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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अनुयोगद्वारसूत्रे ___ मूलम् -णेरइयाण भंते ! के महालिया सरीरोगाहणा पण्णता? गोयमा ! दुविहा पण्णता, तं जहा-भवधारणिज्जा य उत्तर येउ ब्विया य । तत्थ णं जा सा भवधारणिज्जा साणं जहणणेणं अंगुलस्स असंखेजहभागं, उक्कोसेणं पंच धणुसयाई। तत्थ णं जा सा उत्तरवेउध्विया सा जहण्णेणं अंगुलस्स संखेज्जइभागं उक्कोसेणं धणुसहस्स। रयणप्पहाए पुढवीए नेरइयाणं भंते ! के महालिया सरीरोगाहणा पण्णत्ता ? गोयमा! दुविहा पण्णत्ता, तं जहा-भवधारणिज्जा य उत्तरवेउब्धिया य, तत्थ णं जा सा भवधारणिज्जा साजहन्नेणं अंगुलस्स असंखिज्जइभाग उक्कोसेणं सत्त धणूई तिण्णि रयणीओ छच्च अंगुलाई, तत्थ णं जा उत्तरवेउठिवया सा जहपणेणं अंगुलस्त संखेज्जइभागं उकासेज उत्सर्पिणी के तीसरे काल या अवसणी के चौथे काल जैसा अनु. भाव सदा विद्यमान रहता है। यहां १ कोटि पूर्व की स्थिति होती है। यहां का पुण्यप्रभाव पूर्वोक्त भोगभूमि के क्षेत्रों की अपेक्षा कम होता है। और इसकी अपेक्षा भरत और ऐरवत क्षेत्र के मनुष्यों का कम होता है। " परमाणू तसरेणू" इत्यादि गाथा में गधषि उच्छलक्षण श्लक्षिणका, क्षणलक्षिणका और ऊर्ध्वरेणु ये तीन पद नहीं कहे गए हैं-तौभी ये यहां उपलक्षण से गृहीत किये गये हैं, ऐसा जानना चाहिये ।। मृ० १९५ ॥ અહીં એક કટિ પૂર્વની સ્થિતિ હોય છે અહી ને પુણ્ય પ્રભાવ પૂર્વોક્ત ભોગભૂમિના ક્ષેત્રની અપેક્ષા કામ હોય છે અને આની અપેક્ષાએ ભરત અને १२वत क्षेत्रना मनुष्यांना मुख्य प्रभाव ५६५ :य छे. “परमाणू तसरेणू" વગેરે ગ થામાં જે કે ઉલક્ષણક્ષણિકા, ક્ષણિકા અને ઉર્વશુ આ ત્રણ પદ કહેવામાં આવ્યાં નથી છતાં એ અહી ઉપલક્ષણથી ગૃહીત थयेछ, मेभ यु मे ॥ सू० १८५।। For Private And Personal Use Only
SR No.020967
Book TitleAnuyogdwar Sutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1968
Total Pages928
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_anuyogdwar
File Size21 MB
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