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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ४७० अनुयोगद्वारसूत्रे तत्र यानि तानि ब द्वानि तानि खलु असंख्येयानि । तानि च संख्येयोत्सपिण्यवसर्पिणी भिरपहियन्तेऽतः कालमाश्रित्यैतानि असंख्येयोत्सर्पिण्यवसर्पिणीसमयराशितुल्यानि । क्षेत्रः प्रतरस्यासंख्येय मागेऽसंख्येयाः श्रेणयः-प्रतरस्यासंख्येयभागवर्तिन्यो या असंख्येयाः श्रेणयस्तद्गता यावन्तः प्रदेशाः सन्ति तावत्पदेशममाणानि क्षेत्रतो व्यन्तरबद्धवैक्रियशरीराणि । ननु प्रतरासंख्येयभागेऽसंख्येया योजनकोटयोsपि भान्ति, तत्किमेतावत्यपि क्षेत्रे या नभाश्रेण यो भवन्ति ता प्रकार के कहे हुए हैं (तं जहा) जैसे (बद्धेल्लया य मुक्केल्लया य) एक बद्ध और दूसरे मुक्त। (तस्थ णं जे ते बल्लिया ते णं असंखिज्जा) इन में जो बद्ध वैक्रियशरीर हैं वे सामान्य से असंख्यात हैं। (असं खिज्जाहिं उस्सप्पिणीओसप्पिणीहिं अवहीरंति कालओ) काल की अपेक्षा ये असंख्यात उत्सर्पिणी काल के जितने समय होते हैं उतने हैं। (खेत्तमो असखिज्जाओ सेढीओ पयरस्स असंखिज्जइभागे, तासि णं सेढी णं विक्कंभसई सखेज्जजोयणसयवरगपलिभागो पयरसल) तथा क्षेत्र की अपेक्षा इनका प्रमाण इस प्रकार से है कि प्रतर के असंख्यातवें भाग में रही जो असंख्यात श्रेगियां हैं सो उन श्रेणियों के जितने प्रदेश हैं, उतने प्रदेश प्रमाण ये हैं-अर्थात् व्यन्तरों के ये बद्ध वैक्रियशरीर प्रतर के असंख्यातवें भाग वर्तमान असंख्यात श्रेणिरूप हैं। शंका-प्रतर के असंख्यातवें भाग में वर्तमान असंख्यात योजन कोटियां भी होती हैं। ४२१मा माया छ (तं जहा) रेभ है (बद्धेल्या य मुक्केल्या य) मे म भने भी अप (तत्य ण जे ते जे बद्धल या तेणं असं खिज्जा) मामा २ मई वैठियशरी। छ, त सामान्यनी मपेक्षा असभ्यात छे. ( असं. खिज्जाहि उस्मपिणीओसप्पिर्ण हिं अवहीरति कालओ) .नी अपेक्षा । અસંખ્યાત ઉત્સર્પિણી અને અપસર્પિણી કાળના જેટલા સમયે હોય छ, तटसा छे. (खेतो असंखिज्जाओ सेढीओ पयररस असखिज्जइभागे, तासिणं सेढीण विक्खंभसूई सखेज्जजोयणसयवम्गपलिभागो पयरस्स) भन्न क्षेत्रनी અપેક્ષા એમનું પ્રમાણ આ પ્રમાણે છે કે પ્રતરના અસંખ્યાતમાં ભાગમાં આવેલી જે અસંખ્યાત શ્રેણિએ છે તે શ્રેણિએના જેટલા પ્રદેશો છે, તેટલા પ્રદેશ પ્રમાણુ એઓ છે એટલે કે વ્યંતરના આ બદ્ધ વૈકિયશરીર પ્રતરના અસંખ્યાતમાં ભાગમાં વર્તમાન અસંખ્યાત શ્રેણિરૂપ છે. શંકા–પ્રતાના અસંખ્યાતમા ભાગમાં વર્તમાન અસવાત જન કેટીઓ પણ હોય છે. For Private And Personal Use Only
SR No.020967
Book TitleAnuyogdwar Sutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1968
Total Pages928
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_anuyogdwar
File Size21 MB
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