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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir मनुयोगद्वारसूत्रे समुद्राः प्रज्ञप्ताः, तेषु सर्वेषु त्वं वससि ? विशुद्रतरको नैगमो भणति-जम्बूद्वीपे वसामि । जम्बूद्वीपे दश क्षेत्राणि प्रज्ञप्तानि, तद्यथा भारतम् ऐरवतं हैमवतम् ऐरण्यवतं हरिवर्ष रम्यकर्ष देवकुरवः उत्तरकुरवः पूर्वविदेहः अपरविदेहः, तेषु सर्वेषु त्वं वससि ? विशुद्धतरको नैगमो भगति भारते वर्षे वसामि । भारतं पससि) तो क्या तुम इन सयों में रहते है। ? (विसुद्धो णेगमा भणइ) तब विशुद्ध नैगमनय के अभिप्राय के वशवर्ती बनकर उसने कहा-(तिरिए लोए वसामि) मैं तिर्यश्लोक में रहता हूँ। (तिरियलाए जंबूद्दीवाइया सयंभूरमणपज्जवसाणा असंखिज्जा दीवसमुद्दा पण्णत्ता) तब फिर पूछने वालेने पूछा कि तिर्यक्लोक में जंबूदीप आदि स्वयंभूरमण पर्यंत असंख्यात द्वीपसमुद्र कहे गये हैं, तो क्या (तेसु सम्वेसु तुवं वससि) तुम इन सयों में रहते हो? (विसुद्धतराओ णेगमा भणइ जंबहीवेवसामि) तब विशुद्धतर नैगमनय के अभिप्राय यशवर्ती बनके उसने उत्तर दिया कि मैं जंबूद्वीप में रहता हूं। (जंबूदीवे दसखेत्ता पण्णत्ता) तब फिर पूछने वाले ने पूछा कि जंबूद्वीप में दशक्षेत्र कहे गये हैं। (तं जहा) जैसे (भरहे एरवए हेमवए, एरण्णवए, हरिवस्से, रम्मगवस्से, देवकुरू, उत्तरकुरू पुव्यविदेहे अवरविदेहे,) भरत, ऐरवत, हैमवत, ऐरण्यवत, हरिवर्ष, रम्पकवर्ष, देवकुरू उत्तरकुरू पूर्वविदेह, अपरविदेह, (तेसुसम्वेसु तुवं वससि) तो क्या तुम इन दश क्षेत्रों में रहते हो? (विसुद्धतराओ णेगमो भणइ-भरहे वसामि) तब विशुद्धतर नैगमनय के अभिप्रायानुसार संयभूरमण गज्जवसाणा असंखिज्जा दीवस मुद्दा पण्णत्ता) त्यारे । પ્રશ્નક્તએ પ્રશ્ન કર્યો કે તિર્યકુ લેક જંબુદ્વીપ વગેરે સ્વયંભૂરમણ પર્યત सभ्यात ५ समुद्र छे. तो शु (तेसु सम्वेसु तुवं वससि) तमे भा सभा निवास ४२। छ। ? (विसुद्धतराओ णेगमो भणइ जंबू दीवे व सामि) ત્યારે વિશુદ્ધતર નિગમનયના અભિપ્રાય મુજ મ તેણે જવાબ આપે કે હું मुद्वीपमा २ छु. (जंबूद्दीवे दसखेत्ता पण्णता) त्या२३२ प्रश्नामे प्रश्न ध्या है पूदी५मा ४श क्षेत्र आवे छे. (त जहा भरहे एखए, हेमवए, ऐरण्णाए, हरिवस्से, रम्मगवस्से, देवकुरु, उत्तरकुरु, पुठ्वविदेहे, अवरविदेहे) भरत, भैरवत, मत, औ२९य१त, विष, २-५४१५, ३४२, उत्त२४२, विड, अ५२विहे. (तेसु सव्वेसु तुवं वससि) ते शुं तमे मा सर्प क्षेत्रमा निवास रे। छ। १ (विसुद्धतराओ णेगमो भणइ भरहे वसामि) प्यारे વિશુદ્ધતર નૈગમનયના અભિપ્રાયાનુસાર તેણે જવાબ આપે કે હું ભરત For Private And Personal Use Only
SR No.020967
Book TitleAnuyogdwar Sutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1968
Total Pages928
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_anuyogdwar
File Size21 MB
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