SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 597
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ५८० अनुयोगद्वार अनेकानि गृहाणि तेषु सर्वेषु त्वं वससि ?' विशुद्धारको नैगमो भणति - देवदत्तस्य गृहे वसामि । देवदत्तस्य गृहे अनेकाः कोष्टकाः तेषु सर्वेषु त्वं बससि ? विशुद्धतरको नैगमो भणति - गर्भगृहे वसामि । एवं विशुद्धस्य नैगमस्य वसन् । एवमेव व्यवहारस्यापि । संग्रहस्य संस्तारकसमारूढो वसति । ऋजुमूत्रस्य कि ( पाडलिपुते अगाईं गिहाई तेसु सव्वेसु तुवं वससि) पाटलिपुत्र में अनेक गृह हैं-सो क्या तुम उन सबों में रहते हो ? । (विसुद्ध - तराओ गमो भइ) तब विशुद्धतर नैगमनय के मतानुकूल होकर उसने उत्तर दिया- ( देवदन्तस्स घरे वसामि ) देवदत्त के घर में रहता हूं । (देवदत्तस्स घरे अणेगा कोट्ठगा तेसु सव्वेसु तुवं वससि ? ) पूछने वाले ने पुनः पूछा कि देवदत्त के घर में तो अनेक कोठे हैं, तो क्या तुम उन सर्षो में रहते हो ? (गन्नघरे वसामि ) तब उसने कहा कि नहीं, मैं उन सब में नहीं रहता हूं । किन्तु वहां जो गर्भगृह है, उसमें रहता हूं | ( एवं विशुद्धस्स णेगमस्स वसमाणो ) इस प्रकार विशुतर नैरमनय के मत के अनुसार यह गर्भ गृह में रहता हुआ ही 'वसति' इस रूप से व्यपदिष्ट होता है । तात्पर्य इस का यह है कि जिस गृहादि में सर्वदा निवासीरूप से विवक्षित होता यह यदि वहां उस समय में रह रहा है, तभी वह 'वहां रहता है । 'इस रूप से विशुद्धतर नैगमनय के मतानुसार व्यपदिष्ट हो सकता है। यदि प्रश्न इवार प्रश्न ( पाडलिपुत्ते अगाई गिहाई तेसु सव्वेसु तुवं वससि) पाटलिपुत्रमां घरो आवे छे तो शुं तमे ते सर्व धरोमां निवास पुरे। है। ? (विसुद्धतराओ णेगमो मणइ) त्यारे विशुद्धतर नैगमनय भुभ्य तेथे वाम आयो है ( देवदत्तस्स घरे वसामि ) हुँ हेवह"तना घेर २हु छु. (देवदत्तस्स घरे अणेगा कोट्टगा तेसु सब्वेसु तुवं वससि १ ) પ્રશ્નકર્તાએ ફરીવાર પ્રશ્ન કર્યાં કે દેવદેત્તના ઘરમાં તે ઘણા પ્રકૈાછો છે, તા शु' तसे ते सर्व अठोभां निवास ४रे । हो ? (गन्मघरे वसामि ) त्यारे तेथे જવાખ આપતાં કહ્યુ કે, હુ' તે સર્વ પ્રકાષ્ઠામાં રહેતા નથી પણુ ફક્ત તેના गर्भगृहमां निवास ई छ (पवं विसुद्धास णेगमस्त वसमाणो) या प्रमाणे विशुद्धतर नैगमनयना भत भुभम मा गर्भगृहमां रडेतां ४ 'वसति' मा રૂપથી બ્યપષ્ટિ થાય છે, તાત્પ આ પ્રમાણે છે કે જે ગૃહાદિમાં સદા નિવાસ કરનારના રૂપમાં વિવક્ષિત થતાં જો તે ત્યાં જ રહેતા હાય તાજ શ્મા ત્યાં રહે છે' આ રૂપમાં વિશુદ્ધતર નૈગમનયના મત મુજબ વ્યપશ્ચિ For Private And Personal Use Only
SR No.020967
Book TitleAnuyogdwar Sutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1968
Total Pages928
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_anuyogdwar
File Size21 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy