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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ८७४ अनुयोगद्वारसूत्रे उपात्तः, अतएव पिण्डितः = एकजातिमापन्नोऽर्थो विषयो यस्य तत्तथाभूतं संग्रहवचनं - संग्रहस्य वचनं समासतः संक्षेपतो ब्रुवन्ति । अयं भावः - संग्रहनयो हि सामान्यमेव इच्छति न तु विशेषान, अत एव संग्रहस्य वचनं संगृहीतसामान्यार्थ - मेव भवति । तत एव संगृह्णाति = सामान्यरूपतया सर्व पदार्थ क्रोडीकुरुते इति संग्रहस्य व्युत्पत्तिरुक्तैति । तथा-व्यवहारो नयः सर्वद्रव्येषु = सकलद्रव्यविषये विनिश्रयात् निःशब्द आधिक्ये, चयनं चयः = पिण्डीभवनम् - अधिकवयो निश्वयः = सामान्यं, विगतो निश्चयो विनिश्चयः = सामान्याभावः, तदर्थं तन्निमित्तं व्रजति= उसे कहता हूं । (संगहियपिंडियस्थं संगहवयणं समासओ बिंति, awar, विणिच्छियत्थं वत्रहारो सव्वद दवेसु) सम्यक् गृहीत अतएव एक जाति को प्राप्त ऐसा अर्थ-विषय है, जिसका ऐसा संग्रह का वचन है इस प्रकार तीर्थंकर गणधर आदि संक्षेप से कहते हैं । इसका तात्पर्य यह है कि - ' संग्रहनय, सामान्य को ही विषय करता है। विशेषों को नहीं । इसलिये संगृहीत सामान्य विषयवाला ही संग्रह का वचन होता है । इसलिये 'सामान्यरूपतया सर्वे पदार्थ संगृह्णाति - कोडीकरोति इति संग्रहः " यह संग्रह की व्युत्पत्ति कही गई है। तथा व्यवहारनय सर्वद्रव्यों के विषय में विनिश्चय के निमित्त प्रवृत्त होता है । विनि शब्द का अर्थ सामान्याभाव होता है । यह इस प्रकार से यहां 'निः' शब्द का अर्थ आधिक्य है और चय का अर्थ पिण्डीभवन एक रूप होना है। इस प्रकार अधिक जो चय है वह निश्चय अर्थात् सामान्य है क्योंकि सामान्य ही विशेषरूपों की ओर उदासीनता रखकर अधिक छु' ते सांला - (संगहिय पिंडियत्थं संगहवयणं समासओ विंति वच्चइ, विणिच्य त्थं ववहारो सव्वदव्वेसु) सभ्य गृडीत यतयेव येऊ लतिने आप्त सेवा અથ-વિષય છે. જેને! એવુ' સ'ગ્રહનુ' વચન છે, આ પ્રમાણે તીર્થંકર ગણુધર વગેરે સંક્ષેપમાં કહે છે, આનું તાત્પ આ પ્રમાણે છે કે ‘સ'ગ્રહે નય સામા ન્યને જ વિષય અનાવે છે. વિશેષાને નહિ. એથી સંગૃહીત સામાન્ય વિષય युक्त संग्रहेतुं वथन होय छे. भेटला भाटे 'सामान्यरूपतया सर्व पदार्थ संगृह्णाति - कोडी करोति इति संग्रहः' मा संग्रहनी व्युत्पत्ति छे तथा व्यव દ્વાર નય સવ દ્રવ્યેના વિષયમાં વિનિશ્ચય નિમિત્ત પ્રવૃત્ત થાય છે. વિનિશ્રય શબ્દના અર્થ સામાન્યાભાવ હોય છે. આ પ્રમાણે અહીં ‘નિઃ’શબ્દના अर्थ साधिय छे भने 'चय' नो अर्थ' पिडीलवन मे४३५ थवु छे. या પ્રમાણે અધિક જે ચય છે તે નિશ્ચય એટલે કે સામાન્ય જ છે કેમકે સામાન્ય જ વિશેષ રૂપેાપ્રત્યે ઉદ્દાસીનતા રાખીને અધિક ચય કરે છે. ‘વિ’ ના અથ વિગત For Private And Personal Use Only
SR No.020967
Book TitleAnuyogdwar Sutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1968
Total Pages928
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_anuyogdwar
File Size21 MB
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