जानना चाहिये। धूम, बलाका आदि अग्नि और सलिल आदि के आश्रय से रहते हैं, इसलिये धूमबलाका आदि के देखने से इनके आश्रयी का अनुमान किया जाता है । यद्यपि धूम अग्नि को कार्य होता है और ऐसा अनुमान कार्य से कारण के अनुमान में ही अन्तभूर्त हो जाता है, फिर भी इसे आश्रय से आश्रयी के अनुमान करनेवाला कहा गया है, सो उसका कारण यह रह्यो छे. या प्रम. ये 'कुक्कुट' शिखया' इत्याहिभां पशु अनुमान प्रयोग भी सेवे। लेखे, 'द्विषद्' मनुष्यादि' भड़ीं मे यर लेवाथी माणूस विषे अनु भान उरवामां आवे छे. प्रयोग प्रभा छे. 'मनुष्योऽयं तदविनाभूतपद द्वयोपलम्भात्' पूर्व दृष्टमनुष्यवत्' सेवा थाय छे. आ प्रभा 'चतुष्पदं गवादि, बहुपदं गोमिकादि 'अहि यागु लागवु लेहान्यो, घूम, अशा वगेरे अग्नि તેમજ સલિલ વગેરેના આશ્રયથી રહે છે. માટે ધૂમ, મલાકા વગેરેને જોવાથી એમના આશ્રયીનું અનુમાન કરવામાં આવે છે જો કે ધૂમ અગ્નિનુ` કા` હાય છે અને આ જાતનું અનુમાન કાર્યાંથી કારણના અનુમાનમાં જ અન્તભૂત થઈ જાય છે. છતાંએ એ આશ્રયથી આશ્રયીનુ' અનુમાન કરનાર કહેવામાં આવ્યું છે. તે! આનુ કારણ આ પ્રમાણે છે કે લેકમાં ધૂમ અગ્નિના આશ્રયે રહે अ० ६५ For Private And Personal Use Only
SR No.020967
Book TitleAnuyogdwar Sutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1968
Total Pages928
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_anuyogdwar
File Size21 MB
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