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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir -- - अनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र२०४ पल्योपमादीनां औपमिकप्रमाणनिरूपणम् २६५ निरर्थकान्येतानि ? इत्याह-केवलमेतेः प्रज्ञापना प्रज्ञाप्यते-मरूपणामा क्रियते इत्यर्थः । ननु निरर्थकस्य प्ररूपणा व्यर्था, अकिंचित्करत्वादिति चेदाह-वादरे मरूपिते सूक्ष्मं सुखावबोधं भवति, अत: सूक्ष्मोपयोगित्वात्-बादरपरूपमा नैका. न्ततो निरथिका । ननु तहि नास्ति किंचित् प्रयोजनमिति यदुक्तं तत् कथं संगच्छते ? इति चेदाह-एतावतः प्रयोजनस्याल्पत्वेनाविवक्षणात्तथोक्तम् , अतो ___ उत्तर--'एएहिं वावहारिय उद्वारपलि मोत्रमसागरोवमेहिं गस्थि. किंचिप्पओयणं केवलं पण्णवणा पण्णविज्जइ) इन व्यावहारिक उद्धारपल्योपम और व्यावहारिक उद्धार सागरोपम से कोई भी प्रयोजन सिद्ध नहीं होता है केवल ये दोनों प्ररूपणा मात्र के लिये हैं। शंका--जब इनसे कोई भी प्रयोजन सिद्ध नहीं होता है, तो निरर्थक होने से इनकी प्ररूपणा करना ही व्यर्थ है ? उत्तर--ऐसा नहीं है क्योंकि जब बादर पल्योपमादि की प्ररूपणा हो जाती है अर्थात् समझली जाती है, तो उससे सूक्ष्मपल्योपमादि की प्ररूपणासुखावबोध-सरलता से समझने में आजानेवाली हो जाती है। इसलिये सूक्ष्म की प्ररूपणा में उपयोगी होने के कारण बादर की प्ररूपणा सर्वथा निरर्थक नहीं मानी जा सकती।। शंका--तो फिर 'णस्थि किंचिप्पओयण' यह जो पाठ कहा गया है सो इस पाठ की संगति कैले बैठाली जावेगी? उत्सर--सूक्ष्म की प्ररूपणा में यह उसका उपयोगीपना रूप प्रयो. उत्तर-(एएहि वावहारिए उद्धारपलिओवमसागरोवमेहि पथि किचिप्पओयणं केवलं पण्णवणा पण विज्जइ) मा व्यापारिद्वार ५०५म भने વ્યાવહારિક ઉદ્ધાર સાગરોપમાંથી એક પણ પ્રજન સિદ્ધ થતું નથી આ બને ફક્ત પ્રરૂપણું માટે જ છે. શંકા–જ્યારે એનાથી કઈ પણ પ્રોજનની સિદ્ધિ થતી નથી ત્યારે નિરર્થક હેવાથી એની પ્રરૂપણું જ વ્યર્થ છે? ઉત્તર–ખરેખર આમ નથી કેમકે જ્યારે બાદર પોપમાદિની પ્રરૂપણા થઈ જાય છે, ત્યારે તેનાથી સૂક્ષ્મ પપમાદિની પ્રરૂપણા સલતાથી સમજમાં આવી જાય છેએથી જ સૂક્ષ્મની પ્રરૂપણમાં ઉપયોગી થઈ પડે છે, એટલા માટે બાહરની પ્રરૂપણું સાવ નિરર્થક ગણાય નહિ. श-त५छी " णत्थि कि चिप्पओयण" 40 413 अपामा माये! છે, તે આ પાઠની સંગતિ કેવી રીતે બંધ બેસતી કરી શકાય? अ० ३४ For Private And Personal Use Only
SR No.020967
Book TitleAnuyogdwar Sutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1968
Total Pages928
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_anuyogdwar
File Size21 MB
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