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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अनुयोगचन्द्रिका टीकों सूत्र २२९ प्रदेशदृष्टान्तेन नयप्रमाणम् ६०५ पतो भण-पम्मे य से पएसे य से पएसे धम्मे-धर्मश्च स प्रदेशश्च स प्रदेशो धर्मः इत्यादि । इत्थं च सप्तमीतत्पुरुष सन्देहो न भाति । अत्र धर्मात्मकः प्रदेशः समस्तधस्तिकायाभेदेन समानाधिकरणतयोच्यते, अतः प्रदेशोऽपि धर्मः । एवम् अधर्मात्मकः प्रदेशः अधर्मः, आकाशात्मकः प्रदेशः आकाश इति । तथाजीवश्च स प्रदेशश्च स प्रदेशो नो जीवः, स्कन्धश्च स प्रदेशश्च म प्रदेशो नो स्कन्धः। अथ भावः-अनन्त जीवात्मकसमस्त जीवास्तिकायस्यैकदेश एक जीवो भवति, तस्य प्रदेशः समस्त नीवास्तिकायाद् भिन्न एव भवति, अतः कहते हैं तो ऐसा मत कहो-तात्पर्य यह है कि यदि सप्तम्यन्त तत्पुरुष समास को लेकर 'धम्मे पएसे ऐसा कहते हो तो धर्म और प्रदेश में भेद प्रसक्त होता है । जैसे 'कुण्डे बदराणि' में भेद है । यदि कर्म धार य समास को आश्रित कर कहते हो तो ऐसा कहो कि 'धम्मे य पएसे य से धम्मे' इस प्रकार से कहने पर सप्तमी तत्पुरुष समास का संदेह नहीं होता है । कर्मधारय समास में धर्माः त्मक जो प्रदेश है उसका समस्त धर्मास्तिकाय के साथ अभेदरूप होने के कारण समानाधिकरण हो जाता है । इसलिये प्रदेश भी धर्मा. स्मिकायरूप बन जाता है। इसी प्रकार (अधर्मात्मकः प्रदेशः अधर्मः, आकाशात्मकः प्रदेशः आकशः 'जीवश्च स प्रदेशश्च स प्रदेशो नो जीवः स्कन्धश्च स प्रदेशश्च स प्रदेशो नो स्कन्धः) यहां पर भी जानना चाहिये। तात्पर्य कह है कि-'अनन्त जीवात्मक समस्त जीवास्तिकाय है उसका સમાસના આધારે કહી રહ્યા છીએ તે આ બરોબર નથી તાત્પર્ય એ છે કે न सभ्यन्त तत्पुरुष समासना माघारे "धम्मे परसे" मा छ। त। घम अने प्रदेशमा मह प्रसत थाय छे. २म "कुण्डे बदरणि"भा ह . न त मधारय सभासना आधारे ४ छ। तमाम ही है 'धम्मे य से परसे य से परसे धम्मे'। शत पाथी सभी तत्पुरुष समास विष સંદેહ ઉપ્તન્ન થતું નથી. કર્મધારય સમાસમાં ધર્માત્મક જે પ્રદેશ છે, તેને સમસ્ત ધર્માસ્તિકાયની સાથે અભેદરૂપ હોવાથી સમાનાધિકરણ થઈ જાય છે. એટલા માટે આ પ્રદેશ પણ ધર્માસ્તિકાયરૂપ થઈ જાય છે. मा प्रमाणे (अधर्मात्मकः प्रदेशः अधर्मः, आकाशात्मकः प्रदेशः आकाशः जीवश्च म प्रदेशश्च स प्रोशो नो जीवः स्कन्धश्च स 'प्रदेशश्च स प्रदेशो नोस्कन्धः) અહીં પણ જાણી લેવું જોઈએ. તાત્પર્ય આ પ્રમાણે છે કે “અનંત જીવાત્મક સમસ્ત જીવાસ્તિકાય છે, તેને એક દેશ એક જીવ છે, તેને જે For Private And Personal Use Only
SR No.020967
Book TitleAnuyogdwar Sutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1968
Total Pages928
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_anuyogdwar
File Size21 MB
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