Book Title: Adarsha Hindi Sanskrit kosha
Author(s): Ramsarup
Publisher: Chaukhamba Vidyabhavan
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir For Private And Personal Use Only Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ॥ श्रीः ॥ विद्याभवन संस्कृत ग्रन्थमाला आदर्श हिन्दी-संस्कृत-कोशः डॉ. रामसरूप 'रसिकेश शास्त्री, एम० ए०, एम० ओ० एल० ( संस्कृत ), एम० ए० पी-एच० डी० ( हिन्दी ), विद्यावाचस्पति ( धर्म० ) पूर्व-प्राध्यापक, डी० ए० वी० कालेज ( लाहौर ), हंसराज कालेज (दिल्ली ) तथा दिल्ली विश्वविद्यालय चौरखम्बा विद्याभवन वाराणसी २२१००१ For Private And Personal Use Only Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir चौखम्बा विद्याभवन ( भारतीय संस्कृति एवं साहित्य के प्रकाशक विक्रेता ) चौक ( बनारस स्टेट बैंक भवन के पीछे ), पोस्ट बाक्स नं० ६६ वाराणसी २२१००१ सर्वाधिकार सुरक्षित द्वितीय संस्करण १९७६ मूल्य - अन्य प्राप्तिस्थान चौखम्बा सुरभारती प्रकाशन ( भारतीय संस्कृति एवं साहित्य के प्रकाशक विक्रेता ) h० ३७ /११७, गोपाल मन्दिर लेन पोस्ट बाक्स नं० १२६ वाराणसी २२१००१ मुद्रक--- श्रीजी मुद्रणालय वाराणसी For Private And Personal Use Only Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir THE VIDYABHAWAN SANSKRIT GRANTHAMALA AU 32 ADARSA HINDI-SANSKRT-KOŚA By Dr. Ramsarupa 'Rasikesha' Shastri, M. A., M. 0. L. ( San. ), M. A. Ph. D., ( Hindi ), Vidyarachaspati ( Dharmashastra) Ex-Professor D. A. V. College ( Lahore ), Hansraja College ( Delhi ) and Delhi University. THE CHOWKHAMBA VIDYABHAWAN CHOWKHAMBA VIDYABHAWAN VARANASI For Private And Personal Use Only Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir © CHOWKHAMBA VIDYABHAWAN (Oriental Booksellers Publishers) CHOWK (Behind The Benares State Bank Building) Post Box No. 69 VARANASI 221001 Second Edition 1979 Price Rs. OO Also can be had of CHAUKHAMBA SURABHARATI PRAKASHAN ( Oriental Booksellers & Publishers) K. 37/117, Gopal Mandir Lane Post Box No. 129 VARANASI 221001 For Private And Personal Use Only Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समर्पणम् दिवङ्गत जननीं सीतां प्रति नमस्कृत्य वदामि त्वां यदि पुण्यं मया कृतम् । अन्यस्यामपि जात्यां मे त्वमेव जननी भव ॥ For Private And Personal Use Only Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir For Private And Personal Use Only Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्राक्कथन प्रोफेसर विश्वबन्धु शास्त्री M. A., M. O. L., d' A. Kt. C. T. आदरणीय संचालक, विश्वेश्वरानन्द वैदिक शोध संस्थान संस्कृत भाषा का विशाल, सर्वतोमुख साहित्य हो, निःसंदेह, वह सर्वोत्तम बपौती है, जो प्राचीन भारत से नवभारत को मिली है। संस्कृत-भाषा अतीव चिरंजीविनी है, वस्तुतः, अमिट और अमर है। सहस्रों वर्ष पूर्व के हमारे पुरखा इसी देववाणी के द्वारा अपना सब वाग्व्यवहार चलाते थे। धीरे-धीरे फिर वह समय आया, जब शिक्षित जन ही इसका शुद्ध प्रयोग कर पाते थे और शेष-सर्व-साधारण लोग इसके अनेक विकृत रूपों का प्रयोग करने लगे थे। वही विकृत रूप, पोछे-पाली, प्राकृत तथा अपभ्रंश कहलाए और बोल-चाल एवं साहित्य-सृष्टि के समुन्नत माध्यम भी बने। परन्तु, उस समय भी, साधारण जनता भले ही शुद्ध संस्कृत न बोल सकती हो, वह, अवश्य, उसे समझ लेती थो। संस्कृत को वही अमिट छाप हमारी आधुनिक भारतीय भाषाओं पर भी पड़ी हुई है, जिसके कारण, हमारे आज के विभिन्न प्रादेशिक वाग्व्यवहार के अन्दर ४०-५० से लेकर ८०-६० प्रतिशत तक, मानो, स्वयं संस्कृत-भाषा ही बोली और लिखी जा रही है। शुद्ध संस्कृत के माध्यम से होने वाली साहित्य-सृष्टि तो कभी रुको ही नहीं । प्राचीन तथा मध्यकालीन युगों की बात तो अलग रही, आज के युग में भी संस्कृत-भाषा के सभी प्रकार के साहित्य को सृष्टि बराबर चालू है। आशा प्रतीत होती है कि देश को स्वतन्त्रता के साक्षात् फलस्वरूप राष्ट्रीय चेतना इस ओर प्रतिदिन अधिकाधिक जागरूक होती जायेगी। यह प्रसन्नता की बात है कि देश-भर में जहाँ-तहाँ अभियुक्त जन इस समय संस्कृताध्ययन के रङ्ग-ढङ्ग को सरलतर बनाने के प्रयत्न में लग रहे हैं। एतदर्थ कई प्रकार के अभिनव शिक्षण-क्रमों का आविष्कार तथा साधन-भूत सहायक साहित्य का निर्माण किया जा रहा है। प्रस्तुत 'आदर्श-हिन्दी-संस्कृत-कोश' उक्त सहायक साहित्य के ही अन्तर्गत एक उत्तम रचना है। इसके सुयोग्य लेखक ने इसे सब प्रकार से उपयोगो बनाने के लिए सफल प्रयास किया है। For Private And Personal Use Only Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [ ४ ] एक भाषा से दूसरी भाषा में अनुवाद करना सुकर नहीं होता। जब तक दोनों भाषाओं के प्रयोग-स्वारस्य का अच्छा बोध प्राप्त न किया हो, तब तक मक्खी पर मक्खी मारने के अतिरिक्त और कुछ सिद्ध नहीं किया जा सकता। एतदर्थ छात्रों को चाहिए कि दोनों भाषाओं के सत्साहित्य के सागर में स्वतन्त्र रूप से खुला अवगाहन करें। कोई भी व्याकरण या कोश का ग्रन्थ इस प्रधान साधन का स्थान नहीं ले सकता। परन्तु उक्त विस्तृत पठन के साथ-साथ, प्रतिदिन के कार्याभ्यास में प्रस्तुत कोश ऐसे सहायक ग्रन्थों का निश्चय ही अपना स्थान एवम् उपयोग है। इस कोश में जिन सुविपुल विशेषताओं का आधान करते हुए इसे गुणवत्तर बनाया गया है, इसकी 'प्रस्तावना' में उनका विवरण भली प्रकार से कर दिया गया है। छात्रों को चाहिए कि इसको 'प्रस्तावना' के पाठ द्वारा उन विशेषताओं का परिज्ञान प्राप्त करते हुए इसका सदुपयोग करते रहें, जिससे उन्हें पूर्ण सफलता प्राप्त हो सके । साधु आश्रम, होशियारपुर । १६-६-५७ -विश्वबन्धु For Private And Personal Use Only Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir डॉ० राम सरूप 'रसिकेश' For Private And Personal Use Only Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रस्तावना (द्वितीय संस्करण) 'आदर्श हिन्दी-संस्कृत कोश' की उपयोगिता व लोकप्रियता इसी से प्रमाणित है कि इसका प्रथम संस्करण शीघ्र ही समाप्त हो गया और इसकी माँग, शुक्ल पक्ष के चाँद के समान, निरन्तर बढ़ती ही गई। संस्कृत-प्रेमियों, पुस्तक-विक्रेताओं, प्रकाशक व लेखक सभी की उत्कट इच्छा थी कि द्वितीय संस्करण यथाशीघ्र प्रकाशित हो, जिससे देव-वाणी की अधिकाधिक उन्नति हो। परन्तु, इस संसार में परिस्थितियाँ कभी-कभार ऐसा प्रतिकूल रूप धारण कर लेती हैं कि उन पर विजय पाना दुष्कर हो जाता है। यही कारण है कि संस्कृत-प्रेमियों को सुदीर्घकाल तक अप्रत्याशित प्रतीक्षा करनी पड़ी, जिसके लिए हम क्षमा-प्राथीं हैं । अस्तु । सभी भाषा-शास्त्री जानते हैं कि कोई भी जीवन्त भाषा वर्षों तक एक ही रूप में नहीं रहती। उसके शब्द-भंडार आदि में परिवर्तन होता ही रहता है। इसी नियमानुसार दो दशाब्दियों में हिन्दी-शब्द-भंडार का पर्याप्त विस्तार हुआ और परिणामतः हमने भी कोश का परिवर्द्धित संस्करण ही प्रकाशित करना समीचीन समझा । प्रथम संस्करण में कुछ अशुद्धियाँ भी रह गई थीं। उनका संशोधन भी अपना पवित्र कर्तव्य था। इस कार्य में हमें अपने मित्र प्रो० गोपालदत्त पाण्डेय, पूर्व-उपनिदेशक, शिक्षाविभाग, उत्तर प्रदेश, ने स्तुत्य सहयोग दिया है, जिसके लिए हम उनके कृतज्ञ हैं। इतना ही नहीं, उन्होंने 'संस्कृत-कोशों का उद्भव और विकास' शीर्षक अनुसन्धानात्मक निबन्ध भी लिखा है, जिससे संस्कृत-प्रेमियों को इस विषय की रोचक व मूल्यवती जानकारी भी उपलब्ध होगी। कोश के सम्बन्ध में जिन विश्रुत विद्वानों ने स्वामूल्य सम्मतियाँ प्रदान की हैं उनके प्रति हम हार्दिक आभार प्रकट करते हैं। साथ ही कृतज्ञ हैं चौखम्बा विद्याभवन के संचालक श्री वल्लभदास गुप्त के जिन्होंने विषम परिस्थितियों में भी कोश को प्रस्तुत सुन्दर रूप में प्रकाशित किया है। हमें विश्वास है कि प्रस्तुत संस्करण पूर्व की अपेक्षा अधिक उपयोगी सिद्ध होगा। पाठकों से निवेदन है कि प्रथम संस्करण की प्रस्तावना को भी सावधानता से पढ़ने की कृपा करें, क्योंकि इसके विना वे कोश से यथेष्ट लाभ न उठा सकेंगे। ____ अन्त में, विद्वज्जनों व अध्यापक-वर्ग से सादर निवेदन है कि प्रस्तुत संस्करण की त्रुटियों की ओर हमारा ध्यान अवश्य आकर्षित करें ताकि कोश के आगामी संस्करण शुद्धतर रूप में प्रकाशित हो सके। धन्यवाद । डी-१४१ नया रान्जेद्रनगर नई दिल्ली-११००७० वैशाखी–२०३६ वि० विनीत, रामसरूप For Private And Personal Use Only Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रस्तावना (प्रथम संस्करण) संस्कृत का अध्ययनाध्यापन करते समय और कभी हिन्दी-शब्दों के संस्कृत-पयायो का जिज्ञासा के समय अनेक बार हिन्दी-संस्कृत-कोश की आवश्यकता प्रतीत होती थी। बाजार में कोई भी ऐसा कोश प्राप्य न था जो स्कूलों, कालेजों, शुरुकुलों, ऋषिकुलों आदि की उच्च कक्षाओं के विद्यार्थियों तथा संस्कृताध्ययन के इच्छुक प्रौढ़ सज्जनों और अध्यापकों की आवश्यकताएँ पूर्ण कर सके। यह देखकर दुःख भी होता था और आश्चर्य भी कि सात समुद्र पार से आई हुई अंग्रेजी भाषा के कुछ लाख ज्ञाताओं के लिए तो अंग्रेजीसंस्कृत-कोश प्रकाशित हो चुके हैं परन्तु करोड़ों हिन्दी-प्रेमियों के पास ऐसा कोई कोश नहीं जिससे वे संस्कृताध्ययन में सहायता प्राप्त कर सकें। संस्कृतानुराग और उक्त अभाव की प्रबल प्रेरणा से मैं १९४३ ई. में कोश-संकलन में लग गया और लगभग चार वर्ष के परिश्रम से इस बृहत्कार्य को सम्पन्न कर पाया। देश का विभाजन न होता तो सम्भवतः यह कोश दस वर्ष पूर्व ही प्रकाशित हो जाता, परन्तु परिस्थितियों की प्रतिकूलता के कारण यह अब प्रकाशित हो रहा है-'दैवी विचित्रा गतिः'। जिन दिनों में कोश का संकलन आरम्भ करने को था उन दिनों हिन्दी-उर्दू हिन्दुस्तानी का प्रश्न जोर-शोर से छिड़ा हुआ था। प्रत्येक भाषा के प्रमी स्व-स्व पक्ष की पुष्टि के लिए अनेक युक्तायुक्त युक्तियाँ प्रस्तुत करते थे। तब मेरे संमुख प्रश्न यह उठा कि मूल ( अनूद्य ) शब्दों में विशुद्ध हिन्दी के ही शब्द रखे जाएँ या विदेशी शब्द भी। सोच-विचार के पश्चात् मैंने यही उचित समझा कि इसके मूल-शब्दों में फारसी, अरबी, तुर्की, अंग्रेजी आदि विदेशी भाषाओं के भी प्रचलित शब्द अवश्य रखने चाहिए। उसी निश्चय का परिणाम यह है कि कोश के प्रायः प्रत्येक पृष्ठ पर पाँच-सात विदेशी शब्द, जो शताब्दियों के प्रयोग से स्वदेशी बन गये हैं, आपको मिल ही जाएँगे। इसका सुफल यह होगा कि हिन्दी के राष्ट्रभाषा बन जाने और परिणामतः प्रत्येक भारतीय के हिन्दी से परिचित हो जाने के कारण उन अन्यमतावलम्बियों को भी संस्कृत सीखने में अधिक सुविधा हो जाएगी, जिनकी भाषाओं के प्रचलित शब्द इस कोश में संगृहीत कर लिये गये हैं। मूल शब्दों के चुनाव के समय दूसरी समस्या पारिभाषिक शब्दों की थी। प्रत्येक कला और विज्ञान से सम्बन्धित सहस्रों पारिभाषिक शब्दों का प्रयोग प्रायः उन्हीं विषयों के विद्यार्थियों और अध्यापकों तक ही सीमित रहता है। प्रस्तुत कोश में उन सबका संकलन न सम्भव था, न वांछनीय। इसीलिए मैंने भौतिकी, रसायन, भूगोल, गणित, ज्योतिष, वैद्यक आदि के उन्हीं अत्यन्त प्रसिद्ध शब्दों को संगृहीत किया है जो जन-सामान्य या सामान्य शिक्षित जनों द्वारा प्रतिदिन प्रयुक्त होते है । कोश के मूल शब्दों की संख्या लगभग ३०००० है जिनमें ४००० के लगभग तथाकथित विदेशी शब्द, पारिभाषिक शब्द तथा मुहावरे भी सम्मिलित हैं । कई कोशों में सम-रूप विभिन्न शब्द एक ही शब्द के नीचे मुद्रित रहते हैं। प्रस्तुत कोश में वैसा नहीं किया गया। कारण, जव स्रोत ( आकर-भाषा ) और व्युत्पत्ति पृथक-पृथक् हो तो शब्दों के पाक्य में सन्देह नहीं रहता। ऐसी दशा में उन्हें, केवल रूपसाम्य के कारण, एक ही शब्द के अन्तर्गत रखना मुझे उचित नहीं अँचा। ऐसे समरूप शब्दों के ऊपर १, २, ३, ४ आदि के चिह्न लगा दिये गये हैं जिससे उनमें से किसी की ओर निर्देश करते समय कठिनता न हो; उदाहरणार्थ 'आम' और 'आया' शब्द देखिये । इस कोश में प्रत्येक मूल शब्द को तो स्वतंत्र स्थान दिया गया है परन्तु उससे बने हुए समस्त शब्दों वा मुहावरों को अधिकतर मूल शब्दों के नीचे ही For Private And Personal Use Only Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ( ७ ) रखा गया है । जैसे, 'जाति' शब्द के नीचे - ( = जाति ) से खारिज करना, च्युत, प - पाँतिस्वभाव आदि शब्द दिये गये हैं । इसी प्रकार 'जाब्ता दीवानी', 'जाब्ता फ़ौजदारी' आदि शब्द 'जाब्ता' के नीचे और 'जलाने योग्य', 'जलाने वाला', 'जलाया हुआ' आदि संयुक्त शब्द 'जलाना ' ने नीचे मिलेंगे । कोश में मूल शब्द वर्णमाला के क्रम से मुद्रित हैं परन्तु विसर्गान्त और अनुस्वार-युक्त शब्द, हिंदी - कोशों के समान, पहले रखे गये हैं । जैसे 'आ' और 'आंतरिक ' शब्द 'आक' से पूर्व मिलेंगे । मूल शब्दों के रूपों, पदपरिचय तथा व्युत्पत्ति के विषय में मेरा मुख्य आधार 'हिन्दी शब्दसागर' रहा है । उसमें जहाँ सन्देह हुआ वहाँ मैंने श्रीरामशंकर शुक्ल 'रसाल' के 'भाषा शब्दकोश' और श्रीरामचन्द्र वर्मा के 'प्रामाणिक हिन्दी कोश' से भी सहायता ली है । जहाँ उपलब्ध व्युत्पन तियों से संतोष नहीं हुआ, वहाँ, कहीं-कहीं, यथागति अपनी ओर से भी व्युत्पत्तियाँ दी हैं । जहाँ किसी प्रकार भी संतुष्टि नहीं हुई, वहाँ प्रश्नचिह्न ( ? ) लगा दिया है, जिससे विद्वद्वर्ग उन पर और विचार कर सके । व्युत्पत्ति के कोष्ठक में संस्कृत शब्दों के आगे कहीं-कहीं > चिह्न मिलेगा । इसका आशय यह है कि मूलशब्द, कोष्ठकान्तर्वत्त संस्कृत शब्द से उद्भूत तो हुआ है परन्तु उसका अर्थ भिन्न है । जैसे, 'तरुणाई' संस्कृत के 'तरुण' से निकला है परन्तु अर्थ में भेद है । इसलिए व्युत्पत्तिकोष्ठक में 'तरुण' के आगे > चिह्न लगाया गया है। सच बात तो यह कि हिन्दी के अनेक शब्दों की व्युत्पत्तियाँ अभी तक चिन्त्य हैं और व्युत्पत्तिशास्त्र - विशेषज्ञों के परिश्रम का बाट जोह रही हैं। मूल शब्द, पदपरिचय तथा स्रोत या व्युत्पत्ति के अनन्तर मूल शब्दों के अनेक संस्कृतपर्याय दिये गये हैं । प्रत्येक भाषा में शब्दों के एकाधिक और कभी-कभी तो दर्जनों अर्थ होते हैं । कोशकार को कृति के कलेवर और पाठकों के विशिष्ट वर्ग का ध्यान रखते हुए उनमें से कुछ एक ही का ग्रहण और शेष का परित्याग करना पड़ता है । उन अनेक अर्थों में से जो अर्थ परस्पर पर्याप्त पृथक् प्रतीत हुए, उनके साथ तो २, ३ आदि अंक लगा दिये गये हैं और जिनमें छायामात्र का वैशिष्टय दिखाई दिया है, उन्हें एक ही अंक में रहने दिया गया है । स्वतः स्पष्ट होने से एक का अंक नहीं दिया गया। कहीं कहीं स्थान की बचत के विचार से (१-४ ) इकट्ठा लिख दिया गया है । जैसे 'जालंधर' के पर्यायों में 'नगर- नृप - मुनि दैत्य, विशेष : ' । आशय नगरविशेषः, नृपविशेषः आदि है । जातिवाचक शब्दों के साथ 'भेद:' और व्यक्तिवाचक के साथ 'विशेषः ' का प्रयोग किया गया है । ܕ संस्कृत के प्रत्येक संज्ञा-शब्द का लिंगनिर्देश आवश्यक था। इसलिए संस्कृत- पर्याय प्रायः प्रथमा विभक्ति के स्ववचन में दिये गये हैं । लिंग-ज्ञान के लिए निम्नांकित कुछ नियमों को ध्यान में रखना चाहिए— २. विसर्गान्त अकारान्त शब्द ( रामः, नरः, नरेश: आदि) पुल्लिंग हैं । २. प्रभुः, रविः आदि शब्दों के आगे कोष्ठक में यदि स्त्री. या न नहीं लिखा गया तो वे पुल्लिंग हैं । ३. स्वामिन, राजन, पितृ आदि जिन शब्दों के प्रथमा एकवचन के रूप स्वामी, राजा, पिता आदि बनते हैं, उनके प्रथमा एकवचन के रूप नहीं दिये गये, जिससे वे नदी, लता आदि के समान स्त्रीलिंग न समझे जाएँ । ४. विद्या, शाला, लता आदि सब आकारान्त शब्द, नदी, विदुषी, बुद्धिमती आदि सब ईकारान्त शब्द तथा वधूः, श्वश्रः आदि उकारान्त शब्द स्त्रीलिंग हैं । ५. ज्ञानं ( ज्ञानम् ), फलं ( फलम् ) आदि अनुस्वारान्त या मकारान्त शब्द नपुंसकलिंग हैं । ६. यदि व्युत्पत्ति कोष्ठक में केवल (सं.) अर्थात् संस्कृत लिखा है तो समझ लेना चाहिए कि संस्कृत में भी उसका लिंग मूल हिन्दी शब्द के समान है । यदि ( सं. पुं. स्त्री. वा न. ) लिखा For Private And Personal Use Only Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ( =) हो तो समझ लेना चाहिए कि मूल शब्द में उसका लिंग संस्कृत से भिन्न है । उदाहरणार्थ, 'अवरोध' और 'अवरोधन' शब्द देखिये । ७. विशेषण शब्दों के संस्कृत-पर्याय प्रातिपदिक विभक्तिरहित ) रूप में दिये गये हैं और आवश्यकतानुसार विशिष्ट लिंग में प्रयोक्तव्य हैं । देखें 'अनपढ़', 'अनमोल' आदि । ८. अव्ययों, क्रियाविशेषणों आदि के पर्याय प्रायः नपुंसक लिंग व एकवचन में होते हैं या अपने अपरिवर्तनशील रूप में। इसलिए उनका लिंगनिर्देश नहीं किया गया । ९. मित्र, दार, शत, सहस्र आदि उन सब शब्दों के साथ लिंग का निर्देश कर दिया गया है जिनके विषय में कोई विशिष्ट नियम लागू होता है या लिंगविषयक तनिक भी संदेह उत्पन्न होता है। १०. जहाँ योजक- चिह्न ( - ) से युक्त अनेक शब्दों के अन्त में लिंगनिर्देश किया गया है वहाँ उन सभी शब्दों का वही एक लिंग समझना चाहिए। जैसे, 'अनुपपत्ति' शब्द के संस्कृतपर्याय 'असंगति:- असिद्धि: - अप्राप्तिः (स्त्री.)' दिये हैं। इसका भाव यह है कि असंगति आदि तीनों शब्द स्त्रीलिंग हैं । क्रियापदों के पर्याय धातुओं के गण और पद तथा सेट् आदि का भी उल्लेख किया गया है। आरम्भ में तो भू, कृ और दो धातुओं के गणादि निर्दिष्ट किये गये हैं परन्तु इन धातुओं के अत्यन्त प्रसिद्ध होने के कारण तथा स्थान बचाने के उद्देश्य से आगे इनके गणादि निर्दिष्ट नहीं किये गये । चुरादि गण के अधिकतर धातु उभयपदी सेट हैं, इसलिए उनका प्रायः गणादिनिर्देश ही किया गया है। जहाँ क्रियापद एकाधिक अर्थों का वाचक है, वहाँ उनके पर्यायों के साथ २, ३ आदि अंक लगा दिये गये हैं परन्तु नीचे ही उनके भाव वाचक रूपों में पुनः अंक लगाना आवश्यक नहीं समझा। जहाँ किसी धातु से पूर्व अनेक उपसर्ग योजक चिह्न से युक्त दिखाये गये हैं वहाँ उनमें से कोई एक उपसर्ग प्रयुक्त करना अभीष्ट है। जहाँ एकाधिक उपसर्ग इकट्ठे लिखे गये हैं, वहाँ वे सभी धातु के पूर्व प्रयोक्तव्य हैं। जैसे 'देखना ' शब्द के नीचे अव- अ-वि-लोक् लिखा है । इसका तात्पर्य यह है कि अवलोक्, आलोक, विलोक्य तीनों ही देखने के अर्थ में प्रयुक्त हो सकते हैं । कहीं-कहीं विवश होकर मुझे नव शब्दनिर्माण का साहसापेक्षी कार्य भी करना पड़ा है । परन्तु वह दिया तभी गया है जब प्रचलित शब्दों से यथेष्ट संतोष नहीं हुआ। उदाहरणार्थ, 'जलूस' के लिए 'मेला', 'यात्रा' और 'श्रेणी' शब्द एक कोश में उपलब्ध थे परन्तु 'मेला' और 'श्रेणी' तो मुझे सर्वथा अनुपयुक्त जँचे और 'यात्रा' शब्द भी प्रायः धर्म और तीर्थों से सम्बन्धित हो गया है। इसलिए मैंने इसके लिए 'संप्रचलनम्' शब्द प्रस्तुत किया है, क्योंकि सं = इकटठा प्र = आगे, चलनम् = चलना के वाचक होकर जलूम (Procession) का अर्थ व्यक्त कर देते हैं। 'बी' प्रसिद्ध मिठाई का नाम है जो कदाचित् उसकी चेतता और श्यानता के कारण रखा गया है । उसके लिये मैंने 'हैमी' शब्द निर्मित किया है जो 'बर्फी' की टुकड़ियों के समान ही छोटा और ईकारान्त है । 'गुड्डी' या 'पतंग' के लिए अंग्रेजी संस्कृत कोशों में 'पत्रचिल्ल:-ला', 'चिल्लाभासं', 'उड्डीनक्रीडनकम्' आदि कुछ शब्द मिलते हैं जिनके अर्थ कागज़ की चील, चील-सा और उड़ा खिलौना है । जिन्होंने सर्वप्रथम इन शब्दों का निर्माांग किया वे भी हमारे धन्यवाद के पात्र हैं, परन्तु मैं पतंग के लिए 'पतंग' के हो प्रयोग का पक्षपाती हूँ । कारण, व्युत्पत्ति (पतन् गच्छतीति पतङ्गः ) की दृष्टि से यह प्राचीन शब्द गुड्डी या पतंग के लिए भी उतना ही उपयुक्त है जितना 'पतंग' के अन्य प्राचीन अर्थों के लिए । कोशों में प्रायः 'पतंग' के ये अर्थ प्राप्त होते हैं -पक्षी, सूर्य, टिटडी, पतंगा, भ्रमर, गेंद, चिनगारी, शैतान, पारा। ये सभी पदार्थ ऊर्ध्वगामी हैं। आदि में तो पतंग शब्द एक ही अर्थ के लिए निर्मित किया गया होगा । क्रमशः अन्य अर्थ भी भावसाम्य के कारण साथ जुड़ते गये होंगे । यदि अपने समय की आवश्यकता के अनुसार एक अ मैंने भी जोड़ दिया तो क्या हानि ? जहाँ प्रसंग आदि के बल से पतंग के पूर्वोक्त अनेक अर्थों में से कोई एक ले लिया जाता है, वहाँ बच्चों की गुड्डी के प्रसंग में 'पतंग' पतंग का वाचक बन जायगा । देववाणी के अधिकाधिक प्रसार के लिए उतना औदार्य तो स्वीकार्य ही है । ★ For Private And Personal Use Only Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir कोश के अन्त में सात परिशिष्ट दिये गये हैं। प्रथम में संस्कृत सुभाषितों के हिन्दी-रूपान्तर, द्वितीय में हिन्दी लोकोक्तियों के संस्कृत-पर्याय, तृतीय में अंग्रेजी-संस्कृत शब्दावली, चतुर्थ में छन्द-परिचय, पंचम में संस्कृत साहित्यकार परिचय, पत्र में सोदाहरण लौकिकन्याय और सप्तम में भौगोलिक परिचय है। इनकी उपयोगिता के विषय में कुछ कहने की आवश्यकता नहीं । इन पर किया हुआ क्षणिक दृष्टिपात स्वयं ही इनकी उपादेयता का समर्थन करेगा। केवल अंग्रेजी संस्कृत-शब्दावली के सम्बन्ध में कुछ शब्द अवश्य अपेक्षित हैं। जब से देश स्वतन्त्र हुआ है, संविधान, राजनीति, प्रशासन आदि विषयों के अंग्रेजी शब्दों के हिन्दी पर्याय बताने के लिए अनेक ग्रन्थ प्रकाशित हुए हैं-कुछ सरकारों की ओर से, कुछ संस्थाओं की ओर से और कुछ पुस्तकविक्रेताओं की ओर से। अनुवादक महानुभावों ने कुछ विशिष्ट सिद्धान्तों के अनुसार उन शब्दों के हिन्दी-अनुवाद प्रस्तुत किये हैं। इस प्रकार इस संक्रमणकाल में जनता के समक्ष एक-एक अंग्रेजी-शब्द के लिए अनेक हिन्दी-पर्याय उपस्थित हो गये हैं। उक्त परिशिष्ट में मैंने यत्न किया है कि अनूदित शब्दों में से, उपयुक्ततम शब्द को संस्कृत में स्वीकृत कर लिया जाए, परन्तु जहाँ उनसे सन्तोष नहीं हुआ, वहाँ स्वनिर्मित शब्द देने में भी संकोच नहीं किया। ऐसे शब्दों के साथ मैंने (*) चिह्न लगा दिया है और उनकी सदोषता-निर्दोषता का दायित्व मुझी पर है। जैसे-Gazette के लिए सूचनापत्र, वार्तायन, राजपत्र आदि शब्दों की रचना हुई है। मैंने इनमें से केवल 'राजपत्र' को ग्रहण किया है। Provident Fund के लिए भविष्यनिधि, संभरणनिधि, संचितनिधि, संचितकोष और निर्वाहनिधि शब्द चल रहे हैं, मुझे उनमें से 'भविष्यनिधि' ही उपादेयतम प्रतीत हुआ है। Affiliation के लिए 'संबद्धीकरण' भी लिखा गया है और 'सम्बद्धन' भो। मुझे संस्कृत का 'सम्बन्धनम्' प्रियतम लगा और मैंने उसे ले लिया। District Board के लिए जिमंडली, मंडलपरिषद, जिलापालिका, जिलाबोर्ड, मांडलिक-समिति, मंडलपरिषद् शब्द प्रस्तुत किये जा चुके हैं। परन्तु जब संविधान में 'बोर्ड' लए मंडली' और 'डिस्टिकट के लिए जिला का वैकल्पिक रूप मंडल स्वीकृत किया है तो मुझे District Board के लिए संस्कृत में मंडल-मंडली अपना लेने में कोई अड़चन नहीं हुई। इसी प्रकार 'टिकट' जैसे व्यापक और सर्वविदित शब्द के लिए कोई विकट शब्द बनाना मुझे "अच्छा नहीं लगा और मैंने Booking office के लिए 'टिकटगृहम्' को ही उचित समझा। जो विदेशी शब्द हमारे देश के कोने-कोने में समझे जाते हैं और आकार-प्रकार की दृष्टि से “भी संस्कृत में समा सकते हैं उन्हें अपनाने में संकोच न करना ही उचित प्रतीत होता है। ___ कहीं-कहीं पाठकों के सुखबोधार्थ सन्धि-नियमों की जानबूझ कर उपेक्षा की गई है और मुद्रगसौकर्यार्थ अनुनासिक वर्णों ( ङ, अ , णन, म् ) के स्थान पर अनुस्वार का प्रयोग किया गया है। ___इस कोश के संकलन में किन-किन महानुभावों की कौन-कौन-सी कृतियों से सहायत: ली गई है, यह ठीक-ठीक बताना मेरे लिए असम्भव है। यदि दुर्भाग्यवश देश-विभाजन न हुआ होता और पंजाब विश्वविद्यालय तथा डी. ए. वी. कालेज लाहौर पुस्तकालयों की पुस्तके मेरे समक्ष होती तो मैं इस कार्य को यथावत् कर देता। फिर भी जिन ग्रंथों का मुझे निश्चयपूर्वक स्मरण है, उनका उल्लेख कोश के अंत में ग्रंथसूची में कर दिया है। अस्तु, स्मृत वा विस्मृत उन सभी पुस्तकों के लेखकों वा सम्पादकों का मैं कृतज्ञ हूँ जिनकी सहायता से यह कार्य सम्पन्न हो सका है। मैं विश्वेश्वरानन्द वैदिक शोधसंस्थान, होशियारपुर, के संचालक, गुरुवर, आचार्य "विश्वबन्धुजी शास्त्री, एम. ए., एम. ओ. एल., ओ. डी.' ए (फ्रांस) के-टी. सी. टी. (इटली), सदस्य संस्कृत आयोग, का हार्दिक आभारी हूँ, जिन्होंने इस कोश का प्राकथन लिखकर मुझे उपकृत किया है। वस्तुतः उन्हीं के उत्साहमय जीवन से प्रेरणा पाकर मैं इस बृहत्कार्य को एकाकी करने में प्रवृत्त हुआ; अन्यथा मेरी अवस्था तो तितीर्घर्दुस्तरं मोहादुडुपेनास्मि सागरम् । (रघुवंश ११२ ) नन्ही सी नौका से समुद्र पार करने के इच्छुक मूढजन की-सी ही थी। For Private And Personal Use Only Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ( १० ) १९४७ की मई में जब साम्प्रदायिक दंगों के कारण डी. ए. बी. कालेज, लाहौर, पूर्व वर्षों की अपेक्षा कुछ शीघ्र ही बन्द हो गया तब कालेज के छात्रावास को अपने घर से अधिक सुरक्षित समझ मैं कोश की पांडुलिपि को एक बक्स में बन्द कर वहीं छोड़ बैजनाथ ( पूर्वी पंजाब ) चला आया । बाद में वहाँ जो लूट-मार हुई, उसके वृत्त सुन-सुनकर यही विचार आता था कि मेरा 'कोश' भी लुट ही गया होगा। मैं इसकी खोज में, जान जोखिम में डालकर, सितम्बर १९४७ में लाहौर गया परन्तु कुछ पता न चला। दूसरी बार जब दिसम्बर १९४७ में फिर गया तो सौभाग्यवश यह सुरक्षित मिल गया। उन दिनों लाहौर का डी. ए. वी. कालेज और उसका छात्रावास शरणार्थी-कैम्प बना हुआ था । किसी शरणार्थी भाई ने बक्स को तो छोड़ा न था, परन्तु कोश को छेड़ा न था । कैम्प के स्वयंसेवकों ने इसे कोई काम की वस्तु समझ, सँभाल रखा था । इस अवसर पर मैं उस अज्ञात शरणार्थी भाई को जिसने इसे ज्यों-का-त्यों रहने दिया और उन अपरिचित स्वयंसेवकों को जिन्होंने इसे कई मास तक सँभाले रखा, हार्दिक धन्यवाद देना अपना पवित्र कर्तव्य समझता हूँ । कोश के प्रूफ, मेरे मित्र श्री हरिवंशलाल शास्त्री यदि परिश्रमपूर्वक न देखते तो इस सूक्ष्मबृहत्कार्य में बहुत त्रुटियाँ रह जातीं। दो परिशिष्टों के सम्पादन में मेरे मित्र प्रो० लाजपतराय एम. ए. ने मेरा हाथ बँटाया है। इन दोनों सज्जनों के प्रति भी मैं कृतज्ञता प्रकट करता हूँ । अन्त में कोश के प्रकाशकों के प्रति भी अपना आभार प्रदर्शित करता हूँ जिन्होंने इसे सुन्दर रूप में थोड़े ही समय में प्रकाशित कर दिया है। मनुष्य को अपनी तथा अपनी कृतियों की त्रुटियाँ स्वभावतः ही कम दिखाई देती हैं। इसी नियम के अनुसार मैं भी प्रस्तुत पुस्तक की न्यूनताओं और भ्रान्तियों से अंशत: ही परिचित हूँ । अतः सब ज्ञाताज्ञात भूलों के लिए क्षमा-याचना करता हुआ मैं विद्वद्वृन्द से निवेदन करता हूँ कि कृष्णकवि की निम्नांकित सूक्ति डी - १४१, शारदानिकेतन, राजेन्द्र नगर, दिल्ली दीपावली, सं० २०१४ दोषान्निरस्य गृह्णन्तु गुणमस्या मनीषिणः । पांसूनपास्य मञ्जर्या मकरन्दमिवालयः ॥ के अनुसार मिलिन्दवत् अरविन्द के मकरन्द का पान और पराग का परित्याग कर मुझे मेरी त्रुटियों से परिचित करायें तथा ऐसे अमूल्य सुझाव भेजें जिनसे कोश का आगामी संस्करण अधिक निर्दोष और उपयोगी हो सके । प्रभु से प्रार्थना है कि उस देववाणी संस्कृत का भूतल पर अधिकाधिक प्रसार हो जिसकी साहित्य-सुधा का आनन्द आज भारतभूमि के भी इने-गिने ही लोग ले रहे हैं । For Private And Personal Use Only विनीत, रामसरूप Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir विद्वत्सम्मतिसार M. ANANTHASAYANAM AYYANGAR ( SPEAKER LOK SABHA ) •I went through a portion of the Hindi-Sanskrit Dictionary prepared by Prof. Ram Saroop, Prof. of Hindi and Sanskrit, Hans Raj College, Delhi. The pages have been taken at random from the middle of the book. Almost every word in Hindi in ordinary use and even those that are rarely used has been noticed in this book. There are many Sanskrit-Hindi Dictionaries, but correspondingly there is practically no Hindi-Sanskrit Dictionary. Sanskrit is the mother of Hindi and all the northern Indian Languages. Any new expressions have to be coined from Sanskrit source. It is therefore necessary that any body who desires to have a proficiency in Hindi should have equally good knowledge of Sanskrit. All Hindi writers and those in regional languages have been great Sanskrit scholars. In fact they did not read regional language by itself at any time. After acquiring proficiency in Sanskrit they automatically and without any special attempt, and with little or no effort, became proficient in their own respective language. "I welcome such a book and I hope and trust that it will be found useful not only by scholars but also by laymen who ought to have a working knowledge of Sanskrit if they want to acquire a good knowledge of Hindi. A Dictionary of this type is worth having in every library. Prof. VISHVA BANDHU, M. A., M. O. L. (Director, v. V. R. Institute, Hoshiarpur. ) It has given me real satisfaction to find that he has taken pains in this behalf and succeded in producing a handy work which should be of great help to those who may be learning the somewhat difficult art of translating modern Hindi originals into the ancient language of gods. Dr. SURYA KANT SHASTRI, D. Litt., D. Phil. (Hindu University, Varanasi ) In my opinion this dictionary will prove of great help to the students of Hindi and Sanskrit, since a dictionary of this type and size is not available in the market. For Private And Personal Use Only Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ( १२ ) Dr. N. N. CHOWDHURI, M. A., D. Litt. ( Reader in Sanskrit, University of Delhi.) I have read with great interest a part of the manuscript copy of your Hindi-Sanskrit dictionary. A book of this type is urgently needed in these days. I congratulate you on this excellent work you have under-taken, श्री एन. बी. गाडगिल, एम. पी. श्री रामसरूप शास्त्री द्वारा सम्पादित 'हिन्दी-संस्कृत कोश' के कुछ मुद्रित पृष्ठ पढ़ने का अवसर प्राप्त हुआ। सूक्ष्म दृष्टि से उन पन्नों को देखकर इस बात से प्रसन्नता हुई वि प्रियवर शास्त्रीजी ने इतना सुन्दर, सुव्यवस्थित और उपयुक्त कार्य किया है कि इस कार्य से वे समाज के ऋण से उऋण ही नहीं हुए, वरन उन्होंने समाज को उपकृत भी किया है । लेखक महोदय को इस महत्त्वपूर्ण स्तुत्य कार्य के लिए बधाई देता हूँ। केदारनाथ शर्मा, सारस्वत सम्पादक----'संस्कृतरत्नाकर' मंत्री, अखिलभारतीय संस्कृत साहित्य सम्मेलन श्रीयुत रामसरूप शास्त्री एम. ए., एम. ओ. एल., विद्यावाचस्पति, प्रोफेसर, हंसराज कालेज, देहली द्वारा सम्पादित हिन्दी-संस्कृत कोश का कुछ भाग देखने का अवसर मिला है। मैं जो कुछ देख सका उसके आधार पर कह सकता हूँ कि यह इस युग के अनुकूल और आवश्यक प्रयत्न है। इस समय ऐसे प्रामाणिक कोश का अभाव जबकि देश का ध्यान संस्कृत की ओर आकृष्ट हो रहा हो, बहुत खटक रहा था। मुझे विश्वास है-इस अभाव की बहुत कुछ पूत्ति इस कोश से म्हो सकेगी।..."सम्पादक महोदय का यह प्रयत्न सर्वथा स्तुत्य और श्लाघ्य है । इसके अधिकाधिक प्रयोग और प्रचार की कामना करता हूँ। महामहोपाध्याय श्री पं० परमेश्वरानन्द शास्त्री, विद्याभास्कर ( ओरिएण्टल कालेज, जालंधर, पूर्व प्रिंसिपल, सनातनधर्म संस्कृत कालेज, लाहौर) प्रोफेसर श्रीरामसरूप शास्त्री, एम.:., एम. ओ. एल., विद्यावाचस्पति विरचित 'हिन्दीसंस्कृत कोश' को देखकर मेरा हृदय अत्यन्त प्रसन्न हुआ। मूल हिन्दी शब्दों के संस्कृत में पर्याय देने वाला कोश मेरी दृष्टि में यह पहला ही है। ऐसे कोश की बहुत समय से बड़ी भारी आवश्यकता समझी जा रही थी। संस्कृत के विद्वान अपने छात्रों को अनुवाद की शिक्षा देते हुए बड़ी कठिनाई अनुभव करते थे और करते हैं। संस्कृत भाषा का व्यवहार में प्रचलन न होने के कारण हिन्दी शब्दों के संस्कृत पाय ढूँढ़ने में उन्हें बड़ी मुश्किल पड़ती है। इस मुश्किल को विद्यावाचस्पति श्रीरामसरूप शास्त्रीजी ने हिन्दी-संस्कृत कोश की रचना करके बहुत अंशों में हल कर दिया है। इस उपकार के लिए संस्कृत के अध्यापक और उनके शिष्य प्रोफेसर महोदय के अत्यन्त अभारी होंगे, ऐसी आशा है । ___ हिन्दी माध्यम के द्वारा संस्कृत शिक्षार्थियों के लिये तथा हिन्दी मार्ग में अग्रसर होने के लिए -संस्कृत के विद्वानों के लिए भी-यह कोश अत्यन्त उपयोगी है। स्कूल कालेजों में, संस्कृत For Private And Personal Use Only Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पाठशालाओं में संस्कृत पढ़ने वाले छात्रों के लिए हिन्दी से संस्कृत में अनुवाद करने में यह कोश अच्छा सहायक सिद्ध होगा--ऐसी मुझे पूर्ण आशा है । __ इस कोश ने केवल हिन्दी की ही नहीं, अपितु संस्कृत की भी श्रीवृद्धि की है, अतः दोनों भाषाओं के प्रेमियों की ओर से विद्वान् ग्रन्थकार धन्यवाद के पात्र हैं। प्रो० इन्द्र विद्यावाचस्पति एम. पी. ( चन्द्रलोक, जवाहरनगर, दिल्ली ) हंसराज कालेज, दिल्ली के प्रो. रामसरूप एम. ए., एम. ओ. एल. ने अपने आदर्श हिन्दी-संस्कृत कोश का कुछ भाग मुझे दिखाया है। कोश में हिन्दी के तीस हजार शब्दों के व्युत्पत्ति-सहित संस्कृत-पर्याय दिये गये हैं। अभी तक ऐसे कोश का अभाव था। प्रो. रामसरूपजी का यह प्रयत्न उस अभाव की पूर्ति कर देगा। इसमें सन्देह नहीं कि इतनी ज्ञातव्य बातों से यह कोश अत्यन्त उपयोगी होगा। श्री० दा० सातवलेकर ( अध्यक्ष, स्वाध्याय मंडल, पारडी जि० सूरत ) ___ आपका यह कोश संस्कृत सीखने वालों के लिए तथा संस्कृत शिक्षकों के लिए अत्यन्त उपयोगी होगा, इसमें सन्देह नहीं है । पं० ब्रह्मदत्त जिज्ञासु ( मोतीझील, वाराणसी) 'यह ग्रन्थ संस्कृत के छात्रों तथा अध्यापकों के लिए बहुत उपयोगी सिद्ध होगा। हिन्दी में संस्कृत बनाने वालों को बहुत लाभ होगा। इस विषय पर आगे काम करने वालों को भी इससे बहुत सहायता मिलेगी। इससे इस विषय में उत्तरोत्तर उन्नति का मार्ग खुलेगा। इस दृष्टि से इस ग्रन्थ की उपादेयता और बढ़ जाती है।' प्रो० चारुदेव शास्त्री एम. ए., एम. ओ. एल. ( पूर्व प्राध्यापक, डी. ए. वी. कालेज, लाहौर ) प्राध्यापकेन श्रीरामसरूपशास्त्रिणा प्रणीतो हिन्दी-संरकृतकोषो मया केचित्स्थले वालोचितः ! इदम्प्रथमः प्रयास इति प्रशस्यः। महानत्र शब्दराशिः संगृहीतः । प्रतिहिन्दीशब्दमनेक संस्कृतमभिधानमुपन्यस्तम् । तत्रोपन्यासेऽपि प्रसिद्धमपेक्ष्य विशिष्टानुपूर्वी समाश्रिता येनैतदुपयोक्तार: परपरतराछब्दान् विहाय पूर्वपूर्वतरान प्रयोश्यन्ते प्रसिद्धिं च नातिक्रमिष्यन्ति । सर्वस्मिन् भारते व्यवहारमवतीर्णायां हिन्धामीदृक्षः कोषोऽत्यन्तमपेक्षितोऽभूदिति स्थाने प्रयत्तं शास्त्रिवर्येण विदांवरेगा। For Private And Personal Use Only Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ( १४ ) वासुदेव द्विवेदी शास्त्री ( सार्वभौम संस्कृत प्रचार कार्यालय, वाराणसी) प्रो. रामसरूप शास्त्री द्वारा संकलित एवं सम्पादित "आदर्श हिन्दी-संस्कृत कोश" के द्वितीय संस्करण को देखकर हार्दिक प्रसन्नता हुई। हिन्दी-संस्कृत कोश के क्षेत्र में यही एक ऐसा कोश था जो आकार, शब्दसंख्या एवं उपयोगिता की दृष्टि से सर्वोत्तम था और इसीलिये इसका अभाव बहुत दिनों तक खटक रहा था। सैकड़ों जिज्ञासुओं को तो मैंने ही इस कोश की सूचना दी होगी पर जब उन्हें यह मालूम हो जाता था कि यह कोश सम्प्रति उपलब्ध नहीं है तो वे हार्दिक दुःख प्रकट करते थे और चाहते थे कि यह कोश किसी प्रकार उन्हें उपलब्ध हो जाय। आज माननीय शास्त्रीजी ने इसका पुनः सम्पादन तथा चौखम्बा विद्याभवन ने इसका प्रकाशन कर जो असंख्य लोगों की आकांक्षाओं की पूर्ति की है इसके लिये ये दोनों हार्दिक धन्यवाद के पात्र हैं। ___ यह कहने की आवश्यकता नहीं कि हिन्दी-संस्कृत कोश का सम्पादन संस्कृत-हिन्दी कोश के सम्पादन की अपेक्षा एक कठिन कार्य है । कारण कि आज की हिन्दी में अरबी, फारसी एवं अंग्रेजी के भी बहुत से शब्द प्रचलित हो गये हैं। इसके अतिरिक्त देशी तथा लोकभाषाओं के शब्दों की भी मंख्या कुछ कम नहीं है। फारसी, अरबी तथा अंग्रेजी के पारिभाषिक शब्दों का एक विशाल भण्डार अलग ही है। इन शब्दों के पर्यायवाची शब्द पुरानी संस्कृत में नहीं मिलते अतः उनके लिये नये संस्कृत शब्दों का निर्माण करना पड़ता है जो साधारण विद्वान से संभव नहीं है। यही स्थिति उन सभी शब्दकोशों में पाई जाती है जो अंग्रेजी, बँगला, मराठी, गुजराती, तमिल एवं तेलगू आदि भाषाओं से संस्कृत में लिखे गये हैं। मेरे कार्यालय में ऐसे अनेक कोश हैं। इन शब्दकोशों में भी पर्याप्त संख्या में नये संस्कृत शब्द बनाये गये हैं। अब कठिनाई यह है कि विभिन्न कोशों में जो नये शब्द बनाये गये हैं उनमें एकरूपता नहीं है। लेखकों ने अपने अपने ज्ञान एवं रुचि के अनुरूप शब्दों का निर्माण किया है । किन्हों-किन्हीं कोशों में उत्तर एवं दक्षिण भारत की प्रादेशिकता का भी प्रभाव परलक्षित होता है। ऐसी स्थिति में नवीन संस्कृत शब्दों से अन्य भाषाओं के तत्तत् शब्दों के तत्तद अर्थों का सहज बोध होना या कराना वक्ता एवं श्रोता दोनों के लिये असंभव या कठिन होता है। संस्कृत के आधुनिक लेखको एवं वक्ताओं के लिये यह एक समस्या है जिसका समाधान होना परम आवश्यक है। ___ प्रस्तुत कोश में शास्त्रीजी ने उक्त कठिनाइयों के निवारण के लिये भो प्रयास प्रयत्न किया है जो उनकी भूमिका पढ़ने से अच्छी तरह विदित होता है। यदि कोई संस्था या शब्द निर्माणसमिति विभिन्न कोशकारों द्वारा नवनिर्मित संस्कृत शब्दों के अखिल भारतीय विद्वत्समाज की दृष्टि से सर्वसामान्य और सर्वत्र समानरूप से प्रचलित करने की योजना बनाये तो उसकी सफलता में इस कोश से बड़ी सहायता मिल सकती है। परन्तु जब तक इस प्रकार की कोई योजना नहीं बनती, और जिसके बनने की संभावना भी कम ही दीखती है, तब तक इसी कोश को आदर्श कोश माना जा सकता है। इस दृष्टि से इसका "आदर्श हिन्दी-संस्कृत कोश" नाम मैं सर्वथा यथार्थ मानता हूँ। संस्कृत का प्रत्येक विद्वान् एवं विद्यार्थी इस कोश की एक प्रति अपने पास रखकर और इससे सहायता लेकर संस्कृत बोलने एवं लिखने में अबाधगति से आगे बढ़ सकता है, इसमें कोई For Private And Personal Use Only Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra अ०, अन्य. अव्यय । उप.—उपसर्ग । क्रि. अ. – क्रिया, अकर्मक | कि. प्रे. - क्रिया, प्रेरणार्थक | क्रि. वि. क्रियाविशेषण | (क) पदपरिचय संबंधी संकेत कि. सं. - क्रिया, संयुक्त । क्रि. स. - क्रिया, सकर्मक | प्रत्य प्रत्यय । मु. मुहावरा । वि. विशेषण | सं. पुं. - संज्ञा पुंलिंग । संबो. संबोधन | सं. स्त्री. - संज्ञा स्त्रीलिंग | सर्व – सर्वनाम | ( अं. ( अ. ( अनु. ( अप. = (ख) स्रोतसंबंधी संकेत : अँग्रेजी ) • अरवी ) अनुकरणात्मक ) अपभ्रंश ) ( अल्प. = अल्पार्थक ) ( गु. गुजराती ) ( ग्रा. = ग्रामीण ) ( ता. = तातारी ) ( तु. तुर्की) ( देश. = देशीय ) ( पं. पंजाबी ) ( पा. = पालि ) ( पुर्त = पुर्तगाली ) www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ( पु. हिं. = पुरानी हिंदी ( पूर्व. = निर्वचन पूर्ववत् ) ( प्रा. = प्राकृत ) संकेत-सूत्री ( ले. = लेटिन ) सं. = संस्कृत ) ( स्पे. = स्पेनिश ) (हिं. = हिंदी ) (फ़ा. = फ़ारसी ) ( फ्रो. फ्रांसीसी ) बंगाली ) ( बं. ( यू. : यूनानी ) ( सं. रिन = ब्रह्मचारिन इ . ) (ग) धातुसंबंधी संकेत अदादि परस्मैपदी सेट् ) ( क्र. आ. अ. = क्यादि आत्मनेपदी अनिट् ) ( अ. प. से. ( चु. उ. वे. = चुरादि उभयपदी वेट् ) ( जु. जुहोत्यादि > ( त. तनादि ) ( तु. ( दि. ( भ्वा. 11 = = तुदादि दिवादि भ्वादि म्. ( स्वा. ( कर्तु. = कर्तृवाच्य ) ( कर्म . = कर्मवाच्य ) ( ना.धा. = नामधातु ) ( प्रे. = प्रेरणार्थक रूप ) धादि स्वादि ( भाव. = भाववाच्य ( सन्न = सन्नन्त रूप ) (घ) शास्त्रीय संकेत ( ज्यो. = ज्योतिशास्त्र ) ( धर्म. = धर्मशास्त्र For Private And Personal Use Only ( न्या. = न्यायशास्त्र ) ( मी. = मीमांसाशास्त्र ) ( योग. = योगशास्त्र ) ( रा. नी. = राजनीतिशास्त्र ) ( वे. = वेदान्तशास्त्र ) ( वै. = वैशेषिकशास्त्र ) ( व्या. = व्याकरणशास्त्र ) ( संग. संगीतशास्त्र ) (सां. = सांख्यशास्त्र ) ( सा. = साहित्यशास्त्र ) Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir वि., लेपन विलेपनम्, लेपनन् । (ङ) सामान्य संकेत देवी ( पुरण ) म(ना)वर्षणम् = अवर्षणम्, अनावर्षणम्। अप्रचरि(लि)त = अप्रचरित, अप्रचलित। पद्म (पुराण) अनुगमनं करणं-सरणम् = अनुगमनं, अनुकरणं, पागिनि ( अष्टाध्यायी) अनुसरणन् । प्रबोध ( चन्द्रोदय) क्रोड:-डं-डा = क्रोडः, क्रोडं, क्रोडा। बदरी वशाल (यात्रा) स्पष्टी-विशदी कृ = स्पष्टीकृ, विशदीक । बृहत्कथा) बृहत्संहिता) वि, लेपनं ।' ब्रह्म ( पुराण) राज- = समास का अन्तिम पद अपेक्षित है। ब्रह्मवै ( वर्तपुराग) -परायण = समास का पूर्वपद अपेक्षित है। ब्रह्माण्ड (पुराण) इ. = इत्यादि। भवभूति ( उत्तररामचरित) उ.- उदाहरण । भविष्य (पुराण) एक. = एकवचन । भागवत ( पुराण) दे. = देखिए। मत्स्य (पुराण) द्वि. = द्विवचन । मनुसंहिता) ब. = बनाइए। मनु(स्मृति) बहु. = बहुवचन। महा(भारत) मि. = मिलाइए। (चन्द्रका ) महरौली ( अभिलेख) + = योगचिह्न । मेव(दूत) = = समानतासूचक। रघु(वश) * = स्वरचित शब्द । राजत( रंगिणी ) (च) सप्तम परिशिष्ट की संकेत-सूची रामा(यण) (विंशति) अवदान । ललितविस्तर (जन्द) अवस्ता। लिंग (पुराण) अश्वघोष ( बुद्धचरित) वर इ (पुराण) उत्तर ( काण्ड, रामायण) वामन (पुराण) उदयगिरि (चन्द्र तथा स्कन्दगुप्त के शिलालेख) | विक्रमांक ( देवचरित ) कालिका ( पुराण) विष्णु (पुराण) किराता(र्जुनीय) शत थ (ब्राह्मण) कूर्म (पुराण) शिव (पुराण) गरुड़ ( पुराण) स्कन्द (पुराण) जातक ( माला) स्वयम्भू (पुराण) त्रिकाण्ड ( शेष) हरिवंश ( पुराण) दशकुमार (चरित) ( समुद्रगुप्त की ) हरिषेण (प्रशस्ति) For Private And Personal Use Only Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir संस्कृत - कोषग्रन्थों का उद्भव एवं विकास संस्कृत वाङ्मय की अन्य शाखाओं के समान 'कोषविद्या' का भी अपना विशेष महत्त्व है। वैदिक युग से लेकर अद्यावधि कोषग्रन्थों की रचना होते रहना ही इसका ज्वलन्त प्रमाण है । आरम्भ में कोषग्रन्थों का निर्माण विशेष उद्देश्य को अभिलक्षित कर प्रारम्भ हुआ था । यह उद्देश्य भी व्यावहारिक था । इस कारण शब्दों के समाकलन की इस विधा में कोषकारों को सफलता मिलती चली आ रही है । जनसाधारण की शब्दज्ञानसम्बन्धी पिपासा को शान्त करने में कोषग्रन्थों ने सुमधुर स्रोतस्विनी के समान अपनी सार्थकता सिद्ध की है । कोषकारों ने 'शब्द' की इयत्ता निर्धारित करने के अनेक प्रयत्न किये किन्तु वे इसका अन्त न पा सके । 'शब्द' 'वस्तुतः नित्य है । नित्य शब्द का अन्त कहाँ ? 'शब्द' की व्यापकता का एक मात्र कारण उसके विस्तृत प्रयोग का होना है । इस सम्बन्ध में महाभाष्यकार पतञ्जलि ने इस ओर संकेत भी किया है कि शब्दों के प्रयोग का क्षेत्र बहुत विस्तृत है। सात द्वीपों से युक्त विशाल भूखण्ड में भारतीय वाङ्मय का विस्तार कुछ कम नहीं है । वेदों की ही कई शाखायें हैं । इनमें से यजुर्वेद की १०१ शाखायें हैं । सामवेद की एक हजार शाखाएँ हैं । ऋग्वेद के इक्कीस प्रकार हैं । अथर्ववेद नौ शाखाओं का है । इसके अतिरिक्त इतिहास, पुराण, वैद्यक इत्यादि सभी विषयों में शब्दों के प्रयोग का ही क्षेत्र है"महान् हि शब्दस्य प्रयोगविषयः । सप्तद्वीपा वसुमती । त्रयो लोकाः । चत्वारो वेबाः साङ्गाः सरहस्याः बहुधा विभिन्नाः । एकशतमध्वर्यु शाखाः, सहस्रवर्मा सामवेदः, एकविंशतिधा बाह्वृच्यं, नवधाऽथर्वणो वेदः, वाको वाक्यम्, इतिहासः, पुराणम्, वैद्यकम् - इत्येतावान् शब्दस्य प्रयोगविषयः " ( महाभाष्य पस्पशाह्निक ) । यह जानते हुए भी प्राचीन समय में शब्द की इयत्ता निर्धारित करने का प्रयत्न अवश्य किया गया होगा । इसी को पतञ्जलि ने इस अर्थवाद - गर्भित वाक्य के द्वारा यह सिद्ध कर दिखाया है कि शब्द का प्रतिपद- पाठ सम्भव नहीं है । तदनुसार उन्होंने इस आख्यान की ओर ध्यान आकृष्ट किया कि 'बृहस्पति ने इन्द्र को देवों के एक हजार वर्षं तक प्रत्येक शब्द का उच्चारण कर शब्दशास्त्र पढ़ाया, फिर भी शब्द समाप्त नहीं हुए' । इस प्रसङ्ग में भाष्यकार ने दूसरा आख्यानक प्रस्तुत करते हुए यह बताया है कि जब बृहस्पति सदृश ख्यातनामा व्याख्याता, इन्द्र जैसा विज्ञ शिष्य, देवों के एक सहस्र वर्ष की अवधि अध्ययनकाल नियत किया गया तो भी शब्दों का अन्त आजकल की बात ही क्या ? जो सब तरह निरोगी ज्ञात नहीं हुआ । फिर रहकर चिरायु होता है, For Private And Personal Use Only Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ( १८ ) अधिक से अधिक वह सौ वर्ष तक जीता है। इसके अतिरिक्त आगे निरूपण करते हुए उन्होंने कहा कि विद्या की सार्थकता चार प्रकार से होती है( १ ) गुरुमुख से समझ लेते समय, ( २ ) मनन के समय, ( ३ ) दूसरों को सिखाते समय और ( ४ ) व्यवहार करने में - " एवं हि श्रूयते । बृहस्पति - रिन्द्राय दिव्यं वर्षसहस्रं प्रतिपदोक्तानां शब्दानां शब्दपारायणं प्रोवाच नान्तं जगाम । बृहस्पतिश्च प्रवक्ता, इन्द्रश्च अध्येता, दिव्यं वर्षसहस्त्र मध्ययनकाल:, न च अन्तं जगाम । किं पुनरद्यत्वे ? यः सर्वथा चिरं जीवति स वर्षशतं जीवति । चतुभित्र प्रकरारैविद्योपयुक्ता भवति आगमकालेन, स्वाध्यायकालेन प्रवचनकालेन व्यवहारकालेनेति । " अतः प्रायोगिक शब्दों के समाकलन को व्यावहारिक दृष्टि से उपयोगी समझ कोषकारों ने उन्हें ग्रन्थों के कर संस्कृत वाङ्मय के इतिहास में एक नया अध्याय जोड़ा है । शब्दों के संग्रह करने में 'कोष' शब्द रूढ़ हो गया है । , रूप में प्रस्तुत इस प्रकार वैदिक काल में कोष 'निघण्टु' के नाम से विख्यात रहे । 'निघण्टु' से अभिप्राय उन वैदिक शब्दों के संग्रह से है, जिनमें संज्ञाशब्दों के साथ क्रियापदों को भी एकत्र कर लिया गया था । निघण्टु का उद्देश्य वैदिक शब्दों के अर्थं समझने में सहायता पहुँचाना भी रहा है। इसके विपरीत लौकिक 'कोषों' में अधिकतर संज्ञाशब्दों का समाकलन हुआ है । नामसंग्रह के अनन्तर परिशिष्टरूप में अव्ययों के अर्थ का संग्रह भी इन कोषग्रन्थों में उपलब्ध होता है । लौकिक कोष पद्यमय होने के कारण कविजनों के परिश्रम को कम करने में उपयोगी सिद्ध हुए हैं । फलतः कण्ठस्थ करने में सरलता होने के कारण इनका प्रचार होने में बड़ी सुविधा हुई है । अतः विद्यार्थियों को काव्यशिक्षा देने के साथ ही 'कोष' कण्ठस्थ कराने की परिपाटी रही है । अर्थ की दृष्टि से प्राचीन काल में कोषों का विभाजन दो प्रकार से किया गया था- - ( १ ) समानार्थक कोष तथा ( २ ) नानार्थक कोष । लिङ्ग-निर्धारण करने की समस्या को कोषकारों I बड़ी बुद्धिमत्ता से सुलझाया है । इसके लिये उन्होंने कई विधियाँ अपनाई हैं । कहीं-कहीं तो शब्दों के प्रथमान्त प्रयोग से उनका लिङ्ग-निर्देश किया है और कहीं 'पुं' 'स्त्री' 'क्लीब' आदि लिङ्गद्योतक शब्दों का प्रयोग कर इस विशिष्टता का परिचय दिया है । शब्दचयन के भी अनेक सिद्धान्त हैं । समानार्थक कोषों में विषयों के अनुसार शब्दों का संकलन कर पूरे कोषग्रन्थ को अनेक वर्गों में विभक्त कर दिया है। नानार्थ कोषों में अन्तिम वर्णों के अनुसार शब्दों का संकलन कर कान्त, खान्त, गान्त आदि शब्दों का चयन किया गया है । कहीं आदिम वर्णों को भी महत्त्व दिया गया है । कहीं आदिम तथा अन्तिम दोनों वर्णों को दृष्टि में रखकर शब्द चयन की प्रक्रिया सम्पन्न की गई है । For Private And Personal Use Only Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ( १९ ) निघण्टु - यह 'निघण्टु' ग्रन्थ यास्क से प्राचीन है, क्योंकि इसी के आधार पर यास्क ने 'निरुक्त' लिखा है । महाभारत से अनुसार प्रजापति कश्यप इस निघण्टु के रचयिता हैं । इसमें पाँच अध्याय हैं | आदि के तीन अध्यायों में 'पृथ्वी' आदि के बोधक समानार्थं शब्दों का संकलन है । इस प्रकरण को 'नैघण्टु काण्ड' कहा जाता है। चतुर्थ अध्याय में अव्युत्पन्न तथा गूढार्थक शब्दों का चयन किया गया है | इसे 'नैगम-काण्ड' की संज्ञा दी गई है । पाँचवें अध्याय ( दैवतकाण्ड ) में भिन्न-भिन्न देवताओं के रूप तथा स्थान का विस्तृत निरूपण है। 'निघण्टु' के प्रमुख व्याख्याता देवराज यज्वा हैं । ये सायण से प्राचीन अवश्य हैं, क्योंकि सायण के ऋग्वेद भाष्य में एक स्थान पर निघण्टुभाष्य के वचनों का उद्धरण मिलता है । देवराज ने अपने भाष्य में क्षीरस्वामी को अपने पूर्ववर्ती भाष्यकार के रूप में स्मरण किया है | क्षीरस्वामी 'अमरकोष' के सुप्रसिद्ध टीकाकार हैं । अतः देवराज यज्वा का समय १२ वीं तथा १३ वीं शताब्दी के मध्य प्रमाणित होता है । वैदिक कोष – प्राचीन परिपाटी के अनुसार भास्कर राय ने वैदिक-कोष की रचना लोकिक कोषों के ढंग पर की है। इस कोष के संकलित शब्द तो वे ही हैं जो निघण्टु में हैं, किन्तु उन शब्दों का अर्थ 'अनुष्टुप् छन्द' द्वारा अभिव्यक्त किया है । इस कोष का रचना-काल १७७५ ई० है । भास्कर राय ने अपनो गुप्तवती टोका में अनेक स्थलों पर नागेश की सप्तशती - टीका का खण्डन किया है । अतः ये नागेश के समकालीन अथवा उनसे कुछ ही समय के अनन्तर हुए होंगे । गया पुरुषोत्तम देव ने अपने लौकिक संस्कृत के पुराने कोषकारों का उल्लेख ' हारावली' कोष के अन्त में वाचस्पति, व्याडि तथा विक्रमादित्य का नाम लेकर किया है । तदनन्तर केशव ने कात्य, व्याडि, वाचस्पति, भागुरि, अमर, मङ्गल, साहसा, महेश तथा हेमचन्द्र का नामोल्लेख किया है । इनके अतिरिक्त किसी हस्तलेख के आधार पर १८ प्रसिद्ध कोषों के विषय में परिज्ञान होता है । इस प्रकार अमर- कोष को केन्द्रबिन्दु मानकर संस्कृत वाङ्मय के कोषग्रन्थों को आचार्य पं० बलदेव उपाध्याय जी ने तीन कालों में विभक्त किया है( १ ) अमरपूर्व-काल, ( २ ) अमरकाल तथा ( ३ ) अमरोत्तर - काल | अमर-पूर्व कोवकार - अमर-पूर्व कोषकारों में व्याडि सर्वप्राचीन कोषकार हैं । व्याडि के कोषग्रन्थ का नाम 'उत्पलिनी' था। पुरुषोत्तम ने अपने हारावली कोष के अन्त में इसका उल्लेख किया है। इस कोष में समानार्थ शब्दों की प्रधानता थी । इन्होंने व्युत्पत्ति के द्वारा अर्थानुसन्धान की प्रक्रिया का दिग्दर्शन कराया है । जैसे 'निघण्टु' की व्याख्या इन्होंने इस तरह की है - " अर्थान् निघण्टयत्यस्मात् निघण्टुः परिकीर्तितः" । ये व्याडि कदाचित् पाणिनि के समकालीन सुप्रसिद्ध 'संग्रह' नामक ग्रन्थ के कर्ता ही हों । For Private And Personal Use Only Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ( २० ) कात्य-इनके कोषग्रन्थ का नाम 'नाममाला' था। क्षीरस्वामी, हेमचन्द्र आदि ने इनका उल्लेख किया है । इनके कोष की विशेषता यह थी कि इन्होंने कहीं-कहीं अर्थ का वर्णनात्मक परिचय भी दिया है--- "क्षुद्रच्छिद्रसमुपेतं चालनं तितउ पुमान्" । इनका निश्चित समय ज्ञात नहीं हो सका। भागुरि--यह त्रिकाण्ड-कोष के रचयिता हैं। अमरसिंह ने 'त्रिकाण्ड' की प्रेरणा इन्हीं से प्राप्त की होगी। इन्होंने केवल समानार्थ शब्दों का ही उल्लेख किया है। व्याकरण के प्रसिद्ध ग्रन्थों में भागरि के मत का अनेक स्थलों पर उल्लेख मिलता है । विशेषतः हलन्त वाच, निश, दिश् आदि शब्दों को आकारान्त बनाने में इनके नाम का उल्लेख मिलता है "वष्टि भागुरिरल्लोपमवाप्योरुपसर्गयोः । आप चैव हलन्तानां यथा वाचा निशा दिशा"। सायण आदि वेदभाष्य-कर्ताओं ने इनके कोष-ग्रन्थ से पर्याप्त सहायता ली है। रत्नमाला के अज्ञात-नामा लेखक का उल्लेख सर्वानन्द ने अपनी "अमरकोष" की टीका में किया है । तदनुसार इस कोष के परिच्छेदों का वर्गीकरण लिङ्ग के आधार पर था । इसमें समानार्थ-शब्दों का चयन था। ___ अमरदत्त इन्होंने 'अमरमाला' नामक कोषग्रन्थ की रचना की। हलायुध ने अपने कोषग्रन्थ का उपजीव्य 'अमरमाला' को माना है । सर्वानन्द ने इस कोष से अनेक उद्धरण अपनी अमर-टोका में दिये हैं । इनका समय भी अनिश्चित ही है। वाचस्पति-यह सुप्रसिद्ध 'शब्दार्णव' कोष के रचयिता थे। यह 'अनुष्टपछन्द' में विरचित विशाल कोष था। इसकी विशेषता यह थी कि एक शब्द के विभिन्न रूपों का तथा वर्तनी का भी इसमें उल्लेख है। हेमचन्द्र ने इनके कोष से पर्याप्त सहायता ली है। इनका वास्तविक समय मी अज्ञात है। धन्वन्तरि-यह वैद्यक-निघण्टु के रचयिता हैं । वैद्यक निघण्टुओं में यह कोष सब से प्राचीन है। क्षीरस्वामी ने अपनी अमर-टीका में यह उल्लेख किया है कि अमरसिंह के 'अमरकोष' के वनौषधि-वर्ग का उपजीव्य यही कोष रहा है । विक्रम के नवरत्नों में इनका भी उल्लेख है । उस दृष्टि से तो यह भी अधिक प्राचीन है। महाक्षपणक-इनके नाम से दो कोष-ग्रन्थ हस्तग्रन्थों में उल्लिखित मिलते हैं । ये दोनों अनेकार्थ-ध्वनिमञ्जरी तथा अनिकार्थमञ्जरी नाम से प्रसिद्ध हैं । ये दोनों ग्रन्थ एक ही होंगे, क्योंकि अधिकतर टीकाकर्ताओं ने 'अनेकार्थमञ्जरी' नाम का ही उल्लेख किया है । 'रघुवंश' की टीका में वल्लभदेव ने 'अनेकार्थमञ्जरी' का अवतरण उद्धृत किया है। महाक्षपणक काश्मीरी थे। इनके समय का भी कोई निर्णय नहीं हो सका है। यदि यह भी विक्रम के नवरत्नों में से एक हों तो विक्रमादित्य अथवा चन्द्रगुप्त द्वितीय के राज्यकाल के आसपास इनकी स्थिति के विषय में अनुमान किया जा सकता है । For Private And Personal Use Only Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ( २१ ) अमरसिंह - सुप्रसिद्ध "नामलिङ्गानुशासन" कोष के रचयिता अमरसिंह की ख्याति कोषकर्ता के रूप में सबसे अधिक है । इनके नाम से ही यह ग्रन्थ अमरकोष प्रसिद्ध हो गया । इनसे पूर्व प्राचीन कोषकारों ने दो प्रकार की शैलियाँ अपनायी थीं । कतिपय कोष केवल नामों का ही निर्देश करते थे और कुछ को लिङ्गों के ही विवेचन को अपना मुख्य विषय मानते थे । अमरसिंह ने दोनों का समन्वय कर अपने कोष को सर्वाङ्गपूर्ण बनाया । तीन काण्डों में विभक्त कर इस ग्रन्थ को ' त्रिकाण्ड' संज्ञा भी दी गई। इसका उपविभाग 'वर्गों' के नाम से किया गया है । 'अमरकोष' पद्यबद्ध रचना है । 'अनुष्टुप् छन्द के १५३३ श्लोकों में यह रचना सम्पूर्ण हुई है । ग्रन्थ का छठा भाग नानार्थ के वर्णन में है । शेष भाग में समानार्थ शब्दों का निरूपण किया गया है । समानार्थ-भाग में एक विषय के वाचक नामों का एकत्र संकलन है । नानार्थ - खण्ड में अन्तिम वर्ण के अनुसार पदों का संग्रह है । अव्ययों का वर्णन एक स्वतन्त्र वर्ग में किया गया है। तथा ग्रन्थ के अन्त में लिङ्गों के साधक नियमों का उल्लेख किया गया है । अमरसिंह के समय का निर्णय भी एक समस्या बना हुआ है । इतना तो अवश्य निश्चय है कि यह ग्रन्थ छठी शताब्दी से पहले ही रचा गया था । गुणरात द्वारा चीनी भाषा में इसका अनुवाद किया जाना उस समय की पश्चिम (अन्तिम) अवधि है । इसकी लोकप्रसिद्धि का सबसे अधिक प्रमाण यह है कि इस पर लगभग ४० टीकायें लिखी गई हैं । इनमें क्षीरस्वामी और रामाश्रम ( भानुदीक्षित ) द्वारा लिखित टीकायें बहुत उपयोगी सिद्ध हुई हैं । इन दोनों में से रामाश्रमीका पदव्युत्पत्ति प्रदर्शन अधिक सूक्ष्म तथा परिनिष्ठित है । अमरसिंह बौद्ध थे । इनके समय की पूर्वसीमा २२५ ई० के आसपास निर्धारित की जाती है । कोष ग्रन्थों में अमरकोष का प्रचलन अद्यावधि सर्वाधिक है । संस्कृत के विद्यार्थियों को बाल्यावस्था में ही इसे कण्ठस्थ कराया जाता रहा । यह परम्परा अब भी थोड़ी-बहुत दिखाई पड़ती है । सरल भाषा एवम् अनुष्टुप् छन्द में विरचित होने के कारण इसे हृदयङ्गम करने में कठिनाई नहीं होती । अमरकोष के अतिरिक्त शब्द- ज्ञान का लघुभूत उपाय दूसरा कोई नहीं है । इस प्रकार अमरसिंह अपने पचाद्वर्ती कोषकारों के प्रेरणा-स्रोत बन गए । इसी कारण उनकी सरणि को अधिक प्रशस्त बनाने में आगे के कोषकार तत्पर होते हुए दिखाई पड़ते हैं । अमरसिंह के पश्चाद्वर्ती कोषकार — बाद के कोषकार शब्दों के वैशिष्टय का । निदर्शन कराने में बड़े सिद्धहस्त प्रतीत होते हैं उनके प्रकरण भले ही सीमित sa ferg उनका क्षेत्र अधिक विस्तृत है । कतिपय कोषकारों ने केवल नानार्थकोषग्रन्थों की ही रचना स्वतन्त्र रूप में की है, किन्तु उन्होंने शब्दों की सूक्ष्म For Private And Personal Use Only Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ( २२ ) समीक्षा कर अपने पाण्डित्य तथा अर्थ-निर्णय करने की क्षमता का परिचय दिया है । इस दृष्टि से निम्नलिखित विद्वान् प्रसिद्ध कोषकारों के रूप में सर्वमान्य हैं । शाश्वत-इनका समय भी छठी शताब्दी के आस-पास माना जाता है । इन्होंने स्वयम् अपने विषय में यह लिखा है कि मैंने तीन व्याकरणों को देखा तथा पाँच लिङ्गानुशासनों का अध्ययन किया। केवल इतना ही नहीं किन्तु शिष्ट-प्रयोगों के देखने में भी कोई कमी नहीं होने दी।' इनका विरचित कोष अनेकार्थ-समुच्चय है। इस कोष में केवल अनेकार्थ शब्दों का विस्तृत चयन है। शब्दों के चयन में अमरकोष की अपेक्षा अधिक विस्तार तथा प्रौढता दृष्टिगोचर होती है। प्रकृत कोष के अन्तिम पद्य से यह संकेत मिलता है कि ग्रन्थकार ने कवि महाबल तथा वराह से भी इस सम्बन्ध में परामर्श किया था। अनेक विद्वानों के सहयोग से इस कोष को रचना होने के कारण इसमें व्यापकता होना स्वाभाविक है। धनञ्जय-शाश्वत के लगभग दो शताब्दी पश्चात् धनञ्जय ने 'नाममाला' कोष की रचना की। यह कोष व्यवहार में आने वाले लोकप्रचलित संस्कृत शब्दों का उपयोगी कोष है। इसे लघुकोष कहना ही उचित है। इसमें केवल २०० श्लोक हैं। विशेषता इस बात में है कि ग्रन्थकार ने शब्दों की रचना के सुन्दर उपाय बताये हैं। उदाहरणार्थ पृथ्वीवाचक शाब्दों में 'धर' लगा देने से पर्वतवाची शब्दों का बोध होता है ( मही + धर, पृथ्वी + घर आदि )। इसी प्रकार मनुष्यवाची शब्दों में 'पति' शब्द जोड़ देने से राजा के नाम ( नर + पति, नृ + पति ) तथा वृक्षवाची शब्दों में 'चर' शब्द जोड़ने में बन्दर के समानार्थक शब्द बन जाते है ( द्रुम + चर, वृक्ष + चर आदि )। इस कोष की यही विशेषता है कि शब्दों के चयन में लोकव्यवहार को विशेष महत्त्व दिया गया है । 'अनेकार्थनाममाला' इसका पूरक अङ्ग है । कोषकार के अतिरिक्त धनजय कवि भी हैं। इनका द्विसन्धान' काव्य द्वयाश्रय-काव्यों में बड़ा प्रसिद्ध है। इस काव्य में श्लिष्ट पदों के द्वारा रामायण और महाभारत के कथानकों का विशद वर्णन प्रस्तुत किया गया है । इनका समय आठवीं शताब्दी का उत्तरार्थ निश्चितप्राय है। इस विषय में बीरसेन स्वामी द्वारा 'षट्खण्डागम' को धबला नामक टीका में 'जनेकार्थनाममाला' का उद्धृत एक श्लोक ही पर्याप्त प्रमाण माना जा १. दृष्टशिष्टप्रयोगोऽहं दृष्टव्याकरणत्रयः । अधीती सदुपाध्यायात् लिङ्गशास्त्रेषु पञ्चसु ॥ -शाश्वतकोप-आरम्भ का ६ शोक २. महाबलेन कविना वराहेण च धीमता। सह सम्यक् परामृश्य निर्मितोऽयं प्रयत्नतः ।। For Private And Personal Use Only Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ( २३ ) सकता है | धवला टीका ८७३ विक्रमी संवत् ( = ८१६ ई० ) में लिखो गई थी । अतः धनञ्जय ७४०- ७९० ई० के मध्य अवश्य रहें होंगे । पुरुषोत्तमदेव – धनञ्जय के लगभग ४०० वर्षों के उपरान्त पुरुषोत्तमदेव ने तीन कोष-ग्रन्थों की रचना की । ये ग्रन्थ है- ( १ ) त्रिकाण्ड कोष, ( २ ) हारावली तथा ( ३ ) वर्णदेशना । इनमें से प्रथम तो 'अमरकोष' का पूरक ग्रन्थ है । इसका क्रम 'अमरकोष' के समान है। तदनुसार इसमें भी तीन काण्ड तथा पच्चीस वर्ग हैं। इसमें भी लोकव्यवहार में प्रयुक्त शब्दों के साथ ही 'अमरकोष' में अनुपलब्ध शब्दों का भी संग्रह किया गया है। हारावली में अप्रचलित तथा असामान्य शब्दों का समाकलन किया गया है । २७० पद्यात्मक 'लघुकोष' होने पर भी यह दो भागों में विभक्त है - ( क ) समानार्थक तथा ख) नानार्थक । समानार्थक भाग के तीन अंश हैं - पहले में पूरे श्लोक में समानार्थक शब्द हैं, दूसरे में अर्थ- श्लोक में तथा तीसरे में एक चरण में ही । नानार्थक खण्ड की भी यही सण है | वर्तनी अर्थात् शब्दों की शुद्धता बतलाना वर्णदेशना का मुख्य ध्येय है । इस ग्रन्थ की उपादेयता इस कारण सुविदित है । स्वयं ग्रन्थकार ने यह उल्लेख किया है कि गौड - लिपि में भिन्नता होने के फलस्वरूप शब्दों के रूपों में भ्रान्ति होना सम्भव है । इसके निराकरण हेतु 'वर्णदेशना' की उपयोगिता है | अमरसिंह की भाँति पुरुषोत्तमदेव भी बौद्ध थे । इन्होंने सर्वप्रथम बुद्ध को 'मुनीन्द्र' रूप में नमन किया है । इस कार्य में यह अमरसिंह से और आगे बढ़े । देवताओं के सम्बन्ध में इन्होंने बुद्ध के बाद बुद्ध के पुत्र राहुल का, अनुज देवदत्त का मायादेवी का तथा प्रत्येक बुद्ध का क्रमशः उल्लेख किया है । यह बंगाल के शासक राजा लक्ष्मणसेन ११७० - १२०० के समकालिक थे । इन्हीं के आदेश से पुरुषोत्तम देव ने पाणिनि की अष्टाध्यायी पर 'भाषावृत्ति' नामक वृत्ति लिखी | अतः इनका समय बारहवीं शती का उत्तरार्ध मानना युक्तिसंगत है । हलायुध - इनकी रचना अभिधान- रत्नमाला के नाम से प्रसिद्ध है । इस कोष में पाँच काण्ड हैं— स्वर्, भूमि, पाताल, सामान्य तथा अनेकार्थं । इनमें से प्रथम चार काण्डों में समानार्थक शब्दों का वर्णन है तथा अन्तिम काण्ड में नानार्थ एवं अव्ययों का । इन्होंने अमरसिंह को ही अपना आदर्श माना है । यह मान्यखेट के राजा कृष्णराज तृतीय ९५० ई० के समकालिक थे । अतः इनका समय दशम शती का उत्तरार्धं माना गया है । यादवप्रकाश द्वारा विरचित वैजयन्तो कोष बड़ी महत्त्वपूर्ण रचना है । यह दो खण्डों में विभक्त है— समानार्थ तथा नानार्थं । समानार्थ खण्ड में पाँच भाग हैं— स्वर्ग, अन्तरिक्ष, भूमि, पाताल तथा सामान्य । नानार्थ- खण्ड में तीन भाग हैं, जिनमें ग्रन्थकार द्वारा शब्दों का चयन अक्षरक्रम से किया गया है । For Private And Personal Use Only Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ( २४ ) वर्णक्रम से शब्दसंग्रह किया जाना इसकी नवीनता है। दूसरी विशेषता यह है कि इसमें वैदिक शब्दों का संकलन भी किया गया है। रामानुजाचार्य (१०५५-११३७ ई० ) के यह गुरु थे। अतः इनका स्थितिकाल ११ वीं शती का उत्तरार्ध निश्चितप्राय है। महेश्वर–इनका विश्वप्रकाश-कोष नानार्थ-शब्दों का संकलनात्मक ग्रन्थ है। इस कोष में शब्दों का चयन अन्तिम वर्ण के आधार पर किया गया है। रूपभेद का निर्देश भी इसमें किया गया है । ग्रन्थान्त में अव्ययों का संकलन विद्यमान है। ग्रन्थकार ने स्वयम् अपना परिचय इस कोष के अन्त में दिया है। तदनुसार इस कोष की रचना सन् ११११ ई० में हुई थी। मल्लिनाथ ने इस कोष का उपयोग अपनी टीकाओं में विशेषतया किया है। अजयपाल---यह बौद्धमतावलम्बी थे। इनकी रचना नानार्थसंग्रह नाम से प्रसिद्ध है। इस कोष में १७३० शब्द हैं । इस कोष में भी वर्णक्रमानुसार शब्दों का चयन किया गया है। इनके मत का उल्लेख अमरकोष के टीकाकार सर्वानन्द टीकासर्वस्व ( ११५९ ई० ) में बहुधा किया है। इसके अतिरिक्त वर्धमान ने अपने व्याकरण ग्रन्थ 'गणरत्नमहोदधि ( रचना ११४० ई० ) में इनका बहुशः उल्लेख किया है। फलतः यह बारहवीं शती से कुछ पहले हुए होंगे। इन्होंने 'ब' तथा 'व' में अन्तर नहीं माना है। इस कारण इनके वंगदेशीय होने का अनुमान किया जाता है। ___ मेदिनिकर-इनका ग्रन्थ 'मेदिनीकोष' के नाम से प्रसिद्ध है। यह भी नानार्थ-कोष है। मेदिनिकर ने शब्दों के चयन में दो प्रकार अपनाये हैं कारादि वर्णक्रम तथा अन्तिम वर्णक्रम । मेदिनी ने विश्वप्रकाश को 'बहदोष' बतला कर अपना महत्त्व सूचित किया है। मेदिनीकोष शब्दों की संख्या में तथा चयन की व्यवस्था में विश्वप्रकाश की अपेक्षा अधिक विशद एवं सुव्यवस्थित है। कविशेखराचार्य ( लगभग १३०० ई०) के मैथिली भाषा में लिखित वर्णरत्नाकर ग्रन्थ में मेदिनीकर का उल्लेख होने से डा० गोडे ने इन्हें १२००१२७५ ई० के मध्य माना है। मङ्ख-इन्होंने भी अन्तिम व्यजनों के आधार पर अनेकार्थ-कोष की रचना की है। इसमें १००७ पद्य हैं। इसका विभाजन परिच्छेदों में नहीं किया गया है। इनका स्थितिकाल ११२८-११४९ के मध्य माना गया है। यह काश्मीर के राजा जयसिंह के राज्यकाल में विद्यमान थे। इस कोष मे प्रायः काश्मीर के कवियों द्वारा प्रयुक्त शब्दों का चयन किया गया है। _हेमचन्द्र-कोषग्रन्थों के इतिहास में यह सर्वाग्रणी हैं। इन्होंने चार कोषग्रन्थ लिखे हैं-अभिधानचिन्तामणि (समानार्थकोष), अनेकार्थसंग्रह ( नानार्थ For Private And Personal Use Only Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ( २५ ) कोष ), निघण्टुकोष (वैद्यक ) तथा देशीनाममाला ( प्राकृतकोष )। इनमें से अभिधानचिन्तामणि को छह काण्डों में विभक्त किया गया है-देवाधिदेव, देव, मयं, भूमि, नरक तथा सामान्य । यह कोश नानावृत्तों में निबद्ध १५४२ पद्यों में समाप्त हुआ है। इस पर स्वयं ग्रन्थकार ने ही टीका लिखी है। अनेकार्थसंग्रह भी छह काण्डों में विभक्त है। इसमें १८२९ श्लोक हैं। शब्दों का संग्रह दो प्रकार से है-अन्तिम अक्षरों द्वारा तथा आदिम अक्षरों द्वारा। इन्होंने व्यवहार मे आने वाले संस्कृत शब्दों को यथावत् संगृहोत कर उनके प्रति निष्ठा व्यक्त की है। यह ग्रन्थ महाराष्ट्र के राजा सोमदेव के ग्रन्थ मानसोल्लास ( रचना ११३० ई० ) का समकालिक प्रतीत होता है। हेमचन्द्र का प्रभाव अवान्तरकालीन कोषकारों पर विशेष रूप से पड़ा है। केशव स्वामी-इनके द्वारा विरचित नानार्णव-संक्षेप नानार्थ शब्दों का सबसे बड़ा कोष है। इसमें लगभग ५८०० श्लोक हैं । अक्षरों की गणना के आधार पर यह कोष भी छह काण्डों में विभक्त है तथा प्रत्येक काण्ड लिङ्ग के अनुसार पाँच भागों में विभक्त है। इसमें वैदिक शब्दों का संकलन भी विद्यमान है । यह गन्थ चोलवंशी नरेश राजराज चोल के आश्रय में रहकर लिखा गया है । इनका समय १२०० ई० के आस पास माना जाता है । इस ग्रन्थ के छह काण्डों में प्रतिकाण्ड पाँच अध्याय हैं। काण्डों का विभाजन एकाक्षर से लेकर षडक्षर तक है। अध्यायों का विभाजन लिङ्ग के अनुसार किया गया है-स्त्रीलिङ्ग, पुंलिङ्ग, नपुंसकलिङ्ग, वाच्यलिङ्ग तथा संकीर्णलिङ्ग । प्रत्येक अध्याय में शब्दों का चयन अक्षरक्रम से किया गया है । आधुनिक कोश-ग्रन्थों में यही क्रम स्वीकृत हैं। ___ केशव-अद्यावधि ज्ञात समानार्थ कोषों में केशव का कल्पद्रुकोष सबसे विशाल है । इसमें लगभग ४०० श्लोक हैं । इसके तीन स्कन्ध हैं-भूमि, भुवः तथा स्वर्ग । प्रत्येक स्कन्ध प्रकाण्डों में विभक्त है । ग्रन्थकार के अनुसार इसकी रचना १६६० में हुई। इस कोष के शब्दचयन में बड़ी विविधता है। अनेक ज्ञातव्य तथ्यों के संग्रह ने इसे विश्वकोष का रूप दिया है। इसमें समानार्थ शब्दों के साथ प्रयुक्त विषयों का विस्तृत वर्णन भी विद्यमान है। शाहजी-यह विश्वविख्यात छत्रपति शिवाजी के भतीजे थे। तंजौर के इतिहास के अनुसार शाहजी का राज्य-समय ( १६८४-१७१२ ई०) विद्योन्नति के लिये प्रसिद्ध रहा है। इनकी सभा में ४७ विद्वान् रहते थे। इनका विरचित शब्दरत्नसमन्वय-कोष शब्दचयन की दृष्टि से बड़ा महत्त्वपूर्ण है। इस कोष में प्रत्येक वर्ग के भीतर अक्षर-क्रम से शब्दों का विन्यास किया गया है । शब्दों का अवान्तर क्रम भी अकारादि क्रम के अनुसार विद्यमान है। यह विशेषता संस्कृत के बहुत कम कोशों में पाई जाती है। इन्होंने 'क्ष' को अलग वर्ण के रूप में For Private And Personal Use Only Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir स्वीकार किया हैं। उससे आरम्भ होने वाले शब्दों को अन्त में रखा है। इस कोश में लगभग ३५०० श्लोक हैं। इस कोश का दूसरा नाम राजकोश भी है। हर्षकीर्ति- इन्होंने समानार्थक शब्दों के शारदीयाभिधानमाला नामक कोश की रचना की। यह तीन काण्डों में विभक्त है तथा प्रत्येक काण्ड को भी वर्गों में विभक्त किया गया है। प्रथम काण्ड के तीन वर्ग हैं-देववर्ग, व्योमवर्ग तथा धरावर्ग। द्वितीय काण्ड चार वर्गों में विभक्त किया गया है--अङ्गवर्ग, संयोगादिवर्ग, संगीतवर्ग तथा पण्डितवर्ग। तृतीय काण्ड के पाँच वर्ग हैं-ब्रह्म, राज, वैश्य, शूद्र तथा संकीर्ण । पूरे ग्रन्थ में केवल ४३५ श्लोक हैं । कोश के अतिरिक्त हर्षकीति ने अनेक ( शास्त्रीय विषयों पर ) ग्रन्थों की रचना की ! यह जैनधर्मावलम्बी थे। इनके गुरु चन्द्रकीति रहे, जिन्होंने जहाँगीर ( १७ वो शती ) से विशेष सम्मान प्राप्त किया। इन्होंने एक दूसरे कोश को भी रचना की। उस कोश का नाम है-शब्दानेकार्थ । इण्डिया आफिस लाइब्रेरी में इस पुस्तक का रचनाकाल वि० सं० १६६५ लिखा है । अत: इनका समय सत्रहवीं शती का आरम्भिक चरण मानना युक्तिसंगत प्रतीत होता है । नवीन ढंग के कोष विदेशी भाषाओं के सम्पर्क में आने पर कुछ विद्वानों ने विशिष्ट कोशों का संस्कृत में संकलन किया। इस पद्धति का सर्वप्रथम प्रयोग शब्दकल्पद्रम नामक प्रख्यात कोष में किया गया। इस कोष को सुप्रसिद्ध मनीषी राजा राधाकान्तदेव ने मान्य पण्डितों की सहायता से अनेक खण्डों में १८२२ तथा १८५८ ई. के बीच प्रकाशित किया। इसमें शब्दों का चयन वर्णक्रम से है तथा पुराण, धर्मशास्त्र आदि प्रमाण-ग्रन्थों के उद्धरणों का समावेश होने से इसकी प्रामाणिकता बहुत बड़ गई है। वस्तुतः यह संस्कृत का विश्वकोष है। इसमें वैदिक शब्दों का प्रायः अभाव है। शब्दों की व्युत्पत्ति देने से इस कोष की उपादेयता बढ़ गई है। प्रस्तुत कोष में रचना-क्रम से आये हुए शास्त्रोपयोगी साब्दों के प्रसङ्ग में प्रमाणों के अतिरिक्त उनकी प्रायोगिक उपयोगिता को भी वतलाया गया है। उन पदार्थों के लक्षण, स्वरूप तथा चित्रादि देकर कोप को सर्वाङ्गपूर्ण बनाया है। इन सब विषयों का समावेश सात काण्डों में किया गया है । राजा राधाकान्तदेव ने कोष के आरम्भ में 'मुखबन्धन' ( भूमिका ) लिखते हुए प्रसङ्गवश यह सूचित किया है कि लौकिक कोषों का आदिम स्वरूप 'अग्निपुराण' में वर्णित कोष-प्रकरण है। इस प्रकरण का क्रम इस प्रकार है-स्वर्गपातालादिवर्ग, अव्ययवर्ग, नानार्थवर्ग, भूवर्ग, पुर-वर्ग, अद्रि-वर्ग, वनौषधिवर्ग, सिंहादिवर्ग, मनुष्यवर्ग, ब्रह्मवर्ग, क्षत्रियवर्ग, वैश्यवर्ग तथा शूद्रवर्ग । इसके अतिरिक्त शेष-भाग में सामान्य नामलिङ्गों का वर्णन है। राधाकान्त देव के For Private And Personal Use Only Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ( २७ ) अनुसार अमरकोषकार ने अधिकतर अग्निपुराणोक्तक्रम ही अपनाया है। थोड़ा. बहुत परिवर्तन कर 'अमरकोष' की पूर्ति की है। जटाधर ने भी अमरकोष का अनुसरण किया है । शब्दकल्पद्रुम में २९ कोषों का उपयोग किया गया है।। ___ शब्दकल्पद्रुम के ढंग पर आगे चलकर दो कोष और बनाये गये। इनमें प्रथम शब्दार्थचिन्तामणि तो उतना विशाल नहीं है। उसमें केवल चार भाग हैं। उसके रचयिता सुखानन्दनाथ रहे। कोष की रचना १८६४-१८८५ तक हुई । दूसरा कोष वाचस्पत्यम् बड़ा विशाल है। सर्वप्रथम यह कलकत्ता से २० भागों में प्रकाशित हुआ ( १८७३-१८८४ ई०)। इसके संकलनकर्ता तारानाथ तर्कवाचस्पति थे। इसमें वैदिक शब्दों का भी समावेश है, किन्तु उनको व्युत्पत्ति अधिकतर कल्पनाप्रसूत है। इसी समय राथ तथा बोलिक नामक जर्मन विद्वानों द्वारा महान संस्कृत कोष को प्रणयन हुआ, जिसमें वैदिक शब्दों का भी पूर्ण समावेश है। इसकी रचना भाषावैज्ञानिक रीति पर की गई है। जर्मन विद्वानों ने अनेक पण्डितों की सहायता से शब्दों के प्रयोगस्थलों का भी निर्देश किया है । इसके साथ ही शब्दों के अर्थविकास को अङ्कित करने का भी इलाध्य प्रयास किया है। उस समय तक प्रकाशित तथा अप्रकाशित समस्त संस्कृत ग्रन्थों का विधिवत् अनुशीलन कर इस विशाल कोष की रचना की गई है। आचार्य बलदेव उपाध्याय के अनुसार डा० राथ ने वैदिक शब्दों का तथा डा० बोथलिंक ने वैदिकेतर शब्दों का विवरण भाषाशास्त्रीय पद्धति पर प्रस्तुत करने का प्रयत्न किया है । डा० बोथलिंक ने इसका एक संक्षिप्त संस्करण भी जर्मन भाषा में प्रकाशित किया था। __इसी क्रम में डा० भोनियर विलियम्स ने एक संस्कृत-अंग्रेजी कोष को रचना की। इनका परिश्रम श्लाघनीय है। शब्दों के चयन तथा अर्थनिर्देश में बड़ा परिश्रम किया गया है। केवल कमी इस बात की है कि प्रयोगस्थलों का निर्देश नहीं किया गया है। इस कोष की रचना उपर्युक्त जर्मन कोषों के आधार पर हुई है । यह कोष समानार्थक शब्दों के सम्बन्ध में बड़ा प्रामाणिक माना जाता है । इसका दूसरा स्वरूप अंग्रेजी से संस्कृत में भी है। इस प्रकार के कोषों की रचना में आगे चलकर भारतीय विद्वान् भी अग्रसर हुए, जिनमें वामन सदाशिव आप्टे का नाम विशेषतया उल्लेखनीय है। इन्होंने मी संस्कृत-अंग्रेजी तथा अंग्रेजी-संस्कृत कोषों की रचना की । यह कोष विद्वानों तथा छात्रों के लिये समान रूप से उपकारक है। इस कोष में वर्णक्रमानुसार शब्दों का चयन किया गया है। प्रयोगस्थलों के निर्देश में पुराण तथा काव्यादि के उद्धरणों का उपयोग किया गया है। शास्त्रीय परिभाषाओं, छन्दों, प्राचीन For Private And Personal Use Only Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ( २८ ) “भौगोलिक एवं ऐतिहासिक स्थलों का विवेचन भी यथास्थान किया गया है। हाल में इसका नवीन संस्करण तीन खण्डों में पुणे से प्रकाशित हुआ है। इसके अतिरिक्त छात्रोपयोगी संस्कृत-हिन्दी लघु संस्करण भी प्रकाशित हुआ है । नवीन संस्करण में शब्दों के चयन में सम्पादकों ने वृद्धि की है। ___ शब्दपरायण की प्रक्रिया को अभिनव रूप देने वालों में महामहोपाध्याय पण्डित रामावतार शर्मा प्रमुख रहे हैं। उन्होंने एक विशाल कोष की रचना की। इस कोष का नाम है-वाङ्मयार्णव । शर्माजी ( १८७७-१९२९ ई० ) ने इस कोश का प्रारम्भ १९११ ई० में किया। जीवन भर वे इसमें परिवर्तन-परिवर्धन करते रहे । आचार्य बलदेव उपाध्यायजी के अनुसार यह कोष नामलिङ्गानुशासन की परम्परा का सार्वभौम ग्रन्थ है। यह नानार्थक कोष है। इसमें शब्दों का चयन वैज्ञानिक वर्णक्रमानुसार किया गया है । वैदिक तथा लौकिक दोनों प्रकार के शब्दों का इसमें समावेश है। इस कोष में प्रत्येक शब्द की व्युत्पत्ति के साथ उसके प्रयोगस्थलों का भी समुचित निर्देश किया गया है । इसमें २०,००० शब्द उपन्यस्त हैं। साथ ही इस कोष की रचना पद्यमयी है तथा ६७९६ अनुष्टुपों में समाप्त हुआ है। ग्रन्थ के आरम्भ में १६ पद्यों का उपक्रम है एवम् अन्त में ६ श्लोकों में समापन किया गया है। ग्रन्थकार के निधन के ३८ वर्षों के सुदीर्घ काल के पश्चात् सन् १९६७ ई० में ज्ञानमण्डल प्रकाशन द्वारा यह प्रकाशित किया गया है। वर्तमान काल की कोष निर्माण प्रवृत्ति : जर्मन-संस्कृत कोष के प्रकाशन के लगभग एक शतक के बाद नवीन वैदिक कोष की आवश्यकता प्रतीत होने पर होशियारपुरस्थ विश्वेश्वरानन्द वैदिक संस्थान से अनेक विद्वानों के सहयोग से एक बृहद् वैदिक कोष का प्रकाशन हुआ है । इस कोष ने वैदिक संहिताओं के सम्बन्ध में ऋचाओं के सन्दर्भ की समस्या हल कर दी है। यद्यपि इसे शब्दपारायण की दृष्टि से कोष के अन्तर्गत नहीं रखा जा सकता है तथापि इसमें वैदिक शब्दों की सूची विद्यमान होने से वैदिक मूलशब्दों का परिचय सुलभ हो जाता है । इसके १६ खण्ड प्रकाशित हुए हैं । इसके १, वर्णानुक्रमविन्यस्तैर्लोकवेदोभयोद्धृतैः । पद्यवद्धैः सपर्यायै नार्थंघटतो महान् ॥ विशेषशास्त्र युर्वेदप्रभतीनां पदैर्युतः। सोपयुक्तोदाहृतिभिष्टिप्पणैः समलंकृतः ।। सचित्रः प्रचुराच्यवैज्ञानिकपदोच्चयः। परिशिष्टैश्च बहुभिः कोष एष परिष्कृतः॥ ( उपक्रम श्लोक ७,८,९) For Private And Personal Use Only Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ( २६ ) अतिरिक्त "संस्कृत का बृहत्तम कोष" प्रकाशन करने की योजना डेक्कन कालेज, पुणे के शोध-विभाग के निदेशक सुप्रसिद्ध विद्वान् डा० एस० एम० कात्रे ने भी प्रस्तुत की है। उनके साथ अनेक विज्ञ सहयोगी भी इस कार्य में संलग्न हैं । अव तक इस कोश के ३ खण्ड प्रकाशित हुए हैं। इसके समग्र भाग प्रकाशित होने पर कोश-साहित्य का क्षेत्र अधिक विस्तृत हो जायगा । इसकी विशेषता यह है कि शब्दों का अर्थ देने में भाषा-वैज्ञानिक पद्धति का आश्रय लिया जा रहा है तथा यह प्रयत्न किया जा रहा है कि अधिकाधिक प्रचलित शब्दों का विधिवत् समाकलन हो जाय । शब्दराशि को समाकलित करने में विद्वानों की प्रवृत्ति आज भी देखी जाती है। इस प्रवृत्ति में शब्दों का प्रयोग एवं प्रचलन ही मुख्य कारण है। शब्दों के प्रचलन एवं प्रयोग होने में देश-काल की परिस्थिति मुख्य रूप से साधक होती है। अतः कोष-रचना की प्रक्रिया बराबर चलती रहती है । इसके फलस्व. रूप वाराणसी से श्रीगोपालचन्द्र वेदान्तशास्त्री ने भी बृहत् संस्कृतकोष के प्रकाशन की योजना बनाई है। उसका एक खण्ड प्रकाशित हुआ है। इसके सम्पूर्ण प्रका. शित होने पर हिन्दी-जगत् को संस्कृत-वाङ्मय में अवगाहन करने के लिए अच्छा अवसर मिलेगा। वर्तमान समय के कोषकारों में सुप्रसिद्ध विद्वान् डा० सूर्यकान्त का योगदान भी प्रशंसनीय है। उन्होंने संस्कृत-हिन्दी-अंग्रेजी कोश को रचना की है । इसके पूर्व चतुर्वेदी द्वारकाप्रसाद शर्मा का संस्कृतशब्दार्थकौस्तुभ ( संस्कृतहिन्दी ) का अच्छा प्रचार हुआ है। इन्होंने कोष लिखकर अनेक विद्वानों को कोष-रचना करने के लिए प्रेरित किया है। विविध कोश ( क ) इस प्रसङ्ग में संस्कृत के समानान्तर पालि-प्रकृत कोशों पर भी विचार करना आवश्यक है। रचना-क्रम में पालि-कोश अधिकतर वैदिक-निघण्ट्रओं के समान परिलक्षित होते हैं। ये कोश श्लोकबद्ध नहीं हैं। पालिकोशों में सर्वप्रसिद्ध कोष महाव्युत्पत्तिकोश है, जो २८४ प्रकरणों में विभक्त है। इसमें लगभग ९०० शब्द संकलित हैं, जिनमें समानार्थक शब्दों के अतिरिक्त धातुरूप भी संगृहोत हैं। इसके अतिरिक्त पालिकोशों में मोग्गलान की अभिधानप्पदीपिका नामक कोश अत्यधिक लोकप्रिय है। यह बारहवीं शती की रचना है तथा अमरकोष की शैली में लिखा गया है। प्राकृत कोषों में सबसे प्राचीन कोष पायिउ-लच्छिनाममाला है। इसके रचयिता धनपाल हैं। इसे ग्रन्थकार ने ९७२ ई० में लिखा था। इसमें २७९ गाथायें हैं। हेमचन्द्र ने इस कोष का उपयोग अपने देशी नाममाला में किया है। For Private And Personal Use Only Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ( 1. ) हेमचन्द्र का देशीनाममाला प्राकृत-कोश बड़ा सुन्दर तथा रोचक है । इसमें आठ अध्याय ( वर्ग ) हैं । इन अध्यायों में शब्दों का संग्रह आदिम अक्षर को अभिलक्षित कर किया गया है | पर्यायवाची शब्द के अनन्तर उसी अक्षर से आरम्भ होने वाले नानार्थ शब्द भी रखे गए हैं । इस ग्रन्थ में तद्भव शब्दों की प्रधानता होने से प्राकृत शब्दों के ज्ञान में बड़ी सहायता मिलती है । इस कोष के अनुशीलन से उस युग ( १२वीं शती) के रीति-रिवाजों का भी पता चलता है । इस बीच दो प्राकृत कोशों का प्रकाशन बड़ा उपयोगी सिद्ध हुआ है । ये दो कोश हैं - ( १ ) अभिधान राजेन्द्र-कोश तथा ( २ ) प्राकृत शब्दमहार्णव । इनमें से प्रथम ग्रन्थ तो जैनधर्म का विश्वकोष ही है, जिसमें जैनधर्म, जैन दर्शन तथा साहित्य के विषयों को अभिलक्षित कर प्राचीन ग्रन्थों के उद्धरणों के साथ बड़ा साङ्गोपाङ्ग विवेचन है । यह ग्रन्थ विशालकाय है, सात खण्डों में विभक्त है । इसकी पृष्ठ संख्या १०,००० है । प्राकृतशब्दमहार्णव इसकी अपेक्षा लघुकाय है । इसका आयाम लगभग १५०० पृष्ठों में सीमित है । यह नवीन शैली का कोश है । इसमें प्रयोगस्थलों का निर्देश बड़ी सुन्दरता के साथ किया गया है । ( ख ) मुगलकाल में फारसी का प्राधान्य होने के कारण फारसी-संस्कृत कोषों की आवश्यकता प्रतीत हुई। इसके फलस्वरूप अकबर बादशाह के आदेश से विहारी कृष्णदास मिश्र ने पारसीकप्रकाश ग्रन्थ की रचना की । इस ग्रन्थ के दो भाग हैं - कोश तथा व्याकरण | २६९ अनुष्टुप् - श्लोकों में ग्यारह प्रकरणों का समावेश किया गया है। प्रकरणों का शीर्षक अधिकतर अमरकोष के समान है । इसमें फारसी शब्दों के संस्कृत पर्याय दिये गए हैं। इसी प्रकार का दूसरा ग्रन्थ वेदाङ्गराय द्वारा विरचित पारसी - प्रकाश ( १६४७ ई० ) है । इसमें फारसी तथा अरबी के शब्दों का संस्कृत में अर्थ दिया गया है । तीसरा ग्रन्थ पारसीविनोद भी इसी समय लिखा गया। इसके रचयिता व्रजभूषण थे । महाकवि क्षेमेन्द्र का लोकप्रकाश भी इस दृष्टि से उपयोगी है। इसमें भी फारसी के बहुत शब्दों का प्रयोग हुआ है । इस ग्रन्थ में शाहजहाँ का भी उल्लेख होने से यह विदित होता है कि इसमें कुछ अंश सत्रहवीं शती में जोड़ दिया गया हो । I विशिष्ट - कोष संस्कृत वाङ्मय के विशिष्ट विषयों को अभिलक्षित कर भी विद्वानों ने अनेक कोष -ग्रन्थ बनाये । संगीत में संगीतराज नामक विशालकाय ग्रन्थ का एक भाग कोष के रूप में प्रख्यात है । उस अंश को नृत्यरत्नकोष कहा गया है। इसके लेखक महाराणा कुम्भकर्ण हैं। किसी अज्ञात लेखक ने वस्तुरत्नकोश की रचना भी को है । इसमें सामान्य विषयों की जानकारी दी गई है । यह ग्रन्थ दो भागों में For Private And Personal Use Only Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ( ३१ ) विभक्त है । प्रथम भाग सूत्रात्मक है तथा दूसरा सूत्रों तथा तत्सम्बन्धी विवरणों से युक्त है । यह ग्रन्थ सम्भवतः १००० - १४०० ई० के मध्य लिखा गया हो । इस प्रसङ्ग में वैद्यक- कोशों का उल्लेख करना अत्यावश्यक है। इन कोशों की संज्ञा है। इनमें प्रमुख है - " ( क ) धन्वन्तरिनिघण्टु । यह नव खण्डों में विभक्त है । क्षीरस्वामी के अनुसार यह अमरकोष से प्राचीन है । अवान्तर निघण्टुओं में ( ख ) माधवकर की रत्नमाला ( नवीं शती) तथा हरिचरण सेन की (ग) पर्याय मुक्तावली ग्रन्थ सुविदित हैं । इन ग्रन्थों के अतिरिक्त (घ) हेमचन्द्र का निघण्टुशेष, (ङ) मदनपाल का मदनपालनिघण्टु ( १३७४ ई०) (च) केशव का सिद्धमन्त्र ( १२५० ई० के लगभग ), (छ) केशवदेव का पथ्यापथ्यबोधक निघण्टु एवं (ज) नरहरि का राजनिघण्टु भी वैद्यक निघण्टुओं में मान्य हैं । इन सबमें राजनिघण्टु सबसे बड़ा है। इसके लेखक नरहरि नामक वैद्य हैं ( १३८० ई० के आसपास ) । इन सबके अतिरिक्त नानार्थ - औषधकोशों में (झ) शिवकोश (१६७७ ई०) बड़ा महत्त्वपूर्ण है । इसके रचयिता शिवदत्त मिश्र थे । ग्रन्थकार ने इसकी व्याख्या भी स्वयं लिखी है । यह नानार्थक ओषधि कोष है । इसमें ऐसे ओषधि - वाचक शब्द संकलित किये गए हैं, जिनके अनेक अर्थं उपलब्ध होते हैं । इन पृष्ठों में वर्णित कोशग्रन्थों के अतिरिक्त अनेक कोशग्रन्थ हस्तलिखित -रूप में हैं तथा अनेक कोश केवल उद्धरणों के रूप में ही ज्ञात हैं । ऐसे कोशकारों में अजयपाल ( धरणीकोश के कर्ता ), रन्तिदेव, रभस, आदि अनेक विद्वान् प्रसिद्ध हैं । अधिकतर कोशों में संज्ञाशब्दों का ही बाहुल्य है । कतिपय कोश क्रिया के अर्थ का निरूपण करने के लिए भी लिखे गए हैं। ऐसे क्रियाकोशों में दो कोश विख्यात हैं- भट्टभल्ल ( १२ वीं शति ) की आख्यातचन्द्रिका तथा हलायुध का कविरहस्य | इस प्रकार के अन्य ग्रन्थों में ये भी प्रसिद्ध हैं- विद्यानन्द का क्रियाकलाप, वीरपाण्ड्य की क्रियापदार्थदीपिका, रामचन्द्र का क्रियाकोश, गुणरत्नसूर का क्रिया - रत्नसमुच्चय तथा दशबल का धातुरूप भेद । इन ग्रन्थों का उल्लेख 'आख्यातचन्द्रिका' की भूमिका में किया गया है। इसी प्रकार उणादि कोष भी रचा गया है। अब तो कोष-ग्रन्थों की व्यापकता इतनी बढ़ गई है कि ग्रन्थविशेष - में प्रयुक्त शब्दों के सम्बन्ध में भी कोषग्रन्थों की रचना होने लगी है । कादम्बरी • आदि प्रसिद्ध ग्रन्थों के कोष तैयार होने लगे हैं। इसके साथ ही प्रत्येक शास्त्र के पारिभाषिक कोष एवं शास्त्रीय कोषों की भी अब बाढ़ सी आ गई है । सार्वजनिक लोकोपयोगी विधि एवं व्यवहार कोषों की भी रचना हो गई है । जीवन का कोई क्षेत्र ऐसा नहीं है जिसको अभिलक्षित कर कोष-रचना न हुई हो । रामायण For Private And Personal Use Only Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ३२ ) कोष, महाभारतकोष, पुराणकोष, व्याकरण, साहित्य, धर्मशास्त्र, मीमांसा, न्याय, योग, तन्त्र, सांख्य, वेदान्त, अर्थशास्त्र आदि सभी विषयों के कोष अब उपलब्ध हो चुके हैं । जो विषय अछूते रह गए हैं उन विषयों पर भी कोषग्रन्थं की रचना शीघ्र हो जायगी । उपनिषदों के आधार पर जैकब का उपनिषद् वाक्यकोष बहुत पहले ही बन चुका था ( १८९१ ई० ) । कोषविद्या के इस संक्षिप्त विवरण से यह निष्कर्ष निकलता है कि संस्कृत तथा प्राकृत के विद्वानों ने अपनी शब्दनिधि को सुरक्षित रखने तथा प्रचलित करने के लिये कोषग्रन्थों की रचना कर जो प्रयास किये हैं वे सर्वथा श्लाघनीय हैं । विश्व में कोषग्रन्थों का इतना विस्तृत एवं प्राचीन परिचय चीनी भाषा को छोड़ कर फिर संस्कृत में ही विद्यमान है। इस धरोहर को सुरक्षित रखना प्रत्येक संस्कृतज्ञ का पवित्र कर्तव्य है । I For Private And Personal Use Only पालदत्त पाण्डेय Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ॥ श्रीः॥ आदर्शहिन्दी-संस्कृत-कोशः फड़कना , देवनागरीवर्णमालायाः प्रथमः स्वरवर्णः, अंकन, सं. पुं. ( सं. न.) चिह्न-लक्षण, दानम् अकारः । । २. लेखनम् , ३. गणनम् । अ-, (= नन), अन्य० (सं.) तत्सादृश्यमभावश्च अंकित, वि. (सं.) चिह्नित, लाञ्छित, तदन्यत्वं तदल्पता । अप्राशस्त्यं विरोधश्च . २. लिखित । नजाः षट् प्रकीर्तिताः । उदाहरणानि- अंकुर, सं. पुं. (सं.) अंकूरः, प्ररोहः, उद्भिद (सादृश्ये) अब्राह्मणः = ब्राह्मणसदृशः; ( अभावे) अंकुरित, वि. (सं.) स्फुटित, सांकुर, उद्भिन्न । अभोजनम् = भोजनाभावः; ( अन्यत्वे) पटोड | घटः = घटभिन्नः; (अल्पत्वे ) अनुदरी | अंकुश, सं. पुं. (सं.)स(शृ)णिः (स्त्री.), अंकूषः । कन्या = अल्पोदरी; (अप्राशस्त्ये) अधनं | अंकोर, (अँकवार), सं. पु. ( सं. अंकः) चर्मधनम् = अप्रशस्तधनम्; (विरोधे ) अधर्मः । | कोड:-डं-डा, उत्संगः २. उत्कोचः, उपापरापकारः = धर्मविरोधी। | अँखुआ, सं. पुं, दे. 'अंकुर' । अंक, सं. पुं. (सं.) चिह्न अभिज्ञान, लक्षणम् । अंग, सं. पुं. (सं. न.) शरीरं, देहः, कायः, २. संख्याचिह्नम् ( १, २, ३ आदि ) ३. लेखः । २. अवयवः, प्रतीकः, अंगकं, अपचनः ४. भाग्यम् ५. रूपकभागः ६. क्रोडम् । ३. अंशः, भागः ४. वेदांगशास्त्राणि [ = शिक्षा, ७. शरीरम् । कल्पः, व्याकरणं, निरुक्तं, ज्योतिषं, छन्दस् -गणित, सं. पुं. (सं. न.) गणितभेदः, अङ्कविद्या।। (न.)। -गत, वि., गृहीत, निरुद्ध । -ज, सं. पुं. (सं.) पुत्रः। -पाली, सं. स्त्री, परिचारिका । -जा, सं. स्त्री. ( सं.) पुत्री, तनया। -शायिनी, सं. स्त्री., पत्नी, जाया। -खिचना, सं. पुं., आक्षेपकः ( रोगभेदः)। -देना, भरना वा लगाना, मु., आलिंग -फड़कना, सं. पुं., ताण्डव-नर्तन, रोगः (भ्वा, प. से.), आश्लिम् (दि, प. अ.)। २.अंगस्फुरणं ( शकुनभेदः)। For Private And Personal Use Only Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अंगरखा अंडी -रखा, सं. पुं. (सं. अंगरक्षकः>) अंगरक्षणी। अंघ्रि सं. पुं. (सं.) चरणं, पादः २. बृक्षमूलम् -राग, सं. पुं. (सं.) गावरअनं, विलेपनम् ।। ३. छन्दश्चरणम् । अँगरेज, सं. पुं. (पुर्त. इंगलेज़ ) आंग्लदेशीयः। अंचल सं. पुं. दे. आँचल । अगरेजी, सं. स्त्री. (हिं. अँगरेज़ ) आंग्लभाषा। अंजन, सं. पुं. (सं. न.) कज्जलं, नेत्ररंजनम् । अंगार (-रा,) सं. पुं. (सं.) अंगारः रं, अंजर-पंजर, सं. पुं. ( सं. पंजरः-रम् ) ( पसली) दग्धकाष्ठखण्डं अलातं, उल्मूकम् , निर्धूमाग्निः । पशुका, पार्थकं, पार्धास्थि (न.) अॅगिया, सं. स्त्री. (सं. अंगिका) कञ्चलिका, २. कंकालः-लम्, पंजर:-रम् । कंचुली, कंचूलम् , आंगिकः- कं, चेलिका, अंजली, सं. स्त्री. (सं.) अंजलिः, कर-हस्तः, कु (कू) पासः-सकः। सम्पुटः। अंगी, वि. (सं.गिन् ) शरीरिन् , देहिन अंजस, वि. (सं.) सरल अवक्र २. निष्कपट २. अवयविन् ३. प्रधान, मुख्य ४. दे 'अँगिया। निर्व्याज । ( अंजसी स्त्री० )। अंगीकार, सं. पुं. (सं.) अंगीकरणं, स्वीकारः, | अंजाम, सं. पु. ( फ़ा ) परिणामः, फलम् , अन्तः, प्रतिग्रहः, प्रतिपत्तिः ( स्त्री.) आदानम् । । पाकः । -करना, कि, स., अंगी-स्वी, कृ ( त. उ. अ.), अंजित, वि. (सं.) सांजन, कज्जलकलित । आ-दा (जु· आ. अ.), प्रतिपद् (दि. आ. अ.) अंजीर, सं. .(फ़ा.) ( वृक्ष ) अंजीरः, उदुम्बरप्रति-इष् ( तु. प. से.)। जातीयो वृक्षः २. ( फल ) अंजीरम् । अंगीकृत, वि. (सं.) स्वी-उरी-उररी, कृत, अंजुमन, सं. स्त्री. (फ़ा.) सभा, परिषद् (स्त्री.)। आ-सं-उप, श्रुत, उपगत । | अंझा, सं. पुं. (सं. अनध्यायः) अनध्यायदिवसः अंगीठी, सं. स्त्री. (हिं. अंगीठा) अंगार, २. अवकाशः, क्षणः, कार्यनिवृत्तिः ( स्त्री.)। धानिका-शकटी, हसनी, हसन्ती । अंटिया, सं. स्त्री. (हिं. अंटी ) गुच्छ:, संघातः, अंगीय, वि. (सं.) अंगदेशीय, २ शारीरिक, कायिक। लघुभारः।। अंगुल, सं. पुं. (सं.) अष्टयवपरिमाणम् । | अँटियाना, क्रि. स.(हिं. अंटी) छलेन आत्मअंगुली, सं. स्त्री. (सं.) अंगुलिः (स्त्री.), अंगुरी- सात् कृ । सं. पुं., छलेन अपहारः, प्रसनम् । रिः (स्त्री.), करशाखा । अंटी, सं. स्त्री. (सं. अष्ठिः> ) ग्रन्थिः , शाटि. -काटना, मु., वि-स्मि (भ्वा. आ. अ.) चकित कायाः कटिलनं कुञ्चनं मोटनं वा २. अंगुलीनां (वि.)+भू। मध्यस्थमन्तरम् । -चटखाना, मु. अंगुली, मीटनं० स्फोटनम् ।। अंड, सं. पुं. (सं. पुं. न.) मुका, वृषणः, शुक्रअंगुश्ताना, सं. पुं. (फ़ा.) अंगुलित्राणम् , ग्रन्थिः २. दे. 'अंडा' ३. विश्वम् , लोक मण्डल. अङ्गुष्ठत्राणम् । म् ४. वीर्य, शुक्रम् । अंगुष्ट, सं. पुं. (सं.) वृद्धाङ्गुलिः (स्त्री.)। -कोश, सं, पुं. (सं.) दे. 'अंड' । अंगूठा, सं. पुं. ( सं. अंगुष्ठः ) वृद्धाङ्गुलिः (स्त्री.)।-कोश बढ़ना, सं. पुं., मुष्क-वृषण-कोश, वृद्धिः -चूमना, मु., चाटुभिः तुषु (प्रे.), अधीन । (स्त्री.)-शोफः । (वि.)+भू। -ज, सं. पु., खगसर्पमीनादयो जीवाः । -दिखाना, मु., सावमानं प्रत्यादिश (तु.प.अ.)। अंड-बंड, सं.पुं. (अनु० ) प्रलापः, अनर्थकं वचनम् अँगूठी, सं. स्त्री. (हि. अँगूठा) अङ्गुरी ( ली ) यं, २. वि., व्यर्थ, अव्यवस्थित । अङ्गुरी (ली) यक, मुद्रा, ऊर्मिका। अंडा, सं. पुं. ( सं. अण्डम् ) कोषः-शः, डिम्बः, अंगूर, सं. पुं.(फ़ा.), (बेल) द्राक्षा, स्वाती, पेशी-शिः (स्त्री.)। मधुरसा, गोस्तना-नी २. (फल) द्राक्षाफलम् -देना, क्रि. स., अण्डानि प्रन्स (अ. आ. अ.)। आदि। -सेना, क्रि. स., अण्डेभ्यः प्रजोत्पत्ति कृ । अंगूरी, वि.(फा.) द्राक्षामय २ दाक्षावर्ण । अंडाकार, वि. (सं.) अण्डाकृति । अंगोका,(पुं. सं. हिं. अंग+ पोंछना ) अंगप्रोन्छ- अंडी, सं. स्त्री. ( सं. एरण्डः ) रुचकः, चित्रका, नम्। | मंडः २. एरंडफलस्य बीजम् ३. वसभेदः । For Private And Personal Use Only Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अंत अंधपरंपरा . . . अंत, सं. पुं. (सं.) समाप्तिः ( स्त्री.), परिः, अंतिम, वि. (सं.) चरम, अन्त्य, पश्चिम, अवम । अवसानं, विरामः २. अन्त्य-अन्तिम-पाश्चात्य, अंत:करण, सं. पुं. (सं. न.) अन्तरिन्द्रियं, भागः ३. सीमा, प्रान्तः ४. मृत्युः, नाशः ५. मनस् ( न.), मानसं, चित्तम् । परिणामः, फलम् । अंतःपुर, सं. पुं. ( सं. न.) अवरोधः, अवरोध-काल, सं. पुं. (सं.) मृत्युसमयः । नम् , शुद्धान्तः। अंतड़ी,सं. स्त्री. ( सं. अंत्रम् ) पुरीतत् (न.)। । अंत्यज, सं. पुं. (सं.) शूद्रः, अन्त्यजन्मन् , अंतरंग, वि. ( सं. अन्तर् + अंग) अन्तर्गत, चतुर्थवर्णः ( रजकश्चर्मकारश्च नटो वरुड एव च । अन्तःस्थ, आभ्यन्तर २. निकटवर्तिन् । कैवर्तभेदभिल्लश्च सप्तेते अन्त्यजाः स्मृताः-यम३. हार्दिक । सं. पु., परममित्रम् , अभिन्न वचनम् )। हृदयः सखि (पु.)। अंत्येष्टि, सं. स्त्री. (सं.) शवदाहः, प्रेतकर्मन् अंतर, सं. पुं. (सं. न.) भेदः, विशेषः, पार्थक्यम् , (न.), अन्तिमसंस्कारः। २. दूरता, अध्वन् , अन्तरालं, विप्रकर्षः अंत्रवृद्धि, सं. स्त्री. (सं.) अंत्रस्रसः, नाभिवर्द्धनम् । ३. मध्यवर्तिकालः ४. व्यवधानम् ५. हृदयम् । अंदर, क्रि. वि. (फ़ा.) अन्तरे, मध्ये, गर्ने, वि, अपर, अन्य। अभ्यन्तरे ( सब सप्तम्यन्त ), अंतः ( अव्य०)। अंतरण, सं. पुं. (सं. न. ) अन्तरे-मध्ये-करणं अंदरसा, सं. पुं. (सं. इन्द्राशः) पिष्टिकः, स्थापनम् २. व्यवधापनम् । मिष्टान्नभेदः। अंतरा, सं. पुं. ( सं. अंतरम् ) भेदः, विशेषः २. अवकाशः, अनुपस्थितिः ( स्त्री.)| अंदरूनी, वि. ( फ़ा. ) आन्तर, अन्तर्गत, आभ्यन्तर । ३. तृतीयकः ( बारी का बुखार)। अंतरागार, सं. पु. (सं. नं.) गृह-गेह-अन्तरं- । अंदलीब, सं. उ. (अ.) बुल्बुलः, प्रियगीतः । अंदाज़, सं. पुं. (फ़ा.) विधिः, रीतिः (स्त्री.), गर्भः। अंतरात्मा, सं. स्त्री. (सं. पुं.) आत्मन् , देहिन् , २. भावः ३. अनुमानम् । शरीरिन् २. मानसं, चित्तं, मनस ( न.)। अंदाज़न, क्रि. वि. (फ़ा.) अनुमानेन । अंतराय, सं. पुं. (सं.) अंतरायः, विघ्नः, प्रत्यूहः, अंदाज, सं. पुं. (फ्रा.) अनुमानं, ऊहा। व्याघातः। अंदेशा,सं. पु. ( फ़ा.) चिन्ता, आशंका, त्रासः । अंतराल, सं. पुं. (सं. न.) मध्यप्रदेशः, अंध, वि. (सं.) नेत्र-नयन-लोचन,-हीनअभ्यन्तरं २. परिवेष्टितस्थानम् । रहित २. अज्ञानिन् , अविवेकिन् , मूर्ख अंतरिद्रिय, सं. स्त्री. ( सं. न.) मनस्-चेतस् ३. प्रमादिन् ४. उन्मत्त । (न.), चित्तम् । सं. पुं. (सं.) अन्धः, अन्धकः, अनयनः, विलोअंतरिक्ष, सं. पुं. (सं. न.) खं, गगनं, आकाशः- चनः २. अन्धकारः, तमस (न.)। शं, अंबरम् २. स्वर्गः। -कार, सं. पुं. (सं.) तमस् (न.), तमिस्रं स्रा, अंतरित, वि. (सं.) दे. 'अन्तर्गत १। ध्वान्तं, तिमिरम्। अंतरीप, सं. पु. ( सं. पुं. न.) भूशिरस् (न.)। -कूप, स. पु. (स.) शुष्ककूपः २. नरकअंतरीय, सं. पुं. (सं. न.) अन्तर , वसनं- | पं. (न अन्तरवस- विशेषः।। वस्त्र-वासस् (न.)। -ड़, सं. पुं., वात्या, प्रभंजनः, चण्ड-महा-अति, अंतर्गत, वि. (सं.) अन्तःस्थ, अन्तर्भूत, समा वातः, प्रकंपनः। विष्ट, सम्मिलित २. हृदयस्थ, मानसिक । -तमस, सं. पुं. (सं. न.) अन्धतामिस्रः-श्रः अंतर्धान, सं. पुं. (सं. न.) लोपः, अदर्शनं, (स्त्रं, अं), अन्धतामसम् । तिरोधानम् । चि. अदृश्य, गुप्त । -ता, सं. स्त्री. ( सं. ) अंधत्वं, दृष्टिहीनता अंतर्यामी, वि. (सं. मिन् ) अन्तःकरणनियामक | २. अशानं, मोहः ।। २. मनोभावश । सं. पुं. परमेश्वरः २. आत्मन् | -परंपरा, सं. स्त्री. (सं.) गतानुगतिकता, अंतर्राष्ट्रीय, वि. ( (हिं.) अन्ताराष्ट्रि (ष्ट्री) य)। विवेकशत्यानुसरणम् । For Private And Personal Use Only Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अंधविश्वास [४] अकरणीय -विश्वास, सं. पुं. (सं.) निर्विवेक-तर्कशून्य, | अंबिका, सं. स्त्री. (सं.) मातृ (स्त्री.) २. पार्वती विश्वासः-प्रत्ययः-विश्रम्भः।। । ३. विचित्रवीर्यजाया । । अंधा, सं. पुं. (सं. अन्धः) अनयनः, भनेत्रः, / अंबु, सं. पुं. (सं. न. ) जलं, पानीयम् । नेत्रहीनजीवः।वि०,विवेकःविचार शून्य-रहित। | -ज, सं. पुं. (सं. न.) कमलम् । -धुंध, सं. स्त्री., घोरान्धकारः, अन्धन्तमस् | -द, सं. पुं. (सं.) मेघः, जलदः । (न.) (२) कुप्रबन्धः, अन्यायः। वि० | -धि, निधि, पति, राशि, सं. पुं. (सं.) सागरः। विचार न्याय, शून्य-रहित । क्रि. वि., निश्शक, अंभ, सं. पु. [सं. अम्भस् ( न.)] जलं, वारि अन्धवत् , रभसा, साहसेन, असमीक्ष्य । (न.)। अंधेर, सं. पुं. (सं. अन्धकारः>) अन्यायः, | अंभोज, सं. पुं. ( सं. न.) कमलम् । उपद्रवः, अत्याचारः, कुव्यवस्था। अंभोद, सं. पुं. (सं.) मेघः, अम्बुदः । -खाता, सं. पुं. अव्यवस्था, अन्यथाचारः, अंभोधि, सं. पुं. (सं.) अंभो, निधिः, राशिः, कुव्यवस्था । समुद्रः। -करना, मु., अन्याय्यं आचर् (भ्वा. प. से.)। | अंश, सं. पुं. (सं.) वि., भागः, खण्डः डं, अँधेरा, सं. पु. ( सं. अन्धकारः) ध्वान्तं, शकलः-लं, प्र., देशः. अवयवः, अङ्गम् २. वृत्तस्य तमिस्र, तिमिरं, तमस् ( न.); वि. निरालोक, षष्टयधिकत्रिशततमो भागः ३. लाभांशः निष्प्रभ, तमो, वृत-मय । ४. भाज्यांकः ५. रिक्यांशः। घना-, अन्धतमसम् । अक्ष-सं. पुं. (सं.) (=Degree of latitude) थोड़ा-,अवतमसम् । देशान्तर-, सं. पुं. (सं.) लंबांशः (= Degree व्यापक-, सन्तमसम् । of longitude) अँधेरे घर का उजाला, मु., एकलः सुतः, । अंशु, सं. पुं. (सं.) किरणः, रश्मिः । एकाकिपुत्रः। -माली, सं. पुं. ( सं.-लिन् ) अंशुमत् , सूर्यः । अँधेरी, सं. स्त्री. (हिं. अँधेरा) प्रकम्पनः, वात्या, अकंटक, वि. (सं.) निष्कण्टक,कण्टक-शल्य, झन्झावातः २. कृष्णा रात्री, निश्चन्द्रा रजनी।। शून्य २. निर्विघ्न, निरन्तराय ३. शत्रुशून्य । -कोठरी, सं. स्त्री., निरालोकः कोष्ठः, २. गर्भः ३. रहस्यम् । अकड़, सं. स्त्री. ( सं. आ x कड्=गर्व करना) अंध्र, सं. पुं. ( सं. बहु०) अन्ध्रराज्यम् २. गर्वः, दर्पः २. धृष्टता ३. आग्रहः। अन्ध्रजनाः ३. वंश-विशेषः । -बाज़, वि. ( हिं ४ फ़ा.) दृप्त, गर्वित २. धृष्ट अंब, सं. पुं. ( सं. आम्रम् ) आम्र-रसाल, फलम् ३. आग्रहिन् । -बाज़ी, सं. स्त्री, अभिमानित्वं, दृप्तत्वम् । २. रसालः, आम्रः (वृक्ष)। अंबक, सं. पुं. (सं. न.) नेत्रम् , नयनम् अकड़े, सं. स्त्री. (सं. आ+ कड्दु-कड़ा होना) (सं. पुं.) पितृ, जनकः। प्रस (सा) रः, आतानः, आततिः ( स्त्री.) अंबर, सं. पुं. ( सं. न ) आकाशः-शं, गगनम् । २. दृढता, अनम्यता ३. वक्रता। २. वस्त्रे, वसनम् । ३. मेघः, जलदः ४. -बाई, सं. स्त्री., गात्रोपधातः; आक्षेपः, सुगन्धिद्रव्यभेदः। उद्वेष्टनम् । अंबरीष सं. पुं. (सं.) अयोध्याया वैष्णवनृप- अकड़ना', कि. अ. (सं. आकऽनम् ) ग, विशेषः २. विष्णुः ३. शिवः । आकड ( दोनों भ्वा. प. से.)। अंबा, सं. स्त्री. (सं.) मातृ (स्त्री.), जननी अकड़ना', क्रि. अ. (सं. आकड्डनम् ) आकड्डु २. पार्वती, दुर्गा । (भ्वा. प.से.), दृढ़ी-वक्री, भू। अंबार, सं. पुं. (फ़ा.) निकरः, राशिः, संभारः। अकथ, वि. (सं. अकथ्य ) अकथनीय, वर्णना. अंबारी, सं. स्त्री. ( अ. अमारी) परिस्तो (ष्टो) तीत,अनाख्येय । मः, प्रवेणी, सज्जना, कल्पना । अकबक, सं. स्त्री. ( अनु०) प्रलापः २. चिन्ता अंबालिका, सं. स्त्री. (सं.) मात (सी.), जननी ३. चैतन्यम् । वि. चकित, अवाक् । २. सबारी ३. विचित्रवीर्य पत्नी। . | अकरणीय, वि. (सं.) अविधेय, अकार्य । For Private And Personal Use Only Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अकर्म [५] अकर्म, सं. पुं. (सं. अकर्मन् न. ) कुकार्यम् ] अकिल, सं. स्त्री. दे. 'अक्ल ।' २. पापम् । अकिल्बिष, वि. (सं.) निष्पाप, अनव, निर्दोष । अकर्मक, वि. ( सं ) कर्मरहित ( क्रिया, धातु अकीदत, सं. स्त्री. ( अ ) श्रद्धा, निष्ठा 1 आदि) । - मंद, वि, श्रद्धालु, सनिष्ठ, निष्ठावत् । अकीदः, सं. पुं. ( अ. ) विश्वासः, मतम् । अकीर्ति, सं. स्त्री. (सं.) अ-अप, यशस् (न.), अक्सर, क्रि. वि. ( अ. ) प्रायः, प्रायशः, बहुशः, सामान्यतः ( सब अव्य० ) । वाच्यता । अकसीर, सं. स्त्री. ( अ ) रसायनं, ईदृशो रसभेदो यो धातून् सुवर्णीकरोति २. सञ्जीवनौषधम् । वि., अमोध, सिद्धिकर । अकस्मात् क्रि. वि. ( सं ) सहसा, एकपदे, अकाण्डं ण्डे, अतर्कितं, देवात्, हठात् ( सब अव्य० ) । अकाज, सं. पुं. ( सं. अकार्यम् ) कार्यहानिः (स्त्री.), विघ्नः, अन्तरायः २. कुकार्यम् । क्रि. वि., व्यर्थ, निष्प्रयोजनम् । अकाट्य वि. (सं. अ + हिं. काटना ) अखण्डनीय, अप्रत्याख्येय, अबाध्य । अकाय: वि. ( सं . ) विदेह, अशरीरिन् । अकारण, वि. (सं.) निष्कारण, अहेतुक, निनिमित्त २. स्वयम्भू । क्रि. वि., निष्प्रयोजनं, निष्कारणम् । अकारथ, वि. ( सं. अकार्यार्थ ) निष्फल, मोघ । क्रि. वि., वृथा, व्यर्थम् । अकारांत, वि. (सं.) अदन्त, अवर्णान्त | अकारादि, अवर्णा वि. (सं.) अवर्ण, - आरम्भ उपक्रम | अकार्य, वि. (सं.) अकर्तव्य, अकरणीय २. अनुचित । सं. पुं. (सं. न.) कु निन्दित, - कार्यकर्मन् (न.) । अकाल, सं. पुं. (सं.) दुर्भिक्षं, दुष्कालः, नीवाकः, आहाराभावः २. कुसमयः । - मृत्यु, सं. स्त्री. ( सं . पुं. ) असामयिको मृत्युः । अकालिक, वि. (सं.) अनवसर, अप्राप्तकाल, असमयोचित | अकाली, सं. पुं. ( सं. लिन् ) गुरुनानकमतानु यायिभेदः । अकासी, दे० 'चील' | अकिंचन, वि. (सं.) निर्धन, निःस्व, दरिद्र, दुर्गंत । अकिंचनता, सं. स्त्री. (सं.) दारिद्रचं, निर्धनता, दीनता । अकिंचित्कर, वि. ( सं .) अशक्त, असमर्थ, अक्षम । अक्षत अकुलाना, क्रि. अ. ( सं . आकुल > ) त्वर् ( भ्वा. आ. से. ), आशु कृ २. आकुली भू, उज् ( तु.आ.अ. ) । अकृत, वि. (सं. अ + हिं. कूतना) अमित, अगणित । अकृतज्ञ, वि. ( सं . ) कृतघ्न ( कृतघ्नी स्त्री . ), अकृतवेदिन् । अकृत्रिम, वि. (सं.) नैसर्गिक, स्वाभाविक २. यथार्थ, वास्तविक ३. हार्दिक | अकेला, वि. (सं. एकल ) एकाकिन् (-नी स्त्री.), असहाय २. अनुपम, अप्रतिम | अकेले, क्रि. वि. (हिं. अकेला ) असहायमेव, - मात्र । अकोतर सौ, वि. (सं. एकोत्तरशतम् ) एकाधिकशतम् । अक्खड़, वि. (सं. अक्षर > ) उम्र, उद्धत, उच्छृङ्खल २. कलह-कलि, प्रिय, युयुत्सु ३. नि४. अशिष्ट ५. जड़ ६. स्पष्टवादिन् । - पन, सं. पुं., उद्यता; कलहप्रियता; निर्भयता; असभ्यता; जाड्यम् ; स्पष्टवादिता । अक्टोबर, सं. पुं. ( अं.) अग्लवर्षस्य दशमो मासः । अक्ल, सं. स्त्री. (अ.) बुद्धि: - मतिः (स्त्री.), प्रज्ञा । " - मंद, वि, बुद्धिमत् प्राज्ञ । -मंदी, सं. स्त्री, बुद्धिमत्ता, प्राज्ञता । अक्ष, सं. पुं. ( सं . ) देवनः, पाशकः ( हिं- पाँसा ) २. अक्षरेखा ३. धूत - पाशक - क्रीडा ४. रुद्राक्षः ५. व्यवहार : (हिं. मुक़दमा ) ६. आत्मन् ७. इन्द्रियम् ८. नयनम् । --क्रीड़ा, सं. स्त्री. (सं.) द्यूत - पाशक, क्रीडा | माला, सं. स्त्री. ( सं ) जपमाला, अक्षसूत्रम् । अक्षत, वि. ( सं . ) अव्रण, अखण्डित, समग्र । सं. पुं. (सं. नित्य बहु.) देवपूजायै श्रीहयः ( बहु० ) २. यवाः । For Private And Personal Use Only Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir Breastfe - योनि, वि. स्त्री. ( सं . ) पुरुषसंसर्गरहिता ( कन्या नारी वा ), ब्रह्मचारिणी । - वीर्य, वि. पुं. (सं.) स्त्रीसंसर्गरहितः (पुरुषः), ब्रह्मचारिन् । [] अक्षम, वि. (सं.) असहिष्णु, क्षमाशून्य, अतितिक्षु २. अशक्त, असमर्थ । अक्षमता, सं. स्त्री. (सं.) असहिष्णुता २ . अशक्तत्वम् । अक्षय, वि. (सं.) नित्य, अक्षय्य, अव्यय, अक्षर, अनश्वर २. कल्पान्तस्थायिन् । अक्षय्य, वि. (सं.) दे. 'अक्षय' । अक्षर, वि. ( सं . ) अच्युत, स्थिर, नित्य । सं. पुं., अकारादयो वर्णाः, ध्वनिचिह्नानि । -न्यास, सं. पुं. (सं.) लेखः, लेख्यम् । -शः, क्रि. वि. ( सं . ) प्रत्यक्षरं, सामस्त्येन । अक्षि, सं. स्त्री. (सं. न. ) नेत्रं, नयनं चक्षुस् (न.), लोचनम् । - गोलक, सं. पुं. ( सं . ) अक्षिमण्डलम् । - तारा, सं. स्त्री. (सं.) कनीनिका, तारका । -पटल, सं. पुं. ( सं. न. ) नेत्र नयन, च्छ्दः (हिं. पलक ) । अक्षुण, वि. (सं. अक्षुण्ण ) अभन, समग्र, अच्छिन्न । अक्षोनि, सं. स्त्री. ( सं . अक्षौहिणी ) संख्याविशेषयुक्त सेना, सम्पूर्णा चतुरंगिणी सेना ( = १०९३५० पैदल, ६५६१० घोड़े, २१८७० रथ, २१८७० गज ) । अक्स, सं. पुं. (अ.) प्रति, छाया, प्रति, बिंबं रूपम् । अक्सर, दे. 'अक्सर' । अखंड, वि. (सं.) सम्पूर्ण, समग्र २. सतत, निरन्तर ३. निर्विघ्न, निर्बाध । अखंडनीय, वि. ( सं ) अभेद्य, अविभाज्य २. पुष्ट, दृढ अखंडित, वि. ( सं .) दे. 'अखंड' । अखड़ेत, सं. पुं. (हिं. अखाड़ा) मलः, बाहुयोधः । अख़बार, सं. पुं (अ.) समाचार - वृत्त-संवादपत्रम् । -नवीस, सं. पुं. सम्पादकः, समाचार वृत्त, - लेखकः । ₹ अखरना, क्रि. अ. (सं. अ + हिं खरा) अप्रीति जन् (प्रे.), अपरंजू ( प्रे.), न रुच् (भ्वा. मा.से.) । अगला अखरावट (-टी), सं. स्त्री. ( सं . अक्षर > ) वर्णमाला २. वर्णमालाक्रमानुसारी पद्यसमूहः । अखरोट, सं. पुं. ( सं . अक्षोट: ), ( वृक्ष ) अक्षोटः २. ( फल ) अक्षम् । अखलाक, सं. पुं. ( अ ) चरित्रम्, सदाचारः । सभ्यता, शिष्टता । अखाड़ा, सं. पुं. (सं. अक्षवाट : ) मलभूमि :निथुद्धभूः (स्त्री.) २. साधुमण्डलम् ३. साधुनिवासः ४. गायकसमुदाय: ५. रंगभूमिः, नृत्यशाला ६. अंगनम्, अजिरम् । अखाद्य वि. ( सं . ) अभक्ष्य, अनशनाई । अखिल, वि. ( सं ) समग्र, समस्त, निखिल । अखिलात्मा, सं. पुं. ( सं - त्मन् ) परमात्मन्, विश्वात्मन् । अख्वाह, अव्य. (अनु.) अहह । अगड़धत्ता, वि. ( सं . अग्रोद्धत > ) दीर्घ, आयत २. लंब, उच्च । अगड़बगड़, वि. (अनु.) अक्रम, असङ्गत । सं. पुं., प्रलापः २. व्यर्थं कार्यम् । अगणनीय, वि. (पं.) सामान्य, साधारण २. असंख्य, गणनातीत । अगण्य, वि. ( सं ) तुच्छ, प्राकृत २. असंख्येय, संख्यातीत । अगतिक, वि. (सं.) अशरण, निराश्रय, अनाथ अगद, वि. ( सं ) नीरोग, निरामय, स्वस्थ | सं. पुं. (सं.) औषधं, भेषजं, भैषज्यम् । अगदंकार, सं. पुं. (सं.) वैद्यः, जीवदः । अगम, वि. ( सं अगम्य ) दुर्गम, गहन २. विकट, कठिन ३. दुर्लभ, दुष्प्राप ४. अय, दुर्बोध ५. अगाध, गम्भीर । अगम्य, .वि. ( सं . ) दे. 'अगम' । अगर, सं. पुं. (सं. अगुरु न. ) वंशिकं, राजार्हे, कृष्णम् । बत्ती, सं. स्त्री. ( सं . अगुरुवर्त्ती ) । अगर, अव्य. ( फ़ा ) यदि, चेत् । -चे, अव्य. ( फा ) यद्यपि, अपि । अगल-बगल, क्रि. वि. (फ्रा.) इतस्ततः, उभयतः, उभयत्र । 3 अगला, वि. ( सं . अग्र > ) पूर्व, पौरस्त्य २. पूर्ववर्तिन् प्रथम ३. प्राचीन, पुराण ४. आगामिनू ५. अपर, द्वितीय । सं. पुं., प्रधानः, २. प्राज्ञः ३. पूर्वजः । For Private And Personal Use Only Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अगवाई अगवाई, सं. स्त्री. (सं. अग्रे + गमनं > ) प्रत्युद् - गमनं, प्रत्युद्व्रजनम् । सं. पुं., नेनू, अग्रणीः ( पुं. ) । [ ७ ] अगवाड़ा, सं. पुं. ( सं . अग्रवाटः > ) गृहद्वारस्य पुरोवर्तिनी भूमिः (स्त्री.) २. गृहस्याग्रिमो भागः । अगवानी, सं. स्त्री. दे. 'अगवाई' । अगस्त, सं. पु. ( अं. आगस्ट ) आंग्लवर्षस्याष्टमो मासः । अगस्त्य, सं. पुं. (सं.) ऋषिविशेषः २. नक्षत्रविशेषः ३. वृक्षभेदः । अगहन, सं. पुं. (सं. अग्रहायन: - णः) मार्गशीर्षः । अगाऊ, सं. पुं. (सं. अग्र> ) अग्रिमं, पूर्वदन्तमूल्यांश: । वि. अग्रिम, अग्रथ । अगाड़ी, क्रि. वि. ( सं . अग्रे ) पुरतः, पुरस्तात् २. अनागतवेला, भविष्यत्कालः । सं. स्त्री ., अश्वस्याग्रिमा रज्जुः (स्त्री.) । अगिनबोट, सं. पुं. ( सं . अग्नि + अं) अग्निपोत, वाष्पीयनौ: (स्त्री.) । अग्रिम - बाण, सं. पुं. (सं.) अनल-दहन, - शर:- सायकः । - विद्या, सं. स्त्री. (सं.) अग्निहोत्रविधिः । -शुद्धिः, सं. स्त्री. (सं.) अग्निना शोधनम् २. दे. 'अग्निपरीक्षा' । (श, वि. ( सं ) अनभिज्ञ, अपरीक्षक । अगुरु, वि. (सं.) सुवाह्य २. अशिष्ट । सं. पुं. ( सं. ) लघु-ह्रस्व,-वर्णः. ३ दे. 'अगर' सं पुं.। अगोचर, वि. (सं.) इन्द्रियातीत, अतीन्द्रिय, संस्कार, सं. पुं. (सं.) दाहकर्मन् (न.), शवदाहः २. अग्निना शोधनम् । - सखा, सं. पुं. ( सं . -खि ) वायुः, पवनः । सेवन, सं. पुं. (सं. न. ) वह्निनिषेवणम् । - होत्र, सं. पुं. (सं. न. ) यशभेद:, होम:, हवनम् । -होत्री, सं. पुं. (सं., त्रिन्) आहिताग्निः, याजकः, याज्ञिकः । अग्न्यस्त्र, सं. पुं. ( सं. न. ) आग्नेयास्त्रम् । अग्न्याधान, सं. पुं. (सं. न. ) विधिपूर्वमनिस्थापनं २. अग्निहोत्रम् । अग्र, सं.पुं. (सं. न. ) अग्रभागः, शिखरं, प्रान्तः, मुखं, अणिः, ( पुं., स्त्री. ) । वि. अग्रसर, उत्तम, प्रधान । अगुआ, सं. पुं. (सं. अग्र > ) अग्रसरः, अग्रणीः ( पुं.) २. मुख्यः, नायकः, ३. पथप्रदर्शकः ४. विवाहसम्पादकः । -गण्य, वि. (सं.) ज्येष्ठ, श्रेष्ठ, मान्य । -- गामी, सं. पुं. ( सं . मिन् ) पुरोगः, नायकः । -ज, सं. पुं. (सं.) अग्रजन्मन्, ज्यायान् भ्रातृ (पुं.)। नेतृ, अगुण, वि. (सं.) निर्गुण, मूर्ख । सं. पुं., दोषः, णी, सं. पुं. (सं.. णीः, पुं.) नायकः, दूषणम् । पुरोगः । --भाग, सं. पुं. (सं.) पूर्व-पुरो, भागः खण्डः । यायी, सं. पुं. (सं.- यिन्) अग्रसरः, पुरोगामिन् । वर्ती, वि. ( सं . वर्तिन् ) अग्रस्थ, पुरः स्थित | - सर, सं. पुं. ( सं . ) नायकः, अग्रणी : (पुं.), नेतृ । अप्रकट, अव्यक्त, अप्रत्यक्ष | अग्नि, सं. स्त्री. (सं. पुं.) अनल:, पावकः ज्वलनः, वह्निः, दहनः, हुताशनः, वैश्वानरः, कृशानुः, हुतवहः, हव्यवाहनः, चित्रभानुः, विभावसुः, शुक्रः, शुचिः । - कर्म, सं. पुं. ( सं . न . ) देवयज्ञः, अग्निहोत्रम् । २. शवदाहः, अन्त्येष्टिसंस्कारः, अग्निक्रिया । - क्रीडा, संत्री. ( सं ) दे. 'आतशबाज़ी' | - ज्वाला, सं. स्त्री. ( सं . ) अग्नि, जिल्हा - शिखा, अचि ( स्त्री. न. ), कील:-ला । अग्रासन, सं. पुं. (सं. न. ) संमान- श्रेष्ठ - आसनं स्थानम् । दाह, सं पुं. (सं.) प्लोषः, तापः, ज्वलनं २. शवदाहः । अग्राह्य, वि. ( सं ) त्याज्य, परिहार्य, हेय । - परीक्षा, सं. स्त्री. (सं.) तप्तदिव्यम् २ अग्नौ अग्रिम, वि. ( सं .) भाविन्, आगामिन् २. सुवर्णादिपरीक्षणम् । प्रधान, अग्रथ । - अग्रह, सं. पुं. ( सं . ) अग्रहणम्, त्यागः । अग्रानीक, सं. पुं. (सं. न. ) सेना, मुखं, अग्रम् । - अग्राम्य, वि. ( सं . ) अग्रामीण, नागरिक २. वन्य, अगृह्य । अग्राशन, सं. पुं. ( सं. न. ) देवादिदेयो भक्ष्यामांशः । For Private And Personal Use Only Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अघ [८] अजंसी निष्ठानम् । अघ, सं. पुं. ( सं. न.) पापं, पातकं, दुरितम् , | अचार, सं. पुं. ( फ़ा.) सन्धितं, सन्धानं, तेमनं, एनस (न.)२. दुःखम् ३. व्यसनम् ।। अघट, वि. ( सं. अ+घट ) अशक्य, असम्भव अचिंतनीय, वि. (सं.) अतयं, अचिन्त्य, २. दुर्घट, दुष्कर। अज्ञेय । अघटे, वि. (हिं. घटना.) अक्षय, अक्षय्य, अचिंतित, वि. (सं.) अतर्कित, अविचारित, अव्यय । आकस्मिक २. निश्चिन्त । अघटित, वि. (सं.) अभूत २. असम्भव ३. | अचिंत्य, वि. (सं.) अज्ञेय, अतयं, कल्पनाकठिन ४. अयोग्य। तीत २. अतुल ३. आशातीत ४. आकस्मिक । अघमर्षण, वि. (सं.) अघ-पाप,-हारिन् नाशक । -आत्मा, सं.पुं. (सं.-त्मन्) परमात्मन्, अतसं. पुं., ऋग्वेदस्य पापनाशकः सूक्तविशेषः । य॑स्वरूपः। अघारि, वि. ( सं.) पापनाशक २. अघदेत्यस्य अचिकित्स्य, वि. (सं.) अनुपचार, असाध्य नाशकः कृष्णो विष्णुर्वा । ( रोगादि) अघोर, वि. (सं.) सौम्य, शोभन, प्रियदर्शन । अचित्ति, सं. स्त्री. ( सं.) अज्ञानम् , अबोधः। -नाथ, सं. पुं. (सं.) शिवः, भूतनाथः ।। अचिर, अव्य, (सं.) शीघ्र-सपदि (अव्य) -पंथ, सं. पुं. ( सं. -पथः ) शैवानां सम्प्र. २. वर्तमाने ३. किंचित् पूर्वम् । वि. क्षणिक, दायविशेषः । नश्वर २. वर्तमान,-विषयक सम्बन्धिन् । अघोरी, सं. पुं. ( सं. अघोरः > ) अघोरमता. अचीती, वि. ( सं. अचिन्तित ) आकस्मिक नुयायिन् २. सर्वभक्षकः ३. दुर्दशनः । २. अचिन्त्य । अघोष, वि. (सं.) नीरव, निश्शब्द २. अल्प अचूक, वि. ( सं. अ. + हि. चूकना ) अमोध, ध्वनियुत ३. गोपहीन । सं. पुं., वर्णमालायाः । सफल । क्रि. वि., अवश्यं, ध्रुवम् । 'क् , ख्, च्, छ्, ट, ३, त् , थ्, ५, फ, अचेत, वि. (सं.-तस ) अचेतन, निष्प्राण, श, ष, स्' वर्णाः। निर्जीव २. व्याकुल ३. अनवहित ४. मूढ । अचंभा, सं. पुं. (सं. असम्भव >) आश्चर्य, अचेतन, वि. (सं.) विचेतन, जड, निष्प्राण, विस्मयः २. चमत्कारः, कौतुकम् ३. अद्भुत- स्थावर २. निःसंश, मूच्छित । सं. पुं. जडद्र. वस्तु (न.)। व्यम् । अचंभित, वि. ( हि. अचम्भा ) चकित, अचैतन्य, वि. (सं.) अचेतन, स्थावर । सं. पुं. विस्मित। (सं. न.) निर्जीवता, निष्प्राणता । अचकन, सं. पुं. (सं. कञ्चकः)। अच्छा, वि. (सं. अच्छ = स्वच्छ >) उत्तम , अचतु, वि. ( सं.क्षुस् ) अंध २. निरिन्द्रिय ३. | भद्र, श्रेष्ठ २. निर्मल ।। अतीन्द्रिय। अच्छाई, सं. स्त्री. ( हिं. अच्छा ) भद्रता, अचर, वि. (सं.) स्थावर, अचल। सौजन्यम् । अचरज, सं. पुं. ( सं. आश्चर्यम् ) विस्मयः, । अच्छिन्न, वि. ( सं. ) निश्छिद्र २. पूर्ण, चमत्कारः। अखण्डित । अचल, वि. (सं.) निश्चल, स्थिर २. चिर- अच्छेद्य, वि. (सं.)अमेय, अलाव्य, विनाशिन् । स्थायिन् , नित्य । सं. पुं. (सं.) पर्वतः, गिरिः अच्युत, वि. ( सं. ) अपतित २. दृढ, नित्य ३. २. कीलः, शंकुः ३. सप्तसंख्या ४. ब्रह्मन् अमोघ । (न.) ५. शिवः ६. आत्मन् । अछूत-ता, वि. ( सं. अछुप्त ) अस्पृष्ट २. नव, अचला, वि. (सं.) स्थिरा, गतिशून्या । सं. स्त्री पवित्र। (सं.) पृथिवी। अजंट, सं. पु. ( अं. एजेंट ) प्रति, निधिः-हस्तः । अचानक, क्रि. वि. (सं.अचानक >) अकस्मात, | अजंसी, सं. स्त्री. ( अं. एजेंसी) प्रतिनिधि,सहसा, एकपदे, अकाण्डे । ( सब अव्य.) कार्यालयः-निवासः। For Private And Personal Use Only Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अज अटकलपच्चू अज, वि. ( सं.) स्वयम्भू , जन्महीन । सं. पु. अज़ीज़, वि. (अ.) प्रिय, तात, वत्स । ब्रह्मन् (पुं.) २. विष्णुः ३. शिवः ४. कामदेवः | अजीत, वि. (सं. अजित ) अजेय, अजय्य, ५. छागः ६. मेषः । अधृष्य । अजगर, सं. पुं. शयुः, वाहसः।। अजीब, वि. ( अ.) अद्भुत, विलक्षण, विचित्र । अजगरी, सं. स्त्री. (सं. अजगरः>) आलस्यम्। अजीर्ण, सं. पुं ( सं. न.) अजीणिः (स्त्री.), अज़दहा, सं. पुं. (ता.) दे. 'अजगर' । मन्दाग्निः, अन्नविकारः, अपाकः २. आधिअजनबी, वि. ( फ़ा.) आगन्तुक, विदेशीय, | क्यम् । वि., नव, नतन । अपरिचित । अजीवन, वि. (सं.) आजीविका-उपजीविका अजन्मा, वि. ( सं.न्मन् ) अज, स्वयम्भू , -रहित-हीन सं. पुं. (सं. न.) मृत्युः । अनादि। अजूबा, सं. पुं. (अ.) अद्भुतं वस्तु ( न.), अजब, वि. ( अ. ) अद्भुत, विचित्र, विलक्षण । विचित्रवार्ता। अज़मत, सं. स्त्री. ( अ. ) प्रतापः, प्रभुत्वं, । अजेय, वि. ( सं.) दे. 'अजय्य' । महत्त्वम् । अजैकपाद, सं. पुं. (सं.) रुद्रविशेषः २. अजय्य, वि. ( मं.) अधृष्य, अदम्य, अजेय । | विष्णुः । अजर, वि. सं. ) जराहीन, वार्धक्यरहित । अजेव, वि. (सं.) जीवन,-हीन-विरहित अजवायन, सं. स्त्री. (सं. यवानिका) शूलहन्त्री।। (इन-आर्गेनिक ) अजस्र, क्रि. वि. ( सं. न.) सदा, अनवरतं, | अज्ञ, वि. (सं.) मूर्ख, मूढ, अशानिन् । नित्यम् । अज्ञता, सं. स्त्री. (सं.) जाड्यं, मौख्य, मूढता । अज़हद, कि. वि. ( फा.) असीम, अत्यधिक ।। अज्ञात, वि. (सं.) अविदित, अबुद्ध, अपरिचित। अजा, वि. स्त्री. (सं.) जन्महीना। सं. स्त्री. -वास, सं. पुं. (सं.) गुप्तवासः। छागी २. प्रकृतिः ( स्त्री.)। अज्ञान, सं. पुं.(सं. न.) अविद्या, जाड्यं, मूर्खता। अजात, वि. ( सं.) असृष्ट, अनुत्पन्न, जन्महीन । अज्ञानता, सं. स्त्री. (सं.) जडता, अबोधता । -शत्र, वि. (सं.) शत्रुहीन, सर्वमित्रम् । सं. । अज्ञानी, वि. ( सं. -निन् ) मूढ, मूर्ख, अबोध । पुं. युधिष्ठिर : २. शिवः ३. मगधराजविशेषः । अज्ञेय, वि. (सं.) अतर्य, बोधागम्य, शानातीत । अजान, वि. (सं. अज्ञान) मूर्ख, मन्द ३. अशात, | अटंबर, सं. पुं. ( सं. अट्ट+फ़ा. अंबार ) राशिः अपरिचित । सं. पुं., अशानिता, अज्ञता। (पुं.),संभारः, निचयः। अज़ाब, सं. पु. ( अ.) यातना, पीडा। | अटक, सं. स्त्री. (हि. अटकना) विघ्नः, बाधः-धा अजामिल, सं. पु. ( सं.) कश्चित् पापी ब्राह्मणो । २. सङ्कोचः ३. सिन्धुनदी ४. नगरविशेषः यो मृत्युकाले नारायणनामकस्य निजसुतस्य । ५. हानिः (स्त्री.)। नामोच्चार्य मुक्ति लेभे। अटकना-क्रि. अ. (हिं.अ + टिकना) १. प्र. अजायब, सं. पुं. ( अ. 'अजब' का बहु०) अद्-! उपे, शम् (दि. प. से.), विरम् ( भ्वा. प. अ.) भूतवस्तूनि, विलक्षणा व्यापाराः । निवृत् ( भ्वा. आ. से.), स्था (भ्वा. प. अ.), -घर, सं. पुं. अद्भुतालयः, संग्रहालयः । । निश्चल (वि.) + भू । २. पाशे पत् (भ्वा. अजित, वि. ( सं. ) अपराजित, स्वतन्त्र । सं. पुं., | प.से.), जालबद्ध (वि.) + भू, निरतविष्णुः २. शिवः ३. बुद्धः । आसक्त (वि.)+ भू ३. लिह (दि. प. से.), -इन्द्रिय, वि. (सं.) इन्द्रियलोलुप, विषयासक्त । । अनुरञ् ( कर्म०), भावं-अभिलाषं + बन्ध अजिन, सं. पुं. (सं. न.) मृग-,चर्मन् ( न.), (क. प. अ.) ४. विवद् (भ्वा. आ. से.), दृतिः ( पुं. स्त्री.), कृत्तिः ( स्त्री.)। विप्रलप् ( भ्वा. प. से.), वैरायते (ना. धा.)। अजिर, सं. पुं. ( सं. न.) अंगनं-, प्राङ्गणं, अटकल, सं. स्त्री. (सं. अट + कल >) अनुमानं, चत्वर:-रम् । वितर्कः, ऊहा, अनुमितिः ( स्त्री.)। अजी, अव्य. ( सं. अयि ! ) भोः, आर्य, अङ्ग -पच्च, सं. पुं. कपोलकल्पना, अनुमानम्। वि. (संबो.)। काल्पनिक। For Private And Personal Use Only Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अटकलबाज़ [ १० ] अड़ना -बाज़, वि., अनुमातृ। अट्ठानवे, वि. ( सं. अष्ट (1) नवतिः स्त्री.)। अटकाना, क्रि. स. (हिं. अटकना) अव-स्था -वाँ, ( वीं ) वि., अष्ट (1) नवतितमः (प्र.), रुध् ( रु. उ. अ.) २. पाशेन बन्ध (मी), अष्ट (1) नव तः ( -ती)। (क्र. प. अ.) जाले धृ (चु.) ३. स्नेह अट्ठावन, वि. (सं. अष्ट (1) पञ्चाशत् स्त्री.)। पाशैः बन्ध। -वाँ, (-वीं), वि. अष्ट (1) पञ्चाशत्तमः अटकाव, सं. ' (हिं. अटकना ) विघ्नः, बाधः। (-मी ), अष्ट (1) पञ्चाशः (-शी)। २. विलम्बः। अट्ठासी, वि. ( सं. अष्टाशीतिः स्त्री.)। अटन, सं. पुं. (सं. न.) भ्रमणं, चलनं, विचरणम्। अट्टासिवाँ (-वीं), अष्टाशीतितमः ( -मी), अटपट, वि. ( अनु० ) कठिन, कुटिल, विकट अष्टाशीतः ( -ती)। २. जटिल, गूढ ३. असम्बद्ध, असंगत अठकौसल, सं.पुं. ( सं. अष्टन् + अं. कौंसिल ) ४. प्रस्खलत-विचलत् ( शत)। सभा, संसद्-परिषद् ( स्त्री.), गोष्ठी-ष्ठिः (स्त्री.) २. मन्त्रणा-णम् । अटपटाना, क्रि. अ. (हिं. अटपट ) आकुली अठखेली, सं. स्त्री. ( सं. अष्टकेलिः>) चपलता, भू , मुह (दि. प. से.) २. विकल्प-विलंब चाञ्चल्यं, कल्लोलः । २. मत्तगतिः ( स्त्री.), व्याशंक ( भ्वा. आ. से.)। मदोद्धतगमनम् । अटपटी, सं. स्त्री. (हिं. अटपट ) संभ्रमः, अठन्नी, सं. स्त्री. (सं. अष्टन् + आण:> ) व्यामोहः. विकल्पः, वितर्कः । अष्टाणी, अष्टाणकी। अटब्बर, सं. पुं. (सं. आडम्बरः > ) अहंकारः, अठपहला, वि. ( सं. अष्टन् + फ़ा. पहलू ) अष्ट,गर्वः। कोण-पाव । अटल, वि. (सं. अ + हिं. टलना) अचल, अठपाव, म. पुं.दे 'ऊधम' । स्थिर, नित्य, ध्रुव, अवश्यंभाविन् । अठवाँसा, वि. ( सं. अष्टमास ) आष्टमासिकः अटलस, सं. पुं (अं.) मानचित्र-देशालेख्य,-ग्रन्थः। (शिशुः) २. सीमन्तोन्नयनसंस्कारः। अटारी, सं. स्त्री. (सं. अट्टाली) अट्टः-टू, अठवारा, सं. पुं. ( हिं. आठ + सं. वार ) अट्टाल:-लिका, शिरोगेहं, चन्द्रशाला, तलिनी। * अष्टवारः, अष्टाहः, दिनाष्टकम् । २. सप्ताहः, अटाला, सं. . ( सं. अट्टाल:> ) राशिः , दिनसप्तकम्। निचयः २. परिच्छदः, यात्रासामग्री ३. मासिक अठहत्तर, वि. (सं. अष्ट (1) सप्ततिः स्त्री.)। सौनिक, वसतिः ( स्त्री.)। -वाँ (-वी), वि., अष्ट (1) सप्ततितमः अटूट, वि. ( सं. अ + हिं. टूटना ) अच्छेद्य, (-मी), अष्ट (1) सप्ततः ( -ती)। अखण्डनीय २. अजेय, अजय्य ३. निरन्तर अठारह, वि. ( सं. अष्टादश)। -वाँ ( -वों ) अष्टादशः (-शी)। ४. अत्यधिक। अटेरन, सं. पु. ( सं. अति + ईरण > ) सूत्रवल अडंगा, सं. पुं. ( हिं. अड़ाना + टांग) विघ्नः, हस्तक्षेपः, बाधः-धा। यनिर्माणार्थ लघुकाष्ठयन्त्रम्, आवापनम् । अड़चन, सं. स्त्री. (हिं. अड़ना+चलना) अटेरना, कि. स. (हिं. अटेरन ) आवापनेन विघ्नः, कठिनता, आपत्तिः ( स्त्री.)। पञ्चीः रच (चु.)। अड़तालीस, वि. (सं. अष्ट (1) चत्वारिंशत् स्त्री.) अट्टहास, सं. पुं. ( सं.) अति-प्र उच्चैः, हासः । -वाँ (-वीं) वि., अष्ट (1) चत्वारिंशत्तमः अट्टी, सं. स्त्री. (हिं. अटेरना) पञ्ची। (-मी), अष्ट (1) चत्वारिंशः ( -शी)। अट्टालिका, सं. स्त्री., ( सं.) दे. 'अंटारी । अड़तीस, बि. ( सं. अष्टात्रिंशत् स्त्री.)। अट्ठा, सं. पुं. ( सं. अष्टन् >) अष्टचिह्नयुक्तं -वों ( वी ), वि., अष्टात्रिंशत्तमः ( -मो), क्रीडापत्रम् । अष्टाविंशः (-शी)। अट्ठाईस, वि. (सं. अष्टाविंशतिः स्त्री.)। अड़ना, क्रि. अ. ( सं. अल = रोकना> ) दे. -वाँ (-वीं), अष्टाविंशः ( -शी), अष्टाविंशति- | 'अटकना' २. आग्रहं न मुच्( तु. उ. अ.) तमः ( -मी)। निबन्धेन कथ् (चु.)। For Private And Personal Use Only Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अदबंग [११] अतीत भड़बंग, वि. (हि. अड़ना+सं. वक्र ) वक्र, । अत एव, क्रि. वि. (सं.) अस्मादेव कारणात् , विषम, नतोन्नत २. विकट, दुर्गम ३. विलक्षण । __ अनेनैव हेतुना। अडवोकेट, सं. पुं. ( अं. एडवोकेट ) पक्षसमर्थकः, अतर, सं. पुं. (अ. इत्र) निर्यासः, पुष्पसारः। दे. 'वकील'। -दान, सं.पुं. (अ.+फा) पुष्पसारपात्रम् । अड़सठ, वि. ( सं. अष्ट (1) षष्टिः स्त्री.)। अतरसों, क्रि.वि. (सं.इतर+श्वः> ) आगामी -वों ( -वीं ), वि, अष्ट (1) षष्टितमः ( -मी), गतो वा तृतीयो दिवसः। अष्ट (1) षष्टः (-ष्टी )। अतर्कित, वि. ( सं.) अविचारित, आकस्मिक अड़ाना, क्रि.स., दे. 'अटकाना' । (-की स्त्री.), अचिन्तित । अडिग, वि. (सं. अ+ हिं. डिगना ) निश्चल, अतयं, वि. (सं.) अचिन्त्य, अचिन्तनीय, स्थिर, दृढ । अविवेच्य, अनिर्वचनीय । अड़ियल, वि. ( हिं. अड़ना ) उद्धत, दुर्दम, अतल, वि. (सं.) तलहीन, अतिगम्भीर । सं. दुर्विनीत २. अलस, तन्द्रालु ३. अविनेय, पु. ( सं. न.) सप्तसु पातालेषु प्रथमम् । स्वैरिन् , दुराग्रह । -स्पी , वि. अतिगम्भीर, अतलस्पृश् । अड़ी, सं. स्त्री. ( हिं. अड़ना) दुराग्रहः, हठः, अतलस, सं. स्त्री. ( अ.) अतिचिक्कणः कौशेयनिर्बन्धः, प्रतिनिवेशः। पटभेदः । अडीट, वि. ( सं. अदृष्ट ) अदृश्य, लोचनागोचर अतलांतक, सं. पुं. ( अं. एटलांटिक ) अन्धमहा२. गुप्त, अन्तहित। अडोल, वि. (मं. अ+ हिं. डोलना ) अचल, सागरः, समुद्रविशेषः। अता, सं. पुं. (फा.) दानं, त्यागः विसर्जनम् । निष्कम्प, स्थिर। अड़ोस-पड़ोस, सं. पुं. (हिं. पड़ोस )सन्निधिः, -करना, -फरमाना, मु., दे० 'देना' । अति, वि. (सं. अव्य.) अत्यन्त, अत्यर्थ अधिक । उपकण्ठः, सामीप्यं, प्रतिवेशः। अड़ोसी-पड़ोसी, सं. पुं ( हिं, अड़ोस-पड़ोस ) सं. स्त्री., आधिक्यं, अतिशयः, सीमोल्लंघनम् । अतिकथा, सं. स्त्री. (सं.) अतिरंजित,-कथाप्रति, वेशः वेश्यः-वेशिन्-वासिन् , निकट-समीप, स्थ:-वासिन् । --आख्यायिका-*गल्पः । २. निरर्थक-व्यर्थ,अड्डा, सं. पुं. (सं. अट्टा > ) निवेशस्थानं, लंगनं भाषणम् । २. आस्थानं ( -नी) ३. संकेत,-गृह. स्थलं, अतिकाल, सं. पुं. (सं.) विलम्बः, कालातिपातः। समागम-संकेत, स्थानम् ४. चतुप्काष्ठम् । अतिक्रमण, सं. पुं. (सं. न.) नियम-मादाअड्रेस, सं, पुं. ( अं. एड्रेस ) अभिनन्दनपत्रम् सीमा, उलंघनं, अतिक्रमः । २. पत्रसंज्ञा, निवाससंकेतः । अतिथि, सं. पुं. (सं.) अभ्यागतः, प्राघुणः, अणि, सं. स्त्री. ( सं.) अणी, धारा,अग्रं, कोटिः प्राधुण (णि) कः, गृहागतः २. संन्यासिन् । (स्त्री.), सीमा, प्रान्तः। -पूजा, सं. स्त्री., आतिथ्यं, अतिथि, सत्कार:अणिमा, सं. स्त्री. (सं. अणिमन् पुं.) अणुता, सेवा-क्रिया । सूक्ष्मता २. योगस्याष्टसिद्धिषु प्रथमा, यया यो -यज्ञ, सं. पु. ( सं. ) अतिथिपूजा । गिनोऽदृश्या भवन्ति । अतिरिक्त, क्रि. वि. (सं.) विना, ऋते, अति. अणिमादिक, सं. स्त्री. (सं.) योगस्याष्टसिद्धयः, रिच्य, विहाय ( सब अव्य.)। वि. ( सं.) ( = अणिमा, महिमा, गरिमा, लघिमा, प्राप्तिः, अवशिष्ट २. भिन्न, पृथक् । प्राकाम्यं, ईशित्वम् , वशित्वम् )। अतिवेला, सं. स्त्री. (सं.) दे. 'अतिकाल' । अणु, सं. पुं. (सं.) लवः, लेशः, षष्टिपरमाणु अतिशय, वि. ( सं.) बहु, अधिक । मात्रः कणः, धूलिकणः । वि., अतिसूक्ष्म, क्षुद्र । अतिसार, सं. पुं. (सं.) प्रवाहिका। -वीक्षण,मं. पु. ( सं. न.) सूक्ष्मदर्शकयन्त्रम् । अतीन्द्रिय, वि. (सं.) अगोचर, इन्द्रियातीत, २. छिद्रान्वेषणम् । अव्यक्त, परोक्ष। अतः, क्रि. वि. (सं.) अस्मात् कारणात् ,अनेन अतीत, वि. (सं.) गत, व्यतीत २. विरक्त, कारणेन-हेतुना, इति हेतोः । निर्लेप ३. मृत, दिवंगत। For Private And Personal Use Only Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अतीव [ १२ ] अधमा अतीव, वि. ( सं. अव्य.) अधिक, बहु, प्रभूत ।। अदूरदर्शी, वि. ( सं.-शिन् ) स्थूलबुद्धि, अश । अतुल, वि. (सं.) अतुल्य, अतुलित, अनुपम | अदृश्य, वि. (सं.) परोक्ष, अगोचर, अलक्ष्य । २. अमेय, अत्यधिक । अदृष्ट, वि. (सं.) अन्तर्हित, लुप्त, अलक्षित । अत्तार, सं. पुं. (अ.) गन्धोपजीविन् , गान्धिकः, -पूर्व, वि. अद्भुत, अभूतपूर्व, विलक्षण। गन्ध,-विक्रयिन् वणिज २. औषधविक्रेत ३ भेष- अदेह, वि. (सं.) अकाय, अशरीर । सं. पुं., जकारः। कामदेवः, मदनः । अत्यन्त, वि. (सं.) अत्यर्थ, अमित, अत्यधिक। अदोष, वि. (सं.) निर्दोष, निष्पाप, निरपराध । अत्याचार, सं. पुं. (सं.) निष्ठुर-क्रूर-निर्दय, अद्भुत, वि. (सं.) विस्मय-आश्चर्य,-जनक, अपूर्व, कर्मन् (न.) कार्यम् २. पापं, दुरितम् ३. पाष- अलौकिक । ण्डः-डं, आडम्बरः। अतद्भालय, म.पं. (सं.) संग्रहालयः । अत्याचारी, वि. ( सं.-रिन् ) पाप, दुराचारिन् अद्वितीय, वि. (सं.) एकल, एकाकिन् , एक २. निठुर, क्रूरकर्मन् ३. पापण्डिन् , धर्मध्वज । २. अनुपम, अतुल्य ३. प्रधान । अत्युक्ति, सं. स्त्री. (सं.) वागुपचयः, सत्याति- अद्वैत, वि. (सं.) दे. 'अद्वितीय' ( १, २)। क्रमः २. अलंकारभेदः (सा.)। -वाद, सं. : (सं.) 'ब्रह्मैव सत्यं, अन्यत् अथ, अव्य. (सं.) मंगलसूचकशब्दः २. आरम्भः सर्व मिथ्या' इति सिद्धान्तः । ३. अनन्तरम् ।-च, अव्य. (सं.) अन्यच्च, अधः, अव्य. (सं.) नीचैः, अधस्तात् (दोनों अपरं च, अपि च, किंच।। अव्य.)। अथर्व, सं. पु. ( सं. अथर्वन् ) चतुर्थवेदः। -पतन, सं. पुं. ( सं. न.) नीचैः पतनं अथर्वणि, सं. पुं. (सं.) अथर्ववेदशः २. पुरोहितः। २. अवनतिः (स्त्री.) ३. दुर्दशा, दुर्गतिः ( स्त्री.) अथवा, अव्य. (सं.) वा, किं वा, यद् वा।। ४. विनाशः, क्षयः । अथाह, वि. ( सं. अ+ हिं. थाह ) अगाध, अतल- अध, वि. (सं. अर्द्ध) सामि-(समास में ही)। स्पृश , अतिग (गं) भीर २. अत्यधिक, अतीव -कचरा, वि., अपरिपक्क, अपूर्ण २. अदक्ष, ३. गूढ, दुर्बोध । अकुशल । अदंत, वि. ( सं.) दशन-दन्त,-विहीन- रहित -कपारी, सं. स्त्री., अर्द्धशिरोवेदना, अर्द्धाव२. अजात.-दन्त-दशन । भेदकः। अदद, सं. पुं. ( अ.) संख्या २. संख्यायाश्चिहं -खिला, वि., अर्द्धविकसित, सामिविकच । संकेतो वा। -खुला, वि., अर्द्धविवृत, अर्द्धापावृत २. अझैअदना, वि. (अ.) तुच्छ, क्षुद्र २. साधारण, न्मीलित। प्राकृत । -पई, सं. स्त्री., अर्द्धपादः, पाहार्द्धम् । अदब, सं.पु. (अ.) शिष्टाचारः, शिष्टता, विनयः।। -मरा ।..... मृत,-प्राय-कल्प, अर्द्ध-सामि,-मृत । अदम्य, वि. (सं.) प्रचण्ड, अजेय, दुर्दम । । -मुआ) अदरक, सं. पुं. (सं. आर्द्रकं) शृङ्गवेरम् । -सेरा सं. पुं., अर्द्धसेरः, सेराईम् । . अदल, सं. पुं. (अ.) न्यायः, धर्मः, नयः। अधन, वि. (सं.) निर्धन, दरिद्र । अदलबदल, सं. पुं. (अ.) परि,-वर्तः-वर्तनं वृत्तिः । अधन्नी, सं. स्त्री. (सं. अर्धाणी ) अख़्णकी, (स्त्री.), विपर्ययः । अोणः-णकः। अदा, वि. ( अ.) दत्त, शोधित । सं. स्त्री., अधन्य, वि. (सं.) मन्दभाग्य, गी । लीला, विभ्रमः २. प्रकारः, विधिः। अधम, वि. (सं.) नीच, निकृष्ट २. पापिन्, दुष्ट । अदालत, सं. स्त्री. ( अ.) न्यायालयः, अधि- -अधम, वि. (सं.) पापिष्ठ, महानीच । करणं, व्यवहारमण्डपः, न्याय-धर्म,-सभा। अधमर्ण, वि. (सं.) ऋणिन्, धारक, ऋणग्रस्त । अदालती, वि. ( अ. अदालत) आधिकरणिक, अधमांग, (सं. पुं. (सं. न.) पादः, पदः, पदम्। न्यायालयसम्बन्धिन् । अधमा सं. स्त्री. (सं.) नायिका भेदः २-३. कर्कअदावत, सं. स्त्री. ( भ. ) शत्रुता, वैरम् । | शा-अन्त्यजा,-नारी। For Private And Personal Use Only Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अधमाई [ १३ ] अध्यापन अधमाई, सं. स्त्री. ( सं. अधम > ) नीचता, अधमता। अधर, सं. पुं. (सं.) अधस्तनः ओष्ठः (२) (ऊपर का) ओष्ठः, रद-रदन-दन्त-दशन,-च्छदः। -अधर, सं. पुं. (सं.) अधस्तनः ओष्ठः । -बिंब, सं. पुं. ( सं. न.) रक्तौष्ठः । अधरे, सं. पुं. ( सं. अ+ हिं. धरना ) आकाशः शं, अन्तरिक्षम् । वि. हेय २. नीच । अधर्म, सं. . (सं.) पापं, पातकं, अन्यायः, कुकर्मन् ( न.)। अधर्मी, वि. (सं.-मिन्) पाप, पापिन्, पातकिन् । अधार्मिक, वि. ( सं.) दे. 'अधर्मों'। अधिक, वि. ( सं.) बहु, प्रभूत २. अतिरिक्त, शेष। तर, क्रि. वि., प्रायः, प्रायशः, बहुशः। -ता, सं. स्त्री. (सं.) बहुत्वं, आधिक्य, बाहुल्यम् । -मास, सं. पुं(सं.) पुरुषोत्तम मल-असंक्रान्त,मासः। अधिकरण, सं. पुं. (सं. न.) आधारः, आश्रयः २. कार कविशेषः ( व्या. ) ३.प्रकरणं, शीर्षकम् । अधिकांश, सं. पुं. ( सं.) अधिकभारः । वि. बहु । क्रि.वि. प्रायः, बहुशः । अधिकाधिक, वि. (सं.) अधिकतम, भूयिष्ठ । अधिकार, सं. पु. (सं.) प्रभुत्वं, स्वत्वं, २. स्वामित्वं, आधिपत्यम् ३. क्षमता, योग्यता ४. प्रकरणं, शीर्षकम् । अधिकारी, सं. पुं. ( सं.-रिन् ) प्रभुः, स्वामिन् २. स्वत्ववत् २. योग्य, क्षम । ( स्त्री. अधिका•रिणी, सं.)। अधिकृत, वि. (सं.) हस्तगत, उपलब्ध । सं. पं... अध्यक्षः, अधिकारिन। अधिकृति, सं. स्त्री. (सं.) स्वत्वम् , अधिकारः । अधिक्रमण, सं. पुं. ( सं. न.) आरोहणम् २. आक्रमणम् । अधितिप्त, वि. (सं.) तिरस्कृत, अपमानित २. क्षिप्त ३. प्रेषित । अधित्यका, सं. स्त्री (सं.) पर्वतस्योर्वा भूमिः (स्त्री.)। अधिदेव, सं. पुं. (सं.) इष्ट-कुल,-देवः ।। अधिनायक, सं. पुं. (सं.) अधिकृतः, अधिकारिन् , आधिकारिकः, कार्यावेक्षकः २. प्रभुः, स्वामिन् । अधिप, सं. पुं. (सं.) स्वामिन् २. अविकारिन् ३. नृपः । अधिपति, सं. पुं. ( सं.) दे. 'अधिप' । अधिवास, सं. पुं. (सं.) निवास,-स्थलं-स्थानं २. परगृहेऽधिको वासः। अधिवेशन, सं. पु. ( सं. न.) संगः, संगमः, गोष्ठी, समागमः। अधिष्ठाता, सं. पुं. (सं.-तृ ) अध्यक्षः, निर्वाहकः, प्रणेत, व्यवस्थापकः, अवेक्षकः, प्रवर्तकः, चालकः, अधिकृतः। अधीन, वि. (सं.) आश्रित, वशीभूत, आशानुवनिन् , विवश, परवश। अधीनता, सं. स्त्री. (सं.) परवशता, परतन्त्रता। अधीर, वि. ( सं.) धैर्यरहित, उद्विग्न, व्याकुल, विह्वल २. चंचल ३. संतोषशून्य । अधीश सं. पुं. (सं.) स्वामिन् २. नायकः अधीश्वर |३. नृपः। अधूरा, वि. ( हिं. अध+ पूरा) अपूर्ण, अर्द्ध, खण्डित, असमाप्त । अधेड़, वि (हिं. अध) गतयौवन, मध्यमवयस्क । अधेला, सं. पुं. (हिं. अध) अर्द्धपणः । अधोगति, सं. स्त्री. (सं.) पतनं, अवपातः, विनिपातः । २. अवनतिः (स्त्री.), क्षयः, दुर्दशा । अध्यक्ष, सं. पुं. (सं.) स्वामिन्, प्रभुः २. नायकः, अधिकारिन् ३. अधिष्ठातृ । अध्ययन, सं. पुं. (सं. न.) पठनं, पाठः, अधीतिः (स्त्री.), वाचनं, अध्यायः । अध्ययनीय, वि. (सं.) अध्येतव्य, पठितव्य । अध्यर्द्ध, वि. ( सं.) सार्द्धक । अध्यवसान, सं. पुं. (सं. न.) निश्चयः २. प्रयत्नः ३. अध्यवसायः। अध्यवसाय, सं. पुं. (सं.) सततोद्योगः, निर. न्तरपरिश्रमः २. उत्साहः ३. निश्चयः । अध्यवसायी, वि. (सं.-यिन् ) उद्योगिन् उद्यमिन्, उत्साहिन्, उद्युक्त। अध्यापक, सं. पुं. (सं.) शिक्षकः, गुरुः उपदेष्ट्र, शास्तु । ( स्त्री., अध्यापिका )। अध्यापकी, सं. स्त्री. (सं.अध्यापकः>)शिक्षणं __ अध्यापनं, पाठनम्, अध्यापक-व्यवसायः । अध्यापन, सं. पुं. (सं. न.) दे. 'अध्यापकी' For Private And Personal Use Only Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra अध्याय www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [ १४ ] अध्याय, सं. पुं. ( सं. ) पाठः, सर्गः परिच्छेदः, ग्रन्थविभागः । अध्येतव्य, वि. ( सं . ) पठनीय, पठितव्य, अध्ययनाई, पाठ्य, अध्येय | अध्येता, सं. पुं. ( सं. अध्येतृ) पाठकः, विद्यार्थिन् । अध्व, सं. पुं. ( सं.-ध्वन् ) मार्गः, पथिन् । -ग, सं. पुं. (सं.) पान्थः, पथिकः, यात्रिकः । अध्वर, सं. पुं. ( सं . ) यशः, यागः, मखः, सवः, ऋतुः । अध्वर्यु, सं. पुं. (सं.) ऋत्विग्भेदः, यज्ञे यजुर्वेदमन्त्रपाठी ब्राह्मणः । अनंग, वि. (सं.) अकाय, देहहीन । सं. पुं. कामः, मदनः । अनंत, वि. (सं.) अपार, अशेष, निरवधि २. सतत, अविरत, निरन्तर ३. नित्य, अनधर । सं. पुं., विष्णुः २. शेषनागः २. आकाशः-शं ४. बाहुभूषणभेदः । अनंतर, क्रि. वि. ( सं . - अव्य.) पश्चात्, ऊर्ध्व, परं ( पंचमी के साथ, उ. ततः परं इ. ) २. सततं । वि., अव्यवहित, सन्निहित, आसन्न | अनगिनत वि. ( सं . अगणित ) असंख्य, संख्यातीत, बहु । अनग्नि, वि. (सं.) अनग्निहोत्रन् २. अधार्मिक ३. अग्निमान्द्य-ग्रस्त ४. अविवाहित । अनघ, वि. ( सं . ) निष्पाप, निर्दोष २. शुद्ध, पवित्र । सं. पुं. (सं. न. ) पुण्यं सुकृतम् । अनचीता, वि. (सं. * हिं. अन + सं. चिन्तित ) अचिन्तित, अकल्पित २. अनिष्ट, अवांछित । अनजान, वि. (सं. अन् + हिं. जानना ) अज्ञ, अज्ञानिन्, मूर्ख २. अज्ञात, अबुद्ध । अनड्वान्, सं. पुं. (सं. अनडुह ) वृषः, वृषभः, बलद: । (स्त्री० अनडुही, अनड्वाही = गौ ) अनदेखा, वि. (सं. अन् + हिं. देखना ) अदृष्ट, अनीक्षित । अनधिकार, सं. पुं. (सं.) अशक्तिः (स्त्री.), असामर्थ्यम् । अनधिकारी, वि. ( सं . -रिन् ) अधिकारप्रभुत्व, -रहित, अशक्त । सं. पुं., अपात्रम् । अनध्याय, सं. पुं. (सं.) अवकाशदिनम् । अनन्नास, सं. पुं. ( ब्राज़ीलियन, नानस ) क्षुपभेदः तत्फलं च । अनलस अनन्य, वि. ( सं . ) एकनिष्ठ २. अनुपम, अद्वितीय । - गति, वि. ( सं . ) एक, आश्रितगतिकनिष्ठ । - चित्त, वि. (सं.) एकाग्र, एकाग्रचित्त, अनन्य,वृत्ति-मनस् । अनपढ, वि. (सं. अन् + हिं. पढ़ना ) निरक्षर, अनक्षर, विद्या-ज्ञान, शून्य, अशिक्षित । अनबन, सं. स्त्री. (सं. अन् + हिं. बनना ) विरोधः, वैपरीत्यं, विसंवादः, मतभेदः । अनभिज्ञ, वि. ( सं . ) अज्ञ, अबोध ( अनभिज्ञा स्त्री. ) । अनभिज्ञता, सं. स्त्री. (सं.) अशता, मौख्य, अपरिचयः । अनमना, वि. (सं. अन्यमनस् - रक > ) खिन्न, म्लान, विषण्ण, उद्विग्न, अवसन्न २. रुग्ण, रोगिन् । -पन, संपुं., खिन्नता, म्लानता २. अन्य मनस्कता । अनमिल, वि. सं. अन् + हिं. मिलना ) असंगत, असंबद्ध २. भिन्न, अलझ । अनमेल, वि (सं. अन् + मेल: > ) असम्बद्ध २. विशुद्ध । अनमोल, वि. (सं. अन् + हिं. मोल ) अमूल्य, महा, बहुमूल्य २. श्रेष्ठ, उत्तम । अनर्गल, वि. (सं.) निरङ्कुश, उच्छृङ्खल उद्दाम २. बिचार, विवेक, शून्य ३. निरन्तर । अनर्घ, वि. (सं.) दुष्क्रय, बहुमूल्य २. सुखक्रेय, अल्पमूल्य । अनध्ये, वि. (सं.) अपूज्य, अवन्द्य २. बहुमूल्य । अनर्जित, वि. (सं.) अनुपार्जित, अश्रमेण प्राप्त For Private And Personal Use Only २. अप्राप्त, अलब्ध | अनर्थ, सं. पुं. (सं.) विपरीत अयुक्त, अर्थः २. कार्यहानिः (स्त्री.), विकारः, उपद्रवः, अनिष्टं, आपद् (स्त्री.) ३. अन्यायार्जितं धनम् । अनर्थक, वि. (सं.) निरर्थक, अर्थहीन २. मोघ, व्यर्थ । अनर्ह, वि. (सं.) अपात्रं, अनधिकारिन्, अयोग्य | अनल, सं. पुं. (सं.) दे. 'अग्नि' | --चूर्ण, सं. पुं. ( सं. न. ) आग्नेयचूर्णम् ( = बारूद ) । अनलस, वि. (सं.) उद्यमिन्, उद्योगिन्, उद्युक्त । Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अनलहक्क [ १५ ] - अनियम अनलहक, सं. पुं. (अ.) अहं ब्रह्मास्मि । अनादि, वि. (सं.) आदि-जन्म-आरम्भ, शून्य, अनल्प, वि. ( सं.) बहु, अधिक । (उ., ईश्वरः, जीवः, प्रकृतिश्च )। अनवगाह, वि. (सं.) अगाध, अतलस्पर्श । । अनादित्व, सं. पुं. (सं. नं.) अनादिता, आरम्भअनवद्य, वि. (सं.) अनिन्द्य, अवाच्य। शून्यता, नित्यत्वम् । अनवधान, सं. पुं. (सं. न.) प्रमादः, । अनादेय, वि. (सं.) अग्राह्य, अग्रहणीय, चित्तविक्षेपः । अपरिग्राह्य । अनवरत, क्रि. वि. (सं. न.) निरन्तरं, अनाप-शनाप, सं. पुं. (सं.अनाप्त >+ अनु.) सततं, सदा। प्रलापः, निस्सार-निरर्थक, वचनम् । अनवस्था, सं. स्त्री. (सं.) अव्यवस्था २. व्याकु अनामिका, सं. स्त्री. (सं.) उपकनिष्ठिका, लता ३. दोषभेदः ( न्याय०)। अनामन् (पुं.)। अनशन, सं. पुं. (सं. न.) उपवासः, अन्न अनायास, क्रि. वि. (सं. न.) परिश्रमं विना, त्यागः, निराहार व्रतम् । सहसा, अकस्मात् । अनश्वर, वि. ( सं.) नित्य, अविनाशिन् । अनार, सं. पुं.(फ़ा.) (वृक्ष) कुचफलः, कटकः, अनसुनी, वि. स्त्री. (सं. अन् + हिं. सुनना) शुकवल्लभः, दाडि(लि)मः-मा, दाडिंबः २. अश्श्रुत, अनाकर्णित । (फल) कुचफलं, रक्तबीजं, दाड़ि (लि)मम् अनस्तित्व, सं. पुं. ( सं. न. ) अभावः, अविद्य. ४. (आतशबाज़ीका) अग्नि-क्रीडादाडिमम् । मानता। -दाना, सं. पुं. (फ़ा.) दाडिमबीजम् । अनहद नाद, सं. पुं. (सं. अनाहतनादः) अनार्य, सं. पुं. (मं.) दुष्टः, खलः, क्षुद्राशयः, पिहितकणः योगिभिः श्रूयमाणः शब्दभेदः अधमः, जघन्यः २. म्लेच्छः । (योग) अनावश्यक, वि. (सं.)निष्प्रयोजन, अनपेक्षित अनहोनी, सं. स्त्री. ( सं. अन् + हिं. होना) २. असार, क्षुद्र, उपेक्षणीय । अलौकिकघटना, असम्भववातों। अनावृष्टि, सं. स्त्री. (सं.) म( ना )वर्षणं । अनागत, वि. (सं.) आगामिन् , भाविन् २. __ अवग्र (ग्रा) हः, जलशोषः, वृष्टिविघातः । ' अनुपस्थित ३. अज्ञात ४. अज ५. अद्भुत । | अनाहदवाणी, सं. स्त्री. (सं. अनाहत->) अनाचार, सं. पुं. (सं.) कदाचारः, दुराचारः आकाश-देव-गगन,-गिरा-वाणी। २. कुप्रथा, कुरीतिः ( स्त्री.)। अनाहार, सं. पुं. (सं.)भोजनत्यागः (२) भोजनाअनाचारी, वि. ( सं.-रिन् ) दुराचारिन्, भ्रष्ट । भावः । २. अनशनबतिन् । अनाज, सं. पुं. (सं. अन्नाद्यम् ) अन्नं, धान्यं, अनाहूत, वि. ( सं.) अनिमन्त्रित, अनाकारित । शस्य, आहारः। अनित्य, वि.(सं.) नश्वर, विनाशिन् ३. भंगुर, अनाड़ी, वि. ( सं. अनार्य >?) मूर्ख, अश २. __ अस्थायिन्, २. मिथ्या, असत्य । नैपुण्यहीन । अनित्यता, सं. स्त्री. (सं.) नश्वरता, भङ्गुरता, -पन, सं. पुं., मूर्खता २. नैपुण्याभावः। अस्थिरता। अनाढ्य, वि. (सं.) दरिद्र, निर्धन, अधन। । अनिमि(मे)ष, वि. (सं.) निर्निमेष, अनातप, वि. (सं.) आतपरहित, छायायुत स्थिरदृष्टि, निमेषरहित । क्रि. वि., निनिमेष, २. शीतल। स्थिरदृष्टथा । सं. पुं. (सं.) देवः २. मत्स्यः । अनाथ, वि. (सं.) नाथ-प्रभु, हीन २. मातृ. । अनियत, वि. (सं.) अनिश्चित, अनिर्दिष्ट, पितृहीन ३. असहाय, निराश्रय ४. दीन, अनिर्धारित २. अस्थिर, अदृढ ३. अपरिमित ,परवश। ४. विशिष्ट । अनाथालय, सं. पुं. ( सं.) अनाथाश्रमः। अनियतात्मा, वि. ( सं-त्मन् ) अजितेन्द्रिय, अनादर, सं. पुं. (सं.) अवज्ञा, तिरस्कारः, | लोलचित्त। . अवधारणा, अव-अप,-मानः, मानमः । | अनियम, सं. पुं. (सं.) नियमाभावः, व्यतिक्रमः। For Private And Personal Use Only Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अनियमित [ १६ ] अनुनाद अनियमित, वि. ( सं.) व्यवस्थारहित, अन्य- । अनुकृति, सं. स्त्री. ( सं.) दे. 'अनुकरण। वस्थित, विधिविरुद्ध २. अनिश्चित, अनियत। अनुक्त, वि. (सं.) अकथित, अनुदित, अनियारा, वि., दे. 'पैना'। अभाषित। अनिरुद्ध, वि. (सं.) अरुद्ध २. निर्बाध ३. अनुक्रम, स. पुं. (सं.) अन्वयः, आनुपूर्व्य, स्वतंत्र । परंपरा। अनिर्दिष्ट, वि. (सं.) अकृतनिर्देश, असंकेतित अनुक्रमण, सं. पु. ( सं. न.) अनु,गमनं-सरणं२. अकतिथ, अनुक्त ३. अनादिष्ट, अनाज्ञापित । चलनम् । अनिर्वचनीय, वि. ( सं.) अकथनीय, अवर्णनीय, अनुक्रमणिका, सं. स्त्री. (सं.) अनु, क्रमः, परंपरा, सूची-चिः ( स्त्री.)२. ग्रन्थभेदः । अनिर्वाच्य। अनुक्रोश, सं. पुं. ( सं.) अनुकम्पा, दया। अनिल, सं. पुं. (सं.) वायुः, पवनः, वातः। अनुक्षण, क्रि. वि. ( सं. नं.) प्रतिक्षणं अनिवार्य, वि. (सं.) अवश्यंभाविन् , अपरि २. सततम् । हार्य, ध्रुव, परमावश्यक ।। अनुगमन, सं. पुं. (सं. नं.) अनु,-सरणं- गतिः अनिश्चित, वि. ( सं.) अनियत, अनिर्धारित, ( स्त्री.) २. अनुकरणं ३. सम्भोगः, सहवासः । अनिर्दिष्ट । अनुगामी, वि. ( सं. मिन् ) अनु,-यायिन्अनिष्ट वि. (सं.) अनपेक्षित- अवाञ्छित, वर्तिन् २. अनु,कर्तृ-कारिन् ३. आज्ञापालक अनभिलषित । सं. पुं. (सं. न.) अमंगलं, ४. सम्भोगिन् । अहितं, हानिः (स्त्री)। अनुगृहीत, वि. ( सं.) उपकृत २. कृतज्ञ । अनी, सं. स्त्री. ( सं. अणी-णिः ) पूर्व-अग्र, प्रान्तः । अनुग्रह, सं. पुं. (सं.) कृपा, दया, अनुकम्पा । भागः । अनुग्राहक, वि. (सं.) कृपालु, दयालु, सहाअनीक, सं. पु. ( सं. पुं. न.) सेना, सैन्यं यक, उपकारक । २. समूहः ३. युद्धम् । अनुचर, सं. पु. ( सं.) सेवकः, किङ्करः, दासः अनीकिनी, सं. स्त्री. (सं.) सेना, सैन्यं २. १. वयस्यः, सहरः । पूर्णसेनायाः दशमो भागः ३. नलिनी, अनुचित, वि. ( सं.) अयुक्त, अनर्ह, अयोग्य । कमलिनी। अनुज, वि. (सं.) पश्चादुत्पन्न । सं. पुं. ( सं.) अनीति, सं. स्त्री. (सं.) अन्यायः, पक्षपातः कनीयान् भ्रात २. स्थलपमम् । ( अनुजा २. उपद्रवः, उत्पातः; ३. अत्याचारः । स्त्री.)। अनु, उपसर्ग ( सं.) सामीप्यसादृश्यादिद्योतक अनुजीवी, बि. ( सं.-विन् ) अधीन, आयत्त, उपसर्गः। आश्रित । सं. पुं. सेवकः, दासः। अनुकंपा, सं. स्त्री. (सं.) दया, कृपा, अनुग्रहः अनुज्ञा, सं. स्त्री. (सं.) अनुमतिः ( स्त्री.) २. सहानुभूतिः (स्त्री.), समवेदना । अनुमतम् । २. आशा, आदेशः। अनुकरण, सं. पुं. (सं. न.) अनुकारः, अनु- अनुताप, सं. पुं. (सं.) पश्चात्तापः, अनुशयः, कृतिः-अनुवृत्तिः (स्त्री.), अनुसरणं २. विड अनुशोकः २. तपनं. दाहः ३. खेदः, दुःखम् । म्बनम् । अनुत्तर, वि. (सं.) निरुत्तर, प्रतिवचनरहित । अनुकरणीय, वि. (सं.) अनुकरणाई, अनु- अनुदात्त, वि. (सं.) लघु, तुच्छ २. स्वर- भेदः सरणीय । (व्या.)। अनुकूल, वि. ( सं.) हितकर, उपकारक २. अनुदिन, क्रि. वि. (सं. न.) प्रतिदिनम् । सहाय ३. प्रसन्न। अनुनय, सं. पुं. (सं.) विनयः, प्रार्थना, अनुकूलता, सं. स्त्री. (सं.) अनुग्रहः, कृपा | आवेदनं, याचना, याज्ञा २. प्रसादनं, आरा२. सहायता ३. प्रसादः। धनं, अनुरञ्जनम् । अनुकृत, वि. (सं.) अनुसृत २. विडम्बित । | अनुनाद, सं. पुं. (सं.) 'गूंज' । For Private And Personal Use Only Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अनुनासिक [ १७ ] अनुवादक अनुनासिक, वि. (सं.) मुखनासिकाभ्यामुच्चा- 1 अनुमति, सं. स्त्री. (सं.) अनुशा, अनुमतं २. रणीया वर्णाः ( ल, ञ, ण, न् , म् तथा अनु- आज्ञा ३. चतुर्दशीयुक्ता पूर्णिमा।' स्वार )। | अनुमत्त, वि. (सं.) हर्षोन्मत्त, अत्यानन्दित । अनुनीत, वि. (सं) सान्त्वित, प्रसादित २. अनुमरण, सं. पुं. (सं. न.) दे. 'सती होना'। प्रार्थित, याचित। अनुमाता, वि. ( सं. - तृ) तर्कयित, ऊहित । अनुपद, क्रि.वि. (सं. न.) अन्वक , सद्यः, अनुमान, सं. पुं. ( सं. न.) वि,-तर्कः, ऊहः, पश्चात् , अव्यवहितोत्तरकालम् । अभ्यूहः, अभ्यूहनं, अनुमितिः ( स्त्री.)। अनुपदिष्ट, वि. ( सं.) अशिक्षित, उपदेश -करना, क्रि. स., ऊह ( भ्वा. आ. से.), शिक्षः, --वंचित । अनुमा (जु. आ. अ., अ. प. अ.), तक (चु.), अनुपपत्ति, सं. स्त्री. (सं.) समाधानाभावः, उन्नी ( भ्वा. प. अ.) अनुमानं कृ। असंगतिः-असिद्धिः-अप्राप्तिः ( स्त्री.)। -सिद्ध, वि., तर्क-अपोह,-साधित-दृढीकृत । अनुपपन्न, वि. ( सं.) असिद्ध, असंपन्न । अनुमिति, सं. स्त्री. ( सं.) दे. 'अनुमान' । अनुपम, वि. सं. ) अप्रतिम, निरुपम, अतुल, अनमेय, वि. (सं.) तर्कणीय, अभ्यूहनीय, अतुल्य, असदृश, अप्रतिरूप, अद्वितीय, अनुपमेय। उन्लेय । अनुपयोगी, वि. ( सं. गिन् ) निष्प्रयोजन, जन अनुमोदन, सं. पुं. ( सं. न.) समर्थनं, दृढीनिरर्थक, निर्गुण, व्यर्थ ।। करणं, उपोद्वलनं २. हर्षप्रकाशनं, मोदानुभवः । अनुपयोगिता, सं. स्त्री (सं.) निरर्थकता, व्यर्थता। अनुयायी, वि, ( सं.-यिन् ) अनु, गामिन्अनुपस्थित, वि. (सं.) अविद्यमान, अवर्तमान, कारिन् । दूरस्थ, स्थानान्तरगत । अनुरक्त, वि. ( सं.) अनुरागिन्, बद्धानुराग, अनुपस्थिति, सं. स्त्री. ( सं. ) असन्निधिः, कृतप्रणय, आसक्तचित्त २. लीन, मन । परोक्षता । अनुराग, सं. . ( सं.) रागः, प्रेमन् ( पुं.न.), अनुपात, सं. पु. (सं.) सम्बन्धसाम्यं, आनुगुण्यं स्नेहा, प्रणयः, भावः, प्रीतिः-आसक्तिः (स्त्री.)। २. गणिते त्रैराशिकक्रिया। अनुरागी, वि. ( सं.-गिन् ) दे. 'अनुरक्त' । अनुपान, सं. पुं. ( सं. न. ) औषधेन सह सेव्यं वस्तु ( न.)। अनुरूप, वि. (सं.) सदृश, समान, तुल्य २. अनुप्रास, सं. पुं. (सं.) वर्णसाम्यम् , शब्दा- योग्य, उपयुक्त, अनुकूल । लकारभेदः ( सा., उ. कोकिलकुलकलकृजितम् अनुरूपता, सं. स्त्री. (सं.) सादृश्यं, सामान्य २. अनुकूलता, उपयुक्तता। अनुबंध, सं. पुं. (सं.) सम्बन्धः, सम्पर्कः २. अनुरोध, सं. पुं. (सं.) आग्रहः, निर्बन्धः, आरम्भपरिणामौ ३. मित्रं, सहृद् ४. इत्संशका अभिनिवेशः २. प्रेरण। ३. विघ्नः । वर्णाः (व्या.) ५. अनुसरणं ६. भाविशुभाशुभे। अनुलेपन, सं. पुं. (सं. न.) वि, लेपनं, अनुभव, सं. पुं. (सं.) साक्षात् उपलब्धं ज्ञानम् । अभ्यञ्जनं, समालम्भः, उद्वर्तनम् । २. परीक्षया प्राप्तो बोधः, परीक्षणम् । अनुलोम, सं. पु. ( सं.) निम्नग-अवतरण,क्रमः, अनुभवी, वि. ( सं.-विन् ) परिणतप्रज्ञ, बहुद- अवरोहः। शिन, सानुभव। -विवाह, सं. पुं. (सं.) उच्चवर्णपुरुषस्य हीनअनभाव, सं. पुं. ( सं.) महत्त्वं, प्रभावः, महि वर्णया स्त्रिया विवाहः । मन् २. रोमाञ्चकटाक्षादिचेष्टाः ( सा.)। अनुवर्तन, सं पुं. ( सं. न.) अनु, गमनं-करणंअनुभावी, वि. ( सं.-विन् ) अनुभाववत् , प्रभा- । सरणम् । वशालिन् म. ए. प्रत्यक्षमाक्षिन २. मृतस्य ! अनुवर्ती, वि. ( सं.-तिन् ) अनु,-गामिन्-कारिन् निकटसम्बन्धिन् । सारिन् । ( अनुवर्तिनी स्त्री.)। "अनुभून, वि. ( सं.) साक्षाजज्ञात, परीक्षित । | अनुवाद, सं. पुं. ( सं.) भाषान्तरम् २. पुन• अनुभूति, सं. स्त्री. (सं.) अनुभवः, परिज्ञानं, रुक्तिः ( स्त्री.), पुनर्वचनम् ।। | अनुवादक, सं. पुं. (सं.) भाषान्तरकारः ।। २ आ० हि० बोधः। For Private And Personal Use Only Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अनुवादित अनुवादिन, वि. ( सं . ) भाषान्तरित, अनूदित, कृतानुवाद | अनुवृत्ति, सं. स्त्री. (सं.) उपजीविका, सेवामार्गः २. पूर्ववर्तिवाक्यांशस्य अर्थ स्पष्टता अग्रे योजनम् । [ १८ ] अनुशासक, वि. ( सं . ) अनुशासिन् नियन्तृ, अनुशास्तृ, अनुशासितृ २. शिक्षक, उपदेशक ३. दंडद | अनुशासन, सं. पुं. ( सं. न. ) आदेशः, आज्ञा २. उपदेशः, शिक्षा ३. व्याख्यानं, विवरणम् । अनुशासित, वि. (सं.) अनुशिष्ट, नियमित २. उपदिष्ट ३. दण्डित | अनुशीलन, सं. पुं (सं. न. ) चिन्तनं, मननं, आलोचनं २. आवृत्तिः (स्त्री.), पुनरभ्यासः । अनुशोक, सं. पुं. (सं.) अनु, ताप:- शयः, पश्चात्तापः । अनुषंग, सं. पुं. (सं.) सम्बन्धः, संसर्गः २. करुणा, दया । अनुष्ठान, सं. पुं. ( सं. न. ) कार्यारम्भः २. सविधिसम्पादनं ३. फलविशेषाय देवताराधनं, पुरश्चरणम् । अनुसन्धान, सं. पुं. ( सं. न. ) अन्वेषणं णा, निरूपणं, मार्गणम् २. प्रयासः, प्रयत्नः । अनुसरण, सं. पुं. (सं. न. ) अनुगमनं, सहगमनं २. अनुकरणं ३. अनुकूलाचरणम् । अनुसार, क्रि. वि. (सं. न. ) अनुकूलं, सदृशं, समानं ( सब अव्य० ) । - पन, सं.पुं., वैचित्र्यम्, वैलक्षण्यं । अनूदित, वि. (सं.) पुनः कथित-वर्णित २. अनुवादित, भाषान्तरित | अन्योन्याश्रय अनोखा, वि. (सं. अन् + वीक्ष?) अद्भुत, विलक्षण २. नूतन, नव ३. सुन्दर, सरूप । - पन, सं. पुं, विलक्षणता; नूतनता; सुन्दरता । अन्न, सं. पुं. (सं. न. ) भक्ष्य पदार्थ: २. दे. 'अनाज ' ३. पक्कमन्नं, भक्तम् । -जल, सं. पुं. ( सं. न. भोजनपानं २. जीविका, वृत्तिः (स्त्री.) ३. देव, दैव,योगः घटना- गतिः (स्त्री.) अनूप, वि. (सं.) जल, -प्राय-बहुल । सं. पुं, जलप्रायदेशः, जलबहुल: । अनूप, वि. (सं. अनुपम ) अतुल्य, अद्वितीय २. सुन्दर, स्वच्छ अनेक, वि. (सं.) एकाधिक, बहु, असंख्य । - दाता, सं. पुं. ( सं . तृ. ) अन्नदः, भक्ष्यदायकः २. पोषकः । ( -दात्री स्त्री. ) i पूर्णा, सं. स्त्री. (सं.) अन्नाधिष्ठात्री देवी । - प्राशन, सं. पुं. (सं. न. ) शिशूनां संस्कारभेदः । - मयकोश, सं. पुं. (सं.) स्थूलशरीरम् । अन्ना, सं. स्त्री. ( सं. अंबा > १ ) धात्री, उपमातृ देशीय, वि. ( सं . ) पर - वि, देशीय | - पुरुष, सं. पुं. (सं.) भिन्न- पर- अपर, पुरुष: २. प्रथमपुरुषः ( व्या. ) । - पुष्ट, सं. पुं. ( सं . ) पिकः, कोकिलः । मनस्क, वि. ( सं . ) चिन्तित, विषण्ण, खिन्न | अन्यतः, अव्य. (सं.) अन्यस्मात् जनात् स्थानात् वा । अन्यत्र, अव्य. (सं.) अपरत्र, अन्यस्मिन् स्थाने । अनूचान, सं. पुं. (सं.) साङ्गवेदाध्येता, स्नातकः अन्यथा, अव्य. ( सं . ) इतरथा, २ विपरीतं, २. विद्यारसिकः ३. चरित्रवत् । स्त्री. ), मातृका, अङ्कपाली । अन्नाद, सं. पुं. (सं.) अन्नभक्षकः २. ईश्वरः ३. विष्णुः । अन्य, सर्व. (सं.) अपर, द्वितीय, अनात्मीय, पर, भिन्न । अनुस्वार, सं. पुं. ( सं . ) स्वरानन्तरमुच्चार्यमा itsनुनासिको वर्णविशेषः २. अनुनासिक चिह्न ( ) | अनूठा, वि. ( सं . अनुत्थ > ) अपूर्व, विलक्षण, अन्यायी, वि. (सं.-यिन् ) अन्यायवर्तिन् विचित्र २. सुन्दर श्रेष्ठ । अन्यथाचारिन्, क्रूर, पाप, धर्मविमुख । अन्याय्य, वि. ( सं . ) न्याय - धर्म - रहित - विपरीत - विरुद्ध । अन्योक्ति, सं. स्त्री. (सं.) अन्यापदेशः, अलंकारभेदः (सा.) 1 अन्योन्य, क्रि. वि. ( सं . नं. ) परस्परं, मिथः, इतरेतरं २. वि. परस्पर । -आश्रय, सं. पुं. (सं.) अन्योऽन्यापेक्षा, परस्पराश्रयः २. सापेक्षवानम् । विरुद्धं ३ असत्यम् । | अन्यापदेश, स. पुं. ( सं ) दे. ' अन्योक्ति' । अन्याय, स. पुं. ( सं . ) अनीति: (स्त्री.) । अधर्मः, अनयः, For Private And Personal Use Only " Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अन्वय [ १९ ] अपराध - - - अन्वय, सं. पुं. ( सं. ) परस्पर सम्बन्धः अपना, वि. ( सं. आत्मनः) स्वीय, स्वकीय, २. संयोगः, संसर्गः ३. पद्यपदानां गद्यवाक्यवत् । स्वक, आत्मीय, निज, स्व, आत्मन् । स्थापनम् ४. अवकाशः, शून्य स्थानं ५. कार्य- -पन, स. पुं., आत्मीयता, ममता २. आत्माकारणसम्बन्धः ६. वंशः, कुलम् । भिमानः। अन्वर्थ, दि. (सं.) अर्थानुसारिन् , सार्थक । अपनाना, क्रि. स. (हिं. अपना ) आत्मसात अन्वित, वि. (सं.) युक्त, सहित, संगत। कृ, स्वाधीन स्वायत्त (वि.)+कृ २. स्वीकृ, अन्वीक्षण, सं. पुं. (सं. न.) ध्यानं, भावनं, । अंगीकृ, प्रतिपद् (दि. आ. अ.), अभ्युपगम् विमर्शः २. दे. 'अनुसन्धान । ३. ग्रह (क्र. प.से.)। अन्वेषण, म. पुं. (सं. नं.) दे. 'अनुसन्धान'। अपभ्रंश, सं. पुं. (सं.) पननं, अवनतिः (स्त्री.) अन्वेषी, वि. (सं.-षिन् ) अन्वेषक, अन्वेष्ट। २. विकारः ३. विकृतशब्दः ४. प्राकृतभाषा(पु.), गवेषक, अनुसन्धात् । भेदः । वि. विकृत। अन्वेष्टव्य, वि. (सं.) अन्वेषणीय, अनुसन्धेय, अपमान, सं. पुं. (सं.) अनादरः, अवमानः, विचेय। । अवज्ञा, अवधीरण-णा, उपेक्षा, तिरस्कारः, अपंग, वि. ( सं. अपांग ) हीनांग, व्यंग, न्यूनांग परिभवः । २. पङ्गु, अशक्त ( होनांगी, पंगूः स्त्री.)। -करना, कि, स., अवमन् ( दि. आ. अ.), अपंडित, वि. (सं.) अश, मूर्ख, निरक्षर। उपेक्ष ( भ्वा. आ. से.), अवज्ञा (क्र. उ.अ.), अप, उप. ( सं.) वैपरीत्यविरोधविकारवियोग- __ अवगण (चु.), तुच्छी -लघू, कृ। वर्जनादिद्योतक उपमर्गः। अपमानित, वि. ( सं. ) अनादृत, अवमानित, अपकर्ता, वि. ( सं.-र्तृ ) अनिष्ट-हानि-अहित, अवशात, अवधीरित, अवगणित । कर्तृ-कर-कारक। अपमानी, वि. (सं.-निन् >) तिरस्कर्ते, अवअपकर्ष, सं. पु. ( सं.) नीचैः कर्षणं, पातनं ज्ञातृ, अवगणयित्। २. अवनतिः ( स्त्री.), क्षयः ३. अपमानं, ! | अपमृत्यु, सं. पुं. (सं.) कुमृत्युः २. अकाल. अनादरः। असमय, मृत्युः। अपकार, सं. पुं. (सं.) अभदं, अहितं, अनिष्ट अपयश, सं. पु. (सं.-शस् न.) दे. 'अपकीति' । माधनं, हानिः अपकृतिः ( स्त्री.)। अपकारक, वि. (सं.) भपकारिन्, हानिकारक। अपरं च, अव्य. (सं.) अन्यच्च २. पुनः, पुनरपि। अपकीर्ति, सं. स्त्री. (सं.) दुष्कोतिः, अपयशम् अपरंपार, वि. सं. अपरपार >) अनन्त, (न.), वाच्यता, कलंकः, निन्दा । असीम, अमित, निरवधि । अपकृष्ट, पि. (सं.) पतित, भ्रष्ट २. अधम, अपर, वि. सर्व. (सं.) प्रथम, अग्रिम २. निन्ध ३. वृणित। अन्तिम, अन्त्य ३. अन्य, भिन्न ४. आत्मीय, अपच, सं. पु. ( सं.> ) अपाकः, अजीर्ण, स्वकीय। अजीणिः । स्त्री.), मन्दाग्निः, अन्नविकारः। -पक्ष, सं. पुं. (सं.) असित-कृष्ण, पक्षः २. अपचय, सं. पुं. (सं.) क्षतिः हानिः ( स्त्री.) प्रतिवादिन्। २. व्ययः, नाशः। अपढ़. वि. (सं. अपट ) निरक्षर, अशिक्षित, अपरा, सं. स्त्री. (सं.) लौकिक-पदार्थ,-विद्या पठनलेखनासमर्थ २ मूर्ख।। २. पश्चिमदिशा । वि. अन्या। अपत्य, सं. पु. ( सं. न.) सन्तानः, सन्ततिः- अपराग, सं. पु. (सं.) द्वेषः, वैरम् २. अरुचिः प्रसूतिः (स्त्री.), प्रजा, प्रसवः, तोकम् । (स्त्री.) ३. असन्तोषः। अपथ, सं. पुं. (सं. पुं. न.) कु-विकट,-मार्गः, अपराजित, वि. (सं.) अजित, दे. 'अजोत'। कुपथः। अपराजेय, वि. (सं.) अजेय, दे. 'अजय्य' । अपथ्य, वि. (सं.) कुपथ्य, रोगजनक, स्वास्थ्य- अपराध, सं. पुं. (सं.) दोषः, प्रमादः, स्खलितं, नाशक २. अहितकर। । छिद्रं, पापं, वाच्यम् । For Private And Personal Use Only Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अपराध करना [ २० ] अपाहिज -करना, क्रि. अ., विभ्रम् (भ्वा. दि, प. से), अपशकुन, सं. पुं ( सं. पुं. न.) कु-अशुभ दुर्, अपराध (दि. स्वा. प. अ.), उत्पथं या लक्षणं, अजन्यं, दुश्चिह्नम् । ( अ. प. अ.), स्खल-विचल व्यतिचर ( भ्वा. : अपशब्द, सं. पुं (सं.) गाली, अपवादः २. प. से.), प्रमद् (दि. प. से. प्रमाद्यति)। अशुद्धपदं ३. निरर्थकशब्दः ४. अपान-अन्त्र, -हीन, वि. (सं.) अ-निर, दोष, अनघ, वातः-वायुः।। अनवद्य। अपसव्य, वि. (सं.) दक्षिण, सव्येतर २. विप. अपराधी, वि. ( सं.-धिन् ) सापराध, दोषिन् , रीत ३. दक्षिणस्कन्धेन यज्ञोपवीतधारणम् । दोषवत, वाच्य, निन्द्य,सावद्य (अपराधिनी स्त्री.) : अपस्मार, सं. पुं. (सं.) भ्रामर, अंगविकृतिः अपराह्न सं. पुं. (सं. अपराह्नः,) परालः, (स्त्री.), भूतविक्रिया । दे. 'मिरगी' । विकालः, दिनस्य तृतीयो यामः। अपहरण, सं. पुं. ( सं. न.) अपहारः, मोषणं, अपरिग्रह, सं. पुं. (सं.) अस्वी अनंगी, कारः, विलुण्ठनम् २. संगोपन, लोप्त्रम् । दानत्यागः २. विरागः, संगत्यागः। . अपहृत, वि. ( सं.) चोरितं, बलात् नीतम् । अपरिचित, वि. (सं.) अज्ञात, पर, पारक्य, अपह्नति, सं. स्त्री. (सं.) अपह्नवः, गोपनं, अन्यजनः २. परिचयरहित, अश। प्रच्छादनं, तिरोधानम् । २. व्याजः, कप, अपरिमित, वि. (सं,) असीम, अमित, अनन्त । लं, अपदेशः। २. असंख्य, अगणित । . अपांग, सं. पुं. (म. पुं. न.) नेत्रकोणः, नयनोअपरिमेय, वि. (सं.) अमेय, अपरिमाण, पान्तः २. कटाक्षः । वि. व्यङ्ग, अंगहीन । दुर्मेय, महत, बहु । अपात्र, वि. (सं. न. ) गुणहीन, अनर्ह, अयोग्य अपरिवर्तनीय, वि. (सं.) स्थिर, ध्रुव २. २. कुमाण्डं, कुपात्रम् । अपरिहाय, अवश्यमाविन् ३. अविनिमेय । अपादान, सं. पुं. (सं. न.) पृथक्-अपा, करणम् अपरिवर्तित, वि. (सं.) अविकृत, परिवर्तन- २. पञ्चमं कारकम् (व्या.)। रहित। अपरीक्षित, वि. (सं.) अकृतपरीक्ष, अननुयुक्त, अपान, सं. पुं. (सं.) नासिकया बहिः क्षिप्य माणो वायुः २. अन्त्र-गुदस्थ, वायुः ३. गुदं, अप्रश्नित । अपरेशन, सं. पु. ( अं.ऑपरेशन् ) शस्त्र, क्रिया मलद्वारम् । वि. दुःखनाशक ( ईश्वर )। -वायु, सं. स्त्री. ( सं. पुं.) पंचप्राणेघु अन्यकर्मन् ( न.),उपायः-उपचारः चिकित्सा। तमः २. अन्त्र-गुदस्थ, वायुः। अपर्याप्त, वि. (सं.) न्यून, अल्प, हीन, क्षीण । अपवर्ग, सं. पुं. (सं.) मोक्षः, वि, मुक्तिः (स्त्री.) अपाप, सं. पुं. (सं. न.) पुण्यम् । वि. निष्पाप, धार्मिक। निस्तारः, निर्वाण २. त्यागः, दानम् । अपाय, सं. पुं. (सं.) प्रस्थानम् २. पार्थक्यम् ३. अपवाद, सं ' (सं.) विरोधः, प्रतिवादः २. निन्दा, अपकीर्तिः ( स्त्री.) ३. दोषः, पापं लोपः ४. नाशः ५. विपत्तिः ( स्त्री.) ६. हानिः (स्त्री.) ४. बाधकशास्त्र, विशेषः । अपवादी, वि. (सं.-दिन्) अपवादकः, निन्दकः अपार, वि. (सं.) असीम, अनन्त २. असंख्य, २. बाधकः, विरोधिन् । अपवित्र, वि. (सं.) पाप, अधार्मिक २. अशुद्ध, | अपार्थिव, वि. ( सं.) अमार्तिक, अमृन्मय २. मलिन, दूषित, अशुचि । अभौम ३. दिव्य, अलौकिक । अपवित्रता, सं. स्त्री. (सं.) धर्महीनता, पाप- अपावन, वि. (सं) अशुद्ध, अपवित्र, मलिन । शीलता २. मलिनता, अशुचिता। अपावरण, सं. पुं. (सं. न.) अपावृतिः अपव्यय, सं. पुं. (सं.) मुक्तहस्तत्वं, अति-बहु- (स्त्री.), उद्घाटनम् २. आ-प्रा-समाच्छाअमित, व्ययः, अर्थोत्सर्गः। दनम् ३. परिवेष्टनम , परिवारणम् ।। अपव्ययी, सं. पुं. (सं.-यिन् ) मुक्तहस्त, अपाहिज, वि. ( सं अपभंज >) विकलांग (-गो उत्सर्गिन् , व्ययपरः। । सी.)विकक, व्यंग, हीनाङ्ग। For Private And Personal Use Only Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra अपि www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [ २१ ] = भी) च. अपि च, ही ) केवलं, एव, अपि, अन्य. (सं.) १. ( पुनश्च, अपरं च । २. ( मात्र । -च, अन्यन्त्र, पुनश्च । तु, किन्तु, परन्तु २. प्रत्युत । अपील, सं. स्त्री, ( अं. एप्पील) पुनर्विचार प्रार्थना २ निवेदनं ३. प्रार्थनापत्रम् । - प्रशंसा, सं. स्त्री. (सं.) अलंकारभेदः (सा.) । अप्राप्त, वि. ( सं ) अलब्ध, २. अनधिगत २. दुर्लभ ३. अप्रस्तुत ४. अनागत ! अप्राप्य वि. ( सं . ) अलभ्य, अनधिगम्य, अपीलांट, सं. पुं. ( अं. ) निवेदकः, विचारार्थं प्रार्थिन् । । अप्राप्तव्य । अपुत्र, वि. ( सं . ) निरपत्य, निस्सन्तान २. अप्रामाणिक, वि. (सं.) अवैध, प्रमाणशून्य पुत्रहीन | अपूत', वि. ( सं . ) अपवित्र, अशुद्ध । अपूत, वि. (सं. अपुत्र दे. ) । सं. पुं., कुपुत्रः । अपूप, सं. पुं. (सं.) पूपः, पिष्टकः । अपूर्ण, वि. (सं.) असमाप्त, सावशेष २. न्यून | अपूर्व, वि. (सं.) अभूत - अदृष्टपूर्व २. अद्भुत, अलौकिक ३. अनुपम, श्रेष्ठ । अपूर्वता, सं. स्त्री. (सं.) विलक्षणता, लोकोत्तरता। अपेक्षा, सं. स्त्री. (सं.) आकांक्षा, इच्छा, अभिलापः २. आवश्यकता ३. तुलनया, अपेश्रया ( दोनों तृतीयान्त ) | अपेक्षित, वि. (सं.) अमीष्ट, आवश्यक अनरि (लित, वि. (सं.) अप्रयुक्त, २. अविश्वसनीय । अप्रासंगिक, वि. ( सं . ) असम्बद्ध, अप्रस्तुत, प्रकरणासंगत | अप्रिय, वि. (सं.) अनिष्ट, अरुचिकर, अनमि मत । सं. पुं., शत्रुः । अप्रेंटिस, सं. पुं. ( एप्प्रेंटिस ) अन्तेवासिन् शिष्यः, शिल्पविद्यार्थिन् । अप्रैल, सं. पुं. ( अं. एप्रिल ) आंग्ल वर्षस्य चतुर्थमासः । - फूल, सं. पुं. चैत्रपहास्यः, मधुमासमूर्खः । अप्सरा, सं. स्त्री. (सं.) अप्सरसः (स्त्री. बहु.), स्वर-स्वर्ग, वेच्या, नाकनर्तकी । अफ्यून, सं. स्त्री. ( फा ) दे. 'अफ़ीम' | अफरना, क्रि. . ( मं. स्फार = प्रचुर > } सं-परितृप-तुष (दि. प. अ.) २. स्फाय ( स्वा. आ. से. ), प्र उप्, चि (भा. वा. प्रची' यने ३. ) ३. दे. 'ऊबना' । अफरा, सं. पुं. (सं. स्फारः ) उदर, स्फीतिः ( स्त्री. ) - उपचयः २. अजीर्णवातादिभिः उदरवृद्धि: (स्त्री.) । दे. 'अतुल' । अप्रतिरथ, वि. (सं.) अनुपम अतुल्य वीर अफरातफरी, सं. स्त्री. ( अ. अफ़रात तफ़रीत ) २. अनुपम, अप्रतिम | संक्षोभः, अव्यवस्था २. संभ्रमः, आकुलत्वम् । अप्रतिष्ठ, वि. (सं.) कुख्यात, अपमानित अफरीका, सं. पुं. ( अं. एफ्रिका ) कालद्वीपम् । २. अस्थिर, चंचल | अफल, वि. (सं.) निष्फल, मोघ, व्यर्थ । अफवाह, सं. स्त्री. (फ़ा.) जन, प्रवादः, जनश्रुतिः (स्त्री.), किंवदन्ती, लोक, -वाद:- वार्त्ता । अफसर, सं. पुं. (अं. ऑफिसर) दे. 'अधिकारी। अफसरी, सं. स्त्री. (हिं. अफ़सर ) अधि कारिता २. शासनं । अव्यवहृत । अप्रतिपत्ति, सं. स्त्री. ( सं .) बोधासामर्थ्य २. निश्रयाभावः । अप्रतिम, वि. (सं.) अप्रगल्भ, प्रतिभा-स्फूर्ति, शून्य २. निर्बुद्धि ३. अलस ४. लज्जावत्, सलज्ज । अप्रतिम, वि. ( सं ) अतुल्य, अप्रतिरूप, अफसोस अप्रतिष्ठा, सं. स्त्री ( सं . ) अपमान:, अवमानः, तिरस्कारः २. अस्थैर्य, चांचल्यम् । अप्रत्यक्ष, वि. (सं.) परोक्ष, गुप्त, इन्द्रियातीत । अप्रयुक्त, वि. (सं) अव्यवहृत, अप्रचरि (लि) त । अप्रसन्न, वि. (सं.) कुपित, क्रुद्ध २. अप्रीत, अतुष्ट ३. खिन्न, शोकाकुल । अप्रसन्नता, सं. स्त्री. (सं.) प्रीति प्रसाद, अभावः २. रोषः ३. खेदः, विमनस्कता । अप्रसिद्ध, वि. ( सं . ) अविश्रुत, अविख्यात २. गुप्त । अप्रस्तुत, वि. (सं.) अनुपस्थित, अविद्यमान २. अप्रासंगिक ३. अनुद्यत ४. गौण । अफसाना, सं. पुं. (फ़्रा) कथा, आख्यायिका । अफसोस, सं. पुं. ( फा ) दुःख, क्लेशः २. पश्चा त्तापः, अनुशयः, अनुशोकः, खेदः । For Private And Personal Use Only Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अफारा [ २२ ] अभिचारक अफारा, सं. पुं. (हिं. अफरना) आध्मानम् | अब्रह्मण्यं सं. पुं. (सं. न.) अब्राह्मणोचितं कर्मन् (उदररोगः)। (न.) २. हिंसादिकर्मन् । अ(ए)फीडेविट, सं. पुं. (अं.) शपथ- अब्राह्मण, सं. पुं. (सं.) अविप्रः, अभूसुरः, पत्रम् । ब्राह्मण-विप्र-इतरः । वि. ब्राह्मणरहित । अफीम, सं. स्त्री. (यू. ओपियन, अं. ओपियम) अभंग, वि. (सं.) पूर्ण, सकल २. नित्य, अहिफेनं, अफेनम् । अनश्वर ३. अनवरत, निरन्तर । अफीमी ।सं. पुं (हिं. अफ़ीम ) अफेन अहि- अभंगुर) वि. (सं.) दृढ, अखण्ड अफीमची फेन,-मक्षकः-व्यसनिन् । अभंजन) २. अनश्वर । अब, क्रि. वि. ( सं. अथ, अथ ?) अधुना, अभक्क, वि. ( सं.) भक्ति-श्रद्धा, हीन-रहित २. इदानीं, सम्प्रति, साम्प्रतं, वर्तमाने । | अखण्ड, सम्पूर्ण। -का, वि, आधुनिक, साम्प्रतिक । अभषय, वि. (सं.) अखाद्य, अभोज्य । अबज़रवेटरी, सं. स्त्री. ( अं. ऑबजर्वेटरी) अभद्र, वि. (सं) अशुभ, अमांगलिक २. तुच्छ । मानमन्दिरं, वेधशाला । अभय, वि. ( सं.) निर्भय, अमीत । सं. पुं. अबतर, वि. ( फ़ा.) निन्दित, गर्दा २. विकृत । (सं. न. ) भय-त्रास-अभावः । अबतरी, सं. स्त्री.(फ़ा) विकारः, विकृतिः (स्त्री.)। -दान, सं. पुं. (सं. न) रक्षा-त्राण, वचनंअबरक, (-ख ) सं. पुं. (सं. अभ्रक) गिरिजा प्रतिज्ञा २. रक्षणं, शरणदानम् । मलं, शुभ्र, बहुपत्रम् । -पद, सं. पुं, (सं. न.) मुक्तिः ( स्त्री.)। अबरी, सं. स्त्री. (फ़ा.) चिक्कणपत्रभेदः अभर्तृका, सं. स्त्री. (सं.) विधवा, रंडा २. २. पीतपाषाणभेदः। कुमारी, कन्या। अबरू, सं. स्त्री. ( फा.) भ्रः ( स्त्री.), भ्रूलता। अभव्य, वि. (सं.) अशुभ, अमांगलिक अबला, सं. स्त्री. (सं.) नारी, रमणी। २. कुदर्शन, कुरूप ३. अभवितव्य ४. अद्भुत अबाध, वि. ( सं. ) निर्विघ्न, निर्वाध | ५. अशिष्ट । २. असीम । अभागा, वि. ( सं. अभाग) अ-मन्द,-भाग्य, अबाध्य, वि. (सं.) उच्छसल, उहाम २. अनि प्रारब्ध-भाग्य, हीन । वार्य, अप्रतिकार्य, दुर्निवार । अभागी, वि. (सं-गिन् ) भाग्यहीन २. भागअबाबील, सं. स्त्री. (फा.) कृष्णा, कृष्ण हीन, अदायाद । चटकमेदः। अभाग्य, सं. पुं. ( सं. न.) दुर्दैवं, मन्द-दौर, अबीर, सं. पुं. (अ.) दे. 'गुलाल' ।। भाग्यम् । अबूझ, वि. (सं. अबुद्ध ) मूर्ख, अश, अबुध । | अभाजन, सं पुं. (सं. न.) अपात्रं, कुपात्र, दुष्टः । अबे, अव्य, (सं. अयि ? ) अरे, हे। अभाव, सं. पुं. (सं) सत्ताऽभावः, अविद्यमानता। अबोध, सं. पुं. (सं.) अशानं, मौर्यम् । वि., | अभावनीय, वि. (सं.) अचिन्तनीय । मूर्ख, अज्ञ। अभि, उप. (सं.) सामीप्यदूरताऽऽभिमुख्यअब्ज, सं. पुं. (सं. न.) कमलं, पद्मम् । वीप्सादिद्योतक उपसर्गः।। २. जलजातः पदार्थः ३. शंखः ४. चन्द्रः | अभिक्रमण, सं. पुं. (सं. न.) दे. 'आक्रमण' । ५. धन्वन्तरिः ६. कर्पूरः-२ ७. शतं कोटयः। अभिख्या, सं. स्त्री. (सं.) शोभा, श्रीः. ( स्त्री.) अब्जा, सं. स्त्री. (सं.) लक्ष्मीः ( स्त्री.), रमा। २. यशस् ( न.) कीर्तिः ( स्त्री.)। अब्द, सं. पुं. (सं) वर्षः-र्ष, हायनः, वत्सरः | अभिगमन, सं. पुं. (सं. न.) उपसर्पणं २. मेघः ३. कर्पूर:-रं ४. आकाशः-शम् । । २. मैथुनम् । अन्धि, सं. पुं. (सं.) समुद्रः २. तडागः ३. | अभिगामी, वि. ( सं.-मिन् ) उपसर्पक सप्तेति संख्या। | २. संभोगकर्तृ । अब्बा , सं. पुं. (फा) पित, जनकः। अभिचार, सं. पुं.(सं.)मंत्रैर्मारणोच्चाटनादिक्रिया। अब्र, सं. पुं. (फ़ा., सं. अभ्रम् ) मेघः, धनः। । अभिचारक, वि. (सं.) अभिचारिन् । For Private And Personal Use Only Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अभिजन [ २३ ] अभिलाषा अभिजन, सं. पुं. (सं.) कुलं, वंशः, २. जन्म- | अभिनेय, वि. (सं.) नाटयितव्य, रूपणीय, अभिनयाह । भूमिः (स्त्री.) ३. कुले वृद्धतमः पुरुषः ४. ख्यातिः (स्त्री.) । अभिजात, वि. (सं.) कुलीन, सुकुलोत्पन्न २. बुध, पंडित, ३. योग्य ४. मान्य ५. सुन्दर । अभिज्ञ, वि. (सं.) शातृ, विज्ञ २. निपुण, कुशल । अभिज्ञान, सं. पुं. (सं. न. ) स्मृतिः (स्त्री.), अनुबोध: २. लक्षणं, स्मारक चिह्नम् । | अभिन्न, वि. (सं.) अविभक्त, संलग्न, संसृष्ट । अभिप्राय, सं. पुं. (सं.) आशयः, भावः अर्थः, तात्पर्य, प्रयोजनम् । अभिप्रेत, वि. ( सं ) इष्ट, अभिलषित । अभिभव, सं, पुं. (सं.) पराजयः २, अवज्ञा, तिरस्कारः । अभिताप, सं. पुं. (सं.) अतिशय - अत्यधिक, ताप:न्दाहः २, पीडा, वेदना । अभिभावक, वि. (सं.) अभिभाविन्, तिरस्कर्तृ ( २ ) वशिन् ( ३ ) संरक्षक । अभिधा, सं. स्त्री. (सं.) शब्दस्य वाच्यार्थ | अभिभाषण, सं. पुं, (सं. न. ) सभापतिप्रकाशिका शक्तिः (स्त्री., सा. ) । २. व्याख्यानम् (लिखित ) भाषणम् अभिधान, सं. पुं. (सं. न. ) संज्ञा, नामन् (न.) शब्दकोश: ( -शं )षः २. कथनं, ३. विजित अभिधावन, सं. पुं. ( सं. न. ) आक्रमणम्, अभिद्रवः । अभिधेय वि. (सं.) वाच्य, प्रतिपाद्य । सं. पुं. (सं. न. ) नामन् (न.), संज्ञा । अभिध्यान, सं. पुं. ( सं. न.) इच्छा, वांछा २. लोभः ३. चिन्तनम् । अभिनंदन, सं, पुं. ( सं. न. ) ( षन् ) । अभिधायक, वि. (सं.) नामकारक २. वक्तृ अभिमंत्रण, सं. पुं. (सं. न. ) मंत्रः पवित्री - ३. परिचायक । करणं - संस्करणम् २. आवाहनम् । अभिमत, वि. (सं.) इष्ट, मनोनीत, वाञ्छित २. सम्मत | सं. पुं., मतं, मतिः ( स्त्री. ) २. विचारः ३. अभीष्टपदार्थः । अभिमन्यु, सं. पुं. ( सं . ) अर्जुनसुतः । अभिमान, सं. पुं. ( सं . ) अहंकारः, गर्वः, मदः, दर्पः, उत्सेकः, अवलेपः, मानः, अहंमानः । अभिमानी, वि. (सं.- निन्) गर्वित, दृप्त, मन्त, उत्सिक्त, अहंकारिन्, मानिन्, अवलिप्त । अभिमुख, क्रि. वि. (सं.) अभि-सं, मुखं मुखे, पुरः, पुरतः पुरस्तात् समक्षं अग्रे । अभियुक्त, वि. ( सं . ) प्रत्यर्थिन्, प्रतिवादिन् । अभियोक्ता, वि. पुं. (सं.) अर्थिन्, वादिन्, अभियोगिन् । " अभियोग, सं. पुं, (सं.) व्यवहारः, कार्य. अक्षः २. आक्रमणं ३. उद्योगः ४. मनोयोगः । अभिराम, वि. (सं.) आह्लादक, मनोहर, सुन्दर, रम्य । अभिरुचि, सं. स्त्री. ( सं . ) रुचिः प्रवृत्तिः (स्त्री.), कामः, अभिलाषः, छन्दः, इच्छा । अभिरूप, वि. ( सं . ) मनोहर, रमणीय । अभिलषित. वि. (सं.) वाञ्छित, ईप्सित, इष्ट । अभिलाषा, सं. स्त्री. (सं. - षः ) वान्छा, काङ्क्षा, स्पृहा, ईहा । प्रशंसा ३. सन्तोषः ४. प्रोत्सादनं २. आनन्दः ५. प्रार्थना । । –पत्र, सं. पुं. (सं. न.) प्रशंसा-प्रतिष्ठा, पत्रम् अभिनंदनीय, वि. (सं.) स्तुत्य, वन्दनीय | अभिनय, सं. पुं. (सं.) नाट्यं, अंगविक्षेपः २. अवस्थानुकृतिः (स्त्री.) ३. नाटकक्रीडा । --करना, क्रि. सं, नट-निरूप ( चु.), अभिनी (भ्वा. प. अ.), प्रयुज् ( चु. ) । अभिनव, वि. (सं.) नव, प्रत्यय । अभिनिविष्ट, वि. (सं.) प्रविष्ट २. उपविष्ट ३. मग्न, लीन । अभिनिवेश, सं. पुं. ( सं . ) प्रवेशः २. मनोयोगः, एकाग्रचिन्तनम् ३. दृढसंकल्पः ४. मृत्युभयक्लेशः । अभिनीत, वि. (सं.) उपनीत २. अलंकृत ३. रूपित, नाटित ४. उचित । अभिनेता, सं. पुं ( सं.- नेतृ ) नटः, नर्तकः, कुशीलवः, शैलूषः (अभिनेत्री, नटी, नर्तकी स्त्री.) ३. कथनम् । अभिभूत वि. (सं.) पराजित, २. पीडित ३. वशीभूत ४. व्याकुल । I पराजेतृ For Private And Personal Use Only Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अभिलाषी [ २४ ] अभिलाषी, वि. ( सं . - षिन् ) इच्छु, ईप्सु, | अभीष्ट, वि. ( सं . ) वान्छित अभिलपित २. अभिप्रेत ३. मनोनीत । सं. पुं., मनोरथ: । अभिलाष (पु) क, वाञ्छक । अभूत, वि. ( सं. ) अघटित 2 वर्तमान ३. विलक्षण । अभिवादन, सं. पुं. ( सं. न. ) प्रणामः, नमस्कारः २. स्तुति: (स्त्री.) । अभिव्यंजक, वि. (सं.) प्रकाशक, सूचक, - पूर्व, वि. ( सं ) अघटितपूर्व २. अपूर्व, बोधक | अद्भुत । अभिव्यक्त, वि. ( सं .) प्रकटित, दर्शित, स्पष्टीकृत। अभिव्यक्ति, सं. स्त्री. (सं.) प्रकाशनं, आवि अभेद, सं. पुं. ( सं . ) भेदाभावः, एकत्वं, अभिन्नता २. समानता । वि., भेदरहित, समान । अभेद्य वि. ( सं ) अच्छेध, अखण्डनीय, अभेदनीय | ष्कारः, साक्षात्कारः । अभिव्याप्ति. सं. स्त्री. ( सं . ) सर्व व्यापकताव्यापिता २. समावेशः । अभिशप्त, वि. (सं.) आक्रुष्ट, शापग्रस्त, अभिशस्त २. मिथ्यादूषित | अभोज्य, वि. (सं.) दे. अभक्ष्य । अभौतिक, वि. (सं.) अप्राकृतिक २. अगोचर । अभौम, वि. (सं.) अपार्थिव, अभूमिज । अभ्यंग, सं. पुं. ( सं . ) लेपः, लेपनं २. तैलमर्दनं, स्नेहनम् | अभिशस्ति, सं. स्त्री. (सं.) अभि, शाप:, आक्रोशः २. विपत्तिः- आपत्तिः (स्त्री.) । अभिशाप, सं. पुं. (सं.) शाप:, आक्रोशः | अभ्यंजन, सं. पुं. ( सं. न. ) दे. 'अभ्यंग' २. २. दोषारोपः, मिथ्याभियोगः । नेत्रयोः कज्जलनिक्षेपः ३. अंगरागः । अभिशापित, वि. (सं.) दे. 'अभिशप्त' । अभिषंग, सं. पुं. ( सं . ) पराजय: २. निन्दा ३. मिथ्यापवादः ४. आलिंगनं ५. शपथः ६. दुःखम् ७. भूतावेशः । अभिपत्र, सं. पुं. (सं.), सोमस्य निष्पीडनम् २. सोमपानम् ३. यशः ४. यज्ञस्नानम् । अभिषिक्त, वि. (सं.) स्न (स्ना ) पित, प्रक्षा - लित २. सिंहासने उपवेशित ३. यथाविधि नियुक्त | अभिषेक, सं. पुं. (सं.) अभिषेचनं, प्रोक्षणं, आ-अव, सेकः २. मार्जनं ३. सिंहासने स्थापनं ४. यज्ञानन्तरं शान्तये स्नानम् । अभिष्यंद, सं. पुं. ( सं ) स्रवः, क्षरणं, प्रवाहः २. नेत्ररोगभेदः । अभिसंधि, सं. स्त्री. ( सं. पुं.) अभिसंधानं, प्रतारणं-णा, वचनं ना २. कुचक्रं, षड्यंत्रम् । अभिसार, सं. पुं. (सं.) अभिसरणं, नायकनायिकयो: निश्चितस्थाने गमनं २. आश्रयः, साहाय्यं ३. युद्धम् । अभिसारिका, सं. स्त्री. ( सं . ) अभिसारिणी । अभिसारी, सं. पुं. (सं.-रिन् ) अभिसारकः । अभिहित, वि. (सं.) उक्त कथित, उदित । अभी, क्रि. वि. (हिं. अब + ही ) साम्प्रतमेव, अधुनैव, अचिरात् । अभीर, सं. पुं. ( सं. आभीरः ) गोप: गोपालः । अभ्युदय अभ्यंतर, सं. पुं. ( सं. न. ) मध्यं, मध्य, भाग:देशः, गर्भः २. हृदयम् । अभ्यर्थना, सं. स्त्री. (सं.) प्रार्थना, याचना २. प्रत्युद्गमनम् । अभ्यर्थनीय, वि. (सं. ) याचितव्य प्रत्युगमनीय । अभ्यर्दन, मे. पुं. ( सं. न. ) उत्पीडनम् दे. | अभ्यसित, अभ्यस्त, वि. (सं. अभ्यस्त ) नित्यअनुष्ठित-आचरित, असंकृत्-पौनःपुन्येन. व्यावतित-सेवित-कृत | अभ्यागत, वि.(सं.) उपस्थित | सं. पुं., अतिथिः । अभ्यास, सं. पुं. (सं.) अभ्यसनं, आवृत्तिः (स्त्री.), अनुशीलनम् २. ( = आदत / शीलं, नित्यव्यवहारः, वृत्तिः (स्त्री.) । करना, क्रि. स., अभ्यस् (दि.प.से.), पुनः पुनः विधा (जु. उ. अ.) कृ, सततं अनुष्ठा ( वा. प. अ.), असकृत् सेव् (भ्वा. आ. से. ) अभ्यासी, वि. (सं.- सिन् ) साधक, अभ्यासआवृत्ति, कर-कारक * अभ्युत्थान, सं. पुं. ( सं. न. ) उत्थानम् २. प्रत्युद्गमः ३. समृद्धि: - उन्नतिः (स्त्री.) ४. आरम्भः, उदयः । अभ्युदय, सं. पुं. (सं.) सूर्यादीनामुद्रयः २. प्रादुर्भावः ३ मनोरथसिद्धिः (स्त्री.) ४. शुभावसरः ५. उन्नतिः (स्त्री.) । For Private And Personal Use Only Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra अभ्युपगम www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [ २५ ] अभ्युपगम, सं. पुं. (सं.) समीपगमनं, प्राप्तिः (स्त्री.) २. स्वी- अङ्गी, कारः । अन, सं. पुं. ( सं. न. ) मेघः, जलदः २. आकाशः शं ३. अभ्रकं ४. सुवर्णम् । अशुभ, अभद्र, अशिव । अशुभं, अभद्र, दौर्भाग्यं, अमंगल, वि. (सं.) सं. पुं. (सं. न. ) अनिष्टम् । अमचूर, सं. पुं. ( सं. आम्रचूर्ण) आम्रक्षोदः । अमन, सं. पुं. ( अ. ) शान्तिः (स्त्री.), उपप्लवाभावः । - अमान, चैन, सं. पुं., सुखशान्ति, मंगलं, भद्रम् । अमर, वि. (सं.) अमर्त्य, नित्य । सं. पुं., देव, देवता ( स्त्री. ) २. पारदः, रसः ३. अमर सिंहः ( कोशकार: ) । - बेल, सं. स्त्री, अमरवली, आकाशवल्लरी | अमरत्व, सं. पुं. (सं. न. ) मुक्तिः (स्त्री.) २. देवत्वं ३. चिरजीवनम् । अमरस, सं. पुं. ( सं . आम्ररसः ) रसालद्रवः २. आम्र, पर्पट:- पट्टी (हिं. अमपापड़ ) । अमरांगना, सं. स्त्री. (सं.) देवांगना, देवी, अमरी । अमरा, सं. स्त्री. ( सं . ) अमरावती, दे. | अमराई, सं. स्त्री. ( सं. आम्रराजी ) आम्र, वनंवाटिका | अमरावती, सं. स्त्री. (सं.) इन्द्रपुरी, स्वर्गः । अमरीका, सं. पुं. (अमेरिका) महाद्वीपविशेषः । अमरूत (द), सं. पुं. ( सं. अमृतं>) पेरुकं, दृढबीजं, मांसलम् । अमरेश·श्वर, सं. पुं. (सं.) दें. 'इन्द्र' | अमर्ष, सं. पुं. (सं.) क्रोधः, रोषः २. क्षमा - करना. क्रि. स., व्यवह्न (भ्वा. प. अ. ), आचर ( भ्वा. प. से. ), विधा (जु. उ. अ.), कृ । -- मैं आना, क्रि.अ., वृत् (भ्वा. आ. से.), भू । - दारी, सं स्त्री. (अ. + फ़ा.) शासनं राज्यम् अमलतास, सं. पुं. ( सं. अम्ल ) वृक्षप्रकारः । अमलवेत, सं. पुं. [ सं . अ (आ) अम्लवेतसः ] वेतसाम्लः, वीर-राज-रस, आम्लः । अमला, सं. स्त्री. (सं.) लक्ष्मीः (स्त्री.) २. सातला वृक्षः । अमला, सं. पुं. ( अ.) कार्याध्यक्षः । – फैला, सं. पुं., न्यायालय कर्मचारिगणः । अमली, वि. (अ.) व्यवहारविषयक २. कर्मण्य ३. मद्यप, पानासक्त, मादकद्रव्यसेविन् । अमहर, सं. स्त्री. (सं. आम्र ) शुष्काम्रशल्कम् । | अमा, सं. स्त्री. (सं.) अमावस्या २. गृह ३. इहलोकः । अमात्य, सं. पुं. ( सं . ) सचिव:, मन्त्रिन् । अमान, सं. पुं. ( अ ) रक्षा, त्राणं २. शरणं, आश्रयः । अमानत, सं. स्त्री. (अ.) स्थाप्यं, निक्षेपः, न्यासः, उपनिधिः । अमित्र -रखना, क्रि. स, निया ( जु. उ. अ. ), निक्षिप् (तु. प. अ.), न्यस् ( दि. प. से. ), आधी कृ । -दार, वि.. न्यासधारिन्, निक्षेपग्राहक । - दारी, सं. स्त्री, प्रत्ययः, विश्वासः । - में खयानत, सं. स्त्री, स्थाप्यापहरणं दुर्विनियोगः । अमानिता, सं. स्त्री. ( सं . ) अमानित्वम्, नत्रत्वं, भावः असहिष्णुता । अमल', वि. ( सं. ) स्वच्छ, निर्मल २. निर्दोष | | अमारी, सं. स्त्री. ( अ. ) वरंडकः । सं.पुं., (सं.न.) अभ्रकं, गिरिजामलम् । अमल े, सं. पुं. ( अ. ) व्यवहारः, आचरण, चरितम् २. अधिकारः, शासनं ३. मदः, मादः, शौण्डता ४. शीलं वृत्ति: (स्त्री.), स्वभाव: ५. प्रभावः ६. समयः । नम्रता । अमानी, वि. ( सं-निन् ) नम्र, विनीत, निरभिमान । अमानुष, वि. (सं.) अपौरुषेय, अमानवीय, अतिमर्त्य २. पाशव, पशाचिक । सं. पुं., मनुष्येतरो जीवः २. राक्षसः ३. देवः । ( अमानुषी = अपौरुषेयी स्त्री. ) । अमावट, सं. स्त्री. (हिं. आम > ) दे. 'अमरस' | अमावस, सं. स्त्री. [ सं . अमाव ( 1 ) स्या ] अमावासी, कृष्णपक्षस्यान्तिमतिथि: (पुं. स्त्री.), दर्शः, सूर्येन्दुसमागमः । अमिट, वि. (सं. अ + हिं. मिटना ) अनाश्य, अमार्ष्टव्य, शाश्वत ( - ती स्त्री. ) । अमित, वि. (सं.) असीम, अपरिमित २. अत्यधिक । अमित्र, सं. पुं. (सं.) शत्रुः । वि. मित्रहीन | For Private And Personal Use Only Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [ २६ ] अमीन अमीन, सं. पुं. (अ.) अधिकरणस्य कर्मचारिभेदः । अमीर, सं, पुं. ( अ.) अधिकारिन् २. धनिकः ३. उदारः । अमीरी, सं. स्त्री. (अ.) धनाढ्यता, समृद्धिः ( स्त्री. ) । अमुक, वि. (सं.) सङ्केतित, निर्दिष्ट । अमूर्त, वि. (सं.) मूर्ति प्रतिमा, रहित, निरःकार, निरवयव । अरगनी अयश, सं. पुं. (सं.-शस् न . ) अपकीर्ति (स्त्री.)। अयस, सं. पुं. ( सं . अयस् न. ) दे. 'लोहा ' | अयस्कान्त, सं. पुं. ( सं .) कान्तायसं, कान्तं, कान्तलोहं । अयौँ, वि. ( अ. ) प्रकट २. स्पष्ट । अयान, वि. (हिं. अजान ) अश, मूर्ख । अयाल, सं. पुं. बी. (तु० याल) केश ( स ) रः, सटा । अमूल्य, वि. (सं.) अनर्घ, अनर्घ्य, २. बहुमूल्य, अयाल, सं. पुं. ( अ. ) संततिः (स्त्री.) । महार्थं । -दार, वि. गृहिन्, गृहस्थ । अयि, अव्य. (सं.) हे, अरे, भोः । अयुक्त, वि. ( सं ) अनुचित २. अमिश्रित, भिन्न ३. युक्तिशून्य । अयुग, वि. ( सं . ) विषम, अयुग्म । अमृतांशु, सं. पुं. (सं.) शीतांशुः, चन्द्रः, सोमः । अमृत, सं. पुं. (सं. न. ) सुधा, पी (पे ) यूषं, निर्जरं, समुद्रनवनीतकं २. जलं ३. घृतं ४. अन्नं ५. मोक्षः ६. दुग्धं ७. विषं ८. सुवर्ण ९. हृद्यपदार्थ : १०. मधुरद्रव्यम् । -कर, सं. पुं. (सं.) चन्द्रः । - फल, सं. पुं. (सं. पुं. न. ) पारावत पटोल, - वृक्षः फलं । अयुत, वि. (सं. न. ) सहस्रदशकम् | सार, सं. पुं., नवनीतं, घृतम् । -वान, सं. पुं., लक्ष्णीकृतं मृद्भाण्डं, चिक्कणः कुटः । अयोग, वि. (सं. अयोग्य ) अनुचित, अयुक्त | अयोग्य, वि. (सं.) अनई, अनुपयुक्त। २. पाटवशून्य ३. अशक्त ४. अपात्रम् ५. दे. ' अयोग' | अमृतत्व, सं. पुं. (सं.न.) मोक्षः, मुक्तिः (स्त्री.) । अयुग्म, वि. (सं.) अयुग, विषम २. एकल, एकाकिन् । अयोध्या, सं. स्त्री. (सं.) साकेतं, नगरीविशेषः । अमृता, सं. स्त्री. (सं.) मद्यं सुरा २. आमलकी अयोनि, वि. ( सं . ) अज, नित्य । ३. हरीतकी ४. तुलसी । अमृत्यु, वि. (सं.) अमर, अमरण । स्त्री. अमरत्वम् । पु. विष्णुः । अमेध्य, वि. सं. अपवित्र, अयज्ञार्ह, निन्य | अमेय, वि. ( सं . ) असीम २. अज्ञेय । अमोघ, वि. (सं.) सफल, सार्थक, फलवत् । अमोनिया, सं. पुं. ( भं. ) तितातिः (स्त्री.) । अमोल, अमोलक, वि. ( सं. अमूल्य दे० ) । अमौलिक, वि. ( सं . ) निर्मूल, वितथ, मिथ्या । अम्माँ, सं. स्त्री. ( सं . अम्बा ) माता, जननी । अम्मामा, सं. पुं. (अ.) मोष्णीषः - षम् । अम्ल, सं. पुं. ( सं . ) रसभेदः । वि. अम्ब शुक्त । अम्लता, सं. स्त्री. ( सं . ) अम्लत्वं, शुक्तत्वम् । अम्हौरी, सं. स्त्री. ( सं. अम्भस् > ) घर्मकण्टकःकम् । अयन, सं. पुं. (सं. न. ) गतिः (स्त्री.) २. सूर्यचन्द्रयोर्गतिभेदः ३. ज्योतिःशास्त्रम् ३. सेनागति: ५. मार्गः ६ आश्रमः ७. स्थानं ८. गृ ९. कालः १०. अंशः ११. यश्चभेदः १२. अधस् (न.) । अयोनिज, वि. (सं.) अगर्भज २. स्वयम्भू ३. अदेह, अकाय । अयक्तिक, वि. (सं.) युक्तिविरुद्ध, अनुपपन्न, असंगत । यौगिक, वि. (सं.) अव्युत्पन्न, रूढ़ ( व्या.) । अरंड, सं. पुं., दे. 'परंट' । अर, सं. पुं. ( सं. पुं. न. ) चक्राङ्ग २. कोणः ३. शैवालः । अरक सं. पुं. (भ.) भासवः २. रसः ३. प्रस्वेदः । - निकालना, कि. स. स्रुस्यन्दू (प्रे.), आअभि सु ( स्वा. उ. भ. ) । - अरक होना, मु., ( प्र ) स्विद् ( दि. प. अ. ) । अरक्षित, वि. (सं.) अत्राण, अत्रात, अपात । अरगजा, सं. पुं. (सं. अगर + जा ) पीतवर्णः सुगन्धिद्रव्यभेदः । अरगनी, सं. स्त्री. ( सं . आलग्न > ) वसनालम्बनी, वस्त्रालम्बनाय रज्जुः (स्त्री.) वंशो वा । For Private And Personal Use Only Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra अरगल - www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अरगल, सं. पुं. ( सं. न. ) अरगला, कपाटावष्टम्भकमुसलम् । अरगवानी, सं. पुं. (फ़ा. ) रक्तवर्ण:, लोहित रंगः । वि. रक्त-लोहित, वर्ण २. नीललोहित, धूमवर्ण । अरघा, सं. पुं. (सं.) ताम्रमयोऽर्घ्यपात्रभेदः २. शिवलिङ्गाधारपात्रम् । [ २७ ] अरण्य, सं. पुं. ( सं. न. ) वनं, जङ्गलम् । - गान, सं. पुं. ( सं. न. ) गानविशेषः । २. कमलसमूहः ३. पद्माकरः । अरणि, -णी सं. स्त्री. ( सं . पुं. स्त्री. ) निर्मन्ध्य | अरवी, सं. स्त्री. दे. 'कचालू' । दारु (न.), अभिमन्थनकाष्ठम् । सामवेदस्य - रोदन, सं. पुं. ( सं. न. ) अरण्यरुदितं, व्यर्थविलापः काननक्रन्दनम् २. व्यर्थवचनम् । अरवि, सं. स्त्री. ( सं . पुं. स्त्री. ) कूर्पूर:, कफ (फो ) णि: (पुं. स्त्री. ), २. मुष्टिः (पुं. स्त्री.), मुष्टी ३. बाहु: ४. कूर्परात् मध्यमाङ्गुलीपर्यन्तं मानम् । अरथी, सं. स्त्री. ( सं. रथः > ) शवयानं, खाटः, 'खाटी । ५ अरदल, सं. पुं ( देश० ) वृक्षभेद: । अरदल, सं स्त्री. ( अं. ऑर्डर नियोगः । अरदली, सं. पुं. ( अं. ऑर्डरली ) परिचारकः, किंकरः, प्रेष्यः । अरदास, सं. स्त्री. ( फ़ा अर्ज़दारत ) उपहार:, प्रीतिदानं २. उपासना, आराधना, प्रार्थना । अरधंग, दे० 'अर्द्धग' । आज्ञा, भरधं (ध) गी, सं. स्त्री. (सं. अर्द्धांगिनी) पत्नी, भार्या, अर्द्धांगम् । अरना, सं पुं. (सं. अरण्यं > ) वन्यमहिषः, वन्यसैरिभः । अरनी, सॅ. स्त्री. दे. 'अरणि' । अरंतुद अरर, अव्य. (सं. अररे) आश्वर्यघृणा दिसूचक शब्दः । अरराना, कि. अ. ( अनु. ) पुरुषं ध्वन् स्वन् ( भ्वा. प. से. ) २, सहसा पत (भ्वा. प. से. ) अरविंद, सं. पुं. (सं. न. ) कमलं, पद्मम् । अरविंदिनी, सं. स्त्री. (सं.) नलिनी, कमलिनी अरब, सं. पुं. (सं. अर्बुदः - दं) शतकोटिसंख्या । अरब', सं. पुं. ( सं. अर्वन् ) घोटकः २. इन्द्रः । अरब, सं. पुं. (अ.) मरुदेशविशेषः, अरबदेशः २. अरबदेशी योऽश्रो जनो वा । अरबी, वि. (फ़ा. ) अरबदेशीय । सं. पुं. १ - ३. अरब देशीयोऽश्व उष्ट्रो वाद्यभेदो वा । सं. स्त्री, अरब देशस्य भाषा | अरमान, सं. पुं. ( तु.) लालसा, आकांक्षा । अरस, वि. (सं.) नीरस, विरस २. असभ्य ३. अलस ४. निर्बल ५. अयोग्य । अरसा, सं. पुं. ( . ) समयः २. विलम्बः । अरहट, सं. पुं. ( सं . अरघट्टः ) अरघट्टकः । अरहर, सं. स्त्री. ( सं. आढकी ) तुवरी, तव, रिका, वृत्तबीजा | अराजक, वि, (सं.) राजहीन, शासकरहित । अराजकता, सं. स्त्री. ( सं . ) राजहीनता । २. शासनाभावः ३. उपद्रवः, अशान्तिः (it.) 1 अराति, सं. पुं. ( सं . ) शत्रुः २. कामक्रोध लोभमोहमदमात्सर्याणि ( न. बहु. ) ३. ज्योतिःशास्त्रे कुण्डल्याः षष्ठं स्थानम् । अरारूट, सं. पुं. ( सं. ( अं. एरोरूट ) अरारूटं, कन्दभेदः २. अरारूटचूर्णम् । अरिंदम, वि. ( सं .) शत्रुघ्न, अभित्रघातिन् २. विजयिन् । अरि, सं. पुं. ( सं .) शत्रुः, वैरिन् । - मर्दन, वि (सं.) रिपु-सूदन-दमन, शत्रुघ्न । अरित्र, सं. पुं. (सं. न. ) क्षि (क्षे) पणी-णिः (स्त्री.), नौ-नौका, दण्डः, केनिपातकः । अरिष्ट, सं. पुं. ( मं. न. ) क्लेशः २, विपद् (स्त्री.) ३. दुर्भाग्यं ४. अपशकुनं ५. लशुनं ७. निम्बः ८. काकः ९. गृधः १०. फेनिल:: ११. मद्यभेदः १२. काथः १३. भूकम्पादय उत्पाताः १४. मथितं १५. प्रसूतिगृहं । वि. अनश्वर २. शुभ ३. अशुभ । अरिष्टक, सं. पुं. (सं.) फेनिलवृक्षः । (सं. न. ) फेनिलबीजम् (रीठा ) | अरिहा, वि. ( सं .इन् ) रिपुदमन, रिपुंजय | सं. पुं. शत्रुघ्नः । अरी, अव्य. ( सं. अरे ) अयि । अरंतु, वि. ( सं . ) मर्म, भेदिन् स्पृश् २. दुःख. दायक ३. कटुभाषिन् । ( सं. पुं.) शत्रुः । For Private And Personal Use Only Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अरुंधती [ २८ ] अर्जी अरुंधती, सं. स्त्री. (सं.) वसिष्ठपत्नी २. दक्ष- अर्गल, सं. पुं. (सं. न.) अर्गला, कपाटावपुत्री ३. नक्षत्रविशेषः । ष्टम्भकमुसलं २. कपाटः-टं ३. अवरोधः अरु, अन्य., दे. 'और'। ४. कल्लोल: ५. सन्ध्या घनाः । अरुई, सं. स्त्री. दे. 'कचालू' । अर्गला, सं. स्त्री. (सं.) दे. 'अर्गल' अरुचि, सं. स्त्री. (सं.) इच्छाऽभावः २. अग्नि- २. (चिटकनी) कील:-लं ३. गजबन्धन शृङ्खला मान्य ३. घृणा। ४. अवरोधः । -कर, वि. बीभत्स, गर्दा, उद्वेगकर। अर्घ, सं. पुं. (सं.) पजाविधि भेदः २. पूजाअरुचिर, वि. (सं.) अप्रिय, अरुचिकर, अरुच्य, सामग्री ३. हस्तधावनाय जलं, तद्दानं वा बीभत्स। ४. मूल्यं ५. उपहारः ६, सम्मानार्थ जलेन अरुज, वि. ( सं.ज) नीरोग, स्वस्थ । सेकः। अरुण, वि. ( सं. ) रक्त, लोहित । सं. पुं. सूर्यः -देना, उदकादिदानेन तृप् (प्रे०), निषिच् २. सूर्यसारथिः ३. सन्धिप्रकाशः ४. प्रभातं (तु. प. अ.) ५. कुंकुम ६, गुडः । -पात्र, सं.पु. ( सं. न.) शंखाकारं ताम्र-उदधि, सं. पुं. (सं.) समुद्रविशेषः । पात्रम् ।। -उदयः, सं. पुं. (सं.) प्रभातं, दिनमुखम् । अर्घट, सं. पुं. दे. 'राख' । -उपल, सं. पुं. (सं.) पद्मरागः, शोणरत्नम् । अर्घा,सं.पु. ( सं अर्घः :- ) दे. 'अर्घपात्र' । -चूड, सं.पु. (सं.) कुक्कुटः । अय, वि. (सं.) पूज्य २. बहुमूल्य । सं. पुं. अरुणा, सं, स्री. (सं.) मञ्जिष्ठा २. कदन्नं (सं. न.) पूजाद्रव्यम् २. मधुभेदः। ३. रक्तवर्णा गौः ४. उषस् ( स्त्रो.)। अर्चक, वि. (सं.) पूजक, उपासक । अरुणाई, सं. स्त्री. ( सं.अरुण ... ) रक्तता, अरु- अर्चा, सं. स्त्री. (सं.) ( जा २. प्रतिमा, मृत्तिः णिमन् । (स्त्री.) अरु गात्मज, सं. पु. ( सं.) शनिः, शनैश्चरः, अर्चि, सं. स्त्री. (सं.) अचिंम् (न., स्त्री. ) सौरि: २. यमः ३. सुग्रीवः ४. कर्णः ५. जटायुः। शिखा २. तेजस ( न.) ३. किरणः । अरुणिमा, सं. स्त्री. (सं.णिमन् पुं.) रक्तिमन् , चित, वि. (सं.) पृजित २. सत्कृत । अर्चन, सं. पुं. ( सं. न.) पला, अर्चा, अर्चना अरूप, वि. ( सं.) अमुर्त, निराकार। २. सत्कारः । अरे, अव्य. (सं.) हे, अयि, अये, भोः २. अहो अर्चनीय, वि. (सं.) पजनीय २. सत्कार्य । ( सब अव्य०)। अर्चिष्मान् , वि. (सं. ष्मत) भासुर, कान्तिमत् अरोड़ा, सं. पुं. (सं. आरूढ >) पंचनदप्रान्तीय- शिखा-ज्वाला,-युत-अन्वित। सं. पुं. (सं.) अग्निः जातिविशेषः। २. सूर्यः ३. विष्णुः । अर्क', सं.पुं. ( सं. ) सूर्यः २. इन्द्रः ३. स्फटिकः अर्ज़, सं. स्त्री. ( अ.) प्रार्थना, याचना ४. विष्णुः ५. मन्दारः ६. अग्रजः ७. रविवारः २. विस्तारः, परिणाहः। ८. उत्तराफाल्गुनीनक्षत्रम् ९. दादश इति -करना, क्रि. स, याच ( भ्वा. उ. से.) संख्या १०. पण्डितः । वि. (सं.) पूज्य, सविनयं निविद् (प्रे.)। अर्चनीय। | अर्जन, सं. पु. ( सं. न.) उपार्जनं, संचयः, -मंडल, सं. पुं. ( सं. न. ) सूर्यबिंब:-बम् ।। संग्रहः, उपादानम् । अर्क, सं. पुं. (अ.) दे. 'अरक'। -करना, क्रि. स., उप-,अर्ज (चु.), संग्रह अर्कज, सं. पुं. (सं.) सुर्यपुत्राः [१. यमः (क्र. प. से.) २. शनैश्चरः ३. अश्विनौ ( द्वि.) ४. सुग्रीवः अर्जित, वि. ( सं. ) उपाजित, संगृहीत, ५, कर्णः] संचित । अर्कजा, सं. स्त्री. (सं.) सूर्यपुत्र्यो ( यमुना अर्जी, सं. स्त्री, ( अ. ) प्रार्थना-निवेदन,तापी च नद्यौ)। । पत्रम् । For Private And Personal Use Only Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अर्जीदावा [ २९ ] अर्यमा जाती थी)। अर्जी-दावा, सं. पुं. ( अ. ) अभियोग-भाषा, । अर्थी, वि. (सं.-थिन् ) इच्छु, इच्छुक, पत्र । इच्छक, अभिलाषिन् २. कार्यार्थिन् । (अर्थिनी अजेन, सं. पुं. (सं.) धनंजयः, पार्थः, कपि- स्त्री.) सं. पुं., वादिन्, अभियोक्त २. सेवकः ध्वजः, गुडाकेशः, गाण्टीविन् २. सहस्रार्जुनः ३. धनिकः।। ३. वृक्षभेदः ४. मयूरः : वि. श्वेत २. स्वच्छ। अर्दन, सं. पुं. ( सं. न.) पीडनं, हिंसा अर्जनी, सं. स्त्री. (सं.) शुक्ला गौः ( स्त्री.) २. २. याचनम् ।। ऊषा ३. कुट्टनी | अर्दित, वि. (सं.) पीडित २. हत ३. याचित अर्णव, सं. पुं. ( सं. ) समुद्रः २. सूर्यः ३. अन्तरिक्षं ४. चतुर् इति संख्या। अर्द्ध, वि. ( सं ) सामि-1 सं. पुं., अर्द्धः-द्ध, अतिका, सं. स्त्री. (सं) अग्रजा, ( अत्तिका ) । अभागः-अंशः। -चंद्र, सं. पुं. (सं.) अष्टम्याश्चन्दः ज्येष्ठ भगिनी। अति, सं. स्त्री. ( मं. ) पीडा, व्यथा २. चन्द्रकः, मयूर पक्षस्थचन्द्रचिह्न ३. नखक्षतं ४. चन्द्राबेन्दुः (*) ५. बहिष्काराय ग्रीवातो २. चापाग्रम् । ग्रहणम् ६. त्रिपुंडभेदः। अर्थ, सं. पुं. (सं.) शब्दाशयः २. प्रयोजन -भाग, सं. पु. (सं.) अर्द्धः - ई, अद्धाशः । ३. कर्मन् ( न.) ४. इन्द्रियविषयः ५. धनम् । | -मागधी, सं. स्त्री. (सं) प्राकृतभाषाभेदः -देना, क्रि. स. अभि-धा (जु. उ. अ.) ( यह कभी मथुरा से पटना तक बोली सूच् (चु.), द्युत् (प्रे.)। -बताना, क्रि. स., व्याख्या ( अ. प. अ.), -वृत्त, सं. पुं. (सं. न.) वृत्ता, अर्द्धमंडलम् विवृ ( स्वा. उ. से.), व्याचक्ष ( अ. आ. से.) २. वृत्तपरिधेर भागः। अर्थ प्रकाश (प्रे.)। -समवृत्त; सं. पुं. (सं. न.) छन्दोभेदः । -कर, वि. (सं) लाभप्रद, फलावह । | अद्धांग, सं. पुं (सं. न.) अर्द्ध,-भागः-अंशः (-करी स्त्री.)। ___२. पक्ष,-आघातः-वायुः ३. शिवः । -दंड, सं. पु. (सं.) धनदण्डः । | अ गिनी, सं. स्त्री. (स.) पत्नी, भार्या । -पति, सं. पुं. ( सं.) कुबेरः २. नृपः। | अद्धांगी, सं. पुं. (सं.-गिन्.) शिवः । वि., -पिशाच, वि. ( सं.) कृपण, लोमिन् । । अझैगरोगग्रस्त,पक्षवायुपीडित । -वाद, सं. पुं. (सं.) त्रिविधवाक्येषु अन्य- अपंण, सं. पुं. (सं. न.) उपहरणं, उपनयनं, तमम् ( न्या.)। दानं २. उपायनं, उपहारः ३. स्थापनम् । -वेद, सं. पुं. (सं.) शिल्पशास्त्रम् । -करना, क्रि. सं., उपह-उपनी ( भ्वा. प. -शास्त्र, सं. पुं. (म.न.) धनप्राप्तिरक्षाव. अ.) उपस्था (प्रे.) (प्रे. अर्पयति)। ध्याधुपायदर्शक शास्त्रम् । | अर्पित, वि. (सं.) दत्त, उत्-वि,-सृष्ट । -सचिव, सं. पु. ( सं. ) अर्थमन्त्रिन् ।। | अर्बुद, सं. पुं. (सं. पुं. न. ) दशकोटिसंख्या अर्थात्, अ० ( सं.) अयं आशयः, दे 'यानी- २. अरावलीपर्वतः ३. मेषः ४. मांसकीलरोगः ५. द्वैमासिको गर्भः। अर्थान्तर, सं. पु. ( सं. न.) अन्य भिन्न- अर्बा, वि. ( अ०) चतुर्। द्वितीय, अर्थः। अर्भक, वि. (सं.) अल्प, लघु, २. मूर्ख -न्यास, सं. पुं. (सं.) अर्थालंकारभेदः ३. कृश । सं. पुं., बालकः, बटुः। '(सा.)। अर्य, सं. पुं. (सं.) स्वामिन् २. ईश्वरः अर्यापत्ति, सं. स्त्री. ( सं.) प्रमाणभेदः ( न्या.) ३. वैश्यः। वि.श्रेष्ठ । (अर्या, अर्याणी,अयी स्त्री.)। २. अलंकारभेदः (सा.)। अय्यंमा, सं. पुं. (सं.-मन् ) सूर्यः २. आदिअर्थालंकार, सं. पुं. (सं.) अर्थचमत्कारयुतोऽ त्यविशेषः ३. विशिष्टाः पितरः (बहु० ) लंकारः (सा.)। । ४. उत्तराफारगुनीनक्षत्रम् । For Private And Personal Use Only Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अर्वाक [ ३० ] अललटप्पू - अर्वाक , अव्य. ( सं.) पश्चात्, इदानीतने काले, अलक्षित, वि. (सं.) अदृष्ट, अवीक्षित २. नातिचिरात् प्राक, अचिरं २. समीपं-पे, अदृश्य ३. अशात ४. गुप्त । निकट-टे। - अलक्ष्य, वि. ( सं. ) अदृश्य २. अतीन्द्रिय । अर्वाचीन, वि. (सं.) नूतन नातिपुराण, अलख, वि. ( सं. अलक्ष्य ) दे. 'अलक्ष्य' । आधुनिक ( -की स्त्री.), अभिनव। -धारी, सं. पु. ( सं. अलक्ष्यधारिन् ) गोरक्षअर्श, सं. पुं. (सं.-शंस न.) गुदकीलकः, नाथानुयायिनः साधवः ( बहु० ) गुदांकुरः। -जगाना, मु., भिक्षायाचनम् । अर्श, सं. पुं. (अ.) आकाश:-शं २ स्वगः। । अलग, वि. ( सं. अलग्न ) पृथक् ( अव्य.) वि., अहेत, सं. पुं. (सं.) जिनः २. बुद्धः ३. शिवः भिन्न, वियुक्त, विच्छिन्न, असंलग्न । वि. मान्य। -करना, क्रि. स., पृथक् कृ, विघट्-विश्लि अह, वि. (सं.) पूज्य २. योग्य । (प्रे.), वियुज् ( चु०)। अहणीय, वि. ( सं. ) पूज्य, संमान्य, -होना, क्रि. अ., पृथक् भू, वियुज ( भा० पूजनीय । | वा.) विश्लिषु ( दि. प. अ.)। अर्हत् , वि (सं.) मान्य, अर्चनीय । | अलगनी, सं. स्त्री. (सं. आलग्न > ) वसनाअहित, वि. (सं.) पूजित, संमानित । लंबनी। अल, अव्य., दे. 'अलम् । अलगोज़ा, सं. पुं. (अ.) मुरली-वंशअलंकार, सं. पुं. (सं.) आमरणं, मण्डनं, वणु, भेदः। विभूषणं २. शब्दार्थयोश्चमत्कारविशेषः । अलज, वि. (सं.) निर्लज, धृष्ट, वियात । ( सा०)। अलपाका, सं. पु. ( स्पे० एलपाका ) जन्तुभेदः कत. वि. (सं. विभपित. मंहित. २. तस्य ऊर्णा ३. तदूर्णानिर्मितः सूक्ष्मधृताभरण २. संस्कृत, परिष्कृत ।। वस्त्रभेदः। -करना, क्रि. स., वि, भूष (चु० ), अलंक, अलफ़, सं. पुं. ( अ. अलिफ ) अरबीवर्णमालापरिष्क, संस्कृ, मण्ट (चु०), प्रसाध्। याः प्रथमवर्णः । अलबत्ता, अव्य. ( अ. ) निस्सन्देह, निस्संशयम अलंघनीय, वि. (सं.) अलंध्य, दुरतिक्रम, २. आम्, सत्यम् ३. किन्तु, परन्तु । दुस्तर। अलबम, सं. पुं. ( अं) चित्रपञ्जिका। अल, सं. पुं. ( सं. न.) ( = बिच्छू का डंक ) | अलबेला, वि. (सं. अलभ्य > १) वेषालूमं, अ(आ)लिदंशः, (द्रो)णः, कण्टकः- मिमानिन्, छेक, रूपगर्वित, दर्शनीयमानिन् शंकुः । २. हरितालकं २. विषः, विषम् । २. अद्भुत ३. कामचारिन् , अनवहित । अलक, सं. पुं. (सं.) कुरलः, चूर्णकुन्तलः । अलब्ध, वि. (सं.) अप्राप्त, अनधिगत, २. केश, पाशः-कलापः। अहस्तगत । अलकतरा, सं. पुं.. दे 'कोलटार' । अलभ्य, वि. (सं.) अप्राप्य २. दुर्लभ अलकनंदा, सं. स्त्री. ( सं ) नदीविशेषः । ३. अमूल्य । अलकली, सं. स्त्री. ( अं.) विक्षारः । । अलम्, अव्य. (सं.) यथेष्टं, पर्याप्त, प्रचुरम् । अलका, सं. स्त्री. (सं.) कुबेरनगरी, अलम, सं. पुं. (अ.) शोकः, दुखं २. ध्वजः । यक्षपुरम् । अलमनक, सं. पुं. ( अं) पंचांग, पंजिका । -पति, सं. पुं. (सं.) कुबेरः । अलमस्त, वि. (फा.) मत्त, क्षीव २. निश्चिन्त । अलकावलि, सं. स्त्री. ( सं.) केशकलापः। | अलमारी, सं. स्त्री. (पुत० अलमारियो) अलकोहल, सं. पुं. ( अं.) सुषवः । उत्थितपिटकः । अलक्त, अलक्तक, सं. पुं. (सं.) ला (रा) अलमास, सं. पुं. (फा) हीरकः, वज्रः-जम् । क्षा, जतु (न.), यावः, रक्ता, द्रुमामयः । अललटप्पू, वि. (देश०) दैवाधीन, २. लाक्षानिर्मितरंगभेदः। भाकस्मिक। For Private And Personal Use Only Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra अलवान www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [३१] अलवान, सं. पुं. (अ.) और्णप्रावारः । अलस, वि. शील । अलसान-नि; सं. स्त्री. (सं. आलस्यम् ) मान्द्यम्, तन्द्रिका | Y पृथकता पार्थक्यम् भिन्न, पृथक् । अङ्गारः २. ज्वलत् अलसाना, क्रि. अ., (हि. अलसान ) शिधिलायते ( ना. धा.), शिथिली थी- मन्दी, भू । अलसी, सं. स्त्री. (सं. अतसी ) उमा, क्षुमा । ( बीज उमा अतसी, बीजम् । अलहदगी, सं. स्त्री. ( अ० अलहदा, वि. (अ.) अन्य, अलात, सं. पुं. (सं. न. ) काष्ठं, उल्का । - चक्र, सं. पुं. (सं. न. ) उल्काघूर्णनजं चक्रम् । अलान, सं. पुं. (सं. आलानं ) गजबन्धनस्तम्भः २. हस्तिबन्धनश्रृंखला ३. बन्धनं, निगडः । अलानिया, अ० ( अ० ) प्रकटं, निर्भयं निःशंकम् । अलाप, सं.) मन्द, मन्थर, आलस्य अल्पशः अली', सं. स्त्री. (सं. आलिः ) सखी, सहचरी २. श्रेणी, पंक्तिः (स्त्री.) । अली, सं. पुं. ( सं. अलि ) षट्पदः, भ्रमरः । अलीक, वि. (सं.) असत्य, अनृत, वितथ । अलील, वि, (अ.) रोगिन्, रुग्ण । अलुमीनम, सं. पुं. ( अं. एलुमीनियम ) स्फट्यातु (न.) । अलूचा, सं. पुं. (फ़ा. आलूचः ) अलुचम् । अलेख', वि. (सं.) अज्ञेय २. अगणित । अलेख, वि. ( सं . अलक्ष्य ) अदृश्य | अलेख्य, वि. ( सं ) लेखानई । अलोन-ना, वि. (सं. अलवण ) लवणहीन २. नीरस. ( अलोनी स्त्री. ) । अलोल - कलोल, सं. स्त्री. (सं. लोल-कल्लोल: ) क्रीडा, लीला, खेला । अलौकिक, वि. (सं.) लोकोत्तर, लोकबाह्य २. अपूर्व, अद्भुत, ३. अति, मर्त्य मानुष, अमानुषिक | अल्टिमेटम, सं. पुं. ( अं. ) अन्तिमेत्थम्, अन्तिम, उपन्यासः- अभिसन्धिः (पुं. ) । अल्ट्रावायोलेट रे, सं. स्त्री. ( अं. ) अतिनीलारुणरश्मिः । सं. पुं., दे. 'आलाप' | अलापना, क्रि. सं. ( सं. आलापनम् ) आलप् ( वा. प. से. ), स्वरलयम् उत्पद (प्रे०) २. गै स्वा. प. अ. गायति ) । अलामत, सं. स्त्री. ( अ. ) लक्षणं, चिह्न, अभि- अल्प, वि. (सं.) स्वल्प, स्तोक, दन, न्यून, ज्ञानम् । क्षुद्र - अल्प- लघु, परिमाण २. ह्रस्व, खर्व, वामन । - आहार, सं. पुं. ( सं . ) मितभोजनम् । अलार्म घड़ी, सं. स्त्री. ( अं. एलार्म + सं. घटी ) प्रबोधन, वटी घटिका 1 - आहारी, वि. ( सं . -रिन् ) मितभुज्, अलिंद', सं. पुं. (सं.) आलीन्दः प्रघ (घा) णः, प्रघ (घा) नः, २. बहिर्द्वारप्रकोष्ठः । अलि, सं. पुं. (सं.) भ्रमरः शिलीमुखः २. पिकः ३. काकः ४. वृश्चिकः ५. कुक्कुरः ६. दे. 'अली' । अलाव, सं. पुं. ( सं. अलातं> ) अग्निराशिः, अङ्गारनिकरः । अलावा, क्रि. वि. ( अ ) विना, ऋते २. दे. 'अतिरिक्त' । अलिंग, वि. (सं.) लिंग- लक्षण - चिह्न रहितहीन । सं. पुं., ईश्वरः २. चिह्नाभावः । अलिंजर, सं. पुं. (सं.) (बड़ा घड़ा ) अलजरः, मणिकः २ ( झज्झर ) कर्करी, गलन्तिका, आलुः (स्त्री.) । अलिंद, सं. पुं ( सं. अलीन्द्रः ) भ्रमरः - बुद्धि, वि. (सं.) मूर्ख, मूढ, दुर्मति, जड । द्विरेफः । - वयस्क, वि. ( सं .) अप्राप्त, व्यवहारः -वयस्कः, बालः । - ज्ञता, सं. स्त्री. (सं.) स्नोकज्ञता २. अज्ञता । - प्राण, सं. पुं. (सं.) अल्पप्राणोच्चार्या वर्णाः (क्, गू, ङ, च्, ज्, ञ्, आदि । ) अल्पाशन । --आयु, वि. (सं. युस् ) अचिर, जीवन जीविन् । सं. पुं., अज:, छाग: । --जीवी, वि. ( विन्) अचिरायुष्य | -ज्ञ, वि. (सं.) स्तोकज्ञ, अल्पविद् २. मंदबुद्धि । अल्पता, सं. स्त्री. (सं.) न्यूनता-त्वं, अल्पत्वं २. लघुता-त्वं । अल्पशः, अव्य. ( सं .) स्तोकशः, अल्पाल्प २. शनैः शनैः, क्रमशः ( सब अव्य. ) For Private And Personal Use Only Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra अल्ल [ ३२ ] अवतंस अल्ल, सं. पुं. ( अ. आल ) वंशनामन् (न.), | अवगाढ, वि. ( सं . ) निविड, गुप्त २. निमग्न, उपगोत्रनामन् (दुम्बे, चौबे आदि ) । प्रविष्ट । अल्लम-गल्लम, सं. पुं. (अनु.) प्रलापः, दे. 'अंडबंड' | अल्लाह, सं. पुं. ( अ. ) ईश्वरः । - ओ अकबर, वाक्य (म.) ईश्वरों हि महान् । अल्हड़, वि. (सं. अल बहुत + लल् = ) विलासिन्, विनोदिन २ अनव- । धान ३. अल्पवयस्क ४. उद्धत ५. अश नं. पुं. नवजातवत्सः । खेलना -पन, सं. पुं., विनोदिता २. अनवधानता ३. अल्पवयस्कता ४. उद्धतता ५. अज्ञता । अवंति-ती, अवन्तिका, सं. स्त्री. (सं.) उज्जयिनी नगरी । www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir = अव, उप. ( सं . ) निश्चयानादरन्यूनतानिम्नताव्याप्तिसूचक उपसर्गः । अवकलन, सं. पुं. (सं. न. ) दर्शनं, ईक्षणं, वीक्षणम् २. अवगमनं, ज्ञानम् ३. ग्रहणम् । अवकाश, सं. पुं. (सं.) स्थानं, स्थलं, प्र-, देश: २. गगनं ३. दूरता ४. अवसरः ५. विश्रामः । अवकिरण, सं. पुं. (सं. न. ) विकिरणं, विक्षेपणं, प्रासनम् । अवकीर्ण, वि. (सं.) प्र-वि-आ, कीर्ण, प्र-विअस्त, विक्षिप्त २. ध्वस्त, नाशित ३. सं,चूर्णित | अवकीर्णी, वि. (सं.- र्णिन् ) क्षतव्रत, नष्टवीर्य । अवकुंचन, सं. पुं. ( सं. न. ) मोटनं, वक्रीकरणं, व्यावर्तनं, आकुञ्चनम् । 'अवकुंठित, वि. (सं.) कातर, क्लीन, भीरु । अवकृष्ट, वि. (सं.) बहिष्कृत २. निगलित ३. नीच । सं. पुं. दासः । अवकेशी, वि. ( सं . - शिन् ) निष्फल २. निस्सन्तान । अवक्रय, सं. पुं. (सं.) मूल्यं, अर्ध: २ (किराया ) तार्य, तारिकं, आतरः ४. करः । अवक्रोश, सं. पुं. (सं.) आकोशः शापः अवगाहन, सं. पुं. ( सं. न. ) जले प्रविश्य स्नानं, निमज्जनं २. प्रवेशः ३. मथनं, त्रिलोडनं ४. अनुसन्धानं ५. मननं, विचारणा । अवगीत, वि. (सं.) निन्दित, लाञ्छित । सं. पुं. (सं. न. ) निन्दा, अपवचनम् । अवगुंठन, सं. पुं. ( सं. न. ) आवरणं, व्यवधानं, आच्छादनं संवरणं २. ( घूँघट ) आवरकः कम् । अवगुंफन, सं. पुं. (सं. नं. ) संन्ग्रन्थनं, वि, रचनं, तन्त्रीभिर्गुणैर्वा बन्धनम् । अवगुण, सं. पुं. (सं.) दोष:, व्यसनं २. अपराधः, स्खलितम् । अवग्रह, सं. पु. ( सं . ) विघ्नः, प्रतिबन्धः २. अनावृष्टिः (स्त्री.) ३. सेतु-वप्र, बन्धः, वप्रः ४. सन्धिविच्छेदः ( व्या० ) ५. शापः । | अवघट, वि. (सं. अव + घट्ट > ) विकट, दुर्गम ! अवघर्षण, सं. पुं. (सं. न. ) दे. 'रगड़ना' तथा 'पीसना' । अवचन, सं. पुं. (सं. न. ) निःशब्दता, तूष्णभावः । २. निन्दा | अवचनीय, वि. ( सं . ) अकथनीय, अश्लील २. अनिन्द्य, अग | अवचय, सं. पुं. ( सं . ) उत्पाटनं, उद्धरणं, उल्लूंचनम् । अवच्छिन्न, वि. (सं.) पृथक्कृत, विश्लेषित २. ससीम, ३. सविशेषण, विशिष्ट । अवच्छेद, सं. पुं. (सं.) भेदः, पृथग्भावः २. इयत्ता ३ अवधारण, निश्चयः ४. परिच्छेदः, विभागः । अवच्छेदक, वि. (सं.) विभाजक, भेदक २. इयत्ताकारक ३ अवधारक ४. निश्चायक । सं. पुं., विशेषणम् । अवज्ञा, सं. स्त्री. (सं.) अव-अप, मानः, अनादरः, अवधीरणं णा २. आज्ञोल्लंघनं ३ पराजयः ४. अलंकारभेदः (सा.) । अवज्ञात, वि. (सं.) अवधीरित, अपमानित, = तिरस्कृत । गह। अवगत, वि. (सं.) विदित, ज्ञात, वुद्ध, परिचित | अवतंस, सं. पुं. ( सं. पुं. न. ) भूषणं, अलंकार: २. निगत, पतित । २. शिरोभूषणं ३. कर्णभूषणं ४. मुकुटं ५. श्रेष्ठजन: ६. माला, हारः ७. भातृव्यः ८. पाणिग्राहकः । अवगति, सं. स्त्री. (सं.) ज्ञानं, बोधः, अवगमनं २. कुगतिः - निगतिः (स्त्री.) । For Private And Personal Use Only Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अवतरण [ ३३ ] अवयव अवतरण, सं, पु. ( सं. न. ) अवरोहणं, । अवधि, सं. स्त्री. (सं. पुं.) सीमा, पराअधोगमनं २. पारगमनं ३. शरीरधारणं, काष्ठा, पर्यन्तः २. नियत,-काल:-समयः जन्मग्रहणं ४. प्रतिलेखः, प्रतिलिपि-प्रतिकृतिः। ३. मृत्युकालः । अव्य. (सं.) यावर (उ. अद्या(स्त्री.), ५. प्रादुर्भावः ६. घट्ट,सोपानं ७. वधि = अघ यावत् = आज तक )। घट्टः। अवधी, वि. (हि. अवध) कोश (स) अवतरणी-णिका, सं. स्त्री. (सं.) ग्रन्थ-पुस्तक, लसम्बन्धिन् २. कोस (श) लप्रान्तस्य भाषा। प्रस्तावना भूमिका-उपोद्घातः २. रीतिः (स्त्री.)। अवधीरणा, सं. स्त्री. (सं.) दे, 'भवशा' । अवतार, सं. पु. (सं.) पुराणमतानुसारं देव- अवधीरित, वि. (सं.) अवज्ञात, तिरस्कृत। विशेषस्य जीवविशेषस्य वा शरीरधारणम् । अवधूत, सं. पुं. (सं.) सन्न्यासिन्, योगिन् (विष्णु जी के २४ अवतार-ब्रह्मा, वाराह, साधुः । वि. (सं.) कंपित २. विनष्ट । नारद, नरनारायण, कपिल, दत्तात्रेय, यश, अवधेय, वि. (सं.) विचारणीय, ध्येय २. ऋषम, पृथु, मत्स्य, कूर्म, धन्वन्तरि, मोहिनी, श्रद्धेय ३. ज्ञातव्य । नृसिंह, वामन, परशुराम, वेदव्यास, राम, अवनत, वि. (सं.) नीच, निम्न, नत, नीचस्थ बलराम, कृष्ण, बुद्ध, कल्कि, हंस, हयग्रीव)।। २. पतित ३. न्यून । -लेना, कि, अ., अवतृ (भ्वा. प. से.), अवरुह अवनति, सं. स्त्री. (सं.) हासः, श्रयः, हानिः (भ्वा. प. अ.), शरीरं धृ (प्रे.)। (स्त्री.) २. अधोगतिः (स्त्री) ३. नम्रता। अवतारण, सं. पुं. ( सं. न. ) नीचैर्नयनं २. अवनि-नी, सं. स्त्री. (सं.) पृथिवी, भूमिः अनुकरणं ३. उद्धरणम् । (स्त्री.): अवतारी, वि. ( सं.-रिन् ) अवरोहिन् , अधो- -इन्द्र, ईश, सं. पुं. (सं.) नृपः। गामिन् २. देवांशधारिन्, अलौकिक । -तल, सं. पुं. ( सं. न.) भू , पृष्ठं तलम् । अवदात, वि. (सं.) श्वेत, शुभ्र २. शुद्ध ३. -पति, पाल, सं. पुं. (सं.) भूपः । गौर ४. पीत । अवबोध, सं. पुं. (सं.) जागरणं २. ज्ञानम् । अवदान, सं. पु. ( सं. न.) सुकर्मन् (न.) अवभृथ, सं. पुं. (सं.) यज्ञशेषकर्मन् (न.) २. त्रोटनं ३, पराक्रमः ४. शोधनं ६. उशीरः- २. यशान्तस्नानम्। रम् । | अवम, वि. (सं.) अधम, अन्तिम २. रक्षक, अवदारण, सं. पुं. (सं.) क्रकचेन छेदन-पाटनम् । परित्रात २. नीच, निन्दित । सं. पुं. (सं.) २. विभाजन ३. खदानम् ४. दे. 'कुशल'। पितृगणविशेषः २. मलमासः । अवदीर्ण, वि. (सं.) क्रकचेन पाटित २. अवमत, वि. (सं.) अवधीरित, तिरस्कृत । विभाजित ३. खात । अवमति, सं. स्त्री. (सं.) अपमानः तिरस्कारः। अवध, वि. (सं.) अधम, पाप, २. निन्ध, अवमर्दन, सं. पुं. (सं. न.) पीडनं, बर्दनं, कुत्सित। उपमर्दः। वध, सं, पु. ( सं. अयोध्या> ) कोश अवमर्श, सं. पुं. (सं.) स्पर्शः २, सम्पर्कः३. (स) लाः ( बहु) २. अयोध्या । सन्धिविशेषः (सा०) विष, वि. ( सं. अवध्य ) रक्ष्य, त्राणाह। अवमर्ष, सं. पुं. (सं.) सम्-, आलोचनं-ना विधान, सं. पुं. (सं. न.) मनोयोगः, अवेक्षा, २. सन्धिविशेषः ( सा० ) ३. आक्रमणम् । पतर्कता। अवमर्षण, सं. पुं. ( सं. न.) असहिष्णुता, दे, धार, सं. पुं. (सं.) निश्चयः, निश्चितता ___ 'असहनशीलता' २. अपमार्जनं, विलोपनम् । २. सीमा, अवधिः (पुं.)। अधमान, सं. पुं. (सं.) दे. 'अवमति । अवधारण, सं. पुं. ( सं. न. ) निर्धारणं, अवमानना, सं. स्त्री. (सं.) अवधीरणं-णा, निश्चयः। तिरस्कारः। अवधारित, वि. ( सं.) निर्धारित, निश्चित । अवयव, सं. पुं. (सं.) अंशः, भागः २. अंगं, अवधार्थ, वि. ( सं.) निर्धारणीय, निश्चेतव्य ।। गात्रं, शरीरैकदेशः ३. न्याये पश्च दश वा .३ आ० हि० For Private And Personal Use Only Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अवयवी [ ३४ ] अवसब वाक्यांशाः ( = प्रतिज्ञा, हेतुः, उदाहरणं, । अवलिप्त, वि. (सं.) गर्वित, दृप्त २. अक्त, उपनयनं, निगमनं, जिज्ञासा, संशयः, शक्य- दिग्ध ३. लीन । प्राप्तिः प्रयोजनं, संशय-व्युदासः)। | अवली, सं. स्त्री. (सं. आवली-लिः स्त्री.) पंक्तिः, अवयवी, वि. ( सं.-विन् ) अगिन्, सावयव ततिः, राजी-जिः ( सब स्त्री. ) २. समूहः, ५. पूर्ण, समग्र। सं. पुं., सावयवः पदार्थः राशिः । ३. देहः । अवलीढ, वि. (सं.) आ,-परि-सं-लीढ । २. अवर, वि. (सं) अन्य, अपर २, अधम, नीच । भक्षित, भुक्त, जग्ध । अवराधक, वि. ( सं. आराधक ) पूजक । अवलेप, सं. पुं. (सं.) दर्पः, गर्वः २. वि-प्रअवराधन, सं. पुं. (सं. आराधनं) पुजा, अर्चा । अनु,-लेपः। अवरुद्ध, वि. (सं.) उप-प्रति,रुद्ध, प्रतिहत, अवलेपन, सं. पुं. (सं. न.) अभ्यंजनं, विलेप्रतिवाधित २. आच्छादित, गूढ । पनं २. उद्वर्तनं, गात्रानुलेपनी ३. अहंकारः अवरूढ, वि. (सं.) अवतीर्ण, अधोगत । ४. दृषणम् । अवरेब, सं. पु. ( सं. अव+रेव > ) वक- अवलेह, सं. पुं. (सं.) लेधः पदार्थः २. लेछतिर्यग, गतिः (स्त्री.)२,वस्त्रस्य तिर्यक कर्तनम् । मौषधम् । -दार, वि., तिर्यककृत्त ।। अवलेहन, सं. पुं. (सं. न.) जिह्वाग्रेण स्पृष्ट्या अवरोध, सं. पुं. (सं.) विघ्नः, व्याघातः । खादनम् । २. अवरोधः ३. निरोधः ४: अनुरोधः अवलोकन, सं. पुं. ( सं. न.) वि.-ईक्षणं, दर्शनं, ५. अन्तःपुरम् । निरूपणं २. निरीक्षणं, अवेक्षणम् । अवरोधन, सं. पुं. (सं. न.) निवारणं -करना, कि. सं., अव-वि-आ,-लोक ( भ्वा. २. अन्तःपुरम् । आ.से., चु.) प्र-वि-अव,-ईक्ष (भ्वा. आ. से.)। अवरोपण, सं. पुं. (सं. न.) उन्मूलनं, अवलोकनीय, वि. (सं.) दर्शनीय, ईक्षणीय । उत्पाटनम् । अवरोह, सं. पु. (सं.) अवतारः, पतनम् अवलोकित, वि. (सं.) ईक्षित, दृष्ट, निरूपित । २. अवनतिः (स्त्री.) अलंकारभेदः (सा.)। भवश, वि. (सं.) वि-पर,-वश, अशक्त । अवशिष्ट, वि. (सं.) अवशेष, उद्वृत्त । स्वरावतारः (संगीत)। अवरोहण, सं. पुं. ( सं. न.) अवतरणं, नीचै | अवशेष, वि. (सं.) अवशिष्ट, उद्वृत्त २. समाप्त । र्गमनम् । सं. पुं. (सं.) अवशिष्टं, शेषभागः २. अन्तः, अवर्ण, वि. (सं.) रंगरहित, वर्णविहीन समाप्तिः ( स्त्री.)। २. कुवर्ण, कुरंग ३. वर्णधर्मशून्य । सं. पं.... अवश्यंभावी, वि. ( सं.-विन्) अपरिहार्य, अष्टादशविधोऽकारः (व्या.)। अनिवार्य। अवये, वि. (सं.) अवर्णनीय, अनिर्वाच्य अवश्य , क्रि. वि. (सं. अवश्यम् ) नियतं, ध्रुवं, अकथनीय, वर्णनाविषय । सं.पं.. उपमानमा असंशयं, नून, नाम, खलु ( सब अन्य.)। अवलंब, सं. पुं. (सं.) आश्रयः, शरणं, आधारः, | अवश्य, वि. (सं.) उच्छृजल, दुदमनाय, अवष्टम्भः । दुनिग्रह, अविधेय, दुर्निवार । ( अवश्या = दुर्दअवलंबन, सं. पुं. (सं. न.) दे. 'अवलंब'।। मनीया स्त्री.)। २. धारणं, ग्रहणम् । | अवश्यमेव, क्रि. वि., दे. 'अवश्य । अवलंबित, वि. (सं.) आश्रित, अधीन, अवश्याय, सं. पुं. (सं.) तुषारः, प्रालयं, आयत्ता-विघ्न,-तंत्र ( समासान्त में)। हिमजलम् २. अभिमानः, गर्वः । अवलंबी, वि. (सं.-विन् ) दे. 'अवलंबित' २. ! अवष्टंभ, सं. पुं. (सं.) आश्रयः २. स्तम्भः आश्रयद ( अवलंबिनी आश्रिता स्त्री.)। ३. धृष्टता। अवलक्ष, वि. (सं.) श्वेत-सितः,-रंग-वर्णः । सं. अवसन्न, वि. (सं.) विषण्ण, म्लान, खिन्न, पुं. (सं.) श्वेत, रंगः-वर्णः । । शोकात २. विनाशोन्मुख २. अलस । For Private And Personal Use Only Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अवसर [ ३५ ] अवितथ अवसर, सं. पुं. ( सं . ) समय:, काल: २. अव | अवहेलित, वि. ( सं . ) तिरस्कृत, उपेक्षित | काशः, क्षणः ३. देवं, दैवगतिः अवसर्जन, सं. पुं. ( सं. न. ) (स्त्री.) । वि- उत्-सर्जनम् अवान्तर, वि. (सं.) अन्तर्गत, मध्यवर्तिन् । सं. पुं. (सं. न.) अन्तरं, अभ्यन्तरं, उदरं, गर्भः । - दिशा, सं. स्त्री, (सं.) विदिशा, मध्यमदिशा । अवसर्पण, सं. पुं. (सं. न. ) अवरोहणं, अधो- | -भेद, सं. पुं. (सं.) भागस्य भागः, अन्त उज्झनं, त्यजनम् । गमनम् । | अवसाद, सं. पुं. ( सं. ) नाशः क्षयः २. विषादः ३. दैन्यं ४. श्रान्तिः (स्त्री.) ५. निर्बलता | अवसान, सं. पुं. (सं. न. ) विरामः, याननि वृत्तिः (स्त्री.), विष्टम्भः २. समाप्तिः (स्त्री.), अन्तः ३. मृत्युः ४. सीमा ५. सायंकालः । अवसाय, सं. पुं. ( सं . ) अन्तः समाप्तिः (स्त्री.) २. अवशिष्टं ३. पूर्तिः (स्त्री.) ४. संकल्प: ५. निर्णयः । रहना, होना, क्रि. अ., तूष्णीं - जोषं - आस् ( अ. आ. से. ), वाचं यम् (भ्वा. प. अ. ) । अवाङ्मनसगोचर, वि. ( सं . अवाङ्मनो - गोचर ) अवर्णनीय, अचिन्त्य ( ईश्वर ) | अवाङ्मुख, वि. (सं.) अधो-नत, - मुख | ( - खी. स्त्री. ) २. कज्जित । अवाची, सं. स्त्री. (सं.) दक्षिणा, दक्षिणदिशा । अवाच्य, वि. (सं.) विशुद्ध, निर्दोष २. निन्द्य, ग । सं. पुं. ( सं. न. ) गाली, दुर्वचनम् । अवात, वि. (सं.) निर्वात, वायु-पवन, - रहित । अवाप्त, वि. (सं.) प्राप्त, अधिगत, लब्ध । अवार, सं. पुं. (सं. पुं. न. ) अर्वाक्, -तीरतटम् । अवसेचन, सं. पुं. (सं. न. ) प्रोक्षणं, जलेनाप्लावनं २. प्र, स्वेदनं ३. जलूकादिभिः रक्तनिष्कासनम् । अवस्कन्द, सं. पुं. ( सं. ) सैन्यावासः, शिविरम् पार, सं. पुं. ( सं. ) सागरः, अब्धिः । २. जनवासः, वरयात्रावासः । अवारणीय, वि. (सं.) अनिवार्य अपरिहार्य, अवश्यंभाविन् । अवि, सं. पुं. (सं.) मेषः, एडकः २. छागः ३. सूर्य: ४. मन्दारः ५. पर्वतः ६. मूषिकः । सं. स्त्री. मेषी, एडका, उरणी । - पाल, सं. पुं. ( सं . ) मेषपालकः । अविकल, वि. (सं.) अक्षीण, अनपचित २. समग्र, पूर्ण ३. निश्चल | अविकल्प, वि. ( सं . ) निश्चित २. असंदिग्ध । अविकारी, वि. (सं.-रिन् ) निर्विकार २. अपरिणत | अविकृत, वि. ( सं .) शुद्ध २. अपरिणत । अविगत, वि. (सं.) अज्ञात २. अज्ञेय ३. विद्य मान । अविचल, वि. (सं.) ध्रुव, स्थिर । अविच्छिन्न, वि. ( सं . ) निरन्तर, अविरत, अवसित, वि. ( सं. ) समाप्त २. ऋद्ध ३. परि पक्क ४. निश्चित ५ सम्बद्ध । अवसृष्ट, वि. ( सं . ) त्यक्त २. दत्त ३. निष्कासित । अवस्कर, सं. पुं. ( सं ) विष्ठा, गूथ:-थम् । २. [गुह्यांगम्, लिंगम्, योनिः (क्रमशः न. स्त्री.) गुदम् ] ३. उच्छिष्टम्, निस्सारवस्तुसमूहः । अवस्था, सं. स्त्री. (सं.) दशा, गतिः (स्त्री.) २. समयः ३. वयस् - आयुस् (न. ) ४. स्थितिः (स्त्री.) । अवस्थान्तर, सं. पुं. (सं. न. ) अन्यावस्था, दशापरिवर्तनम् । अवहित, वि. (सं.) सावधान, एकाग्र, अनन्य वृत्ति । अवहित्था, सं. स्त्री. (सं.) आकारगुप्तिः (स्त्री.) लज्जादिवशात् चातुर्येण हर्षादेः गोपनं, भावभेद: (सा.) गतभेदः । अवाक्, वि. ( सं . अवाच् ) मौनिन्, तूष्णीक, निःशब्द २. स्तब्ध, चकित । अवहेलन, सं. पुं. (सं. न. ) दे. 'अवहेलना' । अवहेलना, सं स्त्री. ( सं . ) अवज्ञा, अपमान: २. आज्ञोल्लंघनं ३. उपेक्षा । -करना, कि सं., निक, अव-अप, मनू (प्रे.), अवशा ( क्रू. उ. अ. ) २. आज्ञाम् अतिक्रम् ( स्वा. प. से. ) ३. उपेक्षू ( भ्वा. आ. से. ) । - सतत । अवितथ, वि. ( सं . ) सत्य, यथार्थ, तथ्य | सं. पुं. (सं. न. ) सत्यं, ऋतम् । For Private And Personal Use Only Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अविद्यमान अव्वल अविद्यमान, वि. (सं.) अनुपस्थित २. असत् अवेद्या, वि. स्त्री. (सं.) अवोढव्या, विवाहानीं। ३. असत्य। अवैतनिक, वि. (सं.) निवेतन, भृसित्यागिन् , अविध, वि. (सं.) निरक्षर, अज्ञ । बादरवृत्ति। . अविद्या, सं. स्त्री. (सं.) अज्ञान, अबोधः २. अवैदिक, वि. ( सं.) वेदविरुद्ध, वेदाविहित । माया (वे.) ३. कर्मकाण्ड ४. प्रथमः क्लेश अव्यक्त, वि. (सं.) परोक्ष. अतीन्द्रिय, गोचर, ( योग.)। -जन्य, वि. (सं.) मोहज, अज्ञात, अनिर्वचनीय । सं. पुं. (सं.) विष्णुः भज्ञानजनित । २ शिवः ३. मदनः ४. प्रकृतिः ( स्त्री.), अविनाशी, वि. ( सं.) अनश्वर, अक्षय, अक्षर, ५. आत्मन् ६. परमेश्वरः ७. मायोपाधिक अव्यय, चिरस्थायिन २. नित्य, शाश्वत। । ब्रह्मन् (न.)। अविनीत, वि. (सं.) उद्धस २. दुर्दान्त ३. धृष्ट । अभ्यपदेश्य, वि. (सं.) अकथनीय २. अनिर्देश्य अविभाज्य, वि. (सं.) अनंशनीय, अवंटनीय। ३. निविकल्प ( न्या०)। अवियुक्त, वि. (सं.) मंयुक्त, संक्लिष्ट। | अव्यय, वि. ( सं.) निविकार, अक्षय, नित्य, अविरत, वि. (सं.) सतत, विरामरहित २. व्ययशून्य । सं. पुं. (सं.) परब्रह्मन् ( न.) आसक्त, अनिवृत्त । क्रि.वि. ( सं. न.) सततं, २. विष्णुः ३. शिवः । ( सं. न.) सर्वविभक्तिभनवरतम्। लिगवचनेषु एकरूपः शब्दः ( उ० सदा, अद्य अविरल, वि. (सं.) संलग्न २. निविड, धन ।। आदि, व्या०)। अविराम, वि. (सं.) सतत, अनवरत २. अवि- अध्ययीभाव, सं. पुं. (सं.) समासभेदः ( 30 श्रान्त । प्रतिदिनं घ्या.)। अविवक्षित, वि. (सं.) अनभिप्रेत, अनुद्दिष्ट अव्यलीक, वि (सं.) सत्य, यथार्थ २. प्रिय २. वक्तुमनिष्ट, अनिष्टकथन । इष्य। भविवाहित, वि. (सं.) अनूढ, कुमार, अकृत, । अव्यवस्था सं. स्त्री. (सं.) अक्रमः क्रमभंगः, -पाणिग्रह-उपयाम-उद्वाह, अपरिणीत । । व्यतिक्रम, व्यस्तता, संक्षोभः २. अवधिः ३. अविवेक, सं. पुं. (सं.) सदसद्विवेचनराहित्यं, दुनिर्वाहः, दुर्णयः ।। विचाराभावः २. अज्ञानं ३. अन्यायः ४. मिथ्या- अव्यवस्थित, वि. (सं.) अक्रम, क्रमशून्य, २. शानम् (सां.)। निर्मर्याद ३. अनियतरूप ४. चंचल । अविवेकी, वि. ( सं.-किन् ) विवेकशून्य, अज्ञा--चित्त, वि. (सं.) चंचल, चित्त-मानस । निन् , अतत्त्वश २. विचारशून्य ३. मूर्ख ४. अव्यवहार्य, वि. (सं.) व्यवहारायोग्य, उपभन्यायकारिन् । योगानई २. पतित, पंक्तिच्युत ।। अविश्रान्त, वि. (सं.) विश्रान्ति शून्य २. सतत, | अव्यवहित, वि. ( सं.) संलग्न, संसक्त, व्यवअविराम। धानशून्य। अविश्वसनीय अव्यवहृत, वि. (सं.) अप्रयुक्त, अप्रचरि ) वि अविश्वस्त | (लि) त। प्रत्ययायोग्य। अव्याकृत, वि. (सं.) अस्पष्ट, अविकसित सं. अविश्वास, सं. पुं. (सं.) अप्रत्ययः, विश्वा- पुं. ( सं. न.) आदिम-तत्त्वम् । सामाव। अव्याप्ति, सं. स्त्री. (सं.) अनमिन्यापनं, व्याअविश्वासी, वि. (सं.-सिन् ) शंका-संशय,- प्त्यभावः २. लक्षणस्य दोषभेदः ( न्या० )। शील-बुद्धि, आ-शंकिन् २. दे. 'भविश्वस्त'। अव्याहत, वि. (सं.) व्याघातशून्य, अप्रतिअवेक्षण, सं. पुं. (सं. न.) दर्शनं, अवलोकन रुद्ध २. सत्य। २. निरीक्षण, परीक्षणम् । अव्युत्पन्न, वि. ( सं.) जड, मन्दमति २. व्या. अवेक्षणीय, वि. ( सं.) दर्शनीय २. निरीक्षि- करणानभिश ३, व्युत्पत्तिरहित (शब्द)। तव्य, परीक्षितव्य। अव्वल, वि. ( भ.) प्रथम, आदिम २. उत्तम, अवेद्य, वि. (सं.) अज्ञेय २. मसभ्य । | श्रेष्ठ । सं. पुं. प्रारम्भः, उप-प्र-प्र-, क्रमः। For Private And Personal Use Only Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अशंक अशंक, वि. ( सं . ) निर्भय, निःशङ्क । क्रि. वि. ( सं. न. ) निःशंकम् । संपूर्ण, २. अनन्त, असीम, अगणित, बहु, ३. समाप्त, अवसित । अशकुन, सं. पुं. ( सं. पुं. न. ) अपशकुनः नं, अशोक, वि. (सं.) दुःख-शोक, -रहित । सं. पुं. अजन्यं, अव अशुभ - दुर्लक्षणम् । (सं.) विशोकः, रक्तपल्लवः (वृक्ष) २. पारदः ३. शोकाभावः ४. नृपविशेषः । अशक्त, वि. (सं.) निर्बल, अबल, २. अक्षम । अशक्य, वि. (सं.) असाध्य, अनिष्पाद्य, अस [ ३७ ] वाटिका, सं. स्त्री. (सं.) विशोकवाटः २० रावणस्य विशोकोद्यानम् । म्भव । अशन, सं. पुं. (सं. न. ) भोजनं, अन्नं, २. अशौच, सं. पुं. ( सं . . ) अमेध्यता, अपवि भक्षणं, खादनम् । अशरण, वि. (सं.) अनाथ, निराश्रय । अशरफी, सं. स्त्री. (फ़ा. ) स्वर्णमुद्रा २. पुष्पभेदः । अशराफ, सं. पुं. ( फ़ा. शरीफ का बहु० ) सज्ज - नाः आर्याः महानुभावा ( सब पुं. बहु० ) अशरीरी, वि. (सं.-रिन् ) अकाय, अशरीर, अदेह २. अपार्थिव । सं. पुं. देवः । अशांत, वि. (सं.) व्याकुल, व्यग्र, विहरू, उद्विग्न, चपल, चंचल | अशांति, सं. स्त्री. (सं.) अशमः, उद्वेगः, व्याकुलता, क्षोभः, व्यग्रता, सन्तोषाभावः । अशास्त्रीय, वि. (सं.) शास्त्रविरुद्ध २. शास्त्र बाह्य | अशिक्षित, वि. (सं.) अनक्षर, निरक्षर, अविध | अज्ञ, अव्युत्पन्न । अशिर, सं. पुं. (सं.) अग्निः २. सूर्यः ३. वायु: । (सं. न. ) हीर, वज्रः- ज्रम् | अशिर, वि. (सं.- रस् ) शीर्ष - मस्तक, -रहित सं. पुं. कबन्धः, रुण्ड: - डम् । - अशिष्ट, वि. (सं.) असभ्य, अविनीत, अभद्र, अनार्य । अशिष्टता, सं. स्त्री. ( सं . ) असभ्यता, घृष्टता दुःशीलता, विनयाभावः । अशुद्ध, वि. ( सं . ) अशुचि, अपवित्र २. अशोधित, असंस्कृत ३. भ्रान्त, वितथ । अशुद्धता, सं. स्त्री. (सं.) अपवित्रता, अशुचिता, २. मलिनता ३. त्रुटि: - भ्रान्तिः (स्त्री.) । अशुद्धि, सं. स्त्री. (सं.) दे. 'अशुद्धता' । अशुभ, सं. पुं. (सं. न. ) अमंगलं, अदितं, अशिवं २. पापं, अपराधः । वि. अमंगल, अभद्र, अशिव । - सूचक, वि. (सं.) उत्पात - अनिष्ट, शंसिन् । अशेष, वि. (सं.) निःशेष, सर्व, समग्र, सकल, अश्वत्थ त्रता, अशुद्धता । अश्क, सं. पुं. ( फा . ) अक्षु (न.), नेत्रजलम् | अश्रद्धा, सं. स्त्री. (सं.) अविश्वासः, अप्रत्ययः, भक्ति निष्ठा अभावः । अश्रान्त, वि. (सं.) स्वस्थ, अक्कान्त । क्रि. वि. (सं. न. ) सततम् | अश्रु, सं. पुं. ( सं. न. ) अनु (न.) वाष्पं, नयनाम्बु (न.) । -पात, सं. पुं. (सं.) रुदितं, रोदनम् । -मुख, वि. (सं.) सास्र. अश्रुलोचन, सवाष्प । अश्रुत, वि. (सं.) अनिशान्त, अनाकर्णित २. अनुभवशून्य । - पूर्व, वि. ( सं . ) अनाकर्णितपूर्व २. अद्भुत । अभौत, वि. (सं.) अवेदोक्त, वैद अश्लिष्ट, वि. (सं.) श्लेषरहित, एकार्थक २. असंयुक्त ३. असंगत । अश्लील, वि. (सं.) व्रीडावर, ग्राम्य, कुत्सित, बीभत्स, अश्राव्य, अवाच्य | अश्लीलता, सं. स्त्री. (सं.) ग्राम्यता, भवा च्यता । अश्व, सं. पुं. (सं.) तुरगः, घोटकः । - आरोहण, सं. पुं. (सं. न. ) अश्वेन विहरणं, घोटकारोहणम् । 1 आरोही, वि. (सं.- हिन्) सादिन्, तुरगिन् । -गंधा, सं. स्त्री. (सं.) हय-वाजि, गन्धा । तर, सं. पुं. (सं.) वेगसर : ( खच्चर ) | ( - तरी = वेगसरी स्त्री. ) - पति, सं. पुं. ( सं . ) तुरगराजः २. सादिन् २. भरतमातुलः ३. नृपविशेषः । - पाल, सं. पुं. ( सं . ) घोटकरक्षकः । - मेघ, सं. पुं. (सं.) वाजिमेधः कतुभेदः । - शाला, सं. स्त्री. (सं.) मन्दुरा, बाजिशाला । अश्वत्थ, सं. पुं. (सं.) चलदलः पिप्पलः । For Private And Personal Use Only Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अश्वत्थामा [ ३८ ] असगंध अश्वत्थामा, सं. पुं. (सं.मन् ) द्रौणिः, द्रोणा- | अष्टक, सं. पुं. (सं. न.) अष्टवस्तुसमुदायः यनः, कृपीसुतः, द्रोणाचार्यपुत्रः । (उ० हिंग्वष्टक) २. अष्टपघात्मककाव्यम् अश्वस्तन, वि. (सं.) अश्वस्तनिक अद्यतन ३. ऋग्वेदस्याष्टमो भागः ४ अष्टाध्यायी। अद्यतनीय २. दरिद्र। अष्टमी, सं. स्त्री. (सं.) तिथिभेदः । वि. स्त्री. अश्विनी, सं. स्त्री. (सं.) घोटिकी, वडवा (सं.)। २. प्रथमनक्षत्रं, दाक्षायणी । अष्टादश, वि. तथा सं. पुं. (सं.शन् ) उक्ता -कुमार, सं. पुं. ( सं.-रौ द्वि०) अश्विनीसुतौ- संख्या तबोधकावंको ( १८) च । देवचिकित्सको, दस्रो, स्ववैद्यौ । असंख्य, वि. (सं.) असंख्येय, असंख्यात, अषाढ़, सं. पुं., दे. 'अषाढ़' । अगणित, संख्या-गणना,-अतीत, अगण्य । अषाढ़ी, सं. स्त्री. ( सं. आषाढी ) आषाढमासस्य असंग, वि. (सं.) एकल, एकाकिन् पूर्णिमा । २. निलिप्त ३. भिन्न । अष्ट, वि. तथा सं. पुं. ( सं. अष्टन् ) दे. 'आठ'! असंगत, वि. (सं.) पूर्वापरविरुद्ध, असम्बद्ध, -अंग, सं. पुं. ( सं. न.) योगस्याष्टांगानि अप्रासंगिक २. अन्याय्य, अनुचित, अयुक्त । (= यमः, नियमः, आसन, प्राणायामः, प्रत्या- असंगति, सं. स्त्री. ( सं.) अनन्वयः, सम्बन्धाहारः, धारणा, ध्यानं, समाधिः) २. आयुर्वे भावः २. अनौचित्यम् ३. अलंकारभेद, दस्य अष्टविभागाः (शल्य इ० ) ३. शरीर- (सा० )। स्याष्टांगानि यैः प्रणामो विहितः ( = जानुपाद- | असंतुष्ट, वि. (सं.) संतोषरहित २. अतृप्त हस्तवक्षःशिरोवचनदृष्टिबुद्धयः) ४. अष्टद्रव्य- ३. खिन्न । घटितपूजोपकरणभेदः । वि. (सं.) अष्टावयव असंतोष, सं. पुं. (सं.) असंतुष्टिः (स्त्री.), २. अष्ट, भुज-पाच । संतोषाभावः २. अतृप्तिः (स्त्री.) ३. खेदः, -अध्यायी, सं. स्त्री. (सं.) पाणिनीयं : ग्लानिः (स्त्री.)। न्याकरणम् । असंबद्ध, वि. (सं.) सम्बन्धरहित, अनन्वित -कोण, सं. पुं. (सं.) अष्टास्र, अष्टकोणा- । २. स्वतन्त्र ३. असंगत, पूर्वापरसम्बन्धरहित । कृतिः ( स्त्री.) २. कुण्डलभेदः। वि. अष्टास्र, असंबाध, वि. (सं.) विस्तीर्ण, असंकीर्ण २. अष्टानिय । शून्य, निर्जन ३. सावकाश ४. निर्बाध । -धातु, सं. स्त्री. (सं. पुं.) धात्वष्टकम् | असंभव, वि. ( सं.) असाध्य, अशक्य, अकर( = सोना, चाँदी, ताँबा, राँगा, जसता, णीय । सं. पुं., अलंकारभेदः ( सा० )। सीसा, लोहा, पारा)। | असंभावित, वि. ( सं.) आकस्मिक, अतकित : -पदी, सं. स्त्री. (सं.) अष्टपदसमूहः असंभाव्य, वि. (सं.) अतक्र्य, अविचार्य, २. छन्दोभेदः । २. दुष्ट । -पहर, सं. पु. ( सं.-प्रहराः) दिनस्याष्ट- भसंभाव्य, वि. (सं.) अकथ्य, अवाच्य यामाः । क्रि. वि., अहर्निशं दिवानिशम् । २, वार्तालापायोग्य (सं. न.) कुवचनम् । -भुजा, सं. स्त्री. (सं.) दुर्गा, विन्ध्याचल- असंयत, वि. (सं.) अनर्गल, निरंकुश, वासिनी देवी। उच्छल २. नियमरहित, अनियत ३. अक्रम । -मूति, सं. पुं. (सं.) शिवः २. शिवस्य । असंशय, वि. (सं.) निविवाद, सन्देह-संशयअष्ट मूर्तयः ( = पृथिवी, जलं, अग्निः, वायु:, रहित २. सत्य । क्रि. वि. (सं. न.) निस्मआकाशः, यजमानः, सूर्यः, चन्द्रः अथवा शर्वः, न्देहम् । भवः, रुद्रः, उग्रः, भीमः, पशुपतिः, ईशानः, असंस्कृत, वि. ( सं.) आशेष्ट, असभ्य, अविमहादेवः)। नीत, अपरिष्कृत । -वर्ग, सं. पुं. (सं.) औषधविशेषाष्टकम् असगंध, सं. स्त्री. (सं. अश्वगन्धा ) हय. ( - ऋषभः, जीवकः, भेदः, महादेवः, ऋद्धिः, तुरंग-गन्धा, बलदा, प्रियकारी, रसायनी, वृद्धिः, काकोली, क्षीरकाकोली)। कुष्ठघातिनी। For Private And Personal Use Only Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra असती असती, सं. स्त्री. (सं.) कुलटा, पुंश्चली । असत्, वि. (सं.) मिथ्या ( अव्य, ), असत्य २. अविद्यमान, सत्ता अस्तितव, हीन www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अनृत, वितथ, अतथ्य, ३. अभद्र, दुष्ट । असत्य, वि. (सं.) अयतार्थ, अलीक, मृषा, मिथ्या - 1 - वादी, वि. ( सं . - दिन ) मिथ्या मृषा-अनृत, वादिन्- भाषिन् । 1 [ ३९ ] असन, सं. पुं. ( सं. अशनं दे० ) । असबाब, सं. पुं. (अ.) परिच्छदः उपस्करः, वस्तुजातं, यात्रासामग्री, वस्त्र पात्र, सम्मारः । असभ्य, वि. (सं.) अशिष्ट, असंस्कृत, ग्रामीण असमर्थ, वि. (सं.) बल-शक्ति, -हीन, दुर्बल, २. अक्षम, अयोग्य | असत्यता, सं. स्त्री. (सं.) अनृतत्वं, असत्यत्वं, असल, वि. ( अ. ) अकृतक, अकृत्रिम, निष्कपट वितथता । ( स्त्री. ) ग्रामीणता । असमंजस, सं. पुं. (सं. न. ) सन्देहः, संशय:, द्वैधीभात्रः, निश्वयाभावः २. विघ्नः ३. (सं. पुं. ) सगरपुत्रः । वि., असंगत, अनुपयुक्त । - में पढ़ना, क्रि. अ., आशंकू-विशंक- विक्कुप् (भ्वा. आ. से. ), संशी ( अ. भा. से. ), मनसा दोलायते ( ना. धा. ) । असम, वि. ( सं . ) अतुल्य, असदृश, असदृक्ष २. अयुग्म, विषम ३. उन्नतानत, असमरेख । ( सं . पुं. ) अलंकार - भेद: (सा० ) । असमत, सं. स्त्री. (अ.) सतीत्वम्, पातित्रस्यम - फरोश, वि. कुलटा, व्यभिचारिणी । फरोशी, सं. स्त्री. व्यभिचारः, सतीत्व-विक्रयः । असमय, सं. पुं. (सं.) अकाल:, कुसमयः, विपत्कालः । क्रि. वि. अकाले, अस्थाने, अयथाकालम् । वि. मनवसर, अ ( आ ) कालिक, असमयोचित । अशक्त, असमर्थता, सं. स्त्री. (सं.) अशक्तता, अक्षमता । असम्मत, वि.(सं.) विमत, विरुद्ध २. अस्वीकृत | असम्मति, सं. स्त्री. ( सं . ) वैमत्यं, विमति असाढ़ असमाहित, वि. (सं.) चलचित्त, लोलबुद्धि, अधीर । असर, सं. पुं. ( अ ) प्रभावः, प्रतापः, प्रतिष्ठा २. फलं, गुणः परिणामः । शस्त्रास्त्रम् २. कवचः चम् । असलियत, सं. स्त्री. ( अ ) सत्यता, वास्तविकता २. मूलं तत्त्वं, सारः । २. असमासद्, असदस्य । असभ्यता सं. स्त्री. ( सं . ) अशिष्टता, असंस्कृतिः असली, वि. ( अ ) दे. 'असल' वि० । असह, वि. (सं. असा दे० ) । असहन, वि. ( सं . ) दे. 'असहनशील' | - शील, वि. ( सं . ) अमर्षण, अक्षमिन्, असहिष्णु, असहन, अक्षम । -शीलता, सं. स्त्री. ( सं .) असहिष्णुता, क्षमा मर्षण- तितिक्षा, अभावः । असहनीय, वि. ( सं . ) दे. 'असा' । असहयोग, सं. पुं. ( सं . ) असहकारिता, असाहाय्यं, असहोद्योगः । - आंदोलन, सं. पुं. ( सं. न. ) असद्दकारिता व्यापारः । असह्य, वि. (सं.) असहनीय, असोढव्य, सहनायोग्य दुःसह, दुर्विषद | असहाय, वि. (सं.) निराश्रय, निरावलम्ब, अगतिक, अशरण । असहिष्णु, वि. (सं.) दे. 'असहनशील' । असहिष्णुता, सं. स्त्री. (सं.) दे. असहन शीलता । असांप्रत, वि. सं. (सं.) अशोमन, अनुचित २. असामयिक ३. वर्तमानासम्बद्ध | (स्त्री.) मतभेदः, विरोधः । असमान, वि. ( सं . ) विजातीय, अतुल्य | असमाप्त, वि. ( सं ) असंपन्न, अनवसित, अ । - करना, क्रि. सं., प्रभावं जन् ( प्रे० ), फलं उत्पद् ( प्रे० ) । -होना, क्रि. अ., परिणामः जन् ( दि. आ. से.) फलं निष्पद् (दि. आ, अ ) २. उत्कृष्ट ३. शुद्ध, अमिश्रित । सं. पुं., मूलं, तत्त्वम् ४. मूल धनं द्रव्यम् । असलह, सं. पुं. ( अ० 'सिलाह' का बहु० ) असांप्रदायिक, वि. (सं.) अमतवादिन्, उदार २. परम्पराविरुद्ध । असा, सं. पुं. (अ.) दण्डः, लगुडः, यष्टिः ( पुं. स्त्री. ) । असाद, सं. पुं. (सं. आषाढ़ः ) वर्षस्य चतुर्थमासः। For Private And Personal Use Only Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir असाढ़ी [ ४० ] असोसियेशन असाढ़ी, वि. (हिं. असाढ़) आषाढसम्बन्धिन् । असिनी, सं. स्त्री. ( सं. ) नदीविशेषः (चना) सं. स्त्री. आषाढोतं शस्य २. आषाढपूर्णिमा। २. अन्तःपुरचारिणी भवृद्धा दासी। असाधन, वि. (सं.) साधन-उपाय, हीन- असित, वि. (सं.) कृष्ण, नील, श्याम, रहित, निरुपाय, निस्साधन । । मेचक २. दुष्ट ३. वक्र । असाधारण, वि. (सं.) विशेष, विलक्षण, असितांग, सं. पुं. (सं.) शिवः । वि., कृष्ण, = अद्भुत (-णी स्त्री.)। अंग-रूप-देह । असाध्य, वि. (सं.) अशक्य, अनिष्पाथ । असिता, सं. स्त्री. (सं.) दे. 'यमुना' । २. दुस्साध्य, दुष्कर ३. अचिकित्स्य, दुरुपचार, असिद्ध, वि. (सं.) अनिष्पन्न २. अपक्क निरुपाय, अप्रतिकार्य । । ३. अपूर्ण ४. निष्फल ५. अप्रमाणित । असामयिक, वि. (सं.) अनवसर, असमयो- असिनि, सं., स्त्री. (सं.) निष्फलता, विफलता चित, अ(भा)कालिक (-की स्त्री. ) अप्राप्त २. अपुष्टता, अपक्कता। काल, अस्थान । असिस्टेंट, वि. ( अं) सहायक, सहाय, उप-। असामयं, सं. स्त्री. (सं. न.) दे. 'असमर्थता' । -एडिटर, सं. पुं., उपसम्पादकः । असामी, सं. पुं. (अ. आसामी) जनः, पुरुषः असी, सं. स्त्री. (सं. असिः पुं.; असी) काशी२. कृषकः ३. प्रत्यर्थिन्, प्रतिवादिन् । दक्षिणवतिनी नदी। ४. अपराधिन्, दण्ड्यः ५. मित्रं. सखि (पुं.)। असीम, वि. (सं.) निस्सीम, निरवधि २. अमित सं. स्त्री., परकीया २. वेश्या ३. दासवृत्तिः ३. अपार ४. अगाध । (स्त्री.) ४. रिक्तस्थानम् । असील, वि. (अ. असल) दे. 'असल' । खरा-, सं. पुं., ऋणशोधकः। असीर, सं. पुं. (अ.) ग्रहकः, कारागुप्तः । डूबा-, सं., पुं., ऋणशोधाक्षमः । असीरी, सं. स्त्री. ( फा.) कारावासः, आसेधः, मोटा-, सं. पुं., धनाढ्यः । निरोधः । लीचड-.सं.पं. बद्धमष्टिः, अदित्सः। | असीस, सं. स्त्री. (सं. आशिम् स्त्री.) आशीर-, असार, वि. (सं.) निस्सार, फल्गु, निष्फल वादः-वचनं, मंगलशब्दः । २. रिक्त ३. तुच्छ । सं. पुं., एरण्डः २. अगरुः । असु, सं. पुं. (सं.) प्राणाः असवः (दोनों असारता, सं. स्त्री. (सं.) निस्सारता, तत्त्व बहुवचन)। राहित्यम् २. मिथ्यात्वं ३. तुच्छता । असुविधा, सं. स्त्री. (सं.> ) कठिनता, असालत, सं. स्त्री. (अ) कुलीनता २. सत्यता। सौकर्याभावः २. विन्नः । असालतन् , क्रि. वि. (अ) स्वयं, स्वतः असुर, सं. पुं. (सं.) दैत्यः, राक्षसः २. रात्रिः, (दोनों अव्यय)। ३. दुर्जनः ४. पृथिवी ५. सूर्यः ६ मेघः ७. राहुः असावधान , वि. (सं.) प्रमत्त, प्रमादिन् , ८. उन्मादभेदः । मन्दादर, अनवधान, अनवहित । -अरि, सं. पुं. (सं.) विष्णुः २ देवता। असावधानता, सं. स्त्री. ( सं.) प्रमादः, मनो• -गुरु, सं. पुं. ( सं.) शुक्राचार्यः । योगाभावः, अनवधानं, उपेक्षा । असूया, सं. स्त्री. (सं.) परगुणेषु दोषारोपः असावधानी, सं. स्त्री. दे. 'असावधानता'। । २. संचारिभावभेदः ( सा.)। असावरी, सं. स्त्री. (सं.अ (आ) शावरी) असूर्यपश्या, वि. स्त्री. (सं.) अवरोध-अन्तःपुर-, रागिणीभेदः। वर्तिनी, अवगुण्ठनवती, अति लज्जावती। असासा, सं. पुं. (अ.) सम्पत्तिः ( स्त्री.), | असूल, सं. पुं., दे. 'उसूल' २. दे. 'वसूल' । विभवः। असेसर, सं. पुं. (अं. एसेस्सर) सभ्यः, असि, सं. स्त्री. (सं.पु.) खड्गः २. नदीविशेषः। समासद् । असिक, सं. पुं. (सं. न. ) चिबुकाधरयो- असोज, सं. पुं. (सं. अश्वयु >ज) आश्विनमासः । मध्यभागः। | असोसियेशन, सं. स्त्री. ( अं.) समा, समाजः । For Private And Personal Use Only Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir असौम्य असौम्य, वि. (सं.) कुरूप, कुदर्शन २. अप्रिय, अरुचिर | असौष्ठव, सं. पुं. (सं. न.) कुरूपता, सौन्दर्या - अस्थिर, वि. (सं.) चपल, चंचल, तरल २. चलभावः । वि, कुरूप, असुन्दर । अस्त, वि. (सं.) गुप्त, तिरोहित, २. अदृष्ट, लुप्त ३. नष्ट, ध्वस्त | सं. पुं., तिरोधानं, लोपः, अदर्शनम् । [ ४ - वेला, सायं, सायंकालः, दिनावसानं, प्रदोषः । अस्तमित, वि. ( सं . ) अस्तंगत, अदृष्ट, तिरो २. औषधालयः । गत, वि, (सं. अस्तंगत ) लुप्त, अस्तमित, अदर्शनंगत | अस्तबल, सं. पुं. ( अ ) मन्दरा, अश्व-वाजि अस्पष्ट, वि. (सं.) अप्रकट, अस्फुट, अविशद घोटक, - शाला । हित २. नष्ट, मृत | अस्तर, सं. पुं. (फ़ा) अन्तराच्छादनं, अन्तः पटः । -कारी, सं. स्त्री. (फ़ा ) सुधालेपः २. ( पलस्तर ) उपनाहः उपदेद्दः । २. दुर्बोध, संदिग्ध । अस्तमन, सं. पुं. (सं. न. ) अदर्शनं, तिरोधानं | अस्पृश्य, वि. (सं.) स्पर्शायोग्य २. अस्पर्श२. सूर्यादीनामस्तोऽस्तमयो वा । नीय, भन्त्यज, हीनवर्ण, दुम्कुलीन । अस्पृह, वि. (सं.) निस्स्पृह, लोभरहित, अलोलुप | अस्फुट, वि. (सं.) अस्पष्ट, अन्यक्त, गुप्त, परोक्ष । अस्बाब, सं. पुं. दे. 'असबाब' । अस्मार्त, वि. (सं.) स्मरणातीत २. अवैध, भार्यशास्त्रविरुद्ध | अस्मिता, सं. स्त्री. (सं.) क्लेशभेद: ( यो. ) २. अहंकारः । अस्त्र, सं. पुं. (सं.) कोणः २. केशः । अत्र, सं. पुं. (सं. न. ) रक्तं रुधिरं २. अश्रु (न.), नयनजलम् । अस्ल, दे. 'असल' अस्वस्थ, वि. (सं.) रुग्ण, व्याधित, रोगिन् २. व्यथित । अस्वाभाविक, वि. (सं.) अनैसर्गिक, निसर्गप्रकृति सृष्टक्रम, विरुद्ध २. कृत्रिम, कृतक । अस्वास्थ्य, सं. पुं. (सं. न. ) रोगः, व्याधिः, गदः, आमयः । अस्त-व्यस्त, वि. ( सं . ) सं. - प्र - वि-आ, - कीर्ण, संकुल, अव्यवस्थित | अस्ताचल, सं. पुं. ( सं .) अस्त - पश्चिम, - गिरिःपर्वतः । अस्तित्व, सं. पुं. (सं. न.) भावः, सप्ता, विद्यमानता । अस्तु, अव्य. (सं.) यद् भवि तद् भवतु २. बाई, भवतु, भद्रम् ( सब अव्य. ) । अस्तेय, सं. पुं. ( सं. न. ) स्तेय-मोष - चौर्यस्तन्य,-त्यागः । अहंकारी । - पंजर, सं. पुं. (सं.) कंकालः, करंकः, देहास्थिसमूहः । अस्त्र, सं. पुं. ( सं. न. ) प्रहरणं, आयुधं, क्षिपणीणि: (स्त्री.) २. शस्त्रम् । - चिकित्सक, सं. पुं. ( सं .) शल्यशास्त्रज्ञः, शस्त्रवेद्यः, शल्यतंत्रविद् । - चिकित्सा, सं. स्त्री. (सं.) शल्यं, शस्त्रवैद्यकं, शल्यशास्त्रम् । विद्या, सं. स्त्री. (सं.) युद्धशास्त्र, सांग्रामिकं, आयुध-रण, विद्या - वेद, सं. पुं. (सं.) धनुर्वेदः । ] -शाला, सं. स्त्री. (सं.) अस्त्र - आयुध, आगारं, शस्त्रगृहम् । अस्थि, सं. स्त्री. (सं. न.) कीकसं, कुल्यं, मैदोजम् । चित्त, लोलमति । अस्थिरता, सं. स्त्री. (सं.) चाञ्चल्यं, तारल्यं, अस्थैर्यम् २. चलचित्तता, मनोलौश्यम् । अस्पताल, सं. पुं. ( अं. हॉस्पिटल ) आतुरालयः, चिकित्सालयः, रुग्णागारः आरोग्यशाला अस्सी, वि. (सं. अशीतिः स्त्री. ) । सं. पुं. उक्ता संख्या, तद्बोधकाको (८०) च । अहं, सर्व (सं० ) । सं. पुं. अहं, कारः - कृतिः (स्त्री.) - भावः- पूर्विका, भात् मभिमानः । अहंकार सं. पुं. (सं.) गर्वः, दर्पः, मदः, मादः, आटोप:, मानः, उत्सेकः अहं, - मानः- भावःकृतिः (स्त्री.) २. अन्तःकरणस्य भेद विशेषः (वे. ) १. महत्तत्वजातो द्रव्यविशेषः (सां.) ४. अस्मिता ५. ममत्वम् । अहंकारी, वि. (सं.-रिन् ) दृप्त, गर्वित, अवलिप्त, उद्धत, मन्त, उत्सेकिन्, अभिमानिन् । For Private And Personal Use Only Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अहंवाद [ ४२ ] अह - अहंवाद, सं. पुं. (सं.) आत्मश्लाघा, अहंका-|-फरामोशी, सं. स्त्री. (फ़ा.) कृतघ्नता, रोक्तिः ( स्त्री.), विकत्थनम् । उपकारविस्मरणं, अकृतवेदिता । अह, सं. पुं. ( सं., अहन् न.) दिनं, दिवसः -मंद, वि. ( फ़ा.) कृतश, कृतवेदिन् । २. सूर्यः ३. विष्णुः। -मंदी, सं. स्त्री. (फ़ा) कृतज्ञता, उपकार. अहे, अव्य. (सं. अहह अव्य.) आश्चर्यखेडक्ले- शता। शादिबोधकमव्ययम् । अहह, अव्य. (सं.) आश्चर्यखेदक्लेशशोकादिअहद, सं. पुं. (अ.) प्रतिज्ञा, सं-प्रति,-श्रव- सूचकमव्ययम् । ५. संकरपः ३. शासनकालः । अहाँ, अव्य. (अनु.) मा, नो, न । -नामा, सं. पुं., प्रतिज्ञा-समय, पत्र लेख्यम् अहा, अव्य. ( सं. अहह ) हर्षप्रशंसादिसूचक१. सन्धिपत्रम् । मव्ययम् । -शिकन, सं. पुं., प्रतिज्ञालंधिन् , असत्यसन्ध।। अहाता, सं. पुं. (अ.) परिसरभूमिः (स्त्री.), -शिकनी, सं. स्त्री., प्रतिज्ञाभंगः, असत्य- प्रागणं ( -नं) २. प्राकारः, प्राचीरम् । सन्धत्वम् । अहार, सं. पुं., दे. 'आहार'। । अहन् , सं. पुं. ( सं. न.) दिनं, दिवसः।। अहार्य, वि. (सं.) अचोरणीय, अमोषणीय । अहनिसि, अव्य. दे. 'अहर्निश'। २. धनच्छलादिमिः भवश्य-अदम्य । अहबाब, सं. पुं. (अ., 'हबीब' का बहु०) अहाहा, अव्य. (सं. अहह) हर्षसूचकाव्ययम् । अहम, वि. (अ.) महत्त्वपूर्ण, अत्यावश्यक ।। अहिंसक, वि. ( सं.) अहिंस्र, अधातुक (-की अहमक, वि. ( अ.) जड, मूढ, मूर्ख । स्त्री.) २. अदुःखद। अहमहमिका, सं. स्त्री. (सं.) अहमग्रिका, अहिंसा, सं. स्त्री. (सं.) हिंसा-अपकार-द्रोहप्रति-, स्पर्धा । वर,-त्यागः। अहम्मति, सं. स्त्री. (सं.) अहंकारः २. अविद्या। अत्रि .वि. (सं.)दे.'अहिंसिक। अहर, सं. पुं. ( सं. आहर >) जलाशयः।। अहि, सं. पुं. (सं.) सर्पः २. वृत्रासुरः ३. भूमिः अहरन, सं. स्त्री. (सं. आ+धरणं < ) शूर्मः, (स्त्री.) ४. सूर्यः ५. राहुः ६ खलः । शूमी, शूमिका, स्थूणा, शूमिः ( पुं. स्त्री.)। अहित, वि.(सं.) वैरिन् , द्रोहिन् २. हानिकर अहरहः, अव्य. (सं.)प्रति-अनु,-दिनं, प्रत्यहं (-री स्त्री.) । सं. पुं. (सं.न.) अमंगलं, अभद्रम् । दिने दिने। अहिफेन, सं. पुं. (सं. पुं. न.) सर्पविषं, अहरा, सं. पुं. ( सं. आहर >) गोमय पिंडराशिः सर्पमुखलाला २. (अफ़ीम) अफेनं, अहिफेनम् । २. गोमयाग्निः ३. पथिकाश्रमः ४. प्रपा । अहिम, वि. (सं.) तप्त, उष्ण । अहरी, सं. स्त्री. (हिं. अहरा) प्रपा २, जला- -कर, सं. पुं. (सं.) सूर्यः । धारः। अहिवात, सं. पुं. (सं. अभिवाद्य >?) सौभाग्य, अहर्निश, क्रि. वि. (सं.शं) दिवानिशं, रात्रि- सधवात्वं, सर्तृकात्वं, पतिमत्ता ! दिवम् २. नित्यम् (सब अव्य.)। अहिवातिन,-ती, (हि. अहिवात ) सौभाग्यअहलकार, सं. पुं. (फ्रा.) राज,-पुरुषः-मृत्यः वती, सधवा, सभर्तृका।। २. प्रतिनिधिः, प्रतिहस्तः। अहीर, सं. पुं. ( सं. आभीरः ) गोपः गोपालः, अहलमद, सं. पुं. (फ़ा.) अधिकरणलेखकः। गोपालकः गोसंख्यः, वल्लवः । अहल्या, वि. (सं.) कर्षणायोग्या ( भूमिः)। अहीरिन, री, सं. स्त्री. (सं. आभीरी) गोपी, सं. स्त्री. गौतमपत्नी। गोपिका, दोहिनी, गोदोहिनी। अहसान, सं. पुं. (अ.) उपकारः, हितं. अहीश, सं. पुं. (सं.) शेषनागः, सर्पराजः २. कृपा ३. कृतज्ञता। २. शेषावताराः ( लक्ष्मणबलरामादयः)। -फरामोश, वि. (फा) कृतप्त (-श्री स्त्री.), अहुत, सं. पुं. (सं.) जपः, ब्रह्मयशः, वेदपाठः । अकृत, इन्वेदिन् । । अह, अन्य. (सं.) हे, अयि, भोः। For Private And Personal Use Only Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अहेतुतुक [ ४३ ] आँखें लगना अहेतुतुक, वि. ( सं . ) अकारण, निष्कारण, लगी, सं. स्त्री, उपपत्नी, भुजिष्या । - आना, मु., नेत्रपाकः । -उठाकर न देखना, मु., आवगण-अवधीर् (चु.) । - उठाना, मु., दृश् ( स्वा. प. अ.) २. अपकर्तुं यत् (भ्वा. आ. से. ) । निर्निमित्त, २. व्यर्थ, निष्फल । अहेर, सं. पुं. ( सं . आखेट: ) मृगया, मृगव्यम् २. वन्यजन्तवः, ( बहु० ) । अहेरिया, अहेरी, सं. पुं. (हिं. अहेर ) व्याधः, लुब्धकः मृगयुः आखेटकः । अहो, अव्य. (सं.) हे, अरे २. करुणाखेदहर्षप्रशंसासूत्रकमव्ययम् । अहोभाग्य, सं. पुं. ( सं . न . ) सौभाग्यं, पुण्यो - दयः, भाग्योपचयः । अहोर- बहोर, क्रि.वि. (हिं. बहुरना) भूयो भूयः, वारं वारं ( दोनो अव्य० ) । अहोरात्र, सं. पुं. ( सं . पुं. न. ) दिवानिशं अहर्निशं, दिवारात्रं, नक्तंदिवम् (सब अव्य.) । - का काजल चुराना, मु. चौर्यपाटवम् । - का तारा, मु., तारका, कनीनिका २, स्नेहभाजनम् २. एकलः पुत्रः । —की मैल, सं. स्त्री, दूषिका, अक्षिमलम् । आँखें चार करना, मु., परस्परावलोकनम् । चुराना वा छिपाना, मु., निली (दि.आ.अ.) २. परदर्शनं परिह (भ्वा. प. अ. ) । झपकना, मु., निद्रावश (वि.) भू २. निमिष् ( तु. प. से. ), निमील ( भवा. प. से. ) । ठंढी करना, मु., दर्शनेन प्रसद् (भ्वा. प. अ.) । - डबडबाना, मु., सास्रनयन (वि.) भू । आ आ, देवनागरी वर्णमालाया द्वितीयः स्वरवर्णः, -दिखाना, मु., सरोषं बीक्षू ( भ्वा. आ. से. ) आकारः । २. मी त्रस् (प्रे.) । - नीची होना, मु., लस् त्रप् (भ्वा आ. से. ) । - नीली पीली करना, मु., अत्यन्तं कुप् ( दि. प. से. ) । आः, अन्य. ( सं . ) स्वीकृत्यनुकंप | कोपशोकस्मृत्यादि सूचकमव्ययम् । आँक, सं. पुं. (सं. अंक: ) चिह्न, अभिज्ञानम् २. संख्याचि, अंकः ३. वर्णः, अक्षरम् ४. सिद्धान्तः ५. अंशः, भागः, ६. वंश ७. उत्संगः, क्रोडम् ८. रेखा ९. मूल्य संकेत: । आँकड़ा, सं. पुं. (हिं. आँक ) संख्याचिह्नम्. अंकः २. व्यावर्तनकील: (पेंच) । आँकड़े, पुं. (हिं. आँक ) अंकाः । आँकना, क्रि. सं. (सं. अंकनम् ) अंक (चु, (भ्वा. आ. से. ), चिह्नयति•मुद्रयति (ना. धा.) लांछ (भ्वा. प. से.), २. ऊ (भ्वा. आ. से. ), त' ( चु. ) । आँकुस, सं. पुं., दे. 'अंकुश' । आँख, सं. स्त्री. ( सं. अक्षि न. ) चक्षुस् (न.), वि. - लोचनं, नेत्रं, नयनं, ईक्षणं, दृश्-दृष्टि: ( दोनों स्त्री. ) २. नयनाकारं चिह्नम् ३. सूची छिद्रम् ४. कृपा ५. विवेकः ६. निरीक्षणम् । - अंजनी, सं. स्त्री. ( सं . अक्षि + अंजनम् > ) पक्ष्मपिटिका | - का गोला सं. पुं., अक्षिगोलकम् । - का पर्दा, सं. पुं, अक्षिपटलम् । - मिचौली, सं. स्त्री, अक्षिमेषणी, बालक्रीडाभेदः । - पर पर्दा पड़ना, मु., विमुह् ( दि. प. से. ) । - पर बैठाना, मु. अत्यन्तं संमन् ( प्र. ) । - - फड़कना, मु., नेत्रं स्फुर् ( तु. प. से. ) । -फेर लेना, मु., अवमन् ( दि. आ. से. ) २. प्रतिकूल (वि.) जन् (हि. आ. स. ) ! - बंद करलेना, मु. मृ ( तु.आ.अ.) । ― बिछाना, मु., प्रेम्णा प्रविशू (प्रे.) २. सस्नेहं प्रतीक्ष ( स्वा. आ. से. ) । -भर आना, मु., साम्रनेत्र (वि.) जन् । - मटकाना, मु., सहावं वीक्षू (भ्वा. आ. से.) । -मारना, मु., निमेषेण सूच् ( चु. ) । मिंच जाना, मु., मृ ( तु. आ. अ. ) २. दे. 'झपकना' । -मिलाना, मु., सहावं दृश् (भ्या. प. अ. ) । - मीचना, नेत्रे निमील (भ्वा. प. से. ) 1 - में घर करना, मु., हृदये वसू (भ्वा. प. अ.) । - में चरबी छाना, मु., दर्पान्ध बि.) जन् ( दि. आ. से. ) । - में धूल झोंकना, मु., प्रतॄ (प्र. ) । ——लगना, मु., स्वप् ( अ. प. अ. ) २. बद्धभाव (वि.) भू । For Private And Personal Use Only Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir aa art [ ४४ ] - सेंकना, मु., सौन्दर्यदर्शनेन प्रसद् ( भवा. | बड़ी, बृहदन्त्रम् । प. अ.) । । - से गिरना, मु., अवगण - अवमन् ( कर्म. ) आंग, वि. (सं.) शारीरिक, दैहिक २. अंगिन्, अवयविन् ३. अंगदेशज । आँगन, सं. पुं. (सं. अंगनं णम् ) अजिरं, प्रांगणम् । आंगिक, वि. (सं.) शारीरिक, दैहिक, कायिक (- की स्त्री. ) सं. पुं., अभिनय भेदः । आँच, सं. स्त्री. (सं. अचिस् त्री, न० ) तापः, दाहः, उष्णता, ऊष्मः २. अग्नि, ज्वाला- शिखा जिह्वा ३. अग्निः अनलः ४. हानिः (स्त्री.) ५. विपत्तिः (स्त्री.) । -आना वा खाना वा पहुँचना वा लगना, क्रि. अ., तप् (दि. आ. अ. ), उष्णी भू । -देना, क्रि. स. तपू (प्रे.) । - न आने देना, मु., कष्टात (भ्वा. आ.अ.) । आँचल, सं. पुं. ( सं . अंचक:-लम ) पटान्तः, वस्त्रप्रान्तः २. प्रान्तभागः । -देना, मु. स्तन्यं दा ( जु. उ. अ. ) । - में बाँधना, मु., स्मरणार्थं पटप्रान्ते ग्रंथिदा नम् २. नित्यं पार्श्वे स्थापनम् । - आँजन, सं. पुं., दे. 'अंजन' । आंजनेय, सं. पुं. (सं.) इनुमत, पवनपुत्रः । 1 आँट सं. स्त्री. (हिं. अंटी ) करतले अंगुष्ठतर्जन्योर्मध्यस्थानम् २. पणः, ग्लह: ( दाँव) ३. विरोध: ४. नीवी, बंधनम् ५. पोटलिका | -सौंट, सं. स्त्री, सहकारिता २. संश्लेषः ३. कुमंत्रणा | मारुतिः आक की बुढ़िया आंतर, वि. (सं.) आभ्यन्तर, अन्तर्गत, अंत रंग | आंतरिक, वि. (सं.) अन्तर्गत, अन्तःस्थ, आन्तर, आभ्यन्तर (-री स्त्री.), अन्तः ( उ. अन्तवेदना ) २. मानसिक, हार्दिक, आत्मिक | आंदोलन, सं. पुं. (सं. न. ) चेष्टा, प्रवृत्तिः (स्त्री) २. असकृत् कंपनम् ३. क्षोभः, विप्लवः, प्रकोपः । आँधी, सं. स्त्री. (सं. अंम् > ) वात्या, चंड महा अति, वातः, प्रभंजनः प्रकंपनः । आंध्र, सं. पुं. ( सं . आन्ध्राः ) दक्षिणापथे प्रान्तविशेषः २. आन्धवासिन् । -बाँय, सं. स्त्री. (अनु० ) प्रलापः, जल्पितम् । | आँव, सं. स्त्री. (सं. आम > ) श्लेष्मन् (पुं.) । - गिरना, क्रि. अ. आमातिसारेण पीड़ (कर्म) । आँवल, सं. पुं. ( सं. उल्वम् ) कजल (पुं., न.), जरायु (न.) । परितत् (पुं. न. ) । - उतरना, मु., अंत्रस्रंसेन अंत्रवृद्ध्या वा पीड् ( कर्म. ) । — छोटी, क्षुद्रान्त्रम् | नाल, सं. स्त्री, नाभि, नालं नाडी । आँवलगट्टा, सं. पुं. (हिं. आँवला + गांठ ) शुष्कामलकम् । आँवला, सं. पुं. (सं. आमलकः- कम्-की ) अमृता, शिवा, शान्ता, धात्री, श्रीफला । आँवाँ सं. पुं. (सं. आपाकः ) कुम्भकारपात्र पाकस्थानम् । आशिक, वि. (सं.) आंगिक, भागिक, खाण्डिक । आँसू, सं. पुं. (सं. अश्रु न. ) वाष्प:, अत्रं, नेत्र - नयन, - जलं - वारि-उदकम् । - गिराना, कि. स., रुद्र ( अ. प. से. ) । - पी जाना, सु, अश्रूणि अव-सं-नि, रुध् उ. अ.) । ( रु. पोंछना, मु., आसमा, श्वस् (प्र. ) आँहाँ, अ. ( अनु. ) न, नो, मा ( सब अव्य.) । आइस्कीम, सं. स्त्री. (अं.) हिम्, सत्तानी - शरः । आँटी, सं. स्त्री. (आँटना ) लंबतृणपोटलिका २. सूत्र, पंजी- पंजिका ३. बालक्रीडोपयोगी काष्ठखं डभेदः ४. शाटीग्रन्थिः (पुं. ) । औंठी, सं. स्त्री. ( सं . अष्ठिः स्त्री.) फल, बीजं आई, सं. स्त्री. (हिं. आना ) मृत्युः । क्रि. अ. गर्भः २. ग्रन्थिः ३. नवोढास्तनः । आगता । आंड, वि. (सं.) अण्ड, -ज- उद्भव | सं. पुं. आईन, सं. पुं. (अ.) विधिः, विधानम्, नियमः (सं.) हिरण्यगर्भः, २. संविधानम् । आँत, सं. स्त्री. ( सं . अन्त्रम् ) पुरीतत् (पु. न. ) आईना, सं. पुं. (फ़ा. ) मुकुरः, दर्पण: । आक, सं. पुं. (सं. अर्क: ) मन्दारः, क्षीरदल:, तूलफलः, सूर्याह्नः, सदापुष्पः । --की बुढ़िया, मु., मन्दारपुष्पम् २. अतिवृद्धा नारी । For Private And Personal Use Only Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भाकर [ ४५ ] आक्रोश आकर, सं. पुं. (सं.) ख(खा)नि-नि: (स्त्री.) -बेल, सं. स्त्री. (संरी-वल्ली) अमरवल्ली, उत्पत्तिस्थानम् २. निधिः, भाण्डागारम् ३. खवल्ली, व्योमलतिका। प्रकारः, भेदः। -भाषित, सं. पुं. (सं. न.) गगनलपितम् , -भाषा, सं. स्त्री. मूलप्राचीनभाषा ( उ०)। नाट्ये भाषणभेदः। हिन्दी की आकरभाषा संस्कृत, उर्दू की फ़ारसी। -वाणी, सं-स्त्री. (सं.) देववाणी, अशरीरिणी आकर्षक, वि. ( सं.) आकर्षणकर २. मनोहर । वाक् (स्त्री.)। आकर्षण, सं. पुं. (सं. न.) आकर्षः, आवर्ज -वृत्ति, सं. स्त्री. (मं.) अनियतो धनागमः । नम् , अनुकर्षः, अनुकर्षः, अनुकर्षणम् । -चूमना, मु., अभ्रंकिह (अ० प. अ.), गगनं -करना, त्रि. स., आ-समा, कृष् ( भ्वा. प. चुम्ब ( भ्वा. प. से.)। आ ), आवृज (चु.) २. विमुह (प्रे० )। -पाताल एक करना, मु., अत्यर्थ प्रयत् (भ्वा. आकर्षित, वि. (सं.) कृताकर्षण २. प्रलोभित । | आ. से.)। आकलन, सं. पुं. (सं. न.) ग्रहणम् २. संचयः | -पाताल का अन्तर, मु., महदन्तरं, महान् ३. गणनम् ४. अनुष्ठानम् ५.निरीक्षणम् । भेदः। आकस्मिक, वि. ( सं.) अकाण्ड, अचिन्तितपूर्व, आकुश्चन, सं. पुं. (सं.न.), संकोच नं, समा. हठाजात । कर्षः, संकोचनं, प्रसृतस्य संक्षेपणं, वक्रत्वसम्पा. आकांक्षा, सं. वी. (सं.) इच्छा, अभिलाषः, दनम् । स्पृहा, वान्छा २. अपेक्षा ३. अनुसंधानम् ४. आकुंचित, वि. ( सं.) संकोचित २. वक्र । वाक्ये शब्दस्य शब्दान्तरराश्रितत्वम् । आकुल, वि (सं.) व्याकुल, उद्विग्न, व्यग्र, क्षुब्ध, आकांक्षी, वि. (सं--क्षिन् ) इच्छुक, अभिला अशान्त, व्यस्त, विह्वल, कातर २. समाकीर्ण, पिन् , ईसु, सस्पृह । संकुल । आकार, सं पुं. (सं.) आकृतिः मूत्तिः (स्त्री.), आकुलता, सं. स्त्री. (सं.) उद्वेग, क्षोभः, अशारूपम् २. कायपरिमाणम् ३. अवयवसस्थानम् । न्तिः (स्त्री.)। ४. चिह्नम् . ५. चेष्टा ६. 'आ' इति वर्णः | आफूति, सं. स्त्री. (सं.) अभिप्रायः, आशयः ७. आहानम् । २. उत्साहः ३. सदाचारः। -गुप्ति, सं. स्त्री. (सं.) अवहित्या। आकारण, सं. पुं. (सं. न.) आह्वानम् , आम- | आकृति, सं. स्त्री. (सं.) आकारः, रूपं, मूतिः कात, स प्रणम् २. दे. 'चुनौती' । । (स्त्री.) २. मुखं, भाननम् ३. अवयवसंस्थानं, आकारवान् वि. ( सं.-वत् ) साकार, मूर्तिमत् | मन शरीररचना ४. मुद्रा, चेष्टा ५. जातिः। (स्त्री. न्या.)। विग्रहिन्। आकालिक, वि. (सं.) असामयिक । आकृष्ट, वि. (सं.) आकर्षित, कृताकर्षण । आकालिकी, सं. स्त्री. ( सं.) दे. 'बिजली' भाकंद, सें. पुं. (सं.) रोदनं, रुदितम् , आकाश, सं. पुं. (सं. पुं. न.) गगनं, नभस् , चीत्कारः २. युद्धघोषः ३. तुमुलयुद्धम् । वियत् , व्योमन् ( सब न.), अंबरं, अन्तरिक्ष, आक्रमण, सं. पुं. (सं. न.) आक्रमः, अवखं, नाकः, दिव , यो ( दोनों स्त्री.), विहायस स्कन्दः, अभिद्रवः, अभिप्रयाणं, आपातः २. (पं. न.), विहायसः. अनं. पष्कर. अनन्तं. रोधनं, अव-उप,-रोधः ३. आक्षेपणं, निन्दनम् । विष्णुपदं, तारापथः। | आक्रांत, वि. (सं.) अभिद्रुत, अभिप्रयात, २. -कुसुम, सं. पुं. (सं.न.) खपुष्पं, शश, अभि-परा-वशी, भूत ३. परिवेष्टित ४. व्याप्त, विषाण-शृङ्गम् , असंभवं वस्तु (न.)। आकीर्ण । -गंगा, सं. स्त्री. (सं.) मन्दाकिनी, स्वर्णदी। आक्रामक, सं. पुं. (सं.) अभियातु, अभिया-चारी, वि. (सं-रिन् ) खेचर, नभश्चर (-चरी | यिन् , भाक्रमणकारिन् ।। स्त्री.)। सं. पुं. सूर्यादिग्रहाः "२. वायुः ३. आक्रोश, सं. पुं. (सं.) शापः, भाक्षेपः, गालीखगः ४. देवः ५. राक्षसः। दानम् । For Private And Personal Use Only Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir आक्षेप [ ४६ ] आगा % आक्षेप, सं. पुं. (सं.) अपवादः, दोषारोपः २. | -भड़काना, मु., वैरोद्दीपनं, क्रोधोद्दीपनम् । पातनं, प्रासनम् ३. कटूक्तिः (स्त्री.) ४. -लगना, मु., ज्वलनम् २. कुप् ३. ईष्य अंगकंपयुतो वातरोगभेदः। (वा. प. से.) ४. वस्तूनां बहुमूल्यता । आक्साइड, सं. पुं. ( अं.) जारेयम् । -लगाना, मु., आवेशवर्धनम्, क्रोधोत्पादनम् आक्सिजन, सं. पुं. ( अं.) जारकं, ओषजनम् । २. नाशनम् । आखंडल, सं. पुं. (सं.) इन्द्रः । -लगा कर पानी को दौड़ना, मु., कलिमुत्पाद्य -सूनु, सं. पुं. (सं.) अर्जुनः । शान्तये प्रयत्नः। आखत, सं. पु. ( सं. अक्षताः) अखंडितनीहयः ।। -लगने पर कूआँ खोदना, मु., संदीप्ते भवने वि., अखंडित। कूप खननम् । भाखर, सं. पुं. दे. अक्षर ।। -लगा कर तमाशा देखाना, मु., कलिमुत्पाद्य आखिर, वि. ( अ.) अन्तिम अन्त्य २. समाप्त । मनोविनोदनम् । सं. पुं. अन्तः, अवसानम् ३. परिणामः, फलम् । -होना, मु., अत्यर्थ कुप । क्रि. वि., अन्ततः २. विवश (वि.) भूत्वा पानी में आग लगाना, मु., अशक्यकरणं, ३. अवश्यम् ४. कथंचित् । खपुष्पत्रोटनम् । पेट की आग, मु., क्षुधा, -कार, क्रि.वि., अन्ते, अन्ततः । बुभुक्षा। आखिरी, वि. (फ़ा.) अन्तिम, अन्त्य, चरम । आगत, वि. (सं.) प्राप्त, उपस्थित २. अतिथि । आखेट, सं. पुं. (सं.) मृगया, दे. 'शिकार' । -स्वागत, सं. पुं. ( न. ) आतिथ्य, सत्कारः । आखेटक, सं. पुं. (सं.) व्याधः, आखेटिन् । | आगम, सं. पुं. (सं.) आगमनं, प्राप्तिः ( स्त्री.) आख्या, सं. स्त्री. (सं.) नामन् (न.), संज्ञा २. भावि-आगामि,-काल: ३. भाग्य, दैवम् २. यशस् ( न.), कीर्तिः ( स्त्री.) ३. विवरणं, ४. संगमः, समागमः ५. आयः ६. प्रकृतिप्रत्यव्याख्या,। यानुपघाती आगन्तुको वर्ण: (व्या.) ७. उत्पत्तिः आख्यात, वि. (सं.) विख्यात, प्रसिद्ध २. कथित ! (स्त्री.) ८. शब्दप्रमाणम् (यो.) ९. वेदः, ३. तिङन्तक्रिया। शास्त्रम् १०. तन्त्रशास्त्रम् ११. नीतिशास्त्रम् । आख्यान, सं. पु. ( सं. न.) कथा, आख्यायिका -जानी, वि. ( सं.-शानिन् ) पूर्ववादिन् , २. वर्णनं, वृत्तान्तः। । अग्रनिरूपक, सिद्ध, आदे (++ ) =ष्ट । आख्यायिका, सं. स्त्री. (सं.) कथा, वृत्तान्तः, : आगमन, सं. पुं. (सं. न.) आगतिः (स्त्री.), आख्यानम् २. आख्यानभेदः । , आगमः २. आयः, लाभः ।। आगन्तुक, वि. (सं.) आयात, आगन्तु २. आगमापायी, वि. ( सं.-यिन् ) अनित्य, अध्रुव, २. अतिथि, अभ्यागत । जन्ममरणशील। आग, सं. स्त्री. ( सं. अग्निः ) अनलः, पावकः, आगर, सं. पुं. (सं. आकरः ) ख ( खा ) नीदहनः, ज्वलना, वह्निः, कृशानुः, हुताशनः, निः (स्त्री.) २. समूहः ३. निधिः ४. रूवणगतः। हुतवहः, उपर्बुधः, हव्यवाहनः, चित्रभानुः, शुक्रः, आगर, सं. पुं. (सं. अर्गलं-ला) द्वारविष्कंभः । शुचिः २. तापः ३. कामाग्निः ४. वात्स- आगर', सं. पुं. ( सं. आगारम् ) गृहं, सदनम् ल्यम् ५, ईर्ष्या । वि., अत्युष्ण १. क्रुद्ध । आगर', वि. ( सं. अग्रय ) श्रेष्ठ, उत्तम २. दक्ष । -का पुतला, मु., कोधिन् २. चपल ३.निपुण। । आगस्ती, सं. स्त्री. (सं.) दक्षिणदिशा, दक्षिणा, -खाना अंगार हगना, मु., दुष्कृतस्य फलं यामी। विपद् ( स्त्री. ), यो यत् वपति बीजं हि सोपि आगा, सं. पुं. ( सं. अग्रम् ) अग्र-पुरो,-भागः तस्लमते फलम् । २. उरस , वक्षस् ( दोनों न. ) ३. मुखम् -पानी (फूल) का वैर, मु., सहज वैरम् , | ४. मस्तकम् ५. जननेन्द्रियम् ६. कंचुकादीशाश्वतिको विरोधः। नामग्रभागः ७. सेनाग्रम् ८. नौकाग्रभागः -बबूला (बगूला) होना, मु., नितरां कुप्, ९. गृहाग्रवति अंगनम् १०. अंचल:-लम् (दि. प.से.)। ११. आगामिकालः १२. परिणामः। For Private And Personal Use Only Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir आगा पीछा [ ४७ ] आज गेहम् स्थानम -पीछा, सं. पुं. (पुं. अग्र+ पश्च > ) संशयः, | आघ्राण, सं. पुं. (सं. न.) गन्धग्रहणम् २. विमर्शः २. परिणामः ३. अग्रपश्चभागौ। । अतितृप्तिः ( स्त्री.), पूर्णकामता। -पीछा करना, मु., दोलायते ( ना. व्या.)। आचमन, सं. पुं. (सं. न.) उपस्पर्शः, आंच -पीछा सोचना, मु., परिणामचिन्तनम् । (चा ) मः, जलपानम् ।। आगाज़, सं. पुं. (फा.) आरम्भः , उपक्रमः, -करना, क्रि. सं., आचम् ( भ्वा. प. से.,) आआदिः । चामति आगामी, वि. ( सं.-मिन् ) भाविन, भविष्यत् । आचमनी, सं. स्त्री. (सं. आचमनीय > ) आगार, सं. पुं. ( सं. न. ) अगारं, गृह, आचमनोपयोगी चमसभेदः। | आचरण, सं. पुं. (सं. न.) अनुष्ठान २. आचारः, आगाह, वि. ( फ़ा.) ज्ञात, नोधृ, अभिज्ञ। व्यवहारः ३. स्वच्छता ४. रथः । आगे, क्रि. वि. ( सं. अग्रे) अग्रतः,पुरतः,पुर-आचरणीय, वि. (सं.) अनुष्ठातव्य २. कर्तव्य । स्यात् ( मब अव्य.) २. समक्षं, अभिमुखम् , आधरित, वि. (सं.) कृत, विहित, अनुष्ठित । मुखम्, सम्मुखम् (सब भव्य.) ३. जीवनकाले, आचार, सं. पुं. (सं.) व्यवहारः २. चरितं, उपस्थिती ४. आगामिसमये ५. मनन्तरं, तदनु चरित्रं, चरित्रं, वृत्तं, शीलम् ३. शौचं, शुद्धिः ६. पूर्व ७. क्रोडे । (स्त्री.) ४. स्नानम् ५. आचमनम्। -आना, मु., प्रत्युद्गम् (भ्वा. प. अ.)। -भ्रष्ट, वि. (सं.) दुर्वृत्त, चरित्रहीन, अनाचार । -निकलना, मु., अतिशी ( अ. आ. से.)। -विचार, सं. पुं. ( सं.-री) चरित्रं मनोभावश्च -पीछे, मु., आनुपूष्येण, अनुपूर्वशः २. प्रत्यक्षं २. चारित्रम्, दे. 'आचार' । परोक्षं च (वा) ३. पूर्व पश्चाद् वा ४. यथा- आचार्य, सं. पुं. (सं.) उपनेतृ, गुरुः २. वेदा. वकाशमें ५. अक्रमम् ।। ध्यापकः ३. यज्ञे कर्मोपदेशकः ४. पुरोहितः ५. आग्नेय, वि. (सं.) अग्नि,-मय-संबंधिन् २. उपाध्यायः, अध्यापकः ६. ब्रह्मसूत्राणां चत्वारः अग्निदेवताक ३. दाहक । सं. पुं., (सं. न.)। प्रधानभाष्यकाराः सर्वश्रीशंकररामानुजमध्ववल्लसुवर्ण २. रुधिर ३. घृरं ४. दीपनौषधम् । माचार्याः ६. वेदभाष्यकृत् ७. प्रकाण्डपण्डितः । सं. पुं. (सं. पुं.) कार्तिकेयः २. अगस्त्यः -कुल, सं. पु. ( सं. न.) गुरुकुलम् । ३. देशविशेषः ४. अग्निपूजकः ५. ब्राह्मणः आचार्या, सं. स्त्री. ( सं.) मंत्रोपदेष्ट्री, वेदभाज्य६. अग्निकोणः ७. ज्वालामुखः। की, वेदाध्यापिका । -अस्त्र, सं. पुं. ( म. न. ) अग्निवर्षकोऽस्त्र- आचार्यानी, वि. स्त्री. (सं.नी ) आचार्यपत्नी। आचार्थी, वि. स्त्री. (सं.) आचार्यसंबंधिनी । आग्नेयी, सं. स्त्री. (सं.) अग्नेः पत्नी २. अग्नि-! दीपनमौषधम् ३. दक्षिणपूर्वा दिशा।। आच्छन्न, वि. (सं.) आच्छादित, आवृत २. गुप्त, तिरोहित । आग्रह, सं. पु. ( सं. ) अति-,निर्बन्धः, अति,याचना-प्रार्थना २. तत्परता, परायणता ३. आच्छादक, वि, (सं.) आवरक, पिधायक, बलं, आवेशः। वेष्टक । आग्रहायण, सं. पुं. (सं.) मार्गशीर्षमासः । आच्छादन, सं. पुं. (सं. न.) आवरणं, पट, आग्रहणयी, सं. स्त्री. ( सं. ) आग्रहायन वेष्टनं, अवगुंठनं, पिधान २. प्रच्छदपटः ३. मार्गशीर्षः,- पूर्णिमा। ३. आवरणक्रिया। आग्रही, वि. ( सं.-हिन् ) अविनेय, निर्बन्धवत् , आच्छादित, वि. (सं.) आवृत, पिहित, तिरोहित । दुराग्रह, स्वैरिन् । आच्छोटन, सं. पु. ( सं. न.) अंगुली, मोटनंआघर्षण, सं. पु. ( सं. न.) आघर्ष, मर्दनं, संघर्षणं, चूर्णनम् । आज, क्रि. वि. ( सं. अद्य अव्य.) वर्तमाने दिने आघात, सं. पुं. (सं.) प्रहारः, आक्रमणम् २. २. अद्यत्वे, अस्मिन् काले । सं. पुं., वर्तमानो प्रसारणं, प्रक्षेपः ३. वधस्थानम् । । दिवसः २. संप्रति, साम्प्रतम् । For Private And Personal Use Only Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir आज कल [ ४८ ] आततायी -कल, क्रि, वि. ( सं. अद्यकल्यम् ) एतेषु दिनेषु आटे दाल की फिक्र, मु., भाजीविकाचिन्ता । २. अद्यत्वे, अथ श्वो (कल्यं), वा। आटे दाल का भाव मालूम होना, मु,. -तक, क्रि. वि. अद्य, यावत्-पर्यन्तम्, अधुना. व्यवहारशानम् । इदानी,-यावत्-पर्यन्तम् ।। आटोक्रैट, सं. पु. ( अं.) निरंकुश,-नृपः-शासकः -कल करना, मु., व्याक्षिप् (तु. उ. अ.)। २. स्वेच्छाचारि-स्वैरि,-मानवः ३. असीमा-कल का मेहमान, मु., मरणासन्न, आसन्न धिकारसम्पन्नो जनः। निधन, मुमूर्षु । आटोक्रेसी, सं. स्त्री. (सं.) निरंकुश तृप शाम आजन्म, क्रि. वि. (सं.) यावज्जीवम् २. जन्मनः नम् २. निरंकुशता, स्वेच्छाचारिता। प्रभृति । आटोप, सं. पु. ( सं.) आच्छादनम् २. आई. आज़माइश, सं. स्त्री. ( फ़ा.)परीक्षा, अनुयोगः । बरः ३. दर्पः ४. उदरगुडगुडाशम्दः । २. परीक्षायै प्रयोगः । । आठ, वि. ( सं. अष्टन् ) । सं. पुं., उक्ता संख्या, आजा, सं. पुं. ( सं. आर्यः> ) पितामहः। तद्बोधकोंऽकः ( ८) च । आजाद, वि. ( फा.) दे. 'स्वतंत्र' । -आठ आँसू रोना, मु., अश्रुधारापातनम् । आजादी, सं. स्त्री. ( फा.) दे. 'स्वतंत्रता'। आठों प्रहर, मु., अह निशं, दिवानिशम् (अव्य.) आजानु, वि. ( सं.) मानु-अष्ठीवत्,-पर्यन्त। आठवों, वि. (हिं. आठ ) अष्टम ( मी स्त्री.)। -बाहु, वि. (सं.) जानुस्मृग्वाहु २. दीर्घबाहु आडंबर, सं. . (सं.) गंभीरशब्दः २. तुर्यरवः ३. वीर, शूर। ३. गजगर्जनम् ४. कपटवेषः, दंभः, मिथ्यायो. आजीवन, क्रि. वि. ( सं. न.) दे. 'आजन्म'। जनम् ५. आच्छादनम् ६.पटमंडपः ७. पटहः । आजीविका, सं. स्त्री. (सं.) आजीवः, वृत्तिः ' आड़, सं. स्त्री. (सं. अल = रोकना>) व्यवधानं, (स्त्री.), उपजीविका । तिरस्करिणी. प्रतिसीरा. जयवनिका आज्ञा, सं. स्त्री. (सं.) आ-नि,-देशः, शासनं, २. आश्रयः, शरणम् ३. प्रतिबन्धः, - विघ्नः नियोगः २. स्वीकृतिः-भनुमतिः ( स्त्री.)। ४. इष्टकाखण्डः ५. स्थूणा, उपस्तम्भः। -देना, क्रि. स., आ-नि-समा, दिश् (तु. उ. आड़ा, सं. पुं. ( सं. भाली >) रेखायुतो वस्त्रअ.), आज्ञा (प्रे. आशापयति)। भेदः २. ( पोतस्य ) स्थूल-वृदत, काष्ठम् । वि., -मानना, क्रि. स., आज्ञां अनुवृत् (भ्वा. अनुप्रस्थ, दिगन्तसम, समस्थ २.तिर्यच, जिह्म। आ. से.)-पा, (प्रे. पालयति )। आड़े भाना, मु., वाथ् (भ्वा. आ. से.) -कारी, वि. (सं.-रिन् ) भाशा-वचन, अनु- २. विपत्तौ साहाय्यं दा (जु. उ. अ.) ३. द्विष् वर्तिन्-ग्राहिन्-सेविन्-पालक । ( अ. उ. अ.)। -पत्र, सं. पुं. (सं. न.) निदेश-भादेश, पत्रम् । आड़े हाथों लेना, मु., निमन्स (च.)। पालक, वि. (सं.) दे. 'भाशाकारी'। आढ़, सं. पुं. (सं. ढकः-कम् ) चतुःप्रस्थ. -पालन, सं. पुं. (सं. न.) आशा, अनुवर्तनं- परिमाणम् , द्रोणचतुर्थाशः। कारिता। आदत, सं. स्त्री. (हि. आड़ना = जमानत -भंग, सं. पुं. (सं.) आशातिकमः, आशोहं देना) परार्थविक्रयः २. परार्थविक्रयभतिः धनम्। (स्त्री.)। आज्य, सं. पुं. (सं. न.) घृतम् । | आदती, सं. पुं. (हिं. आढ़त ) परार्थविक्रेत् । आटविक, सं. पुं. (सं.) भरण्य-वन्-वासिन् , आन्य, वि. (सं.) सम्पन्न, भनिन् २. युक्त । आरण्यकः २. मार्गः दर्शकः । आतंक, सं. पुं. (सं.) मयं, त्रासः २. प्रतापः, आटा, सं. पुं. ( सं. अट्टम् वा भट > ) गोधूम- गौरवम् ३. रोगः, ज्वरः ४. मुरजध्वनिः । चूर्ण, अन्न-, चूर्ण, क्षोदः, पिष्टान्नं, गुंडिकः। आततायी, सं.पुं. (सं..यिन् ) अग्निदः २. गरदः, -गीला होना, (गरीबी में ), म., दारिद्रथे विषदः ३. शस्त्रपाणिः ४. धनापहः ५. क्षेत्रकष्टान्तरापातः। | हारिन् ५. दारापहारिन् । (-यिनी स्त्री.)। For Private And Personal Use Only Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir आतप [ ४९ ] आदत अप, सं. पुं. (सं.) दिनज्योसिस ( न.), -ज्ञान, सं. पुं. (सं. न.) ईश-जीव, ज्ञानम् सूर्य लोकः तापनः २.२७ ता ३. ज्वरः। २. ब्रह्मसाक्षात्कारः। भातपत्र, सं-पु. ( सं. न.) छत्रं, आतप-धर्म, त्याग, सं. पुं. (सं.) परहिताय स्वार्थत्यागः। वारणम् । -दर्शन, सं. पुं. (सं. न.) समाधिना आतपोदक, सं. पुं. ( सं. न.) मरीचिका, मृग, जीवेश्वरदर्शनम् । जलं तृष्णा -निवेदन, सं. पु. ( सं. न.) आत्मसमर्पणं, आतिश, सं. स्त्री. (फ़ा.) अग्निः । सर्वस्वार्पणम् २.स्वविषये कथनम् ३. भक्तिभेदः। -बाजी, सं. स्त्री. (फ़ा.) अग्निक्रीडन कानि, -प्रशंसा, सं. स्त्री. ( सं. ) आत्मश्लाघा, (न.बहु.), अग्निक्रीडा। | स्वस्तुतिः, निजनुतिः ( दोनों स्त्री.)। आतशक, सं. पुं. (फ़ा.) उपदंशः, मेदरोगभेदः। -भू, दि. (सं.) निजशरीरन २. स्वयंभू । आतशी, वि.(फा.) आग्निक, माग्नेय, २.अग्निज सं-पुं., पुत्रः २. कामदेवः ३. ब्रह्मन् (पुं.) ३. अग्निजनकः। ४. विष्णुः ५. शिवः। -शीशा, सं. पुं. अग्नि, काचः स्फटिकः। -विश्वास, सं. पुं. (सं.) स्व-निज, प्रत्ययःआतिथेय, वि. ( सं.) अतिषि,-सेवक-पूजक।। विश्रम्भः । आतिथ्य, सं. पुं. (सं. न.) अतिथिसेवा २. अति- -विधा, सं. स्त्री. (सं.) ब्रह्मविद्या, अध्यात्मथ्यर्थवस्तु ( न.)। विद्या, आत्मज्ञानम् २. मोहनविद्या ( = मेसआतिशय्य, सं. पुं. (सं. न.) अतिशयत्वं, मरिजम )। आधिक्यं, बहुत्वम् । -हत्या, सं. स्त्री. दे. 'आत्मघात'। आतुर, वि. (सं.) आनुल, व्याकुल, व्यग्र, -आत्मक, वि. (सं.)-अन्वित, रूप, युक्त, मय उद्विग्न, अधीर २. उत्सुक, उत्कण्ठित ३. दुःखित (उ. गद्यात्मक = गद्य,-रूप-मय)। ४. रोगिन् । आत्मा, सं. स्त्री. (सं. आत्मन् पुं.) जीवः,आतुरता, सं. स्त्री. ( सं.) व्याकुलता, व्यग्रता चेतनः, जीवात्मन् २. चित्तम् ३. बुद्धिः (स्त्री.) २. त्वरा, संभ्रमः। ४. अहङ्कारः ५. मनस् (न.) ६. ब्रह्मन् (न.), आतुरालय, सं. पुं. (सं.) चिकित्सालयः, परमात्मन् (पुं.) ७. देहः ८. धृतिः (स्त्री.). दे० 'अस्पताल । ९. स्वभावः, धर्मः १०. सूर्यः ११. अग्निः आत्म, वि. (सं. आत्मन् >) रव, निज, स्वीय, १२. वायुः। स्वकीय। | आत्मिक, वि. (सं.) अध्यात्म-(समास में ) -अभिमान, सं. पुं. (सं. न.) स्वप्रतिष्ठा, आत्म, विषयक-सम्बधिन् २.स्वीय ३.मानसिक । स्वगोरवम् । आत्मीय, वि. (सं.) स्वीय, स्वकीय । सं. पुं., -अवलंबी, वि. ( सं.-बिन् ) आत्मविश्वासिन् , स्वजनः, बन्धुः, मित्रम् । स्वाश्रित । आत्मीयता, सं. स्त्री. ( सं.) बन्धुत्वं-सौहार्दम् । -उद्धार, सं. पुं. (सं.) मुक्तिः (स्त्री.), मोक्षः। आत्यन्तिक, वि. (सं.) अनन्त, असीम, -उन्नति, सं. स्त्री. (सं.) आत्मकल्याणम् अत्यधिक । २. स्वाभ्युदयः। आत्रेय, वि. ( सं.) अत्रिगोत्र, अत्रिसंबन्धिन् । -घात, सं. पुं. (सं.) आत्म-स्व-निज, हत्या . सं. पुं. अत्रिपुत्रः। घाता-वधा, प्राण-जीवित, त्यागः-उत्सर्गः। ! आत्रेयी, सं. स्त्री. (सं.) अत्रिपत्नी २. अत्रिपुत्री -घात करना, क्रि. सं., आत्मानं हन् । ३. आत्रगोत्रजनारा ४. रजस्वला नारी । (अ.प.अ.)। आथर्वण, सं. पुं. (सं.) अर्थवेदज्ञो ब्राह्मणः, -घाती, वि. (सं.) आत्म, घातक-घातिन् । पुरोहितः २. अर्यपुत्रः ३. अथर्ववेदे विहित नाशिन्-हन् । कर्मन् (न.)। -ज, सं. पुं. (सं.) पुत्रः २. कामदेवः आदत, सं. स्त्री. (अ.) शीलं स्वभावः, ३. रुधिरम् । | प्रकृतिः (स्त्री.)२.अभ्यासः, नित्यप्रवृत्तिः (स्त्री.)। ४ आ० हि० For Private And Personal Use Only Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir आदम [ ५० ] आधि आदम, सं. पु. (अ.) आदिमः, प्रजापतिः -वार, सं. पु. (सं.) रवि-मानु, वारः-वासरः (इस्लाम ) २. मनुष्यः। आदिम, वि. (सं.) प्रथम, आद्य, आदि । आदमियत, सं. स्त्री. (अ.) मानवता, मनुष्यत्वं -निवासी, सं. पुं., (सं.-सिन्) आदिवासिन् । २. सभ्यता, शिष्टता। आदिष्ट, वि. (सं.) आशप्त, आज्ञापित, लब्धाश, आदमी, सं. पुं. (अ.) मनुष्यः, मनुष्यजातिः प्राप्तादेश। (स्त्री.) २. दासः। आदी, वि. (अ.) अभ्यस्त, अभ्यासिन् । -बनना, मु., सभ्यता शिक्ष (भ्वा. आ. से.)। आइत, वि. (सं.) सत्कृत, संमानित, पूजित । फ़ी-,क्रि. वि.,प्रतिमनुष्यम् , प्रतिजनम्। आदेय, वि. ( सं.) ग्रहणीय, परि-प्रति, आदर, सं. पुं. (सं.) संमानः, सत्कारः, -ग्राह्य । सक्रिया, प्रतिष्ठा, अईणा, अर्चा । आदेश, सं. पुं. (सं.) आशा, निदेशः, शासनं, -करना, क्रि. सं., आ-(द् + ऋ)(तु.आ. अ.), नियोगः, देशना २. उपदेशः ३. प्रणामः सत्कृ, पूज-अर्च् (चु.), संमन्,संभू (प्रे.)। ४. ग्रहफलम् ५. वर्णस्य वर्णान्तरोत्पत्तिः (स्त्री., -पाना, क्रि. अ., सत्-पुरस्क ( कर्म.), व्या.)। आदृ-(+ऋ) पूज-सेव ( कर्म.)। आदेशक, वि. (सं.) आशापक, निदेशक, -से, क्रि.वि., सादरं, सप्रश्रयम् . आदरेण । नियोजक, शासक। आदरणीय, वि. (सं.) मान्य, माननीय, पूज्य, | आदेशी, वि. (सं.-शिन् ) दे० 'आदेशक' सत्कार्य, पूजनीय । २.दैवशः, ज्योतिर्विद् । आदर्श, सं. पुं. (सं.) मुकुरः, दर्पणः, आत्मदर्शः आयंत, क्रि. वि. ( सं. न.) दे. 'आदि से अन्त २. प्रतिरूपं, प्रतिमा, प्रतिमानम् ३. टीका, | तक'। भाष्य, व्याख्या ४. अतुल्य, अनुपम। | आद्य, वि. (सं.) प्रथम, आदिम, आदि आदात, सं. स्त्री. ( अ० 'आदत' का बहु०) दे. २. अग्रथ, प्रधान । 'आदत'। आधा, सं. स्त्री. (सं.) दुर्गा २. प्रतिपदा। आदाता, वि. (सं.-तृ) ग्रहीत, ग्राहक,प्रापक। आद्योपांत, क्रि. वि., दे. 'आदि से अन्त तक' । आदान, सं. पुं. (सं. न.) ग्रहणं, स्वीकारः, | आध, वि. (सं. अर्द्ध) सामि-(अव्य. उ. स्वीकरणम् । सामिभुक्तं)। -प्रदान, सं. पुं. (सं. न.) ग्रहणवितरणं, | -आना, सं. पुं., अर्धाणः। दानादानं २, परस्परतितिक्षा,न्याय्याचरणम् । आधा, वि. (सं. अई. ) सामि । सं. पुं., अर्द्धः, आदाब, सं. पुं. (फ़ा. 'अदब' का बहु०) दे. अर्द्धम् , अर्द्ध-भागः-अंशः। 'अदर' । -आना, सं. पुं., अर्धाणः-णकः। आदि, वि. (सं.) प्रथम, अग्रिम, आदिम, आध। -सीसी, सं. स्त्री., अर्द्धावभेदकः, सूर्यावर्त्तः, सं. पुं., उपक्रमः, आरंभः २. मूलं, उत्पत्तिहेतुः।। अर्द्धशिरोवेदना। अन्य.-प्रभृति,-आद्य (समासान्त में)। -तीतर आधा बटेर, मु. चित्रविचित्र -कवि, सं. पुं. (सं.) वाल्मीकिः। असंगत। -कारण, सं. पुं. (सं. न.) मूलकारणम् । आधान, सं. पुं. (सं. न.) स्थापनं २. न्यसनम् । (प्रकृतिः ईश्वरो वा) आधार, सं. पुं. (सं.) आश्रयः, अवलंबनम् -से अन्त तक, क्रि. वि., आद्यन्तम् , आदितो. २. आलवालम् ३. पात्रम् ४. गृह-भित्ति, मूलं, ऽन्तं यावत् । वेश्मभूः (स्त्री.) ५. आश्रयदायकः, पालकः । आदिक, अव्य. (सं. वि.)-आदि,-आध, -आधेय संबंध, सं. पुं. (सं.) आश्रयायि-प्रभृति ( सब समासान्त में)। संबंधः ( उ. घृतपात्रयोः)। आदित्य, सं. पु. ( सं. ) अदितिपुत्रः २. देवः । -होना, मु., स्तोका तृप्तिः (स्त्री.) भू। ३. सूर्यः ४. इन्द्रः ५. वामनः ६. वसुः ७. विश्वे- | आधि, सं. स्त्री. (सं. पुं.) मानसी व्यथा, चिन्ता देवाः८. मन्दारवृक्षः। २. बन्धकः, न्यासः, निक्षेपः। For Private And Personal Use Only Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir आधिकारिक [ ५१ ] आप आधिकारिक, सं. पुं. (सं. न.) मूलकथावस्तु । -बान, सं. स्त्री., वैभवं, शोभा, हावभावाः । (न.) २. कर्मचारिन् । वि., अधिकारयुक्त। -बान वाला, वि., सुवसन, सुप्रभ । आधिक्य, सं. पुं. (सं. न.) बाहुल्यं, प्राचुर्य, आन', सं. स्त्री. (अ.) क्षणः, पलं, निमेषः। अतिशयः। -की आन में, मु., सद्यः, झटिति, आशु आधिदविक, वि. (सं.) देवप्रेरित, देवताकृत (सब अव्यय)। ( उ. अतिवृष्टिः)। | आनक, सं. पुं. (सं.) पटहः, भेरी, मृदंगः आधिपत्य, सं. पु. ( सं. न.) स्वामित्वं, प्रभुत्वं, २. स्तनयित्नुर्मेधः। अधिकारः, शासनम्। आनन, सं. पुं. (सं. न.) आस्य, मुखं, वदनम् । आधिभौतिक, वि. (सं.) मनुष्यपश्वादिप्रेरित आनन-फानन, क्रि. वि. (अ.) क्षणेन, क्षणात् । ( उ. सर्पदंशदुःखम् )। आनरेबल, वि. ( अं.) मान्य । आधीन, वि., दे. 'अधीन'। आनरेरी, वि. ( अं.) अवैतनिक, आदरवृत्ति। आधी रात, सं. स्त्री. (सं. अर्द्धरात्रः) मध्यरात्रः, -मैजिस्ट्रेट,सं-पुं. (अं.) अवैतनिको दण्डाध्यक्षः। निशीथः, रात्रिमध्यम् । | आना', सं. पुं. ( सं. आणकः ) रूप्यकस्य षोडआधुनिक, वि. ( सं.) नूतन, नवीन, अधुना- शोऽशः २. कस्यचिद् वस्तुनः षोडशो मागः। तन, दानोंतन, अर्वाचीन, सांप्रतिक। आना, कि. अ. ( सं. आगमनम् ) आगम् आत, वि. (सं.) आश्रित, अवलंबित । (भ्वा. प. अ.) आया (अ. प. अ.) आवञ् आधेय, सं. पुं. (सं.न.) आधारस्थं वस्तु (न.), (भ्वा. प. से.) सं. पुं., आयानं, उपस्थानं, आश्रितः पदार्थः । वि., स्थापनीय, न्यसनीय । आगमनम् । आधोरण, सं. पुं. (सं.) हस्तिपकः, हास्तिकः। आई-गई, (बात ) वि., अतीता, विस्मृता आध्मान वि. (सं.) उच्छून, वातपूरित २. दृप्त, (वार्ता)। गर्वित ३. दग्ध ४. ध्वनित । आए दिन, क्रि. वि., अन्वहं, प्रतिदिनम् । आध्यात्मिक, वि. (सं.) ब्रह्मजीवविषयक, देह था धमकना, क्रि. अ., अकस्मात् आगम । चित्तजीवसंबंधिन् ( उ. ज्वरमोहशोकादयः )। आनाकानी, सं. स्त्री., अप-व्यप,-देशः छलेन परिहरणम् २. अनवधानम् ३. कर्णे जपनम् । आनंद, सं-पु. (सं.) आलादः, मुदा, आ-प्र, -मोदः, संमदः, हर्षः, प्रमदः, शान्तिः (स्त्री.), आनाकानी करना, क्रि. अ., अप-व्यप,-दिश सुखम् , प्रसन्नता । वि., आनन्दित, प्रसन्न । (तु. उ. अ.), छलेन परिह (भ्वा. उ. अ.)। -करना, कि. अ., नन्द (भ्वा. प. से.), मुद् -जाना, सं.पु., गतागतम् २. पुनर्जन्मन् (न.)। (भ्वा.प.से.)। आनीत, वि. (सं.) आ-उपा-हृत, उपस्थापित, उपनीत । -देना, क्रि. स., आलाद्-नंद-प्रमुद् (प्रे.)। -बधाई, सं. स्त्री., अभिनन्दनम् २. मंगलो- आनुकूल्य, सं. पुं., (सं.न.) 'अनुकूलता दे। आनुपूर्वी, सं. स्त्री. (सं.) अनुक्रमः, भानुपूर्ण, त्सवः। -मंगल, सं. पुं. ( सं. न.) आनन्दः, मोदः, परंपरा। आनुमानिक, वि. (सं.) अनुमान-तर्क, सिद्ध, कुशलम् । आनन्दित, वि. ( सं. ) प्रमुदित, सानन्द, | संभाव्य, काल्पनिक । सुखिन् । आनुषंगिक, वि. (सं.) प्रासंगिक, गौण । आन', सं. स्त्री. ( सं. आणिः पुं., स्त्री.) सीमा, आन्वीक्षिकी, सं. स्त्री. (सं.) तर्कविधा, न्यायः मर्यादा २. शपथः, समयः ३. विजयघोषणा २. भात्मविद्या। ४. प्रतिज्ञा, सं-प्रति,-श्रवः । | आप, सर्व. ( सं. आत्मन् > ) स्वयं-स्वतः -रखना, मु., प्रतिज्ञा पा (प्रे. पालयति)। (अव्य.), २. भवत् (भवती स्त्री.)। आन, सं. स्त्री. ( फा. ) छविः (स्त्री.), -बीती, सं. स्त्री. स्वानुभूत, प्रत्यक्षीकृत । सौन्दर्यम् २. अमि-, मानः ३. लज्जा, आप, सं. पुं. (सं. आपः स्त्री. बहु.) पानीयं, संकोच । जलम् । For Private And Personal Use Only Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir आपगा [ ५२ ] आभारी आपगा, सं. स्त्री. (सं.) नदी, तटिनी। । आप्ति, सं. स्त्री. (सं.) लाभः, प्राप्तिः ( स्त्री.) आपत्काल, सं. पुं. ( सं.) दुष्कालः दुस्समयः आप्लुत, वि. (सं.) स्नात, कृतस्नान २. सिक्त, २. विपत्तिः (स्त्री.)। उक्षित, आर्द्र २. सं. पुं., स्नातकः, गृहिन् ।। आपत्ति, सं. स्त्री. (सं.) दुःखं, क्लेशः २. विपत्तिः, आफत, सं. स्त्री. (अ.) दे. 'आपत्तिः' (१-३)। विपद्, आपद् ( सब स्त्री.) ३. कुसमयः । -का परकाला, सं-पुं., लोककंटका, कुचेष्टकः ४. दोषारोपणम् ५. आक्षेपः, अपवादः। २. क्षिप्रकारिन् । आपद्, सं. स्त्री. (सं.) दे. 'आपत्तिः । आफिस, सं. पुं. ( अं.) कार्यालयः। -प्रस्त, वि., आ-वि,-पन्न, आर्त, दुर्गत। | आब, सं. स्त्री. ( फा.) कान्ति:-द्युतिः ( स्त्री.), -धर्म, सं. पुं. (सं.) विपन्नकर्तव्यं, कुसमय- २. उत्कर्षः ३. शोभा, श्रीः ( स्त्री.)। सं. पुं., धर्मः। आपः (स्त्री. बडु.) जलम् । आपदा, सं. स्त्री., दे. 'आपत्ति। -कारी, सं-स्त्री. ( फ़!.) मद्यनिष्कर्षशाला, आपन्न, वि. (सं.) आपद्ग्रस्त २. प्राप्त । । शुंडा, संधानी २. मादकद्रव्यनिरीक्षको शासनआपस, सं. पुं. (हिं. आप + से ) सम्बन्धः।। विभागविशेषः। भ्रातृत्वं, बन्धुत्वम् । -ताब, सं. स्त्री. (फ़ा.) शोभा, विभूतिः (स्त्री.)। -का, वि., आत्मीयाना, बन्धूनाम् २. पर -दाना, सं. पुं., (फा.) आ-उप,-जीविका स्परस्य, अन्योऽन्यस्य, मिथः (अव्य.), इतरे- । २. जलान्नं, अन्नजलम् । तरस्य । -पाशी, सं. स्त्री. (फ़ा.) जलसेकः, प्लावनम् । -में, क्रि. वि., परस्परं, अन्योन्यं, मिथः।। आपसी, वि. ( हिं. आपस ) पारस्परिक। -शार, सं-पु. (फ़ा.) निर्झरः, जलप्रपातः । आबेड्यात, सं. पुं. (फा.) अमृतं, सुधा । आपा, सं. पुं. (हिं. आप ) आत्मत्वं, स्वसत्ता आबोहवा, सं. स्त्री. (फ़ा.) जलवायु (न.)। २. गवः ३. चैतन्यं, चेतना । -धापी, सं. स्त्री., स्वार्थपरता, स्वस्वहितचिंता आवद्ध, वि. ( सं. ) निगृहीत, नियंत्रित । २. संघर्षः,अहमहमिका, अहं,-पूर्विका-प्रथमिका । | आबनूस, सं. . (फ़ा.) कोविदारः, युगपत्रकः । -पंथी, वि. कुमागिन् , कुपथगामिन् । -का कुन्दा, मु. अतिकृष्णो मनुष्यः। आपे में आना, मु., चैतन्यलाभः । आबाद, वि. ( फ़ा.) लोकाध्युषित, जनाकीर्ण आपे में न रहना, मु., क्रोधादिभिः बुद्धि- २. उवर, बहुशस्यद ३. संपन्न । मति,-नाशः। आबादी, सं. स्त्री. (फ़ा.) जनाकीर्णस्थानम् आपात, सं. पुं. (सं.) पतनं, अवनतिः ( स्त्री.) २. जनसंख्या ३. शस्यदा भूमिः ( स्त्री.)। २. अकस्मात् उपागमः ३. आरम्भः ४. अन्तः। आबाध, सं. पुं. (सं.), वेदना २. क्षतिःआपाततः, क्रि.वि. (सं.) अकस्मात् , सहसा, हानिः ( स्त्री.)। अकाण्डे २. अन्ते, अन्ततः। आबी, वि. ( फ़ा.) जलीय, जलमय २. जलआपाती, वि. (सं.-निद् ) पतन-अवतरण, वर्ण, ईषत्रील । उन्मुख २. आक्रामक ३. भाविन् । | आब्दिक, वि. ( सं.) वार्षिक-सांवत्सरिक आपाद, सं-पु. (सं.) प्राप्तिः-अवाप्तिः ( स्त्री. (की स्त्री.)। २. पुरस्कारः ३. पारिश्रमिकम् । अव्य., आच- आभरणा, सं. पुं. (सं. न. ) अलंकारः, मंडनं. रणम् , पादपर्यन्तन् । भूषणम् २. पोषण, संवर्द्धनम् । भापेक्षिक, वि. (सं.) सापेक्ष २. पराश्रित, आमा, सं. स्त्री. ( सं. , कान्तिः -दीप्तिः (स्त्री.) परावलंबिन्। २. प्रति, बिच्छाया। आप्त, वि. (सं.) अधिगत, प्राप्त, लब्ध ३. कुशल, : आमाणक, सं. पुं. (सं.) लोकोक्तिः (स्त्री.)। दक्ष ३. साक्षात्कृतधर्मन् , भ्रान्ति शून्च । सं. आभार, सं-पु. ( सं., उपकारः २. गार्हस्थ्य. पुं., ऋषिः २. शब्दप्रमाणम्। भारः ३. भारः, भरः। -काम, वि. (सं.) पूर्णकाम, तृप्त, संतुष्ट। आभारी, वि. ( सं रिन् ) कृतश, कृतवेदिन् । For Private And Personal Use Only Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir आभास [ ५३ ] आयुष्मान् आभास, सं. पुं. (सं.) प्रति, बिंबं च्छाया | आमलकी, सं. स्त्री. (सं.) लघु-क्षुद्र, आमलकः । आमला, सं. पुं. दे. 'आँवला' । २. संकेत: ३. मिथ्याज्ञानम् । आभिचारिक, वि. (सं.) ऐन्द्रजालिक, मायात्मक, आमाशय, सं. पुं. (सं.) अन्नाशयः, जठरः-रम् । मायामय, मायिक । आमिष, सं. पुं. (सं. पुं. न. ) मांसं २. भोग्यपदार्थः ३. लोभः ४. उत्कोचः । आभीर, सं. पुं. ( सं . ) गोपः । आभूषण, सं. पुं. (सं. न. ) दे. 'आभरण' । आभ्यंतर, वि. ( सं . ) अन्तःस्थ, अन्तर, गर्भस्थ, अन्तर्गत, आभ्यन्तरिक । आभ्युदयिक, वि. (सं.) मांगलिक, शंकर, शुभ | आमंत्रण, सं. पुं. ( सं. न. ) आह्वानम् २. निमंत्रणम् । आमंत्रित वि. (सं.) आकारित, आहूत आम्र, सं. पुं. (सं.) दे. 'आम' | २. निमंत्रित । आम, सं. पुं. ( सं. आम्र: - ) १. ( वृक्ष ) आम्रः, रसाल:, सहकारः, कामशरः, वसन्तदूतः, कोकिलोत्सवः २. ( कल ) आनं, अम्र-रसालसहकार, - फलम् । - के आम, गुठली के दाम, मु., उभयतो आमी, सं. स्त्री. (हिं. आम ) आम्रकम् । आमुख, सं. पुं. ( सं. न. ) रूपकप्रस्तावना । आमोद, सं. पुं. (सं.) आनन्दः, मनोविनोदः २. सुगन्धः । - प्रमोद, सं. पुं., आह्लादः, इषैः २. हास्यविनोदी, नर्मालापः | आयँती पायँती, सं. स्त्री. (अनु. + फ़ा पायताना ) खट्वायाः शीर्षपादभागौ । आय, सं. स्त्री. ( सं . पुं.) धन-अर्थ, आगम: - लाभः । - व्यय, सं. पुं. ( सं व्ययौ ) आगमोत्सर्गे । व्ययिक, सं. पुं. ( सं. न. ) व्याकल्पः ( = बजट ) । लाभ: । - खाने से काम या पेड़ गिनने से, मु., आत्रेः प्रयोजनं न तु वृक्षगणनया । आम, वि. ( सं . ) अपक्क, दे. 'कच्चा ' | आयत, वि. ( सं . ) विस्तृत, विशाल | आयत, सं. स्त्री. (अ.) इंजील - कुरान, - वाक्यम् । आसु, सं. स्त्री. (सं. आदेशः ) आज्ञा । आया', क्रि. अ. (हिं. आना ) आगतः । गया, सं. पुं., अतिथिः । आम , सं. पुं. ( सं. न. ) अत्रंश्लेष्मन् (पुं.) २. अजीर्णरोगभेदः । अतिसार, सं. पुं. ( सं . ) अतिसारभेदः, आया े, सं. स्त्री. ( पुर्त. ) धात्री मातृका । संग्रहणी । आया, अव्य. ( फा . ) किम्, यत् । आयात, सं. पुं. (सं. न. ) विदेशादानयनम् २. विदेशादानीतः पण्यसमूहः । आम, वि. (अ.) सामान्य, प्राकृत, अवर, २. विख्यात प्रसिद्ध -- फ़हम, वि. (अ.) सुबोध, सुविज्ञेय । आमद, सं. स्त्री. ( प. ) आगमनं २. आयः । आमदनी, सं. स्त्री. (फ़ा. ) आय:, धनागमः । आम (मा) नस्य, सं. पुं. ( सं. न. ) शोकः, खेदः २. दुःखं, वेदना । आमना सामना, सं. पुं. ( हिं. सामना ) आयुक्त, वि. (सं.) नियुक्त २. संयुक्त आयुध, सं. पुं. (सं. न. ) अस्त्रं, शस्त्रं, प्रहरणं, हेतिः (स्त्री.) । आमरण, क्रि. वि. ( सं. न. ) मृत्युं यावत्, निधनावषि, आमृत्योः । आयास, सं. पुं. (सं.) प्रयत्नः २. श्रमः । आयासक, वि. (सं.) श्रम, जनक- उत्पादक | कष्ट-क्लेश, प्रद । आयु, सं. स्त्री. (सं.- आयुस् न. ) वयस् (न.), जीवितकालः, नित्यगः, विजीविनम् । समागमः । आमने- आमने, क्रि. वि. (हिं. सामना ) | परस्परस्य पुरतः, अन्योन्यस्य सम्मुखम् । आमय, सं. पुं. (सं.) रोगः, व्याधिः । आयुधागार, मे. पुं. (सं. न. ) शस्त्र अस्त्रआगारं गृहम् । आमयाची, वि. ( सं.-विन्) रुग्ण, रोगिन् २. आयुर्वेद, सं. पुं. ( सं . ) वैद्यकं, वैद्यशास्त्रं, अजीर्ण - अपचन, ग्रस्त | चिकित्साशास्त्रम् । आयुष्मान्, वि. (सं.) (सं.- मत ) चीरदीर्घ, जीविन् । ( आयुष्मती स्त्री. ) । For Private And Personal Use Only Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir आयुष्य [ ५४ ] आरोपित - D आयुष्य, वि. ( सं. ) पथ्य । सं. पुं., वयस् | आराधन, सं. पु. (सं. न.) भक्ति ( स्त्री.), (न.)। सेवा, परिचर्या २. तर्पणं, तोषणं, प्रसादनम् । मायोजन, सं. पुं. ( सं. न. ) द्रव्यासादनं, आराधना, सं. स्त्री. (सं.) दे. 'आराधन'। सामग्रीसंपादनम् २. नियुक्तिः (स्त्री.) ३. -करना, क्रि. स., पूज् (चु.), उपास् ( अ. उद्योगः ४. सामग्री। . आ. से.), अभि-, अर्च, (वा. प. से.), भायोडीन, सं.स्त्री. (अं.) जम्बुकी, नीलीनम् ।। आराध (प्रे.)। आरंभ, सं. पुं. (सं.) उपक्रमः, प्रारंभः, आदिः आराधनीय, वि. (सं.) आराध्य, सेवनीय, २. उत्पत्तिः ( स्त्री.)। पूजनीय, अर्चनीय । -करना, क्रि. स., आ-प्रारम, प्र-उप,- आराम, सं. पु. ( सं..) उपवन, उद्यान, पुष्पक्रम् (सब भ्वा. आ. अ.)। वाटिका। आर', सं. पु. ( सं. न.) मुंड, लोहं आयसम् । न आरामाधिपति, सं. प्र. ( सं.) उपवन उद्यान, २. पित्तकम् ३. तट:-टंटी-टा ४. कोणः५ अधिकारिन्-आधिकारिकः । अरः, अरम् । आराम, सं. पुं. (प.) सुखम् २. विनामः भार, सं. स्त्री. (सं. अलम् = डंक ) वृश्निका ३. स्वास्थ्यम्। दीनां दंशः, दंशचंचुः २. अंकुशः ३. कीलः।-करना, कि. अ., १. कार्यात निवृत् ( भ्वा. भाभी मिला। आ. से.) २. विश्राम (दि. प. से.) ३. शी (अ. आ.से.)। आर, सं. पुं. (हिं. अड़) आग्रहः, निर्बन्धः । -कुरसी, सं. स्त्री., विश्रामासन्दी। भार सं. स्त्री. (अ.) संकोचः, लज्जा । -तलब, वि., अलस, सुखेच्छुक । आरक्त, वि. (सं.) ईषद्क्त २. लोहित । आरास्ता, वि. (फा.) अलंकृत, परिष्कृत, सज्ज । आरण्य, वि. (सं.) वन्य, वनजात, वनसंबंधिन् । आरी, सं. स्त्री. ( हिं. आरा) लघुककचः, आरण्यक, वि. (सं.) दे. आरण्य । सं. पुं. क्रकचकं, करपत्रकम् २. दंडायलग्नो लोहकील: (सं. न.) ग्रन्थभेदः। ३. आरा, चर्मप्रभेदिका आरती, सं. स्त्री. (सं. आरात्रिकम् ) नीराजना. आरुद्ध, वि. (सं.) अधिरूढ, अध्यासीन, कृतानम् , देवमूर्तिपरितो दीपचालनम् २. नीरा रोहण २. दृढ, स्थिर। जनापात्रम् ३. नीराजनास्तोत्रम् । -होना, कि.अ., आ-अधि, रुह (वा. प. अ.), आरपार, सं. पुं. (सं. आरपारम् > ) तटद्वयं अध्यास् ( अ. आ. से.)। यी, पारावार-रो-रे। क्रि. वि., आवारपारम् , -करना, क्रि. स., आ-अधि, रुह (प्रे. आरोभवारात पारं यावत् ; आद्यन्त, समग्रम् । पयति)। भारब्ध, वि. (सं.) उपक्रान्त, कृतारम्भ । आरोग्य, वि. ( सं. आरोग्यम् > ) नीरोग, आरभटी, सं. स्त्री. ( सं. ) क्रोधायग्रभावानां स्वस्थ । सं. पु. ( सं. न.) दे. 'अरोगता'। चेष्टा २. रूपके यमकबहुलो वृत्तिभेदः। आरोग्यता, सं. स्त्री. (सं. आरोग्यम् ) स्वास्थ्य, भारसी, सं. स्त्री. ( सं. आदर्शः ) दर्पणः, नीरोगता, अनामयम् । मुकुरः २. दक्षिणहस्तांगुष्ठभूषणभेदः। आरोप, सं. पुं. (सं.) आरोपणं, संस्थापन, आरा, सं. पुं. (सं. आरा > ) क्रकचः-चम् । स्थिरीकरणम् .२ स्थानान्तरे आरोपणं स्थापन करपत्रं, पत्रदारणः २. चर्मप्रभेदिका ३. अरः, वा ३. भ्रमः ४. वस्तुनि वस्त्वन्तरधर्मकल्प. भरम् । नम् । -कश, सं. पुं. (फ़ा.) काकचिकः, दारुदारणः। आरोपना, कि. सं. ( सं. आरोपणम् ) (स्थाना-कशी, सं. स्त्री., ककचेन काठविपाटनम् ।। न्तरे ) आरुह ( प्रे., आरोपयति ), निविश आराइश, सं. स्त्री. ( फा.) परिष्कृतिः ( स्त्री.), (प्रे.), संप्रति, रमा (प्रे.). अलंक्रिया, परिष्क्रिया, सज्जा। आरोपित, वि. ( सं. ) स्थापित, निहित, भाराधक, वि. (सं.) उपासक, पूजक। निवेशित । For Private And Personal Use Only Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir आरोह [ ५५ ] आलिङ्गन करना आरोह, सं. पुं. (सं.) उद्गमः, उदयः, अधि- | - आवर्त सं. पुं. ( सं . ) विन्ध्य हिमाचल योर्म - ध्यदेशः २. भारतवर्षैम् । रोहणम् २. आक्रमणम् ३. गजादि पृष्ठेऽधिरोहणम् ४. उत्तमयोनिप्राप्तिः ( स्त्री. ) ५. कारणात् कार्यप्रादुर्भावः ६. विकासः ७. स्वरोत्कर्षः ८. नितम्बः । आरोहण, सं. पुं. (सं. न. ) उद्गमनं, अधिरोहणम् २. अंकुर प्ररोहणम् ३. सोपान, निःश्रेणी । आरोही, वि. ( सं . -छिन् ) आरोहक, उद्गामी २. उन्नतिशील । सं. पुं., उत्कर्षोन्मुखः स्वरः २. आरूढः, अश्वादिपृष्ठस्थः । आर्जव, सं. पुं. (सं. न. ) ऋजुता, सरलता, निष्कपटता २ सुकरता ३. व्यवहारशुद्धिः (eft. ) I आर्जुनि, सं. पुं. : (सं.) अर्जुनपुत्रः अभिमन्युः । आर्ट, सं. पुं. ( अं. ) कला, शिल्पं, २. कौशल, नैपुण्यम् । आर्द्र, वि. (सं.) क्किन, उन्न, उत्त, सिक्त । आर्द्रता, सं. स्त्री. ( सं . ) किन्नता, सरसता । आर्द्रा, सं. स्त्री. ( सं . ) षष्ठनक्षत्रम् २. आषाढारम्भः ३. आर्द्रकम् । - पुत्र, सं. पुं. (सं.) श्रेष्ठस्य पुत्रः २. पतिः । -समाज, सं. पुं. ( सं . ) महर्षि दयानन्दसंस्थापितः समाजविशेषः । आर्य, बि. (सं.) श्रेष्ठ, भद्र २. मान्य, पूज्य ३. कुलीन. सत्कुलज ( आर्या स्त्री. ) । सं. पुं. ( सं.) सज्जनः, कुलीन मानवः २. पूज्यमनुष्यः ३. स्वामिन् ४. श्वशुरः ५. जातिविशेषः ६. आर्यजातीयः ७. गुरुः ८. मित्रम् । आर्या, सं. स्त्री. (सं.) पार्वती २. श्वश्रूः (स्त्री.) ३. पितामही ४. छन्दोभेदः । आर्ष, वि. (सं.) १-३. ऋषि, संबंधिन्- प्रणीतसेवित ४. वैदिक । आर्टिकल, सं. पुं. ( अं. ) निबन्ध:, लेखः २. धारा, नियमः । आर्टिस्ट, सं. पुं. ( अं.) कलाकारः, कलाविद् आलमारी, सं. स्त्री. दे. 'अलमारी' । २. चित्रकारः । आर्डर, सं. पुं. ( अं. ) आदेशः, आज्ञा २. वस्तुनिर्माण पदार्थ प्रेषण, -आदेशः । आर्डिनेंस, सं. पुं. ( अं. ) अध्यादेशः २. आलसी, वि. (हिं. आलस ) अलस, तन्द्रिल, आलय, सं. पुं. ( सं . ) गृहम् २ स्थानम् । आलवाल, सं. पुं. (सं. न. ) आवालं, आवापः । आलस, सं. पुं., दे. 'आलस्य' । युद्धास्त्राणि (न. बहु. ) । आर्त्त, वि. ( सं . ) व्यथित, पीडित २. दुर्गेत ३. रुग्ण । तन्द्रालु, शीतक, तुंदपरिमृज, उद्योगविमुख । आलस्य, सं. पुं. (सं. न. ) मान्धं, तन्द्रिका, जाडचं, कार्यद्वेषः । -नाद, सं. पुं., आर्त्तध्वनिः, आर्त्तस्वरः । आति सं. स्त्री. (सं.) पीडा, व्यथा २. आपद्विपद् (स्त्री.) । आर्थिक, वि. (सं.) धन-द्रव्य-वित्त, विषयक, मौद्रिक - प्रयोग सं. पुं. (सं.) प्राचीन ग्रंथानामचीन व्याकरणविरुद्धाः प्रयोगाः । आलंकारिक, वि. ( सं . ) अलंकारविषयक २. अलंकारयुत ३. अलंकारविद् । आलंब, सं. पुं. ( सं.) अवलंब, आश्रयः २. गतिः (स्त्री.), शरणम् । आलंबन, सं. पुं. ( सं. न. ) अवलंबः, आश्रयः २. रसोत्पत्तौ विभावभेदः (सा.) ३. कारणं, साधनम् । आलन, सं. पुं. ( १ ). लेपनाय कर्दममिश्रितं तृणादिकम् २. शाकादिमिश्रितं चणकादिचूर्णम् । काष्ठफलकः । | आली, सं. पुं. ( सं. आलय: > ) भित्तिस्तंभा दिषु, दीपकाद्यर्थे स्थानम् २. आला, वि. ( अ. ) उत्तम, श्रेष्ठ । आलान, सं. पुं. ( सं. न. ) गजबंधन, स्तम्भःरज्जुः (स्त्री.) २. बंधनं, रज्जुः । आलाप, सं. पुं. ( सं .) संलापः, संभाषणं, कथोपकथनं, वार्तालाप: २. तानः, सप्तस्वर - साधनम् ( संगीत ) | आलापना, क्रि. सं. (सं. आलपनं > ) गै (भ्वा. प. अ. ) । आलिंगन, सं. पुं. ( सं . न . ) परि ( री ) रंभ:, परिष्वंगः, संश्लेषः, उपगूहनं, दिलषा । करना, क्रि. स., आलिंग (भ्वा.प.से.), आलिधू (दि. प. अ.)., उपगुह् (भ्वा. उ. से., उपगूहति ) । For Private And Personal Use Only Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भलि आलि, सं. स्त्री. (सं.) वयस्था, सखी, ! सहचरी २. पंक्तिः (स्त्री.) ३. सेतुः ४. रेखा । आलि, सं. पुं. (सं.) वृश्चिकः २. भ्रमः । आलिखित, वि. ( सं . ) लिखित २. अंकित ३. चित्रित । आलिप्त, वि. (सं.) प्र.वि, लिप्त, दिग्ध, अक्त । आलिम, वि. ( अ ) पंडित, विद्वस्, बहुश्रुत, बधीत | [ ५६ ] आविष्कृत भ्रमिः (स्त्री.) २. अवृष्टजलो मेघः ३. राजावर्त्तः, रत्नभेदः । आवर्तन, सं. पुं. (सं. न. ) परि-, भ्रमणं, व्या-परिवर्तनम् २. विलोडनम् ३. पुनः पुनर्भावः, आवृत्तिः ( सब स्त्री. ) 1 आवर्तनी, सं. स्त्री. (सं.) बुषा, २. दर्जी, मुषा ३. चमसः -सम् । आली, सं. स्त्री. (सं.) सखी, वयस्या २. पंक्ति, ततिः (स्त्री.) । आवलित, वि. (सं.) ईषदुवक, वक्रीभूत | आलू, सं. पुं. (सं. आलुः. ) सुकन्द, शुभ्रालुः, आवली, सं. स्त्री. (सं.) आवलिः, पंक्तिः, ततिः ( सब स्त्री. ) । आठाक, सं. पुं. ( सं . ) भा, आमा, प्रभा, प्रकाशः २. त्विष, दीप्तिः, कान्तिः ( सब स्त्री.) । आलोचक, वि. (सं.) समालोचक समीक्षक २. दर्शक | शुक्लकन्दः-न्दम् । - बुखारा, सं. पुं., आलूकं, आलुकं, रक्तफलं - भल्लूकम् । आवश्य, सं. पुं. (सं. न. ) आवश्यकता २-३. अनिवार्य, कार्य- फलम् । आलूचा, सं. पुं. ( फ़ा. ) आलूचः, वृक्षभेदः आवश्यक, वि. (सं.) अवश्य कर्तव्य, शीघ्रकार्य, गुर्वर्थ २. अनिवार्य । २. * आलूचम्, फलभेदः । आलेख, सं. पुं. (सं.) लेख:, लेख्य, लिखितम् आवश्यकता, सं. स्त्री. ( सं .) आवश्यकत्वं, अपेक्षा ३. प्रयोजनम् । आवश्यकीय, वि., दे. 'आवश्यक' | आवा, सं. पुं., दे. 'आँवा' । २. लिपी, लिपि: (स्त्री.) । आलोय, सं. पुं. (सं. न. ) चित्रं, प्रतिरूपं । वि. लेखाई । आवागमन, सं. पुं. (हिं. आना + सं . गमनम् ) पुनरुत्पत्तिः (स्त्री.), पुनर्जन्मन् ( न० ), प्रेत्यभावः, देहान्तरप्राप्तिः (स्त्री.) । आवाज, सं. स्त्री. ( फा . ) शब्दः, नादः, स्वनः, ध्वनिः घोषः २. गानस्वरः ३. उच्चस्वरः । - उठाना, मु., विपरीतं वद् ( स्वा. प. से. ) । - बैठना, मु., स्वरभंगः जन् ( दि. आ. से. ) । आवारा, वि. स्त्री. (फ़ा. ) परिभ्रमक, अकर्मण्य २. अज्ञातनिवास ३. दुर्वृत्त, जाल्म । आवास, सं. पुं. (सं.) गृहं, गेहूं, मदनम् । आवाहन, सं. पुं. (सं. न. ) मंत्रै देवताह्नानम्, आमंत्रणम् २. निमंत्रणम् । आविर्भाव, सं. पुं. (सं.) प्रकाशनं प्राकट्यं, विवृत्तिः (स्त्री.) २. उत्पत्तिः (स्त्री.) । आविर्भूत, वि. (सं.) प्रकटित, प्रकाशित २. उत्पन्न । आलोचन, सं. पुं. (सं. न. ) गुणदोष, परीक्षणंनिरूपणं परीक्षा, समू, आलोचना २. दर्शनम् आलोचना, सं. स्त्री. (सं.) दे. 'आलोचन' | आलोडन, सं. पुं. ( सं. न. ) मंथनं, मंथः २. प्रगाढ विचारः । आवर्तक, वि. ( सं . ) आ-परिवर्तमान, घूर्णमान | आलोडित, वि. ( सं . ) मयित २. संक्षोभित ३. विचारित । आल्हा, सं. पुं. (देश) वीरच्छन्दस् (न.) २. महोबावासी प्राचीनो वीरविशेषः ३. विस्तृत - वर्णनम् । आवभगत, सं. स्त्री. (हिं. आना + सं. भक्तिः ) सत्कारः, उपचारः, सेवा, पूजा । आवरण, सं. पुं. ( सं. न.) आच्छादनं, पुटं २. आच्छादनवस्त्रं, प्रच्छदपटः ३. तिरस्करिणी, व्यवधानं ४. कोशः, कोषः, वेष्टनम् ५. चर्मन् (न.) फलकम् ( हिं. ढाल ) । - पत्र, सं. पुं. (सं. न. ) मुख पृष्ठं पत्रम् | आवर्त्त, सं. पुं. ( सं . ) जलभ्रमः, भ्रमरकः आविष्कर्ता, वि. ( सं . कर्तृ ) आविष्कारक, प्रकटयितृ, प्रकाशक, कल्पक । आविष्कार, सं. पुं. (सं.) अज्ञाततत्त्वप्रकाशनम् २. अपूर्व वस्तुनिर्माणम् ३. प्रकाशः, प्राकट्यम् । आविष्कारक, वि. ( सं . ) दे. 'आविष्कर्ता' । आविष्कृत, वि. ( सं . ) प्रकटित, प्रकाशित २. प्रथमं निर्मित-रचित । For Private And Personal Use Only Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir आविष्ट आविष्ट, वि. (सं.) भूतप्रेतादिपीडित २. अभिभूत । वाद, सं. पुं. (सं.) सदाशाक्त्ता सिद्धान्तः । - वान्, वि. (सं.) साश, आशान्वित । आशिक, वि. ( अ ) प्रणयिन्, अनुरागिन्, आसक्त, अनुरक्त | आवृत, वि. (सं.) प्रसमा आ, च्छादित, संवृत, पिहित २ परिवृत, वलयित । आवृत्ति, सं. स्त्री. (सं.) अभ्यासः, किया | सातत्यं प्रबन्धः २. अध्ययनम् । आवेग, सं. पुं. (सं.) आवेशः, चित्तोद्वेगः, उत्तेजनं, उद्दीपनम् २. त्वरा ३. संचारिभावभेदः (सा.) । आशिष, सं. स्त्री. (सं. आशिस्) दे. 'भाशीर्वाद' । आशीर्वाद, सं. पुं. (सं.) आशिस (स्त्री.) आशीवचनं, हिताशंसनं, मंगलप्रार्थना, आशास्यं, शुभकामना । -देना, क्रि. स., आशिष दा ( जु. उ. अ.), टि. - प्रायः लोट् व आशीर्लिङ के रूपों से ( उ. पुत्रं आप्नुहि आप्याः वा ) । आवेजा, सं. पुं. ( फ़ा. ) प्रालम्ब:, लोलकः । आवेदक, वि. ( सं . ) निवेदक, प्रार्थिन् । (सं. पुं.) अभियोगिन् वादिन् । आवेदन, सं. पुं. (सं. न. ) दे. 'निवेदन' | आवेश, सं. पुं. ( सं . ) आवेगः, आतुरता 2 २. व्याप्तिः (स्त्री.), संचारः ३. प्रवेश: ४. भूतबाधा ५. अपस्माररोगः । आवेष्टन, सं. पुं. (सं. न. ) गोपनं, निगूहनम् २. अवगुंठनं, पिधानं, पुटः, कोशः । आवेष्टित, वि (सं.) अवगुंठित, आवृत । [ ५७ ] २. प्रणयः, अनुरागः । आशय, सं. पुं. (सं.) तात्पर्ये, अभिप्रायः, अर्थः २. वासना ३. स्थानं, आधारः ४. गर्तः । आज्ञा, सं. स्त्री. (सं.) आशंसा, आकांक्षा, अपेक्षा २. स्पृहा, वाञ्छा, मनोरथ: ३. दिशा ४. दक्षप्रजापतेः पुत्री ५. रागभेदः । - करना, क्रि. अ., आशंस् ( भ्वा. आ. से. ) उत्-प्रति अप, ईक्षू ( भ्वा. आ. से. ), आशास् | (अ. आ. से.) । - अतीत, वि. (सं.) भाशंसाधिक। आसन आशु, त्रि. वि. (सं.) शीघ्रं द्रुतं, सत्वरं ( सब अव्य. ) । कवि, सं. पुं. ( सं . ) सद्यः काव्यकारः । तोष, सं. पुं. (सं.) शिवः । आशु, वि (सं.) शीघ्र द्रुत तीव्र, गामिन् । सं. पुं. (सं.) वायुः २. वाणः । आश्चर्य, सं. पुं. (सं. न. ) विस्मयः, कौतुकं, चमत्कारः, चित्रं, अद्भुतम | आशंका, सं. स्त्री. ( सं ) संदेहः, संशयः २. अनिष्टभावना ३. भयं, त्रासः । करना, क्रि. अ., विस्मि (भ्वा. आ. अ. ) । -जनक, वि. (सं.) विस्मापक, अद्भुत, विचित्र | आशंकित, वि. ( सं ) भीत, त्रस्त ३. संदे आश्रम, सं. पुं. (सं.) तपोवनं, मुनिवसतिः हात्मक । I आशंसा, सं. स्त्री. ( सं . ) अपेक्षा, आशा २. इच्छा, वाञ्छा ३. कथनम्, चर्चा | आशंसित, वि. ( सं . ) अपेक्षित, आकाङ्क्षित, इष्ट २. कथित, वर्णित । (स्त्री.) २. मठः, विहारः ३. विश्रामशाला ४. मनुष्यायुषः चत्वारो विभागाः ( ब्रह्मचर्य - गृहस्थवानप्रस्थसंन्यासाश्रमाः ) | आश्रय, सं. पुं. (सं.) अव-आ, लंब: आधारः २. अवष्टम्भः, उपघ्नः ३. शरणं, गतिः (स्त्री.) गृहं, सदनम् । आशंसु, आशंसी, वि. ( सं . - सिन् ) उपेक्षी, आकांक्षक, प्रत्याशिन् । आशना, वि. ( फा ) परिचित, अभिश । सं.पुं. जारः, प्रणयिन् । सं. स्त्री. प्रेयसी, कान्ता । आशनाई, सं. स्त्री. (फ़ा. ) मैत्री, सख्यम् । - दाता, वि. (सं.-तृ ) रक्षक, रक्षितृ, त्रातृ । आश्रित, वि. (सं.) आश्रयप्राप्त, अवलंबित २. अधीन, शरणागत । सं. पुं., सेवकः, दासः । आश्वासन, सं. पुं. (सं. न. ) सान्त्वनं, आशाप्रदानं समाश्वासनं, प्रोत्साहनं, उत्तेजनम् । आश्विन, सं. पुं. (सं.) आश्वयुजः शारदः, इषः । आषाढ, सं. पुं. (सं.) अषाढः, शुचिः । आस, सं. स्त्री. (सं. आशा) आशंसा २. लालसा ३. आश्रयः ४. दिशा । आसक्त, वि. (सं.) तत्पर, लीन, मग्न, प्रसित २. अनुरक्त, बद्धराग, प्राणयिन् । आसक्ति, सं. स्त्री. ( सं . ) तत्परता, लीनता, मग्नता २. अनुरागः, प्रेमन् कामः । आसन, सं. पुं. (सं. न. ) उपवेशनप्रकारः " For Private And Personal Use Only Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir आसन डोलना आहट २. स्थितिः (स्त्री.) ३. अष्टांगयोगस्य तृतीयमंगम् । आसावरी, सं. स्त्री. (सं. आशावरी) श्रीरागस्य ४. उपवेशनाधारः, पीठं ५. साधुवसतिः ६. रागिणीभेदः । नितम्बः ७. शत्रुदुर्गादीनवरुध्य स्थितिः। | आसीन, वि. (सं.) निषण्ण, उपविष्ट । -डोलना, मु., चेतो विकृ (कर्म.)। आसीस, सं. स्त्री., दे. 'आशीर्वाद'। आसन्न, वि. (सं.) समीप, निकट, निकटस्थ ।। आसुर, वि. (सं.) राक्षस, पेशाच, असुरसंड-प्रसवा, वि. स्त्री. (सं.) निकटप्रसतिः (स्त्री.) धिन् । सं. पुं. (सं.) असुरः। -भूत, सं. पुं., वर्तमानसंपृक्तो भूतकालः। आसुरी, वि. स्त्री. (सं.) असुरसंबंधिनी, आस-पास, क्रि. वि. ( अनु. आस+सं. पार्थः)। राक्षसी, पेशाची। परितः, अभितः ( दोनों द्वितीया के साथ), नचा -चिकित्सा, सं. स्त्री., शल्यचिकित्सा। समंततः, समंतात् , विष्वक् , सर्वतः (सब -माया, सं. स्त्री. पैशाचं छलम् । अव्य.)। -संपत् , सं. स्त्री. (सं.द्) पैशाची वृत्तिः(स्त्री.) आसमान, सं. पुं. ( फा., सं. अश्मानः > ) आसोज, सं. पुं. (सं. आश्वयुजः) दे. 'आश्विन' । गगनं, दे. 'आकाश' २. स्वर्गः। आस्तरण, सं. पु. ( सं. न.) कुथः, गजपृष्ठस्थं -के तारे तोड़ना, मु., असंभवानि कार्याणि कृ। चित्रकंबलम् २. शय्या, कुशासनम् । -को चूमना, मु., गगनं चुम्ब(भ्वा. प.से.), आस्तिक, वि. (सं.) ईशवेदपरलोकविश्वासिन् । -से बातें करना अभ्रं कष् (भ्वा. प. से)। २. ईश्वरसत्तावादिन् ३. श्रद्धालु। आसमानी, वि. (फा.) आकाशीय २. ईषन्नील। आस्तिकता, सं. स्त्री. (सं.) ईशवेदपरलोकेषु आसरा, सं. पुं. (सं. आश्रयः) अवलंबः, विश्वासः २. ईश्वरप्रत्ययः। आधारः २. भरणपोषणाशा ३.आश्रयदः ४.शरणं, आस्तनी, सं. स्त्री. (फ़ा.) पिप्पलः, कोशनागतिः ( स्त्री. ) ५. प्रतीक्षा ६. आशा । लिका, चोलादीनां बाहुभागः। -देना, क्रि. स., रक्ष ( भ्वा. प. से.)। -का साँप, मु. गूढशत्रुः, गुप्तवैरिन् । -लेना, क्रि. अ., आश्रि ( भ्वा. उ. से.), आस्था, सं. स्त्री. (सं.) श्रद्धा, भक्तिः (स्त्री.), शरणं गम् । अर्हणा, आदरः २. समा, आस्थानम् ३. आलंआसव, सं. पुं. (सं.) मद्यभेदः २. सुरा, मदिरा बनं, अपेक्षा। ३. औषधप्रकारः ४. दे. 'अरक'। आस्थान, सं. पुं. (सं. न.) उपवेशनस्थलं, आसा, सं. स्त्री., दे० 'आशा'। समामंडपः २. सभा। आसा,सं-पु. ( अ. असा) सुवर्णदंडः, रजतयष्टिः | आस्थित, वि. (सं.) उषित, कृतबास २. आश्रित (पुं. स्त्री.)। आसाइश, सं. स्त्री. (फा.) मुखं, सौख्यम्। ३. लब्ध ४. वेष्टित । आषाढ़, सं. पुं. दे. 'आषाढ' । | आस्पद, सं. पुं. (सं. न.) स्थानम् २. कार्यम् आसादन, सं. पुं. ( सं. न.) प्राप्तिः-उपलब्धिः ३. प्रतिष्ठा ४. वंशः कुलम् । आस्य, सं. पुं. ( सं. न. ) वदनं, तुंडम् (स्त्री.) २. निधानम् ३. आक्रमणम् ४. पश्चादागम्य प्रापणम् । २. मुखमंडलं, मुखम् । आसादित, वि. (सं.) प्राप्त, लब्ध २. निहित, आस्वादन, सं. पुं. (सं. न.) स्वादनं, रसनम् । स्थापित ३. आक्रान्त ४. पश्चादागम्य गृहीत।। आह, अव्य. (सं. अहह ) कष्टं, हा, हन्त, आः, आसान, वि. (फ़ा.) सुकर, सुगम, सुखसाध्य। हा, अहो ( सब अव्य.)। आसानी, सं. स्त्री. ( फा.) सुकरता, सुगमता । आह, सं. स्त्री. (फा) निःश्वासः, उच्वासः, आसाम, सं. पुं. (सं. असम > ) कामरूपाः, दीर्घश्वासः। असमप्रान्तः, भारतस्य प्रान्तविशेषः । -भरना, क्रि. अ., दीर्धे उत्-नि,-श्वस् ( अ. आसामी, वि. (हि. साम) असमप्रदेश,- प.से.)। विषयक-सम्बन्धिन् । सं. पुं., असम-कामरूप,- आहट, सं. स्त्री. (हिं. आना+हट प्रत्य.) वासिन्-वास्तव्य । सं. स्त्री असमीया भाषा, पादशब्दः, चरणनिक्षेपध्वनिः २. विद्यमानताअसमी। सूचकध्वनिः। For Private And Personal Use Only Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भाहत [ ५९ ] इन्द्रजाल आहत, वि. ( सं.) क्षत, व्रणित, विद्ध, मिन्नदेह आहुति, सं. स्त्री. (सं.) हवनं, देवयशः होमः, २. गुण्य संख्या ३. परस्पर विरुद्ध (वाक्य) होत्रम् २. हवनसामग्री ३. सामग्र्याः सकृत् ४. सद्यःक्षालित ५. जीणं ६. कंपित । सं. पुं., होतध्या मात्रा। पटहः । -देना, क्रि. स., हु (जु. उ. अ.), यज् (भ्वा. आहरण, सं. पुं. ( सं. न. ) आच्छेदनं, सहसा उ. अ.)। माकलनम् २. अपनयनम् ३. आनयनम् आह, सं. पुं.(फा.) मृगः, हरिणः । ४. ग्रहणम् । आहूत, वि. (सं.) आकारित, आ-नि, मंत्रित । आहरन, सं. पुं. (सं. आननम् >) शूमिः ! आहति. सं. स्त्री. (सं.) आकारणं, आमंत्रणम् । (स्त्री.), शूर्मी, स्थूणा। आह्निक,वि. (सं.) देनिक, दैनंदिन, प्रात्यहिक । आहों, अन्य. (अनु.) मा, न, नो, नहि ।। क्रि. वि. अहरहः, अनु-प्रति,-दिनम् । सं. पुं., आहा, अध्य, (सं. अहह ) अहो, ही, आः। दिनस्य कार्यम २. महाभाष्यखण्डः ३. अध्याआहार, सं. पुं. (सं.) भक्षणं, भोजनं, जेमनं, पकः ४. दैनिकी भृतिः ( स्त्री.)। जग्धिः (स्त्री.) २. खाद्य-मक्ष्य, सामग्री। आह्लाद, सं. पुं. (सं.) आनंदः, हर्षः, मोदः । -विहार, सं. पुं. (-रौं ) चर्या, बर्तन, वृत्तं, आ न वृत्त । आह्लादक, वि. (सं.) आलादप्रद, हर्षजनक, आचारव्यवहारौ। । आनन्ददायक। माहार्य, वि. (सं.) मध्य, खाद्य २. ग्रहीतव्य ३. आहरणीय ४. कृत्रिम । सं. पुं., चतुर्थोऽ.. __ आह्लादित, वि. (सं.) प्रसन्न, मुदित । नुभावः (सा.)। । आह्वान, सं. पुं. (सं. न.) आहूतिः (स्त्री.), अभिनय, #. पुं. (सं.) वचनचेष्टारहितोऽ. आकारणं, आमंत्रणम् २. आह्वानपत्रम् भिनयः (सा )। ( = सम्मन ) ३. यज्ञे देवताकारणम् । आहिस्ता, क्रि. वि. (फ़ा..तः) शनैः, मन्दम् ।। -करना, कि. स., आहे ( भ्वा. उ. अ.) -आहिस्ता, क्रि.वि., शनैः शनैः, मन्द मन्दम्। आकृ (प्रे.) २. देवता आव (प्रे.)। इ, देवनागरीवर्णमालायाः तृतीयः स्वरः, इकारः।। -परीक्षा, सं. स्त्री., प्रवेशिका परीक्षा। इक, सं. स्त्री. ( अं.) मशी, मषी, मसी। इंदुवा, सं. पुं. (सं. गेण्डुकः > ) घटाद्याधारइंगला, सं. स्त्री. ( सं. इडा) मानवशरीरे वाम- भूतं शीर्षस्थं वर्तुलवाम् । पावस्था वक्रा नाडी। इंतजाम, सं. पुं. (अ.) संविधा, प्रबन्धः । इंगलिश, वि. ( अं.) आंग्लदेशीय । सं. स्त्री. इंदिरा, सं. स्त्री. (सं.) पमा, कमला आंग्लभाषा। दे. 'लक्ष्मी '। इंगलिस्तान, सं. पुं. (अं. इंगलिश+ फा. स्तान) : इंदीवर, सं. पु. ( सं. न.) नील, कमलं उत्पआंग्लदेशः। लम् २. कमलम् । इंगित, सं. पुं. (सं. न.) मः, संकेतः आकारः, इंदु, सं. पुं. (सं.) चन्द्रः २. कपूरः रम् । दैहिकचेष्टा । वि. संकेतित । । इंद्र, वि. (सं.) संपन्न २. श्रेष्ठ । सं. पुं., देवइंगुदी, सं. स्त्री. ( सं.) तापसतरुः, शूलारिः। राजः, पाकशासनः, पुरंदरः, शक्रः, वज्रिन्, इंच, सं. पुं. (अं.) अंगुलः २. अत्यल्पं, रेखामात्रम् । सुरपतिः, शचीपतिः, आखंडलः, सहस्राक्षः, इंजन, सं. पु. ( अं. एंजिन ) यंत्रम् २. वाष्प- नाकनाथः वज्रपाणिः २. सूर्यः ३. विद्युत् (स्त्री. शकटीकर्षकयन्त्रम् । ४. नृपः ५. ज्येष्ठानक्षत्रम् ६. चतुर्दशसंख्या इंजीनियर, सं. पुं. (पंजीनियर ) यंत्रकारः, ७. व्याकरणस्य आदिम आचार्यः ८. जीवः, यंत्रकलाभिज्ञः, वास्तुविद्याविशारदः। प्राणाः। इंजेक्शन, सं. पुं. (अं.) सूचीभरणम् । -का अखाड़ा, सं.पुं. इन्द्रसभा २.संगीतसभ।। इंडेंस, सं. पु. ( अं.) ( स ) द्वारं २. प्रवेशः -जाल, सं. पुं. ( सं. न.) मायाकर्मन् ( न.), ३. आंग्लविद्यालयस्य नवमदशमकक्षे (दि.), कुहकम् । For Private And Personal Use Only Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir इन्द्रजाली [ ६० ] -जाली, वि. (सं.लिन् ) मायाविन् , कुहुक- । इन्स्ष्ट्रमेंट, सं. प्र. (अं.) उपकरणं, यन्त्रम् कारिन् । २. साधनम्। -जीत, सं. पुं. ( सं.-जित् ) मेघनादः। इन्स्पेक्टर, सं. पु. ( अं.) निरीक्षकः, द्रष्टु । -जौ, सं-पु. ( सं.-यवः) कुटज-शक,बीजम् । | इक, वि., दे. एक । -धनुष, सं. पु. ( सं.-धनुस् न.) इन्द्रचापं. इकट्ठा, वि, (सं. एकस्थ ) एकीकृत, समवेत, सुरधनुस। गणीभूत । -नील, सं. पुं. (सं.) नील,-उपल:-मणिः -करना, क्रि. सं., एकत्र कृ; म-नि, चि ( स्व. ( = नीलम)। -नीलक, सं. पु. ( सं.) मरकतं, अश्मगर्भः, ! उ. अ.)। इकटटे, कि. वि. (हिं. इकट्ठा ) एकीभूय, इरिन्मणिः ( = जमुरंद)। संभूय, मिलित्वा। -प्रस्थ, सं. पुं. (सं. न.) युधिष्ठिरनिर्मापितं . इकतार, क्रि. वि. ( सं. एकतारः> ) सततं, दिल्लीसमीपवर्ति नगरम् ।। । निरन्तरम् । -लोक, सं. पुं. (सं.) नाकः, स्वर्गः। । इकतारा, सं. पुं. (सं. एकतारः - ) एक, तारःइंद्रा, सं-स्त्री. (सं.) दे. 'इन्द्राणी' । तंत्रीका. वाद्यभेदः। इंद्राणी, सं. स्त्री. (सं.) शची, ऐन्द्री, पौलोमो, इकतीस, वि. ( सं. एकत्रिंशत् स्त्री. एक.) माहेन्द्री, पुलोमजा २. स्थूलैला ३. सूक्ष्मैला सं. पुं., उक्ता संख्या, तद्बोधकावंको (३१) च । ४. निर्गुण्डी। इकरार, सं. पुं. (अ.) प्रतिज्ञा, संगरः. प्रति. इंद्रानुज, सं. पु (सं.) विष्णुः । सं, श्रवः २. अंगी-स्वी, कारः। इंद्रायन, सं. पुं. (सं. इन्द्राणी) सुरमा, -नामा, सं. पुं. (फा.) प्रतिज्ञा-समय, पत्रं. निर्गुण्डी, सिंदुवारः। लेख्यम्। -का फल, मु., बही रम्योऽन्तर्दुष्टः । इकलौता, सं. पु. ( सं. एकल > ) भगिनी भ्रातृइंद्रायुध, सं. पु. ( सं. पुं. न.) इन्द्रचापः हीनः, पित्रोः एकलः पुत्रः। २. वज्र, पविः । इकसठ, वि. ( सं. एकषष्टिः स्त्री. एक.), सं. इंद्रिय, सं. स्त्री. ( सं. न.) करणं, अक्षं, हृषीकं, पुं. उक्ता संख्या, तद्बोधकावंको (६१) च । ग्रहणं, विषयिन् (न.) २. जननेन्द्रियम् ३. वीर्यम् ४. 'पंच' इति संख्या। इकसार, वि. (सं. एकसार >) समान, सदृश । -अर्थ, सं. पुं. (सं.) इंद्रियविषयः (रूप | इकहत्तर, वि. (हिं. इक+सत्तर ) एकसप्ततिः रसादि)। (स्त्री. एक.), सं. पुं. उक्ता संख्या तद्बोध-जित् , वि. (सं.) जितेन्द्रिय, हृषीकेशः। कार्यकौ (७१) च। -निग्रह, सं. पुं. (सं.) इन्द्रिय,दमनं-जयः, इकहरा, वि. ( सं. एकस्तर ) दे. 'एकहरा' । दमः। इकाई, सं. स्त्री. (हिं. इक) एका व्यक्तिः -वश, वि. ( सं.) विषयिन् , विषयवशः।। (स्त्री.) २. एकांकः ३. त्रैराशिकम् ( = इकाई इंधन, सं. पुं. (सं. न.) इध्म. vधं, एधस् (न.)। का कायदा)। इं(ए)पायर, सं. पुं. (अं.) साम्राज्यम् , | इकानवे, वि. (हि. इक + नवे ) एकनआधिराज्यम् । बतिः ( स्त्री. एक.), सं. पुं., उक्ता संख्या इंपीरियलिज़्म, सं. पुं. (अं.) साम्राज्यवादः । तद्बोधकावंको ( ९१ ) च । २. सम्राट्शासनम् । इकावन, वि. ( सं. एकपंचाशत् स्त्री. एक.) सं. इंपोर्ट, सं. . ( अं.) दे. 'आयात'। पुं., उक्ता संख्या तद्बोधकावं कौ (५१) च । इंसाफ, सं-पु. ( अ.) न्यायः, धर्मः २. निर्णयः इकासी, वि. ( हिं. इक+ अस्सी) एकाशीतिः विवेकः। । (स्त्री. एक.) सं. पुं.- उक्ता संख्या तदनोधकावं. इन्स्टिट्यूट, सं. स्त्री. (अ.) संस्थानम् ।। पो ( ८१) च । इन्स्टिट्यूशन, सं. स्त्री. ( अं.) शिक्षालयः, इकोतर, वि. ( सं. एकोत्तर) एकाधिक । विद्यालयः २. धर्मशाला ३. रीतिः (स्त्री.) । इका, वि. (सं. एक ) एकाकिन् , एकल । For Private And Personal Use Only Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [ ६१ ] इतराश्रय २. अतुल्य, असम । सं. पुं., वाहन यान-प्रव- | इजाफा, सं. पुं. (अ.) वृद्धिः (स्त्री.), दे। हण, भेदः २. एकांकयुतं क्रीडापत्रम् ३, एकाकी | इजार, सं. स्त्री. (अ.) दे. 'पाजामा'। योधः। -बंद, सं. पुं. (अ.+फा.) दे. 'नाड़ा' -दुक्का, बि. विरल २. मार्गभ्रष्ट ३. यूथभ्रष्ट । इजारा, सं. पुं. (अ.) पणः, समयः २. पट्टः, इच्नु, सं. पुं. (सं.) मधु-गुड, तृणः, महारसः, पट्टोलिका ३. स्वत्वम् । रसालः, पयोधरः। इजारे (र) दार, सं. पुं. ( अ.+ फ़ा.) पणकर्त, -रस, सं. पुं. (सं.) मधुतृग, सारः-द्रवः- नियमकृत् । निर्यासः। इज्जत, सं. स्त्री. (अ.) सं-,मानः, आदरः। -सार, सं-पुं. ( सं.) गुडः । -उतारना, मु., लघूनि, कृ। इषवाकु, सं. पुं. (सं.) वैवस्वतमनोः पुत्रः । -रखना, मु., अपमानात् रक्ष (भ्वा. प. से.); सूर्यवंशीयः प्रथमनृपः। इज्या, सं. स्त्री. (सं.) यज्ञः, यागः, होमः २.पूजा, -नंदन, सं. पु. (सं.) श्रीरामचन्द्रः ।। अर्चा। इख्तियार, सं. पुं. (अ.) प्रभावः, अधि- | इटा()लिकस, सं. पुं. (अ.) वक्रमुद्राक्षकारः २. अधिकार क्षेत्रम् ३. सामर्थ्यम् | राणि (न. बहु.) ४. स्वामित्वम् । इटालियन, सं. पुं. (अं.) इटलीवासिन् २. इच्छा, सं. स्त्री. (सं.) स्पहा, आकांक्षा, ईहा, इटलीतः, आगतः वस्त्रभेदः ३. इटलीभाषा । वि. वान्छा, अभिलाषः, मनोरथः, इष्ट, अभीष्टं, | इटलीसम्बन्धिन् । ईप्सितं, कामना। | इठलाना, क्रि. अ. (हिं. ऐंठ) सगर्व चेष्ट -करना, कि. स. ५ ( तु. प. से.), अभि- ( भ्वा. आ. से.) २. हा दृश (प्रे.)३. परलष, वांछ (दोनों भ्वा. प. से.) कम् ( भ्वा. क्लेशाय अज्ञवत् आचर् ( भ्वा. प. से.)। आ. से., कामयते), स्पृह (चु., चतुर्थी के | इठलाहट, सं. स्त्री. (हिं. इठलाना) आटोपः, साथ), ( सन्नंत रूपों से मी, उ. पढ़ने की | गर्वः २. हावभावः। इच्छा करता है-पिपठिषति)। इड़ा, सं. स्त्री. (सं.) भूमिः ( स्त्री.) २. गौः -अनुकूल, क्रि. वि. ( सं. न.) यथारुचि, (स्त्री.) ३. वाणी ४. स्तुतिः (स्त्री.) ५.७ यशयथेच्छं, यथेष्टं, यथाकामम् । पात्रदेवता-आहुति, विशेषः ८. अन्नं, हविस (न.) -भेदी, सं. पु. ( सं.-दिन् ) यथेष्टविरेचक- ९.नमोदेवता १०.दुर्गा ११. पार्वती १२.कश्यपमौषधम् । पत्नी १३. वसुदेवपत्नी १४. बुधपत्नी इच्छित, वि. (सं.) अभीष्ट. वांछित, अभि- १५. स्वर्गः १६. नाडीभेदः। लषित । इतना, वि. [सं. एतावत् वा हिं. ई ( यह )+ इच्छुक, वि. (सं.) इच्छु, अभिलाषिन् , आकां तना (प्रत्य.)] एतावत्, एतन्मात्र, इयत् (स्त्री., क्षिन् । (टि. सन्नंत रूपों से भी, उ० पढ़ने का एतावती, यती)। इच्छुक-पिपठिपुः । तुमुन्नन्त रूप के बाद इतने में, क्रि.वि. एतावन्मध्ये; अत्रान्तरे २.अ. 'काम' वा 'मनस' लगाकर भी, उ० जाने का स्मिन्नेव समये । इच्छुक-गन्तु,-कामः-मनाः) । इतमीनान, सं. पुं. (अ.) तोषः सं, शान्तिः इजराय, सं. पुं. (अ.) प्रचालनं २. अनुष्ठानम् । (स्त्री.)। -डिगरी, सं. पु. ( अ.+ अं. डिकरी) राजा- इतमीनानी, वि. (अ.) विश्वसनीय, विश्वास्य । शासंपादनम् । इतर, सं. पुं. ( अ. हत्र ) दे. 'अतर'। इजलास,सं. पुं. (अ.) अधिवेशनम् २. न्याया- इतर, वि. (सं) अन्य, अपर, पर २. नीच लयः। ३. सामान्य, साधारण । इज़हार, सं. पुं. (अ.) प्रकाशनम् २. साक्ष्यम् । -इतर, क्रि. वि., परस्परं; अन्योन्यं, मिथः इजाज़त, सं. स्त्री. ( अ.) अनुमतिः ( स्त्री.), (सब अव्य.)। भनुज्ञा २. आशा, आदेशः । | इतराश्रय, सं. पुं. (सं.) अन्योन्याश्रयः । For Private And Personal Use Only Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir इतराना [ ६२ ] इतराना, क्रि. अ. (सं. उत्तरणं> ) गद् (भ्वा.। इनकार, सं. पुं. (अ.) प्रत्याख्यानं, प्रति-नि, प. से.), प्रगल्भ ( भ्वा. आ. से.)। घेधः। इतवार, सं. पु. ( सं. आदित्यवारः ) रवि आदि- -करना, क्रि. सं., प्रति-नि, षिध (भ्वा. प. वे.) त्य भानु, वारः-वासरः। इनकिशाफ, सं. पुं. ( अ०) आविर्भावः, इति, अव्य. (सं.) इति शम् , इत्योम् , प्राकाश्य, प्राकट्यम् । समाप्तिसूचकमव्ययम् । सं. स्त्री., अवसानं, इन किसार, सं. पु. ( अ०) विनयः, नम्रत्वं-ता। अन्तः, समाप्तिः (स्त्री.)। इनफलुएंजा, सं. पुं. ( अं) शीतज्वरः । -कर्तब्यता, सं. स्त्री. (सं.) कर्मानुष्ठानविधिः इनसान, सं. पु. ( अ.) मनुष्यः । (पुं.)। इनसानियत, सं. स्त्री. (अ.) मनुष्यत्वम् -वृत्त, सं. पुं. ( सं. न.) पुरावृत्तं, (पुरातनी) । २. सज्जनता, शिष्टता। कथा । इनहिसार, सं. पु. (अ.) अवलंबः, आश्रयः। -श्री, सं. स्त्री. (सं.) अन्तः, समाप्तिः (स्त्री.) इनाम, सं. पुं. ( अ. इनआम ) पुरस्कारः, इतिहास, सं. पुं. ( सं.) पुरावृत्तं, पूर्ववृत्तान्तः, __ पारितोषिकम् । पुराभूतम् । इनायत, सं. स्त्री. (अ.) कृपा २. उपकारः। इत्तफाक, सं. पु. ( अ.) संघटनं-ना, संघट्टनं ना इने-गिने, वि. ( अनु० इन+हेि. गिनना) २. सौहाईम् , साम्मत्यम् ३. अवसरः, अब कतिचन, स्तोकाः २. अल्पसंख्याकाः। काशः। इबारत, सं. स्त्री. ( अ.) लेखः २. लेखशैली । इत्तला, सं. स्त्री. (अ.) विज्ञापनं, ख्यापनं, इमरती, सं. स्त्री. (सं० अमृतम् > ) कंकणी, सूचना, बोधनम् । मिष्टान्नभेदः । इत्थं, क्रि. वि. (सं.) एवं, अनेन प्रकारेण। इमली, सं. स्त्री. (सं. अम्लिका ) आमिल (ली). का,-चिंचा, तितिडि (डी) का २. अम्लिकाइत्थंभूत, वि. (सं.) ईदृश, एतादृश । चिंचा, फलम् । इत्यादि, अव्य. (सं.) आदि, प्रभृति, आध इमाम, सं. पुं. (अ.) पुरोहितः २. नेतृ । (सब समासान्त में; उ. पिककाकादयः)। बाड़ा, सं. पुं. (अ.+ हिं.) मुहर्रम पर्वानुष्ठा इत्यादिक, वि (सं.) दे. 'इत्यादि। नवाटः । इत्र, सं. पुं. (अ.) दे. 'अतर'। इमारत, सं. स्त्री. (अ.) भवनं, गृहम् । इधर, क्रि. वि. ( सं. अत्र ) इतः, एतत्स्थानं इम्तहान, सं. पुं. (अ.) परीक्षा। प्रति २. अत्र, इह, अस्मिन् स्थाने । इम्ला, सं. स्त्री. (अ.) श्रुतलेखः २. अक्षर-उधर, क्रि. वि., इतस्ततः, अत्र-तत्र, अनि वर्ण,-विन्यासः। यतस्थले २. उभयतः, उभयत्र ३. अभितः, | इयत्ता, सं. स्त्री. (सं.) सीमा, परिमाणम् । परितः. ( दोनों के साथ द्वितीया ), सर्वतः, इरादा, सं. पुं. (अ.) संकल्पः, निश्चयः । विश्वतः, समंततः, समन्तात् ।। इरावती, सं. स्त्री. (सं.) कश्यपसुता २. नदी-उधर की बात, मु., जन, प्रवादः श्रुतिः विशेषः ( = रावी) ३. ओषधिभेदः ( स्त्री.)। (= पत्थर चट)। -की उधर लगाना, मु., कलहं उद्दी (प्रे.)। इर्द-गिर्द, क्रि, वि. ( अनु० इर्द + फ़ा. गिर्द ) -की दुनिया उधर होना, मु., असंभवं परितः, अमितः, सर्वतः २. उभयतः, इतस्ततः। भवेत् चेत् । इलज़ाम, सं. पुं. (म.) अभियोगः, दोष, इन, सर्व, (हिं. इस ) एतद् , इदम् । आरोपः। -दिनों, क्रि. वि., वर्तमाने, अद्यत्वे । इलहाम, सं. पुं. (अ.) देववाणी। इन, सं. पुं. (सं.) सूर्यः २. स्वामिन् । इला, सं. स्त्री. (सं.) पृथिवी २. पार्वती इनकमटॅक्स, सं. पुं. ( अं.) आयकरः । | ३. वाणी ४. बुद्धिमती नारी ५. गौः (स्त्री.)। इनक़लाब, सं. पुं. (अ.) बृहत्परिवर्तनं, इलाका, सं. पुं. (अ.) प्रदेशः, भूभागः । परिवर्तः। २. राज्यविप्लवः, प्रजाक्षोभः। २.संबंधः। For Private And Personal Use Only Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir इलाज इलाज, सं. पुं. (अ.) चिकित्सा, उपचारः २. औषधं, औषधिः ( स्त्री. ) ३. युक्तिः (स्त्री.) प्रती ( ति ) कारः । इलायची, सं. स्त्री. ( सं . एला ) बढ़ी) प्ला, चंद्रवाला, बहुला, त्रिदिवा २. (छोटी) कुंति:- त्रुटि: (स्त्री.). नंदिनी । - दाना, सं. पुं., ( हिं + फा ) एलाबीजम् २. कुंति बीजम् २ तद्बीजयुक्तो मिष्टान्नभेदः । इलाही, वि. (अ.) देव, ईश्वरीय । सं. पुं., ईश्वरः । [ ६३ ] राधः ४. व्यसनम् । इच, अव्य. ( सं . ) यथा, तुल्य, सदृश, इसरार, सं. पुं. (अ.) आग्रहः, दे० । इसलाम, सं. पुं. (अ.) मोहम्मदीयधर्मः । २. ईश्वरेच्छा, स्वीकारः । इसलामी, मोहम्मदीयधर्मसम्बधिन् । इल्म, सं. पुं. (अ.) विद्या, ज्ञानम् । इल्लत, सं. स्त्री. ( अ. ) रोग: २. बाधा ३. अप | इसे, सर्व (हिं. इस ) १. ( इसको ) एवं समान, वत् । इशारा, सं. पुं. ( अ ) संकेतः, इंगितम् २. संक्षिप्तकथनम् ३. गुप्तप्रेरणा । ईठि इष्टि, सं. स्त्री. ( सं . ) अभिलाषः २. यज्ञः ३. पतंजलिकृतो व्याकरणनियमः । इस, सर्व. (सं. एषः ) एतद् इदम् । इसपंज, सं. पुं. ( अं. स्पंज ) सुपिरदेहु पिंड: २. परान्नपुष्टः । ई, देवनागरी वर्णमालायाः चतुर्थः स्वरवर्णः, ईकारः । ईंगुर, सं. पुं. ( सं. हिंगुल :-लम् ) हिंगुलिः, • हिंगुल (पुं. न. ), सिन्दूरम् । ईंट, सं. स्त्री. ( सं . इष्टका ) इष्टिका । ( पक्की ) झरुका, पक्केष्टका, अमृतेष्टका २ दृष्टकाकारो धातुखंडः । - से ईंट बजाना, मु., ध्वंस- उन्मूल- विनशनिपत् (सब प्रे.) । इसबगोल, सं. पुं. (फ़ा. यशबगोल ) ऋक्षणस्निग्ध, जीरकः । इश्क, सं. पुं. (अ.) अनुरागः, प्रणयः । इश्तहार, सं. पुं. (अ.) विज्ञापनं, विज्ञप्तिः (स्त्री.) २. घोषणा, ख्यापनम् । इषु, सं. पुं. (सं.) वाणः, सायकः । इषुधी, सं. पुं. (सं.-धि: ) तूणीरः, तूणी । इष्ट, वि. (सं.) वांछित, अभिलषित, आकांक्षित २. अभिप्रेत ३. पूजित । सं. पुं, (सं. न. ) धर्मकृत्यं, अग्निहोत्रादिकर्माणि २. कुलदेवः ३. मित्रम् ४. अरिंड: ५. इष्टका । - देव, सं. पुं. (सं.) कुलदेवता । - देवता, सं. स्त्री. (सं.) आराध्यदेवः । इष्टापूर्त, सं. पुं. (सं.न.) यज्ञखातादिकर्मन् (न.) । सरभूमिः (स्त्री.) । - पत्थर, मु., न किमपि न किंचित् । डेढ़ वा ढाई ईंट की मस्जिद अलग बनाना, मु., असामान्यं आचर ( भ्वा. प. से. ) । (पुं.), एतां (स्त्री.), एतद् (न.), इमं ( धुं. ), इमां (स्त्री.), इदम् (न.) २. ( इसके लिए ) एतस्मै (पुं. न. ), एतस्यै ( स्त्री. ) अस्मै ( पुं. न. ), अस्यै (स्त्री.) । इस्तरी, सं. स्त्री. ( सं. स्तरी > ) स्तरणी, रजकलोइः- हुम् । इस्तिक़बाल, सं. पुं. ( अ. ) प्रत्युद्गमनं, प्रत्युदूजनम् | स्वागतम् सत्कारः । इस्तिगासा अभियोगः, भाषापादः । इस्तीफा, सं. पुं. ( अ. इस्तैफा ) त्यागपत्रम् । इस्तेमाल, सं. पुं. ( अ. ) उपयोगः, व्यवहारः, प्रयोगः । इह, क्रि. वि. (सं.) अत्र २. भूलोके । सं. पुं., भूलोकः । - लीला, सं. स्त्री. (सं.) जीवनम् । इहाता, सं. पुं. (अ.) वाट:-टी, प्रांगणं-नं, परि ईंधन, सं. पुं., दे. 'इंधन' | ईक्षक, सं. पुं. ( सं . ) दर्शकः, वीक्षकः २. चिन्तकः । ईक्षण, सं. पुं. (सं. न. ) अवलोकन, दर्शनम् २. नेत्रम् ३. विवेचनम् । ईक्षा, सं. स्त्री. (सं.) दर्शनं, वीक्षणम् । विवेचनं, पर्यालोचनम् । ईख, सं स्त्री. दे. 'इक्षु' । ईजा, सं. स्त्री. (अ.) कष्टं, क्लेशः । ईजाद, सं. स्त्री. दे. 'आविष्कार' । ईठि, सं. स्त्री. ( सं . इष्टिः ) सख्यं, सौहार्दम् २. प्रयत्नः । For Private And Personal Use Only Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ईति [ ६४ ] कहूँ बैठना ईति, सं. स्त्री. (सं.) कृषेः षट् उपद्रवाः (यथा- | ईर्ष्यालु, वि. (सं.) मत्सरिन्, असूयक, ईष्यन्, परोत्कर्षासहन । अतिवृष्टिः, अनावृष्टिः, शलभाः, मूषिकाः खगाः, शत्रोराक्रमणम् ) २. विघ्नः ३ दुःखम् । ईथर, सं. पुं. ( अं.) दक्षु (न.), आष्ट्रम् । ईद, सं. स्त्री. (अ.) यवनोत्सवभेदः । - का चाँद, मु., दिवाप्रदीपः, दुर्लभदर्शनः । ईदृश, क्रि.वि. (सं. न.) इत्थं अनेन प्रकारेण : वि., दे. 'ऐसा' । ईशान, सं. पुं. (सं.) खामिन् प्रभुः २. महा देव, ३. पूर्वोत्तरदिकोणः । , ईश्वर, सं. पुं. (सं.) परमेश्वरः, परमात्मन, जगदीश्वरः, परमेशः २. स्वामिन् ३. शिवः । वि., आय | -- प्रणिधान, सं. पुं. (सं. न.) ईश्वरे श्रद्धातिशयः, स्वकर्मणामीश्वरापेणम् । ३. ईप्सा, सं. स्त्री. (सं.) इच्छा, अभिलाषः । ईप्सित, वि. ( सं . ) अभिलषित, इष्ट । ईमान, सं. पुं. (अ.) धर्मः २. सत्यम् । आस्तिक्यबुद्धि: ( स्त्री. ) ४. श्रद्धा । - दार, वि. ( अ. + फा. ) धार्मिक, न्यायवर्तिन् २. निष्कपट ३. आस्तिक ४. विश्वसनीय | ईरान, सं. पुं. ( फा . ) पारसीकः । ईरानी, वि. पारस (सी स्त्री. १ । सं. स्त्री, पारसी, पारसीकभाषा । सं. पुं., पारसीकाः, पारसीकवासिनः ( बहु . ) । ईश्वरीय, वि. ( सं . ) दिव्य, दैव, संबंधिन् । ईषत्, अन्य. (सं.) अल्पं, स्तोकं, न्यूनम् । ईसबगोल, सं. पुं., दे. 'इगो' । ईसवी, वि. ( फा . ) त्रिस्तसंबंधिन् । सन्, सं. पुं. ( फा + अ ) खिस्ताब्दः । ईसा, सं. पुं. (अ.) खिस्तः, जीसुः । ईसाई, वि. ( फा . ) खिस्तानुयायिन् । ईर्ष्या, सं. स्त्री. ( सं . ) मत्सरः, मात्सर्य, परो । ईहा, सं. स्त्री. (सं.) चेष्टा २. उद्योगः ३. अभि. त्कर्षासहिष्णुता, असूया । लाषः ४. लोभः (डि. ) 1 उकारः । उंकुण, सं. पुं. ( सं . ) मत्कुण:, तल्पकीटः ओकणः । उँगली, सं. स्त्री. (सं. अंगुली ), अंगुल:, अंगुरी, करशाखा ( उँगलियों के क्रमशः नाम – अंगुष्ठः, तर्जनी, मध्यमा अनामिका, कनिष्ठा ) । उ उ. देवनागरी वर्णमालायाः पंचमः स्वरवर्णः, | उंचास, वि., दे. 'उनचास' । का पटाखा, सं. पुं., अंगुलोमोटनं, मुचुटी । उँगलियों पर नचाना, मु., यथेच्छं कृ ( प्रे.) । —उठाना, मु., निन्दु (भ्वा. प. से.), अधिक्षिप ( तु. प. अ. ) २. मनागपि अपकृ । कानी, सं. स्त्री, कनिष्ठा । 1 कानों में उँगली देना, मु., औदासीन्येन परवचनानि न श्रु (भ्वा. प. अ.) । दाँतों तले उँगली दबाना, मु., अत्यर्थं विस्मि (भ्वा. आ. अ. ), चकितचकित (वि.) भू । पाँचों उँगलियाँ घी में होना, मु., सर्वेया समृधू (दि. प. से. ) । उंचन, सं. स्त्री. (सं. उदंचनम् ) खट्वायाः पादभागस्था रज्जुः ( स्त्री. ) । ईश, सं. पुं. (सं.) प्रभुः पतिः, स्वाभिन् २. परमेश्वरः ३. नृपः ४. शिवः ५. 'एकादश' इति संख्या | उंछ, सं. स्त्री. ( सं . पुं. ) उपात्तशस्यात् क्षेत्रात शेषावचयनम्, उञ्छनम् । वृत्ति, सं. स्त्री. ( सं . ) उच्छेन जीवननिह: । वि., उच्छशील | उजियारी, उँज्यारी, सं. स्त्री. (हिं. उजारा ) चन्द्रिका, ज्योत्स्ना । वि. स्त्री, चन्द्रिका प्रकाश, युता । उजेरा, उँजेला, सं. पुं., दे. 'उजाला' । उँडेलना, क्रि. स. ( सं. अब + हिं. डालना ? } प्र., स्रु (प्रे. ) निर्गल ( प्रे.), प्रस्यंद ( प्रे.), च्युत ( प्रे. ) । उंदन, सं. पुं. (सं. न. ) क्लेदनं, आर्द्राकरणम् । उंदुर, सं. पुं. (सं. उंदरुः ) मूष ( प ) का उह, अव्य. (अनु. ) घृणोपेक्षा निषेधपीडादिसूत्र कमव्ययम्, धिक्, न, नहि, आम, हा ५० उऋण, वि. (सं. उत् + ऋण) अनुण, मु उकहूँ, सं. पुं. ( सं . उत्कृतो ) उपवेशन प्रकार विशेषः । । - बैठना, क्रि. अ., अवनतसविध आसू ( अ. आ. से. ) । For Private And Personal Use Only Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir उकताना [ ६५ ] | उकताना, क्रि. अ. (सं. उत्क > ) खिद्निर्विद् ( दि. आ. अ. ) उद्विज् (तु. आ. अ.) । उकताया हुआ, वि. खिन्न, निर्विण्ण | उकसना, क्रि. अ. ( सं . उत्कषणं > ) सं-वि, - शुभ् ( दि. प. से.), उत्-सं., - तप् (दि. आ. अ.) २. उद्गम्, उन्नम् (भ्वा. प. अ. ) ३. प्ररुह (भ्वा. प. अ. ) ४. विशिष्ठष ( दि. प. अ.) । सं. पुं., संक्षोमः, संतापः, उद्गमः, प्ररोहः, विश्लेषः । उकसाना, क्रि. स. (हिं. उकसना ) उत्तिज्, उद्दीप, प्रोत्सह, सं-वि-क्षुभ, प्रचु (सब प्रे. ) २. उत्था - उद्गम् (प्र. ) ३. अपस (प्रे.) । सं. पुं., उत्तेजनं, उद्दीपनं, उत्थापनं, अपसारणम् । उक्त, वि. (सं.) कथित, उदित, भाषित, रूपित, व्याहृत, उदीरित | उक्ति, सं. स्त्री. (सं.) कथनं, वचनम् २. अधू भुतवाक्यम् ३. संमति: ( स्त्री. ) । उक्थ, सं. पुं. ( सं. न. ) सामवेदः २. स्तोत्रं ३. प्राणः । उक्षा, सं. पुं. ( सं . उक्षन् ) वृषभ: २. सूर्यः । उखड़ना, क्रि. अ. (सं. उत्खननम् ) उन्मूल उत्खन्, समूलं उदूह ( सब कर्म. ) २. (दृढस्थिते: ) पृथक् भू ३. संधेः चल (स्वा.प. से.) वा त्रुट् ( दि. प. से. ) ४. स्वर-तालच्युत (वि.) भू ( संगीत ) ५. अपसू ( भ्वा. प. अ. ), विदु (स्वा. प. अ. ) ६. सीधनं त्रुट सं. पुं., उन्मूलनं, उत्खननं; संधेश्वलनं; स्वरताक, भंग; अपसरणं, सीवनत्रोटनम् । दम, मु., स्वरभंगः २. प्राणनिष्क्रमणम् । पैर, मु., विद्रवणं, पछायनम् । उखड़वाना, क्रि. प्रे. (हिं. उखड़ना ) अन्येन उन्मूल्- उत्पटू -- उत्खन्-व्यपचर-अच्छ ( सब प्रे. ) उखली, सं. स्त्री. ( सं. उलूखलम् ) उदूखलम् । उखा, सं. स्त्री. (सं.) स्थाली. दे. 'देव' । उखाड़, सं. स्त्री. (हिं. खाड़ना ) उन्मूलनं, उत्पाटनं, उत्खननम् । उखाड़ना, क्रि. स. (हिं. उखड़ना) उन्मूलउत्पट्-उत्खन्-व्यपरुह - उच्छित् ( सब प्रे.) २. सन्धि चलू (प्रे. ) ३. बि-परा, जि (वा. ५ आ० हि ० उम्र आ. अ. ) ४. अपसृ ( प्रे. ) ५. विनश ( प्रे. ) गड़े मुर्दे - मु. विस्मृतकलहान् पुनः उद्दीप् (प्र.) । उगना, क्रि. अ. ( सं . उद्गमनम् ) उद्गम् (भ्वा. प. अ. ), उदि ( = उत् + इ; अ. प. अ. ), उदय् ( = उत् + अय्, भ्वा. आ. से . ) २. स्फुट् ( तु. प. से. ), उद्भिद् (कर्म. ) प्रह ( भ्वा. प. अ. ) ३. उत्पद् ( दि. आ. अ. ), जन् (दि. आ. से. ) । सं. पुं. उद्गमः, उदयः, उद्भेद:, प्ररोहः, प्र, स्फुटनम्, उत्पत्तिः (स्त्री.) । उगा हुआ, वि., उद्गत, उदित; उद्भिन्न, प्ररूढ; प्र, स्फुटित, उत्पन्न उगलना, क्रि. स. (सं. उद्भिरणम् ) उद्गृ ( तु. प. से. ), वम् (भ्वा. प. से. ), छद् ( चु. ) । २. अन्याय प्राप्तधनं प्रतिदा ( जु. उ. अ. ) ३. गोपनीयं प्रकाश ( प्रे. ) ४. बहिष्कृ ( त. उ. अ. ) । ज़हर, मु., अरुंतुदं वचनं वद् (भ्वा. प. से.) उगलवाना, क्रि. . (हिं. उगलना ) वम्उद्ग ( . ) २. अपराधं स्वीकृ ( प्रे. ) ३. अन्यालब्धं धनं प्रतिदा ( प्रे. प्रतिदापयति ) । उगाना, क्रि. स., (हिं. उगना ) प्ररुह (प्र. ), ( अन्नादिकं ) उत्पद् ( प्रे. ) ३. प्रहाराय शस्त्रादिकं उन्नम् (प्रे. ) । उगार, सं. पुं. ( सं . उद्गार > ) निपीडितनिर्गलित-निर्गालित्, - जलम् । उगाल, सं. पुं. ( सं. उद्गारः ) मुखस्राव:, लाला २. कफः, श्लेष्मन् (पुं. ३. जीर्णवस्त्रम् । - दान, सं. पुं., प्रतिग्राहः, पतद्ग्रहः । उगालना, क्रि. स. (हि. उगलना) उद्गृ ( तु. प.से.) २. रोमंथायते ( ना. धा. ) । उगाहना, क्रि. स. ( सं उदग्रदणम् > ) ( करं ऋणं वा ) समाहृ ( भ्वा. उ. अ. ), संभृ ( जु. उ. अ. ), अव-वि-सं-नि, चि ( स्वा. उ. अ. ) । उगाही, सं. स्त्री. (हिं. उगाहना ) ( धनस्य ) समाहारः, संभरणं, संग्रहणं, समुच्चयनम् २. संभृतं धनम् ३. भूमिकरः ४. ऋणादिकस्य अंशशः संग्रहणम् ५. कुसीदं, वार्द्धष्यवृत्तिः ( स्त्री. ) । उग्र, वि. (सं.) प्रचंड, तीव्र, प्रबल, घोर, रौद्र । सं. पुं. (सं.) शिवः २. विष्णुः ३. सूर्यः । For Private And Personal Use Only Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir उग्रना [ ६६ ] उछलना उग्रसेन, सं. पुं. (सं.) कंसजनकः । उग्रता, सं. स्त्री. (सं.) प्रचण्डता, भयंकरता, उच्चता, सं. स्त्री. (सं.) उच्छू (च्छा ) य:, निर्दयता, उद्दण्डता । आरोहः, उत्सेधः, तुङ्गता २. श्रेष्ठत्वं महत्त्वम् । उच्चाटन, सं. पुं. (सं. न. ) विश्लेषणं, पृथक् करणम् २. उत्पाटनं, उन्मूलनम् ३. तांत्रिकाभिचारभेदः ४. विरक्तिः (स्त्री.) । उच्चार, सं. पुं. (सं.) भाषणं २. पुरीषम् । उच्चारण, सं. पुं. ( सं. न. ) उदीरणं, भाषणम् २. भाषणविधिः । उग्रा, सं. स्त्री. (सं.) दुर्गा, महाकाली २. कर्कशा नारी ३० वचा ४. • छिक्किकौषधम् । उघड़ना, क्रि. अ. (सं. उद्घटनम् ) उद्घट् ( कर्म. ) अपा-वि-वृ ( कर्म. ) २. नशी विवस्त्री-भू ३. प्रकाश (भ्वा. आ. से.) ४. रहस्यं भिद् (कर्म. ) । उघाड़ना, क्रि. स. (हिं. उवड़ना उद्घट् (प्रे.) अपा-वि-वृ ( स्वा. उ. से. ) २. नग्नीविवस्त्री - ३. प्रकट् ( प्रे. ) ४. रहस्यं भि ( प्रे. ) । उघाड़ा, वि. (हिं. उघाड़ना ) विवस्त्र, नन २. प्रत्यक्ष ३ प्रकाशित । उचकन, सं. पुं. (हिं. उचकना ) आधारः, अवलंबः, पात्रादिकस्याधारभूतः प्रस्तरखंडः । उचकना, क्रि. अ. ( सं . उच्चकरणं > ) प्रपदेन उत्स्था ( भ्वा. प. अ.), पादाग्रेण कार्य उन्नम् (प्र. ) २. उत्प्लु स्वा. आ. अ. ) । उचकाना, क्रि. स. (हिं. उचकना ) उचकना । लित ३. नष्ट | के धातुओं के प्रेरणार्थक रूप । उचक्का, सं. पुं. (हिं. उचकना ) पंचकः, प्रतारकः, धूर्त्तः २. ग्रंथि - छेदक :- चौरः । उचटना, क्रि. अ. (सं. उच्चटनम् > ) विश्लिष ( दि. प. अ.), विद्यद् (भ्वा. आ. से.), वियुज् ( कर्म. ) २. विरज् ( कर्म. ), उपेक्षू (भ्वा. आ. से.) । उचरना, क्रि. स., दे. 'बोलना' । उच्चटाना, क्रि. स. ( सं . उच्चाटनम् > ) विलिप विघट् - विच्छिद् ( प्रे.) । उचाट, सं. पुं. ( सं. उच्चाटः > ) विरक्तिः (स्त्री.), वैराग्यं, औदासीन्यं, अन्यमनस्कता । वि., उदासीन, विरक्त । -करना, क्रि. स., उच्चर - उदीर् ( प्रे.), व्याहृ ( स्वा. प. अ. ), गद्वद् (भ्वा. प. सं. 1 उच्चारित, वि. (सं.) उदीरित, उदित, भाषित, ? -होना, क्रि. अ. निर्विद्-खिद् (दि. आ. अ.) । उच्चंड, वि. (सं.) प्रचण्ड, अत्युग्र २. क्रुद्ध, कुपित ३. अधीर । उचित, वि. (सं.), युक्त, संगत, उपपन्न । उच्च, वि. (सं.) उन्नत, उच्छ्रित, उत्-, तुंग, उद्गत २. उत्तम, श्रेष्ठ । उच्चय, सं. पुं. (सं.) निचयः, निकरः २. चयनम् ३. अभ्युदयः । व्याहृत । उच्चावव, वि. (सं.) उत्तमाधम, उत्कृष्टापकृष्ट, उत्तराधर, उन्नतावनत | उच्चित, वि. (सं.) संगृहीत, संचित । उच्चैःश्रवा, सं. पुं. ( सं . - श्रवस् ) समुद्रमंथनजः घटक : २. एट, ईषद्-, बधिरः । उच्छलन, सं. पुं. ( सं. न. ) उत्, - पतनं पुवनं, वल्गनम् । उच्छिन्न, वि. (सं.) खण्डित, लून २. उन्मू उच्छिष्ट, वि. (सं.) भुक्तावशिष्ट, जुष्ट २. व्यवहृतचर । सं. पुं. मुक्तावशिष्टवस्तु (न.), जुष्टं २. मधु (न.) । | उच्छू, सं. पुं. (अनु.) जलादिरोधजः कासभेदः । उच्छृंखल, वि. ( (सं.) निरंकुश, स्वैरिन्, उद्दाम, उद्दण्ड, अशिष्ट, अविनीत २. उत्सूत्र, विधि-कम-नियम, विरुद्ध । उच्छेद, सं. पुं. (सं.) उन्मूलनं, उत्पाटनं, विश्लेषणं, खण्डनम् २. नाशः ध्वंसः । -करना, क्रि. स., उन्मूल्-उत्पट् दिदिलष-नश्( प्रे. ) । उच्छेदन, सं. पुं. (सं. न. ) दे. 'उच्छेद' | उच्छ्वास, सं. पुं. ( सं . ) आहरण, आनः २. श्वासः ३. ग्रन्थपरिच्छेदः । उछंग, सं. पुं. (सं. उत्संगः) क्रोडम् २. हृदयम् । उछल-कूद, सं. स्त्री. (हिं. उछलना-कूदना ) क्रीडा, खला, बिहारः, कूर्दनं, क्रीडाकूर्दनम् २. चांचल्यं, अधीरता । उछलना, क्रि. अ. (सं. उच्छलनम् ) उच्छल्वल्ग् (भ्वा. उ. से. ) उत्प्लु (भ्वा. आ. अ.), उत्पत् (भ्वा. प. से. ) २. अत्यन्तं प्रसद् For Private And Personal Use Only Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir उछाल [ ६७ ] उठान ( भ्वा. प. अ.) ३.त (भ्वा. प. से.)। सं. | उजास, सं. पुं. ( हिं. उजाला ) आलोकः, पुं., उच्छल नं, उत्पतने, उत्-, प्लवनं, बल्गितं, प्रकाशः। प्लवः, झपः-पा। । उजियारी, सं. स्त्री. (हिं. उजारा) चन्द्रिका उछाल, सं. स्त्री. ( सं. पुं. ) दे. 'उछलना' २. प्रकाशः ३. सती नारी । सं. पुं. । २. प्लवनावधिः, प्लुतिसीमा उजयिनी, सं. स्त्री. (सं.) अवन्ती, विशाला, ३. वमनम् । मालवराजधानी। लास च्यालन उच्छल उज्ज्वल, वि. (सं.) देदीप्यमान, प्रदीप्त, (प्रे.), उत्क्षिप् (तु. प. अ.) २. प्रकट (प्रे.)। रुचिर, भासुर २. विशद, निर्मल ३. श्वेत, उछाह, सं. पुं. ( सं. उत्साहः ) उत्सुकता, सित ४. निष्कलंक, अकलुष । उज्ज्वलता, सं. स्त्री. (सं.) दीप्तिः-कान्तिः (स्त्री.) व्यग्रता २. हर्पः, आनन्दः ३. उत्सवः २. स्वच्छता ३. धवलता ४. निष्कलंकता। ४. रथयात्रा। उजड़ना, क्रि. अ. (सं. अवजटनन् :-) विजन- । उटंग, वि. (सं. उत्तुंग >) क्षुद्रपरिमाण ( वस्त्र)। निर्जन (वि.) भू २. नि-अव,-पत् ( भ्वा. प. उटज, सं. पु. ( सें. पुं. न.) पणे, शाला-कुटी, से.), संस-भ्रंश (भ्वा. आ. से.) ३. क्षयं या कुटीरः। ( अ. प. अ.)। | उठना, क्रि. अ. (सं. उत्थानम् ) उत्था-समुत्था उजड्डु, वि. ( सं. उत् + जड > ) जड, मूढ़, ( भ्वा. प. अ.) २. उदय् ( भ्वा. आ.से.), अश २. असभ्य, अशिष्ट ३. उदंड, निरंकुश ।। उद्-इ (अ. प. अ.), ३. उच्छल ( भ्वा. उ. उजबक, सं. पुं. (तु.) जातिविशेषः २. मूर्खः । से.) ४. जागृ ( अ. प. से.) ५. उत्पद् (दि. आ. अ.) ६. सहसा आरम् (भ्वा. आ. उजरत, सं. स्त्री. ( अ. ) भृतिः (स्त्री.), अ.) ७. सज्जीभू , उद्यत् ( भ्वा. आ. से.) वेतनम् २. कर्मण्या, निष्क्रयः। ८. परिस्फुट (वि.) भू ९. फेनायते (ना. उजलत, सं. स्त्री. (अ.) शीघ्रता, त्वरा।। धा.) १०.निष्पद्-समाप (कर्म.) ११. (रीति उजला, वि. (सं. उज्ज्व ल) श्वेत, शुक्ल, शुभ्र, आदि) विलुप (दि. प. से.) १२. व्यय्धवल, सित, धौत, गौर २. स्वच्छ, निर्मल ३. विनियुज् ( कर्म. ) १३. विक्री (कर्म.) दीप्त, दिव्य, प्रकाशमान । १४. भित्त्यादयः क्रमशः निर्मा ( कर्म.) उजागर, वि. (सं. उत् + जागरित >) प्रकाश १५. गोमहिण्यादीनां गर्भधारणेच्छा । सं. पुं. मान २. प्रसिद्ध । उत्थानः, उदयः, उत्पातः, उद्गमः, ऊर्ध्वगमनं, उजाड़, सं. पुं. (हिं. उजड़ना ) जीर्ण-शीर्ण, अधिरोहणं, उच्छलनं, जागरणं, सहसा आरंभः, स्थानम् २. निर्जन-विजन, स्थानम् ३. वनम् , | सिद्धता, सज्जता, स्फुटनं, उत्सेकः, समाप्तिः अरण्यम् । वि., जजेर, जीणे २. शून्य, विजन | (स्त्री.), पिधान, विलोपः, व्ययः, विक्रयः, ३. एकान्त, निभृत। ! भाटकेन नियोगः । उजाड़ना, क्रि. स. (हिं. उजड़ना) निर्जनी- उठती जवानी, सं. स्त्री., यौवनारंभः । शून्यी, कृ, अवसद् (प्रे.) २. नि-अव, पत् । उठते-बैठते, क्रि. विः, प्रतिक्षणं, सर्वदा। (प्रे.) वि-प्र, नश ( प्रे.), प्र-वि,-ध्वंस् ( पे.), उठना-बैठना, मु., आचारः, व्यवहारः, उन्मूल-उत्पट् ( चु.)। शीलम् । उजाड़, वि. (हिं. उजाड़ना ) अतिव्ययिन् उठवाना, क्रि. प्रे. (हिं. उठना) अन्येन २. मुक्तहस्त । उत्था-उद्गम्-उन्नम् (प्रे.)। उजाला, सं. पुं. ( सं. उज्ज्वाल: ) प्रकाशः, उठाईगीरा, सं. पुं. (हिं. उठाना+फा. आलोकः, धुतिः-दीप्तिः (स्त्री.) । वि., उज्ज्वल, । गौर ) चौरः, मोषकः २. धूर्तः, कितवः। प्रकाशमान। | उठान, सं. स्त्री. ( सं. उत्थानम् ) समुत्थानं, उजाली, सं. स्त्री. (हिं. उजाला ) चन्द्रिका, | उद्गमनम् २. वृद्धिः (स्त्री.) ३. आरम्भः ज्योत्स्ना। वि. उज्ज्वला, दीप्ता । । ४. व्ययः। For Private And Personal Use Only Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra उठाना www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [ ६८ ] उठाना, क्रि. स. (हिं. उठना ) उठना के धातुओं के प्रेरणार्थक रूप बनाएँ । उठाव, सं. पुं. (हिं. उठाना ) व्ययः २. उन्न तांशः । उडु, सं. पुं. (सं. स्त्री. न. ) नक्षत्रं, तारका २. तारासमूहः, राशि: ३. पक्षिन् ४. नाविकः उठौनी, सं. स्त्री. (हिं. उठाना ) उन्नयनं, उत्क्षेपणम् २. उत्थापनमूल्यम् ३. प्राग्दत्तं मूल्यम् ४. वणिग्भिः उद्धारः ५. देवपूजार्थ पृथग्धृतं धनम् ६. मृतस्यास्थिचयनरीतिः (स्त्री.) ६. मृत्योद्वितीये तृतीये वा दिने संबंधिपुरुषस्य उष्णीषपरिधापनरीतिः (स्त्री.) । उड़कू, वि. ( (हिं. उड़ना) गगनगामिन् ५. जलम् । - गण, सं. पुं. ( सं . ) तारा समूहः । - पति, राज, सं. पुं. ( सं . ) चन्द्रः, इन्दुः । उड़प, सं. पुं. (सं. उडुपः-पम् ) प्लवः, तरणः, तारणः, तारकः २. नौका ३. चन्द्रः । उड़ेलना, क्रि, स. दे. 'उँडेलना' । २. चल । उड़द, सं. पुं. (सं. ऋद्ध > ) दे. 'उरद' । उड़नखटोला, सं. पुं. (हिं उड़ना + खटोला ) उड्डयन, सं. पुं. ( सं. न. ) नभोगति: (स्त्री.), विमानम्, वायुयानम् । दे. 'उड़ान' । उड्डीयमान, वि. विसर्पत् ( शतृ ) । उतंग, वि. ( सं . उत्तुंग ) उच्छ्रित २. श्रे । उतना, वि. (हिं. उस > ) तावत् ( - ती स्त्री. ) । क्रि. वि., तावत् (न.), तावन्मात्रम् | - भी, तावदपि, तावन्मात्रमपि । उतरन, सं. स्त्री. ( सं . अवतरणं > ) जीर्ण-अवतारित, वस्त्रम् | उड़नछू, वि. (हिं. उड़ना ) लुप्त, अदृष्ट | उड़ना, क्रि अ. (सं. उड्डयनम् ) उद, डी ( स्वा. तथा दि. आ. से. ), उत्पत् (भ्वा. प. से.), खे विसृप् (भ्वा. प. अ.) २. सत्वरं गम् ३. तिरोभू, अन्तर्धा ( कर्म. ) ४. ( सुरुङ्गादि) महाशब्देन विभिद् (कर्म. ) ५. वि-प्रसृपू (भ्वा. प. अ. ) ६. प्रचल्- प्रचर् (भ्वा. प. से. ) ७. अभिमन् ( दि. आ. अ. ) ८. उत्वि, सुज् ( कर्म. ) ९. मलिनी भू १०. वायौ इतस्ततः स्फुर् ( तु. प. से. ) ११. सहसा विच्छिद् ( कर्म. ) १२. वच् ( चु. ) १३. वल्ग् (भ्वा. प. से. ) । सं. पुं., दे. 'उड़ान' । उड़ती खबर, सं. स्त्री. (हिं + अ. ) किंवदंती | उड़ाऊ, वि. (हिं. उड़ाना) दे, 'उडंकू' २. अतिव्ययिन्, अतिमुक्तहस्त । उड़ाका, वि. ( हि. उड़ना ) दे, 'उडंकू' उतरना, क्रि. अ. (सं. अवतरणम् ) अवत-अवपत् (भ्वा. प. से.), अधोगम्-अवरुद्द् (भ्वा. प. अ. ) २. परिक्षि ( कर्म० ), हस् (भ्वा. प. से. ) ३. (नस आदि का ) संधे: चल ( वाप.से.), विसंधा ( कर्म० ) ४. ( रंग ) विवर्णी भू, म्लै ( भ्वा. प. अ. ) ५. ( क्रोधादि ) शम् ( दि. प. से. ), व्यपगम् ६. ( डेरा करना ) वस्-स्था (भ्वा. प. अ. ), ७. (तस्वीर) आलोकलेख्यं अंकू ( कर्म० ) ८. सहसा विश्लिष् ( दि. प. अ.) ९. ( वस्त्रादि ) उन्मुच्-अवतॄअपनी (कर्म. ) १०. जन् ( दि. आ. से. ), अवतारं धृ ( प्रे.) ११. ( पकना ) पच् (कर्म.) । क्रि. स., (सं. उत्तरणम् ) स उत्-, तृ; उत्-, लंबू (भ्वा. आ. से. ) । सं. पुं., अवतारः, अवतरणं; अधोगमनं; ह्रासः; विसंघानं विवर्णीभावः; ग्लानिः (स्त्री.); उपशमः; आलोकलेख्यांकनं; सहसा विश्लेषः अपनयनं देहधारणं; पचनं, सम्-उत् तरणं उल्लंघनम् । उतरकर : मु. हीन ऊन । २. वायुयानचालकः । उड़ान, सं. स्त्री. (सं. उड्डयनम् ) डयनं, उत्पतनं, खे विसर्पणम् २. प्लुतिः (स्त्री.) ३. पलायनम् ४. प्रकोष्ठः । उड़ाना, क्रि. स. ( हिं. उड़ना ) 'उड़ना' के धातुओं के प्रे. रूप । २. चुर् ( चु. ) ३. अपसृ ( प्रे. ) ४. अपव्यय ( चु. ) ५. तड् ( चु. ) ६. वाक्छलं कृ ७. ध्मा (भ्वा. प. अ. ) ८. विलुभू (प्रे.) । उड़िया, वि. (हिं. उड़ीसा ) उत्कलः २. उत्कलप्रान्तवासिन् ३. उत्कलभाषा ! उतरना उड़ीसा, सं. पुं. (सं. ओड्देशः ) उत्कलः, उत्कलप्रान्तः । उदुंबर, सं. पुं. (सं.) दे. 'गूलर' २. देहली, गृहाग्रहणी ३ क्लीव:, नपुंसकः ४. कुष्ठरो गभेदः । For Private And Personal Use Only (सं.) उड्डयनविशिष्ट, खे Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir उतरा [ ६९ ] (वि.) भू । चित्त से, मु. विस्मृ ( कर्म. ) २. अप्रिय | उत्कंठा, सं. स्त्री. (सं.) उत्कलिका, लालसा, तीव्राभिलाषः २. संचारिभावभेद: (सा.) । उत्कंठित, वि. (सं.) उत्क, उन्मनस्, उत्सुक । उतरा, वि. (हिं. उतरना ) अवतीर्ण २. म्लान उत्कंठिता, सं. स्त्री. (सं.) प्रियमिलनोत्सुक३. खिन्न ४. धृतत्यक्त ( वस्त्र ) । चेहरा, मु. म्लानमुख (वि.) भू । नायिका । उतराई, सं. स्त्री. (हिं. उतरना ) अवतरणं, अधोगमनं २. उत्तरणम् ३. आतारः, तरपण्यम् ४. अवसर्पिणी भूमिः ( स्त्री. ) ५. गिरिं नितम्बः । उत्कंधर, वि. (सं.) उत्कण्ठ, उद्ग्रीव । उत्कट, वि. ( सं . ) तीव्र, प्रचंड, उग्र, दुःसह । उत्कर्ष, सं. पुं. (सं.) महिमन् (पुं.), महत्त्व, २. श्रेष्ठता ३. समृद्धिः ( स्त्री. ) ४. व्याक्षेपः विलंब:, ५. अतिशयः । उत्कल, सं. पुं. ( सं .) दे. 'उड़ीसा ' २. व्याधः । उत्कीर्ण, वि. (सं.) उत्-, लिखित २ छिन्न, विद्ध ३. पाषाणकाष्ठादिपु लिखित । उत्कृष्ट, वि. (सं.) प्रकृष्ट, प्रशस्त, उत्तम, श्रेष्ठ । उत्कृष्टता, सं. स्त्री. ( सं . ) महत्त्वं श्रेष्ठता, प्रकर्षः । | उतराना, क्रि. अ. ( सं . उत्तरणम्) प्लु (भ्वा. आ.अ.), तू (भ्वा. प. से. ) २. क्वथ्-तप्-पच् ( कर्म . ) ३. निरन्तरं अनुगम् ४. भास् ( स्वा. आ. से. ) ५. अन्येन + अवत आदि के प्रे. रूप । उतरायल, वि. (हिं. उतारना ) अवतारित, त्यक्त, जीर्ण (वस्त्रादि ) । " उतान, वि. ( सं . उत्तान ) ऊर्ध्वमुख (-खी स्त्री), अवपृष्ठशायिन् उत्तानशय । उतार, सं. पुं. ( सं. अवतारः ) अवतरणं, नीचे र्गमनम् २. प्रावण्यं, अवसर्पिणी भूः (स्त्री.) ३. अवतरणोचितं स्थानम् ४. क्रमशः क्षयः तीर्थम् ६. क्षीयमाणा बेला ७. निकृष्ट ८. शान्तिकरः उपहारः ९. प्रतिविषम् । -चढ़ाव, सं. पुं., आरोहावरोहौ २. लाभालाभौ ३. पातोत्पात ४. अस्थैर्यम् । ५. उतारत, सं. पुं. (हिं. उतारना ) दे. 'उतरायल' २. निकृष्ट - तुच्छ - त्याज्य, वस्तु पदार्थः । उतारना, क्रि. स. (हिं. उतरना ) 'उतरना ' के धातुओं के प्रे. रूप | उतारा, सं. पुं. ( सं . अवतारः ) निवेशः, समा वासः २. अव-सं, स्थितिः (स्त्री.) ३. उत्-, लंघनं ४. अवतरण- निवेश, स्थानम् ५. प्रेतवाघानाशकः उपचारभेदः, तदर्थं वस्तुजातं वा । उतारू, वि. (हिं. उतरना ) सन्नद्ध, सज्ज, सिद्ध | उतावला, वि. ( सं. उश्वर ) आशुकारिन्, सत्वर, अविलंबिन्, २. अविमृश्यकारिन् ३. उत्सुक । उतावली, सं. स्त्री. ( सं . उत्त्वरा ) त्वरा, तूर्णिः (स्त्री.), शीघ्रता, क्षिप्रता वेगः २ व्यग्रता, चांचल्यम् । वि, स्त्री, सत्वरा, आशुकारिणी २. असमीक्ष्यकारिणी ३. उत्सुका । उतृण, वि., दे. 'उऋण' । उत्तर उत्कोच, सं. पुं. (सं.) दे. 'घूँस' । उत्तप्त, वि. (सं.) परि-प्र-सं, तप्त, अत्युष्णीकृत २. क्षुब्ध, दुःखित ३. क्रुद्ध उत्तम, वि. (सं.) श्रेष्ठ, विशिष्ट, वरेण्य, प्रवर (टि. इसी अर्थ में समासान्त में पुंगव, ऋषभ, व्याघ्र, सिंह, शार्दूल, इन्द्र आदि; जैसे- नरों में उत्तम = नर, पुंगवः शार्दूलः इ. ) । उत्तमता, सं. स्त्री. (सं.) श्रेष्ठता, उत्कृष्टता, गुणातिशयः, विशिष्टता । उत्तमर्ण, सं. पुं. ( सं . ) ऋणदः, ऋणदातु । उत्तमा, वि. स्त्री. (सं.) भद्रा, साध्वी, श्रेष्ठा । सं. स्त्री. (सं.) १-२ नायिका - दूती - भेदः । उत्तमांग, सं. पुं. (सं. न. ) शिरस् ( न. ) दे. 'सिर' । उत्तमार्द्धर्ध, सं. पुं. (सं. पुं. न. ) उत्कृष्ट, अर्द्ध: - अर्द्धम् २. उत्तर - अर्द्ध: - अर्द्धम् । उत्तमोत्तम, वि. ( सं . ) सर्वोत्तम, महत्तम । उत्तर, सं. पुं. ( सं . उत्तरा) उदीची, उत्तर,दिशा - आशा, कौबेरी । - अथनं, (= उत्तरायणम् ) सं. पुं. ( सं. न. ) माघादिषण्मासात्मकः'सूर्यस्योत्तरदिग्गमनकालः २. कर्क संक्रान्तिः ( स्त्री. ) । की ओर, क्रि. वि., उत्तराभिमुखं, उत्तरेण, उत्तरदिशि; उत्तरतः ( षष्टी के साथ), उत्तरं ( पंचमी के साथ ) । For Private And Personal Use Only Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [ ७० ] उत्पादन %3 -की ओर मुखवाला, वि., उदमुख (-खी प्रावा(व)रः । वि., उपरिस्थ, सर्व, उपरितन स्त्री.)। २. दे. 'उत्तरसंबंधी'। -पश्चिम, सं. पुं., उत्तरपश्चिमा, वायवी उत्तान, वि. (सं.) दे. 'उतान' २. गांभीर्यरहित (दिशा)। ३. ऊर्ध्वतल। -पश्चिमी, वि., वायव, वायुदिक्स्थ । -पाद, सं. पुं. (सं.) ध्रुवपितृ । -पूर्व, सं. पुं., उत्तरपूर्वा, पूर्वोत्तरा, प्रागुत्तरा, उत्तीर्ण, वि. ( सं.) पारंगत २. मुक्त ३. परीप्रागुदीची, ऐशानी। क्षायां सफल । -पूर्वी, वि. पूर्वोत्तर, प्रागुत्तर, प्रागुदीचीन, उत्तंग, वि. (सं.) अत्युच्च, अतीवोन्नत, प्रांशु, पूर्वोत्तरस्थ । अत्युच्छ्रित। -संबंधी, वि. उदीच्य, उदीचीन, उत्तररथ ! उत्तेजक, वि. ( सं. ) उद्दीपक, प्रोत्साहक, प्रवउत्तर, सं. पुं. ( सं. न. ) प्रतिवचनं, प्रतिवाक्यं, तक, प्रेरक २. विकारोत्पादक ३. संक्षोभक । प्रत्युक्तिः-प्रतिवाच् ( स्त्री. ) २. प्रत्युत्तरम् उत्तेजन, सं. पुं. ( सं. न. ) दे. 'उत्तेजना' । ३. प्रति ( ती ) कारः ४. अलंकारभेदः उत्तेजना, सं. स्त्री. (सं.) प्रेरणा, प्रोत्साहः, (सा.)। उद्दीपनं २. संक्षोभणम् ३. मनोवेगोत्पादनम् । -दायित्व, सं. पुं. (सं. न.) प्रतिवाच्यता, 11" | उत्तोलन, सं. पुं. (सं. न. ) उत्थापनं, उत्कर्षप्रष्टव्यता, भारः, अनुयोज्यता। णम् २. तोलनं, तुलया भारबोधनम् । -दायी, वि. ( सं-यिन् ) प्रष्टव्य, अभियोक्तव्य उत्थान, सं. पुं. (सं. न.) उद्गमनं, उत्पतनम् अनुयोज्य, प्रतिवाच्य, उत्तरदात। २. आरम्भः ३. उन्नतिः ( स्त्री.) ४. सैन्यम् उत्तर', वि. (सं. सर्व.) पर, अपर, अवर, . ५. युद्धम् ६. पौरुपम् ७. हर्षः। अन्य २. अन्तिम, चरम ३. उत्तरोक्त ४. गरी उत्थापन, सं. पुं. ( सं. न.) उत्तोलन, उन्नयनम् यस् , ज्यायस् । २. विधूननम् , वेल्लनम् ३. वि-प्र-बोधनम् । -अधिकार, सं. पुं. (सं.) अंशित्वं, दायादत्वं, रिक्थहरत्वम् । उत्थित, वि. (सं.) कृतोत्थान, उद्गत २.उत्पन्न -अधिकारी, सं. पुं. ( सं.-रिन् ) दायादः, ३. प्रोद्यत ४. वृद्धिमत् ५. जागरित । रिक्थ,-हरः-भागिन् , रिक्थिन् , अंशहरः, | उत्पत्ति, सं. स्त्री. (सं.) उदगमः, उद्भवः, जन्मन् अंशिन् । (स्त्री. दायादा, अंशहरी)। (न.)२. संसार ३. आरम्भः । -अर्द्ध, सं. पु. ( सं. पुं. न.) अपर-पर अवर, उत्पन्न, वि. ( सं.) जात, उदभूत । अर्द्धः-अर्द्धम् । उत्पल, सं. पुं. (सं. न.) कमलम् २. नील-उत्तर, क्रि. वि. ( सं. न.) अधिकाधिकं, २. कमलं, कुवलयं, कुवलं, कुवेलं, रात्रिपुष्पं ३. अग्रेऽग्रे ३. अनुपूर्वशः, आनुपूर्येण ४. क्रमशः | जलजपुष्पमात्रम् ४. पुष्पम् । ५. निरन्तरम् ६. प्रतिदिनम् । उत्पलिनी, सं. स्त्री. ( सं. ) कगल-उत्पल,-पक्ष, सं. पुं. (सं.) सिद्धान्तः, समाधिः।। निकरः-समूहः २. कमलिनी। ----मीमांसा, सं. स्त्री. (सं.) वेदान्तदर्शनम् । उत्पाटन, सं. पुं. ( सं. न. ) उन्मूलनम् । उन्तरण, सं. पुं. (सं. न.) संतरणम् , उल्लंघनम् , उत्पाटित, वि. (सं.) उन्मूलित २. अपनीत समुत्तरणम् , पारायणम् । ३. सिंहासनात् अवपातित । उत्तरा, सं. स्त्री. (सं.) उत्तरा दिक् ( स्त्री.), उत्पात, सं. पुं. (सं.) अजन्यं, उपद्रवः, आपद् कौवेरी, उदीची, २. अभिमन्युपत्नी। (स्त्री.) २. कोलाहलः, डमरः ३. विप्लवः । -खंड, सं. पुं. ( सं. पुं. न.) हिमालयसमीप- | उत्पाती, सं. पुं. (सं-तिन ) उत्पात-उपद्रववर्ती भारतवर्षस्योन्तरभागः । संक्षोभ, करः कारिन् , कुचेष्टकः, लोककण्टकः । उत्तराभास, सं. पुं. (सं.) असत्योत्तरं, मिथ्या- उत्पादक, वि. ( सं.) जनक, उत्पादयितु । प्रतिवचनम् । २. व्याजः, मिपं, छलम् । उत्पादन, सं. पुं. (सं.न.) जननं, प्रसवः, उत्तरीय, सं. पुं. (सं. न.) बृहतिका, संव्यानं, प्रसूतिः ( स्त्री.)। For Private And Personal Use Only Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir उत्पीड़न [ ७१ ] उदाहरण उत्पीड़न, सं. पुं. (सं. न.) पीडनं, अर्दनं, | -सुता, सं. स्त्री. (सं.) लक्ष्मीः २. शुक्तिका। बाथनं, निकारः। उदय, सं. पुं. (सं.) ऊर्ध्वगमनं, उद्गमः, उदयउत्प्रेक्षा, सं. स्त्री. (सं.) आरोपः उद्भावना | नम् , उत्थानम् । २. अर्थालंकारभेदः (सा.) ३. अनवधानम् । । -होना, क्रि. अ., उदया-उद इ ( अ. प. अ.), उत्फुल्ल, वि. (सं.) विकसित २. प्रसन्न । उद् अय ( भ्वा. आ. से.), उद्गम् । उत्स, सं. पु. (सं.) प्रस्रवणं, दे. 'झरना। -अचल, सं. पुं. (सं.) उदय, गिरिः-अद्रिः, उत्संग, सं. पुं. (सं.) अंकः, कोडम् २. मध्य-। पूर्व,-पर्वतः-अचलः। भागः ३. सानुः ४. सौधादीनामुपरिभागः उदयास्त, सं. पुं. (सं. स्तौ) अस्तोदयौ, उद५.विरक्तः। यास्तमने । क्रि. वि. प्रातरारभ्य सायं यावत् , उत्सर्ग, सं. पुं. (सं.) परि-, त्यागः, विसर्जनम् सर्व दिनम् । २. दानं, वितरणम् ३. समाप्तिः ( स्त्री.) ४. | उदर, सं. पु. ( सं. न.) तुन्दं, कुक्षः, कुक्षिः, व्यापकनियमः। पिचिडः २. आमाशयः, पक्वाशयः, ३. मध्य,उत्सर्जन, सं. पुं. ( सं. न. ) दे. 'उत्सर्ग'। भागः देशः, अन्तरं, गर्भः। उत्सव, सं. पुं. (सं.) महः, क्षणः, उद्धवः, यात्रा, | -ज्वाला, सं. स्त्री. (सं.) जठर,अनल:-अग्निः पर्वन् (न.)। २. क्षुधा, बुभुक्षा। उत्साह सं. पुं. (सं.) कियदेतिका, औत्सुक्य, उदात्त, वि. (सं.) उच्चैरुचारित ( स्वर ) व्यग्रता .. उद्यमः, अध्यवसायः ३. साहसं, २. सदय, कृपालु ३. दातृ, उदार ४. श्रेष्ठ वीर्यम् । ५. विशद, स्पष्ट ६. समर्थ । सं. पुं. (सं.) उत्साही, वि. ( सं.,-हिन् ) सोत्साह, उत्साहवत्, वेदमंत्रोच्चारणे उच्चस्वरः २. अलंकारभेदः अल्युत्सुक २. उद्यमिन् , अध्यवसायिन् ३. शूर, । (सा.)। वीर। उदार, वि. (सं.) दान, शील-शौंड, बहुप्रद, उत्सुक, पि. (सं.) उत्कंठ, सोत्कंठ, लालस, वदान्य, त्यागशील २. श्रेष्ठ ३. महाशय सोत्साह, विलंबासहिष्णु । ४. सरल । उत्सुकता, सं. स्त्री. (सं.) औत्सुक्यं, कुतूहलं, | उदारता, सं. स्त्री. ( सं.) वदान्यता, त्यागिता, व्यग्रता, लालसा, कौतुकम् । औदार्य, त्यागः २. माहात्म्यम् ३. सुशील, उत्सृष्ट, वि. सं.) त्यक्त, समुज्झित । ऋजुता। उथल-पुथल, सं. स्त्री. (हिं. उथलना) क्रम- उदास, वि. (सं.) खिन्न, अवसन्न, म्लान, मंगः, व्यतिक्रमः, व्यस्तता, विपर्ययः, अव्य- विषण्ण २. उदासीन, विरक्त ३. तटस्थ, वस्था । वि., क्रम-व्यवस्था,-हीन, अव्यवस्थित, निष्पक्ष । विपर्यस्त । -होना, क्रि. अ., विषद् ( भ्वा. प. अ.), दुर्मउथला, वि. (सं. उत्स्थल ) गाध, उत्तान, अल्प- | नायते ( ना. धा.)। गाध, जल-तोय । उदासी, सं. स्त्री. ( सं. उदास > ) अवसादः, उदंत, सं. पुं. ( सं.) समाचारः, वृत्तान्तः, | म्लानिः-ग्लानिः (स्त्री.) खेदः, दौर्मनस्यम् वार्ता २. सज्जनः। २. विरागः, वैराग्यम् ३. निष्पक्षता, तटस्थता । उदक, सं-पु. ( सं. न.) जलं, पानीयम् । सं. पुं., सन्न्यासिन , विरक्तः, साधुसंप्रदाय -क्रिया, सं. स्त्री. (सं.) तिलांजलि: २. तर्प- भेदः। णम् । | उदासीन, वि. (सं.) विरक्त, निस्पृह, प्रपंच उदकांत, सं. पुं. (सं.) तीरं, तटम् । रहित २. मध्यस्थ, तटस्थ, समभाव ३. रूक्ष उदधि, सं. पु. ( सं.) समुद्रः, सागरः २. घटः निरस्नेह । ३. मेघः। उदासीनता, सं. स्त्री. (सं.) विरक्तिः ( स्त्री. -सुत, सं. पुं. (सं.) चन्द्रः २. अमृतम् ३. २. तटस्थता ३. खेदः, अवसादः । शंखः ४. कम लम् ५. सागरजः (पदार्थः)। उदाहरण, मं. पुं. (सं. न.) निदर्शनं, दृष्टान्तः For Private And Personal Use Only Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir उदाहृत [ ७२ ] उद्भट - - उदाहृत, वि. (सं.) वर्णित, कथित २. दत्त- | उद्दीपक, वि. (सं.) उत्तेजक, प्रेरक, संक्षोभक दृष्टान्त । २. दाहक, तापक, दीपन । उदित, वि. (सं.) उद्गत, उत्थित, उदयित उद्दीपन, सं. पुं. (सं. न.) उत्तेजनं, प्रोत्सा२. प्रकट, स्पष्ट ३. उज्ज्वल, विशद ४. कथित, हनं, प्रकोपनं, प्रेरणम् २. उत्तेजकपदार्थः उक्त। ३. विभावभेदः (सा.) ४. तापनं, दहनम् । उदीक्षण, सं. पुं. (सं. न.) ऊर्ध्वावलोकनम् , उद्दीप्र, वि. (सं.) भासुर, भास्वर २. प्रज्वलित । २. वीक्षणम् । सं. पुं., गुग्गुलुः, देवधूपः।। उदीची, सं-स्त्री. (सं.) उत्तरदिशा। उद्देश, सं. पु. ( सं.) इच्छा, अभिलाषः उदीच्य, वि. (सं.) उत्तरदिग्वासिन् २. दे. | | २. आशयः, अभिप्रायः ३. कारणं, हेतुः उत्तरसंबंधिन् । ४. प्रतिज्ञा ( न्या.)। उदीप, सं. पुं. ( सं.) संप्लवः, जलविप्लवः। उद्देश्य, वि. (सं.) लक्ष्य, काम्य, स्पृहणीय । उदीयमान, वि. (सं.) उद्गच्छत् , उन्नमत् । सं. पुं. (सं. न. ) प्रयोजनं, अभिप्रेतोऽर्थः २. उदुंबर, सं. पुं. (सं.) क्षीरवृक्षः, सदाफलः, | यदुद्दिश्य विधेयप्रवृत्तिः भवति, तत् ( व्या.)। जन्तुफल:, दे. 'गूलर' २. क्षीर वृक्षफलम् ३. | उद्धत, वि. (सं.) उग्र, चंड, दे. 'उदंड' । देहली ४. नपुंसकः ५. कुष्ठभेदः । २. प्रगल्भ, विशिष्ट। उद्गत, वि. (सं.) उदित, उत्थित २. प्रकट उद्धरण, सं. पुं. (सं. न.) उत्थानं, उद्गमनम् ३. व्याप्त ४ वान्त ५. लब्ध । उद्गम, सं. पुं. (सं.) उदयः, उत्थानं, उद्ग २. मुक्तिः (स्त्री.) ३. उन्नतिः ( स्त्री. ) ४. पाठस्यावृत्तिः (स्त्री.) ५. उदधृतवाक्यम् मनं, आविर्भावः, ऊर्ध्वगमनं २. उद्गमस्थानं, ६. उन्मूलनम् ७. उत्थापनम् ८. वमनम्। प्रभव, योनिः (स्त्री.)। उद्गाता, सं. पुं. (सं.-तृ ) सामवेदगः, साम- उद्धव, सं. पुं. (सं.) दे. 'उत्सव' २ श्रीकृष्णगायकः ३. सामवेदज्ञः। मित्रम् । उद्गार, सं. पुं. (सं.) तरलपदार्थस्य सहसा उद्धार, सं. पुं. (सं.) निर्वाणं, मुक्तिः (स्त्री.) निस्सरणं, उद्गमनं, स्रावो वा । २. वमनं, २. दुःखनिवृत्तिः (स्त्री.) ३. उन्नतिः ( स्त्री.) प्रच्छदिका ३. सवेगं निःसृतः तरलपदार्थः, ४. ऋणमुक्तिः ५. दायस्यांशविशेषः (मनु.) वान्तवस्तु ( न.) ५. लाला, मुखस्रावः ६ उद् ६. ऋणम् ७. युद्धे लुंठितद्रव्यस्य राजग्राह्यः वमः, उत्क्षेपः, ७. आधिक्यम् ८. धोर-तुमुल, षष्ठोऽशः ८. चुल्ली। शब्दः ९. रुद्धभावानां उचंडं प्रकाशनम् -करना, क्रि. स., उद् हृ ( भ्वा. प. अ.), १०. इत्थं प्रकाशिता भावाः। | मोक्ष (चु.), निस्तु (प्रे.), उन्नी ( भ्वा. उद्गीथ, सं. पुं. ( सं.) सामगानविशेषः उ. अ.)। २. ओंकारः ३. सामवेदः ।। -होना, क्रि. अ., मुच् (कर्म.)। उद्घाटन, सं. पुं. ( सं. न. ) अपा-वि, वरणम् , उद्धृत, वि. ( सं. ) अवतारित, उपन्यस्त उन्मुद्रणं, निरर्गलीकरणम् २. प्रकाशनं, प्रक टी उपनीत, उदाहृत २. उन्नीत, उत्थापित करणम् । ३. उद्गीर्ण। उदंड, वि. (सं.) उद्धत, दुःशील, अविनीत, | -करना, क्रि. स. उपन्यस् (दि. प. से.). साहसिक, तीक्ष्णकर्मन् २. कलहप्रिय । उद्-हृ (भ्वा. प. अ.)। उद्दाम, वि. (सं.) बंध-बंधन-पाश,-रहित २. उद्बुद्ध, वि. ( सं. ) विकसित, प्रफुल्ल निरंकुश, अनर्गल, उच्छंखल ३. स्वतंत्र। । २. ज्ञानिन् ३. जागरित। उद्दालक, सं. पुं. (सं.) ऋषिविशेषः २. व्रत- | उद्बोधन, सं. पुं. ( सं. न. ) ज्ञापनम प्रकारः। २. प्रकाशनम् ३. उत्तेजनम् ४. जागरणम् । उद्दिष्ट, वि. (सं.) निर्दिष्ट, संकेतित २. लक्ष्य, | उद्भट, वि. ( सं. ) प्रबल, उग्र २. श्रेष्ठ अभिप्रेत। । ३. महात्मन् । For Private And Personal Use Only Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra उद्भव www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [ ७३ ] उन्नति | ( तु. प. से. ), भिद् विदु ( कर्म. ) २. सीवनं भिद् (कर्म.) । उधर, क्रि. वि. ( सं . अमुत्र ? ) तत्र, तत्स्थाने २. तत्स्थानं प्रति । उद्भव, सं. पुं. ( सं . ) उत्पत्तिः - सृष्टिः (स्त्री.) जन्मन् (न.) २. वृद्धि:- स्फीति: (स्त्री.) । -- स्थान, सं. पुं. (सं. न. ) योनिः (स्त्री.), प्रभवः । उद्भाव, सं. पुं. ( सं . ) उदूभवः २. कल्पना ३. औदार्यम् । उधार, सं. पुं. ( सं . उद्धारः ) ॠणं, धनप्रयोगः २. आविहितकालात् द्रव्यप्रयोगः ३ मुक्ति: (eft. ) चुकाना, क्रि. स. ऋणं शुभ् ( प्रे.), आनृण्यं गम् । ७. से. ) । उद्भास, सं. पुं. ( सं. ) कान्ति-दीप्तिः (स्त्री.) | —लेना, क्रि. स., ऋणं कृ अथवा महू (क्र. २. प्रकाशः, आलोकः । उद्भिज्ज, सं. पुं. (सं.) तरुगुल्मादिः, उद्भिद ( पाँच प्रकार के उद्भिज्ज-तरुः, गुल्मः, लता, वल्ली, तृणम् ) । उद्भिद्, (सं. पुं. ) अंकुरः, प्ररोहः २ ओषधिःधी (स्त्री.), वृक्षकः ३ जलप्रपातः, निर्झरः ४. जलयन्त्रम् । उद्भूत वि. (सं.) जात, उत्पन्न | उद्भावना, सं. स्त्री. (सं.) उद्भावनं, कल्पनं, कल्पितं, उद्भावितं, कल्पना २. उत्पत्तिः ( स्त्री. ) । भंजनम् उद्भेदन, सं. पुं. ( सं. न. ) त्रोटनं, २. उद्भिद्य निर्गमनम् । उद्यत, वि. (सं.) सज्ज, उद्युक्त, सिद्ध, उपक्लृप्त, सन्नद्ध २. उत्थापित । ,सं. पुं. (सं.) उद्योगः, उत्साहः, अध्यउद्यम, वसायः, प्रयत्नः, आयासः २. आ उप, जीविका । -करना, क्रि. स., चेष्ट-प्रयत् (भ्वा. आ. से. ) उद्यन् (भ्वा. प. अ.), व्यवस् ( दि. प. अ. ) । उद्यमी, वि. (सं.- मिन् ) उद्योगिन्, उद्युक्त, व्यवसायिन् । उद्यान, सं. पुं. (सं. न. ) उपवनं, आरामः । उद्योग, सं. पुं., (सं.) दे. 'उद्यम' । उद्योगी, वि. (सं.-गिन् ) दे. 'उद्यमी' | उद्योत, सं. पुं. ( सं . उदद्योतः ) आलोकः २. द्युतिः (स्त्री.) । उद्रेक, सं. पुं. (सं.) वृद्धि:- उन्नतिः (स्त्री.) २. आधिक्यं, बहुत्वम् ३. अलंकारभेदः (सा.) । उद्वाह, सं. पुं. (सं.) विवाहः । उद्विग्न, वि. ( सं . ) आ-व्या, कुल, संभ्रांत, अधीर, व्यस्त - विक्षिप्त, चित्त, व्यग्र, कातर । उद्वेग, सं. पुं. (सं.) उद्विग्नता, व्याकुलता २. मनोवेगः, आवेगः ३. विरहजं दुःखम् । उधड़ना, क्रि. अ. ( सं . उद्धरणम् > ) स्फुट् उधेड़ना, क्रि. स., (हिं. उधड़ना ) स्तरं नि ( भ्वा. उ. अ. ) २. सीवनं भिद् ( र. उ. अ. ) • विकृ ( तु. प. से. ) । २. उधेड़-बुन, सं. स्त्री. (हिं. उधेड़ना + बुनना ) चिन्ता, विमर्शः, ऊहापोह : २ उपायकल्पना । उन, सर्व. (हिं. उस ) तद्-अदस् ( सर्व ) । उनचास, वि. (सं. ऊनपञ्चाशत् स्त्री. एक . ) एकोनपंचाशत् - एकान्नपंचाशत्-नवचत्वारिंशत् ( स्त्री. एक. ) । सं. पुं., उक्ता संख्या तद्बोधकाकौ ( ४९ ) च । उनतालीस, वि. ( सं. ऊनचत्वारिंशत् स्त्री. एक. ) एकोनचत्वारिंशत् नवत्रिंशत् (स्त्री.) । सं. पुं., उक्ता संख्या तद्बोधकांकौ ( ३९ ) च । उनतीस, वि. (सं. ऊनत्रिंशत् स्त्री. एक. ) एकोनत्रिंशत्-नवविंशतिः (स्त्री.) । सं. पुं., उक्त संख्या तकौ ( २९ ) च । उनसठ, वि. ( सं . ऊनषष्टिः स्त्री. एक. ) एको षष्टिः नवपंचाशत् ( स्त्री. एक . ) । सं. पुं., उक्त संख्या तकौ ( ५९ ) च । उनहत्तर, वि. ( सं . ऊनसप्ततिः स्त्री. एक ) एकोन ( एकान्न)- सप्ततिः नवषष्टिः (स्त्री. एक.) । सं. पुं., उक्ता संख्या तदंकौ ( ६९ ) च । उनासी, वि. दे. 'उन्नासी' । उनींदा, वि. ( सं . उन्निद्र ) निद्रा, आकुल-वशअभिभूत । उन्न, वि. ( सं . ) आर्द्र, किन्न, जलसिक्त २. दयार्द्र, दयालु । उन्नत, वि. (सं.) उद्गत, उच्छ्रित, उच्च, तुंग २. समृद्ध ३. श्रेष्ठ । उन्नति, सं. स्त्री. (सं.) उच्छ्रयः, तुंगता २. समृद्धि: (स्त्री.), अभ्युदयः । For Private And Personal Use Only Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir उन्नाब [ ७ ] उन्नाब, सं. पुं. ( अ. ) कोलं, कुवलं, सौवीरम् । | उप, उप. ( सं . ) अनुगत्याधिक्यन्यूनतासामीव्यव्याप्त्यादिबोधकः उपसर्गः । उन्नायक, वि. (सं.) उन्ने, उत्कर्षक २. वर्द्धक, अभ्युदयकारक । उन्नासी, वि. ( सं. ऊनाशीतिः स्त्री. एक . ) एकोनाशीतिः नवसप्ततिः (स्त्री. एक . ) । सं. पुं., उक्त संख्या, तदंको ( ७९ ) च । उनि वि. ( सं . ) निद्रारहित २ विकसित, प्रफुल उन्नीस, वि. ( सं ऊनविंशतिः स्त्री. एक . ) एकोनविंशतिः, नवदशन् ( बहु.) । सं. पुं., उक्त संख्या तक ( १९ ) च । - बिस्वे, मु., प्रायः, प्रायशः प्रायेण ( सब अव्य. ) । उन्मज्जक, वि. ( सं . ) जलादू बहिरागन्तृ । उन्मज्जन, सं. पुं., ( सं. न. ) जलाद् बहिः आगमनम् । उन्मन्त, बि. (सं.) उन्मादिन्, वातुल, विक्षिप्तचित्त २. क्षीव, मदोन्मत्त, मदोद्धत ३. संज्ञारहित, नष्टसंज्ञ, विचेतन । - प्रलाप, सं. पुं., निरर्थकवचनानि (न. बहु.) । उन्मन, वि. (सं. अन्यमनस् ) अन्यमनस्क अन्यत्रचित्त, अनवधान । उन्मयूख, वि. ( सं . ) प्रकाशमान, भासुर, भास्वर । उन्माद, सं. पुं. ( सं . ) मतिभ्रंशः, चित्तविभ्रमः, मानसरोगभेदः २. संचारिभावभेदः (सा. ) | उन्मादी, वि. (सं.-दिन् ) उन्मत्त, वातुल । उन्मार्ग, सं. पुं. (सं.) उत्-का-कु-वि, पथ:मार्गः । उन्मीलन, सं. पुं. (सं. न. ) उन्मेषः, उन्मेषणं २. विकसनं, विकासः । उन्मीलित, वि. ( सं . ) विवृत, उन्मिषित, उद्घाटित २. विकसित, प्रफुल्ल । उन्मुख, वि. (सं.) उदङ् -अर्ध्व, मुख २. उत्कंठित, उत्सुक ३. उद्यत । उन्मूलन, सं. पुं. (सं. न. ) निर्मूलनं, उत्पाटनं, उत्खननम् २. विध्वंसनं, विनाशनम् । उन्मूलित, वि. ( सं . ) उत्खात, उत्पादित २. विनाशित । उन्मेष, सं. पुं. (सं.) उन्मीलनम् २. विकासः ३. अल्पप्रकाशः । उपचार उपकंठ, सं. पुं. (सं. पुं. न. ) सामीप्यम् । वि., निकट । क्रि. वि., निकटे । उपकरण, सं. पुं. ( सं. न. ) साधनं, सामग्री, परिच्छदः, यंत्र, साधकद्रव्यम् २. छत्रचामरादीनि राजचिह्नानि । उपकार, सं. पुं. (सं.) हितं, दया, कृपा, परोपकारः, उपकृतिः (स्त्री.) २. लाभः । — करना, क्रि. स., उपकृ, अनुग्रह ( क्र. उ. से. ), हितं कृ । - मानना, क्रि. स., उपकृतं स्मृ ( भ्वा. प. अ. ) कृतं विद् ( अ. प. से. ) । उपकारी, वि. (सं.-रिन् ) उपकारक, उपकर्तृ, परोपकारपर, परहितेच्छुक, जगन्मित्रम्, दानशील । उपकार्या, सं. स्त्री. (सं.) ( राजकीय- ) पट,मंडप :-गृहम् २. राज, भवनं प्रासादः । उपकुल्या, सं. स्त्री. ( सं . ) उप, सरणी प्रणाली, २. परिखा, खातम् । उपकूप, सं. पुं. ( सं .) कूपकः, लघुकूपः, उपखातः । उपकृत, वि, (सं.) अनुगृहीत, कृतवेदिन् । उपक्रम, सं. पुं. (सं.) उपायज्ञानपूर्वकारम्भः २. प्रथमारम्भः ३. भूमिका ४. चिकित्सा । उपक्रमणिका, सं. स्त्री. ( सं . ) भूमिका, प्रस्तावना, वाङ्मुखम् २. विषयसूची । उपगत, वि. (सं.) उपस्थित, पुरः स्थित २. विदित ३ स्वीकृत | उपग्रह, सं. पुं. (सं.) ग्रहणं, धरणं, निरोधः २. कारा, वासः -निरोधः - प्रवेशः ३. कारागुप्तरुद्ध ४. लघुग्रहः । उपघात, सं. पुं. ( सं . ) विध्वंसः, विनाशः २. रोगः ३. इन्द्रियवैकल्यम् ४. पातकसमूहः ५. अपकारः । उपचय, सं. पुं. (सं.) वृद्धि: - उन्नति: (स्त्री.) २. संचयः संग्रहः । उपचर्या, सं. स्त्री. ( सं . ) सेवा २. चिकित्सा । उपचार, सं. पुं. ( सं . ) रोगप्रतिकारः, चिकित्सा, उपचर्या २. रोगपरिचर्या ३. प्रयोगः, विधानम् ४. धर्मानुष्ठानम् । For Private And Personal Use Only Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir उपचारक [ ७५ ] ५. धूपदीपादीनि पूजांगानि (न. व . ) ६. चाटू- उपद्रवी, वि. ( सं विन् ) दे. 'उत्पाती' | क्तिः (स्त्री.) ७. उत्कोचः । उपधा, सं. स्त्री. (सं.) कपटम् २ उपान्त्याउपचारक, वि. ( सं . ) चिकित्सक २. सेवक क्षरम् ३. उपाधिः । ३. विधायक । उपधान, सं. पुं. ( सं. न. ) शिरोधानम्, उपवर्हः २. अवलंबनम् । उपनयन, सं. पुं. (सं. न. ) यज्ञोपवीत संस्कारः २. समीपे नयनम् ३. शिष्यस्य गुरुनिकटे नयनम् । उपजना, क्रि. अ. (सं. उपजननम् > ) उपजन् (दि. आ. से. ), उत्पड ( दि. आ. अ. ), प्ररुह (भ्वा. प. अ. ) २. मनसि स्फुर् ( तु. प.से.) । उपनाम, सं. पुं. (सं. - मन् न. ) प्रचलित अन्यउपाधि - नामन् (न.) २. उपाधिः, मानपदम्, पदवी । उपजाऊ, वि. (हिं. उपज ) उर्वर, शरयप्रद, उपनिधि, सं. स्त्री. (सं.) न्यासः, उपन्यस्तं बहुफलप्रद । वस्तु (न.) । उपजाना, क्रि. स. (हि. उपजना ) उपजन्उत्पद-प्ररुह ( प्रे. ) । उपजीवी, वि. (सं. विन्) पराश्रित, अनुजीविन् पराधीनवृत्ति । उपनिवेश, सं. पुं. (सं.) अधिनिवेशः, वासितः प्रदेशः । उपनिषद्, सं. स्त्री. ( सं . ) ब्रह्मविद्या निरूपकाः ग्रंथाः २. ( गुरोः ) समीपे उपवेशनम् । उपनीत, वि. ( सं . ) कृतोपनयन २ आसन्न, उपताप, सं. पुं. (सं.) रोगः, व्याधिः २. त्वरा, संभ्रमः ३. उत्तापः, उष्मन् (पुं) ४. पीड़ा ५. दौर्भाग्यम् । उपज, सं. पुं. (हिं. उपजना ) उत्पन्नं फलं शस्यं वा २. उद्भावना, नवकल्पना ३. कल्पितबार्ता । उपदेश, सं. पुं. (सं.) अनुशासनं, बोधनं, शिक्षा २. दीक्षा, गुरुमंत्रः ३. धर्मव्याख्यानम् । - देना, क्रि. स. उपदिश ( तु. प. अ. ) अनुशास् ( अ. प. से. ), शिक्ष-बुध-ज्ञा ( प्रे. ), उपप्लव उपागत उपनेता, सं. पुं. (सं.-तृ ) उपनयनसंस्कारकर्तृ, आचार्यः, गुरुः २. निकटे प्रापकः । उपन्यास, सं. पुं. (सं.) कल्पित, कथा, कथाप्रबन्धः, प्रबन्धकल्पना २. वाक्योपक्रमः ३. निक्षेपः, न्यासः । उपपति, सं. पुं. ( सं . ) जार:, दे. 'यार' | उपत्यका, सं. स्त्री. ( सं . ) पर्वतनिकटभूमिः (स्त्री.) अचलासन्ना भूः (स्त्री.) । उपदंश, सं. पुं. ( सं . ) मेदूरोगभेदः । उपदर्शक, सं. पुं. ( सं . ) पथ-मार्ग, दर्शक २. द्वारपाल: ३. साक्षिन् । उपदर्शन, सं. पुं. (सं. न. ) टीका, टिप्पणी-नी । उपपत्ति, सं. स्त्री. (सं.) हेतुना वस्तुस्थितिउपदा, सं. स्त्री. ( सं . ) उपायनं, दे. 'भेंट' | उपदिशा, सं. स्त्री. (सं.) उप, आशा काष्ठाककुभ् ( सब स्त्री. ) [ टि. चार उपदिशाएँ ये है- पेशानी, आग्नेयी, नैऋती, वायवी ] । उपदिष्ट, वि. (सं.) शिक्षित, अध्यापित, निश्चयः २. सिद्धि: (स्त्री.), प्रतिपादनम् ३. संगतिः (स्त्री.) ४. युक्ति: (स्त्री.), हेतुः । उपपत्ती, सं. स्त्री. (सं.) उप-भार्या-जायाकलत्रम् | २. निर्देशित ३. दीक्षित । उपपद, सं. पुं. ( सं. न. ) पूवोक्त-पूर्वलिखित - पद-शब्दः २. समास्यस्य पूर्वशब्दः ३. उपाधिः ( पुं.), पदवी । उपपन्न, वि. (सं.) प्राप्त, उपागत ३, शरणागत ४. लब्ध, अधिगत ५. युक्त ६. उपयुक्त । उपपादन, सं. पुं. (सं. न.) साधनं, प्रतिपादनं युक्तिभि: समर्थनम् २. संपादनं, निष्पादनम् । . दीक्षू (भ्वा. आ. से. ) । उपदेशक, सं. पुं. (सं.) उपदेष्टृ, धर्मप्रचारकः, उपपुराण, सं. पुं. (सं. न. ) लघुपुराण (ये प्रवक्तृ । अठारह हैं ) । उपद्रव, सं. पुं. ( सं . ) दे. 'उत्पात' ( १-३ ) उपप्लव, सं. पुं. (सं.) जल, विप्लवः-प्रलयः ४. रोगेऽवान्तरविकारः । २. उत्पातः ३. भूकंपादिघटना ४ भयम् ५. विघ्नः ६. राहुः ७. झंझावातः । -करना, क्रि. स., उत्पातम् उत्था ( प्रे.) । For Private And Personal Use Only Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [ ७६ ] उपभुक्त उपभुक्त, वि. (सं.) प्रयुक्त २. उच्छिष्ट । उपभोग, सं. पुं. (सं.) सुख, आस्वादः, आस्वादनम् २. प्रयोगः, व्यवहारः ३ . सुखसामग्री | उपमंत्री, सं. पुं. (सं.- त्रिन्) उपलेखन सचिवः उपरांत, क्रि.वि. (सं. उपरि + अन्तः > ) परं, ततः परं, तदनन्तरं, तदनु । उपराग, सं. पुं. ( सं . ) सूर्य-चन्द्र-ग्रहणं, ग्रहपीडनं, २. आपत्तिः (स्त्री.) ३. वर्णः, रंगः ४. प्रतिच्छाया ५. विषयानुरागः । उपराज, सं. पुं. ( सं . ) राजप्रतिनिधिः, उप, भूपः- नृपः । २. उपामात्यः, अमात्य सहायः । उपमा, सं. स्त्री. (सं.) सादृश्यं, साम्यम् २. अर्थालंकारभेदः (सा.) । कृ । उपमाता, 'धाय' । -देना, क्रि. स. उपमा ( जु. आ. अ. ), समी उपराम, सं. पुं. ( सं . ) निवृत्तिः-विरतिः (स्त्री.), वैराग्यम् २. विश्रामः, कार्यनिवृत्तिः ( स्त्री. ) ३. मोक्षः । उपमान, सं. पुं. (सं. न. ) सादृश्यज्ञानसाधनं, साम्यप्रतियोगिन्, अप्रस्तुतं, उपवर्ण्यम् २. प्रमाणभेदः । सं. स्त्री. (सं.- मातृ ) धात्री, दे. उपमित, वि. (सं.) सभी सदृशी, कृत । उपमिति, सं. स्त्री. (सं.) उपमा २. सादृश्य जनितं ज्ञानम् । उपमेय, वि. (सं.) वर्ण्य, वर्णनीय, उपमातव्य, प्रस्तुत । -उपमा, सं. स्त्री. ( सं . ) अर्थालंकार भेद: ( सा. ) । उपयुक्त, वि. (सं.) उचित, उपपन्न, संगत, युक्त, योग्य, यथायोग्य, यथाई । उपवास युक्तत्वं योग्यता | उपयोग, सं. पुं. ( सं. ) प्रयोगः, व्यवहारः २. लाभ:, फलम् ३. प्रयोजनं, आवश्यकता ४. योग्यता । उपरि, क्रि. वि. ( सं . ) दे. 'ऊपर' । उपरूपक, सं. पुं. ( सं . न . ) त्रोटक सट्टकादयो रूपकभेदाः । उपरोक्त, वि. ( हि ऊपर + सं . उक्त ) दे. 'उपर्युक्त' । उपल, सं. पुं. (सं.) पाषाणः, प्रस्तरः २. रलम् ३. मेघः ४. करका ५ बालुका ६. सिता, शर्करा । उपलक्षण, सं. पुं. (सं. न. ) स्वस्यान्यस्य च बोधकः शब्दः २. संकेतः ३. शब्दशक्तिभेदः (सा.) । उपयुक्तता, सं. स्त्री. ( सं . ) औचित्यं, औचिती, उपलक्ष्य, सं. पुं. ( सं. न. ) संकेतः, चिह्न, उपरत, वि. (सं.) विरक्त, उदासीन २. मृत । उपरति, सं. स्त्री. ( सं . ) विरतिः ( स्त्री. ) वैराग्यं, औदासीन्यम् २. मृत्युः । उपरना, सं. पुं. (हिं. ऊपर ) चेलं, चेलकः २. उत्तरीयं, आच्छादनम् । उपरम, सं. पुं. (सं.) विरक्तिः (स्त्री.), वैराग्यम् २. निवृत्तिः विश्रान्तः (स्त्री.) ३. मृत्युः । उपर्युक्त, वि. (सं.) प्रागुक्त, पूर्वोक्त, प्राक्- पूर्व,वर्णित - निर्दिष्ट । अभिज्ञानम् २. दृष्टि : (स्त्री.) उद्देश्यम् । मे, विचारेण, उद्दिश्य, निमित्तीकृत्य । उपलब्ध, वि. ( सं . ) अधिगत, प्राप्त, गृहीत २. ज्ञात । उपयोगिता, सं. स्त्री. ( सं . ) व्यवहार्यता, उपलब्धि, सं. स्त्री. ( सं . ) प्राप्तिः (स्त्री.) अधिलाभकारिता, उपकारकता । उपयोगी, वि. (सं.-गिन् ) प्रयोजनीय, हितसाधन २. उपकारक, लाभदायक ३. अनुकूल । उपरक्त, वि. ( सं . ) विपद्ग्रस्त, दुःखित २. ग्रहणयुक्त, उपप्लुत ( सूर्यादि ) ३. विषयासक्त । गमः २. ज्ञानम् । उपलभ्य वि. ( सं . ) प्राप्य, प्राप्तव्य २. संमान्य, पूज्य । उपला, सं. पुं. ( सं . उपल: > ) गोमय, गोमयपिण्डम् | उपलालिका, सं. स्त्री. ( सं . ) तृषा, पिपासा । उपल्ला, सं. पुं. (हिं. ऊपर ) उपरितनः स्तरः, ऊर्ध्वभागः । उपवन, सं. पुं. ( सं. न. ) आरामः २. लघुवनम् । उपवास, सं. पुं. (सं.) लंघनं, अनाहारः उपो. षणं, आक्षपणं, अनशनं, उपोषितम् । -करना, क्रि. अ., उपवसू (भ्वा. प. अ. ) । For Private And Personal Use Only Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir उपविष [ ७७ ] उपाध्यायानी उपविष, सं. पुं. (सं. न. ) चारं, गरः, फल- -होना, क्रि. अ., उपस्था ( भ्वा. प. अ.), विषम् । प्रविश् ( तु. प. अ.)। उपविष्ट, वि. (सं. ) आसीन, कृतोपवेशन । उपस्थिति, सं. स्त्री. (सं.) संनिधानं, सान्निउपवीत, सं. पुं. (सं. न.) यज्ञसूत्रं, यज्ञोपवीतं ध्य, वर्तमानता, विद्यमानता । २. उपनयनसंस्कारः। उपस्वेद, सं. पुं. (सं.) प्रस्वेदः, धर्म, उदकं-जलम् उपवेद, सं. पुं. ( सं. ) प्रधान वेदातिरिक्ताः २. वाष्प, पम् ३. आर्द्रता, उन्नता । चन्वारः गौणवेदाः ( = धनुर्वेद, आयुर्वेद, गंधर्व- उपहत, वि. ( सं. ) नाशित, ध्वस्त २. दूषित वेद, स्थापत्यवेद)। ३. पीड़ित ४. अपवित्र । उपवेशन, सं. पुं. ( सं. न.) निषदनं, आसनं, उपहार, सं. पुं. (सं.) उपायनं, उपदा । स्थितिः ( स्त्री.)। उपहास, सं. पुं. ( सं.) परि ( री ) हासः, उपशम, सं. पुं. ( सं.) शमः, शान्तिः ( स्त्री.) प्रहसनं, नर्मन् (न.), क्रीडाकौतुकम् २. निन्दा, २. तृष्णाक्षयः ३. इन्द्रियनिग्रहः ४. प्रतिकारः, आक्षेपः। उपचारः। -आस्पद, वि. ( सं. न. ) उपहास्य, उपहाउपशमन, सं. पु. ( सं. न. ) सान्त्वनं २. प्रति- साई २. निंदनीय । विधानम् । उपांग, सं. पुं. (सं. न.) अवयवः, अंगभागः। उपशिष्य, सं. पुं. (सं.) शिष्यस्य शिष्यः। २. अंगपूरक वस्तु (न.)। (वेद के चार उपांगउपसंपादक, सं. पुं. (सं.) संपादकसहायः, पुराण, न्याय, मीमांसा, धर्मशास्त्र)। सहायकसंपादकः। उपांत, सं. पुं. (सं.) अन्तसमीपभागः २. प्रान्तउपसंहार, सं.पु. (सं.) परि, अवसानं, समाप्तिः भागः ३. लघुतटम् । ( स्त्री. ) २. ग्रन्थादिकस्य अन्तिम प्रकरणम् उपांत्य,वि. (सं.) अन्त्यात् पूर्ववर्तिन् । ३. सारांशः ४. शस्त्रादीनां वारणम् । | उपाकर्म, सं. पुं. (सं.-मन् न.) संस्कारपूर्वको उपसर्ग, सं. पुं. ( सं. ) क्रियायोगे प्रादयः । वेदाध्ययनारम्भः। निपाताः ( प्र, परा, अप, सम् , इ० ) । २. उपाख्यान, सं. पुं. ( सं. न.) प्राचीनकथा, अपशकुनम् ३. आधिदैविकः उत्पातः । आख्यानम् २. कथान्तर्गतकथा ३. वृत्तान्तः, उपसागर, सं. पुं. (सं.) लघुसमुद्रः २. वंकः, । उदन्तः । खातम् । उपादान, सं. पुं. (सं. न. ) प्राप्तिः-उपलब्धिः उपस्थ, सं. पु. ( सं. ) लिंगं, मेढ़ः २. भगः, (स्त्री.) २. बोधः ३. प्रत्याहारः ४. समवायियोनिः (स्त्री.) ( ३-४) अधो, मध्य, भागः कारणम् । ५. क्रोडम् ६. वक्षस् (न.)। वि. समोपोपविष्ट । उपादेय, वि. (सं.) ग्राह्य, ग्रहीतव्य, स्वीकार्य उपस्थान, सं. पुं. ( सं. न.) समीपागमनम्। २. श्रेष्ठ, उत्तम। २. पूजाय उपागमनम् ३. उत्थाय पूजनम् उपाधि, सं. स्त्री. ( सं. पुं. ) छलं, कपटम् ४. पूजास्थानम् ५. समाजः। २. स्वधर्मस्यान्यगततयावभासकं वस्तु ( न.) उपस्थापक, वि. ( सं. ) उपनायक, उपनिधायक। ३. उपद्रवः ४. कर्तव्यचिन्ता ५. प्रतिष्ठासूचकं २. स्मारक । पदम् । उपस्थापन, सं. पुं. (सं. न.) समीये-पुरतः- उपाध्याय, सं. पुं. ( सं. ) वेदवेदांगाध्यापकः उपनिधानम् , उपानयनम् २. उपस्थितिः | २. शिक्षकः, अध्यापकः ३. ब्राह्मणोपजातिः ( स्त्री. ) ३. परिचर्या ४. स्मारणम् । उपस्थित, वि. (सं.) निकटस्थ, उपसन्न, उपा उपाध्याया, सं. स्त्री. (सं.) अध्यापिका, विद्योगत, सन्निहित। पदेशिका। -करना, क्रि. स., पुरस्कृ, समक्षं नी ( भ्वा. उपाध्यायानी, सं. स्त्री. ( सं. ) उपाध्यायउ.अ.)। | शिक्षक-गुरु, पली। (स्त्री.)। For Private And Personal Use Only Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir उपाध्यायी [ ७८ ] उमंग उपाध्यायी, सं. स्त्री. ( सं . ) अध्यापिका । उवकना, क्रि. अ. (अनु.) दे. 'के करना'। उबकाई, सं. स्त्री. दे. 'के' । उबटन, सं. पुं. ( सं . उद्वर्तनम् ) अभ्यंगः, अभ्यंजनं, उत्सादनं, अनु-वि, -लेपः, समालभः । उबरना, क्रि. अ. ( सं . उद्वारणम् > ) मुच्मोक्ष-उधृ ( कर्म. ) २. अव परि उत्, शिष् ( कर्म. ) । २. उपाध्यायपत्ती । उपानत्, - नह, सं. पुं. (सं. उपानह स्त्री. ) पादत्राणम् २. पादुका । | " उपाय, सं. पुं. (सं.) साधनं, उपकरणं, करणं, सामग्री, युक्तिः (स्त्री.) २. शत्रुविजययुक्तिः ( = साम, दान, भेद, दंड ) | उपायन, सं. पुं. (सं. न. ) उपदा, उपहारः । उपार्जन, सं. पुं. (सं. न.) वनादिकस्याहरणम्, अर्जनम्, लाभः । -करना, क्रि. स., उप-, अर्ज ( चु.), उपादा ( जु. आ. अ. ) । उपार्जित, वि. (सं.) संगृहीत, अर्जित । उपावर्तन, सं. पुं. ( सं. न. ) प्रत्यावर्तनंव्रजनं-गमनम् २. उपा - गमनं-यानम् ३. भ्रमणम् । उपालंभ, सं.पुं. (सं.) आ-अधि-क्षेपः, भर्त्सनंना गर्दा, परिवादः २. दु:खनिवेदनम् । उपासक, वि.पुं. (सं. ) पूजक, सेवक, आरावक, अक । उपासना, सं. स्त्री. ( सं . ) समीपे उपवेशनम् २. आराधना, अर्चा । -करना, क्रि. स., उपास् ( अ. आ. से. ), पूज् ( चु. ) उपस्था ( स्वा. आ. अ. ) । उपास्य, वि. (सं.) उपासनीय, आराध्य, पूज्य, भजनीय | उपेंद्र, सं. पुं. (सं.) विष्णुः, वामनः, कृष्णः। उपेक्षणीय, वि. ( सं . ) उपेक्ष्य, त्याज्य ३. गर्ह्य, घृणा । उपेक्षा, सं. स्त्री. (सं.) औदासीन्यं, निःस्पृहता, निःसंगता, विरक्तिः (स्त्री.) २. घृणा, गर्हा । उपेक्षित, वि. ( सं . ) अवगणित, अवधीरित, व्यक्त, तिरस्कृत | उपोद्घात, सं. पुं. ( सं . ) भूमिका, प्रस्तावना | उफ, अव्य. (अ.) हा, अहह, हंत, कष्टम् । - ओह, अव्य., अहो, ही । उफनना, क्रि. अ. ( सं . उत् + फेन > ) उत्फाणू (भ्वा.प.से.), क्वथ्-तप्-पच् (कर्म.) २. फेनायते-मंडायते ( ना. धा. ) ३. उत्सिच् ( कर्म.), अंतःक्षुभू ( दि. प. से. ) । उफान, सं. पुं. (सं. उत् + फेन > ) उत्सेकः, फेनोद्गमः, उद्रेकः । उबलना, क्रि. अ. ( सं . उवलनम् ) फेनायते ( ना. धा. ) कथ्-तप् (कर्म) २. वेगात् निस्स (भ्वा. प. अ. ) । उवार, सं. पुं. (हिं. उबरना ) निस्तारः, मोक्षः, त्राणं, रक्षा | उबारना, क्रि. स., (हिं. उबरना ) वि-निर् मुच् (प्रे.) निस्तृ ( प्रे.), रक्ष (भ्वा. प. से. ) । उबाल, सं. पुं. (हिं. उबलना ) दे. 'उफान' २. उद्वेगः, आवेशः । -आना, क्रि. अ., दे. 'उफनना' । बिंदु, सं. पुं., बुदबुदांकः । उबालना, क्रि. स. ( हिं. उबलना ) उत्क्कथ् (भ्वा. प. से. ), श्रा ( अ. प. अ. ) । उबासी, सं. स्त्री. ( सं . उत् + श्वासः> ) जृम्भः, जृम्भा । उभरना, क्रि. अ. ( सं . उद्भरणम् > )श्वि (भ्वा. प. से.), स्फायू वृध् (भ्वा. आ. से. ) आध्मा - विस्तृ ( कर्म. ) २. दे. 'उठना' ३. परिवह ू ( भ्वा. उ. अ. ) ४. गर्व (भ्वा. प. से. ) ५. उत्पद् ( दि. आ. अ. ) ६. अपा-वि, वृ. ( कर्म. ) ७. समृध् ( दि. प. से. ) ८. अपगम् ९. यौवनं आप् ( स्वा. उ. अ. ) १०. बहिलँब् ( स्वा. आ. से. ) ११. भार-मुक्त (वि.) भू । उभरा, वि. (हिं. उभरना ) स्फीत, शून २. विगतभार । उभारना, क्रि. स. (हिं. उभरना ) उत्तेजनं, उद्दीपनम् २. उत्थापनम् ३. प्रोत्साइनं, प्रेरणम् । उभार, सं. पुं. ( हिं. उभरना) उच्चता, उच्छ्रायः २. वृद्धि: उन्नतिः (स्त्री.) ३. शोफः, शोध: ४. स्फीतिः (स्त्री.) पीनता ५. प्रलंबता । उमंग, सं. स्त्री. (हिं. उमगना ) उल्लासः, आनन्दः २. चित्ततरंगः, लहरी ३. आधिक्यम् ४. उत्साहः, औत्सुक्यम् । For Private And Personal Use Only Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir उमगना [ ७९ ] उलटना उमगना, क्रि. अ. ( सं. उन्मंगनम् > ) दे. उरला, वि. (सं. अपर > ) अपर, अवर २. 'उभरना', 'उमड़ना' २. उल्लस् (भ्वा. प.से.), पृष्ठस्थ, पश्चिम ३. उत्तर, अपरोक्त । प्री (कर्म.)। उरश्छद, सं. पुं. (सं.) उरस्त्राणन् , वक्षस्त्रा. उमड़ना, क्रि. अ. (सं. उन्मंडनन् > ) परिवह् । णम् । (भ्वा. उ. अ.), प्रवृध् ( भ्वा. आ. से.) २. उरसिज, सं. पुं. (सं.) स्तनः, उरोजः । वेगात् प्रवृत् ( भ्वा. आ. से.) ३. जनसंवाध उरसिल, वि. ( सं. ) विशाल-कपाट, वक्षस्(वि.) भू ५. शुभ ( दि. प. से.)। उरस् । -घुमड़ना, परिभ्रम्य तन् ( कर्म.)। उरु', वि. (सं.) आयत, विस्तीर्ण, विशाल, उमदा, वि. (अ.) उत्तम, श्रेष्ठ । विपुल । उमर, सं. स्त्री. ( अ. उम्र ) वयस ( न.), उरु, सं. पु. ( सं. ऊरुः ) सक्थि ( न.)। बाल्यावस्था २. जीवितकालः, आयुस (न.)1 -क्रम, वि. (सं.) बलवत् २. द्रुतगति । उमरा, सं. पुं. ( अ०, 'अमीर' का बहु० )| सं. पुं., वामनावतारः २. सूर्यः । धनिकाः २. पुरोगाः, नायकाः ३. सामन्ताः । उरोज, सं. पुं. (सं.) कुचः, स्तनः। (सव बहु०)। | उर्दू, सं. स्त्री. (तु. ओर्दू ) अरबीपारसीतुरुष्कउमस, सं. स्त्री. (सं. उष्मन पं. ) उष्मः, निर्वा- भाषाशब्दैः मिश्रिता पारसीलिप्यां लिखिता तता, धर्मः। हिंदीभाषा, उर्दूः ( स्त्री.) २. शिविरहट्टः । उमा, सं. स्त्री. (सं.) पार्वती २. दुर्गा ३. कीर्तिः उर्फ, सं. पुं. ( अ.) उपनामन् ( न. ), ( स्त्री.) ४. कान्तिः (स्त्री.) ५. ब्रह्मविद्या ।। उपाख्या। उमाहना, क्रि. अ., दे. 'उमड़ना'। उर्वरा, सं. स्त्री. (सं.) बहुफलदा भूमिः ( स्त्री.) २. पृथिवी । वि. स्त्री., फलदा, शस्यप्रदा। उमेठना, क्रि. स. ( सं. उद्वेष्टनम् > ) मुट्-मुड् उर्वी, सं. स्त्री. ( सं.) पृथिवी, धरणी। (चु.), आकुंच (प्रे.), पर्यावृत (प्रे.), संपुटी उलझन, सं. स्त्री. ( हिं. उलझना ) विघ्नः, पिंडी,कृ। प्रतिबंधः, बाधा २. समस्या, चिन्ता-विवाद, उमेठवाँ, वि. ( हिं. उमेठना) कुश्चित, अराल । विषयः। उम्मेद, सं. स्त्री. (फ़ा.) आशा, आशंसा २. उलझना, क्रि. अ. ( सं. अवरुध् > ) संश्लिष प्रतीक्षा, उद्रीक्षा, ३. आश्रयः, अवलंबः ४. संग्रन्थ ( कर्म.), जटिली भू २. सम्बन्ध संमिश् विश्वासः, विश्रंभः । ( कर्म.) ३. दे. 'लिपटना' ४. व्याप्त (वि.) -वार, सं. पुं. (फा ) आशान्वित, आशावत् भू ५. स्निह (दि. प. वे.) ६. विवद् ( भ्वा. २. याचकः, पदान्वेषिन् , प्रत्याशिन्। आ. से. ), वैरायते-कलहायते ( ना. धा.) -होना, मु., प्रसवः प्रतीक्ष ( कर्म.)। ७. संकटे पत् ( भ्वा. प. से.) ८. वक्री-कुटिली,उम्र, सं. स्त्री. ( अ.) दे. 'उमर'। उर, सं. पुं. (सं. उरस न.) हृदयं, चित्तम् , उलझाना, क्रि. स. (हिं. उलझना) संश्लिष मनस् (न.) २. कोडं, वक्षस् ( न.), वक्षः- (प्रे.), संग्रन्थ् ( चु.) २. व्याप-प्रयुज-विनियुम स्थलम् । (प्रे.) ३. वक्रीकृ । -लाना, मु., आलिंग (भ्धा. प. से.) २. विचर : उलटना, क्रि. अ. (सं. उल्लुठनम् > ) परि(प्रे.)। परा, वृत् ( भ्वा. आ. से. ), विपर्यस् व्यत्यस् उरग, सं. पुं. (सं.) सर्पः। (कर्म.) अधोमुखी भू २. परि-,भ्रम् ( भ्वा. उरगारि, सं. पुं. (सं.) गरुडः। दि. प. से.), धूर्ण ( तु. प. से. ) ३. दे. उरज, उरजात, सं. पुं., दे. 'उरोज' । 'उमड़ना' ४. संकरी-संकुली, भू ५. विपरीतउरद, सं. पुं. (सं. ऋद्ध > ) माषः, कुरुविंदः, विरुद्ध (वि.) भू ६.क्रुध् ( दि. प. अ.) ७. मृ मांसलः, धान्यवीरः, वृषांकुरः, बलाढ्यः, पितृ- (तु. आ. अ.), मूर्छ (भ्वा. प. से.) ८. पत् भोजनः। | ( भ्वा. प. से. )। क्रि. स., परि-परा, वृत For Private And Personal Use Only Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir उलट-पलट [ ८० ] उल्लेख (प्रे.), अधोमुखी कु २. निपत् (प्रे.) ३. क्षिप् | उलफत, सं. स्त्री. ( अ. ) अनुरागः, प्रेमन् (तु. ५. अ.) ४. संकरी-संकुली,- ५. विप- (न.)। रीतं कृ ६. उत्तर प्रत्युत्तरं दा (जु. उ. अ.) उलार, वि. ( हिं. ओलरना = लेटना ) पृष्ठ७. निःसंज्ञ मूच्छित (वि.) कृ. ८. दे. 'ऊँडे- भागे भारवत् (शकटादि )। लना' ९. ध्वंस-नश (प्रे.)। उलाहना, सं. पु. ( सं. उपालंभनम् ) उपालंभः, उलट-प (पु) लट, सं. स्त्री. (हिं. उलटना- दुःखनिवेदनम् , आ-अधि,-क्षेपः, ( सविलापा) पुलटना ) विपर्यासः, व्यत्यासः, परिवर्तनम् विज्ञापना। २. व्यतिहारः, विनिमयः ३. क्रमभंगः, व्यति- -देना, क्रि. स., उपालम् ( भ्वा. आ. अ.), क्रमः । वि., विपर्यस्त, अव्यवस्थित, अक्रम, निन्द् ( भ्वा. प. से.)। अस्तव्यस्त । उलीचना, क्रि. स. (सं. उल्लुचनम् ) उल्लंच उलटफेर, सं. पुं., दे. 'उलट-पुलट' सं. स्त्री. । ( भ्वा. प. से. ), हस्तादिभिः जलं बहिः क्षिप उलटा, वि. (हिं. उलटना) व्यत्यस्त, विप- (तु. उ. अ.)। र्यस्त, अधरोत्तर, अधोमुख २. क्रमरहित, उलूक, सं. पुं. (सं.) घूकः, दे. 'उल्लू' २. इंद्रः भव्यवस्थित ३. विरुद्ध, विपरीत ४. अनुचित, ३. कणादः। असंगत । क्रि. वि., व्यतिक्रमेण, विपर्ययेण, | उलूखल, सं. पुं. ( सं. न. ) उदूखलम् असंगतम् २. अनुचितं, अयुक्तम् । २. गुग्गुलुः। -जमाना, मु., विपरीतकालः, न्यायरहितः उल्का, सं. स्त्री. (सं.) खोल्का, उत्पातः, पतसमयः। नक्षत्रं २. प्रकाशः ३. अग्निशिखा ४. अमिः -तवा, मु., अति,-कृष्ण-श्याम-नील । ५. दीपिका ६. प्र-दीपः, दीपकः ७. अग्निउलटी खोपड़ी का, मु., मूढ, जड । काष्ठं, अलातम् । -गंगा बहाना, मु., असाध्यं साध् ( स्वा. . -पात, सं. पुं. ( सं. ) तारा-तारका-नक्षत्रप. अ.)। उडु,-पातः-पतनम् । -पट्टी पढ़ाना, मु., कुपथे प्रवृत् (प्रे.)। उल्था, सं. पु. ( हिं. उलथना ) अनुवादः, दे. । -माला फेरना, मु., अमंगलं कम् ( भ्वा. आ. | अमंगलं कम (वा. आ. उरुमुक, सं. पुं. (सं.) ज्वलकाष्ठम् , उल्का । से.)। उल्लंघन; सं. पुं. (सं. न.) व्यतिक्रमः, अति-, -सांस चलना, मु., मरणासन्न (वि.) जन् क्रमः-क्रमणम् , मंगः, अतिपातः २. आज्ञालंघनं, (दि. आ. से.)। प्रतीपाचरणम् ३. उत्प्लवः। -सीधी सुनाना, मु., निर्भर्त्स (चु. आ. से.)।। उल्लंबित, वि. (सं.) दे० 'खड़ा'। -पाँव फिरना, मु., झटिति प्रतिनिवृत् ( भ्वा. | उल्लास, सं. पुं. (सं.) हर्षः, आनंदः २. प्रकाशः आ. से.)। ३. अलंकार भेदः ( सा.) ४. ग्रन्थपरिच्छेदः । -छुरे से मूंड़ना, मु., अतिसंधाय स्वप्रयोजनं उल्लिखित, वि. ( सं. ) उत्कीर्ण, पाषाणादिषु साथ् ( स्वा. प. अ.)। अभिलिखित २. चक्रेण तष्ट ३. लिखित ४. उपउलटाना, क्रि. स. ( हिं. उलटना ) दे. 'उलटना' रिलिखित, उपर्युक्त ५. चित्रित, आलिखित । क्रि. स. । २. प्रति ऋ (प्रे. प्रत्यर्पयति) ३. उल्लू , सं. पुं. (सं. उलूकः) पेचकः, काकारिः, भयन्धा कृ। कौशिकः, दिवान्धः, दिवाभीतः, घूकः, निशाउलटापुलटा-टी, वि., दे. 'उलटपलट'। टनः २. मूर्खः। उलटी, सं. स्त्री. (हिं. उलटना) वमः, वमनं, -का पठा, सं. पुं., जडः, बालिशः। वमिः ( स्त्री.), छर्दिका। -बनाना, मु., व्यामुङ् (प्रे.)। उलटे, क्रि. वि. (हिं. उबरना) विपरीततया, -बोलना, मु., निर्जनी भू।। विपर्ययेण । उल्लेख, सं. पु. ( सं. ) लेखः, लिखितम् , उलथा, सं. पुं. (सं. उस्स्थलम् > ) नृत्यभेदः लेख्यम् २. वर्णनं, निरूपणम् ३. अलंकारभेदः २. विपर्यस्तप्लुतम् । (सा.) For Private And Personal Use Only Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir उल्लेखनीय [ ८१ ] उल्लेखनीय, वि. (सं.) लेखाह, उत्-, लेख्य , उष्णता, सं. स्त्री. (सं.)सं-उत्-परि, तापः, तापः, २. वर्णनीय, निरूपणीय ३. अद्भुत। उ (ऊ)मन् (पुं.), उष्णत्वम् । उल्व, सं. पुं. ( सं. न.) जरायुः २. गर्भाशयः। | उष्णीष, सं. पुं. (सं. पुं. न.) शिरोवेष्टनं उल्व (ल्ब) ण, वि. (सं.) स्पष्ट, विशद । २. मुकुटं, किरीटम्।। २. प्रबल, दृढ़ ३. अधिक, अतिशय । उप्म, सं. पुं. (सं.) दे. 'उष्णता', २. आतपः, उशना, सं. पुं. (सं.नस् ) शुक्राचार्यः। । सूर्यालोकः ३. ग्रीष्मः । उशबा, सं. पुं. ( अ.) वृक्षभेदः । उष्मा, सं. स्त्री. (सं.-ष्मन् पुं.) दे. 'उष्णता' उशीनर, सं. पुं. ( सं-राः ) गांधारदेशः । २. आतपः ३. क्रोधः। २. गांधारवासिन् ३. शिविजनकः ।। उस, सर्व. (हिं. वह ) तद् , अदस्। उशीर, सं. पु. ( सं. पुं. न. ) वीरणमूलं, अभयं, उसाँस, सं. स्त्री. (सं. उच्छ्वासः) दीर्घश्वासः, नलदं, सेव्यम् । उच्छ्वसितम् २. श्वासः, निधासः ३. (दुःखाउषा, सं. स्त्री. ( सं.) उषस ( स्त्री. न.), प्रभातं, ' दिसूचकः) दीर्घनिश्वासः। अरुणोदयः, दिननुखं, राविशेषः, ब्राह्मवेला। उसार, सं-पुं. (सं. अवसारः) विस्तारः । २. अरुणोदयलालिमन् (पुं.) ३. वाणासुर- । उसूल, सं. पुं. (अ.) नियमः, सिद्धान्तः । कन्या, अनिरुद्ध पली। उस्तरा, सं. पुं. (फ़ा. उस्तुरा) क्षुरः, नापिउष्ट्र, सं. पुं. (सं.) क्रमेलकः, दे, 'ऊँट'। तास्त्रम् । उष्ण, वि. (सं.) सं.-उत, तप्त २. उद्योगिन् , उस्ताद, सं. पुं. (फ़ा.) अध्यापकः, गुरुः । सोचोग, परिश्रमिन् , क्षिप्रकारिन् , दक्ष ! वि., कपटिन् २. चतुर । ३. उष्णप्रकृति । उस्तादी, सं. स्त्री. (फ़ा.) अध्यापकत्वम् सं. पुं., ग्रीष्मः २. नरकविशेषः ३. पलांडः। २. नैपुण्यम् ३. वचनं, विप्रलंभः । -कटिबंध, सं. पुं. ( सं. ) भूमेः उष्णतमः | उस्तानी, सं. स्त्री. (फ़ा.) अध्यापिका २. गुरुमध्यप्रदेशः। पत्नी ३. मायाविनी। ऊ, वर्णमालायाः षष्ठः स्वरवर्णः, ऊकारः। -सुनना, मु., किंचिद् बधिरत्वम् । ऊ, अव्य. ( अनु.) आः, हा, कष्टम् । ऊँचाई ऊँचान, सं. स्त्री. (हिं. ऊँचा) उच्छु ऊँघ, सं. स्त्री. ( सं. अवाङ्> ) तंद्रा, ईषत्- | (च्छा ) यः, आरोहः, उत्सेधः, उत्-, तुंगता, स्वल्प, निद्रा। उच्चता, उत्कर्षः, उन्नतिः (स्त्री.) २. महत्त्वं, ऊँघना, क्रि. अ. (हिं. ऊँघ ) ईषत् स्वप-निद्रा | गौरवम् । (अ. प. अ.), स्वप् के सन्नन्त रूप (सुषुप्सति से कि.वि.(हिं. ऊँचा ) उ. उपरि. ऊर्व, आदि)। उच्चम् । ऊँच, वि. ( सं. उच्च ) उच्छ्रित २. श्रेष्ठ । ऊँट, सं. पुं. (सं. उष्ट्रः ) क्रभेलकः, महांगः, ३. कुलीन । -नीच, वि., कुलीनाकुलीन, उच्चावच । सं. पुं. मयः, दीर्घगतिः, दासेरकः, धूसरः, लंबोष्ठः, दीर्घजंघः, दीर्घः, महापृष्ठः, महाग्रीवः । हानिलाभौ, भद्रामद्रे (वि.)। ऊँचा, वि. ( सं. उच्च ) सम्-, उच्छ्रित, उद्गत, -कटा (टी)रा, सं. पुं. ( सं. उष्ट्रकंटकः कम् ) उष्ट्रप्रियः कंटकितो गुल्मभेदः, कंटालुः, प्रांशु, ऊर्ध्व, तुंग, उदग्र, सोच्छ्राय २. श्रेष्ठ, उत्कंटकः। मुख्य, अग्रच, परम, महा-, प्रधान, ३. प्रबल, ऊँटनी, सं. स्त्री. ( हिं. ऊँट ) उष्ट्री, लंबोष्ठी, तीन। -नीचा, वि., विषम, असम, नतोन्नत । सं. महागा । पुं., हानिलाभौ २. भद्राभद्रे । ऊहूँ, अन्य ( अनु.) न, नो, नो-नो, न कदापि । -बोल बोलना, मु., विकत्थ् (भ्वा. आ. से.)। ऊ, सं. पुं. (सं.) शिवः २. चन्द्रः ३. रक्षकः । ६ आ० हि० For Private And Personal Use Only Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra ऊख www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [ ८२ ] अ०, अपि । सर्व० सः, सा, तद्- तत् ( न. ) । ऊख, पुं. ( सं . इक्षुः ) दे. 'गन्ना' । ऊखल, सं. पुं. ( सं . उलूखलम् ) उदूखलम् । ऊजड़, वि., दे. 'उजाड़' । > ऊटक- नाटक, सं. पुं. (सं. उत्कट + नाटकं ) अनर्थक- निरर्थक, कार्यम् । ऊटपटांग, वि. (अनु. अटपट + सं . अंग ) असंबद्ध, असंगत २. मोघ, निरर्थक । ऊदि, सं. स्त्री. ( सं . ) वहनम्, नयनम् २. विवाहः, परिणयः । ऊत, वि. (सं. अपुत्र ) निस्संतान, निरपत्य, निरन्वय २. मूढ, निर्बुद्धि । सं. पुं., मूर्खः ४. प्रेतभेदः । - बात, सं. स्त्री, निरर्थकं वचनम् । - से, क्रि. वि. उपरिष्टात्, बाह्यतः । ऊढ़, वि. ( सं. ) सपत्नीक, परिणीत, दे० | ऊपरी, वि. (हिं. ऊपर ) ऊर्ध्व, उत्तर, उप 'विवाहित' । रितन ( - नीस्त्री.) २. बाह्य, बहिर्वर्तिन् ३. अनियत ४. आपातरमणीय, साडंबर । -कंकट, वि. (सं.) सन्नद्ध, कवचधारिन् । ऊढ़ा, वि. स्त्री. ( सं. ) परिणीता उपयता, सभर्तृका, सधवा, सुवासिनी, पतिवत्नी २ परकीयानायिकाभेदः । ऊद, सं. पुं. ( सं . उद्रः ) दे. 'ऊदबिलाव ' । ऊदबिलाव, सं. पुं. ( सं . उदविडाल: ) उद्रः, जल-, मार्जारः - बिडालः । ऊना, वि., . 1 ऊनी, वि. (हिं. ऊन ) लोमज, मेपलोमज, ऊर्णामय ( -यी स्त्री.), ओर्ण ( -णी स्त्री. ) । ऊदा, वि. ( अ. ऊद अथवा फ़ा. कवूद) नीललोहित, धूम्र, धूमल, धूमवर्ण । ऊधम, सं. पुं. ( सं . उद्धमः > ) उपद्रवः, उत्पातः कोलाहलः, तुमुलं, कलहः । - मचाना, क्रि. स., उपद्रवं उत्था (प्रे.) उदूध्वं , ऊपर, क्रि. वि. ( सं . उपरि अव्य.) ऊर्ध्वं उपरिष्टात् सप्तमी विभक्ति से भी । २. अधिकम् अतिरिक्तम् ३. वहि:, वहिर्भागे ४ तटे, तीरे ५. प्रतिकूलं विरुद्धम् । सं. पुं., अग्रं, श्रृंगम् । -तले, क्रि. वि., उपर्यधः । आमदनी, सं. स्त्री. वेतनातिरिक्तः आयः । उबड़-खाबड़, वि. (अनु.) विषम, नतोन्नत । ऊबना, क्रि. अ. (सं. उद्वेजनम् ) उद्विज् ( तु. आ.से.), निर्विद - खिद् (दि. आ. अ. ) । ऊभासोंसी, सं. स्त्री. (हिं. ऊभना + साँस ) श्वास-प्राण,-कृच्छ्रम्, उद्धमः, दुःश्वासः । २. पलीरहित ३. अपुत्रः ऊमर, सं. पुं., दे. 'गूलर' । ऊमस, सं. स्त्री. दे. 'उमस' | ऊरु, सं. पुं. (सं.) सक्थि भागः । ऊर्ज, सं. पुं. (सं. ऊर्जा स्त्री. ) बलं, शक्तिः ( स्त्री. ) । २. रसः ३. भोजनं ४. जलम् । ऊर्जस्वी, वि. (सं॰-स्विन् ) ऊर्जेस्वल, ऊर्जित, बलिन्, शक्तिमत् । न. ), जानूपरि ऊर्ण, सं. पुं. (सं. न. ) ऊर्णा, दे, 'ऊन' । - नाभ, सं. पुं. (सं.) ऊर्णनाभिः, मर्कटकः, दे. 'मकड़ी' । For Private And Personal Use Only 3 ऊधमी, वि. (हिं. ऊधम ) उत्पातिन् उपद्रविन्दुष्ट । ऊर्णा, सं. स्त्री. ( सं . ) ऊर्ण, दे. 'फन' । ऊधो, सं. पुं. (सं. उद्धवः) श्रीकृष्णस्य मित्र- ऊर्ध्व, क्रि. वि. (सं. ऊर्ध्वम् ) उपरि, उपविशेषः । रिष्टात् । - का लेना न माधव का देना, मु., विरक्तता, आरोहण, सं. पुं. ( सं . न . ) देहान्तः । उदासीनता, गतसंगता । - गामी, वि. (सं. मिनू ) उद्यातृ २. मुक्त | ऊन', सं. स्त्री. (सं. ऊर्णा ) ऊर्णे, मेषादिरोमन् - मूल, सं. पुं. ( सं . ) संसारः । ( न. ) । - रेता, वि. (सं.-तस् ) ब्रह्मचारिन्, ऊन, वि. (सं.) न्यून, अल्प, क्षुद्र- अल्प- स्तोक- रक्षक । सूक्ष्म-, तर २. क्षुद्र, तुच्छ । सं. पुं., महादेवः २. भीष्मः ३. हनुमत् । वीर्य - Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ऊर्मि [ ८३ ] ऋमु - - -श्वास, सं. पुं. (सं.) उच्छ्वासः २. कृच्छ्रो- ऊष्म, सं. पुं. (सं.) उत्तापः, धर्मः २. वाष्पः वासः । ३. ग्रीष्मः । वि. उत्तप्त, उष्ण ।। उर्मि, सं. स्त्री. ( सं. पुं. स्त्री. ) तरंगः, कलोल: -वर्ण, सं. . ( सं.) श , प , स् , ह वर्णाः। २. वेदना ३. वस्त्रसंकोचरेखा। ऊष्मा, सं. स्त्री. (सं. ऊष्मन् पुं.) दे. 'ऊष्म' । -माली, सं. पुं. (सं-लिन् ) समुद्रः ।। ऊसर, सं. पुं., दे. 'ऊपर'। उलजल्ल, वि. (देश.) अक्रम २. अज्ञ | ऊह, अव्य, (अनु.) (पीड़ा) आः, हा, ३. असभ्य । २. ( आश्चर्य) अइह, अहो । ऊपर, सं. पुं. ( सं. पुं. न.) अनुवर-क्षार-अश- ऊह, सं. पुं. (सं.) अनुमानं, वि., तर्कः २. युक्तिः स्यप्रद, भूमिः (स्त्री.), मरुस्थलं-ली। वि. मोघ, (स्त्री.), हेतुः। निष्फल । -अपोह, सं. पुं. (सं.-हौ ) तर्कवितकौं, विमर्शः, ऊपा, सं. स्त्री. (सं.) दे. 'उषा' । । विचारणा, पक्षप्रतिपक्षचिन्तनम् । ऋ, देवनागरीवर्णमालायाः सप्तमः स्वरवर्णः, | ऋणी, वि. (सं-णिन् ) दे. 'ऋणग्रस्त' २. अनुऋकारः। गृहीत, उपकृत। ऋक्, सं. स्त्री. ( सं. ऋच ) वेदमंत्रभेदः ऋत, सं. . ( सं. न.) उच्छवृत्तिः ( स्त्री.) २. ऋग्वेदः। २. मोक्षः ३. जलम् ४. कर्मफलम् ५. यशः ऋ ण, वि. ( सं.) आहत, वि,-क्षत । ६. सत्यम् । ऋक्थ, सं. पुं. (सं. न.) धनम् २. स्वर्णम् | वि., दीप्त २. पूजित ३. सत्य । ३. दायधनम् ४. दायभागः। प्रतु, सं. स्त्री. ( सं. पुं.) मासद्वयात्मकः प्रकृतिऋक्ष, सं. पुं. (सं.) भल्लूकः २. नक्षत्रं ३. मेषा- परिवर्तनयुक्तः कालः ( षड् ऋतवः-वसन्तः, दिराशयः। ग्रीष्मः, वर्षाः, शरद् , हेमन्तः, शिशिरः), -पति, सं. पुं. (सं.) चन्द्रः २. जांबवत् (पुं.)। समयः २. आर्तव-पुष्प-रजः, कालः । ऋग्वेद, सं. पुं. (सं.) वेदविशेषः। -काल, सं. पुं. (सं.) रजोदर्शनानन्तरं गर्भऋग्वेदी, वि. ( सं.-दिन ) ऋग्वेद, ज्ञ-पाठक। योग्यानि षोडशदिनानि ।। ऋचा, सं. स्त्री. ( सं. ऋच स्री. ) छन्दोमयो -गमन, सं. पु. ( सं. न. ) ऋतुकाले मंत्रः २. वेदमंत्रः ३. स्तोत्रम् । मैथुनम् । ऋज, वि. (सं.) सरल, समरेख, प्रगुण, अंजस -चर्या, सं. स्त्री. (सं.) ऋत्वनुकूलं आहार विहारौ। २. सुकर, सुख, साध्य-संपाद्य ३. निर्व्याज, -दान, सं. पुं. (सं. न.) गर्भाधानम् , निष्कपट ४. प्रसन्न, अनुकूल । ऋजुता, सं. स्त्री. (सं.) सरलता, समरेखता निषेकः। २. सुकरत्वं, सुखसाध्यता ३. निष्कपटता।। -मती, वि. स्त्री. (सं.) रजस्वला, पुष्पवती । ऋण, सं. पुं. (सं. न.) पर्यदंचनं, उद्धारः।। -राज, सं. पुं. (सं.) वसन्तः । -~-चुकाना, क्रि. स., ऋणं शुप (प्रे.)। | ऋत्विज, सं. पुं. (सं-ज ) पुरोहितः, याजकः । -लेना, क्रि. स., ऋणं कृ अथवा ग्रह. (क्र. | ऋद्ध, वि. ( सं.) संपन्न, समृद्ध । उ. से.)। ऋद्धि, सं. स्त्री. (सं.) समृद्धिः-वृद्धिः ( स्त्री.)। ---ग्रस्त, वि. ( सं.) ऋणिन् , अधमर्ण, खातक, | २. प्राणप्रिया, ओषधिभेदः। धारक । -सिद्धि, सं. स्त्री. (सं.) समृद्धिसाफल्ये । -मुक्त, वि. (सं.) ऋण-उद्धार-पर्युदंचन,- | ऋभु, सं. पुं. (सं.) देवः, अमरः २. गणदेवविमुक्त। विशेषः ३. देवानुचरवर्गविशेषः ४. शिल्पिन् । . For Private And Personal Use Only Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ऋषभ . [ ८४ ] एकता ऋषभ, सं. पुं. ( सं. ) वृषः, दे. 'बैल' -ध्वज, सं. . ( सं.) शिवः । २. संगीते द्वितीयस्वरः ३. समासान्ते श्रेष्ठता- ऋषि, सं. पु. ( सं.) सत्यवचस्, शापात्रः, वाचकः ( उ. नरर्षभः)। . मंत्रद्रष्ट्र, मुनिः, तत्त्वविद् , सिद्धः, ब्रह्मशः। -देव, सं. पु. ( सं. ) विष्णोरवतारो नाभि- -ऋण, सं. पु. ( सं. न.) मुन्युद्धारः ( टि. यह राजपुत्रः २. प्रथमः तीर्थकरः ( जैन.)। वेदों के पठनपाठन से उतरता है)। ए, हिन्दीवर्णमालाया अष्टमः स्वरवर्णः, एकारः।। -और एक ग्यारह होना, मु., संधेन वर्द्धते एंच-पेंच, सं. पुं. (अनु.+फ़ा. पेच ) वक्रता, बलम् । कुटिलता। -टक, मु., निनिमेपम् , अनिमिपम् । एंडी, सं. स्त्री., कौशेय-कौश, भेदः २. तरय कीटः | -तो, मु., प्रथमं तावत् । ३. कौशिकवस्त्रभेदः। -दम, मु., निरन्तरम् २. झटिति, सपदि ३. सकृदेव ४. सर्वथा। एंपरर, सं. पु. ( अं. ) सम्राज् , महाराजः, राजाधिराजः, अधिराजः। -दूसरे को, मु., अन्योऽन्यं, परस्परं, इतरेतएंपायर, सं. पुं. (अं. ) अ( आ )धिराज्यम् , .: रम् । वि. मिथः ( अव्य.), परर पर, इतरेतर । ' -पेट के, मु., सोदर, सहोदर, सोदर्य । साम्राज्यम् । -बात, मु., सत्य प्रतिज्ञा २. यथार्थवचनम् । एंप्रेस, सं. स्त्री. (अं.) सम्राज्ञी, राजाधिराज -सा, मु., तुल्य, सदृश, सम। महाराज,-पत्नी, अधीश्वरी। --स्वर से कहना, मु., ऐकमत्वेन वद (भ्वा. एंबुलेंस, सं. स्त्री. ( अं.) चलचिकित्सालयः • सा. न. पाचावासा. प.से.)। २. क्षत-रूषण, वाहनं-शकटी। केवल-, वि., असहाय, अद्वितीय । एकंगा, वि. (सं. एकांग) एक, पक्षीय देशीय कोई-, कश्चित्, काचित् , किचित् । २. असमभारः। | दो में से-, वि., अन्यतर, एकतर, अन्यतरा, एक, वि. ( सं. सर्व.) एकः, एका, एकम् । अन्यतरत् । न.)। २. अतुल्य, अनुपम ३. कश्चन, कश्चित् , बहुतों में से-, अन्यतम, एकतम, एकतमा, काचन, किचन ४. तुल्य, समान ।। एकतमत् ( न.)। सं. पुं., उक्ता संख्या, तदंकः (१) च । एकचित्त, वि. ( सं. ) अवहित, स्थिरचित्त -करना, क्रि. स., संगम् ( प्रे.)। २. अभिन्नहृदय। -होना. वि. अ.. संघट ( भ्वा. आ. से.)। एकचित्तता, सं. स्त्री. (सं.) अवधानं, मनो-तरफा, वि., एक,-पक्षीय देशीय । योगः २. ऐकमत्यं, संमतिः ( स्त्री.)। -बार, क्रि. वि., सकृत् २. एकदा ३. पूर्व, | एकछत्र, वि. ( सं.) एकशासकाधीन । क्रि. वि. पुर।, प्राक् । ऐकाधिपत्येन । -बारगी, क्रि. वि., युगपत् , समम् ३. साक- एकड़, सं. पुं. ( अं. ) क्षेत्रफलमानभेदः, एकड़ ल्येन । (१६ बीघा-४८४० वर्गगज )। -मत, वि., एक-सम, चित्त २. सधर्मः। एकतरफा, वि. ( फ़ा. यकतरफः ) एकपक्षीय -मत होकर, क्रि. वि., साम्मत्येन ऐकम- २. सपक्षपात ३. एकपाश्र्वसंबंधिन् । त्येन। -डिगरी सं. स्त्री. (फा+अ.) एकपक्ष्यनि-आँख देखना, मु., समं दृश् (भ्वा. प. अ.)। देशः। -एक, मु., सर्व, सकल २. पृथक-पृथक | एकता, सं. स्त्री. ( सं. ) संघटनं, ऐक्यम् , ३.क्रमशः। संहतिः ( स्त्री. ), संगमः, समवायः २. साम्यं, --एक करके, मु., आनुपूा , आनुपूर्येण । तुल्यता । For Private And Personal Use Only Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir एकतान एकतान, वि. (सं.) एकाग्रचित्त, मग्न, लीन । एकतारा, सं. पुं. (हिं. एक + तार ) एकतारः, वाद्यभेदः । [ ८५ ] एकत्र, क्रिवि. ( सं . ) एक, -स्थले-स्थाने । - करना, क्रि. सं., संग्रह ( क्रू. उ. से. ) । -होना, क्रि. अ., संमिल ( भवा. प. से. ) । एकत्रित, वि. (सं. एकत्र ) संघीभूत, संचित, संगृहीत | एकत्व, सं. पुं. (सं. न. ) दे. 'एकता' । एकदंत, सं. पुं. ( सं . ) गणेशः, लंबोदर | एकदा, अव्य. ( सं. ) सकृत् ( अव्य.) २. पूर्व, पुरा, प्राकू ( सव अध्य. ) । एकदेशीय, वि. (सं.) एकदेश्य, एकस्थानीय | एकनिष्ठ, वि. (सं.) एकोपासक | एकरंग, वि. (सं.) समान, सवर्ण २. शुद्धा त्मन् । एकरस, वि. (सं.) तुल्य, सदृश २. अव्यय, अपरिणामिन्, परिवर्तनरहित । एकरूप, वि. (मं.) स-सम-समान, रूप, तुल्य, समान । एकवचन, सं. पुं. (सं. न. ) एकवाचकं वचनम् व्या. ) । एकवाक्यता, सं. स्त्री. (सं.) सांमत्यं, ऐकमत्यम् । एकसर, अ, आद्यन्तम्, आपादमस्तकम् । २. सकृत् ( अव्य.) वि. एकाकिन् असहाय एकहरा, वि. (सं. एकस्तर ) एकास्तर, एक 1 एक्कावान एकाएक, क्रि.वि. ( सं. एक + एक > ) अकस्मात्, एकपदे, सहसा, अकांडे । एकाकार, सं. पुं. (सं.) सारूप्यं, साम्यम् वि., सरूप, सम, समान | एकाकी, वि. (सं. किन् ) एकल, दे. 'अकेला' । एकाक्ष, वि. ( सं . ) काण, चन्द्रलोचन । सं. पुं., काकः २. शुक्राचार्यः । एकाक्षर, वि. (सं.) एक अक्षरिन्-वर्ण । सं. पुं. ( सं . न . ) ओंकारः । एकाग्र, वि. ( सं . ) स्थिरबुद्धि, धीर २. अनन्यचित्त, एकतान, एकाग्रवृत्ति । -चित्त, वि., दे. 'एकाग्र' २ | एकाग्रता, सं. स्त्री. ( सं . ) अनन्य, चित्तता मनस्कता, एकतानता । एकात्मता, सं. स्त्री. (सं.) एकत्वं, एकता, एकरूपता, ऐक्यं, भेदाभावः । एकादशी, सं. स्त्री. (सं.) हरि, दिनं-दिवसः - वासरः । एकाधिक, वि. (सं.) बहु, बहुल, अनेक, बहुसंख्यक, भूरि । एकाधिकार, सं. पुं. ( सं . ) एक, व्यापारःव्यवसायः २. अनन्यसाधारणोऽधिकारः । एकाधिपति, सं. पुं. (सं.) अधीश्वरः, अघिराजः, सम्राजू, महाराजः । एकाधिपत्य, सं. पुं. ( सं. न. ) एक, प्रभुत्वंस्वामित्वम् पूर्णप्रभुत्वम् । एकार्थक, वि. ( सं . ) सम-समान-तुल्य, अर्थक । सं. पुं., पर्यायशब्दः । फलक, २. एक, सूत्र- गुण ३. तनु, सूक्ष्म । - बदन, सं. पुं., कृशदेहः । एकता साधनं, एकांकी, सं. पुं. ( सं . - किन् ) रूपकभेदः एकावली, सं. स्त्री. (सं.) अलंकारभेदः (सा.) २. एकयष्टिका, एकतारो हारः । एकीकरण, सं. पुं. ( सं. न. एकत्वसंपादनम् । एकीभाव, सं. पुं. सं.) संघटनं, संयोगः, संश्लेषः । २. एकांकयुक्त रूपकम् । एकांग, वि. ( सं . ) एकावयव, एकभाग २. विकलांग । सं. पुं. अंगरक्षकः २. विष्णुः ३. बुधग्रहः ४. चन्दनः-नम् ५. शिरस् (न.) । एकांगी, वि. (सं.-गिन् ) एकपक्षीय २. दुर्दम । एकांत, वि. (सं.) अत्यन्त २. एकाकिन्, पृथस्थित । सं. पुं. ( सं . ) विजनं, विविक्तम् । - वास, सं. पुं. ( सं . ) संसर्गाभावः । - वासी, वि. (सं. सिन् ) निर्जन विजन - वासिन् । एकीभूत, वि. (सं.) संयुक्त, मिश्रित, संहत । एक्का, वि. (सं. एक > ) एक, विषयक संबंधिन् २. एकाकिन्, एकल । सं. पुं. यूथभ्रष्टः प्राणिन् २. एक पशुवाह्यो द्विचको वाहनभेदः ३. सैनिकभेदः ४. एकचिह्नयुक्तं क्रीडापत्रम् । सूतः, एका, सं. पुं. (हिं. एक ) संहतिः (स्त्री.), एक्कावान, सं. पुं. (हि. क्का ) सारथि:, ऐक्यम्, संघटनम् । हयंकषः । For Private And Personal Use Only Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir एकी [ ८६ ] ऐंठना एकी, सं. स्त्री. ( हिं. एका ) एकवृषभवाद्यं एतराज, सं. पु. ( अ. ) आपत्तिः (स्त्री.), शकटम् , वृषवहनम् ।। बाधः, विरोधः, आक्षेपः, प्रत्यवायः । एकजामिनर सं. पु. ( अं.) दे. 'परीक्षक'। एरंड, सं. पुं. (सं.) चित्रका, पंचागुल: दीर्घएक्जामिनेशन, सं. पुं. ( अं.) दे. 'परीक्षा'। पत्रकः, गन्धर्वहरतकः। एक्सरे, सं. स्त्री. ( अं.) एक्सरदिमः । एलची, सं. पुं. (तु.) राजदूतः, संदेशहरः । एजेंट, सं. पुं. ( अं.) प्रतिनिधिः, प्रतिहस्तः | एला, सं. स्त्री. (सं.) बाला, हिमा, चंद्रिका, २. दे. 'अढ़तिया' ३. कारकः । बहुलगंधा, ऐन्द्री, द्राविड़ी। एजेंसी, सं. स्त्री. (अं.) परद्रव्यक्रयविक्रयस्थानम् | एलान, सं. पुं. ( अ.) घोषणा, विज्ञप्तिः ( स्त्री.)। २. प्रातिनिध्यम् ३. कारकत्वम् । एलेक्टरेट, सं. पुं. ( अं. ) निर्वाचक.समूहः एटम, सं.पु. ( अं.) अणुः । । २. निर्वाचनक्षेत्रम् । -बम, सं. पुं., अणुबंबम् । एवं, क्रि. वि. (सं.) इत्थं, नया रीत्या एटर्नी, सं. पुं. (अं.) पर कार्य, साधकः-संपादकः, २. अपि, च । प्रति,-पुरुषा-हस्तः। | एव, अव्य. (सं.) वेवलम् , मात्र २. अपि, च, अपि च। एड़, सं. स्त्री. [ सं. एडु (ड) कम् ] पाणिः | एवज, सं. पुं. (फ़ा.) प्रति ( ती ) कारः, प्रति, ( पुं. स्त्री.) पाद,मूलं तलम् , गोहिरम् । क्रिया-अपकारः २. क्षति, निष्कृतिः ( स्त्री. ). -लगाना, मु., घोटकादीन् पाणिना प्रचुद् पूरणम् ३. प्रतिनिधिः। (प्रे.) २. उत्तिज (प्रे.) ३. बाध (भ्वा. आ.से.)। एडवोकेट, सं. पु. ( अं. ) दे. 'उदवोकेट' तथा एशिया, सं. पुं. ( यू. इव. अशु = पूर्वदिशा>) पंचमहाद्वीपेपु अन्यतमः । 'वकील'। एशियाई, वि. (अ.पशिया>) एशियासंबधिन् । एडिटर, सं. पुं. ( अं.) संपादकः । एडिटरी, सं. स्त्री. ( अं. एडिटर >) संपादकता। एषणा, सं. स्त्री. ( सं. ) आकांक्षा, स्पृहा, वांछा, इच्छा। एडी, सं. स्त्री. [सं. एडु (१) क दे. 'एड'। एहतियात. सं. स्त्री. (अ.) अवधान, अवेक्षा -रगड़ना, मु., सुदीर्घकालं कष्टं सह । २. अल्पाहारः। ( भ्वा. आ. से.) २. चिररोगेण पीड (कर्म)। एहसान, सं. पुं. ( अ. ) कृपा, उपकारः -से चोटी तक, मु., आपादशीर्षम् , आद्यन्तम् । २. कृतज्ञता।। एतबार, सं. पुं. ( अ.) विश्वासः, प्रत्ययः। -मंद, वि., कृतज्ञ कृतवेदिन् । ऐ, हिन्दीवर्णमालाया नवमः स्वरवर्णः, ऐकारः । ऐचातानी, सं. खा. ( पूर्व. ) उभयतः कर्षणं ऐं, अन्य. ( अनु.) किं. कथं, ननु २. अहो, २. संघर्षः, रपर्दा, अहमहमिका। अदुभुतं, आश्चर्यम्। ऐंट, सं. स्त्री. ( हि. ऐंठना ) गर्वः, दर्पः आटोपः ऐंग्लो-, वि. (अं. समास के आरंभ में) आंग्ल-। २. सगर्वगतिः ३. द्वेपः, मात्सर्यम् ४. दे. -इंडियन, सं. ( अं.) आंग्लभारतीयः। । 'ए.ठन'। -वर्नाक्यलर, वि. ( अं.) आंग्ल-( विद्यालय)/ ऐठन, सं. स्त्री. ( पूर्व. ) व्यावर्तन, आ., कुञ्चनं, स्वदेशीय। | वक्रता २. चूणः, वस्त्रभंगः ३. आकर्षणम् ऐंच, सं. स्त्री. ( हिं. ऐंचना ) आ-समा, कप:- ४. गात्रोपघातः, उद्वेष्टनम् । कर्पणम् , प्रसारः, आयामः, विततिः ( स्त्री.)। ऐंठना, क्रि. स. ( सं. आवेष्टनम ) न्या-परि, वृत् ऐचना, क्रि. स. ( हिं. खींचना ) कृप ( भ्वा. प. (प्रे.), मुट मुह (चु.), आय (भ्या. प. सं.) अ.) २. विस्तृ (प्रे.), वितन् (त. उ. से.) २. पीडयित्वा आद। (जु. आ. अ.), बलेन ३. अप-अव,-कृष। | निष्कृष ( भ्वा. प. अ.) ३. छलेन आदा । कि. ऐंचाताना, वि. (हिं. ऐंचना+तानना) वक्रदृष्टि, अ., आकुंच ( वर्म.), व्यावृत् ( स्वा. आ. केकर, केदर, वलिर। । से.) २. प्र-वि, तन् ( कर्म.) ३. गर्व ( भ्वा. For Private And Personal Use Only Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पंठ [ ८७ ] ऐश्वय प. से. ) ४. प्रलम् (भ्वा. प. से. ) ५. दे. ऐक्य, सं. पुं. ( सं . न . ) एकता, एकत्वम् २. दे. 'मरना' । 'एका' । ऐंठू, वि. (हिं. ऐंठना ) गविंत, दृप्त | ऐच्छिक, वि. (सं.) वैकल्पिक ( -की स्त्री.), स्वेच्छातंत्र, रुच्यधीन, सविकल्प । ऐड्वोकेट, सं. पुं. ( अं.) पक्षसमर्थकः, परार्थं • ऐंड, सं. पुं. (हिं. ऐंठ ) दे. 'ऐंठ' (१)। २. आवर्तः, भ्रमः। वि., निर्गुण, अकिंचित्कर । | --दार, वि. (हिं. + फ़ा. ) सगर्व, अहंमानिन् वक्तृ । ऐतिहासिक, वि. ( सं . ) इतिहास, विषयकसंबंधिन् २. इतिहासज्ञ, पुरावृत्तवेत्तृ । ऐतिह्य, सं. पुं. ( सं . न . ) पारंपर्योपदेशः, प्रमाणभेद: ( न्या. ) । ऐन', सं. पुं., दे. 'अयन' । ऐन, वि. ( अ ) न्याय्य, उचित २. संपूर्ण । सं. स्त्री. नेत्रं, नयनम् । ऐनक, सं. स्त्री. ( अ. ऐन > ) उपनेत्रं-त्रे, नेत्रकाचौ । ऐंद्र, वि. ( सं .) इन्द्र-शक्र, विषयक, पौरन्दर । ऐब, सं. पुं. (अ.) दोष:, विकारः, २. व्यसनं, अवगुणः । सं. पुं., ऐन्द्रि:, इन्द्रपुत्रः । ऐंद्रजालिक, सं. पुं. (सं.) मायिन् मायिकः, ऐबी, वि. (अ.) दोषिन्, व्यसनिन् २. कुचेष्टकः । ऐयार, सं. पुं. (अ.) मायाविन्, धूर्त्तः, छलिन् । ऐंद्रि, सं. पुं. ( सं . ) इन्द्रपुत्रो जयन्तः २. अर्जुनः ऐयारी, सं. स्त्री. (अ.) कपटित्वं, धूर्तता, माया३. बालि: ४. काकः । कुहुकजीविन् । २. उज्ज्वल । - ऐंडना, क्रि. अ. (हिं. ऐंठना ) व्यावृत् ( भ्वा. आ. से. ) अंगानि आतन् ( त. उ. से. ) ३. गर्व (भ्वा. प. से. ) । क्रि. स., दे. 'ऐंठना' क्रि. सं. (१) 1 ऐंडाना, क्रि. अ. ( ऐंडना ) अंगानि आतन (त. उ. से. ) २. सगर्व चल ( वा. प. से. ) । ऐदव, वि. ( सं .) चान्द्र, चान्द्रिक, चान्द्रमस, सौमिक । सं. पुं. चान्द्रमासः । ऐंद्रिय, वि . ( सं . ) ऐन्द्रियक, इन्द्रिय, विषयक, ग्राह्य-संबंधिन् । ऐ, अव्य. ( सं . अयि ) भोः, हे, अरे । ऐक, वि. ( सं . ) एक, विषयक -सम्बधिन् । - पत्य, सं. पुं. ( सं. न. ) एकतंत्रशासनम् २. पूर्ण प्रभुत्वं - स्वामित्वम् । विता । ऐयाश, वि. ( अ ) भोगिन्, विलासिन २. कामुक, लंपट । ऐयाशी, सं. स्त्री. ( अ ) विलासिता २० कामु कता । ऐरागैरा, सं. पुं. ( अ. गैर + अनु. ऐर ) परः, अपरिचितः २. तुच्छ्रजनः । —भाव्य, सं.पुं. (सं. न.) १ २. स्वभाव- उद्देश्य, ऐरावत, सं. पुं. ( सं ) इन्द्रगजः चतुर्दन्तः, ऐक्यम् । सदादानः, अभ्रमातंगः २. विद्युद्युक्तो मेघः - मत्य, सं. पुं. ( सं. न. ) मतैक्यम्, साम्मत्यम् । - राज्य, सं. पुं. (सं. न. ) एकतंत्रशासनम् । ऐकांतिक, वि. (सं.) सिद्ध, सम्पन्न २. संपूर्ण ३. निर्दोष ४. अनन्यसम्बद्ध | ऐक्ट, सं. पुं. ( अं. ) अधिनियमः २. रूपकनाटक, अंक ३. कृतिः (स्त्री.) । - करना, क्रि. स., अभि नी (भ्वा. प. अ. ), नटू ( चु. ) । ऐक्टर, सं. पुं. ( अं. ) नर्तकः, नटः, शैलूषः, कुशीलवः, अभिनेतृ । ऐक्ट्रेस, सं. स्त्री. ( अं.) नटी, नर्तकी, अभिनेत्री । ३. इन्द्रचापः । ऐरावती, सं. स्त्री. ( सं . ) ऐरावतभार्या २. विद्युत् (स्त्री.) ३. पंचनदप्रान्ते नदीविशेषः ( = Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ऐश्वर्यशाली ऐश्वर्यशाली, चि. (सं.लिन् ) ऐश्वर्यवत्, धनिक, धनाढ्य, सम्पन्न । ऐसा, वि. ( सं. ईदृश ) एवंविध, एतत्तुल्य, एतादृश। (स्त्री, ईदृशी, एतादृशी ) । - वैसा, मु., तुच्छ, साधारण । [ ८ ] ओ ओ, हिंदीवर्णमालाया दशमः स्वरवर्णः, ओकारः । । ओजस्विता, सं. स्त्री. (सं.) कान्तिः (स्त्री.) । तेजस् (न.) । ओजस्वी, वि. (सं. विन् ) तेजस्विन्, कान्तिमत्, प्रभावशालिन्, शक्तिगत् । ओजोन, सं. पुं. ( अं.) प्रजारकं, दाहनम्, वातिभेदः । ओझरी, सं. स्त्री. (सं. जठरम् ) कुक्षिः, तुंदं, फंड: २. आमाशयः, अन्नाशयः, जठरम् । ओझल, सं. पुं. (सं. अवरुन्धनम् > ) आवरणं, आच्छादनम् । वि., अदृश्य, अन्तरित । ओं', अव्य. ( सं . ) आ, एवं, एवमेव, बाढम्, अथ किं, तथा, तथास्तु, अस्तु । ओं, सं. पुं. ( सं . अव्य. ) प्रणवः, ओंकारः । ओंकार, सं. पुं. (सं.) ओम् इति शब्दः प्रणवः । ओठ, सं. पुं. ( ओष्ठः ) दंत रदन-दशन-रदछदः पटः । ( ऊपर का ) ऊर्ध्वोष्ठः । ( नीचे का ) अधरः । - चबाना, मु., कुप् ( दि. प. से ) । ओडा, वि., ग( गंभीर, अगाध । सं. पुं. गर्तः, गर्तम्, अवटः । ओ, अव्य. ( अनु ) भोः, अयि, हे, अरे २. च, अपि च ३. अहो, ही ४. स्मरणानुकंपादिसूचकमव्ययम् । ओक', सं. पुं. (सं. ओकस् न. ) गृहं, आलय: २ शरणं, आश्रयः । ओक े, सं. स्त्री. (अनु.) बमनेच्छा, विवमिषा | ओकण, सं. पुं. (सं.) मत्कुण: दे. 'खटमल ' । ओकना, क्रि. अ. (हिं. ओक') उद्-, वम् (भ्वा. प. से. ) २. महिषीव रेम् ( स्वा. आ. से. ) । ओकाई, सं. स्त्री. (हिं. ओकना ) वमनं २. वमनेच्छा । ओखल, सं. पुं., दे. 'ओखली' । ओढ़नी ऐसे, क्रि. वि. (हिं. ऐसा ) इत्थं, एवं अनेन प्रकारेण | ऐहिक, वि. ( सं . ) सांसारिक, व्यावहारिक, लौकिक । ओखली, सं. स्त्री. ( सं . उलूखलम् ) काष्ठमयं पाषाणमयं वा उदू (लू) खलम् । ओघ, सं. पुं. (सं.) समूहः, राशिः २. घनत्वं, सान्द्रता ३. प्रवाहः, धारा । ओछा, वि. ( सं . तुच्छ ) क्षुद्र, अथम, लघुचेतस्, कापुरुष २. गाध, अल्पजल ३. लघु, सुसह्य ४. अपर्याप्तलं । -पन, सं. पुं., तुच्छता, क्षुद्रता, नीचता । ओज, सं. पुं. (सं. ओजस् न. ) तेजस्, प्रतापः, मुखकान्तिः (स्त्री.) २. प्रकाशः ३. गुणभेदः (सा.) ४. देहस्थरसानां सारांशः । ओझा, सं. पुं. ( सं. उपाध्यायः > ) ब्राह्मणजातिभेदः २. भूतबाधाहरः, कुहकः । ओट, सं. स्त्री. ( सं . उटम् = घास फूस > ) व्यवधानं, तिरस्करिणी, प्रतिसीरा, जवनिका २. संश्रयः, आश्रयः । ओटना, क्रि. सं. (सं. आवर्तनम् > ) यंत्रेण कार्पास बीजानि पृथक् कृ २. पुनः पुनः वद् (भ्वा. प. से. ) । ओटनी, सं. स्त्री. (हिं. ओटना ) कार्पासबीजपृथक्करणयंत्रम्, *वेलनी । ओट, सं. पुं., दे. 'ओठ' । ओड़, सं. पुं., गर्दभवाहकः, जातिभेदः । ओड़ा, सं. पुं. ( ? ) करंडा, कंडोल: २. दुर्भिक्षं, आहाराभावः । ओडू, सं. पुं. (सं.) दे. 'उड़ीसा ' २. ओडूउत्कल, वासिन् । ओढ़ना, क्रि. स. ( सं . आ + ऊढ़ ) परिधा ( जु. उ. अ. ) प्रा-आ, वृ ( स्वा. उ. से. ) । सं. पुं., आवरणं, प्रावारः, वेष्टनं, पुटम्, २. उत्तरच्छदः, प्रच्छदः । ओढ़नी, सं. स्त्री. (हिं. ओढ़ना ) नारीणां उत्तर - वेष्टनं प्रावारकः । - बदलना, मु., सखीत्वं भगिनीत्वं वा स्था ( प्रे. ) । For Private And Personal Use Only Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ओदाना ओढ़ाना, क्रि. स. ( हिं. ओढ़ना ) 'ओढ़ना ' के धातुओं के प्रे. रूप । सिर मुँड़ाते ही ओले पड़े, मु., प्रथमे ग्रासे मक्षिकापातः । ओत, वि. (सं.) गुम्फित, ग्रथित। - प्रोत, वि. (सं.) सुगिश्रित, सुसंवृक्त, संसृष्ट, परस्परं सुग्रथित । सं. पुं., तंत्रवाणी (द्वि.), तंत्रप्रतितंत्र (द्वि.) । ओवरकोट, सं. पुं. ( अं. ) लंबकंचुकः । ओवरसियर, सं. पुं. ( अं. ) अधिदर्शक: । ओथ, सं. स्त्री. (अं.) शपथः दिव्यं समयः, ओषधि-धी, सं. स्त्री. ( सं . ) हरितकं, शाक: कं, शिग्रुः २. अगदः, औषधं, भेषजम्, भैषज्यम् । प्रत्ययः । - कमिशनर, सं. पुं. ( अं. ) शपथ-दिव्य, [ ८९ ] आयुक्त - ईश, सं. पुं. (सं.) चद्रः, सोमः । ओदन, सं. पुं. (सं. पुं. न. ) भक्तं, अन्नं, पक- ओष्ठ, सं. पुं. (सं.) दे. 'ओंठ' । व्रीहिः । ओदा, वि. (सं. उदन् > ) उन्न, उत्त, आई । ओप, सं. स्त्री. ( हिं. ओपना ) कान्तिः द्युति:- दीप्ति: (स्त्री.), सुषमा, सौन्दर्यम् । ओफ, अव्य. (अनु.) पीडाशोकाश्चर्यखेदसूचकमव्ययम्, आः, हा, अहह, अहो । ओम, सं. पुं. ( सं. अन्य. ) प्रणवः, ओंकार:, ईशसंज्ञा २. ईश्वरः । ओर, सं. स्त्री. ( सं. अवारं > ) दिशा, दिश ( स्त्री. ), काष्ठा, आशा २. पक्षः, पार्श्वः । सं. पुं., अंतः, प्रांतः, तटम् २. आरंभः, आदि: । इस, क्रि. वि., इतः अस्यां दिशि, अत्र । उस, क्रि.वि., ततः, तत्र, तस्यां दिशायाम् । चारों, क्रि. वि. सर्वतः, समंतात्, समंततः, अभितः परितः । ओल, सं. पुं. ( सं .) शूरण:, दे. 'जिमीकन्द' | ओला, सं. पुं. (सं. उपल: ) इन्द्रोपल: पयोधनः, औंकारः । औंधा, वि. (सं. अधोमुख) अवाङ्मुख, मुख, विपर्यस्त, विलोम । औटाना करका, धनकफः, वर्षशिला २. शर्करोपलः । वि., उपलशीतल । समयाः । औगुन, सं. पुं., दे. 'अवगुण' । तोलविशेषः, * औसम् । } औ, अव्य. (हिं. और ) च । दे. 'और' । औकात सं. स्त्री. एक. ( अ. वक्त का बहु. ) शक्तिः (स्त्री.), सामर्थ्यम् । सं. पुं., कालाः, ओष्ठ, वि. (सं.) ओष्ठसम्बधिन् २ ओष्ठोओस, सं. स्त्री. ( सं. अवश्यायः ) तुषारः, चार्य ( प, फ आदि वर्ण) । प्रालेयं, हिम- रात्रि -- ख, जलम्, नीहारः, तुहिनम् । औ औ, हिन्दी वर्णमालाया एकादश: स्वरवर्णः औघड़, सं. पुं. ( सं . अघोरः ) अधीरमतानु यायी पुरुषः २. असमीक्ष्यकारी मनुष्यः अधो ३. अपशकुनः । वि., (सं. अव + हिं. घड़ना ) विवेकहीन २. असंबद्ध औंधी खोपड़ी का, मु., मूर्ख, जड़ । ! औचक क्रि.वि., दे. 'अचानक' । औंस, सं. पुं. ( अं. ) ( सपादतोलयुग्मात्मकः ) औचित्य, सं. पुं. (सं. न.) औचिती, उपयुक्तता, - पड़ जाना, मु., ग्लैग्लै सद् (भ्वा. प. अ. ) २. लब्ज् ( तु. आ. से. ) । 'औसारा' । वि. विस्तृत, विस्तीर्ण । ओसार, सं. पुं., विस्तारः, प्रसारः २. दे. ओसारा, सं. पुं., प्रघ ( घा ) णः, अलिंद: । ओह, अन्य. (अनु. ) ( आश्चर्य) अहो, ही । ( दुःख ) अहह, हा. आः । ओहदा, सं. पुं. (अ.) पदं, पदवी, अधिकारः । ओहदेदार, सं. पुं. ( अ. + फ़ा. ) पदाधिकारिन्, अधिकृतः । ओहो, अव्य, (अनु.) अहो, ही, हंहो । नैयमिकत्वम्, सामंजस्यन् । औज़ार सं. पुं. ( अ. वज्र का बहु. ) यंत्राणि, उपकरणानि, साधनानि ( सब न. बहु. ) । औटना, क्रि. अ., दे. 'उबलना' । औटाना, क्रि. स., 'उबलना' के धातुओं के प्रे. रूप । For Private And Personal Use Only Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir औत्सुक्य औत्सुक्य, सं. पुं. (सं. न. ) उत्सुकता, दे० । औदरिक, वि. ( सं . ) उदर- जठर, विषयक २. अत्याहारिन्, बहुभुज्, घस्मर । औदार्य, सं. पुं. (सं. न. ) उदारता, दे. । औद्धत्य, सं. पुं. ( सं. न. ) उद्धतता, अशिष्टता, ग्राम्यता २. अनार्यता, धृष्टता । औद्योगिक, वि. ( सं. संबंधिन् । ) उद्योग-व्यवसाय, [ ९० ] औवाहिक, वि. ( सं . ) वैवाहिक, उद्वाहउपयम-परिणय, विषयक । कंगाली - का और, मु., विपरीत, विरुद्ध, असंगत । औरत, सं. स्त्री. ( अ ) नारी, रामा २. पत्नी, भार्या । — की जात, सं. स्त्री, स्त्री - नारी जातिः (स्त्री.) । औरस, सं. पुं. ( सं. ) धर्मपलीजः पुत्रः । औरेब, सं. पुं. ( सं . अव + रेव ) वक्र-तिर्यग्-, गतिः ( स्त्री. २. वस्त्रस्य तिर्यक्कर्तनम् २. जटिलत्वं, संश्लिष्टता ३. छल, कपटम् । - दार, वि., कितव; वंचक । औलाद, सं. स्त्री. ( अ. ) प्रजा, संततिः- प्रसूतिः (स्त्री.), संतानः, तोकं, अपत्यम् । औलिया, सं. पुं. (अ. 'वली' का बहु.) सिद्धाः, औना-पौना वि. (सं. ऊन-पादोन ) न्यूनाधिक, ईषबहु । क्रि. वि., न्यूनाधिकतया । औने-पौने करना, मु., हान्या लाभेन वा यथा कथंचिद् विक्रयणम् । औपचारिक, वि. ( सं . ) लाक्षणिक, गौण, | उपचारविषयक | औपनिवेशिक, वि. ( सं . ) आधिनिवेशिक, उपनिवेश- अधिनिवेश, संबंधिन् । - स्वराज्य, सं. पुं. (सं. न. ) अधिनिवेशिकं स्वातंत्र्यम् । औपन्यासिक, वि. ( सं . ) उपन्यास- कल्पितकथा, संबंधिन् २. उपन्यासे वर्णनीय ३. अद्भुत, । विलक्षण । सं. पुं. उपन्यास, कारः लेखकः । औपपत्तिक, वि. (सं.) तर्क-युक्ति, साध्य । और, अव्य. (सं. अपर > ) च, अपि च, अन्यच्च, किंच, अपरं च । वि., अन्य, अपर, भिन्न २. अधिक, भूयस् । कंक, सं. पुं. (सं.) आमिषप्रियः क्रूरः, दीर्घपादः, खगभेदः । पुण्यजनाः । औवल, वि. (अ.) प्रथम, आदिम २. प्रमुख, प्रधान ३. सर्वोत्तम । सं. पुं. आरंभः उपक्रमः । औषध, सं. पुं. ( सं. न. ) भेषजं, भैषज्यं, अगदः २. हरितकं, शाकः, ओषधिः (स्त्री.) । औषधालय, सं. पुं. ( सं .) भेपजालयः, औषधशाला । औसत, सं. पुं. (अ.) *मध्यमा, मध्यप्रमाणम् । वि. मध्यम, सामान्य । औसान, सं. पुं. ( फा . ) चेतना, चैतन्य, संज्ञा, बोधः । -खता होना, मु, मतिभ्रमः, धैर्यनाशः, संभ्रमः । क क, देवनागरी वर्णमालायाः प्रथमव्यंजनवर्णः, | कंकरीट, सं. स्त्री. ( अं. कांक्रीट ) लोटलेप: । कंकरीला, वि. (हिं. कंकर ) शर्करावृत, कर्करम | ककारः । कंकाल, सं. पुं. (सं. पुं. न. ) अस्थिपंजरः, करंकः । कंगन, सं. पुं., दे. 'कंकण' । कंगनी, सं. स्त्री. (सं. कंगुनी ) प्रियंगुः पीततंडुल:, कंगु:- गृः (स्त्री.) । गला, वि. ( सं . कंकाल > ) दरिद्र, अकिचन, निर्धन, दीन । कंगाल, वि., दे. 'गला' । कंगाली, सं. स्त्री. (हिं. कंगाल ) दरिद्रता, निर्धनता, दारिद्र्यम् । कंकड़, सं. पुं., दे. 'कंकर' । कंकण, सं. पुं. (सं. पुं. न. ) कटक:- कं, वलयःयं, आवापकः - कं, पारिहार्यः - र्यम् । कंकणी, पीका, सं. स्त्री. (सं. किंकणी ) किंकिणी, किंकि ( क )णीका २. क्षुद्रघंटिका । कंकत, सं. पुं. (सं. पुं. न. ) कंकतिका, कंकती || कंकती, सं. स्त्री. (सं.) दे. 'कंकत' तथा 'कंधी' | कंकर, सं. पुं. ( सं . कर्करम् ) उपलखंडः, शर्करा, अश्मगुटिका, अष्ठील): ( बहु. ) । For Private And Personal Use Only Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir कँगूरा [ ९१ ] कंपनी - कँगूरा, सं. पुं. (फ़ा. कुँगरा ) शिखरं, शृङ्गम् । ! -माला, सं. स्त्री. (सं.) गण्डमाला, कंठरोगकंघा, सं. पुं. ( सं. कंकतः ) कंकतम् । भेदः। कंघी, सं. स्त्री. सं. ( सं. कंकती) कंकतिका, कंठस्थ, वि. ( सं.) कंठाग्र, कंठगत, मुखाग्र, केशमार्जनी, प्रसाधनी। मुखस्थ। कंचन, सं. पुं. (सं. कांचनम् ) सुवर्णम् कंठा, सं. पुं. (सं. कंठः> ) कंठी, सुवर्णगुटिका२. संपत्तिः (ना.)। निर्मितः कंठालंकारः २. शुकादीनां गलरेखा । कंचनी, सं. स्त्री. (हिं. कंचन ) वेश्या, नर्तकी। कंठी, सं. स्त्री. (सं.) कंठः, गल: २. अश्वकंठकंचुक, सं. पुं. (सं.) लंब,-निचोल-प्रावारकः रश्मिः (पु.) ३. लघुगुटिका-कंठी । ४. तुलसी बीजमाला। २. अंगिका, कंचुलिका ३. कवचः-चम् कंठ्य, वि. ( सं. ) कंठोच्चार्य २. कंठजात ४. वनम् ५. दे. 'केंचली'। कंचुकी, सं. पुं. ( सं., किन् ) अन्तःपुरचारी ३. कंठोपकारक । वृद्धब्राह्मणः, सौविदलः, सौविदः २. द्वारपाल: कंडा, सं. पुं. (सं. स्कंदनं> ) दे. 'उपला'। ३. सर्पः ४. दे. केंचली'। सं. स्त्री., अंगिका, कंडी, सं. स्त्री. ( हिं. कंडा ) लघुगोमयम् २. मलगुटिका। कंचुलिका। कँचेरा, सं. पुं. (हिं. काँच) काच, कारः-धमकः । कंडील, सं. स्त्री. ( अ. कंदील ) कर्गलादि निर्मितो दीपकोषः। कंज, सं. पुं. (सं.) ब्रह्मन (पुं.) २. केशः। (सं. न.) कमलम् २. अमृतम् । | कंड, कंड, सं. स्त्री. ( सं. ) कंदृतिः (स्त्री.), कंजई, वि. ( हि. कंजा ) धूम्र, धूमल। दे. 'खुजली'। कंजड़ (र), सं. पु. ( देश. या कालिंजर ) कंत, सं. पुं. ( सं. कान्तः ) प्रियः, वल्लभः, जातिविशेषः। रमणः २. पतिः, धवः ३. ईश्वरः । कथा, सं. स्त्री. (सं.) भिक्षुकर्पटः, दे. 'गुदड़ी' । कंजन, सं. पुं. कामदेवः, मदनः २. खगभेदः । कंजा, सं. पुं. (सं. करंजः) कंटकिनीवृक्षः कंथी, सं. पुं. ( सं. कथा > ) भिक्षुकः, कथा२. तस्य बीजम् । वि., करंजवर्ण, धूमल २. धूम्र-! धारिन्। कंद', सं. पुं. ( सं. पुं. न.) गोलमूलं, खाद्यनयन । कंजस, वि. ( सं. कण:+ हिं. चूसना) कृपण, । मूलम् २. लशुनम् ३. मेघः ४. शूरणः । कदर्य, अमुक्तहस्त, किंपचान । कंद', सं. पुं. ( फ़ा.) सिताखंडः खंडमोदकः । कंजूसी, सं. स्त्री. (हिं. कंजूस) कार्पण्यं, । कंदर, सं. पुं. ( सं. पुं. न.) गह्वरं, गुहा, दरी । कदर्यता, अमुक्तहस्तत्वम् । कंदरा, सं. स्त्री. ( सं.) दे. 'कंदर'। कंटक, सं. पुं. ( सं. पुं. न.) शल्यम् २. विघ्नः । कंदर्प, सं. पुं. (सं.) मदनः, कामदेवः । ३. विघ्नकरः ४. सुच्यग्रम् ५. शत्रुः ६. रोमाश्यः | कदा, वि. ( फ़ा. ) उत्काणे, तष्ट । ७. कवचःचम्। कंदुक, सं. पुं. (सं.) गेन्दुः, गेण्डुः २. उपधानं, -अशन, सं. पुं. ( सं.) उष्ट्रः, कमेलकः। गण्डुः ३. पूगफलम् । कंटाकित, वि. (सं.) सकंटक, कोटकपूर्ण २. सविन कंधा, सं. पु. ( सं. स्कन्धः ) अंसः, भुजमूल, ३. रोमाञ्चित । दोःशिखरं, कत्सबरम् । कँटिया, सं. सी. ( हिं. काँटी) कील:, शंकः कंधार, सं. पुं. ( सं. गांधारः ) नगर-प्रदेश, २. ग्रहणी, धरणी ३. भूषणामेदः । विशेषः । कटीला, वि. ( हि. काँटा ) कटक्ति २. सविघ्न। कंप, सं. पुं. (सं.) दे. 'कँपकँपी' । कंट, सं. पुं. (सं.) गलः, गरः, निगरणः २. स्वरः कँपकँपी, सं. स्त्री. (हि. काँपना ) प्र, कपः, ३. शुकादीनां कंठरेखा ४. दे. 'कंठा'। वेपनं, वेपथुः, एजनं, कायकंपः । -अग्र, वि. (सं.) दे. 'कंठरथ' । । कंपनी, सं. स्त्री. ( अं.) समवायः, समव्यवसायि-गत, वि. (सं.) निर्गमनोन्मुख (प्राण)। संघः २. सैन्यगुल्मः ३. गणः ४. साहचर्यम् । For Private And Personal Use Only Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir कंपाउंडर [ ९२ ] कच्चा कंपाउंडर, सं. पुं. ( अं.) *संमिश्रकः, योगविद्, ५. दे. 'ड्योढ़ी' ६. वाहुमूलम् ७. दे. 'कछराली' वैद्यसहायः। ८. गृह,-भित्तिः ( स्त्री. )-पक्षः ९. दे. 'लाँग' कंपाउंडरी, सं. स्त्री., संमिश्रक, व्यवसायः-कर्मन् १०. हरितरज्जुः ( स्त्री.)। कगर, सं. पुं. [सं. कं ( = जल )+ अग्र> ] कपाना क्रि. स. ( हिं. कांपना ) कंप् , वेप , उच्छ्रित,-तीरं-तटम् २. सीमा ३. प्राकारवेल् , स्पंद् , एज के प्रे. रूप । श्रृंगम् । कंपायमान, वि. ( सं. कंपमान ) एजमान, | न कगार, सं. पुं. (हिं. कागर ) उन्नताग्रम् कंपन, कंप्र, स्पंदमान । २. उच्छ्रित,-कूलं-तीरम् । कंपास, सं. . ( अं.) दिग्दर्शकयंत्रम् । कच, सं. पुं. (सं.) केशाः, कुंतलाः, कच!ः, कंपित, वि. (सं.) कंपमान, चंचल २. भीत, | शिरसिजाः, शिरोरुहाः (सब बहु.) २. समूहः । कचकच, सं. स्त्री. (अनु.) प्रलापः २. वाग्युद्धम् । त्रस्त । कंपू, सं. पुं. (अं. कैप ) शिविरं, स्कन्धावारः कचनार, सं. पुं. ( सं. कांचनालः) कोविदारः, २. सेना ३. दे. 'खेमा। पाकारिः, स्वल्पके.सरः। कंबख्त, वि. (फ़ा. कमबख्त) भाग्यहीन, दुर्दैव । कचपच, सं. पु. ( अनु.) संवाधः, संमर्दः कंबल, सं. पुं. (सं.) रलकः, आविकः, ऊर्णायुः, २.दे. 'कचकच । औरभ्रः, नीशारः। कचपचिया, कचपची, सं.स्त्री. (हि. कचपच) कंबु, सं. पुं. (सं.) दे. 'शंख'। कृत्तिकानक्षत्रम् २. मस्तकतारा, भूषणभेदः। कंस, सं. पुं. (सं.) कृष्णमातुलः। (सं. न.) कचर कचर, सं. स्त्री. ( अनु. ) आमफलचर्वणकांस्यं, ताम्रार्द्धम् २. पानभाजनं, कंशम् । । ध्वनिः २. दे० 'कचकच'। -ताल, सं. पुं. दे. 'झाँझ'। कचरा, सं. पुं. (हिं. कच्चा) अपक्क,-खर्वजक, सं. पुं. (सं.) ब्रह्मन् ( पुं.) २. सूर्यः ३. दशांगुलम् २. अपकचित्रवली ३. चर्भटः । दे. अग्निः ४. विष्णुः ५. यमः ६. वायुः ७. मदनः। 'कूड़ाकरकट' । कई, वि. (सं.कति) कतिपय, एकाधिक, अनेक, कचहरी, संस्त्री. (हिं. कचकच ) धर्म-न्याय,बहु, प्रभूत। सभा, व्यवहारामंडपः, न्यायालयः, धर्म-, -बार, क्रि. वि., बहुधा, पुनः पुनः, मुहुर्मुहुः, अधिकरणम् २. राजसभा। भूयोभूयः, बहुवारम् । कचाई, सं. स्त्री. (हिं. कच्चा ) आमता, अपक्कता, ककड़ी-री, सं. स्त्री. (सं. कर्कटी ) लोमशा, २. पाटव-दाक्ष्य-अनुभव,-हीनता। स्थूला, तोयफला, गजदंतफला, चिर्भटी, मूत्रला। कचायध, सं. स्त्री. (हि. कच्चा+गंध ) आमककहरा, सं. पुं. [ क+क-ह+रा (प्रत्य.)] | अपक्क,-गन्धः । प्राथमिकज्ञानम् २. वर्णमाला ३. पूर्वकार्य-कचाल्लू , सं. पुं. (हिं. कचा+ आलू ) आलुकी, समूहः। । कचुः (स्त्री.) कच्ची, तीक्ष्णकन्दः, गजकर्णः । ककुद, सं. पुं. (सं. ककुद् स्त्री. ) ककुदः-दं, कचीची, सं. स्त्री. ( अनु. कच ) हनुः (पुं. स्त्री.), अंसकूटः, गडः, स्थगुः २. राजचिह्नम् (छत्रादि) हनूः ( स्त्री.)। ककुभ, सं. पु. ( सं. ) अर्जुनवृक्षः २. दे. कचूमर, सं. पुं. (हिं. कुचलना ) निष्पिष्ट'दिशा'। पदार्थः, चूर्णितवस्तु २. मृदुसारः, मज्जा । कक्ष, सं. पुं. ( सं.) बाहुमूलम् , दे. 'बगल' कचर, सं. पुं. (सं. कर्चुर: ) दुर्लभः, गंधमूलका, २. दे. 'लाँग' ३. कच्छः , दे. 'कछार' ४. गंधसारः, जटालः । तृणम् ५. शुष्क-, बनम् ६. भूमिः ( स्त्री.) कचौरी, सं. स्त्री. (हि. कचरी) मापगर्भा, ७. भित्तिः (स्त्री.) ८. कोष्ठः ९. दोषः १०.दे. सुपिष्टिका, कचेरिका। 'कछराली' ११. श्रेणी, कक्षा १२. दे. 'आँचल। कच्चा, वि. ( सं. कषण ) अपक, हरितनीरस कक्षा, सं. स्त्री. ( सं.) परिधिः, परिवेशः-पः (फलादि ) २. अशृत, अाण, असिद्ध ( भोज२. ग्रहमार्गः ३. साम्यम् ४. वर्गः, श्रेणी | नादि ) ३. अपरिणत, अपूर्णकाल, अप्राप्तकाल, For Private And Personal Use Only Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir कच्ची [ ९३ ] कटनी अपरिपुष्ट (आयु आदि) ४.विकारिन् , अस्थिर कछौटा, सं. पुं. (हि. काछ) लघुशाटिका ५. निस्सार, अप्रामाणिक (वात इ०) ५. प्रच- २. दे. 'कछनी'। लितमानात् न्यून ६. संस्कार-संशोधन,-अपे- कजरारा, वि. (हिं. कजरा ) सांजन, अंजनशिन् (वही इ.) ७. नियम-विधि,-विरुद्ध | युत, सकन्जल २. काल, श्याम । ( दस्तावेज इ.) ८, पंकनिर्मित ( घर आदि) कजली, सं. स्त्री. (सं. कज्जलं> ) कालिमन , ०. अव्युत्पन्न (न्यक्तिः) १०. कुलिखित, असंस्कृत कालुष्य, कलंकः २. पर्वविशेषः ३. कृष्णाक्षी गौः ( अक्षर इ.)। (स्त्री. ) ४. वर्षासु गेयो गीतभेदः। -चिट्ठा, सं. पुं. संशोधनापेक्षिगणना २. सत्य- कज़ा, सं. स्त्री. ( अ.) मृत्युः, निधनम् । यधार्थ,-वृत्तान्तः ३. गुप्त-गोप्य,-बार्ता ४. गट- कजाक, सं. पु. (तु. कज्जाक ) दस्युः, लुंटाकः । पक्षः ५. पापसंकल्पाः । कजाकी,सं. स्त्री. (तु. कज्जाकी)लुंठनं, अपहरणम्। -पक्का, वि., अर्द्ध-सामि,-पक-शत-श्राण । कजावा, पुं. (फा) उष्ट्रपर्याणम् । -बच्चा, सं. पुं., शिशवः ( बहु.) २. गर्भः ।। | कजिया, सं. पुं. (अ.) कलहः, विग्रहः । -माल, सं. पुं., सामग्री ।। कजी, सं. स्त्री. (फ़ा.) वक्रता २. दोषः। कच्ची, वि. स्त्री. ( हिं. कन्चा) 'कच्चा के शब्दों | कज्जल, सं. पु. ( सं. न.) अंजनं, नेत्ररंजनं, के स्त्रीलिंग के रूप, जैसे- अपक्का, अमृता इ.। लाचकः २. यामुनं, सौवीरं, दे. 'सुरमा' ३. कालिमन् । -इट, सं. स्त्री., अपक-, इष्टका। कज्जाक, सं. पुं. (तु.) तुरुष्कजातिभेदः । -उमर, सं. स्त्री., अवयस्कता, अप्राप्तव्यवहारता २. वाल्यम् ३. शैशवम् । २. दस्युः, लुण्ठकः। कट, सं. पुं. ( सं.) गजगंड: २. कपोल: ३. देव-रसोई, सं. स्त्री., जलपकमन्नम् । -सडक, सं. स्त्री., मृण्मयो मार्गः। स्थूल, नाल:, घासभेदः ४. देवनालनिर्मित-, -सिलाई, सं. स्त्री., स्थूलस्यूतिः ( स्त्री.)। कटः, कलिंजं, आस्तरणम् ५. उशीरकाशादि घासाः ६. शवः ७. शवयानं, खाटः-टी कच्छ, सं. पुं. (सं. पुं. न.) अनूपः-पं, जल ८. श्मशानं ९. अक्षगतिभेदः १०. काष्ठफलक:प्रायदेशः २. नद्याः सरसो वा प्रांतभागः कम् ११. समयः, अवसरः १२. दे. 'टट्टी'। ३. प्रदेशविशेषः। वि. बहु, भूयस् २. उत्कट, उग्र। कच्छप, सं. पुं. (सं.) कूर्मः, दे. 'कछुआ' कटक, सं. पुं. (सं. पुं. न.) शिवि (बि) रं, २. अवतारविशेषः। निवेशः, सैन्यनिवासः २. सेना २. कंकणः-णम् कच्छा, सं. पुं. (सं. कच्छः > ) नौकाभेदः । ४. पर्वतमध्यभागः ५. पादकटकः ६. चक्रम् २. दे. 'कछनी'। ७. नगरविशेषः ८. समूहः। कच्छी, वि. (सं. कच्छ > ) कच्छीय, | कटकट, सं. स्त्री. (अनु.) दंतघर्षणशब्दः, कटकच्छ,-विषयक-सम्बन्धिन् । सं. पुं., कच्छ । कटायितम् २. कलहः। वासिन् २. कच्छावः। कटकटाना, क्रि. स. (हिं. कटकट ) दंतान् कच्छी, सं. स्त्री., दे. 'कछनी'। घृष् ( भ्वा. प. से.)। कच्छू, सें. पुं., दे. 'कछुआ। कटना, क्रि. अ. (सं. कर्तनं ) अवछिद्-कृत्कछनी, सं. स्त्री. (हि. काछना ) जानुलंबि- लू-व्रश्च ( कर्म.) २. व्ययं या ( अ. प. अ.) कटिवसनम् । ३. क्षम्-मृप ( कर्म.) ४. लज्ज ( तु. आ. से.) कछरा(डा)ली, सं. स्त्री. ( सं. कक्षः> ) कक्षा। ही (ज. प. अ.) ५. उपरुध् ( कर्म.) ६. युद्धे कछार, सं. पुं. (सं. कच्छः ) दे. 'कच्छ हन् ( कर्म.) ७. ईष्य ( भ्वा. प. से.) ८. मुह (दि. प. वे.) ९. घृष ( कर्म.)। कछुआ, सं. पुं. ( सं. कच्छपः) कमठः, कूर्मः, कटनाँस, सं. पुं. (देश.) दे. 'नीलकंठ' (पक्षी)। चतुतिः (पु.), पंचगूढः, स्तूपपृष्ठः । ( स्त्री. कटनी, सं. स्त्री. ( हिं. कटना ) विक्रयः कमठी, दुली, कूर्मी, गुणी)। २. शस्यकर्तनम् । For Private And Personal Use Only Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir कटपीस [ ९४ ] कड़कड़ "तपटः । कटपीस, सं. पु. ( अं. ) कृत्तपटः । | कटोरा, सं. पुं. (सं. स्त्री.) कटोरम् । कटरा, सं. पुं. ( हिं. कटहरा ) चतुष्कोणः | कटोरी, सं. स्त्री. (हिं कटोर। ) कटोरिका, लधुहट्टः २. महिश्याः वत्सः। कचोलः । कटवाना, क्रि. प्रे., 'काटना' के धातुओं के प्रे. कटौती, सं. स्त्री. (हिं. कटना ) उद्धारः, उद्धृत भागः। कटसरैया, सं. स्त्री. ( सं. कटसारिका ) सैरेयः, कहर, वि. (हिं. काटना ) धर्मान्ध, मतान्ध, सेरेयकः, श्वेतपुष्पः । ( पीली ) कुरंटकः, | अन्धविश्वासिन् । पीतपुष्पकः । ( नीली ) नीलपुष्पी, आर्त्त- कट्टा, वि. (हिं. काठ ) वज्रदेह, दृढांग, मांसल, गलः । (लाल ) कुरवकः । वीर्यवत् । सं. पुं., हनुः ! कटहरा, सं. पुं. ( हिं. काठ+घर ) काष्ठ- कठघरा, सं. पुं. (सं. काष्ठगृहम् ) काष्ठावेष्टनं, गृहम् । २. बृहत्पंजरम् । काष्ठशलाकावृतिः (स्त्री.) शंकुवलयः २. बृहकटहल, सं. पुं. [सं. कंटक ( कि) फल: ] (वृक्ष)। त्काष्ठपंजर:-रम् । पनसः, फणसः, चपालुः । २. ( फल ) पनसं, कठपुतली, सं. स्त्री. (सं. काष्ठपुत्तलिका) पुत्रिका, फणसं इ.। पुत्तली, पांचालिका ३. मृदंगी बाला। कटाई, सं. स्त्री. ( हिं. काटना) कर्तनं, छेदनं, कठफोड़वा, सं. पुं. (हिं. काठ + फोड़ना) लवनम् २. शस्य, लवन-संग्रहः ३. लवन- काष्ठकूटः, दावाघाटः, शतच्छदः, शतपत्रकः । छेदन, भृतिः (स्त्री.)। कठबाप, सं. पुं. (हिं. काठ+बाप ) मातुकटाकट, सं. स्त्री. ( हिं. अनु.) कलहः २. कट- द्वितीयः पतिः । कटायितम् । कठला, सं. पुं. (सं.कंठः> ) कंठभूषा । कटाकटी, सं. स्त्री. ( हिं. काटना ) हत्या, | कठिका, सं. स्त्री. (सं.) दे. 'खड़िया' । वधः, युद्धम् २. वैरम् ३. कटकटशब्दः। कठिन, वि. (सं.) दुष्कर, दुस्साध्य, कष्टसाध्य, कटाक्ष, सं.पं. (सं.) नयनविलासः, हावपूर्णा गहन २. धन, कीकस, कक्खट २. दुर्बोध, दृष्टिः ( स्त्री.) २. आक्षेपः, दोषप्रकाशनम् । दुर्शेय, दुरवगम। कटार-री, सं. स्त्री. ( सं. कट्टारः ) असि- कठिनता, सं. स्त्री. (सं.) दुष्करता, दुस्साध्यता पुत्रिका, कृपाणिका। २. धनता, कीकसता ३. दुर्बोधता, दुर्शेयत्वम् । कटारा, सं. पुं. (सं. कट्टारः ) असिः, कृपाणः कठिनाई, सं. स्त्री. (सं. कठिन > ) दे. २. दे. ऊँटकटारा। 'कठिनता'। कटाव, से. पुं. ( हिं. काटना ) कर्तनं, छेदनम् | कठोर, वि. (सं.) निर्दय, कर, नृशंस, निघृण, २. नदीतटं ३. कर्तित्वा निर्मितं पुष्पपत्रम् । परुष २. धन, कीकस ३. कर्कर, काखट । कटि, सं. स्त्री. (सं.) कटी। कठोरता, सं. स्त्री., (सं.) निर्दयता, क्रूरता, -बंध, सं. पुं. (सं.) भूवलयः, भूमेः पंचभागेषु पारुष्यं, निघृणता, नृशंसत्वम् २. घनता, अन्यतमः २. दे. 'कमरबंद' । कीकसता । -बद्ध वि. (सं.) सज, सन्नद्ध, उद्यत, बद्ध- कठौता, सं. पु. ( सं. काष्ठवत् > ) बृहत्काष्ठपरिकर, सिद्ध। भाजनं, बृहदारुपात्रम् । कटियाना, क्रि. अ. (हिं. काँटा ) कंटकित- कठौती, सं. स्त्री. (हिं. कठौता) लघुदारुपुलकित-रोमांचित (वि.)+भू । भाजनं, दारुभाजनकम् । कटीला, वि. (हिं. काटना ) निशित, तीक्ष्णाग्र | कड़क, सं. स्त्री. ( अनु.) महा, शब्द:-रवः२. मोहक, प्रभावशालिन् । निनादः २. मेघगर्जनम् , धनध्वनिः, गर्जितम् कटु, वि. (सं.) कटुक २. तिक्त, तीक्ष्ण | ३. वज्र,-निर्घोषः-निर्घातस्वनः ४. विरावः, ३. अप्रिय, अनिष्ट । ध्वनिः ५. उद्वेगजनको निनादः । कटुता, सं. स्त्री. ( सं. ) कटुत्वं, कटुकता, काट- कड़कड़, सं. पुं. ( अनु.) कड़फड़शब्दः, कड्वम् २. तिक्तता ३. अप्रियत्वम् । । कड़ायितं २. भंग-स्फुटन,-शब्दः । For Private And Personal Use Only Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra कड़कड़ाना www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [ ९५ ] कड़कड़ाना, क्रि. अ. (हिं. कड़कड़ ) सशब्द भंजू - भिद - दृ ( कर्म.), स्फुट् ( तु. प. से. ) २. उच्चैः ध्वन् (भ्वा. प. से. ) ३. त्रुट् ( प्रे. ), चूर्ण (चु.) । कड़कड़ाहट, सं. स्त्री. (हिं. कड़कड़ ) कड़कडात्कारः, गर्जितं, दे. 'कड़क' । कड़कना, क्रि. अ. (हिं. कड़क ) कड़कड़ाशब्दं कृ, गजू (स्वा. प. से. ) २. महारवेण भंज ( कर्म. ) ३. स्फुट् ( तु. प. से. ) ४. उच्चैः वद् (भ्वा. प. से. ) । कड़का, सं. पुं. (हिं. कड़क ) विजय युद्ध, - गीतम् २. सौदामिनी ३. गर्जितम् । कदखा, सं. पुं. (हि. कड़क ) युद्धगीतम् । कढ़र्खेत, सं. पुं. (हिं. कड़खा ) युद्धगीतगायक:, चारणः, वैतालिकः । कड़बड़ा, वि., (सं. कर्बुर ) दे. 'चितकबरा' । सं. पुं., कर्बुरकूर्चेः । कदवा, वि., दे. 'कटु' । कड़ा, वि. (सं. कड्ड > ) घन, सान्द्र, कक्खट, कोकस, दृढ, कर्कर, अनम्य २. निष्ठुर, निर्दय ३. दुर्बोध, दुर्ज्ञेय, कठिन । कड़ा, सं. पुं. ( सं . कटकः ) कटकं, कंकणः - णं, २. केयूरः- रं, अंगदः - दम् । कड़ाई, सं. स्त्री. (हिं. कड़ा ) दृढता, कौक - सता २. निर्दयता ३ किष्टता । कड़ाका, सं. पुं. (अनु. कड़ाक ) भंग-भंजनभेदन- प्रोटन, - शब्द:- नादः २. अनशनं, अनाहारः । ! कण, सं. पुं. (सं.) लवः, लेशः, अणुः । कणाद, सं. पुं. (सं.) वैशेषिकदर्शनकारः ऋषिः । कतरन, सं. स्त्री. (हिं कतरना ) शकलानि, कृत्तखंडानि ( दोनों बहु- ) । कड़ाके का -, मु., भीषण, घोर, तीव्र, चंड । कड़ाहा, सं. पुं. ( सं . कटाह: ) तैलादिपाक पात्रम् । कदाही, सं. स्त्री. (हिं कड़ाह ) कटाही | कड़ी, सं. स्त्री. (हिं. कड़ा ) शृंखला, - संधि:ग्रन्थिः २. गीतचरणम् ३. दीर्घ-स्थूणा, काष्ठंदारु (न.) । वि. स्त्री. कठिना, कोकसा | कहुआ, वि., दे. 'कटु' | - तेल, सं. पुं., सर्पपतैलम् | कढ़ाई, सं. स्त्री. (हि, काढ़ना) सूचीशिल्पम् २. सूचीशिल्पस्य भृतिः (स्त्री.) ३. दे. 'कड़ाही' । कढ़ी, सं. स्त्री. (हिं. कढ़ना ) कथिता, चणकचूर्णनिर्मित व्यंजनभेदः । कत्तल कतरना, क्रि. स. ( सं . कर्तनम् ) कर्तरिकया कृत् ( तु. प. से. ) । कतरनी, सं. स्त्री. (हिं. कतरना) कर्तनी, कत्रिका, कर्तरिका, कर्तरी । कतरब्योंत, सं. श्री. (हिं. कतरना + ब्योंत ) अवच्छेदः, अल्पीकरणम् २. परिवर्तः, विनिमयः ३. चिंता, विमर्शः ४ अपहरणं, मोषः ५. युक्तिः (स्त्री.), उपायः । कतरा', सं. पुं. (हिं. कतरना ) खंडः, अंशः, शकलः । कतो, सं. पुं. (अ.) कणः, कतराई, सं. स्त्री. (हिं. भृत्या - भृतिः (स्त्री.) २. ( न. ) । बिंदु, लवः, द्वप्सः । कतरना) कर्तन - कर्तन, - कार्य - कर्मन् कतराना, क्रि. मे., 'कतरना' के धातुओं के प्रे. रूप २. निभृतं - सलज्जं सभयं अपया ( अ. प. अ. ), नैपुण्येन परिहृ ( स्वा. उ. भ. ) । कतल, सं. पुं. ( अ. कत्ल ) हत्या, बधः । कतला, सं. पुं. ( अ. क़त्ल > )*कृप्तम्, दे. 'फाँक' । कतलाम, सं. पुं. ( अ. क़त्ले आम ) व्यापक - नरसंहारः- लोकहत्या | कतवार, सं. पुं., दे 'कूड़ा' । कताई, सं. स्त्री. (हिं. कातना) कर्तनम् २. कर्तनभृतिः ( स्त्री. ) । कताना, क्रि. प्रे, 'कातना' के धातुओं के प्र. रूप । कतार, सं. स्त्री. (अ.) पंक्ति:-श्रेणिः (स्त्री.) २. निकरः समूहः । कतिपय वि. (सं.) दे. 'कुछ' । For Private And Personal Use Only कतीरा, सं. पुं. ( देश. ) गुलूवृक्षनिर्यासः । कतौनी, सं. स्त्री. (हिं. कातना) तान्तवं, सूत्रतननम् २. तान्तव - सूत्रतनन, - भृतिः ( स्त्री. ) - भृत्या । ३. कालक्षेपः, विलम्बनम्, दीर्घीकरणम् । कत्तल, सं. पुं. (हिं. कतरना ) इष्टकाखंडः, पाषाणशकलः । Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir कत्थक [ ९६ ] कनस्तर - कत्थक, सं. पुं. (सं. कथकः ) संगीतव्यवसायिनी। -कश, सं. पुं., लावुकषः । जातिः (स्त्री.)। | -दाना, सं. पुं., उदरकृमिभेदः । कत्था, सं. पु. ( सं. क्वाथः> ) खदिरः, खदिर- | कन, सं. पुं. ( सं. कणः ) अणुः, क्षुद्रांशः, सारः, रंगः, रंगदः। कणिका, कणी, लेशः २. अन्नकणिका ३. जुष्टं, कथक, सं. पुं. (सं.) कथावाचकः, कथोप- उच्छिष्टम् ५. भिक्षान्नम् ५. अन्नकणखण्डः । जीविन् । कनक', सं. पु. (सं. न.) स्वर्ण, सुवर्ण, कांचनं, कथन, सं. पुं.(सं. न.) यचनं, उक्तिः (सी.), हाटकम् २. दे. 'धतूरा' ३. दे. 'टेसू । निवेदनं, निर्देशः, उपन्यासः। कनक, सं. स्त्री. (सं. कणिकः > ) गोधूमः, कथनीय, वि. (सं.) वचनीय, वर्णनीय, वक्तव्य प्रवटः, सुमनः, म्लेच्छभोज्य: २. गोधूमचूर्णम् । उच्चार्य, लपनीय । कनकटा, वि. (सं. कर्ण+हिं. कटना ) हिन्नकथा, सं. स्त्री. (सं.) उप-, आख्यानं, आख्या कर्ण २. कर्णच्छेदक । यिका, आख्यानकम् २. वृतान्तः, उदन्तः कनकना, वि. ( सं. कणकण > ) भिदुर, ३. धर्मोपदेशः। भंगुर २. क्रोधन, कोपन।। -वार्ता, सं. स्त्री. (सं.) धर्मोपदेशः, व्याख्यानं । कनकौवा, सं. पुं., दे. 'पतंग' । -वस्तु, सं. स्त्री. (सं.न.) कथासारः, आख्यानस्य रूपरेखा। कनखजूरा, सं. पुं. (सं. कर्णखर्जुः>) कर्णकीटी, कथानक, सं. . (सं. न.) कथा २. उपाख्या शतपदी, कर्णजलूका, चित्रांगी। कनखी, स्त्री. (हिं. कोना+आँख) कटाक्षः नम् , लघुकथा । कथित, वि. ( सं. ) उक्त, भाषित, भणित, अपांगदर्शनं, साचित्रीक्षणम् २. नेत्रसंकेतः । उदीरित। कनछेदन, सं. पुं. ( सं. कर्णच्छेदनम् ) कर्णवेधकथोपकथन, सं. पुं. (सं. न.) संभाषणं, संवादः, संस्कारः। संलापः, वार्तालापः। कनटोप, सं. पुं. (सं. कर्णः+हि. टोपी ) कर्णकदंब, सं. पुं. (सं.) भृजवल्लभः, विषघ्नः, व्रण शिरस्त्रम् । हारकः, नीपः, मदिरागंधः २. समूहः। कनपटी, सं. स्त्री. ( सं. कर्णपट्टः> ) गंडः, गंड, स्थलं-ली। कद, सं.पुं. (अ.) आकारः, प्रांशुता, देहोच्चता। कनपेड़ा, सं. पुं. (सं. कर्णः + हिं. पेड़ा) कदन, सं. पुं. (सं. न.) वधः, हत्या २. छुरिका। पाषाणगर्दभः। कदन, सं. पुं. (सं. न.) तुच्छान्नम् । कनफटा, सं. पुं. (सं. कर्णः+ हिं. फटना ) कदम, सं. पुं. (अ.) पादः पदं, चरणः-णं, गोरक्षनाथानुयायी साधुः २ विद्धकर्णः । क्रमणं, अंघ्रिः (पु.) २. अल्पान्तरं पदम् ।। कदर, सं. स्त्री. (अ.) आदरः, संमानः २. मात्रा, | कनका, वि. (सं. कर्णः+हिं. फूंकना ) परिमाणम् । दीक्षादायक २. दीक्षित । सं. पुं., आचार्य: -दान, वि. ( अ.+फा. ) गुणग्राहक । २. शिष्यः। कदर्य, वि. (सं.) कृपण, मितंपच । कनमनाना, क्रि. अ. ( अनु.) निद्रायामंगानि कदली, सं. स्त्री. (सं.) दे. 'केला'। क्षिप् ( तु. प. अ.)-प्रास (दि. प. से.) कदा, अव्य (सं.) कस्मिन् काले । २. शनैः विरोध प्रकटयति ( ना. धा.)। कदाचित् , अव्य. ( सं. ) स्यात् , संभवेत् | कनरसिया, सं. पुं. (सं. कर्णरसिकः ) संगीत,२. कदापि। __ अनुरागिन्-शुश्रुषुः। कदापि, अव्य. ( सं. ) कदाचित् २. एकदा, कनवासा, सं. पुं., दौहित्रपुत्रः, पुत्रीपौत्रः । पुरा, प्राक्। कनवोकेशन, सं. स्त्री. (अं.) दीक्षान्तमहोत्सवः, कद्, सं. पुं. (फ़ा. कदू ) लावुः, अलावुः उपाधिवितरणोत्सवः २. सभा। (पुं. स्त्री.), लावुका, तुम्बः, तुंबी, तुंबिका, कनस्तर, सं. पुं. ( अं. कैनिस्टर ) धातुमयः पिंड-महा,-फला। समुद्कः । For Private And Personal Use Only Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir कनाई [ ९७ ] कपूर कनाई, सं. स्त्री. (हिं. कना) तनु-सूक्ष्म, | कप, सं. पुं. ( अं. ) चषक: - कं, शराब: २. पुर शाखा-विटपः । स्कारचषकः-कम् । कपट, सं. पुं. (सं. न. ) छलं, कैतवं, वंचना, प्रतारणा, छद्मन् (न.), दंभ:, पाषंडः, व्याजः, शाट्यम् । कनागत, सं. पुं. ( सं . कन्यागत> ) पितृपक्षः, आश्विनमासस्य कृष्णपक्षः २. श्राद्धम् । कनात, सं. स्त्री. ( तु. ) पटमंडपभित्तिः (स्त्री.) । कनियारी, सं. स्त्री. ( सं . कर्णिकार :) परिव्याधः, द्रुमोत्पल : २. कर्णिकार पुष्पम् । कनिष्ट, वि. (सं.) अल्पिष्ठ, लधिष्ठ, यविष्ठ कपड़छन, सं. पुं. (हिं. कपड़ा + छानना ) कपटी, वि. ( सं . - टिन् ) छलिन्, पाघंडिन्, शठ, कितव, दभिन्, प्रतारक, वंचक । २. निकृष्ट, तुच्छ, क्षुद्र | पटपवनम् २. वसनपूतम् । कपड़ा, सं. पुं. ( सं . कर्पट: ) वसनं, वस्त्रं, अंबर, अंशुकं, पटः, वासस् (न.) २. परिधानं, वेशः, -षः, नेपथ्यम् । कनिष्ठा, सं. स्त्री. ( सं .) कानेष्ठिका, कनीनी, दुर्बलांगुलिः (स्त्री.) २. यविष्ठा पत्नी । कनी, सं. स्त्री. ( सं . कणी) हीरकतंडुलादीनां सूक्ष्मखंड :- डम् २. बिदुः, द्रप्सः । कनीनिका, सं. स्त्री. (सं.) तारा, तारका २. कनिष्ठा । कनेठी, सं. स्त्री. ( हिं. कान + ऐंठना) कर्ण, कर्षणं-मोटनम् । कनेर, सं. पुं. (सं. कणेर: ) करवीरः, अश्वमारकः, वीरः, कुंदः, प्रचंडः । कनौज, सं. पुं. ( सं. कान्यकुब्जम् ) कन्याकुब्जं, गाधिपुरं, कौशम् । कनौड़ा, वि. (हिं. काना) काण, एकाक्ष २. हीनांग ३. अपमानित ४. क्षुद्र ५. उपकृत । कन्ना, सं. पुं. ( सं . कर्णः > ) उड्डीनक्रीडनकस्य वेधकसूत्रम् २. अग्र, कोटि : (स्त्री.) 1 कन्नी, सं. स्त्री. (हिं. कन्ना ) उड्डीनकीडनकपार्श्वये (द्वि. व.) २. अयं, कोटि: स्त्री. ) ३. शाटिकादीनामंचलः । - काटना, मु., दर्शनं परिह्न (भ्वा. प. अ. ) । कन्या, , सं. स्त्री. (सं.) कन्यका, कुमारी, बाला, वालिका, दारिका २ दुहितृ, पुत्री, सुता, तनया, तनुजा, आत्मजा ३. राशिविशेषः । --रासी, वि. (सं.- राशि: > ) कन्याराशि - पहिनना, क्रि. स., वस्त्राणि परिधा ( जु. उ. अ. ) - धृ ( चु. ) - वस् ( अ. आ. से. ) । - ऊनी, लोमज - ऊर्णामय, वस्त्रम् । - पुराना, कर्पेट, चीरं, जीर्णवस्त्रम् । -महीन बढ़िया, दुकूलम् । - रेशमी, कौशेयं, कौशांबरं, क्षौमं, कौशम् । - सूती, तृलांबरं, फालं, कार्पासं, बादरम् । कपर्दे, मं. पुं. (सं.) शिवजटाजूटः २. बराटकः! कपर्दिका, सं. स्त्री. (सं.) दे. 'कौड़ी' । कपाट, सं. पुं. (सं. पुं. न. ) दे. 'किवाड़' । कपाल, सं. पुं. (सं. पुं. न. ) दे. 'खोपड़ी ' । - क्रिया, सं. स्त्री. (सं.) ज्वलच्छवस्य वेणुना कपालभेदनम् । कपाली, सं. पुं. ( सं . कपालिन् ) भैरवः, उमापतिः । कपास, सं. स्त्री. (सं. कार्पासः ) तूल:-लं, धरः, पिचुः, पिचुल: । ( पौदा ) कर्पासवृक्षः, कार्पासी, सूत्रपुष्पा, वदरी - रा पटदः, छादनः । कपि, सं. पुं. (सं.) वानरः, मर्केट: २. गजः ३. सूर्यः । - ध्वजः, सं. पुं. ( सं . ) अर्जुनः । कपिल, सं. पुं. ( सं . ) मुनिविशेषः २. अभिः । वि., कपिश, पिंगल ३. श्वेत । २. निर्वल ३. दुष्ट | कन्याट, वि. ( सं .) कन्या, बाधक - पीडक कपिला, सं. स्त्री. (सं., ) शुक्ला - विनेया, - गौ: (स्त्री.) कपिश, वि. (सं.) पाण्डुवर्ण, पिशंग, पिंगल, कपिल | सन्तापक । कन्सरवेटिव, वि. (अं.) प्राचीनतासमर्थक, नवीनता-विरोधिन् । कपीश, सं. पुं. (सं.) सुग्रीवः ( २ ) हनुमत् । कन्हाई, कन्हैया, सं. पुं. ( सं . कृष्णः ) श्रीकृष्णः कपूत, सं. पुं. ( सं . कुपुत्रः ) कुतनयः, कुसूनुः । २. सुंदरवालकः ३. प्रियपुरुषः । कपूर, सं. पुं. ( सं . कर्पूर:- रम् ) घनसारः, सितांगः, हिमवालुका, चंद्रः, सोमः, सितान : । कर्पे, सं. पुं. ( सं. ) वरुणः २. दैत्यजातिप्रकारः । ७ आ० हि० For Private And Personal Use Only Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir कपूरी [ ९८ ] कमनत कपूरी, वि. ( सं. कर्पूर ) घनसार-कर्पूर,-वर्ण- कबाहत, सं. स्त्री. (अ.) अशुभं, कष्ट, विघ्नः, अनिष्टम्। कपोत, सं. पुं. (सं.) दे. 'कबूतर'। कबित-त, सं. पुं. (सं. कविता >) हिन्दीकपोल, सं. पुं. (सं.) दे. 'गाल'। काव्यस्य छन्दोभेदः २. काव्यं, कविता । -कल्पना, सं. स्त्री. ( सं. ) मिथ्या कथा, कबीला, सं. पुं. (अ.) पत्नी २. परिवारः कल्पित-वृत्तान्तः। ३. वंशः, गोत्रम् । कप्तान, सं. पुं. (अं. कैप्टेन ) दलनायकः, अग्रगः कबूतर, सं. पु. ( फ़ा. ) कपोतः, कलरवः, २. सैन्याधिपतिः, सेनानीः ३. नोकाधिपतिः, पाररावतः, छेद्यः, रक्तलोचनः । पोताध्यक्षः। -खाना, सं. पुं., कपोतविलम् २. (छत्री) कपोतपालिका, विटंकः । कफ', सं. . (सं.) इलेष्मन् (पुं.), खेटकः, | कब्ज, सं. स्त्री. (अ.) मलावरोधः, विड्ग्रहः, बलासः २. शिं (सिं) घाणं, सिहाणं-नं । बद्धकोष्ठः। ३. हृदयकंठादिस्थो धातुभेदः ( वैद्यक)। -कुशा, वि., वि- रेचक, सारक। सं. पुं., कफ, सं. पुं. (फ़ा.) फेनः, डिंडीरः २. लाला, रेचक, सारकम् । मुखस्रावः, द्राविका । कब्जा, सं. पुं. ( अ.) स्वामित्व, अधिकारः कफ, सं. स्त्री. ( अ.) कर-हस्त,-तला तलम् ।। २. मुष्टिः (स्त्री.), वारंगः ३. द्वारसंधिः । कफ, सं. पुं. ( अं.) पिप्पलाग्र, अंशः-भागः।। कभी, क्रि. वि. (हिं. कब+ही) कदाचित् , कफन, सं. पुं. (अ.) शववसनं, मृतकवस्त्रं, कदापि, कस्मिंश्चित् काले, कर्हि चित् २. पुरा, प्रेतपरिधानम् २. शव,-भाजनं-पेटकः । प्राक , एकदा । कफनी, सं. स्त्री. (अ. कफन >) शवग्रीवा -का, कि. वि., चिरात्, चिरम् । वस्त्रम् २. साधूनां ग्रीवावसनम् । -न कभी, क्रि. वि., कदाचिनु, अद्य श्वो वा । कबंध, सं. पुं. (सं.) अमुण्डं शरीरं, रुण्ड:-डं, कमंडल, सं. पुं. ( सं. कमंडलुः ) करंकः, छिन्नमस्तको देहः २. राहुः ३. मेघः करकः-कं, कुंडी। ४. राक्षसविशेषः। कमंद, सं. स्त्री. (प्रा.) गुण-रज्जु,-पाशःकब, क्रि, वि. ( सं. कदा) कस्मिन् काले। । बंधनम् २. गुण-रज्जु,-अधिरोहणी-निश्रयणी । -तक, क्रि. वि., कियत्,-कालं-चिरं, कदा- कम, वि. (फ़ा.) अल्प, दहर, दभ्र, स्तोक, पर्यन्तम् । लघु, ह्रस्व २. ऊन, न्यून, अल्पतर, अल्पीयस् , -से, क्रि. वि. कदारभ्य, कदाप्रभृति । लघीयस , क्षोदीयस् । क्रि. वि. अल्पं, स्तोफं, कबड्डी, सं. स्त्री. ( देश.) बालक्रीडाभेदः । ईषत् , किंचित् , मनाक् । कबर, सं. स्त्री. ( अ. कब्र ) प्रेतावटः, शवगतः, -उम्र, वि., अल्पवयस्क, बाल । समाधिः। -कीमत, वि. अल्पमूल्य, सुखक्रय । कबर (रि) स्तान, सं. पुं. (फ़ा. कब्रिस्तान) -खर्च, वि., अल्प-मित,-व्ययिन् २. कृषण । प्रेतभूमिः ( स्त्री.), समाधिक्षेत्रम् । -जोर, वि., अल्प,-बल-शक्ति, दुर्वल । कबरा, वि. ( सं. कर्बुर ) चित्र, कल्माष, शार। -बख्त, वि., हत-मन्द,-भाग्य, दुदेव । कबाड़, सं. पुं. (सं. कर्पट:>) अवस्करः, तुच्छ. -खर्च बाला नशीन, मु., अल्पव्ययेन गौरववस्तुसमूहः २. व्यर्थकार्यम् । लाभः। कबाडिया, कबाड़ी, सं. पुं. (हिं. कबाड़)| -सुनना, मु., उच्चैः श्रु ( भ्वा. प. अ.)। अवस्करविक्रयिन् , व्यर्थवस्तुवणिज ( पुं.)। कमची, सं. स्त्री. (तु.) कंचिका, वेणुशाखा, कबाब, सं. पुं. (अ.) भृष्टमांसं, शूलिक, शूल्य- कुंचिका २. नम्यतनुयष्टिः ( स्त्री. ) । मांसम् । कमठ, सं. पुं. (सं.) कूर्मः, कच्छपः। कथाबी, वि. (अ. कबाब > ) मांसभक्षक कमनीय, वि. (सं.) सुन्दर, मनोहर, रम्य । २. मांसविक्रेत। कमनैत, सं. पुं. (फ़ा. कमान >) धनुर्धारिन् । For Private And Personal Use Only Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir कमनैती [ ९९ ] करंड कमनैती, सं. स्त्री. ( हिं. कमनैत ) धनुर्विद्या। | कमलाकर, सं. पुं. (सं.) तटाकः, दे. 'सरोवर'। कमर, सं. स्त्री. ( फ़ा. ) कटी-टिः ( स्त्री.), कमलाकार, वि. ( सं. ) पद्म-जलज,-आकारकांचीपदं, मध्यः मध्यं, मध्यांग, वलग्नः-नं। सदृश रूप । -कस, सं. पुं. पलाशनिर्यासः । कमलाक्ष, वि. (सं.) पद्म, नयन-नेत्र । -बंद, सं. पुं., मेखला, रशना। कमलिनी, सं. स्त्री. (सं.) पद्माकरः, पभिनी, -कसना वा बाँधना, मु., परिकर बंध सकमलो जलाशयः २. लघुकमलम् । (क्र. प. अ.)। कमाई, सं. स्त्री. (हिं. कमाना ) उपजीविका, -टूटना, मु., हतोत्साह (वि.) भू । वृत्तिः (स्त्री.) २. उपार्जितं, अजितधनम् । -सीधी करना, मु., विश्राम् ( दि. प. से.), कमाऊ, वि. ( हिं. कमाना ) उप-,अर्जक, संविश (तु. प. अ.) धनसंग्राहक २. उद्योगिन् , उद्यमिन् । कमरख, सं. पुं. ( सं. कर्मरंगः ) ( वृक्ष ) कमान, सं. स्त्री. ( फ़ा.) धनुस् ( न.), शराकारः, कारः, मुद्गरः। ( फल ) कर्म- सनम् , चापः । रंग इ.| | कमानिया, सं. पुं. ( फ़ा. कमान >) धन्विन् कमरा, सं. पुं. ( लै. कैमेरा ) प्र-, कोष्ठः, शाला, (पु.), धानुष्कः, धनुर्धरः।। कक्षा २. छायाचित्रारोपकयंत्रं, आलोकलेख्य- कमाना, क्रि. स. ( हिं. काम ) उप-,अर्ज यंत्रम् । (चु.; भ्वा. प. से.), परिश्रमेण प्राप (स्वा. अंदर का-, गर्भागार, अन्तःकोष्ठः । उ. अ.) २. (चमड़ा इ. ) उपयोगाई विधा ऊपर का-, शिरोगृहं, चन्द्रशाला। (जु. उ. अ.)। कमरी-ली, सं. स्त्री. (सं. कंबलं >) लघु,- कमानी, सं. स्त्री. ( फ़ा. कमान ' ) स्थितिकंबलं-रलकः-आधिकः, कंबलकम् । स्थापकत्वविशिष्टो यंत्रावयवः। कमर्शल, वि. (अं.) वाणिज, वाणिज्य, सम्ब- कमाल, सं. पुं. ( अ. ) नेपुण्यं, दक्षता २. विलधिन्-विषयक, वाणिजिक ।। क्षणकृत्यम् । वि., श्रेष्ठ । कमल, सं. पुं. (सं.न.) अब्ज, अंबुज, अंभोज, कमिशनर, सं. पुं. (अं.) आयुक्त । अरविंदं, कंज, नलं, नलिनं, पंकज, पंकेरुह, कमिशनरी, सं. स्त्री. ( अं. कमिशनर > ) पद्म, शत-सहस्र, पत्रम् , सरसिज सरोज, मंडलगणः ।। सरोरुहं, सारसम् । । कमी, सं. स्त्री. ( फ़ा. कम > ) ऊनता, न्यूनता, -का पौदा, सं. पुं., मृणालिनी, पशिनी, अल्पता, अपूर्णता, अपर्याप्तता। कमलिनी, नलिनी। कमीज़, सं. स्त्री. ( अ. कमीज़ ) चोलः, चोलकः, -गट्टा, सं. पुं., कमलाक्षः, पद्मबीजम् । उरोवस्त्रम् । -दंड, सं- पुं., कमलनालः । कमीना, वि. ( फ़ा.-नः ) अधम, अवम, क्षुद्र, -नयन, वि., पशाक्ष, कंजाक्ष (-क्षी स्त्री.)। तुच्छ २. दुष्कुलीन, हीन,-वर्ण-जाति । सं. पुं., विष्णुः २. रामः ३. कृष्णः । कमीशन, सं. पुं. (अं.) परार्थ विक्रयः २.आयोगः -नाभ, सं. पुं. विशुः। । ३. उदधृतभागः। -नाल, सं. पुं., दे. 'कमलदंड' । कम्युनिज्म, सं. पुं.(अं.) साम्यवादः समष्टिवादः। -नैनी, नि. स्त्री., कमलाक्षी, कंजनयनी। कम्युनिस्ट, सं. पुं. (अं.) साम्यवादिन्, -योनि, सं. पुं., ब्रह्मन् (पुं.)। समष्टिवादिन् । कमला, सं. स्त्री. (सं.) पद्मा, लक्ष्मीः -श्रीः ! कयाम, सं. पुं. (अ.) निवेशः अवस्थितिः (स्त्री.), ( स्त्री. ), इन्दिरा, मा, रमा, हरिप्रिया | विश्रामः २. निवेशरथानम् । २. धनम् ३. नारंगः ४. वरनारी। कयामत, सं. स्त्री. (अ.) प्रलयः २. विपत्तिः (स्त्री.)। -पति, सं. पुं., विष्णुः। करंज, सं. पुं. (सं.) षग्रंथः, रोचनः । कमलासन, सं. पुं. ( सं. न. ) पद्मासनम् करंड, सं. पुं. (सं.) मधुकोषः २. खड्गः ३. कारं । २. (सं. पुं.) ब्रह्मन् (पुं.)। डवः (पक्षी)। For Private And Personal Use Only Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir कर [ १५० ] करवट र कर, सं. पुं. (सं.) हस्तः, शयः, पंचशाखः, । करद, वि. ( सं.) कर-बलि-राजस्व-शुल्क,पाणिः २. शुंड:-डा, शुंडारः ३. किरणः, अंशुः ! द-प्रद-दायक-दातृ २. अधीन, परवश ४. राजस्व, शुल्क:-कं । ३. शरणदायक। करक, सं. स्त्री. ( हिं. कड़क ) पीडा, वेदना करधनी, सं. स्त्री. ( सं. कटिधानी> ) मेखला, २. मूत्रकृच्छ्रम् ३. क्षतांकः, क्षतचिह्नम् । । रशना, कांची, सारसनम् । स करा . करनफूल, सं. पु. ( सं. कर्णफुल्लम् > ) कणिका, रकरः, अवकरः, अपस्करः, मलं, उच्छिष्टम् । तालपत्रं, उत्तंसः, कर्णावतंसः। करना', सं. पुं. (सं. कर्णः ) सुदर्शनः, श्वेतपुष्को करकरा, सं. पुं. (सं. कर्करेटुः ) सारसभेदः। वृक्षभेदः । २. दे. 'खुरदरा'। करना', सं. पु. ( सं. करुणः ) बृहज्जवीरभेदः, करका, सं. पुं. ( सं. स्त्री.) दे. 'ओला' । पर्वतजवीरः । ( फल ) पर्वतजंबीरम् ।। करघा, सं. पुं., दे. 'कर्घा' । करना', क्रि. सं. ( सं. करणम् ) कृ ( त. उ. करछा, सं. पुं. (सं. कररक्षकः>) 'करछी' के । अ.), निष्पद्-निर्वह-निर्वृत्-साथ् (प्र.), वाचक शब्दों के पूर्व 'बृहत्' लगाएँ । विधा ( जु. उ. अ.), अनुष्ठा-प्रणी ( भ्वा. प. करछी, सं. स्त्री. (हिं. करा) कंबी-बिः अ.), आचर ( भ्वा. प. से.)। ( स्त्री.), खजि ( जा ) का, खजाजिका, दीं, सं. पुं. तथा भाव, करणं, निष्पादनं, संपादनं, दविका, तदुः- : (स्त्री.), पाणिका, दारुहस्तकः। निर्वर्तनं, साधनं, विधानं, अनुष्ठानं, आचरणम् । करज, सं. पुं. (सं.) १ नखः २. अंगुली -योग्य, वि. निष्पाद्य, विधेय, संपाद्य, कार्य, ३. करंजः । कर्तव्य, आचरणीय। करट, सं. पुं. (सं.) काकः, वायसः २. गजगण्डः -वाला, सं. पुं. कर्तृ, कारक, विधात, संपादक, ३ नास्तिकः ४. निन्द्यजीवनम् । निष्पादक, अनुष्ठान । करटक, सं. पुं. (सं.) वायसः, काकः २. चौर्य- किया हुआ, वि., कृत, अनुष्ठित, निष्पादित, विज्ञानप्रवर्तकः आचार्यविशेषः । विहित । करटी, सं. पुं. (सं.-टिन् ) द्विपः, गजः, कर नाटकी, सं. पुं. ( हिं. करनाटक ) कर्णाहस्तिन् (पुं.)। टप्रान्तवास्तव्यः २. ऐन्द्रजालिक। करण, सं. पुं. (सं. न.) यंत्रं, उपस्करः, साध करनी, सं. स्त्री. ( हिं. करना ) कृतिः (स्त्री.), नम् २. कारकभेदः (व्या.) ३. अस्त्रं, शस्त्रं कर्मन् (न.), कार्य, कृत्यम् २ अन्त्येष्टिक्रिया । ४. इन्द्रियम् ५. देहः ६. क्रिया, कार्यम् करनैल, सं. पुं. (. कालोनल ) व्यूह-गुल्म, ७. स्थानम् । । पति-अध्यक्षः। करणीय, वि. (सं.) कर्तव्य, अनुष्ठेय, निष्पाद्य, करभ, सं. पुं. (सं.) मणिबन्धात् कनिष्ठापर्यन्तं विधेय, संपादनीय । करस्य बहिर्भागः २. गजशावकः ३. उष्ट्रशावकः करतब, सं. पुं. (सं. कर्तव्यम् ) कर्मन् ( न.), ४. कटी-टिः ( स्त्री.)। कार्य कृत्यम् २. कला, कौशलं, शिल्पम् । करभोरु, सं. पुं. (सं.) गजशुण्डोरुः । वि., करतबी, वि, (हिं. करतब ) कुशल, दक्ष, वामोरुः ( पुं.), वामोरू (स्त्री.)। युक्तिमत् २. कर्मठ ३. ऐन्द्रजालिक। करम, सं. पुं. ( सं. कर्मन् न. ) कार्य, चेष्ट करतल, सं. पुं. ( सं. पुं. न.) दे. 'हथेली'। २. भाग्य, देवम् । करताल, सं. पु. ( सं. न. ) वाद्यभेदः, करताली करमकल्ला, सं. पुं. (अ. करम + हिं. कल्ला) २. करतलध्वनिः (पु.) ३. दे. 'झाँझ'। दे. 'वंद गोभी'। करती, सं. स्त्री. ( सं. कृत्तिः > ) तृणपूर्णकृत्रिम- करमाली, सं. पुं. ( सं.-लिन् ) सूर्यः, भानुः । वत्सः, तृणतर्णकः। करवट', सं. स्त्री. ( सं. करवर्तः ) पार्थः, पार्व, करतूत, सं. स्त्री. ( सं. कर्तृत्वम् ) कृत्यं, कर्मन् भागः, पक्षः २. वामपावतो दक्षिणपार्वतो (न.) २. गुणः, कला ३. कुकर्मन् । वा शयनम् । For Private And Personal Use Only Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir करवट कर्णाट करवट े, सं. पुं. ( सं. करपत्रम् ) क्रकचः, पत्र सं. पुं. रसविशेषः (सा.) २. परमेश्वरः ३. करुणा, अनुकंपा | दारकः । - लेना, मु., मोक्षलाभाय क्रकचेन स्वशीर्षच्छे- करुणा, सं. स्त्री. (सं.) अनुकंपा, दया, कृपा, दनम् । २. प्रियवियोगजं दुःखम् । करवाल, सं. स्त्री. (सं. पुं. ) खड्गः, असिः । करश्मा, सं. पुं. ( फा ) चमत्कारः, कौतुकं, आश्चर्य । [909] करहाट-टक, सं. पुं. (सं.) कमलमूलम् २. कम लातःस्थं छत्रम् ३. मदनवृक्षः । कराना, क्रि. प्रे. (हिं. करना) 'करना' के धातुओं के प्रे. रूप । करामात, सं. स्त्री. ( अ. 'करामत' का बहु. ) दे. करश्मा | करामाती, वि. ( अ. करामात ) लोकोत्तर, चमत्कारिन्, अद्भुत । करार', सं. पुं. (अ.) शान्तिः (स्त्री.), शमः २. धैर्य, स्थैर्यम् । करार', सं. पुं., ( अ. इकरार ) दे. 'प्रतिज्ञा' | करारा', सं. पुं. (सं. कराल > ) नद्याः उच्च पातुकं वा तटम् २ उच्छ्रिततीरम् ३. क्षुद्रपर्वतः । निधान, वि. ( सं . ) करुणामय, दयामय, कृपा करुणा - दया, - निधिः - सागरः । करेणु, सं. पुं. स्त्री. (सं. पुं. स्त्री. ) हस्तिन् २. हस्तिनी । करेला, सं. पुं. (सं. कारवेल्ल: ) कंडुरः, कांडकटुकः, कठिल्लकः । करैत, सं. पुं. (हि. काला ) मालुधानः, मातुलाहिः, कृष्णसर्पभेदः । करोड़, वि. ( सं . कोटी - टिः स्त्री. ) शतलक्ष | सं. पुं., उक्ता संख्या तदंकाश्च (१००००००० ) | करौली, सं. स्त्री. (सं. करवाली) छुरी, छुरिका, असिपुत्रिका । कर्क, सं. पुं. (सं.) कर्कटः, कुलीरः २ राशिविशेषः ३. अग्निः ४, मुकुरः । कर्कश, वि. (सं.) कठोर, रूक्ष । २, तीव्र, प्रचंड ३. सकंटक | कर्कशा, वि. सं. (सं.) कलह - विवाद, प्रिया ( नारी ) | | = करारा, वि. ( सं . कराल ) दृढ़, घन, संहत २. क्रूर, दारण ३. सुपक्क, सुभृष्ट ४. तीक्ष्ण, उग्र ५ दृढांग, वज्रदेह ६, भंगुर, भिदुर । कराल, वि. (सं.) भीषण, भयंकर, घोर, दारुण । कर्घा, सं. पुं. (फ़ा कारगाह - कार्यस्थान > ) तन्तुवायानां गर्तः २ पटकाराणां वेमः - बापदंड: - तंत्र वापः ३. पटनिर्माणगृहम् । कर्ज़, सं. पुं. (अ.) दे. 'ऋण' । | कर्ण, सं. पुं. (सं.) श्रवण: - णं, श्रवः, श्रोत्रं, श्रवस् (न.) श्रुतिः (स्त्री.), शब्दग्रहः । २. अंगराजः, वासुसेनः, कानीनः ३. दे. 'पतवार' | कराला, सं. स्त्री. (सं.) भीषणाकारा दुर्गा | कराह, सं. स्त्री. (दे. कराहना ) आत्ति - पीड़ा, ध्वनि : (पुं. ) - शब्द:-स्वरः । कराहत, सं. स्त्री. (अ.) घृणा, जुगुप्सा । कराहना, क्रि. अ. (हिं. करना + आह ) आर्त रवं कृ, दुःखेन स्वन् (भ्वा. प. से. ) । करिणी, सं. स्त्री. ( सं . ) हस्तिनी । करी, सं. पुं. ( सं . करिन् ) गज:, हस्तिन् । करीना, सं. पुं. (अ.) सुव्यवस्था, पद्धति: (स्त्री.), कटु, वि. ( सं . ) विस्वर, कर्कश, दुःश्राव्य । - धार, सं. पुं. ( सं . ) नाविकः, पोतवाह: २. कर्णिन्, मुख्यनाविकः । - परंपरा, सं. स्त्री. (सं.) श्रुतिपरंपरा | पुट, सं. पुं. (सं. न. ) श्रुतिमंडलम् । -पुर, सं. पुं. (सं. न. ) चम्पानगरी ( = भागलपुर ) | करीब, क्रि. वि. (अ.) समीपे, निकटे २. प्रायः, पूर, सं. पुं. (सं.) अवतंसः २. नीलोत्पलम् । प्रायेण । सौष्ठवम् । करीर, सं. पुं. (सं.-र: ) तीक्ष्णकंटकः, क्रकरः, - फूल, सं. पुं. ( सं . - फुलम् > ) कर्णिका, उत्तसः, तालपत्रं, कर्णभूषणम् । गूढपत्रः, क्रकचः । - वेध, सं. पुं. (सं.) संस्कारभेदः । करुण, वि. (सं.) दयार्द्र, कृपालु २. दुःखजनक | | कर्णाट, सं. पुं. (सं.) दक्षिणभारते प्रान्तविशेषः । For Private And Personal Use Only Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir कर्णाटी [१०२] कल कर्णाटी, सं. स्त्री. (सं.) रागिणीभेदः २. कर्णाट- | -विपाक, सं. पुं. (सं.) पूर्वकर्मणां फलं, कर्मदेशस्य भाषा नारी वा। परिणामः। कर्णिका, सं. स्त्री. (सं.) ताटकः, दंतपत्रं, कर्णा- -शील, वि. (सं.) कर्मवत् २. उद्योगिन् , भूषणभेदः २. करमध्यांगुली ३. लेखनी। उद्यमिन् । कर्तन, सं. पुं. (सं. न. ) ( कर्तन्या) छेदनं, -संन्यास, सं. पुं. (सं.) कर्मत्यागः २. कर्म लवनं, कृन्तनम् २. तन्तुसर्जनम् ।। फलत्यागः । कर्तनी, सं. स्त्री. (सं.) दे. 'कतरनी'। -हीन, वि. (सं.) मंद-हत,-भाग्य, दुर्दैव कली. स्त्री. (सं. कतरनी, २. दे. २. शास्त्रोक्तकर्मणाम् अकर्तृ । -जागना, मु., भाग्य-पुण्य, उदयः । कर्तव्य, सं. पुं. ( सं. न.) धर्मः, विधेयं, अनुष्ठे -फूटना, मु. कर्मदुर्विपाकः, भाग्यविपर्ययः । यम् २. दे. 'करणीय'। कर्मठ, वि. (सं.) कर्मण्य, कर्मशील, उद्यमिन् । कर्मण्य, वि. (सं.) दे. 'कर्मठ' । -विमूढ, वि. (सं.) कर्तव्यसंभ्रान्त । कर्ता, सं. पुं. (सं. कर्तृ) विधातृ, स्रष्ट, अनुष्ठातृ कर्मधारय, सं. पुं. (सं.) समानाधिकरणः पुरुषसमासः। २. प्रभुः, ईश्वरः। | कर्मिष्ठ, वि. (सं.) कार्यवःशल २. क्रियावत् । कर्त्तार, सं. पुं. (सं. कर्तारः > ) परमेश्वरः, " कर्मी, वि. ( सं. कर्मिन् ) कार्यकर्नु २. फलेच्छया विधात, विश्वसृज। कर्मसंपादक। कत्त्व , सं. पुं. (सं. न.) कारकत्वम् २. कर्तृधर्मः। कर्मेन्द्रिय, सं. स्त्री. (सं. न.) क्रियासाधक कर्दम, सं. पुं. (सं.) चिकिलः, पंकः २. पापं | करणम् । (हाथ, पाँव आदि )। ३. छाया। कर्षक, सं. पु. ( सं. ) कर्षणकरः २. क्षेत्रिन् , कर्पट, सं. पुं. (सं. पुं. न.) चीरं, पटखण्डः, | पटच्चरं जीर्णवस्त्रम् । कर्षण, सं. पुं. ( सं. न.) आकर्पः, आकर्पणम् कपूर, सं. पुं. (सं.) दे. 'कपूर'। २. भूमिदारणम् ३. कृषिः (स्त्री.)। कर्बुर, सं. पुं. ( सं. न.) स्वर्णम् २. धुस्तूरवृक्षः कर्षणी, दे. 'खिरनी' ३. जलम् । (सं. पुं.) राक्षसः २. पापं । कर्षी, वि. ( सं.) आ,-कर्षक-काषिन् । सं. पुं., ३. कर्चुरः । वि. नानावर्ण, चित्र, कल्माष, हालिकः, हल, वाहः, हकः, लांगलिन (पुं.)। शबल। | कलंक, सं. पुं. (सं.) दोषः, दूषणं, छिद्रम् कर्म, सं. पुं. (सं. कर्मन् न.) कार्य, कर्तव्यं, २. लांछनं, अपवादः ३. लक्षणं, चिह्नम् । क्रिया, कृतिः (स्त्री.), प्रवृत्तिः (स्त्री.) २. देवं, । कलंकित, वि. (सं.) दूषित, निंदित, आक्षिप्त, भाग्यम् ३. द्वितीयं कारकम् ( व्या.)। लांछित । -कांड, सं. पुं. (सं. न.) धर्मकृत्यं, यज्ञादि कलंकी', वि. ( सं.-किन् ) दे. 'कलंकित'। कार्यम् २. कर्मविधायकं शास्त्रम् । कलंकी', सं. पुं. (सं. कल्किः ) विष्णोर्दश--कार, सं. पुं. (सं.) लोहकारः २. स्वर्णकारः मावतारः। ३. सेवकः। | कलंडर, सं. पुं.(अं. केलेंडर) पचांगं, तिथिपत्रम् । -चारी, सं. पुं. (सं.-रिन् ) राज,-भृत्यः- कलंदर, सं. पुं. (अ.) यवनभिक्षुभेदः २. वानपुरुषः, अधिकारिन् २. कार्यकर्ता। रादिनर्तयित। --भोग, सं. पुं. (सं.) कर्मफलम् २. पूर्वकर्मणां कल', सं. पुं. ( सं.) मधुरास्फुटध्वनिः । वि., परिणामः। मनोज्ञ, अभिराम २. मधुर, कोमल ।। -योग, सं. पुं. (सं.) चित्तशुद्धिकरं वैदिक- कल', सं. स्त्री. (सं. कल्य > ) स्वास्थ्यम् कर्मन् (न.) २. निष्कामकर्मणाऽऽत्मज्ञानम् ।। २. सुखम् ३. संतोषः। -रेख, सं. स्त्री. (सं.-रेखा ) भाग्यांकाः कल', सं. स्त्री. (सं. कला ) उपायः, युक्तिः (स्त्री.) २. भाग्यं, दैवम् । । २. यंत्रं, उपकरणम् ३. यंत्रावयवः । For Private And Personal Use Only Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir कल [ १०३ ] ४ कल, कि. वि. (सं. कल्यम् ) श्वः (अन्य ), | कलम, सं. पुं. स्त्री. (सं. पुं.) लेखनी, अक्षर आगामिदिनम् । २. आगामिकाले ३. ह्यः ( अन्य ), गतदिनम् । -का, वि, श्वस्तन ( -नी स्त्री. ), श्वस्त्य ( - त्या स्त्री. ) २. ह्यस्तन, ह्यस्त्य । कलई, सं. स्त्री. ( अ. ) रंग, बंग, कस्तीरम् २. रंग-वंग, -लेपः ३. स्वर्णादिधातुभिर्लेपः ४. कान्तिकरो लेपः ५. सुधालेपः ६. आडंबरः । - गर, सं. पुं. (फ़ा, ) धातु - सुधा, - लेपकः । खुलना, मु., गोप्यं रहस्यं वा आविर्भू । कलकंठ, वि. (सं.) प्रियंवद, सुस्वर, मधुरभाषिन् सं. पुं. कोकिलः २. कपोतः ३. हंसः । कलक, सं. पुं. (अ.) दुःखं, शोकः । कलकल, सं. पुं. ( सं . ) निर्झरादीनां शब्दः २. कोलाहलः ३. विवादः । कलगी, सं. स्त्री. ( तु.) पक्षः, पिच्छम् २. चूडालंकारभेदः ३ मुकुटस्थाः सुपक्षाः ४ भवन शृगम् । कलत्र, सं. पुं. (सं. न. ) पत्नी, भार्या । कलदार, सं. पुं. (हिं. कल ) यंत्ररचितं रूप्यकम् २. यंत्रयुक्त । कलधौत, सं. पुं. (सं. न. ) सुवर्णम् २. रजतम् । कलन, सं. पुं. ( सं. न. ) उत्पादनं, रचनं, जननम् २. ग्रहणम् ३. धारणं, परिधानम् ४. आचरणम् ५. संबंध ः ६. ग्रासः, कवलः ७. गणितक्रिया ८. वेतसः, वेत्रः । कलप, सं. पुं. ( सं . कल्पः > ) मंड:, मंडम् २. केश, -राग:- रंगः ३. दे. 'कल्प' । कलपना, क्रि. अ. ( सं . कल्पनम् > ) शुच् ( भ्वा. प. से.), पीड़ - खिद- तप्-दु-क्लिश् ( कर्म. ) व्यथ-उत्कंठ ( भ्वा. आ. से. ), दुर्मनायते ( ना. धा. ) उत्सुक (वि.) + भू । कल्पाना, क्रि. प्रे, 'कल्पना' के धातुओं के प्रे. रूप । कलफ, सं. पुं. ( सं . कल्पः > ) मंडः, मंडम् | - लगाना, क्रि. सं., मंडेन लिप् (तु. प. अ. ) । कलबल', सं. पुं. (सं. कलाबलम् ) उपायः, युक्ति: (स्त्री.)। कलबल, सं. पुं. (अनु.) कोलाहलः, कलकलः । कलबूत, सं. पुं. ( फा. कालबुद ) आकारसाधनम् २. आधारः, उपष्टम्भः । कलभ, सं. पुं. ( सं . ) गजशावकः, उष्ट्रशावकः । कला तूलिका, वर्णिका, वर्णमातृ (स्त्री.) २. अन्यत्रारोपणाय कृत्ता शाखा ३. अन्यवृक्षे निवेशिता शाखा ४. गंडरोमाणि ( न. बहु. ) ५. तूलिका, वर्तिका ६. तक्षणसाधनम् । दान, सं. पुं., कलम - लेखनी, धानम् । —लगाना, मु., वृक्षान्तरे देहान्तरे वा निविश् ( प्र. ) | कलमलाना, क्रि. अ., दे० 'कुलबुलाना' । कलमा, सं. पुं. (अ.) यवनधर्ममूलमंत्र : २. वाक्यम् ३. शब्दः । - पढ़ना, मु., यवनी भू । कलमी, वि. (फ़ा.) हस्त लिखित २. वृक्षान्तरे आरोपित ३. स्फटिकरूपेण घनीभूत | आम, सं. पुं. ( पेड़ ) राजानः, नृपवल्लभः । ( फल ) राजाम्रम् । शोरा, सं. पुं., धनीकृतो यवक्षारः । कलमुह, वि. (सं. कालमुख > ) कृष्ण, - वदनआस्य २. लांछित, कलुषित । कलरव, सं. पुं. (सं.) मधुरमंदध्वनिः, कल, - स्वनः - रुतम् । २. कपोतः ३. कोकिलः । कलल, सं. पुं. ( सं. पुं. न. ) भ्रूणः, गर्भः, पुखनः, गर्भस्थशिशोः प्रथमावयवः | २. गर्भाशयः । कलवरिया, सं. स्त्री. (हिं. कलवार ) सुरालय:, मदिरालयः, गंजा | कलवार, सं. पुं. ( सं . कल्यपाल : ) शौडिकः, सुराजीविन् सुराकारः २. सुराविकत्री उपजातिः (स्त्री.) । कलविंक, सं. पुं. (सं.) गृहनीड:, चित्रपृष्ठः, चटकः २. चिह्नम् । कलश, सं. पुं. (सं.) कलशं शी, कलसः-सी सन्, घटः, कुट, निपः २. शिखा, श्रृंगम् । कलसा, सं. पुं., दे. 'कलश' । कलहंस, सं. पुं. (सं.) राजहंसः, कादंबः, कलनादः, मराल: २. नृपोत्तमः ३. परमेश्वरः । कलह, सं. पुं. (सं.) कलिः, विवाद:, द्वन्द्वं, वाग्युद्धम्, विसंवादः । - प्रिय, वि . ( सं . ) विवादप्रिय, कलहकारिन्, कलान् । कला, सं. स्त्री. (सं.) अंशः, भागः २. चन्द्रस्य पोडशांशः ३. सूर्यस्य द्वादशांश: ४. अग्निमंडलस्य दशमांशः ५. त्रिंशत् काष्ठात्मकः समय For Private And Personal Use Only Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir कलाई [ १०४ ] कलेवर विभागः ६. शिल्पं, शिल्पविद्या ७. कौशलं, कलि, सं. पुं. (सं.) चतुर्थ-तुरीय-अन्त्य,निपुणता ८. शरीरस्य षोडशाध्यात्मविभागः | युगम् ( यह ४३२००० वर्षों का होता है) ( =५ ज्ञानेन्द्रियाँ, ६ कर्मेन्द्रिय, ५ प्राण, मन) २. कलहः, विवादः ३. युद्धम् ४. शूरः ५ क्लेशः ९. नृत्यभेदः १०. मात्रा (छन्द.) ११. विभूतिः ६. पापम् ७. शिवः ८. पुधिः । (स्त्री.) १२. शोभा, प्रभा १३. कौतुकं, लीला -कर्म, सं. पुं. (सं.-कर्मन् न.) संत्रामः । १४. छल, कपटम् १५. मिष, व्याजः । -काल, सं. पुं. (सं.) कलियुगम् । १६. युक्तिः (स्त्री.), उपायः १७. नटलीला- | कलिका, सं. स्त्री. (सं.) दे. 'कली'। भेदः १८. यंत्रम् १९. प्रकृतिः (स्त्री., जेन.), कलित, वि. (सं.) शात, विदित २. प्रसिद्ध २०. वर्णवृत्तभेदः। ३. प्राप्त ४. शोभित ५. सुन्दर । -कंद, सं. पुं. ( फ़ा.) मिष्टान्नभेदः। कलियाना. कि.अ.(सं.कलीप कलियाना, क्रि. अ. (सं.कली > )रफुट (तु.प.से.) -कौशल, सं. पुं. (सं. न.) कला, शिल्पम् | विकस-फुल् ( भ्वा. प. से.)। २. कलापाटवम् । कली', सं. स्त्री. (सं.) कलिका, कोरकः-कं, -निधि, सं. पुं. (सं.) कलाधरः, चन्द्रः। मुकुल:-लं, कुड्मलः, कोशः-षः २. त्रिकोणो -बाजी, सं. स्त्री. (सं.+फ़ा.) विपर्यस्त- वस्त्रखंडः ३. धूमपानयंत्राधोभागः।। प्लुतिः (स्त्री.)। दिल की कली खिलना, मु., मुद् (वा.आ.से.)। -वंत, सं. पुं. (सं. कलावत् ) संगीतकुशलः, कली', सं. स्त्री. (अ. कलई ) चूर्णजलम् गायकः २. रज्जुनर्तकः । वि., कलाकुशल । २. तप्तचूर्णम् । कलाई, सं. स्त्री. (सं. कलाची) कलाचिका, प्रकोष्ठः, मणिबंधः। कुलील, वि. (अ.)न्यून, स्तोक २. लघु, हस्व। कलाप, सं. पुं.(सं.) समूहः, गणः, निकरः कलुष, सं. पुं. (सं. न.) मलं, मालिन्यम् २. जनसंघः, लोकनिवहः ३. युधिः ४. चन्द्रः २. पापं, दोषः ३. क्रोधः ४. महिषः। ५. कटिबंधः, मेखला ६. गुच्छः ७. मयूर वि., मलिन, पंकिल २. निंदित ३. पापिन् । पिच्छम् .. आभूषणम् । कलुषित, वि. (सं.) पंकिल, मलीमस २. अपकलापिनी, सं. स्त्री. (सं.) मयूरी २. रात्रिः वित्र, अमेध्य ३. आतुर ४. कृष्ण, काल । (स्त्री.)। कलूटा, वि. (हिं. काला) काल, कृष्ण, श्याम । कलापी, सं. पु. ( सं.-पिन् ) मयूरः, वहिन् काला-, वि. अति, कृष्ण-काल । . २. कोकिलः । वि., तूणपृष्ठ । कलेजा, सं. पुं. (सं. कालेयम् ) यकृत् (न.), कलाबत्त , सं. पुं. (तु. कलाबतून ) कौशेयतंतौ कालखण्ड, कालकम् २. हृदयं, हृद् (न.), व्यावर्तितः सुवर्ण-रजत, तारः। ३. उरस्, वक्षस्, कोडं ( सब न.) ४. साहसं, कलाम, सं. पुं. (अ.) वचनं, उक्तिः ( स्त्री.) उत्साहः, वीयम् ।। २. वार्तालापः ३. प्रतिज्ञा ४. आक्षेपः । -कॉपना, मु., भी (जु. प. अ.), उद्विज कलार-ल, सं. पुं., दे. 'कलवार' (तु. आ. से.) सं-वि, त्रस् (दि. प.से)। कलारिन, सं. स्त्री. (हि. कलार ) शौण्डिकी.-चलनी होना, मु., हृदयं व्यथ् ( कर्म.) । मद्यविकंत्री। -टूक टूक होना, मु., हृदय स्फुट (तु.प.से.)। कलावती, वि. (सं.) कला-शिल्प,-ज्ञा-वेत्री, -थाम कर रह जाना, मु., संतापं सं-नि,शिल्पिनी २. सुन्दरी। यम् ( भ्वा. प. अ.)। कलिंग, सं. पुं. (सं.-गाः) प्रान्तविशेषः -धड़कना, मु., (भयादिभिः) हृदयं कंप् ( = उड़ीसा ) २. इन्द्रयव-कुटज,-वृक्षः ३. दे. ( म्वा . आ.से.) 'तरबूज' । वि. चतुर, धूर्त । -फटना, मु., ( शोकमात्सर्यादिभिः ) हृदयं कलिंगड़ा, सं. पुं. रागभेदः। विद् ( कर्म.)। कलिंद, सं. पुं. (सं.) पर्वतविशेषः २. सूर्यः।-से लगाना, मु., आलिंग ( भ्वा. प. से.) । कलिंगजा, सं. स्त्री. (सं.) यमुना, कालिंदी। कलेवर, सं. पुं. (सं. न.) शरीरं, देहः।। For Private And Personal Use Only Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir कलेवा [ १०५] कविता -बदलना, क्रि. अ., पुनः जन् ( दि. आ. से.)। २. सुवर्णम् ३. रागभेदः । वि. शिव, मंगल, २. नववस्त्राणि परिधा (जु. उ. अ.)। शंकर।। कलेवा, सं. पुं. (सं. कल्यवर्तः) प्रातराशः, -कारी, वि. ( सं.-रिन् ) सुख-मंगल-हित-, प्रातभोजन, कल्यजग्धिः ( स्त्री.), जलपानम्। कारक। कलोल, सं. स्त्री. (सं. कल्लोल:>) क्रीडा, कल्याणी, वि. स्त्री. (सं.) मंगलकारिणी, खेला, कोलि: (पुं. स्त्री.), लीला, विलासः। सुन्दरी । सं. स्त्री. (सं.) गौः (स्त्री.) २. माषपणी। कलौंजी, सं. स्त्री. ( सं. कालाजाजी ) पृथुका, कल्याश, सं. पुं. (सं.) प्रातराशः, कल्यवर्तः, दित्या, काला। जलपानम् । कल्क, सं. पुं. ( सं. पुं. न.) घृततैलादिशेषः कल्ल, वि. (सं.) बधिर, अकर्ण । २. दंभः ३. विष्ठा ४. किट्टम् ५. पापम् । पापम् । कम्लर, सं. पु. ( देश.) ऊपरः-रं, वंध्या ६. वस्तुनः चूर्णम् ७. अवलेहः । । भूमिः ( स्त्री.)। कल्कि, सं. पुं. (सं.) विष्णोर्दशमावतारः।। कल्लौच, वि. दुर्वृत्त, दुराचारिन् २. दरिद्र, कल्प, सं. पुं. ( सं.) धर्मकृत्यविधायको वेदांग- | निर्धन । भेदः २. ब्रह्मदिनम् , दैवसहस्रयुगम् ( = कला, सं. पुं. (सं. करीरः-रं> ) प्ररोहः, ४३२००००००० वर्ष) ३. महाप्रलयः, सृष्टिसंहारः ४. विधानं, कृत्यम् ५. प्रातःकालः किसलयः, उद्भिद्। कल्लोल, सं. पुं. (सं.) महातरंगः, उलोलः, ६. रोगनिवृत्तियुक्तिः (स्त्री.) ७. प्रकरणं, महोमिः २. दे. 'कलोल'। विभागः ८. विकल्पः, पक्षः ९. संदेशः कल्लोलिनी, सं. स्त्री. (सं.) नदी, तटिनी। १०. निश्चयः ११. उद्देशः । वि., तुल्य, सदृश । --तरु, सं. पुं. (सं.) कल्प, वृक्षः-पादपः-द्रुमः । कवच, सं. पुं. (सं. पुं. न. ) सन्नाहः, कंचुकः, वर्मन् (न.), तनु, वारं-त्राणं-त्रम् २. भेरी, कल्पना, सं. स्त्री. (सं.) उद्भावना-नं, कल्पनं, दुंदुभिः ३. रक्षाकरंडः। मनः कल्पना २. रचना, विधानम् ३. प्रसाधनं, -पत्र, सं. पुं. ( सं. न.) भूर्जपत्रम् । मंडनम् ४. तर्कः, ऊहा ५. अध्यारोपः ६. गजसज्जीकरण। कवर, सं. पुं. ( सं. पुं. स्त्री. न. ) केश, बंधः-करना, क्रि. अ., उत्प्रेक्ष-ऊह ( भ्वा. आ. पाशः २. ग्रासः, कवलः, पिण्डः । से.), तक (च.), मनसा क्लप (प्रे.), कवरी, सं. सी. (सं.) केशविन्यासः, वेणी-णिः संभू (प्रे.)। (स्त्री.), धमिल्लः २. वनतुलसी। कल्पित, वि, (सं.) रचित, विहित २. सुव्यव कवर्ग, सं. पुं. (सं.) ककारादिवर्णपंचकम् । स्थित ३. वि-सं,-भावित ४. उद्भावित, कवल, सं. पुं. ( सं.) ग्रासः, पिंड:-डम् । वासना, भावना, सृष्ट, मानस, काल्पनिक कवलगट्टा, सं. पुं. (सं. कमलग्रंथिः >) ५. असत्य, निर्मूल ६. कृत्रिम, कृतक । कमलाक्षः, पमबीजम् । कल्मष, सं.पं. (सं. न. ) अघं, पापम् २. मलं| कवलित, वि. (सं.) भक्षित, निगीर्ण, भुक्त मालिन्यम् । २. गृहीत, आदत्त । कल्य, सं. पु. (सं. न.) प्रत्यूषः, प्रभातम् कवायद, सं. पुं. (अ. 'कायदा' का बहु.) २. मध ( न.) ३. सरा ४. श्व: ( अन्य... नियमाः-विधयः (बहु.) २. व्यायामः ३. सेनाआगामिदिनम् । वि., स्वस्थ, निरामय २. मूक व्यायामः ४. व्याकरणनियमाः। वधिर । | कवि, सं. पुं. (सं.) काव्यकरः, सूरिः, सत्सारः कल्या, सं. स्त्री. (सं.) मद्यम्, सुरा २. कल्याण- २. ऋषिः ३. सूर्यः ४. ब्रह्मन् (पुं.)। स्वस्ति,-वचन-वचः (न.), अभिनन्दनम् ।। -राज, सें. पु. (सं.) कवीन्द्रः, महाकविः कल्याण, सं. पुं. (सं. न.) सुखं, मंगलं, हितं, २. वैतालिकः ३. वैद्योपाधिः। शिवं, कुशलं, क्षेमं, भद्रं, सुस्थितिः (स्त्री.) | कविता, सं. स्त्री. (सं.) काव्यं, काव्य प्रबन्धः, For Private And Personal Use Only Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir कवित्त [ १०६ ] कसरत काव्यबंधः २. काव्यरचना, कवित्वं, कविता- | कस, सं. पुं. (फ़ा.) नरः, जनः, व्यक्तिः कला। कवित्त, सं. पुं. (सं. कवित्वम् > ) काव्यं, / फ़ी-, क्रि. वि., प्रतिपुरुषं, प्रतिजनम् । कविता २. हिन्दौछन्दोभेदः ।। वे-, वि., असहाय, अनाथ । कवित्व, सं. पुं. (सं. न.) काव्यरचनाशक्तिः कसक, सं. स्त्री. (सं. कप = हिंसा > ) वेदना, (स्त्री.) २. काव्यगुणः ।। पीडा, व्यथा २. चिर, वैर-विरोधः ३. अभिकवींदु, सं. पुं. ( सं.) वाल्मीकिः, प्राचेतसः, लाषः ४. सहानुभूतिः (स्त्री.)। कविज्येष्ठः । -निकालना, क्रि. स., चिरवैरं शुध् ( प्रे.)। कवींद्र, वि. (सं.) कविश्रेष्ठः, श्रेष्ठकविः, कसकना, क्रि. अ. (हि. कसक) व्यथ् ( भ्वा. कविराजः । आ. से.), पीड् ( कर्म.)। कश, सं. पुं., दे. 'कशा'। कसकुट, सं. पुं. दे. 'काँसा'। कशमकश, सं. स्त्री. (फा ) संघर्षः, प्रतिस्पर्धा कसना, क्रि. स. ( सं. कर्पणम् ) दृढीकृ, नियम् २. जनौषः ३. संशयः।। (भ्वा. प. अ.), द्रढयत्ति (न. धा.), २. बंधू कशा, सं. स्त्री. (सं.) कषा, प्रतोदः, प्रति- (क्र. प. अ.) ३. पीड (चु. ) ४. परीक्ष कशः-पः। ( भ्वा. आ. से.) ५. सज्जीकृ ६. मूल्यं वृध् कशिश, सं. स्त्री. (फा ) दे. 'आकर्षण' । (प्रे.)। कशीदा, सं. पु. ( फा.) सूची, शिल्पं-कर्मन् क्रि. अ. दृढीभू , नियम् (कर्म) २. वंथ , नियंत्र ( कर्म.) ३. पिंडीभू । | सं. पुं., दृढीकरणं, नियमनम् २. बंधनम् -काढ़ना, क्रि. स., सूच्या पुष्पादिकं चित्र । ३. पीडनम् ४. परीक्षणम् ५. सज्जीकरणम् । कश्ती , सं. स्त्री. ( फ़ा. ) दे. 'नौका'! कसनी, सं. स्त्री. ( हिं. कसना ) दृढ़ीकरण नियमन, रज्जुः (स्त्री. ) २. अंगिका ३. निकपः कश्मल, सं. पुं. (सं. न.) मोहः, मूर्छा | ४. परीक्षा ५. दे. 'हथौड़ी'। २. पापं, अघम् । वि. मलिन, आविल । कसब, सं. पुं. ( अ.) व्यवसायः, वृत्तिः ( स्त्री. ) कश्मीर, सं. पुं. (सं.) काश्मीरदेशः, शास्त्र २. गणिकावृत्तिः (स्त्री.)। शिल्पिन् । कसबी, सं. स्त्री. ( अ. कसब >) वेश्या, गणिका कष, सं. पुं. (सं.) कषपट्टिका, निकषः, निकष, । २. कुलटा, पुंश्चली। उपल: पाषाणः २. शाण:-णी ३. परीक्षणं, कसम, सं. स्त्री. ( अ.) शपथः, प्रतिज्ञा, समयः ! परीक्षा। -खाना, क्रि. अ., शप ( भ्वा. दि. उ. अ.)। कषण, सं. पु. ( सं. न.) निकषेण स्वर्णादिकस्य | कसमसाना, क्रि. अ., ( अनु० ) दे. 'कुलपरीक्षणम् । बुलाना। कषाय, वि. (सं.)तुवर, कुवर २. सुवास, सुगंधि | कसमसाहट, सं. स्त्री., शनैः सर्पणम् २. व्याकु३. रंजित, रंगवत् ४, गैरिकवर्ण, रक्तश्याम । | लता। सं. पुं. क्रोधः २. क्वाथः ३. कुवरः, रसभेदः । कसमि (मी) या, अ. ( अ० ) सशपथं, ससकष्ट, सं. पु. (सं. न.) दुःखं, क्लेशः, पीडा, मयं, शपथपूर्वम् । व्यथा २. आपद् , विपद् , आपत्तिः, विपत्तिः | कसर, सं. स्त्री. ( अ. ) न्यूनता, अल्पता (सब स्त्री.)। २. अभावः, हीनता ३. दोषः ४. वैरम् -साध्य, वि. (सं.) दुस्साध्य, दुष्कर, कष्ट ।। ५. हानिः (स्त्री.)। कस', सं. पुं. (सं. कषः ) निकषः, कषपट्टिका -निकालना, मु., क्षति पूर (बु.), प्रतिफलं २. परीक्षणम् २. खड्गकुंचनीयता। दा (जु. उ. अ.)। कस, सं. पुं. ( हिं. कसना ) बलं, शक्तिः (स्त्री.) कसरत', सं. स्त्री. (अ.) बाहुल्यं, प्रचुरता, २. निग्रहः, निरोध: ३. विघ्नः। आधिक्यम् २. बहुतरभागः, अधिकसंख्या। For Private And Personal Use Only Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir कसरत [ १०७ ] कहा % 3D - -राय, सं. स्त्री., बहुमतं, मताधिक्यम् । | -मृग, सं. पुं. (सं.) गंधमृगः । कसरत, सं. स्त्री. (अ.) व्यायामः, परिश्रमः | कस्बा, सं. पुं. ( अ.-बः ) बृहत्-महा, ग्रामः, २. अभ्यासः, आवृत्तिः ( स्त्री.)। लघु, नगरं-पुरम् । कसरती, वि. (अ. कसरत >) व्यायामिन् , कहकहा सं. पुं. (अ. अनु.) अट्टहासः, उच्चैदृढांग। हासः, अति-प्र-,हासः। कसा, वि. ( हिं. कसना) गाढ, दृढ, सुसंहत कहत, सं. पुं. (अ.) दुर्भिक्षं, नीवाकः, आहा२. दृढबद्ध। राभावः, अकालः। कसाई, सं. पुं. ( अ. करसाव ) सौ (शौ ) निकः | कहना, क्रि. स. (सं. कथनम् ) गद्-वद्-भण् २. मासिकः, घातकः, विशसित। वि., कर, (भ्वा. प. से. ), रू (अ. उ.), वच् ( अ. प. निर्दय। अ.) उच्चर-उदीर (प्रे.), उदा-व्या,-ह ( भ्वा. कसाना, क्रि. अ. (हिं. काँसा) कषाय-विकृत- प. अ.) २. कथ् (चु.), शंस ( भ्वा. प. से.), स्वाद (वि.) भू। आचक्ष ( अ. आ.), नि-आ, विद् (प्रे.), आ., कसाला, सं. पुं. (सं. कपः-पीड़ा >) दुःखं, ख्या ( अ. प. अ.), वर्ण-निरूप (चु.), कष्टम् २. आयासः, परि-,श्रमः । अभिधा (जु. उ. अ.) ३. आज्ञा (प्रे. आज्ञा. कसाव, सं. पुं. (सं. कपायः) कपायता, पयति) ४. श्लाघ ( भ्वा. आ.से.) ५. प्रकाश रूक्षता। (प्रे.) ६. उपदिश ( तु. प. अ. )। सं. पुं., कसी, सं. स्त्री. ( सं. कषणम् > ) खनित्रं, वचनं, भाषणं, कथनं, व्याहरणं, उदीरणम् टंगः-गम्। २. आज्ञा, आदेशः ३. उपदेशः, अनुशासनम् कसीदा, सं. पुं., दे. 'कशीदा'। ४. दे. 'कहावत'। कसीस, सं. पुं. ( सं. कासीसम् ) शोधनं, | -योग्य, वि. गदनीय, वदनीय, कथनीय, शुभ्रं, धातुशेखरम् , खेचरम् । भणितव्य, वक्तव्य । कसूर, सं. पुं. ( अ. ) अपराधः, दोषः, -वाला, सं. पुं., वाचकः, वक्तृ, वादिन् , स्खलितम् । व्याहत, अभिधात। -वार, वि., अपराधिन् , दोषिन् । -हुआ, वि., गदित, उदित, भणित, उक्त, कसेरा, सं. पुं. ( हिं. काँसा ) कांस्यकारः, कथित, उच्चारित, उदीरित । पीतलोहकारः। कहने को, मु., नाममात्रम् । कसैला, वि. ( हिं. कसाव ) कषाय, तुवर, कुवर। कहर, सं. पुं. (अ.) विपत्तिः (स्त्री.)। कसैली, सं. स्त्री. (हिं. कसैला ) दे. 'सुपारी' | कहरवा, सं. पुं. ( हिं. कहार ) (१-३ ) ताल. वि. स्त्री. कपाया, रूक्षा । गीत-नृत्य, भेदः। कसोरा, सं. पुं. ( हिं. काँसा )(कारय-) चषकः कहरी, वि. ( अ० क़ह > ) कर, निर्दय, शराव-भाजन-पात्रम् । २. मृण्मय मात्तिक, | अत्याचारिन् । चषकः। कहलाना, क्रि. प्रे., 'कहना' के धातुओं के कसौटी, सं. स्त्री. (सं. कषपट्टी) नि-, कषः, प्रे. रूप । कषपट्टिका, निकषोपल: २. परीक्षा, प्रमाणम्। कहवा, सं. पुं. (अ.) वृक्षभेदः २. तस्य बीजानि -पर कसना, मु., परीक्ष ( भ्वा. आ. से.)। (बहु.) ३. तेषां पेयम् । कस्टम, सं. पुं. (अं.) रीतिः ( स्त्री.), व्यवहारः, कहाँ, कि. वि. (सं. कुह ) क, कुत्र, कस्मिन् अभ्यासः, नियमः। स्थाने। कस्टमर, सं. पुं. (अ.) ग्राहकः, केतु (पं.)। -का, वि., कत्य, कुत्रत्य, किदेशीय । कस्टम्स, सं. पु. ( अं. ) शुल्कः-कं, करः, -तक, क्रि. वि., कियदूर-रे, कियतांऽशेन, राजस्वम् । किंपर्यन्तम् । कस्तूरी, सं. स्त्री. (सं.) कस्तूरिका, मृग, नाभिः- कहा, सं. पुं. (हिं. कहना) कथनं, वचनं, मदः, अंडजा, वातामोदा, गंधधूलि: (स्त्री.)।। उक्तिः (स्त्री.), आशा, उपदेशः। For Private And Personal Use Only Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir कहानी [ १०८ ] कांति कहानी, सं. स्त्री. ( सं . कथानिका) कथा, आ | काँजी, सं. स्त्री. (सं.) गृहाम्लं, रक्षोघ्नं सुवीउपाख्यानम्, आख्यायिका, वृत्तान्तः । राम्लं काञ्जि (जी) कम् । कहार, सं. पुं. [सं. कं ( = जल ) + हारः ] दृतिहार: पात्र, क्षालक: 1 कहारः, जल - उद, वाहः, २. शिविका नरयान, वाहः ३. मार्जकः । कहावत, सं. स्त्री. ( हिं. कहना ) आभाणकः, लोकवादः, जनप्रवादः, जनोक्तिः - लोकोक्तिः ( स्त्री. ) । कहासुनी, सं. स्त्री. (हि. ' कहना + सुनना ) कलहः, विवादः, वाग्युद्धम् । कहीं, क्रि. वि. (हिं. कहाँ ) कापि, क्वचित्, कुत्रापि, कुत्रचित् यत्रकुत्रचित् । २. न, न कदापि ३. यदि चेत् ४. अत्यन्तम् । - कहीं, क्रि. वि., क्वचित् क्वचित्, यत्र कुत्र चिदेव | - न कहीं, क्रि. वि., अत्र अन्यत्र वा । इ, वि. (अनु. काँव ) धूर्त, कितव । कौं को, सं. स्त्री. (अनु. ) काका, शब्दः ध्वनिः, २. काकरुतम् । काँक्षा, सं. स्त्री. (सं.) अभिलाषः, कामना । काँख, सं. स्त्री. ( सं . कक्षः) कक्षा, बाहुमूलं, मुजकोट:- रं, दोर्मूलम् । होना, मु., अतिकृश (वि.) भू । काँटे बोना, मु., पीड् ( चु. ) । काँटों में घसीटना, मु., मिथ्यास्तु ( अ. प. अ. ) । रास्ते में काँटे बिखेरना, गु., विघ्नयति ( ना. धा. ) । कोटी, सं. स्त्री. ( हिं. काँटा ) क्षुद्रकंटकः २. लघु- क्षुद्र, - धरणी - आकर्षणी ३. क्षुद्रतुला ४. क्षुद्रकील: ५. कार्पासमलम् । कांड, सं. पुं. (सं. पुं.न. ) अध्यायः, उच्छूवासः, प्रकरणं, परिच्छेदः, स्वधः २ वि भागः, खंड:-डम् ३. दण्डः, यष्टिः (स्त्री.) ४. वाणः ५. शरवृक्षः ६. अवसरः ७ तृणादिगुच्छः ८. तरुस्कन्धः १ समूह: १०. वंशादेः पर्वन् (न.) ११. शाखा १२ व्यापारः, घटना १३. नालम् । सभा, समाजः । काँच', सं. स्त्री. ( सं. कक्षः ) कच्छ:-च्छं, कच्छा, कांडी, सं. स्त्री. (सं. कांड: > ) दीर्घ-स्थूणाटी-टिका २. गुदावर्तः, गुदचक्रम् | काँखना, क्रि. अ., (अनु.) भारवहनमलत्यागणादिकाले आर्तनादं कृ | काँगड़ी, सं. स्त्री. *गल, -हसनी - हसन्ती, अंगारधानिका प्रकारः । कांग्रेस, सं. स्त्री. (अं. ) महासभा, प्रतिनिधि काँच े, सं. पुं. ( सं. काचः ) स्फटिकः । कांचन, सं. पुं. ( सं. न. ) स्वर्णम्, सुवर्णं, कनकम् २. धनं, संपप्तिः (स्त्री.) । ( सं . पुं.) धुस्तूरः २. चंपकः ३. कोविदार: ४. कांच | काँजी हौद, सं. पुं. ( अं. काइन हाउस ) पशुशाला गुप्तिः (स्त्री.), गोगृहं, अवरोधः । काँटा, सं. पुं. ( सं. कंटकः-कम् ) तरु- द्रुम-, नखः, शिताग्रः, शल्यन् २. पृष्ठवंशः, कशेरुका ३. नखः - खं, नखर:- रम् ४. लघु, तुला-घटः ५. शूल: - लम् ६. मयूरकुक्कुटादीनां नखः । ७. तुला, जिल्हा - सूची ८. बडिशं, मत्स्यवेधनम् ९. मत्स्यास्थि ( न. ) १०. जिह्वोदभेदः ११. शलं, शललम् १२. घटीसूची १३. कूपकंटकः १४. रोमांचः । नालः । --मय, वि. सुवर्णमय, हैम ( - मी स्त्री. ) । कांची, सं. स्त्री. ( सं . ) रसना, मेखला २. कांजिवरम् । - खटकना, मु, (हृदयं ) कंटकमिव व्यधू ( दि. प. अ. ) काष्ठम्, गृहस्थूणा, तुला । कांत, सं. पुं. (सं.) पतिः, भर्तृ २. अयस् - लोह - कान्त, चुंबकः ३ चन्द्रः ४ वसन्तः ५. श्रीकृष्ण: । वि., मनोरम, शोभन । कांता, सं. स्त्री. (सं.) पत्नी, भार्या २ दयिता, प्रिया ३. सर्वागसुन्दरी नारी । कांतार, सं. पुं. (सं. पुं. न. ) महावनं, बृहद्गहनं, अरण्यानी २. वेणुः, वंशः ३. विलं, छिद्रम् । कांजिव (वा) रम्, सं. पुं., ( सं. कांची ) कांति, सं. स्त्री. (सं.) द्युतिः - दीप्तिः - छविः कांची, पुरी नगरी । (स्त्री.), भा, अभिख्या २. सौन्दर्य, लावण्यम् । For Private And Personal Use Only Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir कांदव [ १०९ ] काट कांदव, सं. पुं. (सं. न.) कटाहीभृष्ट-कन्दुभजित, व्यंग्यवचनं. आ-अधि,-क्षेपः ३. अलङ्कारभेदः वस्तु ( न.)-पदार्थः। (सा.) ४. जिह्वा । कांदिशीक, वि. (सं.) भय-त्रास, पलायित- काकुत्स्थ, सं. पुं. (सं.) श्रीरामचन्द्रः । अपद्रुत-धावित । काकुल, सं. पुं. ( फा.) काकपक्षः शिखंडकः । काँप, सं. स्त्री. (सं. कंपा) (१-२) गज- | काग, सं. पुं. दे. 'काक' १, २. वराह, दन्तः २. वंशकाशादीनां शलाका कागज, सं. पुं. (अ.) कागदः-दं, पत्रं, कर्गलम् । ३. कर्णभूषणभेदः। -पत्र, सं. पुं. (अ.+सं.) लेख्यपत्राणि, पत्रकॉपना, क्रि. अ. ( सं. कम्पनम् ) कप-स्पंद्-वेप काणि, लेख्यानि ( सब बहु.)। (न्वा. आ. से.) रफुर (तु. प. से.) २. विचल- -की नाव, मु. क्षणभंगुर, विनश्वर । वेल्ल ( भ्वा. प. से.) ३. दे, 'डरना'। कागजी, वि. (अ. काग़ज़ > ) कागद-पत्र,कांबोज, वि. (सं.) कम्बोजदेश, विषयक-सम्ब- मय. २. सूक्ष्मत्वच ३. प्रतनु । सं. पुं., पत्रवि धिन् । सं.पु. कम्बोजवासिन्। २. कम्बोजाश्वः ।। यिन् २. श्वेतकपोतः। काँव-काँव, सं. स्त्री. ( अनु.) दे. 'काँ-काँ' -घोड़े दौड़ाना, मु., पत्रैः व्यवहृ ( भ्वा. २. प्रजल्पः, विप्रलापः। प. अ.)। कौवर, सं. स्त्री. दे. 'बाँगी' काच, सं. पुं. (सं.) स्फटिकः २. नेत्ररोगभेदः काँस, सं. पु. ( सं. काशः) अमरपुष्पकः, वन- (सं. न.) काचलवणम् २, सिक्थकम् । हासकः, काशा-शी २. कलहः । काछ, सं. स्त्री. (सं. कक्षा> ) कटी-जधन,काँसा, सं. पुं. (सं. कांस्यम् ) कंसं, कंसास्थि वस्त्रम् । (न.) ताम्रार्द्धम् , दीप्ति-पीत,-लोहम्, घोषम् । काछना, क्रि सं. (सं. कक्षा >) धौताप्रान्तं पृष्टे कांस्यकार, सं. पुं. (सं.) कंसकारः दे. 'कसेरा'। निविश (प्रे.)। का, प्रत्य. ( सं. प्रत्य. 'कः' ) षष्ठी वा समास काछना', क्रि. स. (सं. कषणम् ) फेनं अपनी द्वारा । ( उ० राम की पुरतक = रामस्य पुस्तकं, (भ्वा. उ. अ.)। रामपुस्तकम् )। काछनी, सं. स्त्री. (हिं. काछना ) ऊरुवसनं, काई, सं. स्त्री. ( सं. कावारम् ) शैव ( वा ) लः, | सक्थिवस्त्रम्। शेव ( वा) ल:-लं, जलनीली २. अयोमलम् काछा, सं. पुं., दे. 'काछनी'। ३. मलन्। | काछी, सं. पुं. (सं. कच्छ:> ) शाक, उत्पादककाक', सं. पुं. (सं.) वायसः, ध्वांक्षः। विक्रेतृ २. जातिभेदः।। -तालीय, वि. (सं.) आकस्मिक-यादृच्छिक काज', सं. पु. ( सं. कार्यम् ) कृत्यं, कार्य, कर्मन् (-की स्त्री.), अतकित । (न.), कृतिः ( स्त्री.) २. वृत्तिः (स्त्री.), -पक्ष, सं. पुं. (सं.) शिखंड:-डकः, अलकः, | आजीविका ३.उददेश्य, प्रयोजनम् ४. विवाहः। चूर्णकुन्तलः केशकलापः। | काज', सं. पु. ( अ. कायज़ा > ) गण्डाधारः, -पद, सं. पुं. (सं. न.) हस्तलेखपु उज्झित- कुडुपाधारः ( = बटन का छेद )। वर्णद्योतकचितम् ( = )। काजल, सं. पुं. ( सं. कज्जलम् ) लोचकः, दीप-वन्ध्या , सं. स्त्री. (सं.) एकापत्यजननी। । किट, अंजनम् ।। काक, सं. पुं. ( अं. कार्क) पिधानं, कूपी- -की कोठरी, मु., निन्द्यस्थानम् । छिद्रपिधानम् २. रोधनी, स्तम्भनी। काजी, सं. पुं. (अ.) न्यायाधीशः, धर्माध्यक्षः काकली, सं. स्त्री. (सं.) सूक्ष्ममधुरास्फुटध्वनिः। (इस्लाम )। काका, सं. पुं. (फ़ा. काका = बड़ा भाई > ) काट, सं. स्त्री. (हिं काटना) छेदनं, कर्तनं, पितृव्यः, पितुः भ्रातृ २. ( पं.) बालः, शिशुः। लवनं, कृन्तनं, व्रश्चनम् २. कर्तनरीतिः (स्त्री.) काकी, सं. स्त्री. (फा. काका >) पितृव्या, ३. व्रणः, क्षतम् ४. खण्ड:-ड, लवः ५. छलं, पितृव्यपत्नी २. ( पं.) कन्यका, बालिका। कपटम् । काकु, सं. पुं. (सं.) भिन्नकण्ठध्वनिः २. आक्षेपः, -छाँट, सं. स्त्री., संक्षेपणं २. शोधनम् । For Private And Personal Use Only Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir काटन [११] कानन काटन, सं. पुं. (अं. ) कार्पासः, तूलः-लम् | कातना, क्रि. स. (सं. कर्तनम् ) तन्तून् सज् २. कार्पासं, तूलाम्बरम् , बादरम् । (तु. प. अ.), कृत् ( रु. प.से.)। काटना, क्रि. स. ( सं. कर्तनम् ) कृत् ( तु. प. सं. पुं. तथा भाव, कर्तनं, तन्तुनिर्माणम् । से.) लू ( क्. उ. से.), छिद् ( रु. प. अ.), | -योग्य, वि., कर्तनीय, कर्तनाह । व्रश्च (तु. प. वे.) २. तुद् ( तु. प. अ.), -वाला, सं. पुं., कर्तकः, तन्तुकारः । व्रण ( चु.) ३. ऊन् (चु.), संक्षिप् ( तु. | काता हुआ, वि., कृत्त ।। प. अ.) ४. हन् ( अ. प. अ.) व्यापद् (प्रे.) कातर, वि. (सं.) व्याकुल, विह्वल २. भीत, ५. दे. 'कतरना' ६. संधि त्रुट (प्रे.) ७. विफ- त्रस्त ३. भीरु ४. आर्त । लीकृ ८. दंश ( भ्वा. प. अ.) ९. अल्पांशं कातरता, सं. स्त्री. (सं.) व्याकुलता, धैर्याभावः उदधृ ( भ्वा. प. अ.) १०. अतिक्रम् (भ्वा. २. भयं, त्रासः ३. भीरुता, कातर्यम् ४. अवसादः प.से.)। विषादः। सं. पुं. तथा भाव, दे. 'कार' । कातिब, सं. पुं. ( अ.) लेखकः २. अक्षरचंचुः । -योग्य, वि., कर्तनीय, छेदनीय, छेत्तव्य, | कातिल, सं. पुं. ( अ.) घातकः, हन्त । लवनीय । | कादम्ब, सं. पुं. (सं.) (१-३) कदंव,-वाला, सं. पुं. छेदकः, लावकः, कर्तनकरः। वृक्षः-पुष्प-फलम् ४. कलहंसः ५. इक्षुः ६.बाणः काटा हुआ, वि., कृत्त, लन, वृक्ण, छिन्न । ___७ कदंवसुरा। काटने दौड़ना, मु. निर्जन (वि.) दृश (कर्म.)। कादंबरी, सं. स्त्री. (सं.) कोकिला २. मदिरा काटो तो खून नहीं, मु., सं-, स्तब्ध। ३. सरस्वती ४. बाणरचितो गद्यकाव्यविशेषः । काठ, सं. पं. (सं. काष्ठम् ) दारु (न.) कादंबिनी, सं. स्त्री. (सं.) मेघमाला, जल२. इध्मं, इंधनं ३. काष्ठनिगट:-डम् ४. दे. दावली । 'शहतीर' । वि. कर २. मूर्ख । कान, सं. पुं. (सं. कर्णः ) श्रोत्रं, श्रवणं, श्रुतिः -का उल्लू , सं. पुं. जड़धीः, मूढः, अज्ञः । (स्त्री.), श्रावः, शब्दग्रहः । --में कहना, क्रि., स., कर्णे जप (भ्वा.प. से.)। -की हाँडी, सं., आपातरमणीयं वस्तु । -का परदा, सं. पुं., कर्ण,-पटहः-दुन्दुभिः। -मारना, मु., काष्ठनिगडेन बंध् ( . -का बहना, सं. पुं., कर्णस्रावः । प. अ.)। -का मैल, सं. पुं., कर्ण, मलं-गूथं, पिंजूषः । काठड़ा, सं. पुं., दे. 'कठौता'। -की शांय-शांय, सं-स्त्री., कर्णप्रणादः।। काठिन्य, सं. पुं. (सं. न.) दे. 'कठिनता'। -उमेठना, मु., दंडरूपेण की मुट् ( तु.)। काठी, सं. स्त्री. (हिं. काठ ) पर्याण, पर्ययणं, । -का कच्चा, मु., विश्वासिन् ।। पल्ययनम् २. शरीर, रचना-संस्थानन् । -काटना, मु., अतिशी ( अ. आ. से.), अति३. असिकोषः। रिच ( कर्म.)। काढ़ना, क्रि. स. ( सं. कर्षणम् ) निष्-आ, कृष -खड़े होना, मु., विस्मि ( भ्वा. आ. अ.)। (स्वा. प. अ.), निष्-सं,-पीड (चु.), निर्- -खा जाना, मु., कोलाहलं कृ। उद्, हृ ( भ्वा. प. अ.) २. सूच्या पुष्पादिकं । -पकड़ना, मु., पश्चात्तापेन कौँ स्पृश ( तु. सिव (दि. प. से.) ३. काठपाषाणादिपु प. अ.)। पुष्पादिकं उल्लिख-उत्कृ (तु. प. से. ) ४. पृथक मु., नितान्तं अनवहित कृ, वियुज-विश्लिप (प्र.) ५. कथ् ( भ्वा. (वि.) स्था ( भ्वा. प. अ.)। आ. से.)। -फूकना, मु., कलहं उद्दीप् (प्रे.)। कादा, सं. पुं. ( हिं. काढ़ना ) काथः, कषायः, -भरना, मु., पृष्ठतो द्वेषं जन् (प्रे.)। निर्यासः। --में उँगली दिये रहना, मु., दे. 'कान पर काणेली, सं. स्त्री. (सं.) कुलटा, व्यभिचारिणी, जूं न रेंगना'। पुंश्चली २. अनूढा, अविवाहिता। । कानन, सं. पुं. (सं. न.) वनम् २. गृहम् । For Private And Personal Use Only Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir कानफरेंस [१११ ] कामरी कानफरेंस, सं. स्त्री. ( अं. ) सम्मेलनम्। काबिज़, वि. ( अ. ) अधिकारिन् , प्रभु कानस्टेबिल, सं. पुं. ( अं.) रक्षिन् , शान्ति- २. मलावरोधक, गरिष्ठ । रक्षकः, रक्षापुरुषः। काबिल, वि. (अ.) योग्य, समर्थ । काना, वि. पुं. (सं. काणः) एकाक्षः, चन्द्रचक्षुः। काबू , सं. पुं. (तु.) अधिकारः, प्रभुत्वं, वशः। मानाकानी, सं. स्त्री..(सं. कर्णः >) कणेजपनं. -करना, क्रि. स., वशं नी ( भ्वा. उ. अ.)। उपांशुवादः २. वातो, जनप्रवादः । । काम', सं. पुं.(सं.) इच्छा, अभिलाषः, मनोकानाफूसी, सं. स्त्री., ( सं.+अनु. ) दे. ! रथः, आकांक्षा २. शिवः ३. मदनः, काम देवः ४. मैथुनेच्छा ५. इन्द्रियाणां विषयप्रवृत्तिः 'कानाकानी'। कानि, सं. स्त्री. ( देश.) लोकलज्जा, मर्यादा । ( स्त्री.) ६. चतुर्वर्गेऽन्यतमः । -आतुर, वि. (सं.) कामात, अनंगतप्त, कानी, वि. स्त्री. (सं.) काणा, एकाक्षा, एकनेत्रा, विधुर । काणेयी, काणेरी। -केलि, सं. स्त्री. (सं. पुं. स्त्री.) कामक्रीडा, -उँगली, सं. स्त्री. कनिष्ठा, कनिष्ठिका, कनी विहारः, विलासः। निका, दुर्बलामुली-लिः ( स्त्री.)। -तरु, सं. पुं. (सं.) कल्पवृक्षः। -कौड़ी, मु., दे. 'कौड़ी' के नीचे । -देव, सं. पुं. (सं.) कामः, मदनः, स्मरः, कानी हाउस, दे, 'काँजी हौद' । कंदर्पः, अनंगः, मन्मथः, मनसिजः, मनोजः, कानीन, सं. पुं. (सं.) कन्यापुत्रः, कुमारी- कुसुमवाणः, पंचशरः, मारः, मीनकेतनः, तनयः। मकरध्वजः, पुष्पधन्वन् , आत्मभूः । कानून, सं. पुं. (अ.) अधिनियमः २. राज-, -धेनु, सं. स्त्री. (सं.) कामदुघा, कामदा । नियमः, विधिः ३. आचारः, व्यवहारः। -रिपु, सं. पुं. (सं.) कामारिः, शिवः । -गो, सं. पुं. ग्रामगणकाध्यक्षः। -रूप, सं. पुं. (सं.) प्रान्तविशेषः, असम-दो, सं. पुं., व्यवहारनिपुणः, विधिज्ञः। प्रान्तः । वि., स्वेच्छारूप २. सुरूप । कानूनी, वि. ( अ. कानून >) वैध, राजनियम- -शास्त्र, सं. पुं. (सं. न.) वात्स्यायनप्रणीतो विषयक २. विधिज्ञ ३. धर्म्य, शास्त्रविहित ग्रंथविशेषः २. कामविज्ञानम् । ४. कुतर्किन् । काम', सं. पुं. ( सं. कर्मन् न.) कार्य, कृत्यं, कान्ह, सं. पुं. ( सं. कृष्णः ) श्रीकृष्णचन्द्रः | क्रिया २. व्यापारः, व्यवसायः ३. उधमः, २. पतिः । उद्योगः ४. प्रयोजनम् , उद्देश्यम् ५. उपयोगः, कापालिक, सं. पुं. (सं.) शैवतांत्रिकसाधुः | व्यवहारः । २. वर्णसंकरजातिभेदः। -आना, क्रि. अ., प्र-उप,-युज (कर्म.), कापुरुष, सं. पुं. (सं.) कु-निंद्य-कातर,-जनः । व्यवह-व्याप ( कर्म.) । मु., वीरगति प्राप् काफिया, सं. पु. ( अ.) अन्त्यानुप्रासः ।। ( स्वा. उ. अ.)। -तंग करना, मु., अतीव संतप-उद्विज- -काज, सं. पुं., कार्य, अर्थ, व्यवसायः । अर्दू (प्रे.)। -काजी, वि., उद्यमिन् , उद्योगिन् । काफ़िर, सं. पुं. (अ.) अयवनः ( इस्लाम.) -चलाऊ, वि., उपयुक्त, उपयोगिन् । २. नास्तिकः, अनीश्वरवादिन् ३. क्रूर ४. दुष्ट । -चोर, वि., अलस, कर्तव्यविमुख । काफ़िला, सं. पुं. (अ.-ल:) सार्थः, यात्रिक- -तमाम करना, मु., मृ-निषूद्-नश-व्यापद् समूहः। (प्रे.), हन् ( अ. प. अ.)। काफ़ी, वि. ( अ.) पर्याप्त, अन्यूनाधिक, समर्थ, कामना, सं. स्त्री. (सं.) इच्छा, आकांक्षा। उचित, अलम् ( अव्य. चतुर्थी के साथ )। कामयाब, वि. (फा.) सफल, कृतकार्य । काफी, सं. स्त्री. ( अं.) दे. 'कहवा' । कामयाबी, सं. स्त्री. (फ़ा.) सफलता, कृतकाफूर, सं. पुं. (फा.) कर्पूरः-रं, धनसारः। कार्यता।। -होना, मु., तिरो भू। [ कामरी, सं. स्त्री., दे. 'कबल'। For Private And Personal Use Only Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir कामला [ ११२] कारिंदा कामला, सं. पुं. ( सं. कामल: ) पाण्डुः, पाण्डु- -पलट, सं. पुं., बृहत्परिवर्तनं, महापरिवर्तः रोगः। २. शरीररूपरेखापरिवर्तनम् । कामिनी, सं. स्त्री. (सं.) सुन्दरी, नारी २. सुरा | कायिक, वि. (सं.) शारीर (-री स्त्री. ), ३. कामबहुला नारी। शारीरिक-दैहिक ( -की स्त्री.)। कामिल, वि. ( फ़ा.) सं.-पूर्ण २. दक्ष, योग्य । कार', सं. पुं. (सं.) कार्य, क्रिया २. कर्तु, कामी, वि (सं. कामिन ) लंपट, कामासक्त, अनुष्ठातृ ३. अक्षरवाचकप्रत्ययः (उ. चचकारः) कामांध, कामन, अभीक, कामातुर, कामुक ४. ध्वनिवाचकप्रत्ययः ( उ. फूत्कारः )। २. अनुरक्त, आसक्त, सस्नेह, सेविन् ( समा- कार, सं. पुं. ( फा.) कार्य, व्यवसायः । सान्त में ) ४. इच्छुक, ईप्सु, सस्पृह । -करना, क्रि. स., नियोग अनुस्था ( भ्वा. सं. पुं., अभि (भी) कः, क (का) मनः, कनः, प. अ.)। कामुकः २. चन्द्रः ३. कपोतः ४. चक्रवाकः -खाना, सं. पुं., शिल्प,-शाला-गृहम् , पण्य५. चटकः। निर्माणस्थानम् । कामुक, वि. (सं.) दे. 'कामी' वि., 'कामी' -बार, सं. पुं., व्यवसायः, व्यापारः । सं. पुं. (१)। -रवाई, सं. स्त्री., क्रिया, कार्यम् २. गुप्तकामेडियन, सं. पुं. (अ.) हास्यरसाभिनेतृ चेष्टा-क्रिया। (पुं.), वहासिकः। -साज, वि., कुशल, दक्ष । कामेडी, सं. स्त्री. ( अं.) सुखान्त-संयोगान्त,- कारक, वि. ( सं.) कर्तृ, अनुष्ठातु, विधातृ २. रूपक-नाटकम् , प्रहसनम् , भाणिका, क्रियया संबंधसूचकः शब्दरूपभेदः ( उ. कर्तृदुमल्लिका। कारक इ. व्या.)। कामोद, सं. पुं. (सं.) रागभेदः। कारचोव, सं. पुं. (फ़ा.) सूचीकर्मोपजीविन् कामोद्दीपक, वि. (सं.) वाजीकर, कामाग्नि- २. सूचीकर्माधारः। दीपन । कारचोबी, वि. ( फ़ा.) सूचीकर्म युक्त । ( सं. काम्य, वि. (सं.) स्पृहणीय, वांछनीय २. सुन्दर, पुं.) सूचीकर्मन् ( न.), शिल्पम् । मनोज्ञ । कारटून, सं. पुं. (अं) हासकरमालेख्यम् , काम्या, सं. स्त्री. (सं.) इच्छा, कामना, हास्यजनकं चित्रं, उपहासचित्रम् । वाद्या। कारण, सं. पु. ( सं. न.) हेतुः, निमितं, मूलं, काय, सं. स्त्री. ( सं. पुं.) शरीरं, देहः बीजं, योनिः ( स्त्री.), निदानम् २. साधनम् २. समुदायः । ३. कर्मन् (न.) ४. प्रमाणम् ५. विष्णुः कायदा, सं. पुं. (अ.) नियमः, व्यवस्था, रीतिः । ६. शिवः ७. पूजान्ते मथपानम् ( तांत्रिक)। (स्त्री.), शिष्टाचारः। कारतूस, सं. पुं. (पुर्त. कारटूस) गुलि: (स्त्री.), कायम, वि. (अ.) निश्चल, स्थिर, नेश्चेष्ट | गुलिका, आग्नेयचूर्णनाडी-डि: (स्त्री.)। २. स्थापित ३. निर्धारित। कारनिस, सं. स्त्री. ( अं.) भित्तिदन्तकः, कुड्य-मुक्काम, सं. पु. (अ.) प्रतिनिधिः, प्रतिपुरुषः शृंगम् । २. उत्तराधिकारिन् । वि., स्थानापन्न । कारा, सं. स्त्री. (सं.) निरोधः, निरोधनम् , कायर, वि., दे. 'कातर'। बन्धनं, आसेधः, प्रग्रहः २. क्लेशः, पीडा। कायल, वि. (अ.) छिन्नसंशय, जातप्रत्यय। । कारागार, सं. पुं. (सं. पुं. न.) कारा, बंधनाकायस्थ, सं. पुं. (सं.) परमेश्वरः २. जीवः । लयः, बंदि,-शाला-गृहम् , कारागृहं, चारः, ३. जातिभेदः । वि., शरीरस्थ । चारकः, गुप्तिस्थानम् । काया, सं. स्त्री. ( सं. कायः पुं.) शरीरं, देहः, कारावास, सं. पुं. (सं.) दे. 'कारागार' । विग्रहः, कलेवरम् । कारिंदा, सं. पुं. (फ़ा.) कारकरः, परकार्य-कल्प, सं. पुं. (सं.) पुनर्योवनोत्पादनम् साधकः, प्रति,-हस्तः-निधिः २. कर्मचारिन् , २. पुनयौवनोत्पादनचिकित्सा। | राजपुरुषः, अधिकारिन् । For Private And Personal Use Only Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir कारी [ ११३ ] कालिख कारी', सं. पुं. (सं-रिन ) कारकः, कर्तृ । ६. कृष्णसर्पः ७. शनैश्चरः ८. शिवः ९. लोहः कारी', वि. ( फ़ा. ) वातक, प्राणहर । १०. ऋतुः। कारीगर, सं. पुं. ( फ़ा.) शिल्पिन , कारुः, -कूट, सें. पुं. (सं. पुं. न.) घोर विषं, प्राणहशिल्पकारः । वि., शिल्पकुशल । हरगरलन् । कारीगरी, सं. स्त्री. (फा) कारुता, शिल्प -कोठरी, सं. स्त्री., कालकोष्ठः। कौशल, दक्षता २. मनोहररचना। -क्षेप, सं. पु. (सं.) समयातिपातः, व्याक्षेपः कारुणिक, वि. (सं.) दे. 'करुणामय'। २. निर्वाहः। कारूँ, सं. पुं. (अ.) मूसानामकस्य सिद्धस्य -चक्र, सं. पुं. (सं. न.) समयपरिवर्तः धनाढ्यकृपणः पितृव्यपुत्रः। वि., कृपणः, २. भाग्यचक्रम् ३. अस्त्रभेदः। कदर्यः। -ज्ञ, सं. पुं., (सं.) कालविद्, २. दैवज्ञः ३. कुक्कटः। -का ख़ज़ाना, सं. पुं., असीमधनं, अमितसंपद् (स्त्री.)। -यापन, सं. पुं. (सं. न.) दे. 'कालक्षेप' । कारूरा, सं. पुं. (अ.) मूत्रम् २. मूत्रपात्रम् । -रात्रि, सं. स्त्री. (सं.) भीमा कृष्णा च निशा २. प्रलयरात्रिः ३. मृत्युनिशा ४. दीपाकारोवार, सं. पुं., दे. 'कारवार' । वलीनिशा ५. मनुष्यजीवने सप्तसप्ततिवर्षकाक, सं- पुं. (अं.) कूपी-, पिधानम् । कार्कस्य, सं. पुं. (सं. न.) कर्कशता, कठोरता सप्तमाससप्तदिनानन्तरभवा रात्रिः । -सर्प. सं. पुं. (सं.) महाविषः, अलगद्देः, २. दृढता, दृढत्वम् ३. निर्दयता, क्रूरता।। कृष्णसर्पविशेषः। कार्ड, सं. पुं. ( अं.) पत्रम् २. स्थूलकर्गलम् ।। | काला, वि. ( सं. काल ) कृष्ण, श्याम, असित, कार्तवीर्य, सं. पुं. ( सं. ) कृतवीर्यपुत्रः नील २. अन्धकारमय, तिमिरावृत, ३. दूषित सहस्रबाहुः, अर्जुनः । ४. घोर ५. भयंकर। कार्तस्वर. सं. पं. (सं. न.) कनक, सुवर्ण, -आजार, सं. पुं., कालज्वरः। स्वर्ण, हिरण्यम् । -कलूटा, वि. अतिकृष्ण । कार्तिक, सं. पुं. (सं.) बाहुलः, ऊर्जा, कौमुदः। -चोर, सं. पुं., सतततस्करः २. अतिदुष्टपुरुषः। कार्तिकेय, सं. पुं. (सं.) स्कन्दः, कुमारः, -जीरा, सं. पुं., कृष्णजीरकः, काला, कृष्णा । शिखिवाहनः, द्वादशलोचनः। -नमक, सं. पुं., कृष्णलवणम्, सौवर्चलम् । -प्रसू, सं. स्त्री. (सं.) पार्वती, गिरिजा। -नाग, सं. पुं., कृष्ण, नागः-सर्पः २. प्राणहरः कार्बन, सं. पुं. ( अं.) प्रांगारः, कार्बनम्।। शत्रुः। कार्बोनिक, वि. (अ.) प्रांगारिक, कार्बनिक। -पानी, सं. पुं., द्वीपान्तरे निर्वासनम् -एसिड गैस, सं. स्त्री., कार्बनिकाम्लवातिः २. अंडमानादयो द्वीपविशेषाः। (स्त्री.)। कालेकोसों, कि. वि., अतिदूर-रे । कार्मुक, सं. पुं.. ( सं. न.) चापः, दे. 'धनुष'। -मुँह होना, मु., निंद्-अधिक्षिप् ( कर्म० )। कार्य, सं. पुं. ( सं. न.) कर्मन् ( न.) कृत्यं, कालातीत, वि. (सं.) अनवसर, असमयोचित । क्रिया २. व्यवसायः३. परिणामः ४. प्रयोजनम् । कालापन, सं. पुं. (हि. काला) कृष्णता, -अध्यक्ष, सं. पुं. (सं.) अधिकारिन् । श्यामता, मेचकता। २. कर्मावेक्षकः। कालिंदी, सं. स्त्री. (सं.) यमुना, कलिन्दतनया । -कर्ता, सं. पुं. ( सं.-र्तृ ) कर्मकारिन् । कालिक, वि. ( सं.) सामयिक, कालविषयक २. राजभृत्यः। २. समयोचित, प्राप्तकाल ३. अनुकाल, कार्रवाई, सं. स्त्री., दे. 'काररवाई। नियतकाल। काल, सं. पुं. (सं.) समयः, वेला, दिष्टः, कालिका, सं. स्त्री. (सं.) दुर्गा, चण्डी अनेहस ( पुं.) २. मृत्युः ३. यमः, यमदूतः २. मसी-षी ३. कनीनिका ४, श्यामधनघटा । ४. अवसरः, प्रसंगः ५. दुर्भिक्षं, दुष्कालः | कालिख, सं. स्त्री. (सं. कालिका) कज्जलं, ८ आकहि० For Private And Personal Use Only Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir कालिदास [११४ ] किंपुरुष मपिः-सिः (स्त्री.) २. कलंकः, लांछनं, दोषः। -श्वास, सं. पुं., दे. 'दमा' । कालिदास, सं. पुं. (सं.) संस्कृतकविशिरोमणिः, काशिका, वि. ( सं. ) प्रकाशिका । सं. स्त्री. (सं.) रघुकारः, विक्रमसभायाः सप्तमरत्नम् । काशी २. अष्टाध्यायीवृत्तिः ( स्त्री. )। कालिमा, सं. स्त्री. (सं. कालिमन् पुं.) काशी, सं. स्त्री. (सं.) शिवपुरी, वाराणसी, कृष्णिमन् (पुं.), कालता, श्यामता २. मसी तपः स्थली।। ३. लांछनं, दोषः ४. अंधकारः। -फल, सं. पुं. (सं. न.) कृ मांड:-डकः, पीत, कालिय, सं. पुं. (सं.) यमुनावर्तिकृष्णसर्प- पुष्पा-फला। विशेषः। काश्त, सं. स्त्री. ( फा.) कृपिः ( स्त्रा.), कर्षणं, -मर्दन, सं. पुं. (सं.) श्रीकृष्णः । । कृषिकर्मन् ( न.)। काली, सं. स्त्री. ( सं.) चण्डी, दुर्गा २. पार्वती, -कार, सं. पुं. ( फा.) कर्षकः, कृपाणः । गिरिजा ३. मसी। सं. पुं. दे. 'कालिय'। काषाय, वि. (सं.) गैरिक रक्तधातु, वर्ण । सं. वि. स्त्री., कृष्णा, श्यामा ।। पु., गैरिकरंजितवस्त्रम् । -खाँसी, सं. स्त्री., कालकासः । काष्ट, सं. पु. ( सं. न.) दे. 'काठ' । -घटा, सं. स्त्री., (सं.) कादंबिनी, श्याम- -कीट, सं. पुं. ( सं.) घुणः । घनश्रेणिः (स्त्री.)। काष्ठा, सं. स्त्री. (सं.) दिशा, दिश् ( स्त्री.) -दह, सं. पुं. ( सं.+ हिं. ) यमुनायां जलाव- २. सीमा ३. शिखरः-२ ४. चन्द्र कला तविशेषः। ५. अष्टादशनिमेषात्मकः कालः। -मिर्च, सं. स्त्री. (सं. कालमरि (री) चम्) कास, सं. पुं. (सं.) क्षवथुः २. काशः, वनहासकः। कृष्णं, ऊषणं, कालक, वेलजम् । कासनी, सं. स्त्री. ( फा.) गुल्मभेदः २. तस्य -कालीन, वि. (सं.) समय वेला-काल, संबं बीजम् ३. नील-श्याम, वर्णः । धिन् २. सामयिक, प्रास्ताविक । (टि. यह कासार, सं. पुं. (सं.) सरोवरः, महाजलाशयः। शब्द समासान्त में ही प्रयुक्त होता है )। कासीस, सं. पुं. (सं. न.) धातुशेखरं, शोधनम् । कालांछ, सं. स्त्री. (हि. काला) कृष्णता, कास्टिक, वि. (अ.) दाहक । श्यामता २. मसी३. कज्जलम् । -सोडा, सं. पुं. ( अं.) दाह कविक्षारः । काल्पनिक, वि. (सं.) संकल्पज, मनःकल्पित, कास्मिक रे, सं. स्त्री. ( अं) सृष्टिरश्मिः । उद्भावित, कृत्रिम, कृतक । काहिल, वि. ( अ. ) अलस, मंद । काल्य, वि. (सं.) काल-समय-अवसर, उचित किंकर, सं. पुं. (सं.) भृत्यः, सेवकः, प्रेष्यः, योग्य-अनुकूल, सामयिक । सं. पुं., प्रभातं, चेटः २. क्रीतदासः । विभाजं, प्रत्यूषः। काल्या, सं. स्त्री. (सं.) १-२ गर्भाधानार्दा किंकर्तव्यविमूढ, वि. (सं.) मंभ्रान्तमनस्, नारी-धेनुः ( स्त्री.)। व्याकुलचित्त । कावा, सं. पुं. (फा.) वृत्ते अश्वभ्रामणम् । किंकिणी, सं. स्त्री. (सं.) क्षुद्र, घंटी-घंटिका २. कांची-चिः (स्त्री.), रशना । २. मण्डलं, वृत्तम् । कावेरी, सं. स्त्री. (सं.) दक्षिणभारतस्य प्रसिद्ध | किंचित, वि. (सं.) स्तोक, अल्प। नदी २. वेश्या ३. हरिद्रा, पीतिका। किंजल्क, सं. पुं. (सं.) पद्म-कमल, केसरः काव्य, सं. पुं. (सं. न.) कविता, कवि- २. पद्मपरागः, जलजरजस् (न.)३. नागकेसरः। कृतिः (स्त्री.), सरसप्रबन्धः २. रसात्मकं किंतु, अव्य. (सं.) परन्तु, तु, पुनः २. अपि वाक्यम् ३. कविताग्रन्थः । तु, प्रत्युत, पुनः, परन्तु । काश', अव्य. (अ.) अपि नाम, प्रार्थये, किंनर, सं. पुं. (सं.) किंपुरुषः, तुरंगवदनः, कामये। अश्वमुखः। काश', सं. पुं. ( सं. पुं. न.) काशः, अमर- किंपुरुष, सं. पुं. (सं.) किन्नरः २. दुष्कुलीनः पुष्पकः, वनहासकः २. कासः, क्षवथुः। ३. वर्णसंकरः। For Private And Personal Use Only Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir किंवदंती [ ११५] किलकना किंवदंती, सं. स्त्री. (सं.) जन,-प्रवादः श्रुतिः । किन्नरी, सं. स्त्री. (सं.) किन्नरजाते री। (स्त्री. ), कर्णोपकणिका । किफायत, सं. स्त्री. ( अ.) मितव्ययः, अमुक्तकिंवा, अन्य. (सं.) वा, अथवा, यद्वा, किमुत ।। हस्तत्वम् । किंशुक, सं. पुं. (सं.) पलाशः, दे. 'ढाक'। किबला, सं-पु. ( अ.) प्रतीची २. मकानगरी किं, क्रि, वि. ( सं. किम् ) कथं, केन प्रकारेण ।। ३. पूज्यजनः ४. पितृ । कि, अव्य, ( फा.) यत्, यथा, इति । -नुमा, सं. पुं. ( अ+फ़ा.) दिग्दर्शकयंत्रम् , किचकिच, सं. स्त्री. (अनु.) प्रलापः, प्रजल्प- दिग्घटी, दिग्घटिका ।। नम् २. कलहः । किरकिरा, वि. (सं. कर्करम् > ) शार्करिल, किचकिचाना, क्रि. अ. ( अनु.) दंतैतान् । सिकतिल । निष्पीट् (चु.) घृप ( भ्वा. प. से.)। | किरकिरी, सं. स्त्री. (सं. कर्करम् >) नेत्रपतितो किह, सं. पुं. (सं. न.) धातुमलम् २. तैलादीनां । धूल्यादिकणः २. त्रसरेणुः, अणुरेणुः । मलम् ३. कल्क, मलं, शेषम् । किरच, सं. स्त्री. ( सं. कृतिः> ) अजिह्मखडगः, कितना, वि. ( सं. कियत् ) किंपरिमाण, किमात्र । २. अधिक, वा। __ अग्न्यस्त्रसंसक्ता छुरिका २. काष्ठकाचादीनां कितने, वि. पु. ( सं. कति ) किंसंख्याकाः।। तीक्ष्णाग्रं शकलम् । कितव, सं. पुं. ( सं.) द्यूतकारः, अक्षदेचिन् किर दिन किरण, सं. स्त्री. (सं. पुं.) रश्मिः , मरीचिः, २. वंचकः ३. दुष्टः। दीधितिः, मयूखः, करः, अंशुः, अभीशुः । किताब, सं. स्त्री. (अ.) यस्तकं. ग्रन्थः -माली, सं. पुं. ( सं.-लिन् ) सूर्यः । २. पत्रिका, पंजिया। किरमिच, सं. पुं. ( अं. कैन्वस ) शाणं, शणपटः, -का (किताबी) कीड़ा, सं. पुं., ग्रंथ पुस्तक, कीटः । २. सदापाठिन् । किरांची, सं. स्त्री. (अं. कैरेज :- ) बहनं, किताबत, सं. स्त्री. (अ.) लेखः, लेखनम् । शकटः-टम् । खत व---, सं. स्त्री., पत्रव्यवहारः। किरात, सं. पुं. (सं.) अशिष्ट-असभ्य,-जनः किधर, क्रि.वि, ( सं. कुत्र ) क, कस्मिन् स्थाने । २. कां दिशां प्रति, क:यां दिशि। -पति, सं. पु. ( सं.) शिवः । किन, सर्व. ( 'किस' का बहु.) के (पु.), काः किरातार्जुनीय, सं. पु. ( सं. न. ) भारविप्रणीतं (स्त्री.), कानि ( न.)। महाकाव्यम् । किनका, सं. पु. ( सं. कणिका) कणी, कणा, किराना, सं. पुं. ( सं. कयणम् अथवा कीर्ण - ) क्षत, तंडुलः-धान्यम् । वाणिज्य, वणिककर्मन् ( न.) २. गंधद्रव्याणि । किनारा, सं. पुं. ( फ़ा. ) तीरं, तटम् २. उपांत:, किराया, सं. पुं. ( अ.) वहनमूल्यं, तार्य, आतप्रांतः ३. वस्त्रप्रान्तः, अंचल: ४. पार्थः, पक्षः ( ता ) रः २. भाट, भाटकम् ३. मृतिः (स्त्री.), ५. सीमा ६. अन्तः। भृत्या । -करना, मु. दूरे स्था ( भ्धा. प. अ.), परि- -नामा, सं. पुं., भाटकपत्रम् । त्यज (भ्वा. प. अ.)। किराये का टट्टु, सं. पुं., बैतनिकः, सवेतनो किनारी, सं-स्त्री. (फ़ा. किनारा >) स्वर्ण-रजत, दासेरः।। जालाभरणम् । किरायेदार, सं. पुं. (फ़ा.-यादार) भाटकवासिन् । किनारे, क्रि. वि. ( फ़ा. किनारा ) तीरे, तटे किरीट, सं-पु. (सं.) दे. 'मुकुट'। २. सीमायाम् ३. पृथक , दूरे। किलक, सं. स्त्री. (हिं. किलकना) हर्ष,-किनारे, अनु, कूलं तट-तीरम् २. सीमाम् ध्वनिः नादः-स्वनः, किलकिला २. कलम, नड:-नलः । -लगाना, मु., समाप्-संपद् (प्रे.)। किलकना, क्रि. अ. (सं. किलकिला > ) किलकिन्नर, सं. पुं. (सं.) किंपुरुषः, देवयोनिभेदः ।। किला-रावं कृ, हर्षध्वनि कृ । वन्यजातिमेदः। अनु। For Private And Personal Use Only Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir किलकारना [११६ ] कीड़ा किलकारना, क्रि. अ., दे. 'किलकना। साथ चित् , चन वा अपि लगाकर । [उ० किलकिलाना, कि. अ. ( सं. किलकिला> ) किसी ने = कश्चित् , कोऽपि, कश्चन (पुं.); १. दे. 'किलकना' २. कोलाहलं कृ ३. वाक- । काचित् ( स्त्री.); किंचित् ( न.) इ.] कलहं कृ। -तरह, क्रि. वि. येन केन प्रकारेण, कथंचित् । किलनी, सं. स्त्री. (हिं. कीड़ा)। कुक्कुर, किसे, सर्व. (हिं. किस ) , कां, किम् यूकः यूका। ( द्वितीया ); करमै, कस्यै, करम ( चतुर्थी)। किला, सं. पु. ( अ. ) दुर्ग, कोटः। किस्त, सं. स्त्री. ( अ. ) देयभागः, ऋणांशः, -दार, सं. पुं. दुर्गाध्यक्षः, कोटपालः । खण्डिका। -बंदी, सं. स्त्री., दुर्गनिर्माणम् २. व्यूहरचना । -करना, क्रि. स., अंशांशतः ऋणं परिशुध् किल्कारी, सं. स्त्री. (हिं. किलकना ) किलकिला, हर्पनादः २. कलकल: ३. चीत्कारः। -वार, क्रि. वि., अंशशः, अंशांशतः। किल्लत, सं. स्त्री. (अ.) न्यूनता । किस्म, सं. स्त्री. ( अ.) प्रकारः, भेदः, जातिः किल्ला, सं. पुं. (सं. कील: > ) बृहत्-स्थूल, (स्त्री.) २. प्रकृतिः (स्त्री.), स्वभावः । कील:-शंकुः २. बृहत् , शूल:-स्थूणा-शलाका। | किस्मत, सं. स्त्री. (अ.) भाग्य, भागधेयं, दिष्टं, दैवम् २. प्रान्त,-भागः-खण्डः । किल्ली, सं. स्त्री. (हिं. किल्ला ) अर्गलं, अर्गलाबंधः खुश-, वि., धन्य, पुण्यवत् । २. कील:, कोलम् ३. शूलः, स्थूणा । बद-, वि., अधन्य, दैवहतक । किल्विष, सं. पुं. (सं. न.) पापम् २. अपराधः -आजमाना, मु., भाग्यं परीक्ष ( भ्वा. आ. ३. रोगः। से.)। किवाड, सं. पु. (सं. कपाटः ) कपाट-टी, अर-किया.. पं. (अ.) कथा २. वृत्तान्तः रम् २. द्वारं, द्वार (स्त्री.)। ३. कलहः। -खटखटाना, क्रि. स., कपाटम् अभिहन् की, प्रत्य. ( 'का' का स्त्री.) दे. 'का' । (अ. प. अ.)। कीक, सं. स्त्री. ( अनु.) चीत्कारः, उत्क्रोशः। किशमिश, सं. स्त्री. (फ़ा) शुष्क, द्राक्षा | कीकट, सं. पु. ( सं. कीकटाः ) मगधप्रदेशः गोस्तनी। २. तत्रत्यानार्यजातिः (स्त्री.) वि०, निर्धन किशलय, सं. पुं. (सं. पुं. न.) किसलयः-यं, पल्लवः-वं, अंकुरः, प्ररोहः २. मंजरी । |कीकर, सं. पुं. (सं. किंकिरातः ) दीर्घकण्टकः ! किशोर, सं. पुं. (सं.) एकादशावधिपंचदशवर्ष- कीकस, सं. पुं. (सं. न.) अस्थि (न.), पर्यन्तवयस्को बालः २. बालकः ३. पुत्रः। हजुम् २. कीटभेदः । वि., दृढ, कठिन । किशोरी, सं. स्त्री. (सं.) तरुणी, बाला, -मुख, सं. पुं. ( सं.) खगः, एक्षिन् । बालिका, कन्या, युवती-तिः ( स्त्री.)। कीचक, सं. पुं. (सं.) सरंध्री वंशः, सच्छिद्रो किश्ती, सं. स्त्री. (फा.) नौका २. दीर्घचतुर- | वेणः । २. विराटराजस्य श्याल: । स्रपात्रम् ३. भस्वा, क्षुद्रकोषः। कीचड़, सं. पुं. (सं. चिकिल:) पंकः-बी, जंबाल:किस, सर्व. ( सं. कस्य :- ) किम्' के रूपों से। लं. अवकीलः, कर्दमः, शादः, निघद्वरः। -तरह, क्रि. वि., कथं, केन प्रकारेण, कया । कीट', सं. पु. (सं.) कीटकः, कृमिः, क्रिमिः, रीत्या। नीलंगुः । किसलय, सं. पुं., दे. 'किशलय'। । कीट', सं. स्त्री. ( सं. किट्टम् ) घृततैलादीनां किसान, सं. पुं. (सं. कृषाणः ) कर्षकः, कृषिकः, मलम् । कृषीवलः, क्षेत्रिका, क्षेत्राजीवः, क्षेत्रिन् । कीड़ा, सं. पु. ( सं. कीटः) दे. 'कीट'। किसानी, सं. स्त्री. ( हिं. किसान ) कृषिः (स्त्री.), २. सर्पणशीलः, सरीसृपः ३. सर्पः, अहिः कृषिकर्मन् (न.)। (पुं.) ४. रक्तपा, जलौका। किसी, सर्व ( हिं. किस ) 'किम्' के रूपों के -लगना, क्रि. अ., कोटः भक्ष ( कर्म.) । For Private And Personal Use Only Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir कीड़ी [ ११७ ] कुंडा - कीड़ी, सं. स्त्री. (हिं. कीड़ा) क्षुद्रकीटः कुंकुम, सं. पुं. (सं. न.) काश्मीरज, दे. 'केसर' २. पिपी ले का ३. जलूका । २. दे. 'रोली'। कीना, सं. पुं. ( फ़ा.) द्वेषः वैरं, द्रोहः । कुंचन, सं. पुं. (सं. न.) संकोचः, संकोचनम् , कीप, सं. स्त्री. ( अ. कीफ़ ) निवापः । संक्षेपणम् । कीमत, सं.त्री. ( अ.) मूल्यं, अर्घः । | कुंचिका, सं. स्त्री. (सं.) तालो, तालिका, कीमती, वि. (अ.) महाघ, बहुमूल्य । साधारणी । कीमा, सं. पुं. (अ.) कृत्तमांसम् । कुंचित, वि. ( सं.) दे. 'आकुंचित' । कीमिया, सं. स्त्री. (फ़ा.) रसायनम् , रस,- ! कुंज, सं. पु. ( सं. पुं. न.) निकुंजः-जं, लता, विद्या शास्त्रं-तंत्रम् । । गृह-मंडपः। कोर, सं. पुं. (सं.) शुकः, दे. 'तोता'। -कुटीर, सं. स्त्री. ( सं. पुं.) लतागृहं, पर्णकीर्तन, सं-पु. ( सं. न. ) गुणकथनम् २. ईश- शाला, कुंजगृहम् । गुणगानम् । -विहारी, सं. पुं. ( सं.-रिन् ) श्रीकृष्णः । कीर्ति, सं. स्त्री. (सं.) यशम (न.), विख्यातिः- कुंजड़ा, सं. पु. ( सं. कुंज > ) हरितकविक्रेतविश्रुतिः (स्त्री.), अभिख्या, समाख्या। जातिविशेषः २. शाकविक्रयिन् । -मान् , वि. (सं.-मत् ) यशस्विन् , विश्रुत, कुंजर, सं. पुं. (सं.) गजः, द्विपः २. केशः। विख्यात । (टि. समासान्त में 'कुंजर' श्रेष्ठतावाचक हैकील, सं. स्त्री. (सं. पुं.) कीलकः, शंकुः, लोह, नरकुंजर = श्रेष्ठपुरुषः)। कील:-शंकुः २. लवंगनामकं नासिकाभूषणम् । कुंजी, सं. स्त्री. ( सं. कुंचिका ) ताली, उदघा३.मुखस्फोटकः । टकः-क, अंकुटः, साधारणी। २. टीका, कीलक, सं. पुं. (सं.) कील:, कीला २. नाग- व्याख्या। दांतः, भारयष्टिः ( स्त्री.) ३. महाकीलः, शूल: कुंठ, वि. (सं.) कुंठित, धाराहीन, तीक्ष्णता४. स्थाणुः, स्थूणा ५. अन्यमंत्रप्रभावनाशको रहित २. मूखें । मंत्रः। | कुंठित, वि. (सं.) कुंठीकृत, हृततैष्ण्य २. निष्प्रकीलना, क्रि. स. (सं. कीलनम् ) कील (चु.), भीकृत ३. अनुपयोगिन् । कीलः बंध ( क. प. अ.) २. अभिचारप्रभावं कुंड, सं. पुं. (सं. कुण्डः-डं-डी) पल्बल:-लं, नाश (प्रे.) ३. ( सर्पादिवं) वशीक। अल्पसरस (न.), वेशंतः, क्षुद्रजलाशयः २. कीला, सं. पुं. (सं.) दे. 'किल्ला'। अग्नि-यज्ञ-हवन,-कुण्डम् ३. स्थाली ४.विशाकीलाल, सं. पुं. ( सं. न.) अमृतम् २. जलम् । लमुखमतिगंभीरपात्रम् ( हिं. मटका ) ५. सध३. रक्तम् ४. मधु (न.)। वाया जारजपुत्रः ६. लौहशिरस्त्रम् ७. मानभेदः । कीलित, वि. (सं.) ( कीलैः ) बद्ध, दृढीकृत, कुंडल, सं. पु. ( सं. पुं. न.) कर्ण-श्रवण,-वेष्टनं, पिनद्ध। कर्णभूषणभेदः २. वलयः ३. परिवेशः-षः, किली, सं. स्त्री. (सं. कील: > ) कर्षणी, व्या- तेजोमंडलम् ४. आवेष्टनम् , व्यावर्तनम् । वर्तनकीलः, वलयकीलकः २. कुञ्चिका, उद्- -करना वा मारना, क्रि. स., वर्तुली-पुटी, कृ, घाटकम् ३. विवर्तनकील: ४. काल: ५. अक्ष- व्यावृत्-परिवेष्ट (प्रे.)। रेखा, अक्षः। कुंडलिया, सं. स्त्री. ( सं. कुण्डलिका ) मात्रिककीश, सं. पुं. (सं.) कपिः २. खग: ३. सूर्यः। छन्दो भेदः । कुंअर, सं. पुं. ( सं. कुमारः ) पुत्रः, सूनुः (पुं.) कुंडली, सं. स्त्री. (सं.) मिष्टान्नभेदः (हि. २. बालकः ३. राजकुमारः ४. युवराजः । जलेबी ) २. कुरलः, चूर्णकुन्तलः ३. जन्मकुंआरा, वि. पु. ( सं. कुमार ) अकुतविवाहः।। पत्रं, पत्रिका ४.सपेस्य वतुलाकारस्थितिः (स्त्री.)। [-री (स्त्री.) =अपरिणीता, अनूढा, कुमारी। कुंडा', सं. पु. ( सं. कुण्डः ) जीवति भर्तरि कुंइ, सं. स्त्री., दे. 'कुमुदिनी' । । जारजः। For Private And Personal Use Only Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir कुंडा [११८] कुचाल कुंडा', सं. पु. ( सं. कुण्डलम् >) लोह, ग्रहणी- कुआँ, सं. पु. ( सं. कूपः ) अंधुः, प्रहिः, अवटः, धरणी २. अर्गल:-लं-ला-ली । खातः, अवतः, केवटः। कुंडा, सं. पु. ( सं. कुण्ड:-डम् ) विशालमुख- -खोदना, मु., परान् पीड (चु.)। मतिगम्भीरपात्रम् (हिं. मटका )। कुआर, सं. पुं. (सं. कुमारः > ) आश्विनः, कुंडिन, सं. पुं. (सं. न.) विदर्भराजधानी। इपः, आश्वयुजः। कंडी', सं. स्त्री. (सं.) कुण्डी, खल्हः । कुइयाँ, सं. स्त्री. (हिं. कुआँ ) कृपी, कूपकः, -डंडा, सं. पुं., कुण्डीदण्ड-डो।। खातकः, अन्धुकः । कुंडी, सं. स्त्री. (हिं. कुण्डा) द्वारशृंखला कुई, सं. स्त्री., दे. 'कुमुदिनी । २. अर्गल:-लं-ला-ली ३, शृङ्खला, संधिः-ग्रंथि। कुक, सं. पुं. ( अं.) पाचकः, सूदः, बलवः, कुंत, सं. पुं. (सं.) प्रासः, तोमरः । रन्धकः। कुंतल, सं. पुं. (सं.) केशः, शिरोरुहः । कुकड़ी सं. स्वा. ( सं. कुकुटी ) ताम्रचूडी कुंतिभोज, सं. पुं. (सं.) भोजप्रदेशशासकः, २. शस्यम् ३. सूत्रपंजी, तंदुगुच्छः । कुन्त्याः पालकपितृ (पुं.)। | कुकर, सं. पुं. ( अं.) पचन-पाका, यन्त्रनेदः, कुंती, सं. स्त्री. (सं.) पृथा, पाण्डुपत्नी, युधिष्ठिर- *कुकरम् । जननी । | कुकर्म, सं. पु. ( सं. न. ) कु, कार्य-कृत्यं कृतिः कुंद', सं. पु. ( सं. पुं. न.) सदापुष्पः, वन- (स्त्री.), दुराचारः, पापं, दुष्टता । हासः २. कमलम् । कुकर्मी, वि. ( सं.-मिन् ) दुबृत्त, पापिन् , पाप, कुंद, वि. (फ़ा.) कुण्ठ, तीक्ष्णतारहित दुरात्मन् । २. मन्द, जड । कुकुरमुत्ता, सं. पुं.(सं. कुकरमूत्रम् >)कुछत्रकः। -ज़हन, वि. (फ़ा.) मन्दमति, मूर्ख । कुक्कुट, सं. पुं. ( सं. ) ताम्रचूडः, चरणायुधः, कुंदन, सं. पुं. (सं. कुन्दः> ) विशुद्धं सुवर्णम् । कालज्ञः, उपाकरः, शिखण्डिकः । वि. भास्वर २. पवित्र ३. नीरोग। कुक्कर, सं. पुं. (सं.)श्चन् , दे. 'कुत्ता' । कुंदा, सं. पुं. (फ़ा.) बृहत्-स्थूल, काष्ठम् २. कुक्षि, सं. स्त्री. ( सं. पुं.) उदरं, जठरं, तुंदम् अग्न्यस्त्रस्य काष्ठमयोऽपरभागः ३. काष्ठनिगडः २. गर्भाशयः, गर्भस्थानम् ३. पदार्थान्तर्भागः ४. मुष्टिः ( स्त्री.), वारंगः। ४. गुहा । कंदी, सं. स्त्री. (फ़ा. कुन्दा ) मुद्गरैर्वस्त्रता- कुगति, सं. स्त्री. (सं.) दुर्दशा, दुर्गातः (स्त्री.)। डनम् २. ताडनम् । कुच, सं. पुं. (सं.) स्तनः, उरोजः २. चचुक:कुंभ, सं. पुं. (सं.) घटः, घटी, कलश:-शी- क, स्तनाग्रम् । शम् २. गजकुम्भः, हस्तिशिरसः पिण्डद्वयम् कुचकुचाना, क्रि. स. ( अनु. कुचच ) व्यय ३. कुम्भकप्राणायामः ४. द्वादशवार्षिकः पर्व- (दि. प. अ.), छिद्रं कृ । विशेषः ५. रात्रिविशेषः (ज्यो.)। कुचक्र, सं. पुं. ( सं. न.) कूट-कपट, उपायः, -कर्ण, सं. पुं. (सं.) रावणानुजः । उपजापा, कपट, संकल्प:-नयोगः । -योनि, सं. पुं. (सं.) अगस्त्यो मुनिः । कुचक्री, वि. ( सं.-क्रिन् ) उपनापकः, कपटकुंभक, सं. पुं. (सं.) कुम्भः, प्राणायामे वायु- प्रबन्धयोजकः। स्तम्भनम् । कुचलना, क्रि. स. ( अनु.) क्षण (त. प.से.) कुंभी, सं. स्त्री. (सं.) क्षुद्र-लघु, कुम्भः-घटः। २. मृद (क. प.से.), पिषु (रु. प. अ.) -पाक, सं.पुं. (सं.) नरकविशेषः। ३. भूरि तड् (चु.) ४. पादतलेन आहन् कुंभी, सं. पुं. ( सं. कुम्मिन् ) गजः २. नकः (अ. प. अ.)। ३. विषकीटभेदः। | कुचला, सं. पु. ( सं. कच्चीरः ) किंपाकः, विषकुंवर, सं. पुं., दे. 'कुँअर'। तिदुः, रम्यफलः, कुपीलुः, कालकूटः । कु, अव्य. (सं.) पापकुत्साऽल्पत्वादिद्योतक- कुचाल, सं. पुं. (सं. कु+ हिं. चाल ) दुराचारः, मव्ययम् ( उ. कुकर्म = पापकर्म इ.)। कुचा , कदाचरणम् । For Private And Personal Use Only Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir कुचाली [१९] कुतुब कुचाली, वि (हिं. कुचाल) दुराचारिन् , दुर्वृत्त । कुट्टी, सं. स्त्री. ( हिं. काटना ) यवसखण्डाः कुचेष्टा, सं-स्त्री. (सं.) दुश्चेष्टा, हानिकरोयत्नः। २. बालकेषु मैत्रीविच्छेदः। कुचला, वि. ( सं. कुचेल) मलिन वेष, कुवसन। कुठला, सं. पुं. (सं. कोष्ठ: >) क्षुद्रधान्यकोष्ठः, कुछ, वि. (सं. किंचित् ) (मात्रा) अल्प, स्वल्प, मृन्मयं लघुधान्यागारम् । स्तोक, ईषत् , २. ( संख्या ) कतिचित् , कति- कुठार, सं. पुं. (सं.) परशुः, द्रुघणः, वृक्षादनी, पय, ३. किमांप, यत्किचन, ४. 'किम्' के वृक्षभेदिन् , परश्वधः । तीनों लिंगों के रूपों के साथ चित् , चन, कुठाराघात, सं. पुं. (सं.) परशुप्रहारः २. तीव्रअपि लगाते हैं, उ. केचित् , काश्चित् , कानि- प्रहारः। चित् इ.। कुठाली, सं. स्त्री. ( सं. कु+स्थाली >) तैजसा-कर देना, गु., मंत्रः वशीक । वर्तनी, मु (भूषा-पी। कुज, सं. पुं. ( सं.) मंगलग्रहः २. वृक्षः। कुठौर, सं. पु. ( सं. कु+ हिं. ठौर ) कुस्थानम् कुजाति, सं. स्त्री. (सं.) हीन-नीच-निकृष्ट, जाति: २. अनवसरः, असमयः । वर्णः । सं. पुं.. दु'कुलीनः, अन्त्यजः, नाचः। कडकडी, सं. स्त्री. (अनु.) दे. 'गुड़गुड़ाना' । कुट', सं. पु. ( सं. कुष्ठम् ) गदाहं, कोवेरम् । कुड़बुड़ाना, क्रि. अ., दे. 'कुड़ना' । कुट', सं. पुं. (सं.) दुर्ग, कोटः २. गृहम् कुड़ल, सं. पुं., ( रक्ताल्पतया ) अंग,-व्यावर्तनं३. पर्वतः ४. कलशः। आकुंचनम्। कुटकी, सं. स्त्री. ( सं. कटुकीटः) दंशः, मशकः, । कुडक, सं. स्त्री. ( फा. कुरक) कुक्कुटीरुतम् प्राचिका, बनमक्षिका। २. अनंटदा कुक्कुटी। चि., व्यर्थ, निरर्थक । कुटनपन, सं. पुं. ( सं. कुट्टनी > ) दूतीवृत्तिः । | कुडौल, वि. ( सं. कु+हिं. डौल ) दुर्दर्शन, (स्त्री.) २. उपजापः, भेदवर्द्धनम् । कदाकार, कुरूप कुटना, सं. पुं. ( हिं. कुटनी ) भगभक्षकः, कुटंगा, वि. पुं. ( सं. कु + हिं. ढंग ) अशिष्ट, संचारकः, झंडाशिन् २. पिशुनः। असभ्य, दुःशील। कुटनी, सं. स्त्री. ( सं. कुट्टनी ) कुटिनी, दूती, कुढ़न, सं. स्त्री. (हिं. कुढ़ना) मनस्तापः, दृतिका, संचारिका, शंभली, रतताली। चित्तव्यथा। कुटिया, सं. स्त्री. (सं. कुटी) उटज:-जं, पर्णशाला, पर्णकुटी-टिः ( स्त्री. ) कुटीरः। कुढ़ना, क्रि. अ. (सं. क्रुद्ध > ) दुर्मन यते ( ना. कुटिल, वि. (सं.) वक्र, जिम, अराल, भुग्न, घा.), क्षुभ् (दि. प. से.), अन्तः परितम् न्युज २. वञ्चक, प्रतारक, कपटिन् , छलिन् ।। | (दि. आ. अ.)। कटिलता, सं. स्त्री. (सं.) कौटिल्यं, वक्रता, | कुढब, वि. ( सं. कु + हिं. ढब ) कुरूप, दुर्दजिह्मता २. छलं, कपट, प्रतारणा । शन २. अशिष्ट ३. कठिन । कुटी, सं. स्त्री. (सं.)। क्षुद्रगृहम् , कुढ़ाना, क्रि. स. (हिं. कुढ़ना) संतप्-उद्विज् कुटीर, सं. पुं. (सं.) ) दे. 'कु.टिया'। (प्रे.) २. प्रकुप-कुथ् (प्रे.)। कुटुम्ब, सं. पुं. (सं. पुं. न.) गृहजनः, पुत्र- कुतरना, क्रि. सं. ( सं. कर्तनम् ) चर्वणेन कृत् कलत्रादयः, ज्ञातिः (स्त्री.), वान्धवाः, संततिः (तु. प. से.), दन्तैः खण्ड (चु.)। ( स्त्री. ) २. कुलं, वंशः, जातिः ( स्त्री.)। कुतर्क, सं. पुं. (सं.) हेत्वाभासः, मिथ्याहेतुः, कुटुंबी, सं. पुं. ( सं.-बिन् ) गृहस्थः, गृहपतिः, वितंडा, प्रजल्पः, विवादः।। गेहिन् २. शातिः ( स्त्री. ), बन्धुः, बांधवः। कुतर्की, चि. (सं.-किन् ) वितण्डावादिन, कुटुम्बिनी, सं. स्त्री. (सं.) गृहिणी, गेहिनी, मिथ्याहेतुवादिन् २. वाचालः, वावदूकः । आर्या, सुतिनी, पुरन्ध्री। कुतिया, सं. स्त्री. ( हिं कुत्ती ) सरमा, कुक्कुरी, कुटेव, सं. स्त्री. ( सं. कु+ हिं. टेव ) कुप्रवृत्तिः शुनी, सारमेयी, भषी। (स्त्री.), व्यसनं, दुर्गुणः । कुतुब, सं-पु. ( अ.) भ्रवः, ध्रुवतारा। कुट्टनी, सं. स्त्री. (सं.) दे. 'कुटनी'। -नुमा, सं. पुं., दे. 'किबलानुमा'। For Private And Personal Use Only Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir कुतूहल [ १२० ] कुमुकुमा विहानो कुतूहल, सं. पुं. ( सं.न.) उत्कण्ठा , कौतूहलं, कुपथ, सं. पुं. (सं.) दे. 'कुपन्थ' । कुतुकं, कौतुकं, जिज्ञासा २. अपूर्व-दुर्लभ- -गामी, वि. ( सं. मिन् ) दे. यु.पन्थी' । अदृष्ट,-वस्तु ( न.) ३. विनोदः ४. आश्चर्यम्। कुपथ्य, सं. पुं. ( सं. न.) रोगजनको आहारकुत्ता, सं. पुं. ( देश.) कुक्कुरः, श्वन् , शुनकः, | कौलेयकः, भषकः, सारमेयः, मृगदंशकः, भषणः, कुपात्र, वि. ( सं. न. ) अयोग्य, अनई, निर्गुण, वकलांगूलः, वृकारिः, शयालुः। अनधिकारिन् । कुत्ते की हड़(ल)क, सं. स्त्री., आलर्क, जल- कुपित, वि. ( सं. ) क्रुद्ध, रुष्ट । संत्रासः, अलकाभिभवः । | कुपुत्र, सं. पुं. (सं.) दे. 'कपूत' । कुत्ती, सं. स्त्री. (हिं. कुत्ता) दे. 'कुतिया। कुप्पा, सं- पु. ( मं. कुतुपः ) कृपकः, कुतः कुत्सित, वि. (सं.) अधम, अवम, गर्झ, (स्त्री.) चर्ममयं स्नेहपात्रम् । निन्दित । -होना, मु. आप्याम्-स्फाय ( भ्वा. आ. से.) कुदरत, सं. स्त्री. (अ.) प्रकृतिः (स्त्री.), माया, पीनीभू० । ईश्वरशक्तिः ( स्त्री.) २. अधिकारः, प्रभुत्वम् कुप्पी, सं. स्त्री. ( हि. कुप्पा ) चर्मकपी, लघु३. संसारः, जगत् (न.) ४. रचना। कुतुपः-कुतूः (स्त्री.)) कुदरती, वि. (अ.) नैसर्गिक, प्राकृतिक, कुफर, सं. पुं. ( अ. कुफ्र ) यवनेतरसंप्रदायः मायामय २. स्वाभाविक, सहज ३. दिव्य, | २. यवनमतविरोधिवाक्यम् । ऐश्वर (-री स्त्री.)। | कुफल, सं. पुं. ( अं.) तालः, द्वारयंत्रम् । कुदाँव, सं. पु. ( सं. कु+ हिं. दाँव ) छलं, | कुब, सं. पुं. ( सं. कुब्जः > ) ककुद:-दं, कुद् विश्वासघातः २. कुस्थितिः (स्त्री.)३. कुस्थानम् । (स्त्री.)। कमान'.सं.पं. (सं.न. गटानम २. कपा- कुबड़ा, वि. ( सं. कुब्ज ) कुब्जक, न्युब्ज, वक्रत्राय दानम् । पृष्ठ, गडुल-र, गडु । सं. पुं. कुब्जः इ. । कुदान, सं. स्त्री. (हिं. कूदना ) कर्दनं, झंपः- कुबड़ी, सं. स्त्री. (हिं. कुबड़ा) नतशीर्षा पा २. कूर्दनभूमिः (स्त्री.), झंपान्तरालम् । | यष्टिः ( स्त्री.) २. दे. 'कुब्जा'। कुदाना, क्रि. स., 'कूदना' के धातुओं के कुवानि, सं. स्त्री., दे. 'कुटेव' । प्रे. रूप। कुबुद्धि, वि. (सं.) मूर्ख, मन्दमति । सं. स्त्री., कुदाल, सं. पुं. (सं. कुद्दालः ) कुद्दारः, अव- | मौख्य, मूढता। दारणः, स्तम्बघ्नः, खनित्रम् २. टंकः, पाषा- कुबेर, सं. पुं. (सं. कुबेरः) धनदः, यक्षराज, णदारणः। वैश्रवणः, राजराजः, इच्छावसः, नरवाहन, कुदिन, सं. पु. ( सं. न. ) आपत्कालः, विपत्ति- । निधीश्वरः । समयः २. दुर्दिनम्, ऋतुविपरीतं दिनन् । कुबला, सं. स्त्री. (सं. कुबला) कु,-समयः कालः कुदृष्टि, सं. स्त्री. (सं.) पापदृष्टिः (स्त्री.) । २. अनवसरः, अयोग्य कालः । २. अमंगलदृष्टिः । : कुब्ज, वि. (सं.) दे. 'कुबड़ा' । कुधर, सं. पुं. (सं.) पर्वतः २. शेषनागः। कुब्जा, स. स्त्रा. ( स.) कसदासा २. नथराकुनकुना, वि. ( सं. कदुष्ण ) ईषदुष्ण, कोष्ण, | केयीदासी। वि. वक्रपृष्ठा, कुब्जा। कवोष्ण, मन्दोष्ण। कुभा, सं. स्त्री. (सं.) काबुल नदी कुनबा, सं. पुं., दे. 'कुटुम्ब । २. भूमिच्छाया । कुनाम, सं. पुं. (सं.-मन् न.) अप, ख्यातिः | कुमक, सं. स्त्री. ( तु. ) सैन्य-, सहायता । कीर्तिः (स्त्री.)। कुमकुम, सं. पुं. ( सं. कुंकमम् ) केसर:-रम्, कुपन्थ, सं. पुं. (सं. कुपथः ) कापथः, कुमार्गः / काश्मीरजम् ।। २. निषिद्धाचरणम् ३. कुत्सितसंप्रदायः। कुमुकुमा, सं. पुं. (तु०-मः) लाक्षा,-गोल:कुपन्थी, वि. (हिं कुपन्थ ) कुपथिन्, कुमा- | वर्तुलः २. अलंकरणोपयुक्तः काचगोल: गिन्, कदाचारिन् । ३. संकीर्णमुख-कमंडलुः-करंकः । - - For Private And Personal Use Only Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir कुमाच [१२१] कुमाच, सं. पुं. (अ. कुमाश ) को शेयवस्त्रभेदः। -नामा, सं. पुं. (अ+फ़ा.) वंश, वृक्ष:कुमार, सं. पुं. (सं.) बालः, बालकः २. पुत्रः परंपरा। ३. राजपुत्रः ४. युवराजः ५. कात्तिकेयः आराम -- , सं. स्त्री. (फ़ा.+ अ.) विश्रामासंदी। ६. अप्राप्तयौवनः ८. सनकादयः ऋषयः | कुरा, सं. पुं. (अ.) दे. 'पाँसा'। ७, भारतवर्षः-पम् । वि., दे. 'कुआरा' । । कुरान, सं. पुं. (अ.) यवनधर्मपस्तकम् । कुमारबाज, सं. पुं. (अ. + फ़ा.) तकारः, | कुराह, सं. स्त्री. (सं. कु + फ़ा. राह) दे. 'कुपंथ'। कितवः। कुरीति, सं. स्त्री. (सं.) कप्रथा, कदाचारः, कुमारी, सं. स्त्री. (सं.) बाला, बालिका, कन्या | कुव्यवहारः । २. पुत्री, ३. राजपुत्री ४. द्वादशवर्षा कन्या कुरु, सं. पुं. (सं.) नृपविशेषः २. प्रान्तविशेषः ५. महा, घृतकुमारी ६. सीता ७. पार्वती। ३. कुरुवंशजः । वि. दे. 'कुँआरी'। --क्षेत्र, सं. पु. ( सं. न.) महाभारतसंग्रामकुमार्ग, सं. पुं. (सं.) दे. 'कुपंथ'। भूमिः ( स्त्री. )। कुमुद, सं. पुं. (सं. न.) कैरवं, चन्द्रकान्तं कुरूप, वि. (सं.) विरूप, कदाकार, दुर्दर्शन । कल्हार, शीतलकं, इन्दुकमलं, चन्द्रिकांबुजं, स. पु. ( स. न. ) वरूप्य, कदाकारः। गन्धसोमं, कुवलयम् २. कर्पूरः-रं ३. रूप्यम् । कुरूपता, सं. स्त्री. (सं.) दे. 'कुरूप' सं. पुं.। -बंधु, सं. पुं. ( सं.) चन्द्रः २. कर्पूरः-रम् । | कुरेद (ल) ना, क्रि. स. ( सं. कर्तनम् ? ) कुमुदिनी, सं. स्त्री. (सं.) दे. 'कुमुद' उत्-वि, लिख ( तु. प. से.), तक्ष ( भ्वा. प. २. कुमुदवत् सरस् ( न.)। से.), खुर् ( तु. प. से.), घृष् (भ्वा. प. से.) -पति, सं-पु. ( सं.) चन्द्रः । त्वक्ष ( भ्वा. प. वे.) उत्खन् ( भ्वा. प. से)। कुमेरु, सं. पुं. (सं.) दक्षिणध्रुवः।। कुर्क, वि. ( तु.) ऋणहेतोः अपहृत । कुमोदिनी, सं. स्त्री., दे. 'कुमुदिनी' । -करना; क्रि. स.. ऋगहेतोः अपहृ (भ्वा. उ. अ.)। कुम्मत, सं. पुं. (तु.) पिंग,-वर्णः-रंगः-अमीन, सं. पुं. (तु.+फ़ा) ऋणादिहेतोः २. पिंगाश्वः । द्रव्यापहर्ता, राजकर्मचारिन् । कुम्हड़ा, सं. पुं. (सं. कूष्मांडः) दे. 'काशीफल' | | की, सं. स्त्री. (तु कर्क > ) ( राजाज्ञया) कुम्हलाना, क्रि. अ. ( सं. कुम्लानं ) म्लै ग्लै | सम्पत्तिहरणम् । ( भ्वा. प. अ.), विश (कर्म.), विवर्णी भू। कर्ता, सं. पुं. (तु.) चोलः, उरोवस्त्रम् । कम्हार, सं. पुं. (सं.कुंभकारः) कुलालः, चक्रिन् । कर्ती, सं स्त्री. (तु, कुर्ता > ) आंगिकः-कं, कुम्हारिन , सं. स्त्री. ( हिं. कुम्हार ) कुलाली, कृपासकः-कम् । कुंभकारी, चक्रिणी। कुपर, सं. पुं. [सं. क (कू.) परः जानु ( न.) कुरंग', सं. पुं. (सं.) हरिणः, मृगः २. कृष्णसारः। चक्रिका २. कफोणिः (पुं. स्त्री.) कफणी । कुरंग, वि. कुवर्ण, निन्धरंग। कुर्बानी, दे. 'कुरबानी'। कुरंगी, सं. स्त्री. ( सं.) मृगी, हरिणी।। करी, सं स्त्री. ( देश.) कोमलास्थि (न.)। कुरंड, सं- पु. ( सं. कुरुविंदम् ) काचलवणम् कर्स, सं. पुं. ( अ. ), गुटिका, गुलिका, बटिका । २. माणिक्यम् । | कुर्सी, दे. 'कुरसी'। कुरकुरा, वि. ( अनु. कुरकुर ) भंगुर, भिदुर । । कुलंग, सं. पुं. (अ.) रक्तशीर्षो धूसरः खगभेदः । कुरबान, बि. (अ.) इष्ट, हुत, वलित्वेन दत्त । २. कुक्कुट: ३. दीर्घजंघो मनुष्यः। कुरबानी, सं. स्त्री. ( अ.) यशः, यागः २. बलि:, । कलंजन, सं. पुं. (सं.) कुलंजः, कुर्णजः, गंध उत्सर्गः, आलंभः ३. समर्पणं, परित्यागः। मूलः २. तांबूली-नागलता, मूलम् । कुरसी, सं. स्त्री. (अ.) आसंदी, पीठं,' कुल, सं. पुं. (सं. न.) वंशः, अन्वयः, वंशावली आसनम् २-४. स्तम्भ-प्राकार-भवन, मूलम् । लिः (स्त्री. )२, जातिः ( स्त्री.) ३. समूहः ५. वंशपरंपरा। । ४. गृहम् ५. वाममार्गः। For Private And Personal Use Only Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra कुल www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [ १२२ ] - कलंक, सं. पुं. (सं.) कुलांगारः, कुलपांसलः । -कानि, सं. स्त्री. (सं. + हिं . ) कुल, गौरवमर्यादा | -तारण, सं. पुं. (सं.) वंशोद्धारकः । - पति, सं. पुं. (सं.) गृहस्वामिन् २. दशसहस्रच्छात्राणां पोषकोऽध्यापकश्च ३. विश्वविद्यालयस्य उपप्रधानाधिकारिन् (अं वाइसचान्सलर ) । --वंती, सं. स्त्री. ( सं. कुलवती ) कुलीना, सशजा, आर्या । कुल, वि. (अ.) सकल, समस्त, निखिल । कुलकलाना, कि. अ. (अनु.) कुलकुलध्वनिं कृ । आँ--, मु., अतीव क्षुधू ( दि. प. अ. ) 1 कुलक्षण, सं. पुं. (सं. न. ) अपशकुनः, दुश्चि २. कदाचारः, गह्यचरणम् । वि., दुराचारिन् कुलचा, सं. पुं. ( फा. कलीचा ) सकिण्वोऽपूपः २. दे. 'पूँजी' । । कुल्टा, सं. स्त्री. (सं.) व्यभिचारिणी, पुंश्चली, बंधक, भ्रष्टा, स्वैरिणी, निशाचरी, त्रपारण्डा | कुलत्थ, सं. पुं. ( सं . कुलत्था ) चक्षुष्या, लोचनहिता, दृक्प्रसादा। कुलथी, सं. स्त्री. ( सं . कुलत्थः ) कालवृन्तः ( शस्यभेदः ) | कुलफ, सं. पुं. ( अ. कुफ़्ल) दे. 'ताला' | कुलफा, सं. पुं. ( फा . खुफ़:) बृहलोणी, घोलिका, शाकमेदः । २. दे. 'कुलफी' । कुलफी, सं. स्त्री. (हिं. कुलफ) धूमपानयंत्रस्य भुग्ननाली २. हिमसन्तानीनिर्माणपात्रम् ३. हिमसन्तान, घनमधुरदुग्धम् । कुलबुलाना, क्रि. अ. (अनु. कुलबुल ) दुःखात् अंगानि आकृष् (भ्वा प. अ.) २. अंत्राणि गंभीरं स्वन् (भ्वा. प. से. ) ३. वि सं प्र, सूप ( स्वा. प. अ. ) ४. व्याकुल (वि.) भू ५. दे. 'खुजलाना' । कुलबुलाहट, सं. स्त्री. ( पूर्व ) शनैः सर्पणं, कृमिसदृशी चेष्टा २. कंडलता, कच्छुरता । कुलहा, सं. पुं. (फ़ा. कुलाह ) शंकाकारं शिरस्कम् । कुलही, सं. स्त्री. (हिं. कुलहा ) शिशुशिरदे. 'कनटोप' | स्कम्, कुलीँच, सं. स्त्री. ( तु. कुलाच ) दे. 'छलाँग' । कुशल कुलाबा, सं. पुं. (अ.) लोहपुर : २. वडिशं, मत्स्यवेधनम् ३. द्वारसंधि: (पुं.) ४. लांगं, अंदू:- दु: (स्त्री.) ५. अर्गल:-लम् ६. जलमार्गः, नाली | कुलाल, सं. पुं. (सं.) कुम्भकार: २. वनकुक्कुटः ३. उऌकः । कुलिक, सं. पुं. ( सं .) कलाविद (पुं.) २. शिल्पिन् ३. कुलीनः ४. कुलपतिः । कुलिश, सं. पुं. (सं.) वज्र:-जं, पविः २. विद्युत् (स्त्री.) ३. कुठारः । कुली, सं. पुं. ( तु.) भार, वाह: हरः, भारिक २. कर्मक (का) रः, श्रमजीविन् । कुलीन, वि. (सं.) महाकुल, अभिजात, आर्य, सभ्य, सत्कुलज । कुलीनता, सं. स्त्री. (सं.) आभिजात्यं आर्यता । कुलेल, सं. स्त्री. (सं. कल्लोल: ) क्रीडा, खेला, विहार:, केलि : ( पुं. स्त्री. ), विलाशः, लीला | कुल्या, सं. स्त्री. (सं.) क्षुद्रकुत्रिमनदी २. क्षुद्रनदी ३. पयःप्रणाली ४. कुलस्त्री । कुल्ला, सं. पुं. ( सं . कवल: > ) चलुः, चलुकः, चुलुकः । कुल्हड़, सं. पुं. ( सं . कुल्हरिका ) करकः, क्षुद्र मृत्पात्रम् । कुल्हाड़ा, सं. पुं. ( सं . कुठारः, दे. ) । कुल्हिया, सं. स्त्री. (हिं. कुल्हड़ ) क्षुद्रवारकः, अतिक्षुद्रमृत्पात्रम् । कुवलय, सं. पुं. (सं. न. ) नील, कुमुदं कैौरवंशशिकान्तम् २. नील, कमल - उत्पलम् ३. भूमण्डलम् । कुवाच्य, वि. (सं.) अश्लील, अशिष्ट, अवाच्य । सं. पुं. (सं. न. ) गाली, कुवचनं अपशब्दः । कुवेणी, सं. स्त्री. (सं.) मत्स्यकरंडी २. कुग्रथितवेणी | कुवेर, सं. पुं. (सं.) कुबेरः, दे. | कुश, सं. पुं. (सं.) कुथः, दर्भः पवित्रम् २. जलम् ३. रामपुत्रः ४. कालः । कुशन, सं. पुं. ( अं. ) उपधानं, उपवई, उपबर्हणम् । कुशल, वि. (सं.) दक्ष, चतुर, प्रवीण, निपुण, विशारद, विचक्षण २. श्रेष्ठ, भद्र । सं. पुं. (सं. न. ) सुखं, क्षेमं मंगलम् भद्रं, शिवम् २. कुशग्राहिन् ३. शिवः । For Private And Personal Use Only Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra कुशलता www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [ १२३ ] क्षेम, सं. पुं. (सं. न. ) सुखं, क्षेमं । मंगलम् । कुशलता, सं. स्त्री. (सं.) पाटवं, चातुर्य, निपुणता | कुशा, सं. स्त्री. ( सं . कुशः - शम् ) दर्भः कुथः, पवित्र, याज्ञिकः हस्वगर्भ:, बर्हिस ( पुं. न. ) । कुशाग्र, वि. (सं.) तीक्ष्ण, सूक्ष्म, तीव्र प्रखर । - बुद्धि, वि. (सं.) तीक्ष्णमति । सं. स्त्री, तीव्र, मतिः (स्त्री.) । कुशादगी, सं. स्त्री. ( फ़ा. ) २. विस्तारः, विस्तृतिः (स्त्री.) । कुशादा, सं. पुं. (फ़ा. ) विस्तृत २ आवरण | कुहनी, सं. स्त्री. ( सं . कफोणि: पुं.) कफणिः रहित । (पुं. स्त्री. ), कफणी, कु ( कू ) र्परः । कुशासन', सं. पुं. (सं.कुश + आसनम् ) कुथ- कुहर, सं. पुं. ( सं. न. ) छि, विवरं, बिलं, विष्टरः, दर्भासनम् । रन्ध्रम् । विशालता - जीवी, दे. 'सूदखोर' । -पथ, दे. 'सुदखोरी' | कुष्टी, वि. ( सं . कुष्ठिन् ) श्विन्निन् । कुष्माण्ड, सं. पुं. ( सं . ) दे. ' कुम्हड़ा' | कुसंग, सं. पुं. ( सं ) कुदुस्, संगतिः (स्त्री.) कुसमय, सं. पुं. (सं.) कुकाल:, अशुभसमयः २. अनवसरः, असमय: ३. विपत्कालः । कुसाइत, सं. स्त्री. ( सं . कु + अ. सायत ) अशुभमुहूर्त, अनवसरः, कुसमयः । कुसीद, सं. पुं. (सं. न. ) वादधुष्यं, वृद्धिः ( स्त्री. ) 1 www कुशासन, गं.पुं. (सं. कृ + शासनम् ) दुःशा- कुहरा, सं. पुं. ( सं . कुहेडी ) तुषारः, खवाप्यः, सनम्, कुत्सितराज्यव्यवस्था | धूमिका, कुहेडिका, कुज्झटिका । कुशील, वि. (सं.) दुःशील, दुर्वृत्त, दुःखभाव | कुश्ता, सं. पुं. (फ़ा. -तः ) धातुभस्मन् (न.) । कुश्ती, सं. स्त्री. (का.) निबुद्धं, मल्ल- बाहु-, युद्धम् । कुहराम, सं. पुं. ( अ. कहर + आम ) विलापः, आक्रन्दनं, परिवेदना २. संकुलं, तुमुलम् | कुही, सं. स्त्री. ( सं . कुधि : ) दयेनः खगान्तकः, शशादनः, कपोतारिः । कुष्ठ, सं. पुं. (सं. न. ) वित्रं श्वेतं त्रं, मंडलकं, कुहुक, पुं., दे. कुहू (२) । दुश्चर्मन् (न.) २. दे. 'कुटे" । - नाशन, सं. पुं. (सं.) वाराहीकन्दः २. गौर- कुहू, सं. स्त्री. (सं.) अमावस्या २. कोकिल - सर्षपः ३. श्रीरीशवृक्षः । कुहुकना, क्रि. अ.. दे. 'कुहकना' । मयूर, -आलापः । कुसुम्भ, सं. पुं. (सं. न. ) वस्त्ररंजनं, महारंजनम् २. दे. 'केसर' । कूकना -पुर, सं. पुं. (सं. न. ) पाटलिपुत्रम् । वाण, सं. पुं. (सं.) कामदेवः । कुसुमांजलि, सं. स्त्री. ( सं . पुं. ) पुष्पांजलि: । कुसुमित, वि. ( सं . ) पुष्पित, उत्फुल, फुल्लित । कुसूर, सं. पुं. (अ.) अपराधः स्खलितम् । - वार, वि. अपराधिन्, दोषिन् । कुहक, सं. पुं. (सं. न.) माया, अभिचारः, इन्द्रजालम् २. ऐन्द्रजालिकः ३. वंचकः । कुहकना, क्रि. अ. (अनु. कुहू ) कुद्दूरखं कृ, कूज् ( स्वा. प. से. ) । कुसुम्भा, सं. पुं. ( सं . कुसुम्भम् > ) कुसुम्भरागः २. अहिफेनभंगानिर्मितं मादकद्रव्यम् । कुसुम, सं. पुं. (सं. न. ) पुष्पं, प्रसूनं, सुभं, सूनं, मणीव, सुमनसः ( स्त्री. केवल बहु. ) २. लघुवाक्यमयं गद्यम् ३. स्त्रीरजस् (न.) । | कूँचा, सं. पुं. ( सं . कूर्चम् ) शोधनी, संमार्जनी, कूर्चकम् । कूँची, सं. स्त्री. (हिं. कृचा ) लघु-क्षुद्र, - शोधनी- कृर्चम् २. लोममयी मार्जनी ३. तूलिका, वर्ण, तूली- तूलिका | क्रूज, सं. पुं. ( सं . कुंचः - चा ) क्रौंच:-चा, कलिकः, कालिकः । कुँड, सं. पुं. ( सं . कुंडम् ) सेचनं नी २ सीता, हलरेखा ३. 'खोद' | कुँडा, सं. पुं. ( सं . कुंडम् ), ( जलार्थ ) गृहमृत्पात्रम् २. द्रोणी - णि: ( स्त्री. ) ३. कुसुमपात्रम् | कुँडी, सं. स्त्री. (हिं. कँटा) लघुपाषाणद्रोणी- णिः (स्त्री.) २. पाषाणचषकः-कम् । कूक, सं. स्त्री. (अनु. ) कोकिलकूजितम् २. केका, मयूरध्वनिः ३. दीर्घमधुरध्वनिः । कूकना, क्रि. अ. (हिं. कूक ) कूज् (भ्वा. प. से.), कुहूरवं कृ, केकां कृ. । For Private And Personal Use Only Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir कूकर [ १२४] कृच्छू - कूकर, सं. पुं. ( सं. कुक्कुरः दे.)। | कूटस्थ, वि. (सं.) शिखरस्थ २. निश्चल कूच, सं. पुं. (तु.) प्रस्थानं, प्रयाणं, अपक्रमः । ३. नित्य ४. गूट । २. कटकत्यागः ३. यात्रा। कूटाक्ष, सं. पुं. (सं.) कृट-कपट-,अक्षः-करना, क्रि. अ., प्रस्था (भ्वा. आ. अ.). देवनः-सारः। प्रया ( अ. प. अ.)। कूटाख्यान, सं. पुं. ( सं. न. ) गुप्तार्थ-गूढार्थ,कूचा, सं. पु. ( फ़ा. चः ) वीथी, दे. 'गली'। कथा-उपाख्यानम् । कूजन, सं. पुं. (सं. न.) कूजितं, कलरवः, कूड़ा, सं. पुं. ( सं. कूटः = राशि > ) अबस्करः, खगध्वनिः, विरुतं, गुंजनन् । उच्छिष्टं, मलं, निस्सारवस्तुसमूहः । कूजना, क्रि. अ. (सं. कूजनम् ) कृज (भ्वा. -करकट, सं. पुं., दे. 'कूड़ा' । प. से.), कु ( अ. प. अ.), वि,-रु ( अ. प. कूद, सं. स्त्री. ( हिं. 'कृदना' ) प्लवः, उत्-, से.) २.गुंज (भ्वा. प. से.), हुं कृ। । प्लुतिः (स्त्री.), प्लवनं, झंपः-पा, वलानं, कूजा, सं. पु. ( फ़ा.) सनालीकः करकः । उत्प्लवः । -मिसरी, सं. स्त्री., अर्द्धगोलाकारा घनीकता। -फाद, सं. स्त्री. कृर्दनप्लवनं, झंपवल्गितम् । सिता। कूदना, क्रि. अ. ( सं. कूर्दनम् ) कुर्द ( भ्वा. कूजित, वि. ( सं. ) ध्वनित, स्वनित, गुञ्जित, आ. से.), उत्प्लु ( भ्व. आ. अ.), वल्ग् झंकृत, कलरवपूर्ण। ( भ्वा. प. से.) २. प्र-मुद् ( भ्वा. आ. से.) । कूट', सं. पुं. (सं.न.) छलं, कपटः-टं, माया, सं. पुं., दे. 'कृद' । वञ्चना, प्रतारणा २. असत्यं ३. शृंगं. विषाणम् -फोदना, कि. अ., इतस्ततः वल्ग। २. व्या४. उच्चशिखरम् ५. राशिः ६. गूढार्थवार्ता, | याम । सनिद उपालम्भः ७. प्रहेलिका, गृढप्रश्नः | कृप, सं. पु. ( सें.) दे. 'कुआँ' २. छिद्रं, रध्रम् । ८. लोहमुद्गरः ९. हरिणजालम् १०. प्रच्छ- -मंडूक, सं. पुं. (सं.) व्यवहागनभिज्ञः, नवैरम् ११. नगरद्वारम् १२. भग्न,गो | अपक्कवुद्धिः, अल्पदर्शिन् । २. अंधुभेकः । वृषभः। कूपन, सं. पुं. ( अं.) पर्णिका, *कृपनम् । वि., असत्यवादिन् २. प्रवञ्चक ३. कृत्रिम कूपी, सं. स्त्री. ( सं.) कृपकः, खातकः २. दे. ४. श्रेष्ठ ५. निश्चल । 'कुप्पी' ३. नाभिः (पुं. स्त्री.), नाभी, -नीति, सं. स्त्री. (सं.) दौत्यकर्मन् ( न.) -युद्ध, सं. पुं. ( सं. न.) कपटसंग्रामः। कूबड़, सं. पुं. (सं. कृवरः> ) ककुदः-दम् । -योजना, सं. स्त्री. (सं.) कुचक्रम् । कूर, वि. ( स. क्रूर ) निर्दय, निघृण, नृशंस -साक्षी, सं. पुं. (सं.-क्षिन्) मिथ्यासाक्षिन् ।। २. भयंकर २. दुष्ट ४. अलस ५. मूर्ख कूट', सं. स्त्री. ( हिं. काटना वा कृटना ) कर्तन, ६. कुलक्षण। कृन्तनम् २. ताडनं, कुट्टनम् । | कूर्म, सं. पुं. (सं.) कच्छपः, दे. 'कछुआ' कूटक, सं. पुं. (सं. न.) छलं, कपटम् । २. विष्णोः कच्छपावतारः ३. पृथिवी ४-७. २. उत्सेधः, उत्तंगता ३. फाल:-लं, कुशिकम् ।। ऋपि-प्राग-नाडी-आसन,-विशेषः । कूटना, क्रि. स. (सं. कुट्टनम् ) कुट्ट-चूण- कूल, सं. पुं. (सं. न.) तटः-टी-ट, तीरन् खंड (चु.), पिष ( रु. प. अ.) २. प्रबलं । २. समीप, निकट ३. कुल्या ४. सरस् (न.)। तड् (चु.)। कूल्हा, सं. पु. ( सं. क्रोडम् > ) निनंबास्थि सं. पुं. तथा भाव, कुट्टनं, चूर्णनं, खण्डनम् , पेषगम् २. ताडनं, प्रहरणम् । कूष्मांड, सं. पुं. ( सं.) दे. 'कुम्हड़ा' )। -योग्य, वि., कुट्टनीय, चूर्णयितव्य । कृच्छू, सं. पु. ( सं. न.) दुःखं, कष्ठम् २. पापम् -वाला, सं. पुं. कुट्टकः, पेषकः, ताडयित् । ३. मूत्रकृच्छ्ररोगः ४, व्रतभेदः। वि., दुष्कर, कूटा हुआ, वि., कुट्टित, पिष्ट, ताडित । दुस्साध्य। तात For Private And Personal Use Only Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra कृत [ १२५ ] कृशानु कृत, वि. (सं.) विहित, अनुष्ठित, रचित, | कृदन्त, सं. पुं. (सं.) कृत्प्रत्ययान्तशब्दः (उ. पाचक, भोक्तु इ. ) २. कृत्प्रत्ययविषयकं व्याकरणप्रकरणम् । संपादित, निर्मित । सं. पुं. सत्ययुगम् २. चतुर् इति संख्या । - कार्य, वि. ( सं . ) सफल, सिद्धार्थ । कृपण, वि. (सं.) कदर्य, दे. 'कंजूस' २. क्षुद्र | कृपणता, सं. स्त्री. (सं.) कदर्यता, दे. 'कंजूसी' । कृपया, क्रि. वि. (सं.) सदयं, सकृपं, सानु - कंपं, सानुग्रहम् । कृपा, सं. स्त्री. (सं.) करुणा, दया, अनुग्रहः, प्रसादः उपकारः, अनुकंपा २. क्षमा, मर्षणम् । - निधान, सं. पुं. ( सं. न. ) दयानिधिः । वि. अत्यन्तकृपालु | www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir - कृत्य, आप्तकाम सफलमनोरथ । - युग, सं. पुं. (सं. न. ) सत्ययुगम् । - विद्य, वि. ( सं . ) विद्वस् पंडित, बहुश्रुत | कृतक, वि. ( सं . ) कृत्रिम, अनैसर्गिक, अस्वाभाविक, २. अनित्य ( न्याय० ) । - पुत्र, सं. पुं. (सं.) दत्तकः, दत्रिमः सुतः । कृतघ्न, वि. (सं.) कृतज्ञतारहित, अकृतवेदिन् । कृतघ्नता, सं. स्त्री. (सं.) अकृतवेदिता, उपकारविस्मरणम् कृतज्ञताराहित्यम् । " कृतज्ञ, वि. (सं.) उपकारश, कृतविद्, कृतवेदिन् । कृतज्ञता, सं. स्त्री. (सं.) उपकारज्ञता, उपकारस्मरणं, कृतवेदित्वम् । कृतांक, वि. (सं.) सचिह्न, चिह्नित, अंकित, सांक । कृतांजलि, वि. (सं.) बद्धांजलि, बद्धकर । कृतांत, सं. पुं. ( सं. ) मृत्यु: २. यमः ३. पापम् ४. देवता ५. पूर्वजन्मकर्मफलम् ६. सिद्धान्तः ७, शनैश्वरवारः । कृतार्थ, बि. (सं.) पूर्णकाम, दे. 'कृतकार्य' २. संतुष्ट ३. निपुण ४. मुक्त । कृतास्त्र, वि. (सं.) सशस्त्र, सास्त्र, सन्नद्ध २. अस्त्रविद, शस्त्रनिपुण । कृति, तं. स्त्री. ( सं . ) चेष्टा, क्रिया २. कर्मन् (न.) कार्यम् ३. इन्द्रजालम्, माया ४. रचना, ग्रंथः ७. प्रहारः ८. क्षतिः (स्त्री.) । कृती, वि. ( सं . कृतिन् ) कुशल, दक्ष, पटु २. पुण्यात्मन्, शुचिव्रत । कृतोदक, वि. (सं.) स्नात, कृतस्नान, कृताभिषेक कृत्ति, सं. स्त्री. ( सं. ) मृगचर्मन् (न.) २. त्वच् (स्त्री.) ३. भूर्ज: ४. दे. 'कृत्तिका' । - वासा, सं. पुं. (सं.- वासस् ) शिवः । कृत्तिका, सं. स्त्री. (सं.) बहुला, अग्निदेवा, नक्षत्रविशेषः । कृत्य, सं. पुं. (सं. न. ) अनुष्ठेयं, कर्तव्यं, विधेयं धर्मः, आवश्यकं कार्यम् २. कर्मन् ( न. ) । कृत्रिम, वि. ( सं . ) कृतक, अनैसर्गिक । - पात्र, सं. पुं. (सं. न. ) प्रसादभाजनं, अनुग्राद्यः, दयाहः । - सिंधु, सं. पुं. (सं.) दयासागरः, अति दयालुः । कृपाण, सं. पुं. (सं.) खड्गः असिः २. दे. 'कटार' ३. दंडक वृत्त मेदः (छन्द) । कृपालु, वि. (सं.) दयालु, कारुणिक, कृपामय । कृपालुता, सं. स्त्री. (सं.) दयालुता, कारुणिकता । कृमि, सं. पुं. (सं.) (पुं. ) २. लाक्षा | कीटः, नीलांगः, क्रिमिः कोश, सं. पुं. ( सं . ) पट्टकीट, -कोषः-गृहं । - नाशक, वि. (सं.) कृमिघ्न, कृमिहर | कृमिक, सं. पुं. ( सं .) क्रिमिः । कीटक, लघु, -कृमि: २. क्रमिज, सं. पुं. (सं. न. ) अगुरु (न.), राजा कौशेयं ३. दे. 'हिरमिजी' । कृमिजा, सं. स्त्री. (सं.) कीटजा, लाक्षा । कृमिल, वि. ( सं .) कृमिकुल, चित-पूर्ण, कृमिमय । कृमिला, सं. स्त्री. (सं.) बहुप्रसूः (स्त्री.), बहुप्रजा । कृश, वि. (सं.) क्षीण, क्षाम, तन्वंग-कृशांग ( - गी स्त्री.), प्र-, तनु, दुर्बल २. अल्प, स्तोक, क्षुद्र, सूक्ष्म, अणु, लघु । कृशता, सं. स्त्री. (सं.) क्षीणता, क्षामता, दुर्बलता २. अल्पता, सूक्ष्मता । कृशांगी, सं. स्त्री. (सं.) तन्वंगी, क्षीणांगी, तन्वी । कृशानु, सं. पुं. (सं.) अनल:, अग्नि (पुं.) २. चित्रकः । For Private And Personal Use Only Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir कृशोदरी [ १२६ ] केदार कृशोदरी, वि. स्त्री. (सं.) तनु-क्षीण, मध्या- केंद्री, वि. ( सं. केन्द्र> ) मध्यम, मध्यस्थ, मध्यमा। मध्य, गत-वर्तिन् , मध्य, केन्द्रीय । कृषक, सं. पुं. (सं.) कृषीवलः, कृषिकः, कृषाणः। -करण, सं. पुं. (म. न.) मध्यवर्तिनं कृः, कृषि, सं. स्त्री. (सं.) कर्षण, हलभृतिः (स्त्री.)। एकतंत्री कृ।। कृष्ण, सं. पुं. (सं.) वासुदेवः, केशवः, चक्र- कैसर, सं. पुं. (अ.) कर्कट कर्कटिका, रोगः, पाणिः ( पुं.) चक्रिन् (पुं.), जनार्दनः, पीतां- कर्करफोटः । बरः, माधवः, मधुसूदनः, हृषीकेशः, गोपालः, के, प्रत्य., (हिं. का ) दे. 'का'। गोवर्धनधारिन (पं.), गोविंदः, दामोदरः, केकड़ा, सं. पुं. (सं. कर्कर: कर्कटकः, कुलीरः। मुरारिः (पुं.), राधारमणः । २. कोकिल: केकय, सं. पुं. (सं.) १. वर्तमानकाश्मीरांत३. काकः ४. कृष्णपक्षः। वि., काल, असित, गंतप्रदेशविशेषः २. दशरथश्वशुर : । २. नील, मेचक, श्याम ३. तिमिर, निष्प्रभ । केकयी, सं. स्त्री. ( सं. कैकेयी)। -जटा, सं. स्त्री. (सं.) जटामांसी, सुगन्धित- केका, सं. स्त्री. (सं.) मयूरवाणी। मूलभेदः। केकी, सं. पुं. ( सं किन् ) मयूरः, शिखिन् । -जीरक, सं. पुं. (सं.) कृष्णा, काला, केत, सं. पुं. (सं.) भवनं, गृहं २. स्थानं बहुगन्धा । ३. ध्वजः, केतनं ४. बुद्धिः ( स्त्री.) ५. संकल्प -द्वैपायन, सं. पुं. (सं.) वेदव्यासः, महा- ६. मंत्रणा ७. अन्नम् । भारतकारः। केतक, सं. पुं. (सं.) केतकीवृक्षः २. तत्पुष्पं । -पक्ष, सं. पुं. (सं.) असितपक्षः, प्रतिपदा- केतकर, वि. ( सं. कति+एक) दे. 'कितने', द्यमावस्यान्तानि पंचदश दिनानि । 'कितना', बहुत' । -लवण, सं. पुं. (सं. न.) रुचकं, अक्षं, | केतकी, सं. ना. (सं.) सूचीपुष्पः, केतकः, सौबलं । -लोह, सं. पुं. (सं. न.) अयस्कांतः, चुंबकः । क्रकचच्छदः, विफला, क्रकचा, गंधपुष्पा । | केतन, सं. पु. ( सं. न.) भवनं, गृहम् २. स्थानं -शार, -सारंग, -सार, सं. पुं. (सं.) ३. चिन्ह ४. ध्वजः ५. निमंत्रणं, आह्वानम् । मृगभेदः। कृष्णता, सं. स्त्री. (सं.) कृष्णिमन् (पं.), केतली, सं. स्त्री. (अं. केटल) उखा, स्थाली, कालिमन् (पुं.), नीलत्वं, श्यामत्वं । लोहा, लौहभूः ( स्त्री.)। कृष्णा, सं. स्त्री. (सं.) द्रोपदी, पांचाली केतित, वि. ( सं. ) आमंत्रित, आहुत, आका२. कालीदेवी ३. दक्षिणदेशे नदीविशेषः रित २. जनाकीर्ण, लोकायुपित । ४. कृष्णजीरकः ५. कृष्णद्राक्षा ६. नयनतारा। केतु, सं. पु. (सं.) ग्रह विशेषः २. उल्का, उत्पातः कृष्णाष्टमी, सं. स्त्री. (सं.) श्रीकृष्णजन्मदिवसः, ३. ज्ञानं ४. दीप्तिः (स्त्री.) ५. ध्वजः ६. चिह्नम् जन्माष्टमी, भाद्रमासस्य कृष्णपक्षस्याष्टमी तिथिः। ७. राक्षसविशेषस्य कबंधः । कृष्णी , सं. स्त्री. (सं.) कृष्ण, रजनी-रात्रिः -तारा, सं. पुं. (सं. स्त्री. ) धमकेतुः (पं.), (स्त्री.)। उल्का । कृष्य, वि. ( सं.) कर्षणीय, कृषियोग्य। | -मान् , वि. ( सं.-मत् ) तेजरिवन् २. ध्वजिन् केंचुआ, सं. पुं. ( सं. किंचुलुकः ) महीलता, ३. बुधः । गंड्रपदः, किञ्चिलिकः । -माल, सं. पुं. ( सं. न. ) जंबुद्वीपस्य नवखंकेंचुल, सं. स्त्री. ( सं. कंचुकः ) निर्मोकः, अहि- डांतर्गतखंडविशेषः । भुजंग-सर्प,-त्वच (स्त्री.)। -रत्र, सं. पुं. ( सं. न.) वैदूर्यमणिः (पुं.)। केंचुली, वि. (हिं. केंचुल) कंचुक,-सदृश-तुल्य । केथीटर, सं. पुं. (अं.) मूत्रशलाका। सं. स्त्री. दे. 'केचुल'। | केलसियम, सं. पुं. ( अं.) चूर्णातु ( न.), केंद्र, सं. पुं. (सं. न.) मध्यः-ध्यं, मध्यभागः खटिकम् । २. उदरं, गर्भः ३. मुख्य-प्रमुख,-स्थानम् । केदार, सं. पुं. (सं.) व्रीहिक्षेत्र २. हिमालये For Private And Personal Use Only Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra केन www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [ १२७ ] कंची केश, सं. पुं. (सं.) वाल:, कचः, कुन्तलः, चिकुरः, शिरोरुहः, शिरसिज:, मूर्द्धजः, वृजिनः २. किरणः ३. वरुणः ४. विष्णुः ५. सूर्यः ६. विश्व ( ७-८ ) अश्व- सिंह, स्कंधकेशः । - कर्म सं. पुं., केशकर्मन् (न.), केश, विन्यासः-प्रसाधनम् । तीर्थविशेषः ३. आलवालं ४. मेघरागपुत्रः ५. सपुष्पः क्षेत्रभागः । केन, सं. पुं. (सं., 'किं' का तृतीया एकवचन ) उपनिषद विशेषः । केमरा, सं. पुं. ( अं. ) छायाचित्रपेटिका | केमिस्ट्री, सं. स्त्री. ( अं. ) रसायनम् । केयूर, सं. पुं. (सं. पुं. न.) अंगदः-दं, वलयः-यं । केराना, सं. पुं. दे. 'किराना' । केराना, सं. पुं. ( अं. क्रिश्चियन > ) भारो पीयः २. लेखकः, कायस्थः, लिपिकारः । केराया, सं. पुं. दे. किराया' । किराये की गाड़ी, सं. स्त्री, पण्य-साधारणवाहनं-रथः । केला, सं. पुं. ( सं. कदल: ), ( वृक्ष ) कदली, रंभा, मोचा, काष्ठीला, सकृत्फला, गुच्छफला, निःसारा, ऊरुरतभा, मो ( रो, लो ) चकः, वारणवलभा । ( फल ) कदलीफलं, मोचं इ. । केलि, सं. स्त्री. (सं.) क्रीडा, खेला २. रतिः (स्त्री.), मैथुनं ३. नर्मन् (न.), परि ( रो ) हासः ४. पृथिवी । —कला, सं. स्त्री. शारदावीणा २. रतिविज्ञानं । केसी, सं. पुं., दे. 'देश' । केलोरी, सं. स्त्री. (अं. ) उपम् । केवट, सं. पुं. ( सं . केवतः ) नाविकः, पोतवाहः, औडुपिकः २. धीवरः, कैवर्तः, जालिकः, मत्स्याजीवः । केवटी, सं. स्त्री. (हिं. केवट ) मिश्रद्विलं, वेदलसंकरः । केवड़ा, सं. पुं. ( सं . केविका ) केवी, कविका, भृङ्गारि: (पुं. ), महागंधा, नृपवलभा २. केवीपुष्पं इ. ३. महागंधासवः । केवल, वि. (सं.) एक, अद्वितीय २. विशुद्ध ३. श्रेष्ठ । क्रि. वि., एव, चोवलं, मात्र ( समासांत में ) २. सामस्त्येन, संपूर्णतया । केवलात्मा, सं. पुं. ( सं-त्मन् ) परमेश्वर:, जगदीश्वरः २. शुद्धसत्त्वमनुष्यः, पूतात्मन् । केवली, सं. पुं. ( सं . लिन् ) मोक्षाधिकारी साधुः २. तीर्थंकर : ( जैन. ) । केवाँच, सं. स्त्री. (सं. कच्छु > ), (लता) कपिकच्छूः (स्त्री.) स्व-आत्म-, गुप्ता, कंडूरा, मर्कटी २. (फली) कपिकच्छू, बीजकोशः- शिवी । केवाड़, सं. पुं., दे. 'किवाड़' । - कलाप, - पाश, सं. पुं. ( सं .) प्रसाधितकेशाः, अलकः, कुरलः । -प्रसाधनी, सं. स्त्री. -मार्जक, सं. पुं. कंकतिका, दे. 'कंधी' । - विन्यास, सं. पुं. (सं.) दे. 'केशकर्म' | केशक, वि. ( सं .) केशकर्म - केशविन्यास, कुशल, केशप्रसाधक । केशरी, सं. पुं. (सं.-रिन् ) सिंहः, मृगेन्द्रः केशाकेशी, सं. स्त्री. [ सं - शि(न.) ] अन्योऽन्य२. घोटकः ( ३-४) पुन्नाग - नागकेशर, वृक्षः । केशग्रहणपूर्वक प्रवृत्तं युद्धं । केशिनी, सं. स्त्री. (सं.) सुकेशी-शा, सुकची चा । केशी, सं. पुं. ( सं . केशिन् ) सिंहः २. घोटकः २. सुकेश : ( पुरुष ) ३. राक्षसविशेष: । केस, सं. पुं. ( अं.) व्यवहारपदं कार्य २. दुर्घटना ३. कोषः, पुटः । केसर, सं. पुं. ( सं. पुं. न. ) काश्मीर्य, काश्मीरजं, कुंकुम, अग्निशिखं वरं, बाह्नि (ह्री ) कं, पीतनं, गौर, रक्त, लोहितचन्दनं, वर्ण्य, संकोचं, धीरं, घस्रं, घुसृणं, घोरम् २. नागकेशर वृक्षः ३. अश्व - सिंह, - स्कन्धवालाः ४. स्वर्गः । केसराचल, सं. पुं. ( सं . ) मेरुः, सुमेरुः, हेमाद्रिः । केसरिया, वि. ( सं . केसरं > ) घनपीत, कुंकुमवर्ण । -वाना, सं. पुं., कुंकुमवर्ग - घनपीत, वेश:वेषः । केसरी, सं. पुं. ( सं . -रिन् ) दे. 'केशरी' । केसू, सं. पुं. ( सं. किंशुकः ) पलाशः, रक्त पुष्पकः । केहा, सं. पुं. ( सं . केका > ) मयूरः, दे. 'मोर' | केहरी, सं. पुं. ( सं . केशरिन् ) सिंहः २. अश्वः । कैची, सं. स्त्री. ( तु.) दे. 'कतरनी' । करना, मु., अग्राणि निकृत् ( तु. प. से. ) - लू (क्र. उ. से. ) - अवच्छिद् (रु. प. अ. ) । For Private And Personal Use Only Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir कैंचुली [ १२८] कोआ -सी जवान चलना, मु., शीघ्र-सत्वरं-वेगेन । केपिटल, पु. ( अं.) मूल-धनं-द्रव्यम् , २, धन, बद् ( भ्वा. प. से.)-भाष ( भ्वा. आ. से.)। पुंजः राशिः, पुंजि: ( स्त्री. ) ३. राजधानी । कैंचुली, सं. स्त्री., दे. 'केंचुली'। कैपिटलिस्ट, सं. पु. ( अं.) धनिकः, कोटीश्वरः, के, वि. ( सं. कति ) दे. 'कितने', 'कितनी'।। पुंजिपतिः । अव्य., वा, अथवा, यद्वा २. अन्यतर। कैबिनेट, सं. पुं. ( अं.) मंत्रिमंडलम् २. कोष्ठकः -दफा, बार,-वेर, कतिकृत्वः (अव्य.), ३. मंत्रणागृहम् । कतिवारं। कैफियत, सं. स्त्री. ( अ.) अवस्था, स्थितिः कैप, सं- पुं. ( अ.) दे. 'कपू'। (स्त्री.), दशा २, विवरणं, वर्णनं ३. आश्चर्योके, सें. स्त्री. (अं.) वांतं, वमनोद गारः २. वमनं, त्पादकघटना। वमः, वमिः ( ), प्रच्छर्दिका, वमथुः ( पुं.)। करव, स. पुं. (सं. न. ) कुमुदं २. सितोत्पलं, -आना, क्रि. अ., वमनेच्छया पीड् ( कर्म.), | श्वेतकमलं । (सं. पुं.) कितवः २. शत्रुः । विवमिषति (सन्नन्त.)। कैरी, सं. स्त्री. ( देश.) दे. 'अँबिया'। -करना, क्रि. स. उद्,-वम् (भ्वा. प. से.) -आंख, सं. स्त्री., कपिल-पिंगल, नयनं-नेत्रं । छद् (चु.), उत्क्षिप् (तु. प. अ.), उद्गृ | कैलास, सं. पुं. ( सं.) पर्वतविशेषः, शिव-कुबेर, .(तु. प. से.)। निवासः। कैतव, सं. पुं. (सं. न.) छलं, कपट, वंचनं -नाथ, पति, सं. पुं. (सं.) शिवः। २. द्यूतं ३. वैदूर्यमणिः (पुं.) ४. धुस्तूरः। -वास, सं. पुं. (सं.) गृत्युः । वि., छलिन , कापटिक २. शठ, धूर्त ३. अक्ष- | कवत, स. पु. ( स. ) दे. केवट' । देविन , कितव, (-वी. स्त्री.)। । कैवल्य, सं. पुं. (सं. न.) एकत्वं, असंसृष्टता कैथ-था, सं. पुं. (सं. कपित्थः) दधित्थः, २. अपवर्गः, मुक्तिः (स्त्री.) ३. उपनिषद्विशेषः । मन्मथः, दधि-पुष्प-कुच-गन्ध-दन्त,-फलः।। । केसर, सं. पुं. (ले० सीज़र ) सम्राज , राजाधिकेद, सं. स्त्री. (अ.) बन्धनं, निग्रहः, निरोधः राजः, अधिराजः, अधीश्वरः। २. कारा,-निरोधः-बन्धनं-प्रवेशः-वासः, बंदी वी कसा, वि. (सं. कीदृश) कीदृक्ष, किंरूप, करणं, प्रग्रहः, आसेधः ३. नियमः, समयः, किंविध, किमाकार । प्रतिज्ञा, संकेतः। कैसी, वि. स्त्री. (सं. कीदृशी ) कीदृक्षी, किंरूपा, -करना, क्रि. स., कारागृहे निक्षिप ( तु. प. किमाकारा, किंविधा। अ.)-बन्ध(क्र. प. अ.)-निरुध( रु. उ. अ.), निध( अ.), कैसे, क्रि. वि. (हिं. कैसा) कथं, केन प्रकारेण, बन्दीग्राहं ग्रह ( क्र. प.से.), बंदी। कया रीत्या। -होना, क्रि. अ., करायां निक्षिप-बन्ध निरुप. कोकण, सं. पुं. (सं.) दक्षिणदिशि प्रान्तविशेषः । बन्दीक ( सब कर्म.)। कोपल, सं. स्त्री. ( सं. कोमल > ) पल्लव:-, -खाना, सं. पु. ( फ़ा.) कारा, कारागार:-रं, अंकुरः, प्ररोहः, किस (श ) लयः यं, उद्भिद कारावासः, बन्दि,-शाला-गृहं, बन्धनालयः, (पु.), उद्भिजः।। चारः, चारकः, गुप्तिस्थानं । -निकलना या फूटना, क्रि. अ., प्ररुह ( भ्वा. -तनहाई, सं. स्त्री. ( अ + फ़ा ) एकांत- प. अ.), स्फुट ( तु. प. से.) उद्भिद ( कर्म.) विजन-निभृत,-आसेधः । फुल्ल-विकस् ( वा. प. से.)। -महज़, सं. स्त्री. (अ.) सरल सुगम-,प्रग्रहः- ' को, प्रत्य. ( यह कर्म और संप्रदान कारक का प्रत्यय है, इसका अनुवाद प्रायः द्वितीया और -सख्त, सं. स्त्री. (अ. + फ़ा.) विषम-दुःसह, चतुर्थी के रूपों से होता है। ( राम को कह = आसेधः, इ.। उ., राम ब्रहि, ब्राह्मण को दे = विप्राय देहि )। कैदी, सं. पुं. ( अ. ) बंदी-दिः ( स्त्री.), बन्दिन् | कोआ, सं. पु. ( सं. कोशः-षः ), ( पट्टकीट-) (पुं.), कारागुप्तः, ग्रहकः, प्रग्रहः, रुद्धः ।। कोशः-षः २. दे. 'कोया'। ३. पनसखंडः-डं कैप, सं. पु. ( अं.) दे. 'टोपी'। ४. दे. 'महुआ' (फल)। आसेधः । For Private And Personal Use Only Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir कोई कोई, सर्व (सं. कोऽपि ) कश्चन, कश्चित् (पुं.), का, अपि-चन- चित् (स्त्री.) किं, अपि-चन-चित् ( न. ) | [ २९ ] -कोई, वि. रतोकाः, कतिपयाः, परिमिताः । - चीज़, सं. स्त्री.. किमपि ( वस्तु ) । - दम में, क्रि.वि., सपद्येव, तत्काले, झटिति, द्राक् ( सब अव्य.] ) - दस का मेहमान, सं. पुं., मुमूर्षु, आसन्न,मरण मृत्यु, मरणाभिमुख, मरणोन्मुख । - न कोई, एप वा परो वा यः कश्चिदपि कश्चित्तु । -नहीं, न कोपि कापि किंचिदपि ३. । कोक, सं. पुं. (सं.) चक्रवाकः, द्वन्द्वचरः, रथांगः, चक्रः २. मंडूकः २. विष्णुः (पुं.) ४. वृकः ५. खजरीवृक्षः। [ कोकी (स्त्री.), चक्रवाकी, रांगी इ. ] 1 कोक े, सं. पुं. ( अं. ) न्यङ्गारः । --शास्त्र, सं. पुं. (सं. न. ) कोकपंडितर चितो रतिविज्ञानग्रन्थः । साफ्ट, सं. पुं., मृदुन्यङ्गारः । हार्ड -, सं. पुं. दृढन्यङ्गारः । कोकनद, सं. पुं. (सं. न. ) रक्तोत्पलं २. रक्तकुमुदन् । कोकनी, वि. (देश. ) क्षुद्र, लघु । कोका, सं. पुं. ( अं. ) वृक्षभेदः । कोका, सं. पुं. स्त्री. ( तु. ) धात्री उपमातृ - पुत्रःपुत्री, पात्रेयः यी । - बेली, बेरी, सं. स्त्री. ( सं . कोकनदं + हिं. बेला) नीलकुमुदं । कोकाह, सं. पुं. (सं.) कर्कः, श्वेतघोटकः । कोकिल, सं. स्त्री. (सं. पुं. ) पिकः, पर, भृतःपुष्टः कालः, गन्धर्वः, मधुगायन:, कलकंठः, कुहूरवः, काकलीरवः, वसन्तदूतः, वनप्रियः, ताम्राक्षः । दे. 'कोकिला' । — बैनी, वि. स्त्री. (सं. + हिं. ) सुकंठी, मधुरभाषिणी । कोठा कोकी, सं. स्त्री. (सं.) चक्रवाकी, चक्री, रथांगनाम्नी । कोकीन, सं. स्त्री. ( अं. कोकेन ) कोकापत्रनिर्मित मादकपदार्थः * कोकीनम् । कोको, सं. स्त्री. (अनु.) काकः, वायसः २. काल्पनिक भयहेतुः (पुं.) । कोख, सं. स्त्री. ( सं . कुक्षिः ) गर्भाशयः, गर्भकोशः षः । कोकिला, सं. स्त्री. (सं.) मदनशलाका, पर, भृता-पुष्टा, वनप्रिया, कलकंठी, ताम्राक्षी, वसंत दूती । कोकिलावास, सं. पुं. (सं.) कोकिलोत्सवः, आम्रः, रसालः । ६ आ० हि० -जली, बन्द, वि, बंध्या, सन्तानहीना । की आँच, सं. स्त्री, अपत्यप्रेमन् (पुं.), वात्सल्यं, सन्ततिस्नेहः । , -मारी जाना, मु., च्युतगर्भा भू गर्भः पत् ( भ्वा. प. से. ) च्यु (भ्वा. आ. अ. ) ! खुलना, मु. सन्तानः उत्पद् (दि. आ. अ.) । कोचबकस, सं. पुं. (अं. कोचबॉक्स) सूतासनं । कोचना, क्रि. स., दे. 'चुभाना', 'धँसाना' । कोचवान, सं. पुं. ( अं. कोच > ) सारथिः (पुं.), सूतः, वाहकः । कोजागर, सं. पुं. (सं.) आश्विनी - द्यूत, पूर्णिमा, कौमुदी, शारदी, शरत्पर्वन् (न.) । कोट', सं. पुं. (सं.) दुर्ग २. प्राचीरं ३. राज प्रासादः । --वाल, सं. पुं., कोटपालः, दुर्गाध्यक्षः । कोट े, सं. पुं. ( अं. ) प्रावारः- रकः, कंचुकः । कोटर, सं. पुं. (सं. पुं. न. ) निष्कुहः, तरुविवरं प्रान्तरं २. कोटरावणं, रक्षार्य कृत्रिमवनं । कोटि, सं. स्त्री. (सं.) शतलक्षसंख्या, दे. 'करोड़ ' २. धनुरग्रं ३. अस्त्रादेः कोणः ४ वर्गः, श्रेणी | कोटिक, वि. ( सं . कोटि : स्त्री. ) कोटी-टिः (स्त्री.) लक्षशतकं २. असंख्य, अगणित । सं. स्त्री., उक्त संख्या तदंकाय | कोटिशः, क्रि.वि. (सं.) बहुधा, बहुधा २. अनेककोटिवारं । वि., बहुसंख्याक, अनेक । कोटीश्वर, सं. पुं. ( सं .) कोट्यधीशः, अति धनाढ्यः । कोटरी -ड़ी, सं. स्त्री. (हिं. कोठा ) लघु-क्षुद्र,कोष्ठः-शाला, अन्तःकोष्ठः, गर्भागारं । कोठा, सं. पुं. ( सं . कोष्ठः) गृहं, सदनं, आ-नि,वासः, वेश्मन् - सझन् (न.) २. प्रकोष्ठः, शाला ३. पण्यागारं, पण्याधानं ४. धान्यागार, कुशूलः For Private And Personal Use Only Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir कोठार [१३० ] कोरा ५. चन्द्रशाला, अट्टालिका ६. पटलं, छदिस् । -भरना, मु. उदरं पूर् (चु.)। (स्त्री.) ७. उदरं ८. आमाशयः ९. अंत्राणि | कोदंड, सं. पुं.(सं. न.) धनुस् (न.)। (न. बहु.) १०. निभृतागारं ११. पत्रभागः | (सं. पुं.) भूः (स्त्री.) २. देश विशेषः । १२. गर्भाशयः। कोदो-दो, सं. पुं.( सं. कोद्रवः ) कोरदूषः, -बिगड़ना, मु. अजीर्णरोगेण पीड् ( कर्म.)। कुद्रवः, कुद्दालः। कोठार, सं. पु. (हिं. कोठा ) दे. 'भंडार'। कोन, सं. पुं., दे. 'कोना। कोठरी, सं. पुं. (हिं. कोठा ) दे. 'भंडारी'। कोना, सं. पुं. ( सं. कोणः ) अस्रः २. कोटि:कोठी, सं. स्त्री. (हिं. कोठा ) भवनं, गृहं, अश्रिः पालिः (स्त्री.) ३. निभृतस्थानं ४. हर्म्य २. एकभूमिकं हय ३. पण्य,-आगार चतुर्थभागः। आधानं ४. धान्यागारं ५. भांडार, कोषः -दार, वि., अस्रोपेत, कोणविशिष्ट, अनिन् । ६. वणिग्जनसमवायः ७. बृहदापणः, महती विक्रयशाला ८. गर्भाशयः ९. गुलिकाक्षेपण्या- | -कचोना, सं. पुं., प्रत्यलं, सर्वे कोणाः । कोप, सं. पुं. (सं.) क्रोधः, रोषः । माग्नेयचूर्णाधानं १०. मृण्मयं बृहद्धान्यपात्रं कोपन, वि. (सं.) समन्यु, सरोष, क्रोधिन् । ११. लोहमयं ताम्रमयं वा बृहज्जलपात्रं ।। | कोपिनी, वि. स्त्री. (सं.) दे. 'क्रोधिनी'। -वाल, सं. पुं., श्रेष्ठिन् (पुं.). वाणिजश्रेष्ठः । कोपी, वि. पुं. (सं.-पिन् ) दे. 'क्रोधी। कोड़ना, क्रि. सं., दे. 'खोदना'। कोपीन, सं. पुं.,दे. 'कौपीन' । कोदा, सं. पुं. ( सं. कवरं > ) प्रतोदः, कषा कोमल, वि. ( सं. ) मृदु, मृदुक, स्निग्ध, शा, प्रतिष्कषः-शः, ताडनरज्जुः (स्त्री.)। इलक्षण, मसूण, सुखस्पर्श २. मृदुल, पेलव, -मारना, क्रि. सं., कशया प्रतोदेन वा प्रह | सुकुमार, सौम्य ३. अपरिपक, अप्रौढ़ (भ्वा. प. अ.)-तड् चुद्-दंड ( सब चु.) ४. मनोहर, अभिराम । ( सं. पुं.) स्वरभेदः आहन (अ. प. अ.)। (संगीत)। कोड़ी, सं. स्त्री. (अं. स्कोर ) विंशतिः ( स्त्री.), कोमलता, सं. स्त्री. (सं.) मृदुता, स्निग्धता, सुकुविंशतिवस्तुसमुदायः। मारता, पेलवता, अपरिपक्कत्वं, मनोहारिता इ.। कोढ़, सं. पुं., दे. 'कुष्ठ'। कोयल, सं. स्त्री. दे. 'कोकिल' २. लताभेदः। -में खाज निकलना, मु., रन्ध्रोपनिपातिनोsनर्थाः, छिद्रेष्वना बहुलीभवन्ति, गण्डे स्फो. कोयला, सं. पुं. ( सं. कोकिलः ) कोकिला, टकसंजननम् । दग्धकाष्ठं, अङ्गारः। कोढ़ी, वि., दे. 'कुष्ठी'। -लकदी का, सं. पुं. काष्ठ, कोकिल:-अङ्गारः । कोण, सं. पुं. (सं.) दे. 'कोना'। -पत्थर का, सं. पुं., प्रस्तर अश्म, कोकिलः । कोणि, वि. (सं.) वक्र-आभुग्न,-कर-हस्त ।। ! कोथा, सं. पुं. ( सं. कोणः > ) अपांगः-गकः, कोतल, सं. पुं. (फा.) दर्शनीयघोटकः । चक्षुःकोणः, नयनोपान्तः। २. राजाश्वः । कोर, सं. स्त्री. (सं. कोणः) उपांतः, प्रांतः, कोतवाल, सं. पुं. (सं. कोटपालः ) पुररक्षकः । परिसरः, उपकंठः २. कोणः अत्रः ३. द्वेषः कोतवाली, सं. स्त्री. (हिं कोतवाल ) कोट- ४. दोषः, अवगुणः ५. अस्त्रादीनां धारा । पाल-पुररक्षक, कार्यालयः। ६. पंक्तिः ( स्त्री.), श्रेणी-णिः (स्त्री.)। कोताह, वि. (फा.) न्यून, अल्प, २. लघु, -कसर, सं. स्त्री. ( हिं.+फा. कसर ) वैकल्यं, छस्व ३. संकीर्ण, संकुचित ।। दोषः, छिद्रं, न्यूनता २. न्यूनाधिकता । -हिम्मत, वि., अल्प, साहस-विक्रम । | कोरक, सं. पुं. (सं.) कलिका, दे. 'कली' कोताही, सं. स्त्री. (फा.) त्रुटिः (स्त्री.), २. मृणालं ३. चारनामकगंधद्रव्यम् । न्यूनता २. प्रमादः। कोरा, वि. ( सं. केवल ) अभिः, नव, नवीन, कोथला, सं. पु. ( हिं. गूथल ) बहत्,-पुट:-कोषः । | नूतन, अव्यवहृत, अप्रयुक्त २. अधौत, प्रसेवः २.भामाशयः। \ अक्षालित ३. अरंजित ४. अचित्रित ५. अलि For Private And Personal Use Only Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir कोरि [ १३१ ] कोस खित ६. वंचित, रहित, विहीन ७. निष्कलंक | -का बैल, मु. परम, उद्यमिन्-उद्योगिन् । ८. मूर्ख ९. निर्धन १०. केवल । -में पिरवा देना, मु. अत्यंत पीड् (चु.)। -जवाब, सं. पुं., एकांत-अत्यन्त, निराकरण- कोविद, सं. पुं. (सं.) विद्वस् ( पुं.), पंडितः। प्रत्याख्यानं-निषेधः। कोश, सं. पुं. ( सं. कोश-षः), अभिधानं, -बचना, मु०. अत्यन्तं-नितांत-मुच्-विमुच् । शब्दसंग्रहः २. खड्गादेः वेष्टनं-पुटः कोषः (कर्म.)। कोशः ३. आवरणं, पुटं, पिधानं, आच्छादनं -रहना, मु. भग्नाश-अकृतार्थ-मनोहत (वि.) ४. अंडं, पेशी-शिः (स्त्री.) ५. मंजूषः, संपुट:स्था ( भ्वा. प. अ.)। टकः ६. कलिका, मुकुलं ७. मद्यपान, पात्रं -कोरा सुनाना, मु., स्पष्टं वद् ( भ्व.प.से.), चषकः ८. पुटः-टं, स्यूतः ९. संचितधनं २. भस् ( चु. आ. से. ), आ-अधि,-क्षिप १०. समूहः ११. अंडकोषः १२. योनिः (तु. प. अ.)। (स्त्री.) १३. पट्टकीटगृहम् १४. आत्मनः कोरि, वि., दे. 'कोटि'। पंचावेष्टनानि (वेदांत) १५. आकरोत्थं अभिनव कोरी, सं. पुं. (सं. कोल:> ) आर्य, पटकार: सुवर्ण रजतं वा १६. निधिः (पुं.), निधानं । कुविदः। -कार, सं. पुं. (सं.) अभिधान-शब्दसंग्रहः,कोर्ट, सं. पुं. (अं.) न्यायालयः, धर्माधिकरणम् । कार:-संपादकः २. पट्टकीटः। २. राज-नृप, सभा ३. न्यायासनम् । -पाल, सं. पुं. (सं.) कोशा( पा )ध्यक्षः, -आव वाईस, सं. पुं., बालकविधवादि कोशाधीशः। संपत्तिप्रबन्धकः विभागः। कोशक, सं. पुं. ( सं. ) अण्डं, पेशी -फीस, सं. स्त्री., न्यायशुल्कः-ल्कम् । २. अण्डकोषः । -मार्शल, सैनिकन्यायालयः २. सैनिक- कोशल, सं. पुं. (सं.) देशविशेषः २. अयोध्या । न्यायेन दण्डनम् । | कोशलिक, सं. पुं. (सं. न.) दे. 'कौशलिक' । -शिप, सं. स्त्री., विवाह, अनुनयः-याचना। कोशागार, सं. पु. ( सं. पुं. न.) कोशगृह, कोल' सं. पुं. (सं.) शू (स) करः, किरिः भांडागार:-रं। (पुं.) २. उपगूहः, आलिंगनं ३. कोडं, अंकः | कोशिका, सं. स्त्री. (सं.) चषकः, शरावः । ४. वन्यजातिविशेषः ५. कृष्णमरिचं ६. दे. २. कंसः, गल्वर्कः। 'तोला' ७. बदरीफलभेदः ८. दक्षिणदिशि कोशिश, सं. स्त्री. ( फ्रा. ) यत्नः, उद्योगः, देशविशेषः। परिश्रमः। कोल', सं. पुं. (अं. ) अंगारः, कोकिलः। कोष, सं. पुं. (सं.) दे. 'कोश'। -गैस, सं. स्त्री. ( सं.) अङ्गारवातिः ( स्त्री.)।। -अध्यक्ष, सं. पुं. (सं.) दे. कोष, पालः-अधीशः। -टार, सं. पुं. (सं.) कोलतारं, तारकोलम् । कोष्ठ, सं. पुं. (सं.) उदरमध्यं २. गर्भाशयादयः चार-, सं. पुं., काष्ठाङ्गारः। आवरणविशिष्टा अवयवाः ३. गृहमध्यं स्टीम-, सं. पुं., बाप्पागारः ।। कोलाहल, सं. पुं. (सं.) कलकल:, कालकील:, ४. प्राकारः ५. धान्यागारः-रम् ६. परिवेष्टित. स्थानम्। तुमुलं, उत्क्रोशः, निहादः, विरावः । -मचाना, क्रि. सं., कोलाहलं-कलकलं, कृ, -बद्धता, सं. स्त्री. दे. 'कब्ज'। आ-वि, कुश ( भ्वा. प. अ.)। कोष्ठक, सं. पुं. ( सं. ) परिवेष्टकपदार्थः कोली, सं. . ( सं. कोलः > ) तंतुवायः, | | (दीवार, रेखादि ) २. सारणी, अनेकगृहयुतं पटकारः। चक्रं, अंक-अक्षर, जालं ३. अर्द्धचंद्रद्वयं [ उ. (), कोल्हू, सं. पुं. ( हिं. कृल्हा ? ) १. चक्रं, तैलपे- [], { }, ] ४. सारणीवर्गः। षणी, तिलपेषणयंत्रं २. इक्षु-रसाल,-पेषणी। | कोस, सं. पुं. ( सं. कोशः ) सहस्रधनुस् -काट कर मुंगरी बनाना, मु., अल्पलाभाय (न.), चतुःसहस्त्र (अष्टसहस्र) हस्तपरिमाणं, बहुदानि कृ। । द्विसहनदंडः, गव्यूतं, मील-द्वयं-युग्मं । For Private And Personal Use Only Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir कोसों दूर कोर्सों दूर, क्रि. वि., अति, दूर-दूरे-दूरतः, सुदूरं । कोसों दूर रहना, मु., सुदूर-पृथक् स्था (भ्वा. प. अ. ) । कोसना, क्रि. स., ( सं . क्रोशनं> ) आकुश् ( स्वा. प. अ.), गर्ह ( स्वा. आ. से. ), अभिशंस् (भ्वा. प. से. ), शप् (भ्वा. उ. अ.) 1 पानी पी पी कर कोसना, मु., अत्यतं आकुश् [ १३२ ] इ. कोह, सं. पुं. ( फा . ) पर्वतः, गिरिः । - नूर, सं. पुं. (फ़ा + अ. ) हीरकविशेषः । कोहनी, सं. स्त्री, दे 'कुहनी' । कोहरा, सं. पुं., दे. 'कुहरा' । कोहान, सं. पुं. ( फ़ा. ) उष्ट्र-क्रमेलक, ककुद् :ककुदम् । को हिस्तान, सं. पुं. (फ़ा. ) पर्वतीय प्रदेशः, शैली स्थली । को हिस्तानी, वि. ( फा . ) पर्वतीय, शैल (-ली स्त्री.), पर्वतमय (-यी स्त्री.), नगप्राय, सपर्वत । सं. पुं., पर्वत गिरि- अद्रि, वासिन्, शैलाटः । कौंच, सं. स्त्री. [सं. कच्छुः (स्त्री.) > ] रोमवल्ली, शूकशिंबी, वृष्या, २ तस्याः बीजकोषः । | कौमारिक कौड़ा, सं. पुं. ( सं . कपर्दकः ) वराटः, बालक्रीडकः । कौड़ी, सं. स्त्री. ( सं . कपर्दिका ) वराटिका, काकिनी - णी । २. द्रव्यं, धनं ३. अक्षि-नयन,गोल :- गोलं ४. मांसग्रंथि : ( पुं. ) ५. कृपाणाग्रं ६. अधीननृपतिभ्यो ग्राह्यः करः ७. उरोस्थि (न.) । ( दो ) - का, काम का नहीं, मु. अल्पमूल्य, तृणप्राय, निरर्थक, असार । , - भर, मु., अत्यल्प, किंचिद् स्वल्प | -को मुहताज या तंग होना, मु., अकिंचनत्वं अत्यंतदारिद्र्यं नितान्तनिर्धनता । - चुकाना, मु., ऋणं निःशेषं परिशुध् (प्रे.) - अपाकृ । कौटिल्य, सं. पुं. ( सं .) चाणक्यः, चंद्रगुप्त मौर्यस्य महामंत्रिन् । ( सं. न. ) वक्रता, कुटिलता २. दुष्टता, छल, कपटम् । कौटुंबिक, वि. (सं.) कुटुंब - गृहजन - परिवार, संबंधिन्-विषयक, कौल, पारिवारिक, गृह्य । -जोड़ना, मु., संग्रहू ( क्. प. से. ) । कानी या फूटी कौड़ी, मु. अत्यल्प, वित्तं द्रव्यम् । कौडियों के मोल, मु., अत्यल्पमूल्येन । कौतुक, सं. पुं. (सं. न. ) कु(कौ)तूहलं, कुतुर्क, जिज्ञासा २. आश्चर्य ३. विनोद:, नर्मन् (न.) ४. हर्षः ५. खेला, क्रीडा | कौंची, सं. स्त्री. ( सं . कंचिका ) वेणुशाखा, कुंचिका । 'कुतूहल' । कौतुकी, वि. (सं. किन् ) सलील, सोल्लास, क्रीडाप्रिय, विनोदप्रिय, नर्मगर्भ । कौतूहल, सं. पुं., दे. कौन, सर्व. ( सं. को नु के रूप (कः, का, किं — कौन, कः कः इ. । दो में से, कतरः, कतरा कतरत् (पुं. सं. न. ) बहुतों में से, कतमः कतमा, कतमत् (पुं. स्त्री. न. ) । ) 'किं' के तीनों लिंगों इ. ) । कौंध, सं. स्त्री. (हिं कौंधना > ) विद्युद्विलासः, तडिद्युतिः, (स्त्री.) चंचलास्फुरणं । कौंधना, क्रि. अ. ( सं: कननं = चमकना + अंध > ) विद्युत् ( स्वा. आ. से. ) विद्युत् विलस् ( भ्वा. प. से. ),-सहसा प्रकाशू ( भ्वा.आ. से. ) स्फुर ( तु. प. से. ) । कौंधा, सं. पुं., दे. 'कौंध' । कौप, वि. (सं.) कूप- अबट, विषयकसम्बन्धिन् । कौंसिल, सं. स्त्री. ( अं. ) सभा, संसद्, सदस् ( सब स्त्री. ) । कौपीन, सं. पुं. (सं. न. ) मलमल्लक:, घटी, घटिका; कच्छा, कच्छटिका, २. गुदलिंगे, गुह्यांगानि ३. पापं ४. अकार्यम् । कौआ, सं. पुं. दे. 'कौवा' । कौच, सं. पुं. ( अं. ) खट्टिका, सन्दी, निषधा, कौबेरी, सं. स्त्री. (सं.) उत्तरदिशा, उदीची। पेचकः । क़ौम, सं. स्त्री. (अ.) वर्ण, जातिः (स्त्री.) २. कुलं, वंशः ३. देशः, राष्ट्रं विषयः । धनं संचि ( स्वा. प. अ. ) - | कौमार, सं. पुं. ( सं. न. ) कुमारावस्था ( ५ अथवा १६ वर्ष पर्यंत ), बालत्वम् । कौमारिक, वि. (सं.) कुमार, विषयक - सम्बन्धिन् । सं. पुं., कन्यानामेव जनकः । For Private And Personal Use Only Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir कौमारिकेय [ १३३ ] क्रिकेट कौमारिकेय, सं. पुं. (सं.) अनूढा-कुमारी- | क्यों, क्रि. वि. (सं. किम् ) किं, केन हेतुनाकन्या-पुत्रः-तनयः । कारणेन, किन्निमित्तं, किमर्थ, कुतः, कस्मात् कौमियत, सं. स्त्री. (अ.) राष्ट्रियता, जातीयता।। २. कया रीत्या, कथम् । कौमी, वि. ( अ. ) राष्ट्रि(ष्ट्री )य, देशीय, | -कर, कथं, केन प्रकारेण २. किमर्थं, किम् । जातीय। -कि,-यतः, यत् , यस्मात् । -हुकुमत, सं. स्त्री., राष्ट्रियशासनं, स्वराज्यं । | | -नहीं, निःसंदेहं, निःसंशयं, अवश्यं, ध्रुवम् । कौमुदी, सं. स्त्री. (सं.) ज्योत्स्ना , दे. 'चाँदनी'। क्रदन, सं. पु. ( सं. न. ) रोदनं, रुदितं, अश्रुकौर, सं. पुं. (सं. कवलः ) ग्रासः, गुड कः, | पातः २. परिदेवना-नं, आ-वि, क्रोशः। पिंडः। क्रतु, सं. पुं. (सं.) यज्ञः, यागः २. संकल्प: कौरव, सं. पुं. (सं.) कुरुराजसंतानः । ३. अभिलाषः ४. विवेकः ५. इन्द्रियं ६. जीवः -पति, सं. पु., दुर्योधनः। ७. विष्णुः ८. आषाढः ९. श्रीकृष्णपुत्रः। कौल, वि. (सं.) दे. 'कुलीन' । क्रम, सं. पुं. (सं.) अनुक्रमः, आनुपूर्वी-व्य, कौल, सं. पुं., दे. 'कौर'। पारंपर्य, परंपरा, विन्यासः, व्यवस्था, संविकौल, सं. पुं. (अ.) प्रतिज्ञा, समयः धानं, विरचनं २. प्रकार, विधिः (पुं.) रीतिः २. उक्तिः ( स्त्री.)। (स्त्री.) ३. पादविन्यासः ४ काव्यालंकारभेदः । कौवा, सं. पुं. (सं. काकः ) वायसः, ध्वाक्षः, --करके या से, क्रि.वि., अनुक्रम, यथाक्रम, मौकुलिः (पुं.), एकाक्षः उलूकारिः (पु.), अनुपूर्वशः. आनुपूर्येण २. शनैः शनैः, अल्पाकरटः, कुणः, द्रोणः २. अलिजिह्वा, शुंडिका, लंबिका ३. धूर्तः ४. वंचकः। ल्पशः, उत्तरोत्तरम् । --परी, सं. स्त्री., अतिकुरूपिणी नारी। क्रमण, सं. पुं. (सं.) पादः, चरणः २. अश्वः, -उठाना, मु. बालशंडिकां उत्स्था (प्रे.)। | घोटः । (सं. न.) गमनं, चलनम् २. उल्लंघनम्, कौशल, सं. पुं. (सं. न.) चातुर्य, दाक्ष्य, नैपुण्यं | __ अतिक्रमणम्। २. कुशलं, मंगलम् । | क्रमशः क्रि. वि. (सं.) दे. 'क्रम कम करके' । कोशलिक, सं. पुं. (सं. न.) उत्कोचः, ढोकन क्रमांक, सं. पुं. (सं.) क्रम संख्या-गणना । लम्बा । क्रमागत, वि. (सं.) क्रम-आनुपूर्येण, आगतकौशिक, सं. पुं. (सं.) इन्द्रः २. गाधिनृपः । प्राप्त २. आ ३. विश्वामित्रः ४. कोषाध्यक्षः ५. कोशकारः | क्रमानुसार, क्रि. वि. (सं.-रम् ) क्रमशः, ६. उलूकः ७. नकुलः ८. कौशेयवस्त्रं ९. मज्जा यथाक्रम, आनुपूव्र्येण, अनुपूर्वशः (सब अव्य.)। १०. उपपुराणविशेषः। क्रमिक, वि. (सं.) क्रम-परम्परा,-आगतकौशे(पे)य, वि. (सं.) कौश(प), कौशि(पि)क। आयात, अनुपूर्व, क्रमबद्ध, आनुक्रमिक (-की सं. पुं. (सं. न ) क्षोम, चीनांशुकं, पट्टः-टुं, ! | स्त्री.) २. परम्परीय-ण, पैतृक (-की स्त्री.), पट्टांशुकं, दुकूलं, चीनवासस् (न.)। | पित्र्य । कौस्तुभ, सं. पुं. (सं.) विष्णुवक्षःस्थो मणिः । क्रमुक, सं. पुं. (सं.) दे. 'सुपारी'। (पुं.)। क्रय, सं. पुं. (सं.) दे. 'खरीद' । क्या, सर्व. ( सं. किम् )। -विक्रय, सं. पुं., दे. 'खरीद-फरोखत' । वि., कियत् , २. अत्यधिक ३. कीदृश, विचित्र क्रव्य, सं. पुं. (सं. न.) दे. 'मांस'। ४. अत्युत्तम । क्रव्याद, सं. पुं. (सं.) राक्षसः, पिशाचः अव्य. किम् । २. सिंहः ३. इयेनः ४. मांसाशिन् (पुं.)। -कहना है या-बात है, मु., साधु, साधु- क्रान्ति सं. स्त्री. (सं.) महत्परिवर्तनं, परिवर्तः, साधु, सुष्टु, उत्तमं (सब अव्य.)। २. चरणन्यसनं ३. सूर्यभ्रमणमार्गः ४. राज,-खब, मु., साधु, सुष्छु इ.। द्रोहः-विरोधः, राज्यविप्लवः, प्रजाक्षोभः । क्यारी, सं. स्त्री. (सं. केदारः) राजिका। क्रिकेट, सं. पुं. ( अं.) पट्टगेन्दुकम् । For Private And Personal Use Only Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra क्रिया [ १३४ ] क्रिया, सं. स्त्री. (सं.) कर्मन् (न.), कार्य, / क्लर्क, सं. पुं. ( अं. ) लिपि-पंजी, कारः, लेखकः, कायस्थः, वोर(ल)कः । क्लांत, वि. (सं.) म्लान, खिन्न, परि, श्रांत, जातखेद, आयस्त | - मना, वि. (सं.- नस् ) दुर्गनरक, विमनस्क, खिन्न । क्रांति, सं. स्त्री. (सं.) श्रमः क्रमः, आयासः, श्रान्तिः (स्त्री.), खेदः अवसादः । www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir व्यापारः २. चेष्टा ३. आरम्भः ४. व्यापारनिर्देशकः शब्दः (व्या.) ५. नित्यकर्मन् (न.) ६. श्राद्धादिकर्मन् ७. चिकित्सा | - कर्म, सं. पुं. क्रिया-कर्मन् । (सं. न. ) अन्त्येष्टि - मृतक -, - विशेषण, सं. पुं. (सं. न. ) क्रियाया भावकालरीत्यादिद्योतकः शब्दः ( व्या . ) । - इन्द्रिय, सं. स्त्री. (सं. न. ) दे. 'कर्मेन्द्रिय' क्रिस्टल, सं. पुं. ( अं. ) स्फटम् । क्रिस्ता (स्टा)न, सं. पुं. ( अं. क्रिश्चियन् ), क्लिष्ट, वि. (सं.) दुःखित, क्लेशित, आर्त, पीडित २. दुष्कर, कठिन, दुस्साध्य । क्लीव, सं. पुं. (सं.) षं (शं) ङः, संडः, शंढः, नपुंसकः, पुरुषत्वहीन २. दे. 'कायर' । क्लीवता, सं. स्त्री. (सं.) शं (पं)डता, नपुंसकता ख्रिस्तानुयायिन् । क्रीडा, सं. स्त्री. (सं.) खेला, लीला, कूर्दनं, खेलनं, विहारः २. कौतुकं, विनोदः विलासः । क्रीत, वि. ( सं . ) कृतकय, मूल्येन लब्ध | क्रीतक, सं. पुं. (सं.) क्रीतपुत्रः । ऋतु, वि. (सं.) कुपित, रुष्ट, कोपिन्, सामर्ष, "सकोप, सरोष, समन्यु, क्रोध- कोप, युक्त | क्रूर, वि. (सं.) निर्दय, कठोर, नृशंस, पाषाणकठिन, हृदय, निर्घृण, क्रूरकर्मन् निष्करुण २. परपीडक ३. कठिन ४. तीक्ष्ण ५. उष्ण ६. नीच ७. घोर । $ | - कर्मा, वि. ( सं . र्मन् ) घोर, निर्दय, दारुण । क्रूरता, सं. स्त्री. (सं.) निर्दयता, कठोरता, नृशंसता इ. २. रौद्रता, तीक्ष्णता ३. दुष्टता । क्रोड, सं. पुं. (सं. न. ) बाह्वोर्मध्यं, भुजांतरं, उपस्थः, उत्संगः, भोगः, अंक: २. उरस्-वक्षस् (न.), उत्सम् । - पत्र, सं. पुं. (सं. न. ) परिशिष्टं, अंकपत्रं, पूरकपत्रम् । क्रोध, सं. पुं. (सं.) कोप:, रोषः, अमर्षः, मन्युः (पुं.), प्रतिघः, भीमः कुधा, रुषा, रुष - क्रुध् (स्त्री.) दे. 'गुस्सा' । (पुं.), कलिकः, कालि(ली) कः । क्लब, सं. पुं. ( अं. ) गोष्ठीगृहम् । २. कातरता । कुंद, सं. पुं. (सं.) आर्द्रता, स्तेमः, तेमः । २. प्रस्वेदः । क्लेश, सं. पुं. (सं.) दुःखं, कष्टं, पीडा, व्यथा, वेदना, चिंता, आस्रवः, आदीनवः । क्लेशित, वि. ( सं .) दे. 'क्लिष्ट' (१) । क्लैव्य, सं. पुं. (सं. न. ) दे. 'कविता' । क्लोम, सं. पुं. ( सं. न. ) कोमं, क्लोमन् (न.), तिलकं, फुप्फुसं, दे. 'फेफड़ा' । क्लोरीन, सं. स्त्री. ( अं. ) नीरजी, हरिनम् । क्लोरोफार्म, सं. पुं. ( अं.) मूर्च्छकम्, संज्ञालोपकम् (औषधभेदः) । क्वणित, वि. ( सं . ) ध्वनित, सरव, सशब्द | सं.पुं. (सं. न. ) शब्दः, स्वनः । कथित, वि. ( सं . ) श्राण, श्रुत, श्रपित । वाथ, सं. पुं. ( सं .) दे. 'काढा' । वारंटाइन, सं. पुं. ( अं.) निषिद्धसंसर्गगृह, २. संसर्गप्रतिबन्ध, गमनागमननिषेधः । — करना, क्रि. अ., क्रुधू ( दि. प. अ. ), कुप् क्वारा, वि. (सं. कुमार ) दे. 'वारा' । ( दि. प. से. ) । क्रोधित, वि. (सं.) दे. 'क्रुद्ध' । क्वार्टर, सं. पुं. (अं) (राज्यसंस्थादिनिर्मितं ) गृह, गेहूं, सदनं, भवनम् । २. पादः, चतुर्थांश: ३. त्रिमासम्, वर्षपादः । क्रोधी, वि. (सं.-धिन् ) कोपिन् रोपिन्, अमर्षिन्, दे. 'क्रुद्ध' । कीन, सं. स्त्री. ( अं. ) राज्ञी, राजपत्नी । क्षंतव्य, वि. ( सं .) क्षमाई, मर्षणीय, सोढव्य | क्रोश, सं. पुं. (सं.) दे. कोस' | क्रौंच, सं. पुं. ( सं . ) कुंच: चा, क्रौंचा, कुंच क्षण, सं. पुं. ( सं . ) अत्यल्पसमयः,मुहूर्तः, निमेषः, पलं, त्रिंशत्कलापरिमितकालः २. समयः ३. अवसरः ४. उत्सवः । , क्लाक, सं. पुं. ( अं. ) कुड्य - भित्ति, घटी। - टावर, सं. पुं., घंटा, - आलयः - गृहम् । क्षण For Private And Personal Use Only Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir क्षणिक - प्रभा, सं. स्त्री, विद्युत् (स्त्री.), चंचला । -भंगुर, वि., विनश्वर, क्षणिक, अस्थिर । - भर, क्रि. वि., क्षणमात्रं, मुहूर्त - पल, मात्रम् । क्षणिक, वि. (सं.) क्षणस्थायिन्, अनित्य, अस्थिर, विनश्वर, निस्सार, अस्थायिन् । क्षत, वि. (सं.) व्रणित, भिन्नदेह, ताडित, क्षतियुक्त, आहत | सं. पुं. ( सं . न . ) व्रणः, क्षतिः (स्त्री.), अरुस् (न.), आघातः, ई २. स्फोटः, पिटकः । — योनि, वि. स्त्री. (सं.) संभुक्ता, कृतसहवासा | - विज्ञत, वि. (सं.) अतीव व्रणित विद्ध- आहत । क्षति, सं. स्त्री. (सं.) क्षयः, नाशः २. अपचयः, हानि: (स्त्री.) १. व्रणः, ईम् । [ १३५ ] क्षत्र, सं. पुं. (सं. न. ) बलं, शक्तिः ( स्त्री. ) २. राष्ट्र ३. धनं ४. शरीरं ५. जलं ६. तगर - वृक्षः । (सं. पुं.) क्षत्रियः । - पति, सं. पुं., नृपः । क्षत्राणी, सं. स्त्री. ( सं . क्षत्रियाणी) (क्षत्रिय जाति की स्त्री ) क्षत्रिया, क्षत्रिय ( यि) का, क्षत्रियाणी २. (क्षत्रिय की पत्नी) क्षत्रियाणी, क्षत्रियी । क्षत्रिय, सं. पुं. ( सं. ) वर्णविशेषः २. राजन्यः, बाहु:, मूर्द्धाभिषिक्त, क्षत्रः ३. योधः, भटः, वीरः । क्षत्री, सं. पुं. दे. 'क्षत्रिय' । क्षपणक, सं. पुं. (सं.) दिगम्बरयतिः २. बौद्धभिक्षुः ३. कविविशेषः । वि., निर्लज्ज । क्षपा, सं. स्त्री. (सं.) रात्रिः (स्त्री.), निशा, यामिनी । - कर, - नाथ, सं. पुं. ( सं . ) चन्द्र:, सोमः । क्षम, वि. ( सं. ) शक्त, समर्थ, उपयुक्त, योग्य । क्षमता, सं. स्त्री. (सं.) योग्यता, सामर्थ्य, शक्तिः (स्त्री.) । क्षमा, सं. स्त्री. (सं.) क्षांतिः (स्त्री.), तितिक्षा, सहिष्णुता, मर्षणं, सहनशीलता २. पृथिवी ३. खदिरवृक्षः, ४. दक्षकन्या ५. दुर्गा ६. वेत्र वती नदी ७. राधिकासखी ८. वर्णवृत्तभेदः । करना, क्रि. स., क्षम् (भ्वा. आ. वे; दि. प. वे. ), सह ू ( भ्वा. आ. से. ), मृप (दि. उ. से. ) 1 - शील, वि. (सं.) क्षमिन्, क्षमावत, क्षमितृ, सहिष्णु, सहन, क्षन्तृ, तितिक्षु, क्षमायुक्त । क्षमावान, वि. ( सं . वत् ) दे. 'क्षमाशील' | ' क्षीण भ्य, वि. ( सं .) क्षन्तव्य, क्षमा, क्षमोचित, मणीय, सोढव्य । क्षय, सं. पुं. (सं.) अपचयः, हासः २. कल्पांतः प्रलयः ३. नाशः, प्रध्वंसः ४. गृहं ५. यक्ष्मः, यक्ष्मन् (पुं.), राजयक्ष्मन् (पुं. ) ६. रोगः ७. अंतः, अवसानं, क्षयरोगः, शोषः, रोगराजः, गदाग्रणी : (पुं.), अतिरोगः, रोगाधीशः नृपामयः । - कास, सं. पुं. (सं.) क्षयथु:, यक्ष्मकासः (पुं.)। - मास, सं. पुं. (सं.) मलिम्लुचः, मलअधिक,-मासः । - रोग, सं. पुं., दे. 'क्षय' (५) । रोगी, सं. पुं. ( सं . -गिन् ) क्षयिन्, यक्ष्मिन्, रोगराज शोष, प्रस्तः । क्षयी, वि. (सं.-यिन् ) अपचयिन्, हासिन् २. शोषिन्, यक्ष्मिन्, रोगराजपीडित । - रोग, सं. पुं., दे, 'क्षय' (५) । तर, वि. ( सं . ) नश्वर, अनित्य । क्षरण, सं. पुं. ( सं. न. ) शनै: शनै:- विंदुशःविप्रुट्क्रमेण गलनं-स्यंदनं-स्रवणम् । क्षांत, वि. ( सं .) क्षमाशील, क्षमावत्, २. सहिष्णु, सहनशील । क्षांति, सं. स्त्री. (सं.) दे. 'क्षमा' (१) । क्षार, सं. पुं. (सं.) सर्जिका, विडलवणं २. लवणं ३. दे. 'शोरा' ४. दे. 'सुहागा' ५. भस्मन् ( न. ) । क्षमिन् क्षिति, सं. स्त्री. (सं.) भूमिः (स्त्री.), पृथिवी २. क्षयः, हासः, नाशः । - पाल, सं. पुं. (सं.) नृपः । क्षितिज, सं. पुं. ( सं. न. ) दिक्-चक्र-तटं, दिगंतः, दिङ्मंडलं, अंबरांतः, आकाशकक्षा | २. मंगलग्रहः, कुजः ३. वृक्षः ४. दे. 'केंचुआ' । क्षिप्त, वि. (सं.) त्यक्त, विसृष्ट, प्रास्त २. विकीर्ण ३. अवज्ञात ४. पतित ५. वातरोगग्रस्त | क्षिप्र, क्रि. वि. (सं. न. ) द्रुतं, सपदि, द्राक्, दे. 'शीघ्र' । वि., त्वरित, सत्वर, जवन, वेगवत्, शीघ्र । - हस्त, वि. (सं.) शीघ्रकारिन्, आशुकर्तृ । क्षीण, वि. (सं.) सूक्ष्म, प्र, तनु, श्लक्ष्ण २. कुशांग, कुश, क्षाम, क्षीण-शुष्क, मांस ३. नष्ट, ध्वस्त, क्षयंगत । For Private And Personal Use Only Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir क्षीणता [ १३६ ] खंगर क्षीणता, सं-स्त्री. (सं.) दुर्बलता, निःशक्तता । ६. राशिः (पुं., मेषादि ) ७. पली ८. शरीरं २. सूक्ष्मता, तनुता ३. कृशता, क्षामता ९. अंतःकरणं १०. रेखावेष्टितं स्थानम् । ४. हासः, अपचयः, नाशः। -गणित, सं. पुं. (सं.) गणितशाखाभेदः । क्षीर, सं. पुं. (सं. न.) दुग्धं, पयस (न.) | --फल, सं. पुं. ( सं. न. ) वर्गपरिमाणम् । २. जलं ३. पायसं-सः। क्षेत्रज, सं. पुं. (सं.) नियोगजपुत्रः (धर्मशास्त्र)। -निधि, सं. पुं. (सं.) सागरः। क्षेत्रज्ञ, सं. पुं. (सं.) जीवः २. ईश्वरः -नीर, सं. पुं. आलिंगनं २. मिश्रणम् । ३. कृपाणः । वि., ज्ञातृ, दक्ष, निपुण । -सागर, सं. पुं. (सं.) क्षीराब्धिः (पु.) क्षेप, सं. पुं. (सं.) क्षेपणं, प्रेरणं, प्रासनं, विसदुग्ध,-सागरः-समुद्रः, क्षीरोदः । र्जनं २. निन्दा ३. यापनं ४. दूरता। -सार, सं. पुं., दे. 'मक्खन'। क्षेपक, वि. (सं.) क्षेप्त, प्रासक, प्रेरक २. मिश्रित तीरज, सं. पुं. (सं.) चंद्रः २. शंखः ३. कमलं | ३. निन्दनीय । सं. पुं., नाविकः २. प्रक्षिप्त४. दधि (न.)। । निवेशित, लेखः। क्षीरजा, सं. स्त्री. (सं.) दे. 'लक्ष्मी '। क्षेपण, सं. पुं. (सं. न.) दे. 'क्षेप' (१-३)। तीरधि, सं. पुं. (सं.) सागरः, समुद्रः। क्षेपणी, सं. स्त्री. (सं.) अस्त्रविशेषः २. नौकातीरोद, सं. पुं. (सं.) दे. 'क्षीरसागर'। दंडः, क्षेपणिः (स्त्री.)। तीव, वि. (सं.) उन्मद, समद, मदोन्मत्त। क्षेम, सं. पुं. (सं. पुं. न.) लब्धरक्षणं क्षुण्ण, वि. (सं.) प्रहत, चूर्णीकृत, खंडशो भिन्न ।। प्राप्तरक्षा २. मंगलं, कुशलं ३. अभ्युदयः क्षुद्र, वि. (सं.) अधम, निकृष्ट, नीच २. अल्प, ४. आनंदः ५. मुक्तिः (स्त्री.)। स्तोक ३. कृपण ४. कुटिल ५. दरिद्र । क्षोणि, सं. स्त्री. (सं.) क्षोणी पृथिवी। चुद्रता, सं. स्त्री. (सं.) तुच्छता, निकृष्टता -पति,-पाल, सं. पुं. (सं.) नृपः, भूपः । २. कुटिलता ३. दरिद्रता। क्षोद, सं. पुं. (सं.) चूर्ण, पिष्टं २. पेषणं ३. जलं। क्षुधा, सं. स्त्री. (सं.) दे. 'भूख' । क्षोभ, सं. पुं. (सं.) अशांतिः-अनिवृतिः (स्त्री.), चित्तचांचल्यं व्यग्रता, उद्वेगः, व्याकुलता २. भयं तुधात वि. (सं.) दे. 'भूखा' ।। ३. शोकः ४. क्रोधः।। क्षोभित, वि. (सं.) दे. 'क्षुब्ध' । क्षुप, सं. पुं. (सं.) क्षुपकः, क्षुद्रवृक्षः गुल्मः-मं। क्षोणी, सं. स्त्री. (सं.) क्षोणिः (स्त्री.), पृथिवी । क्षुब्ध, वि. (सं.) व्याकुल, विह्वल, आतुर, क्षौद्र, सं. पुं. (सं. न.) मधु (न.) २. जलं उद्विग्न २. चंचल ३. भीत, त्रस्त ४. क्रुद्ध । ३. क्षुद्रता । (सं. पुं.) चंपकवृक्षः ४. वर्णसुर, सं-पु. (सं.) नापितस्य लोमछेदकशस्त्रं, क्षौरी, संकरविशेषः । क्षुरी, खुरः २. शफं-फः, गवादीनां पादानम् । चौम, सं. पुं. (सं. पुं. न.) अट्टः, अट्टालिका तुरी, सं. पुं. (सं.रिन् ) नापितः, क्षौरिका, । (२.४ ) पट्ट-अतसी-शणज, वस्त्रं । मुंडः, मुंडिन् । । क्षौर, सं. पुं. ( सं. न.), क्षुल्लक, वि. (सं.) स्वल्प, स्तोक २.दुष्ट, दुवृत्त -कर्म, सं. पुं. (सं.-मन् न.) दे, 'हजामत'। ३. निर्धन, दरिद्र । सं-पु., वालः, बालकः । तौरिक, सं. पुं. (सं.) दे. 'नाई' । क्षेत्र, सं. पुं. (सं. न.) केद (दा) रः, भूमिः मा, सं. पुं. (सं.) पृथिवी, अवनी । (स्त्री.), वप्रः-प्रं। २. समभूमिः ३. उत्पत्ति- वेड, सं. पुं. (सं.) ध्वनिः, शब्दः २. विषं स्थानं, उद्भवः, उद्गमः ४. प्रदेशः ५. तीर्थस्थानं ३. कर्णरोगभेदः । क्षुधातुर ) सुधित ) ख, देवनागरीवर्णमालाया द्वितीयव्यंजनवर्णः, । खंख, वि. (सं.) रिक्त, शून्य २. निर्जन, वन्य। खकार। खखरा, वि., दे. 'खाँखर' । खें, सं. पुं. (सं. न.) शून्यस्थानं २. छिद्रं खखार, सं. पुं., दे. 'खखार' । ३. आकाशं ४. इंद्रियं ५. विंदुः (पु.), शून्यं खंगर, सं. पुं. (देश.) एकीभूतोऽतिपक्वेष्ट६. स्वर्गः ७. सुखं ८. ब्रह्मन् ( न.)। , काचयः । वि., अतिशुष्क । For Private And Personal Use Only Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir खंगालना [ १३७ ] खचित खंगालना, क्रि. स., ( सं . क्षालनं ) ईषत् धाव् | खंबा, खंभ, खंभा, सं. पुं. (सं. स्कंभः ) ( स्वा., चु. उ. से. ) - प्रक्षल् ( चु. ) । खंज, सं. पुं. (सं.) खोरः, खोल:, खोट:, खोडः, विकलगतिः २. पादरोगभेदः । खंजन, सं. पुं. ( सं . ) खंजरीटः, खंजखेल:, मुनिपुत्रकः, रत्ननिधिः (पुं.), गूढनीडः । खंजर, सं. पुं. ( फ़ा. ) दे. 'कटार' । उप, स्तंभः, अवष्टंभः, स्थाणु: (पुं.), स्थूणा । ख, सं. पुं. ( सं. न. ) गर्तः- र्ता, अवटः २. रिक्तस्थानं ३. निर्गमः ४. विलं, विवरं ५ इन्द्रियं ६. कूपः ७. इपुत्रणः ८ शकटचक्रनाभिच्छिद्रं ९. आकाशं १०. स्वर्गः ११. बिंदु: ( पुं.), शून्यं १२. ब्रह्मन् ( न. ) १३. शब्दः १४. कंण्ठस्थ प्राणनाडी १५. सुखं १६. क्षेत्रं १७. पुरं । (सं. पुं. ) सूर्यः । खंजरी, सं. स्त्री. (सं. खंजरीट = एक ताल > ) लघु, , डमरु: - डिंडिमः । खक्खा', सं. पुं. ( अनु. ) अट्टहासः, उच्चसः, प्र-अति, -हासः । २ खखा, सं.पुं. (हिं. खत्री का 'ख' ) पांचनदः क्षत्रियः २. अनुभवी पुरुषः ३. महागजः । खखार, सं. पुं. (अनु.) कफः, श्लेष्मन् (पुं.), संघातः, सौम्यधातुः (पुं.), घनः । खखारना, क्रि. अ. (अनु.) कफं निःसृ ( प्रे.)उद्ग (तु.प.से.), निष्ठव् (स्वा. दि. प. से.) । खर्खोडर, सं. पुं. (सं. खं + कोटर: > ) तरुकोटरस्थः स्थं खगनीडः-डं २. उलूक, निलयः कुलायः । खग, सं. पुं. ( सं . ) पक्षिन (पुं.), अंडजः, नीडजः २. गंधर्वः ३. देवः ४. बाणः ५. ग्रहः ६. मेघः ७. सूर्यः ८. चंद्र: ९. वायुः (पुं.) । पति, सं. पुं. (सं.) खगेशः, वैनतेयः, गरुडः, खग केतु: (पुं.), खगराजः । खगोल, सं. पुं. ( सं . ) आकाश - गगन, मंडल, गगनाभोगः । खंजरीट, सं. पुं. ( सं . ) दे. 'खंजन' । खंड, सं. पुं. (सं. खंडम् ) दे. 'खाँड़' । खंड, सं. पुं. (सं. पुं. न. ) लवः, शकल :-लं, अंशः, विभागः वि-दलं, भिन्नं २. देशः ३. नवसंख्या ४. रत्नदोषभेदः ५ अध्यायः ६. पाक्यः, कृष्णलवणं ७. दिशा । वि., अल्प, पूर्ण -करना, क्रि. सं. खंडशः -लवशः छिद् ( रु. प. अ. )-लू. ( क्र. उ. से. ) - कृत् ( तु. प. से. ) । काव्य, सं. पुं. (सं. न. ) लघुप्रबन्धकाव्यम् । -प्रलय, सं. पुं. (सं.) ब्रह्मांडस्य एकदेशीय - आंशिक, नाशः - विध्वंसः क्षयः । खंडन, सं. पुं. ( सं. न. ) भंजनं, भेदनं, छेदनं, कर्तनं, त्रोटनम् २ प्रत्याख्यानं, निराकरणं, निरसनम् । खंडनीय, वि. ( सं . ) भेत्तव्य, छेत्तव्य २. प्रत्याख्येय, निरसनीय | खंडर, सं. पुं. ( सं. खंड: + हिं. घर ) ध्वंसावशेषः, जर्जर जीर्ण-शीर्ण, गृहं-नगरम् । खंडरिच, सं. पुं., दे. 'खंजन' । खंडशः, अ. ( सं . ) विभागशः, अंशशः, अवयवशः ( सब अव्य.) । खंडहर, सं. पुं., दे. 'खंडर' । खंडित, वि. ( सं . ) भग्न, त्रुटित, लून, छिन्न २. असमग्र, अपूर्ण । खंदक, सं. स्त्री. ( अ. ) परिखा, खेयं, राजधान्यादिवेष्टनखातं, २. बृहत् श्वभ्रं गतः अवटः । दा, वि. (फ्रा.) सहास, हासक । सं. पुं., हासः, हास्यम् । - पेशानी, वि. स्मेरानन, हास्यमुख - विद्या, सं. स्त्री. (सं.) ज्योतिःशास्त्रं, ज्योतिषं । खचखच, सं. स्त्री. (अनु.) पंके चलनध्वनिः(पुं.)। खचना, क्रि. अ. (सं. खचनं ) खच्- निवेश्प्रतिवपू (कर्म) ३. अंकित - चित्रित (वि.) + भू । खचर, सं. पुं. (सं.) सूर्यः २. मेघः ३. ग्रहः ४. नक्षत्रं ५. वायुः ६. पक्षिन् (पुं.) ७. बाणः ८. राक्षसः । वि. नभश्वर, गगनचारिन् । खचरा, वि. (हिं खच्चर ) वर्णसंकर, मिश्रज २. दुष्ट, खल | खचाखच, क्रि. वि. (अनु. ) निबिडं, गाउँ, अविरलं, निरंतरं । वि. जनाकीर्ण, जनसंकुल | — भरना, क्रि. अ., सं-आन्क्रू ( कर्म. ), परिपृ ( कर्म. ), संकुल-समाकुल (वि.) + भू । खचित, वि. ( सं . ) निवेशित, प्रत्युप्त २. लिखित, चित्रित । For Private And Personal Use Only Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir खच्चर [ १३८ ] खटिया खच्चर, सं. पुं. ( देश. ) वेगसरः, वेस (श ) रः अश्वतर : ( स्त्री. अश्वतरी ) । खज, ,सं. पुं. (सं.) खजकः, मंथन, तकाटः २. मंथनं, मंथ: ३. युद्धं, संग्रामः ४. कंबी-बिः ( स्त्री. ) । । खटखट, सं. स्त्री. (अनु.) खटखटा - शब्दः - ध्वनिः (पुं.) नाद : २. कलहः, विवादः ३. दे. 'झंझट' । खटखटाना, क्रि. स. ( अनु. ) तीव्रं अभिहन् (अ. प. अ. ) - तट् (चु. ) प्रहृ (भ्वा. प. अ.) खटखटाशब्दं कृ २. स्मृ ( प्रे. ) 1 ख़ज़ानची, सं. पुं. (फ़ा. ) कोष धन, अध्यक्ष:- खटगीर, सं. पुं., दे. 'खटमल ' । अधीशः, अर्धाधिकारिन् । छुटछप्पर, सं. पुं., दे. 'मसहरी' । खटना, क्रि. स., दे. 'कमाना' । खटपट, सं. स्त्री. (अनु.) कलहः, विवाद: २. खटखटाशब्दः, शस्त्र, घोष:- शिंजितम् । खटबुना, सं. पुं. (हिं. खाट + बुनना ) खट्वा, वायः- वापः, मंच - पर्यक, वायः- वापः । खटमल सं. पुं. (सं. खट्वामलं > ) उद्देशः, मत्कुणः, ओकणः, ओकोदनी । खटमीठा, वि. (हिं. खट्टा + मीठा ) अम्लमधुर, शुक्तमिष्ट | खजाना, सं. पुं. (अ.) कोश:-पः, निधानं, निधि: ( पुं.), द्रव्य, राशि: ( पुं. ) - संग्रहः २. वित्तं द्रविणं ३. कोशागारं, भांडागारं, कोश ( ) गृहम् । खजिल, वि. ( फ़ा.) लज्जित, व्रीडित, गपित । खजुली, सं. स्त्री. ( सं . खर्जू: स्त्री. ) दे. 'खुजली' । खजूर, सं. पु. स्त्री. ( सं. खर्जूरः ) (वृक्ष) खर्जूरी, दुष्प्रधर्षा, दुरारोहा, यवनेष्टा, हरिप्रिया २. ( फल ) खर्जूरें, खर्जूरीफलम् । ३. मिष्टान्न भेदः खर्जूरिका । खटराग, सं. पुं. (सं. षड्रागाः ) मेघदीपकादयः षड्रागाः २. कलहः ३. विस्वरता, विसंवादः ३. व्यर्थवस्तुजातम् । खजूरी, वि. (हिं खजुर ) खर्जूर, विषयक संबंधिन्, खार्जूर २. वेणीरूपेणग्रथित, व्यावतित । सं. स्त्री. (अनु.) भय, त्रासः २. चिंता । खटक, खट' वि. ( सं . षट् ) दे. 'छ:’। - बढ़ना, सं. पुं., अम्लरोगः ( अजीर्णभेद: ) । खट', सं. पुं. ( अनु. ) संघट्टजो ध्वनिः (पुं.), में पढ़ना, मु., चिरायते मन्दायते ( ना. खटितिशब्दः, खटाखटशब्दः । धा. ), व्याक्षिप् ( कर्म. ), अनिर्णीत (वि.) स्था ( स्वा. प. अ. ) 1 से, क्रि. वि., सपदि, झटिति, क्षणेन । खटकना, क्रि. अ. ( अनु. ) खटखटायते ( ना. धा. ), खटखटा शब्द कृ २. मुहुः मुहुः पीड् ( कर्म.) - उद्दीप् ( दि. आ. से. ) ३. अयुक्त असमीचीन-अनुचित (वि.) + प्रति इ (कर्म) ४. भी ( जु. प. अ. ), त्रस् ( दि. प. से. ) ५. वैरायते - कलहायते ( ना. धा. ), विवद् (भ्वा. आ. से. ) ६. अनिष्टं - अपकारं आंशक् ( वा. आ. से. ) । खटाका, सं. पुं. (अनु.) खट्कारः, खटिति शब्दः, महा-शब्दः-रवः । खटखटा, सं. पुं. ( अनु.) दे. 'खटखट' १. शिंजितं, कणितं । क्रि. वि., सखटखटाशब्द २. अनवरतं, सपदि । खटापटी, सं. स्त्री. दे. 'खटपट' १. । खटाव, सं. पुं. (देश) नौकाबन्धनकील:-लम् । खटाव, सं. पुं., दे. 'निर्वाह' । 9 खटास, पुं. (सं. खट्टासः -शः ) गंधमार्जारः, वनवासनः । खटास, सं. स्त्री. (हिं. खट्टा ) अम्लता, शुक्तता । ६. पादशब्दः । * खटिकः । - लगना, क्रि. अ., त्रसू ( दि. प. से.), खटिक, सं. पुं., फलशाकविक्रेतृजातिभेदः, चिंतित व्यग्र (वि.) + भू । खटकाना, क्रि. स., दे. 'खटखटाना ' | खटकीड़ा, सं.पुं.(सं. खबाकीटः) दे. 'खटमल ' । खटिया, सं. स्त्री. (हिं. खाट ) लघु, खट्वा - पर्यक:- मंच:, खटिवका, खट्वाका । खटका, सं. पुं. (हिं. खटकना) खटखटा शब्दः - नादः - ध्वनिः २. भयं, त्रासः, आशंका ३. चिंता ४. कील:-लं ५. अर्गेलं, तीलकं खटाई, सं. स्त्री. (हिं. खट्टा ) अम्लता, शुक्तता २. अम्ल:, द्रावकं ३. अम्ल-शुक्त, - पदार्थः । For Private And Personal Use Only Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir खटीक [ १३९ ] खत खटीक, सं. पुं. (सं. खट्टिकः ) सौनिकः, ६. निर्मित, रचित ७. अपक्क, असिद्ध ८. अनुशौनिकः २. व्याधः, लुब्धकः, जालिकः ३. दे. त्खात, अलून ९. समस्त, समग्र [खड़ी (स्त्री.) 'खटिक'। = स्थिता इ.] । खटोलना, सं. पुं., दे. 'खटिया'। -करना, क्रि. सं., 'खड़ा होना' के प्रे. रूप । खटोला, सं. पुं. ( हिं. खाट ) दे. 'खटिया'।। -रहना, क्रि. अ., अचल-रुद्धगति (वि.)+ खट्टा, वि. ( सं. कटु > ) अम्ल, शुक्त । स्था इ.)। सं. पुं., बीज-फल,-पूरः, दंतशठः, जम्भकः, -होना, क्रि. अ. ( पद्भयां ) स्था ( भ्वा. प. जम्भल: छोलंगः। अ.), उत्-स्था, २. विरम् ( भ्वा. प. अ.), -चूक, वि., अति-अत्यन्त, अम्ल-शुक्त । निवृत् (भ्वा. आ. से.), स्तंभ ( कर्म.), -मीठा, वि., दे, 'खटमीठा'। स्थिरी-निश्चली,भू ३. उपकृ, सहाय्यं कृ -सा, वि., ईषदम्ल, आशुक्त। ४. उच्छ्रित-उन्नत-उत्तान (वि.)+भू ५. निर्माजी-होना; मु., गतस्पृह-निविण्ण-वितृष्ण विरच् (कर्म.) ६. निधा-निवेश ( कर्म.)। (वि.)+भू। | खड़े-खड़े, क्रि. वि., स्थित एव २. झटिति, खट्टास, सं. स्त्री. (हिं. खट्टा ) दे. 'खटास' (२)। सपदि, सद्यः (सब अव्य.)। खट्टू, सं. पुं. (पं. खटना) धनार्जकः, खड़ाऊँ खड़ाँव, सं. स्त्री. ( अनु. खड़+ हिं.+ वित्तोपार्जकः २. कर्म, करः-कारः। पाँव ) कोशी-पी, ( काष्ठ-) पादुका । खट्वा , सं. स्त्री. (सं.) दे. 'खाट'। खड़ाका, सं. पुं. (अनु.) खडखडा, शब्दःखड, सं. ( सं. खातं) गर्तः-र्ता, अवट:. बिलं, ध्वानः ।। विवरं २. दरी, उपत्यका। | खरिया, सं. स्त्री. ( सं. खडिका ) खडी, कठिनी खड़कना, कि, अ. (अनु.) खड़खड़ा शब्दं क। दे. 'चाक'। दे. 'खटकना'। खड़ी, सं. स्त्री. ( सं. खडी ) दे. 'खड़िया'। खड़का, सं. पुं., दे. 'खटका' । खड़ग, सं. पुं. (सं.) दे. 'खड़ग'। खड़गी, सं. पुं. तथा वि., ( सं. खड्गिन् ) दे. खड़खड़ना, क्रि. स. 'खड़गी'। खड़खड़ाहट, सं. स्त्री. (हिं. खड़खड़)| खड्ड, खड्ढा , सं. पुं. ( सं. खातं ) दे. 'खड''। खड़खड़ा, शब्दः-रवा-ध्वानः २. तुमुलरवः खड्डी, सं. स्त्री. (सं. खात > ) तन्त्रवापः-पं, ३. कटु-कर्कश-परुष, ध्वनिः (पुं.)। वाय(प) दण्डः, वेमः, वेमन् (पुं. न.), वानखड़खड़िया, सं. स्त्री. (हिं. खड़खड़) दे. दण्डकः, वाणिः (स्त्री.)। 'पालकी'। खत, सं. पुं. (अ.) संदेश,-पत्रं,-लेख्यं,-लेखः खड़ग, सं. पुं. (सं. खड्गः ) असिः, दे. २. हस्तलेखः, स्वहस्ताक्षरं ३. अक्षरसंस्थानं, 'तलवार। लिखितं, लिपिः-बिः ( स्त्री.) ४. रेखा, लेखा, खड़गी, वि. ( सं. खटिगन् ) आसिकः, खड़ग- रेषा ५. मुखरोमन् (न.), श्मश्रु (न.), कूर्च धरः२. खड्गमृगः, दे. 'गैंडा'। ६. क्षौरं मुण्डनम् । खड़बड़ाहट, सं. स्त्री. दे. 'गड़बड़ाहट'। -आना, क्रि.अ., प्रथमतः मुखरोमाणि उद। खड़बड़ी, सं. स्त्री. दे. 'गड़बड़ी'। -खींचना, क्रि. स., रेखा आ-अभि-लिख (तु. खमंडल, सं. पुं. दे. 'गड़बड़ी'। प. से.)। खड़सान, सं. पुं. दे. 'खरसान' । -बनाना, क्रि. स., मुंड ( भ्वा. प. से., चु.) खदा, वि. ( सं. खडक = खम्भा > ) (दंडवत् ) क्षुरेण कृत् ( तु. प. से. )-छिद् ( रु. प. अ.)स्थित, उत्थित २. उच्छ्रित, उन्नत, उत्तान, लू (क्र. उ. से.)। ऊर्य, लम्बरूप, खमध्य, वर्तिन् वेधिन् -किताबत, सं. स्त्री., ( अ.) पत्र,-व्यवहारः३. स्थिर, अचल, स्तब्ध, निश्चल, निश्चेष्ट | विनिमयः । ४. उपस्थित, प्रस्तुत ५. सज्ज, संनद्ध, उद्यत -शिकस्ता, सं. पुं. (अ.+ फ़ा.) वक्रलेखः । खड़काना, क्रि. स. । दे. 'खटखटाना'। For Private And Personal Use Only Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir खतना [ १४० ] खप्पर(क) खतना, सं. . (अ.) शिश्नत्वक्छेदः (इस्लाम)।। ४. आकरः, ख(खा)निः-नी ( स्त्री.) ५. भूतख़तम, वि. ( अ. ख़त्म ) समाप्त, पूर्ण । त्त्ववेत्तु (पुं.)। सं. स्त्री. ( अनु.), कणितं, -करना मु., मृ (प्रे.), हन् ( अ. प. अ.)। शिं जितम्। -होना, मु., मृ (तु. आ. अ.)। खनकना, क्रि. अ. (अनु.) शिंज (अ. आ. ख़तर, सं. . ( अ.) दे. भयं, त्रासः । से., चु.), कण ( भ्वा. प. से.), झणझणायते. -नाक, वि. भयानक, भयङ्कर । खणखणायते ( ना. धा.)। खतरा, सं. पुं. (अ.) भयं, भीतिः ( स्त्री.), खनकाना, क्रि. स., 'खनकना' के प्रे. रूप। दे. 'भय' २. संशयः, संदेहः। खनखनाना, क्रि. अ. तथा क्रि. स., दे. 'खनखतरानी, सं. स्त्री., दे. 'क्षत्राणी'। कना' तथा 'खनकाना'। खता, सं. स्त्री. ( अ.) अपराधः, दोषः २. 'छलं | खनना, दे. 'खोदना'। वञ्चना ३. प्रमादः, स्वलितम् । खनिज, वि. (सं.) धातुः (पुं.), आकरजः -वार, वि. (अ.+फ़ा.) अपराधिन् , दोषिन् । पदार्थः । खतियाना, क्रि. स. (हिं. खाता ) आयव्यय खनित्र, सं. पुं. (सं. न.) अवदारणम् । पञ्जिकायां यथास्थानं लिख ( तु. प. से.)। | खपची, सं. स्त्री., दे. 'खपाच' । खतियौनी, सं. स्त्री. (हिं. खतियाना) ( बृहत् ) | खपड़ा(रा), सं. पुं. ( सं. खर्परः ) १. कर्परः आयव्ययपञ्जिका २. तत्र यथास्थानं लेखः २. मृत्पट्टिका ३. भिक्षापात्रम् । ३. क्षेत्रपतिसूचीपत्रम् । खपड़ी(री), सं. स्त्री. (सं. खर्परः) धान्यभर्जनार्थ खत्ता, सं. पुं. (सं. खातं ) अवटः, गर्तः __ मृत्पात्रम् । २. धान्यागारं-रः ३. निधिः (पुं.) ४. राशिः खपत, खपती, सं. स्त्री. (हिं. खपना ) समा(पुं.)। वेशः, व्याप्तिः (स्त्री.) २. विक्रयः, पणनं ख़त्म, वि., दे. 'ख़तम'। ३. व्ययः, विनियोगः । खत्री, सं. पुं. (सं. क्षत्रियः) पंचनदप्रांते । खपना, क्रि. अ. (सं. क्षपणं > ) प्र-उप,-युज आर्याणामुपजातिविशेषः २. दे. 'क्षत्रिय' । | ( कर्म.), व्यवह-व्यापृ (कर्म.) २. क्षि-परिहा खदबदाना, क्रि. अ. ( अनु.) बुबुदायते | ( कर्म.), नश् ( दि. प. से.) ३. किश्-संतप्( ना. धा.) मन्दं कथ ( कर्म.) दे. 'उबलना'। पीड (कर्म.) ख़दशा, सं. पुं. (अ.) भयं, आशंका। खदान, सं. स्त्री., दे. 'खान'। खपरै(है)ल, सं. स्त्री. (हिं. खपड़ा ) मृत्पखदिर, सं. पुं. (सं.) सारद्रुमः, कुष्ठारिः (पु.), ट्टिकाभिः खपरैः वा आच्छादितं पटलं गायत्री, दंतधावनं, बाल, तनयः-पत्रः, यज्ञांगः, ३. तादृशपटलयुक्तं गृहम् ।। सुशल्यः, वक्रकंटः । २. दे. 'कत्था' ३. चन्द्रः खपाच, सं. स्त्री. (तु. कमची ) ( काष्ठ-) ४. इन्द्रः । खंड:-हं, वंशस्य शकल:-लं, २. अतिकृशः खदेड, सं. स्त्री. (हिं. खेदना) अनुधावन,! पुरुषः। खेटनं, आच्छोदनम् । खपाना, क्रि. स. ( हिं. खपना ) प्र-उप,-युज खदेड़(र)ना, क्रि. स. (हिं. खेदना) नि- (रु. आ. अ., चु.), उपयुज्य-उपभुज्य निरअप-स (प्रे.), बहिष्कृ, निष्कस्-निर्वस् (प्रे.) वशेषीकृ, व्यवहृ-व्याप (प्रे.) २. व्यय-विनि२. अनुगम् , अनुधाव ( भ्वा. प. से.), मृग युज् (चु.) ३. वि, नश् (प्रे.) ४. संतप्-पीड (चु. आ. से.)। (प्रे.)। खद्दर, दे० 'खादी। खपुर, सं. पु. ( सं. न. ) गगस्थो दैत्यनगरखद्योत, सं. पुं. ( सं.) प्रभाकीटः, दे. 'जुगनूं विशेषः २. गगनस्था हरिश्चन्द्रनगरी। २. सूर्यः | खपुष्प, सं. पुं. ( सं. न.) गगनकुसुमं, असंभवंखनक, सं. पुं. (सं.) उंदुरुः (पु.), मूष(षि)कः । असाध्यं वस्तु (न.), शश, विषाण-शृंगम् ।। २. संधितस्करः ३. अवदारकः, खातकः । खप्पर(ड), सं. पुं. (सं. खर्परः) मृत्पात्रभेदः For Private And Personal Use Only Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra खफक़ान www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [ १४१] २. काल्याः रुधिरपानपात्रं ३. भिक्षाभाजनं ४. कपालः-लम् । खफकान, सं. पुं. (अ.) हृत्कम्पनं २ (हिस्टीरिया) गर्भाशयोन्मादः, वातोन्मादः, हर्षमोहः । खफगी, सं. स्त्री. (अ.) प्रसाद - प्रीति, अभाव: २. कोपः क्रोधः । | खफा, वि. ( अ. ) रुष्ट, कुपित, क्रुद्ध २. विषण्ण । फीफ, वि. (अ.) अल्प, न्यून २. लघु ३. क्षुद्र ४. लज्जित । खफीफा, सं. स्त्री. (फ़ा. ) लघु, न्यायालय:धर्माधिकरणम् २. कुलटा, व्यभिचारिणी । ख़बर, सं. स्त्री. ( अ. ) समाचार, उदंतः, वृत्तांत : वृत्तं वार्ता, प्रवृत्तिः (स्त्री.) २. ज्ञानं, बोधः ३. संदेशः ४. संज्ञा, चैतन्यं ५. जनप्र वादः । —करना, देना या पहुँचाना, क्रि. सं., विज्ञा (प्रे.), नि आ-विद् ( प्रे.), संदिश ( तु. प. अ. ), बुध् अवगम् (प्रे. ) । - लगाना, क्रि. सं., दे. 'ढूंढ़ना' । - देने वाला, सं. पुं., विज्ञापकः, आवेदकः, सूचकः । -ले जाने वाला, सं. पुं. दूतः, वार्ता-संदेश, - हरः । ख़बरगीरी, सं. स्त्री. रक्षणं, चिंता २ सहानुभूतिः ( अ. + फ़ा . ) अवेक्षा, eft.), सहायता । ख़बरदार, वि. ( अ. + फ़ा. ) दे. 'सावधान' । खबरदारी, सं. स्त्री. ( अ + फ़ा. ) दे. 'साव धानता' । | ख़बीस, सं. पुं. ( अ ) भयंकरः, खलः । ख़ब्त, ,सं. पुं. (अ.) उन्मादः, चित्त, विप्लव:भ्रमः २. उत्सूत्रता, सामान्यविरोधः । ख़ब्ती, वि. (अ.) उन्मादिन् २. उत्सूत्र, लोकबाह्य । खब्बा, वि. (पं., सं. खर्व > ) वाम, सव्य, दक्षिणेतर २. वामहस्त सव्यसाचिन् । ख़म, सं. पुं. (फ़्रा) वक्रता, जिह्मता, आभुग्नता कुटिलता । - दम, सं. पुं., शौर्य, विक्रमः । -दार, वि., आनमित, आभुग्न, कुञ्चित । ख़मसा, वि. (अ.) पंच, विषयक- सम्बन्धिन् । खरब सं. पुं., पंचकम् २. पद्यभेदः ३. अंगुली - पंचकम् | खमियाज़ा, सं. पुं. ( फ़ा. ) प्रतिफलं २ दण्ड: ३. कष्टम् ४. हानि: (स्त्री.) । ख़मीदा, वि. (फ़ा. ) वक्र, जिझ, अराल | ख़मीर, सं. पुं. ( अ. ) किण्वः, जगलः, मासरः, मेदकः, कारोत्तरः, नग्नहूः ( पुं. ) । - उठाना, क्रि. सं. किण्वेन संमिश्र ( चु. ) । सं. पुं. किण्वनं, किण्वीकरणं । ख़मीरा, वि. ( अ.) किण्व-जगल, -मिश्रित २. घनमधुक्काथः ३. तमाखुभेदः । ख़यानत, सं. स्त्री. ( अ ) सकपटाहरणं, दुर्विनियोगः २. चौर्य, वंचना | -करना, क्रि. स. कपटेन आत्मसात् कृ अथवा विनियुज् (रु. आ. अ. ) । ख़याल, सं. पुं. दे. 'ख्याल' | ख़याली, वि., दे. 'ख्याली' । खर, सं. पुं. ( सं . ) गर्दभः, रासभः २. अश्वतरः, वेसरः ३. वकः ४. काकः ५. रावणभ्रातृ (पुं. ) ६. तृणं, घासः । वि., कठोर, कक्खट, कीकस २. तीक्ष्ण ३. स्थूल ४. अमंगल, अमांगलिक ५. निशित ६. प्रवण, तिर्यच् । स्वर, सं. पुं. ( फा . ) गर्दभः, रासभः । -दिमाग़, वि., जड, अज्ञ, खरमति । खरखर, सं. स्त्री. (अनु. ) घर्घर:, घर्घर, रवःशब्दः । — करना, क्रि. स., घर्घरायते ( ना. वा. ), घर्घरध्वनिं कृ । खरखरा, वि. दे. 'खुरखुरा' । ख़रगोश, सं. पुं. (फ़ा.) शशः, शशकः, शूलिकः मृदुरोमन् (पुं.), रोमकर्णः । खरच, सं. पुं., दे. 'खर्च' । ख़रचना, क्रि. सं. (फ़ा. खर्च ) व्यय ( चु.), उत्-वि, सृज् ( तु. प. अ. ), विनियुज् ( रु. आ. अ., चु. ), क्षयं व्ययं, कृ । खरचा, सं. पुं. दे. 'खर्चा' । खरज, सं. पुं. दे. ‘षड्ज’ । खरब, वि. ( सं. खर्वम् ) सं. पुं., अर्बशतकम् ({00000000000) २. अदशकम् ( १०००००००००० ) । For Private And Personal Use Only Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir खरबूज़ा [ १४२ ] खर्जूर ख़रबूज़ा, सं. पुं. (सं. खजं ) दशांगुलं, षड्- | ख़राबाती, सं. पुं. (अ.) मधपः २. द्यूतकारः, भुजा भुज-रेखा मुखा, वृत्तकर्कटी । कितवः ४. वेश्यागामिन् । ख़रमस्ती, सं. स्त्री. (फ़ा.) दुष्टता, कुचेष्टा । खरमास, सं. पुं., दे. 'खरवाँस' । ख़राबी, सं. स्त्री. (अ.) दोषः, अवगुणः २. दुष्टता, नीचता ३. दुर्दशा, दुर्गतिः (स्त्री.) । खरल, सं. पुं. ( सं. खल्ल: ) उर्दू ( ल . ) खलं, खरारि (री), सं. पुं. (सं.-रि: पुं. ) रामचंद्रः औषधमर्दनभाजनम् । २. श्रीकृष्णः ३. विष्णुः । - करना, क्रि. सं. चूर्ण ( चु.), चूर्णीकृ, पिघ् खराश, सं. स्त्री. ( फा . ) दे. 'खरोंच' । ( रु. प. अ. ), क्षुद् (रु. उ. अ. ) । खरिया, सं. स्त्री. दे. 'खड़िया' । खरिहान, सं. पुं. दे. 'खलियान ' । खरी, सं. स्त्री. (सं.) गर्दभी, रासभी । खरीद, सं. स्त्री. (फ़ा.) क्रयः, मूल्येन ग्रहणं २. क्रीतपदार्थः । खरवस, सं. पुं. (सं. खरमासः > ) पौषचैत्रौ । ( इनमें मांगलिक कार्य वर्जित हैं ) । खरसान, सं. स्त्री. ( सं . खरशाणः ) शाणशाणी, भेदः । खरहरा, सं. पुं. (हिं. खर = तिनका + हरना ) अश्वमार्जनी | करना, क्रि. स., अवं मृज् ( अ. प. वे.) । खरहा, सं. पुं., दे. 'खरगोश ' । खरही, सं. स्त्री. ( हिं. खर = घास ) ( घासादेः ) राशि: ( पुं.) २. घासभेदः । खरा, वि. ( सं . खर = तीक्ष्ण ) तिग्म, तीक्ष्ण २. अमिश्रित, अविकृत, स्वच्छ, विशुद्ध, पवित्र, उत्तम ३. भंगुर, भिदुर ४. निष्कपट, निश्छल ५. स्पष्ट-यथार्थ,-वादिन् - वक्तृ ६. भूरि, बहु ६. कठिन, कीकस । खरी (स्त्री.), विशुद्धा इ. । -- खेल, सं. पुं. निष्कपटव्यवहारः, सरलाचरणं । --पन, सं. पुं. विशुद्धता, पवित्रता, उत्तमता, ऋजुता, निष्कपटता इ. । खराई, सं. स्त्री. दे. 'खरापन' । खराद, सं. पुं. (अ. खरात से फ़ा. खरीद ) भ्रमयंत्र, कुंद:-द, भ्रमः, भ्रमिः (स्त्री.), चक्रं, यंत्रकम् । खरादना, क्रि. स. कुन्देन संस्कृ. । खरादी, सं. पुं. ( फ़ा. खुद ) कुंदिन, चक्रिन् । ख़राब, वि. ( अ. ) निकृष्ट, गर्ध, निंद्य, हीन २. दीन, दुर्गत ३. पतित, च्युत ४. दुष्ट, पापिन् । -करना, कि. स. मलिनी- कलुषी - आविली, कृ २. सत्पथात् भ्रंश (प्रे.), कुमार्गे प्रवृत् (प्रे.) । ख़राबात, सं. पुं. ( अ ) मदिरालयः २. द्यूत गृहम् ३. वेश्या वीथी । - व फरोख्त, सं. स्त्री. ( फ़ा. ) क्रयविक्रयौ ( द्वि.) । ख़रीदना, क्रि. स. ( फ़ा. खरीदन ) की (क्र. उ. अ. ), मूल्येन अधिगम् अथवा लभ् (भ्वा. आ. अ. )। खरीदार, सं. पुं. (फ़ा. ) क्रयिकः, क्रेट ( पुं. ), ग्राहकः २. इच्छुकः, अभिलाषिन् (पुं.) । खरीदारी, सं. स्त्री. (फ़ा. ) क्रयः, मूल्येनादानं । खरीफ, सं. स्त्री. (अ.) शारद- शारदीयं शरत्कालीनं शस्यं । खरोंच, सं. स्त्री. (सं. क्षुर = खुरचना > ) ईषत्क्षतं त्वणः । खर्रोचना, क्रि. स. (पूर्व.) खुर-क्षुर ( तु.प. से. ) वि-अव-दृ ( प्रे. ), ( नखेन ) क्षण ( त. उ.से.) अंकू ( चु. ) लिखू ( तु. प. से. ) । खरोट, सं. स्त्री. दे. 'खर्रोच' । खरोटना, क्रि, स. दे. 'खरोंचना' । खर्च, सं. पुं. ( अ. खर्ज ) व्ययः, धन, त्यागःव्ययः - उत्सर्गः, विनियोगः २. मूल्यं, अर्धः, अह । करना, क्रि, स. दे. 'खरचना' । - होना, कि, अ, व्यय-विसृज् विनियुज् ( सब कर्म. ) क्षयं व्ययं या ( अ. प. अ. ) । ख़र्चना, क्रि. स. दे. 'खरचना' । ख़र्चा, सं. पुं. ( अ. खर्ज ) दे. 'खर्च' २. अभियोग - कार्य व्यवहारपद, व्ययः । खर्चीला, वि. ( हि खर्च ) व्ययशील, अतिव्ययिन्, अमितव्यय । खर्जूर, सं. पुं. (सं.) दे. 'खजूर' २. वृश्चिकः, द्रोणः । (सं. न. ) रजतं २. दे. 'हरताल' | For Private And Personal Use Only Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir खर्पर [१३] खसकाना खर्पर, सं. पुं. (सं.) दे. 'खप्पर'। खलियान, सं. पुं. ( सं. खल+स्थान ) खर्ब, सं. पुं., दे. 'खरब २. दे. 'खर्व। खलाधानं. खल:-लं २. थान्यागार, कुशूल: खर्बुजा, सं. पुं., दे. 'खरबूज़ा'। ३. राशिः (.) चयः। खर्राटा, सं. पुं. ( अनु.) घर्धरः। खलियाना', कि. स. (हिं, खाल ) निस्त्व-भरना, मरना या लेना, क्रि. अ., घर्घ- चयति ( ना. धा.) निस्त्वचीकृ, चर्मन् ( न.) रायते, घर्षरशब्दं कृ, प्रगाई स्वप् (अ. प. अ.)। अपनी-निह ( दोनों भ्वा. उ. अ.)। खल, वि, (सं.) कर, नृशंस २. अधम, खलियाना', क्रि. स. (हिं. खाली ) शून्यीनीच ३. दुष्ट, दुर्वृत्त ४. पिशुन ५. निर्लज्ज | रिक्ती,-कृ, रिच ( रु. उ. अ.)। ६. छलिन् । खलिश, सं. स्त्री. ( फ़ा. ) वेदना, पीडा २. वैरं, सं. पुं., दुर्जनः २. सूर्यः ३. तमालवृक्षः द्वेषः। ४. पृथिवी ५. स्थानं ६. उलू (दू) खलं खलिहान, सं. पुं., दे. 'खलियान' । ७.-८. दे. 'खलियान' तथा 'तलछट'। खली-ल्ली, सं. स्त्री. (सं. खली) तैलकिट्ट, खलक, सं. पुं. (अ.) जीवाः-प्राणिनः (बहु.)। तिलकल्कं, पिण्याकः, खलिः (पुं.)। २. जगत् (न.), संसारः। खलीज, सं. स्त्री. (अ.) दे. 'खाड़ी'। ख़लक़त, सं. स्त्री. ( अ.) सृष्टिः (स्त्री.), संसारः | खलीफा, सं. पुं. ( अ.) अध्यक्षः, अधिकारिन् २. जनौधः, जनसंमर्दः। २. यवननृपवंशविशेषः ३. वृद्धजनः ४. सूदः, खलड़ी, सं. स्त्री. ( हिं. खाल ) त्वच (स्त्री.), पाचकः ५. सौचिकः सूचिकः ६. नापितः। त्वचा, त्वचं, त्वचस् ( न.), छदिस् (स्त्री.), खल, अन्य. (सं.) निश्चयनिषेधजिज्ञासाऽनुनसंछादनी, असृग्धरा २. ( पशुओं की) चर्मन् | यादिबोधकमव्ययम् ।। (न.) ३. ( मरे पशुओं की ) अजिनं, दृतिः, खलेल, सं. पुं. (सं. खलितैलं ) सुगन्धतेल. कृत्तिः ( स्त्री. ) ४. शिश्नाग्रचर्मन् ( न.)। किट्टम् । खलता, सं. स्त्री. ( सं. ) कुचेष्टा, दुष्टता, खल्क, सं. स्त्री., दे. 'ख्लक' । दुर्वृत्तता, खलत्वम् । खल्त-मल्त, दे. 'गडबड्ड' । खलना, क्रि. अ. (सं. खर = तीक्ष्ण > ) अनु- खल्ल, सं. पुं. (सं.) दे. 'खरल' २. चर्मन् (न.) चित-अयुक्त-अयोग्य-अनुपपन्न (वि.) प्रतिमा ३. गतः ४. चातकः ५. दृतिः ( स्त्री.)। (अ. प. अ.)-दृश ( कर्म.)। ! खल्लड़, सं. पुं. (सं.) चर्मन् ( न.) २. अजिनं खलबल, सं. स्त्री. (अनु.) क्षोम; विप्लवः, जलभस्त्रा ३. वृद्धः, जरठः, स्थविरः । अशांतिः-अनिर्वृतिः ( स्त्री.), प्रकोपः, कलहः, खल्ला, सं. पुं. (सं. खल्लः-चमड़ा> ) जीणों२. कोलाहलः, उत्क्रोशः ३. दे. 'कुलबुलाहट'। पानह (स्त्री.), पुराणपादत्रम् । खलबलाना, क्रि. अ. (हिं खलबल) बुदबुदायते खल्लि (ल्ली)ट,-खल्वाट, वि. (सं.) दे. 'गंजा' । (ना. धा.), दे. 'उबलना' २. क्षुम् (दि. प. सं. पुं., दे. 'गंजापन'। से., क. प. से.), क्षुब्ध-विह्वल- (वि.)+भू खवा, सं. पुं., दे. 'कंधा' । ३. दे. 'कुलबुलाना'। खवैया, सं. पुं. (हिं. खाना ) भक्षकः, खलबली, सं. खी., दे. 'खलबल'। खादकः, भोक्तु (पुं.)। खलल, सं. पुं. ( अ.) विघ्नः, अंतरायः, बाधा। खश, सं. पुं. दे., 'खस'। खलास, सं. पु. ( अ. ) मोक्षः, मुक्तिः ( स्त्री.), ख़शन (खा)श, सं. पुं. दे. 'खसखस' । उद्धारः । वि., मुक्त, उद्धृत, निस्तीर्ण २. अव- खस, सं. स्त्री. ( फ़ा. खस ) उशीरः-रं, नलदं, सित, समाप्त । जलवासं, वीरणमूलं, सेव्यं, शीत-सुगन्धि,-मूलकं, खलासी, सं. स्त्री. (अ.) उद्धारः, निस्तारः, वीरं, वीरभद्र, हरिप्रियम् । मोक्षः । सं. पुं., पटमंडपरोपकः २. भारवाहः खसकना, क्रि. अ. (अनु.) दे. 'खिसकना'। ३. पोतभृत्यः । | खसकाना, क्रि. स., दे. 'खिसकाना'। For Private And Personal Use Only Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir खसखस [११४ ] खाट खसखस, सं. स्त्री. ( सं. खस्खसः) खसतिलः, खांगड़-ड़ा, वि. (सं. खड्गः> ) शृंगिन् , सूक्ष्म, तंडुल:-बीजः, सुबीजः। विषाणिन् २. सशस्त्र ३. सबल ४. उद्दण्ड । -रस, सं. पुं. (सं.) दे. 'अफ़ीम'। | खाँचा, सं. पुं. ( सं. कर्षणम् > ) महा-,पेटकःखसखसा, वि. ( अनु.) शुष्कर्णरूप, सिक- करंड: कंडोल: २. बृहत , जरः-पंजरम् । तिल, शर्करिल । खांड़, सं. स्त्री. (सं. खण्डम् ) अशोधितखसखास, सं. स्त्री., दे. 'खसखस' । असंस्कृत,सिता-शर्करा। ख़सम, सं. पुं. (अ.) पतिः (पुं.), भर्तु (पुं.) खांडव, सं. पुं. ( सं. न.) कुरुक्षेत्रप्रदेशे वन विशेषः । २. स्वामिन् (पुं.), सेव्यः, नाथः । खसरा', सं. पुं. (अ.) क्षेत्रसूची, केदार । -प्रस्थ , सं. पुं. (सं.) प्राचीननगरविशेषः । खाँड़ा', सं. पुं. (सं. खड्गः> ) द्विधार-, लेख्यम् । खडगः-असिः-निस्त्रिंशः कृपाणः । खसरा', सं. पुं. (फा. खारिश ) रोमान्तिका, न्तिका, खांडा, सं. पुं. (सं. खंड:- ) भागः, अंशः। त्वग्रोगभेदः २. खजू कडूति,-भेदः। खाँसना, क्रि. अ. (सं. कासनं ) कास् ( भ्वा. खसलत, सं. स्त्री. (अ.) प्रकृतिः ( स्त्री. ), प. से.), क्षु ( अ. प. से.)। स्वभावः, २. दे. 'आदत'। खाँसी, सं. स्त्री. ( सं. कासः ) काशः, उत्कासः, खसारा, सं. पुं. (अ.) हानिः-क्षतिः (स्त्री.), क्षवथुः (पुं.)। । दे. 'घाटा'। खाई, सं. स्त्री. (सं. खानिः > ) परिखा, खातं, खसिया, वि. ( अ. खस्सी) लुप्तवृषण, छिन्न स्ता) उतषण, छिन्न खातकम् । मुष्क । सं. पुं., क्लीवः, पंढः २. अजः। खाऊ, वि. ( हिं. खाना ) अत्याहारिन् , बहुखसोट, सं. स्त्री. (हिं. खसोटना) बलात्- भोजिन् , अार, घस्मर । अकस्मात् सहसा ग्रहणं-अपहरण-आच्छेदनं | -उड़ाऊ, वि., मुक्तहस्त, अर्थनाशिन् । २. बलात उत्पाटनं-उन्मूलनम् । खाक, सं. स्त्री. (फ़ा.) धूलिः (पुं. स्त्री.), खसाटना, कि, स. ( स. कृष्ट ) असम्यक धूली, पांशुः सुः, रजस् ( न.), रेणुः २. भस्मन् उन्मूल-उत्पट् (चु.) कृष (भ्वा. प. अ.) (न.), भसितं, भूतिः (स्त्री.)। २. बलात्-सहसा अपहृ ( भ्वा. उ. अ.)- -शेब. सं. पं., खलपः (पं.), संमार्जकः । आच्छिद् ( रु. प. अ.)-ग्रह. (क्र. उ. से.)। -सार, वि., नम्र, विनीत । खसोटी, सं. स्त्री., दे. 'खसोट'। -सारी, सं. स्त्री., नम्रता, विनयः । ख़स्ता, वि. ( फ़ा. खस्तः) भिदुर, भंगुर, भिदे- खाका, सं. पुं. (फा.) बाह्यरे( ले खा, बाह्यालिम २. क्षत, त्रुटित । कारः २. अपरिष्कृतालेख्यं, पांडुलेख्यं ३. प्रति-कचौदी, सं. स्त्री., भिदुर-स्निग्ध, सुपिष्टिका- | रूपं, प्रतिमानं ४. संकलनं, संख्यानम् ।। शकुली। -उदाना, मु., उप-अव, हस् ( भ्वा. प. से.)। -दिल, वि. भग्न,-चित्त-हृदय । खाकी, वि. ( फ़ा.) मातिक, मृण्मय २. धूलि-हाल, वि., दुर्गत, दरिद्र, दुःखित । रजो,-वर्ण-रंग ३. सं. स्त्री., जलहीन-अनासिक्त,खस्सी, सं. पुं. (अ.) छिन्नमुष्कः अजः-छागः | भमिः ( स्त्री.)। २. षंढः, क्लीवः । वि., लुप्तवृषण, छिन्नमुष्क । खाज, सं. स्त्री. [सं. खर्जुः (पुं.)] खजूं: -करना, क्रि. स., वृषणी छिद् ( रु. प. अ.) (स्त्री.), कंडू:-कंडूतिः ( स्त्री.), खसः, पामा, उत्पट् (चु.)। विचचिंका। खाँ, सं. पुं. (तातारी, काङ-सरदार ) स्वामिन् -होना, क्रि. अ., कंडूति-खसं अनुभू । (पुं.), अधीशः २. पठानजातेः उपाधिः (पुं.)। कोढ़ की खाज, मु., क्षते शारं, गंडे स्फोटकः । -साहब, बहादुर, सं. पुं., उपाधिभेदो। खाजा, सं. पुं. (सं. खायं ) भक्ष्य-भोज्य-खाथ,खांखर, वि. (सं. खं-छिद्र > ) सच्छिद्र, वस्तु (न.)-पदार्थः २. भोजनं ३. मिष्टान्नभेदः । सरंध्र २. रिक्त-शून्य, गर्भ, अंतःशुन्य । खाट, सं. स्त्री. ( खाटः> ) खटवा, शयनम् । For Private And Personal Use Only Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir खादी [ १४५] खाना -खटोला, सं. पं. गृह, उपस्करः-परिच्छदः, खान', सं. स्त्री. [सं. खानिः (स्त्री.) ] आकरः, पारिणाह्यम्। | ख( खा )नी-निः (स्त्री.) २. उत्पत्तिस्थानं खाड़ी. सं. स्त्री. ( सं. खातं > ) समुद्रः, वंकः, ३. कोषः। अखातः-तम् । खान, सं. पुं., दे. 'खाँ'। खात, सं. पुं. (सं. न.) खननं, अवदारणं खानक, सं. पुं. (सं.) खातकः, खनकः, खनित २. परिखा, खातं, खातक ३. गर्तः ४. कूपः (पु.), आखनिकः २. सुरुंगाकारः ३. गृह, ५. कासारः ६. पुरीषादिगतः। कारकः-संवेशकः, पलगंडः, लेपकारः । खातमा, सं. पुं. (फ़ा.) समाप्तिः (स्त्री.) खानकाह, सं. स्त्री. ( अ.) यवनभिक्षुविहारः। २. मृत्युः । ख़ानगी, वि. ( फ़ा.) गृह्य, कौटुम्बिक । खाता', सं. पुं. ( अ. खत > ) गणना-संख्यान, खानदान, सं. पुं. (फ़ा.) वंशः, अन्वयः, पञ्जिका २. विषयः, विभागः। कुलम् । खाता', सं. पुं. ( सं. खातं > ) कुशू (सू ) लः, | खानदानी, वि. (फ़ा.) सत्कुल-उच्चवंश,-संबंधिन् धान्यकोषः, कंडोलः। २. पित्र्य, पैतृक । ख़ातिर, सं. स्त्री. (अ.) संमानः, आदरः। खानपान, सं. पुं. (सं. न.) अन्नजलं, भक्ष्यक्रि. वि., कृते, अर्थे, हेतोः। पेयं २. खादनपानं भुक्तिपीति (न.) ३. भुक्ति-एवाह, कि. वि. ( अ.+ फ़ा.) यथोचित, पीतिविधिः (पुं.) ३. परस्परभोजनं, सग्धिः यथेच्छ, यथेष्टम् । (स्त्री.)। -जमा, सं. स्त्री. ( अ.) संतोषः, सांत्वनम् । । खानसामां, सं. पुं. (फ़ा.) ( यवनादीनां) -दारी, सं. स्त्री. (अ.+फा.) आदरः, पाचकः सूदः-बल्लवः । अतिथिसेवा । खाना, क्रि. स. (सं. खादनं) खाद् (भ्वा. प. से.), खाती, सं. पु. ( सं. खातं > ) तक्षकः, त्वष्ट घस ( भ्वा. प. अ.), मक्ष (चु.), अद् (पुं.) २. रथकारः, वर्धकिः । (अ. प. अ.). अश (क्र. प. से.), जक्ष ख़ातून, सं. स्त्री. (तु. ) कुलीना, आर्या, (अ. प. से.), भुज ( रु. आ. अ.), ग्रस्कुलांगना। ग्लस-आस्वाद् ( भ्वा. आ. से.), अभ्यवह खादक, वि. (सं.) भक्षक, भोजक । सं. पुं.। ( भ्वा. प. अ.), ग ( तु. प. से.) २. व्यथ(सं.) अधमर्णः, ऋणग्रस्तः। अद्-संतप (प्रे.) ३. च ( भ्वा. प. से.) खादन, सं. पुं. (सं.) दन्तः, दशनः, रदः। . ४. नस् (प्रे.) ५. छलेन आत्मसात्कृ (सं. न.) भक्षणं, चर्वणम् २. भोजनं, भक्ष्यम् ।। ६. उत्कोचं-उपायनं ग्रह ( क्र. उ. से ) ७. सह् खाद, सं. स्त्री. (सं. खाद्यं > ) भूमिलेपः, सारः, ( भ्वा. आ. से.)। पुरीषादि ( न.)। सं. पुं., खादनं, अस्वादनं, भक्षणं, अशनं इ. । खादर, सं. स्त्री. ( सं. खातं >) आई-उन्न-उत्त, भूमिः, दे. 'कछार' । २. गोप्रचारः, शादलः ।। | खाने योग्य, वि., खाद्य, भक्ष्य, आस्वादनीय इ. । खादित, वि. (सं.) भक्त, भक्षित, जग्ध। खाने वाला, सं. पुं., भक्षकः, खादकः, भोक्त खादिम, सं. पुं. ( अ. ) सेवकः, अनुचरः । । (पु.), अशन,-भुज , अद्,-अद ( सब समाख़ादिमा, सं. स्त्री. (सं.) सेविका, दासी, सांत में, उ. शाकाशनः इ.)। परिचारिका, प्रेष्या। | खाया हुआ, वि., भक्षित, खादित, मुक्त, खादी, सं. स्त्री. ( देश.) स्वदेशीयं घनवस्त्र, जग्ध इ.। हस्तनिर्मितवासस् ( न.)। खाता-पीता, मु., सुखिन् , समृद्ध, संपन्न । खाद्य, वि. (सं.) भक्ष्य, भोज्य, अदनीय । खाना-पीना, मु., खादनपानं, भुक्तिपीति (न.), सं. पुं. (सं. न.) भोजनं, भक्ष्यपदार्थः। खादताचामता। खान', सं. पुं. ( हिं. खाना ) भक्षणं, भोजनं, खाना पीना मजे उड़ाना, मु., खादतमोदता, २. खाद्यं ३. भोजन विधिः (पुं.)। । अश्नीतपिबता। १०मा०हि० For Private And Personal Use Only Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ख़ाना [ १४६ ] खाला खाया पिया निकालना, मु., तीव्र-परुषं तह खारा', विं. पुं. ( सं. क्षार ) क्षार, विशिष्ट-युक्त (चु.) प्रह (म्वा. प. अ.)-अभिहन् (अ. प. अ.)। २. ईषल्लवण, ३. लवण, लवणगुणविशिष्ट मुँह की खाना, मु., पूर्णतया पराजि-परिभू ४. कटु, अरुचिकर ( -री स्त्री.)। (कर्म.)। खारा', सं. पु. ( सं. क्षारकः ) करंडः, कंटोलः, खाना, सं. पुं. (फ़ा.) गृहं, समन् ( न.), पेटकः २. घासादिबंधनजालं ३. विवाह आलयः २. ( मेज़ आदि का ) संपुटः, निष्क- संस्कारोपयुक्तासनभेदः । पणी, चलसमुद्कः ३. कोषः. पुटः-टं ४. कोष्ठकं, खारि, सं. स्त्री. ( सं.) दे. 'खारी'। सारणी-चक,-विभागः। ख़ारिज, वि. (अ.) बहिष्कृत, अपास्त २. निरा---ख़राब, वि. (फ़ा.) विनाशक, अनिष्टोत्पादक, कृत, प्रत्याख्यात । क्षयकर (-री स्त्री.)। -करना, क्रि. स., बहिष्कृ, अपास ( दि. प. -जंगी, सं. स्त्री. (फ़ा.) पारस्परिकविग्रहः, से.) २. निराकृ, प्रत्याख्या ( अ. प. अ.)। गृहयुद्धम् । -होना, क्रि. अ., बहिष्कृ-अपास ( कर्म.) -तलाशी, सं. स्त्री. (फ़ा.) गृहान्वेषणम् । | प्रतिक्षिप-प्रत्याख्या ( कर्म.)। -दारी, सं. स्त्री. ( फ़ा.) गार्हस्थ्यम् । ख़ारिजा वि. ( अ.) बाह्य, बाहीक, बहिस्थ, -पुरी, सं. स्त्री. (फ़ा.+ हिं. पूरना.) कोष्ठक- विदेशीय । पूरणम् । ख़ारिश, ख़ारिश्त, सं. स्त्री. ( फ़ा. ) दे. -बदोश, वि. ( फ़ा. ) अस्थिर-अनियत-वास, 'खुजली' । य( या )यावर । सं. पुं., अस्थानिन्, खारी', सं. स्त्री. (सं.) पोडश-चतुर , द्रोणनित्यविहारिन् । परिमाणम् । -शुमारी, सं. स्त्री. ( फ़ा. ) जनसंख्यानम् । खारी, सं. स्त्री. ( हिं. खारा ) ऊपरज, खानि, सं. स्त्री. (सं.) दे. 'खान" २. प्राचुर्य ऊषरलवणं, क्षारलवणं । वि. स्त्री., दे. खारा" ३. राशिः ( पुं.) ४. कोषः ५. प्रकारः के स्त्री. रूप। ६. दिशा। | -पानी, सं. पुं., क्षार, पानीयं-जलम् । खानिक, सं. स्त्री., दे. 'खान' । खाल', सं. स्त्री. ( सं. क्षालः > ) दे. 'खलड़ी' खाबड़-खूबड़, वि. (अनु०) विषम, नतोन्नत। (१-३) २. आवरण ३. शवः ४. मस्त्रा-स्त्री. । ख़ाम वि. (फ़ा.) अपक, आम २. अपुष्ट, -उड़ाना, मु०, निर्दयं-परुप-चंडं-निष्ठुरं-तड् अदृढ ३. अनुभूवशून्य । । (चु.)-प्रहृ ( स्वा. प. अ.)। ख़ामखाह, क्रि. वि. (फ़ा. खवाह-म-ख्वाह ) -उधेड़ना या खींचना, मु. त्वचं अपनी बलात् , हठात् २. अवश्य, ध्रुवम् । । (भ्वा. प. अ. )-निर्ह-निष्कृष ( भ्वा. प. अ.), खामी, सं. स्त्री. (फ़ा) आमता, अपक्वता निस्त्वचयति ( ना. धा.)। २. अनुभवहीनता ३. न्यूनता। खाल, सं. स्त्री. ( सं. खातं ) निम्नभूः ( स्त्री.) खामोश, वि. ( फ़ा.) निःशब्द, नीरव । २. रिक्तस्थानं, अवकाशः ३. दे. 'खाडी' रखामोशी, सं. स्त्री. ( फ़ा. ) नीरवता, मौनम्। ४. गाम्भीर्यम् । खार, सं. पुं. (सं. क्षारः) ५. दे. 'क्षार' खाल, सं. पु. ( अ.) तिल:, तिलकः, तिल-, २. दे. 'सज्जी' ३. दे. 'कलर' ४. धूलि: (स्त्री.) कालकः, जटुलः ।। ५. गुल्मभेदः। खालसा, वि. ( अ. खालिस ) एकाधिकृत, खार, सं. पुं. (फ़ा.) दे. 'काँटा' २. ईर्ष्या, एकाधिष्ठित २. राजकीय । सं. पुं., शिष्यअसूया, द्वेषः। (सिक्ख ) जातिविशेषः।। -दार, वि., कंटकिन् , सकंकट । खाला, वि. ( हिं. खाली) निम्न, अवनत, -खाना, मु., ईष्य्-ईक्ष्य ( भ्वा. प. से.), अवच । असूय ( ना. था.), स्पर्ध (भ्वा. आ. से.)।। -ऊँचा, वि. उच्चावच, नतोन्नत, विषम । For Private And Personal Use Only Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ख़ाला . [१७] ख्रिराज खाला, सं. सी. (अ.) मातृस्व(व)स खिंचाई, सं-स्त्री., १. आकर्षणं, (स्त्री.), मातृभगिनी। खिंचाव, सं. पुं., । २. आकर्षः -ज़ाद, वि. पुं., मातृष्वसीय, मातृष्वसेय खिंचावट, खिंचाहट, सं. स्त्री. ) ३. दृढीकरणं, (स्त्री,-सीया,-सेयी)। ४. नियमनं ५. धनता, सुसंसक्तिः (स्त्री.) आ-, -जी का घर, मु., सुकरं कर्मन् ( न.)। ततिः (खी.) इ.। खालिक, सं. पुं. (अ.) स्रष्ट-विधातु-सृष्टि 1. खिंडना, क्रि. अ., दे. 'बिखरना। क (पुं.)। खिचड़ी, सं. स्त्री. (सं. कृसरः) कृशरः, ख़ालिस, वि, ( अ.) दे. 'खरा' (२)। मिश्रौदनः-नं, कृसरा, वैदलोदनः-नं, खेचरान्नं । खाली, वि. ( अ ) रिक्त, शून्य २. अनधिष्ठित २. मिश्रितद्रव्यं, प्रकीर्णकं विविधवस्तुमिश्रणम् । ३. रहित, हीन ४. अव्यापूत, निष्क्रिय -करना, मु., एकीकृ, सं., मिश्र (चु.)। ५. अधिक, उद्वृत्त ६. निष्फल, व्यर्थ । क्रि. -होना, मु., संसृज-संपृच् ( कर्म. ), एकीभू । वि., केवलम् । खिजना, क्रि. अ. ( सं. खिद् ) दे. 'चिढ़ना'। -करना, क्रि. स., रिच ( रु. प. अ.), परि- खिज़र, खिज्र, सं. पुं. (अ.) देवदूत विशेषः त्यज ( भ्वा. प. अ.), उत्सज (न. प. अ.) (इस्लाम ), २. पथप्रदर्शकः, मार्ग-दर्शकः ।। खिजलाना, क्रि. स. तथा क्रि. अ., दे. -होना, क्रि. अ. रिच-परित्यज्-उत्सृज (कर्म.) ।। 'चिढ़ाना' तथा 'चिढ़ना'। -हाथ, मु., अकिंचन, दरिद्र २.निःशस्त्र । खिजा, सं. स्त्री. ( फ़ा ) शिशिरः, दे. पतझड़' ख़ालू, सं. पुं. (अ.) मातृष्वसृधवः । २. अवनतिकालः ! खाविंद, सं. पुं. (फ़ा.) पतिः, भर्तृ २. स्वामिन् - | खिज़ाब, सं. पुं. (अ.) केश-बाल-मूर्धज, लेपः रंगः रागः-वर्णः। -करना, मु., अपरं पति विद् (तु. प. वे.) -करना या लगाना, क्रि. स., केशान् रंजवृ ( स्वा. उ. से.), द्वितीय विवाह कृ । व (चु.)। खास, वि. (अ.) स-, विशेष, विशिष्ट, विलक्षण, असाधारण २. रहस्य, संवरणीय, गोप्य ३. खिजालत, सं. स्त्री. (अ.). लज्जा, त्रपा, ब्रीडा। स्वकीय, आत्मीय ४. पवित्र ५. प्रधान, मुख्य । खिझना, क्रि. अ. ( सं. खिद् ) दे. 'चिढ़ना' । -कर, क्रि. वि., विशेषतः, विशेषेण । खिझाना, क्रि. स., दे. 'चिढ़ाना'। -व आम, सं. पुं., जनता, लोकः । खिड़की, सं. स्त्री. ( सं. खट(ड)किका)। वाताखासा', वि. (अ. खास) उत्तम, उत्कृष्ट २. स्वस्थ यनं, लघुद्वारं, गवाक्षः । २. अररी, कपाट:३. मध्यवर्गीय ४. मुंदर ५. परिपूर्ण । ख़ासा, सं. पुं. (अ.) नृपभोजनं, भूपाहारः खिताब, सं. पुं. (अ.) उपाधिः (पु.), मानपदम् । २. राशो गजोऽयो वा । ३. श्वेतवस्त्रभेदः खित्ता, सं. पुं. (अ.) प्रदेशः, भूभागः । ४. पूरि काभेदः। खिदमत, सं. स्त्री. (अ.) सेवा, परिचर्या । खासि(सी)यत, सं. स्त्री. (अ.) प्रकृतिः (स्त्री.), -गार, सं. पुं. (अ.+फ़ा.) सेवकः, परिचारकः। स्वभावः २. गुणः, धर्मः।। -गारी,-गुजारी, सं. स्त्री. ( अ.+फ़ा. ) खास्सा, सं. पुं. ( अ.) दे. 'खासियत'। सेवा, परिचा । खिंचना, क्रि. अ. (सं. कर्षण > ) आ-सं-, कृष | खिन, सं. पुं., दे. 'क्षण' । ( कर्म.), २. दृढीकृ-नियम् ( कर्म.) ३. वह - खिन्न, वि. (सं.) दुःखित, पीडित २. सचिंत. नी (कर्म.) ४. ( चित्रादि ) पर्ण-आलिख | चितित ३. विषण्ण, शोकमन्न, ३. दीन. निरा( कर्म.) ५. उत्-शुष (दि. प. अ.), नि-आपा ( कर्म.) ६. स ( भ्वा. प. अ.), क्षरखियानत, सं. स्त्री., दे. 'खयानतः । (भ्वा. प. से.)। | खिरनी, सं. स्त्री. (सं.क्षीरिणी) हैमी, हिमजा, खिंचवाना, कि.प्रे. ब. खींचना' के प्रे. | हिमदुग्धा (वृक्षभेदः) २ तत्फलम् । खिंचाना, क्रि. प्रे.) रूप । खिराज, सं. पुं. (अ.) दे. 'कर' ( टैक्स)। For Private And Personal Use Only Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir खिल [१८] खीज(सोना खिल, सं. पु. ( सं. पुं. न. ) ऊपरः-२ २. | खिल्ली, सं-स्त्री. ( हिं. खिलना ) क्ष्वेला, नर्मन् रिक्त, स्थान-स्थलम् ३. परिशिष्टं ४. शेषांशः | (न), विनोदः। ५. विष्णुः ६. ब्रह्मन् (पुं.)। -बाज, वि., विनोदशील, नर्मप्रिय । खिलअत, सं. स्त्री. (अ.) संमानवेशःषः। -बाजी, सं. स्त्री., विनोदशीलता, नर्मप्रियता । खिलकत, सं. स्त्री., दे. 'खलकत'। खिश्त, सं. स्त्री.,(फा.) दे. 'ईट'। खिलखिल, सं. स्त्री. ( अनु० ) हासः, हसितं खिसकना, क्रि. अ. ( अनु.) शनैः सृप ( भ्वा. हसनम्। प. अ.) चल ( भ्वा. प. से.) २. प्र स्खल खिलखिलाना, क्रि. अ. ( अनु. ) उच्चैः सशब्दं | (भ्वा. प. से.) ३. सत्वरं अलक्षितं-निभृतं हस् (भ्वा. प. से.), अट्टहासं कृ। अपया ( अ. प. अ.)-अपस ( भ्वा. प. अ.) खिलना, क्रि. अ. (सं. स्खलनं अथवा किरणं ?) | गम् । सं. पुं., शनैः-मृदु,-सर्पणं, स्खलनं, विकस्-प्रफुल्ल (भ्वा. प. से.), स्फुट (तु. अलक्षितं गमनं-अपसरणं इ० । ( प. से.), भिद् ( कर्म.) २. प्रसद ( भ्वा. प. खिसकाना, क्रि. स., 'खिसकना' के प्रे० रूप। अ.) ३. शुभ ( भ्वा. आ. से.) ४. पृथक भू। खिसलना, क्रि. अ., दे. 'फिसलना'। सं. पुं., विकसनं, फुल्लनं, प्रस्फुटनं-०। खिसलाव, सं. पुं.,दे. 'फिसलाव' तथा खिला हुआ, वि., विकसित, उन्निद्र, प्रस्फुटित । खिसलाहट, सं. स्त्री. 'फिसलाहट' । खिलवत, सं. स्त्री. (अ.)निर्जन-विजन, स्थानम् । ख्रिसारा, सं. पुं. (अ.) हानिः-क्षतिः ( स्त्री.)। खिलवाड़, सं. पुं. (हिं. खेलनाः) खेला, लीला, खिसिआ(या)ना, क्रि. अ. ( हिं. खीसक्रीडा, मनोविनोदः, विहारः ! दाँत ) लज्ज ( तु. आ. से. ), त्रप ( भ्वा. खिलवाड़ी, वि., दे. 'खिलाड़ी'। आ. वे.), बीड ( दि. प. से.) २. क्रुध् ( दि. खिलवाना, कि. प्रे., अन्येन + 'खाना' धातुओं प. अ.), कुप (दि. प.से.)। वि., लज्जित, हीण, ह्रीत । के प्रे.रूप। खिला, सं. स्त्री. ( अ.) शून्यकम् । खींच, सं. स्त्री. (हिं खींचना ) कर्षः, कर्षणम् । -तान, सं. स्त्री., प्रतिस्पर्धा, विजिगीषा खिलाई', सं. स्त्री. ( हिं. खिलाना) अन्नदानं, | २. अर्थातरकल्पना। पोषणं २. भक्षणं, खादनम् । खिसियाहट, सं. स्त्री., दे. 'खीस' । -पिलाई, सं. स्त्री., भुक्तपीतं, खादनपानं, खींचना, क्रि. स. ( सं. कर्षणं) आ-सं-, कृष् खानपानं २. अन्नपानदानं, पोषणं २. पोषणार्घः। ( भ्वा, प. अ. ), बलात् दिशाविशेषे प्रेर (प्रे.) खिलाई, सं. स्त्री. (हि. खेलाना) अंकपाली, नी ( भ्वा. उ. अ.)-प्रवृत् (प्रे.) ३. हृ ( भ्वा. शिशुपालिका। उ. अ. ) दे. 'घसीटना' ३. निष्कस् (प्रे.), खिलाड़, खिलाड़ी, वि. ( हिं. खेलना ) क्रीडा बहिर-अप, नी । ४. उद्-अंच ( भ्वा. उ. से.), खेला-लीला,-पर-शील। सं. पुं., क्रीडकः, | पर्युदंच । ५. शुष (प्रे.) ६. स्र-स्पंद् (प्रे.) खेलकः २. ऐन्द्रजालिकः, मायाविन् (पुं.)। ७. वर्ण (च.), आ-अभि-लिख ( तु. प. से. ) ८. रुध् ( रु. उ. अ.) । सं. पुं., आकर्षः, आकर्षणं, खिलाना', क्रि. प्रे. 'खेलना' के प्रे. रूप । नयनं, हरणं, निष्कासनं, उदंचनं, शोषणं, खलाना', क्रि. प्रे., 'खाना' के प्रे. रूप । स्रावणं, आलेखन, रोधः।। खिलाना', क्रि. प्रे., 'खिलना' के प्रे. रूप। खींचने योग्य, वि.,आ-,कर्षणीय, नेय, हर्तव्य, खिलाफ, वि. ( अ.) विरुद्ध, विपरीत । खलाफत, सं. स्त्री. ( अ.) देवदूत-नृप,-प्रति- खींचाखींची, । निधित्वं-उत्तराधिकारित्वम् । खींचातान, सं. स्त्री., दे. 'खींचतान'। खिलौना, सं. पुं. (हिं. खेलना) क्रीडाद्रव्यं, खींचातानी, ) क्रीडनकं, कीडनीयकं २, क्षुद्रालंकारः। खीज, खीझ, सं. स्त्री. (हिं खीजना) दे. 'चिढ़। खिल्य, वि. (सं.) परिशिष्टे वर्णित-लिखित। खीज(सोना, कि. अ. (सं. खिद्) दे. 'चिढ़ना' । ३. धर्तः। For Private And Personal Use Only Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir खीमा [ १४९] खुदाताला - खीमा, सं. पु. ( अ.) दे. 'खेमा' । खुटाई, सं. स्त्री., दे. 'खुटपन' । खीर, सं- स्त्री. (सं. क्षीरं-रा >) पायसं, परमानं, खुट्टी, सं. स्त्री. ( अनु.) दे. 'रेवड़ी' २. (पं. = क्षीरिका २. दुग्धं, पयस् (न.), क्षीरं, स्तन्यम् ।। बटन का सूराख ) गंड-कुडुप,-आधारः। -चटाई, सं. स्त्री. अन्नप्राशनसंस्कारः (धर्म.)। खुट्टी, सं. स्त्री., दे. 'खुरण्ड' । खीरा, सं. पुं. ( सं. क्षीरकः) (लता) पीतपुष्पा, खुड़ला, सं. पुं. ( देश.) कुक्कुटालयः २. चटत्रपुकर्कटी, बहु-कोष-तुंदिल, फला, कंटकिलता। कालयः । (फल) पुषं, कंटकिफलं, सुशीतलं, सुधावासम् । खडी, खडढी, सं. स्त्री. (सं. खुड्> ) शौच. -ककड़ी, नु., तुच्छवस्तु ( न.)। कूपगतः २ शौचकूपे पादाधानम् । खीरी, सं. स्त्री. ( सं. क्षीरः-रं> ) उधस्-ऊधस् खुतबा, सं. पुं. ( अ.) प्रशंसा, स्तुतिः (स्त्री.), ओधस् ( न.), आपीनम् । प्रशस्तिः (स्त्री.)। खील, सं. सी. ( हिं. खिलना ) धानाः ( मी., खुद, अव्य. (फ़ा.) स्वयं, स्वतः, स्वेच्छया बहु.), लाजाः (पुं., स्त्री., बहु.)। ( समास के आदि में 'स्व' तथा 'आत्मन्' भी खीली, सं. स्त्री. ( हिं खील ) वीटी-टिः (स्त्री.), प्रयुक्त होते हैं । उ. स्वार्थः, आत्महत्या )। वीटिका, तांबूलम् । -कुशी, सं. स्त्री. (फ़ा.) आत्म-स्व-निज, घातःखीस, सं. स्त्री. (हि खीज ) प्रीति-प्रसाद, अभावः इत्या-वधः । २. क्रोधः, रोषः ३. लज्जा, त्रपा । ४. कुस्मितं, -ग़ज़, वि. ( फ़ा.) स्वार्थ, पर-परायण । कुहसः। खीसा, सं. पुं. ( फ़ा. कीसा ) पुटः-टं, प्रसेवः, -ग़र्जी, सं-स्त्री. ( फ़ा.) स्वार्थ, परता-पराय णता। लघुसंपुटः २. गुप्ति-, कोषः-श । -मुखतार, वि. (ता.) स्वतंत्र, स्वच्छन्द । खुक्ख, खुख, वि. ( सं. शुष्क > ) रिक्तहस्त, -मुखतारी, सं. स्त्री. फ़ा.) स्वातंत्र्य, स्वाधीअकिंचन । खुखडी, सं. स्त्री. (देश.) सूत्र-ऊर्णा, पिंडः पिंड नत।। खुदना, क्रि. अ. (हिं. खोदना) खन्-उत्क(२) असि-खड्ग,-धेनुका-पुत्रिका। खुगीर, सं. पु. ( फ़ा.) दे. 'जीन'। तक्ष ( कर्म.), अवदृ-भिद् ( कर्म.)। खुच (चु) र, सं. स्त्री. (सं. कुचर > ) दोषः, । । खुदरा, सं. पुं. (सं. क्षुद्र > ) क्षुद्र-साधारण,न्यूनता २. छिद्रान्वेषिता, पुरोभागि(ग)ता। | वस्तु ( न.)। वि., दे. 'सुरदरा'। "... खुदवाई, सं. स्त्री. ( हिं. खुदवाना ) अन्यखुजलाना, क्रि. स. (सं. खर्जनं > ) नखैः । खुद त्वचं घृष (भ्वा. प. से.) । क्रि. अ., कण्डू-खसं कृत, खननं-खातिः ( स्त्री.) २. खनन, भृत्या भृतिः (स्त्री.)। खर्जु अनुभू । कण्डूयति-ते (ना. धा.)। खुजलाहट, सं. स्त्री. (हिं. खुजलाना ) दे. खुदवाना, खुदाना, कि. प्रे., 'खोदना' के प्रे. रूप। 'खुजली' । खुजली, सं. स्त्री. ( हिं. खुजलाना ) ( सुरसुरी) खुदा, सं. पुं. (फ़ा.) स्वयंभूः (पुं.), दे. 'ईश्वर'। कंडुः (पुं., स्त्री.), कंडू:-कंडूतिः (स्त्री.), कंडूयनं, कण्डूया, खर्जुः-जूः ( स्त्री.) २. ( रोग) -न ख्वास्ता, मु., ईशो न कुर्यात् । -परस्त, वि., ईश्वर पूजक, आस्तिक । कच्छुः -च्छु (स्त्री.), पामा, पामन् (पुं.), विचचिंका। -खुदा कर के, मु., येन केन प्रकारेण, अति,-उठना या चलना, क्रि. अ., दे. 'खुजलाना' कष्टेन कृच्छ्रेण, यथाकथञ्चित् । -की मार, मु., ईश्वर-दैव, प्रकोपः। (क्रि. अ.)। खुजाना, क्रि. स., क्रि. अ., दे. 'खुजलाना'। | खदाई, सं. स्त्री. (फ़ा.) ईश्वरत्वं २. सृष्टिः(स्त्री.)। खुटका, सं. पुं., दे. 'खटका'। खुदाई, सं. स्त्री. ( हिं. खोदना ) खातिः (स्त्री.) खुटपन-ना, सं. पुं. (हिं. खोटा ) दोषः, २. खनन किया ३. खननभृतिः ( स्त्री.)। अवगुणः, क्षुद्रता, दुष्टता। | खदाताला, सं. पुं. (अ.) परमेश्वरः, परमेशः । For Private And Personal Use Only Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir खवावंद [ १५० ] खुदावंद, सं. पु. ( फ़ा.) ईश्वरः २. स्वामिन्(पु.) खुरचनी, सं. स्त्री. ( हिं. खुरचना) उलेखनी, ३. भगवत्-श्रीमत् (पुं.), आर्यः, मिश्रः ( सब निर्धर्षणी २. काष्ठकुदालः, खनित्रं ३. दुग्धपात्रसम्मानसूचक शब्द)। खुरितम् । खुदी, सं. स्त्री. (फ़ा.) अहम्भावः, अहङ्कारः । खुरजी, सं. स्त्री. ( फा) दे. 'थैला' । २. अभिमानः, दर्पः । खुरदरा, वि. नतोन्नत २. असम, विषम, पिण्डखुद्दी, सं. स्त्री. ( सं. क्षुद्र > ) वैदलतण्डुला- कावृत, श्लक्ष्णता-निग्धता-परिष्कार,-शून्य। दीनां कणः । | खरपा, सं. पुं.(सं. क्षुरप्रः) घासछेदनशस्त्रं, खुनक, वि. ( फ़ा.) शीत, शीतल, हिम।। लघु-टंगः-टंग-खनित्रं २. चर्मकारोपकरणभेदः । खुनकी, सं. स्त्री. ( फ़ा.) शैत्यम् । | खरमा, सं. पुं. ( फा) खरं, खजूरी-फलम् खुनखुना, सं. पुं. ( अनु.) झणझणः, खणखणः, २. दे. 'छुहारा' ३. मिष्टान्नभेदः। क्रीडनकोदः। खुनस, सं. स्त्री. ( सं. खिन्नमनस् > ) कोपः, । । खुरली,सं. स्त्री. (सं.) शस्त्राभ्यासः २. शस्त्राभ्यासक्रोधः। खुनसाना, क्रि. अ., दे. 'क्रोध करना। खुराँट, वि., दे. 'खुर्राट'! खुनसी, वि., (हि. खुनस ) कोपन, क्रोधन, | खुराक, सं. स्त्री. ( फा.) भोज्यं, भक्ष्य, खाद्यं, रोषण । आहारः, भोजनं २. ( औषध- ) मात्रा, भागः । खुनाक, सं. पुं. दे. 'डिफथीरिया। खराकी, वि. ( फा. ) औदरिक, अमर, खुफिया, वि. ( फ़ा.) गूढ़, गुप्त, निभृत । घस्मर । सं. स्त्री., (दैनिक-) भोजनव्य । -पुलिस, सं. स्त्री. (I+अं.) प्रच्छन्न-गुप्त- खुराफात, मं. स्त्री. ( अ.) अश्लील ग्राम्यगूढ, रक्षिणः (बहु.), अपसर्पाः, चराः, स्पशाः। अशिष्ट, वचनानि (बहु.) २. गाल्यः-दुर्वचनानि खुब(भ)ना, क्रि. अ. ( अनु. ) आ-प्र-विश ( तु. (बहु.) ३. कलहः। प. अ.), व्यध् (दि. प. अ.), छिद् (रु. प. खुरी, सं. स्त्री. ( सं. सुरः . ) शफ-विख,-चिह अ.), छिद्रं-प्रवेशं कृ । २. दे. 'एड़ी। खुमार, सं. पुं. (अ.) म(मा)दः, क्षीवता, ~करना, मु., अतिक्षिप्रं चल ( भ्वा. प. से.)। शौंडता २. तन्द्रा, निद्रालुत्वं ३. निशाजागरजं । खुद, वि. ( फा. ) लघु, अल्प, सूक्ष्म । शैथिल्यम्। -बीन, सं. स्त्री. ( फा. ) सूक्ष्मदर्शकयंत्र, खुमारी, सं. स्त्री., . 'खुमार'। अण्वीक्षणयंत्रम् । खुरंड, सं. पुं. (सं. खुर = खुरचना> ) शुष्क- -बुर्द, वि., ( फा.) नष्टभ्रष्ट २. समाप्त । व्रणत्वच् ( स्त्री. ), ईझिल्ली २. किलासं, खुर्राट, वि. ( देश.) धूर्त, कुटिल, शठ २. वृद्ध सिध्मम् । ३. अनुभविन्। खुर, सं. पुं. (सं.) शफः-फं, विखः, निघृष्वः, खुलना, क्रि. अ. (सं. खुड्=तोड़ना>) क्षुरः २. खट्वादीनां पादुकम् । (द्वारादि) वि-अपा-वृ (कर्म.), निरर्गली भू, -दार, वि., खुरिन् , शफिन् । असंवृत-उद्घाटित (वि.)+भू २. (कली आदि) खुरखुर, सं. स्त्री. (अनु.) खुरखुर-घरघर, विकस-दल-फुल्ल (भ्वा. प. से.), भिद् ( कर्म.) शब्द:-नादः। ३. ( आँख ) उन्मिष ( तु. प. से.), उन्मील खुरखुरा, वि. ( सं. खुर-खुरचना> ),दुःस्पर्श, ( भ्वा. प. से.) ४. ( हाथ ) प्रस. ( भ्वा. प. असम, विषम, श्लक्ष्णताशून्य ।। अ.), वितन् ( कर्म.) ५. (मुख) व्यादा खुरचन, सं. स्त्री. ( हिं. खुरचना ) खुरितं, ( कर्म. ), विजम्भ ( भ्वा. आ. से.) ६. ( रहपयःपात्रखुरितं २. खुरितं, मिष्टान-कांदव,-भेदः।। स्यादि ) प्रकटी-व्यक्ती-आविर् +भू, प्रकाश खरचना, क्रि. स. (सं. खुरणं) खुर-क्षुर् (तु. ( भ्वा. आ. से.) ७. प्रारम-प्रस्तु (कर्म.) ८. प. से.), उत्-वि,लिख ( तु. प. से.) २. अप- उद्ग्रंथ् ( कर्म.), शिथिलीभू, उन्मुच् ( कर्म.) व्या, मृज ( अ. प. वे.), विलुप् (प्रे.)। ९. ( भूमि आदि विद-मिद् ( कर्म.)। For Private And Personal Use Only Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir खुलवाना [ १५१ ] खूदना खुल खेलना, मु., व्यक्तं प्रकाशं-अनिभृतं निर्भयं-करना, क्रि. स., मिथ्या-अतिमात्रं-अतीव ( किश्चित् कार्य ) कृ अथवा विषयासक्त प्रशंस् ( भ्वा. प. से)-स्तु (अ. प. अ.)-नु (वि. भू (अ. प. से.), अभि-परि-सं-स्तु, चाटूक्तिभिः खुलवाना, क्रि. प्रे., 'खोलना' के प्रे. रूप। सांत्व-उपलल-उपछंद (चु.), चाटूनि वद् खुला, वि. ( हिं खुलना ) उद्दाम, उद्ग्रथित, । (भ्वा. प. से.)। उत्सुत्र, नुक्त, बन्धनहीन २. शिथिल, प्रश्लथ, पुस '। खुशामदी, वि. ( फ़ा. खुशामद ) मिथ्याविगलिा. शिथिलसन्धि, विरल ४. स्पष्ट, प्रशंसक, चाटुकार, प्रियंवद, चाटुवादिन् (पुं.) । प्रकट, व्यक्त ५. अपावृत, व्यावृत, असंवृत , -टट्टू, सं. पुं., अत्यनुरोधिन्, चोटपटुः । ६. विस्तृत, विस्तीर्ण, विशाल । 'खुलना' के ' । खुशी, सं. स्त्री. ( फ़ा.) हर्षः, प्रसन्नता, मोदः, धातुओं के तात रूप। ___ आनन्द-प्रमोदः, आह्लादः, सन्तोषः, उल्हासः, खुले आम , क्रि. वि., प्रत्यक्षं, प्रकटं चित्तप्रसादः, प्रीतिः-तुष्टिः (स्त्री.)। खुले बजाने । प्रकाश, व्यक्तं, निर्भयं, -मनाना, क्रि. अ. दे. 'खुश होना। खुले मैदान | निःशङ्कम् । खुश्क, वि. (फ़ा., सं. शुष्क, ) शुष्क, अजल, निर्जल, वान, नीरस २. रूक्ष, स्नेहशून्य, अशिष्ट खुल्लम खुल्ला) ३. ग्लान, म्लान, विशीर्ण । खुलना, क्रि. प., 'खोलना' के प्रो. रूप। | -साली, सं. स्त्री. (फ़ा. ) अनावृष्टिः (स्त्री.), खुलासा, सं. पुं. (फा) सारांशः, संक्षेपः। २. दुर्भिक्षम् । ख़श, वि. ( फा.) प्रसन्न, प्रमुदित, प्रहृष्ट । खश्का, सं. पु. ( फ़ा.) जलपकौदनःनम् । -होना, क्रि. अ., आनन्द (भ्वा. प. से.), मुद खुश्की, सं. स्त्री. ( फ़ा.) शुष्कता, निर्जलता, ( भ्वा. आ. से.), हृष (दि.प. से.), परि- २. रूक्षता ३. स्थलं ४. दे. 'पलेथन'। सं-तुप ( दि. प. अ.), दे. 'प्रसन्न होना'। सुसरफुसर, सं. स्त्री. (अनु.) दे. 'कानाफूसी'। -किस्मत, वि.(फा.) सौभाग्यशालिन् । खसिया, सं. पुं. (अ.) मुष्कः, वृषणः, शुक्र-क्रिस्मती, सं. स्त्री. ( फा. ) सौभाग्यम् ।। ग्रंथिः । -खत, वि. ( फ़ा. ) लिपिज्ञ, सुलेखक । -बरदार, वि., चाटु, कार-वादिन् । -खती, सं. स्त्री. ( फा.) सुलेखन, कौशलं- खसूसियत, सं. स्त्री. ( अ.) विशेषता, नैपुण्यं विद्या । विशिष्टता, विलक्षणता । -सबरी, सं. स्त्री. ( फा.) शुभ-सु, समाचारः- खूत्रार, वि. ( फ़ा.) रक्त रुधिर, प्रिय, जिघांसु, वार्ता-वृत्तं-उदन्तः। हिंस्र । २. भीषण ३. निर्दय । -गवार, वि. (फT.) रचिर, सुखद, आ-,नंदक। खूट, सं. पुं. (सं. खंड:- ई ) अंशः, भागः । -दिल, वि. ( फ़ा.) प्रसन्नमनस , संतोपिन् । २. अतः, कोणः ३. अन्तः ४. पावः इव -नसीब, वि. ( फ़ा.) सौभाग्यवत, धन्य ।। ५. कर्णमलम् । -नसीबी, सं. स्त्री. (फा.) सौभाग्यवत्ता। खूटा, सं. पुं. (सं. क्षोड: ) शंकुः, कीलः कीलकः -नुमा, वि. (फ़ा.) सुदर्शन, मनोहर, सुन्दर ।। पुष्यलः २. नागदन्तः. भारयष्टिः (स्त्री.) -बू, सं. स्त्री. (फ़ा.) दे. 'सुगंध', सुवासः ।। -बूदार, वि. ( फ़ा.) सुगन्धित, सुगन्धि । खूटी, सं. स्त्री. ( हिं. खूटा ) लघु, कीलः कीलकः, -रंग, वि. ( फ़ा.) सुरंग, सुवर्ण । २. नागदन्तः तकः ३. तनुरुह-लोम, मूलं -हाल, वि. ( फ़ा.) समृद्ध, संपन्न । ४. शस्यलवनानंतरं क्षेत्रस्थं कांडमूलम् । -हाली, सं. स्त्री. ( फ़ा.) अभ्युदयः, समृद्धिः खूद, सं. स्त्री. (हिं. खूदना) अश्वादीनां (स्त्री.)। खुरेण भूमिलेखनम् । खुशामद, सं-स्त्री. (फ़ा.) चाटु (पुं. न.), खूदना, क्रि. स. (खुण्ड-तोड़ना>) ( अश्वाचाटूक्तिः (स्त्री.), अति-मिथ्या, स्तुतिः (स्त्री.), दयः ) खुरेण पृथिवीं आइन् (अ. प. अ.)-घृष् . प्रशंसा, चाटुवादः। । (भ्वा. प. से.)-लिख ( तु. प. से.)। घस्थणा। For Private And Personal Use Only Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [ १५२] खेल खुद, खूदड़, खूदर, सं. स्त्री. (सं. क्षुद्र> )| खेड़ा, सं. पुं. (सं. खेटः) लघुग्रामः, ग्रामटिका । दे. 'कूड़ा' । | -पति, सं. पुं. ग्रामणीः (पुं.)। खून, सं. पुं. (फ़ा.) रुधिर, रक्त, लोहितं | खेड़ा, सं . ( देश.) विविधान्नयोगः । शोणितं, असृज् ( न.), असं २. वधः, हत्या।। खेत, सं. पुं. (सं. क्षेत्रं ) केदारः, भूमिः (स्त्री.), -करना, क्रि. स., वध-धातं-हत्यां कृ, हन् (अ.: वप्रः-प्रे, वलज, निष्कुटः, राजिका, पाटीरः प. अ.), मृ-व्यापद् (प्रे.) २. प्रमादेन नश- २. शस्य, कृषिफलं ३. रण-युद्ध समर, भूमिः अवसद् (प्रे.)। ४. खड्ग,-फलं-पत्रं । ५. उत्पत्तिस्थानं -होना, क्रि. अ., द्वेषात् हन्-मार्-व्यापद् । ६. ( पशूनां ) जातिः ( स्त्री.) । --आना या रहना, मु., वीरगति, आप (स्वा. -खराबा, सं. पुं., (फा.) नृ-नर, वधः-हत्या, उ. अ.), युद्धे हन् ( कर्म.)। रक्त, पातःस्रावः । -छोड़ना, मु., युद्धात पलाय ( भ्वा. आ. से.) -खवार, वि. दे. 'खूखार'। खेतिहर, सं.पं., दे. 'किसान' । -धूकना, सं. पुं., रक्तष्ठीवनम् । खेती, सं. स्त्री. (हिं. खेत ) दे. 'कृषि' २. शस्य, -आँखों में उत्तर आना, मु., कोपारुणनयन कृषिफलम् । (वि.)+भू। -बारी, सं. स्त्री., दे. 'कृषि -उबलना या खौलना, मु., अतीव कुप् खेद, सं. पुं. (सं.) अनुशोकः, अनुपातः, २. दुःखं, ( दि. प.से.)। शोकः, आधिः (पु.), आ( अ )तिः (स्त्री.), -का प्यासा, मु., जिघांसु, वधोधत। क्लेशः ३. ग्लानिः-क्लांतिः-श्रीतिः ( स्त्री. )। सवार होना था चढ़ना, मु., वधाय-हत्यायें -जनक, वि. (सं.) अनुशोकप्रद, दुःखदायक, सज्ज-उद्यत (वि.)+भू। क्लेशकर, श्रांतिजनक । खूनी, सं. पुं. ( फा.) घातकः, हंत (पुं.)। वि., खेदना, क्रि. सं सं. (खेटः> ) दे. 'खदेरना'। हतुकाम, वधैषिन्, जिघांसु ।। खेदा, सं. पुं. (हिं. खेदना) गजादिबंधनपंजरम् । खूब, वि. (फा) अच्छ, भद्र, उत्तम, श्रेष्ठ । २. दे. 'शिकार'। क्रि.वि., सम्यक, साधु, शोमनम् ।। खेदित, वि. (सं.) खिन्न, अनुतप्त २. श्रांत, लांत । -रू, वि. ( फा) सुमुख ( सुमुखी स्त्री.)। खेना, क्रि. स., (सं. क्षेपणं >) नौदंडेन संचल-सूरत, वि. ( फा.) सुन्दर, सुरूप । प्रेर-प्रचुद्-प्रणुद (प्रे.)। २. नौकां वद्द-ओर् -सूरती, सं. स्त्री. ( फा.) सुंदरता, सुरूपता । | (प्र.)इ.३.दे. 'बिताना। खूबी, सं. स्त्री. ( फा) अच्छता, उत्तमता खेप, सं. स्त्री. ( सं. क्षेपः > ) सकृद्वाह्यो भारः में ही २. गुणः, विशेषः, विलक्षणता । .. २. पोतस्थं द्रव्यं ३. नौकादीनां सकृत् यात्रा । खूसट, सं. पुं. (सं. कौशिक ) शिक) ६. 'उल्लू दे. 'उल्लू' । खेपना, कि. स. ( सं. क्षेपणं) दे. 'बिताना' । २. जरठः, स्थविरः। वि., रसिकताशून्य, शुष्क- खेम, सं. पुं., दे. 'क्षेम'। हृदय २. जड ३. कुदर्शन। ... खेमा, सं. पुं. (अ.) पट-वस्त्र,-मंडपः-गृहखेचर, सं. पुं. (सं.) गगनविहारिन् , व्योमगः । वेश्मन् ( न.), दृश्य-श्यम् । २. ग्रहः, नक्षत्रं ३. वायुः (पुं.) ४. देवः -गाड़ना, क्रि. स., दृश्यं रच् (चु.) उप५. विमानः-नं ६. खगः ७ मेघः ८. भूतप्रेताः | क्लप (प्रे.)। ९. राक्षसः १०. विद्याधरः ११. शिवः खेल, सं. पुं. ( सं. खेला ) क्रीडा, केलिः (स्त्री.), १२.१३ दे. 'पारा' तथा 'कसीस। खेचरान्न, सं. पुं. (सं. न.) दे. 'खिचड़ी'। । खलनं, लीला २. वृत्तां, उदंतः ३. सुकर-क्षुद्र, खेटक, सं. पुं. (सं.) मृगया, आखेटः २. कर्षक कार्य ४. कामक्रीडा, संभोगः ५. अभिनयः, ग्रामः ३. नक्षत्रं ४. बलदेवगदा ५. यष्टिः (स्त्री.) नाटक ६. कौतुकं, विचित्रकार्य ७. ( पशुओं के लिए ) जलद्रोणिः ( स्त्री.)-णी। ६. ढालं, फलकम् । खेटकी, सं. पुं., दे. 'शिकारी'। -समझना, मु., सुकरं मन् (दि. आ. अ.)। For Private And Personal Use Only Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir खेलना खेलना, क्रि. अ. (सं. खेलनं ) खेल विलस् | क्रीड् (भ्वा. प. से. ), विहृ ( स्वा. प. अ. ) २. संभोगं - रतिक्रियां कृ ३. विचर- चल (भ्वा. प. से. ) ४. भूताविष्ट: अंगानि चल ( प्रे. ) क्रि. स., नट्-रूप ( चु.), अभिनी ( स्वा. प. अ. ) | ( जूआ आदि ) दिव् ( दि. प. से. ), [ ५३ ] खेलवाड़, सं. पुं., दे. ‘खिलवाड़ ' । खेलवाड़ी, वि., दे. 'खिलाड़ी' । खेलवाना, क्रि. प्रे., 'खेलना' के प्रे. रूप | खेला, सं. स्त्री. (सं.) क्रीडा, लीला । खेलाड़ी, वि., दे. 'खिलाड़ी' । खेलाना, क्रि. प्रे., 'खेलना' के प्रे. रूप । खेलि, सं. स्त्री. ( सं . ) क्रीडा, लीला । सं. पुं., पशुः २. खगः ३. सूर्यः ४. शरः ५ गीतम् । खेवक, सं. पुं. ( हिं. खेना ) दे. 'केवट ' । खेवट, सं. पुं. खेवट, सं. पुं. (हिं. खेत + वट प्रत्य) क्षेत्र पतिलेखः । खोखला -ख्वाह, वि. ( अ. + फ़ा. ) शुभचिंतक, हितैषिन् । लहू ( चु. उ. से. ) । खेलनी, सं. स्त्री. (सं.) चातुरंगक्रीडापट: ख़ैरात, सं. स्त्री. (अ.) दानं त्यागः । २. शारः, शारि: (पुं.)। खेवना, क्रि. स., दे. 'खेना' । खेवा, सं. पुं. (हिं. खेना) तायें, तरपण्यं, आतरः तारिकं २. नौकया नदीलंघनं ३ वारः, अवसरः, पर्याय: ४. भाराकांता नौः (स्त्री.) । खेवैया, सं. पुं. ( हि. खेवना ) दे. 'केवट' । खेस, सं. पुं. (देश. ) अवस्तरः, आस्तरपटः । खेसारी, सं. स्त्री. (सं. कृशरः > ) कलायभेदः । खेह (र), सं. स्त्री. ( सं . क्षार: ) रजस् (न.), धूलि: (स्त्री.) २. भस्मन् (न.), भसितम् । खैचना, क्रि. स., दे. 'खींचना' । खचवाना, क्रि. प्रे., 'खींचना' के प्रे. रूप | खचाखच ची सं. स्त्री. दे. 'खींचतान' । खचातानी खैर, सं. पुं. ( सं. खदिरः ) सारद्रुमः, यज्ञांगः कुष्ठारि: (पुं.), दंतधावनः २. (हिं. कत्था ) खादिरः, खदिरसारः ३. खगभेदः । ख़ैर, क्रि. वि. (अ.) अस्तु, एवं, साधु, भद्रं, सुष्ठु ( सब अव्य.) २. का चिंता । सं. स्त्री, कुशल, मंगलम् | - आफियत, सं. स्त्री. (अ.) कुशलक्षेमम् । ख़वाही, सं. स्त्री. ( अ + फा. ) शुभचिंतकता, हितैषिता । खैरा, वि. (हिं. खैर ) खदिरवर्ण । सं. पुं., खादिवर्णः कपोतो अश्वो वको वा २. नलतल, मीनः । ख़ैराती, वि (अ.) धर्मार्थ, पुण्यार्थ २. वदान्य, उदार । ख़ैरियत, सं. स्त्री. ( अ. ) मंगलम्, कुशलम् । खों (खं) गाह, सं. पुं. (सं. खांगाहः तथा खोकाहः ) श्वेतपिंगलाश्वः । खो खो, सं. स्त्री. (अनु. ) कास-क्षवथु- शब्दः । खोंच, सं. स्त्री. ( सं . कुच्= लकीर डालना > ) कीलादिभिः वस्त्र, विदर:- विदल:- रंधम् २. दे. 'खरोंच' । -आना या लगना, क्रि. अ., कीलादिभिः ( कर्म., दीर्यते ) । खींचना, क्रि. स., दे. 'खरोंचना' । खोंचा, सं. पुं. ( सं . कुच्= जोड़ना > ) खगबंधनवंशः २. दे. खोंच' ३. दे. 'खरोंच ' ४. आघातः, प्रहारः ५. पूरणम् । खोंची, सं. स्त्री, परस्पर कलहः, मिथ:प्रहारः । खोंची, सं. स्त्री. ( सं . कुच् > ) पूरणं २. पदा र्थान्तरनिवेशितवस्तु (न. ) ३. क्षुद्रवस्तुक्रयः । खोटना, क्रि. स. (सं. खंड-तोड़ना > ) अंगुलाभिः पत्रपुष्पं त्रुट् (प्रे.), उद्वृ- उत्कृष् (भ्वा. प. अ. ) । 'खोदा, वि., दे. 'खोटा' । खोडर, सं. पुं. ( सं . कोटर :- रं) निष्कुहः । खोड़ा, वि. (सं. खोड ) विकलांग, विकल, खंज, पंगु २. दंतहीन । खता, खौथा, सं. पुं. दे. ‘घोंसला' । खोपा, सं. पुं. दे. 'खोपा' । खोंसना, क्रि. स. (सं. कोश: > ) पूरणं, निआ, वेशनं, निधानम् । खोआ, सं. पुं., दे. 'खोया” । खोखला, वि. ( हिं खुक्ख ) शून्य - रिक्त, - गर्भ - उदर-मध्य | For Private And Personal Use Only Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir खोखा [ १५४ ] खोपड़ा, खोपरा खोखा, सं. पुं. ( हिं. खुक्ख ) धनार्पणादेशपत्रं । । खोड़ा, सं. पुं. दे. 'हथकड़ी'। ( बं. ) बाल: [ खोखी ( स्त्री. ) = बालिका]। खोद, सं. पुं. ( फा. खोद ) खोलकः, लौहखोज, सं. स्त्री. (हिं. खोजना) अन्वेषणं-णा, धातुमय,-शिरस्त्राण-शीर्षण्यं शिरस्कम् । गवेषणं-णा, मार्गणं-णा, अनुसंधानं, शोधः। खोद, सं. पु. ( हिं. खोदना ) पृच्छा २. चिह्न, लक्षणं ३. चक्र-पाद, चिह्नम् । २. निरीक्षणम् । -करना, क्रि. स. दे. 'खोजना'। -विनोद, सं. पुं., अतीव अनुयोगः-अवेक्षणं---खाज, सं-स्त्री., पृच्छा, अनुयोगः २. अनु विचारणम् । मंधान, विचार:-रणं-रणा ३. अन्वेषणम् । -कर पूछना, मु., निभृतं र हत्यं गूढं प्रच्छ् (तु. प. अ.)-अनुयज ( रु. आ. अ.)। खोजना, कि. स. ( सं. खुज-चुराना > ) | चुना! खोदना, क्रि. स. (सं. खुड्=तोड़ना> ) खन् अन्त्रिप (दि. प.से.), निरूप-माग (चु०), (भ्या. उ. से.), ( भूमि ) अवदृ (प्रे.), भिद् मृन् । चु. आ. से.), अनुसंधा (जु. उ. अ.)। । (रु. प. अ.)। २. उत्पट-उन्मूल (दु.) विचि ( स्वा. उ. अ. ), अब-निर-इक्ष ३. उत्क ( तु. प. से ), तक्ष-त्वक्ष ( भ्वा. प. ( भ्वा. आ.से.)। से.), मुद्र (चु.) ४. उत्खन् , निभिद् खोजवाना, खोजाना, क्रि. प्रे. 'खोजना' के , (रु. प. अ.) ५. यष्टचादिभिः संआ-पीट् प्रे. रूप। (नु.) ६. उद्दीप्-उत्तिज (.)। सं. पुं., खनन, खोजा, सं. पुं. ( फ़ा. ख्वाजः ) सौविदः, सौवि खातिः (स्त्री.), अवदारणं, भेदन, उत्पाटनं, दल्लः, कंचुकिन् , २. सेवकाः ३. आर्यः, । उम्मूलनं, उत्किरणं, तक्षणं इ. । महाशवः, मिश्रः, नायकः। -योग्य, वि., खननीय, खेय, अबदारयितव्य, खो जाना, कि. अ., दे. "खोना' (क्रि. अ.) । उत्पाटनीय, उन्मूलयितव्य । खोजी, खोजिया, सं. पुं. (हिं. खोजना) -वाला, सं. पुं. खनकः(-की स्त्री.), अवदारकः, अन्वेषकः, निरूपकः, निरीक्षक, अनुसंधायकः, उन्मूलकः उत्पाटकः । २. चरः, चारः, अपसर्पः। खोदा हुआ, वि., खात, अवदीर्ण, उन्मूलित, खोट, सं. स्त्री. ( सं. क्षोट ) दोषः, वैकल्यं, उत्पाटित इ.। वैगुण्यं, दूषणं २. मिश्रणं, ३. मिश्रधातुः (पु.), खोदनी, सं. स्त्री., ( हिं. खोदना ) लघु, कुप्यं, अपद्रव्यम् । खनित्रं-टंगः । -मिलाना, कि. स., अपद्रव्येण मिथ् (चु.)। कन-सं. स्त्री., श्रवणशोधनी, कर्णकट्टयनी। खोटा, वि. (सं. क्षोट > ) दूषित, सदोषः, दंत-, सं.श्री., रदनशोधनी, दंतोल्लेखनी । दोषिन् , विकल २. (अपद्रव्येण) मिश्रित, कूट, खोदवाना, क्रि.प्रे., 'खोदना' के प्रे. रूप । कृत्रिम् ३. दुष्ट, खल ४. छलिन् , अधार्मिक । खोदाई, सं. स्त्री., दे. 'खुदाई। खोटा खरी सुनाना, मु., निर्भस -तर्ज (चु.), खोनूचा, सं. पु. ( फा. ख्वान्चः) भांडवाह अविक्षिप (तु. प. अ.), निंद् (भ्वा. प.से.)। भाजनं, क्षुद्रवस्तुविक्रेतुः पात्रम् । खोटाई, सं. स्त्री., दे. 'खोटापन। खोना, क्रि. स. ( सं. क्षेपणं > ) हा (जु. प. खोटापन, सं. पुं. (हिं. खोटा) दुष्टता, क्षुद्रत्वं अ.), त्यज ( भ्वा. प. अ.) २. अपव्यय २. छलं, कपट ३. दोषः, वैगुण्यं ४. अप- (चु.) वृथा :-हम् ( प्रे.)। ३. विप्रक, नश दब्यमिश्रणम् । (प्रे.)। क्रि. अ., मार्गात भ्रंश-भ्रंस ( भ्वा. खोड, वि. ( सं.) विकलांग, अंगहीन, विकले- आ. से.), संभ्रम् ( दि. प. से.) २. नश न्द्रिय, पोगंड। (दि. प. से.), च्यु ( भ्वा. आ. अ.)। खोड़, सं. स्त्री. ( हिं. खोट) देव-भूत-प्रेत, खोपड़ा, खोपरा, सं. पुं. (सं. खर्परः) कपाल: कोपः २. रोगः ३. कुमुहूर्त-त ४. दोषः, लं, कर्परः २. शीर्ष, शिरस ( न.) ३. अप्फलं, विकलता ५. चंदनकाष्ठखंडः डम् । नारिकेरः-ल:, कौशिलफलं ४. अप्फल-नारिखोड़रा, सं. पुं.,दे. 'कोटर' । | केर,-बीजं गर्भः ५. भिक्षापात्रम् । For Private And Personal Use Only Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir खोपड़ी [ १५५ ] खिष्टान खोपड़ी, सं. स्त्री. ( हिं. खोपड़ा) दे. | खोह, सं. स्त्री. ( सं. गोहः ) कंदरः-रा, गुहा, 'खोपड़ा' ( १, २)। गहरं, दरी २. विवरःरं, बिलं, कुहरम् । अंधी या औंधी-का, मु. जड, अज्ञ, मंदमति । खीं, सं. स्त्री. (सं. खन् > ) गतः, अवटः, बिलम् -खाना या चाट जाना, मु., वाचालतया २. कुशूल:, धान्यकोष्ठः । उद्विज-संतप्-अद् (प्रे.)। | खोंचा, सं. पुं. (सं. षट् + च ) सार्द्धघडभिः -गंजी करना, मु. अत्यधिकं तड् (प्रे.)। गुणनतालिका। खोपा, सं. पुं. ( सं. खर्परः) नारिकेल, बीजं रखौंसडा, सं. पुं. ( पं० खुसना > ) जीर्ण, गर्भः २. तृणपटलकोणः ३. मार्गाभिमुखो गृह ममुखा गृह उपानह् (स्त्री.)-पादत्रम् । कोणा: ४. ब्रह्मरंध्रस्थः त्रिकोणः केशविन्यासः ।। खौफ, सं. पुं. (अ.) मयं, भीतिः (स्त्री.), त्रासः । ५. वेगी-कवरी-कच,-बंधः, जूट:-टकम् । -नाक, वि. (अ.+ फ़ा) भयंकर, भीतिजनक । खोया', सं. पुं. (सं. क्षोदः) घनी-श्यानी खौर, सं. स्त्री. ( सं. क्षुर् लकीर डालना> ) सांद्री,-कृतं, दुग्धं, किलाटः २. इक्षु-शेषः-शेपं, | अर्द्धचंद्राकारं चंदनादेस्तिलकं २. स्त्रीमस्तकहृतरसः इक्षुः ३. इष्ट कालेपः। खोया', वि. ( हिं. खोना ) नष्ट., भ्रष्ट, संभ्रांत । भूषणभेदः । खौरहा, वि. (हिं. खौरा ) ( पशु ) पामाखोर, वि. (सं.) पंगु, खंज, श्रोण, खोड, सिध्म, पीडित, पामन । खोल। खोरा, सं. पु. ( सं. खोलकः या फा. आबखोरः) | खौरा, ( पशुओं का खुजली रोग ) सं. पुं. (सं. क्षौर या फ़ा. बालखोरः> ) पामन्चषकः क, पात्रम् । दे. 'कटोरा' । सिध्मन् (पुं.), पामा । वि. दे. 'खौरहा' । खोरी, सं. स्त्री., दे. 'कचा'। खोल, सं. पुं. (सं. खोलं > ) कोषः-शः, वेष्टनं, खोरु, सं. पुं. (देश.) वृषभ, गर्जना निनादः २. कलहः । आवरण २. कीटत्वच ( स्त्री. ) ३. पुटः खोलना, क्रि. अ., दे. 'उबलना' २. बुद्बुदायते४. उत्तरीयं, चेलम् । फेनायते ( ना. धा.) ३. प्रकुम् ( दि. प. से.), खोलक, सं- पुं., (सं.) शिरस्त्राणम् २. कपाल: सं-वि-क्षुभ ( भ्वा. आ. से.)। लं ३. क्रमुक-पूग-त्वच् (स्त्री.) ४. वल्मीक:कं५. सर्पविलम् । खौलाना, क्रि. प्रे., 'खौलना' के प्रे. रूप । खोलना, क्रि. स., ( सं. खुड् = भेदन >) खौहा, वि. (हिं. खाना ) औदरिक, अमर, (द्वारादि ) उदघट (प्रे.), वि-अपा-वृ ( स्वा. घस्मर, बहुभक्षिन् । उ.से.), निरर्गलीक । ( आँखें ) उन्मील, ख्यात, वि. (सं.) प्रसिद्ध, विश्रुत । उन्मिप-उत्फल ( प्रे.) । ( मुख ) व्यादा (ज. ख्याति, सं. स्त्री. (सं.) प्रसिद्धिः कीतिः (स्त्री.)। प. अ.), उत्-वि.। जंभ (प्रे.), ( रहस्यादि) | ख्यापन, सं. पुं. ( सं. न. ) प्रकाशनं, घोषणं, आविप्-व्यक्ती-प्रकटी, कृ। २. शिथिल यति । (ना. धा.), मोक्ष (चु.), उन्मुच (प्र.) ख्याल, सं. पुं. (अ.) विचारः रणा. मतं, सं., ३. विस्त-विस्तु (प्रे.) ४. अपा-वि-वृ, उच्छिद् मतिः (स्त्री.) २. सं.-स्मृतिः ( स्त्री.), स्मरणं, (प्रे.) ५. विवस्त्रं कृ ६. व्याकृ, व्याख्या धारणा ३. अनुमान, वितका, अ धारणा ३. अनुमान, वितर्कः, अभ्यूहः-हनं (अ. प. अ. ) । सं. पुं., उद्घाटनं, विवरणं, ४. आदरः, संमानः ५. गीतिभेदः। उन्मीलनं, विकासः, स्फुटनं, विजंभणं, आवि- -से उतरना, मु., विस्मृ (कर्म.), स्मृतिपथात् करणं, उन्मोचनं इ.। भ्रंश ( भ्वा. आ. से.)। खोलने योग्य, वि., उद्घाटनीय, उन्मीलितव्य, ख्याली, वि. ( अ. ख्याल ) काल्पनिक, कल्पित, उMभणीय ह.। कल्पनात्मक, अवास्तविक, वितथ । खोवा, सं. पुं., दे. 'खोया' । -पुलाव पकाना, मु., गगनकुसुमानि-खपुखोशा, सं. पुं. (फ़ा.) गुच्छः, गुत्सः, स्तबकः । पाणि वा चि ( स्वा. उ. अ.) । खोसना, क्रि. स., दे. 'छीनना। | ख्रिष्टान, सं. पुं. (हिं. खीष्ट ) दे. 'ईसाई'। For Private And Personal Use Only Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [ १५६ ] गंडकी खीष्ट, सं. पुं. ( अं. क्राइस्ट ) दे. 'ईसामसीह' । । स्वाह, अव्य, (फ़ा.) वा., अथवा, आहोस्वित् ख्वाजा, सं. पुं. (फा.) स्वामिन् , प्रभुः। (सब अव्य.)। २. अध्यक्षः, नायकः ३. सौविदः-दल्लः ४. श्रेष्ठ- -म खवाह, क्रि. वि., मताग्रहेण, मताभिमानेन यवनभिक्षुः ( पुं.) ५. आर्यः, मिश्रः । २. अवश्यं, निर्विकल्पन् । स्वाब सं. पुं. (फ़ा.) निद्रा २. स्वप्नः । रवाहिश, सं. स्त्री. (फ़ा.) अभिलाषः, आकांक्षा, खवार, वि. ( फ़ा.) नष्ट, ध्वस्त, क्षीण २. अना- इच्छा। दृत, अपमानित । --मंद, वि. (फ़ा.) आकांक्षिन् , इच्छुक । खवारी, सं. स्त्री. (फ़ा.) विध्वंसः, विनाशः -करना या रखना, क्रि. स., इष् (तु. प से.), २. अनादरः, तिरस्कारः। । वांछ्-आकांक्ष-अभिलष् ( भ्वा. प. से.)। ग, देवनागरीवर्णमालायाः तृतीयव्यंजनवर्णः, | गंजा, पि. (सं. कंजः केश > ) खल्वाट, विकेश गकारः। | (-शी, स्त्री.), खलति, खल्लोट ।। गंगाम्बु सं. पुं. (सं. न.) जाह्नवी, गंगा,-जलं- गंजी, सं. स्त्री. (सं. गंजः ), राशिः (पु.), वारि ( न.), २. वृष्टेः स्वच्छजलम् । निकरः, समूहः २. दे. 'शकरकंद' ३. दे. गंग, गंगा, सं. स्त्री. ( सं. गंगा ) जाह्नवी, त्रिप- | 'बनियायन'। थगा, भागीरथी, मंदाकिनी, सुरसरित् (स्त्री.), गंजीफा, सं. पुं. (फा) पत्रखेलाभेदः। विष्णुपदी, खापगा, हरशेखरा । २. क्रीडापत्रचयः । -जमनी, वि. ( सं. गंगा+ हिं. जमुना >) गंजेड़ी, गंजल, वि. (हिं. गांजा) गंजापायिन् , मिश्रित, संकर, द्विवर्ण २.स्वर्णरजतमय ३. शुक्ल-। गंजापः ।। कृष्ण, सितासित । | गँठकटा, सं. पुं. (हिं. गाँठ + काटना ) ग्रंथि-जल, सं. पुं. (सं. न.) भागीरथीतोयं २. श्वेत- भेदकः, चौरः। सूक्ष्मवस्त्रभेदः । गँठजोड़ा, सं. पुं. (हि. गाँठ + जोड़ना ) दे. -जली, सं. स्त्री. ( सं. गंगाजल > ) गंगाजल ___ 'गठबंधन'। पात्रम् । -जली उठाना, मु. गंगोदकेन शप् ( भ्वा. गँठबंधन, सं. पु. ( सं. ग्रंथिबंधनं ) ग्रंथि-ग्रंथिका, __ बंधनं-योजनं-संश्लेषणं। (वैवाहिकरीतिभेदः) । उ. अ.)। -पुत्र, सं. पुं. (सं.) भीष्मः, गांगेयः २. प्रेत- गंड, स. पुं. (सं.) गल्लः, कपोलः २. हस्तिवाहो जातिविशेषः ३. तीर्थवासी विप्रभेदः। कपोलः, कटः, करटः ३. दे. 'कनपटी' -सागर, सं. पुं. (सं.) गंगामुखं २. कलशः, ४. स्फोटकः, पिटकः ५. रेखा, चिह्न ६. ग्रंथिः उदकपात्रभेदः ३. वंगेष तीर्थविशेषः। (पुं.) ७. खड्गिन्, गंडकः ८. रक्षाकरंडः गंगाल, सं. पुं. (सं. गंगालयः>) बृहज्जलपात्रं ।। ९. गडुः (पुं.)। गंगोदक, सं. पुं. (सं. न.) गंगा-भागीरथी, सी -माला, सं. स्त्री. (सं.) गलगंडः, कंठमाला, जलं-तोयम् । गलरोगभेदः। ज, सं. पुं. (फ़ा., सं.) कोशः-षः २. राशिः -स्थल, सं. पु. ( सं. न.) दे. 'कनपटी'। (पुं.)३. निषद्या, वाणिज्यस्थानं ४. समूहः ।। गंडक, सं. पुं. (सं.) कंठधार्यो रक्षाकरंडः गंज', सं. पुं. (सं. कंजः केश >) खालत्यं, २. ग्रंथिः (.) ३. स्फोटकरोगभेदः ४. खगिन् खल्वाटता, विकेशता। (पुं.) ५. चिह्न ६. देशविशेषः । गंजन, सं. पुं. (सं. न.) अवज्ञा, तिरस्कारः गंडकी, सं. स्त्री. (सं.) नदीविशेषः २. नाशः, ध्वंसः ३. पीडा, व्यथा । २. खड्गिनी, खड्गमृगी, तुंगमुखी। For Private And Personal Use Only Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir गंडा [ १५७ ] गँवारू गंडा, सं. पुं. ( सं. गंडकः-गांठ ) १. कंठधार्यो | गंधकी, वि. ( सं. गंधकः> ) गंधकः, गर्भ-युक्त रक्षाकरंड: २. चतुष्कं, चतुष्टयं ३. कपर्दिका- २. ईषत्पीत । पण, चतुष्टयं ४. वलयः, चक्रं ५. हयकंठभूषणं गंधन, सं. पुं. (सं. न.) गन्धप्रसारणम् ६. इक्षुः (पुं.)। २. व्रीहिभेदः ३. अध्यवसायः ४. आघातः -तावीज, सं. पुं., मंत्रयंत्रम् । प्रहारः ५. दोषप्रदर्शनम् ६. ससूचनम् । -तावीज़ करना, क्रि.स., रक्षाकरंडेभूतप्रेतान् गंधर्व, सं. पुं. (सं.) स्वर्गगायकः, दिव्यगायनः, निष्कस् ( प्रे.) दरी कृ। गातुः (पु.), देवभेदः २. गायकः । [वी स्त्री.] गड़ा(डा)सा, सं. पुं. (हिं. गेड़ी + सं. असिः>) -नगर, सं. पुं. (सं. न.) खे स्थले वा ग्रामयवस-पास, छेदनी २. लघु,परशुः (पुं.) नगरादीनां मिथ्याभासः, गातु-गंधर्व,-पुरं २. माया, प्रपंचः, इन्द्रजालम् । परश्वधः । -विद्या, सं. स्त्री. (सं.) संगीतं, संगीत-वाय, गंडूष, सं. पुं. (सं.) गंडूषा, चुलुकः. चुलकः ।। | विधा-शास्त्रम् । २. शुंठाग्रं, शुंडाराग्रम् । -विवाह, सं. पुं. (सं.) विवाहभेदः (धर्म.) गडेरी, सं. स्त्री. (हिं. गंडा) इक्षु, पित्रोरनुमति विना स्वेच्छातो विवाहः । खण्डकः कम् । गंधवती, सं. स्त्री. (सं.) पृथिवी, धरणी । गंदगी, सं. स्त्री. (फ़ा.) मल:-लं, अव (प) स्करः, २. व्यास जननी, सत्यवती ३. सुरा कल्कं कः, किट्ट, कर्दमः २. मालिन्यं. कालुष्यं ४. जातीभेदः । ३. अपवित्रता, अशुचिता। गंधार, सं. पुं. (सं. गांधारः) भारतवर्षस्योगँदला, वि., दे. 'गंदा'। त्तरस्यां दिशि देशविशेषः २. तृतीयस्वरः गंदा, वि. ( फ़ा. ) मलिन, मलीमस, समल, (संगीत.)। कलुष, आविल २. अशुद्ध, अपवित्र ३. कुत्सित, गंधी, सं. पुं. (सं. गंधिन् >) गांधिकः, गंध,गर्दा, अश्लील। विक्रयिन्-उपजीविन्-वणिज् २. ३. घास-कीट,-करना, क्रि. स., कलुषयति-मलिनयति भेदः । ( ना. धा.), दुष (प्रे. दूषयति ), कलुषी- गंधारी, सं. स्त्री., दे. 'गांधारी । आविली, कृ। [गंदी (स्त्री.)=मलिना इ.] गंभीर, वि. (सं.) ग (गं) भीर, रकं, अगाध, गंदी बातें, अश्लील, ग्राम्य-अवाच्य-वचनानि । निम्न २. गहन, निबिड ३. दुर्बोध, निगूढार्थ गंदा बिरोजा, सं. पुं. (सं. गंध+दे. बिरोजा) ४. मंद्र, घन (शब्द) ५. शांत, सौम्य । कुंदः-दुः, कुंदुरः-रुः, पालंकी, बहु-तीक्ष्ण,-गंधः, गंभीरता, सं. स्त्री. (सं.) गांभीर्य; गौरवं; धीरताः श्रीवत्सः सकः, सरल, द्रवः-निर्यासः । निम्नता; गहनता; दुर्बोधता; सौम्यता इ. । गंदम, सं पुं. ( फा., सं. गोधूमः ), सुमनः, गवाऊ, वि. (हिं. गँवाना) अपव्ययिन , म्लेच्छभोज्यः, प्रवटः। विक्षेपिन्, दे. 'उजाडू'। गंदुमी, विं. (फ़ा. गंदुम ) गोधूम (समास में), | गँवाना, क्रि. स. ( सं. गमनं >) अपव्यय (च.) गोधूम-सुमन, वर्ण, प्रवटमय । वृथा झै हस (प्रे.) २. हा (जु. प. अ.), गंध. सं. स्त्री. (सं..) आमोदः, वासः स्यज ( भ्वा. प. अ.) ३. ( समयं ) या२. घ्राणग्राह्यः पृथिवीगुणः (4.) ३. सुगंधः, अतिवह (प्रे.)। सुवासः। गवार, वि. (हिं. गाँव ) ग्रामीण, ग्रामिक, -बिलाव, सं. पुं. (सं. गंधविडालः) गंध- ग्रामिन् (पुं.), ग्राम्य २. मूर्ख, जड ३. अनार्य, मार्जारः, खट्टासः। असभ्य । -राज,-सार, सं. पुं. ( सं.) चंदनम् । -पन, सं. पुं., ग्रामीणता, मूर्खता, असगंधक, सं. स्त्री. (सं. पुं.) गंधि(ध)कः, भ्यता इ.। गंधाश्मन्, सौगंधिकः । गॅवाल, वि. ( हिं. गँवार ) ग्रामीय, असंस्कृत, --का तेलाव, सं. पुं., गन्धकाम्लः । प्राकृत २. अशिष्ट, मसभ्य । For Private And Personal Use Only Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir गँसीला [ १५८ ] गँसीला, वि. (हिं. गाँसी) ग्रंथिल, ग्रंथि पर्व, मय । वान, सं. पुं. ( सं. गजः > ) दे. 'गजपाल' । - शाला, सं. स्त्री. (सं.) द्विप- हस्ति, शालागृहम् । २. वेधक, छेदक । गऊ, सं. स्त्री. दे. 'गौ'। गगन, सं. पुं. (सं. न. आकाशः -शम् । -भेदी, वि. (सं. दिन् ) आकाश-व्योम,वेधक-वेधिन्-भेदिन् (शब्दादि ) २. ( भवनादि) गगन-व्योम, स्पृश् चुबिन्, अभ्रंलिहू, नभोलिह् । गगरा, सं. पुं. (सं. गर्गरः = दधिमंथनपात्र > ) धातु, कुंभ: - कलशः घटः, गर्गरः । गगरी, सं. स्त्री. ( सं. गर्गरी=दधिमंथनपात्र > ) धातुमयलघु, -कलशः घटः- कुंभः, गर्गरी । गच, सं. पुं. ( अनु. ) पंके चलनजः ३ शब्दः २. खड्गादिवेधनोत्थः शब्दः ३. लेपः, सुधा, ४. गृहभूमिः - भूः (स्त्री.) ५. सुधालिप्ततलं, कुट्टिमः-मम् । -कारी, सं. स्त्री. (हिं गच + फ़ा. कारी ) सुधा-लेप, कार्य-कर्मन् (न. ) । गचपच, वि. दे. 'गिचपिच' । गजंद, सं. पुं. ( फा . ) आघातः, प्रहारः २. दानिः क्षतिः (स्त्री.) ३. कष्टम्, क्लेशः । गज, सं. पुं. ( सं . ) हस्तिन्, कुंभिन्, करिन्, कुषिन्, दंतिन्, रदिन्, शुंडिन् ( सब पुं.), दे. 'हाथी' । - आनन, सं. पुं. (सं.) गजमुखः, गणेशः, गजवदनः । - कुंभ, सं. पुं. (सं.) करिकुंभ:, गजशिरः पिंड: । - गति, सं. स्त्री. (सं.) गज - कुंजर, गमनं गतिः । - गामिनी, वि. स्त्री. (सं.) इभ वारण,गामिनी-चारिणी ( सुंदरी ) । - दंत, सं. पुं. ( सं . ) हस्ति करि, दंत: - रदःरदनः २. गणेशः । - पाल, सं. पुं. ( सं .) हस्तिपः-पकः, आधोरणः, निषादिन (पुं.), महामात्रः । - मोती, सं. पुं. (सं. गजमौक्तिकं ) गजमुक्ता, गजमणिः (पुं.) । -मुख, सं. पुं. ( सं . ) दे. 'गजानन' । - राज, सं. पुं. ( सं . ) दे. 'गजपति' । - वदन, सं. पुं. (सं.) दे. '- आनन' । गटपट गज़, सं. पुं. ( फ़ा. ) गज: ( माप ) २, आग्नेयचूर्ण-प्रणोदनी यष्टिः (स्त्री.) ३. सारंगवादनयष्टि, वादन वाद्य-वादित्र, दण्डः ४. इषुभेदः । गज़क, सं. स्त्री. (फ़ा. कज़क) व्यंजनं, उपस्करः, उप- अव, दंशः २. तिलशर्करा (मिठाई ) ३. उपाहारः ४. प्रातराशः । गज़ट, सं. पुं. ( अं. ) राजपत्रम् | गजनी, सं. स्त्री. (सं. गंज: > ) मृत्तिका मृद्, भेद। ग़ज़ब, सं. पुं. (अ.) रोषः क्रोधः २. विपद्विपत्तिः (स्त्री. ३. अन्यायः, अत्याचारः ४. विलक्षणवृत्तांतः । -करना, क्रि. स., अन्यायेन अधिष्ठा ( स्वा. प. अ.) शास् (अ. प. से.) २. विस्मयंजन ( प्रे.) । -का, वि. अद्भुत, आश्चर्य । - नाक, वि., रुष्ट, क्रुद्ध, कुपित । गजर, सं. पुं. (सं. गर्ज:, हिं. गरज ) चतुरष्टद्वादशवादनसमयेघंटानादः २. प्रातः घंटानादः । सं. श्री. श्वेतरक्तगोधूममिश्रणम् । -दम, क्रि. वि. प्रातः प्रभाते, मंहति - प्रत्यूषे । - बजर, सं. पुं. (अनु. ) अनुचितमिश्रणम् । २. खाद्याखाद्यं, भक्ष्याभक्ष्यन् । गजरा, सं. पुं. (सं. गंज:= टेर) माला, माल्यं, स्वज (स्त्री.) २. चलयः, कटक:-कं, करभूषणं ३. कौशेयवस्त्रभेदः । गजरी', सं. स्त्री. (हिं. गजरा ) कलाची-मणिबन्ध,-भूषणं-आभरणम् । गजरी, सं. स्त्री. (हिं. गाजर) लघु-क्षुद्र, गाजरंगर्जरम् । गजल, सं. स्त्री. (फ़ा. ) शृंगारकविता । - दान, सं. पुं. (सं. न. ) गजमदः २. करि गज़ी, सं. स्त्री. (फ़ा. ) स्थूलसौत्रवस्त्रभेदः । वितरणम् । गजी, सं. स्त्री. ( सं . ) हस्तिनी, करिणी । पति, सं. पुं. (सं.) करीन्द्रः ( यूथनाथः, गजेन्द्र, सं. पुं. (सं.) दे. 'गजपति' । यूथपः) । गटकना, क्रि. स. ( अनु. गट ) खाद् ( वा. प. से. ) २. निगृ ( तु. प. से. ), प्रसू ( चु.) ३. अन्यायेन अपहृ ( स्वा. प. अ.) । गटगट, सं. पुं. (अनु. ) गटगटा, -शब्द:- ध्वनिः (पुं.), गटगटायितम् । क्रि. वि., सगटगटाशब्दम् । गटपट, सं. स्त्री. (अनु.) रतिः (स्त्री.), मैथुनं, सहवासः २. घनमैत्री । (वि.) मैथुनासक्त | For Private And Personal Use Only Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir गटरगूं [ १५९ ] गड़बड़ाना गटरगू, सं. स्त्री. ( अनु.) कपोत, शब्दः रुतं- | गठौत-ती, सं. स्त्री. (हिं. गठना ) मैत्री, कूजितं, घूत्कारः। सौहार्द २. कुमंत्रणा, उपजापः, कुटः-टम् । गट्ट, सं. पुं. ( अनु.) निगरणध्वनिः (पुं.)। | गदंत, सं. स्त्री. (हिं. गाड़ना) अभिचाराय गट्टा, सं. पुं. (सं. ग्रंथ >) मणिबंध:-धनं, पाणि- | निखात-निहित.-वस्त (न.). निखातम । मूलं २. गुल्फः, घुटः ३. जानु (पुं. न.), नल- गड़कना, क्रि. अ. (अनु.) गडगडायते (ना.धा.), कीलः ४. रोधनी, अवष्टंभः ५. ग्रंथिः (पु.), गडगडा,-शब्द-नादं-रावं कृ । ग्रन्थिका ६. संधिः (पु.) पर्वन् ( न.), अस्थि- | गड़गज, सं. पुं., दे. 'गरगन' । संधिः ( पुं.) ७. बीजं ८. मिष्टान्नभेदः। गडगड़, सं. स्त्री. ( अनु.) गर्जितं, स्तनितं, गट्टी, सं. स्त्री. (हिं. गट्टा) आवापनं, तंतुकीलः । गडगडायितं २. कर्दनं, आन्त्रशब्दः, शूलशब्दः गट्ठर, सं. पु. ( हिं. गाँठ ) पोटलिका, भारः, | ३. धूम्रपानयंत्रशब्दः । कूर्चः, संघातः, गुच्छः। गट्ठा, सं. पुं. (हिं. गाँठ ) काष्ठादीनां भारः | गगडा, सं. पुं. (अनु.) धूम्रपानयंत्रभेदः, २. दे. 'गट्ठर' (३-४) पलांडु-लशुन, ग्रंथि (पुं.)। *गड़गड़ः। गट्ठी, सं. स्त्री. (हिं. गट्ठा ) दे. 'गठरी'। गडगडाना, क्रि. अ. (अनु.) गज-ग-स्तन् गठ, सं. स्त्री. (हिं. गाँठ, दे.)। ( भ्वा. प. से.), गडगडायते (ना. धा.) -कटा, वि. पुं. दे. 'गॅठकटा'। २. नद्रस ( भ्वा. प. से.)। -जोबा, सं. पुं., दे. 'गँठबन्धन' । गड़गड़ाहट, सं. स्त्री, (हिं. गड़गड़ाना) गठन, सं. स्त्री. ( सं. ग्रंथनं ) घटना, रचना, | दे. 'गड़गड़। विधानं, निर्माणम्। गड़गूदड़, सं. पुं. ( अनु. गड़ + हिं. गूथन >) गठना, क्रि. अ. (सं. ग्रन्थनं ) संग्रंथ-गुफ जीर्ण-शीर्ण-जर्जरित,-वस्त्रं-पटः, चीरं, कर्पटः। (क), गुणैः-तंतुभिः बंध (कर्म.) २. सम्यक् २. असारः, मलम् । रच- निर्मा (कर्म.) ३. स्नेहातिशयो विद् गहना, क्रि. अ. (सं. गतः>) आ-प्र-विश (दि. आ. अ.) ४. पड़यंत्रे संसृज (कर्म.)। (तु. प. अ.), विध ( तु. प. से.), निर-, गटरा, सं. पुं.,दे. 'गदर'। भिद् ( रु. प. अ.) २. (भूमौ) निधा-निक्षिप गटरी, सं. स्त्री. (हिं. गठरा) लघु,-पोटलिका- I ( कर्म.) ३. पीड् ( कर्म.), व्यथ (वा. आ. भार:-कूर्चः २. संचितधनम् । से.) ४.नि-, मस्ज् (तु. प. अ.), अव-नि-जोड़, सं. पुं., कृपणः, कदर्यः । सद् ( भ्वा. प. अ.)। गठवाना, गा, क्रि. प्रे., 'गाँठना' के प्रे. रूप। | गड़ जाना, मु., लज्ज (तु. आ. से.), त्रप गठाना, (भ्वा. आ. वे.)। गठाव, सं-पु. (हिं. गठना) संबन्धः, संश्लेषः गड़प, सं. स्त्री. ( अनु.) निगरणं, ग्रसनम् । २. दे. 'गटन। गठित, वि. [सं. ग्र(ग्रं )थित ] गुंफित, बद्ध गइपना, क्रि. स., (अनु. गड़प :> ) सत्वरं २. रचित, निर्मित । निग (तु, प. से.)-पा( भ्वा. प. अ.) गडिया, सं. स्त्री. (हि. गाँठ ) दे. 'गठरी' २. अन्यायेन आत्मसात् कृ। २. वात, रक्तं शोणितं, ग्रन्थिवातः, दे. 'वातरोग' गपा , स. पु. ( अनु. ) बृहद, गतः-गत अवटः। --बात,-बाव, सं. स्त्री. (हिं.+सं. वातः तथा वायुः ) संधि, वातः-वायुः २. वातः, वायुः, गड़बड़, वि. (हिं. गड़ = गडढा+बड़-ऊँचा) वातरोगः । असम, विषम् , नतोन्नत २. अस्तव्यस्त, अक्रम । गठीला, वि. (हि. गाँठ ) ग्रन्थि-पर्व-संधि, सं. पुं. अव्यवस्था, क्रमभंगः २. विप्लवः, मय (-मयी स्त्री.) ग्रन्थिल, पर्ववत्-ग्रन्थिमत् । संक्षोभः, कोलाहल: ३. रोगः, आमयः । (-तीसी.)। -अध्याय, सं. पुं.. गठ लिा, वि. (हि. गठना)-वज्र द्रद देव- -माला, सं. पं. द. गड़बड़' सं. पुं.। 'ग, स्फूतिमत् (-ती स्त्री.) २. दृढ ३. सबल गड़बड़ाना, क्रि. अ. (हिं. गड़बड़ ) आकुली ली (स्त्री.) = दृढांगी, सबला इ.] | भू, मुह (दि, प. वे.), भ्रांत्या मन् (दि. For Private And Personal Use Only Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir गड़बड़ाहट [१३० ] गणित आ. अ.)। क्रि. स., वि-सं., भ्रम्-क्षुम् (प्रे.), | मन-, वि. कपोल-मनः, कल्पित, मानसोद्मुह (प्रे.), आकुली कृ। | मावित, काल्पनिक, कल्पनात्मक । गड़बड़ाहट, गढ़बड़ी, सं. स्त्री., दे. 'गड़बड़' | गढ़, सं. पुं. (सं. गडः ) परिखा, खातं, गर्तः-र्ता सं. पुं.। २. दुर्ग, कोटः । गड़बड़िया, वि. (हिं. गड़बड़ ) मोहक, मोहन -पति, सं. पुं. (सं.) दुर्गपालः । २. क्रम-व्यवस्था, मंजक-नाशक, उपद्रविन् । गढ़न, सं. स्त्री. ( हिं. गढ़ना ) दे. 'गठन' । गडमड, वि. ( अनु.) संकुल, संकीर्ण, व्यत्यस्त, | गढ़ना, क्रि. स. ( सं. घटनं ) घट (चु.), घट्टअव्यवस्थित । रच (चु.), निर्मा (अ. प. अ., जु. आ अ.), -करना, क्रि. स., संकरी-संकुली कृ, क्रमं भंज क्लप्-साध-संप(प्रे.), २. तद् (चु.) ३. मिथ्या (रु. प. अ.)। क्लप (प्रे.), मनसा सृज ( तु. प. अ.)। गडरिया, सं. पुं. (सं. गडरिका >) अवि-गड्डुर- गढ़ा, सं. पुं., दे. 'गड़हा' । मेष,-पालः। गढ़ाई, सं. स्त्री. (हिं. गढ़ना) घटनं, निर्माण, गड़वा, सं. पुं. (सं. गडुकः) गडुः (पुं.), रचनम् २. घटन-रचन, मूल्य-भूतिः ( स्त्री.) गडकः, गड्डूकः २. पुष्पपात्रभेदः। । निर्वेशः। गड़वाना, क्रि.प्रे., 'गड़ना' के प्रे. रूप। गढ़ाना, क्रि. प्रे. 'गढ़ना' के प्रे. रूप । गड़हा, सं. पुं. (सं. गर्तः-त ) गर्ता, अवटः, | गढ़ी, सं. स्त्री. (हिं. गढ़ ) लघु,-दुर्गः-कोटः बिलं, विवरं, खातं, पतेरः। २. कोटाकारं दृढभवनम् । गड़ाना, क्रि. स. 'गड़ना' के प्रे. रूप । | गण, सं. पुं. (सं.) समूहः, वर्गः, समुदायः, वृंदम् गड़ारी, सं. स्त्री. (अनु.) उच्छायणचक्रं.२. मंडलं, २. श्रेणी, कोटिः (स्त्री.) ३. त्रिगुल्मात्मकः सेना_वृत्तं, चकम् ३. मंडलाकार-गोल,-रेखा। विभागः ( = २७ हाथी, २७ रथ, ८१ घोड़े, गदि (रि) यार, वि. (हिं. गड़ना) धृष्ट, १३५ पैदल) ४. परिचारकः परिजनः ५. पक्षदुर्दीत २. मंथर । पाति-अनुयायि, वर्गः ६. सभा, समाजः गहु, वि. (सं.) कुब्ज, वक्रपृष्ठ । सं. पुं. (सं.)। ७. गणेशाधिष्ठिताः शिवसेवकाः ८. मगणककुदः, ककुदम् २. गडुकः, जलपात्रभेदः | टगणादयः वर्णमात्रासमूहाः(छंद.) ९.५०. धातु३. किंचुलुकः, गंडूपदः । शब्द,समूहः ( च्या.) ११. नक्षत्रसमूहविशेषाः गहुआ, सं. पुं.( सं. गडुकः ) सनालीक लघु- ( ज्या.)। पानपात्रम् । -अधिप-नाथ,-नायक,-पति, सं. पुं. गड़ेरिया, सं. पुं., दे. 'गडरिया'। दे. 'गणेश'। गड़, सं. पुं. ( सं. गणः ) नि-सं, चयः, निकरः, -द्रव्य, सं. पुं. ( सं. न ) सर्वजनीनः पदार्थः स्तोमः. ओघः । २. द्रव्यसमूहः। गड़बड़, गडमड, सं. पुं. ( अनु.) संकरः, गणक, सं. पुं. (सं.) दैवज्ञः, ज्योतिर्विद् अक्रमः, क्रमभंगः । वि., विपर्यस्त, व्यत्यस्त, | २.गणितज्ञः भन्नक्रमः। गणकी, सं. स्त्री. ( सं.) १. २. गणितज्ञ-दैवज्ञ, गड्डा, सं. पुं. ( सं. शकटः ) शकटं-टिका, वाहनं, पत्नी। प्रवहणम् । गणन, सं. पु. ( सं. न.) संख्यानं, गणना । गड्डाम, वि. ( अं. गाड + ड्याम ) नीच, अधम, गणना, सं. स्त्री. (सं.) गणनं, संख्यानं २. संख्या जघन्य। । ३. अलंकारभेदः ( सा.)। गड्डी, सं. स्त्री. ( हिं. गटु ) ( एक ही वस्तु का) | -करना, क्रि. स., दे. 'गिनना'। सं-नि, चयः, संवातः २. राशिः, समूहः ।। | गणनीय, वि. (सं.) संख्येय, गण्य २. दे. । 'प्रसिद्ध' । गड्ढा, सं. पुं. दे. 'गड़हा'। गणिका, सं. स्त्री. (सं.) वेश्या, भोग्या, पण्यस्त्री । गढंत, वि. (दि. गढ़ना) कृत्रिम, कल्पित गणित, सं. . ( सं. न.) गणित, शास्त्र-विद्या, २. दे. 'गठन'। | गणना-मात्रा-संख्या-परिमाण, विद्या-शास्त्रम् २. For Private And Personal Use Only Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir गणेश [ १६१] गद्दी लित ३. चिंतित, निरूपित । अंक, विद्या- गणितं शास्त्रम् । वि., संख्यात, संक- ( गद, सं. पुं. ( सं . ) रोगः, आमयः २ श्रीकृष्णानुज: ३. ४. वानर असुर, विशेषः । (सं. न. ) विषं-षः, गरलम् । -कार, सं. पुं. (सं.) गणितज्ञ २. ज्योतिर्विद (पुं.) । - विद्या, सं. स्त्री. ( सं . ) दे. 'गणित' (१-२ )। अंक -, सं. पुं. ( सं. न. ) अंक, विद्या-शास्त्रम् । बीज --, सं. पुं. (सं. न. ) गणितविद्याभेदः । रेखा, सं. पुं. (सं. न. ) रेखागणना, भू ज्यामितिः (स्त्री.) । गणेश, सं. पुं. ( सं . ) गज, आस्यः -मुखः- वदनःआननः, लंबोदरः, गणाधिपः, विनायकः, आगः, शूर्पकर्णः, विघ्नेशः, परशुपाणि: (पुं.) । गोवर, सं. पुं., जडः, मूढः । गण्य, वि. (सं.) संख्येय, गणनाई, गणनीय २. प्रतिष्ठित, पूज्य, मान्य । -मान्य, वि. ( सं . ) दे. 'गण्य' । गत, वि. (सं.) अतीत, अतिक्रांत, व्यतीत, २. मृत ३. हीन, रहित ४. लब्ध प्राप्त । सं. स्त्री. (सं. गतिः स्त्री. ), दशा, अवस्था २. रूपं, आकृति: (स्त्री.) ३. उपयोग: व्यवहारः ४. दुर्दशा, नाशः ५. नृत्यभेदः ६. प्रेतक्रिया । गतका, सं. पुं. (सं. गदा ) चर्मावृतयष्टि: (स्त्री.) २. क्रीड़ा - खेला, भेदः । गतांक, सं. पुं. (सं.) पत्रपत्रिकादीनाम् इतांकःअतीतांकः अव्यवहितपूर्वीकः । गताक्ष, वि. (सं.) अन्ध, अनयन, अनेत्र | गतागत, सं. पुं. ( सं. न. ) गमनागमनम् २. पुनर्जन्मन् (न. ), जन्ममरणम् । गतानुगतिक, वि. ( सं .) अन्धानुयायिन्, अन्धविश्वासिन् । गति, सं. स्त्री. (सं.) गमनं, चलनं, व्रजनं, अयनं, यानं, सरणं २. स्फुरणं, कंपनं, स्पंदनं ३. चेष्टा, व्यापारः ४. दशा, अवस्था ५. प्रवेश: ६. प्रयत्नसीमा ७. अबलंबः ८. माया, लीला ९. रीतिः (स्त्री.), विधि: ( पुं. ) १०. देहांतरप्राप्तिः (स्त्री.) ११. मुक्ति: (स्त्री.) १२. तालस्वरानुसार मंगचालनं ( संगीत ) १३. प्रेतकर्मन् । - बनाना, मु., निर्दयं तड् ( चु. ) - प्रहृ ( भ्वा. प. अ. ) । - होना, मु., प्र-उप-युज् ( कर्म. ) २. निर्दयं ताड (कर्म) २. मुक्ति लभ् (भ्वा. आ. अ.) । गत्ता, सं. पुं. ( देश. ) संसृष्टपत्रं, गुरुपत्रम् । ११ आ गदका, सं. पुं., दे. 'गतका' | गदगद, वि, दे. 'गद्गद' । ग़दर, सं. पुं. (अ.) प्रजा प्रकृति, कोपः क्षोभः, २. सैन्य-सेना, -द्रोहः क्षोभः प्रकोप : ३. विप्लवः, संप्लवः, संमर्दः । - करना या मचाना क्रि. अ. ( राज्ञे ) दुहू ( दि. प. वे.), राजशासनं लंघ् (भ्वा. आ. से.) इ. । गदला, वि. (फ़ा. गंदा ) सपंक, सकर्दम, समल, पंकिल, मलिन । -करना, क्रि. स., कलुषयति-पंकिलयति - आविलयति ( ना. धा. ), मलिनी कृ | - पन, सं. पुं., मालिन्यं, पंकिलत्वं आविलता । गदहपचीसी, सं. स्त्री. (हिं. गदहा + पचीस ) आषोडशात् आपंचविंशतेः आयुषो भागः । २. अनुभवहीनता, मांद्यं, मौख्यम् । गदहा, सं. पुं. (सं. गर्दभः ) रासभः, खरः, बालेयः, भारगः, धूसरः, ग्राम्याश्वः २. मूर्खः, अज्ञः [गदही (स्त्री.) = रासभी, खरी, गर्द भी ] - पन, सं. पुं., मौर्य, जडता । गदा, सं. स्त्री. (सं.) लोहमयशस्त्रभेदः । -धर, सं. पुं. (सं.) कृष्णः २. विष्णुः । वि ., गदाधारिन् । गदेला, सं. पुं., दे. 'गद्दा' | द वि. (सं.) प्रहृष्ट, आनंदपुलकित, परममुदित, सुप्रसन्न २ अस्पष्ट, असंबद्ध, अस्फुट ( अक्षरस्वरादि ) | गद्दा, सं. पुं. (हिं. गद्द से अनु.) तूलसंस्तरः, तूला । गड़ी, सं. स्त्री. (हिं. गद्दा ) ( तूल- ) आसनं, तूलिका २ पिचुलविष्टरः ३. उपधानं, उपबर्हः ४. पर्याणं, पल्यानं ५. सिंहासनं नृपासनं ५. अधिकारपदं ६. ७. कर चरण, तलम् । - पर बैठना, क्रि. अ., सिंहासनं आरुह ू (भ्वा. प. अ. ), राज्येऽभिषिच् ( कर्म. ) । - पर बैठाना, क्रि. स., अभिषिच् (तु. प. अ.), सिंहासने उपविश् (प्र.) - से उतारना, क्रि. स., सिंहासनात् च्यु- अवरुह - भ्रंश - अवपत् (प्रे.) । For Private And Personal Use Only Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir गद्य [१६२] ग़रकाष -नशीन, वि. (हिं +फ़ा.) सिंहासन, आसीन-गफलत, सं. स्त्री. (अ.) अनवधानता, प्रमादः आरूढ २. उत्तराधिकारिन् । २. स्खलितं, अपराधः । -नशीनी, सं. स्त्री., अभिषेक, राज्याभिषेकः। गबन, सं. पुं. ( अ.) कपटेन आत्मसात्करणंगद्य, सं. पुं. (सं. न.) छन्दोहीनरचना, अपादः अपहरणं-उपयोगः। पदसन्तानः । -करना, क्रि. सं., कपटेन आत्मसात्कृ । गधा, सं. पुं., दे. 'गदहा। गबरू, सं. पुं. (फ़ा. खूबरू ) ( नव-) गधी, ) सं. स्त्री., दे. 'गदही, ( 'गदहा युवकः, युवन् (पुं.), तरुणः २. पतिः (पु.), गधैया,) के नीचे)। वरः । वि., सरल, अमाय । ग़नीम, सं. पुं. (अ.) शत्रुः, रिपुः २. दस्युः गभस्ति, सं. पुं.। (सं.) किरणः, रश्मिः (पुं.) (पुं.), लुंठकः। २. सूर्यः ३. बाहुः (पुं.) ४. हस्तः। ग़नीमत, सं. स्त्री. (अ.) लोत्रं, लोप्नं, अप- -पाणि-मान्-हस्त, सं. पुं. (सं.) सूर्यः । हृतधनं २. अयत्नलब्धं धनं ३. संतोषविषयः, गभीर, वि. (सं.) दे. 'गम्भीर' । धन्यत्वम् । ग़म, सं. पुं. (अ.) शोकः, विषादः, दुःखं गन्ना, सं. पुं. ( सं. कांडः-डं > ) रसालः, इक्षु, ___२. चिन्ता, रणरणकः-कम् । कांडः दंडः, दे. 'ईख'। -गीन, वि. ( अ.+फ़ा.) विपण, सचिन्त । गप', सं. स्त्री. ( सं. कल्पः अथवा अनु.) किंव -खाना, मु., क्षम् , ( भ्वा. आ. वे.), क्षम् (दि. प. वे., क्षाम्यति )। दंती, लोक-जन, श्रुतिः (स्त्री.)-प्रवादः वार्ता २. जल्पः, प्रलापः ३. मिथ्या-असत्य,-वृत्तांतः गमक', वि. (सं.) गंतु, यातृ, २. सूचक, बोधक । वृत्त-समाचारः ४. विकत्थनं, गर्वोक्तिः ( स्त्री. )। गमक, सं. स्त्री. ( अनु.) पटहरी, नादः २. सुगन्धः। -मारना, हाँकना, क्रि. अ., प्रलप्-जल्प् गमन, सं. पुं. ( सं. न. ) यानं, वजन, चलनं, र ( भ्वा. प. से.)। । प्रस्थानं २. मेथुनम् । -शप, सं. स्त्री., वृथा, कथा संलापः। -आगमन, सं. पुं. ( सं. न. ) यातायात, गप, सं. पुं. (अनु.) निगरण-ग्रसन, यानायानं, गतागतम् । ध्वनिः (पुं.) ___ गमला, सं. पुं. (पुर्त. गैलो) प्रसून-पुष्प, पात्रंगपागप, क्रि. वि., सत्वरं, झटिति, शीघ्रम् । भाजनं २. पुरीष, उच्चार,-पात्रम् । गपकना, क्रि. सं., दे. 'निगलना' । समी, सं. स्त्री. ( अ. ग़म ) शोकः, विलापः गपड़चौथ, सं. स्त्री. (हिं. गपोड़ा+चौथा) २. मृत्युः । वृथा-निरर्थक, संलापः-आलापः-संवादः २. दे. गम्य, वि. (सं.) प्राप्य, लभ्य २. यातव्य, 'गड़बड़ी। . अयनीय ३. साध्य, शक्य ४. सम्भोगाई। गपड़शपड़, सं. स्त्री., दे. 'गपड़चौथ' । गयंद, सं. पु. ( सं. गजेन्द्रः ) गज, पतिः ( पुं.) गपागप, अव्य ( अनु. ) सत्वरं, शीघ्र, आशु, | -राजः । झटिति (सब अव्य.)। गय, सं. पुं. (सं. गजः ) द्विरदः, द्विषः, गपोड़ा, सं. पुं. दे. 'गप' । करिन् , कुम्भिन्। गप्प, सं. स्त्री., दे. 'गप' । गया', सं. स्त्री. ( मं.) मगधेषु गयराजर्षिपुरी, गप्पी, सं. पुं. (हिं. गप ) वावदूकः, जल्प- तीर्थविशेषः ।। (पा )कः २. मिथ्य।भाषिन् , अनृतबादिन् : गया, वि. ( सं. गत ) यात, प्रस्थित । (पुं.) ३. आत्मश्लाधिन् (पुं.)। -गुजरा,-बीता, वि., नष्ट, मृत, २. निकृष्ट, गप्फा , सं. पुं. (अनु. गप > ) बृहत्, कवल:- तुणप्राय । ग्रासः-पिंडः २. लामः। गर, सं. पुं. (सं.) विषं, उपविषं २. रोगः । गफ़, वि. (सं. ग्रप्स = गुच्छा अथवा गुफ = ग़रक, वि., दे. ग़र्के। बुनना > ), अविरल, घन, सांद्र, सूत। ग़रक़ाब, वि., दे. 'गाब' । For Private And Personal Use Only Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir गरकी [ १६३ ] ग़रीब ग़री , सं. स्त्री., दे. 'सर्की'। |-होना, क्रि. अ., उष्णीभू, तप् ( भ्वा. प. गरगज, सं. पुं. (हिं. गढ+सं. गर्ज) दुर्ग- अ.; दि. आ. अ.) २. क्रुध् ( दि. प. अ.)। प्राचीर शृंगं । २. उद्बन्धनयंत्रं, धातशिल।। -कपड़ा, सं. पुं., और्ण-ऊर्णामय,-वस्त्रम् । गरगरा, सं. पुं., दे. 'गराड़ी'। खबर, सं. स्त्री. अभिनव-इदानींतन-समा चारः। गरज, सं. स्त्री. ( सं. गर्जः ) गर्जनं ना, गर्जितं, -मिज़ाज, वि., संरंभिन् , क्रोधिन् । स्तनितं, महा-दीर्घ-गम्भीर, शब्दः नादः ।। -सर्द, वि., कोष्ण, कवोष्ण, कदुष्ण । गरज, सं. स्त्री. (अ.) आशयः, प्रयोजनं, अर्थः, ' गरमागरम, वि. ( हिं. गरम + गरम ) अत्युष्ण, स्वार्थ. २. आवश्यकता ३. अभिलाषः । क्रि. वि., अंते, अन्ततः, अन्ततो गत्वा २. अस्तु, सुतप्त, २. अभिनव, प्रत्यग्र । गरमाना, क्रि. अ. क्रि. स. (हिं. गरम) एवं ( अन्य.)। दे. 'गरम होना' तथा 'गरम करना। -मन्द, वि. ( अ. + फ़ा ) स्वार्थलिप्स, स्वला गरमी, सं. स्त्री. ( फ़ा., सं. धर्मः) सं-उत्-परि, भापेक्ष । २. इच्छुक, ईप्सु । तापः, उष्णता, दाहः, उ( ऊष्मन् (पुं.), -मन्दी, सं. स्त्री., स्वार्थलिप्सा, स्पृहा, अपेक्षा । उष्मः । २. उग्रता, चण्डता ३. कोपः बे-, वि. (फ़ा+ अ.) निष्काम, निःस्पृह, ४. उत्साहः ५. ग्रीष्मः, ग्रीष्म,-समयः कालः, निःसंग । निदाघः ६. उपदंशः। गरजना, क्रि. अ. (सं. गर्जनं ), गज, गज -दाना, सं. पुं., दे. 'पित्' (पं.)।। विस्फूज नद्-नद रतन्-रस ( भ्वा. प. से.), गरल, सं. पुं. ( सं. नं) गरः, विर्ष २. सर्पविषं महा-दीर्घ-गम्भीर, नादं कृ।। ३. तृणपूलकम् । सं. पुं. दे. 'गरज'। | गरौं, वि (फ़ा.) भारिक, भारवत् , गुरु ग़रज़ी, वि. ( अ. गरज़ ) दे. 'ग़रज़मन्द'। २. बहुमूल्य, महाई।। खद-सं. स्त्री. ( पा+ अ.) स्वार्थपरता, स्व- गराड़ी (री), सं. स्त्री. (अनु. गरर) दे. 'गड़ारी। हितनिष्ठा। गरारा, सं. पुं. ( अनु. अथवा अ. गरगरा) गरण, सं. पुं. (सं. न. ) निगरणं, निगलनम् , चलुः, च (चु) लुकः । २. चुलुकौषधम् । ग्रसनं २. अवसेचनं, प्रोक्षणं ३. विषम् । -करना, क्रि. स. जलेन कंटं ( गलं ) धाव गरदन, दे. 'गर्दन'। ( भ्वा. प. से.)-मृज् ( अ. प. वे.)। गरदनिया, सं. पुं. ( हिं. गरदन ) ग्रीवा-कण्ठ, गरिमा, सं. स्त्री. ( सं.-मन् पुं.) गुरुत्वं, भारग्रहणं,-ग्रहः, *अर्द्धचन्द्रः । वत्त्वं २. महिमन् ( पुं. ), गौरवं, महत्वं गरदा, सं. पुं., दे. 'गर्द'। ३. अहंकारः ४. आत्मश्लाघा ५. सिद्धिविशेषः गरदान, सं. पुं. (फ़ा) शब्द-धातु,-रूपसाधनं | (योग.)। (व्या.)। गरिष्ठ, वि. (सं.) गुरुतम, भारवत्तम, - करना, क्रि. सं. शब्दरूपाणि बद् ( भ्वा. अतिभारवत् २. मलावरोधक, मलावष्टम्भक । प.से.)। गरी, सं. स्त्री. (सं = गुलिका > ) नारिकेल गरनाल, सं. स्त्री. ( हिं. गर + सं. नालः ) उरु- | | (र), सारः गोलः। वदनी शीतप्नी। गरीब, वि. ( अ.) अकिंचन, दरिद्र, निर्धन गरम, वि., ( फा. गर्म, संघर्भ) उष्ण, तप्त, ! २. नम्र, विनत । सं.-उत , आतपाक्रान्त, सोष्ण । २. उग्र, प्रचंड, -खाना, सं. पुं. (अ.+फ़ा.) कुटी, कुटीरः क्रोधिन् ३. तीक्ष्ण, तीव्र ४. उत्साहिन , २. दरिद्र-अनाथ,-आलयः-गृहम् । सोन्साह । -नि(ने) वाज) वि. ( अ.+फा) दीन,-बंधु-करना, क्रि. सं., परि-प्र-सं,-तप् (प्रे.), उद्, -परवर दयालु-वत्सल-नाथ-पालकदीप (प्रे.), उष्णीक । मु., उत्तिज (प्रे.)। । ) पोषक । For Private And Personal Use Only Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ग़रीबी [ ६४ ] गर्भित ग़रीबी, सं. स्त्री. ( अ. ग़रीब ) दारिद्रथं, पर सवार होना, मु., दे. 'विवश करना' । निर्धनत्वं, अकिंचनता २. नम्रता । गरुड़, सं. पुं. (सं.) वैनतेयः, खगेशः श्वरः, सुपर्णः, विष्णुरथः, नागांतकः । -मरोड़ना, मु. गलहस्तयति ( ना. धा. ), गलनिष्पीडनेन व्यापद् ( प्रे.) गलं निष्पीड् ( चु. ) । - - आसन, - केतु, ध्वज, सं. पुं. ( सं . ) विष्णुः । - पुराण, सं. पुं. (सं. न. ) पुराणविशेषः । गुरूर, सं. पुं. ( अ. ) अभिमानः, दर्पः, गर्वः । गरेबान, सं. पुं. ( फा . ) निचोलगल: । गरोह, सं. पुं. ( फा . ) समुदाय: समूह: । गर्क, वि. ( अ. ) जलमग्न, सं. परि, प्लुत, जले तिरोहित २. नष्ट, ध्वस्त ३. कार्ये व्यावृत लीन-मन | गुर्काब, वि. ( अ. + फ़ा. आब ) जलमग्न, आ-सं- परि, प्लुत २. अति, - लीन-निरत व्यापृत आसक्त । ग़र्की, सं. स्त्री. ( अ. ) संप्लवः, आप्लावः । २. निमज्जनं, जले तिरोधानं ३. दे. 'लँगोटी' । गर्ग, सं. पुं. ( सं . ) ऋषिविशेषः २. वृषभः । गर्गर, सं. पुं. ( सं. ) दे. 'गगरा' २. ३. वाद्य - गिरना, क्रि. अ., गर्भः स्रु (भ्वा. प. अ. )पत् ( स्वा. प. से. ) । मत्स्य, भेदः । गर्गरी, सं. स्त्री. (सं.) मंधनी, मंथनपात्रम् | रहना या होना, क्रि. स., गर्भ धृ (चु.)२. दे. 'गगरी' | आधा ( जु. उ. अ. ), गर्भवती अंतर्वर्तनी भू । --पात, स्राव, सं. पुं. ( सं .) गर्भ- भ्रूण, स्रुतिः (स्त्री.)- पतनम् । - दास, सं. पुं. (सं.) दासी- चेटी- भुजिष्या, गर्ज, सं. स्त्री., दे. ‘गरज’। गर्ज़, सं. स्त्री. दे. 'ग़रज़' । गर्जन, सं. पुं. (सं. न. ) दे. 'गरज' | गर्त्त, सं. पुं. ( सं . ) दे. 'गड़हा' २. दे. 'दरार' ३. जलाशयः ४. नरकविशेषः । गर्द, सं. स्त्री. (फ़ा. ) धूली- लि: (स्त्री.), रेणुः, पांसुः, पांशुः, क्षोदः, रजसू (न.) । गर्दन, सं. स्त्री. ( फ़ा. ) ग्रीवा, कंधर:- रा, शिरोधरा, शिरोधि:, कंवि: ( पुं.) २. पात्रकंठः । -की अकड़न, सं. स्त्री, ग्रीवावातः । -तोड़ बुखार, सं. पुं. शीर्षावरणप्रदाहः, मस्तिष्ककशेरुक ज्वरः । – हिलाना, क्रि. स., शिरः मस्तकं चल-कंपू ( प्रे. ) 1 - उठाना, मु., अभिद्रुह (दि. प. अ., द्वितीया के साथ ), व्युत्था ( भ्वा. आ. अ.) द्रुह् ( चतुर्थी के साथ ) । - उड़ाना या काटना, मु., शिरः कृत् ( तु. प.से.) छिदू (रु. प. अ. ) । - झुकाना, मु., वशं या-ह (दोनों अ. प. अ.) । -मारना, मु., दे. 'उड़ाना या काटना' | - में हाथ देना या डालना, मु., अर्धचंद्रं दत्त्वा निष्कस् (.) । गर्दभ, सं. पुं. (सं.) दे. 'गदहा' (सं. न. ) श्वेतकुमुदम् । गर्दभी, सं. स्त्री. (सं.) दे. 'गदही' | गर्दा, सं. पुं., दे. 'गर्द'। गर्दिश, सं. स्त्री. (फ़ा. ) परिवर्त:-र्तनं, घूर्णनं, परिभ्रमणं चक्रं २. आपद् - विपद् (स्त्री.) । करना, क्रि. अ. परिवृत् ( स्वा. आ. से. ), दे. 'घूमना' । गर्भ, सं. पुं. ( सं .) भ्रूणः, पिंडः, कलनं-लं, उदरस्थ शिशुः (पुं.) २. दे. 'गर्भाशय' ३. अभ्यन्तरं, अंतर्भागः । पुत्रः । गर्भवती, सं. स्त्री. (सं.), गर्भिणी, सगर्भा, ससत्त्वा । गर्भस्थ, वि. (सं.) गर्भाशयस्थ, उदरस्थ | गर्भाक, सं. पुं. (सं.) अंकस्थांकः ( सा. ), दृश्यम् । गर्भागार, सं. पुं. (सं. न. ) गर्भ, आशयः- कोषः २. प्रसूतिगृहम् ३. गर्भगृहम्, ४. शयनागारम् । गर्भाधान, सं. पुं. (सं. न. ) संस्कारभेदः, निषेकसंस्कारः २. सेकः, निषेकः ३. गर्भधारणम् । गर्भाशय, सं. पुं. (सं.) गर्भकोशः-पः, योनिः ( पुं. स्त्री. ) । गर्भिणी, सं. स्त्री. (सं.) गर्भवती, अन्तर्वली, सगर्भा, ससत्त्वा, धृत- रूढ-गृहीत, गर्भा । गर्भित, वि. (सं.) सगर्भ, गर्भयुक्त २. पूर्ण,. पूरित, व्याप्त । For Private And Personal Use Only Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir गर्म गर्म, दे. 'गरम' । गर्माहट, सं. स्त्री. दे. 'गरमी' । गर्व, सं. पुं. ( सं . ) ( उचित ) अभिमानः २. ( अनुचित ) अहंकारः, दर्पः, मदः, मादः, आटोपः, अहं-,मानः, औद्धत्यं, अवलेपः, उत्सेकः, स्मयः । —करना, क्रि. अ. गव्' (भ्वा. प. से. ), प्रगल्भ् (भ्वा. आ. से. ), दृप् ( दि. प. वे. ) । २. अभिमन् ( दि. आ. अ. ) । गवित, वि. ( सं . ) ( उचित ) अभिमानिन् २. ( अनुचित ) दृप्त, सदर्प, सगर्व, अवलिप्त, उत्सिक्त, उद्धत, उत्सेकिन्, साटोपः, साहंकारः । गर्वी, वि. ( सं . गर्विन् ) गर्वीला, वि. (सं. गर्वः > ) ) 'गविंत' । गर्हणीय, वि. ( सं . ) गर्छ, निंद्य, अधम । गर्हा, सं. स्त्री. (सं.) निंदा, गर्हणं, आक्षेपः, निर्भर्त्सना | [ १६५ ] गर्हित, वि. (सं.) निंदित, आक्षिप्त, उपालब्ध | , वि. (सं.) दे. 'गर्हणीय' । गल, सं. सं. (सं.) कंठः, कुकः, निगरणः २. दे. 'ग्रीवा' ३-४. मत्स्य वाद्य, भेदः । गलत किया, सं. पुं. (सं. गल: + फ़ा. ) गल्लोपधानं, कपोली पबईः । गलफड़ा, सं. पुं. ( सं . गल: + हिं. फटना ) जलजन्तूनां वासेन्द्रियम् । गलफूला, वि. (सं. गल + हिं. फूलना ) स्थूलास्य, पीनवदन । गलाऊ - फहमी, सं. स्त्री. ( अ. + फ़ा. ) भ्रमः, भ्रांतिः (स्त्री.), मिथ्याबोधः । गलतंस, सं. पुं. ( सं. गलितदंश ) संतानअपत्य, -हीन- रहित, निस्संतान, निरपत्य | गलत, वि. (फ़ा.) वि-आकुल, व्यग्र, उद्विग्न । -- गंडः, सं. पुं. (सं.) कंठपिंड, श्वयथुः - शोध: । २. गडुः (पुं.) गलने योग्य, गलितव्य, विद्रवणीय, पचनीय इ. 1 गलने वाला, विद्राव्य, विलेय, विलाप्य, दवाई | गला हुआ, वि., विद्भुत, गलित, द्रवीभूत इ. । - बांही, सं. स्त्री. (सं. गल: + हिं. बांह ) ग़लबा, सं. पुं. (अ.) वि, जयः २. प्राबल्यम् आलिंगनं परिरंभः परिष्वंगः । गलमुच्छें, सं. स्त्री. [ सं . गलश्मश्रूणि (न. बहु . ) ] गंडलोमानि ( न. बहु. ) । गलगल, सं. स्त्री. (देश) बृहत्, - जंबी ( भी ) रंजंभफलम् | २, ३. पक्षि- चूर्णलेप, भेदः । ग़लत, वि. (अ.) अशुद्ध, भ्रांत, सदोष, वितथ । २. असत्य, अनृत, मिथ्या । ग़लती, सं. स्त्री. (अ.) स्खलितं, दोषः, प्रमादः, अपराधः २. भ्रमः भ्रांतिः (स्त्री.), व्याः-, मोहः । - करना, क्रि. अ., अपराधू (दि. स्वा. प. अ.), विभ्रम् (भ्वा. दि. प.से.) स्खलू ( भ्वा.प. से.), प्रमद् (दि. प. से. ) । ग़लतुलआम, सं. पुं. (अ.) अशुद्धोऽपि प्रचलितः प्रयोगः ( व्या.) । वि-, द्रु (भ्वा. दि. आ. अ. ) द्रवी - आद्रीं- भू । गलना, क्रि. अ. (सं. गलनं ) प. अ. ), विली ( क्र. प. अ. गल-क्षर (भ्वा. प. से. ), २. पच् ( कर्म. ), सिधू ( दि. प. अ. ) ३. पूतीभू, विगल, ४. परिक्षि परिहा अपचि ( कर्म.) । सं. पुं., गलनं, विद्रवः-वर्ण, विलयनं, क्षरणं; पचनं; परिक्षयः इ. । प्रभुत्वम् । - शुंडी, सं. स्त्री. (सं.) गलशुंडिका, घंटिका, गलरोगभेदः । - माला, सं. स्त्री. ( सं .) माला, माल्यं, गला, सं. पुं. ( सं. गल: ) कंठः, कृकः, निगरणः शेखरः, हारः, स्रज् (स्त्री.) । २. ग्रीवा, कंधरा, शिरोधिः, कंधिः । -की सोजिश, सं. स्त्री. कण्ठ, प्रदाहः - शोथ: । - काटना, मु., कंधरां कृत् ( तु. प. से. ) २. अतीव पीड् ( चु. ) । - घोंटना, मु., गलं निष्पीड् (चु.), गलहस्तयति ( ना. धा. ) । " दबाना, सु., कंठं निपीड्य अथवा श्वासं निरुध्य मृ. (प्रे.) । For Private And Personal Use Only — बैठना, मु., कंठः रूक्षः अथवा कर्कशः भू । गले पड़ना, मु. अपरिहार्य (वि.) भू । गले लगाना, मु., आलिंग (भ्वा. प. से. ), आ (दि. प. अ. ), परिष्वज् ( स्वा. आ. अ. ), उपगुह ू (भ्वा. उ. वे. ) । गलाऊ, वि. (हिं. गलना ) विद्राव्य, विलाप्य । Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra गलाना www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [ १६६ ] गलाना, क्रि. स., 'गलना' के प्रे. रूप | गलाव, सं. पुं. 1 (हिं. गलना ) दे. 'गलना' । गलावट, सं. पुं. सं. पुं. २. द्रावकः, द्रावणः । गलित, वि. (सं.) द्रवीभूत, वि, द्रुत, २ जीर्ण, शीर्ण ३. नष्ट, भ्रष्ट, ४. परि, पक्क-पुष्ट ५. पतित, च्युत । - कुष्ट, सं. पुं. (सं. न. ) गलत्कुष्ठम् । - यौवना, सं. स्त्री. (सं.) क्षीण - विगत, यौवना । गली, सं. स्त्री. (सं. गलः > ) वीथी-थिः (स्त्री.), संकट संबाध, पथः मार्गः । - कूचा, सं. पुं., (हिं. + फ़ा. ) संकीर्णमार्गः। -गली मारे मारे फिरना, मु. व्यर्थमितस्ततः परिभ्रम् (भ्वा. दि. प. से. ) २. आजीविकान्वेषणाय सर्वत्र पर्यट् ( स्वा. प. से. ) ३. सर्वत्र उपलभ् ( कर्म. ) । बलभद्रः, गहना गवाना, क्रि. स., 'गाना' के प्रे. रूप | गवारा, वि. ( फ़ा. ) अनुकूल, अभीष्ट । -करना, क्रि. स., सह (भ्वा. आ. से. ) । गवाह, सं. पुं. ( फा. ) साक्षिन् (पुं.)। चश्मदीद - सं. पुं. (फ़्रा.) प्रत्यक्ष साक्षिन् दर्शनः- दर्शिन् देश्यः । प्रत्यक्षिन् । 1 2 गवाही, सं. स्त्री. ( फा. गवाह ) साक्ष्यं, प्रमाणं, प्रामाण्यं, निदर्शनम् । —देना, क्रि. स., साक्षी भू, साक्ष्यं दा २. क्रियापादः ( धर्म . ) । गवीश, सं. पुं. (सं.) गो, पतिः स्वामिन् । २. गोप:, - पाल:- पालकः, आमीरः ३. वृषभः, वृषन् । गवेषणा, सं. स्त्री. ( सं . ) दे. 'खोज' । गवैया, सं. पुं. ( पू. हिं. गावना ) गायक:, गायनः, गातृ (पुं.), गायक:, गेष्णुः, गेयः । गव्य, वि. ( सं . ) गोसंबंधिन् ( दुग्धगोमयादि) । गव्यूति, सं. स्त्री. ( सं . ) क्रोशयुगलं, द्विसहस्रधनुस् (न.) । गलीचा, सं. पुं. (फ़ा. गलीचा, तु. कालीन से ) तौरुष्क, कुथः- आस्तरणम् । ग़लीज़, वि. (अ.) मलिन, आविल २. अपवित्र । गल्प, सं. स्त्री. ( सं . कल्पः > ) आख्यायिका, उपाख्यानं, उपकथा | गल, सं. पुं. (सं.) कपोलः, गंड: । ग़श, सं. पुं. ( अ. राशी ) मूर्च्छा, मोहः । -आना, क्रि. अ., मूर्छा (भ्वा. प. से.), मुह ( दि. प. वे.), प्र-वि-व्या-. । गला', सं. पुं. (फ़ा. ) व्रजः, निवहः, यूथं, वृंद, पाशवम् । (यह शब्द पशुओं के लिए ही प्रयुक्त होता है ) । | - बान, सं. पुं. ( फा . ) अवि, मेष, पालः; गोपालः । वाशी, सं. स्त्री. (अ.) दे. 'गश' । गश्त, सं. पुं. ( फा . ) भ्रमणं, पर्यटनम् । —लगाना, क्रि. अ., रक्षायै परिभ्रम् ( स्वा. दि. प. से. ) 1 गश्ती, वि. ( फा. ) पर्यटन परिभ्रमण-शील | ग़ल्लाळे, सं. पुं. ( अ. ) अन्नं धान्यं २. शस्यम् । - फरोश, सं. पुं. ( अ. + फ़ा. ) अन्न-धान्य, विक्रेतु (पुं.) । सं-स्त्री., कुलटा, व्यभिचारिणी, खैरिणी । गहगहाना, क्रि. अ. (अनु. गहगह ) प्रसद् (भ्वा. प. अ. ), प्रहृप् ( दि. प. से. ) २. दे. 'लहलहाना' । गवय, सं. पुं. (सं.) गवालूकः, महागंवः, वनगौः (पुं. ) । गवयी, सं. स्त्री. (सं.) वनधेनुः (स्त्री.) गहन े, वि. ( सं . ) गं (ग) भीर, अगाध, दे. भिल्लगवी । गवर्नमेंट, सं. स्त्री. ( अं. ) शासन पद्धतिः ( स्त्री. ) - प्राणाली २. शासक, मण्डलं वर्गः । गवर्नर, सं. पुं. ( अं. ) भोगपति: (पुं.) प्रान्ता 'गहरा' २. दुर्गम, दुध ३. दुर्बोध, कठिन ४. घन, निवि (विड । सं. पुं. ( सं. न. ) गांभीर्य २. दुर्गमस्थानं ३ बनं ४ गह्वरं ५. दुःखं ६. जलम् | ध्यक्षः, राज्यपालः २. शासकः, शासितृ । - जनरल, सं. पुं. ( अं.) राष्ट्राध्यक्षः । गवर्नरी, सं.स्त्री. (अं. गवर्नर > ) प्रान्ताध्यक्षता, राज्यपालत्वम् । वि. राज्यपाल - प्रान्ताध्यक्ष, सम्बधिन् । गवाक्ष, सं. पुं. (सं.) वातायनं, जालं लकम् । गहन े, सं. पुं. (सं. ग्रहणं) आदानं २. उपरागः, ग्रहपीडनं ३. कलंक: ४. विपत्तिः (स्त्री.) ५. न्यासः, बंधकः । गहना, सं. पुं. (सं. ग्रहणं ) अलंकार:, विआ, भूषणं, आभरणं, मंडनम् २. न्यासः, निक्षेपः । क्रि. स., दे. 'पकड़ना' । For Private And Personal Use Only Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir गहरा [ १६७ ] गाइड गहरा, वि. (सं. गभीर) गंभीर, निम्न, अगाध, -जोड़ना, मु., वैवाहिक-औद्वाहिक. ग्रथिं बंध अतलस्पर्श २. अत्यधिक, घोर (नींदादि) (क. प. अ.)। ३. दृढ, कठिन ४. गाढ, धन । -से, मु., स्वीय स्वकीय-, धनात् । -असामी, सं. पुं. (हिं + अ.) संपन्नः, गोठना, क्रि. स. (सं. ग्रंथनं ) ग्रंथ (क्र. प. से.), धनिन् (पुं.)। ग्रंथिं बंध (क्र. प. अ.)-दा २. संयुज ( रु. उ. गहरे लोग, सं. पुं. (बहु.)विचक्षणाः, विदग्धाः।। अ., चु.), संधा-समाधा (जु. उ. अ.), संश्लिष गहराई, सं.स्त्री. (हिं. गहरा) गांभीर्य. (प्रे.) ३. संसिव (दि. प. से.) ४. अनुकूलगहराव, सं. पुं. निम्नत्वं, अगाधता । यति (ना.धा.), स्वपक्षपातिनं विधा (जु. गहवारा, सं. पुं. (फा.) शिशु-) प्रेखा-दोला । उ. अ.) ५. आत्मसात् कृ,वंशनी (भ्वा. उ. अ.)। गह्वर, सं-पु. ( सं. न.) गुहा, ( अकृत्रिम) गांडीव, सं. पुं. ( सं. पुं. न.) गांडि (डी) वः-वं, बिलं, देवखातं; ( कृत्रिम) दरी, कंदरः-रा अर्जुनधनुस् ( न.)। २. तमःपूर्ण गूढस्थानं ३. छिद्रं, विवर गांडीवी, सं. पुं. (सं.विन् पुं.) अर्जुनः, ४. दुर्भेद्य-विषम, स्थानं ५. गुल्मः-मं, क्षुपः गांडीवधरः २. अर्जुनवृक्षः। ६. वनं ७. दंभः ८. रोदनं ०. अनेकार्थ वाक्यं १०. जटिलविषयः ११. जलं। (सं.पुं.) लतागृहं, गांधर्व, वि. (सं.) गंधर्व, विषयक-संबंधिन् जातीय । सं. पुं., (सं. न.) गानं । (सं. पुं.) निकुंजः । वि. दुर्गम २. गुप्त । दे. 'गंधर्व'। गांग, वि. (सं.) गंगा, सम्बन्धिन्-विषयक । सं. पुं., भीष्मः २. कार्तिकेयः ३. सुवर्ण, - वेद, सं. पु. (सं.) सामवेदस्योपवेदः २. संगीतम् । हिरण्यम् ४. धत्तुरः, शिवप्रियः। गांधार, सं. पुं. (सं.) भारतवर्षस्योत्तर दिशि गांगेय, सं. पुं. ( सं.) भीष्मः। देशविशेषः २. तृतीयस्वरः (संगीत)। (सं. न.) गाँजा, गाँझा, सं. पुं. (सं. गंजा ) मादिनी, गंधरसः। मोहिनी, हर्षिणी। | गांधारि, सं. पुं. (सं.) दुर्योधनमातुलः शकुनिः, गांठ, सं. स्त्री. (सं. ग्रंथिः पुं.) ग्रंथिका, बंधः- सौवलकः। धनं, गंडः २. संधिः (पुं.), पर्वन् (न.), गांधारी, सं. स्त्री. (सं.) दुर्योधनजननी। अस्थि,-ग्रंथि:-संधिः ३. पोटलिका, भारः | गांधारेय, सं. पुं. (सं.) दुर्योधनः, धृतराष्ट्र४. आर्द्रक,खंटः-डं ५. विन्तः ६. भ्रांतिः (स्त्री.) ज्येष्ठ पुत्रः। ७. कूपरभृषणभेदः । | गांधी, सं. पुं. (सं. गांधिन्) गंधवणिज, गंध, विक्र--खोलना, क्रि. स., ग्रंथि-बंधं उन्मुच (प्रे.) | यिन् उपजीविन्-वणिज-आजीवः २. गुर्जर प्रान्ते मोक्ष (च.), उदग्रंथ (क. प. से.)। ( मु.) वैश्योपजातिविशेषः ३. महात्मा गांधिन् । धन, कोष-भस्त्रिकां शिथिलयति (ना. धा.), गांभीर्य, सं. पुं. ( सं. न. ) दे. 'भीरता' । द्वेषं दूरी कृ । -देना, बाँधना या लगाना, क्रि. सं., ग्रंथि गाँव, सं. पुं. (सं. ग्रामः) नि-सं,-वसथः, हादिदा अथवा बंध (क्. प. अ.) । ( मु.) स्मृ | शून्यवसतिः ( स्त्री.)। (भ्वा. प. अ.)। गांस, सं. स्त्री. (हि. गाँसना ) नियंत्रणं, ---पड़ना, क्रि. अ., संश्लिप (दि. प. अ.), ग्रंथ बन्धनं, प्रतिरोधः २. द्वेषः, मनोमालिन्यं ३. ( कर्म. ग्रथ्यते ) । (मु.) विवेपः उत्पद् (कर्म.)। रहस्य, गुप्तवार्ता ४. ग्रन्थिः (पुं.)५. शस्त्रायं --कट, सं-पु., ग्रंथिछेदकः, चौरः। ६. अवेक्षा, पर्यवेक्षणम् । -गोभी, सं. स्त्री., दे. 'गोभी' के नीचे। गाँसना, क्रि. स. (सं. ग्रन्थनं > ?) व्यध् (दि. -दार, वि. ग्रंथिल, ग्रंथि-पर्व, मय (-मयी स्त्री.)। प. अ.), निर्मिद् ( रु. प. अ.) २. सं-नि-यम् -काटना, मु., ग्रंथि छित्त्वा अपह ( भ्वा. प. (भ्वा. प. अ.), दम्, (प्रे. दमयति ) ३. अ.), ग्रथिं छिद् (रु. प. अ.)। वशीकृ ४. अतिशयेन-अत्यधिकं पूर (प्रे.) । -का पूरा, मु., संपन्नः, धनाढ्यः । गाइड, सं. पुं. ( अं.) पथ-मार्ग-अध्व, प्रदर्शकः For Private And Personal Use Only Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra गाउन www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [ १६८ ] प्रदर्शिन् (पुं.) - उपदेशकः २. नायकः, नेतृ (पुं.) ३. निर्देशकग्रन्थः । गाउन, सं. पुं. ( अं. ) कलुकः । गागर, सं. स्त्री. (सं. गर्गरः > ) दे. 'गगरा' । गागरी, सं. स्त्री. ( सं. गर्गरी > ) दे. 'गगरी' । गाज, मं. स्त्री. (सं. गर्जः ) दे. 'गरज' २. वज्रपातध्वनि: (पुं.), वज्रनिर्घोषः ३. वज्र:- जं, अशनि: (पुं. स्त्री.), हादिनी । - मारा, वि., वज्राहत, अशनिताडित । गाजर, सं. स्त्री. (सं. न. ) गर्जरं, पीतकंद, पीतमूलकं, सुपीतं, सुमूलकम् । गाफिल भक्तः २. गणेश, पूजा भक्तिः (स्त्री.) ३. गणनायकत्वम् । गणेश, सं. पुं. (सं.) गणेश भक्तः -पूजकः । गात, सं. पुं., दे. 'गात्र' । गातव्य, वि. ( सं . ) गेय, गानाई । गाता, सं. पुं. ( सं . तू ) गायकः गायनः, ष्णुः । गाती, सं. श्री. (सं. गात्रं > ) गाधीयं, गलवस्त्रभेदः । गान, सं. पुं. ( सं. न. ), तनुः-नूः (स्त्री.), देहः, कायः, दे. 'शरीर' २. अंगं, अवयवः । गाथक, सं. पुं. ( सं . ) गातृ ( पुं.), गायक: २. पुराणकथकः । ( गाथिका स्त्री. ) । गाथा, सं. स्त्री. (सं.) स्तुतिः - नुति: (स्त्री.) २. लोकः, पद्यं २. पालिमिश्रितसंस्कृतभाषा ४. गीतं ५. कथा, वृत्तान्तः ६. पारसीकधर्मग्रन्थभेदः । गाद, सं. स्त्री. (सं. गाधं > ) दे. 'तलछट ' | गाध, वि. (सं.) सुखोत्तरणीय, गांभीर्यरहित, तुच्छवस्तु - मूली, सं. स्त्री, गाजरमूलकं, ( न. ) । ग़ाजी, सं. पुं. ( अ ) धर्मवीरः ( इस्लाम ), वीरः, योधः । गाड़ना, क्रि. स. (हिं. गाड़ = गड़हा ) निखन् (भ्वा.प.से.), ( श्मशाने = पृथिव्यां ) निधा ( जु. उ. अ. ), निगुह (भ्वा. उ. वे.) २. रुह् (प्रे. रोपयति ) -स्था ( प्रे. स्थापयति )निविश् (प्रे. ) ३. गुप् (भ्वा. प. वे. गोपायति ), तिरोधा - अन्तर्धा (जु. उ. अ.) । सं. पुं., निखननं, श्मशाने स्थापनं, रोपणं, निवेशनंः गोपनम् । गॉड, सं. पुं. (अं.) ईश्वरः, परमात्मन् २. देवः, सुरः । गाडर, सं. स्त्री. (सं. गडरी ) मेषी, एडका । गाड़ी, सं. स्त्री. ( सं. गार्त = रथ ) शकट:- टं, शकटिका, यानं, वाहनं, प्रवहणं, रथः २. वाष्पशकटी, लोहाध्वगंत्री । - जोतना, क्रि. स., शकटे अश्वं वृषभं युज् (प्रे.) 1 सं. पुं. (हिं. गाड़ी ) सारथिः (पुं.), -बान, सूतः, यंदृ (पुं.), शाकटिकः । गाढ़, वि. ( सं . ) अधिक, प्रचुर बहु २. दृढ, प्रबल ३. गम्भीर, अगाध ४. दुर्गम, विकट । सं. पुं., (सं. न. ) आपत्तिः (स्त्री.) । गाढ़ा, वि. (सं. गाढ ) कठिन, स्थूल, संघात - वत्, सु-, संहत २. घन ३. ( मित्रादि ) अभिन्नहृदय, दृढ ४. सबल ५. कठिन । सं. पुं., स्थूलवस्त्रभेदः । गाढ़े की कमाई, मु., घोर परिश्रमोपार्जितं धनम् । गाढ़े दिन, मु., दुर्दिनानि कुसमयः । गाणपत्य, सं. पुं. (सं.) गणपति गणेश, -पूजकः उत्तान २. न्यून, अल्प | सं. पुं. (सं. न. ) स्थानं, २. गाम्भीर्यशून्यो जलप्रदेश: ३. लिप्सा, लोभः ४. कूलं ५. तलं, अधोभागः । गान, सं. पुं. (सं. न. ) गीतं, गीतिका, गेयं २. सस्वर - पठनं उच्चारणं, कीर्तनम् । -विद्या, सं. स्त्री. (सं.) संगीतं, संगीत-वाद्य,शास्त्रं विद्या । गाना, क्रि. अ. (सं.गानं ) गै ( स्वा. प. अ.), सस्वरं उच्चर (प्रे), सुमधुरं आलपू (भ्वा.प. से.) २. (पक्षियों का ) कूज् ( भ्वा. प. से. ) ३. वर्ण (चु. ) ४. स्तु ( अ. प. अ. ), नु (अ. प. से. ) । सं. पुं., गीतं, गीतिः-तिका (स्त्री.). गानं २. सस्वर,-आलपनं-उच्चारणम् । गानेवाला, सं. पुं, गेष्ण:-णुः, गायकः, गायनः, गातृ ( पुं.) । (-वाली-गायिका, गात्री, गायनी ) । संगीत -बजाना, सं. पुं., गानवादनं, संगीत, विद्या, शास्त्रम् । गाफिल, वि. ( अ ) अनवधान, अनवहित, प्रमादिन्, उपेक्षक | For Private And Personal Use Only Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir गाम [ १६९ ] गाव गाभ, सं. स्त्री. ( सं. गर्भः) पशुगर्भः २. अङ्कुरः, वाडी-, सं. पुं. ( अं.) शरीर-अंग, रक्षकः। प्ररोहः । गार्डन, सं. पु. ( अं.) उद्यानं, आरामः। गाभा, सं. पुं. (सं. गर्भः> ) किस(श)लयः- | -पार्टी, सं. स्त्री. (अं.) उद्यान-आराम,-भोजः । यं, पल्लव:-वं, प्ररोहः २. शरयम् ।। गार्हपत्य, सं. पुं. (सं. न.) गृहपति ,पदंगाभिन, सं. स्त्री. (सं. गर्भिणी ) गर्भवती, प्रतिष्ठा । ( केवल पशुओं के लिए.)। -अग्नि, सं. पुं. (सं.) यज्ञाग्निभेदः । गामिनी, वि. स्त्री. (सं.) चलित्री, गंत्री। गाहेमेध, सं. पुं. (सं.) पंचमहायज्ञाः (ब्रह्मयज्ञः, गामी, वि. (सं. गामिन् ) गंतु, यातृ । देवयज्ञः, पितृयज्ञः, अतिथियशः, भूतयशः)। गाय, सं. स्त्री. (सं. गौः स्त्री. ) धेनुः ( स्त्री.), ! गार्हस्थ्य, सं. पुं. (सं. न.) गृहस्थाश्रमः २. गृहमातृ ( स्त्री.), शृङ्गिणी, अध्न्या-दोग्धी, भद्रा, स्थकृत्यानि ३. पञ्चमहायशाः। अनाही, अनड्वाही, कल्याणी, पावनी, गौरी, गाल, सं. पुं. (सं. गलः) कपोल: गंड: सुरभिः (स्त्री.)२, सरल-ऋज, मनुष्यः। । २. मुखम् । गायक, सं. पुं. (सं.) दे. 'गाने वाला। -पर गाल चढ़ना, मु., पनीभू , आप्य (भ्वा. गायत्री, सं. स्त्री.(सं.) वैदिकछंदोभेदः २. वैदिक- | - आ. से.)। . मंत्रविशेषः (तत्सवितुर्वरेण्यं भगों देवस्य धीमहि। -पिचकना, मु., कृशोभू, विश-क्षि ( कर्म.)। धियो यो नः प्रचोदयात् । ऋग. ३१६२११०), -फुलाना, मु., कुप् (दि. प. से.), क्रुध सावित्री ३. गंगा ४. दुर्गा। | (दि. प. अ.)। गायन, सं. पुं. (सं.) दे. 'गानेवाला' २. गानं, -बजाना या मारना, मु., आत्मानं इलाघसम्बरालपनं २. गीतं, गीतिका। विकत्थ ( भ्वा. आ. से.)। ग़ायब, वि. ( अ.) लुप्त, अन्तरतिरो, हित, गालव, सं. पुं. (सं.) गलवमुनिपुत्रः ( विश्वा२. अदृष्ट, भाविन् , भविष्यत् । मित्रशिष्यविशेषः ) २. लोधः, लोध्रः ३. पाणिकरना, कि. स., चुर (चु.), तिरो था| निपूर्ववर्ती वैयाकरणविशेषः । (. उ. अ.)। गाला, सं. पुं. (हि. गाल ) धूतकासपिंडं-होना, कि. अ., तिरोभू , अदृश्य (वि.)+भू, डः, २. मितूलम् , हिम-तुपार,पिण्डम् अन्तर-तिरो,-धा ( कर्म.)। ३. चक्रीक्षितं मुष्टिमात्रमन्नन् ४. ग्रासः, गायिका, सं. स्त्री. (सं.) गायनी, गात्री। कवलः। गार, सं. पुं. ( अ. ) गुहा, कंदरा २. विवरम्। ग़ालिबन, क्रि. वि. (अ.) संभवतः, प्रायः, गारत, वि. (अ.) नष्ट, ध्वस्त ।। प्रायेण, प्रायशः, स्यात्, किल, नाम ( सब गारद, सं. स्त्री. ( अं. गार्ड ) रक्षक-रक्षि,-वर्ग: अव्य.)। गणः २. अंगरक्षकः ३. रक्षा, गुप्तिः (स्त्री.)। गाली, सं. स्त्री. (सं. गालि: स्त्री.) आक्रोशः, गारना, क्रि.स., (सं.गालनं >)दे. निचोडना अपवादः, अपभाषणं, अधिक्षेपः, परुषोक्तिः गारा, सं. पुं. (हिं. गारना ) कर्दमः, पङ्कः, (स्त्री.)। उत्त-उन्न, मृद् (स्त्री.)-मृत्तिका, लेपः । -खाना, क्रि, अ., आ-अधि-क्षिप् (कर्म.), अपगारुड़, सं. पुं. ( सं. न.) विषमंत्रः २. सुवर्ण भाष अभिशप-अपवद् ( कर्म.)। ३. गरुडपुराणम् । -देना, क्रि. स., अधि-आ-क्षिप् ( तु. प. अ.), गारुड़ी, सं. पुं. (सं.-डिन् ) विषवैद्यः, गारुडिकः । अभिशप (भ्वा. उ. अ.), अभिशंस-अपवद् जांगुलिकः २. मोहिन् (पु.), कुहककारः (भ्वा. प. से.)। ३. प्रतिविषविक्रेत ( पुं.)। -गलौज, सं. स्त्री., परस्पर, अधिक्षेपः-अपमागार्गी, सं. स्त्री. (सं.) काचित् ब्रह्मवादिनी घणं गालिदानम् । विदुषी नारी ( उपनिषद् )। गालीचा, सं. पुं., दे. 'गलीचा'। गार्ड, सं. पुं. ( अं.) रक्षकः, रक्षिन् (पुं.) गाव, सं. पुं. ( गौः, पुं. स्त्री., फ़ा. गाव ) दे. २. वाष्पशकटयाः रक्षकः। __'गाय' २. दे 'बैल'। For Private And Personal Use Only Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra गाहक www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [ १७० ] - कुशी, सं. स्त्री. (फ़ा.) गो, वात:- वधः- हत्या | | - धप, सं. स्त्री. छलेन अपहारः उपयोगः, ग्रसनम् । - घप करना, क्रि. स., कपटेन आत्मसात् कृ । गिनना, क्रि. स. ( सं . गणनं ) गण संकल (चु.), ---ज़बान, सं. स्त्री. ( फा . ) गोजिह्वा, परिसंख्या ( अ.प. अ. ) २. मन् (दि. पुष्पी, खरपत्री । आ. अ. ), गण । सं. पुं., गणनं संख्यानं, संकलनम् । अधः - तकिया, सं. पुं. ( फा . ) महोपबर्हः, बृहदुपधानम् । —दी, सं. पुं. (फ़ा.- + सं. धीः > ) जडः, मूर्खः । - दुम, वि ( फा . ) गोपुच्छाकार, शुंडाकृति । सूच्याकार, शंकाकृति । गिननेयोग्य, वि., गणनीय, संख्येय । गिनने वाला, वि., गणक, संख्यात् । गिना हुआ, वि., गणित, संख्यात | दिन, मु., यथाकथंचित् कालं या ( प्रे. याप यति ) । गाहक, सं. पुं. (सं. ग्राहक: ) क्रेतृ, क्रयिन् २. गुणग्रहीतृ ( पुं.), गुणज्ञः गाहकी, सं. स्त्री. (हिं. गाहक ) ग्राहकत्वं, केतुत्वं २. गुणज्ञता । गाहन, मे. पुं. (सं. न. ) वि अवगाहनम्, निमज्जनं, स्नानं २. विलोडनम् । गिरफ़्तार गिनती, सं. स्त्री. (हिं. गिनना) गणनं, संख्यानं २. संख्या, गणना ३ अंकमाला । --के, मु., कतिचित्, स्तोकाः । -करना, क्रि. स., आंग्लभाषायां वद् (भ्वा. प.से.) । गिड़गिड़ाना, क्रि अ. (अनु. ) अतिनम्रतया अभि-प्र-अर्थ ( चु. आ. से. ), कृपणतया क्षुद्र तया याच ( वा. उ. से. ) । गिड़गिड़ाहट, सं. स्त्री. (हिं. गिड़गिड़ाना ) अतिनम्रप्रार्थना, दीनवत् याचनम् । गिद्ध, सं. पुं. (सं. गृध्रः ) दूरदर्शन, वज्रतुंः, दाक्षाय्यः । गिनवाना, (क्रि. प्रे, ब. 'गिनना' के धातुओं गिनाना, के प्रे. रूप । गिनी, सं. स्त्री. ( अं. ) आंग्लदेशीया स्वर्णमुद्रा; गिनी । गिरगिट, सं. पुं. ( देश. अथवा सं. गलगति > ? ) सरटः टुः, कृक ( कु ) लाश:, सः, प्रतिसूर्यः कः । गाहना, क्रि. स. ( सं . गाइनं ) अव-वि-गाहू (भ्वा. आ. से.), निमज् (तु. प. अ.) २. मथ्, मंथ् ( भ्वा. प. से. ), विलोड् (प्रे.) २. निस्तु पीकृ, पू ( क्रू. उ. से. ) २. पादाभ्यां पीड् (चु.)- मृद् (क्. प. से. ) ४. दे. 'खोजना' । सं. पुं. (सं. न. ) अव-वि-गाहनं, विलोडनं, मर्दनं, निस्तुषीकरणः अन्वेषणम् । गिंडरी, सं. स्त्री. दे. 'इंडुरी' । चिपिच, गिचिरपिचिर, वि. ( अनु. ) अवाच्य, अव्यक्ताक्षर २ अस्पष्ट, अविशद ३. अक्रम, अस्तव्यस्त । गिरजा, सं. पुं. ( पुर्त. इग्रिजिया ) ख्रिस्टधर्ममंदिरम् । गिरना, क्रि. अ. ( सं . गलनं ) नि अव पत् ( वा. प. से. ), स्खलू - गलू (भ्वा. प. से.), संस् (स्वा. आ. से.), च्यु ( वा. आ. अ. ) २. क्षिशू ( कर्म. ), इस् ( भ्वा. प. से. ) क्षयं लयं,-इया ( अ. प. अ. ३. अधिकारात् अपकृष् ग़िज़ा, सं. स्त्री. ( अ. ) खाद्यं, मक्ष्यं, अन्नं, ( कर्म. ), अवरुह् (भ्वा. प. अ. ), लघूभू । ४. युद्धे हन् ( कर्म. ) ५. अकस्मात् यदृच्छया घट् (भ्वा. आ. से. ) अथवा आ-सं-पत् । सं. पुं., पतनं, च्यवनं, गलनं, अवरोहणं, पद,भ्रंश:- च्युतिः (स्त्री.) । भोजनम् । गिटपिट, सं. स्त्री. (अनु.) अपार्थक - निरर्थकव्यर्थ, वचनं-शब्दः । की तरह रंग बदलना, मु., सत्वरं स्वसिद्धांतान् परिवृत् (प्र. ) । - वाला, वि., पतयालु, पतन-पात, उन्मुख, पातिन् पातुक, पिपतिपु । गिरा हुआ, वि., पतित, च्युत, स्रस्त, गलित । गिरते-पढ़ते, मु., यथाकथंचित् येन केन प्रकारेण । و , गिरफ़्त, सं. स्त्री. (फ़ा. ) दे. 'पकड़' | गिरफ़्तार, वि. ( फ़ा. ) गृहीत, घृत, बद्ध, निरुद्ध । For Private And Personal Use Only Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir गिरफ्तारी [ १७१] गिली-सी करना, क्रि. सं., निरुध् (रु. उ. अ.), गिरींद्र, सं. पुं. ( सं. ) महापर्वतः २. हिमालयः आसिध ( भ्वा. प. चे.), ग्रह (क्र. प.से.)। ३. शिवः। -~-होना, क्रि. अ. निग्रह धृ बंध निरुध् (कर्म.)। गिरी, सं. स्त्री. (हिं. गरी) अष्ठिः ( स्त्री.), गिरफ़्तारी, सं. स्त्री. (फा.) आसेधः, बंधनं, अष्ठीला, बीजं, गर्भः, फल-बीज-,गर्भः। (२-३) निग्रहणं, धरणं, निरोधः। दे. 'गिरि' तथा 'गिरी'। गिरमिट.. . एग्रीमेंट करार- गिरीश, सं. पुं. (सं.) शिवः, महेशः २. हिमालयः नामा'। ३. कैलाशः ४. महापर्वतः । गिरमिटिया, सं. पुं. ( अं. एग्रिमेंट > ) प्रतिज्ञा- गिरो, वि. ( फ़ा.) दे. 'गिरवी'। बद्ध-अनुबद्ध, कर्मकरः श्रमकः। गिर्द, अव्य. (फ़ा. ) अभितः, परितः, सर्वतः, गिरवाना, कि.प्रे., ब. 'गिरना' के प्रे. रूप। समन्ततः, समन्तात् ( सब अव्य.)। गिरवी, वि. (फ़ा.) आधी-न्यासी,-कृत, निक्षिप्त, इद् अव्य. ( फ़ा.) दे. 'गिर्द' । आहित । -रखना, कि. स..न्यस (दि. प. से.), निक्षिप गिदोवर, सं. पु. (फ़ा.) पर्यटकः, परिभ्रामकः । (तु. प. अ.), न्यासी आधी,-कृ । गिल, सं. स्त्री. (फ़ा.) मृत्तिः (स्त्री.), मृत्तिका, -दार, सं. पुं. (फ़ा.) आधि-न्यास-बंधक, मृदा, मृद् (स्त्री.) २. उत्त-उन्न, मृत्तिः । ग्राहिन् (पुं.)-ग्राहकः।। -कार, सं. पुं., मृल्लेपकः, लेपकरः, सुधा-रखने वाला, सं. पुं., निक्षेप्त, आधाद।। जीविन् । गिरह, सं. स्त्री. ( फ़ा.) दे. 'गाँठ' (१-३) -कारी, सं. स्त्री.. मृल्लेपः । २. दे. 'जेब' ३. दे. 'उलटबाजी' ४. गज़ाख्य गिलगिला, वि. ( फ़ा. गिल = गारा ) पंकिल, श्यान । मानस्य षोडशांशः। -बाँधना, क्रि. स., दे. 'गाँठ देना'। । गिलट, सं. पुं. ( अं. गिल्ड ) सुवर्णरंजनं, हेम-कट, सं. पुं., दे. 'गाँठकट' । च्छदः २. गिलटाख्यो धातुविशेषः । -करना, क्रि. स., सुवर्णयति (ना. धा.), -दार, वि., दे. 'गांठदार' । गिरा, सं. स्त्री. (सं.) वाकशक्तिः-गिर-वाच् हेम, रसेन-द्रवेण लिप ( तु. प. अ.)। (स्त्री.), वाणी २. सरस्वती, भारती, वाग्देवी गिलटी, सं. स्त्री. (सं. ग्रन्थिः पुं.) मांस, पिंडा, ३. जिता, रसना ४. वचनं, उक्तिः ( स्त्री.)। आधिमांसं २. वि., स्फोटः टकः, शोथः, श्वयथुः, गिराना, क्रि. स., ब. 'गिरना' के प्रे. रूप। व्रणः-णं, मांसाबुदम् । गिरानी, सं. सी. ( फ्रा.) महायता, बहुमूल्यता गिलना, क्रि. स. { गिलना, क्रि. स. (सं. गिरणं) दे. 'निगलना'। २. दुर्मिक्षं, दुष्काल: ३. गुरुत्वं, भारवत्वं गिलबिलाना, क्रि. स. (अनु.) अस्पष्टं गद्गद४. अजीर्णम् । वाचा वद् ( भ्वा. प.से.)। गिरावट, सं. स्त्री. (हिं. गिरना) पतनं, च्यवनं- गिलहरी, सं. स्त्री. (सं. गिरिः ( स्त्री.) = अवरोणं, अवनतिः ( स्त्री.)। चुहिया ) काष्ठ-विडालः-मार्जारः, चरमपुच्छः, गिरि, सं. पुं. (सं.) पर्वतः, शैलः, अचलः, नगः वृक्षशायिका। २. परिव्राजकोपाधिः (पुं.)। गिला-ला, सं. पुं. (फा.) दे. 'उपालम्भ' । -धर, सं. पुं. (सं.) गिलाई, गिलाय, सं. स्त्री., दे. 'गिलहरी' । -धारी, सं. पुं. (सं. धारिन् )काणचन्द्र गिलाफ, सं. पु. (अ.) उपधान-उपबह, कोषः-शः -नन्दिनी, सं. स्त्री. (सं.) पार्वती, उमा। २. तूला-तूलिका-,कोषः३. कोषः, पुटः, आवेष्टनं -नाथ, सं. पु. ( सं.) शिवः, शङ्करः। ४. असिकोषः। -राज, सं. पुं. ( सं.) हिमालयः २. गोवर्धन- गिलास, सं. पु. ( अं. ग्लास ) कसः, कुन्तलः, पर्वतः। गल्वर्कः, पानपात्रम् । २. वदराकारं आङ्ग्ल-सुता, सं. स्त्री. ( सं.) पार्वती। फलम् । गिरिजा, सं. स्त्री. (सं.) पार्वती, गौरी। | गिली-ल्ली, सं. स्त्री., दे. 'गुल्ली' । For Private And Personal Use Only Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir गिलो, गिलोय गिलो, गिलोय, सं. स्त्री. ( फा . ) गुडू (ड)ची, अमृता, अमृत- सोम-, वल्ली- लता वल्लरी, रसायनी । गिलोला, सं. पुं. (फ़ा. गुलेला ) मृद्, चटिकागुटि(लि) का | [ १७२ ] | गिल्लद, सं. पुं. (सं. गल: >) गलगण्डः, गण्डुः । गीत, सं. पुं. ( सं . न . ) गीति: (स्त्री.), गीतिका, गानं, गेयं २. यशस् (न.), महिमन् (पुं.)। -गाना, मु., प्रशंस् (भ्वा. प. से. ) स्तु ( अ. प. अ. ) । . गिलौरी, सं. स्त्री. (देश. ) दे. 'पान का बीड़ा' | गुंजान, वि. ( फ़ा. ) घन, निविड, गाढ गुंजायमान, वि. (सं. गुअ > ) गुंजत् मधुरं ध्वनत् ( शत्रंत ) । गिल्टी, सं. स्त्री. दे. 'गिलटी' । गीता, सं. स्त्री. (सं.) श्रीमद्भगवद्गीता २. ज्ञानमयोपदेशः २. वृत्तान्तः ३. छन्दोभेदः । गीती, सं. स्त्री. (सं.) दे. 'गीत' २. छन्दोगीतिका, सं. स्त्री. ( सं . ) भेदः । गीदड़, सं. पुं. (सं. गृध्रः = लालची अथवा फ़ा. गीदी = भीरु ) क्रोष्टा, फेरुः, शिवालुः, ( पुं. ), ( स ) गाल:, जम्बु ( बू ) - कः, मृगधूर्तकः, भूरिमायः, वंच( चु ) कः कातर, भीरु । । गोमायुः फेरवः, वि., - भबकी, सं. स्त्री, विभीषिका । - बोलना, मु., अपशकुनः-नं भू २. निर्जनीभू । गीदड़ी, सं. स्त्री. (हिं गीदड़ ) शिवा, शृगाली, क्रोष्ट्री । गीध, सं. पुं., दे. 'गिद्ध' । गीला, वि. (फ़ा. गिलू = गारा) आर्द्र, उत्त, उन्न, क्लिन्न, स्तिमित, जलसिक्त । ( गीली ( स्त्री. ) = आर्द्रा इ. ) । गुच्छ, गुच्छक गुंजा, सं. स्त्री. (सं.) रक्तिका रक्ता, वन्या, २. गुंजाबीजं इ. । -करना, क्रि. स., उंदू ( रु. प. से. ), क्लि (प्रे.), आद्रकृ । - पन, सं. पुं. (हिं. गीला ) आर्द्रता, उन्नता । गुंचा, सं. पुं. ( अ.) मुकुल: -लं, कोरकः-कं, कलिका २. विहारः, ३. संगीतम् । गुंज, सं. स्त्री. (सं. गुंज: ) गुञ्जनं, गुञ्जितं, गुन्गुन्ध्वनि: (पुं.) झंकारः, कलरवः । 'आनन्दध्वनि: (पुं. ) ३. दे. 'गुंजा' ४. दे. 'गूंज' । गुंजन, सं. पुं. (सं. न. ), दे. 'गुंज'(१) । गुंजना, क्रि. अ. (सं. गुंजनं ), गुंज, मधुरं ध्वन्, अस्पष्टं निस्वन् ( सब भवा. प. से. ) । गुंजरना, क्रि. अ., दे. 'गुंजना' २. दे. 'गरजना' । गुंजाइश, सं. स्त्री. (फ़ा.) अवकाशः, स्थानं, धारण- ग्रहण, शक्तिः (स्त्री.)- सामर्थ्यं २. लाभः ३. योग्यता । गुंजार, सं. पुं. दे. 'गुंज' (१) । गुजारना, क्रि. अ., दे. 'गुंजना' । गुंडा, वि. (सं. गुण्डकः = मैला > ) दुर्वृत्त, दुराचारिन् (पुं.), व्यसनिन्, लंपट २. रूपगर्वित, छेकः, वेषाभिमानिन् । (गुंडी स्त्री. ) । - पन, सं. पुं., दुराचारः, स्वैरिता, लंपटता । गुँथना, क्रि. अ. (हिं. गूंथना ) ग्रन्थ-संदृभ्सूत्र - गुं (गु ) फ् ( कर्म. ) । गुँथवाना, क्रि. प्रे. ब. 'गूंथना' के प्रे. रूप । सुँधना, क्रि. अ. ( सं. गुध् = क्रीडा करना > ) (हस्ताभ्यां ) मृदू संपीड (कर्म) २. दे 'धना' । सुँधवाना, क्रि. प्रे., व. 'गूंधना' के प्रे. रूप । गुंधाई, सुँघावट, सं. स्त्री. (हिं. गूथना ) १. कराभ्यां मर्दनं २ मर्दनवेतनं ३. ग्रंथनं ४. ग्रंथन, भृतिः - ( स्त्री. ) - भृत्या । गुंफ, सं. पुं. ( सं .) संकुलता, व्यतिकरः, संकरः २. गुच्छ:- च्छ्कः ३. श्मश्रु ( न. ), ओलोमन् (न.) ४. कूर्चम् । गुंफन, सं. पुं. ( सं . न . ) संग्रंथनम्, संदर्भणम्, सूत्रम् । गुंफित, वि. (सं.) [सं-परि-आ-विलष्ट, सं-आसक्त २. ग्रथित, सूत्रित ३. उत, उप्त । गुंबज, सं. पुं. दे. 'गुंबद ' । गुंबद, सं. पुं. ( फा . ) गोल, पटलं - छदिः (स्त्री.)। गुइयां, सं. पुं. तथा स्त्री. (हिं. गोहन = साथ > ) | १. सहचरः, संगिन् (पुं.), सखि (पुं.) २. सहचरी, सखी | गुग्गुल, सं. (सं.) गुग्गुलुः, कालनिर्यासः, देवधूपः, रूक्षगंधकः । गुच्ची, सं. स्त्री. (अनु. ) गुलीदंड-क्रीडार्थं भूविवरं, *खातिः (स्त्री. ) । गुच्छ, गुच्छक, सं. पुं. (सं.) स्तंवः, स्तबकः गुत्सः सकः २. मयूरपुच्छं ३. द्वात्रिंशद्यष्टिकहारः । For Private And Personal Use Only Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir गुच्छा [ १७३ ] गुण गुच्छा, सं. पुं. ( सं. गुच्छः दे.) २. आभूषण- गुठली, सं. स्त्री. ( सं. गुटिका>) अष्ठिः (स्त्री.), भेदः । अष्ठीला, फलवीजम् । गुच्छेदार, वि. ( हिं+फ़ा. ) गुन्छिन् ,सगुच्छ। गुडंबा, सं. पुं. ( सं. गुडानं )। गच्छी, सं. स्त्री. (सं. गुच्छ:> ) अरिष्टः, गुड़, सं. पुं. (सं.) इक्षुसारः, रसजः, खंडजः, मांगल्यः, गुच्छफल: २. व्यंजनोपयुक्तपुष्पभेदः, मधुरः, मोदकः, शिशुप्रियः, गुलः, स्वादुः । *गुच्छी । गुड़गुड़, सं-स्त्री. ( अनु.) गुडगुड, शब्दः-ध्वनिः गुज़र, सं. पुं. (फ़ा.) उप-अभि-गमः, उपसर्पणं, (पुं.) धूमपानयंत्रशब्दः।। प्रवेशः २. निर्गमः, गतिः (स्त्री.) ३. निर्वाहः, गुड़गुड़ाना, क्रि. अ. ( अनु.) गुडगुडायते जीवनम् । (ना. धा.) गुडगुड, ध्वनि-शब्दं कृ । -जाना, मु., दे. 'मरना। गुड़गुड़ी, सं. स्त्री. (हिं. गुड़गुड़ाना) लघुगुज़रना, क्रि. अ. (फ़ा. गुज़र ) इ-या | धूमपानयंत्रम् ।। (अ. प. अ.), गम् २. अति-व्यति, इ. अति-गुड़च, सं. स्त्री. (सं. गुडची) दे. 'गिलो। क्रन भ्वा. प. से.) ३. भू, घट (भ्वा. आ. से.) | गुधनिया, गुड़धानी, (सं. गुड़धानाः स्त्री. ४. मृ (तु. आ. अ.), प्राणान् मुच् (तु. उ. अ.)। बहु.)। गुजरात, सं. पुं. ( सं. गुर्जरराष्ट्रं ) भारत- गुड़ाकू-खू, सं. पुं. (सं. गुड़ + तमाखू> ) वर्षस्य प्रांतविशेषः, गुर्जराटप्रान्तः । गुडतमाखुः। गुजराती, वि. (हि, गुजरात ) गुर्जरराष्ट्रीय, गुड़ाकेश, सं. पुं. (सं.) शिवः २. अर्जुनः । गुर्जर राष्ट्र, दासिन संबंधिन् २. गुर्जर राष्ट्रीय- गुड़िया, सं. स्त्री. (सं. गुडिका ) पुत्तलिका, भाषा। पुत्रिका, कुरुंटी, पांचालिका। गुज़रान, सं. पु. ( फ़ा. गुज़र ) निर्वाहः, गुड़ियों का खेल, मु., सुकरं कार्यम् । कालक्षेपः। गुड़च, सं. स्त्री., दे. 'गिलो'। गुजश्ता, वि. ( फ़ा.) व्यतीत, गत, अतिक्रांत । गुदची, सं. स्त्री. (सं.) दे. 'गिलो' । गुजारना, क्रि. सं. (हिं. गुज़रना) गम्-या | गुड्डा, सं. पुं. (सं. गुडः ) गुडकः पुत्रका, पुत्तलः । गुज़ारा, सं. पुं. (फ़ा.) निर्वाहः, कालक्षेपः गडी, सं. स्त्री. ( गुडिका> ) चिल्लासदृशं २. जीवनं, प्राणधारणं ३. वृत्तिः भृतिः (स्त्री.) | पत्रक्रीडनकं, चिल्लाभासः २ दे. 'गुड़िया'। ४. तार्थ, तरपण्यम् । गुण, सं. पुं. (सं.) धर्मः, स्वभावः, विशेष: गुज़ारिश, सं. स्त्री. ( फ़ा.) निवेदनं, प्रार्थना । २. सत्त्वं, रजस् (न.), तमस् (न.), गुणगुटकना, क्रि. अ. ( अनु.) कपोतवत् कूज त्रयी ३. रूपरसगंधस्पर्शादयः द्रव्यधर्माः (वे.) ( भ्वा. प. से.) २. दे. 'निगलना'। ४. चातुर्य, दक्षता ५. प्रभावः, फलं ६. शीलं, गुटका, म. पुं. ( सं. गुटिका > ) लघु, ग्रंथः- सत्स्वभावः ७. लक्षणं, विशेषता ८. 'त्रि' इति पुस्तकम् २. दे. 'गुटिका' । संख्या ९. संधिविग्रहयानासनसंश्रयद्वैधीभावाः गुटरगें, सं. स्त्री. ( अनु.) कपोतकूजितं, ( राजनीतिः ) २०. प्रकृतिः (स्त्री.) (छान्दोग्य) पारावतरुतम् । ११. 'अ, ए, ओ'-वर्णाः (व्या.) १२. सूत्रं, गुटिका, सं. स्त्री. (सं.) गुलिका, वटिका, वटिः | रज्जुः ( स्त्री.) १३. ज्या, मौर्वी १४. माधु(स्त्री.)। यौजःप्रसादाः ( काव्य.) १५. आवृत्तिसूचकः गुट्ट, सं. पुं. ( सं. गोष्ठः> ) समूहः, दलम् । । प्रत्ययः ( उ. द्विगुणः इ.)। गुहा, सं. पुं. (देश.) खर्वः, वामनः २. दे. 'गोटी'! -कर, वि. (सं.) हितकर, उपयोगिन् ( गुणगुटल, वि. (हि. गुठली) स्थूलाष्ठि, युत- करी स्त्री.)। वत् २. मंदमति, जह ३. अष्ठीलाकारः । -कारक, वि. ( सं.) हित, उपकर्तृ । (-कारिका सं. पुं. ग्रंथिः (पुं.) २. मांसपिंडा-डम् । । स्त्री.)। For Private And Personal Use Only Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir गुणक [ १७४ ] गुनाह - कारी, वि. (सं., रिन् ) उपयुक्त, उपकारिन् । गुणेश्वर, सं. पुं. ( सं . ) परमेश्वरः २. चित्रकूट( -कारिणी स्त्री. ) । पर्वतः । अन्वित-संपन्न | - खान, वि., ( सं खानी ) बहुगुण, उपेत- गुण्य, सं. पुं. ( सं . ) गुण्यांकः, गुणांकः । गुत्थमगुत्था, सं. पुं. (हिं. गुथना ) संष्टिताः, संकुलता २. बाहु- बाहूबावि, युद्धं, द्वंद्वम् । गुत्थी, सं. स्त्री. (हिं. गुथना ) दे. 'उलझन' | — गौरी, सं. स्त्री. (सं.) पतिव्रता, सती, गुथना, क्रि. अ., (सं. गुध् परिवेष्टन अथवा एकपली २. सधवा, सभर्तृका । ग्रंथ ) ( वेणीरूपेणं-) ग्रंथ ( कर्म. ), वेणीकृ (कर्म.०) । २. गु()फ्-संदृभू ( कर्म. ) -संग्रंथ ( कर्म. ) ३. बाहूबाहवि युध् (दि.आ अ.) । गुथवाना, क्रि. प्रे., व. 'गुथना' के प्रे. रूप | गुथ (थु ) वाँ, वि. (हि. गुथना > ) ( वेणीरूपेण ) ग्रथित - गुंफित । गुद, सं. स्त्री. (सं. न. ) अपानं, पालुः (पुं.), गुह्यम् । - अंकुर, - कील, सं. पुं. (सं.) दे. 'दवासीर ' । - ग्रह, सं. पुं. ( सं . ) दे. 'कन्ज' । गुदगुदा, वि. (हिं. गूदा ) मांसल, मैदस्विन् ३. मृदु, सुखस्पर्श, कोमल । - गान, सं. पुं. (सं. न. ) स्तुति:- नुति: (स्त्री.) प्रशंसा | - ग्राहक, वि. (सं.) गुणन्वेषिन्, गुणग्राहिन् २. दे. 'गुणज्ञ' । -दायक, वि. (सं.) दे. 'गुणकर' । - दोष, सं. पुं. ( सं .) गुणावगुणौ-हानिलाभौ (द्वि.) । - निधान, वि. ( सं . ) ) गुण, राशि:- निधि: - सागर, वि. ( सं . ) ) ( पुं.)। -हीन, वि. (सं.) अगुण, निर्गुण, सामान्य, साधारण । गुणक, सं. पुं. (सं.) गुणकांकः । । | दे० 'गुणी' गुण, -मयी-वर्ती स्त्री । गुदड़ी, सं. स्त्री. (हिं. गूंथना ) कंथा, स्थूतकटः, ३. जीर्ण-शीर्ण, वस्त्रम् । - में लाल, मु., चीरे रत्नं (मु.) । - का लाल, मु., चीररत्नं (मु. गुदा, सं. स्त्री. दे. 'गुद' | गुणज्ञ. दि. (सं.) गुण, ग्राहिन् ग्राहक, मर्मज्ञ | गुणज्ञता, सं. स्त्री. (सं.) गुणग्राहकत्वं, मर्मज्ञता गुणन, सं. पुं. ( सं. न. ) आघातः, हननं, अभ्यासः २. गणनं, संख्यानम् । गुणमय, वि. (सं.) गुणवंत, वि. (संवत् ) गुणवान, वि. (सं.-वत् ) ) गुणांक, सं. पुं. (सं.) गुण्यः- गुण्यांकः । गुणा, सं. पुं. (सं. गुणः ) ( समासान्त में, उ. दो गुणा=द्विगुण इ. ) । दे. 'गुणन' | -करना, गुणयति ( ना. धा.), आ-नि-, हुन् (अ. प. अ. अथवा प्रे. घातयति), पूर (चु.) । गुणातीत, वि (सं.) सत्त्वादिगुणप्रभावशून्य, निलिप्त, शुद्ध । सं. पुं., ईश्वरः । गुणानुवाद, सं. पुं. (सं.) प्रशंसा, स्तुतिः (स्त्री.) । गुणित, वि. (सं.) गुणीकृत, आहत, पूरित । गुणी, वि. (सं. गुणिन् ) गुणवत्, गुण, संपन्न उपेत आढ्य युक्त निधि-सागर । २. दक्ष, कुशल ३. पुण्य - शील- आत्मन् । गुणीभूत, वि. (सं.) मुख्यार्थरहित २. गौणी - गुन (ना) हगार, वि. (फ़ा.) पापिन् पातकिन् गुदाज़ वि. ( फा ) मृदु, कोमल, सुखरपर्श । - दिल, वि., हृदयद्रावक, मार्मिक, मर्मस्पर्शिन् । गुनगुनाना, क्रि, अ. ( अनु. ) गुणगुणायते ( ना. धा. ) २. नासिकया वद् (स्वा. प. से. ) ३. अस्फुटं मैं ( स्वा. प. अ. ) ४. असंतोषाव परिदेव ( चु. आ. से. ) ५. दे. 'गुंजना' | भूत । २. अपराधिन्, दोषिन् । - व्यंग्य, सं. पुं. ( सं. न. ) अप्रधानव्यंग्यार्थः गुना, सं. पुं., दे. 'गुणा' । काव्यभेदः । गुदगुदाना, क्रि. सं. (हिं. गुदगुदा ) कुतकृतयति कंड्यति ( ना. धा. ), कई जन (प्रे.), मनोविनोदाय क्षुभू (प्रे. ) । गुदगुदाहट, गुदगुदी, सं. स्त्री. (हिं गुदगुदाना ) कुतकुतं, कंट्टति: (स्त्री.) । गुनगुना, वि. (अनु. ) कोष्ण, कदुष्णा, कवोष्ण २. नासावादिन् । , गुनाह, सं. पुं. (का.) पापं २. अपराधः । For Private And Personal Use Only Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir गुनिया [ १७५ ] - गुनिया, सं. पुं. (सं. कोणः> ) कौणिक, गुमटी, सं. स्त्री. ( फ़ा. गुंबद ) ( सोपानादीनां) साधनं, तक्षकोप करणभेदः (1)। उच्छदिः (स्त्री.)। गुपचुप, क्रि. वि. (सं. गुप्त+चुप> ) निभृतं, | गुमड़ा, सं. पुं. (फ़ा. गुंबद ) गंडः शोथः, सुगृहं, रहसि, मौनं ( सब अव्य.)। सं. स्त्री., शोफः । (१-३) मिष्टान-वालक्रीडा-क्रीडनक, भेदः । गुमरी, सं.स्त्री., दे. 'धुमरी'। गुप्त, दि. (सं.) गूढ, निभृत, निलीन, प्रच्छन्न, गुमान, सं. पु. ( फ़ा.) अनुमानं २. दर्षः । अव्यक्त, अप्रकट २. दुर्बोध ३. रक्षित गुमानी, वि. ( फ़ा.) दृप्त, गर्वित, सदर्थ ।। ४. अदृश्य । सं. पुं., वैश्योपाथिः २. प्राचीन- गुमाश्ता, सं. पुं. (फ़ा.) प्रतिनिधिः ( पं.) राजवंशविशेषः। प्रतिहस्तः-स्तकः, नियोगिन् (पुं.), नियुक्तः, -होना, क्रि. अ., अंतर्धा-निली ( कर्म.)। प्रतिपुरुषः। -चर, सं. पुं. (सं.) अपसर्पः, च(चा)रः, -गीरी, सं. स्त्री. (..) नियोगि-प्रतिनिधि, प्रणिधिः। पदं-कार्य २. प्रतिनिध्यं, नियुक्तत्वम् । -दान, सं. पुं. ( सं. न.) दातृनामनिर्देशं गुम्मट, सं. पुं. ( फ़ा. गुंबद दे.)। विना दानं । गुर, सं. पुं. ( सं. गुरुमन्त्रः > ) सूत्रं, मूलमन्त्रः, गुप्ता, सं. स्त्री. (सं.) परकीयाभेदः २. उप,- सारः, संक्षिप्तविधिः ( पुं.)। पत्नी-भार्या ३. वर्णसूचकोपाधिः (पु.), गुप्तः। गुरगा, सं. पुं. (सं. गुरुगः ) शिष्यः २. सेवकः गुप्ति, सं. स्त्री. (सं.) गृहनं, गोपनं, संवरणं, ३. गुप्त-,चरः । प्रच्छादनं २. रक्षणं ३. कारागारं ४. गुहा गरगाबी, दे. 'गुर्गावी' । ५. यमाः ( योग.)। गुरिया, सं. स्त्री. ( सं. गुलिका ) गुली, गुटिका । गुप्ता, स. स्त्रा. ( स. गुप्त - ) गुप्तासिः (पु.), गुरु, सं. पुं. (सं.) बृहस्पतिः, देवगुरु: २. बृहखड्गयष्टिः ( स्त्री.), *गुप्तिः ( स्त्री. )। रपतिग्रहः ३. पुष्यनक्षत्र ४. मंत्रोपदेशकः गुफा, सं. स्त्री. ( सं. गुहा ) कंदरः-रा, गह्वरं, ५. आचार्यः ६. अध्यापकः, शिक्षकः ७. पुरोदरी, विवरः रम् । हितः ८. द्विमात्रिकवर्णः (छन्द.) ९. बलगुफ़्तगू , सं. स्त्री. ( फ़ा.) वार्तालापः, आलापः, | विद्यादिपु स्वतोऽधिकः। संलापः। वि., बृहत् , महत् , विशाल, विपुल, विस्तीर्ग, गुबरला, सं. पुं. (हिं. गोदर ) गोमयलः, २. भारवत, ३. दुर्जर, दुष्पच, गरिष्ठ ४. पूज्य, गोमयकीटः। मान्य। गुबार, सं. पुं. ( अ.) धूलि: (स्त्री.), २. प्रच्छन्न -आई, सं. स्त्री., गुरुता, गुरुधर्मः २. गुरुकृत्यं, वैरादिकम् । मंत्रोपदेशः ३. धूर्तता। गुब्बारा, सं. पुं. ( हिं. कुप्पा) विमानं, ख- -कुल, सं. पुं. (सं. न.) आचार्यकुलं, व्योम, यानं २. विमानाकारं, अग्निक्रीडनकम् । विद्यालयः, शिक्षालयः ।। गुम, वि. (फ़ा.) लुप्त, भ्रष्ट, नष्ट, च्युत २. गुप्त, -घंटाल, सं. पुं., धूर्त-वंचक-शठ-कितव, राजः ! छन्न ३. अविख्यात । -जन, सं-पु. ( सं.) पूज्य वृद्ध, जनः । -करना, क्रि. स., विगुज-विहा-परिहा ( कर्म., -दक्षिणा, सं. स्त्री. (सं.) आचार्योपायनम् । तृतीया के साथ ) २. दे. 'छिपाना' । -द्वारा, सं. पुं. (सं. गुरुद्वारं > ) शिष्यमत -होना, क्रि. अ., नश ( दि. प. वे.), प्रभंश मंदिरं, गुरुद्वारन् । (भ्वा. अ. से.; दि. प. से.)। -भाई, सं. पुं. (-+ हिं. भाई ) सतीर्थ्यः, -नाम, वि. ( फ़ा.) अप्रसिद्ध, अविदित । सगुरुकः, सह,-पाठिन्-अध्यायिन् । -राह, वि. ( फ़ा.) प्रभ्रष्ट-नष्ट, पथ, विपथ- -मुख, वि. ( सं.> ) दीक्षित। उन्मार्ग, गामिन् , पथभ्रष्ट, भ्रान्त । | -मुखी, सं. स्त्री. लिपिविशेषः, गुरुमुखी । -राही, सं. स्त्री. (फ़ा.) भ्रान्तिः ( स्त्री.), -वार, सं. पुं. (सं.) गुरु-वृहस्पति, वारः. भ्रमः २. कुमार्गः। वासरः। For Private And Personal Use Only Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir गुरुच [ १७६ ] गुलाम गुरुच, सं. स्त्री., दे. 'गिलो'। |-परी, सं. स्त्री. सुपुष्पा, शंखोदरी, बर्ह पुष्पा । गुरुतर, वि. (सं.) महत्तर, आवश्यकतर -बदन, सं. पुं. (फ़ा.) कौशेय वस्त्रभेदः । २. भारवत्तर, गरीयस् ३. पूज्यतर। -बूटा, सं. पुं., दे. 'गुलकारी' । गुरुता, सं. स्त्री. (सं.) भारः, -मखमल, सं. पुं., स्थूलपुष्पा, झण्डूकः । गुरुत्व, सं. पुं. (सं. न.) तोल:, मानं २. महत्ता, --करना, मु., दे. 'बुझाना' । गौरवं, गरिमन् (पुं.)। -होना, मु., दे. 'बुझना'। -आकर्षण-सं. पुं. (सं.न.) भारवत्त्व,-आकृष्टिः- | -खिलना, मु., अतकित-अदभुतं घट ( स्वा. पातुकत्वम् । आ. से.) अथवा आ-सं-पत् ( भ्वा. प. से.) गरुवाइन, सं. स्त्री. (सं. गुरु >) गुरु, आचाये, | २. उपद्रवः उत्पद् (दि. आ. अ.)। पत्नी, आचार्यानी, गुर्वी २. उपाध्यायानी, -खिलाना, मु., ब. 'गुलखिलना' के प्रे. रूप । उपाध्यायी ३. उपदेशिका, अध्यापिका, ग़ल, सं. पुं. (फ़ा.) कोलाहलः, कलकलशिक्षिका । ध्वनिः (पुं.)। गुरू, सं. पुं., दे. 'गुरु'। --गपाड़ा, सं. पुं., दे. 'गुल' । गुर्गा, सं. पुं. ( सं. गुरुगः ) शिष्यः, अनुगामिन् । गुलगुला', वि. (हिं. गुदगुदा ) कोमल, २. सेवकः, अनुगः ३. गुप्तचरः । गुर्गावी, सं. स्त्री. (फ़ा.) पादूः (स्त्री.), मृदुल। गुलगुला', सं. पु. ( हिं. गोल+गोल ) गोलपादुका। गुर्ज, सं. पुं. (फ़ा.) गदा, शस्त्रभेदः। गोलः मिष्टान्न-पक्वान्न, भेदः २. गंडः, कर्णपट्टी। गुर्जर, सं. पु. (सं.) गुर्जरराष्ट्र, गुर्जरप्रान्तः गुलचला, सं. पुं. (हिं. गोला+चलाना) २. गुर्जरवासिन् ३. जातिविशेषः। दे. 'तोपची'। गुर्दा, सं. पुं. (फा.) वृक्क:-क्का-कं, बुक्का-का-कं गुलछर्रा, सं. पुं. (फ़ा. गुल + अनु.) आनन्दः, गुडः, गुर्दः, वृक्यः । २. शौर्य, साहसम् । | मोदः, २. विलासः, भोगः। -का दर्द, सं. पुं. वृक्कशूलम् ।। -(₹) उड़ाना, मु., स्वच्छन्दं रम् -की पथरी, सं. स्त्री. वृक्काश्मरी । (भ्वा. आ. अ.)। गुर्राना, क्रि. अ. (अनु.) घुर्घरायते ( ना. धा.), गुलज़ार, सं. पुं. (फ़ा.) उद्यानं, वाटिका। घुघुरध्वनि कृ २. गर्ने ( भ्वा प. से.)। वि., शोभन, अभिराम ।। गुर्विणी, सं. स्त्री. (सं.) दे. 'गर्भिणी'। गुलझट-टी-ड़ी, सं. स्त्री. ( सं. गोल+झट = गर्वी, सं. स्त्री. (सं.) दे. 'गर्भिणी' २. गुरुपत्नी, उलझना ) सूत्रसंश्लेषः, *गोलझटम् । २. वली. आचार्यानी ३. गौरवयुक्ता ४. गायत्री। लि: (स्त्री.)। गुल, सं. पुं. (फा.) ओड्र-जपा-जवा,-पुष्पं गुलशन, सं. पु. ( फ़ा. ) उद्यानं, वाटिका । २. पुष्पं ३. दग्धवर्ती-तिः ( स्त्री.) ४. शुक्लं, गुलाब, सं. ( फ़ा.) चारुकेसरा, लाक्षापुष्पा, नेत्ररोगभेदः ५. तप्तलोहाङ्कः। तरुणी, शतपत्री, भृङ्गेष्टा, गन्धाढ्या, जपा, -अब्बास, सं. पुं., कृष्ण, कलिः ( स्त्री.)- जवा २. जपाजलम् ।। केलिः ( स्त्री.)। -जल, सं. पुं., जपा-जवा, जलम् । -कंद, सं. पुं. (फ़ा.) *फुल्ल-जपा,-खंडः। -जामुन, सं. पुं., किलाट, जनु (न.)-जांबवं । -कारी, सं. स्त्री. (फ़ा.) फुल्ल-कार्य, कर्मन् । २. वृक्षभेदः । ३. तत्फलम् । -तुर्रा, सं. पुं., सिद्ध,-आख्यः नाथ:-ईश्वरः ।। -दानी, सं. स्त्री., * जपाधानी। -दास्ता, सं. पुं. (फा.) फुल्लगुत्सः, कुसुम- गुलाबी, वि. ( फ़ा. ) पाटल, जपावर्ण २. लघु, पुष्प, गुच्छः-स्तबकः। __ अत्यल्प ३. कौञ्जक, औडू । सं. स्त्री., (१-३) -दान, सं. पुं. (फ़ा.) फुल, धान-धानी। पानपात्र-खग-मिष्टान्न, भेदः । ४. जपारंगः । -दुपहरिया, सं. पुं., सूर्यभक्तकः, अर्कवल्लभः, गुलाम, सं. पुं. ( अ.) क्रीत, दासः २. सेवकः माध्याहिका, बन्धुजीवकः। ३. दासाकारयुतं क्रीडापत्रं, दासः । For Private And Personal Use Only Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir गुलामी [१७७ ] गुलामी, सं. स्त्री. (अ. गुलाम ) दासत्वं ] गुह', सं. पुं. (सं.) कार्तिकेयः २. अश्वः २. सेवा ३. परतन्त्रता। ३. गुहा ४. रामसुहृद् (पुं.) ५. हृदयम् । गुलाल, सं. पुं. गुलाली, वि. ( फ़ा. गुल्लालः) दे. 'अवीर'। गुह, सं. पुं. (सं. गूथं ) दे. 'गृह'। गुहाँजनी, सं. स्त्री. ( सं. गुह्य + अञ्जनं> ) गुलिस्ताँ, सं. पुं. (फ़ा.) उद्यानं, उपवनम् । पक्ष्म,पिटिका-चंचिका। गुलूबंद, सं. पु. (फा.) गलबन्धः २. ग्रैवेयं-यकम्। गुहा, सं. स्त्री. ( सं.) दे. 'गुफा'। गुले(ल)ल, सं. स्त्री. ( फ़ा. गिलूल ) वटिका गुहार, सं. स्त्री., दे. 'गोहार' । क्षेपणी, गुलिकासः । गुहिन, सं. पुं. (सं. न.) वनं, काननम् , गुलेला, सं. पुं. ( फ़ा. गुलूला ) गुलिका, बटिका अरण्यम्। २. दे. 'गुलेल'। गुह्य, वि. ( सं. ) गुप्त, अन्तर्हित २. गोपनीय, गुल्फ, सं. पुं. (सं.) घुटिकः, धुंटः, धुंटकः, । का, घुटा, घुटका, । संवरणीय ३. दुर्बोध, गूढ । चरणग्रंथिः ( पुं.)। सं. पुं., छलं २. कूर्मः ३. गुह्यांगं ४. विष्णुः गुल्म, सं. पुं. ( सं. ) उदररोगभेदः २. सेनाविभागमेदः ( = ९ हाथी, ९ रथ, २७ घोड़े, गुह्यक, सं. . (सं.) यक्षभेदः । ४५ पैदल ) ३. प्लीहा ४. नाडी-धमनी-शोथः, -पति, सं. पुं. (सं.) कुबेरः ।। ४. स्तम्बः, क्षुपः, गुल्मः-मम् । Dगा, वि. (फ़ा. गुंग) मूकः, वाग, रहित-हीनः, गुल्मी वि. ( सं-गिन् ) गुल्मरोगपीडित ! अवाच। गुल्ला, सं. पुं. ( सं. गोलः>, दे. 'गुलेला'! गूंगे का गुड़, मु., अवर्ण्यवार्ता । गुल्लाल्ला, सं. पुं. (फ़ा. गुलेलालः) रक्तपुष्ध- गॅज, सं. स्त्री. (सें.गुंजः) दे. 'गुंज' (१) २. प्रति, भेदः, लालाफुल्लम् । नादः-ध्वनिः (पु.)-शब्दः रवः-गर्जनं-श्रुतिः गल्ली, सं. स्त्री. (सं. गुली> ) फल, गर्भ-बाज, (स्त्री. ) ३. अनु-रसितं, नादः। २. गुलीदंडक्रीडायां लघुकाष्ठखण्डः, *गुली, | गूंजना, क्रि. अ. (सं. गुंजनं ) दे. 'गुंजना' वीटा ३. शाणः-णी ४. सारिकापक्षिभेद, २. प्रति, नद्-ध्वन्-स्वन्-रस् (सब स्वा. प. से.) ५. इक्षुखण्डः ६. अक्षः, पाशकः । गुसल, सं. पुं., दे. 'गुस्ल' । ३. अनु, नद्-रस् , प्रतिशब्दं कृ इ. । गुसाई, सं. पुं. दे. 'गोस्वामी'। गूंथना, क्रि. सं. ( सं. ग्रथनं ) वेणीरूपेण ग्रंथ गुस्ताख़, वि. ( फ़ा.) धृष्ट, वियात, अशिष्ट ।। (क. प. से.) वेणी कृ २. संग्रंथ , संभ गुस्ताखी, सं. स्त्री. (फ़ा. ) धाष्टथै, वैयात्यं, (चु. उ. से.), गु(गुं)फ-दृभ (तु. प. से.), अशिष्टता। सूत्र (चु. ) ३. सिव (दि. प. से,), (सूच्या) संश्लिष (प्रे.)। -करना, क्रि, अ., पाष्टर्थ दृश (प्रे.) अशिष्टवत् व्यवह (भ्वा. उ. अ.)। गूंधना, क्रि. स. ( सं. गोधनं क्रीडा करना> ) गुस्ल, सं. पुं. (अ.) स्नानं, अवगाहनम् । ( जलेन मिश्रयित्वा हस्ताभ्यां ) मृद् (क्. प. -करना, क्रि. अ., स्ना ( अ. प. अ.)। से. अथवा प्रे.)-सम्पीड (चु.) २-३. दे. -खाना, सं. पुं. (अ.+फा.) स्नानागारं, गूथना' ( १, २.)। अवगाहनस्थानम् । गूग(गु)ल, सं. पुं., दे. 'गुग्गुल' । गुस्सा , सं. पुं. (अ.) कोपः, रोपः, दे. 'क्रोध'। गूजर, सं. पुं. (सं. गुर्जरः) गोपः, गोपाल:, -आना, करना चढ़ना या होना, क्रि. अ., आभीरः २. जातिविशेषः। रुष-कुप (दि. ५. से.), ऋध ( दि. प. अ.)। गूजरी, सं. स्त्री. (सं. गुर्जरी) गोपी, गोपपली -उतरना, मु., कोपः शन् (दि. ५. से., २. चरणाभरणभेदः ३. रागिणीविशेषः । शाम्यति)। गूढ़, दि. (सं.) दुर्बोध, कठिन २. गुप्त, प्रच्छन्न गुस्सीला, गुस्सैल, वि. ( अ. गुरसा ) कोपन, ३. गम्भीर, सारगर्भित । क्रोधन, रोषण, अमर्षण । -पुरुष, सं. पुं. (सं.) दे. 'गुप्तचर' १२ आ० For Private And Personal Use Only Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir गूढ़ता [ १७८ ] गेहुंआ गूढ़ता, सं. स्त्री. (सं.) दुर्बोधता, गम्भीरता, | गृहस्थ, सं. पुं. (सं.) गृहमेधिन् , ज्येष्ठाप्रच्छन्नता । श्रमिन् , दे. 'गृह्पति'। गूढांग, सं. पु. ( सं.) कच्छपः, कमठः, कूर्मः। -आश्रम, सं. पुं. (सं.) वैवाहिकजीवनं गूढांघ्रि, सं. पुं. (सं.) अहिः, सर्पः, उरगः, २. द्वितीयाश्रमः। पन्नगः। | गृहस्थी , सं. स्त्री. ( सं. गृहस्थ - ) गृहस्थ, गूथ, सं. पुं. (सं. पुं. न.) दे. 'गूह। आश्रमः-कर्तव्यानि (न. बहु.) २. गृहव्यवस्था गूथना, क्रि. स., दे. 'गूंथना'। ३. कुटुम्ब, परिवारः ४. गृह, उपरकारः सामग्री गूदड़, सं. पुं. (हिं. गूंथना ) कर्पटः, जीर्ण- ५. गृहकार्यकुशलता। वसनं २. अवस्करः, मलं ३. तूला, तूलिका। गृहिणी, सं. स्त्री. (सं.) शालिनी, दे. 'गृहगूदड़ी, सं. स्त्री. ( हिं. गूदड़) (भिक्षुकरय ) पत्नी'। तूला २. पोट्टली-लिका। गृही, सं. पुं. ( सं. गृहिन् ) गृहस्थः, दे, गूदा, सं. पुं. (सं. गोईः ) मस्तिष्क, गोद, 'गृहपति'। मस्तकस्नेहः २. फल, सारः-मज्जा-वसा ३. बीज, गंडली, सं. स्त्री. (सं. कुंडली >) मंडलं, आवेष्टनं, सार:-गर्भः ४. सारभागः । व्यावर्तनम् । गूधना, क्रि. स. दे. 'गूंधना' । ~मारना, बि. स., मंडली-पुटी-वर्तुली, कृ, गून, सं. स्त्री. ( सं. गुणः ) नौकर्षणरज्जः । व्यावृत् (प्रे.)। (स्त्री.)। गेंडरी, सं. स्त्री., दे. 'एंडुरो' । गूमड़ा, सं. पुं. (सं. गुल्मः मं> ) वि.,स्फोटः, गंद. सं. पुं. (सं. गंदुकः) कंदुकाः, गेण्टु (१) कः, पिटकः २. शोथः, शोफः । गोलकः, गोल: ला-लं २. मंडलं, वर्तुलं, गोल:गूमड़ी सं. स्त्री. (हिं. गूमड़ा ) पिटिका, क्षुद्र- लम् । व्रणः, रक्तक्टी। -बल्ला, सं. पुं., गेंदुकपट्ट, पान्दकम् , गूलर, सं. पुं., उदुम्बरः, यज्ञांगः, जंतुफलः, आग्डलीयक्रीडाभेदः । हेमदुग्धकः, पुष्पशून्यः । गेंदुआ, सं. पु. ( सं. गेंडुकः > ) ( गोल-) -का कीड़ा, मु. कूपमंडूकः अनुभवहीनः । । उपबहः-उपधानम् । का फूल, मु., दुर्लभवस्तु ( न.)। गेंदा, सं. पुं. (सं. गेंटुकः) वृहत् , कंदुकः गोलकः गृह, सं. पुं. (सं. गूथ:-शं ) पुरीष, मलं, उच्चारः, २. पुष्पभेदः। विष्ठा, अप(व)स्करः, विष (स्त्री.)। गेरना, कि. स., दे. 'गिराना' तथा 'उडेलना'। गृध्र. सं. पुं. ( सं.) दे. 'गिद्ध' ।। गेरू, सं. स्त्री. ( सं. गवेरुक) गरिकी, रक गिरि, गृह, सं. पुं. (सं. न.) गृहाः (पुं. बहु.), गेह-, धातुः ( पुं.), रक्तीपलं, गिरिज, गिरि लोहित, हः, वेश्मन्-सद्मन् (न.), निकेतः-तनं, सदनं, मृत्तिका, बनालक्तम् । भवनं, अ(आ)गारं, मंदिरं, निलयः, आलयः, । गेरुआ, वि. (हिं. गेरू) गवेरुवारंजित शाला, सं-आ-नि-अधि-,वासः, आवसथः, २. गिरिजवण। उदवसितं, निकाय्यः २. *परिवारः, कुटुम्ब, गेह, से- . ( सं. पुं. न.) दे. 'गृह' । गृहाः। गेहुँअन, सं. पुं. (हिं. गेहू) गोधनका, ---पति, सं. पुं. (सं.) गृहिन , गेहिन् , कुटुन्छिन् , फणिभेदः। २. कुस्कुरः ३. अग्निः। गेहूँ, सं. पुं. (सं. गोधूमः ) सुमनस (पुं.), -पत्नी, सं. स्त्री. (सं.) शालिनी, गृहिणी, बहुदुग्धः, यवनः, म्लेच्छभोजनः, सितशिगेहिनी, कुटुम्बिनी। बिकः, निस्तुषः, क्षीरिन् , अपूपः, रसाल: ---युद्ध, सं. पु. ( सं. न. ) जनप्रकोपः, प्रकृति- २. नागरंगः । क्षोभः, २. कौटुम्बिककलहः । गेहुंआ, वि. ( हिं. गेहूं ) गोधूम, वर्ण-रंग, -लक्ष्मी, सं. स्त्री. (सं.) सुगृहिणी, सुशील ! २. गोधूममय, गोधूम-(समास में) २. घासगृहपली । For Private And Personal Use Only Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir गड़ा , गैंड़ा, सं. पुं. ( सं. गंडः ) गंडकः, खड्गिन् वज्रचर्मन् (पुं.), तुंग-कोटी, मुखः, वार्थी - ( श्री सः, खगमृगः । गैंत-ती, सं. स्त्री. ( देश. ) दे. 'कुदाल' | गैज्ञ, सं. पुं. ( अ. ) अति, कोपः- क्रोध, रोषः । रौब, सं. पुं. (अ.) परोक्ष-तिरोहित,-पदार्थः । वि., गुप्त, तिरोहित । [ १७९ ] - कर्ण, सं. पुं. ( सं .) धेनुश्रवणं २. शैव तीर्थविशेषः । ३. अश्वतरः ४. सर्पभेदः ५. किष्कु:वितस्तिः ( पुं. स्त्री. ) (हिं. बित्ता ) ५. मृगभेदः । वि., लंबकर्ण । - वि., परोक्षविद्, सर्वज्ञ । गैबर, सं. पुं. ( सं . गजवरः ) गजोत्तमः, गजेन्द्रः, कुल, सं. पुं. ( सं. न. ) गोसमुदायः २. गोष् करीन्द्रः । ३. ग्रामविशेषः । - ग्रास, सं. पुं. ( सं . ) गो, कवल: - ( -लं )पिंडः । बी, वि. ( अ. गैब) गुप्त, प्रच्छन्न, अज्ञात । गैया, सं. स्त्री. दे. 'गाय' । ग़ैर, वि. ( अ ) अन्य, इतर, पर, अपर २. भिन्न व्यतिरिक्त । सं. पुं. आगंतुकः, अभ्यागतः । - आबाद, वि, निर्जन, वसतिशून्य । - मनक़ला, वि., स्थिर, स्थावर, अचर-ल | -- मामूली, वि., विशिष्ट, आसावारण, विशेष । - सुनासिव - वाजिय, वि, अनुचित, अयोग्य - सुमकिन, वि., असंभव, अशक्य । - शख़्ल, सं. पुं., परः, अनात्मीयः । - हाज़िर, वि., अनुपस्थित, अविद्यमान । - हाज़िरी, वि., अनुपस्थिति:. (स्त्री.) अविद्य मानता । गैरत, सं. स्त्री. ( अ. ) लज्जा, त्रपा | गैरिक, सं. पुं. (सं. न. ) दे. 'गेरू' । ग़ैरीयत, सं. स्त्री. ( अ ) अन्यता, परता, इतरता, अपरता । गैल, सं. स्त्री. दे. 'गली' । गैलन, सं. पुं. (अ.) *गैलनम्, द्रवद्रव्यपरिमाण गो 1 ११. जिह्वा । सं. पुं. (सं.) वृषभः २. नंदीगणः ३. घोटकाः ४. सूर्यः ५. चंद्रः ६. बाणः ७. गायकः ८. आकाशः - ९. स्वर्गः १०. जलं ११. लोमन् ( न. ) १२. शब्द १३. नवांकः । भेदः, अर्द्ध प्रस्थः । गैस, सं. स्त्री. ( अं. ) वाति: (स्त्री.), वाध्यः । गोंड़ा, सं. पुं. ( सं. गोष्ठं ) व्रजः, अवरोधः, शाला २. ग्रामः ३. विस्तीर्ण मार्गः ४. अजिरम् । गोंद, सं.पुं. ( सं. कुंद:, अथवा हिं. गूदा ) निर्यासः । - दानी, सं. स्त्री. निर्यासधानी । गोदीला, वि. (हिं. गोंद ) निर्यास, मयतुल्य, सांद्र, स्यान । गो', सं. स्त्री. (सं.) दे. 'गाय' २. किरणः ३. इंद्रियं ४. वाच् (स्त्री.) ५. सरस्वती ६. नेत्रं ७. विद्युत् ( स्त्री. ) ८. पृथ्वी ९. दिशा १०. जननी - घात, सं. पुं. (सं.) गो हत्या - वधः- मारणम् । - घातक, सं. पुं. ( सं . ) गोधातिन्, गोव्नः । - चर, वि. (सं.) इन्द्रियग्राह्य, इन्द्रियगम्य | सं. पुं., रूपादिविषयाः २. शाद्वलं तृणावृत भूमिः (स्त्री.) ३. प्रांतः, देशः । -चरी, सं. स्त्री. ( सं गोचर ) भिक्षावृत्तिः (स्त्री.) । -ऽतीत, वि., अगोचर, अतींद्रिय, इन्द्रियातीत, इंद्रियगोचर । - दान, सं. पुं. ( सं. न. ) धेनु-गो, विसर्जनं त्यागः । - धू (ली) लि, सं. स्त्री. (सं.) संध्या. सायंकालः- समयः - वेला । - धेनु, सं. स्त्री. (सं.) दुग्धवती गौः (स्त्री.) । - पाल, सं. पुं. ( सं . ) गोपः, गोपालकः । २. श्रीकृष्णः । - मय, सं. पुं. (सं. न. ) गो, - मलं - पुरीषं विष्ठा । -मुख, सं. पुं. (सं. न. ) धेनुवदनं २ शंखभेदः । ३. दे. 'नरसिंहा' ४. गोमुखी, जपमालाकोषः । ५. चौरकृतं कुब्धरंव्रन् । मूत्र सं. पुं. (सं. न. ) गो, जलं प्रस्राव :- द्रवःनिष्यंदः । - मेद - मेदक, सं. पुं. (सं.) राहुरलं, पुष्परागः, पीताश्मन् (पुं.) । - मेघ, सं. पुं. ( सं . ) यज्ञभेदः । - रस, सं. पुं. (सं.) दुग्धं २. दधि (न.) ३. तक्रं ४. इन्द्रियसुखम् । रोचन, सं. पुं. ( सं . चना ) शुभा, शोभा, शोभना, रोचनी, शिवा, मंगला, पीता, रोचना | For Private And Personal Use Only Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [ १८० ] गोफन-ना -लोक, सं. पुं.(सं.) श्रीकृष्णस्य नित्यधामन् | -देना, क्रि. स., व. 'गोता मारना' के प्रे. (न.)। रूप । -वर्द्धन, सं. पुं. (सं.) व्रजभूमौ पर्वतविशेषः। -मारना, कि. अ. वि-अव-गाह, (भ्वा. आ. -वर्द्धनधर, सं. पुं. (सं.) गोवर्धनधारिन् वे.) निमज्ज ( तु. प. अ.)। श्रीकृष्णः । -खोर, सं. पुं. (अ.+फ़ा.) अवगाहकः, -विंद, सं. पुं. (सं.) श्रीकृष्णः। निमंक्तृ ( पुं.)। मामी गो गोगा जो गोत्र, सं. पुं. (सं. न.) कुलं, वंशः, अन्वयः -साई, सं. पुं., दे. 'गोस्वामी'। २. समूहः ३. संपत्तिः (स्त्री.) ४. बन्धुः ५. जातिविभागः। --स्वामी, सं. पुं. (सं.-मिन्) गोपतिः २. प्रभुः। -हत्या, सं. स्त्री. (सं.) दे. 'गोघात'। -भिद्, सं. पुं. ( सं.) इन्द्रः, देवराजः । गोदंत, सं. पुं. ( सं. न. ) हरितालम् । गो, गो कि, अव्य. ( फ़ा ) अपि, यद्यपि । गोका, सं. स्त्री. ( सं. ) लघु, गौः-धेनुः | गोद, सं. स्त्री. ( सं. कोडं ) अंकः, उत्संगः । ( दोनों स्त्री. ) २. वनधेनुः (स्त्री.), भिल्गवी। -लेना, मु., पुत्रीकृ, (पुत्रत्वेन ) परिग्रह. गोखरू, सं. पुं. (सं. गोक्षुरः) त्रिकंट:-टकः, । (क. प. से.)। गोकंटः-टंकः (क्षुपविशेषः ) २. तस्य कंटकः-कं | गोदना, क्रि. स. (हिं. खोदना) सूच्या त्वचं ३. कटक-वलय,-प्रकारः। रंज (प्रे.), त्वचमनुविध्य पत्ररेखां निविश् (प्रे.) गोचना, गोचनी, सं. पुं. सं. स्त्री. (हिं. गोहूँ+ | २. गोबीजं निविश् (प्रे.) ३. सूच्यग्रेण व्यध् चना ) गोधूमचणः-णम् , *गोचणः-गणी ।। । (दि. प. अ.) ४. असकृत् प्रणुद्-प्रवृत् (प्रे.)। सं. पुं., त्वचि सूचीखातम् कृष्णचिह्नम् । गोज़, सं. पुं. (फ़ा. ) अपानवायुः, पर्दः। गोजर, सं. पुं. दे. 'कनखजूरा' । गोदनी, सं. स्त्री. (हिं. गोदन ) वेधनी, गोजरा, सं. पुं. (हिं. गेहूँ + जव) गोधूमयवाः । सूचिः -ची (स्त्री.)। गोझा, सं. पुं. ( सं. गुह्यकः ) १. पक्वान्नभेदः । | गोदाम, सं. पुं. ( अं. गोडाउन ) पण्य-अगारं२. वंश-काष्ठ, कील: ३. दे. 'जेब'४.घासभेदः। आधानं, भाण्डागारम् । गोट', सं. स्त्री. ( गोष्ठ > ?) वस्तयः-दशाः गोदी, सं. स्त्री., दे. 'गोद'। | गोदावरी, सं-स्त्री. ( सं.) गोदा, गौतमी। (स्त्री. बहु.), वसनप्रान्तः। गोधा, सं. स्त्री. (सं.) तला, तलं, ज्याघातवारणा गोट, सं. स्त्री. (सं. गुटिका) शारः, शारिः २. गोधिका, निहाका। (पुं.), खेलनी। गोधुम, गोधूम, सं. पुं. (सं.) दे. 'गेहूं' गोटा, सं. पुं. (हिं. गोट ) सुवर्ण-रजत, जाला- २. नागरंगः ।। भरणं-वस्त्राभरणन् । गोन, सं. स्त्री., दे. 'गोणी' । गोटी, सं. स्त्री. ( गुटिका ) पाषाणखंड:- गोनिया, सं. पुं., दे. 'गुनिया' । डं, शर्करा २. दे. 'गोट' ३. मसूरी रिका, गोप, सं. पुं. (सं.) आभीरः, गोपालः, २. नृपः शीतलारोगः। ३. उपकारकः । गोठ, सं. स्त्री. ( सं. गोर्ड) गोशाला २. पर्यटनं, गोपन, सं. पुं. ( सं. न. ) गृहनं, गोहनं, प्रच्छाभ्रमणं ३. श्राद्धभेदः। दनं, संवरणम्। गोड़ना, क्रि. स. दे. 'खोदना'। | गोपनीय, वि. ( स. ) गुह्य, संवरणीय, रहस्य, गाड़ा, सं. पुं. दे. 'घुटना । गोप्य। गोणी, सं. स्त्री. (सं.) शाण, कोषः-पुटः, स्यू- गोपिका, सं. स्त्री. ( सं.) दे. गोपी । (रयो )तः, प्रसेवः २. द्रोणीपरिमाणम् । गोपी, सं. स्त्री. (सं.) गोपिका, गोपपली, गोत, सं. पुं. ( सं. गोत्रं ) दे. 'गोत्र' २. गणः, आभीरी, गोपालिका। समूहः । गोफन-ना, सं. पुं. (सं. गोफणा ) सृगः, गोता, सं. पुं. ( अ. ) निमज्जनं, अवगाहः । भिंदि(द)पालः । . For Private And Personal Use Only Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir गोबर [ १८१] गोक्षुर गोबर, सं. पुं. ( सं. गोमयं ) दे. 'गोमय'। -माल करना, मु., छलेन आत्मसात् कृ -गणे(ने)श, वि., कुदर्शन, कुरूप । सं. पुं., । २. व्यवस्थां नश् (प्रे.)। मूर्खः, जडः। गोल', सं. पुं. (अ.) गणः, समुदायः। गोबरी, सं. स्त्री. (हिं. गोबर ) गोमयलेपः। गोलक, सं. पुं. (सं.) पिटक-संपुट-मंजूषा,-करना, क्रि. स., गोमयेन लिप (तु. प. अ.)। प्रकारः-भेदः २. निष्कर्षणी (हिं. दराज) गोबरला,। सं. पु. ( हिं. गोबर ) दे. ३. पत्यों मृते जारजपुत्रः ४. कंदुकः५. महन्मगोवरौंदा,' 'गुबरैला'। त्पात्र ६. कनीनिका ७. नेत्रगोल: ८. निधिः, गोभी, सं. स्त्री. ( सं. गोभी - घासविशेष > )| राशिः ९. टंकपेटिका। गोभी। गोला, सं. पुं. ( सं. गोलः ) गोला-लं, वर्तुल:-लं गांठ--, ग्रंथिगोभी। २. चक्र, मंडलं, वृत्तं ३. अग्न्यरूं, गोल:, बंबः-६ ४. नारिकेलः-रः ५. वायुगोलः, उदरपात-- मुकुल-पत्र, गोभी। वंद-, । " रोगभेदः ६. धान्य, हट्टः-विपणी ७. पशुवृंदं फूल-, मध्यपुष्पा, बृहदला, फुलगोभी। ८. सेतुबंधः ९. धान्यकुंभः। गोया, क्रि, वि. (फ़ा.) इव, यथा, मन्ये -मारना, क्रि. स. गौलै:-बंः ध्वंस (प्रे.)(दि. आ. अ.)। चूर्ण (चु.)। गोरखधंधा, सं. पुं. (हिं. गोरख+धा) गोलाई, सं. स्त्री. (सं.गोल >) वृत्तता, वर्तुलता, गहन-जटिल, कार्य २. कूट, प्रहेलिका ३. गोलत्वं, मंडलत्वम् । 'अशक्यनिर्गमः प्रदेशः। गोलाकार, वि. (सं.) दे. 'गोल। गोरखा, सं. पुं. ( सं. गोरक्षकः ) नयपालदेशे गोलार्द्ध, सं. पुं. ( सं. न. ) अर्द्धगोलः। प्रांतविशेषः २. तत्प्रान्तवासिन् । गोली, सं. स्त्री. (हिं. गोला) लघुगोलः, गोरखाली, सं. स्त्री. (सं. हिं. गोरखा) गोलकः २. सीसकगुलिका ३. गुटिका, वटिका, नयपालदेशस्य जातिविशेषः, *गोरक्षाली २. गुलिका ४. काच-मर्मरोपल, गुलिका। गोरक्षालीजातेर्भाषा, *गोरक्षाली। -मारना, क्रि. स., गुलिकाक्षेपेण हन् ( अ. गोरा, वि. ( सं. गौर ) शुक्ल, श्वेत, सित, प. अ. )-क्षण ( त. उ. से.)। विशुद्ध । सं. पुं., गौरः, शुकः, श्वेतः, सितः, गोल्ड, सं. पु. ( अं.) सुवर्ण, स्वर्ण, कनकम् । २. युरोपादिवासिन् , गौरः। गोल्डन, वि. ( अं.) दे. 'सुनहला'। गोराई, सं. स्त्री. ( हिं. गोरा ) गौरता, शुक्लता, | गोविंद, सं. पुं. (सं.) श्रीकृष्णः । श्वेतता, सितता। गोशा, सं. पुं. ( फ़ा.) कोणः २. दिशा ३.रहःगोरिल्ला, सं. पुं. (अफ्रो.) वानरभेदः, | स्थानं, विविक्तम् ।। बनमानुषप्रकारः। गोश्त, सं. पुं. (फा.) मांसं, आमिषम् । गोरी, सं. सी. ( सं. गौरी ) गौरा, शुक्ला, श्वेता, -खोर, सं. पुं., मांस-आमिष, भक्षिन् आदःसुरूपिणी, सुन्दरी। भक्षकः। गोलंदाज, सं. पुं. (फ़ा.) शतघ्नीचालकः, गोष्ठ, सं. पु. ( सं. पुं. न.) गो,-स्थानं शालागोलक्षेपकः। गृहं, व्रजः २. दं, समूहः ३. विमर्शः, मंत्रणा । गोल', वि. (सं.) वर्तुल, निस्तल, वृत्त, वृत्त-मंडल-गोष्ठी, सं. स्त्री. (सं.) गोष्ठिः-समितिः (स्त्री.), चक्र-वलय, आकार-आकृति-रूप २. अस्पष्ट, । सभा, समाजः, २. वार्तालापः ३. विमर्शः। संदिग्ध, अनिश्चित । सं. पुं., घटः २. मूर्खः। | गोस्तना-नी, (सं.) द्राक्षा, मृद्वीका। -गप्पा, सं. पुं. (-+ अनु. गप ) *गोलगप्पः। गोह, सं. स्त्री. ( सं. गोधा ) गोधिका, निहाका -मटोल, वि., पीनवामन, खर्वस्थूल । २. (गोह का बच्चा) गौधारः, गौधेरः, गौधेयः। -मिर्च, सं. स्त्री. [सं. गोलमरि(री)चं] गोहरा, सं. पुं. ( सं. गोहल्लं > ) दे. 'उपला'। मरिच, कोलं, कोलकम् । गोहूँ, सं. पुं., दे. 'गेहूँ। -माल, मु., अस्तव्यस्तता, क्रमभंगः । गोचर, सं. पुं. दे. 'गोखरू' । For Private And Personal Use Only Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir गौं [ १८२ ] ग्रीस गौं, सं. स्त्री. (सं. गमः > ) प्रयोजनं, अर्थः । ग्रंथ, सं. पुं. (सं.) पुस्तकं, शास्त्रं २. ग्रंथनं कार्ये २. अवसरः, कार्यकालः, अवकाशः । गौ, सं. स्त्री. दे. 'गाय' तथा 'गो' । गौगा, सं. पुं. ( अ. ) कोलाहलः २. जनश्रुतिः ( स्त्री० ) । गौड़, सं. पुं. (सं.) वंगप्रांतस्य भागविशेषः २. ३. ब्राह्मण-कायस्थ, भेद: ४. गौडवासिन् । गौण, वि. (सं.) अप्रधान, द्वितीय, अवर २. सहायक | ( गौणी स्त्री. ) 1 गौतम, सं. पुं. (सं.) ऋषिविशेषः २ बुद्ध: । गौतमी, सं. स्त्री. ( सं . ) अहल्या २. कृपाचार्य - पत्नी ३. गोदावारी ४. दुर्गा । गौनहार, सं. स्त्री. ( हिं. गौन) नवोढ़ासहगा मिनी | गौनहारी, सं. स्त्री. (हिं. गाना ) गात्री, गायनी, गायिका, गायकी । गौना, सं. पुं. (सं. गमनं > ) द्विरागमनं, वध्वाः पतिगृहे गमनम् । गौर, वि. (सं.) दे. 'गोरा' (वि.) । सं. पुं. १. २. रक्त-पीत, रंगः ३. चंद्रः ४ सुवर्ण ५. कुंकुमभू । ३ धनम् । — चुंबन, सं. पुं. ( सं . न . ) क्षिप्र त्वरित, पठनं - अध्ययनं, शीघ्रपाठः । ग्यारहवां, वि., एकादश: ( पुं.), एकादशं (न.) (- वीं (स्त्री.) = एकादशी ) । - संधि, सं. स्त्री. (सं. पुं.) अध्यायः, परिच्छेदः । - साहब, सं. पुं., शिष्यगतधर्मग्रंथः । - कार, सं. पुं. (सं.) पुस्तक ग्रंथ, लेखक :संपादकः कर्तृमणे | ग्रंथन, सं. पुं. ( सं. न. ) ग्रथनं, गुंफनं, २. प्रणयनं, निबंधनम् । ग्रंथि, सं. स्त्री. ( सं . पुं.) दे. 'गाँठ' । ग्रंथित, वि. (सं.) मथित, गु( भुं )फित -बंधन, सं. पुं. (सं. न. ) दे. 'गाँठ जोड़ना ' २. ग्रंथिमत् ग्रंथिल | 7 ग्रसन, सं. पुं. (सं. न. ) भक्षणं, निगलनं, २. ग्रहणं, धरणं ३. सूर्यादेः ग्रहणं, उपरागः । असना, क्रि. स. ( सं . ग्रसनं ) ( इस्तेन ) व ( भ्वा. उ. अ., चु. ) ग्रस्-अवलंबू ( भ्वा. आ. से. ) ग्रह ( क्र. प. से. ) । ग्रसित, ) वि. ( सं . ग्रस्त ) धृत, गृहीत, उपात्त ग्रस्त, २. पीडित ३. भक्षित, निगीर्ण । ग्रह, सं. पुं. (सं.) नक्षत्रभेदः । ग्रहण, सं. पुं. (सं. न. ) उपरागः, ग्रहः, मासः, ग्रहपीडनं २. आदानं, अंगीकरणम् । ग्राफ, सं. पुं. ( अं. ) बिन्दुरेखाचित्रम् | ग्राम, सं. पुं. (सं.) दे. 'गांव' | ग्रामीण, सं. पुं. ( सं . ) ग्रामिकः, ग्रामिन्, ग्रामवासिन् । ग्रामोफोन, सं. पुं. ( अं. ) *ध्वनिलेखनवाद्यम् । ग्राम्य, वि. (सं.) ग्रामीण, ग्रामिक, ग्रामीय २. असभ्य, अशिष्ट | ग्रास, सं. पुं. ( सं . ) कवलः, पिंड: । ग्राह, सं. पुं. ( सं . ) अवहारः, जलहस्तिन् । ग्राहक, सं. पुं. ( सं . ) क्रेट (पुं.), क्रथिन्, क्रयिकः । गौर, सं. पुं. ( अ. ) विचारः, चितनं, ध्यानम् । --करना, क्रि. स., विचार ( प्रे.), चिंत् (चु.) गौरव, सं. पुं. (सं. न. ) महत्वं, महिमन् (पुं.) २. गुरुता, भारवलं . आदर, सम्मान: ४. अभ्युत्थानम् । गौरवान्वित, वि. ( सं . ) गौरवित, सगौरव, सम्मानित, आवृत । गौरांग, सं. पुं. (सं.) विष्णुः २. कृष्णः ३. चैतन्यदेवः । वि. सित, श्वेत, शुक्कु २. यूरोपीय । -- महाप्रभु, सं. पुं. ( सं . ) चैतन्यदेवः । गौरी, सं. स्त्री. (सं. ) पार्वती, गौरा, गिरिजा २. ३. शुक्ला ( नारी अथवा गौ ) । — शंकर, सं. पुं. ( सं. ) शिवः २. हिमालयस्य उच्चतमं शिखरम् | गौहर, सं. पुं. ( फा . ) दे. 'मोती' । ग्राह्य, वि. (सं.) उपादेय, स्वीकार्य, २. शेय । ग्रीवा, सं. स्त्री. ( सं . ) दे. 'गर्दन' | ग्यान, सं. पुं., दे. 'ज्ञान' । ग्यारह, वि. (सं. एकादशन् ) । सं. पुं., उक्ता ग्रीष्म, सं. पुं. ( सं . ) ग्रीष्म, समय:- कालः, संख्या तकौ (११) च । निदाघः, उष्णः-णकः, तपः, तापनः, उष्णा, उप गमः- आगमः कालः । ग्रीस सं. पुं. ( अं.) यवनदेशः । For Private And Personal Use Only Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ग्रेटब्रिटेन [ १८३ ] घटाव: ग्रेटविटेन, सं. पु. ( अं.) आंग्लद्वीपसमूहः। । ग्लानिः ( स्त्री.) खेदः। ग्रेविटी, सं. स्त्री. ( अं.) भ्वाकृष्टिः ( स्त्री.)। ग्लूकोज़ सं. पु. ( अं.) द्राक्षौजम् । स्पेसिफिक-, आपेक्षिकमारः। ग्लोब, सं. पु. ( अं.) गोलम् । ग्रेविटेशन, सं. पुं. ( अं.) गुरुत्वाकर्षणम् । ग्वाल ग्वाला, सं. पुं. (सं. गोपालः ) गोपः, ग्रेजुएट, सं. पुं. अं.) स्नातकः। | आभीरः । ग्लाइकोजन, सं. पुं. ( अं.) शर्करराजनम् । ग्वालिन, सं. स्त्री. (हिं. ग्वाला) गोपी, ग्लानि, सं. स्त्री. (सं.) विषादः, अवसादः, I गोपिका, आभीरी। ध, देवनागरीवर्णमालायाश्चतुर्थों व्यंजनवर्णः, । घटती, सं. स्त्री. (हिं. घटना ) न्यूनता, धकारः। अवनतिः ( स्त्री.), क्षीणता २. अनादरः, धंगोलना, घंघोरना, घंघोलना, क्रि. स., : मानहानिः ( स्त्री.)। (हिं. घना + घोलना ) विली (प्रे. विलाप- घटन, सं. पुं ( सं. न.) उपस्थितिः (स्त्री.), यति-ते ), विट्ठ (प्रे.) २. आविली-कलुपी, कृ। उपागमः २. रचनं, निर्माणम् । घंट, सं. पुं. (सं. घटः) कुम्भः। घटना', क्रि. अ. ( सं. घटनं ) घट-वृत् (भ्वा. घंट, घंटा, सं. पुं. (सं. घण्टा) कांस्यनिर्मित- आ. से.), उपस्था ( भ्वा. उ. अ.), समापद् वाद्यभेदः २. घंटा, शब्दः-रवः ३. होरा, (दि. आ. अ.), उपनम् (भ्वा. प. अ.) नाडिका, अहोरास्त्रस्य चतुर्विशातेतमो भागः २. युज (कर्म.), उपपद् (दि. आ. अ.)। ४. महाघटी। सं. स्त्री. (सं.) प्रसंगः, वृत्तं, वृत्तांतः, व्यति-घर, सं. पुं., घंटालयः, घंटागृहम् । करः । ३. दुर्घटना। घंटिका, सं. स्त्री. (सं.) क्षुद्रवंटा २. किंकि(क)णी। घटना. क्रि. अ. (हिं कटना) परिक्षि-अपचि घंटी, सं. स्त्री. ( हिं. घंटा ) धरा, घरिका, (कर्म.),हस (भ्वा. प. से.), न्यूनी-अल्पी,-भू । क्षुद्रघंटा, घंटिका, २.घंटिकाशब्दः ३. किंकिणी घटनावली, सं. स्त्री. (सं.) वृत्तावली, घटनाणीका ४. नूपुरं ५. कृकाग्रं, स्वरयन्त्रम् । समूह । ६. अलिजिह्वा, लम्बिका । घटबढ़, सं. स्त्री. ( हि घटना+बढ़ना) घंटु, सं. पुं. (सं.) तापः, दाहः, २. प्रकाशः, न्यूनताधिकते, अपचयोपचयो, हानिलाभौ (सब आलोकः, ३. गजघंटा। दि.)। वि. न्यूनाधिक, हीनातिरिक्त । घधरा, सं-पु. ( अनु.) वृहचचंडातकः कम् । घघर. , सं. स्त्री. ( हिं. घघरा) चलनी, क्षुद, घटवार-ल, सं. पुं. (हिं. घाटवाला ) तरपण्यचंडातकः-कं, घर्घरी। तार्य, ग्राहिन् २. नाविकः, औडुपिकः, घट्टघचाघच, सं. स्त्री. ( अनु.) घचघच, शब्द: जीविन् । ध्वनिः ( पुं.)। वि., स्थूल, पीन।। घटा, सं. स्त्री. ( सं.> ) कादंबिनी, मेघमाला, घट', सं. पुं. (सं.) कुंभः, कलश:-शं (-सः-सी), घटपटली २. समूहः, वृंदम् । पुटग्रीवः, घटी, कलशी, कुट:ट, नपः घटाटोप, सं-पु. ( सं. > ) दे. 'घटा' (१) २. शरीरं ३. हृदयम् । २. शिविकाच्छादनं ३. शकटावरणम् । घट', सं. स्त्री. (हिं. घटना) न्यूनता, अल्पता। घटाना, क्रि. स., (हिं. घटना ) न्यूनी-अल्पी,-बढ़, सं. स्त्री., न्यूनताधिकता । कृ, ऊन् (चु.), हस् (प्रे.), लघूक, अपचि घटक, सं. पुं. (सं.) मध्यस्थः, माध्यमिकः, (स्वा. उ. अ.) २. दियुज-विवृज-व्यवकल मध्यवर्तिन् २. कुलाचार्यः २. योजकः ४. घटः । | (चु.) ३. गर्व हृ-(भ्वा. प. अ.), अपकृष् ५. परविवाहसाधकः। (भ्वा. प. अ.)। घटका, सं. पुं. ( अनु.) मरणोन्मुखस्य कृच्छ, घटाव, सं. पुं. (हिं. घटना)न्यूनता, अल्पता, श्वासः-श्वसितं-श्वासप्रश्वासम् । हीनता ३. अवनतिः ( स्त्री.), अपचयः । For Private And Personal Use Only Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir घटवाना [ १८४ ] घटवाना, क्रि. प्रे. (हिं. घटना ) ब. 'घटना' घोर घटा, सं. स्त्री. (सं.) अविरलजलदावली, के प्रे. रूप । नीरन्धकादम्बिनी । घटिका, सं. स्त्री. ( सं . ) क्षुद्र - लघु, कुंभ: घटः । २. कालमानयंत्रं, यामनाली, घटी ३. चतुर्विं शतिकलात्मकः कालः, मुहूर्तार्द्धम् । घटित, वि. ( सं . ) निर्मित, रचित, संपादित । घटिया, वि. (हिं. घटना ) अवर, अधर नि अप, कृष्ट, जघन्य २. सुलभ, अल्पमूल्य । घटी, सं. स्त्री. (सं.) दे. 'घटिका' १-३ | घढ़त, सं. स्त्री. दे. 'गठन' । घड़ना, क्रि. स., दे. 'गढ़ना ' घड़ा, सं. पुं. ( सं- घटः ) दे. 'घट' (१) । घड़ाई, सं. स्त्री. दे. 'गढ़ाई' | घड़ाना, क्रि. प्रे. दे. 'गढ़ाना' | घड़िया, (सं. घटिका ) तैजसावर्तनी, मू( मु ) षाषी २. मधुकोशः, करंडः ३. गर्भा शयः ४. मृच्छ्रावकः । घड़ियाल, सं. पुं., दे. 'घंटा' (१) । घड़ियाल, सं. पुं., दे. 'ग्राह' | घड़ी, सं. स्त्री. (सं. घटी ) घटिकायामनाली, कालमानयन्त्रं २. दे. 'घटिका' ( ३ ) ३. दे. 'घटिका' ( १ ) ४. समयः । -घड़ी, क्रि. वि. मुहुर्मुहुः, पुनः पुनः, असकृत् ( सब अव्य. ) । - दिआ, सं. पुं. (हिं. घड़ी + दिआ ) *घटी - दीपः, मृतक - रीतिविशेषः । -भर, क्रि.वि., मुहूर्ते, क्षणं, क्षण-मुहूर्त, मात्रम् । -साज़, सं. पुं. (हिं. + फ़1. ) घटी - घटिका, कारः । घतिया, सं. पुं. ( सं. घातः > ) दे. 'घाती' | घन, सं. पुं. (सं.) मेघः, जलदः, पयोदः २. लोहमुदुरः, अयोधनः, ३. दे. 'घंटा' (१) ४. सजातीयांकत्रयस्य पूरणं ( गणित, उ. २ × २ x २ = ८ घन ) ५. समूह : ६. शरीरम् । वि. सान्द्र, निविड २. कठिन, संहत, स्थूल, ३. अधिक, प्रचुर । | - गरज, सं. स्त्री. ( + हिं) गर्जितं, स्तनितं २. शतघ्नी तोप, भेदः । - घोर, वि. ( सं . ) अति, सान्द्र-निविड २. भीषण, भयावह। सं. पुं. भीषण, रवः-ध्वनिः २. स्तनितं, गर्जितम् । घमंड - चक्कर, सं. पुं. ( सं घनचक्रं > ) चंचलअस्थिर, मतिः- बुद्धिः २. मूर्खः ३. परिभ्रमिन्, यथेच्छविहारिन् ४. कृच्छ्रे, संकटम् । -- नाद, सं. पुं. (सं.) दे. 'घनगरज' | - फल, सं. पुं. ( सं. न. ) दे. 'घन' (४) । - मूल, सं. पुं. (सं. न. ) पूरितसजातीयांकत्रयस्याद्याङ्कः, घनपदं ( उ. आठ का घनमूल दो ) । - श्याम, वि. ( सं . ) जलदनील, मैघमैचक । सं. पुं., श्रीकृष्णः । ---सार, सं. पुं. (सं.) कर्पूरं २. पारदः । घनता, सं. स्त्री. (सं.) सांद्रता, निविडता । घनत्व, सं. पुं. (सं. न.) स्थूलता, संहतिः (स्त्री.) २. पदार्थस्य आयामविस्तार स्थूलत्वानि (बहु.) | घना, वि. ( सं घन ) सांद्र, निबिड, संहत, नीरन्ध्र २. गाढ, निकटवर्तिन् ३. अत्यधिक, अतिशय । घनाक्षरी, सं. स्त्री. (सं.) दंडकवृत्तं कवित्ताख्यं छंदः (छंद.) । घनिष्ठ, वि. (सं.) अत्यंत अति, -सांद्रनिविड-वन २. प्रगाढ, अतिनिकटस्थ ३. अन्यधिक, अतिशय । घनेरा, वि. (हिं. बना ) अत्यधिक, अतिशय ( बहु., घनेरे = असंख्य, अनेक ) । घनोदय, सं. पुं. ( सं . ) मेघागमः, वर्षा - कालारम्भः । घनोपल, दे. 'ओला' । घपला, सं. पुं. (अनु.) छलं, कपटं २. (संख्याने) स्खलितं भ्रांतिः (स्त्री.) ३. क्रमभंग : ४. संकुलं, प्रसं, कीर्णकम् । घबरा ( ड़ा ) ना, क्रि. अ. तथा क्रि. स. दे. 'गड़बड़ाना' । घबराहट, सं. स्त्री. (हिं. घबराना ) व्याआ, -कुलता, अशांतिः (स्त्री.), उद्वेगः २. व्यामोहः किंकर्तव्यमूढता, चित्तविक्षेपः ३. त्वरा, तूणि: (स्त्री.), तरसू (न.) संभ्रमः । घमंड, सं. पुं. (सं. गर्वः ? ) अहंकारः, गर्वः, दर्पः, आटोपः, मदः, अवलेपः । करना, क्रि. अ., गर्व ( स्वा. प. से.), प्रगल्भ (भ्वा. आ. से.), दृप् ( दि. प. वे. ) । For Private And Personal Use Only Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir घमंडी [ १८५] घाई घमंडी, वि. (हिं. घमंड ) अवलिप्त, दृप्त, गर्वित, घरणी, नी, सं. स्त्री. (सं. गृहिणी ) गृहपत्नी, अहंमानिन, अहंकारिन,उत्सित्त। भार्या, कलत्रम् । घमघमाना, क्रि. अ. ( अनु.) घमघमायते घरफोरी, सं. स्त्री. ( हिं, घर + फोड़ना) ( ना. धा.), गंभीरं स्वन् ( भ्वा. प. से.)। गृहभेदिनी, वंशविनाशिनी। क्रि. स. (मुष्टिभिः) तङ् ( चु० )। घराट, सं. पुं., दे. 'घरट्ट'। घमाम, सं. सी. (सं. धर्म:>) दे. 'उमस' । घराती, सं. पु. ( हिं. घर ) 'बराती का घमसा, सं. पुं. ७ अनुकरण )( विवाहे ) वधू-कन्या,-पक्षीयःघमसान, सं. पु. ( अनु.) घोर-दारुण-कर, सम्बधिन् । युद्धं संग्रामः-रणः समरः। घराना, सं. पुं. ( हिं. घर ) वंशः, कुलं, घमाका, सं. पुं. ( अनु. धम ) घमिति, शब्दः- अन्वयः। ध्वनिः (पु.), प्रहारजः शब्दः। घरेल, वि. (हिं. घर ) गृह्य, गृह, निमितघमाघम, सं. पुं. ( अनु.) घमघमध्वनिः (पुं.), संबंधिन् २. नेज, आत्मीय २. दे. 'पालतू'। घमघमायितं, धमधमाशब्दः २. लोहमुद्गर धन, घर्घर, (सं. पुं.) गद्गद-धर्घर, शब्दः स्वनः । शब्दः ३. आडंबरः, श्रीः (स्त्री.), शोभा। घर्घराना, नि. अ. ( सं. घर्धरः> ) घर्धररवं घमासान, सं. पुं. दे. 'घमसान'। कृ, गद्गदं नद् (न्वा प. से.), पर्परायते घर, सं. पुं. (सं. गृहं ) दे. 'गृह' २. जन्म. (ना. धा.)। भूमिः (स्त्री.)-स्थानं २. कुलं, वंशः ४. कार्यालयः घर्घराहट, सं. स्त्री. (हिं. घर्घराना) दे. 'धर्धर' । ५. कोष्ठः, आगारं ६. कोषः, आवेष्टनं ७. मूलं, धर्म सं. पुं. ( सं. ) सूर्य, आतपः-आलोकः कारणं ८. गृहपरिच्छदः ९. छिद्रं, विलम् । २. उष्णता, दाहः, तापः ३. ग्रीष्मः ४. प्रस्वेदः। -आबाद करना, मु, वि-उद्-वह (भ्वा.उ.अ.), | वि., तप्त, उष्ण। परिणी ( भ्वा. प. अ.)। घर्राटा, सं. पुं. ( अनु.) घर्घरः, घर्घररवः । -करना, मु., वस् (भ्वा. प. अ.) २. स्थिरीभू । घर्षण, सं. पुं. ( सं. न. ), अभ्यंजनं, संवाहनं -का आदमी, मु., विश्वसनीयमनुष्यः २. संघट्टः, समाघातः। २. संबंधिन् । घसना, कि. अ. तथा कि. स., दे. 'घिसना'। --का न घाट का, मु., निर्गुण, निरर्थक, घसियारा, सं. पु. ( सं. घासः> ) घासकुत्सित, अधम २. अस्थिरवास। हारः-रिन् , घासविक्रेत ( पुं.) २. घास-तृण, --फूक तमाशा देखना, मु. आमोदप्रमोदेषु छेदकः-लावकः । (-रिन (स्त्री.) = घासहारीस्वधनं अपव्यय (चु.)। रिणी इ.) । -फोड़ना, मु., गृहकलह जन् ( प्रे.)। घसीट, सं. स्त्री. (हिं. सीटना ) शीध-द्रुत-बसाना, मु., दे. 'आबाद करना। त्वरित, ले( लिखनं ३. द्रुत-शीघ्र-त्वरित-बारी, मु., गृहस्थः, गृहिन् । लेख लेख्यं २. ( भूमौ ) कर्षणम् । -में डालना, मु., उपपलीत्वेन परिग्रह | घसीटना, क्रि. स. (सं. घृष्ट) आ-वि-कृष (रु. उ. से.)। ( भ्वा. प. अ.) बलात् हृ ( भ्वा. उ. अ.) -में पड़ना, मु., उपपत्नी भू । २. शीघ्र-सत्वरं, लिख ( तु. प. से.) ६. बलात् -वाला, मु., पतिः २. गृहिन् । समाविश् (प्रे.)। -वाली, मु., पत्नी २. गृहिणी। घस्सा, सं. पुं., दे. 'घिस्सा'। -सिर पर उठाना, मु., कोलाहलं कृ। घहर(रा)ना, क्रि. अ. ( अनु. ) दे. 'गरजना' । ऊँचा--, मु., उच्च सु, कुलं, सद्वंशः। | घाई', सं. स्त्री. ( सं. गमस्तिः > ) अंगुलीवड़ा--, मु., समृद्ध-संपन्न-आढ्य, कुलं २. कारा- संधिः, गभस्तिकोणः २. कांडशाखासंधिः । गारम्। | घाई सं. स्त्री. (हिं. घाव ) आघातः, प्रहारः घरट्ट, सं. पुं. (सं.) घरट्टकः २. पेषणी-चक्री।। २. छल, कपटम् । For Private And Personal Use Only Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra घाऊघप www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [ १८६ ] | घाऊघप, वि. (हिं. खाऊ + अनु ) औदरिक, स्मर, गृध्नु २. गूढचित्त, गुप्तभाव । घाग, बाघ, वि. ( एक प्रसिद्ध अनुभवी पुरुष था ) बहुदर्शिन् - अत्यनुभविन् (-नी स्त्री.), बहुदृश्वन् ( वरी स्त्री. ) २ मायाविन कापटिक ( की स्त्री. ) । सं. पुं., जरठः, वृद्धः । घाघरा, सं. पुं., (सं. बर्वर: ) १. सरयू नदी २. दे. 'घघरा' । " घाटी, सं. स्त्री. (हिं. घाट ) संकट संबाध, पथ मार्गः २. दरी, द्रोणी, उपत्यका । घात, सं. पुं. ( सं . ) आ-अभि-निर्, बातः, प्रहारः २. वधः, हत्या ३. अहितं, अमंगलं ४. गुणनफलं ( गणित ) । सं. स्त्री, सुयोगः, सदवसरः, सुवेला २. निभृतावस्थिति: (स्त्री.) ३. छलं कूटोपायः । - में बैठना, मु., ( वधाय लुंठनाय वा ) मार्गे निभृतं प्रतीक्ष (भ्वा. आ. से. ), पथि अवस्कंद् ( वा. प. अ. ) । घातक, सं. पुं. (सं.) वधकारिन्, मारकः, मारयितु-तु (पुं.) २. शत्रुः, अरिः, ३. वधकः, दंडपाशिकः । वि, प्राणहर, अंतकर । घातिनी, सं. स्त्री. (सं.) मंत्री, घातिका, मारयित्री । विधियाना धातुक, वि. (सं.) नाशक, हिंसक, मारक | ( धातुकी स्त्री. ) । घात्य, वि. ( सं . ) हननीय, हन्तव्य, मारणीय, बधाई । घाती', सं. पुं. (सं. घातिन् ) दे. 'वातक' । घाती', वि. (हिं. घात) विश्वासवातिन्, असत्यसंघ २. मायाविन् । घान, सं. पुं. स्त्री. वानी, पणीया मात्रा । घाम, सं. पुं. (सं. धर्मः) सूर्य, आतपः- आलोकः २. सूर्य, ताप:-दाहः । घामह, वि. (हिं. घाम ) मूर्ख, अज्ञ, मूढ, २. अलस, कर्मविमुख ३. धर्म-आतप, पीड़ित ( पशु ) । घायल, वि. (सं. वातः > ) क्षत, प्रणित, विद्ध, भिन्नदेह, आहत, प्रहृत । - करना, क्रि. सं., व्रण ( चु० ), आ-अभिइन् ( अ. प. अ. ), क्षण ( त. उ. से. ), तुद् ( तु. उ. अ. ) । - होना, क्रि. अ., ब. उपर्युक्त धातुओं के कर्म. रूप । घाट, सं. पुं. (सं. घाट: ) घट्टः, घट्टी, तरः, तर-तरण, स्थानं २. तीर्थ, अवतारः ४ पर्वतः ५. दिशा ६. विधि: (पुं.) प्रकार ७. असिधारा । -घाट का पानी पीना, मु. आजीविकार्थं इतस्ततः भ्रम् (भ्त्रा. प. से. ) ६. अनुभवातिशयं प्राप् ( स्वा. प. अ. ) । - मारना, मु., प्रतिषिद्धभांडानि आ, नी- ह ( स्वा. उ. अ. ) । घाटा, सं. पुं. (हिं. घटना ) हानिः क्षतिः (स्त्री.), क्षयः, अपचयः, अत्ययः । -उठाना विकरणम् । या पड़ना, मु., वियुज् विहा- घार, सं. पुं. (सं.) आसेकः प्रोक्षणम्, कणपरिहा (कर्म. ) | - भरना, क्षतिं समा प्रतिसमा, धा (जु.उ. अ.), घाल, सं. पुं. ( सं . घारः > ) *घारः, ग्राहकाय हानिं सं-वि-परि-शुधू ( प्रे. ) । मूल्यं विना दत्तं वस्तु (न.) । घाटिया, सं. पुं. (हिं घाट ) गंगापुत्रः, तीर्थ घालक, सं. पुं. (हिंः घालना ) घातकः, पुरोहितः । मारक; २. नाशकः, ध्वंसकः । ( सं. घनः ) । | स्थालीचक्यादिपु सकृत्क्षे घाव, पुं. (सं. घातः) क्षतं-तिः (स्त्री.), व्रणः, आवातः, प्रहारः, ईर्म, अस् (न.) । करना, क्रि. स., दे. 'घायल करना' । खाना, क्रि. अ., दे. 'घायल होना' । - भरना, क्रि. अ., व्रण, रुह् (भ्वा. प. अ.) । घास, सं. स्त्री. ( सं . पुं. ) य (ज) वस:, यव (वा) - सं, शादः, तृणम् । --पात, सं. पुं. ( सं . घासपत्रं ) तृणपत्रं २. दे. 'कूड़ा-करकट' | --- फूस, सं. पुं., पलाल:-लं २. दे. 'कूड़ा करकट ' । - काटना या खोदना, मु., व्यर्थ क्षुद्र-तुच्छ,कार्य कृ । घिग्घी, सं. स्त्री. (अनु.) हिक्का, हिमा २. गद्गदवाच् (स्त्री.), रखलदवाक्यं, स्वरभंग: । -बंध जाना, क्रि. अ., ( भयशोकादिभिः ) हिक्कू (भ्वा. उ. से.), सगद्गदं वद ( भ्वा. प.से.) 1 घिधियाना, क्रि. अ. (हिं. धिग्वी ) करुणं For Private And Personal Use Only Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir विचपिच प्राथ् (चु. आ. से, ), सवाष्पं निविद् ( प्रे.), दे. 'गिड़गिड़ाना' | [ १८७ ] घिचपिच, सं. स्त्री. ( सं . घृष्टपिष्ट अथवा अनु० ) स्थानसंकीर्णता, अवकाशाल्पत्वम् । वि०, संकुल, वैशद्यशून्य, अस्पष्ट । धिन, सं. स्त्री. ( सं. घृणा दे. ) । घिनाना, किं. अ., दे. 'घृणा करना' । घिनावना, घिनौना, वि. (हिं. धिन) घृणा, गति, गर्हणीय, बीभत्स, अरुचिकर, कुत्सित, उद्वेगकर : ( -री श्री. ) । घिया, सं. पुं.. दे. 'कद्दू' । कश, सं. पुं. दे. 'कद्दूकश' । - तोरी, सं. स्त्री, महाकोशातकी, हस्तिघोषा महाफला, घोषक:, हरितपर्णा । घिरना, क्रि. अ. ( सं. ग्रहणं > ) परि, वृ-क्षिप गम्-वेष्ट्-सृ ( कर्म. ) २. एकत्र मिल् ( तु. प. से. ), संनिपत् (भ्वा. प. से. ) । घिरनी, सं. स्त्री. ( सं . घूर्णि:) १. घूर्णि: (स्त्री :), घूर्णनं, भ्र(आ)मरं २. परिभ्रमणं, परिवर्तः ३. रज्जुव्यावर्तनचकं ४. दे. 'गड़ारी' । घिसघल, सं. स्त्री. (हि. बिसना ) मांद्यं, दीर्घसूत्रता, कार्यजडता, कालक्षेपः । घिसना, क्रि. अ. (सं. धर्षं) जर्जरीभू, जू ( दि. प. से. ), (संघर्षणेन) अपचि - क्षि (कर्म.), संघृष् ( वा. प. से. ), संघ (भ्वा. आ. से. ) । क्रि. सं., (.), मृद् (क्रू. प. से. या प्र.) अभि, अंजू (रु. प. वे ), लिप् (तु. प. अ.) । सं. पुं., घर्षण, मर्दनं, अभ्यंजनम् । घिसवाना, घिसाना, क्रि. प्रे.. ब. 'धिसना' (क्रि. स. ) के प्रे. रूप । घिसाई, सं. स्त्री. (हिं. घिसना ) घर्षणं, मर्दनं २ घर्षण मर्दन, भृत्या भृतिः (स्त्री.)। (हिं. घिसना ) संघर्षः, परघिसाव, सं. पुं. घिसावट, सं.स्त्री.) संघट्टः । स्पर, घर्षणं-मर्दनं, संमर्द, घिस्सा, सं. पुं. (हिं. घिसना ) वर्षः, संघट्टः, संमर्दः २. प्रसारणं, प्रचोदना ३. बालक्रीडाभेदः । घी, सं.पुं. (सं. घृतः तं ) आज्यं, आजं, आगुस्सर्पिस् (न.), पवित्रं, अमृतं अभिघारः, होम्यं, तैजसं, नवनीतकम् । घुटन्ना के चिराग़ या दिये जलना, मु., सफलमनोरथ-पूर्णकाम-कृतकृत्य, (वि.) + भू । - खिचड़ी होना, मु., प्रगाठ घनिष्ठ, मैत्रीअनुरागः भू । पाँचों उँगलियाँ घी में होना, मु., उत्सवः वृत् (स्वा. आ. से. ), सर्वथा समृद्ध ( वि . ) अस् ( अ.प.) । घीकुवार, सं. पुं. (सं. घृतकुमारी) कुमारी, तरुणी, गृह, कन्या कन्यका, अजरा, अमरा । घुँइयों, सं. स्त्री. ( देश. ) दे. 'कचालू' । घुँघ (ग)ची, सं. स्त्री., (सं. गुंजा ) गुञ्जिका, रक्तिका, रक्ता, कृष्णला, काक, चिचिका- जंबातिक्ता । २. गुज-रक्ता, बीजं इ. । घुंघनी, सं. स्त्री. (अनु.) भर्जितार्द्रचणकादि । घुँघरू, सं. पुं. (अनु. धुन ) घधेरा-रिका, घुँघरारे-ले, वि., दे. ‘घूँघरवाले' । क्षुद्र, घंटा घंटिका, क्षुद्रिका, कंकणी, - णीका, किंकिणी २. मंजीर:-रं पुनरं रः । ३. मरणासन्नस्य कंठे धर्धरशब्दः । धुंडी, सं. स्त्री. ( सं. ग्रंथिः पुं.) १. दे. 'गांठ’ । २. वस्त्रमय, गंड: कुडुपः । घुग्धी, सं. स्त्री. (देश). दे. 'पंडुक' २. त्रिकोणरूपेण व्यावर्तितः कंबलः । घुग्घू, घुघुआ, सं. पुं. ( सं. धूकः ) दे. 'उल्लू' । घुघुआना, क्रि. अ. (अनु. ) घूघू-शब्द कृ । उलूकवत्- घूकवत् रु ( अ. प. से. ) कुश (भ्वा. प. अ. ) । घुटकना, क्रि. स. ( अनु. ) अल्पशः पा (भ्वा. प. अ. ) २. दे. 'निगलना' । घुटना', सं. पुं. (सं. धुंट: टखना > ) जानु (न.), ऊरु, पर्वन् (न.) संधिः (पुं.), अष्ठीवत् ( पुं.न. ), चक्रिका | २ घुटना, क्रि. अ. (हिं. घूँटना ) कंठ: - श्वासः रुध (कर्म.) । घुटना, क्रि. अ. (हिं. घोटना ) चूर्ण-पिष् ( कर्म. ) २. सम्यक् पच् ( कर्म. ) ३. श्रणी भू ४. सख्यं जन् ( दि. आ. से. ) ५. स्निग्वालापे व्यापृ ( तु. आ. अ. ) ६. केशाः मूलत: मुंडक्षुर ( कर्म. ) ७. अभ्यस् ( कर्म. ) । घुटा हुआ, मु. धूर्त्त, दक्ष, विचक्षण । घुटना, सं. पुं. (सं. घुट: ) घुटानाहः, पादायामः । For Private And Personal Use Only Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir घुटाई [ १८८] घूसमधूंसा घुटाई, सं. स्त्री. (हिं. घोटना) चूर्णनं, पेषणं, घुलना, कि. अ. ( सं. घूर्णनं > ) वि-प्र., ली मर्दनं २. लक्षणीकरणं ३. चूर्णन-पक्ष्णीकरण, (दि. आ. अ.), द्रवीभू , क्षर गल (भ्वा. प. से.), भृत्या ४. क्षौर, मुंडनं ५. आवर्तनं, अभ्यासः। ! विद्रु ( भ्या. प. अ.) २. पूतीभू , दुर्गधघुट्टी, सं. स्त्री., दे. 'चूंटी'। (वि.) भू , विगल ३. कृश-क्षीणमांस-(वि.) भू, धुद, सं. पुं. ( सं. घोटः ) घोटकः। अंगः परिहा ( कर्म.)। सं. पुं., विलयनं, --चढ़ा, सं. पुं., दे. 'घुड़सवार'। द्रवीभावः, पूतीभवन, क्षयः इ.।। -चढी, सं. स्त्री., अश्वारूढा (नारी) २. अश्वा- घुलने योग्य, वि., विलेय, क्षरण-बिलयन, शील, रोहणं, वैवाहिकरीतिभेदः ३. शतघ्नीभेदः।। विद्राव्य। -दौड़, सं. स्त्री., अश्व-घोटक, चर्या-धावन घुलवाना, क्रि. प्र. ब. 'घुलना' के प्रे. रूप । २. जवाश्व-जवन, धावन, धृतभेदः ३. चर्याभूमिः घुलाना, क्रि. स. प. 'घुलना' के प्र. रूप । घुलाव, सं. पुं. हा (स्त्री.)। घुलावट, सं.स्त्री. ) ६. घुलना स.पु.। -बहल, सं. पुं., घोटक, रथः स्यंदनः। घुषित, घुष्ट, वि. (सं.) प्रकाशित, प्रकटीकृत, -सवार, सं. पुं.. सादिन् , तुरगिन् , हय | आ-उद्-वि, घोषित, प्रख्यापित । तुरग-अश्व,-आरूढः-रथः । घुसड़ना, क्रि. अ., दे. 'वुसना'। -सवारी, सं. स्त्री., अश्वारोहण, कौशलं विद्या । घुसना, क्रि. अ. ( सं. कोसनं या घर्षणं > ?) -साल, सं. स्त्री. (सं. घोटशाला ) मंदुरा, ( वलात् ) आ-प्र-, विश (तु. प. अ.), (अंतः) वाजि-अश्व, शाला। पदं कृ अथवा निधा (जु. उ. अ.), आगम् घुड़कना, क्रि. स. (सं. घुर ) भर्त्स (चु. २. निर , भिद् ( रु. प. अ.), व्यध ( दि. आ. से.), वाचा दंड (चु.), अव-अधि-क्षिप् प. अ.) । सं. पुं., प्रवेशः, आगमनं, (तु. उ. अ.)। निर्भेदनं इ.। घुड़की, सं. स्त्री. (हिं. घुड़कना ) अधिअव,- | क्षेपः, वाग्दण्डः, भर्सनं-ना। घुसेड़ना, .क्रि. स., ब. 'घुसना' के प्रे. रूप । घुणाक्षर, मं. पुं. (सं.) घुणलिपिः (स्त्री.), घट, सं. पुं. (सं. गुंठनं > ) अवगुंठनं-ठिका, घुगवल्मीकादिभिः पत्रकाष्ठादिषु कृता रेखा। मुखावरकः-कम् । घुन, सं. पुं. (सं. घुणः ) काष्ठ, वेधकः-कीट:- -काढ़ना, या मारना, क्रि. स., अवगुंठ (चु.), लेखकः मुखमाच्छद् (चु.)। -लगना, क्रि. अ., घुणैः अद् ( कर्म.)। -वाली, सं. स्त्री., अवगुंठनवती। घुनघुना, सं. पुं. (अनु.) दे. 'झुनझुना' । . चूंघर, सं. पुं. (हिं. घुमरना) अलका, कुरलः, घुन्ना, वि. ( अनु. घुनघुनाना ) तूष्णीक, गूढ- चूर्णकुतंलः। संवृत, भाव (धुन्नी स्त्री.)। -वाले, वि. आकुंचित, जिमी-वकी, भूत, घुप, वि. ( सं. कूपः - ) निबिडः-सूचीभेद्यः | कुंतलाकीर्ण, कुरलिन् ( प्रायः केशों के लिए )। ( अंधकारः)। | घुट, सं. पुं. ( अनु. घुट घुट) गंडूषमात्रं पेयं, घुमड़ना, क्रि. अ. (हिं घूम+सं. अटनं > )| चलुः, च(चु)लुकः ।। मेघा आकाशं आछद् (चु.)। |-लेना या पीना, क्रि. स., आचम् ( भ्वा. घुमरी, सं. स्त्री. ( हिं. घूमना ) भ्र( भ्रा)मरं, प. से.), उपस्पृश (तु, प. अ.), अल्पश:भ्रमिःघूर्णि; (स्त्री.)। इषत् पा ( भ्वा. प. अ.)। घुमाना, क्रि. स. (हिं. घूमना ) व. 'घूमना' | घुटना, क्रि. स., दे. 'चूंट लेना' । के प्रे. रूप। चूंटी, सं. स्त्री. (हिं. छूट ) शिशुभेषजं, घुमाव, सं. पुं. (हिं. (घूमना) परि-भ्रमः, बालौषधम् ।। घूर्णिः ( स्त्री. ), व्या-परि-आ,-वर्तः। घूस, सं. स्त्री., दे. 'घूस'। घुरघुराना, क्रि. अ. ( अनु.) घुरघुरायते घूसमधूसा, सं. पुं. (हिं. चूंसा ) मुष्टीमुष्टि (ना. धा.), घुर (तु. प. से.)। । (अव्य.), मुष्टियुद्धं, बाहूबाहवि ( अव्य.)। For Private And Personal Use Only Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir घूसा [१८९] घोड़ा घूसा, सं. पुं. (हिं. घिस्सा ) मुष्टिः (पुं. स्त्री.), ! घेरने वाला, सं. पुं., परिवेष्टकः, उपरोधकः । मुष्टी, बद्धमुष्टिः २. मुष्टि, पातः-प्रहारः । | घेरा, सं. पुं. (हिं. घेरना ) परिधिः (पु.), -लगाना या मारना, क्रि. स., मुष्टिना प्रह। परि,-वेषः-वेशः-णाहः, मण्डलं २. प्राचीरं, (भ्वा. उ. अ.)-तड (चु.)। प्राकारः, वेष्टनं, वरणः ३. परिवृतस्थानं घूआ, सं. पु. ( देश.) काशशरकाण्डादीनां ४. मण्डलं ५. अव उप, रोधः । पुष्पम् २. कर्दमस्थकीटभेदः ३. खट्वाछिद्रम् ।। -डालना, मु., परिवेष्ट ( प्रे., दे.। घूक, सं. पुं. (सं.) दे. 'उल्लू'। (घूकी स्त्री.) 'घेरना' (२)। घूध, सं. पुं., दे. 'खोद। घेवर, सं. पुं. ( सं. घृतवरः) घृतपूरः, वार्तिकः । घ, सं. पुं. ( सं. धूकः ) दे. 'उल्लू' २. जडः, धैया, सं. स्त्री. ( हिं. घी) स्तननिर्गत दुग्धधारा मंदमतिः। २. प्रत्यग्र-दुग्धनवनीतम् । घूम, सं. स्त्री., दे. 'धुमाव' । घोंघा, सं. पुं. (देश.) शंबु( बू कः, कोषघूमना, क्रि. अ. (सं. घूर्णनं) परि-भ्रम्-अट : कवच,-स्थः, कीटभेदः २. शुक्तिः (स्त्री.)। (भ्वा. प. से.), सं-वि-चर ( भ्वा. प. से.) वि., जड, स्थूलबुद्धि । २. वि-द्या-आ-परि-वृत् (भ्वा. आ. से.), घोटना, क्रि. स., दे. 'घोटना। चक्रवत् भ्रम् , वि-परि-पूर्ण (तु. प. से.) | घोपना, क्रि. स. ( अनु. घुप ) प्र-नि-विश ३. नि-प्रतिनि-प्रत्या-वृत्, पुनर :, या-इ (प्रे.), निर्भिद्-व्यध् (प्रे.)। ( अ. प. अ.)। सं. पुं., परि-भ्रमण-अटनं, घोंसला, सं-पु. ( सं. कुशालयः अथवा हिं. परिवर्तनं, घूर्णनं, प्रतिनिवर्तनं, चक्र, आवर्तः घुसना) कुलायः, नीडः-डं, खगालयः, गतिः (स्त्री.)। पक्षिगृहम् । घूमने वाला, वि., पर्यटन-भ्रमण, शील, चक्रा- घोख(क)ना, क्रि. स. ( सं. घोषण> ) कंठस्थ वर्तिन् , चक्रगतिः, परिवतिन् , परिभ्रमिन् । (वि.) कृ, स्मृतिपथं नी ( भ्वा. उ. अ.), घूमधूमेला, वि. (हिं. घूम घूम ) दे. __ अभ्यस् ( दि. उ. से.)। 'घूमनेवाला'। घोट, घोटक, सं. पुं. (सं.) दे. 'घोड़ा'। घरना, क्रि. स. (सं. घूर्णनं> ) कटाक्षेण-तिर्यक- घोटना, कि. स. (सं. घोटनं > ) क्षुद-पिष साचि, ईक्ष (भ्वा. आ. से.) दृश् (भ्वा. प. अ.) (रु. प. अ.), चूर्ण -खण्ड (चु.), मृदू (क. २. सको पं-निर्मिभेषं अवलोक (भ्वा. आ. प. से.) २. मुंड (चु.), क्षुर् ( तु. प. से.) से.; चु.)। ३. घर्षणेन लक्षणीकृ ४. गलहस्तयति (ना. धूराघारी, सं. स्त्री. ( हिं. घूरना) कटाक्षः, धा.), गलं निष्पीड्य व्यापद् (प्रे.), कंठं कटाक्ष,-अवेक्षणं-, दर्शनम् , अपांग,-वीक्षणम् निष्पीड (चु.)५. दे. 'घोखना'। अवलोकनम् । घूस, सं. स्त्री. ( हिं. घुसना या यूँसा ) उत्कोचः, सं. पुं. पेषणं, मर्दनं, मुण्डनं, श्लक्ष्णीकरणं इ. । उपायनम् । २. मुस( श)ल:-लं, (पेषण-) दंडः। -खोर, सं. पुं. (हि.+फ़ा. ) उत्कोचग्राहिन् । घोटनी, सं. स्त्री. (हिं. घोटना) मर्दनी, घृणा, सं. स्त्री. ( सं.) अरुचिः, कुत्सा, गर्दा, मुसलकम् । घोटवाना, क्रि.प्रे., ब, 'घोटना' के प्रे. रूप । जुगुप्सा, बि-देषः, निर्वेदः । घृणित, वि. (सं.) अरुचिकर उद्वेगकर (-करी घोटा, सं. पुं. ( हिं. घोटना) मार्जकः, घर्षकः स्त्री.) २. कुत्सित, गह, बीभत्स । २. मार्जितवस्त्रं ३. घर्षणं ४. मुसलः, दंडः घृत, सं. पुं. ( सं. न.) दे. 'धी। ५. पेषणं ६. क्षौरं, केशवपनम् । | घोटाला, सं. पुं. (देश.) दे. 'गड़बड़' सं. पुं.। घेरना, क्रि. स. (ग्रहणं > ) परिवेष्ट ( भ्वा. | आ. से., प्रे.), परिवृ ( स्वा. उ. से.; ग्रे.), घोड़साल, सं. पुं. (सं. घोटशाला) दे. परि-इ ( अ. प. अ.) २. अव-उप, रुध ( रु. 'घुड़' के नीचे 'घुड़साल'। उ. अ.)। सं. पुं., परिवेष्टनं, परिवारण, उप- घोड़ा, सं. पुं. (सं. घोटः) घोटकः, तुरगः, तुरंगः,रोधः ह.। ! गमः, अश्वः, वाहः, हयः, वजिन् , अर्वन् (पु.), For Private And Personal Use Only Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir घोड़िया [ १९०] चंचलता सैंधवः, सप्तिः (पु.), गन्धर्वः, जवनः । २. -निद्रा, सं. स्त्री. (सं.) गाढ़निद्रा, सुनिद्रा। चतुरंग, शारःशारिः (पु.) ३. अग्नथस्त्रघोटः। घोलघुमाव, सं. पुं., दे. 'टालमटोल' । -गाड़ी, सं. स्त्री., अश्व-हय, रथः-शकटः। घोलना, क्रि. सं. (हिं. घुलना ) विद्-विलीघोड़े बेच कर सोना, मु., गाढं निद्रा-स्वप् (अ. गल (प्रे.)। प. अ.)-शी ( अ. आ, से, )-संविश (तु. घोलमेल, सं. पुं. (हिं. घुलना+सं. मेल:> ) प. अ.)। मिश्रणं, संसर्गः, सम्पर्कः । । घोडिया, सं. स्त्री. (हिं. घोड़ा) घोटकः, अश्वकः, घोष, सं. पुं. (सं.) शब्दः, नादः, रवः, स्वनः, लघु, अश्वः-घोटः २. नागदन्तः, न्तकः । ध्वनिः (पुं.)२. गर्जितं, स्तनितं ३, आभीरघोड़ी, सं. स्त्री. (सं. बोटी ) अश्वा, वडवा, वसतिः ( स्त्री.) ४. आभीरः, गोपः ५. गोष्ठं, तुरगी, वाजिनी वामिनी, घोटिका २. वडवा- गोशाला ६. तटः-टंटी ७. वाह्यप्रयत्नभेदः रोहणं, वैवाहिकरीतिभेदः ३. विवाहगीतिका। (व्या.)। -चढ़ना, मु., वरो वडवामारुह्य वधूगृहं गम्।। घोषणा, सं. स्त्री. (सं.) प्रख्यापन, ज्ञापनं, -टप्पा, सं. पुं., बालखेलाभेदः, घोटीलंघनम् । प्रकाशनं २. घोपः,-पणं, उत्कीनं ३, नादः, घोणा, सं. स्त्री. ( सं.) नासा, नासिका, गन्ध- ध्वनिः, शब्दः। वहा । २. शूकर-अश्व, प्रलंबमुखं-लाम्बास्यम् । -पत्र, सं. पुं. (सं. न.) विज्ञप्तिः ( स्त्री.), ३. छिक्का-क्षुत,-आवहः बालतरुभेदः ! । सूचनापत्रम् । घोणी, सं. पुं. (सं.-गिन् ) शूकरः, वराहः, घोसी, सं. पुं. ( सं. घोप: > ) यवन, गोपःरोमशः। __ आभीरः । घोर, वि. (सं.) भयंकर, भीषण, भीम २. दुर्गम, घ्राण, सं. पुं. (सं. न. ) नासिका, नासा, नसा गहन, निविड ३. परुष, कर्कश, ४. गाढ़, दृढ २. आघ्राणं, गन्धग्रहणं ३. आघ्राणशक्तिः (स्त्री.)। ५. निकृष्ट, अधम ६. अत्यन्त, अत्यधिक । |-इन्द्रिय, सं. स्त्री. (सं. न.) दे, 'प्राण' (१.३) ङ, देवनागरीवर्णमालायाः पञ्चमो व्यञ्जनवर्णः । ढकारः। च, देवनागरीवर्णमालायाः षष्ठो व्यञ्जनवर्णः, भला,-वि., कुशलिन्, नीरज-ज २. भद्र, अच्छ । चकारः। चंगुल, सं. पुं. (हिं. चौ = चार + अंगुल ) चंक्रमण, सं. पुं. (सं. न.) चंक्रमः-मा, परि, भ्रमणं नखः-खं. नखर:-रं, २. धरणं, ग्रहणं, हस्तग्राहः । अटनम् , विहरणम् , विचरणम् । शनैः शनेः चंगेर-री, सं. स्त्री. (सं. चंगेरिका ) स्थालाकारः मन्दगत्या वागमनम्। करण्डः २. फुल्लकण्डोल:, पुष्पकरंडः चंग', सं. स्त्री. (ता.) हिंटिमप्रकारः, *चंग ३. भाजनं, आधारः ४. चर्मपुटः, दृतिः । पुं.) २. नखः खं, नखरः-२ ३. गंजीफ़ा-कीटायां ५. हिंदोलः, दोला। रंगभेदः। चंग, सं. स्त्री. (सं. चः-चाँद + गम् > दे. चंगोली, सं. स्त्री., दे. 'चंगेरी। 'गुड्डी' (१)। । चंचरीक, सं. पुं. (सं.) भ्रमरः, षटपदः । -पर चढ़ाना, मु., अनुकूलयति ( ना. धा.) चंचल, वि. (सं.)चल, चलाचल,चपल, तरल, २. अभिमानिनं विधा (जु. उ. अ.)। लोल, प( पा)रिप्लव, चटुल, २. व्या-पर्याचंगा, वि. (सं. चंग ) सुस्थ, स्वस्थ, नीरोग, समा, कुल,अशान्त,अनिर्वृत ३. अधीर, अस्थिर, निरामय २. शोभन, सुन्दर ३. निर्मल, शुद्ध । चलचित्त, लोलबुद्धि ४. विनोदिन्, लीलापर। -करना, क्रि. स., व्याधेः मुच (प्रे.), शम् । सं. पुं., वायुः २. कामुकः । (प्रे. शमयति)। चंचलता, सं. स्त्री. (सं.) चापल्यं, चांचल्यं, For Private And Personal Use Only Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir चंचला [ १९१ ] चंद्र लौल्यं, चटुलता, तरलता २. कुचेष्टा-ष्टितं, चंडूल, सं. पु. ( देश.) म(भा)रद्वाजः, मारयः, सलीलत्वं, लीलापरता। व्याघाटः। चंचला, सं. स्त्री. (सं.) लक्ष्मीः ( स्त्री.), चंद', सं. पुं. ( सं. चंद्रः ) दे. 'चंद्र' । २. इन्दिरा २. विद्युत् ( स्त्री.), सौदामिनी । वि., हिंदीकविविशेषः । स्त्री., अशांता, चलचित्ता। -मुखी, सं. स्त्री. ( सं. चंद्रमुखी ) शशिवदनी, चंचलाहट, सं. स्त्री., दे. 'चंचलता'। चंद्रानना। चंचु, सं. स्त्री. ( सं.) चञ्चुका, चञ्चूः ( स्त्री.), चंद, वि. (फ़ा.) दे. 'कुछ' । त्रोटी। | चंदन, सं. पुं. (सं. पुं. न.) मलयजः, श्रीखंड, चंट, वि. ( सं. चण्ड > ) चतुर, दक्ष २. धूर्त, गंधसारः, सुगंध, सर्पावासं, शीतलं, गंधाढ्यं, मायाविन् । शीतगंधः । २. चंदनका; ३. चंदनलेपः । चंड, वि. (सं.) कर, रौद्र (-द्री स्त्री.), दारुण, | -लाल, रक्त-कु,चंदनं, रंजनं पत्रांगम् । भैरव, (-वी स्त्री.), भीषण, उग्र २. कोपिन् -सफेद, तैलपर्णिक, श्वेतचंदनम् । कोधिन्, संरभिन्, अमर्षिन् ३. परुष, प्रखर, चंदला, वि. पुं. ( हिं. चांद = खोपड़ी ) नीव, तीक्ष्ण, घोर ४. बलवत्, दुर्दमनीय । खल्वाटः, विवोशः ( -शी स्त्री.)। ५. कठिन, कठोर । -कर, सं. पुं. ( सं. ) सूर्यः, चण्डांशुः। चंदवा', सं. पुं. (हिं. चंद) उल्लोचः, । वितानं, आच्छादनं, पिधानम् । -~-कौशिक, सं. पुं. (सं.) ( १-३ ) मुनि चंदवा सं. पुं. ( सं. चंद्रकः ) बईनेत्रं, मेचकः नाटक-सर्प,विशेषः। चंडता, सं. स्त्री. (सं.) उग्रता, भीषणता, २. वर्तुलवस्त्रखंडः डं ३. मत्स्यभेदः । क्रूरता २. तीक्ष्णता, प्रखरता, तीव्रता। चंदा मं. पुं. ( फ़ा. चंद ) धनसहायता, चंडा, सं. स्त्री. (सं.) रुद्राणी, चंडी, दुर्गा, आर्थिकसाहाय्यं २. धनभागः. अर्थाशः । २. स्वांशा, उद्धारः। २. नायिकाभेदः ३. शतपुष्पा, मधुरा । वि. -करना, क्रि. स., अर्थाशं संग्रह (क. प. से.) । स्त्री. ( सं.) निष्ठुरा, कर्कशा, उया, कटोरा। | -देना, स्वस्वांशं दा (जु. उ. अ.)। चंडाल, सं. पुं. (सं.) चांडालः, मातंगः, टिया, सं. स्त्री. ( हिं. चांद ) शीर्ष-शिरोदिवाकीर्तिः (पुं.) निषादः, श्वपचा-च (पुं.), मस्तक, अग्रं, मुंडं २. कपाल:-लं, शिरोऽस्थि पुक्कसः-शः-पः । वि. कर-पाप, कर्मन् । ! ( न.) ३. ( अंत्य-- ) रोटिका । २. दुष्कुलीन, हीन, जाति-वर्ण । -चौकड़ी, सं. स्त्री., चंडालचतुष्क दुष्ट- चंदिर, सं. पुं. ( सं. ) चद्रः सुधांशुः २. गजः द्विप ३. कर्पर:-रं, धनसारः। चतुष्टयम् । चंद्र, सं. पुं. (सं.) सोमः, शशांकः, शशिन्, चंडालिन, चंडालिनी, चंडाली, सं. स्त्री. । विधुः, रजनी-निशा-शर्वरी-क्षपा, कर:-नाथ:(सं. चंडाली) चांडाली, मातंगी, निषादी पति;, मृगांकः, कलानिधिः (पुं.), ग्लौः (पु.), २. पापिनी, दुष्टा। हिम-शीत-शुभ्र-सुधा, अंशुः-दीथितिः ( पुं. ), चंडिका, सं. स्त्री. ( सं.) दुर्गा २. विवादशीला इंदुः ( पुं.), चंदमस् (पुं.), शशधरः । नारी ३. गायत्रीदेवी। २. जलं ३. सुवर्ण ४. कर्पूरं ५. 'एक' इति चंडी, चंढा, सं. स्त्री. ( सं.) पार्वती २. क्रोधिनी संख्या ६. चंद्रकः, वहनेत्रम् । नारी ३. कलहप्रिया कामिनी । वि., आह्लादक, आनंदप्रद २. सुंदर। चंडू, सं. पुं. ( सं. चंडः तीक्ष्ण > ) अहिफेन- -आनन, वि. (सं.) दे. 'चंद्रमुख' ! निर्मितमादकद्रव्यभेदः, *चंडूः (पुं.)। -कला, सं. स्त्री. (सं.) चंद्र,-रेखा-लेखां । -ख़ाना, सं. पुं. (हिं+फ़ा.) चंडू,-गृह-शाला। -कांत, सं. . (सं.) चंद्र, मणिः (पुं.). -बाज़, सं. पुं. (हिं. + फ़ा.) चंडूपः, रलं-उ चंडू, पायिन्-सेविन्। | -किरण, सं. पु. ( सं.) चंद्रपादः, शशिकरः। For Private And Personal Use Only Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir चंद्रक [ १९२ ] चकला -ग्रहण, सं. पुं.(सं. न.), विधु-इन्दु-चंद्र, चमच, सं. पुं., दे. 'चमचा'। ग्रहणं-ग्रहः-ग्रासः-उपरागः । चवर, सं. पुं. ( सं. चमरं ) चामरम् । -प्रभा, सं. स्त्री. (सं.)दे. 'चंद्रिका'। | चक, सं. पुं. (सं. चक्र) बृहत्क्षेत्रं, महाभूखंडः-बिंदु, सं. पुं. (सं.) अनुनासिकचिह्नम् (")। २. ग्रामटिका, लघुग्रामः ३. रथांग, मंडलं, चक्र -भागा, पुं. स्त्री. (सं.) चंद्रभागी, चंद्रिका, ४. पट्टा, पट्टोलिका, भूमिकरग्रहणव्यवस्थापकः पंचनदप्रांते नदीविशेषः। पत्रभेदः। -मुख, बि. ( सं. ) चंद्रानन, विधु-शशि, चकई', सं. स्त्री., दे. 'चकवी' । वदन । (-मुखी (स्त्री.) = चंद्रमुखा, चंद्र-शशि चकई, सं. स्त्री. ( हिं, चक ) *चक्रको, विधु, वदना-वदनी-आनना-आननी )। क्रीडनकभेदः । वि., गोल, वर्तुल। -रे(ले)खा, सं. स्त्री. (सं.) दे. 'चंद्रकला'। चकचौंध, सं. स्त्री., दे. 'चकाचौंध' । -वंश, सं. पुं. (सं.) सोमकुलम् । चकचौंधना, क्रि. अ,, दे. 'दुधियाना' । -शाला, सं. स्त्री., शिरोगृह, वडभी। चकदी , सं. स्त्री., दे. 'छबूँदर'। --शेखर, सं. पुं. (सं.) चंद्र, मौलिः (पुं.)- चकती, सं. स्त्री. (सं. चक्रवती> ) वस्त्र-चर्म, भूषणः-धरः, शिवः । खंडः-खंडं-शकल:-शकलन् । -हार, सं. पुं. (सं.) वर्तुलस्वर्णखंडहारः। बादल में-लगाना मु., असंभवं साध ( स्वा. प. चंद्रक, सं. पुं. ( सं.) ३. 'चंद्र' २. चंद्रिका, अ.)। कौमुदी ३. कर्पूरः-रं ४. बहनेत्रं, चंद्रिका | चकत्ता, सं. पुं. (सं. चक्रवर्तः>) त्वक्तिलकः कं, ५. नखः-खम् । चर्म, लांछन-चिह्न । २. दंतक्षतम् । चंद्रमा, सं. पुं. [सं. चंद्रमस् (.) दे. 'चंद्र'। -भरना या मारना, मु., दंश (भ्वा. प. अ.)। चंद्रहास, सं. पुं. (सं.) असिः, खड्गः चकनाचूर, वि., (हिं. चिकना+सं-चूर्णः-र्ण<) २. रावणखड्गः । सुचूर्णित, शकली-चूर्णी, कृत-भूत, सूक्ष्मखंडशः चंद्रातप, सं. पुं. (सं.) चन्द्रिका, ज्योत्स्ना, | कृत २. भूरिश्रांत, अति, क्लांत-आयम्त । कौमुदी २. दे. 'चॅदवा' -करना, क्रि. स., चूण् (चु.), खंडशः भंज् चंद्रिका, सं. स्त्री. (सं.) ज्योत्स्ना , शशि चंद्र, (रु. प, अ.) त्रुट (चु. आ.से.)। प्रभा-कांतिः (स्त्री.) कौमुदी, चंद्र,-आलोकः- -होना, कि, अ., अणुशः त्रुट्-चूण-भंज प्रकाशः २. चंद्रका, बहनेत्रं (३-४ ) स्थूल- (कर्म.)। सूक्ष्म,-एला। चकपक, वि. ( सं. चक् > ) चकित, विस्मित -उत्सव, सं. पुं. (सं.) शरत्पूर्णिमोत्सवः। २. संभ्रान्त, व्यामूढ । चंद्रोदय, सं. पुं. (सं.) चंद्र-सोम, उदयः- चकपकाना, कि.अ.(हिं. चकपक) दे.'चौकना'। उद्गमः-उद्गमनम्। चकम(मा)क, सं. पुं. (तु.) अग्नियावन् (पुं.), चंपई, वि. ( हिं. चंपा ) चंपक-पीत,-वर्ण-रंग। पावकप्रस्तरः। चंपक, सं. पुं. ( सं. ) ( पौधा ) चांपेयः, दीप- चकमा, सं. पुं., दे. 'धोखा' । स्वर्ण-स्थिर-पीत, पुष्पः-पुष्पकः, शीतलः, चकराना, क्रि. अ., ( सं. चक्र > ) ( शीर्षे ) सुभगः, भृङ्गमोहिन् वनदीपः। (फूल)| भ्रम् ( भ्वा. दि. प. से.), घूण (स्वा. आ. हेमपुष्पं, चंपकं इ. । (सं. न.) कदलीफलभेदः ।। से.; तु. प. प्ते, ) २. व्यामुह (दि. प. वे.), चंपा, सं. पुं. ( सं. 'चंपक' दे.)। आकुली भू ३. चकित (वि.)+भू। क्रि. स., -कली, सं. स्त्री., सं. चंपककलिका, चंपक | चकित (वि.)+क। कोरकः २. कंठाभरणभेदः, चंपकली। चकरानी, सं. स्त्री. (फ़ा. चाकर ) सेविका, चंपत, वि. ( सं. चंप ) तिरो अंतर, हित, लुप्त, परिचारिका। गूढं अपसूत । चकरी, सं. स्त्री. (सं. चक्री) पेषणी, पेषण, चंपू, सं. पुं. (सं. स्त्री.) गद्यपद्यमयं काव्यम् । यन्त्र-चक्र २. चक्री,-पट्ट:-पट्टे ३. दे. 'चकई'। चंबेली, सं. स्त्री., दे. 'चमेली'। चकला, सं. पुं. (सं. चक्र> ) चक्रकः For Private And Personal Use Only Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir चकलाना [ १९३ ] चखना वेश्यावीथी, गणिकाहट्टः ३. दे. 'जिला'। वि., -में भाना, मु., कुच्छ्रे पत् ( भ्वा. प. से ), विस्तीर्ण, परिणाइवत् । संकटे मस्ज ( तु. प. अ.)। चकलाना, क्रि-सं. प्रष्ट-विस्तृ (प्रे०), प्रथ् (चु.)। -में डालना, मु., कृच्छ्रे-संकटे, पत्-मस्ज् (प्रे.)। चकली, सं. स्त्री. (हिं. चकला) चक्री. दे. चक्का , सं.पु. ( सं. चक्रं ) दे. 'चक्कर' (१, २)। 'गराड़ी' २. चक्री, चक्रिका, गोलपट्टिका, ३. बृहद्वर्तुलखंडः-डं ४. इष्टक-प्रस्तर, घर्षणी। राशिः (पुं.)। चकल्लस, सं. स्त्री. ( अनु० चक ) कलहः, चक्की, सं. स्त्री. ( सं. चक्री) यन्त्रपेषणी, दे. विवादः २. परिहासः, विनोदः, कौतुकम् । 'चकरी' (१-२) ३. जानुफलकम् । चकवा, सं. पुं. ( सं. चक्रवाकः) कोकः, चक्रः, -पीसना, क्रि. स., चक्रया पिष (रु. प. अ.)रथांग-आह्वय-नामकः, द्वंद्रचारिन् , कामिन् , क्षुद् (रु. उ. अ.) चूर्ण (चु.)। मु., घोरंकामुकः। अत्यधिक परिश्रम् (दि. प. से.)-उद्यम् चकवी, सं. स्त्री. (हिं. चकवा ) चक्रवाकी, (भ्वा . प. अ.)। कोको, चक्री, रथांगनाम्नी इ. । चक्कू, सं. पुं. दे. 'चाक'। चकाचक, सं. स्त्री. ( अनु. ) दे. 'घचापच' वि., चक्र, सं. पुं. (सं. न.) दे. 'चक्कर' (१-४)। (सं. चक् = तृप्तिः ) सम्यक् सिक्त, परिपूर्ण । ५. तैलपेषणी ६. कुलाल-कुम्भकार,-चक्र-पट्टः क्रि. वि., भृशं, भूरिः प्रचुरं ( सब अव्य.)। ७. अस्त्रभेदः ८. गणः, समूहः । चकाचौंध, सं. स्त्री. ( सं. चक = चमकना. -घर, सं-पु. (सं.) । चौ - चारों तरफ, अंध> ) चाकचक्येन -धारी सं. पुं. (सं-रिन् ) विष्णुः, चक्रभृत् । नेत्रतेजःप्रतिघातः, अतिशयदीप्त्या दृष्टेरस्थैर्यम्। -पाणि, सं. पुं. (सं.) ) चकित, वि. (सं.) विस्मित, आश्चर्यान्वित, -वर्ती,-सं. पुं. (सं-तिन् ) राजाधिराजः, विस्मयाकुल, साश्चर्य, विस्मय, उपहत-अन्वित । | मंडलेश्वरः, सम्राज् (पुं.), अधि, राजः-ईश्वरः । २. संभ्रांत, व्यामूढ, व्याकुल, ३. सशंक, त्रस्त । -वाक, सं. पु. (सं.) दे. 'चकवा' । चकोटना, क्रि. स., (हिं. चिकोटी ) अमुल्य -वृद्धि, सं. स्त्री. (सं.) चक्रवार्द्धष्यम् । ग्रेण पीड् (चु.)। -व्यूह, सं. सं. (सं.) मंडलाकारः सैन्यचकोतरा-त्रा, सं. पुं. ( सं. चक्र > ) (वृक्ष) संनिवेशः। मधुकर्कटी, मातुलुङ्गः, सुगंधा, सदाफलः, | -हस्त, सं. पुं. (सं.) विष्णुः। ... महाजंभीरः । ( फल ) मधुकर्कटिकं, चक्रांक सं. पुं. (सं.) ( भुजादिषु ) चक्र.. मातुलुंगम् इ.। चिह्न-लक्षणम्-अभिज्ञानम् । चकोर, सं. पुं. (सं.) कौमुदीजीवनः, चक्रांकित, वि. (सं.) चक्रचिह्नयुक्त, सचक्रचंद्रिकापायिन्। चिह्न । सं. पुं. वैष्णवसम्प्रदायभेदः। चकोरी, सं. स्त्री. (सं.) चंद्रिकापायिनी। चक्राकार, सं. पुं. (सं.) गोल, मंडलाकृति । चक्कर, सं. पुं. (सं. चक्रं ) रथांगं, मंडलं चक्री, सं. पुं. (सं.-क्रिन् ) चक्र-धर-धारिन २. गोल:-लं वृत्तं वलयः-यं ३. वात,-आवर्तः | २. विष्णुः ३. कुलालः ४. गुप्तचरः ५. तैलिकः, भ्रमः, वात्या ४. जल-,आवतः, जलगुल्मः। तैलिन् ६. सर्पः ७. चक्रवाकः ८. चक्रवर्तिन् । ५. उभयसंभवः, विकल्पः ६. संभ्रमः, व्यामोहः | चक्षु, सं. पुं. [सं. चक्षुस् (न.)] नेत्रं, ७. कृच्छ्रे, संकटं ८. कौटिल्यं,. वक्रत्वं ९. | नयनम् । पर्यटनं, वि-आ-वर्तः १०. भ्रमिः-धुणिः ( स्त्री.); चखना, क्रि. स. (सं. चषणं).. आ-,स्वाद भ्रामरम् । । (भ्वा. आ. से.), चष् (म्वा. उ. से.), रस -खाना, मु., परिभ्रम् ( भ्वा. दि. प. से.), (चु.), रसं परीक्ष ( भ्वा. आ. से.), रसनया धूर्ण (तु. प.से.)। . ... स्पृश (तु. प. अ.)। -मारना, मु., विचर-पर्यट (भ्वा. प. से.)। । सं. पुं., आस्वादनं, चषणं, रसनं, ईषदशनम् । १३ आ० For Private And Personal Use Only Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra चखाना www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir चटपट, " चटसे 39 [ १९४ ] चखाना, क्रि. प्रे., ब. 'चखना' के प्रे रूप | चलना, क्रि. स. (अनु. चग > अथवा चणं + गिलनं > ) क्षुधां विना भक्षू ( चु. ) । चचा, सं. पुं. दे. 'चाचा' । चची, सं. स्त्री. दे. 'चाची' । चचेरा, वि. (हिं. चचा ) पितृव्यसंबंधिन् । - भाई, सं. पुं., पितृव्य पुत्रः, पितृव्यजः । चचेरी बहिन, सं. स्त्री. पितृव्यपुत्री, पितृव्यजा । चचोड़ना, क्रि. स. (अनु.) दंतैः निपीड्य आ - चूष (भ्वा.प.से.), बलवत् स्तन्यं धे ( स्वा. प. अ. ) । चट, क्रि.वि. (सं. झटिति ) क्षणेन, क्षणनिमेष -मात्रेण, सपदि, द्राकू, अंजसा, क्षणात् सद्यः, -एव, तत्क्षणं-न । चढ़ना चटरजी, सं. पुं. (बं.) चट्टोपाध्यायः, वंगप्रांतीयब्राह्मणभेदः । चटवाना, क्रि. प्रे., ब. 'चाटना' के प्रे. रूप । चटशाल, चटसार-ल, सं. स्त्री. (हिं. चट्टा = चेता + सं . शाला ) पाठशाला, विद्यालयः । चटाई, सं. स्त्री. (सं. कटः १ ) किलिंजकः, किलंज, तृणपूली, पादपाशी, आस्तरः । चटाक, चटाका खा, सं. पुं. (अनु.) विरावः, सशब्द, भंग:-स्फोटनं, परुषस्वनः, चटाक,शब्दः ध्वनिः (पुं.)। चटाचट, सं. स्त्री. (अनु.) चटपटा, -शब्दःनादः, चटचटायितं, चटचटात्, कारः - कृतिः (स्त्री.) - कृतम् । चटाना, क्रि. प्रे., ब. 'चाटना' के प्रे. रूप | चटुल, वि. (सं.) चंचल, चपल, लोल २. सुंदर । -करना, मु., अशेषं निगल (भ्वा. प. से. ) २. परद्रव्यमात्मसात् कृ । -पट करना, क्रि. अ., त्वर् (भ्वा. प. से.), आशु कृ । चटोर-रा, वि. (हिं. चाटना ) अझर, घस्मर, अत्याहारिन्, बहुभोजिन् २. स्वादरस, प्रियलोलुप, जिह्वालोल | चटक, सं. स्त्री. (सं. चटुल > ) शोभा, श्रीः- चटोरपन, सं. पुं. (हिं. चटोर) घस्मरता, कांतिः-द्युतिः- दीप्तिः (स्त्री. ) । औदरिकता २. स्वादलोलुपता, जिह्वालौल्यम् । -मटक, सं. स्त्री, प्रसाधनं, अलंकरणं, मंडनं चट्टा, सं. पुं. ( सं. चेटः > ) छात्रः, शिष्यः । २. हावभावाः, विलसितं विलासः । - बहा, सं. पुं. (हिं. चटटू + बट्टा ) क्रीडनकसमूहः । . चटक ( ख ) ना, क्रि. अ. (अनु. चट) स्फुट् ( तु. प. से. ), दु-भंजू - भिद् ( कर्म. ), वि-, दल (भ्वा. प. से.) । सं. पुं., चपेट:-टिका । चटकनी, सं. स्त्री. अर्गलं, तीलकम् । चटकाना, क्रि. (अनु. चट) कील:-लं, एक ही थैली के चट्टे बट्टे, मु. समस्वभावाःतुल्यशीलाः मानवाः । चट्टान, सं. स्त्री. (हिं. चट्टा = चकत्ता ) शिलोच्चयः, स्थूलशिलाः, शैलः, महाप्रस्तरः । चट्टी, सं. स्त्री. (अनु. चटचट ) पादत्रं, स. (हिं चटकना) ब. 'चटकना' के प्रे. रूप २. अंगुली : स्फुट् (प्रे.) । जूतियां - ' मु., न्यर्थे दारिद्रयेण वा भ्रम् (भ्वा. दि. प. से. ) 1 चटकारा वि. दे. 'चटकीला' २. चपल, चंचल । चटकीला, वि. (हिं चटक ) भासुर, उज्ज्वल, प्रभावत् २. चित्र, नानावर्ण ३. दे. 'चटपटा' | चटनी, सं. स्त्री. (हिं. चाटना ) अबलेहः, उप- अव, दंशः, व्यंजनं, उपस्करः । चटपटा, वि. (हिं. चाट) स्वादु, सुरस, सरस, रुच्य, रुचिकर २. तीक्ष्ण, तिक्त । घट (टा) पटी, सं. स्त्री. (हिं. चटपट ) त्वरा, तूणिः (स्त्री.), शीघ्रता, क्षिप्रता । २. उत्सुकता आकुकता । पादुका, पादू : (स्त्री.) । चट्टी, सं. स्त्री. (हिं. चाँटा ) हानिः क्षतिः (स्त्री.) २. दंड, अपकारशुद्धिः क्षतिनिष्कृतिः (aft.) 1 चट्टू, सं. पुं. (हिं. अनु. चट) पाषाणमयं बृद्ददुदू(लू)खलम् । चड्डा, सं. पुं. (देश. ) जंघामूलं, ऊरुसंधिः (पुं.); विदूषकः । वि. मंदबुद्धि, मूर्ख । चढ़ना, कि, म. (सं. उच्चलनं ) उदि उद्या (अ. प. अ.), उपरि-उद् गम्, अधि आ रुह (भ्वा. प. अ. ), अधिकम् (भ्वा. प. से., भ्वा. आ. अ. ) २. उत्था ( स्वा. प. अ. ), समुस्था (भ्वा. आ. अ.) १. सं-, ऋ (दि. For Private And Personal Use Only Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir चढ़वाना [ १९५ ] प. से. ), उप-प्र-ची (कर्म) ४. आक्रम्, चतुर, वि. (सं.) निपुण, दक्ष, प्रवीण, कुशल, विचक्षण, विशारद २. धीमत, बुद्धिमत्, प्रज्ञ, प्राज्ञ ३. कापटिक छाद्मिक [ की (स्त्री.)]. कितव, धूर्त । चतुरता, सं. स्त्री. (सं.) नैपुण्यं, दाक्ष्यं, कौशलं, प्रावीण्यं २. बुद्धिमत्त्वं, प्राज्ञता ३. कैतवं, कापट्यं ३० । अभिद्रु-अवस्कंद ( वा. प. अ. ५. उत्पत् (भ्वा. प. से. ), उड्डी (भ्वा. आ. से. ) ६. उपहारी- उपायनी, -कृ ( कर्म. ), उपहृ- निवप्( कर्म. ) ७. प्रवृत् (भ्वा. आ. से. ) । सं. पुं. उदयनं, उद्गमनं, अधिरोहणं उत्थानं, आक्रमणं, उड्डयनं इ. 1 चढ़ने योग्य, वि. उदेतव्य, आरोहणीय, चतुराई, सं. स्त्री. दे. 'चतुरता' । आक्रमणीय । चढ़ने वाला, सं. पुं. उदेतृ-अधिरोदृ-अभिद्रावक । चढ़ा हुआ, वि., उदित, उद्गत, अधिरूढ, आक्रांत । चतुरानन, सं. पुं. (सं.) चतुर्मुखः, ब्रह्मन् (पुं.) । चतुर्थ, वि. (सं.) तुर्य, तुरीय । चतुर्थी, वि. स्त्री. (सं.) तुर्या, तुरीया २ पक्षस्य तुरीया तिथि: ३. दे. 'चौथा' | चतुर्दिक, सं. पुं., दे. 'चतुर्दिश ' । चतुर्दिश, सं. पु. ( सं. न. ) दिक्चतुष्टयम्, चतुर्दिक्समूहः । क्रि. वि., चतुर्दिक्षु, सर्वतः, समंततः, विश्वतः, समंतात्, सर्वत्र ( सब अव्य.) । चतुर्भुज, वि. (सं.) चतुर्बाहु, चतुर्हस्त २. चतु ष्कोण, चतुरस्र । सं. पुं. (सं.) विष्णुः २. चतुष्कोणः, चतुरश्रः स्रः ३. चतुर्भुजं, वर्गः, सम, चतुर्भुजः- चतुरस्रः । चतुर्मुख, सं. पुं. (सं.) दे. 'चतुरानन' । क्रि.वि., सर्वतः परितः, समंतात् (सब अव्य.) । चतुर्युग, सं. पुं. (सं. न.) युग, चतुष्कं चतुष्टयम् ! चतुर्युगी, सं. स्त्री. (सं.) दे. 'चतुर्युग' । चतुर्वर्ग, सं. पुं. (सं.) धर्मार्थकाममोक्षाः । चतुर्वर्ण, सं. पुं. (सं.) ब्राह्मणक्षत्रियवैश्यशूद्राः, चातुर्वण्य, वर्ण, - चतुष्टयं चतुष्कम् । चतुष्कोण, वि. (सं.) चतुरस्र, चतुरश्र, चतुर्भुज २. सम, चतुर्भुज चतुरश्र । सं. पुं. ( सम - ) चतुर्भुजः चतुरश्रः । चतुष्टय, सं. पुं. (सं. न. ) चतु:संख्या, चतुष्कं, चतुर्वस्तुसमूहः, चतुष्कम् । चतुष्पथ, सं. पुं. (सं. पुं. न. ) दे. 'चौराहा' । चतुष्पद, सं. पुं. तथा वि. (सं.) दे. 'चौपाया । चतुःशाख, सं. पुं. (सं. न. ) शरीरं, देहः, चद्दर, सं. श्री. ( फ़ा. चादर ) शयनास्तरणं चढ़वाना, क्रि. प्रे., ब. 'चढ़ना' के प्रे. रूप | चढ़ाई, सं. स्त्री. (हिं. चढ़ना) उद्गमनं आरोहणं २. उद्गमः, उदयः ३. आरोहः | ४. आक्रमः, अवस्कंदः । चढ़ाउतरी, सं-स्त्री. (हिं. चढ़ना + उतरना ) असकृत् आरोहणावरोहणं णे । चढ़ाउपरी, सं. स्त्री. (हिं. चढ़ना + ऊपर ) प्रतिस्पर्द्धा, अहंपूर्विका । चढ़ा-चढ़ी, सं. स्त्री. (हिं. चढ़ना ) दे. 'चढ़ाउपरी' । चढ़ाना, क्रि. स. ब. 'चढ़ना' के प्रे. रूप । चढ़ाव, सं. पुं. (हिं. चढ़ना ) आरोह:, उद्गमः, उत्थानं २. वृद्धि: (स्त्री.), उपचयः । —–उतार, सं. पुं.. आरोहावरोहो, उद्गमावगमौ । चढ़ावा, सं. पुं. (हिं. चढ़ाना) उपहार, उपायनं, उत्सर्गः, बलि: (पुं.) २. दे. 'बढ़ावा' | चढ़त, सं. पुं. (हिं. चढ़ना ) आ-अधि.- रोहिन् रोक-रोढ़ | चढ़ता, सं. पुं., (हिं. चढ़ना ) हय- अश्व-आरोह: आरोहिन्, सादिन्, तुरगिन् । चणक, सं. पुं. (सं.) दे. 'चना' । कायः, तनुः- नूः (स्त्री.) चतुरंग, सं. पुं. (सं. न. ) अक्षक्रीडाभेदः २. चत्वारि सेनांगानि ( हस्त्यश्वरथपदातय ) इति ३. चतुरंगिणी सेना । वि., अंगचतुष्ट यवत् । चतुरंगिणी, सं. श्री. (सं.) हस्त्यश्वरथपदातिरूपिणी सेना । वि. जी., अंगचतुष्टयवती । चना शय्याच्छादनं, प्रच्छद, पट:- वस्त्रं, प्रच्छदः उत्तरच्छदः २. ( धातकी ) फलक :- कं, पत्रम् । चना, सं. पुं. ( सं. चणः ) हरि, -मंथ:-मंथकःमंथजः, सुगंधः, बालभोभ्यः, वाजिभक्ष्यः, कंचुकिन्, कृष्णचंचुकः । नाकों चने चबवाना, मु., अत्यंतं सं-परि-तप् (प्रे.) । लोहे का चना, मु., दुष्करं कर्मन् (न.) । For Private And Personal Use Only Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra चनाब [ १९६ ] चनाब, सं. स्त्री. (सं. चन्द्रभागा ) चान्द्र चन्द्र- | चप्पी, सं. स्त्री. (सं. चप् = दबाना > ) सं, भागा-भागी । वाहः वाहनं वाहना, चरणसेवा । चपकन, सं. पुं. (हिं. चिपकना ) कंचुक- चप्पू, सं. पुं. (हिं. चौंपना ) नौका-नौउत्तरीय, भेदः । दंड:, क्षेपणी- णि: (स्त्री.) । -मारना, कि. स., क्षेपण्या चल-वह (प्रे.) । चबवाना, क्रि. प्रे. व. 'चबाना' के प्रे. रूप । चबाना, क्रि. सं. (सं. चर्वणं ) पर्व (भ्वा. प. से. ), संदंश् (भ्वा. प. अ. ), दंतैः निष्पिष् ( रु. प. अ. ) । सं. पुं., चर्वणं, दंतैः निष्पेषणं, संदंशनम् । www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir चपकना, दे. 'चिपकना' । चपकलश, सं. स्त्री. ( तु. ) खड्ग-असि कृपाण, युद्धम् २. कलहः, उपद्रवः । चपटा, वि., दे. 'चिपटा' । evears, सं. स्त्री. (अनु.) चपड़चपड़ध्वनिः (पुं.) । सं. पुं. (हिं. चपटा ) अलक्तः क्तकः, चपड़ा, रा(ला) क्षा २. लाक्षा अलक्त, पत्रं ३. रक्तकीटभेदः । चपत, सं. पुं. (सं. चपट: ) चपेट:-टिका, चपट करतल, आघातः प्रहारः २. क्षतिः - हानिः (स्त्री.) । चपनी, सं. स्त्री. (सं. चपनं = दबाना > ) पुट:टं-टी, छदः, छदनं, पिधानं २. शराब:, वर्धमानकः ३. जानुफलकम् । चपरास, सं. स्त्री. (फ़ा. चप = बाय + रास्त = दायाँ ) * प्रेष्य, पट्टः-पट्टकः । चपरासी, सं. पुं. (हिं. चपरास ) प्रेण्यः, भृत्यः, नियोज्यः, किंकरः, चोलकिन् । चपल, वि. (सं.) दे. 'चंचल' (१-४) ५. क्षणिक, अचिरस्थायिन् ६. शीघ्र आशु, कारिन्, अवि लंबिन् ७. शीघ्र, तूर्ण, क्षिप्र द्रुत ८ मायाविन् समाय ९. चतुर, अवसरज्ञ १०. धृष्ट, निर्लज्ज । चपलता, सं. स्त्री. (सं.) दे. 'चंचलता' (१-२) ३. धृष्टता, धाष्टर्य, वैयात्यम् । चपला, सं. स्त्री. (सं.) लक्ष्मीः (स्त्री.), कमला २. विद्युत (स्त्री.), चंचला ३. जिह्वा ४. पुंश्चली, कुलटा | वि. स्त्री, चंचला २. शीघ्रकारिणी । चपली, सं. स्त्री. (हिं० चपटी ) पन्नद्धा, पन्नी । चपाती, सं. स्त्री. (सं. चर्पटी ) पोली, पोलिका, रोटी ( ट ) कां । चपेट, सं. स्त्री. ( सं . चपेट: ) दे. 'चपत' ( १-२ ) ३. आघातः, प्रहारः । चप्पन, सं. पुं.. दे. 'चपनी' (१) । सं. पुं. (हिं. चपटा ) पादूः (स्त्री.), चप्पल, पादुका, कोशी-षी । चप्पा, सं. पुं. ( सं . चतुष्पाद-द> ) चतुर्थांशः तुर्ग-तुरीय, भागः, २. अंगुली चतुष्टयपरिमाणं ३. किष्कुः ( पुं. स्त्री. ), वित्तस्तिः (पु.) ४. अल्पांश: । चमकारा चबा चबा कर बात करना, मु., मंदं सस्वरं च वद् (स्वा.प.से.) । चबे को चबाना, मु., पिष्टपेषणं, चर्वितचर्वणम् । चबूतरा, सं. पुं. ( सं. चत्वरम् > ) वेदिः (स्त्री.)- दिका, वितर्दिः (स्त्री.)र्दी दिंका, उन्नतस्थली २. दे. 'कोतवाली' । चबेना, सं. पुं. (हिं. चबाना ), भृष्ट-भ्रष्ट - अन्नं धान्यं, चर्वणम् । चबेनी, सं. स्त्री. ( हिं० चबेना ) भृष्टान्नोपहारः २. जलपान सामग्री । चभक, सं. पुं. (अनु. ) निमज्जन-ध्वनिः,शब्दः । चमक, सं. स्त्री. (हिं. चमकना ) कांति:दीप्तिः- चुतिः- रुचिः (स्त्री.), आभा, प्रभा २. आलोकः, प्रकाशः ३. कटि - श्रोणी, पीडा । - दमक, सं. स्त्री. अतिशय, शोभा श्रीः- कांतिःदीप्तिः-द्युतिः- विभूतिः (स्त्री.) । -दार, वि. उज्ज्वल, भासुर, भाम्वर अतिमहा, तैजस-शोभन-दीप्तिमत् प्रभ । चमकना, क्रि. अ. (सं. चमत्करणं ) प्रकाशविद्युत् भास- शुभ- आज भ्राश्-भ्लाश् (भ्वा. आ. से.), प्र, भा ( अ. प. अ. ), चकासू ( अ. प. से. ), दीपू (दि. आ. से. ), विलसू (स्वा. .प.से.) २. समृद्धि वृद्धिं य। ( अ. प. अ. ), सं-, ऋधू (दि. तथा स्वा. प. से. ) ३. अकस्मात् कंप-स्पंद ( स्वा. आ. से. ), संत्रस्त - भयचकित (वि.) भू सं. पुं., प्रकाशनं, विद्योतनं, विलसनं, समृद्धिः (स्त्री.), प्र-उप, चयः, सहसा स्पंदनं- कंपनम् । चमकाना, क्रि. प्रे., ब. 'चमकना ? के प्रे. रूप । चमकारा, सं. पुं. (हिं. चमक ) कान्तिः - दीप्ति: For Private And Personal Use Only Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir चमकी [ ९ ] द्युतिः (स्त्री.) २. चाकचक्यं, तीव्र, आलोकः चमरस, सं. पुं. (सं. चर्मरस: > ) धर्मपादुकाजनितं चरणवणं, *चर्मरसः । प्रकाशः । चमकी, सं. स्त्री. (हिं. चमक ) आपातरमणीयं चमरी, सं. स्त्री. (सं.) चमरगवी, गिरिप्रिया, वस्तु (न.) । दीर्घबाला २. च (चा) मरं ३. मञ्जरी । चमरौट, सं. पुं. (हि. चमार ) शस्ये चर्मकारभागः । चमकीला, वि. (हिं. चमक ) दे. 'चमकदार ' । चमक्को, सं. स्त्री. (हिं. चमकना ) कुलटा, पुंश्चली २. कलह - कलि-कारी-कारिणी प्रिया । ( सं. चर्मचटी) चर्मचट (टि) का, चमचिड़ी, सं. स्त्री. चमगा(गी) दद, सं. पुं. चमगिदड़ी, सं. स्त्री. चतु (तू) का, जतु, नी, चर्मपत्रा, अजिनपत्रिका, चामिः (स्त्री.) । चमचम, सं. स्त्री. (देश. ) चमचमाख्यः मिष्टानभेदः । वि., दे. 'चमकदार' | चमचमाना, क्रि. अ., दे. 'चमकना' (१) । चमचमाहट, सं. स्त्री. दे. 'चमक' ( १-२ ) । चमाच, सं. पुं. ( सं . चमसः सं ) कंवा-बिः (स्त्री.), खजः, खजाका । ( लकड़ी का ) दारुहस्तकः, तर्दुः- तर्दू : (स्त्री.) । -भर, क्रि. वि., चमस, मात्रं - परिमाणम् । चमचिचड़, वि. (हिं. चाम + चिचड़ी ) अत्याग्रहिन्, प्रतिनिविष्ट, अत्याग्रहशील । चमड़ा, सं. पुं. [सं. चर्मन् (न.)] त्वच्-रोमभूमिः (स्त्री.), त्वचं-चा, असृग्, घरा वरा, छली ली। ( मृत प्राणी का ) अजिनं, कृत्तिः दृतिः (स्त्री.) । - उधेड़ना, क्रि. स., निस्त्वचीक, त्वचं- धर्म अपनी निर्ह (भ्वा. प. अ. ) । चमड़ी, सं. स्त्री. (हिं. चमड़ा ) दे. 'चमड़ा' । चमत्कार, सं. पुं. (सं.) विस्मयः, आश्चर्य, अद्भुत चमत्कृतिः (स्त्री.) २. अलौकिक - अतिमानुष-लोकोत्तर-कर्मन् ( न. ) । चमत्कारक, वि. (सं.) आश्चर्य - विस्मय, जनकउत्पादक, अतिमानुष ( -षी स्त्री. ), दिव्य, विलक्षण, अद्भुत, आश्चर्य, चमत्कारिन् । चमत्कृत, वि. (सं.) आश्चर्य - विस्मय, अन्वितआपन्न - उपहत, विस्मित | चमर, सं. पुं. (सं.) चमरगौः (पुं.) धेनुगः, बालधिप्रियः, वन्यः, व्यजनिन् २ . च (चा) मरम् । चरखा चमस, सं. पुं. (सं. पुं. न. ) दे. 'चमचा' | चमार, सं. पुं. ( सं. चर्मकारः ) चर्मकृत, चर्मरु: (पुं.) २. पादू-पादुका, कृत्-कारः ३. पादुकासंधातृ (पुं.) । [ चमारी -रिन ( स्त्री. ) = चर्मकारी इ. ] चमेली, सं. स्त्री. [ सं . चम्पकवेलिः ( स्त्री. ) ] (पौधा) मनोहरा, मनोज्ञा, जाती, मालती, सुकुमारा, सुरभि हृद्य, गंधा २. ( फूल ) जातीमालती, पुष्पम् । मोटा, सं. पुं. ) (हिं. चाम) क्षुर तेजनी, चमोटी, सं. स्त्री. चर्मपट्टी । वय, सं. पुं. (सं.) समूह:, गणः, राशि: (पुं.) २. मृत्तिकाचयः, क्षुद्रपर्वतः ३. दुर्गे ४. प्राकारः, प्र:- ५. वेदी - दिका ६. चरण-पाद, पीठः-पीठं ७. गृह - भित्ति, मूलं, पोटः । चयन, सं. पुं. ( सं. न. ) संग्रहणं, समाहरणं, राशी - एकत्र, करणम् । चर, सं. पुं. (सं.) चारः, स्पशः, प्रणिधिः (पुं.) गूढपुरुषः २. मंगलग्रहः, कुजः ३. खञ्जनः ४. कपर्दकः । वि. अस्थिर, जंगम, चल २. प्राणिन्, चेतन, सजीव । * - अचर, वि., चलाचल, जडजंगम, स्थावर जंगम २. जडचेतन, सजीवनिर्जीव सप्राणनिष्प्राण । चर, सं. पुं. (अनु.) वस्त्रादिविद रणध्वनिः (पुं.) चरितिशब्दः । २ चरक, सं. पुं. (सं.) मुनिविशेष: २ तत्कृत - वैद्यकग्रन्थः ३. दे. 'चर' ( १ ) । ४. अध्वगः, यात्रिन् ५. भिक्षुकः । चरकटा, सं. पुं. (हिं. चारा + काटना ) यवस-घास, कर्तकः-छेदकः । २. क्षुद्रः, नीचः, जाल्मः । चमन, सं. पुं. (फ़ा.) कुसुमाकरः, पुष्प, वनं चरका, सं. पुं. (फ़ा. चरकः ) ईषत्क्षतं, क्षुद्र,वाट:- वाटिका । व्रणः व्रणं २. हानि: (स्त्री.) ३. छलम् । चरखा, सं. पुं. ( फ़ा चर्ख ) तांतवचकं, चक्रं २. आवापनम् । For Private And Personal Use Only Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir चरनी [ १९८] चरित्र -कातना, क्रि. स., तंतून् कृत (रु. प. से) -छाना, मु., मदांध-अतिगर्वित (वि.) भू। सृज् ( तु. प. अ.), तांतवचनं चल-भ्रम् (प्रे.)। चरम, वि. (सं.) अन्तिम, अन्त्य, पश्चिम, चरखी, सं. स्त्री. (हिं. चरखा) लघुचक्र, अवम। चक्री, चक्रिका ३-४. दे. 'गड़ारी' तथा 'बेलन'। -काल, सं. पुं. (सं.) निधन-मृत्यु, समय:चरचर, सं. ( स्त्री. ) चरचराशब्दः, कालः। चरचरायितं २. व्यर्थ-अनर्थक,-आलापः, -सीमा, सं. स्त्री. (सं.) परिनिष्ठा, परमाप्रजल्पः-पनम् । वधिः (पुं.)। चरचराहट, सं. स्त्री., दे. 'चरचर"। चरवाई, सं. स्त्री. ( हिं. चरवाना ) पशुचारण,चरट, दे. 'खंजन। भृत्या-वेतनं २. पशुचारणं, गोपालनम् । चरण, सं. पुं. (सं. पुं. न.) पादः, पदः-दं, | चरवाना, क्रि. प्रे., ब. 'चरना' के प्रे. रूप । पद्-पाद् (पुं.), विक्रमः, क्रमणः, चलनः, चरवाहा, सं. पु. (हिं. चरना ) पशु-गो. अंघ्रिः (पुं.)। २. चरणः, पदं (छन्द.) चारकः-पालकः-पाल:-रक्षकः। ३. चतुर्थीशः ४. गमनं, चलनं ५. आचारः चरस, सं. पुं. (सं. चर्मन् > ) १. चर्म-द्रोणी६. ( तृण- ) भक्षणं ७. अनुष्ठानं ८. विहरण सेचनी २. चर्ममयः महा, पुटः कोषः ३. गंजा. स्थलं ९. सूर्यादेः किरणः १०. क्रमः। निर्यासः, मादकद्रव्यभेदः। -चिह्न, सं. पुं. (सं. न.) पाद-पद, मुद्रा चरसा. सं. पुं. (हिं. चरस ) गोमहिषादेः चर्मन् चिह्न-लक्षणम् । (न.), २-३. दे. 'चरस' (१.२)। -दासी, सं. स्त्री. (सं.) भायों, पली २. उपा- चरसी, सं. पुं. (हिं. चरस ) चरस, पःनह (स्त्री.), पादुका। पायिन् २. चर्म, सेचकः-सेक्त (पु.)। -सेवा, सं. स्त्री. (सं.) परि-उप,-चयों, शुश्रूषा। चराई. सं. स्त्री. (हिं. चरना) चरणं, यवस-छूना, मु., पादयोः पत् (भ्वा. प. से.). तृण, भक्षणं २-३. दे 'चरवाई' (१.२)। चरणौ स्पृश् (तु. प. अ.)। चराग, दे. 'चिराग'। चरणामृत, सं. पुं. (सं. न.) चरणोदक, पादो- चरागान, सं पं ( 1 ) दीपोत्सवः । दकम् । चरागाह, सं. स्त्री. ( फ़ा ) गोप्रच(चा)रः, यव-लेना, मु., चरणामृतं आचम् [ भ्वा. प. से., | सक्षेत्र, शादलं, तृणावृतभूमिः (स्त्री.)। आच(चा)मति । चराचर, वि. (सं.) दे. 'चर' के नीचे । चरना, क्रि. स. (सं. चरणं) यवस-तृणं खाद् | चराना, कि, प्रे. (हिं. चरना) ब. 'चरना' (भ्वा. प. से. )-मक्ष (चु.)-भुज (रु. के प्रे. रूप २. मुह-वंच (प्रे.), प्र-वि-लुम् (प्र.)। आ. अ.), चर (भ्वा. प. से.)। २. पर्यट: चरिंदा, सं. पुं. (फ़ा.) तृणभक्षक-यवसाद, पशुः । भ्रम् (भ्वा.प.से.)। चरित, सं. पुं. (सं. न.) दे. 'चरित्र' । चरनी, सं. स्त्री. ( दि. चरना) दे. 'नाँद' (२) चरितार्थ, वि. (सं.) कृतार्थ, कृतकृत्य, पूर्ण२. गो, चर:-प्रचारः। मनोरथ, सफल २. उचित, योग्य, अनुरूप । चरपट, सं. पुं. दे. 'चपत'। चरित्र, सं. पुं. (सं. न.) आचारः, आचरणं, चरपरा, वि. (अनु.) तिक्त, उष्ण, तीव्र, तीक्ष्ण। चरितं. वृत्तं, वृत्तिः (स्त्री.) चारित्र्यं, शीलं, चरबी, सं. स्त्री. ( फ़ा.) मांस, सारः-स्नेहः, सौजन्यं २. स्वभावः, प्रकृतिः ( स्त्री.) बपा, वशा-सा, मेदस् (न.)। ३. कार्य, कर्मन् (न.), चेष्टितं ४. जीवन, -की झिल्ली, सं. स्त्री., ( १-२ ) गर्भ-अंत्र, चरित-चरित्रं, जीवनी । आवेष्टनम् । -नायक, सं. पुं. (सं.)प्रधानपुरुषः, चरित-चढ़ना, मु., दे. 'मोटा होना'। नायकः। For Private And Personal Use Only Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir चरित्रवान् चरित्रवान्, वि. (सं., वत् ) सदाचारः, रिन्, आचारवत् । चरी, सं. स्त्री. (हिं. चरना) घासः, यवसः, सं., जवसः सं, तृणादिकम् । चर्च, सं. पुं. ( अं. ) दे. 'गिरजा' २. संप्रदायः । चर्चरी, सं. स्त्री. (सं.) गीति-भेदः २. होलि कोत्सवः ३. करतलध्वनि: ( पुं. ) ४. आमोदप्रमोदाः ५. वाद्यभेदः । | [199] चर्चा, सं. स्त्री. (सं.) चर्चः, अभिधानं, आख्यानं कथनं, कीर्तनं, निर्देशः, वर्णनं २. वार्ता, आलापः, संभाषणं- कथा, कथाप्रसंग: ३. किंवदन्ती, जनप्रवादः, ४. लेपनं, अभ्यंजनम् । -करना, क्रि. स., संभाष (भ्वा. अ. से. ), संवेद् (भ्वा. प. से. ) चर्चित, वि. (सं.) अभ्यक्त, लिप्त २. विचारित । चर्म, सं. पुं. (सं. चर्मन् ) दे. 'चमड़ा' । —कार, सं. पुं. ( सं. ) दे. 'चमार' | - दंड पुं. पुं. ( सं . ) दे. 'चाबुक' | चर्मी, वि. (सं. चर्मिन्) चर्म, - मय-निर्मितसंबंधिन्, चर्मण्य । सं. पुं. चर्मधारि-फलकभृद्योधः । चर्य, वि. (सं.) गमनीय, गन्तव्य ( स्थानादि) २. आचरणीय, करणीय | चर्या, सं. स्त्री. (सं.) कृत्यानुष्ठानं, कर्तव्यपालनं २. चलनं, गमनं, ३. आचारः, आचरणं ४. सेवा ५. आजीविका, वृत्तिः (स्त्री.) । चर्राना, क्रि. अ. (अनु.) चरचरायते (ना. धा. ) चरचरशब्द कृ २. तप् ( कर्म. ), व्यथ् (भ्वा. आ. से. ) ३. अत्यन्तं अभिलष् (भ्वा. उ. से.) । चर्वण, सं. पुं. (सं. न. ) संदंशनं, दंतैः निष्पे षणं २. चर्व्यपदार्थः ३. दे. 'चबेना' । चर्वणा, सं. स्त्री. (सं.) चर्वणं, दन्तैः निष्पेषणं, संदेशनम् २. रसास्वादनं, रसानुभूतिः (स्त्री.) ३. चर्वण, दन्तः - रदः । वित, वि. (सं.) दंत निष्पिष्ट, संदष्ट । च, वि. (सं.) चर्वणीय, दन्तैः निष्पेषणीय । चलनी, सं. स्त्री. दे. 'छलनी' । सं. पुं. (सं. न. ) भृष्ट, अन्नं-धान्यम् । चर्स, सं. पुं., दे. 'चरस' । चल, वि. (सं.) चर, चरिष्णु, जंगम, गमनशील २. चंचल, अस्थिर, अधीर । सं. पुं., शिवः २. विष्णुः ३. पारदः, रसः । चलाव, सं. पुं., यात्रा, प्रस्थानं, २. महाप्रस्थानं, मृत्यु: (पुं.) । चित्त, वि. ( सं .) लोल-अस्थिर - चंचल, - मति- बुद्धि- चित्त । (हिं. चलना ) प्रभावः, - विचल, वि. (सं.) अव्यवस्थित, अक्रम | चलता, वि. (हिं. चलना ) चलतू - गच्छत्चरत् (शत्रंत ), गतिमत् २. प्रचलित, सर्वसंमत ३. समर्थ, शक्तिमत् ४. व्यवहारकुशल, कार्यपटु । [ चलती (स्त्री.) - चलंती, प्रचलित इ. ] । चलती, सं. स्त्री. अधिकारः । चलन, सं. पुं. (सं. चलनं ) गतिः (स्त्री.), गमनं, यानं, प्रस्थानं २. रीतिः (स्त्री.), क्रमः, अनुसारः ३. व्यवहारः, उपयोगः, प्रचारः । - सार, वि. चिर, स्थायिन् दीर्घ-चिर, कालस्थायिन् २. प्रचलि (रि)त । चलना, क्रि. अ. ( सं . चलनं ) चल् चर्-वज् ( स्वा. प. से. ), या इ ( अ. प. अ. ), गम्, २. सक्रिय सचेष्ट सगतिक (वि.) भू, स्फुर् ( तु. प. से. ), कंपू (भ्वा. आ. से. ) ३. सृ-सृप् (भ्वा. प. अ. ) ४. ( पद्भ्यां - पादाभ्यां ) चल्-चर्-गम्-या, परि-, क्रम् (भ्वा. प.से., भ्वा. आ. अ. ) ५. प्र-, वह (भ्वा. उ. अ. ), प्र.,खु (भ्वा. प. अ. ) ६. वा (अ. प. अ. ). वह ७. प्रवृत् (भ्वा. आ. से. ), स्था ( भ्वा. प. अ.) ८. उपयुज्-व्यवह ( कर्म. ) ९. कलहायते ( ना. धा. ), विवद् 1 भ्वा. आ. से. ) १०. सफलीभू, कृतार्थकृतकृत्य (वि.) भू । सं. पुं., चलनं, चरणं, गमनं, प्रस्थानं, स्फुरणं; वहनं इ. । चलने वाला, सं. पुं., चलितृ-गंतृ-यातृ (पुं.) इ. चल पड़ना, मु., प्र-, स्था ( भ्वा. आ. अ. ), चल्-य । चलाऊ चल बसना, मु., मृ ( तु. आ. अ. ), पंचत्वं या । चले चलना, मु. चल्-गम् । चलवाना, क्रि. प्रे., ब. 'चलना' के प्रे. रूप | चला, सं. स्त्री. ( सं . ) पृथिवी २. दामिनी ३. लक्ष्मीः (स्त्री.)। चलाऊ, वि. (हिं. चलना ) दीर्घ-चिरकालस्थायिन् दृढ़, स्थिर | " For Private And Personal Use Only Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir चलाचल [२०० ] चाँदनी चलाचल, वि. (सं.) चपल, चंचल, लोल | चसक, सं. स्त्री. ( देश.) दे. 'कसक' । २. जडचेतन ३. स्थावरजंगम । चसकना, क्रि. अ. दे. 'कसकना' । चलाचली, सं. स्त्री. (हिं, चलना) प्रस्थान-चसका, सं.पुं. (सं. चषकः> ) आ-,स्वादः, प्रयाण-त्वरा-संभ्रमः २. प्रस्थानं, प्रयाणं, अप,- रसः, प्रवृत्तिः (स्त्री.) अभि-रुचिः (स्त्री.)। यानं-गमः ३. प्रस्थान, काल:-समयः ४. प्रया- | बुरा-व्यसनम् । णोपकल्पनम् । चस्पाँ, वि. (फ़ा.) लग्न, संश्लिष्ट ।। च(चालान, सं. स्त्री. पं. (हिं. चलना) चहक, सं. स्त्री. (हिं. चहकना) कूजनं, प्रचलनं, प्रस्थानं, प्रयाणं, अप,-यानं-गमः- कूजितं, कलरवः, चुंकारः, खग,-विरुतं-विरावः । गमनं २. प्रचालनं, प्रस्थापनं, प्रेषणं-णा, प्रया चहकना, क्रि. अ. (अनु.) कूज (भ्वा. प. पणं-नं ३. अभियोजनं, अभियुज्य अधिकरणे । से.), विरु ( अ. प.से.)। प्रेषणम् । चहचहा, सं. पुं., दे. 'चहक' । चलाना, क्रि. स., ब. 'चलना' के प्रे. रूप । | चहचहाना, कि. अ. (अनु.) दे. 'चहकना'। २. (गोली आदि) लोह, गोलान-गुलिकाःप्रक्षिप- | चहचहाहट, सं. स्त्री. दे. 'चहक' । विसृज ( तु. प. अ.) ३. प्रारम्भ ( भ्वा. आ. चहबच्चा, सं. पुं. (फ़ा. चाह = कूप + हिं. अ.), प्रवृत् (प्रे.)। बच्चा ) कूपकः, जल, कुंडं-आशयः।। चलायमान, वि. ( हिं. चलना ) चलत्- चहल, सं. स्त्री. (अनु. चहचह्) आनन्दोत्सवः । गच्छत्-सर्पत् (शत्रंत ) २. चंचल, अस्थिर । चहलकदमी, सं. स्त्री. (हिं. चहल+फा. चलाव, सं. पुं. (हिं. चलना ) प्रस्थानं, प्रयाणं कदम ) विचरणं, विहारः, परि,-क्रमण भ्रमणं अटनम् । २. यात्रा ३. रीतिः (स्त्री.), क्रमः। चलित, वि. (सं.) दे. 'चलायमान' (१-२) चहल-पहल, सं. स्त्री. ( अनु.) आनन्दः, ३. प्रचलित। उत्सवः, उल्लासः, प्र,-मोदः हर्षः । चवन्नी, सं. स्त्री. [ हिं. चौ ( = चार )+आना] | चहारदीवारी, सं-स्त्री. दे. 'चारदीवारी' । | चाँई, वि. ( देश. चई = डाकू जाति ) अपहचतुराणी, रुच्यः। चवर्ग, सं. पुं. (सं.) चकारादयः पंचवणोंः। रणशील, चौर्यवृत्ति । धूर्त, छलिन् । चाँचत्य, सं.पं. (सं. न.) दे. 'चंचलता'। चवाई, सं. पुं. (हिं. औ+बाई = हवा) चाँटा, सं. पु. ( अनु. चट ) दे. 'चपत' । निंदकः, अप-परि, वादकः २. पिशुनः, कर्ण-चौडाल, सं. पुं. (सं.) दे. 'चंडाल' । जपः। चौडाली, सं. स्त्री. (सं.) दे. 'चंडाली' । चवालीस, वि. (सं. चतुश्चत्वारिंशत् ) । सं. पुं. | चाँद, सं.पं. ( सं. चंद्रः ) दे. 'चंद्र' २. चन्द्रउक्ता संख्या, तदको (४४) च । कलाकारः आभुषणभेदः, *चन्द्रः ३. मासः चवालिसवां, वि., (हिं. चवालीस ) चतुश्च ४. लक्ष्य-क्ष, शरव्यं । सं. स्त्री., शिरोऽयं, त्वारिंशत्तमः (मी-मम् )। कपालशिखरं २. शिरोऽस्थि ( न. ), चश्म, सं. स्त्री. (फ़ा.) नेत्रं, नयनम् । कपालः-लम् । -दीद, वि. ( फ़ा.) दृष्ट, अवलोकित, प्रत्यक्ष । | -मारी, सं. पुं., लक्ष्यवेधः, शरव्यनिर्भेदः। -दीद गवाह, सं. पुं. (फ़ा.) प्रत्यक्ष, साक्षिन्- | चोंदना, सं. पुं. (हिं. चाँद ) आलोकः, प्रकाशः दर्शिन्-प्रत्यक्षिन्-देश्यः ।। २. दे. 'चंद्रिका'। चश्मा, सं. पुं. (फा.) दे. 'ऐनक' २. उत्सः, -पाख, सं. पुं. पूर्व-शुक्ल-शुद्ध-सित,-पक्षः। निर्झरः, प्रस्रवणं, स्रोतस ( न.) ३. कु-क्षुद्र, चाँदनी, सं. पुं. (हिं. चाँदना) दे. नदी-सरित् (स्त्री.)। 'चंद्रिका' २. श्वेत-सित,-प्रच्छदः । ३. शुक्लो१. चषक, सं. पुं. (सं. पुं. न.) मद्यपानपात्रम् , लोचः ४. तगराख्यं पुष्पम् । अनुतर्षणं, सरकः, गल्वर्कः २. मधु (न.)। -चौक, सं. पुं. (हिं.+सं. चतुष्क) मुख्यचषण, सं. पुं. (सं. न.) भक्षणं, खादनम् | मार्गः, प्रधानहट्टः, २. दिल्लीनगरस्य प्रधान२. हननं, मारणम् । हट्टा, चन्द्रिकाचतुष्कम् । For Private And Personal Use Only Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir चाँदी [२०१] चातक -रात, सं. स्त्री., ज्योतिष्मती, ज्योत्स्नी। चाकरानी, सं. स्त्री. (फ़ा. चाकर ) दासी, चाँदी, सं. स्त्री., (हिं. चाँद ) रजतं, रूप्यं, सेविका। दुर्वर्ण, श्वेतं, कलधौतम् । २. धनं, वित्तं | चाकरी, सं. स्त्री. (फ़ा. चाकर) सेवा, ३. आर्थिकलामः ४. दे. 'चाँद', (सं.स्त्री.)। परिचर्या ।। -का, वि, राज-रौप्य [-ती, प्यो (स्त्री.)], | चाकसू, सं. पुं. (सं. चक्षुष्या) कुलाली, रजत-रूप्य, निमित-रचित, रजत । (अरण्य-) कुलत्यिका, लोचनहिता, दृक-सा, वि., रूप्योपम, रजतवर्ण, अतिधवल। प्रसादा। २. चक्षुष्याबीजम् । -का जूता, मु., दे. 'चूंस'। चाकी, सं. स्त्री. (हिं. चाक ) दे. 'चक्की' । चाँद्र, वि. (सं.) चौद्रमस [-सी( स्त्री.)] चाक, सं. पुं. (फ़ा.) छुरिका, कृपाणिका, असि, ऐंदव [ वी (स्त्री.)] चंद्र, सोम-। पुत्रिका, धेनुका, शस्त्री, शस्त्रिका । -मास, सं. पुं. (सं.) चंद्र-सोम-विधु,-मासः। चाक्षुष, वि. (सं.) नेत्र,-संबंधिन्-विषयक, -वत्सर, सं. पु. (सं.) सौम्य-चान्द्रिक- चान्द्र. २. चक्षुर-नेत्र, ग्राह्य । मस, वर्षः-अब्दः-हायनः ।। चाचर, सं. पुं. ! (सं. चर्चरी) चर्चरिका, चांद्रमस, वि. (सं.) चान्द्र, चान्द्रिक, सौम्य, चाचरि, सं.स्त्री. राग-गीति, भेदः २. होलिसौमिक ( स्त्री. चांद्री, चान्द्रिकी, सौम्या, कोत्सवः ३. आमोदप्रमोदाः ४. उपद्रवः, सौमिकी)। क्षोमः, कलहः । चांद्रायण, सं. पुं. (सं. न.) व्रतभेदः, इंदुव्रतम् । चाचा, सं. पुं. (सं. तातः> ) पितृन्यः, पितृ. चौप, सं. स्त्री. (हिं. ●पना) नि., पीडनं, सोदरः २. (छोटा) खुल्लतातः । निबंधः, अतिमारः २. प्रेरणं-णा, प्रचोदना चाची, सं. स्त्री (हिं. चाचा) पितृव्या, ३. लोहनाडी-अग्न्यस्त्र,-तालकं ४. चरण- पितृव्यपत्नी। पाद,-शब्दः। चाट, सं. स्त्री. (हिं. चाटना) स्वादलोलुपता, चाँपना, क्रि. स. दे. 'दबाना'। रसलालसा २. दे. 'चसका' ३. लालसा, चाय चाय चाँव-चाँव, सं. स्त्री. (अनु.)| उत्कटाभिलाषः ४. दे. 'आदत' ५. अव-उप, • प्रलापः, प्रलपितं, प्रजल्पः-पितं, बाल, आलापः। दंशः, व्यंजनम् । भाषणम् । -लेना, दे. 'चाटना। चाक,'सं. . (फ़ा.) विदरः, रंध्र, भेदः। चाटना, क्रि. स. (अनु. चटपट) अव-आ-करना, क्रि. स., विदृ (प्रे.), छिद् परि-सं.., लिह ( अ. उ. अ.) २. ग्रस्-ग्लस् (रु. प. अ.)। (स्वा. आ. से.)। चाक', सं. पुं. ( अं.) खटी, खटिका, कठिनी। चाटी, सं. स्त्री. ( देश.) मंथनी, गर्गरी, दधिचाक, वि. ( तु.) सबल, स्वस्थ, दृढतनु । मंथनपात्रम् । -चौबंद, वि., हृष्टपुष्ट, पुष्टांग [ -गी (स्त्री.)] चाटु, सं. पुं. ( सं. पुं. न, ) चाटूक्तिः ( स्त्री.), २. अतंद्र, क्षिप्रकारिन् , लघु । चाटुवादः, प्रिय-मधुर, वचनं, मिथ्या, प्रशंसाचाक सं. पु. ( सं. चक्रं ) कुलाल-कुम्भकार संस्तावः-स्तवः-स्तुतिः ( स्त्री.), उपलालनम् । चक्रि, चक्र २. रथांगं, मंडलं ३. दे. 'गडारी' | -कार, सं. पुं. (सं.) मिथ्याप्रशंसकः, चाटु४. पेषणचक्र, पेषणीपाषाणः ५. शाणः-गी। । वादिन् । चाकचक, वि. ( तु. चाक) सुदृढ, सुरक्षित, | -कारी, सं. स्त्री. (सं. चाटुकारः> ) चाटुदुर्गम। वादित्वं, सांत्ववादित्वं, दे. 'चाटु'। चाकचक्य, सं. स्त्री. (सं. न.) आभा, प्रभा, चाणक्य, सं. पुं. (सं.) कौटिल्यः, विष्णुगुप्तः, द्युतिः कान्ति ( स्त्री. ) २. सौन्दर्य, शोभा। द्रोमिणः, अंशुलः, चंद्रगुप्तमौर्यस्यामात्यः, चाकना, क्रि. सं. ( हिं. चाक ) रेखाभिः परिवृ. चणकात्मजः परिवेष्ट (प्रे.) चातक, सं. पुं. (सं.) मेघजीवनः, तोककः, चाकर, सं. पुं. ( फ़ा.) किंकरः, दासः, सेवकः । स्तोककः, सा(शा )रंगः । For Private And Personal Use Only Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir चातकानन्दन [२०२] चालना चातकानन्दन, सं. पुं. (सं.) मेघः, जलदः, | -बार, क्रि. वि., चतुः ( अव्य ), चतुर्वारम् । वारिदः २. प्रावृष (स्त्री.), मेघागमः, -आँख, मु. समागमः, संमिलनम् । वर्षाकालः । -आदमी, मु., जनः-नाः, लोकः-काः। चातुरी, सं. स्त्री. (सं.) दे. 'चतुरता'। -दिन की चाँदनी, मु. क्षणिकसुखम् , नश्वराचातुय्ये, सं. पुं. (सं. न.) दे. 'चतुरता'। नन्दः । चादर, सं. स्त्री. ( फ़ा. ) दे. 'चद्दर'। चारज, सं. पुं. ( अं. चार्ज) कार्यभारः, उत्तरचाप, सं. पुं. (सं.) धनुष (न.), इक्ष्वासः दायित्वं, २. रक्षणं, अवेक्षा। २. अर्द्धवृत्तम् (गणित)। चारजामा, सं. पुं. (फ्रा.) दे. 'जीन'। चाप, सं. स्त्री. दे. 'चाप' ( १, ४)। चारण, सं. पुं. (सं.) बं( वं)दिन् , मागधः, चापड़, सं. स्त्री. (सं. चर्पट:> ) कठिन- वैतालिकः, स्तुतिपाठकः, संस्तावकः । कोकस, भूमिः (स्त्री.) । वि., समतल, सपाट । । चारपाई, सं. स्त्री. (सं. चतुष्पाद > ) खट्वा, चापना, क्रि. स., दे. 'दवाना'। मंचिका, पर्यकिका। चापलूस, सं. पुं. (फ़ा.) दे. 'चाटुकार'। -पर पड़ना, मु., व्याधित-रोगग्रस्त(वि.) चापलूसी, सं. स्त्री. (फा.) दे. 'चाटुकारी'। भू । चाबना, क्रि. स., दे. 'चबाना'। चारवाक, सं. पुं. (सं. चार्वाकः ) अनीश्वरचाबी-भी, सं. स्त्री. (हिं. चाप = दबाव) वादी आचार्यविशेषः । साधारणी, कूचिका, तालिका, ताली, कुंचिका, चारा, सं. पु. (हिं. चरना) दे. 'चरी' । अंकुटः, उद्धाटकः । चारा, सं. पुं. (फ़ा.) उपचारः, उपायः, प्रति-देना, क्रि. स., कुंचिका आ-परि-वृत् (प्रे.), (ती)कारः। कुच्-कुंच ( भ्वा. प. से. )। -जोई, सं. स्त्री. (फ़ा) अभियोगः, व्यवहारः । चाबुक, सं. पुं. (फा.) अश्वताडनी, कशा-षा, -जोई करना, कि. स., राजकुले निविद् प्रतिष्कशः-षः, प्रतोदः । | (प्रे.), अभियुज (रु. आ. अ.; चु.)। -मारना, क्रि. स., कशया तड-चुद्-दंड(चु.)। चारित्र, सं. पुं. (सं. न.) चारित्र्यम् , चरित्रम् , -सवार, सं. पुं., वानिविनेत (पु.), अश्व- वृसं, चरितम् , दे. 'चरित्र'। शिक्षकः । चारु, वि. (सं.) सुंदर, मनो,-हर-रम, रुचिकर । चाम, सं. पुं. [सं. चर्मन् (न.)] दे. 'चमड़ा। चारों तरफ, क्रि. वि., चतुर्दिशं, समंतात , चामर, सं. पुं. (सं. पुं. न.) चमरं, चामरारी। समंततः, परितः, सर्वत्र । चामीकर, सं. पुं. (सं. न.) सुवर्ण २. धुस्तूरः। चाल, सं. स्त्री. ( सं. चालः> ). गमनं, चलनं, चाय, सं. स्त्री. ( चीनी, चा), चा, चविका । । स्पन्दनं, स्फुरणं, सरणं, २. प्रगतिः ( स्त्री. ), -पानी, पुं. स्त्री., जलपानं, *चापानं, अल्प- चार :, गमनप्रकारः ३. आचारः, व्यवहारः स्तोक,-आहार:; कल्यवतः । ४. उपायः, युक्तिः (स्त्री.) ५. छलं, कपट चार, वि. ( सं. चतुर् ) [ सदा बहु. ; चत्वारः | ६. विधिः (पुं.), प्रकार: ७. रीतिः ( स्त्री.), (पु.); चतस्रः (स्त्री.); चत्वारि ( न.)] 1 संप्रदायः ८. पर्यायः, वारः, परिवृत्तिः (स्त्री.)। २. अनेक, बहु ३. कतिपय । सं. पुं., उक्ता -चलन, सं. पुं., चरित्रं, आचरणं, वृत्तं, संख्या तद्बोधको अंकः (४) च। आचारः। -का समूह, चतुष्टयं-यी, चतुष्कम् । -ढाल, सं. स्त्री., आचारः, चरितम् । -कोना, वि. चतुष्कोण, चतुरस्र-श्र। -बाज़, वि. ( हिं.+फ़ा.) मायाविन् , काप-खाना, वि. चित्र, वर्गित । सं. पुं., वगित- टिक। चित्रित, वस्त्रम् । -बाज़ी, सं. स्त्री., कपट, माया, वंचनं ना। -गुना, वि., चतुर्गुण-णित । -चलना, मु., वंच ( चु.), व्यामुह (प्रे.)। -दीवारी, सं. स्त्री., वप्रः-प्रं, वरणः, प्राकारः। -में आना, मु., वंच-व्यामुह -विप्रलम् (कर्म.)। -प्रकार से, क्रि. वि., चतुर्धा, प्रकारचतुष्टयेन । । चालना, क्रि. स., दे. 'छानना'। For Private And Personal Use Only Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir चालनी [ २०३] चिंता चालनी, सं. स्त्री. (सं.) दे. 'छलनी'। सं. स्त्री., अमिलाषः, इच्छा; अनुरागः, स्नेह, चाला, सं. पु. ( सं. चालः> ) प्रस्थानं, गमनं आवश्यकता इ.। २. यात्रामुहूर्त नवोढायाः प्रथमवारं पतिगृहे | चाहनेयोग्य, वि., अभिलषितव्य, एषणीय; ततः पितृगृहे वा गमनम् । दयित, प्रिय इ.। चालाक, वि. (ता.) धूर्त, मायिक २. निपुण, चाहनेवाला, वि., इच्छु-च्छुक, अभिलाषिन् ; दक्ष। अनुरागिन् , स्नेहिन् । चालाकी, सं. स्त्री. (फ़ा.) धूर्तता, कापलं चाहिए, अव्य. (हिं.-चाहना ) उचितं, २. नैपुण्यं, चातुर्यम् । उपयुक्तं, न्याय्यं । (-तव्य, अनीय, ण्यत् आदि चालान, सं. पुं. दे., 'चलान'। से भी इसका अनुवाद करते हैं; उ. करना चालीस, वि. ( सं. चत्वारिंशत् )। सं. पुं., चाहिए कर्तव्यं करणीयं, कार्य इ.)। उक्ता संख्या, तद्बोधकावंको ( ४० ) च । । चाही, वि. ( फ़ा. चाह ) कूप,-सिक्त-संबंधिन् । चालीसवां, वि. ( हिं. चालीस ) चत्वारिंश | | चाहे, अव्य. ( हिं. चाहना ) यथाकामं, यथा[-शी. ( स्त्री. )] चत्वारिंशत्तम [-मी. (स्त्री.] 1 | भिलाषं, स्वैरं, स्वच्छंद २. वा, अथवा, यद्वा । चालीसा, सं. पुं. (हिं. चालीस ) चत्वारिं- चिउँटा, सं. पुं. (हिं चिमटना) पिपीलकः, शत्पदार्थसमूहः २. चत्वारिंशद् दिवसाः पीलकः।। वर्षाणि वा ३. चत्वारिंशत्पद्यात्मकग्रन्थः। चिउँटी. सं. स्त्री. (हिं चिउँटा) (पुं.) पिपील:, चाव, सं. पुं. (हिं. चाह ) अभिलाषः, लालसा, पीलुकः, पिपीलिकः। [पिपीली, पिपलिका उत्कटेच्छा २. अनुरागः, प्रेमन् (पुं. न.) (स्त्री.)]। ३. अभिरुचिः (स्त्री.)४. उत्साहः ५. लालनम्। | -की चाल, मु., मंद-मंथर, गतिः ( स्त्री.)। -चोचला, सं. पुं., उप-,लालनं, परिष्वंगः । -के पर निकलना, मु., आसन्नमृत्यु, निधनो-निकालना, मु., अभिलाषं-इच्छा पूर (चु.) | न्मुख । निवृत् (प्रे.) | चिंघाड़, सं. स्त्री. (सं. चीत्कारः) बृंहितं चावड़ी, सं. स्त्री. दे. 'पड़ाव' । २. महानादः, तुमुलध्वनिः ( पुं.)। चावल, सं. पुं. (सं. तंडुलः) धान्यास्थि (न.), चिंधारना, क्रि. अ. (हिं. चिंघाड़) बृह धान्य-शालि, सारः दे. 'धान', 'भात' २. । (भ्वा. प. से.,) २. उच्चैः नद् (भ्वा. प. से.) । गुञ्जायाः अष्टमभागमितः तोलः । -का धोवन, सं. पुं., तण्डुलोदकम् , तण्डु | चिंचा, सं. स्त्री. (सं.) अम्लिका, तितिडि(डी)लोत्थम् । | का २. अम्लि का-चिंचा,-फलम्३. रक्ता, गुंजा। चाशनी, सं. स्त्री. (फ्रा.) गुड-सिता-शर्करा.. | चिंतक, वि. (सं.) विचारक, विवेचक, ध्यात । रसः २.दे. 'चसका। सं. पुं. (सं.) तत्त्वज्ञः, दार्शनिकः । चाह, सं. स्त्री. (सं. इच्छा ) दे. 'चाव' (१-२)। चिंतन, सं. पुं. (सं. न.) चिंतना, ध्यानं, ३. आदरः, प्रतिष्ठा ४. आवश्यकता, प्रयो- स्मरणं २. विचारणं, विवेचनम् । जनम् । | चिंतनीय, वि. (हिं.) चिंताप्रद, उद्वेगकर चाहता, वि. ( हिं. चाह ) दयित, प्रिय, कांत । (री स्त्री.), २. ध्येय, भावनीय ३. विचार्य, चाहना, क्रि. स. ( हिं. चाह ) अभिलप ( भ्वा. विवेचनीय । दि. प. से.), इषु (तु. प. से.), रुच-कम् चिंता, सं. स्त्री. (सं.) उद्वेगः, औत्सुक्यं, (भ्वा. आ. से., कामयते ), (सन्नत या व्यग्रता, रणरणकः, आकुलता, उत्कलिका, '-काम' से भी अनुवाद करते हैं; उ. वह जाना | मनस्तापः २. आ-,ध्यान- चिंतनम् । चाहता है = स गंतुकामः अथवा जिगमिषति ) -आतुर, वि. (सं.) सचिंत, चिंतित, चिंता२. मिह ( दि. प. वे.), अनुरंज (कर्म.), मग्न, उद्विग्न, व्याकुल ।। अनुरागवत्-मोहित (वि.) भू ३. प्र, यत् -जनक, वि., चिन्ता-आकुलता,-प्रद-उद्भावक । ( भ्वा. आ. से.,) ४. दे. 'ढूँढ़ना'। -मणि, सं. पुं. (सं.) स्पर्शमणिः । For Private And Personal Use Only Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir चिंतित । २०४] चिड़ी चिंतित, वि. (सं.) दे. 'चिंतातुर' २. विचा- चिट, सं. स्त्री. ( सं. चित्र >) पत्रखंडः-टं २. रित, ध्यात। वस्त्रशकल:-लम् । चित्य, वि. (सं.) दे. 'चिंतनीय' ( २-३) -नवीस, सं. पुं. ( हिं.+ फ़ा. ) लेखकः, कायचिंदी, सं. स्त्री. ( देश.) खंडः, लवः ।। स्थः, लिपिकरः। चिपाजी, सं. पु. ( अं.) अफ्रीकामहाद्वीपस्य चिटकना, कि. अ. ( अनु.) स्फुट ( तु. प. वनमानुषभेदः। सु. )दृ-भंज-भिद् ( कर्म.) २. सचिटचिटशब्द चिक, सं. स्त्री. (तु. चिक) तिरस्करिणी, ज्वल् ( भ्वा. प. से.) ३. दे. 'खीझना'। प्रतिसीरा, व्यवधा, व्यवधानं, आवरणं, चिटकाना, क्रि. स., ब. 'चिटकना' के प्रे. रूप । मासिकः, विशसित, शौ ( सौ) निकः। चिट्टा, वि. (सं. सित ) श्वेत, शुक्ल, धवल चिक, सं. पुं. ( अं. चेक ) देयादेशः। २. दे. 'रुपया'। चिक, सं. स्त्री. ( अनु.) आकस्मिकी कटि- चिट्ठा, सं. पुं. (हिं. चिट ) आयव्यय देया. व्यथा। देय, पंजिः (स्त्री.)-पंजी-पंजिका, दे. 'बही खाता' २. व्ययसूची ३. सूची ४. लामालामचिकन, सं. पुं. (फ़ा.) कार्मिकवस्त्रभेदः, हानिलाम,-पत्रम् । *चिक्कणम् । चिकना, वि. (सं. चिक्कण ) तैलमय (-यो। कच्चा-, सं. पुं., गुह्य-गुप्त,-वृत्तांतः । स्त्री.), तैलाक्त, तैल, युक्त-वत् २. स्निग्ध, चिट्ठा, चिट्ठी, सं. स्त्री. (हिं. चिट्ठा ), ( संदेश-) मसूण, लक्षण ३. परिष्कृत, संस्कृत ४.पिच्छिल, पत्रं, लेखः-ख्य २. लिखितः पत्रखंडः ३. प्रमामैदुर ५. सम, सपाट । [चिकनी (स्त्री.) णपत्रं ४.५ आशा-निमंत्रण, पत्रम् । चिक्कणा इ.]। -पत्री, सं. स्त्री., पत्रव्यहारः, पत्र-विनिमयः-घड़ा, सं. पुं., निर्लज-अपत्रप, मनुष्यः। संवादः। -मिट्टी, सं. स्त्री., मृत्तिका, मृद् (स्त्री.)। -रसाँ, सं. पुं. (हिं.+फ़ा.) पत्रवाह-हकः, -चुपड़ी बातें करना, मु., चाटुवादैः वंच लेखहारः-रकः। (चु.)-प्रतृ (प्रे.)। चिड़, सं. स्त्री.. दे. 'चिढ़' । चिकनाई, सं. स्त्री. ( हिं. चिकना) चिकणता, चिड़चिड़ा, वि. (हिं. चिडचिड़ाना ) शीघ्रस्निग्धता, श्क्ष्णता २. समता, सपाटता | कोपिन् , सुलभकोप, क्रोधन, कोपन । ' ३. घृतादयः स्निग्धपदार्थाः । चिड़चिड़ाना, क्रि. अ. ( अनु.) ईषत् कुपचिकनापन, सं. पुं. ) (हिं. चिकना) दे. रुष ( दि. प. से. )-क्रुध् (दि. प. अ.), चिकनाहट मं. स्त्री. । चिकनाई (१-२)। संतप्-किश ( कर्म.)। चिकित्सक, सं. पुं. (सं.) वैद्यः, धकः, रोग,- चिड़चिड़ाहट, सं. स्त्री. (हिं. चिड़चिड़ाना) हृत्-हारिन् (पुं.), अगदंकारः, मिषज् (पुं.)। सुलभकोपता, दुर्मनायितं, कोपनता। चिकित्सा, सं. स्त्री. (सं.) औषध-,उपचारः, चिड़वा, सं. पुं. (सं. चिपिटः ) चिपटः, पृथुकः, उपक्रमः, रोगप्रतीकारः २. वैद्यकं ३. औषधं, चिपि(पु)ट:-टकः । भेषजम् । . चिड़ा, सं. पुं. (सं. चटकः ) कलविंकः-गः, चिकित्सालय, सं. पुं. (सं.) आतुरालयः। गृहनीडः, चित्रपृष्ठः, कामुकः। चिकुटी, सं. स्त्री., दे. 'चुटकी'। | चिड़िया, सं. स्त्री. ( हिं. चिड़ा ) पक्षिन्, खगः, चिकुर, सं. पुं. (सं.) केशः, मूर्धजः, शिरसिजः | २. क्रीडापत्ररंगभेदः ३. दे. 'चिड़ी' । २. पर्वतः ३. काष्ठमार्जारः, दे. 'गिलहरी'। -घर, सं. पुं., जन्त्वागारं, प्राणिशाला २. पक्षिचिक्कण, वि. (सं.) दे. 'चिकना'। शाला, पंजरम्। चिखुरी, सं. स्त्री. (सं. चिकुरः>), 'गिलहरी'। चिड़ी, सं. स्त्री. (हिं. चिड़ा ) चट(टि)का, चिचड़ी, सं. स्त्री. (देश.) पशुयूका, कीटभेदः। चटकका, कलविंकी-गी २-३. दे. 'चिड़िया' चिचिंडा, सं. स्त्री. (सं. चिचिंडः ) अहिफला, | (१-२)। दीर्घफला, सुदीर्घः, गृहकूल कः। -का बच्चा, सं. पुं., चाटकरः। For Private And Personal Use Only Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir चिढ़ [ २०५] चित्रकूट -की बच्ची , सं. स्त्री., चटका । - चितेरी-रिन, सं. स्त्री. (हिं. चितेरा) चित्र, -मार, सं. पुं., जालिकः, शाकुनिकः, लुब्धकः, । करी-लेखिका, तौलिकी २. चित्रकारपत्नी।। पक्षिग्राहकः। चित्त, सं. पुं. (सं. न.) अंतःकरणं, चेतमचिढ़, सं. स्त्री. (हिं. चिड़चिड़ाना) घृणा, मनस्-हृद् (न.), हृदयं, मानसं २. धीःअरुचिः (स्त्री.), जुगुप्सा, विद्वेषः। बुद्धिः-मति (स्त्री.), प्रज्ञा, शेमुषी ३. अवधानं, चिढ़ना, क्रि. अ., दे. 'चिड़चिड़ाना'। मनोयोगः, अवेक्षा ४. स्मृतिः (स्त्री.), चिढ़ाना, क्रि. स., ब. 'चिड़चिड़ाना' के प्रे. रूप। धारणा । चित', सं. पुं. ( सं. चित्तं ) मामसम् । -उद्रेक, सं. पुं. (सं.) गर्वः, दर्पः, मदः, अहं. -चोर, सं. पुं., मनोहरः, चित्ताकर्षकः कारः, अहंमानः। २. प्रियः, दयितः, कांतः । -विक्षेप, सं. पुं (सं.)मनश्चचिल्यं, मनःक्षोभः । -देना या लगाना, मु., अवहित (वि.) भू, | -विभ्रम, सं. पुं. (सं.) चित्तव्यामोहः, मनोभ्रांतिः (स्त्री.) २. उन्मादः। अवधा (जु. उ. अ.)। -वृत्ति, सं. स्त्री. (सं.) मनो, गतिः-वृत्तिः -से उतरना, मु., विस्मृ (कर्म), दे. 'भूलना' । (स्त्री.), चित्तावस्था। चित', वि. (सं.चित > ) उत्तान, उन्तान -करना, मु., अभिलष् ( भ्वा. प. से.), इष् अवपृष्ठ, शय-शायिन् । | (तु. प.से.)। .-करना, मु., (शत्रु मल्लयुद्धे ) अवपृष्ठशायिनं चित्ति, सं. स्त्री. (सं.) बुद्धिः (स्त्री.), प्रज्ञा कृ; विजि ( भ्वा. आ. अ.)। २. चिन्तनम् ३. ख्यातिः ( स्त्री.) ४. कर्मन् -होना, मु., मूर्छ ( भ्वा. प. से.)। (न.) ५. भक्तिः (स्त्री.) ६. प्रयोजनम् । चित, विः (स.) उत्तान, अवास्यशायत । | चित्ती, सं. स्त्री. (सं.चित्रं <)बिंदुः (पु.), चितकबरा, वि. ( सं. चित + कर्बुर > ) चित्र, | अंकः, चिहं २. चित्रा, चित्रसर्पः ३. क्षत, कर्बुर, चित्रविचित्र, कवरित, चित्रित, शबल, चिह-अंकः। चित्रांग ( -गी स्त्री.)। -दार, वि. ( हिं.+फ़ा.) बिंदुचिह्नित, चित्र । चितला, वि. दे. 'चितकबरा' । चित्र, सं. पु. ( सं. न.) प्रति, कृतिः (स्त्री.)चितवन, सं. स्त्री. (हिं. चेतना) दृक नयन- | छंदकं च्छाया-रूपं, आलेख्यं, प्रतिमा। वि., दृष्टि, पातः, आलोकितं, वीक्षितं, २. कटाक्षः, कर्बुर, शबल, विविधवर्ण। अपांगदृष्टिः ( स्त्री.), नयनोपांत-साचि, विलो. -कला, सं. स्त्री. दे. 'चित्रकारी'। कितम् । -कार, सं. पुं. (सं.) दे. 'चितेरा'। चिता, सं. स्त्री. (सं.) चित्या, चिती-तिः (स्त्री.), | -कारी, सं. स्त्री. (सं. चित्रकार < ) चित्र, चित्यं, चैत्यं, चिताचूडकं, काष्ठमठी। .. | कला-क्रिया-कर्मन् ( नं.)विधा २. आ-चित्र, -भूमि, सं. स्त्री. (सं.) श्मशानं, पितृ, वनं | लेखनम् । . काननम् । -मय, वि. (सं.) सचित्र, चित्रबहुल, -साधन, सं. पुं. (सं. न.) श्मशाने चित्रांकित । मंत्रानुष्ठानम् । -वत् , वि. (सं.) चित्र-आलेख्य, तुल्य-समचिताना, कि स. (हिं. चेतना) (पूर्व-प्राक) सदृश २. निश्चल, स्तब्ध, स्थिर । प्रबुध (प्रे.)-अनुशास् (अ. प. से.), उप -विचित्र, वि. (सं.) शबल, कर्बुर, बहुरंग। दिश (तु. प. अ.) २. अनु-स्मृ (प्रे.), उद्- |-शाला, सं. स्त्री. (सं.). आलेख्य, शाला अनु-बुध् (प्रे.)।........ . . भवनम् ।. .. चितावनी, सं-स्त्री., दे.'चेतावमी'। चित्रक, सं. पुं. (सं.) चित्र, कायः,-व्यात्रः, चितेरा, सं. पु. [ सं चित्रक(का)रः] चित्रकः, | मृगांतकः, क्षुद्रशार्दूलः, उपव्याघ्रः, २. दे. रङ्गजीवकः, रंजकः, सत्सारः, चित्र-लेखकः 'चितेरा। कृत् (पुं.), आलेखकः, तौलिकः । . [ चित्रकूट, सं. पुं. (सं.) पर्वतविशेषः। . For Private And Personal Use Only Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir चित्रगुप्त [२०६] चिरायता चित्रगुप्त, सं. पुं. (सं.) यमलेखकः। | चिमटी, सं. स्त्री. ( हिं. चिमटा ) संदंशिका, 'चित्रा, सं. स्त्री. (सं.) चतुर्दशनक्षत्रं । वि., | लघु-कंकमुखः-खम् । कर्बुर, शबल। चिमड़ा, वि., दे. 'लचीला'। चिथडा. सं. पं. (हिं. चीथना) चीरं, चिमनी, सं. स्त्री. (अं.) धूम, नाली-रंधं चीवरं, कर्पटः, नक्तकः। २. अग्निकुण्डं, चुल्ली-ल्लिः (स्त्री.)। चिनक, सं. स्त्री. (हि. चिनगी) सदाहा पीडा चिरंजीव, वि. (सं.) दीर्घ-चिर, जीविन्२. मूत्रनाड्याः पीडा । आयुस् २. दीर्घायुः मव। चिनगारी, सं. स्त्री. (सं. चूर्ण+अंगारः> ) चिरंतन, वि. ( सं.) चिरत्न [-त्नी (स्त्री.)], क्षुद्रांगारः २. अग्नि-ज्वलन, कणः-कणिका, | पुरातन [ -नी (स्त्री.)], प्राचीन, प्राक्तन वि.,स्फुलिंगः-गं-गा। [-नो ( स्त्री.)] । ... |चिर, वि. (सं.) दीर्घ-चिर, कालिक-कालीन चिनगी, सं. स्त्री. ( हिं. चिनगारी ) दे. 'चिन २. चिरकाल दीर्घकाल,-स्थायिन् ३. दे. 'चिरंगारी' चपलबालः। तन'। चिनाई, सं. स्त्री. (हिं. चिनना) इष्टका -काल, सं. पुं. (सं.) दीर्घसमयः, महान् चयनं । २-३. भित्ति-गृह,- निर्माणम् । कालः। चिन्मय, वि. (सं.) शानमय । सं. पुं. परमे -कालिक,-कालीन, वि. ( सं. ) दे. श्वरः। 'चिरंतन'। (रोग) अविसगिन् , कालिक, चिन्ह, सं. पुं. दे. 'चिह्न' । दीर्घस्थायिन् । चिन्हित, वि., दे. 'चिह्नित'। -जीवी, वि. (सं.-विन् ) दे. 'चिरंजीव' । चिपकना, क्रि. अ. ( अनु. चिपचिप) संश्लिष् -स्थायी, वि. (सं.-विन् ) दीर्घकाल, ध्रुव, ( दि. प. अ. ), संलग् ( भ्वा. प. से.) | स्थिर, अशीघ्रनाशिन् । अनु-आ-सं.-संज् ( कर्म.)। | चिरकना, क्रि. अ. ( अनु० ) अल्पं-स्तोकं हद् चिपकाना, क्रि. स., ब, 'चिपकना' के प्रे. रूप। ( भ्वा. आ. अ.) २. असकृत् अल्पमलं उत्सृज् चिपचिप, सं. स्त्री. ( अनु.) चिपचिपशब्दः। । (तु. प. अ.)। चिपचिपा, वि. ( अनु.) श्यान, सांद्र, संलग्न- | चिरकुट, ( सं. चीरम् ) दे. 'चिथड़ा' । शील। चिरचिरा, वि., दे. 'चिड़चिड़ा'। चिपचिपाना, क्रि. अ. ( अनु. चिपचिप ) चिरन, वि. (सं.) पुराण, पुरातन, प्रतन, संलग्नशील-सांद्र(वि.)भू २. दे. 'चिपकना' ।। प्रन। चिपचिपाहट, सं. स्त्री. (हिं. चिपचिपाना) चिरना, क्रि. अ. (सं. चीर्ण > ) स्फुट (तु. संलग्नशीलता, श्यानता, सांद्रता। प. से.), विद-विभिद्-मंज ( कर्म.)। चिपटना, क्रि. अ. (सं. चिपिट ) दे, 'चिप-चिरवाई, सं. स्त्री. (हिं. चिरवाना) विदलनं, कना' २. आलिंग ( भ्वा. प. से.), परि- विदारणं, विपाटन, २. विदारण, वेतन-भृत्या । स्वंज (भ्वा. आ. अ.)। चिरवाना, क्रि. प्रे., ब. 'चीरना' के प्रे.रूप । चिपटा, वि. (सं. चिपिट < ) अभुग्न, समरेख, चिराइता, सं. पुं., दे. 'चिरायता' । सम, समस्थ, सपाट। | चिराई, सं. स्त्री. (हिं. चिराना) दे. 'चिरवाई। चिपटाना, क्रि. स., ब. 'चिपटना' के प्र. रूप। चिरारा, सं. पुं. (फ़ा. चरारा) दीपः, दीपकः । चिबुक, सं. पुं. (सं. चिबु(वु)क) दे. 'ठोड़ी। -दान, सं. पुं., दीप,-आधारः-वृक्षः। चिमटना, क्रि. अ. (हिं. चिपटना) दे. 'चिप- | चिराना, कि.प्रे., ब. 'चीरना' के प्रे. रूप । टना' (१.२)। चिरायध, सं. स्त्री. (सं. चर्मगंधः ) चर्मवसादिचिमटा, सं. पुं. (हि. चिमटना) संदंशः ज्वलनगंधः, दुर-पति,गंधः । शकः, कंक, मुखं-वदनम् । | चिरायता, सं. पुं. (सं.चिरतिक्तः) भूनिवः, चिमटाना, क्रि. स., ब. 'चिपटना' के प्रे.रूप।। सु,तितकः, किरातकः। For Private And Personal Use Only Page #245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir चिरायु [२०७] चीर चिरायु, वि. (सं. चिरायुस् ) दे. 'चिरंजीव' | चीखना, क्रि. स. ( सं. चषणं ) दे. 'चखना'। चीखना, क्रि.अ.(सं. ची करणं) दे. 'चिल्लाना'। चिरौंजी, सं. स्त्री. ( सं. चारबीजं > ) ( वृक्ष ) | (२) उच्चैः वद्-लप ( भ्वा. प. से.)। चारः, चारकः, खरस्कंधः, बहुवल्कलः, प्रियालः | चीज़, सं. स्त्री. (फ़ा.) वस्तु (न.), द्रव्यं, २. तस्य फलं ३. तद्वीजगर्भः। पदार्थः। चिलक, सं-स्त्री., दे. १. 'चमक' २. 'टीस'। |-वस्तु, सं. स्त्री. ( फा.+सं.) वस्तुजातं, चिलकना, क्रि. आ., दे. 'चमकना' २. दे. सामग्री २. गृहोपस्करः २. आभूषणादिकम् । 'टीस मारना। | चीद-द, सं. पुं. (सं. चीड़ा) दारुगंधा, चिलगोज़ा, सं. पुं. (फा.) जलगोजकं, निको. | मङ्गल्या, भूतमारी, गन्धद्रव्यभेदः २. चीरपर्णः चकं, चारुफलं, संकोचम् । शालः, सर्जः, दीर्घशाखः ( वृक्ष )। चिलम, सं-स्त्री. (फ़ा.) धूमपानचषकः।। चीतल, वि., (सं. चित्रल ) दे. 'चितकबरा'। चिलमची, सं. स्त्री. ( फ़ा.) इस्तधावनी, कर- सं. पुं., चित्रमृगः २. चित्रसर्पः, अजगरभेदः । क्षालनी। चीता', सं. पुं. (सं. चित्रकः ) दे. 'चित्रक' । चिलमन, सं. स्त्री. (फ़ा.) दे. 'चिक' (१)।। चीता', वि. (हिं. चेतना ) विचारित, चिंतित । चिल्लपों, सं. स्त्री. (हिं. चिल्लाना + अनु.) | चीत्कार, सं. पुं. (सं.) दे. 'चीख' २. दे. कोलाहलः, उत्क्रोशः, वि, रावः, कलकलः। 'चिल्लो चिल्ला', सं. पुं. ( फ़ा.) चत्वारिंशदिवसात्मकः चीथड़ा, सं. पुं., दे. 'चिथड़ा' । कालः २. चत्वारिंशद्दिनव्रतम् चीथना, क्रि. स. ( सं. चोर्ण> ) दे. 'फाड़ना' चिल्ला', सं. पु. (देश.) ज्या, मौवी, प्रत्यंचा, तथा 'पीसना' । धनुर्गुणः। चीन, सं. पुं. (सं.) देशविशेषः २. अंकुशभेदः -चढ़ाना, क्रि. स., चापं अधिज्यं कृ, धनुषि | ३. मृगभेदः।। मौवीं आरह (प्रे. आरोपयति)। चीनी, वि. (सं. चीनः) चीन, वासिन्चिल्लाना, क्रि. अ. ( अनु. चिलचिल) कल- संबंधिन्, चैन । सं. स्त्री., सिता, शुक्ला । कलं-कोलाहलं कृ, विः, रु ( अ. प. से.), चीपक, सं. पुं. ( अनु. चिप ) दूषी-षिः (स्त्री.), उत्क्रुश ( भ्वा. प. से.) २. चीत्कारं कृ, उच्चैः दूषिका, पिंचोडकं, पिंज(जे)टः, नेत्रमलम् । आक्रद् ( भ्वा. आ. से.) ३. दे. 'रोना' चीफ़, सं. पुं. (अं.) पुरोगा, प्रधानपुरुषः, चिल्लाहट, सं. स्त्री. ( हिं. चिल्लाना ) दे. | नायकः, अध्यक्षः। वि., प्रधान, मुख्य, श्रेष्ठ, 'चिल्लपों। विशिष्ट। चिलिका, सं. स्त्री. (सं.) चिल्ली, झिल्ली, -एडिटर, सं. पुं. (अं) मुख्य-प्रधान, भृङ्गारी २. शाकराजः, राजशाकः ३. विद्युत्- सम्पादकः। तडित् (स्त्री.)। -कमिश्नर, सं. पुं. (अं) मुख्यायुक्तः। चिह्न, सं. पुं. (सं. न, ) लक्षणं, लान्छनं, -कोर्ट, सं. पुं. ( अं) मुख्यन्यायालयः। लिंगं, अभिज्ञानं, अंकः । -जज, सं. पुं. (अं) मुख्यन्यायाधीशः। चिह्नित, वि. (सं.) अंकित, सचिह्न-लक्षण -जस्टिस, सं. पुं. ( अं) मुख्यन्यायाधिपतिः । लांछन । चीमड़, वि. (हिं. चमड़ा ) दे. 'लचीला'। चींटा, सं. पुं., दे. 'चिउटा'। चीर', सं. पुं. (सं. न.) जीर्णवस्त्रखंडा-डं, चीटी, सं. स्त्री., दे. 'चिउंटी। कर्पटः, नक्तकः, चीवरं २. वसनं, वस्त्रं ३. वृक्षचीकट, सं. स्त्री. (हिं. कीचड़) तैलमलं, दे. त्वच ( स्त्री.) ४. मुनि, भिक्षु-वस्त्रम् । 'तलछट' । वि., तैलमय [-यो (स्त्री.)]। चीर, सं. पुं. (हिं. चीरना) दीर्घ, छेद: भेदःचीन, सं. स्त्री. (सं. चीत्कारः) उत्क्रोशः, स्फोटः-मिदा । आनंदितं, उच्च-कर्कश, रवा-राबः । |-फाइ, सं. सी., अंगच्छेदः, व्यवच्छेदः । For Private And Personal Use Only Page #246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir चीरना चीरना, क्रि. स. (सं. चीर्ण) क्रकचेन छिद् | (रु. प. अ.) -ॡ ( क्र. प. से., प्रे.) - षट् (चु ) २. विशु ( क्र. प. से.), खंडू ( चु. ), भिद् ( रु. प. अ.) । सं. पुं., विदारणं, छेदनं, भेदनं, स्फोटनम् । [ २०८ ] चीरने वाला, सं. पुं., विदारकः, छेदकः इ. चीरा हुआ, वि., विदारित, छेदित, भेदित, चीर्ण, विदीर्ण । -फाड़ना, सं. पुं., अंगच्छेदनं, व्यवच्छेदनम् । चीरा', सं. पुं. (हिं. चीरना) शस्त्र, उपचारः उपायः-कर्मन् (न.) - क्रिया २. व्रणः - णम् । -देना, क्रि. स., शस्त्रेण उपचर् (भ्वा. प. से. ) - साधु (प्रे.) । चीरा', सं. पुं. ( सं. चीरं> ) चित्रोष्णीषः- धं, चीरम् । चीर्ण, वि. (सं.) विदारित, छेदित, दीर्ण २. अनुष्ठित-कृत, सम्पादित । - पर्ण, सं. पुं. ( सं . ) खर्जूरः, दुरारोहा, यवनेष्टा २. निम्बः, अरिष्टः, तिक्तकः । चील, सं. स्त्री. (सं. चिल्ल : ) चिल्ला, आतापिन्, शकुनिः (पुं.), कंठनीडकः, चिरंभण, सत्काण्डः । - का मूत, मु., दुर्लभ अप्राप्य वस्तु (न.) । चीवर, सं. पुं. (सं. न.) दे. 'चीर' ( १, २. ४) । वीस, सं. स्त्री. दे. 'टीस' । चुंगल, सं. पुं. दे. 'चंगुल' । चुंगी, सं. स्त्री. (हिं. चुंगल ) नगर, कर:शुल्कः कं २. किंचिन्मात्रं - अल्पपरिमाणं वस्तु ( न. ) । -खाना, सं. पुं., शुल्कशाला । चुंचुना, सं. पुं., दे. 'चुनचुना' । धुंधला, सं. पुं. (हिं. चुँधलना ) निमेषकः,, निमीलकः । नयन । धुंधियाना, क्रि. अ., दे. 'चुँधलाना' । धुंधलाना, क्रि. अ. (हिं. चौ=चार + सं . अंध >) चाकच येन अस्पष्ट-मंद-ईषत् दृश् (वा. प. अ. ), -ईक्ष् ( भ्वा. आ. से. ), नेत्रतेजः प्रतिहन् ( कर्म. ) । धुंधा, वि. (हिं. चौ+सं. अंघ> ) ईषदंध, मंददृष्टि २. चिल, पिल्ल २. दे. 'चुँधला' ४. क्षुद्र करना या खाना चुंबक, सं. पुं. ( सं . ) निसकः, चुंबितृ-निंसितृ [त्री (स्त्री.) ] २. कामुकः, लंपटः ३. धूर्तः ४. चुंबक, प्रस्तर:- मणि: (पुं.), लोह, कांत :चुम्बकः, अयस्कांतः, अयोमणिः । चुंबन, सं. पुं. (सं. न. ) चुम्ब:- बा २. निसनं, अधरपानम् । चुंबा, सं. स्त्री. (सं.) दे. 'चुम्बन' । चुंबित, वि. ( सं .) निंसित, ओष्ठस्पृष्ट २. लालित ३. स्पृष्ट । 1 चुंबी, वि. (सं. चुंबिन् ) चुम्बक, निसक २. स्पर्शक, स्पर्शिन् । ( प्रायः समासांत में; उ. गगनचुम्बी इ. ) । चुकंदर, सं. पुं. (फ़ा. ) कन्दभेदः । चुकता, वि. (हिं. चुकना) समाप्त, निःशेष । चुकती, सं. स्त्री. (हिं. चुकना) समाप्ति:- अवसितिः (स्त्री.) । चुकना, क्रि. अ. (सं. च्युत् + कृ > ) पूर्-समाप् अवसो ( कर्म. अवसीयते ), अंतं समाप्ति गम्, निष्-सं-पद् (दि. आ. अ.) । २. दे. 'चूकना' । चुकाना, क्रि. स. (हिं. चुकना ) ऋणं दाशुभ् (.) २. ( विवाद ) प्र-शम् (प्रे., शम यति ), सं- समाधा ( जु. उ. अ. ३. संनिष्-पद (प्रे.), संपूर् (चु ), अवसो ( प्रे., अवसाययति ) । चुकौता, सं. पुं. (हिं. चुकना ) ऋण, परिशोध:-शुद्धिः (स्त्री.) २. सं- समाधानं, ३. निर्धारणं, णा, निश्चयः । चुक्र, सं. पुं. (सं. न. ) तितड़ीकं, वृक्षाम्लं, महाम्लं, चुक्रकं २. दे. 'कांजी' ३. अम्लता । चुगना, क्रि. स. (सं. चयनं ) चंच्वा आदा (जु. आ. अ.) -ग्रह ( क्र. प. से. )-भक्षू (चु.) २. चंच्वा प्रहृ ( भ्वा. प. अ. ) अभिइन् (अ. प. अ.)। सं. पुं., चंच्वा आदानं ग्रहणं,तुंडेन प्रहरणम् । चुगलखोर, सं. पुं. (फ़ा) पिशुनः, पृष्ठमांसादः, परोक्षे निंदकः - परिवादपरः, कर्णेजपः । चुगलखोरी, सं. स्त्री. (प्रा) चुगलखोर) पैशुन्यं, पिशुनता, परोक्ष, निद्रा परिवादः, उपजापः । चुग़ली, सं. स्त्री. (फ़ा ) दे. 'चुगलखोरी' । करना या खाना, क्रि. स., परोक्षे- पृष्ठतः निंद्र अथवा अप-परि-वद् ( दोनों भ्वा. प. से.) - अवि-आक्षिप् (तु. प. म. ) । For Private And Personal Use Only Page #247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir चुगवाना [२०९] चुगवाना, क्रि.प्रे., ब. 'चुगना' के प्रे. रूप। । (क्र. प. से.) उधृ । ३. वृ. ( स्वा. उ. से.), चगा. चग्गा. सं. पं. (हिं. चुगना) खग, नियुज ( रु. आ. अ.; चु.), निरूप (चु.), पक्षि, मक्ष्य-खाद्यम् । निधृ ४. यथाक्रमं रच (चु.) स्था (चु. स्थापचुगाई, सं. स्त्री. (हिं. चुगाना) चंच्वा । यन्ति) ५. अलंकृ, मंड् (चु.) ६. (दीवारादि) आदापनं-आग्राहः २. तस्य भृत्या वेतनं वा। निर्मा (जु. आ. अ. प्रे. निर्मापयति ), चुगाना, क्रि. सं., ब. 'चुगना' के प्रे. रूप। विरच् (चु.)। सं. पुं., चयनं, उद्धरणं; पृथक्पक्षिभ्यः अन्नकणान् विकृ ( तु. प. से.)। करणं, वरणं, यथास्थानं स्थापन; अलंकरणं; चुचाना, क्रि. अ., दे. 'टपकना। निर्माण इ. । दे. 'चुनाइ'। चुटकला, सं. पुं. दे. 'चुटकला'। चुनने योग्य, वि., चेय, समाहार्य; उदग्राय वरचुटकी, सं. स्त्री. ( अनु. चुट चुट ) छोटिका, ___णीय; स्थाप्य; अलंकार्य निर्मेय इ.। मु(कु)चुटी २.अंगुलीपीडनं २.चरणांगुलीयकम्।। चुनने वाला, सं. पुं., चेतृ, समाहर्तृ, वरित, -बजाना, मु., छोटिकां कृ अथवा दा। पृथककर्तृ इ. ( सब पुं.)। -बजाते, मु., आशु, द्राक् , सपदि, सधः | चुना हुआ, वि., चित, समाहृत; वृत; रचित ( सब अव्य.)। २. श्रेष्ठ, उत्तम । -भर, मु., अत्यल्पं, किचिन्मात्रम् । चुनरी, सं. स्त्री. (सं. चूण >) चित्र-शबल-भरना, मु., छोटिकया पीड् (चु.)। कर्बुर, वस्त्रम् । चुटकियों में उड़ाना, मु., सुकरं-साधारणं. | | चुनवों, वि. (हिं. चुनना ) वृतः, अभीष्ट चित परिहासमिव मन् (दि. आ. अ.)। २. उत्तम, श्रेष्ठ । -लेना, मु., अव-उप हस् ( भ्वा. प. से.)। चुनवाना, चुनाना, क्रि. प्रे., ब. 'चुनना' के चुटकुला, सं. पुं. (हिं. चुटकी ) नर्मन् ( न.), प्रे. रूप। परिहास-नर्म, वाक्यं-उक्तिः (स्त्री.) आलापः चुनाई, सं. स्त्री. (हिं. चुनना ) दे. 'चुनना' भाषणं २. अमोघ-विशिष्ट, योगः-कल्पः।। सं. पुं. २. कुड्य-मिन्ति,-निर्माणं ३. चयन, चुटिया, सं. स्त्री., दे. 'चोटी'। वेतन-भृत्या। चुटीला, ! वि. (हिं. चोट ) आहत, व्रणित, चुनाव, सं. पु. (हिं. चुनना) चितिः-समाहृतिः चुटेला, ) क्षत। (स्त्री.), उग्राहः, उद्धारः ( २ ) वृतिः-पृथक्चुनिहारा, सं. पुं. (हिं. चूड़ी) चूड़ाहारः, कृतिः (स्त्री.), निर्धारणम् । वलयविक्रयिन् २. चूड़ा-कंकण, कारः । चुनावट, सं. स्त्री., दे. 'चुनट'। चुडैल. सं. स्त्री. (सं. चूड़ा>) पिशाची-चिका, चुनिंदा, वि. ( फ़ा. चुनीदा ) दे. 'चुनवाँ'। डाकिनी, शाकिनी, भूतमार्या, प्रेतपत्नी, चुनौटी, सं. स्त्री. ( हिं. चूना ) चूर्णपुटः । २. कुरूपिणी, जरती, स्थविरा ३. चंडी, चुनौती, सं. स्त्री. (हिं. चुनना) समर-, कोपनी, करा ( नारी)। आह्वानं, अभिग्रहः २. उत्तेजनं, उद्दीपनं, चुनचुना, सं. पुं. । ( हिं. चुनचुनाना ) विट- | उत्थापनम् । चुनचुनी, सं. स्त्री.] उदर,-कृमिः,गुदकीटकः। चुन्नट-त-न, सं. स्त्री., दे. 'चुनट'। चुनचुनाना, क्रि. अ. ( अनु.) तीक्ष्णव्यथां चुनी', सं. स्त्री. ( सं. चूर्ण > ) क्षुद्र-, माणिक्यअनुभू, व्यथ ( भ्वा. आ. से.), तप ( कर्म.)। पद्मरागः २. रत्न,-खंडः-लवः, रत्लकं ३. अन्न,चुनट-त, सं. स्त्री. (सं.चूण>) वस्त्र, भंग:-पुट:- कण-कणिका ४. काष्ठचूर्णम् । चुनन, भंगी-गिः (स्त्री.), ऊर्मिः (स्त्री.)। चुन्नी', सं. स्त्री., दे. 'चुनरी'। चुनना, क्रि. स. ( सं. चुण तथा चि ) (फूलादि) चुप, वि. (सं. चुप-निःशब्द गमन > ) चुण ( तु. प. से. ), चि ( स्वा. उ. अ.), आदा अवाक , निःशब्द, नीरव, मौनिन् , तूष्णीक, (जु. आ. अ.), उद्धृ-समाहृ ( भ्वा. प. अनालापिन् । सं. स्त्री., नीरवता, दे. 'चुप्पी' अ.), छिद् (रु. प. अ.) २. पृथक् कृ, उद्ग्रह् । २. निस्तब्धता। १४ आ० For Private And Personal Use Only Page #248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir चुपका [ २१०] चुस्ता -करना या होना, क्रि. अ., वाचं यम् ( भ्वा. | चुरवाना, कि. प्रे., ( १-२ ) व. 'चुराना' तथा प. अ.)-निरुध् (रु. उ. अ.), मोनं आकल 'पकाना' के प्रे. रूप । (चु.)-मज ( भ्वा. उ. अ.)। चुराना, क्रि. स. (सं. चोरणं) चुर-स्तेन् (चु.), -रहना, क्रि. अ., मौनं तूष्णी-जोषं आस् । | अपहृ ( भवा. प. अ.), मुष (क्र. प. से.) (अ. आ. से.)-स्था ( भ्वा. प. अ.)। २. गूह ( भ्वा. उ. से.), प्रच्छद् (चु.)। -चाप, कि, वि., जोषं, तूष्णी, निशब्दं, मौनं सं. पुं., चोरण, मोषणं, अपहरणं; गुहन, २. गुप्तं, गूढं, निभृतं, प्रच्छन्नम् । प्रच्छदनं, दे. 'चोरी'। चुपका, बि. (हिं. चुप ) दे. 'चुप' (वि.)। चुराने योग्य, वि., चोरयितव्य, मोषणीय । चुपके से, क्रि.वि., दे. 'चुपचाप । चुराने वाला, सं. पुं., दे. 'चोर'।। चुपकी, सं. खी. (हिं. चुप ) दे. 'चुप्पी'। चित्त चुराना, मु., मनो ह ( भ्वा. प. अ.), चपडना. क्रि. स. ( अन. चिपचिप ) अंज| वि-पार-मुइ (प्र.)। ( रु. प. से.), उप-, दिह (ज. प. अ.). चुरि, चुरी, सं. बी. (सं.) कूपकः, खातकः, लिप ( तु. प. अ.), अनु-आ-वि २. दोषं गुह। लघु, कूपः-अवटः। (भ्वा. उ. से.)-प्रच्छद् ( चु. ) ३. दे. चुल, सं. स्त्री., दे. 'खुजली'। 'खुशामद करना' । सं. पुं., अंजनं, उपदेहनं, चुलबुल, सं. स्त्री. ( अनु.) दे. 'चंचलता'। लेपनम् इ.। चुलबुला, वि. (पूर्व.) दे. 'चंचल' तथा 'नटखट' । चुपदा, वि. (हिं. चुपड़ना) (घृतादिमिः) | चुलबुलाना, किं. अ. ( पूर्व.) चपल-चञ्चल उपलिप्त, अभ्यक्त, दिग्ध । (वि.) भू। चुप्पा, वि. ( हिं. चुप ) वाचंयम, अस्प-मित, चुलबुलापन, सं. पुं. । दे. 'चंचलता'। भाषिन, वाग्यत। चुलबुलाहट, सं. स्त्री.) चुप्पी, सं. स्त्री. (हिं. चुप ) निःशब्दता, चुलाना, क्रि. स., ब. 'टपकना' के प्रे. रूप । नीरवता, मौनं, तूष्णींमावः २. निःस्तब्धता, चुलाव, सं. पुं., अमांप्स-निर्मास,-ओदनः-नम् । निश्चलता, निश्चेष्टता। चुल्ली, सं. स्त्री. (सं.) दे. 'चूल्हा' २. चिता। चुभकी, सं. स्त्री. दे. 'डुबकी'। चुल्लू , सं. पुं. (सं. चुलुकः ) चुलकः, अंजलि: चुभना, कि. म. (अनु.) संलग् (भवा. प. से.), (पु.), चलुकः, गंडूषः-षा। संज (कर्म.), मनु-आ-सं, सलग्नी-संसक्तीभ , -भर, वि. चुल्लक-चुलुक, मात्र, अंजलि-गंडष,व्य-निर्मिद् ( कर्म.)। मात्र ( जलादि)। चुभना, चुभोना, क्रि. स. (हिं. चमना) -भर पानी में डूब मरना, मु., अत्यंत लज्ज न्यध (दि.प. अ.), निर्मिद् (रु. प. अ.), (तु. आ. से.)-त्रप ( भ्वा. आ. वे.)। तुद् (तु. प. अ.), नि-प्र-विश (प्रे.)। सं. चुवाना, क्रि, स., ब. 'टपकना' के रूप । पुं., वेधः-धनं, छेदः-दनं, निर्भेदः-दनम् । चुसकी, सं. स्त्री. (हिं. चूसना ) गंडूषः, चुभानेवाला, सं. पुं., वेधकः, छेदकः, चुलुकः, चुलकः २. इषत्-शनैःशनैः, पानं निर्भेदकः इ.। ३. तमाखुधूमकर्षः । चुमकार, सं. स्त्री. ( हिं. चूमना + सं. कारः>) चुसनी, सं. स्त्री., दे. 'चूसनी'। चुचुल्कारः, चुंबनध्वनिः ( पुं.)। चुसवाना, क्रि. प्र., ब. 'सना' के प्रे. रूप । चुमकारना, क्रि. स. (हि. चुमकार ) सचु- चुसाना, क्रि. प्रे. ) चुत्कारं उपलल-उपच्छंद् (चु.)। चुस्त, वि. ( फ़ा. ) उद्यमिन् , उद्योगिन्, क्षिप्रकाचुरचुरा, वि. दे. 'चुरमुरा'। रिन्, स्फूर्तिमत् २. जागरूक, दक्ष ३. आलस्यचुर(ह)ट, सं. पुं., दे. 'सिगार' । शैथिल्य, शून्य, सुसंहत ३. दृढांग, सबल । चुरमुर, सं. पुं. ( भनु.) चुरमुरशब्दः। -चालाक, वि., दक्षानलस, चतुरातन्द्र । चुरमुरा, वि. (हिं. चुरमुर) भंगुर, भिदुर, | चुस्ता, सं. पुं. (फ्रा.) अजमेषशावकानां आमामिदेलिम। | शयः २. मलाशयः ३. दे. 'सिलवट'। For Private And Personal Use Only Page #249 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir चुस्ती चुस्ती, सं. स्त्री. (फ़ा. चुस्त ) क्षिप्रकारिता, स्फूर्ति (स्त्री.), उद्यमः, उद्योगः ३. शैथिल्याभावः, सुसंहतिः (स्त्री.) ३. दृढता, सबलता । चहचहाना, क्रि. अ. (अनु.) दे. 'चहचहाना' २. रंगवत् दीप् ( दि. आ. से. ) - प्रकाशू (भ्वा. आ. से. ) । [ २११ ] चुहचुही, सं. स्त्री. (अनु.) फुल्लचुही, *चुहचुही, कृष्णचटकाभेदः, फुल्लशिंधिनी । चुहल, सं. स्त्री. (अनु. चुहचुह > ) हास्यं, परिहासः, विनोदः, कौतुकं, प्रमोदः, विलासः, मनोरंजनम् । चूड़ा, सं. स्त्री. (सं.) शिखा, जु ( जू )टिका, केशपाशी २. मयूरशिखा ३. शिखरं, अग्रं ४. कूप, ५. चूडाकरणसंस्कारः । सं.पुं. (सं.स्त्री.) वलयः-यं, कंकणं २. वलयावली, चूडावली । —करण, सं. पुं. (सं. न. ) चूडाकर्म- मुंडन, - संस्कारः । -मणि, सं. पुं. ( सं .) शिरोरत्नं, शीर्ष फुल्लम् । २. प्रधानः, अग्रगण्यः ३. गुंजा । चूँ, सं. पुं. ( अनु. ) चुंकारः, चुंकृतिः (स्त्री.)। चूड़ी, सं. स्त्री. ( सं. चूड़ा ) वलय:-यं, क भूषणं, कौशुकम् । चां, सं. पुं.- दे. 'चूँचरा' । चुहिया, सं. स्त्री. (हिं. चूहा ) बालमूषिका, २. दे. 'चूही' । क्षुद्र, मूषकः- आखु : चुहुटना, क्रि. अ., तथा वि. दे. 'चिपकना' तथा 'चिपचिपा' | गरिका, ( पुं. ) करना, मु., किमपि वद् (भ्वा. प. से. ) २. विरुद्धं वद् अथवा प्रतिवद् । चूँकी, अव्य. (फ़ा. ) यत्, यतः यस्मात् हि । चूँगी, सं. स्त्री. दे. 'चुंगी' । चूँचरा, सं. पुं. (फ़ा. ) प्रतिवादः प्रत्याख्यानं, विरोधः २. आपत्तिः (स्त्री.), अपवादः ३. व्याजः, मिषम् । चूँचूँ, सं. स्त्री. (अनु.) चुंकारः, चुंकृतिः (स्त्री.), चाट केरशब्दः २. कलरवः, विरुतं ३. चूँ-चूँशब्दः ४. क्रीडनकभेदः । चूक, सं. स्त्री. (हिं. चूकना ) स्खलितं, दोषः, प्रमादः २. मार्गभ्रंशः, व्यति अपराधः, चूमना कुचाग्रं, कुचाननं, स्तनवृतं २. स्तनः, कुचः, पयोधरः । क्रमः । चूक, सं. पुं. (सं. चुक्रः ) अम्लः २. अम्लद्रव्यभेदः ३. चुक्रकं, चुक्रिका, अम्लशाकभेदः । वि, अत्यम्ल, अतिशुक्त । चूकना, क्रि. अ. (सं. च्युत् कृ> ) अपराधू ( दि., स्व. प. अ.), स्खलू ( भवा. प. से. ), प्रमद् ( दि. प. से, प्रमाद्यति ) २. लक्ष्यात्सत्पथात् भ्रंश (भ्वा. आ. से.) - भ्रश (दि. प. से.) ३. सदवसरं या (प्रे. यापयति ) - अतिवह (प्रे.) । चूका, सं. पुं., दे. 'चूक' ( ३ ) । चूची, सं. स्त्री. (सं. चूचुकं, ) चूचुकं, चुचूकं, पीना, सु.. स्तनं- स्तन्यं पा (भ्वा. प. से. ) । चूजा, सं. पुं. ( फ़ा. ) कुक्कुटशावः- वकः । वि., अल्पवयस्क । चूडांत, सं. पुं. (सं.) चरम सीमा - अवधि: (पुं.) अ., अत्यधिकं, अत्यन्तं वि., परम, गाढ, उकष्ट । - दार, वि., (हिं. + फ़ा. ) पुटीकृत, वलीयुत, संकुचित | चूड़ियां पहनना, मु., स्त्रीवत् आचर् ( भ्वा. प.से.) । चूत, सं. पुं. (सं.) रसाल:, आम्रः, कोकिलोत्सवः २. (सं. न. ) अपान:-नं, गुदं, च्युति:बुलि: (श्री. ) । (हिं. ) योनिः (स्त्री.) भगं, नारीगुह्यम् । चूतद, सं. पुं. (सं. चूतं > ) नितंब, कटि (टी)प्रोधः, स्फिच् चा (स्त्री.), पूल, पूलकः, स्थिकः । चून, सं. पुं. (सं. चूर्ण) दे. 'आटा' तथा 'चूना' । चूनर-री, सं. श्री. दे. 'चुनरी' । चूना, सं. पुं. ( सं . चूर्ण:-र्णं ) चूर्णकम् । चूने का पानी, सं. पुं. चूर्ण कजलं, चूर्णोदकम् । - दानी, सं. स्त्री, चूर्णाधानी, चूर्णपुटकः । अनबुझा, अशान्त चूर्णकम् । बुझा, शान्तचूर्णकम् । चूने की भट्ठी, सं. स्त्री, चूर्ण, आपाकः -पाकपुटी । चूना, क्रि. अ. ( सं. च्यवनं ) दे. 'टपकना' । वि., सच्छिद्र, स्फुटित, सरंध्र । चूनी, सं. स्त्री. (सं. चूर्णिका ) धान्य- अन्नकणः-णी - णिका २. रत्न- मणि, कणः कणिका । चूमना, क्रि स. ( सं. चुंबनं ) ( मुख ) खुंबू (भ्वा. प. से. ), निंस् (अ. आ. से.) २. मोहा For Private And Personal Use Only Page #250 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir घूमने योग्य स्पृश् (तु. प. अ. ) ३. ( ओठ ) अधरंअधररसं पा ( भ्वा. प. अ. ) ४. (सिर) शिरः आ-उप-समा-घ्रा (भ्वा. प. अ. ) । सं. पुं., चुंबनं, निसनं, अधरपानं, शीर्षाघ्राणम् । चूमने योग्य, वि., चुंबनीय, निसितव्य । चूमने वाला, सं. पुं., चुंबकः, चुंबिन्, निसकः, निंसितृ (पुं.) । चूमा हुआ, वि. दे. 'चुम्बित | [ २१२ ] -चाटना, मु., उप, लल् ( चु. ) चुंबू । चूमा, सं. पुं., चुंबनं, चुंबः बा । -चाटी, सं. स्त्री. विलासः, विहारः, क्रीडा । चूर, सं. पुं. ( सं. चूर्णः-र्णं ) क्षोदः, पिष्टं, रजस् (न. ), कणाः-कणिकाः-अणवः-लवाः (बहु.) । वि., मग्न-,लीन,-परायण, अभिनि नि, विष्ट २. मन्त, क्षीण, मदोन्मत्त ३. श्रांत, खिन्न, कांत । चूरमा, सं. पुं. (सं. चूर्ण :- र्णे ) मिष्टान्नभेदः, मिष्टचूर्णः । चूरा, सं. पुं. (सं. चूर्ण:-) क्षोदः, पिष्टं । दे. 'चूर' (सं. पुं.) । चूसने योग्य, वि., चूष्य, चोष्य, उच्छोष्य । चूसनी, सं. स्त्री. (हिं चूसना ) चोषणी, क्रीडनकभेदः २. चूचुकवती काचकूपी २. चोष - यष्टिः (स्त्री.) । चूहड़ा, सं. पुं., दे. 'भंगी' । चूहड़ी, सं. स्त्री. दे. 'भंगन' । चूहा, सं. पुं. (अनु. चू) आखुः-उंद(दु)रु: (पुं.), खनकः, बिलेशयः, मूष ( षि, षी ) कः, मूषः, मूषिकारः । - चूर, वि., चूर्णित, पिष्ट, क्षुण्ण । दन्ती, सं. स्त्री, कंकणभेदः, मूषदंती । चूरन, सं. पुं. (सं. चूर्णः र्णं) दे. 'चूर्ण' २. चूर्ण, दान, दानी, सं. पुं., सं. स्त्री. मूर्षापजरं, अग्निवर्द्धक-पाचक,-चूर्णम् । मूषकपंजरः- रम् । चूल्हा, सं. पुं. चूल्ही, सं.स्त्री. क्षुद् ( रु. प. अ. ) । चूर्ण, सं. पुं. (सं. पुं. न. ) क्षोदः, पिष्टं २. दे. 'चूरन' ३. रजस् (न.), धूलि : (स्त्री.) । - कुंतल, सं. पुं. ( सं . ) अलकः, कुरलः । चूर्णक, सं. पुं. ( सं. ) भृष्टपिष्टान्नम् २. सक्कुकः, भृष्टयवन्चूर्णम् । ( सं. न. ) सुगन्धि-सुगन्धित, चूर्णम् २. कटुवर्णरहितम् अल्पसमासयुक्तं गद्यम् । — चूर्णन सं. पुं. (सं. न. ) पेषणं, मर्दनं, खंडनम् । चूर्णित, वि. (सं.) पिष्ट, क्षुण्ण, चूर्णीभूत । चूल', सं. पुं. (सं. चूल: ) केशः, शिखा । २ । चूल, सं.स्त्री. (देश.) विवर्तनकीलः २. काष्ठाग्रम् चूलें ढीली होना, मु., अत्यंतं कुम्-आयस्( स्वा. दि. प. से. ) खिद् ( दि. आ. अ. ) - श्रम् (दि.प.से.) । चेत [ सं . चुल्ली - लिः (स्त्री. ) ] अंति (दि) का, अधिश्रयणी, उद्धानं, उध्मानं, अश्मंतं, अश्मंतकः-कम् । चूसना, क्रि. स. (सं. चूषणं ) आ-, चूष (भ्वा. प. से. ), पा (भ्वा. प. अ.) २. उच्छुष (प्रे.), आनी पा ( भ्वा. प. अ.) । सं. पुं., चोषणं, चोषः, उच्छोषणम् । - करना, क्रि. सं., चूर्ण' (चु. ), चूर्णीकृ, पिष् (स्त्री.) २. प्र-, जल्प:- जल्पितम् । -मार, सं. पुं., मूषमार : ५. श्येनः खगांतकः । चूही, सं. स्त्री. (हिं. चूहा ) मूषा, मूषिका । २. दे. 'चुहिया' । चेंचला, सं. पुं. (अनु. चेंचें ) पक्षिशावः- वकः । -चें, सं. स्त्री. दे. (अनु.) चुंकार:, चुंकृति: " चेंबर, सं. पुं. ( अं. ) कोष्ठः, कक्षा, शाला २. सभागृहम् २. परिषद् (स्त्री.) । चेयर, सं. स्त्री. ( अं. ) दे. 'कुर्सी' । --मेन मैन, सं. पुं. ( अं.) प्रधानः, सभा,पतिः-अध्यक्षः । 1 चेक, सं. पुं. (अं.) देयादेशः २. दे. 'चारखाना' । चेचक, सं. स्त्री. (फा.) मसूरी -रिका, वसंतरोगः, शीतला ली । For Private And Personal Use Only चेट, सं. पुं. (सं.) दासः, सेवकः २, पतिः, मर्तृ । २. भंडः विदूषकः । चेटक, सं. सं. (सं.) चेट:, दासः २. जारः, उपपतिः ३. इन्द्रजालं, माया २. संदेशहरः, दूत: ५. दे. 'चसका' । चेटी, सं. स्त्री. (सं.) दासी, सेविका, परिचारिका । चेत, सं. पुं. [ सं . चेतस् (न.) ] चेतना, चैतन्यं, संज्ञावेदनं २. ज्ञानं, बोधः ३. अवधानं, सावधानता ४. स्मरणं, स्मृतिः (स्त्री.) ५. चित्तम् । Page #251 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir चेतन [ २१३] चोट चेतन, सं. पुं. (सं.) आत्मन् (पुं.), जीवः । चैत, सं. पुं. ( सं. चैत्रः ) चैत्र(त्रि )कः, चैत्रिः २. मनुष्यः ३. प्राणिन् , जीवधारिन् ४. परमे- (पुं.). चैत्रिन् , मधुः (पुं.) २. चैत्रशस्यम् । श्वरः ५. मनस् (न.), चित्तम् । वि., चेतनावत्, चैतन्य, सं. पुं. (सं. न.) आत्मन् (पुं.), चेतोमत्, प्राण, धारिन्-भृत् , जीविन् , सजीव ।। जीवात्मन् २. शानं, बोधः ३. परमेश्वरः चेतनता, सं. स्त्री., (सं.) सजीवता, चेतोमत्ता, । ४. प्रकृतिः ( स्त्री.)। बि., चेतनावत् , सजीव दे.'चेतना'। ५. सावधान, अवहित। चेतना, सं. स्त्री. (सं.) संशा, चैतन्यं २. शानं, चैत्य, सं. पु. (सं. न.) गृहं, भवन, समन् बोधः ३. स्मृतिः (स्त्री.) ४. मनोवृत्तिः (स्त्री.)। (न.) २. मंदिरं ३. यज्ञशाला । (सं. पुं.) क्रि. अ., संशां-चेतना लम् (भ्वा. आ. अ.) | बुद्धः २. बुद्धमूर्तिः (स्त्री.) ३. अश्वत्थवृक्षः आ-प्रति-पद् (दि. आ. अ.), प्रकृति आपद् , ४. बौद्धभिक्षुः (पुं.) ५. मिक्षुविहारः । प्रकृतिस्थ (वि.) भू २. सावधान-अवहित | चैत्र, सं. पुं. (सं.) दे. 'चैत' २. बौद्ध भिक्षुकः (वि.) भू। ३. यशभूमिः (स्त्री.) ४. मंदिरम् । वि., चित्रा, चेतावनी, सं. स्त्री. (हिं चेतना ) प्राक-पर्व, संबंधिन्-विषयकः। सूचना-प्रतिबोधः- उपदेशः।। चैन, सं. पुं. (सं. शयनं > ) सुखं, सौख्यं, चेप, सं. पुं. ( अनु. चिपचिप ) निर्यासः, रसः सुस्थता, आनंदः, मोदः, विश्रामः, निर्वृतिः २. श्यान-सांद्र,-वस्तु (न.) ३. दूष्यं, पूयः-यं, (स्त्री.)। पूयरक्तं, कुणपम् । -उड़ाना या करना, मु, सानंद-सुखं जीव (भ्वा. प. से.), मुद् (भ्वा. आ. से.), नंद् -दार, वि. (हिं.+फ़ा.) निर्यासमय [ -यो (भ्वा. प. से.)। (स्त्री.)] २. श्यान, सांद्र ३. सपूय। चेला, सं. पु ( सं. चेटक:> ) शिष्यः, अन्ते -पड़ना, मु., सुख-निवृतिं लभ् (भ्वा. आ. अ.)। बासिन् , छात्रः, विद्यार्थिन् २. अनुयायिन् ।। चोच, सं. स्त्री. [सं. चंचुचुः (स्त्री.)] बोटी-टिः -मूंड़ना, मु., उपनी ( भ्वा. प. अ.), दीक्ष । (स्त्री.), तुंडं, चंचुका, सृपाटिका । २. मुखम् । (भ्वा. आ. से.) दीक्षा दा (जु. उ. अ.)। चोचला, सं. पुं., दे. 'चोचला। चेलिन, चेली, सं. स्त्री. ( हिं. चेला ) शिष्या, चोआ, सं. पुं. (हिं. चुआना) गंधः, गांधिक, अन्तेवासिनी, छात्रा, विद्यार्थिनी २. अनु- | यायिनी। चोकर, सं. पुं. (हिं. चून = आटा+कराई - चेष्टा, सं. स्त्री. (सं.) कायिकव्यापारः, चेष्टितं, । छिलका ) कडंगरः, तुषः, धान्यत्वच (स्त्री.), हस्तादिचालनं, इंगितं, अंगविक्षेपः २. उद्योगः, । बुसम्। प्रयत्नः ३. कार्य, कर्मन् ( न.) ४. परिश्रमः। | चोखा, वि. ( सं. चोक्ष) शुद्ध, केवल, पवित्र चेस, सं. पुं. ( अं.) दे. 'शतरंज'। २. शुचि-शुद्धात्मन् ३. तीक्ष्ण, निशित ४. दे. चेहरा, सं. पुं. (फ़ा.) आननं, मुखं, वदनं 'भरता' ५. उत्कृष्ट, उत्तम । २. पुरो-अग्र,-भागः ३. कपट-छम, मुखं वदनम्। | चोगा, सं. पुं. (हिं. चुगना) खगखाद्यं, -मोहरा, सं. पुं., आकारः, आकृतिः (स्त्री.), पक्षिमक्ष्यं, विहगाशनम् । रूपम् । चोगा, सं. पु. ( तु.) कंचुकः, प्रावार:-रकः। -उतरना, मु., मुख-वदन, मलानिः (स्त्री.)- | चोचला, सं. पुं. (हिं. चौच) विभ्रमः, म्लानता-कान्तिक्षयः-विवर्णता। विलासः, ललिताभिनयः, लीला, हावः । -बिगाड़ना, मु., अत्यधिकं तद् (चु. )-प्रह | चोज, सं. पुं. (हिं. चोंच ) सुभाषितं, (म्वा. प. अ.)। | वैदग्ध्यं, नालापः २. हास्यं, परिहासः। -(रे) पर हवाइयाँ उड़ना, मु. मयादिमिः चोट, सं. स्त्री. (सं. चुट् = काटना>) अभि-आवैवर्ण्य-विवर्णता। नि-घातः, प्रहारः, आहतिः (स्त्री.), ताडनं चैक, सं. पुं., दे. 'चेक'। पातः । २. व्रणः-णं, क्षतं ३. हानिःक्षतिः न्य म । For Private And Personal Use Only Page #252 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir चोटा [२१४] चौंसठयाँ (खी.) ४. वेदना, मनोव्यथा ५. विभूम-|-यारी, सं. स्त्री., निंदितकर्मन् (न.), पापम् । विश्वास,-पातः-मंगः ६. संन्यग्यो विवादः। -से, क्रि.वि., अलक्षितं, प्रच्छन्नम् । -करना, क्रि. सं., प्रह ( भ्वा. प. अ.), क्षि चोल, सं. पुं. (सं.) दक्षिणपथे प्रांतविशेषः, (स्वा. प. अ.), तुद् (तु. प अ.) आहन् | चोलाः २. तत्रत्यः जनः ३. ४. दे. 'चोला', (अ. प. अ.)। 'चोली' ५. कवचं ६. वल्कलम् । -खाना, क्रि. अ., आहन्-प्रह-तुद् ( कर्म.)। चोला, सं. पुं. (सं. चोल:) लंब, कुसिकं-पर चोट, मु., सतताघाताः, प्रहारपरंपरा, T:. प्रहारपरंपरा युतकं २. दे. 'चोली' ३. कंचुकः, प्रावारः२. कष्ट-विपत् , परंपरा । रकः ४. तांबूलकरंकः ५. शरीरम् । चोटा, सं. पुं. (हिं. चोआ) मत्स्यंडीरसः। -छोडना, मु., तनुं त्यज् ( भ्वा. प. अ.)। चोटी, सं. स्त्री. (सं. चूडा) जु(जू )टिका, -बदलना, मु., देहांतरं प्राप ( स्वा. उ. अ.), शिखा, शिखंड:-डकः २. शिखर, शृंगं, सानु प्रेत्य भू। | चोली, सं. स्त्री. (सं.) चोलकः, चोड:-डी, (पुं., न.), अग्रं शिखा, मूर्धन् (पुं.) ३. शिखंडः, शेखरः ४. वेणीबंधनसूत्रं ५. वेणी, क(कु)चुली-लिका, कंचकः, कुर्पासकः कम् । २. दे. 'चोला' (१)। रज्जुः (स्त्री.)। -का. म.. अग्रथ. अग्रगण्य. उसमश्रेणी -दामन का साथ, मु., प्रगाढ, सख्य-सौहार्द. मित्रता-प्रणयः। चोटीदार, वि. (हिं.+फा.) शिखावत्, सानुमत् | चोषण, सं. पुं. (सं. न.) चूषणं, चूषा, चोषः २. सूच्याकार, शंकाकृति । २. स्तन-स्तन्य-क्षीर, पानम् ।। घोटा, सं. पुं., दे. 'चोर'। चोष्य, वि.(सं.) चूषणीय, चूष्य । चोब, सं. स्त्री. (फ़ा.) पटमंडप,-स्थाणुः-स्थूणा २. यष्टिः ( स्त्री.), दंडः। चौंक, सं. स्त्री. (हि. चौ+सं. कंप), (आकस्मिक) कंप:-पनं, साध्वसोत्कंपः, सहसा स्फुरणम् । --चीनी, सं. स्त्री., काष्ठौषधभेदः । -उठना या पड़ना, क्रि. अ., सहसा कंप-दार, सं. पुं. (फ़ा.) वेत्र-दंड-यष्टि--धरः स्पंद् ( भ्वा. आ. से.)-स्फुर (तु. प. से.)। पाणिः (पुं.)-हस्तः २. दौवारिका, दंडपांशुलः । चौकना, क्रि. अ. (हिं. चौंक) दे. 'चौंक ३. रक्षा-दंड,-पुरुषः।। उठना' २. सहसा अवबुध् (दि. आ. अ.) चोया, सं. पुं., दे. 'चोआ'। जागृ ( अ. प. से.) ३. वि-स्मि (भ्वा. आ. चोर, सं. पुं. (सं.) चौरः, कुंभीर( ल )कः, अ.)-आश्चर्यचकित कुंभीलः, ऐकागारिकः, तस्करः, दस्युः, प(पा)- चौंकाना, कि. स., ब. 'चौंकना' के प्रे. रूप । टच्चरः, परास्कंदिः (पु.), मोषकः, स्तेनः।। चौंतरा, सं. पुं., दे. 'चबूतरा'। -खिड़की, सं. स्त्री., पक्षद्वारं, पक्षकम् । चौंतीस, वि. (सं. चतुस्त्रिंशत् ) सं. पुं., उक्ता-चकार, सं. पुं., दे. 'चोर'। दरवाज़ा, सं. पुं., प्रच्छन्न अंतर-गुप्त-गुढ, द्वारम्। चौंती(ति)सों, वि., ( हिं. चौंतीस ) चतुर्ति संख्या, तद्वोधकांकौ (३४) च । -सीढ़ी, सं. स्त्री., उप-प्रच्छन्न-गूढ, सोपानम् ।। शत्तमः-मी-मं, चतुर्विंशः-शी-शम्। चोरटा, सं. पुं., दे. 'चोर' ( चोरटी, स्त्री.)। चौंध, सं. स्त्री., दे. 'चकाचौंध' । चोरी, सं. स्त्री. (हिं. चोर ), मोषणं, अपह- चौंधीयाना, क्रि. अ., दे. "चुंधलाना'। रणं २. चौर्य, चो( चौ )रिका, चोरणं, स्तेयं चौर, सं. पुं. (सं. चामरं ) चमरम् । स्तैन्यं, मोषः। चौंरी, सं. स्त्री. (हिं. चौर) अवचूनकः-कं -करना, क्रि. स., दे. 'चुराना' । रोमगुच्छः २. दे. 'चमरी'। का माल, सं. पुं., चोरित-अपहृत-लुंठित,- | चौंसठ, वि. ( सं. चतुःषष्टिः स्त्री.) सं. पुं., द्रव्यम् । उक्ता संख्या, तद्बोधकांको (६४) च। -चोरी, क्रि. वि., अप्रकाशं, निभूतं, रहिस चौंसठवाँ, वि. (हिं. चौंसठ) चतुःषष्टितमः(सब अव्य.)। | मी-मं, चतुषष्ट:-ष्टी-टं (पुं. स्त्री. न.)। For Private And Personal Use Only Page #253 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [ २१५ ] चौ— वि. ( सं . चतुर्- ) केवल समास के आदि में । -कोना — कोर, वि., दे. 'चारकोना' । खूँट, सं. पुं., चतुर्दिशं, दिक्चतुष्टयं यी २. भूमंडलं, पृथिवी । क्रि. वि., दे. 'चारों तरफ' । - खूँटा, वि., दे. 'चारकोना' । --गिर्द, क्रि. वि., दे. 'चारों तरफ' । - गुना, वि., चतुर्गुणः-णा-णं, चतुर्गुणितः-ता चौथ चौकसी, सं. स्त्री. (हिं. चौकस ) जागरूकता, सावधानता, दक्षता । चौका, सं. पुं. (सं. चतुष्कं ) चतुष्टयं, वस्तुचतुष्टयी २. पाक, शाला-गृहं, महानसं, रसवती ३. भोजन, शाला - गृहं - अगारं ४. अग्रथं दंतचतुष्टयं ५. अंगनं णं ६. चतुरस्रशिला ७. शीर्षफुल्लं ( गहना ) । चौकी, सं. स्त्री. ( सं . चतुष्की) आसनं, चरण-पाद, पीठ:-पीठं, चतुष्की २. दे. 'कुर्सी' ३. निवेशस्थानं, दे. 'पड़ाव ' ४. हविस् (न.) ५. रक्षिनिवासः, प्रहरिशाला ६. ग्रैवेयकं, कंठाभूषणभेदः ७ जागरूकत्वं, सावधानता । देना, क्रि. अ., आसंधां उपविशू ( प्रे. ) २. रक्ष (भ्वा. प. से. ) । तम् । पर्त, वि., चतुष्पुट, चतुर, - आवृत्त आवर्तित | - पहल, विं., चतुर्भुज, चतुष्पा, चतुर्बाहु । पहिया, वि., चतुश्चक्र | सं. स्त्री, चतुश्चक्रं वाहनम् । | - मासा, सं. पुं., चतुर्मासं, वर्षाः (स्त्री. बहु.), प्रावृष् (स्त्री.) । - मुखा, वि., चतुर्मुख, चतुरानन । सं. पुं., ब्रह्मन् (पुं.) । -राहा सं. पुं., चतुष्पथः-थं, चतुष्कम् । -हही, सं. स्त्री. सीमाचतुष्टयं यी । चौक, सं. पुं. (सं. चतुष्कं ) प्रवणः, चतुष्पथ:-थं, शृंगाटकं, संस्थानं । २. मुख्य प्रधान, आपण:निगम: - हट्टः ३. अजिरं, अंगनं णं, चत्वरः- रं ४. चतुरस्रवेदि:(स्त्री.) ५. पुरोवर्तिदंतचतुष्टयम् । 'चौकड़ी, सं. स्त्री. ( हिं. चौ = चार + सं. कला = अंग > ) प्लुतं-तिः (स्त्री.), वल्गनम् । २. नरचतुष्टयं यी ३. चतुरश्वं वाहनम् । — भरना, क्रि. अ., वल्गू ( भवा. प. से. ), उत्प्लु (भ्वा. आ. अ. ) । चंडाल -, सं. स्त्री, चंडाल - दुष्ट, -चतुष्टयी, धूर्त, मंडल मंडली | - दार, सं. पुं. (हिं. + फ़ा. ) गृह, पः-पालः, प्रहरिन्, रक्षकः २. वैतालिकः, वैबोधिकः । दारी, सं. स्त्री, रक्षा, गुप्तिः (स्त्री.), अवेक्षणं, प्रइरित्वं २. रक्षा प्रहरित्व, वेतनंशुल्कम् । चौखट, सं. स्त्री. (हिं. चौ=चार + काठ > ), * कपाटलवनं, चतुष्काष्ठं २. देहली - लि: (स्त्री.), द्वारापिंडी, गृहावग्रहणी ३. द्वारम् । चौखटा, सं. पुं. (हिं. चौखट ) चतुष्काष्ठकः, *चित्र दर्पण, परिवेष्टनं - वलनम् । चौगान, सं. पुं. ( फ़ा. ) एतन्नामकः खेलाभेदः २. सादिदण्डक्रीडाक्षेत्रम् | चौदा, वि. (हिं. चौ + पाट) उरु, परिणाहबत् [ -ती (स्त्री.) ], पृथु, विशाल, विस्तृत, बितत, विस्तीर्ण । -करना, क्रि. स.१ प्र. वि., तन् (त. उ. से. ), प्रसृ ( प्रे.), विस्तृ ( क्रू. उ. से. था. प्र. ), प्रथ ( चु. ) । भूलना, मु., किंकर्तव्यविमूढ (वि), जन् ( दि. आ. से. ), आकुली भू । चौकन्ना, वि. (हिं. चौ-चार + सं . कर्णः > ) अवहित, सावधान, जागरूक, प्रमादशून्य | रहना, कि. अ., अवहित - जागरूक ( वि . ) स्था (भ्वा. प. अ. ) । चौकस, वि. (हिं. चौ=चार + कस = कसा हुआ > ) दे. 'चौकन्ना' २. उद्यमिन्, उद्योगिन् ३. यथार्थ, यथातथ । - रहना, क्रि. अ., सावधान - अप्रमत्त (वि.) चौथ, सं. स्त्री. ( सं. चतुर्थी ) शुक्का चतुर्थी स्था ( भवा. प. अ. ) । २. कृष्णा चतुर्थी ३. चतुर्थांशः ४. करभेदः । चौड़ाई, चौदान, सं. स्त्री. (हिं. चौड़ा ) तर्यक्ता-त्वं, विस्तारः, विशालता, पृथुता, पार्थवं, परिणाहः, विस्तीर्णता । चौतरा, सं. पुं., दे. 'चबूतरा' | चौताला, वि., (हिं. चौ+ सं . ताल: > ) चतुस्ताल । सं. पुं., होलिकागीतिः (स्त्री.) २. चतुस्तालः । For Private And Personal Use Only Page #254 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir चौथा [ २१६ ] चौला सतकरातिभद:। चौथा, वि. ( सं. चतुर्थ ) तुर्य, तुरीय । सं. पुं., | चौबाइन, सं. स्त्री. (हि. चौबा ) चतुर्वेद, चतुर्थकः, मृतकरीतिभेदः। भार्या-पत्नी। चौथाई, सं. स्त्री. (हिं. चौथा ) चतुर्थ-तुर्य-चौबारा, 'सं. पुं. (हिं. चौ+बार = द्वार) तुरीयां, अंश:-भागः,पादः, तुर्य, तुरीयं,चतुर्थम् ।। अट्टः, अट्टालः, चंद्रशाला, शिरोगृहं, चूला। चौथिया, (हिं. चौथ ) चतुर्थकन्वरः २. चतुर्थी- | २. दे. 'चौपार'। शाधिकारिन् । चौधारा, क्रि. वि. ( हिं. चौ + बारः-वार) चौथी, वि. स्त्री. ( सं. चतुर्थी) तुर्या, तुरीया। चतुर्थवारम् । सं. स्त्री., वैवाहिकरीतिभेदः, *चतुर्थी । चौबीस, वि. [सं. चतुर्विंशतिः ( नित्य स्त्री.)! चौथे, क्रि. वि. (हिं. चौथा ) चतुर्थस्थाने। सं. पुं., उक्ता संख्या तदंको ( २४ ) च । चौदस, सं. स्त्री. (सं. चतुर्दशी ) १. २. चौबीसवाँ, वि. (हिं. चौबीस ) चतुर्विंशतिशुक्ल-कृष्ण, चतुर्दशी। तमः-मी-मं, चतुर्विशः-शी-शम् । चौदह, वि. (सं. चतुर्दशन् ) स. पुं., उक्ता चौबे, सं. पुं.- दे. 'चौबा'। संख्या, तद्बोधकाको (१४) च। चौबोला, सं. पुं. (हिं. चौ+ बोल) मात्रिकचौदहवाँ, वि. (हिं. चौदह) चतुर्दशा-शी शम् । छन्दोभेदः। चौधराई, सं. स्त्री. (हिं. चौधरी) मुख्यत्वं, चौभल, सं. पुं., (हिं. चौ-दाढ़) चर्वण-दन्तः, दंष्ट्रा, दाढ़ा। नेतृत्वं प्रधानत्वम् । चौधरानी, सं. स्त्री. (हिं. चौधरी) मुख्या, चौमंजिला, वि. (हिं. चौ-फ़ा. मंजिल ) । चतुर्भूमिक। प्रधाना, नेत्री। चौधरी, सं. पु. (सं. चतुर्धरीणः >अथवा सं. चौमुहानी, सं. स्त्री., दे. 'चौक' (१)। चौर, सं. पुं. (सं.) दे. 'चोर'। चतुरः तकिया+धारिन् >) अग्रणीः (पुं.), चौरस, वि. (हिं. चौ+ (एक) रस-तुल्य) नायकः, पुरोगः, धुरीणः । सम, समस्थ, समरेख, सपाट २. चतुर्भुज, चौपई, सं. स्त्री. ( सं. चतुष्पदी ) छन्दोभेदः। - वर्गाकार। चौपट', वि. (हिं. चौ - चा+पट=किवाड़ा) | चौरा, सं. पुं., दे. 'चबूतरा' । अरक्षित, आवरण-आच्छादन,-हीन, प्रकट, | चौरानवे, वि. [सं. चतुर्नवतिः (नित्य स्त्री.)] । अपावृत। सं. पुं., उक्ता संख्या तदंको (९४) च । चौपट', वि. (हिं. चौ - चार +सं. पाटः | चौरासी, वि. [सं. चतुरशीतिः (नित्य स्त्री.)] । चौड़ाई ) नष्ट, वि., ध्वस्त, क्षाण, उच्छिन्न, । सं. पुं., उक्ता संख्या, तदंको ( ८४ ) च । सं. नाशित। स्त्री., चतुरशीतिलक्षयोनयः ( बहु.)। -करना, क्रि. स., उच्छिद् (रु. प. अ.), | चौरेठा, सं. पुं. हृ (हिं. चावल + पीढा ) पिष्टविध्वंस-नाश (प्रे.), उत्सद् (प्रे.)। चूर्णित,-तंडुलः-धान्यास्थि ( न.)। चौपड़, सं. स्त्री. (सं. चतुष्पटः-टं>) चतुष्पट, | चौर्य, सं. पुं. (सं. न.) स्तेयं, स्तैन्यं, चोरिका, अक्षक्रीडाभेदः २. तस्य पटः अक्षाः च ।। चोरणम् । चौपाई, सं. स्त्री. (सं. चतुष्पादी>) छंदोभेदः। -रत, सं. पुं. (सं. न.) गुप्त-मैथुनं रतिः चौपाड़, सं. पुं., दे. 'चौपाल' । (स्त्री.)। चौपाया, सं. पुं. ( सं. चतुष्पादः ) चतुष्पदः, चौलकर्म, सं. पुं. (सं.-मन् न.) चौड, चौलं, चतुष्पाद (पु.) २. पशुः (पुं.)। मुण्डन-चूड़ाकरण, संस्कारः। चौपार-ल, सं. पुं. (हिं. चौबार-रा) गोष्ठी- चौलड़ा, वि. (हिं. चौ+लड़) चतुःसूत्र, सभा, गृहं, आस्थान-नी। चतुर्गुण ( हार इ.)। चौबच्चा, सं. पुं, दे. 'चहबच्चा। चौला, सं. पुं., दे. 'लोबिया'। चौबा, सं. पुं. (सं. चतुर्वेदः) ब्राह्मणजाति-चौला(रा)ई, सं. स्त्री., तंडुलीयः,सु-पथ्य, शाकः, भेदः २. मथुरावासी पुरोहितः। । बहुवीर्यः, मेघनादः। For Private And Personal Use Only Page #255 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir चौवन [ २१.] छज्जा चौवन, वि. [सं. चतुःपंचाशत् (नित्य स्त्री.)]|| चौहरा, वि. (हिं. चौ) चतुर्गुण-णित २. चतु सं. पुं., उक्ता संख्या, तदंको ( ५४ ) च। प्पुट, चतुरावृत्त, चतुरावर्तित । चौसठ, वि. [सं. चतुःषष्टिः ( नित्य स्त्री.)]। च्यवन, सं. पुं. (सं.) ऋषिविशेषः । (सं. न.) सं. पुं., उक्ता संख्या, तदंकौ ( ६४ ) च। क्षरणं, स्रवणम् । चौसर, सं. पुं. (सं. चतुस्सारिः ) दे. 'चौपड़'। -प्राश, सं. पुं. (सं.) अवलेहभेदः (आयुर्वेद)। । घ्युत, वि. (सं.) त्रुत, क्षरित २. पतित, भ्रष्ट चौहट्टा, सं. पुं. (हिं. चौ+सं. इट्टः ) दे.। ३. विमुख, पराङ्मुख ४.पदभ्रष्ट, अधिकारभ्रष्ट । 'चौक' ( १-२)। ध्युति, सं. स्त्री. (सं.) पतनं, स्खलनं २. अधिचौहत्तर, वि. [सं. चतुःसप्ततिः (नित्य स्त्री.)]। कारभ्रंशः, पदहानिः (स्त्री.) ३. दोषः, सं. पुं., उक्ता संख्या, तदंको ( ७४ ) च। स्खलितम् । छ, देवनागरीवर्णमालायाः सप्तमो व्यंजनवर्णः, अ.) २. क्षीव् ( भ्वा. दि. प. से.), मद् चकारः। । (दि. प. से., माद्यति )। छंगा, छगुरा, वि. (हिं. छः + अंगुरी) षडं- छकना क्रि. अ. ( सं. चक्र> ) विस्मि ( भ्वा. गुल, षडंगुरि। आ. अ.), चकित-विस्मित (वि.) भू २. वंचछगुलिया, छंगुली, सं. स्त्री., दे. 'छिगुनी'। प्रतार् ( कर्म.)। छंटना, क्रि. अ. (हिं. छाँटना ) वृ-उद्ह-चि- छकाछक, वि. ( हिं. छकना ) तृप्त, तुष्ट २. परिउद्ग्रह ( कर्म.), २. चट-छिद् ( कर्म.) पूर्ण ३. क्षीव, मत्त । ३. अप-छ ( अ. प. अ.), पृथग्भू ४. क्षि-विश | छकाना, कि, स., ब. 'छकना' (१, २.) के ( कर्म.), कृशी भू। प्रे. रूप । छंटा हुआ, मु., धूर्त, चतुर, दक्ष, निपुण।। | छक्का, सं. पुं. ( सं. षटकं) विदुषटकयुतं क्रीडाऊँटवाना, क्रि. प्रे., ब. 'छाँटना' के प्रे. रूप। । पत्रं २. षड्वस्तुसमूहः ३-४. अक्ष-कपर्द,छंटाई, सं. स्त्री. (हिं. छाँटना) वरण, भेदः ५. घतं, अक्षक्रीडा, देवनं ६. संशा, उद्ग्रहणं, चयनं २. अवच्छेदः, निकृन्तनं चैतन्यम् । ३. पृथक्करणं ४. अवच्छेदन-पृथक्करण, वेतनं -पंजा, मु., कूटोपायाः, कपटप्रबन्धाः। भृतिः ( स्त्री.)। -पंजा करना, मु. प्रतृ (प्रे.), वंच ( चु.)। छन्द, सं. पुं. [सं. छंदस (न.)] वृत्तं २. वेदः, छक्के छूटना, मु., धैर्य मुच् ( तु. उ. अ.), श्रुतिः (स्त्री.)३. छंदःशास्त्रं ४. अभिलाषः, अधीर-भग्नोत्साह (वि.) भू ।। कामना ५. स्वच्छंदता, स्वैरिता ६. कपट, छगड़ा, सं. पुं. (सं. छागल: ) अजः, शुभः । छलं ७. युक्तिः (स्त्री.), उपायः ८. अभिप्रायः छगन, सं. पुं. (सं. छगट >) शिशुः, स्तनंधयः । ९. पy, श्लोकः। -मगन, सं. पुं. ( बहु.) स्तनन्धयाः, शिशवः -शास्त्र, सं. पुं., छंदःशास्त्र, वृत्तविज्ञानम्। । (दोनों बहु.)। छ, छः, वि. [सं. षट् (त्रि.)] । सं. पुं.. उक्ता छगुनी, सं. स्त्री., दे. 'छिगुनी'। संख्या, तदंकः (६) च । छछुन्दर, सं. स्त्री. (सं. छुछुन्दरः-री) गंधछई, सं. स्त्री., दे. 'क्षयी'। मुखी, दिवांधिका, दीर्घतुंडी २. अग्निक्रीडनकछकड़ा, सं. पुं. ( सं. शकट:-टं ) प्रवहणं, यानं, | भेदः। वाहनं, शकटिका २. वृषभवाहनं, बलीवर्दशकटं, छजना, क्रि. अ., दे. 'फबना'। गन्त्री। छज्जा, सं. पुं. (हिं. छाजन) नीभ्रं, पटलप्रांतः छकना', क्रि. अ. (सं. चकनं ) चक् ( भ्वा. उ. | पटं, चालं, नो, वलीकः कं २. प्रग्रीवः, वरंडः, से.), तुष् (दि. प. अ.), परि-सं-तृप् ( दि. प. | वितदी-र्दिः ( स्त्री. )। For Private And Personal Use Only Page #256 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir छटपटाना [ २१८ ] छपना २. अनिर्वृत - अशांत व्याकुल (वि.) भू ३. अत्यंत अभिलष (भ्वा.उ.से.) । छटपटी, सं. स्त्री. (हिं. छटपटाना) अधीरता, आकुलता २. लालसा, तीव्रोत्कंठा । छौंक, सं. स्त्री. ( सं . षट्टक) सेटक-सेर, षोडशांशः । छटपटाना, क्रि. अ. (अनु.) दे. 'तड़फड़ाना' | छत्र, सं. पुं. (सं. न. ) दे. 'छतरी' २. राजच्छत्रं ३. बृहच्छत्रं ४ ( खुमी ) छत्रकः -कम् । -छाँह, सं. स्त्री. छत्रच्छाया, शरणं, आश्रयः । धारी, पति, सं. पुं., नृपः, भूपः । छत्री, सं. पुं., दे, 'क्षत्रिय', २. दे. 'छतरी' । छदाम, सं. पुं. (हिं. छ + दाम ) पणचतुर्थी, दे. 'दमड़ी' । छटा', सं. स्त्री. (सं.) कांति:दीप्तिः- द्युतिः (स्त्री.), प्रभा २. चारुता, शोभा, सौन्दर्य, रूपं ३. दामिनी, विद्युत् (स्त्री.) । छटा, वि., दे. 'छठा' । छभ, सं. पुं. [सं. छद्मन् (न.)] छलं, कपर्ट २. गोपनं, गूहनं ३. व्यानः, मिषम् । छन, सं. पुं. (अनु.) छणिति, शब्दः ध्वनिः (पुं.), सीत्कारः २. कणितं, शिंजितम् । छन, सं. पुं., दे. 'क्षण' । छठा, वि. (सं. षष्ठः ष्ष्ठी-ष्ठम् ) । छठी, सं. स्त्री. ( सं . षष्ठी ) जन्मतः षष्ठे दिवसे छनक, सं. स्त्री. (अनु.) छणछण झणझणछणछणायितं, झणझणायितं, देवपूजा | -का दूध याद दिलाना, मु., अनुशास् ( अ. प. से. ), दंडू ( चु. ) । छड़, सं. स्त्री. पुं., (सं. शरः > ) ( १-२ ) धातुकाष्ठ, दंड: ३. लंब, यष्टिः (स्त्री.)- लगुडः । छड़ा, सं. पुं. (हिं. छड़ ) पादभूषण भेदः । शब्दः - निनदः दे. 'छन्' ( १-२ ) । छनकना, क्रि. अ. (अनु. छनछन ) छणछणायते-झणझणायते ( ना. धा. ), छणछणशब्दं कृ, क्कण् (भ्वा. प. से. ), शिंज् ( अ. आ. से. ) २. सीत्कारं कृ । २ छड़ा, वि. (हिं. छोड़ना ) एक, एकाकिन्, असहाय, अद्वितीय, एकल । छनकमनक, सं. स्त्री. (अनु.) शिंजितं, रणितं २. दे. 'साजबाज' । छड़िया, सं. पुं. (हिं. छड़ी ) द्वारपाल:, दौवारिकः । छड़ी, सं. स्त्री. (हिं. छड़ ) यष्टिः (स्त्री.), दण्डः २. वेनं, वेत्रयष्टिः । छत, सं. स्त्री. (सं. छत्रं > ) छदिस् (न.), छदिः (स्त्री.), पटलं २. अंतःपटलं, अंतरछादनं, पटलं ३. वितानं, उल्लोघः । छतरी, सं. स्त्री. (सं. छत्रं ) शतशलाका, आतपत्रं, आतपवारणं, छायामित्रं, पटोटजं २. मंडप :- पं ३. कपोतानां वेणुच्छत्रम् । छतीसा, वि. (हिं. छत्तीस ) धूर्त, मायिक, मायिन् छलिन्, कापटिक । छतीसी वि. बी. (हिं. छतीसा) छलिनी, मायिन् कापटिकी, २. कुलटा, पुंश्चली । सा, सं. पुं. (सं. छत्रं ) करंडः, मधुकोशः, चषालः, छत्रकः २. गणः समूहः ३. छत्रं, , 3 आतपत्रम् | छत्तीस, वि. [सं. षट्त्रिंशत् ( नित्य स्त्री. ) ] सं. पुं. उक्ता संख्या, तदंको ( ३६ ) च । छत्तीसव, वि. (हिं. छत्तीस ) षट्त्रिंशत्तमः - मी- मं, षट्त्रिंशः-शी-शम् । छुनकाना, क्रि. स., ब. 'छनकना' के प्रं. रूप । छनछनाना, क्रि. अ. स., दे. 'छनकना', 'छनकाना' । छनना, क्रि. अ. (सं. क्षरणं ) तितउना शुध् ( दि. प. अ. ), निर्गल-क्षर् (भ्वा. प. से. ) २. क्षतविक्षत (वि.) भू । छनवाना, छनाना, क्रि. प्रे., ब. 'छानना' के प्रे. रूप । छनाक-का, सं. पुं. (अनु.) दे. 'छनक' । छन्न, वि. (सं.) आ-प्र-समा, छन्न, आ. प्र. सं,वृत, निगूढ, पिहित २. लुप्त, तिरोहत, अदृष्ट | छप, सं. श्री. (अनु.) आस्फालन, ध्वनि: (पु.)शब्दः २. आस्फालनं, विक्षेपः । छपका, सं. पुं. (अनु. ) जल, - आस्फाल: - विक्षेपः २. पिटक पिधानम् । छपछपाना, कि. अ. (अनु.) छपछपायते ( ना. धा. ), छपछपशब्दं कृ २. ईषत् तृ ( भ्वा. प. से. ) । छपना, कि अ. अंकू - लांछ् ( कर्म.), (हिं. चपना = दबना ) मुद्रांकित चिह्नित (वि.) भू २. मुद्र ( कर्म.), मुद्राक्षरै: अंकू ( कर्म. ) । For Private And Personal Use Only Page #257 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir छपरख(खा)ट [ २१९] छलिया छपरख(खा)ट, सं. स्त्री. ( हिं. छप्पर + खाट) छर्दन, सं. पुं. (सं. न.) प्र., छदि(दी) का, *मशहरीखट्वा। वमः-मि. (स्त्री.), वमनं, मथुः (पुं.), वांतिः छपवाना, क्रि. प्रे., ब. 'छापना' के प्रे. रूप। (स्त्री.), उद्गारः, उत्कासिका। छपाई, सं. स्त्री. (हिं. छापना ) (मुद्राक्षरैः) छर्रा, सं. पु. ( अनु. छर ) लोह-सीसक, अंकनं, मुद्रणं २. अंकन-मुद्रण, प्रकारः। गुलिका २. दे. 'कंकड़ी' ३. वेगक्षिप्तः जलकणछपाका, सं. पुं. (अनु.) जलास्फालनशब्दः | समूहः । २. तोयास्फालः। छल, सं. पुं. ( सं. पुं. न.) कूटं, कपट, कैतवं, छप्पन, वि. [ सं. षटपंचाशत् (नित्य स्त्री.)]! छमन् (न.), प्रतारणा, प्रवंचना, अतिसंधानं सं. पुं., उक्ता संख्या, तदंको ( ५६ ) च। २. व्याजः, मिर्ष ३. चतुर्दशःपदार्थः(न्या.)। छप्पय, सं. पुं. (से. षट्पदः) हिंद्यां छन्दोभेदः। -बल, सं. पुं., कूट, उपायः कल्पना-प्रबंधः । छप्पर, सं. पुं. (हिं. छोपना) तृण, छदिः -कपट, सं. पुं., दे. 'छल' ( १-२ )। (स्त्री.)-पटलं २. उटजः-ज, कुटीरः। -छिद्र, सं. पुं., दे. छल (१)। -खट, सं. स्त्री., दे. 'छपरखाट'। छलक, सें. स्त्री. (हिं. छलकना) परिवाहः, -छाना या डालना, क्रि. स., तृणादिभिः | उपरिस्रावः। आ-, छद् (चु.)। छलकना, क्रि. अ. (अनु. छल ) उपरि . छबड़ा,-ड़ी सं. पुं. स्त्री. (देश.) दे. 'टोकरा-री'। परिवह, (भ्वा. प. अ.), उत्सिच (कर्म.), छब-बि, सं-स्त्री., दे. 'छवि। प्रवृध् ( भ्वा. आ. से.), स्फीत-वृद्ध, जल (वि.) छवीला, वि. (हिं. छब) सुंदर [-री (स्त्री.)] | शोभन [-नी (स्त्री.)], रूपवत्-कांतिमत् छलकाना, क्रि. स., ब. 'छलकना' के प्रे. रूप । [-ती (स्त्री.)] छलछलाना, क्रि. अ. (अनु.) छलछलायते, छब्बीस, वि. [सं. षड्विंशतिः (नित्य स्त्री.)] | ( ना. धा. ), सछलछलशब्दं सु ( भ्वा. सं. पुं., उक्ता संख्या , तदंको (२६ ) च। प. अ.)। छब्बीसवाँ, वि. ( हिं. छब्बीस ) षड्विंशति- छलना, क्रि. स. (सं. छलन) छलयति(ना.धा.), तमः-मी-मम्, षड्विंशः-शी-शम् । अति-अभि,-संधा (जु. उ. अ.), प्रतृ मृह् (प्रे.), छमंड, सं. पुं. (सं.) मातृपितृ-जनक,-हीनः बंच (च.)। सं. स्त्री.. दे. 'छल' १. । बालकः, अनाथः। छलनी, सं. स्त्री. (स्त्री. चालनी ) तितउः । छमक, सं. स्त्री. ( अनु.) दे. 'ठसक'। -करना, मु.; अनेकत्रछिद्-निर्मिद् (रु. प. अ.)छमकना, क्रि. अ., ( अनु० छम) दे. छम- व्यध (दि. प. अ.)। छमाना। छलाँग, सं. स्त्री. (हिं. उछल+सं. अंग) प्लवः, छमछम, सं. स्त्री. (अनु.) धारासार-धारासपात, प्लवनं, प्लुतं-तिः (स्त्री.), झंपः-झंपा, वल्गितम् । शब्दः २. छमछम, रणित-निनदः, छमछमा ऊँची-, सं. स्त्री., उत्, प्लवः-प्लुतिः (स्त्री)यितं, छणत्कारः, झणत्कारः। क्रि. वि., सछण पतनं इ.। (मत्कारम् । लंबी--, सं. स्त्री., प्र., प्लवः-प्लुतिः इ.। छमछमाना, क्रि. अ. (अनु.) छमछमायते | -मारना, क्रि. स., (ऊँची)उत्पत्(भ्वा. प. स.), (ना.धा.),छमछमनिनदं कृ २.दे.'चमचमाना' । उत्प्लु (भ्वा. आ. अ.)। आगे (आगे) बल्ग् (भ्वा. छमा, दे. 'क्षमा'। प.से.), प्लु । ( नीचे) अवप्लु । छमाछम, सं. स्त्री. ( अनु.) दे. 'छमछम'। छलावा, सं. पुं. (सं. छलं >) मिथ्या, अनल:छरकना, क्रि. अ. ( अनु. छर ) सछरछरशब्दं अग्निः (पु.)-दीप्तिः (स्त्री.), दीप्त्याभासः विक्षिप-विक (कम), छरछरायते (ना.धा.)। २. मायादृश्यं, इंद्रजालम् । छरना, क्रि. अ. ( सं. क्षरणं ) दे. 'टपकना'। छलित, वि. (सं.) विप्रलब्धः, वंचित, छरहरा, वि. (हि. छड़ ) कृश, तनु, कृशांग प्रतारितः । [-गी (स्त्री.) ] २. उद्यमिन्, उद्योगिन् । छलिया, वि. दे. 'छली'। For Private And Personal Use Only Page #258 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir छली छली, वि. (सं. छलिन् ) कपटिन्, माथिन्, कापटिक, प्रतारक, छाद्मिक, शठ, धूर्त, कितव, वंचक । सं. पुं., शठः, धूर्त, इ. । [ २२० ] छग, सं. पुं. (सं.) अज:, छागलः । छागल, सं. पुं. (सं.) दे. 'छाग' । मं. स्त्री, भरत्रा, भस्त्रका, भस्त्रिः (स्त्री.) छला, सं. पुं. (सं. छल्ली - लता > ) अंगुली | छागी, सं. स्त्री. (सं.) अजा, दे. 'बकरी' । (री) यं यकं, ऊर्मिका, मुद्रा । छल्लि, सं. स्त्री. दे. 'छल्ली' १-३ । छल्ली, सं. स्त्री. ( सं. ) लता, वल्ली २. वल्कः, के, छाज, पुं. पुं. (सं. छादः > त्वच् (स्त्री.) ३. संतानः ४. पुष्पभेदः । छल्लेदार, वि. (हिं. छल्ला + फ़ा. दार) सवलय, सचक २. गोल- वर्तुल, चिह्नवत् । छवाई, सं. स्त्री., (हिं. छाना) आ-समा-प्र-परिसं-अव, छादनं, आ-समा-नि-सं-, वरणम् । आच्छादन-संवरण, भृत्या - भृतिः (स्त्री.) । छवि, सं. स्त्री. (सं.) सौदर्य, शोभा, लावण्यं, रूपं, चारुता २. कांतिः (स्त्री.), प्रभा । छाँ, सं. स्त्री. दे. 'छाँह' । छाँगुर, सं. पुं., दे. 'छंगा' । छाँट, सं. स्त्री. (हिं. छाँटना) अवच्छेदनं, निकृंतनं २. विदलानि-शकलाः-शकलानि (बहु.) ३. शेषः षं, निस्सारद्रव्यम् । छाँटन, सं. स्त्री. (हिं. छाँटना ) अवशिष्टं, उच्छिष्टं, शेषः-षं । २.विदलानि शकलानि (बहु.) । छाँटना, क्रि. स. (सं. छेदनं ) अग्राणि अवछिद् ( रु. प. अ. ) निकृत् ( तु. प. से. )-लू (क्रू. उ. से. ) २. बृ. ( स्वा. उ. से.; चु. ) उद्ग्रह् ( क्र. प. से. ), विशिष ( प्रे. ) ३. विभज् भ्वा. उ. अ. ), पृथक् क्लृ । ४. शुध् (प्रे. ), निर्मली कृ । छांदस, वि. (सं.) वैदिक, श्रौत, २. वेद, वेदाधायिन् ३. पद्यमय छन्दोबद्ध । स पुं. (सं.) वेदज्ञ, - ब्राह्मणः - विप्रः । छांदोग्य, सं. पुं. ( सं. न.) सामवेदब्राह्मणम् ( ग्रंथविशेषः ) २. छांदोग्योपनिषद् (स्त्री.) । छाँव, सं. स्त्री. (सं. छाया) प्रकाशछह आतप, अभाव:, श्यामा, भावानुगा २. प्रतिच्छाया - बिंबं - मूर्तिः ( स्त्री. ) रूपं २. निरातपस्थानं ४. आश्रयः, शरणम् । -गीर, सं. पुं. (हिं. + फ़ा. ) राज, छत्रं २. दर्पणः, मुकुरः । छाक, सं. स्त्री. (हिं. छकना) तुष्टिः तृप्ति:इच्छापूर्तिः (स्त्री.) २. प्रातराशः, कल्यवर्तः ३. माध्यंदिनं भोजनं ४. क्षीयता । छात्रालय छाछ, सं. स्त्री. (सं. छच्छिका ) सारहीनं प्रचुरजलं तक्रम् २. घृत-नवनीत, शेषः । ) प्रस्फोटनं, शूर्प : वाजन, सं. पुं. (सं. छादनं ) वस्त्रं, वसनम्, र्प, सूर्पः- पैम् । आच्छादनं २. दे. 'छप्पर' । भोजन, सं. सं., भोजनवस्त्रं, अशनवसनं । छाता, सं. पुं. (सं. छत्रं) बृहत्, - छत्रं- आतपत्रम् | छाती, सं. स्त्री. (सं. छादिन् > ) उरस्-वक्षस् (न.), उरस्-वक्षस्, स्थलं, वत्सम् । २. हृदयं, मनस् (न. ) ३. वीर्य, शौर्यम् । - कड़ी करना, मु., धैर्य दृश् (प्रे.), विक्रमं प्रकाश (प्रे.) । - जलना, मु., अम्लपित्तेन पीड् ( कर्म. ) २. ईर्ष्यया दद्द् ( कर्म. ) । ठंडी होना, मु., संतुष् ( दि. प. अ. ), सुखं स्था ( वा. प. अ. ) । - निकाल कर चलना, मु., साटोपं-सग चल् भ्वा.प.से.) । - पर पत्थर रखना, मु. सह क्षम् (भ्वा. आ. से. ) । - पर मूंग दलना, मु., प्रत्यक्षं अपकृ । - पर सांप लोटना, मु., मात्सर्येण दद्दू (कर्म.) । पीटना, मु., परिदेव (भ्वा. आ. से.), अनु, शुच (वा. प. से. ) । For Private And Personal Use Only - फटना, मु., चित्तं विद ( कर्म. ), हृदयं भिदू ( कर्म. ) । -से लगाना, मु., आलिंग् (भ्वा. प. से. ), आश्लिष ( दि. प. अ.), उपगुहू ( भ्वा. उ. से. उपगूहति-ते ) । छात्र, सं. पुं. ( सं . ) अध्येतृ ( पुं.), अधीयानः, विद्यार्थिन् २. शिष्यः, अंतवासिन् । - वृत्ति, सं. स्त्री. ( सं . ) शिष्यभृतिः (स्त्री.) । छात्रक, सं. पुं. (सं.) छात्रः, विद्यार्थिन् । (सं. न. ) २. मधु (न.); माक्षिकं, सारघम् । छात्रालय, सं. पुं. (सं.) छात्रावासः, विद्यार्थिनिवासः । Page #259 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir छादक [ २२१ ] छिच(कोर छादक, वि. (सं.) आच्छादक, आवरक, | छापना, क्रि. स. (सं. चपनं > ) मुद्रयति पिधायक। (ना. धा.), मद्राक्षः अंक (च.), दे. 'छाप छादन, सं. पुं. (सं. न.) आच्छादनं, आव- लगाना। सं. पुं, मुद्रणं, मुद्राक्षरैः अंकनम् । रणं पुटं, वेष्टनं २. तिरस्करिणी, व्यवधानं | छापने योग्य, वि., मुद्रयितव्य, मुद्राक्षरैः अंक३. वसनानि-वस्त्राणि ( बहु.)। नीय । छादित, वि. (सं.) आच्छादित, आवृत, आवे- छापनेवाला, सं. पुं., मुद्रकः, मुद्रपितृ-मुद्रणष्टित । कृत (पुं.)। छादिनी, सं. स्त्री. (सं.) त्वच-रोमभूमिः छापा हुआ, वि., मुद्रित, मुद्रांकित, मुद्राक्षरांकित। (स्त्री.), त्वचं, त्वचा, छली-ल्ली। छापा, सं. पु. (हिं. छापना) दे. 'छाप" छानिक, वि. (सं.) कपटिन् , छलिन् , ( १-२ ) ३. सौप्तिकं, सौप्तिकाक्रमः ४. मुद्रणमायिन । सं. पुं. (सं.) धूर्तः, वंचकः, यंत्रम् ।। प्रतारकः । । -मारना, क्रि. स., नक्तं अवस्कंद ( भ्वा. प. छान, सं. स्त्री. (सं. छादनं> ) छादं, तृण,- अ.), रात्रौ सहसा अमियुज ( रु. आ. अ.)। पटलं-दिः (स्त्री.) २. दे. 'छानस'। -लगाना, क्रि. स., दे. 'छाप लगाना' । छानना, क्रि. स. ( सं. क्षारणं ) तितउना-वस्त्रेण | -खाना, सं. पुं. (हिं+फा.) मुद्रणालयः । निर्गल-विशुध् ( प्रे.) २. (रसादि ) निष्कृष् -विद्या, सं. स्त्री., मुद्रण, कला-विद्या । ( भ्वा. प. अ.), निपीट् (चु.) ३. बिंदुशः- छाया, सं. स्त्री. (सं.) दे. 'छाँह' (१-४)। लवशः स्र-क्षर-गल (प्रे.) ४. दे. 'खोजना'। प्रति. लेखा-लिपिः ( स्त्री.) ६. प्रतिकतिः (ली.) सं. पुं., तितउना निर्गालनं, विशोधनं, बिंदशः | अनुकरणं, सदृशवन्तु (न.) ७. कांतिः-धुतिः क्षारणं; अन्वेषणं इ.। (स्त्री.) ८. तिमिरं, तमस् (न.) ९. भूतछानबीन, सं. स्त्री. (हिं. छानना+बीनना) प्रेत, प्रभावः। सूक्ष्म-सम्यग, अनुसंधानं-अन्वेषणं २. नैपुण्येन -पथ, सं. पुं. (सं.) आकाश-स्वर-वियद्निरूपणं-परीक्षण-पर्यालोचनम् । गंगा, सुर-धुनी-नदी २. आकाशः-शम् । छानवे, वि. [सं. षण्णवतिः (नित्य स्त्री.)]| छार, सं. पुं., दे. 'क्षार' । सं. पुं., उक्ता संख्या, तदंको ( ९६) च। छाल, सं. स्त्री. ( सं. छाल:-लं), वृक्षत्वच (स्त्री.), छानस, सं. स्त्री. (हिं. छानना) कडंगरः, वल्कं, वल्कल:-लं २. शल्कं, त्वच् ( स्त्री.)। तुषः, बुषं-सम् । -उतारना, क्रि. स., त्वचयति (ना. था.), छाना, क्रि. स. (सं. छादनं ) आच्छद् (चु.), निस्त्वची कृ, त्वचं अपनी ( भ्वा. प. अ.)। आवृ ( स्वा. उ. से.), आस्तु (क्र. उ. से.) | छाला, सं. पुं. ( स. छाल:-लं > ) स्वस्फोटः, २. तृणादिभिः आच्छद् (चु.), तृणछर्दि निर्मा, शोफः, पिटिका २. रक्त,-स्फोट:-गंडः २. चर्मन् (ज. आ. अ.)। (न.), अजिनम् । छा जाना, क्रि. अ., वितन्-विस्तृ-विस्तृ (कर्म.), | छालिया, सं. पु. ( हि. छाला ) पूगं, ताबूल प्र-वि, स-सृप (दोनों भ्वा. प. अ.) ३. छायया २. पूग, शकलः-खंडः। आवृ ( स्वा. उ. से.)। छावनी, सं. स्त्री. (हिं. छाना ) स्कन्धावारः, छा लेना, क्रि. स., दे. 'छाना' १. २. तिमिरेण | शिविरं, सैन्यावासः, निवेशः, सेना, वास:आच्छद् (चु.), तिमिराच्छन्नं कृ। स्थानं २.दे. 'छप्पर। छाप, सं. स्त्री. (हिं. छापना) अंकः, चिलु. छिंगुली, सं. स्त्री., दे. 'छिगुनी' । न्यासः, मुद्रा २. मुद्रा, मुद्रिका, मुद्रिकायंत्रं | छि, अव्य. ( अनु.) धिक, धिर धिक् । ३. अंगुली( री )यकं, ऊर्मिका। | छिगुनी, सं. स्त्री. (सं. क्षुद्र +अँगुली ) कनिष्ठा-लगाना, क्रि. सं., अंक (चु.), लांछ ( भ्वा. | ठिका, कनीनिका, दुर्बलांगुली-लिः (स्त्री.)। प. से.), चिह्नयति-मद्रयति ( ना. धा.)। । छिच(छ)व, सं. स्त्री., व्यर्थमासखण्डः For Private And Personal Use Only Page #260 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir छिछला [ २२२ ] छियानवे छिछला, वि., (हिं. छूछा ) आल्प - गाध, जल, | छिद्रान्वेषी, वि. ( सं . षिन् ) पुरोभागिन्, गा ( गांभीर्यशून्य, उत्तान, गाध । दोष कदृश (पुं.), दोषग्राहिन् . निंदक । छिछलाई, सं. स्त्री. (हिं. छिछला ) गाधता, छिद्रित, वि. ( सं . ) सच्छिद्र, सरंध्र, सविवर, गंभीरताऽभावः । २. विद्ध । foot, सं. स्त्री. ( हि. छिछला ) घटशक छिन, सं. पं. दे. 'क्षण' । लतारणं, बालक्रीडाभेदः । छिछोरा, वि. (हिं. छिछला ) क्षुद्र, अवम, अधम, तुच्छ, गांभीर्यशून्य । छिछोर (रा) पन, सं. पुं. (हिं. छिछोरा ) क्षुद्रता, गंभीरताऽभावः, अधमता, तुच्छता । छिटकना, क्रि. अ, (सं. क्षिप्त > ) अवा-आ-प्रवि-कृ ( कर्म. ), विक्षिप् ( कर्म. ), प्र-सृ (भ्वा, प. अ. ) २. प्रकाश-विद्युत (भ्वा आ.से.) । चाँदनी का - सं. पुं. कौमुदी प्रसारः, ज्योत्स्नाविस्तार: । छिटकाना, क्रि. स. ब. 'छिटकना' के सकर्मक रूप । छिड़कना, क्रि. स. ( हि. छिटकना ) २. अव-आ-नि, सिच् (तु. प. अ.), अभिप्र. सं-उक्ष ( भवा. प. से. ), बिन्दून् - कणान् विक्षिप् ( तु. प. अ. )-विकृ ( तु. प. से. ) । छिड़कवाना, छिड़काना, व. 'छिड़कना' के प्रे. रूप ! छिड़काव, सं. पुं. (हिं. छिड़कना) अव-स्था, सेकः, प्रोक्षणम् । छिड़ना, क्रि. म. ( हिं. छेड़ना ) आ-प्र-रम् ( कर्म. ), उप-प्र-क्रम् ( कर्म. ) । छितरना, क्रि. अ., दे. 'बिखरना' । छिति, सं. स्त्री. ( सं . ) छेदनं, लवनं, कृन्तनं, व्रश्चनम् । छिदना, क्रि. अ. व. 'छेदना' के कर्म. रूप । छिदरा, वि. (सं. छिद्रं > ) विरल, सच्छिद्र पेलव, तनु २. जीर्ण शीर्ण । छिदाना, क्रि. प्रे. ब. 'छेदना' के. प्रे. रूप । छिदि, सं. स्त्री. (सं.) कुठारः, परशुः । २. वज्र:- जं, कुलिशं पविः । छिद्र, सं. पुं. ( सं. न. ) विवरं, सुषिरं रंधं, बिलं २. दोषः, वैकल्यं, न्यूनता । छिद्रान्वेषण, सं. पुं. (सं. न. ) पुरोभागित्वं, दोषग्राहित्वं, निंदकत्वम् । छिनना, कि. अ., व. 'छीनना' के कर्म. रूप । छिनरा, वि. पुं., (हिं. छिनरी) व्यभिचारिन्, परदारगामिन् । छिनरी, वि. स्त्री. ( सं. छिन्न + नारी > ) कुलटा, व्यभिचारिणी । छिनवाना, छिनाना, क्रि. प्रे, व. 'छीनना' के प्रे. रूप । छिनाल, सं. स्त्री. दे. 'कुलटा' । छिन्न, वि. (सं.) कृत्त, लून, दात, दिन, छात, छित, वृक्ण । - भिन्न, वि. ( सं . ) अवा-आ-प्र-वि, कीर्ण, निरस्त २. लून, कृत्त, खंडित इ. ३. अस्त व्यस्त । छिपकली, छिपकी, सं. स्त्री. (हिं. चिपकना ) गृहगोधाधिका, ज्येष्ठा-ष्ठी, मुषली, गृहालिका, कुड्यमत्स्यः २. तन्वी (नारी) ३. कर्णभूषण भेदः । छिपटी, सं. स्त्री. (सं. चिपिट > ) तष्ट-खंड शकलम् । छि (छ) पना, क्रि. अ., [सं. क्षिप् = ( परदा आदि ) डालना ] तिरोभू, अंतर्-इ ( अ, प. अ. ) ली (दि. आ. अ.), अंतर- तिरो धा (कर्म.) अदृश्य प्रच्छन- अपवारित (वि.) भू । छिपा, वि. (हिं. छिपना ) अंतरित, तिरो, हित भूत | छिपा रुस्तम, वि. पुं., अज्ञात - अप्रसिद्ध-अविख्यात- गुणिन् । | छिपे छिपे, क्रि. वि. गूढं, गुप्त, निभृतं, प्रच्छन्नम् । छिपाना, क्रि. स. हि. ( छिपना ) अंतर् तिरो, धा ( जु. उ. अ. ), अपवृ ( प्रे.), गुहू ( भ्वा. उ. से. ), प्रच्छद् ( प्रे.) । सं. पुं., अंतर्धानं, तिरोधानं, गू ( गो ) इनं, गोपनं, संवरणम् । छिपाव, सं. पुं. (हिं. छिपाना ) दे. 'छिपाना' सं. पुं. छियानवे, वि. तथा सं. पुं., दे, 'छानवे' । For Private And Personal Use Only Page #261 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir छियालिस [ २२३ ] - - छियालिस, वि. [ सं. षट्चत्वारिंशत् (नित्य आक्षिप्य ग्रह (क्र. प. से. )- (भ्वा. प. अ.) स्त्री.)] । सं. पुं., उक्ता संख्या, तदंको (४६) आच्छिध-बलात् अपहृ-ग्रह । छीपी, सं. पुं. (हिं. छापना) वसनमुद्रकःछियासठ, वि. [सं. षट्षष्टिः (नित्य स्त्री.)]| वस्त्रचित्रकः। सं. पुं. उक्ता संख्या, तदंको (६६) च। छीर, सं. पुं. दे. 'क्षीर' । छियासी, वि, [सं. षडशीतिः (नित्य स्त्री.)]|| छीलना, क्रि. स. (हिं. छाल ) दे. 'छाल सं. पुं., उक्ता संख्या, तदंको ( ८६ ) च । । | उतारना' २. तनू कु, त्वक्ष-तक्ष् (भ्वा. प.से.) छिलका, सं-पु. (सं. शल्क) ( फलादि का) ३. अप-व्या-मृज् ( अ. प. वे.; चु.) विलुप् त्वच् ( स्त्री. ) २. वल्कः-ल्कं, वल्कल:-लं (प्रे.) ३. तुषः, बुषं, बुसम् । छुआछूत, सं. स्त्री. ( हिं. छूना ) अस्पृश्य-उतारना, क्रि. स., दे. 'छाल उतारना। स्पर्शः, अशुचिसंसर्गः २. स्पृश्यास्पृश्यविचारः। छिलना, क्रि. अ., ब. 'छीलना' के कर्म. रूप । छईमई. सं. स्त्री. दे. 'लज्जावती'। छिलवाना, छिलाना, क्रि. प्र., ब, 'छीलना'छुछंदर, सं. पुं., दे. 'छडूंदर'। के प्रे. रूप। | छुटकारा, (हिं. छूटना ) ( दुःखादि से ) मोक्षः, छिहत्तर, वि. [सं. षट्सप्ततिः (नित्य स्त्री.)] || ' मुक्तिः (स्त्री.), मोचनं २. वर्जनं, रहितत्वं सं. पुं., उक्ता संख्या, तदंको ( ७६ ) च। ३. निश्चितता, निवृतिः (स्त्री.)। छींक, सं. स्त्री. ( सं. छिक्का ) क्षुतं-ता, क्षवः, -पाना, क्रि. अ., वि-निर-मच् ( कर्म.), मोक्षक्षवथुः (पु.), क्षुत्-तिः (स्त्री.)। उद्धृ-विसृज् ( कर्म.)। छींकना, कि. अ.( हिं. छींक ) क्षु (अ. प. | छुट्टी, सं. स्त्री. (हिं. छूटना ) दे. 'छुटकारा' से.), क्षुतं-क्षवं-छिको कृ।। २. अवकाशः, क्षणः, कार्यनिवृत्तिः (स्त्री.) छींट, सं. स्त्री. (सं. क्षिप्त > ) ( जलादिका) ३. अनध्यायः, अनध्यायदिवसः, विश्रामदिवसः कणः-णिका, बिंदुः( पुं.), शीकरः, पृषतः ४. विनाम, कालः-समयः। २. वस्त्रभेदः, चित्रवस्त्रम् । छींटा, सं. . ( हिं. छींट ) दे. 'छीटर छुड़वाना, छुड़ाना, क्रि. प्रे., ब. 'छोड़ना' के पं.रूप। २. शीकरवर्षः, पृषतपातः २. जल,-भास्फाल: छुद्र, वि., दे. 'क्षुद्र'। विक्षेपः ४. अंकः, लांछनं ५. लम्वाक्षेपः।। छुधा, सं. स्त्री., दे. 'क्षुधा'। -देना या मारना, क्रि. स., पृषतैः शीकरैः छुपना, छुपाना, क्रमशः क्रि. अ. तथा क्रि. स., क्लिद् (प्रे. )-आर्द्रयति (ना. धा.)। दे. 'छिपना' तथा 'छिपाना'। छी, अव्य., दे. 'छि। छुरा, सं. पुं. ( सं. शुरः ) कृपाणः, बृहच्छुरी-छी करना, मु., गुप् ( पंचमी के साथ | रिका। सन्नंत रूप, जुगुप्सते ), कुत्स्, (चु.आ. से ), छुरी, सं. स्त्री. ( सं.) क्षुरी, छुरिका, कृपाणीगह (चु. उ. से.)। | णिका, असि, धेनुका-पुत्रिका। छीका, सं. पुं. ( सं. शिक्या ) शिक्यम् । -मारना, कि. स., छुरिकथा व्यथ ( दि. प. छीछालेदर, सं. स्त्री. ( अनु. छी छी) दुर्दशा, अ.), छुर् ( तु. प. से.), क्षण ( त. प. से.)। दुर्गतिः ( स्त्री.)। छुवा(ला)ना, कि. प्रे., व. 'छूना' के प्रे. रूप । छीज, सं. स्त्री. ( सं. क्षयः ) अपचयः, हासः ।। छुहारा, सं. पुं. ( सं. क्षुध+ हारः> ) खजूरछीजना, कि. अ. (सं. क्षयणम् ) क्षि-विश भेदः, छोहारा २. पिंडखजूरफलं, गोस्तनाकार( कर्म.), हस् ( भ्वा. प. से.)। पिंड, खजूरी, खजूरी। छीट, सं. स्त्री. दे. 'छीट। छू, सं. स्त्री. ( अनु. ) मंत्रपाठानंतर-छूत्कारःछीनना, क्रि. स., (सं. छिन्न> ) आच्छिन् । फूत्कारः। (क्र. प. अ.), झटिति कृष (म्वा. प. म.), -तर होना ,मु., झटिति तिरोभू। For Private And Personal Use Only Page #262 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir छूछा [ २२४] छूछा, वि. (सं. तुच्छ ) निःसार, असार ३. लीला, विलासः, हावः ४. कलह, कलिः २. रिक्त शून्य, शून्यगर्भ ३. निर्धन । (पुं.)। छूट, सं. स्त्री. (हिं. छूटना ) दे. 'छुटकारा' -छाड़, मं. स्त्री., दे. 'छेड़' (१, ४)। (१, २) ३. अवकाशः, क्षणः ४. ऋणमोक्षःछेदना, क्रि. स. (हिं. छेदना) कुप्-कुध्रुष ५. स्वातंत्र्यं स्वच्छंदता ६. प्रमादः, स्खलितम् । (प्रे.) २. दे. 'छूना' ३. भा-प्र-रम् (भ्वा. छूटना, क्रि. अ. (सं. छोटनं = काटना >) आ. अ.), उप-प्र-क्रम् (भ्वा. आ. अ.) ४. अद्वि., मुच् ( कर्म.), त्रै-रक्ष ( कर्म.), दे. 'छुट- आयस् (प्रे.), उपरुध् (रु. उ. अ.) ५. अवकारा पाना' २. ( पदात् ) च्यु (भ्वा. आ. परि-हस् ( भ्वा. प. से.) ६. कलहं कृ। सं.. अ.)अपास् ( कर्म.) ३. वियुज् ( कर्म.), पुं., 'छेड़। विशिष् (दि. प. अ.)। ४. प्रचल् ( भ्वा. प. | छेत्ता, वि. ( सं.-तृ ) छेदकः, लावकः, छेदकरः, से.), प्रस्था (भ्वा. आ. अ.) ५.(प्रमादात् )| छिन् । सं. पु., वनच्छिद् , काष्ठच्छिन् । न अनुष्ठा-विधा ( कर्म.)। छेत्र, सं. पुं., दे. 'क्षेत्र'। शरीर-, मु., दे. 'मरना'। छेद, सं. पुं. (सं.) छिद्रं, बिलं, विवरं, रंधे, छूत, सं. स्त्री. ( हिं. छूना) सं-स्पर्शः, संसर्गः, ५ संपर्कः २. अस्पृश्य,-स्पर्शः-संसर्गः ३. मालिन्यं, | सुशि( षि )रं, कुहरं, रोकं, निर्व्यथनं, वपा, सुषिः (स्त्री.) २. वि, नाशः, वि,ध्वंसः दूषणं, अशौचम् । --का रोग, सं. पुं., संस्पर्शज-सांसर्गिक संका ३. दोषः, न्यूनता ४. वि,-माजकः ( गणित )। छेदक, वि. (सं.) वेधक, भेदक, छेत्तृ, भेत्तु, मक,-रोगः। वेधिन् २. नाशक, ध्वंसकर ३. विभाजक । छूना, क्रि, स. ( छोपनं ) छुप्-स्पृश-परामृश् सं. पुं., वेधनी। (तु, प. अ.), इस्तेन आलम (म्वा. आ. अ.)। सं. सं., संपर्कः, संसर्गः, सं, स्पर्शः, स्पृष्टिः | छेदन, सं. . ( सं. न. ) वेधः, वेधनं छिद्रकरणं (स्त्री.), परामर्शः, आलंमनम् । २. विनाशनं-ध्वंसनं, वि-नाशः ३. कर्तनं, | भेदनं, लवनम् । छूने योग्य, वि., स्पृश्य, छोपनीय, परामर्शाह । छूनेवाला सं. पुं., सं., स्पर्शकः, स्प्रष्ट-स्पष्ट (पुं.) । छेदना, क्रि. स. ( सं. छेदनं > ) व्यध (दि. प. अ.), छिद्रं विधा (जु. उ. अ.)-कृ, छिद्रयति छुआ हुआ, वि., स्पृष्ट, संसृष्ट, आलब्ध, छुप्त, ( ना. धा.), निर्मिद् (रु. प. अ.), उत्परामृष्ट । समुत्-कृ ( तु. प. से.) । सं. पुं., दे. 'छेदन' । थाकाश-,मु., गगनं चुंब (भ्वा. प. से.) नमः छेदने योग्य, वि., छेत्तव्य, छेदनीय, वेध्य । स्पृश् , अत्युच्च (वि.) वृत् ( भ्वा. आ. से.)। छेदनेवाला, दे. 'छेदक'। बैंक, छेकाव, सं. पुं., दे. 'जब्ती'। छेकना, क्रि. स. ( सं. छो = काटना> ) निरुध् छेदा हुआ, वि., छिद्रित, छिन्न, विद्ध, निर्मिन्न । (रू. उ. अ.), निवार (चु.) २. आच्छद् छेदा, सं. पुं. (हिं. छेदना) धुणः काष्ठकीट: (चु.), व्याप् (स्वा. उ. अ.) ३. निःस्व । २. छिद्रं, रन्ध्रम् ३. घुणः अन्नच्छेदः । (वि.) कृ, सर्वस्वं दंड (चु.)-आच्छिद् छेदी, वि. ( सं.-रिन् ) दे. 'छेदक' । (रु. प. अ.) ४. परिच (प्रे.), परि-, वेष्ट (प्रे.)। छेना, सं. पुं. (सं. छेदनं> ) मिष्टान्नभेदः, ५. अव-विलुप (प्रे.), निर अस् (दि. प. से.)। छिन्ना। छेक, सं. पुं. (सं. छेकः> ) विवरं, बिवरं, छिद्रं छेनी, सं. स्त्री. ( सं. छेदनी) तक्षणी, टंकः, २. छेदः, भेदः ३. वि, भागः। व्रश्चनः २. शिलाभेदः । -अनुप्रास, सं. पुं. (सं.) अनुप्रासालंकारभेदः, छेम, सं. पुं., दे. 'क्षेम' । वर्णानां सकृदावृत्तिः (स्त्री.) ( उ० पावनः छेरी, सं. स्त्री., दे. 'बकरी' । पवनः) छेच, सं. पुं. (सं. छेदः) आघातः, प्रहारः छेड़, सं. स्त्री. (हिं. छेड़ना) क्रोधोद्दीपनं, २. व्रणः-णं ३. आगामिविपद् (सी.) ४. काष्ठप्रकोपनं २. परिहासः व्यंग्योक्तिः (सी.) खंडः। For Private And Personal Use Only Page #263 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir छैल ला [२२५ ] जंगली छेल-ला, सं. पु. ( सं. छविः> ) सुभगंमन्यः, : ४. प्रमादात् न कृ अथवा अनु-स्था ( भ्वा. प. छेकः, रूपगतिः , सुवेशमानिन् , वेषाभि- अ.) ५. मोक्ष-मुच् (प्रे.)। सं. पुं., वि-उत्मानिन् । सर्जनं, त्यजनं, उज्झनं, परिहरणं, उत्सर्गः -चिकनिया, सं. पुं., दे. 'छैल'। त्यागः, परिहारः इ.। छोकरा-ड़ा, सं. पु. ( सं. शावकः> ) कुमारः- छोड़ने योग्य, वि., त्याज्य, उत्स्रष्टव्य, परिहार्य । रकः, दारकः, बालः-लकः, मणवः-वकः। छोड़नेवाला, सं. पुं., विस्रष्ट्रत्यक्तृ-परिहर्तृ छोकरापन, सं. पुं. (हिं. छोकरा ) बाल्यं, (पुं.)। कौमारं २. चंचलता, मौर्यम् । छोड़ा हुआ, वि., उत्-वि-सृष्ट, त्यक्त इ.। छोकरी-ड़ी, सं. स्त्री. (हिं. छोकरा) कुमारो-रिका, छो(छुड़ाना, छोड़वाना, क्रि. प्रे., ब. 'छोड़ना' बाला-लिका, कन्या, दारिका, माणविका । के प्रे. रूप। छोटा, वि. ( सं. क्षुद्र ) अणु, तनु, लघु, महत्त्व- छोत, सं. स्त्री., दे. 'छूत' । गौरव, रहित २. अल्प-क्षुद्र-तनु-शरीर ३. अनु. छोप, सं. पुं., दे. 'लेप' । जन्मन् , कनीयस् , यवीयस् ४. अवरपद- छोभ, सं. पुं., दे. 'क्षोम' । माज , अवर। । छोर, सं. पु. ( हिं. ओर का अनु.) उपांतः, -बड़ा, वि., विविध, बहुविध २. उच्चावच, प्रांतः, पर्यंतः, समंतः, परिसरः, सीमन् (पुं.), लघुगुरु, अणुमहत् ३. कनिष्ठज्येष्ठ । सीमा २. तटः-टी-टम् । छोटाई, सं. स्त्री. ( हिं. छोटा ) अणुता, लघुता, छोलदारी, सं. स्त्री. ( देश.) क्षुद्रपटवासः, लघुलाघवं, अणिमन्-लघिमन् (पुं.), २. क्षुद्रता, दूश्य-व्यं, पटगृहकम् । नीचता। छोला, सं. पुं. (हिं. छोलना = छीलना) हरित,. छोटापन, सं. पुं., दे. 'छोटाई। चणः-चणकः। छोड़ना, क्रि. स. ( सं. छोरणं ) उत्-वि, सृज- छोह, सं. पुं. ( सं. क्षोभः> ) स्नेहः, प्रेमन निर्मुच (तु. प. अ.), उज्झ् (तु. प. से.), त्यज् (पुं.), २. दया, कृपा । (भ्वा. प. अ.), हा (जु. प. अ.), परिह छौंक, छौंकन, सं. स्त्री. ( अनु. ) दे. 'बधार' । ( भ्वा. प. अ.), रह-वर्ज (चु.) २. क्षम् । छौंकना, क्रि. स., दे. 'बघारना'। सह, (भ्वा. आ. से.), क्षम्-मृध् (दि. प. छौना, सं. पुं. (सं. शावः) शावः, शावकः, से., क्षाम्यति ), तिज ( सन्नंत = तितक्षते)। डिभः, पोतः, अर्भकः। ३. क्षिप् ( तु. प. अ.), अस् ( दि. प. से.) छौर, सं. पुं., दे. 'क्षौर'। ज, देवनगरीवर्णमालाया अष्टमो व्यंजनवर्णः, जंगल, सं. पु. ( सं. न.) अटवी-विः ( स्त्री.), जकारः। अरण्यं, कान, वनं, विपिनं, कांतारः-रं, जंकशन, सं. पुं. ( अं.) *संयोजनं, लोहपथ- गहनं २. मरुस्थलं, मरुः (पुं.)। संगमः । जंगला, सं. पुं. ( पुर्त. जेंगिला ) काष्ठ लोहजंग, सं. स्त्री. ( फ़ा.) युद्धं, संग्रामः । शलाकावृतिः ( स्त्री.), काष्ठ-लोह-मोघोलिः जंग, सं. पुं. (फ़ा.) अयोमल:-लं, अयोरसः, (पुं.), काष्ठ-अयो, जालं २. गवाक्ष-,जालम् । मंडूरं, विष्ठं, सिंहाणम् । जंगली, वि. (सं. जंगलं) आरण्यक, अरण्यज, -लगना, क्रि. अ., सकिट्ट-समंडूर (वि.) वन्य, वनोद्भव, जांगल-[-ली (स्त्री.)], अरण्य, भू । मण्डूरेण दुष् ( दि. प. अ.)। वन-२. क्रूर, हिंस्र ३. असभ्य, अशिष्ट, जंगम, वि. (सं.) चर, चल, चरिष्णु, चलन- दुःशील । सं. पुं., वनवासिन् , वनेचरः, वनौकस् गमन,-शील २. चेतन, प्राणिन् , सजीव । ' (पुं.), आटविकः, आरण्यकः । १५ आ० For Private And Personal Use Only Page #264 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir जंगार-ल [ २२६ ] जगदाधार विशेषः ३. दे. 'जंभाई' । जंगार-ल, सं. पुं. (फ़ा.-र ) ताम्र, किट्ट मलम् || जंभ, सं. पुं. (सं.) हनु: ( पुं. स्त्री. ) २. राक्षसजंगी, वि. (फ़ा.) सांग्रामिक सामरिक [ की (स्त्री) ] युद्ध-रण,-संबंधिन् २. क्षात्र (-त्री स्त्री.), आयुधिक ( - की स्त्री. ) । - जहाज, सं. पुं., रणपोतः । -- बुख़ार, सं. पुं., समरज्वरः । " जंभारि, सं. पुं. ( सं .) इन्द्र:, सुरपति: २. इन्द्रवज्रः- जं, ३. अग्निः । जंघा, सं. स्त्री. (सं.) प्रसृता, टक्किका, टंका- कं २. ऊरु: (पुं. ), सक्थि (न.) जंघाल, वि. ( सं .) शीघ्र द्रुत, -गामिन् यायिन् - चालक । सं. पुं. (सं.) दूतः, सन्देशवाहक: २. मृगः । जंधिल, वि. (सं.) प्रजविन् प्रधावक, द्रुत ज़ईफ़, वि. ( अ. ) दे. 'बूढ़ा' । गामिन् । जंचना, क्रि. अ. (हिं जाँचना ) निरीक्ष-परीक्ष ( कर्म. ) २. दृशू ( कर्म. ) ३. उचित (वि.) प्रति-इ (कर्म.) । जंचवैया, सं. पुं. (हिं. जाँचना) दे. ‘आडिटर' । जंजाल, सं. पुं. (सं. जगत् + जालं > ) कृच्छ्रं, कष्टं, संकटं, दुःखं, बाधा-धः २. व्यामोहः, चित्तविक्षेपः, संभ्रमः ३. आवर्तः, जलगुल्मः ४. बृहज्जालम् । जंजाली, वि. (हिं जंजाल ) उपद्रविन्, कलहप्रिय । ज़ंजीर, सं. स्त्री. (फ़ा. ) शृङ्खला- लं, निगड:, पाशः, बन्धनं २. अर्गल:-लं -ला-ली । जंभाई, सं. स्त्री. (हिं. जंभाना ) जंभा, जंभका, जृम्भणं, जम्भिका, जृम्भः-भा, जृम्मितं, हाफिका | जंभाना, क्रि. अ. ( सं . जंभनं ) ज ( जं ) भू ( स्वा. आ. से. ), वि-, जम्भ ( भ्वा आ. से ) 1 जई, सं. स्त्री. (हिं. जौ ) यवसदृसदृशोऽन्नभेदः, *यवी २. यवांकुरः । ज़ईफ़ी, सं. स्त्री. ( अ. ) दे. 'बुढ़ापा' | ज़क, सं. स्त्री. (फ़ा.) पराजयः २. हानि: (स्त्री.) ३. लज्जा । जकड़ना, क्रि. स., (सं. युक्त + करणं > > ) गांढं-दृढं-बंधू ( क्रू. प. अ. ), द्रढयति ( ना. धा. ), दृढीकृ । जकात, सं. स्त्री. ( अ ) दानं, त्याग, २. करः, शुल्कः-कम् । जखीरा, सं. पुं. (अ.) कोषः, निधिः, भांडार २. संग्रहः, संचयः, संभारः ३. वृक्षसंवर्धनस्थानम् । ज़ख़्म, सं. पुं. (फ़ा. ) दे. 'घाव' । -ताज़ा या हरा होना, मु., अतीतं कष्टं पुनः आवृत् (भ्वा. आसे. ) - स्मृ ( कर्म. ) । जंतर, सं. पुं., दे. 'यंत्र' । जंतु, सं. पुं. (सं.) प्राणिन्, जीवः, जन्युः, भूतं ज़ख़्मी, वि., दे. 'घायल' | २. पशुः, चरिः, मोकः । जंत्र, सं. पुं., दे. 'यंत्र' । जग', सं. पुं. [सं. जगत् (न.)] जगती, संसारः २. लोकाः जनाः । जंत्री, सं. स्त्री. (हिं. जंत्र ) *यन्त्री, *तारकर्षणी | जग, सं. पुं., ( सं. यज्ञः ) यागः, मखः, ऋतुः । जगण, सं. पुं. ( सं . ) छन्दः शास्त्रे गणभेदः, २. पंचांगं, तिथिपत्रम् | जंद, सं. पुं. (फ़ा. जंद; सं. छंदस् > ) पारसीकानां धर्मग्रंथविशेषः २ तस्य भाषा । जंबीर, जंबीरी नीबू, सं.पुं. (सं. जम्बीरः) जम्भः, जंगल:, जंभीरः, दंत, कर्षकः - हर्षकः- हर्षणः । जंबु, सं. पुं. (सं. स्त्री. ) (वृक्ष) जंबू:-बुः (स्त्री.) । ( फल ) जंबु (बू ) - फलं, जांबवम् । जंबुक, सं. पुं. (सं.) शृगालः, दे. 'गीदड़ ' २. नीचः, अपसदः, जाल्मः । जंबुद्वीप, सं. पुं. (सं.) भूमैः सप्तद्वीपेष्वन्यतमः । जंबू सं. स्त्री. (सं.) दे. 'जंबु' २. काश्मीरदेशे नगर विशेषः । गुरुमध्यगः गणः ( उ० महेश ) । जगत, सं. पुं. [सं. जगत् (न.)] भुवनं ब्रह्मांड, चराचरं, विश्व, जगती, संसारः, सृष्टिः (स्त्री.), त्रिविष्टपं, लोकः २. वायुः (पुं.) ३. शिवः । जगती, पुं. स्त्री. ( सं . ) ब्रह्मांडं, विश्वं २. पृथिवी २. वैदिक छंदो भेदः । - तल, सं. पुं. (सं. न. ) भूतलं, पृथिवी । जगदंबा-विका, सं. स्त्री. (सं.) दुर्गा, उमा, पार्वती | जगदाधार, सं. पुं. ( सं . ) ईश्वरः २. पवनः । For Private And Personal Use Only Page #265 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir जगदीश [ २२७ ] जगदीश, सं. पुं. (सं.) परमेश्वरः, जगन्नाथः, | -जूट, सं. पुं. (सं.) जटासमूहः २. शिवजटा। जगत्पतिः ( पुं.) २. विष्णुः । -धारी, वि. (सं.रिन् ) जटाधर, सजूट । जगदीश्वर, सं. पुं. (सं.) दे. 'जगदीश' (१)। २. शिवः ३. गुल्मभेदः। जगद्गुरु, सं. पुं. (सं.) ईश्वरः २. शिवः | -मासी, सं. स्त्री., दे. 'जटा' (२)। ३. नारदः ४. सुपूज्यपुरुषः ५. उपाधिभेदः। | जटायु, सं. पुं. (सं.) दशरथसखः, जटायुस् जगद्दीप, सं. पुं. (सं.) परमेश्वरः, परमात्मन् (.)। २. सूर्यः, रविः । जटाल, वि. (सं.) जटा,-धर-धारिन् । जगना, क्रि. अ. (हिं. जागना ) दे. 'जागना' जटित, वि. (सं.) अनुविद्ध, खचित, प्रत्युप्त, २. अवहित सावधान (वि.) भू ३. सवेगं प्रणिहित। उदभू ४. दे. 'चमकना'। जगन्नाथ, सं. पुं. (सं.) जगदीशः २. विष्णुः जटिल, वि. (सं.) जटालक, जटिक, जटाधर, ३. पुर्यां विष्णुमूत्तिः (स्त्री.) ४. पुरीनामकं जटिन् २. अस्पष्टार्थ, दुर्बोथ, गहन, गूढ, तीर्थम् । कठिन, क्लिष्ट ३. क्रूर, हिंस्र । ( सं. पुं.) सिंहः जगमग-गा, वि. ( अनु.) प्रकाशित २. दीप्ति २. अजः, छागः ३. शिवः ४. ब्रह्मचारिन् ५. परिव्राजकः। मत् । जगमगाना, कि. अ. ( अनु. ) दे. 'चम- जटिलता, सं. स्त्री. (सं.) दुर्बोधता, गहनता. कना' (१)। गूढता, कठिनता। जगमगाहट, सं. स्त्री., दे. 'चमक' (१-२)। जटी, वि. (सं.-टिन् ) दे. 'जटिल १'। सं. पुं., जगह, सं. स्त्री. (फा. जायगाह ) स्थानं, स्थलं, शिवः २. प्लक्षः। प्रदेशः २. अवकाशः प्रसरः, अंतरं ३. अवसरः, | जठर, सं. पुं. (सं. पुं. न.) उदरं, कुक्षिः समयः ४. पदं, पदवी-विः ( स्त्री.)। (पु.), तुंदं २. अन्न-आम-पक्क,-आशयः, कोष्ठः, जगाना, क्रि. स., ब. 'जागना' के प्रे.रूप। पिचंडः २. उदररोगभेदः ३. शरीरम् । वि., जधन, सं. पुं. (सं. न.) स्त्रीकट्याः पुरोभागः वृद्ध २. कठिन । २.नितंबः । -अग्नि, सं. पुं. (सं.) जठरानलः । -कूपक, सं. पुं. (सं.) कुकुंदरः, ककुंदरम् । -आमय, सं. पुं. (सं.) जलोदररोगः जघन्य, वि. (सं.) अन्त्य, अन्तिम, चरम २. अती( ति )साररोगः। २. गर्दा, त्याज्य ३. क्षुद्र, निकृष्ट, अधम । जड़, वि. (सं.) अ-वि, चेतन, निर्जीव, प्राणजचना, कि अ., दे. 'जंचना'। हीन, निष्प्राण २. स्तब्ध, निश्चेष्ट, हतेन्द्रिय जच्चा, सं. स्त्री. (फ़ा.) प्रसूता-तिका, जाता. | २. मंदबुद्धि, मूर्ख ३. हिमग्रस्त ४. शीतल पत्या, प्रजाता। ५. मूक ६. बधिर ७, अनभिज्ञ, अबोध ८. मूढ, -खाना, सं. पु. (फ़ा.) अरिष्टं, सति सतिका,- मोहग्रस्त । सं. पुं. (सं. न.) जलं २. सीस कम् । जजमान, सं. पुं., दे. 'यजमान'। जड़, सं. स्त्री. ( सं. जटा) मूलं, अंघ्रिः (पुं.), जज, सं. पुं. (अं.) न्यायाधीशः, धर्म-न्याय, । बुन्नः, ब्रनः २. आधारः, उपष्टंभः. मूलं अध्यक्षः अ( आ )धिकरणिकः, धर्माधिकारिन् , | ३. कारणं, हेतुः (पुं.)। निर्णेतृ २. परीक्षकः, विवेकिन् । -उखादना, उत्पट-उन्मूल (चु.), उत्खन् । जज़िया, सं. पुं. (अ.) कर-राजस्व, भेदः (भ्वा. प. से.), व्यपरुह (प्रे.) समूलं उद्-ह (इस्लाम)। (भ्वा. प. अ.)-उच्छिद् ( रु. प. अ.)। जज़ीरा, सं. पुं. (अ.) दे. 'दीप'। -जमना, क्रि. अ., दृढमूल-बद्धमूल (वि.) भू, जटा, सं. स्त्री. (सं.) शटा-टं, जटी-टिः (स्त्री.), मूलं बंध (क्र. प. अ.)। जूटः, जूटक २. जटामांसी, जटिला, लोमशा, जडता, सं. स्त्री. (सं.)। अचेतनता, निजींवता, जटाला (सुगंधितद्रव्यम् )। । जडत्व, सं. पुं. (सं. न.)/निष्प्राणता २. मूर्खता, गृहम् । For Private And Personal Use Only Page #266 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir जड़ना [ २२८ ] अज्ञता ३. अचलता, स्तब्धता, ४ हिमग्रस्तता, | जनक, सं. पुं. (सं.) जन्मदः, जनयितृ, उत्पाशीतलता । दकः २ . पितृ-जनितृ, (पुं), तातः, बीजिन्, वस्तु ( पुं. ) ३. मिथिला राजवंशोपाधिः (पुं.) ४. सीरध्वजो जनकः । जड़ना, क्रि. स. (सं. जटनं ) जट् ( प्रे.), अनुव्यध् ( दि. प. अ.), उत्खच् ( चु. ), प्रणिधा (जु. उ. अ.), प्रतिबंधू ( क्. प. अ. ) २. आ-नि-धा, अवरुह् - निविश् (प्रे. ) ३. प्रहृ भ्वा. प. अ. ), आहन् ( अ. प. अ. ) ३. परोक्षे आ-अधि-क्षिप् (तु. प. अ. ) । सं. पुं., जटनं, उत्खचनं; अवरोपणं; प्रहरणं इ. जड़ने योग्य, वि. जाटयितव्य, उत्खचनीय इ. । जड़नेवाला, सं. पुं., रत्न, अनुवेधकः, मणि, प्रणिधायकः, जाटयितु । जड़वाना, जढ़ाना, क्रि. प्रे., ब. 'जड़ना' के प्रे. रूप । जड़ाई, सं. स्त्री. (हिं. जड़ना ) जटन, वेतनंभृतिः (स्त्री.) २. दे. 'जढ़ना' सं. पुं. । जड़ाऊ, वि. (हिं. जड़ना ) रल, 'खचित-जटितअनुविद्ध | जड़ावर, सं. पुं. (हिं. जाड़ा ) उष्ण-ऊर्जामयवस्त्राणि वासांसि ( न. बहु . ) । जड़िमा, सं. स्त्री. (सं. मन् पुं. ) दे. 'जड़ता ' । जड़िया, सं. पुं. (हिं. जड़ना ) २. रल-मणि, - कारः १. रत्न,-जाटकः-खचकः । दे. 'जड़ने वाला' । जड़ी, सं. स्त्री. ( हिं. जड़ > ) ओषधी - औषध, मूलं, काष्ठौषधम् । -बूटी, सं. स्त्री, ओषधी-धि: (स्त्री.), रोगहरं हरितकं, आरण्यौषधम् । जतन, सं. पुं., दे. 'यत्न' । जतलाना, जताना, क्रि. स. (सं. ज्ञात > ) वि, ज्ञा ( प्रे. ज्ञापयति ), बुधू- अवगम् (प्रे.) २. ( पूर्व ) अनु-प्र-बुध ( प्रे.), उपदिशू ( तु. प. अ. ) । जती, सं. पुं. (सं. यतिन् ) यत्तिः, जितेन्द्रियः, संन्यासिन् । जतु, सं. पुं. (सं. न. ) जतुकं का, रा ( ला )क्षा । जत्था, सं. पुं. ( सं . यूथं ) गणः, संघः समूहः । जत्रु, सं. पुं. (सं. न. ) जत्रुकं, ग्रीवास्थि (न.) । जदीद, वि. (अ.) नव, नवीन । जन, सं. पुं. (सं.) मानवः, मनुष्यः २. लोकाः, जनाः ३. प्रजाः ४. सेवकः ५. समूहः ६. भवनं ७. ८. लोक - व्याहृति, विशेषः । जनाना -पुर, सं. पुं. ( सं. न. ) मिथिलाया राजधानी । - नंदिनी, सं. स्त्री. ( सं . ) सीता, वैदेही । जनता, सं. स्त्री. (सं.) जनः -नाः, लोकः- काः, प्रजा-जाः, प्रकृतयः ( बहु. ) । वाद, सं. पुं. (सं.) किंवदंती, जन, प्रवादः । - वासा, सं. पुं. (सं. सः ) वरयात्रागृहम् । - श्रुति, सं. स्त्री. (सं.) दे. 'जनवाद' । - संख्या, सं. स्त्री. (सं.) मनुष्य-प्रजा-लोक,संख्या । जनना, क्रि. स. (सं. जननं ) प्रसू ( अ. आ. से.), उत्पद् ( प्रे. ), जन् ( प्रे. जनयति ) । जननी, सं. स्त्री. (सं.) दे. 'माता' २. उत्पादिका । जननेन्द्रिय, सं. स्त्री. (सं. न. ) लिंगं, मैढू २. योनिः (स्त्री.), भगः । जनपद, सं. पुं. ( सं . ) देशः २. लोकाः । जनमना, क्रि. अ., दे. 'जन्म लेना' । जनम, सं. पुं., दे. 'जन्म' | जनयिता, वि. (सं.- तू ) जन्मद, उत्पादक । सं. पुं. ( सं . ) तातः, पितृ, बीजिन्, जनकः । जनयित्री, सं. स्त्री. (सं.) जननी, मातृ (स्त्री.), दे. 'माता' । जनरल, सं. पुं. ( अं. ) सेनानायकः । वि., सामान्य, साधारण । जनवरी, सं. स्त्री. ( अं. जेनुअरी) पौषमाघं, आंग्लवर्षस्य प्रथममासः । जनांतिक, अध्य, (सं.-कम् ) रंगमंचे अभिनेतुरन्यस्य कर्णे कथनम् (सा० ), अपवार्य ( अव्य. ) । जनाई, सं. स्त्री. (हिं. जनाना) साविका, दे. 'दाई' २. गर्भमोचनभृतिः (स्त्री.) । जनाज़ा, सं. पुं. (अ.) दे. 'अरथी' २. शवः । जनानखाना, सं. पुं. (फ़ा. ) अंतःपुरं, अवरोध: । जनाना, क्रि. स. (हिं. जानना) दे. 'जतलाना' । जनाना, क्रि. प्रे. (हिं. जनना ) ब. 'जनना' । के प्रे. रूप । For Private And Personal Use Only Page #267 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir जनाना [ २२९ ] जब (भ) दा जनाना, वि. ( फा ) स्त्रैण, स्त्रीजातीय । सं. पुं., | जन्मेजय, सं. पुं. (सं. जनमेजयः ) विष्णुः अंतःपुरं २. नारी ३. पत्नी । २. ३. नृप - नाग, विशेषः । जनानी, वि. स्त्री. ( फ़ा. ) स्त्रैणी, स्त्रीसदृशी । जन्मोत्सव, सं. पुं. ( सं . ) जनि-जनु, पर्वन् सं. स्त्री. नारी २. पत्नी । ( न. ) -क्षणः । जनाब, सं. पुं. ( अ. ) महाशयः, महोदय:, जन्य, सं. पुं. (सं.) पितृ ( पुं. ), जनकः २. वरपक्षीयः ३. साधारणो जनः ४. किंवदंती | ( सं. न. ) जन्मन् (न.) २. उत्पन्नवस्तु (न.) ३. देहः ४. हट्टः ५. युद्ध. ६. निंदा ७. राष्ट्रं ८. जाति: (स्त्री.) ९. लोकाः, प्रजाः । वि., जात, उद्भूत, उत्पन्न २ जनविषयक, लौकिक ३. देशीय, राष्ट्री (ष्ट्रि) य जातीय ४. जनयिष्यमाण । जन्या, सं. स्त्री. (सं.) जननीसखी २. वधूसखी ३. आनन्दः, मोदः ४. प्रीतिः (स्त्री.), स्नेहः । जप, सं. पुं. (सं.) मुहुर्मुहुर्मत्रोच्चारणम् । - तप, सं. पुं. [सं. जपतपस् (न.) ] धर्मक्रिया, उपासनं ना, संध्यावंदनम् । । श्रीमत् (पुं.) । - आली, सं. पुं. ( अ ) मान्यवर, महाशयमहोदय ! -मन, सं. पुं. ( अ + फ़ा. ) प्रियमहाशय ! जनित, वि. ( सं . ) उत्पादित २. जात, उत्पन्न जनिता, सं. पुं. (सं. जनितृ ) जनयितृ, जनकः, पितृ ( पुं. जनित्री, सं. स्त्री. (सं.) जनयित्री, जननी । जनी 'नि, सं. स्त्री. (सं.) नारी २. मातृ (स्त्री.) ३. पुत्रवधूः (स्त्री.) ४. जननम् । जनी', सं. स्त्री. ( सं. जनः ) दासी, सेविका २. पुत्री । वि. स्त्री, जनिता, उत्पादिता । जनेउ, सं. पुं., दे. 'यज्ञोपवीत' । जनेत, स्त्री. ( सं . जनः ) वरयात्रा | जन्म, सं. पुं.[ सं. जन्मन् ( न. ) ] उद-संभव:, निः (स्त्री.), जनी, जनिका, उत्पत्तिः- प्रसूतिः (स्त्री.), जनू:- नुः (स्त्री.) । २. जीवनम् । अंतर, सं. पुं. ( सं. न. ) अन्य - अपर- पुनर्, जन्मन् (न.) । - अंध, वि. ( सं . ) जात्यंध, जनुषांध | - अष्टमी, सं. स्त्री. ( सं . ) श्रीकृष्णजन्मदिवसः, भाद्रपद मासस्य कृष्णाष्टमी तिथि: (स्त्री.) । -दाता, सं. पुं. ( सं . दातृ ) पितृ ( पुं. २. ईश्वरः । - दिन, सं. पुं. (सं. न. ) जन्म जनि जनु, -कभी, यदाकदाचित् यदापि । दिवसः । - कि, यदा, यावत् । - पत्र, सं. पुं. (सं. न.) जन्म, -पत्रिका-योगपत्रम् । - पत्री, सं. स्त्री. (सं.)। - भूमि, सं. स्त्री. सं. ) जन्मदेशः, स्व, देश:राष्ट्र- विषयः । - रोगी, वि., (सं.-गिन् ) सदारोगिन् । - स्थान, सं. पुं. (सं. न. ) जन्म- जनि, भूमिः ( स्त्री. ) । जन्मी, सं. पुं. (सं.- मिन् ) प्राणिन्, जीवः । जन्मी, वि. (सं. जन्मन् > ) सहज, स्वभावज, स्वाभाविक नैसर्गिक [ की (स्त्री.) ] । जपमाला, जपना, क्रि. स. (सं. जपनं ) जप् ( स्वा. प. से.), जापं कृ, मुहुर्मुहुमंत्र उच्चर् (प्रे.) । जपनी, सं. स्त्री. (हिं. जपना * जपनी २. * जपनीकोषः, गोमुखी । जपी, सं. पुं. (सं. जपिन् ) जापकः, जपितृ ( पुं.)। तपी, सं. पुं. ( सं . जपतपस् > ) उपासकः, भक्तः, पूजकः । जफ़ा, सं. स्त्री. ( फा . ) दे. 'अत्याचार' । -कश, वि. ( फ़ा. ) सहिष्णु, सहनशील २. परिश्रमिन् । जब, क्रि. वि. ( सं यावत् > ) यदा यस्मिन् काले । - जब, यदा यदा । -तक, -तलक, यावत्, यदापर्यन्तम् । - तक तब तक, यावत्तावत् । - तब, यदा तदा, काले काले, कदापि, कदाचित् । - देखो तब, सदा सर्वदा । — से, यदा प्रभृति, यस्मात् कालात् । - होता है तब, प्रायः, प्रायशः प्रायेण । जब (भ) ड़ा, सं. पुं. ( सं . जंभ:) हनुः (पुं. स्त्री.), हनूः (स्त्री.) । For Private And Personal Use Only Page #268 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir जबर [२३०] जमा निचला-, कुंजः, चिवुः (पुं.), पोचम् ।। -करना, क्रि. स., राजसात् कृ, दंडरूपेण ज़बर, वि. (फा.) बलिन् , शक्तिमत् २. दृढ । अपह ( वा. प. अ.)। -दस्त, वि. (फ़ा.) दे. 'जबर' । -होना, क्रि. अ., राजसात् भू, दंडरूपेण -दस्ती, सं. स्त्री. ( फ़ा. ) अत्याचारः, अपह ( कमें.)। . अन्यायः। क्रि. वि., बलात् , हठात् , प्रसभं, ज़ब्ती, सं. स्त्री. ( अ. ज़ब्त ) सर्वस्व,-अपप्रसा । हारः-दंडः, दे. 'जब्त' (२) । -दस्ती करना, क्रि. स., पीड़ (चु.), अद् जब्र, सं. पुं. (अ.) क्रौर्य, नष्ठुर्य, अत्याचारः। (प्रे.), बाध ( भ्वा. आ.से.)। -करना, क्रि. स., अद् (प्रे.), पीड़ (चु.)। जबरन् , क्रि. वि. ( अ. जबन् ) दे. 'जबरदस्ती' जबन, जब्रिया, क्रि. वि., दे. 'जबरन् । क्रि.वि.। जब्री, वि. (अ.) बलात् कारित, अनिवार्य । ज़बह, सं. पुं. (अ.) हिंसा, इत्या, धातः।। जम, सं. पुं., दे. 'यम'। -करना, क्रि. स., विशस ( भ्वा. प. से.), हन् जमघट, सं. पु. (हिं. जमना+घट्ट ) जनौधः, जनसंमर्दः, संकुलं, लोकसंघः। (अ. प. अ.), व्यापद् (प्रे.)। जम-जम, अव्य. ( सं. जन्मन > ) सदा, ज़बान, सं. स्त्री. (फ़ा.) जिह्वा, रसज्ञा, रसना सर्वदा, नित्यम् । २. शब्दः, वाक्यं ३. प्रतिज्ञा ४. भाषा। जम-ज़म, सं. पुं. (अ.) काबासमीपस्थः पूप-दराज़, वि., जल्प(पा)कः, वावदूकः। विशेषः । -दराज़ी, सं. स्त्री., जल्पकता, वावदूकता । जमना', क्रि. अ. [ सं. जन्मन् (न.)> ] प्ररुह -बंदी, सं. स्त्री., मौनं, वाग्यमः २. भाषण- (म्वा. प. अ.), उद्भिद् ( कर्म.) २. जन् निरोधः ३. जिह्वास्तम्भः ( रोगभेदः)। (दि. आ. से.), उत्पद् (दि. आ. अ.)। -का मीठा, मु., मधुरभाषिन् , मधुजिह्न । । । जमना', क्रि. अ. (सं. यमनं जकड़ना - ) -को मुँह में रखना, मु., जोषं तूष्णीं स्था। घनी-पिंडी-शीती, भू, संहन् ( कर्म. ), दयै ( भ्वा. प. अ.), मौनं भज् ( भ्वा. उ. अ.)। (भ्वा. आ. अ.) २. संमिल ( तु. प. से. ), -देना या हारना, मु., दे. 'प्रतिज्ञा करना। समागम् (भ्वा. प. अ.) ३. अनुषक्त ससक्त-पकड़ना, मु. भाषणात निवृत् ( प्रे. )-नि (वि.) भू, संलग् ( भ्वा. प. से. ) विनि-वृ (प्रे.)। ४. स्थरभू, निवासं स्थिरीक ५. प्रतिष्ठित-बद्ध-बदं करना, मु., मौनं लभ (प्रे., लंभयति ) मूल-(वि.) भू ६. उपपद्-युज् (कर्म.), सुसंगत २. निरुत्तरी । वि.) भू ७. निबंधेन वद् ( भ्वा. प. से.) । सं. -बंद होना, वक्तुं न पार् ( चु. ), तूष्णीं | पुं., धनी-शीती-पिंडी,भावः; सम्मेलनं; संस क्तिः (स्त्री.); स्थिरीभावः ह. । स्था । ज़बानी, वि. ( फ़ा. ज़बान ) शाब्द [ब्दी जमना', सं. स्त्री. ( सं. यमुना ) कालिन्दी । जमराज, सं. पुं., दे. 'यमराज' । (स्त्री.)], शाब्दिक [-की (स्त्री.) ], वाचिक जमा, वि. (अ.) संगृहीत, संचित, समहृत वाचनिक-मौखिक [की (स्त्री.)]। क्रि.वि., २. निक्षिप्त, न्यस्त, निहित । सं. स्त्री., मूलं, स्मृत्या-वाचा ( तृ. एक. ), शब्दतः, अग्नि मूल,-द्रव्य-धनं २, धनं, संपद् ( स्त्री. ) खितम् । ३. भूमि-करः ४. योगः, पिडा, संकल:-लनं -पदना, क्रि. स., स्मृत्या पठ् ( भ्वा. प. (गाण०) ४. बहुवचनं ( व्या.)। से.) उच्चर (प्रे.)। -करना, क्रि. स., संचि ( स्वा, उ. अ. ), -जमा खर्च, मु., प्र-,जल्पः-पनं, निरर्थक संग्रह (क्र. प.से.) २. निधा ( जु. उ. अ.), वचनानि (बहु.)। निक्षप् ( तु. प. अ.) ३. दे. 'जोड़ना' (२)। जबून, वि. (फ़ा.) निकृष्ट, गर्दा, निन्ध -होना, कि. अ., संचि-संग्रह (कर्म.) २.निधा. २. अबल, निर्बल। निक्षिपन्यस् ( कर्म.)। जब्त, सं. पु. (अ.) निग्रहः, निरोधः, संयमः| -खर्च, सं. पुं. (फ़ा.) आयव्ययौ २. आय. २. दंडरूपेण अपहणं ३. राजसात्करणम् । । व्ययलेखः । For Private And Personal Use Only Page #269 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir जमात [२३१] जरनैल -जथा, सं. स्त्री., संचित, धनं-द्रव्यम् । --भासमान के कुलाबे मिलाना, मु., अत्यु---जमाई, सं. पुं. [सं. जामात (.) ] दुहित- क्त्या व (चु. )-प्रतिपद् (प्रे.)। पुत्री, पतिः। जमुना, सं. स्त्री., दे. 'यमुना'। जमात, सं. स्त्री. ( अ. जमाअत ) कक्षा, श्रेणी | ज़मीमा, सं. पुं.(अ.) अतिरिक्त-क्रोड, पत्रम् । २. जनौघः, जनसंमदः ३. गणः, संघः। जमुरंद, सं. पुं. (ता. ) दे. 'पन्ना'। जमादार, सं. पुं. (मा.) नायकः, रक्षिमुख्यः। जमैयत, सं. स्त्री. (अ.) जन, समुदायः समूहः जमानत, सं. स्त्री. (अ.) (द्रव्य) आधिः । २. परिषद् (स्त्री.), समा। (पु.), निक्षेपः, न्यासः, प्रातिमाव्यं । (पुरुष) जयंत, सं. पुं. (सं.) इंद्रपुत्रः २. कार्तिकेयः । प्रतिभूः (पुं.), बंधकः, लग्नकः। वि. [सं. जयत् (शत्रंत)] विजयिन्, जैत्र -देना, क्रि. सं., निक्षेप-लग्नकं दा अथवा (-त्रीसं.), जिष्णु, जेतृ, जित्वर [-रीस्त्री.)] दत्त्वा मुच (प्रे.)। २. दे. 'बहुरूपिया'। -नामा, सं. पुं. (अ.+फ़ा.) प्रातिभाव्यपत्रम् ।। जयंती, सं. स्त्री. (सं.) केतनं, केतुः (पुं.), ज़मानती, वि ( अ. ज़मानत > ) निक्षेपार्हः, ध्वजः २. दुर्गा ३. जन्मोत्सवः ४. स्थापनाप्रातिभाव्याहः २. प्रतिभूः (पुं.) लग्नकः, दिवसोत्सवः । बन्धकः। जय, सं. स्त्री. (सं. पुं.) वि., जयः, वि-जितिः ज़माना, सं. पु. (फ़ा.-नः) समयः, कालः | ( स्त्री.)। २. चिरकालः, सुदीर्घसमयः ३. जगत् ( न.)। जय(जय जय)कार, सं. पुं. (सं.) जय-, -साज, वि. ( फ़ा.) कालानुवर्तिन् , समया- ध्वनिः (पु.) नादः-स्वनः शब्दः । नुरोधिन् । | जयजयकार करना, क्रि. सं. जयध्वनि कृ., -साज़ी, सं. स्त्री. (फ़ा.) कालानुवर्तनं, जयजयेति नद् ( भ्वा. प. से.)। स्वार्थपरता। -पत्र, सं. पुं. (सं. न.) विजत, पत्रं-लेखः जमाना, क्रि. स., ब. 'जमना' के प्रे. रूप। २. आधिकरणिकस्य मुद्रितनिर्णयपत्रम् (धर्म.) । जमाल, सं. पुं. ( अं. ) सौन्दर्य, सुषमा, मनो- -माल, सं. स्त्री. (सं.-ला) जय-विजय,-मालाशता, लावण्यन् । स्रज (स्त्री.)-माल्यम् । जमालगोटा, सं. पु. (सं. जयपाल:+ गोटा>)| -स्तंभ, सं. पुं. (सं.) विजयस्थूणा।। ( वृक्ष ) जयपालः, सारकः, रेचकः २. (बीज) जयमा(वा)न, जयवंत, जयी, वि., दे. जयपाल-कुंभी-घंटा-शोधनी,-बीजं, वीजरेचनम्। 'जयंत' वि.। जमाव, सं. पुं. (हिं. जमना ) जनौधः, जनसं-ज़र, सं. पुं. (फ्रा.) सुवर्ण, कांचनं, २. धनं, मर्दः २. दे. 'जमना' सं. पुं.।। वित्तम् । ज़मींदार, सं. पु. ( फ़ा ) क्षेत्रपतिः (पु.), -खरीद, वि. ( फ़ा.) वित्तक्रीत । भूस्वामिन् । -खेज़, वि. (फ़ा.) उर्वर, शस्यद, फलप्रद । जमीदारी, सं. स्त्री. (फ़ा.) भूमिः (स्त्री.), -खेज़ी, सं. स्त्री. ( फ़ा.) उर्वरता, फलप्रदता । भूमिरिक्थं, क्षेत्र २. क्षेत्रपतित्वं, भूस्वामित्वम् । -दार, वि. (फा.) धनिक, धनाढ्य । ज़मींदोज़, वि. ( फ़ा.) आंतभौम ( -मी स्त्री.), -दोज़, सं. पुं. (ता.) कार्मिकवस्त्रकृत् (पुं.), भूगर्भवतिन् , भूगूढ । सूचीकर्मोपजीविन् । ज़मीन, सं. स्त्री. ( फ़ा.) भूमिः (स्त्री.), -दोजी, सं. स्त्री. (फ़ा.) शिल्पः सूचीकर्मन्(न.)। पृथिवी-थ्वी २. भू-पृथ्वी,-तलं ३. वस्त्रपत्रादेः जरनल, सं. पुं. (अं.) दैनिक, वृत्तपत्र समाचारतलं २.क्षेत्रं, भूरिक्थम् । पत्रम् २. पत्रिका ३. आयव्यय-पंजी-पंजि(स्त्री.) । -आसमान एक करना, मु., अत्यधिकं जननलिज्म, सं. पुं. (अं.) पत्रकारिता, पत्रकारपरिश्रम् (दि. प. से.)। व्यवसायः। -आसमान का फ़र्क, मु. महदंतर, महदै- जरनलिस्ट, सं. पुं. (अं.) पत्रकारः। पम्यं. खभूभेदः। | जरनैल, सं. पुं., दे. 'जनरल' सं. पुं.। For Private And Personal Use Only Page #270 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir जरब [२३२] जलन ज़रब, सं-स्त्री. (अ.) आधातः, प्रहारः, २. व्रणःणं | जर्द, वि. (फ्रा.) पीत, दे. 'पीला'। ३. अभ्यासः, आघातः, गुणनं, हननं ४. अंकः, जर्दी, सं. स्त्री. (फा.) पीतिमन् (पुं.) दे. मुद्राचिह्नम् । 'पीलाई' २. अंडपीतिमन् (पुं.)। -देना, क्रि. स., गुणयति ( ना. धा.); आ- जर्म, सं. पुं. ( अं.) जीवाणुः, रोगकीटाणुः । नि-, हन् (अ. प. अ., या प्रे, घातयति ), ज़र्रा, सं. पुं. ( अ.) अणुः, परमाणुः २. द्यणुकं, पुर् (चु.) । मु., प्रह (भ्वा. प. अ.) तड् (चु)। यणकणः-जी-णिका. लवः । जार. सं.पं. (अ.) क्षतिः-हानिः (स्त्री.) जर्गह. सं. पं. ( अ. ) शल्यचिकित्सकः, २. प्रहारः ३. आपत्तिः ( स्त्री.)। । शस्त्रदेद्यः। जरस, सं. पुं. (अ.) घंटा, धनम् । जर्राही, सं. स्त्री. (अ.) शल्य, शास्त्रं-चिकित्सा। ज़रा, वि. (अ. जरः) अल्प, न्यून । कि. वि., जलंधर, सं. पुं., दे. 'जलोदर'। किंचित, ईषत् । जल, सं. पुं. ( सं. न.) पानीयं, आपः ( स्त्री., जरा, सं. स्त्री. (सं.) दे. वार्द्धकं क्यम् । नित्य बहु.)। पयस्-अंभस्-अंबु-वारि (न.), -ग्रस्त,जीर्ण, वि. (सं.) वृद्ध, जरठ। सलिलं, अमृतं, जीवन, उदकं, तोयं, नीरं, ज़राअत, सं. स्त्री. (अ.) कृषिः ( स्त्री.) कर्षणं, घनरसः। हलमृतिः (स्त्री.)। -कूपी, सं. स्त्री. (सं.) कूपगतः, पुष्करिणी । -पेशा, वि., कर्षक, कृषिजीविन् , क्षेत्रिक। -क्रीडा, सं. स्त्री. (सं.) कर, पात्रं, पत्रिका, जरातुर, वि. (सं.) वृद्ध, जरठ, स्थविर, ! व्यात्युक्षी, जलविहारः ।। पलित, जीर्ण । -चर, वि. (सं.) वारिचर, जलचारिन् । जरायु, सं-पु. (सं.) उल्वं, कललः, २. गोशयः। -जंतु, सं. पुं. (सं.) यादस (न.), जलजीवः । जरायुज, वि. (सं.) गर्भाशयजातः ( मनुष्य, -जात, सं. पुं. (सं. न.) कमलं, पद्मम् । गौ आदि)। -तरंग, सं. पुं. (सं.) वाद्यभेदः २, लहरी । जरासंध, सं. पुं. (सं.) चंद्रवंशीयनृपविशेषः, -धर, सं. पुं. (सं.) मेघः, जलदः २. समुद्रः । कंसश्वशुरः। -धारा, सं. स्त्री. (सं.) वारिप्रवाहः । जरिया, सं. पुं. (अ.) दे. 'साधन' । -पक्षी, सं. पुं. (सं.-क्षिन् ) जलशकुनः । ज़री, सं. स्त्री. (फ़ा. ) ताशाख्यं वस्त्रं २. सौवर्ण | -पान, सं. पुं. (सं. न.) उपाहारः, लघुकार्मिकवस्त्रम् । । भोजनम् । जरीक वि. (अ.) विनोद-परिहास,-शील,-प्रिय । -प्रपात, सं. पुं. (सं.) निर्झरः । जरीब, सं. स्त्री. (फ़ा.) पंचपंचाशद्गजात्मकः ! -प्लावन, सं. पुं., (सं. न,) जलोपप्लवः, क्षेत्रमानभेदः, जरीब २. यष्टिः ( स्त्री.)। तोयविप्लवः। -कश, सं. पुं.(फा) भू-क्षेत्र,-मापकः।। -मार्जार, सं. पुं. (सं.) उद्रः, जलनकुलः, -कशी, सं. स्त्री. भू-क्षेत्र,मापनम् । जलबिडालः। ज़रूर, क्रि. वि. (अ.) अवश्य, अपरिहार्यतया, -यान, सं. पुं. (सं. न. ) नौका, पोतः, निश्चयेन, निःसंदेह, निःसंशयम्। वाष्पपोतः । ज़रूरत, सं. स्त्री. (अ.) आवश्यकता, प्रयो -शायी, सं. पुं. (सं.-यिन् ) वरुणः । जनम् । -सेना, सं. स्त्री. (सं.) नौ-समुद्र, सेना-सैन्यम् । ज़रूरी, वि. (फ्रा.) अपेक्षित, आकांक्षित जलज, सं. पु. ( सं. न. ) कमलं, वारि जम् । २. आवश्यक [-की (स्त्री.)], अपरिहार्य, ज़लज़ला, सं. पुं. (फ़ा.) भूकम्पः, भूचालः । अनिवार्य, अवश्यकरणीय। जलडमरूमध्य, सं. पुं. ( सं. न.) सामुद्रधुनी। ज़र्क बर्क, वि. (फा.) उज्ज्वल, भासुर, भास-जजद, सं. पुं. (सं.) मेषः, वारिदः। मान । जलधि, सं. पुं. (सं.) अब्धिः (पु.), सागरः। जर्जर, जर्जरित, वि. (सं.) जीर्ण. शीर्ण, जलन, सं. स्त्री. ( सं. ज्वलनं ) तापः, दाइः, सच्छिद्र २. भग्न, खंडित ३. वृद्ध । । २. पाकः (चिकित्सा, उ. नेत्रपाकः), ३. ईर्षा For Private And Personal Use Only Page #271 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir जलना [ २३३ ] जवान । चलनम्। या, सापत्न्यं, मात्सर्य ४. गात्रदाहः ( रोग- । जलावतनी, सं. स्त्री. (अ.) निर -वि;भेदः)। वासनम् । जलना, क्रि. अ. ( सं. ज्वलनं ) ज्वल ( भ्वा. ! जलाशय, सं. पुं. (सं.) जल-तोय,-आधारः, प. से.) तप-दह ( कर्म.) दीप (दि. आ. से.) तडागः-गं, वापी। २. असूयति ( ना. धा.) ईध्य ( भ्वा. प. से ). जलील, वि. (अ.) नीच, क्षुद्र, जघन्य । परोत्कर्ष न सह. ( भ्वा. आ. से.) मृष् (दि. प. (२) अपमानित, तिरस्कृत । से चु.)। सं. पुं., तापः, ज्वलनं, दहनं, दाहः, -करना, क्रि. स., अपकृष् ( भ्वा, प. अ.), प्लोषः इ. । लघूकृ। जले पर नोन छिड़कना, मु. क्षते क्षारं क्षिप् जलूस, सं. पु. ( अ.) उत्सव-,यात्रा, संप्र(तु. प. अ.)। जलरुह, सं. पुं. (सं. न.) जलरुह (पुं.), जलेबी, सं. स्त्री. (देश.) कुण्डली, मिष्टान्नभेदः । कमलम् । जलोका, सं. स्त्री. (सं.) दे. 'जौंक'। जलवा, सं. पुं. (फ़ा. श्रीः (स्त्री.), प्रभा, जलोदर, सं. पं. (सं.न.) जठरामयः। शोभा। जल्द, क्रि. वि. (अ.) अचिरात् , अचिरेण, जलमा, सं. पुं. (अ.) उत्सवः, महोत्सवः, झटिति, द्राक , अविलंब, आशु, शीघ्र २. जवेन, समलन, बृहदाधवेशन २. सगीतात्सवः बेगेन, सत्वरम् । २. संमोजनम् । -बाज़, वि. (अ.+फ़ा.) अविमृश्य-असमीक्ष्य. जलांजलि, सं.स्त्री. ( सं. पुं. ) अंजलि-करपुट- क्षिप्र, कारिन् , साहसिन् । मात्र जलम् २, तर्पणम् , प्रेततर्पणजलम् । -बाज़ी, सं. स्त्री., अविमृश्य-असमीक्ष्य, जलाकर, सं. पुं. (सं.) समुद्रः, सागरः कारिता-कारित्वं, साहसम् । २. जल-तोय, राशिः ३. कूपः ४. निर्झरः, जल्दी, सं. स्त्री. (अ.) शीघ्रता, स्वरा, क्षिप्रता । उत्सः । -करना, क्रि. अ., त्वर, (भ्वा.आ. से.), आशुजलाखु, सं. पुं. (सं.) दे. 'ऊदबिलाव। शीघं त्वरितं कृ अथवा चल ( भ्वा. प. से.)। जलातंक, सं. पुं. (सं.) अलर्काभिमवः, आलर्क, | जल्प, सं. पुं. (सं.) कथनं, वदनं २. प्रजल्पः, जलत्रासाख्यो रोगः ( हिं. हलक)। प्र.,जल्पितं, वृथा, आलापः-कथा, व्यर्थवार्ता जलात्यय, सं. पं. (सं.) शरदऋतुः, वर्षा- ३. वादभेदः (न्या०)। वसानः, मेघान्तः। जल्पक, वि. (सं) जल्पाकः, वाचारः, वाचालः, जलाना, क्रि. स. (हिं. जलना) उषु ( भ्वा. वावदूकः। प. से.), ज्वल (प्रे. ज्वलयति ), तप ( भ्वा. जल्लाद, सं. पुं. (अ.) घातकः, दंडपाशिकः, प. अ., प्रे.)। दह (भ्वा. प. अ.), दीप (प्रे.), मातंगः, वधाधिकृतः । वि., कर, निर्दय । प्लुष ( भ्वा. प. से.) २. ईर्ष्या-असूयां-मात्सर्य जल्सा, सं. पुं., दे. 'जलसा'। जन् (प्रे.), ३. पीड् (प्रे.), तुद् ( तु. प. अ.)। जव, सं. पुं. (सं.) वेगः, त्वरा रंहस् ( न.)। सं. पुं., दहनं, तापनं, प्लोषणं, दीपनं इ.1 जवन, सं. पुं., दे. 'यवन' । जलाने योग्य, वि., ज्वलयितव्य, दग्धव्य, दीप- जवनिका, सं. स्त्री., दे. 'यवनिका' । नीय, तपनीय । जामर्द, वि. ( फ़ा.) वीर, शूर, पराक्रमिन् । जलानेवाला, सं. पुं., तापकः, दाहकः इ.। जवाँमर्दी, सं. स्त्री. ( फ़ा.) वीरता, शूरता। जलाया हुआ, दग्ध, ज्वलित, दीपित । जवाखार, सं. पुं. (सं. यवक्षारः) यवाहः, जला मुना, वि., कुपित, ऋद्ध, कु-दः, शील, यवनालजः ।। दुष्प्रकृति । जवान, वि. (फ़ा.) युवन् , तरुण, अभिनवजलाई, वि. ( सं.) क्लिन्न, उत्त, उन्न । वयस्क, कुमार २. वीर, शूर । सं. पुं., पुरुषः, जलावतन, वि. ( अ.) निर्वासित, विवासित । मनुष्यः सैनिकः ३. वीरः । For Private And Personal Use Only Page #272 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir जवानी जाँघिया यत्र जवानी, सं. स्त्री. (फ़ा.) कौमारं, तारुण्यं, | जहर, सं. पुं. (फ़ा. जह ) गरलं, विषः-षम् । यौवनं, अभिनव-पूर्व-प्रथम, वयस् ( न.)। वि., घातक, प्राणहर २. अतिहानिकर [-री जवाब, सं. पुं. ( अ.) उत्तरं, प्रति,-वचनं वाच् | (स्त्री.)]। (स्त्री.), प्रत्युक्तिः ( स्त्री.), प्रत्युत्तरं २. प्रति- ज़हरदार, वि. ( फ़ा.) विषाक्त, गरलदिग्ध । क्रिया, प्रतीकारः, ३. कारभ्रंशादेश, ४. पद- | जहरबाद, सं. पुं. (फ्रा.) विसर्पः । च्युतिः (स्त्री.), अधिकारभ्रंशः। ज़हरमोहरा, सं. पुं. (फा. जहरमुहरा) विषन्नः -दावा, सं. पु. ( अ. ) उत्तरम् , उत्तर, पक्षः- | प्रस्तरभेदः। पादः। ज़हरीला, वि. ( फा. ज़हर ) दे. 'ज़हरदार' । -देह, वि. ( अ.+फ़ा.) उत्तर, दातृ-दायिन् , | जहाँ', क्रि. वि. (सं. यत्) यस्मिन् देशे-स्थाने । अनुयोज्य, प्रष्टव्य । -कहीं, क्रि. वि., यत्रकुत्र,-चित्-अपि, यत्र -देही, सं. स्त्री. ( अ.+फा.) उत्तरादायित्वं, प्रष्टव्यता, भारः। -का तहाँ, क्रि. वि., तत्रैव, पूर्वस्मिन्नेव स्थले । -सवाल, सं. पुं. प्रश्नोत्तराणि ( बहु.), वाद-|-तक, क्रि.वि., यावत् । विवादौ ( द्वि.)। -तहाँ, क्रि. वि., इतस्ततः, अत्र तत्र २. सर्वत्र । -देना, मु., पदात् अवरुइ-च्यु (प्रे.)। क्रि. -से, क्रि. वि., यतः, यस्मात् स्थानात् । स., दे. 'उत्तर देना। जहाँ, सं. पुं. ( फा. ) जगत् , संसारः । -मिलना, मु., अधिकारात् च्यु ( भ्वा. आ. -दीद,-दीदा, वि. ( फ़ा.) अनुभविन् । अ.), पदभ्रष्ट ( वि.) भू । -पनाह, सं. पुं. (फ़ा.) जगद्रक्षकः, प्रभुः जवाबी, वि. ( अ. ) उत्तरापेक्षिन् । २. प्रभुचरणाः, देवपादाः । -कार्ड, सं. पुं., उत्तरापेक्षि-उत्तरणीय, पत्रम् । जहाज, सं. पुं. (अ.) तरांधु (पुं.) बृहन्नौका, -तार, सं. पुं., उत्तरापेक्षी तडित्संदेशः। पोतः-थः, होडः। जवार, सं. पुं., दे. 'ज्वार'। जहाज़ी, वि. ( अ. जहाज )। सं. पु., नाविकः, जवारा, सं. पुं. (हिं. जव ) यव, अंकुर:-प्रहिः । नौ-पोत, वाहः, समुद्रगः। जवाल, सं. पुं. (अ.) क्षयः, हासः २. विपद् -डाकू, सं. पुं., सागरतस्करः, समुद्रदस्युः (स्त्री.)। जवास-सा, सं. पुं. ( सं. यवासः ) यासः, -बेड़ा, सं. . ( रण-) पोतगणः । दुःस्पर्शः, रोदनी, दुरालभा । जहान, सं. पुं. ( फ़ा. ) जगत् ( न. ), जवाह(हि)र, सं. पुं. (अ.) रत्नं, मणिः ।। सृष्टिः (स्त्री.)। जवाह(हि)रात, सं. पुं. ( अ., बहु.) रत्नानि | जहालत, सं. स्त्री. ( अ. ) अज्ञानम् , मूर्खता । मणयः ( बहु.)। ज़हीन, वि. ( अ. ) कुशाग्रबुद्धि २. मेधाविन् । जशन, सं. पुं. (फ़ा.) धार्मिकोत्सवः २. उत्सवः, जहूर, सं. पुं. (अ.) आविर्भावः, प्रकाशः । क्षणः ३. आनंदः, हर्षः ४. संगीतोत्सवः। जहेज़, सं. पु. ( अ.) युतकं, यौलक, वाहनिक जसामत, सं. स्त्री. (अ.) स्थूलता, पीनता, स्त्रीधनम्। पीवरता। | जल, सं. पुं. ( सं.) नृपविशेषः, सुहोत्रपुत्रः । जसीम, वि. ( अ.) पीन, पीवर, स्थूल । जस्टिस, सं. पुं. (अं.) उच्चन्यायालयस्य धर्म,- -कन्या-तनया, सं. स्त्री. (सं.) गंगा । अधिकारिन्-अध्यक्षः, २. न्यायः, दंडयोगः। जांगलू-ली, वि. ( सं. जांगल ) आरण्यक, वन्य, जस्त, जस्ता, सं. पुं. (सं. यशदं) कुधातु (न.)।। २. अशिष्ट, कर। जहन्नुम, सं. पु. (अ.) नरकः, निरयः जाँघ, सं. स्त्री. ( सं. जंघा ) ऊरु (पुं. ), २. तीव्रपीडास्थानम् । । सक्थि ( न.)। ज़हमत, सं. स्त्री. ( अ.) कष्ट, अपाद् ( स्त्री.), जाँघिया, सं. पुं. (हिं. जाँघ ) *जांघिकः, २. व्यामोहः, चित्तविक्षेपः । | *ऊरुच्छदः दे. 'काछा'। For Private And Personal Use Only Page #273 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir जाँच [ २३५ ] जाति जाँच, सं. स्त्री. (हिं. जाँचना) परीक्षण-क्षा, | जाज्वल्यमान, वि. (सं.) प्रज्वलत् , दह्यमान विचारणं-णा २. अनुसंधानं, गवेषणा । २. तेजस्विन् , कांतिमत् । जाँचना, क्रि. स. (सं. याचनं > ) परीक्ष जाट, सं. पुं. ( सं. जर्टः ) आर्येषु जातिविशेषः (भ्वा. आ. से.), विमृश (तु. प. अ.), २. जडः, मूढः ३. ग्रामीणः, ग्रामीयः, आ-पर्या लोच (चु.), अनुसंधा (जु. उ. अ.), | ग्रामिन् । निरूप (चु.), विचर (प्रे.)। | जाठ, सं. पु. [सं. यष्ठिः ( स्त्री. ) ] तैल-इक्षु, जांबूनद, सं. पुं. (सं. न.) सुवर्ण, काञ्चनं, पेषणीयष्टिः। हिरण्यम् । जाठर, वि. (सं.) जठर-उदर, सम्बधिन्-विषजा, सं. स्त्री. ( फ़ा.) स्थानं, प्रदेशः। वि., यक, औदर, जठर, ज-स्थित-वतिन् । सं. पुं., उचित, योग्य, संगत । जठराग्निः २, बालः। -बजा, क्रि. वि., सर्वत्र । -अग्नि, सं. पुं. (सं.) जठरानलः, जठराग्निः । -बेजा, वि., उचितानुचित, तथ्यातथ्य । जाई, सं. स्त्री. (सं. जा = जाता) पुत्री, दुहित । जाड़ा, सं. पुं. (सं. जाड्यं) शीतता, शीतलता, औत्यं २. शिशिरः, शीतकालः, हिमागमः, (स्त्री.)। शीतर्तुः ( पुं.)। जाग, सं. पुं., ( सं. यज्ञः ) मखः, क्रतुः । | जाड्य, सं. पुं. ( सं. न. ) जडता, मूर्खता, जाग, सं. स्त्री. (हिं. जागना) जागरणं, प्ररात्रि, मूढता २. मंदता, मंथरता।। जागरः । जागना, क्रि. अ. (सं. जागरणं ) जागृ ( अ. | जात', वि. ( सं. ) उत्पन्न, प्रसूत, संभूत .प. से.), प्र-वि-बुध् (दि. आ. अ.) सं. पुं., २. प्रकट, व्यक्त ३. अच्छ, प्रशस्त ४. नव जात। दे. 'जागरण' । जागनेवाला, सं. पुं., जागरकः, जागरित (पं.)। जात, सं. स्त्री., दे. 'जाति'। अवहितः; जागरूकः । जात, सं. स्त्री. ( अ.) प्रकृतिः (स्त्री.), स्वभावः जागरण, सं. पुं. (सं. न.) प्र-,जागरः, प्र, । २. देहः ३. व्यक्तिः ( स्त्री.)। बोधः-धनं, निद्रा-स्वाप, अभावः २. अवधानं जातक, सं. पुं. (सं.) वत्सः, बालः २. शिशुः दक्षता। नवजातः (पु.) ३. भिक्षुः ( पुं. ), याचकः जागरित, वि. (सं.) उन्निद्र, विनिद्र, प्रबुद्ध।। ४. बुद्धस्य पूर्वजन्मकथाः (स्त्री. बहु.)। २. जागरूक, सावधान। सं. पुं., (सं.न.) जातकर्म, सं. पु. ( सं.-मन् न.) जातक्रिया, दे. 'जागरण' । संस्कारभेदः ( धर्म.)। जागरूक, वि. ( सं. ) जागरितु, जागरक, | जातपात, सं. स्त्री., दे. 'जातिपाँति' । जागरिन् २: अवहित, दक्ष, सावधान ! जाता, स. ना. ( स. ) बाला, जाता, सं. स्त्री. (सं.) बाला, कन्या, कुमारी जागर्ति, सं. स्त्री. ( सं. ) जागर्या, जाग्रिया. २. पुत्री, सुता, तनुजा। निद्राऽभावः, प्रबोधः २. दक्षता। जाति, सं. स्त्री. (सं.) वर्णः २. कुलं, वंशः जागीर, सं. स्त्री. ( फ़ा. ) अग्रहारः २. भूसंपदः | ३. वंशावली, गोत्रं ४. भेदः, प्रकारः ५. वर्ग:, श्रेणी ६..७. समाजः, जनसमूहः ८. सामान्य -दार, सं. पुं. ( फ़ा. ) अग्रहारिन् । ९. जातिफलं १०. मालती । २. भूस्वामिन् । -से खारिज करना, क्रि. स., जातेः-समाजात्जाग्रत, वि. ( सं. जाग्रत् ) दे. 'जागरूक'। बहिष्क या च्यु-भ्रंश (प्रे.)। जाग्रति, जागृति, सं. स्त्री., दे. 'जागर्ति'। -च्युत, वि. ( सं. ) जातिहीन, अपांक्तय, जाज़रुर, सं. पुं. ( फ़ा. जा+अ. ) दे. बहिष्कृत । 'पाखाना। -पांति, सं. स्त्री., जात्युपजातो ( स्त्री. द्वि.)। जाजिम, सं. स्त्री. (तु. जाजम) चित्रितास्तरणं, -स्वभाव, सं. पुं. ( सं. ) सहज,-प्रकृतिः तलाच्छादनम् । (स्त्री.)-स्वभावः। For Private And Personal Use Only Page #274 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir जाती [ २३६ ] जाने अनजाने जाती, वि. ( अ. ज़ात ) वैयक्तिक २. स्वीय, | -खाना, मु., दु ( स्वा. प. अ.), बाध् नैज । (भ्वा. आ. से.)। जाती, सं. स्त्री. (सं.) सुरभिगंधा, सुरप्रिया, | -छुड़ाना, मु., अपस-अपसृप (भ्वा. प. अ.)। चेतकी, मालती। -में जान आना, मु., आ-समा-श्वस ( अ. -पत्री, सं. स्त्री. (सं.) जातिकोषी, मालती- प. से.), सुस्थ-निवृत-(वि.) भू। पत्रिका। जानकी, सं. स्त्री. ( सं. ) सीता, वैदेही, ---फल, सं. पुं. (सं. न.) जाति( ती )कोशः- जनकतनया। शं-पः-षम् । जानना, कि. स. (सं. ज्ञानं ) ज्ञा ( क्र. उ. -रस, सं. पुं. (सं. न.) वोलः।। अ.), अव-इ ( अ. प.से. ) अवगम् , बुध् जातीय, वि. (सं.) जातिभव, जातिसंबंधिन्। (भ्वा. उ. से.), विद् ( अ. प. से.) २. मन् २. राष्ट्रीय, देशीय ३. सामाजिक ।। (दि. आ. अ.), ऊढ़ ( भ्वा. आ. से. ), वितक जातीयता, सं. स्त्री. (सं.) जाति,प्रेमन् (पं.). ! (चु.)। सं. पुं., दे. 'ज्ञान'। अनुरागः २. राष्ट्रीयता ३. सामजिकता। जानने योग्य, वि., दे. 'ज्ञातव्य' । जातधान, सं. पं. (सं.) निशाचारः, राक्षसः। जाननेवाला, सं. पुं., दे. 'ज्ञाता' । जाद, सं. पु. ( फ़ा.) अभिचारः, इन्द्रजालं, जानपद, सं. पुं. (सं.) ग्रामवासिन् , ग्रामिन, कार्मणं, कुसूतिः (स्त्री.) कहकः-कं, माया, ग्रामीणः, ग्राम्यजनः २. जनपदप्राप्तकरः वि. मोहः, मंत्रयोगः । जनपदग्राम, सम्बन्धिन् । -करना, क्रि. स., अभिचर (प्रे.), मंत्रैः जानवर, सं. पु. ( फ़ा.) जीवः, प्राणिन , चरः, वशीकृ वा मुह (प्रे.), मायां । चेतनः २. पशुः, जंतुः (पुं.) । वि., जड, जादूगर, सं. पुं. ( भा.) कौसृतिकः सौभिकः, मूर्ख । ऐ(इंद्रजालिकः, कुहकाजीविन्, मायाकारः। जानशीन, सं. पुं. (फ़ा.) उत्तराधिकारिन् । जादूगरी, सं. स्त्री. ( फ़ा. ) ऐन्द्रजालिकता, | | जाना. कि. अ. (सं. यानं ) या-इ ( अ. प. दे. 'जादू'। अ.), गम् ( भ्वा. प. अ. ), चर-चल-बज् जान, सं. स्त्री. ( सं. ज्ञानं ) बोधः, उपलब्धिः ( भ्वा. प. से.) पद् (दि. आ. अ.), ऋ (स्त्री. ), विचारः २. अनुमानं, अहः, तर्कः। ( *वा. जु. प. अ.) २. प्रस्था ( भ्वा. आ. -कार, वि., ज्ञात, ज्ञानिन , वेत्तः-श. अभिज्ञ अ.), प्रया, प्रचल , निर्गम् । सं. पुं., गमनं, ( समासांत में ) २. दक्ष, कुशल । । यानं, ब्रजनं, प्रस्थानं, प्रचलनं इ. । -कारी, सं. स्त्री., परिचय, अभिज्ञता | जाने योग्य, वि., गंतव्य, यातव्य । २. नैपुण्य, दाक्ष्यम् । जानेवाला, सं. पुं., गंतृ-यात,चलित (पुं.) इ. । -बूझ कर, क्रि. वि., कामतः, शान-बुद्धि- गया हुआ, वि., गत, यात, हत, चलित इ.। विचार, पूर्वकम् । जाने देना, मु., दे. 'क्षमा करना। -पहिचान, सं. स्त्री., परिचयः परिचितिः जानी, वि. (फा. जान) प्राणसंबंधिन् । सं. (स्त्री.)। स्त्री., प्रिया, दयिता। जान, सं. स्त्री. (फ़ा.) प्राणः, जीवः-वनं, श्वासः -दोस्त, सं. पुं., अभिन्नहृदयः सुहृद् (पुं.)। २. बलं, सामर्थ्य ३. सारः, उत्तमांशः -दुश्मन, मं. पुं., अंतकरः-प्राणहरः ४. प्रियः, प्रिया। शत्रुः (पुं.)। -जोखों, सं. स्त्री., प्राण, संकट-संशयः भयम् । जानु, सं. पुं. ( सं. न.) रुपर्वन ( न. ), -दार, वि. (फ़ा.) प्राणिन् . सप्राण । । अष्ठीवत् (पु. न. ), जामुसंधिः ( पुं. ), -फ़िशानी, सं. स्त्री. ( फ़ा.) परमोद्योगः, चक्रिका । घोरपरिश्रमः । जाने अनजाने, क्रि. वि. ( हिं. जानना ) -किसी पर देना, मु., अत्यंत स्निह् ( दि. ज्ञानतोऽज्ञानतो वा, कामतोऽकामतो वा, बुद्धिप. से.; सप्तमी के योग में)। पूर्वमबुद्धिपूर्व वा। For Private And Personal Use Only Page #275 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir जानो जानो, अव्य., दे, 'मानो' । जाप, सं. पुं. (सं.) दे. 'जप' | जापक, सं. पुं. (सं.) दे. 'जपी' । ज़ाक़त, सं. स्त्री. ( अ. जियाफ़त ) सह-संभोजनम् । जाफ़रान, सं. पुं. (अ.) दे. 'केसर' । जाफरानी, वि. (अ.) दे. 'केसरिया' । [ २३७ ] जॉब, सं. पुं. ( अं. ) कर्मन् (न.), कार्यम् २. वैतनिक कार्यम् - कर्मन् । जाना, सं. पुं. (अ.) नियमः, व्यवस्था, विधिः ( पुं. ) । - दीवानी, सं. पुं., व्यवहारसंहिता । - फ़ौजदारी, सं. पुं., दण्ड संहिता | बेज़ान्ता, वि. नियम - विधि, विरुद्ध, अवैध | बेज़ाब्तगी, सं. स्त्री, अनिमयः, उत्सूत्रता । जाम', सं. पुं. ( सं . यामः ) दे. 'पहर' | जाम, सं. पुं. ( फ़ा. ) चषकः- कम् । जामदग्न्य, सं. पुं. ( सं. ) जमदग्निपुत्रः परशु रामः । जामन, सं. पुं. (हिं. जमाना ) द्र ( द्रा ) -सं, त्र( द्र )प्स्यम् । जामन, सं. पुं. दे. 'जामुन' । जामा, सं. पुं. (फ़ा. ) वसनं, वस्त्रं २. कंचुकः, प्रावारकः । जामे से बाहर होना, मु., अत्यंत क्रुधू ( दि. प. अ. ) । जामे में फूला न समाना, सु., भृशं हृष (दि. प.से.) जामाता, सं. पुं. दे. 'जमाई' | जामिन, सं. पुं. (अ.) प्रतिभूः (पुं.), बंधकः, लग्नकः । ज़ामिनी, सं. स्त्री, दे. 'जुमानत ' ( द्रव्य ) । जामिनी, सं. स्त्री. ( सं . यामिनी) दे. रात्रीत्रिः (स्त्री.), निशा । जामुन, सं. पुं. ( सं . जम्बु: ) ( वृक्ष ) जम्बू:बुः (स्त्री.) । ( फल ) जम्बु (न.), जम्बु:जम्बू : (स्त्री.), जंबुफलं, जाम्बवम् । जायका, सं. पुं. (अ.) आस्वादः, रसः । जायकेदार, वि. ( अ + फ़ा. ) स्वादु, सरस, रसवत् । जायज, वि. (अ.) उचित, युक्त, संगत। जावा जायदाद, सं. स्त्री. (फ़ा.) रिक्थं, दायः, भूमि:संपत्तिः (स्त्री.)। जायफल, सं. पुं. [सं. जाति ( ती ) फलं ] जाति कोषं सारं शस्यं, कोश ( ष ) म्, पपुटम् । जाया', सं. स्त्री. (सं.) पत्नी, भार्या, पाणिगृहीती | - पती, सं. पुं. ( सं . ) दम्पती जम्पती, (पुं.द्वि.) । जाया', सं. पुं. (सं. जातः ) पुत्रः, सुतः । वि., उत्पन्न, जात | ज़ाया, वि. (फ़ा. ) नष्ट, निरर्थक | जार, सं. पुं. (सं.) उपपतिः, परदारलंपटः । - ज, सं. पुं. ( सं . ) उपपतिसंतानः । जारिणी, सं. स्त्री. (सं.) कुलटा: पुंश्चली, जघनचपला । जारी, वि. (अ.) प्रवहत, प्रवाहित २. वर्तमान, प्रचलत्, प्रचलित । जालंजर, सं. पुं. ( सं . ) ( १-४ ) नगर-नृप - मुनि-दैत्य, विशेषः । जाल', सं. पुं. (सं. न.) जालकं, पाशः, आनायः, वागुरा २. समूहः, निकरः ३. लूतालूतिका, - जालम् । जाल सं. पुं. ( अ. जअल ) छल, कपटं, • माया । - साज, सं. पुं. ( अ. + फ़ा. ) धूर्तः, शठः, मायिकः । - साजी, सं. स्त्री, धूर्तता, कापट्यं, शाट्यम् । जाला, सं. पुं. (सं. जालं ) लूता - लूतिका, जालं २. जालदुष्टिः (स्त्री.) नेत्ररोगभेदः ३. घासादिबन्धनार्थं जालम् । जालिक, सं. पुं. (सं.) धीवरः केवर्त्तः २. ऐन्द्रजालिकः, कुहककारः ३. उर्ण- तंतु, नाभः । ज़ालिम, वि. ( अ ) घोर, क्रूरकर्मन् आततायिन् पापिष्ठ । जालिया, दे. 'जालसाज़' । , " जाली', सं. स्त्री. ( सं . जालं > ) छिद्रप्रायं वस्त्रं, जालिका २. काष्ठादिपट्टेषु छिद्रसमूहः ३. सूचीकर्मभेद: जालिकाकर्मन् । जाली, वि. ( अ. जअल ) कृत्रिम, कृतक । जावा, सं. पुं. (सं. यवद्वीप:- पं ) द्वीपविशेषः । For Private And Personal Use Only Page #276 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir जावित्री [ २३८ ] जिल्द जावित्री, सं. स्त्री. [सं. जाति(ती)पत्री] | जिताना, क्रि. प्रे., ब. 'जीतना' के प्रे. रूप । सौमनसायनी, जातिकोषी मालती-सुमनः, जितेन्द्रिय, वि. ( सं.) हृषीकेश, वशिन् , पत्रिका। दान्त, शान्त, इन्द्रियजित् । जाविया, सं. पुं. (अ.) द्विभुजः, कोणः अस्रः । । ज़िह ,सं. स्त्री. ( अ.) हठः, आग्रहः । जासूस, सं. पु. (ता.) च(चा)रः, स्पशः, जिद्दी, वि. (फा.) हठिन् , आग्रहिन् । अपसर्पः, गूढपुरुषः, भीमर, प्रणिधिः। जिधर, क्रि. वि. ( सं. यत्र ) यस्मिन् स्थाने । जासूसी, सं. स्त्री. (फ़ा. जासूस) स्पशता, जिन', सं. पुं. (सं.) विष्णुः २. सूर्यः ३. बुद्धः च(चा.)रकर्मन् (न.), प्राणिध्यम् ।। । ४. जैनतीर्थकरः। जाहिर, वि. ( अ.) प्रकट, प्रत्यक्ष २. विदित । जिन, सं. पुं. (अ.) भूतः, प्रेतः। जाहिरा, अव्य (अ.) बाह्यतः, बहिरंगतः, | जिन', सर्व-(हिं. जिस ) यद् । आपाततः, प्रत्यक्षतः (सब अव्य.)। जिमाना, क्रि. प्रे. ( हिं. जीमना ) दे. जाहिरी, वि. (हिं. ज़ाहिर ) बाह्य, बहिःस्थ, 'खिलाना। बाहीक, बहिर् , भव-भूत-वर्तिन् । ज़िम्मा, सं. पुं. ( अ.) भारः, उत्तरदायित्वम् । जाहिल, वि. ( अ.) मुर्ख, अज्ञानिन् २. निर -दार ! वि., उत्तरदायिन् , प्रष्टव्य, अनुक्षर, अविद्य । -वार योज्य। जाहिली, सं. स्त्री., मूर्खता, अज्ञता २. निरक्ष- -वारी, सं.ली., उत्तरदायित्वं २. संरक्षणम् । दरता, विद्याहीनता। जिया, सं. स्त्री. (अ.) सूर्यालोकः, प्रभा जाह्नवी, सं. स्त्री. (सं.) जह, कन्या-तनया, २. रत्नकान्तिः ( स्त्री.)। भागीरथी, गङ्गा। ज़ियान, सं. पुं. (फा.) हानिः ( स्त्री.), जिंदगी, सं. स्त्री. (फ़ा.) जीवनं २. आयुस अर्थनाशः। (न.)। ज़ियाफ़त, सं. स्त्री. (अ.) आतिथ्यं, अतिथि-के दिन पूरे करना, मु., जीवनं या (प्रे.) सेवा २. निमंत्रणं, भोजनोत्सवः। २. मरणासन्न (वि.) वृत् ( भ्वा. आ.से.)। | जियारत, सं. स्त्री. ( अ.) साधुदेवमूर्त्यादिदर्शजिंदा, वि. (फ़ा.) जीवित, सप्राण, सजीव । नम् । -दिल, वि., हास्यप्रिय, विनोदशील । | जिरगा, सं. पुं. (फ़ा.) वृन्दं, समूहः २. समाजः, -दिली सं. स्त्री., विनोदशीलता, हास्यप्रियता। सभा। जिंस, सं. स्त्री. ( फा.) प्रकारः, भेदः २. द्रव्य, जिरयान, सं. पुं. (अ.) धातु-दौर्बल्यं सावः, वस्त (न.), सामग्री, उपकरणजात ४. अन्नम्। शक्रक्षरणम् । ज़िक्र, से. पुं. (अ.) वर्णनं, चर्चा | | जिरह, सं. पुं. ( अ. जुरह ) प्रतिपृच्छा। जिगर, सं. पुं. (फा.) यकृत् ( न. ) कालक, | -करना, क्रि. स., प्रतिप्रच्छू ( तु. प. अ.) । कालखंडं, कालेयं २. चित्तं, मानसम् । जिगरा, सं. पुं. (ता. जिगर ) साहसं, ज़िरह, सं. स्त्री. ( फा.) कवचः-चं, तनुत्राणं, वर्मन् (न.), सन्नाहः। पौरुषं, शौर्यम् । जिज्ञासा, सं. स्त्री. (सं.) ज्ञानेच्छा, कौतहलं. ज़िला, सं. पुं. (अ.) मण्डलं, चक्रम् । पिप्रच्छिषा, अनुयोगः, पृच्छा, निरूपणा। | जिलाना, क्रि. प्रे, ब. 'जीना' के प्रे. रूप । जिज्ञास, वि. (सं.) ज्ञानेच्छु, कौतूहलिन् , जिल्द, सं. स्त्री. (अ.) त्वच (स्त्री.), चर्मन् पिप्रच्छिषु । (न.) २. आवरणं, वेष्टनं २. पृथक स्यूत जिठानी, सं. स्त्री. (हिं. जेठ ) ज्येष्ठस्य जाया, | पुस्तक,-खंडः भागः ४. पुस्तकसंख्या ।। ज्येष्ठयात (स्त्री.)। -बाँधना, क्रि. स., पुस्तकं आवृ (स्वा. उ. से.), जित, वि (सं.) पराजित, पराभूत, विजित । आवरणेन युज् (प्रे.)। जितना, वि. (हिं. जिस ) यायत् (-ती स्त्री.), -बंद ।। स्तकावरकः, *ग्रन्थबन्धकः। यावन्मात्र, यावत्परिमाण । क्रि. वि., यावत् । । -साज़ For Private And Personal Use Only Page #277 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir जल्लित [ २३९ ] जीर्णोद्धार जिल्लत, सं. स्त्री. (अ.) अपमानः, अवज्ञा, जीतना, क्रि. स. (हिं. जीत ) जि ( भ्वा. तिरस्कारः, अनादरः २. दुर्गतिः (स्त्री.), | प. अ.), वि-परा-जि ( भ्वा. आ. अ.), अभिदुर्दशा । परा-भू १. वशीकृ, दम् (प्रे.)३. स्वायत्तीजिस, सर्व. ( सं. यः> ) यत् । आत्मसात् कृ । सं. पुं., दे. 'जीत' सं. स्त्री. । जिस्म, सं. पुं. ( फ़ा.) शरीरं, देहः । -योग्य, वि., वि-, जेय, जेतव्य, जयनीय, जिहन, सं. पुं. ( अ.) बुद्धिः-मतिः ( स्त्री.)। अभि-परा-भवनीयः दमनीय; वशीकार्य इ.। जिहाद, सं. पुं. ( अ.) धर्मयुद्धम् । -वाला, सं. पुं., वि-,जेत, अभिभाविन्, अभिजिह्वा, सं. स्त्री. (सं.) रसना, रसज्ञा, दे. भाव( वु )क। 'जीभ'। जीता, वि. ( हिं. जीना ) जीवित, सजीव, जी, सं. पुं. (सं. जीवः > ) चित्तं, मानसं जीवोपेत, सप्राण । चेतस-मनस ( न. ) . २. सासं, पौरुषं जीतेजी, मु., यावज्जीवं, जीवनपर्यन्तं, जीवना३. संकल्पः, विचारः। वधि ( न.)। -आना (किसी पर), अनुरागं बन्ध (क्र. ज़ीन, सं. पुं. (फ़ा.) पल्ययनं, पर्याणम् । प. अ.), स्निह् (दि. प. से., सप्तमी के साथ)। जीनत, सं. स्त्री. (फ़ा.) शोभा, छविः (स्त्री.), -करना, मु., इषु ( तु. प. से)। आमा। -का बुख़ार निकलना, मु. रोदनजल्पना- जीना, क्रि. अ. ( सं. जीवनं ) जीव ( भ्वा. प. दिभिः मनोवेगाः शम् (दि. प.से.)। से.), प्र-अन् ( अ. प. से.), श्वस् ( अ. प. -खट्टा होना, मु., निर्विद् (दि. आ. अ., से.)। सं. पुं. जीवनं, प्राणधारणम् । तृतीया के साथ ). विरक्त (वि.) भू। जीना, सं. पुं. (फ़ा.) सोपानं, आरोहणं, -खोल कर, मु., निस्संकोचं २. यथेच्छम् । अधिरोहि( ह )णी। -चुराना, मु., परिह ( भ्वा. प. अ., द्वितीया जीभ, सं. स्त्री. (सं. जिह्वा ) रसा, लोला, के योग में)। रसला, सुधास्रवा, रसिका, रसांका, रसना। -छोटा करना, मु., विषद् ( भ्वा. प. अ.) -चाटना, मु., गृथ् (दि. प. से.), अमिलष २. औदार्य हा (जु. प. अ.)। (भ्वा. प.से.), लुभ (दि. प. से.)। -बहलना, मु., मनोविनोदः जन् (दि. आ. | जीभी, सं. स्त्री. (हि. जीम ) जिह्वा-रसना, से.)। मार्जनी-शोधनी २. जिह्वा-रसना,-मार्जनं-बिगड़ना, मु., वम् (सन्नन्त., विवमिषति), शोधनम् ३. लघु-जिह्वा-रसारसला ४. कलवमनेच्छा जन् । माग्रम् , लेखनीचंचुः (स्त्री.) ५. पशुरोगभेदः । -भरना, मु., तृप (दि. प. अ.)। जीमना, क्रि. स. (सं. जेमनं ) अद् ( अ. प. -भर कर, मु., यथेच्छं, यथाकामम् । अ.), खाद् ( भ्वा. प. से..)। -मचलाना या-मतलाना, मु., दे. 'जी | जीमूत, सं. पुं. (सं.) मेघः, वारिवाहः, अभ्रं बिगड़ना। २. पर्वतः, नगः । –में आना, मु., वाच्छ (भ्वा. प. से.)। -वाहन, सं. पुं. (सं.) इन्द्रः, वज्रिन् (पुं.)। -लगना, मु., दे. 'जी आना। जीरा, सं. पुं. (सं. जीरः) दीपकः, दीप्यः, जीजा, सं. पुं. (हिं. जीजी) भगिनीपतिः, | जीरकः, जरणः। आवृत्तः। जीर्ण, वि. (सं.) शीर्ण, गलित २. परिपक्क, जीजी, सं. स्त्री. ( अनु.) जीजी ( ज्यायसी) परिणमित । भगिनी, स्वस (स्त्री.)। जीर्णा, वि. (सं.) वृद्धा, स्थविरा, पलिता, जीत, सं. स्त्री. ( सं. जितम् ) जयः, विजयः | पलिनी। २. लामः ३. साफल्यं, कृतकार्यता। जीर्णोद्धार, सं. पुं. (सं.) नवीकरणं, संधानं, -हार, सं. स्त्री., जयाजयौ, जयपराजयौ। । उद्धारः। For Private And Personal Use Only Page #278 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir जीवंत [ २४० ] जुल्मत जीवंत, वि. (सं. जीवत् ) सप्राण, जीवित, | जुगाली, सं. स्त्री. ( हिं. जुगालना ) रोमन्थः, सजीव, जीवोपेत । पुनश्चर्वणम् । जीव, सं. पुं. (सं.)। जीव-, आत्मन् (पुं.), जुगुप्सा, सं. स्त्री. (सं.) बीभत्सः, घृणा, गहा, शरीरिन् , देहिन् । अरुचिः ( स्त्री.)। -दान, सं. पुं. (सं. न.) प्राणदानं, जीवन- जुटना, जुड़ना, क्रि, अ. ( सं. युक्त ) सं-युज रक्षणम् । (कर्म); संश्लिप ( दि. प. अ.); संमिल (तु. -दण्ड, सं-पुं. (सं.) प्राणदण्डः, मृत्युदण्ड: प.से.)। २. वधः, मारणं, हननम् । जुटाना, जुड़ाना, कि. प्रे., ब. 'जुड़ना' के प्रे. रूप। जीवक, सं. पुं. (सं.) प्राणिन् , जीवधारिन् २. सेवकः, दासः ३. अ( आ )हिडिकः, जुतना, क्रि. अ. ( सं. युक्त > ) युग-योक्त्रं वह, (भ्वा. उ. अ.)। कालग्राहिन् ४. कुसीदः-दकः, वार्द्धषिकः, कुसीदिन् । जुदा, वि. ( फ़ा.) पृथक् , भिन्न । -करना, क्रि. स. वियुज ( रुध उ. अ. ) जीवन, सं. पुं. (सं. न. ) प्राणधारणं, चैतन्यं, पृथक-कृ। सप्राणता। -होना, क्रि. अ., पृथग्भू, विश्लिप ( दि. -चरित, सं. पुं. (सं. न.) जीवन, चर्या प. अ.)। वृत्तान्तः-चरित्रम् । जुदाई, सं. स्त्री. ( फ़ा.) वियोगः, पार्थक्यम् । जीवन वृत्त, वृत्तान्त, सं. पुं. (सं.) दे. 'जीवन जुद्ध, सं. पुं. (सं. युद्धं ) संग्रामः । चरित'। जुमा, सं. पुं. (अ.) शुक्र-भृगु,वारः-वासरः। जावनवृत्ति, स. सा. (सः। आजविका, जुरबत, सं. स्त्री. ( फ़ा.) साहसिक्यं, साहसं, व्यवसायः, उपजीविका, जीवनोपायः, जीवन उत्साहः । साधनम् । जुरमाना, सं. पुं. (फ़ा.) दमः, अर्थदण्डः । जीवात्मा, सं. पुं. (सं.-त्मन् ) दे. 'जीव' ।। जुम, सं. पुं. ( अ.) अपराधः, दोषः। जीविका, सं. स्त्री. (सं.) दे. 'जीवनवृत्ति'। जुर्माना, सं. पुं.(फा.) दे. 'जुरमाना। जीवित, वि. (सं.) दे. 'जीता' । -करना, क्रि. अ., दण्ड् (चु. द्विकर्मक)। जुआ, सं. . ( सं. घृतं) पणः,पणनं-देवनं-ना, -देना, क्रि. स., दण्डं-दमं दद् (भ्वा. उ. अ.) । द्यूत-अक्ष, क्रीडा। -मुआफ करना, क्रि. स., दण्डं-दम क्षम् -खेलना, कि.अ., दिव (दि. प. से.) ( अक्षैः)। (भ्वा. आ.से.)। क्रीड ( भ्वा. प. से.)। जुलाब, सं. पुं. (अ. जुल्लाब) रेचनं, विरेचनं जुआरी, सं. पुं. (हिं, जुआ) इतकारः, उदरशोधनं २. रेचकः-क, विरेचकः-कम् । कितवः, अक्षदेविन् , देवित । -देना, क्रि. स., विरिन् (प्रे.)। ज़ काम, सं. पुं. (अ.) प्रतिश्यायः, श्लेष्म- -लेना, क्रि. अ. (उदरं) विरिच ( रु. प. अ.)। स्रावः। जुलाहा, सं. पुं. (फ़ा. जौलाह ) तन्तुवायः, जुग, सं. पुं. (सं. युगं) कालमानभेदः २. युगलं, वयः, कुविन्दः, तंत्रवापः, पटकारः । द्वन्द्वम् । जुलस, सं. पुं. (अ.) दे. 'जलूस' । जुगनू, सं. पुं. (हिं. जुगजुगाना) खद्योतः, | जल्फ, सं. स्त्री. (फ़ा.) कुटिल-चूर्ण, कुन्तलः, ज्योति-रिङ्गणः, दृष्टिबन्धुः प्रभाकीटः, उप- | अलकः २. द्विफालबद्धाः चिकुराः। सूर्यकः, तमोमगिः । जुल्म, सं. पुं. (अ.) अत्यचारः, कर-धोर, जुगल, सं. पुं. (सं. युगलं ) दे. 'युगलं' या कर्मन् ( न.)। 'जुग' (२)। ज़ल्मत, सं. स्त्री. ( अ.), अन्धकारः, तिमिरं, जगालना, क्रि. अ. (सं. उद्लिनम् > ) रोमन्थं | तमस् (न.) २. तिमिर-अन्धकार, कालिमन् कृ, रोमन्थायते ( ना. धा.)। | (पुं.) कृष्णिमन् (पुं.)-श्यामता। For Private And Personal Use Only Page #279 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir जुखमी [ २४१ ] जोतिष जुल्मी, वि. (अ. जुल्म > ) पापिष्ठ, आतता | जेवर, सं. पुं. (फ़ा. ) वि-आ-, भूषणं, आमरणं, यिन्, अत्याचारिन्, क्रूर अलंकारः, अलंकरणम् । जेहन, सं. पुं. (अ.) दे. 'ज़िहन' | जैन, सं. पुं. ( सं . ) जैन मतावलम्बिन् २. जैन, - मतं-सम्प्रदायः । जैनी, सं. पुं. (सं. जैन ) दे. 'जैन' (१) । जैसा, वि. ( सं . यादृश) यादृश् (श), यत्प्रकारक [ जैसी (स्त्री.)= यादृशी ] । - का तैसा, मु., पूर्ववत् यथापूर्वंम् । चाहिए, मु., यथोचितं, यथाई, यथायोग्यम् । जो, सर्व. (सं. यः ) यः (पुं. ) या (स्त्री.), यत् (न.) । जुवा, सं. पुं. (हिं. जुआ ) दे. 'जुआ' । जुवारी, वि. (हिं. जुआरी ) दे० 'जुमारी' । जुघृ, वि. (सं.) भुक्तशिष्ट, उच्छिष्ट २. प्रिय, इष्ट, प्रीत, प्रेष्ठ ३. युक्त, अन्वित, युत ४. सेवित । जुस्तजू, सं. स्त्री. (फ़ा. ) अन्वेषणा, गवेषणा, मार्गणा । जुही, सं. स्त्री. (सं. यूथी ) (सफ़ेद) यूथिका, बालपुष्पी, वासन्ती, (पीली) पीत-सुवर्ण, यूथी, हेमयूथिका, कनकप्रभा, हेमपुष्पिका । जू, सं स्त्री. (सं. यूका ) केशटः, केशकीटः, स्वेदसंभवा, यूकः का, षट्पदः दी । जुआ, सं. पुं. (सं. युगं गः ) योक्त्रं, धुर्वी, प्रासंगः, ईषान्तबंधनं, धुर् (स्त्री.) । जुआ, सं. पुं., दे. 'जुआ' । -कुछ, यत्किञ्चित् । -कोई, यः कश्चित् कश्चन कोऽपि । जोक, जोंक, सं. स्त्री. (सं. जलौका ) जलुका, रक्त, पापायिनी, जलाका, जलजन्तुका । जोखों, सं. स्त्री, संकटं, विपद् (स्त्री.) । जूठ-जूठन, सं. स्त्री. (हि. जुठा ) भुक्तशेषः, जोग, सं. पुं. ( सं. योगक्षेम ? ) दे. 'योग' | उच्छिष्टं, अवशिष्टम् । जोगिया, वि. (हि. जोगी) परिव्राजक, योगसम्बन्धिन्, २. गैरिकरागयुक्त, गैरिकाक्त, गैरिकवर्ण । जूठा, वि. (सं. जुष्ट) उच्छिष्ट, भुक्तशेष । जूड़ा, सं. पुं. (सं. जूट :) जूटकं, केशबन्धः, जटाग्रन्थिः । जूत-जूता, सं. पुं. ( सं . युक्त > ) पादत्राणं, जोगिन, सं. स्त्री. दे. 'योगिनी' । - खाना, मु., तिरस्कारं लभ् (स्वा. आ. अ.) । जूती, सं. स्त्री. दे. 'जूता' । . जूथ, सं. पुं., दे. 'यूथ' । " उपानह् (स्त्री.) । जोजन, सं. पुं. (सं. योजनं ) दे. 'योजन' । -मारना, मु., पादत्राणेन तह ( चु. ) जोड़, सं. पुं. ( सं. जोड : ) बन्धनं, मेलनं २. तिरस्कृत । २. योगः, संकलः, परिसंख्या, पिंडः । ३. अंगसन्धिः, अंगग्रन्थिः । जोड़ना, क्रि. स. (सं. जोड़नं ) एकत्र कृ, संमिलू (प्रे.) जुड् (भ्वा . तु. प. से. ) युज् ( रुध. उ. अ.), संश्लिष् (प्रे.) २. संकल् ( चु.), परिसंख्या ( अ. प. अ. ) । जोड़ा, सं. पुं. (हिं. जोड़ना) युगलं, युग्मं २. द्वन्द्वं मिथुनं ३. उपानद्युगलं ४. वेषः - शः । जोड़ी, सं. स्त्री. (हिं. जोड़ा) दे. 'जोड़ा' (१-२ ) । जोत', सं. स्त्री. [सं. ज्योतिस् (न.)] प्रकाशः, आभा, युतिः । जोत े, सं. स्त्री. (हिं. जोतना ) चर्मपट्टः, वरत्रा, वधी । जोतना, क्रि. स. (सं. युक्त > ) योक्त्रयति (ना. धा.), युज् (चु.) २. कृष् (भ्वा. प. अ.), इल् (भ्वा.प.से.) । जोतिष, सं. पुं., दे. 'ज्योतिष' । जूनियर, वि. (इं.) अवर, अधर, अवरपदभाज् । जूही, सं. स्त्री. दे. 'जुही' । जृम्भा, सं. स्त्री (सं.) जृम्भ:, जृम्भणं, जृम्भिका, "जंभा, जंभका । जेठ, सं. पुं., दे. 'ज्येष्ठ' । जेठा, सं. पुं. (सं. ज्येष्ठः ) प्रथमजः, अग्रजः । जेठानी, सं. स्त्री. दे. 'जिठानी' । जेब, सं. पुं. (फ्रा.) (चोलकछुकादीनां ) कोशः षः । सं. पुं., चिल्लामः, ग्रंथिच्छेदकः । जेर, सं. स्त्री. (सं. जरायुः ) उखं, कललः । जेल, स. पुं. ( अं.) कारा, - गृहं आगारं, बन्दि, - गृह-शाला | -कतरा, -- खाना, सं. पुं. ( अ. फ़ा. ) दे. 'जेल' | १६ आ० जोगी, सं. पुं. (सं. योगिन् ) दे. 'योगी' । For Private And Personal Use Only Page #280 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir जोतिषी [२२] ज्वाला जोतिषी, सं. पुं., दे. 'ज्योतिषी'। ज्या, सं. स्त्री. (सं.) मौर्वी, शिञ्जिनी, गुणः। जोधा, सं. पुं. (सं. योद्धृ ) योधः, भटः। ज्यादती, सं. स्त्री. (फ्रा.) आधिक्यं, प्राचुर्य, ज़ोफ़, सं. पुं. (अ.) दुर्बलता, निर्बलता। अधिकता २, अत्याचारः। जोबन, सं. पु. ( सं. यौवनं ) तारुण्यम् । ज्यादा, वि. (फ़ा.) अधिक, महन् , बहु । जोम, सं. पुं. ( अ.) गर्वः, दर्पः, अहंमानः, अहं- -तर, वि. बहुसंख्याक, अधिकतर, भूयस् । कारः। ज्येष्ठ, सं. पुं. (सं.) अग्रजः, प्रथमजः २. भर्तुः ज़ोर, सं. पुं. (फ़ा.) बलं, शक्तिः २. वशः, ज्यायान् भ्रातृ ३. ज्येष्ठः (मासः)। वि., वृद्ध अधिकारः ३. वृद्धिः-समृद्धिः (स्त्री.), २. श्रेष्ठ । ४. वेगः, आवेशः ५. आश्रयः ६. परिश्रमः ज्यों, क्रि.वि. (सं.यः+इव यथा,) येन प्रकारेण । ७. व्यायामः । --का त्यों, मु., यथापूर्वम् । जोरावर, वि. (फा.) बलिष्ठ, शक्तिशालिन् । -स्यों, मु., यथा तथा। ज़ोरदार, वि. (फ़ा) प्रबल, बलवत् २. अकाट्य, ज्योति, सं. स्त्री. [सं. ज्योतिस् ( न.)] प्रकाशः, अखण्ड्य। प्रभा, धुतिः (स्त्री.)। जोराजोरी, अव्य. ( फ़ा. ज़ोर > ) बलात् , ज्योतिष, सं. पुं. ( सं. न. ) ज्योतिर्विद्या, हठात् , प्रसमं, प्रसह्य ( सब अव्य०)। ज्योतिःशास्त्रं, नक्षत्रविद्या। जोरू, सं. स्त्री. (हिं. जोड़ा) भार्या, पत्नी, ज्योतिषी, सं.पं. ( सं. ज्योतिपिन ) देवशः, गहिनी। ज्योतिर्विद् , ज्योतिषिकः। जोलाहा, सं. पुं., दे. 'जुलाहा' । ज्योत्स्ना, सं. स्त्री. (सं.) चन्द्रिका, कौमुदी। जोश, सं. पु. ( फ़ा.) उत्तजन-ना, उत्साहः, ज्वर. सं.पं. (सं.) ज्वरिः, ज्वरा. जतिः (स्त्री.), व्यग्रता, चण्डता, मनोवेगः, आवेशः। महागदः, तापकः। -देना, क्रि. स, प्रोत्सह (प्रे.), उत्तिज थोडी थोड़ी देर बाद होनेवाला-, स्वल्पविरा. (प्रे.) २. पच् ( भ्वा. प. अ. ), कथ् | मज्वरः। ( भ्वा. प. से.)। दौरेवाला-, पौन:पुनिकज्वरः । जोशांदा, सं. पुं. (फ्रा. ) क्वाथः, कषायः, नियासः। प्रतिदिन होनेवाला-, अन्येशुष्कज्वरः । जोशीला, वि., व्यग्र, उग्र, उत्साहिन् , उत्साह रुक रुककर होनेवाला-, सविरामज्वरः । वत् , प्रचण्ड। सड़ा-, रक्तदुष्टिः ( स्त्री.)। जोहाड, सं.पं. (देश.) जलाशयः हदः,पल्वलम। हर तीसरे दिन होनेवाला-, तृतीयकज्वरः । जौ. सं.पं. (सं. यवः ) प्रवेटः,दीर्घ-सित,-शकः, हर चौथे दिन होनेवाला-, चतुर्थकज्वरः । अश्वप्रियः, महाबुसः। | ज्वलंत, वि. (सं. ज्वलत् ) उद्दीप्त, प्रकाशित । जौहर, सं. पुं. (अ.) रत्नं, मणिः (पुं., कमी ज्वलन, सं. पुं. (सं. न.) दाहः, तापः २, अग्निः स्त्री.) २. सारः, तत्त्वम् । ३. ज्वाला। जौहरी, सं. पुं. (फ़ा.) मणिकारः, रत्नकारः ज्वार', सं. स्त्री. ( सं. यावनालः ) अन्नविशेषः, २. रत्नपरीक्षकः। वृत्ततण्डुलः, क्षेत्रेक्षुः। ज्ञातव्य, वि. ( सं.) शेय, अवगन्तव्य, बोद्धव्य । ज्वार, सं. पुं. ( देश.) वेलावृद्धिः ( स्त्री.)। ज्ञाता, वि. ( सं. ज्ञात ) वेत्त, शानिन् , बोद्धृ। -भाटा, सं. पुं., वेलाया वृद्धिक्षयौ (द्वि.)। ज्ञाति, सं. पुं. (सं.) सगोत्रः, बन्धुः, बान्धवः, | ज्वाला, सं. स्त्री. ( सं. ) शिखा, अर्चिः स्वः, स्वजनः, सकुल्यः, अंशकः, दायादः।। (न.)। ज्ञान, सं. पु. ( सं. न. ) बोधः, प्रतीतिः (स्त्री.)। ' -मुखी, सं. पुं. ( सं.) अग्निपर्वतः । For Private And Personal Use Only Page #281 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्र [ २४३ ] झ झ, देवनागरी वर्णमालाया नवमो व्यञ्जनवर्णः, झगड़ना, क्रि. अ. झकारः । * झं, झंकार, सं. पुं. स्त्री. (अनु.) झणत्कारः,. झणझणध्वनिः, शिजितम् । झंखाद, सं. पुं. (हिं. 'झाड़' का अनु. ) कंटगुल्मः- मं, कंटस्तम्बः । झंझट, सं. स्त्री. (अनु. ) कृच्छ्रम्, आयासः. क्लेशः, वैषम्यम् । झंझनाना, क्रि. अ. (अनु.) झणझणायते ( ना. धा.), झणझणध्वनि उत्पद् ( प्रे.) । । झंझनाहट, सं. स्त्री. (अनु.) दे. 'झंकार' । झंझा, सं. स्त्री. (सं.) झंझावातः, सवृष्टिको वातः झंझोड़ना, क्रि. स. ( सं . झर्शनम् ) क्षुभ् (प्र.), सरभसं कंप् ( प्रे. ) । झंड, सं. पुं. (हिं. झंडा ) शिशोः अमुंडिता: केशाः, सहज-जन्मज, केशा:- कचाः (पुं. बहु.) । झंडा, सं. पुं. (हिं. झण्डी ) ध्वजः केतुः, केतनम् । , --बरदार, सं. पुं. पताकिन् ध्वजिन्, वैजयन्तिकः, ध्वजपताका, धारिन्-वाहिन् । - गाड़ना, मु., स्वायत्ती आत्मसात् कृ, अभिपरा, भू । झंडी, सं. स्त्री. (सं. जयन्ती ) वैजयन्ती, पताका, दे. 'झंडा' । प्रजल्पः । -मारना, क्रि. स., प्रलप-प्रजल्पू (भ्वा.प.से.), निर्विवेकं भाष (भ्वा. आ. से. ) । झकझक, सं. स्त्री. (अनु.) दे. 'झक' । झकना, क्रि. अ., प्रलप-प्रजल्प् (भ्वा.प.से.), विवद् ( स्वा. आ. से. ) । झंडूला, वि. (हिं. झंड ) अमुंडित, अनुप्त-अकृत्त अच्छिन्न,-केश-मूर्द्धज । झंप, सं. पुं.सं.) झंपा, प्लुतं-तिः ( स्त्री. ) २. अश्वगलभूषणम् । झक, सं. स्त्री. (अनु. ) आवेशः, अभिनिवेशः, आग्रहः, निर्बन्धः २. प्रलापः, असंबद्धभाषणं, झक्की, सं. पुं. (हिं. झक ) वावदूकः, प्र., जल्पकः, वाचाल : २. दृढाग्रहिन् । झख, सं. स्त्री. (अनु.) दे. 'झक' । ! झपकना ( हिं. झकझक ) विवदू (भ्वा. आ. से. ), विप्रलप् (भ्वा.प.से.), कलहं कृ, कलहायते ( ना. धा. ) । झगड़ा, सं. पुं. (हिं. झगड़ना ) वाग्युद्धं, कलिः, कलहः, विवादः । | झट, क्रि. वि. ( सं . झटिति ) तत्क्षणं, अनुपदं, शीघ्रम् । झगड़ालु-लू, वि. (हिं. झगड़ा ) विवादिन्, कलहप्रिय । 1- पट, क्रि. वि., तत्कालमेव, सत्वरम् । झटकना, क्रि. स. (हिं. झट ) ( सहसा ) वेप-कंप (प्रे.) २. छलेन बलेन वा अपहृ ( भ्वा. प. अ. ) । झटका, सं. पुं. (हिं. झटकना ) हस्तादिकेन प्रचालनं प्रेरणं प्रणोदनं, ईषत् - आघातः - प्रहारः २. सहसा वधः हननम् । झड़, सं. स्त्री. (हिं. झड़ना ) दे. 'झड़ी' । झड़झड़ाना, कि. स. (अनु.) दे. 'झंझोड़ना' । झड़ना, क्रि. अ. (सं. झरणम् > ) पत्-क्षर् ( स्वा.प.से.), शू (कर्म) २. धावू-निर्णिज् ( कर्म. ) । झड़प, सं. स्त्री. (अनु. ) कलहः २. क्रोधः ३. आवेशः । झड़बेरी, सं. स्त्री. (हिं. झाड़ + बेरी ), ( फल ) वन्यवदरम् ( वृक्ष ) भूवदरी, वन्यवदरः, शबराहारः । झड़ी, सं. स्त्री. (हिं. झड़ना ) सतत, क्षरणंपतनं २. सततवृष्टिः ( स्त्री. ) । झड़वाना, क्रि. स. ( झाड़ना ) शुभ मृज् ( प्रे.) २. अपवहू (प्रे.) ब. 'झाड़ना' के ( प्रे. ) रूप । झड़ाना, क्रि. स. ( झाड़ना ) दे. 'झड़वाना' । झपक, सं. स्त्री. (हिं. झपकना ) नेत्रनिमीलनं, पक्ष्मसंकोचः, निमेषः, तन्द्रा, ईषन्निद्रा २. पलं, क्षणः- णम् । झपकना, क्रि. स. (अनु. झपू ) निमील (स्वा. प.से.) नेत्रं संकुच् ( स्वा. प. से. ), निमिष् ( तु. प. से. ) । क्रि. अ., निमील, निमिष For Private And Personal Use Only Page #282 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir झपकाना [२४४] D झपेट, सं.स्त्री.. दे. 'झपट'। २. अल्पं निद्रा ( अ. प. अ.)-स्वप (अ. | सप्लाना, क्रि. अ. (हिं झल = क्रोध ) प्रकुप् प. अ.)। (दि.प.से.), कध (दि. प. अ.) कि.स., झपकाना, क्रि. स., दे. 'झपकना' क्रि. स.। । ब. उक्त धातुओं के प्रे. रूप। झपट, सं. स्त्री. ( हिं. झपटना) आच्छेदः शष, सं. पुं. (सं.) मत्स्यः , मीनः। आकस्मिकग्रहणं २. सहसाक्रमणं, आकस्मिकः -केतु, सं. पुं. (सं.) कामः, मारः, रतिप्रहारः। पतिः, मनोजः । झपटना, कि. स. अ. (सं. झंपः> ) आच्छिद् ! शाई, सं. स्त्री. (सं. छाया ) प्रतिबिम्ब:-बं, (रु. प. अ.), सहसा आ-कृष् ( भ्वा. प. अ.) प्रति, च्छाया-फलं-रूपं २. अंधकारः २. छलम् । २. आक्रम् ( दि. प. से.)। झांकना, क्रि. अ. (सं. झष अथवा अध्यक्ष) झपट्टा, सं. पुं.. जालमार्गेण दृश् ( भ्वा. प. अ.) २. निगूढं निरूप (चु.)। झबरा, वि. ( अनु. ) सघनकेश, लोमश, झांकी, सं. ली. ( हिं. झांकना ) ईषद् अभिदीर्घलोमन् । व्यक्तिः (स्त्री.) २. ईक्षणं, निरूपणं ३. दृश्यं सबरीला, वि., दे. 'झबरा। ४. गवाक्षः। झमक, सं. स्त्री. (हिं. चमक ) द्युतिः ( स्त्री.), झांझ, सं. स्त्री. ( अनु. झनझन ) झलक, आभा, कान्तिः (स्त्री.)। झलरी, कांस्यकरतालकम् । झमझम, सं. स्त्री. (अनु.) धारासारः, झाँझरी. सं. स्त्री., दे. 'झाँझ' तथा 'झोझन' । | झाँझन, सं. स्त्री. ( अतु. ) नूपुर:-रम् । धारापातः, झंझा २. झणत्कारः, झणझणशब्दः। | झांवां, सं. पुं. (सं. झामकम् ) दग्धेष्टका झमेला, सं. पु. ( अनु. झांव ) दे. 'झंझट'। २. क्रोधः ३. कुचेष्टा । झरना, क्रि. अ. (सं. झरणं > ) क्षर (भ्वा. प. झांसा, सं. पुं. (सं. अध्यासः> ) छलं, कपट, से.), सु (भ्वा. प. अ.), प्रपत् (भ्वा. प.से.)। प्रतारणा। सं. पुं., प्रपातः, स्रोतस (न.), निर्झरः, | -देना, झांसना, क्रि. स., वंच् (चु.), प्रत (प्रे.), छलयति ( ना. धा.)। उत्सः । झरोखा, सं. पुं. ( अनु. झरझर+हिं. गोखा)/झाऊ, सं. पुं. (सं. झावूः) पिचुल:, झावुः, गवाक्षः, वातायनम् । क्षुपभेदः। झलक, सं. स्त्री. ( सं. झलिका) आभा, धतिः झाग, सं. पुं. (हिं. गाज ) फेनः, डिंडीरः, (स्त्री.), प्रकाशः २. प्रतिबिम्ब:-बं, प्रतिच्छाया, अम्बुकफः, मंड:-डम् । प्रतिफलम् । झाड़, सं. पुं. (सं. झाट:> ) कंटगुल्मः म, झलकना, क्रि. अ. (हिं. झलक ) प्रकाश-विद्युत् | कंटस्तम्बः । ( झाड़ी स्त्री. )। (भ्वा. आ. से.) २. प्रतिफल ( भ्वा. प. से.)! -झंखाड़, सं. पुं., गोक्षुरः, शुष्कगुल्मः । संक्रान्त-प्रतिबिंबित-प्रतिफलित (वि.) भू, झंड, सं. पुं., गुल्मगहनं, निबिडस्तम्बः । प्रतिमा (अ. प. अ.)। -पोंछ, सं. स्त्री., मार्जनं, शोधनम् । झलकाना, क्रि. स., ब. 'झलकाना' के प्रे. रूप। -फानूस, सं. पुं., काचदीपिका । झलझलाना, क्रि. अ., दे. 'चमकना' क्रि. स., -फूक, सं. स्त्री. यंत्रमंत्रम् , मंत्रयोगः । दे. 'चमकाना'। झाइन, सं. पुं. ( हिं. झाड़ना) नक्तकः, झलझलाहट, सं. स्त्री., दे. 'चमक' । मानपटः। झलना, क्रि. स. (हिं झलझल ) वीज झाइना, क्रि. स. (हिं. झड़ना ) रेगुं अपमृज (चु.), व्यंजनं घूण (प्रे.)। (अ. प. वे.), निधूलीक। झलमलाना, क्रि. अ. (अनु. झलमल) सकम्पं -पोंछना, क्रि. स., प्रोछ ( भ्वा. प. से.)। प्रकाश (भ्वा. आ. से.)। झाड़ा, सं. पुं. (हिं. झाड़ना) वस्त्र-वसन-, शलवाना, क्रि.प्रे., ब. 'झलना' के प्रे. रूप। अन्वेषणा-निरीक्षा २. गूथ:-थ, मलं, पुरीषम् । For Private And Personal Use Only Page #283 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [२५] झाडू, सं. स्त्री. ( हिं. झाड़ना ) संमार्जनी, झुकना, क्रि. अ. ( सं. युज् > ) अव-, नम् शोधनी। (भ्वा. प. अ.), नम्रीभू २. वक्रीभू । -देना, क्रि. स., संमृज् (अ. प. वे.),शुध् (प्रे.)। झुकाना, क्रि. स. (हिं. झुकना ) नम् (प्रे.), झामा, सं. पुं. (सं. झामक) दग्धेष्टका । वक्री कृ। झालर, सं. स्त्री. ( सं. झलरी ) दशाः झुकवाना, क्रि. प्रे. (हिं. झुकना) दे. 'झुकाना'। (स्त्री. बहु.), वस्तयः (स्त्री.पुं.बहु.), वस्त्रप्रान्तः । | झुकाव, सं. पुं. (हिं. झुकना) प्रवणता, नतिः -दार, वि., झल्लरीयुक्त, प्रान्तोपेत । (बी.) २. वक्रता ३. प्रवृत्तिः (स्त्री.)। झिझक, सं. स्त्री. (हिं. झिझकना ) आशंका, झुकावट, सं. स्त्री. (हिं. झुकना ) दे. 'झुकाव । विकल्पः, सन्देहः। झुटपुटा, सं-पु. ( अनु. झुटपुट ) संधिकाला, झिझकना, क्रि. अ. (अनु.) आशंक-विकल्प अहोरात्रसंयोगसमयः, संध्या। ( भ्वा. प. से.), दोलायते-चिरायते (ना.धा.), ! झुटलाना,कि. स. (हिं. झूठ ) मिथ्यासंशी (अ. आ. से.)। झुठलाना, वादित्त्वं प्रमाणयति (ना. था.), झिड़क, सं. स्त्री. (हिं. झिड़कना) भत्सनं, झुठाना, निराक, प्रत्याख्या (अ. प. अ.) । आक्रोशः, अधिक्षेपः। झुठाई, सं. स्त्री. (हिं. झूठ) असत्यता, अनृतस्त्वं, झिड़कना, क्रि. स. (अनु. ) आकुश् ( भ्वा. अलीकता, मिथ्यात्वम् । प. अ.), अधिक्षिप् (तु. प. अ.), निर्भत्स् झुनझुन, सं-स्त्री. (अनु.) छणत्कारः, झणत्कारः, (चु. आ. से.)। झणझणध्वनिः (पु.)। झिड़की, सं. स्त्री. ( हिं. झिडकना । दे. झुनझुना, सं. पु. ( अनु.) झुणझुणकः । 'झिड़क' । झुनझुनी, सं. स्त्री. ( अनु.) झुणझुणी, अंगेषु झिलमिल, सं. स्त्री. ( अनु.) प्रकम्पमानः | जाड्यानुभूतिः (स्त्री.)। प्रकाशः। झुमका, सं. पुं. (हिं. झूमना) तालपत्रम् । झिल्ली', सं. स्त्री. (सं.) चिल्ली, झिरी, झिरिका, सुरमट, सं. पुं. (सं. झुंट:> ) समुदायः, झुरमुट, समूहः २. स्तम्बः, गुल्मः। झिल्लिका, भृङ्गारी। झिल्ली, सं. सी.(सं. चैलं >) सूक्ष्म त्वच (स्त्री.) झुरी, (हिं. झुरना) वली-लिः (बी.), चर्मसंकोचः २. पुटः, भंगः। चर्मन् ( न.) २. जरायुः, उल्बम् । झुलसना, क्रि. अ. (सं. ज्वलनं) ईषत् दहझींकना, झीखना, क्रि. अ. (हिं. खीजना) प्लुष् ( कर्म.)। अनुशुच् (भ्वा. प. से.), अनुतप् (दि. आ. अ.), झुलसाना, क्रि. स., ईषत् दइ (भ्वा. प. अ.), पश्चातापं कृ । सं. पुं., पश्चातापः, विप्रतीसारः, प्लुष (भ्वा. प. से.)। अनुतापः, अनुशयः। झुलाना, क्रि. स. (हिं झूलना) प्रेख् (प्रे.) झींगुर, सं. पुं. ( अनु.झी-झी) दे. 'झिल्ली (१) । इतस्ततः चल् (प्रे.)। झीना, वि, (सं.झीर्ण > ) सूक्ष्म, विरल, तनु। झील, सं. स्त्री. ( सं. क्षीरं> ) सरोवरः, जला सं. पुं. (सं. अयुक्तं ) असत्यं, अनृतं, शामलीकं, मिथ्यावचनं, असत्यभाषण। वि., शयः, सरसी, सरस (न.)। झल, मिथ्या-मृषा-(समासके आदिमें ) असत्य, झीवर, सं. पुं. (सं. धीवरः) नाविकः, मोडुपिकः अतथ्य, वितथ। २. कैवर्तः, मत्स्याजीवः। झूटा, वि. (हिं. झूट-ठ) मिथ्या असत्य, झुंझलाना, क्रि. अ. ( अनु.) कुप् (दि. प. से.), झूठा, J असत्यवादिन्-मिथ्यामाषिन् । क्रुथ् ( दि. प. अ.)। झम, सं. स्त्री. (हिं. झूमना) तन्द्रा, आलस्यं झुंझलाहट, सं. स्त्री. (हिं. झुंझलाना) कोपः, २. आन्दोलनं, खणम् । क्रोधः, रोषः, अमर्षः। | झूमना, क्रि. अ. (सं. झंपः )अथवा 'धूम'का झंट, सं. पुं. (सं.) अस्कन्धवृक्षः, अप्रकाण्डतः।। (अनु.) इतस्ततः चल (भ्वा. प.से.)। झुंड, सं. पुं. (सं. झुण्टः> ) समुदायः, समूहः, झूल, सं. स्त्री. (हिं. झूलना) कुथः--था, गणः, वृन्दा, कदम्बकम् । । प्रवेणी-णिः (स्त्री.), परिस्तोमः, सज्जना। For Private And Personal Use Only Page #284 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir झलना [२४६ ] टकोर झूलना, क्रि. अ. (सं. दोलन)दोलायते(ना.धा.), , झोका, सं. पुं. (हिं. झोंकना,) वायुवेगः, प्रख । भ्वा. प. से.)। पवनप्रहारः, वातगुल्मः। झूला, सं. पुं. ( सं. दोला-ल: लिका ) प्रेखा, झोपडा, सं. पुं. (हिं. छोपना ? ) उटजः-ज, हिंदोलः, आन्दोलः। कुटीरः-रं. कुटी, कुटीरकः, पर्णशाला । झेलना, क्रि. स. ( सं. क्ष्वेलनं > ) सह. (वा. झोल, सं. पु. ( हिं. झूलना) शैथिल्यं, संकोचः आ. से.), मृष (दि. उ. से.)। २. संवरणं, व्यवधानं ३. रअनं, लेपनम् । झोंकना, क्रि. स. (हिं. झुकना ) अग्नौ क्षिप् -फेरना, लिप् ( तु. उ. अ.), रंज (प्रे.)। (तु. उ. अ.) २. प्रेर (चु.) प्रणुद् (प्रे.)। झोला, सं. पुं. (हिं. झूलना) पुट:-टं, प्रसेवः.. झोंक देना, क्रि. स., दे. 'झोंकना' (२)। कोषः ( झोली स्त्री. = लघुपुटः इ.) । अ, देवनागरीवर्णमालाया दशमो व्यञ्जनवर्णः, । अकारः । ता ट, देवनागरीवर्णमालाया एकादशी व्यञ्जनवर्णः, टंटा, सं. पुं. ( अनु. टन टन ) उपद्रवः, कलहः टकारः। २. प्रपंचः, आडंबरः । टंक, सं. पुं. (सं.) ग्रावदारणः, पाषाणभेदनःटक, सं. स्त्री. (सं. टंक = बाँधना> ) अनिमेष२. व्रश्चनः, तक्षणी ३. परशुः, कुठारः बद्ध-स्थिर, दृष्टिः (स्त्री.)। ४. खड्गः ५.चतुर्माषकात्मकः चतुर्विशतिरक्ति- -बाँधना, मु., अनिमि(मे)पनयन (वि.) दृश् कात्मको वा तोलभेदः ६. क्रोधः ७. अमिमानः (भ्वा. प. अ.)। ८. जंघा ९. खनित्रं १०. कोषः, निधिः ! -लगाना, मु. प्रतीक्ष ( भ्वा. आ. से.)। ११. मुद्रा, नाणकम् । टकटकी, सं-स्त्री., दे. 'टक'। टॅकना, क्रि. अ. (सं. टंकणं) ब. 'टाँकना' के -बाँधना, मु., बद्ध-स्थिर , दृष्ट्या अवलोक कर्म. के रूप। टेकवाई, सं. स्त्री. (हिं. टंकवाना) -३. | टकराना, क्रि. अ. (हिं. टक्कर ) संघट्ट ( भ्वा. टंकन-सीवन-लेखन, भृत्या भृतिः (स्त्री.)। आ. से.), अभि-आ-प्रति, हन् (अ. प. अ.), टंकवाना, क्रि.प्रे., ब. 'टॉकना' के प्रे. रूप। अभि-सं-पत् ( भ्वा. प. से.) क्रि. स., उक्त टंका, सं. स्त्री. (सं.) जंघा, प्रसूता। धातुओं के प्रे. रूप। टॅकाई, सं. स्त्री. (हिं. टॉकना ) दे. 'टंकवाई। टकसाल, सं. स्त्री. ( सं. टंकशाला ), मुद्रांकणटॅकाना, कि. प्रे., दे. 'टंकवाना'। शाला। टंकार, सं. स्त्री. (सं. पुं.) ज्या-मौवों, घोषः- टकसाली-लिया, सं. पुं. (हिं. टकसाल ) टंक, शन्दः, शिंजिनीशिंजितं २. टणत्कारः, रणितिः अध्यक्षः पतिः (पुं.), नैष्किकः । वि., टंक३. झण-झण,रणितं-निनदः । शालासंबन्धिन् २. शुद्ध, निर्दोष ३. सर्वसम्मत टंकारना, क्रि. स. ( सं. टंकारः> ) ज्यां धुष ४. प्रामाणिक, परीक्षित । (चु.), मौवी आस्फल (प्रे.) टंकारयति टका, सं. पुं. (सं. टंक:> ) अर्धाणी, पणयुगलं (ना.धा.)। । २. रूप्यं-प्यकं, कार्षिकः, टंकः ३. धनम् । टंकी, सं. स्त्री. ( अं. टैंक) तोयाधारः, वापिका -सा जवाब देना, मु., झटिति नि-प्रति-षिध २. द्रोणी-णिः (स्त्री.)। । (भ्वा. प. से.) प्रत्याख्या ( भ. प. अ.)। टंग, सं. पुं. (सं. पुं. न.) ग्रावदारणः, पाषाण- -सा मुँह लेकर रह जाना, मु., त्रप् ( भ्वा. भेदनः २. परशुः ३. चतुर्माशात्मकः तोलभेदः मा. से.), लज्ज (तु. आ. से.)। ४.दे. 'रांग' । टकोर, सं. स्त्री. (सं. टङ्कारः) दे. 'टङ्कार' (२), टंगना, क्रि. भ., दे. 'लटकना। । २. आषातः, प्रहारः ३. पटइप्रहारः ४. दुंदुभि For Private And Personal Use Only Page #285 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir टकोरना पटह, ध्वनि: (पुं. ) ५. प्र., स्वेदनं, ( उष्णजलादिना ) सेकः । कोरना, क्रि. स. (हिं. टकोर ) भेरीं आइन् ( अ. अ. प. अ. ) २. प्रहृ ( स्वा. प. अ. ) ३. ( उष्णजलादिभिः ) सिच् ( तु. प. अ. ), लिप् (तु. प. अ. ), प्र, स्विद् ( प्रे. ) । टक्कर, सं. स्त्री. (अनु. टक) संघट्टः, संमर्दः, समा- प्रति, घातः २. विग्रहः, संग्रामः, संप्रहारः ३. हानिः (स्त्री.) ४. मस्तक- शीर्ष, आघातः । [ २४७ ] -का, मु., सम, समान, तुल्य । - खाना, मु., दे. 'टकराना' क्रि. अ. । - मारना, मु. ब. 'टकराना' के प्रे. रूप २. विरुध् (रु. उ. अ. ) ३. यत् (भ्वा. आ. से. ) । = दखना, सं. पुं. (सं. टंक: - टांग > ) गुल्फः, घुटिकः, घुटी, घुण्टः, खुडकः । टटोल, सं. स्त्री. (हिं. टटोलना ) स्पर्शः, सम्पर्कः, परामर्शः, स्पर्शजो बोधः । टटोलना, क्रि. स. (सं. त्वक् + तोलनं > ) स्पर्शेन परीक्ष ( म्वा. आ. से. ) निरूप ( चु. ), स्पृश्-परामृश् (तु. प. अ.) २. अंधकारे अन्विष् ( दि. प. से. ) निरूप- परामृश् । टट्टी, सं. स्त्री. (सं. स्थात्री ?) ( वंशतृणादिरचित ) कपा( वा ) ट: - टं-टी, २. प्रतिसीरा, तिरस्करिणी ३. सूक्ष्ममिति (स्त्री.) ४. शौच कूपं, मलालय: ५. मलं, उच्चारः । - जाना, मु., पुरीषोत्सर्गाय गम् । -की आड़ (या. ओट) से शिकार खेलना, मु., प्रच्छन्नं प्रह (भ्त्रा. प. अ. ), निभृतं पापमाचर (भ्वा. प. से . ) । टट्टू, सं. पुं. (अनु. ) क्षुद्रघोटक: अश्वशावकः । टन, सं. पुं. (अनु. ) घंटाध्वनिः (पुं.), रणत्कार:, टणिति । - टन, सं. पुं., टणटण, निनदः रणितं, टणटणत्कार ः कृतिः (स्त्री.)। टन, सं. पुं. (अं.) अष्टाविंशतिमणकल्प:, तोलभेदः, *टनम् । टनकना, कि. अ. (अनु.) टणटणायते ( ना. धा. ), टणत्कारं कृ २. घर्मेण शिरः पीड् ( कर्म. ) । टनटनाना, क्रि. स. (अनु.) घंटां नद्-बद् ( प्रे.)। क्रि. अ., दे. 'टनकना' । टर सं. स्त्री. (अनु. ) निरन्तरः टणटण टनाटन, त्कारः । टप, सं. पुं. (हिं. तोपना = ढांकना ) प्रवहणादीनाम् आच्छादनं आवरणं-छत्रम् । टप, सं. पुं. ( अं. टब ) द्रोणी - णि: (स्त्री.) । टप, सं. स्त्री. (अनु.) बिंदुपातध्वनिः (पुं.), टप् इति शब्दः । - से, मु. झटिति, आशु, शीघ्रम् । सं. स्त्री. दे. 'टपकाव' । टपक, टपकना, क्रि. अ. (अनु. टप ) कणशः- बिंदुक्रमेण क्षर - गल (भ्वा. प. से. ) - स्रु ( स्वा. प. अ. ) - स्यन्द् (भ्वा. आ. से. ) २. ( फलादि ) झटिति नि-अव-पत् (भ्वा. प. से. ) ३. परिनु, क्षर ४. दे. 'टीसना' । टपका, सं. पुं.. (हिं. टपकना ) स्वयं पतितं पक्कफलम् । टपकी, सं. स्त्री. शीकर, वर्षः पातः २. सतत फलपातः । ( कणशः ) टपकाना, क्रि. स. ब. 'टपकना' के प्रे. रूप । टपकाव, सं. पुं. (हि. टपकना क्षरणं गलनं स्यन्दनं स्रावः । टपना, कि, अ., दे. 'कूदना' । टपाटप, क्रि. वि. (अनु.) सततं निरंतरं, अविरतम् । टप्पा, सं. पुं. (अनु. ) प्लवः, प्लवनं, प्लुतं-तिः (स्त्री.), झंपः-पा २. गीतिकाभेदः । -खाना, क्रि. अ., उत्पत् (भ्वा. प. से. ), उत्प्लु (भ्वा. आ. अ. ) । टब, सं. पुं. ( अं. ) दे. 'टप । टब्बर, सं. पुं., दे. 'कुटुम्ब' । टमकी, सं. स्त्री. (अनु० टमक ) डिंडिमः, लघुपटहः । टमटम, सं. स्त्री. ( अं. टैंडम ) अश्वयानभेदः, *टमटमम् । टमाटर, सं. पुं. ( अं. टमैटो ) आंग्लीय-रक्त, वृन्ताकम् । टर, सं. स्त्री. (अनु.) टरशब्दः, अप्रिय - कर्कशकर्णक, शब्दः २. भेकरवः ३. दर्पोक्तिः (स्त्री.) ४. दुराग्रहः, प्रतीपता ५. तुच्छवचनम् । -टर, सं. स्त्री, वृथालाप:, प्र-, जल्पः पितं २. भेकरुतम् । -टर करना, क्रि. अ., दे. 'टरटराना' । For Private And Personal Use Only Page #286 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra टरकना www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [ २४८ ] टरकना, क्रि. अ., दे. 'टलना' तथा 'टरटराना' | टरकाना, क्रि. सं., दे. 'टालना' । दर्शना, क्रि. अ. (अनु. टर ) साभिमानं _वद् (भ्वा.प.से.) धार्ष्टयेन ब्रू ( अ. उ. से.), कटु वदू । टरटराना, क्रि. अ. ( अनु. टरटर ) प्रलप्प्रजल्पू ( भ्वा. प. से. ) २. अविनयेन त्र ( अ. उ. से. ) टरटरायते ( ना. धा. ) । टर्रा, वि. (अनु. टरटर) वावदूक, वाचाल इ. टाँक, सं. स्त्री. (हिं. टाँकना ) लेखः, लिखनं, २. धृष्ट, निवड । लिपि: ( श्री. ) २. दे. 'निब' । टाँक े, सं. स्त्री. (सं. टंकः ) चतुर्माषकात्नकः तोलभेदः २. अर्धगणना, मूल्यनिरूपणम् । रहना, क्रि. अ. (सं. टलनं > ) विचल (भ्वा. प. से. ), अपस (भ्वा. प. अ.) २. स्थानान्तरं या ( अ. प. अ. ). प्रस्था ( भ्वा. आ. अ. ) ३. वि-,नश् ( दि. प. वे.), लुप् ( दि. प. अ. ) ४. व्याक्षिप् ( कर्म. ), विलंबू (भ्वा. आ. से. ) ५. अन्यथा भू ६. ( समयः ) व्यतिइ ( अ. प. अ. ), गम् । टस, सं. श्री. (अनु.) गुरुद्रव्यसरणशब्दः, टस् इति शब्दः । - से मस न होना, मु., ईषदपि न विचल । टसक, सं. श्री. (हिं. टसकना) दे. 'टीस' । क्रि. अ. (हिं. टस ) अप, गम्-स टसकना, ( स्वा. प. अ. ), अपया ( अ. प. अ.) २. दे. 'टीसना' । टसकाना, क्रि. स., ब. 'टसकना' के प्रे. रूप । टसर, सं. पुं. ( सं. त्रसरः > ) क्षौमभेदः, *टसरम् । टसर-मसर, सं. पुं. (हिं. टस + मस) विलंब:, व्याक्षेपः । टहलुआ-वा, टहल, स. पुं., दे. 'नौकर' । टहलुई, सं. श्री. दे. 'नौकरानी' । " रहना, सं. पुं. (सं. तनुः > ) विटप, शाखा | टहनी, सं. स्त्री. (हिं. टहना) तनु-सूक्ष्म, 'विटपः शाखा । टहल, सं. श्री. दे. 'सेवा' । टहलना, क्रि. अ. (सं. तत् + चलनं १ ) परि,'अट्-भ्रम् (भ्वा. प. से. ), विह्न (भ्वा. प. अ.), इतस्ततः चर ( भ्वा. प. से.), परिक्रम् (भ्वा. प. से; वा. अ. अ. ) । टहलनी, सं. श्री. दे. 'नौकरानी' । टहलाना, क्रि. स. म. 'टहलना' के प्रे. रूप । टाइप टोकना, क्रि. स. (सं. टंकनं ) टँक् ( स्वा. प. से; चु. ), कीलादिभिः संघा ( जु. उ. अ. )संयुज् (रु. उ. अ.) २. सिव् ( दि. प. से.), बे ( भवा. उ. अ. ) ३. पादुकाः संधा ४. संश्लिष् ( प्रे.) संयुज ५. पंजिकादिषु लिख (तु. प. से.) ६. शिलादीनि दंतुरयति ( ना. धा. ) । २. टाँका, सं. पुं. (हिं. टॉकना) संधायक संयोजक, -कील:- शंकुः भागः ३ सी ( से ४. पट- वस्त्र, खंडः सी ( से ) वन, अंश:) वनं स्यूतिः (स्त्री.) ५. टंकन, संधायक, धातुः ६. व्रणसेवनम् । टोंकी, सं. श्री. (सं. टंक: ) तक्षणी, त्रश्वनः २. खबूजादिषु कृतं छिद्रं ३. दे. 'टाँका' । टांग, सं. की. (सं. टंगा ) टंक:-कं-का, जंघा, प्रसृता, पादः । गना, क्रि. स., दे, 'लटकाना' । टसुआ, सं. पुं. (हिं. अँसुआ ) मिथ्याबु (न.), टांगा, सं. पुं. (हिं. टँगना ) अश्ववाइनभेदः । वितथापः । टांगी, सं. स्त्री. दे. 'कुल्हाड़ी' । टाँच, सं. स्त्री. (हिं. टाँकी ) कार्यबाधक, उक्ति, (स्त्री.) - कथनम् । चना, क्रि. स., दे. 'टाँकना' । - भड़ाना, मु., परकार्याणि चैच् (तु. प. से; चु. आ. से. ) - निरूप ( चु. ) । - तले से निकलना, मु., स्वपराजयं स्वीकृ । -पसार कर सोना, मु., निःशंक-निर्भयं स्वप् ( अ. प. अ. )-शे ( अ. आ. से. ) २. सानन्दं जीवनं या (प्र.) । टाँड, सं. श्री. [सं. स्थाणु: ( पुं. ) > ] मंच: २. दे. 'परछत' । टॉयटॉय, सं. स्त्री. (अनु.) कर्कश कट्ट, -शब्द:ध्वनि : (पुं.) २. प्रलापः, प्रजल्पः । -- फिस, मु., निष्फलः आडंबरः, व्यर्थः प्रयासः । टाइप, सं. g. (f.) मुद्राक्षरं २. टंकणयन्त्रम् । For Private And Personal Use Only Page #287 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir टाइफस बुखार टिब्बा टाइफस बुखार, सं. पुं. ( अं + अ. ) मोहज्वरः, २. विरम् (भ्वा. प. अ. ), अवस्था ( भवा. आ. अ. ) । *यूकाज्वरः । टाट, सं. पुं. (सं. तंतुः > ) शाण, पटः वस्त्रं, टिकली, सं. स्त्री. (हिं. टीका ) धातुतारा, शाणं, वराशि:- सि: (पुं.)। चक्रकम् । टाप, सं. स्त्री. (अनु.) अश्व, खुरः क्षुरः-शफः- टिकस, सं. पुं. ( अं. टैक्स) करः, राजस्वं, शफम् २. अश्वपादशब्दः । शुल्क:- कं, बलि: (पुं. ) । टिकस, सं. पुं., दे. 'टिकट' । टापना, क्रि. अ. (हिं. टाप ) खुरेण अभिइन् (अ. प. अ. ) --विलिख् (तु. प. से.) २. अधीर व्यग्र (वि.) भू ३. व्यर्थ परिभ्रम् ( स्वा. प. से. ) ४. दे. 'कूदना' । टिकाऊ, वि. (हिं. टिकना ) चिर, स्थायिन् दृढ, ध्रुव, स्थिर, अक्षय । टापू, सं. पुं., दे. 'दीप' । टिकाना, क्रि. स. ब. टिकना' के प्रे. रूप । टिकाव, सं. पुं. (हिं. टिकना) स्थिरता, चिरस्थायिता २ स्थितिः (स्त्री.), विरामः ३. दे. 'पड़ाव' । टारना, क्रि. स., दे. 'टालना' । टारपीडो, सं. पुं. ( अं. ) अन्तर्जलाग्निनालिका, अस्त्रभेदः, *तारपीडुः । टिकिया, सं. स्त्री. (सं. बटिका ) चक्रिका, वटी, २. अपूपः, पूपः पिष्टकः । टिकुली, सं. स्त्री. दे. 'टिकली' । टार्च, सं. स्त्री. (अं.) वियुज्झिङ्गिनी । टाल', सं. स्त्री. ( सं . अट्ठालः > ) चयः, राशिः (पुं.), उत्किरः, चितिः (श्री. ) २. (काष्ठादीनां ) बृहद् आपण:- विपणिः (श्री. ) । टाल े, सं. श्री. (हिं. टालना ) अप-व्यप, देशः, छलेन परिहरणं, निह्नवः । टूल, - मटा (टू, टोल, [ २४९ ] पूपः। टिक्का, सं. पुं. (देश. ) दे. 'टीका' । } सं. स्त्री, अप-नि,-इवः, टिक्की, सं. स्त्री. दे. 'टिकिया। अपव्यपदेशः, बिलंबः, व्याक्षेपः । — करना, क्रि. अ., अतिपत् (प्रे.), विलंबू ( तु. प. अ. ) व्याक्षिप् (तु. प. अ.) । टालना, क्रि. स. (हिं. टलना ) वक्रोक्तथाशास्येन परिह्न (भ्वा. प. अ. ), अप-व्यप्, दिशू ( तु. प. अ.), अप-नि-हु ( अ. आ. अ. ) २. ब. 'टलना' ( १-६ ) के प्र. रूप । टायर, सं. पुं. (अं. ) ( चक्र - ) वलयः-यम् । टिंचर, सं. पुं. (अं. टिंकचर ) कषायः, निर्यासः, फांटः । पत्रकम् । टिकटिकी', सं. स्त्री. दे. 'टकटकी' । टिकटिकी, सं. स्त्री. दे. 'टिकठी' । टिंडा, सं. पुं. (सं. टिंडिश: ) रोमशफल:, तिंदिशः, डिंडिश: । टिकट, सं. पुं. ( अं.) अनुज्ञा-निर्देश प्रवेश, टिकठी, सं. स्त्री. (हिं. तीन + काठ ) त्रिकाष्ठी, २. त्रिपादी । टिकैत, सं. पुं. (हिं. टीका ) दे. 'युवराज' । टिक्कड़, सं. पुं. (हिं. टिकिया ) स्थूल- बृहत् टिकना, क्रि. अ. (सं. स्थित + कृ > ) वस्-स्था (भ्वा. प. अ.), वृष ( वा. भा. से. ) > टिघलना, क्रि. अ., दे. 'पिघलना' । टिचन, वि. ( अं. अटेन्शन ) सज्ज, सन्नद्ध, उद्युक्त २. सिद्ध उपक्लप्त, आयोजित । टिटकारना, क्रि. स. (अनु. ) ( अश्वादीन् ) सटिकटिकशब्द प्रोत्सह-प्रणुद (प्रे.) । टिटिह, हा, हरा, सं. पुं. (सं. टिट्टिभः ) टिट्टिभकः, टीटिभकः, टिटिभः । टिटिहरी, सं. स्त्री. (हिं. टिटिहरा ) टिटि (ट्टि) - मी, टिट्टिभकी। टिड्डा, सं. पुं. ( सं. टिट्टिभ: > ) शर (ल)भः, पतंगः | टिड्डी, सं. स्त्री. (हिं. टिड्डा ) शिरि: (पुं.), शर (ल)मः । दल, मु., विपुलवृंदं, असंख्य समूहः । टिपटिप, सं. स्त्री. ( अनु. ) बिंदुपातध्वनिः (पुं.), टिपटिपशब्दः । टिप्पणी-नी, सं. स्त्री. (सं.) टीका, भाष्यं, वृति: ( श्री. ), व्याख्या । टिप्पस, सं. स्त्री. ( देश. ) उपायः, युक्तिः ( बी. ) । टिब्बा, सं. पुं., दे. 'टीला' । For Private And Personal Use Only Page #288 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir टिमटिमाना [२५० ] टूटना टिमटिमाना, क्रि. अ. (सं. तिम्-ठंडा होना>) प. से. ) ३. शनैः प्रह (भ्वा. प. अ.) ४. उच्चैः स्फुर् (तु. प. से.) तरलं-मंद-सकंपं दीप गै ( भ्वा. प. अ.)। (दि. आ. से.) द्युत्-प्रकाश ( भ्वा. आ. से.) टीम, सं. स्त्री. (सं.) क्रीडकसंघः २. गणः, वर्गः। प्रभा ( अ. प. अ.) २. आसन्नमृत्यु (वि.) टीमटाम, सं. स्त्री. ( देश.) दे. 'टीपटाप' । वृत् ( भ्वा. भा. से.)। टीरा, सं. पुं. (सं. टेरः) टेरकः, केकरः, केदरः, टिमटिमाहट, सं. स्त्री. (हिं. टिमटिमाना) टगरः, वलिरः। तरल, प्रभा, ज्योतिस ( न.), स्फुरणं-रितम् । टीला, सं. पुं. (सं. अष्ठीला> ) उन्नतभूभागः टीका', सं.पं. (सं. तिलकः-क) चित्रकं, विशे- २. क्षुद्रपर्वतः ३. मृत्तिकाचयः, वल्मीकः-कम् । षक: कं, पुण्डः-डकः, तमालपत्रं २. तिलकं, | टीस, सं. स्त्री. ( अनु.) विध्यद्-स्फुरद , व्यथा औद्वाहिकरीतिविशेषः ३. अन्तः,-स्रावणं-प्रवे| वेदना यातना। शनं ४. (रोगनिवारणाय ) रोगद्रव्यनिवेशनं टीसना, क्रि. अ., (हि. टीस) मुहुर्मुहुः व्यथ ५. गव्यद्रव्यसंक्रामणं ६. प्रधानः, मुख्यः , ( भ्वा. आ. से.), सस्पंदं पीड् ( कर्म.)। ७. युवराजः ८. राजत्व,-चिह-लक्षणं टुंच, वि., दे. 'टुच्चा' । ९. राज्य-,अभिषेकः १०. बिंदुः (पुं.), लान्छनं, टुंड, सं. पुं. (सं. तुंडं >) छिन्नो हस्तः २. छिन्नचिह्नम् ११. ललाटिका, मस्तकभूषणभेदः। । शाखः तरुः, स्थाणु (पुं. न.), ध्रुवः, शंकुः -करना, क्रि. स., (रोगनिवारणार्थ ) रोगद्रव्यं | (पुं.)। निविश-संक्रम् (प्रे.) २. गव्यद्रव्यं निविश्- | टुंडा, वि. ( हिं. टुंड ) अहस्त, छिन्नहस्त संक्रम् (प्रे)। २. शाखाहीन ३. एकथंग । -करनेवाला, सं. पुं, गव्य-रोग-द्रव्य- | टुंडी, सं. स्त्री. [सं. तुंडिः ( स्त्री.) ], नाभिः निवेशकः। (स्त्री.)। -भेजना, क्रि. स., औद्वाहिकोपहारान् प्रेष टुक, क्रि. वि. (सं. स्तोक) क्षणं, कंचित्कालम् । वि., किंचित् , अल्प, क्षुद्र । -लगाना, क्रि. स., तिलकं क अथवा विधा | टुकड़ा, सं. पुं. (हिं. टुक) खंडः-डं, शकल:(जु. उ. अ.)। लं, लवः, वि-,भागः, अंशः,वि., दलं २.ग्रासः, टीका', सं. स्त्री. (सं.) व्याख्या, वृत्तिः (स्त्री.), | कवलः, पिंडः । भाष्यं, टिप्पणी-नी। | टुकड़े करना, क्रि. स., भंज ( रु. प. अ.), -कार, सं. पुं. (सं.) टीका-भाष्य-व्याख्या- खंड् ( चु.), शकली कृ २. विच्छिद्-विभिद् वृत्तिः , कार:-कृत् (पुं.)। (रु. प. अ.), विभज् ( भ्वा. उ. अ.)। टीन, सं. पु. ( अं. टिन ) रंग, वंगं, कस्तीरं, त्रपु टुकड़े-टुकड़े करना, मु., चूर्ण (चु.), खंडशः (न.) रंगलिप्त लोहतनुफलकम् । मंज , मृद् ( क्र. प. से.)। टीप, सं. स्त्री. (हिं. टीपना), (हस्तेन ) आपी. टुकड़े माँगना, मु., भिक्ष (भ्वा. आ. से.), डनं २. शनैःप्रहरणं ३. इष्टकासंधिषु सुधापति- | मिक्षां याच् ( भ्वा. आ. से.)। रेखाः ४. ( समय-) लेखः-पत्रं ५. जन्म,-पत्रं- टुकड़ी, सं. स्त्री. (हिं. टुकड़ा ) दे. 'टुकड़ा (१) पत्रिका। २. समूहः, गणः ३. सैन्यदलं, गुल्मः-मम् । -करना, क्रि. स., इष्टकादिसंधिपु सुधां पर । टुच्चा, वि. (सं. तुच्छ ) क्षुद्र, नीच, हीनजाति । (चु.)। टुटपुंजिया, वि. ( हिं. टूटी+पूंजी) परि-टाप, सं. स्त्री., आडंबरः वैभवं २. संस्कारः, | क्षीण, निर्धन, अल्प, धन-मूल, दरिद्र । परिष्कारः, भूषा, अलंकरणम् । हूँडी, सं. स्त्री., दे. 'टुंडी'। -टाप करना, कि. स., अलं-परिष , कृ, मंड | टूक-का, स. पु., दे. 'टुकड़ा'। (चु.)। | टूटना, क्रि. अ. ( सं. त्रुट ) दृ-भंज-मिद् टीपना, क्रि. स. (सं. टेपनं = फेंकना ) आपीड | (कर्म.), बुट् (दि. तथा तु. प. से.), दल (चु.), संकोच (म्वा. प. से.) २. लिख (तु. ( भ्वा. प. से. ), स्फुट (तु. प. से.) For Private And Personal Use Only Page #289 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir टूटनेवाला [२५१] देवा विदीर्ण। २.विरम् ( भ्वा. प. अ.), विच्छिद् ( कर्म.), आकुचित, विषम, तिर्यच २. कठिन, दुष्कर निवृत् ( भ्वा. आ. से. ) ३. वियुज् ( कर्म.), ३. उद्धत, अशिष्ट, दुःशील । पृथक भू ४. निर्बली-भू ५. दरिद्र (वि.) -करना, क्रि. स., आवृज (चु.), वक्री-कुटिली. जन् ( दि. आ. मे. ) ६. आक्रम् ( भ्वा. कृ, अव-आ-,नम् [प्रे. न(ना)मयति ], प. से.), अभिद्रु ( भ्वा. प. अ.) । सं. पुं., आ-वि: भुज ( तु. प. से)। भंजनं, भंगः; विरामः, विच्छेदः, निवृत्तिः -मेढा, वि., वक्र, कदाकार, कुटिल । (स्त्री.)। -होना, मु., कुद्ध-रुष्ट (वि.) भू। टूटनेवाला, सं. पुं., भिदुर, भंगुर, सुभंग। | टेढ़ापन, सं. पु. ( हिं. टेढ़ा ) कुटिलता, टूटा, वि., भग्न, दीर्ण, त्रुटित, स्फुटित; विच्छिन्न, जिह्मता, वक्रता, अरालता इ. । निवृत्त इ.। टेढ़ी, वि. स्त्री. ( हि. टेढ़ा ) वक्रा, कुटिला, --फूटा, वि., शकली-खंडशः, कृत, खंडित, । जिह्मा इ.। -खीर, मु., दुष्कर कार्यम् । टूर्नामेट, सं. स्त्री. ( अं. ) पुरस्कारान्विता -चितवन, मु., कटाक्षः, साचिविलोकितं, क्रीडा-खेला, क्रीडाप्रतियोगिता । अपांगाष्टिः (स्त्री.)। ट्रल, सं. पं. ( अं.) उपकरणं, साधनम्। टेढ़े, क्रि. वि. (हिं. टेढा ) तिरः, तिर्यक , टेंट-टी, सं. स्त्री. ( देश. ) शाटीपुट:-टं शाटिका- वक्र साचि ( सब अव्य.)। व्यावृत्तिः ( स्त्री.) २. दे. 'करील' ( वृक्ष | टेना, क्रि. स. ( देश.), दे. 'सान देना' २. दे. तथा फल)। 'मूंछ पर ताव देना। टेंटुआ, सं. पुं.(देश.)श्वासनालिका, कंठः, गलः । टेनिस, सं. सं. ( अं.) कंदुकक्रीडाभेदः । टेंट, सं. स्त्री. ( अनु.) शुकशब्दः, कीररावः, टेब(बु)ल, सं. पुं. (अं.) पादफलकः-कम् । टेंट इति ध्वनिः (पु.) २. प्रलापः, व्यर्थ- -क्लाथ, सं. पुं. ( अं.) पादफलक, वसनं, आवचनम् । । च्छादनम् । -करना, निर्विवेक भाष् ( भ्वा. आ. से.), टेर, सं. स्त्री. (सं. तारः) तारध्वनिः, उच्चजल्प ( भ्वा. प. से.)। स्वरः २. आह्वानं, संबोधनं, आह्वानशब्दः। टेंप्रेचर, सं. पुं. ( अं.) तापः, ऊष्मन् (पुं.)। टेरना, क्रि. स. (हिं. टेर) उच्चैः गै ( भ्वा. टेक, सं. स्त्री. ( हि. टिकना) स्थूणा, उपस्तंभः, | प. अ.) २. आकृ (प्रे.), आहे ( भ्वा. उत्तंभः, अवष्टंभः, उपनः २. आश्रयः, अव प. अ.)। लंबः ३. वेदी ४. आग्रहः, अभिनिवेशः टेराकोटा, सं. पुं. ( अं.) पक्कमृन्मूर्तिः (स्त्री.), ५. क्षुद्रपर्वतः ६. प्रतिज्ञा ७. स्थायिन् (संगीत) तप्तमृत्प्रतिमा २. पक्क-तप्त, मृत्तिका-मृद् ८. अभ्यासः, नित्यव्यवहारः। (स्त्री.)। टेकन, सं. पुं., दे. 'टेक' १. २. । | टेलीग्राम, सं. पुं. (अं.) तड़ित्-विद्युत्,-संदेशः। टेकना, क्रि. स. (हिं. टेक ) अव-आ,-लंब (म्वा. टेलीपैथी, सं. स्त्री. ( अं.) अन्यचित्त ज्ञानम् , आ. से.), अवष्टंभ (क्र. प. से.), धृ ( भ्वा. माव-विचार, संक्रान्तिः (स्त्री.)। प. अ; चु.)। माथा-, क्रि.स., प्रणम् (भ्वा. प. अ.), पादयोः | टेलीप्रिटर, सं. पुं. (अं.) दूरमुद्रकम् । पत् ( भ्वा. प. से.), वंद् (भ्वा. आ. से.)। टेलीफ़ोटोग्राफी, सं. स्त्री. (सं.) *दूरच्छायाटेकी, वि. ( हिं. टेक ) सत्यसन्ध, दृढप्रतिश चित्रणम् । २. आग्रहिन् , अभिनिवेशिन् । टेलीफोन, पुं. पुं. (अं.) दूरभाष-ध्वनम् । टेटेनस, सं. पुं. ( अं.) धनुर्वातः, प्रतानः (भयं- टेलीविज़न, सं. पु. ( अं.) *दूरदर्शनम् । कररोगः)। टेलीस्कोप, सं. पुं. (अं.) दे. 'दूरबीन' । टेढ़ा, वि. (सं. तिरस > ) अराल, कुटिल, देव, सं. स्त्री. ( हिं. टेक ) दे. 'आदत' । जिह्म, वक्र, आ.,न( ना )मित, आभुम, न्युज, । टेवा, सं. पुं. (सं. टिप्पनं> ) जन्मपत्रिका । For Private And Personal Use Only Page #290 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir टेसू [ २५२ ] ठंढा टेसू , सं. पुं. ( हि. केसू ) किंशुकः, पलाशः, | टोडी, सं. स्त्री. ( सं. त्रोटकी ) रागिणीभेदः । रक्तपुष्पकः, यशियः २. किंशुककुसुमम् । टोडी, सं. पुं. ( अं.) श्ववृत्तिः, चाटुपटुः, प्रजाटेस्टटयूब, सं. स्त्री. ( अं.) परीक्षणनालिका। स्वदेश, शत्रुः द्रोहिन । टोटी, सं. स्त्री. (सं. तुंडं> ) नाली, नालिका। टोना, सं. पं. (सं. तंत्रं ) अभिचार, मंत्रः, टोक, सं. स्त्री. (हिं. 'रोक' का अनु.) अंतराय- अभिचारः; कुहक, वशक्रिया, मोहः, योगः उपरोध-विघ्न, वचनं वाक्यं २. कुदृष्टिः (स्त्री.) २. गीतिभेदः । ३. कुदृष्टिप्रभावः। टोनेवाज़, सं. पुं., कुहकः, अमिचारिन् , -टाक या टोका टाकी, सं. स्त्री., निषेध- | कौसृतिकः। पृच्छा-व्याघात, बचनानि (न.बहु.)। टोप, सं. पं. (हिं. तोपना = ढाँकना) *टोपं, टोकना, क्रि. स. (हिं. टोक ), नि-विनि, | आंग्लीय-गुरुंड, शिरस्क २. शिरस्त्राणं । (प्रे.), अव-नि-प्रति-, रुध (क. प. अ.), ___३. कोशः-षः, वेष्टनम् । (प्रश्नैः) बाध् ( भ्वा. आ. से. -निषिध् ! टोपी, सं. स्त्री. ( हिं. टोप ) । शीर्षण्यं, शिरस्क. (भ्वा.प.से.)। टोपी। टोकनेवाला, सं. पुं., विघ्नकरः, निवारकः, | 'प्रतिबंधकः। टोला, सं. पुं. (सं. प्रतोलिका ) नगर-पुर, टोकरा, सं. पुं.( विभागः २. वर्गः, गणः । ?) कंडोलः, टोली, सं. स्त्री. ( हिं. टोला ) गणः, संघः, वर्गः, करंडः। टोकरी, सं. स्त्री. (हिं. टोकरा) करंडी, समूहः । कंडोलकः। टोह, सं. स्त्री., दे. 'खोज'। टोटका, सं. पुं. (सं. त्रोटकः> ) गारुडं, मंत्रः | टोहना, क्रि.स., दे. 'खोजना' तथा 'टटोलना'। २. रक्षाकरंडः। ट्रॅक, सं. पुं. (अं.) लौह-आयस,-पिटक-पेटिकाटोटल, सं. पुं. (अं.) योगः, पिंडः, संकलः, समुद्गकः । परिसंख्या। | ट्राम, सं. स्त्री. (सं.) विधुच्छकटिका, ट्रामाख्यं टोटा, सं. पुं. (हिं. टूटना) हानिः-क्षतिः। यानम् ।। (बी.) २. अभावः, न्यूनता ३. खंडः-, ट्रेडमार्क, सं. पुं. ( अं.) पण्यमुद्रा। शकल-लम्। ट्रेन, सं. स्त्री. ( अं. ) वाष्पशकटी। ठ, देवनागरीवर्णमालाया द्वादशो व्यंजनवर्णः, . तुष्-प्रसद्-प्रशम् (प्रे.), सांत्व (चु.) टकारः। २. निर्वा (प्रे. निर्वापयति)। ठंठ, वि., दे. 'ढूँठ'। -होना, क्रि. अ., शीती शीतली-भू, शीतलाठंड-ढ, सं. स्त्री. (हिं. ठंढा ) शीतं, शीतता, यते ( ना. धा.)। मु., दे. 'मरना' । शैत्यं, हिमं, हिमता, शीतलता। ठंड(ढ)क, सं. स्त्री. (हिं. ठंढा ) दे. 'ठंड' | | ठंढी सांस, सं. स्त्री., दीर्घ, श्वासः-निश्वासः, २. तृप्तिः (स्त्री.), संतोषः ३. उपद्रव-रोग, नि(निः)श्वासः, उच्छवासः । शांतिः (स्त्री.)। -पड़ना, मु., उप-प्र-शम् ( दि. प. से.), हस् ठंढा, वि. ( सं. स्तब्ध ) शीत, शीतल, उष्णता (भ्वा. प. से.), क्षि ( कर्म.)। रहित, आद्र, हिम, शिशिर २. धीर, प्रशांत कलेजा-होना, मु., वैर, निर्यातनं-साधनं३. तृप्त, संतुष्ट ४. मृत, दिवंगत ५. निर्वाण, शुद्धिः (खी.) जन् ( दि. आ. से.) २. प्रसद् निवापित । (भ्वा. प. अ.)। -करना, क्रि. स., आद्री-शीती,कू, मायति / ठंडा (डा)ई, सं. स्त्री. ( हिं. ठंढा ) शीतपेयं, (ना. पा.), तापं ह ( भ्वा. प. अ.)। मु.,! तापहरपान २. मंगापेयम् । For Private And Personal Use Only Page #291 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ठंडे-ठंडे ठंडे-ठंडे, अव्य० (हिं. ठंढा ) प्रातः सायं वा, आतपाभावे २. ससुखम्, सानन्दम् ३. शान्तं, समौनम् ( दोनों अव्य० ) | [ २५३ ] ठक, सं. स्त्री. (अनु.) अभिघात पात प्रहार, शब्दः, ठक् इतिध्वनिः ( पुं. ) । —ठक, सं. स्त्री. (अनु.) ठकठकायितं, ठकठकध्वनिः २. कलहः, कलिः । वि, स्तब्ध, चकित, निश्चेष्ट । ठकठकाना, क्रि. स. (अनु.) ठकठकायते ( ना. धा.), मंद अभि आ छन् ( अ. प. अ. ) अथवा प्रह ( स्वा. प. अ.) २. लघु प्रहृ या त‍ ( चु. ) । ठकठकिया, वि. (अनु. ठकठक ) विवादिन्, कलह, कलि- प्रिय । ठकुरसुहाती, सं. स्त्री. (हिं. ठाकुर + सुहाना ) दे. 'खुशामद' । ठाकुराइ (य)न, सं. स्त्री. (हिं. ठाकुर ) ठक्कुरी, ठक्कुमार्या (२) नापिती, क्षुरिणी २. स्वामिनी, ईश्वरी । ठकुराई, सं. स्त्री. (हिं. ठाकुर ) प्रभुत्वं, आधिपत्यं, स्वामित्वं २. अधिकारः, शासनं ३. महत्त्वम् ठकुरायत, सं. स्त्री. (हिं. ठाकुर ) दे. 'ठकुराई । ठग, सं. पुं. . ( सं. स्थगः ) कितवः, दांभिकः, धूर्तः, प्रतारकः, वंचकः । - बाजी, सं. स्त्री, कैतवं, कपटं, दंभः, प्रतारणं, स्थगत्वं अति अभिसंधानं, वंचनम् । ठगना, क्रि. स. (सं. स्थगनं ) अति-अभिसंघा ( जु. उ. अ. ), प्रतृ-मुह (प्रे.), पंच-शठ् ( चु ), विप्रलम् (स्वा. आ. अ.) । सं. पुं., दे. 'ठगबाज़ी' । ठग (गिनी, सं. स्त्री. (हिं. ठग ) वंचिका, प्रतारिका, दांभिकी, कपटिनी । ठगी, सं. स्त्री. दे. 'ठगबाज़ी' । ठगाना, क्रि. प्रे., व. 'ठगना' के प्रे. रूप । ठट, सं. पुं., दे.'' | ठट (ठ) री, सं. स्त्री. (हिं. ठाट ) शवयानं, खाट:टी २. कंकालः, अस्थिपंजर : ३. घास-पलाल, जालं ४. कृशमनुष्यः । ठट्टा, सं. पुं. (पुं. अट्टहास : या अनु. ) हास्य, परि (री) हासः, क्ष्वेला-लिका प्रहसनं, नर्मन् उस (न.), नर्म विनोद-परिहास, आलापः - उक्तिः (स्त्री.) वचनं २. उपहासः । -करना, क्रि. स., परिहसू ( वा. प. से. ), विनोदवचनं उदीर (प्रे.) २. अव उप-वि, इस्, उपहासास्पदी कृ, अवज्ञा ( क्र. उ. अ. ) । ठट्टेबाज़, सं. पुं., (हिं. + फ़ा. ) विनोदशीलः, हास्यप्रियः, वैहासिकः, भंडः । ठट्ठेबाजी, सं. स्त्री.. विनोद, कारिता-शीलता, वैहासिकता । ठठ, सं. पुं. (सं. स्थित > ) समूहः, समुदायः, जन-, संमर्द :- ओघः । ठठेरारी, सं. पुं. (अनु. ठन ठन) कांस्यताम्र, कारः । उठेरिन, सं. स्त्री. (हिं. ठठेरा) कांस्य ताम्रकारी । ठठोल, सं. पुं. (हिं. ठठ्ठा ) दे. 'ठट्टेबाज़' । ठठोली, सं. स्त्री. (हिं. ठटोल) दे. 'ठट्ठेबाजी' । उनक, सं. स्त्री. (हिं. ठनकना ) ठणिति, ठणत्कारः, शिजा, वणनं, झणत्कारः, मृदनादीनां ध्वनि: ( पुं. ) २. दे. 'टीस' । ठनकना, क्रि. अ. (अनु. ठन ठन) कण् ( स्वा. प. से. ), शिंज् ( अ. आ. से. ) । ठणठणायते ( ना. धा. ), ठणिति कृ । उनकाना, क्रि. स. ब. 'ठनकना' के प्रे. रूप । उनठन, सं. स्त्री. (अनु.) दे. 'उनक' । गोपाल, सं. पुं., दरिद्रः, निर्धनः २. निस्सारं वस्तु । ठनना, क्रि. अ., (हि. ठानना ) निर्णी निश्चिठनाका, सं. पुं., दे. ‘उनक’ । अध्यवसो (कर्म. ) । उनाउन, क्रि. वि. (अनु. ठनठन ) सठणत्कारं, सझणत्कारम् । ठप्पा, सं. पुं. (सं. स्थापनं ) मुद्रा, मुद्रायंत्र, २. आकर - संस्कार, साधनं ३ अंकः, चिह्न, मुद्रा, न्यासः । - लगाना, क्रि. स., मुद्रयति - चिह्नयति ( ना. धा. ), अंक् ( चु०), लांछ् (भ्वा. प. से. ) । ठरना, क्रि. अ., दे. 'ठिठुरना' । ठर्रा, सं. पुं. ( देश. ) निकृष्टसुरा २. स्थूलमूत्रं ३. अर्द्धपक्केष्टका । ठस, वि. (सं. स्थास्नु > ) घन, दृढसंधि, सुदृढ, कठिन, स्थूल, सुसंहत २. दे. 'गफ' ३. गुरु, For Private And Personal Use Only Page #292 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir उसक [ २५४ ] ठिठकाना भारवत् ४. अलस, मंथर ५. ( सिक्का.) कूट- ठाकुरी, सं. स्त्री., दे. 'ठकुराई। कपट कृत्रिम-( समासारंम में) ६. धनाढ्य | ठाट, सं. पुं. ( सं. स्थातृ ) तृण,-पटलं-छदिः ७. कृरण ८.. अत्याग्रहिन् ९. ठसिति (स्त्री.) २. दे. 'ढाँचा' ३. अलंक्रिया, वेशः शब्दः, वस्तुभंगध्वनिः (पुं.)। ४. आडंबरः, शोमा, वैमवं ५. सुखं, मोदः ठसक, सं. स्त्री. (हिं. ठस) हावः, भावः, ६. रीतिः ( स्त्री. ), शैली ७. आयोजनं विभ्रमः २. दर्पः, गर्वः। समारंभः ८. सामग्री, परिच्छदः ९. युक्तिः ठसका, सं. पुं. ( अनु. ठस ) शुष्क-अकफ, (स्त्री.), उपायः १०. आधिक्य, प्राचुर्य कासः-क्षवथुः २. आघातः, संमर्दः ३. पाशः, ११. समूहः, वृंदम् । बागुरा। -बाट, सं. पुं., आडंबरः, श्रीः (स्त्री.), शोभा, ठसनी, सं. स्त्री. ( हिं. ठस ) अयोधनः, ऐश्वर्य, वैभवं, प्रतापः । मुद्गरः। -बदलना, मु., आकार-भावं परिवृत् (प्रे.)। ठसाठस, वि. (हिं. ठस) परि-सं-पूर्ण, आ-सं- ठाठ, सं. पुं., दे. 'ठाट'। कीर्ण, आकुल, संकुल, समाकुल । ठाढ़ा, वि. ( सं. स्थातृ ) उच्छ्रित, उन्नत, सर्व, ठस्सा, सं. पुं. (देश.) अहंकारः, दर्पः २. हाव- दंडवत् उत्थित, उत्तान २. जात, उत्पन्न भावाः ३. आडंबरः। ___३. समस्त, समग्र, अपिष्ट । ठहरना, क्रि. अ. (सं. स्थिर ) स्था ( भ्वा. प. ठानना, क्रि. स. (सं. अनुष्ठानं ) अध्यव-व्यव, अ.). अवस्था ( भ्वा. आ. अ.), निश्चल- ! सो(दि. प. अ.. अध्यवस्यति ) निश्चि (स्वा. रुद्धगति-स्थिर-स्तब्ध ( वि. ) भू २. वस् | उ. अ.), संक्लप (प्रे.), निर्णी ( भ्वा. प. ( भ्वा. प. अ.) ३. निविश ( तु. प. अ.), अ.) २. साग्रह प्रारभ् ( भ्वा. आ. अ.), प्रयाणभंगं कृ ४. विश्रम् ( दि. प. से. ), अध्यवसायेन अनुस्था (भ्वा. प. अ.)। विरम् ( भ्वा. प. अ. ) ५. निश्चि-निर्णी ठार, सं. पुं. (सं.) हिमं, तुहिनं, तुपारः ( कर्म.) ६. प्रतीक्ष ( भ्वा. आ. से. ) । २. अतिशीतं, शैत्यातिशयः।। सं. पुं अव-स्थितिः ( स्त्री.)-स्थानं, निश्चलता, ठाला, सं. पु. ( हिं. निठला) कार्य-जीविका. स्तब्धता, वासः; विश्रामः इ.। व्यवसाय, अभावः । ठहरनेवाला, सं. पुं., अव-,स्थातृ ( पुं. ) । ठाली, वि., दे. 'निठल्ला'। ठहराना, क्रि, स., ब. 'ठहरना' के प्रे. रूप। ठिंगना, वि. (हिं. हेठ+ अंग ) खर्व, हस्व, ठहराव, सं. पु. ( हिं. ठहरना ) अव-,स्थितिः, वामन, हस्वकाय । (स्त्री.), निवेशः २. निर्धारणं, निश्चयः। ठिकानासं.. पं. (हिं. टिकान ) स्थलं-ली, ठहरौनी, सं. स्त्री. (हिं. ठहराना ) विवाहे स्थानं, प्र.,देशः, भूः-भूमिः (स्त्री.) २. आयुतकादिनिश्चयः। नि, वासः, आ-नि, लयः ३. आश्रय-निर्वाह,ठहाका, सं. पुं. ( अनु.) सशब्द,-स्फोटनं-भंगः | स्थानं ४. याथार्थ्य, प्रामाण्यं ५. आयोजनं, २. अति-प्र-अट्ट-उच्चैर् , हासः । संविधा, प्रबन्धः ६. अंतः, सीमा ७. नामधामठौंव, सं. पुं. ( सं. स्थानं ) स्थलं, प्रदेशः परिचयः ८. निर्दिष्ट-गंतव्य, स्थानम् । २. निवासः, वसतिः (स्त्री.)। ठिकाने लगना, मु., हन्-हिस् (कर्म.) २. समाप् ठौंसना, क्रि. स., दे. 'ठोसना'। (कर्म.)। ठाकुर, सं. पुं. (सं. टक्कुरः) परमेश्वरः, जगदीशः ठिकाने लगाना, मु., हन् ( अ. उ. अ.), हिंस् २. पूज्यः, मान्यः ( मानवः) ३. नायकः, (रु. प. से.) २. निर्दिष्ट स्थानं नी ( भ्वा. प. अधिष्ठातृ ( पुं. ) ४. ग्रामेशः, भूस्वामिन् । अ. ) ३. सम्यक् उपथुन ( रु. उ. अ.) ५. क्षत्रियोपाधिः (पुं.) ६. प्रभुः, स्वामिन् । ४. कार्य समाप् (स्वा. उ. अ.) ५. सफली कृ। ७. नापितः ८. देवः, देवता ९. देवप्रतिमा। ठिठकाना, क्रि. अ. (सं. स्थित+करणं> ) -द्वारा, सं. पुं. । देव, मंदिरं-स्थान-मालयः, अकस्मात्-अकांडे विरम् (भ्वा. प. म. )-रुथ् -बाड़ी, सं. स्त्री. मंदिरम् । । (कर्म.) स्तब्ध-निश्चेष्ट-रुद्धगति (वि.) भू। For Private And Personal Use Only Page #293 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ठिठ (g) रना [ २५५ ] ठेका ठिठ ( g ) रना, क्रि. अ. (सं. ठारः > ) शीती | दुकना, क्रि. अ. (अनु. ठुक ठुक ) आहन्जही भू, स्तंभ ( कर्म. ) २. शीतेन कंप ता- ग्रह ( कर्म ) २. अयोधनेन विघनेन (भ्वा. आ. से. ) । आहन्-ताड़ ( कर्म. ) ३. परा, भू-जि ( कर्म. ठि (g)नक, सं. स्त्री. (अनु.) गद्गदः, फु. ठुकराना, क्रि. स. (हिं. ठोकर ) पादेन प्रहृ ( फू )त्कारः । ठि ( g ) नकना, क्रि. अ. ( अनु. ) सगद्गदं (भ्वा. प. अ. ) - तङ् ( चु. ) - आहन् ( अ. प. अ. ) २. प्रत्याख्या ( अ. प. अ. ), अवमन् ( दि. आ. अ. ) धिक्कृ । कंद्र ( स्वा. प. से. ) - रुद्र ( अ. प. से. ), शिशुवत् रुद् । ठिरना, क्रि. अ., दे. 'ठिठरना' । ठीक, वि. (हिं. ठिकाना ) अवितथ, तथ्य, सत्य, यथार्थ २, उचित, न्याय्य, धर्म्य, समंजस ३. शुद्ध, निर्ऋत, निर्दोष ४. सुस्थ, अविकृत ५. यथार्ह, यथायोग्य, अनुरूप ६. नम्र, विनीत ७ अन्यूनाधिक, निर्दिष्ट ८. नियत, ९. पूर्ण, समाप्त । क्रि.वि., यथावत्, याथातथं, सम्यक्, साधु, तत्त्वतः, पूर्णतया । -आना, क्रि. अ., उपपद्-युज - रिलष ( कर्म. ), सुशिलष्ट-सुसंगत (वि.) भू २. तुल्य अनुरूप (वि.) भू । - करना, क्रि. स., निर्दोषी कृ, परि-वि-संशुभ् (प्र.) २. सुइिलष्टं सुसंगतं कृ । -ठाक, वि., सिद्ध, सज्ज, उपस्थित, उपक्लप्त -ठीक, क्रि. वि., दे. 'ठाक' कि. वि. । ठीकरा, सं. पुं. (हिं. टुकड़ा ) घट, शकलं-खंड, भिन्नमृत्पात्रं, क( ख ) पर:, २. भिक्षा, भाजनंपात्र ३. जीर्णपात्रम् । ठीकरी, सं. स्त्री. (हिं. ठीकरा ) क्षुद्रघट खंड २. तुच्छ निरर्थक, वस्तु (न. ) । ठीका, सं. पुं. ( हि. ठीक ) अभ्युपगमः, नियम:, पणः, समयः, संविद् (स्त्री.) २. पट्टोलिका । - देना, क्रि. स., पर्ण-संविदं कृ, प्रतिपद् ( दोनों प्र. ) 1 -लेना, क्रि. स., पर्ण- संविदं समयं कृ, प्रतिपद् (दि. आ. अ. ), संविद् ( अ. आ. से. ) । ठीकेदार, सं. पुं. पणकर्तृ, कृतसमयः, नियमकृत् (पुं. ) । ठीठी, सं. स्त्री. (अनु. ) हास्यध्वनि: (पुं.), अट्टहासः । ठीहा, सं. पुं. (सं. स्थितः > ) भूनिखातकाष्ठखंड:-हम् २. उच्चस्थानम् ३. वेदिका वेदिः (स्त्री.) ४. आसनम् ५. सीमा । टुंठ, सं. पुं., दे. 'ठूंठ' | ठुकवाना, क्रि. प्रे, ब. 'ठोकना' के. प्रे. रूप । ठुड्डी, सं. स्त्री. दे. 'ठोड़ी' । ठुनकाना, क्रि. स. ( अनु. ) अंगुल्या हस्तेन वा मन्दं मन्दं आहन् (अ. प. अ. ) । टुन टुन, सं. स्त्री. ( अनु. ) टुणटुणत्कारः, ठुणटुणायितं, धातुपात्रकणितं २. शिशुकंदनध्वनि : (पुं.), टुणटुणशब्दः । ठुमक, सं. स्त्री. (अनु.) खेल-विलास,, गतिः ( स्त्री. ) । - ठुमक, क्रि. वि., खेल विलास, गत्या, सखेलं सविलासं (शिशु-चलनम् ) । ठुमकना, क्रि. अ., (हिं, ठुमक ) सखेलं सवि| लासं चलू ( ल्वा. प. से. ) 1 ठुमका, विं. (हिं. ठुमक ) वामन, खर्व, हस्व । ठुमरी, सं. स्त्री. ( देश. ) गीतकं-तिका । ठुसकना, क्रि. अ. (अनु.) दे. 'ठिनकना' । ठुसना, क्रि. अ ( ठूंसना ) अत्यंत पूर् (स.), २, बलात् निविश् ( तु. प. अ.) । दुसवाना, ठुसाना, क्रि. प्रे., ब. 'ठूसना' के. प्रे. रूप । लँग, सं. स्त्री. ( ( सं. तुंडं ) चंचुः-च्ः [ दोनों हूँगा, सं. पुं. / (स्त्री.) ] २. चंचुप्रहारः । -मारना, क्रि. स., चंच्चा प्रहृ (भ्वा. प. अ.) । मु., न्यून तुल ( चु. ) । ठूंठ, सं. पुं. (सं. स्थाणुः) शुष्कवृक्षः, पत्र-विटप, - हीनतरु: (पुं) २. छिन्नो हस्तः, निकृत्तः करः । इँठा, वि. (हिं. ठूंठ ) अपत्र, अशाख, शुष्क ( वृक्ष ) २. छित्रहस्त, निकृत्तकर । हू ( हूँ) सना, क्रि. स. (हिं. उस ) अत्यधिकं पूर् ( चु. ), भृशं पृ ( प्रे. ) २. बलाद् नि-प्रविश् (प्रे.) ३. अतिमात्रं खाद् (भ्वा. प. से. ) । ठेंगना, वि., दे. 'टिंगना' | ठेंगा, सं. पुं. (हिं. अँगूठा ) अंगुष्ठः २. दंड, यष्टिः (स्त्री.), लगुडः ३ मेढम् । ठेका, सं. पुं., दे. 'ठीका' | For Private And Personal Use Only Page #294 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [ २५६ ] ठेका, सं. पुं. (हिं. टेक ) अब-आ, लंब:- . ठोकना, क्रि. स., दे. 'ठोंकना'। लबनं, अवष्टंभः, उपघ्नः २. निवेशस्थानं, ठोकर, सं. स्त्री. (हिं. ठोकना) स्खलनं, स्खविश्रामस्थलं ३. पटहवादनप्रकारभेदः ४. कौवा- ! लितं, आघातः, आइतिः (स्त्री.) २. पादलीनामकस्तालभेदः ५. स्खलनं ६. वाममृदंगः लत्ता, आघातः, प्रहारः ३. कट्वनुभवः । ७. दे. 'ठीका। -खाना, क्रि. अ., प्र-स्खल ( भ्वा. प. से.), ठेठ, वि. ( दे.) विशुद्ध, मिश्रणरहित, स्वच्छ पदं विषमी-भू । मु., हानि-क्षति-कष्टं सह २. केवल, मात्र (समासांत में )। (भ्वा. आ. से.) ३. वंच-प्रतार् ( कर्म. ) ठेलना, क्रि. स., दे. 'धकेलना'। । ४. जीविकार्थमितस्ततः भ्रम् ( भ्वा. प. से.)। ठेला, सं. पु. ( हिं. ठेलना ) दे. 'धक्का' । -मारना, क्रि. स., लत्तया-पादेन प्रह (भ्वा. २. जनौघः,जनसंमर्दः ३.हस्त, शकटः-शकटम् ।। प. अ.)-आहन् ( अ. प. अ.)-तड् (चु.), ठेस, सं. स्त्री. (हि, ठस), प्रहारः, आ-अभि, पादप्रहारं कृ। घातः, ताडनं, पातः, आहतिः (स्त्री.)। -लगना, कि. अ., दे. 'ठोकर खाना' । ठेसना, क्रि. स. दे. 'ठूसना'। | ठोड़ी दी, सं. स्त्री. (सं. तुंडं > ) चिबुकं, हनुः ठोंकना, क्रि. स. ( अनु. ठक-ठक ) अयोधनेन- (पुं. स्त्री. )। मुद्गरेण तह (चु.)-प्रह ( भ्वा. प. अ. ) ठोर, सं. पुं. (देश.) पक्वान्नभेदः, ठोरं । २. बलेन-ताडनेन प्रविश् (प्रे.) ३. अभि- २. चंचुः, चूः ( स्त्री.) । आ-हन् ( अ. प. अ.), तड (चु.), प्रहृ ।। ठोला सं. पु. ( देश. ) खगाहारशराबः ४. अभियुज ( रु. आ. अ.) राजकुले निविद् । २. अंगुलि, संधिः-ग्रंथिः-पर्वन् ( न.)। (प्रे,) ५.हस्तेन लघुप्रह-आइन् , करेण स्पृश -मारना, क्रि. स., अंगुलिपर्वणा पढ़ ( भ्वा. परामृश् ( तु. प. अ.)। प. अ.)। ठोंक बजाकर, मु., निपुणं परीक्ष्य, सम्यक -रखना, मु., हन् ( अ. प. अ.), मृ. पर्यालोच्य-निरूप्य । न (प्रे.)। ठोग, सं. स्त्री. ( सं. तुंडम् ) चंचूः-चुः ( स्त्री. ) | ठोस, वि. (हिं. ठस) सान्द्र, सु-, संहत, कठिन, २. चंचु-प्रहारः ३. अंगुलीप्रहारः। संघातवत् , धन २. पूर्णगर्भ, छिद्ररहित, सगर्भ। ठोसना, क्रि. स. ( सं. तुंडं > ) तुंडेन,चंचुपुटेन ठोसाई, सं. स्त्री. ( हि. ठोस ) घनता, काठिन्यं, अभिइन् ( अ. प. अ.)-प्रह ( भ्वा. प. अ.), निश्छिद्रता। चंचप्रहारं कृ। ठौर, सं. सं. (हि. ठाँव ) स्थानं, स्थली, प्रदेशः ठोंगा, सं. पुं. (हिं. ठोंग ) पत्र,-पुट:-पुटिका- २. अवसरः, सुयोगः, योग्यकालः । कोषः। कुठौर, मु., दुःखद-अनिष्ट, स्थाने-स्थले । ठोसना, क्रि. स., दे. 'ठूसना'। ठिकाना, सं. पुं., वासस्थानं, आ.नि.-वासः । ड, देवनागरीवर्णमालायास्त्रयोदशो व्यञ्जनवर्णः, -बजाना, सु., प्र-,शास् ( अ. प. से. ), डकारः। तंत्र (चु.)। डंक, सं. पुं. ( सं. दंशः) कंटकः, दंशचंचू: -बजाना, मु., विश्रुत-विख्यात (वि.) भू । (स्त्री.), शंकुः (पु.), ( बिच्छू का ) अलं डंके की चोट कहना, मु., प्रकाशं उद्घुष (चु.)। २. दंशवण:-णं ३. दे, 'निब'। डंगर, सं. पुं. ( सं. कडंग(क)रीयः ) पशुः, -मारना, क्रि. स., दंश ( भ्वा. प. अ. ) मृगः, चतुष्पदः, चतुष्पाद (पं.)। २. मर्माणि मिद् (रु. प. अ.)। डंठल, सं. पुं.(सं. दंडः) कांडः,डं, नालःली-बाला, वि. सदंश, दंशिन्-दंशक । लं २. वृतं, प्रसव-बंधनम् । डंका, सं. पुं. (सं. ढका) यशःपटहः, विजय डंड, सं. पुं. (सं. दण्डः) लगुडः, यष्टिः(स्त्री.) मद्दलः, दुन्दुभिः, डिडिमः । २. बाहु। (पु.), भुजः-जा ३. अर्थ-धन, दंडः For Private And Personal Use Only Page #295 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir डंडवत् [२५७ ] डबडबाना ४. निग्रहः,शासनं ५. हानिः क्षतिः (स्त्री.) -भरना, क्रि. अ., विक्रम् ( भ्वा. प. से., ६. व्यायामप्रकारः, साष्टाङ्ग-दंड, व्यायामः। भ्वा. आ. अ.) दीर्घपादान् विन्यस् (दि. प. -देना, कि. स., दंड (चु.)शास ( अ. प. से.)-निक्षिप् ( तु. प. अ.)। से., दोनों द्विकर्मक ), दम् ( प्रे. दमयति ), डगमग, वि. (हिं.डग+मग) प्रस्खलत्, विचलत् निग्रह ( क. प. से.)। कंपमान, वेपमान । अव्य०,सकम्पम्, सवेपथु। -पेलना, क्रि. अ., ( दंडवत् ) व्यायाम् ( भ्वा. डगमगाना,कि. अ. ( हिं. डग+मग ) प्रा, प. अ.)-व्यायाम कृ । कंप-वेप ( भ्वा. आ. से. ) वेल्ल ( भ्वा. प. से.) -भरना, क्रि. अ., अर्थदंडं परि-शुध (प्रे.)। २. प्रस्खल-विचल ( भ्वा. प. से.) ३. विशंक-लेना, क्रि. स., अर्थदंड दा (प्रे. दापयति)। विकल्प (भ्वा. आ. से.), चित्तं दोलायते -पेल, सं. पुं. मल्लः, मल्लयोदधृ (पु.), (ना.धा.)। व्यायामिन् , दृढोगः, वज्रदेहः। । डगमगाहट, सं. स्त्री. ( हिं. डगमगाना ) डंडवत, सं. स्त्री. दे. 'दंडवत्' ।। प्रकंपः, · वेपथुः २. प्रस्खलनं, विचलनं ३. डंडा, सं. पुं. (सं. दंडः) काष्ठं, काष्ठखंडः, विक्षोमः, चित्तवैकल्यं, धृतिनाशः। लगुडः, यष्टिः ( स्त्री.); वेत्रं, वेत्रयष्टिः । । डगर, सं. स्त्री. (हिं. डग ) दे. 'मार्ग' । २. प्राचीरं, प्राकारः, वरणः । डटना, क्रि. अ. ( हिं. ठाढा) दृढं-स्थिर-निश्चलं डंडिया, सं. पुं. ( हिं. डांड ) करोद्ग्राहकः, स्था ( भ्वा. प. अ.), अवस्था (भ्वा. आ. अ.), शुल्कसंग्राहकः। - वृत् (भ्वा. आ. से.)। डंडी, सं. स्त्री. ( हिं. डंडा ) सूक्ष्म-तनु,-दंड:- डहा, सं. पुं. (हिं. डाटना) कूपीछिद्र-,पिधानं, यष्टिः (स्त्री) २. तुलायष्टी ३. मुष्टिः (स्त्री.), अवष्टंभः, रोधः। वारंगः ४. कांड:-डं, नाल:-लं ५. पर्वतीय- -लगाना, क्रि. स., रोधेन-अवष्टम्भेन अपिवाहनभेदः । सं. पुं., दंडधारिन् , सन्न्यासिन् । पि,-धा (जु. उ. अ.)-सं-आ-वृ (स्वा. उ.से.)। पग-, सं. स्त्री., चरण-पाद,-पथः, पद्धतिः डदियल, वि. (हिं. डाढ़ी) कूर्चधर, लंबकूर्च, (स्त्री.), पद्या, पदवी। श्मश्रुल, सश्मश्रु । डंडीत, सं. पु.ली., दे. 'दंडवन्। डपट, सं. स्त्री. ( सं. दर्पः ) निर्भर्त्सना, डकरना, क्रि. अ. ( अनु.) हंभारवं कृ, रेभ वाग्दंडः। (भ्वा. आ. से.), नि.नद् ( भ्वा. प. से.)। डपटना, क्रि. स. (हिं. डपट) तर्ज ( भ्वा. स्कराना, क्रि. अ., दे. 'डकरना। प. से; चु. आ. से.), वाचा दंड (चु.), डकार, सं. पु. (सं. उद्गारः) उद्गिरणं, उद्वमः, निर्भस (चु. आ. से.)। उदमनं २. गर्जनं, गजितं, निनादः। उपोरसंख, सं. पु. ( अनु. डपोर-बड़ा+सं. -लेना, क्रि. अ., दे. 'डकारना'। शंखः) आत्मश्लाधिन् , विकत्थनशील: -जाना या-बठना, मु., छलेन आत्मसात् । २. बालबुद्धिः (पुं.)। कृ, ग्रस ( बा. आ. से.)। 'डफ, डफला, सं. पुं. (अ. दफ़.) डिडिमभेदः डकारना, कि. अ. (हिं. डकार ) उद्ग (तु. *डफम् । प. से.), उद्वम् ( भ्वा. प. से.) २. दे. 'हक- डफली, सं. स्त्री. (हिं. डफला) लघु, डिडिमःरना' ३. दे. 'डकार जाना' । डफम् । डकैत, सं. पुं., दे. 'डाकू'। सफाली, सं. पुं. (हिं डफला ) डफ-डिडिम, डकैती, सं. स्त्री., दे. 'डाका'। वादकः। डकौत-तिया, सं. पुं. (देश.) मिथ्यामौहूर्तिकः, डबडबाना, क्रि. अ. ( अनु.) सान-सवाष्पज्योतिविंदाभासः २. जातिविशेषः । सजल नयन-साश्रु (वि.) भू। डग, सं. पुं. (हिं. डॉकना) दीर्घ,-विक्रमः, डबडबाई आँखों से, क्रि. वि., सासं, साश्रु, पादन्यासः। सवाष्पं, पर्यश्रु । १७ आ० For Private And Personal Use Only Page #296 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir डबोना [२५८] डाक डबोना, क्रि. स., दे. 'डुबोना' विकस् ( भ्वा. प. से.), हरिती भू २. सम्-ऋध डब्बा , सं. पुं. (सं. डिंबः> ) संपुटः, संपुटकः, (दि. प. से.) सं-वि-वृध् (भ्वा. आ. से.) करंडकः, समुद्गकः । २. ( रेलगाड़ी का) ३. मुद ( भ्वा. आ. से.)। शकटः-टम् । | डॉकना, क्रि. स., दे. 'लाँघना' क्रि. अ., दे. डमरू, सं. पुं. (सं.रुः ) क्षीणमध्यो गुटिका- 'कै करना' द्वययुक्तो वाद्यभेदः। डोंग, सं. स्त्री. (सं. दंडकः) लगुडा-र: लः, -मध्य, सं. पुं. (सं. न.) विशालभूभागद्वय- स्थूल- बृहद्,-दंडः । योजकः संबाधभूखंडः। डॉट, सं. स्त्री. (सं. दांतिः > ) तर्जनं, तजितं, जलडमरूमध्य, सं. पुं. (सं. न.) सामुद्रधुनी। निर-, भर्सनं-ना, वाग्दंडः । डर, सं. पुं. (सं. दरः-र) सं., त्रासः, भीः-भीतिः |-डपट, सं. स्त्री. भ्रमंगेन तर्जनं, आक्रोशः, (खी.), भयं, साध्वसं २. शंका, चिंता । विभीषिका, मयदर्शनं, अपकारगिर । स्त्री.)। डरना, कि. अ. (हिं. डर ) भी (जु. प. अ.), | डॉटना,कि. स. ( दि. डाँट ) विर, मस वि-सं-त्रस् (भ्वा. दि. प. से. ), उद्विज (तु. (चु. आ. से. ), भयं दृश् (प्रे.), भी (प्रे.), प. अ.), भयार्त्त-त्रस्त (वि.) भू २. आ-वि.,! त ( भ्वा. से.; चु. आ. से.)। शंक ( भ्वा. आ. से.)। डाँटने योग्य, वि., तर्जनीय, निर्भर्सनीयडरपोक, वि. (हिं. डरना+पोंकना ) भीत, वाग्दंडाई। भीरु, समय, ससाध्वस २. साशंक, शंकिल । डाँटनेवाला, सं. पुं., तर्जकः, निर्भसंकः । डराना, क्रि. स., ब. 'डरना' के प्रे. रूप। डाँड, सं. पुं. (सं. दंडः ) यष्टिः (स्त्री.), डरावना, वि. (हिं. डर) भीम, मीषण, भयंकर। लगुडः २. क्षेपणी, नौदंडः ३.पृष्ठवंशः, कशेरुका डल, सं. स्त्री. (सं. तल्लः ) तयाकः कं (-गः, गं), ४. धन अर्थ, दंडः निग्रहः, शासनं, दंड: सरोवरः। ६. सम-सरल, रेखा ७. सीमा। डलना, क्रि. अ. (हिं. डालना ) न्यस्-निक्षिप् डाँड़ना, क्रि. स. (सं. दंडनं ) अर्थ-धनं दंड (कर्म. २. नि-, सिच् (कर्म.); स्रु (भ्वा प. अ.)। (चु.)। डलवाना, क्रि.प्रे., व. 'डालना' के प्रे. रूप। डाँडा, सं. पुं. ( हिं. डॉ.) दे. 'मेंड़। डला , सं. पुं. (सं. दलः-लं) खंडा-डं, स्थूल,- दौड़ी, सं-स्त्री. ( हि. डाँड़ ) दे. 'डंडी' (१-४)। अंशः-भागः २. पिंडः-डं, घना, गंडा, गुल्मः। डॉवाँडोल, वि. ( हिं. डोलना ) अस्थिर. डला', सं. पुं. [सं. डल(ल)कं । दे. 'टोकरा'। चंचल, तरल, लोल, कम्पमान। ( मनुष्य ) डलिया, सं. स्त्री. ( हिं. डला ) दे. 'टोकरी' । अस्थिरबुद्धि, चलचित्त, चंचलमानस । डली, सं. स्त्री. ( हिं. डला ) पिंडकः-कं, डॉस', सं. पुं. (सं. दंशः) दंशकः, अरण्य क्षुद्रगंडः २. शकल:-लं,खंड:-डं ३. दे.'सुपारी'। गो-वन, मक्षिका, पांशुरः, क्षुद्रिका । उसन, सं. पुं. (सं. दंशनम् ) दंशः २. दंश- हाँस, सं. पुं. (अ.) नृत्यम्, दे. 'नाच'। दंशन, रीतिः ( स्त्री.)। डाइन, सं. स्त्री., (सं. डाकिनी) दे. 'डाडसना, क्रि. स. (सं. दंशनं ) दंश ( भ्वा. प. | किन। अ.), कंटकेन व्यध् ( दि. प. अ. ) २. डाइनामाइट, सं. पुं. ( अं.) विध्वंसकम् , . मर्माणि मिद् ( रु. प. अ.)। विस्फोटकम् । डसनेवाला, सं. पुं., दंशकः २. अरंतुदः, डाक, सं. स्त्री. ( हिं. डाँकना फाँदना )। मर्मस्पृश। प्रेष्य, पत्राणि-पत्रिकाः (बहु.) २. पत्रवाहन, डहडहा, वि. ( अनु.) हरित, रसवत् , सरस, व्यवस्था- संस्था। विकसित, विकच २. अभिनव, प्रत्यग्र -खाना, सं. पुं. (हिं.+फा.) ( प्रेष्य ) २. प्रसन्न, आनंदित । पत्र, स्थान-गृह-कार्यालयः । डहडहाना, क्रि. अ. (हिं. डहडह ) प्रफुल्ल- -गाड़ी,सं. स्त्री., पत्रशकटी । For Private And Personal Use Only Page #297 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir डाका [ २५९ ] डिगना -घर, सं. पुं., दे. 'डाकखाना'। विकः कारावासः, आमरणान्तिक-रोधः-निरोधः-बँगला, सं. पुं. ( हिं.+अ. ) विश्राम- आसेधः-प्रग्रहः। विश्रांति, गृहम् । डायन, सं. स्त्री. ( दे. डाकिनी)। -महसूल, सं. पुं. (हिं.+ अ.), पत्रवाहन- | डायनामो, सं. पुं. (अं.) विधुज्जनकं लघुयंत्रम् । -व्यय, सं. पु. ( हिं.+सं.) | शुल्कम् ।। डायरी, सं. स्त्री. ( अं. दैनंदिनी दैनिकी। डाका, सं. पुं. (हिं. डाकना) प्रसह्य चौर्यम् , डायरेक्ट स्पीच, सं. स्त्री. ( अं.) प्रत्यक्षवर्णनम्। लुठिः ( स्त्री. )-टी, लुंठनम् । डायर्की, सं. स्त्री. ( अं.) दे० 'हुराज' । -जनी, सं. स्त्री. ( हिं.+फा.) दे. 'डाका'। डायल, सं. पु. ( अं. ) घटीमुर्ख २. सूर्यघटी। -डालना, या मारना, क्रि. स., लुट लुंठ डायस, सं. पुं. ( अं.) उच्चासनं, मंचः । (भ्वा. प. से., चु.), प्रसह्य अपह ( भ्वा. डार, सं. स्त्री. [सं. दारु ( न.)] विटपः, शाखा, प. अ.)। | २. पंक्तिः -ततिः (स्त्री.), श्रेणी.। -पड़ना, क्रि. अ., लुठकैः अवस्कंद-आकम् | डाल, सं. स्त्री. [सं. दारु ( न.)] विटप, शाखा (कर्म.)। २. असि, धारा-पत्रं-फलम् । डाकिन, नी, सं. स्त्री. ( सं.-नी ) कुहकिनी, डालना, क्रि. स. (सं. तलन) प्र., अस् (दि. प. अभिचारिणी, योगिनी, मायाविनी, कालीगण- से.), प्र., क्षिप् (तु. प. अ.), पत् (प्रे.) भेदः । २. स्थविरा, वृद्धा ३. कुरूपा नारी। २. प्र., सु (प्रे.), नि:, सिच् (तु. प. अ.) डाकिया, सं. पु. (हिं. डाक ) पत्रवाहकः। ३. परिधा (जु. उ. अ.), वस् (अ. आ. डाकू, सं. पुं. ( हिं. डाकना-कूदना ) दस्युः, अ.), धृ (चु.) ४. नि.प्र-विश् (प्रे.), निधा महासाहसिकः, लुंठकः, लुटा( ठा)कः, (जु. उ. अ.) ५. विस्मृपरित्यज् (भ्वा. प. माचलः, प्रसाचौरः, चिल्लामः। अ.) ६. मि (चु.), संमिल (प्र.) ७. उपडाट, सं. स्त्री. ( सं. दांति > ) तोरणः-णं २.दे. पत्नीत्वेन अवरुध ( रु. उ. अ.)। 'डट्टा' ३. दे. 'डॉट। डालर, सं. पुं. (अं.). रौप्यमुद्राभेदः, डालरम् । -लगाना, कि. स., वृत्तखंडाकृत्या-तोरण- डाली, सं. स्त्री. (हि. डाल ) शाखा, विटपः । रूपेण निर्मा० (जु. आ. अ.)। डाली,'सं. स्त्री. ( हिं. डाला ) दे. 'टोकरी' डाटना, क्रि. स. ( हिं. डाट ) अत्यन्तं । २. उपहारः, उपायनम् । पूर् (चु.) २. अत्यधिक मा ( चु. ) | डाह, सं. पु. (सं. दाहः ) ईर्ष्या, अभिः, ३. सावलेपं वस्त्रादिकं परिधा (जु. उ. अ.) असूया, मत्सरः, मात्सर्य, परोत्कर्षद्वेष, ४. दे. 'डाँटना। - २. द्वेषः, द्रोहः। डाद, सं. स्त्री. (सं. दाढ़ा) चर्वणदंतः, जंभः, डिंगल, वि. ( सं. डिंगर) दुष्ट, दुर्वृत्त २. क्षुद्र, दंष्टा । नीच । सं. स्त्री, राजस्थानस्य भाषाविशेषः । डादी, सं-स्त्री. दे. 'दाड़ी'। | डिंडिम, सं. पुं. (सं.) लघु, पटहः-दुंदुभिः (पुं.)। डाब, सं. स्त्री., दे. 'डाम'। | डिंभ, सं. पुं. (सं.) डिबः, शिशुः, पृथुकः, डाबर, सं. पुं. (सं. दभ्रः सागर > ) अनूप- कलभः, पोतः-तकः, शावः-वकः, अर्मकः, कच्छ, भूः ( स्त्री.) देशः २. पल्वल:-लं ३. अपत्यं, पृथुकः २. मूर्खः- जडः। आविलजलं ४. दे. 'चिलमची'। डिक्टेटर, सं. पु. (अं.) एक-अधिपतिःडाभ, सं. पुं. (दर्भः ) कुशः-शं २. आम- सर्वाधिकारसम्पन्न, शासकः-शासित । मंजरी ३. अपक्वनारिकेला रः। डिक्टेशन, सं. स्त्री. ( अं.) दे. 'इम्ला'। डामर, वि. ( सं.) भीषण, भयावह २. उपद्र- | डिकशनरी, सं. स्त्री. (सं.) (शब्द)-कोश:-षः, विन्, कलि-कलह, प्रिय ३. सरूप, अनुरूप, अभिधानम् । सदृश । सं. पुं. (सं.) उपद्रवः, कलहः २. डिगना, क्रि. अ. ( हिं. डग) अप,-स-गम् उल्लासः, प्रमोदः। (वा. प. अ.), प्र-वि-सूप् (भ्वा. प. अ.) डामल, सं. पुं. (अ० दायमुल हन्स ) यावज्जी- २. विचल ( म्वा. प. से.), पराङ्मुखी-विमुखी For Private And Personal Use Only Page #298 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir डिगरी [ २६० भू, अति व्यति- इ ( अ. प. अ. ), अति-व्यभि चर् (भ्वा. प. से. ) ३. दे. 'गिरना' । डिगरी, सं. स्त्री. [अं. उपाधि: (पुं) ], उपपदं २. अंशः, कला, मात्रा, समकोणस्य नवतो ( २० भागः । डेरा डुबकी, सं. स्त्री. (हिं. डूबना ) अवगाहः, आप्लवः, निमब्जथुः (पुं. ) लगाना, क्रि. अ., वाङ्- अवगाद्द् (भ्वा, आ. से., आलु ( भ्वा. आ. अ. ), निमस्ज ( तु. प. अ. ) । डिगरी', सं. स्त्री. ( अं. डिक्री ) स्वत्वप्रापकः, अधिकरणिक निर्णयः, राजाज्ञा, व्यवस्था । —देना, क्रि. स., स्वत्वप्रापणात्मक निर्णयं कृ, व्यवस्था (प्रे.) । दुबाना, क्रि. स., व. 'डूबना' के प्रे. रूप । डुबाव, सं. पुं. (हिं. डूबना) अगाधता, गांभीर्यम् । डुबोना, क्रि. स. ब. 'डूबना' के प्रे. रूप । डुलाना, क्रि. स. ब. 'डोलना' के प्रे. रूप | डिठौना, सं. पुं. (हिं. डीठ ) कुदृष्टिनिवारकं डूंगर, सं. पुं., (सं. तुंग > ) पर्वतकः, श्रुद्रपर्वतः कज्जलतिलकम् ! २. उच्चभूः (स्त्री.) मृच्चयः । ड्रॅगरी, सं. स्त्री. (हिं. ड्रॅगर ) अतिक्षुद्रपर्वतः २. क्षुद्रमृच्चयः । डिपटी, सं. पुं. ( अ. डिपुटि) प्रति, निधि:पुरुषः- हस्तः- हस्तकः, नियोगिन्, नियुक्तः । - कमिशनर, सं. पुं. (अ.) उपायुक्तः । डिपार्टमेन्ट, सं. पुं. ( अ ) विभागः, शाखा । डिपो, सं. पुं. (अ.) भोडागारं आलय:, शाला । डिलोमा, सं. पुं. (अ.) प्रमाणपत्रं, अधिकारपत्रम् | डिफथीरिया, सं. पुं. ( अ. ) रोहिणी । डिबिया, सं. स्त्री. (हिं. डिब्बा) कोषकः, संपुटकः । डिब्बा, सं. पुं., दे. 'डब्बा' । डिसमिस, वि. (अ.) अधिकार च्युत, भ्रष्टाधिकार । करना, क्रि. स., अधिकारात् पदात् च्यु-भ्रंश्अवरुह (प्र.) । डिसिनफेक्टेंट, वि. (अ.) रोगाणुनाशक । डिस्टिलेशन, सं. पुं. ( अ. ) आसवनम् । डींग, सं. स्त्री. (सं. डीनं < ) आत्मश्लाघा, स्वप्रशंसा, विकत्थनम् । - मारना या हाँकना, आत्मानं श्लाघू विकत्थ · ( वा. आ. से ) । डूश, सं. पुं. ( अं.) योनिक्षालनम् । डींगिया, वि. (हिं. डींग ) आत्मश्लाघिन्, डेंगू बुखार, सं. पुं. ( अं. + अ.) दण्डक अस्थि विकत्थनशील, पिंडीशूर । भंजन, ज्वरः । डीठ, सं. स्त्री. दे. 'दृष्टि' । डील, सं. पुं. ( देश. ) ( देह-) प्र-परि माणं, आकारः, आकृतिः (स्त्री.), कायमानम् । - डौल, सं. पुं., मूर्तिः (स्त्री.), संस्थानं, हूँडा, वि. (देश० ) एक. शृंग-विषाण-कूणिक । सं. पुं. एकशृग एक विषाण, वृषः- वृषभः । डूबना, कि. अ., (हिं. बूड़ना का विपर्यय; अथवा अनु. डुब-डुब ) निमरज् ( तु. प. अ.), निमज्जनेन मृ ( तु. आ. अ. )- व्यापद् ( दि. आ. अ. ) २. अस्तं इं-या ( अ. प. अ. ), अस्ताचलं अस्तशिखरं अवलंब ( भ्वा. आ. से ), प्रापू (स्वा. प. अ. ) ३. नष्ट ध्वस्त-निर्मूल (वि.) भू, नशू ( दि. प. वे.), ध्वंस् (स्वा. आ. से.), परिक्षि (कर्म.), प्र-वि-ली (दि. आ.अ.) ४. निध्यै ( भवा. प. अ.), सततं आलोच-चित् ( चु.), चिंताकुल (वि.) भू ५. निमग्न. निरत- आसक्तव्यापृत (वि.) भू । सं. पुं., निमज्जनं, आप्लावः, प्लावनं, निमज्जनेन मरणं, अस्तः, अस्तमनं; नाशः, ध्वंसः सततचितनं, कार्यासक्तिः (स्त्री.)। आकार मानम् । डुगडुगी, सं. स्त्री. (अनु. ) डिंडिम:, लघुपटइ: । - पीटना, मु., ( सडिटिमनादं ) उद् - विघुष् ( चु.), प्रख्या प्रख्यापयति ) । दुग्गी, सं. स्त्री. दे. 'डुगडुगी' । डेढ़, वि. ( सं . अध्यर्द्ध ) सार्द्धंक | ईंट की मसजिद जुदी बनाना, मु. ( दर्पादितः ) कार्यमसंभूयैव कृ । डेपुटेशन, सं. पुं. (अ.) प्रतिनिधिबर्गः शिष्टमंडलं, नियुक्तजनाः । डेरा, सं. पुं. (हिं. ठहरना ) पट-वस्त्र, गृहंकुटी मंडप :- वेश्मन् (न.), दूष्यं श्यं २, गृहं, आलयः, आवासः ३. विश्रामः, अस्थिर वासः ४. शिविरं निवेशः । For Private And Personal Use Only Page #299 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir डेल्टा [ २६१ ] ड्रामा -डालना, मु., सैन्यं निविश् (तु. प. अ.) (ना. था.), पंख ( भ्वा. प. से.)। सं. पुं, समावस ( भ्वा. प. अ.)। दोलनं, खणं इ.। डेल्टा, सं. पु. ( यू., अ.) नदीमुखपुलिनः-नम् । डोलनेवाला, सं. पुं., सर्पणशीलः पर्यटकः, डेलिगेट, सं. पुं. (अ.) नियोगिन्, प्रतिनिधिः(पु.) अपयात (पु.), चलचित्तः, खकः । डेवढ़ा, वि. (हिं. डेढ़ ) अध्यर्द्धगुण । सं. पुं. डोला, सं. पुं. (सं. दोला ) डयनं, दोलिका, अध्यर्द्धगुणनसूची। शिविका। डेवढ़ी, सं. स्त्री., दे. 'डयोदी' । -देना, मु., नृपादिभ्यः स्वकन्यामुपह ( भ्वा. डेसिमल, सं. पुं. (अ.) दशमलवः २. प. अ.) दशसंख्यक । डोली, सं. स्त्री. (हिं. डोला ) दे. 'डोला ।' डेस्क, सं. पुं. (अ.) लेखन-पीठिका-फलकम् । डौंडी-डी, सं. स्त्री. (सं. डिडिमः ) पटहः, डोंगा, सं. पुं. (सं. द्रोणं < ) वेडा, वारिरथः दुंदुभिः २. ( सडिंडिमनादं ) घोषः-षणा नौः (स्त्री..), तरी। ३. ख्यापन, उत्कीर्तनम् । डोंगी, सं. स्त्री. (सं. द्रोणी ) उडुपः, नौका, -देना या पीटना, क्रि. स., दे. 'डुगडुगी वेटी, वेडा, तारिका। पीटना। डोंडी-ड़ी, सं. स्त्री., दे. 'डौंडी' । डौल, सं. पु. ( हिं. डील ) आकारः, संस्थान, डोडी, सं. स्त्री. (सं. तुडं ) बीजकोषः, पुरः-टम् । आकृतिः (स्त्री.), रूपं २. प्रकारः, विधा डोबा, सं. पु. ( हिं, डूबना) निमज्जथुः (पुं.), ( समासांत में ) ३. युक्तिः ( स्त्री.), उपायः निमज्जनं, अवगाह:-हनं, आप्लवः । ४. लक्षणं, चिह्नम् । -देना, क्रि. स., (रंगे) नि-, मिस्ज (प्रे. । डाल, सं. पुं., उपायः, युक्तिः (स्त्री.)। मज्जयति ), अवगाह (प्रे.) २. क्लिद् (प्रे.), "। -दार, वि., सुन्दर, रम्य २. पुष्ट, स्वस्थ । आद्री कृ। डोम, सं. पुं. (सं.) डोंबः, अस्पृश्यजातिभेटः | ड्यूटी, सं. स्त्री. ( अं.) कर्तव्यं, कार्य, कृत्यम् , १. दे. 'मीरासो'। न्याय्य-स्व, कर्मन् कार्यम् । डोर, सं. स्त्री. (सं. पुं. न. ) शुल्वं-त्वं, शुल्वा- | | ड्योढ़ा, बि. तथा सं. पुं, दे. 'डेवढ़ा' । स्वी, वराटः-टकः, रज्जुः (स्त्री.), गुणः, वटः- ड्यादा, ड्योढ़ी, सं. स्त्री. (सं. देहली ) गृहावग्रहण, टं-टी। द्वार, पिंडी-पिडिका २. उपशाला, द्वारांगणं, डोरा, सं. पुं. (सं. डोर:-२) डोरकः-कं, सूत्र, द्वारकोष्ठः। तंतुः (पु.), गुणः २. रेखा-पा, लेखा ३. असि, दार, सं. पुं., दोवारिकः, द्वारपालः । -वान, धारा ४. चमसभेदः ५. स्नेहसूत्र, प्रेमबंधन ६. कज्जलरेखा ७. नृत्ये ग्रीवागतिभेदः। ड्राइङ्ग, सं. स्त्री. ( अं.) रेखाचित्रणम् । -डालना, मु. अनुरंज-मुह (प्रे.)। -रूम, दर्शन उपवेशन, कोष्ठः-शाला-कक्षः, चि प्रशाला। डोरिया सं. पुं. (हि. डोरा) *डोरीयः, सरेखों- | ड्राइवर, सं. पु. ( अं.) वाहकः, चालकः । ऽशुकभेदः। डोरी, सं. स्त्री., दे, 'डोर'। ड्रापर, सं. पुं. ( अं.) बिन्दुपातकम् । डोल, सं. पुं. (सं. दोल: <) दोलं, लौह सेचनमा ड्राफ्ट, सं. पुं. (अ.) प्रारूपम् २. धनार्पणावि., अस्थिर, लोल। देशः, ड्राफ्टम् । डोलची, सं. स्त्री. ( हिं. डोल ) दोलक -टेबल, सं. पुं. (अं.) भंगारफलकम् । लघुसेचनी। ड्राफ्ट्स मैन, सं. पुं. (अं.) आलेख्य-चित्र, डोलना, क्रि. अ. (सं. दोलनं) सृ-सूप ( भ्वा. करः कारः कृत् । प. अ.), चल (भ्वा. प. से.) २. भ्रम्-पर्यट ड्राम, सं. पुं. (अ.) ड्राममानं, माषत्रयात्म(भ्वा. प. से.) ३. अप, इया (म. प. अ.) कस्तोलभेदः। ४. (चित्तं) विचल , चंचलं भू ५. दोलायते । ड्रामा, सं. पु. (.) रूपक, नाटकम् । For Private And Personal Use Only Page #300 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [ २६२ ] ड्राअर ड्राअर, सं. पुं. (अ.) चल, कोष्ठः- संपुटः । ड्रेस, सं. स्त्री. (अ.) वेशः षः, परिधानम् । ड्रेसिंग, सं. स्त्री. लेपः, उप, नाइ:- देहः । अ २. शृंगारः, मण्डनम् । ढ ढ, देवनागरी वर्णमालायाश्चतुर्दशो व्यञ्जनवर्णः, ढकारः । ढंग, सं. पुं. (सं. तंग् = गति > १) शैली, रीतिः पद्धतिः (स्त्री.) प्रणाली २. प्रकारः, जातिः (स्त्री.), भेदः, विधा ( समासांत में ) ३. रचना, घटनं, निर्माणं ४. युक्तिः (स्त्री.), उपायः ५. व्यवहारः, आचरणं ६. व्याजः, मिषं ७. लक्षणं, चिह्न ८. स्थितिः (स्त्री.), दशा । ढंगी, वि. (हिं. ढंग ) चतुर, विदग्ध, धूर्त्त । ढंढोरा, सं. पुं. (अनु. दंडं ) दे. 'डौंडी' । ढढोरिया, सं. पुं. (हि. बँढोरा) उद्घोषक:, ढहाने योग्य ड्रिल, सं. स्त्री. (अ.) व्यायामः, अस्त्र-शस्त्र, शिक्षा - अभ्यासः । -मास्टर, सं. पुं. (अ.) व्यायाम, शस्त्र,शिक्षकः । प्रख्यापकः । ढई, सं. स्त्री. (हिं. ढहना) दे. 'घरना' सं. पुं. 1 ढकना, सं. पुं., दे. 'ढक्कन' । क्रि. स., दे. 'ढाँकना' । क्रि. अ., आच्छादू-आवृ-पिधा ( कर्म. ) । ढकनी, सं. स्त्री. दे. 'ढक्कन' । ढकवाना, क्रि. प्रे, ब. 'ढाँकना' के प्रे. रूप । ढकेल, सं. पुं. दे. 'धकेल' । ढकेलना, क्रि. स., दे. 'धकेलना' । ढकोसला, सं. पुं. (हिं. ढंग + सं . कौशलम् ) दंभ:, आडंबरः, पार्षडः, कापट्यं, छाद्मिकता। ढक्कन, सं. पुं. ( सं. ढक्क = छिपना ) पिधानं, पुट:-टं-टी, छदः, छदनं आवरणम् । ढचर, सं. पुं. (हिं. ढाँचा ) परिच्छदः, उप करणसामग्री २. आधारः, उपष्टंभः ३. कलहः, विवादः ४. व्यवसायः, वृत्तिः (स्त्री.) ५. आडम्बरः ६. जरठः । ढप, सं. पुं., दे. 'डफ' । छपना, सं. पुं. (हिं. ढाँपना ) दे. 'ढक्कन' । क्रि. अ." दे. 'ढकना' क्रि. अ. । ढब, सं. पुं., दे. 'ढङ्ग' । दमदम, सं. पुं. (अनु.) पट- भेरी, नादः, ढमढमध्वनिः (पुं.), ढमढमायितम् । ढरका, सं. पुं. [ हिं . दर (ल) कना ] चि (च) लता, पिल्लता, नेत्रस्रावः, अभिस्यं ( व्यं.द. २. पशूनामौषधपाननलः । ढरकी, सं. स्त्री. [ हिं ढर (ल) कना ] त ( ) सरः, मलिकः । ढर्रा, सं. पुं. (हिं. दरना ) मार्गः पथिन् २. शैली, पद्धतिः (स्त्री.) ३ उपायः, युक्तिः ( स्त्री. ) ४. आचारः, आचरणम् । ढलकना, क्रि. अ. (हिं. ढाल ) प्र-परि, सु ( भ्वा. प. अ. ), पत् ( भ्वा. प. से. ) प्रस्यंदइच्युत् (भ्वा. आ. से. ) २. 'लुढकना' । सं. पुं., स्र (त्रा) वः, इच्योतः अवपातः । ढलका, सं. पुं., दे. 'ढरका' ( १ ) | ढलकाना, क्रि. स., ब. 'ढल्कना' के प्रे. रूप । ढलना, क्रि. अ. ( हिं. ढाल ) विलाप्य संधाघटू- रच्-क्लप् ( कर्म. ) २. दे. 'ढकना' । ३. व्यति- अति इ ( अ. प. अ. ), व्यतिक्रम् ( स्वा. प. से. ) ४. दे. 'लुढ़कना' ५. प्री ( दि. आ. अ.), अनुकूली भू ५. अस्तं गम् । साँचे में ढला, मु., अति सुन्दर-सुभगशोभन । ढलमल, वि., दे. 'ढीला' । ढलवाँ, वि. (हि. ढालना ) विलाप्य घटित - रचित क्लृप्त २. अवसर्पिन, प्रवण । ढलवाना, क्रि. मे., ब. 'ढालना' के प्रे. रूप । ढलाई, सं. स्त्री. (हिं. ढालना ) विलाप्य घटनंरचनं कल्पनं २. द्रावण विलापन, भृतिः (स्त्री.)। ढहना, क्रि. अ. (सं. ध्वंसनं ) ध्वंस्-अवस्रंस् (भ्वा. आ. से. ), अवपत् ( भ्वा. प. से. ) २.वि.,नशू ( दि. प. वे. ) 1 दहवाना, क्रि. प्रे., व. 'दहाना' के प्रे. रूप । ढहाना, क्रि. स. (सं. ध्वंसनं ) अवस्रंस्- ध्वंस्अवपत्-उन्मूल्-उत्पट्-उच्छिद् उत्सद् (प्र. ) २. विनश् (प्रे.) । सं. पुं., प्र-विध्वंसः, उत्पाटनं, उन्मूलनं, उत्सादनं इ. 1 ढहाने योग्य, वि., विध्वंसनीय, उन्मूलयितव्य इ. । For Private And Personal Use Only Page #301 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ढहानेवाला [ २१३] ढीलापन ढहानेवाला, सं. पुं., विध्वंसकः, उत्पाटकः। । कटकः-कं, नितंबः ४. प्रकारः, विधिः (पु.), ढाँकना, क्रि. स. (सं. ढक्क = छिपाना ) आ- गतिः ( स्त्री.)। प्र-समा-च्छद् (चु.), आ-प्र-सं-वृ ( स्वा उ. ढालना, क्रि. म. (हिं. ढाल ) विलाप्य रचसे.), व्यव-पि,-धा (जु. उ. अ.), अवगुंठ घट क्लप ( प्रे. ) निर्मा० (जु. आ. अ.) (चु.), निगुह ( भ्वा. उ. से., निगृहति-ते) २. ( मद्य) पा ( भ्वा. प. अ.) ३. दे. २. आ-,स्तृ ( स्वा. उ. अ.) स्त (क. उ. से.)। | 'उँडेलना'। सं. पुं., आ-प्र-समा, च्छादनं, आ-सं-वरणं, | ढालवाँ, वि. (हिं. ढाल ) दे. 'ढलवा' (१-२) । पिधानं, अवगुंठनं, वेष्टन; आस्तरणं इ.। ढालिया, सं. पु. (हिं. ढालना ) पात्रकारः २. ढौंकनेवाला, सं. पुं., आच्छादकः, आवरकः, | पिधायकः। | ढाली, सं. पुं. (सं.लिन्) ढाल-चर्म-फलक,-धाढोंका हुआ, वि., आच्छादित, आवृत, । रिन् २. सैनिकः, योधः । पिहित इ.। ढासना, सं. पुं. ( सं. धा धारण+आसनं>) ढाँचा, सं. पुं. (सं. स्थाता>) आकारः, आधारः, पृष्ठासनं (पृष्ठ-) अवष्टंभ:-अवलम्बनं आधारः उपष्टंभः, संस्थानं, प्रारम्भिक, रूपं-आधारः । २. उपधानं, उपबहः। ढौंपना, क्रि. स., दे. 'ढोकना। | ढिंढोरा, सं. पुं. ( अनु. ढम+सं. ढोल:> ) दे. ढाई, वि. ( सं. अर्द्धद्वितीय > ) सार्द्धद्वि ।। 'डौंडी' (१-२)। ढाक, सं.पं. (सं. आषाढकः) पलाशः, किंशकः, ढिग, क्रि. वि. (सं. दिश> ) समी-पे । पर्णः, यज्ञियः, रक्तपुष्पकः, वातहरः, समि- सं. स्त्री., सामीप्यं, नैकट्यं २. अंतः, प्रांतः । ढिठाई, सं. स्त्री. ( हिं. ढीठ ) पाट यं, प्राग-के तीन पात, मु., सदादरिद्रता, निरन्तर- भ्यं, वैयात्य, अविनयः, अशिष्टता, धृष्टता। निर्धनता। ढिबरी, सं. स्त्री. (हिं. डिब्बी)मृत्तलदीपः-पिका । ढाड़, सं. स्त्री. ( अनु.) चीत्कारः, आक्रन्दः, ढिबरी', सं. स्त्री. (हिं. ढपना ) *वलयकीलउत्क्रोशः २. गजितं, गर्जनं-ना, महा-गंभीर, करोधनी। नादः। ढिमका, सर्व. (हि. अमका का अनु,) अमुक । -मारना, मु., सचीत्कारं-साकंदं रुद् ( अ. ढिलढिला, वि. ( सं. शिथिल ) कोमल, स्निग्धप. से.)। मेदुर, अकठिन । ढाढस, सं. पुं. (सं. दृढ़ >) धीरता, धैर्य, चित्त- ढिल्लूह, वि. ( हिं. ढीला ) गंद, मंथर, अलस । स्थैर्य, शांतिः (सी.) २. सम्-, आश्वासः-सनं, | ढीठ, वि. ( सं. धृष्ट ) अशिष्ट, प्रगल्भ, वियात, सांत्वनं ना ३. साहसं, चित्तदाय॑म् । कु-दुः, शील, विनयविहीन । -देना या बंधाना, मु., आ-समा-श्वस् (प्रे.) ढील, सं. स्त्री. (हिं ढीला) काल, अतिपात:शा ( सां)त्व (चु.), विनुद् (पे.) २. प्रोत्सड् । क्षेपः-यापन-हरणं,विलम्बः, व्याक्षेपः २. आलस्यं, (प्रे.)। मंथरता ३. शिथिलता, शैथिल्यं, श्लथता। ढाना, क्रि. स., दे. 'ढहाना'। -करना, क्रि. अ., कालं क्षिप् (तु. प. अ.), ढाबा, सं. पुं. ( देश. ) भोजन, गृह-शाला विलम्ब ( भ्वा. आ. से.)। २. दे. 'पर छत्ती' । ३. कुङ्कुट, कंडोल:- करंडः । -देना, मु., यथेष्टमाचरितुं अनुमन् (दि. आ. .३. जालम् , पाशः। अ.) अनुज्ञा ( क्र. उ. अ.) २. शिथिली कृ, ढारस, सं. पुं., दे. 'ढाढस । श्लथ् (चु.)। ढाल', सं. स्त्री. ( सं. न.) चर्मन (न.), फलक:- | ढीला, वि. ( सं. शिथिल ) प्र.,इलथ, विगलित, कं, फलम् । | सस्त, अदृढ, असंसक्त, २. अलस, तंद्रिल, ढाल, सं. स्त्री. (सं. धारः>) क्रमशः निम्नता, तंद्रालु, मंद, मंथर ३. काल, अतिपातिन्प्रावण्यं, प्रवणता-त्वं २. निम्नं, प्रवणं, प्रवण- | क्षेपकः। अवसपि, भूमिः ( स्त्री.) ३. पर्वत, उत्संगः, ढीलापन, सं. पुं., दे, 'ढील' । For Private And Personal Use Only Page #302 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir हीह. [२६४ ] तंग ढीह, सं. पुं., दे. 'टीला। । लगाना, क्रि. स., राशी कृ, संचि (स्वा. उ. ढुंढवाना, क्रि. प्रे., ब. 'हूँढना' के प्रे. रूप। अ.)। ढुंढि, पुं. (सं.) गणेशः, गणपतिः। -करना, मु., व्यापद्म (प्रे.)। ढुंढी, सं. स्त्री., (सं. तुंदी ) १. तुंदः-दिः (खी.), ढेरी, सं. स्त्री. ( हिं. देर ) क्षुद्रराशिः (पु.), नाभिः (पुं. स्त्री.) २. बाहुः, भुजः-जी। दे. 'ढेर'। दुकना, क्रि. अ. ( देश.) प्रविश् (तु. प. अ.) ढेला, सं. पुं. (हिं. डला) लोगः, मृत्, खंडः२. सहसा अभिद् (भ्वा. प. अ.)-आक्रम् पिंडः, लोष्ट:-ष्टं, दरिणिः (पुं. स्त्री.) लोष्टुः, (भ्वा. प. से.; भ्वा. आ. अ.)। । २. पिंडः, खंडः-टं ३. धान्यभेदः। दुलकना, कि. अ., दे. 'लुढ़कना' । लैया, सं. पुं. (हिं. ढाई ) साईद्विसेरकात्मकदुलकाना, क्रि. स., दे. 'लुढ़काना'। तोलः २. सार्द्धद्विगुणनसूची। ढुलना, कि. अ., दे. 'ढलकना' २. दे. लुढ़कना' ना ढोंग, सं. पुं. (हिं. ढंग) आडंबरः, दंमः, ३. प्री ( दि. आ. अ.) अनुग्रह, (क्. प. से.), __ पाषंडः-डं, कपट, छमन् (न.), वंचना, प्रतारणा। दय-अनुकंप ( भ्वा. आ. से.)। ढुलवाई, ढुलाई, सं. स्त्री. (हिं. ढुलवाना) ढोंगी-गिया, वि. ( हिं. ढोंग ) दांभिक, वंचक, वाहनं, नयन, हरणं, भरणं २. वाहनवेतनं, प्रतारक, कापटिक, छाभिक, पाषंडिन् । प्रापणनिवेशः। ढोटा, सं. पुं. ( हिं. ढोटी ) पुत्रः २. बालकः । दुलवाना, कि. प्रे., व. 'ढोना' तथा 'दुलना' के ढोटा, सं. स्त्री. ( सं. दुहित ) पुत्री २. बालिका । प्रे. रूप। | ढोना, क्रि. स. ( सं. वोढ वा ऊढ, विपर्यय से दुलाना, कि. प्रे., ब. 'दुलना' तथा 'ढोना' के ढोव ) वह -नी (भ्वा. उ. अ.), ( उत्थाप्य ) ह श्रे. रूप। (भ्वा. उ. अ.)। सं. पुं., वहनं, नयनं, हरणम् । ढूँढ, सं. स्त्री. (हिं. हूँदना) दे. 'खोज'। ढोनेवाला, सं. पुं., मार, वाहकः-हारः । हूँढना, क्रि. क. (सं. ढुंढनं ) दे. खोजना'। इह-हा, सं. पुं. (सं. स्तूपः) राशिः (पु.). 1. ढोर, सं. पुं., दे, 'पशु' । चयः २. वामलूरः, क्षुद्रपर्वतः । ढोल, सं. पुं. (सं.) आनकः, पटहः-हं, हक्का ढेकली, सं. स्त्री. (हिं. ढेक ) जलकर्षणयंत्रं | २. कर्णदुंदुभिः (पुं.)। २. धान्यकुट्टनी ३. वक्रतुंडयंत्रं ( अर्क उतारने ढोलक-की, सं. स्त्री. ( सं. ढोलकं ) भेरी-रिः का यंत्र) ४. दे. 'कलाबाजी। । (स्त्री.), दुंदुभिः (पुं.)। ढेर, सं. पुं. (हिं. धरना>१) राशिः (पुं.), ढोलकिया, सं. पुं. ( सं. ढोलकं > ) ढोलकनिकरः, चितिः (स्त्री.), नि-सं-, चयः, स्तोमः, । वादकः, पटहताडकः । पुंजः, संभारः। वि., प्रचुर. प्रभूत, बहुल, भूरि, ढौंचा, सं. पुं. ( सं. अर्द्ध+ हिं. चार ) सार्द्धचतुविपुल, पर्याप्त । गुणनसूची । ण, देवनागरीवर्णमालायाः पंचदशो व्यंजनवर्णः, । णकारः । त, देवनागरीवर्णमालायाः षोडशो व्यंजनवर्णः, | सुसंहत, गाढ २. अर्दित, उद्विग्न, संतप्त, पीडित, तकारः। विकल ३. विस्तारविरहित, संबाध, संकट, संकुतंक, सं. पुं. (सं.) भयं, भीतिः (स्त्री.), त्रासः | (को) चित, संकीर्ण । सं. पुं., कक्ष्या, नधी, २. कष्टमय क्लेशमय, जीवनम् ३. वियोगदुःखम् वरत्रा। ४. टंकः, तक्षणी। तंग, वि. (फ़ा.) दृढ, शैथिल्यशून्य, संसक्त, ' -दस्त, वि. (फ़ा.) निर्धन, दरिद्र । For Private And Personal Use Only Page #303 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तंगी [ २६५ ] तकल्लुफ़ - -दस्ती, सं. स्त्री. (मा.) अकिंचनता, | तंबीह, सं. स्त्री. (अ.) शिक्षा, अनुशासनं, दारिद्रयम् । उपदेशः। -दिल, वि. (फा.) कदर्य, कृपण, मितंपच । | तंबू, सं. पु. ( हि तनना ) पट,-कुटी-मंडपः-गृह, -आना, या होना, मु., खिद् (दि. रु. आ. दृश्य-व्यं, केणिका, मलनः, स्थूलम् । अ.), संतप् ( कर्म.)। | शाही-, सं. पुं., उपकार्या। -करना, मु., खिद्-व्यथ्-संतप् (प्रे.)। | तंबूर, सं. पुं. (फ़ा.) पटहः, पणवः, मुरजः । हाथ तंग होना, मु., दरिद्रा (अ. प. से.), तंबूरा, सं. पुं. (सं. तुंबर) तानपुरकः, वीणाभेदः। निर्धन (वि.) भू। तंबोल, सं. पुं. (सं. तांबूलं > ) *तांबूलं, *वरतंगी, सं. स्त्री. (फ्रा.) संकोचः, संकीर्णता, | शुल्कः कं (पंजाब ) २. *वरयात्रिव्ययः *तांबूलं विस्ताराभावः, संबाधता २. दृढता, संहतिः (बुंदेलखंड)। सुसंसक्तिः (स्त्री.), गाढता ३. केशः, दुःख तंबोली, सं.पं. (हिं. तंबोल) तांबूलिका, ४. निर्धनता, दरिद्रता ५. न्यूनता । तांबूलविक्रत (पुं.)। तंडुल, सं. पुं.(सं.) दे. 'चावल। तअज्जुब, सं. पुं. ( अ.) आश्चर्य, विस्मयः । तंति, सं. स्त्री. (सं.) रज्जुः ( स्त्री.), गुणः, | तअम्मुल, सं. पुं. ( अ. ) धैर्य, शांतिः ( स्त्री.)। बटी, रशना २. पिंक्तिः (स्त्री.), श्रेणी-णिः - तअल्लुकः, सं. पुं. (अ.) भूमिः (स्त्री.), (स्त्री.)। क्षेत्र २. प्रदेशः, प्रांतभागः, मंडलम् । -पाल, सं. पुं., गोरक्षकः (२) अज्ञातवासे -दार, सं. पुं., भू-क्षेत्र,-स्वामिन् , क्षेत्रपतिः । सहदेवस्य संज्ञा (महा०)। तअल्लुक, सं. पु. ( अ.) संबंधः, संसर्गः।। तंतु, सं. पुं. (सं.) सूत्र, तंत्र, गुणः २. संतानः । तअस्सुब, सं. पुं. (अ.) धार्मिक-जातीय, -वाय, सं. पुं., दे. 'जुलाहा'। पक्षपातः। तंत्र, सं. पुं. (सं. न.) तंतुः (पु.), सूत्रं | तई. प्रत्य. ( प्रा. हंतो ) प्रति. अर्थम । २. तंतु, बाया-वापः, कुर्विदः, पटकारः ३. पट- (इसका अनुवाद प्रायः दितीया या चतुर्थी के निर्माणपरिच्छदः४.संपत्तिः (स्त्री.) ५. अधीनता, | रूपों से करते हैं)। पराश्रयः ६. शासनं, शासनपद्धतिः (स्त्री.) तक, अव्य. (सं.अंत+हिं. क ) यावत् ,-पर्यन्तं७. कारणं ८. कार्य ९. परिवारः १०. सेना आ-(समास में या पंचमीयुक्त)। आमरणं, ११. गारडं, मंत्रः १२. औषधं १३. राज्यं । आमरणात् , मरणं यावत् , मरणपर्यन्तम् इ. । १४. शास्त्रभेदः। तकड़ा, वि. (हिं. तन+कड़ा) वलवत् , तंत्री, सं. स्त्री. (सं.) तंत्रिः (स्त्री.), वीणादीनां सबल, पुष्ट [तकड़ी (स्त्री.)-बलवती, सबला | गुणः २. गुणः, रज्जुः (स्त्री.) ३. वीणा, | तकड़ी, सं. स्त्री. (देश.) तुला, मापनः, घटा, सतंत्रीकं वाचं ४. देहशिरा । सं. पुं. (सं. तोलम् । तंत्रिन ) वीणावादकः २. गायकः ३. सैनिकः। सकदीर, सं. स्त्री., ( अ.) माग्य, दैवम् । तंदुरुस्त, वि. (फा.) स्वस्थ, नीरोग। तकरार सं. स्त्री. (अ.) कलहः, विवादः। तंदुरुस्ती, सं. स्त्री. (फा.) स्वास्थ्यं, नीरोगता। तकरीर, सं. स्त्री. (अ.) भाषणं, व्याख्यानम्। . तंदूर, सं. पुं. (फ़ा. तनूर ) आपाकः, उरवा, | तलका, सं. पुं. [सं. तर्कुः (. स्त्री.) ] तर्कुटें, कंदुः ( पुं.स्त्री.)। कार्पासनासिका। तंदेही, सं. स्त्री. ( फ़ा. तंदिही) परिश्रमः, तकली, सं. स्त्री. ( हिं. तकला ) तर्कुटी. प्रयतः। क्षुद्रत': (पुं. स्त्री.) २. आवापनं, तंतुकीलः । तंद्रा, सं. स्त्री. (सं.) निद्रा, आलस्यं, निद्रा- तकलीफ़, सं. स्त्री. ( अ.) कष्टं, क्लेशः, आपद् लुता, शयालुता, तंद्रालुता । तंद्रालु, वि. (सं.) तंद्रिल, निद्रालु, निद्रा, तकल्लुफ़, सं. पुं.(अ.) शिष्टाचारः, नैयमिकता । पर-वश, सुषुप्सु, शयालु । -करना, शिष्टवत् आचर् (भ्वा. प. से. ), तंबाकू, सं. पुं., दे. 'तमाकू' । शिष्टाचारं दृश् (प्र.)। For Private And Personal Use Only Page #304 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तकवीयत [ २६६ ] तडाक बेतकल्लुफ़, वि., सरल, ऋजु। तगर, सं. पुं. (सं. न.) वक्र, कुटिलं, जिज्ञ, तकवीयत, सं. स्त्री. ( अ० ) पुष्टिः शक्तिः । दीपनम् । (स्त्री.) बलम् । २. सान्त्वन-ना, आश्वासः, | तगाड़, सै. पुं. ( सं. तडागः-गम् > ) सुधाकर्दआश्वासनम् । मादिमिश्रणार्थ कुंडम्, तडागः। तकसीम, सं. स्त्री. (अ.) अंशनं, विभागः, तगादा, सं. पुं., दे. 'तक़ाजा'। विभागपरिकल्पनं २. बंटनं, संप्रविभागः। तज, सं. पुं. (सं. त्वचं) बहुगंधं, मुखशोधनं, करना, क्रि. स., मज-विभज् ( म्वा. उ. अ.)। उत्कट, गंधवल्क, सिंहलम् । २. बंट-व्यंश (चु.)। तजकिरा, सं. पु. ( अ.) वर्णनं, चर्चा २. जीवतकसीर, सं. स्त्री. (अ.) अपराधः, दोषः।। नचरितम् । तकाजा, सं. पुं. (अ.) ( ऋणशोधनार्थ ) | तजर(रु)बा, सं. पुं. (अ.) संपरीक्षा, प्रयोगः, अनुरोधः, प्रेरणा। परीक्षा-क्षणं, २. अनुभवः, परीक्षालब्ध-अनुमव-करना, ऋणशोधनार्थ सनिबंधं प्रार्थ (चु. जनित, शानं, बुद्धिपरिपाकः।। आ. से.) २. अनुरुध (रु. प. अ.)। -कार, सं. पुं. (फ़ा.) अनुभविन , बहुदर्शिन् । तकाची, सं. स्त्री. (अ.) कृषकेन्यो बीजाद्यर्थ -करना, क्रि. स. अनुभू २. परीक्ष ( भ्वा. दत्तमृणम् । आ. से.), प्रयुज (चु.)। तकिया, सं. पुं. (फ्रा. ) उपधानं, उपबईः तजवीज, सं. स्त्री. (अ.) मतं, मतिः ( स्त्री.), २. आश्रयः, अवलंबः ३. यवनभिक्षुककुटी। तर्कः २. निर्णयः ३. उपायः, युक्तिः (स्त्री.)। -कलाम, सं. पुं. (फ़ा+अ. ) वागाश्रयः, ! तट, सं-पु. ( सं. तटः-टं) तटी-टा, कुलं, तीरं, *सहजवाक्यम् । रोधम् (न.)। क्रि. वि., समीपं-पे। तकुआ, सं. पुं., दे. 'तकला'। तटस्थ, वि (सं.) तीरस्थ, कूलस्थ २. निष्पतक्र, सं. पुं. ( सं. न.) पादांबुसंयुतं दधि (न.), क्षपात, उदासीन, उभयसामान्य, सम, मथितम् । माव-दृष्टि। ततक. सं. पं (सं. न.) त्वक्षणं, तनकरणं, तड़, सं. पुं. (सं. तटः> ) पक्षः, दल:-लम् । काष्ठस्य समीकरणं २. उत्किरणं, उत्कीर्य तड़, सं. पुं. (अनु.)प्रहारजः शब्दः, तड़त्कारः। मूर्तिनिर्माणम् । तड़कना, क्रि. अ. ( अनु. तड़) वि., दल (भ्वा. तक्षण, सं. पुं. ( सं.) पातालस्थो नागविशेषः | प. से.), स्फुट ( तु. प. से.) दृ-भंज-भिद् २. सर्पः, अहिः (पुं.)। (कर्म.) २. क्रुध् ( दि. प. अ.)। तखमीना, सं. पुं. (अ.) अनुमानं २. मूल्य- तड़का, सं. पुं. (हिं. तड़कना ) प्रभातं, विभातं, निरूपणम् । उषस् ( स्त्री. न.), प्रत्यूषः, अहर्मुखम् । तख्त, सं. पु. ( फा.) नृपासनं, सिंहासनं | तड़के, क्रि. वि., प्रत्यूषे, प्रमाते। भद्रासनं २. फलकः-कं, मंचः। तड़प, सं. स्त्री. (हिं. तड़पना) कंपः, स्पंदः, -नशीन, वि. (फ़ा) सिंहासन,-आसीन-आरूढ़ । | स्फुरितं २. संक्षोभः, उपप्लवः, आकुलत्वम् । -पोश, सं. पुं. (फ़ा.) मंचाच्छादनं, फलक- | तड़पना, क्रि. आ (अनु.) क्षुम् (दि., क. प्रच्छदः २. फलकः कं, मंचः ३. दे. 'चौकी'।। प. से., भ्वा. आ. से.) आकुली-क्षुब्धी-विह्वली तरता, सं. पुं. ( फ़ा. ) काष्ठ-दारु, फलकः- भू २. अत्यधिकं अभिलष् ( भ्वा. उ. से.)। फलकं २. पट्टः ३. पीठं, मंचः ४. शव, तड़पाना, क्रि. स., उद्विज् (प्रे.) प्र-वि.सं. फलक-यानं ५. दे. 'क्यारी'। क्षुम् (प्रे.), आकुली कृ। तख्ती , सं. स्त्री. ( फ़ा. तख्ता) क्षुद्रफलक, तड़ड़नाफ, । क्रि. अ., दे. 'तडपना'। पीठिका २. ( काष्ठ-) पट्टी-पट्टिका। तड़फना, ) तगड़ा, वि., दे. 'तकड़ा'। तड़ाक-का, सं. पु. ( अनु.) ताडनध्वनिः (पुं.) तगण, सं. पुं. (सं.) छन्दः शास्त्रे गणभेदः, २. बोटन-भंग,-शब्दः-विरावः । अन्तलघुर्गणः । ( उ० तूफान, तेंतीस) तडाक, सं. पुं. (सं. पुं. न.) दे. 'तालाब' । For Private And Personal Use Only Page #305 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra तड़ा तड़ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [ २६७ ] तड़ातड़, क्रि. वि., (अनु. ) सतडतडशब्दम् । तडित् सं. स्त्री. ( सं . ) विद्यत् (स्त्री.) चपला, चंचला, शंपा । - पति, सं. पुं. ( सं . ) मेघः, नीरदः । तड़ी, सं. स्त्री. (अनु० ) चपेटः, चपेटिका, चपेट करतल-प्रहारः । तति, सं. स्त्री. (सं.) पंक्ति: श्रेणी (स्त्री.), २. समूह : ३. विस्तारः । ततैया, सं. स्त्री. (सं. तप्त > ) वरट:-टा-टी, इडाचिका, गंधोली, बरल:, वरौल:, विष, शुकः श्रृंगी । तत्काल, क्रि. वि. ( सं.-लं. ) तत्क्षणात, अचि रादेव, सद्य एव, आशु, द्राक्, झटिति, तत्काले । तत्कालीन, वि. ( सं . ) तात्कालिक [ की (स्त्री.)], तदानींतन [ -नी (स्त्री.) ] । तत्क्षण, क्रि. वि. (सं. तत्क्षणं ) दे. 'तत्काल' । तत्व, सं. पुं. ( सं. न. ) तथ्यं याथार्थ्य सत्यं सत्यता, वास्तविकता २. पंचभूतानि ३. मूलकारणं ४. सारः, सार, अंश:- वस्तु (न.) ५. ब्रह्मन् (न.) । - अवधान, सं. पुं. ( सं. न. ) निरीक्षणं अवेक्षणन् । - ज्ञान, सं. पुं. ( सं . न . ) परमार्थ - ब्रह्म, ज्ञानम् । - ज्ञानी, सं. पुं. ( सं . निन् ) । तश्वशः २. -दर्शी, सं. पु. ( सं .- शिन् ) । दार्शनिकः । - वादी, सं. पुं. (सं. दिनू ) तत्रवक्त् (पुं.) २. यथार्थ,-स्पष्ट-वादिन् । वित्, सं. पुं. (सं. विद्) दे. 'तत्त्वज्ञानी' | - विद्या, सं. स्त्री. ( सं . ) दर्शनशास्त्रम् । - वेता, सं. पुं. (सं.- बेत्तृ ) दे. 'तत्त्वज्ञानी' | तत्पर, वि. (सं.) आसक्त, निरत, व्यापृत, समाहित, अभिनि नि, विष्ट, व्यग्र २. एकाग्र, सुसमाहित, सावधान ३. संनद्ध, सज्ज, सज्जीभूत, उपक्लप्त । तत्परता, सं. स्त्री. (सं.) अभिनिवेश:, आसक्ति: (स्त्री.), मनोयोगः, एकाग्रता, एकनिष्ठता, अनन्यचित्तता । तत्पुरुष, सं. पुं. ( सं . ) परमेश्वरः २ समासभेदः ( व्या.) । तत्र, अन्य. ( सं . ) तस्मिन् स्थले -स्थाने । तथा, अव्य. (सं.) च, ( द्वन्द्व समास से भी; तनहा उ. राम तथा श्याम = रामश्यामौ इ. ) २. तादृश, तत्सम, तत्तुल्य । तथापि, अव्य ( सं . ) तदपि तत्रापि, एवं सत्यपि । तथास्तु, अव्य. ( सं . ) एवं अस्तु भवतु | तथ्य, सं. पुं. ( सं. न. ) यथार्थता, सत्यं, सत्यता । तदंतर ) क्रि. वि. ( सं . तदनंतरं ) तदनु, तदनंतर तत्पश्चात्, ततः, अथ, अनन्तरम् । तद्नुरूप, वि. ( सं . ) तत्सदृश, तत्तुल्य, तदाकार | तदनुसार, वि. ( सं . ) तदनुकूल, तदनुरूप । तदबीर, सं. स्त्री. ( अ ) साधनं, उपाय:-युक्तिः (eft. ) ! तदा, क्रि.वि. (सं.) तस्मिन् काले समये । तदाकार, वि. (सं.) तद्रूप २. तन्मय । तदीय, सर्व . ( सं . ) तत्संबंधिन्, तस्य । तदुपरांत, क्रि. वि., दे. 'तदनंतर' | तद्धित, सं. पुं. ( सं . ) प्रत्ययभेदः ( व्या. ) २. तद्वितांतशब्दः । तद्रूप, वि. (सं.) सदृश-क्ष [ शी-क्षी (स्त्री.) ], तदाकार । तद्वत्, अव्य. ( स. ) तत्सदृशं तत्तुल्यम् । तन, सं. पुं. [फा. । मि., सं. तनुः (स्त्री.) ] देद्दः, शरीरं, वपुस् (न.), गात्रम् । - मन, सं. पुं., तनुमनसी देह देहिनौ (द्वि.) । - मन मारना, मु, कामान् अव-नि-सं-रुध् ( रु. उ. अ. ) - मन से, मु., सावधानं, अनन्यवृत्त्या सर्वात्मना एकाग्रचित्तेन (तृ. एक ) । तनख्वाह, सं. स्त्री. ( फा . ) दे. 'वेतन' । तनना, क्रि. अ. ( सं. तननं > ) प्र-वि-तन् ( कर्म. ), प्र-, लंबू ( भ्वा. आ. से. ), प्रसृ ( वा. प. अ. ), विस्तृ ( कर्म. ) २. उच्छ्रितउत्तान उन्नत (वि.) स्था भ्वा. प. अ. ) ३. रुष (दि. प. से; चु. ) । तनय, सं. पुं. (सं.) पुत्रः, सूनुः (पुं.), आत्मजः । तनया, सं. स्त्री. ( सं . ) पुत्री, दुद्दित् ( स्त्री. ), आत्मजा । तनहा, वि. ( फा . ) एकल, एकाकिन्, असहाय । क्रि. वि., एव, केवलम् । For Private And Personal Use Only Page #306 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तनहाई [ २६८ ] तब त तनहाई, सं. स्त्री. ( फा.) विजनता, विविक्तता । दाहः, तपः २. सूर्यः ३. सूर्यकांतरत्नं २.विजनं, विविक्तं ३. एकाकिता, असहायता। | ४. ग्रीष्मः। तनाज़ा, सं. पुं. (अ.) कलहः, कलिः (पं.)| तपना, क्रि. अ. ( सं. तपनं ) तप (भ्वा. प. २. वैमनस्यं, शत्रुता। अ. ), दीप् ( दि. आ. ले. ), उष्णी भू तनिक, वि. (सं. तनुक ) अल्प, स्तोक, अणु । २. संतप-क्लिश पीड् ( कर्म.), व्यथ् ( भ्वा. क्रि. वि., किंचित् , स्तोकं, ईषत् , मनाक् आ. से.)। ( सब अव्य.)। तपश्चर्या, सं. स्त्री. (सं.) दे. 'तप । तनी, सं. स्त्री. (हिं. तानना ) बंधः, बंधनं, बंधनी। तपस्विनी, सं. स्त्री. (सं.) तापसी, तपोधना तनु, सं. स्त्री. (सं.) तनूः ( स्त्री.), देहः, । २. प्रतिव्रता ३. दीना। कायः, वपुस ( न.) २. त्वच (स्त्री.) ३. नारी। | तपस्वी, सं. पुं. (सं.,स्विन्) तापसः, तपोधनः, वि., कृश, दुर्बल, क्षीणकाय २. अल्प, दभ्र | पारि (र) कांक्षिन् , पारिकांक्षकः, यतिः (पुं.) ३. कोमल, पेलव ४. सुंदर, उत्कृष्ट। २.दीनः, दरिद्रः। -कूप, सं. पुं. (सं.) रो (लो)म, कूपः-रंध्रम् । | तपाक, सं. पु. ( फा. ) आवेशः, आवेगः, -धारी, वि. ( सं.-रिन् ) देहिन् , शरीरिन् , २. शीघ्रता। तपाना, क्रि. स., ब. 'तपना' के प्रे. रूप । प्राणिन् । तपी, सं. पुं. (हिं. तप) दे. 'तपस्वी'। तनुज,सं. पुं. ( सं.) पुत्रः, आत्मजः, सूनुः । तपेदिक, सं. पुं. (फ़ा. तप+अ. दिक) तनुजा, सं. स्त्री. (सं.) पुत्री, आत्मजा, तनया। । क्षयरोगः, राजयक्ष्मन् (पुं.)। तनू, सं. पुं. (सं. स्त्री. ) देहः, कायः। | तपोधन, सं. पुं. (सं.) तपो, निष्ठः निधिः-राशिः -उद्भव, सं. पुं. (सं.) पुत्रः, तनुजः । (पु.), तपस्विन् । -उद्भवा, सं. स्त्री. (सं.) पुत्री, तनुजा।। तपोबल, सं. पुं. (सं. न.) तपस्याशक्तिः (स्त्री.) । तनूर, दे. 'तंदूर। तपोभूमि, सं. स्त्री. ( सं.) तपस्यास्थानम् । तन्मनस्क, वि. (सं.) तल्लीन, तन्मय । तपोवन, सं. पु. ( सं. न.) तपस्यारण्यम् । तन्मात्रा, सं. स्त्री. (सं.-त्रम् ) सूक्ष्ममूलतत्वम् तप्त, वि. (सं.) उष्ण, तापित, दे. 'गरम' (उ. शब्दः, स्पर्शः, रूपं, रसः, गंधः)। २. दुःखित, पीडित, क्लेशित । तन्मय, वि. (सं.) नि-, मग्न, दत्तचित्त, अव- | तफरीक, सं. स्त्री. ( अ.) व्यवकलनं, विवर्जनं, हित, आसक्त, लीन, निरत,-पर,-परायण ।। उद्धारः। तन्वी, सं. स्त्री. (सं.) तन्वंगी, कोमलांगी, -करना क्रि. स., व्यवकल-विवृज ऊन् (चु.), कृशांगी। उद्घ ( भ्वा. प. अ.)। तप', सं. पु. [ सं. तपस् (न.) ] तपस्या, तकरीह, सं. स्त्री. (अ.) प्रसन्नता, मोदः २. तपः, व्रतादानं, नियमस्थितिः ( स्त्री.), परि- | विनोदः, परिहासः ३. भ्रमणम् । व्रज्या, व्रतचर्या । तफ़सील, सं. स्त्री. ( अ.) विवरणं, विस्तारः -करना, क्रि. अ., तपस्यति ( ना. धा.),तपः। २. विस्तृतवर्णनं ३. टीका, व्याख्या ४. सूची। तप (दि. आ. आ.) या आचर् (भ्वा. प. से.) । तब, क्रि. वि. ( सं. तदा) तदानी, तस्मिन् तप, सं. पुं. (सं.) तापः, दाहः, उष्मः, काले २. ततः, तत्पश्चात्, तदनु, तदनन्तरं, ऊष्मन् (पुं.) २. ग्रीष्मः ३. ज्वरः। ततः परं ३. अतः, अनेन कारणेन, इति हेतोः। तपक, सं. स्त्री. (हिं. तपकना) आकस्मिक, -तक, क्रि. वि., तावत्, तावत्, काल-पर्यन्तम्। प्रकंपः-स्फुरणं-आकर्षः। -भी, क्रि. वि., तदापि २. तथापि, तदपि, एवं तपकना, क्रि. अ. (हिं. तमकना ) स्फुर ( तु. | सत्यपि । प. अ.), अकस्मात् कंप-स्पंद् (भ्वा आ. से.)। -से, क्रि. वि., ततः-तदा, प्रभृति-आरभ्य । तपन, सं. पुं. (सं. न.) तापः, उष्मन् (पुं.), -ही, क्रि. वि., तदैव, तत्कालं, तत्क्षणं, द्राक्। For Private And Personal Use Only Page #307 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तबदील [ २६९ ] तबदील, वि. (अ.) परिवर्तित, अन्यथाकृत | करना, क्रि. स., परिवृत् ( प्रे. ) । तबदीली, सं. स्त्री. ( अ ) परिवर्तः, र्तनं, परिवृत्तिः (स्त्री.), विपर्ययः २. विकारः, विकृतिः (स्त्री.)। तबलची, सं. पुं. (अ. तबल: ) *तबलकवादकः । तबला, सं. पुं. ( अ. तबल: ) तबलकौ (द्वि.), वाद्यभेदः । तबाशी (ख़ी) र, सं. पुं. ( सं . तवक्षीरं ) यवजं, यवजोद्भवं, पयःक्षीरं, गोधूमजं २. वंशरोचना, कक्षीरा-री, वंशी, वैणवी । तबाह, वि. (फ़ा. ) ध्वस्त, नष्ट, उत्सन्न । तबाही, सं. स्त्री. (फ़ा.)प्र.वि, ध्वंसः, वि., नाशः । तब (बी) अत, सं. स्त्री. (अ.) चिन्तं, मानसं, चैतस्-मनस् (न.) अन्तःकरणं, हृदयं, स्वान्तं २. प्रकृतिः (स्त्री.), स्वभावः । - आना, ( कर्म. ) । मु. सिंह ( दि. प. से. ), अनुरंज - बिगड़ना, मु., रुग्ण (वि.) भूः विवमिषति ( सन्नंत ) । तबीब, सं.पुं. (अ.) वैद्यः, चिकित्सकः, भिषज(पुं.)। तबेला, सं. पुं. (अ.) मंदुरा, अश्व-वाजि, शाला । तभी, क्रि. वि. (हिं. तब + द्दी ) तत्क्षणं, तत्कालं, तदैव २. तेनैव कारणेन, इति हेतोः । - से, क्रि. वि., तदारभ्य ततः प्रभृति । तमंचा, सं. पुं. (फ़ा. ) दे. 'पिस्तौल ' । तम, सं. पुं. [ तमस् (न.) ] अन्धकारः, तिमिरं, ध्वान्तं तमिस्रं स्रा २. प्रकृतेस्तृतीयो गुणः ( साख्य ) ३. क्रोधः ४. अज्ञानं, अविद्या ५. कालिमन् (पुं. ), इयामता ६. मोह: ७. पापं ८. नरकः-कम् । तमअ, स्त्री. (अ.) इच्छा २. लोभः । तमक, सं. स्त्री. (हिं. तमकना ) आवेशः, उद्देगः २. क्षिप्रता, त्वरा ३. क्रोधः, कोपः ४. दर्पः, अभिमानः ५. ( कोपादिभ्यः ) अरुणा ननता । | तमकना, क्रि. अ. (अनु.)(कोपादिभ्यः) अरुणानन लोहितवदन (वि.) भू २. अत्यन्तं कुप् ( दि. प.से.) । तमग़ा, सं. पुं. ( तु.) पदक, कीर्ति प्रतिष्ठा, मुद्रा । तमधर, पुं. (सं. तमीचर: ) राक्षसः, निशा चरः, पिशाचः २. उलूकः, धूकः, कौशिकः । तमोगुण तमचुर, चूर-चोर, सं. पुं. ( सं . ताम्रचूड : ) कुङ्कटः, कालज्ञः, चरणायुधः । तमतमाना, क्रि. अ. (सं. ताम्र > ( क्रोधात - पादिभ्यो मुखं ) अरुणी रक्ती भू, अरुणाननलोहितमुख (वि.) जन् ( दि. आ. से. ) । तमतमाहट, सं. स्त्री. ( हि तमतमाना ) ( क्रोधादिजा ) अरुणवदनता, लोहिताननता । तमन्ना, सं. श्री. ( फ़ा. ) अभिलाषः, आकांक्षा । तमस, सं. पुं., दे. 'तम' । तमस्सुक, सं. पुं. (अ.) ऋणपत्रं, समयलेखः, अधिकरणिकपत्रम् । तमा, सं. स्त्री. (अ. तमअ ) लोभः, वित्तेहा | तमाकू -खू, सं. पुं. ( पुर्त. टबैंको ) ताम्रकूट:, तमाखुः वज्रभृंगी, कृमिघ्नी, धूम्रपत्रिका, क्षारपत्रा, सुरती । -पीना, क्रि. स., धूमं पा ( भ्वा. प. अ. ), धूमपानं कृ । तमाचा, सं. पुं. ( फ़ा. ) दे. 'चपत' । तमाम, वि. ( अ ) समस्त, समग्र, सम्पूर्ण २. समाप्त, अवसित । काम तमाम करना, मु., व्यापद - मृ ( प्रे.) । तमाल, सं. पुं. (सं.) कालस्कन्धः, काल-नील,तालः, महाबलः । तमाशबीन, सं. पुं. ( अ. तमाशः + फ़ा बीन ) दर्शकः, प्रेक्षकः २. पार्श्व-समीप, स्थः ३. सामाकिः, पारिषद्यः ४. वेश्यागामिन् । तमाशबीनी, सं. स्त्री. ( अ. + फ़ा. ) वेश्यागामित्वम् । तमाशा, सं. पुं. (अ.) नाटकं २. रूपर्क. कौतुकं, चमत्कारः, दृश्यं ३. अदभुत विलक्षण, व्यापारः । -करना, क्रि. स., नट्-निरूप- प्रयुज् (चु.), अमिनी (भ्वा. प. अ.) । - करनेवाला, सं. पुं., नटः, अभिनेतृ ( कुं. ) । -गाह, सं. स्त्री, रंग, शाला-भूमिः (स्त्री.), नाटकगृहम् । तमाशाई, दे. 'तमाशबीन' । तमीज, सं. स्त्री. (अ.) विवेकः, परिच्छेदः, विवेचनशक्तिः ( स्त्री. ) २. ज्ञानं, बोधः ३. सभ्यता, शिष्टाचारः, विनयः । तमोगुण, सं. पुं. (सं.) प्रकृतेस्तृतीयः (अधमः) गुणः । For Private And Personal Use Only Page #308 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तमोगुणी [ २७० ] तरसना तमोगुणी, वि. ( सं.-णिन् ) अधमवृत्तिक, तमो- तरणि, सं. स्त्री. (सं.) तरणी, नौका । सं. पुं., गुणप्रधान । सूर्यः २, किरणः । तमोली, सं. पुं. दे. 'तम्बोली'। -तनजा, सं. स्त्री. (सं.) यमुना। तय, वि. ( अ. ) समाप्त, अवसित २. निश्चित, तरणी, सं. स्त्री. (सं.) दे. 'नाव' । नियत ३. निर्णीत । तरतीब, सं. स्त्री. (अ.) अनुक्रमः, विन्यासः, तरंग, सं. स्त्री. (सं. पुं.) भंगः, भंगी-गिः(स्त्री.) व्यवस्था, यथास्थानं स्थितिः ( स्त्री.)। वीची-चिः (स्त्री.), ऊर्मा-मिः (स्त्री.). लहरी. -वार, क्रि. वि., यथाक्रम, क्रमशः, कमेण । रिः (स्त्री.) कल्लोलः, जललता, उत्कलिका तरदीद, सं. स्त्री. ( अ.) प्रत्याख्यानं, खण्डनं, २. स्वरलहरी, ३. मानसलहरी, चित्ततरंगः, निरासः, निराकरणम् । छन्दः, छन्दस् (न.)। तरना, क्रि. स. (सं. तरणं ) दे. 'तैरना' (२.), तरंगित, वि. (सं.) कल्लोलमय [ यी (स्त्री.)], मोक्ष-मुक्ति-निःश्रेयसं अधिगम् । नतोन्नत- भंगिमत् [ ती (स्त्री.) । तरफ़, सं. स्त्री. ( अ.) दिश् (स्त्री.), दिशा, आशा, काष्ठा, ककुभ-हरित ( स्त्री. ) २. पावःतरंगी, वि. सं.-गिन् ) सभंग, ऊर्मिमत् , श्वे, पक्षः । क्रि. वि., अभि, प्रति, अभिमुखं, कलोलवत् २. स्वैर, स्वैरिन् , कामचारिन् , उद्दिश्य, दिशि, दिशायाम् । स्वच्छन्द । -दार, सं. पुं., पक्षपातिन् , पक्ष्यः, पक्षीयः, तर, वि. (फ्रा.) आई, क्लिन्न २. शीतल ३. पाय( किंव)कः। हरित, सरस ४. स्निग्ध, चिकण ५. समृद्ध, -दारी, सं. स्त्री., पक्ष, पातः-अवलम्बनं-ग्रहणम् । धनाढ्य । -दारी करना, क्रि. स., पक्षं अवलम्ब ( भ्वा. तरकश, सं. पुं. ( फ़ा.) इषुधिः (पुं.), निषंगः, | आ. से. )-ग्रह (क. प. से.)। तूणीरः-रम् । दोनों-क्रि. वि., उभयतः, उभयत्र ।। तरकारी, सं. स्त्री. (फ़ा. तरः-शाक ) शाकः कं, | सब-या चारों-, क्रि., वि., समन्तात् , शिग्रुः ( पुं.), हरितकं २. पक्कशाकः-फं, व्यानं समन्ततः, चतुर्दिक्षु, सर्वत्र, विश्वतः, परितः, ३. मांसम् (पंजाब) अभितः । तरकी, सं. स्त्री. [ सं. ताट(ड)कः ] कर्ण, दर्पणः- | तरफ़ैन, सं.पु. (अ.) उभौ पक्षौ, अर्थिप्रत्यार्थिनौ । मुकुरः, कर्णिका, कर्णभूषणभेदः । तरबूज़, सं. पुं. (सं. तरंबुजं । मि. फ़ा. तर्बुज़ ) तरकीब, सं. स्त्री. ( अ.) युक्तिः (स्त्री.), कालिंग, गोडंबं, सेट, ( न.), मांसफलम् । उपायः, प्रयोगः २. रचनाप्रणाली, निर्माण- तरमीम, सं. स्त्री. (अ.) संशोधनं, विशुद्धिः विधिः (पुं.)। (स्त्री.)। तरकी, सं. स्त्री. ( अ. ) उन्नतिः-वृद्धिः ( स्त्री.)। तरल, वि. (सं.) चंचल, कम्प्र, कंपन २. तरखान, सं. पुं. (सं. तक्षन् ) वर्द्धकिनः-किन् अनित्य, क्षणिक ३. द्रव, प्रवाहिन् ४. भासुर, भास्वर । तक्षकः, त्वष्ट, छादः। तशीब, सं. स्त्री. ( अ. ) प्रेरणा, उत्तेजना, तरला, सं. स्त्री. (सं.) यवागूः, श्राणा, उष्णिका २. सुरा ३. मधुमक्षिका ।। प्रोत्साहनन् । -देना, क्रि. स., प्रेर-प्रोत्सद् उत्तिज प्रवृत् (प्रे.) तरवन, सं. पुं., दे, 'तरकी' २. दे. 'कर्णफूल'। तरवर, सं. पुं. (सं. तरुवरः) महावृक्षः २. तरजीह, स्त्री. ( अ.) अधिमानं, अधिक, रुचिः पादपः। (स्त्री.)-अनुरागः-मानं, वृतिः ( स्त्री. ) वरता। तरस, सं. पुं. (सं. त्रसः> ) कृपा, अनुकम्पा, तरजुमा, सं. पुं. (अ.) दे. 'अनुवाद'। करुणा। तरजुमान, सं. पुं. (अ.) अनुवादकः, भाषा-|-खाना, क्रि. स., दय् ( भ्वा. आ. से; षष्ठी के न्तरकारः। साथ ), अनुकम्प (भ्वा. आ. से.), दयां कृ तरण, सं. पुं. (सं.न.) पारगमनं, प्लवनपूर्वक- | ( सप्तमी के साथ )। देशान्तरगमनं, सन्तरणम् । | तरसना, क्रि. अ. ( सं. तर्षणं) तृष् (दि. प. For Private And Personal Use Only Page #309 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तरसाना [२१] तलना से, ), अत्यन्तं अभिलष् ( भ्वा. दि. प. से.). [ तरुणी, वि. स्त्री. तथा सं. स्त्री. (सं.) युवतिः स्पृह् (चु., चतुर्थी के साथ )-कांक्ष-वांछ ( दोनों (स्त्री.) दे. 'युवती। भ्वा. प. से. ), लब्धुं आकुलीभू । तरेरना, क्रि. स., (सं. तिर्यक् + हि. हेरना) तरसाना, क्रि. स., ब. 'तरसना' के प्रे. रूप। तिर्यक्-वक्र-साचि (सब अव्य० ) हश (भ्वा. तरसों, क्रि. वि. (सं. तृतीय+श्वस ) तृतीयो | प. अ.) २. तर्जनवर्जनार्थ वर्क ईक्ष (भ्वा. गत आगामी वा दिवसः; इतरश्वः ( अव्य.)। आ. से.) तरह, सं. स्त्री. (अ.) जातिः (स्त्री.), प्रकारः, | तरोई, सं. स्त्री., दे. 'तुरई। भेदः, विधा (समासांत में) २. रचनाप्रकारः, तरौना, सं. पुं., दे. 'तरकी' २. दे. 'कर्णफूल' घटनं ३. शैली, रीतिः (स्त्री. ) प्रणाली ४. तर्क, सं. पुं. ( सं. ) हेतुः ( पु. ), युक्तिःयुक्तिः (स्त्री.), उपायः ५. वत-इव तुल्य, उपम । उपपत्तिः (स्त्री.) २. आन्वीक्षिकी, न्यायः, अच्छी-, क्रि. वि., सम्यक् , साधु, सुधु ( सब ऊहापोहः ३. विदग्धोक्तिः (स्त्री.) ४. व्यंग्यम् । व्य), सु-(समासादि में)। -वितर्क, सं. पुं. (सं.) वादविवादः, वादइस-क्रि. वि., इत्थं. एवं, अनया रीत्या। | प्रतिवादः, हेतुवादः २. संशयः, संदेहः, उस-, कि. वि., तथा, तया रीत्या। विकल्पः, आ-परि-वि-शंका। किस-, क्रि.वि., कथं, केन प्रकारेण । -विद्या, सं. स्त्री. (सं.) तर्क-न्याय, शास्त्र. जिस-, कि. वि., यथा, येन प्रकारेण । विद्या, तर्कः, न्यायः। बुरी-, क्रि.वि., कु,दुर- असम्यक् इ.। तके, सं. पुं. (अ.) त्यागः, विसर्जनम् । हर-क्रि. वि.- सर्वथा, सर्वप्रकारेण । तर्कश, सं. पुं., दे. 'तरकश' । -देना, मु. उपेक्ष-क्षम् ( भ्वा. आ. से.)। तर्ज, सं. स्त्री. (अ.) रीतिः (स्त्री.), शैली, तराई, सं. स्त्री. ( सं. तलं> ) उपत्यका, पर्व | प्रकारः २. रचनाप्रकारः, घटनम् । तासन्नभूः ( स्त्री.)। तर्जन, सं. पुं. (सं. न. ) तर्जना, भयप्रदर्शनं, तराज़ , सं. पुं. स्त्री. (फा.) तुला, मापनः, भर्सनम् , दे. 'डॉटडपट'। घटः, तुलायंत्रं, तौलम् । तर्जना, क्रि. स. ( सं. तर्जनं ) दे. 'डॉटना'। -की रस्सी, सं. स्त्री., शिक्या। तर्जनी, सं. स्त्री. (सं.) प्रदेशिनी, अंगुष्ठतराबोर, वि. (फ़ा. तर+हि. बोरना ) अति, समीपांगुली। सिक्त-क्लिन्न । तर्पण, सं. पुं. ( सं. न. ) तृप्तिः (स्त्री.), तरावट, सं. ली. ( फ़ा. तर ) आर्द्रता, | प्रीणनं, संतापणं २. पित्रादिभ्यो जलदानं क्लिन्नता २. शीतलता ३. क्लातिहरः पदार्थः । (धर्म.)। ४. स्निग्धभोजनम् । | तल, सं. पुं. (सं. पुं. न.) मूलं, अधोभागः, तराशना, कि. स. ( फा. ) दे. 'काटना', । २. बुध्नः, उपष्टम्मः ३. पाद-चरण,-तलं 'कतरना। ४. करतलः-लं, प्रहस्तः । ४. चपेटः, चर्पटः तरी, सं. स्त्री. (सं.) तरिः ( स्त्री.), नौका। नरक-पाताल,-विशेषः। तरी, सं. स्त्री. ( फ़ा. ) आर्द्रता, क्लिन्नता | तलक, अव्य., दे. 'तक' । २. शीतलता ३. उपत्यका ४. कच्छः छम् । तलख, वि. (फ्रा.) कटु, कटुक २. अप्रिय, तरीका, सं. पुं. (अ.) रीतिः (स्त्री.), प्रकारः, अनिष्ट । शैली २. आचारः, व्यवहारः, अनुसारः तलछट, सं. स्त्री. (सं. तलं+ हिं. छंटना) ३. उपायः, युक्तिः (स्त्री.)। तलमलं, किल्क, किट्ट, खलं, मलः-लं, शेषः-पं, तरु, सं. पुं. (सं.) पादपः, द्रुमः, दे. 'वृक्ष। । उच्छिष्टं, अव-सं, करः, असारः। तरुण, वि. तथा सं. पुं. (सं.) युवकः, दे. तलना, क्रि. सं. (सं. तलनं), (घृततेलादिषु) 'जवान। । भस्ज् ( तु. उ. अ. भृजति, चु. भर्जयति ). तरुणाई, सं. स्त्री. (सं. तरुण> ) यौवनम् , | पच् ( भ्वा. प. अ. )-भृज ( भ्वा. आ. से., दे. 'जवानी' J भर्जते), तल ( भ्वा, प. से., पाकराजेश्वर )। For Private And Personal Use Only Page #310 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तलफना [ २७२] तसलीम सं. पुं., (घृतादिषु ) मर्जनं पचनम्। अधः, अधस्तात , उपरि, उपरिष्टात् वा तला हुआ, वि., भ्रष्ट, भर्जित, घृतपक्क इ.। २. अक्रम, विपर्यस्तं, संकीर्ण, अव्यवस्थितम् । तलफना, क्रि. अ., दे. 'तड़पना' । | तलैया, सं. स्त्री. (हिं. ताल ) क्षुद्र-लघु, तडागःतलफी, सं. स्त्री. (फ्रा.), ध्वंसः, विनाशः २. कासारः-सरस (न.), क्षतिः-हानिः ( स्त्री.)। तल्प, सं. पुं. ( सं. पुं. न.) आस्तरः, आस्त. तलफ फुज, सं. पुं. (अ.) उच्चारणम्, भाषण- रणम् विस्तरः २. पत्नी, भार्या । विधिः (पुं.)। -कीट, सं. पुं. (सं.) ओकणः, मत्कुणः, तलब, सं. स्त्री. ( अ.) वेतनं, भूतिः ( स्त्री.)| उद्देशः। २. आकारणं, आह्वानं ३. लिप्सा । | -ज, सं. पुं. (सं.) नियोगज,-पुत्रः-सुतः, तलबगार, वि. (मा.) इच्छुक २. प्रार्थिन् । क्षेत्रजः । तलबाना, सं.पु. (फ़ा.) *आकारण-आह्वान, तल्ला, सं. पुं. (सं. तल:-लम् ) उपानत्तलम् । शुल्कः कं २. साक्ष्यशुल्कः कम् ।। २.दे. 'मंज़िल'। तलवी, सं. स्त्री. (अ.) आकारणं-णा, आह्वानम् । तवर्ग, सं. पुं. (सं.) तकारादिवर्णपंचकम् । तलवा, सं. पुं. (पुं. तल:-लं) चरण-पाद, तलम् । तवा, सं. पुं. ( हिं. तवना ) तप्तकम् । -चाटना, -तले हाथ रखना, मु, दे. 'खुशामद करना) तवाजा, सं. स्त्री. (अ.) सत् ,कार:-कृतिः-सहलाना, (स्त्री. )-क्रिया, अतिथि, सेवा-सत्कारः, आतिथ्य -तलवार, सं. स्त्री. [सं. तरवारिः (पुं.)] २. निमंत्रणम् । खड्गः, असिः. निस्त्रिंशः, चंद्रहासः, कौक्षेयकः, तवारीख, सं-स्त्री. ( अ., तारीख का बहु.) दे. करवा(पा)ल:, कृपाणः-णी, ऋ(रि)ष्टि. (पुं.), 'इतिहास'। श्रीगर्भः, विजयः, दरासदः, धर्मपालः। तवी, सं. स्त्री. (हिं. तवा) ऋची(जी)षम् । -खींचना, कि. स., असि कोशात् उद्धृ- तशनीस, सं-स्त्री. (अ.) रोग,-निर्णयः-निदानम् । निष्कृष ( भ्वा. प. अ.)। | तशरीफ़, सं.ली. (अ.) महत्त्वं, गुरुत्वं, प्रतिष्ठा । -चलाना, क्रि. स., खडगं चल ( प्रे.), रखना, मु. उपविश् ( तु. प. अ.), विराज असिना प्रह ( भ्वा. प. अ.)। (भ्वा. आ. से.) -चलानेवाला, सं. पुं., आसिकः, खड्गधरः, ! -लाना, मु., आगम् , आया ( अ. प. अ.)। खड्गिन् । -ले जाना, मु., प्रस्था ( भ्वा. आ. अ.), प्रया तला, सं. पु. ( सं. तल:-लं ) अधोभागः, बुधनः ( उक्त दोनों मुहावरों में आदरार्थ बहुवचन का २. उपानत्तलम् । प्रयोग करना चाहिए। उ. आप तशरीफ़ तलाक, सं. पुं. (अ.) विवाह-दांपत्य-उच्छेदः- रखिए = उपविशन्तु श्रीमंतः इ.)। निराकरणं, त्यागः। तश्तरी, सं. स्त्री. (फ़ा.) शराविका, *स्थालकम् । तलाश, सं. स्त्री. ( तु.) अन्वेषणं, मार्गणम् । तसकीन, सं. स्त्री. (अ.) आ-समा,श्वासःतलाशी, सं. स्त्री. (फ़ा.) देह-गेह-परिच्छद, श्वासनं, धैर्यम् । अन्वेषणा-निरीक्षा। तसदीक, सं. स्त्री. (अ.) सत्यापनं, सत्याकारः। -लेना, क्रि. स., देहं-गेहं-परिच्छदं अन्विष -करना, क्रि. स., सत्यापयति (ना.धा.), (दि. प. से. )-निरूप (चु.) निरीक्ष् ( भ्वा. प्रमाणी कृ । आ. से.)। तसबीह, सं-स्त्री. (अ.) जपमाला, माला। तली, सं. स्त्री., दे. 'तल' तथा 'तला'। तसमा, सं. पुं. (फ़ा) चर्म,पट्टा-बंधः, वधी, तलुआ, सं. पुं., दे. 'तलवा' । नधी २. उपानबंधः। तले, क्रि. वि. ( सं. तलं> ) अधः, अधस्तात् , तसला, सं. पुं. (फ्रा. तश्त ) ऋचीकम् । नीचैः ( सब अन्य.)। तसलीम, सं. स्त्री. ( अ.) नमस्ते, नमस्कारः, -ऊपर या ऊपर तले, क्रि. वि., अन्योन्यस्य प्रामणः २. अभ्युपगमः, अंगी-स्वी, कारः। For Private And Personal Use Only Page #311 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तसल्ली [ २७३ ] ताकना - तसल्ली, सं. स्त्री. ( अ.) सांत्वना, आसन | ताँती, सं. स्त्री. (हिं ताँता) आवली-लि: (स्त्री.), २. शांतिः (स्त्री.), धैर्यम्। । पंक्तिः ( स्त्री.) २. संततिः ( स्त्री.)। तसवीर, सं. स्त्री. (अ.) चित्रं, आलेख्यम्। | ताँती, सं. पुं. (हिं. ताँत ) तंतुवायः-पः, तस्कर, सं. पु. (सं.) चौर: २. दस्युः । | पटकारः। तस्सु, सं. पुं. (सं. त्रिशूक:>) पक्राङ्गलमानम् । तांत्रिक, सं. पुं. (सं.) तंत्रशास्त्रविद् (पुं.), तह, सं. स्त्री. ('फ़ा.) तलं, अधस्सलं, अधोगागः, २. मोहिन , कुहककारः। वि. तंत्रसंबंधिन् । मूलं २. बुध्नः, उपष्टंभ: ३. तलं, पृष्ठं, पृष्ठभागः ताँबा, सं. पुं. (सं. तानं ) ताम्रकं, म्लेच्छमुखं, ४. स्तरः ५. व्यावृत्तिः (स्त्री.), न्यावर्तन, रवि,-लोहं-प्रियं, मुनिपित्तलं, लोहितायसम् । पट:-टं.भंग:६. तत्त्वं.सारः। तांबूल, सं. पुं. (सं. न.) पर्ण, नागवल्लीदलं, --करना, क्रि. स., पुटयति (ना. धा.), दे. 'पान' २. पर्णवीटी-टिका-टिः (स्त्री.) ३. व्यावृत् (प्रे.), गुणी-पुटी कृ। . पूगं, पूगफलम् । --तक पहुँचना, मु., तत्त्वं अवगम्, रहस्यं | ताई', सं. स्त्री. ( हिं. ताया) ज्येष्ठपितृव्या । विद् ( अ. प. से.)। ताई२, सं. स्त्री., दे. 'तवी'। तहक़ीक़ात, सं. स्त्री. (अ. तहक़ीक का बहु.) ताईद, सं. स्त्री. (अ.) समर्थनं, अनुमोदनं, अनुसंधानं, अन्वेषणं, गवेषणा । । पुष्टिः (स्त्री.), दृढी, करणं-कारः, उपोद्वलनम् । तहखाना, सं. पुं. (फा.) भूमिगृहं, तलगृहं, ताऊ, सं. पुं., दे. 'ताया। . गुप्तिः (स्त्री.), आंतभीमकोष्ठः । बछिया के ताऊ, मु., बलीवर्दः २. मूर्खः । तहज़ीब, सं. स्त्री. (अ.) सभ्यता, शिष्टाचारः। | ताऊन, सं. पुं. (अ.) दे. 'प्लेग'। तहमत, सं. स्त्री. (फा. तहबंद) •पुटबंधः, ताऊस, सं. पुं. (अ.) मयूरः शिखंडिन २. *धौतिका। मयूराकारो वाद्यभेदः। तहरीर, सं. स्त्री. (अ.) लेखः, लिखितं | तख्त ताऊस, सं. पुं., मयूरासनं २. शाहजहा २. लेखशैली ३. नि-प्र,-बंधः ४. प्रमाणपत्रम्।। नस्य मयूरसिंहासनम् । तहलका, सं. पुं. (अ.) दे. 'खलबली'। ताकी, सं. पुं. ( अ.) कुडयविवरं, भित्तिगतःतहस-नहस, वि. (देश.) वि., नष्ट,प्र-वि-,ध्वस्त।। त, आलयः २. कुडय, फलकः-कं ३. असमतहसील, सं. स्त्री. ( अ.) करोद ग्राहः, राज- विषम, संख्या-अंकः । वि. अनुपम, अद्वितीय, स्वसंग्रहः, समाहरणं २. राजस्व, आयः, | निपुण । आगमः, उदयः ३. उपमंडलं ४. उपमंडले- | -जुफ़्त, सं. पुं. (अ.+फा.) समविषमक्रीडा, श्वरकार्यालयः। धूतभेदः। -दार, सं. पुं., उपमंडलेश:-श्वरः । --पर रखना, मु., परित्यज् (भ्वा. प. अ.), -दारी, सं. स्त्री. उपमंडलेश्वर, कार्य-पदम्। उज्झ (तु. प. से.)। नायब तहसीलदार, सं. पुं. (फा.+अ.+फा.) | ताकर, सं. स्त्री. (हिं. ताकना) अवलोकनं, उपमंडलेश्वरसहायकः ।। ईक्षणं, दर्शनम् २. अनिमिषदृष्टिः (स्त्री.) तहाँ, क्रि. वि. (सं. तद ) तत्र, तस्मिन् । ३. अवसरप्रतीक्षा ४. अन्वेषणम् । .. स्थाने, तत्स्थाने। ---झाँक, सं. स्त्री., असकृदवलोकनं २. निभृतं ताँगा, सं. पुं., दे. 'टाँगा' । वीक्षणं ३. निरीक्षणं ४. अन्वेषणम् । तांडव, सं. पुं. (सं. न.) पुरुषनृत्यं २. उद्भत- ताकत, सं. स्त्री. (अ.) बलं, शक्तिः (स्त्री.)। नृत्यं ३. शिवनृत्यं ४. तृणभेदः । -वर, वि. (अ.+फा.) बलवत्, शक्तिमत्ताँत, सं. स्त्री. (सं. तंतुः) आंत्र,-सूत्र-गुणः | | ताकना, क्रि. स. ( सं. तर्कणं> ) अनिमि(मे) २. मौवीं, प्रत्यञ्चा, धनुर्गुण: ३. सूत्र, गुणः घं दृश ( भ्वा. प. अ. )-अवलोक (चु.) २. ४. वीणातंत्र-त्री। निभतं (छिद्रेण ) ईक्ष् ( भ्वा. आ. से.) ३. ताँता, सं. पुं. [सं. ततिः (स्त्री.)] पंक्तिः अव-निर् , ईक्ष् ४. हंतुं निभृतं स्था (भ्वा, (स्त्री.), श्रेणी-णिः (स्त्री.)। . प. अ.)। For Private And Personal Use Only Page #312 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ताकि [ २७४ ] ताना ताकि, अन्य. (फा.) तथा यथा, यथा। ताड़नेवाला, सं. स्त्री., ताडकः; दंडयित तर्जकः । ताकीद, सं. स्त्री. (अ.) प्रबलानुरोधः, दृढा- | ताड़ा हुआ, वि.,ताडित, अभिहत, दंडित, तर्जित। देशः, पुनः स्मारणम् । ताड़ना, क्रि. स. (सं. तर्कर्ण) तक (चु.), --करना, क्रि. स., सानुरोधं आदिश् (तु. प. अनु-मा (जु आ. अ.), अह (भ्वा. आ. से.)। अ.),-पुनः-दृढं स्मृ (प्रे.)। ताड़ी, सं. स्त्री. (सं. ताली) तालकी, ताल, ताग-गा, सं. पुं. (सं. तार्कव>) तंतुः (पु.), रसः-आसवः-मद्यं, तारिका। डोरः, गुणः, शुल्वम् । तात, सं. पु. (सं.) पितृ (पु.), जनकः २. तागड़ी, सं. सी., दे. 'करधनी'। पूज्यः, गुरुः (.) ३. (प्रायः छोटों के लिए ताज, सं. पुं. (अ.) राज-म(मु)कुटं, संबोधन में ) वत्स, प्रिय, अंग। किरीट:-टम्। तातार, सं. पुं. (फा.) दे. 'तूरान'। -पोशी, सं. स्त्रो. (अ.+फा.) राज्याभिषेकः, तातील, सं. स्त्री. (अ.) अवकाशः, अनध्यायमुकुटपरिधापनम् । विश्राम, दिवसः। ताज़गी, सं. स्त्री. ( फ़ा.) हरितत्वं २. प्रफुल्लता तात्कालिक, वि. (सं.) तत्कालभव २. सम३. नवीनता। | कालीन, योगपदिक। ताज़ा, वि. (फा.) हरित, सरस, २. नव, तात्त्विक, वि. (सं.) वास्तविक, यथार्थ, नूतन, प्रत्यग्र ३. श्रान्तिशून्य, सज्ज। । परमार्थ । मोटा-, वि., दृढांग, बलिष्ठ, सबल ।। तात्पर्य, सं. पु. ( सं. न.) अर्थः, आशयः ताज़ियाना, सं. पुं. (फा.) अश्वताडनी, कशा- | अभिप्रायः, भावः २. तत्परता, तत्परायणता । षा, प्रतोदः। | तादात्म्य, सं. पुं. (सं. न.) अभेदः, अभिन्नता, ताज़ी, सं. पुं. (फ्रा.) अरवाश्व: २. मृगया- सायुज्यम्, तद्पता। कुक्कुरः, विश्वकद्रुः (पुं.)। वि., अरबदेशीय । तादाद, सं. स्त्री. (अ. तअदाद) संख्या, गणना । ताज़ीम, सं. स्त्री. (अ.) सत्कारः संमानना। | तादृश, वि. (सं.) तादृक्ष, तत्,-सदृश-तुल्यताज़ीर, सं. स्त्री. (अ.) दंडः, अर्थदंडः, निग्रहः।। समान, तथाविध । ताज़ीराते-हिंद, सं. स्त्री., भारतीयदण्डसंहिता।। तान, सं. स्त्री. (सं.) गानांगविशेषः, आलापः, ताज्जुब, सं. पुं., ( अ. तअज्जुब ) आश्चर्यः | लयविस्तारः २. विस्तृतिः-ततिः (स्त्री.), विस्मयः। विस्तारः। ताड़, सं. पुं. (सं. ताल: ) दीर्घस्कन्धः, ध्वज- -पूरा, सं.पुं. (सं. तुंबरं) *तानपूरः, वीणाभेदः। द्रमः, तरुराजः, महोन्नतः, लेख्यपत्रः २. तानना, क्रि. स. (सं. तनन) प्र-वि-तन् ( त. ताडनं, प्रहारः ३. महा,-रवः-ध्वनिः (पुं.)। | उ.से.), आयम् (भ्वा. प. अ.) दीर्घा कृ. ताड़का, सं. स्त्री. (सं.) राक्षसीविशेषः, सुके विस्तृ-विस्त (प्रे.) लब-प्रस (प्रे.)। तुकन्या। | तानकर, मु., बलेन, पूर्णशक्तथा। ताड़न, सं. पुं. (सं. न.) प्रहरणं, आहननं, तानकर सोना, मु., निश्चितं स्वप (अ. प. अ.)। आघात:, प्रहारः २. तर्जनं ३. दण्डः, शासनं ताना', सं. पुं. (हिं. तानना) तान्तवम् , अग्वा४. गुणनम् । नाहतंतवः (पुं. बहु.)। ताड़ना', क्रि. स. (सं. ताडनं) तट (चु.), -बाना, अन्वानाहतियक्तंतवः (पुं. बहु.), अभिहन् ( अ. प. अ.), आहन् (अ. प. अ.), | तान्तवौतू (पुं. द्वि.)। तुद् (तु. उ. अ.), प्रह (भ्वा. प. अ.), ताना,२ सं. पुं. (अ.), व्यंग्य-वक्र-छेक-भंगि', २. दंड (चु.), शास् ( अ. प. से.) ३. तर्ज वचन-वाक्यं-उक्तिः (स्त्री.), कटाक्षाक्षेपः । निर्भर्त्स (चु. आ. से.)। सं. स्त्री., दे. ताना, क्रि. स. (सं. तापनं) दे. 'तपाना'। 'ताड़न' (१-३)। -मारना, क्रि. स., भग्या-व्यंग्येन आक्षिप ताड़ने योग्य, वि., ताडनीय, आहन्तव्य, दंड्य, | (तु. प. अ.), वक्रोक्तया-कटाक्षेण' उपन्यस तर्जनीय इ.। | (दि. प. से.) व्याहृ (भ्वा. प. अ.)। For Private And Personal Use Only Page #313 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तानाशाह [ २७५ ] तारपीन तानाशाह, सं. पुं. (हि+ फ़ा. ) एक, अधिपतिः - पत्र, सं. पुं. ( सं. न. ) ताम्रपट्ट:- २. शासकः, अधिनायकः । ताम्रफलकः-कम् । तानाशाही, सं. स्त्री. अधिनायकत्वं, ऐकाधि- ताया, सं. पुं. (सं. तातः > ) ज्येष्ठः तातः, ज्येष्ठपितृव्यः पितुरग्रजः । पत्यम् । ताप, सं. पुं. ( सं . ) उ (ऊ)ष्मन् (पुं.), उष्णता, उष्मः, उत्-परि-सं, तापः, दाहः २. ज्वरः ३. दुःखं, कष्टं ४. वेदना, मानसक्लेशः । - तिल्ली, सं. स्त्री, प्लीहाभिवृद्धि: (स्त्री.), प्लीहोदरम् | तापना, क्रि. अ. ( सं: तापनं ) पावकं सूर्यातपं आ-नि-सेव् (भ्वा. आ. से. ) । कि. स., दे 'तपाना' । तापमान, सं. पुं. (सं. न. ) ऊष्ममानम् । -यंत्र, सं. पुं. (सं. न. ) १ - २. ताप ज्वर,मापकम् । तापस, सं. पुं. (सं.) दे. 'तपस्वी' । ताब, सं. स्त्री. ( फा. । मि. सं. तापः ) ऊष्मः, उष्णता २. दीप्ति: (स्त्री.), आभा ३. सामर्थ्य, साहसम् । ताबड़तोड़, क्रि. वि. (अनु.) अनवरतं, अविश्रान्त, सतत, अनवच्छिन्नम् । ताबूत, सं. पुं. (अ.) शव, पेटक:- संपुट: । ताबे, वि. (अ.) अधीन, वशवर्तिन् । ताबेदार, वि. ( अ. + फा. ) आज्ञा-पालक:कारिन् । तार, सं. पुं. ( सं. न. ) रूप्यं, रजतं . २. तारः, धातु, तंतु:- ( पु.)-सूत्रं ३ तड़ित-विद्युत्संदेश :- वार्त्ता ४ सूत्रं, गुण, तंतुः (पुं. ) ५. सततक्रमः, परंपरा ६. नक्षत्रं, तारा, ग्रहः ७. सप्तकभेदः ( संगीत ) । वि., उच्च महत् (ध्वनि आदि) २. भासुर ३. निर्मल, स्वच्छ । तामस, वि. ( सं . ) तमोगुणिन्, तमोगुणयुक्त २. काल, कृष्ण ३. अज्ञ ४. दुष्ट । सं. पुं., सर्पः २. उलूकः ३. क्रोधः ४. अंधकारः । तामसिक, वि. दे. 'तामस' वि. । तामिल, सं. स्त्री. ( देश. ) द्रविडजातिभेद: २. भाषाविशेषः । देना, क्रि. स., विद्युत्संदेश प्रेष् (मे. )-हि ( स्वा. प. अ. ) 1 - कश, सं. पु. ( हिं+का. ) तारकर्ष: र्षकः । सं. पुं., तारगृहम् । - घर, - तार, वि., जीर्ण, विदीर्ण । - बर्की, सं. स्त्री, तड़ित - विद्युत्, -तारः । -तार करना, मु., (वस्त्रादिकं ) तन्तुशः विदृ (प्रे.)- खंड (चु.) । तारका, सं. स्त्री. (सं.) नक्षत्रं, उडुः २. कनीनिका, विबिनी ३. बालिपत्नी । तामजान, सं. पु. ( हिं. थामना + सं. यानं) तारकेश्वर, सं. पुं. (सं.) शिवः, महेशः । शिविकाभेदः । तारकोल, सं. पुं. ( अं. कोलटार दे. ) - टूटना, मु., क्रम:- परम्परा त्रुट् (दि. प. से.) । बाँधना, मु., निरन्तरं विधा (जु. उ. अ. ) - | तारक, सं. पुं. (सं.) तार:-रं-रा, भं., नक्षत्रं २. नेत्रं ३. कनीनिका, नयनतारा ४. मोचकः, मुक्तिद: ५. कर्णधारः । तामरस, सं. पुं. (सं. न. ) रक्तोत्पलं, कोकनदं, तारण, सं. पु. ( सं. न. ) पारनयनं, उत्तारणं, २. सुवर्ण ३. ताम्रम् । संतारणं २. मोचनं उद्धारणं, निस्तारणम् । सं. पुं., तारक: उद्धारकः, भवभय मोचकः २. विष्णुः । तारतम्य, सं. पुं. ( सं. न. ) न्यूनाधिकता, उत्कर्षापकर्षी २. अन्तरं, भेदः । तामिस्र, सं. पुं. ( सं . ) नरकविशेष: २. कृष्णपक्षः ३. क्रोधः ४. द्वेषः । तारना, क्रि. स. (हिं तरना) पारं नी ( वा. प.अ.), उत्-सं-, तू (प्रे.) उत्-, लंघ् (प्रे.) २. मोक्ष ( चु. ), निस्तु (प्रे.), उद, हृ-धृ ( स्वा. प. अ. ), ( पापेभ्यः, भवभयात् ) मुच् (प्र. ) । तामील, सं. स्त्री. (अ.) आज्ञापालन २ निष्प- तारनेवाला, सं. पुं., मोक्षकः, मोचकः, निस्तात्तिः- सिद्धि: (स्त्री.) । रकः, उद्धारकः, मुक्तिदः । ताम्र, सं. पुं. (सं. न. ) ताम्रकं, मुनिपित्तलम् । -कार, सं. पुं. ( सं . ) ताम्र, कुट्टः- उपजीविन् । -चूड़, सं. पु. (सं.) कुक्कुटः । तारपीन, सं. पुं. ( अं. टरपेंटाइन ) सरलचीरपर्ण, तैल, सरल, -द्रवः- रसः - स्यन्दः, शीतलः, श्री, वासः - चेष्टः । For Private And Personal Use Only Page #314 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [ २७६ तासीर - - तारल्य, सं. पुं. ( सं. न. ) तरलत्वं, तरलता, | -वर्ण, सं. पुं. (सं.) तालूचार्यवर्णाः । (इ, ई, द्रवत्वं, प्रवाहिता २. कामुकता, लंपटता, चवर्ग, य् , श)। कामान्धता। | ताला, सं. पुं. (सं. तालक) ताल:, ताल द्वार, तारा, सं. पुं. ( सं. स्त्री.) तारः-रं, तारका, यंत्रम् । उडुः (पुं.), नक्षत्र, ऋक्षं, भं, ज्योतिस (न.) -लगाना, क्रि. स., तालकेन निरुध (रु. उ. २. कनीनिका, बिंबिनी ३. भाग्यं, नियतिः | अ.)-पिधा (जु. उ. अ.)-बंध (क्र. प. अ.)। (स्त्री.)। सं. ली., बालिपत्नी २. बृहस्पति- तालाब, सं. पुं. (हिं. ताल+फा. आब.) भार्या । तडा( टा) ग:-गं, कासारः र, सरस् (न.), -टूटना, क्रि. अ., नक्षत्र-उल्का पत् (भ्वा. पुष्करिणी। प. से.)। तालिका, सं. स्त्री. (सं.) दे. 'ताली' २. सूची-अधिप, सं. पुं. (सं.) चंद्रः २. बालि:(पुं.)। चिः (स्त्री.), अनुक्रमणी-णिका, नामावली--मंडल, सं. पुं. (सं. न. ) उडु-भ-नक्षत्र, लिः (स्त्री.)। गणः। तालिब, सं. पुं. (अ.) अन्वेषकः, अनुसंधात -होना, मु., नभः चुंब ( भ्वा. प. से.), गगनं । (पु.) २. इच्छुकः, अभिलाषिन् । स्पृश (तु. प. अ.)। -इल्म, सं. पुं. (अ.) विद्यार्थिन्, छात्रः । तारीक, वि. (फा. ) काल, कृष्ण २. सतिमिर, तालो. सं. स्त्री. (सं.) तालिका, कुंचिका, निष्प्रभ । कूचिका, अंकुटः, उद्घाटनी, साधारणी । तारीकी, सं. स्त्री. (फ़ा.) कृष्णता २. अंधकारः, ताली२, सं. स्त्री. (सं. तालिका) करताल:तिमिरम् । - लकं, करतल,शब्दः-ध्वनिः (पुं.)। तारीख, सं. स्त्री. ( फा.) तिथिः (पुं. स्त्री.), -बजाना, क्रि. स., करताल वद् (प्रे.)-दा, दिवसः २. नियततिथिः । करतलध्वनि जन् (प्रे.)। तारीफ़, सं. स्त्री. (अ.) लक्षणं, परिभाषा तालोम, सं. स्त्री. ( अ.) शिक्षा, विद्या। २. स्तुतिः-तुतिः ( स्त्री.) ३. वर्णनं ४. गुणः, तालोशपत्र, सं. पु. (सं. न.) तालीश, नीलं, विशिष्टता। धात्रीपत्रम्। तारुण्य, सं. पुं. (सं. न. ) यौवनं, कौमारम् । तालु, सं. पुं. [सं. तालु (न.)] काकुद, तालुकम् । तारेश, सं. पुं. (सं.) विधुः, सुधांशुः, चन्द्रः । | -मूल, सं. पुं. ( सं. तालमूलम् ) काकुदमूलम् तार्किक, सं. पुं. (सं.) तकशास्त्रविद् (पु.), २. गलग्रन्थिः । । २. तत्त्वशः, दार्शनिकः । ताल्लुक, सं. पुं. (अ. तअल्लुक ) सम्बन्धः, ताओं, सं. पु. ( सं.) गरुड़, वैनतेयः, विष्णु- संसर्गः। रथः २. अरुणः ३. अश्व: ४. सर्पः ५. खगः। ताव.सं. पं. (सं. तापः ) दाहः, उ( ऊ ) म:ताल', स. पु. (सं. तल्लः ) दे. 'तालाब'। मन् (पु.), उप णः-णं २. अन्तर्वेग:, आवेश: २. करतल:-लं, प्रहस्त: ३. ताली, करतलध्वनिः ३. त्वरा ४. व्यावर्तनं, मोटनं, आकुञ्चनम् । (पु.), करताल:-लकं ४. संगीते काल-क्रिया, तावान, सं. पुं. (फा.) दण्डः, अर्थ-धन,-दण्डः, मानं ५. मल्लयुद्धे करतलेन बाहुजंघयोरास्फा- निष्कृतिः (स्त्री.), निस्तारः । लनं ६. दे. 'झाँझ'। -देना, कि, स., निष्कृति दा., निस्त (प्रे.)। ताल, सं. पुं. (सं.) तृणराजः, मधुरसः, तावीज़, सं. पुं. (अ. तअवीज़ ) यंत्रं, कवच:, आसवद्रुः (पु.)। । क्षारः २. यंत्रसंपुटः। -से बेताल होना, मु., विताल (वि.) भू। | ताश, सं. पुं. (अ. तास ) क्रीडाप त्राणि ( न. तालमखाना, सं. पुं. (हिं. ताल+मक्खन)। बहु.), क्रीडापत्रावली २. पत्र, क्रीडा-खेला ३. कोकिलाक्षः, काकेक्षुः, कांडेक्षुः, इक्षुरः। दे. 'जरबफ्त'। . तालव्य, वि. (सं.) काकुद-तालु,-संबंधिन्। तासीर, सं, स्त्री. (अ.) गुणः, प्रभावः । For Private And Personal Use Only Page #315 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तास्सुब [ २७७ ) तिरानवे - तास्सुब, सं. पुं. (अ. तअस्तुब ) धार्मिक- तिब्बत, सं. पुं. (सं. त्रिवि (पि ) ष्टपं >) जातीय, पक्षपातः, २. पक्षपातः ३. मतान्धता। । त्रिविष्टपम् । ताहम, अव्य. (फा.) दे. 'तथापि'। तिब्बती, वि. विष्टप, त्रिविष्टप, सम्बन्धितिकोन, सं. पुं. (त्रिकोणः ) त्रिभुजः, व्यस्रम् ।। विषयक। सं. पुं., त्रिविष्टपीयः, त्रिविष्टप,तिकोना-निया, वि. (हिं. तिकोन) त्रिकोण, वासिन्-वास्तव्यः। सं. स्त्री. त्रिविष्टपभाषा, व्यस्र, त्रिकोण-त्रिभुज, आकार। *त्रिविष्टपी। तिक्त, सं. पुं. (सं.) रसभेदः। वि., तिक्त, तिमंज़िला, वि. ( सं. त्रि + अ. मंजिल ) रसस्वाद, तीक्ष्ण, तीव्र। त्रिभूमिक। तिखेंट. सं. स्त्री. (हिं. तीन+खूट) दे. तिकोन'। तिमिर, सं. पुं. (सं. न.) अंधकारः, तमस (न.)। -नाप, सं. स्त्री., त्रिकोणमितिः (स्त्री.)। तिरछा, वि. (सं. तिर्यच ) अवसर्पिन, प्रवण, तिवटा, वि., दे. तिकोना'। तिरश्चीन, वक्र, कुटिल, २. वेषाभिमानिन् । तिगुना, वि. (सं. विगुण ) त्रिगुणित, त्रिरावृत्त, -देखना, क्रि. अ., तिर्यक-वक्रं वीक्ष त्रिगुणीकृत। (भ्वा. आ. से.)। -करना, क्रि. स., त्रिगुणीकृ, त्रिः आवृत्(प्रे.)। तिरछी चितवन या नज़र, मु., तिर्यग-वक्रतिजारत, सं. स्त्री. (अ.) वाणिज्यं, क्रयवि- दृष्टिः (स्त्री.) २. कटाक्ष-अपांग-नयनोपांत, ऋयौ (द्वि.)। वीक्षणं-वीक्षितं, कटाक्षः, भ्रविलासः । तिजारी, सं. स्त्री. (सं.त्रि+ज्वरः ) तृतीयक- तिरछापन, सं. पुं. (हि. तिरछा ) प्रवणता, ज्वरः। तिरश्चीनता, वक्रता, कुटिलता । तितरबितर, वि. (हिं. तिधर+अनु.)| तिरछे, क्रि. वि. (हिं. तिरछा ) तिरः, साचि, आ-प्र-वि,-कीर्ण, विक्षिप्त २. अव्यवस्थित, जिलं ( सब अव्य.)। क्रमशून्य, अस्तव्यस्त । तिरपन, वि. [सं. त्रिपंचाशत् (नित्य स्त्री.)] | तितली, सं. स्त्री. (हिं. तीतर अथवा सं. तिल) सं. पुं., उक्ता संख्या, तदंकौ (५३) च । चित्रपतंगः, तित्तिरी। तिरपाई, सं. स्त्री. ( सं. त्रिपादिका ) त्रिपदिका, तितिक्षा, सं. स्त्री. (सं.) सहिष्णुता, सहनं त्रिपदम् । २. क्षमा, शांतिः ( स्त्री.)। तितिक्ष, वि. (सं.) सहनशील, सहिष्णु तिरपाल, सं. पुं. (अं. टारपालिन) तिदुलिप्तपटः । २. क्षांत, क्षमाशील। तिरसठ, वि. [सं. त्रिषष्टिः (नित्य स्त्री.)]1 तिथि, सं. स्त्री. (सं. पुं. स्त्री.) मितिः (स्त्री.), सं. पुं., उक्ता संख्या, तदंकौ (६३) च। | तिरस्कार, सं. पुं. (सं.) अनादरः, अपमानः, मास-पक्ष,-दिन-दिवसः, चांद्रदिवसः। निकृतिः (स्त्री.), न्यक्कारः, अवज्ञा, अवमातिनकना, क्रि. अ., दे. 'चिड़चिड़ाना। नना, तिरस्क्रिया, मानभंगः २. भर्त्सना, तर्जनं तिनका, सं. पुं. (सं. तृणं), नाल:-लं, पल:, ३. सापमानं त्यागः। पलाल:-लं, त्रिणं, खट, खेटे, हरितं, तांडवं, तिरस्कृत, वि. (सं.)न्यककृत, अनादृत, अपअजुनम्। -दांतों में दबाना या लेना, मु., दे. 'गिड़. अव, मत-मानित, अवशात इ. २. सापमान गिड़ाना। त्यक्त ३. आच्छादित । तिनके का सहारा, मु., ईषत् साहाय्यम् । तिरहुत, सं. पुं. (सं. तीरभुक्तिः> ) मिथिलातिनके को पहाड़ समझना, मु., तिले तालं. प्रदेशः। पश्यति। तिरहुतिया, वि. (हिं. तिरहुत) मैथिल, तिपाई. सं. स्त्री. (सं. त्रिपादिका ) त्रिपदिका, मिथिला-सम्बन्धिन् । सं. पुं., मैथिलः, मिथिलात्रिपदम्। वासिन् । सं. स्त्री., मिथिलाभाषा, मैथिली। तिबारा, क्रि. वि. ( सं. त्रिवार ) त्रिः (अव्य.)। तिरानवे, वि. [सं. त्रिणवतिः (नित्य स्त्री.)]: तिब्ब, स्त्री. (अ.) चिकित्साविज्ञानम्, २. यवन- त्रयोणवतिः । सं. पुं., उक्ता संख्या, तदंको चिकित्साशास्त्रम। | (९३) च । For Private And Personal Use Only Page #316 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तिरासी (२७८] तीन तिरासी, वि. [सं. त्र्यशीतिः (नित्य स्त्री.)] | तिलहन, (हिं तेल + धान्य ) सं. पुं. तैल सं. पुं., उक्ता संख्या, तदंको (८३) च। स्नेह,-बीज-बीजक-रोहिः । तिराहा, सं. पुं. ( सं. वि +फा. राह) त्रिपथम्। | तिला, सं. पुं. (फा. । मि. सं. तैलं) मर्दनौषधं तिरिया, सं. स्त्री. (सं. स्त्री ) नारी, रामा। । २. लिंगलेपः । -चरित्तर, सं. पु. (सं. स्त्रीचरित्रं ) रामार- तिलाक, सं. पुं., दे. 'तलाक' । हस्य, वामावैदग्ध्यं, नारीचरितम् । तिलि (ल)स्म, सं. पुं. (यू. टेलिस्मा) दे. तिरोधान, सं. पुं. (सं. न.) अदर्शनं, अंतर्धानं, | 'इन्द्रजाल'। गोपनं, गूहनं, संवरणम् । तिल्ली, सं. स्त्री. (सं. तिलकं>) प्लीहन् (पुं.), तिरोभाव, सं. पु. ( सं.) दे. 'तिरोधान'। | प्लीहा, गुल्मः २ दे. 'तिल' १. । तिरोभूत, वि. (सं.) अदृष्ट, अंतहिंत, लुप्त । | ताप-, सं. स्त्री, दे. 'ताप' के नीचे। तिरोहित, वि. (सं.) गूढ, निलीन, आच्छादित, | तिवारी, सं. पुं. ( सं. त्रिपाठी ), दे. 'त्रिवेदी'। संवृत, निभृत, गुप्त । तिस, सर्व., दे., 'उस'। तियची, सं. स्त्री. (सं.) तिरश्ची, पशु-खग, तिहत्तर, वि. [सं. त्रिसप्ततिः (नित्य स्त्री.)]। योषा-अंगन-वधूः (स्त्री.)। सं. पुं., उक्ता संख्या, तदंको ( ७३ ) च । तिर्यक् , अत्य. ( सं.) वक्रं, कुटिलं, तिरस् , | जिहमं, असरलम् ( सब अव्य.)। | तिहराना, क्रि. स. (हिं. तिहरा) त्रिः कृ, तिलंगाना, सं. पुं. (सं. तैलंगः) प्रदेशविशेषः। । तृतीयं वारं विधा ( जु. उ. अ.)। तिलंगी, वि. ( सं. तिलंगाना>) तैलंग- | तिहवार, सं. पुं. (सं तिथिवारः)। पर्वन् (न.), देशीय। उत्सवः, उद्धर्षः, उद्धवः, क्षणः, महः । तिल, सं. पुं. (सं.) पवित्रः पितृतर्पणः, | तिहाई, सं. स्त्री. (सं. त्रिभाग>) तृतीय, अंश:पूत-होम,-धान्यं, पापघ्नः, स्नेहफलः। २. ति- | भागः ।। लकः, कालकः, जटु (डु), ल:, पिप्लुः (पुं.)। तिहारा, सर्व., दे. 'तुम्हारा'। ३. क्षणः-णं, पलं ४. तारा-रकं, कनीनिका। तीक्ष्ण, वि. (सं.) नि,-शात-शित, तीव्र, प्र, ---का तेल, सं. पुं., तिल,-तैलं-रसः स्नेहः। | खर, सूच्यग्र, तीक्ष्ण-शित,-धार २. (बुद्धि ) -किट्ट, सं. .(सं. न.) तिल, खली-चूर्णम् ।। कुशाग्र, सूक्ष्म-शीघ्र-,ग्राहिन्, सूक्ष्म, तीव्र ३. ---कुट, सं. स्त्री., तिलकुट्टम् । उग्र, प्रचंड ४. दे. 'चरपरा' ५. (शब्द) कर्ण-चटा, सं. पुं., रक्तवर्णकीटभेदः । कटु, अप्रिय ६. उद्यमिन, अतंद्र, क्षिप्रकर्मन् -भुग्गा, सं. पुं., तिलभुक्तम् । ७. असह्य, दुःसह । -पपड़ी-शकरी, सं. स्त्री., तिलपट्टी, तिल- | तीक्ष्णता, सं. स्त्री. (सं.) तीव्रता, प्रखरता, शर्करी । तिल की ओट पहाड़, मु.,* विन्दौ प्रचंडता इ.। सिन्धुः, तिले गिरिः। तीखा, वि., दे. 'तीक्ष्ण'। तिल का ताड़ करना, मु., तिले तालं पश्यति ।। तीखुर, सं. पुं., दे. 'तबाशीर'। तिल-तिल, मु., अल्पाल्प, किंचित्किंचित् ।। तीज, सं. स्त्री. (सं. तृतीया ) कृष्णा शुक्ला वा तिल धरने की जगह न होना, मु., स्थानाभावः। तृतीया तिथिः (स्त्री.) २. श्रावण-भाद्र,शुक्लतिलभर, मु., ईषदिव, किंचिदिव । तृतीया। तिलक, सं. पुं. (सं. पुं. न.) दे. 'टीका" | तीत-ता, वि. (सं. तिक्त) दे. तिक्त' २. कटु । (१. २. ६. ८. ९. ११.)। तीतर, सं. पुं. (सं. तित्तिरः ) तिति (त्ति) रिः -लगाना, क्रि. स., दे. 'टीका लगाना'। । (पु.), तैतिरः, याजुषोदरः। तिलड़ा, सं. पुं. 1 (सं.त्रि+हिं. लड़) त्रिसूत्रो | तीन, वि. [सं. त्रीणि (न. बहु.)] त्रयः तिलड़ी, सं. स्त्री. । हारः। (पुं.), तिस्रः (स्त्री.), त्रीणि (न.)। सं. तिलवा, सं. पु. ( सं. तिल>) तिलमोदकः। पुं., उक्ता संख्या, तदंकः (३) च। For Private And Personal Use Only Page #317 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तीमार । २७६ ) तुम -तेरह करना, मु., विद् (प्रे.), अवा-आ-प्र- -मार खाँ, मु., वीराग्रणीः (पु.), शरशिरोवि, कृ ( तु. प. से.)। मणिः (पुं.) (व्यंग्य)। -पाँच करना, मु., कलहायते ( ना. धा.), | तीसों दिन, मु., सदा, सर्वदा। विवद् (भ्वा. आ. से.)। तीसरा, वि. पु. (हिं. तीन) तृतीयः [-या न तीन में न तेरह में, मु., सामान्य, साधारण । (स्त्री.)]। सं. पुं., मध्यस्थः, तटस्थः । तीमार, सं. पुं. ( फा.) सेवा, परिचर्या । -पहर, सं. पुं., तृतीयप्रहरः अपराह्नः, पराकः, ----दार, सं. पुं., रोगि-रुग्ण,-सेवकः-परि- | विकालः।। चारकः। तीसरे, क्रि. वि. (हिं. तीसरा ) तृतीयस्थाने, –दारी, सं. स्त्री., रोगि-रुग्ण, परिचर्या-सेवा। | तृतीय, तृतीयतः ( अन्य.)। तीय, सं. स्त्री., दे. 'स्त्री'। तीसवाँ, वि. (हिं. तीस) विंशत्तमः-मं-मी, तीर, सं. पुं. (सं. न.) तटः-टं-टी। त्रिंशः-शं-शी ( पुं. न. स्त्री.)। तीर२, सं. पुं. (फा.) बाणः, शरः, इघुः (पुं.), | तुंग, वि. (सं.) दे. 'ऊँचा' २. चंड, उग्र। सायकः। | तुंड, सं. पुं. (सं. न.) मुखं, आस्य, वदनं -कश, सं. पुं. (फ्रा.) इषुधिः (पु.), दे. | २. चन्चूः -चुः ( स्त्री.)। 'तरकश'। | तुंडि, सं. स्त्री. ( सं. पुं.) दे. 'तुंड' (१-२)। -चलाना या मारना, क्रि. स., इधू प्र, मुच्- (सं. स्त्री.) नाभिः । क्षिप् (तु. प. अ.)। | तुंद, सं. पुं. (सं. न.) उदरं, तुन्दि (न.), तीरंदाज़, सं. पुं. [-+अंदाज (फ़ा.)] इषु- तुन्दिः ( स्त्री.)। धनुर् , धरः, धन्विन् (पु.), धानुष्कः। तुंका, सं. पुं. (सं.) अलाबु: (पुं. स्त्री.) बूः तीरंदाजी, सं. स्त्री., धनुर् , विद्या-वेदः, । (स्त्री.) २. अलाबु (न.), अलाबुपात्रम् । शराभ्यासः। | तुंबिया, सं. स्त्री. (सं. तुंबिका > ) क्षुद्रालाबु तीर्थ, सं. पुं. (सं. तीर्थ ) पुण्य-पवित्र, स्थानं | (न.), क्षुद्रालाबुपात्रम् । २. घट्टः ३. घट्टसोपानपथः, अवतारः ४. उपा- | तुंबी, सं. स्त्री. (सं.) तुंबिः (स्त्री.) अलाबुः ध्यायः, गुरुः (पु.)५. ब्राह्मणः ६. परिव्राज- (पुं. स्त्री.) २. दे. 'तुंबा'(२)। कोपाधिः (पुं.) ७. तारकः, मोक्षकः ८. ईश्वरः तुअर, सं. पुं. (सं. तुवरी) आढकी, दे. 'अरहर'। ९. जननीजनको १०. अतिथिः (पुं.)। | तुक, सं. स्त्री. ( हिं. ट्रक ) अंत्यानुप्रासः, -यात्रा, सं. स्त्री. (सं.) तीर्थाटनम् । अक्षरमैत्री २. पद्यांशः ३. पादांतवर्णः । -राज, सं. पुं. (सं.)प्रयागः । बेतुकी, वि., असंबद्ध, असंगत । तीर्थिक, सं. . (सं.) तीर्थपुरोहितः २.| -जोड़ना, मु., कुकवितां कृ अथवा रच (चु.)। तीर्थंकरः ३. तीर्थयात्रिन् । तुख्म, सं. पुं. (अ.) दे. 'बीज' । तीला, सं. पुं.(फा. तीर )दे. 'तिनका'। तुच्छ, वि. (सं.) नीच, हीन, अधम, क्षुद्र, तीली, सं. स्त्री. ( हिं. तीला ) लघुतृणम् | दीन, निकृष्ट २. असार, लध्वर्थक, अनर्थक । २. धात्वादेः दृढसूक्ष्मतारः। तुड़वाना, तुड़ाना, क्रि. प्रे., ब. 'तोड़ना' के तीव्र, वि. (सं.) अत्यधिक, अत्यंत, अतिशय | प्रे. रूप। २. दे. 'तीक्ष्ण'(१)। ३. सुतप्त, अत्युष्ण | तुतला (रा)ना, क्रि. अ. ( अनु.) अस्पष्टं४. असीम, अमित ५. कटु ६. दुःसह शिशुवत् भाष् (भ्वा. आ. से.)। ७. प्रचंड ८. तिक्त ९. वेगवत्, शीघ्र १०. तार, तुपक, सं. स्त्री. (तु. तोप) *शतन्निका उच्च (स्वर) २. नालास्त्रम्। तीव्रता, सं. स्त्री. (सं.) अत्यधिकता, बाहुल्यं, तुफंग, सं. स्त्री. (तु. तोप) वायव्यं नालास्त्रम् । अत्युष्णता, असह्यता, प्रचंडता, तिक्तता इ.। | तुम, सर्व. ( सं. त्वम् ) त्वं (एक.), यूयं (बहु.) तीस, वि. [सं. त्रिंशत् (नित्य स्त्री.)] । सं. | ( 'तुम को' आदि के लिए 'युष्मद्' की द्वितीया पुं., उत्ता संख्या, तदंकौ(३०) च । आदि के रूप बनेंगे)। For Private And Personal Use Only Page #318 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तुमड़ी तुमड़ी, सं. स्त्री. (सं.तुम्बी > ) शुष्कवर्तुलालाबु : ( पुं. स्त्री. ) २. दे. 'तुंबा' ( २ ) । [ २८० ] तुमाई, सं. स्त्री. (हिं. तुमाना ) कार्पासादिप्रसाधनभृतिः (स्त्री.) । तुमाना, क्रि. प्रे., ब. 'तूमना' के प्रे रूप । तुमुल, वि. (सं.) घोररव - कलकल-कोलाहल, - पूर्ण - युत । सं. पुं. ( सं . पुं. न. ) भीषणघोर, - युद्ध - संग्रामः २. कोलाहलः, कलकलः । तुम्हारा, सर्व. (हिं. तुम ) युष्माकं तव (त्रिलिंग) युष्मदीय, त्वदीय, तावक, यौष्माक-कीण | तुम्हीं, सर्व० (हिं. तुम + ही ) त्वमेव, युवामेव, यूयमेव । तुम्हें, सर्व, (हि. तुम ) ( कर्म ) त्वाम् त्वा; सुवम्, वाम, युष्मान् वः (संप्रदान) तुभ्यं, ते, युवाभ्यां वां युष्मभ्यम्, वः । तुरंग, तुरंगम, सं. पुं. (सं.) अश्व:, घोटकः । तुरंत, क्रि.वि. (सं.) झटिति, आशु, सद्यः, सपदि तत्क्षणं । तुरई, सं. स्त्री. (सं. तूरं > मृदंगी, राज-, कोशातकी, जालिनी, कृतवेधना, सु, पीत-पुष्पा, राजिमत्फला ( घिया तुरई, देखो 'नेनुआ' ) । तुरक, सं. पुं. (सं. तुरकः ) तुरुष्कः २. यवनः ३. सैनिक: ४-५ टर्की - तुर्किस्तान, वासिन् । तुरकी, वि. (हिं. तुरक) तुरुष्कदेशीय २. तुरुष्कभाषा । तुरंग, सं. पुं. (सं.) अश्व:, वाजिन् (पुं.)। तुरत, क्रि. वि., दे. 'तुरंत' । तुरही, तुरी, सं. स्त्री. (सं. तूरं ) तूर्य:-, काहल:- ला, श्रृंगवाद्यम् । तूणीर ( कर्म., तोल्यते, तूल्यते ), तुलया मा ( कर्म. मीयते ) । किसी काम पर तुला हुआ, मु., कार्यविशेषं कर्तुं उद्यतः कृतनिश्चयः विहितसंकल्पः । तुलनात्मक, वि. (सं.) तुलनायुक्त, अन्या - पेक्षक, अन्यसापेक्ष, सापेक्ष, साम्यवैषम्य, -सूचक दर्शक | तुरीय, वि. (सं.) तुर्य, चतुर्थं । - अवस्था, सं. स्त्री. ( सं . ) निःश्रेयसं, मुक्ति: (स्त्री.) । तुरुष्क, सं. पुं. (सं.) दे. 'तुरक' । तुर्य,वि., दे. 'तुरीय' । तुर्रा, सं. पुं. (अ.) उष्णीष, आलंब:- शेखर: २. चूड़ा, मौलि (पु.), शिखा, शेखर: ३. अलकः, चूर्णकुंतल, भ्रमरकः, कुरलः । ४. वि., विचित्र, अद्भुत । सुर्श, वि. ( फा . ) दे. 'खट्टा' । तुलना', सं. स्त्री. (सं.) उपमा, समता, साम्यं, सादृश्यं २. तारतम्यं, न्यूनाधिकता । तुलना ?, क्रि. अ. (हिं. तोलना ) तुल-तूल तुलवाना, क्रि. प्रे, ब. 'तोलना' के प्रे. रूप | तुलसी, सं. स्त्री. (सं.) सुभगा, पावनी, भूतघ्नी, विष्णुवल्लभा, वृन्दा, पुण्या, वैष्णवी । दल, सं. पुं. ( सं. न. ) वृंदापत्रम् | - दास, सं. पुं. ( सं . ) भक्तविशेष:, रामचरितमानसादिरचयितृ (पुं.)। तुला, सं. स्त्री. (सं.) दे. 'तकड़ी' २. तुलना, सादृश्यं ३. राशिविशेष: ( ज्यो. ) । - दान, सं. पुं. ( सं. न. ) देहभारसमसुवर्णादिदानम् । वि., तोलित, तूलित । तुल्य, विं. (सं.) स-सम, तोल भार परिमाण २. सम, समान, सदृश, सदृक्ष । तुल्यता, सं. स्त्री. (सं.) सम, तोलता - परिमाणता २. सादृश्यं, साम्यं, समत्वम् । तुष, सं. पुं. (सं.) तुसः, वुषं-सं, कडंगरः, धान्यत्वच् (स्त्री.)। तुषानल, सं. पुं. (सं.) कुकूल:, तुषाग्नि: (पुं.) । तुषार, सं. पुं. ( सं . ) तुहिनं, हिमं प्रालेयं, म ( मि ) हिका, अवश्यायः, नीहारः । वि., हिम, तुषार, तुषार- हिंम, -वत् । | तुष्ट, वि. ( सं . ) तृप्त, तर्पित, पूर्णकाम २. प्रसन्न, मुदित | तुष्टि, सं. स्त्री. ( सं . ) तुष्टता, तृप्तिः (स्त्री.), संतोषः २. ह:, प्रसन्नता । तुहमत, सं. स्त्री. दे. 'तोहमत' । तुहिन, सं. पुं. (सं. न.) दे. 'तुषार' २. चंद्रिका, कौमुदी ३. शीतलता, हिमता । तूंबा, सं. पु., दे. 'तुंबा' | तूंबी, सं. स्त्री. दे. 'बी' । तू सर्व. ( सं . त्वं ) । --तड़ाक -तुकार या - तू-तू मैं-मैं करना, मु., अशिष्टभाषायां कलहायते ( ना. धा. ) । तूण- णि, सं. पुं. (सं.) तूणी, संस्त्री. (सं.) तूणीर, सं. पुं. (सं. पुं. न.) For Private And Personal Use Only } दे. 'तरकश' । Page #319 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तूत [२८] प्रमुदित । तूत, सं. पुं. (फ्रा. 1 मि. सं. तूद: ) ब्रह्म, काष्ठं | तृप्त, वि. (सं.) तुष्ट, दारु (न.), सुरूपं, सुपुष्पम् । तूतिया, सं. पुं., दे. 'नीलाथोथा' । तूती, सं. स्त्री. ( फा. ) शुकभेदः २. कनेरी - चटका ३. चटकाभेदः ४ मुखवाद्यो वाद्यभेदः, दे. 'तुरही' । -- बोलना, मु., प्रभू, अधिष्ठा (भ्वा. प. अ.) । नक्कारखाने में की आवाज, मु., अरण्येरुदितम् । तूदा, सं. पुं. (फ्रा.) चयः, राशि: ( पुं. ) २. सीमाचिह्नम् । तून, सं. पुं. (सं. तुन्न: ) नदीवृक्षः, तृणि(ft) : 1 तूफ़ान, सं. पुं. ( अ ) झंझावात, अति-चंडमहा, वातः, वात्या, प्रभजन:, प्रकंपनः २. तोय-जल, ओघ :- वृद्धि: (स्त्री.)- उपप्लव:विप्लवः - प्रलयः, संप्लवः ३. उपद्रवः, संक्षोभः, विप्लवः ४. आपद्-आपत्तिः (स्त्री.) ५. दे. 'तोहमत' । -- उठाना या मचाना, मु., तुमुलं कृ, संक्षोभं उत्पद् ( प्रे. ) । तूफ़ानी, बि. ( फा . ) उपद्रविन्, कलहोत्पादक २. उग्र, प्रचंड ३ पिशुन, अभ्यसूयक | तूमड़ी, सं. स्त्री. (हिं. तंबा) दे. 'तुंबी' २ तुम्बीनिर्मित आहितुण्डिकानां वायभेदः । तूमना, क्रि. स. (सं. स्तोमः > ) ऊर्णातूलं संमृज् ( अ. प. वे., चु. ) -घृष (भ्वा. प. से.) विश्लिष (प्रे.) । तूरान, सं. पुं. ( फा. ) तातार तूरान, - देश: । तूरानी, वि. ( फा. ) तातार-तूरान, देशीयसम्बन्धिन् । सं. पुं., तातार तूरान- वासिन् ( पुं. ) 1 तूल', सं. पुं. (सं. पुं. न. ) दे. 'रूई' २. दे. 'तूत' । तेज़ पूर्णकाम २. प्रहृष्ट, तृप्ति, सं. स्त्री. (सं.) संतोषः, सौहित्यं तर्पणं, प्रीणनम् २. आनंद:, हर्षः । क्षुद्र २, अग्राह्य, त्याज्य । तृतीय, वि. (सं.) दे. 'तीसरा' । तृषा, सं. स्त्री. (सं.) पिपासा, तृष्णा, उदन्या २. लोभः ३. इच्छा। तृषित, वि. (सं.) पिपासित, तर्षितः सतृष २. इच्छुक ३. लुब्ध 1 तृष्णा, सं. स्त्री. (सं.) दे. 'तृषा' ( १-३ ) । तें, प्रत्य. [ सं . तस् ( प्रत्य. ) ] दे. 'से' । तैंतालीस, वि. [सं त्रिचत्वारिंशत् ( नित्य स्त्री. ) ] त्रयञ्चत्वारिंशत् । सं. पुं., उक्ता संख्या, तदकौ ( ४३ ) च । तैंतालीसवाँ, वि. (हिं. तैंतालीस ) त्रि(त्रयश्) चत्वारिंशत्तमः -मी-मं, त्रि (यश)चत्वारिंश:- शी-शं (पुं. स्त्री. न. ) । तैंतीस वि. ( त्रयस्त्रिंशत् ( नित्य स्त्री.] 1 सं. पुं., उक्ता संख्या, तदंकी (३३) च । तेंतीसवाँ, विं. (हिं. तेंतीस ) त्रयस्त्रिंशत्तमः - मी- मं, त्रयस्त्रिंश:- शी, शं ( पुं. स्त्री. न. ) । तेंदुआ, सं. पुं. (देश. ) चित्रक-चित्रकव्याघ्र भेदः । तेंदू, सं. पुं. ( सं. तिंदुकः ) कालस्कंध, विंदुलः ते, सर्व. (सं. पुं. तद् का बहु.) दे. 'वे' । २. तिंदुलं, तिंदुलफलम् । तेईस, वि. [सं. त्रयोविंशति: ( नित्य स्त्री. ) ] सं. पुं., उक्ता संख्या, तदंकौ ( २३ ) च । तेईसवाँ, वि. (हिं. तेईस ) त्रयोविंशतितम:मी- मं. त्रयोविंश:- शी-शं ( पुं. स्त्री. न. ) । तेग़, सं. स्त्री. ( फ्रा.) दे. 'तलवार' | तेज, सं. पुं. [ सं . तेजस् ( न. ) ] कांति:- दीप्ति: (स्त्री.), आभा, प्रभा २. पराक्रमः, वीर्य, बलं ३. प्रतापः, अनुभावः, अभिख्या ४. तापः. ऊष्मन् (पुं. ) ५. उग्रता, प्रचंडता ६. अग्निः ( पुं. ) । तूल, २ सं. पुं. ( अ. ) दे. 'लंबाई' | तूलिका, सं. स्त्री. (सं.) इ ( ई ) बीका, तुलि: (स्त्री.), तूली, ईषिका । तूली, सं. स्त्री. (सं.) दे. 'तूलिका' २. नीली तेज़, वि. ( फा ) दे. 'तीक्ष्ण' (१) २. आशु, ३. वत्तिः (स्त्री.) । तृण, सं. पुं. (सं. न. ) दे. 'तिनका' । तृणवत्, वि. (सं.) तृण, तुल्य-सम, तुच्छ, शीघ्रगामिन, जवन, महावेग ३. क्षिप्र, कर्मन् - कारिन ४. दे. 'चरपरा' ५ उग्र, प्रचंड ६. महार्ह-६, बहु- महा, मूल्य ७. कुशाग्रबुद्धि ८. अतिचंचल ९. ( विषादि ) घोर, घातक । For Private And Personal Use Only Page #320 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तेजपत्र तेजपत्र, सं. पुं. (सं. न. ) पत्रं, पत्रकं, गंध जातम् । तेजपात, सं. पुं., दे. 'तेजपत्र' । तेजबल, सं. पुं. (सं. तेजोवती ) तेजनी, तेजवती । [ २८२ ] तेजस्वी, वि. (सं. विन्) तेजोवत्, तेजस्वत्, ओजस्विन्, वर्चस्विन्, सुप्रभ, कांतिमत् २. प्रतापिन्, प्रतापवत् ३. वीर्यवत्, बलवत् । तेजाब, सं. पुं. ( फा . ) अम्ल:, द्रावकम् | तेज़ी, सं. स्त्री. (फ़ा.), निशितत्व', तीक्ष्णधारता, प्रखरता २. उग्रता, चंडता ३. शीघ्रता, त्वरा ४. महार्घत्वं, बहुमूल्यत्वं इ. । तेता, वि., दे. 'उतना' । तेरस, सं. स्त्री. (सं. त्रयोदशी ) शुक्लकृष्ण - पक्षयोः त्रयोदशी तिथि : ( स्त्री. ) । तेरह, वि. ( सं . त्रयोदश ) । संख्या, तदंकौ (१३) च । तेरहवाँ, वि. (हिं. तेरह ) त्रयोदश:- शी-शं सं. पुं., उक्ता ( पुं. स्त्री. न. ) । तेरा, सर्व . ( सं . तब ) तावक, [-की (स्त्री.) ], तावकी, त्वत्क, त्वदीय, त्वत्- । तेल, सं. पुं. ( सं . तैलं ) स्नेहः, म्रक्षणं, अभ्यजनम् । - मलना या लगाना, क्रि. स., तैलेन अंजू ( रु. प. से. ) दिह् ( अ. उ. अ. ) - लिप् (तु. प. अ.) । - निकालना, क्रि. स., स्नेहं निष्कृप (भ्वा प.अ.) । - चढ़ाना, मु., विवाहात्प्राग् वरवध्योः तैला तोड़ना --बदलना, मु., भ्रूभंगं कृ, भ्रुकुटिं बन्धू (क्रू. प. अ. )-रच् ( चु. ) । तेवरी-ड़ी, सं. स्त्री, 'त्योरी' । तेव (त्यो ) हार, सं. पुं., दे. 'तिहवार' । तेहरा, वि. (हिं. तीन ) त्रिगुण-गुणित, त्रिरावृत्त, त्रिरावर्तित | तैल, -करी- कारिणी, चाक्रिकी । तेलिया, वि. (हिं. तेल ) तैल, चिकण-कृष्णभासुर। सं. पुं., कृष्ण, रंग:-रागः वर्णः । २. कृष्णाश्वः ३. वत्सनाभः, गरल : (विषभेद: ) । तेली, सं. पुं. (सं. तैलिन ) तैलकार: तैलिकः, चाक्रिकः, धूसरः । तेवर, सं. पुं. (हिं. तेह-कोष ) सकोप- सक्रोध,दृष्टिः (स्त्री.) २. भ्रः (स्त्री.), भूलता । तैयार, वि. ( फ़ा. ) ( मनुष्य ) उद्यत, उद्युक्त, सज्ज, सिद्ध, संनद्ध २. ( वस्तु ) सज्जी, कृतभूत, आयोजित, उपस्थित, उप, वलृप्त-कल्पित, सज्ज, सिद्ध ३. पीन, हृष्टपुष्ट | - करना, क्रि. स., सज्जीकृ, सन्नहू ( प्रे.), उप-परि-क्लप (प्रे.), उपस्था ( प्रे.) । --होना, कि. अ., सज्जीभू, सन्नह ( दि. उ. अ. ) उद्यत सन्नद्ध (वि.) भू । तैयारी, सं. स्त्री. ( फ़ा. तैयार ) सज्जता, सन्नद्धता, उद्यतता २. सिद्धि: - उपस्थितिः (स्त्री.) ३. आडम्बरः, श्रीः, शोभा । तैरना, क्रि. स. ( सं. तरणं ) पारं गम् (भ्वा. प. अ.), सं-, तू (भ्वा. प. से, द्वितीया के साथ) 1 क्रि. अ., तृ, प्लु (भ्वा. आ. अ. ) । तैराक, सं. पुं. (हिं. तैरना ) तारकः, तरितृ, 1 तरण-प्लवन -कृत् (पुं. ) । तैराकी, सं. पुं. (हिं. तैराक ) तरः, तरणं, प्लवः, प्लवनम् । तैल, सं. पुं. ( सं. न. ) दे. 'तेल' । तैश, सं. पुं. (अ.) कोप:, क्रोधः । तैसा, वि. ( सं . तादृश ) दे. 'वैसा' । तोंद, सं. स्त्री. (सं. तुंद) पिचिण्ड: लम्बोदरम् । निकलना, सं. पुं., तुन्दप्रसारः, तुन्दिकता, तुन्दिलता । तोंद (द) ल, वि. (हिं. तोंद ) तुंदिक, तुंदित, तुंदिभ, तुंदिल, तुंदिन, पिचिडिल, लम्बोदर । तोंदी, सं. स्त्री. [सं. तुण्ड: (स्त्री.) ] तुन्द:-. दी, दे. 'नाभि' । भ्यञ्जनम् । जलती पर - डालना, मु., कलहं वृध् ( प्रे. ) । तेलगू, सं. स्त्री. (सं. तैलंग > ) तैलंगप्रान्त आन्ध्रप्रान्त, भाषा, तेलगू : ( स्त्री. ) । तेलहन, सं. स्त्री. दे. 'तिलहन ' । तेलिन, सं. स्त्री. (हिं. तेली ) तैलिनी, तैलिकी, तो, तौ, अव्य. (सं. तद् > ) तस्यां दशायां स्थितौ (सप्तमी ), तर्हि, तदा तदानीम् । भी, अव्य., दे. 'तथापि ' । तोड़ना, क्रि स. (सं. त्रोटनं ) त्रुट् (प्रे.), खंडू ( चु.), भंज् ( रु. प. अ. ) २. भिदू-छिद (रु. प. अ.), दृ-शू ( क्. प. से. ) ३. अव-सं, चि ( स्वा. उ. अ. ), आदा ( जु. आ. अ. ), ग्रहू ( क्र. प. से. ) ४. नशू ध्वंस् ( प्रे. ) ५. स्वपक्षं ग्रह (प्रे.). स्वपक्षपातिनं विधा (जु. उ. अ.) For Private And Personal Use Only Page #321 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तोड़नेवाला ६. नाणकानि परिवृत ( प्रे.) त्रुट् (प्रे.) । सं. पुं., त्रोटनं, भंजनं, भेदनं, अव-सं, चयनं, ध्वंसः इ. 1 नाशः, तोड़नेवाला, सं. पुं., त्रोटकः, भज्ञ्जकः, भेदकः, [ २८३] अवचायकः, नाशकः इ. । टूटा हुआ, वि., त्रुटित, भग्न, भिन्न, ध्वस्त इ । तोड़ा, सं. पुं. (हिं. तोड़ना ) नाणक- मुद्रा - कोशः-कोपः २. धन, कोष:- ग्रन्थिः (पुं.) ३. सुवर्ण रजत, - अन्दुः-अन्दुः ( दोनों स्त्री. ) ४. तट:-ट-टी ५. हानि: (स्त्री.), अपचयः ६. रज्जु, खण्ड: डम् । तोतलाना, क्रि. अ., दे. 'तुतलाना' । तोता, सं. पुं. ( फा . ) कीरः, शुकः, वक्रतुण्ड:चंचुः ( पुं. ), किंकिरातः । (स्त्री., कीरी, शुकी इ. ) । - चश्म, सं. पुं. ( फा . ) विश्वासघातकः, अप्रत्यायन, अविश्वासिन् । - चश्मी, सं. स्त्री. (फ़ा.) अविश्वास:, अप्रत्ययः । तोते की सी आँख फेरना, मु., नितांत उपेक्षू ( भ्वा. आ. से) - उदासू ( अ. आ. से. ) । हाथों के तोते उड़ जाना, भु., अत्याकुली जडी भू, सं-व्या-मुह (दि. प. वे. ) । तोप, सं. स्त्री. ( तु. ) शतघ्नी, अग्न्यस्त्र, *तोपम् । - खाना, सं. स्त्री. ( तु. + फ़ा. ) शतघ्नीशाला २. अग्न्यस्त्र - शतघ्नी, समूहः । तोपची, सं. पुं. ( तु. तोप ) दे. 'गोलंदाज' । तोबड़ा, सं. पुं. [ फ्रा. तो (तु) बरा ] *अश्वान्न भस्त्रा । तोबा, सं. स्त्री. ( अ. तौबः ) पापानावृत्तिप्रतिज्ञा, पश्चात्तापः । तोम, सं. पुं ( सं. स्तोमः ) चयः, निकरः, पुंज:, संभारः । तोमर, सं. पुं. ( सं . पुं. न. ) भल्लसदृशं प्राचीनास्त्रम् २.३. द्वादशमात्रा - नववर्ण, च्छन्दस् (न.)-वृत्तम् ४. राजपुत्रवंशविशेषः । तोय, सं. पुं. ( सं. न. ) जलं, पानीयम् । --कर्म, सं. पुं. (सं.-मन् न . ) तर्पणम् ३० । -क्रीडा, सं. स्त्री. ( सं . ) जलक्रीडा | -द, सं. पुं. (सं.) जलद:, नीरदः, अंभोदः । त्यांगना -धि, निधि, सं. पुं. ( सं ) जलधिः, वारिधि:, समुद्रः । तोरई, सं. स्त्री. दे. 'तुरई' । तोरण, सं. पुं. (सं. पुं. न. ) वहिर्द्वारं २. वंदनमाला ३. ग्रीवा । तोल, सं. पुं. (सं.) भारः, गुरुत्वं २. भारमानं, माड:, मात्र, परिमाणं ३ तोलनं, भारमानं, मस्तिः (स्त्री.) 1 तोलन, सं. पुं. (सं. न. ) तुलया भार, मानंमापनं २. उत्थापनम् । तोलना, क्रि. स. (सं. तोलनं ) तुल ( चु. ), तूल (भ्वा. प. से. ), तुलायां धृ ( चु० ) । सं. पुं., दे. 'तोल' । तोलनेवाला, सं. पुं., तोलक, भारमातृ(पुं.) । तोलवाना, क्रि. प्रे., व. 'तोलना' के प्रे. रूप । तोला, सं. पुं. (सं. तोल:-लं ) तौलक:-कं- षण्ण, वतिरक्तिपरिमाणं, कोलं, वटकं, कर्षार्द्धम् । तोशक, सं. स्त्री. ( तु. ) तुला, तूलिका । तोष, सं. पुं. (सं.) तृप्तिः तुष्टिः (स्त्री.), संतोषः २. प्रसन्नता, आनन्दः । तोहफ़ा, सं. पुं. (अ.) उपहार, उपायनं, उपदा, तोहमत, सं. स्त्री. ( अ. ) मिथ्याभियोगः, मृष:उपग्राह्यम् । वि., उत्कृष्ट, उत्तम । दोषारोपः । -लगाना, क्रि. स. मिथ्या दुष् (प्रे. दूषयति), मृषा अभियुज् (रु. आ. अ. चु. ) । तौर, सं. पुं. (अ.) आचारः, व्यवहारः २. दशा, अवस्था ३. प्रकार:, विधा ( समासांत में ) । - तरीका, सं. पुं. ( अ ) शिष्टाचारः २. आचरणम् । तौलना, क्रि स., दे. 'तोलना' । तौल, सं. पुं., दे. 'तोल' । सौलिया, सं. पु. ( अं. टावेल ) मार्जनवस्त्रं, वरकम् । तौहीन, सं. स्त्री. ( अ ) अपमान:, निरादरः, अवमानना, अवज्ञा । व्यक्त, वि. ( सं . ) विसृष्ट, उज्झित, अपास्त । त्याग, सं. पुं. (सं.) उत्सर्गः, मोचनं, अपासनं, उज्झनं हानं २. विरक्तिः (स्त्री.), वैराग्यं, संन्यासः ३. दे. 'तलाक' । - पत्र, सं. पुं. (सं. न. ) उत्सर्गलेखः । त्यागना, कि. स. ( सं . त्यागः ) त्यज् ( स्वा. For Private And Personal Use Only Page #322 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir स्थागने योग्य [ २८४) · त्रुटि प. अ.), उत्सृज (तु. प. अ.), उज्झ (तु. वर्तमानभविष्यत्कालाः २. वेलात्रयं-यी (प्रातः, प. से.), रह -वर्ज (चु.), दे. 'छोड़ना'। मध्याह्नः,सायं)। अव्य., त्रिः(अव्य.), त्रिवारम् । सं. पुं.,दे. 'त्याग'। |--ज्ञ, वि. (सं.) त्रिकाल, वेत्तृ-विद्, सर्वज्ञ । त्यागने योग्य, वि., त्याज्य, त्यक्तव्य, हेय, सं. पुं., ईश्वरः २. बुद्धः। परिहार्य, उत्स्रष्टन्य। |--दर्शी, सं. पुं. (सं.-शिन् ) ईश्वरः २. ऋषिः त्यागनेवाला, सं. पुं., त्यक्त, उत्स्रष्ट ( पुं.), (पुं.)। उजझकः । त्रिकुटा, सं. पु. [सं. त्रिकटु ( न.) ] न्युष्णम्, त्यागा हुआ, वि., दे. 'त्यक्त' । व्योषम्, कटु, वयं-त्रिक, मिश्रितशुंठीमरीस्यागी, सं. पु. ( सं.-गिन् ) त्यक्तसंगः, संन्या- | चपिप्पल्यः ( स्त्री. बहु.)। सिन्, विरक्तः, वैराग्यवत् । | त्रिगुण, सं. पुं. (सं. न.) गुण,वयं-त्रिक, त्याज्य, वि. (सं.) दे. 'त्यागने योग्य'। . सत्वरजस्तमांसि (न. बहु.)। त्यों, क्रि. वि. (सं. तद् +एवं > ) तथा, एवं, नितय, सं. पुं. (सं. न.) त्रिक, त्रयं-यी तहत, एवंविधम् । । २. धर्मार्थकामाः ( पुं. बहु. ) । ज्यों--, क्रि. वि., यथा...तथा । त्रिदोष, सं. पुं. (सं. न.) वातपित्तकफरूपं -ही, क्रि. वि., तत्क्षण-णे। दोषत्रयम् । त्योरी, सं. स्त्री. ( सं. त्रिकूट:> ) कोपदृष्टिः | त्रिपथगा, सं. स्त्री. ( सं ) गंगा, भागीरथी। ( स्त्री.), क्रोधवीक्षितं २, नयन-दृष्टि-दृक् - त्रिपाठी, सं. पुं. ( सं.-ठिन् ) दे. 'त्रिवेदी'। पातः । त्रिपुंड, सं. पुं. (सं. न.) भस्मादिकृतं कपात्यो(त्यौहार, सं. पुं., दे. 'तिहवार'। लस्थतियग्रेखात्रयं, त्रिपुंडूकम् । स्यो(त्यौहारी, सं. स्त्री. (हिं. त्योहार) पार्वण, | | त्रिपुर, सं. पुं. (सं. न.) मयदानवनिर्मित पुरत्रयं २. लोकत्रयी, त्रिलोकी ३, वाणासुरः उपायनं-दानम् । ४. चंदेरीनगरम् । प्रसरेणु, सं. . (सं.) ध्वंसिन्, दयणुकत्रयात्मकरेणुः (पुं.) २. त्रिंशत्परमाणुपरिमाणम् । -अरि, सं. पुं. (सं.) त्रिपुरांतकः, शिवः । त्रसित, त्रस्त, वि. ( सं. त्रस्त ) भीत, सभय, त्रिफला, सं. पु. (सं. स्त्री.) फल, त्रिकं-त्रयं, भयार्त, ससाध्वस, भयाविष्ट । मिलितहरीतकीविभीतकामलकीफलानि (न. त्राण, सं. पु. ( सं. न.) दे. 'रक्षा' । बहु.)। त्रात, वि. (सं.) त्र.ण, गुप्त, गोपायित, पात, त्रिभुज, सं. पुं. (सं.) दे. 'तिकोन'। अवित, रक्षित। | त्रिभुवन, सं. पुं.(सं. न.) त्रिलोकी, लोकत्रयम् । ज्ञातव्य, वि. (सं.) त्राणाह, रक्षणीय, पातव्य। स्वर्गः पृथिवी पातालं च। सं. पं. सिं..त ( पं. देरिक्षक त्रिमूर्ति, सं. पुं. (सं.) ब्रह्माविष्णुशिवनामकत्रास, सं. पुं. (सं.) भयं, भीतिः (स्त्री.)। मूतित्रयवत् (पु.)। २. कष्टम् । त्रियामा, सं. स्त्री. (सं.) रात्री-त्रिः (स्त्री.)। त्रासक, सं. पु. (सं.) भयंकरः, भयावहः, त्रिलोक, सं. पुं. (सं. न. ), त्रिलोकी, लोकभयानकः, भयजनकः, त्रासयित। त्रयी, दे. 'त्रिभुवन'। त्रासित, वि. ( सं.) भीषित, तजित, ससाध्वस, | त्रिवेणी, सं. स्त्री. (सं.) प्रयागे गंगायमुनादरित, भयातुर। । सरस्वतीनां संगमः। त्राहि, अव्य. (सं. लोट) पाहि, रक्ष, शरणं | त्रिवेदी, सं. पुं. (सं. त्रिवेदिन् ) त्रिविधः, देहि। त्रिवेदः, विद्यः २. ब्राह्मणजातिभेदः । -त्राहि करना, मु., रक्षार्थ असकृत् प्रार्थ | त्रिशूल, सं. पुं. (सं. न.) त्रिशिखं, शूलं, (चु. आ. से.)। त्रिशीर्षकम् । त्रिक, सं. पुं. ( सं. न.) त्रितयं, त्रयं-यी। त्रिष्टुभ, सं. स्त्री, (सं.) छंदोभेदः। त्रिकाल, सं. पुं. (सं. न. ) कालत्रयं-यी, भूत- | त्रुटि, सं. स्त्री. (सं.) त्रुटी, न्यूनता, अपूर्णता, For Private And Personal Use Only Page #323 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir त्रेता वैकल्यं २. स्खलितं भ्रांति (स्त्री.) ३. संदेहः, संशयः । [८] त्रेता, सं. पुं. (सं.) त्रेता- द्वितीय, -युगम्। त्वचा, सं. स्त्री. ( सं . ) त्वच् (स्त्री.), चर्मन् (न.), छदिसू (स्त्री.), संछादनी, असृग्धरा स्वरा, सं. स्त्री. (सं.) शीघ्रता, दे. 'जल्दी' । त्वरित, वि. ( सं . ) शीघ्र, दे. 'तेज' । । थ थ, देवनागरी वर्णमालायाः सप्तदशो व्यंजनवर्ण:, थम, सं. पुं, द्वे. 'स्तंभ' । थकारः । थंब-भ, सं. पुं., दे. 'स्तम्भ' ! थई, सं. स्त्री. (सं. स्थानं ) स्थलं २. राशि: ( पुं. ), चयः । थकना, क्रि. अ. ( स्थ) परि, श्रम् (दि. प. से. ), क्लम् (भ्वा. दि. प. से. ) आयस् (भ्वा. दि. प. से. ) २. निविंद (दि.आ.अ.) । थकान, सं. स्त्री. (हिं. थकना ) आयासः, क्लमः, खेदः, श्रमः, क्लांतिः ( स्त्री. ), शैथिल्यम् । म्लान । थकावट, सं. स्त्री. दे. 'थकान' । थकित, वि., दे. 'थकामाँदा' | थमना, क्रि. अ. ( सं . स्तंभनं ) विरम् ( भ्वा. प. अ.), उप-प्र-शम् ( दि. प. से.), रुद्रगति (वि.) भू २. विश्रम, ( दि. प. से. ), निवृत् ( वा. आ. से.) । सं. पुं., उप-प्र, -शमः, विरामः, विरतिः (स्त्री.) २. निवृत्ति:विश्रांति: (स्त्री.), विच्छेदः । थरथराना, क्रि. अ. (अनु. ) ( भयेन ) कंपवेप (भ्वा. आ. से. ) २. स्फुर् ( तु. प. से), स्पंद (भ्वा. आ. से. ) । थरथराहट, सं. स्त्री. (हिं. थरथराना ) वेपनं, वेपथुः (पुं.), प्र-, कंप: कंपनं २. स्फुरणं, स्पंदनम् । } थरथरी, थर्मामीटर, सं. पुं. ( अं. ) दे. 'तापमान यंत्र' । थर्राना, क्रि. अ. (अनु.) दे. 'थरथराना' । थल, सं. पुं., दे. 'स्थल' । थड़ा, सं. पुं. (सं. स्थलं ) वेदिका, वितदी: दिः (स्त्री.) २. आपणिकासनं, पण्याजीवपीठ:- ठम् 1 | थलथलाना, क्रि. अ. (अनु. थल-थल > ) अभीक्ष्णं विचल (भ्वा. प. से. ), थलथलायते ( ना. धा. ) । थवई, सं. पुं. ( सं. स्थपतिः ) पलगंड:, सुधाजीविनू, लेपकः, गृह, कारक: संवेशकः । थाइरायड ग्लैंड, सं. पुं. (अं.) चुल्लिकाग्रन्थिः । थाक, सं. पुं. (सं. स्था> ) ग्रामसीमा २. राशि: ( पुं. ), चयः । थाती, सं. स्त्री. (सं. स्थातृ > ) दे. 'अमानत' २. दे. ‘पूँजी' । थान, सं. पुं. ( सं. स्थानं ) स्थलं, प्रदेश: २. आलय:, गृहं ३. देवालयः, मंदिरं ४. पशुशाला स्थानं ५. ( पटादीनां ) *व्यावर्तः । थानक, सं. पुं. ( सं. स्थानकम् ) स्थानं, स्थलम् २. नगरम् ३. फेनः ४. आलवालम् । थाना, सं. पुं. (सं. स्थानं > ) गुल्मः, रक्षा: रक्षि, - स्थानम् । थानेदार, सं. पुं. ( हिं+फा. ) रक्षास्थानाध्यक्षः, *गुल्मनिरीक्षकः, रक्षकोपदर्शकः । थकाना, क्रि. स. ब. 'थकना' के प्रे. रूप । थकामाँदा, वि., परि, श्रांतः, क्लांतः, खिन्न, थानेदार २. वल्क:-कं, बल्कल:-लं, ३. त्वगिन्द्रियं ४. ( साँप की ) कंचुकः, निर्मोकः । थन, सं. पुं. (सं. स्तन : ) कुचः, पयोधरः । थनेली, सं. स्त्री. (हिं. थन) स्तन- कुच, rus:-पिटकः । थपकना, क्रि. स. (अनु. थपथप ) करतलेन परमृश्-स्पृश् ( तु. प. अ. ), स्नेहेन आहन् ( अ. प. अ. )- लघु प्रहृ (भ्वा. प. अ )तड़ ( चु.) । थपकी, सं. स्त्री. (हिं थपकना ) करतलपरामर्श:, मृदु-लघु-प्रेम, आघात:-प्रहारः-चपेटः । थपड़ी, सं. स्त्री. (अनु० ) दे० 'ताली' | थपेड़ा, सं. पुं. (अनु. थप ) तरंग - कल्लोल-ऊर्मिवीची, संघट्टः संमर्द :- अभिघातः २. दे. 'थप्पड़' । थप्पड़, सं. पुं. ( अनु थप ) चपेट:-टिका, तल-चपेट, आघातः-प्रहारः । -मारना, क्रि. सं., चपेट दां, चपेटिकया तड् (चु.)- प्रहृ (स्वा. प. अ.. म.)- आहन (अ. प. अ. ) । For Private And Personal Use Only Page #324 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra थाप www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [ २८६ ] थाप, सं. स्त्री. (सं. स्थापनं > ) मृदंगादेराघातो ध्वनि : (पुं.) वा. २. चपेट:-टिका ३. अंकः, चिह्न ४ प्रतिष्ठा, संमान: ५. शपथः ६. लघुमृदु, प्रहारः- आघातः ७, स्थितिः (स्त्री.) । थापना, क्रि. स. (सं. स्थापनं ) स्था ( प्रे. स्थापयति ), आ-नि-धा ( जु. उ. अ. ), न्यस् ( दि. प. से. ), अवरुह् - निविश् ( प्रे. ), कृ । सं. स्त्री, स्थापनं-ना, आ-नि, धानं, योजना, रोपण, २. मूर्त्यादीनां स्थापना - प्रतिष्ठापना । थापा, सं. पुं. (हिं. थापना ) करांकः, पंचांगुलीचिह्नम् | थापी, सं. स्त्री. (हिं थापना ) १२. मृत्तिका कुट्टिम, ताडनमुद्गरः ३. दे. 'थपकी' । थाम, सं. स्त्री. (हिं. थामना ) आ-अव, लम्बनम्, धारणं, उप-सं, स्तम्भनम् २. आधारः, आलम्बः, अवष्टम्भः, आश्रयः । थामना, क्रि. स. (सं. स्तंभनं ) अब उत्-उपसं-स्तंभ (क्र. प. से. या प्रे. ), अवलंब - आलंब दा, अव-आ-लंबू (भ्वा. आ. से. ) २. अवस्था (प्रे.), वि-,स्तंभ, रुध् ( रु. उ. अ. ), विरम् ( प्रे. ) ३. साहाय्यं दा ४. निरुध् । थाल, सं. पुं. (सं. स्थालं ) धातुमयभाजनभेदः । थाला, सं. पुं. (हिं. थाल ) आ ( अ ) लवालं, आवालं, आवापः । स्थालम् । थाह, सं. स्त्री. (सं. स्था> ) ( नद्यादीनां ) तलंअधोभागः २. गाधं ३. गांभीर्यानुमानं ४. अंतः, सीमा । -लेना, क्रि. स. (तलं-वेधं ) परीक्ष (भ्वा. आ. से.)- निरूप (चु.)-मा ( जु. आ. अ. ) । थिएटर, सं. पुं. (अं.) नाट्य-रंग-नाटकशाला-गृह-मन्दिरं भूमिः (स्त्री.) । थिगली, सं. स्त्री. (हिं. टिकली ) पट, खंड : शकलः । बादल में—लगाना, मु., असंभवं चिकीर्षति ( सन्नंत ) । थियोसोफी, सं. स्त्री. ( अं. ) ब्रह्मविद्या २. सम्प्रदायविशेषः । थिर, वि., दे. 'स्थिर' । शान्तम्, थिरता, सं. स्त्री. दे. 'स्थिरता' । धुड़ी, सं. स्त्री. (अनु. ) धिक्, अवज्ञा-कुत्सा-गर्दा अवहेला, शब्दः । थुड़ी करना, मु०, अव-ज्ञा ( क्रया. प. से.), दे. 'धिक्कारना' | - धुड़ी होना, मु० ब० 'धिक्कारना' के कर्म ० के रूप । थुथनी, सं. स्त्री. दे. 'थूथनी' । थूक, सं. स्त्री. (हिं. थूकना ) मुखस्राव:, लाला, ठीवनं निष्ठतम् । थोड़ा -की गिलटी, सं. स्त्री. लालाग्रन्थिः (पुं. ) । कर चाटना, मु., प्रतिज्ञां भंज् (रु. प. अ.), वचनं व्यतिक्रम् (भ्वा. प. से. ) । थूकना, क्रि. स. (अनु. थू ) नि-, ष्ठिव् (भ्वा. दि. प. से, ष्ठीवति, ष्ठीव्यति ), लालां निःसृ (प्र.), सं. पुं., नि., ष्ठी :- वनं, निष्ठ यूतिः (स्त्री.) । थूथनी, सं. स्त्री. ( देश. थूथन ) प्रलंबमुख, लंबास्यम् । थूहर, सं. पुं. (सं. स्थूणा > ) नेत्रारि: (पुं.), निस्त्रिंशपत्रिका, स्नुही - हि: (स्त्री.), वज्रिन्, वज्र, दु:- द्रुमः कण्टकः, सिंहतुण्डः, सीहुण्ड: । थेवा, सं. पु. ( देश. ) दे. 'नगीना' । थाली, सं. स्त्री. (हिं. थाल ) स्थालक, लघु- थैला, सं. पुं. (सं. स्थलम् > ) प्रसेवः, स्यूतः -नः, पुट:-टं, स्योतः नः, धौतकटः । थैली, सं. स्त्री. (हिं. थैला) प्रसेवकः, स्यू (स्यो) थूनी, सं. स्त्री. (सं. स्थूणा ) स्थाणु ( पुं.), स्तंभ:, अवष्टंभः । तकः, पुटकः । थोक, सं. पुं. ( सं. स्तबकः ) राशि: ( पुं. ), चयः २. संघः, गणः । - फिरोश, - दार, सं. पुं. (हिं. + फ्रा.) चयस्तूप, विक्रयिन् । थोड़ा, वि. (सं. स्तोक ) न्यून, अल्प, स्वल्प, अणुक - अल्प-क्षुद्र लघु, परिमाण मात्र, ईषत् । --करना, क्रि. स., लघयति (ना. धा.), अल्पीन्यूनीक, हस् ( प्रे.) । -होना, क्रि. अ., अल्पी- न्यूनी- लघू भू, क्षिअपचि (कर्म. ) । क्रि. वि., स्तोकं, मनाक्, ईषत् यत् किंचित् । - थोड़ा, क्रि.वि., अल्पशः, अल्पाल्प, स्तोकशः । थिरकना, क्रि. अ. (अनु. थिर ) नृत्ये चरणौ । बहुत, वि., न्यूनाधिक । निरन्तरं कॅप्-वॆप् (स्वा. आ. से. ) । --सा, क्रि. वि., दे. 'थोड़ा' क्रि. वि. । For Private And Personal Use Only Page #325 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir दक्षिण थोपना, क्रि. स. (सं. स्थापनं ) अनु-प्र-वि-लिप् ( तु. प. अ. ), दिह् ( अ. उ. अ. ) २. राशीपिंडी कृ, समाक्षिप ( तु. प. अ. ) ३. दुष् (प्रे.), दोषं अरुह् (प्रे. आरोपयति ) क्षिप् । द द, देवनागरी वर्णमालाया अष्टादशो व्यंजनवर्णः, दकारः । दंग, वि. ( फा . ) चकित, विस्मित, स्तब्ध | दंगई, वि. (हिं. दंगा ) उपद्रविन्, कलहप्रिय २. उग्र, प्रचंड | दान, सं. पुं. ( फा . ) दन्तः, दशन:, रदनः । - साज़, सं. पुं., दन्तकारः, दन्तचिकित्सकः । दंदाना, सं. पुं. ( फा . ) दंतः, छेदः । दंदानेदार, वि. ( फा ) दंतुर, दंतुरित, अनुक्रकच । दंगल, सं. पुं. (फ़ा. ) मल्ल - बाहु-हस्ताहस्ति, युद्ध, मल्लक्रीडा २. मल्ल, भू:- भूमि : (दोनों स्त्री.) ३. जनौघः, लोकसमूह: । थोड़े से थोड़े से, वि., कतिचित्, कतिपयाः, स्तोकाः । थोथा, वि. (देश.) रिक्त-शून्य, गर्भ-मध्य- उदर, सुषिर २. कुंठित, अनिशित ३. निःसार, निर्गुण ४. निरर्थक, निष्प्रयोजन | [ २८७ ] दंगा, सं. पुं. ( फा दंगल ) कलह:, उपद्रवः २. कलकलः, कोलाहलः । दंड, सं. पुं. (सं.) दे. 'इंड' | दंडधर, सं. पुं. (सं.) यमराजः, दंडपाणि: २. नृपः, शासकः ३. परिव्राजकः, सन्न्यासिन् । दंडनीय, वि. (सं.) दंड य, दंडयितव्य, दमनीय | दंडवत्, सं. पुं. स्त्री. ( सं . अव्य. ) साष्टांग,प्रणामः- नमस्कारः । दंडी, सं. पुं. ( सं . - डिन ) दंडधरः परिव्राजक : २. यमः ३. नृपः ४. दौवारिकः ५. दंडधारी मनुष्यः ६. संस्कृतकविविशेषः । दंत, सं. पुं. (सं.) दशनः, रदः, रदनः, दे. 'दाँत' | - कथा, सं. स्त्री. (सं.) लोक-पारंपरीय, कथा, पारंपर्य, लोक-जन, श्रुति: ( स्त्री . ) । छद, सं. पुं. ( सं . ) ओष्ठः, रदनच्छदः । - घावन, सं. पुं. (सं. न.) दंत, काष्ठं मार्जनम् । दंती, ' सं. स्त्री. ( सं . ) एरंडपत्रिका, रेचनी, विशोधनी । दंती, सं. पुं. (सं. तिन् ) गजः, द्विपः । दैतुला, वि. ( सं . दंतुल ) दंतुर, दंतुरित, (सं.) दन्तौष्ठैरुच्चार्यवर्णः उन्नतदंत । दंतोष्ठ्य, वि. ( उ, व् ) । दंत्य वि. (सं.) रदनविषयक २. दंतोश्चार्य ( तवर्गादि ) । दंदनाना, क्रि. अ. (अनु.) दनदनायते (ना. धा.), रम् (भ्वा. आ. अ. ), नंदू (भ्वा. प. से. ) 1 दंपती -ति, सं. पुं. (सं. दंपती पुं. द्वि.) जंजाया- भार्या पती (पुं.द्वि.) । दंभ, सं. पुं. (सं.) कपट:-टं, कापटचं, आर्यरूपता, लिंगवृत्तिः (स्त्री.), आडंबर:, वक्रत्रतं, धर्मोपधा, दांभिकता, छाद्मिकता २. अभिमानः, दर्पः । भी, वि. ( सं . भिन्) कपटिन्, कापटिकछाद्मिक- दांभिक [-को (स्त्री.)], कपट, छद्म२. अभिमानिन, साडंबर । दंभोलि, सं. पुं. (सं.) इन्द्रवज्र:-जम् २. हीर:रम् | दंश, सं. पुं. ( सं . ) दे. 'डॉस' १ २. दे. 'डंक' ( १-२ ) ३. दंतः, रदनः । दई, सं. पुं. (सं. दैवं ) ईश्वर : २. अदृष्टं, भाग्यम् । - मारा, वि., मंद हत, -भाग्य । दक़ीक़ा, सं. पुं. (अ.) युक्तिः (स्त्री.), उपायः । कोई — बाकी न रखना, मु., सर्वोपायान्- समस्त युक्ती: प्रयुज् (रु. आ. अ., चु. ) । दक्खिन, सं. पुं., दे. 'दक्षिण' । दक्ष, वि. (सं.) कुशल, निपुण, चतुर, प्रवीण, विदग्ध, विशेषज्ञ । सं. पुं., ब्रह्मपुत्रः, शिवश्वशुरः, सतीपितृ । दक्षता, सं. स्त्री. (सं.) कौशल, नैपुण्यं, चातुर्य, प्रावीण्यं, वैदग्ध्यं, पाटवम् । दक्षिण, वि. ( सं . ) अपसव्य, सव्येतर, वामेलर २. दक्ष, निपुण । सं. पुं., दक्षिण, आशादिशा-दिश् (स्त्री.), दक्षिणा, वैवस्वती, यामी, अवाची २. दक्षिणापथः, दक्षिण:-णं ३. दक्षिणपार्श्व: र्श्व ४. नायक भेदः । - पूर्व, सं. पुं, आग्नेयी, दक्षिणपूर्वा । वि., आग्नेय, दक्षिणपूर्व । For Private And Personal Use Only Page #326 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir दक्षिणा [ २८८] - - - - - - -पश्चिम, सं. पुं., नैती, दक्षिणपश्चिमा । दनादन, क्रि. वि. ( अनु. ) सदनदनशब्द वि., नैऋत, दक्षिणपश्चिम । २. अनुक्रमेण, यथाक्रमम् । दक्षिणा, सं. स्त्री. (सं.) यज्ञादिविधिदानं, दनन, सं. पु. (सं.) असुरः, राक्षसः । पोरोहित्यशुल्कः-कं २. दानं, त्यागः, उत्सर्गः। दफ़ती, सं. स्त्री. ( अ. दफ्तीन ) दे. 'गत्ता' । दक्षिणायन, सं. पुं. (सं. न.) भानोर्दक्षिणा दफ़न, सं. पुं. (अ.) निखननं 2. श्मशाने गतिः ( स्त्री.)। स्थापनम् । -सूर्य, सं. पुं. (सं.) मकरसंक्रांतिः ( स्त्री.)।| करना, क्रि. स., श्मशाने-प्रेतभूमौ निधा दक्षिणी, वि. ( सं. दक्षिण > ) द (दा ) क्षिण, | (जु. उ. अ. )-स्था (प्रे. ) निक्षिप ( तु. प. दाक्षिणात्य, अवाचीन, अवाच्य, याम्य, अ.) २. निखन् ( भ्वा. प. से, ), निगुह आगस्त्य। (भ्वा. उ. से.)। दखल, सं. पुं. (अ.) अधिकारः, स्वामित्वं २. दफ़ा, सं. स्त्री. ( अ. दाः ) दे. 'बार' हस्तक्षेपः, परकायचचो ३. प्रवेशः, उपगमः । । २. विधान-, धारा। वि., अपसारित, दरीकृत, -देना, क्रि. स., परकार्याणि निरुप (चु.)- | निष्कासित, वि-, चालित।। चच (चु. आ. से.), परकर्मसु व्यापू (तु. [ दफ़्तर, सं. पुं. (फा.) कार्यालयः २. बृहत्पत्रं आ. अ.), मध्ये पत् (भ्वा.प. से)। ३. सविस्तरवृत्तांतः। दग़ना, क्रि. अ., ब. 'दागना' के कर्म. के रूप । | दफ्तरी, सं. पु. ( फा.) पत्रसंयोजकः २. दे. दग़ा, सं. स्त्री. (अ.) छलं, कपट, वंचनं, 'जिल्दसाज' । वि., कार्यालयसंबंधिन् । प्रतारणा २. विश्वासघातः। दबंग, वि. (हिं. दबाना) प्रभाव, वत्-शालिन्, -करना या देना, क्रि. स., प्रतृ-प्रलुभ-भ्रम् . अनुभाववत्, प्रतापिन्, प्रबल । मुह् (प्रे.), वंच (चु.)। दबकना, क्रि. अ. (हिं. दबाना ) ( भयेन ) -दार, बाज़, वि. ( अ.+फा.) कितवः, गुप्-गुह् ( कर्म.), गुप्त-निलीन (वि.) भू, प्रतारकः, वंचकः, शठः, विश्वासघातिन्, निली (दि. आ. अ.) २. परावस्कंदनार्थ छलिन्, कापटिक। निभूतं स्था ( भ्वा. प. अ.) ३. देहं नम् -बाज़ी, सं. स्त्री. (फ्रा.) वंचकता, चौतवं २. विश्वासघातकता। दबकाना, क्रि. स. व. 'दबकना' के प्रे. रूप दग्ध, वि. (सं.) ज्वलित, भस्मीभूत, भस्मसात् | २. दे. 'डाँटना। कृत २. दु:खित, व्यथित । दबदबा, सं. पुं. (अ.) आतंकः. प्रतापः, दढ़ियल, वि., दे. 'डढ़ियल' । अनुभावः, प्रभावः, तेजस् (न.), प्रौढिः दतवन, दतौन, सं. स्त्री., दे. 'दातुन'। । (स्त्री.)। दत्त, वि. (सं.) विमृष्ट, विश्राणित, अर्पित। दबना, क्रि. अ. (सं. दमनं>) [भ (भा) रेण]. दत्तक, सं. पुं. (सं.) कृतकः पुत्रः, दत्रिमः | अव-आ-नम् (भ्वा, प. अ.) अथवा नम्रीसुतः, दत्तकपुत्रः। वक्री, भू २. संकुच-संपिंड-संह ( कर्म.) ३. दत्तचित्त, वि. ( सं. ) अवहित, सम हित, पीड्-क्लिश (कर्म.) ४. निखन्-निगुह ( कर्म.) अभिनिविष्ट, एकाग्र, अनन्यवृत्ति । ५. प्रच्छन्न-गुप्त-निलीन (वि.) भू ६. वशं ददिहाल, सं. पुं. (हिं. दादा+सं, आलयः) इ-या (अ. प. अ.), वशीभू ७. आक्रम्-निविषपितामहालयः २. पितामह, कुलं-वंशः। संमृद् ( कर्म.)८. भी (जु. प. अ.), त्रस दद्रु, सं. पुं. (सं.) दर्दू:-, दद्रः, दद्रुरोगः, | (दि. ५. से.)। मंडलकुष्ठम् । दवे पाँव ( चलना), मु., अपादशब्दं नोरवं. दधि, सं. पु. (सं. न.) दे. 'दही'। निभूतं चल (भ्वा. प. से.)। -जात, सं. पुं. (सं.) चंद्रः, सोमः। . . दबाना, क्रि. स., ब. 'दबना' के प्रे. रूप। दधीचि, सं. पु. (सं.) मुनिविशेषः। दबा लेना, मु., अन्यायेन ग्रह (ऋ. प. से.) दनदनाना, क्रि. अ. ( अनु.) दे. 'दंदनाना'। आत्मसात्कृ। (प्रे.), नम्रीभू For Private And Personal Use Only Page #327 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir दबाव [ २८६) - दबाव, सं. पुं. (हिं दबाना ) अतिभारः, दमकल, सं. स्त्री. (हिं. दम+कल) *श्वासयंत्रम् निर्वधः, पीडनं २. अनुभावः, प्रतापः। २. अग्नियंत्रं ( फायर इञ्जन )३. जलोत्तोलनदबैल, वि. (हिं. दबना ) कातर, भीरु, ससा- यंत्रम् । ध्वस, त्रस्त। दमकला, सं. पुं. (हिं. दमकल ) *जपासेचनी । दबोचना, क्रि. स. ( हिं. दबाना ) बलेन-सहसा ! दमड़ी, सं. स्त्री. (सं. द्रम्मम् > ) काकिनी-णी, अभिद्र ( भ्वा. प. अ.), आक्रम् ( भ्वा. प. काकिणिका, बोत्री, पण, पाद: अष्टमभागः । से., आ. अ.)-ग्रह (क. प. से.)-धू (चु.)। दमदमा, सं. पुं. (फा.) सिकतिलप्रसेवगुप्तिः सं. पुं., सहसा ग्रहणं-धरणं-आक्रमणं इ.। (स्त्री.) (हिं. मोरचा )। दबौनी, सं. स्त्री. ( हिं. दबाना ) *पत्रदमनी दमन, सं. पुं. (सं. न.) अभिभवः, वि, जयः निरोधन, नियमनं, वशा-स्वायत्ती, करणं, (२-३) २. कांस्यकाराणामुपकरणभेदः। दे. 'दम' (१-२)। दभ्र, वि. (सं.) स्वल्प, स्तोक २. सूक्ष्म, कृश ।। सं. पुं., समुद्रः । दमनीय, वि. ( सं. ) वश्यः-श्या-श्यन्, निग्रहणीयः-या-यम्, संयमनीयः-या-यम् । दम, सं. पुं. (सं.) आत्मसंयमः, इन्द्रिय, जयः दमयंती, सं. स्त्री. (सं.) भैमी, वैदी, निग्रहः, दांतिः (स्त्री.), दमथ:-युः (पु.), नलपत्नी। २. दंडः, शासनं, निग्रहः ३. गृहं ४. कर्दमः ।। दम, सं. पुं. (फा.), प्र-नि-, श्वासः, उच्छ्वासः, दमा, सं. पुं. (फ्रा.) श्वासरोगः, कृच्छोच्छ्वासः, तमकः, तमकश्वासः । उच्छ्वसितं २. असवः-प्राणाः (पुं. बहु.), जीवन, जीवितं ३. फूत्कारः, फूत्कृत, धूमाकर्षः | दमादम, क्रि. वि. ( अनु०) सदम-दमशब्दम् २. निरन्तरं, सततम् । ४. पलं, क्षगः, निमि (मे) प: ५. व्यक्तित्वं ६. अभिमानः, दर्पः ७. छलं, कपट ८. वाष्पेण दमामा, सं. पुं. (फा.) दे. 'नकारा' । दमित, वि. . ( सं० ) संयमितः-ता-तम्, पाचनन् । नियमितः-ता-तम्, शासितः-ता-तम्, निरुद्धः-दिलासा, सं. पुं., मोवाशा, सांत्वनं, | द्धा-द्धम् । आश्वासनम् । दया, सं. स्त्री. (सं.) अनुकंपा, अनुग्रहः, कृपा, -बदम, क्रि. वि. अनु-प्रति,-क्षणं-पलं-निमिषं, प्रसादः, करुणा, हितेच्छा। क्षणे क्षणे, पले पले। -निधान कर -चढ़ना, मु., कष्टेन-सत्वरं श्वस् ( अ. प. से.)। धान । वि., परमदयाल, परमकृपालु, —निधि कृच्छण-दीघे निःश्वस । परमकारुणिक; सं. पुं., ईश्वरः । --मय -निकलना, मु., दे. 'मरना' । | --पात्र, वि. (सं. न.) दयनीय, अनुकंप्य, -भर में, मु., क्षणेन, क्षण-निमेष,मात्रेण, झटि- करुणाई। ति, सद्य एव। दयानतदार, वि. ( अ. दयानत+फा. दार ) -में दम आना, मु., चेतना-संज्ञां लभ ( भ्वा. | शुचि, सरल, ऋजु, शुद्धात्मन्, निष्कपट, आ. अ.)। अर्थशुचि। -लगाना, मु., तमाखू-धूमं पा (भ्वा. प. अ.)। दयानतदारी, सं. स्त्री. (अ.+फा ) शुचिता, -लेना, मु., विश्रम् (दि. प. से ), उद्योगात् अर्थशौचं, आर्जवं, सत्यता, निष्कपटता। विरम् ( भ्वा. प. अ.)। | दयालु, वि. ( सं.) दयित्नु, दयाशील, दया, -साधना, मु., प्राणान् रुध् (रु.प. अ.)। कृपालु, कारुणिक, अनुकम्पक, सदय, दयावत् । -नाक में आना, अत्यन्तं तप-क्लिश-पीड दयालुता, सं. स्त्री. (सं.) कृपालुता, दया(कर्म.)-खिद् (दि. आ. अ.)। शीलता, दे. 'दया। दमक, सं. स्त्री. (हिं. चमक का अनु.) दे. दर', सं. स्त्री. पु., दे. 'निख' । "चमक'। दर२, सं. पुं. (ना.) द्वारं, द्वार (स्त्री.), प्रति. दमकना, क्रि. अ., दे. 'चमकना' । (ती) हारः। १६ For Private And Personal Use Only Page #328 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir दरकना [ २६० दर्जी - -बदर, क्रि. वि., गृहाद, गृहं, द्वारे द्वारे, दराज़', सं. स्त्री. ( अं. ड्राअर ) चलसंपुटः, अनुद्वारम् । निष्कर्षणी। -बदर फिरना, मु०, दारिद्रयेण परिभ्रम् | दराज़ , वि. ( फ़ा. ) दीर्घ, लम्ब । (भ्वा. प. से.)। दरार, सं. स्त्री. (सं. दरः-रं ) छेदः, भेदः, दरकना, क्रि. अ. (सं. दर:>) भंज-विदृ-विभिद । स्फोटः, भिदा, भंगः। ( कर्म.), स्फुट (तु. प. से.), विदल ( भ्वा. दरिंदा, सं. पुं. (फा.) श्वापदः, हिंस्र-धातुकप. से.)। पिशिताश, पशुः ( पुं.)-जीवः । दरकाना, क्रि. स., ब. 'दरकना' के प्रे. रूप। | दरिद्र-द्री, वि. (सं. दरिद्र ) अधन, निर्धन, दरकार, वि. (फा.) अपेक्षित, आकांक्षित, अकिंचन, नि:स्व, अर्थ-धन-द्रव्य-विभव,-हीन, आवश्यक। दीन, दुर्गत । दरकिनार, क्रि. वि., (फ्रा.) दूरे आस्ताम्, दरिद्रता, सं. स्त्री. ( सं.) दारिद्रथं, निर्धनता, पृथक् तिष्ठतु, का कथा । अकिंचनता, दुर्गतिः ( स्त्री.) इ. । दरख्त, सं. पुं. (फ़ा.) वृक्षः, तरुः । | दरिया, सं. पुं. ( फ़ा.) नदी, सरित् (स्त्री.) दरख्वास्त, सं. स्त्री. ( फ़ा.) निवेदनं २. निवे २. सागरः। दनपत्रम् । -दिल, वि. ( फ़ा.) उदार, दानशील, वदान्य दरगाह, सं. स्त्री. (फा.) देहली २. न्यायालयः २. महानुभाव, उदारचेतस् । ३. ( मृतस्य ) समाधि: ( पुं.) ४. मन्दिरं, दरियाई घोड़ा, सं. .(फा.+ हिं.) करिया. देवालयः। दरज, सं. स्त्री., दे. 'दरार'। .. दस (न.), नदीघोट:-टकः । दरद, सं. पुं., दे. 'दर्द'। दरियाप्त, वि. (फा.) शात, विदित । सं. दरदरा, वि. ( सं. दरणं> ) अर्द्धचूणित, स्त्री., आविष्कारः । सामिपिष्ट । दरी', सं. स्त्री. (सं.) दे. 'गुफा' । दरबा, सं. पुं. (फा. दर ) विटंकः, कपोत- | दरी, सं. स्त्री. ( सं. स्तर:>) कुथ:-था, आस्त. पालिका २. कपोतबिलम् । रणं, परिस्तोमः। दरबान, सं. पुं. (का. | मि. सं., द्वारवान ) दरीचा, सं. पु. (का.) वातायनं २. द्वारकम् । द्वारपालः, दौवारिकः । दरीबा, सं. पुं., (फा.) ताम्बूलापणः, ताम्बूलदरबानी, सं. स्त्री. (फ़ा.) दौवारिकता, द्वारस्थता। पर्णहट्टः, २. हट्टः, विपणी-णिः ( स्त्री.)। दरबार, सं. पुं. (फ्रा. ) राज,-सभा-कुलं, | दरेग़, सं. पुं. (फ़'.) अरुचिः (स्त्री.), विमुखता। आस्थान-नी २. अधिकरणं, न्याय-धर्म, सभा, | दर्ज, वि. (फा.) लिखित, लेख्ये निवेशित । व्यवहारमंडपः। -करना, क्रि. स., लिखु ( तु. प. से.), लेख्ये दरबारी, सं. पुं. (फा.) राजसभासद् (पुं.), | निविश् (प्रे.)। सभ्यः, सभिकः, राजवल्लभः, आस्थानचरः। दर्जन, सं. पुं. ( अं. डज़न) द्वादशकं, द्वादशदरमियान, स. पुं. तथा क्रि. वि., दे. 'मध्य'। समूहः । दरमियानी, वि. (फा.) दे. 'मध्यम'। दर्जा, सं. पुं. (अ.) श्रेणी-णिः ( स्त्री.), वर्गः. दरयाफ्त, वि., दे. 'दरियाप्त' । छात्रगणः २. कोटिः ( स्त्री.), काष्ठा ३. पदं, दरवाज़ा, सं. पुं. (फा.) दे. 'दर' २. दे. पदवी-विः (स्त्री.) ४. क्रमः, परम्परा ५. भूमिः 'किवाड़'। (स्त्री.) (मकान की मंजिल)। क्रि. वि.,-गुणं, दरवेश, सं. पुं. (फा.) साधुः ( पुं.), सन्न्या - | वारं,-गुणितम् । सिन्, भिक्षुः ( पुं.)। ---ब दर्जा, क्रि. वि., क्रमशः, क्रमेण, शनैः शनैः। दरस, सं. पुं. (सं. दर्शः) दर्शनं, वीक्षणं २. | दर्जिन, सं. स्त्री. (फा. दजों) तुन्नवायी, · . सं,आगमः-मिलनं ३. सौन्दर्यम् । (सौ) चिकी, सूचिकोपजीविनी।। दराँती, सं. स्त्री. (सं. दात्रं ) लवित्रं, शस्य- दर्जी, सं. पुं. (फ़ा.) तुन्नवायः, सू ( सौ) कर्तनी, खडगीकम् । । चिकः, वस्त्रसेवकः, सूचिकर्मोपजीविन् । For Private And Personal Use Only Page #329 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [२६१] दलित दर्द, सं. पुं. (फ़ा.) पीडा, व्यथा, दुःख, वेदना, -पति, सं. पुं. (सं.) सेना, नोः ( पुं.)-नायकः, अ (आ) त्तिः ( स्त्री.) यातना, क्लेशः, कष्ट, चमूपतिः (पुं.)२. अग्रणीः (पुं.), अध्यक्षः, कृच्छ२. करुणा, दया, सहानुभूतिः (स्त्री.), प्रमुखः, नायकः ।। ३. हानि-नाश, दुःखम् । दलकना, क्रि.अ.,दे. 'दरकना' २. दे. 'थर्राना' । -गुर्दा, सं. पु. ( फ़ा.) वृक्क (का) वेदना, गुर्द- दलदल, सं. स्त्री. ( सं. दलाढ्यं ) कर्दमः, पंक:शूल:-लम् । कं, जंबाल:-लं २. अनूपः, कच्छ, भूः-भूमिः -नाक, वि. (फा.) दुःखद, कष्टप्रद, क्लेश- (स्त्री.), कच्छः । कर री ( स्त्री.)], संतापक । दलदली, वि. (हिं. दलदल) पंकदूषित, पंकिल, -सर, सं. पुं. (फा.) शीर्ष,-शूलं-पीडा-व्यथा, | सकर्दम, कर्दममय [-यी (स्त्री.)] २. आनूप, शिरोवेदना। [पी (स्त्री.)], जल,-आढ्य-पूर्ण-मय। , दर्दमंद, वि. ( फ़ा.) पीडित, व्यथित, दुःखित | दलन, सं. पुं. ( सं. न. ) पेषणं, खंडनं, चूर्णनं, २. दयालु, दयावत् । निष्पेषः, मर्दनं २. वि., नाशः-ध्वंसः, संहारः। दर्दशी, सं. स्त्री. (देश.) गृध्रसी (ऊरुरोगभेदः)। दलना, क्रि. स. (सं. दलनं ) स्थूलस्थूलं पिष्दर्दी, वि ( फा. दर्द ) दे. 'दर्द मंद'। क्षुद् ( रु. प. अ.)-मृद् (ऋ. प. से.)-चूर्णदर्प, सं. पुं. (सं.) अभिमानः, मानः, स्मयः, चित्तोन्नतिः ( स्त्री.), गर्वः, अहङ्कारः, अवलेपः, खण्ड (चु.), निर्दल (भ्वा. प. से.) २. २. उद्दण्डता, उद्धृतता। संपीड् (चु.), पादतलेन मृद् ३. (पेषण्यादिभिः), द्विधा खण्ड (चु.)-शकलीकृ ४. नश्-ध्वंस् (प्रे.)। . दर्पक, सं. पुं. ( सं.) दृप्तः, अहंकारिन्, गविंतः, अवलिप्तः, उद्धतः। सं. पुं. दे. 'दलन'। दर्पण, सं. पुं. ( सं. पुं. न.) मुकुरः, आदर्शः, | | दलनेवाला,सं. पुं., स्थूल,-पेषकः-मर्दकः-चूर्णकः। आत्मदर्शः, कर्कः, कर्करः, दर्शनम् । दलबादल, सं. पुं. (सं. दलं+हिं. बादल) दर्पित, वि. (सं.) गवितः-ता-तं, दृप्तः-ता-तं, मेघमाला, कादंबिनी, घनपटली २. महती चमूः अवलिप्तः-ता-तम् । (स्त्री.) ३. बृहत्पटमंडपः।। दर्भ, सं. पुं. (सं.) कुशभेदः २. कुशः ३. उल-/ दलवाना, क्रि. प्रे., ब. 'दलना' के प्रे. रूप। पतृणं, काश:। दलहन, सं. पुं. (हिं. दाल ) दाली-द्विदलादरी, सं. पु. ( फ़ा.) संकट-संबाध, पथः-मार्गः, वैदल,-मूलान्नं-उपयुक्तान्नम् । | दलहरा, सं. पुं. (हिं. दाल ) दाली-वैदल, दुर्गसंचरः, गिरिद्वारम् । दर्शक, सं. पुं. (सं.) द्रष्ट्र (पु.), प्रेक्षकः, विक्रेतृ-विक्रयिन्-विक्रायकः । वीक्षकः, दर्शिन् २. ( सभा आदि के पार्षदः । दलादली, सं. स्त्री. (सं. दलः-लं > ) दलपारिषद्यः, सामाजिकः ३. प्रकाशक प्रदर्शन गण-संघ-वर्ग,-स्पर्द्धा-विजिगीपा-प्रतियोगिता । दर्शन, सं. पुं. (सं. न.) वि-आ-अवलोकने । दलाल, सं. पुं. (अ.) परार्थे क्रयविक्रयायोवि., ईक्षणं, साक्षात्करणं, चाक्षुषज्ञानं, निवर्णनं, ' जकः, क्रयविक्रयसहायकः, मध्यस्थः । निभालनं २. सं., मिलन. समागमः, संगतिः दलाली, सं. स्त्री. ( अ. दलाल) क्रयविक्रय(स्त्री.) ३. तत्त्व, विद्या-शास्त्रं-शानं ४. नेत्रं सहायकत्वं २. क्रयविक्रयसहायकत्ववेतनम् । ५. दर्पणः। दलित, वि. (सं.) खंडित, चूर्णित, मर्दित, दर्शनीय, वि. (सं.) अव-आ-वि,-लोकनीय, शकलोकृत २. अवन( ना )मित, अवपीडित ईक्षणीय, निभालनीय २. मनोहर, अभिराम । ३. अस्पृश्य, अंत्यज ४. नाशित, ध्वंसित । दर्शनी हुँडी, सं. स्त्री., सद्यःशोध्यं धनार्पणा- | सं. पुं., अस्पृश्यः, नीचः, अंत्यजः, *हरिजनः । देशपत्रम् । | ---उद्धार, सं. पुं. (सं.) अस्पृश्य-अन्त्यज-हरिदल, सं. पुं. (सं. पुं. नं.) सेना, सैन्यं २ संघ:, / जन,-उन्नतिः (स्त्री.)-उन्नयनं-उद्धारः। गणः, समूहः ३. पत्रं, पलाशं, पर्ण, छदः, छदनं -वर्ग, सं. पुं. (सं.) अस्पृश्य-अन्त्यज-नीच-, ४. अर्द्धखण्ड:-डं ५. चक्र, मण्डली। । वर्गः-समुदायः । For Private And Personal Use Only Page #330 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir दलिया [ २६२ ] दवाग्नि, सं. स्त्री. पं..दे. 'दावानल' । दलिया, सं. पु. (हिं. दलना ) *दलितकः, दस, वि. ( सं. दशन् )। सं. पुं., उक्ता संख्या, दलित खंडित-मदित,-अन्नम् । तदंको (१०) च। दलील, सं. स्त्री. (अ.) तर्कः, युक्तिः (स्त्री.), गुना,वि., दश,-गुण-गुणित ।। हेतुः (पुं.) २. वादः, वाद, संवादः-विवादः, -प्रकार से, क्रि. वि., दशधा ( अव्य.)। शास्त्रार्थः । चार, क्रि. वि., दशकृत्वः ( अव्य.)। दव, सं. पुं. (सं.) दे. 'दावानल'। दसवाँ, वि. (सं.दशमः-मी-मम् । दवा, सं. स्त्री. (फा. ) ओषधिः ( स्त्री.), | दस्तंदाज़ी, सं. स्त्री. (फा.) हस्तक्षेपः, पर. औषधं, भेषजं २. उपचारः, चिकित्सा ३. प्रति- | कार्यचर्चा । (ती)कारः, प्रतिविधानम् । दस्त, सं. पुं. (फा.) अति(ती)सारः, द्रवमलं -ख़ाना, सं. पुं. (फ्रा.) औषधालयः, भेप- २. हस्तः, करः।। जालयः। आव-लह वाले--.सं. पं.. आमरक्तातिसारः। --दारू, सं. स्त्री. (फा.+सं.) उपक्रमः, | आँववाले-, सं. पुं., आमातिसारः। उपचारः, चिकित्सा । लहूवाले.--, सं. पुं., रक्तातिसारः। --कार, सं. पुं.(फा.) शिल्पिन्, शिल्पकारः। -कारी, सं. स्त्री. (फा.) शिल्पं, शिल्पविद्या, दवानल, सं. पुं. " हस्त, शिल्पं-कर्मन् ( न. )-क्रिया। दवात, सं. स्त्री. ( अ. दावात ) मसी, कूपीधानी-धान-पात्रं-भाजनं, मेला, नंद: नंदा- | -खत, सं. पुं. (फा.) नाम-हस्त, अक्षरम् । अंधुकः । खत करना, क्रि. स., स्वनामन् (न.) दवामी बंदोबस्त, सं. . ( फ्रा.) भूमिकरस्य | लिख (तु. प. से. ), हस्ताक्षरं कृ । स्थायिप्रबंधः। -बस्ता, क्रि. वि. ( फा.) साअलि, अञ्जलि दश, वि. दे. 'दस'। बद्ध्वा। -आनन, -आस्य. -कंठ. -कंधर. दस्तक, सं. स्त्री. (फ़ा.) द्वार, आघातः-ताड --ग्रीव,-मुख, सं. पुं, (सं.) रावणः। प्रहारः। दशन, सं. पुं. ( सं. पुं. न.) दे. 'दाँत'। दस्तरखान, सं. पुं. (फा.) मनकवस्त्र, फलदशम, वि. (सं.) दे. 'दसवाँ' । कपटः। दशमलव, सं. पुं. (सं.) दशमबिन्दुः (बीज- दस्ता, सं. पुं. (फ़ा. दस्तः) मुष्टिः ( स्त्री.). गणित)। वारंगः। (खड्ग का) सरु:-त्सरुः (पुं.) दशमी, सं. स्त्री. (सं.) चांद्रमासस्य शुक्ला | २. मुसल:-लं ३. पत्रचतुविशतिः (स्त्री.) कृष्णा वा दशमी तिथिः (पं., स्त्री.) २. मरणा ४. सैनिकसंधकः ५. दे. 'गुलदस्ता' । वस्था ३. विमुक्तावस्था। दस्ताना, सं. पुं. (फा.) *हस्तत्राणः, करच्छदः । दशमूल, सं. पुं. (सं.न.) पाचनभेदः (वैद्यक)। दस्तावर, वि. (फा.) वि., रेचक-रेनन. दशरथ, सं. पुं. (सं.) अवधेशो नृपविशेषः, शोधन, सारक। श्रीरामचन्द्रस्य पिता। दस्तावेज़, सं. स्त्री. (फा.) व्यवहार-समय, दशहरा, सं. पुं. (सं. स्त्री.) गंगा, भागीरथी । पत्र-लेखः । २. गंगाया अवतरणतिथिः, ज्येष्ठशुक्लदशमी | दस्ती, वि. (फा. दस्त) हस्त्य, कर-, हस्त३. उक्ततिथौ गंगावतरणोत्सवः ४. विजया- | २. वारंगकः, लघुमुष्टिः ( स्त्री.)। दशमी, रावणवधतिथिः (पुं., स्त्री. ), आश्विन- | दस्तूर, सं. पुं. (फा.) प्रथा, रीतिः (स्त्री.) शुक्लदशमी। २. नियमः, विधिः (पुं.)। दशांश, सं. पुं. (सं. दशांशः>) दशम, अंश:- दस्तूरी, सं. स्त्री., (फा. दस्तुर > ) ( वणिभागः। भिर्धनिकदासेभ्यो देयं ) प्रथाशुल्कम् । दशा, सं. स्त्री. (सं.) अवस्था, स्थिति :-वृत्ति:- | दस्यु, सं. पुं. (सं.) चौरः, तुंठकः, २. अनाय:, गतिः ( स्त्री.), भावः । म्लेच्छः। For Private And Personal Use Only Page #331 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir दह [ २६३ दाई दह, सं. पुं. (सं. हृदः>) *सरिद्गतः २. कुंडं | दाँए-बाँए, क्रि. वि. ( सं. दक्षिण+वाम> ) ३. जलावर्तः । दक्षिणतो वामतश्च, दक्षिणवामपार्श्वयोः, इतदहक, सं. स्त्री. दे. 'धधक'। स्ततः, अत्र तत्र। दहकना, क्रि. अ. (सं. दह् ) दे. 'धधकना' । दाँत, सं पुं. ( सं. दंतः) दशनः, रदनः, दहकान, सं. पुं. (फा.) कृपाणः, कृष (घि) खादनः, रदः, द्विजः, खरुः ( पुं.), दंशः । कः, कृषीवलः । वि., अज्ञ, मूढ, अशिष्ट। (सामने के आठ-छेदक-कर्तनक, दन्ताः, साथ दहकाना, कि. स. (हिं. दहकना ) दे. के चार भेदक-रदनक, दन्ताः , उनसे पिछले "धधकाना'। आठ अग्रचर्वणकदन्ताः; पिछले बारह= चर्वदहन, सं. पुं. (सं. न.) ज्वलनं, दाहः, प्लोषः । णकदन्ताः )। २. (सं. पुं.) अग्निः ( पुं.)। -उगना, क्रि. अ., दंताः उद्गम् ( भ्वा. प. दहलना, क्रि. अ.(सं. दर:-डर-) भयेन कंप अ.)-उद्भिद (कर्म) । सं. पुं., दंतोद्गमः । वप्( भ्वा. आ. स. ), वि,वस् (वा. दि. --किचकिचाना, ) क्रि. अ., (क्रोधेन)दंतैर्दैतान् प.से.)। --किटकिटाना, घृण (भ्वा. प. से.) निष्पिष् दहलाना, क्रि. प्रे., ब. 'दहलना' के प्रे. रूप । -~-चबाना, । (रु. प. अ.)-विघट्ट (प्रे.)। दहलीज़, सं. स्त्री. (फा.) देहली, गृहाव- । -पीसना, सं.पं.,दंत,धर्षणं-निष्पेषः । ग्रहणी। का दर्द, सं. पुं., दंत, पीडा-शूलम् । दहशत, सं. स्त्रो. (फा.) त्रासः, आतंकः, --का पेस्ट, सं. पुं., *दंतलोपः।। भीति:( स्त्री.)। | -का बुरश, सं. पुं., दंतकूर्चकः, कम् । दहसेरी, सं. स्त्री. (सं. दशसेरी ) दशसेटकी । का मंजन, सं. पुं., निश्शुक्कणन्, दंतमादहाई, सं. स्त्री. ( फा. दह) दशत्वं २. दशकं, र्जनं, रदक्षोदः। दशतिः (स्त्री.) ३. अंकगणनायां द्वितीयस्थानं | ~खोदनी, सं. स्त्री., दंतोल्लेखनी, दंतशोधनी । ४. दशमांशः । दहाड़, सं. स्त्री. ( अनु.) गजितं, गर्जन-ना, -बनानेवाला, सं. पुं., दंत, वैद्यः-चिकित्सकः। महत्-दीर्घ-गंभीर, नादः-शब्दः २. आ-वि, -खट्टे करना या तोड़ना, मु., वि-परा-जि कोश:आर्तनादः। (भ्वा. आ. अ.), अभि-परा-भू (भ्वा. प. से.)। दहाड़ना, क्रि. अ. (हिं. दहाड़ ) गर्ज-रस-नद- -तले उँगली दबाना, मु., अत्यर्थ वि-स्मि नई ( भ्वा. प. से.) २. आ-उत्-वि-व्या, (भ्वा. आ. अ.), विस्मित-चकित (वि.) भू। क्रुश (भ्वा. प. अ.), सचीत्कारं रुद् |-निकालना, मु., हस् (भ्वा. प. से.) (अ.प.से.)। २. स्वायोग्यतां प्रकाश (प्रे.)। दहाना, सं. पुं. (मा.) विस्तीर्णमुखं २. द्वारं | रखना, लगाना या होना, मु., अत्यंत ३. भस्त्रामुखं ४. नदीमुखम् । अभिलष-वांछ ( भ्वा. प. से.)। दहिना, वि. ( सं. दक्षिण ) अपसव्य, वामेतर, | दाँता, सं. पुं. (हिं. दाँत ) दे. 'दंदाना' । सव्येतर २. तुष्ट, कृपालु। -किटकिट, । सं. स्त्री., कलहः, वाग्युद्धं दहिने, क्रि. वि. (हिं. दहिना) दक्षिणेन, -किलकिल, J२. दे. 'गालीगलौज'। दक्षिणतः, दक्षिणा-गात-णाहि । दाँती, सं. स्त्री., दे. 'दरॊती'। दही, सं. पुं. [सं. दधि (न.)] क्षीरज, दांपत्य, वि. (सं.) पतिपत्नी-जायापति-विषयक, विरलं, मंगल्यं, पयस्य, द्रप्सः-सं, श्रीपनम् । । वैवाहिक, जांपत्य । सं. पुं. (सं. न.) दाम्पत्य, दहेज, सं. पुं. (अ. जहेज़ ) युतकं, यौतुक संबंध:-न्यवहारः, जांपत्यम् । स्त्रीधनं, शुल्क, वाहनिकम् । दांभिक, वि. (सं.) दे. 'दंभी' । दा, सं. पुं., (सं.-दा )-वारं,-कृत्वः (दोनों| दाइज-जा, सं. पुं., दे. 'दहेज'। अव्य.)। (फा.) वि., (समासान्त में )-श, | दाई, वि. स्त्री.,दे. 'दाहिनी'। ( हिसाबदाँ-गणितज्ञः इ.)। दाई, सं. स्त्री, (सं. धात्री; फा. दायः) मातृका, For Private And Personal Use Only Page #332 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir दाऊ [ २६४ ] दाना उपमातृ ( स्त्री, ), अंकपाली २. साविका, दाढ़', सं. स्त्री, (सं. दाढ़ा) द्रष्ट्रा, जंभः, प्रसवकारिणी। चर्वणदंतः। -गीरी, सं. स्त्री., गर्भमोचनविद्या, प्रसव-भूति-, | दाढ़, सं. स्त्री. ( अनु.) गजितं, गर्जन-ना कार्य-कर्मन (न.)। २. चीत्कारः। -से पेट छिपाना, मु., रहस्यविदो रहस्य | दाढ़ी, सं. स्त्री. ( दाढिका ) कुर्चः चें, श्मश्रु गुह् ( भ्वा. उ. वे.)। । (न.), व्यंजनं, कोटः। दाऊ, सं. पुं., (सं. देवः>) अग्रजः, ज्येष्ठभ्रातृ -जार, सं. पुं., दग्ध, कूर्च-इमश्रु (गालीभेदः) । २. बल, देवः रामः, श्रीकृष्णाग्रजः । -बनवाना या मुड़ाना, क्रि. प्रे., कूचे मुंड दाक्षायण, सं. पुं. (सं.) दक्षप्रजापतिकृतयशः । (चु.)-आवप (प्रे.)। २. सुवर्णम् ३. आभूषणम् । वि. दक्षगोत्रीय । | दाता, सं. पुं. (सं. दात) दानकर्तृ (पु.) दाक्षायणी, सं. स्त्री. (सं.) अश्विन्यादिनक्षत्रम् । वदान्यः, दानशीलः, दारु: (पुं.), मुचिरः। २. सती ३. दुर्गा ४. अदितिः ( स्त्री.)। [दात्री (स्त्री.) = दानकी] । ५. दक्षगोत्रकन्या। दातु(तौ)न, सं. स्त्री. ( हिं. दाँत ) दंत, काष्ठं-पति, सं. पुं. (सं.) शिवः २. चन्द्रः। धावनम् । दाक्षिणात्य, सं. पुं. (सं.) दक्षिणप्रदेश, निवा- | दाद', सं. स्त्री., दे. 'दद्रु'। सिन्-वास्तव्यः २. नारिकेलः, अप-कौशिक, दाद , सं. स्त्री, (फा.) न्यायः, न्याय्यता । फलम् । वि. दक्षिण, सम्बन्धिन्-प्रदेशीय। -देना, क्रि. स., गुणावगुणान् विविच्य प्रशंस दाख, सं. स्त्री. (सं. द्राक्षा) गोस्तनी, स्वाती, ( भ्वा. प. से.)। मृद्वीका, रसाला, गुच्छफला २. शुष्कद्राक्षा दादा, सं. पुं. (सं. तात:>) पितामहः, पितृ३. दे. 'मुनक्का'। जनकः २. अग्रजः। दाखिल, वि. ( फ़ा.) प्रविष्ट, निविष्ट २. संमि- दादी, सं. स्त्री. (हिं. दादा ) पितामही, पितृ. लित, समाविष्ट ३. न्यस्त, निक्षिप्त । जननी। -खारिज, सं. पं. (फा.) स्वत्व-स्वामित्व,- | दादुर, सं. पुं, (सं. दर्दुरः) मंडकः, भेकः । परिवर्तः। दान, सं. पुं. (सं. न.) त्यागः, उत्-वि,-सर्जनं-दफ्तर, वि. (फा.) लेखागारे निक्षिप्त । । सर्गः, विश्राणनं, वितरणं, भिक्षादानं २. प्रदान दाखिला, सं. पु. (फा.) प्रवेशः-शनम् । ददनं, दत्तिः (स्त्री.), अतिसर्जनं ३. गजमदः । दाग़, सं. पुं. (फा.) अंकः, चिह्न' २. कलंकः, -करना या देना, क्रि. स., सत्कार्येषु-पुण्यार्थे लांछनं, दोषः ३. तप्तलोहमुद्रांकः ४. बिंदु: वित्तं विसज् ( तु. प. अ.)-व्यय (चु., स्वा. (पुं.), तिलकः-कम् । उ.से.)। -दार, वि. ( फा.) अंकित, चिह्नित २. सति- | ---धर्म, सं. पुं. (सं.) भिक्षा-दानं, ( पुण्यार्थे) लक, बिंदुमत, कर्बुर ३. दूषित, कलंकित । त्यागः। -लगना, क्रि. अ., कलंकित-दूषित-लांछित- -पत्रं, सं. पुं. (सं. न.) दानलेखः । (वि.) भू २. तप्तलोहमुद्रांकित (वि.) भू। -पान, सं. पुं. (सं. न.) दान, भाजन-मंजूषा --लगाना, क्रि. स., दुष् (प्रे.), कलंकयति २. दानग्रहणाधिकारिन् । ( ना. धा.) २. ( तप्तलोहमुद्रया ) अंकयति- |-पुण्य, सं. पुं. ( सं. न.) दे. 'दानधर्म' । चिह्नयति ( ना. धा.)। .-शील, वि. ( सं.) उदार, त्यागिन्, वदान्य, दाग़ना, क्रि. स. (फ़ा. दाग) दे. 'दाग लगाना' | त्यागशील, दानशौंड। २. लोहादिगोलान् प्रक्षिप ( तु. प. अ.)-प्रास् | दानव, सं. पुं. (सं.) राक्षसः, रक्षस (न.)। (दि. प. से.)। -इन्द्र, सं. (पुं.) बलिः । दागी, वि. (फा. दाग ) दे. 'दागदार'। दानवी, वि. (सं.) दानवीय, दानव, उचितदाघ, सं. पुं. (सं.) तापः, दाहः, ऊ मन् (पुं.)। | सम्बन्धिन् । सं. स्त्री. (सं.) दानव, पत्नी-मार्या । दाडिम, सं. पुं. (सं.) दे. 'अनार'। | दाना', सं. पुं. (फा. दानह ) अन्नकण:-णिका For Private And Personal Use Only Page #333 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [२६] दालचीनी - २. अन्नं, धान्यं ३. गुलिका ४. पिटिका, | चु.), राजकुले निविद् (प्रे.), अभियोगं रक्तवटी, स्फोटकः। प्रवृत् (प्रे.)। --पानी, सं. पुं. (फा.+हिं.) अन्नजलं, दायरा, सं. पु. ( अ.) चक्र, मंडलं, वृत्तम् । जलान्नम्, भक्ष्यपेयम् । | दायाँ, वि. ( सं. दक्षिण ) दे. 'दहिना'। -पानी उठना, मु., त्यवसाय-आजीविका, दायित्व, सं. पु. ( सं. न.) उत्तरदायित्वं २. समाप्तिः ( स्त्री.)-अवसानम् । दातृत्वम् । -(ने) दाने को तरसना, मु., क्षुधया बुभुक्षया | दायें, कि. वि. (हि. दायाँ ) दे. 'दहिने । मृ (तु. आ. अ.)। | दार, सं. स्त्री. [ सं. दाराः (नित्य पुं. बहु.)] दाना, वि. (ता.) प्राश, बुद्धिमत् । कलत्रं, पत्नी, भार्या । दानाई, सं. स्त्री. (फा.) बुद्धिमत्ता, विद्वत्ता। -कर्म, सं. पुं. [सं.-मन् (न.)] विवाहः, पाणिदानी, वि. ( सं.-निन् ) दे. 'दानशील' तथा ग्रहणम् । 'दाता। दारक, सं. पुं. (सं.) शिशुः (पु.), बालः, दानेदार, वि., कण-कणिका, मय [ -यी (स्त्री.)]। बालकः २. पुत्रः, तनयः। दाब, सं. स्त्री., दे. 'दबाव' ।। दार(ल)चीनी, सं. स्त्री. (सं. दारु+चीन = दाबना, क्रि. स., दे. 'दबाना' । देशविशेष> ) दे. 'तज' । दाम', सं. पुं. (सं. दामन् न. स्त्री.) रज्जुः | दारा, सं. स्त्री., दे. 'दार' । (स्त्री.), गुणः, संदानं २. माला, हारः दारिद,-द्रद्रय, सं. पुं. (सं. दारिद्रचं )निर्ध३. समूहः ४. संसारः। नता, अकिंचनता, दरिद्रता। दाम, सं. पुं. (फा. । मि. सं. 'दाम'१) पाशः, दारु, सं. पुं. ( सं. न., कहीं-कहीं पुं.) काष्ठं २. जालं, वागुरा। देवदारु (पुं. न.)। दाम', सं. पुं. ( हिं. दमड़ी) पणचतुर्विंशभागः | दारुण, वि. ( सं. ) घोर, विषम, विकट, दुःसह, २. मूल्यं, अर्घः, वस्नं ३. धनं ४. दाननीतिः | कठोर, २. भीषण, भयङ्कर । (स्त्री., राजनीति )। दारुहलदी, सं. स्त्री. ( सं. दारुहरिद्रा ) दावों, दामन, सं. पु. ( फा.) चोलादीनां निम्नभागः, | पीता, पीतिका। वस्त्रांचलः, वसनांतः २. उपत्यका । दारू, सं. स्त्री. (फा.) औषधं, भेषजं २. मद्यं, -पकड़ना, मु., शरणं प्रपद् (दि.आ. अ.), सुरा ३. दे. 'बारूद' । आ-उपा-सं,श्रि (भ्वा. उ. से.)। -फैलाना, मु., याच ( भ्वा. उ. से.)। --दवा, । दामाद, सं. पुं. (फा.) जामात (पु.), पुत्री- दारोगा, सं. पुं. (फ़ा.) अध्यक्षः, अधिष्ठातृ (पुं.) पतिः (पुं.), कन्यावदिन्, दुहितृधवः। निरीक्षकः २. दे. 'थानेदार' । दामिनी, सं. स्त्री. (सं.) तडित्-विद्युत् (स्त्री.), | दार्शनिक, सं. पुं. (सं.) तत्त्व, विद्-वेत्तृ-शः चञ्चला। (सब पुं.), दर्शनशास्त्रपण्डितः । दामोदर, सं.पु. (सं.) श्रीकृष्णचन्द्रः २. विष्णुः। | दाल, सं. स्त्री. ( सं. दाल: - कोदों> ) दाली, दाय, सं. पुं. (सं.) पैतृकं, पैतृक,-रिक्थं धनं, | द्विदला-लं, वैदलः, शिंबा-बिका, हरेणुः ( पुं.), गोत्रधनं २. यौतुकादिदेयधनम् । हरेणुकः, शमी-शिम्बी,-धान्यम् । -भाग, सं. पुं. (सं.) दाय-रिक्थ, विभाग:- -दलिया, मु., रूक्षभोजनम् । वंटन-व्यंशनम् । -न गलना, मु., असमर्थ-अशक्त (वि.) स्था दायक, सं. पुं. (सं.) दे. 'दाता' [ दायिका (भ्वा. प. अ.)। (स्त्री.)]। --में काला, मु., संदिग्धवार्ता २. कुरहस्य दायजा, सं. पुं. ( सं दायः> ) दे. 'दहेज'। ३. कुलक्षणम् । दायर, वि. (फा.) चलत् (शवंत), वर्तमान । -रोटी, सं. स्त्री., सामान्याहारः । दावा-करना, क्रि. स., अभियुज ( रु. आ. अ.; दालचीनी, सं. स्त्री., दे. 'तज' । -दरपन, । में स्त्री..चिकित्सा, उपचारः। For Private And Personal Use Only Page #334 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir दालन [ २६६ ] दिखावटी - - दालन, सं. पुं. (सं. दलन> ) दन्तरोगभेदः, दासानुदास, सं. पुं. (सं.) अतिनमः किंकरः, दन्तक्षयः। तुच्छरसेवकः। दालमोठ, सं. स्त्री. (हिं. दाल+मोठ) स्नेह- दासी, स. स्त्री. (सं.) बेटी, भुजिष्या, दे. भर्जितदाली, सलवणः । 'नौकरानी'। दालान, सं. पुं. (फा) दे. 'बरामदा'। दासेय, सं. पुं. (सं.), दासीपुत्रः २. दासः । दालिम, सं. पुं. (सं. दालि (डि ) मः-मा) दास्तान, सं. स्त्री. ( फा.) कथा २. वृत्तान्तः (वृक्ष) कुचफलः, शुकवल्लभः। (फल) ३. वर्णनम् । कुचफलं, रक्तबीजं, दालि (डि ) मम् । दास्य, सं. पुं. (सं. न.) दे. 'दासता' । दाव, सं. पुं. (सं. प्रत्य. दा>, उ. एकदा) दाह, सं. पुं. (सं.) दाहनं, ज्वालनं, भस्मीपर्यायः, परिवृत्तिः (स्त्री.), वारः २. अवसरः, करणं २. शवदाहः, अन्त्येष्टि-मृतक,संस्कार:वेला, कार्यकालः, प्रसंगः ३. उपायः, युक्तिः । क्रिया ३. तापः, प्लोपः, शोकः, सन्तापः ४. (स्त्री.) ४. छलं, कपटं ५. गल्लयुद्धकूटयुक्तिः । ईर्षा-या । (स्त्री.) ६ निभूतावस्थितिः ( खो.)। -कर्म, सं. पुं. [सं.-मन् (न.)] दे. 'दाह'(२) । ----पर लगाना, मु., पण ( भ्वा. आ. से., षष्ठी | दाहक, वि. (सं.) तापक, दीपक, प्लोषक । के साथ; उ. 'रूप्यकस्य पणते')। दाहना, क्रि. सं., दे. 'जलाना' । -लगना, मु., अवसरः लभ ( कर्म.)। दाहिना, वि., दे, दहिना' । दाव, सं. पुं. (सं.) वनं २. दावानल: ३. अग्निः | दाहिने, क्रि. वि., दे. 'दहिने' । (पुं.) ४. दाहः, तापः। दिक , सं. स्त्री. [सं. दिश ( स्त्री.)] दिशा। दावत, सं. स्त्री. (अ.) भोजनं, निमंत्रणं २. | -पाल, सं. पुं. (सं.) आशापालाः, इन्द्रादयो विशिष्टभोजनम् । दश देवाः। दावा, सं. पुं. (अ.) स्वत्वप्रतिपादनं, स्वा- दिक, सं. पुं. (अ.) क्षयरोगः । वि., व्यथित, मित्वप्रकाशनं २. स्वत्वं, अधिकारः ३. अभि- संत पित २. अस्वस्थ, रुग्ण । योग-भाषा,-पत्रं ४. अभियोगः, पूर्वपक्षः, भाषा, । -करना, क्रि. स., तप्-व्यथ् (प्रे.), पीड् (चु.), भाषापाद: ५. प्रतापः, प्रभुत्वं ६. दृढोक्तिः बाध ( भ्वा. आ. से.)। (स्त्री.) ७. प्रतिज्ञा, पक्ष:, पूर्वपक्षः । आँतों का-, सं. पुं., अन्त्रक्षयः । पर्वपक्षः स्मृतः पादो, द्विपादश्वोत्तरः स्मृतः। दिक्कत. सं. स्त्री. (अ.) काठिन्यं, बाधा, कष्टम् । हियावादस्तथा चान्यः चतुथों निर्णयः स्मृतः ।। दिखलाना.क्रि. स.,ब. 'देखना' के प्रे. रूप। -करना, क्रि. स., अभियुज ( रु. आ. अ., | दिखलावा, सं. पुं., दे. 'दिखावा'। चु.) दे. 'दायर' के नीचे २. स्वत्वं प्रतिप दिखाई, सं. स्त्री. (हिं. दिखाना ) प्रदर्शनं, ज्यअनं, निर्देशनं, प्रकाशनं, प्रकटी-व्यक्ती,-खारिज करना, क्रि. स., अभियोगं अपान | करणं २. प्रदर्शन, अर्घः-मूल्यम् । (हिं. देखना) (दि. प. से.)-निराक। अव-आ-वि,-लोकनं, वि., ईक्षणं, निभालनं -गीर, । सं. पुं. (अ.+फ़ा. ) अभियोक्तु | २. अवलोकन,-शुल्कः -कन् । -दार, J (पु.), अर्थिन्, वादिन, अभियो- -देना, क्रि. अ., लक्ष-दृश् ( कर्म.), अवभास् गिन्, सूचकः, कार्याथिन् २. रवत्वप्रतिपादकः, (भ्वा. आ. से.), प्रतिभा (अ. प. अ.)। स्वामित्वप्रकाशकः । | दिखाना, क्रि. प्रे., ब. 'देखना' के पं. रूप । दावानल, सं. पु. ( सं.) दा(द)वान्निः (पं.), दिखावट, सं. स्त्री. (हिं. दिखाना) दे. 'दिखाई' वनवह्निः (पुं.), द(दा)वः । में प्रदर्शन' इ. २. आडंबरः, बाह्य,-शाभा-श्री: दास, सं. पुं. (सं.) किंकरः, भृत्यः, भुजिष्यः, (स्त्री.)। दासेयः, दासेरः, दे. 'नौकर' । दिखावटी, वि. (हिं. दिखावट) दृष्टिहारिन्, दासता, सं. स्त्री. (सं.) दासत्वं, दास, भावः- सुभगालोक, कृतक, कृत्रिम, अनुपयोगिन्, वृत्तिः ( स्त्री.)। साडंबर। For Private And Personal Use Only Page #335 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir दिखावा दिखावा, सं. पुं. (हिं. दिखाना ) आडंबर: दंभ:, आपातरमणीयता, बाह्यशोभा । दिगंत, सं. पुं. (सं.) दिशांत, दिक्सीमा २. क्षितिजं दिक्-तटं चक्रं मण्डलं ३. चतस्रो दश वा दिशः । [ २६७ ] दिगंतर, सं. पुं. (सं. न. ) अन्या दिशा २. दिङ्मध्यं दिक्कोणः ३. आकाश:- शं, अन्तरिक्षं ४. विदेशः । दिगंबर, सं. स्त्री. (सं.पुं.) जैनसंप्रदायविशेष: २. शिवः । वि., नग्न, अवसन । दिग्गज, सं. पुं. (सं.) दिग्वस्तिन २ ऐरा बतादयोsट दिग्रक्षका गजाः । दिग्दर्शक यंत्र, सं. पुं. ( सं . न . ) दिनिरूपकयन्त्रम्, दिग्दर्शनम् । दिग्दर्शन, सं. पुं. (सं. न. ) सामान्य - साधारणपरिचय:-ज्ञानम् २. दिग्ज्ञापनं, दिशानिर्देश: ३. दिग्दर्शकयन्त्रम् । दिग्विजय, सं. स्त्री. (सं. पुं. ) विद्यया युद्धेन | वा जगज्जयः । दिठौना, सं. पुं. (हिं. दीठ ) कुदृष्टिनिवारण: ( कज्जलबिंदु: ) । दिति, सं. स्त्री. (सं.) कश्यपपत्नी, दैत्यजननी । दिन, सं. पुं. (सं. न. ) अहन ( न. ) दिवसः, वार:, वासरः घस्रः, अंशकं, दिव् (स्त्री.), घु (न.) २. समय:, कालः । - चढ़ना या निकलना, क्रि. अ., रजनी प्रभा (अ. प. अ.), अरुण: सूर्य: उद-इ (अ. प. अ.), प्रभातं विभातं अरुणोदयः जन् (दि. आ. से.) । — ढलना, क्रि. अ., दिनं-दिवसः परिणम् अथवा आ-अव-नम् (भ्वा. प. अ. ), अपराह्नो वृत् ( स्वा. आ. से. ) । - डूबना, क्रि. अ., सूर्य:- दिवसः अस्तं गम (भ्वा. प. अ.) - अवलंबू ( स्वा. आ. से. ) । -कर, -नाथ, -पति, -मणि, -राज, - चढ़े, क्रि. वि., उदिते सूर्ये, प्रातः (अन्य ) । -चर्या, सं. स्त्री. (सं.) आह्निकं २. नित्य कर्मन् (न.) । सं. पुं. (सं.) दिनेश:, दे. 'सूर्य' । दिया दिन, क्रि. वि., दिने दिने, अनु-प्रतिदिनंदिवसम् । दहाड़े, क्रि. वि., दिन, काले-समये एव, दिवैव । ढले, क्रि. वि., ( अ ) पराले, दिवसस्य तृतीयया मे । - बदिन, क्रि. वि., अन्वहं प्रत्यहं, प्रतिदिनम् । -भर, क्रि. वि., सर्व दिनम् । में, क्रि. वि., दिवा, दिवसे । -रात, क्रि. वि., अहनिश, दिवानिशं, अहोरात्रं, रात्रि-नक्तं दिवम् | अगले, क्रि. वि., परेद्युः परस्मिन् दिने । दूसरे, क्रि. वि., अन्येद्युः, पराहे । पहले या पिछले - क्रि. वि., पूर्वेद्युः, पूर्वस्मिन् दिने । - काटना, मु., यथाकथंचित् कृच्छ्रेण जीवनं या ( प्रे. यापयति ) । -दूना रात चौगुना होना, मु., अहर्निशं समृधू (दि. प. से. )-प्र- उप-चि ( कर्म. ) । -फिरना, मु., भाग्यं उद्-इ ( अ. प. अ. ) । दिनेश, सं. पुं. (सं.) सूर्य:, भानु: ( पुं. ) । दिनौंधी, सं. स्त्री. (सं. दिनांध: > ) दिनांधता, दिवांवता, नेत्ररोगभेदः । दिमाग़, सं. पुं. (अ.) मस्तकस्नेहः, मस्तिष्कं, मस्तु, लुंग:-लुङ्गकः (गंगकं), गोई २. मतिःधी:- बुद्धि: (स्त्री.) ३. दर्प:, अभिमानः । -चट, सं. पुं., वाचाल, वाचाट:, बहुभाषिन् । -दार, विं. ( अ. + फा ) धीमत, बुद्धिमत् २. दृप्त, अभिमानिन् । - आस्मान पर होना या चढ़ना, मु., अतिशयेन दृप्त-अवलिप्त (वि.) वृत् (भ्वा.आ.से.) । में खलल होना, मु., विश्चिप्तवातुल-भ्रांतचित्त (वि.) विद् (दि. आ. अ. ) । - सातवें आसमान पर होना, मु., अतिदृप्त- दर्पित-गर्वित भू । दिमाग़ी, वि. (अ.) मानसिक, बौद्धिक, मस्तिष्क संबन्धिन् २-३. दे. 'दिमागदार ' (१-२ ) । दिया, सं. पुं. (सं. दीप: ) दीपकः, प्रदीपः, स्नेहाश:, कज्जलध्वजः, गृहमणि: (पुं.) दोषास्यः, दोष तिलकः, नयनोत्सवः । -सलाई, सं. स्त्री, दीपशलाका । दिये का काजल, सं. पुं., दीप, कज्जलं किटं ध्वजः । दिये की ज्वाला, सं. स्त्री, दीप, कलिका-शिखा । For Private And Personal Use Only Page #336 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir दियानतदार [ २६८) दिशा दिये की बत्ती, सं. स्त्री., दीप-वतिः (स्त्री)- दिलासा, सं. पुं. (फा. दिल ) धैर्य, आ-समा, खोरी-कूपी, विद्राहिका। श्वासनम् । दियानतदार, वि., दे., 'दयानतदार'। दिली, वि. (फा. दिल ) हादिक, मानसिक दिल, सं. पुं. (फा.) हृदयं, हृद् (न.), अग्र. २. अभिन्न हृदय, हृदयंगम। मांस, बुक्का, बुक्काग्रमांसं। २. मनस-चेतस् | दिलेर, वि. (फा.) दे. 'दिलावर' । (न.), मानसं, चित्तं, अंतःकरणं, हृदयं, दिलेरी, सं. स्त्री. (फा.) शौर्य, वीरता, स्वातं, आत्मन्-अंतरात्मन् (पुं.) ३. साहसं, शौर्य ४. प्रवृत्ति: (स्त्री.), इच्छा। दिल्लगी, सं. स्त्री. (फा. दिल+हिं लगना) -गीर, वि. (फा.) खिन्न, विषण्ण, दु:खित । । परि (री) हासः, हास्यं, नालापः, परिहा-चस्प, वि. (का.) रोचक, रुचिकर, मनोहर । सोक्तिः (स्त्री.)। -चस्पी, सं. स्त्री. (फा.) रुचिः ( स्त्री.) -बाज़, सं. पुं., विनोद-परिहास, शील:, २. मनोरंजनम् । वैहासिकः । -चोर, वि. (फा + हिं.) कार्यत्यानिन्, | दिल्ली, सं. स्त्री. (हिं. दिल्ली) इन्द्रप्रस्थं, *कर्मचौरः । भारत राजधानी, दिल्ली। -जमई, सं. स्त्री. (फ़ा+अ. जमअ:) संतोषः, -वाल, वि., इन्द्रप्रस्थ----दिल्ली, वासिन्निर्भयत्वं, शंकाभावः । सम्बन्धिन् । -दरिया, वि., दे. 'दरिया दिल'। दिवंगत, वि. (सं.) प्रेत, मृत, स्वर्थात, वात, -दार, सं. पुं. (का. ) दयितः, वल्लभः, प्रियः स्वगीय । प्रेम-स्नेह-प्रीति,-भाजनम् ।। दिवस, सं. पुं. (सं.) दे. 'दिन'। -पसंद, वि. (फ़ा.) चित्ताकर्षक, रुचिकर, इष्ट । | दिवांध, वि. (सं.) दिनांध । सं. पं., उलूकः -बर, सं. पुं. (फ़ा.) दे. 'दिलदार' २. वाघ- | २. दिनांधता। भेदः ( टि. दिल के बहुत से मुहाविरे 'कलेजा' | दिवाकर, सं. पुं. (सं.) दे. 'दिनकर' । और 'जी' के नीचे मिलेंगे, कुछ यहाँ दिये दिवाला. सं. पं. (हिं. दीया+बालना) ऋणजाते हैं)। शोधनासामर्थ्य, ऋणदानाक्षमता। बा. (सं.पं. (फा.) दे. 'दिलदार'।) -निकलना. क्रि. अ.. परिक्षि (कम.), ऋण-का कमल (या कली) खिलना, मु., | शोधनाक्षमत्वं ख्या (प्रे.)। आनंद ( भ्वा. प. से.), प्रसद् (भ्वा. प. अ.), | दिवालिया, वि. (हिं. दिवाला ) ऋणशोधनामुद् ( भ्वा. आ..से.)। समर्थ, ऋणदानाक्षम, क्षीणसर्वस्व, परिक्षीण। -तोड़ना, मु., उत्साहं भंज (रु. प. अ.)-हन् | दिवाली, सं. स्त्री.. दे. 'दीवाली' । अ. प. अ.), साहसं धैर्य ध्वंस (प्रे.), अव दिव्य, वि. (सं.) दैव (वी स्त्री.), अमानुष वि-सद् (प्रे.)। (-पी स्त्री.), ऐश्वर (-री स्त्री.), अपार्थिव-में रखना', मु., गोप्यं-रहस्यं गुह् ( भ्वा. । | (-बी स्त्री.), अलौकिक ( की स्त्री.), स्वर्गीय उ. से.)-छद् (चु.)। २. भास्वर, प्रकाशमान ३. अति, स्वच्छ-सुंदर-रखना', मु., प्री ( . प. अ., चु.प्रीणयति ), मनोहर । तुष-प्रसद्-अनुरंज (प्रे.)। -चक्षु, सं. पुं. [सं.शुस (न.)] अपौरुषेय--ही दिल में, मु., तूष्णी, निःशब्द, मौनं, | | अलौकिक, दृष्टिः (स्त्री.) २. अंध: ३. उपनेत्रन् । जोषम् । - ज्ञान, सं. पु. ( सं. न.) अतिमानुप-अपौरुदिलवाना, दिलाना, क्रि. प्रे., ब, 'देना' के घेय, मानुपातिग,-ज्ञानम् । प्रे.रूप। दिशा, सं. स्त्री. (सं.) आशा, काष्ठा, ककुभदिलावर, वि. (फा.) शूर, वीर २. साहसिन् । हरित-दिश् ( स्त्री.), ककुभा। दिलावरी, सं. स्त्री. ( फ़ा.) शौर्य, वीरता, -शूल, सं. पुं. (सं. न.) दिग्विशेषगमने पराक्रमः, विक्रमः । निषिद्धवाराः (पुं.)। For Private And Personal Use Only Page #337 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir दिसावर [ २ ] दीवट - जाना या फिरना, मु., पुरीषमुत्स्रष्टुं या दीप, सं. पुं. (सं.) दीपक:, दे. 'दिया' । ( अ. प. अ. ) मलोत्सर्गाय गम् । दिसावर, सं. पुं. (सं. देशापर> ) वि-पर-देशः, - माला, सं. स्त्री. (सं.) दीप, आलि: (स्त्री.)आली - आवली-उत्सवः -मालिका २. दीपपंक्तिः (स्त्री.) । देशांतरम् । दिसावरी, वि. (हिं. दिसावर) वैदेशिक, विशिखा, सं. स्त्री. (सं.) दीप-कलिकापर, देशीय, दे. 'विदेशी' । दिहात, सं. स्त्री. दे. 'देहात' । " दीक्षक, सं. पुं. ( सं .) मंत्रोपदेशकः, गुरुः (पुं.), आचार्य: । दीक्षांत, सं. पुं. (सं.) अवभृथथज्ञः । दीक्षा, सं. स्त्री. (सं.) गुरुमुखात् यथाविधि २. यजनं पूजनं ३. प्रथम, उपदेश:शिक्षा, उपनयः, विद्याप्रवेशः । दीक्षित, वि. (सं.) उपनीत, यथाविधि उपदिष्ट, संस्कारानंतर प्रवेशित । दीखना, क्रि. अ., दे. 'दिखाई देना' । दीठ, सं. स्त्री. (सं. दृष्टि: दे.) । दीदा, सं. पुं. ( फा . ) दृष्टि: (स्त्री.) २. अव लोकनं ३. नेत्र ४. धृष्टता । - दानिस्ता, क्रि.वि., ज्ञान-बुद्धि-मति, पूर्वक, कामत: ( अव्य.) । दीदार, सं. पुं. ( फ्रा. ) दर्शनं, साक्षात्कारः । दीदी, सं. स्त्री. (हिं. दादा ) अग्रजा, ज्यायसी, भगिनी । दीधिति, सं. स्त्री. (सं. पुं. ) किरण:, मयूख:, अंशुः, मरीचिः । दीन, वि. (सं.) दरिद्र, निर्धन २. खिन्न, विषण्ण ३. अति-, नम्र विनीत ४. संतप्त, दुःखित । - दयाल, वि. (सं.-लु ) दरिद्रवत्सल । सं. ., ईश्वरः । - बंधु, वि. (सं.) दरिद्र मित्रं, दीनानुकंपिन् । सं. पुं., परमेश्वरः । - दीन, सं. पुं. ( अ. ) धर्मः । दार, वि. ( अ + फ़ा.) धार्मिक, पुण्यात्मन् । - दुनिया, सं. पुं. (अ.) लोकपरलोकौ (द्वि.) । दीनता, सं. स्त्री. (सं.) दरिद्रता, निर्धनता, अकिंचनता २. आर्त्तता, कातरता ३ खेदः, विषादः ४. अति, नम्रत्वं विनयः । दीनानाथ, सं. पुं. (सं. दीन + नाथ ) दीन-, दयालुः-वत्सल:-बन्धुः, परमेश्वरः । दीनार, सं. पु. ( सं .) स्वर्णमुद्रा २. स्वर्णाभूषणं ३. निष्क, तोल:- भारः । ज्वाला । दीपक, सं. पुं. ( सं . ) प्रदीपः, दे. 'दिया' २-४. अर्थालंकार-राग-ताल, भेद: ५. अग्निक्रीडनकभेद: । वि, प्रकाशक, दीप्तिकर २. पाचक, अग्निवर्द्धक ३. उत्तेजक । दीपन, सं. पुं. ( सं. न. ) प्रकाशनं, ज्वालनं २. जठराग्निवर्द्धनं, क्षुधोत्पादनं ३. उत्तेजनं-ना, आवेगजननम् । दीपावलि-ली-, सं. स्त्री. (सं.) दे. 'दीपमाला’ । दीप्त, वि. ( सं .) प्रकाशित, प्रकाशमान २. प्र ज्वलित, प्रज्वलत् (शत ) । दीप्ति, सं. स्त्री. (सं.) आलोकः, प्रकाशः २. आभा, प्रभा, द्युति: (स्त्री.) ३. कांति: (स्त्री.), शोभा । दीमक, सं. स्त्री. (का.) उप, दीका- देहिका । - लगना, क्रि. अ., उपदेहिकाभिः भक्षू - निष्कुष् (chiff.) I दीया, दे. 'दिया' । दीर्घ, वि. (सं.) लंब, आयत, आयामवत् । -काल, सं. पुं. ( सं . ) सुमहान् समयः । - जंघ, सं. पुं. (सं.) उष्ट्रः २. वकः । वि., लंबटंग | जीवी, वि. (सं. विन्) दीर्घ-चिर, आयुआयुस्- आयुष्य-जीविनू, आयुष्मत् । - दर्शिता, सं. स्त्री. (सं.) दे. 'दूरदर्शिता' । -दर्शी, त्रि. (सं.-शिन) दे., 'दूरदर्शीीं' । - निद्रा, सं. स्त्री. (सं.) लंबस्वापः २. मृत्युः (पुं.)। -सूत्री, वि. ( सं . त्रिन्) दीर्घसूत्र, चिरक्रिय, विलंबिन् । दीर्घायु, सं. स्त्री. (सं. न. ) चिर-दीर्घ, जीवनं - आयुस् (न.) । वि., दे. 'दीर्घजीवी' । दीर्घायुध, सं. पुं. ( सं. न. ) भल्लः – लम्, कुन्तः, प्रासः २. शूकरः, वराहः, कोल: ३. शल्यः, केदारः । वि. दीर्घ-लम्ब- बृहद् - अस्त्र- आयुध । दीवट, सं. स्त्री. (हिं. दीवा ) दीप-दीपक, ध्वजः - वृक्ष:- आधारः, शिखातरुः । For Private And Personal Use Only Page #338 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir दीवान [ ३०० दुधार दीवान, सं. पुं. (अ.) राजसभा, आस्थान-नी, | दुःश्रव, वि. (सं.) कर्ण-अति,टु । सं. पुं., राजकुलं २.अमात्यः,सचिवः ३. कवितासंग्रहः । दुःश्रवत्व-श्रुनिक टुत्व,दोषः ( सा० )। -आम, सं. पुं. (अ.) *सामान्यास्थानम्। दुःसंग, सं. पुं. (सं.) कुसंगः, कु-दुस् , संगतिः –खास, सं. पुं. ( अ.) *विशेषास्थानम्। (स्त्री.)। दीवाना, वि. (फा.) उन्मादिन्, विक्षिप्त, दे. दुःसाध्य, वि. (सं.) कठिन, दुष्कर, कष्टसाध्य 'पागल' । २. असाध्य, दुरुपचार, अशमनीय, अचिकिदीवार, सं. स्त्री. (फ़ा.) कुड यं, भित्तिः (श्री.)। त्स्य, निरुपाय। ---गीर, सं. स्त्री. (फ़ा.) भित्तिदीपः २. भिति- दुआ, सं. स्त्री. (अ.) प्रार्थना २. आशीर्वादः । स्थो दीपाधारः। दुआबा, सं. ए. (फा.) दे. 'दोआबा' ! दोवाली, सं. स्त्री. (सं. दीपाली)दे. 'दीपमाला'। दुकड़ा, सं. पुं. (सं. द्विकं ) द्वयं, द्वितयं, युगं, दुंदुभ, सं. पुं. । सं. पुं., दे. 'नकारा' युगलं, २. दे. 'छदाम' । दुकान, सं. स्त्री. ( फा.) पण्य, शाला-अगारं, दुंदुभि, सं. स्त्री. ) आपणः, विषणिः ( स्त्री.), निपया, *हट्टी। दुबा, सं. पुं. (फा. दुबालः) गोलपुको | -दार, सं. पुं. (का.) आपणिकः, पण्याजीवः, मेष:-मेढः । विपणिन्, क्रयविक्रयिकः, वणिज (पं.)। दुःख, सं. पं. ( सं. न.) कष्ट, क्लेशः, पीडा, -बढ़ाना, मु., पण्यशालां (अ)विधा बाधा, व्यथा, अ (आ) तिः ( स्त्री.), कृच, । । (ला."2" (जु. उ. अ.)। वेदना, परि-सं., तापः २. आपद्-विषद् (स्त्री.), दुखड़ा, सं. पुं. (सं. दुःखं ) दु:खवृत्तांतः, संकटं ३. रोगः, व्याधिः (पुं.)। करुणकथा २. कष्ट, विपद् ( स्त्री.)। -उठाना या पाना, क्रि. अ., दुःखपति दुखना, क्रि. अ. (सं. दुःखं>) पीड-क्लिश(ना. धा.), दुखं सह (भ्वा. आ. से.)- । तप ( कर्म.)-व्यथ् ( भ्वा. आ. से.)। अनुभू-उपभुज (रु. आ. अ.)-प्राप् ( रवा. | दुखाना, क्रि. स. (हिं. दुखना ) पीड.अद् उ. अ.)। (चु.), व्यथ (प्रे.), दु ( स्वा. प. अ.), -देना या पहुँचाना, क्रि. स., दुःखयति | क्लिश ( क. प. से.), उप-परि-सं-, तप (प्रे.) । (ना. धा.), तप्-व्यथ्-अद् (प्रे.), पीड दुखिया-यारा, वि. (सं. दु:खं>)दे. 'दुःखितः। (चु.), क्लिश् ( क्र. प. से.)।। दुगना, वि. ( सं. द्विगुण ) द्विगुणित । -दाई, वि. (सं.-दायिन् ) दुःख-कष्ट-क्लेश, दुग्ध, सं. पुं. (सं. न.) क्षीरं, पयस ( न.)। कर-द-दातृ-दायक-प्रद-जनक-उत्पादक। -फेन, सं. . (सं.) क्षीरटिंडि (डी )र:, --मय, वि. (सं.) क्लेशमय, दु:खपूर्ण।। शार्करः। -हो, वि. ( सं.-तृ ) दुःख-क्लेश-कष्ट, नाशक दुचित्ता, वि. (सं. द्विचित्त) दोलायमान, निवारक-हारिन् । संशयान, संदेहिन, संदिग्ध, बुद्धि-मति । दुःखित, वि. (सं.) क्लेशित, पीडित, व्यथित, दुचित्ती, सं. स्त्री. ( हिं. दुचित्ता) दोलावृत्तिः (स्त्री.), द्वैधीभावः, निश्चयाभावः, संशयः । दुःखमाज , दून, तापित, सं-परि,तप्त, दु:ख, दुत, अन्य. ( अनु.) अपसर-अपेहि ( लोट ) । आर्त, कृच्छ्रगत, सव्यथ, दु:खिन् । -कार, सं. स्त्री. (अनु.+ सं. कारः) धिक्कारः, दुःखिनी, वि. स्त्री. (सं.) विपन्ना, पीड़िता, तिरस्कारः, भर्त्सना, वाग्दंड: २. अपसारणम् । व्यथिता, सं-परि, तप्ता, आता। दुतकारना, क्रि. स. ( हिं. दुत्कार ) धिक-तिरस् दुःखी, वि. ( सं.-खिन् ) दे. 'दुःखित (दु:खिनी कृ, निर् , भत्स (चु. आ. से.) २. खापमानं स्त्री.)। निस-अप,-म (प्रे.)। दुःशासन,वि. (सं.) उच्छृङ्गल, उद्दाम, दुर्निग्रह। दुतरफ़ा, वि. ( फ़ा. दो+अ. तरफ़ ) द्वि( दै) सं. पुं., धृतराष्ट्रस्य पुत्रविशेषः २. कुशासनम् । पक्ष, मि( द्वै )पार्थ, द्वि, पक्ष्य-पक्षीय। दुःशील, वि. (सं.) दुःस्वभाव, कुशील, दुधार, वि. (हिं. दूध ) क्षीरिणी, दुग्धवती, कुरवभाव, दुष्प्रकृति, दुर्वृत्त २. धृष्ट, उद्धत। पयस्वती, पीनोध्नी (गौ इ.)। For Private And Personal Use Only Page #339 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir दुधारा दुधारा, वि. (सं. द्विधार ) उभयतः तीक्ष्णनिशित । सं. पुं., खड्गभेद:, *दिवारः । दुनिया, सं. स्त्री. ( अ -या) जगत् (न.), संसार : २. लोकः, जनता ३. जगत्प्रपंच: । -दार, सं. पुं. ( अ.+फा. ) गृहस्थः, गृहिन, संसारिन, २. व्यवहार, कुशल:-पड़ः । -दारी, सं. स्त्री. ( अ. + फ़ा. ) ऐहिकता-त्वं, प्रपंचानुरागः, संसारासक्तिः (स्त्री.) २. लोक आचारः मार्गः, रूढिः (स्त्री.) ३. व्यवहारकौशलम् । दुनियात्री, वि. (अ.) लौकिक, सांसारिक, ऐहिक | [ ३०१ ] दुपट्टा, सं. पुं. (हिं. दो + सं . पट्टः > ) द्विपट्टः, द्विपटी २. उष्णीषः-पम् । दुपहर, सं. स्त्री. दे. 'दोपहर' | दुपहरिया, सं. स्त्री. (हिं. दुपहर ) बंधु ( धू)कः, रक्तकः, बंधुजीवकः २. दे. 'दोपहर' | दुब (वि)धा, सं. स्त्री. (सं. द्विविधा > ) संशय:, संदेहः २. निर्णय-निश्चय, अभावः ३. संकोचः ४. आशंका, विचिकित्सा । दुबला, वि. (सं. दुर्बल . ) । दुबलापन, सं. पुं., दे. 'दुर्बलता' । दुबारा, क्रि. वि., दे. 'दोबारा' । दुबे, सं. पुं. (सं. द्विवेदिन) द्विवेद:, ब्राह्मणभेदः । दुभाषिया, सं. पुं. (सं. द्विभाषिन् ) भाषादयज्ञः, द्विभाषाविद् (पुं.) २. व्याख्यातृ, अर्थबोधकः । दुमंज़िला, वि. ( फा ) द्वि., भूम-भूमिक( प्रासादः इ. ) । दुम, सं. स्त्री. ( फा . ) पुच्छ:- च्छं, लांगु ( गु.)लं, लम २. अनुयायिन, अनुग: ३. अंतिम दुर्जनता दुरवसान २. दुर्गम, दुरतिक्रम ३. प्रचंड, उग्र ४. दुर्ज्ञेय, दुर्बोध: । दुर, अव्य. ( हिं. दूर ) अपसर- अपेहिं (लोट्) । - दुर करना, मु., सन्यकूकारं अपसृ ( प्रे. ) । दुराग्रह, सं. पुं. (सं.) दे. 'हठ' । दुराग्रही, वि. ( सं . - हिन् ) दे. 'हठी' । दुराचरण, सं. पुं. ( सं. न. ) दे. 'दुराचार' | दुराचार, सं. पुं. (सं.) कद, आचार:-आचरणं, दुर्, वृत्तं-व्यवहार:- आचरणं, दुस्, -चरितंवेष्टितं चारित्र्यं शीलं, अनार्यत्वम् । दुराचारी, वि. ( सं.-रिन् ) दुष्ट, दुरात्मन्, पापात्मन, पापकर्मन् दुर्वृत्त, दुश्चरित्र, अधामिंक, पाप, खल, शठ, लंपट, विषयासक्त । दुराज, सं. पं. ( सं . द्विराज्यं ) द्विशासनं, विराजकता । भागः । । -दार, वि. ( फा . ) सपुच्छ, लांगूलिन् । -दार सितारा, सं. पं., उल्का, धूमकेतुः (पं.), उत्पातः, , केतु: (पुं.)। वि., सपुच्छ, लांगूलिन् - दबाकर भागना, मु., कापुरुषवत् सकातर्यं पलायू (भ्वा. आ. से. )-विद्रु (स्वा. प. अ. ) अपधाव् (भ्वा. प. से.), कांदिशीक (वि.) भू । दुमन, वि. (सं. दुर्मनस) खिन्न, विषण्ण, दुरात्मा, वि. (सं.-त्मन् ) दुष्ट, पापात्मन्, दे. 'दुराचारी' | दुरुस्त, वि. ( फा ) दे. 'ठीक' । दुरूह, वि. (सं.) दुर्बोध, दुर्ज्ञेय, गूढार्थं, गहन, क्लिष्ट । दुर्गंध, सं. पुं. ( सं . ) पूति: (स्त्री.), पूतिगंध:, कु-दुर्-वासः । - युक्त, वि. (सं.) दुर् - पूति, गंध, दुर्-कुत्सित-, पूर्ति, गंध । दुर्ग, सं. पुं. (सं. न. ) कोट:- टि: (स्त्री.), दे. 'किला' । वि. दे. 'दुर्गम' ( १ ) | अगम्य, गहन, विषमस्थ, दुर्ग २. दुर्बोध ३. विकट । -अधिपति, सं. पुं. (सं.) दुर्ग, पति - पाल: - ईश: अध्यक्षः । दुर्गति, सं. स्त्री. (सं.) दुर्दशा, दुरवस्था, २. नरक, वास:-भोग: दुर्गम, वि. (सं.) दुष्प्राप, दुरासद, दुरारोह । दुर्गा, सं. स्त्री. (सं.) रुद्राणी, चंडी, दे. 'पार्वती'। दुर्गुण, सं. पु. ( सं . ) अवगुणः, दोषः, व्यसनं, दुर्लक्षणं, कुलक्षणम् । दुर्घट, वि. (सं.) दुष्कर, दुस्साध्य । दुर्घटना, सं. स्त्री. (सं.) अशुभ-अमंगल, घटनाआपातः समापत्ति: (स्त्री.) २. विपद् आपद् (स्त्री.) 1 दुर्जन, सं. पुं. ( सं . ) खलः, पापः, शठः, ब. 'दुराचारी' के पर्यायों के पुं. रूप । म्लान, अवसन्न । दुरंगा, वि., दे. दो के 'नीचे' । दुरंत, वि. (सं.) दुष्परिणाम, कुफल, दुष्फलं, दुर्जनता, सं. स्त्री. (सं.) दुष्टता, खलता, शठता । For Private And Personal Use Only Page #340 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir दुर्जय [ ३०२ ] दुर्जय, वि. (सं.) अधृष्य, अजय्य, अदम्य, दुर्वचन, सं. पुं. (सं.) दे. 'गाली' । दुरासद, अ-दुर्, जेय | दुर्विनीत, वि. (सं.) अविनय, अविनीत, उद्धत, धृष्ट, अशिष्ट, असभ्य, वियात | दुविपाक, सं. पुं. (सं.) कुपरिणामः, कुफलम् । दुर्वृत्त, वि. (सं.) दे. 'दुराचारी' । दुर्व्यवस्था, सं. स्त्री. (सं.) कुव्यवस्था, कुनीति: (स्त्री.), दुर्णय:, कुप्रणयनं, कुप्रबंध:, दुर्निर्वाह: । दुर्व्यवहार, सं. पुं. (सं.) दुर्वृत्तिः (स्त्री.), असद्व्यवहारः, अप, - कार:- क्रिया, कुचेष्टितं, कुचरितम् । दुर्ज्ञेय, वि. (सं.) दे. 'दुरूह' । दुर्दमनीय, वि. ( सं .) दुर्दम्य, दुर्दान्त, अवश्य, दे. 'दुर्जय' | दुर्दशा, सं. स्त्री. (सं.) दुतिः (स्त्री.), दुरवस्था । दुर्दिन, सं. पुं. (सं. न. मेवच्छन्नो दिवस: २. कु - विपत्, कालः, कष्टमयः समयः । दुर्दैव, सं. पुं. ( सं. न. ) दे. 'दुर्भाग्य' । दुर्धर्ष, वि. (सं.) दे. 'दुर्जय' २. उग्र, दुर्नीति, सं. स्त्री. ( सं. ) कुनीति: (स्त्री.), प्रचंड | अन्यायः, अनाचारः । दुर्बल, वि. (सं.) अबल, निर्बल, अशक्त, क्षीणअल्प,-बल-शक्ति, निसू, तेजस्-सत्त्व २. कृश, क्षाम, क्षीण, अमांस, छात, शात । दुर्बलता, सं. स्त्री. (सं.) निर्बलता, अशक्तता, अबलता २. कृशता, क्षामता । दुर्बुद्धि, सं. स्त्री. (सं.) कुमतिः-मंदधीः (स्त्री.) । वि., अज्ञ, मूर्ख, मंदमति । दुर्बोध, वि. (सं.) दे. 'दुरूह' । दुर्भाग्य, सं. पुं. (सं. न.) दुर्दैवं, दौर-मंद, भाग्यं, दुर्जातं दुर्गति: (स्त्री.), दैव, दुर्विपाकः - विपर्यय:विपर्यासः । दुर्भावना, सं. स्त्री. (सं.) दुर्भाव:, दुष्ट, बुद्धिभाव:, असूया, द्रोह:, द्वेषः, दौरात्म्यम् । दुर्भिक्ष, सं. पुं. (सं. न. ) अकाल:, दुष्काल:, अनशनं, प्रयाम:, आहाराभाव:, नीवाकः दुर्मट, सं. पुं. (सं.दुर्+मुट् = कूटना) *दुर्मुटम् । भूकुट्टनं, दुर्मति, सं. स्त्री. तथा वि. (सं.) दे. 'दुर्बुद्धि' । दुर्मुख, वि. (सं.) कटुभाषिन् २. कुदर्शन, कुरूप । दुर्योध, वि. (सं.) अजेय, अजय्य, अश्रूष्य, | अदम्य । दुर्योधन, सं. पुं. (सं.) धृतराष्ट्रस्य ज्येष्ठपुत्र: । दुर्यो, वि. (सं.) हीन - नीच, जाति-वर्ण कुल ! दुर, सं. पुं. ( अ० ), दे० 'मोती' । दुर्लक्ष्य, वि. (सं.) दुस्तरः, दुःखतार्य, दुर्लनीय, दुरतिक्रम | दुर्लभ, वि. (सं.) अप्राप्य, दुष्प्राप, विरल, दुरधिगम २. अत्युत्तम, अत्युत्कृष्ट । दुर्व्यसन, सं. पुं. (सं. न. ) दुर्गुणः, दोषः, *कदासक्तिः (स्त्री.) 1 दुर्व्यसनी, वि. (सं.-निन् ) दुर्गुण, दोषिन्, दुराचारिन्, पाप । दुलकी, सं. स्त्री. (हिं. दलकना ) थो (धौ )रितं-तकम् । ------चलना, क्रि. अ., दुलत्ती, सं. स्त्री (हिं. दो + सं . लत्ता > ) (पशूनां) द्विलत्ता-द्विखुर- द्विपाद, आघातः - प्रहारः-क्षेपः । -मारना, कि. स., लत्ताभ्यां प्रह (भ्वा.प.अ.) आहन् ( अ. प. अ. ) । दुलह (हि)न, सं. स्त्री. (हिं. दुलहा ) नववधूः (स्त्री.), वधूटी, नवोढा, नवपरिणीता । दुलहा, सं. पुं., दे. 'दूल्हा ' | दुलाई, सं. स्त्री. ( हिं तुलाई ) दे. 'रजाई' | दुलार, सं. पुं. (हिं. दुलारना ) उप-, लालनं, चुंबन, आलिंगनम् । दुष्काल . धोरितेन गम् । दुलारना, क्रि. स. (सं. दुर्लालनं>) उप-, लल् ( चु. ), आलिंग् (भ्वा. प. से.), स्नेहेन परामृश (तु. प. अ. ) । दुश्चरित-त्र, सं. पुं. ( सं. न..) दे. 'दुराचार' । वि., दे. 'दुराचारी' । दुलारा, वि. (हिं. दुलार ) दे. 'लाडला' । दुशाला, सं. पुं. (फ़ा. ) दिशा: । दुश्मन, सं. पुं. ( फा . ) शत्रुः, अरि: (पुं. ) । दुश्मनी, सं. स्त्री. ( फा . ) शत्रुता, वैरम् । दुष्कर, वि. (सं.) दुस्साध्य, कठिन, विकट, कष्टसाध्य । For Private And Personal Use Only दुष्कर्म, सं. पुं. [ सं . र्मन् (न. ) ] कु, कार्यकृत्यं, पाप, अधर्मः, दुष्कृतिः (स्त्री.) । दुष्काल, सं. पुं. (सं.) कु,-काल:-समय: २. दे. 'दुर्भिक्ष' । Page #341 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir दुष्कुल दुष्कुल, सं. पुं. (सं. न. ) नीच -हीन- कु, कुलं-वंशः । दुष्कृत, सं. पुं. ( सं. न. ) दे. 'दुष्कर्मक' | दुष्ट, वि. ( सं ) खल, शठ, पाप, दुर्जात, अभद्र, नीच, दुर्वृत्त, दे. 'दुराचारी' | दुष्टता, सं. स्त्री. (सं.) दौर्जन्यं, दौरात्म्यं, कुष्टा, पापं दुर्वृत्तं दे. 'दुराचार' । दुष्प्रकृति, सं.स्त्री. (सं.) दुस्स्वभाव:, दुइशीलन् । वि., कुशील, दुष्टस्वभाव | [ ३०३ ] | दुहाई, सं. स्त्री. (सं. द्वि + आह्वायः > ) दे. 'डौंडी' २. आत्मत्राणार्थं आह्वानं-आकारणंसंबोधनं ३ शपथः । --देना, मु., स्वरक्षार्थं आल े (भ्वा. प. अ. )आ-कृ (प्रे.) । दुहाना, क्रि. प्रे., ब. 'दोहना' के प्रे. रूप । दुहिता, सं. स्त्री. [सं. दुहितु (स्त्री.) ] दे. 'पुत्री' । दूर - का पानी, सं. पुं., आमिक्षामस्तु ( न. ), मोरटः । दुष्प्राप्य वि. (सं.) दे. 'दुर्लभ' । दुष्यंत, सं. पुं. ( सं. ) पुरुवंशीयनृपविशेष:, शकुंतलापतिः । दुस्तर, वि. (सं.)दुःखतार्य, दुर्लवनीय २. कठिन, दुष्कर, विकट | दुस्सह, वि. (सं.) दुवैषह, असा, असहनीय | दुस्साध्य, वि. (सं.), दे. 'दुःसाध्य' । दुहना, क्रि. स. ( सं . दोहनं' ) दे. 'दोहना' | दुहरा, वि., दे. 'दोहरा' । दुहाई', सं. स्त्री. (हिं. दुहन ) दोहन, भृतिः निष्कस् ( प्रे. ) । ( स्त्री ) - भृत्या । दूकान, सं. स्त्री. दे. 'दुकान' । दूज, सं. स्त्री. (सं. द्वितीया ) शुक्ला कृष्णा वा द्वितीया तिथिः (स्त्री.) । - का चाँद, मु., दिवाप्रदीप, दुर्लभदर्शन । दूत, सं. पुं. (सं.) वार्ता-संदेश, हरः, संदिष्ट कथकः, राज,-दूतः-प्रतिनिधिः २. प्रणिधिः, च (चा) रः, गूढदृतः । दूती, सं. स्त्री. (सं.) संचारिका, दूति (ती) का, शंभली, कुट्ट (ट्टि ) नी, सारिका २. वार्तासंदेश - हरी । दूध, सं. पुं. (सं. दुग्धं ) क्षीरं पयस (न.), स्तन्यं, ऊधस्य, ऊधन्यं, बालजीवनं २. वृक्ष, क्षीरं- रसः ३. ( गौ का ) गो, दुग्धं रसः, गव्यम् । -की झाग, सं. स्त्री, दुग्धफेनः, शार्करः, शार्ककः । -पिलाई, सं. स्त्री. दे. 'दाई' । ---पूत, सं. पुं., संपदसंतती - धनसंतानौ (द्वि.) । - बहन, सं. स्त्री, सस्तन्या, धात्रीपुत्री, धात्रेयी, स्तनंधय । - भाई, सं. पुं., सस्तन्यः, धात्रीपुत्रः, धात्रेयः । मुँहा, वि. पुं., स्तनंधयः, शिशुः । स्तन क्षीर, पायिन -प: [ - मुँही ( स्त्री. ) ] उगलना या डालना, मु., ( शिशुः ) दुग्धं उद्ग (तु. प. से.)-उद्-वम् (भ्वा. प. से. ) । -का दूध, पानी का पानी, मु., न्यायः, नयः, धर्मः । -की मक्खी की तरह निकाल फेंकना, मु., दुग्धमक्षिकावत् निस्सृ ( प्रे.), अविमृश्यैव — के दाँत न टूटना, मु., शैशवे वर्तमान । छुड़ाना या बढ़ाना, भु., स्तन्यं हा ( प्रे., हापयति - त्यज् (प्रे.) ४. दूधों नहाना पूतों फलना, मु., धनसंतान : वर्ध (भ्वा. आ. से. ) । -- पिलाना, मु., स्तनं- स्तन्यं पाधे - ( प्रे, पाययति, धापयति ) दा । फटना, भु., ( अम्लादियोगेन ) दुग्धं विकृ (कर्म.) अथवा नीरक्षीरे विश्लिष (दि. प. अ.)। दूधिया, वि. (हिं. दूध) शुक्ल, श्वेत, - पत्थर, सं. पुं. (सं.) * दग्धप्रस्तरः, श्वेतप्रस्तरभेदः । दूना, वि. (सं. द्विगुण ) द्विगुणित | दूब, सं. स्त्री. (सं. दूर्वा ) भार्गवी, हरिता, अनंता । दूबदू, क्रि. वि., (हिं. दो या फा. रूबरू ) मुखामुखि (अन्य ), संमुखम् । दूबे, सं. पुं., दे. 'दुबे | दूभर, वि. (सं. दुर्भर> ) कठिन, दुस्साध्य । दूरंदेश, वि. ( फा . ) दे. 'दूरदेशी' । दूरदेशी, सं. स्त्री. ( फा . ) 'दूरदर्शिता' | दूर, क्रि.वि. (सं. दूरं ) दूरे, आरात् (अव्य.), For Private And Personal Use Only Page #342 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir दूरी... [ ३०४ ] देखना वि., दूरतः । वि., दूर, दूरस्थ, विप्रकृष्ट, अंतर- दूसरे दिन, क्रि. वि., पराहे, परेयुः-अन्येयुः वर्तिन्, दवीयस् । (अव्य.)। -दराज, वि. ( फा.) सु-अति,-दूर-दूरस्थ । दूसरी माँ, सं. स्त्री., विमातृ ( स्त्री.)। --दर्शक, वि. ( सं.) दे. 'दूरदशी'। हक , दृग, सं. स्त्री. ( सं. दृश) दे. 'आंख' २. -दर्शन, सं. पुं. (सं.) पण्डितः, धीमत्, दृष्टिः (स्त्री.)। बुद्धिमत्, प्राशः २. गृधः, वज्रतुंटः ३. दूरवी- दृग्विषः, सं. पुं. (सं.) विषाक्त,-नेत्र: नयनः, क्षणं, दूर-दर्शक-यन्त्रम् । सर्पभेदः। -दर्शिता, सं.स्त्री., (सं.) दूर-दीर्घ,-दृष्टिः (स्त्री.)-दृग्वृत्त, सं. पुं. ( सं. न. ), क्षितिज, दिगन्तः । दर्शित्वं, बुद्धिमत्ता, अग्रनिरूपणं, दूरदर्शनम् । दृढ, वि. (सं.) प्रगाढ़, शैथिल्यशून्य २. कर्कर, -दर्शी, वि. (सं.-शिन् ) दूर-दीर्ध-अग्र, दृष्टि- फीकस, कक्खट ३. सबल, बलवत् ४. स्थायिन्, दर्शिन-दर्शक, बुद्धिमत् । स्थिर ५. ध्रुव, अविचल ६. आग्रहिन्, सनिबंध । -दृष्टि, सं. स्त्री. (सं.) दे. 'दूरदर्शिता'। -प्रतिज्ञ, वि. (सं.) प्रतिज्ञापालक, स्थिरप्रतिज्ञ, -बीन, सं. स्त्री. (फा.) दूरवीक्षणं, दूरदर्श- सत्य,-संध-अभिसंध-संगर । कयंत्रम् । -मुष्टि, वि. (सं.) कृपण, मितंपच । -वर्ती, वि. ( सं. तिन् ) दे. 'दूर' वि.। दृढता, सं. स्त्री. (सं.) प्रगाढता, शैथिल्याभावः -वासी, वि. ( सं.-सिन् ) दूरदेशीय २. विदे- २. स्थैर्य, अचलत्वं, स्थिरता ३. आग्रहः शीय। निर्बधः। -वीक्षण, सं. पुं. ( सं. न.) दे. 'दूरबीन' । । दृढांग, वि. ( सं. ) बलवत, शक्तिमत्, दृढदेह, -स्थ, वि. (सं.) दे. 'दूर' वि.। हृष्टपुष्ट । [-गी ( स्त्री.)-शक्तिमती ] । —करना, मु., दूरी-पृथक् कृ २. पदात्-अधिका- दृश्य, वि. (सं.) दृग्गोचर, नेत्र-दृष्टि, विषयरात् अवरुह-च्यु-भ्रंश (प्रे.)। ग्राह्य २. दर्शनीय, अवलोकनीय, सुंदर । सं. -भागना या रहना, मु., दूरे-पृथक् स्था (भ्वा. पुं. (सं. न.) दृष्टि , गोचरः पधः-विषयः प. अ.), संगतिं परि-ह ( भ्वा. प. अ.)। २. रूपकं, नाटकं ३. दे. 'तमाशा'। -हो, अन्य, अपेहि-अपगच्छ ( लोट् )। दृश्यमान, वि. (सं.) ईक्ष्यमाण, अवलोक्यमान । -होना, मु., दूरी-पृथक् भू २.नश् (दि.प.वे.)। दृष्ट, वि. (सं.) वि-अव., लोकित, वि., ईक्षित, दूरी, सं. स्त्री. (सं. दूरं>) दूरता-त्वं, विप्रकर्षः, निरूपित, लक्षित २. ज्ञात, प्रकट । दूरं २. ( स्थान ) अंतरं, अंतरालं, अध्वन् | दृष्टांत, सं. पुं. (सं.) उदाहरणं, निदर्शनं २. (पु.) भूमिः ( स्त्री.)। अथालङ्कारभेदः। दूर्वा, सं. स्त्री., दे. 'दूब' ! दृष्टि, सं. स्त्री. (सं.) दृक्शक्तिः (स्त्री.), नेत्र, दूल्हा , सं., पु. ( सं. दुर्लभ:>) वरः, परिणेत, नयन, ज्योतिस् (न.) २. दृकपातः, अवलोपाणिग्राहकः, परिग्रहीत (पुं.)। कनं ३. आशा ४. विचारः ५. आशयः, अभि-दुल्हन, सं. पुं., वधूवरौ (द्वि.)। प्रायः । दूषक, सं. पुं. (सं.) अपवादकः, परिवादकः, -कूट, सं. पुं. (सं. दृष्टकूट) प्रहेलिका · अभियोगिन्, अभियोक्तृ, दोषारोपकः २. दृष्टः, २. गूढार्थकविता। दुर्वृत्तः। वि. दोष-पाप,-जनक २. अपराधिन्, । देखना, क्रि. सं. ( सं. दृश) दृश् दोषिन् ३. निन्छ, कुत्सित। (भ्वा. प. अ.) वि-प्र., ईक्ष (भ्वा. आ. दूषण, सं. पुं. (सं. न.) दोषः, अवगुणः, दुर्व्य- से.), अव-आ-वि-लोक ( भ्वा. आ. से., चु.), सनं (सं. पुं.) रावणभ्रातृविशेषः । आलोच (भ्वा. आ. से., चु.), निरूपदूषित, वि. (सं.) सदोष, दोषिन्, कलंकवत् निर्वण-लक्ष (चु.), भल (चु. आ. से.), २. (मिथ्या) निदित-कलंकित-अभियुक्त। २. अव-निर्-परि-ईक्ष ३. अन्विष् (दि. प. से.), दूसरा, वि. (हिं. दो ) द्वितीय [ -या (स्त्री.)] ४. रक्ष ( भ्वा. प. से.), रक्षां कृ ५. विचर २. अन्य, पर, अपर, अपरिचित । (प्रे.) ६. अनुभू ७. पठ् (भ्वा. प. से.) For Private And Personal Use Only Page #343 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir देखते देखते ८. सशुध् (प्रे.) । सं. पुं., दर्शनं, विलोकनं, वीक्षणं, निरूपणं इ. 1 [ ३०५ ] -भालना, मु., निरीक्षणं, परीक्षणं, निभालनं, देनेवाला, सं. पुं., दातृ (पुं.), त्यागिन्, द,निर्वर्णनम् । प्रद-दायक- दायिन् ( उ सुख -द-दायक इ. ) २. दे. 'दाता' । दिया हुआ, वि., दत्त, अर्पित, विसृष्ट, विश्राणित । दे मारना, मु., दे. 'पटकना' । दे, वि. (सं.) दे. 'देने योग्य' । देर, सं. स्त्री. ( फ़ा. ) विलम्बः, अतिकाल:, काल, अतिपात:- क्षेपः- यापनं - व्याक्षेपः समय:, कालः । २. करना या लगाना, क्रि. अ., वि-लम्बू (भ्वा. आ. से. ), कालं अतिपत् (प्रे. ) - व्याक्षिप् ( तु. प. अ. ) । तक, क्रि. वि., चिराय, चिरं यावत्, चिर —सुनना, मु., बोधन, वेदनं परि-वि-ज्ञानम् । देखते देखते, मु., समक्षं क्षे २. सपदि झटिति । देखने में, मु., आपाततः, बाह्यतः, प्रत्यक्षतः २. आकृत्या, आकारेण । देखने योग्य, वि., दे० 'दर्शनीय' । देखनेवाला, सं. पु., दर्शक, द्रष्टृ (पु.), वीक्षक, निरूपक इ. 1 देखभाल, देखाभाली, सं. स्त्री. (हिं. देखना + भालना ) कार्यदर्शन, अवेक्षणं, निरीक्षणं, पर्यवेक्षण २. दर्शनं, साक्षात्कारः । देखरेख, सं. स्त्री. (हिं. देखना + सं . प्रेक्षणं > ) दे. 'देखभाल' (१) । देखादेखी, सं. स्त्री. (हिं. देखना ) दर्शनं, विलोकनम् । क्रि. वि., अनुकृत्या, अनुसृत्या, गतानुगतिकतया ( सब तृतीया एकवचन ) । देखा हुआ, वि., दृष्ट, निरूपित, निर्वणित, निभालित । देग, सं. स्त्री. ( फ़ा. ) पिठरः-रं, बृहत्स्थाली । देगचा, सं. पुं. ( फा . ) स्थाली, पिठरकः-कम् । देगची, सं. स्त्री. ( फा. देगचा ) उरवा, पिठरी, लघुस्थाली । देव देने योग्य, वि., देव, दानीय, दातव्य, विश्राणनीय, अर्पणीय, दानाई । देदीप्यमान, वि. ( सं . ) अत्यंतं सततं भासमान- भ्राजमान-धोतमान, अति, तेजस्विन्भासुर । देन, सं. स्त्री. (हिं. देना. ) दानं वितरणं २. प्रीति, दानं, उपहार:, उपायनं, प्रदत्तवस्तु (न.)। दार, सं. पुं. (हिं. + फा. ) दे.'ऋणी' -लेन, सं. पुं., कुसीदं, कौसीद्यं, वृद्धिजीवनं २. दानादानं-ने (द्वि.) । देमा, क्रि. सं. ( सं . दानं ) दा ( जु. उ. अ. ), दा (भ्वा. प. अ., यच्छति ), उत्-वि-सृज ( तु. प. अ. ) विश्रण ( चु.), द (भ्वा. आ. से. ) ऋ. (प्प्रे., अर्पयति ) २. ( थप्पड़ आदि ) प्रह ( स्वा. प. अ. ), आ-हन (अ. प. अ. ) ३. (किवाड़ आदि ) ( अ ) पि-धा (जु. उ. अ.) । सं. पुं., अर्पण, प्रतिपादनं, विश्रानं, ददनं, उत्-वि-सर्जनं, दे. 'दान' (१-२ ) | २० कालान्तम् । से, क्रि. वि., चिरात्, चिरेण, विलम्बेन, विलम्बात, चिर, कालेन-कालात् । — होना, क्रि. अ., विलंब - व्याक्षिप् ( कर्म. ) बेला अतिक्रम् ( स्वा. प. से. ), विलंबो जन् (दि. आ. से. ) 1 'देरी, सं. स्त्री. दे. 'देर' ( १-२ ) । देव', सं. पु. ( फ्रा. ) दैत्यः, दानवः, राक्षसः । देव े, सं. पुं (सं.) देवता, देवतं, अमरः, अमर्त्यः, सुरः, अस्वप्नः दिविषद्-दिवौकस् (पु.) निर्जर:, विबुधः, वृंदारकः, सुमनस् (पुं.) २. ईश्वरः ३. मिश्रः, आर्यः, पूज्यपुरुषः ४. मेघ: ५. ज्ञानेद्रियं ६. ब्राह्मणः । गिरि, सं. पुं. ( सं . ) रैवतकपर्वतः २. नगरविशेषः । - दारु, सं. पुं., (सं. पुं. न. ) दे. 'दिवार' । -दासी, सं. स्त्री. ( सं . ) वेश्या, वेशवनिता २. मंदिर देव, नर्तकी । देव, सं. पुं. (सं.) ईश्वरः २. इन्द्रः | -नागरी, सं. स्त्री. (सं.) लिपिविशेष: ('अ' से 'ह' तक अक्षर ) | - पूजा, सं. स्त्री. (सं.) प्रतिमापूजनं २. ईश्व रार्चनम् । – भूमि, सं. स्त्री. ( सं . ) स्वर्ग:, नाक: 1. -मंदिर, सं. पुं. ( सं. न. ) देव, गृहं भवनंस्थानं आलयः । For Private And Personal Use Only Page #344 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir देवकी [ ३०६ ] -लोक, सं. पुं. (सं.) स्वर्गः। । देस, देसी, सं. . तथा वि., दे. 'देश' तथा -वाणी, सं. स्त्री. (सं.) देवभाषा, संस्कृतम् ।। 'देशी' । देवकी, सं. स्त्री. (सं.) श्रीकृष्णचन्द्रजननी, | देसावर, सं. पुं., दे. 'दिसावर'। देवकात्मजा। देह, सं. पुं. (सं.) कायः, दे. 'शरीर' २. अव-नन्दन, सं. पुं. (सं.) श्रीकृष्णः । यवः, अंग ३. जीवनम् । देवता, सं. पुं. (सं. स्त्री.) दे. 'देव' (१-३,५,६)। -पात, सं. पुं. (सं.) मृत्युः (पुं.)। देवत्व, सं. पुं. (सं.) सुरत्व, अमरत्व। देहरा, सं. पु. ( सं. देवः+हिं. घर ) देवालयः, देवन, सं. पु. (सं.) अक्षः, सारः, शार:, मंदिरम्। पाशकः। (सं. न.) कान्ति:-दीप्तिः (स्त्री.) देहली, सं. स्त्री. (सं.) दे. 'दहलीज' २. इन्द्र२. अक्ष-धत,-क्रीडा ३. क्रीडा, विनोदः ४. प्रस्थं, देहली, दिल्ली। प्रमोदवाटिका। देहवंत, देहवान्, वि. (सं. देहवत्) दे. 'देही' । देवना, सं. स्त्री. (सं.) द्यूतम् २. क्रीडा ३: दहात, सं. पुं. (सं.) मृत्युः (पु.), निधनं, मरणम् । शोकः। देवर, सं. पुं. (सं.) देव (पुं.), देवल:, देवारः, देहात, सं. पुं. (फा. ) दे. 'ग्राम' । देहाती, वि. ( फा. देहात ) दे. 'ग्रामीण' । देवानः, तुरागावः, पत्युरनुजः २. पतिभ्रातृ देही, वि. ( सं. देहिन् ) प्राणिन, देहवत्, (पुं. छोटा या बड़ा)। देवरानी, सं. स्त्री. ( सं. देवर:>) यात (स्त्री.), शरीरिन्, तनु,-धारिन्-भृत् । सं. पुं., (सं.) जीव-, आत्मन् (पुं.), जीवः, प्रत्यगात्मन् (पुं.)। देवरपत्नी, जा। दैत्य, सं. पुं. (सं.) राक्षसः, दानवः, निशाचरः। देवल, सं. पु. (सं.) देवाजीवः, देवपूजोप -गुरु, सं. पुं. (सं) शुक्राचार्यः । जीविन् २. नारदः ३. स्मृतिकारमुनिविशेषः । -पति, सं. पुं. (सं.) हिरण्यकशिपुः। हिं., देवालयः, मन्दिरम् ।। -माता, सं. पुं. ( सं.-तृ) दितिः ( स्त्री.)। देवांगना, सं. स्त्री. (सं.) दे. 'अमरागना'। दैत्यारि, सं. पु. ( सं.) विष्णुः २. देवः। देवालय, सं. पुं. (सं.) स्वर्गः २. मंदिरम् । | दैनिक, वि. (सं.) प्रात्यहि क-आह्निक [ -की देवी, सं. स्त्री. (सं.) देवपत्नी, सुरांगना (स्त्री.)], दैनंदिन [-नी ( स्त्री.)] २. दुर्गा, पार्वती ३. ब्राह्मणी ४. पतिव्रता २. नैत्यक-नैत्यिक [ -की ( स्त्री.)] । सं. पुं., ५. पट्ट,-महिषी-राज्ञी। दे. 'दैनिकी'। देश, सं. पुं. (सं.) जनपदः, विषयः, भूभागः, दैनिकी, सं. स्त्री. (सं.) दिन,-वेतन-भूतिः नीवृत्, उपवर्तनं, प्रदेशः २. राष्ट्र ३. स्थानं, (स्त्री.)। स्थलं ४. रागभेदः । देव, सं. पुं. (सं. न.) भाग्यं, अदृष्टं, नियतिः -निकाला, सं. पुं., ( स्वदेशात् ) प्र-निर्-वि, | ( स्त्री.), भागधेयं, भवितव्यता, दिष्टं, प्राक्तन, वासन-वासः, प्रव्राजनम् । विधिः ( पुं.), प्रारब्धं २. ईश्वर: ३. आकाश:-भाषा, सं. स्त्री. (सं.) उप-प्राकृत-प्रादेशिक, | शम् । वि., दिव्य, सौर, अमानुष, अपौरुष, भाषा। ऐश्वर, अलौकिक (स्त्री., दे. 'देवी' )। देशांतर, सं. पु. (सं. न.) अन्य-वि-पर, देश: । —ाति, सं. स्त्री. (सं.) दैवघटना, भाग्यचक्र २. लम्बांशः, देशांतरं ( तुलवल्द )। (१)। देशाचार, सं. पुं. (सं.) देश, धर्मः-व्यवहारः- --दुर्विपाक, सं. पुं. (सं.) दैवदोषः, दौर्भारीतिः (स्त्री.)। ग्योदयः। देशाटन, सं. पु. ( सं. न.) भू,-यात्रा-भ्रमण- |-योग, सं. पु. ( सं.) यदृच्छा, दैव, गतिः पर्यटनम् । | (स्त्री.)-घटना। देशी, सं. स्त्री. (सं. देशीय ) देश्य, देशिक, -वश, क्रि. वि. ( सं.-शं ) दैवात, दैववशात्, स्वदेश,-ज-उत्पन्न । | दैवयोगात्, अकस्मात्, यदृच्छया। For Private And Personal Use Only Page #345 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir दैवी [ ३०७ ] दोष - - दैवी, वि. स्त्री. ( सं. ) आकस्मिकी, यादृच्छिली, । -सेरी, सं. स्त्री., द्विसेटकी, द्विसेरी। अलौकिकी, अमानुपी, नश्वरी, अपार्थिवी। | -हत्थड़, सं.पं., करयुगलाघात:, द्विहस्तप्रहारः। दैहिक, वि. (सं.) शारीरिक-कायिक-वैग्रहिक- -हत्या, क्रि. वि., कराभ्यां-हस्तद्वयेन (तृ.)। -एक,-चार, मु., कतिपय, कति,-चित्-वन । दो, वि. (सं. दि.) द्वौ (पुं.), दे (स्त्री., न.), -करना, मु., द्विधा-द्विखण्डी कृ, समांशद्वयेन यं,-द्वितयं, युग्मं (उ. दो मास-मासद्वयं इ.)। वि-मन ( भ्वा. प. अ.)। -अन्नी, सं. स्त्री., द याणी। -~-कौड़ी की चीज, मु., तुच्छ-क्षुद्र-अल्पमूल्य, ----अर्थी, वि., द्वयर्थ, द्वयर्थक, शिष्ट २. संदिग्ध ।। पदार्थः । -आब, सं. पुं. ( फ़ा.) *धापम् । -~-घड़ी, मु., कञ्चित्, कालं-समयं, अल्पसमयं -गला, सं. पुं. (फा.) सकरजः, मिश्रजः, | यावत् । विजातः, सांकरिकः, वर्णसंकरः । दोज़ख, सं. पुं. (फा.) न(ना)रकः, निरयः । -चंद, वि. (फा.) द्विगुण, द्विगुणित ।। दोज़खी, वि. (फा.) नारकिन्', नारकीय, -चित्ता, वि., दे. 'दुचित्ता'। नारकिक-नारक की (स्त्री.)]। . -तल्ला , वि., दे. 'दुमंजिला' । दोना, सं. पुं. (सं. द्रोणं>) *द्रोगः, पत्र-पर्ण, -तारा, सं. पं., *द्वितारः, वाद्यभेदः ।। पुट:-पुटकः । -धारा, वि., दे. 'दुधारा' । दोनों, वि. (हिं. दो ) उभौ ( पुं.), उभे ( स्त्री. -नाली, वि., द्विनाली ( भुशुंडी आदि )। न.), उभय (प्रायः एक. या बहु. में; -पहर, सं. स्त्री., मध्याह्नः, मध्याह्नकालः, कभी द्विवचन में भी), दौ अपि (पु.), द्वे मध्य (ध्यं )दिनं, उदिन। अपि ( स्त्री. न.)। -पर्ता, वि., द्विरावृत्त, द्विरावर्तित, द्विगुण, | दोला, सं. स्त्री. (सं.) दोली, हिंदोला, पंख:द्विगुणित। खं-खा। -पहर का, वि., माध्याहिक [-की ( स्त्री.)] । -यंत्र, सं. पु. ( सं. न.) दे. 'दोला' २. वकमाध्यंदिनं [ -नी (स्त्रो.)। संधान, यन्त्रम् । --पहर पहिले, क्रि. वि., अर्वाङ् मध्याह्नात् | -युद्ध, सं. पुं, (सं. न.) सन्दिग्ध-परिणामं युद्धम् । (अ. म.%A. M.) प्राले, पूर्वाल्ले । -पहर ढले, क्रि, वि., पश्चान्मध्याह्नात् (प. म. दोलायमान, वि. (सं.) इतस्ततः विचलत् =P. M.), अपराह्न, विकाले । (शत्रंत), प्रेखत् (शत्रन्त)। -पाया, वि., द्विप(पा)दः,द्विपाद(पुं.)(मनुष्य)। दोष, सं. पुं. (सं.) न्यूनता, विकलता, छिद्र, -बारा, क्रि. वि. (फा.) द्विः, द्विवार, पुनः | विकारः २. पापं, पातकं ३. लांछनं, कलंकः, अभियोगः ४. अपराधः, दोष: ५. रसदोषादयः (सब अव्य.)। काव्यदोषाः (सा.) ६. प्रदोषः, रजनीमुखम् । -भाषिया, सं. पुं., दे. 'दुभाषिया'। --लगाना, क्रि. सं. दुष् (प्रे., दूषयति ), -महाला, मंज़िला, वि., दे. 'दुमंज़िला'। अभि-युज् (रु. आ. अ., चु.), कलंकयति -मानी, वि., दे. 'दोअर्था'। ( ना. धा.), दोपं क्षिप (तु. प. अ.)-आरुह -महा. वि., द्विमुख, द्विवदन, २. छलिन्, । (प्रे., आरोपयति), निंद् ( भ्वा. प. से.)। दांभिक । सं. पुं., द्विमुखः सर्पः, सर्पभेदः।। |--कर, वि. (सं.) अनिष्ट-अहित-हानि, कर-रंगा, वि., द्विरंग, द्विवर्ण २. दांभिक । कारिन-कार। -रंगी, सं. स्त्री., दम्भः, द्वैधं, प्रतारणा। -ग्राही, वि. ( सं.-हिन् ) दुष्ट, खल, दुर्जन । -राहा, सं. पु., द्विपथं, चारुपथः। --धन, मं. पुं. (सं. न.) वातपित्तकफ-नाशक-लड़ा, सं. पुं., *द्विमूत्रकः। मौषधम् । ---साला, वि., द्विवार्षिक द्वैवार्षिक (-की स्त्री.) –ज्ञ, वि. ( सं.) प्राज्ञ, विद्वस् । द्विवर्षीण, द्विवर्ष। —त्रय, सं. पुं. (सं. न. ) वातपित्तकफदोषाः, -सूती, सं. स्त्री., द्विमुत्री। दोष-त्रिक-त्रयी। For Private And Personal Use Only Page #346 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir दोषी [ ३०८] दौहित्री दे. 'दोहन'। -दृष्टि, वि. (सं.) दोषै कदृश् , निंदक, पुरो- --धूप, सं. स्त्री., घोर-कठोर, प्रयासः-परिश्रमःभागिन्, छिद्रान्वेषिन् । उद्योग:-उद्यमः। दोषी, वि. (सं. दोषिन् ) सदोष, दोषवत्, -धूप करना, मु., अत्यंतं आयस-परिश्रम् अपराधिन्, प्रमादिन् २. पाप, पापिन् ३. अभि- (दि. प. से. )-प्र-यत् ( भ्वा. आ. से.)। युक्त, दंड य, कृतापराध ४. व्यसनिन्, कुमार्ग-दौड़ना, क्रि. अ. (सं. धोरणं) धोर् ( भ्वा. प. गामिन् । से.), द्रु ( भ्वा. प. अ.), धाव (भ्वा. प. से.), दोस्त, सं. पु. ( फा.) सखि (पु.), दे. 'मित्र' ।। द्रुतं-सवेगं-शीघ्रं गम् २. सततं-अत्यधिक प्रयत् दोस्ताना, सं. पुं. (फा.) सखित्वं, दे. | (का.आ.से.)-परि-श्रम् (दि. प. से.) ३. सहसा दोस्ती, सं. स्त्री. 'मित्रता' । प्र-वृत् ( भ्वा. आ. से.) ४. पलाय ( भ्वा. आ. दोहता, सं. पुं., दे. 'दौहित्र'।। से.) ।सं. पुं., दे. 'दौड़'। दोहती, सं. स्त्री., दे. 'दौहित्री'। दौड़नेवाला, सं. पुं., धावकः, धोरकः, शीघ्रदोहद, सं. पुं. (सं. पुं. न.) गर्भिण्यभिलाषः, | गामिन् । लालसा, श्रद्धा, दौहृदं, दौहृदम् । -वती, सं. स्त्री., लालसावती गर्भिणी, श्रद्धालुः दौड़ाना, क्रि. स., ब. 'दौड़ना' के प्रे. रूप । (स्त्री.)। दौर दौरा, सं. पुं. (अ+हिं.) आधिपत्यं, शासनं, दोहन, सं. पुं. (सं. न.) स्तन्य-ऊधस्य-ऊधन्य,- प्रभुत्वं, स्वामित्वं, ईक्षत्वं. वशः-शम् । निःस्रावणं, निष्कर्षणं-निस्सारणं २.दे. 'दोहनी'। दौरा, सं. पुं. ( अ. दौर ) पर्यटनं, परिभ्रमणं दोहना, क्रि. स. (सं. दोहनं) दुह् (अ. प. अ., २. इतस्ततः अटनं-भ्रमणं-गमनं ३. अधिकाद्विकर्मक ), स्तन्यं निस्स-सु (प्रे.) । सं. पुं., रिणो निरीक्षणार्थ भ्रमणं ४. रोगादेः आवृत्तिः आवर्तनं-सामयिकाक्रमणम् । दोहनी, सं. स्त्री. (सं.) दोहन-दुग्ध, पात्रं, -करना, क्रि. अ., परिभ्रम्-पर्यट (भ्वा. प.से.), दोहनं, दोहः, पारी, लेपनम् । स्वमंडलं निरीक्षितुं परिभ्रम् । दोहने योग्य, वि. दोग्धव्य, दोछ । दोहनेवाला, सं. पुं., दोग्धृ (पु.), दोहक। | -सुर्पद करना, मु., अभियोगं दंडाधिकरणिक पावें प्रेष (प्रे.)। दोहर, सं. स्त्री. (हिं. दो) *द्विस्तरी। दोहरा, वि. पु. (हिं. दो ) द्विरावृत्त, द्विरावर्तित दौरात्म्य, सं. पुं. (सं. न. ) दुष्टता, खलत्वम् । २. द्विगुण, द्विगुणित। दौर्जन्य, सं. पु. ( सं. न.) दुर्जनता, दुष्टता। करना, क्रि. स., द्विपुटी कृ,द्वि: व्यावृत् (प्रे.), दौर्बल्य, सं. पुं. (सं. न.) दुर्बलता, क्षामता। दौर्भाग्य, सं. पुं. (सं. न.) दे. 'दुर्भाग्य' । द्विपुटयति ( ना. धा. ) २. द्विगुणी कृ, द्विगुणयति ( ना. धा.)। दौलत, सं. स्त्री. (अ.) धनं, संपद् (स्त्री.)। | -खाना, सं. पं. (अ.+फा.) गृहं, आ. दोहराना, क्रि. स. (हिं. दोहरा) पुन:-द्विः कथ् (चु.)-गद्-वद् ( भ्वा. प. से. )-व्याह नि,वासः । ( भ्वा. प. अ.) २. मुहुः-द्विः कृ या अनुस्था । -मंद, वि. ( अ.+फा.) धनिक, संपन्न । (भ्वा. प. अ.)-आ-चर ( भ्वा. प. से.) -मदा, स. स्त्री. (अ.+फा.) धनाध्यता, अभ्यस् (दि. प. से.) ३. पुनःद्विः ईक्ष | | समृद्धि: ( स्त्री.)। ( भ्वा. आ. से. )-विचर (प्रे.), संशुध (प्रे.)। दीवारिक, सं. पुं. (सं.) दे. 'द्वारपाल' । दोहराव, सं. पु. (हिं. दोहराना ) पुनरीक्षणं, | दीकुल, वि. (सं.) हीन-नीच क्षुद्र, कुल. संशोधनं २. पुनरुक्ति: (स्त्री.), पौनरुक्त्य, वर्ण-जातीय। पुनर ,वचन-वादः । दौष्ट्य, सं. पुं. (सं. न.) दुष्टता, खलता, दोहा, सं. पुं. (हिं. दो) हिंदीछन्दोभेदः। दुर्जनता। दौड़, सं, स्त्री. (हिं. दौड़ना) धावन-पलायनं, | दौष्यंति, सं. पुं. (सं.) दुष्यन्त पुत्रो भरतः। द्रवणं, विद्रवः, द्रुत,-गमनं-गतिः (स्त्री.), दौहित्र, सं. पुं. (सं.) दुहित,-पुत्रः-तनयः । २. आक्रमणं ( ३-५ ) गति-उद्योग-बुद्धि,-सीमा। | दौहित्री, सं. स्त्री. ( सं.) दुहित,-पुत्री-तनया। For Private And Personal Use Only Page #347 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [३०] द्विज द्य, सं. पुं. (सं. न.) दिनं २. आकाश:-शं) कलश:, उन्मानं, अर्मणः, उल्वणः। सं. पुं. ३. स्वर्गः । सं. पुं., अग्निः । द्रोणाचार्यः २. काष्ठकलशः ३. द्रुममयो रथः -लोक, सं. पुं. (सं.) स्वर्गः। ४. काकोल:, कृष्ण-द्रोण-वृक्ष, काकः ५. दे. द्युति, सं. स्त्री. (सं.) कांति:-दीप्तिः ( स्त्री.), 'दोना' ६. नौका। आभा, प्रभा ३. लावण्यं, सौन्दर्य, शोभा, [ द्रोह, सं. पुं. (सं.) अहित-अनिष्ट-चिंतनं छविः ( स्त्री.) ३. किरणः, रश्मिः ( पुं.)। । वैरं, वि., द्वेषः, अपचिकीर्षा, जिघांसा, छद्मधुतिमन्त, वि. ( सं.मत् ) कांतिमत्, दीप्तिमत्, | वधः, अहित-अनर्थ, इच्छा। भासुर, भास्वर। द्रोही, वि. (सं. द्रोहिन्) अहित-अनिष्ट-अनर्थ, द्यूत, सं. पुं. (सं. पुं. न.) अक्षवती, कैतवं, पणः।। चिंतक-चिकीर्षक, मत्सरिन, अभ्यसूयकः । -कर, सं. पुं. (सं.) कितवः, धूर्तः, दुरोदरः, द्वंद, सं. पुं. (सं. न. मिथुनम् । अक्षदेविन, धूतकृत् । द्वंद, द्वंद्व, सं. पुं. (सं. द्वंद्व ) द्वयं, द्वितयं, युगलं, -कार, सं. पुं. (सं.) सभि (भी) कः २. दे. युग्म, युगं, यमक, युतकं २. मिथुनं, जाया'द्यूतकर'। पती, दंपती ३. परस्परविरोधिपदार्थों (उ, द्योतक, वि. ( सं.) प्रकाशक, द्योतकार, उद्भा- शीत-उष्ण, सुख-दुःख इ.)४.रहस्य ५. कलहः, सक २. ज्ञापक, ख्यापक । उपद्रवः ६. द्वंद्वयुद्धं ७. संशयः ८. संभ्रमः, द्रव, स. पू. (सं.) द्रवणं, स्रवणं, क्षरणं, गलनं, | संमोहः ९. कष्टं । सं. पुं., समासभेदः (व्या.)। वहनं, अभि-नि,-स्यं ( ध्यं) दनं २. स (स्रा) -चारी, सं. पुं. (सं.-चारिन् ) दे, 'चकवा' । वः, प्रवाहः, प्रसवः, धारः-रा ३. धावनं, -युद्ध, सं. पु. ( सं. न.) मल्ल-द्वयोर्, पलायनं ४. वेगः, जवः ५. आसवः ६. रसः । युद्धम् । ७. परिहासः ८. द्रवत्वं ९. द्रव, द्रव्य-पदार्थः। द्वादशी, सं. स्त्री. (सं.) शुक्ला कृष्णा वा वि., तरल, द्रव, प्रवाहिन, २. आई, क्लिन्न, द्वादशी तिथिः ( स्त्री.)। उन्न, ३. विलीन, विद्रत, द्रवीकृत। द्वापर, सं. पुं. (सं. पुं. न.) तृतीययुगं द्रवीभूत, वि. (सं.) दयादिभिः आद्रीभूत- (८६४००० वर्ष ) २. संदेहः । अभिष्यंदित, दयालु, कृपालु। २. विलीन, | द्वार, सं. पुं. (सं. न.) द्वार ( स्त्री.) प्रतिविद्रुत । (ती) हारः २. उपायः, साधनम् । द्रवत्व, सं. . ( सं. न.) द्रवता, द्रवभावः, | ---चार, सं. पुं. (सं. द्वाराचारः) वधूगृहद्वारे प्रवाधर्मः, रसता, तरलत्वम् । करणीया विशिष्टरीतिः ( स्त्री.)। द्रव्य, सं. पुं. ( सं. न.) पदार्थः, वस्तु (न.) -पाल, सं. पुं. (सं.) द्वा(:)रथः, द्वारस्थः, २. भूम्यादयो नव पदार्थाः ३. उपादानकारण, द्वारिकः, दौवारिकः, प्रति(ती)हारः(-री स्त्री.)। सामग्री ४. धनं, वित्तम् । द्वार(रि)का, सं. स्त्री. (सं.) द्वारा(र)वती, --संचय, सं. पुं. (सं.) धनसंग्रहः । तीर्थविशेषः। द्रव्यार्जन, सं.पं. (सं.) धनोपार्जनं,वित्तार्जनम् ।। द्वारा, अव्य. (सं.) द्वारेण, साधनेन, कारणेन, द्राक्षा, सं. स्त्री. (सं.) रसाला, प्रियाला, | हेतुना। (हिं. प्रायः इसका अनुवाद तृतीया गुच्छफला, दे. 'दाख'। से करते हैं)। द्रुत, वि. (सं.) विलीन, विद्रुत, द्रवी,-कृत- | द्वि, वि. ( सं.) दे. 'दो'। भूत, अवदीर्ण २. शीघ्र, सिप्र, त्वरित, सत्वर -ककार, सं. पुं. (सं.) काकः, वायसः ३. पलायित । क्रि. वि., आशु, झटिति। | २. कोकः, चक्रः।। -गामी, वि. ( सं.-मिन् ) आशुग, शीघ्रगा- -गुण, वि. (सं.) द्विगुणित । मिन्, द्रुतगति । -पद, वि. ( सं.) द्विपाद, द्विचरण । दुम, सं. पुं. (सं.) पादपः, तरु: (पुं.), वृक्षः। द्विज, वि. (सं.) द्विर्जात, द्विरुत्पन्न, द्विजन्मन् । द्रोण, सं. पुं. (सं. पुं. न.) प्राचीनपरिमाण- | सं. पुं., ब्राह्मणक्षत्रियवैश्याः २. खगः, अंडजः भेदः ( ४ सेर, १६ सेर या ३२ सेर ) घटः, । ३. दंतः ४. ब्राह्मणः ५. चंद्रः। For Private And Personal Use Only Page #348 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir द्वितीय [ ३१०] घडंग -दास, सं. पुं. (सं.) शूद्रः, दे। हेष, सं. पुं. (सं.) वैरं, शत्रुता, सापत्न्यं, -पति, सं. पुं. (सं.) ब्राह्मणः २. गरुड़ः । विरोधः, द्वंदभावः । ३. चन्द्रः । द्वेषी, वि. (सं.-पिन् ) विरोधिन्, वैरिन्, -प्रिया, सं. स्त्री. (सं.) सोमलता। __ अहित, विपक्ष । सं. पुं., अरिः, शत्रुः, रिपुः, -बंधु, सं. पुं. (सं.) कर्महीनो द्विजः। द्वेट । -राज, सं. पुं. (सं.) ब्राह्मणः २. चंद्रः। द्वैत, सं. पं. (सं. न.) द्वित्वं, द्विता, द्वैतं, द्वधं द्वितीय, वि. (सं.) द्वितीयः-य-या (पुं. न. | | २. द्वैतवादः ( दर्शन.) ३. भेदभावः । स्त्री.) २. गौण, अवर। -वाद, सं. पुं. (सं.) जीवब्रह्मपृथकत्ववादः द्वितीया, सं. स्त्री. (सं.) शुक्ला कृष्णा वा २. देहदेहिपृथक्त्वसिद्धांतः । द्वितीया तिथिः (स्त्री.)। द्विधा, अव्य. (सं.) प्रकारद्वयेन, द्विप्रकारं | -वादी, सं. पुं. ( सं.-दिन् ) दैनिन् । २.द्विभागशः ( अव्य.), दिखंडयोः (सप्तमी)। हधाभाव, सं. पुं. (सं.) संशयः, निश्चया. द्विविध. वि. (सं.) द्विप्रकारक। क्रि. वि. दे. भावः २. दंभः ३. उपायविशेषः (राजनीतिः) । "द्विधा। द्वैपायन, सं. पुं. (सं.) श्रीवेदव्यासः ।। दीप, सं. पुं. (सं. पुं. न.) जलवेष्टितभूमिः द्वगणुक, सं. पुं. (न.) परमाणुयात्मकं (स्त्री.)। । द्रव्यम् । ध,देवनागरीवर्णमालाया एकोनविंशी व्यंजनवर्णः, | धक्कमधक्का, सं. पुं. (हिं. धक्का ) अन्योन्य-परधकारः। स्पर,-संमदः,समाघात:-संघर्षणं, अभिसंपातः । धंधला, सं. पुं. (हिं. धंधा) दंभः, कपट, माया। धक्का, सं. पुं. (अनु. धक अथवा सं. धक्क नाश धंधा, सं. पुं. (सं. धनधान्यं>) आजीवः, करना>) अपसारणं-णा, प्रचालन-ना, आ-उप,-जीविका, जोवसाधनं, वृत्तिः (स्त्री.) प्रेरणा, प्रबोदना, संघर्षः, आघात:, संमर्दः २. उद्यमः, व्यवसावः। २. संतापः, क्लेशः ३. आपद-विपदः (स्त्री.)। काम-, सं. पुं., दे. 'धंधा'। -खाना, क्रि. अ., अपसार-प्रेर प्रचाल-प्रचोद गोरख-, सं. पुं., मोहकर-भ्रांतिजनक, (कर्म.)। व्यापारः। -देना, त्रि. स. दे. 'धकेलना' । धंसना, क्रि. अ. (सं. दंशनं>) आ-प्र, विश -~-लगना, मु., विपदा अभि-उप-हन ( कर्म.)। (तु. प. अ.) निविश ( तु. आ. अ.), निर-, भिद् (रु. प. अ.), व्यध् (दि. प. अ.), | धचका, सं. पुं. ( अनु.) लधु,-प्रहारः-आधातः, दे. 'गड़ना। फंसाना, क्रि. स., ब. 'फँसना' के प्रे. रूप। धज, सं. स्त्री. (सं. ध्वज:> ) अलंक्रिया, धंसाव, सं. पुं. (हिं. फँसना ) नि-प्रवेश: सजा, भूषा २. आकारः, आकृतिः ( स्त्री.), वेशनं, वेधः-धनम् । विः ( स्त्री.) ३. हावभावौ (वि.) ४. वर्तनं, धक, सं. स्त्री. ( अनु.) हृदय-हत्,-कंपः, शीलम् । स्पंदः स्फुरणं २. हृत्कंपशब्दः । 'धजीला, वि. (हिं. धज ) दे. 'सजीला' । धकर, सं. स्त्री. ( देश.) बृहल्लिक्षा, लघुयूका। धजी, सं. स्त्री. ( सं. घटी ) पट-वस्त्र,-खंड:-पट्टी धकधकाना, क्रि. अ. ( अनु.) दे. 'धड़कना'।। २. पट्टचरं, चीरम् । धकेलना, क्रि. स. (हिं. धक्का) ( करादिभिः) -धज्जियों उड़ाना, मु. विद (प्रे. ), • खंड प्रणुद-प्रेर-प्रचल-प्रस. (प्रे.) प्रचुद् (चु.)। (चु.) २. निर्दयं निष्ठुर-तीनं प्रह ( भ्वा. प. धकेलू , सं. पुं. (हिं. धकेलना) प्रणोदकः, अ.), हन् ( अ. प. अ.)। प्रचोदकः, प्रेरकः, प्रचालकः, अप-प्रसारकः । । धडंग, वि. (हिं. धड़+अंग ) नग्न, ३. 'नंगा'। For Private And Personal Use Only Page #349 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [ ३११] धनी धड़, सं. पुं. (सं. धरः> ) कबंधः, अपमूर्ध- | धतूरिया, सं. पुं. (हिं धतूरा ) धत्तर-मोहन, कलेवर, आशीपशरीरं २. आकटिग्रोवं शरीरम् । प्रयोजको वंचकः । घड़क-कन, सं. स्त्री. ( अनु. धड़) हृदय-हृत, धत्त (तू)रा, सं. पुं. (सं. धत्तरः) धुस्तरः, स्पंदनं-स्फुरणं-कंपनं २. हृत्स्पंदध्वनिः (पुं.)। शिवप्रियः, मोहनः, कनकः । ३. आशंका, भयम् । धधक, सं. स्त्री. (अनु. ] ज्वाला, झलका, -बेधड़क, क्रि. वि., निःशंक. निर्भय, निस्सं- आस् ( न.)। कोचम् । धधकना, क्रि. अ., (हिं. धधक) उत्-प्र-संधड़कना, क्रि. अ. (हिं धड़क) कंप-वेप-स्पंद्। दाप् (दि. आ. अ.) उत्-प्र-ज्वल (भ्वा. प. (भ्वा. आ. से.), स्फुर (तु. प. से.)। से.), प्रचंडं दह् ( कर्म.)। | धधकाना, क्रि. स., ब. 'धधकना' के प्रे, रूप । धड़का, सं. पुं., दे. 'धड़कन'। धनंजय, सं. पुं. (सं.) अर्जुनः २. अग्निः । धड़काना, कि. स., ब. 'धड़कना के प्रे. रूप । धन, सं. पुं. (सं. न.) वित्तं, द्रव्यं ऋ(रि)क्थं, धड़धड़, सं. स्त्री. ( अनु.) धड़धड़ात्,कार: वसु (न.), अर्थः, हिरण्यं, द्रविणं, विभवः, कृतिः कृतं । क्रि. वि., सधड़धड़शब्द श्री:-लक्ष्मीः ( स्त्री.), भोग्य, सम्पद-सम्पत्ति: २. निःसंकोचम् । (स्त्री.) कांचनं, रै (पुं., रा:, रायौ, रायः) ---जलना, क्रि. अ., अत्युग्रं-प्रचंडं ज्वल | २. गोधनं ३.प्रेमपात्रं ४.योगचिह्न (+,गणित) (भ्वा. प. से.)-दह (कर्म.)-दीप (दि. आ. से.)। ५. मूलद्रव्यम्। धड़धड़ाना, क्रि. अ. ( अनु. धड़धड़धड़धड़ा -कुबेर, सं. पुं. (सं.) लक्षपतिः (पुं.), यते (ना. धा.) धड़धड़शब्दं जन् (प्रे.)। कोटीशः, सुसमृद्धजनः। धड़ल्ला, सं. पु. ( अनु. धड़ ) धड़धड़ात्कारः -धान्य, सं. पुं. (सं.न.) धनधान्ये,अर्थान्नं-न्ने । २. जनसंमदः। -पति, सं. पुं. (सं.) कुबेरः, दे.। धड़ल्लेदार, वि. ( अनु. +फ्रा.) निर्भय, -हीन, वि. (सं.) दरिद्र, अकिंचन । निःसंकोच । धनक, सं. पुं. (सं.) धनाया, धनैषणा। धड़ल्ले से, मु., निर्भयं, निस्संकोचम् । धनद, वि. (सं.) दानशील, वदान्य। सं. पुं. धड़वाई, सं. पुं. (हिं. धड़ा) तोलकः, *घटधरः। (सं.) कबेरी घड़ा, सं. पु. ( सं. घट:) तुला २. तोल:, भारः | धनाढ्य, वि. ( सं.) अर्थ-धन-वित्त-द्रव्य, वत् । ३. पक्षः, दलम् । धनिन्, धनिक, स-बहु-महा, धन, वित्त-विभवधड़ाका, सं. पु. ( अनु०) धड़ाक इति शब्द:-- धन, शालिन्, सम्पन्न, समृद्ध, श्रीमत्, खः-ध्वनिः (पुं.) गुरुद्रव्यपतनध्वनिः। लक्ष्मीश, धनेश्वर। धडाधड, क्रि. वि. (अनु. धड़) सततं, निरंतरं, धनार्जन, सं. पुं. (सं. न.) वित्तोपार्जनं, धनअविच्छिन्नं, अनवच्छिन्न २. निरंतर सधड़- | संग्रहः। धड़शब्दं च। धनिक, वि. (सं.) दे. 'धनाढ्य । धड़ाम से, सं. पुं. (अनु.) सशब्दम् । | धनिया, सं. पुं. (सं. धनिका) धन्या, वितुन्नक, धड़ी, सं. स्त्री. (सं. घट:>) धटी, चतुः | मुगंधि ( न.) कुस्तुम्बरी। सेरी-सेटकी, पंच, सेरी-सेटकी। धनिष्ठा, सं. स्त्री. (सं.) श्रविष्ठा, नक्षत्रविशेषः । धड़ेबंदी, सं. स्त्री. (हिं. फा.) दलबंधः, पक्ष,- | धनी, वि. ( सं.-निन् ) दे. 'धनाढ्य' २. दक्ष. पातः-ग्रहणं-अवलंबनम् । कुशल । सं. पुं., स्वामिन, अधिपतिः २. पतिः धत, सं. स्त्री., दे. 'लत'। (पुं.) धनाढ्यः। धतकारना,क्रि.स. (अनु. धत्) दे. 'दुतकारना'। -मानी, वि. (सं. धनिमानिन् ) धनमान,धता, सं. पु. ( अनु. धत् ) निस्सारित,अपगत । वत्-युक्त। -बताना, मु., छलेन अप-निस्-स. (प्रे.), बात का--, वि., प्रतिज्ञापक, स्थिर-दृढ़, सव्याज परिह (भ्वा. प. अ.)। | प्रतिज्ञ, सस्य, संगर-संध-व्रत। For Private And Personal Use Only Page #350 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [ ३१२] धनु धनु, सं. पुं. (सं.) दे. 'धनुष' । धनुआ, सं. पुं. [सं. धन्वं ( वेद में ) ] दे. 'धनुष' २. दे. 'धुनकी' । धनुक, सं. पुं. (सं. धनुस् न. ) धनुः, धनूः (स्त्री.), धनु (न.) इन्द्र, - चापः - आयुधं धनुस् (न.) । धनुकी, सं. स्त्री. दे. 'धुनकी' । धनुर्धारी, सं. पुं. (सं.-रिन ) धनुर्द्धरः, धन्विन्, इषुधरः, धानुष्कः, निषंगिन्, धनुभृत-धनुष्मत् ( पुं. ), तूणिन् । धनुर्विद्या, सं. स्त्री. (सं.) शराभ्यासः, इषुक्षिप्तिः (स्त्री.) । धनुर्वेद, सं. पुं. (सं.) धनुर्विद्यानिरूपकशास्त्रम् । धनुष, सं. पुं. [सं. धनुस् (न.) ] चाप:-पं, इष्वासः, आसः, कार्मुकं, कोदण्डं, शरासनं, शारंग:, धनू : (स्त्री.) । धनेश-श्वर, सं. पुं. (सं.) धनपति: २. कुबेर: ३. खगभेदः । धनैषणा, सं. स्त्री. ( सं . ) वित्तैषणा, धनाया । धनैषी, वि. ( सं . - षिन् ) धनेच्छुक, वित्ताथिंन् (पुं. ) धन्ना, सं. पुं., दे. 'धरना' सं. पुं. ४ । धन्य, वि. ( सं . ) सौ, भाग्यवत्, पुण्य, वत्भाज्, सु-, कृतिनू, सु,- भग-भाग्य, महाभाग २. इलाध्य, स्तुत्य । क्रि. वि., साधु, सुष्ठु, सम्यक् । - वाद, सं. पुं. (सं.) कृतज्ञता, दर्शनं - प्रकाशनं, उपकारप्रशंसा २. साधुवाद:, प्रशंसावचनानि ( बहु.), इलाघा । धन्वन्तरि, सं. पुं. ( सं .) सुरचिकित्सकः, सुश्रुतकारः । 'धन्वा, सं. पुं. (सं. धन्वन् ) धनुस् (न.), चापः २. मरुः ३ स्थलम् । धन्वी, सं. पुं. (सं. विन् ) दे. 'धनुर्धारी' | धप्पा, सं. पुं. ( अनु धप ) चपेट:- टिका २. क्षति:- हानि: (स्त्री.)। धब्बा, सं. पुं. (देश) दे. 'दाग' | धम, सं. स्त्री. (अनु. ) पतनशब्द:, धमिति ध्वनि : ( पुं.) । - से, क्रि. वि. धमितिशब्देन सह २. अकस्मात् । धमक, सं. स्त्री. (अनु.) अवपतन आघात, - शब्दः, धमिति ध्वनिः (पुं.) २. पादन्यासशब्द:- ३. आघातः, प्रहारः ४. कम्पः । धरना धमकना, क्रि. अ. (हिं. धमक) धमिति शब्देन सह पत् (भ्वा.प.से.) २. व्यथ् (भ्वा.आ.से.) । आ-, मु., अकस्मात सहसा आया ( अ. प. अ. ) । धमकाना, क्रि. स. (हिं. धमकना ) भी ( प्रे. भाययति, भापयते, भीषयते), त्रस् (प्रे.) २. निर-, भत्र्स्' ( चु. आ. से. ), तर्ज (भ्वा. प. से., चु. आ. से. ) । धमकी, सं. स्त्री. (हिं. धमक) विभीषिका, भयदर्शनं २. तर्जना, भर्त्सना, अपकारगिर् ( स्त्री. ) । - में आना, मु., विभीषिकाप्रभावेण कार्यं कृ । धमधमाना, क्रि. अ. ( अनु. ) धमधमायते ( ना. धा. ), धमधमशब्द जन् ( प्रे. ) । धमनी, सं. स्त्री. ( सं . ) धमनिः (स्त्री.), रक्तवाहिनी नाडी । धमाका, सं. पुं. (अनु.) भुशुंड्यादिशब्दः, महाशब्दः, धमिति ध्वनिः (पुं.) २. पतन. कूर्दन,-शब्दः । धमाचौकड़ी, सं. स्त्री. (अनु. धम+हिं. चौकड़ी) कलकलः, कोलाहल:, तुमुल:-लं, डमरः, संक्षोभः, विप्लवः । धमाधम, क्रि. वि. (अनु. धम सधमधम शब्दम् । सं. स्त्री, धमधमध्वनि: (पुं) २. आघातप्रतिघातौ, उपद्रवः, उत्पातः । धर, वि. (सं.) धारक, धारिन्, धर्तृ, ग्रहीत् । ( प्रायः समासांत में, उ. चक्रधर इ. ) । धरणि-णी, सं. स्त्री. ( सं . ) धरा, भूमि : (स्त्री.) दे. 'पृथिवी' । घर, सं. पुं. (सं.) पर्वतः २ कच्छप: ३. शेषनाग : ४. विष्णु: (पुं. ) ५, शिवः । - सुता, सं. स्त्री. ( सं . ) सीता, जानकी । धरती, सं. स्त्री. (सं. धरित्री ) दे. 'धरणि' । धरना, क्रि. स. ( सं . धरणं ) आ-नि-धा (जुउ. अ. ), स्था ( प्रे.), न्यस् ( दि. प. से. ), निक्षिप् (तु.प.अ.), आ-रुहू (प्र. आरोपयति), धृ ( चु. ) २. ग्रहू (क्रू . प. से. ), ( हस्तेन ) अव-लम्बू ( भ्वा. आ. से. ) - धृ ३. परिधा ( जु. उ. अ.), वसू ( अ. आ. से. ) । सं. पुं., धरणं, आ-नि, धानं न्यसनं २. ग्रहणं ३. परिधानं ४. साग्रहं उपवेशः स्थानं वा । For Private And Personal Use Only Page #351 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir धरवाना [ ३१३ ] धवला ---देना, मु., ( उद्देश्यसिद्धये ) साग्रहं स्था | आत्मा, वि. ( सं.-त्मन् ) धार्मिक, धर्मशील, ( भ्वा. प. अ.)। धर्मवत्, पुण्यात्मन्, धर्म-पर-परायण । धरवाना, क्रि. प्रे., ब. “धरना' के प्रे.रूप।। -उपदेश, सं. पुं. (सं.) धर्म, शिक्षा-अनुधरहरा, सं. पुं. (हिं. धुर+धर ) ससोपानं शासनम् । गृहशिखरं २. अंतः-सोपानः स्तम्भः । --उपदेशक, सं. पुं. (सं.) धर्म,-शिक्षकःधरा, सं. मी. (सं.) भू:-भूमिः ( स्त्री.)। अनुशासकः । -तल, सं. पु. ( सं. न.) भूतलं, पृथिवीतलं | -कर्म, सं. पुं. [ सं.-मन् (न.)] शास्त्रोक्तं २. भूमिः (स्त्री.)। कृत्यम् । -धर, सं. पुं. (सं.) दे. 'धरणीधर'। ---क्षेत्र, सं. पुं. (सं.न.) कुरुक्षेत्र २. भारतवर्षम् । धराऊ, वि. ( हिं. धरना) महाघ, बहुमूल्य २. | -ध्वजी, सं. पुं. (सं.जिन्) धर्मध्वजः, पाषंड:, विशिष्ट, उत्कृष्ट । लिंग-वक, वृत्तिः (पुं., स्त्री.), वक-वैडाल,धरात्मज, सं. पुं. (सं. ) मंगलग्रहः २. . व्रतः, आर्य-रूप-लिगिन्, छद्मधार्मिकः, नरकासुरः। मिथ्याचारः। धराधिप, सं. पुं. (सं.) धरा, अधिपतिः अधीशः, --करना, क्रि. स., धर्मं चर् ( भ्वा. प. से.), नृपः। पुण्यं । धरामर, सं. पुं. (सं.) विप्रः, ब्राह्मणः, भूसुरः । । --निष्ठा, वि. (सं.) धार्मिक, धर्म,-पर-परायण । धरित्री, सं. स्त्री, (सं.) पृथिवी, दे। -पत्नी, सं. स्त्री. ( सं.) यथाशास्त्रं विवाहिता धरोहर, सं. स्त्री. (हिं. धरना) निक्षेपः, न्यासः, । नारी २. भार्या, नारी, दाराः (पुं. बहु.), दे. 'अमानत'। कलत्रम् । धर्ता, सं. पु. ( सं. धर्तृ ) धारकः, धारयित २. | --पुत्र, सं. पुं. (सं.) युधिष्ठिरः २. धर्मतः ग्राहकः। कृतः पुत्रः ३. नरनारायणमुनी (द्वि.)। धर्म, सं. पुं. (सं.) अभ्युदयनिःश्रेयससाधको --भ्रष्ट करना, क्रि. स., धर्म भ्रंश-नश् (प्रे.)गुणकर्मसमूहः (अहिंसा, सत्य, अग्निहोत्रादि ) हन (अ.प.अ.) २. सतीत्वं ह ( भ्वा.प.अ.)। २. ईश्वर, निष्ठा-सेवा-भक्तिः (स्त्री.), आस्तिक्य- |--राज, सं. पुं. (सं.) धर्मात्मा नृपः २. युधिबुद्धिः ( स्त्री.) ३. पुण्यं, परोपकारः ४. सदा- | ष्ठिरः ३. यमः ४. जिनः । चारः, साधुता, सुकृतं, सत्कर्मन् (न.)५. नयः, -शाला, सं. स्त्री. (सं.) *यात्रिकगृहं, *तीर्थन्यायः, नीतिः ( स्त्री.), न्यायिता, ऋजुता | | सेविनिवासः ३. गुरुद्वारं, शिष्यसंप्रदाय६. पक्षपातराहित्य, समदर्शित्वं ७. श्रद्धा, | देवालयः। भक्तिः, निष्ठा ८. मतं, सम्पदायः, पथिन् (पुं.) -शास्त्र, सं. पुं. (सं. न.) धर्मसंहिता, ९. शास्त्रविहित, कर्तव्यं -कृत्यं १०. आचारः, स्मृतिः (स्त्री.)। . व्यवहारः ११. रीतिः रूढ़िः (स्त्री.) १२. | -शील, वि. (सं.) धार्मिक, धर्मात्मन् । प्रकृतिः ( स्त्री.), स्वभावः, नित्यगुणः १३. -सभा, सं. स्त्री. (सं.) व्यवहारमण्डपः, विधिः ( पुं.), व्यवस्था, राजाज्ञा, कार्याकार्य- न्यायसभा। नियमः। | धर्मिष्ठ, वि. (सं.) दे. 'धर्मावतार'। -अध्यक्ष, सं. पुं. (सं.) प्राविवाकः, अक्ष- धर्मी, वि. ( सं.-मिन् ) पुण्यात्मन् २. मतानुदर्शकः, धर्माधिकरणिन्, न्यायाधीशः, धर्माधि. | यायिन् । कारिन्। | धव, सं. पु. ( सं.) पतिः, भर्तृ २. पुरुषः, नरः -अनुसार, क्रि. वि. ( सं.रं ) यथाधर्म, धर्मो- | ३. पिशाचवृक्षः। क्तरीत्या, धर्मपूर्वकम् । धवल, वि. (सं.) श्वेत, शुक्ल २. भासुर ३. --अर्थ, क्रि. वि, (सं.-थ) धर्माय, पुण्याय। सुन्दर ।। -अवतार, सं. पुं. (सं.) धर्ममूतिः (पु.), | धवला, सं. स्त्री. (सं.) १-२. श्वेत-शुक्लअतिधर्मात्मन् (पुं.), धमिष्ठः, पुण्यात्मन् (पुं.)।। गौर,-नारी-गौः ( स्त्री.)। वि. स्त्री. (सं.) For Private And Personal Use Only Page #352 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir धसकना [ ३१४ ] धारणा धसकना, । क्रि. अ..दे. 'धंसना' । शुक्ला, गौरी, सिता। वि. पु. ( हिं.) श्वेत, भृष्टयवाः २. भृष्टतण्डुलाः, लाजाः ( पुं. बहु.) गौर, शुक्ल । सं. पुं., गौर-श्वेत,-वृपः-वृषभः।। ३. दे. 'धनिया' । धानी', वि. (हिं. धान ) देवदहरितवर्ण । धसना, । धानी , सं. स्त्री. (सं. धानाः>) भृष्ट, यवाःघस्सर, सं. स्त्री., दे. 'स्कारलेटिना'। गोधूमा:-तंडुलाः २. व्रीहिभेदः । धाँधल, सं. स्त्री. (देश. धाँधना) क्षोभः, धान्य, सं. पुं. (सं. न.) अन्नं, अचं, भोन्यं, विप्लवः, उपद्रवः २. कपट, माया ३. त्वरा, | भोगाई, जीवसाधनं २. व्रीहिः-शालि: स्तंबसम्भ्रमः। करिः (पुं.) ३. चतुरित परिमाणं ४. धन्यावं, धाँधली, वि. ( हिं. धाँधल ) उपद्रविन्, उत्पा- | वितुन्नकम् । तिन्, कुचेष्टाप्रिय २. माथिन्, कपटिन् । --उत्तम, सं. पुं. (सं.) तंडुलः । सं. स्त्री., दे. 'धाँधल'। -राज, सं. पुं. (सं.) यवः । धाय धाय, सं. स्त्री. (अनु.) शतनी,शब्द:- | धाभाई, सं. पु. (हिं. धाय+भाई) धात्रेयः, ध्वनिः ( पुं.) २. प्रज्वलनध्वनिः । धात्रीपुत्रः। धाक, सं. स्त्री. (सं. धक्क>) प्रभावः, आतंकः, | धाम, सं. पुं. [सं. धामन् (न.)] गृहं, प्रतापः, शासनं २. ख्यातिः-प्रसिद्धिः ( स्त्री.)। गेह, अ(आ)गारं २. शरीरं ३. स्थानं ४. पुण्य-बँधना, मु., आतंकः-प्रतापः प्रस ( भ्वा. प. देव,-स्थानम् । अ.) २. प्रख्यात (वि.) भू। धाय-यी, सं. स्त्री. (सं. धात्री, दे.)। धागा, सं. पुं.(हिं,तागा) सूत्र, गुणः, तन्तुः(पुं.)। | धार', सं. पुं. (सं.) वेगवान् वर्षः, धारा, धाड़, सं. स्त्री. ( सं. धाटी>) लुंठनम्, लुंठिः आसार:-संपात: २. ऋण ३. प्रदे (स्त्री.), लुंठकाक्रमणम् २. विलापः, क्रन्दनं, धार, सं. स्त्री, (सं. धारा) प्रवाहः, ओधः, रोदनम् ३. दल:, गणः। मंदाकः, स्रोतस् (न.), प्रस्रावः, रयः, वेला, -मारना, मु., उच्चैः रुद् ( अ. प. से.), वेगः २. उत्सः, निर्झरः ३. अश्रि, कोटि, आक्रन्द, ( भ्वा. प. से.)। पाली-लि:, अणी-णिः (सब स्त्री.), अग्रम् । धाडस, सं. पुं., . 'ढाढ़स'। ४. दिशा-श् ( स्त्री.) ५. रेखा-षा। धात, सं. स्त्री., दे. 'धातु'। --दार, वि. (हिं.+फ्रा.) तीक्ष्ण, निशित, धाता, सं. पुं. (सं. धात) ब्रह्मन् , चतुर्मुखः, | शितधार । स्रष्ट्र (पुं.), २. विष्णुः (पु.) ३. शिवः। -मारना, मु., मूत्र (चु.), मिह (भ्वा.प.अ.)। वि., पालक २. रक्षक ३. धारक । धारक, सं. पु. (सं.) धारयित, धर्तृ २. माणिन्, धातु, सं. स्त्री. (सं. पुं.) अश्मविकारः (गैरि-। कादि) २. खनिजभेदः (सुवर्णादि) ३. | धारण, सं. पु. (सं, न.) धरणं, ग्रह:-हणं, शरीरधारक-पदार्थाः ( रसरक्तमांसादि) ४. | अवलंबः-बनं, करेण ग्रहण-धरणं २. परिधानं शुक्र, वीर्यम् । सं. पुं. (सं.) भूतं, तत्त्वं | वसनं ३. स्वी-अंगी, करणं ४. पालनं, पोपणं, ( पृथिव्यादि ) २. शब्दमूलं (भू , कृ, आदि), भरणम् । ३. आत्मन ४. परमात्मन् (पु.)। —करना, क्रि. स., दे. 'धारना'। धात्री, सं. स्त्री. (सं.) अंकपाली,-लिका, उपमात- | धारणक, सं. पुं. (सं.) ऋणिन, अधमर्णः । मातृका, धात्रेयो, प्रतिपालिका २. जननी ३. धारणा, सं. स्त्री. (सं.) स्मृतिः-स्मरणशक्तिः पृथिवी। (स्त्री.) २. धारणाशक्तिः, मेधा, धारणावती -विद्या, सं. स्त्री. (सं.) शिशुपालनविद्या धीः ( स्त्री.), ग्रहणसामर्थ्य ३. धारणं, ग्रहणं २. सूतिकर्मन् ( न. ) गर्भमोचनविधा। ४. निश्चयः, निर्णयः, दृढसंकल्पः ४. बुद्धिः धान, सं. पुं. ( सं. धान्यं ) व्रीहिः-शालि:-स्तम्ब- | (स्त्री.) ५. मर्यादा, स्थितिः (स्त्री.) ६. योगांग करिः (पुं.) २. ( पौदा ) कलमः, नीवारः। । विशेषः, ध्येये चित्रास्य स्थिरबंधनं ७. मतिः धाना, सं. स्त्री. [सं. धानाः ( स्त्री. बहु.) (स्त्री.), मतम् । For Private And Personal Use Only Page #353 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir धारना [ ३१५ ] ॥ धारना, क्रि. भ. (सं. धारणं ) धृ ( भ्वा. उ. धी', सं. स्त्री. (सं. दुहित) पुत्री। अ., चु. ), ग्रह (का. प. से.), आदा (जु. धी, सं. स्त्री. (सं.) बुद्धिः-मतिः । स्त्री.), आ. अ.), अवलंब (भ्वा. आ. से.) २. परिधा | प्रज्ञा। (जु. उ. अ.), वस् ( अ. आ. से.), धृ (चु.)| धीमा, वि. (सं. मध्यम ) मंथर, मंद,गति४. अव-उत्-उप-सं-स्तंभ (क्र. प. से.) अव. गामिन्, २. लघु, तीव्रता-उग्रता-चण्डता,लंब-आलं बंदा। शून्य। धारा, सं. रा. (सं.) दे. 'धार' सं. स्त्री. पड़ना, क्रि. अ., न्यूनी भू , हस ( भ्वा. (१-५)। ६. परिच्छेदः, विभागः, अधि- प. से.), क्षि( कर्म.), उप-प्र-शम् (दि.प.से.) । करणम् । धीमान् , वि. (सं.-मत् ) बुद्धिमत्, प्राश ---यंत्र, सं. पुं. (सं. न.) दे. 'फुहारा'। [धीमती (स्त्री.) बुद्धिमती। धारी' सं. स्त्री. (सं. धारा) रेखा, लेखा, रेषा। धीमे धीमे, क्रि. वि., मंद मंद, शनैः शनैः -~-दार, वि. (हि.+फा.) रे(ले)खांकित, सरेख । २. अचंडं, अतीव्र ३. मृदु, यथासुखम् । -~-धारी२, वि. ( .-रिन् ) धरः, धारकः ( उ. | धीर, वि. (सं.) धृतिमत्, शांत, धैर्यान्वित, दंडधरः इ.) -धारिणी ( स्त्री.) || सहन-क्षमा, शील, सहिष्णु, क्षमिन् २. नम्र, धार्मिक, वि. (सं.) दे, "धर्मात्मा'। विनीत ३. गं(ग)भीर, चापल्यशून्य । धावन, सं. पुं. (सं. न.) धोरण, द्रुतगमनं धीरज, सं. पुं. ( सं. धैर्य) . २. शोधन, मार्चनं ३. शोधनसाधनम् । धीरता, सं. पुं. (सं.) . धावा, सं. पुं. (सं. धावनं ) आक्रमणं, अभि. धीवर, सं. पुं. ( सं.) कैवर्तः, जालिकः, मत्स्यद्रवः, अवस्कंदः, आषातः, उपप्लवः । आजीवः-उपजीविन, मात्स्यिकः, दाशः-सः, -करना या मारना या बोलना, क्रि. स., [धीवरी (स्त्री.) कैवतीं। आक्रम् (भ्वा. दि. प. से.), अभिद्रु ( भ्वा. धुंध, सं. स्त्री. ( सं. धूमांधं>) धूम दृष्टिः (स्त्री.) प. अ.), अवस्कंद ( भ्वा. प. अ.)। २. कुज्झटिका, धूमिका, कुहेडिका । धाह, सं. स्त्री. ( अनु.) दे. 'ढाड़' । धुंधका, सं. पु. (हिं. धुध ) धूम-अग्निवाह,धिक, अव्य. ( सं. धिक) (प्रायः द्वितीयः | च्छिद्रं-विवरम् । परन्तु कभी षष्ठी के साथ) निंदा २. निर्भर्त्सना। धुंधला, वि. (हिं. धुध) अस्पष्ट, अव्यक्त, मंद, धिक्कार, सं. पुं. (सं.) न्यक-नि-नी, कारः, द्युति-प्रभ, दुरालोक २. धूम्र, ईषत्कृष्ण, तिरस्कारः, भत्र्सना, गो, निद्रा,परि (रो)वाद:, अधिक्षेपः । -पन, सं. पुं., अस्पष्टता, दुरालोकता, अव्यधिक्कारना, क्रि. स. (सं. धिक्करणं) तिरस्- | क्तता, मंदप्रभता । धिक-कृ, अप-परि-वद् ( भ्वा. प. रो.), (तीव्र) धुआँ, सं. पुं. (सं. धूमः ) अग्नि-मरुद्वाहः, निद् (भ्वा. प. से.), अघि-आ-क्षिप् (तु. | खतमाल:, शिखिध्वजः, तरी । प. अ.)। -कश, सं. पुं. (हिं.+फा.) अग्निपोतः । धिग्दंड, सं. पुं. (सं.) दे. 'धिक्कार' । -धार, वि. धूममय, सधूम २. धूम्र, धूमवर्ण धिषणा, सं. स्त्री. (सं.) बुद्धिः, धीः (दोनों ३. घोर, प्रचंड । क्रि. वि., सवेगं, अत्यधिकं, स्त्री.), प्रज्ञा २. स्तुतिः-नुतिः (स्त्री.) ३. वाणी प्रबलम् । ४. पृथिवी ५. दे. 'प्याली'। धुआँसा, सं. पुं. (हिं. धुआँ ) कज्जलं, मसीधींगा, सं. पु. ( मं. डिंगरः ) दुष्टः, खल: शठः, सिः (स्त्री.)। पापः। धुकधुकी, स. स्त्री. ( अनु. धुकधुक ) हृदय, हृद धींगी, सं. स्त्री., शठता, शाठ्यं, दौष्ट्यं, | (न.), अग्रमांसं २. हृत्, कंपः-स्पंदः २. त्रासः, उपद्रवः ३. बलात्कारः, अन्यायः। . भयं ४. उरोभूषणभेदः । -मुश्ती, सं. स्त्री., कृचेष्टा, उपद्रवः, खलता धुन, सं. स्त्री. (हिं. धुनना) अभिनिवेश:, २. बाहूबाहवि मुष्टीमुष्टि( अन्य.) । दृढाग्रहः, आसक्तिः-अनिवार्यप्रवृत्तिः (स्त्री.) For Private And Personal Use Only Page #354 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir धुनकना [ ३१६ ] धूल उत्कटेच्छा, लालसा २. चिंता, विचारः धूनी, सं. स्त्री. (सं. धूमः > ) धूपः, सुगंधि ३. कामचारः, लहरी | धुन, सं. स्त्री. [ सं . ध्वनि: (पुं. ) ] स्वरः, गानप्रकारः २. रागभेदः । धूमः २. भिक्षुकानल:, तपोनह्निः (पुं.) । - देना, मु., धूप (चु.), धूपं घ्रा (प्रे घ्रापयति ) । - रमाना या लगाना, मु., परित्रज् (भ्वा. प. से. ), भिक्षुको भू २. तपः तप् ( दि. आ. अ. ), तपस्यति ( ना. धा. ) ३. तपोव ज्वल ( प्रे. ) । धुनकना, क्रि. सं., दे. 'धुनना' । धुनकी, सं. स्त्री. [ धनुस् (न.) > ] पिंजनंनी, विननं, तूलस्फोटनकार्मुकं, धुनकरी । धुनना, क्रि. स. (हिं. धुनकी ) ( पिंजनेन ) तूलं शुध (प्रे.)-धु ( स्वा. उ. अ.) २. भृशं तड् ( चु. ) ३. असकृत् कथू ( चु. ) ४. संत तं कृ | धुनि', सं. स्त्री. (सं.) नदी, धुनी । धुनिर, सं. स्त्री. [सं. ध्वनि: ( पुं. ) ] शब्द:, रवः । धुनिया, सं. पुं. (हिं. धुनना > ) पिंजाशोधकः, *पिंजकः, *तूलधावकः । धुरंधर, वि. (सं.) धूर्वह, धुर्य २. भारवाह ३. श्रेष्ठ, प्रधान, प्रकांड, मुख्य । धुर, सं. पुं. [सं. धुर् (स्त्री.) ] अक्षः, ध्रुवः २. भारः ३. आरंभः ४. युग:- गं ( जूआ ) । अव्य., संपूर्णतया, अशेषतया, साकल्येन । धुरपद, सं. पुं. (सं. ध्रुवपदं ) गीतभेदः । धुरा, सं. पुं. [ सं . घुर् (स्त्री.) ] अक्ष:, ध्रुवः । धुरी, सं. स्त्री. (हिं. धुरा ) अक्षकः, ध्रुवकः । धुलवाना, क्रि. प्रे., ब. 'धोना' के प्रे. रूप । धुलाई, सं. स्त्री. (हिं. धुलाना ) धावनं, प्र, क्षालनं २. घावन, प्रक्षालन, भृतिः (स्त्री.) धुवाँ, सं. पुं, दे. ‘धुआँ'। धुवाँरा, सं. पुं. (हिं. धुवाँ ) पटल-छदिधूमच्छिद्रम् | धुस-स्स, सं. पुं. (सं. ध्वंसः > ) मृत्तिका न्वयः, मृद्राशि: (पुं.), क्षुद्रपर्वतः २. वप्रः, चयः । धुस्सा, सं. पुं. ( सं. द्विशाट: > ) प्रावेण्यंणि: (स्त्री.) । धूआँ, सं. पुं., दे. 'धुआँ । धूत', वि. (सं. धूर्त) वंचक, कपटिन्, छलिन्, पाखंड - डिन् । धूत े, वि. (सं.) चालित, कंपित २. त्यक्त, उत्सृष्ट, भत्सित, धिक्कृत । धूता, सं. स्त्री. ( सं . ) पत्नी, भार्या । धूप), सं. स्त्री. (सं. धूप चमकना > ) आतपः, सूर्य, - आलोकः-प्रकाशः । छाँह, सं. स्त्री, वस्त्रभेदः । * धूपच्छाया, द्विवर्णो -- दिखाना, मुः, आतपे प्रसृ ( प्रे.) । — सेंकना, मु., आतपं सेव ( स्वा. आ. से. ) । धूप, सं. पुं. स्त्री. (सं. पुं.) पावनः, यावनः, तुरुष्क: पिंडकः, सिहः, तूणः, मेरुकः, २ . गंधपिशाचिका, धूप, धूपधूमः ३. धूपवत्तिः (स्त्री.) । दान, सं. पुं., } धूपधानं नी, धूपपात्रम् । --दानी, सं.स्त्री. धूम', सं. पुं. (सं.) खतमाल:, शिखिध्वज:, दे. 'धुआँ ' २. वा ( ब ) प :- पम् । -केतु, सं. पुं. (सं.) उल्का, खोल्का २. अग्निः (पुं.)। -पान, सं. पुं. (सं. न. ) तमाखुधूमपानम् । पोत, सं. पुं. ( सं . ) अग्नि- वाष्प, पोतः । धूम, सं. स्त्री. (सं. धूमः > ) ख्यातिः प्रसिद्धिः (स्त्री.) २. कोलाहल:, कलकलः ३. समारोह: आडंबर:, शोभा ४. उपद्रवः, क्षोभः, विप्लवः । -धाम, सं. स्त्री, आडंबरः, शोभा, श्रीः (स्त्री.) बृहदायोजनं, वैभवम् । धूमर, धूमला, धूमिल, वि. ( सं . धूमल ) धूम्र, धूम्रवर्ण, कृष्णलोहित । धूर-रि, सं. स्त्री. दे. 'धूल' । धूर्त, वि. (सं.) वंचक, मायिन्, कपटिन्, कापटिक, विप्रलंभक, वंचनशील, प्रतारक | सं. पुं., द्यूतकृत् (पुं. ) अक्षरेविन्, कितव: २. वंचकः, प्रतारकः, इ. । धूर्तता, सं. स्त्री. (सं.) वंचकता, माया, प्रतारणा, कपट, कैतवम् । धूल, सं. स्त्री. [ सं . धूलि : ( पुं. स्त्री. ) ] धूली, रजस् (न.), पांसुः शु: ( पुं.), रेणुः, क्षितिकणः, महीद्रवः, वात-नभः, केतु: (पुं.), चूर्णं, क्षोदः २. तुच्छवस्तु ( न. ) । For Private And Personal Use Only Page #355 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [ ३१७ ] धौंस -झाड़ना, क्रि. स., धूलिं-ली धु (स्वा. उ. अ.)। |-देना, मु., प्रत (प्रे.) वंच-छल (चु.), -उड़ना, मु., ( स्थान की ) ध्वंस् (भ्वा. | अति-अभि-संधा (जु. उ. अ.), मुह-(प्रे.)। आ. से.) धूलीसात् भू। ( मनुष्य को) निंद्.| -धोखे की टट्टी, मु., मोहजनक-मायामय,अधिक्षिप् दृष् ( कर्म.)। वस्तु ( न.)। -उड़ाना, मु., दुघ (प्रे. दृषयति ) अधिक्षिप | धोखेबाज़, वि., (हि.+फा) कापटिक, छामिक, (तु. प. अ.) २. उपहस् (भ्वा. प. से.)। मायाविन्। -चाटना, मु., पादयोः पतित्वा याच ( भ्वा. | धाखेबाज़ी, सं. स्त्री. (हि. धोखेबाज ) कापटिआ. से.)-अभ्यर्थ (चु. आ. से.)। कता, कपट, छामिकता । ---छानना, मु., मोघं भ्रम् ( भ्वा. प. से.)। धोती, सं. स्त्री.। (सं. धौत>) शाटिका, --में मिलना, मु., धूलीसात् भू , नश (दि. धौतांबरं, *धौता। प.वे.)। -ढीली होना, मु., भयात् पलाय् (भ्वा. ----समझना, मु., तृण-तृणाय मन् (दि, आ. आ. से.)। अ.) अवगण (चु.)। धोना, क्रि. स. ( सं. धावन ) धाव (भ्वा. प. धूलि, सं. स्त्री. (सं. पुं. स्त्री.) दे. 'धूल'। से.), प्र, क्षल (चु.), निर्-निज् (जु.उ.अ.), धूसर, वि. ( सं.) आ-ईपत्, पांडु, पांसु-धूलि, प्रमृज् (अ. प. वे.) २. दूरी कृ, अपस (प्रे.)। वर्ण २. पांसु (शु ) ल, धूलिधूसर, रेणु,- सं. पुं., धावन, प्र.,क्षालनं, निणेकः, मार्जनम् । दृषित-रूक्ष । धोने योग्य, वि., धावनीय, प्रक्षालयितव्य, धूसरित, वि. (सं.) दे. 'धूसर'। निर्णेक्तव्य। धूहा, सं. पुं. (हिं. हूह ) खगविभीषिका। । धोनेवाला, सं. पुं., धावकः, प्र.,क्षालकः, कृत, वि. (सं.) धारित, अवलंबित, २. आदत्त, | क्षारकः । गृहीत ३. स्थिरीकृत, निश्चित । धोबिन, सं. स्त्री. (हिं. धोबो) रजकी-का वृतराष्ट्र, सं. पुं. (सं.) दुर्योधनजनकः, नृप- २. रजकपत्नी, धावकभायों। विशेषः। धोबी, सं. पुं. (हिं.धोना) धावकः, रजकः, धति, सं. स्त्री. (सं.) दे. 'धैर्य । निर्णेजकः, क्षारकः, रजोहरः । .वि (निलजयिात प्रगलमोदी -घाट, सं. पुं. धावकघट्टः । पृष्टता, सं. स्त्री. (सं.) प्रागल्भ्यं, वैयात्यं, | -का कुत्ता, मु. अकिंचित्करः, गुण-सार-हीनः दे. 'ढिठाई। (जनः)। धेनु, सं. स्त्री. ( सं.) नवम् (प्रसू)तिका (गौः) -का छैला, मु., परपदार्थ, परवस्तु, दृप्त२. गौः (स्त्री.), दे। । गर्वित। घेला, सं. पुं. दे. 'अधेला'। धोया हुआ, वि. धौत, धावित, मार्जित, धेली, सं. स्त्री., दे. 'अधेली'। प्रक्षालित, निर्णिक्त, इ.। धैर्य, सं. पं. ( सं. न.) धीरत्वं. धीरता, धृतिः | धोवन, सं. स्त्री. (हिं. धोना) धावनं, प्र-,क्षालनं (स्त्री.), मनःस्थैर्य, सत्त्वं, द्रढिमन् (पं.), २. धावनावशिष्टं जलम् । दृढ़ता, क्षोभराहित्यम । धौंकना, क्रि. स. ( सं. मा> ) भस्त्रया ध्मा धैवत, सं. पुं. (सं.) षष्ठः स्वरः (संगीत)। (भ्वा. प. अ., धमति), दृत्या वह्नि-प्रज्वल(प्रे.)। धोखा-का, सं. पुं. (सं. धुकं ) छल, कपट, | धौंकनी, सं. स्त्री. (हिं. धौंकना) भस्त्रा, धूकता, प्रतारणा, वंचना, २. मोहः, भ्रमः, भस्त्री, भस्त्रिका, दृतिः ( स्त्री.) चर्म, प्रसेविकाभ्रांतिः (त्री.) असत्-मिथ्या, प्रतीति:-( स्त्री.)/ प्रसेवकः। ३. माया, इंद्रजालं, विवर्तः ४. अज्ञानं, अबोधः धौंस, सं. स्त्री. ( सं. ध्वंस > ) तर्जना, बिभी५. संशयः, संदेहः ६. प्रमादः, त्रुटि: ( स्त्री.)। षिका, भयदर्शनं २. प्रभुत्वं, अधिकारः ३. छलं, ----खाना, म., वंच-विप्रलभ-अभिसंधा-प्रतार् | कपटम् । |-पट्टी, सं. स्त्री. मिथ्याऽऽशा, मिथ्या सांत्वना । For Private And Personal Use Only Page #356 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir धौसा [ ३१८ ] नंगे पाँव धौंसा, सं. पु. ( अनु. ) दे. 'डका' । | -रखना, मु., न विस्मृ (भ्वा.प.अ.) मनसि कृ। धौ सिया', सं. पुं. ( हिं धौंसा ) डिंडिम-ढक्का-, । -लगाना, मु. नि-ध्ये (भ्वा. प. अ.), समाधा वादकः ताडकः । (जु. उ. अ.), विचित् (चु.)। धौसिया, सं. पुं. (हिं. धौंस ) भयदर्शक, -से उतरना, भु., विस्मृ ( कर्म.)। बिभीषक २. वंचकः, कपटिन् । ध्यानस्थ, वि. (सं.) ध्यान-चितन-विचार, मग्न-लीन । धौत, वि. ( सं.) दे. 'धोया हुआ' २. स्वच्छ ध्यानी, वि. ( सं.-निन् ) ध्यान-चितन, शील. ३. स्नात। परायण-पर, विचारवत् । धोति-तो. सं. स्त्री. (सं.) यौगिक क्रियाभेदः। ध्येय, वि. (सं.) ध्यातव्य. जितनीय। सं.पं. धौरा-ला, वि. ( सं. धवल) श्वेत, शुक्ल, (सं. न.) लक्ष्य, लक्षं, उद्देशः-श्यम् । सित । सं. पुं. धवलः, ऋषभवरः। ध्रुपद, सं. पुं., दे. 'धुरपद' । धौरेय, वि. (सं.) भार, वाहक-वाहिन् । सं. ध्रुव, वि. (सं.) अचल, अविचल, निश्चल, पुं. (सं.) शकटवाहकवृषः २. अश्वः ३. मुख्यः , । स्थिर २. नित्य, निविकार, अव्यय ३. निश्चित, नायकः। नियत, असंदिग्ध । सं. पुं. (सं.) ध्रुवतारा, धौल, सं. स्त्री. ( अनु.) चपेटः-टिका, करतला- | नक्षत्रनेमिः (पुं.), उत्तानपादनः, ज्योतीरथः । घातः २. क्षतिः-हानिः ( स्त्री.)। ध्वंस, सं. पुं. (सं.) प्र-वि,-ध्वंसः, वि, नाशः, -~धप्पा, सं. पुं., मुष्टीमुष्टि-बाहूबाहवि (न.)। अवसादः उच्छेदः, क्षयः, निपातः, संहारः। ध्यान, सं. पुं. ( सं. न.) ऐकाग्रयं, समाधिः ध्वजा, सं. स्त्री. ( सं. ध्वजः ) पताका, वैजयंती, (पु.), अन्तर्ध्यान, चित्तस्थैर्य २. स्मृतिः (स्त्री.), केतुः (पु.) केतनम् । धारणा ३. धी:-बुद्धिः (स्त्री.) ४. अवधानं, | ध्वजी, सं. पुं. ( सं.-जिन् ) पताकिन्, ध्वज,मनोयोगः ५. चित्तं, मनस (न.) ६. चिता, वाहकः-धारिन् । मननं ७. भावना, मतिः ( स्त्री.) ८. मानसं | ध्वनि, सं. स्त्री. ( सं. पुं.) नि-,नादः, शब्दः, प्रत्यक्षम् । र(रा)वः, स्वरः, घोषः, ध्वानः, निस्-, स्व(स्वा) -आना, मु., स्मृ ( भ्वा. प. अ.), अनुचित् | नः, निहादः २. शब्दस्फोट: ३. व्यंग्यार्थ(चु.)। प्रधानं काव्यं ४. गूढार्थः, गुप्ताशयः । -दिलाना, मु., अनु-स्मृ (प्रे.)। ध्वनित, वि. (सं.) स्वनित, क्वणित, नदित, -देना, मु., अवधा (जु. उ. अ.), मनः । शब्दित, रसित २. भंग्या सूचित, धोतित, युज (चु.)। उपलक्षित, व्यजित, विवक्षित ३. वादित । -बटाना, मु., चित्तं-ध्यानं अपकृष् ( भ्वा. ध्वस्त, वि. (सं.) प्र-वि,-ध्वस्त, वि,-नष्ट, अव.. प. अ.)। सन्न, उच्छिन्न, क्षीण, निपतित, खण्डित, भग्न --में न लाना, मु., अवगण-अवधीर (चु.)। २. पराजित । -में मग्न होना या डूबना,मु.,विचार-ध्यान, ध्वांक्ष, सं. पुं. (सं.) काकः । मग्न (वि.) स्था ( भ्वा. प. अ.)। वान, सं. पुं. (सं.) शब्दः, दे . 'ध्वनि'। न, देवनागरीवर्णमालाया विंशो व्यञ्जनवर्णः, बासस् , दिग ,-अम्बर वान] २. अनावृत, आनकारः। वरण-आच्छादन, रहिन ३. निम्!, नि । नंग, सं. पुं. (हिं. नंगा ), नग्नता-त्वं, दिगम्ब- करना, क्रि. स., नग्नी विवम्त्री-निर्वमनी कृ। रता-त्वं २. गुह्याङ्ग, गुह्यम् । --बुच्चा या बूचा, वि., दरिद्र, अम्चिन। -धडङ्ग, वि. दे. नंगा' (१)। - मादरज़ाद, वि. (फा.) दिगंबर, दिग्वसन । -मुनंगा, वि. ) -लुच्चा, वि., दुष्ट, ख, दुर्वृत्त । नंगा, वि. ( सं. नग्न ) अ-निर्-वि, वस्त्र-वसन- | नंगे पाँव, वि., नग्नपाद, पादहीन । For Private And Personal Use Only Page #357 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir नंगे सिर [३१] नकेल नंगे सिर, वि., नग्नशिररक, निरुष्णीष । नक, सं. स्त्री., ( सं. नक्रा ) नासा, नासिका । नंद', सं. पु. (सं.) आनन्दः, मोदः २. पुत्रः -कटा, वि., छिन्न,-नास-नासिक २. विख्य, ३. श्रीकृष्णस्य धर्मतातः-प्रतिपालकः ४. मगधे- | विग्र, अ-वि-गत, नासिक ३. निर्लज्ज, अपत्रप। श्वरविशेषः। -कटी, सं. स्त्री., नासाछेदः २. अवमानना, --किशोर, कुमार, नन्दन, सं. पुं. (सं.) श्री-| मानहानिः ( स्त्री.)। कृष्णः, वासुदेवः। -घिसनी, सं. स्त्री., भूमौ नासिकाधर्षणं नंद, सं. स्त्री., दे. 'ननद' । २. दैन्यातिशयः। नंदक, वि. (सं.) हर्ष,-प्रद-जनक, आनन्द- |-चढा, वि., दुष्प्रकृति, कु-दः, शील । दायक । सं. पुं., श्रीकृष्णखड्गः । -छिकनी, सं. स्त्री., छिक्कनी, छिक्किका, उग्रा, नंदन, सं. पुं. (सं. न.) 'इंद्र वनम्' । सं. पुं., | तिक्ता। पुत्रः २. मेधः । वि., हर्षक, मोदक। -फूल, सं. पुं., लवंग, घ्राण-भूषणभेदः। -वन, सं. पुं. ( सं. न.) शक्रोद्यानम् । -बेसर, सं. पुं., नाथकः । नंदना, सं. स्त्री. (सं.) पुत्री, तनया। | नकद, सं. पुं. (अ.) टंक:-कं, नाणकं, मुद्रा, नंदनी, सं. स्त्री., दे. 'नंदिनी'। मुद्राथनम् । वि., प्रस्तुत ( धनादि )। नंदि, सं. पुं. (सं.) आनन्दः, हर्षः २. शिव- | नकदी, सं. स्त्री., दे. नकद' सं. पुं.। दौवारिकः, वृषभः, नन्दिकेश्वरः। नकपुड़ी, सं. स्त्री., दे. 'नथना'। नंदिकेश्वर, सं. पुं. (सं.) नन्दिकेशः, शिव नकब, सं. स्त्री. (अ.) दे. 'सेंध' । वृपः २. शिवः ३. उपपुराणविशेषः। नक़ल, सं. स्त्री. (अ.) अनु-प्रति, लिपिः (स्त्री.)नंदिनी, सं. स्त्री. (सं.) पुत्री, दुहित (स्त्री.), लेखः २. अनुकृतिः-अनुवृत्तिः (स्त्री.)३. अनु.. तनया २. ननांदृ-ननंद (स्त्री.) ३. पत्नी, भार्या | करणं-सरणं ३. सोपहासं अनुकरणं-विडंबनम् । ४. दुर्गा। नंदी, सं. पुं. (सं. नन्दिन् ) शिवगणभेदः -करना, क्रि. स., अनु-प्रति, लिपि कृ या लिख (तु. प. से. ) २. अनुकृ ३. विडंब (चु.)। २, शिवद्वारपाल: वृषभः । -ईश्वर, सं. पं. (सं.) शिवः । -नवीस, सं.पुं.(अ.+फा.) अनु-प्रति,-लेखकः, नंदोई, नंदोसी, सं. पुं. (हिं. नन्द ) ननांदृ. | प्रतिलिपिक( का )रः। पतिः, कौतूलः। नकली, वि. (अ.) कृतक, कृत्रिम २. कापटिक, नंबर, सं. पुं. ( अं.) संख्या, गणना, अंकः छाभिक, कपट-, कूट-, छद्म । २. चिह्न, लांडनं ३. पर्यायः, परिवृत्तिः (स्त्री.) | नकसीर, सं. स्त्री. (हि. नक+सं.क्षीर जल ) वारः। नासारक्तस्रावः । -दार, सं. पुं. (अं.+फा.) भूकरोग्राहकः। -फूटना, किं. अ., नासाया रक्तं स ( भ्वा. -वार, क्रि. वि. ( अं.+का.) यथाक्रम, प. अ.)। क्रमशः, एवैकश: ( सब अन्य.) पर्यायेण- नक़ाब, सं. स्त्री. पुं. (अ.) वर्णकः, वर्णिका क्रमेण (तृ.)। २. अवगुंठनं, आवरकः कम् । नंबरिंग मशीन, सं. स्त्री. ( अं.) अंकनयंत्रम्।। -पोश, वि., वर्णिकाच्छादितः, अवगुंठनवत् । नंबरी, वि. ( अं. नंबर ) अंकित, अंकयुत, सांक | नकार, सं. पुं. (सं.) निषेधकवाक्यं २. प्रत्या२. विख्यात, विश्रुत । ख्यानं, नि-प्रति,-पेधः ३. 'न' इत्यक्षरम् । -सेर, सं. पुं., आंग्ली ,-सेटक-रोरः । नकारना, क्रि. अ. ( सं. नकार:>) प्रति-नि, न, अन्य. (सं.) न, नहि, नो २. (मत) मा, | णिध ( भ्वा. प. वे.)। मा मा, अलं ( तृतीया अथवा क्त्वा (या ल्यप) नकीब, सं. पुं. (अ.) चारणः, वन्दिन । के योग में)। नकुल, सं. पुं. (सं.) सारिः, बभ्रुः २. पांडु-न, मा मैवं, मा तावत् । राजस्य चतुर्थपुत्रः ३. पुत्रः । न'न, न च "नवा, न 'न वा, न च.""न | नकेल, सं. स्त्री. (हिं. नाक) नासिकारज्जुः च, न 'न ( उ. न रामो गतो न वा कृष्णः)। (स्त्री.)। For Private And Personal Use Only Page #358 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir नकारखाना [ ३२० ] नग्नता नक्कारखाना, सं. पुं. (फ़ा.) डिंडिंमालयः, | -शिख से, मु., आपादशीर्ष, पूर्णतया, सामदुंदुभिगृहम्। स्त्ये न । -नक्कारखाने में तूती की आवाज़, मु., | नखरा, सं. पुं. (फ़ा.) विभ्रमः, विलासः, लीला अरण्यरुदितम् । हावः, २. चापल्यं ३. व्याजः, कपटम् । नक्कारची, सं. पुं. (फ़ा.) दुंदुभिवादकः, पटह- | नख़रेबाज़, वि., ( फ़ा.) सविभ्रम, लीला ताडकः । (स्त्री. लीलावती, विलासिनी)। नकारा, सं. पुं. (फ्रा.) आनकः, डिंडिमः, नखरेबाज़ी, सं. स्त्री. (फा.) ललिताभिन .. दुंदुभिः ( पुं.), पटहः, भेरी। लीला। नकाल, सं. पुं. (अ.) अनुकारिन्, विडम्बनकरः, --करना या बघारना, क्रि. स., विलम् (भ्वा. विडबकः २. भंड:, विदूषकः,वैहासिकः ३. नटः, प. से.), ललिताभिनयं कृ २. कपट-लं. कुशीलवः, रंगाजीवः । व्याज कृ। नक्काश, सं. पुं. (अ.) उत्कारकः । | नखी, सं. पु. (सं. नखिन्) सिंहः २. चित्रकः। नक्काशी, सं. स्त्री. (अ.) उत्किरणम् । वि., सनख, नखवत् । नक्की, सं. स्त्री. ( सं. नका) अक्षे क्रीडापत्रे वा | नग, सं. पुं. (सं.) पर्वतः, गिरिः (पु.) एकबिन्दुचिह्नम् । २. वृक्षः ३. 'सप्तन्' इति संख्या ४. सर्पः -दुआ, सं. पुं., अक्षक्रीडाभेदः। ५. सूर्यः । वि., अचल, स्थिर । -मूठ, सं. स्त्री., यूतभेदः। --पति, सं. पु. (सं.) शिवः २. हिमालयः। नक्क, वि. (हिं. नाक ) कुख्यातिमत्, कुप्रसिद्ध, नगर, सं. पु., (फा. नगीनह ) दे. 'नगीना' दुर्नामन् । २. संख्या। नक्तंचर, सं. पुं. (सं.) राक्षसः, निशाचरः | "" नगण, सं. पुं. (सं.) त्रिलघुगणः, छन्दः-शास्त्रे २. उलूकः, घूकः ३. चौरः, स्तेनः ।। गणभेदः ( उ० नमन, चलन इ० )। नक्तंदिन, अव्य. ( सं. नक्तदिनम् ) नक्तंदिवं, अहोरात्रं, अहनिशम् । दिवारात्रम् (सब अन्य.)| नगण्य, वि. ( सं. अगण्य ) क्षुद्र, तुच्छ, साधा रण, सामान्य। नक्त, सं. पुं. (सं. न.) रात्री-त्रिः ( स्त्री.), निशा। नगद, सं. पुं., दे. 'नकद'। नक्र, सं. पुं. (सं.) दे. 'मगरमच्छम्'। नगनी, सं. स्त्री. (सं. नग्निका) नग्ना, निर्वस्त्रा, | विवस्त्रा २. अपुष्पा, रजोरहिता कन्या नक्श, सं. पुं. (अ.) आलेख्यं, चित्रं, प्रतिकृति: । व | ३. निर्लज्जा, स्वैरिणी। (स्त्री.) २. मुद्रा, अंकः, चिह्न ३. लक्षणं, आकृतिः ( स्त्री.)। नग़मा, सं. पुं. (अ.) सु-मधुर,स्वर:-स्वनः -करना, क्रि. स., अंक-मुद्र-चिह्न (चु.) २. गीतं, गीतिका ३. रागः । २. निविश (प्रे.), न्यस (दि. प. से.)। | नगर, सं. पु. ( सं. न.) पुर् ( स्त्री.), पुरं, नक्शा , सं. पुं. (अ.) मान-प्रदेश, चित्रं, देशा पुरी, नगरी, पत्तनं, पट्टनं-नी, पढें, निगमः । लेख्यं २. आदर्शः, प्रति,-मानं-रूपं ३. रूप-|-कीर्तन, सं. पुं. ( सं. न.) यात्रासंगानम् । रेखालेख्यम्। -नारी, सं. स्त्री. (सं.) नगरनायिका, वेश्या। नक्षत्र, सं. पुं. (सं. न.) तारा, तारका, उडुः |-वासी, सं. पुं. ( सं.-सिन्) पौरः, पौर, जन:(पु.) २. राशि: (पू.), राशिनक्षत्रं ३. भगणः,| लोकः। तारासमूहः। नगरी, सं. स्त्री. (सं.) दे. 'नगर'। -नाथ, पति,-राज, सं. पुं. (सं.) चंद्रः। | नगाड़ा,-रा, सं. पुं. दे. 'नक्कारा' । नख, सं. पुं. (सं. पुं. न. ) दे. 'नाखून'। | नगीना, सं. पुं. (फा.) रत्नं, मणिः (प.) *-शिख, सं. पुं. (सं. न. ) सर्वाणि अंगानि, | २. देशीयवस्त्रभेदः। सर्वावयवाः, गात्राणि (सब बहु.) २. सर्वां- | नग्न, वि. ( सं.) दे. 'नंगा'। गवर्णनम् । | नग्नता, सं. स्त्री. (सं.) दे. 'नंग'। For Private And Personal Use Only Page #359 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir नचवाना, नचाना २१ [३२] ननंद, ननद-दी नचवाना, नचाना, क्रि. प्रे., ब. 'नाचना' के । -वर, सं. पुं. (सं.) श्रीकृष्णः । प्रे.रूप। नटखट, वि. (सं. नटः+अनु. खट) चपल, नज़दीक, वि. (फ़ा.) सन्निहित, समीप, निकट। चंचल, कुचेष्टक २. धूर्त, मायाविन् । ज़दीकी, सं. स्त्री. (फ़ा.) सान्निध्य, सामीप्य । नटखटी, सं. स्त्री. (हिं. नटखट ) चपलता जम, सं. स्त्री. (अ. नज्म) कविता, पद्यं, २. धूर्तता। छंदस ( न.)। नटनी, सं. स्त्री., दे. 'नटी'। जर, सं. स्त्री. ( अ.) दृश , दृकशक्तिः, दृष्टिः | नटी, सं. स्त्री. (सं.) शैलूषिकी, अभिनेत्री, (सब स्त्री.) २. दयादृष्टिः (स्त्री.) परि, सर्ववेशिनी २. नर्तकी ३. नटपत्नी ४. वेश्या अवेक्षणं, अवेक्षा ३. निरीक्षणं ४. दे. 'नज़राना' ५. नटजातेारी। ५. कु-दुर् ,-दृष्टिः । | नतीजा, सं. पुं. (अ.) परिणामः, फलं २. अर्थः, ----अंदाज, वि. (अ.+फा.) अवधीरित, पाकः । निराकृत, उपेक्षित। नत्थी, सं. स्त्री. (हिं. नाथना) नहनं, संग्रंथन --आना या पड़ना, क्रि. अ., दृश-ईक्ष-अव- २. नहनसूत्रं ३. लेख्यश्रेणी। लोक ( कर्म.)। नथ, सं. स्त्री. (सं. नाथः = नाक की रस्सी) -डालना, क्रि. स.,दृश् ( भ्वा. प. अ.), ईक्ष् । नाथः, नासावलयः। (भ्वा. आ.से.)। नथना, सं. पुं. (सं. नस्तः = नाक )। नासा-बंद, वि. (अ.+फा ) निरुद्ध । नासिका,-छिद्र-रंध्र-विवरं २. नासापुट:-पुटम् । -बंदी, सं. स्त्री. (अ.+फा.) (निश्चितस्थाने)। क्रि. अ., व्यध-छिद् ( कर्म.) २. संग्रंथ-संन निरोधः। (कर्म.)। -बाज़, सं. पुं. (अ.+फा.) कटाक्षवीक्षकः, | -चढ़ाना या फुलाना, मु., क्रुध (दि.प.अ.)। भ्रविलासकः, पापदृष्टिः। नथनी, सं. स्त्री. (हिं. नथ ) *नाथकः । -सानी, सं. स्त्री. (अ.) पुनरीक्षण, संशोधनम्। नद, सं. पुं. (सं.) उद्यः, भिद्यः, सरस्वत् (पुं.)। -लगना, मु., कुदृष्टया पीट् ( कर्म.)। -राज, सं. पुं. (सं.) समुद्रः । -से गिरना, मु., अप-अव-मन् (प्रे.), कलंक- | नदारद, वि. ( फा.) अनुपस्थित, लुप्त,अदृष्ट । यति (ना.धा.)। नदीश, सं. पुं. (सं.) समुद्रः, अब्धिः (पुं.)। नज़राना, सं. पुं. (अ.) उपहारः, उपायनम् । नदिया, सं.स्त्री. (सं. नदिका) क्षुद्र,-सरित्-नदी। नज़ला, सं. पुं. (अ.) कफः, श्लेष्मन् (पुं.)। नदी, सं.स्त्री. (सं.) तटिनी, तरंगिणी, शैवलिनी, २. अभिष्यंदः, प्रतिश्यायः, नासानावः ।। स्रोतस्विनी, वाहिनी, सरित् (स्त्री.) ह्र (हा) नज़ाकत, सं. स्त्री.(फा) लालित्यं, सुकुमारता, दिनी, धुनी, निम्नगा, आ(अ) पगा, सिंधुः कोमलता। (पुं.), रोधो, स्रोतस-वती, कुलवती, लवंती। नज़ात, सं. स्त्री. (अ.) मुक्तिः (स्त्री.), अपवर्गः। -कांत, सं. पुं. (सं.) सागरः, जलधिः (पुं.)। नज़ारा, सं. पुं. (अ.) दृश्य, दृग्गोचरस्थानं -तीर, सं. पुं. (सं. न.) सरित-नदी,-कुलं२. दृष्टिः (स्त्री.) ३. कटाक्षः। तटम् । नज़ीर, सं. स्त्री. ( अ.) उदाहरणं, दृष्टांतः। । नदीन, सं. पुं. (सं.) समुद्रः, सागरः २. मजूम, सं. पुं. (अ.) ज्योतिष, नक्षत्रविद्या। वरुणः। नजूमी, सं. पुं. (अ.) ज्योतिषिकः, ज्योति-नदीश, सं. पुं. (सं.) अब्धिः -जलधिः (पं.)। विद् (पुं.)। नद्ध, वि. (सं.) बद्ध, योजित, संश्लेषित । नजूल, पुं. (अ.) राज-नृप-शासक, भूमिः नद्धी , सं. स्त्री. (सं.) चम, रज्जुः (स्त्री.)(स्त्री.)। कक्ष्या । नट, सं. पुं. (सं.) शैलूषः, जायाजीवः, भरतः, | नधना, क्रि. अ. ( सं. नद्ध) नि-, बंध (कर्म) अभिनेतृ, भरतपुत्रकः, रंग, जीवः-अवतारकः, संयुज (कर्म.) २. दे. 'जुतना' ३. प्रारभ सर्ववेशिन्, नंडः, नमः २. रज्जुनर्तकः (कर्म.)। ३. व्यायामिन् ४. जातिविशेषः। | ननंद, ननद-दी, सं. स्त्री. [सं. ननंदु (स्त्री.)]। For Private And Personal Use Only Page #360 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ननिहाल [ ३२२ ] नया ननांदृ ( स्त्री.), भर्तृभगिनी, नंदिनी, नंदा, | -खाना,मु., परपिंडं भुज् (रु. आ. अ.), पतिस्वसृ (स्त्री.)। पराश्रयं सेव ( भ्वा. आ. से.)। ननिहाल, सं. पुं. (हिं. नानी+सं. आलयः) -मिर्च लगाना, मु., अत्युक्त्या वर्ण (चु.)। मातामहालयः, मातृकुलम् ।। कटे पर-लगाना अथवा घाव पर-छिड़कना, नन्हा, वि. ( सं. न्यञ्चv ) अतिलघु, क्षुद्र, मु. क्षते क्षारं क्षिप् ( तु. प. अ.)। . अल्प-क्षुद्र,तनु, प्रतनु । सं. पुं., शिशुः, स्तनं- नमकीन, वि. ( फ़ा.) लवण, लवण-झार,-युक्तधयः। मय-गुणविशिष्ट-धर्मक २. लवणित, सलवण, नपुंसक, सं. पुं. (सं.) क्लीबः, तृतीय-प्रकृतिः | लवणसंसृष्ट ३. अभिराम, मनोज्ञ । सं. पुं., ( पुं.), पडः, पोगंडः, शं ( षं) ड:-ढः ( सं. | लवणपक्वान्नं ( समोसा आदि)। न.), क्लीबलिंगं (व्या.)। वि., भीरु, कातर। | नमदा, सं. पुं. (फा.) नमतम् । नपुंसकता, सं. स्त्री. (सं.) क्लीबता, पंडता, नमन, सं. पु. ( सं. न.) नमस्कारः, प्रणतिः शंढता २. भीरुता, कातरता । (स्त्री.) २. अवगमनं, नतिः ( स्त्री.)। नफ़रत, सं. स्त्री. (अ.) दे. 'घृणा' । नमनीय, वि. (सं.) पूज्य, वन्दनीय । नफा, स. पु. (अ.) लाभः, आयः, उदयः, | नमस्कार, सं. पुं. (सं.) दे. 'नमः' । फलं, वृद्धिः (स्त्री.)। नमस्ते, वाक्य, (सं.) नमस्तुभ्यं, नमामि नफीस, वि. (अ.) उत्कृष्ट, उत्तम, विशिष्ट | त्वाम् । सं. स्त्री., प्रणामः, प्रणतिः (स्त्री.), २. चारु, शोभन, सुंदर ३. उज्ज्वल, विमल । नमस्कारः। नबी, सं. पुं. (अ.) सिद्धः, ईशदूतः, भाविकथकः। | नमाज़, सं. स्त्री. (फा.) ईश, प्रार्थना-वन्दना नबेड़ना, क्रि. स., (सं.निवृत्त>) दे. (इस्लाम ) । 'निपटाना'। नमित, वि. (सं.) आभुग्न, नामित, प्रवण, प्रह। नबेड़ा, सं. पुं. (हिं. नबेड़ना) न्यायः, निर्णयः। नमी, सं. स्त्री. (फा ) आर्द्रता, क्लिन्नता। नब्ज़, सं. स्त्री. ( अ.) नाडी-डिः (स्त्री.)। नमृदार, वि० ( फ़ा.) उदित, प्रकट, दृग्गोचर । -देखना,कि.सं.,नाडिं-डीपरीक्ष (भ्वा.आ.से.)। नमूना, सं. पुं. (फा.) आदर्शः, प्रतिमा, प्रतिनभ, सं. पुं. [सं. नभस् (न.)] दे. 'आकाश' ।। रूपं २. उपमानं, प्रतिमानम् । -चर, सं. पुं. (सं. नभश्वरः) खगः, खेचरः। | नम्र, वि. (सं.) निर ,-अभिमान-अहंकार, नमः, अव्य. (सं.) प्रगतिः ( स्त्री.), प्रणामः, विनत, विनीत, विनयिन्, विनयशील, अभि अभिवादः-दनं, नमस्कारः, नमस्क्रिया। मान-गर्व-दर्प,-रहित-शून्य-हीन, नम्रचेतस् २. नम, वि. (फा.) आर्द्र, उन्न । नत, प्रवण। नमक, सं. पुं. (फ़ा.) लवणं २. लावण्यं, | नम्रता, सं. स्त्री. (सं.) प्रश्रयः-यणं, विनयः, विशिष्ट-सौन्दर्य ३. पिंडः। (नमक के भेद, | विनयिता, निरभिमानता, सौम्यता। दे. 'नोन')। | नय, सं. पुं. (सं.) नायः, नीतिः ( स्त्री.)। - ख्वार, सं. पुं. (फ्रा.) पराश्रितः, परायत्तः, -नागर, वि. (सं.) नय-नीति, निपुण-कोविदशसेवकः। विद्-विशारद-शील । -दान, सं. पुं (फा.) लवणधानं-नी। नयन, सं. पुं. ( सं. न.) नेत्रं, दे. 'आँख' २. -का तेज़ाब,सं.पं., उदनीरिकाम्लः,लवणाम्ल: । अपनयनं, अपवह्नम् । -हराम, वि. (फा.अ.) कृतज्ञताशून्य, | -गोचर, वि. (सं.) दृग्गोचर, दृष्टिगोचर। अकृतवेदिन्, कृतम्न, ( नी स्त्री.)। -च्छद, सं. पुं. (सं.) नेत्र-नयन-च्छदः-~~हरामी, सं. स्त्री., अकृतज्ञता, कृतघ्नता ।। पटः। -हलाल, वि. (फा.+अ.) अनुरक्त, भक्त, -जल, सं. पुं. (न.) नयन,-वारि (न.)सानुराग। सलिलं-जलम् । . -हलाली, सं. स्त्री., भक्तिः-अनुरक्तिः (स्त्री.) नया, वि. ( सं. नव ) अधुनातन-इदानींतन कृतज्ञता। | [-नी (स्त्री.)], आधुनिक [-की ( स्त्री.)], For Private And Personal Use Only Page #361 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir नये सिरे से [ ३२३ ] नव अर्वाचीन २. अभिनव, नवीन, नूतन, प्रत्यग्र कारिन् २. दे. 'नट' (१) ३. वंदिन, वैतालिकः ३. अभूत-अदृष्ट,-पूर्व४. अनभ्यस्त, अपरिचित। ४. दे. 'नरकट' । --पन, सं. पुं., नवीनता, नूतनता, अपूर्वता। नर्तकी, सं. स्त्री. (सं.) लयपुत्री, नृत्य,करी. नये सिरे से, क्रि. वि., पुनः, पुनरपि, अभि- कारिणी, लासिका २. दे. 'नटी' (१)। नवम् । नर्तन, सं. पुं. (सं. न.) नृत्यम् । ( पुरुषों नर, सं. पुं. (सं.) पु ( पूरुषः, नृ-पुंस (पुं.), का-) ताण्डवः-वम् । ( स्त्रियों का-) लास्यम् । २. मनुजः, मनुष्यः, मानुषः, मानवः, मर्त्यः। नर्बदा, सं. स्त्री. (सं. नर्मदा ) रेवा, मेकलवि., जातीय, नर-, पुं., पुरुष-(उ., पुंव्याघ्रः)। कन्या, सोमसुता। -देव, सं. पुं. ( सं.) नृपः २. ब्राह्मणः। नर्म, सं. पुं. [ सं. नर्मन् (न.)] परि(री)-नाथ, सं. पु. (सं.) नरपतिः , भूपः। | हासः, विनोदः। -नारायण, नं. पुं. [सं.-णौ (हि.)] ऋषि- नर्म, वि. (का.) ( स्वभाव ) कोमल, मृदुल, विशेषौ। सुकुमार, सौम्य, २. ( पदार्थ ) मसूण, स्निग्ध, -पिशाच, सं.पुं.(सं) महादुष्टः, महाक्रूरः।। इलक्ष्ण, सुखस्पश, ३. (ध्वान) मधुर, मजुल । -भक्षी, सं. पुं. (सं.-क्षिन्) राक्षसः, पिशाचः। नर्माना, क्रि. अ. (फ़ा. नर्म)मृदू भू २. दयाद्री -लोक, सं. पुं. (सं.) पृथिवी, मर्त्यलोकः । भू, प्र-, शम् (दि. प. से.)। क्रि. स., मृदू कृ -सिंघ, सं. पुं., दे. 'नृसिंह' २. दयाद्री कृ, प्र. शन् (प्रे. शमयति)। --सिंह, सं. पं. (मं.) दे. 'नृसिंह' । | नर्मी, सं. स्त्री. (फा. नर्म ) कोमलता, मृदुता, नरक, सं. . ( सं. पुं. न.) दुर्गतिः ( स्त्री.), सौम्यता २. महणता, इलक्ष्णता। नारकः, निरतः २. अतिमलिनस्थानं ३. दुःख- नल', सं. पुं. (सं.) नृपविशेष:, दमयन्तीपूर्णस्थानम् । पतिः (पुं.)। -कुंड, सं. पुं. ( सं. न.) निरय-नरक,-कूप:- नल२, सं. पुं. (सं.) दे. 'नरकट' । कुण्डम् । नल', सं. पु. ( सं. न. ) पद्म, कमलम् । नरकट, सं. पुं. (सं. नल:) धमनः, नडः, नल, सं. ए. ( सं. नालः) नाड़ी-ली, नाडि:नालः, कीचकः, कुक्षिरंधः।। लि: (स्त्री.) प्रणाल:-ली। नरक(कु)ल, नरकस, सं. पुं., दे. 'नरकट'। पानी का नल, सं. पुं. प्रणालिका, सारणिः नरकेश(स, ह)री, सं. पुं., दे. 'नृसिंह'। (त्र.), जलनाली। नरखड़ी, सं. स्त्री. । (देश.),कंठः, गल:२.प्राण- नला, सं. पुं. (हिं. नल ) मूत्र,-मार्गः-नाली। नरखरा, मं. पुं. । श्वास,-मार्गः-नालिका।। नलिन, सं. पुं. (सं. न.) कमलं, सरोजम् । नरगिस, सं. पं. (फ़ा.) पुष्पभेदः, *नरगिमम् ।। नलिनी, सं. स्त्री, (सं.) अंबुजं, कमलं २. पननरद, मं. स्त्री. (फा नर्द) शारिः (पं.). समूहः ३. पदमाकरः, पुष्करिणी ४. (लता) शारिका, शारिफलम् । कमलिनी, पद्मिनी, मृणालिनी ५. नदी। नरमी, सं. स्त्री., दे. 'नी' । नली, सं. स्त्री. ( हिं. नल ) सूक्ष्म-क्षुद्र, नालीनरसिंघा, सं. पं. ( सं. नर (=बड़ा)+ शृङ्ग>)/ नाडी, दे. 'नल' (१) २. दे. 'नरखरा' ३. अ. वाद्यभेदः, नर शृङ्गः, काल:-ला-लन् । | न्यस्त्रनाली-डी ४. अनुजंघास्थि (न.) नरसों, क्रि.वि., दे. 'अतरसों'। ५. सूत्रवेष्टनं, त्रसरः । नराच, सं. पुं. ( सं. नाराचः ) बागः, शरः। नव', वि. (सं.) नवीन, नूतन, दे. 'नया' । नराधम, सं. पं. (सं.) खलः, पापः, पापिष्ठः, युवक, सं. पुं., नव,-युवन् (पृ.), तरूगः, नीचः। । कुमारः, किशोरः। नराधिप, सं. पुं. (सं.) नृपः, भूपः। -यौवना, सं. स्त्री. (सं.) नवयुवतिः (स्त्री.)नरेन्द्र, नरेश, नरेश्वर, सं. पुं. (सं.) नृपः, तो, नवयूनी, तरुणी, तलुनी, कुहेली। नृपतिः, राजन् (पुं.)। |-वधू , सं. स्त्री. (सं.) नवोढा, वधूः (स्त्री.), नर्तक, सं. पुं. (सं. लयालम्बः, नृत्य,-कर- नवपाणिग्रहणा, नववरिका। For Private And Personal Use Only Page #362 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १ नव [ ३२४ ] नव, वि. तथा सं. पुं. (सं. नवन् ) दे. 'नौ'।। नवीन, वि. ( सं. ) दे. 'नया' । -ग्रह, सं. पुं. [ सं.-हाः ( बहु.)] सूर्यादयः | नवीनता, सं. स्त्री. (सं.) दे. 'नयापन' । नव ग्रहाः। | नव्य, वि. (सं.) दे. 'नया'।। -द्वार, वि. (सं.) नवद्वारयुक्त २. नवच्छिद्रं | नव्व, वि. [सं. नवतिः ( नित्य स्त्री.)] सं. (शरीरम् )। पुं., उक्ता संख्या, तदंकौ (९०)च।। -निधि,सं.स्त्री. (सं.पु.)नवरत्नयुतःकुबेरकोषः। | नशा, सं. पुं. (फा.) क्षीबता, मत्तता, मदः, -रत्न, सं. पुं. (सं. न.) नवप्रकारमणयः। मादः, शौंडता २. मादकद्रव्यं ३. धनविद्यादीनां (मोती, माणिक्य आदि) २. विक्रमादित्यस्य | अवलेपः-गर्वः-दर्पः। राजसभायाः कालिदासादयो नव पंडिताः। -उतरना, मु., मदो व्यपगम् । ३. नवविधरत्नयुतः हारः केयूर वा। -उतारना, मु., द ह (भ्वा. प. अ.), -रात्र, सं. पुं. (सं. न.) आश्विनशुक्लप्रतिप अभिमानं चूण् (चु.)। दादिनवमीपर्यंतकर्तव्यदुर्गावतविशेषः। -खोर, सं. पं. (फा.) मद्यपः, मधुपः, --सत साजना, मु., षोडशशृंगारैः अलंक। पान,-रतः-शौंडः। नवक, सं. पु. ( सं. न.) नववस्तुसमूहः।। -चढ़ना, मु. मंद् ( भ्वा. आ. से.) क्षीब-मत्त नवधा, अन्य. (सं.) नवप्रकारैः, नव (वि.) भू। खण्डेषु। -पानी, सं. पुं., मादकसामग्री। -भक्ति, सं. स्त्री. (सं.) नवप्रकारा भक्तिः (श्रवणं, कीर्तनं, स्मरणं, पादसेवन, अर्चनं, नशीला, वि. (का. नशा ) मादक, उन्मादक, वन्दनं, दास्य, सख्यं, आत्मनिवेदनम् )। मदोत्पादक २. मदमत्त । नवनी, नवनीत, सं. स्त्री., सं. पुं., (सं.) दे. | नशेबाज, सं. पुं. (फ्रा.) दे. 'नशाखोर' । 'मक्ख न'। नश्तर, सं. पुं. (फ्रा.) वैद्यछुरिका । नवम, वि. (सं.) नवमः-म-मी (पु.न.स्त्री.)। लगाना, मु., छुरिकया स्फोटकं छिद् (रु. प. नवमी, सं. स्त्री. (सं.) चांद्रमासस्य कृष्णा | अ.), शस्त्रेण उपचर् (भ्वा. प. से.)। शुक्ला वा नवमी तिथिः ( स्त्री.)। | नश्वर, वि. (सं.) क्षयिन्, क्षयिष्णु, भंगुर, नवल, वि. (सं.) नवीन, नव्य, नूतन २. सुंदर | अनित्य, अस्थिर, वि.,ध्वंसिन् । ३. युवन् (पुं.)४. उज्ज्वल, स्वच्छ। नश्वरता, सं. स्त्री. (सं.) क्षय-नाश, शीलता, नवला, सं. स्त्री. (सं.) तरुणी, युवती-तिः(स्त्री.)। अनित्यता, अस्थिरता, भङगुरता। नवाँ, वि., दे. 'नौवाँ'। | नष्ट, वि. (सं.) अदृष्ट, लुप्त, च्युत, भ्रष्ट नवाना, क्रि. स., दे. 'झुकाना'। | २. ध्वस्त, क्षीण, प्र-वि,-लीन, उच्छिन्न, उत्सन्न । नवान्न, सं. पुं. (सं. न.) नूतनान्नं २. श्राद्धभेदः ! नस, सं. स्त्री. (सं. स्नसा) स्नायुः ( स्त्री.) ३. सद्यःपक्वमन्नम् । वस्नसा २. धमनी, नाडी। नवाब, सं. पुं ( अ. नव्वाब) राजप्रतिनिधिः | नसर, सं. स्त्री. (अ.) गद्य, छंदोहीनप्रबंधः । (पु.) २. उपाधिभेदः ३. प्रांताध्यक्षः। वि., | नसल, सं.स्त्री. (अ.) वंशः, कुलं, जातिः (स्त्री.)। अतिव्ययिन्, अर्थनाशिन् २.आज्ञापक, शासक । अथनाशिन् २.आज्ञापक, शासक। नसबार, सं. स्त्री. दे. 'नास'। -ज़ादा, सं. पुं. (फा.) राजप्रतिनिधि-प्रांता- | वाणद्रियम् । ध्यक्ष,-पुत्रः २. विलासिन्, सुखपरायणः। नसीब-बा, सं. पुं. (अ.) दे. 'भाग्य' । नवाबी, सं. स्त्री. ( अ. नवाब) राज,-प्रतिनि- -जगना, मु., पुण्यं उद्-: ( अ. प. अ.)। धित्वं प्रातिनिध्यं २. अधिकारः, शासनं, स्वाम्यं नसीहत, सं. स्त्री. ( अ.) उपदेशः, शिक्षा । ३. सुखोपभोगः, विलासित्वम् । -देना, क्रि. स., उपदिश् (तु. प. अ.), नवासा, सं. पुं. (फ़ा.) दौहित्रः, पुत्री-दुहित, अनुशास (अ. प. से.), २. निर्भस पुत्रः। नवासी ( स्त्री. = दौहित्री)। (चु. आ. में.)। नवासी, वि. [ सं. नवाशीतिः (नित्य स्त्री.)]। नस्य, सं. पुं. (सं. न.) नस्तं, लावणं सं. पु., उक्ता संख्या, तदं को ( ८९) च। २. न सिक्यं, नानासंबंधिन् । नया से स्त्री .( For Private And Personal Use Only Page #363 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir नस्या [ ३२५] नाक - नस्या, सं. स्त्री. (सं.) नासा- नासिका, नक्रा | -उम्मेदी, सं. स्त्री. (फ्रा.) निराशा, आशा२. नासिकारज्जुः ( स्त्री.)। ऽभावः । नहछू, सं. पुं. (सं. नखक्षौर>) वैवाहिकरीति- काबिल, वि. (फ़ा.+अ.)अयोग्य, असमर्थ । भेदः। -कारा, वि. (फा.) निष्प्रयोजन, अनुपयो नहर, सं. स्त्री. ( फा. ) कुल्या, प्रणाली, स(ह). गिन्, निरर्थक। रणी, भ्रणिः ( स्त्री.)। —खुश, वि. (प्रा.) खिन्न, विषण्ण । नहरनी, नहन्नी, में, स्त्री. (सं. नखहरणी) | गवार, वि. (फ़ा.) असह्य २. अप्रिय । नख,-निकृतनी-दारणी। --चीज़, वि. (मा.) तुच्छ, क्षुद्र । सं. स्त्री., नहला, सं. पुं. ( हिं. नौ ) नवांकयुतं क्रीडा- निरर्थकवस्तु । पत्रम् । -जायज़, वि. (फ़ा.) अनुचित, नियमविरुद्ध । नहलाई, सं. स्त्री. ( हिं. नहलाना) स्नापन, -तजबांकार, वि. ( फा.) अनुभवहीन, अपक्षालनं, प्रधावनं २. स्नापन-क्षालन-प्रधावन, । रिणतबुद्धि । भूतिः ( स्त्री.) भत्या-पारिश्रमिकम् । -पसंद, वि. ( फ़ा.) अप्रिय, अरुचिकर । नहलाना, क्रि. स., ब. 'नहाना' के प्रे. रूप। । -पाक, वि. (फा.) अशुद्ध, अपवित्र २. मलिन । नहाना, क्रि. अ. (सं. न्नानं) स्ना (अ. प. अ.); | -बालिया, पि.(फा.) अप्राप्तवयस्क, अप्राप्त अव-वि,गाह (वा. आ. से.; द्वितीया के | व्यवहार। योग में): मम्ज ( तु. प. अ.: सप्तमी के योग -माकल. वि.(फा.+अ.) निबोध. निविवेक में ), शुच्य (भ्वा. प. से.), शुच (दि. उ.से.)।। २. असंगत, अनुचित । सं. पुं.,दे. 'स्नान'। -मालूम, वि. (फा.+अ.) अज्ञात, अविदित । नहाने योग्य, वि., स्नानीय, अवगाहनीय। -मुनासिब, वि. ( फ़ा.) अनुचित, अयुक्त । नहानेवाला, सं. पुं., स्नात, अवगाहक । -मुमकिन, वि. (फ़ा+अ.) असंभव, अशक्य । नहाया हुआ, वि., स्नात. अभिषिक्त, कृतस्नान। -मुवाफ़िक, वि. (फा.+अ.) अपथ्य, आहनहार, वि. (फा.) निराहार, अकृतप्रातराश । तकर। -मुंह, मु., *रिक्तोदरं, निराहारम् । -याब, वि. (फा.) अप्राप्य, दुष्प्राप, दुर्लभ । नहारी, सं. स्त्री. (फ़ानहार) प्रातराशः, कल्य -लायत, (का.+अ.) अयोग्य, मूर्ख । वर्तः २. अश्वानां गुडचूणम् । -वाकिफ़, वि. (फा+अ.) अनभिज्ञ, अपरिचित नहीं, अव्य. ( सं. नहि ) न, नो, मा, दे. 'न' । -तो, अव्य., अन्यथा, इतरथा २. एतद्विना, -शायस्ता, वि. (फा.) असभ्य, अशिष्ट । न(नो)चेत् ३. वा, अथवा।। --समझ, वि. ( सं.+हिं.) निर्बुद्धि, मूर्ख, नहुष, सं. पुं. (सं.) सोमवंशीयनृपविशेषः अबोध । २. वैदिकषिविशेष: ३. नागविशेषः ४. कुशिक -समझी, सं. स्त्री. (हिं. नासमझ) अज्ञता, वंशीयो विप्रनृपः। मूर्खता। नहसत, सं. स्त्री. ( अ.) अशुभं, अमंगलं |-साज़, वि. ( फा.) अस्वस्थ, रुग्ण । २. दैन्यं, खिन्नता। नाइट्रोजन, सं. स्त्री. ( अं.) भूयातिः ( स्त्री.), नाँद, सं. स्त्री. (सं. नंदिकः-का>) मृद् नत्रजनम् । मृत्तिका,-द्रोणी-द्रोणिः ( स्त्री.)। नाई, (सं. न्यायः ) सदृश, समान, तुल्य । नांदी, सं. स्त्री. (सं.) मंगलाचरणं, नाटकारंभे नाई, । सं. पु. ( सं. नापितः) क्षुरिन्, देवद्वि नादीनामाशीर्वादः २. अभ्युदयः समृद्भिः | नाउन, J मुंडिन्, क्षुरमदिन, अंतावसा(स्त्री.) ३. आनंदः । यिन्, दिवाकीतिः (पु.), क्षौरिकः चंडिल:, ना, अव्य. (सं. फा.)न, नो, मा। नखकुट्टः, मुंडः। -इत्तिफ़ाकी, सं. स्त्री. (फा.) विरोधः, | नाक', सं. स्त्री. ( सं. नका) नासा, नासिका, विसंवादः, वैमत्यम् । घ्राणं, घोणा, गंधवहा, सिंघिणी, नस्या, नासि-उम्मेद, वि. ( फ़ा.) निराश, भग्नाश । । क्यं, गंधनाली २..( नाक का मल ) शिंघाणं For Private And Personal Use Only Page #364 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir नाक [ ३२६ ] नागा mu णकं, शिंघणी, सिहानं ३. प्रधान मुख्य,- नाक़िस, वि. (अ.) सदोप, विकल । वस्तु ( न.) ४. प्रतिष्ठा, मानः। नाकेश, सं. पुं. (सं.) इन्द्रः, देवराजः । -कटी, सं. स्त्री. मानहानिः ( स्त्री.), प्रति- नाखुदा, सं. पुं. ( फ़ा.) पोत-नौका, अध्यक्षः, ष्ठानाशः। कर्णधारः। -का बाल, सं. पुं., प्रियः प्रीतिभांजनं, नाख़ ना, सं.पुं. (फ़ा.) अर्मःमग,नेत्ररोगभेदः । सहचरः। नाख न, सं. पुं. (फा. नाखुन) नखः-खं, नखरःकी फिसी, सं. स्त्री., नासापिटिका। , कर,जः-अग्रजः-अंकाः कंटक:-रुहः, पुनर, -की रसोली, सं.ली. नासार्बुदः-दम् । भवः-नवः। -घिसनी, सं. स्त्री., कार्पण्यं, दैन्येन याचनम् । नाख ना. सं. पुं. (फा.) दे. 'मोतियाबिंद' । -बहना, क्रि. अ., नासा वह (ग्वा. उ. अ.) २. अश्वनेत्रेप रक्तरेखाः (स्त्री) ३. तुलअथवा प्रस्र (भ्वा. प. अ.)। कौशपटः। -सिनकना, क्रि. स., नासा शुध् (प्रे.) या नाग. सं. पं. (सं.) सर्पः, पन्नगः २. गजः, निर्मली कृ। हरितन् ३. निर्दयः, क्रूरचारित ४. देवभेदः -कटना, मु., अपमन्-अवज्ञा ( कर्म.), । ५. नागकेशरः ६. पुन्नागः । अनादृत (वि.) भू। -घिसना या रगड़ना, नु., पादयोः पतित्वा -केस(श)र, सं. पुं. (सं.) नागकिंजल्कः , अभि-प्र-अर्थ (चु.), दैन्येन याच् (भ्वा.उ.से.) । नागीयः, पन्नगः-फणि, केस(ा)र: । -चढ़ाना, मु., क्रोधं घृणां वा प्रकटयति -पंचमी, सं. स्त्री. (सं.) श्रावण शुक्ल पंचमी, (ना. धा.)। पर्वभेदः । -पर मक्खी न बैठने देना, मु., दोषलेशमपि -फनी, सं. स्त्री. (सं. नामफणः-पा) कन्यारी, न सह (भ्वा. आ. से.) २. विमल-स्वच्छ दुधा, दुष्प्रवेशा, तीक्ष्णकण्टका । (वि.) स्था (भ्वा. प. अ.)। ----फाँस, सं. स्त्री. (सं. नागपागः ) वरुणायुधः -बोलना, मु., नाम् ( भ्वा. आ. से.) घर्ष. २. साद्धद्वयावर्तनात्मकः पाशमंदः ३. बंधनरायते ( ना. धा.), धधररवं कृ। प्रकारः। -भौं चढ़ाना या सिकोड़ना, मु., अरुचि -बेल, सं. स्त्री. (सं.नागवल्ली) तांबूली, तांबूलअप्रीति वा प्रकटी । वल्ली, नागल ता, पूगी। -में दम करना, मु., अत्यर्थ क्लिश (क्र.प. नागर, वि. (सं.) दक्षिण, चतुर, विदग्ध, से.) बाध् ( भ्वा. आ. से.)। सभ्य २. पौर, नागरिक । मं. पुं., नगर-पौर, -रखना, मु., संमानं रक्ष (भ्वा. प. से.), जनः, पौर:, नागरिकः । अपमानात् त्रै ( भ्वा. आ. अ.)। नागरक, सं. पुं. (सं.) शिल्पिन, शिल्पकारः -सिकोड़ना, मु., अरुचि घृणां वा दृश (प्रे.)! २. नगर-प्रबन्धकः ३. चौरः। वि., दे. नाकों चने चबवाना, मु., अर्द-व्यथ (प्रे.), _ 'नागर'। परि-सं-तम् (प्रे.)। नागरमोथा, सं. पुं. (सं. नागरमुस्ता) चक्रांका, नाकर, सं. पुं. (सं.) स्वर्गः २. आकाशः-शम् । चूड़ाला, कच्चाहा, नादेया। नाकड़ा, सं. पुं. (हिं. नाक ) नासापाक: | नागरिक, वि. तथा मं. पुं., दे० 'नागर (१.२) । २. दीर्घनासिका। नागरिकता, सं. स्त्री. (लं. ) नागरता, पौरता नाका', सं. पुं. (हि नाकना = लाँधना ) २. दाक्षिण्यं, विदग्धता, सभ्यता। रथ्यांतः, मार्गावधिः (पु.) २. वीथी, मार्गः नागरी, सं. स्त्री. (सं.) पुर-नगर-वासिनी ३. नगरादीनां प्रवेशद्वारं ४. नगरपाल-पुर- २. चतुरा, प्रवीणा ( नारी) . देवनागरीरक्षक, स्थानं ५. सूचीछिद्रम्। लिपिः ( स्त्री.)। -बंदी, सं. स्त्री., ( पुररक्षकैः) मार्गावरोध:- नागहानी, वि. स्त्री. ( फा.) आकस्मिकी । वीथीप्रतिबंधः। यादृच्छिकी। नाका, सं. पुं. (सं. नक्रः ) कुंभीरः। । नागा, सं. पुं. (सं. नग्नः ) नग्नभिन्नुः । For Private And Personal Use Only Page #365 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir नागा [३२७ ] नाद %3 - - re -महल, नाग़ा, सं. पुं. (अ.) अनुपस्थितिः (स्त्री.), । -शाला, सं. स्त्री. (सं.) रंगशाला। असंनिधिः (पं.), कार्यपरंपराभंगः, अवकाशः। नाटकीय, वि. (सं.) नाटक, विषयक-संबंधिन् । नागिन, नी, सं. स्त्री. (सं. नागी) सर्पिणी, | नाटना, क्रि. अ., दे. 'इनकार करना। उरगी, भुजगी, भुजंगमी। नाटा, वि. ( सं. नत> ) खर्व, वामन, हस्व, नागेश(स)र, सं. पुं., दे. 'नागकेसर'। ह्रस्वकाय। नागेश(स)री, वि. (हिं. नागेश(स)र ) पीत, | नाटय, सं. पुं. (सं. न.) तौर्यत्रिक, नृत्यगीतदे. 'पीला' । वाद्यं २. अभिनयः ३, विडम्बनं, अनुकारः । नागोद, सं. पुं. (सं. नागोदरम् ) उरस-|-शाला, सं. स्त्री. (सं.) रंग-नाट्य, मंदिरवक्षस्, त्राणं, आयसी, उरश्छदः । शाला। नागोदरिका, सं. स्त्री. (सं.) कर-हस्त-पाणि- नाड़ा, सं. पुं. (सं. नाड:>) नीवी-विः (स्त्री.), त्राणम् । कटीवस्त्रबंधः, नाला। नाच, सं. पं. [सं. नृत्य, नृत्तिः ( स्त्री.)7/ नाड़ी, सं. स्त्री. [ सं. नाडी-डि: (स्त्री.) 1 दे. नतेनं, नृत्तं, २. कोमल) लासः, लास्यं-स्यकं । 'नब्ज' २.-नाल:-लं-ली-लिका, प्रणाल:-ली ३. (उद्धत) तांडवं ४. नटनं, नाटः, नाट्यम् ।। ३. धमनी, रत्तवाहिनी ४. शि(सि)रा, रक्ता वाहिनी ५. ( रक्त की अति सूक्ष्म नाडी Cap-घर, । सं.पं., नृत्य,शाला-स्थानम् । illary) कैशिकनाडी ६. चालकनाडी -रङ्ग, सं. पुं., आमोदप्रमोदाः, उल्लासः, | (Motor nerve) ७. सांवेदनिकनाडी विनोदः, कौतुकम् । (Sensorv ne.ve ) -नचाना, मु., अई क्षुभ् (प्रे.), दु. ( स्वा. --चलना, क्रि. अ., नाडी स्फुार ( तु. प. से.) स्पंद् ( भ्वा. आ. से.)। प. अ.)। नाचना, क्रि. अ. (सं. नर्तनं) नृत् (दि. प. -मंडल, सं.पुं.(सं.न.) नाडी-वात, संस्थानम् । से.) नट ( भ्वा. प. से.), नृत्यं कृ । सं. पुं., -छूटना, मु., दे. 'मरना' तथा 'मूछित होना। नाणक, सं. पुं. (सं. न.) टंक:-कं, मुद्रा। दे. 'नाच'। नाता, सं. पुं. (सं. शाति:>) संबंधः, बंधुता, नाचनेवाला, सं. पुं., दे. 'नर्तक' । सगोत्रता, सजातिता, सपिंडता । नाज़, सं. पुं. ( फ़ा.) दे. 'नखरा। नातिन, सं. स्त्री. (हिं. नाती) दौहित्री २. -अदा,-नखरा, सं. पुं., हावभावी, विभ्रमः, पौत्री। विलासः। नाती, सं. पुं. [सं. नप्त (पु.)] दौहित्रः २. -बरदार, सं. पुं., चाटुकार:, मिथ्याप्रशंसकः। पौत्रः। नाज़नी, सं. स्त्री. ( फा.) सुन्दरी, वामा। नाते, क्रि. वि. (हि. नाता) संबंधेन (तृ.)। नाज़िर, सं. पुं. (अ.) निरीक्षकः २. आसेद्ध -दार, सं. पुं., ज्ञाति-बन्धु-बांधव,-गण:-वर्ग:(पुं.) ग्राहकः। जनः। नाजुक, वि. ( फ़ा.) कोमल, सुकुमार, मृदुल -दारी, स. स्त्री., दे. 'नाता'। २. प्रतनु, सूक्ष्म ३. मंगुर, भिदुर ४. भयंकर, नाथ, सं. पुं. (सं.) अधिपतिः (पुं.), प्रभुः, भयावह । स्वामिन् २. पतिः, भर्तृ ३. नास्यं, पशुनासा-बदन, वि. ( फा.) कोमलांग-तन्वंग (-गी, रज्जुः (स्त्री.) ४. योगिनामुपाधिभेदः ५. अतन्वी स्त्री.)। (आ)हितुंडिकः, व्यालग्राहिन् । -मिज़ाज, वि. (फा+अ.) कोमलप्रकृति, नाथना, क्रि. सं. (सं. नाथनं) नाथ् मृदुस्वभाव। (भ्वा.प.से.), वशी कृ, अभिभू ( भ्वा.प.से.) नाटक, सं. पुं. (सं. न.) दृश्यकाव्यं, अभिनय- २. नासां व्यध् (दि.प.अ.), नासायां छिद्रं कृ । ग्रंथः, महारूपकं २. अभिनयः, नाट्यम् । नाद, सं. पुं. (सं.) शब्दः, ध्वनिः (पं.), रवः -कार, सं. पु. (सं.) नाटक-रूपक, कारः- २. गीतं, गीतिका ३. गर्जनं, गाजतं ४. प्रयत्नप्रणेतृ ( पुं.)। | भेदः (व्या.) ५. अर्द्धचन्द्रः,अर्द्धंदु:(पुं.) (व्या). For Private And Personal Use Only Page #366 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir नादान [३२८ ] नारंगी -विद्या, सं. स्त्री. (सं.) संगीतशास्त्रम्। नाना, सं. पुं. (फा.) कस्तूरी-मृगमद,कोश:नादान, वि. (फा.) अश, मूर्ख, जड़। कोषः। नादानी, सं, स्त्री, ( फा.) अज्ञानं, मौख्य, | नाभि, सं. स्त्री. ( सं. पुं. स्त्री.) नाभी, तुन्द'जाड थम्। कूपी, उदरावतः, तुंदः-दी-दिः (स्त्री.), तुंदिका नादित, वि. (सं.) वादित, मात, क्वणित, २. चक्रमध्यं ३. कस्तूरी । ध्वनित। नाम, सं. पु. [सं. नामन् ( न.)] अभिधा, नादिम, वि. ( अ.) लज्जित, ह्रीण। अभिधानं, अभिधेयं, आह्वा, आह्वयः, आख्या, नादिर, वि. (फा ) अद्भुत, विचित्र । संज्ञा २. यशस् ( न.), ख्यातिः (स्त्री.)। नादिरशाही, सं. स्त्री. (फा. नादिरशाह ) -रखना या धरना, क्रि. स., नाम-संज्ञां कृ, निष्ठुरशासनं, नृशंसता, क्रूरकृत्यम् । वि., | अभिधा (जु. उ. अ.)। घोर, नृशंस। -करण, सं. पुं. (सं. न.) संस्कारभेदः नाधना, क्रि. स. (सं. नद्धबद्ध>) योक्त्र- (धर्म.) २. नामदानम् । यति ( ना. धा.), युज् (चु.) २. आरम् -कमाना, करना,—पाना या-होना, (भ्वा. आ. अ.)। मु., विख्यात-विश्रुत-महायशस्क-(वि.) भू।। नान, सं. स्त्री. (फा) स्थूलरोटिका। -डबोना, मु., यशः मलिनी कृ, ख्याति नश नानखताई, सं. स्त्री. (फ़ा.) मिष्टान्नभेदः, (प्रे.), कीर्ति कलंकयति ( ना. धा.)। *नानखतायी। --पर धब्बा लगाना, मु., दे. 'नाम डुबोना'। नानबाई, सं. पुं. (फा. नानबा ) आपूपिकः, नामक, वि. (सं) नामधारिन्,-आख्य, संज्ञक । कांदविकः। नामर्द, वि. (फा.) नपुंसक २. भीरु । नाना', सं. पु. ( देश.) मातामहः, मातुः पितृ | नामी, वि. (सं. नामन् > )-नामक, नामधेय (पुं.), जननीजनकः । २. विख्यात, विश्रुत । नाना, वि. ( सं. ) विविध, बहुविध २. अनेक, -गिरामी, वि. ( फ़ा., मि. सं. नामग्रामिन् ) बहु । यशस्विन्- प्रसिद्ध । -भोति, वि., अनेकप्रकारक, नानाजातीय। नायक, सं. पुं. (सं.) नेतृ अग्रणी: (पु.), -रूप, वि., (सं.) अनेक-बहु,-रूप । मुख्यः, प्रमुखः २. स्वामिन, प्रभुः, अधिपतिः -वर्ण, वि. (सं.) अनेक-बहु, वर्ण-रंग। ३. नरव्याघ्रः, जननायकः ४. कथापुरुषः -विध, क्रि.वि. ( सं.-धं ) अनेकधा, बहुधा। (सा० ) ५. संगीतकुशल: ६. सेनापतिः। नानार्थ, वि. (सं.) अनेकार्थक, बह्वर्थ २. नायका, सं. स्त्री. (सं. नायिका) दे. अनेकत्र-बहुत्र, उपयुक्त। 'नायिका' २. वेश्याजननी ३. दूती, कुट्टिनी, नानिहाल, सं. पुं. दे. 'ननिहाल'। शंभली। नानी, सं. स्त्री. ( देश.) मातामही, मातुः नाय(इ)न, सं. स्त्री. (हिं. नाई ) नापिती, मातृ (स्त्री.), जननीजननी । क्षुरिणी, मुण्डनी, क्षौरिकी। -मर जाना, मु., हतोत्साह-गतसाहस (वि.) नायब, सं. पुं. (अ.) प्रति,-निधिः ( पुं.). हस्तकः-पुरुषः २. सहायः-यकः, सहकारिन्, नाप, सं. स्त्री. (सं. मापनं) प्र-परि,-माणं-मितिः उप-( उ. उपमंत्रिन्)। ( स्त्री.), मान २. मानदण्डः, मापनसाधनं, -तहसीलदार, सं. पुं., उपमण्डलेश:-श्वरः । मानम् । | नायिका, सं. स्त्री. (सं.) शृंगाररसालम्बन-तौल, सं. स्त्री., मापनं-तोलनं-ने (न.वि.)। भूता नारी २. सुन्दरी. रूपिणी ३. कान्ता, नापना, क्रि. स. (सं. मापन) मा (दि. आ. दयिता। अ., जु. आ. अ., अ. प. अ.), मानं निरूप नारंगी, सं. स्त्री. ( सं. नारंगः ) (वृक्ष) नाग(चु.), दे. 'मापना'। रंगः, नायगः, नागरः, ऐरावतः, त्वग्गन्धः, नापित, सं. पुं. (सं.) दे. 'नाई। । (फल) नारंग, नारंगकं, नारंगफलम् इ.। वि., For Private And Personal Use Only Page #367 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir नार - रि [ ३२६ ] पिच्छिल, कौसुंभ [ भी (स्त्री.) ], पीत | नालिश, सं. स्त्री. ( फा . ) अभियोग:, भाषा, लोहित । नार-रि, सं. स्त्री. दे. 'नारी' तथा 'नाल' । नारकी, वि. (सं.- किन ) नारकिक, नारकीय, पापिन् । नारद, सं. पुं. (सं.) देवर्षिविशेषः । नारमल, वि. (अं.) सामान्य, साधारण, यथाई । नारा, सं. पुं., दे. 'नाड़ा' । नाराज़, वि. ( फा . ) अप्रसन्न, रुष्ट । होना, क्रि. अ., कुप् ( दि. प. से. ), रुष्ट ( वि . ) भू । नारायण, सं.पुं. (सं.) विष्णुः, चक्रिन, ईश्वरः । नारायणी, सं. स्त्री. ( सं . ) लक्ष्मीः २. दुर्गा ३. मुद्गलमुने: पत्नी ३. दुर्योधनाय दत्ता कृष्णसेना | नारियल, सं. पुं. (सं. नारिकेल:-ली ) (वृक्ष) सदा-रस-दृढ स्कंध, फल:, तुंगः, उच्चः, मंगल्यः, ( फल ) अष्फल, कौशिकफलं, नारिकेर:-लः । नारियली, सं. स्त्री. (हिं. नारियल) नारीकेल २. अम्फल- नारिकेल, रसः ३. नारिकेलसारः । नारी, सं. स्त्री. (सं.) स्त्री, सीमंतिनी, यो (जो)घा, यो(जो पित् (स्त्री.), अबला, वामा, वनिता, महिला, रामा, प्रिया, जनी-नि: (स्त्री.), सुभ्रुः- वधूः (स्त्री.), यो (जो ) षिता । - दूषण, सं. पुं., (सं. न. ) सुरापानदुर्जनसंसर्गादयः स्त्रीदोषाः । - रत्न, सं. पुं., (सं. न. ) श्रेष्ठ उत्तम रूपगुणशीलवती, नारी । नाल', सं. स्त्री. (सं. नालं ) नाला-ली-लिका, कमलादीनां दंड: २. दे. 'नल' ३. अग्न्यस्त्र नाडी-ली ४ सूत्रवेष्टनं त्रसरः ५. दे. 'ऑवलनाल' । नाल२, सं. पुं. (अ.) खुरत्रं, खुरत्राणं २, लोहवलयः -यम् । - बंद, सं. पुं. ( अ. + फा. ) खुरत्र, बंधक:योजकः । बंदी, सं. स्त्री. ( अ. + फा. ) खुरत्रबंधनम् । —लगाना, क्रि. स., खुरत्रं बंधू (क्रू. प. अ.), खुरत्रेण सनाथी कृ | नालकी, सं. स्त्री. (सं. नाल: ) शिबिकाभेदः, *नालकी। नाला, सं. पुं. (सं. नाल: ) अल्प-कु-क्षुद्र, नदीसरित् (स्त्री.) २. दे. 'नाड़ा' । नासूर भाषापादः । -करना या दाग़ना, क्रि. स., अभियुज् ( रु. आ. अ.; चु.), राजकुले निविद् (प्रे.) 1 नाली, सं. स्त्री. ( सं . ) नाल:, नालि: (स्त्री.), प्रणाल: ली, जलमार्गः, परि (री) वाह: २. नाडी, धमनी, शिरा ३. धात्वादेर्नाली-डी । नाव, सं. स्त्री. [ सं . नौः (स्त्री.) ] तरणी- णिः (स्त्री.), तरी:-रि: (स्त्री.), तरिका, तरंङः । (छोटी) नौका, उडुपं, कोलः, प्लवः । — चलाना, क्रि.स., नौकां प्रेर्-वह्-चल् (प्रे.) । नावक, सं. पुं. ( फा ) क्षुद्रबाणभेदः २. मधुमक्षिकादशः । नाविक, सं. पुं. (सं.) औडुपिकः, नौ-तरणीवाह: २. कर्णधारः, मुख्यनाविकः । नाश, सं. सं. (सं.) प्रणाश:, विनाश:, प्र-विध्वंसः, उच्छेदः क्षयः, संहारः ३. अदर्शनं, लोपः, तिरोधानं ३. मृत्युः (पुं.) । करना, क्रि. स., प्र-वि-, नशू-ध्वंस् ( प्रे.) उत्-अव, सद् (प्रे.), क्षै- विलुप् (प्रे.), उच्छिद् ( रु. प. अ. ) २. दे. 'मारना' । होना, क्रि. अ., प्र-वि-, नश् ( दि. प. वे.), प्र-वि, ध्वंसू (भ्वा. आ. से. ), प्र-वि-ली (दि. आ. अ.), क्षयं इ-या ( अ. प. अ. ) । नाशक, सं. पुं. (सं.) प्र-वि, ध्वंसकः, क्षयकरः [-री (स्त्री.)], उच्छेदकः संहारकः २. धातुकः, अंतर : [ -री (स्त्री.) ], नाशकारिन् । नाशपाती, सं. स्त्री. ( तु. ) अमृत रुचि, फलं, अमृताहम् । नाशवान्, वि. ( सं . वत् ) क्षयिन्, क्षयिष्णु, क्षय-नाश, शील, वि, नश्वर [-री (स्त्री.)] अनित्य, अध्रुव । नाशी, वि. ( सं-शिन ) दे. 'नाशक' २. दे. 'नाशवान्' । नाश्ता, सं. पुं. (फ्रा.) कल्यवर्तः, प्रातराशः, उप-लघु, आहारः, जलपानम् । नास, सं.स्त्री. (सं. नस्यं) क्षुत्करी, नासाचूर्णम् । दान, सं. पुं, नस्यधानं नी । नासपाल, सं. पुं. (फ्रा.) अपक्वदाडिमत्वच् (स्त्री.) २. अपक्वदाडिमम् | नासा, सं. स्त्री. (सं.) दे. 'नाक' ' (१) तथा 'नथना' । नासिका, सं. स्त्री. (सं.) दे. 'नाक' (१-२) । नासूर, सं. पुं. (अ.) नाडीव्रण: - णम् । For Private And Personal Use Only Page #368 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir नास्तिक [३३० निकलना नास्तिक, सं. पुं. (सं.)अनीश्वरवादिन, निरी- अपानः, पानः २. उच्छ्वासः, उच्छ्वसितं, श्वरः, ईश्वराविश्वासिन् । दीर्घ (नि:)श्वासः इ.। नास्तिकता, सं. स्त्री. (सं.) अनीश्वरवादः, | निःसंकोच, क्रि. वि. (सं.) निर्विकल्पं, ईश्वराविश्वासः, नास्तिक्यम् । निःसंशयं, नि:शंक २. निर्भय, निस्सासम् । नाह, सं. पुं.,दे. 'नाथ'। निःसंग, वि. (सं.) असंग, गत-वीत,-संग नाहक, क्रि. वि. ( फा.) वृथा, व्यर्थं, मुधा, . २. निलिप्त ३. नि:स्वार्थ । निरर्थक, निष्फलम् । निःसंतान, वि. (सं.) अनपत्य, निरपत्य, नाहर-(रु), सं. पु. ( सं. नरहरिः> ) सिंहः | निरन्वय, निवेश, अपुत्र । (स्त्री.वंध्या, २. व्याघ्रः। अशिक्वी, अनपत्या)। निंदक, सं. पुं. (सं.) अभिशापकः, अभ्यसूयकः, निःसंदेह, क्रि. वि. (सं.हं ) निःशंकं, निःसं. अप-परि-वादकः, आक्षेपकः. पिशुनः। शयं, असंशयं, शंका-संदेह, विना । वि., निविनिंदनीय, वि. (सं.) निंद्य, उपालभ्य, गर्हणीय, कल्प, निःसंशय, असंशय, निःशंक । वाच्य, गर्दा २. अभद्र, अशुभ, कुत्सित । निःसंशय, वि. तथा क्रि. वि., दे. 'निःसंदेह' । निंदा, सं. स्त्री. (सं.) अप-परि, वादः, आ निःसार, वि. (सं.) नीरम, विरस, निःसत्त्व अधि, क्षेपः, अव-अप-उप,क्रोशः, कुत्सा, गहां, २. तुच्छ, क्षुद्र ३. असार, तत्त्वहीन । गर्हणं, कुत्सनं, भनिना। निःसीम, वि. (सं.) अनंत, अमित, अपरिमित, निरवधि । --करना, क्रि. स., निंद् (भ्या. प. से.), गह निःस्मृत, वि. (सं.) निर्गत, निर्यात, निष्क्रान्त । (चु.,भ्वा.आ.ने.) अधि-आ-,क्षिप (तु. प. अ.), | निःस्पृह, वि. (सं.) निकाम, अकाम, निरिक अप-परि-बद (भ्वा. प. से.), आक्रुश ( भ्वा. २. निलाभ, संतुष्ट । प. अ.), निर्भत्स्(चु. आ. से.)। निःस्वार्थ, वि. ( सं.) स्वार्थ-स्वहित-स्वलाभ.. -होना, क्रि. अ., उक्त धातुओं के कर्म. रूप। हीन-विमुख, परोपकारिन् । निंदासा, वि. (हिं. नींद ) निद्राल, तंद्रिल, | निआमत, सं. स्त्री. (अ. नेअमत ) अलभ्यनिद्रालस। दुर्लभ, वस्तु ( न.) २. स्वादुवस्तु ३. धनम् । निदित, वि. (सं.) अधि-आ,-क्षिप्त, गहित, निकट, वि. (सं.) आसन्न, समीर, सन्नि कृष्ट, आक्रष्ट, निर्भत्सित, २. कुत्सित, गर्हित।। सन्निहित, दे. 'समीप'। निंद्य, वि. (सं.) दे. निंदनीय' । -वती, वि. (सं.तिन् )निकटस्थ, समीपस्थ । निंब, सं. पुं. (सं.) अरिष्टः, सर्वतोभद्रः, तिक्तकः, | निकटता, सं. स्त्री. (सं.) समीपता' दे.। शीतः । निकम्मा, वि. (सं. निकम्मन ) वृत्तिहीन, निंबकौरी, सं.स्त्री. (सं. निवः>) दे. 'निवौरी' ।। निर्व्यापार २. अलस, आलस्यशील, निरु धम निंबू , सं. . सं. निंबु(बू)क] ( वृक्ष ) अम्ल अनुपयोगिन। जंबीरः, दंताघातः, रोचनः, शोधनः, जंतु- निकर, सं. पुं. (सं.) गणः, समूहः २. राशिः मारिन्, निंबू: (स्त्री.)। (फल ) जंबीरं, (पुं.) ३. निधिः ( पुं.)। जंबीरफलं इ.। निकलंक, वि. (सं. नि कलंक) निदोप. निःशंक, वि. ( सं.) अभय, निर्भय, अनीत, | निष्पाप, अनघ, दोष-पाप,-रहित, शुद्ध, पवित्र । निभीत २. निःसंकोच, नि:संदेह । क्रि. वि., निकलंकी, सं. पुं. (सं. कल्किः) विष्णोः निर्भयं, निःसंकोचम् । दशमावतारः। वि. ( हिं. निकलंक दे०)। निःशब्द, वि.(सं.)नीरव, विराव, मूक, मौनिन् । । निकल, सं. स्त्री. (अ.) धातुभेदः, *निकिलम् । निःशेष, वि. (सं.) अशेष, अखिल, समग्र, निकलना, क्रि. अ. (हिं. निकालना ) निर्गम्, समस्त २. समाप्त, अवसित, संपूर्ण। नियां तथा अप-ए ( दोनों अ. प. अ.), निःस निःश्रेयस, सं. पुं. ( सं. न. ) अपवर्गः, मुक्तिः । (भ्वा. प. अ.), निष्क्रम् (भ्वा. प. से.). (स्त्री.), मोक्षः, २. कल्याणं, मंगलम् । पृथग भू २. अतिक्रम्, उत्-सं, तु (भ्वा. प. निःश्वास, सं. पुं. (सं.) बहिर्मुखश्वासः, पनः । से.), अति-इ, उत्-लंघ् ( भ्वा. आ. से.) For Private And Personal Use Only Page #369 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir निकलनेवाला [३३] निगम ३. सफली-उत्तीणी भू ४. गम्, या, ब्रज। निर्गमः २. आयः अर्थलाभ: ३. विक्रयः; (भ्वा. प. से.) ५. उद्-इ, उदगम्, उदय | विनियोगः, निर्गमशुल्क:-कम् । ( भ्वा. आ. से.) ६. जन् (दि. आ. से.) निकाह, सं. पुं. (अ.-विवाहः-इस्लाम.)। प्रादुभू, उत्पद् (दि. आ. अ.) ७. निष- निकुंज, सं. पुं. (सं. पुं. न.) कुंज:-जं, लतासं-पद्, सिध् (दि. प. अ.) ८. ( सवाल मंडपः, पर्णशाला। आदि ) उत्तरं लभ-प्राप ( कर्म.) ९. प्रवृत् । निकृति, सं. स्त्री. (सं.) तिरस्कारः, अपमानः ( भ्वा. आ. से.) प्र,चर-चल (वा. प. से.)। २. शठता, नीचता । १०. वि-निर , मुच् ( कर्म.) ११. आविष्कृ निकष्ट, वि. (सं.) अधम, अवर, अपकृष्ट, क्षुद्र, ( कर्म.) १२. स्थापित प्रमाणित (वि.) भू, गो, निद्य, नीच, हीन, जघन्य। सिध् १३. अप,स-सप् ( भ्वा. प. अ.), निकटता, सं. स्त्री. (सं.) अधमता, क्षुद्रता, पलाय् (भ्वा. आ. से.) १४. आप् , लभ हीनता, गद्यता, जघन्यता, नीचता इ. । ( कर्म.) १५. ( समयादि ) व्यति-इ, अतिक्रम् | निकेत. सं. (सं.) निकेतकः, निकतन, गृह, गम् । सं. पुं., दे. 'निकास' । स्थानं, स्थलन् । निकलनेवाला, म. पुं., निर्गत निर्यात इ.। निक्षित. वि. (सं.) प्र-, अस्त-क्षिप्त, अव-नि, निकलवाना, नि.प्रे.,ब. 'निकलना' के प्रे. रूप । | पातित २. त्यक्त, विसृष्ट ३. अधिकृत, न्यस्त । निकष, सं. पुं. (सं.) दे. 'कसौटी'। निक्षेप, सं. पुं. (सं.) नि-अ,-क्षेषःक्षेपणं, निकषा, सं. स्त्री. (सं.) रावणादिराक्षसानां । प्रासनं, प्रेरणं, निपातनं २. त्यागः, विसर्गः, मातु (स्त्री.)। अव्य०, समीयं-पे, अन्तिकं-के उत्-वि, सर्गः, विसर्जनं ३. आधिः-उपनिधिः दे० 'समीप'। (पुं.), न्यासः। निकपोपल, सं.पं. (सं.) दे. 'कसौटी' १। निखंग. सं. पं..दे. 'तरकश' । निकाई, सं. स्त्री. (सं. निक्त = स्वच्छ>) निखटट. वि. (हि. नि = नहीं+खटना = असता सदरता, मनाशता । कमाना) उद्यम उद्योग-व्यवसाय,-विमुख,अलस। निकाम, वि. ( सं. ) पर्याप्त, अलं ( चतुर्थी के निखरना, क्रि. अ. ( सं. निक्षरणं> ) निर्मलीसाथ ), आवश्यकतानुरूप । २. अभीष्ट, यथेष्ट स्वच्छी भू , शुध् (दि. प. अ.) प्र-सं-मृज ३. विपुल, बहुल ४. इच्छुक, अभिलाषिन्, । (कर्म.) २. सुंदरतर (वि.) जन् (दि. आ. से.)। आकांक्षिन् । निखरवाना,निखराना, क्रि.प्रे., ब. 'निखरना' अव्य० अत्यन्तम्, अत्यधिक, बहु, भशं, भूरि के प्रे. रूप।। (सद अव्य०)। | निखरी, सं. स्त्री. (हिं.निखरना) पक्वं-घृतपक्वं, निकाय, म. पुं. (सं.) गणः, संघः २. चयः, भोजनम् । राशिः (पुं.) ३. गृहं, समन् (न.) निखर्व, सं. पुं. (सं. निखर्व बैं) दशखर्वसंख्या ४. ईश्वरः। दशसहस्रकोटयो वा, तदंको। वि., वामन, निकाल, सं. पुं. (हि. निकलना) दे. 'निकास' । ह्रस्वकाय। निकालना, क्रि. स. ( सं. निष्कालनं ) ब. निखार, सं. पुं. (हिं. निखरना ) निर्मलता, 'निकलना' के प्रे, रूप । स्वच्छता २. शृङ्गारः। निकाला, सं. पुं. ( हिं. निकालना ) निर्-वि, निखारना, क्रि. स., ब. 'निखरना' के प्रे. रूप। वासनं, अपसारणं, निष्कासन, प्रजाजनम् । । निखिल, वि. (सं.) अखिल, समस्त, संपूर्ण । निकास, सं. पुं. ( सं. निष्कासः ) अप-निर , निखोट, वि. (हिं. नि+खोट ) निप, शुद्ध । गमः, अप-निप ,क्रमः क्रमां, २. निष्कासनं, निगंदना, क्रि. स. (का. निगंद: सीवन) निकालनं ३. द्वारं, द्वार (स्त्री.) ४. क्षेत्र, तूलां सिव (दि. प. से.)। समभूमिः (स्त्रो.) ५. उद्गमः, प्रभवः ६. रक्षो- निगड़, सं. स्त्री. ( सं. पुं. न.) अंदुकः, अंधुः। पायः ७. आयोपायः ८. आयः, अर्थलाभः। । २. शृंखल:-ला-लं, बंधनम् । निकासी, सं. स्त्री. (हिं. निकाम ) प्रस्थानं, | निगम, सं. पुं. (सं.) वेदः, श्रुतिः ( स्त्री.) For Private And Personal Use Only Page #370 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir निगमन [ ३३२ ] निडर - - २. मार्गः ३. आपणः, विपणी-णिः ( स्त्री.) | निचलार, वि. (सं. निश्चल ) अचल, स्तब्ध. ४. मेला, मेलकः ५. वाणिज्यम् । २. शांत, गम्भीर । निगमन, सं. पुं. (सं. न.) प्रत्याम्नायः (न्या.)। निचाई, सं. स्त्री. (हिं. नीचा) अपकर्षः, निगरण, सं. पुं. (सं. न.) भक्षणं, खादनं । हीनता, निम्नता २. अधमता, नीचता, गीता २. कंठः, गल:। ३. निम्न,-देश: भूमिः ( स्त्री.)। निगरानी, सं. स्त्री. (फा.)निरीक्षणं,पर्यवेक्षणम्। | निचान. सं. स्त्री. (हिं. नीचा ) अवसर्पि-प्रवण, निगलना, क्रि. स. (सं. निगलनं) निगल भूमिः ( स्त्री.), २. प्रावण्यं, क्रमशः निम्नता। (भ्वा. प. से.) निगृ (तु. प. से.), ग्रस् निचिंत, वि., दे. 'निश्चिंत' । ( भ्वा. आ. से.) २. दे. 'खाना'। निचुड़ना, क्रि. अ. (सं. निच्यवनं ) च्यु निगह, सं. स्त्री., दे. 'निगाह'। ( भ्वा. आ. अ.), च्युत् (भ्वा. प. से.),क्षर-बात, सं. पुं. (फा.) रक्षकः, परित्राता। निर्गल ( भ्वा. प.से.), स्र (भ्वा. प. अ.), -बानी, सं. स्त्री., रक्षा, त्राणम् । २. निष-सं-पीट् (कर्म.), निष्कृष्-उद्ह निगाली, सं. स्त्री. (देश. निगाल = बांस का | ( कर्म.) ३. दुर्बलीभू।। प्रकार ) धूमपानयंत्रनाली। निगाह, सं, स्त्री. (फा.) दृष्टिः ( स्त्री.) दृक् निचोड़, सं. पुं. (हिं. निचोड़ना) मूलं, मूलवस्तु शक्तिः ( स्त्री.) २. दर्शनं, वीक्षणं, विलोकनं (न.), निर्यासः, सारः १.२. तात्पर्य, निष्कर्षः, ३. कृपा-दया-,दृष्टिः ४. विचारः, मतिः (स्त्री.) | भावः, निर्गलित-निकृष्ट-पिंडित,-अर्थः । ५. विवेकः। | निचोड़ना, क्रि. स. ( हिं. निचुड़ना ) निध-सं-लड़ाना, मु., कटाक्षेण अवलोक् (चु.)-वीक्ष पीड (चु.), उद्-निर्-ह ( भ्वा. प. अ.), (भ्वा. आ. से.)। निष्कृष् (भ्वा. प. अ.), निर्गल (प्रे.) निगूढ, वि. (सं.) निलीन, प्रच्छन्न, निभत । २. सर्वस्वं हृ, निर्वनी कृ। सं. पुं., निष-संनिगोड़ा, वि. (हि. निगुरा ) दुध, खल, पीडनं, निष्कर्षणं, निर्गालनं, सर्वस्वहरणन् । २. अधम, नीच ३. मंद-हत,-भाग्य. दव। निछावर, सं. पु. (सं. न्यासावत: मि. अ. नाठा,सं,पुं., बंधुहीन, निर्वाधव, अविवाहित निसार>) (पीडकदेवसांत्वनाथ) अर्पण, निग्रह ' स. पु. (सं.) अव-नि,-रोधः, नियंत्रणं- उपनयनं, उपहरणं, उत्सर्जनं २.उत्सर्गः, दानं, णा, बाधा, प्रति,-बंध:-रोधः २. दमः, दमनं | बलि: (पुं.), उपायनम् । ३. दंड: ४.पीडन, संतापनं ५. निग्रहणं, बंधनं -करना, मु., उत्सृज् (तु. प. अ.), त्यज ६. भर्त्सनं-ना। (भ्वा. प. अ.)। -स्थान, सं. पुं. (सं. न.) वादे पराजयस्थानं -होना, मु., कस्मैचित् प्राणान् त्यज । (न्या.)। निज, वि. (सं.) आत्मीय, स्वीय, स्वकीय, निग्राह, सं. पुं. (सं.) शापः २. दंडः। | स्वकः, आत्म-, स्व २. व्यक्तिगत, वैयक्तिक निघंटु, सं. पुं. (सं.) वैदिककोषविशेषः । ३. मुख्य, प्रधान । २. शब्दसंग्रहः। -का या निजी, वि., दे. 'निज' २. । निघर्ष, सं. पुं. (सं.) दे. 'घिसाव' २. पेषणं, निठल्ला-ल्लू , वि. (हिं. नि+टहल = काम) चूर्णनं, मर्दनम् । क्षीण-निर् ,-वृत्ति, वृत्तिहीन, निर्व्यापार निघात, सं. पुं. (सं.) प्रहारः, आघातः । २. अलस, कार्यविमुख । सं. पुं., वातरायणः । २. अनुदात्तस्वरः (व्या०)। निठाला, सं. पु. (हिं. नि+टहल ) अवकाशः, निघाती, वि. ( सं.-तिन् ) प्रहर्तृ, आहन्त, निर्व्यापारता। प्रहारक, आघातक २. घातक, मारक, प्राणहर। निठुर, वि., दे. 'निष्ठुर' । निचय, सं. पुं. (सं.) समूहः, राशिः, गणः, निठुराई, सं. स्त्री. (हिं. निठुर) दे. 'निष्ठुरता' । निकरः २. निश्चयः ३. संचयः, संग्रहः। निडर, वि. (सं. निर्दर ) अभय, अभीत, निचला', वि. (हिं. नीचे ) अवांच , अधःस्थ, निर्भीक, विदर २. साहसिक,साहसिन् ३. धृष्ट । अधरः,अधस्तन, नीचस्थ,अधः-(उ.अधोदेशः)। '-पन-पना, सं. पुं., निर्भयता, निर्भीकता इ.। For Private And Personal Use Only Page #371 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir निढाल [ ३३३ ] निपात निढाल, वि. (हिं. नि+ ढाल = गिरा हुआ ) | निदान, सं. पुं. (सं. न. ) रोगनिर्णयः, रोग श्रांत, क्लांत, शिथिल, अशक्त २. अलस, निरुत्साह | नितंब, सं. पुं. (सं.) दे. 'चूतड़ ' २. स्कंध : हेतु: (पुं.) २. आदि, मूल कारणं ३ कारणं ४. अंतः, अवसानं ५. शुद्धि : (स्त्री.) । क्रि. वि., अंततः, अंते, अंततोगत्वा, चरमतः । वि. निकृष्ट, अधम | निदारुण, वि. (सं.) कठोर, घोर, दुःसह, असह्य १. निर्दय, निष्करुण । निदिध्यासन, सं. पुं. (सं. न. ) निदिध्यासः, सत्त- निरन्तर अनवरत, चिन्तनं-स्मरणं-ध्यानम् । निदेश, वि. (सं.) आज्ञा, आदेशः २. कथनं ३. सामीप्यम् ४. पात्रम् । निद्रा, सं. स्त्री. ( सं . ) स्वप्नः, स्वपनं, स्वापः, सुप्तिः (स्त्री.) शयनं, संवेशः । -भंग, सं. पुं. (सं.) जागरणम् । - वृक्ष, सं. पुं. ( सं . ) अन्धकारः । निद्रायमान, वि. (सं. निद्रायमाण ) शयान, निद्राण, निद्रित, शयित । निद्रालु, वि. (सं.) तंद्रालु, निद्राशील, शयालु । निद्रित, वि. (सं.) शयित, सुप्त, निद्रागत। निधड़क, वि. (हिं. नि + धड़क ) निःसंकोच, निर्भय, निःशंक । क्रि. वि., निर्भय, निःसंकोचं, निःशंक, विस्रब्धम् । ३. तट:-टम् । नितंबिनी, सं. स्त्री. (सं.) सुनितंबा-बी नारी २. सुन्दरी । नित, क्रि. वि. दे. 'नित्य' क्रि. वि. । -नित, क्रि. वि. दे. 'नित्य' क्रि. वि. ( १ ) । नितरां, अन्य. (सं.) पूर्णतया, सामस्त्येन, २. अतिशयेन, अत्यंतं ३. सदा ४. निश्चयेन | नितांत, वि. (सं.) अत्यधिक, सातिशय, निरतिशय, अत्यंत । क्रि. वि., सर्वथा, पूर्णतया, अत्यंतम् । नित्य, वि. (सं.) शाश्वत [-ती (स्त्री.)] अनश्वर, अविनाशिन, ध्रुव, सतत, अनाद्यनंत, अमर् २. आह्निक-प्रात्यहिक [ -की (स्त्री.) ] । क्रि. वि., अनु-प्रति-दिन, दिने दिने प्रत्यहं अन्वहं २. सदा सर्वदा, ३. सततं अविच्छिन्नम् । - कर्म, सं. पुं. [सं.-र्मन् (न. ) ] प्रात्यहिकदैनंदिन, कार्य, आह्निकं, नित्य, क्रिया-कृत्यम् । शाश्वत । निधन, सं. पुं. (सं. पुं. न. ) मृत्युः २ नाशः । निधन २, वि. (सं.) दे. 'निर्धन' । निधान, सं. पुं. (सं. न. ) आधार:, २. निधिः, कोष: ३. स्थापनम् । निधि, सं. पुं. (सं.) कोष:-शः, द्रव्य, राशि:(पुं.) संग्रह: -संचयः, निधानं, शे (से) वधि: निनाद, सं. पुं. (सं.) ध्वनिः, रवः, शब्दः । (पुं.) २ आधारः, आश्रयः । निनानवे, बि. [ सं . नवनवतिः ( नित्य स्त्री. )] एकोनशतम् । सं. पुं., उक्ता संख्या, तदंकौ ( ९९ ) च । निथरना, क्रि. अ. (सं. नि + स्थिर > ) स्थैर्येण निर्मलीभू ( जलादि ) । सं. पुं., निकण्ठनं, *निषदनम् । निथार, सं. पुं. २. जलाध: - स्थितं मलम् । निथारना, क्रि. स. (हिं. निथरना) स्थैर्येग के फेर में पड़ना, मु. वित्तोपार्जनपर (वि.) निर्मली कृ अथवा शुध् ( प्रे. ) । भू, सर्वात्मना धनं संत्रि, ( स्वा. उ. अ. ) । निदर्शक, वि. (सं.) प्रदर्शक, दर्शयितु निपट, वि. (देश) अत्यंत, अत्यधिक, नितांत २. कथक, कथिक, आख्यापक, ज्ञापक । निपटना, क्रि. अ., दे. 'निबटना' । निदर्शन, सं. पुं. (सं. न. ) उदाहरणं, दृष्टांत: निपटाना, क्रि. स., दे. 'निबटना' । २. प्रदर्शनं, प्रकटीकरणम् । निपटा (टे)रा, सं. पुं., दे. 'निबटेरा' । निदर्शना, सं. स्त्री. (सं.) काव्यालंकारभेद: । निपटावा, सं. पुं., दे. 'निबटाव' | निदाघ, सं. पुं. (सं.) ग्रीष्मः, ग्रीष्म, काल:- निपात, सं. पुं. (सं.) अध:-नि-पतनं २ प्र समय:-ऋतु: (पुं.) २. आतपः, सूर्यालोकः ध्वंसः ३. मृत्युः ( पुं. ) निधनं ४. व्याकरण३. दाहः, तापः । लक्षणानुत्पन्नं पदम् ( व्या. ) । प्रति, क्रि. वि., दे. 'नित्य' क्रि. वि. ( १ ) । नित्यता, सं. स्त्री. ( सं . ) नित्यत्वं, अमरता, ध्रुवता, शाश्वतता । नित्यानित्य, वि. (सं.) ध्रुवाध्रुव, शाश्वता (हिं. निथरना) निर्मलजलं For Private And Personal Use Only आश्रयः, Page #372 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir निपातन [ ३३४ ] निभृत - निपातन, सं. पुं. (सं. न.) अवपातनं, अव- । निबहना, क्रि. अ., (निवणम्) दे. 'निभना'। भंजनं, अवकृतनं २.वि, नाशनं-ध्वंसनं, निबाह, सं. पु. ( सं. निर्वाहः ) जीवनयापनं, हननं, मारणम् । कालक्षेपः, निर्वहणं २. धारणं, रक्षणं ३. त्राणोनिपान, सं. पुं. (सं.) तडागः-गं, जल-तोय, पायः, रक्षासाधनं ४. निवृत्तिः-समाप्तिः(स्त्री.)। आधारः-आशयः २. आहावः, निपानक निबाहना, क्रि. स. (सं. निर्वाहणं ) निर्वह ३. दोहनपात्रं दे., 'दोहनी' ४.आचमनं, पानं, ( भ्वा. उ. अ.; प्रे.) रक्ष ( भ्वा. प. से.), पीतिः (स्त्री.)। प्रवृत् (प्रे.), न विच्छिद् (रु. प. अ.) निपीड़न, सं. पुं. (सं. न. ) अर्दनं, संतापन, २. ( वचनं ) प्रतिज्ञां निर्वह-शुध् (प्रे.)-पा नि-अप-विप्र, करणं २. मर्दनं, दलनं ३. निह । (प्र. पालयति )-अपवृज (चु.) ३. निवृत्रणं, निष्कर्षण, निष्पीडनम् ।। निष्पद्-साथ् (प्रे.), समाए ( स्वा. उ. अ.) 'निपुण, वि. (सं.) प्रवीण, निष्णात, कुशल, ४. निरंतरं कृ या विधा ( जु. उ. अ.)। चतुर, दक्ष, विज्ञ, कृतिन्, विचक्षण, विदग्ध, सं. पु., दे. 'निवाह'। प्रौढ, कुशलिन् । निबाहनेवाला, सं. पुं., निर्वाहकः, संपादकः, निपुणता, सं. स्त्री. (सं.) प्रावीण्य, वैदग्ध्यं, साधकः, पूरयित ( पुं.)। दाक्ष्य, कुशलता, दक्षता इ. । निबिड़, वि. ( सं.) घन, सान्द्र २. कठिन । 'निपूता, वि. ( सं. निष्पुत्र) अपुत्र, पुत्रहीन निबेड़(र)ना, क्रि. सं. (हिं. निबड़(र)ना) २. दे. 'निःसंतान'। समाप (स्वा . उ. अ.), अबसो (प्रे. अवसायनिफ़ाक, सं. पुं. (अ.) द्रोहः, वैरं २. विच्छेदः, / यति ), साध-संपद् (प्रे.) २. विस ज-निर्मुच विभेदः, विघटनम् । (तु. प. अ.; प्रे.), मोक्ष (चु.), ३. विश्लिष्. (प्रे.) पृथक कृ, वियुज (रु.प. अ.) ४. निणी निबंध, सं. पुं. (सं.) बंधनं, नियमनं, दृढी ( भ्वा. प. अ.), व्यवस्था (प्रे.), अव-निर्करणं २. प्रस्तावः, लेखः, प्रबन्धः । धृ (चु.)। निब, सं. स्त्री. ( अं.) लेखनीचंचुः ( स्त्रो.), " | निबेड़ा-रा, सं. पुं. (हिं. निबेड़ना) मुक्तिः न कलमाग्रम् । (स्त्री.), मोचनं, मोक्षणं २. रक्षा, त्राणं, उद्धारः निबटना, क्रि. अ. ( सं. निवर्त्तनं ) निवृत्त 1 ३. वरणं, वृतिः (स्त्री.) ३.विश्लेपः, पृथक् लब्धावकाश-कृतकार्य( वि.) भू , निवृत् (भ्वा. | कृतिः ( स्त्री.) ४. निर्णयः, त्यावस्था। आ. से.) २. समाप् ( कम.), निय-स-पद् निबौरी-ली. सं. स्त्री. (सं.न्त्रिः निव-अरिष्ठ - (दि. आ. अ.) ३. निर्णी ( कर्म.), व्यवसो फलं-बीजम् । (कर्म. व्यवसीयते)। निभ, वि. (सं.) तुल्य, मान । (सं. पुं. न.) निबटाना, क्रि. स., ब. 'निबटना' के प्रे. रूप ।। व्याज:, मिपं २. प्रभा, आभा । निबटाव, निबटरा, स. पु. (हि. निबटना) निभना, क्रि. अ. (हिं. निबहना निर्वह (कर्म अवकाशः, कार्यनिवृत्तिः (स्त्री.), क्षणः, विश्रामः | निरुह्यते), निर्वाही भू २. निय-सं.,पद (दि. २. समाप्तिः, निष्पत्तिः ( स्त्री.) ३. निर्णयः. | आ. अ.) समाप (कर्म.) ३. निरंतरं कृ. कलहान्तः। विधा ( कर्म.)। निबड़ना, क्रि. अ., दे. निवटना। निभागा, वि., (निर्भाग्य ) अमाम्य, मन्दनिबद्ध, वि. (सं.) पिनद्ध, बख, नियंत्रित २. | भाग्य, भाग्य-प्रारब्ध,हान । विरुद्ध, शृंखलित ३. सं., ग्रथित-मत्रित ४. | निभाना, क्रि. स., दे. 'निवाहना' । निवेशित, खचित ५. संबद्धः।। निभाव, सं. पुं., दे. 'निवाह' । निबरना, क्रि. अ. (हिं. निबटना ) दे. 'निब- निभृत, वि. (सं.), १.व, निहित, स्थाटना' (१-३) २. विच्छिद्- वियुज ( कर्म.), | पित २. गुप्त, अन्तर्हित ३. अस्तोन्मुख ४. व्यप-इ ( अ. प. अ.) ३. विश्लिप ( दि. प. नभ्र ५. अचल ६. पूर्ण ७. निर्जन, शून्य ८. अ.) ४. वि-मुच ( कर्म.), त्रै-रक्ष (कर्म.)। नीरव, निःशब्द ९. मन्द १०. पिहित ११. निबल, वि., दे. 'निर्बल'। धीर। For Private And Personal Use Only Page #373 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir निसत्रण [ ३३५ ] निरक्षर - निमंत्रण, सं. पुं. (सं. न.) अभ्यर्थनं-ना, (स्त्री.), परंपरा ४. प्रतिज्ञा, दृढ़संकल्पः आमंत्रणं, आवाहनं, आह्वानं २. भोजनाय । ५. दे. 'शर्त' । अभ्यर्थनम् । -धर्म, सं. पु. ( सं.-मौं ) सदाचारः, सद्-देना, क्रि. स., अभि-आ-नि-मंत्र (चु, आ. वृत्तम् । से.), अभ्यर्थ (चु. आ. से.), आ-समा-हे | | बद्ध, वि. (सं.) नियमाधीन, नियमिन, ( भ्वा. प. अ.) आकृ-आवह (प्रे.)। नियमित, नियंत्रित, सनियम । --पत्र, सं. पुं. (सं. न.) अभ्यर्थन-आमंत्रण, | नियमन, सं. पुं. (सं. न.) वशीकरणं अनु, पत्रम् । शासनं, नियन्त्रणम् २. दमनं, निग्रहः, निमंत्रित, वि. (सं.) आमंत्रित, आहूत। निग्रहणम् । निमक, सं. पुं., दे. 'नमक' । नियमित, वि. (सं.) दे. 'नियमबद्ध' । निमित्त, सं. पु. ( सं. न. ) कारणं, हेतुः (पुं.) | | नियम्य, वि. (सं.) वशीकार्य, अनु,शास२. चिह्न, लक्षणं ३. शकुनम् । क्रि. वि., . नीय, नियंत्रणीय २. दमनीय, निग्रहणीय । उदिश्य, अभिलक्ष्य। नियाज, सं. पुं. (फा.) इच्छा २. प्रार्थना निमिष, सं. पुं. (सं.) दे. 'निमेग। ३. दर्शनम्, साक्षात्कारः । निमीलन, सं. पुं. ( सं. न.) पक्ष्मसंकोचनं, | आनन -मंद, वि.,इच्छुक २. प्रार्थिन्, ३. दर्शनार्थिन्. निमेषः। -हासिल करना, मु., दर्शनं कृ, परिचयं निमीलित, वि.(सं.) मुद्रित, पिहित, संवृत।। प्राप् (स्वा. उ. अ.)। निमेष, सं. पुं. (सं.) निमिषः, पक्ष्मसंकोचः, नियामक, सं. पं. (सं.) व्यवस्थापकः, विधा२. क्षणः, पलम् । यकः, प्रतिबंधक: २. निरोधकः, प्रतिबंधकः ३. निमोनिया, सं. पुं. ( अं.) फुफ्फुसप्रदाहः, नाविकः । श्वसनकज्वरः। नियामत, सं. स्त्री., दे. 'निआमत' । निम्न, वि. (सं.) ग(ग)भीर, गहन २. नत, | नियुक्त, वि. (सं.) आयुक्त, नियोजित, व्यापानीच, अधःस्थ । रित २. निश्चित, नियत, स्थिरीकृत । -लिखित, वि. ( सं.) अधो, लिखित-वर्णित । | नियुक्ति, सं. स्त्री. (सं.) नियोजनं, नियोगः, नियंता, सं. पुं. (सं. नियंत) व्यवस्थापकः, व्यापारणं, स्थापनम् ।। न्याय-विधि, प्रवर्तकः-२. विधायकः, कायसंचा- | नियुत, सं. पुं. (सं.न.) लक्षं, लक्षदशकं वा। लकः ३. शासकः, शासित (पु.) ४. अश्व-नियोग. सं. (संनियोजन निरालि शिक्षकः, ५. अध्यक्षः, अधिष्ठात, इशः (स्त्री.), व्यापारणं २. प्रेरणं-णा ३. अवधारणं, ६.सारथिः (पुं.)। निश्चयः । ४. देवरादिभिः अपुत्रायां पुत्रोत्पादनं नियंत्रण, सं. (सं. न.) निग्रहः, निरोधः । (धर्म. ) ५. आज्ञा । प्रतिबंधः। नियोजन, सं. पुं. (सं. न.) दे. 'नियुक्ति' नियंत्रित, वि. (सं.) नियमित, नियमबद्ध, २. प्रेरणं-गा। प्रतिबद्ध, निरुद्ध। नियोजित, वि. (सं.) दे. 'नियुक्त' (?)। नियत, वि. (सं.) संयत, प्रतिबद्ध, दांत, वशो- निरंकुश, वि. ( सं. ) त्वैर, स्वैरगति, स्वैरिन्, कृत २. निश्चित, स्थिरीकृत, पूर्वनि गीत. ३. कान, वृत्ति- चारिन्। प्रतिष्ठापित, नियोजित, नियुक्त। निरंजन, वि. (सं.) पूत, विशुद्ध, पवित्र, नियति, सं. स्त्री. (सं.) भाग्यं, देवं, भवित. निलेप । २. अकज्जल । सं. पुं., ईश्वरः २. व्यता। शिवः। नियतेन्द्रिय, वि. (सं.) जितेन्द्रिय, संयमिन् । निरंतर, वि. (सं.) अविच्छिन, अविरत, स. नियम. सं. पं. (सं.) विधिः (पु.), व्यवस्था, (सं)तत, अनंतर, अव्यवहित । क्रि. वि., सदा, सूत्रं. स्थितिः-पद्धतिः ( स्त्री.), मर्यादा, आ-नि- सततं निरंतरं, नित्यं- अनवरतं, अविश्रांतन् । देशः नियोगः २. प्रतिबंधः, नियंत्रणं ३. गीतिः निरक्षर, वि.(सं.)अनक्षर, अज्ञ, अशिक्षित,मूर्ख। For Private And Personal Use Only Page #374 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir निरखना [ ३३६ ] निर्देश अनर्थक २. र्शनम् । निरखना, क्रि. स. (सं. निरीक्षणं)दे. 'देखना' । । निरुत्तर, वि. (सं.) अनुत्तर, बद्ध-रुद्ध, मुख । निरपराध, वि. (सं.) अ-निर्दोष, अनवद्य, | निरुपम, बि. (सं.) अनुपम, अतुल-ल्य, असदोषहीन, अनघ, निष्पाप । दृश [-शी (स्त्री.)], दे. 'अनुपम' । निरपेक्ष, वि. (सं.), निरीह, अकाम, नि- निरूपण, सं. पुं. (सं. न.) अव-निर , धारणं, विगत,-स्पृह, विरक्त, तटस्थ । निर्णयः-यनं, निश्चयः २. अवलोकनं ३. निदनिरर्थक, वि. ( सं.). अर्थशून्य, अनर्थक २. / निष-अ-वि, फल, मोघ, वंध्य, अनुपयुक्त। निरूपित, वि. (सं.) व्याख्यात, विवेचित निरस, वि. ( सं.) दे. 'नोरस'। सम्यक् वर्णित २. निर्धारित, निणींत ३. अवनिरस्त्र, वि. (सं.) अशस्त्र, निरायुध । लोकित, ईक्षित। निरहंकार, वि. (सं.) निरभिमान, नम्र, निरूप्य, वि. (सं.) व्याख्यातन्य, विवेचनीय, विनीत। वर्णनीय २. निर्धारणीय, निर्णतन्य ३. अवनिरा, वि. ( सं. निरालय) विशुद्ध, मिश्रण- | लोक्य, ईक्षणीय, अन्वेषणीय ।। रहित, असंसृष्ट २. कवल, एव, मात्र | निरूहण, सं. . ( सं. न.) तर्कणं, विवेचनं. ३. अत्यंत, अत्यधिक। | विचारणम् २. निर्धारणं, निर्णयनम् । निराकार, वि. (सं.) अदेह, अकाय, अशरीर, निरोग-गी. वि...दे. 'नीरोग'। अमर्त. अरूप। सं.पं..ईश्वर:२. आकाश:-शम् ।। -शम् । निरोध, सं. पुं. (सं.) अवरोधः, प्रतिबन्धः निरादर, सं. पुं. (सं.) अनादरः, अवज्ञा, | नाश अव-अप,-मानः, अवधीरणं-णा, तिरस्कारः, निरोधक, वि. (सं.) निवारक, प्रतिबन्धक, परिभवः। प्रतिषेधक, बाधक। निराधार, वि. (सं.) निरवलंब, निराश्रय २. अयुक्त मिथ्या ३. निराहार। निर्ख, सं. पुं. ( फ़ा. ) अर्घः, मूल्यम् । निरामिष, वि. (सं.) निर्मीस. मांसरहित -नामा, सं. पुं (फा.) अर्घसूची, मूल्यपत्रम् । २. शाकाहारिन् । निर्गत, वि. (सं.) निर्यात, प्रस्थित, निष्क्रान्त। निरायुध, वि. (सं.) दे. 'निरस्त्र' । निर्गम, सं. पुं. (सं.) बहिर्गमन, प्रस्थान २. निराला, वि. ( सं. निरालय>) अदभुत, | द्वारं, निर्गमनमार्गः। विचित्र, विलक्षण, विशिष्ट २. अनुपम, अतुल्य, निगुंडी, सं. स्त्री.(सं.) शेफाली-लिका,सिंधुवारः । अपूर्व ३. वि-निर, जन । सं.पु., निभृतस्थानम् । | निर्गुण, वि.(सं.)त्रिगुणातीत २. मूर्ख, गुणहीन। निराश, वि. (सं.) भग्नाश, हताश, त्यक्ताश, सं. पुं., परमेश्वरः। आशाहीन, निरपेक्ष । निर्जन, वि. (सं.) विजन, एकान्त, विविक्त । निराशा, सं. स्त्री. (सं.) नैराश्य, निराशता, निजेर, वि. (सं.) जराहीन । सं. पं., देवता! आशाहीनता। निर्जल, वि. (सं.) जलशून्य, शुष्क । निराश्रय, वि. (सं.) अनाश्रय, अशरण, अस- | निर्जीव, वि. (सं.) अचेतन, जड़, प्राणहीन । हाय, आश्रयहीन । निर्णय, सं. पुं. (सं.) आधर्षणं, निर्णयपादः, निराहार, वि: (सं.) निरन्न, अनाहार, उयो व्यवस्था, दंडाज्ञा २. निश्चयः, परिच्छेदः. षित, कृतोपवास । विवेकः, अव-निर ,-धारणं-धारणा। निरीक्षण, सं. पुं. (सं. न.) दर्शनं, वीक्षणं, निीत, वि. (सं.)निश्चित, अव-निर .-धारित । अवलोकनं २. अवेक्षणं, निरूपणं, कार्यदर्शनम्। निर्दय-यी, वि. (सं. निर्दय) निकृप, निष्करुण. निरीक्षित, वि. (सं.) दृष्ट, आलोकित २. क्रूर, निष्ठुर, निघृण, नृशंस, कठोर । __ अवेक्षित, निरूपित। निर्दिष्ट, वि. (सं.) उक्त, कथित, वर्णित २. निरुक्त. सं. पुं. (सं. न.) वेदांगविशेषः २. निश्चित, नियत, संकेतित ३. आदिष्ट । यास्कमुनिप्रणीतो ग्रंथविशेषः । निर्देश, सं. पुं. (सं.) वर्णनं, कथनं, विज्ञापनं, निरुक्ति. सं. स्त्री. (सं.) निर्वचनं, व्युत्पत्ति- संकेतः २. निश्चयः, निर्णयः ३. आज्ञा, आदेशः दर्शिनी व्याख्या। ४. नामन् ( न.), संज्ञा। For Private And Personal Use Only Page #375 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir निर्दोष २२ [३३७ ] निवृत्ति - निर्दोष, वि. (सं.) दे. 'निरपराध'। | निर्माल्य, सं. पुं. (सं. न. ) देवोच्छिष्ट द्रव्यं, निर्द्वन्द, वि. (सं. निन्द्र) शत्रु-प्रतिद्वन्द्रि, रहित , देवापितवस्तु ( न.)। २. द्वंद्वातीत, विरक्त ३. स्वैर, स्वैरगति । । निर्मित, वि. (सं) रचित, घटित, कल्पित, निर्धन, वि. (सं.) अकिंचन, दरिद्र, अधन, | सृष्ट। निःस्व, अर्थ-द्रव्य-धन-वित्त,-हीन, दुर्गत, दीन। निर्मूल, वि. (सं.) अमूलक, निमूलक, निरानिर्धनता, सं. स्त्री. (सं.) दारिद्रयं, अकिंचनता, धार २. उन्मूलित, उत्पाटित । दुर्गतिः ( स्त्री.), दीनता। | निर्मोकी, वि. ( सं. निर्मोह ) निर्मम, ममत्वनिर्धार, सं. पुं. (सं.) । निश्चयः,परिच्छेदः, शून्य, रूक्ष २. निर्दय, पाषाणहृदय । निधारण, सं. पुं. (सं.न.) J विवेकः, अवधारणा | निलज, वि. (सं.) अप-निस् , त्रप, निर , बीडनिधारित, वि. (सं.) निश्चित, कृतनिश्चय, हीक, त्रपा-लज्जा,-हीन, धृष्ट, वियात ।। परिच्छिन्न । निर्लोभ, वि. (सं.) परि-सं, तुष्ट, तृप्त, निःस्पृह, निर्निमेष, वि. (सं.) अनिमिष, पक्षमपातरहित। वितृष्ण, अलोलुप, अगृध्नु । क्रि. वि., अनिमि(मे)पं, निनिमे(मि)षम् । EPTET निर्वाण, सं. पुं. (सं. न.) मोक्षः, मुक्तिः निर्बन्ध, सं. पुं. (सं.) आग्रहः, अभिनिवेशः (स्त्री.), अपवर्गः। २. विघ्नः, अन्तरायः। | निर्वात, वि. (सं.) अपवन, निर्वात्य, वातवेगनिर्बल, वि. (सं.) अबल, अशक्त, दुर्बल, निस्तेजस , निर्वीर्य, अल्प-क्षीण, बल-शक्ति, निर्वाह, सं. पुं. (सं.) दे. 'निबाह' । निःसत्त्व। निर्विकार, वि. (सं.) विकृति-विकार-परिवर्तन, निर्बलता, सं. स्त्री. (सं.) बल-शक्ति,-शून्यता, रहित, अविकारिन्, अपरिवर्तिन् । बल-शक्ति-सत्व, क्षयः-नाशः हानि: (स्त्री.)। निर्विघ्न, वि. (सं.) निरंतराय, निर्व्याघात, निर्बुद्धि, वि. ( सं. ) मूर्ख, जड। विनरहित । क्रि. वि., निर्विघ्नं, शांत्या (तृ.) निर्बोध, वि. (सं.) अज्ञान, अबोध । निरुपद्रवम् । निर्भय, वि. (सं.) अभय, अभीत. अकतोभय, ! निविवेक, वि. (सं.) निबुद्धि, अविवेकिन् । निभीक, निःशंक २. प्रगल्भ, साहसिन् । निवीर्य, वि. (सं.) निस्तेजस-निःसत्त्व, निर्बल । निर्भयता, सं. स्त्री. (सं.) निर्भीकता, अभय, निवार, सं. स्त्री. (फा. नवार) पर्यकपट्टिका, अभीतिः (स्त्री.), निःशंकता २. प्रागल्भ्यं. *निवारम् । साहसम्। निवारक, वि. (सं.) रोधक २. अपसारक, निर्भीक, वि. ( सं.) दे. 'निर्भय' । नाशक। निर्भीकता, सं. स्त्री. (सं.) दे. 'निर्भयता'। निवारण, सं. पुं. (सं.) नि,रोधः-रोधनं निर्मम, वि. (सं.) विरक्त, वैराग्यवत् २. निः- २. अपसारणं, दूरीकरणं ३. निवृत्तिः (स्त्री.)। स्वार्थ, निरिच्छ ३. उदासीन, तटस्थ निवाला, सं. पुं. (फा.) दे. 'ग्रास'। निर्मल, वि. (सं.) अमल, विमल, स्वच्छ, निवास, सं. पुं. (सं.) वसतिः-स्थितिः (स्त्री.) शुभ्र २. अपाप, पवित्र ३. निष्कलंक, निर्दोष। २. गृहं, निकेतनं आ(अ)गारं, आवसथः, निर्मलता, सं. स्त्री. (सं.) विमलता, स्वच्छता | आ-नि,-लयः २. वास, गृहं-स्थानम् । २. पवित्रता ३, निष्कलंकता इ.। करना, क्रि. अ., अधि-आ-नि-प्रति-वस् निर्मली, सं. स्त्री. (सं. निर्मल >) अंबुप्रसादः, (भ्वा. प. अ.)। कतकः, तिक्तमरिचः २. कतकबीजं ३. दे. | निवासी, सं. पु. ( सं.-सिन् ) वासकृत् (पुं.), 'रीठा'। वासिन, स्थ, वतिन् । निमाण, सं. पुं. (सं. न.) निर्मितिः ( स्त्री.), निवृत्त, वि. (सं.) वि.,मुक्त, विरत, लब्धावरचन-ना, विधानं, सर्जनं, घटनं, कल्पनं, काश, कृतकार्य २. विरक्त, पृथग्भूत । साधनं, संपादन, सृप्तिः ( स्त्री.)। | निवृत्ति, सं. स्त्री. (सं.) उपरमः, प्रवृत्त्यभावः, निर्माता, सं. पुं. [सं.-४ ] रचयित-स्रष्ट(पुं.)।। अप-उप-वि, रतिः ( स्त्री.), मुक्तिः ( स्त्री.)। For Private And Personal Use Only Page #376 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir निवेदन [ ३३८ ] निष्काम निवेदन, सं. पुं. (सं. न.) आवेदनं, प्रार्थनं-ना, २. स्नेहाभिज्ञानं स्मृति-रमारक,-दानं २. अभि अभ्यर्थना, याचा, याचना, विज्ञापना, विज्ञप्तिः । ज्ञानं, स्मारकम् ।। (स्त्री.)। निशावसान, सं. पुं. (सं. न.) निशा, अति-करना, क्रि. स., आ-नि-विद् (प्रे.)- विज्ञा | क्रमः-अत्ययः, प्रातः (अल्य.)। (प्रे., विज्ञापयति) अभि-प्र-अर्थ (चु. आ. से.), निशीथ, सं. ई. (सं.) अर्द्ध-मध्य, रात्रः, याच् ( भ्वा. उ. से.)। रात्रि-निशा, मध्यं २. रात्रिः ( स्त्री.)। -पत्र, सं. पुं. (सं. न.) आवेदन-प्रार्थना,- | निश्चय, सं. पुं. (सं.) नियतता, निश्चितत्वं, पत्रम् । ध्रुवत्वं २. विश्वासः, विश्रंभः ३. निर्णयः ४. निशंक, वि., दे. 'निःशंक' । दृढ-संकल्पः, अध्यवसाय:। निशांध, वि. (सं.) रात्र्यंध, दोषांध । निश्चल, वि. (सं.) अचल, अविचल, धीर, निशा, सं. स्त्री. (सं.) रात्रिः ( स्त्री.), शर्वरी।। दृढ़, धृतिमत् २. स्थिर, नि:स्तब्ध, निश्चेष्ट । ~-कर, नाथ,-पति, सं. पुं. (सं.) चन्द्रः, | निश्चिंत, वि. (सं.) बीत-मुक्त, चित्त, शांत, सोमः। | चिंता-रणरणक,-रहित । निशाचर, सं. पुं. (सं.) राक्षसः, रक्षस (न.), | निश्चित, वि. (सं.) संदेह-संशय,-शून्य, अ. पिशाचः २. चौरः, लुंठकः ३. नक्तंचरः। निस् , संशय, नियत, दृढ २. निर्णीत, निर्धा( उल्लू आदि)। रित । निशात, वि. (सं.) निशितः-ता-तं, तेजित, | निश्वास, सं. पुं. (सं.) दे. 'निःश्यास' । शित, क्ष्णुत २. परिष्कृतः-ता-तं, उज्ज्वलित। | निषध, सं. पुं. (सं. निषधा: बहु.) विंध्याचनिशाद, सं. पुं. (सं.) निशादनः, नक्तभोजिन् लस्थः देशविशेष: २. 'कमाऊँ'प्रदेशः ३. निघ२. राक्षसः, विशाचः ३. घूकः।। धवासिन् । निशादि, सं. पुं. (सं.) सायम्, ( अव्य.) | -पति, सं. पुं. (सं.) नलः । सन्ध्या । | निषाद, सं. पुं. (सं. पुं.) अनार्यजातिविशेषः निशान, सं. पुं. (ना.) अभिज्ञानं, चिह्न, २. चांडाल:, हीन: ३. सप्तमस्वरः (संगीत)। अंकः, लक्षणं, लांछनं, लिंग, व्यंजकं-नं | निषिद्ध, वि. ( सं.) प्रतिषिद्ध, प्रत्यादिष्ट, २. प्रमाणं, साधनं ३. किणः, क्षत,-अंकः-चिह्न | निवारित २. दृषित, गह, निन्छ । ४. लक्ष्य, शूरव्यं ५. अधिकार-प्रतिष्ठा,-चिह्न | निषूदन, वि. (सं.) मारक, मारयित, हंतु, ६. ध्वजः, वैजयंतः-ती। प्राणहर, अन्तकर, घातक । —करना या लगाना, क्रि. स., अंक (चु.), निषेक, सं. पुं. (सं.) अव-आ-,सेकः-सेचनं, चिह्नयति, मुद्रयति ( ना. धा.)। अभि, वर्षणं-उक्षणम् २. गर्भाधानं ३. गर्भाधान-दार, वि. (फा.) चिह्नित, अंकित २. ध्वज- संस्कारः ४. धावन जलं ५. मलिनजलं ६. वाहकः । वीर्याशुद्धिः (स्त्री.)। -बर्दार, सं. पुं. ( फ़ा.) वैजयन्तिकः, पताकिन् | निषेचन, सं..(सं. न.) दे. 'निषेक' । २.अग्रेसरः, पुरोगः ।। निषेध, सं. पुं. (सं.) प्रतिषेधः, निरोधः, नाम-, चिह्न, लक्षणं २. अस्तित्वलेशः। निवारणम्, निषिद्धिः ( स्त्री.)। निशानचा, सं. पुं. (फा. निशान) दे. | निषेधक, वि. (सं.) प्रतिषेधक, निवारक, 'निशानबर्दार' २. लक्ष्यवेधकः। प्रतिषेधु, बाधक, निरोधक।। निशाना, सं. पुं. (फा.) लक्ष्य-क्ष, शरव्यम् । | निष्कंटक, वि. (सं.) नि बन्न-निधि, निरंतराय -बाँधना, मु., लक्षी-क्ष्यी कृ., संधा (जु. २. निःशल्य, अकंटकित। उ. अ.)। निष्कपट, विं. (सं.) ऋजु, सरल, अमाय, -मारना या लगाना, मु., लक्ष्यं प्रति क्षिप | निश्छल, विशुद्ध।। (तु. प. अ.)-अस् ( दि. प. से.)। निकाम, वि. (सं.) निरिच्छ, निरीह, निशानी, सं. स्त्री. (फा.) दे. 'निशान' | निःस्पृह । For Private And Personal Use Only Page #377 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir निष्कारण [ ३३६ ] नीच - निष्कारण, वि. (सं.) अकारण, निनिमित्त । । निस्पृह, वि., दे. 'निःस्पृह' । क्रि. वि. अकारणं, अहेतुकम् । निस्फ, वि. ( अ.) दे. 'आधा' । निष्क्रमण, सं. पुं. (सं. न.) बहिर्गमनं, निर्गमनं | निस्संकोच, वि. (सं.) दे. 'निःसंकोच'। २. संस्कारभेदः (धर्म)। निस्संतान, वि. (सं.) दे. 'निःसंतान' । निष्टा, सं. स्त्री. (सं.) प्रत्ययः, विश्रंभः, विश्वासः । निस्संदेह, वि. (सं.) दे. 'निःसंदेह' । २. भक्तिः ( स्त्री.); श्रद्धा। निस्सार, वि. ( सं.) दे. 'निःसार' । निष्ठर, वि. (सं.) क्रूर, क्रूरकर्मन्, निर्दय, | निस्सीम, वि. (सं.) दे. 'निःसीम' । निघृण, निष्करुण, नृशंस, कठोरहृदय। निस्स्वार्थ, वि. (सं.) दे. 'निःस्वार्थ । निष्टरता, सं. स्त्री. (सं.) क्रूरता, निर्दयता, निहंग, वि. (सं. निःसंग ) एकल, एकाकिन्, नृशंसता। २. ब्रह्मचारिन् ३. नग्न ४. निर्लज्ज । निष्पत्ति, सं. स्त्री. (सं.) अंतः, समाप्तिः (स्त्री.) | निहत्था, वि. (सं. निहस्त>)निरस्त्र, निःशस्त्र, २.परिपाकः, सिद्धिः ( स्त्री.)। निरायुध, अस्त्र-शस्त्र,-हीन २. निर्धन । निष्पन्न, वि. (सं.) समाप्त, अवसित २. सिद्ध, निहाई, सं. स्त्री. ( सं. निधाति:> ) शूर्म:-मी, परिगत, संपन्न । स्थूणा। निष्पादन, सं. पुं. ( सं. न.) साधनं, निर्वर्तनं, निहायत, वि. (अ.) अत्यंत, अत्यधिक । विधानं २. समापनं, संपूरणम् । निहारना, क्रि. स. (सं. निभालनं) दे. निष्पाप, वि. (सं.) अपाप, अनघ, अकल्मष, | "देखना'। अकिल्विष, पापरहित, पुण्यात्मन् । निहाल, वि. (फ़ा.) संतुष्ट, पूर्णकाम, प्रसन्न । निप्प्रयोजन, वि. (सं.) निस्स्वार्थ, निष्काम | -करना, क्रि. स., प्रसद्-आनंद-हृष (प्रे.)। २. अकारण, निष्कारण ३. अनर्थक, व्यर्थ । क्रि. निहित, वि. (सं.) स्थापित, न्यस्त, निक्षिप्त । वि., व्यर्थ, मुधा। निहोरा, सं. पु. ( सं. मनोहारः> ) अनुग्रहः, निष्फल, वि. ( सं.) निरर्थक, अनुपयोगिन्, कृपा, उपकारः २. कृतज्ञता, कृतवेदिता मोघ, विफल, निष्प्रयोजन, वृथा, मुधा। ३. प्रार्थनं-ना, निवेदनं ४. आश्रयः, आधारः। निसबत, सं. स्त्री. (अ.) संबंधः, अनुषंगः | क्रि. वि., द्वारा-कारणेन ( अव्य.)। २. वाग्दानं, वाकप्रदानं ३. तुलना, सादृश्यम् ।। -मानना, क्रि. अ., उपकारं स्मृ ( भ्वा. प. क्रि. वि., अपेक्षया तुलनया-औपम्येन(तृतीया)। अ.) कृतं ज्ञा ( क्र . उ. अं.)। निसर्ग, सं. पुं. (सं.) स्वभावः, प्रकृतिः (स्त्री.)। नींद, सं. स्त्री. (सं. निद्रा) स्वपनं, संवेशः, दे. निसार, सं. पुं. (अ.) दे. 'निछावर' 'निद्रा। निस्तब्ध, वि. (सं.) जड़ी-निष्पंदी,-भूत, -आना, क्रि. अ. स्वप् (सन्नत., उ.. सुषुअवसन्न, जडतुल्य, निश्चेष्ट २. अनालापिन्, प्सति ) निद्रया पराभू (कर्म.)। मौनिन्, तूष्णीक । -उचाट होना, क्रि. अ., वि-भग्न,-निद्र निस्तब्धता, सं. स्त्री. ( सं. ) निष्पंदता, | (वि.) भू। निःस्पंदता, जडता, निश्चेष्टता २. नीरवता, | -न आना, सं. पुं., निद्रा,-लोपः-नाशः। मौनम् । -भर सोना, मु., यथेष्टं स्वप् ( अ. प. अ.)। निस्तार, सं. पुं. (सं.) अपवर्गः, मुक्तिः (स्त्री.) नींदू , वि. ( हिं. नोंद ) दे. 'निद्रालु। २. उद्धारः, त्राणम् । नींबू, सं. पुं., दे. 'निंबू'। निस्तारा, सं. पुं. (सं. निस्तारः) निर्णयः, नोक-का, वि. (सं. निक्त>) अच्छ, सुन्दर, निर्धारण २. दे, 'निस्तार' । उत्तम, भद्र, उत्कृष्ट । निस्तेज, वि. (सं.निस्तेजस ) अप्रभ, निष्प्रभ, नाच, वि. (सं.) अधम, अवर, अप-नि,-कृष्ट, मलिन, तेजोहान २. निःसत्त्व, निवीर्य, क्षुद्र, खल, गा, जघन्य, तुच्छ, पामर । निरुत्साह । सं. पुं., अपसदः, जाल्मः, दुर्वृत्तः, पृथग्जनः, निस्पंद, वि. ( सं.) निष्पंद, अकंप, अचल, २. हीन,-जातिः-वर्णः-कुलः, अंत्यजातीयः, स्थिर, गतिशून्य, निसस्पन्द, निःस्पन्द । नीच, कुलजः-वंशप्रसूतः । For Private And Personal Use Only Page #378 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir नीचता [ ३४० ] नीलाथोथा नाममw ..--. -.-. . --- -- - - - - -- -ऊँच, मु., भद्राभद्रे ( न.) २. गुणावगुणौ, -बदल जाना, मु. पा प्रति प्रवृत (वा. आ. ३. हानिलाभौ ४. सुखदुःखे (न.) ५. संपद्- | से.), धर्म त्यज ( भ्वा. प. अ.)। विपदौ ( स्त्री.) ६. उत्कर्षापकर्षों । नेक–, वि., सदाशय, मुसंकल्प । नीचता, सं. स्त्री. (सं.) अधमता, क्षुद्रता, बद-, वि., दुराशय, कुसंकल्प । तुच्छता, पामरता, २. अन्त्यजता, हीनकुलता। नीर, सं. पुं., (सं. न.) तोयं, दे. 'जल' , नीचा, वि. (सं. नीच ) अधःस्थ, अधस्तन- | नीरज, सं. पुं. (सं. न.) पद्म, दे. 'कमल'। (-नी स्त्री.), नत, निम्न, नीचस्थ, अवांच नीरद, सं. पुं. (सं.) जलदः, दे. 'मेघ'। २. दे. 'नीच'। नीरस, वि. (सं.) अरस, विरस, अ-वि,-द्रव, -ऊँचा, वि., नतोन्नत, विषम, असम, २. दे. शुष्क २. अस्वादु, रसहीन, अरुचिकर । 'नीच-ऊँच'। नीरोग, वि. (सं.) सुस्थ, कल्य, वात, दे. -दिखाना, मु., पराजि (भ्वा. आ. अ.), 'स्वस्थ' । पराभू २. ही (प्रे. हृपयति ), लघू कृ, वीड़ | नीरोगता, सं. स्त्री. (सं.) आरोग्य, दे. 'स्वास्थ्य। नीचाई, सं. स्त्री. (हिं. नीचा) नीचता,निम्नता, नील, सं. पुं. (सं. नीलं ) ( पौदा ) काला, अधःस्थता। | नीलो, नीलिनो, रंजनी, २. (द्रव्य) नीलं, नील. नीचे, क्रि.वि. [सं. नीचैः (अव्य.) ] अधः, वर्णः ३. प्रहार जं, नीलचिह्न, नीला ४. लांछनं अधोभागे, अधस्तात्, तले २. अधीनतायां, ५. वानरविशेषः ६. इन्द्रनीलमणिः, नीलोपल: वशे ३. न्यून, अवर। (पुं.) ७. संख्याविशेष: ( दस हजार अरब -ऊपर, क्रि. वि., अन्योन्यस्योपरि, इतरेत- अथवा सौ अरब )। वि., दे. 'नीला'। रस्योर्ध्वम् । २. अस्तव्यस्तं, संकीर्णतया। -कंठ, सं. पुं. (सं.) चापः, किकीदि(दी)विः नीड़, सं. पु. ( सं. पुं. न.) दे. 'घोंसला'। । (पु.) २. शिवः ३. मयूरः । नीति, सं. स्त्री. (सं.) उपायः, युक्तिः-रीतिः | -कमल, सं. पुं. (सं. न.) नील,-पभम्(स्त्री.), प्रयोग: २. राज-राज्यशासन, नीतिः- ! अब्ज-इन्द्रि(न्दीधरं, इन्दीवारः । नयः-नायः-मार्गः, नय-नीति, क्रमः-मार्गः -का टीका, मु., कलंकः, अपयशस् (न.) । ३. सदाचारः, सद्व्यवहारः, सु-सत्,-चरितं गाय, मं. स्त्री., दे. 'गवर' । ४. नीति, विद्या-शास्त्रम् । नीलम, सं. पुं. का.; सं. नीलमणिः (पं.)] नीतिज्ञ, वि. (सं.) नयज्ञ, नीतिशास्त्रज्ञ । नीलः, नीलोपल:, महा-इंद्र, नीलः । नीतिमान् , वि. (सं.-मत् ) नयपर, सदाचा- नीलांबर, सं. पुं. ( सं. न.) नीलकौशेयवस्त्रं रिन् [ -मती (स्त्री.)]। २. तालीशपत्रम् । सं. पुं., बलदेवः २. राक्षसः । नीप, सं. पुं. (सं.) कदंबः, विषन्नः, मदिरा- नीलोफर, सं. पु. ( का.: मि. सं. नीलोत्पलं) गंधः। कुमुदं, करवं २. इंदी(दि)वरं, नील, नीबू , सं. पुं. ( सं. निंबुकं ) दे. 'निंबू'। अब्जं-कमलन् । -निचोड़, वि., अल्पदायिन् बहुग्राहिन्, अल्प- नीला, वि. (सं. नोल) श्याम, मेचक, नीलवर्ण। दातृ बहुग्रहीत, अल्पद बहुग्राहक । | -रंग, सं. पुं., नीलः, नीलवर्णः, नालिमन् नीम, सं. पुं., दे. 'निंब'। (पुं.)। नीम, वि. ( फा., मि. सं. नेम ) दे. 'आधा'। -पीला होला, मु., क्रुध (दि. प. अ.) कुप -हकीम, सं., पं. वैद्यमानिन्, वैद्यमन्यः.। (दि. प. से.)। मिथ्या-कु-छम, वैद्यःपिकित्सकः । | नीलाई, सं. स्त्री. (हिं. नीला) नीलत्वं, -हकीम ख़तरे जान, मु., वैद्यन्मन्यात् प्राण- नीलिमन् (पुं.)। संकटम्, छमवैद्यः संकटावहः । नीलाथोथा, लं. पुं. (हिं. नीला+सं. तुत्थं ) नीयत, सं. स्त्री. (स्त्री.) आशयः, उद्देशः, भावः, । हेमसारं, तुत्थं, नीलाञ्जनं, ताम्रगर्भ, मयूरइच्छा, लक्ष्यम् । । ग्रीव, नीलं. विनुन्नक, मयूरकम् । For Private And Personal Use Only Page #379 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir नीलाम • [३४] - - नीलाम, मं. पुं. ( पूर्व. ललम ) *लीलामय- -हन, वि. (सं.) मनुष्य-मनुज, घातकविक्रयः। नीव. . मी. (. नमी : वन्न । यु. न. , . .--देव, सं. पुं. (सं.) विप्रः, ब्राह्मणः २. नृपः, गृह-निधि, मूलं-प्रतिष्ठा, पोटः, बंदनमः ! भूपः । (चा । --ति, सं. पुं. (सं.) नर-भू ,पाल:। -डालगायाखाना, त्रि... वन निमा -पशु, सं. पुं. (सं.) मूढ़, अज्ञ । (जु. मा. अ.), स्था (प्रे. स्थापयति )। -लिह, सं. मु. ( सं.) नर-नृ, सिंहः केशरिनमु., प्रारभ (वा. आ. अ.), प्रवृत (प्रे.)। हरिः, विष्णोश्चतुर्थावतारः। नुकता, नं. पुं. (अ. नुकतर ) विदुः (पुं.), नृत्य, सं. पुं. ( सं. न. ) दे. 'नाच' । गोल-) अंक:-विल. शन्यवं. बिंदः। -झाला. सं. स्त्री. (सं.) दे. 'नाचघर। नुकता, मं. पुं. (अ. नुकतह ) रम्यं, नृप, नृपति, सं. पुं. (सं.) भूपः, दे. 'राजा'। मर्मन् ( न.) २. व्यंग्योक्तिः (त्री.), गूढार्थ- नृशंस, वि. ( नं.) दे. 'निष्ठुर' । वचनं, व्यंग्यं ३. दोपः, त्रुटिः (स्त्री.)। नृशंसता, सं. स्त्री. (सं.) दे. 'निष्ठुरता' । --ची, वि. (फ़ा.) छिद्र-दोप, अन्वेपिन, नसिंह, नं. पु. (सं.) नरसिंहः, विष्णोश्चतुर्थादोपैकदृग् (पुं.), पुरोमागिन् । बतार: २. श्रेष्ठजनः, नरर्षभः । -चीनी, सं. स्त्री. (फा.) दोपदर्शनं, छिद्रा- | नेक, वि. (फा.) भद्र, अच्छ, उत्तम, सु, सत्, न्वेषणं. पुराभानित्वम् । २. शिष्ट, सौम्य, सभ्य । नुक़सान, सं. पुं. (अ.) कति: (स्त्री.), दे. -चलन, वि. ( ता.+हिं.) सदाचारिन, 'हानि'। सद्वृत्त। नकोला, वि. (हि. नोक ) साग्र, तीक्ष्णाम, -चलनी, सं. स्त्री., सदाचारः, सौजन्यम् । नि- शित, अणिमत्-नी (स्त्री.)] -नाम, वि. (फा.) यशस्विन् , कीर्तिमत् । नुक्कड़, सं. पुं. (हिं. नोक ) अंतः, सीमा, अगं --नामी, वि., सुयशस् (न.), कीर्तिः (स्त्री.)। २. कोगः, अन्न: ३. दे. 'नाक'। -नीयत, वि. (फा.+अ.) धर्मवर्तिन, नुक्स, सं. पुं. (अ.) दोपः, त्रुटि: (स्त्री.), सदाशय। न्यूनता। -नीयती, सं. स्त्री., निष्कापटयं, सदाशयः । नुमाइश, नं. स्त्री. (फा) प्रदर्शनं-नी २.. -बख्त, वि. (फ़ा.) भाग्यवत्, सौभाग्यआडंबर:, श्राः ( स्त्री.)३. आवि करणं, प्रका- शालिन् २. सत्स्वभाव, सुशील । शनम् । नुमाइशी, वि. (फ़ा. नुमाइश) आपातरमणीय, नेकी सं. स्त्री. ( फ़ा.) भद्रता, सद्व्यवहारः साडंबर, सुभगालोक। २. सज्जनता, सौजन्यं ३. हितं, उपकारः । नुसखा, मं. पुं. (अ.) योगः, कल्पः । -बढ़ी, सं. स्त्री. (ना.) उपकारापकारी, हिताहिते २. पुण्यापुण्ये। नृतन, वि. (सं.) दे. 'नया' । नेग, सं. पुं. ( सं. नैयमिक> ) *सांस्कारिक, नृन, सं. ., दे. समक। नूपुर, सं. पु. ( सं. न.) पाठ, कटक:-अंगद, उपहारः पुरस्कारः, नैयमिकं दानम् । मंजीर:, हंसकः। गिटिव, वि. ( अं.) ऋणात्मक (विद्युदादि)। नर, मं. पं. (अ.) प्रकाशः, ज्योतिम । न. नेगी जागी, सं. पुं., सांस्कारिकपुरस्काराधिका२. कांतिः । स्त्री.), शोभा : रिणः ( पुं. बहु.)। -चश्म, सं. पुं., प्रियपुत्रः। नेजा, सं. पु. ( फा.) कुंतः, प्रासः, शक्तिः -चश्मी, सं. स्त्री., प्रियपुत्री। (स्त्री.)। नृ, सं. पुं. (सं.) नरः, मनुष्यः, मनुजः, -बरदार, सं. पु. (फा) कौतिकः, प्रासिकः, मानुपः। शाक्तीकः, कुंतधरः। -केशरी, सं. पुं. (सं.-रिन् ) नरसिंह-नृसिंह, नेता, सं. पुं. ( सं. नेतृ) सञ्चारकः, नायकः, अवतारः २. वीरः, शूरः । मार्ग,-उपदेशकः-दर्शकः, अग्र-पुरो,गः, अग्र For Private And Personal Use Only Page #380 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir नेती [३४२ ] . नोट - पुरः, सरः, मुख्यः २. प्रभुः, स्वामिन् ३. निर्वा- । नैत्य, वि. ( सं.) नैत्यक-नैत्यिक[-की (स्त्री.)], हकः, प्रवर्तकः [ नेत्री ( स्त्री.)] । नित्य-संबंधिन्-करणीय । नेती, सं. स्त्री. (सं. नेत्रं ) मंथनरज्जुः (स्त्री.), नन-ना, सं. पुं. (सं. नयनं ) दे. 'आँख' । मंथगुणः। | नैपुण्य, सं. पुं. (सं. न.) कौशलं, दाक्ष्यं, -धोती, सं. स्त्री., दीर्घपट्टिकया अंत्रशोधनं । पाटवम् । (हठयोग)। नमित्तिक, वि. (सं.) निमित्त, जन्य-उत्पन्न, नेत्र, सं. पुं. ( सं. न.) नयन, चक्षुस ( न.), अनैत्यिक । दे. 'आँख' २. दे. 'नेती' ३. वस्तिशलाका। नेया, सं. स्त्री., दे. 'नाव' । -रंजन, सं. पुं. (सं. न.) कज्जलम् । नैयायिक, सं. पुं. (सं.) न्याय-तक, शास्त्रज्ञः, नेत्र्य, वि. (सं.) नयन-नेत्र, विषयक-संबंधिन् | न्यायविद् (पुं.), ताकिंकः । २. नयन नेत्र, हितकर। | नैराश्य, सं.मु. (सं. न.) दे. 'निराशा' । नेदिष्ट, वि. (सं.) निकटतम २. अधिकतम नैऋत. सं. स्त्री. ( सं. नैऋती ) नैतकोणः, ३. निपुण । अवाची-प्रतीच्योमध्या दिक (स्त्री.)। नेनुआ-वा, सं. पु. (?) घोषः-षकः, आदाना, नवेद्य, सं. पुं..(सं. न.) देव-बलि: (.). देवदानी, ऐभी, महाफला। भोजनं, भोगः। नेपरत. सं. पुं. ( अं. ) नेपचूनः, ग्रहविशेषः । नेसर्गिक. वि. (सं.) प्राकृतिक-साहनिक, नेपथ्य, सं. पुं. (सं. न.) वेश:-पः, परिधानं, स्वाभाविक-सांसिद्धिक की (स्त्री.)], प्रकृतिवस्त्र, आभरणं, अलंकारः २. ( रंगशालायां)। स्वभाव, मिद्ध । वेशम्यान, अलंकारकोष्ठः ३. रंग, भूमिः | नैहर, सं. पुं., दे. 'मायका' । (स्त्री.)-शाला। नोक, सं. स्त्री. (फा. ) अग्रं, अग्रभागः, अगिः नेपाल, सं. पुं. (सं.) भारतोत्तरवति देश- (पुं. स्त्री.), प्रांतः, मुखं, शिखरं, चंचुः विशेषः । (सं. न.) दे. 'ताँबा' । (स्त्री.) २. उदय-बहिवात, कोगः-अस्रः ।। -जा, सं. स्त्री. (सं.) नेपालजाता, दे. | -~-झोंक, सं. स्त्री., नर्म,-आलापः-भाषितं, परि. मैनसिल। । (री)हासः, व्यंग्यम् । नेब्यूला, सं. पु. ( अं. ) नीहारिका। --दार, वि., दे. 'नुकीला' । नेमि. सं. स्त्री. (सं.) नेमी, प्रधिः चक्रपरिधिः नोकीला, वि., दे. 'नुकीला' । (व्र.) २. कूपांतिकसमस्थलं ३. कूपसमीपे नोच, सं. स्त्री. (हिं. नोचना ) हुँचः, ढुंचनं रज्जुधारणार्थ त्रिदास्यंत्रं, त्रिका। २. आकस्मिक आच्छेदः, लुठनं ३. परितो नेवता, सं. पुं., दे. 'निमंत्रण' । याचनम् । नेवर, सं. पुं. (सं. नूपुरं) दे. 'नूपुर' २. अश्व- | नोचना, क्रि. स. (मं. कुंचनं ) तुंच (भ्वा. पादक्षतम् । प.से.), उत्पट (चु.), आच्छिन (रु. प. नेवला, सं. पुं. (सं. नकुलः ) पिंगलः, सूची- अ.) २. वि.,६-श (क्र. प. ने.) ३. अपनी वदनः, लोहिताननः, अंगूषः, कशः। | निह-व्यपह (भ्वा. उ. अ.) ४. अव-वि-द नेवार, सं. पुं., दे. 'निवार'। (प्रे.), निभिद् (रु. प. अ.), खुर् (तु. नेस्त, वि. (फा.) नष्ट, लुप्त । प. से.)। -नाबूद, वि. (का.) नष्टभ्रष्ट, उच्छिन्न । नोट, सं. पुं. (अं.) स्मृत्ये लेख: लखन-लिखनं, नेस्ती, सं. स्त्री. (फा.) अनस्तित्वं, अभावः | २. स्मरणं, स्मरणचिह्न, अभिज्ञानं ३. पत्रं, २. आलस्यं ३. नाशः। पत्रिका ४. टिप्पनी-णी, टीका ... धनपत्रक, नेह, सं. पुं. ( सं. स्नेहः ) प्रेमन् (पुं.), प्रीतिः नाणकपत्रम्। (स्त्री.)२. वृतं, तैलम् । —करना, क्रि. स., लिख (नु. प. से.), नैतिक, वि. (सं.) नीति, विषयक-शास्त्रीय। | अंक (छ.) । For Private And Personal Use Only Page #381 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir नोटिस [ ३४३ ] न्याय -बुक, सं. स्त्री. ( अं.) अभिज्ञानसंचितिः , नौकराना, सं. पुं. (फा. नौकर ) दे. 'दस्तूरी' (स्त्री.)। २. सेवक-दास,-पुरस्कारः-वेतनम् । नोटिस, सं. पुं. ( अं.) विज्ञापना, ख्यापना, नौकरानी, सं. स्त्री. (फा. नौकर) सेविका, सूचना, विज्ञप्तिः (स्त्री.) २. विज्ञापनं, । परिचारिका, दासी, चेटी, प्रेष्या, मुजिष्या, सूचनापत्रम् । सैरं(रि)ध्री। -देना, क्रि. स., विज्ञा-प्रख्या (प्रे.) सूच् नौकरी, सं. स्त्री. (फा. नौकर ) सेवा, दास्यं, (चु.)। प्रेभ्य-मत्य,-भावः । नोन, सं. पुं., ( सं. लवणम् )। -पेशा, सं. पुं. (ना.) सेवाजा विन्, वैतनिकः, कैंचिया-, काचं, काचलवणं, काचसौवर्चलम् । दे. 'नौकर' । काला-, कृष्णलवणं, सौवर्चलं, शूलनाशनं, | नौका, सं. स्त्री. (सं.) दे. 'नाव' । हृद्यगन्धम् । नौछावर, सं. स्त्री., दे. 'निछावर' । खारी--, ऊषरज, औषरकं, सार्वगुणं, मेलकल- | नौज, अव्य० ( अ. नऊज ) शान्तं पापम्, मैवं वणम् । भूयात् । नैवं भवतु। संचर ( कटीला )-, खण्ड-काल-विड, लवणं, | नौजवान, सं. पु., ( फ़ा.) दे. 'नवयुवक'। . विडम् । नौजवानी, सं. स्त्री. (फ़ा.) नौवयौवनं, तारुण्यं, समुद्री-,सागरज, सामुद्रिकं, लवणाब्धिजं, कौमारं-रकं, नव-पूर्व-प्रथम,-वयस् ( न.)। त्रिकूट-द्रोणी, लवणम् । नौता, सं. पुं., दे. 'निमंत्रण'। सांभर-, शाकम्भरीयं, रौम, रौमकं, साम्बरं, | नौबढ़-ढ़िया, सं. पुं. (सं. नव+हिं. बढ़ना) सम्बरोद्भवम् । नवोदयः, नवोत्थानम् । सेंधा-, सैन्धवं, सिन्धु,-उत्थं-उपलं-जं-लवणं नौबत, सं. स्त्री. (फा.) पर्यायः, वारः २. लवणोत्तमम् । दशा, गतिः (स्त्री.) ३. वैभवादिसूचकं वाघम् । नोना. सं. पु. ( सं. लवर्ण> ) सीताफलं, गंड-|-बजना, मु., मंगलोत्सवः प्रवृत् (भ्वा.आ.से)। गात्र २. लवणमृत्तिका २. यवक्षारभेदः । वि., | नौमी, सं. स्त्री., दे. 'नवमी' । क्षार-लवण,-युक्त-मय २. लावण्ययुत, सुंदर नौलक्खा -खा, वि. (हिं.नौ+लाख) नवलक्षार्ध, ३. उत्कृष्ट । महाघ, महामूल्य। नौ', वि. ( सं. नवन् )। सं. पुं. उक्ता संख्या, नौसादर, सं. पुं. (फ़ा. नौशादर ) नरसारः, तदंकः (९) च। अमृत-वज्र,-क्षारं, चूलिकालवणम् । -खंड, सं. पुं., भूमेर्नव भागाः। नौसिख-खिया, सं. पुं. (सं. नवशिक्षितः ) -गुना, वि., नव,-गुण-गुणित ।। अनभ्यस्तः, शैक्षः, नव, शिष्यः-च्छात्रः। -दो ग्यारह होना, मु., सत्वरं पलाय (भ्वा. | न्यककार, सं. पुं. (सं.) अभिभवः, पराजयः, आ. से.), प्रस्था ( भ्वा. आ. अ.)। न्यक्करणम्, २. तिरस्कारः । -रत्न, सं. पुं., दे. नवरत्न'। न्यग्रोध, सं. पुं. (सं.) वटः, जटालः, अवरोहिन्, नौ२, वि. ( फा.; सं. नव) दे. 'नया'। वृक्षनाथः, रक्तफलः । -आबाद, वि., (फ़ा.) अधि, वासिन्-निवेशिन्। | न्याय, सं. पुं. (सं.) पक्षपाताभावः, सम--आबादी, सं. स्त्री. (फ़ा.) नव, अधिनिवेश:- दर्शित्वं, साम्यं, सर्वसमता, धर्मः, न्याय्यता, वासितप्रदेशः। न्यायिता, साधुता २. अपराधानुरूप-योग्यनौकर, सं. . ( फा.) सेवकः, भृत्यः, दासः, न्याय्य,-दंड: ३. आन्वीक्षिकी, तर्कः, तर्क-न्याय, किंकरः, प्रेष्यः, अनु-उपजीविन्, परि, जन:- विद्या-शास्त्रं, युक्तिवादः। चारकः, अनु-परि, चरः, चेटः, नियोज्यः, | -करना, क्रि. स., निर्णी (भ्वा. प. अ.), भुजिष्यः, वैतनिकः, भतकः। । अव-संप्रधृ (चु.), परिच्छिद् (रु. प. अ.), -चाकर, सं. पुं., परिजनः, दासवर्गः। । व्यवसो (दि. प. अ.) २. व्यवहारं दृश (भ्वा, -शाही, सं. स्त्री., भृत्य, राज्यं-शासनम् ।। प. अ.) अवेक्ष ( भ्वा. आ. से.), कार्य निणी । For Private And Personal Use Only Page #382 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir न्यायाधीश [ ३४४ ] पंचमी -कर्ता, सं. पुं. [ सं . र्तृ ( पुं. ) ] दे. 'न्याया- | न्यारे, क्रि. वि. (हिं. न्यारा) दूरं, दूरे, आरात् धीश' । २. पृथक, विश्लिष्ट । न्यास, सं. पुं. (सं.) निधानं, स्थापनं न्यसनं, निक्षेपणं २. उपनिधिः (पुं.), निक्षेप: ३. अर्पणं, त्यागः । न्यूक्लियस, सं. पुं. ( अं. ) नाभिकण: । न्यून, वि. (सं.) अल्पतर, अल्पीयस्, क्षोदीयस्, लघीयस्, ऊन २. अवर, अधर ३. क्षुद्र, नीच । - सभा, सं. स्त्री. ( सं . ) दे. 'न्यायालय' । न्यायाधीश, सं. पुं. (सं.) न्याय- धर्म, अध्यक्षः, आधिकरणिकः, निर्णेतृ-व्यवहारद्रष्टृ ( पुं.) प्राड्विवाकः, धर्माधिकरणिकः, दंड, नायक-धरः । न्यायालय, सं. पं. (सं.) धर्म- न्याय, सभा, व्यवहारमंडप, अधिकरणम् । न्यायी, वि. ( सं . -यिन ) न्याय, पर-परायण - शील, न्यायवर्तिन् । वि. (सं.) उचित, धर्म्य, युक्त, योग्य, न्याय्य, तथ्य | न्यारा, वि. (सं. निर् + आरात् > ) दूरस्थ, दूरवर्तिन् २. विश्लिष्ट, पृथक् स्थित ३. अन्य, अपर, भिन्न ४. विलक्षण, विचित्र [ न्यारी (स्त्री.)] । न्यारिया, सं. पुं. (हि. न्यारा) डावकः, बंधुलः । । न्यूनता, सं. स्त्री. (सं.) ऊनता, अल्पता, अपूर्णता, पर्याप्तताभावः २. हीनता, अभावः । न्योछावर, सं. स्त्री. दे. 'निछावर' । न्योतहरी, सं. पुं. (हिं. न्योता ) निमंत्रितजनः । न्योता, सं. पुं., दे. 'निमंत्रण' । न्योला, सं. पुं., दे. 'नेवला' । न्योली, सं. स्त्री. (सं. नली) हठयोगक्रियाभेदः । प प, देवनागरी वर्णमालाया एकविंशो व्यंजनवर्णः | पंगत-ति, सं. स्त्री. (सं. पंक्तिः ) दे. 'पंक्ति' (१-२ ) २. सभा, समाज: । पकारः । पंक, सं. पुं. (सं. पुं. न. ) कर्दमः, चिकिलः, पंगु, वि. (सं.) श्रोण, खंज, खोल-ड । दे. 'कीचड़' । पंच, वि. (सं. पंचन) । सं. पुं., उक्ता संख्या, तदंकः (५) च २. लोकः, जनता ३. निर्णेतृसभा, पंकज, सं. पुं. (सं.न.) प्रद्मं, सरोज, दे. 'कमल' । पंकजासन, सं. पुं. (सं.) चतुर्मुखः, ब्रह्मन् ( पुं. ) । पंकिल, वि. (सं.) सपंक, सकर्दम, सचिकिल । पंक्ति, सं. स्त्री. ( सं . ) रेखा-पा, लेखा २ ततिः, राजी-जि: श्रेणी - णिः, आवली-लि: (सब स्त्री.)। - च्युत, वि. (सं.) जातिच्युत । -नामा, सं.पुं. (सं. +फा.) *पंचनिर्णयपत्रम् । सं. पुं. (सं. प्राणा: ) प्राणपंचकम् - प्राण, ( प्राण, अपानः समानः, व्यान, उदानः ) । -भूत, सं. पुं. (सं. न. ) पंचतत्वं, पंचतत्वानि भूतानि । पंख, सं. पुं. ( सं. पक्षः ) वाज:, गरुद, पत्र, महायज्ञ, सं. पुं. ( सं . यज्ञाः ) ब्रह्म-देव-पितृपतत्रं, छदः, तनूरुहम् | दूषक, वि. (सं.) हीन, नीच, कुजाति । -पावन, सं. पुं. (सं.) विप्रवरः, द्विजोत्तमः । ब्राह्मणश्रेष्ठः, बलिवैश्वदेव-नृयज्ञाः । पंखड़ी, सं. स्त्री. [सं. पक्ष्मन (न.)] पुष्पदलम् । पंखा, सं. पुं. (हिं. पंख) व्यजनं, वीजनं, तालवृंतम् । - रत्न, सं. पं. (सं. न. ) कनकहीरकनीलमणिपद्मरागमौक्तिकानीति पंचरत्नानि । - झलना, क्रि. स., बीजू ( चु. ) । कपड़े का, आलावर्तः । चमड़े का धवित्रम् | पंखी, सं. स्त्री. (हिं. पंखा ) व्यजनकं वीजनकम् । पंखी, सं. पुं., दे. 'पक्षी' । मध्यस्थाः । - तत्व, सं. पुं., (सं. न. ) पंचभूतम् (पृथिवीजलानलानिलाकाशानि ) । नद, सं. पुं. (सं.) पंचनदीयुतः प्रांतविशेषः, * पचापः । पंचक, सं. पु. ( सं. न. ) पंचवस्तुसमुदायः । पंचत्व, सं. पुं. (सं. न. ) मरणं, निधनं, मृत्युः, पंचता । पंचम, वि. (सं. पंचम:-मी- मं ) २. सुंदर ३. दक्ष । सं. पुं., पंचमस्वर : ( संगीत ) । पंचमी, सं. स्त्री. (सं.) शुक्ला कृष्णा वा पंचमी For Private And Personal Use Only Page #383 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पंचांग [ ३४५ पकना तिथि: ( स्त्रो.) २. विभक्तिविशेषः (व्या.) पंडितानी, सं. स्त्री. (हिं. पंडित ) पण्डित३. द्रौपदी। कोविद.-पत्नी-जाया २. ब्राह्मणी, द्विजोत्तमा । पंचांग, सं. पं. (म.न.) वारतिथिनक्षत्रयोग- पंदुक, सं. पुं. (सं. पांडु> ) कपोतजातीयः करणात्मकपंजिका, पंजिका । खगभेदः, पांडुकः, *धूकरः। पंचाग्नि, सं.श्री.(म.न.)तपस्याभेदः,पंचातपा। पंथ. सं. पुं. (सं. पथिन् ) मार्गः, वर्मन् (न.) पंचानन, वि. सं.) पंच,-मख-आस्य । सं. पुं., २. सम्प्रदायः, मतं, धर्ममार्गः ३. रीतिः शिव: २. सिंहः ३. सिंहराशिः। (स्त्री.)। पंचाननी, सं. स्त्री. (सं.) दुर्गा २. सिंही। पंथी, सं. पुं. (हिं. पंथ ) पथिकः, यात्रिन् पंचायत, सं. स्त्री. (सं. पंचायतनं> ) *पंच, २. सांप्रदायिकः, मतावलंबिन् । सभा-समितिः ( स्त्री.) २. ग्रामसभा। वाडा, सं. पुं. (सं. प्रवादः) आख्यानं, बृहत्-नामा, सं. पुं. (हिं.+फा.) पंचसभानिर्ण विस्तृत, कथा, अरुचिकर वृत्तम् । यपत्रम् । चायती, वि. (हिं. पंचायत) पंचसभा पंसारी, सं. पु. ( सं.पण्यशालिन् > ) औषधामंबंधिन् २. सामान्य, सार्वजनिक । दिविक्रथिन्, *पण्यशालिन् । चाली, सं. स्त्री. (सं.) पुत्तली, वस्त्रादिनिमि- पंसेरी, सं. स्त्री. ( सं. पंच+सेर:>) पंचसेरी, त-पुत्रिका २. द्रौपदी, पांचाली। पंचसेटकी। पंछो, सं. पु., दे. 'पक्षी'। पकड़, सं. स्त्री. (सं. प्रकृष्ट> ) ग्रहः,-हणं, पंजर, सं. पुं. (सं.) कंकालः, देहास्थिसमूहः । धा(ध)रणं, ग्रसनं, आकलनं २. मल्ल-बाहु, युद्धं २. देहः, शरीरं ३. दे. 'पिंजरा' । ३. दोषान्वेषणं, आक्षेपः, आपत्तिः ( स्त्री.)। पंजा, सं. पं. (फा.) पंचक २. करचरणानां | -धकड़, सं. स्त्री., निरोधासेधौ, ग्रहणधरणे पंचांगुलीसमूहोऽग्रभागो वा ३. ( व्याघ्रादीनां) | (दोनों द्वि.)। पादः। पकड़ना, क्रि. स. ( सं. प्रकृष्ट> ) ग्रह (क्र. -पंजे में, मु., अधिकारे, वशे। प. से.), धृ ( भ्वा. प. अ., चु.), आदा पंजाबी, वि. (फा.) पांचनद [-दी (स्त्री.)। (जु. आ. अ.), अवलंय ( भ्वा. आ. सं. पुं., पंचनदवासिन् । परामृश् (तु. प. अ.) २. निरुध् (रु. उ. पंजारा, सं. पु. (सं. पंजिकारः) तंतुकारः, अ.), आसिध (भ्वा. प. से.), बंध (क्र. प. कर्तकः २. दे. 'धुनिया। अ.) ३. आसद् (प्रे.), लंघ ( भ्वा. आ. से., पंजीरी, सं. स्त्री. (फ्रा. पंजा ) गोधूममिष्ट चूर्ण, । चु.), पश्चात् आगत्य अतिक्रम् (भ्वा. प. से.), मिष्टान्नभेदः । पश्चाद आमिल (तु. प. से.) ४. निवृ-स्तंभ पंडवा, सं. पुं., (?) महिषी-पयस्विनी, शाव: (प्रे.), स्थिरीकृ ५. अन्विष (दि. प. से.), शावकः। अनुसंधा (जु. उ. अ.) ६. ग्रस् (भ्वा. पंडा, सं. स्त्री. ( सं. पंडित>) तीर्थपुरोहितः । आ. से.), आक्रम् (भ्वा. प. से.)। सं. पुं., पंडाइन, सं. स्त्री. (हिं. पंडा) तीर्थपुरोहित, दे. 'पकड़। भायां-पत्नी। पकड़नेवाला, सं. पुं., ग्रहीत-धतू-धारयित पंडाल, मं. पुं., ( तमिल पेंडल ) दे. मंडप' (पुं.); निरोधकः, आसेक: इ. । पंडित, सं. पुं. (सं.) बुधः, कोविदः, प्राज्ञः, पकड़वाना, पकड़ना, क्रि. प्रे., ब. 'पकड़ना' विद्वस् ( पुं.) २. ब्राह्मणः । वि., शानिन्, के. प्रे. रूप। बुद्धिमत् २. चतुर, दक्ष ३. संस्कृतज्ञ। पकड़ा हुआ, वि., गृहीत, धृत, निरुद्ध, ग्रस्त । पंडिता, सं. स्त्री. (सं.) विदुषी, बुद्धिमती नारी।। पकना, क्रि. अ. (सं. पक्व>) पच-श्रा-श्री पंडिताई, सं. स्त्री., दे. 'पांडित्य' ।। (कर्म.), सिध् (दि. प. अ.) २. पाकं व्रज् पंडिताऊ, विं. (हिं. पंडित) पंडित-ब्राह्मण, ( भ्वा. प. से.), पाकोन्मुख (वि.) भू। तुल्य-सदृश। । (केशाः ) धवली-शुक्ली भू। For Private And Personal Use Only Page #384 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पकवाई [३४६ ] पगना - पौडः। पकवाई, सं. स्त्री. (हिं. पकवाना) पाचन, पक्षति, सं. स्त्री. (सं.) पक्ष-वाज,-मूलम्, मूल्यं-भूतिः (स्त्री.)। शुक्ला प्रथमतिथि: ( स्त्री.), प्रतिपदा, प्रतिपक्कान, सं. पुं. (सं. पक्वान्नं, दे.)। पदी। पकाई, स.स्त्री., दे. 'पकवाई' २. पाचनं, पाकः, पक्षपात, सं. पुं. (सं.) पक्षपातिता, असम, दे. 'पाक'। दृष्टि:-बुद्धिः ( स्त्री.), असमता । पकाना, क्रि. स. (हिं. पकना) पच ( भ्वा. पक्षपाती, सं. पु. ( सं.-तिन् ) पक्ष्यः, पक्षधरः, प. अ.), श्री (क्र. उ. अ.), श्रा (अ. प. पक्षावलंबिन, सपक्षः, पाश्विकः । अ.; चु. श्रपयति ), ( अन्नं ) संस्कृ अथवा | पक्षांत, स. पुं. (सं.) अमावस्या २. पूर्णिमा । सिध् (प्रे. साधयति)। पक्षाघात, सं. पु. (सं.) पक्षघातः, जाड, पकाने योग्य, वि., पचनीय, श्रातव्य, श्रेतव्य। स्तंभः, सादः। पकानेवाला, सं. पुं., पाचकः, सूदः, बल्लवः। पक्षिणी, सं. स्त्री. (सं.) पत्रिणी, पतत्रिणी, पकाया हुआ, वि. पक्व, पाचित, साधित, गरुत्मती. वाजिनी, नीडजा, नीडोद्भवा । संस्कृत, श्राण। पक्षो, सं. पुं. (सं. पक्षिन ) विहगः, विहंगःपकाव, सं. पुं. (हिं. पकना) पचनं, पाकः गमः, खगः, शकुंतः-तिः ( पुं.), शकुनःनिः २. ( व्रगादीनां ) सपूयत्वं, परि-, पाकः । (पुं.), द्विजः, पत्रिन्, पतत्रिन, अंडजः, पका हुआ, वि., पक्व, सिद्ध, बाण, शत। ! वाजिन्, वि. (पु.), पतत्रिः (पुं.), गरुत्मत् पको(कौड़ा, सं. पुं. (हिं. पकौड़ी) पक्व- । (पुं.), पतग:, पतंग:-गमः २. पक्ष्यः, पक्ष पातिन् । पको(को)ड़ी, सं. स्त्री. (सं. पक्ववटी) पक्व- पख, सं. पुं. (सं. पक्षः>) कलहः, विवादः वटिका। २. दोषः, त्रुटि: (स्त्री.) ३. विघ्नः. प्रतिबंधः । पक्का, वि. ( सं. पक्व ) सु-परि-,पक्व, परिणत, पखवारा-ड़ा, सं. '. (सं. पक्षः+वारः >) पक्वतामापन्न २. प्रौढ, सिद्ध, परि-सं.-पूर्ण | कृष्णः शुक्लो वा पक्षः२. अर्द्धमासः, मासार्द्धम् । ४. संस्कृत, संशोधित ४. पक्व, श्राण, भृत | पखारना, क्रि. स. (सं. प्रक्षालन) दे. 'धोना' । ५. अनुभविन्, बहुदर्शिन् ६. दक्ष, निपुण पखावज़, सं. स्त्री. (सं. पक्षवाद्यं> ) मृदंग७. दृढ, स्थिर ८.निश्चित, ध्र व ९. प्रामाणिक, भेदः, *पक्षवाद्यम् । प्रमाणसिद्ध । पखेरू, सं. पुं. [सं. पक्षालुः (पुं.)] दे. 'पक्षी' । पक्क, वि. ( सं.) दे. 'पक्का ' ( १, ३, ४)। पखौरा-ड़ा, सं. पुं. (सं. पक्षः> ) अंसास्थि पक्वान्न, सं. पुं. (सं. न.) संस्कृत-सिद्ध-शृत, (न.), भुजस्कंधसंधिः ( पुं.)। अन्नम्। पग, सं. पु. ( सं. पदकं ) पादः, पदं, चरण:-णं पक्वाशय, सं. पुं. (सं.) नाभ्यधोभागः, लध्वं- २. पदं, क्रमः ३. पादन्यासः, चरणपातः । त्रारंभिको भागः। -डंडी, सं. स्त्री., पद्या, चरणवीथिः ( स्त्री.), पक्ष, सं. पुं. (सं.) पार्थ:-धं, पक्ष-पार्श्व,-भागः, पथिकमार्गः, एकपदी। कुक्षिः (पु.) २. दे. 'पंख' ३. दलं, गणः, संघः पगड़ी, सं. स्त्री. (सं. पटकः) उष्णीष:-पं, ४. अईमासः, मासाई ५. सहायकः, सखि | शिरोवेष्ट नं, वेष्टनं, वेष्टकं, चेलाण्टकः । (पुं.) ६. गृहं ७. मतं, विचारः। -~-बाँधना, क्रि. सं., उष्णीषं परिधा ( जु. उ. उत्तर--, सं. . (सं.) सिद्धान्तः, कृतान्तः, । अ.) बंध् ( क्र. प. अ.)। समाधिः (पुं.)। -उछालना, मु., लघू कृ, अप-अव-मन् (प्रे.) । पूर्व-, सं. पुं. (सं.) शास्त्रीय प्रश्नः, सिद्धान्त- -उतारना, मु., दे. 'पगड़ी उछालना' विरुद्धकोटि: (स्त्री.), चोय, देश्य, फकिका। २. लुट्छ ( भ्वा. प. से.), धनं अपहृ पक्षक, सं. पुं. (सं.) गुप्त-चौर, द्वारद्वार । ( भ्वा. उ. अ.)। (स्त्री.) २. पाश्र्वः-च, पक्षभागः ३. सहायः. -बदलना, मु., सौहार्दै स्था (प्रे. स्थापयति)। सहायकः। | पगना, क्रि. अ. (सं. पाक>) रसेन मधु For Private And Personal Use Only Page #385 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पगला [३४७ ] पछाड़ क्वाथेन वा सिच ( कर्म. )-क्लिद् (दि. प. | पचासीवाँ, वि. (हिं. पचासी) पंचाशीतितमःवे.), २. अनुरंज ( कर्म.), स्निह् ( दि. प. | मी-मं, पंचाशीत:-ती-तं (पुं. स्त्री. न.)। | पचीस, वि. [सं. पंचविंशतिः ( नित्य स्त्री.)। पगला, वि. पुं., दे. 'पागल' ( पगली स्त्री.)। उक्ता संख्या, तदंको ( २५) च।। पगहा, सं. पुं. (सं. प्रग्रहः ) पशुग्रीवारज्जुः पचीसवाँ, वि. (हिं. पचीस ) पंचविंशतितमः(स्त्री.), संदानम् । मी-मं, पंचविंशः-शी-शं ( पुं. सी. न.)। पगुराना, क्रि. अ., दे. 'जुगाली करना'। पचीसी, सं. स्त्री. (हिं. पचीस ) पंचविंशतिका पघा, सं. पुं., दे. "पमहा। २. मानवायुषः प्रथम-पंचविंशतिवर्षाणि ३. कपपचना, क्रि. अ. (सं. पचनं) पच ( कर्म.), | र्दकक्रीडाभेदः। परिणम् (भ्वा. प. अ.), ज (दि. प. से.) | पचोतरा, सं. पु. ( सं. पंचोत्तरः>) पंचोत्तरा२, छलेन स्वकीयं कृत्वा उप-विनि:-युज । ख्यः करः, विशभागात्मकः पण्यकरः । (कर्म.)। पञ्चर, सं. स्त्री. (सं. अथवा अनु. पच्>) रंधपचपच, सं. स्त्री. ( अनु.) पचपचध्वनिः (पुं.), पूरकः-कं काष्ठखंड:-डं २. शंकुः (पुं.), कीलः । कर्दमसंचारशब्दः २. पंकः-कं, कदमः।। -लगाना, क्रि.स., काष्ठखंडेन रन्ध्र पूर् (चु.)। पचपन, वि. [सं. पंचपंचाशत् (नित्य स्त्री.)]| -मारना, मु., मोधी-निष्फली कृ।। सं. ए., उक्ता संख्या, तदंको ( ५५ ) च। पञ्चानवे, वि. [सं. पंचनवतिः ( नित्य स्त्री.)] पचपनवाँ, वि. (हिं. पचपन ) पंचपंचाशत्तमः | सं. पुं.. उक्ता संख्या, तदंकौ (९५) च । मी-म, पंचपंचाशः-शी-शं ( पुं. स्त्री. न.)। पच्ची, सं. स्त्री. (सं. वा अनु. पच> ) समतल. पचमेल, वि. ( सं. पंचमेल:> ) मिश्रित, व्या- | तया निवेशः-प्रतिवाप:-खचितिः (स्त्री.)। सं,-मिश्र। | -कारी, सं. स्त्री. ( हिं.+फा.) समतलतया पंचरंगा, वि. ( सं. पंचरंग ) पंचवर्ण २. नाना- निवेशनं-प्रतिवपनं-खचन-प्रणिधानम् । अनेक-बहु, वर्ण-रंग। पच्छिम, सं. पुं., दे. 'पश्चिम' । पचलड़ा, सं. पु. । (सं. पंच+हिं.लड़) पंच- पाच्छमा पच्छिमी, वि., दे. पश्चिमी'। पचलड़ी, सं. स्त्री. / मत्रिका,*पंचतारो हारः । पछड़ना, क्रि. अ., दे. 'पिछड़ना' । पचहत्तर, वि. [सं. पंचसप्ततिः ( नित्य स्त्री.)] ! पछताना, क्रि. अ. (हिं. पछतावा ) पश्चात्ताप सं. पुं., उक्ता संख्या, तदंकौ (७५) च। कृ, अनुतप् (दि. आ. अ.), अनुशी (अ. आ. से.)। पचहत्तरवाँ, वि. (हिं. पचहत्तर) पंचसप्तति पछतानेवाला, सं. पुं. अनुतापिन्, अनुशतमः-मी-मं, पंचसप्ततः-ती-तं (पु. स्त्री. न.)। यिन्, पश्चात्तापिन् । पचाना, क्रि. स. (हिं. पचना) दे. 'पकाना' पछतावा, सं. पु. ( सं. पश्चात्तापः ) अनुशयः, २. पत्र (भ्वा. प. अ.), ज (प्रे.), परिणम् अनुतापः, अनुशोकः, खेदः । (प्रे.) ३. परद्रव्यं छलेन आत्मसात् कृ ४. पछत्तर, वि., सं. पुं., दे. 'पचहरार' । अतिपरिश्रमेण शरीरं क्षि (प्रे. क्षाययति )। पछवाँ, वि. (सं. पश्चिम ) पश्चिमः मा-म, पचाव, सं. पुं. ( हिं. पचना) वि-परि-, पाकः, | प्रत्यङ्-तीची-त्यक् , प्रतीच्यः च्या-च्यं,पाश्चात्यःपक्तिः ( स्त्री.), पचनं, परीणामः ।। त्या-त्यम् । सं. स्त्री., पश्चिम-प्रतीच्य, पवन:पचास. वि. [ सं. पंचाशत् ( नित्य स्त्री.)]। सं. पुं., उनका संख्या, तदंकी (५०) च । पछाँह, सं. . (सं. पश्चात् >) पश्चिमस्थो देशः, पचासवाँ, वि. (हिं. पचास ) पंचाशत्तमः-मी- | पश्चिमप्रदेशः। मं, पंचाशः-शी-शं (पुं. स्त्री. न.)। पछाड़, सं. स्त्री. (हि. पाछा ), मूविपातः, पचासा, सं. पु. ( हिं. पचास ) पंचाशिका। । निःसंज्ञपतनम् । पचासी, वि. [सं. पंचाशीतिः (नित्य स्त्री.)]। -खाना, कि. अ., मूर्च्छया अवपत् ( भ्वा.. सं. पुं., उक्ता संख्या, तदंकौ ( ८५ ) च। प. से.)। For Private And Personal Use Only Page #386 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [ ३४८ ] पछाड़ना पछाड़ना, क्रि. स. (हिं. पछाड़ ) अव-नि-पत् (प्रे.) २. ( शत्रु ) पराजि (भ्वा. आ. अ. ) । पछाड़ी, सं. स्त्री. दे. 'पिछाड़ी' । पजावा, सं. पुं. ( फा . ) इष्टकापाकः । पट े, सं. पुं. (सं.) वस्त्रं, वसनं सुचेलकं २. तिरस्करिणी, व्यवधानं, प्रतिसीरा ३. चित्रपट: ४. धातुमय, पत्र-पट्टः पट्टिका | - खोलना, क्रि. स., तिरस्करिणीं अपसविचल् । (प्रे.) । द्वारं, द्वार् (स्त्री.)। - खोलना बंद करना, क्रि. स., दे. 'द्वार' | पटकना, क्रि. स. (अनु. पटक ) उत्थाप्य भूमौ रमसा नि-अव-पत् (प्रे.) २. बाहुयुद्धे प्रतिइंद्विनं जि (भ्वा. प. अ.) । पटकनी, सं. स्त्री. (हिं. पटकना ) रभसा अधःनि-अव,-पातः-पतनम् । - देना, क्रि. स., दे. 'पटकना' । पट (टु)का, सं. पुं. (सं. पट्टक:> ) परिकरः, कटिबंधी-वलयम् । - बाँधना, मु., परिकर बंधू ( क्र. प. अ.), उद्यत सन्नद्ध (वि.) भू । पटच्चर, सं. पुं. (सं.) चौरः, स्तेनः । न., जीर्णवस्त्रम् । -- मंडप - वास, सं. पुं. (सं.) दे. 'तंबू' । पटर, क्रि. वि. (चट का अनु.) झटिति, सपदि । पट (अनु.) पतन - ताडन, ध्वनिः ( ( पुं. ), पटिति । पटल, सं. पुं. ( सं. न. ) छदिस् (न.), छदिः (स्त्री.) २. आवरणं, आच्छादनं ३ तिरस्करिणी, व्यवधानं ४. आ-, स्तर:, फलकः कं ५. दृष्टेरावरकं ६ समूहः, पटली ७. अध्यायः, परिच्छेदः ८. चयः, राशि: ( पुं.) ९. परिच्छदः १०. तिलकः कं ११. दे. 'मोतियाविंद' । पट४, सं. पुं. ( देश. ) ऊरु: (पुं.) । वि., अधो- पटवा, सं. पुं. (सं. पट्टे + हिं. वाहा ) * पट्टवाहः, मुख, अधरोत्तर, अवमूर्द्धशय । * पट्टहारः । पट, सं. पुं. (सं. पट्टः ) कपा(वा) ट:- टी-टं पटवाना, क्रि. प्रे, ब. 'पटना' पटड़ा-रा, सं. पुं. ( सं . पट्ट:-ट्टं ) काष्ठ दारु, - फलक:-फलकं २. काष्ठ दारु, पीठम् । —कर देना, मु., निर्बली - निःसत्त्वी कृ २. अवउत्-सद् ( प्रे.), उच्छिद् (रु. प. अ. ) । पटड़ी-री, सं. स्त्री. (हिं. पटड़ा-रा) पट्टक:-कं २. पट्टिका ३ पद्या, चरणवाथिः (स्त्री.), पाद-चरण-पथः । पटना, सं. पुं. (सं. पट्टनं > ) कुसुमपुरं, पुष्पपुरं, पाटलिपुत्रम् | पटना, क्रि. अ. (हिं. पट = भूमि की सतह के बराबर ) आसमा छादू ( कर्म. ), आ-सं-वृ ( कर्म.) २. व्याप्-आस्तु ( कर्म ) ३. पृ-प पटुता ( कर्म. ), आ-प्र-मं-पूर (कर्म) ४. सिच् ( कर्म. ) ५. संमन् (दि. आ. अ. ), एकचित्ती भू ६. ऋणात् मुच् (कर्म.) । पटपट, सं. स्त्री. (अनु. ) पटपटाशब्दः, पटपटध्वनि : ( पुं.)। क्रि. वि., सपटपटशब्दम् । पटरानी, मं. स्त्री. ( सं . पट्टराशी ) पट्ट, देवीमहिषी, राज-, महिषी । के प्रे. रूप । पटवारगरी, सं. स्त्री. (हिं. पटवारी + फ़ा. (ग) ग्रामभूलेखकत्वं २. ग्रामभूलेखपदम् । पटवारी, सं पुं. ( सं. पट्ट + हिं. वार ) * ग्रामभूलेखकः । पटसन, सं. पुं. (सं. पाट: + शणं > ) शणं, अतसी, मसृणी । पटह, सं. पुं. (सं.) दुंदुभि: (पुं.), भेरी, पणवः । पटहार, सं. पुं., दे. 'पटवा' । पटा, सं. पुं. ( सं. पट्ट:-ट्ट ) काष्ठ, पट्टे-पीठं २. मिथ्याखङ्ग: ३. लगुडः, दंड: । पटाई, सं. स्त्री. (हिं. पटना ) पटलेन आच्छादनम् २. पटलाच्छादनभृतिः (स्त्री.) । पटाक, सं. स्त्री. (अनु.) तारध्वनि: (पुं.), महा-, शब्दः - नादः । पटाका-खा, सं. पुं. (अनु. पटाक) अग्निक्रीडनकभेद:, *पटाकः । पटाक्षेप, सं. पुं. ( सं . ) यवनिका जवनिका-पडअपी, निपातः अवपातः । पटाना, क्रि. स.. ब. 'पाटना' के प्रे. रूप । पटापट, क्रि. वि. (अनु. पट ) सपटपटशब्दम् । सं. स्त्री. पटपटाशब्दः । पटु, वि. (सं.) कुशल, दक्ष, निपुण, प्रवीण, निष्णात, विशारद, विदग्ध | पटुता, सं. स्त्री. (सं.) कौशलं -ल्यं, दक्षता, For Private And Personal Use Only Page #387 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पटेबाज़ [३४६ ] पड़ना नैपुण्यं-णं, प्रावीण्य, वैचक्षण्यं, पटुत्वं, वैद- | पटू, सं. पुं. (हिं. पट्टी) और्णपटभेदः, ग्य म् । । नीशारः। पटेबाज़, सं. पुं. (हि.+फा.) खड्गाभ्यासिन्, | पट्टा, सं. पु. ( सं. पुष्टः ) तरुणः, युवकः, मिथ्यासियोधः। युवन्, कुमारकः २. शावः, पोतः, डिभः पटेल, सं. पुं. (हिं. पट्टा ) ग्रामणी: (पुं.), ३. मल्लः, बाहुयोधः-धिन् ४. दीर्घस्थूलपत्रं ग्रामाध्यक्षः २. दक्षिणभारतवर्षे उपाधिभेदः।। ५. स्नसा, स्नायुः (स्त्री.), पेशी। पटोर-ल, सं. पुं. (सं. पटोल: ) लता-राज- | पठक, सं. पुं. (सं.) पाठकः, वाचकः । अमृत(ता)-कटु-नाग, फलः, कुष्ठारिः (पुं.), पठन, सं. पुं. (सं. न.) अध्ययन, पाठः, कासमर्दनः। अधीतिः (स्त्री.), वाचनं २. श्रावणं, उच्चारणम् । पट्ट, सं. पुं. (सं. पुं. न.) पीठं-ठी, उप-,आसनं | -पाठन, सं. पु. ( सं. न.) अध्ययनाध्या२. पट्टिका ३. धातुमय, पत्र-पट्टिका ४. चर्मन् पन-ने (दि.)। (न.) फलकः-कं ५. पेषणपाषाणः, शिला | पठनीय, वि. (सं.) पठितव्य, अध्येतव्य, ६. उष्णीषः-षं ७. व्रण, बन्धन-आवेष्टनं ८. | पाठ्य, वाचनीय, पठन-अध्ययन,-अर्ह । उत्तरीयं ९. नगर १०. चतुष्पथ:-थं, शृंगाटकं पठान. सं. पं.( पश्तो. पुख्ताना ) यवनजाति११.राज- सिंहासन १२. कौशेयं १३. शणं भेदः, पख्तुनः *पठानः ।। १४. दे. 'पट्टा'। पठानी, सं. स्त्री. (हिं. पठान ) पख्तूनी, पट्टन, सं. पु. ( सं. न.) पत्तनं, पुर, नगरं पठानी २. पठानत्वं, पख्लूनत्वम् । २. महानगरम् । पठार, सं. पुं. ( सं. प्रस्तार:> ) अधित्यका, पट्टा, सं. पुं. (सं. पट्टः) पट्टोलिका, आविहित- | २. प्रस्तारः। कालात् भूभ्यधिकार पत्रं २. ( कुक्कुरादीनां) | पठावनी, सं. स्त्री. (सं. प्रस्थापनम् ) प्रेषणं, ग्रेवं. ग्रीवापटः ३. केश, पाश:-कलापः ४. पीठं ! प्रहितिः ( स्त्री. ) २. प्रस्थापनतिः । (स्त्री.)। ५. चर्ममय, कटिबंधनी-परिकरः ६. दे. 'चप- पठित, (वि. सं.) अधीत, वाचित २. श्रावित रास' ७. खडगभेदः ८. अधिकारपत्रम् । ३. साक्षर, विद्यावत्, विद्वस् । पट्टे पर दाने, क्रि. स., आविहितभयात् पड़छती (-त्री), सं. स्त्री. दे. 'परछत्ती'। निरूपितमूल्येन दा अथवा विसृज (तु. | पड़ताल, सं. स्त्री. (सं. परितोलनं> ) अनुप. अ.)। संधानं, अन्वेषणं २. अन्वीक्षणं, विमर्शः, पट्टी, सं. स्त्री. (सं. पट्टिका) काष्ठ-,पट्टिका निरूपणम्। २. पाठः, प्रपाठकः, ३. शिक्षा, उपदेशः -करना, क्रि. स., अनुसंधा (जु. उ. अ.), ४. वंचनात्मकोपदेशः, ५. ( वस्त्रादिकस्य)| अन्विष् (दि. प. से.) २. विमृश् (तु. प. दीर्घ,-खंड:-शकलं ६. व्रण, बंधनं-आवेष्टनं ७. अ.), निरूप् (चु.), अनु-परि-ईक्ष (भ्वा. *जंघावेष्टनी ८. और्णपटभेदः, पट्टी ९. पंक्ति:- | आ. से.)। ततिः (स्त्री.) १०. प्रसाधिता: केशाः ११. पड़तालना, क्रि. स., दे. 'पड़ताल करना' । रिकथभागः १२. खट वायाः पार्थ, काष्ठ-दंड: पड़ती, सं. स्त्री. (हिं. पड़ना) अकृष्ट-अहल्य,१३. मिष्टान्नभेदः। भूमिः ( स्त्री.)। -बाँधना, क्रि. स., पट्टिका बंध (क्र. प. अ.) पड़दादा, सं. पुं. (सं. प्र+तातः> ) प्रपिता महः। वर्ण आच्छद् (चु.)। -दार, सं. पुं. ( हिं+फा.) अंशिन्, भाग- पड़दादी, सं. स्त्री. (हिं. पड़दादा) प्रपिताग्राहिन् । मही। -दारी, सं. स्त्री. (हिं+फा.) अंशित्वं, पड़ना, क्रि. अ. ( सं. पतनं) अव-नि-, पत् भागग्राहित्वम् । (भ्वा. प. से.), भ्रंश-संस् ( भ्वा. आ. से.), पट्टी२. सं.स्त्री. (सं.) अश्ववक्षोबंधनरज्जुः (स्त्री.), | च्यु (भ्वा. आ. अ.) २. घट-वृत् (भ्वा. आ. कक्ष्या, नद-ध्री २. ललाटभूषा ३. यन्त्रकम् । से.); आ-सं-पत्, प्रसंज (कर्म.) संवृत्, सं For Private And Personal Use Only Page #388 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पड़नाना [३५० ] पतन समा-पद् (दि. आ, अ.) ३. संविश् ( तु. प. | पन,-शैली-रीतिः (स्त्री.) ४. अध्ययनअ.), विश्रम् (दि. प. से.); शी (अ. आ. | अध्यापन,-शुल्क-वेतनम् । से.), स्वप् ( अ. प. अ.) ४. रुग्ण (वि.) | पढ़ाना, क्रि. स. (हिं. पढ़ना ) पठ-शिक्ष वृत्, रोगेण अभिभू ( कर्म.) ५. प्रविश् ( तु. | (प्रे.), अधि-इ (प्रे. अध्यापयति ), शास् प. अ.)। (अ. प. से.), उपदिश (तु. प. अ.)। सं. क्या पड़ी है, मु., कोऽर्थः, किं प्रयोजनम् । पुं. तथा भाव, अध्यापन, उपदेशः, शिक्षा-क्षणं, पड़नाना, सं. पुं. (सं.प्र+दे. नाना ) प्रमाता- पाठनम् । महः। पढ़ानेवाला, सं. पुं, अध्यापकः, शिक्षकः, गुरुः, पड़नानी, सं. स्त्री. (हिं. पड़नाना ) प्रमाता- उपदेष्टु-शास्तु ( पुं.)। मही। पण, सं. पु. (सं.) द्यतं, देवनं, दुरोदरं, कैतवं पड़ (र)वा, सं. स्त्री., दे. 'प्रतिपदा। २. ग्लहः (शत) ३. मूल्यं, निर्वेशः ४. शुल्क:पड़वाल, सं. पुं., दे. 'परवाल'। ल्कं, प्रतिफलं ५. धनं, रिक्थं ६. पणितव्यं, पड़ाव, सं. पुं. (हिं. पड़ना) प्रयाणभंग:, विक्रेयवस्तु ( न.) ७. व्यवसायः, व्यवहारः निवेशः, अवस्थितिः (स्त्री.) २. निवेश- ८. स्तुतिः ( स्त्री.) ९. मुष्टिमानं १०. (पैसा) विश्राम, स्थानम् । ताम्रमुद्राभेदः, पणमुद्रा । पड़ोस, सं. पुं. ( सं. प्रतिवासः या प्रतिवेशः) पतंग, सं. पुं. ( सं.> ) पत्रचिल्लः-ला, चिल्लानिकट-समीप-संनिहित,-देशः; संनिधिः ( पुं.), समीप अनिहित देशः. संनिधिः ( पं.). भासं, *पतंगः २. सूर्यः ३. खगः ४. शलभः। २.सांनिध्यं प्रातिवेश्यम् । |-उड़ाना, क्रि. स., पत्रचिल्लं-पतंग उड्डी पड़ोसी, सं. पुं. (हिं. पड़ोस ) प्रतिवेशः | (प्रे. उड्डाययति)। श्यः-शिन्, प्रतिवासिन्, प्रातिवेशिकः, [ पड़ो- -बाज़, सं. पुं., पतंगोड्डायकः । बा सिन ( स्त्री.)=प्रति, वेशिनी-वासिनी इ.] । -बाज़ी, सं. स्त्री., पतंगक्रीडा । | पतंगा, सं. पुं. (सं. पतंगः ) शलभः २. पढ़ना, क्रि. स. (सं. पठनं ) पठ् (भ्वा. प. स्फुलिंगः, अग्निकणः । से.), अधि-इ (अ. आ. अ.), (अपने आप पढ़ना) अनुवच् (प्रे.) २. वच् (प्रे.), पतंजलि, सं. पुं. (सं.) योगदर्शनकारऋषि विशेष: २. महाभाष्यकारो मुनिविशेषः। उच्चर (प्रे.) २. अभ्यस् (दि. प. से.), आवृत् (प्रे.)। सं. पुं. तथा भाव, पाठः, पत', सं. पुं. ( सं. पतिः ) भर्तृ, धवः २. प्रभुः, पठनं, अध्ययन, वाचनं, उच्चारणं, अभ्यसनं, स्वामिन् । अभ्यासः, आवर्तनं, श्रावणम् । पत', सं. स्त्री. (सं. प्रत्ययः>) प्रतिष्ठा, गौरवं, मानः, यशस् ( न.), कीर्तिः ( स्त्री.)। -लिखना, सं. पुं., पाठलेखौ-पठनलेखने, -उतारना या लेना, मु., अप-अव-मन् (प्र.), विद्याभ्यासः, शिक्षा। दुष् (प्रे. दूषयति)। पढ़नेयोग्य, वि., दे. 'पठनीय' । -रखना, क्रि. स., गौरवं रक्ष (भ्वा. प. से.)। पढनेवाला, सं. पुं., अध्येतु-पठित् (पु.) | पतझड, सं. स्त्री. (सं. पत्रं+हिं, झड़ना) वाचकः, पाठकः, अधीयानः [ अध्येत्री, पठित्री, | शिशिरः, शिशिरर्तुः (पुं.) (माघफाल्गुनपाठिका (स्त्री.)] मासौ) २. अवनतिकालः, संकटमयः समयः। पढ़ा हुआ, वि., दे. 'पठित' । पतत्प्रकर्ष, सं. पुं. (सं.) काव्यदोषभेदः पढ़वाना, क्रि.प्रे., ब. 'पढ़ना' के प्रे. रूप। । (सा०)। पढ़ा, वि. ( सं. पठित, दे.)। पतन, सं. पुं. (सं. न.) पक्षः, वाजः, छदः -लिखा, वि., विद्वस् , उपात्तविद्य, साक्षर, २. यानं, वाहनं, युग्य, वाहः । शिक्षित, व्युत्पन्न। | पतत्रि, सं. पुं. (सं.) पक्षिन्, पत्रिन्, पतत्रिन्, पढ़ाई, सं. स्त्री. ( हिं. पढ़ना ). दे. 'पढ़ना' सं. खगः, विहगः। पुं. । २. अध्यापन, पाठनं, शिक्षणं ३. अध्या- 'पतन, सं. पु. ( सं. न.) अव-नि-अधः-, पातः, For Private And Personal Use Only Page #389 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पतला [३१] पत्नी च्यवनं, च्युतिः (स्त्री.), ध्वंसः, भ्रंशः, २. पतीली, सं. स्त्री. (सं. पातिली>) उखा, दे. अपकर्षः, अवनतिः (स्त्री.) ३. विनाशः, 'देगची' । मृत्युः ( पुं.) ४. बहिष्कारः, अपत्तिोयत्वम् । पते की बात, सं. स्त्री., गुह्मवाता, गुप्तवृत्तम् । -शील, वि. (सं.) पातुक, पतयालु । पतोखा, सं. पुं. (हिं. पत्ता ) दे. 'दोना' । पतला, वि. (सं. पात्रट ) प्र-तनु, सूक्ष्म, | पतोहू, सं. स्त्री., दे. 'पुत्रवधू'। २. कृश, क्षाम, क्षीण ३. जलबहुल, प्रवाहिन् | पत्तन, सं. पुं. (सं.) पुरं, नगर; महती पुरी। ४. विरल, घनत्वरहित । पत्तल, सं. स्त्री, (सं. पत्रं> )पत्रं, *पत्रस्थाली-करना, कि. स., वि-, द्र-ली (प्रे.), विरल लिका २. पत्रस्थं भोजनम् । यति ( ना. धा.), तनू कृ, तक्ष (भ्वा. प. | जिस पत्तल में खाना उसी पत्तल में छेद से; भ्वा. प. वे.); कृशी कृ। | करना, मु., उपकारकमेव दु (स्वा. प. अ). —होना, क्रि. अ., क्षि-अपचि (कर्म.), | बाध् ( भ्वा. आ. से.), उपकारकस्यैवापकारः। तनूविरली भू; कृशी भू; द्रवी भू, विली | पत्ता, सं. . (सं. पत्रं) दे. 'पत्र' २. कीडा( कर्म.)। पत्रम् । पतलापन, सं. पु. (हिं. पतला) तनुता, पत्ती, सं. स्त्री. (हिं. पत्ता) पत्रकं, पर्णकं तनुत्वं, सूक्ष्मत्वं २. काश्य, क्षीणता ३. जल- २. अंशः, भागः ३. पुष्पदलन् । बहुलत्वं ४. वैरल्यम्। ---दार, सं. पु. (हिं+'का.) अंश-भाग, ग्राहिन्पतलून, सं. स्त्री. ( अं. पैंटलून ) *पतलूनं, हारिन्, हरः २. पत्रमय। आंग्लपादायामः । पत्थर, सं. पु. ( सं. प्रस्तरः) शिला, अश्म न्पतवार-ल, सं. स्त्री. (सं. पात्रपालः ) कर्णः, ग्रावन् (पुं.), पाषाणः, उपलः, दृश(ष)द् केनिपातः-तकः । (स्त्री.), मृन्मरुः (पुं.), काचकः, पारटीट: पता, सं. पु. ( सं. प्रत्यय:> ) ( पत्रादि का) २. वर्षशिला, इन्द्रोपल: ३. रत्नं ४. न बाह्यनामन् (न.), पत्रसंज्ञा २. (घरादि का)। किंचिदपि । वि., क्रूर, निर्दय २. गुरु, भारवत् नामधामसंकेतः, गृहपरिचयः, निकेतसंकेतः | ३. कीकस, दृढ़। ३. बोधः, ज्ञानं ४. रहस्यं, गुह्यं ५. चिह्न, -चटा, सं. पुं., (१-३) घास-सपे-मीन, भेदः लक्षणम् । ४. कृपणः, मितंपचः। पताका, सं. स्त्री. (सं.) वै-,जयंती-तिका, ध्वजः, -फोड़, सं. पुं. दे. 'हुदहुद'। केतनं, केतुः (पु.) कदली-लिका। -की लकीर, मु., अक्षय्य, अक्षर, नित्य, पति, सं. पुं. (सं.) धवः, हृदय-जीवित, ईशः, | शाश्वत, निश्चित।। प्राणनाथः, वरः, परिणेतृ-भर्तृ-पाणिग्रहित (पु.), छाती पर रखना, मु., प्रतीकाराक्षमतया प्रियः, कांतः, स्वामिन्, गृहिन्, रमणः । सह् (भ्वा. आ. से.), निरुपायतया मृष् २. प्रभुः (पु.), अधिपतिः (पुं.)। (दि. उ. से.)। -व्रत, सं. पुं. ( सं. न.) पति-भक्तिः (स्त्री.)- |-पड़ना, मु., नश (दि. प. वे.) ध्वंस् निष्ठा, पातिव्रत्यम् । (भ्वा. आ. से.)। -व्रता, वि. स्त्री.(सं.) साध्वी, सच्चरित्रा, सती। -पसीजना, मु. मृदू-दयाद्रोंभू । पतित, वि. (सं.) गलित, अव-नि-अधः,- -होना, मु., निश्चल ( वि.) स्था ( भ्वा. प. पतित, च्युत, ध्वस्त, स्रस्त २. धर्म-आचार,- | अ.) २. निर्दय-निघृण (वि.) जन् (दि. भ्रष्ट ३. पापिन्, पातकिन् ४. जातेः-समाजात् | आ. से.)। च्युत-बहिष्कृत ५. अधम, नीच। पत्नी, सं. स्त्री. (सं.) जाया, भार्या, दाराः -पावन, वि. (सं.) पाप-पतित-पावक- (नित्य पुं. बहु.) स-सह, धर्मिणी, गृहिणी, शोधक-उद्धारक, अघनाशक, पापमोचक। अर्द्धागिनी, सहचरी, जनी, वधूः (स्त्री.), पतीला, सं. पुं. (हिं. पतीली) स्थाली, | परिग्रहः, क्षेत्र, कलत्रं, ऊढा। दे. 'देगचा'। -शाला, सं. स्त्री. (सं.) पत्नी,कोष्ठः गृहम् । For Private And Personal Use Only Page #390 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पत्र [ ३५२] पत्र, सं. पुं. (सं. न.) पर्ण, छदनं, पलाशं, । (पुं.) २. पाद-पद,,चिह्न-मुद्रा ३. पदं, पददल: लं, छदः २. ( पुस्तकादीनां) पत्रं, पर्ण, पाद,न्यासः-विक्षेपः, वि-,क्रमः, ४. स्थानं, पृष्ठं ३. समाचार-वृत्त, पत्रं ४. संदेश, पत्रं, | | स्थितिः (स्त्री.), पदवी ५. वृ-ि: (स्त्री.), लेखः-ख्यं ५. लेखपत्रं ६. ( धात्वादेः पट्टः-टैं, व्यवसायः ५. पy, छन्दस् (न.) ६. पद्यपादः, फलक:-कम् )। छंदश्चरणः ७. उपाधिः (पु.), मानपर्द -कार, सं. पुं. (सं.) वृत्तपत्र-लेखकः-संपादकः।। ८. सुप्तिङन्तं प्रातिपदिक, सविभक्तिकः शब्दः -वाहक, सं. पुं. (सं.) लेखहारः, संदेशहरः।। (व्या.) ९. भक्तिगीतिः (स्त्री.) १०. निःश्रे--व्यवहार, सं. पुं. (सं.) पत्रविनिमयः, यसं, मुक्तिः ( स्त्री.)। लेखव्यवहारः। -चर, सं. पुं. (सं.) पदगः, पदातिक:पत्रांजन, सं. पुं. (सं. न.) मशी-पी-सी, मशिः , | तिः (पुं.)। पि:-सिः ( सब (स्त्री.)। -च्छेद, सं. पुं. (सं.) संधिसमासयुक्तवाक्यपत्रा, सं. पुं. (सं. पत्रं> ) पंचांगं, पंजिका स्य पदानां विभागः व्या.)। २. पृष्ठं, पणे, पत्रम् । -च्युत, वि. (सं.) भ्रष्टाधिकार, अधिपत्राचार, सं. पुं. (सं.), पत्र, व्यवहारः कारच्युत विनिमयः। -दलित, वि. (सं.) पाद-पद,-आक्रांतपत्रावलि, सं. स्त्री. (सं.) पर्ण-दल-छद-श्रेणी. | मदित २. अपकर्षित, अवपीडित । राजी-आवली २. पत्रभंगः । पदक, सं. पुं. (सं. न.) कीर्ति-प्रतिष्ठा, मुद्रा। पत्रिका, सं. स्त्री. (सं.) संदेश-,पत्र २. साम- | पदवी, सं. स्त्री. (सं.) पदं, वृत्ति:-स्थितिः, यिक,-पुस्तकं ग्रंथः ३, समाचार-वृत्त,-पत्रं |, (स्त्री.) स्थाणं २. उपाधिः ( पुं.), उप-मान४. लघुलेखः । पद, कीर्तिचिह्न ३. मार्गः ४. रीतिः ( स्त्री.)। पत्री, सं. स्त्री. (सं.) लिपिपत्रिका, लघुलेखः | पदाति, सं. पुं. (सं.) प(पा)दातिकः, पदिकः, २. संदेश-,पत्रम् । पत्तिः (पुं.) प(पा)दगः, प(पा)दात् (पुं.), जन्म-, सं. स्त्री. (सं.) जन्मपत्रिका। पादातः। पथ, सं. पुं. (सं.) पथिन् (पुं.), मार्गः, पदाना, क्रि. स., ब. 'पादना' के प्रे. रूप । अध्वन् (पु.), वर्त्मन् (न.), पदवी-विः पदार्थ, सं. पुं. (सं.) मूर्त, द्रव्यं, वस्तु (न.), (स्त्री.), २. रीतिः ( स्त्री.), विपानम् । । अर्थः २. शब्दार्थः ३. धर्मार्थकाममोक्षा: -गामी, सं. पुं., दे. 'पथिक' । ४. द्रव्यगुणकर्मादयः प्रमेयविषयाः (दर्शन.) । -(प्र)दर्शक, सं. पु. ( सं.) मार्गदर्शक-उप-|-विज्ञान, सं. पुं. ( सं. न.) विज्ञानं, भौतिकदेशकः, नेतृ, नायकः। शास्त्रम्। पथरी, सं. स्त्री. (हिं. पत्थर ) प्रस्तर-कटोरा. पदार्पण, सं. पुं. (सं. न.) चरणार्पणं, पादन्यरिका २. अश्मरी, अश्मीर:-रं ३. अष्ठीलाः सन, शुभागमनम् । (स्त्री. बहु.), पाषाणशकलाः (पुं. बहु.) | पदावली, सं. स्त्री. (सं.) शब्दश्रेणी २. गीत४. दे. 'चकमक' ५. पक्षिजठरः-रं ६. झामरः, | संग्रहः। शाणी। पद्धति, सं. स्त्री. (सं.) मार्गः, पथः, पथिन् पथरीला, वि. (हिं. पत्थर ) प्रस्तर-उपल, २. पंक्तिः-ततिः ( स्त्री.) ३. रीतिः ( स्त्री.), संकुल-आकीर्ण-बहुल। परिपाटी-टि: (स्त्री.) ४. प्रकारः, विधा ५. पथिक, सं. पुं. (सं.) अवगः, अध्वनीनः, | संस्कारविधिदर्शको ग्रन्थः । अध्वन्यः, पान्थः, पथिलः, यात्रि(त)कः, पद्धरि-री, सं. स्त्री. (सं. पद्धटिका ) मात्रिकसमयातुः-गंतुः (पु.), पथकः ।। भेदः ( सा०) प्रतिचरण १६ मात्रा, अन्त में पथ्य, सं. पुं. (सं. न.) उपयुक्ताहारः। जगण, उ० नभ रैनि सघन तममय विलास । २. मंगलम् । वि., स्वास्थ्यकर, आरोग्यावह ।। पद अटकत कंटक दंभजाल ।] पद, सं. पुं. (सं. न.) पादः, चरणः, अंघिः पद्म, सं. पुं. (सं. न.) सरोज, पुंडरीकं, दे. For Private And Personal Use Only Page #391 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पद्मा [ ३५३ ] पपनी " निनी संख्या (ग. १०००००००००००००००)। - कंद, सं. पुं. (सं. पुं. न. ) शालु ( ल . ) कं, जलालुकं, पद्ममूलम् । -नाभ-भिः, सं. पुं. (सं.) दे. 'विष्णु' | - पाणि, सं. पुं. (सं.) ब्रह्मन (पुं.) २. सूर्य: ३. बुद्धः । 'कमल' २. विष्णोर युधविशेष: ३ षोडशस्था | पनडुब्बी, सं.स्त्री. (पूर्व ) जलमग्ना (नौका) । पनपना, क्रि. अ. (सं. पर्णे ) पुनः पल्लवितहरित (वि.) भू. २. पुन: स्वास्थ्यं लभ् (भ्वा. आ. अ. अथवा पुष् (दि. प. अ. ) । पनपाना, क्रि. स. ब. 'पनपना' के प्रे. रूप । पनवाड़ी, सं. स्त्री. (हिं. पान + बाड़ी ) *पर्णवाटी-टिका, तांबूली वाटिका । -- योनि, सं. पुं. ( सं . ) दे. 'बड़ा' । - राग, सं. पुं. (सं.) लोहितकः, लोहितं, शोणरत्नं कुरुविंदकम् । पद्मा, सं. स्त्री. (सं.) दे. 'लक्ष्मी' । पद्माकर, सं. पुं. (सं.) तटा ( डा ) कः, सरोवर:, सरसी, सरस् (न.), सरकम् । पद्माक्ष, सं. स्त्री. (सं.) विष्णुः २. सूर्य: ३. पद्मबीजम् । वि. (सं.) कंजाक्ष, कमलनयन, कमलनेत्र | पद्मालया, सं. स्त्री. (सं.) कमला, पद्मा, श्रीः, इन्दिरा, रमा । पद्मासन, सं. पुं. (सं. न. ) योगासनविशेष: । २. (सं. पुं.) दे. 'ब्रह्मा' । पद्मिनी, सं. स्त्री. (सं.) कमलिनी, नलिनी, विसिनी २. दे. 'पद्माकर' ३. स्त्रीभेदविशेषः, (जो कोमलांगी, सुशीला, सुन्दरी तथा पतिव्रता हो ) ४. हस्तिनी ५, दे. 'लक्ष्मी' । वल्लभ, सं. पुं. ( सं . ) सूर्यः । पद्य, सं. पुं. ( सं. न. ) छंदस् (न.), श्लोक: २. काव्यं कविता । -मय, वि. ( सं . ) पथ-, रूप-आत्मक, छन्दो बद्ध | पधारना, सं. पुं. (हिं. पग + धरना) गमनं, प्रस्थानं २. उप, आगमनं प्रापणम् । पन, सं. पुं. (सं. पणः ) प्रतिज्ञा, दृढसंकल्पः । पन े, सं. पुं. [ सं. पर्वन् (न.) > ] आयुषो चतुर्थभागः । पन, प्रत्यय (हिं. ) त्वं, ता (उ. बालपन: बालत्वं-ता । पनघट, सं. पुं. (हिं. पानी + घाट ) :-डी । पनचक्की, सं. स्त्री. (हिं. पानी + चक्की) जल, - चक्री-पेषणीयंत्रम् | पनडुब्बा, सं. पुं. (हिं. पानी + डूबना ) निक्त (पुं.), अवगाहकः २. खगर्भेदः ३ जलकुक्कुदः । २३ पनवाड़ी, सं. पुं. (हिं. पान ) दे. 'तमोली' । पनस, सं. पुं. (सं.) (वृक्ष) कंट कंटक, -फल:, स्थूल:, मृदंगफल:, (फल) पनसं, दे. 'कटहल ' । पनसारी, सं. पुं., दे. 'पंसारी' | पनसाल, सं. स्त्री. (सं. पानीय-शाला ) प्रपा, दे. 'सवील' | पनहा, सं. पुं. ( सं. परिणाहः ) दे. 'चौड़ाई ' २. गूढाशयः, मर्मन (न.) । पनहारा, सं. पुं. ( सं . पानीयहारः) जल, वाहक :वो (पुं.) । पनहारिन-री, सं. स्त्री. (हिं. पनहारा ) जल:वाहिका - वोढी । पनाती, सं. पुं. [सं. प्रनप्तृ (पुं.) ] प्रपौत्रः २. प्रदौहित्रः । पनारा-ला, सं. पुं., दे. 'परनाला' । पनाह, सं. स्त्री. ( फा . ) परि, त्राणं, रक्षा २. रक्षास्थानं, आश्रयः । पनीर, सं. पुं. ( फा . ) दधि (न.) । कूचिका २. निर्जल पण > ) पर्णबीजानि पनीरी, सं. स्त्री. (सं. ( न. बहु. ) । पन्नग, सं. पुं. ( सं. ) दे. ‘साँप’ । पन्ना, सं. पुं. (सं. पण > ) पुस्तक, पत्र-पृष्ठं २. धातुपट्ट:- ३. मरकतं, हरिन्मणि: (पुं.), अश्मगर्भजं, सौपर्णं ४. देशीयोपानह उपरि, भागम् । पन्नी, सं. स्त्री. (हिं. पन्ना ) त्रपु - पित्तल, पत्रम् पपड़ा, सं. पुं. (सं. पर्पटः > ) शुष्ककाष्ठत्वं खंड: २. रोटिकाया बाह्यभागः । पपड़ी, सं. स्त्री. (हिं. पपड़ा) बाह्य, पटलं-वेष्टनं, ari, शुष्कत्वम् (स्त्री.) २. दे. 'खुरंड' ३. पटकः ४. वल्कल:-लम् । पपनी, सं. स्त्री. ( देश. ) दे. 'बरौनी' । For Private And Personal Use Only Page #392 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पपीहा [३५४ परचाना पपीहा, सं. पु. ( देश.) चातकः, मेघजीवनः, । दूर,-स्थ-वातैन्, विप्रकृष्ट ४. अपर, उत्तर, सारंगः, स्तोककः । उत्तरकालीन, पाश्चात्त्य ५. अतिरिक्त, भिन्न पपीता, सं. पुं. (देश.) स्थूलेरण्डः, महापञ्चा- | ६. उत्तम, श्रेष्ठ ७. लीन,-मग्न,-परायण । ( उ. ङ्गल: २. पीपीकरः, क्रीडनकभेदः । स्वार्थपर-स्वार्थमग्न )। सं. पुं. (सं.) शत्रु:पपीहा, सं. पुं. ( अनु.) दे. 'चातक' । अरिः ( पुं.)। पपैया, सं. पु. ( अनु.) चातकः २. पीपीकरः, | पर२, अव्य. (सं. परं ) तदनु, ततः, तत्पश्चात् क्रीडनकभेदः ३. आम्रवृक्षकः । २. परंतु, किंतु, तथापि । पपोटा, सं. पुं. (सं. प्रपट:> ) दे. 'पलक'। | पर', प्रत्य. (सं. उपरि ) प्रायः सप्तमी विभक्ति पब्लिक, सं. स्त्री. ( अं.) लोकाः, जनता, | से ( उ. कुसी पर आसंद्याम् ), अधि, जनाः । वि., सार्व, -जनिक-जनीन-लौकिक। । उपरिष्टात्,। --प्रासिक्यूटर, सं. पुं. (अं.) राजकीय- | पर, सं. पुं. (फ़ा.) पक्षः, गरुत् (पुं.) वाजः । प्राभियोक्त। --दार, वि., सपक्ष, वाजिन्, पक्षिन्, गरुत्मत् । -वर्क्स डिपार्टमेंट, सं. पुं. (अं.) लोक- | -कट जाना, मु., अशक्त-असमर्थ (वि.) भू । निर्माण विभागः । -न मारना, मु., गंतुं न शक् (स्वा. प. अ.)। पब्लिशर, सं. पुं. (अं.) पुस्तक-ग्रंथ-प्रकाशकः । । -निकलना, मु., दृप (दि. प. अ.), गवं दे. 'प्रकाशक'। (भ्वा. प. से.), प्रगल्भ ( भ्वा. आ. से.)। पय, सं. पुं. [सं. पयस् (न.)] दुग्धं, क्षीरं | परकार, सं. पुं. (फा.)।' २. जलं. ३. अन्नम् । परकीय, वि. (सं.) दे. 'पर'(२) । पयस्विनी, सं. स्त्री. (सं.) क्षीरिणी, दोधी, परकीया, सं. स्त्री. (सं.) नायिकाभेदः, परदुग्धदा, दुधा। पुरुषानुरागिणी। पयाल, सं. पुं. ( सं. पलाल:-लं) निष्फलकांडः, | परकोटा, सं. पुं.. ( सं. परिकूट> ) प्राकारः, निश्शस्यो धान्यनालः। बप्र:-प्रं, ताल:, वरणः ।। पयोज, सं. पुं. (सं. न.) सरोज, पद्म, दे. परख, सं. स्त्री. ( सं. परीक्षा) विमर्शः, सूक्ष्म,'कमल' । निरूपणं-परीक्षणं-दर्शनं २. विवेकः, विचारणा, पयोद, सं. पुं. (सं.) मेघः, दे. 'बादल'। . परिच्छेदः। .... पयोधर, सं. पु. (सं.) कुचः, स्त्रीस्तनः । परखना, क्रि. स. (सं.. परीक्षणं) परीक्ष . २. ऊधस् ( न.), आपीनं ३. मेघः । (भ्वा. आ. से.) विमृश् . (तु. प. अ.) पयोधि, सं. पुं. (सं.) सागरः, समुद्रः। न २. विविच (रु.उ. अ.), विज-विच् (जु. पयोनिधि, " उ. अ.), परिच्छिद् (रु.प. अ.) सं. पुं., परंच, अव्य. (सं. परं+च ) अपरं च, अपि दे. 'परख'। .. च, अथ च २. तथापि, किंतु, परंतु। परखनेवाला, सं. पुं., दे. 'परीक्षक' । परंतप, वि. (सं.) अरिमर्दन, रिपुसूदन। परखा हुआ, वि., दे. 'परीक्षित । परंतु, अन्य. (सं. परं+तु) किन्तु, परं, | परगना, सं. पुं. (फ्रा.): उपमंडलविभागः, तथापि। . ग्रामसमूहः, *परिंगणः । परंपरा, सं. स्त्री. (सं.) अनु-,क्रमः, आनुपू- परगहनी, सं. स्त्री. (सं. प्रग्रहणं >.) सुवर्णदीव्य, पूर्वापरक्रमः २. संतानः, संततिः (स्त्री.) | काराणां नालाकार उपकरणभेदः, *अग्रणी । ३. परिपाटी-टि: (स्त्री.), प्रथा । | परचना, क्रि. अ. (सं. परिचयनं ) परि-चि -गत, वि. (सं.) परंपरीण, सांप्रदायिक- (स्वा. उ. अ..), सुपरिचित (वि.) भू, रूढपौराणिक [-की (स्त्री.)], क्रम,-आगत-प्राप्त ।। बद्ध, सख्य-सौहृद (वि.) भू । पर', वि. (सं.) अपर, अन्य, इतर, स्वातिरिक्त, | परचा, सं. पुं. (.फा.) ( परीक्षायाः) प्रश्न आत्मभिन्न २. परकीय, अन्यदीय, अन्य-, पर- पत्र २. संदेश-,पत्रं ३. पत्रखंड:-डम्। .. ( समासारंभ मैं ), अन्यस्य, परस्य ३. दूर, | परचाना, क्रि. स., व. 'परचना के प्रे. रूप । For Private And Personal Use Only Page #393 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir परचून [ ३५५ ] परमार्थ पौत्रपुत्रः। परचून, सं. पुं. (सं. पर अन्य+चूर्ण | परनाना, सं. ., दे. 'पड़नाना' । आटा> ) प्रकीर्ण-विविध,-पण्यं, *परचूर्णम् । । परनाला, सं. पुं. (सं.) प्रणालः। परचूनिया, सं. पुं. (हिं. परचून ) स्तोकश: परनाली, सं. स्त्री. (सं. प्रणालो) परि(री) अल्पश: विक्रयिन्-विक्रेत, खंडबणिज् (पुं.)। वाहः, सरणिः ( स्त्री.), निर्गमः जलनिस्सरणपरछत्ती, सं. स्त्री. ( सं. प्र+हिं. छत ) *प्र, मार्गः, जलोच्छवासः। छदिः ( स्त्री. )-छदिस् ( न.) पटलं २. तृण, पर(ड)पोता, सं. पुं. (सं. प्रपौत्रः) पुत्रपौत्रः, पटलं-छदिः । परछन, सं. स्त्री. (सं. परि+अर्चनं ) ( वधू- व र में सो ( सं. प्रपौत्री) पत्रपौत्री. संबंधिनोभिः वरस्य ) पर्यर्चनं-पर्या। पौत्रपुत्री। परछाई, सं. स्त्री. ( सं. प्रतिच्छाया ) छाया, | परब्रह्म, सं. पुं. ( सं. न.) परमेश्वरः, निर्गुणो छायाकृतिः (स्त्री.) २. प्रतिबिंबः बं, प्रति, जगदीश्वरः। रूपं फलं मूर्तिः ( स्त्री.)। परभृत, सं. स्त्री. ( सं. पुं.) कोकिलः, पिकः । परजौट, सं. पुं. (हिं. परजा ) *गृहभूमिकरः। परम, वि. (सं.) उत्तम, श्रेष्ठ २. आदिम, परतंत्र, वि. (सं.) पराधीन, परायत्त, पराश्रित, प्रथम ३. प्रधान, मुख्य ३. अत्यधिक अत्यंत । परवश, परावलंबिन, परनिध्न । परतंत्रता, सं. स्त्री. (सं.) पराधीनता, पराश्रयः, --गति, सं. स्त्री. (सं.) ) मोक्षः, मुक्तिः । (स्त्री.), परावलंबन, परवशता इ.। -धाम, सं.पु. सं. मन्(न.) अपवर्गः, परत, सं. स्त्री. (सं. पत्रं> ) अथवा स्तरः, -पद, सं. पु. ( सं. न.) निःश्रेयसम् । तलं २. पुटः, भंगः, वलि: (स्त्री.) ३. दे. 'पपड़ी'(१)। -ज्ञान, सं. पुं. ( सं. न.) ब्रह्मशानम् । .. परतल, सं. पुं. (सं. पटतलं ) *अश्व-गोणी- -तत्त्व, सं. पुं. (सं. न) मूलसत्ता २. ईश्वरः । प्रसेव:-भारः। -पिता, सं. पुं. [सं.-तृ (पं.)1) परमेश्वरः -का टटू, सं. पु. पृष्ठधः, स्थौरिन् । सच्चिदा ---पुरुष, सं. पुं. (सं.) परतला, सं. पुं. (सं: परि+तन् ) खड्ग नंदो जग. कृपाण, पट्टिका। -ब्रह्म, सं. पुं. [सं.-झन् (न.)] ) दीश्वरः । परती, सं. स्त्री., दै. 'पड़ती। -हंस, सं. पुं. (सं.) संन्यासिभेदः २. ईश्वरः । परदा, सं. पुं. (मा.) अंपटी, तिरस्करिणी, | परमानेंट, वि. ( अं.) स्थिर, स्थायिन् । कांडपट-टकः, ज(य)वनिका, प्रतिसा. | परमाक्षर, सं. पुं. (सं. न.) ओङ्कारः, प्रणवः । (सी)रा २. व्यवधानं ३. अवगुंठनं-ठिका | परमाणु, सं. पुं. (सं.) भूजलानलानिलाना ४. ( नारीणां ) एकांतवासः, परपुरुषादर्शन | सूक्ष्मतमो लवः ।। ५. स्तरः, तलं ६. व्यवधायककुड यं ७. पटलं. -वाद, सं. पुं. (सं.) परमाणुभ्यो जगद्रचना आवरकं ८. आवरणं, आच्छादनं ९. वाद्यानां इति न्यायवैशेषिकसिद्धांतः । स्वरोद्गमस्थानम् । | परमात्मा, सं. पुं. (सं.त्मन् ) परमेश्वरः, -उठाना या खोलना, मु., रहस्य-गुह्यं प्रपाट- | परब्रह्मन् ( न.) जगदीश्वरः, वि., धातृ (पं.). यति (ना. धा.)-प्रकाश (प्रे.)। ओम् ( अव्य.) सच्चिदानंदः। .. -करना या रखना, मु., अवगुंठ (च.), परमानंद, सं. पुं. (सं.) अत्यंतसुखं २. ब्रह्म अंतःपुरे वस् ( भ्वा. प. अ.)। सायुज्यसुखं ३. आनंदस्वरूपं ब्रह्मन् (न.)। -नशीन, वि. ( 'फा.) अवगुंठनवती, अंत:- | परमान, सं. पुं. (सं. न.) पायसः-सं, क्षीरिका । पुरवासिनी। परमायु, सं. स्त्री. [सं.-युस् (न.)] अधिकापरदादा, सं. पुं., दे. 'पड़दादा'। धिकायुस् ( न.), जीवनसीमा ( यह मनुष्यों परदेस, सं. पुं. ( सं. परदेशः ) विदेशः। की १२० वर्ष है)। परदेसी, सं. पुं. ( सं. परदेशीयः ) विदेशीयः, परमार्थ, सं. पुं. (सं.) उस्कृष्टवस्तु (न.) पारदेशिकः, वैदेशिकः ! वि., अन्य-परदेशीय।। २. यथार्थतत्त्वं ३. मोक्षः ४. सुखम् । For Private And Personal Use Only Page #394 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir परमार्थी [ ३५६ ] पराजय परमार्थी, वि. (सं.-थिन् ) तत्त्वज्ञानाभिलाषिन् | परसों, कि. वि. [ सं. परश्वः ( अन्य.) ] श्य:२. मुमुक्षु, मोक्षेच्छुक । परदिनं २. ह्यः-पूर्वदिनम् । परमेश्वर, सं. पुं. (सं.) दे. 'परमात्मा' | परस्पर, क्रि. वि. ( सं. परस्परं ) अन्योन्यं, २. विष्णुः ३. शिवः। इतरेतरं, मिथः (सब अव्य:)। परला, वि. ( सं. पर ) पर, परस्थ, परवर्तिन्, | -का, वि., परस्परस्य-अन्योन्यस्य-इतरेतरस्य २. अनंतर, निरंतराल ३. दूर, दूर,-स्थ वतिन् । ( केवल एकवचन में ), परस्पर-, अन्योन्य-, | इतरेतर-, मिथः। परलोक, सं. पुं. (सं.) लोकांतरं २. देहांतर परहित, सं. पुं. (सं. न.) दे. 'परोपकार' । प्राप्तिः ( स्त्री.), प्रेत्यभावः, पुनर्जन्मन् (न.)। परहेज़, सं. पुं. (फ्रा. ) कुपथ्यत्यागः, पथ्य-गमन, सं. पुं. (सं. न.)मृत्युः (पुं.) निधनम् । सेवनं, मित, अशनं-पानं, आहार-पानाशन,-वासी, वि. ( सं.-सिन् ) मृत, विपन्न, नियम: २. संयमः, जितेन्द्रियता, दोष-दुर्गुण, दिवंगत, स्वगिन् । त्यागः। -सिधारना, मु., दिवं-स्वर्ग-पंचत्वं गम्। --करना, क्रि. स., कुपथ्यं त्यज (भ्वा. प. परवरदिगार, सं.पं. (फा.) पालकः २. ईश्वरः । अ.), २. दोषान् परि-वि-वञ् (चु.)। परवरिश, सं. स्त्री. (फ़ा.) पालनं, पोषणं, | --पार, सं. पुं. (फा.) कुपथ्यत्यागिन्, संयभरणम् । ताहारः २. संयमिन्, जितेन्द्रियः।। - करना, क्रि. स., परि-प्रति,पा (प्रे. पाल -गारी, सं. स्त्री. (फ़ा.) दे. 'परहेज़' (१-२)। यति ), संवृध् -परिपुष् (प्रे.)। परोठा, सं. पुं. ( हिं. पलटना ?) परम-घृतपरवल, स. पु. ( स. पटालः) द. पटार'। गर्भ,रोटिका, परोटः। परवश-श्य, वि. (सं.) दे. 'परतंत्र'। परांत, सं. पुं. (सं.) मृत्युः, निधनम् । परवशता, सं. स्त्री. (सं.) दे. 'परतंत्रता'। ---काल, सं. पुं. (सं.) मृत्युसमयः २. मुमुक्षूणां परवा', सं. स्त्री. (फा.) आशंका, चिंता, देहत्यागकालः। व्यग्रता, उद्वेगः २. आश्रयः, अवलंबः। परा', सं. स्त्री. (सं.) ब्रह्म-उपनिषद्, विद्या । परवार, सं. स्त्री. (सं. 'प्रतिपदा' दे०) वि. स्त्री. (सं.) परवर्तिनी, दूरस्था २. श्रेष्ठा :। परवाज़, सं. स्त्री. (फा.) उड्डयनं, उत्पतनं, | परा२, सं. पुं. (फ़ा. पर पंख १) पंक्तिः-ततिः खे विसर्पणम् २. गर्वः, अवलेपः। (स्त्री.)। परवानगी, सं. स्त्री. (ना.) अनुमतिः (स्त्री.), पराकाष्ठा, सं. स्त्री. (सं.) अतिभूमिः-पराअनुज्ञा। कोटिः ( स्त्री.), चरमसीमा, परमावधिः (पु.), परवाना, सं. पु. (फा.) आज्ञा-शासन-अनुज्ञा, अत्यंतता। पत्र २. पतंगः शलभः दीपशत्रः । पराक्रम, सं. पुं. (सं.) वीर्य, शौर्य, विक्रमः, -राहदारी, सं. पुं., दे. 'पासपोर्ट' । पौरुष, ओजस्-सहस्-तरस् (न.), रणोत्साहः । परवाल, सं. पु. ( सं. पर+वाल:> ) पक्ष्म पराक्रमी, वि. (सं.-मिन् ) वीर, शूर, विक्र मिन्, विक्रांत, वीर्य-विक्रम,-शालिन्, साहसिक प्रकोपः। [-की (स्त्री.)], तेजस्विन् [-नी ( स्त्री.] । परशु, सं. पुं. (सं.) पशुः (पु.) परश्वधः, १. पराग, सं. पु. (सं.) पुष्प-कुसुम, धूलि: (स्त्री.)पर्वधः, कुठारः । रजस् (न.)-रेणुः (पु.) २. रजस, धूलि:. -राम, सं. पुं. (सं.) भार्गवः, जामदग्न्यः, ३. स्नानीयसुगन्धिचूर्ण ..४. चंदनं. ५: कर्पूरपशुरामः। रजस् । परसा, सं. पुं., दे. 'परशु'। पराङ्मुख, वि. (सं.) विमुख, पराचीन २. परसाल, सं. पुं. (सं. पर+फा. साल ) प्रतिकूल, विपरीत, विरक्त . [ पराङ्मुखी (पिछला) गतवर्ष परुत्। ( अव्य.) २. (आगामी) (स्त्री.)]] : उत्तर-पर-आयामि, वर्षम् । क्रि. वि, परुत्, पराजय, सं. पु: (सं.) पराभवः, . हारी-रिः गतवर्षे २. आगामि,-वत्सरे-वर्षे । ......... - (स्त्री) भंगः । For Private And Personal Use Only Page #395 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पराजित परिनोव - पराजित, वि. ( सं.) हारित, पराभूत, निर- | परिकल्पित, वि. (सं.) रचित, आविष्कृत २. वि., जित। कल्पित, उद्भावित ३. निश्चित। परात, सं. स्त्री. (सं. पात्रं> ) पारीत्रा। परिक्रमा, सं. स्त्री. (सं.-मः) प्रदक्षिण:-णा-णं, पराधीन, वि. (सं.) दे, 'परतंत्र'। (पूजार्थं ) परिभ्रमणम् ।। पराधीनता, सं. स्त्री. (सं.) 'परतंत्रता'। ---करना, क्रि. स., परिक्रम् (भ्वा. प. से. पराभव, सं. पुं. (सं.) दे. 'पराजय' २. तिर- भ्वा. आ. अ.), (पूजार्थ) परि-भ्रम् (भ्वा. स्कारः, मानहानिः (स्त्री.)३. विनाशः। प.से.)प्रदक्षिणा कृ। पराभूत, वि.(सं.) दे. 'पराजित' २. तिरस्कृत परिखा, सं. स्त्री. (सं.) खातं, खेयम् । ३. ध्वस्त, नष्ट । परिख्यात, वि. (सं.) विख्यात, विश्रुत । परामर्श, सं. पुं. (सं.) विवेचनं, विचारणा, परिगणन, सं. '. (सं. न.) संख्यानं, सम्यक् वितकः, मंत्रणा, २. उपदेशः अनुशासनम् ।। गणनम् । परायण, वि. ( सं. ) लग्न, मग्न, प्रवृत्त, पर, परिगृहीत, वि. (सं.) स्वीकृत, उररीकृत २. निरत ( प्रायः समासांत में, उ. धर्मपरायण= | प्राप्त, लब्ध २. अंतभूत, समाविष्ट । धर्मपर ई.)। परिग्रह, सं. पु. (सं.) आदानं, ग्रहणं, प्रतिपराया, वि. पु. ( सं. पर ) दे. 'पर" (२)। ग्रहः २. लब्धिः -प्राप्तिः ( स्त्री.) ३. धनादिपरार, सं. पुं. [ सं. परारि ( अव्य.) पूर्वतर- | संग्रहः ४. स्वी-अंगी, कार ५. विवाहः ६. पत्नी वत्सरः, गततृतीयवर्षः-र्षम् । ७. परिजनः, परिवारः ८. परिवेष्टनम् । पराद्ध, सं. पुं. (सं. न. ) शंखः-खं, अष्टादशांक- परिघ, सं. पुं. (सं.) परिघातनः लोहमुखलगुडः वती संख्या (१०००००००००००००००००)। २. परि, पातःहननं ३. अर्गल:-ल-ला-ली परावर, वि. (सं.) पूर्वापर २. निकटदर ३. ४. मुद्गरः ५. शूल: ६. कलसः ७. भवनं सर्वोत्तम, सर्वश्रेष्ठ । प्रतिबंधः, बाधा। परावर्त, सं. पुं. (सं.) (निर्णयादिकस्य ) परा- | परिचय, सं. पुं. (सं.) परि-, ज्ञानं, अभिशता, प्रत्या,-वृत्तिः ( स्त्री.) वर्तनम् । बोध: २. प्रमाणं, उपपत्तिः (स्त्री.) ३.अभ्यासः । -व्यवहार, सं. पु. (सं.) अभियोगस्य निर्ण- परिचर, सं. पुं. (सं.) अनुचरः, सेवकः, दे. यस्य वा पुनर्विचारः। परावर्तन, सं. पुं. (सं. न.) प्रतिनि-नि-परा- परिचर्या, सं. स्त्री. (सं.) सेवा, शुश्रूषा-षणा, प्रत्या, वृत्तिः (स्त्री.)वर्तनं, अप,-क्रमणं-सरणं- उपस्थान, उपचारः, उपासनम् । यानम् । परिचायक, सं. पुं. (सं.) परिचयदायकः, पराशर, सं. पुं. (सं.)न्यासपितृ।। परि-अभि,-ज्ञापकः २. सूचकः, द्योतकः, बोधकः, पराश्रय, सं. पुं. (सं.) अन्य-पर, संश्रयः-अव- | निर्देशकः, ज्ञापकः । परिचायिका (स्त्री.)। लम्बः-अवलंबनं २. दे. 'परतंत्रता'। परिचारक, सं. पुं. (सं.) सेवकः, किंकरः, पराश्रित, वि. (सं.) अन्य-पर, संश्रित-अव- | दासः, मृत्यः, प्रेष्यः, भुजिष्यः, नियोज्यः। लंबित २. दे. 'परतंत्र'। परिचालन, सं. पुं. (सं. न.) ( कार्य-) परासु, वि. (सं.) प्रेत: ता-तं, मृतः-ता-तभनिर्वाहः, संचालनं २. प्रचोदना, प्रेरणं-णा, परेतः-ता-तं, निर्जीवः-वा-वं, प्रणीतः-ता-तम् ।। प्रोत्साहनम् । परास्त, वि. (सं.) दे. 'पराजित'। | परिचित, वि. ( सं.) अभि-परि-ज्ञात, परिचयपराल, सं. पुं. (सं.) अपरालः, विकालः । विशिष्ट २. ज्ञात, बुद्ध, विदित । परिदा, सं. पु. (फा.) पक्षिन्, पत्रिन, पतविन, परिच्छद, सं. पुं. (सं.) परिधानं, वेश:-पः, खगः। वसनं २. आच्छादनं ३. राजचितानि (न. परिकर, सं. पुं. (सं.) परिजनः, अनुचरवर्गः बहु.) ४. राजसेवकवर्गः ५. परिजनः, परि२. कटिबंधः, प्रगाढ़गात्रिकाबंधः ३. कुटुम्बं वारः, कुलं ६, उपस्करः, संभारः, सामग्री। ४. समूहः ५. अर्थालंकार भेदः (सा.)। परिच्छेद, सं. पुं. (सं.) अध्यायः, प्रकरणं, 'परिचारक' । For Private And Personal Use Only Page #396 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra परिजन www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [ ३१८ ] उल्लासः, उच्छ्वासः २. विभंजनं, खंडनं ३. सीमा, इयत्ता ४. विवेकः ५. निर्णयः ६. विभागः, विभाजनम् । परिजन, सं. पुं. ( सं . ) परिवारः, कुटुंबं, कुलं २. दास-अनुचर,-वर्गः, परिवारः । - परिणत, वि. (सं.) विकृत, रूपांतरं विकारं प्राप्त, सविकार २. पक्व ३. जीर्ण, जठराग्नौ पक्व ४. पुष्ट, प्रौढ । | परिणय, सं. पुं. (सं.) विवाहः, दारपरिग्रहः । परिणाम, सं. पुं. ( सं ) फलं २ अंतः, पाकः, उदर्क: ३. विकारः, विक्रिया, रूपांतर - अवस्थांतर, प्राप्तिः (स्त्री.), दशापरिवर्तनम् । परिताप, सं. पुं. ( सं . ) दुःखं, क्लेशः, व्यथा २. संतापः, क्षोभः २. अनु-पश्चात्, तापः । परितोष, सं. पुं. ( सं . ) तृप्ति: (स्त्री.), संतोषः २. हर्षः, मोदः । परित्याग, सं. पुं. (सं.) सर्वथा त्याग:- वर्जनउत्सर्गः २. निष्कासनं, बहिष्करणम् । परित्राण, सं. पुं. (सं. न.) रक्षा, रक्षणं, पालनं २. हस्तवारणं, मारणोद्यतस्य निवारणम् । परिधान, सं. पुं. (सं. न. ) वसनं, वस्त्रं, वासस् (न.), परिच्छदः, नेपथ्यं, वेशः षः २, वस्त्रैः आवेष्टनं-आच्छादनं, वस्त्रधारणम् । परिधि, सं. स्त्री. (सं. पुं. ) परिणाह:, परिवेशः, मंडलं २. सूर्यचंद्रसमीपमंडलं, ३. प्राचीरं, वृति: (स्त्री.) ४. नियतमार्गः । परिधेय, वि. (सं.) धार्य, वसनीय, धारणीय, परिधातव्य । परिनिर्वाण, सं. पुं. (सं. न. ) मुक्ति:-परिनिवृत्ति: (स्त्री.), मोक्षः । परिनिष्ठा, सं. स्त्री. (सं.) चरमसीमा, परमा : (पुं.), पराकाष्ठा, पारः-रम् । परिनिष्ठित, वि. (सं.) पारंगत, सुनिपुण, सुदक्ष, विज्ञ । परिवर्तन बहुदर्शिता ४. नैपुण्यं प्रावीण्यं ५. परिणामः, फलं ६. कर्म, विपाकः फलम् । परिपाटी, सं. स्त्री. (सं.) अनुक्रमः, परिपाटिः (स्त्री.), परंपरा, आनुपूर्वी २. शैली, प्रणाली, विधि: (पुं. ) ३. रीतिः - पद्धतिः (स्त्री.), संप्रदायः । परिपालन, सं. पुं. ( सं. न. ) रक्षणं, पालनं २. रक्षा, त्राणम् । परिपक्क, वि. (सं.) सम्यक्, सिद्ध-संस्कृत-पक्च २. (जठरे ) सुष्ठु, जीर्ण-पक्व परिणत ३. प्रौढ, सुविकसित, पुष्ट ४. अनुभविन्, बहुदर्शिन ५. कुशल, प्रवीण । परिपक्कता, सं. स्त्री. (सं.) दे. ' परिपाक' | परिपाक, सं. पुं. (सं.) (जठरे ) पचनं, पाचनं परणामः २. प्रौढता, पूर्णता ३. अनुभवः, परिपूर्ण, वि. (सं.) व्याप्त, संभृत, संपूर्ण, पूरित, निर्भर २. अतितृप्त, संतर्पित, २. अवसित, समाप्त । परिभ (भा) व, सं. पुं. ( सं . ) तिरस्कारः, अपअव, मानः, अनादरः । परिभाषा, सं. स्त्री. (सं.) लक्षणं, निर्वचनं, निर्देश:, परिच्छेदः, प्रज्ञप्तिः, समयकारः २. ग्रंथसंक्षेपनिर्वाहार्थं संकेत-संज्ञा, विशेष: ३. परिकृतभाषणं ४. निंदा । परिभूत, वि. ( सं . ) पराजित २ तिरस्कृत | परिभ्रमण, सं. पुं. ( सं . न . ) पर्यटनं, विचरणं २. घूर्णनं ना ३. दे. 'परिधि' । परिमल, सं. पुं. (सं.) आमोदः, सौरभ, सुवासः, सुगंध: २. मैथुनम् । परिमाण, सं. पुं. ( सं. न. ) मानं, प्रमाणं, प्र-परि, मिति: (स्त्री.) २ मात्रा, भारः ३. विस्तार:, इयत्ता ४ परिधि: ( पुं.) 1 परिमार्जन, सं. पुं. (सं. न. ) परिधावनं, परिशोधनं, परिष्करणम् । परिमार्जित, वि. ( सं .) परि, धौत-धावित, परिष्कृत, परिशोधित । परिमित, वि. (सं.) परिच्छिन्न, सावधिक, ससीम, समर्याद, दित, २. अल्प, न्यून | परिरंभ, सं. पुं. (सं.)) उपगूहनं, परिपरिरंभण, सं. पुं. (सं.न.) । ध्वंगः, आलिंगनम् । परिवर्त, सं. पुं. (सं.) वि-आवर्तनं आवृत्तिः (स्त्री.), घूर्णनं २. विनिमयः परिवृत्ति: (स्त्री.) । परिवर्तन, सं. पुं. (सं. न. ) विकारः, विकृति: (स्त्री.), विक्रिया, रूपांतर, दशांतरं २. विनिमयः परिदानं, नैमेयः, व्यति (ती) हारः, परावर्तः, विमयः, वैमेयः ३. आवर्तनं, घूर्णनं ४. काल युग, समाप्तिः (स्त्री.) । -करना, क्रि. स., परिवृत ( प्रे.), परिवर्तन For Private And Personal Use Only Page #397 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir परिवर्तित [ ३६ ] अन्यथा कृ २. प्रतिदा ( जु. उ. अ. ) विनि- | परिशीलन, सं. पुं. ( सं. न. ) गंभीर-समनन, अध्ययन-पठनं २. स्पर्शनम् । परिशीलित, वि. (सं.) सम्यक् - सुष्ठु - अधीतपठित | परिशुद्ध, वि. (सं.) पूर्ण, शुद्ध - अमल - निर्दोषपूत २ कारा- कारावास, -मुक्त । परिशुद्धि, सं. स्त्री. (सं.) पूर्ण-शुद्धि: (स्त्री.) पवित्रता- निर्दोषता २. कारागार - मुक्तिः (स्त्री.)। परिशेष, सं. पुं., (सं.) अंतः, समाप्तिः (स्त्री.), दे. 'परिशिष्ट' सं. पुं. तथा वि. । परिशोधन, सं. पुं. ( सं. न. ) परिमार्जन, परिधावनं, २. ऋणशोधनं-शुद्धिः (स्त्री.) । परिश्रम, सं. पुं. (सं.) आ-प्रन्यासः, श्रमः, उद्यम:, उद्योग:, प्र, यत्नः २. क्लमः, क्लांतिःश्रांतिः - ग्लानिः (स्त्री.), खेदः । करना, क्रि. अ., आयस्- परिश्रम् ( दि. प. से. ), उद्यम् (भ्वा. प. अ.), व्यव-सो (दि. प. अ. ) 1 निमे (भ्वा. आ. अ. ) । - होना, क्रि. अ., परिवृत (भ्वा. आ. से. ), वि (कर्म.), विपर्यस् (दि. प. से.) २. व्यतिह - प्रतिदा - विनिमे ( कर्म. ) । परिवर्तित, वि. ( सं . ) विकृत, रूपांतरित, दशांतरं प्राप्त २. विनिमित, व्यतिहृत, विनिमयेन प्राप्त । परिवर्द्धन, सं. पुं. (सं. न. ) परिवृद्धि: (स्त्री.), बृहणं, स्फीतिः (स्त्री.)। परिवर्द्धित, वि.. (सं.) विस्तृत, विस्तीर्ण, प्रवि., तत, उपचित २. विशालीकृत, वृद्धिं नीत, आप्ाति । परिवा, सं. स्त्री. दे. 'प्रतिपदा' । परिवाद, सं. पुं. (सं.) निंदा, अपवाद:, दोषकथनं २. वीणावादनवलय: ( मिजराब ) । परिवादक, सं. पु. ( सं . ) निंदकः, अपवादकः, दोषकथकः २. अभियोक्तृ (पुं) अर्थिन्, वादिन् ३. वीणावादकः । परिवार, सं. पुं. ( सं . > ) कुटुंबं, पुत्रकलत्रादीन, गृहजन:, *परि (री) वारः । - नियोजन, सं. पुं. (सं. न. ) परिवारकुटुम्ब, नियन्त्रणं-निरोधः, सन्तति-सन्तान निरोधः । परिवाह, सं. पुं. (सं.) जलोच्छासः तोयाप्लावः । परिवृत, वि. (सं.) परिवेष्टित, परिगत, परिक्षिप्त २. आच्छ्वादित, आवृत । परिवृत्त, वि. (सं.) 'परिवर्तित ' ( २ ) २. परिवेष्टित, परिगत ३. समाप्त परिवेषण, सं. पुं. (सं. न. ) भोजनपात्रे भोजननिधानं २. परिधि: ( पुं.), वेष्टनं ३. परिवेशः-पः । परिवेष्टनं, सं. पुं. ( सं. न. ) संवलनं, परिक्षेपणं, परिवारणं २. आच्छादनं, आवरणं, पुटं, वेष्टन, कशः षः ३. परिधि: ( पुं. ) । परिवज्या, सं. स्त्री. ( सं . ) सन्न्यासः, वैराग्यं, चतुर्थाश्रमः २. परिभ्रमणम् । परिव्राजक, सं. पुं. ( सं ) ) भिक्षुः, परिव्राट्, सं. पुं. ( सं . बाज) J दे. 'संन्यासी' । परिशिष्ट, सं. पुं. (सं. न. ) परि-शेष-पूरणं, उत्तरखंडः, शेषग्रंथः, खिलम् । वि., अव, शिष्टशेष, उद्वृत्त । .. परिहार परिश्रमी, वि. (सं-मिन् ) उद्यमिन्, उद्योगिन्, उद्यम उद्योग - परिश्रम, शील, आयसिन् । परिश्रांत, वि. ( सं . ) क्लांत, म्लान, खिन्न, आयस्त । परिषद्-त्, सं. स्त्री. (सं.- षद् ) सभा, समाज, समितिः (स्त्री.) २. जनसमूहः । परिषद, सं. पुं. ( सं . ) सदस्य, सभासद् (पुं.)। २. राज-वल्लभः, सभासद् । परिष्कार, सं. पुं. (सं.) शौचं शुद्धि: (स्त्री.), शुचिता, संस्कारः २. निमलत्वं, स्वच्छता ३. आभूषणं, अलंकार : ३. मंडनं, प्रसाधनम् । परिष्कृत, वि. (सं.) मार्जित, धावित, धौत २. मंडित, प्रसाधित, अलंकृत ३. संस्कृत, शोधित । परिसंख्या, सं. स्त्री. (सं.) संख्या, गणना २. अर्थालंकारभेदः (सा.) । परिस्तान, सं. पुं. ( फा . ) अप्सरोलोकः २. सुंदरीस्थानम् । परिहरण, सं. पुं. ( सं . न ) बलात् ग्रहणंअपहरणं २. परि-,त्यागः, उत्सर्गः ३. दोषादीनां निवारण, निराकरणम् । परिहार, सं. पुं. ( सं . ) ( दोषादे: ) निवारणं, निराकरणं २ उपचारः, उपाय: ३ त्यागः, परिवर्जनं ४. गोचरः, प्रचारभूमिः (स्त्री.) For Private And Personal Use Only Page #398 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir परिहार्य [ ३६० ] पर्वत ५. युद्धार्जितं धनं, विजितद्रव्यं ६ . ( करादेः ) । परोसनेवाला, सं. पुं., परिवेषकः, परिवेष्ट मोचनं, वर्जनं ७. प्रत्याख्यानं, खडनं ८. अवज्ञा, अपमान: ९. उपेक्षा । परिहार्य, वि . ( सं . ) परिवर्जनीय, प्रोज्झनीय, हेय, त्यक्तव्य । परि (री) हास, सं. पुं. (सं.) नर्मन् (न.), नर्मालाप:, प्रहसनं, हास्यं, विनोद, उक्ति:(स्त्री.)-भाषणम् । परी, सं. स्त्री. फा.) अप्सरस् (स्त्री.), योगिनी, यक्षिणी, विद्याधरी २. सुंदरी । -जाद, बि. (फ्रा.) अतिसुंदर, परमशोभन । परीक्षक, सं. पुं. (सं.) प्राश्निकः, अनुयोक्तृपरीक्षित (पुं) २. विचारकः निरूपकः ३. समालोचकः, समीक्षकः । प्रश्नः, निरूपणं परीक्षा, सं. स्त्री. (सं.) परीक्षणं, अनुयोगः २. समालोचना, समीक्षा, ३. निरीक्षा, अवेक्षा, आलोकनं, ४. दिव्यं ५. प्रयोगः, अनुभवः । परीक्षित, वि. (सं.) नृपविशेष:, अभिमन्युपुत्रः २. प्रश्नित, अनुयुक्त, कृतपरीक्ष ३. समालोचित, समीक्षित ४. अनुभूत प्रयुक्त । परुष, वि. (सं.) क्रूर, निर्दय, निर्घृण, २. अप्रिय, कटु । परे, क्रि. वि. (सं. परं) दूरं, दूरे, दूरतः, २. पृथक्, बहिस् ३. तदनु, ततः, तदनन्तरं ४. उपरि, उच्चैः ( सब अन्य . ) । -परे करना, मु. परिह (भ्वा. प. अ.), अप-, वृज् (चु.), न संगम् (भ्वा. आ. अ. ) । परेवा, सं. पुं. (सं. पारावतः ) दे. 'कबूतर' | परेशान, वि. (फ़ा. ) उद्विग्न, व्यग्र, व्याकुल । परेशानी, सं. स्त्री. (फ़ा.) उद्विग्नता, व्याकुलता । परोक्ष, वि. (सं.) अदृश्य, अलक्ष्य, अचाक्षुष २. गुप्त, गूढ । सं. पुं. (सं. न. ) अनुपस्थितिः (स्त्री.), अविद्यमानता । परोपकार, सं. पुं. (सं.) परोपकृति: (स्त्री.) परहितं, लोकसाहाय्य, उदारता । --करना, क्रि. स., परोपकारं कृ, परहितं संपद (प्रे.) परसाहाय्यं विधा ( जु. उ. अ. ), उपकृ । परोसना, क्रि. स. (सं. परिवेषणं ) भक्ष्याणि पात्रे स्था ( प्रे. स्थापयति ), परिविष ( प्रे. ) । सं. पुं., परि (री) वेष :- षणम् । (पुं.) । परोसा हुआ, वि., परिवेषित, पात्रे निहित । पर्चा, सं. पुं., दे. 'परचा' । पर्जन्य, सं. पुं. ( सं . ) जलद:, पर्ण, सं. पुं. ( सं. न. ) दे. 'पत्र' (१) २. तांबूली-नागलता, दलं, तांबूलम् । दे. 'मेघ' । -लता, सं. स्त्री. (सं.) पुन्नागवल्ली, नागलता । - शाला, सं. स्त्री. (सं.) पर्णकुटी, उटज:-जम् । पर्णाद, सं. पुं. (सं.), पत्र-पूर्ण, अशन:- आहार:भक्षकः ( व्रतिन् ) २. ऋषिविशेष: । पर्णाशन, सं. पुं. (सं.) दे. 'पद' । पर्णाहार, सं. पुं. ( सं . ) दे. 'पद' । पर्णी, सं. पुं. (सं. पर्णिन् ) वृक्षः, तरुः, पादपः, विटप:-पिन् । पर्व, सं. स्त्री. दे., 'परत' । पर्दा, सं. पुं., दे. 'परदा' । पक, सं. पुं. (सं.) पल्कः, अवसविधका, पर्यंस्तिका, परिकरः । पर्यटन, सं. पुं. (सं. व . ) दे. 'भ्रमण' । पर्यंत, अव्य. ( सं . पर्यन्तं ) यावत्, आ-, पर्यंत (उ., मृत्युपर्यंतं, मृत्युं यावत्, आमृत्योः, मरणपर्यंतम् ) । पर्याप्त, वि. (सं.) प्रभूत, प्रचुर, पूर्ण, यथेष्ट, उपयुक्त, अलं ( चतुर्थी के साथ । २. समर्थ, शक्त । पर्याय, सं. पुं. (सं.) तुल्यार्थ- समार्थ, शब्द: २. क्रमः, परंपरा, आनुपूर्व्य-वी ३. अर्थालंकारभेद: ४ अवसरः, उचितसमयः । -वाची, वि. (सं.चिन ) पर्यायवाचक, समसमान तुल्य, अर्थक | पर्व, सं. पुं. [ सं . पर्वन (न. ) ] उत्सव:, उद्भवः, उद्धर्षः, क्षणः, मदः २. पंचपर्वाणि ( चतुर्दशी, अष्टमी, अमावास्या, पूर्णिमा, रविसंक्रांति: ) ३. ग्रंथपरिच्छेद:, कांड: डं, ४. संधि: ( पुं.), ग्रंथि: ( पुं. ) . खंड:डं, भागः । पर्वत, सं. पुं. (सं.) अद्रि:- गिरि: (पु.), शैल:, धरणीकीलकः, सानुमत क्ष्माभृत-शिखरिन् ( पुं.), अचल:, भूधरः, अगः, नगः, कु धरा - अवनी- मही धरणी, -धः-धरः, भू-क्षिति, भृत् (पुं.) २. चयः, राशि: ( पुं. ) । - नंदिनी, सं. स्त्री. (सं.) दे. 'पार्वती' । For Private And Personal Use Only Page #399 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पर्वतीय 1 ३६१ पलेथन -राज, सं. पुं. (सं.) दे. 'हिमालय'। । पलना, क्रि. अ. ( सं. पालनं> ) पाल-पोष-वासी, सं. . (सं.-सिन) गिरि-शैल-वासिन्, | संभृ ( कर्म.) २. परिः, पुष ( कर्म.) प्याय पार्वतः [-ती (स्त्री.)], पार्वतीयः [-यी (स्त्री.)] || (भ्वा. आ. से.), पुष्ट-पीन (वि.) भू। वि., पार्वत, पार्वतीय इ.। पलवाना, क्रि.प्रे., ब. 'पालना' के प्रे.रूप। पर्वतीय, वि. (सं.) सपर्वत, नगप्राय, शैल- पलस्तर, सं. पुं. ( अं. प्लास्टर ) *पलस्तरः, अद्रि,मय [ -मयी ( स्त्री.)] लेपः, सुधा २. उपनाहः, प्रलेपपट्टिका । पलंग, सं. पुं., दे. 'पर्यक' । -करना, क्रि. स., सुधया लिप् ( तु. प. अ.) -पोश, सं. पुं.(हिं+का.) पर्यंक-प्रच्छदः।। २. उपनह (दि. प. अ.)। पल, सं. पुं. (सं.) विधटिका, धटिकायाः पष्टि- | -ढीला होना या बिगड़ना, मु., अत्यंत तमी भागः, षष्टिविपलात्मकः कालः (=२४ | क्लिश-पीड-खिद् ( कर्म.)। सेकंड ) २. क्षणः, मुहूर्तः, निमि ( मे )पः। | पलांडु, सं. पुं. (सं.) दे, 'प्याज'। -भर में या-मारते, मु., क्षणेन, क्षणात्, | पलाद, सं. पुं. (सं.) पलादनः, पलाशः, निमेष-पल,-मात्रेण । राक्षसः । वि., मांस,-भक्षक-आहारिन् । पलक, सं. स्त्री. ( सं. पलं) दे. 'पल' २. नेत्र- पलान, सं. पुं. ( सं. पल्ययनं ) पर्याणं, पर्यनयन,-छदः। यणं, दे. 'जीन'। -मारना, क्रि. अ., निमील ( भ्वा. प. से.), | पलान्न, सं. पुं. (सं. न.) दे. 'पुलाव' । निमिष (तु. प. से.) २. चक्षुषा संकेतं दा। | पलायक, सं. पु. (सं.) वि-प्र-, पलायिन्, -मारते या झपकते. मु., दे. 'पल भर में। युद्ध--विमुखः, पराङ्मुखं त्यागिन् । पलटन, सं. स्त्री. ( अं. प्लैटन ), सैनिकानां | पलायन, सं. पुं. (सं. न.) वि-, द्रवः, उद्द्विशती, सैन्य, दलं-गणः।। सं-प्र-नि-, द्रावः, चंक्रमः, शृगालिका, अप, क्रमः-यानम्। पलटना, क्रि. अ. (सं. प्रलोठन) नि-प्रतिनि पलायमान, वि. (सं.) प्र-वि-,द्रवत्, अप, प्रत्या,-वृत् (भ्वा. आ. से.) प्रत्या,-गम् धावत्-क्रामत्, परायत् (सब शत्रंत)। (भ्वा. प. अ.)-या (अ. प. अ.) २. पर्यस् पलाश, सं. पुं. (सं.) किंशुकः, याज्ञिकः, (कर्म.), अधोमुखी-अधरोत्तरीभू, परिवृत् । ३. ( दशा ) परिवृत्, अवस्थांतरं जन् (दि. त्रिपर्णः, ब्रह्मवृक्षकः, पूतद्रुः (पुं.), ( सं. न.) पत्रं, पर्णम् । आ. से.) ४. परि-परा,-वृत् । क्रि. स., ब. 'पलटना' के प्रे. रूप। सं. पुं., नि-प्रत्या, | पलाशी, सं. पुं. (सं.-शिन् ) वृक्षः, तरुः २. वर्तनं; वि., पर्यासः परिवर्तनम् । क्षीरवृक्षः ( गूलर, पीपल, बरगद, महुआ इ०) ३. राक्षसः। वि. सपत्र, पत्रवत् २. मांसपलटा, सं. पुं. (हिं. पलटना ) नि-प्रत्या, वृत्तिः भक्षक। (स्त्री.), दे. 'पलटना' सं. पुं. २. प्रतिफलं, पलित, वि. (सं.) वृद्ध, दे. 'बूढ़ा' २. पक्व, कर्मविपाकः ३. स्वरपरावृत्तिः (संगीत) ४. धवल, श्वेत, सित, (केश)। सं. पुं. (से. उत्पाता, उत्प्लवः ५. व्यतिहारः, विनिमयः । न.) केशपाकः । ६. *परिवर्तकः, (भाजनभेदः)७. दे. 'बदला' । पली, सं. स्त्री. ( सं. पलिधः> ) *स्नेहनिष्कापलटाना, क्रि. स., दे. 'लौटाना। सनी, पल्लिका। पलटा हुआ, वि., प्रतिनिवृत्त, विपर्यस्त परि- पलीता, सं. पु. ( फा.) भूतवद्राविका वर्तिकावृत्त, परावृत्त। वत्तिः ( स्त्री.) २. दहनवत्तिः। वि. कोपाकुल, पलड़ा, सं. पुं. (सं. पटलं> ) तुला, पटलं- संरब्ध २. शीघ्रगामिन् । फलकम् । पलीद, वि. ( फ़ा.) मलिन, मलीमस, अपवित्र पलथी, सं. स्त्री. ( सं. पर्यस्तं> ) स्वस्तिका- | २. नीच, खल । सनम्। पलेथन, सं. पुं. (सं. परिस्तरणं> ) ( गोधू—मारना, क्रि. अ., स्वस्तिकासनेन उपविश् | मादीनां ) शुष्कचूर्ण, *रोटिकापरिस्तरणम् । (तु. प. अ.)। -निकालना, क्रि. स., परुषं तड् (चु.)। For Private And Personal Use Only Page #400 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पलौठा [ ३६२ ] पसली पलौठा, वि. (हिं. पहला) प्रथमज | -पति, सं. पुं. (सं.) शिवः २. पशुप्रभुः। ( पलौठी प्रथमजा)। -पाल,सं. पुं. (सं.) पशु-गो,-रक्षकः-पालकः । पल्लव, सं. पुं. (सं. पुं. न.) किस(श)लयः- -राज, सं. पुं. (सं.) मृगेन्द्रः, सिंहः । यं, प्रवालं, नवपत्रं, किस(श)लं २. प्र., पशुता, सं. स्त्री. (सं.) पशुत्वं, पशु,-भाव-धर्मः शाखा, विटपः ३. नवपत्रस्तबकः । २. मौख्य, औद्धत्यं, जाड्यम् । पल्लवित, वि. (सं.) सपल्लव, सकिसलय | पशुत्व, सं. पुं. (सं. न.) दे. 'पशुता' । २. तत, विस्तृत ३. रोमांचित । पश्चात् , अव्य. (सं.) ततः, तदनन्तरं, तत्पपल्ला ', क्रि. वि. ( सं. परं या पारे> ) दृरं, श्चात्, तदनु, ततः, परं-ऊर्ध्वम् । दूरे, दूरतः। सं. स्त्रो., दूरता, विप्रकर्षः। पश्चात्ताप, सं. पुं. (सं.) अनु,-तापः-शयःपल्ला -पल्लू, सं. पुं. (सं. पटाञ्चल:) वसनांतः, । शोकः, पाप-दुष्कृत,खेदः, विप्रतीसारः । वस्त्र-,अंचलः २. पार्थे, अधिकारे ३. दिशा। |--करना, क्रि. अ., दे. 'पछताना' । -छुड़ाना, मु., आत्मानं उदह ( भ्वा. प. पश्चिम, सं. पुं. ( सं. पश्चिमा)प्रतीची, वारुणी, अ.)-मुच् (प्रे.); अनिष्टं त्यज (भ्वा. प. | पश्चिम,-दिशा-आशा। वि., पश्चात् उत्पन्न, अ.)-अपास ( दि.प.से.)। २. अंत्य, अंतिम। -पसारना, मु, याच ( भ्वा. आ. से.)। पश्चिमा, सं. स्त्री. (सं.) दे. 'पश्चिम' । पल्ले पड़ना, मु., लभ-अधिगम् ( कर्म.)। पश्चिमी, वि. (सं. पश्चिमा>) प्रतीच्य, पल्ला , सं. पुं., दे, 'पलड़ा। पाश्चात्त्य, पश्चिमाशासंबंधिन् । पल्ली , सं. स्त्री. (सं.) ग्रामकः, ग्रामटिका | पश्चिमोत्तर, सं. पु. ( सं. पश्चिमोत्तरा) उत्तर२. ग्रामः ३. कुटी ४. गृहगोधिका। पश्चिमा, वायवी । वि., वायव, वायुदिस्थ । पवन, सं. पुं. (सं.) अनिलः, वातः, दे. 'वायु'। पश्तो, सं. स्त्री. ( देश.) पश्चिमोत्तरसीमाप्रां-चक्की, सं. स्त्री., वायुपेषणी, *पवनचक्री। तस्य भाषाविशेषः ।। -चक्र, सं. पुं. (सं. न.) वातावर्तः, चक्रवातः । पश्यंती, सं. स्त्री. (सं.) वेश्या, गणिका, क्षुद्रा, -पुत्र, सं. पुं. (सं.) हनुमत् २. भीमसेनः।। रूपाजीवा २. वाणीभेदः, वायुसंयोगात नाभिजः पवनाशन, सं. पुं. (सं.) पवनाशः, सर्पः। । शब्दः । पवि, सं. पुं (सं.) व्रजः-जं, कुलिशं, अशनिः, | पसंद, सं. स्त्री. ( फा.) अभिरुचिः ( स्त्री.), (पुं. स्त्री.)। मनोबंधः । वि., मनोनीत, रुचिकर, सं-अभि, पवित्र, वि. (सं.) वि., शुद्ध-शुचि, स्वच्छ, | ___ मत, प्रिय। विशद, निर्मल २. पुण्य, निष्पाप, अनघ, -करना, रुच (भ्वा. आ. से. चतुर्थों के साथ) अकल्मष। अभि-प्रति, नंद् (भ्या. प. से.) अनुमुद् पवित्रता, सं. स्त्री. (सं.) शुचिता, शौचं, | ( भ्वा. आ. से.) २. दे. 'चुनना' । वि-शुद्धिः (स्त्री.), शुद्धता २. स्वच्छता, पसंदीदा, वि. (फा.) अभीष्ट, वृत, रुचिकर, वैशा, निर्मलता ३. पुण्यता, निष्पापता। । रोचक, उत्तम । पवित्रात्मा, वि. [सं.-त्मन् (पुं.)] विमल- पस', सं. पुं. ( अं.), पूयः-यं, क्षतर्ज, मलजं, शुद्ध-आत्मन् (पुं.), शुद्ध, मति-हृदय। कुणपम् । पवित्री, सं. स्त्री. (सं. पवित्रं ) पवित्रक, पसर, अव्य. (फा.) तदनु, तत्पश्चात्, कुशांगुलीयकम्। तदनन्तरम् । पशम, सं. स्त्री. (फा. पश्म ) उत्तमोर्णा, मूर्णा-(सो) पेश, पुं. मिषं, व्याजः, छलम् । २. उपस्थलोमन् (न.)३. अतितुच्छवस्तु (न.)। पसरना, क्रि. अ. ( सं. प्रसरणं) प्रस (भ्वा. पशमीना, सं. पुं. (फ़ा. पश्मीनह ) दे. 'पशम' | प. अ.) प्र-वि-तन् ( कर्म.) २. विस्त ( कर्म.), २. उत्तमौर्ण, वस्त्रं-पटः। वृध (भ्वा. आ. से.) ३. करचरणान् प्रसार्य पशु, सं. पुं. (सं.) लोमलांगूलवज्जीवः ( सिंह- शे ( अ. आ. से.)। व्याघ्रगोमहिषादयः ), जंतुः (पुं.), खुराक:- पसली, सं. स्त्री. ( सं. पशुका) पाच स्थि का, मृगः २. प्राणिन्, जीवमात्रम् । | (न.), पाश्चकम् । For Private And Personal Use Only Page #401 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पसाना [ ३६३ ] पहलू - -का रोग, सं. पुं., श्वसनकः ।। । पह(हि)नना, क्रि. स. (सं. परिधानं ) परिधा हड्डी-तोड़ना, मु., भृशं तड् (चु.)। | (जु. उ. अ.), वस् (अ. आ. से.), धृ पसाना, क्रि. स. (सं. प्रस्रावणं), मंडं प्रस्र (भ्वा. प. अ., चु.), भृ (जु. उ. अ.)। (प्रे.) २. अतिरिक्तजलांश अवपत् (प्रे.)। | सं. पुं., परिधानं, ध(धा)रणं, भरणं, वसनम् । पसार-रा, सं. पुं.; दे. 'प्रसार' । पहनने योग्य, वि., परिधेय, धार्य, वसनीय । पसारना, कि. स. (सं. प्रसारणं) ब. 'पसरना' | पहननेवाला, सं. पुं., परि, धातृ (पु.) के प्रे. रूप । दे. 'फैलाना'। धायकः, धर्तृ-धारयितु (पुं,)। पसाव, सं. पं. (सं. प्रस्राव:> ) प्रस्रवः, पहनवाना, क्रि. प्रे. 1 ब. 'पहनना' मंड:-डं, दे. 'मांड'। पहनाना, क्रि. स. के प्रे. रूप । पसीजना, क्रि. अ. ( सं प्रस्वेदनं ) ( शनैः) | पहनावा, सं. . (हिं. पहनना ) वेशः-षः, क्षर-गल (भ्वा. प. से.) - (भ्वा. प. अ.) परिधान, वस्त्राणि-वसनानि (न. बहु. ), प्रस्नु ( अ. प. से.) २. दयार्द्र-करुणार्द्र नेपथ्यं, परिच्छदः । (वि.) भू, अनुकंप-दय् ( भ्वा. आ. से )। पहना हुआ, वि., परिहित, धृत, धारित, पसीना, सं. पुं. (हिं. पसीजना> )प्र-स्वेदः, वसित इ.। धर्मः, धर्म-स्वेद, उदकं-जल-बिंदु: (पुं.) श्रम- | पहर, सं. पुं. (सं. प्रहरः) यामः, होरात्रयं-यी वारि (न.)। २. काल:, युगं, समयः । -आना, क्रि. अ., प्र-,स्विद् (दि. प. अ.)| पहरना, क्रि. स., दे. 'पहनना'। स्वेदः स्रु-निस्ट ( भ्वा. प. अ.)। पहरा, सं. पुं. (हिं. पहर ) रक्षा, रक्षणं, जागपसोपेश, सं. पुं. ( फा.) विचिकित्सा, वितर्कः, | रणं, निरूपणं, अवेक्षण-क्षा, गोपन, गुप्तिः संशयः आ-परि-वि, शंका २. परिणामः, | (स्त्री.) २. रक्षकः, रक्षिन्, रक्षापुरुषः, रक्षिहानिलाभौ। वर्गः, प्रहरिन्, वैबोधिक ३. रमणकालः, प्रहरः करना, क्रि. अ., दोलायते (ना. धा.), ४. प्रहरि, भ्रमणं-पर्यटनं ५. प्रहरिपरिवर्तनं ६. विलंब-विक्लुप् ( भ्वा. आ. से.)। प्रहरिघोषः। पस्त, वि. (फा.) पराजित, विजित २. परि-|-देना, क्रि. अ., रक्षायै जागृ ( अ. प. से.) श्रांत, क्लांत। परि, भ्रम्-अट ( भ्वा. प. से.)। --क़द, वि. ( फ्रा.) वामन, खर्व । पहरेदार, सं. पुं. (हिं.+फा.) दे. 'पहरा (२)। -हिम्मत, वि. (फा.) भीरु, कातर। पहरावनी, सं. स्त्री. (हिं पहरना) २. *परिधापहचान, सं. स्त्री. (सं. परिचयनं या प्रत्य- | पनी, *परितोषवेषः। भि ज्ञानं (प्रति-,अभिशा-अभिज्ञानं, २. विवेकः, | पहरी, पहरुआ, पहरू, सं.पुं. दे. 'पहरा (२)। विचारणं-णा, परिच्छेदः ३. लक्षणं, चिह्न | पहल, सं. स्त्री. (हिं. पहला) उपक्रमः, प्र, ४. परिचयः, परि-ज्ञानम् । आरम्भः २. अति-आ,-क्रमः, प्रथमापकारः। पहचानना, क्रि. स. (हिं. पहचान ) प्रति-, पहलवान, सं. पुं. (फा.) मल्लः, बाहु,बोध: अभिज्ञा (क्र. उ. अ.) अनुस्मृ ( भ्वा. प.| योदधु (पुं.)-योधिन् २. दृढांगः, वज्रदेहः। अ.). परिच्छिद् ( रु. प. अ.), संविद् | पहलवानी, सं. स्त्री. (फा.) मल्ल-बाहु,युद्धम् । ( अ. प. से. ) २. विच् ( जु. उ. अ. ), | पह(हि)ला, वि. ( सं. प्रथम ) दे. 'प्रथम' । विशिष् ( रु. प. अ.), परिच्छिद् ३. अव. | पहलू , सं. पुं. (फा.) पक्षः, पार्श्व: (सब गम् ज्ञा ( क्र . उ. अ.), बुध् (भ्वा. प. से.), | अर्थों में ) २. पक्ष-पाव,-भागः, कक्षाधोभागः विद् ( अ. प. से.)। सं. पुं., दे. 'पहचान'।। ३. विचार्यविषयस्य अंग-भाग,-विशेषः ४. पहचाननेवाला, सं. पुं., प्रतिः, अभिज्ञात (पुं.), | गूढाशयः ५. व्यंग्यार्थः । परिच्छेदकः; विवेकिन् ; ज्ञात, बोद्ध ( पुं.)। |-बचाना, मु., संघट्ट परिह (भ्वा. प. अ.)। पहचाना हुआ, वि., विविक्त, परिच्छिन्न; | -में बैठना, मु., अतिसमीपं-पे उपविश् ( तु. प्रति-, अभिज्ञात, बुद्ध, विदित । | प. अ.)-निषद् ( भ्वा. प. अ.)। For Private And Personal Use Only Page #402 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पहले पहले, अन्य. (हिं. पहला ) पूर्व, प्रथमं, आदौ प्राक्, आरम्भे २. पूर्वे, पुरा, पूर्व-प्राचीन, काले । [ ३६४ ] - पहल, अव्य., सर्वप्रथमं, प्रथमवारे, आदौ । पहाड़, सं. पुं. (सं. पाषाण: > ) दे. 'पर्वत' ( १-२ ) ३. दुस्साध्य - दुष्कर, कार्यम् । पहाड़ा, सं. पुं. (सं. पस्तारः > ) गुणनसूची । पहाड़िया, वि. (हिं. पहाड़ ) दे. 'पर्वतवासी' । पहाड़ी, सं. स्त्री. (हि. पहाड़ ) पर्वतकः, लघुगिरि: (पुं.) २. वल्मीकः कं, वामलूरः । पहिया, सं. पुं. (सं. परिधिः ) चक्रं रथांगम् । पहिलौठा, वि., दे. 'पलौठा' । पहुँच, सं. स्त्री. (सं. प्रभूतः>) उपसर्पण, अभिउप, गमः, प्रवेशः २ गतिसीमा ३ प्राप्तिः (स्त्री.), प्राप्तिसूचना, अभिज्ञतासीमा, परिचयः ४. आगमनं, उपस्थितिः (स्त्री.) । पहुँचना, क्रि. अ. (हिं. पहुँच ) आ,गम्-सद् (भ्वा.प.अ.) समा-सद् प्र-सं- आप (स्वा. प. अ. ), प्रपद् ( दि. आ. अ. ) २. विस्तृ ( कर्म. ) ३. प्रविश् ( तु. प. अ. ) ४. लभूप्राप् ( कर्म. ) । सं. स्त्री., दे. 'पहुँच' । पहुँचनेवाला, सं. पुं., आगंतू-उपस्थातृ (पु.); ' लब्धप्रवेशः, सहायकः । पहुँचा, सं. पुं., दे. 'कलाई' । पहुँचाना, क्रि. स. ब. 'पहुँचना' के प्रे. रूप । पहुँचा हुआ, वि., आगत, उपस्थित, प्राप्त, प्रपन्न, प्रविष्ट, लब्ध, अधिगत, सिद्ध । पहुँची, सं. स्त्री. (हिं. पहुँचा) आवापकः, मणि बन्धकटकः । पहुनाई, सं. स्त्री. (हिं. पाहुना ) प्राघुण अतिथि, सेवा-सत्कारः । २. अतिथित्वं, प्राघुणता । पहेली, सं. स्त्री. [ सं . प्र हेली- लि: (स्त्री.)] प्रहेलिका, प्रश्नदूती, प्रवही - लि: (स्त्री.)लिका २. समस्या, गूढार्थव्यापारः । पह्नवी, सं. स्त्री. (सं. पह्नवः > ) पारसीकदेशस्थ प्राचीन भाषा, पहवी । पाँव । पाँचवाँ वि. (हिं. पाँच ) पंचम:- मं-मी ( पुं. न. स्त्री. ) । पांचाल, सं. पुं. (सं.) पंचाल | वि. पंचाल - देशोद्भवः । पांचाली, सं. स्त्री. (सं.) शाल-मंजी - जिका, पुत्रिका, पंचालिका २ रीतिविशेष: ( सा. ) ३. द्रौपदी, कृष्णा, याज्ञसेनी । पांडव, सं. पुं. (सं.) पांडुनन्दनः, पंच पांडवाः । तदंकः (५) च । - भौतिक, वि. (सं.) पंचभूतनिर्मित ( शरीरादि ) ! पाँचों उँगलियाँ घी में होना, मु., सर्वथा प्रउप-चि (कर्म. ) समृध् (दि. प. से. ) । पांडित्य, सं. पुं. ( सं. न. ) बुद्धि-धी, मत्त्वं, व्युत्पत्तिः (स्त्री.), विद्वत्ता, विद्वत्वं ज्ञानं, प्राज्ञता । पांडु, सं. पुं. ( सं . ) नृपविशेष : २. सितपीतवर्ण:, हरिण, पांड (डु) र : ३. रक्तपीतवर्णः ४. श्वेतवर्ण: ५. दे. 'पांडुरोग' | - रोग, सं. पुं. ( सं . ) कामल:-ला, पांडु: ( पुं.) । पांडुर, वि. ( सं . ) सितपीतवर्ण, पांडु २. पीत ३. शुक्ल । सं. न. ( सं . ) श्वित्ररोगः । सं. पु. ( सं .) दे. 'पांडुरोग' । पांडुलिपि, सं. स्त्री. (सं.) पांडुलेख:, *शोध नीयलेखः । पांडे, सं. पुं. (सं. पंडित: ) द्विजकायस्थ, थ, भेदः ३. प्राज्ञः, विद्वस् (पुं.) पांडेय, ४. शिक्षकः, अध्यापकः ५. पाचकः, सूदः । पाँत, पाँति, सं. स्त्री. दे. 'पंक्ति' । पांथ, सं. पुं. ( सं . ) पथिकः, यात्रिन् २. प्रवासिन् ३. वियोगिन् ४. भानुः । - निवास, सं. पुं. (सं.) पांथशाला, यात्रिकगृहम्, धर्मशाला । पाँव, सं. पुं. ( सं. पादः ) पदं, चरण:-णं, अंघ्रिः ( पुं. ) २. जंघा ३. मूलं, आधारः, उपष्टम्भः ४. धैर्य, स्थैर्यम् । - का अंगूठा, सं. पुं., पादांगुष्ठः । --का सोना, सं. पुं., पादह: ( रोग ) । की अंगुली, सं. स्त्री, पादांगुली - लि: (स्त्री.) । पाँच, वि. ( सं . पंचनू ) । सं. पुं., उक्ता संख्या | अड़ाना, मु., दे. 'टांग अड़ाना' । - उखड़ना, मु., परा-जि ( कर्म ), पलाय् (भ्वा. आ. से. ) । -- उठाना, मु., निष्क्रम् (भ्वा. प. से. ) २. सत्वरं चल (भ्वा. प. से. ) । - जमाना, मु., निश्चलं दृढं स्था (स्वा.प.अ.)। For Private And Personal Use Only Page #403 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [ ३६५ ] पागल ? | पाउडर, सं. पुं. ( अं.) पिष्टं, क्षोदः, चूर्णं २. पटवासकः, पिष्टातकः, पिष्टापः । पाक, सं. पुं. (सं.) पचनं, पाचनं श्रातिः (स्त्री.), अधिश्रयणं, पचा, रन्धनं ( सात प्रकार का पाक -- पाँड़ा -तले की मिट्टी निकल जाना, मु., जड़ी निष्पदी-भू, विस्मयेन उपहन (कर्म. ) । -- पड़ना, मु., चरणयोः अवपत् (स्वा. प. से.), अतिनम्रता याच (भ्वा. आ. से. ) । - पसारना, मु. प्रसूते प्रसृ ( प्रे.) सुखं स्वप् ( अ. प. अ.) २. दे. 'मरना' । -- पाँव, मु., पादचारी भूत्वा पद्धयामेव चलत् ( शत्रत ) । - पूजना, मु. चरणौ चुंबू ( भ्वा. प. से. )-सेव् (भ्वा. आ. से. ) । - फटना, मु., पादौ शीतेन स्फुट् ( तु.प.से.) । - फूँक - फूँक कर रखना, मु., सावधानं प्रवृत् (भ्वा. आ. से. ) कार्येषु । - फैला कर सोना, मु., निश्चितं स्वप् (अ. प. अ. ) । धृ ( चु. ) । दृप् दबे – आना, मु., निभृतं आया ( अ. प. अ.) । धरती पर न रखना, मु., नितरां (दि. प. अ. ), गव्" (भ्वा. प. से. ) । पाँवड़ा, सं. पुं. (हिं. पाँव ) पादचारास्तरणम् । पाँवड़ी, सं. स्त्री. ( हि. पाँव ) दे. 'खड़ाऊँ' तथा -भारी होना, मु., गर्भे आधा ( जु. उ. अ. ) पाकेट, सं. पुं. ( अं.) दे. 'जेब' । 'जूता ' । - पांश (स) न, वि. (सं.) दूषक, कलंक भर्जनं तलनं स्वेदः पचनं क्वथनं तथा । तांदूरं पुटपाकश्च पाकः सप्तविधो मतः ॥ ) २. पक्व - सिद्ध, अन्नं ३. परिणति: ( स्त्री. ) ४: औषधभेदः ५. जठरे आहारपचनं ६. दैत्यविशेषः । जनक । पांशु, सं. स्त्री. ( सं. पुं. ) पांसुः (पुं.), धूलीलि: (स्त्री.), रजस् (न.) । पांशुल, वि. (सं.) रेणु, दूषित रूक्ष, धूलिधूसर । पाँसा, सं. पुं. ( सं. पाशकः ) अक्षः, देवनः, सारः, शारः । - उलटना, मु., यत्नो विपरीतफलो जन् (दि. आ.से.) । पा, सं. पुं. (फ्रा.) पादः, पदं, चरण:-णम् । -अंदाज़, सं. पुं. पद-पाद, घर्षणं प्रछनम् । पाहूओरिया, सं. पुं. ( अं. ) दन्तपूयम् । पाई, सं. स्त्री. (सं. पादः > ) पादिका २. चतुर्थांशसूचिका ऊर्ध्वरेखा (उ. ४ = सवा चार) ३. आकारमात्रा ( 1 ) ४. पूर्णविराम - चिह्नम् ( 1 ) । पाउंड, सं. पुं. (अं.) निष्कः, दीनारः २. पौएडं अर्द्धसेरात्मको देशीय आंग्लतोलभेदः । - शाला, सं. स्त्री. ( सं . ) महानस:-सम् । - शासन, सं. पुं. ( सं . ) दे. 'इन्द्र' | पाकर, वि. (फ़ा.) पवित्र, वि, शुद्ध २, निष्पाप, निष्कल्मष ३. समाप्त | - दामन, वि. ( का . ) पतिव्रता, सती । -साफ़, वि. ( फ़ा + अ ) स्वच्छ, निर्मल | पाक्षिक, वि. (सं.) अर्द्धमासिक, मासार्द्धिक २. पक्षपातिन् । पाखंड, सं. पुं. (सं. पाषंड:-डं ) दम्भ:, दांभि कता, छाद्मिकता, आर्यरूपता, कपटधर्मः, कुटक- लिंग, वृत्ति: (स्त्री.), कापट्यम् । पाखंडी, वि. ( सं. पाषंडिन ) पाषंड- डक, दभिन, दांभिक, कपटिन, कापटिक, आर्य,रूप-लिंगिन्, छद्म-कपट, -वेशिन् । पाख, सं. पुं. ( सं. पक्षः ) दे. 'पखवारा' । पाखर, सं. स्त्री. (सं. प्रखर : ) प्रक्षरः, अश्व- गज, सन्नाहः । पाखा (घा) न, सं. पुं. ( सं . पाषाणः ) प्रस्तरः, शिला, अश्मन्, ग्रावन (पुं.) 1 पाख़ाना, सं. पुं. ( फा . ) शौच, कूपः स्थानं २. उच्चारः, गूथ:-थं, मल:-लं, पुरीषं विष् (स्त्री.) विष्ठा, शकृत (न.), शमलम् | - निकलना, मु., नितरां भी ( जु. प. अ. ), त्रस् ( दि. प. से. ) । पाखाने जाना, मु., शौचकूपं या ( अ. प. अ. ) पुरीषं उत्सृज ( . तु. प. अ.) । पाग', सं. स्त्री. (हि पग ) दे. 'पगड़ी' | पाग, सं. पुं. (सं. पाकः > ) मधु-शर्करा, - क्वाथः २. मधुक्वाथपक्वफलमौषधं वा । पागना, क्रि. स. (सं. पाकः > ) गुड - सिता| रसे निमरज ( प्रे. ) । ... पागल, सं.. पुं. (देश. ) उन्मत्तः, वातुलः, For Private And Personal Use Only Page #404 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पागुर [ ३६६ ] पाड़ % विक्षिप्तः, उन्मादिन्, भ्रांत, चित्तः-मति: २. | कृ ३. पटलेन आच्छद् (चु.) ४. तृप् (प्रे.) जडः, मूर्खः। ५. सिच (तु. प. अ.)। -खाना, सं. पुं. (हिं.+फ़ा.) वातुलालयः, | पाटल, सं. पुं. (सं.) श्वेतरक्त, वर्ण:-रङ्गः। उन्मत्तागारम् । पाटला, सं. स्त्री. (सं.) स्थिरगंधा, अमोघा, -पन, सं. पुं. उन्मादः, वातुलता, मतिभ्रंशः ताम्रपुष्पी (हिं.) पाढर का पेड़ । २.मौख्योतिषयः । पाटलिपुत्र, सं. पुं. ( सं. न.) कुसुम-पुष्प,पुरं, पागुर, सं. पुं., दे. 'जुगाली'। पाटलिपुत्रकम् ( नगरम् )। पाचक, सं. पुं. (सं. न.) दीपन, पाचनं | पाटलिमा, सं. स्त्री. ( सं.-मिन् पुं.) पीतरक्त, जारणं, अग्निवर्द्धनं (चूर्णादि ) २. सूपकारः, वर्णः-रंगः। पाककर्तृ (पुं.) सूदः, बल्लवः ३. अनल:।। पाटव, सं. पुं. (सं. न.) दाक्ष्यं, कौशल, चातुर्य पाचन, सं. पुं. (सं.) अग्निः (पु.), जठर,अनलः-अग्निः २. दे. 'पाचक' ३. दे. 'पाक' । २. ताढ्य ३. आरोग्यम् । | पाटा, सं. . ( सं. पट्टः ) धावक-रजक, शिला_ वि., पाचक, अग्निवर्द्धक । काष्ठफलक-पट्टम् । -शक्ति, सं. स्त्री. (सं.) दे. 'पाचन' (१)। पाछ, सं. पुं. (हिं. पाहना) *रोगनिवारकद्रव्य- | पाटी', सं. स्त्री. ( सं. स्त्री.) अनुक्रमः, परिपाटी निवेशः २. ईषच्छेदः, *क्षुद्रक्षतम् । २. श्रेणी, पंक्तिः (स्त्री.)३. वलाक्षुपः । पाछना, क्रि. स. [ हिं. पंछा (पानी+छाल)] पाटी, सं. स्त्री. (हिं. पाट) पट्टिका, दे. रोगनिवारकद्रव्यं निविश् (प्रे.) २. (तरु 'तख्ती' २. पाठः ३. सीमंतः ४. खटवायाः मनुजादीनां ) त्वचं ईषत् छिद् (रु. प. अ.)। पार्श्वदंडः ५. कटः ६. शिला।। पाजामा, सं. पुं. (फा.) पादायामः। पाठ, सं. पुं. (सं.) पठनं, अध्ययन, वाचनं पाजिटिव, वि. ( अं.) धन त्मक ( विद्युत् )। २. पठितव्य-अध्येतव्य, विषयः ३. आह्निकः पाजी, वि. (सं. पाय्य) दुष्ट, दुर्वृत्त, खल, नीच, स्वाध्यायः ४, परिच्छेदः, अध्यायः ५. वाक्यअधम, तुच्छ । शब्द,क्रमः। --पन, सं. पुं. (हिं.) नीचता, अधमता, | -शाला, सं.स्त्री.(सं.) विद्या,-आलयः-मंदिरम् । दुष्टता इ.। पाठक, सं. पु. (सं.) अध्येतू, पठितू, वाचकः पाजेब, सं. स्त्री. (फा.) नपुरःर, तुलाकोटी- २. अध्यापकः, शिक्षकः, गुरुः (पुं.) टि. (स्त्री.), मंजीर:-रं, हंसकः, पाद, अगदं ३. ब्राह्मणभेदः। कटक:-भूषणम् । पाठन, सं. पुं. (सं. न.) अध्यापन, शिक्षणं, पाटंबर, सं. पुं. (सं. पट्टांबरं ) पट्टांशुकं, उपदेशः। कौशिक, क्षौम, पट्टः-ट्टम् ।। पाठिका, सं. स्त्री. (सं.) अध्येत्री, पठित्री, पाट, सं. पुं. (सं. पट्टः) कृमिज, कौशेयं, वाचिका २. अध्यापिका, शिक्षिका ३. पाठा, कीटसूत्रं २. विस्तारः, पृथुता, विशालता ३. अंबष्ठा-ठिका लताभेदः। काष्ठफलक ४. शिला, पट्टिका ५. धावक, | पाठी, सं. पुं. (सं.-ठिन् ) पाठकः, अध्येत फलक-शिला ६. सिंहासनं ७. पेषणीपाषाणः ।। (पु.) (प्राय: अंत में; उ. वेदपाठी इ.)। राज----, सं. पुं., राज्यं २. राजसिंहासनम् ।। पाठीन, सं. पुं. (सं.) पुराण-कथा, वाचकः पाटक, सं. पुं. (सं.) मेदकः, छेदकः, विदारकः । श्रावकः २. मत्स्यभेदः ३. अध्ययनशीलः । २-३ ग्राम-भाग: अर्द्धम ४. वाद्यभेदः ५. कलं. पाख्य, वि. (सं.) पठनीय, अध्येतव्य, वाचतीरम्, तटम् ६. तीर्थसोपानततिः ( स्त्री.)। नाह २. पाठयितव्य, अध्यापनीय । पाटन, सं. स्त्री. (हिं. पाटना) पटलं, छदिः -क्रम, सं. पुं. (सं.) पाठ्यपुस्तकावली, (स्त्री.) छदिस् (न.) २. (निम्नस्थलस्य )| परीक्षाग्रंथावली ।। सपाटी-समरेखी, करणं ३. प्र-सं-पूरणम् । -पुस्तक, सं. पुं. (सं. न.) नियत-निर्दिष्ट. पाटना, क्रि. स. (हिं. पाट ) (गर्तादीन् ), ग्रंथः । आ-प्र-सं-पूर (चु.) २. निम्नभूमि समी-सपाटी,- ( पाड़, सं. पुं. (हिं. पाट ) शाटी-धौता, प्रान्तः For Private And Personal Use Only Page #405 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पाणि [ ३६७ ] अंचल २. मंच:, मंचकः ३. कूपच्छादनम् ४. - प्रहार, सं. पुं. (सं.) चरणाघातः, दे. उद्बन्धनपट्ट:-टम् ५. कुड्यकोणपट्टः-टम् । ''ठोकर' । पाणि, सं. पुं. (सं.) करः, हस्तः । ---ग्रहण, सं. पुं. ( सं. न. 'विवाह' । पाद, सं. पुं. (सं. पद : ) अपान- अधो, वायुः ( पुं. ) । -मारना, क्रि. अ., दे. 'पादना' । पादना, क्रि. अ. (सं. पदर्दनं ) प (भ्वा. आ. से. ), अपानवायु उत्सृज ( तु. प. अ. ) । पादप, सं. पुं. (सं.) तरुः, दे. 'वृक्ष' । पादरी, सं. पुं. ( पुर्त. पैड्रे ) खिस्तमत, पुरोहित: - उपदेशकः । - ग्राहक, सं. पुं. पाणिनि, सं. पुं. वैयाकरणविशेषः । उद्वाहः, दे. (सं.) भर्तृ (पुं.), दे 'पति' । ( सं . ) अष्टाध्यायीप्रणेता पात', सं. पुं. ( सं. पत्रं ) दे. 'पत्ता' । पात े, सं. पुं. (सं.) अध:- नि, पतनं, स्रंसनं, च्युति: (स्त्री.) २ पातनं, ३. वि, नाशः ध्वंसः ४. मृत्यु: (पुं.), अधोनयनम् । पातक, सं. पुं. (सं. न. ) दे. 'पाप' | पातकी, (सं.- किन ) दे. 'पापी' । पाताल, सं. पुं. (सं.) अधो, भुवनं लोकः, नागलोक : २. विवरं, बिलं ३. भुवनविशेषः । पतिव्रत, सं. पुं. (सं. न.) पातिव्रत्यं सतीत्वम् । पातुर, सं. स्त्री. (सं. पातली > ) दे. 'वेश्या' । पात्र, सं. पुं. (सं. न. ) भाजनं, अमत्रं, भांडं, कोशः-शी, कोष:-षी, कोपि (शि) का, पात्री २. नटः, अभिनेतृ ( पुं. ) ३. तीरद्वयांतरं (हि. पाट ) ४. राजमंत्रिन् ५ स्त्रवादीनि यज्ञोपकरणानि ६ *नाटकस्य कथापुरुषः ( नायकादि ) ७. सत्पात्रं, गुणास्पदम् । वि., योग्य, उचित, अर्ह 1 पात्रता, सं. स्त्री. (सं.) विद्य तपस्याचारयुक्तता, पात्रत्वं, योग्यता, अर्हता, गुणः । पाथी, सं. पुं. (सं. पार्थ) पाथस् (न.), जलम् । पाथरे, सं. पुं. (सं. पथ: ) मार्गः अध्वन् ( पुं. ) । पाथना, क्रि. स. (हिं. थापना ) गोमयानि रच् (चु.)-निर्मा ( जु. आ. अ.) २. त‍ ( चु.) । पाथेय, सं. पुं. (सं. न. ) सं ( शं) बलं उपभोक्तव्यं द्रव्यम् । पाथोध, सं. पुं. ( सं . ) सागरः । पाद', सं. पुं. (सं.) पदं, चरण:-णं, पद् (पुं.), अहि- अंघि : (पुं.) २. मंत्रश्लोकादीनां चरण: ३. चतुर्थभागः ४. ग्रंथभागः ५. गिरिवृक्षादीनां मूलम् । - टीका, सं. स्त्री. (सं.) पृष्ठतल-पाद, टिप्पणी | - त्राण, सं. पुं. (सं. न. ) दे. 'पादुका' | - पीठ, सं. पुं. (सं. नं. ) पदासनम् । पथि पान: पादविक, सं. पं. ( सं . ) पथिकः, पांथ:, याचिन् । ) दे. 'पाँव' के पादांगुली, सं. स्त्री. (सं.) पादांगुष्ठ, सं. पुं. ( सं . ) ! नीचे | पादांत, सं. पुं. (सं.) पाद-पद- चरण, अग्रंअग्रभाग: २. पद्य चरणावसानम् (सा० ) । पादुका, सं. स्त्री. (सं.) पादू : (स्त्री.), पाद- त्राणं, पादरक्षिका, कौषी । २. दे. 'जूता ' तथा 'बूट' । पाद्य, सं. पुं. ( सं. न. ) पादप्रक्षालनजलम् । पाधा, सं. पुं. ( सं. उपाध्याय: ) गुरु: (पुं.), आचार्य, शिक्षकः २. पंडित:, विद्वस् (पुं.) 1 पान', सं. पुं. (सं. न. ) पीति: (स्त्री.), आचमनं, धयनं, द्रवद्रव्यस्य गलाधःकरणं २. मद्यसुरा, पानं ३ पेयद्रव्यं ४. मद्यं ५. जलम् । करना, क्रिं. स., दे. 'पीना' । - पात्र, सं. पुं. (सं. न. ) पानं, चषकः, सरक:, पानभाज म् । पान, सं. पुं. ( सं. पर्ण ) तांबूली, तांबूलवल्ली, नाग, लता- वल्ली २. तांबूलं, पर्णे, नागवल्लीदलं ३. क्रीडापत्र रंगभेदः ४ पत्रं, किसलयः । गोष्ठी, सं. स्त्री. (सं.) आपान, मद्यपान,चक्रं - सभा | दान, सं. पुं. (हिं + फा ) *पधानं, तांबूलकरकः । पानक, सं. पुं. (सं. न. ) *मधुराम्लपेयम् । पाना, क्रि. सं. ( सं प्रापणं ) प्र-, आप (स्वा. उ. अ. ), लभ (भ्वा. आ. अ. ), विदू ( तु.. उ. वे. ), समा-सद् (प्रे.) आ-प्रति-पद् (दि. आ. अ.) अधिगम्, आदा (जु. आ. अ.), ग्रह ( क्रू. प.से.), २. ( सुखादि ) अनुभू भुज् (रु. आ. अ. ) ३. बुधू (भ्वा. उ. से.), विदू ( अ. प. से. ) . ४. तुल्य- सदृश (वि.) भू For Private And Personal Use Only Page #406 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पानेवाला ५. खाबू (भ्वा. प. से. ) ६. सह (भ्वा. आ. से.) । सं. पुं., प्रापणं, लब्धि: (स्त्री.), अधिगमनं, आदानं, अनुभवः, बोधः, भुक्तिः इ. । पानेवाला, सं. पुं., प्रापकः, अधिगंतृ-आदातृग्रहीतृ (पुं.) इ. । पाने योग्य, वि, प्राप्य, लभ्य, आदेय, ग्राह्य इ. पाया हुआ, वि, प्राप्त, अधिगत, लब्ध, गृहीत इ. 1 पानिप, सं. पुं. (हिं. पानी ) द्युति:-कांति: (स्त्री.) २. दे. 'पानी' । [ ३६८ ] पानी, सं. पुं. ( सं. पानीयं ) वारि अंभस् (न.), दे. 'जल' २. कांति:- द्युतिः (स्त्री.) ३. प्रतिष्ठा, संमानः ४. वृष्टि : (स्त्री.) ५. पौरुषं, वीर्य ७. वातवर्षादिसामग्री, जलवायु (न.) ७. रसः ८. शीतलवस्तु (न.) ९. समयः, अवसरः १०. परिस्थितिः (स्त्री.) । दार, वि. (हिं. + फ़ा. ) कांतिमत् भासुर २. मान्य ३. आत्माभिमानिन् । - फल, सं. पुं., दे. 'सिंघाड़ा' । - से डरना, सं. पुं., आलर्क, जल, आतंक: आ.से.) । - पी-पी कर कोसना, मु. नितरां आकुश्-शप् (भ्वा. प. अ. ) अभिशंस (भ्वा. प. से. ) । - भरना, मु., (तुलनायां ) तुच्छ (वि.) प्रतीयते । - मैं आग लगाना, मु., शांतं कलहं पुनः उज्जीव (प्रे. ) नवीकृ । - बुद्धि, वि. (सं.) पाप-कु- दुर्, मति-बुद्धि | –देवा, सं. पुं., तर्पकः, पिंडदः २. पुत्रः रोग, सं. पुं. (सं.) रतिजरोग: (प्रमेहादिः) | ३. स्ववंशीयः । - लोक, सं. पुं. ( सं . ) दे. 'नरक' | पापक, वि. (सं.) दुर्जन, दुष्ट, पापिन् । सं. पुं., दुर्जन:, पापः, पातकिन २. कुकृत्यं, पापम् । संत्रासः । - का बुलबुला, मु., क्षणभंगुर, असार, नश्वर । --की तरह बहाना, मु., अपव्यय् ( चु. ), अमितं व्यय, मुधा क्षै ( प्रे. क्षपयति ) । - के मोल, मु., स्वल्पमूल्येन, अत्यल्पार्घेण । -देना, मु., ( पितॄन ) उदकेन तृप् (प्रे.) २. उदकं प ( प्रे.) निषिच् ( तु. प. अ.) । —पड़ना, मु., वृष् (भ्वा. प. से. ) । -कर देना, मु., क्रोधं अपनी (स्वा. प. अ. ) पापड़, सं. पुं. ( सं. पर्पट: ) माषयोनिः, शिंबीशम् (प्रे, शमयति ) । पूप:, वैदल पिष्टकः । वि., तनु २. शुष्क । —बेलना, मु., घोरं परिश्रम् ( दि. प. से. ) २. दुःखं जीव् (भ्वा. प. से. ) । पापड़ा, सं. पुं. (सं. पर्पट: ) अरकः, वरकः, प्रगंध:, सुतिक्तः २. दे. 'पित्तपापड़ा' । -खार, सं. पुं. (सं. पर्यंटक्षारः) कदलीक्षारः । पापर, सं. पुं. (अं.) दरिद्र:, अकिञ्चनः, निर्धनः । पापाचार, सं. पुं. (सं.) दुराचारः, दुर्वृत्तम् । -पानी होना, मु., अतीव लज्-लस्ज् ( तु. पापात्मा, वि. (सं.-त्मन् ) दे. 'पापी' | पापिन-नी, वि. स्त्री. (सं.) पातकिनी, दुष्टा, दुराचारिणी, पाप, करी- कारिणी, एनस्विनी २. अपराधिनी, दोषिणी । पापिष्ठ, वि. (सं.) पाप (पि, तम, दुष्टतम [पापिष्ठा (स्त्री.) = पापतमा, दुष्टतमा ] । पापी, वि. (सं. पिन ) पातकिन, पाप, पापकर, कु-पाप- दुष्- दुष्ट, कर्मन, एनस्विन् किल्विषिन्, पाप, निरत-बुद्धि-मति, पापकृत-पापात्मन् २. अपराधिन्, दोषिन् । - लगना, मु. प्रतिकूल जलवायुनाऽस्वस्थ (वि.) भू । पापी -सा पतला, मु., जलरूप, जलबहुल, जलविरल | अद्रक का, सं. पुं., आर्द्रकजलम् | खारा, सं. पुं., क्षारजलम् । पानीय, वि. (सं.) पेय, पातव्य । सं. पुं. ( सं. (न.) दे. 'जल' | पाप, सं. पुं. ( सं. न. ) अधर्म:, पाप्मन् (पुं.) पापकं किल्विषं, कल्मषं, वृजिनं, अघं, अहम्, - एनस् (न.), दुरितं दुष्कृतं, पातकं, शल्यं २. अपराध:, दोषः ३. वधः ४. पापबुद्धि:, (स्त्री.) ५. अनिष्टं, अहितम् । कटना, क्रि. अ., पापेभ्यः मुच् ( कर्म. ), पापं नश (दि. प. वे. ) । करना, क्रि. स., पापं कृ अथवा आचर् (वा. प. से.) २. अपराधू (दि. स्वा. प. अ.) । -नाशी, वि. ( सं शिन् ) पापघ्न, अघनाशक, पापहर । For Private And Personal Use Only Page #407 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पापोश [ ३६६ ) पारावत - - पापोश, सं. स्त्री. (फा.) दे. 'जूता'। -करना, क्रि. स., सं-उत्,-त (भ्वा. प. से.), पाबंद, वि. (फा. ) नि-, बद्ध, परतन्त्र, निरुद्ध, । उत्,-लंघ (भ्वा. आ. से.; चु.), अति-इ संयत, नियंत्रित। (अ. प. अ, ), अतिक्रम् (भ्वा. प. से.)। पाबंदी, सं. स्त्री. (फा.) बंधः, बंधनं, नियं- २. समाप् (स्वा. उ. अ.) संपूर् (चु.), अणं-णा २. विवशता, बाध्यता। निर्वृत् (प्रे.) दे. 'बींधना। पाम, सं. पुं. (सं. पामन् ) पामा, विचचिंका, |-दर्शक, वि. (सं.) स्वच्छ, किरण-प्रकाश, खजूं:-कंडूतिः ( स्त्री.)। भेद्य। -न, सं. पुं., ( सं.) पामारिः, गन्धकः, -दर्शी, वि. ( सं.-शिन् ) दूरदर्शिन्, भविष्यसौगन्धिकः। दर्शिन्। पामन, वि. (सं.)पाम-पामा-खजू-, पीडित-ग्रस्त । -पाना, मु., सम्यक् बुध् (भ्वा. प. से.), पामर, वि. (सं.) दुष्ट, खल, दुर्वृत्त २. नीच, आयतं या (अ. प. अ.) अथवा संपूर (चु.)। अधम ३. मूर्ख, जड । आर-, सं. पुं. पारापार, पारावारम् । क्रि. वि., पामाल, वि. (फा.) पदानांत, पददलित, | अवारपारम् । पादक्षुण्ण, अव-सं,-मदित २. वि.,ध्वस्त-नष्ट। | वार-, सं. पुं., दे. 'आरपार' । पायँचा, सं. पु. (फा.) *पादायामजंघा। पारखी, सं. पुं.(हिं. परख>) परीक्षकः, गुणपायता, सं. पुं. (हिं. पायँ) खट्वायाः *पद्धानं, दोषविद् (पुं.)। *पदतानः। पारग, पारगत, वि. (सं.) दे. 'पारंगत' । पायँती, सं. स्त्री., दे. 'पायँता'। पारण, सं. पं. ( सं. न.) पारणा, उपवासानपायंदाज़, सं. पुं. (फा.) *पादघर्षणम् । न्तरं प्राथमिकभोजनं २. तर्पणं ३. समाप्तिः पाय, सं. पुं. (सं. पादः) दे. 'पाँव' । (स्त्री.)। पायखाना, सं. पुं., दे. 'पाखाना' । पारतंत्र्य, सं. पुं. (सं. न.) दे. 'परतंत्रता'। पायजामा, सं. पुं. दे. 'पाजामा' । पारद, सं. पुं. (सं.) दे. 'पारा' । पायजेब, सं. स्त्री., दे. 'पाजेब'। पारदेशिक-शी, वि., दे. 'परदेसी' । पायदार, वि. (फा.) चिर-, स्थायिन्, दृढ। पारधी, सं. पुं., दे. 'शिकारी' । पायदारी, सं. स्त्री. (फ़ा.)चिरस्थायिता,दृढता। पारलौकिक, वि. (सं.) आमुष्मिक, परलोक, पायमाल, वि. ( फा.) दे. 'पामाल'। संबंधिन्-विषयक, अपार्थिव ।। पायल, सं. स्त्री. (हिं. पाय ) दे. 'पाजेब' | पारस, सं. पुं. (सं. स्पर्श:> ) स्पर्श, मणिः २. वंशनिःश्रेणी ३. शीघ्रगामिनी हस्तिनी। | उपल: २. अतिलाभदः पदार्थः । पायस, सं. पुं. ( सं. पुं. न.) परमान्नं, दे. | पारसाल, सं. पुं. (सं.+पार+फा. साल) गत'खीर' २. श्रीवासः, दे. 'तारपीन' । । वर्षे, परुत् (अव्य.)। क्रि. वि., गताब्दे, परुत् । पाया, सं. पुं. (सं. पादः) (पर्यंकादीनां) पारसी, वि. (फ़ा.) पारसवासिन् २. भारतस्थाः पादः, जंघा, टंगा, २. स्तंभः, स्थूणा, स्थाणुः पारसीकाः ३. 'फ़ारसी'। (पुं.) ३. पदं, पदवी-विः (स्त्री.), स्थितिः | पारसीक, सं. पुं. (सं) पारसदेशः, पारसिकः (स्त्री.) ४. सोपान, पथ:-मार्गः, परम्परा। । २. पारसवासिन् ३. पारसघोटकः, वानायुजः । पाय, सं. पुं. (सं.) दे. 'गुदा'। पारस्परिक, वि. (सं.) दे. 'परस्पर का' । पारंगत, वि. (सं.) पारग, परतीर-पार,-गत, पारा, सं. पुं. (सं. पारः) महा-दिव्य-,रसः, २. प्रौढपंडित, अधीतिन्, सुविद्वस् , शास्त्र- | रस,-राजः रस,-राजः-नाथः-उत्तमः-इन्द्रः, चपलः, पारदः, मर्मज्ञ। शिवबीजं, सिद्धधातुः। पार, सं. पु. ( सं. पुं. न.) पर-तीरं-तटं पारायण, सं. . ( सं. न.) समापन, समाप्तिः २. अन्यतरं तट ३. पर-अभिमुख, पार्श्व:-दिशा | (स्त्री.) २. आघन्तपाठः। ४. अंतः, पर्यतः, सीमा ५. तलं, अधोभागः। पारावत, सं. पुं, (सं.) कपोतः, २. कपिः अव्य., पारे, दूरे, अग्रे, परतः ।। । ३. पर्वतः। २४ For Private And Personal Use Only Page #408 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पारावार [ ३७० ] पालागन पारावार, सं. पुं. (सं.) समुद्रः । ( सं. न.) कर्तृ-पालयितु २. अश्व, पाल:-रक्षः ३. दत्तकतटद्वयं २. सीमा, पर्यतः, अवधिः। पुत्रः ४. चित्रकवृक्षः । पारिजात, सं. पुं. (सं.) सुर-देव-कल्प,-तरुः- | पालकर, सं. पुं. ( सं. पालंकः ) पालंकी, सु. वृक्षः, मंदारः। स्निग्ध,-पत्रा, मधुरा, क्षुरपत्रिका, ग्रामीणा । पारिजातक, सं. पुं. (सं.) देवतरुषु अन्यतमः पालकी, सं. स्त्री. ( सं. पल्यंक:> ) शिरस्का, २. हरभंगारः ३. कांचनालः, कोविदारः ४. | डयनं, शिविका, *पल्यंकी, रथगर्भकः, याप्यपारिभद्रः, देववृक्षविशेषः । यानम् । पारितोषिक, सं. पुं. (सं. न.) सिद्धिपालं, -गाड़ी, सं. स्त्री., *पल्यंकी शकटी। जयलाभः, दे. 'इनाम'। पालतू, वि. (सं. पालित ) गृह, वधित-पोषित, पारिपंथिक, सं. पुं. (सं.) परिपंथिन्, लुट- | गृह्य, छेक, गृह-, ग्राम- । (टा, ठा ) कः, मार्गतस्करः। पालथी, सं. स्त्री., दे. 'पलथी'। पारिभाषिक, वि. (सं.) सांकेतिक, परिभाषा- पालन, सं. पुं. (सं. न.) भरणं, पोषणं, सं-, संकेत,-संबंधिन् । वर्धनं, अन्नवसनै रक्षणं २. निर्वाहः, अनुकूलापारिषद, सं. पुं. (सं.) सभासद् (पुं.), सभ्य, | चरणं, अनुवर्तनं, साधनं, पूरणम् ।। पारिषद्य २. गणः, अनुचरवर्गः। पालना, क्रि. स. ( सं. पालनं ) परि-, पा (प्रे. पारी, सं. स्त्री., दे. 'बार'। पालयति ), परि-, पुष् (भ्वा. न. प. से. पार्थक्य, सं. पुं. (सं. न.) पृथक्ता, भिन्नता तथा प्रे.), संवृध् (प्रे.), सं-, भृ ( भ्वा. जु. २. वियोगः, विरहः, विश्लेषः । प. अ.) २. (पशुविहगान्) विनी (भ्वा.प.अ.), पार्थिव, वि. ( सं.) मृण्मय (यी स्त्री.), मार्तिक दम् (प्रे.), गृहे पुष्-संवृध ( प्रे.) ३. अनुकूलं (की स्त्री.) २. भौम, पृथिवीसंबंधिन् । आचर् ( भ्वा. प. से.), निर्वह (प्रे.) संपूर३. लौकिक, ऐहिक (की स्त्री.) । सं. पुं., नृपः । साथ् (प्रे.)। सं. पुं., दे. 'पालन' २. (शिशु-) २. कुजः। प्रेखा-दोला। पार्लियामेंट, सं.स्त्री. (अं.) व्यवस्थापिका सभा। | पालने योग्य, वि., परिः, पालनीय-पोषणीय, पार्वती, सं. स्त्री. (सं.) उमा, अद्रिजा, अंबिका, भरणीय, विनेय, निर्वाह्य, इ.। गौरी, नंदा, भवानी, महादेवी, शिवा, रुद्राणी, -वाला, सं. पुं., दे. 'पालक(१) २. विनेतृ, सती, सिंहवाहिनी, हिमाद्रितनया, हैमवती। गृहे पोषकः ३. निर्वाहकः, साधकः। -नंदन, सं. पुं. (सं.) कात्तिकेयः। पाला', सं. पु. ( सं. प्रालेय ) तुषारः, नीहारः, पार्श्व, सं. पु. ( सं. पुं.न.) कक्षाधोभागः, पार्श्व- कुज्झटिका, मिहिका, तुहिनं, २. धनजलं, जलपक्षः,-भागः, कुक्षिः २. पक्षः, पार्थः, समीप- घनः, तुषारसंघातः, हिमं ३. शीतं, शैत्यं,हिमः। निकट,-स्थानं ३. पार्थास्थि ( न.), पार्श्वकम् । -मार जाना, मु., नीहारेण नश् (दि. प. वे.), -वर्ती, सं. पुं. (सं. तिन्) समीपस्थ-निकटस्थ, तुषारेण ध्वंस ( भ्वा. आ. से.)। जनः। | पाला,सं.पु.(हिं. पल्ला) व्यवहारावसरः,संबंधः । -शूल, सं. पुं. ( सं. पुं, न.) शूलरोगभेदः। -पड़ना, मु., व्यवहारः-संबंधः कार्यं जन् पाल', सं. पुं. (सं.) पालकः, पोषकः २. (दि. आ. से.)। पतग्रहः, दे. 'पीकदान' । पाले पड़ना, मु., वशीभू, अधीन (वि.) जन् । पाल', सं. पुं. (हिं. पालना ) फलपाकाय | पाला3, सं. पुं. (सं. पट्टः>) प्रधानस्थानं, पलालास्तरणम् । मुख्यकार्यालयः २. विभाजकरेखा ३. क्षेत्रसीमा पाल', सं. पुं. (सं. पटः वा पाट:> ) नौ-,* ४. अन्नार्थ बृहत्पात्रं ५. मल्लयुद्धभूमिः (स्त्री.), वातपटः २.पट, मंडपः-गृहं ३.शकटाच्छादनम्। व्यायामशाला । पाल, सं. स्त्री. [सं. पालिः ( स्त्री.)] सेतुः, पालागन, सं. स्त्री. (हिं. पाँय+लगना) धरणः, वप्रबंधः २. उच्च,-तीरं-कूलं, दे.'कगार'। चरणचुंबन, पादप्रणतिः (स्त्री.), प्रणामः, पालक,', सं. . (सं.) पोषकः, रक्षकः, पालन- वंदना, नमस्कारः । For Private And Personal Use Only Page #409 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पाला हुआ [ ३७१] पिंडा - पाला हुआ, वि., परि-,पालित, पोषित, सं-, पास , सं. पुं. (अं.) *अनुज्ञापत्रम् । भृत, गृहे संवर्धित, संपूरित, रक्षित, इ.। वि., उत्तीर्ण, सफल, सफलीभूत २. स्वीकृत, पालित, वि. (सं.) दे. 'पाला हुआ। उररीकृत। पालिश, सं. स्त्री. (अं.) प्रमाणम्, *कांतिकरी। -पोर्ट, सं. पु. ( अं.) पार-निष्क्रम, पत्रम् । पालिसी, सं. स्त्री. ( अं.) नीतिः (स्त्री.), नयः -बुक, सं. स्त्री. ( अं.) धनागारपुस्तकम् । २. राजनीतिः-शासनरीतिः (स्त्री.) ३. उपायः, पासा, सं. पुं. (सं. पाशकः) दे. 'पाँसा' २. दे. युक्तिः ( स्त्री.) ४. आयतिरक्षणसमयलेखः, । 'चौसर'। संभाव्यहानिरक्षण-पत्रम्, आश्वासिका। |-फेंकना, मु., भाग्यं परीक्ष (भ्वा. आ. से.) -होल्डर, सं., पुं. आश्वासिकाधारकः। २. अक्षैः दिव (दि. प. से.)। पाली, सं. स्त्री. ( सं. पालि:=पंक्तिः>) भारत-पाहुना, सं. पुं. (सं. प्राधुणः ) प्राघुण(णि)कः, वर्षस्य प्राचीनभाषाविशेषः (प्रायः बौद्ध धर्म- | प्राघूर्णिकः, अतिथि: २. जामात, दे. 'दामाद' । ग्रंथ इसी में हैं। पाहुनी, सं. स्त्री. (हिं. पाहुना ) प्राघुणिका-की, पाली,वि.(सं.-लिन्) पालक, पोषक २. रक्षक । । प्राधूणिकी २. आतिथ्यं, अतिथि-सत्कारः। पाली, सं.स्त्री. (सं. पल्लिः स्थान>) कुक्कुट- | पिंग, वि. (सं.) आ ईषत, पीत २. कपिल, युद्ध-भूमिः (स्त्री.)। पिंगल, पिशंग ३. आ-ईषत्, पिंगल-कपिल। पाव, सं. पुं., दे. 'पाँव'। पिंगल, सं. पुं. (सं.) छंदःसूत्रकारो मुनिपाव, सं. पुं. (सं. पादः) चतुर्थ, अंशः भागः, विशेषः २. (पिंगलरचित) छंदःशास्त्रं ३. कपिः तुयें, तुरीयं २. ( चार गिरह ) गजतुर्य, हस्तार्द्ध | ४. उल्लूकः ५. अग्निः । वि., दे. 'पिंग'। ३. सेर-, पादः, षट्टकचतुष्कम् । -शास्त्र, सं. पुं. (सं. न.) छन्दो, विद्या. पावक, सं. पुं. (सं.) अनल:, अग्निः २. तापः | विज्ञानम । ३. सूर्यः । वि., पावन, शोधक, मार्जक। पिंगला, सं. स्त्री. (सं.) शरीर-नाडीभेदः । पावन, वि. (सं.) शुद्ध, पूत, पवित्र, शुचि पिंगी, सं. स्त्री. (सं.) शमी, शिवा, भद्रा २. २. दे. 'पावक' । वि. [ पावनी ( स्त्री.)]| | २. मूषा, मूषिका ३. क्षुद्र-मूषकः-आखुः।। पावस, सं. स्त्री. (सं. प्रावृष ) दे. 'बरसात' पिंजड़ा-ना, सं. पुं. (सं. पिंजरं ) पंजर:-रं, वि. (मौसिम)। (वी)तंसः। पावा, सं. पुं., दे. 'पाया' (१)। पिंजर, सं. पुं. (सं. न.) कायास्थिवृंद,कंकालः, पाश, सं. पुं. (सं.) शस्त्रभेदः, बंधनं, २. जालं, अस्थिपंजरः-२ २. स्वर्ण ३. दे. 'पिंजड़ा' । मृगबंधनी, पातिली, वागुरा ३. 'पाँसा'। वि., ईषत् पीत २. सुवणाभ ३. कापल, पिगल । पाश्चात्त्य, वि. (सं.) पश्चिमदेशज, प्रतीच्य | पिंड, सं. पुं. (सं. पुं. न.) गोल:-लं, वर्तुलद्रव्यं २. उत्तर, उत्तरगामिन् ३. पश्चिम, चरम, २. लोष्ठ:-ठं, मृत्-खंडः पिंडः, द्रव्यखंडः-डं, अपर, अवर। गंडः, धनः ३. चयः, राशिः, ४. निवापः, पाषंड, सं. पुं., दे. 'पाखंड' । श्राद्धोपयोगिभक्तादिगोल: ५. आहारः ६. पाषंडी, वि., दे. 'पाखंडी'। शरीरं, देहः। पाषाण, सं. पुं. (सं.) दे. 'पत्थर'। --खजूर, सं. स्त्री. ( सं. पिंडखजूरः ) राजजंबूः पासंग, सं. पुं. (फ़ा.) प्रतितोलकं, तुलापूरकम् । ( स्त्री.), स्थूलपिण्डा, पिंडखजूरी, दीप्या, पास', सं. पुं. (सं. पार्श्व:-0 ) पक्षः, दिशा फलपुष्पा, ह्यभक्षा। २. अधिकारः,' आधिपत्यं ( अव्य.), निकटे, -दान. सं. पुं. (सं. न.) पिडनिवापः। समीपं-पे, अंतिक-के, आरात्, उपकंट, निकषा, | -छोड़ना, मु., न बाध् ( भ्वा.. आ. से.) । समया, सविधे (सब अव्य.)। पिंडली, सं. स्त्री. ( सं. पिंडी ) जंघापिंडः, -पड़ोस, सं. पुं.,समीप-सन्निहित,-देशः, प्रति- पिंडिका, पिंडिः (स्त्री.), पिचिडिका।। वेशः २. प्रातिवेश्याः -प्रतिवासिनः (पुं. बहु.)। पिंडा, सं. पु. ( सं. पिंड:-डं) दे. 'पिण्ड' (१, आस-, क्रि. वि., इतस्ततः, अभितः, परितः | २, ४, ६)। २.दे. 'लगभग। .J-पानी देना, मु., पितृभ्यः पिंडोदकं दा। For Private And Personal Use Only Page #410 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पिंडालू [३७२ ] पिटाई गप्पा '। पिंडालू , सं. पुं. ( पिंडालुः ) रोमालुः, रोम- । पिचकानेवाला, सं. पु., संपीडकः,संमर्दकः इ.। पिंड, कंदः, रोमशः। पिचकाया हुआ, वि., संपीडित, संकोचित इ. । पिंडिका, सं. स्त्री. (सं.) क्षुद्रपिंड:-डं २. लोष्ठक पिचकारी, सं. स्त्री. ( अनु. पिच> ) रेचन ३. दे "पिंडली' ४. चक्रनाभिः (स्त्री.) ५. प्रति- | यन्त्र, शृङ्ग, शृङ्गक, वस्ति (पुं. स्त्री.)। मावेदिका। -छोड़ना या मारना, मु., शृङ्गेण क्षिप् (तु. पिंडित, वि. (सं.) पिंडी-धनी, भूत २. गणित | प. अ.), तरलद्रव्यं सवेर्ग प्रास् (दि.प.से.)। ३. गुणित। पिचपिचा, (हिं. पिचपिचाना ) उन्न, क्लिन, पिंडी, सं. स्त्री. (सं.) दे. पिंडिका' (१,३,४)। श्यान, सांद्र। २. अलावूः (स्त्री.) ३. पिंडखजूरः ४. बलि- पिचपिचाना, क्रि. अ. ( अनु. पिचपिच> ) वेदी ५. सूत्रगोल:-लम् । | पिचपिचायते ( ना. धा.), शनैः क्षर् पिउ. वि. ( सं. प्रिय.) वल्लभ, कांत, दयित। । (भ्वा. प. से.), प्र-स्नु ( अ. प. से.)। सं. पुं., पतिः , भर्तृ। पिचुका, सं. पुं., दे. 'पिचकारी' २. दे. 'गोलपिक, सं. पुं. (सं.) कोकिलः, दे. 'कोयल' । -बंधु, सं. पुं. (सं.) 'पिक,-रागः-वल्लभः, | पिच्छ, सं. पुं. (सं. न.) पुच्छ, पक्षः-वाज: आम्रवृक्षः। २. मयूरपुच्छं, बह: है, शिखंडः, कलापः -बैनी, सं. स्त्री., कोकिलकंठा-ठी, सु-मधु-, | ३. शरपक्षः, पुंखः-खम् ४. पक्षः, वाजः ५. कंठा-ठी। शिखा, शेखरम् । पिकानन्द, सं. पुं. (सं.) पिकबान्धवः, वसन्तः, | पिच्छल, वि. (सं.) चिक्कण:-णा-णम्, मेदरःऋतुराजः। रारम्, श्लक्ष्णः-क्ष्णा-क्ष्णम् । पिघलना, क्रि. अ. ( सं. प्रघरणम् >) गल-क्षर् | पिछड़ना, क्रि. अ. ( हिं. पिछाड़ी ) मंदं चल-र (भ्वा. प. से.), वि., द्रु ( भ्वा. प. अ.), (भ्वा. प. से. ), मंदायते-चिरायति (ना.धा.), द्रवीभू , वि., ली (दि. आ. अ.) २. करुणाी पश्चात् वृत् ( भ्वा. आ. से.)। दयाद्रीभू , करुणया द्रु, दय् (भ्वा. आ. से.)। पिछड़नेवाला, सं. पुं., मंदः, मंथरः मंदसं.पु.,क्षरणं, गलनं, विलयन, द्रवणं २. दयाद्री गामिन् । भावः, दयन, अनुकम्पनम् । पिघलनेवाला, वि., वि.,लेय, द्रवणीय गलनाह। पिछलगा,पिछलग्गू, सं. पुं. (हिं. पीछे पिघलाना, क्रि. स., ब. 'पिघलना' (१-२ ) के | लगना) अनुयायिन्, अनुगामिन्, अनुवर्तिन्, शिष्यः २. सेवकः ३. आश्रितः । प्रे. रूप। सं. पुं., विद्रावणं-लावनं, द्रवीकरणम् । पिछला, वि. (हिं. पीछा) पृष्ठस्थ, पश्चिम, पिघलानेवाला, सं.पुं., विद्रावकः, विलयनकृत् । पृष्ठ य, पश्च-,पश्चात्-, २. उत्तर, उत्तरकालीन, पिघला हुआ, वि., वि,-लीन, वि,द्रुत, गलित। अपर, पर, पाश्चात्य ३. अन्त्य, अन्तिम, उत्तर ४. गत, अतीत, पुराण ।। पिघलाया हुआ, वि., वि,द्रावित-लापित, क्षारित, गालित । पिछवाड़ा, सं. पुं. । (हिं. पीछा ) गृहस्य पिघालबिंदु, सं. पु. (हिं.+सं.) द्रावाङ्कः, पिछवाड़ी, सं. स्त्री | पृष्ठं, पृष्ठभागः २. पृष्ठद्रवण, अङकः-बिंदुः। पश्चाद् ,-भागः ३. गृहपृष्ठवतिभूमिः ( स्त्री.)। पिचं (चि) ड, सं. पुं. ( सं. पुं. न.) उदरं, पिछाड़ी, सं.स्त्री. (हिं. पीछा) पृष्ठं, पृष्ठ-पश्चाद्, भाग:-देशः २. ( अश्वादीनां) पृष्ठपादरज्जुः पिचकना, क्रि: अ., ब. 'पिचकाना' के कर्म. (स्त्री.)। के रूप । | पिटना, क्रि. अ. (हिं. पीटना ) ताड-आहन् पिचकाना, क्रि. स. ( अनु. पिच ) आ-नि-सं- (कर्म.)। पीड् (चु.), संमृद् (क्. प. से.), आ-सं-कुच् पिटवाना, क्रि. प्रे., ब. 'पीटना' के प्रे. रूप। (भ्वा. प. से.। सं. पुं., संपीडनं, संमर्दनं, पिटाई, सं. स्त्री. ( हिं. पीटना ) ताडनं, प्रहरणं, संकोचनम् । | आहननं २. ताडनभृतिः (स्त्री.)। जठर, फंडः। For Private And Personal Use Only Page #411 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पिटारा [ ३७३ 1 पिनाक - 35 bla पिटारा, सं. पुं. (सं. पिटः ) पेटः, करंडः, ( न, वि. (सं.) पित्त-मायु, हर-नाशक । कडोलः। -ज्वर, सं. पुं. (सं.) पैत्तिक-मायुज', ज्वरः। पिटारी, सं. स्त्री. (हिं. पिटारा) पिटकः कं, की थैली, सं. स्त्री., पित्तकोषः (gallपेट(टा)कः, पेडा, मंजूषा, पेटि(डि)का, तरी:-रिः | (स्त्री)। -पथरी, सं. स्त्री., पित्ताश्मरी । पिट्ठू, सं. पु. ( हिं. पीठ) अनुगामिन, अनु-|-पापड़ा, सं. पुं., दे. 'पितपापड़ा' । यायिन् २. सहायः, साहाय्यकारिन् । -प्रकृति, वि. (सं.)मायुप्रकृति २. क्रोधिन् । पित, सं. स्त्री. (सं. पित्तं> ) धर्म चचिका, -प्रकोप, सं. पुं. ( सं.) पित्त-मायु,-प्रकोपःधर्मकंटकः । आधिक्य-विकारः। पितपापड़ा, सं. पुं. (सं. पर्पट:) अरकः, वरकः.! -हर, वि. (सं.) दे. 'पित्तघ्न' । सु., तिक्तः, चरकः, शीतः, प्रगंधः । पित्तल, सं.पु. ( सं. न.) आरकूटः,-टं, आरः, पितर, सं. पुं. (सं. 'पितृ'का बहु.) पिंड-स्वधा- क्षुद्र-सुवर्ण, रीती-तिः (स्त्री.), पीतलक, पीतकं, श्राद्ध, मुजः-भाजः, पिंडाशः ( सब बहु.)। पिंगललोहम्। पितराई, सं. स्त्री. (हिं. पीतल) पित्तल-ताम्र, का, वि. पित्तल-पीतक,-मय (-यी स्त्री.)। किट्ट-मलं-स्वादः, दे. 'कसाव' । पित्ता, सं. पुं. (सं. पित्तं>) दे. 'पित्ताशय' पिता, सं. पुं. (सं. पितृ ) तातः, जनकः, वप्त, | २. साहसं, वीय, शौर्य ३. कोपः, क्रोधः। प्रसवित, जनयित, जनित, जन्मदः, बीजिन् । खौलना, मु., अत्यंतं क्रुध् (दि. प. अ.)। -मह, सं. पुं. (सं.) दे. 'दादा'। | -निकालना, मु., नितरां परिश्रम् (प्रे.)। -मही, सं. स्त्री. (सं.) दे. 'दादी'। -पानी करना, मु., सुतरां परिश्रम् (दि. पितृ, सं. पुं. (सं.) दे. 'पिता' २. दिवंगताः । प. से.)। पूर्वपुरुषाः २. देवविशेषाः । -मारना, मु., क्रोधं जि-नियम् (भ्वा.प.अ.)। -ऋण, सं. पुं. (सं. न.) जायमानस्य ऋण- पित्ताशय, सं. पुं. (सं.) पित्त-मायु,कोषः। भेदः ( अपना पुत्र उत्पन्न होने पर मनुष्य | पित्ती, सं. स्त्री. (सं. पित्तं> ) शीतपित्तम, पितृ ऋण से मुक्त होता है । धर्म.)। पित्तविकारजः त्वयोगभेदः, २. दे. 'पित'। -कर्म, सं. पुं. [सं.-मन् (न.)] श्राद्धतर्प- पित्र्य, वि. (सं.) दे. 'पैतृक' । सं. पुं., (सं.) णादिक्रिया। अग्रजः २. माघमासः ३. मधानक्षत्रम् ४. -गृह, सं. पुं. (सं. न.) श्मशान २. दे. | मधु (न.) ५. माषः, मांसलः।। 'मायका'। पित्र्या, सं. स्त्री. (सं.) अमावस्या २. पूर्णिमा। -तर्पण, सं. पुं. (सं. न.) नि-निर वापः. | पिदड़ी, सं. स्त्री., दे, 'पिद्दी' । . निवपनं, निर्वपणं २. दे. 'तिल'। पिहा, सं. पुं. 1 (अनु. पिद) -तिथि, सं. स्त्री. (सं. पुं. स्त्री.) अमाव- पिद्दी, सं.ली. J चटकभेदः २. तुच्छ,-जीवः(वा)स्या। पदार्थः। -तीर्थ, सं. पुं. (सं. न.) गया २. वाराण- | पिधान, सं. पुं. (सं. न.) आच्छादनं, आवरणं, स्यादितीर्थस्थानानि ३. तर्जन्यंगुष्ठयोर्मध्यम् । । कोषः २. छदः, छदनं, पुट:-टं-टी ३. असि-पक्षा, सं. पुं. (सं.) आश्विनकृष्णपक्षः २. | कोषः। पितृसंबंधिनः (बहु.)। पिधायक्र, वि. (सं.) आ-प्र-च्छादक, आवरक । -यज्ञ, सं. पुं. (सं.) पितृतर्पणम् । पिन, सं. स्त्री. (अं.) *धातुकटकः कं, अन्ध-लोक, सं. पुं. (सं.) पितृभुवनम् । सूची। पितृक, वि. (सं.) दे. 'पैतृक'। पिनकना, क्रि. अ. ( अनु.) ( अहिफेनमदेन) पितृव्य, सं. पुं. (सं.) दे. 'चाचा' । ईषत् निद्रा-स्वप् ( अ. प. अ.)। पित्त, सं. पुं. (सं. न.) मायुः, पलज्वलः, | पिनाक, सं. पुं. (सं. पुं. न.) (शिवस्य) तिक्तधातुः। | चापः, धनुस् ( न.) २. त्रिशूलम् । For Private And Personal Use Only Page #412 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पिनाकी [३७४ ] पिस्सू पिनाकी, सं. पुं. (सं.-किन् ) शिवः, महादेवः ।। परिश्रम् (दि. प. से.) ४. निष्पीड-निष्कृष् पिना, सं. पुं. (सं. पिंड:-डं) तैलकिट्ट-पिण्याक, (कर्म.)। पिंड:-डं २. सूत्र,-गोल:-पिंडः । पिलपिला, विं. ( अनु. पिलपिल ) शिथिल, पिनी, सं. स्त्री. (सं. पिंडी) पिंडिका, पिंडिः अतिपक्व, अतिमृदु । (स्त्री.) कांदव, मिष्टान्न-भेदः २. दे. 'पिंडली' । पिलाना, कि. प्रे. (हिं. पीना) पा (प्रे. पायपिपरमिट, सं. पु. ( अं.) पुदीनजातीयः क्षुपः, यति ), धे (प्रे., धापयति ), चम् (प्रे., चामपिपरमिंट: २. *पिपरमिटम् । यति ), २. स्तन्यं-स्तनं पा-थे (प्रे.)। पिपरामल, सं. पु. ( सं. पिप्पलीमूलं ) कोल- | पिल्ला, सं. पु. ( तामिल ) श्व,-शावकः-शिशुः । कटु,-मूलं, ग्रंथिक, सर्व-षड-कटु, ग्रंथि (न.)। पिशंग, वि. (सं.) कपिल, पिंगल । पिपली, सं. स्त्री. ( सं. पिप्पली) पिप्पलि: पिशाच, सं. पुं. (सं.) भूतः, प्रेतः, राक्षसः, (स्त्री.) श्यामा, कृष्णा, मागधी, उ(ऊ)षणा, वेतालः, असुरः, दानवः, दैत्यः, निशाचरः । कोला, दंतफला। पिशाचनी, सं. स्त्री. (सं. पिशाची) पिशाचिका, पिपासा, सं. स्त्री. (सं.) तृषा, दे. 'प्यास'। निशाचरी, राक्षसी। पिपासित, वि. (सं.) तृषित, दे. 'प्यासा'। पिशुन, सं. पुं. (सं.) द्विजिह्वः, सूचकः, पिपास, वि. (सं.) तृषित, दे. 'प्यासा'। । कर्णेजपः २. परोक्षनिंदकः, परिवादरतः पिपीलक, सं. पुं. (सं.) पिपील:, पिपीलिकः, ३. दुर्जनः, खलः, नीचः, गहः । पीलकः, दे.'चींटा'। पिशुनता, सं. स्त्री. (सं.) पैशुन्यं, पिशुनत्वं, पिपीलिका, सं. स्त्री. (सं.) पिपी(पि)ली, हीरा, द्विजिह्वता २. परोक्ष, निंदा-परि(री)वादः दे. 'चीटी'। ३. दुर्जनता। पिप्पल, सं. पुं. (सं.) अश्वत्थः, दे. 'पीपल'! | पिष्ट, वि. (सं.) चूर्णित, चूर्णीकृत, क्षुण्ण । पिप्पलाद, सं. पुं. (सं.) ऋषिविशेषः । | सं. पुं., दे. 'पीठी'। पिप्पली, सं. स्त्री. (सं.) दे. 'पिपली'। -पेषण, सं. पुं. (सं. न.) चूर्णितचूर्णनं, -मूल, सं. पु., दे. 'पिपरामूल' । क्षुण्णक्षोदनं २. पुनरुक्तिः (स्त्री.), पौनरुक्त्यं, पिय, पिया, वि. (सं. प्रिय) वल्लभ, कांत, पुनर् ,वचनं-वादः । दयित । सं. पुं., पतिः, भर्तृ । पिसनहारी, सं. स्त्री, (हिं. पीसना ) *पेषणपियानो, सं. पु. ( अं.) आंग्लवाद्यभेदः, | कारी। *प्रियध्वानः। | पिसना, कि. अ., ब. 'पीसना' के कर्म. के पिरिच, सं. पुं. ( देश.) दे. 'तश्तरी'। रूप। पिरोना, क्रि. स. ( सं. प्रोत> ) सूत्र (च.), पिसाई, सं. स्त्री. (हिं. पीसना) पेषणं, चूर्णनं, गु(गुं)फ (तु. प. से.), सं-,ग्रंथ् (.प.से.), " विदलनं, क्षोदनं २. पेषण-चूर्णन, भृतिः(स्त्री.). सं.,-दृभ (चु., भ्वा., तु. प. से.)। सं. पुं., . भृत्या ३. घोरपरिश्रमः। सूत्रणं, गुं-फनं, ग्रंथनं, संदर्भणम् । पिसान, सं. पु. ( हि. पिसा+सं. अन्नम् ) पिरोने योग्य, वि., सूत्रयितव्य, गुंफनीय इ.। | दे. 'आटा'। पिरोनेवाला, सं. पुं., गुंफर्कः, ग्रंथकः, पिसा(सवा)ना, क्रि. प्रे., ब. 'पीसना' के प्रे. सूत्रायित इ.। पिरोया हुआ, वि., सूत्रित, गुंफित, ग्र(I)थित, पिसौनी, सं. स्त्री., पेषणं, चूर्णनम् २. अन्नसंदृब्ध इ.। । चूर्णन-व्यवसाय: ३. अतिपरिश्रमः । पिल, सं. स्त्री. (अं.) गुटिका, गुलिका, वटिका। पिस्ता, सं. पुं. ( फा.) मुकूलकम् । पिलना, क्रि. अ. (सं. पेलनं>) सहसा पिस्तौल, सं. पुं. (अं. पिस्टल ) गुलिकास्त्र', प्रविश् (तु. प. अ.) २. सवेगं अभिद्र | लघ्वग्न्यस्त्रम् । ( भ्वा. प. अ.)-आपत् (भ्वा. प. से.) पिस्सू , सं. पुं. (फा. पश्शह-मच्छर) कुटकी, ३. सोत्साहं प्रवृत् (भ्वा. आ. से.), अत्यंतं देहिका, कुटः। For Private And Personal Use Only Page #413 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पिहित पिहित, वि. ( सं . ) तिरोहित, गुप्त २. अर्थालंकारभेदः (सा.) । [ ३७५ ] पींजना, क्रि. स. (सं. पिंजन = धुनकी > ) * पिंजू (प्रे. पिंजयति ) दे. 'धुनना' । पी, सं. पुं. (सं. प्रियः) कान्तः, दयित:, वल्लभः, २. पतिः, भर्तृ, प्राणेश्वरः । पीक, सं. स्त्री. (अनु. पिच्) पर्णष्ठयूतं, तांबूललाला । - दान, सं. पुं. (हिं. + फ़ा. ) पतद्ग्रहः, प्रतिग्राहः, *लालाधानं, निष्ठीवन पात्रम् । पीच, सं. स्त्री. (सं.-पिच्छा ) पिच्छल:-ले-ला, भक्तमंड:-डं, दे. 'मांड' । पीछा, सं. पुं. (सं. पश्चात् > ) पृष्ठं, पृष्ठ- पश्च पश्चाद्-भागः देशः २. अनु, गमनं सरणं-धावनं ३. अन्वेषणम् । -करना, मु., अनु, इ-या ( अ. प. अ. ) अनुगम्-सृ ( भ्वा. प. अ. ), अनु-धाव्-व्रज् (भ्वा. प.से.) २. साग्रहं प्रार्थं ( चु. आ. से. ) । - छुड़ाना, मु., परिह (भ्वा. प. अ. ), वि. परि-बृज् ( चु.), आत्मानं रक्ष (स्वा. प. से.)(भ्वा. आ. अ. ) 1 — छोड़ना, मु., न बाध् (भ्वा. आ. से. ) व्यथ्-संतप् (प्रे. ) । पीछे, क्रि. वि. (हिं. पीछा ) अनु ( द्वितीया के साथ ), पृष्ठतः, पश्चात्, पश्चाद्-पृष्ठ-भागे देशे २. अनंतरं, ऊर्ध्वं, परं, पश्चात् ( सब अव्य.) ३. अनुपस्थितौ, अभावे, परोक्ष-क्षे ४. निध नानंतर ५. हेतोः, कारणात्, निमित्तात् ६. अर्थ, - अर्थे, कृते ( षष्ठी के साथ ) ७. अंततः, अंते, परिणामे । -आना, मु., बिलंबेन या कालमतिक्रम्य आया (अ. प. अ. ) । -छूटना या रहना, मु., अतिक्रम्-अतिलंघ् ( कर्म. ) मंदं चल ( स्वा. प. से.) मंदायते ( ना. धा. ) । पीठी प्रहृ (भ्वा. प. अ., सप्तमी के साथ ) २. तड् (चु.), तुद् (तु. प. अ. ), प्रह, आहनू, अर्द - पीड् (चु.) ३. दंड (चु.), निग्रह् (क्रू. प. से.) । सं. पुं., आहतिः (स्त्री.), आघातः, प्रहारः, ताडनं, प्रहरणं, पीडनं, दंडनं, निग्रहः; मृत्यु-, शोकः, आपद- विपद् (स्त्री.) । पीटने योग्य, वि, आहननीय, प्रहरणीय, ताडनीय, दंडयितव्य । पीटने वाला, सं. पुं., आ-अभि-, हंतु, प्रहर्तृ, ताडयितृ, पीडकः, दंडयितृ । पीटा हुआ, वि., आहत, प्रहत, ताडित, दंडित इ. 1 पीठ', सं. स्त्री. (सं. पृष्ठ ) पश्चिमांगं, तनुचरमं २. पश्चाद्-पृष्ठ-भागः- देशः । — चारपाई से लगना, मु., नितरां क्षि (भ्वा. प. अ. ) - कृशी भू । — ठोंकना, मु., उत्तिज्- प्रोत्सह् ( प्रे.) । -दिखाना या देना, मु., पलाय् (भ्वा. आ. से. ) अपधाव (भ्वा. प. से. ) २. परित्यज् - चलना, मु., अनु, -इया (अ. प. अ.), अनु,व्रज् (भ्वा. प. से. ) सृ (भ्वा. प. अ.)-कृ । - पड़ना, मु., साग्रहं प्रार्थ ( चु. आ. से. ) २. सततं बाध् (भ्वा. आ. से. ) अर्द-व्यथ् (प्रे.) । - लगना, मु. इष्टसिद्धये सततं अनुगम्, २. रोगादिभिः निरंतर पीड् (कर्म.) । पीटना, क्रि. स. (सं. पीडनं > ) अभि- उप-प्र-, हन् (अ. प. अ. ), आहन् ( अ. उ. अ.), (भ्वा. प. अ. ) । - पर हाथ फेरना, सु, दे. 'पीठ ठोंकना ' २. पृष्ठ परामृश् ( तु. प. अ. ) । पीछे, मु., अनुपस्थितौ, परोक्षं क्षे । पीछे कहना, मु. परोक्षे निंद (स्वा. प. से.)। फेरना, मु., प्रस्था ( भ्वा. आ. अ.) २. प्राङ्मुखी भू ( ३-४ ) दे. ' पीठ दिखाना' । - लगना, मु., मल्लयुद्धे उत्तानो निपत् (भ्वा. प. से. ) २. सर्वथा पराजि ( कर्म. ) । —लगाना, मु., मल्लयुद्धे उत्तानं निपत् ( प्रे.) ३. सर्वथा विजि (भ्वा. आ. अ. ) । पीठ, सं. पुं. (सं. न. ) ( काष्ठपाषाणधात्वादिनिर्मितं ) आसनं, पीठी २. ( व्रतिनां ) कुशासनं विष्टरः ३ प्रतिमाधारः ४. अधि. ष्ठानं, आवास: ५. सिंहासनं ६. वेदी- दिका ७. प्रदेशः, प्रांतः । पीठक, सं. पुं. दे. 'पीठ' २ १ । २. शिविकाभेदः । पीठा, सं. पुं., (सं. पिष्ट > ) भोज्यभेदः । पिष्टः । २. पीठिका, सं. स्त्री. (सं.) दे. 'पीठ' (१) । (स्तंभादीनां ) आधारः, पादः ३. ग्रंथभागः । पीठी, सं. स्त्री. (सं. पिष्टिका ), पिष्टादालीलि: (स्त्री.), पिष्टद्विदलः । For Private And Personal Use Only Page #414 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पोड़क [ ३७६ ] पीड़क, सं. पुं. (सं.) दुःख -द:- दायक:-दायिन् । पीनेवाला, सं. पुं.-धय: पायिन्, पातृ २. पान, आसक्त:-रत:-शौंडः, मद्यपः । -कर, वि. (सं.) दुःख कष्ट व्यथा, कर - आवहप्रद इ. [ करी (स्त्री.) = दुःखदा ] | मानसिक, सं. स्त्री. (सं.) आधि:, मनोव्यथा, चित्तोद्वेगः । 1 शारीरिक, सं. स्त्री. (सं.) व्याधिः, , रोग: पीड़ित, वि. ( सं .) दुःखित, व्यथित, क्लेशित, क्लेशकरः, पीडावहः । पीड़न, सं. पुं. (सं. न. ) अर्दनं, बाधनं, उप- पीया हुआ, वि., पीत, धौत, चांत । मर्दनं, क्लेशनं २. दे. 'दबाना' । पीनोधनी, सं. स्त्री. (सं.) पीवरस्तनी गौः । पीड़ा, सं. स्त्री. (सं.) वेदना, व्यथा, दुःखं, पीप-ब, सं. स्त्री. (सं. पूय:-यं ) क्षतजं, मलजं, रुज् (स्त्री.), रुजा, अ (आ)ति: (स्त्री.), प्रसितं पूयनं, कुणपम् । क्लेशः, बाध:-धा, यातना, कष्टं, कृच्छ्रे, परि सं,-तापः । पड़ना, क्रि. अ., पूय् ( स्वा. आ. से ) । पीपल', सं. पुं. (सं. पिप्पल : ) अश्वत्थः, क्षीर-शुचि बोधि, द्रुमः, चल,-दल:-पत्रः, कुञ्ज सव्यथ, सरुज, कृच्छ्रगत । पीढ़ा, सं. पुं. ( सं. पीठं ) दे. 'पीठ' (१) । पीढ़ी, सं. स्त्री. (सं. पीठी ) पीठकः कं ( काष्ठादिनिर्मितं ) उपासना, क्षुद्रासनम् । पीढ़ीर, सं. स्त्री. (सं. पीठी) वंशपरम्परायां पितृपितामहपुत्रपौत्रादीनां पूर्वापरस्थानं, *संत तिक्रमः । पीसना पीत, वि. (सं.) हरिद्राभ, दे. 'पीला' । पीतल, सं. पुं, दे. 'पित्तल' । पीतांबर, सं. पुं. (सं. न. ) हरिद्राभवस्त्रं २. श्रीकृष्णचंद्रः । वि., पीतवस्त्रधारिन् । पीदड़ी, सं. स्त्री. दे. 'पिद्दी' । पीन, वि. ( सं . ) पीवर, स्थूल, पुष्ट, मांसल 1 पीनक, सं. स्त्री. (हिं. पिनकना ) अफेनतंद्रा, अहिफेननिद्रा । पीनता, सं. स्त्री. (सं.) पीवरता, स्थूलता, पुष्टता । पीनस', सं. पुं. (सं.) अपीनसः, नासिका मयः, प्राणशक्तिराहित्यम् । पीनसरे, सं. स्त्री. (फ़ा. फीनस) दे. 'पालकी' । पीना, क्रि. स. (सं. पानं) पा-धे (भ्वा. प. अ.), चम् (भ्वा. प. से.), पानं कृ २. सह् (भ्वा. आ. से. ) २. ( क्रोधादीन् ) नि-सं-यम् (भ्वा. प. अ. ), प्र-, शम् (प्रे.) ४. मद्यं पा, सुरापानं कृ ५. उत्, शुष (प्रे. ) ६. धूमं पा, धूमपानं कृ । सं. ५., धयः, पानं, आचमनं प्रीतिः ( स्त्री. ) । पीने योग्य, वि. पेय, पानीय, चमनीय, धेय । - राशनः । पीपल, सं. स्त्री. दे. 'पिपली' । पीपलामूल, सं. पुं., दे. 'पिपरामूल' । पीपा, सं. पुं. ( देश ) *पटहपात्रम् । पीयु, सं. पुं. (सं.) काकः, वायसः २. सूर्यः ३. अग्निः (पुं. ) ४. उलूकः ५. समयः ६. सुवर्णम् । पीयूष, सं. पुं. ( सं. पुं. न. ) सुधा, अमृतं २. ( नवप्रसूतायाः गोः ) दुग्धम् । - वर्षी, वि. ( सं . -र्षिन् ) सुधास्यंदिन, सुमधुर । पीर', सं. स्त्री. (सं. पीड़ा) दे. 'पीड़ा' २. सहानुभूति: (स्त्री.) ३. प्रसवपीड़ा । पीर, वि. ( फा . ) वृद्ध, जरठ २. धूर्त्त । सं पुं., धर्मगुरुः, सिद्ध: (मुसलमान) । पीरी, सं. स्त्री. (फ़ा. ) जरा, वार्धकं-क्यम् । पील, सं. पुं. (फ़ा. ) गजः, द्विपः । पाँच, सं. पुं. ( फ़ा. + हिं. ) श्लीपद, शिलीपदम् । पीला, वि. (सं. पीत ) पीतल, हरिद्राभ, सुवर्णकुंकुम, वर्ण २. निस्तेजस्क, कांतिहीन । (पीली ( स्त्री. ) = पीता, हरिद्राभा ) । - बुखार, सं. पुं., पीतज्वरः । पड़ना या होना, सु, पांडुच्छाय (वि.) भू, गतश्रीक- नीरक्त (वि.) जन (दि.आ.से.) । पीलिया, सं. पुं. (हिं. पीला ) दे. 'पांडुरोग' । पीलू, सं. पु. ( सं. पीलुः) गुड़फल:, शीतसहः, विरेचनः, श्यामः करभवल्लभः २. कृमि:, कीटः ३. रागभेदः । For Private And Personal Use Only 3 पीव, सं. पुं., दे० 'पी' । सं. स्त्री. दे० 'पीप' | पीवर, वि. (सं.) दे. 'पीन' । पीसना, क्रि. स. (सं. पेषणं ) पिष-क्षुद् ( रु. प. अ. ), चूण् (चु.), चूर्णीकृ, मृद् ( क्र. प. से. ) २. सजलं पिष इ. ३. विकटं Page #415 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पीसने योग्य [३७७ ] t - परिश्रम् (दि. प. से.)। सं.पु., पेषणं, चूर्णनं, । स्वरेण याच ( भ्वा. आ. से.) प्रार्थ (चु. आ. मर्दनं, खंडनं २. पेषणीयपदार्थः। से.) ४. रक्षायै आ-वि-कुश (भवा. प. अ.) पीसने योग्य, वि., पेषणीय, चूर्णयितव्य इ.।। ५. (प्रतिकारार्थ ) परिदेव (भ्वा. आ. से., पीसने वाला, सं. पुं. पेषकः, चूर्णयितु, मईकः। चु.), दुःखं निविद् (चु.) ६. नाम कृ, अभिधा पीसा हुआ, वि., पिष्ट, चूर्णित, मर्दित । (जु. उ. अ.)। सं. पुं., दे. 'पुकार' । -पीसना, मु., सततं घोरं च परिश्रम् । पुकारने योग्य, वि., आ-हे य, आकार्य, पीहर, सं. पु. ( सं. पितृगृह>) नारीणां पितृ संबोधनीय। वेश्मन् (न.)। पुकारने वाला, सं. पुं., आह्वायकः, आकारकः पुंगव, सं. पुं. (सं.) वृषः, वृषभः । वि., श्रेष्ठ, | उत्तम ( उ. नरपुंगवः मानवोत्तमः)। पुकारा हुआ, वि., आहूत, आकारित इ. । पुंज, सं. पुं. (सं.) उत्करः, राशिः, चयः ।। पुक्कश, पुक्कस, सं. पुं. (सं.) निषादात् पुंड, सं. पुं. (सं.) पुंड्रः, दे. 'तिलक' । शूद्रायां जातो मनुष्यः, वर्णसंकरभेदः । वि. पुंडरीक, सं. पु. ( सं. न.) शुक्लप , शतपत्रं, | अधम, नीच (-शी, सी स्त्री.)। महापा, सित,-अंबुज-अंभोज २. कमलं | पुखराज़, सं. पुं.. ( सं. पुष्पराजः) पुष्परागः, ३. सिंहः ४. व्याघ्रः ५. तिलकः ६. श्वेतच्छत्रं । पीतः, पीत, स्फटिकः-मणिः-अश्मन् (पुं.), ७. शर्करा ८. तीर्थविशेषः ९. कुष्ठभेदः। मंजुमणिः। पुंडरीकाक्ष, सं. पुं. (सं.) विष्णुः । वि., कमल- | | पुख्ता , वि. (फा.तह ) सबल, प्रबल २. दृढ़, नयन (नयनी-ना, स्त्री.)। कठिन ३. स्थायिन् ४. पक्वेष्टकानिर्मित ५. पुडू, सं. पुं. (सं.) दे. 'पुंड्रक' (१) २. दे. 'पुंड- अभिज्ञ ६. अनुभविन् ७. निश्चित । रीक' (१) ३. दे. 'पुंड' । पुचकार-री, सं. स्त्री. (हिं. पुचकारना) पुंडूक, सं. पुं. (सं.) रसाल: ली, इक्षु-वाटी- पुच, कारः-करण-कृतिः ( स्त्री.)। योनिः (स्त्री.), रसदालिका, करंकशालिः, पुचकारना, क्रि. स. (अनु. पुच) पुचपुचायते इक्षुभेदः। २. माधवी लता ३. तिलकः (ना. घा.), पुचिति शब्दं कृ । ४. तिलकवृक्षः । पुचारना, क्रि. स., दे. 'पोतना' । पुंलिंग, सं. पुं. (सं. न.) पुरुषचिह्न २. शिश्नः पुच्छ, सं. स्त्री. ( सं. पुं. न.) दे. 'पूछ' । ३. (प्रायः) पुरुषवाचकशब्दः ( व्या.)। पुच्छल, वि. (सं. पुच्छं>) पुच्छिन्, सपुच्छ, पुंश्चली, सं. स्त्री. (सं.) कुलटा, व्यभिचारिणी, लांगूलिन्, लांगूलवत् ।। त्रपारंडा, स्वैरिणी। -तारा, सं. पुं., धूम्र, केतुः, उल्का, उत्पातः । पुंसवन, सं. पुं. (सं. न.) संस्कारभेदः (धर्म.)। पुछल्ला, सं. पुं. (हिं. पूछ ) दीर्घपुच्छः च्छं, पुंस्त्व, सं. पुं. (सं. न.) पौरुषं, पुरुषत्वं, लंब-लांगूलं २. चाटुकारः, मिथ्याशंसकः मैथुनसामर्थ्य २. शुक्र, वीर्य ३. तेजस् , ३. परिहायसंगिन् । ओजस (न.)। | पुजना, क्रि. अ. (हिं. पूजना) पूज्-अभ्य पुआ, सं. पु. ( सं. पूपः ) अपूपः, पिष्टकः। (कर्म.)। पुआल, सं. पुं., दे. 'पयाल' ।। | पुजवाना, पुजाना, क्रि. प्रे., ब. 'पूजना' के पुकार, सं. स्त्री. (हिं. पुकारना) आह्वयनं, प्रे. रूप । आह्वानं, आहावः, अहू(हु)तिः (स्त्री.), आका- | पुजापा, सं. पुं. (सं. पूजापत्रं ) पूजा, प्रसेवः(क)रण-णा, संबोधनं २. परिदेवन, दुःख- पुटः २. पूजासामग्री, देव, उपायन-उपहारः, निवेदनं ३. प्रबलप्रार्थना, उच्चस्वरेण याचना | नैवेद्यम् ।। ४. चीत्कारः, उत्क्रोशः । पुजारी, सं. पुं. ( सं. पूजाकारिन् ) प्रतिमा-, पुकारना, क्रि. सं. (सं. प्लुतकरणं>) आ- पूजकः, देवल:-लकः २. भक्तः, उपासकः। ह (भ्वा. प. अ.), आकृ-संबुध (प्रे.) | पुट', सं. पु. (अनु.) शीकरासेकः २. आ२. उच्चैः कथ् (चु.), उ ष् (प्रे.) ३. तार- ईषद्, रंजनं ३. आ-ईषत्,-मिश्रणं-संपर्कः। . For Private And Personal Use Only Page #416 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पुट [ ३७८ ] पुट े, सं. पुं. (सं. पुं. न.) आच्छादनं, आवरणं । कोषः, पिधानं, वेष्टनं २. पर्णपुट: टं, पत्र, द्रोणं ३. द्रोणाकारपदार्थ (उ., अंजलिपुटं ) ४. औषधपाकाय पात्रभेदः । - पाक, सं. पुं. (सं.) पुटस्थौषधपचनं ( वैद्यक ) । पुटकी, सं. स्त्री. (सं. पुटकं > ) दे. 'पोटली' | पुटित, वि. (सं.) चूर्णित, पिष्ट २ विदारित, छेदित ३. संकुचित, आकुंचित । पुट्ठा, सं. पुं. (सं. पृष्ठ > ) नितंब, जघनं, कटिप्रोथः, २. अश्वादीनां नितंब : इ. ३. ग्रंथावरकपृष्ठम् । पुट्ठी, सं. स्त्री. (हिं. पुट्ठा> ) शकटनेमी भागः । पुड़ा, सं. पु. ( सं . पुट:-2 ) पत्रकोशः २. दे. 'पुड़ी' । पुड़िया, सं. स्त्री. (सं. पुटिका ) पत्र, पुटिका - २. औषधपुटिका । पुड़ी, सं. स्त्री. (सं. पुटी > ) दे. 'पुड़िया' २. पचन् (न.)। पुण्य, सं. पुं. ( सं. न. ) शुभादृष्टं, सुकृतं, धर्मसु-भद्र,·कृत्यं, धर्मः, वृषः, श्रेयस् (न.) । वि., शुभ, मंगल, पवित्र, भद्र, शास्त्र-धर्म, विहित | -भूमि, सं. स्त्री. (सं.) भारतं, भ(भा) रतवर्षे, आर्यावर्तः । - लोक, सं. पुं. (सं.) स्वर्गः, नाक:, सुरलोकः । - वान्, वि. ( सं . वत् ) } दे. ‘पुण्यात्मा’ । - शील, वि. (सं.) - श्लोक, वि. (सं.) सच्चरित्र, आर्यवृत्त । - स्थान, सं. पुं. (सं. न. ) पवित्रस्थलं २. तीर्थस्थानम् । पुण्यात्मा, वि. (सं.-त्मन् ) पुण्यवत्, पुण्यशील, धर्मशील, धार्मिक, धर्मात्मन् । पुण्योदय, सं. पुं. (सं.) सौभाग्योदय:, पूर्वसुकृतफलम् । पुतला, सं. पुं. (सं. पुत्तलक: ) दे. 'पुतली' (१) ( मृत्तिकावस्त्रादिनिर्मिता ) कृतिः (स्त्री.) । प्रतिमूर्ति:-प्रति अकल का --, वि., चतुर, दक्ष । पुनर्जन्म लिका, कुरुटी, पांचाली-लिका, शालभंजिका २. कनीनिका, तारा, तारका ३. तन्वी, कृशांगी ४. वस्त्रयंत्रं ५. भेकाकारमश्वखुरमांसम् । का तमाशा, सं.पुं., पुत्तली, कौतुकं नृत्यम् । घर, सं. पुं., वस्त्रयंत्रालयः । -फिरना, मु., कनीनिके स्तंभ (कर्म., मृत्युचिह्न) २. दृप् (दि. प. अ. ) । पुताई, सं. स्त्री. (हिं. पोतना ) लेप:, लेपनं २. लेपन, भृति: (स्त्री.)-भृत्या ३. सुधालेपः । पुतारा, सं. पुं., (हिं. पोतना ) उपदेहनं, प्रलेपनम् २. लेपन उपदेन, - पट:- वस्त्रम् । पुतलिका, सं. स्त्री. (सं.) दे. 'पुतली' (१) । पुत्तिका, सं. स्त्री. ( सं . ) पतंगिका, मधुमक्षिका | विशेषः । २. दे. 'दीमक' | खाक का सं. पुं., मानवः, मनुष्यशरीरम् । पुतली, सं. स्त्री. (सं. पुत्तली ) पुत्रिका, पुत्त पुत्र, सं. पुं. (सं.) पुत्रः, आत्मजः, तनयः, सुत:, सूनुः, तनु (नू) जः पुंसंतानः, दायादः, नंदनः आत्मजन्मन् (पुं.), अंगजः कुमारः. दारकः । कंदा, सं. स्त्री. (सं.) लक्ष्मणाकन्दा, पुत्रदः ओषधिभेदः । धनी, सं. स्त्री, गर्भनाशकयोनिरोगभेदः । वती, वि. स्त्री. (सं.) सपुत्रा, सुतवती । - वधू, सं. स्त्री. (सं.) स्नुषा, वधूः (स्त्री.), जनी पुत्र पत्नी | पुत्रिका, सं. स्त्री. (सं.) दे. 'पुत्री' २. दे. 'पुतली' ३. कनीनिका, तारा । पुत्री, सं. स्त्री. (सं.) कन्या, आत्मजा, दुहितृ (स्त्री.), तनुजा, सुता, तनया, स्वजा, नंदिनी । पुत्रेष्टि, सं. स्त्री. (सं.) पुत्रनिमित्तक- यज्ञभेद: । पुदीना, सं. पुं. (फ़ा. पोदीनह) पुदीन:, व्यञ्जनः, सुगंधिपत्रः, वातहारिन्, अजीर्णहरः, रुचिष्यः । पुनः, अव्य. (सं. पुनर् ) भूय: ( अव्य.) । - पुनः, अन्य. (सं.) भूयोभूयः, वारंवारं रेण, अनेकवारं, मुहु:, असकृत्, पौनःपुन्येन । पुनरावृत्ति, सं. स्त्री. (सं.) पुनः पाठः, पुनरध्ययनं २ आवृत्तिः प्रत्यावृत्तिः (स्त्री.) ३. पुनः, विधानं-संपादनं करणं ४. पुनरीक्षणं, संशोधनम् । पुनरुक्ति, सं. स्त्री. (सं.) पौनरुक्त्यं, पुनर्वचनम् । पुनर्जन्म, सं. पुं. [ सं . -जन्मन् (न.)] पुन For Private And Personal Use Only Page #417 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पुनर्भू [ ३७६ पुरुषार्थी भवः; पुनरुत्पत्तिः ( स्त्री.), प्रेत्यभावः, देहां- पुराण, वि. (सं.) प्राचीन, पुरातन । सं. पुं. तरप्राप्तिः ( स्त्री.)। (सं. न.) प्राचीन, कथा-आख्यानं २. हिंदूपुनर्भू, सं. स्त्री. (सं.) द्विरूढा, दिधिषू: नामष्टादश आख्यानग्रन्थाः ( ब्रह्मविष्णुशिव(स्त्री.)। पुराणादि )। पुनर्वसू , सं. पुं. (सं. द्वि.) यामको, आदित्यौ | पुरातन, वि. (सं.) पुराण, प्रतन, प्रत्न, (द्वि.)। चिरंतन, चिरत्न, प्राचीन । (पुरातनी स्त्री.)। पुनीत, वि. (सं.) पूत, पवित्र, शुद्ध, निर्दोष। पुराना, वि. (सं. पुराण) दे. 'पुरातन' २. जीर्ण , पुन्य, सं. पुं., दे. 'पुण्य' । शीर्ण, ३ अनुभविन्, सानुभव। पुमान् , सं. पुं. (सं. पुंस्) नरः, पु( पू) -खुर्राट, मु., वृद्ध, जरठ 1. अत्यनुभविन् । रुषः, नृ (पुं.)। | पुरी, सं. स्त्री. (सं.) नगरी, नृपावासः, पुरंदर, सं.पु. ( सं.) दे. 'इंद्र' २. नगरभंजकः | दे. 'पुर'। ३. चौरः। | पुरीष, सं. पु. ( सं. न. ) विष्ठा, दे. 'पाखान । पुरंध्री, सं. स्त्री. (सं.) पुरंधिः ( स्त्री.), | २. जलम् । कुटुंबिनी २. नारी। . पुरु, सं. पुं. ( सं.) नृपविशेषः, ययातः कनिष्ठ. पुरः, अव्य. ( सं. पुरस् ) अने, अग्रतः, संमुखे, पुत्रः । वि., प्रचुर, बहु। पुरतः, पुरस्तात्, समक्षं ( सब अव्य. षष्ठी के | पुरुष, सं. पुं. (सं.) मनुजः, मानुषः, दे. साथ ) २. पूर्व, प्राक , अर्वाक् (सब अव्य.| 'मनुष्य' २. नरः, नृ, पुंस् ३. परमेश्वरः पंचमी के साथ ) ३. प्राच्यां दिशि । । ४. आत्मन् ५. पूर्वजः, पूर्वपुरुषः, ६. पतिः पुर, सं. . (सं. न.) नगरं-री, पुर (स्त्री.) ७. क्रियासर्वनामादीनां रूपभेदः (व्या.) पुरी, पत्तनं, स्थानीयं २. शरीरं ३. दुर्ग। । ८. शरीरम् । ४. गृहं ५. लोकः, भुवनम् । कार, सं. पुं. (सं.) उद्योगः, पुरुषार्थः। -द्वार, सं. पुं. (सं. न.) नगर, द्वारम् । -नी, सं. स्त्री. (सं.) पतिघातिनी नारी। -वासी, सं. पुं. (सं.-सिन् ) पौरः, नागरिकः, | -धर्म, सं. पुं. (सं.) मनुष्यमात्रस्य धर्मः । पुर-नगर (-जनः)। -धौरेयक, सं. पुं. (सं.) नरर्षभः नरपुंगवः । अंतः-, सं. पुं. (सं. न.) अवरोधः, शुद्धांतः । । -पुर, सं. पुं. (सं. न.) गांधारदेशराजधानी पुरखा, सं. पं. ( सं. पुरुषः> ) पूर्वजाः, पूर्व- (वर्तमान पिशावर )। पुरुषाः, पितरः, वंशकराः (प्रायः बहु. में)। -मेध, सं. पुं. (सं.) यज्ञभेदः, नरमेधः। पुरज़ा, सं. पुं. (फा.) (पत्रवस्त्रादीनाम्) खंड:- | -वार, सं. पुं. (सं.) रवि-मंगल-बृहस्पतिडं, शकल:-लं २. अवयवः; अंगम् । शनि,वारः-वासरः। चलता-, मु., चतुर ३. उद्योगिन् ।। -सूक्त, सं. पुं. (सं. न.) ऋग्वेदस्य यजुर्वेदस्य पुरवा', सं.पु. (सं.पुरं>) लघुग्रामः, ग्रामटिका। च सूक्तविशेषः ( यह 'सहस्रशीर्षा' से आरंभ पुरवा, सं. पु. ( सं. पूर्ववातः) प्राचीपवनः।। होता है)। पुरश्चरण, सं. पुं. (सं. न.) पुरस्क्रिया, पूर्वा- | महा-, सं. पुं. (सं.) महाजनः, नरकुअरः, नुष्ठानम्। महात्मन् २. दुष्टः, दुरात्मन् । पुरस्कार, सं. पुं. (सं.) पारितोषिकः, उपायनं, | पुरुषत्व, सं. पुं. (सं. न.) पौरुषं, वीर्य, प्रतिफलं २. आदरः, संमानः, पूजा । साहसं २. पुंस्त्वं, नरत्वम् । पुरस्कृत, वि. (सं.) आदृत, संमानित २. | पुरुषार्थ, सं. पुं. (सं.) उद्यमः, प्रयत्नः, उद्योगः, प्राप्तोपायन, लब्धपारितोषिक । परिश्रमः, पौरुषं, पराक्रमः, पुरुषकारः पुरा', अव्य. (सं.) पूर्व-प्राचीन-पुरातन,काले । २. पुरुष, प्रयोजन-लक्ष्यं (धर्मार्थकाममोक्षाः) वि., अतीत, प्राचीन (उ. पुरावृत्त)। ३. शक्तिः ( स्त्री.), बलम् । पुरा, सं. पुं. ( सं. पुरं> ) ग्रामः। | पुरुषार्थी, वि. ( सं.-थिन् ) उद्यमिन, उद्योगिन्, -कल्प, सं. पु. ( सं.) पूर्वकल्पः २. प्राचीन- परिश्रमिन्, उद्योग-उद्यम-परिश्रम, शील-पर कालः। । २. समर्थ, बलवत् । For Private And Personal Use Only Page #418 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पुरुषोत्तम [३०] - - - - D पुरुषोत्तम, सं. पुं. (सं.) पुरुषर्षभः, नरकुंजरः, । -सुपरिटेंडेंट, सं. पुं. (अं.) रक्षकाध्यक्षः । मनुजश्रेष्ठः २. विष्णुः ३. श्रीकृष्णः । पुवाल, सं. स्त्री., दे. 'पयाल' । पुरोहित, सं. पु. (सं.) पुरोधस् (पुं.), पुश्त, सं. स्त्री. (फ्रा.) दे. 'पीठ' २. दे. सौवस्तिकः, धर्मकर्मादिकारयितृ, याशिकः, 'पीढ़ी। याजकः, ऋत्विज्। . -दर पुश्त, क्रि. वि., 'वंशपरंपरया'। . पुरोहिताई, सं. स्त्री. (सं. पुरोहितः> )| पुश्तैनी, वि. (फ़ा. पुश्त> ) कुलक्रम-वंशपौरोहित्यं, पुरोहितकर्मन् । न.) २. पुरोहित- परंपरा,-आगत-प्राप्त, परंपरीय, परंपरीण। दक्षिणा। | पुष्कर, सं. पु. ( सं. न.) कमलं, पर्वा २. जलं पुरोहितानी, सं. स्त्री. ( सं. पुरोहित:>) ३. तडागः-गं ४. गजशुंडाग्रं ५. तीर्थविशेषः । पुरोहित, पत्नी-मार्या । पुष्करिणी, सं. स्त्री. (सं.) कासार:-रं, तटाकः पुल, सं. पुं. (मा.) सेतुः, वारणः, संवरः। । कं, सरसी, सरोवरः। -बाँधना, सेतुं बंध (क्र. प. अ.), निर्मा पुष्कल, वि. (सं.) अधिक, बहु, प्रचुर, प्रभूत, (जु. आ. अ.)। बहुल, विपुल २, पर्याप्त, पूर्ण । पुलक, सं. पुं. (सं.) रोमांचः, रोम, उद्गमः | पुष्ट, वि. (सं.) पालित, सं., वति, पोषित, हर्षः-विकारः-उद्भदः, त्वक्पुष्पं, त्वगंकुरः । भूत २. बलिष्ठ, पीन, पीवर ३. बल, प्रद२. रत्नभेदः। वर्धक ४. दृढ । पुलकावली, सं, स्त्री. (सं.) पुलकावलिः पुष्टई, सं. स्त्री. (सं. पुष्ट> ) पुष्टिकरं भक्ष्य(स्त्री.), हर्षोत्फुल्लरोमाणि ( न. बहु.)। मौषधं वा, रसायनम् । पुलकित, वि. (सं.) रोमांचित, रोमांकित, | पुष्टता, सं. स्त्री. (सं.) पीनता, पीवरता, पुलकिन्, जातपुलक, सपुलक, कंटकित दृढांगता। २. प्रहृष्ट, प्रसन्न । पुष्टि, सं. स्त्री. ( सं. ) भरणं, पोषणं, सं-,वर्धनं -करना, क्रि. स., रोमांचयति (ना. धा.), २. बलिष्ठता, दृढांगता, पीवरता ३. दृढता रोमाणि उद्-हृष (प्रे.)। ४. समर्थनं, अनुमोदनं, दृढीकरणं, उपो. -होना, क्रि. अ., रोमाणि उद्गम् ( भ्वा. प. द्वलनम् । अ.) हृष (-दि. प. से.)। -कारक, वि. (सं.) पुष्टि,-कर-दायक, बल. पुलपुला, वि. ( अनु.) दे. 'पिलपिला'। वीर्य-वर्धक। पुलाव, सं. पुं. (का.) मांसौदनं, भक्तामिषम्, पुष्प, सं. पु. (सं. न.) कुसुमं, प्रसून, मणी. पलान्नम्। चकं, सुमं, सू, सुमनः, प्रसवः, सुमनस् पुलिंद, सं. पुं. (सं.) चंडालभेदः, प्राचीन ( स्त्री. न., केवल बहुवचन में) २. आर्तवं, जातिविशेषः। पुलिंदा, सं. . (हिं. पूला) कूर्चः, ऋतुस्रावः, रजःस्रावः ३. नेत्ररोगभेदः (हिं. भार., पोट्टली। फूला) ४. कुबेरविमानम् । पुलिन, सं. पुं. (सं. पुं. न.) तोयोत्थिततट: करंड, -डक, सं. पुं. (सं.) उज्जयिन्याः टंटी २. कूलं, तीरं, तट, ३. सैकतं, सिकता- प्राचानाशवाधानम् २. कुसुमकडोलः। मयं तटम् । -काल, सं. पुं. (सं.) वसन्तः, ऋतुराजः । पुलिस, सं. स्त्री. (अं.) नगररक्षकाः, पुरपालाः, | २. नारीणां आर्तव-रजः,-समयः । रक्षापुरुषाः (बहु.), रक्षिगणः। -कीट, सं. पुं. (सं.) भ्रमरः, षट्पदः --इन्स्पेक्टर, सं. पुं. (अं.) रक्षक-रक्षि, २.कुसुमकोटः । निरीक्षकः। -ज, सं. पुं. (सं.) मकरन्दः, भ्रामरम्, -मैन, सं. पुं. (अं.) रक्षकः, दंडधरः, रक्षक- | पुष्परसः। रक्षा-रक्षि,-पुरुषः, नगरपालः, राजपुरुषः। --ध्वज, बाण,-शर, -पुर, सं. पुं. (सं.) -सब-इन्स्पेक्टर, सं. पुं. ( अं.) रक्षकोप- पुष्पधन्वन् (पु.) मदनः, दे. कामदेव'। निरीक्षकः, दे. 'थानेदार'। | -पुर, सं. पुं. (सं. न.) दे. 'पटना। For Private And Personal Use Only Page #419 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पुष्पक [३८१] -रस, सं. पुं. (सं.) पुष्पासवं, भ्रामर, संमन् (प्रे.)। सं. पुं., प्रच्छन-ना, पृच्छा, मकरंदः। अनुयोगः, जिज्ञासा । -राज, सं. पुं. (सं.) दे. 'पुखराज'। पूछने योग्य, वि., प्रष्टव्य, जिशासितव्य, अनु-रेणु, सं. पु. (सं.) परागः, पुष्पधूलिः (स्त्री.)। योक्तव्य । -वाटिका, सं. स्त्री. (सं.) पुष्प-कुसुम, वाटी- | पूछनेवाला, सं. पुं. प्रष्ट्र, अनुयोक्त, जिज्ञासुः । उचानम् । | पूछा हुआ, वि., पृष्ट, अनुयुक्त, जिशासित इ. । -वृष्टि, सं. स्त्री. (सं.) पुष्प-कुसुम, आसार:- | बात न-, मु., न आदृ (तु. आ. अ.) न वृष्टिः । संमन् (प्रे.)। पुष्पक, सं. स्त्री. (सं. पुं. न.) कुबेरविमानं पूजक, सं. पुं. (सं.) पूजयित, अर्चकः, उपा२. पुष्पं ३. चक्षुरोगभेदः ४. पितलभस्मन् सकः, आराधकः, भक्तः । (न.)। पूजन, सं. पु. ( सं. न.) पूजा, अभि-, अर्चनं. पुष्पित, वि. (सं.) कुसुनित, कुसुम-पुष्प, ना, अर्चा, आराधनं-ना, सपर्या, उपासन-ना विशिष्ट-युक्त। २. संमाननं, सत्करणं ३. वंदन-ना। पुष्पोद्यान, सं. पु. ( स. न. ) द. पुष्पवाटिका पूजना, क्रि. स. (सं. पूजनं) पूज् (चु.), ('पुष्प' के नीचे)। अभि-, अच् (भ्वा. प. से., चु.), उपास पुष्य, सं. पुं. (सं.) सिध्यः, तिष्यः, ( अष्टम (अ. आ. से.), आराध (स्वा. प. अ), नक्षत्रं ) २. पौषमासः। भज (भ्वा. उ. अ.) २. संमन् (प्रे.), आदृ पुस्तक, सं. पु. ( सं. पुं. न.) ग्रंथः, पुस्तं-ती। (तु. आ. अ.) ३. वंद् ( भ्वा. आ. से.), पुस्तकालय, सं. पुं. (सं.) ग्रंथ,-आलयः नमस्यति (ना. धा.)४. उत्कोचं दा। सं. पुं., अगार-शाला। दे. 'पूजन'। पूंछ, सं. स्त्री. ( सं. पुच्छ:-च्छं) लांगू(गु)लं, | पूजनीय, वि. ( सं.) दे. 'पूज्य'। लूमं; ( बालोंवाली पूँछ ) बालधिः, बालहस्तः पूजा, सं. स्त्री. (सं.) दे. 'पूजन'। २. पृष्ठ-पश्चाद्-भागः ३. दे. पिछलगा। पूजार्ह, वि. (सं.) दे. 'पूज्य' । पूँजी, सं. स्त्री. (सं. पुंज:>) मूल,-द्रव्यं-धनं, पूजने योग्य, वि., दे. 'पूज्य' । मूलं २.संचितसंपत्तिः (स्त्री.) धन,-पुंजः-राशिः। पूजनेवाला, सं. पुं., दे. 'पूजक' । -पति, सं. पुं, द्रव्यवत्, धनिकः, कोटीश्वरः, पूजा हुआ, वि., दे. 'पूजित'। धनाढ्यः। पूआ, सं. पुं. ( सं. पूयः ) अपूपः, पिष्टकः। पूजित, वि. ( सं.) अभिः, अचिंत, आराधित, पूग, सं. पुं. (सं.) गु(गू)वाकः, क्रमुः, क्रमुकः । उपासित २. संमानित, आदृत, सत्कृत २. समुदायः, समूहः ३. (सं. न.) क्रमुक- ३. वंदित, नमस्कृत। पूज्य, वि. (सं.) पूजनीय, पूजयितव्य, पूजार्ह, गु(गू) वाक, फलम्। -फल, पूगीफल, सं. पु., (सं. पूगफलं) पूर्ग, | अभि-अर्चनीय, आराधनीय, भजनीय चिक्का-कण-कणा, उद्वेगम् । २. आदरणीय, माननीय, सत्कार्य, वंदनीय। पूछ, सं. स्त्री. (हिं. पूछना) पृच्छा, प्रच्छना, | --पाद, वि. (सं.) परम-अत्यंत,-पूजनीयअनुयोगः, प्रश्नः, जिज्ञासा २. आदरः,संमानः, | आराध्य । प्रतिष्ठा ३. आवश्यकता, प्रयोजनं ४. अन्वेषणं--पूजा, सं. स्त्री. (सं.) सत्कार्यसत्कारः. णा, गवेषणं-णा। अर्चनीय पूजनीय, वन्दना-समादरः। पुड़ा, सं. पुं. (सं. पूपः ) अपूपः, पिष्टकः । गाछ, -ताछ, । सं. स्त्री., दे. 'पूछ'(१)। पूड़ी, सं. स्त्री.. दे. 'पूरी' । -पाछ, पूत, वि. (सं.) दे. 'पवित्र'। पूछना, क्रि. स. (सं. पृ(प्र)च्छनं ) प्रच्छ् | पूत, सं. पुं., दे. 'पुत्र' । (तु. प. अ.), प्रश्नयति (ना.धा.),अनुयुज् पूतड़ा, सं. पुं. (हिं. पूत) शिशु-बालक, (रु. आ. अ.) २, आइ (तु. आ. अ.)। आस्तरः-विस्तरः। For Private And Personal Use Only Page #420 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पूतना [ ३८२ ] - ( ड़ों ) का अमीर, मु. परंपरागत क्रमा | गत परं परीण, धनिकः धनाढ्यः । पूतना, सं. स्त्री. (सं.) राक्षसीविशेष: २ बालरोगभेदः । पूति, सं. स्त्री. (सं.) दे. 'पवित्रता' । पूनी, सं. स्त्री. (सं. पू>) पिंजिका, तूल, नालिका वर्त्तिका । पूप, सं. पुं. (सं.) अपूपः पिष्टकः । पूर, सं. पुं. ( सं . ) जल- विप्लव:- बृहणं २. व्रणसंशुद्धि: (स्त्री.) । पूरक, वि. (सं.) पूरयित्, पूरणकर्तृ २. खैलिक, परिशिष्टात्मक । सं. पुं., बीजपूर:, मातुलुंगः, सुफल: २. गुणकांकः ( गणित ) ३. प्राणा. यामभेद: । पूरण, सं. पुं. (सं. न. ) भरणं, निचयनं, सकुलीकरणं, व्यापनं २ निर्वर्तनं, निष्पादनं, समापनं, संपादनं ३. अंकगुणनम् । वि. पूरक, पूरयितृ । पूरना, क्रि. स. ( सं. पूरणं ) पूर् ( चु. ) पृ-भू ( जु. उ. अ.) २. आच्छद ( चु. ) ३. संपद्साधू (प्रे.) ४. ध्मा (भ्वा. प. अ.), (वायुना) पूर् ( 7 ) ५. दे. 'बटना' । पूरब, सं. पुं., दे. 'पूर्व' । पूरबी, वि., दे. 'पूर्वी' । पूरा, वि. (सं. पूर्ण ) पूरित, व्याप्त, संकीर्ण, आसं-समा, कुल, आविष्ट, निचित, संभृत २. समग्र, समस्त, सकल, ३. अविकल, निर्दोष ४. यथेष्ट, पर्याप्त ५. संपन्न, संपादित, कृत । -करना, क्रि. स., समाप् ( स्वा. उ. अ. ) निर्वृत् ( प्रे. ), निःशिष् ( प्रे.), अंतं गम् (प्रे.), संपूर ( चु. ) । — होना, क्रि. अ., समाप् ( कर्म. ), अंतं गम् (भ्वा. प. अ. ), निःशेषी भू., संपद् ( दि. आ. अ.) । -उतरना, मु., यथोचितं वृत् ( भ्वा. आ. से. ) २. सफली भू । — होना, मु., स्वर्ग दिवं गम, मृ (तु.आ.अ.) । पूरित, वि. (सं.) दे. 'पूरा' (१) । २. तृप्त, तुष्ट ३. गुणित, आ-नि, हत | पूरी, सं. स्त्री. (सं.) पू (पो )लिका, पूपिका । खस्ता - शष्कुली । पूर्ण, वि. (सं.) दे. 'पूरा' (१-५) । काम, वि. (सं.) आप्तकाम, सफलमनोरथ २. निष्काम, अकाम, निरिच्छ । चंद्र, सं. पुं. ( सं . ) पूर्णेन्दुः । - विराम, सं. पुं. (सं.) वाक्यपूर्णताचिह्नम् । पूर्णतया, क्रि.वि. ( सं .) अशेषत:, सर्वथा, साकल्येन, सामग्र्येण, सामस्त्येन, पूर्णतः, निरवशेषम् । पूर्णता, सं. स्त्री. ( सं . ) समग्रता, साकल्यं २. सिद्धि:, समाप्तिः (स्त्री.) ३. अविकलता, निर्दोषता ४. पूरितत्वं संभृतता । पूर्णमासी, सं. स्त्री. ( सं. ) दे. ‘पूर्णिमा' । पुर्णाहुति, सं. स्त्री. (सं.) यागांताहुति: (स्त्री.) २. अनुष्ठानावसानकृत्यम् । पूर्णिमा, सं. स्त्री. (सं.) पूर्णमा, पौर्णमासी, राका, पित्र्या, चांद्री, सिता, इंदुमती, ज्योत्स्नी । पूर्त्त, सं. पुं. ( सं. न. ) पालनं २. वापी-कूपतटाकादिनिर्माणम् । पूर्ति, सं. स्त्री. ( सं . ) ( आरब्धस्य ) समाप्ति:निर्वृत्तिः- सिद्धि:-निष्पत्तिः (स्त्री.) २. पूर्णता, समग्रता ३. पूरणं ४ गुणनं ५. अपेक्षितद्रव्योपस्थापनम् । पूर्व, सं. पुं. (सं. पूर्वा) प्राची, पूर्व दिशा-दिश (स्त्री.)- आशा, ऐंद्री २. पूर्वदेशः, पौरस्त्यजनपद: । वि., अग्रग, पूर्वग, अग्र-पूर्व, गामिन् वर्तिन २. पुराण, प्राचीन ३. दे. 'पिछला' । क्रि. वि., प्राक्, अर्वाक् ( दोनों अव्य. ) । - काय, सं. पुं. ( सं . ) ( पशूनां ) देहायभागः २. ( नराणां ) देहोर्ध्वभागः । —काल, सं. पुं (सं.) प्राक- पूर्व-प्राचीन, समयः कालः- बेला । -कालिक, वि. (सं.) पुराग, प्राचीन, प्राकूकालीन, पुरातन, प्राक्तन । कालीन, वि - कृत, वि. (सं.) प्राग्विहित २. पूर्वजन्मकृत | - जन्म, संपुं. [ सं . - जन्मन् (न.)] प्राग्जनि: (स्त्री.) । - दिशा, सं. स्त्री. (सं.) दे. 'पूर्व' सं. पुं. (१) । - पक्ष, सं. पुं. (सं.) शास्त्रीय, प्रश्न: - शंका, चोद्यं, देश्यं, फक्किका २. कृष्णपक्षः ३. दे. 'पूर्ववाद : ' । - पक्षी, सं. पुं. (सं. क्षिन) वादिन, सिद्धांतविरोधिन् । For Private And Personal Use Only Page #421 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पूर्वज -मीमांसा, सं. स्त्री. (सं.) जैमिनिमुनिप्रणीतदर्शनग्रंथविशेषः । -वत्, कि वि. (सं.) यथा पूर्व, पूर्वसदृशम् । -वर्ती, वि. (सं. तिन) प्राग्वर्तिन, पूर्व-अग्र, गामिन् । [ ३८३ ] —-वाद, सं. पुं. ( सं.) भाषा, भाषापादः, पूर्व, पक्षः, प्रतिशा, अभियोगः, दे 'नालिश' । —-वादी, सं. पुं. (सं.-दिन् ) अभियोक्तृ, अर्थिन्, वादिन, शिरोवर्तिन, दे. 'मुद्दई' | पूर्वज, सं. पुं. (सं) पूर्व पुरुषाः, पितरः ( बहु. ) २. अग्रजः, ज्यायान् भ्रातृ । वि. प्रागुत्पन्न । पूर्वतः, अव्य. ( सं . ) प्रथमं, प्रथमतः २. पुरतः, अग्रतः ( सब अव्य. ) । पूर्वतन, वि. (सं.) पुरातन, प्राचीन, प्रतन, प्रत्न । पूर्वापर, वि. (सं.) अग्रिमपश्चिम, पूर्वपरवर्तिन् । सं. पुं प्राचीनप्रतीच्यौ ( द्वि.) २. हानिलाभौ (द्वि.) । पूर्वाभिमुख, (वि. सं.) प्राङमुख ( -खी स्त्री. ) । पूर्वाद्ध, सं. पुं. (सं.) त्रिधा विभक्तदिवसस्य प्रथमभागः, प्रातः प्रातरतः । पूर्वी, वि. (सं. पूर्वीय) प्राच्य, पौरस्त्य, पूर्वदेशीय, पूर्वदिक्स्थ, प्राच् [ ची (स्त्री.) ] । सं. स्त्री, पूर्वीयभाषाविशेषः २. रागिणीभेदः । पूर्वीय, वि. (सं.) दे. 'पूर्वी' वि. । धूला, सं. पुं. (सं. पूल: ) पूलक: । पूष, पूस, सं. पुं., दे. 'पौष' । पृथक्, वि. ( सं . ) भिन्न, व्यतिरिक्त, विश्लिष्ट, विभक्त, असंलग्न । अव्य, विना, ऋते, अंतरेण ( सब अव्य.) । — पृथक्, अव्य., वि, विभिन्नम् । पृथक्ता, सं. स्त्री. (सं.) पृथक्त्वं पृथग्भाव:, पार्थक्यं, भिन्नता, विश्लेषः, विभेदः । पृथा, सं. स्त्री. ( सं ) कुन्ती, पाण्डुपत्नी, युधिष्ठरादिजननी | पेचक -तल, सं. पुं. (सं. न. ) भू-धरणी, -तलं २. संसारः । - तनय, सं. पुं. (सं.) युधिष्ठिरः, भीमः, अर्जुन:, ( प्राय: अर्जुनः, पार्थ: ) । -पति, सं. पुं. (सं.) पाण्डुनृपः, कुन्तीपतिः । पृथिवी, सं. स्त्री. (सं.) पृथ्वी, पृथिवि : (स्त्री.), क्षिति:- भू:- भूमि : (स्त्री.), धरा, धरित्री, क्षोणी, वसुधा, वसुमती, वसुंधरा, अवनी-नि: (स्त्री.), मेदिनी, धरणी- णि: (स्त्री.), मही-हि: (स्त्री.), अचलकीला, अचला, स्थिरा, इड़ा । - नाथ, सं. पुं. (सं.) भू - पतिः - पाल: । पृथु, वि. (सं.) विस्तीर्ण, विस्तृत, विशाल, २. बहु, प्रभूत ३. विशिष्ट । कीर्ति, वि. ( सं . ) अतियशस्विन् । स्त्री, वसुदेवभगिनी । सं. दर्शी, वि., ( सं . ) दूरदर्शिन, प्राज्ञ । - लोचन, वि., विशाल, नेत्र - नयन । - शेखर, सं. पुं., ( सं . ) गिरिः, पर्वतः । स्कंध, सं. पुं. ( सं. ) शूकरः, कोलः । पृष्ट, वि. ( सं .) अनुयुक्त, प्रश्नित, जिज्ञासित । पृष्ट, सं. पुं. (सं. न. ) दे. 'पीठ" ( १-२ ) । २. पुस्तक, पत्र- पर्ण ३. पुस्तकपृष्ठम् । - पोषक, सं. पुं. (सं.) सहाय:-यकः, उपकर्तृ । पेंग, सं. स्त्री. (सं. प्रेखा > ) दोलनं, प्रेखणं, दोलागति: (स्त्री.) । - चढ़ाना या बढ़ाना, मु., सवेगं ख् (प्र.), उच्चैः खोलयति ( ना. धा. ) । पेंदा, सं. पुं. (सं. पिंड:-डं>) तलं, अधोभागः, बुधनः । पेंसिल, सं. स्त्री. ( अं. ) अङ्कनी, स्वयंलेखनी, वर्णिका, वर्णमातृ ( स्त्री . ) । पेच, सं. पुं. (फ़ा.) व्यावर्तनं, मोटनं, आकुंचनं २. विघ्नः, विघातः- प्रत्यूहः ३. धूर्तता, शास्य' ४. उष्णीष- व्यावर्तनं ५. यंत्र ६. यंत्रावयवः ७. वलयर्कीलकः ८. पतंगसूत्रसंग्रथनं ९. ( मल्लयुद्धादीनां ) कपटोपायः, युक्तिः (स्त्री.) १०. उष्णीषादेरलंकारः ११. दे. 'पेचिश' । - कश, सं. पुं. ( फा . ) *वलयकी कर्षः २. *पिधा नकर्षः । - खाना, क्रि. अ., मंडली-वर्तुली भू । - डालना, क्रि. स., पतंगसूत्राणि मिधः संश्लिष् ( प्रे. ) । -ताव, सं. पुं. ( फा . ) अंत:, - कोप: क्रोध: । -दार, वि. ( फ़ा. ) आंकुचित, व्यावर्तित २. गहन, कठिन, दुर्बोध ३. संश्लिष्ट, संग्रथित । पड़ना, क्रि. अ., पतंगसूत्राणि परस्परं संश्लिष् (दि. प. अ.) । बान, सं. पुं. ( फा ) बृहद्धूमपानयन्त्रं २. धूमपानयन्त्रस्य बृहन्नाली । पेचक, सं. स्त्री. (फ़ा) सूत्र-तन्तु, गोल:-गोलम् । For Private And Personal Use Only Page #422 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पेलना - से पाँव निकालना, मु. सज्जनः कुमार्गे प्रवृत् (भ्वा. आ. से. ) । पेचीदगी, सं. स्त्री. ( फा . ) कौटिल्यं, वक्रत्वं पेटा, सं. पुं. (हिं. पेट ) मध्यं, मध्यभागः २. २. दुर्बोधता, क्लिष्टत्वं, गहनत्वम् । विस्तृत विवरण ३. दे. 'पिटारा' ४. सीमा ५. परिधिः ६. सरित्प्रवाहमार्गः ७ नदी विस्तारः ८. पचं ९. पतंगसूत्रशिथिलभागः । पेटी', सं. स्त्री. (सं.) पेटिका, लघु-पेट: पेटपेटा, मंजूषा, समुद्गकः २. नापितकोशः षः । पेटी, सं. स्त्री. (हिं. पेट ) कटि-सूत्र- बंध:, मेखला, कांची २. बुल्बुलकटिसूत्रम् । पेटीकोट, सं. पुं. ( अं.) चोटी, पटवासः । पेटू, वि. (हिं. पेट ) औदरिक, उदरं कुक्षिं.भरि, अमर, घस्मर । पेचिश पेचिश, सं. स्त्री. ( फा . ) प्रवाहिका, आमरक्तम् २. उदरवेदनाभेदः । पेचीदा, वि. (फ़ा. ) पेचीला, वि. (फ़ा. पेच ) [ ३८४ ] } दे. ‘पेचदार’। पेज, सं. पुं (अं.) पुस्तक, पृष्ठम् । पेट, सं. पुं, (सं. पेटः>> ) उदरः, जठरः- रं, कुक्षिः, फंड:, मलुकः २. गर्भः ३. आमाशयः ४. अन्तःकरणं ५. अवकाशः ६. विस्तार: ७. जीवनं प्राणधारणम् । -काटना, मु., धनसंचयाय अल्पं खाद् (भ्वा. प.से.) । —-का धंधा, मु., जीवनोपायः, आजीविका पेटून, सं. पुं. ( अं. ) संरक्षकः दे. । साधनम् । - का पर्दा, मु., अंत्रावरणम् । -का हलका, मु., क्षुद्रप्रकृति, तुच्छ, प्राकृत । -की आग, मु., क्षुधा, बुभुक्षा । -की आग बुझाना, मु., क्षुधां निवृत् (प्र.)। — गिरना, मु., गर्भः पत् (भ्वा. प. से. ) -खु (भ्वा. प. अ.) । — गुड़गुड़ाना या बोलना, मु., कर्दनं जन् (दि. आ. से. ) कद् (भ्वा.प.से.) । - दिखाना, मु., निजदारिद्र थं प्रकटयति (ना. (धा.) । - पालना, मु., कृच्छ्र ेण जीव् (भ्वा. प. से.), यथाकथंचित् उदरं प ( जु. प. से. ) । - पीठ एक होना, मु. अत्यंत क्षि (भ्वा. प. अ. ) - कुशीभू । | - फटना, मु., अधीर (वि.) भू, धैर्ये मुच् ( तु. प. अ. ) । — फूलना, मु., हासातिशयेन उदरं स्फाय (भ्वा. आ. से. ) स्वि (भ्वा. प. से. ) । -भर, मु., उदरपूर्ति यावत् २. यथेष्टम् । - भरना, मु., सं-परि-तुष् ( दि. प. अ. ), परि-,तृप् (दि. प. अ.) २. उदरं पूर (कर्म.) । -में चूहे कूदना या दौड़ना, मु., नितरां क्षु (दि. प. अ.), अत्यन्तं अशनायति (ना. धा.) । रहना, मु. गर्भं धृ ( चु.), अन्तर्वत्नी से होना, } भू । वाली, मु., गर्भिणी, गर्भवती, अन्तर्वत्नी । पेटेंट, वि. (अं.) विशिष्टाधिकाररक्षिता नवरचना | पेट्रोल, सं. पुं. ( अं. ) * प्रस्तरतैलम् । पेठा, सं. पुं. (देश. ) ( सफ़ ेद ) पीतपुष्पं, कुष्मांड, पीतपुष्षं, पुष्प - बृहत् फलं ( पीला पेड़, सं. पुं. ( सं. पिंड:-डं> ) दे. 'वृक्ष' । पेठा दे. 'कुम्हड़ा' ) । पेड़ा, सं. पुं. (सं. पिंड : ) किलाटपिंड:-डं २. आर्द्रचूर्ण पिंडः । पेड़ी, सं. स्त्री. (हिं. पेड़ ) तरु,-स्कन्धःप्रकांड: २. कबन्धः ३. नागवल्लीदलभेद: ४. सकृल्लूनो नीलीक्षुपः । पेड़, सं. पुं. (हिं. पेट ) वस्ति: ( पुं. स्त्री. ) २. गर्भाशयः । पेदड़ी, सं. स्त्री. दे. 'पिद्दी' । पेन्शन, सं. स्त्री. ( अं.) वार्ड क्य - पूर्व सेवा - वृत्तिः (स्त्री.) । पेन्शनर, सं. पुं. ( अं.) पूर्व सेवावृत्तिभोजिन् । पेन्सिल, सं. स्त्री. (अं. ) दे. 'पेंसिल' । पेपर, सं. पुं. (अं) पत्रं, दे. ‘काग़ज़' २. लेखः, लेख्यपत्रं ३. वृत्त-समाचार-पत्रम् | पेय, वि. (सं.) पानीय, पानार्ह, धेय । सं. पुं., पानीयपदार्थः २. जलं ३. दुग्धम् । पेयूस, सं. पुं. (सं. पे(पी)यूष:-षं ) सप्तर त्रप्रसूतायाः गोः क्षीरं २. अमृतं ३. अभिनवघृतम् । पेरना, क्रि. स. ( सं. पीडनं ) ( रसतैलादिकं ) निष्पीड ( चु.), निष्कृषु (भ्वा. प. अ. ) २. नितरां पीड् (चु.)-अद् (भ्व'. प. से. ) । पेलना, क्रि. स. (सं. पीडनं ) सहसा निविश् For Private And Personal Use Only Page #423 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पेलवाना [३८] (प्रे.) बलात् अंतः प्रविश (प्रे.) २. ( हस्ता- । -जल कर आना, सं. पुं., मूत्रकृच्छ्रम् । दिकेन ) प्र-वि-चल (प्रे.), प्रणुद,प्रवृत् (प्रे.)| -रुकना, सं. पुं., मूत्र,-रोधः स्तम्भः । ३. उपेक्ष् ( भ्वा. आ. से.) अवगण (चु.) | पेशावर,' सं. पुं. (फा.) व्यवसायिन्, ४. त्यज् ( भ्वा. प. अ.), प्रास् (दि. प. | उपजीविन्। से.) ५. बलं प्रयुज् (रु. आ. अ.) ६.-७. | पेशावर, सं. पुं. (फा. पेश+आवर>) दे. पेरना (१-२)। पुरुषपुरम् । पेलवाना, क्रि. प्रे., ब. 'पेलना' के प्रे. रूप। | पेशी', सं. स्त्री. (फा.) व्यवहारदर्शनं, विचारः पेला, सं. पुं. (हिं. पेलना ) कलहः, वाग्युद्धं | २. उप-पुरः,स्थान-स्थिति:(स्त्री.), *पुरोभावः । २. अपराधः, दोष: ३. आक्रमणं ४. ( बलात् )| पेशी,' सं. स्त्री.(सं.) (देहस्था) मांस, पिंडीअपसारण-संचालनम् । ग्रन्थिः (पुं.) २. वज्रं ३. अंड:-डं ४. असिपेश, क्रि. वि. (का.) अग्रे, पुरः, पुरतः, कोशः-षः ५. गर्भावेष्टनचर्ममयकोषः । संमुखं ( सब अव्य.)। | पेशीनगोई, सं. स्त्री. (फा.) भविष्यद्वादः, -आना, मु., व्यवह ( भ्वा. प. अ.), आचर् | अनागतकथनम् । (भ्वा. प. से.) २.घट्-वृत् (भ्वा. आ. से.)। पेषण, सं. पं. (सं.न.) चर्णनं, मर्दनं, खंडनम् । करना, मु., पुरतः स्था (प्रे. स्थापयति) पेषणी, सं. स्त्री. (सं.) पेषणशिला, पेषणिः दृश (प्रे.) २. उपहृ (भ्वा. प. अ.), ऋ (स्त्री.), पट्टः, गृहाश्मन् (पुं.)। (प्रे. अर्पयति )। | पैंजन-नी, सं. स्त्री. (हिं. पायँ + अनु. झन>) -चलना या जाना, मु., प्रभुत्वं वृत् । पादांगदं, नूपुरः-रं, मंजीरः-रम् । -होना, मु., उपस्था ( भ्वा. आ. अ.), पुरतः पैंठ, सं. स्त्री. ( सं. पठ्यस्थानं) दे. 'बाजार' स्था ( भ्वा. प. अ.)। २. दे. 'दुकान'। पेशगी, सं. स्त्री. (फ़ा.) प्राग्दत्तमूल्यं,* अग्रार्घः ।। पैंड, सं. पु. ( सं. पाददंड:> ) पादन्यासः, पेश (प, स) ला, वि. (सं.) सुकुमार, चरणपातः, क्रमणं २. पर्द, क्रमः ३. मार्गः । मृदु, मृदुल २. तनु, क्षीण ३. सुन्दर, मनोज्ञ पैंडा, सं. पु. (हिं. पेंड ) मार्गः, पथः, पथिन् ४. विज्ञ, दक्ष ५. छलिन्, मायिन् । पेशवा, सं. पु. ( फा.) नेतृ, नायकः, अग्रणीः | २. मंदुरा, वाजिशाला ३. रीतिः (स्त्री.), प्रणाली। २. पुरोहितः ३. महाराष्ट्रामात्योपाधिः। पताना, सं. पुं. (हिं. पायँ) खटवायाः पेशवाई, सं. स्त्री. ( फ़ा. ) प्रत्युद्गमनं, दे. | पदधानं, *पदतानः। अगवानी २. नेतृत्वम् । . | पैंतालीस, वि. [सं. पंचचत्वारिंशत् (नित्य पेशा, सं. पु. ( का.) व्यवसायः, उपजीविका, स्त्री.)]। सं. पुं., उक्ता संख्या, तदंको वृत्तिः ( स्त्री.)। (४५) च। -कमाना वा करना, मु., वेश्यावृत्त्या पतीस, वि. [ सं. पंचत्रिंशत् ( नित्य स्त्री.)]। निर्वाहं कृ। सं. पुं, उक्ता संख्या, तदंकी (३५) च । पेशानी, सं. रो. ( फा.) मस्तक .. भाग्यं पर ठ, वि. [ सं. पंचपष्टिः ( नित्य स्वी.)।] ३. अग्रभागः । -पर बल आना वा पड़ना, मु., क्रुध् (दि. प. सं. पुं., उक्ता संख्या, तदंकी (६५) च ।। अ.), कुप्-रुप (दि. प. से.)। | पं', अव्य. (सं. परं) परंतु, किंतु, परं २. अनंपेशाब, सं. पुं. (फ़ा., मि० सं. प्रस्राव:)मूत्रम् ।। तरं, तदनु ३. निश्चयेन, अवश्यम् । की अधिकता, सं. स्त्री., मूत्र.-मेहः- जा-, यदि । आधिक्यम् । तो--, तदा। -खाना, सं. पुं. (ना.) मूत्रालयः, मेहनशाला, पै२, अन्य. ( हिं. पास वा सं. प्रति ) समीपं-पे, प्रत्रावागारम् । | निकट-टे २. प्रति, दिशि। For Private And Personal Use Only Page #424 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [ ३८६ ] पोटला पै, प्रत्य. ( सं. उपरि ) अधि, प्रायः सप्तमी | पैरवी, सं. स्त्री. (फ्रा.) अनु, गमन-सरणं, विभक्ति से २. द्वारा, प्रायः-तृतीया विभक्ति से । २. आज्ञापालनं ३. पक्ष,-मंडन-समर्थनं ४, पकेट, सं. पुं. ( अं. ) लघुकूर्चः २. पत्रकोशः।। उद्यमः, प्रयत्नः । पंगंबर, सं. मु. ( फा) ईशदूतः, धर्मप्रवर्तकः । परा,, पैराग्राफ, सं. पुं. (अं.) (प्रस्तावादिकस्य) पैगाम, सं. पुं. (फा.) संदेशः, वार्ता। खंडः, भागः, अनु-परि, छेदः। पैठ, सं. स्त्री. ( सं. प्रविष्ट>) प्रवेशः, प्रविष्टिः पैराक, सं. पुं., दे. 'तैराक' ।। ( स्त्री.) २. गतिः-प्राप्तिः (स्त्री.), गतागतम् । पैराव, सं. पुं., दे. 'डुबाव' । पैड, सं. पुं. ( अं.) पत्राली । पैराशूट, सं. पु. (अं.)*डयन-वं, परिष्यूतम् । पैडी, सं. स्त्री. ( हिं. पैर ) दे. 'सीढ़ी'। | पैरोकार, सं. पुं. (फा. पैरवीकार ) अनु.. पैंतरा, सं. पुं. (सं. पदांतरं>) युद्धे पादन्यास- यायिन-गामिन् २. पक्षसमर्थकः, सहायकः। प्रकारः। परोल, सं. पुं. (अं.) प्रतिज्ञा, संगरः । -बदलना, मु., पादन्यासं परिवृत् (प्रे.)। । -पर, वि., प्रतिज्ञा-संगर, बद्ध । पैतृक, वि. (सं.) पितृ, संबंधिन्-विषयक, पित्र्य, पैवंद, सं. पुं. (फ़ा.) पटखंडः-डं, ग्रथितपैत्र [ पैतृकी, पैत्री, (स्त्री.)] | शकल:-लं २. वृक्षांतरनिवेशितः, प्ररोहः-शाखा, पैत्त, वि. (सं.) पैत्तिक, पित्तप्रकोपज, पित्त, दे. 'कलम'। जनित-उद्भूत। - लगाना, क्रि. स., वृक्षांतरे निविश (प्रे.) पैत्तल, वि. (सं.) पीतलक-पीतक-पित्तल, २. पटखंडैः सिव (दि. प. से.)-संधा मय-निर्मित-सम्बधिन् । (जु. उ. अ.)। पत्र, वि. (सं.) दे० 'पैतृक' ।। | पेवंदी, वि. (फा.) दे. 'कलमी' । पैदल, क्रि. वि. (सं. पादः>) पादचारी भूत्वा, पैशाचिक. वि. (सं.) पैशाच, आसुर, भौत पदभ्यामेव. यानं विना। वि, पाद-चारिन- २.घोर. वीभत्म. कर, निदेय । गामिन् । सं. पुं., पदिकः, पादगः, पादगामिन, पैशाची. सं. स्त्री. (सं.) प्राकृतभाषाविशेषः। पदातः-तिः, पदातिकः, पद्गः, पत्तिः, पद्रथः | पैशन्य. सं. पं. (सं. न.) दे. 'पिशुनता'। २. पत्त यः, पदातयः, पदातिकाः (सब. बहु.)। पैसा, सं. पुं. ( सं. पणांशः>) पणः, पणकः पैदा, वि. ( फा. ) जात, उत्पन्न २. प्रकटित, २. धनं, वित्तम् ।। __ आविभूत ३. अजित, प्राप्त । पैसेवाला, मु., धनिक, धनाढ्य २. पणाघ । पैदाइश, सं. स्त्री. (फा.) उत्पत्तिः (स्त्री.), पोंगा, सं. पं. (सं. पुटकः > ) कीचकपर्वन् जन्मन् (न.)। (न.), अन्तःशून्यवेणुनाली। वि., शून्यगर्भ, पैदाइशी, वि. (फा.) सहज, औत्पत्तिक · शून्योदर २. जड, अज्ञ। २. स्वाभाविक, प्राकृतिक, नैसर्गिक । पोंगी, सं. स्त्री. (हिं. पोंगा ) दे. 'बाँसुरी'। पैदावार, सं. स्त्री. (फा.) कृषिपालं, शस्यं | पोंछना, क्रि. स. (सं. पोंछनं ) पोंछ (भ्वा. २. आयः, अर्थागमः। प. से.), मृञ् ( अ. प. से.; चु.), निवृष्य ना, वि. ( सं. पैण्> ) तीक्ष्ण, निशि(शा)त, शुध् (प्रे.), निघृष् ( भ्या. प. से.) । सं. पुं., तेजित, क्ष्णुत । सं. पुं., कृषाण, तोत्रं-वेणुकम् । प्रोटन, मार्जनं, निर्घर्षणम् । पैमाइश, सं. स्त्री. ( फा. ) मानं, प्र-परि-माणं, | पोंछने योग्य, वि., प्रोंछनीय, निघृष्य, मापनम् । शोधनीय। -करना, कि. स., दे. 'मापना' । -बाला, सं. पुं., प्रोंछकः, मार्जकः । माना, सं. पुं. (फा.) मानं, मान, दंड:-सूत्रं | पोंछा हआ, वि.,प्रोंछित, निवृष्य, शोधित । इ., प्र-परिमाणम् । पोखर-रा, सं. पुं. (सं. पुष्करः ) दे. 'ताताव' । पैर, सं. पुं., दे. 'पाँव'। | पोट, सं. स्त्री. (सं. पोट:> ) पोट्टली-लिका -गाड़ी, सं. स्त्री., द्विचक्री-क्रिका, पादयानम् ।। २. राशिः। पैरना, क्रि. अ. (सं. प्लवनं) दे. 'तैरना'। पोटला, सं: पुं. (हिं. पोटली) कूर्च:-चे,भारः। For Private And Personal Use Only Page #425 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पोटली [३८] पौंड पोटली, सं. स्त्री. (सं. पोट्टली ) पोट्टलिका, पोर में, क्रि. वि., पर्वणि पर्वणि, सर्वपर्वसु । पोरी, सं. स्त्री. (हिं. पोर ) दे. 'पोर' ( ३ ) | पोल, सं. पुं. (हिं. पोला ) अवकाशः, शून्यस्थानं २. सारहीनता, निस्सारता, शून्यगर्भता, निर्गुणता, अनर्घता । लघु-कूर्च:-भारः । पोटा, सं. पुं. (सं. पुट: > ) उदर, जठरं, उदराशयः २. साहस, शौर्य ३. सामर्थ्य ४. अंगुल्ययं ५. अंगुलीपर्वन् (न.) । पोटाशियम, स. पुं. ( अं. ) दहातु (न.), पोटाशम् । पोत, सं. पुं. (सं.) पोथः, पोहित्थं, प्रवहणं, होट : महानौका २. शाव:- वकः, अर्भकः, पोतकः, पृथुकः, डिंभः ३ वस्त्रं ४. दश वर्षो गजः । पोतड़ा-रा, सं. पुं. (हिं. पोतना ) *पोतनः ( शिशुमल - ) *प्रोछनः । पोतना, क्रि. स. (सं. पोतनं> ) मृत्तिकादिभिः ) लिए ( तु. प. अ. ) ( रु. प. से. ) दिह् (अ. उ. अ. ) । लेपनवस्त्रम् । ( सुधा२. अंज् सं. पुं., पोता', सं. पुं. (सं. पौत्रः ) पुत्रपुत्रः नष्तृ । घर--, सं. पुं. (सं. प्रपौत्रः) पुत्रपौत्रः, पौत्रपुत्रः । योता, सं. पुं. (हिं. पोतना ) लेपनवस्त्रं २. लेपनकूर्ची-चिका ३. ( लेपनाय ) आईमृत्तिका । | - फेरना, मु., सर्वस्वं लुंठ् ( चु. ) २. सुधा मृत्तिकादिभि: लिप् (तु. प. अ. ) । पोताई, सं. स्त्री. दे. 'पुताई' | पोती, सं. स्त्री. (सं. पौत्री ) पुत्रपुत्री, नप्त्री | पर — सं. स्त्री. (सं. प्रपौत्री) पुत्रपौत्री, पौत्र पुत्री । पोल्या, सं. स्त्री. ( सं . ) पोतसमूह:, नौकापंक्तिः (स्त्री.) । पोथा, सं. पु. ( सं . पुस्तकः) बृहत् पुस्तकं ग्रंथः । पोथी, सं, स्त्री. (सं. पुस्तो) पुस्तकं, ग्रंथः । पोदीना, सं. पुं., दे. 'पुदीना' । पोना, क्रि. स., (हिं. पूआ + ना ) उन्नचूर्णेन रोटिकां रच् ( चु.) २. रोटिकां पच् (भ्वा. प. अ. ) ३. दे. 'पिरोना' । पोप, सं. पुं. ( अं.) रोमीयधर्म, -अध्यक्षःअधिपतिः । लीला,सं.स्त्री.(अं. + सं . ) धर्माडम्बरविस्तारः । पोपला, वि. (हिं. पुलपुला ) दंत-दशन रदन,विहीन- रहित । पोर, सं. स्त्री. [ सं . पर्वन् (न.)] अंगुली, ग्रंथि:-संधि:-पर्वन् २. अंगुलीग्रंथ्यो: मध्यभागः, पर्वन् ३. वंशेक्ष्वादिग्रंथ्योर्मध्यभागः, पर्वन् । खुलना, मु., पापं प्रकटीभू, दोष: विवृ ( कर्म.) । पोला, वि. (सं. पोल: > ) अंतः शून्य, रिक्तशून्य, मध्य- गर्भ-उदर २. निस्सार, तत्त्वहीन ३. दे. 'पुलपुला' [ पोली (स्त्री.) ] । पोलिटिकल, वि. ( अं. ) राजनीतिक, राजशासन, विषयक | एजंट, सं. पुं. (अं.) राजनीतिकप्रतिनिधिः । पोलो, सं. पुं. ( अं.) दे. 'चौगान' । पोशाक, सं. स्त्री. ( फा. पोश ) वेशः कः, परिधानं, वसनानि (बहु. ) । पोशीदा, विं. ( फा . ) गुप्त, प्रच्छन्न । पोषक, वि. (सं.) पालकः, पालयिट, पोषयित्नु, संवर्द्धक, पोष्ट २. सहायक पोषण, सं. पुं. (सं. न.) पालनं, भरणं, संवर्द्धनं २. पुष्टि : (स्त्री.) ३. साहाय्यम् । पोषित, वि. ( सं .) पालित, संवर्द्धित । पोष्य, वि. ( सं . ) पालनीय, संवर्द्धनीय । पुत्र, सं. पुं. ( सं . ) दत्तकः । पोसना, क्रि. स. (सं. पोषणं ) दे. 'पालना ( १-२ ) । पोस्ट, सं. स्त्री. ( अं. ) पदं, अधिकारः २. पत्रवाहनसंस्था ३. दे. 'डाक' | -आफिस, सं. पुं. (अं. ) पत्रालयः । कार्ड, सं. पुं. ( अं. ) पत्रम् | -मार्टम, सं. पुं. (अं. ) शवपरीक्षणम् । - मास्टर, सं. पुं. ( अं. ) पत्रालयाध्यक्षः । - मैन, सं. पुं. (अं. ) पत्रवाहकः । पोस्टेज, सं. स्त्री. ( अं. ) पत्र शुल्कम् । पोस्त, सं. पुं. (फ़ा. ) खसतिल खस्खस-फलं २. खस्खसवृक्षकः ३. त्वच् (स्त्री.) ४, वल्कल:लं, वल्क:-कम् | पोस्ती, सं. पुं. ( फा . ) खस्खसफलसेविन् २. अलसः, मंधरः । पोस्तीन, सं. पुं. ( फा . ) *चर्मकंचुकः । पौचा, सं. पुं. (हिं. पांच) सार्द्धपंचगुणनसूची । पौंड, सं. पुं ( अं.) निष्कः, स्वर्णमुद्रा (१) अर्द्धसेर देशीय आंग्लतोलः । For Private And Personal Use Only Page #426 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पौंडा [ ३८८] प्यासा पौंडा, सं. पुं. (सं. पौद्रः) पौंड्रकः । । पौरुषेय, वि. (सं.) पौरुप, मानवाय, मानवइक्षुभेदः। मनुष्य, रचित। पौ,' सं. स्त्री. ( सं. पाद:>) किरणः, रश्मिः, | पौर्णमासी, सं. स्त्री. (सं.) दे. 'पूर्णिमा'। ज्योतिस (न.) अहर्मुखं, उषा।। | पौवा, सं. पुं. (सं. पादः) (सेर-) पाद: -फटना, मु., वि- प्रभातं जन् (दि. आ. से.) | २. पादमानपात्रम् । अरुण: उत् इ (अ, प. अ.)। पौष, सं. पुं. (सं.) तिष्यः, तैषः, पौषिकः, पौ,२ सं. स्त्री. ( सं. पदं> ) अक्षपातभेदः। । हैमनः, सहस्यः । -बारह होना, मु., जि (भ्वा. उ. अ.), पौष्टिक, वि. (सं.) पुष्टि, कर-कारक, बल-वीर्य, २. भाग्यं उत्-इ ( अ. प. अ.)। वर्द्धक। पौडर, सं. पुं. (अं.) क्षोठ: चूर्ण २. पटवासकः, पौसर-ला, पौसाला, सं. स्त्री. (सं. पयःशाला) पिष्टातः। प्रपा, दे. 'सबील'। पौढ़ना, क्रि. अ., दे. 'लेटना'। प्याऊ, सं. पुं. (सं. प्रपा) पयःशाला, पौत्र, सं. पुं. (सं.) दे. 'पोता'। दे. 'सबील'। पौत्री, सं. स्त्री. (सं.) दे. 'पोती'। प्याज़, सं. पुं. (फा.) पलांडुः, मुखदूषणः, पौद, सं. स्त्री. (सं. पोत:>) बालवृक्षः, वृक्षकः, उष्णः, शूद्रप्रियः, कृमिघ्नः, देपनः, बहुपत्रः, २. स्थानांतरे आरोपणीयः उद्भिज्जः ३. संतानः, | रोचनः, मुखगंधकः।। वंशः। प्याज़ी, वि. (का. प्याजः ) पलाण्टुवर्ण । पौदा, पौधा, सं. पु. (सं. पोत:>) क्षुद्रपादपः, | प्यादा, सं. पुं. ( फ़ा.) पादनः, पदगः, पत्तिः, वृक्षकः, उद्भिज्जः, बालतरुः २. क्षुपः, गुल्मः ।। पदातिः २. दृतः, संदेशहरः ३. शारिभेदः । पौन,' वि. (सं. पादोन ) त्रिचतुर्थ, वितुर्य, प्यार, सं. पुं. (हिं. प्यारा ) प्रीतिः ( स्त्री.), त्रिपात् [ पौनी (स्त्री.)] । प्रेमन (पुं. न.), स्नेहः, अनु, रागः, भावः, पौन, सं. पुं. स्त्री. दे. 'पवन'। प्रणयः, अभिनिवेशः २. लालनं, चुम्बनं पौना, सं. पुं. (सं. पादोन ) पादोनगुणनमूची।। आलिंगन इ.। वि , दे. 'पौन'। -करना, क्रि. स., भावं-अनुरागं बंध् ( क. पौने, वि. ( सं. पादोन) दे. 'पीन'। प. अ.), कम् (भ्वा. आ. से.), स्निह (दि, -सोलह आने,मु., प्रायः साकल्येन-लामस्त्येन- प. से., सप्तमी के साथ ) २. लल (च. सामग्रयेण । आलिंग ( भ्वा. प. से.), परिरंभ ( स्वा. पौर, वि. (सं.) नागरिक, पुर-नगर,-संबं. आ. अ.), चुंब ( भ्वा, प. सं.)। धिन्-जात। प्यारा, वि. (सं. प्रिय) दति, वल्लभ, कांत, -कन्या, सं. स्त्री. (सं.) पौर-नागर-पुर- | प्रेमपात्र २. हृद्य, रम्य, मनोज्ञ, रुचिकर, नगर कन्या-कमारी २. नागरी, पौरांगना। रुच्य [प्यारी (स्त्री.)-प्रिया, वल्लभा, दयिता -जन. सं. पं. (सं.) पौरलोकः, नागरः। २. रुचिकरी, हृद्या इ.। नागरिकः, पौरः, पुरः, पुर-नगर, वासिन् । प्याला, सं. पु. (फा.) चपका की, शरावः । -मुख्य, सं. पु. ( सं.) पौर वृद्धः, महापौर प्यालो, सं. स्त्री. (फा.) शरावकः, लघुत्र पकः । -२ ख्य, सं. पु. ( सं. न. ) सहनागरिकता । प्यास, सं. ना. (सं. पिपासा ) तुप (स्त्री.)। पौराणिक, वि. (सं.) पुराणसंबंधिन् २. पुराण, तृष्णा, तृषा, तपः, उदन्या, गुपिका २.लालसा, वेत्त-पाठक २. प्राचीन ३. काल्पनिक। प्रवलेच्छा। पौरिया, सं.पु. (हिं. पौरि ) द्वारपाल:द्वा:स्थः । -बुझाना, मु., तृषां शम् (प.) अपनी पौरी-हि-ली, सं. स्त्री. ( सं. प्रतोली>) (नगर- (भ्वा. प. अ.)। दुर्गादीनां ) द्वारं २. दे. 'ड्योढ़ी' । -लगना, मु., उदन्यति (ना. धा.); पिपासति पौरुष, सं. पुं. (सं. न.) पुरुषत्वं, पुंस्त्वं २. पुरु. ( सन्नंत ), तृष् ( दि. प. से.)। पार्थः, उद्यमः, उद्योग: ३. साहसम्, पराक्रमः। प्यासा, वि. (हिं. प्यास) पिपासु, तृषार्त, वि., पुरुषसंबंधिन्, मानुष, मानव :- .... तृषित, तर्पुल, तर्षित। For Private And Personal Use Only Page #427 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रकंप [ ३८६ ] प्रगल्भता प्रकंप, सं. पुं. (सं.) वेपथुः, राजथु:, दे. | प्रकुपित, वि. (सं.) अति,-कुपित-क्रुद्ध-संरब्ध । 'कॅपकपी'। | प्रकृत, वि. (सं.) वास्तविक-तात्त्विक [ की प्रकट, वि. (सं.) स्पष्ट, व्यक्त, स्फुट, उल्वण- (स्त्री.)] तथ्य, अवितथ, यथार्थ २. सविशेष उद्रिक्त २. आविभूत, दृष्ट। कृत-रचित-विहित । करना, क्रि. स., प्रकटयति ( ना. धा.), प्रकृति, सं. स्त्री. (सं.) स्वभावः, वृत्तिः (स्त्री.), प्रकटी कृ, प्रकाश (प्रे.)। शीलं, स्वरूपं, धर्मः, गुणः २. दे. 'तासीर' ३. —होना, क्रि. अ., आविर प्रकटी,-भू , प्रकाश् । प्रधानं, माया, जगतः उपादानकारणं, पृथ्व्यादि(भ्वा. आ. से.)। परमाणवः (बहु.)। प्रकटित, वि. (सं.) प्रादुर्-विर -प्रकटी, भूत, -ज, वि. (सं.) सहज, स्वाभाविक, सह२. आविष प्रकाली, कृत। जात, नैसर्गिक । प्रकरण, सं. पुं. (सं. न.) पौर्वापर्य, पूर्वापर- --मंडल, सं. पुं. (सं.न.) राष्ट्र', राज्यं, देशः। संबंधः, प्रसंगः २. अध्यायः, परिच्छेदः ३. -सिद्ध, वि. (सं.) सहज, स्वाभाविक, नैसदृश्यकाव्यभेदः। गिक, औत्पत्तिक। प्रकर्प, सं. पुं. ( सं. ) उत्कर्षः, श्रेष्ठत्वं, उत्तमता | -स्थ, वि. (सं.) स्वस्थ, शान्त, विकार२. आधिक्य, प्राचुर्यम् । क्षोभ, रहित। प्रकांड, सं. . (सं. पुं. न.) स्कंधः, दंडः, । प्रकोप, सं. पुं. (सं.) अत्यंत, कोपः-क्रोधःकांड २. शाखा ३. वृक्षः । वि., सुमहत्, मुवि. संरंभ:-अमर्षः २. (रोगादीनां) प्रसारः, स्तृत, सुविशाल । आधिक्यं ३. देहधातुविकारः। प्रकार, सं. पुं. (सं.) भेदः, वर्गः, जातिः (स्त्री.)। प्रकोष्ठ, सं. पुं. (सं.) कफोणेरधोमणिबन्ध२. रीतिः (त्री.), सारणी, विधिः ३.सादृश्यन् । पर्यन्तो हस्तभागः २. बहिरपार्श्वस्थ: कोष्ठ: प्रकाश, सं. पुं. (सं.) आलोकः, उज्ज्वला, ३. विशालांगनम् । आभा, आभासः, ज्युतिः-द्युतिः-दीप्तिः-विष प्रक्षालन, सं. पुं. ( सं. न. ) धावनं, मार्जनम् । भास् ( सब स्त्री.), भासस्-ज्योतिस्-तेजस(न.), प्रक्षालित, वि.(सं.) धौत. मार्जित, जलशोधित । आ-,द्योतः, प्रभा २. आतपः, सूर्यालोकः, धर्मः ३. अभिव्यक्तिः (स्त्री.), आविर्भावः ४. प्रसिद्धिः प्रक्षिप्त, वि. (सं.) प्रास्त, अपास्त, निरस्त (स्त्री.) ५. अध्यायः। २. कालांतरे मिश्रित योजित । । प्रकाशक, सं. पु. ( सं.) द्योतकः, दीप्तिकरः, | प्रक्षेप, सं. पुं. (सं.) प्रासनं, निरसनं, प्रक्षेपणं, उद्भासकः २. ख्यापकः, प्रकाशयित। अपासनं २. विकिरणं ३. पश्चात् मिश्रणम् । प्रकाशन, सं. पुं. (सं. न.) प्रकटी-आविष,- | प्रखर, वि. (सं.) उग्र, प्र, चंड, प्रबल, तीव्र करणं २. प्रख्यापनं, प्रचारणं (पुस्तकादि का)। २. निशि(शा)त, तीक्ष्णाग्र, दे. 'तेज' । प्रकाशमान, वि. (सं.) भासमान, द्योतमान, प्रख्यात, वि. ( सं.) दे. 'प्रसिद्ध' । भासुर २. प्रसिद्ध, विश्रुत। प्रख्याति, सं. स्त्री. ( सं.) दे. 'प्रसिद्धि' । प्रकाशित, वि. (सं.) दे. 'प्रकाशमान' २. प्रगट, वि., दे. 'प्रकट'। उद्भासित, आलोकित ३. प्रचारित, प्रख्यापित, प्रगल्भ, वि. (सं.) चतुर, दक्ष, कुशल, प्रवीण प्रकट। २. प्रत्युत्पन्नमति, प्रतिभाशालिन् ३. उत्साहिन्, प्रकाश्य, वि. (सं.) प्रकाशनीय, प्रख्यापनीय, साहसिन् ४. निर्भय, अभय ५. वावदूक, प्रचारणीय। प्रजल्पक ६. गम्भीर, प्रौढ़ ७. प्रधान, मुख्य प्रकीर्ण, वि. (सं.) आ.वि.,कीर्ण, व्यस्त, विक्षिप्त, ८. धृष्ट, निर्लज्ज, अपत्रप ९, उद्धृत, विनयविश्लिष्ट। शून्य १०. अभिमानिन्, दृप्त ११. पुष्ट १२, प्रकीर्णक, वि. (सं.) दे. 'प्रकीर्ण' । सं. पुं. समर्थ, शक्त। (सं. पुं. न. ) चमर, चामरम् । सं. पुं. (सं.) | प्रगल्भता, सं. स्त्री. (सं.) दाक्ष्यं, कौशलं, घोटः, अश्वः। सं. पुं. (सं. न.) नाना- प्रावीण्यं २. प्रतिमा ३. निर्भयता ४. उत्साहः विविध-बहुविध-वस्तुसंग्रहः २. प्रकरणं, अध्यायः ५. वाक्चातुर्य, प्रत्युत्पन्नमतित्वं ६. गांभीर्य ३. विविधविषयकाध्यायः । ७. प्रधानता ८. धाष्टथै, निर्लज्जता ९. औद्धत्यं, For Private And Personal Use Only Page #428 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रगाढ़ [ ३६० ] प्रणिधि वैयात्यं १०. अभिमानः ११. पुष्टत्वं १२. प्रज- प्रज्ञा, सं. स्त्री. (सं.) बुद्धिः (स्त्री.), ज्ञानं ल्पः, वावदूकता १३. सामथ्र्यम् । २. सरस्वती ३. एकाग्रता । प्रगाढ़, वि. (सं.) अत्यन्त, अत्यधिक, प्रभूत, -चक्ष, सं. पुं. ( सं.क्षुस्) धृतराष्ट्र: २. अंधः प्रचुर २. अतिग(ग)भीर, अतिगहन ३. कीकस, (व्यंग्य) ३. बुदिनेत्रम् ४. प्राज्ञः । कठिन, धन। -पारमिता, सं. स्त्री. (सं.) पूर्ण ज्ञानं, सर्वप्रग्रह, सं. पुं. (सं.) ग्रहणं, धारणं २. अश्वा- ज्ञता ( बौद्ध ० )। दीनां रश्मिः ३. किरणः ४. ( तुला-) सूत्रं -वाद, सं. पु. (सं.) पांडित्य-विद्वत्ता-पूर्णोक्तिः ५. बाहुः ६. इन्द्रियनिग्रहः । (स्त्री.)। प्रचंड, वि. (सं.) तीव्र, उग्र, घोर, प्र.,खर, -हीन, वि. (सं.) मूर्ख, मूढ, जड, अज्ञ । २. प्रबल, बलवत्, ३. भीषण, भयंकर ४. प्रज्वलित, वि. ( सं.) देदीप्यमान, दंदह्यमान, कठिन, कठोर ५. असत्य, दुस्सह ६. बृहत, जाज्वल्यमान, प्रदीप्त, २. सुस्पष्ट, स्वच्छ। महत् ७. पुष्ट, पीन ८. प्रतप्त ९. प्रतापिन् । प्रण', सं. पुं. (सं. पण:> ) व्रतं, दृढसंकल्पः, प्रचंडता, सं. स्त्री. (सं.) उग्रता, तीव्रता, । प्रतिज्ञा, शपथः, वाचा । प्रखरता,.. भीषणता, भयंकरता । करना, सशपथं प्रतिज्ञा (क्र. आ. अ.), प्रचलन, सं. पुं. (सं. न.) दे. 'प्रचार'। प्रतिश्रु ( स्वा. प. अ.)। प्रचलित, वि. (सं.) प्रचरित, संचारिन्, प्रण', वि. (सं.) पुराण, प्राचीन । प्रसिद्ध, लोकसिद्ध, वर्तमान, विद्यमान । प्रणत, वि. (सं.) प्रह्वीभूत, २. वंदमान ३.नत्र प्रचार, सं. पुं. (सं.) प्रचलन, प्रसारः, सततोप- ४. निर्धन । योगः, निरन्तरव्यवहारः। प्रणति, सं. स्त्री, (सं.) प्रणामः, प्रणिपातः, करना, क्रि. स., प्रच-प्रचल-प्रस (प्रे.)। नमस्कारः, नमस्क्रिया, वंदना २. नम्रता प्रचारक, वि. (सं.) प्रसारक,प्रचालक, विस्ता- ३. निवेदनम् । रक । [प्रचारिका (स्त्री.)] | प्रणय, सं. पु. ( सं.) दे. 'प्यार' २. सस्नेहप्रचुर, वि. (सं.) विपुल, बहुल, अधिक, प्रभूत, प्रार्थनम् । प्रणयन, सं. पुं. (सं.) लेखनं, रचनं, निर्माणं, प्रचुरता, सं. स्त्री. (सं.) बाहुल्यं, आधिक्यं, | विधानं, करणम् । वैपुल्यं, भूयिष्ठत्वम् । प्रणयिनी, सं. स्त्री. (सं.) प्रिया, वल्लभा, दयिता प्रच्छन्न, वि. (सं.) गुप्त, गूढ, अदृष्ट, तिरोभूत २.आच्छादित, आवाष्टत । प्रणयी, सं. पुं. (सं.यिन ) रमणः, वल्लभः प्रजा, सं. स्त्री. (सं.) संतानः, संततिः (स्त्री.), कांत:- दयितः २. पतिः, भर्तृ। २. प्रकृतयः-शासितजनाः-राज्यनिवासिनः (सब / प्रणव. सं. पुं. (सं.) ॐकारः २. परमेश्वरः । बहु.)। प्रणाम, सं. पु. (सं.) दे. 'प्रणति' (चतुर्विधः -तंत्र, सं. पुं. (सं. न.) जनतंत्रशासनं, प्रजा- | अष्टांगः, पंचांगः, अभिवादनं, करशिरः सत्ताक राज्यं, जनताप्रभुत्वम् । संयोगः)। -नाथ, सं. पुं. (सं.) नृपः २. ब्रह्मन् -करना, क्रि. स., नमस्कृ, प्रणम् (वा. प. ३. मनुः ४. दक्षः। अ.), अभिवद् (चु. आ. से.), वंद् ( भ्वा. -पति, सं. पुं. (सं.) सृष्टि-जगत्, कर्तृ-रच- आ. से.)। यित-स्रष्ट, २. ब्रह्मन् ३. मनुः ४. नृपः ५. सूर्यः। प्रणाली, सं. स्त्री. (सं.) जलोच्छवासः, परि६. अनिः ७. पितृ ८.रहपतिः। वाहः, सरणिः ( स्त्री.) २. प्रथा, परिपाट', प्रजावती, सं. स्त्री. (सं.) भ्रातृजाया, दे. परंपरा, रीतिः (स्त्री.) ३. युक्तिः-पद्धतिः (स्त्री.)। 'भावज' २. अग्रजपत्नी ३. गर्भवती ४. संता- प्रणिधान, सं. पुं. (सं. न.) समाधिभेदः नवती। २. भक्तिविशेष: ३.कर्मफलत्यागः, ४. चित्तैका. प्रज्ञ, सं. पुं. (सं.) प्राशः, बुद्धिमत, विद्वस्, ग्रथम् ५. प्रार्थना ६. व्यवहारः। पंडितः। प्रणिधि, सं. पुं. (सं.) दे. 'गुप्तचर' । For Private And Personal Use Only Page #429 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रणिपात प्रणिपात, सं. पुं. ( सं . ) दे. 'प्रणति' । प्रणीत, वि. (सं.) लिखित, रचित, निर्मित, कृत, विहित २. संस्कृत, संशोधित ३. आनीत ४. प्रेषित । [ ३६१ ] प्रणेता, सं. पुं. ( सं. प्रणेतृ ) लेखक : रचयितृ, कर्तृ, निर्मातृ । प्रतप्त, वि. ( सं . ) तापित, अत्युष्णी, -कृत- भूत | प्रताप, सं. पुं. ( सं. ) तेजस् - ओजस् (न.), अनुभावः, अभिख्या, गौरवं, ऐश्वर्य, महिमन् (पुं.) २. पौरुषं, वीर्य, शौर्य ३. तापः, उष्णता, धर्मः । प्रतापी, वि. ( सं . - पिंन् ) प्रतापवत्, तेजस्विन्, ओजस्विन, अनुभाववत् २. वीर, शूर । प्रतारणा, सं. स्त्री. (सं.) वचनं ना, कपट, प्रतारणं २. धूर्तता, कैतवम् । प्रति, सं. स्त्री. (सं. प्रति> ) प्रति-अनु, लिपि: (स्त्री.), प्रतिलेखः । ( उपसर्ग ) समक्षं, सम्मुखं तुलनायां २. प्रति ( द्वितीया के साथ, सप्तमी विभक्ति से भी, उ, भगवान् के प्रति श्रद्धा = भगवंतं प्रति अथवा भगवति श्रद्धा ) ३. दिशि (सप्तमी ) । प्रति (ती)कार, सं. पुं. (सं.) प्रतिकृति: (स्त्री.), प्रतिक्रिया, निर्यातनं, शमनोपायः २. चिकित्सा, प्रतिपत्ति समय:, संविद्-आगूः (स्त्री.), वचनं, वाचा शपथः, दृढसंकल्पः २. साध्यनिर्देश: ( न्या. - करना, क्रि. स., आ-प्रति-सं-श्रु (भ्वा. प. अ. ), प्रतिज्ञा ( क्. आ. अ. ) कि.अ., प्रतिज्ञां कृ, वचनं दा । - तोड़ना, क्रि. स., प्रतिशां भंजू (रु. प. अ.), उल्लंघू ( चु.), विसंवेद् (भ्वा. प. से. ) । - पालना, क्रि. स. वचनं पा ( प्रे. पालयति ) शुध् (प्रे.) । –पत्र, सं. पुं. (सं. न. ) समय प्रतिज्ञा, पत्रलेख्यम् । उपचारः । प्रतिकूल, वि. (सं.) विपरीत, विरुद्ध, प्रतीप, विषम । - विवाहित, वि. ( सं.) वाग्दत्त:-ता-तन, प्रदत्त:-त्तान्तम्, प्रत्त:-त्ता-त्तम् । प्रतिज्ञात, वि. (सं.) प्रतिश्रुत, संश्रुत, आश्रुत । सं. पुं. (सं. न. ) प्रतिज्ञा, दृढसंकल्पः । प्रतिदंड, वि. (सं.) दुःशील :-ला-लं, धृष्टः धृष्ट धृष्टम्, आज्ञालंधिन्, अननुवर्तिन् । प्रतिदानं, सं. पुं. ( सं . न . ) प्रत्यर्पणं २. विनिमयः । प्रतिदिन, क्रि.वि. (सं.-दिनं) अनु, -दिनं-दिवस, प्रत्यहं अन्वहं दिने दिने । प्रतिद्वंद्विता, सं. स्त्री. (सं.) शत्रुता, वैरं, विरोध: २ प्रतिस्पर्द्धा, प्रत्यर्थिता । प्रतिद्वंद्वी, सं. पुं. ( सं . -द्विन ) अरि:, शत्रुः, विरोधिन् २. प्रत्यर्थिन्, प्रतिस्पर्धिन् । प्रतिध्वनि, सं. स्त्री. (सं. पुं. ) प्रति-ध्वनि :नादः शब्दः श्रुतिः (स्त्री.) 1 - उठना या होना, क्रि. अ., प्रति ध्वन्नद् (भ्वा. प. से. ) । प्रतिनिधि, सं. पुं. ( सं .) प्रतिपुरुषः, प्रतिहस्तःस्तकः २. प्रतिमा, प्रतिमूर्तिः (स्त्री.) । प्रतिक्षण, क्रि.वि. ( सं . क्षणं) अनुक्षणं, क्षणे प्रतिपक्षी, सं. पुं. ( सं. क्षिन् ) विपक्षिन्, प्रति क्षणे, प्रति अनुपलम् । वादिन २ विरोधिन्, प्रतिद्वंद्विन् ३. शत्रुः, वैंरिन् । प्रतिग्रह, सं. पुं ( सं . ) स्वी- अंगीकारः, आदानं, ग्रहणं २. विवाह:, पाणिग्रहणम् । प्रतिघात, सं. पुं. (सं.) प्रतिप्रहारः, प्रत्याघातः, प्रतिहतः (स्त्री.) ३. विघ्नः, बाधा । प्रतिच्छाया, सं. स्त्री. (सं.) प्रतिबिबं, छाया, प्रतिफल, प्रतिरूपं २. चित्रं ३. मूर्त्तिः (स्त्री.) । प्रतिज्ञा, सं. स्त्री. (सं.) प्रतिश्रवः, संगर:, प्रतिकूलता, सं. स्त्री. ( सं . ) वैपरीत्यं, विरोधः । प्रतिकृति, सं. स्त्री. (सं.) प्रतिमूर्तिः (स्त्री.), प्रतिमा २. चित्रं, आलेख्यं ३. छाया, प्रतिबिंबं ४. प्रतिक्रिया, प्रति (ती) कारः । प्रतिक्रिया, सं. स्त्री. ( सं . ) प्रति (ती) कार:, प्रतिकृतिः (स्त्री.) २. प्रतिघातः, प्रत्याघातः ३. निवारण - शमन, - उपायः । पालन, सं. पुं. (सं. न. ) प्रतिज्ञानिर्वाह:, संगरशोधनम् । भंग, सं. पुं. (सं.) वचनव्यतिक्रमः, प्रतिशोल्लंघनं, विसंवादः । प्रतिपत्ति, सं. स्त्री. (सं.) प्राप्ति:- उपलब्धि : (स्त्री.) अधि-गमनं २. ज्ञानं ३ अनुमानं ४ दानं, अर्पणं ५. निरूपणं, प्रतिपादनं ६ प्रवृत्ति: ( स्त्री. ) ७. निश्चयः ८. परिणामः ९ गौरवं १०. प्रतिष्ठा, सत्कारः ११. स्वीकृतिः (स्त्री.) १२. सप्रमाणं प्रदर्शनम् । For Private And Personal Use Only Page #430 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रतिपदा [ ३६२ ] । प्रतिपदा, सं. स्त्री. (सं.) प्रतिपद् (स्त्री.) पक्षतिः (स्त्री.), शुक्ला प्रथमतिथि: ( स्त्री. ), प्रतिपदी | प्रतिपन्न, वि. ( सं . ) ज्ञात, अवबुद्ध, अधिगत २. स्वी० अंगीकृत ३. निर्धारित, निश्चित ४. शरणागत ५. संमानित ६. प्राप्त ७. प्रवृद्ध । प्रतिपादक, वि. (सं.) दातृ-दायक, २. निरूपक, व्याख्यात् ३. उन्नायक ४. निष्पादक । प्रतिपादन, सं. पुं. ( सं. न. ) निरूपणं, सप्रमाणं कथनं साधनं स्थापनं २. सम्यग् ज्ञापनं अवबोधनं ३. दानं अर्पणम् । प्रतिपादित, वि. (सं.) सम्यग् अवबोधितज्ञापित २. निर्धारित, निश्चित ३. दत्त । प्रतिपाद्य, वि. ( सं . ) निरूपणीय, अवबोधनीय २. . देय | प्रतिपालन, सं. पुं. (सं. न. ) पालनं, पोषण, संवर्द्धनं २. रक्षणं, त्राणं ३. निर्वाह: वहणम् । प्रतिफल, सं. पुं. (सं.न.) दे. 'प्रतिच्छाया' (१) २. परिणाम:, फलं ३ प्रत्युपकारः ४ प्रत्यपकारः, निष्कृतिः (स्त्री.) । प्रतिबंध, सं. पुं. (सं.) विघ्नः, बाधा, अन्तराय: २. प्रतिरोध:, व्याघातः ३. दे. 'प्रबंध' । प्रतिबिंब, सं. पुं. (सं. न.) दे. 'प्रतिच्छाया' । प्रतिबिंबित, वि. (सं.) प्रतिफलित, प्रतिरूपित । प्रतिमा, सं. स्त्री. ( सं . ) नवनवोन्मेषशालिनी प्रशा, चमत्कारिणी बुद्धि: (स्त्री.), मतिप्रकर्षः २. बुद्धिः-मतिः-धीः ( स्त्री. ) ३. वैदग्ध्यं, बुद्धि चातुर्यं ४. दीप्तिः (स्त्री.) । प्रतिभाशाली, वि. (सं.-लिन् ) प्रतिभावत्, प्रतिभान्वित, सप्रतिभ २ धीमत, बुद्धिमत् । प्रतिभू, सं. पुं. (सं.) लग्नकः, दे. 'जामिन' प्रतिभा, सं. स्त्री. (सं.) अनुकृति :- मूर्ति: (स्त्री.), चित्रं, प्रतिकृतिः (स्त्री.)- मानं रूपं च्छन्दकं २. प्रतिबिंबं च्छाया २. माड:, मात्र, तोलभार, मानं ४. अलंकारभेदः (सा.) । प्रतियोगिता, सं. स्त्री. (सं.) प्रतिद्वंद्विता, प्रतिस्पर्द्धा, अहमहमिका, विजिगीषा २. विरोधः, शत्रुता । । प्रतियोगी, सं. पुं. ( सं . -गिन् ) प्रतिद्वंद्विन, प्रतिस्पर्द्धिन, विजिगीषुः २. शत्रुः, वैरिन् ३. सहायक: ३. अंशिन, अंशभाज् । प्रतिरूप, सं. पुं. (सं. न. ) मूर्तिः (स्त्री.), प्रतिमा २ चित्रं, आलेख्यं ३. प्रतिनिधिः । प्रतिस्पर्द्धा प्रतिरोध, सं. पुं. (सं.) विरोधः, प्रातिकूल्यं, वैपरीत्यं २. बाधः-धा, व्याघातः, प्रतिबंध: । प्रतिलिपि, सं. स्त्री. (सं.) अनुलिपि: (स्त्री.), प्रतिलेखः । प्रतिलोम, वि. (सं.) प्रतिकूल, विपरीत, विरुद्ध २. तुच्छ, नीच ३. विलोम, विपर्यस्त, व्यत्यस्त । प्रतिलोमज, सं. पुं. (सं.) वर्णसंकरः २. उत्तमवर्णाना अधमर्णात् पुरुषात् जातः । प्रतिवचन, सं. पुं. (सं. न. ) उत्तरं, प्रतिवचस (न.) २. प्रतिध्वनिः । प्रतिवत्सर, अव्य. (सं.) प्रति- अनु, वर्ष-वत्सरअब्द, वर्षे वर्षे, वत्सरे-वत्सरे । प्रतिवनिता, सं. स्त्री. (सं.) सपत्नी, सभार्या, समानपतिका । प्रतिवस्तु, सं. स्त्री. (सं.) सदृश समान तुल्यवस्तु (न.), पदार्थः २. प्रतिदत्तपदार्थ: ३. उपमानम् । प्रतिवस्तूपमा, सं. स्त्री. (सं.) अर्थालंकारभेदः । प्रतिवाद, सं. पुं. (सं.) प्रत्याख्यानं, निराकरणं, निरासः, दे. 'खंडन' २ विवादः ३. उत्तरम् । प्रतिवादी, सं. पुं. (सं.- दिन ) प्रत्यर्थिन्, अभियुक्तः २. विपक्षिन, प्रतिपक्षिन्, प्रत्याख्यातृ । प्रतिवासी, सं. पुं. (सं. सिन्) दे. 'पड़ोसी' । प्रतिवेशी, सं. पुं. ( सं-शिन) दे. 'पड़ोसी' । प्रतिशोध, सं. पुं. ( सं . > ) निर्यातनं, प्रतिअपकारः-द्रोहः । प्रतिश्याय, सं. पुं. (सं.) दे. 'जुकाम' २. पीनसरोगः । प्रतिषिद्ध, वि. (सं.) दे. 'निषिद्ध' । प्रतिषेध, सं. पुं. (सं.) दे. 'निषेध' २. खंडनं', निरसनं ३. अर्थालंकारभेदः (सा.) । प्रतिष्ठा, सं. स्त्री. (सं.) संस्कार:, अर्हणा, सं-, मान:, आदरः, गौरवं २. यशस् (न.), कीर्ति: विख्यातिः प्रसिद्धि: (स्त्री.) ३. स्थापनंना निधानम् । प्रतिष्ठित, वि. (सं.) सत्कृत, सं-, मानित, अभ्यर्चित २. विश्रुत, प्रसिद्ध, विख्यात २. स्थापित, प्रतिष्ठापित । प्रतिस्पर्द्धा, सं. स्त्री. ( सं . ) प्रत्यर्थिता, प्रतिद्वंद्विता, विजिगीषा, अहमहमिका २. कलहः । For Private And Personal Use Only Page #431 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रतिस्पर्धी प्रथम प्रतिस्पर्दी, सं. पुं. (सं.द्धिन्) प्रत्यर्थिन्, प्रति प्रत्यय, सं. पुं. (सं.) विश्वासः, विभः द्वेछिन्, विजिगीपुः। २. शब्दांत्यभागः, प्रकृत्युत्तरं जायमानः प्रतिहत, वि. (सं.) अव प्रति, रुद्ध, प्रतिबाधित | आगमः (सुप् तिङ् आदि, व्या.) ३. प्रमाणं, २. परागुन्न, परावर्तित ३. अपास्त, क्षिप्त ४. | साधनं ४. ज्ञानं ५. विचारः ६. व्याख्या पतित ५. निराश ६. पराजित, परास्त । .. ७. कारणं ८. आवश्यकता ९. प्रसिद्धिः प्रति(ती)हार, सं. पुं. (सं.) द्वार ( स्त्री.), (स्त्री.) १०. चिह्न ११. निर्णयः १२. सम्मतिः द्वार २. द्वारपालः, द्वाःस्थः । (स्त्री.) १३. सहायकः १४. स्वादः । प्रति(ती)हारी, सं. पु. ( सं.-रिन् ) द्वारपालः, प्रत्याख्यान, सं. पुं. (सं. न.) निराकरणं, दशःस्थः, दौवारिकः। सं. स्त्री. (सं.) द्वार निरसनं, खंडनम् । पालिका। प्रत्याशा, सं. स्त्री. (सं.) आशा, आशंसा, प्रतिहिंसा, सं. स्त्री. (सं.) प्रत्यपकारः, प्रत्यप | आकांक्षा २. उदीक्षा, प्रतीक्षा, अपेक्षा। क्रिया, प्रतिद्रोहः, प्रति-निर्यातनम् । प्रत्याशी, वि. ( सं.-शिन ) परीक्षार्थिन् २. प्रतीक, सं. पुं. (सं. न.) प्रतिमा, मूतः २. | पदान्वेषिन् ३. आशावत्, आशान्वित । . मुखं, आननं ३. अगं, अग्रभागः ४. श्लोकादेः प्रत्याहार, सं. पुं. (सं.) प्रत्याहरणं, उपादानं, प्रथमशब्द: ५. अंगं, अवयवः ६. चिह्न, लक्षणं इन्द्रियनिग्रहः २. अल्पेन बहूनां ग्रहणं ७. आकारः, रूपं ८. प्रतिरूपं, स्थानापन्न- ( उ. अच-सब स्वरवर्ण, व्या.)( वस्तु (न.)। प्रत्युक्ति, सं. स्त्री. (सं.) उत्तरं, प्रतिवचनम् । प्रतीकार, सं. पुं. (सं.) दे. 'प्रतिकार । | प्रत्युत, अव्य. (सं.) दे. 'बल्कि' । प्रतीक्षा, सं. स्त्री. (सं.) प्रतीक्षणं, उदीक्षा, | प्रत्युत्तर, सं. पुं. (सं. न.) उत्तरस्योत्तरं, प्रत्याशा, अपेक्षा। उत्तरप्रतिवचनम् । करना, क्रि. अ., अप-उद्-प्रति-ईक्ष ( भ्वा. प्रत्युत्थान, सं. पुं. (सं. न.) स्वागतार्थ आ. से.), अनु-प्रति-पा (प्रे. पालयति )। उत्थान-अभ्युत्थानम् २. शत्रुसाम्मुख्यार्थम् . प्रतीची, सं. स्त्री. (सं.) दे. 'पश्चिम'। उस्थितिः ( स्त्री.) ३. कार्यविशेषाय सज्जी भू, प्रतीत, वि. (सं.) ज्ञात, विदित, अवगत, बुद्ध | सन्नह (दि. उ. अ.)। २. प्रसिद्ध ३. प्रसन्न । प्रत्युत्पन्न, वि. ( सं.) पुनरुत्पन्न २. स्वावसरे -होना, क्रि. अ., शा-अवगम्-बुध-प्रती (=प्रति- | उत्पन्न । - इ) (सब कर्म.)। -मति, वि. (सं.) तत्कालधी, कुशाग्रीयप्रतीति, म. स्त्री. (सं.) ज्ञानं, बोधः, अवगमः | मति, सूक्ष्मदर्शिन् २. प्रतिभान्वित । सं. स्त्री. २. ख्यातिः ( स्त्री.) ३. विश्वासः ४. आनंदः। (सं.) तत्कालधीः (स्त्री.), कुशाग्रबुद्धिः ५. आदरः। (स्त्री.) २. प्रतिभा। प्रतीप, वि. (सं.) विरुद्ध, विपरीत, प्रतिकूल । | प्रत्युद्गमन, सं. पुं. (सं. न.) प्रत्युत्थानं, प्रतीहार, सं. पुं. (सं.) दे. 'प्रतिहार। प्रत्युद्गमः ।। प्रत्यंचा, सं. स्त्री. ( सं.) मौवों, शिंजिनी, ज्या, प्रत्युपकार, सं. पुं. (सं.) प्रति, उपकृतिः धनुर्गुणः। (स्त्री.)-साहाय्यम् । प्रत्यक्ष, वि. ( सं.) दृश्य, दृग्गोचर, पुरःस्थित | प्रत्येक, वि. (सं. ) एकैक, सर्व, सकल । २. इन्द्रियग्राह्य, इन्द्रियगोचर, एन्द्रियक ३. प्रथन, सं. पुं. (सं. न.) विस्तारः, वितति:प्रकट, स्पष्ट । सं. पुं. ( सं. न.) प्रमाणभेदः व्याप्तिः ( स्त्री.) २. यशःप्रसरणं-प्रसारणम् ३. ( न्याय.), अनुभवभेदः। क्रि. वि., नयनयोः क्षेपणन ४. प्रदर्शनम् । पुरतः २. स्पष्टं. व्यक्तम् । प्रथम, वि. (सं.) आद्य, आदिम, अग्रिम २, -दर्शी, सं. पुं. (सं.शिन् ) ( प्रत्यक्ष.) श्रेष्ठ, उत्तम ३. प्रधान, मुख्य । क्रि. वि. ( सं. साक्षिन् ( न.) अग्रे, आदौ, पूर्व, प्रथमतः । -प्रमाण, सं. ए. (सं. न.) प्रमाणभेदः --कल्प, सं. पु. (सं.) सर्वोत्तम-,उपाय:(न्या.)। युक्तिः ( स्त्री.) २. मुख्यनियमः । For Private And Personal Use Only Page #432 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रथमा [ ३६४ ] - पुरुष, सं. पुं. ( सं . ) अन्य पुरुष : ( व्या० ) । । - वय, स. पुं. (सं.-यस् न.) यौवनं, तारुण्यम्, नववयस् (न.) । प्रथमा, सं. स्त्री. (सं.) विभक्तिविशेष: ( व्या.) २. मदिरा । प्रथा, सं. स्त्री. (सं.) रीति: रूढिः (स्त्री.), अनुसारः, आचारः, व्यवहारः २. दे. 'प्रसिद्धि' । प्रथित, वि. ( सं . ) दे. 'प्रसिद्ध' । प्रदक्षिणा, सं. स्त्री. (सं.) प्रदक्षिण:- णं, परिक्रमः । प्रदत्त, वि. (सं.) अर्पित, विश्राणित, उत्-विसृष्ट, संक्रामित । प्रदर, सं. पुं. (सं.) नारीरोगभेद:, असृग्दरः ( द्वौ भेदौ - श्वेतप्रदर, रक्तप्रदरः ) | प्रदर्शक, सं. पुं. ( सं .) प्रदर्शयित, दर्शनकार यितृ २. दर्शकः, द्रष्टृ, प्रेक्षकः ३. गुरुः । प्रदर्शन, सं. पुं. (सं. न. ) प्रकटनं, प्रकाशनं व्यंजनं, विजृम्भणं प्रकटी आविष्करणं २. दे. ' नुमाइश' । प्रदर्शनी, सं. स्त्री. (सं.) दे. 'नुमाइश' । प्रदर्शित, वि. (सं.) प्रकटीकृत, प्रकटित, प्रकाशित | प्रदान, सं. पुं. (सं. न. ) दानं, विश्राणनं, अर्पण, संक्रामणं २. विवाह: । प्रदिशा, सं. स्त्री. (सं.) प्रदिश-विदिश् (स्त्री.) विदिशा, दिक्कोणः । प्रदीप, सं. पुं. ( सं . ) दीप:, कज्जलध्वजः, नयनोत्सवः दोषास्यः २. प्रकाशः । प्रदीपन, सं. पुं. (सं. न. ) उद्-संदीपनं, प्रज्वलनं २. प्रद्योतनं, प्रकाशनं, ३. उत्तेजनं, प्रोत्साहनम् । प्रदीप्त, वि. ( सं . ) प्रज्वलित, उद्-सं, - दीप्त, समिद्ध २. प्रकाशित, प्रकाशमान ३. उज्ज्वल, भासुर । प्रदेश, सं. पुं. (सं.) चक्रं, मंडलं, प्रांत, देशविभागः, भूभागः २. स्थानं, स्थलं ३. अंगं, अवयवः । प्रदोष, सं. पुं. (सं.) संध्यासमयः, संध्या, सायंकाल:, दिनावसानं, रजनीमुखं २. संध्या धकारः । प्रधान, वि. ( सं .) मुख्य, श्रेष्ठ, अग्र्य, अग्रिम, परम, उत्तम, प्रमुख, विशिष्ट । सं.., प्रबंध नेतृ, नायकः, पुरोगः, अग्रणी : २. मंत्रिन, सचिवः ३. प्रकृतिः (स्त्री.), जगतः उपादानकारणं, प्रधानं ४. सभा, पति: अध्यक्षः ५. ईश्वरः । - मंत्री, सं. पुं. प्रधान, अमात्यः सचिवः । प्रधानता, सं. स्त्री. (सं.) उत्तमता, श्रेष्ठता, मुख्यता २. नेतृत्वं, नायकत्वं ३. अध्यक्षता.. सभापतित्वं ४. मंत्रिपदं, मंत्रित्वम् । प्रध्वंस, सं. पुं. (सं.) वि., नाशः प्रणाशः, विध्वंसः, उच्छेदः संहारः । प्रपंच, सं. पुं. (सं.) सृष्टि : (स्त्री.), संसार:, - जगज्जालं २. विस्तरः, विस्तारः, ३. छलं, आडंबर:, कपर्ट ४. दे. 'बखेड़ा' । प्रपंची, वि. ( सं . चिन्) कापटिक, मायाविन् छलिन् २. चतुर, धूर्त्त ३. कलहप्रियः । प्रपन्न, वि. (सं.) प्राप्त, आगत २. शरणागत प्रपात, सं. पुं. (सं.) दे. 'झरना' २. अतट., भृगुः, निरबलंब: पर्वतादिपार्श्व: ३. अब, नात: पतनम् । ( सं . -त्रिन्) महामंत्रिन, प्रपितामह, सं. पुं. ( सं . ) दे. 'पड़दादा' | प्रपितामही, सं. स्त्री. (सं.) दे. 'पड़दादी' । प्रपौत्र, सं. पुं. (सं.) दे. 'परपोता' । प्रपौत्री, सं. स्त्री. (सं.) दे. 'परपोती' । प्रफुल्ल, वि. (स.) विकसित, स्फुटित, उत्-संफुल्ल, प्रबुद्ध, भिन्न, विकच २. कुसुमित, पुष्पित ३ उन्मीलित, उन्मिषित (नेत्र) ४. स्मित, आनंदित । नयन, वि. (सं.) विकचनेत्र [त्रा, त्री ( स्त्री. ) ] | For Private And Personal Use Only - बदन, वि. (सं.) स्मितानन, प्रसन्नमुख [ -नी ( स्त्री. ) = स्मितानना-नी, प्रसङ्गमुखा स्त्री. ] । प्रफुल्लित, वि. ( सं . ) दे. 'प्रफुल्ल' । प्रबंध, सं. पुं. (सं.) संविधा, उपायः, आयो जनं प्रयोगः, युक्तिः (स्त्री.) २. अपेक्षा क्षण, निर्वाह: हणं, प्रवर्तनं, अधिष्ठानं, व्यवस्थापनं, चालन, व्यवस्था ३. निबंध, लेख:, प्रस्तावः ४. महाकाव्यं, संग्रथितकविता । कर्ता, सं. पुं. (सं.-तुं ) प्रबंधकः, आयोजकः, व्यवस्थापकः, निर्वाहकः, चालक:,. अभ्यक्षः, अधिष्ठातृ, अवेक्षकः । Page #433 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रबंधक [ ३६५ ] प्रमिति - -कल्पना, सं. स्त्री. (सं.) स्तोकसत्या | २. शासकता, अधिकारित्वं ३. वैभवं ४. स्वा. कल्पनाबहुला कथा । मित्वं, प्रभुत्वम् । -कारिणी, सं. स्त्री. (सं.) प्रबन्ध-व्यवस्था, प्रभूत, वि. (सं.) दे. 'प्रचुर' २. उत्पन्न, की समितिः (स्त्री.)। उद्भूत, उद्गत । -काव्य, सं. पुं. (सं. न.) क्रमबद्धकाव्यम्, | प्रभृति, क्रि. वि. (सं.)तदारभ्य, ततोऽनन्तरं, अव्यकाव्यभेदः (सा०)।। आदि,-इत्यादि । सं. स्त्री., आरंभः । प्रबंधक, सं. पुं. (सं.) दे. 'प्रबंधकर्ता'। प्रभेद, सं. पुं. (सं.) प्रकारः, वर्गः, जातिः प्रबल, वि. (सं.) बलवत्, सबल, बलिन्, (स्त्री.) २. अंतरं, भेदः, भिदा । शक्तिमत्, ऊर्जस्विन्, प्रभविष्णु २. उग्र, घोर, प्रमत्त, वि. (सं.) उन्मद, मदोन्मत्त, मत्त, तीव्र, प्र.,चंड। क्षीब २. उन्मत्त, वातुल, उन्मादिन् । प्रबुद्ध, वि. (सं.) जागरित, उन्निद्र, जाग्रत् | प्रमथन, सं. पुं. ( सं. न.) विलोडनं २. क्लेशनं (शत्रंत ) २. विकसित ३. शानिन् । । ३. हननम् । प्रबोध, सं. पुं. (सं.) जागरण, प्रबोधन, निद्रा,- प्रमद, सं. पुं. (सं.) आनंदः, हर्षः २. क्षीबता । भंगः-त्यागः २. यथार्थ-पूर्ण,-ज्ञानं ३.सांत्वन-ना | वि., क्षीब । ४. विकासः ५. पूर्वनिवेदनं ६. चेतनालाभः. | प्रमदा, सं.स्त्री.(सं.) सुंदरी, उसमयोषित् (स्त्री.)। मूभिंगः। प्रमा, सं. स्त्री. (सं.) यथार्थज्ञानं, शुद्धबोधः प्रबोधन, सं. पुं. (सं. न.) (निद्रातः) उत्थानं, | २. दे. 'माप'। निद्राभंजनं २. जागरणं ३ उदबोधः पोटा प्रमाण, सं. पुं. (सं. न.) निदर्शनं, साधनं, ज्ञापनं ४. सांत्वनम् । उपपत्तिः (स्त्री.) मुख्यहेतुः २. साक्ष्य, प्रामाण्यं प्रभंजन, सं. पुं. (सं.) वायुः, पवनः २.वात्या, ३. सत्यता ४. इयत्ता, निर्दिष्टपरिमाणं ५. झंझावातः, प्रकंपनः । (सं. न.) उत्पाटनं, शास्त्रम् । वि.,सत्य, सिद्ध २. मान्य, स्वीकार्य । उन्मूलनं, वि, नाशनम् । -पत्र, सं. पु. ( सं. न.) आगम-निर्णय- . प्रभव, सं. पुं. (सं.) जन्महेतुः (पुं.) उत्पत्ति निदर्शन, पत्रम्। कारणं २.उत्पत्तिस्थानं, आकरः ३. सृष्टि:(स्त्री.) प्रमाणित, वि. (सं.) साधित, उपपादित, ४. ( नद्यादीनां ) उद्गमः, उद्भवः, मूलम् । स्थापित, प्रमाणी-सत्या, कृत, सत्यापित । प्रभा, सं. स्त्री. (सं.) दीप्तिः-धतिः-कांति:-रुचिः प्रमाता, सं. पु. ( सं.तृ) प्रमाणैःशातृ-बोद्धृ । शोचिः (स्त्री.), आभा, विभा, प्रकाशः, त्विषा । प्रमातामह, सं. पुं. (सं.) मातामहपित। प्रमातामही, सं. स्त्री. (सं.) प्रमातामहपत्नी । -कीट, सं. पुं. (सं.) खद्योतः, दे. 'जुगनू'। प्रमाद. सं. पुं. (सं.) अनवधान-नता, उपेक्षा, प्रभाकर, सं. पुं. (सं.) दिवाकरः, दे. 'सूर्य'।। सावधानताऽभावः २. भ्रांतिः-त्रुटि: (स्त्री.), . प्रभात, सं. पुं. ( सं. न.) विभातं, प्रातःकालः, भ्रमः। उषा, ऊषा, उषः, ऊषः, अहमुखं, क(का)ल्यं, | -करना, क्रि. अ., प्रमद् (दि. प. से.), व्युष्टं, प्रत्यु(त्यूषः-पं, अरुणोदयः, विहानः-नं, प्रमाद कृ।। उपस् (स्त्री.)। | प्रमादिका, सं. स्त्री. (सं.) क्षतयोनिकन्या प्रभाव, सं. पुं. (सं.)सामथ्र्य,शक्तिः (स्त्री.), बलं, २. प्रमादिनी नारी। २. माहात्म्यं, मह त्वं ३. वशः-शं, प्राबल्यं प्रमादी, वि. (सं.-दिन् ) अनवधान, प्रमत्त, ४. परिणामः, फलम् । अनवहित। प्रभु, सं. पुं. (सं.) जगदीशः, परमेश्वरः | प्रमापण, सं. पुं. (सं. न.) वधः, हत्या, २. स्वामिन, भर्तृ ३. अधिपतिः, नायकः । हननम् । ३. श्रेष्ठजनोपाधिः। प्रमित, वि. (सं.) ( यथार्थ ) शात, अवगत -भक्त, वि. (सं.) रवामिभत्ता, कर्तव्यपर, | २. परिमित, स्तोक ३. प्रमाणित । सत्सेवक २. प्रभूपासक, भगवभक्त । प्रमिति, सं. स्त्री. (सं.) प्रमा, प्रमाणैः प्राप्त प्रभुता, सं. स्त्री. (सं.) महत्त्वं, माहात्म्यं | सत्यज्ञानम् २. मानं, परिमाणम् । For Private And Personal Use Only Page #434 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [ ३६६ ] प्रव्रजित प्रमुख, वि. (सं.) प्रधान, श्रेष्ठ, मुख्य २. प्रथम, । प्रवर्तक, सं. पुं, (सं.) आरम्भकः, संस्थापकः, आदिम ३. प्रतिष्ठित, मान्य । प्रबनयित २. संचालकः, निर्वाहकः ३. प्रेग्यः, प्रमुदित, वि. (सं.) प्रहृष्ट, प्रसन्न, आनंदित। नियोजकः ४. उत्तेजकः ५. आविष्कारकः। प्रमेह, सं. पुं. (सं.) मेहः, मूत्रदोषः, बहुमूत्रता। प्रवर्तन, सं. पु. ( सं. न.) कार्योपक्रमणं, प्रमोद, सं. पुं. (सं.) हर्षः, आनंदः, प्रसन्नता २. कार्य, संचालनं-निर्वहणं ३. प्रचारणं २. सुखम् । ४. उत्तेजनम् । प्रयत्न, सं. पुं. (सं.) उद्यमः, अध्यवसायः, प्रवाद, सं. पुं. (सं.) जनश्रुतिः ( स्त्री.), आयासः, चेष्टा, चेष्टितं २. जीवव्यापारः(न्या.)। किंवदंती, लोक,वादः वार्ता २. अपवादः, -शील, वि. (सं.) प्रयत्नवत्, सयत्न, उद्य- मिथ्याकलंकः। मिन्, अध्यवसायिन्, सचेष्ट। प्रवाल, सं. पुं. (सं. पुं. न. ) विद्रमः २. किशप्रयाग, सं. पुं. (सं.) तीर्थविशेषः २. महायज्ञः। (स)लयः ३. वीणादण्डः । प्रयाण, सं. पुं. (सं. न.) प्रस्थानं, गमनं, व्रज्या, प्रवास, सं. पुं. (सं.) विदेशवासः २. विदेशः। यात्रा २. युद्धयात्रा। प्रवासी, वि. (सं.-सिन् ) प्रोपित, विदेशस्थ, -काल, सं.पुं.(सं.)गमनकाल: २. मृत्युसमयः।। विदेशवासिन् । प्रयास, सं. पुं. (सं.) उद्योगः, प्र,-यत्नः, प्रवाह, सं. न. (सं.) स्रवः, स्रवणं, स्रुतिः परिश्रमः। (स्त्री.), सावः २. (जल-) धारा, वेगः, प्रयुक्त, वि. ( सं.) व्यवहृत, व्यापृत, उपयुक्त, ओवः, स्रोतस् (न.) ३. कार्यनिर्वाहः सेवित, उपभुक्त। ४. व्यवहारः ५. प्रवृत्तिः (स्त्री.) ६. क्रमः, प्रयोग, सं. पुं. (सं.) उपयोगः, उपभोगः, सततगतिः ( स्त्री.)। सेवन, व्यवहारः २. अनुष्ठानं, साधनं प्रविष्ट, वि. (सं.) कृतप्रवेश, अन्तर्गत । ३. प्रक्रिया, विधानं ४. तांत्रिकोपचारः ५.अभि- प्रवीण, वि. (सं.) निपुण, कुशल, दक्ष, पटु, नयः ६. कुसीदाय ऋगदानम् । | चतुर, निष्णात, विज्ञ २. वीणावादनकुशल। -करना, उप-प्र-युज (रु. आ. अ.), ब्याप | प्रवीणता, सं. स्त्री. (सं.) नैपुण्यं, दाक्ष्यं, (प्रे.), सेव (भ्वा. आ. से.), उपभुज् कौशलं, पाटवं, चातुर्यम् । (रु. आ. अ.)। प्रवृत्त, वि. (सं.) रत, मग्न, -पर, सरायण प्रयोजक, सं. पुं. (सं.) अनुष्ठातृ, उपयोक्त | २. उद्यत ३. नियुक्त। २. प्रेरकः ३. व्यवस्थापकः । -करना, क्रि. स., प्रवृत् (प्रे.), नि-उद्-युज प्रयोजन, सं. पुं. (सं. न.) अर्थः, कार्य | (चु.) प्रवणी कृ, प्रेर् (प्रे.)। २. उद्देश्य, अभिप्रायः, आशयः । -होना, क्रि. अ., प्रवृत् (भ्वा. आ. से.), प्रलयंकर, वि. (सं.) प्रलय-विनाश-संहार,- रत मग्न-तत्पर (वि.) भू। कर-कारिन्। प्रवृत्ति, सं. स्त्री. (सं.) रुचिः ( स्त्री.), छंदः, प्रलय, सं. पुं. (सं.) कल्पांतः, प्रतिसंचयः, अभिलाषः, भावः २. वृत्तांतः ३. कार्यनिर्वाहः ब्रह्मांडनाशः, विलयः, संक्षयः । ४. विषयासंगः ५. उत्पत्तिः (स्त्री.)। प्रलाप, सं. पुं. (सं.) निरर्थकवचनानि (बहु.), प्रवेश, सं. पुं. (सं.) अन्तर, विगाहन-गमनं प्र, जल्पः जल्पनम्। २. गनिः ( स्त्री.), उपगमः ३. बोधः, ज्ञानं, प्रलोभन, सं. पुं. (सं. न.) विलोभनं, लोभेन परिचयः ।। प्रवर्तनं २, प्रलोभकपदार्थः, विकारहेतुः। | -पन्न, सं. पुं. (सं. न.) प्रविष्टि, पंत्रप्रवंचना, सं. स्त्री. (सं.) धूर्तता, कैतव,छलम्।। पत्रकम् । प्रवचन, सं. पुं. (सं. न.) व्याख्यानं, विवरणं, | -शुल्क, सं. पुं. (सं.) प्रविष्टि,-शुल्कः कम् । प्रकाशनं, स्पष्टीकरणं २. व्याख्या ३. वेदांगम् । प्रवेशिका, सं. स्त्री. (सं.) परीक्षाभेदः २. प्रवर, वि. (सं.) श्रेष्ठ, प्रधान, मुख्य (सं. न.)। प्रवेष्ट्री । गोत्रम् । ( सं. पुं.) संततिः ( स्त्री.) २. गोत्र- प्रव्रजित, वि. (सं.) सन्न्यासिन्, चतुर्थाप्रवर्तकनुनिव्यावर्तको मुनिगणः। । श्रमिन्, परिव्राजक । For Private And Personal Use Only Page #435 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रव्रज्या प्रसूति %3 प्रव्रज्या, सं. स्त्री. (सं.) *सन्न्यासः, वैराग्यम्, | प्रसक्त, वि. ( सं.) संलग्न, संश्लिष्ट २. आसक्त चतुर्थाश्रमः। ३. प्रस्तावित । प्रशंसक, सं. पुं. (सं.) स्तोतृ, स्तावकः, | प्रसन्न, वि. (सं.) संतुष्ट, प्र-,हृष्ट, सानंद, नावकः, इलायकः २. चाटुकारः। आनंदित, प्र.,मुदित, प्रफुल्ल २. निर्मल । प्रशंसनीय, वि. (सं.) प्रशंस्य, श्लाध्य, | करना, क्रि. स., आनंद्-आह्लाद्-तुष-प्रसद्स्तुत्य, नुत्य. प्रशंसाह। प्रमुद्-प्रहृष (प्रे.)। प्रशंसा, सं. स्त्रो. (सं.) श्लाघा, स्तुतिः-नुतिः--होना, क्रि. अ., प्रसद् ( भ्वा. प. अ.), नुः ( स्त्री.), स्तवः, कीर्तनं, ईडा।। आह्लाद्-प्रमुद् (भ्वा. आ. से.), प्र.,हृष् -करना, क्रि. स., प्रशंस (भ्वा. प.से.), श्लाघ् । (दि. प. से.)। ( भ्वा. आ. से.), नु (अ. प. से.), स्तु | प्रसन्नता, सं. स्त्री. (सं.) आनंदः, आलादः, (अ. प. अ.); ईड ( अ. आ. से.)। । प्र.,हर्षः,सं.-तोषः, प्र-,मोदः,उल्ल सः २.अनुग्रहः -~-होना, क्रि. अ., प्रशंस-स्तु-नु इलाध (कर्म.)। | ३. स्वच्छता। प्रशंसित, वि. ( सं.) दे, 'प्रशस्त' । प्रसव, सं. पुं. (सं.) जननं, प्रसूतिः ( स्त्री.), प्रशमन, सं. पुं. (सं. न.) शमनं, शांतिः | गर्भमोचनं २. जन्मन् ( न.), उत्पत्तिः (स्त्री.) (स्त्री.) २. नाशनं ३. मारणं ४. वशीकरणम् ।। ३. संतानः ४. फलं ५. कुसुमम् । प्रशस्त, वि. (सं.) नुत, नूत, स्तुत, इलाधित, | प्रसविनी, वि. ( स्त्री.) उत्पादयित्री, जनयित्री, प्रशंसित २. दे. 'प्रशंसनीय' ३. उत्तम, श्रेष्ठ ।। प्रसवित्री -पाद, सं. पुं. (सं.) दर्शनाचायविशेषः । प्रसाद, सं. पुं. (सं.) कृपा, दया., अनुग्रहः प्रशस्ति, सं. स्त्री. (सं.) दे. 'प्रशंसा' २. पत्रारंभे । २. प्रसन्नता ३. स्वच्छता ४. काव्यगुणविशेष: प्रशंसावाक्यं ३. राज्ञां कीर्तिलेखः ४. प्राचीन- | (सा.) ५. देवाद्यवशिष्ट पदार्थः, शेषः ग्रन्थानां लेखकादिपरिचायकानि आयंत- । ६. भोजनं ७. नैवेद्यं, वायनं-नकम् । वाक्यानि। प्रसादी, सं. स्त्री. (सं. प्रसाद:> ) देवार्पितप्रशस्य, वि. (सं.) दे. 'प्रशंसनीय' २. उत्तम।। पदार्थः २. नैवेद्यं ३. गुरुजनदत्तवस्तु (न.)। प्रशांत, वि. ( सं.) स्थिर, क्षोभहीन, निश्चल, प्रसाधन, सं. पुं. (सं. न.) वेशः-घः २. भूषणं... स्तिमित, निष्कप २. शांतचित्त, क्षोभ, | मंडनं, शृंगारः ३. निष-सं,-पादनं, करणम् । उद्वेग-शून्य। प्रसाधित, वि. ( सं.) परिष-संस् , कृत २. सु. प्रशाखा, सं. स्त्री. (सं.) लघु-ननु, शाखा, सम्पादित। प्रशाखिका। | प्रसार, सं. पुं. (सं.) प्रसरः, विस्तारः, प्रश्न, सं. पुं. (सं.) पृच्छा, अनुयोगः, २. / विततिः (स्त्री.)। विकल्प-विवाद-जिज्ञासा,-विषयः । | प्रसिद्ध, वि. (सं.) प्र- विख्यात, यशस्विन, -उत्तर, सं. पं. (सं. रं-रे) अनुयोगप्रतिवचनं- कीतिमा, लोकविश्रुत, यशोधर, सुशंस, ने (द्वि.), संवादः। लब्धकीति। --करना, या पूलना, नि. स., प्रदनं प्रच्छ प्रसिद्धि, सं. स्त्री. (सं.) ख्याति:-कीतिः-विश्रुतिः (तु. प. अ.), प्रश्नयति ( ना. धा.), अनुयुज । (स्त्री.), यशस् ( न.), इलोकः, विभ्रायः । (रु. आ. अ.)। । प्रसू , सं. स्त्री. (सं.) जननी, मातृ (स्त्री.)। प्रश्वास, सं. पुं. (सं.) उच्छ्वासः २. उच्छव- | वि., प्रसवित्री, जनयित्री। सनम् । | प्रसूता, सं. स्त्री. (सं.) जातापत्या, प्रजाता,. प्रष्टव्य, वि. (सं.) प्रश्नाह २. पृच्छाविषयः। । प्रसूतिका । प्रसंग, सं. पुं. (सं.) विषयानुक्रमः, प्रकरणं, -का बुखार, सं. पुं., सूतिकाज्वरः । अर्थसंगतिः (स्त्री.) २. मैथुनं ३. संबंधः, प्रसूति, सं. स्त्री. (सं.) प्रसवः, जननं २. उद्-- संगतिः (स्त्री.) ४. अनुरक्तिः (स्त्री.)/ भवः ३. उत्पत्तिस्थानं ४. संततिः (स्त्री.) ५. वातों, विषयः ६. सदवसरः ७. विस्तारः ।। ५. प्रस् ता । For Private And Personal Use Only Page #436 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 1 ३६८ ] प्रसून प्रसून, सं. पुं. (सं. न.) कुसुमं पुष्पं २. फलम् । वि., जात, उत्पन्न | - वर्ष, सं. पुं. (सं.) पुष्पवृष्टिः ( स्त्री. ) । -- वाण, सं. पुं. ( सं .) पुष्प, शर:- वाणः, कामः, मदनः । प्रसृत, वि. (सं.) प्रगत, प्रचलित २. विस्तृत, विस्तीर्ण ३. लंब, दीर्घ, आयत ४ व्यस्त, संलग्न ५. सुशील, विनम्र ६ गत, यात ७. स्फूर्तिमत् प्रसृता, सं. स्त्री. ( सं . ) जंघा, टक्किका । प्रसेक, सं. पुं. (सं.) आ.अव-, सेक:- सेचनम्, अभिवर्षणं, अभ्युक्षणं, प्रोक्षणम् क्षरणं, गलनं, स्त्रवणम् ३. वमनं, वयः, वयि: (स्त्री.) ४. दविका, कटोरिका अग्रभागः । प्रस्तर, सं. पुं. (सं.) शिला, पाषाणः, दे. 'पत्थर' | प्रस्ताव, सं. पं. (सं.) अवसरः, उचितकालः २. प्रसंगः, विषयः ३. प्रकरणं ४. उपक्षेपः, उपन्यासः ५. प्र. नि, बंध:, लेखः ६. दे. 'प्रस्तावना' । प्रस्तावना, सं. स्त्री. (सं.) भूमिका, उपोद्घातः, प्राक्कथनं, आमुखं, अवतरणिका २. आरम्भ:, उपक्रमः । ५. उद्यत, प्रस्तुत, वि. (सं.) नु ( नू ) त, २. उक्त कथित ३. प्रासंगिक, ४. उपस्थित, प्रतिपन्न ६. निष्पन्न, संपादित | -प्रस्थान, सं. पुं. ( सं. न. ) प्रयाणं, अपक्रमः, रामनं, यात्रा २. विजिगीषुसेनायाः प्रयाणम् । प्रस्वेद, सं. पुं. (सं.) दे. 'पसीना' । ग्रहर, सं. पुं. (सं.) याम:, दे. 'पहर' | प्रहरी, वि. ( सं .- रिन ) दे. 'पहरा' सं. पुं. २ । प्रहसन, सं. पुं. (सं. न. ) रूपक नाटक, भेद:, २. परिहासः, विनोदः ३. अव-उप-हास: । प्रहार, सं. पुं. (सं.) आघातः, ताड:, निघतः, हथः । - करना, क्रि. सं. आहन ( अ. प. अ. ), श्लाघित । प्रसंगप्राप्त सज्ज प्राण प्रांत, सं. पुं. ( सं . ) देशभागः, राष्ट्रविभागः २. भूखंडः, प्रदेशः ३. सीमा, समंत: ४. अनं, कोटि : (स्त्री.) ५. दिश् (स्त्री.) । प्रांतीय, वि. (सं.) प्रांतिक, प्रांत, संबंधिन्विषयक | प्राइवेट, वि. ( अं. ) स्वकीय, आत्मीय २. विशिष्ट, असार्वजनिक ३. गुप्त, संवरणीय । सेक्रेटरी, सं. पुं. ( अं. ) *रवकीय सचिवः । प्राकार, सं. पुं. ( सं .) वप्र:- प्रं, शा (सा) ल:, वरणः । प्राकृत, वि. ( सं . ) प्रकृतिज, प्राकृतिक २. स्वाभाविक, नैसर्गिक २. साधारण ४. लौकिक ५. तुच्छ, नीच ६. भौतिक । सं. स्त्री. (सं. न. ) व्यवहारभाषा २. प्राचीनभाषाविशेषः । | प्राकृतिक, वि. ( सं . ) दे. 'प्राकृत' । प्राची, सं. स्त्री. (सं.) पूर्वदिशा, पूर्वदिश् (स्त्री.) २. पूजकपूज्ययोः पुरोवर्तिदिशा । प्राचीन, वि. (सं.) पुराण, प्राक्तन, पुरातन, पूर्व, प्राक्कालीन २. पूर्वदेशीय, प्राच्य, पौरस्त्य, पूर्वदिस्थ, प्रांचू । प्राचीनता, सं. स्त्री. (सं.) पुराणता, पुरात नता इ. | प्राचीर, सं. पुं. (सं. न. ) प्रांतो वृत्तिः (स्त्री.) प्रावर:, प्रावृतिः (स्त्री.), दे. 'प्रकार' । प्राचुर्य, सं. पुं. ( सं. न. ) ' प्रचुरता' । प्राच्य, वि. (सं.) दे. 'प्राचीन' ( १-२ ) । प्राज्ञ, वि. तथा सं. पुं. (सं.) पंडित ( : ), विज्ञ ( : ), धीमत, बुद्धिमत्, विस् । प्राज्ञी, सं. स्त्री. तथा वि. (सं.) पंडिता, बुद्धिमती, विदुषी ( नारी ) । प्राण, सं. पुं. ( सं. प्राणा: बहु. ) असव: ( बहु . ) हृन्मारुतः २. श्वासः, उच्छ्वासः श्वसितं ३. पवन:, अनिलः ४. बलं, शक्तिः (स्त्री.) ५. जीवनं, चैतन्यं ६. आत्मन् ७. प्रियो मनुष्यः पदार्थो वा । प्रहृ (भ्वा. प. अ.), तड ( चु.), प्रहारं कृ । प्रहृष्ट, वि. (सं.) प्रमुदित, सुप्रसन्न, अत्यानंदित । - त्याग, सं. पुं. (सं.) मृत्युः, निधनं २. आत्महत्या घातः । प्रहेलिका, सं. स्त्री. (सं.) प्रश्नदूती, दे. 'पहेली' । दंड, सं. पुं. ( सं . ) देह-मृत्यु, दंडः, उत्तमप्रांगण, सं.पुं. (सं. न. ) अजिरं, अंगनं चत्वरम् । प्रांजल, वि. (सं.) सरल, ऋजु, २. सत्य, - यथार्थ ३. सम, समतल 1 साहसम् । धारण, सं. पुं. (सं. न. ) जीवनं, प्राणनं, देहधारणम् । For Private And Personal Use Only Page #437 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्राणांत [ ३६६ ] - नाथ, सं. पुं. (सं.) प्राणपतिः प्राणेश्वरः, प्राथमिक, वि. (सं.) आद्य, पतिः, भर्तृ २. दयितः वल्लभः । -प्रतिष्ठा, सं. स्त्री. ( सं . ) देवप्रतिमायां प्राणस्थापनविधिः । - प्रिय, वि. ( सं . ) प्रियतम, अत्यंत प्रिय । सं. पुं., भर्तृपति: । -हर, वि. (सं.) प्राणहारिन् मारक, घातक । - उड़ जाना, मु., अत्यंतं त्रस् ( दि. प से. ) भी ( जु. प. अ.), भयविह्वल (वि.) भू । - गले तक आना, मु., आसन्नमृत्यु (वि.) भू, कंठगतप्राण (वि.) जन् (दि. आ. से. ) । - त्यागना, देना या निकालना, मु., प्राणान् त्यज् (भ्वा. प. अ. ) दे. 'मरना' । — लेना, मु., हन् ( अ. प. अ.), मृ-व्यापद् (प्रे.) स ( रु. प. से. चु. ) । प्राणांत, सं. पुं. ( सं . ) निधनं, मरणन् । प्राणांतक वि. (सं.) प्राण, -हर- हारिन्, घातक, मारक । प्राणात्यय, सं. पुं. (सं.) मृत्युः, निधनम् २. प्राणान्त-देहान्त समयः कालः ३. प्राण, भयं संशयः संकटम् । प्राणाधार, सं. पुं. ( सं . ) पतिः, भर्तृ । वि., जीवनाश्रय, अतिप्रिय । प्राणायाम, सं. पुं. ( सं. ) योगांगभेद:, श्वासप्रश्वासगतिनिरोधः । प्राणाहुति, सं. स्त्री. (सं.) जीवनोत्सर्गः, आत्मवलिः, भोजनारम्भे पंचप्राणेभ्यो भक्षणम् । प्राणी, वि. (सं.णिन् ) सप्राण, प्राणध रिन्, संजीव, जीवत् ( शवंत ) । सं. पुं. जीवः, जंतुः २. मनुष्यः ३. व्यक्ति (स्त्री.) । प्राणेश्वर, सं. पुं. (सं.) दे. 'प्राण' के नीचे 'प्राणनाथ' । प्रारंभिक आदिम, प्रारंभिक २. पूर्व, प्रावेशिक, प्रास्ताविक ३. मौल, मौलिक । प्रादुर्भाव, सं. पुं. ( सं . ) आविर्भाव:, प्राकट्यं, प्राकाश्यं, व्यक्तता २. उत्पत्ति: (स्त्री.), जन्मन् (न.) । प्रादुर्भूत वि. (सं.) आविर्भूर्त, प्रकटित, प्रकटीभूत, व्यक्त २. जात, उत्पन्न । प्राधान्य, सं. पुं. ( सं. न. ) दे. 'प्रधानता' | प्राप्त, वि. ( सं .) लब्ध, अधिगत, आसादित, प्रतिपन्न, वित्त, विन्न । -करना, क्रि. स., प्र., आप ( स्वा. प. अ.), अधिगम्, लभ् (भ्वा. आ. अ.) आसद् (प्रे.), विद् ( तु. उ. वे. ) । — होना, क्रि. अ. आपू-लभ - अभिगम् (कर्म . ) । प्राप्ति, सं. स्त्री. (सं.) लाभः प्रतिपत्ति: उपलब्धि: (स्त्री.) अधिगमः, प्रापणं २ गतिः (स्त्री.) ३. अर्जनं ४. आय:, अर्थागमः । प्राप्य, वि. ( सं . ) लभ्य, अधिगंतव्य, प्राप्तव्य २. समासादनीय, गम्य । प्रामाणिक, वि. ( सं . ) सप्रमाण, प्रमाणसिद्ध, २. विश्वसनीय, विश्वास्य ३. सत्य, तथ्य ४. शास्त्रसिद्ध ५. हैतुक, युक्तियुक्त । प्रामाण्य, सं. पुं. ( सं. न. ) प्रमाणता-त्वं २. प्रतिष्ठा । प्रायः, क्रि. वि. ( सं . ) प्रायशः बहुशः, धा, प्रायेण, मुहुर्मुहुः, भूयोभूयः, अनेकशः, अभीक्ष्णं २. कल्प, भूयिष्ठ, प्राय, ( उ. दे. 'प्राय' की टि.), उप- ( उ. उपविंशाः छात्राः ) । प्राय, सं. पुं. (सं.) प्रस्थानं, प्रयाणं २. मरणं ३. मरणार्थमनशनं, दे. 'धरना' । -- द्वीप, सं. पुं., द्वीपकल्पः-पम् । (टि. जब 'प्राय' समासांत में हो तब १. तुल्य, सदृश ( उ. अमृतप्राय वचन = अमृत, तुल्यंसदृशं वचनं .) २. भूयिष्ठ, कल्प ( उ. मृतप्रायो मनुष्यः, मृत, कल्पः- भूयिष्ठ: मानवः ) । प्रायश्चित्त, सं. पुं. (सं. न. ) पाप, निष्कृति:विशुद्धि: ( दोनों स्त्री.), अघ, नाशनं चालनं प्राणीहार, सं. पुं. (सं.) आहार:, भोजनं, खाद्यम्, भक्ष्यम् । प्रातः, अव्य. प्रातःकाल, सं. पुं. प्रातः स्मरणीय, वि. (सं.) पुण्य, श्लोक -शीलचरित, महात्मन्, पुण्यात्मन् । } (सं.) दै. ‘प्रभात’ । प्रात, क्रि.वि. ( सं . प्रातर् अन्य. ) प्रातःकाले, मार्जनं, पापनाशक कृत्यम् । प्रभातसमये । - नाथ, सं. पुं. ( सं . ) सूर्य, भानुः । - भोजन, सं. पुं., दे. 'कलेवा' । प्रारंभ, सं. पुं. ( सं . ) उपक्रमः २. आदि: । प्रारंभिक, वि. (सं.) औपक्रमिक, आरंभिक २. आय, आदिम ३. प्राथमिक, प्रादेशिकं । For Private And Personal Use Only Page #438 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रारब्ध प्रारब्ध, सं. स्त्री. (सं. न. ) भाग्यं देवं अदृष्ट, प्राक्तनं, नियतिः (स्त्री.) । वि., कृतारंभ, उपक्रांत । प्रार्थना, सं. स्त्री. (सं.) याचना, याच्या, अभिशस्ति: (स्त्री.), आ-नि,-वेदनं, अभि-, अथना । -करना, क्रि. स. अभि-प्र-, अर्थ (चु.आ.से.), याच् (भ्वा. उ. से. ), सविनयं आ-नि-विद् ( प्रे. ) 1 [ ४०० ] - पत्र, सं. पुं. (सं.) आवेदनपत्रम् । प्रार्थनीय, वि . ( सं . ) याचनीय, अभ्यर्थनीय । प्रार्थित, वि. ( सं . ) याचितं, अर्थित, निवेदित । प्रार्थी, सं. पुं. (सं.-थिन् ) प्रार्थयितु, याचक:निवेदकः । प्रालब्ध, सं. स्त्री. दे. 'प्रारब्ध' सं. स्त्री. । प्रासंगिक, वि. (सं.) प्रसंग, आगत-प्राप्तउचित, अनुरूप, प्रस्तुत, प्रास्ताविक [ की ( स्त्री. ) = प्रास्ताविकी 31 प्रासाद, सं. पुं. (सं.) राज- नृप, गृहं भवनं मंदिरं, हर्म्य, सौधः-धम् । प्रिज्म, सं. पुं. ( अं. ) त्रिपार्श्वकाच: । प्रिय, वि. (सं.) दे. 'प्यारा' २. मनोहर, अभिराम । सं. पुं., पति: २. कांतः, दयितः ३. जामातृ ४. हितम् । प्रेय । प्रेक्षक, सं. पुं. ( सं . ) दर्शक:, द्रष्टृ २. ( नाट कादि में ) पार्षदः, सामाजिक: । प्रेक्षण, सं. पुं. (सं. न. ) नेत्रं २. अवलोकन, दर्शनम् । प्रेत, सं. पुं. (सं.) नरकस्थप्राणिन् २. भूतभेदः, वेताल: ३. मृतमानवः, शवः । कर्म, सं. पुं. [ सं . कर्मन् (न.)] प्रेतकार्य-क्रिया-कृत्यं, आमृत्योः सपिंडीकरणपर्यंतः क्रियाकलापः । -गृह, सं. पुं. (सं. न. ) प्रेतभूमिः (स्त्री.) शमशानम् । - दाह, सं. पुं. (सं.) अन्त्येष्टि- मृतक -संस्कारः । - पक्ष, सं. पुं. ( सं .) पितृपक्षः, गौण चांद्राश्विनकृष्णपक्षः । पति, सं. पुं. ( सं . ) यमराज: । प्रेतनी, सं. स्त्री. (सं. प्रेतः ) पिशाची-चिका, प्रेतपत्नी । । प्रेम, सं. पुं. [ सं . प्रेमन् (पुं. न. ) ] स्नेहः, अनुरागः, प्रणयः, दे. 'प्यार' २. कामः, शृङ्गारः, रति: (स्त्री.) ३. ईश्वरभक्तिः (स्त्री.) ! कहानी, सं. स्त्री, प्रेमकथा, शृंगाराख्यायिका । - पात्र, सं. पुं. (सं. न. ) स्नेहभाजनं (मानव वा पदार्थ) । - वर, वि. (सं.) प्रेष्ठ, प्रियतम । प्रिया, सं. स्त्री. ( सं . ) नारी, रमणी २. पत्नी, भार्या ३. प्रेयसी, प्रेमवती, कांता । प्रीतम, सं. पुं., दे. 'प्रियतम' | प्रीत, सं. स्त्री. [ सं . प्रीतिः (स्त्री.)] दे. प्रीति, 'प्यार' २. तृप्तिः (स्त्री.) ३. आनंद:, हर्षः । } - पूर्वक, क्रि. वि. ( सं . - कं ) प्रेम्णा, स्नेहेन । - भोज, सं. पुं. ( सं . भोजनोत्सवः । भोगः ) प्रीतिभोजनं, - तम, वि. ( सं . ) प्रेष्ठ, प्राणप्रिय । सं. पुं., पति:, भर्तृ । २. वल्लभः, कतिः । -तमा, वि. (सं.) प्रेष्ठा, प्राणप्रिया । सं. स्त्री, पुत्तलिका, सं. स्त्री. ( सं . ) पत्नी, भार्या, पत्नी २. कांता । - पाश, सं. पुं. (सं.) स्नेह - अनुराग - प्रेम, - बन्धनं-रज्जुः (स्त्री.)- श्रृंखला- जालन् । कलत्रम् | -- दर्शन, वि. ( सं . ) सु- शुभ, दर्शन, चक्षुष्य, ! - वारि, सं. पुं. ( सं. न. ) प्रेमाश्रु (न.): सुरूप, शोभन, सुंदर | स्नेहस्रम् | -भाषी, वि. (सं. पिन ) मधुरभाषिन, प्रिय, प्रेमालाप, सं. पुं. ( सं .) स्नेहसंभाषणं ३. शृंगारवादिन् वचन | संवादः | प्रेमाश्रु, सं. पुं. (सं. न. ) प्रेम, जलं -वारि (न.), अनुरागवाष्पम् | प्रेमिक, सं. पुं.. दे. 'प्रेमी' । प्रेमिका, सं. स्त्री. दे. 'प्रेयसी' | प्रेमी, सं. पुं. ( सं . - मिन् ) प्रणयिन, अनुरा गिन्, स्नेहिन, अनुराग प्रणय, वत् २. कामिन, कामुकः, रमणः, वल्लभः । वि., प्रिय, आसक्तनिरत, सेवी (उ., संगीत का प्रेमी = संगीत, प्रिय आसक्त इ. ) । प्रेय, वि. (सं. प्रेयस् ) प्रियतर अतिप्रिय For Private And Personal Use Only Page #439 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रयसी [४०१] " फंकी २. लौक्तिक-सांसारिक,-सुख नि-भोगाः ३. अलं- प्रोषित, वि. (सं.) विदेशस्थ, प्रवासिन् । कारभेदः (सा०)। -पतिका, सं. स्त्री. (सं.) प्रोषितभर्तृका, प्रेयसी, सं, स्त्री. (सं.) प्रेमवती, प्रेमिणी, नायिकाभेदः । प्रिया, वल्लभा, कांता, दयिता। प्रौढ, वि. (सं.) प्रवृद्ध, एधित, प्रोपचित २. प्रेरक, सं. पुं. (सं.) प्रचोदयित, प्रवर्तयित, सं-परि,-पूर्ण, संपन्न, सिद्ध ३. परिणत, परिपक्व प्रोत्साहकः, उत्तेजकः। ४. पुष्ट, दृढ़ ५. निपुण, चतुर। प्रेरणा, सं. स्त्री. (सं.) प्रचोदना, प्रा.साहन- प्रौढता, सं. स्त्री. (सं.) प्रौढ़त्वं, प्रवृद्धिः (स्त्री.) ना, उत्तेजनं-ना, प्रवर्तनं २. दे. 'धक्का'। २. परिपूर्णता ३. परिपक्वता ४. पुष्टिः (स्त्री.) -करना, क्रि. स., उत्तिज-प्रवृत्-प्रेर्-प्रचुद्- ५. निपुणता। नि प्रोत्लह (प्रे.)। प्रेरित, वि. ( सं.) प्रचोदित, प्रोत्साहित, उत्ते प्रौढ़ा, सं. स्त्री. (सं.) चिरिंटी, श्यामा, सुवयाः, दृष्टरजाः (स्त्री. एक.) (३० से ५५ वर्ष तक जित, प्रवर्तित । प्रेस, सं. पु. ( अं.) संपीडनयंत्रं २. मुद्रणयंत्रं की नारी ) २. नायिकाभेदः। वि., पुष्टा, परि३. मुद्रणयंत्रालयः। पक्वा, दृढ़ा। प्रेसिडेंट, सं. पुं. (अं.) सभा,-पतिः-अध्यक्षः, प्लग, सं. पुं. ( अं.) निगम् । प्रधानः। प्ल ग, सं. पुं. ( सं.) कपिः, वानरः २.हरिणः प्रोग्राम, सं. पुं. (अं.) कार्यक्रमः २. कार्य- ३. मंडकः । क्रमपत्रम् । प्लवन, सं. पं. (सं. न. ) कूर्दनं २. तरणम् । प्रोटीन, सं. पुं. (अं.) प्रोभूजिनं, भोजनतस्त्र- प्लाटिनम, मं. पुं. ( अं.) महातु । भेदः। प्लावन, सं. पं. (सं. न.) महाप्रवाहः, जल, प्रोत, वि. सं. ) चित, निहित २. स्यूत. प्रलयः वृंहणं-विप्लवः। ग्रथित, गुंफित । | प्लावित, वि. (सं.) जलमग्न । प्रोत्साहन, सं. पुं. (सं. न.) धैर्य-उत्साह, वर्द्धनं, प्लास्टर, सं. पुं. ( अं.) दे. 'पलस्तर'। उत्तेजनं, आश्वासनम् । प्रोत्साहित, वि. (सं.) उत्तेजित, आश्वासित. -आव पेरिस, सं. पुं., दग्धाचूर्णम्, पेरिसवद्धितोत्साह, प्रेरित । प्रलेपः। प्रोथ, वि. ( सं.) विश्रुत, प्रख्यात २. प्रचलित, प्लीहा, सं. स्त्री. ( सं.) प्ली(प्लि)हन् (पुं.), प्रस्थित ३. स्थापित, स्थिरीकृत (सं. पुं. न.) १.२ अश्व, नासा-नासारन्धम् ३. शूकर- प्लुत, सं. पुं. (सं.) त्रिमात्रवर्णः । वि., झंपगतिलंबास्यम्। युत २. प्लावित ३. सिक्त ४. त्रिमात्र । प्रोदक, वि. ( सं. ) उत्त, उन्न, आई २. निर्जल, प्लूरिसी, सं. स्त्री. (अं.) फुफ्फुसवेष्टनपाकः, निर्गतजल, शुष्क। फुफ्फुसावरणप्रदाहः । प्रोनोट, सं. पुं. (अं.) ऋगनिस्तारप्रतिज्ञा-लेखः, प्लेग, सं. पु. ( अं.) महा,-मारी, मारिका ऋणपत्रम् । २. मूषिकरोगः अग्निरोहिणी । प्रोपगेंडा, सं. पुं. (सं.) प्रचारः, प्रचारकार्यम्। प्लेट, सं. स्त्री. ( अं. ) दे. 'तश्तरी' २. (धात्वाप्रोप्राईटर, सं. पुं. (अं.) स्वामिन् , प्रभुः, इनः ।। दिकस्य) पट्टः-टं, फलकः-कम् । प्रोफ़सर, सं. पुं. (अं.) (महाविद्यालयस्य विश्व- --फार्म, सं. पुं. (अं.) वेदी, वेदिका, मञ्चः, विद्यालयस्य वा) उपाध्यायः । पीठिका। फ, देवनागरीवर्णमालायाः द्वाविंशतितमो व्यंज- | अंजलि: ( पुं.), मुष्टि-अंजलि, मात्रं अन्नादिकं नवर्णः, फकारः। ! २. खंडः डं, शकल:-लम् । फंका, सं. पु. (हिं. फॉकना ) मुष्टिः (पुं. स्त्री.), ) फंकी, सं. स्त्री. ( हिं. फंका ) चूर्ण, चूणौषधम् । २६ For Private And Personal Use Only Page #440 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir फंद | फंद, सं. पुं. ( सं. बंध: ) बंधनं २. दे. 'फंदा' ३. छल, कपटं ४. रहस्यं, गूढवार्ता ५. दुःखम् । फंदा, सं. पुं. (सं. बंध:) पाश:, बन्धनं, वागुरा, पातिली, मृगबंधनी २. जालं ३. दुःखं, कष्टम् । - लगाना, मु., छल् ( चु. ), विप्रलम् (भ्वा. आ. अ. ) वंच्-प्रतॄ (प्रे. ) २. जालं निक्षिप ( तु. प. अ. ) -निधा (जु. उ. अ. ) । फंदे में पड़ना, मु., पाशे बंधू- ग्रह ( कर्म. ), वशी भू, २. विप्रलभ्-प्रतार् ( कर्म . ) । फंसना, क्रि. अ. (हिं. फांसना) संग्रंथ-संश्लिषसंबंधू ( कर्म. ), आकुली-संकीणी-भू, संशक्तसंलग्न संश्लिष्ट (वि.) भू २. जाले पाशे वा धृ-बंधू ( कर्म. ), जालबद्ध (वि.) भू । फंसवाना, क्रि. प्रे., ब. 'फंसाना' के प्रे. रूप । फंसाना, क्रि. स. (हिं. फंसना ) संश्लिष् (प्रे.), संग्रंथ (क्रू.प.से.), आकुली - संलग्नी-संकीर्णी कृ २. पाशेन बंधू (क्रू. प. अ.) जाले धृ (चु.), पाशे पत् ( प्रें. ) । [ ४०२ ] फंसाव, सं. पुं. फंसावट, सं. स्त्री. व्यतिकरः, संकरः । फ्रक, वि. ( अ. फ़क़ ) श्वेत, शुक्ल, स्वच्छ २. विवर्ण, मंदप्रभ । रंग — होना या पड़ जाना, मु., पांडुच्छाय विवर्ण (वि.) भू, मंद-न्लान मलिन, प्रभ(वि.) जन (दि, आ.से.) २. आकुली भू, मुह (दि. प. से.) । फकत, वि. (अ.) अलं, पर्याप्त २. एकाकिन् । [क्रि.वि., केवलम् । फकीर, सं. पुं. (अ.) भिक्षु, भिक्षुकः २. साधुः, सन्न्यासिन ३. निर्धनः । (हिं. फंसना) संश्लिष्टता, ग्रंथित्वं २. संकुलता, फकीरनी, सं. स्त्री. ( अ. फकीर> ) भिक्षुकी, भिक्षोपजीविनी, भिक्षाचरी २. परिनामिका, सन्न्यासिनी, वैरागिणी । फकीरी, सं. स्त्री. ( अ. फकीरी) भिक्षुकता, याचकता २. सन्न्यासः ३. दारिद्र्यम् । फक्कड़, वि. ( अ. फकीर ) निश्चित २. निर्धन, ३. निश्चितदरिद्र । सं. पुं., गाली, अस्लीलवचनम्, अश्लील-ग्राम्य- अवाच्य, वचनं २. मिथ्यावचनम् । - बाज, सं. पुं., अवाच्यवाचक: अश्लीलभाषिन् २. मिथ्याभाषिन् । फटकारने योग्य बाजी, सं. स्त्री, अश्लीलभापिता, अवाच्य वाचकता । फक्किका, सं. स्त्री. (सं.) तत्त्वनिर्णयार्थमुपस्थापितः पूर्वपक्ष: २. छल, कपटम् दंभः । फखर, सं. पुं. (फ़ा. फखर) गर्वः, अभिमानः । फगुआ, सं. पुं. (हिं. फागुन ) होलिकोत्सवः २. होलिकागीतानि (न. बहु. ) । फ़ज़ीलत, सं. स्त्री. (अ.), गौरव, महत्ता । — की पगड़ी, मु., विद्वत्ताप्रमाणम्, वैदुयोष्णीषम् । फज़ीहत, सं. स्त्री. (अ.) दुर्गति: (स्त्री.) दुर्दशा, २. कलहः । फ़जूल, वि. ( अ ) निरर्थक, व्यर्थ । खर्च, वि. ( अ. + फा) मुक्तहस्त, अपव्यर्थ, व्यायिन् । खर्ची, सं. स्त्री, अति-अप-अमित, व्ययः, मुक्तहस्तता । फ़ज़ल, सं. पुं. ( अ. ) कृपा, अनुग्रहः । फट, सं. स्त्री. (अनु. ) फटिति शब्दः ध्वनि | - फट, सं. स्त्री, फट-फटाशब्दः २ प्रजल्पः । - से, क्रि.वि., झटिति सपदि । फटक', सं. पुं. दे. 'स्फटिक' | फटक े, क्रि. वि. (अनु. ) तत्क्षणे, झटिति । फटकन, सं. स्त्री. (हिं. फटकना) बुधं-सं तुषः, असारद्रव्यम् । फटकना, क्रि. स., (अनु. फूट ) प्रस्फुट् (प्र.). प्रस्फोटन - शूर्पेण विशुधू (प्रे.) २. दे. 'पीजना " ३. दे. 'फटफटाना' । ४. रेणुं अपमृज् ( अ. प. से. ), निर्धूली कृ ५. क्षिप् (तु. प. अ.), अतू ( दि. प. से)। क्रि. अ., या ( अ. प. अ.), गन् २. दूरी-गृथग्-भू ३. 'तड़फड़ाना' ४. अन ( दि. प. से. ) । फटकरी, सं. स्त्री. दे. 'फिटकरी' । फटकार, सं. स्त्री. (अनु. फट् + सं . कार:>> ) निर्भर्त्सना, वाग्दंड:, उपालंभः, निश, आक्रोशः गर्दा । फटकारना, क्रि. स. ( पूर्व . ) शिलायां आहत्य आहत्य वस्त्राणि प्रक्षल् ( चु.) २. दूरी- पृथककृ ३. निर्भत्स् - तज्' (चु. आ. से.) वाचा दंड ( चु. ), निंदू (भ्वा. प. से. ) ४. सफटफटशब्दं एज्-कंप् ( प्रे. ) । फटकारने योग्य, वि., निर्भत्र्सनीय, तर्जनीय । For Private And Personal Use Only Page #441 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir फटकारने वाला [४०३] फफोला फटकारने वाला, सं. पुं., निर्भर्त्सकः, तर्जकः।। फड़फड़ाना, क्रि. स. ( अनु. फड़फड़>) फटफटकी, सं. स्त्री. (हिं. फटक२> ) शाकुनिक- फटायते ( ना. धा.), फटफटाशब्दं जन् (प्रे.) पंजर:-रम् । २. पक्षी विधू (स्वा. उ. से.; क्र. उ. से., फटना, क्रि. अ. (हिं. फाड़ना ) विदृ-विभिद्. । भ्वा. उ. से., चु.), आस्फल-विचल (प्रे., विश( कर्म. ) २. स्फुट (तु. प. से.), दल दे. 'फटफटाना' । क्रि. अ., क्षुभ् (दि.प.से.), (भ्वा. य. से.) ३. खंडशो भिद् ( कर्म.)। आकुली भू २. उत्सुकः वृत् (भ्वा. आ. से.)। शकली भू ४. अप-वि क (तु. प. से.) इतस्ततः । फड़फड़ाहट, सं. स्त्री. (हिं. फड़फड़ाना) विद्र (भ्वा. प. अ.) ५. अत्यंत व्यथ ( भ्वा. पक्ष,-आस्फालनं-विधुवन-विचालनं २. स्फुरणं, आ. से.) ६. अम्ली भू। स्पंदनं, विकंपः ३. आकुलता, चित्त,-वेग:-भ्रमः, फट पड़ना, मु. सहसा आपत् (भ्वा. प. से.). संक्षोभः ४. प्रयासः,अति-प्र, यत्नः, चेष्टितम् । उपस्था (भ्वा. आ. अ.)। फड़वाना, छाती-, (शोकातिशयेन) हृदयं विद-द्विधा फड़ाना, JR..' क्रि.प्रे., ब. 'फाड़ना' के प्रे.रूप । भिद् ( कर्म.)। फड़िया, सं. पुं. (हिं. फड़) द्यूतकारकः, फटफटाना, क्रि. स. ( अनु. फटफट) प्र, सभिकः २. दे. 'परचूनिया'। जल्प (भ्वा. प. से.) अपार्थकं वद् (भ्वा. प.से.) | फण, सं. पुं. (सं.) फणा, फणं, कटः,-टा-टी, २. दे. 'फड़फड़ाना' ३. प्रयस-परिश्रम् | स्फटः-टा, भोगः, स्फुटः-टा, दवी-दर्विः (स्त्री.)। (दि. प. से.) ४. फटफटायते (ना.धा.), -कर, सं. . ( सं.) सर्पः, अहिः। फटफटाशब्दं कृ ५. आजीविकायै भृशं चेष्ट -धर, सं. पुं. (सं.) नागः, सर्पः २. शिवः । (न्वा. आ. से.)। -मणि, सं. स्त्री. (सं. पुं.) सर्प-मणिः-रत्नम् । फटा, वि. (हिं. फटना) विदीर्ण, विशीर्ण | फणा, सं. स्त्री. (सं.) दे. 'फण' । २. स्फुटित, विदलित ३. शकलीभूत। सं. पुं., फणी, सं. पु. ( सं.-णिन् ) फणधरः, फणकरः, छिद्रं, वेदः, भेदः। दे. 'सर्प'। -दूध, सं. पुं., अम्लीभूतं क्षीरम् । फणीन्द्र, ) सं. पु. (सं.) अनंतः, शेषः, -पुराना, सं. पुं., चीरं, चीवरं, कटः। फणीश, J भुजगेशः, सर्पराजः । फटे में पाँव देना, मु., अव्यापारेषु व्यापार कृ, फतवा, सं. पुं. (अ.) व्यवस्था, निर्णयः परकायेषु व्याप (तु. आ. अ.)। (इस्लाम)। फटिक, सं. पुं. दे. 'स्फटिक' । फतह, सं. स्त्री. (अ.) विजयः २. साफल्यम् । फट्टा, सं. पुं. (हिं. फटना>) विदीर्णवेणुदंडः।। -मंद, -याब, (अ.+फा.) विजयिन्, फड़, सं. स्त्री. (सं. पणः ) ग्लहः २. धूत, विजेत। शाला-सभा ३. क्रयविक्रयस्थानं ४. पंक्तिः फतिंगा, सं. पु. (सं. पतंगः) शलभः, पतंगमः। (स्त्री.), समूहः। फतूर, सं. पुं. (अ.) दोषः, विकारः, २. हानिः -बाज़, सं. पुं. (हिं.+फा.) सभिकः, द्यूत- (स्त्री.)३. विघ्नः ४. उपद्रवः। कारकः २. वाचालः, वावदूकः । | फन, सं. पु., दे. 'फण'। फड़क, सं. स्त्री. ( अनु.) प्र.,स्पंदः, स्फुरणं, | I. ( अनु.) प्र.,स्पदः, स्फुरण, फन, सं. पुं. (फा.) गुणः, वैशिष्ट यं २. विद्या, कंथः २. पक्ष, चालनं-आस्फालनम् ।। ज्ञानं ३. कलाकौशलं, शिल्पं ४. व्याजः, -उठना, मु., प्रसद् (दि. प. अ.)। छन्नन् (न.)। -जाना,मु.,अनुरंज (कर्म.), स्निह् (दि.प.से)। फना, सं. स्त्री. (अ.) प्रलयः, विनाशः, फड़कना, क्रि. अ. (पूर्व.) स्फुर् (तु. प. से.), प्र.,ध्वंसः। वेप-कंप-स्पंद (भ्वा. आ. से.) २. क्षुभ् | फनी, सं. पु., दे. 'फणी' । (दि. प. से.), आकुली भू २. पक्षाः विचल फफोला, सं. पुं. ( सं. प्रस्फोटः ) त्वक्-,स्फोटः, (भ्वा. प. से.), विधू ( कर्म.)। शोफः । दे. 'छाला'।। फड़काना, क्रि. स., ब. 'फड़कना' के प्रे. रूप। दिल के कीले फोड़ना, मु., बैंर, साधनं For Private And Personal Use Only Page #442 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir फब [ ४०४ ] फ़रेली ( रु. प. से. ), क्रोधं प्रकटयति ( ना. धा. ), फ, सं. स्त्री. दे. 'फन' | फबती, सं. स्त्री. (हिं. फबना ) क्ष्वेला - लिका, नर्मन (न.), नमक्तिः (स्त्री.), व्यंग्यवचनं २. समयोचितसूक्तिः (स्त्री.) । शोधनं निर्यातनं कृ ( ना. धा. ), प्रतिहिंस् | फ़रयाद, सं. स्त्री. ( फा . ) दुःखनिवेदनं २. प्रार्थना, अभ्यर्थना ३. अभियोगः । फ़रयादी, सं. पुं. (फ्रा.) दु:खनिवेदक: २. अभियोक्तृ २. प्रार्थिन् । फ़रलांग, सं. पुं. (अं.) क्रोशस्थ पोडशो भागः, अध्वमानमेदः । - उड़ाना, मु., अव-उप, हस् (भ्वा. प. से. ), फ़रलो, सं. स्त्री. ( अं. ) सार्द्धवेतनो दीर्घाववक्रोक्त्या आक्षिप ( तु. प. अ. ) । | — कहना, मु., सहास्यं उपलम् (वा. आ. अ.), सहासं व्यंग्यवचनं प्रयुज (रु. आ.अ.) । फन, सं. स्त्री. (हिं. फबना ) शोभा, छवि: (स्त्री.), सौन्दर्य २. मंडनं, प्रसाधनं, परिष्कारः । पवना, क्रि. अ., (सं. प्रभवनं>) शुभ् (भ्वा. आ. से. ), युज् ( कर्म, ) उपपद् (दि. आ. अ. ), उचित-उपपन्न-अनुरूप युक्त सदृश (वि.) वृत् (भ्वा. आ. से. ) । फरसा, सं. पुं. (सं. परशुः ) दे. 'कुल्हाड़ा' । फ़रहंग, सं. पुं. ( फा . ) कोश:-:, अभिधानं, शब्दसंग्रहः २. टीका, कुंचिका, व्याख्या । फ़रहत, सं. स्त्री. (अ.) मोद:, हर्षः, प्रसन्नता । फरहरा, सं. पुं. (हिं. फहराना ) पताका, केतुः । अवकाशः । पवनेवाला, वि., शोभन, उचित, युक्त, अनु- फ़राख, वि. (फ़ा.) आयत, विस्तृत, विशाल । - दिल, वि. ( फा . ) विशालहृदय, उदार । फ़राग़त, सं. स्त्री. ( अ ) व्यवसाय विश्रामः, उद्योगविश्रांतिः (ft.), २. निश्चितता ३. मलत्यागः । फ़रामोश, वि. ( फा . ) विस्मृत । फ़रामोशी, सं. स्त्री. ( फा . ), विस्मृति: (स्त्री.), विस्मरणम् २. स्खलनं, स्खलितम् । फ़रार, वि. (अ.) (दंडभयात् ) पलायित, अपक्रांत । फ़रिश्ता, सं. पुं. ( फा. मि. सं. प्रेषित: ) दिव्य ईश, दूतः २. देवता । फ़रीक, सं. पुं. (अ.) प्रतिद्वंद्विन, विपक्षिन् २. वादिन, अर्थिन्, प्रतिवादिन्, प्रत्यर्थिन् ३. पक्ष: प्रतिपक्षः ४. पक्ष्यः, सपक्षः ५. श्रेणी, वर्ग: 1 सानी, (सं. पुं. अ. ) प्रतिवादिन् । फ़रीकैन, सं. पुं. ( अ. ) ( व्यवहारे) पक्षप्रतिपक्षौ, वादिप्रतिवादिनौ, अभियोग्य• भियुक्तौ । रूप, सदृश । पवीला, वि. (हिं. फब ) शोभन, सुन्दर, २. उचित, अनुरूप | फरक, फरकन, सं. स्त्री. दे. 'फड़क' । फ़रक, सं. पुं., दे. 'फर्क' । फरकना, क्रि. अ., दे. 'फड़कना' । करजद, सं. पुं. ( का . ) पुत्रः, तनुजः । फरजी, सं. पुं., दे. 'फर्जी' । शरद, सं. स्त्री. दे. 'ई'' | फरकंद, सं. पुं. (अनु. फर + हिं. फंदा ) माया, कपट, छलं, छद्मन्, (न.), व्याज: २. भाव: हाव: । फरफर, सं. पुं. (अनु.) पक्ष, स्फुरणं-आस्फालनम् । क्रि. वि., सवेगं शीत्रं, द्रुतं २. अप्रतिहतम् । काशः, अवकाशभेद: । फ़रवरी, सं. स्त्री. ( अं. फेब्रुअरी ) आंग्ल संवत्सरस्य द्वितीयो मासः । फरफराना, क्रि. स., क्रि.अ., दे. 'फड़फड़ाना' । फ़रमा', सं. पुं. (अं. फ्रेम ) घटना, रचना २. दे. 'कालबूत' ३. आकारसाधनम् । फ़रमारे, सं. पुं. ( अं. फार्म ) सकृन्मुद्रणा पूर्णपत्रम् | फ़रमान, सं. पुं. (फ़ा. ) राजकीय आज्ञापत्रं, अनुशासनपत्रं २. आज्ञा, आदेशः । फ़रमाना, क्रि. स. ( फा . ) आज्ञा ( प्र . ), आदिश् ( तु. प. अ.) शास् ( अ. प. से. ) २. कथ् ( चु. ) । फरुहा, सं. पुं., दे. 'फावड़ा' । फरेंद-दा, सं. पुं. ( सं . फलेन्द्रः ) राज-महाजंबु:, नंदः । फ़रेब, सं. पुं. ( फा . ) छल, कपटं, प्रतारणा । फ़रेली, वि. ( फ्रा.) छलिन्, कापटिक, प्रतारक । For Private And Personal Use Only Page #443 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir फरोख्त [ ४०५ ] फलित फरोख्त, सं. स्त्री. (फा.) विक्रयः-यणम् । (-पाना, क्रि. स., ( स्वकर्मणाम् ) फलं भुज् फर्क, सं. पुं. (अ.) पृथक्ता-त्वं, भिन्नत्वं, (रु. आ. अ. )-लभ (भ्वा. आ. अ. ) प्राप् इतरत्वं २. अंतर, भेदः, विशेषः ३. दूरता-त्वं, ( स्वा. प. अ.)। अंतरं ४. न्यूनता, विकलता। -प्राप्ति, सं. स्त्री. (सं.) कृतकार्यता, मनो. ज़', सं. पुं. (अ.) धार्मिककृत्यं ( इस्लाम ) रथसिद्धिः ( स्त्री.)। २. कर्तव्यकर्मन् (न.) ३. कल्पना -भोग, सं. पुं. (सं.) उदकांनुभवः, परि. ४. उत्तरदायित्वम् । णामोपभोगः। -करना, क्रि. अ., क्लुप् (प्रे.), उत्प्रेक्ष -राज, सं. पुं. (सं.) दे. 'तरबूज' २. दे. ( भ्वा. आ. से.); (प्रमाणं विना ) सिद्धं मन् | 'खरबूजा'। (दि. आ. अ.)। फलक, सं. पु. ( सं. पुं. न.) (काष्ठादिकस्य ) फी , सं. पु. (फा.) कल्पित, काल्पनिक, | पट्टः-टं २. शिला ३. ढालं, चर्मन् (न.) २. सत्ताहीन, वितथ। ४. रजकपटुं५. आस्तरणं ६. पत्रं,पृष्ठं ७. हस्तफर्द, सं. स्त्री. (अ.) सुची-चिः (स्त्री.)। तलं ८. फलं ९. पीठं, पीठिका। नामावली-लिः (स्त्री.), अनुक्रमणिका फलक, सं. पुं. (अ.) आकाशः-शं, गगनं २. २. पृथकस्थितः पत्रवस्त्रादिखंड: २. प्रच्छदपट- स्वर्गः। स्योपुटः । वि., अनुपम, अतुल्य । फलतः, अव्य. (सं.) परिणामतः, अतः, इति फयाद, सं. स्त्री., दे. 'फरयाद'।। हेतोः, अस्मात् कारणात् । फरटा, सं. पुं. ( अनु.) त्वरा, वेगः २. दे. फलद, वि. (सं.) फल,दायक-प्रद-जनक । 'खरोटा'। फलना, क्रि. अ. ( सं. फलनं) , ‘फल आना' फराश, सं. पुं. (अ.) कुथप्रसारकः २. किंकरः।। ( 'फल' के नीचे) २. फलं आवह ( भ्वा. प. फर्श, सं. पुं. (अ.) कुट्टिमः-म., शिलास्तरः । अ.), लाभं जन् (प्रे.)। २. गृहभूमिः ( स्त्री.) आस्तरणं, कुथः-था, --फूलना, मु., समृध् (दि. प. से.), संवृथ नमतं, परिस्तोमः। (भ्वा. आ. से.), उत्कर्ष या (अ. प. अ.)। फल, सं. पुं. (सं. न.) शस्यं, प्रसवः, उत्पन्नं । फलसफ़ी, सं. पुं. (अ.) दर्शनशास्त्रं, तर्क, २. लाभः, प्राप्तिः (स्त्री.) ३. परिणामः, विद्याशास्त्रम् । ४. गुणः, प्रभावः ५. कर्मभोगः ६. प्रतिफलं, फलसफ़ा, सं. पुं. (अ.) दार्शनिकः, तत्त्वज्ञः, प्रतीकारः ७. धारा, पत्रं, फलं (खड्गादिकस्य) दर्शनशास्त्रज्ञः । ८. फालः, कुशी, कृषकः ९. फलकः-कं फलां, वि. (फा.) अमुक । १०. ढालं, फर, चर्मन (न.) ११. उद्देश्यसद्धिः -फलाँ, वि. अमुकामुक, विशिष्ट, निर्दिष्ट । (स्त्री.) १२. गुण्यः ( गतिः) १३. गणित- फलांग, सं. स्त्री., दे. 'कुदान' । क्रियापरिणामः (उ. योग-गुणन,-फलं ) ! फलांगना, क्रि. अ. (सं. प्रलंघनम् ) दे. १४. क्षेत्रफलं १५. ग्रहयोगपरिणामः ( ज्यो.) 'कूदना'। १६. प्रयोजनं, अर्थः १७. वृद्धिः ( स्त्री.), फलाकांक्षी, वि. ( सं.-क्षिन् ) फलेच्छुक, फला भिलाषिन् । -आना, या लगना, क्रि. अ., फल (भ्वा. प. फलाना, वि., दे. 'फलां'। से.), सफलीभू , फलवत् जन् (दि. आ. से.), फलार्थी, वि. ( सं.-र्थिन् ) फलेच्छुक, फलाभिफलित (वि.) भू। लाषिन् २. परिणामोत्सुक । -दार, वि.( सं.+फ़ा.) फलवत्, फलदायक, फलाहार, सं. पुं. ( सं.) फलभक्षणं, फलैनिर्वफलद, फलप्रद, फलित, फलिन्, सफल | हणम् । २. अमोघ, अवंध्य । फलाहारी, वि. (सं.-रिन् ) फलभक्षक । -पाक, सं. पुं. (सं.) करमईकः २. जला- फलित, वि. (सं.) फलवत्, फलिन्, प्राप्तफल मलकं ३. फलपरिणतिः (स्त्री.)। । २. संपन्न, पूर्ण। For Private And Personal Use Only Page #444 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir फली - ज्योतिष, सं. पुं. (सं. न. ) दैवज्ञविद्या | फली, सं. स्त्री. (हिं. फल) बीजपुटं, बीजकोष: । फलोता, सं. पुं. ( अ. फतीलहू ) वर्तिका, वर्ति: (स्त्री.) २. नालीकास्त्रवतिः, फली । फलीभूत, वि. (सं. > ) सफल, फलप्रद । फलोदय, सं. पुं. (सं.) फलोत्पत्तिः (स्त्री.) २. लाभः ३. हर्षः ४. स्वर्गः । [ ४०६ ] फ़सल, सं. स्त्री. ( अ. फस्ल ) शस्यं धान्यं, अन्नम् २. ऋतुः ३. कालः । फ़साद, सं. पुं. (अ.) संक्षोभः, विप्लव: २. कलह:, उपद्रवः २. विकार:, विक्रिया । फ़सादी, वि. ( फा. ) विद्रोहिन्, विप्लवकारिन् २. उपद्रविन्, कलहप्रिय । फ़साना, सं. पुं. ( फा . ) आख्यायिका, लघु-, कथा । फ़साहत, सं. स्त्री. (अ.) भाषा सौष्ठवं परिष्कृतिः (स्त्री.) । फ़सील, सं. स्त्री. ( अ. ) प्राकारः, वरण:, वप्रः, वप्रम्। फहरना, क्रि. अ. ( सं . प्रसरणम् ) प्रसृ ( स्वा. प. अ.), उद्डी (भ्वा. आ. से. ) । फहराना, क्रि. स., 'फहराना' के धातुओं के प्रेरणार्थक रूप । फाँक, सं. स्त्री. (सं. फलकम्> ) खण्डं-ड:, शकलं-ल: २. छुरिका ३. रेखा । फाँकना, क्रि. स. (हिं. फंकी ) हस्ततलेन मुखे निक्षिप् (तु. प. अ.) । सं. पुं., चूर्णस्य मुखे निक्षेपणम् । फाँदना, क्रि. अ. (सं. फणनं> ) कुद् (भ्वा. आ. से. ) उत्प्लु ( भ्वा. आ. अ.) २. उल्लंघू (भ्वा. आ. से. ) । सं. पुं., उत्प्लवनं, कूर्दनं, उल्लंघनम् । फाँस, सं. स्त्री. (सं. पाशः ) बंधनम्, दे. 'फंदा' । फानूस, सं. पुं. ( फा . ) *दीप, कोषः -पुट: । फ़ायदा, सं. पुं. ( अ. फाइदह् ) लाभ:, धनागमः, आयः २. प्रयोजनसिद्धि: - ईप्सितप्राप्तिः (स्त्री.) ३. सुफलं, सुपरिणामः ४. नीरोगता | - मंद, वि., लाभदायक, उपकारक । फारखती, सं. स्त्री. ( अ. फ़ारिंग +खती ) दायित्वत्यागः २. दायित्वत्यागपत्रम् | फारम, सं. पुं. ( अं. फ़ार्म ) प्रपत्रम् | फ़ारमूला, सं. पुं. ( अं. ) सूत्रम् । फ़ारस, सं. पुं. (फ़ा. ) पारसि (सी) कः । फ़ारसी, सं. स्त्री. ( फ्रा. ) पारसी । -दा, वि. पारसीविद्, पारसीपंडित । फ़ारिग, बि. ( फ़ा. ) लब्धावकाश, निर्वर्तितव्यापारः, निवृत्त । | फालतू फाग, सं. पुं. (हिं. फागुन ) होलिकोत्सवः २. रक्तचूर्णभेदः ३. होलिकागीतम् । फागुन, सं. पुं. ( सं. फाल्गुन: दे. ) । फाटक, सं. पुं. ( सं . कपाट: ) अंगनद्वारं, बृहद्द्वारम् २. लौहद्वारम् ३. दे. 'काँजी हौद ' । फाड़ना, क्रि. स. ( सं . स्फोटनम् ) ब्रश्च (तु. प. से. ), भिद्-छिद् (रु. प. अ.), विद (प्रे.) २. खण्डू (चु.), मंजू (रु. प. अ.) । सं. पुं., ब्रश्चनं, भेदनं, छेदनं, विदारणं, विपाटनं २. खंडनं., भंजनम् । * | फाँसना, क्रि. स. (हिं. फॉस ) पाशयति ( ना. धा. ) २. वच्-प्रतृ ( प्रे. ) । फाँसी, सं. स्त्री. (हिं. फाँस ) उबंधनम् २. मृत्युदण्डः २. पाशः, बंधनम् । -- देना, क्रि. स., उद्वध्य हन् ( अ. प. अ.) । फ़ाइल, सं. स्त्री. (अं. ) पत्रसंग्रहः २. पंक्तिः (स्त्री.) ३. सूत्र, गुणः । उपोषितं, फाका, सं. पुं. (अ. फाकह् ) उपवासः, लंघनम् । - होना, मु., कार्यमुक्त, लब्धावकाश भू २. शौचाय गम् । फ़ारेन, वि. (अं.) विदेशीय, परदेशीय, - पार,-देशिक । - आफिस, सं. पुं. ( अं.) विदेश-परराष्ट्र,कार्यालयः | - सेक्रेटरी, सं. पुं., विदेश-परराष्ट्र-,सचिवः । फ़ारेनर, सं. पुं. ( अं. ) विदेशीयः, परदेशीयः, वैदेशिकः, पारदेशिकः । फ्रारेनहाइट, सं. पुं., जर्मनवैज्ञानिकविशेषः । - थर्मामीटर, सं. पुं. ( अं.) फ़ारेनहाइट तापमापकम् । फारेस्ट, सं. पुं. ( अं.) वनं, जंगलम् । – डिपार्टमेंट, सं. पुं. (अं.) वन जंगल,विभागः । फाल, सं. स्त्री. (सं. पुं. न. ) कुशिलं, कृषिका, हलोपकरणम् । फ़ालतू, वि. (हिं. फाल = टुकड़ा ) उपयुक्ताव For Private And Personal Use Only Page #445 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra फ़ालसा फुदकना आ. से.) । सं. पुं., भ्रमणं, विचरणं ४. वायुसेवनम् ३. प्रत्यागमनं, निवर्तनम् । फ़ालसा, सं. पुं. ( फ़ा. ) गिरिपीलु (न.), फिरनी, सं. स्त्री. ( फा. फ़ीरीनी ) पायसभेदः । नीलमंडल, परावतम्, परुपकम् । फिराना, क्रि. स. (हिं. फिरना ) इतस्ततः प्रेर् फ़ालिज, सं. पुं. (अ.) पक्षाघातः, गात्रसादः । ( प्रे. ) २. प्रत्यावृत् ( प्रे) ३. चक्रवत् भ्रम फाल्गुन, सं. पुं. (सं.) फल्गुनः तपस्यः, ( प्रे. ) । वत्सरान्तकः, फाल्गुनिकः २. अर्जुनः ३. फिल्टर, सं. पुं. ( अं. ) पावम् । अर्जुनवृतः । - पेपर, सं. पुं. ( अं.) पावपत्रम् | फावड़ा, सं. पुं. (सं. फाल: > ) आखान:-नं, फिल्टरेशन, सं. पुं. ( अं. ) पावपत्रम् । टी-गः । फासफोरस, सं. पुं. (अं.) स्फुरं, स्फुरकं, भास्वरम् । फ़ासला, सं. पुं. ( अ. फ़ासलहू ) अन्तरं दूरता, विप्रकर्षः । www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir • [ ४०७ ] शिष्ट अतिरिक्त २ अनुपयोगिन, निरर्थक ३. अकर्मण्य । फाहा, सं. पुं. (सं. फालम् > ) स्नेहाक्त, तूलखंड: पटखंड: । फिंकवाना, क्रि. प्रे, 'फेंकना' के प्रे. रूप । फिकर, सं. स्त्री. ( अ. फ्रिक ) चिन्ता, दुःखं, खेदः २. ध्यानं, विचारः ३. उपायचिन्ता | फिट, अन्य. (अनु. ) धिक् धिग्धिक् । —कार, सं. स्त्री. (अनु. फिट + सं. कारः ) धिक्कारः, धिक्क्रिया २. अभिशाप:, अभि 1 शपनम् । फ़िट, वि. ( अं.) यथार्ह, उपपन्न । सं. पुं., मूर्च्छा, भ्रमिः (स्त्री.) । फिटकरी, सं. स्त्री. (सं. स्फटिकी) स्फटी, श्वेता, शुभ्रा, फाटकी, तुवरी, स्फटिका । फिटन, सं. स्त्री. ( अं. ) चतुश्चक्रोऽश्वयानभेदः । फिरंग, सं. पुं. ((अं. फ्रांक > ) युरोप - गौरांग, देश: २. विदेशः ३. उपदंशरोगः । फिरंगी, सं. पुं. (हिं. फिरंग ) फिरंग-युरोप - वास्तव्यः-वासिन्, गौरांगः । फिर, क्रि.वि. (हिं. फिरना) पुनर् भूयस्, द्वि: ( दोनों अव्य.) २. अनन्तरं ततः, तत्पश्चात् ३. अतिरिक्तम् । - फिर, क्रि. वि., पुनः पुनः, वारं वारं, असकृत्, उभयोभयः । फिरका, सं. पुं. (अ.) जाति: (स्त्री.), फिसलन, सं. स्त्री. (हिं. फिसलना ) निपत्या, चिक्कणस्थानं, पिच्छिलपथः । फिसलना, क्रि. अ. (सं. प्रस्खलनम् ) (पिच्छि लभूमौ ) प्रस्खल ( भ्वा. प. से. ) । सं. पुं., प्रस्खलनम् । फीका, वि. (सं. अपक्व > ? ) निस्स्वाद, नीरस २. धूमिल, मलिन, ३. निष्प्रम ४. व्यर्थ, निष्फल | फ्रीता, सं. पुं. ( पुर्त. ) पट्टिका ३. बंधन सूत्रम् । फीरोजा, सं. पुं. (फ्रा.) वैदूर्य, हरिन्नीलरत्नम् । फ़ीरोज़ी, वि. (फ़ा. ) हरिनील । फीस, सं. स्त्री. (अं. बहु.) शुल्कः-कम, दक्षिणा । फुंकना, क्रि. अ. (हि. फूकना ) दहू, भस्मसात् भू । फुंकनी, सं. स्त्री. (हिं. फूकना ) धमनी २. भस्रा । फुंकार, सं, पुं. (अनु. फुं. + सं. कारः) फूत्कार: २. सर्पनिःश्वासः ३. सक्रोधं निःश्वसनम् । फुंकारना, क्रि. अ. (हिं. फुंकार ) फूत्कृ, सर्पवद श्वसू ( अ. प. से. ) । फुंसी, सं. स्त्री. (सं. पनसिका > ) पिटि (ट) का, वरंडः, वरंडकः । फ्रुट, सं. पुं. (अं.) गजतृतीयांशः, चरणमानम् । २. चरणम्, पादः । फुटकर, वि. (सं. स्फुटं > ) अयुग्म, विषम २. पृथक् स्थित, संबंध रहित ३. विविध, बहुप्रकार ४. अल्पाल्प, स्तोकस्तोक । फ़ुटनोट, सं. पुं. ( अं.) पादटिप्पणी । फ़ुटपाथ, सं. पुं. (अं. ) पदपथः । फ्रुटबाल, सं. पुं. ( अं.) पदकन्दुकः २. पद कन्दुक-क्रीडा | सम्प्रदायः । फिरना, क्रि. अ. (हिं. फेरना ) इतस्तत: अट्विचर्-भ्रम् (बा. प. से.) २. वायुं. सेव् (भ्वा. आ. से. ) ३. प्रत्यागम्, निवृत (भ्वा ! फुदकना, क्रि. अ. (अनु.) उप्लुत्य गम् For Private And Personal Use Only Page #446 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [४०] फेफड़ा ( भ्वा. प. अ.) २. नृत् (दि. प. से.)। फँस, सं. स्त्री. (घास से अनु.) पलाल:-लं, सं. ए. उत्प्लवन, नर्तनम् । | पलः २. शुष्क,-तृणं-घासः। फुनगी, सं. स्त्री. ( सं. स्फुटनम् ) शाखा-विटप, फूट, सं. स्त्री. (हिं. फूटना) चित्रा, मरुजा, अग्रंपटव:-अग्रांकुराः (बहु०)। | चिभिटा, पथ्या २. विश्लेषः ३. विरोधः, फुप्फुस, सं. पु. (सं.) दे. 'फेफड़ा। मतभेदः। फुफकार, सं. पु. ( अनु.) दे. 'फुकार'। -डालना, क्रि. स., विरोधं जन् (प्रे.)। फुफेरा, वि., (हिं. फूफा) पैतृष्वसेय, पि (प) फूटना, क्रि. अ. (सं. स्फुटनम् ) भिद्-छिद्तृष्वस्रीय। विद (कर्म. ) स्फुट (तु. प. से.) २. विकस्फरकत, सं. स्त्री. (अ.). वियोगः, विरहः।। फुल्ल (भ्वा. प. से.)। फुरती, सं. स्त्री. ( सं. स्फूतिः) शीघ्रता, | फूत्कार, सं. पुं. (सं.) दे. 'फुकार' । क्षिप्रकारिता। फूफा, सं पुं. (देश.) पितृष्वस, पतिः-धवः । फुरतीला, वि. (हिं. फुरती) शीघ्र-क्षिप्र, फूफी, सं. स्त्रा. (हिं. फूफा ) पितृष्वस। कारिन, स्फूतिमत् । फूल, सं. पुं. (सं. फुल्लम्) कुसुमं, प्रसून, पुष्पम् । फुरना, क्रि. अ. (सं. स्फुर् ) प्रादुर्भू, प्रकटीभू |-दान, सं. पुं., कुसुमभाजनं, फुल्लधानन् । २. कंप-वेप (भ्वा. आ. से.) ३. प्रकाश -दार, वि., पुष्पित, सपुष्प ।। (श्वा. आ. से.) ४. फुरफुरायते (ना.धा.)। फूलना, क्रि. अ. (हिं. फूल) फुल्ल-विकस फुरसत, सं. स्त्री. (अ.) अवकाशः, रिक्तसमयः (भ्वा. प. से.) २ प्रमुद् ( भ्वा. आ. से.)। २. अवसरः, समयः। सं.पु.,विकासः,प्रस्फुटनं २. प्रमोदः, आह्लादः। फुलका, सं. पुं. (हिं. फूलना ) लघु-तनु, | फूला, सं. पुं. 1 (हिं. फूल ) शुक्र, पुष्पम्, सेटिका २. विस्फोटः, पिटिका। फूली, सं.स्त्री.] पुष्पकं, नेत्ररोगभेदः।। फुलझड़ी, सं. स्त्री. (हिं. फूल+झड़ना) फूस, सं. पु., दे. 'फूस'। फुल्लक्षारिणी २. कलहकारिणी वाता। फूहड़, वि. ( अनु.) जड, मूढ, मन्दमति २. फुलवाड़ी, सं. स्त्री. (सं. फुल्लवाटी) पुष्प कदाकार, कुसुम,-वाटी-वाटिका, उद्यानम् २. वरयात्रायाः | फेंकना, क्रि. स. (सं. क्षेपणम् ) क्षिप-मुच् कर्गल-निर्मिता फुल्लवाटी ३. पुत्रकलत्रादयः। (तु. प. अ.), प्र-अस् (दि. प. से.) २. फुलाना, क्रि. स., ब. 'फूलना' के प्रे. रूप। प्रमादेन पत् (प्रे.) ३. सावमानं त्यज् ( भ्वा. फुलेल, सं. पुं. (हिं. फूल+तेल) सुगन्धितैलम् । प. अ.) ४. अपव्यय (चु.)। सं. पुं., क्षेपणं, फुल्ल, वि. (सं.) विकसित, स्फुटित, उन्निद्र।। प्रासनं, पातनं, अपव्ययः। फुसफुसा, वि. ( अनु. फुस ) शिथिल, श्लथ | फेंकने योग्य, वि., क्षेपणीय, त्यक्तव्य । २. भंगुर, भिदुर ३. अशक्त, दुर्बल। -वाला, सं. पुं., क्षेपकः, प्रासकः। फुसलाना, क्रि. स. (हिं. फिसलाना ) प्रत-वंच | फेंका हुआ, वि., क्षिप्त, प्रास्त, त्यक्त । (प्रे.), विप्रलभ (भ्वा. आ. अ.)। फेंटना, क्रि. स. (सं. पिष्ट ) मंथ् (क्र. प. से.), फुहार, सं. स्त्री. (सं. फूत्कारः>) शीकरवर्षः, । मथ्-खज् (भ्वा. प. से.) २. क्रीडापत्राणि मन्दवृष्टिः (स्त्री.)। मिथ (चु.)। फुहारा, सं. पुं: (हिं. फुहार ) जल-धारा, फेंटा, सं. पुं. (हिं. पेटा वा पेटी ) परिकरः, यन्त्रम् २. जलोत्क्षेपः। कटिबंध:-पट: २, लघूष्णीषं-पः । फॅक, सं. स्त्री. ( अनु. फू) फूत्कारः, ध्मानम् फेन, सं. पुं. (सं.) जलहासः, अब्धिकफः, २. मुखमारुतः, श्वासः। मण्ड:-डं, डिण्डीरः, अंबुकफः।। -मारना, क्रि. स., फूल्क, ध्मा (भ्वा. प. अ.)। फेनिल, वि. (सं.) फेन, युक्त-आवृत, फेनल । फूंकना, क्रि. स. (हिं. फॅक) दह (भ्वा. फेनी, सं. स्त्री. (सं. फेनिका) पक्वान्नभेदः। . प. अ.), भस्मसात् कृ२. फूत्कृ। फेफड़ा, सं. पुं. (सं. फुप्फुसः सम् ) तिलक, दूंकनी, सं. स्त्री. दे. कनी'। - क्लोम, क्लोमन् (न.), फुप्फुसं-सः, रक्तफेनजः । For Private And Personal Use Only Page #447 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir केकड़ी [ ४०६ ] फेफड़ी, सं. स्त्री. दे. 'पपड़ी। फैलाव, सं. पं. (हिं. फैलना) विस्तारः, प्रसारः फेर, सं. पुं. ( हिं. फेरना) भ्रामणं, परिवर्तनम् । २. विततिः-व्याप्तिः (स्त्री.)। २. भ्रान्तिः ( स्त्री.), भ्रमः ३. पुनर् (अव्य.)। फैशन, सं. पुं. (अं.) रीतिः, प्रथा २. शैली, फेरना, क्रि. स. (सं. प्रेरणम् ) घूर्ण-परिभ्रम् विधिः, वेषभूषा। (प्रे.) २. प्रतिदा-प्रत्य (प्रे.) ३. प्रतिया- फैसला, सं.पं. (अ.-लह) निर्णयः, संप्रधारणम् । प्रतिनिवृत (प्रे.) सं. पुं. घूर्णनं, परिभ्रामणं, फोक, सं. पुं. (हिं. फूंकना) मल:-लं,उच्छिष्टं, प्रतिदानं, प्रत्यर्पणम्, प्रतियापनं, प्रतिनि- | शेषं, अवकरः। वर्तनम्। फोकट, वि. (हिं. फोक ) निस्सार, तत्त्वहीन । फेरफार, सं. पुं. (हिं. फेरना ) परिवर्तनं, विप- फोकस, सं. पुं. ( अं.) रश्मिकेन्द्रम् । र्यासः, विपर्ययः २. व्याजः, कपटम् । फोटो, सं.पं. (अं.) छायाचित्रं, आलोकालेख्यम् । फेरा, सं. पु. ( पूर्व. ) प्रत्यावर्तनं, प्रत्यागमन -का केमरा, सं. पुं., छायाचित्रपेटिका । २. भ्रमणम्, परिक्रमणम् ३. द्विरागमनः । -ग्राफर, सं. पुं( अं.) छायाचित्रकः । फेरी, सं. स्त्री. (पूर्व.) परिक्रमा, प्रदक्षिणा --ग्राफी, सं. स्त्री. ( अं.) छायाचित्रणम् । २. दे. 'फेरा' ३. दे. 'फेर'। फोड़ना, क्रि. स. ( सं. स्फोटनम् ) स्फुट-विदृ. -वाला, सं. पुं., भाण्डवाहः, वैवधिकः। खण्ड (प्रे.)। सं. पुं., विदारणं, स्फोटनं, फेल, वि. ( अं. ) विफल, मोघयत्न, अनुत्तीर्ण । खण्डनम् । फैक्टरी, सं. स्त्री. ( अं.) शिल्पशाला। फोड़ा, सं. पु. ( सं. स्फोटः ), पिटकः, गण्डः, फैलना, क्रि. अ. ( सं. प्रसरणम् ) वितन्-विस्तु । विद्रधिः। (कर्म.) २. व्याप ( स्वा. प. अ.) ३. आप्य | फौज, सं. स्त्री. ( अ.) सेना, बलं, सैन्यम् । (भ्वा. आ. अ.) पीनी भू ४. प्रख्यात (वि.) जन् (दि. आ. से.) ५. आग्रहं कृ । सं. पुं., -दार, सं. पुं., (फा.) सेनापतिः, सेनानीः । विस्तारः, विततिः-व्याप्तिः (स्त्री.)। -दारी, सं. स्त्री. (फा. ) दण्डाधिकरणम् फैला हुआ, वि., विस्तृत, वितत, व्याप्त, २. कलहः, कलिः। आप्यायित, पीन, प्रख्यात, प्रसिद्ध । फौजी, वि. ( का.) सैनिक, यौध । सं.., फैलसूफ़, सं. पुं. (अ. फ़िलसफ़ड) बुधः, | सैनिकः, योधः। सानकः, याचः । प्राज्ञ: २. छलिन्, कपटिन्। ३. अपव्ययिन् । | फौरन, क्रि. वि. ( अ.) सपदि, सद्यः झटिति, फेलसूफ़ी, सं. स्त्री., (अ.) बुद्धिमत्ता, प्राज्ञता । अचिरात् ( सब अन्य.)। २. लं, कपटम् ३. अपव्ययः, मुक्तहस्तता। | फौलाद, सं. पु. (फा. पोलाद ) वापस, फैलाना, क्रि. स., ब. 'फैलना' के प्रे. रूप। । सारलोह, शस्त्रकम् । ब, देवनागरी वर्णमालायाः त्रयोविंशो व्यंजन-। अशस्यप्रद । सं. पुं. ऊपरः-रम्, अनुर्वरा भूः वर्णः, बकारः। (स्त्री.) ३. मरुस्थलम् । बंग, सं. पुं. (सं. वंगाः बहु.) भारतस्य प्रांत. | बंजारा, सं. पुं. ( सं. वणिज ) धान्य, वणिजविशेषः। . व्यवसायिन् । बँगला', वि. ( हिं. बंगाल ) वांग, वंगदेशीय । | बँटना,कि. अ. (सं. वंटनम्) विभज-चंट (कर्म.)। सं. स्त्री., वंगभाषा। बँटवाना, क्रि. प्रे., 'बाँटना' के धातुओं के प्रे. बँगला, सं.पु. (अं. बँगलो) एकभूमि भवनम् ।। रूप। बंगाल, सं. पु. ( सं. वंगाः बहु.) गप्रान्तः। | बंडल, सं. पुं. (अ.) पोट्टलिका, गुच्छा,पोट्टली, बंगाली, वि. (हिं. बंगाल) वंगीय, वंगदेशीय ।। संघातः, भारः, कूर्चः । सं. पुं., वंगवासिन्। बंडी, सं. स्त्री. (हिं. बंद) कु(क)सिकः-कम् । बंजर, वि. (हिं. बन+ऊजड़) ऊपर, ऊषवत्, | बंद, सं. पुं. (फ्रा.) बन्धः, बंधनम् २. अवरोधः, For Private And Personal Use Only Page #448 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir बंदगी [...] उपरोधः ३, विघ्नः । वि., संयत, नियंत्रित | बंधना, क्रि. अ., अवरुध-बन्ध (कर्म.)। २. अवरुद्ध, अन्तरित ३. पिहित, संवृतमुख बंधवाना, क्रि.प्रे., 'बाँधना' के धातुओं के ४. विरत, स्तब्ध। प्रे. रूप। करना, क्रि. स. ( अर्गलेन ) पिधा (जु. उ. बंधु, सं. पु. (सं.) बान्धवः, ज्ञातिः, सजातीय, अ.) रुथ् (रु. उ. अ.), कीलयति (ना. | सगोत्र । धा.) २. निवृ (प्रे.) प्रतिषिध (भ्वा. प. ! बंधुक, सं. पुं. (सं.) रक्तकः, बंधूकः, पुष्पभेदः । से.) ३. विरम्-विश्रम् (प्रे.), स्तम्भ (क्र. प. | बंधुता, सं. स्त्री. (सं.) बन्धुत्वं, सगोत्रता, से.) ४. ( रन्ध्रादिक)पूर (चु.)। सजातीयता २. मैत्री, मित्रता ।। बंदगी, सं. स्त्री. (फा.) प्रणामः २. सेवा बंधेज, सं. पुं. (हिं. बाँधना ) अवरोधोरायः ३. ईश्वरोपासना। २. प्रतिबन्धः ३. नियतकाले देवमादेयं वा 'बंदनवार, सं. पुं. ( सं. वंदनमाला ) द्वारस्था द्रव्यम्। गुष्पपत्रमाला, बंदनमालिका । | बंध्या, सं. स्त्री. (सं.) वन्ध्या, प्रसवशून्यनारी बंदना, सं. स्त्री. (सं. वंदना) प्रणामः, २. वशा, अपत्यरहिता गौः (स्त्री.)। नमस्कारः, वन्दनम् । क्रि. स., प्रणम् (भ्वा. | बंब, सं. स्त्री. ( अनु.) रण-सिंह, नादः, श्वेडा प. अ.), वन्द्र (भ्वा. आ. से.), नमस्कृ।। २. युद्धपटहः ३. अग्निगोलकास्त्रम्। बंदर. सं. पुं. (सं. वानरः) कपिः, मकटः, बंबा. सं. पं. (अ. मंबहा>) जलनालीकीलकः । शाखामृगः, वलीमुखः। (स्त्री. वलीमुखा, बंबकाट, सं. पुं. (मलाया बेंबू+अं. काट) वंशमर्कटी)। शकटम् । -खत, सं. पुं. (सं. वानरक्षतम् ) कपि-बंबो. सं. स्त्री. (सं. वल्मीक:-कम् ) सपविलं मकट, व्रण:-क्षतम् । । २. वल्मीकूट, कूलकः, खोलकः, वामलूरः । .-घुड़को, सं. स्त्री., निस्सार-निष्प्राण-विभी बंसरी, सं. स्त्री. (सं. वंशी) मुरली, वेणु:, पिका-भयप्रदर्शनम् । वंशः, नालिका। का घाव, मु., स्थायि-स्थिर,-व्रण:-क्षतम् ।। बॅहगी, सं. स्त्री. दे. 'बहँगी'। बंदरगाह, सं. पं. (मा.) पोताशयः २. पोताशयपुरम् । बक, सं. पु. ( सं. वकः ) कहः २. असुरविशेषः बंदा, सं. पुं. (का.) मानवः, मनुष्यः ३. कुवेरः। २. सेवकः, मृत्यः। | बकना, क्रि. स. (अनु. बक) जल्प-प्रलप् -निवाज़, वि., दीनदयालु, दीनवत्सल । | ( भ्वा. प. से.), अवाच्यं वद् ( भ्वा. प.से.)। -परवर, वि., अनाथनाथ, दीनबन्धु । बंदिश, सं. स्त्री. (मा.) बंधनं, अवरोधः।। सं. पुं.; प्रजल्पनं, उन्मत्त, प्रलापः । बंदी, सं. पुं. (सं.-दिन ) भट्टः, चारणः, वंदिन बकरा, सं. पु. ( सं. बकरः) स्तुभः, छ(छा)गः, २. कारागुप्त, रुद्ध, वन्दिन् ।। अजः, शुभः, छगलक: (बकरी अजा, सर्व-खाना, सं. पुं., कारागृहं, गुप्तिः ( स्त्री.), | भक्षा, गलस्तनी)। कारा। बकवाद, सं. स्त्री. ( अनु. बक+सं. वाद:>) बंदूक, सं. स्त्री. (अ.) नालास्त्रं, गुलिकास्त्रं, प्रलापः, प्रजल्पः । क्रि. अ., दे. 'बकना' । अग्न्यस्त्रम् । बकवादी, वि. ( हिं. वकवाद ) जल्पक, भला"बंदूकची, सं. पु. ( फ्रा.) नालास्त्रसैनिकः।। पिन्, वाचाल। बंदोबस्त, सं. पुं. (फा.) अवेक्षणं, संविधा | बकायन, सं. पु. (हिं. बड़का+नीम ) द्रेका, २. भूकरविभागः। विषमुष्टिकः, महानिंबः, कार्मुकः । बंधक, सं. पुं. (सं.) न्यासः, निक्षेपः, आधिः। बकुचा, सं. पुं. (सं. विकुंच> ) कूर्चः-र्च, बंधन, सं. पुं. ( सं. न.) प्रतिबन्धः, अन्तरायः पोट्टलिका २, गुच्छः, संघातः । २. बन्धन, ग्रन्थिः ३, रज्जुः ( स्त्री.), शृङ्खला बकुल, सं. पुं. (सं.) बकूलः, सुरभिः, सिंहकारा, बन्दिगृहम् । । केसरः २. शिवः। For Private And Personal Use Only Page #449 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir बुक्की [११] . बट बक्की, वि., दे. 'बकवादी'। बघेला, सं. पुं. (हिं. बाघ) व्याघ्रः, मृगान्तकः । बक्स, सं. पुं. ( अं. बॉक्स ) पेटिका, मंजूषा, बचत, सं. स्त्री. (हिं. बचना ) लाभः, प्राप्तिः संपुटः, समुद्कः , पिटक:-कम् । (स्त्री.) २. संचयः, संग्रहः ३. संचित-रक्षित, बखिया, सं. पुं. (फ़ा.) दृढसूक्ष्म, सीवन-स्यूतिः । अवशिष्ट,-धनम् । (स्त्री.)। . बचना, क्रि. अ. ( सं. वंचनम् > ) रक्ष निर्मुच बख बी, क्रि. वि. (फा.) सम्यक , साधु, सुष्टु । (कर्म.) २. अवशिष् ( कर्म.)। . (सब अव्य.)। बचपन, सं. पुं. (हिं. बच्चा) बाल्यं, कौमारं, बखेड़ा, सं. पुं. (हिं. बिखेरना) विपत्तिः, | बालत्वम् । संकटन् २. विवादः ३. कठिनता। बचाना, क्रि. स. (हिं. बचना ) परित्रै ( भ्वा. बखेडिया, वि. (हिं. बखेड़ा ) विवाद-कलि- आ. अ.), रक्ष-गुप् (भ्वा. प. से.) २. अवकलह,-प्रिय, विवादिन् । शिष (प्रे.), संचि ( स्वा. उ. अ.)। बखेरना, क्रि. स., दे. 'बिखराना'। बचाव, सं. पु. ( पूर्व.) रक्षा, त्राणं, उद्धारः, बख्त, सं. पु. (फा.) भाग्यं, दैवं, अदृष्टम् गोपन, ऊतिः (स्त्री.)। २.सौभाग्यम् । बख़्शीश, सं. स्त्री. (फा.-शिश ) दानम् बख्तावर, वि. (फा.) भाग्यशालिन्, सुभग, २. पारितोषिकम् ।। माभाग। बच्चा, सं.पु. (फा.-चह) वत्सः, बालः, बालकः, बख़्शना, क्रि. स. (फा. बख्श) दद् ( भ्वा. शिशुः २. शावः, शावकः ३. अज्ञानिन् । आ. से.), विश्रण (चु.), उत्सृज् (तु.| -दानी, सं. स्त्री., गर्भाशयः, गर्भकोषः । प. अ.)। | बच्ची, सं. स्त्री. (फ़ा.) वत्सा, बाला, बालिका । बख्शिश, सं. स्त्री: (का.) दानम् २. दत्त- बछड़ा, सं. पुं. (सं.वत्सः) गोवत्सः, गोशावकः, वस्तु (न.) ३. पुरस्कारः ३. क्षमा, अनुग्रहः । । तर्णकः। बगल, सं. स्त्री. (मा.) कक्षा, बाहुकोटरः, बछेड़ा, सं. पुं. ( हिं. बछड़ा) बालाश्वः, अश्वदोमूलम् । शावकः। बगला, सं. पुं. (सं. वकः) कहा, दीर्घजंघः, | बजट, सं. पुं. (अं.) आयव्ययिकम्, व्याकल्पः। तापसः, दांभिकः, तीर्थसेविन्, मीनघातिन्, | बजना, क्रि. अ. (सं. वदनं> ) क्वण-ध्वन् शुक्लवायसः। (भ्वा. प. से.), वाद् ( कर्म.)। बग़ावत, सं. स्त्री. ( अ.) राजद्रोहः, विप्लवः, | बजरंग, वि. ( सं. वज्रांग) दृढावयव, अशनिउपप्लवः । कठोर। . -का झंडा बुलंद करना, मु., राजद्रोह-राज-|-बली, सं. पुं., हनुमत् । विरोधं कृ। बजवाना, क्रि.प्रे., ब. 'बजाना' के प्रे. रूप। बगीचा, सं. पुं. (फा. बागचह ) वाटः-टी, | बजा, वि. (फ़ा.) युक्त, उचित । क्रि.वि., वाटिका, उपवनम् । | सत्यम्, ओम् । बगूगोशा, सं. पुं. (देश.) मधुगोसः, दे. | बजाज, सं. पुं. (अ. बज्जाज़ ) वस्त्रविक्रेत् । 'नाशपाती। बजाजा, सं. पं. (फा.) वस्त्रहट्टः । बगूला, सं. पं. (हिं. वाऊ+गोला ) चक्रवातः. बजाजी, सं. स्त्री. (का.) वस्त्रविक्रयः २. वस्त्र: वातावर्त्तः, वातभ्रमः, धूलिचक्र, वात्या। निचयः। बगैर, अव्य. (अ.) विना, अन्तरा, अन्तरेण, बजाना, क्रि. स. (हिं. बजना) वाद् (चु.), विहाय, वर्जयित्वा, ऋते । क्वण्-ध्वन् (प्रे.) । सं. पुं., वादनम् । बग्घी, सं. स्त्री. (अं. बोगी) चतुश्चक्र सपटलम- बजानेवाला, सं. पु., वादकः, वादयितु। श्वयानम् । बजाय, अव्य. (फा.) स्थाने, प्रातिनिध्ये । बघारना, क्रि. स. (सं. अवधारणम् ) अवधृ | बज्र, सं. पुं. (सं. वज्रं ) ऐन्द्रास्त्रं, अशनि:, (भ्वा. प. अ., चु., जु. प. अ., स्वा. उ. अ.), पविः । व्यंजनं तप्तघृतादिकेन सिच् ( तु. प. अ.)। | बट, सं. पुं. (सं. वटः ) जटिलः, न्यग्रोधः । For Private And Personal Use Only Page #450 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [१२] बत्ती - बटखरा, सं. पुं. ( सं. वटकः> ) दे. 'बाट'। । विशाल २. महत्, गुरु ३. वयोवृद्ध, अधिकबटन, सं. पुं. ( अं.) कुडुपः, गण्डः। वयस्क ४. उत्तम, श्रेष्ठ ५. अधिक, अतिशायिन् । बटना, क्रि. स. (सं. वर्तनम्>) व्यावृत (प्रे.), / सं. पुं., धनाढ्यः २. महापुरुषः । तन्तून् घूर्ण-भ्रम् (प्रे.) सं. पुं., ब्यावर्तन, बड़ाई, सं. स्त्री. (हिं. बड़ा ) मानः, गौरवम् । तन्तु, घूर्णनं-भ्रामणम्। महत्ता, प्रतिष्ठा २. वृद्धता, गुरुत्वम् । बटमार, सं. पुं. (हिं. बाट+मारना) पारि- | बड़ी, सं. स्त्री. (सं. वटी) वटिका, वैदलपन्थिकः, लुण्ठकः, प्रतिरोधकः। शिंबी, वटिका। बटलोई, सं, स्त्री. (हिं. बटला ) दे. 'देगची'। बढ़ई, सं. पुं. (सं. वर्द्धकिः) तक्षकः, तक्षन्, बटवारा, सं. पुं. (हिं, बाँटना) भूविभागः, वर्द्धकिन्, त्वष्ट, छादः । भूमिव्यंशनम् २. धनविभागः, दायभागः। बढ़ती, सं. स्त्री. (हिं. बढ़ना ) उन्नतिः-वृद्धिः बटा, सं. पुं. (हिं. बँटना ) भिन्नं, अपूर्णांकः, (स्त्री.), उपचयः, उत्कर्षः । राशिभागः, प्रभागः। बढ़ना, क्रि. अ. (सं. वर्द्धनम् ) वृध् ( भ्वा.. बटुआ, सं. पुं. (सं. वर्तुल> ) मुद्रा-नाणक, | आ. से.), उपचि ( कर्म.), वृद्धि प्राप् (स्वा. कोषः। उ. अ.), एध-स्फाय-आप्याय (भ्वा. आ. से), बटेर, सं. स्त्री. ( सं. वर्तका ) वर्तकः, वर्तकी, | बृंह (भ्वा. तु. प. से.)। सं. पुं., दे. 'बढ़ती' । वर्तिका। बढ़ा हुआ, वि., उन्नत, वृद्ध, उपचित, स्फीत, बटोरन, सं. स्त्री. (हिं. बटोरना) अवस्करः, | पीन, आप्यान। निस्सारवस्तुसमूहः, उच्छिष्टम् । | बढ़ाना, क्रि. स., ब. 'बढ़ना' के धातुओं के बटोरना, क्रि. स. (सं. वर्तुल> ) संचि (स्वा. उ. अ.), संग्रह ( क. उ. से.)। बढ़िया, वि. (हिं. बढ़ना ) महाघ, बहुमूल्य बटोही, सं. पुं. (हिं. बाट ) पान्थः, पथिकः । | २. उत्कृष्ट, गुणवत् । बट्टा', सं. पुं. (सं. वाता>) दोषः, कलंकः । बणिक, सं. पु. ( सं. वणिज ) पण्याजीवः, दे. -खाता, सं. पुं., अप्राप्यधनलेखः । 'बनिया'। बट्टा', सं. पुं. (सं. वटकः ) पेषणप पाणः, / बतकही, सं. स्त्री. ( हिं. बात+कहना ) वार्ता कुट्टनप्रस्तरः २. प्रस्तरादीनां वर्तुलखण्डः । लापः २. विवादः। बड़', सं. पु. (सं. वटः) दे. 'बट'। बतख, सं. स्त्री. (अ. वत) वरटः, कादंबः, बड़, वि. (हिं. 'बड़ा' से, समास के आरम्भ | | 'हंसजातीय- खगभेदः ।। में ही ) दे. 'बड़ा'। बतलाना, क्रि. स. (हिं. बात) कथ-वण (चु.), बड़प्पन, सं. पु. (हिं. बड़ा) श्रेष्ठता, महत्ता, | आख्या (अ. प. अ.), आचक्षु (अ. आ.), गौरवम् २. वयस्कता, प्रौढ़ता। निविद् (प्रे.) २. बुध-ज्ञा (प्र.) ३. निर्दिश बड़बड़, सं. स्त्री. (अनु.)प्र.,जल्पः,व्यर्थवचनम् ।। (तु. प. अ.), प्रदृश् (प्रे.)। सं. पुं., कथनं, बड़बड़ाना, क्रि. अ, (अनु. बड़बड़) प्र-,जल्प | वर्णनं, निवेदनं, श्रावणं,बोधनं, ज्ञापनं,निर्देशः, (भ्वा. प. से.) २. असंतोषेण नीचैः वद् । प्रदर्शनम् । (भ्वा. प. से.)। बतलाने योग्य, वि.,कथनीय,वर्णनीय,आख्येय। बड़बोला, वि. (हिं. बड़ा+बोल ) विकत्थक, | -बाला, सं. पुं. आख्यातू, कथकः, वर्णयित विकत्थनशील। २. बोधकः, ज्ञापकः ३. निर्देशकः, प्रदर्शकः । बड़भागी, वि. (हि. बड़ा+भाग ) महाभाग्य, बतलाया हुआ, वि., कथित, वणित, श्रावित, सुभा, भाग्यशालिन्। बोधित, शापित ३. निर्दिष्ट, प्रदर्शित । बड़पा, सं. स्त्री. (सं. वड़वा) घोटी, तुरंगी | बताना, क्रि. स., दे. 'बतलाना। २. बड़वाग्नि । बताशा, सं. पुं. (हिं. बतास) फूल सिताबुबुदः बड़वानल, सं. पु. (सं. वडवानल:) वडवाग्निः, | वाताशः। वडवामुखः। बत्ती, सं. स्त्री. (सं. पत्तिः) पत्ती, वत्तिका, बढ़ा, (सं. वृ>) आयत, विस्तृत, | तैलिनी, झिल्ली २. दीपः। For Private And Personal Use Only Page #451 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [ ४१३ ] बतोस बत्तीस, वि. [सं. द्वात्रिंशत् ( नित्य स्त्री. ) ] सं. पुं., उक्ता संख्या तदंकौ ( ३२ ) च । - वाँ, वि., द्वात्रिंशत्तमः - मी-मं, शशि: शी-शम् । बत्तीसी, सं. स्त्री. (हिं. बत्तीस ) द्वात्रिंशत्पदार्थसमूह: मानवदन्तसमूहः, दशनावलिः (ft.) 1 बथुआ, सं. पुं. ( सं . वास्तुकम् ) शाकराज, राजशाकः, शाकश्रेष्ठः । बद,वि., ( फा ) दुष्ट, पाप, खल, नीच । - क़िस्मत, वि., मन्दभाग्य | -चलन, वि., दुर्वृत्त, कुचरित । ---जबान, वि., कटुभाषिन्, दुर्भाषिन् । -जात, वि., नीच, क्षुद्र, निकृष्ट । तमीज, वि., अशिष्ट, असभ्य, ग्राम्य । नीयत, वि., वंचक, दुराशय । - परहेज़, वि., कुपथ्यसेविन् । - परहेज़ी, सं. स्त्री, कुपथ्यम् । -- बू, सं. स्त्री, दुर्गन्धः, दे. -माश, वि., दुर्वृत्त, दुश्चरित्र । - शकल, वि., कुरूप, दुर्दर्शन । — हज़मी, सं. स्त्री, अजीर्ण, अग्निमान्धं, अपाक । बदन, सं. पुं. (फ़ा. ) शरीरं, देहः, कायः । -- टूटना, मु., अंगसंधिषु अवयवग्रंथिषु वेदनानुभवः ( ज्वरपूर्वरूपम् ) । - में आग लगना, मु., अत्यन्तं कुप् ( दि. प. से. ) - क्रुध् (दि. प. अ.) । अतीव सन्तप्त (वि.) भू । - साँचे में ढला होना, मु., लावण्य-सौन्दर्यअतिशयः- आतिशय्यम् । -- सूख कर काँटा हो जाना, मु., अत्यर्थं कृश - क्षीण - शुष्कांग (वि.) भू । बदर, सं. पुं. (सं.) बदरी, बदरिका, बदरं, बदरीफलम् | -बदलना, क्रि. अ. ( अ. बदल ) स्थानान्तरं रूपान्तरं अवस्थान्तरं गम्, अन्यथा भू, विकृ ( कर्म. ), परिवृत ( वा. आ. से. ), विपर्यस् (दि. प.से.) । क्रि. स., परिवृत ( प्रे.), अन्यथा कृ, विकृ, विपर्यस् (प्रे.), विनिमे (भ्वा. आ. अ. ) । सं. पुं., अवस्थान्तर तरस्थानान्तर प्राप्तिः (स्त्री.), परिवर्तन, बनाना विनिमयः, विक्रिया, विपर्यासः परिवृत्तिः, (स्त्री.), विपरिणामः । बदला, सं. पुं. (हिं. बदलना ) विनिमयः, आदानप्रदानम् २ प्रतिशोध:, प्रति (ती) कारः ३. परिणामः, फलम् । बदलाना, क्रि. स., दे. 'बदलना' क्रि. स. । बदलो, सं. स्त्री. (हिं. ' बदलना ) परिवृत्ति: (स्त्री.), परिवर्तनम् | बदाबदी, सं. स्त्री. ( सं वद > ) वैरं द्वेषः, विरोधः २. प्रतिस्पर्द्धा । बदौलत, क्रि. वि. ( फा . ) कृपया, अनुग्रहेण . कारणेन, साधनेन, द्वारा २. बद्ध, वि. (सं.) नियंत्रित, वशी, कृत-भूत, संयत । --कोष्ट, सं. पुं. (सं.) मलावरोधः, विग्रहः । बधाई, सं. स्त्री. (सं. वर्द्धनं> ) वर्धापनं, वृद्धिवचनं, अभिनन्दनम् । - देना, क्रि. स., वर्धापनं दा ( जु. उ. अ. ) । बधिया, सं: पुं. (हिं. वध = मारना ) नपुंसकः पशुः, षण्डीकृतः चतुष्पाद: । बधिर, वि. (सं.) अकर्ण, एड, श्रोत्रविकल । बधूटी, सं. स्त्री. (सं. वधूटी ), दे. 'वधू' । बन, सं. पुं. (सं. वनम् ) अरण्यं, काननं, कांतारः । चर, सं. पुं., अरण्यवासिन, आटविकः । --- बास, सं. पुं., वनवासः, अरण्यवासः । बनजारा, सं. पुं. (हिं. वनज ) दूरव्यवसायिन, वाणिज्यजीविन् २. वणिज्, दे. 'बनिया' । बनना, क्रि. अ. ( सं . वर्णनं > ) निर्मा-रचविधा - अनुष्ठा (कर्म. ) । बना हुआ, वि. निर्मित, रचित, विहित, कृत, सृष्ट, संपन्न, निष्पन्न ৷ बनमानुस, सं. पुं. ( सं . वनमानुषः ) वानरभेदः २. असभ्यमानवः । बनवाई, सं. स्त्री. (f. बनवाना ) निर्माण, - भृतिः (स्त्री.)- शुल्कः । बनवाना, क्रि. प्रे, ब. 'बनाना' के प्रे. रूप । बनात, सं. स्त्री. (हिं. बाना) उत्तमौर्णपट भेदः । बनाना, क्रि. सं. (हिं. बनना ) निर्मा (अ. प. अ., जु. आ. अ. ), रच् ( चु. ), कृ, क्लृप्-घट् ( प्रे.) २. जनू - उत्पद (प्रे.) ३. संप - साधु (प्रे.), अनुष्ठा (स्वा. प. अ.), For Private And Personal Use Only Page #452 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir बनाने योग्य [४१४] बरसना विधा (जु. उ. अ.) ४. अव-उप,-हस् | बरखास्त, वि., ( फा.) विसृष्ट, विसर्जित (भ्वा. प. से.)। सं. पुं., रचनं, करणं, | २. पदच्युत, भ्रष्टाधिकार। निर्माण, कल्पन, जननं, उत्पादनं, संपादनं, -करना, क्रि. स., विसृज् ( तु. प. अ.) अनुष्ठानम् । २. पदात् च्यु (प्रे.)। बनाने योग्य, वि., निर्मातव्य, रचनीय, कर- | बरगद, सं. पुं., दे. 'बट' । णीय, विधेय, अनुष्ठेय, जनयितव्य । बरछा, सं. पुं. (सं. व्रश्च ) कुन्तः, प्रासः, -वाला, सं. पुं., निर्मात, रचयित, विधायकः, | शक्तिः (स्त्री.)। जनयित, उत्पादकः, अनुष्ठात्।। बरजोर, वि. ( सं. बलं+का. जोर ) बलवत, बनाया हुआ, वि., निर्मित, रचित, कल्पित, शक्तिशालिन् । क्रि. वि., बलात्, हठात् । विहित, जनित, उत्पादित, अनुष्ठित, संपादित। बस्तन, सं. पु. ( सं. वर्तनं> ) पात्रं, भाजनं, बनारसी, वि. (हिं. बनारस ) काशीस्थ, भाण्डम् । वाराणसेय। बरतना, कि. अ. (सं. वर्तनम् ) व्यवह (भ्वा. बनाव, सं. पु. ( हिं. बनाना ) निर्माणं, रचना | प. अ.), आचर् (भ्वा. प. से.)। क्रि. स., २. शृंगारः, अलंकरणम् । उपयुज (प्रे.), व्याप्त (प्रे.)। बनावट, सं. स्त्री. (हिं. बनाना ) रचन-ना, बरताना, क्रि. स. ( सं. वितरणम् ) वित (भ्वा. प. से.), विभज् (भ्या. उ. अ.)। सं. पुं., रचनाकौशलं, घटना २. आडंबरः ३. कृत्रि विभाजनं, वितरणम् । मता। बनावटी, वि., (हिं. बनावट) कृत्रिम, बरताव, सं. पुं. (हिं. वर्तना) व्यवहारः, आचरणं, वृत्तिः (स्त्री.)। कृतक, अनैसर्गिक । बरदार, वि. (फा.) वोड़, धारयितु । बनिया, सं. पुं. (सं. वणिज्) नैगमः, बरदाश्त, सं. स्त्री. (मा.) सहनं, मर्षणं, सार्थवाहः, क्रयविक्रयिकः, पण्याजीवः २. आप- सहिष्णुता। णिकः, विपणिन् । -करना, क्रि. अ., सह ( भ्वा. आ. से.)। बनिस्बत, अन्य. (फा.) अपेक्षया, तुलनायाम् | बरफ. सं. स्त्री. (फा. बर्फ) हिम, धनवारि २. उद्दिश्य, अधिकृत्य । बबर, सं. पुं. (फ्रा.) केसरिन्, हरिः, सिंहः । | बरती, सं. स्त्री. (हिं. बरफ ) हैमी, पायसबबूल, सं. पुं. (सं. बबुरः) कण्टालुः, तीक्ष्ण- मिष्टान्नभेदः, मिष्टान्नभेदः । कंटकः, स्वर्णपुष्पः, युग्मकंटकः, कफान्तकः। बरबस, क्रि. वि. (सं. बलं+वश:>) हठात्, बम, सं. पुं. (अ. बांब ) अग्निगोलकास्त्रम्। बलात् २. मुधा, व्यर्थम् (चारों अव्य.)। बया, सं. पुं. (सं. वयनम्>) वयः, खगभेदः । बरबाद, वि.(फा.) नष्ट, ध्वस्त। बयान, सं. पुं. (फा.) वर्णन, कथनम् बरमा', सं. पुं. ( देश.) धनी, बक्षकोप२. वृत्तान्तः, उदन्तः । करणभेदः। बयाना, सं. पुं. (अ. बै) दे. 'पेशगी'। बरमा, सं. पुं. (सं.) ब्रह्मदेशः। बयार, सं. स्त्री. ( सं. वायुः) पवनः, वातः। बरमी, सं. पुं. (हिं. बरमा) ब्रह्मदेशवासिन् । बयालीस, वि. [सं. द्वि(दा)चत्वारिंशत् (नित्य | सं. स्त्री., ब्रह्मदेशभाषा। स्त्री.)]। सं. पुं., उक्ता संख्या, तदंको बरवा, सं. पुं. ( देश.) एकोनविंशतिमात्रात्मक: (४२ च। _ छन्दोभेदः, ध्रुव-कुरंग, छन्दस् (न.)। -वाँ, वि., द्विद्वा)चत्वारिंशत्तमः-मी-मम् , बरस, सं. पुं, (सं. वर्ष ) वत्सरः, संवत्सरः, द्वि(द्वा)चत्वारिंशः-शी-शम् । अब्दः । बयासी, वि. [सं. दयशीतिः (नित्य स्त्री.)]| -गाँठ, सं. स्त्री., वर्षग्रन्थिः, जन्म, दिनं सं. पुं., उक्ता संख्या, तदको (८२) च। दिवसः। बरकत, सं. स्त्री. (अ.) सम्पत्तिः-समृद्धिः- बरसना, क्रि. अ. (सं. वर्षणं ) वृष् ( भ्वा, प, विभूतिः (स्त्री.)। | से.)। सं. पुं., वृष्टिः (सी.), वर्ष-र्षम् ।। For Private And Personal Use Only Page #453 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir बरसात [ ४१५] बसा हुआ - - बरसात, वि. (हिं. बरसना ) वर्षाः (स्त्री. | बले, सं. स्त्री. ( सं. पुं.) राज,-स्व-करः शुल्कः बहु.), मेघागमः, प्रावृष् ( स्त्री.), वर्षाकालः ।। २. उपहारः, उपायनम् ३. पूजा, सामग्री-उपबरसाती, सं. स्त्री. (हिं. बरसात) वर्षत्र, करणं ४. बलिवैश्वदेवयशः ५. देवभोज्यम् वृष्टिवारिणी। ६. भक्ष्यं, अन्नम् ७. नैवेद्यम् ८. देवतायै हत:: बरसी, सं. स्त्री. (हिं. बरस ) वार्षिकं श्राद्धं, | पशुः ९. हव्यं, आहुतिः ( स्त्री.)। .. वापिको मृत्युदिवसः। -चढ़ाना, मु., देवतार्थे हन् (अ.प. अ.) बरांडा, सं. पुं. (अं. वेराण्डह् ) प्रघ(घा)णः, -जाना, मु., दे. 'बलिहारी जाना' । अलिंदः, पिण्डकः। बलिदान, सं. पु. (सं. न.) उत्सर्गः, परित्यागः, बरांडी, सं. स्त्री. ( अं.) सुरासारः, *संजीवनी विनियोगः, समर्पणम् । सुरा। बलिष्ठ, वि. (सं.) बलवत्तम, शक्तिमत्तम ।' बरात, सं. स्त्री. (सं. वरयात्रा) विवाहयात्रा, सं. पुं., उष्ट्रः। . २. प्रमोदः। | बलिहारी, सं. स्त्री. (सं. बलिहार:>) आत्मोबराती, सं. पुं. (हिं. बरात) वरयात्रिकः । त्सर्गः, आत्मसमर्पणं, आत्मनिवेदनम् । बराबर, वि. (फा. वर) सम, समान, तुल्य । बराबरी, सं. स्त्री. (हिं. बराबर ) समानता, | -जाना, मु., आत्मानं सम (प्रे.)-उत्सृज् साम्यम् । (तु. प. अ.)। बरामद, वि. ( फा.) बहिरागत २. लग्ध । बली, वि. (सं.-लिन् ) सबल, बलवत्, बल-- बरामदा, सं. पु. (फा.) दे. 'बरांडा'। शक्ति,शालिन्, महाबल, वीर। बरी, वि. (फा.) मुक्त, विमोचित । बल्कि, अव्य. (का.) प्रत्युत, अपि तु, अपि । बरोठा, सं. पु. ( सं. द्वारम् > ) देहली-लि: बल्लम, सें. पु. (सं. बलं शाखा>) यष्टि:: (स्त्री.)। (स्त्री.), दंडः, लगुडः २. सुवर्ण-रजत,-दंड: बरु(ौ)नी, सं. स्त्री. (सं. वरणं>) पक्ष्मन्, ३. कुन्तः, प्रासः। वल्गु ( दोनों न.)। बल्लमटेर, सं.पु. (अं. वालंटियर) स्वयंसेवकः ।। बताव, सं. पुं., दे. 'बरताव' । | बल्ला , सं. पु. ( सं. बलं शाखा>) लगुडः, ब, सं. स्त्री., दे. 'बरफ'। २. स्थूलदंडः ३.नौकादंडः ४.कन्दुकक्रीडापट्टः ।। बर्बर, वि. (सं.) नृशंस, निर्दय २. असभ्य, | बवंडर, सं. पुं. (सं. वायुमंडल> ) चक्रवातः,. अशिष्ट । वातावतः, वातभ्रमः २. वात्या, झंझावातः । बलंद, वि. (फ्रा.) उच्च, तुंग ।। बवासीर, सं. स्त्री. (अ.) अर्शस् (न.), बल, सं. पुं. (सं. न.) सामर्थ्य, शक्तिः (स्त्री.)/ गुदांकुरः, गुदकीलकः, दुर्नामकम् । (खूनी) २. पराक्रमः, शौर्यम् ३. सेना ४. बलदेवः। । रक्तार्शस् ( बादी) वात-शुष्क,-अर्शस् (न.)। बलग़म, सं. स्त्री. (अ.) श्लेष्मन्, कफः, | बसंत, सं. पुं., (सं.) वसन्तः दे.। खेटकः, बलासः। -पञ्चमी, सं. स्त्री., श्रीपंचमो, माघशुक्लबलवा, सं. पुं. (फा.) संक्षोभः, संमर्दः २. | पंचमी। राजाभिद्रोहः, प्रजाक्षोभः । | बस, अव्य., वि. (फ्रा.) अलं, पर्याप्तं २. बलवान् , वि. ( सं.-बत् ) बलिन्, बलशालिन्, | वशः, अधिकारः ३. केवलम् ।। महाबल, वीर । बसना, क्रि. अ. ( सं. वसनं> ) नि-अधिबलहान, वि. (सं.) निर्बल, दुर्बल, ‘अबल, | प्रति-वस् (भ्वा. प. अ.), स्था (भ्वा. प. अशक्त। अ.) २. अधिवस् , अधिष्ठा। सं. पुं. अधिबला, सं. स्त्री. (अ.) आपत्तिः-विपत्तिः (स्त्री.) | प्रति-नि, वासः-वसनं-वसतिः (स्त्री.)। २. दुःखं., कष्टम् ३. प्रेतबाधा ४. रोगः। बसने योग्य, वि., वासोचित ।। बलात्, क्रि. वि. (सं.) हठात्, सरभसम्। -वाला, सं. पुं., अधि-नि,वासिन्। बलात्कार, सं. पुं. (सं.) साहसं, प्रमाथः | बसा हुआ, वि., अध्युषित, अधिष्ठित। २. हठभोगः, प्रसह्यगमनं, धर्षणम्, दूषणम्। | मन में-, मु., सदा स्मृ (कर्म.)। For Private And Personal Use Only Page #454 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir बसना . [४१६ ] - बसना२, क्रि. अ. (हिं. बासगंध ) सुगंधित । बहस, सं. स्त्री. (अ.) वादः, वादप्रतिवादः, (वि.) भू। ऊहापोहः, प्रश्नोत्तरम् । बसर, सं. पुं. (फा.) निर्वाहः, कालयापनम् । -करना, क्रि. अ., वादप्रतिवादं कृ, विवद् बसाना, क्रि. स. (हिं. बसना ) अधिवस्- (भ्वा. आ. से.)। निवस (प्रे.)। | बहादुर, वि. (फा.) शूर, वीर, बलिष्ठ, बसूला, सं. पु. (सं. वासिः पुं. स्त्री.) तक्षणी। पराक्रमिन् । बसेरा, सं.पं. (हिं. बसना ) आवासः, निवासः | बहादुरी, सं. स्त्री. (फा.) वीरता, शूरता, २. वासः, वसतिः (स्त्री..)। . पराक्रमः । बस्ता, सं. पु. (मा.तह ) पोलिका, कूर्चः। बहाना', क्रि. स., ब. 'बहना' के प्रे. रूप । बस्ती, सं. स्त्री. (सं. वसतिः) निवासः २. / बहाना२, सं. पुं. (फा.नह ) मिषं, व्याजः, ग्रामः, ग्रामटिका। छलम्। बहँगी, सं. स्त्री. ( सं. विहंगिका ) वेणुशिक्या, -करना, क्रि. अ., व्यपदिश ( तु. प. अ.)। स्कंधवाहनी। बहार, सं. स्त्री. (फा.) शोभा, श्रीः ( स्त्री.), --का छीका, सं. पुं., विहंगिकाशिक्या। दर्शनीयता २. मधुमासः, वसन्तर्तुः ३. मनोबहकना, क्रि, अ. (हिं. बहना) अतिसंधा. विनोदः । ( कर्म.), वंच ( कर्म.) २. पथभ्रष्ट (वि.) बहाल, वि. (फा.) पूर्ववत् स्थित, पदारूढ भू ३. लक्ष्यभ्रष्ट (वि.) भू ४. मद् (दि.प.से.)।। २. स्वस्थ. ३. प्रसन्न । बहकाना, क्रि. स. (हिं.) 'बहकना' के प्रे. बहाव, सं. पुं. (हिं. बहना ) प्रवाहः, सावः रूप वनाएँ। . २. धारा, मन्दाकः, स्रोतस् (न.)। बहत्तर, वि. [सं. द्विसप्ततिः ( नित्य स्त्री.)/बहिन, सं. स्त्री. (सं. भगिनी) सोदरा, सं. पुं., उक्ता संख्या, तदंको (७२) च। । सहोदरा, स्वस, जामिः ( स्त्री.)। -वॉ, वि., द्विसप्ततितमः-मी-म, द्विसप्तत:- | छोटी-, अनुजा, बड़ी-, अग्रजा, अर्तिका । ती-तम् । | बहिरंग, वि. (सं.) बाह्य, बहिर्भव, बहि:बहन, सं. स्त्री. ( सं. भगिनी ) दे. 'वहिन । स्थित । बहना, क्रि: अ. (सं. वहनम् ) वह ( भ्वा. बहिश्त, सं. पुं. (फ़ा. बिहिश्त) स्वर्गः, नाकः । उ. अ.), क्षर् (भ्वा. प. से.), सु-स्त्र । २. सुखावासः । (भ्वा. पं. अ.)। सं. पु., वहन, क्षरणं, बहिष्कार, सं. पुं. (सं.) अपसारणं २. निष्का सरणं, स्रावः, स्रुतिः ( स्त्री.)। . सनम्, विवासनम् । बहनावा, सं. पुं. (हिं. बहन ) स्वसृत्वं, | बहिष्कृत, वि. ( सं.) अपसारित २. विवासित, भगिनीत्वम् । निष्कासित। बहनोई, सं. पुं. (हिं. बहन ) आवृत्तः, बही, सं. स्त्री. (हिं. बँधी ?) आयव्यय,पंजीनशिकः, स्वसृपतिः, भगिनीभर्तृ।। जिः (स्त्री.)। बहनौता, सं. पुं., दे. 'भाँजा'। बहु, वि. (सं.) अधिक, अनेक २. प्रचुर, बहरा, वि. पुं. (सं. बधिरः ) एडः, अकर्णः, अश्रोत्रः। -क्षीरा, सं. स्त्री. (सं.) बहुल-प्रचुर , दुग्धाबहलना, क्रि. अ. (हिं. बहलाना ) चित्त- स्तन्या गौः ( स्त्री.)। विनोदः जन् (दि. आ.से.)। धा, सं. स्त्री. (सं.) १. यूथी, यूथिका, बहलाना, क्रि. स. (फा. बहाल ) चित्त हेमयूथिका, कनकप्रभा । २. चंपक,-कलिकारंज-विनुद्-नन्द् (प्रे.)। कोरकः ३. कृष्णजीरकः । बहलाव, सं. पुं. (हिं. बहलना ) विनोदः, -गुण, वि. (सं.) प्रचुर सूत्र २. प्रचुरमनोरंजनम् । विशेष। बहली, सं. स्त्री. (.सं. वहल-बैल> ) रथ- |-जल्प, वि. (सं.) वाचाल, मुखर, जल्पसदृशी वृषशकटी। | (पा)क। For Private And Personal Use Only Page #455 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [४ ] . আন্ত बहुकर, सं. स्त्री. (सं. बहुकरी ) संमार्जनी, , बांधव, सं. पुं. (सं.) अंशकः, दायादः, शोधनी । वि., परिश्रमिन् । सगोत्रः, सकुल्यः, शातिः। बहुत , वि. ( सं. बहुतर ) असंख्य २. यथेष्ट, | बांधव्य, सं. पु. ( सं. न.) सगोत्रता, रक्तपर्याप्त ३. प्रचुर, विपुल, भूरि। सम्बन्धः, बन्धुता, बन्धुत्वम् । बहुतायत, सं. स्त्री. (हिं. बहुत ) अतिशयः, बाँबी, बॉमी, सं. स्त्री. (सं. वल्मीकः>) आधिक्यम् २. पर्याप्तता। वल्मीक-वामलूर वनी,-कूट-शैलः । २. सर्पबहुधा, क्रि. वि. (सं.) प्रायः, प्रायशः (दोनों | अहि, विवरं-बिलम् । अव्य.)२, बहुप्रकारैः। बाँस, सं. पुं. ( सं. वंशः ) वेणुदंडः, तृणध्वजः, बहुभाषी, वि. ( सं.-पिन् ) वाचाल । वेणुः, कीचकः, त्वक्सारः, मृत्युपुष्पः । बहुमूल्य, वि. (सं.) महार्ष, दुष्क्रय। -पर चढ़ना, मु., अपकीर्ति-दुष्कीति-वाच्यताम् बहुरंगा, वि. ( सं.ग ) चित्रविचित्र, अनेकवर्ण लभ (भ्वा. आ. अ.)। २. बहुवेश ३. चलचित्र । --पर, चढ़ाना, मु., कुख्याति-अपकीर्ति कृ। बहुरूपिया, वि. सं. बहुरूप>) वेशाजीविन्, | जावन, -बराबर, मु., अति, दीर्घ-आयत-लंब । बहुरूपक। -(सों) उछलना, मु., अत्यर्थ मुद् ( भ्वा. बहू, सं. स्त्री. (सं. वधूः) वधूटी, नवोढा, आ. से.)। - नववधूः। बाँह, सं. स्त्री. ( सं. बाहुः पुं.) भुजः-जा । बहेड़ा, सं. पुं. (सं. विभीतकः) कालद्रुमः, बाडासकि.ल, सं. स्त्री. (अं.-साइकल) द्विच. भूतवासः। क्रिका, पादयानम् । बोका, वि. पुं. (सं. वंक:>) तिर्यश्च , वक्र, बाई, सं. स्त्री. (सं. वायुः) वात, दोषः-रोगः । कुटिल, २. सुन्दर, मनोहर ३. वेशमानिन्, बाई, सं. स्त्री. (हिं. बाबा) कुलवधूनामादररूपगवित। । सूचकः शब्दः, देवी २. वेश्या। बॉग, सं. स्त्री. (फा.) प्रातः कुक्कुटनादः बाईस, वि. ( सं. द्वाविंशतिः नित्य स्त्री.)। २.यवनपुरोहितस्य पूजासमयसूचकामहानादः। सं. पुं., उक्ता संख्या, तदंको (२२)च। बोझ, सं. स्त्री. (सं. वंध्या दे.)। -वाँ, वि., द्वाविंशतितमः-मी-मं, द्वाविंशःबांटना, क्रि. स. (वंटनम् ) विभज् (भ्वा. उ. अ.), अंश-वंट ( चु.), परिक्ल५ (प्र.), बाएँ, क्रि. वि. (हिं. बायाँ) वामतः, वामयथाभागं वित ( भ्वा. प. से.)। सं. पुं., | सव्य, पावें। अंशनं, वंटनं, परिकल्पनं, विभाजनं,वितरणम् । बाकी, वि. ( अ.) अवशिष्ट, उद्वृत्त। सं. पु., बोटने योग्य, वि.,अंशनाय, वंटनीय, विभाज्य । अव, शेषः। -चाला, सं.., विभाजकः, अंशयित। बाग़, सं. पुं. (अ.) उपवन, उद्यानम्, आरामः । बाँटा हुआ, वि., विभक्त, विभाजित, वंटित । बाग, सं. स्त्री. (सं. वल्गा ) अभीशुः, प्रग्रहः, बाँदी, सं. ना. ( फ़ा. बंदा) दासी, सेविका, रश्मिः। परिचारिका। बागडोर, सं. स्त्री. (सं. वल्गा+डोरः ) दे. बाँध. सं. पुं. (हिं. बाँधना ) बंधः, सेतुः। 'बाग' २. प्रभुत्वं, अधिकारः। बाँधना, क्रि. स. ( सं. बंधनम् ) बंध ( क. बाग़वान, सं. पुं. (फा.) मालाकारः, मालिकः, प. अ.), सं-नि, यम् (भ्वा. प. अ.), पिन । उद्यानपालः। . (दि. प. अ.), ग्रंथ ( न. प. से.; भ्वा. आ. | बागी, वि. ( अ. ) विद्रोहिन, राजद्रोहिन् । से., चु.)। सं. पुं., बंधनम् , सं-नि, यमनं, बागीचा, सं. पुं. (फा. बागचह् ) कुसुमोद्यानं, पिनाहः, ग्र(I)थनम्। पुष्प, वाटिका। बाँधा हुआ, वि., बद्ध, नियत, संयत, पिनद्ध, बाघ, सं. पुं. (सं. व्याघ्रः) चुलुकः, भेलः, अथित। चन्द्रकिन्, हिंसारः, व्याडः, मृगान्तकः । २७ For Private And Personal Use Only Page #456 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [ ८] बादामी बाज़', सं. पुं. (अ.) श्येनः, कपोतारिः, । बाणिज्य, सं. पुं. (सं. न.) क्रयविक्रयौ, शशादनः । वणिककर्मन् ( न.)। बाज़२, वि. ( का.) रहित, हीन । बात, सं. स्त्री. (सं. वार्ता) वचनं, कथनं, -आना, क्रि. अ., त्यज-परिह (भ्वा. प. अ.)। उक्तिः (स्त्री.), बाक्यं, भाषितम् २. वर्णनम् -रखना, क्रि. स., नि-प्रति-,षिध (भ्वा.प.से.)। ३. किंवदंती, प्रवादः ४. वृत्तान्त: ५. संदेशः बाज़', प्रत्य. (फा.)-प्रिय,शील,-सेविन् । ६. वाग्विलासः, वार्तालापः ७. मिषं, व्यानः (उ. नशेबाज़ = मद्यसेविन् )। ८. प्रतिज्ञा, संगरः . ९. विश्वासः, प्रत्ययः बाज़, वि. (अ.) केचित्, काश्चित्, कानिचित्। १०. प्रतिष्ठा ११. उपदेशः १२. रहस्यम् बाजरा, सं. पुं. ( सं. वर्जरी) वज्रकः । १३. स्तुत्यविषयः १४. गूढ,-अर्थः-आशयः बाजा, सं. पुं. (सं. वाद्यम्) वादित्रं, वादनयंत्रम्।। १५. उत्कर्षः, गुणः १६. तात्पर्य, अभिप्रायः बाज़ाब्ता, क्रि. वि. (फा.तह )नियमानुसारं, १७. इच्छा १८. आचरणम् । यथाविधि (न.)। वि., वैध, नियमानुकूल। |-का बतंगड़ बनाना, मु., अत्युक्त्या वर्ण बाज़ार, सं. पुं. (फा.) आपणः, निषद्या, हट्टः, (चु.), पर्वतीकृ।। विपणी-णिः ( स्त्री.), पण्यवीथिका, निगमः, पण्यवीथिका, निगमः, | -की बात में, मु., झटिति, सपदि। पणिः (स्त्री.)। -न पूछना, मु., अवगण-अवधीर् (चु.)। बाजारी, वि. (का.) आपणिक २. साधारण -बनना, मु., कार्य सिध् ( दि. प. अ.)। ३. अशिष्ट । -बिगड़ना, मु., कार्य विफलीभू । बाज़ी, सं. स्त्री. (फा.) क्रीडा, खेला २. पणः, बातचीत, स. स्त्री. (हिं. बात+सं. चिंतन>) ग्लहः। संवादः, संभाषणं, वार्तालापः, आलापः। -गर, सं. पुं., रज्जुनर्तकः ।। बातूनी, वि. (हिं. बात ) बहुभाषिन्, बज़ , सं. पुं. (फा.) बाहुः, दे. 'बाँह'। वाचालः,वाचाटः, जल्पकः, वावदूकः,जल्पाकः । _बंद. सं. पु. ( फा.) केयूरः-रं, अंगदः-दम्। | बाथ, सं. पुं. (अं.) दे. 'स्नान' । बाट, सं. पुं. (सं. वाट:-टम् ) मार्गः, पथिन्, -रूम, सं. पु. ( अं.) देस्नानगृह' । अध्वन, वर्मन् (न.)। बाथू, सं. पुं. दे० 'बथुआ'। -जोहना, क्रि. स., प्रतीक्ष (भ्वा. आ. से.)। बाद', अव्य. (अ.) पश्चात्, अनंतरम् । बाट , सं. पुं. (सं. वटक:>) भारमान, माडः, -अजा, अव्य., अतोऽनन्तरम् ।। मात्रम् । बादरे, सं..(फा.) वायुः (२) अश्वः । बाटी', सं. स्त्री. (सं. वटी) वटिका, गुलिका | टिका, गुलिका-(दे) खिज़ा, सं. स्त्री., शिशिरानिलः । २. अंगारपक्वरोटिका। -(दे)बहारी, सं. स्त्री., वसन्तानिलः । बाटी२, सं. स्त्री. (सं. वर्तुल>) पारी, पात्रभेदः।। | बादबान, सं. पुं.(फा.) वातवसनम् । बाड़, सं. स्त्री., दे. 'बाढ़'। | बादल, सं. पुं. (सं. वारिदः) धनः, जलदः, बाड़व, सं. पुं.,दे. 'बड़वानल'। जीमूतः, वारिवाहः, मेघः, अब्दः, कंधरः, बाड़ा, सं. पुं. (सं. वाटः-टं ) अंगनं-णं, प्रांगणं, अभ्रं, जल-पयो,-मुच , धाराधरः, धूमयोनिः, अजिर, चत्वरः रम् २. गोष्ठः, ब्रजः । नभोगजः, बलाहकः, वातरथः, स्तनयित्नुः, बाड़ी, सं. स्त्री. ( सं. वाटी) दे. 'बाड़ा' (१) । व्योमधूमः। २. पुष्प-, वाटिका ३. पुरभागः।। बादशाह, सं. पुं. (फा.) नृपः, भूपतिः । बाडीगाडे, सं. पुं. (अं.) अंगरक्षकः, तनुपः। बादशाही. सं. स्त्री. (मा.) राज्यम्, शासबाढ़, सं. स्त्री. (हिं. बढ़ना ) आप्लावः, नाधिकारः २. शासनम् ३. स्वेच्छाचारः। संप्लवः, तोयविप्लवः २. आधिक्यं, वृद्धिः बादाम, सं. पुं. (फा. ) ( वृक्ष ) वातादः, (स्त्री.)। वातामः, नेत्रोपमफल: । (फल) वाताद, बाण, सं. पुं. (सं.) इषुः, शरः, विशिखः, । वातामं, नेत्रोपमफलम् । आशुगः, सायकः, मार्गणः, रोपणः, पत्रिन्, | बादामी, वि. (फा. बादाम ) वातादवर्ण, चित्रपुंखः। | वातामीय। For Private And Personal Use Only Page #457 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir बादी [ ४१8 ] बालू बादी, वि. (फ्रा.) वायव्य, पवनविषयक | बारिश, सं. स्त्री. (फ़ा. ) वृष्टिः (स्त्री.) २. वातीय, वातविकारविषयक ३. वातविकारोत्पादक । सं. स्त्री. वात विकार:-दोषः । ras, वि. (सं.) प्रतिबन्धक, विघ्नकारिन् । बाधा, सं. स्त्री. (सं.) विघ्नः, अन्तरायः, प्रत्यूहः, व्याघातः, प्रतिबन्धः २. यातना, वेदना | - डालना, क्रि. स., प्रतिबन्ध ( क्. प. अ. ), प्रतिरुध् ( स्वा. उ. अ. ) । बानर, सं. पुं. (सं. वानरः ) दे. 'बंदर' | बानये, वि. (सं. द्वानवतिः नित्य स्त्री. ) । स्फोटक चूर्णम । सं. पुं. उक्ता संख्या, तदकौ ( ९२ ) च । बाना', सं. पुं. (हिं. बनाना ) वेश: षः, वेशविन्यासः २ रीति: (स्त्री.), प्रथा । बाना ?, सं. पुं. ( सं वयनम् ) तिर्यक्तन्तवः (पुं. बहु.) । बानी, सं. पुं. (अ.) संस्थापक:, प्रवर्त्तकः । बाप, सं. पुं. ( सं. वाप: > ) पितृ, जनकः । - दादा, सं. पुं. पूर्वजाः, पूर्वपुरुषाः । बाबत, अव्य. (अ.) अर्थ, अर्थे, हेतोः निमित्तेन । बाबा, सं. पुं. ( तु.) पितृ २ पितामहः ३. मातामहः ४. वृद्ध: ५ साधूनां संबोधनम् । बाबू, सं. पुं. (हिं. बाबा ) महाशयः, महानुभावः । वि., श्रीयुत श्री । बायकाट, सं. पुं. (अं.) संबंधत्यागः, बहिष्करणम् । बायबिडंग, सं. पुं. (सं. विडंग:- गम्) वेल्ल:-ल्लं, अमोघा, कृमिघ्नः । २. प्रावृषू (स्त्री.) । बारी, सं. स्त्री. दे. 'बार' । का बुखार, सं. पुं., *वारज्वरः, तृतीयकः, तृतीयकज्वरः । बारीक, वि. ( फा . ) सूक्ष्म, तनु । बारीकी, सं. स्त्री. (फ्रा.) सूक्ष्मता, तनुता विशिष्टता । - वाँ, वि., द्वादश:- शी-शम् | -दरी, सं. स्त्री, द्वादशद्वारा । - सिंगा, सं. पुं., द्वादशश्रृंगः, मृगभेदः । बारूद, सं. स्त्री. ( तु.-त ) आग्नेय- अग्नि, चूर्ण, -ख़ाना, सं. पुं., स्फोटक अग्निचूर्ण, आगारं गृहम् । बारोठा, सं. पुं. ( सं . कारम् ) द्वार् (स्त्री.), प्रतिहार : २. द्वार, पूजा-पूजनम्, वैवाहिकरीतिविशेषः । | बार्डर, सं. पुं. ( अं. ) ( देश का ) सीमा, सामन्तं समन्तः, पर्यन्तम् । २. ( वस्तु का ) अन्तः, प्रान्तः, अन्तं, उपान्तम्, सीमा, पर्यन्तम् । बार्बर', वि. ( सं . ) बर्बरदेशज । बार्बर २, सं. पुं. ( अं. ) नापितः, क्षौरिकः । बाल, सं. पुं. (सं.) बालकः, शिशुः २. रो (लो)मन् (न.), शरीरांकुरं, तनुरुहः -हम् ३. शिरसिज:, शिरोरुह: - हं, केशः, कचः, कुन्तलः । बालक, सं. पु. ( सं . ) पुत्रः सुतः २. बाल:, शिशुः, माणवः वकः, किशोर:-रकः, मुष्टिधयः, वटुः, वटुकः २. अज्ञानिन्, निर्बुद्धिः । बालटी, सं. स्त्री. ( अं. बकेट ) उदंचन, सिरा । बालतोड़, सं. पुं. ( सं. बाल: + हिं. तोड़ना ) * बालनोटः । बॉयलर, सं. पुं. ( अं. ) वाष्पित्रम् । बायाँ, वि. (सं. वाम ) सभ्य, वामक, दक्षिणेतर, प्रतिलोम २. प्रतिकूल, विरुद्ध । बारंबार, क्रि.वि. (सं. वारं वारम् ) पुन:पुनः, पौनःपुन्येन २. सततं, अनवरतम् । बार, सं. स्त्री. (सं. बार: ) क्रमः, पर्यायः - बार, क्रि. वि., दे. 'बारंबार' । 1 बाला, सं. स्त्री. ( सं . ) प्रमदा, कामिनी २. युवति: (स्त्री.) ३. कन्या ४. पुत्री । भक्ष्यम् । बारबरदार, सं. पुं. (फ़ा.) भारवाहः, बारदाना, सं. पुं. ( फा . ) पण्यभाण्डं २. सैन्य- बालिका, सं. स्त्री. (सं.) कुमारी, बाला, कन्या २. पुत्री, तनया, तनुजा ३. कन्यका, कुमारिका | भारिकः, वाहकः । बालिग, वि. (अ.) प्रौढ, व्यवहारज्ञ, वयस्क । बारह, वि. ( सं . द्वादशन् ) । सं. पुं. उक्ता | बालिश्त, सं. पुं. ( फा . ) वितस्ति: ( पुं.) । संख्या, तदंकौ ( १२ ) च । बाली, सं. स्त्री. (सं. वालीका) कर्णालंकारभेदः । बालुका, सं. स्त्री. (सं.) सिकता, शीतला, महा-, सूक्ष्मा | बालम, सं. पुं. ( सं . वल्लभः ) पतिः, भर्तृ २. दयितः प्रियः । बालू, पुं. (सं.) बालुका दे. | For Private And Personal Use Only Page #458 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir बाल्य [४२० बिछुआ -शाही, सं. स्त्री., मधुमण्ठः। | विक्री, सं. स्त्री. ( सं. विक्री ) पणनं, विक्रयः, बाल्य, सं. पुं. (सं. न.) दे. 'बचपन'। । विक्रयणम् । बावजूद, क्रि. वि. (फ्रा.) एवं सत्यपि, इति बिखरना, क्रि. अ. (सं. विकिरणम् ) विप्रक स्थितेऽपि । (कम.) २. प्रस ( भ्वा. प. अ.)। बावन, वि. [ सं. द्वापंचाशत् ( नित्य स्त्री.)]। बिखरा(खेर)ना, क्रि. स. ( सं. विकिरणम् ) सं. पुं., उक्ता संख्या, तदंको (५२) च। अव-वि-क (तु. प. से.), आस्तु (क्र. प. से.), –चाँ, वि., द्वि (द्वा ) पंचाशत्तमः, मी-मम् । - विक्षिप् (तु. प. अ.)। सं. पु. भाव, अव. बावरची, सं. पुं.(का.) सूदः, पाचकः। वि, किरणं, विक्षेपः, आस्तरणम् । बावला, वि. (सं. वातुल) विक्षिप्त, उन्मत्त | बिगड़ना, क्रि. अ. ( सं. विकरणम् ) विकृ २. मूर्ख। (कर्म.), दुष् (दि. प. अ.), क्षि ( कर्म.), बावली, सं. स्त्री. ( सं. वापी ) वापिका, सोपा- | दुर्दशां प्राप् ( स्वा. प. अ.) २. उन्मार्ग गम्, नकूपः। सुपथभ्रष्ट (वि.) भू ३. कुप (दि. प. से.) बाशिंदा,सं. पुं. (फ्रा.) नि, वासिन्, वास्तव्यः। ४. दुर्दान्त (वि.) जन् (दि. आ. से.)। बास, सं. स्त्री. ( सं. वासः) सुगन्धः, सुवासः, | बिगड़ा हआ, वि., विकृत, दूषित, क्षीण, परिमलः, सौरभं २. दुर्गध:, पूतिगंधः। २. दुर्ललित ३. दुर्दान्न । बासठ, वि. [सं. द्विषष्टिः (नित्य स्त्री.)] । सं. | बिगाड़ना, क्रि. स. ( हिं. बिगड़ना ) दुष् (प्रे.) पुं. उक्ता संख्या, तदंको (६२) च। आविलयति-मलिनयति-कलुषयति ( ना. धा.) -वाँ, वि., द्वि(द्वा)षष्टितमः-मी-म, द्वि(दा)षष्ट: २. सन्मार्गात् भ्रंश (प्रे.) ३. अत्यन्तं लल ष्टी-ष्टम् । (चु.)। बासन, सं. पुं. (सं. वासनम् ) दे. 'बरतन' । बासमती, से. पुं. ( सं. वासमती>) वास बिगुल, सं. पुं. (अ.) काहल:-लं-ला । वव्रीहिः। | बिचकाना, क्रि. अ. (अनु.) मुखं विरूप बासी, वि. (सं. वासिन् ) निवासिन्, वास्तव्य (चु.) आननं वक्रीकृ।। २. शुष्क, म्लान, पर्युषित, व्युष्ट । बिचला, वि. (हिं. बीच ) मध्यम, मध्यवर्तिन् । बाहर, क्रि. वि. (सं. बहिस् ) बाह्यतः, बहि. बिचवई, सं. पुं. (हिं. बीच ) प्रमाणपुरुषः, भवनम् । निणेतृ, मध्यस्थ, मध्य, वतिन्-स्थायिन्', सन्धाबाहरी, वि. (हिं. बाहर ) बाह्य, बहिःस्थ, बहि यक। सं. स्त्री., मध्यस्थता, माध्यस्थ्यम्, भव, बहिर्वतिन, बहिस् । निर्णायकत्वम् । बाहु, सं. स्त्री. ( सं. पुं.) दे. 'बाँह' । बिच्छू, सं. पुं. (सं. वृश्चिकः ) आलि:, आलिन्, बाहुल्य, सं. पुं. (सं. न. ) दे. 'बहुतायत'। | द्रुणः । बिंदी, सं. स्त्री. (सं. विन्दुः) शून्यं, खम् / बिठ(छु)ड़ना, क्रि. अ. ( सं. विछुट्>)वियुज २. अंकः, चिह्नम् ३. तिलकः-कं, चित्रकम् । विरह (कम.), विघट (भ्वा. आ. से.), बिंद. सं. पं. (सं.) कणः, लवः, पृषतः २. दे. विश्लिष् ( दि. प. अ.), पृथक् भू । सं. पुं., 'बिदी' १-२. ३. भ्रमध्यम् । दे. 'विछोड़ा। बिंब, सं. पु. ( सं. पु. न. ) प्रतिच्छाया, प्रति,- बिछाना, क्रि. स. ( सं. विस्तरणन् ) आ-वि,बिंब-कृतिः (स्त्री.) २. सूर्य-चन्द्र,-मण्डलं स्तु (क्र. उ. से.), आ-वि,-तन् (. उ. से.), ३. बिंबफलम् । प्रस (प्रे.) । सं. पुं., आ-वि,-स्तारः, प्रसारः, बिकना, क्रि. अ. (सं. विक्रयणं>) विक्री | प्रसारणम् । (कम.)। बिछावन, सं. पुं., दे. 'बिछौना'। बिक्रवाना, क्रि. प्रे. (हिं. बिकना) विक्री बिछिया, सं. स्त्री. (हिं. बिच्छू ) पादांगुली(प्रे., विक्रापयति)। भूषणम् । बिकाऊ, वि. (हिं. बिकना) विक्रेय, पण्य, | बिछुआ (-वा), सं. पुं. (हिं. बिच्छ ) दे.. विक्रयणीय। | "बिछिया' २. कटारभेदः। For Private And Personal Use Only Page #459 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir बिछोड़ा [ ४२१] बीबी - ना. बिछोड़ा, सं. पुं. (हि. बिछुड़ना ) विरहः, , बिल्लौर, सं. पुं. (फा. बिल्लूर ) स्फटिकः, वियोगः, विश्लेषः। सितोपलः, सितमणिः, स्फटिकाश्मन् । बिछौना, सं. पुं. (हिं. बिछाना ) आस्तरः / बिल्लौरी, वि. (हिं. विल्लौर ) स्फाटिक, स्फरणम्, शव्योपकरणम् । टिकमय २. स्फटिकस्वच्छ । बिजली, नं, स्त्री. ( सं. विद्युत् ) तडित् (स्त्री.), बिसात, सं. स्त्री. (अ.) सामर्थ्य, शतिः (स्त्री.) सौदामिनी, शंघा, क्षणप्रभा, चपला, चंचला।। २. विभवः, वित्तम् ३. चतुरंगक्रीडापटः । बिज्जू, सं. पु. ( देश.) विडालाकारो वन्य-बिसातो, सं. पुं. (अ.) बैवधिकः, भाण्डवाहः, जन्तुः । क्षुद्रवणिज । बिडाल, सं. पुं. (सं. विडालः ) मार्जारः, बिस्तर, सं. पुं. (फ., मि. सं. विष्टर:>) ओतुः, आखुमुन् । __आस्तरः-रणं, *विस्तरः। बिताना, क्रि. स. ( सं. व्यत्ययनम् ) कालं -बंद, सं. पुं., *विस्तरबन्धः। अतिवह-या-गम्-झै ( सब प्रे.)। बिस्वा, सं. पुं. (हिं. बीसवाँ) विंशतितमोऽशः । बिनती, सं. स्त्री. ( सं विनतिः ) प्रार्थना, निवे- बींधना, क्रि. स. (सं. वेधनम् ) विध ( तु. प. दनं, अभ्यर्थना, याचना । से.), व्यध् (दि. प. अ.), छिद्रयति धा.)। -करना, क्रि. अ., अभ्यर्थ -प्रार्थ (चु. आ.से.), याच ( भ्वा. आ. ने.)। बीघा, सं. पं. (सं. विग्रहः) ३०२५ गजात्मको भूमानभेदः। बिना, अव्य. ( सं. विना ) अंतरा, अंतरेण, बीच, सं. पुं. (सं. विच>) मध्यः, मध्यं, ऋते, वर्जयित्वा, विहाय ( सब अव्य.)। मध्यभागः, गर्भः २. अन्तरं, भेदः । क्रि. वि., बिनौला, सं. पुं. (देश.) कार्पास-तूल, अन्तरे, अन्तः, मध्ये, अभ्यंतरे।। बीजम् । बीज, सं. पु. ( सं. न.) बीजकम् , रोहिः, बिरद, सं. पु. (सं. विरुदः-दन् ) यशो-कीर्ति, इरुः । २. वीर्य, रेतस् (न.) ३. मूलं, आदि: गोतम् । ४. कारणं, हेतुः ५. अव्यक्तसंज्ञासूचक चिह्नम् । बिल', सं. पुं. ( सं. विलम् ) विवर, छिद्रम्, | बीजक, सं. पुं. (सं. न.) पण्यसूची २. सूची. रन्ध्र, कुरं, सुपिरं, वज्र, राकम् । चिः ( स्त्री.)३. कबीरग्रंथसंग्रहः। बिलर, सं. पुं. (अं.) प्राप्यकम् २. विधेयकम् । बीजना, क्रि. स., दे. 'बोना' । बिलकुल, क्रि. वि. (अ.) सर्वथा, पूर्णतया, | बीट-ठ, सं. स्त्री. (सं. विषु ) खग, विष्ठा-मलंकात्स्न्ये न । पुरोषं-अवस्करः-उच्चारः। बिलखना, क्रि. अ. (से. विलक्ष>) विलप बीडा. सं.पं. (सं. वीटी) वीटिः ( स्त्री.), ( भ्वा.प. से.), करुणं उच्चैवो रुद् (अ. वीटिका २. कार्य-, भारः। प.से.)। -उठाना, मु., उत्तरदायित्वं स्वीकृ, धुरं वह बिलटी, सं. स्त्री. ( अं. बिलेट ) प्रहितवस्तु, (भ्वा. उ. अ.)। पत्रम् । बीड़ी, सं. स्त्री. ( सं. वीटी> ) वीटिका २. बिलबिलाना, जि. अ. ( अनु. बिलविल) पत्रवेष्टिततमाखुवती-तिः ( स्त्री.), वीटी ३. लघुरुद् ( अ. प. से.) २. क्षुभ् (दि. प. से.) कूर्चः-पोटलिका ४. दे. 'मिस्सी'। ३. ( कीटादि ) विसृप ( भ्वा. प. अ.)। बीतना, क्रि. अ. (सं. व्यतीत> ) ( कालः) बिला, अव्य. (अ.) विना, ऋते। व्यती ( अ. प. अ.), अतिवह (भ्वा. अ. प.), बिलोना, क्रि. स. ( स. विलोडनम् ) विलुड या ( अ. प. अ.)। (प्रे.), मन्थ् ( भ्वा. प.से.), खज ( भ्वा. प. बीती, सं. स्त्रो. (हिं. बीतना ) अतीत-व्यतीत-, से.)। सं. पुं., मन्थनं, विलोडनं, खजनम् ।। वातों-घटना २. वृत्तान्तः, उदन्तः। बिल्ला, सं. पुं. (सं. विडालः) मार्जारः, ओतुः, बोन, सं. स्त्री. ( सं. वीणा ) तंत्री, वल्लकी। वृपदंश:-शकः, मण्डलिन्, आखुभुज , गात्र-| बीबी, सं. स्त्री. ( फ्रा.) धर्मपत्नी २. कुलवधूः संकोचिन् । (बिल्ली विडाली, मार्जारी)। (स्त्री.) ३. कुमारी ४. भगिनी। For Private And Personal Use Only Page #460 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir बीभत्स [ ४२२. ] बुलेटिन बीभत्स, वि. (सं.) घृणावह, कुत्सित २. क्रूर | बुदबुद, सं. पुं., दे. 'बुलबुला' । (सं. बुदबुदः) सं. पुं. (अनु.), फेन, जलविकार : ( वर्तुलाकारः), अम्बुस्फोटः । २. गर्भस्थावयवविशेषः । बुद्ध, वि. (सं.) ज्ञानवत् ज्ञा नन् २. बुद्धदेवः, सुगतः, सर्वार्थसिद्धः, मुनीन्द्रः । बुद्धि, सं. स्त्री. (सं.) धी:-मतिः (स्त्री.), पण्डा, प्रज्ञा, मनीषा षिका, धिषणा, बुधा, मेधा । - मानू, वि. ( सं . मत्) धीमत, प्राश, बुध, मनीषिन, पंडित, मेधाविन्, विचक्षण, ३. पापिन् ४. भयावह । बीभत्सा, सं. स्त्री. ( सं .) जुगुप्सा, घृणा । बीम', सं. पुं. ( अं.) दे. 'शहतीर' । बीम, (फ़ा. ) भयम्, संकटम् । बीमा, सं. पुं. ( फ्रा. बीम = भय > ) संभाव्य रक्षणम् २. संभाव्यहानिपूरकं शुल्कम् । बीमार, वि. (फ़ा. ) रोगिन, रुग्ण । बीमारी, सं. स्त्री. (फ़ा. ) रोगः, व्याधिः । बीस, वि. [सं. विंशति: ( नित्य स्त्री . ) ] । विदग्ध विवेकिन्, चतुर । सं. पुं., उक्ता संख्या, तदंकौ ( २० ) च । -वाँ, वि., विशतितमः -मी-मं, विंशः शी-शम् । बीहड़, वि. (सं. विकट) निबिड, दुर्गम २. विषम, नतोन्नत । बुंदा, सं. पुं. (सं. बिन्दुः > ) कर्णाभरणभेदः, लोलकम् । बुनने योग्य, वि, वयनार्ह, वपनीय, वातव्य । बुकच्चा, सं. पुं. ( तु. चः ) पोट्टली-लिका, बाला, सं. पुं., तन्तुवायः, तंत्र वापः, कुविंदः, कूर्चः-र्चम् , भारः । पटकारः । बुकनी, सं. स्त्री. (हिं. बूकना = पीसना ) बुना हुआ, वि., उप्त, उत । चूर्ण, क्षोदः । बुखार, सं. पुं. (अ.) ज्वरः, तापः । - पुराना, सं. पुं., जीर्णज्वरः । बुज़दिल, वि. ( फ़ा. ) भीरु, निस्साहस । बुनियाद, सं. स्त्री. (फ़ा.) वास्तु:, वास्तु (न.), गृहमूलं पोट:, भित्तिमूलम् २. यथार्थता । बुरका, सं. पुं. (अ.) आवरकम् । त्रस्नु, कातर, बुरा, वि. (सं. विरूप > ) दूषित, दुष्ट, निकृष्ट, मंद, २. दुर्गुण, अशुभ ३. गहर्थ, कुत्सित ४. खल, दुर्वृत्त । बुराई, सं. स्त्री. (हिं. बुरा) दुष्टता, नीचता, निकृष्टता, दुर्वृत्तं, खलत्वम् । बुझाना, क्रि. स. ( हिं. बुझना ) निर्वा ( प्रे.), ज्वालां शम् (प्रे.) २. शीती कृ. ३. उत्साह नश् (प्रे.)। सं. पुं., निर्वाप:- अग्निशमनम्। बुझारत, सं. स्त्री. ( हिं. बूझना ) प्रहेलिका, | । बुरादा, सं. पुं. ( फा . ) काष्ठचूर्ण, दारुक्षोदः । बुरुश, सं. पुं. ( अं. ब्रश ) आघर्षणी, लोममयी मार्जनी २. तूलिका, वर्तिका । बुर्ज, सं. पुं (अ.) प्राचीर,-शिखरं शृङ्गम् । बुलबुल, सं. स्त्री. ( का . ) प्रियगीत:, बुल्बुल: बुलबुला, सं. पुं. (सं. बुदबुद: > ) जलविकारः, फेन: दे. बुदबुदा । बुलाना, क्रि. स. ( देश.) आकू ( प्रे.), आह्व े (भ्वा. प. अ.), आ-नि-मंत्र् (चु. आ. से.), शब्द ( चु.) । सं. पुं. भाव, आकारणं, आह्वानं, आ-नि, मंत्रम् । S बुलावा, सं. पुं. (हिं. बुलाना ) दे. 'बुलाना " सं.पुं. बुलेटिन, सं. स्त्री. (अं.) रोगिवृत्तपत्रिका २. राजकीय आधिकारिक, विज्ञप्तिः (स्त्री.) । बुजुर्गं, वि. (फ़ा. ) वृद्ध, स्थविरं । सं. पुं., पूर्वजः, वंशकरः, गुरुः । बुध, सं. पुं. (सं.) बुधवासरः २. चन्द्रसुतः,. चतुर्थग्रहः ३. ज्ञानिन, पंडित: ४. देवः । बुनना, क्रि. स. ( सं वयनम् ) वेश्वप् (भ्वा. उ. अ.) । सं. पुं. भाव, वपनं, वयनं, वस्त्रनिर्माणम | बुझना, क्रि. अ. (देश. ) शम् (दि. प. से.), निर्वापित (वि.) भू २. शीती भू ३. उत्साहो नशू ( दि. प. वे. ) । कूटप्रश्नः । बुड़बुड़ाना, क्रि. अ. (अनु.) जल्प (भ्वा. प.से.) । बुड्ढा, वि. पुं. (सं. वृद्ध : ) दे. 'बूढ़ा' । बुढापा, सं. पु. (हिं. बूढ़ा ) वार्द्धकं क्यं, जरा, ज्यानि: (स्त्री.), स्थाविरम् | बुत, सं. पुं. (फ़ा.) मूर्तिः, प्रतिकृति: (स्त्री.), प्रतिमा | - परस्त, वि., मूर्ति प्रतिमा, पूजक । For Private And Personal Use Only Page #461 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir बुध, बुस [ ४२३ । - बुष, बुस, सं. पु. (सं. दुषम् ) बुसम्, तुषः- | शुभ्रा ३. चूर्ण, क्षोदः ४. काष्ठचूर्णम् । सः २ शुष्कगो,-मयं-मलं-पुरीष-विष्ठा। बृहत्, वि. (सं.) विशाल, महत् २. दृढ, बुहारना, कि. स. (सं. बहुकरी>) संमृज् | बलवत् ३. पर्याप्त ४. उच्च ( स्वररादि)। (अ. प. वे. ), शुध् (प्रे०)। | बृहस्पति, सं. पुं. (सं.) देवताविशेषः, सुरगुरुः, बुहारी, सं. स्त्री. (हिं. बुहारना) शोधनी, | गुरुः, वाचस्पतिः, वागीशः ( दू. त.) २. सौरदे. 'बहुकर'। मंडलस्य पंचमो ग्रहः। बूंद, सं. स्त्री. (सं. बिंदुः) कणः, लवः, पृषतः, -वार, सं. पं. (सं.) गुरु, वारः-वासरः । पृषत् (न.), विपुष (स्त्री.); द्रप्सः । | बेंच, सं. स्त्री. ( अं.) (काष्ठादिनिर्मितं) *लंबाबूंदा-बांदी, सं. स्त्री. ( हिं. बँद+अनु.) मन्द- सनं, २. धर्म-व्यवहार, आसनं ३. आधिकर. वृष्टिः ( स्त्री.) शीकरवर्षः। णिका:-धर्माध्यक्षाः (पुं. बहु.)। बूंदी, सं. स्त्री. ( हिं. बूंद ) बिन्दवः (पुं. बहु.), बेंत, सं. पुं. (सं. वेत्रः) वेतसः, वानीरः,वंजुलः, मिष्टान्नभेद: २. वृष्टिजलबिन्दुः। | नीरप्रियः, अभ्रपुष्पः। २. वेत्र-वेतस्,-दंड:बू, सं. स्त्री. ( फ्रा. ) गंधः, वासः २. दुर्गन्धः ।। यष्टिः ( स्त्री.)। -उड़ना वा फलना, मु., कुख्यात-अपख्यात बंदी, सं. स्त्री. (सं. बिंदुः) वर्तुलचिह्न २. (वि.) भू। तिलकः-कं ३. शून्यं, खम् । बू, सं. स्त्री. ( देश.) पितृष्वस. (स्त्री.), |बे. अव्य. (सं. हे ) अरे, रे, अयि । पितृभगिनी २. अग्रजा। . बे,२ अव्य. (फा., मि. सं. वि.) अ-, अन् , वि, बूचड़, सं. पं. (अं. बुचर ) शौ(सौ)निकः, निर्, रहित, वजित, व्यतिरिक्त,-वंचित।। मासिकः, खट्टिकः, कौटिकः। -अकल, वि. (फा.+अ.) निर्बुद्धि, मूर्ख। -खाना, सं. पुं., सूना, शूना। - अकली, सं. स्त्री., निर्बुद्धिता, मौर्यम् । बूझ, सं. स्त्री. ( सं. बुद्धिः ) बोधः, ज्ञान, विवेकः -अदब, वि. (फा.+अ.) अविनीत, धृष्ट । २. प्रहेलिका। -अदबी, सं. स्त्री., धृष्टता, वैयात्यम् । बूझना, क्रि. अ. (हिं. बूझ )शा (क.उ.अ.), -आबरू, वि. (फा.) निराकृत- अवधीरित, बध (भ्वा. उ. से.) २. प्रच्छ (तु. प. अ.)। संमानरहित। बूट, सं. पु. ( अं.) उपानह् (स्त्री.), पन्नद्धी। -आबरूई, सं. स्त्री., अवधीरणा, अवज्ञा, बूटा, सं. पुं. ( सं. विटपः ) वृक्षकः, बालवृक्षः, अपमानः। लता, ओषधिः ( स्त्री.) २. वंशः, वंशपरंपरा। -इंतिहा, सं. पुं. (फा.+अ.) अनंत, असीम । भूटी, सं. स्त्री. (हिं. बूटा ) ओषधिः ( स्त्री.), -इन्साफ, वि. (का.+अ.) अन्यायिन, काष्ठौषधम् २.भंगा ३.वस्त्रस्था पत्रपुष्परचना। अधमिन् । बूदना, क्रि. अ., दे. 'डूबना'। -इन्सानी, सं. स्त्री., अन्यायः, अधर्मः। बूढ़ा, सं. पुं. (सं. वृद्धः ) जरठः, स्थविरः, | |-इज्जत, वि. (फा.+अ.) दे. 'बेआबरू'। पलितः, जरितः । वि., जरठ-ण,जरित-न, जीन, | |-इज्जती, सं. स्त्री., दे. 'देआबरूई'। जीर्ण, वयस्क, प्रवयस् , वृद्ध, स्थविर, पलित । |-इल्म, वि. (का.+अ.) अविध, निरक्षर । -होना, क्रि. अ., ज (दि. क. प. से.), ज्या -ईमान, वि. (फा.+अ.) कुटिल, जिह्म, ( प. अ.), परिणम् (भ्वा. प. अ.), वृद्ध | धर्म-न्याय,-विमुख, कपटिन्, वंचक, शठ । (वि.) भू। --ईमानी, सं. स्त्री., कुटिलता, वंचना, अधर्म । -पन, सं. पुं., जरा, परिणतिः-ज्यानिः जीणिः |-औलाद, वि. (फा.+अ.) निरपत्य, (स्त्री.), वार्धक-क्यं, वृद्धावस्था। निस्संतान। बूढ़ी, सं. स्त्री. (हिं. बूढ़ा ) वृद्धा, जरती, -कदर, वि. (फ्रा.) दे. 'बेआबरू'। स्थविरा, पलिता, पलिक्नी। वि., ब. 'बूढा' -कदरी, सं. स्त्री. ( फ़ा.) दे. 'बेआबरूई'। वि. के. स्त्री. रूप। -करार, वि. (फा.) अशांत, विकल, व्याकुल । बूता, सं. पुं. (सं. वित्तं>) बलं, शक्तिः (स्त्री.)। |-करारी, सं. स्त्री. ( फा. ) अशांतिः (स्त्री.), बूरा, सं. पुं. (हिं. भूरा) शर्करा २. सुपिष्टा, | व्याकुलता। For Private And Personal Use Only Page #462 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [ ४२४ ] -कल, वि., आकुल, व्याकुल, अशान्त । -ढब, वि. (फा.+हिं.) कदाचार, कुशील, -कली, सं. स्त्री., आ-व्या,-कुलता, अशान्तिः। २. कुदर्शन, कुरूप । (स्त्री.), क्षुब्धता । -तकल्लुफ़, वि. (फा.+अ.) उपचारोपेक्षक, -कस, वि. (फा.) निस्सहाय २. दरिद्र | निराडंबर २. ऋजु, सरल । ३. अनाथ, मातृपितृहीन । -तकल्लुफ़ी, सं. स्त्री., उपचारोपेक्षा, आडंबर–कसी, सं. स्त्री., दैन्यम्, विवशता, दीनता। हीनता २. आर्जवे, सरलता । -कानूनी, वि., अवैध, विधि-नियम, विरुद्ध- -तमीज़, वि. (फ्रा. अ.) अशिष्ट, असभ्य, विपरीत । उद्धृत, वियात। -काबू , वि. (फ़ा.+अ.) सयमशून्य, विवश -तरह, क्रि. वि. (फा.+अ.) अनुचितं, २. अदम्य, अवश्य। अस्थाने, असम्यक् २. असाधारण-विलक्षण, काम, वि. (फ़ा.+हिं.) वृत्तिहीन, व्यवसाय- रूपेण । वि., अत्यधिक । शून्य २. व्यर्थ, निरर्थक । -तरीका, वि. ( फा+अ.) अनुचित, अनैय-कायदा, वि. (फा.+अ.) नियमविरुद्ध, मिक । क्रि. वि., अनुचितम् । अवैध, अनियमित । -तहाशा, क्रि. वि. (फा.+अ.) अति,-जवेन-कार, दि. (फा.) दे. 'बेकाम' (१-२ )। क्रि.वि., व्यर्थ, निष्प्रयोजनम् । वेगेन-शीघ्रतया २. ससंभ्रमं ३. अविचार्य, अविमृश्य। -कारी, सं.स्त्री.,नियोगाभावः, वृत्तिराहित्यम् । -ताब, वि. (फा.) दुर्बल २. विकल । -कुसूर, वि. (फ़ा.+अ.) निरपराध, निर्दोष । -खटके, क्रि. वि. (ता.+हिं.)निःसंकोचं, -ताबी, सं. स्त्री. (फा.) निर्बलता २. व्याकुलता। निःशंकं, निर्भयम् । -ख़बर, वि. (फ्रा.) अश, अपरिचित २.. -तार, वि. ( फ़ा.+सं.) वितार, तंतुहीन । मूच्छित, निःसंज्ञ। -तार का तार, सं. पुं., *वितारतारः, वितारो --ख़बरी, सं. स्त्री., अज्ञता, प्रमादः २. मूर्छा, विद्यत्संदेशः। मोहः, संज्ञालोपः। -तुका, वि. (फ़ा.+हिं.) विषमस्वर, साम-ख़ौफ़, वि. (फा.) निर्भय, त्रासहीन । । जस्यहीन २. दे. 'बेढब'। -नारज़, वि. (फा.+अ.) निरपेक्ष, निश्चिंत ।। -दखल, वि. (फा..) निष्कासित, निरस्त. -गुनाह, वि. (ता.) निष्पाप २. निरपराध।। अपास्त, अधिकारभ्रष्ट । -चैन, वि. (फ्रा.) विकल, अशांत २. विनिद्र।। -दखलो, सं. स्त्री. (फा.) निष्कासनं, अपासनं -चैनी, सं. स्त्री., व्याकुलता २. विनिद्रता। | अधिकारभ्रंशः । -छंद, सं. पुं. (हिं.+सं. छंदस) अंत्यानु- -दम, वि. (फा.) मृत, निष्प्राण २. मृतप्राय, प्रासहीनं छन्दस (न.), अमिताक्षरं वृत्तम् ।। _मरणासन्न। -ज़बान, वि. (फा.) अवाच , मूक २. दीन । -दर्द, वि. (का.) निर्दय, निष्करुण । -जा, वि. (फा.) अनुचित, असंगत २. -दाग़, वि. (मा.) निष्कलंक, शुद्धाचार कुत्सित, गी। २. निर्दोष, निरपराध ३, स्वच्छ । -ज़ान, वि. (फ्रा.) निष्प्राण, मृत २. निर्बल, -धड़क, क्रि. वि. (फ्रा.+हिं.) निःसंकोचं अशक्त । २. निर्भयं ३. अविमृश्य । वि., निःसंकोच, –जाब्ता, वि.(फा.+अ.) अवैध, अनैयमिक। निर्भय, अविमृश्यकारिन् । -जोड़, वि. (फ़ा.+हिं.) अनुपम २. अखंड । -नज़ीर, वि. (फा.+अ.) अनुपम, अद्वितीय । -ठिकाने, वि. (फ.+हिं .) स्थान, च्युत-भ्रष्ट, | -नसीब, वि. (फा.+अ. ) मंद-हत,-भाग्य । २. निरर्थक ३. असंगत। |-परदा, वि. (फ़ा.) अनावृत, निरावरण -डौल, वि. ( फ़ा.+हिं.) कुरूप, कदाकार ।। २. नग्न । -ढंगा, वि. (फा.+हिं.) अनाचारिन्, | -परवाह, वि. (फ्रा.) निश्चित, वीतचिंत। दुर्वृत्त २. कुरूप ३. अक्रम, कुव्यवस्थित । । २. स्वेच्छाचारिन् ३. उदार।। For Private And Personal Use Only Page #463 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir फिक्र [२५] बेगार - -परवाही, सं. स्त्री., निश्चितता २. स्वेच्छा- -शक, क्रि. वि. (फा.+अ.) अवश्यं, चारः ३. औदार्यम्। निःसंदेहम् । -पीर, वि. (फा.+हिं.) निर्दय, अकरुण | -शरम, वि. (फा.-शर्म) निर्लज्ज, अपत्रप । २. सहानुभूतिशून्य। -शरसी, सं. स्त्री., निर्लज्जता, निबीडता । -फायदा, वि. (फ़ा.) निष्फल, निरर्थक । -शुमार, वि. (फा.) अगणित, असंख्य । क्रि. वि., मोघं, निष्फलम् । -सबर, वि. (फ्रा.+अ. सब) अधीर २. फ़िक्र, वि. ( फा. ) दे. 'बेपरवाह'। असंतुष्ट । ---फ्रिक्री, सं. स्त्री., दे. 'बेपरवाही। -सबरी, सं. स्त्री., धैर्यलोपः २. संतोषाभावः । -बस, वि. ( सं. विवश ) अशक्त, अवश, -सरो सामान, वि. (फा.) निष्परिच्छद, निरधिकार २. परवश, पराधीन । दरिद्र, अकिञ्चन । -बसी, सं. स्त्री. (हिं.) विवशता, अवशता, -सुध, वि. (फा+हि.) मूच्छित, नष्टसंश, २. परवशता । निस्संज्ञ २. अश, जड। -बहरा, वि., भाग्यहीन २. विद्याहीन । - सुधी, सं. स्त्री., मूर्छा २. जडता । -बाक, वि. निर्भय, धृष्ट । -सुर,-सुरा, वि. ( सं. विस्वर ) विषमस्वर -बाक़, वि. (फा.) निस्तारित, शोधित। २. दुःश्राव्य, कटुस्वर ३. दे. 'बेमौका'। --चुनियाद, वि. (फ्रा.) निर्मूल, निराधार । -स्वाद, वि. (सं. विस्वाद ) दे. 'बेमजा'। -भाव, वि. (फा.+हिं.) असंख्यात, -हद, वि. ( फ़ा.) असीम, निस्तीम, अपरिअगणित । मित २. अत्यधिक। --भाव की पड़ना, मु., भशं ताड ( कर्म.)। -हया, वि. (फा.) दे. 'बेशरम' । -मज़ा, वि. (मा.) नीरस, विरस, निस्स्वाद । -हयाई, सं, स्त्री., दे. 'बेशरमी'। -मतलब, अ०, निष्प्रयोजनम्, व्यर्थम् ।। -हाल, वि. (फा.+अ.) विकल २. दुर्गत । -मानी, वि. (फा.+अ.) निरर्थक । -हाली, सं. स्त्री., विकलता २. दुर्गतिः (स्त्री.) --मुरव्वत, वि. (प्रा.) निःसंकोच,"अविनीत, दारिद्रयम् । अदक्षिण, कुशील। -हिसाब, क्रि. वि. (का.+अ.) अत्यधिकं, --मेल, वि. असंगत, विषम। अपरिमितम् । वि., अत्यंत, अगणनीय । -मौक़ा, वि. (फा.) असामयिक, अस- -होश, वि. (फा.) दे. 'बेसुध' । मयोचित । -होशी, सं. स्त्री., दे. 'बेसुधी'। -रहम, वि. ( फा.+अ.) निष्ठर, निर्दय । बेकल, वि. (सं. विकल ) अशांत, विह्वल, -रहमी, वि. निर्दयता, निष्ठुरता। | दे. 'व्याकुल'। -रोक, । क्रि.वि. (फ़ा+हिं.) निष्प्रति- बेकली, सं, स्त्री, (हिं. वेकल ) अशांतिः -रोक-टोक, बंधं, निर्विघ्नं. निर्व्याघातम। अनिवृतिः (स्त्री.) दे. 'व्याकुलता' । -रोज़गार, वि. (फा.) दे. 'बेकार' । बेकिंग पाउडर, सं. पुं. ( अं.) भर्जनक्षोदः। -रोज़गारो, सं. स्त्री., दे. 'बेकारी'। बेक्टीरिया, सं. पु. ( अं.) कीटाणवः ( पुं. -रौनक, वि. (फा.) शोभाहीन, निःश्रीक | बहु )। २. निष्प्रभ, कांतिहीन। वेगम, सं. स्त्री. (तु.) राशी, राजपत्नी -लाग, वि. (फा.+हिं.) निःसंग, निर्मोह | २. राशीचित्रांकितक्रीडापत्रभेदः । २. निष्कपट, निाज। बेगाना, वि. (फा.) अस्वीय, अस्वकीय, ---का, वि. (फ्रा.+अ.) विश्वास, घातक- अनात्मीय, पर, अन्य २. अपरिचित, अशात । घातिन्, भक्तिहीन २, दुःशील ३. कृतघ्न । बेगार, सं. स्त्री. (मा.) विष्टिः-आजू:-वफ़ाई, सं. स्त्री. (फा.) विश्वासघातः | आजुर् (स्त्री.)। २. दुःशीलता ३. कृतघ्नता ।। -टालना, मु., अमनोयोगेन कृ; येन केन -शऊर, वि. (फा.+अ.) दे. 'बेतमीज़'। ' प्रकारेण विधा ( जु. उ. अ.)। For Private And Personal Use Only Page #464 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir बेगारी [ ४२६ ] बेसर = - - बेगारी, सं. पुं. (फ्रा.) अनिष्टोद्योगकारिन्, । बेन, सं. स्त्री. ( सं. वेणुः ) मुरली २. वंशः । आजुर-आजः (स्त्री.)। | बेनी, सं. सी., दे, 'वेणी' । बेचना, क्रि. स. ( सं. विक्रयणम् ) विक्री ( क्र. बेनु, सं. पुं. (सं. वेणुः) वंशः, तृणध्वजः । आ. अ.), मूल्येन दा (जु. उ. अ.), विपण । २. मुरली। (भ्वा. आ. से.)। सं. पुं., विक्रयः-यणं, मूल्येन बेर, सं. पुं. (सं. बदरी) (वृक्ष) कधूः दानं, विपण:-णनम्। | (स्त्री.), कर्कन्धुः, बदरिका, कोलं, घोंटा, बेचने योग्य, वि., विक्रेय, विपणनीय, पण्य । । (बदरः, बालेष्टः) २. (फल ) बदर, बदरी बेचने वाला, सं. पुं., विक्रेत, विक्रयिन, विक्र- फलम् इ. । यिकः, विपणिन्, विपणित।। बेर', सं. स्त्री. (सं. वारः) दे. 'बार' । बेचा हुआ, वि., विक्रीत, मूल्येन दत्त, | बेर', सं. स्त्री. (सं. वेला> ) दे. 'देर' । विपणित। बेरियम, सं. पु. ( अं.) अातु ( न.)। बेचारा, वि. (फा.) दीन, निरवलंब। बेरी, सं. स्त्री. ( सं. बदरो) दे. 'बेर' (वृक्ष) बेटा, सं. पुं. (सं. वंट:> ) पुत्रः, आत्मजः, बेल', सं. [सं. वि(वि)ल्वः ] ( वृक्ष ) मालूरः, सूनुः। महा-श्री-सदा-सत्य,-फल:, शिवद्रुमः, पत्र:, -बेटी, सं. स्त्री., सन्तानः, संततिः ( स्त्री.)।। मंगल्यः । ( फल ) विल्वं, मालूरफलम् इ.। -(टे) वाला, सं. पुं., वर,-जनकः-पित। । -पत्र, सं. पुं. (सं. न.)बिल्व मालूर,-पत्रम् ।। --गोद लेना, मु., पुत्री कृ, पुत्रत्वेन परिग्रह बेल२. सं. स्त्री. (सं. वल्ली) लता, वल्लरी, (ज. प. से.), दे. 'गोद' के नीचे। | व्रतती-तिः ( स्त्री.) उलपः, गुल्मिनी, प्रतानिनी बेटी, सं. स्त्री. (हिं. बेटा) पुत्री, तनया, २. वंशः, संततिः (स्त्री)। तनुजा, आत्मजा, दुहित (स्त्री.)। -बूटा, सं. पुं., सूची, कर्मन्-शिल्पं, वस्नचित्रितं -वाला, सं. पुं. कन्या-वधू-जनकः पित। पुष्पपत्रम् । -व्यवहार, सं. पुं., विवाहसम्बन्धः । बेलचा, सं. पुं. (फा.) खनित्र, अवदारणम् । बेड़ा, सं. पुं. ( सं. वेडा ) तरणः, तरंटकः, बेलदार, सं.पु. (फा.) भखनकः, टंगचाल कः । भेलः २. बृहन्नौका ३. नौकागणः, पोतावली, बेलन, सं. पुं. (सं. बेलनं>) *बेलनम् । (युद्ध-) नौनिकरः। बेलना, सं. पुं. (सं. वेल्लनं ) वेल्लनी। क्रि. स., -डूबना, मु., विपदा नश (दि. प. वे.)। वेल-वेल्ल (प्रे.), (क्लिन्न-चूर्णपिण्डं ) रोटिका-पार करना, मु.,संकटात त्रै (भ्वा. आ. अ.), | रूपेण 'परिणम्' (प्रे.)। विपदं ह (भ्वा. प. अ.),। बेला', सं. पुं. (सं. मल्लिका) मल्ली, पटपद-पार होना, मु., कात् मुन (कर्म.)। प्रिया, वन- 'द्रिका, अतिगंधा। बेड़ी,सं. स्त्री. (सं. वलयः> ) निगड:-डं, बेला२, सं. पुं., दे. 'वेला'।। शृंखला-लम्। बेवकूफ़, वि.(फा.) मूर्ख, मूढ, जड़, निर्बुद्धि । -डालना, क्रि. स., निगडयति ( ना. धा.); बेवकूफ़ी, सं. स्त्री. (का.) मूर्खता, मूढता इ.। शृंखलैः निगडैः बंधू (ऋ. प. अ.), बेवा, सं. स्त्री. (का.) दे. 'विधवा'। निगडितं कृ। बेशकीमत-ती, वि. (फा.+अ.) बहुमूल्या, बेड़ी,२ सं. स्त्री. (हिं. बेडा ) तरणकः, भेलक:- __ महा। के २. नौका, उडुपम् । बेशी, सं. स्त्री. ( फा.) अधिकता, आधिक्य बेत, सं. पुं, दे. बैत'। २. वृद्धि: (स्त्री.) ३. लाभः । बेताल', सं. ए., दे. 'वेताल' । बेसन, सं. पु. ( देश.) चणचूर्ण, चणकक्षोदः ।। बेताल', सं. पुं., दे. 'वैतालिक' । बेसनी, वि. (हिं. बेसन ) बेशन-चणचूर्ण, बेदाना, सं. पुं. (फ़ा.) दाडिमभेद: २. निर्बीज- मय मिश्रित । द्राक्षा । वि., निबींज, तिरष्ठील, अष्ठिहीन ।। बेसर, सं. . ( सं. वेसरः ) वेश्वरः, वेग सरः,. बेधना, क्रि. स., दे. 'बींधना' । अश्वतरः। बेधिया, सं. पुं., दे. 'बींधनेवाला'। । बेसर, सं. पुं., दे. 'नत्थ' । For Private And Personal Use Only Page #465 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir बेहूदगी । ४२७ ] बैसाखो बेहूदगी, सं. स्त्री. (फ़ा.) अशिष्टता, असभ्यता । बैठा हुआ, वि., उपविष्ट, निषण्ण, आसीन । बेहूदा, वि. (फा.) अशिष्ट, असभ्य बैठते-उठते, क्रि. वि., सदा, प्रतिक्षणम् । २. अशिष्टतापूर्ण । बैठे बैठे, 1 क्रि. वि., निष्कारणं अहेतुकं पन, सं. पं., दे. 'बेहूदगी'। बैठे बैठाए, । २. अकांडे, अतर्कितम् । बंगन, सं. पुं. (सं. वंगनः) (पौदा ) मांस- | बेठवाना, क्रि.प्रे., व. बैठना' के प्रे. रूप। वृत्त-नील, फला, वार्ताकी, वृंताक:-की, वंगः । | बैठाना, । २. (तरकारी) वृंताक, वंगफलम् ।। । क्रि. स., ब. 'बैठना' के प्रे. रूप। बंग(ज)नी, वि. (हिं. बैंगन ) नील- लोहित .श्लोकः । अरुण। -बाज़ी, सं. स्त्री., पद्यपाठप्रतियोगिता २.. बै, सं. स्त्री. (अ.) विक्रयः, विक्रयणं, | | अन्त्याक्षरी। मूल्येन दानम् । बैतरनी, सं. स्त्री., दे. 'वैतरणी' । बैकुण्ठ, सं. पुं. (सं. वैकुंठः ) स्वर्गः, नाकः।। बैताल, सं. पुं., दे. 'वेताल' । बैजंती, बैजयंती, सं. स्त्री.. दे. 'वैजयंती'। बैन, सं. पुं. (सं. वचनं* ) शब्दः २. वार्ता बैज, सं. पुं. (अं.) चिह्न, लक्षणं, लक्ष्मन् (न.) | ३. परिदेवनपद्यम् (पंजाब)। २. दे. 'चपरास'। बना, सं. पु. ( सं. वायनं ) वायनकं, सांस्काबटरी. सं. स्त्री. ( अं.) विद्युद्यत्र २. *विद्युदी- रिकमिष्टान्नम् । पिका. दे. 'टार्च' ३. दे. तोपखाना' । बैनामा. सं. पं. (अ. बै+फा. नामह ) बैठक, सं. स्त्री. (हिं. बैठना) *उपवेश- विक्रयपत्रम् । कोष्ठकः, दर्शनगृहं, सभाजनकोष्ठः २. आसनं, | बैरंग, वि. ( अं. *बेयरिंग ) शुल्कापेक्षिन.. पीठं ३. अधिवेशनं ४. उपवेश:-शनं ५. उत्था- | निस्तार्य। नोपवेशनात्मको व्यायामभेदः ६. संगः । |-लौटना, मु., विफल-अकृतकार्य (वि.) प्रत्याबठकी, सं. स्त्री. (हिं. बैठक ) व्यायामभेदः, वृत् (भ्वा. आ. से.)। *उपवेशकी २. आसनं, पीठम् ३. पादफलक- बर, सं. पुं., दे. 'वैर'। प्रदीपः। बैरक, सं. पुं. (तु.) सैनिक, ध्वजः-केतुः २. बैठना, क्रि. अ. (सं. विष्ट>) उपविश्| सैनिक,-आवासः-आगारः। (तु. प. अ.), निषद् ( झ्वा. प. अ.), आस् | बेराग, सं. पुं., दे. 'वैराग्य' । (अ. आ. से.) २. खच-अनुव्यथ् ( कम.) | बैरागी, सं. पुं., दे. 'वैरागी । ३. अभ्यस्त (वि.) भू ४. अध:-अथवा तलं | बैरी, सं. पं., दे. 'वैरी'। गम् ५. नि-मस्ज (तु. प. अ.) ६. संकुच बैरोमीटर, सं. पु. ( अं.) वायुभारमापकम् । (तु. भ्वा. प. से.), मूल्येन ग्रह ( कम.), | बैल, सं. पु. [सं. ब(व)लीव: बलदः, वृषः, क्री. (कर्म) ७. लक्ष्यं व्यथ् (दि. प. अ.), वृषभः, उक्षन्-अनडुह वृषन्-ककुदमत (पु.) सिध (दि. प. अ.) ८. आ-अधि-रुह् (भ्वा. | पुंगवः, शाकरः, सौरभेयः २. जडः, मूढः । प. अ.) ९. आ-, रोप (कर्म.), निधा (कर्म.), | -गाड़ी,सं.स्त्री.,बलदशकटी,वृषभव(वा हनम् । प्रति-,स्थाप ( कर्म.) १०. दृढं वस ( भ्वा. प. छवाड़े का-, सं. पुं., शाकटः, धुरंधरः, धुरीणः, अ.) ११. ( केनचित् सह ) पत्नीत्वेन संवस् | धौ रेयः, प्रासंग्यः : १२. वृत्तिक्षीण, (वि.) वृत् (भ्वा, आ. से.) | बूढ़ा---, सं. पुं., जरद्गवः । १३. दरिद्री भू , परिक्षि ( कर्म.) १४. अप, | हल खींचनेवाला- सं. पु., सैरिकः, हालिकः । सृ-गम् ( भ्वा. प. अ.)। सं. पुं., उपवेश: बलून, सं. पुं. (अं.) दे. 'गुब्बारा । शनं, निघदनं, आसितं,आसनं,निपत्तिः (स्त्री.)। बैशाख, सं. पुं., दे. 'वैशाख' । बठने योग्य, वि., उपवेशनीय, निषदनीय, बसारखी', सं. स्त्री. (सं. वैशाखी) आर्याणां आसितव्य। पर्वविशेषः। बैठनेवाला, सं. पुं., उपवेशकः, उपवेष्ट, उपवे- बैसाखी२, सं. स्त्री. (सं. वैशाख:>) *वैशाखी, शिन्, आसक, निषादिन् । कुक्षियष्टिः ( स्त्री.)। For Private And Personal Use Only Page #466 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir बोझ बोझ, सं. पुं. (सं. बोढव्यं ? ) भारः, भर:, वीविधः, पर्याहारः २. गुरुत्वं तोल:, भारः ३. दुष्करकार्य ४. कार्यचिंता ५. कार्यभारः ६. उत्तरदायित्वम् । बोझ (झिल, वि. (हिं. बोझ ) गुरु, भारवत्, भारिक, भारिन, दुर्वह । बोटा, सं. पुं. (सं. वृतं >) छिन्नस्थूलकाष्ठखंड: २, खंड:-डं, शकल:-लम् । [ ४२८ ] बोटी, सं. स्त्री. (हिं. बोटा ) मांसखंडकः कम् । - बोटी काटना, मु., शरीरं खंडशः कृत् ( तु. प. से. ) शकली कृ, देहं स्तोकशः खंडू ( चु. ) । बोतल, सं. स्त्री. ( अं. बॉटल ) काचकूपी । बोदा, वि. (सं. अबोध ) दुर्-मंद-जंद, मति-बुद्धि, मूर्ख २. अलस, मंथर ३. निर्बल, अशक्त ४. शिथिल, श्लथ । बोध, सं. पुं. (सं.) उपलब्धि: प्रतिपत्तिः (स्त्री.), ज्ञानं २. धैर्य, आश्वासनम् । - गम्य, वि. ( सं . ) ज्ञेय, बुद्धिगम्य, सुबोध, सुगम | बोधक, सं. पुं. (सं.) अध्यापकः, शिक्षकः । वि., ज्ञापक, व्यंजक | बौखलाना बोरिक एसिड, सं. पुं. ( अं. ) टङ्कणाम्ल: । बोरिया, सं. स्त्री. (हिं. बोरा ) कटः, किलिंजक: २. आस्तरः-रणं, *विष्टरः ३. दे. 'घोरी' । - ( अथवा बोरिया बधना ) उठाना, मुँ., गमन प्रस्थान उद्यत् (वि.) भू । - सच्च, सं. पुं. (सं.) बुद्धत्वोन्मुखो महात्मन् । बोना, क्रि. स. ( सं . वपनं ) आ-नि-, वप् (भ्वा. उ. अ.), (बीजानि ) विकृ ( तु. प. से . ) - आरुह (प्रे.) । सं. पुं., उप्तिः (स्त्री.), वपनं, वाप:, वप:, बीज, विकिरण- आरोपणम् । बोने योग्य, वि, वपनीय, वप्तव्य, वाध्य । बोने वाला, सं. पुं., वपः, वापक:, वप्तृ, वापिन् । खोया हुआ, वि., उप्त, भूमौ विकीर्ण (बीज)। बोरा, सं. पुं. (सं. पुरं = दोना > ) स्यूतः, स्योतः प्रसेवः । बोरी, सं. स्त्री. (हिं. वोरा ) स्यूतकः, स्योतकः, प्रसेवकः । बोल, सं. पुं. (हिं. बोलना ) वाणी, गिर् वाच- उक्ति: व्याहृतिः (स्त्री.), वचस् (न.), शब्द, वाक्यं वचनं २. व्यंग्य-व्याजछेक, उक्तिः (स्त्री.), दे. 'बोली' ३. प्रतिज्ञा ४. वाद्यानां नियतध्वनिः ५. गीतांशः । - चाल, सं. स्त्री, सौहार्द, सद्भाव:, आ-संलापः । - चाल की भाषा, सं. स्त्री, हारिक भाषा । बोधन, सं. पुं. (सं. न. ) अध्यापनं, शिक्षणं २. ज्ञापनं, सूचनं ३. उत्थापनं, निद्राभंजनं ४. उद्दीपनं, प्रज्वलनम् । बोधनीय, वि. ( सं . ) विज्ञापनीय २. निद्रायाः बोलने योग्य, वि, आल्पनीय, वचनीय, गेय । उत्थापनीय | बोलने वाला, सं. पुं., वाचकः, वक्तृ, निगदिर, बोधि, सं. स्त्री. (सं. पुं.) समाधिभेद:, पूर्णज्ञान, प्रकाश:-उपलब्धि: (स्त्री.) २. कुक्कुट : - द्रुम, सं. पुं. (सं.) बोधि, तरु:-वृक्षः, पावन, पिप्पल:- चलदल :- कुंजराशनः । साला पिक व्याव - बाला होना, मु., वाक्यं आह ( कर्म. ) २. भाग्यं उद्-इ ( अ. प. अ. ) ३. यशो वृध् (भ्वा. आ. से. ) । बोलना, क्रि. अ. ( सं . ) आलप्-गद्-भण् (स्वा. प.से.), ब्रू (अ. उ. अ.), वच् (आ. प. अ.) २. किलकिलायति - ते ( ना. धा. ), कूज् (भ्वा. प. से. ) ३. कथ (चु.) ४. गै (भ्वा. प. अ.) । सं. पुं., आलपनं, निगदनं, भाषणं, वचनं, गदनं कथनं, कूजनम् । कथकः, व्याख्यातु, गायक: । बोला हुआ, त्रि., उक्त, गदित, कथित, गीत । बोली, सं. स्त्री. (हिं. बोलना ) गिर-वाच् (स्त्री.) गिरा, उदीरणा, वाणी २. वचनंउक्तिः (स्त्री.), वाक्यं शब्दः ३ विक्रयघोषणा ४. भाषा, वाणी, गिरा ५. उप-प्राकृतप्रादेशिक भाषा ६. वक्र-व्यंग्य-व्याज छेक-भंगि,उक्तिः (स्त्री.)- भाषितं, कूटाक्षेपः । - ठोली, सं. स्त्री. दे. 'बोली' (६) । - ठोली मारना, मु., भंग्या आक्षिप् (तु.प.अ.) वक्रोक्त्या अधिक्षिप्, व्याजोक्त्या सूच् (चु.) । बोवा (आ) ना, क्रि. प्रे. ब. 'बोना' के प्रे. रूप । बोहनी, सं. स्त्री. (सं. बोधनं > ) प्रथमविक्रयः। बौखलाना, क्रि. अ. (सं. वायुस्खलनं > ) ईषत् उन्मद् ( दि. प. से. ) - वातुलीभू । For Private And Personal Use Only Page #467 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir बौछाड़-र [ ४२६ ] ब्रह्म बौछाड़-र, सं. स्त्री. ( सं. वायुक्षरणं>) झंझा, । ब्योंत, सं. स्त्री. ( सं. व्यवस्था ) वृत्तं, वृत्तांतः झंझा, अनिल: वातः-मरुत् (पुं.) २. आसारः, २. कार्य,-विधिः-प्रगाली-शैली ३. युक्तिः (स्त्री.), धारासंपात: ३. *सततसंपातः ४. व्यंग्योक्तिः । उपायः ४. आयोजनं, उपकल्पनं ५. अवसर: (स्त्री.), दे. 'बोली' (६)। ६. व्यवस्था, प्रबंधः ७. सीवनाय वस्त्रकर्तनम् । बौद्ध, सं. पुं. (सं.) गौतमवुद्धानुयायिन् । वि., | ब्योंतना, क्रि. स., दे. 'कतरना। बुद्ध, संबंधिन्-प्रचारित । ब्योपारी, सं. पुं., दे. 'व्यापार-री'। --धर्म, सं. पु. (सं.) बुद्धप्रवर्तितधर्मः, ब्योरा, सं. पुं. ( सं. विवरणम् ) विस्तृत, बुद्धमतम् । वर्णन-वृत्तान्तः २. उदन्तः, वृत्तान्तः ३. बौना, सं. ९. (सं. वामनः ) खर्वः, ह्रस्वः, | अन्तरम् , भेदः। खट्टनः, खहरकः, न्यंच् । वि., खवे, हस्व । -(रे)वार, अ०, स, विस्तरं-विस्तारम् , बोरा, वि. ( सं. वातुल ) विक्षिप्त, उन्मत्त । विस्तारपूर्वकम् । ३. अज्ञ, मूर्ख । ब्योहार, सं. पु., दे. 'व्यवहार' । बोली, सं. स्त्री. ( देश.) विक, सद्यःप्रसूताया | बज, सं. पुं., दे. 'व्रज'। गोर्दुग्धम् । ब्रत, सं. पुं., दे. 'व्रत'। व्याज, सं. पुं. दे. 'सूद' । ब्रह्म, सं. पुं. [सं. ब्रह्मन् (न.)] परमात्मन् व्याध, सं. पुं., दे. 'व्याध' । परमेश्वरः, सच्चिदानंदः, जगत्कर्तृ २. आत्मन्, व्याना, क्रि. स. (सं. बीजं>) जन्-उत्पद् (प्रे.), देहिन् ३. ब्राह्मणः (प्रायः समासारंभ में, उ. प्रसू ( अ. आ. से.)। ब्रह्महत्या) ४. चतुर्मुख, विधिः, पद्मासनः व्यालू , सं. पु. ( सं. वैकालिक> ) सांध्य ५. वेदः ६. ब्रह्मांड, भुवनकोषः। भोजनं, नक्ताशः । *वैकालिकम् । -चर्य, सं. पुं. (सं. न.) आश्रमभेदः, प्रथमा-- व्याह, सं. पुं. (सं. विवाहः ) उद्वाहः, परि श्रमः २. वीर्यरक्षा, अष्टांगमैथुनप्रतिषेधः, णयः, उपयमः, पाणि,ग्रहः-ग्राहः-ग्रहणं, दार, यमभेदः ( योग.), ऊध्वरेतस्त्वम् । परिग्रहः-अधिगमः। -चारिणी, सं. स्त्री. (सं.) ब्रह्मचर्यधारिणी, व्याहता, वि. स्त्री. (सं. विवाहिता) ऊढा, २. प्रथमाश्रमिणी २. अनूढा, कुमारी। परिणीता। सं. पुं., पतिः, भर्तृ । -चारी, सं. पु. (सं.-रिन् ) व्रतिन्, लिंगिन्, ब्याहना, क्रि. स, ( सं. विवहनं) (पत्नीग्रहण), लिङ्गस्थः, ब्रह्मचर्यधारिन् वणिन् २. प्रथमाश्रउद्-वि-वह ( भ्वा. प. अ.), परिणी (भ्वा. | मिन्, अविवाहितः । प. अ.), उपयम् (भ्वा. आ. अ.), परि-प्रति -ज्ञान, सं. पुं. ( सं. न.) परमेश्वरबोधः । ग्रह (ज. प. से.) २. (पात-ग्रहण) पात विद् -ज्ञानी, सं. पुं. (सं.-निन्) ब्रह्मवेत्ता २. अद्वै-- (तु. उ. वे.)-लभ (भ्वा. आ. अ.)-अधिगम् | तब दिन। ( भ्वा. प. अ.), वृ (स्वा. उ. से.), भत्रों -दिन, सं. पुं. (सं. न.) परमेष्ठिदिवसः, संयुज ( कर्म.) ३. उद्वाहं कृ (प्रे.), पाणिं | सृष्ट्यवधिः ( = १०० चतुर्युगी)। ग्रह (प्रे.), विवाहेन-संयुज (प्रे.), पाणि- | -देश, सं. पुं. (सं.) आर्यावर्तस्य भागविशेष: ग्रहणं संपद् (प्रे.)। सं. पुं., दे. 'ब्याह' (कुरुक्षेत्रं च मत्स्याश्च पंचालाः शूरसेनकाः । सं. पुं.। एष ब्रह्मर्षिदेशो वै ब्रह्मावर्तादनन्तर:-मनु०' ब्याहने योग्य, वि., उद्-वि, बाह्य-वोढव्य, परि- | २।१९) णेय, विवाहयोग्य । -पुराण, सं. पुं. ( सं. न.) पुराणविशेषः । व्याहने वाला, सं. पुं., वि-उद्-वोट्ट, परिणेतृ, -बंधु, सं. पुं. (सं.) पतितो विप्रः । परिणायकः, पाणि-,ग्राहः-ग्राहकः-ग्रहीत्। -भोज, सं. पु. ( सं.-ज्यं ) ब्राह्मणभोजनम् । व्याहा हुआ, वि. पुं., विवाहित, सपत्नीक, -मूहूर्त, सं. पुं. (सं. पुं. नं.) सूर्योदयात् सभार्य, कृतदार, स्त्रीमत्, कुटुंबिन्, ऊढ, । त्रिचतुरघटीपूर्ववर्तिकालः, ब्रह्मराषः । परिणीत । ( वि. स्त्री.) सभर्तृका, पतिवत्नी, | -यज्ञ, सं. पुं. (सं.) ब्रह्मसत्रं, सविधि वेदासधवा, सुवासिनी, परिणीता, ऊढा । ध्ययनाध्यापनम् । For Private And Personal Use Only Page #468 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ब्रहल [ ४३० ] भंगरा -रंध्र, सं. पु. ( सं. न.) ब्रह्म,-छिद्र-द्वारम् । ब्रह्मानंद, सं. पुं. (सं.) ब्रह्मदर्शनालादः । -रात्रि, सं. स्त्री. (सं.) ब्रह्मणो निशा, प्रलया- ब्रह्माभ्यास, सं. पुं. (सं.) वेद, अध्ययनं. वधिः ( = १०० चतुर्युगी)। स्वाध्यायः। -वर्चस, सं. पुं. (सं. न.) तपःस्वाध्यायजं ब्रह्मावर्त, सं. पुं. (सं.) तपोवटः, सरस्वतीतेजस् (न.)। दृषद्वत्योर्मध्यवर्तिदेशः। -वचेस्वी, वि. (सं.-स्विन्) ब्रह्मवर्चसविशिष्ट । ब्रह्मासन, सं. पु. (सं. न.) योग-ध्यान, -वादिनी, सं. स्त्री. (सं.) गायत्री । वि., आसनम् । वेदोपदेष्ट्री। ब्रह्मास्त्र, सं. पुं. (सं. न.) ब्रह्मस्वरूपमस्त्रं ..-वादी, वि. (सं.दिन् ) वेदोपदेशकः ।। २. अमोधास्त्रभेदः। -विद, वि. (सं.) ब्रह्मवेत्त २. वेदार्थज्ञः ।। ब्राह्मण, सं. पुं. (सं.) आर्याणामुत्तमो वर्ण: .-विद्या, सं. स्त्री. (सं.) उपनिषद्-परा, विद्या । २. विप्रः, ज्येष्ठवर्णः, अग्र,-जन्मन्-जातकः । -वेत्ता, सं. पुं. (सं.-वेत्तृ ) ब्रह्मज्ञः । भूदेवः, द्विजन्मन्-जातिः, वक्त्रजः, द्विजः, -वैवर्त्त, सं. पुं. (सं. न.) पुराणविशेषः ।। गुरुः, द्विजोत्तमः, षटकर्मन्, ब्रह्मन् (सब पुं.)। -समाज, सं. पुं. (सं.) श्रीराममोहनराज ब्राह्मणत्त्र, सं. पु. ( सं. न. ) द्विजत्वं, विप्रत्वं, प्रवतितः संप्रदायविशेषः । ब्राह्मण्यम् इ.। -~-सूत्र, सं. पुं. (सं. न.) दे. 'यज्ञोपवीत' ब्राह्मणी, सं. स्त्री. (सं.) ब्राह्मगपत्नी २. ज्येष्ठ२. शारीरिकसूत्रम् । वर्गा, द्विजोत्तमा ३. बुद्धिः ( स्त्री.)। -हत्या, सं. स्त्री. ( सं.) विप्रवधः । ब्राह्ममुहूर्त, स. पुं. ( सं. पुं. न.) अरुणोदय-हत्यारा, सं. पुं. (सं.+हि.) विप्रघ्नः | कालस्य प्रथमदंडद्वयम् ।। ब्राह्मणघातकः। ब्राह्मी, सं. स्त्री. (सं.) दुर्गा २. भारतवर्षस्य 'ब्रह्मत्व, सं. पुं. (सं. न.) परमेश्वर, त्वं-ता प्राचीनलिपिविशेषः ३. (बूटी) सोमवल्लरी, २. ब्राह्मणत्वम् । सुरसा, परमेष्ठिनी, ब्रह्मकन्यका, शारदा, ब्रह्मर्षि, सं. पुं. (सं.) वसिष्ठादयो मंत्रद्रष्टारः सरस्वती। ऋषयः २. ब्राह्मण: ऋषिः । ब्रह्मा, सं. पुं. ( सं.ह्मन् पुं.) चतुर्मुखः, अष्ट ब्रिटिश, वि. ( अं.) आंग्ल । कर्णः, अजः, कः, कंजः, कमल-पद्म-अब्ज, ब्रुश, सं. पुं. (अं.) आधर्षणी, लोममयी शोधनीयोनिः, वि-धातु, नाभिजः, पद्मासनः, पर | मार्जनी २. कूचिका-ची, तूलिका, वर्तिका । मेष्ठिन्, पितामहः, विधिः, विरिंचः-चि:-चनः बरी, सं. स्त्री. ( अंबरी) यवासवनी। विश्वसृज , सर्वतोमुख, स्रष्ट्र, स्वयंभूः, हंस | ब्रोंकाइटस, सं. पुं. (अं. श्वासनालीभुजप्रदाहः ।। वाहनः, हिरण्यगर्भः (सब पुं.)। ब्लाक, सं. पुं. ( अं.) चित्रफलकः-कं २. चतुब्रह्मांड, सं. पुं. (सं. न.) भुवनकोपः, विश्व | रस्रो भूखंडः ३. गृहवर्गः। गोलकः, विश्व, जगत् (न.),जगती, त्रिभुवनम् । ब्लीचिंग पौडर, सं. पुं. ( अं.) श्वेतनक्षोदः, "ब्रह्माक्षर, सं. पुं. (सं. न.) ओम् इत्यक्षरम , रंगनाशकचूर्णम् । प्रणवः, ओङ्कारः। | ब्लेडर, सं. पुं. (अं.) मूत्राशयः, बस्तिः (पुं. ब्रह्माणी, सं.स्त्री. (सं.) ब्रह्मण: पत्नी, शतरूपा, स्त्री.) २. पित्ताशयः ३. (पादकन्दुकस्य) सावित्री, सरस्वती, गायत्री। अन्तःकोषः। भ, देवनागरीवर्णमालायाश्चतुर्विंशो व्यंजनवर्णः, | कल्लोल: ५. पराजयः ६. खंड:-डं ७. बाधा, भकारः। विघ्नः ८. वक्रता, जिह्मता ९. दे. 'लकवा' । भंग', सं. स्त्री., दे. 'भांग'। | भंगड़, वि. (हि. भांग ) भंगाप, भंगापायिन् । भंग, सं. पुं. (सं.) भंजनं, भेदनं २. विनाशः, ॐगरा',सं.पं. (सं. भगराजः) केश्यः केशरंजनः, विध्वंसः ३. अतिक्रमणं, उल्लंघनं ४. तरंगः, कुन्तलवर्द्धनः, पितृप्रियः, भृगः, केशराजः । For Private And Personal Use Only Page #469 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भँगर [ ४३ । ] भँगरार, सं. पुं. (हिं. भंग ) शाणपट:, | भँवर, सं. पुं. ( सं. भ्रमरकः ) जल, आवर्त : वराशिः-सिः । गुल्मः, भ्रमिः (स्त्री.), आवर्तः, अवघूर्ण:, कूलहुंडकः, तानूरः २. दे. 'भ्रमर' ३. गर्त :तैं, अवटः । भंगराज, सं. पुं. (सं. भृङ्गराजः ) पिकाकारः खगभेदः २. दे. 'भंगरा'" । -भंगिन, सं. स्त्री. (हिं. भंगी' ) खलपूः (स्त्री.), भँवरा, सं. पुं., दे. 'भ्रमर' । सम्माजिका । भंगिमा, सं. स्त्री. (सं. - मन् पुं.) वक्रता, कुटिलता, जिह्मता, अरालता । "भंगी, सं. पुं. ( सं. भक्तः > ) खलपूः (पुं.), मलहारकः, संमार्जकः २. क्षुद्रजातिभेदः । भंगी, वि. (हिं. मंग' ) दे. 'भंगड़' | भंगी, सं. स्त्री. (सं.) भेद:, विच्छेदः २. . कुटिलता, वक्रता २. अंगनिवेशः, विन्यासः ४. कल्लोलः, लहरी ५ व्याजः ६ प्रतिकृतिः (eft.) I -भगी, ४ ,४ वि. (सं. मंगिन) भिदुर, भंगुर, सुभंग, भंजनशील २. भंजक, भंजन, खंडक, खंडन । भंगुर, वि. (सं.) भिदुर, सुभंग २. नश्वर, अध्रुव २. कुटिल, वक्र । भंजक, वि. (सं.) खंडक, खंडन, त्रोटक २. उल्लंधक, अतिक्रमणकारिन । भंजन, सं. पुं. (सं. न.) खंडनं, त्रोटनं, भेदनं, शकलीकरणं २. अतिक्रमः-मणं, उल्लंघनं, मंग:, . व्याहननं ३. विध्वंसनं ४ भंगः, ध्वंसः ५. नाशनं लोपनम् । वि., दे. 'भंजक' ( १-२ ) । -भंजना, क्रि. अ. ( सं . भंजनं ) दे. 'टूटना' । भंटा, सं. पुं. (सं. वृंताक: ) दे. 'बैंगन' | भंड, सं. पुं. (सं.) दे. 'भांड़' । भंडा, सं. पुं., दे. 'भांडा' । -भंडार, सं. पुं. (सं. भांडार ) कोश: प:, निधिः, शेवधिः, निधानं २. धान्य, कोष्ठः, अ (आ) गार: रं ३. पाकशाला. ४. उदरें, जठरं ५. भांडागार:- रं ६. 'दे' 'भंडारा' | भंडारा, सं. पुं. (हिं. भंडार ) दे. 'भंडार' (१-५) २. समूहः, राशिः ३. साधूनां भोजनोत्सवः । भंडारी, सं. (हिं. भंडार ) कोष्ठकः, अ (आ)गारकः कं २. कोशः षः । -भंडारी, सं. पुं. ( भांडारिन ) कोशा (षा )ध्यक्षः, धनाध्यक्षः २. भांडागारिकः, मांडारिकः ३. सूद:, पाचकः । अंभोरी, सं. स्त्री. (अनु. ) रक्तवर्ण: पतंगभेद:, *भंभीरी २. दे. 'तीतरी' । भग भँवरी, 'सं. स्त्री. (हिं. भँवर ) दे. 'भँवर ' (१), शरीरांगस्थं रोम, वर्तुल-मंडलम् । भँवरी, सं. स्त्री. (हिं. भँवरना, सं. भ्रमणं > ) दे. 'भाँवर ' २. वैवधिकता, मांडवाहकता ३. ( प्रजारक्षायै अधिकारिणां ) पर्यटनंपरिभ्रमणम् । भइया, सं. पुं. (हिं. भाई, दे. ) । भक, सं. स्त्री. (अनु.) ज्वाला- झलका,ध्वनि : (पुं.) । भक्त, वि. (सं.) धार्मिक, धर्मात्मन् पुण्यधर्म, शील, पुण्यात्मन् । सं. पुं., पूजकः, उपासकः, सेवकः २. अनुयायिन् अनुगामिन् ३. पक्षपातिन्, सहायकः । भक्ताई, सं. स्त्री. दे. 'भक्ति' । भक्ति, सं. स्त्री. (सं.) ईश्वर, सेवा, पूजा-अर्चाउपासना- परायणता २. नियमः, धार्मिकता, धर्मक्रिया, तपस् ( न. ) ३. श्रद्धा, निष्ठा ४. परायणता, निरतिः (स्त्री.), अनुरागः, अभिनिवेशः । भक्ष, सं. पुं. (सं.) भोजनम् २. भक्षणम् । -कार, सं. पुं. ( सं . ) खांडिक : २. पाचकः । भक्षक, वि. (सं.) खादक, अझर, भोक्तृ, घस्मर, भोजिन् [ भक्षिका (स्त्री.) = खादिका, भोजिनी, भोक्त्री ] । भक्षण, सं. पुं. (सं. न. ) अशनं, आस्वादनं, खादनं भोजनं, अभ्यवहरणं २. आहारः । भक्षित, वि. ( सं . ) भुक्त, खादित, अशित । भक्षी, वि. ( सं. क्षिन) दे. 'भक्षक' । भक्ष्य, वि. ( सं . ) खाद्य, भोज्य, अभ्यवहार्यं । सं. पुं. ( सं. न. ) भोजनं, आहारः, खाद्यवस्तु ( न. ), अन्नम् । भगंदर, सं. पुं. (सं.) अपानदेशे व्रणरोगभेदः । भग, सं. पुं. (सं.) सूर्यः २. ऐश्वर्य, धनं ३. सौ- महाभाग्यं ४. चंद्रः ५. योनिः (स्त्री.) ६. गुर्द ७. पूर्वाफाल्गुनी नक्षत्रं ८. धर्मः ९. कांति: (स्त्री.) १०. मोक्षः ११. माहात्म्यं १२. यत्नः । For Private And Personal Use Only Page #470 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भगण [४३२] भठियारा - - - भगण, सं. पुं. (सं.) नक्षत्रसमूहः २. गणभेदः।। आ. से.), आराध् (चु.), नमस्यति (ना. (si; छंदःशास्त्र)। धा.), सेव (भ्वा. आ. से.) २. जप भगत, सं. पुं. तथा. वि., दे. 'भक्त'। (भ्वा. प. से.), निरंतरं स्मृ ( भ्वा. प. अ.) भगतानी, सं. स्त्री. (हिं. भगत ) भक्त, भार्या- ३. आ-,श्रि (भ्वा. उ. से.)। क्रि. अ., पत्नी २. ईश्वर, उपासिका-पूजिका-सेविका, | दे. 'भागना' । सं. पुं., दे. 'भजन' (१-२)। धर्मशीला ३. अनुगामिनी । भजनानंद, सं. पुं. (सं.) भक्ति, आनन्दः-रस:भगती, सं. स्त्री., दे. 'भक्ति' । आह्लादः । वि. भक्तिपरायण। भगदर, सं. स्त्री. (हिं. भाग+दौड़) पलायनं, भजनानंदी, वि. (सं.-दिन्) भक्तयानन्द, अप,-क्रमणं-यानं, विद्रावः। मग्न-लीन-परायण। -पड़ना या मचना, क्रि. अ., पलाय (भ्वा. | भजनीक, सं. पुं. (सं. भजनं>) गायकः, गात, आ. से.), वि-प्रद्रु (भ्वा. प. अ.), अपधाव । गातुः, गेष्णः । (भ्वा. प. से.)। भजनाय, वि. (सं.) पूज्य, सम्मान्य, सेव्य। भगवंत, सं. पुं. (सं. भगवन्तः> ) इश्वरः, | भजने योग्य, वि., भजनीय, उपास्य, सेव्य, भगवत् (पुं.)। जपाई, आश्रयणीय। भगवती, सं. स्त्री. (सं.) देवी २. गौरी भजने वाला, सं... पुं., भक्तः, उपासक: ३. सरस्वती ४. गंगा ५. दुर्गा। आराधकः। -भगवत् , वि. (सं.) श्रीमत्, लक्ष्मीवत्, भट, सं. पु. ( सं.) योधः, योद्धृ (सैनिकाः, ऐश्वर्यशालिन् २. पूज्य, मान्य, अर्चनीय । आयुधिकः) २. वीरः, शूरः ३. वर्णसंकरभेदः । सं. पु. ( सं.) परमेश्वरः, जगदीश्वरः३.विष्णुः भटकटाई, भटकटैया, सं. स्त्री. (सं. भट:+ ४. शिवः ५. जिनः ६. बुद्धः ।। कंटक:>) दुःस्पर्शा, दुष्प्रधषिणी, बहुकंटा, -गीता, सं. स्त्री. (सं.) श्रीकृष्णार्जुनसंवादा चित्रफला। त्मको विख्यातो धर्मग्रंथविशेषः । भटकना, क्रि. अ. ( सं. भ्रान्तक>) मोघं पर्यट-पदी, सं. स्त्री. (सं.) गंगा, *देवनदी। परिभ्रम् (भ्वा. प. से.) २. पथभ्रष्ट (वि.), भगवाँ-वा, सं.पुं., दे. गेरु' । वि., दे.'गेरुआ'। इतस्ततः या (अ. प. अ.), विपथंगम् ३. भ्रम, भगवान-न् , वि. (सं. भगवत् ) दे. 'भगवत्' मुह् (दि. प. से.)। सं. पुं., व्यर्थपर्यटनं, पथ. वि. तथा सं. पुं.। भ्रशः, उन्मार्ग-गमनं, भ्रमः, माया, मोहः । भगाना, क्रि. स., ब. 'भागना' के प्रे. रूप।। भटकाना, क्रि. स., ब. 'भटकना' के प्रे. रूप । भगिनी, सं. स्त्री. (सं.) सोदरा, दे. 'बहन' । भटका हुआ, वि., उन्मार्ग-विपथ,-गामिन, पथभगीरथ, सं. पुं. (सं.) अयोध्यापतिविशेषः । भ्रष्ट, भ्रांत, मूढ। वि., सुमहत्, विपुल, अत्यधिक। | भटू, सं. स्त्री., ( सं. वधूः>) (सम्बोधन में हा) भगोड़ा, वि. (हिं. भागना ) रणविमुख, (हे ) सखि ! (हे) आलि ! (हे ) वयस्ये . युद्ध-त्यागिन् २. अपधावित, प्रपलायित भट्ट', सं. पुं. (सं. भट्टः) जातिविशेषः २. स्तुति३. भीर, कातर। पाठकः, दे.'भाट। भग्न, पि. (सं.) खंडित, त्रुटित, ध्वस्त २. भिन्न, वि-दीर्ण ३.पराजित, पराभूत। | भट्ट', सं. पु., दे. 'भट' । भग्नावशेष, सं. पुं. (सं.) ध्वंसावशेषः, मह, स. पु. ( स. भ्राष्ट्रः) आपाकः, कंदुः (पुं. स्त्री.), पाकपुटी। भजन, सं. पुं. ( सं. न.) पूजा, अर्चा, सेवा, | भट्ठी, सं. स्त्री. (हिं. भट्ठा ) अश्मंतं, उद्धानं. सपा २. जपः, संततस्मरणं ३. भक्ति- । F: संततस्मरण ३. भक्ति- अतिका, अंदिका, अधिश्रयणी, अग्निकुंडं गीतं-तिका। २. संधानी, अभिषवशाला ३. रजककटाहः । करना, क्रि. स., दे. 'भजना'। भठियारा, सं. पुं. (हिं. भट्ठा ) पांथागार,. भजना, क्रि. स. (सं. भजनं ) भज् ( भ्वा. / __ अध्यक्षः पतिः २. भृष्टकारः, भाष्ट्रमिधः,मर्जन, उ. अ.), पूज-सभाज् (चु.), उपास् (अ.' कारः-कर्तृ। दे. 'खंडहर'। For Private And Personal Use Only Page #471 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भठियारिनरी [ ४३३ ) भय भठियारिन-री, सं. स्त्री. (हिं. भठियारा) पांथा- भद्र, सं. पुं. ( सं. भद्राकरणं ) केशकूर्चश्मश्रुगाराध्यक्षा २. भर्जन, कारी-कत्री, भृष्टकारी। मुंडन, मुंडनम् । भड़क, सं. स्त्री. (अनु.) औज्ज्वल्यं, प्रभा, भद्रता, सं. स्त्री. (सं.) शिष्टता, सभ्यता, भास् ( स्त्री.), अति-बाह्य, कांतिः-दीप्तिः ( दोनों | सज्जनता, सुशीलता। स्त्री.)-शोभा। भद्रासन, सं. पुं. (सं. न.) नृपासन, सिंहा-दार, वि. (हिं.+फा.) भासुर, भासमान, सनं २. योगासनभेदः । उज्ज्वल, दीप्तिमत् । भद्रिका, सं. स्त्री. (सं.) भद्रा तिथि: (द्वितीया, भड़काना, क्रि. अ. (हिं. भड़क) उत्-प्रज्वल | सप्तमी, द्वादशी ) २. वृत्तभेदः। ( भ्वा. प. से.), उत्-प्र-सं दीप् (दि. आ. से.) भनक, सं. स्त्री. (सं. भण>) मंद-अस्पष्ट२. ससाध्वसं अपस ( भ्वा. प. अ.)-परावृत् | ध्वनिः २. जनप्रवाहः, किंवदंती। (भ्वा. आ. से.), सहसा कंप ( भ्वा. आ. से.) | भनभनाना, क्रि. अ. ( अनु.) भणभणायते ३. क्रुध (दि. प. अ.)। (ना. धा.), गुंज ( भ्वा. प. से.) झंकारं कृ। भड़काना, क्रि. स. व., 'भड़कना' के प्रे. रूप | भनभनाहट, सं. स्त्री. (हिं. भनभनाना) २. उत्तिज उद्दाप-(प्रे.)। भणभणायितं, भणभणध्वनिः, गुंजनं, गुंजितं, भड़कीला, वि. (हिं. भड़क ) दे. 'भड़कदार'।। झंकारः। भड़भडिया, वि. ( अनु. भडभड़) वाचाल, भब(भ)का, सं. पुं. (हिं. भाप ) बकवाचाट, वावदूक, जल्पक, बहुभाषिन् । संधान, यंत्रम् । भद जा, सं. पुं. (हिं. भाड़ भंजना) भभक, सं. स्त्री. (अनु. भक) ज्वालोत्थानं, दे. 'भठियारा' (२)। कीलोद्गतिः (सं. स्त्री.)२. दे. 'उज्वाल' । भड़भूजी,-जिन, सं. स्त्री. (हिं. भडभंजा) -मारना, क्रि. अ., गज (भ्वा. प. से.)। दे. 'भठियारिन' (२)। भभकना, क्रि. अ. (हिं. भभक) प्रज्वल भदुआ, सं. पुं, (हिं. भाँड) भगाजीविन्, | (भ्वा. प. से.), उद्दीप् (दि. आ. से.) वेश्याचार्यः, कुंडाशिन्, बिटः। ___२. तापातिशयेन स्फुट (तु. प. से.)-भंज् भइर, सं. पुं. (सं. भद्र>) क्षुद्रब्राह्मणभेदः। । (कर्म.) ३. दे. 'उबलना'।। भणित, वि. (सं.) उक्त, कथित. व्याहत। भभकी, सं. स्त्री. (हिं. भभक ) विभीषिका, भतीजा, सं. पुं. (सं. भ्रातृजः) भ्रातृन्यः, भ्रात्री- तजेना, भत्सना, भयदर्शनम् ।। (वे)यः, भ्रातुःपुत्रः। -देना, क्रि. स., निर्-,भस्, तर्ज ( दोनों भतीजी, सं. स्त्री. (हिं. भतीजा) भ्रातृजा, | चु. आ. से.)। भ्रातृव्या. भ्रात्रीया, भ्रातुःपुत्री, भ्रात्रेयी। गीदड़-, मु., कपटविभीषिका, मिथ्या तर्जना । भत्ता, सं. पुं. (सं. भक्तं>) भक्त, मार्गव्ययः, । भन्भड़, सं. पुं., दे. 'भीड़भाड़' । यात्रावृत्तिः ( स्त्री.), यात्रिकम् । भभूका, सं. पुं. (हिं. भभक) ज्वाला, शिखा, भदभद, वि. ( अनु.) अतिस्थूल २. कुदर्शन । अचिस् (न.)। भद्दा, वि. ( अनु. भद) कदाकार, कुदर्शन, | भभूत, सं. स्त्री. [सं. विभूतिः ( स्त्री.)] कुरूप, विषमांग २. नैपुण्य-दाक्ष्य-शून्य गोमयभस्मन् (न.) २. वैभवम् । ३. अश्लील, अवाच्य। -लगाना, क्रि. स., विभूत्या विग्रहं लिप् भद्र', वि. (सं.) सभ्य, शिष्ट, सुशिक्षित, (तु. उ. अ.)। सं. पुं. भस्मगुंठनम् । श्रेष्ठ, गुणिन्, प्रशस्त, साधु, सुवृत्त, सुशील | भयंकर, वि.(सं.) त्रास-भीति-भय, जनक-द-प्रद२. मंगल, कल्याण, शुभ ३. उचित, उपयुक्त। आवह, भीम, भीषण, भयानक, रौद्र, भैरव । सं. पुं. (सं. न.) कल्याणं, क्षेम, मंगलं, भयंकरता, सं. स्त्री. (सं.) भीमता, भीषणता, कुशलं, हितं २. चंदनं ३. गजजातिभेदः, भयानकता इ.। ४. सुवर्ण ५. समृद्धिः (स्त्री.)। | भय, सं. पुं. (सं. न.) भी:-भीतिः ( स्रो.), For Private And Personal Use Only Page #472 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भयातुर [ ४३४ ] भराई - साध्वसं, सं-,त्रासः, दरः-रं, भिया २. आतंकः | भरना, क्रि. स.(सं. भरणं ) भृ (भ्वा. उ. अ.), ३. आशंका । भृ (जु. उ. अ.), पृ. (जु. प. अ.), प (जु. -कारक,-प्रद, वि., दे. 'भयंकर' । प. से.), पूर (बु.), व्याप (स्वा. पं. अ.) -खाना या लगना, क्रि. अ., भी (जु. प. | २. प्रस्तु-पत् (प्रे.) ३. ऋणादिकं शुध-निस्त अ.), वि-सं-त्रस् (भ्वा. दि. प. से.), दे. (प्रे.) ४. सह (भ्वा. आ. से.) ५. उत्तिज'डरना। प्रकुप (प्रे.) ६. लिप ( तु. उ. अ.)। क्रि. -भीत, वि. (सं.) भीत, भयार्त, ससाध्वस, अ., भ-पृ-पृ-व्याप-पूर (कर्म.) २. अंतः कुप त्रस्त, समय, सदर । (दि. प. से.) ३, ऋणादिकं शुध् (दि. प. -हीन, वि. (सं.) निर्भय, अभय, निभीक, अ.) ४. पुष् ( कर्म.)। सं. पु., भरणं, पूरणं, अकुतोभय, दे. 'निर्भय'। व्यापनं, पूर्तिः-भृतिः (स्त्री.) २. ऋणं भयातुर, वि. (सं.) दे. 'भयभीत' । ३. उत्कोचः। भयानक, वि. (सं.) दे. 'भयंकर'। | भरनी', सं. स्त्री. ( हिं. भरना) मल्लिकः,त्र(त)भयावना, वि. (सं. भयं> ) दे. 'भयंकर' । . सरः, सूत्रवेष्टः-ष्टनं २.तिर्यक्तंतवः (पुं. बहु.)। भयावह, वि. (सं.) दे. 'भयंकर'। | भरनी२, सं. स्त्री., दे. 'भरणी' । भर, वि. (हिं. भरना) समस्त, सम्पूर्ण, | भरने योग्य, वि., भर्तव्य, भरणीय, पूरणीय, समग्र, यावत् (-ती स्त्री.) तावत् (-ती स्त्री.)। पूरयितव्य २. शोधनीय ( ऋणादि )। क्रि. वि., यावत् (द्वितीया के साथ), आ -वाला, सं. पुं., पूरकः, भर्तृ, पूरयित (पंचमी के साथ-मात्र, मित, परिमित,-परिमाण । २. ऋगादिशोधकः। आयु-, क्रि. वि., यावज्जोवं, आमृत्योः। भरा हुआ, वि., सं,-भृत, पूर्ण, पूरित, आ-संकोस-, क्रि. वि., क्रोशं यावत्, क्रोशमात्रम् ।। कीर्ण, व्याप्त, निचित, संकुल, आविष्ट । बाँस, वि., वंश, मात्र-मित-परिमाण। भरपूर, वि. (हिं. भरना+पूरा ) सं-परिः, शक्ति-, क्रि. वि., यथाशक्ति (न.), याव- पूर्ण-पूरित-भूत-संकीर्ण-व्याप्त, निचित । क्रि.वि., च्छक्यं यावच्छक्ति ( अव्य.)। पूर्णतया, अशेषेण २. सम्यक् , साधु । सेर----- वि., सेर-सेटक, मात्र-परिमित । भरभराना, कि. अ. ( अनु.) आकुल (वि.) भू। भरण, सं. पुं. (सं. न.) पालनं, पोषणं, भरम. सं. पं. (सं. भ्रमः) भ्रान्तिः , मिथ्यासंवर्धनं, रक्षणं, समालंबनम् । मतिः ( दोनों स्त्री.), माया, आभासः, अविद्या भरणी, सं. स्त्री. (सं.)नक्षत्रविशेषः, यमदेवता | २. भेदः, रहस्यम् ३. प्रतिष्ठा, प्रत्ययः। २. घोषकलता। चि. स्त्री. (सं.) पालयित्री, | भरमार, सं. स्त्री. (हिं. भरना+मार) बहुलता, पोषिका। प्रचुरता, विपुलता, भूयिष्ठता। भरत, सं. पु. (सं.) कैकेयीपुत्रः, रामानुजः भरराना, क्रि. अ. ( अनु० ) सहसा पत् (भ्वा. २. शाकुंतलेयः, दौष्यतिः, सर्वदमनः ३. ऋष- प.से.) ९. त्रुट (दि. तथा तु. प. से.)। भदेवपुत्रः ४. नाट्यशास्त्रलेखको मुनिविशेषः | भरवाना, क्रि.प्रे., ब. 'भरना' के प्रे. रूप । ५. नटः। भरसक, क्रि. वि. [ हिं. भर+सक (शक्ति)] -खंड, सं. पुं. ( सं. न. ) भारतं, भारतवर्षः- यथा-शक्ति-बलं-सामर्थ्य, पूर्ण,-शक्त्या-बलेन । घे २. भारतांतर्गतकुमारिकाखंडम् । भरा, वि. (हिं. भरना ) पूर्ण, पूरित, (सं.) भरता', सं. पुं. ( देश.) *ताकभृक्तम् । भूत, निचित, आविष्ट । भरता, भरतार, सं. पुं. [सं. भर्तारः (बहु.)] -(री) जवानी, पूर्ण, यौवनं-तारुण्यम् । भर्तृ, पतिः, धवः २. स्वामिन, प्रभुः। -(री) थाली में लात मारना, मु., लाभभरती, सं. स्त्री. (हिं. भरना) सैन्यप्रवेशः प्रदजीविकां परित्यज् ( भ्वा. प. अ.)। २. प्रवेशः ३. भरणं, पूरणं, पूर्तिः (स्त्री.)। । -पूरा, वि. (हिं. भरना+पूरा) संपन्न, --करना, क्रि. स., सैन्ये प्रवेश कृ (प्रे.)। समृद्ध २. परि-सं-पूर्ण। -डालना, क्रि. स., गर्त पूर् (चु.)। भराई, सं. स्त्री. (हिं. भरना ) दे. 'भरना' -होना, क्रि. अ., सेनायां प्रविश् (तु.प.अ.)।। सं. पुं. २. भरण-पूरणं, भूतिः (स्त्री.)-वेतनम् । For Private And Personal Use Only Page #473 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra भराना www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [ ४३५ ] भराना, क्रि. प्रे. ब. 'भरना' के प्रे. रूप । भरी, सं. स्त्री. (हिं. भर ) दशमाषी । भरोसा, सं. पुं. (हिं. भरा + सं . विश्वासः > ) विश्वासः, प्रत्ययः २. आश्रयः, अवलंब:- बनं, आधार: ३. आशा । --करना, क्रि. अ., आ-अत्र- लंबू (भ्वा.आ.से.) २. विश्वस् ( अ. प. से. ) ३. आशां बंधू (क्र. प. अ. ) । भतर, } सं. पुं. ( सं. भर्तृ.) दै. ‘भरता’” । भर्ता, सं. पुं., दे. 'भरता" । भर्ती, सं. स्त्री. दे. 'भरती' । भर्त्सना, सं. स्त्री. (सं.) तर्जना, निर्भर्त्सना, अधिक्षेपः, निंदा, गर्हा, वाग्दंड:, उपालंभः । करना, क्रि. स., निर्भत्स तर्ज ( चु. आ. से. ), गहू (भ्वा. आ. से. ), निंद् (भ्वा. प.से.) 1 भलमनसत, सं.स्त्री. (हिं. मला + मानुस ) भलमनसाहत, - भद्रता, सज्जनता, आर्यत्वं, भलमनसी, महानुभावता । भला, वि. ( सं . भद्र ) शुभ, वर, शोभन, उत्तम, श्रेष्ठ, गुणवत्, निर्दोष, साधु, प्रशस्त, प्रशस्य, वर, सु, सत्- २. उत्कृष्ट, विशिष्ट । सं. पुं. ( सं. न. ) कल्याणं, कुशलं, मंगलं, हितं २. लाभः, प्राप्तिः (स्त्री.) । अव्य., भवतु, अस्तु, तावत् । —-करना, मु., उपकृ, साहाय्यं दा (जु. उ. अ.) । - चंगा, वि., नीरोग, स्वस्थ, निरामय । -बुरा, सं. पुं., दुर्-अश्लील, वचनं २. हानिलाभौ । - मानुस, सं. पुं., भद्रः, आर्य:, सज्जनः । भले ही, मु., कामं, ( लोट्, विधिलिङ् से भी अनुवाद किया जाता है ) । भलाई, सं. स्त्री. (हिं. भला ) सज्जनता, साधुता, आर्यता २. उपकारः, उपकृतिः (स्त्री.), परहितम् । भव, सं. पुं. (सं.) संसार:, जगत् (न.), २. जन्मनू (न.), उत्पत्तिः (स्त्री.) ३. पुनजन्मदु:खं ४. सत्ता ५. शिवः ६. मेघः । - बंधन, सं. पुं. (सं. न. ) जगज्जालम् | -भंजन, सं. पुं. ( सं . ) ईश्वर:, मुक्तिदः । -भय, सं. पुं. ( सं. न. ) पुनर्जन्मत्रासः । भस्म -मोचन, वि. ( सं . ) मोक्षद । - सागर, सं. पुं. ( सं . ) संसारपारावारः । भवदीय, सर्व (सं.) भावत्क, युष्मदीय, स्वदीय, तावक -यौष्माक [ की (स्त्री.) ], यौष्माकीण | भवन, सं. पुं. (सं.न. ) अ(आ) गार:-₹, वेश्मन्सझन् (न.), सदनं, निकेतनं, मंदिर, गृहं, गेहूं २. प्रासादः, नृपमंदिरम् | भवानी, सं. स्त्री. (सं.) दे. 'पार्वती' भवितव्य, विं. (सं.) अवश्यं भाविन्, भवनीय | भवितव्यता, सं. स्त्री. ( सं . ) नियति: (स्त्री.), भाग्यं, भागधेयं, दैवम् । भविष्णु, वि. (सं.) भविष्य, भविष्यत्, आमामिन्, भूष्णु । भविष्य, वि. (सं.) आगामिनू, अनागत, उत्तर, भविष्यत् श्वस्तन [ -नी (स्त्री.) । सं. पुं. (सं. न. ), भविष्यत् - आगामि- भाविउत्तर-अनागत,-काल:-समयः, अनागतं, श्वस्तनं, प्रगेतनं, भाविन्- आगामिन् (न.), आयतिः (स्त्री.), उदर्कः । भविष्यत्, वि. तथा सं. पुं., दे. 'भविष्य' । भविष्य (द्) वक्ता, सं. पुं. (सं. वक्तृ) भविष्यद्वादिन्, दैवज्ञः । भविष्य ( द ) वाणी, सं. स्त्री. (सं.) भाविकथनं सूचनं, भविष्यद्वादः | भव्य, वि. ( सं . ) सश्रीक, शोभान्वित, दिव्य, सुप्रभ, शोभन २. शुभ, मंगल ३. सत्य, यथार्थ ४. योग्य ५. भाविन ६. श्रेष्ठ ७ प्रसन्न ८. महत, गुरु । भव्यता, सं. स्त्री. (सं.) दिव्यता, शोभा, श्रीः (स्त्री.), सुंदरता इ. । भषक, सं. पुं. (सं.) कुक्कुरः, सारमेयः । भसड, सं. स्त्री. (देश. ) मृणाल:-लं, शालू कं ( बिसदंड: ? ), बिसं, नालीकः २. करहाटः, कर्कटः, शिफाकंदः । भसुंड, सं. पुं., दे. 'हाथी' । असुर, सं. पुं. (हिं. ससुर का अनु. ) ज्येष्ठः, भर्तुरग्रजः । भस्म, सं. पुं. [सं. भस्मन् (न.) ] भसितं, वि-, भूति: (स्त्री.)। -करना, क्रि. स., भस्मा (स्मी) कृ, भस्मसात् कृ २. दे. 'जलाना' । For Private And Personal Use Only Page #474 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भस्मक [ ४३६ ] भागढ़: -लेपन, सं. पुं. (सं. न.) भस्म,गुंठन- | भाँवर-री, सं. स्त्री. (सं. भ्रमणं> ) वैवाहिक, उद्धृलनम्। प्रदक्षिणा-परिक्रमः २. परि, भ्रमणं-अटनं-होना, क्रि. अ., भस्मीभू, भस्मसात्भू क्रमणम्। । २. दे. 'जलना'। -फिरना या लेना, क्रि. अ., प्रदक्षिणीकृ, भस्मक, सं. पुं. (सं. न.) भस्मकोटः, उदररोग- परिभ्रम्-परिक्रम् ( भ्वा. प. से.)। भेदः २. क्षुधातिशयः ३. सुवर्ण ४. विडंगः।। | भाई, सं. पु. ( सं. भ्रातृ ) ( सगा) सहोदरः, भस्मीभूत, वि. (सं.) भसितीभूत, सर्वथा | सोदरः, सोदर्यः, समानोदर्यः, सगर्भः, दग्ध। सहजः २.सगोत्रः, सजातीयः, सवर्णः, सकुल्यः, भहराना, क्रि. अ. ( अनु.) त्रुट (दि. प. से.)। सवंशीयः, सनाभिः ३. ( संबोधन में) सखे, २. सहसा पत् (भ्वा, प. से.) ३. स्खल | मित्र, वयस्य, भ्रातः । (भ्वा. प. से.)। चचेरा-, पितृव्य,-जः-पुत्रः । भाँग, सं. स्त्री. (सं. भंगा) गजा, मादिनी, | छोटा----, अनुजः, कनीयान् भ्रात। वि-,जया, मातुलानी। फुफेरा--, पैतृष्वसेयः, पि(प)तृष्वस्रीयः । -खा या पी जाना, मु., उन्मत्त इव भाष् बढ़ा-, अग्रजः, ज्यायान् भ्रातृ । (भ्वा. आ. से.)। | ममेरा–, मातुल,-जः पुत्रः, मातुलेयः । भांजा, सं. पुं. (हिं. बहिन ) भागिनेयः, । सेरा-मातष्वसेयः: मातवस्त्रीयः । स्वस्नि(स्री-स्त्रे) यः। सौतेला--, वैमात्रः, वैमात्रेयः । भांजी', सं. स्त्री. (हिं. भांजा ) भागिनेयी, - चारा, सं. पुं., भ्रातृत्वं, भ्रातृभावः, सौभ्रात्रं स्वस्रि(स्री)या, स्वस्त्रेयी। २. मित्रत्वं ३. सवर्णत्वं, सगोत्रत्वम् । भाँजी२, सं. स्त्री. (हिं. भाँजना ) *भंजिका, | -दूज, सं. स्त्री., यमद्वितीया, कार्तिकशुक्ला भंजक-बाधक, उक्तिः (स्त्री.)। द्वितीया, पर्वविशेषः । -मारना, मु., बाध् (भ्वा. आ. से.) प्रति -बंद, सं. पुं., ज्ञातयः, स्वजनाः, भ्रातरः, बन्ध (क. प. अ.), प्रतिरुध (स्वा. उ. अ.)। बंधवः, बांधवाः, सजातीयाः, सगोत्राः, सुहृदः भाँटा, सं. पुं., दे. 'बैगन'। | (सब बहु.)। भाँड, सं. पु. ( सं. भंडः) चाडपटः, विनोद -बंदी, सं. स्त्री., दे. 'भाईचारा' । परिहास, कारिन्, वैहासिकः, परिहासयितृ।-बिरादरी, सं. स्त्री., दे. 'भाईबंद' । (राजा का भांड) विदूषकः, नर्मसचिः भाखा, सं. स्त्री. (सं. भाषा ) दे. 'भाषा' २. अनुकारिन्, विडंबनकृत् ३. वि., अपत्रप, २. हिन्दीभाषा। निर्लज्ज । भाग, सं. पुं. (सं.) अंशः, विभागः, खंड:-डं भांडा, सं. पुं. (सं. भांडं ) (बृहत-) पात्रं, २. पार्श्वः-श्र्वं ३. भाग्यं, भागधेयं ४. मस्तक, भाजनं २. सामग्री, साधनानि (न. बहु.)। ललाटं ५. सौभाग्यं ६. प्रातःकाल: ७. वैभव -फूटना, मु., रहस्यं भिद् (कर्म.) प्रकटीभू । ८. गणितक्रियाभेदः (= तकसीम)। -फोड़ना, मु., रहस्यं प्रकाश (प्रे.)-भिद् -करना, क्रि. स., दे. 'बाँटना' । (रु.प. अ.)। -फल, सं. पु. (सं. न.) फलं, लब्धिः (स्त्री.) भांडागार, सं. पुं. (सं. पुं. न.). भाज्यं भांडार, सं. पु. ( सं. भाडार) . भाजकः ४) १६ (४ फलं भाँति, सं. स्त्री. (सं. भेदः) प्रकारः, जातिः (स्त्री.), रूपं,विधा ( उ., बहुविध )२. रीतिः (स्त्री.), शैली, विधिः।। -भरोसा, सं. पुं., भाग्याश्रयः, दैवपरता। -भाँति के,. मु., विविध, बहु-अनेक-नाना, -जगना, मु., भाग्यं उद्-इ ( अ. प. अ.)। विध-रूप-प्रकार। भागड़, सं. स्त्री. (हिं. भागना ) सामूहिक भाँपना, क्रि. स. (सं. भा>) ऊ ( भ्वा. आ. | सामुदायिक,- पलायनं- अपमानं- अपधावनं, से.) अनुमा (जु, आ. अ.)। विद्रावः। For Private And Personal Use Only Page #475 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भागना [ ४३७ ] भागना, क्रि. अ. ( सं . भाज्) पलाय् | भाजन, सं. पुं. ( सं. न. ) दे. 'पात्र' । भाजित, वि. ( सं . ) विभक्त, विभाजित २. पृथक्कृत, विश्लेषित । (भ्वा. आ. से.), अपधावू (भ्वा. प. से. ), विप्रन्द्र ( स्वा. प. अ. ), अप, सृ-सृप् (भ्व।. प. अ. ) २. वृज् (चु.), परिह (भ्वा. प. अ.) । सं. पुं., पलायनं, अपधावनं, अप, -यानं द्रवणसरणं, परिहरणम् । भाजी, सं. स्त्री. (सं.) व्यञ्जनं, उपसेचनं, अन्नोपस्करः २. शाकः, हरितकः, शिग्रुः ३. दे. 'मांड' । भाग-दौड़, सं. स्त्री. दे. 'भगदड़' । सिर पर पैर रखकर भागना, मु, महाजवेन पलाय् या अपधाव् । भागनेवाला, सं. पुं., दे. 'भगोड़ा' । भागवत, सं. पुं. ( सं. न. ) श्रीमद्भागवतं, महापुराणविशेषः २ देवीभागवतपुराणं ३. भगवद्भक्तः । वि., ऐश्वर, वैष्णव । भाज्य, वि. (सं.) भागाई, भाजनीय । सं. पुं. (सं. न.) भागाहक : (गणित) दे. 'भागफल' में । भाट, सं. पुं. (सं. भट्टः) वर्णसंकरजातिविशेषः । २. चारण, वंदिन, वैतालिकः, मागधः, स्तुतिपाठकः, मधुकः ३. चाटुकारः ४. राजदूतः । भाटा, सं. पुं. (हिं. भाठना ) वेला, परिवर्त: भागार्थी, वि. ( सं . -थिन् ) भाग- अंश-खंड, इच्छुक-कामिन्-अर्थिन् । अपचयः, क्षीयमाण- अपचीयमान, वेला | ज्वार, सं. पुं. वेलोपचयापचयौ ( पुं.द्वि.) । भाड़, सं. पुं. (सं. भ्राष्ट्र:-ष्ट्र ) अंबरीषं, भर्जनापाकः । भागाई, वि. (सं.) अंशिन्, अंशभागिन्, भाग, धारिन् भागिन् २. विभाज्य, अंशनीय, वंदनीय | भागिनेय, सं. पुं. ( सं . ) दे. 'भाँजा' । भागी, सं. पुं. (सं. भागिन् ) अंशिन, अंशभाग, ग्राहिन् हारिन् २. दायादः, दायिकः, रिक्थिन्, अंशकः । भागीरथ, वि. ( सं . ) भगीरथ, सम्बन्धिन्विषयक - सदृश । भागीरथी, सं. स्त्री. (सं.) गंगा, जाह्नवी २. गंगाया वंगवर्तिशाखाविशेषः । भाग्य, सं. पुं. (सं. न. ) भागधेयं, दिष्टं, अदृष्टं, दैवं, नियतिः (स्त्री.) विधिः, भवितव्यता, विपाकः, प्राकृतनम् । – उदय, सं. पुं. (सं.) पुण्योदयः, देवानुकूलता | —चक्र, सं. पुं. ( सं. न. ) दैवगति: (स्त्री.), भाग्यक्रमः | - वंश, वशात्, क्रि. वि. सौभाग्येन, सुदैवेन, दिष्टया, दैवात् । --वान्, वि. (सं. वत्) भाग्यशालिन्, महा. भाग, सुभग, धन्य, सौभाग्य-पुण्य, वत् सुकृतिन्, श्रीमत् । -हीन, वि. (सं.) हत-दुर्-मंद, भाग्य- भाग, दुर्दैव, दैवहतक | भाजक, वि. (सं.) विभागकल्पक, विभेदक, विच्छेदक, विभाजयितृ २. हरः, हारः, हारकः ( गणित ) दे. 'भागफल' में । भानमत -झोंकना, मु., ( प्रे. यापयति ) । - में झोंकना वा डालना, मु., नश् (प्रे.), क्षै ( . क्षपयति ) २. त्यज् (भ्वा. प. अ. ) उपेक्ष (भ्वा. आ. से. ) 1 - में पड़े, मु., नश्यतु, भस्मसात् भवतु । भाड़ा, सं. पुं. ( सं. भाटक:-कं ) भार्ट, भाटिः (स्त्री.) । भाड़े का टट्ट्टू, मु., अस्थिर, अस्थायिन् २. स्वार्थपर अर्थपर ३. अल्पमूल्य, गुण क्षुद्रकार्ये कृ २. कालं व्यर्थः या सार, -हीन | भात, सं. पुं. ( सं. भक्तं ) ओदन:-नं, अन्नं, अंधस् (न.) कुरं, मिस्सा, दीदिविः २. वरवधूपित्रोर्भक्तभोजनात्मको वैवाहिकरीतिभेदः । भादों, सं. पुं. ( सं. भाद्रः ) भाद्रपदः, भाथा, सं. पुं. ( सं . भस्त्रा ) दे. 'तरकश' । नभस्यः, प्रौष्ठपदः । भाद्र, भाद्रपद, सं. पुं. ( सं . ) दे. 'भादों' । भाद्रपदी, सं. स्त्री. (सं.) भाद्री, भाद्र-भाद्रपद- पूर्णिमा । भान, सं. पुं. ( सं. ) प्रकाशः, ज्योतिस् (न.) २. ज्ञानं ३. आभासः, प्रतीतिः (स्त्री.) । भानजा, सं. पुं., दे. 'भांजा' । भानजी, सं. स्त्री. दे. 'भांजी' । भानमती, सं. स्त्री. ( सं. भानुमती ) ऐन्द्रजालिकी, मायिनी । For Private And Personal Use Only Page #476 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भाना. [४३८] भावना - - -का पिटारा, सं. पुं., विषमवस्तुसंग्रहः। भाला, सं. पुं. (सं. भल्लःल्लं) दे. 'बरछा' । भाना, क्रि. अ., दे. 'पसन्द आना'। -बरदार, सं. पुं. (हिं.+फा.) दे. 'बरछैत' । भानु, सं. पुं. (सं.) रविः, सूर्यः २. किरणः। भालू , सं. पुं. (सं. भालू कः) भल्लु(ल्लू)कः, भानुजा, 1 सं. स्त्री. (सं.) यमुना,कालिंदी, | ऋक्षः, भल्लः, दुर्घोषः, दीर्घकेशः, दुश्चरः, भानुतनया, J भानुसुता। भालुकः, भाल्लूकः। भाप, सं. स्त्री. (सं. बा(वा)ष्पः-पम् । | भाव, सं. पुं. (सं.) अस्तित्वं, सत्ता, विद्य-निकलना,क्रि. अ., बा(वा)पायते (ना. धा.), / मानता २. मानस-मनो,-विकारः-वृत्तिः (स्त्री.), बाष्पं उत्क्षिप् (तु. प. अ.)-उद्गृ (तु. प. से.)। विचारः ३. अभिप्रायः, आशयः ४. मुखाकृतिः -देना, क्रि. स., बाष्पेण स्विद् (प्रे.) या पच् । (स्त्री.) ५. जन्मन् (न.) आत्मन् (यु.) (भ्वा .प.अ.)। ७. पदार्थः ८. विद्वस् (पुं.) ९. जंतुः -बनना या बनाना, उद्वाष्पणं, वाष्पी,- १०. कृत्य, विभूतिः ( स्त्री.)। ११. सं-विषय, भवनं-करणम् । भोगः १२. प्रेमन् (पुं. न.), अनुरागः भाभी, सं. स्त्री. (सं. भ्रातृभार्या ) अग्रजपत्नी | १३. संसारः १४. कल्पना १५. स्वभावः २. भ्रातृ,-जाया-पत्नी, प्रजावती ३. जननी। । १६. गूढेच्छा १७, शैली-रीतिः (स्त्री.) मामा, सं. स्त्री. (सं.) पत्नी, भार्या २. नारी | १८. दशा १९. भावना २०. विश्वासः ३. क्रुद्धा स्त्री। २१. प्रतिष्ठा २२. वस्तु,-गुणः-धर्मः २३.उद्देश्य भामिनी, सं. स्त्री. (सं.) कोपना स्त्री २. नारी। २४. मूल्यं, अर्घः, वस्नः, अवक्रयः, अर्ध मूल्य, भार, सं, पु. (सं.) दे. 'बोझ'। प्रमाणं २५. श्रद्धा, भक्तिः (स्त्री.) २६. स्थायि. -वाह, सं. पुं. (सं.) भारिन, भारिकः, व्यभिचारिसात्त्विकभावा: (काव्य.), नायिभार-हरः-हारः, वाह (हि)कः। कादिमानसविकारा: २७. हावः, दे. 'नखरा' । -उठाना, मु., प्रष्टव्यता अंगीकृ । -ताव, सं. पुं., मूल्यं, अर्घः। -उतरना, मु., उत्तरदायित्वं हा (ज.प.अ.)। -वाचक, सं. स्त्री. ( सं.-वाविका ) संज्ञाभेदः भारत, सं. पुं. (सं. न.) भारतवर्षः-र्ष, (व्या., उ. श्रेष्ठता )। भ(भा)रतखंडं २. महाभारतग्रन्थः । -वाच्य, सं पुं. (सं. न.) वाच्यभेदः ( व्या., भारती, सं. स्त्री. (सं.) गिर-वाच (स्त्री.), उ. हस्यते)। वाणी २.सरस्वती, शारदा ३. वृत्तिभेदः (सा.)। -उतरना या गिरना, मु., अर्थः अपचि भारतीय वि (# भारत सीमा (कर्म.), मूल्यं हस ( भ्वा. प. से.), मंदायते सं. पुं., भारतवासिन्। (ना. धा.)। भारी, वि. (सं.-रिन् ) भारिक, गुरु, दुर्वह, -चढ़ना या बढ़ना, मु. वस्नं वृथ् (भ्वा. भारवत् २. कराल, भीषण ३. महत्, बृहत्, आ. से.), अवक्रयः उपचि ( कर्म.)। विशाल ४. अत्यंत, अत्यधिक ५. असह्य, भावक, वि. (सं.) उत्पादक, स्रष्ट २. कल्याणदुर्भर, दुर्धर ६. प्रबल ७. शून, स्फीत ८. शांत, | कारक ३. उत्प्रेक्षक ४. काव्यरसिक । ग(ग)भीर। भावज, सं. स्त्री. (सं. भ्रातृजाया ) दे. 'भाभी' -पन, सं. पुं., भारवत्त्वं, गुरुत्वं, गरिष्ठता। -भरकम, वि., अति-बहु,भारवत् । भावता, वि. (हिं. भावना = अच्छा लगना) पैर भारी होना, मु., गर्भ धृ (चु.)। प्रिय, रुचिकर, रोचक । सं. पुं., वल्लभः, प्रियभार्या, सं. स्त्री. (सं.) दाराः (पुं. बहु.), तमः, प्रेमपात्रम् ।। दे. 'पत्नी । भावन, वि. (सं.) उत्पादक, प्रकाशक । सं. भाल, सं. पुं. (सं. न.) ललाट, अलिक, गोधिः पुं. (सं.) निमित्तकारणम् २. सृष्टिकर्तृ ३. (पुं. स्त्री.), निट(टि)लं, मूर्धन् (पुं.), मस्तं, शिवः । (सं. न. ) उत्पादनम् २. चिन्तनन् मस्त(स्ति)कं, मस्तकः। ३. कल्पना ४. भक्तिभावना। -चंद्र, नेत्र, लोचन, सं. पुं. (सं.) शिवः। | भावना, सं. स्त्री. (सं.) ध्यानं, चिंता, विमर्शः, For Private And Personal Use Only Page #477 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भावनीय [ ४३६ ] भिदना - विच रः २. कामना, वासना, इच्छा ३. स्मृत्य- भास्वर, वि. (सं.) द्युति-क्रांति-दीप्ति, मत्, नुभवजश्चित्तसंस्कारभेदः ४. सामान्य, उज्ज्वल, भासुर, देदीप्यमान, भ्राजमान । विचारः कल्पना ५. दे. 'पुट' ( वैद्यक )। वि., भिंडी, सं. स्त्री. ( सं. भिंडा ) भिंडः, भिंडकः, - शोभन, प्रिय, रोचक । क्रि. अ., दे. 'पसंद, सुशाकः, करपर्णः, वृत्तबीजः, चतुष्पुंड्रः । आना'। भिक्षा, सं. स्त्री. (सं.) याच्ञा, याचना, अर्थना, भावनीय, वि. (सं.) चिन्तनीय, कल्पनीय।। २. भिक्षाटनं ३. भक्ष्यं, दानम् । भावाभाव, सं. पुं. [ सं.-वौ (द्वि.) ] अस्तित्वा- -पान, सं. पुं. (सं. न.) भिक्षा-दान,-पात्रंनस्तित्वे (न.) २. उत्पत्तिविनाशौ ३. जन्म- भाजनम् । मृत्यू (सब द्वि.)। भिक्ष, सं. पुं. (सं.) परिव्राज , परिव्राजकः, भावार्थ, सं. पुं. (सं.) तात्पर्याः, आशयः, | ब्रजकः, (बौद्ध-) सन्न्यासिन्, मस्करिन्, प(पा)तात्पर्य, भावः २. भावप्रधानटीका । । राशरिन् २. दे. 'भिखारी'। भावित, वि. (सं.) विचारित, चिंतित। भिक्षक, सं. पुं., (सं.) दे. 'भिखारी' । भावी, वि. (सं.-विन्) दे. 'भविष्य' (वि.)। सं. | भिखमंगा, सं. पुं. दे. 'भिखारी'। स्त्री.. दे. 'भविष्य' सं. पुं. २.दे. 'भवितव्यता'। | भिखारिन, सं. स्त्री. (हिं. भिखारी) भिक्षको. भावुक, वि. (सं.) रसिक, सरस, रसभूयिष्ठ, भिक्षाकी, भिक्षाचरी। भावप्रधान २.चिंतक, विचारक। भिखारी, सं. पुं. (हिं. भीख ) भिक्षुः, भिक्षुकः, भाव्य, वि. (सं.) भवितव्य, अवश्यंभाविन् । भिक्षाकः, भिक्षाचरः, भिक्षाशिन, मार्गणः, भाषण, सं. पु. ( सं. न.) कथनं, वचनं, उक्तिः । याचकः, याचनकः, वनीयकः, अर्थिन् । (स्त्री.) २. व्याख्यानं, प्रवचनं, उपदेशः। | भिगोना, कि. स. (हिं. भीगना) क्लिद् (प्रे.), भाषांतर, सं. पुं. (सं. न.) अनुवादः। उद् (रु. प. से.), आद्रीकृ । -कार, सं. पुं. (सं.) अनुवादकः। भिजवाना, क्रि.प्रे., ब. 'भेजना' के प्रे रूप । भाषा, सं. स्त्री. (सं.) वाणी, वाच-गिर् (स्त्री.), | भिटनी, सं. स्त्री. ( देश.) स्तनाग्रं, चचुकम् । भारती, गिरा, उदीरणा २. हिन्दीभाषा | भिड़, सं. स्त्री. (हिं. बरै ? ) वरटः-टा-टी, इडा३. वचस् (न.), वचनं, वाक्यं, उक्तिः (स्त्री.), चिका, गंधोली, गृहकारिका। व्याहारः, निगदः, शब्द:, भाषितं, आलापः | भिड़ना, क्रि. अ. ( अनु. भड़ १) संघट्ट ( भ्वा. ४. सरस्वती ५. अभियोगपत्रं (अजीदावा)। आ. से.) संमृद्-संहन् ( कर्म.) उप,-इ-या भापित, वि. (सं.) कथित, उक्त, उदीरित। (अ. प. अ.), संमिल (तु. प. से.) सं. पुं. ( सं. न.) कथनं, वार्तालापः । । ३. कलहायते (ना. था.), युध् (दि. आ. अ.)। भाषी, सं. पुं. ( सं.-पिन् ), वादिन्, वक्त। भिडाना, क्रि. स., ब. 'भिड़ना' के प्रे. रूप। भाष्य, सं. पुं. (सं. न.) टीका, व्याख्या, वृत्तिः | भितल्ला , सं. पुं. (हिं. भीतर+तल ) दे.. (स्त्री.) विवरणम् । 'अस्तर'। वि. आन्तर, आभ्यन्तर, दे. -कार, सं. पुं. (सं.) टीका-भाष्य व्याख्या, 'भीतरी'। कारः-कृत् (पु.) २. महाभाष्यकारः, पतंजलिः, | भितल्ली, सं. स्त्री., (हिं. भितल्ला ) पेषण्याः गोनीयः। अधस्थ: पाषाणः। भास, सं. पु. (सं.) संस्कृतभाषायाः महाकवि- भित्त, सं. पु. ( सं. न.) भागः, अंशः २.खण्ड:विशेषः २. कान्ति:-दीप्तिः ( स्त्री.) ३. कल्पना | डं, शंकल:-लम् ३. दे. 'भित्ति' । ४. गोष्ठः-ठम् ५. कुक्कुटः ६. गृध्रः ७. पक्षिन् । भित्ति, सं. स्त्री. (सं.) कुड्यं, कूड्यं, कुड्यकं, भासना, क्रि. अ. (सं. भासनं) भास्-प्रकाश् । मित्तिका २. भित्ति-गृह, मूलम् ३. चित्राधारः ( भ्वा. आ. से.), २. प्रति-इ (कर्म.) ३. दृश् । ४. छेदः, भेदः ५. खण्डः, शकल: ६. भग्न(कर्म.)। वस्तु (न.) ६. कटः, किलंज, तृणपूली भासुर, वि. (सं.) दे. 'भास्वर'। ७. दोषः ८. अवसरः। भास्कर, सं. पुं. ( सं. ) सूर्यः २. अग्निः , (सं. भिदना, क्रि. अ. (सं. भिद् ) विध-व्यध् (कर्म.), • न.)सुवर्ण ३.ज्योतिषग्रन्थकारो भास्कराचार्यः। छिद्रित (वि.) भू २. आहन्-व्रण (कम.)। For Private And Personal Use Only Page #478 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir . भिनकना [४४० ] भुच्च, भुन्न भिनकना ) क्रि.अ. (अनु. भिनभिन)भिण- वृकोदरः । वि., दे. भयंकर २. सुमहत्, अतिभिणायते(ना. धा.),मिणमिण, विशाल। मिनामनाना, J रणितं-निनदं जन् (प्रे.)। -के हाथी, मु., अप्रत्यागामि-अप्रत्यावर्ति, भिनभिनाहट, सं. स्त्री. (हिं. भिनभिनाना ) पदार्थः । भिणभिणायितं, भिणभिण, रणितं-निनदः, भीरु, वि. (सं.) कातर, वस्नु, भयशील, झंकारः, गुञ्जनम् । भारु( लु)क। भिन्न, वि. (सं.) असंबद्ध, अलग्न, पृथग्भूत, | भीरुता, सं. स्त्री. (सं.) कातर्य, कापुरुषत्वं, विश्लिष्ट २. अन्य, इतर, अपर । सं. पु. (सं. क्लीबता, त्रस्नुता। न.) अपूर्णांकः, राशि, भागः। भील, सं. पुं. (सं. भिल्लः) म्लेच्छजातिविशेषः । -भिन्न,वि., अनेक, विभिन्न २.वि-नाना,-विध । भीलना, सं. स्त्री. (हिं. भील ) भिल्ली, भिल्लनारी। भिन्नता, सं. स्त्री. (सं.) भिन्नत्वं, पृथक्त्वं, भेदः, अंतरम् । भीषण, वि. (सं.) दे. 'भयंकर'। भीषणता, सं. स्त्री. (सं.) दे. 'भयंकरता'। भिलावा, सं. पुं. (सं. भल्लातकः) भल्लातः, भीष्म, सं. पुं. (सं.) गांगेयः, देवव्रतः, शांतनुशोथहृत् (पुं.), वीर,-तरु:-वृक्षः, कृमिघ्नः, भूतनाशनः, स्फोटबीजकः, व्रणकृत् (पुं.)। पुत्रः २. शिवः । वि., दे. 'भयंकर'। भी, अव्य. ( सं. अपि) च, अपि च २. अवश्यं | भुक्ख ड़, वि. ( हिं. भूख ) बुभुक्षित, क्षुधात ३. अधिकम् । २. औदारिक, बहुभोजिन्, अमर, घस्मर, भीख, सं. स्त्री. (सं. मिक्षा ) दे. भिक्षा' (१-३)। अत्याहारिन् ३, दरिद्र, दीन । मांगना, क्रि. स., भिक्ष (भ्वा. आ. से.), भुक्त, (सं.) भक्षित, जग्ध २. उपभुक्त, व्यवहृत। भिक्षां याच ( भ्वा. आ. से.)। भीग(ज)ना, क्रि. अ. (सं. अभ्यंजनं>) -शेष, वि. ( सं.) उच्छिष्ट, जुष्ट । क्लिन्नी-आदी भू, उद् ( कर्म. उद्यते ), क्लिन् । | भुक्ति, सं. स्त्री. (सं.) भोजनं, आहारः, अन्नं (दि. प. वे.)। २. विषयोपभोगः, लौकिकसुखम् । भुखमरा, वि. (हिं. भूख-मरना ) दे. 'भुक्खड़' भीगी बिल्ली होना, मु., भयात् तूष्णी स्था (२,३)। (भ्वा. प. अ.)। भुगतना, क्रि. स. (सं. भुक्त>) उप-,भुज भीड़, सं. स्त्री. (हिं. भिड़ना ) जन, समुदाय: (रु. आ. अ.), अनुभू , प्राप ( स्वा. प. अ.) संमर्दः-ओघः-समूहः २. आपद्-विपद् (स्त्री.)। २. अम्-सह (भ्वा. आ. से.), मृष् (दि. -भड़क्का, सं. . सुमहान् जनसंमर्दः प. से., चु.) ३. (ऋणादिकं ) शुध (दि. -भाड़, सं. स्त्री. Jइ.। प. अ.), अपाकृ (कर्म.)। क्रि. अ , समाप भीत', वि. (सं.) भयात, त्रस्त, सभय।। ( कर्म.), पूर (कर्म.), निवृत् ( भ्वा. आ. ओचे की प्रीत ज्यों बालू की भीत, मु., से.) अवसो ( कर्म.)। * क्षुद्रसख्यं हि नश्वरम् । भुगतान, सं. पुं. (हिं. भुगतना) निवृत्ति:भीतर, सं. स्त्री., दे. 'भित्ति' । समाप्ति:-सिद्धिः-पूतिः ( स्त्री.) २. (ऋणादिभीतर, क्रि. वि. ( सं. अभ्यंतरे ) अंतः, गर्भे, | कस्य ) निस्तारः, परिशुद्धिः, अपनयनम् । अंतरे, दे. 'अंदर' । सं. पुं., हृदयं, मानसं, भुगताना, क्रि. प्रे. ब. 'भुगतना' क्रि. स. के अंतःकरणं २. अंतःपुरं, अवरोधः। प्रे, रूप। भीतरी, वि. (हिं. भीतर ) आंतर-आभ्यंतर भुगा, वि., मूर्ख, जड, अश, निर्बुद्धि । [-री (स्त्री.)], अन्तर , अंतरस्थ, अंतर्भव | भुग्न, वि. (सं.) अराल, जिह्म, वक्र, न्युज, २. गुप्त, गूढ, प्रच्छन्न । आ-, न( ना )मित । भीति, सं. स्त्री. (सं.) दे. 'भय'। भुच्च, भुच्चड़, वि. ( सं. भूत+हिं. चढ़ना) भीम, सं. पुं. (सं.) युधिष्ठिरानुजः, भीमसेनः, I जड़, अश, मूर्ख, जडमति । For Private And Personal Use Only Page #479 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भुजंग [ ४४१] भूख %3 भुजंगम सं. पुं. ( सं. ) दे. 'सर्प। भुजंग, । भुलक्कड़, वि. (हिं. भूलना ) विस्मरणशील, __ मंद-अल्प, स्मृति २. प्रमादिन, प्रमत्त ।। भुजंगी-गिनी, सं. स्त्री., दे. 'सर्पिणी'। भुलाना, क्रि.प्रे., ब. 'भूलना' के प्रे. रूप । भुज, सं. पुं. (सं.) भुजा, बाहुः, दोड: | भुलावा, सं. पु. (हि. भुलाना ) प्र.,वंचना, २. ( ज्योमैट्री में ) भुजः, बाहुः, पार्श्वः। । प्रतारणा, बलम् ।। -दंड, सं. पुं. (सं.) दोर-बाहु, दंडः । -देना, क्रि. स., प्रतृ (प्रे.), वंच (चु.)। -पाश, सं. पुं. (सं.) आलिंगन, परिवंगः। भुवः, अव्य. (सं.) आकाश:-शं, अंतरिक्ष -बंद, सं. पुं., अंगदं, केयूर, बाहुवलयः। लोकः, द्वितीयलोकः २. द्वितीयमहान्या-मूल, सं. पुं. (सं. न.) कक्षा, दोर्मूलं, खडिकः ।। हृतिः (ना.)। भुजना, सं. पुं. (हिं. भूजना ) *भष्टान्नम्। भुवन, सं. पुं. (सं. न.) जगत् (न.), जगती, भुजा, सं. स्त्री. (सं.) दे. 'भुज' । सृष्टिः ( स्त्री.), संसारः २. जलं ३. जनः, भुजिया, सं. स्त्री. (हिं. भूजना ) *भाजता, | लोकः ४. चतुर्दश-भुवनानि (न. बहु. )भृष्टशुष्क, शाकः-शिग्रुः। सं. पुं. क्वथितधान्यं लोकाः । २. क्वथितधान्यतंडुलः। त्रि-, सं. पुं. ( सं. न.) त्रिलोकी, लोकत्रयम् । भुट्टा, सं. पुं. ( सं. भृष्ट>) मकायकणिशम् । भुशुंडि, सं. पुं. (सं.) काकभुशुंडिः। (सं. भुतना, सं. पुं. दे. 'भूत' (७-९)। स्त्री.) भुशुंडी, अस्त्रभेदः । भुनगा, सं. पुं. (अनु.) (१.२) कीट-भुस, सं. पुं., दे. 'भूसा' । पतंग,-भेदः। भुसी, सं. स्त्री., दे. 'भूसी' । भुनना, क्रि. अ., ब. 'भूनना' के कर्म. रूप | मूंकना, क्रि. अ. (अनु.) दे. 'भौंकना' (१-२)। २. ब. 'भुजना' के कर्म. रूप । | भूचाल, (सं. भूचाल: ) मही., भूकंप:-प्रकंप:भुनभुनाना, क्रि. अ. ( अनु.) भुणभुणायते चलनं, क्षमायितम् । ( ना. धा. ) अन्यक्तं वच ( अ. प. अ.)। जना, क्रि. स., दे. 'भूनना' (१-२)। भुनवाना, क्रि. प्रे., ब. 'भूनना' के प्रे. रूप. । | मँडोल, सं. पुं. दे. 'भूचाल' । २. ब. 'भुनाना' के प्रे. रूप। भू , सं. स्त्री. ( सं.) धरणी, धरा, दे. 'पृथिवी' भुनाई, सं. स्त्री. (हिं. भूनना ) भर्जन, २. स्थानं, स्थलम् । भृतिः-भाटिः ( दोनों स्त्री.)। -कंप, सं. पुं. ( सं.) दे. 'भूचाल' । भुनाई, सं. स्त्री. (हिं. भुनाना) नाणकवि- -चाल, 1.. निमयभाटि:-भतिः ( दोनों स्त्री.)। भुनाना', क्रि.प्रे. ब. 'भूनना' के प्रे. रूप। -तल, सं. पुं. (सं. न.) धरातलं भुनाना२, क्रि. स. (सं. भंजनं) अल्पनाण- | २. पृथिवी। केभ्यः बृहन्नाणकानि प्रतिदा (जु. उ. अ.), भूख. सं. स्त्री. (सं.बुभुक्षा) क्षुधा,क्षुध (स्त्री.), नाणकानिभंज-त्रुट (प्रे.) नाणकानि विनि- जिघत्सा, अपनाया, अश्नायितं २. आवश्यमे (वा. आ. अ.)। कता ३. अभिलापः। भुरकुस, सं. पु. ( अनु. भुर>) *चूर्ण, क्षोदः। -का अभाव, सं. पुं., अरुचिः (स्त्री.), -निकालना, मु., निर्दयं तड् (चु.) २. नश- भक्त, उपधात:-षः। ध्वंस (प्रे.)। -प्यास, सं. स्त्री., क्षुधापिपासे, क्षुत्तृषे ।। भुरता, सं. पुं. (अनु. भुर>) दे. 'भरता' भूखों मरना, मु., आहाराभावात् मृ (तु. आ. २. चणित-विकृत.-पदार्थः । अ.)-अवसद् (भ्वा. प. अ.)-नश -करना, मु., आपाडय चूण (चु.)-पिषु । (दि. प. वे.)। (रु. प. अ.)। -लगना, क्रि. अ., क्षुध् (दि. प. अ., भुरभुरा, वि. ( अनु.) भिदुर, भंगुर, सुभग चतुर्थी के साथ ), भुज् ( सन्नत, बुभुक्षति-ते ) २. बालुकानिभ। क्षुधया अद्-पीड् (कर्म.)। -डोल. दे. 'भूचाल'। For Private And Personal Use Only Page #480 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [ ४४२] TTनमr भूखा, वि. (हिं. भूख) क्षुधा,-आविष्ट- देहिन् २. शरीरं ३. परमेश्वरः ४. विष्णुः आतुर-आर्त्त-अन्वित-पीडित, क्षुधित, जिघत्सु, । ५. शिवः । बुभुक्षु, अन्नार्थिन्, अइनायित २. इच्छुक भूतानुकंपा, सं. स्त्री. (सं.) जीव-भूत-प्राणि-, ३. दरिद्र। - दया कृपा-अनुकम्पा । -नंगा, वि., दीन, दरिद्र, निर्धन, अकिंचन। | भूताविष्ट, वि. (सं.) पिशाच भूत, ग्रस्त-प्यासा, वि., क्षुत्पिपासित, क्षुत्तृषार्त । पीडित-आक्रांत । भूखे प्यासे, मु., निरन्नपानं, अन्नपानं भूतावेश, सं. पुं. (सं.) भूत,-संचारः-क्रांतिः विना। | ( स्त्री.), पिशाचावेशः। भूगर्भ, सं. पुं. (सं.) धरा, अंतरं-अभ्यंतरं-गर्भः। | भूति(त)नी, सं. स्त्री. (दि. भूत ) शाकिनी, -गृह, सं. पुं. ( सं. न.) भू-गेहं-गृहम् । डाकिनी, राक्षसी, पिशाची-चिका। -शास्त्र, सं. पुं. (सं.न.) भूतत्त्व,-शास्त्रं-विधा- भूदेव, सं. पुं. (सं.) ब्राह्मणः, भूसुरः। विज्ञानम् । भूधर, सं. पु. (सं.) गिरिः, पर्वतः । -शास्त्रवेत्ता, सं. पुं. (सं.-तृ.) भूतत्वज्ञः, भूनना, क्रि. स. ( सं. भर्जनं> ) भृज् (भ्वा.. भूगर्भशास्त्रशः। आ. से.), भ्रस्ज् (तु. उ. अ.), ईषत्तापेन भूगोल, सं. पुं. (सं.) भूमंडलं, भुवनकोषः | प्लुथ् ( भ्वा. प. से.)-शुष् ( प्रे.)। २. भूगोलः, विद्या-शास्त्र, भूपृष्ठविद्या। भूप, सं. पुं. (सं.) भूपतिः, भूपाल:, नृपः, -वेत्ता, सं. . (सं.-तृ.) भूगोलशास्त्रज्ञः।। भूचक्र, सं. पुं. (सं. न.) पृथ्वीपरिधिः । भूपति, सं. पं. (सं.) नृपः, दे. 'राजा" २. विषुवनेखा ३. अयनवृत्तं ४. क्रांतिवृत्तम् । भूपाल, I भूचर, सं. पुं. (सं.) स्थलचरः २. शिवः ।। | भूभल, सं. स्त्री. (सं. भूः+हिं. बलना ) भूत, सं. पुं. (सं. न.) पृथ्व्यप्तेजोवाय्वाकाश- उष्ण, भसितं-भस्मन् ( न.)-बालुका। पंचकं २. जड़चेतनपदार्थः, चराचरवस्तु (न.) भूमंडल, सं. पु. ( सं. न.) पृथिवी, धरा, ३. प्राणिन, जीवः ४. भूत-अतीत,कालः ५. | धरित्री। शवः ६. क्रियारूपभेदः ( व्या.) ७. रुद्रानु- भूमिका, सं. स्त्री. (सं.) प्रस्तावना, उपोद्धातः,. चराः, पिशाचाः ८. मृतस्य आत्मन् (पुं.)। अवतरणिका, आमुखं, मुखबंधः २. वेशांतर९. पिशाचः, प्रेतः, रक्षस् (न.), राक्षसः। परिग्रहः । वि. (सं.) गत, वि.,अतीत, २. युक्त ३. सदृश | भूमि, सं. स्त्री. (सं.) धरा, धरित्री, दे. ४. परिणत ( सब प्रायः समासांत में)। 'पृथिवी' । -उतारना, क्रि. स., भूतान् निष्कस (प्रे.)-|-ज, वि. (सं.) भूमिजात । अपनुद् ( तु. प. अ.)-अपस (प्रे.)। -जा, सं. स्त्री. (सं.) जानकी, सीता। -काल, सं. पुं. (सं.) पूर्वभूत-अतीत-, काल:- -पुत्र, सं. पुं. (सं.) मंगलग्रहः, भूमुतः । समयः। -सुता, सं. स्त्री. (सं.) सीता, वैदेही। -नाथ, सं. पं. (सं.) शिवः । भूय, अव्य. ( सं. भूयस् ) पुनः, पुनरपि । --भावन, J भूरा, वि. (सं. बभ्रु ) धूलि मृद , वर्ण-रंग -पूर्व, वि. (सं.) प्राक्तन, पूर्वतन, पौविक ।। २. कपिल-श, पिंग, पिंगल। सं. पुं., १-२ -संचार, सं. पुं. (सं.) भूतावेशः । बभ्र-पिंगल, वर्ण:-रंगः ३. शर्करा, सिता । -चढ़ना या सवार होना, मु., अतिनिधेन भूरि, वि. (सं.) अधिक, बहु, प्रचुर २. महत, अव-स्था ( भ्वा. आ. अ.) २. अत्यर्थं कुप् गुरु । (दि. प. से.)। | भूल, सं. स्त्री. (हिं. भूलना) विस्मरणं, विस्मृतिः भूतत्वविद्या, सं. स्त्री. (सं.) दे. 'भूगर्भविद्या'। (स्त्री.) २. दोषः अपराधः ३. अशुद्धिः भूतात्मा, सं. पुं. (सं.-त्मन् ) जीवात्मन्. । (ली.), स्खलितं, स्खलनं २. मोहः, भ्रमः। For Private And Personal Use Only Page #481 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भूलना [ ४४३ ] भेड़िया -चूक, सं. स्त्री., प्रमादः, अपराधः, त्रुटिः । भृतक, सं. पुं. (सं.) वैतनिकः, कर्मकरः । (स्त्री.), स्खलितम्। भृतकाध्यापक, सं. पुं. (सं.) सवेतनः शिक्षकः। -भुलैया, सं. स्त्री., सुगहनस्थानं, भ्रांतिचक्र भृति, सं. स्त्री. (सं.) वेतनं, भृत्या २.कर्मण्या, २. संशय-संदेह,-आस्पदम् । तुलिका, भरण्यं, भर्मण्या ३. मूल्यं ४. पूरणं, भूलना, क्रि. स. (प्रा. भुल्लइ ) विस्मृ भरणं ५. पालनं ६. वैतनिकता।। (भ्वा. प. अ.) २. स्खल ( भ्वा. प. से.), | भृत्य, सं. पु. ( सं.) सेवकः, दे. 'नौकर'। प्रमद् (दि. प. से.) ३. त्यज (भ्वा. प. | भृत्या, सं. स्त्री. (सं.) सेविका, दासी २. दे.. अ.), हा (जु. प. अ.) । क्रि. अ., 'भृति'। विस्मृ (कर्म.) २. भ्रंश-नश (दि. प. | भृश, क्रि. वि. (सं. भशं) अत्यंतं, अत्यधिकम् । से.), च्यु (भ्वा. आ. अ.) ३. गर्वित- भेंगा, वि. (देश.) केकर, केदर,टेर,टगर, वलिर। अवलिप्त (वि.) भू. ४. कम् (भ्वा. आ.| -पन, स. पुं., तिर्यग्दृष्टिः (स्त्री.), टेरता इ. । से.), स्निह् (दि. प. से., सप्तमी के साथ)। भेंट, सं. स्त्री. (सं. भिद्>) सं(समा)गमः,. सं. पु., विस्मरणं, विस्मृतिः (स्त्री.) २. प्रमादः, संमिलनं, साक्षात्कारः २. उपहारः, उपायनं, स्खलितं ३. भ्रंशः, नाशः। प्राभृतं-तकं, प्रदेशनम् । भूलने योग्य, वि., विस्मर्तव्य, विस्मरणीय । -करना, क्रि. स., संमिल (तु. प. से.),. भूलनेवाला, सं. पुं., दे. 'भुलक्कड़' । अभि-सं-मुखीभू, सं-इ (अ. प. अ.)भूला-भटका, वि., पथ-मार्ग, भ्रष्ट ।। २. उत्सृज् (तु. प. अ.), उपह (भ्वा. प. भूला हुआ, वि., विस्मृत, स्मृतिपथात् अपेत । अ.), उपढौक (प्रे.), ऋ (प्रे. अर्पयति )। भूलोक, सं. पु. (सं.) मर्त्यलोकः, भूमिः (स्त्री.)। भेक, सं. पु. (सं.) दे. 'मेंढक'। भूशायी, वि. (सं.-यिन् ) धराशायिन्, मृत, | भेख, सं. पुं. दे. 'वेष'। २. भूमिशयन ३. भूमौ पतित। भेजना, क्रि. स. ( सं. व्रजनं>) सं.-,प्रेष (प्रे.), भूषण, सं. पुं. (सं. न.) आभरणं, अलंकारः, प्र-हि (स्वा. प. अ.), प्रस्था (प्रे.), विसृज् . आ-वि-भूषणं, दे. 'गहना। (तु. प. अ.), सं-,प्रेर् (प्रे.)। सं. पुं., सं., भूषणीय, वि. (सं.) भूष्य, अलंकार्य, मंडनीय ।। प्रेषणं-प्रेरणं, विसर्जनं, प्रस्थापन,प्रहितिः (स्त्री.)। भूषा, सं. स्त्री. (सं.) अलंक्रिया, परिष-कारः- | भेजने योग्य, वि., प्रेषयितव्य, प्रस्थाप्य, प्रहक्रिया, प्रसाधनं, नेपथ्यम् । यणीय। भूषित, वि. ( सं. ) अलंकृत, परिष्कृत, प्रसा- | भेजनेवाला, सं. पुं., प्रेषकः, प्रहेत। धित, मण्डित । भेजा हुआ, वि., प्रेषित, विसृष्ट, प्रहित । भूसा, सं. पुं. ( सं. बुसं> ) पलाल:-लं, यवसं, | भे(भि)जवाना, क्रि. प्रे., ब. 'भेजना' के प्रे.. धान्यतृणं, पलः। भूसी, सं. स्त्री. (हिं. भूसा) दे. 'भूसा' भेजा, सं. पु. ( देश.) दे. 'मगज़' । २. बुषं, बुसं, तुषः-सः, कडंगरः, धान्यत्वच | भेड़, सं. स्त्री. (सं. भेडक:>) भेषी, एडका, (स्त्री.)। | अविला, उरणी, उरा, कुररी, जालकिनी, अविः भू सुर, सं. पु. ( सं.) विप्रः, ब्राह्मणः। (स्त्री.), रुजा (पु., दे. 'भेड़ा') २. मूढः, भुंग, सं. पुं. (सं.) भ्रमरः, षट्पदः मूढधी:, ऋजुः। २. कीटभेदः । भेड़ना, क्रि. स., दे. 'बंद करना। -राज, सं. पुं. (सं.) पक्षिभेदः २. केशरं- | भेड़ा, सं. पुं. (सं. भेड़: ) अविः, उरणः, उरभ्रः, जनः, केश्यः, कुंतलवर्द्धनः, क्षुपभेदः। ऊर्णायुः, एडकः, मेढ़ः, हुडः, रो(लो)मशः, भृकुटी, सं. स्त्री. (सं.) दे. 'भौंह' । भेडुः, भेडकः। भृगु, सं. पुं. (सं.) मुनिविशेष: २. परशुरामः। | भेड़िया, सं. पुं. (हिं. भेड़ ) वृकः, कोकः, -नाथ, सं. पुं. (सं.) परशुरामः, भृगुरामः। ईहामृगः । भृत, वि. (सं.) पूरित, पूर्ण, निचित | | -धसान, सं. पुं., अंध, अनुकरणं-अनुसरणं- . २. पालित, पोषित । | अनुवर्तनम्। For Private And Personal Use Only Page #482 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भेड़ी भेड़ी, सं. स्त्री. दे. 'भेड़' । भोंडा, वि., दे. 'भद्दा' | भोंदू, वि. दे., 'बुद्धू' । भेद, सं. पुं. (सं.) छेदः, दे. 'भेदन' २. शत्रु वशीकरणोपायभेदः, उपजापः ३. रहस्यं, गूढाशय: ४. अन्तरं, विशेष: ५. प्रकार:, जाति: (स्त्री.) । | भोंपा, सं. पुं. (अनु. भों) दे. 'भोंपू' : मूर्खः, अज्ञः । भोंपू, सं. पुं. (अनु. भों ) काहल:-लं-ला, मुखवाद्यभेदः । [ ४४४ ] - खोलना, क्रि. स., रहस्यं विवृ (स्वा.उ.से.) । -- पाना, क्रि. स., गुह्यं बुध (भ्वा. प. से.) । - बुद्धि, सं. स्त्री. (सं.) विश्लेष:, विच्छेदः, ऐक्याभावः । -भाव, सं. पुं. ( सं . ) अंतरं, विशेषः । —लेना, क्रि. स., गोप्यं ज्ञा (सन्नंत, जिज्ञासते ) । भेदक, वि. (सं.) भेत्तृ, छेत्तृ २. रेचक । भेदन, सं. पुं. ( सं. न. ) विदारणं, छेदन, वेधनं, व्यधः धनं, त्रोटनम् । वि, भेदक २. रेचक | भेदिया, भेदी, १ सं. पुं. ( सं. भेद: > ) दे. 'जासूस' २. रहस्यविद् (पुं. ) । भेदी, वि. (सं. भेदिन ) छेदक, विदारक । भेद्य, वि. (सं.) छेद्य, विदारणीय । —रोग, सं. पुं. ( सं. ) शल्यचिकित्स्यो रोगः । भेरी, सं. स्त्री. (सं.) भेरि: (स्त्री.), दुंदुभि:, डिंडिम:, पटह:, ढक्का भेली, सं. स्त्री. (देश. ) गुडपिंड : - डम् | भेष, स. पुं., दे. 'वेष' । भेषज, सं. पुं. ( सं. न. ) औषधं, अगद:, भैषज्यम् । भेस, सं. पुं., दे. 'वेष' । भैंस, सं. स्त्री. ( सं . महिषी ) मंदगमना, महाक्षीरा, पयस्विनी, कलुषा । भैंसा, सं. पुं. ( सं . महिषः ) अश्वारिः, कलुषः, कासरः, कृष्णशृंगः, गद्गदस्वरः, जर रं) तः, यमरथ:, लुलापः ( यः ), वीरस्कंध, सैरिभः, हेरंवः । भैया, सं. पुं., दे. 'भाई' । भैरव, सं. पुं. (सं.) शंकरः शिवः २. शिवगणभेदः ३. रागभेदः । वि., भीम, भीषण, देवीविशेष: भयङ्कर । भैरवी, सं. स्त्री. (सं.) चामुंडा, २. रागिणीभेदः । 'भैरों, सं. पुं., दे. 'भैरव' । भोंकना, क्रि. स. (अनु. भक ) सहसा शस्त्रादिकं निविश् ( प्रे.), व्यध् ( दि. प. अ. ) २. अकस्मात् आहन ( अ. प. अ. ) । भो, अ० (सं.) हे, अरे, अयि । भोक्तव्य, वि. (सं.) दे० 'भोग्य' | भोजपत्र भोक्ता, वि. ( सं. भोक्तृ ) खादक, भक्षक २. विलासिन, विषयिन् ३ प्र उपयोक्तृ । सं. पुं., पतिः । भोग, सं. पुं. (सं.) सुख-दुःखादीनामनुभव:२. सुखं ३. दुःखं ४. रतिः (स्त्री.), संभोगः ५. सर्पण:-गंगा ६. सर्पः ७. धनं ८. गृहं ९. भक्षणं १०. शरीरं ११. परिमाणं १२. विपाकः, कर्मफलं १३. भुक्तिः (स्त्री.) (क़ब्ज़ा ) १४. नैवेद्यं १५. भाटक:-कम् | - लगाना, क्रि. स., देवाय नैवेद्यं ऋ (प्रे. अर्पयति ) २, भक्षू ( चु. ) । - विलास, सं. पुं. (सं.) आमोदप्रमोदाः (पुं. बहु. ), सुखं, हर्षः । भोगना, क्रि. सं. (सं. भोगः > ) दे. 'भुगता' ( १-२ ) । भोगी, वि. ( सं-गिन् ) भोग-विषय, आसक्तलंपट, विलासिन २. भक्षक 1 भोग्य, वि. (सं.) उपयोक्तव्य, उपयोगिन् २. भोगाई, उपभोक्तव्य ३. भक्ष्य । सं. पुं. ( सं. न. ) धनं २. धान्यम् । भोज', सं. पुं. (सं.) धारानगरस्य नृपविशेषः । भोजर, सं. पुं. (सं. भोजनं ) भक्ष्यं, आहार: २. सह-सं., भोजनं, सग्धिः (स्त्री.) । भोजन, सं. पुं. (सं. न. ) भक्षणं, खादनं, अशनं, आस्वादनं २. खाद्यं, भोज्यं, भक्ष्यम् । —करना, क्रि. स., भुज् ( ( रु. आ. अ.), भक्षू (चु. ) । --- भट्ट, सं. पुं. (सं. भोजनभट: ) अत्याहारिन्, अद्मरः, घस्मरः । - शाला, सं. स्त्री. (सं.) भोजन, आलय:आगार : ( रं.) २. पाकशाला, महानस:-सम् । भोजनाच्छादन, सं. पुं. (सं. न. ) अन्नवस्त्रं, अशनवसनम् । भोजपत्र, सं. पुं. (सं.) भूर्जवृक्षः, बहुलवल्कल:, छत्रपत्रः, मृदु-बहु -त्वच् (पुं. ) । For Private And Personal Use Only Page #483 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir मोज्यं [४४५] भ्रांत - भोज्यं, वि. (सं.) भक्ष्य, खाद्य, अभ्यवहार्य ।। पांच, भौतिक २. पार्थिव ३. शारीरिक, दैहिक, सं. पुं., भक्ष्यपदार्थः । भोर, सं. पुं. ( सं. विभावरी> ) उषा, उषस् | भौम, वि. ( सं.) पार्थिव, भौमिक २. भूमिज । (स्त्री.) वि- प्रभातं, विहानः-नम् । सं. पुं., मंगलग्रहः, कुजः । भोला, वि. (हिं. भूलना) सरल, ऋजु, निष्क- | -वार, सं. पुं. ( सं.) मंगलवासरः। पट, निश्छल २. मूर्ख, जड। भौमिक, वि., दे. 'भौम' वि.। सं. पुं., क्षेत्र, --नाथ, सं. पुं. (हिं.+सं.) शिवः । पतिः-स्वामिन् । -पन, सं. पुं., आर्जवं, सरलता, नियाजता | भौमी, सं. स्त्री. (सं.) जानकी, सीता, वैदेही। २. मौख्य, अज्ञता। |भ्रंश, सं. पुं. (सं.) अधः-अव,-पतनं-पात: -भाला, वि., निष्कपट, सरल, ऋजु। २. विनाशः = ध्वंसः ३. पलायनम् । भौं, सं. स्त्री., दे. 'भौंह । भ्रंशित, वि. ( सं.) अध:पातित २. वंचित । भौंकना, क्रि. अ. ( अनु. भौं भौं) बुक्क् | भ्रम, सं. पुं. (सं.) भ्रांतिः (स्त्री.), माथा.. (भ्वा. प. से.. च.). भष (भ्वा. प. से.)। मिथ्या,-मतिः (स्त्री.) ज्ञानं, आभासः, अविद्या २. प्र-,जल्प (भ्वा. प. से.)। सं. पुं., बुक्कन, २. संशयः, संदेहः ३. मूर्छाभेदः ४. मूछो भषणं २. जल्पः -पनम् । ५. कुलालचक्रं ६. भ्रमणं ७. भ्रमद्वस्तु (न.)। भौंतुवा, (हिं. भौना-घूमना ) तैलिक-तैलकार, भ्रमण, सं. पु. ( सं. न.) पर्यटनं, विचरणं, वृषः-वृषभः । २. कीटभेदः ३. हस्तरोगभेदः । परिभ्रमणं २. गतागतं ३. यात्रा। भौर, सं. पुं. (सं. भ्रमरः) दे. 'भ्रमर' २. जला -करना, क्रि. अ., पर्यट-विचर (भ्वा. प. से.), वर्तः, भ्रमिः ( स्त्री.)। परिक्रम् ( भ्वा. दि. प. से.)। भौरा, सं. पुं. (सं. भ्रमरः) दे. 'भ्रमर भ्रमात्मक, वि. (सं.) भ्रमोत्पादक २. संदिग्ध । २. भ्रमरकः कं, क्रीडनकभेदः ३. भू, गेहं- | | भ्रमर, सं. पुं. (सं.) षट्पदः, द्विरेफः, मधु,-' गृहम् । कर:-पः-लिह (पुं.), अलि:, अलिन्, भृङ्गः,. भौरी, सं. स्त्री. ( सं. भ्रमरी ) षट्पदी, मधुकरी शिलीमुखः, पुष्पंधयः, चंचरीकः २. कामुकः । २. घोटकादिशरीरस्थं रोम, चक्र-मंडलं-वर्तुलं | भ्रमरी, सं. स्त्री. (सं.) षटपदी, मधुकरी, ३. वैवाहिक, परिक्रमः-प्रदक्षिणा ४, आवर्तः, शिलीमुखी २. जतुकालता, पुत्रदात्री ३. पार्वती ४. मृगीरोगः, भ्रामरम् । जलगुल्मः । भौंह, सं. स्त्री. [सं. भ्रः ( स्त्री.)] चिल्लिका, भ्रमी, वि. (सं.-मिन् ) भ्रांत, भ्रमविशिष्ट, मिथ्याज्ञानिन् २. चकित, विस्मित ३. शंकाभ्रूलता, नयनोर्ध्ववर्ति रोमराजी। शील, साशंक। -चढ़ाना या तानना, मु., कुप (दि. प. से.), भ्रष्ट, वि. (सं.) अधः-अव, पतित, अव-गलितक्रुध् (दि. प. अ.) २. भृ( 5 )कुटी बंधू | स्रस्त, च्युत २. विकृत,दूषित, सदोष ३.दुर्वृत्त, (क्र. प. अ.)-रच (चु.)। दुराचार-रिन् । भौगोलिक, वि. (सं.) भूगोल,-विषयक-सम्ब -करना, क्रि. स., भ्रंश-दुष्-आधृष् (प्रे.) धिन्। च्यु (प्रे.) २. सतीत्वं नश् (प्रे.) ३. मलिनी-- भौंचक, भौचक्का, वि. ( सं. भयचकित>) विस्मयापन्न, विस्मित, ससाध्वस, भयाभिभूत, | —होना, क्रि. अ., भ्रश् (दि. प. से.), भ्रंश स्तंभित। (भ्वा. आ. से.) २. दुष (दि. प. अ.), भौजाई, भौजी, सं. स्त्री. ( सं. भ्रातृजाया)। विकारं आपद् (दि. आ. अ.) ३. मलिनीदे. 'भाभी'(२)। कलुषी-भू ४. क्षीणवृत्त (वि.) भू। भौत, वि. ( सं.) भौतिक, भूतनिर्मित २, पैशा- | भ्रष्टा, सं. स्त्री. (सं.) कुलटा, पुंश्चली। चिक ३. भूताविष्ट । (सं. पुं.) भूतपूजकः | भ्रांत, वि. (सं.) भ्रांति-भ्रम,-विशिष्ट २. भूतयज्ञः। २. व्याकुल, विह्वल ३. उन्मत्त ४. पथभ्रष्ट भौतिक, वि. (सं.) भूतात्मक, भूतमय, आधि- | ५. आवर्तित, चक्रवत् चालित। कलुषी-कृ। For Private And Personal Use Only Page #484 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भ्रांति ... [४४६ ] मंडप भ्रांति, सं. स्त्री. (सं.) भ्रमः, मोहः, आभासः, | टि: (सब स्त्री.), 5 ,-विक्षेप:-भंग:-बंधः-संकोचः मिथ्याज्ञानं, मतिभ्रमः, माया २. संदेहः, संशयः । २. दे. 'भौंह' । ३. स्खलितं, प्रमादः, त्रुटिः (स्त्री.) ४. भ्रमणं भ्रू , सं. स्त्री. (सं.) दे. 'भौंह' । ५. मंडलाकारगतिः ( स्त्री.) ६. अलंकारभेदः । भ्राता, सं. पुं. (सं. भ्रातृ) सोदरः, दे. 'भाई' । -भंग, सं. पुं. (सं.) दे. 'भृकृष्टि' (१)। भ्रातभाव, सं. पं.(सं.) भ्रातृत्वं. दे. 'भाईचारा। भ्रूण, स. पु. (स.) गर्भः, गर्भस्थशिशुः । भ्रात्रीय, वि. (सं.) भ्रातृक, भ्रात्रेय।। -हत्या, सं. स्त्री. (सं.) गर्भ,-पातनं-स्रावणं, भृकुटि-टी, सं. स्त्री. (सं.) भ्रकुटी-टिः, भृकुटी- । गर्भस्थशिशुघातः । APP म, देवनागरीवर्णमालायाः पंचविंशो व्यंजनवर्णः, । मंगेतर, वि. ( हिं. मंगनी ) वाग्दत्त । मकारः। | मंच, मंचक, सं. पुं. (सं.) खट्वा २. पीठिका मंगता, सं. पुं. (हिं. मांगना ) दे. 'भिखारी'। ३. उच्चासनं, इन्द्रकोशः-पः-पकः, वेदिका, ५. रंगः, रंग, भूमिः( स्त्री.)-पीठं ६. मंचसं. स्त्री. (हिं. मांगना ) वाग्दानं, | मंगनी, मंडपः । विवाहप्रतिज्ञा । २. याच्या, याचन-ना। मंजन, सं. पुं. (सं. न.) दंतधावन-दंत्य,-चूर्ण मंगल, सं. पुं. (स. न.) कल्याणं, कुशलं,भद्रं,' २. (पेस्ट) *दंतपिष्टं, दंतोदपेषः। हितं, क्षेम, भव्यं, प्र-,शस्तं, अरिष्टं, शिवं, भद्रं | मॅजना, क्रि. अ., ब. 'माँजना' के कर्म. के रूप। ३. अभीष्टसिद्धिः (स्त्री.) ३. ग्रह विशेषः, कुजः, | मॅजवाना, कि. प्रे., ब. 'माँजना' के प्रे. रूप। भौमः, अंगारकः, महीसुतः, वक्रः, लोहितांगः, | मंजरी, सं. स्त्री. (सं.) मंजरिः वल्लरी-रिः ( सब आवनेयः ४. मंगलवारः। वि., (सं.) शुभ, | स्त्री.), मंजी-जिः ( स्त्री.) मंजरं, वल्लरं, वल्लि: शिव, भद्र, मंगल्य, शिवं-शुभ, कर, मांगलिक । (स्त्री.) २. पल्लवः, किसलयः३. लता ४. मुक्ता । -काम, वि. ( सं.) शुभ-हित-मंगल, चिन्तक- मंज़िल, सं. स्त्री. ( अं.) दे. 'पड़ाब' २. कोष्ठः, इच्छुक-कामिन् । भूमिः ( उ. दोमंजिला = द्विभूमिकं गृहं ) -कामना, सं. स्त्री. (सं.) हितचिन्तनम्, ३. गंतव्य-निर्दिष्ट, स्थानम् । शुभ,-इच्छा-कामना। मंजीर,रा, सं. पुं. (सं. पुं. न.) नूपुर:-रं -कारक, वि. (सं.) कल्याण-मंगल, कारिन् । २. झल्लरीभेदः । प्रद, दे. 'मंगल' वि.। मंजु, । वि. (सं.) सुंदर, मनोहर, मनोश, -क्षौम, सं. पुं. (सं. न.) उत्सवोचित मंजुल, मनोरम, चारु, रम्य, रुचिर, रुच्य, कौशेयवस्त्रम् । हृद्य। -गान, सं. पुं. (न.) मांगल्य-शुभ, गीत | मंज़ र, वि. ( अ.) दे. 'स्वीकृत' । गीतिः (स्त्री.)-गानम् । -वार, सं. पुं. (सं.) मंगल-भौम, वासरः। | मंज़ री, सं. स्त्री. (अ. मंज़ र) स्वीकृतिः (स्त्री.)। -सूत्र, सं. पुं. (न.) हरिद्रारंजितवैवाहिक- मंजूषा, सं. स्त्री. ( सं.) पिटकः, दे. 'पिटारी'। सूत्रम् । मँझला, वि. पु., दे. 'मझला' । मंगलाचरण, सं. पुं. (सं. न.) ग्रंथाद्यारम्भे मॅझा, सं. पुं. 'माँझा'। कल्याणप्रार्थना। मँझार, क्रि. वि., दे. 'मझदार'। मंगलाचार, सं. पुं. (सं.) मांगलिक, संस्कारः- | मंड, सं. पुं. (सं.) दे. 'मॉड' । कृत्यं २. आशीर्वादः ३. स्तवः। मंडन, सं. पुं. (सं. न.) अलंकरणं, परिष्करणं, मंगलामुखी, सं. स्त्री. (सं.) दे. 'वेश्या'। भूषणं, प्रसाधनं २. दृढी-पुष्पी, करणं, समर्थनं, मंगली, वि. ( सं. मंगलः) अमांगलिक, कन्या- सत्यापन, प्रामाण्यसाधनम् । वरः (फलित ज्योतिष )। मंडप, सं. पुं. (सं. पु. न.) वितानः-नं, मैंगवाना, क्रि. प्रे., ब. 'माँगना' के पं. रूप। । उल्लोचः, चंद्र, उदय:-आतमः २. जनाश्रयः, For Private And Personal Use Only Page #485 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir मैंडराना [४४७ ] मंदो TIMAma r was ४. गुडूची। विश्रामगृहं ३. ( संस्कारादिभ्यः) शाला, । मंत्रित्व, सं. पुं. (सं. न.) साचिन्यं, मंत्रिता, आच्छादनं २. देवालयोर्वभागः । अमात्यत्वं, मंत्रि-सचिव,-कार्य-पदम् । मँडराना, क्रि. अ., दे. 'मँडलाना' ।। मंत्री, सं. पुं. ( सं. मंत्रिन् ) अमात्यः, सचिवः, मंडल, सं. पुं. (सं. न.) वृत्तं, वर्तुलं, चक्र, | थी,-सचिवः-सखः, सामवायिकः, राज, वलयः-यं २. गोल:-लं ३. परिवेश:-,पः-परिधिः, | अमात्यः-सचिवः। उपसूर्य कं ४. क्षितिजं, दिक् , चक्रं-तट, दिगंतः । प्रधान-, सं. पुं. (सं.-त्रिन ) मुख्य-महा, ५. द्वादशराजकं ६. समाजः, समुदायः | मंत्रिन, प्रधानामात्यः, महामात्रः। ७. व्यूहभेदः ८. चक्रं, दे. 'पहिया' ९. ऋग्वेद- मंथन, सं. पु. (सं. न.) मथनं, विलोडनं, परिच्छेदः १०. गोलचिह्न ११.ग्रह, कक्षा-मार्गः २. अनुसंधानं, अवगाहनं, निरूपणं १२. भूप्रदेशः । ३. दे. 'मथनी'। मंडलाकार, वि. (सं.) गोल, वर्तुल, चक्राकार, मंथर, वि. (सं.) मंद, अलस २. जड, मंदमति वृत्त। ३. स्थूल, भारवत् ४. अधम । सं. पुं. (सं.) मॅडलाना, क्रि. अ. ( सं. मंडलं>) चक्राकारं दे. 'मंथनी' २. ज्वरभेदः । उद्-डी (भ्वा. दि. आ. से.) अथवा खे चर् | मंद, वि. (सं.) अलस, तंद्रालु, कार्यविमुख, (भ्वा. प. से.) २. परि, भ्रम् अट क्रम् ( भ्वा. उद्योगशून्य २. मंथर ३. शिथिल ४. मूर्ख प. से.)। सं. पुं., चक्रवत् उड्डयनं; परि, ५. दुष्ट । क्रमणं-भ्रमणम् । -बुद्धि,-मति, वि. (सं.) मूढ, मूर्ख, जड मंडली,'सं. स्त्री. (सं.) समाजः, सभा, समि. बालिश। तिः ( स्त्री.), गोष्ठी २. संघः, समुदायः ३. दूर्वा | -भाग्य, वि. (सं.) हतभाग्य, दुर्दैव । सं.पुं. (सं. न.) दुर दैवं-भाग्यम् । मंडली,२ सं. पुं. (सं.-लिन् ) सर्पः २. सर्पभेदः -मंद, क्रि. वि. (सं.दं.) शनैः-शनकैः (अव्य.) ३. सूर्यः ४. विडाल: ५. मंडलाधिपः ६. वटः, मंदगत्या, सौम्यतया, गाम्भीर्येण। . न्यग्रोधः। मंदता, सं. स्त्री. (सं.) आलस्यं २. मंथरता मँडवा, सं. पु. ( सं. मंडपः, दे.)। ३.क्षीणता। मंडा, सं. स्त्री. (सं.) सुरा, मद्यं २.दे. 'आँवला'। मंदर, सं. पुं.. (सं.) मंथशैलः, पर्वतविशेषः मंडित, वि. (सं.) भूपित, अलंकृत, परिष्कृत ।। २. स्वर्गः ३. मुकुरः । वि., मंद, मंथर । मंडी, सं. स्त्री. (सं. मंडपः>) महाहट्टः, मँदरा, वि., दे. 'बौना' । पण्याजिरं, बृहद्-आपणः-विपणी।। मंदा, वि. (सं. मंद ) मंथर, बहल २. शिथिल मंडूक, सं. पुं. (सं.) दे. 'मेढक' ।। ३. अल्प, अर्ध-मूल्य, सुलभ ४. निकृष्ट, हीन मंडूर, सं पुं. (सं. पुं. न.) लौहमलं, ५. विकृत, भ्रष्ट । शिघाणं, सिंहानं-णम् । | मंदाकिनी, सं. स्त्री. (सं.) स्वर्ग-वियद्, गंगा, मंतव्य, सं. पुं. (सं.) विचारः, मतम् । वि., स्वर्णदी, सुरदीर्घिका। स्वीकार्य, विश्वसनीय, अभ्युपगंतव्य २. मन- मंदाक्रान्ता, सं. स्त्री. (सं.) वर्ण वृत्तभेदः । नीय, भाव्य। मंदाग्नि, सं. स्त्री. ( सं. पुं.) अजीर्ण, अपचनं मंत्र, सं. पुं. (सं.) वेदवाक्यं २. वेदानां | अपाकः, अग्निमांद्यम् । संहिताभागः ३. मंत्रणा, परामर्शः, विचारणा | मंदार, सं. . ( सं.) स्वर्गवृक्षविशेषः २. अर्क४.गोप्य, रहस्य, गुह्यं ५. अभिचारमंत्रः(तंत्र)।। वृक्षः ३. मंदरपर्वतः ४. गजः ५. स्वर्गः ६. दे. यंत्र-,सं. पुं., दे. 'जादू टोना' । 'धत्तरा' -कार, सं. पुं. (सं.) मंत्र, रचयित-कर्तृ-द्रष्ट्र। मंदिर, सं. पुं. (सं. न.), देवतायतनं, देव,-गृह-गृह, सं. पुं. (सं. न.) मंत्रणाभवनम् । । भवन-निकेतनं-आलयः २. गृहं, गेहं, सझन्-विद्या, सं. स्त्री., तंत्र, तंत्रविद्या। वेश्मन् (न.) ३. आ-नि, वासः, वासस्थानम् । मंत्रणा, सं. स्त्री. (सं.) परामर्शः, विचारणा, | मंदी, सं. स्त्री. (सं. मंद>) अल्पार्धता, पथसुसंमतिः (स्त्री.)२. उपदेशः, अनुशासनम् । लभता, मूल्यापकर्षः । For Private And Personal Use Only Page #486 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir मंद्र [४ ] मंद्र, सं. पु. (सं.) गंभीरध्वनिः (पुं.) (संगीत) | मकर२, सं. पुं. (फा.) कपट, छलम् । २. मृदंगकः। वि., मनोहर २. प्रसन्न ३. गंभीर मकरूज़, वि. ( अ.) दे. 'ऋणी' । ४. मंद. गंभीर (शब्दादि)। मकरूह, वि. (फा.) कलुष, मलीमस २. घृणो-- मंशा, सं. स्त्री. (अ.) दे. 'मंसा' । त्पादक। मंसव, सं. पुं. (अ.) पदं, पदवी, स्थानं मकसद, सं. पुं. (अ.) मनःकामना २, २. कर्तव्यं ३. अधिकारः। अभिप्रायः। मंसा, सं. स्त्री. ( अ. मंशा ) इच्छा, कामना मकान, सं. पुं. (फा.) अ(आ)गार:-रं, भवनं-- २. संकल्पः ३. आशयः। वेश्मन्-समन् (न.), सदनं, दे. 'घर' । मंसूख, वि. (अ.) विलुप्त, अपसृष्ट, निरस्त, -किराये पर देना या लेना, क्रि. स., निवर्तित, गडित। सदनं भाटकेन दा अथवा आ-दा (जु.आ.अ.)। मंसूखी, सं. स्रो. (अ. मंसूख) विलोपः, मालिक-, सं. पुं., गृ, सदन-स्वामिन्-पतिः । निरासः, निवर्तनं, खंडनम् । मकोडा, सं. पुं. (हिं. कीड़ा का अनु०) मंसूबा, सं. पुं. (फ़ा.) संकल्पः, विचारः क्षुद्रकोटः। २. युक्तिः (स्त्री.), उपायः।। -बाँधना, मु., निश्चि (स्वा. उ. अ.), मकोय, सं. स्त्री. (सं. काकमाता से विप०) संक्लप् (प्रे.) २. उपायं चिंत् (चु.)। काकमाची-चिका, कुष्ठन्नी, वायसी, रसायनी, मई, सं. स्त्री. (अं. मे ) आंग्लवर्षस्य पंचमो बहुतिक्ता, काका, काकिनी २. काकमाची-- फलं इ.३.दे. 'रसभरी'। मासः, वैशाखज्येष्ठम् । मकई, सं. स्त्री. ( सं. मकायः ) कटिजः । मक्का, सं. पुं., दे. मकई। मकड़ा, सं. पुं. ( सं. मर्कटकः>) बृहल्लूता । मक्कार, वि. (अ.) कपटिन्, छलिन् । मकड़ी, सं. स्त्री. (हिं. मकड़ा) लूता, तंतु, मकारी, सं. स्त्री. (अ.) कपट, छलम् । वापः-नाभः, ऊर्णनाभः, मर्कट:-टकः, जालिकः, मक्खन, सं. पुं. (सं. भ्रक्षणं> ) नवनीतं, कोषकारः, अष्टापदः। मन्थज, नवोद्धृतं, तक-जं-सारं, दधि,-ज-स्नेहः, का जाला, सं. पुं., मर्कटकजालम् । पीथं, हैयंगवीनम् । मकतब, सं. पुं. (अ.) पाठशाला ! | मक्खी , सं. स्त्री. (सं. मक्षीका) मक्षिका,. मकतबा, सं. पुं. (अ.) पुस्तकालयः २. | माचिका, गंधलोलुपा, भंभः, पतंगिका, ग्रंथविपणिः (स्त्री.)। वमनीया, पलंकषा, नीला, वणा २, मधुमकदूर, सं. पुं. (अ.) सामर्थ्य, शक्तिः | मक्षिका ३. *अग्न्यस्त्रमक्षिका। (स्त्री.)। |-चूस, सं. पुं. (सं. कृपणः, मितंपचः, कदर्यः) मकनातीस, सं. पुं. (अ.) दे. 'चुंबक'। जीती मक्खी निगलना मु., जाननपि मकबरा, सं. पुं. (अ.) समाधिः (पुं.), पापं कृ। *मृतकमंदिरम्। | नाक पर मक्खी न बैठने देना, मु., उपकार मकब्ज़ा , वि. (अ.) अधिकृत, हस्तगत। । न सह (भ्वा. आ. से.)। मकबल, वि. ( अ.) स्वीकृत, मत २. प्रय। | मक्खी छोड़ना और हाथी निगलना, मु., पापमकाद. सं. पु. (सं.) मरंदः, मरंदकः, पुष्प, कानि परित्यज्य महापापेषु प्रवृत् (भ्वा. रसः-सारः स्वेदः-निर्यासः-निर्यासकः, मधु (न.), आ. से.)। पुष्पज २. किंजल:, किंजल्कः ३. कुंदक्षुपः। मक्खी पर मक्खी मारना, मु., मक्षिका स्थाने मकर, सं. पुं. (सं.) नक्रः, ग्राहः, कुंभीरः, मक्षिका, निविवेकप्रतिलिपिः ( स्त्री ।। अवहारः, जलकुंजरः २. दशमराशिः, आको ! मक्खी मारना या उड़ाना, म.. उद्योगही केरः ३. माघमास: ४. व्यूहभेदः ५. दे. (वि.) स्था (भ्वा. प. अ.)। 'मछली'। मक्षिका, सं. स्त्री. (सं.), दे. 'मक्खी '। -ध्वज, सं. पुं. (सं.) मकर, केतुः केतनः, -मल, सं. पुं., दे. 'मोम' । कामदेवः। | मख, सं. पुं. (सं.) यशः, क्रतुः । For Private And Personal Use Only Page #487 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir मखतूल [४४६ ] - मनतूल, सं. पुं. (सं. महातूलं>) कृष्ण, । मघवा, सं. पुं. (सं.-वन् ) इन्द्रः, आखण्डलः । कौशेयं-कीटसूत्रम् । | मघा, सं. स्त्री. (सं.) नक्षत्रविशेषः, मघाः मखमल, सं. स्त्री. (अ.) *मखमलं, श्लक्ष्ण- स्त्री. बहु. भी.) २.औषधभेदः दे. 'पिप्पली'। वस्त्रभेदः। मचक, सं. स्त्री. ( हिं. मचकना ) भारः, पीडनं मखमली, वि. (अ. मखमल ) मखमल, २. अस्थिसंधिपीडा ३. कंपनम् । मय-निर्मित २. श्लक्ष्ण, स्निग्ध । मचकना, क्रि. अ. (अनु. मच मच>) मखौल, सं. पुं., ( दे. 'ठट्ठा' )। अस्थिसंधिः व्यथ ( भ्वा. आ. से.)-पीड् मग, सं. पुं., दे. 'मार्ग'। ( कर्म.) २. भारेण समचमचध्वनि कंप मग़ज़, सं. पुं. (अ. मन्ज) मस्तिष्क, मस्तुलुंगकः (भ्वा. आ. से.), निमिष् (तु. प. से.), २. बुद्धिः-मतिः ( स्त्री.)३.दे. 'गिरी। निमील (भ्वा. प. से.)। -चट, सं. पुं. (अ.+हिं.) वाचालः, वाचाटः।। मचकाना, क्रि. स. (हिं. मचकना) ब. -चट्टी, सं. स्त्री., वाचालता, प्रजल्पः । _ 'मचकना' के प्रे. रूप। -पच्ची, सं. स्त्री. (अ.+हिं.) बौद्धिकश्रमः। मचकोड़, सं. स्त्री. (हिं. मचकना) सन्धि,-खाना या चाटना, मु. वावदृकतया | व्यावर्तनं व्याक्षेपः । खद् (प्रे.)। मचना, क्रि. अ. (अनु. मच )क-आरभ् -खाली करना या पचाना, मु., प्र-,जल्प (कमें.), प्रवृत् (भ्वा. आ. से.)। (भ्वा. प. से.) २. मस्तिष्कं खिद्- | मचलना, क्रि. अ. ( अनु.) निबधेन वद् आयस (प्रे.)। (भ्वा. प. से.), साग्रह (वि.) अवस्था मगजी, सं. स्त्री, (अ. मग्ज़) चीरी-रिः (भ्वा. आ. अ.)। .(स्त्री.), दशा। मचला, वि. (हिं. मचलना) कपटमूढ, मगध, सं. पुं. (सं.) कीकटदेशः, बिहार अज्ञलक्षण, व्याजजड । प्रांतस्य दक्षिणभागः २. चारणः, वंदिन् । मचलाना, क्रि. अ. ( अनु.) वम् ( सन्नंत, मगन, वि.,दे. 'मग्न'। | विवमिषति ), वमनेच्छया पीड् ( कमे.) मगर, अव्य. (फ्रा.) किंतु, परं, परंतु ।। ३. दे. 'मचलना'। मगर, सं. पुं. (सं. मकरः) मचलापन, सं. पुं. (हिं. मचलना) कपटमगरमच्छ, दे, ‘मकर' (१) २. महा,- मूढता, व्याजजडत्वम् । मत्स्यः-मीनः। मचलाहट, सं. स्त्री. (हिं. मचलना) मग़रिब, सं. पुं. (अ.) दे. 'पश्चिम'। निधः, आग्रहः २. विवमिषा, वमनवांछा। -जदा, वि., पाश्चात्यसभ्यतया प्रभावित, मचान, सं. पुं. (सं. मंचः ) मंचकः उच्चासनं, पश्चिम,-आकृष्ट-प्रेरित-प्रवर्तित । वेदिका, इंद्रकोषः। मग़रिबी, वि. ( अ.) दे. 'पश्चिमी'। मचाना, क्रि. स. (हिं. मचना) ब. 'मचना' -तहजीब, सी.,पाश्चात्यसभ्यता। के.प्रे. रूप। मग़रूर, वि. (अ.) दे. 'अभिमानी'। मचिया, सं. स्त्री. (सं. मंचः>) मंचिका, मग़रूरी, सं. स्त्री. (अ. मग़रूर) दे. पीठी, पीठक, क्षुद्रासनम् । 'अभिमान'। मच्छ-छ, सं. पुं. (सं. मत्स्यः >) महा-वृहत,मग्न, वि. (सं.) जलांतःप्रविष्ट, निमज्जनेन-, मीन-मत्स्यः -झषः। मृत-नष्ट २. लीन, निरत, आसक्त, पर,- -अवतार, सं. पुं., दे. 'मत्स्यावतार' । परायण ४. मत्त, क्षीव, मदोदन ४. प्रसन्न, | मच्छड़-र, सं. पु. ( सं. मशकः) वज्रतुण्डः, प्रहृष्ट। मशः, सूच्यास्यः, सूक्ष्ममक्षिकः,रात्रिजागरदः । -होना, कि, अ., प्र.,हृषु (दि. प. से.) -दानी, सं. स्त्री., मश(शक)हरी, चतुष्की, २. निरत-लीन-आसक्त (वि.) भू। । मसूरिका, नीशारः। २६ For Private And Personal Use Only Page #488 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir मच्छर पर तोप लगाना [ ४५० ] मच्छर पर तोप लगाना, मु., तुच्छशत्रौ नवोस, सं. पं., निबन्ध, कारः लेखकः । मज़मूम, वि. (अ.) निन्दित, दुष्ट २ हीन - वर्ण-कुल । बहुद्योग: । मच्छी, सं. स्त्री. (हिं. मच्छ ) दे. 'मछली' | मछंदर, सं. पुं. (सं. मत्स्येन्द्र या बंदर से अनु.) कपिः, वानरः २. आखुः, मूषिकः ३. जडः, मूढः ४. मिथ्यावैद्यः ५. विदूषकः, वैहासिकः ६. भिक्षुकः । मछरायँध, सं. स्त्री. (हिं. मछली + सं. गंध: ) मत्स्यगंध:, मीनपूति: (स्त्री.) । मछली, सं. स्त्री. (सं. मत्स्यः ) मीन:, झषः, अंडजः, विसारः, पृथुरोमन् (पुं.), शकुलिन्, वैसारिणः, आत्माशिन्, तिमिः, जलपिप्पकः । वि., शंबर:, संघचारिन्, स्थिरजिह्वः, बकुलक्षयः २. मत्स्याकारो भूषणभेदः । वाला, सं. पुं., दे. 'मछुआ' । —की तरह तड़पना, मु., जलहीनमीनवद् व्याकुलीभू । मछवा, सं. पुं. (हिं. मच्छी) मत्स्यभारिनौका २. दे. 'मछुआ' । मछुआ-वा, सं. पुं. (हिं. मच्छी ) मत्स्य,आजीवः - उपजीविन, मात्स्यिकः, धीवरः, कैवर्तः । मज़दूर, सं. पु. ( फा . ) भार, हर:-हार: वाहक:वाहः, भारिकः, बोढ, वाहः, बाहकः २. कार्मः, कर्मिन, श्रमजीविन, कर्म,-करः-कारः । मज़दूरी, सं. स्त्री. (फ़ा.) भारवहनं, श्रमः, व्रातं २. कर्मण्या, भृतिः (स्त्री.), भृत्या, भर्मण्या, मर्म, पारिश्रमिकम् । मजनूँ, सं. पुं. ( अ. ) उन्मत्तः, उन्मादिन्, वातुल: २. लयला-वल्लभः, कैस: ३. प्रणयिन्, प्रेमन, कामुकः कामिन् ४. कृशांगः, क्षीणदेहः । मज़बूत, विं. (अ.) दृढ, २. स्थिर ३. बलवत् । मज़बूती, सं. स्त्री. ( अ. मजबूत ) दृढता २. स्थिरता ३. बलवत्ता ४. साहसम् । मजबूर, वि. (अ.) दे. 'विवश' । मजबूरनू, क्रि. वि. (अ.) बलेन, बलात्, हठात् प्रसह्य, प्रसभम् । मजबूरी, सं. स्त्री. ( अ. मजबूर ) विवशता, अगतिकता, अपरिहार्यता । मजमा, सं. पुं. (अ.) जन, संमर्द : समुदाय: । मजमूआ, सं. पुं. ( अ ) समुदायः संग्रहः, समूहः । मज़मून, सं. पुं. (अ.) प्रस्तावः, निबंध, लेखः २. व्याख्यान लेख, विषयः । मझधार मज़म्मत, सं. स्त्री. (अ.) निन्दा, कुत्सा २. भर्त्सना । मजरूह, वि. (अ.) आहत, दे. 'घायल' । मजलिस, सं. स्त्री. (अ.) सभा, समाज:, गोष्ठी । मीर - सं. पुं. ( फ्रा + अ ) सभा, पति:अध्यक्षः, प्रधानः । मजलिसी, वि. ( अ ) सामाजिक | मज़हब, सं. पुं. (अ.) धर्म:, संप्रदायः, मतम् । मज़हबी, वि. (अ.) धार्मिक, सांप्रदायिक । सं. पुं., खलपूः, शिष्यः, शिष्य (सिक्ख ), जाति- विशेषः । मज़ा, सं. पुं. ( फा ) आस्वादः, रसः २. आनंदः, सुखं ३. विनोदः, हास्यम् । - उढ़ाना या लूटना, मु., मुद् (भ्वा. आ. से.), रम् (भ्वा. आ. अ.), नंदू (भ्वा. प. से.) । - दिखाना या चखाना, मु., दंडू ( चु., कर्म ) २. प्रतिहिंस् ( रु. प. से. ), प्रत्यपकृ । मजे से, मु., सानंद, ससुखं निर्विघ्नन् । मज़ाक, सं. पुं. (अ.) दे. 'ठठ्ठा' । मज़ार, सं. पुं. (अ.) समाधिः २. दे. 'कब' । मजाल, सं. स्त्री. (अ.) सामर्थ्य, शक्तिः (स्त्री.)। म (मे) जिस्ट्रेट, सं. पुं. (अं.) दंड, नायक:अध्यक्ष:- अधिकारिन् । म ( मे ) जिस्ट्रेटी, सं. स्त्री. ( अं. मेजिस्ट्रेट ) दंडनायक- दण्डाध्यक्ष, पदं कार्ये २. दडनायक सभा । मजीठ, सं. स्त्री. (सं. मंजिष्ठा ) रक्ता, रोहिणी, रक्तयष्टिका, रागाढ्या, अरुणा, रागांगी, वस्त्रभूपणा, विकसा, जिगी । मजीठी, वि. (हिं. मजीठ) रक्त, लं. हित, अरुण । मजीरा, सं. पुं., (सं. मीर: ) नूपुर:, पादाङ्गदं (न.) २ - विष्कम्भः कुटरः । मजेदार, वि. ( का . ) स्वादु, रुच्य, रुचिकर २. उत्कृष्ट, उत्तम ३. आनंद, दायक प्रद । मजन, सं. पुं. (सं. न. ) स्नानं, दे. 'नहाना ' सं. पुं. मज्जा, सं. स्त्री. (सं.) शुक्रकरः, कौशिकः, अस्थि, स्नेहः सार:-संभवः, अस्थिजम् । मझधार, सं. स्त्री. ( सं. मध्यधारा ) नद्याः For Private And Personal Use Only Page #489 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir मझ(झो)ला [४५१] मति - - मध्य-केन्द्रीय-मध्यस्थ-मध्यम,-धारा-प्रवाहः- | मढ़वाना, क्रि.प्रे., ब, 'मढ़ना' के प्रे. रूप। मंदाकः स्रोतस (न.) २. कार्य, मध्यः-मध्यम् । | मढ़ा हुआ, दि.,आवेष्टित, चर्मादिभिराच्छादित, मझ(झो)ला, वि. ( सं. मध्य ) मध्यम, मध्य, बलादारोपित । वर्तिन-स्थ २. मध्यमाकार, मध्यमपरिमाण। | मढ़ी, सं. स्त्री. ( सं. मठः>) क्षुद्रमठ:-ठं, लघुमटक, मटकन, सं. स्त्री. (हिं. मटकना) हावः,। मंदिरं २. कुटी, पर्णशाला ३.४. क्षुद्र, सदनंविभ्रमः, विलासः २. गतिः (स्त्री.) संचारः।। मंडपः। मटकना, क्रि. अ. [ सं. मट (सौत्रधातु) = | मणि, सं. स्त्री. (सं. पुं. स्त्री. ) रत्नं २. नर, अवसाद] पिलस् (भ्वा. प. से.), पुंगवः कुंजरः-ऋषभः । सविलासं. चल ( भ्वा. प. से.) विभ्रम् (भ्वा. | –कांचन योग, सं. पु. (सं.) उभयशोमादि. प. से.)। वर्द्धकसंयोगः। मटका,सं.पु. (हिं. मिट्टा) मणिकः-कं, अलिंजरः।। -दीप, सं. पुं. (सं.) दीपोज्ज्वलमणिः, रत्नमटकाना, क्रि. स. (हिं. मटकना) सविलासं | दीपः२.मणिरत्नजटितटीपः। अंगानि चल (प्रे.), विभ्रम् (प्रे.)। -धर, सं. पुं. (सं.) सर्पः, अहिः । मटकी, सं. स्त्री. (हिं. मटका) क्षुद्र, मणिकः- -बंध, सं. पुं. (सं.) मणिः, पाणिमूलं, अलिंजरः। कलाचिका । मटमेला, वि. (हिं. मिट्टी+मैला ) दे. -माला, सं. स्त्री. (सं.) रत्नहारः २. रमा, 'मटियाला'। पद्मा, कमला, इन्दिरा ३. वर्णवृत्तभेदः । मटर, स. पू. ( सं. मधुर ) कलायः, काल- मतंग, सं. पुं. (सं.) गजः २. मेघः ३. ऋषिपूर।:, मुण्डचणकः, रेणुकः, वातुलः, सतीन- विशेषः। (ल)कः, हरेणुः, खंडिकः । मत', सं. पु. (सं. न.) धर्मः, संप्रदायः मटरगश्त, सं. पुं. स्त्री. (सं. मंथर+ता. २. मतिः (स्त्री.), तर्कः ३. आशयः, अभिप्रायः। गश्त ) सुखाटनं, विहारः, विहरणं, यथेष्टभ्रमणं, | वि., पूजित । सुखसंचरणम् । मत२, क्रि. वि. (सं. मा) न, नो, मा, अलं मटियामसान । । (तृतीया के साथ)। | मतलब, सं. पुं. (अ.) आशयः, अभिप्रायः, मटियाला, वि. (हिं. मट्टो+वाला ) धूलि-रेणु- | तात्पर्य २. शब्द-वाक्य,-अर्थः ३. स्वार्थः पांशु, वर्ण-रंग। ४. उद्देशः, उद्देश्यं ५. संबंधः, संपर्कः। मट्टी, सं. स्त्री., दे. 'मिट्टी' । -निकालना, मु., स्वार्थ साध्-सिध् (प्रे.)। मट्ठा, सं. पुं. (सं. मथितं ) असरोदक-घोलं, | बे-क्रि. वि., व्यर्थ,मोघं,निष्प्रयोजनं,निरर्थकम् । जलनवनीत-शून्यं घोलम् । मतलबी, वि. (अ. मतलब) स्वार्थिन, मट्ठी, सं. स्त्री. ( सं. मठः) पक्वान्नभेदः। । | निजहित-स्वार्थ,-पर-परायण-निरत । मठ, सं. पुं. (सं. पुं. न.) आ-नि, वासः, मतलाना, क्रि. अ., दे. 'मचलाना' (१)। २. आश्रमः, विहारः, मुनिवासः ३. धार्मिक- | मतली, सं. स्त्री., दे. 'मचलाहट' (२)। विद्यालयः ४. मंदिरं, देवालयः। मतवाला, वि. (सं. मत्त) मदोद्धत, मदोदय, -धारी, सं. पुं. (सं.रिन्) मठपतिः, मठिन् । क्षीब २. उन्मत्त ३. अभिमानिन् । मढ़ना, क्रि. स. (सं. मंडनं>) कोशे निविश् मताधिकार, सं.पुं. (सं.) मतप्रकाशनाधिकारः। (प्रे.), आवेष्ट (भ्वा. आ. से.) २. चर्मादिभि- मतावलंबी, सं. पुं. ( सं.-बिन् ) धर्म-मत, अनु द्यमुखं आच्छद् (प्रे.) ३. बलात् आरुह गामिन्-अनुयायिन्-अनुवर्तिन्-अनुसारिन् । (प्रे.), दे. 'थोपना' । सं. पुं., आवेष्टनं, आच्छा - मति, सं. स्त्री. ( सं.) धीः (स्त्री.), धि(धी)षणा, दनं, आरोपणम् । प्रज्ञा, बुद्धिः (स्त्री.) २. मत्तं, तर्कः, अभिप्रायः मढ़ने योग्य, वि., आवेष्टनीय, आच्छादनीय।। ३. इच्छा ४. स्मृतिः ( स्त्री.)। मढ़नेवाला, सं. पुं., आवेष्टकः, आच्छादकः।। -मान् , वि. (सं.-मत् ) प्राज्ञ, चतुर । मंटियामेट वि. दे. 'मलियामेट'। For Private And Personal Use Only Page #490 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir मतीरा - हीन, वि. ( सं . ) जड, मूढ, मूर्ख । मतीरा, सं. पुं., दे. 'तरबूज' । मत्कुण, सं. पुं. (सं.) रक्तपायिन्, रक्तांग, मंचकाश्रयः, उद्देशः । मत्त, वि. (सं.) शौंड, उत्कट, क्षीब, उन्मद, मदाढ्य, समद, मदिरोत्कट, मद, मत्त उन्मत्तउद्धत उदग्र २. निर्विवेक ३. वातुल, उन्मत्त ४. प्रसन्न । -गयंद, सं. पुं. ( सं . सवैयाछन्दोभेदः । ( ७ अक्षर ) । [ ४२ ] मत्तगजेन्द्रः > ) भगण +२ गुरु मत्था, सं. पुं., दे. 'मस्तक' (२) । मत्सर, सं. पुं. (सं.) मात्सर्य्यं, परोत्कर्षद्वेषः, असूया, ईर्ष्या २. क्रोधः । मत्स्य, सं. पुं. (सं.) दे. 'मछली' २. मीनराशिः ३. विराटदेश: ( दीनाजपुर - रंगपुर, अथवा प्राचीन पांचाल के अंतर्गत ) ४. महापुराणविशेषः ५. विष्णोरवतारविशेषः, मत्स्या | वतारः । मथन, सं. पुं. (सं. न. ) दे. मंथन १-२ । मथना, क्रि. स. ( सं. मथनं. ) दे. 'बिलोना' २. ध्वंस्-नश् ( प्रे. ) ३.अन्विधू ( दि. प. से. ) ४. असकृत् अनेकवारं कृ । सं.पुं., दे. 'मधानी' २. मंथनं, मंथः । मथनी -नियां, सं. स्त्री. ( सं . मंथनी ) मंधनघटी, गगरी, मंथिनी २. दे. 'मधानी' । मथानी, सं. स्त्री. ( सं . मंधान: ) मंथ-मंथन,दंड:, मंथः, मंथन:, खजः, वैशाखः, मथिः, मथिन् (पुं. ), तक्राटः । सं. स्त्री. (सं.) मधुपुरं- री | मथुरा, मद, सं. पुं. (सं.) मादः, शौंडता, क्षीबता २. वातुलता, उन्मादः, मतिभ्रंशः ३ दर्पः, अभिमानः ४. सुरा, मद्यं ५. हर्षः, मोदः ६. कस्तूरी-रिका, मृग,-मद:- नाभि: ७. गजगंडजलं, मद, जलं-वारि (न.), दानं ८. शुक्रं, वीर्ये ९. अज्ञानं, प्रमादः १०. मदनः, काम: । - माता', वि., दे.' 'मत्त' (१) २. कामार्त्त, अनंगपीडित । मदक, सं. स्त्री. (सं. मदः > ) मदकं, मादकद्रव्यभेदः । मधु मदद, सं. स्त्री. ( अ ) दे. 'सहायता' | -गार, वि. ( अ. + फ़ा. ) दे. 'सहायक' | मदन, सं. पुं. (सं.) मन्मथः, कंदर्प, अनंग: दे. 'कामदेव' २. कामक्रीडा, मैथुनं ३. पिचुकः, मुचकुंद:, कंटकिन ४ धुस्तूर: ५ भ्रमरः ६. खंजनः ७. दे. 'मैना' । -- कदन, सं. पुं. ( सं . ) शिवः, मदनहननः । - गोपाल, सं. पुं. (सं.) मदनमोहनः, कृष्णः । - बाण, सं. पुं. ( सं . ) कामशर:, पुष्पभेद: । - सदन, सं. पुं. (सं. न. ) मदन, गृहं भवनं, भगम् । - महोत्सव, सं. पुं. ( सं . ) मदनोत्सव:, सुवसंतकः, मदनपूजासंगीतरात्रिजागरणादियुक्तः चैत्रे भवः प्राचीनोत्सवभेदः । मदनोद्यान, सं. पुं. ( सं. न. ) प्रमोदवनम् । मदर, सं. स्त्री. (अं.) मातृ (स्त्री.), जननी । मदरसा, सं. पुं. (अ.) विद्यालयः, पाठशाला : मदांध, वि. (सं.) दे. 'नत्त' (१) । मंदार, सं. पुं. ( सं . मंदार: ) दे. 'आक' | मदारी, सं. पुं. ( अ. मदार ) दे. 'कलंदर " २. सौभिकः, दे. 'जादूगर' । मदिराक्ष, वि. ( सं .) मत्तलोचन (नी स्त्री.) । मदीय, वि. (सं.) मामकीन, मामक ( -मिका स्त्री. ), मत् । मदीला, वि. ( सं . मदः > ) दे. 'शीला' । मदोन्मत्त, वि. (सं.) मद, उत्कट उदग्र-उद्धत - मद्धि (ड) म, वि., दे. 'मध्यम' । मद्य, सं. पुं. ( सं. न. ) दे. 'मदिरा' । -प, त्रि. ( सं . ) सुराप, दे. 'शराबी' । पान, सं. पुं. ( सं. न. ) सुरापानं णम् । -भाजन, सं. पुं. (सं. न.) सुरा, पात्रं-भांडम् | मदर, सं. स्त्री. (अ.) लिखितपदं २ गणनापदं मधु, सं. पुं. (सं. न. ) क्षौद्रं, माक्षि(क्षी)व', ३. प्रकरणन् । कुसुम-पुष्प, आसवः, पित्र्यं पवित्रं माध्वीकं, सारघं, पुष्परस, उद्भवं आह्नायं, मक्षिका वरटीभृङ्ग, वांतं २. मंदिरा ३. दुग्धं ४. जल मदिरा, सं. स्रो. (सं.) सुरा, हाला, मद्यं, वारुणी, कादंबरी, हलिप्रिया, गंधोत्तमा, इरा, प्रसन्ना, परिश्रुता, कश्यं, गंधमादनी, माधवी,. मदः, मत्ता, मदगंधा, मधु, माध्वीकं, अब्धिजा, देवसृष्टा, मदना, शुंडा, मैरेयं, सीधुः, महानंदा, मदनी, मोदिनी, मनोज्ञा, अमृता, आसवः प्रिया, चपला, मत्ता, कामिनी । For Private And Personal Use Only Page #491 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [ ४५३ ] मधुर ५. मकरंद्र:, पुष्परसः ६. अमृतं ७. वसंतत्र्त्तुः ८. चैत्रमासः९. दैत्यविशेष: । वि., मधुर, स्वादु | - कंठ, सं. पं. (सं.) कोकिलः, पिकः । -कर, सं. पं. ( सं . ) भ्रमरः २. कामुकः ३. भृङ्गराजवृक्षः । करी, सं. स्त्री. (सं.) षट्पदी, भ्रमरी २. सिद्धान्न पक्वान्न, भिक्षा । कोशः, करंडः, चपाल: । —प, सं. पुं. ( सं. ) भ्रमरः २. मधुमक्षिका । -पर्क, सं. पुं. (सं.) दधिमधुमिश्रं आज्यं, ( अतिथ्यादिभ्यः ) । - मक्खी, सं. स्त्री. ( सं . - मक्षिका ) मधु, कारःकारिन, सरघा । - कार, सं. पुं. ( सं . ) मधुमक्षिका । — कोषः, सं. पुं. ( सं . ) मधु, क्रम:- चक्रं पटलं- | मध्यस्थता, सं. स्त्री. (सं.) माध्यस्थ्यं, निर्णयः २. तटस्थता । -मय, वि . ( सं .) मधुर, मधुल, मिष्ट, स्वादु, रुचिर | - मास, सं. पुं. (सं.) चैत्रः । -मेह, सं. पुं. (सं.) मधुप्रमेहः, मूत्ररोगभेदः । मधुर, वि. (सं.) मिष्ट, मधुर, मधुल, मधुक, मधुमय २. रुच्य, रुचिकर, स्वादु ३. कर्णश्रुति, मधुर, कल, मंजुल ४. सुंदर, मनोज्ञ । -भाषी, वि. (सं.- पिन् ) प्रियंवद, मधुर सु, वाच्, चारुभाषिन् । मधुरिमा, सं. स्त्री. [सं. रिमन् (पुं. ) ] माधुर्य २. सौन्दर्यम् । मधूकरी, सं. स्त्री. दे. 'मधुकरी' ( २ ) । मध्य, वि. (सं.) दे. ‘मध्यम' । क्रि. वि., मध्ये, अंतरे, अभ्यंतरे । सं. पुं., मध्यं, मध्य भाग:देश:- स्थलं स्थानं २. गर्भः, अभि, अंतरम् । —देश, सं. पुं. (सं.) हिमाचलविंध्याचलकुरु क्षेत्रप्रयागमध्यस्थो देशः २. मध्यप्रांतः । - भाग, सं. पुं. ( सं . ) मध्य, स्थलं स्थानं, केन्द्रम् । - लोक, सं. पुं. (स.) भूमिः (स्त्री.), पृथिवी । -वर्ती, वि. (सं.- तिन) केन्द्रीय, मध्य, मध्यम, मध्य, स्थ-स्थित | मध्यम, वि. (सं.) मध्य, मध्य, स्थ-स्थितवर्तिन् २. मध्यपरिमाण ३. सामान्य, साधारण ४. व्यवहित, अंतरालस्थ । सं. पुं. (सं.) चतुर्थस्वरः ( संगीत ) २-४ नायक - मृग-राग, भेदः । मन - पुरुष, सं. पुं. (सं.) पदविशेष: ( व्या. त्वं पचसि इ. ) । मध्यमा, सं. स्त्री. (सं.) ज्येष्ठांगुली-लि: (स्त्री.), मध्या, ज्येष्ठा २. नायिकाभेदः ३. रजस्वला नारी । मध्यस्थ, सं. पुं. (सं.) निर्णेतृ, प्रमाणपुरुषः २. उदासीनः, निष्पक्ष, तटस्थः । वि., दे. 'मध्यम' । मध्याह्न, सं. पुं. (सं.) मध्य (ध्यं) दिनं, मध्याह्न, - काल:-समयः-वेला । मध्याह्नोत्तर, सं. पुं. (सं. न.) अपराह्नः,परातः, विकाल: । मन, सं. पुं. [सं. मनस् (न.) ] चित्तं, चेतस् (न.), हृदयं, स्वांतं, हृद् (न.), मानसं, अंगं, अनंगकं, अंतःकरणं २. अंतःकरणस्य संकल्पविकल्पात्मकवृत्तिः (स्त्री.) ३. विचारः, संकल्प: ४. इच्छा, कामना । गढ़ंत, वि., मनः कल्पित, काल्पनिक, अवास्तविक, मनःप्रसूत । चला, वि., निर्भय २. साहसिक ३. रसिक । - चाहा, चीत, वि., अभीष्ट, मनोवांछित । -जात, सं. पुं., मनोज:, कामदेवः । - भावता, भावन, वि., रुच्य, रुचिकर, प्रिय, अभिमत | मति, वि., स्वच्छन्द, अनियन्त्रित, स्वेच्छाचारिन् । -मथ, सं. पुं., मन्मथः, कंदर्पः 1 माना, वि., रुच्य, रुचिकर २. अभिमत, मनोनीत ३. यथेष्ट, यथेच्छ यथेप्सित । क्रि. वि., यथेष्टं यथाभिलाषन् । मानी, सं. स्त्री, यथेष्ट कार्य-कर्मन (न.) । --मुटाव, सं. पुं., वैमनस्यं, वैमत्यं, दुष्ट, -भाव:बुद्धिः द्वेषः । – मोदक, सं. पुं., काल्पनिकसुखं, मन:कल्पिता-नंदः । मोहन, सं. पुं., श्रीकृष्णः । वि., मनोहर, हृद्य । मौजी, वि., स्वैरिन्, स्वेच्छाचारिन् । रंजन, वि., मनोरंजक । सं. पुं., मनोरंजनम्, चित्तविनोदः । For Private And Personal Use Only Page #492 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir मन [ ४५४ ] मनिहारी -हारी, -हर, 'व.,मनोहर, मनोहर्त मनोहारिनमनकूला, वि. ( अ.) चर, चल, अस्थिर।। | -गरमनकूला जायदाद, सं. स्त्री. (अ.+ ' २. सुंदर, मनोश ३. प्रिय, हृद्य। फा.) स्थावररिकथं, स्थिरसंपद् ( स्त्री. ) । (टिप्पणी-मन के बहुत से यौगिक शब्दों -जायदाद, सं. स्त्री., (अ.+का.) उपकर और मुहावरों के पर्यायवाची 'जी', 'दिल' णरिकथं, चरसंपद् (स्त्री.)। और 'कलेजा' के नीचे मिलेंगे; कुछ यहाँ मनन, सं. पुं. (सं. न. ) अनुचिंतनं, ध्यान, देते हैं)। आलोचनम्। -अटकना, मु, स्निह् (दि. प. से.), अनु ! -शील, वि., विचार, शील-वत् । रंज ( कर्म.)। मननीय, वि. ( सं. ) विचारणीय, चिन्तनीय, -करना, मु., अभिलष्-वांछ (दि. भ्वा. विचारास्पद, मननाह। प.से.)। मनवाना, क्रि. प्रे., ब. 'मानना' के प्रे. रूप । -के लड्डू खाना, मु., गगनकुसुमानि चि मनशा, सं. स्त्री., दे. 'मसा'। (स्वा. उ. अ.), मोघाशया हृष् (दि. प. से.)। मनसव, सं. पुं. ( अ.) पदं, पदवी २. अधि. -बहलाना, मु., मनो विनुद्-रंज् (प्रे.), कारः ३. स्तरः ४. सेवा। -विह (भ्वा. प. अ.)। मनसा सं. स्त्री., दे, 'मंसा' । -बसना, मु., रुच (भ्वा. आ. से.), दे. मनसा, अ. ( सं.) चित्तेन, हृदयेन । सं. स्त्री.. 'मनमाना। १. जरत्कारु पत्नी २. वासुकिभगिनी। -भर, वि., यथेष्ट, यथेच्छम् । (क्रि. वि.), मनसिज, सं. पु. (सं.) कामदेवः, पंचशरः । यथा-रुचि, यथाभिलाषं, यथेष्टम् । मनसूख, वि. दे. 'ममूख'। -भरना, मु., परि-सं,-तृप-तुष् (दि. प. अ.)। | मनसूबा, सं. पुं., दे. 'मंसूबा' । -भाना, मु., इषु ( तु. प. से.), अभिलष, मनस्ताप, सं. पुं. (सं.) मनोवेदना, आधिः रुच । २. अनु-पश्चात, तापः। -भाना मुड़िया हिलाना, मु., मनसि काम- मनस्वी, वि. ( सं.-विन् ) महाशय, महानुभाव यमानोऽपि शिरःकंपेन (बाह्यतः ) निषिध्। २. बुद्धिमत्, सुबुद्धि ३. स्वेच्छाचारिन् । (भ्वा. प. से.)। मनहुँ, क्रि. वि., दे. 'मानो'। -माने, वि. तथा क्रि. वि., दे. 'मनभर'। मनहूस, वि. (अ.) अशुभ, अमंगल २. कुरूप, -मारना, मु., मनः निग्रह (क्र. प. से.) दुर्दर्शन ३. अलस, मंथर । २. धैर्येण सह (भ्वा. आ. से.)। मना, वि. (अ.) नि-प्रति,-पिद्ध. वर्जित । -मिलना, मु., सांमत्य-ऐकमत्यं वृत् (भ्वा. सं. पुं., दे. 'मनाही' । आ. से.)। -करना, क्रि. स., नि-प्रति-पिध् (भ्वा. प. -ललचाना, मु., लुभ (दि. प. से.), अत्य- से.), निवृ (प्रे.), नि-अवरुध् (स्वा.उ.अ.)। धिकं स्पृह् (चु., चतुर्थी के साथ )। मनादी, सं. स्त्रो. (अ. मुनादी) उद्घोषणा, -हरा होना, मु., मुद् (भ्वा. आ. से.)। __ प्रख्यापनम् । मन,२ सं. पुं. (सं. मणः) चत्वारिंशत्सेरात्मकं करना, क्रि. स., उन्धुप (च.), प्रख्या भारमानम्। (प्रे..प्रख्यापयति )। -भर, वि., मण,-मित-परिमित-मात्र । मनाना, क्रि. स., ब. 'मानना' के प्रे. रूप । मनका,' सं. पुं. (सं. मणिक:>) अक्षः, गुटिका मनाही, सं. स्त्री. (अ. मना) नि-प्रति, पंधः, २. जपमाला। निरोधः, निवारणं, प्रत्यादेशः । मनका सं. स्त्री. (सं. मन्याका ) मन्द, मनिहार, सं. पुं. (सं. मणिकारः ) रत्नकारः, अवटुः, कृकाटिका, शिरःपीठं, घाटः-टा। रत्नजीविन् २.,३. काचकंकण,-कार:-ठकलना, मु., मरणोन्मुख-मुमूर्षु-आसन्नमृत्यु विक्रयिन्। (वि.) वृत् (भ्वा. आ.से.)। | मनिहारी, सं. स्त्री. (हिं. मनिहार) मणि, व्यब For Private And Personal Use Only Page #493 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir मनी-आर्डर [ ४५५) - मयूरी सायः वाणिज्यं, रत्नव्यवहारः २. काचद्रव्य- । -विज्ञान, सं. पुं. ( सं. न. ) मानसशास्त्रम् । व्यवसायः। | -वृत्ति, सं. स्त्री. ( सं.) चित्तवृत्तिः ( स्त्री.), मनी-आर्डर, सं. पु. ( अं.) धनादेशः। | मनोविकारः, मानसी दशा । -फार्म, सं. पुं. ( अं. ) धनादेशपत्रम् । -हर, वि. (सं.) सुंदर, हृदयदारिन् । मनीषा, सं. स्त्री. (सं.) बुद्धिः (स्त्री.) -हरता, सं. स्त्री. (सं.) सौन्दर्य, चित्ताकर्ष२. स्तुतिः ( स्त्री.)। कना, मनोज्ञता । मनीषी, वि. ( सं..षिन् ) पंडित, बुद्धिमत् । मनौती, सं. स्त्री. (हिं. मानना) दे. 'मनुहार (१) मनु, सं. पुं. (सं.) ब्रह्मणः पुत्रः, धर्मशास्त्र- २. दे. 'मन्नत' । कारो-मुनिविशेषः २. मनुष्यः । | मन्नत, सं. स्त्री. (हिं. मानना ) देवपूजा, प्रणःमनुज, सं. पुं. (सं.) मनुष्यः, मानवः। प्रतिज्ञा-शपथः। मनुष्य, सं. पुं. (सं.) मानुषः, मनुजः, मानवः, -उतारना या बढ़ाना, मु., देवपूजाप्रतिज्ञा मर्त्यः, नरः, द्विपदः, मनुः, पंचजनः, पु(पू)- | पा (प्रे. पालयति)।। रुषः, पुम्स-नृ (पु.), मणः, विश् (पुं.)। -मानना, मु., अभीष्टसिद्धये देवपूजां प्रतिज्ञा मनुष्यता, सं. स्त्री. ( सं.) मनुष्यत्वं, मानवता (ऋ. आ. अ.)। २. सभ्यता, शिष्टता ३. दया, सौहार्दम् । | मन्वंतर, सं. पुं. ( सं. न.) एकसप्तति चतुर्युमनुष्यी, सं. स्त्री. (सं.) नारी, मानुषी, | ग्यात्मकः कालः, ब्रह्मदिनस्य चतुर्दशो भागः । मानवी, मा, मनुजी, नरी। मपना.क्रि. अ.. ब. 'मापना' के कर्म. के रूप । मनुहार, सं. स्त्री. ( सं. मानहारः>) प्रसादनं, | मपवाना, मपाना, क्रि. प्रे., ब. 'मापना' के उपशमनं, सांत्वनं २. विनयः, प्रार्थन-ना प्रे. रूप । ३. आदरः, माननं-ना। | मारूर, वि. (सं.) पलायित, गुप्त, अन्तर्हित, मनो', क्रि. वि., दे. 'मानो' । प्रच्छन्न, व्यपसृप्त । मनो , ( सं. मनस् न.) दे. 'मन' । मम, सर्वः ( सं.) दे. 'मेरा'। -कामना, सं. स्त्री. (सं. मनःकामना) ममता, सं. स्त्री. ( सं.) । स्वाम्यं, स्वामित्वं, अभिलाषः, वांछा। ममत्व, सं. पु. (सं. न.) J अधिकारः, स्वत्वं, -गत, वि. (सं.) हृदयस्थ, हार्दिक । प्रभुत्वं २. स्नेहः, प्रेमन् (पुं.न.) ३. वात्सल्यं -ज, सं. पुं. (सं.) मदनः, कंदर्पः । ४. मोह: ५. लोभः ६. अभिमानः, गर्वः । -ज्ञ, वि. ( सं.) सुन्दर, अभिराम । ममिया, वि., दे. 'ममेरा' । -नीत, वि. (सं.) रुच्य, रुचिकर, हृद्य | -ससुर, सं. पुं., पति-पत्नी,-मातुलः । २. वृत। -सास, सं. स्त्री., पति-पत्नी, मातुली। -योग, सं. पुं. (सं.) अनन्यमनस्कता, चित्तै- ममियौरा, सं. पु. ( हिं. मामा ) मातुलगृहम् । कायं, अवधानम् । ममीरा, सं. पुं. (अ. मामीरान ) नेत्ररोगो-रंजक, वि. (सं.) चित्ताहादकः, सुखकर, | पकारकः क्षुपमूलभेदः। हर्षावह, हृदयहारिन्, मनोविनोदक । ममेरा, वि. (हिं. मामा) मातुलीय, मातुलिक । -रंजन, सं. पुं. (सं. न.) मनोविनोदः, -भाई, सं. पुं., मातुलपुत्रः, मातुलेयः ( -यी चित्तालादनं-दः, क्रीडा, कौतुकम् । स्त्री.), दे. 'भाई' के नीचे। -रथ, सं. पुं. (सं.) स्पृहा, वांछा। ममोला, सं. पु., दे. 'खंजन'। -रथ सफल होना, क्रि. अ., सफल मनोरथ | मयंक, सं. पुं. ( सं. मृगांकः ) दे. चाँद'। (वि.) भू, अभिलषितं अधिगम् । मयस्सर, वि. (अ.) प्राप्त, लब्ध २. प्राप्य, -रम, वि. (सं.) मनोज्ञ, सुंदर। सुलभ। -वांछित, वि. (सं.) अभिलषित, अभीष्ट। मयूख, सं. पुं. (सं.) किरणः, रश्मिः । -विकार, सं. पुं. (सं.) चित्त, विकृतिः (स्त्री.)- मयूर, सं. पुं. (सं.) दे. 'मोर' । विकारः, मनो,-धर्मः-वृत्तिः (स्त्री.)-वेगः। । मयूरी, सं. स्त्री. (सं.) दे. 'मोरनी'। For Private And Personal Use Only Page #494 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra मरक www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [ ४५६ ] मरक, सं. पुं. (सं.) दे. 'मरी' । मरकत, सं. पुं. (सं. न. ) हरिन्मणिः, अश्मगर्भ, मरक्त, राजनीलं, गारुडम् । मरकना, क्रि. अ. (अनु. ) भारेण भंजू भिद-दृ ( कर्म. ) । मरघट, सं. पुं. (हिं. मरना + घाट ) शतानक श्मशानं, पितृकाननं, प्रेतभूः (स्त्री.) । मरज़, सं. पुं. ( अ. मर्ज) रोगः, व्याधिः २. दुर्व्यसनं, कुवृत्ति: (स्त्री.) । मरजिया, वि. (हिं. मरना + जीना ) मृत्युमुक्त, *मृतजीवित २. मरण, उन्मुख आसन्न ३. मृत, प्राय-कल्प | सं. पुं. ( मुक्तार्थं ) नियंक्त, विगाहकः । मरण, सं. पुं. ( सं. न. ) मृत्युः, निधनम् । -धर्मा, वि. ( सं . धर्मन् ) मर्त्य, मरणशील | मरतबा, सं. पुं. ( अ ) पदं, पदवी २. वारः । मरतबान, सं. पं. दे. 'अमृतवान' । मरदूद, वि. (अ.) तिरस्कृत, अपमानित २. क्षुप्र । मरना, क्रि. अ. ( सं . मरणं ) मृ ( तु.आ.अ. ), पंचत्वं इ-या ( अ. प. अ. ), असून प्राणान्देहूं-तनु-जीवितं त्यज् (भ्वा. प. अ. )-उत्सृज् (तु. प. अ. ) - हा (जु. प. अ. ), प्र-इ ( अ. प. अ. ), गतासु-परासु (वि.) भू, विपद् (दि. आ. अ. ), प्र.मी ( कर्म. ), २. क्लेशा तिशयं सह (भ्वा. आ. से. ) ३. शुष ( दि. प. अ. ), म्लै ( स्वा. प. अ. ) ४. अत्यन्तं लज् (तु. आ. से. )-लस्ज् (भ्वा. आ. से. ) ५. परा-परि-भू, (कर्म.), परा-वि-जि ( कर्म. ) ६. शन् (दि. प. से. ) ७. क्रीडातो वहिष्कृ | (कर्म) । सं. पुं., मरणं, निधनं, दे. 'मृत्यु' । - जीना, मु., सुखदुःखखे, हर्षशोक कौ } किसी पर, मु., अनुरंजू ( कर्म. ), भावं अनुरागं बंधू (क्र. प. अ. ) । पानी--, मु, कलंकित दूषित - अपमानित भू. अवगण्, अवमन् ( कर्म. ) । सर कर, मु., अत्यायासेन, अतिकठिनतया । मर के बचना, मु., मृत्युमुखात् मुच (कर्म.), मरणासन्नोऽपि पुनः स्वास्थ्यं लभ् ( स्वा. आ. अ. ) । (वि.) मरिच मरने योय, वि, मरणार्ह, व्यर्थजीवित, २. हतक, खल, दुष्ट | मरनेवाला, सं. वि., मरिष्यमाण, मरणोन्मुख, आसन्नमृत्यु २, मर्त्य, मृत्युवश, नश्वर । मरा हुआ, वि., मृत, गतासु, पंचत्वं, गत-प्राप्तइत, प्रेत, परेत, उपरत, संस्थित, विपन्न, प्रमीत, विचेतन, निष-गत, प्राण | मरभुक्खा, वि. (हिं. मरना + भूखा ) क्षुधाअदित-पीडित- आर्त- अवसन्न २. अकिंचन, निर्धन | मर मिटना, मु., श्रमतिशयेन नश् (दि.प.से.)। मरने तक की फुर्सत न होना, मु., अतिव्यात- अवकाश (वि.) वृत (भ्वा. आ. से. ) । मरमर, सं. स्त्री. (अनु. ) मर्मर ध्वनि:-शब्दः, मर्मरः, पत्र-वस्त्र, स्वनः । मरमर, सं. पुं. (यू० ) चिक्कणप्रस्तरभेदः, मरमरः । मरमरा, वि. ( अनु० ) भिदुर, भंगुर, सुभंग । मरमराना, कि. अ. (हिं. मरमर ) मर्मररव कृ, मर्मरायते ( ना. धा. ) २. समर्मरशब्द अव-आ-नम् (भ्वा. प. अ. ) । मरम्मत, सं. स्त्री. (अ.) जीर्ण-, उद्धारः, प्रति, समाधानं, संधानं, संस्कारः, नवीकरणं, पूर्वावस्थाप्रापणम् । करना, क्रि. अ., पूर्ववत्-नवी, कृ, उद्धृ (भ्वा. प. अ.), सं-समा-प्रतिसमा, -धा ( जु. उ. अ. ) २. त ( चु. ) । मरवाना, क्रि. प्रे., ब. 'मारना' के प्रे. रूप | मरसा, सं. पुं. ( सं. मारिष : ) कंधरः, मार्षिकः ( शाकभेद: ) । मरसिया, सं. पुं. ( अ ) निधनकाव्यं, शोकमयी कविता | मरहटा-ठा, सं. पुं. (सं. महाराष्ट्र: > ) महाराष्ट्रवासिन, महाराष्ट्रा: ( बहु. ) । मरहटी-ठी, सं. स्त्री. (सं. महाराष्ट्री ) माहाराष्ट्री | मरहम, सं. पुं. (अ.) अनु, -लेपः, उपदेहः, समारंभ:, अभ्यंजनम् । – पट्टी, सं. स्त्री. (अ. + सं .) लेपपट्टी, व्रणोपचारः । मरहमत, सं. स्त्री. (अ.) अनुग्रह, कृपा । — करना या फ़रमाना, दे. 'देना' । मरहूम, वि. (अ.) स्वर्गतयात, दिवं गत, मृत । मराल, सं. पुं. (सं.) राजहंसः २. कारंडव: ३. अश्वः ४. गजः ५. मेघः । मरिच, सं. स्त्री. (सं. न. ) दे. 'मिर्च' । For Private And Personal Use Only Page #495 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir मरियल [ ४५७ ] मरियल, वि. (हिं. मरना ) मृतकल्प, कृश, मर्दन, सं. पुं. ( सं. न. ) पद्भ्यां पीडनंनिर्बल | क्षोदनं- आक्रमण २. जभ्यंजनं, संवाहनं, मर्दनं, वपणं ३ ध्वंसनं नाशनं ४ पेषणं, चूर्णनम् । मदनगी, सं. स्त्री. ( फा . ) शूरता, वीरता, पुरुषत्वम् । पुरुष वीर शूर, उचित मरीचिका, सं. स्त्री. (सं.) दे. 'मृगतृष्णा' । मरु, सं. पुं. ( सं . ) धन्वन् (पुं.), मरु, स्थलंस्थली, ऊपर:रं, खिलम् । भूमि, सं. स्त्री. (सं.) -स्थल, सं. पुं. ( सं. न. ) मदांना, वि. ( फा . ) २. पुरुष - नर, सदृश - उपम विक्रांत, नर-पुरुष । - भेष, सं. पुं. पुरुषवेशः, नरोचितवेषः । मर्दित, वि. (सं.) पाद, पीडित-क्षुण्ण आत्रांत २. खंडित, चूर्णित ३. नाशित । मर्दुम, सं. पुं. ( फा . ) जनः, मनुष्यः । - खोर, सं. पुं., नरभक्षकः, मनुजादः । - शिनास, वि., नर-मानव, अभिज्ञ । दे. 'मरु' । गणना | मरुआ, सं. पुं. (सं. मरुवः ) गंध-खर, पत्रः, शुमारी, सं. स्त्री. ( फा . ) जनसंख्यानं - शीतलकः, बहुवीर्यः ( क्षुपभेद: ) । 'मरुत, सं. पुं. ( सं . ) दे. 'वायु' । मरोड़, सं. पुं. (हिं. मरोड़ना) आकुंचनं, व्यावर्तनं २. अंत्र - उदर, वेदना-शूलं- पीडा ३. दर्पः ४. क्रोध: ५. दे. 'पेचिश' । — फली, सं. स्त्री, मधूलिका, मूर्वा, मूत्र, मधुरसा, रंग-दिव्य, लता । मर्म, सं. पुं. [ सं . मर्मन् ( न. ) ] तत्वं, स्वरूपं २. रहस्यं, गोप्यवृत्तं ३. संधिस्थानं ४. जीवस्थानम् । मर्मवेदिन वि. ( सं . ) तत्वज्ञ २. रहस्यविद् (पुं.) । - पीड़ा, सं. स्त्री. ( सं . ) हृद्यशूलं, मर्मव्यथा | भेदी, वि. (सं.-दिन ) मर्म, भिद् (पुं.)भेदक-छेदक- विदारक । - स्थान, सं. पुं. (स्त्री.) मर्मस्थल, जीवनस्थानम् । मरी, सं. स्त्री. सं. मारी) जन, मारः, महामारी, मारिका । मरीचि', सं. स्त्री. (सं. पुं. स्त्री. ) किरण:, रश्मि: २. कांति: (स्त्री.) ३. मरुमरीचिका | मरीचि, सं. पुं. (सं.) १ - ४. ऋषि-मरुद दानव-दैत्य, विशेषः । मरीज, वि. (अ.) रुग्ण, रोगिन् । मरोड़ना, क्रि. स. (हिं. मोड़ना ) कुचकुच् ( भ्वा. प. से. ), व्यावृत् ( प्रे. ), कुटिलीवक्री कृ. २. पीड़ ( चु.), दुःखयति ( ना. धा. ) ३. मुष्टिना-मुष्टया ग्रह (.प.से.)धृ (भ्वा. प. अ. ) । मरोड़ा, सं. पुं., (हिं. मरोड़ना ) दे. 'मरोड़' ( १-२ ) २. दे. 'पेचिश' । मरोड़ी, सं. स्त्री. (हिं. मरोड़ना) दे. 'मरोड़ ' (१) २. कुंचित-व्यावर्तित वस्तु (न.) ३. ग्रंथिः । मर्कट, सं. पुं. (सं.) दे. 'बंदर' । मज़, सं. पुं. (अ.) दे. 'मरज' | मर्जी, सं. स्त्री. (अ.) इच्छा, रुचिः (स्त्री.) २. प्रसन्नता ३ स्वीकृतिः (स्त्री.), अनुज्ञा । मर्त्य, सं. पुं. (सं.) मनुष्यः, मानवः, २. शरीरम् । - लोक, सं. पुं. (सं.) भूमि: (स्त्री.), भूलोकः । मर्द, सं. पुं. ( फ़ा.) मानवः, मनुजः, २. पुंस ( पुं.), पुरुषः, नरः ३. वीरः साहसिन्, योधः ४. पतिः । - बच्चा, सं. पुं., वीरबालः । -ज्ञ, मलना मर्मर, सं. स्त्री. (अनु.) दे. 'मरमर' | मर्यादा, सं. स्त्री. ( सं . ) स्थितिः (स्त्री.), धारणा, संस्था, नियमः २. सीमा ३. कूलं ४. प्रतिज्ञा, समयः ५. सदाचारः, सद्वृत्तं ६. गौरवं, प्रतिष्ठा ७. धर्मः । मलंग, सं. पुं. ( फ़ा. ) मलंगः, यवनभिक्षुभेदः २. वकभेदः ३. स्वेच्छाचारिन् । मल, सं. पुं. ( सं. पुं. न. ) अव (प)स्कर:, कल्क: कं, कि २. कर्दमः, पंकः ३. उच्चारः, गूध:-धं, पुरीषं, विष् (स्त्री.), विष्ठा, शकृत् ( न. ), शमलम् । मलना, क्रि. स. (सं. मर्दनं) अंजू (रु. प. से.), लिप् (तु. प. अ. ), दिहू ( अ. उ. अ. ), म्रुक्षू ( भ्वा. प. से. ) २. धृषू (भ्वा. प. से.), मृद् (क्. प. से; . ) ३. परि-प्र- मृज् (अ. प. से. ), निज् (जु. उ. अ. ) ४. करत For Private And Personal Use Only Page #496 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir मलबा [ ४ ] लाभ्यां चूर्ण (चु.) । सं. पुं., अंजनं, लेपनं, | मलीदा, सं. पुं. ( का. मालीदा ) मर्दितः, घर्षणं, मर्दनं; मार्जनं; चूर्णनम् । २. और्णवस्त्रभेद:,. स्निग्ध मिष्ट रोटिका चूर्ण मर्दितः । हाथ, मु., अनु-पश्चात्, तप् ( दि. आ. अ.), अनुशुच् (वा. प. से. ), (अ. आ. से. ) । अनुशी | मलीन, वि., दे. 'मलिन' | मलेरिया, सं. पुं. ( अं. ) विषमज्वर:, * मशककुपवन, ज्वरः । मलबा, सं. पुं. ( सं . मल:-लं ) दे. 'मल' १.२ । २. शकलराशिः । मल्ल, सं. पुं. (सं.) प्राचीनजातिविशेषः २. बाहु, योध:- योधिन् । वि., महावल, मांसल, स्थूल-महा, काय | भूमि, सं. स्त्री. ( सं . ) मल्लशाला । - युद्ध, सं. पुं. (सं. न. ) बाहु-नि, युद्धं, दे. 'कुश्ती' ! विद्या, सं. स्त्री. ( सं . ) नियुद्ध विद्या । मल्लाह, सं. पुं. (अ.) नाविकः, नौ-पोत, वाहः औडुपिकः, मार्गरः २. धीवरः, कैवर्तः । मल्लिका, स. स्त्री. (सं.) दे. 'मोतिया' २. छन्दोभेदः । मलमल, सं. स्त्री. ( सं . मलमल्लकः > ) * मलमल्लकं, सूक्ष्मं तूलवस्त्रम् । मलमास, सं. पुं. (सं.) अधिमासः, मलिम्लुचः, असंक्रांत मासः, नपुंसकः । मलय, सं. पुं. ( सं . ) दक्षिणाचलः, चंदनाद्रिः, आषाढ़, मलयाचलः २. तैलपर्णिक, श्वेतचंदनं ३. नंदनवनम् । मलयज, सं. पुं. (सं. न. ) दे. 'चंदनम्' | मलयाचल, सं. पुं. ( सं . ) मलय, अद्रि:- गिरि:पर्वतः । मलयानिल, सं. पुं. (सं.) मलय, पवन:वातःसमीरः । मलवाई, सं. स्त्री. (हिं. मलवाना) मन-अंजनघर्षण,-भृतिः ( स्त्री. ) । मलवाना, मलाना, कि. प्रे, ब. 'मलना' के प्रे. रूप । मलहम, सं. पुं., दे. 'मरहम' । मलाई, सं. स्त्री. ( फा. बालाई ) ( दूध की ) संतानी निका, क्षीर, शरः, दुग्ध, अग्रं-तालीयं, शार्करः, शार्ककः, ( दही की ) दे. 'शर' (४) २. सारः, उत्तमांश: । मलामत, सं. स्त्री. (अ.) दे. 'फटकार' | मलार, सं. पुं. (सं. मल्लार: ) रागभेद: । मलाल, सं. पुं. (अ.) खेदः २. औदासीन्यम् । मलिक, सं. पुं. ( अ ) नृपः २. अधीश्वरः । मलिका, सं. स्त्री. ( अ. ) राशी २. अधीश्वरी । मलिन, वि. (सं.) आविल, कलुष, मलीमस, समल, पंकिल, सकर्दम, मलदूषित २. दूषित विकृत ३. धूलिवर्ण ४ धूमवर्ण ५. पापात्मन, दुष्ट, पाप ६. विषण्ण, म्लानमुख । मलिनता, सं. स्त्री. ( सं . ) आविलत्वं, कालुष्यं, मालिन्यं, पंकिलत्वं इ. मलियामेट, सं. पं. (हिं. मलना + मिटाना)। वि-, ध्वंसः - नाशः, क्षयः, उच्छेदः । करना, क्रिं., स., उच्छिद ( रु. प. अ. ), ध्वंस-नश् (प्रे.), निर्मूल् (चु. ) । मशाल मल्लू, सं. पुं. ( सं . मल्लुकः ) ऋक्षः, दे. 'री' २. वानरः । सवक्किल, सं. पुं. भाषक नियोजकः । मवाद, सं. पं. ( अ ) दे. 'पीप' । मवेशी, सं. पुं. ( अ. मदाशी ) पशव:: (पुं.बहु. ), पशुसमूह:, गोकुलम् | खाना, सं. पुं. ( अ. + फा . ) गोष्ठः-छं, व्रजः ॥ मश ( स ) क', सं. पुं. (सं.) दे. 'मच्छ' | मशक े, सं. स्त्री. (फ्रा. ) जलभस्त्रा-त्रिका । मशकूक, वि. अ. ) संदेह संशय, आस्पद-पात्र, संदिग्ध । मशकूर, वि. (अ.) कृत, -श-विद-वेदिन, उपकारज्ञ, उपकारस्मर्तृ, आभारिन् । मशक्कत, सं. स्त्री. ( अ ) परिश्रमः, प्रयासः । मशक्कती, वि. (अ.) उद्योगिंग, परिश्रमिन् । मशग़ला, सं. पुं. ( अ. ) कार्यम्, व्यवसायः, आजीविका, वृत्तिः (स्त्री.) 1 मशगूल, वि. (अ.) व्यापृत, व्यग्र, कार्यमग्न । मशरिक, सं. स्त्री. (अ.) प्राची, दे. 'पूर्व'' ( दिशा ) | मशविरा, सं. पुं. (अ.) संमंत्रणा, परामर्शः । मशहूर, वि. ( अ ) विख्यात, प्रसिद्ध । मशान, सं. पुं. ( सं . श्मशानं ) दे. 'मरघट' । मशाल, सं. स्त्री. ( अ ) दीपिका, झिंगिनी, अलातं, उल्मुकं, उल्का । For Private And Personal Use Only 1 अ. मुवक्किल ) अभि- Page #497 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir मशालची [ ४ ] — लेकर या जलाकर ढूंढना, मु., सम्यकू | मसाना, सं, पुं. ( अ ) मूत्राशयः, वस्तिः अन्विष् (दि.प.से.) । ( पुं. स्त्री. ) । मशालची, सं. पुं. ( अ + फ़ा. ) उल्काधारिन्, मसाला, सं. पुं. ( फा . ) देश (ष, स)वार:, उपउल्मुक-दीपिका,-वाहकः । स्करः, उपस्करसामग्री, स्वादनं २. उपकरणानि, उपसाधनानि (न. बहु. ), सामग्री । - डालना, क्रि. स., उपस्कृ, स्वादूक, अधि--, वास् ( चु.) । मसालेदार, वि. ( फ़ा. ) उपस्कृत, सोपस्कर," वेशवारयुक्त, स्वादूकृत । मशीन, सं. स्त्री. (अं. ) यंत्रम् । मश्क, सं. स्त्री. (अ.) दे. 'अभ्यास' | मष्ट, वि. ( सं . मठ > ) मौनं निःशब्दता । —मारना, मु., तूष्णी स्था ( स्वा. प. अ. )-भू । क्रि. अ. (अनु. मस ) ब. 'मसमसकना, काना'के कर्म. के रूप । क्रि.स., दे. 'मसकाना' । मसकाना, क्रि. स. (हिं. मसकना ) विदलविड्ड (प्रे.), विपट् ( चु.) २. सबलं मृद् ( क्. प. से. )-निपीड् ( चु. ) । मसखरा, सं. पुं. (अ.) विदूषकः, भंड, पात्र, सं. पुं. (सं. न. ) मसि (सी), कूपी --- वैहासिकः । घटी - धानं-धानी आधारः । मसि, सं. स्त्री. (सं. स्त्री. पुं.) मसिजलं,, पत्रांजन, मेला, मसी, रंजनी, मशी, काली । दान, सं. पुं. - दानी, सं. स्त्री. }. सं.+फा.) दे. ‘मसिपात्र’। - पन, सं. पुं., भंडता, वैहासिकता, परिहासः, मसी, सं. स्त्री. (सं.) दे. 'मसि' | वेडा | मसीह, सं. पुं. (अ.) दे. 'ईसा' २. विश्वनातृ मसजिद, सं. स्त्री. ( फा . ) *यवनमदिरं, मसूड़ा, सं. पुं. [सं. श्मश्रु (न.)> ] दंत, महम्मदीयदेवालयः । मूलं मां दंत-वेष्टः । मसनद, सं. स्त्री. (अ.) च (चा)तुरः, चक्रगंडुः, बृदबालिशं महामसूरक: २. धनिकासनम् । मसल, सं. स्त्री. (अ.) आभाणकः, लोकोक्तिः । ( स्त्री. ) । मसलन्, क्रि. वि. ( अ ) यथा, उदाहरणदृष्टांत, रूपेण । मसलना, क्रि. स. (हिं. मलना) हस्तेन पादेन वा संमृद् (क्र. प. से., प्रे.), संपीड् (चु. ) २. सबलं निपीड़ ( तु. ) ३. दे. 'गूँथना' । मसलहत, सं. स्त्री. ( अ ) * मावि गुप्त, शुभंमंगलं-भद्रं, औचित्यं, युक्तता । मसला, सं. पुं. (अ.) दे. 'मसल' २. विषयः, समस्या । मसविदा, सं. पुं. ( अ. मुसबिदा ) | संस्कार्यशोधनीय, लेख: २. हस्त अमुद्रित, लेखः ३. युक्तिः (स्त्री.), उपायः । - बाँधना, मु., उपायं चिंत ( चु. ) । मस (छ) हरी, सं. स्त्री. ( सं. मशहरी ) दे. 'मच्छड़दानी' । मसा, सं. पुं. (सं. मांस कील:-लं ) चर्मकील:-लं २. अर्शः, कील:-कीलं, मांसकीलकः-कम् । मसान, सं. पुं. (सं. श्मशानं) पितृ-वनं-काननं, अंतशय्या, शतानकं, रुद्राक्रीडः, दाह-सरस् (न. ) -स्थल २. पिशाचः ३. रणक्षेत्रम् । मस्तक मसूर, सं. पुं. [सं. मसु ( सू )र: ] मसु (सू)रा, मसूरकः-का, मंगल्य:-ल्या, पृथु-गुड-कल्याणबीज:, व्रीहिकांचनः । मसूरिया, सं. स्त्री. ( सं . मसूरिका) वसंतरोग:, पापरोगः, रक्तवटी, मसूरी, शीतला-ली, दे. 'चेचक' । मसूरी, सं. स्त्री. (सं.) दे. 'मसूरिया' २. दे. 'मसूर' । सो (सू) सना, क्रि. अ. (फ़ा. अफ़सोस ) ( मनसि ) खिद-दु ( कर्म. ), शुच (भ्वा.प. से. ), तप् ( दि. आ. अ. ) २. मनोवेगं रुध् ( रु. प. अ. ) शम् (प्रे.) ३-४. दे. 'मरोड़ना " तथा 'निचोड़ना' | मसौदा, सं. पुं., दे. 'मसविदा' । मस्त, वि. (फ्रा.) ई.सं. 'मत्त ' ( १ ) २. निश्चित, निरुद्विग्न ३. कामुक, कामिन् ४. स्वैरिन्, स्वेच्छाचारिन ५. दृप्त, गर्वित ६. प्रहृष्ट, अतिप्रसन्न ७. उन्मादिन्, वातुल ८ समद, मदघूर्णित (नेत्रादि ) । माल, वि., वित्तमत्त, धनमूढ । मगर --, वि., पीनप्रमोदिन । मस्तक, सं. पुं. (सं. पुं. न. ) शिरस (न.), उत्तमांगं, शीर्ष, मूर्द्धन् (पुं.), मुंड, शिरं, वरांगं, मौलिः, कपालं, केशभूः (स्त्री.) For Private And Personal Use Only Page #498 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir मस्तगी [४६० ] महा - २. ललाटं, अलि(ली)कं, भालं, ललाट-भाल,- | महती, वि. स्त्री. (सं.) बृहती, विशाला, पट्ट, गोधिः। | विपुला, प्रचुरा। मस्तगो, स्त्री. ( अ. मस्तकी) उत्तमनियांस- महतो, सं. पु. ( सं. महत्> ) ग्रामनायकः, भेदः, *मरतगी। ग्रामणी: ( पुं.), ग्रामाध्यक्षः । मस्ताना, वि. (फ़ा.) मत्त, तुल्य-सदृश २. मत्त, महत्तवं, सं. पुं. (मं. न.) प्रकृतेः प्रथमक्षीब, मदिरोन्मत्त। विकारः ( सांख्य.), बुद्धितत्त्वम् । मस्तिष्क, सं. पुं. (सं. न.) गोदं, गोर्द, महत्तम, वि. (सं.) महिष्ठ, ज्येष्ठ, श्रेष्ठ, बलिष्ठ, मस्तकस्नेहः, मस्तुलुंगकः ( मस्तिष्कमागाः- गरिष्ठ, विशालतम, प्रथिठ । सं. पु. ( सं. न.) बृहन्मस्तिष्कं, लघुमस्तिष्क, सुषुम्णाशीर्षकम्)। [ = आदे आजम ( गणित )। मस्ती, सं. स्त्री. (फ़ा.) मत्तता, क्षीवता, शौंडता, महत्तर, वि. (सं.) वृहत्तर, गुरुतर, विशालमदाढ्यता, उन्मदता, २. सुरतेच्छा, रतिकामना । तर, उत्तर। ३. अभिमानः ४. मदः, मदजलं, दानम् । महदूद, वि. ( अ.) मित, परिमित, ससीम, मस्तूल, सं. पुं. (पूर्त.) कूपकः, गुणवृक्षः-क्षकः, | मर्यादित । कूपदंडः। महफ़िल, सं. स्त्री. (अ.) संगोतसभा, प्रमोदमस्सा , सं. ., दे. 'मसा'। परिषद् (स्त्री.), रंगशाला।। महँगा, वि. (सं.महाघ) महार्ह, बहु-महा, मूल्य। महफ़ ज़, वि. (अ.) सुरक्षित, परि, वात-त्राण। महँगाई, । सं. स्त्रो. (हिं. महँगा) महार्घता, | महबूब, सं. पुं. (अ.) प्रियः, कांतः, दयितः । महँगी, बहुमूल्यता २. दुर्भिसं. कालः। महबूबी, सं. स्त्री. (अ.) प्रिया, कांता, दयिता। महंत, सं. पुं. (सं. महत्> ) मठाधीशः, | महरा, सं. पुं. (सं. महत्तर:>) दे. 'कहार'। २. साधूत्तमः । वि., प्रधान, श्रेष्ठ । | महराब, सं. स्त्री., दे. 'मेहराब' । महंती, सं. स्त्री. (हि. महंत ) मठाधीशता | महरूम, वि. (अ.) वंचित, विरहित, दीन २. साधुनेतृत्वम् । (प्रायः सब समासांत में )। महक, सं. स्त्री. (महमह से अनु.) दे. 'सुगंध। महर्षि, सं. पुं. (सं.) ऋषीश्वरः, ऋषिश्रेष्ठः -दार, वि. (हिं+फा.) दे. 'सुगंधित। २. रागभेदः । महकना, क्रि. अ. (हिं. महक) सुवासं. महल, सं. पुं. (अ.) प्रासादः, सौधः-धं, हय, सौरभं उत्सृज-मुच् (तु. प. अ.)। राज-नृप,-कुलं-भवन-मंदिरम् । महकमा, सं. पुं. ( अ.) विभागः । -सरा, सं. स्त्री. (अ.+का.) अंतःपुरं, महकाना, क्रि. स. (हिं. महकना ) अधिः, ___ अवरोधः। वास् (चु.), सुरभीकृ, धूप (च. भ्वा. प. से.) महल्ला , सं. पुं. (अ.) पुरभागः, नगरविभागः । परिमलयति (ना.धा.)। महल्लेदार, सं. पुं. (अ.+फा.) पुरभाग. महकूम, वि. (अ.) शासित, अधीन २. | नायकः २. समपुरभागवासिन् । आदिष्ट, आज्ञापित। महसूर, वि. (अ.) परिवेष्टित, रुद्ध, बाधित, महज़, वि. (अ.) शुद्ध, केवल । क्रि. वि., केवलं, परिवृत। एव, मात्रा। महसूल, सं. पुं. (अ.) करः, राजस्व, शुल्कःमहत्, वि. (सं.) गुरु, विशाल, बृहत, स्थूल, कं, वलि: २.भाट, भाटकं ३.दे. 'मालगुजारी' । दीर्घ २. उत्तम, श्रेष्ठ । -खाना, सं. पुं., कारभूः (स्त्री.)। महता, सं. पुं. ( सं. महत्>) ग्रामणी: (पुं.), महसूस, वि. ( अ.) अनुभूत, ज्ञात, उपगत अग्रिमः, पुरोगः, नायकः २.लेखकः, कायस्थः।। महताब, सं. पुं. ( फ़ा.) चंद्रः, सोमः । सं.स्त्री. महा, वि. ( सं. महत ) अत्यंत, अत्यधिक, (फा.) चंद्रिका, कौमुदी। अतिशय, बहुल २. सर्वोत्तम, सर्वश्रेष्ठ, उत्कृष्टमहताबी, सं. स्त्री. (फा.) वर्तिकाकारोऽग्नि- तम ३. विस्तीर्ण, विशाल, विपुल । क्रीडनकभेदः, चन्द्राभा। -काय, वि. (सं.) विशालदेह । महतारी, सं. स्त्री. दे. 'माता'। -काल, सं. पुं. (सं.) शिवरूपविशेषः । वेदित। For Private And Personal Use Only Page #499 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir महा [ ४६१ ] महाशय -काली, सं. स्त्री. (सं.) महाकालपत्नी। । -माया, सं. स्त्री. (सं.) प्रकृतिः (स्त्री.) -काव्य, सं. पुं. (सं. न.) सबंधः, काव्य. २. दुर्गा ३. गंगा ४. गौतमबुद्धजननी। भेदः। -मारी, सं. स्त्री. (सं.) मारिका, जनमारः। -दंत, सं. पुं. (सं.) गजदंतः २. शंकरः ।। -मुनि, सं. पु. (सं.) मुनिपुंगवः, मुनीन्द्रः। -देव, सं. पुं. (सं.) शिवः । -मूल्य, वि. (सं.) महाघ, बहुमूल्य । -देवी, सं. स्त्री. (सं.) दुर्गा २. पट्टराइया | -यज्ञः, सं. पुं. (सं.) बृहयागः २. आर्यैः उपाधिः। प्रत्यहं कार्याः पंचयज्ञाः (ब्रह्मयज्ञः, देवयशः, -द्वीप, सं. पुं. ( सं.) भूखंडः, वर्षः-र्षम् । पितृयज्ञः, नृयशः, बलिवैश्वदेवयज्ञः )। -धातु, सं. पुं. (सं.) सुवर्णम् । -यात्रा, सं. स्त्री. (सं.) मृत्युः। -निद्रा, सं. स्त्री. (सं.) मृत्युः । -युग, सं. पुं. (सं. न.) चतुर्युगी। -निशा, सं. स्त्री. (सं.) निशीथः, अर्द्ध- -रथी, सं. पुं. (सं. महारथः) महायोधः । मध्य,-रात्रः-रात्रिः ( स्त्री.), महारात्रम् ।। -राजा, सं. पुं. (सं. महाराजः ) राजेश्वरः, -पथ, सं. पुं. (सं.) प्रधान-महा-राज,-मार्गः राजेन्द्रः, नृपश्रेष्ठः, सम्राज् (पु.), अधिराजः । २. मृत्युः, घंटा-श्री,-पथः, संसरणं, राज -राजाधिराज, सं. पुं. (सं.) चक्रवति-सार्ववमन् (न.)। भौम, नृपः। -पाप, सं. पुं. (सं. न.) महापातकम् । --रात्रि, सं. स्रो. (सं.) महाप्रलयांधकारः-पापी, सं. पुं. (सं.-पिन् ) महापातकिन् । २. दे. 'महानिशा'। -रानी, सं. स्त्री. ( सं. महाराशी) अधिराज्ञी।. -पात्र, सं. पुं. (सं.) मुख्य-प्रधान महा.- 1 मंत्रिन्-अमात्यः-सचिवः । -हास, सं. पुं. (सं.) अट्टहासः, अति,-हास: हसितम्। -पुरुष, सं. पुं. (सं.) पुरुषर्षभः, नरोत्तमः। महाजन, सं. पुं. (सं.) नरर्षभः, पुरुषोत्तमः २. दुष्टः (व्यंग्य में)। २. साधुः ३. धनिकः, धनाढ्यः ४. कुसीदिकः-प्रभु, सं. पुं. (सं.) पवित्रात्मन्, महात्मन् दिन, वा षिक: पिन्, ऋणद: ५. वणिज् (पुं.) २. नृपः ३. विष्णुः ४. शिवः ५. इन्द्रः। ६. आर्यः, सज्जनः। -प्रलय, सं. पुं. (सं.) त्रिलोकीनाशः, संसार महाजनी, सं. स्त्री. ( सं. महाजनः> ) वृद्धि. संहारः। जीविका, अर्थप्रयोगः, कुसीद, कौसीयं --प्रस्थान, सं. पुं. (सं. न.) मृत्युः । २. लिपिविशेषः। -प्राण, वि. (सं.) महासत्त्व, महाबल । सं. महातम, सं. पुं., दे. 'माहात्म्य' । पुं. (सं.) वर्णमालायाः अक्षरविशेषाः (ख, महात्मा, सं. पुं. (सं.-त्मन्) महाशयः, महाध् , छ , झ् , , , थ् , ५ , फ, भ् , नुभावः, महामनस् (पुं.), उदारचरित। श, ष, स, ह)। महान् , वि. (सं. महत् ) दे. 'महा' (१-३)। -बली, वि. ( सं.-लिन् ) बलिष्ठ । महाराष्ट्र, सं. पुं. (सं.) दक्षिणापथे प्रांतविशेषः । -बाहु, वि.(सं.) दीघ-आजानु,बाहु २. बल महाराष्ट्री, सं. स्त्री. (सं.) दे. 'मरहटी' वत्। २. प्राकृतभाषाभेदः। -ब्राह्मण, सं. पुं. (सं.) गीविप्रः। महावत, सं. पुं. (महामात्रः) हस्तिपकः, -भाग, वि. (सं.) सौभाग्यशालिन् । हास्तिकः, गजाजीवः, निषादिन , आधोरणः, -भारत, सं. पुं. (सं. न.) व्यासप्रगीत- इभ्यः । श्लोकमयः इतिहासग्रंथः। महावर, सं. पुं. (सं. महावर्ण ? ) याव-यावक-भाष्य, सं.पुं. (सं. न.) अष्टाध्यायीसूत्राणां अलक्तक-लाक्षा,-रसः। पतंजलिकृतं बृभाष्यम् । महावरा, सं. पुं., दे. 'मुहावरा' । -मांस, सं. पुं. ( सं. न.) (१-८) गो-नर- महाशन, वि. (सं.) अमर, घस्मर, औदरिक, गज-घोटक-महिष-वराह-उष्ट्र-सर्प,-मांसम् ।। । उदरंभरि । -माई, सं. स्त्री. (सं.+हिं.) दुर्गा २. काली । | महाशय, सं. पुं. (सं.) महात्मन् , महामनस् , For Private And Personal Use Only Page #500 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir महास्पद [ ४६२ ] माँझा - सज्जनः, आर्यः, उदार, चेतस्-मतिः-धीः, महा-। ३. लशुनं ४, वाराहीकंद: ५. वत्सनाभः नुभावः । ( स्त्री. महाशया)। ६. पिप्पली ७. अतिविषा । महास्पद, वि. (सं.) उच्च, पदस्थ अधिकारिन् | माँ, सं. स्त्री. ( सं. मा ) दे. 'माता' । २. शक्तिशालिन , सशक्त, शक्तिमत् । मांग,', सं. स्त्री. हिं. मांगना ) दे. 'मांगना' । महि, सं. स्त्री. (सं.) दे. 'पृथिवी' । सं. पुं. २. आवश्यकता, पृच्छा, जिघृक्षा, -पाल, सं. पुं. (सं.) दे. 'राजा'। प्रेप्सा, लिप्सा ३. प्रार्थनाविषयः। महिमा, सं. स्त्री. [सं. महिमन् (पुं.)] महत्त्वं, मांगर, सं. स्त्री. (सं. मार्गः ?) सीमंतः, माहात्म्यं, गौरवं, महत्ता, गरिमन् (पुं.), *मूर्द्धजरेखा। गुरुत्वं २. श्रीः ( स्त्री.), शोभा, प्रभावः, -निकालना, क्रि. स., सीमंतयति (ना. धा.), प्रतापः, तेजस् (न.), प्रभा, विभूतिः ( स्त्री.)। सीमंतं उन्नी (भ्वा. प. अ.)। ३. सिद्धिविशेषः ( योग.)। -चोटी, सं. स्त्री., केश, विन्यासः-संस्कारः । महिला, सं. स्त्री. (सं.) नारी, रामा, स्त्री, -जली, सं. स्त्री., विधवा। ललना, वनिता। माँगना, क्रि. अ. (सं. मार्गणं>) भिक्ष महिष, सं. पुं. (सं.) असुरविशेषः २. दे. 'भैंसा' (भ्वा. आ. से.) भिक्षाटनं कृ । क्रि. स., ३. अभिषिक्तो नृपः। याच (भ्वा. आ. से.), अभि-प्र-अर्थ (चु. महिषी, सं. स्त्री. (सं.) ३. 'भैंस' २. पट्टराशी। आ. से.) २. ऋणं कृ अथवा ग्रह (क्र.प.से.)। मही, सं. स्त्री. (सं.) दे. 'पृथिवी'। सं. पुं., भिक्षणं, भिक्षा, भिक्षाटनं, याचनं-ना, -धर, सं.पुं. (सं.) पर्वतः, गिरिः २.शेषनागः। याञ्चा, अभ्यर्थन-ना, प्रार्थनं-ना । -प,-पति, सं. पुं. (सं.) दे. 'राजा'। | मांगने योग्य, वि., याचनीय, अभि-प्र, अर्थ - -रुह, सं. पुं. (सं.) वृक्षः, पादपः । । नीय, प्रार्थयितव्य। -सुर, सं. पुं. (सं.) ब्राह्मणः।। मांगनेवाला, सं. पुं. भिक्षु, भिक्षुकः; याचकः, महीन, वि. (महा-क्षीण) दे. 'मूक्ष्म' तथा प्रार्थकः, प्राथिन् इ. । 'बारीक'। मांगलिक, वि. (सं. शिवं शुभंकर (-री स्त्री.), महीना, सं. पुं. [ सं. मासः, मास् ( पुं.), मि. शिव, शुभ, कल्याण (-णी स्त्री.), मंगल, भद्र, फ़ा. माह ] दे. 'मास' २. मासिकवेतनम् ।। मांगल्य। महुआ, सं. पुं. (सं. मधूकः ) गुडपुष्पः, मधु-मांगल्य, वि. (सं.) दे. 'मांगलिक' । सं. पुं. द्रमः, मधुः, मधुकः, मधु, पुष्पः-वृक्षः स्रवः, | (सं. न.) शुभं, भद्रं, कल्याणं, शिवम् । माधवः। मांगा हुआ, वि., प्रार्थित, याचित । महेंद्र, सं. पुं. (सं.) दे. 'इन्द्र' २. विष्णु: माँजना, क्रि. स. (सं. मार्जन) प्र-सं-मृज ३. पर्वतविशेषः। । (अ. प. से.; चु.), प्रक्षल (चु.), धाव महेश, सं. पुं. ( सं.) शिवः २. ईश्वरः। | (भ्वा. प. से.; चु.), अव-निर्-निज (जु. महेश्वर, सं. पुं. (सं.) शिवः २. परमेश्वरः। उ. अ.), पवित्री कृ २. पतंगगुणं तीक्ष्णीकृ, ३. सुवर्णम् । मृज (भ्वा. प. वे.)। क्रि. अ., अभ्यस महेश्वरी, सं. स्त्री. (सं.) दुर्गा, पार्वती।। (दि. प. से)। सं. पं., मार्जनं, प्रक्षालनं. महोत्सव, सं. पुं. (सं.) महा, क्षण:-उद्धर्षः- 1 धावनं, अभ्यसनम् । पर्वन् (न.)-महस् (न.)-महः। माँजने योग्य, वि., मृज्य, मार्जनीय, प्रक्षालमहोदधि, सं. पुं. (सं.) महा,-सागरः-अब्धिः । नीय, धावनीय। महोदय, सं. पुं. (सं.) महाशयः, महानुभावः | माँजनेवाला, सं. पुं., मार्जकः, प्रक्षालकः, ( आदरसूचक संबोधन ) २. ऐश्वर्य, वैभवं धावकः, पावकः, शोधकः । ३. स्वर्गः ४. मोक्षः । (स्त्री. महोदया) माँजा हुआ, वि., मार्जित, मृट, प्रक्षालित इ. । महोपाध्याय, सं. पुं. (सं.) प्राध्यापकः, माझा', सं. पु. ( सं. मध्य> ) पुलिन, नदीपण्डितः। मध्यस्थं, दीपं २. वरप्रदत्तं संभोजनं ३. औद्रामहौषध, सं. पुं. (सं. न.) भूम्याहुल्यं २. शुंठी | हिकः पीतवेशः ४. प्रकांडः, स्कंधः । For Private And Personal Use Only Page #501 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir मातबरी मा, सं. स्त्री. (सं.) लक्ष्मीः (स्त्री.) २. मातृ (स्त्री.) । -बाप, सं. पुं., 'मातापिता' । माइक्रोमीटर, सं. पुं. (अं.) अणुमापकम् । माई, सं. स्त्री. [ सं . मातृ (स्त्री.) ] दे. 'माता' २. वृद्धा, जरती, स्थविरा | चक्रम् | माँड़ना, क्रि. स., दे. 'रौंदना', 'मसलना' और 'गूंधना' । —का लाल, सं. पुं., उदारः, वदान्यः २. वीरः, शूरः । मांडलिक, सं. पुं. (सं.) मंडल, ईश्वर : - अधीशः, माक़ल, वि. (अ.) यथार्थ, न्याय्य, उचित, युक्त, योग्य २. पर्याप्त ३. उत्तम । माखन, सं. पुं., दे. 'मक्खन' । - चार, सं. पुं., श्रीकृष्णः । माझा माँझा, सं. पुं. (सं. मार्जनं > ) *पतंगगुण गुंडिक:, *मार्जनः । [ ४६३ ] माँझी, सं. पुं. ( सं. मध्य > ) दे. 'मल्लाह' | माँड़, सं. पुं. (सं. मंड:-डं) भक्तमंडः, आचासः, पिच्छल:-लं-ला, निस्र (स्रा) वः, मासरः, पिच्छा अध्यक्षः । माँडव, सं. पुं. (सं. मंडपः ) औद्वाहिकमंडपः । मांडवी, सं. स्त्री. (सं.) भरतपत्नी, कुशध्वजपुत्री । माड़ा, सं. पुं. (सं. मंडक : ) पिष्टकभेद: । माँड़ी, सं. स्त्री. (सं. मंडः> ) श्वेतसार:मंड:-डम् । मांत्रिक, वि. (सं.) मंत्र, सम्बन्धिन्-विषयक | सं. पुं. (सं.) मंत्रविद्, वेदपाठिन् २. अभिचारिन्, मायिन् । माँद', वि. ( सं . मंद ) निःश्रीक, खिन्न, विवर्ण २. मंदतर, निकृष्टतर, मलिनतर । माँदर, सं. स्त्री. ( देश. ) शुष्कगोमयराशिः, शकृच्चयः २. ( हिंस्र पशूनां ) गुहा, गहरं, विवरम् । माँदगी, सं. स्त्री. (फ़ा. ) रोगः २. क्लांति:ग्लानिः (स्त्री.) । माँदा, वि. ( फा . ) श्रांत, क्लांत २. अवशिष्ट ३. रुग्ण, रोगिन् । मांस, सं. पु. ( सं. न. ) पिशितं, पलं, पललं, तरसं, क्रव्यं, आमिषं, अस्रजं, की, जांगलम् । - का घी, सं. पुं., मांस, सार:-स्नेहः, मेदस् ( न. ) । . पेशी, सं. स्त्री. (सं.) शरीरस्थं मांस पिंडकं, मांसपिंडी, स्नसा, वस्नसा, स्नायुः, नाव: (ये पुरुष में ५००, स्त्रियों में ५२० होती हैं) २. द्वितीय सप्ताहे गर्भरूपम् । - भक्षक, सं. पुं. ( सं .) मांस, अद् (पुं.)अद:-भोजिन्-भक्षिन्-आहारिन् - आशिन् । -- भक्षण, सं. पुं. ( सं. न. ) मांस, भोजनंअशनं- अदनं- आहारः । - रस, सं. पुं. (सं.) मांसमंड:-डं, दे. 'यखनी' । मांसल, वि. (सं.) पीन, पीवर, मांसपूर्ण २. पुष्ट, दृढांग ३. बलवत्, बलिन् । सं. पुं., दे. 'उड़द ' । मागध, सं. पुं. ( सं . ) मगधवासिन् २. जरासंध: ३. चारण, वंदिन् । माघ, सं. पुं. (सं.) शिशुपालवधमहाकाव्यलेखको महाकविविशेषः । २. तपस् (पुं.), मासविशेष: ( जनवरी-फरवरी ) । माजरा, सं. पुं. (अ.) वृत्तं, वृत्तांतः २. घटना । माजाया, वि. (सं. माजात ) सोदर, सहोदर, सोदर्य | माजू, सं पुं. ( का . ) मज्ज - मायि छिद्रा, फलं, मायिका । - फल, सं. पुं. (फ़ा + सं . ) माया-मायिछिद्रा - फलं, मायिकम् । माजून, सं. स्त्री. (अ.) अवलेहः, ( औषधं ) २. भंगामिश्रितावलेहः । माट, सं. पुं. (हिं. मटका ) बृहन्नीलभांड २. 'मटका' । माटी, सं. स्त्री. दे. 'मिट्टी' | माणिक, सं. पुं. (सं. माणिक्यं ) शोण, रत्नंउपलः, पद्मरागः, लोहितकं, रत्नम् । मातंग, सं. पुं, (सं.) द्विपः, गजः । मात, सं. स्त्री. ( अ ) परा-अभि- परिभवः, पराजयः २. पराजित, परास्त, पराभूत । — करना, क्रि. स., विजि (भ्वा. आ. अ. ), परा-भू । — होना, क्रि. अ., परा-भू (कर्म), विजित (वि.) भू । मातदिल, वि. ( अ. मोनदिल ) अनुष्णशीत, मध्यम, सामान्य, मध्यमप्रकृतिक । मातबर, वि. ( अ. मोतबिर) दे. 'विश्वसनीय' । मातबरी, सं. स्त्री. ( अ. + फ़ा. ) दे. 'विश्वसनीयता' | For Private And Personal Use Only Page #502 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra मातम www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [ ४६४ ] मातम, सं. पुं. (अ.) मृतक -, शोक:, क्रंदनं, विलापः परिदेवना । -खाना, सं. पुं., शोकसदनम् । - पुर्सी, सं. स्त्री. (अ. + फ़ा.) आसमा, श्वासनं, सांत्वनं, शोकशमनं, अनुशोचनम् । - पुसीं करना, क्रि. स., अनुशोकं प्रकाश् (प्रे.), अनुशुच् (भ्वा. प. से.), मृतकबन्धून् समाश्वस् (प्रे.) । मातमी, वि. (का.) शोक-सूचक-प्रकाशक- पूर्ण । - लिबास, सं. पुं. (फ्रा. + अ.) शोक, वेश: ( षः) । मातरिश्वा, सं. पुं. ( सं . श्वन्) वायुः दे. वातः, पवनः, अनिलः । मातलि, सं. पुं. ( सं . ) इन्द्रसारथिः । —सूत, सं. पुं. (सं.) सुरेशः, शचीपतिः, इन्द्रः । मातहत, वि. ( अ ) अधीन, आयत्त । मातहती, सं. स्त्री. (अ. मातहत ) अधीनता, आयत्तता । माता', सं. स्त्री. [ सं . मातृ' (स्त्री.) ] जननी, जनयित्री, शुश्रूः (स्त्री.), जनी निः (स्त्री.), जनित्री, सवित्री, प्रसूः (स्त्री.), अक्का, अंबा, अंबिका, अंबालिका, माता ( क्वचित् ) । २. वृद्धा, स्थविरा, पूज्यनारी ३. गौ: (स्त्री.) ४. भूमि: ( स्त्री. ) ५. शीतला ली, दे. 'चेचक' ६. मसूरी - रिका, दे. 'खुसरा' । - ढलना, क्रि. अ., शीतला शम ( दि. प. से.) । - निकलना, क्रि. अ., शीतला आविर्भू । - पिता, सं. पुं. पितरौ मातापितरौ, मातरपितरौ, माताती, अंबाजनकौ । -मह, सं. पुं. (सं.) मातुर्जनकः । -मही, सं. स्त्री. (सं.) मातुर्जननी । छोटी, सं. स्त्री, लघुमसूरिका (हि. लाकड़ाकाकड़ा) । माता', वि., दे. 'मत्त ' ( १ ) | माधुर्यं अंकपाली ४. ब्राह्मीत्यादयः सप्तदेव्यः ५. स्वरवर्णचिह्नानि, मात्रा (,,इ.) । मात्र, अव्य. (सं. मात्रं ) एव, केवलम् । मात्रा, सं. स्त्री. (सं.) परि-प्रमाणं, मानं, अंशः, भागः २. सकृत्सेव्यः औषध नागः ३. मात्रिका, कला, हस्ववर्णोच्चारणापेक्षितः काल: ४. स्वरवर्णचिह्न (,,इ.) । मात्सर्य, सं. पुं. (सं. न. ) दे. 'मत्सर' | माथा, सं. पुं. ( सं . मस्तकः कं > ) दे. 'मस्तक " (२) अग्र, अग्र, भाग:-देश: ३. मूर्धन् (पुं.), शिखरम् । -पच्ची, —पिहन, } सं. स्त्री., दे. ‘महाज़पञ्ची' । मातुल, सं. पुं. (सं.) मातृभ्रातृ पितृश्यालः, मातृकः । मातुली, सं. स्त्री. (सं.) मातुला-लानी, मातुल-पत्नी । मातृ, सं. स्त्री. ( सं . ) दे. 'माता' । - भाषा, सं. स्त्री. ( सं . ) जन्मभाषा । मातृक, वि. ( सं .) मातृ, विषयक संबंधिन् । सं. पुं. (सं.) दे. 'मातुल' मातृका, सं. स्त्री. (सं.) दे. 'माता' २. उपवि, माता, मातृसपत्नी ३. धात्री, धातृका, - टेकना, मु., चरणयोः पत्. ( भ्वा. प. से. ), प्रणम् (भ्वा. प. अ. ) ठनकना, मु., भाविसंकटं आशंक् (भ्वा. आ. से. ) । रगड़ना, मु., पादयोः पतित्वा (भ्वा. आ. से. ) । मादक, वि. ( सं .) मद, कारक जनक | मादकता, सं. स्त्री. (सं.) मदकारकता । मादर, सं. स्त्री. [फ़ा. मि. सं. मातरः (मातृ से ) ] जननी, जनित्री, मातृ (स्त्री.) । - ज़ाद, वि. (फ्रा.), मि. सं., मातृजात ) सहज, स्वाभाविक, नैसर्गिक, जात्या - जन्मना - जन्मत: ( अंध:, वधिरः इ. ) २. दिगंबर, नग्न ३. सोदर, सहोदर । याच Rs मादा, सं. स्त्री. (फ्रा. ) नारी, स्त्री, स्त्रीजातीयको जीवः । For Private And Personal Use Only माहा, सं. पुं. (अ.) प्रकृतिः (स्त्री.) उपादानकारणं २. योग्यता ३. दे. 'पीप' | माधव, सं. पुं. (सं.) विष्णुः, नारायणः २. वैशाखः ३. वसंतः । माधवी, सं. स्त्री. (सं.) वासंती, सुगंधा, चंद्रवल्ली, भद्रलता, अतिमुक्तकः, माधविका २. सुराभेदः । माधुरी, सं. स्त्री. (सं.) मधुरता २ सुंदरता ३. मद्यम् । माधुर्य, सं. पुं. ( सं. न. ) मधुरतात्वं, मिष्टत्वं, स्वादुत्वं, मधुमयता, मिष्टता २. सौन्दर्य, लावण्यं ३. चित्तद्रवीभावमयो ह्रादः, काव्यगुणभेदः । Page #503 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir माध्यंदिन माध्यंदिन, वि. (सं. >) मध्य, मध्यम, मध्यवर्तिन् । सं. पुं., मध्याहः, मध्य (ध्यं) दिनम्, उद्दिनम् २. वाजसनेयिसंहितायाः शाखाविशेषः । माध्यम, वि. (सं.) माध्यमक [ --मिका (स्त्री.)], माध्यमिक ( - मिकी स्त्री. ). माध्य [ ध्यी ( स्त्री. ) ], केन्द्रीय, मध्यम । सं. पुं. (सं. न. ) उपकरणं, साधनं २. मृतसंदेशहरः । माध्यमिक, वि. (सं.) मध्य, मध्यम, मध्यवर्तिन् । सं. पुं. बौद्धसम्प्रदायविशेषः । माध्यस्थ्य, सं. पुं. (सं. न.) दे. 'मध्यस्थता' । माध्वी, सं. स्त्री. (सं.) मध्यादिनिर्मितसुरा २. माधवी, वासन्ती, सुगंधा । मान, सं. पुं. (सं.) गर्वः, अभिमानः, दर्पः, अहंकारः, अवलेपः २. संमानः, प्रतिष्ठा, आदरः, संभावना, पूजा, प्रश्रयः यणं ३. कोप:, प्रीति प्रसाद,-अभावः । ( सं. न. ) यौतवं, पौतवं, पाय्यं वयं (हि. तौल नाप ) २. प्र-परिमाणं, मात्रा ३. इयत्ता, विस्तारः ४. भारः, गुरुत्वं, तील: ५. भारभावं परिमाणं, मात्र, माड: ६. मान, दंड:- सूत्रं इ. ७. साधनं हेतुः, युक्तिः (स्त्री.) । -करना, क्रि. स., सत्- पुरस्, कृ, संमन् (प्रे.), पूज-महू ( चु.)। क्रि. अ., मानं धा (जु. उ. अ. ), कुप् ( दि. प. से. ) २. दृप् ( दि. प. अ.), गर्व ( वा. प. से. ) । - चित्र, सं. पुं. ( सं. न. ) देश लेख्यं, प्रदेशचित्रं, दे. 'नक्शा' । - मंदिर, सं. पुं. (सं. न.) वेधशाला २. कोप- मानिक, सं. पुं., दे. 'माणिक' । [ ४६५ ] मानुष तर्क ( चु. ), उत्प्रेक्ष् (भ्वा. आ. से.) २. अंगीस्वी, कृ. अभ्युपगम्, अभ्युप-इ ( अ. प. अ. ), मन् ( दि. आ. अ. ) ३. सन्मार्गगामिन् भू । क्रि. स., दे. 'मानना' क्रि. अ. २. दक्ष प्रवीणंपूज्यं मन् ( दि. आ. अ. ) ३. श्रद्धा ( जु. उ. अ. ), विश्वस् ( अ. प. से. ) ४. दे. 'मन्नत मानना' । सं. पुं., स्वी- अंगी, करणं-कारः, अभ्युपगमः-गमनं, उत्प्रेक्षणं-क्षा, विश्वसनम् । कल्पनं, माननीय, वि. (सं.) पूज्य, पूजनीय, सत्कार्य, आदरणीय, संमान्य । मानने योग्य, वि., स्वी- अंगी, कार्य, मंतव्य, अभ्युपेय २. श्रद्धेय पूज्य, विश्वसनीय । माननेवाला, सं. पुं., स्वीकर्तृ, मंतृ २. श्रद्धालुः, विश्वासिन् । मानव, सं. पुं. ( सं . ) दे. 'मनुष्य' । मानवी, सं. स्त्री. (सं.) मानुषी, स्त्री, नारी । वि., मानव, मानुष, पौरुषेय, मनुजोचित । मानस, सं. पुं. ( सं. न. ) मनस् - चेतस् (न.), हृदयं, दे. 'मन' (१-४ ) । २. कैलासवत सरोवरविशेष: ३. कामदेवः, कंदर्पः । वि., मानसिक, चैत्त, बौद्धिक, हार्दिक । शास्त्र, सं. पुं, ( सं. न. ) मनोविज्ञानम् । मानसिक, वि. (सं.) मनोभव, मानस, दे. 'मानस' वि. । माना हुआ, वि., स्वी- अंगी, प्रतिष्ठित, विश्वस्त | -कृत, मत २. पूजित मानिंद वि. ( फा . ) तुल्य, सदृश, वत् । For Private And Personal Use Only मानित, वि. (सं.) आदृत, प्रतिष्ठित, पूजित । मानिनी, सं. स्त्री. ( सं . ) रुष्टनायिका । वि., मानवती, अभिमानिनी २ रुष्टा, प्रतीपा, कुपिता । भवनं, मानगृहम् । -मनौती, सं. स्त्री. ( सं . + हि.) दे. 'मन्नत' २. पारस्परिकप्रेमन् (पुं. न. ) ३. कोपप्रसादनं-ने । -मोचन, सं. पुं. (सं. न. ) कोप, उपशमनं मानी', वि. ( सं. निन् ) अहंकारिन्, दृप्त, अपनयनं, प्रसादनम् । गर्वित २. संमानित, प्रतिष्ठित । सं. पुं., रुष्ट—रखना, क्रि. स., दे. 'मान करना' क्रि. स. नायकः २. सिंहः । २. स्वाभिमानं आत्मसंमानं रक्ष (भ्वा.प.से.) । मानीर, सं. पुं. (अ.) अर्थ:, तात्पर्यं २. तत्त्वं, -हानि, सं. स्त्री. (सं.) अप-परि, वादः, रहस्यं ३. प्रयोजनम् । अपभाषणं. अवधीरणा, मानभंगः, अवमानना । मानता, सं. स्त्री. (हिं. मानना ) दे. 'मन्नत' २. संमानः, प्रतिष्ठा । मानुष, सं. पुं. (सं.) मनुष्यः, नरः, दे. 'मनु' २. प्रमाणभेद : ( धर्म.) । वि., मानुषि (ष)क, मानुष्यक, मनुष्यसंबंधिन्, मानुष्य, मानुषीय । मानना, क्रि. अ. (सं. मननं ) क्लृप् (प्रे.), ३० Page #504 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir मानुषिक [ ४६६ ) मार मानुषिक, वि. ( सं.) दे. 'मानुष' वि.। । माया, सं. स्त्री. (सं.) द्रब्यं, धनं, संपद् (स्त्री.) मानुष्य, सं. पं. (लं. न.) मनुष्यता त्वम् । वि., २. अज्ञानं, भ्रांतिः (स्त्री.), अविद्या ३. छलं, दे. 'मानुष' वि.। कपट ४. प्रकृतिः ( स्त्री.), सृष्टेः उपादानमाने, सं. पुं., दे. 'मानी' (१-३)। कारणं ५. ईश्वरीयशक्तिः ( स्त्री.) ६. इंद्रजालं. मानो, अव्य. (हिं. मानना ) इव, (प्रायः मन्) | कुहकं ७. देव,-लीला-शक्तिः (स्त्री.) प्रेरणा (दि. आ. अ.) से अनुवाद करते हैं। ८. ममतान्त्वम् । मान्य, वि. (सं.) दे. 'माननीय'। -कार, सं. पुं. (सं.) मायाजीविन, ऐन्द्रमाप, सं. स्त्री. (हिं. मापना) (सामान्य) जालिकः। मानं, प्र-परि,माणं, यौ(पौ )तवं, पाय्यं, -जोड़ना, क्रि. स., धनं संचि (स्वा. प. अ.)। द्रवयं २. (गजादि) मान, दंड:-सूत्रं इ., -मोह, सं. पुं. (सं.) जगज्जाल २. ममता३. ( बट्टा ) भारमानं, माडः, मात्र ४. (पात्र) त्वम् । प्रतीमानं, प्रस्थः ५. मानं, मापनं, माननिरूपणं -रूप, वि. (सं.) मायामय, अलीक, भ्रांति. ६. परिमाणं, इयत्ता, दे. 'मान' । मय, मायिक। मापक, सं. पु. (सं.) माननिरूपकः, मातृ (पुं.) -वती, सं. स्त्री. (सं.) रतिः ( स्त्री.), काम२. दे. 'माप' (१.४)। पत्नी । मापन, सं. पुं. (सं. न.) दे. 'मापना' सं. पुं.। -वाद, सं. पु. (सं.) भ्रांतिवादः, जीवजगमापना. कि. स. (सं. मापन) प्र-पार, मा | मिथ्यात्ववादः । (अ. प. अ.; जु, मा. भ.; दि. भा. भ.), मायाविनी, सं. स्त्री. (सं.) मायिनी, कपटिनी, मानं निरूप (चु.) २. तुल (चु.), भारं। वंचनशीला २. ऐंद्रजालिकी। निरूप् , दे. 'तोलना' । सं. पुं., मान, मान मायावी, सं. पुं. (सं.-विन ) मायिन्, कपटिन, निरूपणं, मापनं, मस्तिः (स्त्री.), तोलनं, वंचकः, धूर्तः, शठः २. ऐन्द्रजालिकः, कुहुकभारनिरूषणम् । जीविन, मायाकारः । मापने योग्य, वि., परि,-मेय, तोलयितव्य। माथिक. वि. (सं.) कृतक, कृत्रिम, २. दे. मापनेवाला, सं. पुं., दे. 'मापक' । 'मायावी' (२)। मापा हुआ, वि. परि, मित, ज्ञातमान, तोलित। मायी, वि. (सं.-यिन) मायाविन, धूर्त, वंचक, माफ़, वि., दे. 'मुआफ्न' । कपटिन् । माफ्रिक, दे. 'मुआफिक' । माफ़ी, दे. 'मु आफी'। मायूस, वि. (फ्रा.) दे. 'निराश'। मायूसी, सं. स्त्री. (फा.) दे. 'निराशा' । मामता, सं. स्त्री. (सं. ममता) दे. 'ममता' मार', सं. पुं. (सं.) कामदेवः २. विघ्नः मामा', सं. पुं., दे. 'मातुल' । । ३. विषं ४. धुस्तूरः ।। मामा२, सं. स्त्री. ( फ़ा.) मातृ (स्त्री.) जननी मार, सं. स्त्री. ( सं. मु.) मारणं, हनन, २. वृद्धा ३. दासी ४. धात्री, मातृका। हिंसनं २. घातः, वधः, हत्या ३. ताडन, आहमामि(म)ला, सं. पुं., दे. 'मुआमिला'। ननं, प्रहरणं ४. आघातः, प्रहारः ५. युद्धम् । मामी, सं. स्त्री., दे. 'मातुली'। -काट, सं. स्त्री., युद्धं २. वधः, घातः, हननं, मामू, सं. पुं., दे. 'मातुल' । | हिंसनम् । मामूल, वि. (अ.) दे. 'आदत' २. रीतिः- -धाद, । सं. स्त्री., मारताडं, मारणताडन, परिपाटी-टिः (स्त्री.)। | -पीट, अभिमदः, अभिसंपातः । मामूली, वि. (अ.) साधारण, सामान्य । मायका, सं. पुं. (हिं. माय ) ऊढायाः पितृमातृ, गृहम् । -गिराना, मु., आहत्य निपत् (प्रे.)। मायल, वि. (फा.) आनत, प्रवृत्त, प्रवण -डालना, मु., हन् ( अ. प. अ.), मृ-व्या२. मिश्रित। पद् (प्रे.)। --खाना, . टाड-प्रह (कर्म.)। -पड़ना, मु., ताङ्ग्रह ( कर्म.)। For Private And Personal Use Only Page #505 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra मारक www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [ ४६७ ] - बैठना, मु., परद्रव्यं कपटेन आत्मसात् कृ | - भगाना, मु., बिंदु (प्र.), पलाय ( प्रे. ), सर्वथा परा जि (भ्वा. आ. अ.) । -मारना, मु., भृशं अत्यर्थं निर्दयं तड़ (चु.) । - लाना, मु., लुठू (चु.), अन्यायेन अपहृ (भ्वा. प. अ.) । — लेना, मु., दे. 'मार बैठना' । - हटाना, मु., बलेन अपसृ ( प्रे.) -विद्रु (प्रे.) । मारक, वि. ( सं . ) घातक, हिंसक, संहारक, नाशक । मारका', सं. पुं. ( अं. मार्क ) चिह्न, लक्षणं, अभिज्ञानम् । मारकार, सं. पुं. ( अ ) युद्धं, संग्रामः २. विशिष्ट, वृत्तं घटना | मारकीन, सं. स्त्री. (अं. नैनकिन् ) *मारकीनं, स्थूलवस्त्रभेदः । मारण, सं. पुं. (सं. न. ) हननं, हिंसनं, व्यापादनं २. तांत्रिक प्रयोगभेदः । मारतौल, सं. पुं. (पुर्त० मोर्टली ) महा-बृहद्., धनः- विघनः । | मारना, क्रि. स., (सं. मारणं) मृ-ज्यापद् ( प्रे. ), हन् ( अ. प. अ.), हिंस् (भ्वा रु. प. से. ), सूद् ( चु. ) २. तड् ( चु. ), प्रहृ ( भ्वा. प. अ. ), आहन् ( अ.प.अ. ) ३. पीड् ( चु. ), दुःखयति ( ना. धा. ) ४. मल्लयुद्धादिषु निपत् ( प्रे. ) - पराजि ( भ्वा. आ. अ. ) ५. ( किवाड़ादि ) अ-, पिधा ( जु. उ. अ. ), आ-सं-वृ ( स्वा. उ. से. ) ६. मुच - प्रक्षिप् (तु. प. अ.), आस् ( दि. प. से. ) ७. निग्रह् ( क्. प. से. ), निरुधू ( रु. प. अ. ) ८. नशू. ध्वंस् ( प्रे.) ९. ( धात्वादिकं ) भस्मीकृ १०. अन्यायेन आत्मसात् कृ ११. अनु-स्था ( भ्वा. प. अ. ) १२. जि (भ्वा. प. अ.) १३. दंश (भ्वा. प. अ. ) । सं. पुं., मारणं, हननं, निषूदनं, हिंसनं, विशसनं, व्यापादनं, प्रमापणं २. हत्या, वधः, हिंसा, घातः ३. आहननं, ताडनं, प्रहरणं ४ पीडनं ५. निपातनं ६. पिधानं ७ नाशनं ध्वंसनं ८. भस्मीकरणं ९. अन्यायेन आत्मसात्करणं १०. दंशनं, इ. । माव मारनेवाला, सं.पुं., घातकः, हिंसकः, ताडकः । मारपेच, सं. स्त्री. (हिं. मारना + पेच ) कैतवं, कपटोपायः । मारवाड़, सं. पुं., राजस्थानस्य भागविशेषः । मारवाड़ी, सं. पुं., मारवाड़वासिनः । सं. स्त्री. मारवाड़ी, मारवाड़भाषा मारा, वि. (हिं. मारना) दे. 'मारा हुआ' (१-२ ) । - जाना, क्रि. अ., हन्-हिंस्-सूद् (कर्म. ) । मार, सं. स्त्री, मिथःताडनं, कलिः, संघर्षः । क्रि. वि., सत्वरं, सवेगं, शीघ्रतया । -मार करना, मु., त्वर् (भ्वा. आ. से. ), शीघ्रं या ( अ. प. अ. ) - कृ । -मारा फिरना, मु., मुधा परिभ्रम् (भ्वा: दि. प.से.), क्षीणवृत्तिक (वि.) पर्यट् (वा.प.से.) । हुआ, वि., हत, व्यापादित, मारित, २. ताडित, प्रहृत, आहत । मारी, सं. स्त्री. (सं.) दे. 'मरी' । मारुत, सं. पुं. (सं.) वायुः, मरुत ( पुं. ), मरुतः । - तनय, सं. पुं. (सं.) पवन, सुतः पुत्रः जः, मारुतिः, आंजनेयः । मारू, सं. पुं. (हिं. मारना ) रागभेदः २. रणभेरी-दुंदुभि: । वि., मारक, हृदयवेधक । मारे, अन्य. (हिं. मारना) कारणेन-गात्, हेतोः । मार्ग, सं. पुं. (सं.) अध्वन् पथिन् (पुं.), पथः, वर्त्मन् (न.) २. चरणपंथः, पदवी - विः (स्त्री.), पद्या, पद्धती - तिः (स्त्री.) ३. प्रतोली, राजपथः, रथ्या, वाहनी, श्रीपथः, सरणी- णिः (स्त्री.) ४. वोधी-धि: (स्त्री.), विशिखा ५. उपाय:, मार्गशीर्ष, सं. पुं. (सं.) आग्रहायणिकः, युक्तिः (स्त्री.) । मार्गः, मार्गशिर:- रस् (पुं. ), सहस् ( पुं. ) । मार्जन, सं. पुं. (सं. न.) मार्टि:-शुद्धिः (स्त्री.), मार्जना, मृजा, प्रक्षालनं, धावनं, शोधनं, पवनं, निर्मलीकरणम् । मार्जनी, सं. स्त्री. (सं.) दे. 'झाडू' | मार्जार, सं. पुं. (सं.) दे. 'बिल्ला' (-री स्त्री.) । मार्जित, वि. (सं.) पूत, शोधित, प्रक्षालित, धौत । मार्तंड, सं. पुं. ( सं . ) सूर्यः २. अर्कपः ३. शूकरः । मारने योग्य, वि., हंतव्य, हिंसितव्य, व्यापाद्य मार्दव, सं. पुं. ( सं. न. ) दे. 'मृदुता' । २. ताडयितव्य, आननीय, इ. । माफ़त, अव्य. (अ.) दे. 'द्वारा' | For Private And Personal Use Only Page #506 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir मार्मिक मार्मिक, वि. (सं.) प्रभावशालिन्, हृदयग्राहिन् । माल, सं. पुं. (अ.) संपद् -संपत्तिः (स्त्री.), वित्तं, अर्थ: २. सामग्री, परिच्छदः २. पण्यजातं, पणसाः (पुं. बहु. ), क्रय्यद्रव्याणि (न. बहु. ) ४. राजस्वं, करः ५. उत्पन्नं, प्रसवः, फलं ६. स्वादुभोजनं ७. गो- पशु, धनम् । - खाना, सं. पुं. (फ़ा.) भांडार, पण्यागारम् । - गाड़ी, सं. स्त्री. ( फ्रा + हिं. ) द्रव्यशकटी, दे. 'गाड़ी' । राजस्वदायकः, - गुज़ार, सं. पुं. (फ्रा.) भूमिकरदः । -गुज़ारी, सं. स्त्री. (फ्रा. ) भूमि क्षेत्र, कर: [ ४६८ ] शुल्कः । -टाल, सं. पुं., धनं, वित्तं, संपद (स्त्री.) । -दार, वि. (फ्रा.) धनिक, धनाढ्य । - मस्त, वि. (फ़ा.) वित्तदृप्त, धन, गर्वित-मत्त । माला, वि., सुसंपन्न, सुसमृद्ध । मालकंगनी, सं. स्त्री. (हिं. माल ?+ सं. कंगुनी) महाज्योतिष्मती, कंगुनी, कनकप्रभा, सुरलता, तीव्रा, तेजस्विनी ( लताभेद: ) । मालती, सं. स्त्री. (सं.) सुमना, सुमनस् ( स्त्री, न. ), जाती-ति: (स्त्री.) २. ज्योत्स्ना ३. रात्री । • मालपु (पू) आ, सं. पुं. ( अ. माल + सं . पूपः ) पूपः, पिष्टकः, दे. 'पुआ' । माली', सं. पुं. ( सं . लिन् ) मालाकारः, मालिकः, उद्यानपालः २. जातिविशेष: ३. मालाधारिन् । माली २, वि. ( अ. माल ) आर्थिक, सांपत्तिक, अर्थ- द्रव्य-धन, विषयक । मालोखोलिया, सं. पुं. ( यूनानी) विषादवायुरोगः, श्लैष्मिकोन्मादः । मालीदा, सं. पुं. ( फा . ) दे. 'मलीदा' | मालूम, वि. ( अ. ) ज्ञात, दे. 'विदित' । मालदह, सं. पुं. ( देश० ) बिहार राज्यस्य- माल्टाफ़ीवर, सं. पुं. ( अं.) माल्टाज्वरः । नगरविशेषः -. आम्रभेदः । माल्य, सं. पुं. (सं. न. ) दे. 'माला' (१)२. पुष्पं, कुसुमम् । मालवा, सं. पुं. (सं. मालव: ) अवंतिदेशः । मालवीय, वि. (सं.) मालवसम्बन्धिन् । सं. पुं., मालववासिन् २. विप्रभेदः । माला, सं. स्त्री. (सं.) माल्यं, स्रज् (स्त्री.), माल (लि-ला) का, आपीडः, अवतंसः, अंकिलि: (स्त्री.) २. पंक्ति: - आवलि:-राजि :- श्रेणि: (स्त्री.) ३. समूहः, निकरः ४. अक्ष-जप माला ५. कंठमाला, हारः । -कार, सं. पुं. ( सं . ) दे. 'माली' । — फेरना, मु., ईश्वरं, भज् (भ्वा. उ. अ. ), प्रणवं जपू (भ्वा. प. से. ) । मालामाल, वि. ( अ. ) समृद्ध, सम्पन्न, धनधान्यपूर्ण । मालिक, सं. पुं. (अ.) परमेश्वरः २. स्वामिन्, प्रभुः ३. पतिः [ मालिका ( स्त्री. ) 1 ] मालिका, सं. स्त्री. ( सं . ) पंक्ति: श्रेणिः ततिः मास (स्त्री.) २. माला ३. कंठभूषणभेदः ४. द्राक्षा-, मद्यं ५. मालिनी ६. दे. 'चमेली' । मालिकी, सं. स्त्री. ( फ़ा. मालिक ) स्वामित्वं, प्रभुत्वं स्वत्वम् । मालिक्यूल, सं. पुं. ( अं.) व्यूहाणुः, अणुः । मालिन, सं. स्त्री. (सं. मालिनी) मालाकारी, मालिकी । मालिन्य, सं. पुं. ( सं. न. ) दे. ' मलिनता " २. अंधकारः । मालियत, सं. स्त्री. (अ.) मूल्यं, अर्धः २. धनं ३. मूल्यवद्द्रव्यम् । मालिया, सं. पुं., दे. 'मालगुज़ारी' । मालिश, सं. स्त्री. (सं.) अभ्यंजनं, मर्दनं, घर्षणं, संवाहनम् । मावस, सं. स्त्री. दे. 'अमावस्या' । मावा, सं. पुं. (सं. मंड:) दे. 'मांड ' २. किलाट : ३. गोधूमादिकस्य दुग्धं ४. अंड, गर्भ:-पीतिमन् (पुं. ) ५. तमाखु, मासर:- किण्वः ६. सारः, निष्कर्ष: ७. सामग्री, उपकरणजातम् । माशकी, सं. पुं. ( फ़ा. मशक ) दुतिहरः । माशा-पा, सं. पुं., दे. 'मासा' । वल्लभः प्रियः । माशूक, सं. पुं. (अ.) कांत, दयितः, वल्लभः प्रियः । माशूका, सं. स्त्री. (अ.) प्रिया, कांता, दयिता, वल्लभा । माष, सं. पुं. ( सं .) कुरुविंद:, धान्यवीरः, वृषाकरः, मांसल, बलाढ्यः, पित्र्यः, पितृभोजन: २. दे. 'मसा' ३. दे. 'मासा' । मास', सं. पुं. ( सं . पुं. न. ) वर्षीश, वर्षाङ्गः, शुक्लकृष्णपक्षद्वयात्मकः कालः, त्रिंशदिनात्मकः For Private And Personal Use Only Page #507 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra मास [ ४६६ ] मिट्टी नहीं होते ), मासकः २. चांद्रमासः, तांतः, सांवत्सरः ३. सौरमासः, सावनः । -भर का, वि., मास्य, मासीन ( बालकादि) । हर, क्रि. वि. प्रति अनु, मासं, मासे मासे । मास', सं. पुं., दे. 'मांस' | समय:, मास् (पुं., इसके पहले पांच रूप । मिचकाना, क्रि. स. (हिं. मिचना) नेत्रेऽसकृत् निमील (भ्वा. प. से. ) उन्मील् च, नयने पुनः पुनः निमिष ( तु. प. से. ) उन्मिष् च, असकृत् निमेषोन्मेषं कृ २. दे. 'मीचना' । मिचना, क्रि. अ. ब. 'मीचना' के कर्म. रूप । मिचलाना, क्रि. अ., दे. 'मचलाना' (१) । मिजराब, सं. स्त्री. (अ.) परि(री) वादः, वीणामुद्रा । मासड़, सं. पुं. (हिं. मासी ) मातृष्वसृ, धव: पतिः । मिज़ाज, सं. पुं. अ. ) प्रकृतिः, स्वभाव: २. शारीरिक-मानसिक, अवस्था-दशा ३. दर्पः । -दार, वि. ( अ. + फा. ) दृप्त, गर्वित । –-पुरसी, सं. स्त्री. (अ. +फा.) कुशल-पृच्छाः । - शरीफ़, वाक्यांश (अ.), अपि कुशली भवान् । www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir मासा, सं. पुं. (सं. मास: ) माषकः, माष:, हेमः, धानकः, अष्टगुंजामाङः । -भर, वि., माष, मास-मात्र २. अत्यल्प | - तोला होना, मु., दशायाः अस्थिरत्वं-अधुवत्वं- परिवर्तित्वम् । मासिक, वि. (सं.) मासानुमासिक, प्रतिमासिकः, मासि भव, मासीन। सं. पुं. (सं. न. ) अन्वाहार्य, श्राद्धभेदः २. रजोदर्शनं ३ मासिकवेतनम् । - धर्म, सं. पुं. (सं.) ऋतु:, आर्तव (न.), रज:, रज:स्रात्रः । रजस - पत्र, सं. पुं. (सं. न.) प्रातिमासिकपत्रिका । मासी, सं. स्त्री. (सं. मातृष्वसृ) जननी-भगिनी । -का लड़का, सं.पुं., मातृष्वसेयः, मातृष्वस्त्रीयः । —की लड़की, सं. स्त्री, मातृष्वसेयी, मातृष्वस्त्रीया । मासीन, वि. (सं.) मासिक, मास्य, मास्यानुमासिक | माह, सं. पुं. (फ़ा. ) दे. 'मास' २. चंद्र: ३. प्रियः । मानम् । मिक्स्चर, सं. पुं. (अं . ) मिश्रम् । -ताब, सं. पुं. ( फ्रा. ) चंद्र: २. चन्द्रिका | -ताबी, सं. स्त्री. ( फा . ) दे. 'महतावी' | -वार, वि. ( फा ) दे. 'मासिक' । क्रि. वि., प्रतिमासम् । सं. पुं., मासिकवेतनम् । - वारी, वि. ( फा . ) दे. 'मासिक' । माहात्म्य, सं. पुं. (सं. न. ) महिमन्- गरिमन् ( पुं.), महत्वं, महत्ता, गौरवं महात्मता, २. तीर्थयात्राग्रंथाध्ययनादिकस्य विशिष्टफलम् । माही, सं. त्रो, (का. ) मीनः, मत्स्यः । -गीर, सं. पुं. ( फा . ) दे. 'मछुआ-बा' | माहुर, सं. पुं. (सं. मधुरं ) विषं, गरल :-लम् । मिकदार, सं. स्त्री. (अ.) मात्रा, परिमाणं, मिटना, क्रि. अ. (सं. सृष्ट> ) अप-क्या,-सृज् ( कर्म. ), विलुप् ( दि. प. से. ) २. उच्छिद् ( कर्म. ), विनश् ( दि. प. वे.), उन्मूल् ( कर्म . ) ३. निर्- अस् ( कर्म.), खंड-प्रत्याख्या (कर्म.)। सं.पुं., लोपः, अप-व्या, सृष्टिः (स्त्री.), उच्छेदः, विनाशः, निरासः, प्रत्याख्यानम् । मिटाना, क्रि. स. ब. 'मिटना' के प्रे. रूप । मिटा हुआ, वि., अप-व्या, मृष्ट, विलुप्त, विनष्ट, खंडित । मिट्टी, सं. स्त्री. [ सं . मृत्तिः (स्त्री.) ] मृत्तिका, रेणुः, धूलि : (स्त्री.) मृदा, मृद् (स्त्री. ) । ( अच्छी मिट्टी ) मृत्सा-त्स्ना २. पृथिवी ३. भस्मन् (न., सुवर्णादि की ) ४. शरीरं ५. शवः । - का तेल, सं. पुं., मृत्तैलम् । का पिंजर, सं. पुं., मानवदेहः । - का पुतला, सं. पुं., मनुष्यः २ मानवशरीरम् । - का माधव, सं. पुं., जडः, मूर्खः । -करना, मु., नश-ध्वंस् ( प्रे.) २. कलुषयति ( ना. धा. ) 1 - के मोल, मु., अत्यल्प, मूल्येन - अर्घेण, निर्मूत्यमिव । - ठिकाने लगाना, मु., अन्त्येष्टिं कृ २. शवं भूमौ निधा ( जु. उ. अ. )-स्था (प्र.) । -डालना, मु., शम् (प्रे, शमयति ), गुद्द् (भ्वा. उ. से. ) । - पलीद या ख़राब होना, मु., परिक्षि ( कर्म. ), क्षयं नाशं इ-या ( अ. प. अ.) For Private And Personal Use Only Page #508 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir मिट्टी परिक्षीण- गतविभव (वि.) भू, दुर्दशां आपद (दि. आ. अ.) । - में मिलना, मु., दे. 'मिट्टी पलीद होना' २. मृ ( तु. आ. अ. ) पंचत्वं गम् । मिट्ठी, सं. स्त्री. (सं. मिष्ट > ) चुंबनं, दे. 'चूमा' । मिट्ठू, सं. पुं. (सं. मिष्ट > ) मधुरभाषिन् २. शुकः, कीरः । वि. मौनिन, तूष्णीक, प्रियंवद । [ ४७० 1 अपने मुँह आप मियां मिट्ठू बनना, मु., विकत्थू (भ्वा. आ. से. ), आत्मानं श्लाघू (भ्वा. आ. से. ) । मिठाई, सं. स्त्री. (हिं. मीठा ) कांदवं, मिष्टान्नं, मिष्टं, मोदकजातं २. दे. 'मिठास' । मिठास, सं. स्त्री. (हिं. मीठा ) मधुरता-त्वं, मधुरिमन (पुं.), माधुर्य, मिष्टत्वम् । मिड (डिल, वि. (अं.) मध्य, मध्यम, मध्यवर्तिन् । सं. पुं. मध्यमाः कक्षाः (स्त्री . ) । -ची, वि., अल्पशिक्षित ( तिरस्कारसूचक ) । - स्कूल, सं. पुं., मध्यम - विद्यालयः । मित, वि. ( सं . ) परिमित, सीमित, ससीम २. अल्प, स्तोक -भाषी, वि. (सं.- नि) मित, वाच् कथ, अल्पवादिन् । - भोजी, वि. ( सं . जिन ) दे० 'मिताशी' | (सं.) अल्प-परिमितव्यय, सं. पुं. स्तोक, - व्यय:-व्ययिता, —व्ययिता, सं. स्त्री. अमुक्तहस्तत्वम् । -व्ययी, वि. (सं.-यिन ) अमुक्तहस्त, अल्पस्तोक, त्र्ययिन । मिताशन, सं. पुं. (सं. न. ) परिमितभोजनं, ईषद्भक्षणं, मिताहारः २. वि. दे. 'मिताशी' | मिताशी, वि. ( सं-शिन ) मिताहारिन, परिमित-अल्प-ईषद्, भोजिन-भुज । मिती, सं. स्त्री. (सं. मिति: > ) देशीयतिथि: (पुं. स्त्री. ) २. दिनं, दिवसः । - वार, क्रि. वि., तिथिक्रमेण, तिथ्यनुसारम् । मित्र, सं. पुं. ( सं. न. ) सुहृद् (पुं), सखि ( पुं.), वयस्यः २. सहचरः, सहायः । मित्रता, सं. स्त्री. (सं.) सखित्वं, सख्यं, सौहृदं, मिलना २. रतिः (स्त्री.), संभोग: ३-४. राशि-लग्न,विशेष: ( ज्यो. ) । मिथ्या, वि. (सं. अन्य ) अनृत, असत्य, वितथ २. काल्पनिक, अवास्तविक, मायामय । वादी, वि. ( सं . नंदन ) अनृत-असत्य - मृषावितथ, भाषिन् - आलापिन-वादिन् । मिनिमम, वि. ( अं. ) न्यूनतम, अल्पिष्ठ । मिन्नत, सं. स्त्री. [अ., मि. सं. विनति: (स्त्री.)] प्रार्थना, निवेदनम् । मिमियाना, क्रि. अ. (अनु. मिनमिन > ) मिणमिणायते ( ना. धा. ), मे- मेशब्द कृ, रेभू (भ्वा. आ. से. ), उ ( भ्वा. आ. अ., अवते ) । मियाँ, सं. पुं. (फ़ा. ) स्वामिन, प्रभुः २. पतिः, भर्तृ ३. (संबोधनपदं ) महाशय ! महोदय ! ( मुसल. ) ४. अध्यापकः ५. दे. 'मुसलमान' | मिट्ठ, सं. पुं. ( फा + हिं . ) मधुरभाषिन्, मधुवाच (पुं.) २. शुकः ३. मूर्खः । मियान, सं. स्त्री. (फ़ा. ) असि-, कोश:-पः, खडग, पिधानम् | मियाना, वि. ( फा . ) मध्यम, मध्याकार । मियानी, सं. स्त्री. ( फा. मियान ) पादायामस्य मध्यमो वस्त्रखंडः २. *मध्यमा, मध्यकोष्ठकः (पुं.) । सौहार्द, मैत्री, मैत्र्यं, मित्रत्वम् । मिथुन, सं. पुं. ( सं. न. ) द्वन्द्वं दं ( जं) पती - (द्वि.), जायापती, स्त्रीपुंसयोः युग्मं युगं-युगलं मिरगी, सं. स्त्री. (सं. मृगी) अपस्मारः, भ्रामरम् । मिर्च, सं. स्त्री. [ सं . मरि (री) नं ] ( काली ) कृष्णं, को (का) लकं, श्यामं, ऊ (औ)ष्णं, कटुकं, शाकांगं, सर्वहितं, धर्मपत्तनं, वेल्लजं, कफविरोधि (न.) पवितम् । (लाल ) कु-रक्त, मरि (री)चं, तीत्रशक्तिः (स्त्री.), उज्ज्वला, अजडा, कटुवीरा, तीक्ष्णा ( सफ़ेद) सित - मरि (री) चंवल्लीजं, धवलं, बहुलम् । वि., तीक्ष्ण उग्र स्वभाव | नमक ---लगाना, मु. अत्युक्तया ब ( चु.)प्रतिपद् ( प्रे.), अतिवद् (भ्वा. प. से. ) 1 मिर्चा, सं. पुं. दे. 'मिर्च' (लाल ) । मिलता-जुलता, वि., तुल्य, सदृश । मिलन, सं. पुं. (सं. न. ) सं( समा ) रामः, संयोगः, संमिलनं, परस्परसाक्षात्कारः, मेल: २. मिश्रणं, संयोगः, संसर्गः, मेलनम् । सार, वि., मिलन-सख्य, शील, संगमप्रिय । —सारी, सं. स्त्री, सख्य-मिलन, शीलता । मिलना, क्रि. अ. ( सं . मिलनं ) मिश्र संपृच्संयुज- संसृज् (कर्म), एकी- मिश्रित संसृष्टभू For Private And Personal Use Only Page #509 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir मिलनी २. संमि ( तु. प. से. ), सं-इ ( अ. प. अ. ), संगम् (भ्वा. आ. अ. ), आसमा, सद् (भ्वा. प. अ.), आसमा, गम्, अभिमुखी-संमुखी भू, नयन, पथं विषयं या (अ. प. अ. ) ३. तुल्य-सम-सदृश (वि.), वृत् (भ्वा. आ. से. ) संवद् (भ्वा. प. से. ) ४. आलिंग् ( भ्वा. प. से. ), परिरम् (भ्वा. आ. अ. ) ५. यम् (भ्वा. प. अ. ), सुरतं आतन् (त. प. से. ) ६. लभ् (भ्वा. आ. अ. ) अधिगम ७. एक-सम, स्वर (वि.) भू ( सितारादि ) । सं. पुं., दे. 'मिलनं' ( १-२ ) । ३. सादृश्यं, साम्यं ४. आलिंगनं ५. मैथुनं ६. लाभः ७. समस्वरता, इ. । मिलनी, सं. स्त्री. (हिं. मिलना ) औद्वाहिकमि(मे)लनम्। [ ४७१ ] मिलवाना, क्रि. प्रे., ब. 'मिलना' के प्रे. रूप । मिला-जुला वि., मिश्रित २. संमिलित । मिलान, सं. पुं. (हिं. मिलाना ) संमेलनं, संमिश्रणं २. समी- सदृशी, करणं, तुलना ३. सत्यापनं, प्रामाण्यपरीक्षा | मिलाना, क्रि. स., ब. 'मिलना' के प्रे. रूप । मिलाप, सं. पुं. (हिं. मिलना) दे. 'मिलन'(१) २. सौहार्द -, मैत्री ३. संयोगः, रतिः (स्त्री.) । मिलावट, सं. स्त्री. (हिं. मिलाना ) अपद्रव्येण मिश्रणं- मेलनम् । करना, क्रि. स., (अपद्रव्येण ) संमिश्र (चु.) । मिला हुआ, वि., मिश्र, मिश्रित, संपृक्त, संसृष्ट २. संगत, संमिलित, संमुखीभूत ३. लब्ध, प्राप्त । मिलिंद, सं. पुं. (सं.) भ्रमरः, षट्पदः । मिलिटरी, वि. ( अं. ) सांग्रामिक, सामरिक, सैनिक । सं. स्त्री, सेना, सैन्यं वाहिनी । मिल्क, सं. पुं. ( अं. ) दुग्धं, पयस् (न.), क्षीरम् । मिल्कियत, सं. स्त्री. अ. ) भूमि: (स्त्री.) रि (ऋक्थं २. द्रव्यं, संपत्तिः (स्त्री.), दायः । मिल्लत', सं. स्त्री. (हिं. मिलना) मैत्री २. मिलनशीलता । मिल्लत', सं. स्त्री. (अ.) धर्म:, संप्रदायः, मिस्सी-सी | मिशन, सं. पुं. ( अं. ) उद्देश्यं, लक्ष्यम् २. प्रचारकमण्डलम् ३. प्रतिनिधिमण्डलम् । मिशनरी, सं. पुं. ( अं. ) खिष्टधर्म प्रचारकः २. दे. 'पादरी' । मिश्र, सं. पुं. ( सं .) विप्रोपाधिभेदः २. मिश्रितं, मिश्रितद्रव्यं योगः, संकरः संनिपातः । वि ., मिश्रित मिश्रापित, संसृष्ट- मिश्र - मिलित ३. श्रेष्ठ । मिश्रण, सं. पुं. ( सं. न. ) संयोजनं, संमेलनं, संमिश्रणं, एक - एकत्र करणं, संसर्जनं २. नानाद्रव्य समुदायः, दे. 'मिश्र' ( २ ) । ३. योगः, संकलनं, दे. 'जमा' (गणित ) । मिश्रित, वि. (सं.) संसृष्ट, संमिश्र, दे. 'मिश्र ' ( वि . ) । मिष, सं. पुं. (सं. न. ) छलं, कपटं २. व्यपदेशः, व्याजः, कृतक हेतुः । मिष्ट, सं. पुं. (सं.) मधुररसः । वि., दे. 'मीठा' ( १ ) । -भाषी, वि. ( सं . षिन् ) मधुरभाषिन्, प्रियं वद । मतम् । मिल्लिग्राम, सं. पुं. ( अं. ) सहस्त्रिधान्यम् । मिलिमीटर, सं. पुं. (अं) सहस्रिमा कर मुक्तभूमि: । मिष्टान्न, सं. पुं. (सं. न. ) दे. 'मिठाई' (१) । मिस', सं. पुं., दे. 'मिष' (२) । मिसरे, सं. स्त्री. (अं.) कुमारी, कन्या, अक्षता । मिसरा, सं. पुं. ( अ. ) पद्यपादः, श्लोकचरणः । मिसाल, सं. स्त्री. ( उपमा २. उदाहरणं, दृष्टांत: ३. लोकोक्तिः (स्त्री.), आभाणकः । मिसिल, सं. स्त्री. (अ.) लेख-, पंजिका । मिस्कीन, सं. पुं. (अ.) नि:सहायः, निराश्रयः २. दरिद्रः, अकिंचन: ३. सरल:, सुशीलः । मिस्टर, सं. पुं. (अं.) मिश्रः, महाशयः, महोदयः । मिस्तरी, सं. पुं. ( अं. मास्टर ) कुशल,शिल्पिन्-शिल्पकारः । मिस्र, सं. पुं. ( अ. = नगर ) मिश्र देशः । मित्री', सं. पुं. ( अ. मिस्र ) मिश्रदेशवासिन् । सं. स्त्री. मिश्र देशभाषा । मिस्त्री, सं. स्त्री. (अ.) खण्ड, मोदकः-शर्करा, शर्करजा, शार्ककः, खांडवः, सितोपला, सिताखंडः, खण्डकः । मिस्ल, वि. (अ.) तुल्य, समान, इव । मिस्सा, सं. पुं. (सं. मिश्र > ) *मिश्रान्नम् । मिस्सी रोटी, सं. स्त्री. वेढमिका । मिस्सी-सी, सं. स्त्री. ( फा. मिसी) दंत-, *मसी-मसिः (स्त्री.), दंत्यचूर्णभेदः । For Private And Personal Use Only Page #510 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir मींगी [४७२] मुंडन - -काजल करना, मु., आत्मानं भूष-मंड् (चु.)- | मीना, सं. पुं. (का.) चित्र-बहुवर्ण, काचः प्रसाधु (प्रे.)। २. नीलप्रस्तरभेदः ३. *धातु-रंजन-चित्रणं मींगी, सं. स्त्री., दे. 'गिरी' । (इनमैल ) ४. सुराग्रहः। मीआद, सं. स्त्री. (अ.) काल-,अवधिः, नियत- -कार, सं. पुं. (फ्रा.) *धातु,रंजकः-चित्रकः। समयः २. आसेध-कारावास,-अवधिः । -कारी, सं. स्त्री. ( फा.) दे. 'मीना'(१)। मीआदी, वि. (अ. मीआद) सावधिक, -बाज़ार, सं. पुं. (फा.) *कांतापणः, नियतकालवत् । मनोशमेला, प्रदर्शनी। -बुखार, सं. पुं., सावधिकज्वरः २. सांनिपा- मीनार, सं. पुं. (अ. मनार ) सूच्यग्रस्तंभः, तिकज्वरः। मेठिः-थिः। मीचना, क्रि. स. ( सं. मिष् ) निमिष् ( तु. प. | मीमांसा, सं. स्त्री. (सं.) दर्शनशास्त्रविशेषः से.), क्ष्मील-निमील (भ्वा. प. से.), नेत्रे | २. विचारः, विवेचन, निर्णयः। मुकुलयति ( ना. धा.)। मीर, सं. पुं. (फा. ) नायकः, प्रधानः । मीज़ान, सं. पुं. (अ.) योगः, संकलः, परि -मजलिस, सं. पुं. (फा.)सभा,-पतिः-अध्यक्षः। संख्या। मीटिंग, सं. स्त्री. ( अं.) सभा, गोष्ठी, अधि- | -मुंशी, सं. पुं. (फा.+अ.) मुख्य,-लेखकः, कायस्थः। वेशनम् । मीठा, वि. ( सं. मिष्ट ) मधुर, मधुल, मधु, | | मीरास, सं. स्त्री. (अ.) रिक्थं, दायः, पितृद्रव्यम् । मधुमय २. सरस, स्वादु, सस्वाद, स्वादवत् मीरासी, सं. पुं. (अ. मीरास ) संगीतकुशल३. अलस, मंथर ४. मध्यम, साधारण | यवनजाति-विशेषः २. भंडः, वैहासिकः । ५. सह्य, मंद ६. नपुंसक ७. प्रिय, रुचिकर ।। ८. सुशील, सरल। सं. पुं., मधुकर्कटी, मील, सं.पु. ( अं. माइल ) क्रोशार्दू, अर्द्धक्रोशः, *मीलं, *मीलकम् । मिष्टनिंबूकं, मधुरजंबीरं, मधुबीजपूर, मधूली, महाफला २. मिष्टान्नं ३. मिष्टं, गुडः, | | मीलन, सं. पुं. ( सं. न.) पिधानं, निमीलनं, मुद्रणम् २. संकोचनं, संहरणं, आकुंचनम् । शर्करा इ.। मीलित, वि. (सं.) पिहित, निमीलित, -आलू , सं. पुं.,दे. 'शकरकंद'। मुद्रित २. संकोचित, संहृत, आकुंचित । --चावल, सं. पु., मिष्ट-गुड, ओदनः (नम्)। मुंगरा, सं. पुं. (सं. मुद्गरः ) वि-,धनः द्रुघण:-तेल, सं. पुं., तिल,तैलं स्नेहः २. खस्खसतैलम् । नः,प्रयणः । [मुँगरी(स्त्री.) क्षुद्रमुद्गरः इ.] । -तेलिया, सं. पुं., वत्सनाभः, प्राणहारक, मुंज, सं. पुं., दै. 'मूंज'। ब्रह्मपुत्रः, गरलः, क्ष्वेडः, प्रदीपनः । मुंड, सं. पुं. (सं. पुं. न.) शिरस् ( न.), -नीबू , सं. पुं., दे. 'मीठा' सं. पुं. (१)।। शार्प मूर्द्धन् (पुं.), मस्तकं २. छिन्न,-शिरस्-पानी, सं. पुं., जंबीरपेयम् । शीर्षम् । सं. पुं., स्थाणुः, निष्पत्रो वृक्षः -बोलना, मु., प्रियं 5 ( अ. उ.), मधुरं २.राहुः ३.नापितः, मुंडकः ४.उपनिषद्विशेषः । भाष ( भ्वा. अ. से.)। वि. मुंडित, वापितमुंड, कृत्तकेश (-शा,-शी मीठी छुरी, सं. स्त्री., अंतःशत्रुः, कपटमित्रं, | स्त्री.) २. अधम । विश्वासघातकः २. कुटिल:, कपटिन् । -माला, सं. स्त्री. (सं.) छिन्नमस्तकमाल्यम् । मीठीमार, सं. स्त्री., गूढ-गुप्त-आंतरिक,-ताडन- -मालिनी, सं. स्त्री. (सं.) काली। प्रहारः। -माली, सं. पुं. (सं.-लिन् ) शिवः। मीन, सं. पुं. (सं.) दे. 'मछली' (२-३ ) मुंडक, सं. पुं. (सं.) नापितः २. उपनिषद्द्वादश, राशि:-लग्नम् । विशेषः ३. छिन्न-,शीर्षम् । -मेख निकालना, मु., गुणदोषान् परीक्ष मुंडन, सं. पुं. ( सं. न.) क्षौरं, केश, छेदनं. (भ्वा. आ. से.) २. छिद्रं अन्विष् (दि. वपनं, परिवापनं, भद्रकरण २. चूडा, चूडा. " प. से.)। | करणं-कर्मन् ( न.), संस्कारविशेषः (धर्म.)। For Private And Personal Use Only Page #511 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir मुंडना [ ४७३ ] मुंडना, क्रि. अ. ( सं. मुंडनं ) ब. 'मूंडना' के | मुंसिफ्री, सं. स्त्री. ( अ. मुंसिफ़ ) १-३ न्यायाकर्म, के रूप । ध्यक्ष, पदं-कार्य-सभा ४. निर्णयः ५. न्यायः। मुंडा, सं. पु. (सं. मुंडः ) मुंडितः, उप्तकेशः, | मुँह, सं. पुं. (सं. मुखं ) आस्यं, तुंडं, वक्त्रं, छिन्नमूद्धजः, कृत्त-केशः २. कृत्तकेशः साधु- वदनं, लपनं, आननं २. मुख-वदन-आनन, शिष्यः ३. शृंगहीनपशुः ४.अंग-अवयव-शाखा, मंडलं ३. (बर्तन आदि का) ऊर्ध्वविवरं, मुखं हीनः ५. लिपिविशेषः (महाजनी, लंडे), ४. छिद्रं, रंधं ५. आदरः ६. सामर्थ्य ६. उपानत्प्रकारः। ७. साहसं ८. उपरितनभागः, कर्णः, कंठः मुँडाई, सं. स्त्री. (हिं. मूंडना ) दे. 'मुंडन' प्रांत: ९. विद्यमानता, उपस्थितिः (स्त्री.)। (१) । २. मुंडन, भृत्या-भृतिः ( स्त्री.)। -अंधेरा-सं. पुं., प्र-वि,-मातं, विहानः-नं, मुंडासा, सं. पुं. [ सं. मुंडवासस् ( न.)]] उषा, उषस् (स्त्री.)। उष्णीषः-पं, दे. 'पगड़ी'। -काला, सं. पुं., अपमानः, अपयशस् (न.)। मुंडित, वि. (सं.) दे. 'मुंड' वि.। -चोर, वि., लज्जालु, हीमत्, सलज्ज। मुंडी', सं., स्त्री. (हिं. मुंडा ) मुंडा, क्लुप्त- -ज़वानी, वि., वाचिक, लेखरहित । क्रि.वि., केशा-शी२. विधवा । वाचैव, संभाषणेन । मुंडी२, सं. पुं. ( सं.मुंडिन् ) मुंडितः,क्लृप्तकेशः | -जोर, वि., वाचाल, वावदूक २. दुदीत २. नापितः ३. संन्यासिन् । ३. दे. 'मुँहफट'। मुँडेर, सं. स्त्री. ( सं. मुंडं > ) दे. 'मुंडेर। -दिखाई, सं. स्त्री., नवोडामुखदर्शनं २. मुख२. दे. 'मैं'। दर्शनोपहारः (विवाह की रीतियाँ)। मुँडेरा, सं. पुं. ( सं. मुंडं > ) प्राकारशीर्ष, -देखा, वि., बाह्य, उपरितन, कृत्रिम । *कुडयमुंडः-डम् । -फट, वि., अवाचंयम, वाक्चपल, वाग्दुष्ट, मुँडेरी, . स्त्री.,दे. 'मुँडेरा' तथा 'मेंड़। अविमृश्यवादिन् । मुंडो, सं. स्त्री. (सं. मुण्टा) मुण्डिता, वापिता, -बोला, वि., धर्म-(धर्म-भ्राता आदि )। क्षुदिता, उप्त-कृत्त, केशा-मूर्द्धजा २. विधवा, -मांगा, वि., यथेष्ट, यथेच्छ, यथेप्सित । मृतभर्तृका। ----उतरना या निकल आना, मु., कृशी-तनूमुंतकिल, वि. (अ.) स्थानांतरं नीत २. पर- | भू , कृश वदन (वि.) जन् (दि. आ. से.), हस्ते समर्पित, परस्वत्वे दत्त । क्षि ( भ्वा. प. अ.)। मुंतखब, वि. (अ.) निर्वाचित, वृत, चित २. -का कौर, मु., सुलभं द्रव्यं वस्तु (न.)। उत्कृष्ट, श्रेष्ठ । -काला करना, मु., दुष् (प्रे. दूषयति), मुंतज़िम, सं. पुं. (अ.) अध्यक्षः, व्यवस्थापकः । कलंकयति (ना. धा.), अपकीर्ति जन् (प्रे.)। मुंतज़िर, वि. (अ.) प्रतीक्षकः, प्रतीक्षाकारिन् ।। -काला होना, मु., कलंकित-दूषित (वि.) मुंदना, क्रि. अ. (सं. मुद्रणं) व. 'मूंदना के भू , अपयशस् (न.), लभ (भ्वा. आ. अ.)। कर्म, के रूप । -की खाना, मु., नितरां परा-जि (कर्म.) मैंदरा, सं. पु. ( सं. मुद्रा) ( योगिनां ) कर्ण,- सुतरां अभिभू (कर्म.) २. लज्जितो भू मुद्रा-वलयम्। ३. दुर्दशां आपद् (दि. आ. अ.)। मुंदरी, सं. स्त्री. (हिं. मुंदरा ) अंगुली(री)यं- | -खोलना, मु., वद् (भ्वा. प. से.) २. गाली: यक, ऊर्मिका। दा-अपभाष (भ्वा, आ. से.) ३. अवगुंठनं मुंशियाना, वि. ( अ०) लेखक,-सदृश-उप अपस (प्रे.)। युक्त । सं. स्त्री., लेखक, भृतिः ( स्त्री. )-भत्या।। -जुठारना या जूठा करना, मु., नाममात्रमेव मुंशी, सं. पुं. (अ.)लेखकः,कायस्थः,लिपिकारः ।। मुंसिफ, सं. पु. (अ.) निर्णत, धर्म-न्याय- |-त(ता)कना, मु., स्थिरं आ-अव-लोक (चु.) अध्यक्षः अधिकारिन् । २. वि-स्मि ( भ्वा. आ. अ.), चकित (वि.) मुंसिफ्राना, वि. (अं.) न्याय, उचित-युक्त- | स्था ( भ्वा. प. अ.)। अनुसारिन, न्याय्य । |-देखते रह जाना, मु., दे. 'मुँह ताकना'। For Private And Personal Use Only Page #512 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir मुँहास [ ४७४ ] अनुरूप - देखे की प्रीत, मु., मृषा-स्नेहः, कृत्रिमा | करना, दे. 'क्षमा करना' । मुआफिक, वि. (अ.) अनुकूल, २. सदृश, तुल्य ३. अन्यूनाधिक ४. यथेष्ट । मुआफ़ी, सं. स्त्री. (अ.) दे. 'क्षमा' २. कारमुक्तभूः (स्त्री.) । मुआमला, सं. पुं. (अ.) उपजीविका, वृत्ति: ( त्र'. ), व्यवसायः २. पारस्परिकव्यवहारः, क्रयविक्रय, दानादानं ३. वृत्तं वार्त्ता, विषयः ४. कलह:, विवाद: ५. अभियोगः ६. प्रतिज्ञा, समयः । मुआयना, सं. पुं. (अ.) दे. 'निरीक्षण' । मुआवज़ा, सं. पुं. (अ.) निष्कृतिः (स्त्री.), निस्तारः, प्रतिफलं २ क्षतिपूरण- हानिपूरणमूल्यम् । नुरागः । - पर लाना, मु., वद् (भ्वा. प. से. ), कथ् ( चु. ) । - पर हवाइयां उड़ना, मु., (भयलज्जादिभिः) मुखं विवणींभू । - फ्रक होना. मु., दे. 'मुँहपर हवाइयां उड़ना'। - फुलाना या सिकोड़ना, मु., रुष्ट- कुपित- क्रुद्ध (वि.) भू. 1 - फेरना, मु., उपेक्ष (भ्वा. आ. से.), अपरंज् (दि. उ. अ. ) । -बनाना, बिगाड़ना या चिढ़ाना, मु., विडंबू (चु.), मुखं विकृ, स्वमुखविकारै: उपअव हस् (भ्वा. प. से. ) । - मीठा करना, मु., उत्कोचं दा । - में पानी भर आना, मु., वि-प्र-लुभ् (दि. प.से.) अत्यर्थं अभिलम् (भ्वा. उ. से. ) । -लटकाना, मु., दे. 'मुँह फुलाना' । - (किसी के) लगना, मु., उद्दंड इव आचर ( स्वा. प. से.) २. धृष्टतया प्रश्नोत्तरं कृ | - लगाना, मुं., हीनान् मित्रीयति (ना. धा.) अनुग्रह् (क्र. प. से. ), उद्दण्डान् विधा ( जु. उ. अ. ) । - से फूल झड़ना, मु., सुमधुरं वच् ( कर्म.)। मुहाँ, मु., परिपूर्ण, आकर्णे पूर्ण, निर्भर । मुँहासा, सं. पुं. (हिं. मुँह ) यौवन, कंटकःपिट(टि) का । मुअज्जम, वि. ( अ० ) पूज्य, संमान्य २. महत्, ज्येष्ठ । मुअत्तल, वि. (अ.) आनियतकालं अधिकारात् च्यावित अथवा भ्रंशित । २. दे. 'बेकार' । मुअत्तली, सं. स्त्री. ( अ. मुअत्तल) आनियतकाल अधिकार, भ्रंश:- च्युतिः (स्त्री.) २. दे. 'बेकारी' । अब, वि. (अ.) सभ्य, मुअहवाना, अव्य. (अ.) नम्र, विनयेन, नम्रतया । मुअम्मा, सं. पुं. (अ.) पहेली, प्रहेलिका, प्रश्नदूती २. गुह्यं, गोप्यं, रहस्यं । मुअल्ला, वि. (अ.) उच्च, उत्कृष्ट, प्रकृष्ट २. उच्च पद अधिकार । मुआ, वि., दे. 'मुवा' । मुआफ़, वि. (अ.)क्षांत, मर्षित, दोष-दंड, मुक्त | मुक़ाबला मुक़दमा, सं. पुं. ( अ ) अभियोगः, अक्षः,, अर्थ:, कार्य, व्यवहारः, व्यवहारपदम् । -करना या खड़ा करना, क्रि. स., अभियुज् ( रु. आ. अ., चु. ), राजकुले निविद (प्रे.) । मुकदमेबाज़, सं. पुं. (अ. + फा. ) कार्यार्थिन्, वादिन्, व्यवहर्तृ, अभियोगशीलः । मुकदमेबाज़ी, सं.स्त्री. ( अ. + फा. ), अभियो गशीलता, व्यवहर्तृत्वम् । मुक़द्दमा, सं. पुं., दे. 'मुकदमा' । मुकद्दर, सं. पुं. (अ.) भाग्यं, दैवम् । मुकद्दस, वि. (अ.) पवित्र, पुण्य, पावन । अवसित २. संमुकम्मल, वि. (अ.) समाप्त, पूर्ण, निःशेष । मुकरना, क्रि. अ. (सं. अप-नि-ह (अ. आ. अ. ), से. ), निराकृ । मुकरनी, सं. स्त्री. दे. 'मुकरी' । मुकरी, सं. स्त्री. (हिं. मुकरना) कविताभेद:, अपह्नतियुता कविता । " मुकर्रर ', क्रि. वि. (अ.) पुनरपि द्वितीयवा भूयः । शिष्ट । सविनयम्, वि, मुक़र्रर, वि. (अ.) नियत, निश्चित २. नियुक्त | मुक़ाबला, सं. पुं. (अ.) विरोध:, प्रतिद्वंद्विता, प्रातिकूल्यं २. स्पर्द्धा, संघर्ष, अहमहमिका, प्रतियोगिता ३. संग्रामः, युद्धं ४ तुलना, औपम्यं ५. साम्यं, सादृश्यं ६. समी-सदृशीकरणम् । मान + करणं ) अपलप् (भ्वा. प.. For Private And Personal Use Only -करना, क्रि. स., स्पर्धा (भ्वा. आ. से. ), संघृष् (भ्वा. प. से. ) २, प्रतिकृ, विरुध् Page #513 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir मुक्राम [ ४७५ ] । ( रु. उ. अ. ) ३. युध ( दि. आ. अ. ) ४. तुल ( चु. ), उपमा ( जु. आ. अ. ) ५. समी- सदृशी, कृ । मुक़ाम, सं. पुं. (अ.) स्थानं, स्थलं २. विराम स्थानं, दे. 'पड़ाव ' ३. विरामः, निवेश: ४. आनि, वासः, गृहं ५. अवसरः । -करना, क्रि. अ., विश्रम ( दि. प. से. ), निविश् ( तु. प. अ. ), विरम् (भ्वा. प. अ.) । मुकुंद, सं. पुं. (सं.) श्रीकृष्णः २. रत्नभेदः ३. पारदः ४. मोक्षदः, परित्रातृ । मुकुट, सं पुं. (सं. न. ) किरीट:- टं, मकुटं, नामा, सं. पुं. ( अ + फ़ा. ) *प्रातिनिध्य-कोटीरः, मौलिः, उत्तंसः । मुकुर, सं. पुं. (सं.) दर्पण:, दे. | मुकुल, सं. पुं. (सं. पुं. न. ) कुड्मल:, दे. 'कली' २. आत्मन् (पुं.) ३. शरीरं ४. पृथिवो । मुकुलित, वि. (सं.) समुकुल, सकुड़मल २. ईषविकसित, अर्धोन्मिषित, अर्द्धनि मीलित ३. निमेषोन्मेषयुक्त । मुक्का, सं. पुं. (सं. मुष्टिका ) मुष्टि: (पुं. स्त्री.), मुस्तु:, मुचुटी, सपिंडितांगुलिबद्ध-पाणिः २. मुष्टि-मुचुटी, प्रहारः-घातः ताडः हथः । -मारना, क्रि. स., मुचुट्या प्रहृ ( भ्वा. प. अ. ) । मुग्धता क्षेत्र, सं. पुं. ( सं. न. ) काशी, वाराणसी । - धाम, सं. पुं. (सं. न. ) मोक्ष स्थानम्, तीर्थम् । फौज, सं. स्त्री. (सं. + अ० ) मुक्तिसेना, ख्रिस्तधर्मप्रचारकसंघः । मुख, सं. पुं. (सं. न. ) दे. 'मुँह' । बंध, सं. पुं. ( सं. न. ) प्रस्तावना, भूमिका । मुखड़ा, सं. पुं. ( सं . मुखं ) दे. 'मुँह ' (२) । मुखतार, सं. पुं. (अ.) प्रतिनिधि:-पुरुष:-- हस्तकः२.पराभियोगकारिन् ३. उपाभिभाषकः । मुक्केबाज, (हिं. + फ़ा.) मुष्टि, योध:-योधिन् । मुक्केबाजी, सं. स्त्री. (हिं. + फा. ) मुष्टियुद्धं, मौष्टा, मुष्टिक, मुष्टी (टा) मुष्टि (अन्य ) । मुक्त, वि. (सं.) लब्ध प्राप्त, मोक्ष-निर्वाण, निस्तीर्ण २. मोचित, स्वाधीन, बन्धन-निरोधरहित । - कंठ, वि. (सं.) तारस्वर, महास्वन २. अविमृश्यवादिन्, अयतवाच् । - हस्त, वि. (सं.) व्ययशील, अतिव्ययिन्, बहुव्यय । मुक्ता, सं. स्त्री. (सं.) } दे. ‘मोती” । - फल, सं. पुं. (सं. न. ) - हार, सं. पुं. ( सं . ) मुक्तावली । मुक्तागार, सं. पुं. ( सं. न. ) शुक्तिः (स्त्री.), शुक्तिका, मौक्तिक, - प्रसूः (स्त्री.) - प्रसवा । मुक्ति, सं. स्त्री. (सं.) मोक्षः, कैवल्यं, निर्वाणं, श्रेयस (न.), निःश्रेयसं, अमृतं, अपवर्गः, अपुनर्भवः २. मोचनं, नियंत्रण-णा, निरोधाभावः ३. स्वच्छंदता, स्वतंत्रता । प्रतिनिधित्व, पत्रम् | मुख़तारी, सं. स्त्री. (अ. मुख्तार ) पराभियोगकारिता-त्वं २ उपाभिभाषकता-त्वं ३. प्रातिनिध्यम् । मुखबिर, सं. पुं. (अ.) दे. 'जासूस' । मुखबिरी, सं. स्त्री. (अ. मुखबिर ) दे. 'जासूसी’।' मुखर, वि. (सं.) कटु-अप्रिय वादिन - भाषिन्, दुर्मुख २. वाचाल, वाचाट ३. नेतृ, अग्रया-यिन् ४ शब्दायमान । मुखरित, वि. (सं.) प्रति ध्वनित-नादित । मुखस्थ, वि. (सं.) मुखाग्र, कंठाग्र, कंठस्थ । मुख़ालिफ़, वि. ( अ ) विपक्षिन्, विरोधिन् २. वैरिन ३. प्रतिद्वंद्विन् । मुखिया, सं. पुं. ( सं . मुख्य ) नेतृ, नायकः, पुरो अग्र, गः- गामिन्, अग्रणीः, प्रधानः," मुखर: २. ग्रामणीः (पुं.), ग्राम मुख्यः । मुख्तलिफ़, वि. (अ.) भिन्न, अपर २. बहुअनेक, विध मुख़्तसर, वि. ( अ ) संक्षिप्त २. लघु, क्षुद्र ३. अल्प । सं. पुं., संक्षेपः । मुख्य, वि. ( सं . ) प्रधान, अग्रथ, अग्रिम, प्रमुख, परम, उत्तम, श्रेष्ठ, विशिष्ट, ऋषभ, इंद्र,-पुंगव,-वर । मुख्यतः, ) क्रि. वि., (सं.) प्रधानतः तया, मुख्यतया, विशेष तया, प्रधान मुख्यविशेषेण रूपेण । मुगदर, सं. पुं., दे. 'मुद्गर' । मुग्ध, वि. (सं.) आसक्त, अनुरक्त, बद्धभाव, सानुराग, कामासक्त २. मूढ, भ्रांत ३. सुन्दर,अभिराम ४. नव, नवीन | मुग्धता, सं. स्त्री. (सं.) आसक्ति: ( स्त्री. ) अनुरागः २. मूढता ३. सौन्दर्यम् । For Private And Personal Use Only Page #514 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir मुग्धा [ ४७६ ] मुद्रा मुग्धा, सं. स्त्री. (सं.) नायिकाभेदः २. सुकु- । भावः,नमन,प्रति, गमनं आगमनं, व्यावर्तनम् । मारी तरुणी। मुड़ाना, क्रि. प्रे. व. 'मूडना' के प्रे, रूप । मुचलका, सं. पुं. (तु.) निस्तारः । मुड्ढा , सं. पुं. (सं. मूर्द्धन >) स्कंधः २. *सूत्रमुछंदर, सं. पुं. (हिं. मूछ ) महा, गुंफ-श्मश्र- पिंडः-डं, तूलपीठी। व्यंजन- श्मश्रुल २. कपिः ३. मूषिकः ४. कुरू-मुड्ढी, सं. स्त्री. (हिं. मुड्ढा ) छिन्नतरुमूलम् । पमूर्खः, जडः। मुतअल्लिक, वि. (अ.) संबद्ध, संलग्न, संगत। 'मुज़कर, वि. (अ.) पुंल्लिंग (व्या.)। क्रि. वि., विषये, संबंधे। मुजरा, सं. पुं. (अ.) उद्धृत-व्यवकलित,-धनं मुतारिक, वि. (अ.) बहु-नाना-वि, विध, २. अभिवादनं, प्रणिपातः ३. वेश्यायाः सन-1 प्र-सं,कीर्ण । त्यमनृत्यं वा गानम् । मुतबन्ना, सं. पुं. (अ.) दे. 'दत्तक । मुजरिम, सं. पुं. (अ.) अपराधिन्, कृताप मुतलक, क्रि. वि. ( अ.) किंचिद्मनाग-ईषद्, राधः, दंडयः २. अभियुक्तः । अपि २. केवलं, सर्वथा। वि., केवल,ऐकांतिक । मुजस्सिम, वि. (अ.) सशरीर, देहवत्, | मुताबिक, क्रि. वि. (अ.)-अनुसार-रेण, शरीरिन् । -अनुरोधेन-धात्, यथा, अनु, वि., अनुकूल, मुज़िर, वि. ( अ. ) हानि, कारक, प्रद। अनुरूप। मुझ, सर्व. (हिं. मुझे) (अस्मद् के रूप बनेंगे)। मुतालबा, सं. पु. ( अ.) प्राप्तव्यधनं २. ऋण-को, मां, मा २. मह्यं, मे । । देय, शेष-शेषः। -से. मया २. मत। मुदित, वि. (सं.) प्रसन्न, आनंदित, प्रहृष्ट । -में, मयि। मुद्गर, सं. पुं. (सं.) घनः, द्रुधनः-णः,प्रधणः मुटाई, स. स्त्री., दे. 'मोटाई। २. गोपुच्छाकारो व्यायामोपयोगी स्थूलदंडः ३. अतिगंधः, गंधराजः। मुट्ठा, सं. पुं. (हिं. मुट्ठी ) मुष्टिः (पुं. स्त्री.), मुष्टिमात्र द्रव्यं २. वारंगः, दंडः, मुष्टिः | मुद्दआ, सं. पुं. ( अ.) अभिप्रायः, तात्पर्यम् । (पुं. स्त्री.)। मुद्दई, सं. पुं. (अ.) परिवादकः, अभियोगिन् , वादिन्, अथिन्, अभियोक्तृ २. शत्रुः, वैरिन् । मुट्ठी, सं. स्त्री. [ सं. मुष्टिः ( पुं. स्त्री.)] दे. | मुद्दत, सं. स्त्री. ( अ.) अवधिः, समयसीमा, 'मुक्का' (१)। २. मुष्टिमेयः पदार्थः, मुष्टिः | नियतकालः,२. चिरं, चिरकालः,महान् सा, ३. संवाहः-हनं-हना ४. ग्रहः-हणम् । युगः-गम् । -भरना, क्रि. स., संवह (प्रे.), मृद् (क्र. -का, वि., चिर, कालिक-कालीन, पुराण, प. से.)। पुरातन । -चाँपी, सं. स्त्री., दे. 'मुट्ठी' (३)। २. सेवा, | -तक,-से, क्रि. वि., चिरं, चिरेण, चिराय, परिचर्या। चिरात, चिरस्य, चिरे। -~भर, वि., मुष्टि, मात्र-मेय-मित । मुद्दाअलेह, सं. पुं. (अ.) अभियुक्तः, प्रत्यर्थिन, -गरम करना, मु., उत्कोचं दा। प्रतिपादिन, उत्तरवादिन् । –में, मु., वशे, अधिकारे। मुद्रक, सं. पुं. (सं.) मुद्रण, कारः कर्तृ। मुठभेड़, सं. स्त्री. (हिं. मुट्ठी+भिड़ना)संघट्टः, मुद्रण, सं. पुं. ( सं. न.) मुद्राक्षरैः अंकनं, समाघातः २. संग्रामः, युद्धं ३. सांमुख्यं, मुद्रांकनं २. मुद्रानिमोणम् । संमुखागमनं, सं,-मिलनं-आगमः । मुद्रणालय, सं. पु. (सं.) मुद्रणगृह, दे. 'प्रेस'। मुठिया, सं. स्त्री. ( सं. मुष्टिका>) (खड्गादि मुद्रांकित, वि. (सं.) स-कृत,-मुद्र,मुद्राचिह्नित की) त्सरुः, वारंगः, सरुः २. दंडः, कर्णः, । २. नारायणायुधचिह्नयुक्तः (वैष्णवः)। मुष्टिः-टिका, तल:-लं ३. पिंजकदण्डः। मुद्रा, सं. स्त्री. (सं.) मुद्रिका, प्रत्ययकारिणी, मुड़ना, क्रि. अ. (सं. मुरणं) वक्रीभू , नम् | * नामांकनी २. अंगुली(री)यं-यकं, ऊर्मिका (भ्वा. प. अ.) २. प्रत्यागम्, प्रतिगम्,प्रतिनिवृत् । ३. नाणकं, टंकः-कं ४. मुद्रित-शब्दः चित्रं ( भ्वा. आ. से.)३. व्यावृत् । सं. पुं., वक्री-[ ५. दे. 'मुंदरा' ६. शरीरस्य तदवयवानां वा For Private And Personal Use Only Page #515 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir मुद्राक्षर [ ४७७ ] | स्थितिविशेषः, अंगविन्यासः, संस्थितिः (स्त्री.) ७. मुख, आकार:- आकृति : (स्त्री.) ८. भक्तदेहांकितं भगवदायुधचिह्न ९. अगस्त्यपत्नी, लोपामुद्रा १०. मुद्रा, लांछन- चिह्नम् । -मार्ग, सं. पुं. ( सं . ) ब्रह्मरंध्रम् । - यंत्र, सं. पुं. ( सं . ) मुद्रणयंत्रम् | -राक्षस, सं. पुं. ( सं. न. ) विशाखदत्तप्रणीतं संस्कृत नाटकम् | - शास्त्र, सं. पुं. (सं. न. ) मुद्रातत्त्वम् । मुद्राक्षर, सं. पुं. (सं. न. ) सीसक- धातुमयमुद्रण, अक्षराणि । मुद्रिका, सं. स्त्री. (सं.) अंगुलीयकं, ऊर्मिका २. अनामिकाधार्यं कुशांगुलीयकं, पवित्र ३. नाणकं ४. मुद्रा । मुद्रित, वि. (सं.) दे. ‘मुद्रांकित' २. मुद्राक्ष :३., संवृत, निमी लित, मुकुलित । मुधा, अव्य. (सं.) व्यर्थे, वृथा २. असत्यं, मृषा ( अव्य.) । वि., व्यर्थ २. असत्य । सं. पुं., असत्यं, अनृतम् । मुनक्का, सं. पुं. (अ.) काकलीक्षा, जांबुका, फलोत्तमा, दुग्धी-धिका । मुनहसि ( स ) र, वि. (अ.) आश्रित, अव लंबित | मुनाज़रा, सं. पुं. ( अ ) शास्त्रार्थः, वादः, तर्कशास्त्रम् । मुनादी, सं. स्त्री. (अ.) दे. 'मनादी' | सुनाफ़ा, सं. पुं. (अ.) लाभ:, आय:, फलम् । मुनासिब, वि. (अ.) उचित, युक्त, योग्य । मुनि, सं. पुं. (सं.) विचारकः, चिंतक:, तत्व,श:-दशिन्, प्राज्ञः २. मौनिन्, वाचंयमः, ऋषिः, व्रतिन, तपस्विन् । मुनीम, सं. पुं. ( अ. मुनीब ) सहाय: यकः, उपकारिन्, उप- ( उ. उपमंत्रिन् आदि ) २. गणकः, कायस्थः, लेखकः । मुनीश, सं. पुं. (सं.) मुनीश्वरः, मुनिपुंगवः २. श्री बुद्धदेवः । मुन्ना, मुन्नू, सं. पुं. ( सं . मुंड: > ) शिशुः, बालकः २. ( बच्चों को बुलाने में ) अंग, तात । मुरद, वि. (अ.) एकाकिन, असहाय २. अमिश्रित ( औषधादि), केवलैक । मुर्रह, वि. (अ.) आनन्द-मोद, दायक प्रद । मुफ़लिस, वि. (अ.) अधन, अकिंचन, दरिद्र । मुरगा मुफ़लिसी, सं. स्त्री. (अ.) निर्धनता, दरिद्रता । मुफ़स्सल, वि. ( अ ) स, विस्तर- प्रपंच । क्रि.. वि., सर्विस्त (स्ता ) र, विस्त (स्ता ) रेण, विस्तरतः । सं. पुं., नगर, उपांतः प्रान्तः, पुरोपकंठः ठं, उप-शाखा, नगरं पुरम् । मुफ़ीद, वि. (अ.) उपकारिन, उपयोगिन, हितकर [ - 1 (स्त्री.) ] । रफ़्त, वि. ( अ ) निःशुल्क, निर्मूल्य । - खोर-रा, वि., परपिंडाद, परान्नपुष्ट । -में, मु., निःशुल्कं निर्मूल्यं, मूल्यं विना २. व्यर्थं निष्प्रयोजनम् । मुफ़्ती, सं. पुं. (अ.) न्याय, अधीशः-अधि-पतिः, धर्माध्यक्षः ( इस्लाम ) । मुबतिला, वि. ( अ. ) ग्रस्त, गृहीत, पीडित । मुबर्रा, वि. (अ.) मुक्त, अनिरुद्ध २. निर्दोष, पूत । मुबल (लि) ग़, वि. (अ.) सर्व, समस्त । सं. पुं., मात्रा २, रूप्यकादिसंख्या । मुबारक, वि. (अ.) शुभ, भद्र, मंगल | अन्य .. शुभं भद्रं भूयात्, स्वस्ति । - बाद, सं. पुं. - बादी, सं. स्त्री. (फ़ा. ) दे. 'बधाई' । मुबालिगा, सं. पुं. ( अ ) अत्युक्तिः (स्त्री.) । मुबाहिसा, सं. पुं. (अ.) सं. विवाद:, हेतु -- वाद:, प्रत, वादः, ऊहापोहः, विचार:- रणा । मुमकिन, वि. (अ.) संभाव्य, संभवनीय,*संभव, शक्य, संभावित, साध्य, संपाद्य । मुमानियत, सं. स्त्री. ( अ ) दे. 'नाही' । मुमुक्षु, वि (सं.) मोक्षार्थिन्, अपवर्गाभिला-षिन् २. श्रमण:, मुनिः साधुः, भिक्षुः । मु, वि. (सं.) आसन्न मृत्यु २. निधनेच्छुक । मुस्तहिन, सं. पुं. (अ.) दे. 'परीक्षक' । मुरकना, क्रि. अ. (हि. मुड़ना ) व्यावृत (भ्वा. आ. से. ), आकुंच ( कर्म . ) २. वि . ., नशू ( दि. प. वे. ) ३. अभिशंक् (भ्वा. आ. से. ) ४. प्रतिगम्-प्रत्यागम्, प्रतिनिवृत् (भ्वा.. आ. से. ) ५. अकस्मात त्रुट् ( तु. दि. प. से. ) स्फुट (तु. प. से. ) ६. दे. 'मोच आना' । मुरकाना, क्रि. स., ब. 'मुरकना' के प्रे. रूप | मुरकी, सं. स्त्री. (हिं. मुरकना) कर्णपूरक:, कर्णवलयकः-कम् । मुरग़ा, सं. पुं. (फ्रा. मुर्ग) उषाकलः, कृकवाकुः, - दे. 'कुक्कुट ' २. पक्षिन् । For Private And Personal Use Only Page #516 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir मुरग़ाबी [ ४७८] मुवक्किल मुरग़ाबी, सं. स्त्री. (सं.) जलकुक्कुटः, । मृत्युलक्षणानि प्रादुर्भू २. अति, विषण्ण-निराश यष्टिकः, शुक्लकण्ठः। (वि.) विद् (दि. आ. अ.)। मुरज, सं. पुं. (सं.) दे. 'मृदंग'। मुदी, सं. पुं., दे. 'मुरदा'। मुरझाना, क्रि. अ. ( स. मूर्च्छनं> ) ग्लै-म्लै मुर्रा, सं. पुं. (हिं. मरोड़) दे. 'मरोड़' (२) । (भ्वा. प. अ.), विश (कर्म.), ग्लान- २. दे. 'पेचिश' ।। म्लान-विशीर्ण ( वि.) भू, ज (दि. प. से.) मुलज़िम, वि. ( अ.) अभियुक्त, दूषित ।। २. अवसद्-विषद् (भ्वा. प. अ.), दुर्मनायते मुलतवी, वि. (अ.) विलंबित, व्याक्षिप्त, (ना.धा.), विषण्ण-अवसन्न-विच्छाय (वि.) भू। *स्थगित । सं. पुं., ग्लानिः-म्लानिः ( स्त्री.) ३. विषादः, मुलतान, सं. पुं. (सं. मूलत्राणं ) प्रहादपुरं, अवसादः, वै-दौर , मनस्यम् । साम्बीपुरम् । मुरझाया हुआ, वि., ग्लान, म्लान, जीर्ण, मुलतानी, वि. (हिं. मुलतान) मूलत्राण, शीर्ण, २. विषण्ण, निविण्ण, अवसन्न, दोन। विषयक-संबंधिन्, मौलत्राण। सं. स्त्री., रागिणीमुरदा, सं. पुं. (फा.) मृतकः कं, शवःवं, भेदः २. पीतगैरिक, मौलत्राणीमृत्तिका। कुणपः, प्रेतम् । वि., उपरत, प्रेत, परेत, विपन्न, मुलम्मा, वि. (अ.) भासुर, भ्राजमान परासु, मृत, निजीव, निष्प्राण, प्रमीत २. दुर्बल | २. सुवर्ण-रजत,-लिप्त-रंजित । सं. पुं., हेमलेपः, २. म्लान। रजतरंजनं २. आडंबरः, आपातरम्यता । मुरदार, वि. (ता. ) मृत, प्रेत २. दृषित -करना, क्रि. स., रजतेन-स्वर्णेन लिप (तु. अपवित्र ३. जड, स्तंभित, स्तब्ध। प. अ.)-रंज (प्रे.)। मुरब्बा', (अ.मुरम्बह्)मिष्टपाकः, फलोपस्करः। -साज़, सं. पुं. (अ.+फा.) *धातु-हेम, लेपकारः। मुरब्बार, सं. पुं. (अ. मुरब्बअ ) समचतुरस्रः, समचतुर्भुजः २. वर्गः,द्विघातः ३. समचतुरस्र मुलहटी-ठी, सं. स्त्री., दे. 'मुलेठी। समचतुर्भुज-वर्गाकार, भूखंड:(-डम्)। वि., मुलाकात, सं. स्त्री. ( अ.) दे. 'मिलन' (१)। वगीकृत, वर्ग-( गज, फुट आदि)। -करना, क्रि. स., दे. 'मिलना'। मुरमुरा, सं. पुं. (अनु. मुरमुर ) भिष्मा, -करवाना, क्रि. प्रे., परिचय कृ (प्रे.), परिभिष्मिका-टा, भिस्स(स्सि)टा ! चि (प्रे.)। मुरमुराना, क्रि. अ. ( अनु. मुरमुर) मुरमुरा मुलाकाती, सं. पुं. ( अ. मुलाकात ) परिचितः यते (ना. धा.)। २. दर्शकः । मुरली, सं. स्त्री. (सं.) वंशी-शिका, वंशः, | मुलाज़िम, सं. पु. ( अ.) दे. 'नौकर' । वेणुः, वंश,नालिका, सानिका । मुलाज़िमत, सं. स्त्री. ( अ.) दे, 'नौकरी' । मुलायम, वि. (अ.) कोमल, सुकुमार २. लक्ष्ण, -धर, -मनोहर. स. पु. (सं.) श्रीकृष्णचंद्रः। चिक्कण। -करना, मु., परस्य क्रोधं शम् (प्रे., शमयति)। मुरब्बत, सं. स्त्री. ( अ.) शीलं २. सज्जनता। मुलाहिज़ा, सं. पुं. (अ.) दे. 'निरीक्षण' बे-, वि., रूक्ष, सहानुभूतिशून्य । २. आदरः ३. अनुग्रहः। मुराद, सं. स्त्री. (अ.) अभिलाषः, कामना मुलेठी, सं. स्त्री. [ सं. मधुयष्टी-टिः ( स्त्री.)] २. आशयः, अभिप्रायः। यष्टिमधु (न.), मधुष्टिका, मधुकं, क्लीतकम् । मुरादों के दिन, मु., यौवनम् । मुल्क, सं. पुं. (अ.) देशः २. प्रांतः ३. संसारः। मुरारी, सं. पुं. (सं.-रिः ) श्रीकृष्णचन्द्रः। मल्की , वि. (अ.) स्व-,देशीय २. शासनमुरीद, सं. पुं. (अ.) शिष्यः २. अनुयायिन् ।। संबंधिन् ।। मुनी, सं. स्त्री. ( 'फा. मुदन) मृत्यु, लक्ष- मुल्ला , सं. पुं. (अ.) यवनपुरोहितः २. अध्या णानि (न. बहु.)च्छाया २. अवसादः, पकः। विषादः, दौर्मनस्य, निवेदः, उत्साहाभावः। मुवकिल, सं. पुं. (अ.) *अभिभाषकनियोचेहरे पर मुर्दनी छाना या फिरना, मु., मुखे | जकः । For Private And Personal Use Only Page #517 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir मुवा-आ [ ४७६ ] मुहाना -मेंह बरसना, मु. दे. 'मूसल' के नीचे। मुवा-आ, वि. (सं. मृत ) निर्जीव, निष्प्राण | मुसलाधार, २. नीच, तुच्छ। मुशाइरा, सं. पुं. (अ.) कविसम्मेलनम्। मुसलामुसलि, सं. स्त्री. (सं.) मुस ( श, ष) मुशाबहत, सं. स्त्री. (अ.) सादृश्यं, साम्यम् ।। ल,-युद्धं-संग्रामः। मुश्क', सं. पु. ( फा.) कस्तूरी-रिका, मृगमदः मुसलिम, सं. पुं. (अ.) दे. 'मुसलमान'। २. दुर-गंधः। मुसली, सं. स्त्री. (सं.मुश(ष)ली) मुश(ष)लिका, मुश्कर, सं. स्त्री. ( देश.) भुजः, बाहुः । ताल,-मूलिका-पत्रिका, अर्शोन्नी, भूताली, दीर्घमुश्के कसना या बाँधना, मु., बाहू पृष्ठतः | कंदिका, हेमपुष्पी, गोधापदी। नियंत्र (चु.)। मुसल्ला, सं. पुं. (अ.) * आराधनास्तरः, मुश्किल, वि. (अ.) कठिन, दुस्साध्य । सं. स्त्री., | *उपासनासनम् । कठिनता २. विपत्तिः ( स्त्री.) मुसव्विर, सं. पु. (अ.) दे. 'चित्रकार' तथा -कुशा, वि., संकट-क्लेश-विघ्न, हर विनाशक । | __ 'फोटोग्राफर' । .-आसान होना, मु., संकटहरणम्, विपद् । मुसाफिर, सं. पुं. (अ.) पथिकः, पाथः, दे. ‘विनश् (दि. प. से.)। 'यात्री'। मुश्की, वि. (फा.) कृष्ण, श्याम २. मृगमद- | -खाना, सं. पुं. (अ.+फ्रा.) पथिकाश्रमः, मिश्रित २. श्यामाश्वः, खुंगाहः। पांथ,-शाला-गृहं, धर्मशाला। मुश्त, सं. पुं. (फा.) मुष्टिः (पु. स्त्री.)। मुसाफ्रिरी, सं. स्त्री. (अ.) पथिकत्वं २.यात्रा, एक-, क्रि. वि., युगपत् ( अव्य.)। प्रवासः। मुष्टामुष्टी, सं. स्त्री. [सं.-ष्टि ( अव्य.) 1 मुष्टी- मुसाहब, सं. पुं. (अ.) परिपाश्च(वि)कः, मुष्टि ( अन्य.), मुष्टियुद्धम् । पार्श्वगः। मुष्टि, सं. स्त्री. ( सं. पुं. स्त्री.) दे. 'मुक्का' (१)। मुसीबत, सं. स्त्री. (अ.) कष्टं,क्लेशः २.आपद्२. पलपरिमाणं (४ या ८ तोले का ) ३. चौर्य । विपद् (स्त्री.)। ४. दुर्भिक्षं ५. त्सरुः, सरुः । मुस्टं(प्ट)डा, वि. (सं. दंडः का अनु.) पुष्टांग, -युद्ध, सं. पुं. (सं. न.) दे. 'मुक्केबाजी'। । दृढ, देह-तनु-अंग, बलवत् २. दुर्वृत्त, खल । मुष्टिका, सं. स्त्री. (सं.) दे. 'मुक्का' २. दे. मुस्तकिल, वि. (अ.) ध्रुव, अचल २. दृढ़, 'मुट्ठी' (२)। चिरस्थायिन् । मुसक(कि)राना, क्रि. अ. ( सं. स्मयकरणं) मुस्तनद, वि. (अ.) प्रामाणिक, विश्वसनीय । मुस्तहक, वि. ( अ.) अर्ह, योग्य,-पात्र, अधिस्मि ( भ्वा. आ. अ.), ईषत्-मंद-मृदु हस् कारिन् । (भ्वा. प. से.) मृदुहास्यं कृ। सं. पु., स्मयनं, मुस्तैद, वि. ( अ. मुस्तअद) सज्ज, संनद्ध ईषद्हसनं, स्मितं, मृदुहासः। २. आशु-क्षिप्र, कारिन् ।। मुसकरानेवाला, सं. पुं., स्मेर, सस्मित, स्मय- मुस्तैदी, सं. स्त्री. (हिं. मुस्तैद ) सन्नद्धता, मान, स्मित,-कारिन्-शालिन् । सज्जता २. आशुकारित्वं, क्षिप्रता। मुसक(कि)राहट, सं. स्त्री. ( हिं. मुसकराना ) | मुहताज, वि. (अ.) निर्धन, अकिंचन २.दीन, स्मितं-तिः (स्त्री.), मंद-मृदु,-हासः-हसितं- | पराश्रित ३. आकांक्षिन् । हास्यम् । मुहब्बत, सं. स्त्री. (अ.) प्रेमन् (पुं. न.) मुसन्नित, सं. पुं. (अ.) ग्रंथकारः, पुस्तकप्रणेतृ।। २. मित्रता ३. अभिलाषः, कामः, प्रणयः । मुसल, सं. पुं., दे. 'मूसल' । मुहम्मद, सं. पुं. (अ.) श्रीमोहम्मदः, यवनमुसलमान, सं. पु. (का.) यवनः, मोहम्मदीयः, । धर्मप्रवर्तकः । *मुसलमानः। मुहरिर, सं. पुं. (अ.) लेखकः, लिपिकारः । मुसलमानी, सं. स्त्री. (फ्रा.) यवनी, *मुस- | मुहल्ला, सं. पुं. दे. 'महल्ला'। लमानी २. दे. 'खतना' ३. दे. 'इस्लाम'। मुहाना, सं. पुं. (हिं. मुँह ) नदीमुखं, सरिवि., यावन (-नी स्त्री.), यवनधर्मसंबंधिन् । । त्संगमः २. प्रवेशद्वारम् । For Private And Personal Use Only Page #518 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir मुहाफिज़ [४०] मूर्खता मुहाफिज़, वि. ( अ.) रक्षक, त्रात। प्रे.), उप-नी (भ्वा. प. अ.)। ४. भेडोणी कृत मुहाल, वि. (अ.) कठिन, दुष्कर २. असंभाव्य, (तु. प. से.)। सं. पुं., मुण्डन, क्षौरं, वपनं, अशक्य, असंभव । सं. पुं., दे. 'महल्ला'। केश, छेदनं-लवनं-कर्तनम्। मुहावरा, सं. पुं. (अ.) वाग्धारा, वाक्,- मूंडने योग्य, वि., मुण्डनीय, वप्तव्य, वाप्य । रीतिः(स्त्री.)-संप्रदायः २. अभ्यासः ३. शीलम् । | मुंडनेवाला, सं. पुं., मुण्डकः, नापितः मुंडिन्। मुहासिरा, सं. पुं. (अ.) उपरोधः, अवरोधनम् । | | मूंडा हुआ, वि., मुण्डित, क्षुरित, उप्त, क्लुप्त - -करना, क्रि. स., अव-उप,-रुध (रु. उ. अ.)। केश-श्मश्रु। मुहिम, सं. स्त्री. ( अ. ) दुष्करकार्य २. आक्रमणं ३. युद्धम् । मुंडी, सं. स्त्री., दे. 'मुण्ड'(१) । २. मुण्डाकारः मुहुः, अव्य. (सं.) पुनः । ऊर्श्वभागः। -मुहुः, अव्य., पुनः पुनः, असकृत् । मूंदना, क्रि. स. (सं. मुद्रणं) प्र-आ,-च्छद् . मुहूर्त, सं. पुं. (सं. पुं. न.) द्वादशक्षणपरिमित (चु.), सं-आ, वृ (स्वा. उ. से.), आ-,स्तु कालः २. घटिकाद्वयं, अहोरात्रस्य त्रिंशो भागः (स्वा. उ. अ.), स्तु (क् . उ. से.) २. अ., ३. मांगलिकसमयः ( ज्यो.)।। पिधा (जु. उ. अ.) ३.निमील (भ्वा. प. से.), मूंग, सं. स्त्री. पु. ( सं. मुद्गः ) सूपश्रेष्ठः, रसो. (प्रे.) मुद्रयति (ना. धा.)। सं. पुं., आ-प्र,त्तमः, हयानंदः, वाजिभोजनः, सुफलः । च्छादनं, आ-सं,वरणं, पिधानं, निमीलनं, छाती पर मूंग दलना, मु., दे. 'छाती' के नीचे। मुद्रणम् । | मक वि. (सं.) अवाच वाणीहीन.निगिर । मुंगफली, सं. स्त्री. (सं. भूमिफली) मंडपी, भूस्था, भूशिबिका, भूचणकः । मूगरी, सं. स्त्री. ( सं. मुद्गरः>) * वसन. मूंगा, सं. पुं. (हिं. मूंग) विद्रुमः, प्रवाल:-लं, भोमीरा। | मूजी, वि. (अ.) दुःख-क्लेश-कष्ट,-द-दायक मुंगिया, वि. (हि. मूंग) मुद्ग-हरित त - २. दुष्ट, दुर्जन, खल । पलाश, वर्ण। मूठ, सं. स्त्री., दे. 'मुट्ठी' (१-२) तथा 'मुठिया मूंछ, सं. स्त्री. [सं. श्मश्रु (न.)] गुंफः, ओष्ठ | (१-२)। रो(लो)मन् (न.)। मूठा, सं. पुं., दे. 'मुट्ठा'। -उखाड़ना, मु., कठोर दंड (चु.) २. गर्व । मूढ़, वि. (सं.) अश, मूर्ख, मंदधी, मंद, निर्बुद्धि चूर्ण (चु.)। २. स्तब्ध, निश्चेष्ट ३. व्यामोहित, भ्रष्टसंश । -नीची होना, मु., लज्जित (वि.) भू -मति, वि. ( सं.) मूढ़, बुद्धि-चेतस् । २. अवमन् ( कर्म.)। मूढ़ता, सं. स्त्री. (सं.) अज्ञता, मूर्खता, बुद्धि-पर ताव देना या हाथ फेरना. म.. शौर्य । हीनता इ.।। प्रदृश (प्रे.), वीरताभिमानेन श्मश्रव्यावृत (प्रे.)। मूत्र, सं. पु. ( सं. न.) स्रवः, प्रस्तावः, मेहः, Dज, सं. स्त्री. (सं. मुंज: ) मुंजनकः,दृढ,-तृण:- गुह्यनिस्यदः। मूलः, ब्राह्मण्यः, रंजनः, दूरमूलः, शत्रुभंगः। |-करना, क्रि. अ., मूत्रयति (चु.), मूत्रोत्सर्ग मूंड, सं पु. ( सं. मुंड:-डं ) दे. 'मुंड' (१)। | कृ, मिह (भ्वा. प. अ.), मूत्रं उत्सृज् (तु. -मुड़ाना, मु., परिव्रज् (भ्वा. प. से.), | प. अ.)। संन्यस् (दि. प. से.)। -कृच्छ, सं. पं. (सं. न.) अश्मरी २. कृच्छ्र मूंडन, सं. पुं., दे. 'मुंडन'। ३. मुत्ररोधः । मूंडना, क्रि. स. (सं. मुण्डनं ) मुण्ड ( भ्वा. -स्थान, सं. पुं. (सं. न.) *प्रस्रावागारः-रन्, प. से.), वप् (भ्वा. उ. अ., प्रे.), खुर-क्षुर् | मूत्रालयः।। (तु. प. से.), केशान् कृत् (तु. प. से.)- | मूर्ख, वि. (सं.) निर्-दुर् , बुद्धि, अ-निर्, छिद् (रु. प. अ.)-लू (क् . उ. से.) २. वंच | बोध, अज्ञ, अनभिज्ञ, अज्ञान-निन्, मंद, मंदधी, (प्र.), छल (चु.), प्रत (प्रे.), विप्रलभ | विधा-प्रज्ञा-ज्ञान-बुद्धि,-हीन-शून्य-रहित इ.।। (भ्वा. आ. अ.) ३. दीक्ष ( भ्वा. आ. से; मूर्खता, सं. स्त्री. (सं.) अशता, अनभिज्ञता, For Private And Personal Use Only Page #519 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir मूर्च्छना [४ ] मुग मंदता, दुनिर् , बुद्धित्वं, अज्ञानं, अबोधः, पत्रक-कंदकम् । ( छोटी मूली ) मूलकपोतिका, जडता इ.। चाणक्यमूलक, लघुमूलकम् । मुर्छना, सं. स्त्री. (सं.) संगीतांगप्रकारः। किसी को मूली गाजर समझना, मु., तृणाय-तृणं मूच्र्छा , सं. स्त्री. (सं.) सं.,मोहः, कश्मलं, मन् (दि. आ. अ.), अवधीर -अवगण (चु.) । मूर्छन, मूर्छायः, चैतन्य-संज्ञा.-लोपः-नाशः। मूल्य, सं. पुं. (सं. न.) वस्नः-नं, अधः, -आना, क्रि. अ. मूर्छ ( भ्वा. प. से.), | अहाँ, अवक्रयः, पण्यः। मुह् (दि. प. से. ) मोहं मूछो प्राप् (स्वा. -रहित, वि. (सं.) तुच्छ, निस्सार, व्यर्थ, प. अ.), संज्ञा-चेतना हा (जु. प. अ.), नष्ट- | क्षुद्र। संश-लुप्तचेतन (वि.) भू।। -वृद्धि, सं. स्त्री. (सं.) वस्न-अर्घ, वृद्धिः-उपमूछित, वि. (सं.) मूढ, मुग्ध, मोहवश, चयः-उन्नतिः (स्त्री.)। मच्छपिन्न, नष्ट-लुप्त-विगत, चेतन-चैतन्य-संज्ञ। मूल्यवान् , वि. ( सं.-वत् ) बहुमूल्य, महाघ, मूर्त, वि. (सं.) मूर्तिमत्, साकार, आकृतियुक्त | अतिमूल्य, अमूल्य। २.कठिन,स्थूल,सुसंहत, धन ३. 'मूच्छित' दे.। मूल्यांकन, सं. पुं. (सं. न.) मूल्य बस्नमूर्ति, सं. स्त्री. (सं.) चित्रं, आलेख्यं, रेखा- अर्घ, निर्धारणं-निश्चयनम् । चित्रं २. प्रतिकृतिः ( स्त्री.), प्रतिच्छंदः, मूष, मूष(षि)क, सं. पुं. (सं.) उंदुरुः, दे. प्रतिमा ३. आकृतिः ( स्त्री.), आकारः, स्वरूपं 'चूहा'। ४. शरीरं, देहः । -वाहन, सं. पुं. (सं.) गणेशः। -कार सं. पु. ( सं.) चित्रकारः २. प्रतिमा- मूसल-र, सं. पुं. (सं. मुसल:-लं ) मुष(श). कारः। ल:-लं, अयोऽयम् । -पूजा, सं. स्त्री. (सं.) प्रतिमापूजनम् । -चंद, सं. पुं., अशिष्टः, असभ्यः २. पुष्टदुष्टः। -विद्या, सं. स्त्री. (सं.) मूर्ति-निर्माण-घटना । | मूसल(ला)धार बरसना, मु., अतीव-अतिमर्तिमान, वि. ( सं. मत् ) सशरीर, शरीरिन. वेगेन धारासारैः वृष् ( भ्वा. प. से.)। काय-देह,-भृत-धारिन्-वत्, देहिन, मूर्त | मूसलाधार वर्षा, आसारः, धारा,-आसारः२. दृश्य, दृष्टिगोचर, प्रत्यक्ष, साकार। । (नि-सं)पातः-वर्षः-वर्षम् । मूर्द्धज, सं. पुं. (सं.) शिरोरुहः, दे. 'केश'। मूर्खा, सं. पुं. (सं.र्द्धन् ) शीर्ष, दे. 'सिर । | मूसा, सं. पुं. (सं. मूषः) दे. 'चूहा'। मूल, सं. पुं. (सं. न.) शिफः-फा, जटा, मृग, सं. पुं. (सं.) हरिणः, कुरंगः,गमः, ब्र(बु)ध्नः, अंघ्रिनामकः २. कंदःदं ३. उप- वातायुः, (अ)जिनयोनिः, एण:-णकः, ऋश्य:क्रमः, आरंशः, आदिः ४. आदि, कारणं- ध्यः, रिष्यः-श्यः, चारुलोचनः, शारंगः, कृष्णबीज-हेतुः, प्रकृतिः ( स्त्री.) ५. मूलवित्तं, सारः, पृषतः-त् (पु.), प्लाविन् (पुं.), दे. 'पूंजी' ६. आद्य-आरंभिक,-भागः ७. गृह- मरुकः, रुरुः, रोहितः, लिगुः, वननः, शंबरः, मूलं, वास्तु (पुं. न.) ८. मूलग्रंथः, व्याख्येय- रौहिषः, वातप्रमीः (पुं.) २. पशुमात्र वाक्यं ९. नक्षत्रविशेषः १०. समीप-पे ११. दे. २. वन्यपशुः ४. मार्गशीर्षमासः ५. मकरराशिः 'पिपलामूल' । वि., मुख्य, प्रधान । । ६. पुरुषभेदः। -धन, सं. पुं. ( सं. न.) मूलं, मूल,-द्रव्यं- -छाला, सं. स्त्री. (सं+हिं.) मृग-हरिण,वित्तं, सामकम् । __ अजिनं-चर्मन् (न.)। -मूलश, वि. ( सं. समासान्त में) -कारणक, | -तृष्णा, सं. स्त्री. (सं.) मृग, तृष-तृषाउद्भूत,,-उत्पन्न ( उ. अज्ञानमूलक, अज्ञान- तृष्णिः तृष्णिका-मरीचिका ( सब स्त्री.)। कारणक इ.)। |-नयनी, सं. स्त्री. (सं.) कुरंग-मृग,-दृश् मूली, सं. स्त्री. (सं. मूलकः-कं) राजालुकः, (स्त्री.)-लोचना(नी)-अक्षी-ईक्षणा-नयना। महाकंदः, हस्तिदंतं, कंदमूलं, दीर्घ, मूलक-|-राज, सं. पु. ( सं.) मृगेन्द्रः, दे. 'सिंह' । For Private And Personal Use Only Page #520 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सुगया [ ४८२ ] मेज़ - शिरा, सं. स्त्री. (सं.) मृग - शिर:- शिरस् मैंगनीज, सं. पुं. ( अं. ) लोहकं, मांगलम् । (न.)-शीर्षम् । मेंडक, सं. पुं., दे. 'मेढक ' । मेंढा, सं. पुं., दे. 'भेड़ा' । मेंबर, सं. पुं. ( अं. ) सदस्यः, सभासद् (पुं.) । मैंह, सं. पुं. (सं. मेघः > ) दे. 'वर्षा' । मेंहदी, सं. स्त्री. दे. 'मेहंदी' । मेक्सिमम, वि. (f.) भूयिष्ठ, अधिकतम | मेख, सं. पुं., दे. 'मेष' । शुगया, सं. स्त्री. (सं.) दे. 'शिकार' | मृगांक, सं. पुं. (सं.) दे. 'चाँद' । युगी, सं. स्त्री. ( सं . ) हरिणी, कुरंगी, एणी, पृषती २. अपस्मारः ३. कस्तूरी । युगेन्द्र, सं. पुं. (सं.) मृग, पतिः -राजः, दे. 'सिंह' । शश, अंक-लांछन, सुणाल, सं. पुं. (सं. पुं. न. ) विशं-सं, मृणाली, पद्म-कमल, नालं, पद्मतंतुः । स्रुत, वि. (सं.) दे. 'मुरदा' वि. । तक, सं. पुं. (सं. पुं. न. ) दे. 'मुरदा' मेखल-ला, सं. स्त्री. (सं. मेखला ) कांचीसं. पुं. । चिः (स्त्री.), रस (श) ना-नं, सारस (श) नं, कक्ष्या । सप्तका की २. कटिसूत्रं ३. खड्गादिनिबंधनं ४. शैलनितंब : ५. नर्मदा । मेगज़ीन, सं. पुं. (अं.) शस्त्रास्त्रकोष्ठः २. सामयिकपत्रिका | - कर्म, सं. पुं. [सं. - मनू (न.)] प्रेतकृत्यं ( अंत्येष्टि इ. ) । त्तिका, सं. स्त्री. (सं.) दे. 'मिट्टी' (१) । त्युंजय, सं. पुं. ( सं . ) जितमुत्युः २. शिवः । स्मृत्यु, सं. स्त्री. (सं. पुं. ) मरणं, निधन:-नं, पंचत्वं-ता, प्राणनाशः, तनु-त्याग:-विच्छेदः, कालधर्मः, दिष्टांतः, संस्थितिः (स्त्री.), प्रलयः, अत्ययः, प्राण,-अंतः, नाशः, मृतिः (स्त्री.), अवसानं, दीर्घनिद्रा । २. लोक, सं. पुं. (सं.) यमलोकः २. मर्त्यलोकः । दंग, सं. पुं. (सं.) मुरज:, पटह:, घोष: । मृदु, वि. (सं.) लक्ष्ण, मसृण, सुखस्पर्श, श्रुति-, मधुर, कार्कश्य शून्य, मंजुल ३. सुकुमार, पेलव, कोमल, मृदुल, सौम्य, ४, मंद, मंथर, विलम्बकारिन् । मृदुता, सं. स्त्री. (सं.) श्लक्ष्णता, मसृणता २. मंजुलता, श्रुति-, मधुरता ३ सुकुमारता, कोमलता २. मंदता, मंथरता इ. । मृदुल, वि. (सं.) दे. 'मृदु' । मृदुलता, सं. स्त्री. ( सं . ) दे. 'मृदुता ' । मेख, सं. स्त्री. (फ़ा. दे. 'खूँटा' २. दे. 'कील' ३. दे. 'पच्चढ़' । में', अव्य. ( सं . मध्ये )- अंतरे, अंतः प्रायः सप्तमी विभक्ति से (उ. घर में गृहे ) । - से, मध्यात् ( षष्ठी के साथ ), प्रायः षष्ठी तथा सप्तमी विभक्ति द्वारा (उ. खगानां खगेषु वा हंसः श्रेष्ठः ) । में, सं. स्त्री. (अनु.) रेभणं, अजशब्दः । मैंगनी, सं. स्त्री. (हिं. मींगी) * गूथगुलिका, *शमलगुली । -मारना, मु., बाध् (भ्वा. आ. से. ), विहन् ( अ. प. अ. ), विघ्न ( ना. धा., विघ्नयति ) । मेगनेशियम, सं. पुं. ( अं. ) भ्राजातु, मग्नकं, माग्निम् । मेघ, सं. पुं. ( सं . ) जल-पयो धारा- अंभो, धरः, अभ्रं, अंबु-वारि, वाहः, स्तनयित्नुः, बलाहकः, अब्दः, नीरदः, वारिदः, जलदः तोयदः, अंबुदः, अंभोदः, पाथोद:, घन:, जीमूतः, धूमयोनिः, वारि-जल-पयो,-मुच् (पुं.), घनाघनः, पर्जन्यः २. रागभेद: ( संगीत ) | -काल, सं. पुं. (सं.) प्रावृष (स्त्री.). वर्णाः ( स्त्री, बहु. ), वर्ष-धन, कालः समयः । —-गर्जन, सं. पुं. (सं. न. ) मेघ-दुंदभि:-नादःस्वनः, गर्जितं, गर्जनं-ना, स्तनितं, वि, स्फूर्जथुः । दूत, सं. पुं. (सं. न. ) कालिदास-प्रणीतं खंडकाव्यम् । - धनु, सं. पुं. [ सं . -नुस् (न.) ] इन्द्रचापः । - नाथ, सं. पुं. ( सं . ) मेघपतिः इन्द्रः । - नाद, सं. पुं (सं.) इन्द्रजित् २. मेघगर्जनम् ३. वरुणः । - मण्डल, सं. पुं. ( सं. न. ) घनपरली, मेघमाला, कादंबिनी । - वर्ण, वि. ( सं . ) घनश्याम | - वाहन, सं. पुं. ( सं . ) इन्द्रः शक्रः । मेज़, सं. स्त्री. ( फा . ) पादफलक:-कम् | - पोश, सं. पुं. (फ्रा.) पादफलकाच्छादनम् । For Private And Personal Use Only Page #521 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir मेज़बान मेज़बान, सं. पुं. (का.) आतिथ्यकारिन, अतिथिसेवकः । [ ४८३] मेटना, क्रि. स., दे. 'मिटाना' । मेड़, सं. पुं. (सं. भित्तं ) क्षेत्र, सीमा- पर्यंत: । मेढक, सं. पुं. (सं. मंडूक ) भेकः, प्लवः, प्लवगः, दर्दुरः, वर्षा, भूः-घोषः, अंडुकः, कैंडुकः, हरिः, शालु:, शा (सा) लूरः । मेहा, सं. पुं. (सं. मेढ्रः ) दे. 'भेड़ा' । मेथिलेटिड स्पिरिट, सं. स्त्री. (अं.) मिथिलित सारः । मेथी, सं. स्त्री. (सं.) मैथि : (स्त्री.), मेथिकामेथिनी, दीपनी, बहुपण, गंध, फला-बीजा । मेद, सं. पुं. [ सं . मेदस् (न.)] वपा, वसा, मेद: २. मेदस्विता, स्थौल्यं ३. कस्तूरी । मेदा, सं. पुं. (अ.) पक्वाशयः, पिचंडः, फंड:, मलुकः । मेदिनी, सं. स्त्री. (सं.) धरा, दे. 'पृथिवी' | मेघ, सं. पुं. (सं.) यज्ञः, मखः २. हविस्(न.) । मेधा, सं. स्त्री. (सं.) धारणावती बुद्धि: (स्त्री.), स्मरणशक्तिः (स्त्री.), धारणा । मैथिल समाज:, उत्सवः २. जनसंमर्दः, संकुलम् । - ठेला, सं. पुं., जनौघः, जनसंमर्दः । मेवा, सं. पुं. ( फा . ) शुष्क, फलम् । - फ़रोश, सं. पुं. (फ्रा.) फल, विक्रेतृ-विक्रयिन् । मेष, सं. पुं. (सं.) दे. 'भेड़ा' २. क्रियः, राशिविशेषः । मेधावी, वि. (सं.) पंडित, धीमत, मेधावत् । मेम, सं. स्त्री. (अं. मैडम ) गौरांगी, श्वेतांगी ( विदेशीय नारी ) | मेहंदी, सं. स्त्री. (सं. मेंधी ) रागांगी, मेन्धिका, यवनेष्टा, नख, रंजिनी, रागगर्भा, कोकदंता । मेह', सं. पुं. (सं.) मूत्रं २ प्रमेह: ३. मेषः । मेहर, सं. पुं. ( सं . मेघः ) जलदः २. वृष्टिः (स्त्री.), दे. 'वर्षा' । , मेहतर, सं. पुं. (फ़ा. मि. सं. महत्तरः ) ज्येष्ठः, प्रधानः २. मलवाहकः, दे. 'भंगी' ( मेहतरानी स्त्री. ) 1 मेहनत, सं. स्त्री. (अ.) परिश्रमः, प्रयासः । - मज़दूरी, सं. स्त्री, शारीरिक- कायिक, श्रमःव्रातम् । - ठिकाने लगना, मु., श्रमसाफल्यम्, श्रमेण (कार्यसिद्धि: (स्त्री.) । मेहनताना, सं. पुं. (अ. +फ़ा.) पारिश्र मिकं, कर्मण्या, भर्मण्या । मेहनती, वि. (अ. मेहनत ) परिश्रमिन्, उद्योगिन् । मेहमान, सं. पुं. (फ़ा. ) अतिथिः, दे. । --ख़ाना, सं. पुं., अतिथि-प्राधुण, शाला-गृहम् । - नवाज़, वि., अतिथि- प्राघुण, सेवक- पूजक मेमना, सं. पुं. (अनु. में - मैं ) अजपोतः, छागशावः २. अविडिंभ:, मेषशिशुः । मेमार, सं. पुं. (अ.) स्थपतिः, वास्तुशिल्पिन्, गृहसंवेशकः, फलगंड:, *गेहकारः । —का काम, सं. पुं., सूत्रकर्मन् (न.) । मेरा, री, सर्व. (हिं. मैं ) मम, मदीय (-या स्त्री.), मामकीन ( -ना स्त्री), मामक( - मिका स्त्री. ), मत्- । वा-सत्कारः । मेरु, सं. पुं. (सं.) सुमेरु:, हेमाद्रि:, रत्नसाः, सुरालय: २. जपमालायाः प्रधानगुटिका । —दंड, सं. पुं. ( सं. ) पृष्ठ, वंश:- अस्थि (न.) २. ध्रुवमध्यरेखा । मेहर, सं. स्त्री. ( फा . ) कृपा, अनुग्रहः । मेहरबान, वि. ( फा . ) कृपालु, अनुग्रहशील । मेहरबानी, सं. स्त्री. (फ़ा. ) दया, अनुकंपा | मेहराब, सं. स्त्री. (अ.) तोरण:-णं, वृत्तखण्ड : डम् | मेल, सं. पुं. (सं.) दे. 'मिलन' (१-२ ) 3. ऐकमत्यं, सांमत्यं, वैमत्याभावः ४. सख्यं, मित्रत्वं सौहार्द ५. आनुकूल्यं, सामंजस्यं ६. साम्यं, सादृश्यम् । -दार, वि. (अ. + फ़ा.) तोरणाकार (द्वारादि) । मैं, सर्व. ( सं . अस्मद् > ) अहम् । सं. स्त्री, अहंमति: (स्त्री.), अहंकारः । मैका, सं. पुं., दे. 'मायका' । —जोल, सं. पुं., सुपरिचयः, अभ्यंतरत्वं, मैत्री, सं. स्त्री. (सं.) मैत्र्यं, दे. 'मित्रता' । - मिलाप, गाढसौहृदम् । मैथिल, वि. ( सं . ) मिथिलासंबंधिन् । सं. पुं., मेला, सं. पुं. ( सं . मेल: ) मेलकः, यात्रा, मिथिलावासिन् २. जनकः । सत्कारक । -नवाज़ी, सं. स्त्री. दे. 'मेहमानदारी' । " मेहमानदारी, सं. स्त्री. ( फा . ) मेहमानी, सं. स्त्री. (फ़ा. मेहमान) For Private And Personal Use Only आतिथ्यं अतिथि-, से Page #522 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir मैथिली मैथिली, सं. स्त्री. (सं.) वैदेही, जानकी । मैथुन, सं. पुं. (सं. न. ) रतं, सुरतं, रतिक्रिया - क्रीडा, महासुखं, क्रीडारत्नं, अब्रह्मचर्यक, निधुवनं, धर्षितं, संभोगः । [ ४८४ ] मोटा - विद्या, सं. स्त्री. (सं.) वेदांतशास्त्रम् | मोगरा, सं. पुं. (सं. मुद्गरः) अतिगन्धः गंधराज:- सारः, विट, प्रियः, जन-मृग, इष्टः २. दे. 'सुँगरा' । करना, क्रि. स., सुरतं आतनू (त. प. से. ), मोघ, वि. ( सं . ) व्यर्थ, निष्फल | संभोगं रतिक्रीडां कृ, महासुखं अनुभू । मैदा, सं. पुं. ( फा . ) समिता, अपूप्यः, अट्टसारः । मैदान, सं. पुं. (फ़ा. ) सम-भूमि: ( स्त्री: ) स्थल-स्थली प्रदेशः, उपशल्यं २. क्रीडा,भूमिः क्षेत्रं ३. युद्धभूमिः, रणक्षेत्रम् । -मारना, मु., वि-परा-जि ( भ्वा. आ. अ. ), दे. 'जीतना' । मैन, सं. पुं. (सं. मदनः) कामदेवः २. दे. 'मोम' । मैनफल, सं. पुं. (सं. मदनफलं ) श्वसन-छर्दनशल्य-करहाटक, फलं २. (वृक्ष) मदनः, श्वासनः छर्दनः, शल्यः । मैनसिल, सं. पुं. ( सं . मनःशिला ) नैपाली, मनोज्ञा, शिला, कुनटी, दिव्यौषधिः (स्त्री.), नागजिह्निका, कल्याणिका । मैना, सं. स्त्री. (सं. मदना ) शा (सा) रिका, चित्रलोचना, कुणपी, मधुरालापा, मेधाविनी, गो, किराटा - किराटिका, कलहप्रिया । मैनाक, सं. पुं. (सं.) हिमवत्सुतः, सु-हिरण्य नाभः । मैया, सं. स्त्री. (सं. मातृका ) दे. 'माता' । मैल, सं. स्त्री. (सं. मलिन > ) दे. 'मल' ( १-२ ) । ३. दोषः, विकारः । -खोरा, वि. (हिं. + फ़ा.) मल, गोपिन -गोप्तृ । सं. पुं., अन्तर्वस्त्रं वसनं वासस् (न.) २. दे. 'साबुन' । हाथ की, मु., तुच्छवस्तु (न.), क्षुद्रद्रव्यम् । मैला, वि. ( सं . मलिन ) दे. 'मलिन' । सं. पुं., दे. 'मल' ( १ - ३ ) । करना, क्रि. स., आविलयति-मलिनयति ( ना. धा. ), पंकिली-मलिनीकृ । — होना, क्रि. अ., आविली- मलिनीभू, कलुष-पंकिल (वि.) जन् ( दि. आ. से. ) । -कुचैला, वि., अति-आविल-कलुष-मलिन । मों, सं. स्त्री. दे. 'मूंछ'। मोंदा, सं. पुं. (सं. मूर्द्धन् > ) *शरकांडपीठं २. भुजमूल स्कंध, प्रदेशः । मोक्ष, सं. पुं. (सं.) दे. 'मुक्ति' । मोच, सं. स्त्री. (सं. मुच् > ) संधि, व्याक्षेप:व्यावर्तनं, स्नायुवितानः । आना या निकलना, किं. 3T., संधि: व्याक्षिप ( कर्म. ) व्यावृत् (भ्वा. आ. से. ), स्नायुः वितन (कर्म) । मोचक, सं. पुं. (सं.) मुक्तिदः २. सन्न्यासिन ३. कदली । मोचन, सं. पु. ( सं. न. ) मोक्षणं, मुक्तिदान, बंधनभंजनं, मुक्तिः (स्त्री.) । वि., मोचक मोक्षक, मुक्तिप्रद । मोचना, सं. पुं. ( सं. मोचन > ) *मोचन:, * बालोत्पाटनः २. मुचुटी, लोहकारोपक रणभेदः । मोचरस, सं. पुं. (सं.) मोच, स्राव :- सार:निर्यासः, शाल्मलीवेष्टः, सुरसः । मोची, सं. पुं. (सं. मुच् > ) चर्मकार:, पादूकारः- संधायकः । मोज़ा, सं. पुं. (फ्रा.) अनुपदीना, चरणावरणं, . 'जु' । मोजिज़ा, सं. पुं. (अ.) चमत्कार:, कौतुकं, आश्चर्यम् । मोट, सं. स्त्री. दे. 'गठरी' | मोटन, सं. पुं., (सं. न. ) पेषणं, चूर्णनं, मर्दनं, खण्डनम् । मोटर, सं. पुं. ( अं.) चालक-प्रवर्तक, -यंत्रम् | -कार, सं. स्त्री. ( अं.) चित्र-तैल, रथः, *मोटरम् । खाना, सं. पुं., मोटरागारम् । - ड्राइवर, सं. पुं., मोटरचालकः । — बस, सं. स्त्री. *मोटर, बसम् । -बोट, सं. स्त्री. *मोटरनौका | - साइकिल, सं. स्त्री. *मोटरसाइकलम्, * फटफटिया । मोटा, वि. (सं. मुष्टि > ? ) पीन, पीवर, पुष्ट, पुष्टांग (-गी स्त्री.), स्थूल, स्थूलदेह, मेदस्विन २. घन, निविड़, सांद्र, गाढ, स्थूल ३. कणमय, कुपिष्ट, ४. अप, निकृष्ट, हीन, गर्ह्य ५. कुरूप For Private And Personal Use Only Page #523 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra मोरचा मोठ [ ४८ ] ६. असाधारण, विशिष्ट ७ दृप्त, गवित ८. | मोद, सं. पु. ( सं . ) हर्षः, आनंदः, दे. महत, बृहत् ९. धनाढ्य, धनिक | - असामी, सं. पुं., धनिन्, धनशालिन, श्रीमत् । www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir - ताजा, वि., हृष्टपुष्ट, पुष्टांग, मांसल । मोटी बात, सं. स्त्री, सामान्य-साधारण- प्राकृत, वार्त्ता । मोटे हिसाब से, क्रि. वि., स्थूलमानेन । मोटाई, सं. स्त्री. मोटापन, मोटापा, सं.पुं. (हिं. मोटा) पीवरता, मेदोवृद्धिः (स्त्री.),स्थू. लता, पीनता २. घन ता, गाढ़ता, सांद्रता इ. मोठ, सं. स्त्री. (सं. मकुष्ठ: ) राज- अरण्य-वन मुद्गः, मुकुष्ठ:- ष्ठकः, मय (यु) ष्टः - ष्टकः । मोड़, सं. पुं. (हिं. आदि का ) वकः, २. वक्रता, वक्रिमन् जिाता ३. दे. 'मुड़ना' सं. पुं. । मोड़ना, क्रि. स. ब. 'मुड़ना' के प्रे. रूप । मोढ़ा, सं. पुं., दे. 'मोंढा' । मोतदिल, वि. दे. 'मातदिल' । मोतिया, सं. पुं. (हिं. मोती ) मल्ली, मल्लिका, वन, चन्द्रिका, गौरी, प्रिया, सौम्या, सिता, दे. 'मोगरा' (१) । , शौक्तिकं, मोतियाबिंद, सं. पुं. (हिं. मोती + सं . बिंदु: ) मौक्तिक मुक्ता, बिन्दु (नेत्ररोगः ) । मोती, सं. पुं. (सं. मौक्तिकं ) मुक्ता, मुक्ताफल, शुक्तिजम् । - पिरोना, क्रि. स., मौक्तिकानि सूत्र (चु.)गु(गुं)फ (तु.प.से.) संग्रंथ (क्र. प. से. ) । मु., सुमधुरं भाष (भ्वा. आ. से. ) २. सुस्प टाझरैः लिख ( तु. प. से. ) ३. रुद् ( अ. प. से. ) ४. सुसूक्ष्मकार्यं कृ । मोतीचूर, सं. पुं. (हिं. मोती + चूर) मुक्तामोदकः । मुड़ना ) आवृत् त्तिः ( नदीमार्ग (स्त्री.) (पुं.), वक्रीभावः, 'प्रसन्नता' । मोदक, सं. पुं. (सं.) मिष्टान्नभेदः । वि ., जनक, आह्रादक 1 - मोदी, सं. पुं. ( सं. मोदक > ) अन्न, विक्रेतृविक्रयिन, दे. ‘परचूनिया' । - खाना, सं. पुं. (हिं. + फ़ा. ) भांडारम् । अन्न. मोम, सं. पुं. (फ़ा.) सिक्थं, सिक्थकं, मक्षिकामल:-लं, मधुजं, मधुशेषं, मधूच्छिष्टं, मधूल, मधूत्थम् । —की नाक, , सं. स्त्री, मु., चलचित्त, अस्थिरमति । - जामा, सं. पुं. ( फा . ) *माधुज-सैक्थिकसिक्थाक्त, वस्त्रम् । - दिल, वि. ( फा . ) मृदुमानस, आर्द्रचित्त । - बत्ती, सं. स्त्री. ( फा . + हिं. ) मधुज - सिक्थवर्ती - वर्तिः (स्त्री.) । — करना या बनाना, मु., दयाद्रींकृ, करुणार्द्र (वि.) विधा ( जु. उ. अ. ) । - होना, मु., दयार्द्र (वि.) भू, अनुकंप (भ्वा. आ. से. ) । मोमियाई, सं. स्त्री. ( फा . ) कृत्रिमशिलाजतु (न.), कृतकशिलाजित (स्त्री.) २. व्रणपूरक: स्निग्धौषधभेदः । मोमी, वि. ( फ़ा.) सिक्थमय, माधुज, सैक्थिक । मोर, सं. पुं. (सं. मयूरः ) बर्हिणः, नीलकंठ, चित्र, पिच्छकः - पत्रकः, कलापिन् केकिन, चंद्रकिन, नर्तनप्रियः, बर्हिन्, भुजंगारिः, मेघानंदिन, शिखंडिन्, शिखावलः, वर्षामदः, प्रचलाकिन् । —की ध्वनि, सं. स्त्री, 'केका' दे. 1 -की पूंछ, सं. स्त्री., कलापः, लाकः, बर्हः, शिखंडः । -चंद्रिका, सं. स्त्री, चंद्रकः, मेचकः । - पंखी, सं. स्त्री, केलि-विहार, नौका । — आँख, सं. स्त्री, *मौक्तकनेत्रं, लघुगोलभासुरनेत्रम् | मोतीज्वर, सं. पु. (हिं. मोती + सं . ज्वरः ) मुकुट, सं. पुं., मयूर मुकुट :-टं, शिखंडशीतला. मसूरिका, ज्वरः । शेखरः । मोतीझ (झ) रा, सं. पुं. (हिं. मोती + झरना) For Private And Personal Use Only पिच्छं, प्रच - शिखा, सं. स्त्री, बहिंचूडा, शिखिशिखा, शिखालुः । आन्त्रिक-मन्थर, ज्वरः । मोथा, सं. पुं. (सं. मुस्तक: कं ) मुस्ता, कुरु- मोरचा', सं. पुं. (फ्रा.) दे. 'जंग' २. मुकुरबिंदः, भद्रा, भद्रकः । मलम् । Page #524 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir मोरचा [४ ] मोरचा, सं. पुं. (फा. मोरचाल) परिखा, | -डालना, मु., अभिचारेण मायया वा खेयं, खातम्। । वशीकृ। -बंदी करना, मु., परिखया परिवेष्ट (प्रे.); | मोहर, सं. स्त्री. ( फा.) दे. 'मुद्रा' (१-४)। परिखां खन् (वा. प. से.), सेना खातेषु २. सुवर्णमुद्रा, निष्कः-कं, दीनारः । नियुज ( रु. आ. अ.)। -लगाना, क्रि. स., मुद्रयति (ना. था.), -लेना, मु., युध् (दि. आ. अ.)। मुद्रया अंक (चु.)। मोरछल, सं. पुं. (हिं. मोर+छड़ ) *शिखंड- | मोहरा', सं. पुं. (हिं. मुँह ) पात्र-भाजन, मुखं चामरः, *कलापव्यजनम् । २. पदार्थस्य अग्र-ऊध्र्व, भागः ३. पशुमुखमोरनी, सं. स्त्री. (हिं. मोर ) मयूरी, शिख- जालकं ४. नासीरचराः (पुं. बहु.), सेनाडिनी, बहिणी, केकिनी। मुखं ५. निर्गमनमार्गः, द्वारम् ।। मोरी, सं. स्त्री. (हिं. मोहरी) नाली, नालि: | मोहरा, सं.पं. (फ़ा. मोहर) शार:-रिः, खेलनी (स्त्री.) वहनी, जलमार्गः। २. मृण्मय *संस्थानपुट: (सांचा) ३. दे. मोल, सं. पुं. (सं. मूल्यं, दे.)। 'जहरमोहरा'। -लेना, क्रि.स.,दे. 'खरीदना' । मोहलत, सं. स्त्री. (अ.) अवकाशः २. अवधिः । -तोल, सं. पुं., अघनिर्धारणं, मूल्यनिर्णयः। | मोहित, वि. (सं.) मोहग्रस्त, भ्रांत २. आसक्त, मोह, सं. पुं. (सं.) भ्रमः, भ्रांतिः-मिथ्यामतिः | अनुरक्त, बद्धभाव । (स्त्री.), विवर्तः, आभासः, प्रपंचः, अविद्या, मोहिनी, वि. तथा सं. स्त्री. (सं.) दे. 'मोहनी' अज्ञानं २. ममता-त्वं ३. स्नेहः, रागः, प्रेमन् वि. तथा सं. स्त्री.। (पु.न.) ४. कष्टं, दुःखं ५. मूछा। | मोही, वि. ( सं.-हिन् ) मुग्धकारिन, चेतोइर -लेना, क्रि. स., मुह (प्रे.), मनः ह ( भ्वा. | २. अनुरागिन्, स्नेहिन् ३. भ्रांत ४. लुब्ध, प. अ.), वशीकृ। लोभिन्। मोहक, वि. (सं.) चेतोहर, मनो,-हारिन्- | मौजी, सं. स्त्री. (सं.) मुंजमेखला । रम, २. मोहजनक। -बंधन, सं. पुं. (सं. न.) मुंजमेखलधारणम् । मोहताज़, वि. ( अ.) दे. 'मुहताज'। मौक़ा, सं. पु. ( अ.) घटनास्थान २. स्थानं, मोहन, सं. पुं. (सं.) मोहकः, मनोहारिन् प्रदेशः ३. अवसरः, अवकाशः। २. श्रीकृष्णः ३. मूर्खाकारक उपचारभेदः -देखना, मु., अवसरं प्रतिपा (प्रे., प्रतिपा लयति)। ( तंत्र) ४. अस्त्रभेदः ५. कंदर्पबाणविशेषः -हाथ से न जाने देना, मु., अवसरं न वा ६. धस्तूरक्षुपः । वि., मोहक, चेतोहर । (प्रे. वापयति) हा (जु. प. अ.,प्रे, हापयति)। -भोग, सं. पुं. (सं.) (१-३) संयाव मौकूफ, वि. (अ.) दे. 'बरखास्त' । कदली-आम्र, भेदः। मौकूफी, सं. स्त्री. (अ.) दे. 'वरखास्तगी'। मोहना, क्रि. अ. ( सं. मोहनं ) अनुरंज-आसंज | मौक्तिक, सं. पुं. ( सं. न.) मुत्ता, मुक्ताफलं, (कर्म,), आसक्त-अनुरक्त-बद्धभाव भू २. मुह शौक्तका शक्तिजम् । (दि. प. से.), दे. 'मूर्छा आना' । क्रि. स., -दाम, सं. पुं. (सं.-मन् न.) मुक्ता-मौक्तक, प्रीति-अनुरागं-अभिलाषं जन् (प्रे.), अनुर हारः-सरः, मुक्तावली। (प्रे.), वशी कृ २. भ्रम-भ्रांति-संदेहं जन् । -सर, सं. पुं. (सं.) दे, 'मौक्तिकदाम' । (प्रे.), प्रत-वंच (प्रे.)। सं. पुं., अनुरंजनं, मौखिक, वि. (सं.) वाचिक, लेखं विना । अनुरागः. मूर्छा, मोहनं, वशीकरणं, वचनं, मौज, सं. स्त्री. ( अ.) तरंगः, कल्लोलः, वीचीप्रतारणम् । चिः (स्त्री.) २. कामचारः, छंदः, छंदस् (न.), मोहनी, सं. स्त्री. (सं.) विष्णो रूपविशेषः । चित्ततरंगः ३. आनंदः, मोदः ४. वैभवं, २. मिष्टान्नभेदः ३. मोहन, शक्तिः (स्त्री.). विभवः ५. दे. 'धुन' । मंत्रः ४. माया। वि. स्त्री. (सं.) मोहिका, -आना, मु., स्वच्छंदतया सहसा प्रवृत् चेतोहरी। } (भ्वा. आ. से.)। For Private And Personal Use Only Page #525 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir मौज़ा [४८७] यंत्र %3 -मनाना या उड़ाना, मु., नंद् (भ्वा.प.से.), | मौर्य, सं. पुं., (सं.) प्राचीन-भारतस्य वंशमुद् (भ्वा. आ. से.), रम् (भ्वा. आ. अ.)। विशेषः । मौजा, सं. '. (अ.) ग्रामः । मौर्वी, सं. स्त्री. (सं.) धनुर्गुणः, प्रत्यंचा, ज्या। मौजी, वि. ( अ. मौज) आनंदिन, उल्लासिन् | मौलसिरा, सं. स्त्री. (सं. मौलि:+श्री:>) २. कामचारिन्, स्वैरिन् २. अस्थिरमति । बकुलः, सीधुगंधः, मुकु(कू)लः, मधुपुष्पः मौजूद, वि. ( अ.) उपस्थित, विद्यमान। सुरभिः, स्थिरकुसुमः, भ्रमरानंदः । मौजूदगी, सं. स्त्री. (अ.+मा.) उपस्थितिः मौला, सं. पुं. (अ.) परमेश्वरः। (स्त्री.), विद्यमानता। मौलि, सं. स्त्री. (सं. पुं. स्त्री.) शिखरं, शृंगं, मौजूदा, वि. (अ.) वर्तमान, विद्यमान, प्रचलित, ऊर्श्वभागः २. शीष, मस्तकं ३. मुकुटं, किरीटं आधुनिक, सांप्रतिक। ४. जूटः, जूटकं ५. अशोकवृक्षः ६. प्रधानः, मौत, सं. स्त्री. (सं. मृत्युः दे.)। मुख्यः ७. पृथिवी। -सिर पर खेलना, मु., जीवितसंशये वृत् | मौलिक, वि. (सं.) मौल, आधारधूत २. प्रधान, (भ्वा. आ. से.)। मुख्य ३. आध, आदिम। अपनी-मरना, मु., प्रकृत्या स्वभावेन मृ मौसा, सं. पु., दे. 'मासड़' । (तु. आ. अ.)। मौसिम, सं. पुं. (अ.) ऋतुः, कालः, समय: मौन, सं. पुं. (सं. न.) निःशब्दता, तूष्णी- | २. उपयुक्तसमयः, उचितकालः । भावः, वाक् ,रोधः-नियमनं-स्तंभः २. मुनि- | मौसिम, वि. ( फ़ा.) आर्तव, ऋतु-संबंधिन्व्रतम् । वि., दे. 'मौनी'। विषयक २. समयानुकूल, कालानुरूप । -व्रत, सं. पुं. ( सं. न.) मूकता-मूकिम-तूष्णी- | मौसी, सं. स्त्री., दे. 'मासी'। कता,प्रतिज्ञा-संकल्पः-व्रतम् । मौसेरा, वि. (हिं. मौसी) मातृष्वसृसंबंधिन्। -खोलना, क्रि. अ., मौनं भंज ( रु. प. अ.), -भाई, सं. स्त्री., मातृ,वसेयः-ध्वस्रीयः । तूष्णीभावं त्यज् (भ्वा. प. अ.)। मौसेरी बहिन, सं.स्त्री., मातृ-वसेयी-ष्वस्रीया। -धारण करना, कि. अ., वाचंयम् ( भ्वा, म्याव, सं. स्त्री. (अनु.) विडालशब्दः, प. अ. )-निरुध ( रु. उ. अ.), मौनं धृ (चु.) म्यूँकारः। मज (भ्वा. उ. अ.)। -करना, मु., भयेन मंदमंदं वद् (भ्वा.प.से.)। मौनी, वि. (सं.निन् ) वाचंयम, मौनव्रतिन , | म्याद, सं. पुं., दे. 'मीआद' । मुक, निःशब्द, तूष्णीक । सं. पुं. (सं.) मुनिः, म्यान, सं. स्त्री., दे. 'मियान' । तपस्विन्। म्लान, वि. (सं.) ग्लान, विशीर्ण २. दुर्बल मौर, सं. पुं. (सं. मुकुटं> ) वरस्य तालपत्र- । ३. मलिन ४. खिन्न, अवसन्न । मुकुटं, *मुकुट, २. प्रधानः, शिरोमणिः। | म्लानि, सं. स्त्री. (सं.) म्लानता, कांतिक्षयः, मौरी, सं. स्त्री. (हिं. मौर ) वध्वास्तालपत्रमु- विवर्णता २. खेदः, अवसादः, शोकः, ग्लानिः, कुटकं, *मुकुटकम् । (स्त्री.)। मौरूसी, वि. ( अ.) पैतृक, पित्र्य, परंपरागत । म्लेच्छ, सं. पुं. (सं.) वर्णाश्रमधर्मविहीनः, मौख्यं, सं. पुं. (सं. न.) मूर्खता, अज्ञता, अनार्यः २. गोमांसभक्षकः ४. अस्पष्टभाषिन् जडता, मूढता। | ४. दुर्वृत्तः, दुष्टः । वि., अधम, नीच, पापिन् । य, देवनागरीवर्णमालायाः षड्विंशो व्यंजनवर्ण:, । २. दारुयंत्रादि, यंत्रं ( मशीन ) ३. साधनं, यकारः। उपकरणं ४. अग्न्यस्त्रं ५. वाद्यं, वीणा ६. दे. यंता, सं. पुं. (सं. यन्तृ ) शासकः, निदेशकः 'ताला'। २. वाहन-चालकः, सारथिः। ३. हस्तिपकः, -गृह, सं. पुं. (सं. न.) यंत्रशाला २. मानगजाजोवः। | मंदिरं, वेधशाला ३. (अपराधिना) यंत्रणागृहम्। यंत्र, सं. पुं. (सं. न.) देवाद्यधिष्ठान, विविध-|-मंत्र, सं. पुं. (सं. न.) अभिचारः, कुहकं, प्रभावयुक्तं अंकाक्षरयुतं कोष्ठकचित्रं (तंत्र.)। कुसूतिः । For Private And Personal Use Only Page #526 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पेत्रक [ ४ ] यथांश - -विद्या, सं. स्त्री. (सं.) यंत्र, शास्त्रं-विज्ञानम् ।। -पात्र, सं. पुं. (सं. न.) याग,भाजनं-भांडम् । -शाला, सं. स्त्री. (सं.) दे. 'यंत्रगृह' । -भूमि, सं. स्त्री. (सं.) यागक्षेत्रम् । यंत्रक, सं. पुं. (सं.) यंत्रकारः, यंत्रज्ञः, शिल्पिन्। । -शाला, सं. स्त्री. (सं.) यज्ञ-सदन-मंदिर। यंत्रण, सं. पुं. (सं. न.) नियंत्रणं, दमनम् आगारम्। २. बन्धनं, संयमनम् ३. पीडा, वेदना | -सूत्र, सं. पुं. (सं. न.) यज्ञोपवीतम् । ४. रक्षणं, अभिरक्षा। -स्तंभ, सं. पुं. (सं.) यागयूपः । यत्रणा, सं. स्त्री. (सं.) कष्टं, क्लेशः, यातना | यज्ञांग, संपुं., (सं. न.) यज्ञभागः २. यज्ञ-, २. वेदना, पीडा। साधनम्-सामग्री-उपकरणम् । (सं. पुं.) यंत्रालय, सं. पुं. (सं.) यंत्र,-गृहं शाला उदुम्बरः, जन्तुफलः २. खदिरः, दन्तधावनः २. मुद्रणयंत्रालयः। ३. विष्णुः। यंत्रित, वि. (सं.) यंत्ररुद्ध २. तालकबद्ध। यज्ञागार, सं. पुं. (सं. न.) यश, शाला-वेदी. यकता, वि. (फा) अनुपम, अद्वितीय, अप्रतिम ।। वेदिः ( स्त्री.)। यकों , वि. (फा.) तुल्य, सन, सदृश। यज्ञोपवीत, सं. पुं. (सं. न.) पवित्रं, सावित्री. यक़ीन, सं. पुं. (अ.) निश्चयः २. विश्वासः।। यज्ञ-ब्रह्म,-सूत्रं, द्विजायनी । यकृत् , सं. पु. ( सं. न.) कालखंडं, कालक, यति', सं. . (सं.) यतिन्, जितेन्द्रियः, कालेय, करंडा, महास्नायुः, दे. 'जिगर' तापसः, परिव्राजकः, सन्न्यासिन्, योगिन्, २. यकृत, उदरं-वृद्धिः ।। भिक्षुः, रक्तवसनः २. ब्रह्मचारिन् । यक्ष, सं. पुं. (सं.) देवताभेदः,गुधकः २.कुबेरः। -धर्म, सं. पुं. (सं.) सन्न्यासः, भिक्षाचर्यम् । -राज, सं. पुं. (सं.) कुबेरः, यक्षराजः।। यति, सं. स्त्री. (सं.) विरामः, विरतिः (स्त्री.), यक्षिणी, सं. स्त्री. (सं.) यक्षभार्या, यक्षी, | विश्रामः, पाठविच्छेदः (छंद.)। २. कुबेरपत्नी। यतिनी, सं. स्त्री. (सं.) सन्न्यासिनी, परिव्रःयक्ष्मा, सं. पुं. (सं. यक्ष्मन् ) क्षयः, शोषः,। जिका २. विधवा। राजयक्ष्मन् (.), रोगराजः। यती, सं. पुं. (सं.तिन् ) दे. 'यति' 'सं. पुं.'। यखनी, सं. स्त्री. (फा.) मांस, मंडः-रसः | यतीम, सं. पुं. (अ.) छ(छे)मंडः, अनाथः, २. शाक, मंडः-रसः। मातृपितृहीनः। यगाना, सं. पुं., आत्मीयः, संबंधिन्, बान्धवः, -खाना, सं. पुं. (अ.+फा.) अनाथालयः, बंधुः । वि., एकाकिन् २. अनुपम । छ(छे)मंडालयः। -बेगाना, सं. पुं., स्वकीयपरकीयाः ( बहु.) | यत्न, सं. पुं. (सं.) प्रयत्नः, उद्योगः, उद्यमः, २. मित्रबांधवाः ( बहु.)। अध्यवसायः, चेष्टा-ष्टितं, आ-प्र,-यासः, परि,, यजमान, सं. पुं. (सं.) यशपतिः, यष्ट, व्रतिन, श्रमः, व्यवसायः २. उपायः, युक्तिः ( स्त्री.) यज्ञ, कृत्-कर्तृ २. दानिन्, दात। ३. चिकित्सा, उपचारः, रोगप्रतिकारः। यजुर्वेद, सं. पुं. (सं.) आर्याणां धर्मग्रंथविशेषः, -करना, क्रि. अ., प्र., यत् तथा चेष्ट (भ्वा.आ. यजुस् ( न.), यजुः श्रुतिः (स्त्री.)। से.) परि., श्रम् (दि. प. से.), अध्यव-व्यव, यजुर्वेदी, सं. पुं. (सं.-दिन ) यजुविंद् (पुं.)। सो (दि. प. अ.), उदयम् (भ्वा. प. अ.), यज्ञ, सं. पुं. (सं.) यागः, अध्वरः, सव:-वनं, आयस् ( भ्वा. दि. प. से.), प्रयत्न-परिश्रममखः, ऋतुः, सत्रं, हवनं, होमः यज:-जिः, । अध्यवसायं कृ। इज्या, इष्टिः (स्त्री.), सप्ततंतुः, महः २. विष्णुः । -शील, वि. (सं.) यत्नवत्, उद्यमिन, उद्यो-कर्म, सं. पुं. [सं.-मन (न.)] यज्ञ,क्रिया- गिन्, आ-प्र, यासिन, परिश्रम-उद्योग-कर्म, कृत्यं. २. कर्मकांडम् । शील-पर-परायण इ.। -कुंड, सं. पुं. (सं. पुं. न.) हवन,-वेदो-कुंढम् । | यत्र, अव्य. (सं.) यस्मिन् देशे-स्थले-स्थाने । -पति, सं. पु. (सं.) दे. 'यजमान'। -तत्र, अव्य. (सं.) अत्र तत्र, इतस्ततः २. -पशु, सं. पुं. (सं.) यशियचरिः २. अश्वः अनेकत्र, बहुत्र।। ३. छागः। । यथांश, भव्य. (सं. न.) यथा,-भाग-खण्डम्, For Private And Personal Use Only Page #527 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir व्यथा यवनारि [४] भाग- अंश, अनुसार अनुकूलम् = यथायोग्यम् | यदि, अन्य (सं.) चेत् ( यह वाक्यारंभ में यथोचितम् । . नहीं आता ) । यथा, अव्य. (सं.) येन प्रकारेण यया रीत्या २. दृष्टांत उदाहरण, रूपेण, तया यथा हि, -वत्, इव, यवत्, अनुरूपं, अनुसारम् । -काम, क्रि. वि. (सं. न. ) यथा, - इच्छं- इष्टं • ईप्सितं अभिमतम् । --क्रम, क्रि.वि. (सं.न.) क्रमेण, क्रमानुसारं रेण । -- तथा, क्रि.वि. (सं.) यथाकथंचित्, येन केन प्रकारेण । --मति, क्रि.वि. (सं. न. ) यथाबुद्धि, यथाज्ञानम् । - योग्य, वि. ( सं . ) यथोचित, यथाई । - रुचि, क्रि. वि. (सं. न. ) दे. 'यथाकाम' । -वत्, क्रि. वि. ( सं . ) यथोचितं, यथार्ह, यथायुक्तं २. यथाविधि, नियमानुसारं ३. यथातथं, यथ सत्यम् । - शक्ति, क्रि. वि. (सं. न. ) यथा- बलं सामर्थ्य - क्षमम् । --शास्त्र, क्रिं. वि. (सं. न. ) शास्त्रानुकूलम् । संभव, क्रि. वि. (सं. न. ) यथाशक्यम् । - समय, क्रि. वि. (सं. न. ) यथाकालं, कालानुसारम् । - साध्य, क्रि. वि. ( सं. न. ) यथा, -शक्तिसामर्थ्यम् I - स्थान, क्रि. वि. (सं. न. ) स्थानानुकूल, उचितस्थानेषु । यथार्थ, वि. (सं.) सत्य, अवितथ, निर्दोष, निर्भ्रान्त २. उचित, उत्पन्न, युक्त। क्रि.वि. (सं. न. ) युक्तं, यथार्हं, सांप्रतं, सम्यक् । यथार्थता, सं. स्त्री. ( सं . ) सत्यता, निर्दोषता २. औचित्यं युक्तता । यथेच्छ, क्रि. वि. (सं. न. ) 'यथाकाम' दे. | वि., ( सं. ) यथेष्ट, यथेप्सित, यथाकाम । यथेच्छाचार, सं. पुं. (सं.) स्वेच्छाचार:, यथेष्टव्यवहारः । यथेच्छाचारी, वि. (सं.- रिनू ) स्वच्छन्द, स्वैर, स्वैरिन्, अनियंत्रित । यथेष्ट, वि. तथा क्रि. वि. दे. 'यथेच्छ ' । - यथोचित, वि. ( सं . ) यथा, - योग्य अर्ह युक्त | क्रि. वि. (सं. न. ) यथा, - योग्यं - अर्हम् । यदा, अन्य. ( सं . ) यस्मिन् काले समये । --कदा, अन्य. (सं.) काले काले, कदाचित्, कदापि । यदु, सं. पुं. (सं.) ययातिपुत्रः । नंदन, सं. पुं. (सं.) यदुनाथ:-श्रेष्ठ: पति:राजः, श्रीकृष्णः । यद्यपि, अव्य. ( सं . ) षष्ठी वा सप्तमी से भी, जैसे, यद्यपि दशरथ विलाप करता रहा तो भी राम वन को चल दिया = विलपति दशरथे ( विलपतो दशरथस्य ) रामो वनं ययौ । यम, सं. पुं. (सं.) धर्मराजः, पितृपतिः, कृतांतः, यमुनाभ्रातृ, वैवस्वतः, काल:, दंडधरः, अंतकः, धर्मः, महिषध्वजः, महिषवाहनः, जीवितेश: २. इन्द्रियनिग्रहः ३. योगांगविशेषः, अहिंसासत्यास्तेयब्रह्मचर्यापरिग्रहधर्मपालनं ४. वायु: ५. दे. 'यमज' । " - दूत, सं. पुं. (सं.) धर्मराजचरः । -पुर, सं. पुं. (सं. न. ) यमपुरी, यमलोकः । - राज, सं. पुं. ( सं . ) दे. 'यम' (१) । यमक, सं. पुं. (सं. न.) शब्दालंकारभेदः ( काव्य ), ( सं . पुं.) संयमः २. दे. 'यमज' । यमज, सं. पुं. ( सं.-जौ ) यमौ यमकौ, यमलौ २. अश्विनीकुमारौ ( जोड़े में से एक ) यमः, यमलः । वि., यम, यमक, यमल । यमल, सं. पुं. तथा वि., दे. 'यमज' । यमुना, सं. स्त्री. (सं.) कालिंदी, कलिंद, - कन्या-नंदिनी, यमी, यमनी, सूर्यसुता, तरणितनुजा २. दु । ययाति, सं. पुं. (सं.) नहुषपुत्रः, पुरुपितृ, चंद्रवंशिनृपविशेषः । यरकान, सं. पुं. (अ.) पाण्डु, रोग:- आमयः, कामला, पाण्डुकः । यव, सं. पुं. (सं.) सित तोक्ष्ण, - शुकः, मेध्यः, दिव्यः, अक्षतः, धान्यराजः, तुरगप्रियः, शक्तः, महेष्टः, पवित्रधान्यम् । - क्षार, सं. पु. (सं.) यवजः, पाक्यं यवाग्रजः । यवन, सं. पुं. (सं.) यूनानवासिन् २. दे. 'मुसममान' ३. विदेशीयः ४. म्लेच्छः ५. वेगः ६. वेगवान् अश्वः । यवनानी, सं. स्त्री. (सं.) १.२. यवन- यूनान,भाषा-लिपि: (स्त्री.) । यवनारि, सं. पुं. ( सं . ) कृष्णः, नन्दनन्दनः, वासुदेवः, मधुसूधनः । For Private And Personal Use Only Page #528 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir raftar [ ४६० ] यानी यवनिका, सं. स्त्री. (सं.) जवनिका, अपटी, । याजक, सं. पुं. ( सं . ) याजयितृ, पुरोहित: । कांडपट : २. तिरस्करिणी, प्रतिसीरा, व्यवधानम्। याज्ञवल्क्य, सं. पुं. (सं.) वैशंपायनशिष्यः, यवनी, सं. स्त्री. (सं.) यवनभार्या २. यवन- वाजसनेयः २. जनकसभ्यो योगीश्वरयाज्ञवल्क्यःजातेर्नारी । ३. स्मृतिकारविशेषः । याज्ञिक, सं. पुं. ( सं . ) यजमानः, यष्टृ २० याजयितृ । वि., यज्ञि (ज्ञी)य, यागविषयक । [ याज्ञिकी (स्त्री.) ] | यातना, सं. स्त्री. (सं.) पीडा-वेदना व्यथा. - अतिशयः २. यमदण्डपीडा । यवस, सं. स्त्री. ( सं. पुं. न. ) घासः, शाद:, तृणम् २. पल:, पलाल:, धान्यतृणम् । यवागू, सं. पुं. (सं. स्त्री. ) उष्णिका, श्राणा, विलेपी, तरला | यश, सं. पुं. [ सं . यशस् (न.) ]ख्यातिः कीर्तिःविश्रुति:- प्रसिद्धि: (स्त्री.), इलोकः, विश्राव:, अभिख्यानं, समाख्या । --गाना, मु., प्रशंस् (भ्वा. प. से. ), श्लाघ् (भ्वा. आ. से. ) २. कृतं ज्ञा ( क्र. उ. अ. ), उपकारं विद् (अ. प. से. ) 1 यशस्वी, वि. (सं. स्विन्) कीर्तिमत्, प्रवि, ख्यात, लोकविश्रुत, सुशंस, यशोधर, कीर्तित, पुण्यलोक, प्रसिद्ध । [ यशस्विनी (स्त्री.) कीर्तिमती, विख्याता इ. ] । यष्टि, सं. स्त्री. (सं.) दंड, लगुडः, यष्टी २. हारभेदः । यष्टिका, यह, सर्व. (सं. इह > ) इदम् एतद् । यहाँ, क्रि.वि. ( सं . इह ) अत्र, अस्मिन् देशे - स्थाने । — तक, क्रि. वि., एतद्-अत्र पर्यंतं यावत्अवधि - अंतम् । = - वहाँ, क्रि.वि., अत्र तत्र, इतस्ततः, अत्रामुत्र । - से, क्रि. वि.. इतः, अस्मात् स्थानात् २. अतः इतः, -परं-ऊर्ध्व-प्रभृति । यही, क्रि.वि. (हिं. यह + ही ) अयं इयं इद एष:- एषा - एतद एव । यहीं, क्रि. वि. ( हिं-यहाँ+ही ) इहैव, अत्रैव, अस्मिन्नेव स्थाने । यहूदी, सं. पुं. (इमानी, यहूद) यहूद, बासिन्भाषा-लिपि: (स्त्री.) । याँ, क्रि. वि., दे. 'यहाँ' । या, अभ्य. ( फा . ) वा, अथवा, यद्वा ( प्रश्न करने में ) नु । याकूत, सं. पुं. ( अं. ) दे. 'ल' ( रत्न ) । याग, सं. पुं. (सं.) दे. 'यज्ञ' । याचक, सं. पुं. (सं.) अर्थिन्, प्रार्थक: २. भिक्षुः, भिक्षुकः । याचना, सं. स्त्री. (सं.) याचनं, याच्ञ, प्रार्थनं ना । क्रि. स., दे. 'मांगना' | यातायात, सं. पं. (सं. न. ) गतागतं आयातनिर्यात २. प्रेत्यभावः, पुनर्जन्मन् (न.) । यात्रा, सं. स्त्री. (सं.) प्रस्थानं, प्रयाणं, व्रज्या, गमः- मनं, प्रवासः, देश, भ्रमणं पर्यटनं, प्रस्थिति (स्त्री.), अध्व-मार्ग, गमनं-क्रमणम् । करना, क्रि. अ., प्र-या ( अ. प. अ. ) प्रव (भ्वा. प. अ. ), देशे अट् (भ्वा. प. से. ), यात्रां कृ । यात्री, वि. (सं.- त्रिन्) पथिकः, पथिलः, पांथ:, अध्वगः, अध्वन्यः पादविकः, प्रवासिन् मार्गिकः, यात्रिकः, सारणिकः २. तीर्थयात्रिन्, कापटिकः । याद, सं. स्त्री. (फ्रा.) धारणा, स्मृतिः स्मरण-शक्तिः (स्त्री.) २. स्मरणम् । यादगार, सं. स्त्री. (फ्रा.) स्मृतिचिह्न, स्मारकम् । याददाश्त, स्त्री. ( फा . ) स्मृति: ( स्त्री. ),. धारणा. २. स्मरण, स्मारक - टिप्पणी । यादव, सं. पुं. (सं.) यदुवंश्यः, यदुवंशजः २. श्रीकृष्णः । वि., यदुसंबंधिन् । यान, सं. पुं. (सं. न. ) प्रवहणं, रथः, स्यंदनः शताङ्गः, वाहनं, वह्यम् । यानी-ने, अव्य. ( अ. ) अयं आशयः, एष भावः, तात्पर्य, अर्थात् । यापन, सं. पुं. (सं. न. ) कालक्षेपः, समयाति-वहनम् । याबू, सं. पुं. ( फा . ) दे. 'टट्टू' । याम, सं. पुं. (सं.) दे. 'पहर' २. समयः । यामिनी, सं. स्त्री. (सं.) रात्रि, रजनी, निशा । यार, सं. पुं. (फा.) मित्रं, सुहृद् (पुं.) २. उपपतिः, जारः । यारनी, सं. स्त्री. ( फ़ा. यार ) उपपत्नी.. भुजिष्या २. प्रिया, दयिता । For Private And Personal Use Only Page #529 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir याराना [ ४६१ ] याराना, सं. पु. । (फा.) सख्य, मित्रता । युद्ध, सं. पुं. (सं. न.) संग्रामः, आयोधनं, यारी, सं. स्त्री. २. अध अनुचित, प्रणयः- जन्यं, प्रधनं, मृधं, आस्कंदनं, संख्यं, समरं, प्रेमन् (पुं. न.), अनंगरागः । रणः, विग्रहः, संप्रहारः, अभिसंपातः, कलिः, याल, सं. स्त्री. (तु.) दे. 'अयाल' । आहवः, विदारः, आजिः (पुं. स्त्री.) बलजं, यावक, सं. पुं. (सं.) सक्तुः २. अलक्तकः । । युध् (स्त्री.)। यावजीवन, किं. वि. (सं. न.) आ,-मरणं. -काल, सं. पुं. (सं.) संगर-संग्राम,-समयःमृत्योः, यावज्जन्म, यावज्जीवम् । काल:-वेला। यावत् , वि. ( सं.) दे. 'जितना' २. समस्त, -क्षेत्र, सं. पु. ( सं. न.) युद्ध-रण-संगर, भूः सकल ( अव्य.) पर्यन्तम् , आ(समास में वा (स्त्री.)-भूमिः (स्त्री.) क्षेत्रम्-अजिरम् । पंचमी युक्त)। | -विद्या, सं. स्त्री. (सं.) रण-समर-संगर, यावनी, सं. स्त्री. (सं.) करंकशालिनामकः शास्त्रं-विज्ञानम् । इक्षुः, गुडतृणभेदः, वि. स्त्री. यवन-सम्बन्धिनी। -वीर, सं. पुं. (सं.) भटः, योधः, शूरः, युक्त, वि. (सं.) उचित, उपपन्न, योग्य, | योद्ध। औपपत्तिक २. संश्लिष्ट, संहत, संलग्न, मिलित। यधिष्टिर. सं. पं. (सं.) पांडवराजः, अजातयुक्ति, सं. स्त्री. (सं.) उपायः, प्रयोगः-युक्तिः । शत्रुः, धर्मपुत्रः, शल्यारिः, अजमोढः । ( स्त्री.) २. कौशल, चातुर्य ३. रीतिः (स्त्री.), यरेनियम. सं. पुं. (अ.) किरणधातुः, वर प्रथा ४. न्यायः, नीतिः ( स्त्री.) ५. अनुमानं, | णिकम् । तर्कः ६. हेतुः, कारणं ७. ऊहा, तर्कः ८. योगः, यवक, सं. पुं. (सं.) दे. 'युवा'। संश्लेषः। -युक्त, वि. (सं.) उचित, उपपन्न न्याय्य, | | युवती, सं. स्त्री. (सं.) युवतिः (स्त्री.), तरुणी, यथार्थे। यूनी, धनि(नी)का, मध्यमा,मिका, वयस्था, युग, सं. पुं. ( सं. न.) द्वयं, द्वितयं, युग्मं, | वर्या, ईश्वरी, दृष्टरजस् (स्त्री.), प्राप्तयौवना । युगलं, युतकं, यमकं २. समयः ३. सुदीर्घः | ही युवराज, र. पुं. (सं.) राज्याधिकारिन्, राजा कालपरिमाणविशेषः, कृतादिकालचतुष्टयं (दे. कुमारः। 'कलियुग' आदि ) ४. धुर् (स्त्री.), धुवीं, | युवा, सं. पुं. (सं. युवन्) तरुणः, तलुनः, वयप्रासंगः, युगः-गं ५. शारः-रिः, खेलनी ६. एक (यः)स्थः। कोष्ठकस्थं शारद्वयम् । यूँ , अव्य., दे. 'यों'। -युग, क्रि. वि. (सं. न निता था यूका, सं. पुं. (सं.) यूकः, केशकीरः, स्वेदजः, शाश्वत्, नित्यं, चिरं, ( सब अव्य.)। | बालकृमिः, पाली-लिः (स्त्री.), षटपदः । -धर्म, सं. पुं. (सं.) युगानुरूप, कर्तव्यं । दे. 'नँ' २. दे. 'खटमल'। आचारः। | यूथ, सं. पुं. (सं. न.) कुलं, वृंद, गणः, समजः, युगपत् , अव्य. (सं.) सहैव, समकालम् । । सजातीयवस्तुसमूहः २. सैन्यं, दल:-लम् । युगल, सं. पुं. (सं.) दे. 'युग' (१) । २. दंपती -पति, सं. पुं. (सं.) यूथ,-पः-नाथः २. दल(द्वि.) जंपती। पतिः । युगांत, सं. पुं. (सं.) महाप्रलयः, कल्पांतः | यूनान, सं. पुं. (ग्रीक, आयोनिया ) *यूनानः, २. सत्यादियुगविशेषस्य समाप्तिः ( स्त्री.)। । यवनदेशः । युगांतर, सं. पुं. ( सं. न.) अन्य-द्वितीय,-युगं | यूनानी, वि. (हिं. यूनान ) यवनदेशसंबंधिन् । २. परिवर्तितः समयः। सं. स्त्री., (१-२) यवनदेश-यूनान,-भाषा-उपस्थित करना, मु., सर्वथा परिवृत (प्रे.) चिकित्सा प्रणाली। सं. पुं., यवनदेशीयः, क्रांति कृ। यूनानवासिन्। युग्म, सं. पुं. ( सं. न.) दे. 'युग' (१)। । यूनिवर्सिटी, सं. स्त्री. ( अं.) विश्वविद्यालयः । युत, वि. (सं.) युक्त, संलग्न, सहित, मिलित, यूप, सं. पु. (सं.) यज्ञ-याग,-स्तंभः २. वि,-- संश्लिष्ट । । जयस्तमः, कीर्तिस्तंभः। For Private And Personal Use Only Page #530 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir यूरोप [४६२ योनि यूरोप, सं. पुं. (अं. युरोप ) *यूरोपः, महाद्वीप- उपायाः (पुं.) [ यमनियमासनप्राणायामविशेषः। प्रत्याहारधारणाध्यानसमाधयोऽष्टावंगानि । यूरोपियन, वि. ( अं.) *यूरोपीय, यूरोप,-संवं. योगांजन, सं. पु. ( सं. न.) सिद्धांजनं, भूगधिन्-विषयक। सं. पुं., यूरोपीयः, यूरोप- भस्थपदार्थदर्शककज्जलम् २. नेत्ररोगनाशवासिन् । कांजनम् । यूष, सं. पुं. (सं. पुं. न.) जूषः-धं, द्विदल- योगाभ्यास, सं. पुं. ( सं. न.) योगांगानुष्ठानं, क्वाथरसः । दे. 'शोरबा' । योगसाधनम् । ये, सर्व. ( हिं. यह ) इमे-पते, इदम, एतद् के | योगासन, सं. पुं. (सं. न.) ब्रह्मासनं, बहुवचन के रूप। ध्यानासनम् । यों. अव्य. ( सं. एवमेव >) इत्थं. एव. अनेन योगिनी, सं. स्त्री. (सं.) योगाभ्यासिनी. प्रकारेण, एतया रीत्या। तपस्विनी २. रण,-पिशाची-पिशाचिका। --तो, क्रि. वि. प्रायः, प्रायशः, प्रायेण | योगी, सं. पुं. (सं.-गिन् ) योगाभ्यासिन, २. साधारण्येन, सामान्यतः।। तपस्विन, तापसः, यतिः, मुनिः, वैरागिन-ही, क्रि. वि., एवमेव, इत्थमेव २. व्यर्थे, | गिकः, संन्यासिन्। मुधा, निष्प्रयोजनं ३. अकारणं, अहेतुकम् । | योगीश्वर, सं. पुं. (सं.) योगीन्द्रः, योगिराजः। -ही सही, क्रि. वि... एवमस्त. एच भवत. योगेश्वर, स. पुं. (सं.) श्रीकृष्णः २. शिवः तथास्तु। ३. योगेन्द्रः, सिद्धः, योगेशः। योग, सं. पुं. (सं.) चित्तवृत्तिनिरोधः, मनः | योग्य, वि, (सं.) क्षम, शक्त, समर्थ, पात्रं स्थैर्य २. दर्शनशास्त्रविशेषः ३. मोक्षोपायः, । २. सुशील, श्रेष्ठ, ३. चतुर, दक्ष, निपुण मुक्तियुक्तिः ( स्त्री.) ४. संधिः, संगः, सं(समा) ४. उचित, उपपन्न, युक्त। गमः, संहतिः (स्त्री.), संयोगः, संश्लेषः । | योग्यता, सं. स्त्री. (सं.) क्षमता, सामर्थ्य ५. उपायः ६. औषधं ७. धनं ८. लाभः | | २. चातुर्य, नैपुण्यं ३. औचित्यं, युक्तता। ९.शुभ-मंगल, अवसरः-मुहूर्तः (त) १०. दूतः, / योग्या, सं. स्त्री. (सं.) युवती, तरुणी २. चरः ११. बलीवर्दशकटी १२. चातुर्य अभ्यासः ३. शल्यक्रियाभ्यासः। १३. वाहनं १४. परिमाणः १५. नियमः | योजक, वि. (सं.) संयोजक, सम्मेलक, १६. उपयुक्तता १७. सामाधुपायचतुष्टयं | संश्लेषक। सं. पुं. डमरुमध्यम्, बृहद्भूखण्ड१८. वशीकरणोपायः १९. ध्यान, चिंतनं | युग्मयोजकसूक्ष्मभूभागः। २०. संबंधः २१. धनोपार्जनवर्द्धने २२. सौहार्द | योजन, सं. पुं. (सं. न.) (१-३) द्वि-चतुः२३. वैराग्यं २४. संकलनं, परिसंख्या, पिंड- | अष्ट, कोशी ४. योगः ५. संयोजनम् । कारणं (गणित) २५. सौकर्य २६. तिथिवार- | योजना, सं. स्त्री. (सं.) उघायः, कल्पना, नक्षत्रादीनां स्थितिविशेषः ( ज्यो.)। प्रयोगः, प्रयुक्तिः ( स्त्री.) २. नियुक्तिः (स्त्री.) .-क्षेम, सं. पुं. ( सं. न.) अनागतानयनागत- | ३. रचना, विन्यासः ४. व्यवस्था, आयोजनं । रक्षणे ( न. द्वि.), प्राप्तिरक्षणे । जीवननिर्वाहः | योद्धा, सं. पुं. ( सं. योद्धृ) भटः, योधः, २. मंगलं ३. लाभः ४. राष्ट्रसुव्यवस्था | योधा, वीरः, शूरः,सैनिकः, आयुधिकः, युद्ध५. दायादेषु अविभाज्यं वस्तु ( न.)। __शस्त्र, उपजीविन्, अस्त्र-शस्त्र, धरः भृत्.-निद्रा, सं. स्त्री. (सं.) योगसमाधिः आजीवः । २, वीरगतिः (स्त्री.)। योनि, सं. स्त्री. ( सं. पुं. स्त्री.) भगं, वरांगं, ---फल, सं. पुं. (सं. न.) संकल:, पिंडः, स्मरमंदिरं, रतिगृहं, अधरं, स्मर-कंदर्प, कूपः परिसंख्या (गणित)। नारी,-गुह्य-उपस्थं, संसारमार्गः २. कारणं -बल, सं. पुं. (सं. न.) तपोबलं, योग- | ३. उद्गमः, उद्भवः, निर्गमः ४. प्राणिजातिः शक्तिः (स्त्री.)। (स्त्री.) ५. देहः ६. गर्भः ७. जन्मन् (न.) योगांग, सं. पु. ( सं. न.) योग,-साधनानि । ८. गर्भाशयः । For Private And Personal Use Only Page #531 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir योनिज [ ४६३ ] रंगनेवाला योनिज, वि. (सं.) भगज, योनिसंभव । । यौतक, सं. पुं. (सं. न.) यौतुकं, युतकं, सं. पुं., (सं.) जरायुजः अंडजो वा | दे. 'दहेज' । जीवः। | यौवन, सं. पं. ( सं. न.) तारुण्यं, पूर्व-प्रथम योरोप, सं. पु., दे. 'यूरोप'। नवं,-वय । (न.)। यौगिक, सं. पुं. (सं.) व्युत्पन्नः, प्रकृतिप्रत्यय- -काल, सं. पुं. (सं.) यौवन, दशा-पदवी योगलभ्यार्थवाचकः शब्दः २. समस्तशब्दः। । तारुण्यावस्था । र, देवनागरीवर्णमालायाः सप्तविंशो व्यंजनवर्णः, -साज, सं. पुं. (फ्रा.) रंजकः, वर्णचारकः, रेफः, रकारः। कृणुः, वर्णाटः, तौलिकः, तौलिकिकः, रंग, रंक, वि. (सं.) दरिद्र, निर्धन २. कृपण, कारः-जीवकः-आजीवः २. रंग,निर्मात-रच. कदर्य । सं. पु., भिक्षुकः २. दरिद्रः। यित कारः। रंग, सं. पु. (सं.) रागः, वर्णः २. वर्णकः-का, | | -साजी, सं. स्त्री. (फा.) रंजन, वर्णनं, लेपः ३. नत्यगीते (न.द्वि.), संगीतं ४. नाट्य- | रंजकता. तौलिकता। रंग, क्षेत्र, शाला-गृह-मंडपः-स्थलं-भूमिः (स्त्री.) -महल, सं. पु. ( सं+अ.) रंगभवन, ५. युद्ध-रण,क्षेत्र-भूमिः ६. शरीर-त्वग, वर्णः | प्रमोदप्रासादः। ७. यौवनं ८. सौंदर्य ९, प्रभाव: १०. कौतुकं, -उड़ना या उतरना, मु., पांडुच्छाय (वि.) क्रीडा ११. युद्धं १२. कामचारः, छंदः (पुं.)। जन् (दि. आ. से.), विवर्णतां प्रपद् (दि. १३. आनंदः १४. दशा १५. कांड, अद्भुत- आ. अ.), मलिन-म्लान-मंद, प्रभ-कांति-युति व्यापारः १६. कृपा १७. अनुरागः १८. प्रकारः, जने। रीतिः (स्त्री.)। -जमाना या बाँधना, मु., स्वगौरवं प्रतिष्ठा करना, क्रि. स., दे. 'रंगना'। (प्रे. प्रतिष्ठापयति ), निजप्रतिष्ठां प्रस (प्रे.)। -चढ़ना, क्रि. अ., ब. रंगना' के कर्म. के रूप । | -पीला (फ्रक, फीका या मंद) होना, -ढंग, सं. पुं., आकारः, रूपं, २. दशा | मु., दे. 'रंग उड़ना। ३. आचारः। -बदलना, मु., क्रुध् (दि. प. अ.), कुप –दार, वि., रंजित, वर्णित, सरागः, रागयुक्त, (दि. प. से.)। चित्रित। --में भंग पड़ना, मु., आनंदोत्सवः विह। -बिरंग-गा, वि., अनेक-बहु-नाना, रंग-वर्ण, (कर्म.), रंगभंगो जन् । चित्र, कर्बुर, शबल । २. विशिष्ट, अनेक-बहु -र(रे)लियाँ मनाना, मु., मुद् (भ्वा. आ.. नाना, विध-प्रकारक। -भूमि, सं. स्त्री. (सं.) उत्सव,-स्थलं-स्थानं से.), रम् (भ्वा. आ. अ.), विहृ ( भ्वा. प.. अ.), नंद-क्रीड-विलस् (भ्वा. प. से.)। २. क्रीडा-कौतुक, स्थलं ३. दे. 'रंग' (४)। --र(रे)लियाँ, सं. स्त्री., आमोदप्रमोद, परि | रंगत, सं. स्त्री. (सं. रंग:>) दे. 'रंग' (१-६)।' हासः, विनोदः, लीला, हासिका, विहारः, २. आनंदः, स्वादः ३. दशा, अवस्था । -लाना, मु., परिवर्तनं जन् (प्रे.), क्रांति उत्पद क्रीडा। ----रस, सं. पुं., दे. 'रंगरलियाँ। -रसिया, सं. पुं., क्रीडाप्रियः, विलासिन्, । विलामिन | रँगना, क्रि. स. ( सं. रंग:>) रंज (प्रे.). विनोदिन, आनंदिन, हास्यशीलः । चित्र-वर्ण (चु.) २. दे. 'मोहना' क्रि. स. -रूप, सं. पु. ( सं. न.) आकारः, आकृतिः (१) तथा क्रि. अ. (१)। सं. पुं., रंजनं, (स्त्री.), रूपम् । चित्रणं, वर्णनम् । -रेज, सं. पुं. ( फ़ा.) रंजकः, रंगाजीवः ।। रंगने योग्य, वि. रजनीय, चित्रयितव्य, [-जिन (स्त्री.)-जिका ] । वर्णनीय । -शाला, सं. स्त्री. (सं.) दे. 'रंग' (४)। । रंगनेवाला, सं.पुं.,दे. 'रंगरेज' तथा 'रंगसाज' । For Private And Personal Use Only Page #532 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir रंगरूट [४६४ ] रंगरूट, सं. पुं. (अं. रिकट ) नव-नूतन, । रंडा, सं. स्त्री. ( सं.) विधवा, गत मृत, भर्तृका, सैनिकः २. नव,-छात्रः-दीक्षितः-शिष्यः, शैक्षः। विश्वस्ता, कात्यायनी । सं. पुं. (पं०) दे. रंगरेज़, सं. पुं., दे. 'रंग' के नीचे। 'रँडुआ। रंगवाई, सं. स्त्री. (हिं. रंगवाना) रंजन- रंडापा, सं. पुं. (सं. रंडा ) वैधव्यं, दे। वर्णन, भतिः (स्त्री.) भृत्या।। रंडी, सं. स्त्री. [ ( पं.) विधवा सं.रंडा>] रंगवाना, क्रि. प्रे., ब. 'रंगना' के प्रे. रूप। । वेश्या, भोग्या, गणिका । रंगाई, सं. स्त्री. (हिं. रंगना) दे. 'रंगवाई' | -बाज, सं. पु. ( हिं+फा.) वेश्या-गणिका२. दे. 'रंगना' सं. पुं.। गामिन् । रंगा हुआ, वि., रंजित, चित्रित, वर्णित, -बाजी, सं. स्त्री. ( हिं.+फा.) वेश्यागमन, रागयुक्त। रम्भारमणम्। रंगी, वि. (सं.-गिन् ) विनोदिन, आनन्दिन्, च, | रंडुआ-वा, सं. पुं. (हिं. रांड ) मृतपत्नीकः, उल्लासिन् २. सरंग. रंगयुक्त *३. रंजक, ४. | गतभार्यः, विधुरः। अनुरक्त ५. अभिनेत। रंगीन, वि. ( फा.) दे. 'रंगदार' २. विलासिन् रंदा, सं. पुं. (फा.) तक्षणी, त्वक्षणी । आनंदित, विहारिन्, विनोदिन्, रसिक -फेरना, क्रि. स., तक्षण्या समी-इलक्ष्णीकृ, तक्ष ( भ्वा. स्वा.प. से.)। ३. चमत्कृत, अलंकृत ( भाषा आदि)। रंगीनी, सं. स्त्री. (फ्रा.) सरागता, सचित्रता | रंध्र, सं. पुं. (सं. न.) छिद्रं, विवरं, बिलं २. शृंगारः, अलंक्रिया ३. अनुरागिता, । २. योनिः ( स्त्री.) ३. दोषः । कामुकता। रंबा, सं. पुं. (पं.) खुरप्रः । रंगीला, वि. (सं. रंग:>) दे. 'रंगीन' (२.)। रंभा, सं. स्त्री. (सं.) कदली, दे. 'केला' २. सुंदर ३. अनुरागिन, कामुक। २. गोध्वनिः ३. अप्सरोविशेष: ४. वेश्या । रंगोपजीवी, सं. पुं. (सं.-विन ) नटः, अभि-रंभाना, क्रि. अ. (सं. रंभणं)रभ-रेभ ( भ्वा. नेत, शैलूषः, भरतपुत्रकः। आ. से.), मृदु नर्द ( भ्वा. प. से.)। रंच, रंचक, वि. (सं.न्यंच> ) अल्प, स्तोक। सं. पुं., रंभा, हंबा-भा, रेभणम् । रंज, सं. पुं. (फा.) शोकः, परितापः, आतिः | रअय्यत, सं. स्त्री. (अ.) प्रजा २. कृषीवलः । (स्त्री.)। रईस, सं. पुं. (अ.) धनाड्यः, धनिकः, रयीशः रंजक, सं. पुं. (सं.) दे. 'रंगसाज' (२) दे. २. भूस्वामिन, क्षेत्रपतिः । 'रंगरेज'। वि. (सं.) रंगकार, वर्णचारक भ.) क्षेत्रफलम् । २. आहादक, आनंदप्रद । रकम, सं. स्त्री. (अ.) संख्या, परिमाणं रंजन, सं. . ( सं. न.) चित्रणं, वर्णनं २. संपत्तिः (स्त्री.), धनं. ३. प्रकारः, विधा। २. आहादनं, परितोषणम् । रकाब, सं. स्त्री. ( फा.) (सादिनः) पादाधारः रंजित, वि. (सं.) वर्णित, चित्रित, सराग २. | *पादधानं २. दे. 'तश्तरी' । आह्लादित, सहर्ष ३. अनुरक्त, आसक्त । --पर पैर रखना, मु., गंतुं सज्जीभू । रंजिश, सं. स्त्री. (फा.) वैरं, शत्रुता २. अप- रकाबी, सं. स्त्री. (फा.) दे. 'तश्तरी' । वि,रागः, प्रसाद-प्रीति, अभावः। रकीब, सं. पुं. (अ.) सपत्नः, प्रत्यर्थिन्, प्रति. रंजीदगी, सं. स्त्री. ( फ़ा. ) दे. 'रंजिश' (२)। स्पद्धिंन् । २. शोकः। | रक्त, सं. पु. ( सं. न. ) शोणं, शोणितं, लो(रो)रंजीदा, वि. (मा.) शोकग्रस्त, परितप्त हितं, लोहं, रुधिरं, अलं, असृज ( न.), क्षत २. विषग्ण, प्रसन्नताशून्य । अंगज, त्वग्जं, चर्मजं २. कुडकुम ३. तानं रंड, वि. (सं.) धूर्त, वञ्चक २. विफल, निष्फल ४. सिंदूरं ५. पद्मं ६. हिंगुलम् । वि., अनुरक्त, ३. छिन्न-विकल,-अंग। सं. पुं. (सं.) निर- | आसक्त २. रक्त-लोहित, वर्ण ३. लंपट, पत्यः, निस्सन्तानः २. निष्फल-अफल,-वृक्षः- कामिन् , कामुक । तरुः। | -कमल, सं. पुं. (सं. न.) कोकनदं, रवि For Private And Personal Use Only Page #533 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra रक्षक [ ४६५ ] प्रियं, रक्त-अरुण शोण,-अंभोजं- कमलं पद्मं - | - बंधन, सं. पुं. (सं. न.) श्रावणी, पर्वविशेषः वारिजम् । २. श्रावणपूर्णिमायां वेदस्वाध्यायोपाकर्मन् (न.) । कोढ़, सं. पुं. ( सं. रक्तकोटः ) रक्तकुष्ठः एं, रक्षित, वि. (सं.) त्रात, त्राण, गुप्त, गोपायित, त्रिसर्पः । पाल, ऊत, अवित २ प्रतिपालित, पोषित ३. स्थापित । रखना, क्र. स. (सं. रक्षणं > ) न्यस् ( ( दि. प. से. ), निक्षिप् ( तु. प. अ. ), निधा ( जु. उ. अ. ), स्था ( प्रे स्थापयति ) २. रक्ष्-अव्-गुप् (भ्वा. प. से. ), त्रै (भ्वा. आ. अ. ) ३. संचि ( स्वा. उ. अ.), संग्रह ( क्र. उ. से. ) ४. आधीकृ, उपनिधा ( जु. उ. अ. ), न्यस् ५. धृ ( चु. ), भृ ( जु. उ. अ. ) ६. आत्मसात् - स्वायत्तीकृ ७. ( गौ आदि ) अस् ( अ. प. ) विदू ( दि. आ. अ. ) - वृत (भ्वा. आ. से. ) ८. नियुज् ( चु., रु. प. अ.) ९. विलंब (प्रे.), व्याक्षिप् ( तु. प. अ. ) १०. उपपतित्वेन उपपत्नीत्वेन वा स्वीकृ ११. अव्ययेन संचि । zi. पुं., न्यसनं, निक्षेपणं, निधानं, स्थापनं २. रक्षणं, गोपनं, ३. संचयनं, संग्रहणं ४. आधीकरणं, उपनिधानं ५. धारणं, भरणं ६. रखनी, सं. स्त्री. (हि. रखना ) दे. ‘रखेली' । आत्मसात्करणं ७. नियोजनं, ८. विलंबनं इ. रखने योग्य, वि., न्यसनीय, स्थापयितव्य, रक्षितव्य, संचेय, उपनिधेय, धार्य, नियोक्तव्य | रखनेवाला, सं. पुं., निधातु, स्थापकः, रक्षकः, संचायकः, उपनिधायकः, धारकः इ. । रखवाई, सं. स्त्री. (हिं. रखना) रक्षा,-भृतिः (स्त्री.) भृत्या | रखवाना, क्रि. प्रे., ब. 'रखना' के प्रे. रूप । रखवाला, सं. पुं. (हिं. रखना) दे. 'रक्षक' ( १-२ ) । रखवाली, सं. स्त्री. (हिं. रखवाला ) दे. 'रक्षण' (१) । रखा हुआ, वि., न्यस्त, निहित, रक्षित, संचित, उपनिहित इ । रखेली, सं. स्त्री (हिं. रखना) उप, पत्नी भार्याकलत्रम् । www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir + --चंदन, सं. पुं. ( सं. न. ) अर्क-कु-शोणिततिलपर्णः, रंजनं, ताम्रवृक्षः, क्षुद्र, चंदनं लोहितम् । -पात, सं. पुं. (सं.) रुधिर- रक्त, स्रवणंस्रावः-क्षरणं २. शोण- रक्त, पातनं त्रावणं३. नर-नृ, इत्या-घातः । -- पायी, वि. (सं. यिन ) शोणपः, रक्तपः । सं. पुं., मत्कुणः, दे. 'खटमल ' । - पित्त, सं. पुं. (सं. न. ) रोगभेदः २. दे. 'नकसीर' । -प्रदर, सं. पुं. ( सं . ) प्रदरभेदः, नारीरोगभेदः । - प्रमेह, सं. पुं. (सं.) रक्तमेहः, मूत्ररोगभेदः । - बहना, क्रि. अ., रक्तं स्रु ( भ्वा. प. अ. )क्षर् (भ्वा.प.से.) 1 रक्तं शोणं पत्ः स्रु मुच् - बहाना, क्रि. स., (प्रे.), मृ ( प्रे.), हन् ( अ. प. अ. ) । - मोचन, सं. पुं. (सं. न. ) रक्त, मोक्षणंमोक्षः, शोणितस्रावः, दे. 'फ़स्द' । - लोचन, सं. पुं. ( (सं.) कपोतः । वि ., लोहितेक्षण । | - वर्ण, वि. (सं.) अरुण, लोहित, शोण, रक्त । स्राव, सं. पुं. (सं.) रुधिरक्षरणं, असृक्स्रुति: (स्त्री.) । -हीन, वि. (सं.) शोणशून्य, रुधिररहित २. निर्वीर्य, निस्तेजस्क । रक्षक, सं. पुं. (सं.) शरण्यः, शरणं, ( समासांत में), रक्षितृ, रक्षिन्, त्रातृ, पाट, गोप्तृ २. प्रहरिन् यामिकः ३. पालकः, संवर्द्धकः, पोषकः । -पः - पाल: रग रक्षण, सं. पुं. (सं. न. ) परित्राणं, गोपनं, रक्षा, गुप्तिः २. पालनं, पोषण, संवर्द्धनम् । रक्षणीय, वि. (सं.) रक्ष्य, रक्षितव्य, त्रातव्य, गोपनीय २. पालनीय, पोषणीय । रक्षा, सं. स्त्री, (सं.) दे. 'रक्षण' (१) । २. कष्टनिवारक यंत्र, रक्षिका । - में, मु., सर्वस्मिन्नपि शरीरे । — करना, क्रि. स., अव्-गुप्-रक्ष् (भ्वा. प. से वाकिफ़ होना, मु., सम्यक्-सुष्ठु-साधु से. ), पा ( अ. प. अ. ) । ज्ञा ( क्. उ. अ. ) परिचि ( स्वा. उ. अ. ) । रंग, सं. स्त्री. ( फा . ) धमनी, नाडी, रक्तवा हिनी, शिरा, ईलिका | For Private And Personal Use Only Page #534 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir रगड़ [४६६ । रजक - -रेशा, सं. पुं. (मा.) शरीर,अवयवाः-अङ्गानि । रचना', क्रि. सं. (सं. रचनं ) सृज् (तु. प. (बहु.) २. पत्र,पल्लव, नाडयः ( स्त्री. बहु.)। अ.), निर्मा ( अ. प. अ., जु. आ. अ.), रगड़, सं. स्त्री. (हिं. रगड़ना ) दे. 'रगड़ना' | जन्-उत्पाद् (प्रे.) २. क्लप-घट (प्रे.), रच सं. पुं.। २. त्वरभंगहीन-क्षुद्र,व्रणः (f) (चु.), कृ ३. प्रणी ( भ्वा. प. अ.), निबंध ३. कलहः, विवादः ४. विकट, परिश्रमः- (क्र. प. अ.) रच (च.). लिख (तु. प. प्रयासः। से.) ४. यथाविधि न्यस् (दि. प. से.)-स्था -खाना या लगना, क्रि. अ., ब. 'रगड़ना' (प्रे.) ५. परिष्कृ, अलंकृ, भूष (भ्वा. प. के कर्म. के रूप। से., चु.) ६. आयुज (प्रे.), मंत्र (चु. आ. से.)। रगड़ना, क्रि. स. ( अनु.) घृष् (भ्वा. प. से.), | सं. पुं., दे. 'रचना' सं. स्त्री. (१.३, ८-९): मृद् (क्र. प. से.) २. चूण (चु.), पिष, परिष्करणं, भूषणं, आयोजनम् ।। (रु. प. अ.) ३. श्लक्ष्णीकृ, परिष्कृ ४. परि- रचना, क्रि. स. (सं. रंजनं ) दे. 'रंगना'। प्र-मृज ( अ. प. से.प्रे.), निज ( जु. उ. अ.) कि. अ. अनुरंज् ( कर्म.), स्निह (दि. १. ५. अभ्यस् (दि. प. से.), पुनः पुनः कृ से.) २. ब. 'रंगना' के कर्म, के रूप । ६. सवेगं सपरिश्रमं च संपद् (प्रे.)-अनुष्ठा, रचना, सं. स्त्री. (सं.) रचनं, निर्माणं, (भ्वा. प. अ.) ७. पीड (चु.), संतप सजेनं, घटनं, विधानं, कल्पनं, साधनं, निष्पा(प्रे.) ८. तड् (चु.), आहन (अ. प. अ.)।। दनं, उत्पादन,जननं २-३. रचना-निर्माण-उत्पा-- सं. पुं., घर्षणं, मर्दनं २. चूर्णनं, पेषणं ३. श्ल- दन, कौशलं-रीतिः ( स्त्री.) ४. रचित-निर्मित, क्ष्णीकरणं ४, परिमार्जनं, प्रक्षालन, ५. अभ्य- वस्तु ( न.) ५. गद्य मयी पद्यमयी वा कृतिः सनं, आवृत्तिः (स्त्री.) ६. पीडनं ७. ताडनं ( स्त्री.) ६. केशविन्यासः ७. पुष्पगुंफनं ८. सवेगं संपादनं इ.। ८. स्थापनं ९. प्रणयनं, नि-प्र-बंधनम् । रगड़ने योग्य, वि., घर्षणीय, मर्दनीय, रचने योग्य, वि., स्रष्टव्य, निर्मातव्य, रचनीय, पेषणीय इ.। प्रणेतव्य, यथाविधि, स्थापनीय इ. । रचनेवाला, सं. पुं., स्रष्ट, निर्मात, जनयित्, रगड़नेवाला, सं. पुं., वर्षकः, मर्दकः,पेषकः इ.। घटयित,रचयित,प्रणेतृ,लेखकः आयोजकः इ.। रगड़वाना, क्रि.प्रे., ब. 'रगड़ना' के प्रे. रूप । रचयिता, सं. पुं. (सं.त) निर्मात, स्रष्ट्र, रगड़ा, सं. पुं. (हिं. रगड़ना) दे. 'रगड़ना' विधातू, उत्पादकः २, लेखकः, प्रणेतृ इ.। सं. पुं.। २. अतिशय-अत्यंत, परिश्रमः-उद्योगः ३. चिरस्थायिकलहः, नैत्यिकविवादः। रचवाना या रचाना, क्रि. प्रे. ब. 'रचना' के . प्रे. रूप। -झगड़ा, सं. पु. (नित्य-सतत-) विवादः रचा हआ, वि., सृष्ट, निमित, जनित, रचित, कलहः कलिः। घटित, प्रणीत, लिखित, परिष्कृत इ.। -हुआ, वि., घर्षित, मदित, पिष्ट, अभ्यस्त । रचित, वि. (सं.) निर्मित, घटित, २. सृष्ट, रगड़ी, वि. (हिं. रगड़ा) विवादक, कलह जनित ३. लिखित, प्रणीत । कलि, प्रिय, विवादिन् । रज, सं. पु. [ सं. रजस् ( न.) ] पुष्पं, कुसुम, रग़बत, सं. स्त्री. (अ.) कामना २. रुचि: आर्तवं, ऋतुः, रजः (पुं.) २. प्रकृतेर्गुणविशेषः, प्रवृत्तिः (स्त्री.)। रजः ( पुं.) ३. आकाशः-शं ४. पापं ५. जलं रगेदना, क्रि. स. ( सं. खेटः ), अपनुद् ( तु. ६. परागः, रेणुः (पुं. स्त्री.), पुध्यधूली-लि: प. अ.), विद्रु-अपधाव (प्रे.)। (स्त्री.) ७. मुवनं, लोकः। सं. स्त्री., रजस् रघु, सं. पुं. (सं.) सूर्यवंश्यो नृपविशेषः, (न.), धूली-लि: ( स्त्री.) २. रात्री ३.प्रकाशः। दिलीपसूनुः। -का रुक जाना, सं. पुं., रजोरोधः २. रजो-नंदन, सं. पु. (सं.) रघु, नाथः पतिः-राजः- | निवृत्तिः ( स्त्री.)। वरः-वीरः, श्रीरामचंद्रः। —की पीड़ा, सं. स्त्री., ऋतुशूलं, रजःकृच्छ्रम् । -वंश, सं. पुं. (सं.) रघुकुलं २. महाकवि- रजक, सं. पुं. (सं.) निर्गेजकः, धावकः, कालिदास-प्रणीतो महाकाव्यविशेषः। शौचेयः, कर्मकीलकः । For Private And Personal Use Only Page #535 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir रजकी । ४६७) रति - रजकी, सं. स्त्री. (सं.) रजका, निर्णेजिका, । रज़ील, वि. (अ) अधम, नीच २. अन्त्यज । धाविका। | रजोगुण, सं. पुं. (सं.) दे. 'रज'सं. पुं. (२) । रजत, सं. स्त्री. ( सं. न.) रूप्यं, दे. 'चाँदी' रजोदर्शन, सं. पु. ( सं. न.) कन्यायां प्रथमः २. सुवर्ण ३. गजदंतः ४. हारः। वि., रजतमय पुष्पस्रावः।। २. शुक्ल। रजोधर्म, सं. पुं. (सं.) दे. 'रज' सं. पुं. (१)। -कुंभ, सं. पुं. (सं.) रूप्य-श्वेत,-कुंभ:-घटः- रज, सं. स्त्री. (सं.) दे. 'रस्सी' २. वेणी। कलशः। रट, सं. स्त्री. (हि. रटना) असकृत् उच्चारण, -पात्र, सं. पुं. (सं. न.) रूप्य-श्वेत-दुर्वर्ण, आमेडनं, अभीक्ष्णं वचनं, पौनःपुन्येन पठनम् । पात्रं-भाजनम्। रटना, क्रि. स. (सं. रटनं> ) अभ्यस् (दि. रजनी, सं. स्त्री. (सं.) निशा, रात्रि २. हरिद्रा | प. से.), असकृत् आवृत् (प्रे.) २. मुखस्थ३. जतुका ४, नीली ५. लाक्षा। हृदयस्थ-कंठस्थ (वि.) कृ, स्मरणार्थ पुनःपुनः -कर, सं. पु. (सं.) रजनी,-पतिः-नाथः, उच्चर् (प्रे.)वद्-पठ् (भ्वा. प. से.)। चन्द्रः । क्रि. अ., अभीक्ष्णं रण-क्वण (भ्वा, प.से.)। -चर, सं. पु. (सं.) राक्षसः,निशाचरः। सं. राक्षसः निशाचरः। । सं. पुं., अभ्यसनं, आवर्तनं, आवृत्तिः (स्त्री.), । -मुख, सं. पुं. (सं. न.) सायं, प्रदोषः, कंठे करणं, हृदये धारणं, पुनः पुनः उच्चारणम् । दिनांतः। रटने योग्य, वि., आवर्तनीय,स्मर्तव्य,स्मरणाह। रजवाड़ा, सं. पुं. (हिं. राज+वाड़ा ) देशीय-, रटनेवाला, सं. पुं., अभ्यासिन्, आवर्तयित। राज्यं २, नृपः, राजन् (पुं.)। रटा हुआ, वि., अभ्यस्त, आवर्तित, कंठे कृत । रजस् , सं. पुं. स्त्री. (सं. न.) दे. 'रज' सं. रण, सं. पुं. (सं. पुं. न.) संग्रामः, दे. 'युद्ध' । पुं. स्त्री.। -क्षेत्र, सं. पुं. (सं.न.) रणांगणं-नं युद्ध-रण, रजस्वला, सं. स्त्री. (सं.) स्त्रीधर्मिणी, ऋतु भूमिः (स्त्री)-स्थल-क्षेत्रम् । मती, पुष्पवती, पुष्पिता, म्लाना, पांशुला।। -छोड़,सं. पुं., श्रीकृष्णः। रजा, सं. स्त्री. (अ.) इच्छा, कामः २. संमतिः -बाँकुरा, सं. पुं. (सं.+हिं.) शरः, भटः। (स्त्री.), एकचित्तता, मतैक्यं ३. अनुज्ञा, | -रंग, सं. पुं. (सं.) युद्धोत्साहः २. युद्धं अनुमतिः (स्त्री.)। ३. रणक्षेत्रम् । -मंद, वि.(फा.) सह-एक, मत-चित्त,संमत।। -स्तंभ, सं. पुं. (सं.) विजय, स्तंभः-यूपः । रत, वि. (सं.) व्यापृत, मग्न, लग्न, लीन, -मंदी, सं. स्त्री. (फ्रा.) दे. 'रजा' (२-३)। आसक्त २. अनुरक्त, बद्धभाव। रजाइस, रजायस, रजायसु, सं. स्त्री. (सं. | रतजगा, सं. पु. (हिं. रात+जागना) रात्रि, राजादेशः>) आ-नि,-देशः, नियोगः, आशा, जागरण-जागरा २. नैशोत्सवः। शासनम् २. अनुमतिः-स्वीकृतिः (स्त्री.)। रतनार, वि. (सं. रत्न>) आ-ईषद् , रक्तरजाई, सं. स्त्री. ( <सं. रजनं ?) •पिचुल लोहित। प्रच्छदः, तूलाच्छादनम् ।। | रतालू , सं. पुं. (सं. रक्तालुः) (= लालरजिस्टर, सं. पु. ( अं.) पंजिका, पंजी। शकरकंद ) रक्त, पिंडकः-पिंडालुः, लोहितः, लोरजिस्टर्ड, वि. (अं.) पंजीबद्ध । हितालुः, रक्तकंदः। रजिस्ट्रार, सं. पु. (अं.) पंजी-पंजिका,-लेखकः। | रति, सं. स्त्री. (सं.) कामदेवकलत्रं, मदनपत्नी रजिस्ट्री, सं. स्त्री. ( अं.) पंजीनिबंधनम् । । २. मैथुनं, संभोगः, कामक्रीडा ३. अनुरागः, -कराना, क्रि. प्रे., राजकीयपंजिकायां लिख् | प्रीतिः (स्त्री.) ४. शोभा, सौन्दर्य, छविः (स्त्री.) ५. सौभाग्यं ६. स्थायिभावभेदः -शुदा, वि., पंजी-पंजिकाकृत, लिखित। ७. रहस्यम्। रजिस्ट्रेशन, सं. पुं. (अं.), पंजी-पंजिका, करणं -क्रिया, सं. स्त्री. (सं.) रति, कैलिः (स्त्री.). लेखनम् । कलहः-समरं, मैथुनम् । For Private And Personal Use Only Page #536 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir रतौंधी [४ ] - - -गृह, सं. पुं. (सं. न.) रति, भवन-मंदिरं । -वीथि, सं. स्त्री. (सं.) रथ-मुख्य-प्रधान, २. योनिः (स्त्री.)। | मार्गः-पथः। -नाथ, सं. पुं. (सं.) रति,कांत:-पतिः-प्रिय:- | -शाला, सं. स्त्री. (सं.) स्यन्दनागारम् । राज:-रमणः, कामदेवः। -विद्या, सं. स्त्री. (सं.) रथ,-शास्त्र विज्ञानम् । -बंध, सं. पुं. (सं.) सुरतासनम् । -सूत, सं. पुं. (सं..) सारथिः, रथवाहः । -~शास्त्र, सं. पुं. (सं. न.) कामशास्त्र, कोक- रथवान् , सं. पुं. (सं. रथवत् ) रथ, वाहःशास्त्रम् । वाहकः, सारथिः, दे. 'सारथी'। रतौंधी, सं. स्त्री. (हिं. रात+अंधा ) निशांध- रथांग, सं. पुं. (सं. न.) चक्रम् २. अस्त्रभेदः ता-त्वम् । ३. कोकः, चक्रः, कामुकः । रत्ती, सं. स्त्री. ( सं. रक्तिका ) काक, तिक्ता- | -पाणि, सं. पुं. (सं.) चक्रपाणिः, विष्णुः । वल्लरी-पीलुः जंघा-चिंची, कृष्णला, दे. 'गुंजा'। रथी, सं. पुं. (सं.-थिन् ) रथिकः, रथिनः, २. रक्तिकापरिमाणम् । रथिरः. रथ,-भारोहिन्-स्वामिन् , साराक्षः। --भर, वि., अल्प, स्तोक, ईषत् । वि., रथस्थ, रथारूढ़। २. रथस्थ-महा,-योध:रत्थी-थी, सं. स्त्री. (सं. रथः) *विमानं, शव, योद्धृ । ३. (सं. रथ ) दे. 'रत्थी' । यानं, फलक, दे. 'अरथी'। रत्न, सं. पुं. (सं. न.) मणिः (पुं. स्त्री.), रटन. सं. पुं. (सं.) दंतः, दे. 'दाँत' । अश्मभेद: २. स्वजातिश्रेष्ठः ३. माणिक्यम् । -गर्भा, सं. स्त्री. (सं.) वसुंधरा, वसुधा ।। सं. पुं. (सं.) ओष्ठः, दे. 'ओठ'। -जटित, वि. (सं.) मणि,-खचित-अनविद्ध-रह, वि. (अ.) मोघ, निरर्थक २. मंद, निष्प्रभ, करंबित। ३. निरस्त, खंडित । -दाम, सं. स्त्री. [ सं.-मन (न.)7 -करना, क्रि. स., निरस् (दि. प. से.), मणिमाला। खंड (चु.), निवृत् (प्रे.)। -पारखी, सं. पुं., रत्नपरीक्षकः २. मणिकारः, -बदल, सं. पुं. (अ.+फा.) परिवर्तन, विपर्ययः, परि(री)वर्तः। नौ-, सं. पुं., दे. 'नवरत्न'। रहा, सं. पु. ( देश.) इष्टका-मृत्तिका, स्तरः । रत्नाकर, सं. पुं. (सं.) रत्नालगः, समुद्रः -रखना या लगना, क्रि. स., भित्ति चि २. मणि-खानिः (स्त्री.)गंजा ३. वाल्मीके: | (स्वा. उ. भ.), स्तरं रच् (चु.) निर्मा प्रथमनामन् (न.)। (जु. भा. भ.)। रत्नावली, सं. स्त्री. (सं.) मणिमाला, रत्न- रही, वि. ( अ. रर) निरर्थक, अनुपयोगिन् । दामन (न.)। सं. सी., निरर्थकपत्राणि (न. बहु.)। रथ, सं. पुं. (सं.) शतांगः, स्पंदनः, चक्र-रन(नि)वास, सं. पु. (हिं. रानी+सं. वासः) यानम् । (युद्ध का रथ) सांपररायिकः, वैना- भंतःपुरंशद्धांत:. भवरोधः।। यिकः । (सैर का रथ ) पुष्प-रवः । (यात्रा रपट', सं. मी. (हिं. रपटना ) दे. 'फिसलाहट' का ) पारियानिकः । १. अरीरं ३. चरणः-णम् ।। २. भावनं, सत्वरगमनं ३. निम्नभूः ( स्त्री.), -कार, सं. पुं. (सं.) रब-स्यन्दन-चक्रयान,- प्रवणम् । निर्मात-रचयित-कर्तृ । २. वर्णसंकरजातिभेदः। रपट, सं. स्त्री. (मं. रिपोर्ट ) सूचना, आख्या। -चों, सं. स्त्री. (सं.) रथ-चक्रयान,-यात्रा- रपटना, क्रि. भ. (सं. रफान) दे. 'फिसलना'। व्रज्या-गमनम् । | रफ़, वि. (मं.) चिक्कणताशून्य, दुःस्पर्श, -पति, सं. पुं. (सं.) रथिन्, रथिकः, | विषम २. संस्कार-परिष्कार-शून्य। रथिनः, रथिरः। रफ़ा, वि. ( अ.) अपसारित, दूरीकृत २. निवा--यात्रा, सं. स्त्री. (सं.) आषाढशुक्लद्विती- रित, शमित, शांत ३. समात, पूर्ण । यायां श्रीजगन्नाथस्य रथारोपणरूपोत्सवः। रफू, सं. पुं. (अ.) तंतुभिर्वलछिद्रपूरणम् । रत्नाजीविन्। For Private And Personal Use Only Page #537 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir रफ्तार [४६६] रवानी जवः । -करना, क्रि. स., वस्त्रछिद्रं तंतुभिः पूर(चु.)। रमना, क्रि. अ. ( सं. रमणं) रम् (भ्वा. आ. मु., स्वविरोधिवचनेषु सामंजस्यं दृश् (प्रे.)। अ.), नंद-क्रीड् (भ्वा. प. से.), मुद् (भ्वा. -गर, सं. पुं. ( फा.) वस्त्रछिद्रपूरकः। । आ. से.) २. सुखोपलब्धये वस् स्था (भ्वा. -चक्कर होना, मु., पलाय् (भ्वा. आ. से.), | प. अ.) ३. विहृ (भ्वा. प. अ.), पर्यट अपधाव (भ्वा. प. से.)। (भ्वा. प. से.) ४. व्याप (स्वा. प. अ.), रफ़्तार, सं. स्त्री. ( फा.) गतिः (स्त्री.) २. वेगः, व्यश् ( स्वा. आ. से.) ५. अनुरंज ( कर्म.), स्निह् (दि. प. से., सप्तमी के साथ ) रफ्ता-रफ्ता, क्रि. वि. (फ्रा.) शनैः शनैः । ६. कामक्रीडां कृ. सुरतं आतन् (त. प. से.)। (अव्य.) २. क्रमशः ( अव+)। सं.पु., रमणं, नंदनं, क्रीडनं, क्रीडा, मोदः, रब, सं. पुं. (अ..) परमेश्वरः, जगदीशः। । सुखाय वसनं, विहरणं, विचरणं, व्यापनं, रबड़', सं. पुं. (अं. रबर) *घर्षकं, घृषि( न.)- व्यशनं, अनुरागः, निधुवनं इ. । वृक्षनिर्यासभेदः २. वटजातीयो वृक्षभेदः, रमा, सं, स्त्री. (सं.) दे. 'लक्ष्मी ' । *घर्षकः । -पति, सं. पुं. (सं) विष्णुः । रबड़२, सं. स्त्री. (हिं. रगड़ ) व्यर्थ, श्रमः रम्ज़, सं. स्त्री. (अ.) (नेत्रादिभिः ) संकेतः, प्रयासः २. दूरता, विप्रकर्षः। इंगितम् २. रहस्य, गुह्यं, कूटम् ३. आशयः, रबड़ना, क्रि. स. (हिं. रपटना) तरलद्रव्यं अभिप्रायः। परि-भ्रम्-चल (प्रे.)। श्रम्-क्लम् (प्रे.), | रम्माल, सं. पुं. (सं.) दैवज्ञः, ज्योतिषिकः । मुधा धाव (प्रे.), आयस-खिद् (प्रे.)। रम्य, वि. ( सं.) दे. 'रमणीय'। क्रि. अ., वृथा भ्रम् (भ्वा. प. से.)-परिश्रम् | | रम्या, सं. स्त्री. (सं.) स्थलपभिनी २. रजनी (दि. प. से.), आयस ( भ्वा. दि. प. से.)। । ३. गंगा ४. निर्गुण्डी, इन्द्राणी। रबड़ी, सं. स्त्री. (हिं. रबड़ना ) किलाटिका, रम्हाना, क्रि. अ. ( सं. रंभणं) दे. 'रंभाना' । क्षैरेयम् । रव्यत, सं. स्त्री. ( अ. रअय्यत ) दे. 'प्रजा' । रबाब, सं. पुं. (अ.) वाघभेदः, *रवापम् । रव, सं. पुं. (सं.) शब्दः, नि-नादः, ध्वनिः, रबाबिया, रबाबी, सं. पु. (अ. रबाब ) वि.,रवः-रावः २. कलकलः, कोलाहलः, रवापवादकः। उत्क्रोशः। रब्त, सं. पुं. (अ.) अभ्यासः २. संबंधः। -ज़ब्त, सं. पुं., गाढ़सौहृदं, सुपरिचयः। वा, वि. (फा.) प्रवहत प्रस्रवत्-प्रचलव रब्बी की फसल, सं. स्त्री. (अ.) चैत्रशस्यम् ।। (शत्रंत ) २. अभ्यस्त ३. निशित, तीक्ष्ण रमण, सं. पुं. (सं. न.) क्रीडा, विलासः, ( शस्त्रादि ) ४. प्रस्थित । विहरणं, विहारः, केलि: (पुं. स्त्री.), खेला, लीला | लीला रवा', सं. पुं. ( सं. रजः) कणः, लवः, अणुः, २. मैथुनं, रतिः ( स्त्री.) ३. भ्रमणं, पर्यटनं लेशः २. दे. 'सूजी'। ४. जघनम् । (सं. पुं.) पतिः २. कामदेवः। रवा', वि. (फा.) उचित, युक्त २. प्रचलित, वि., मनोहर २. प्रिय, आनंदप्रद ३. क्रीडापर। विद्यमान । i. स्त्री. (सं.) नारी २. सुन्दरी, | रवाज, सं. पुं. (अ.) दे. 'रिवाज'। वरवणिनी, वामा। रवानगी, सं. स्त्री. (फा.) प्रस्थान, प्रयाणम् । रमणीक, वि. ( सं. रमणीय ) मनोश, मनोहर, रवाना वि. (का.) प्रस्थित, प्रचलित २. प्रेषित, दे. 'सुन्दर'। प्रहित। रमणीय, वि. (सं.) सुरूप, शोभनं, दे. |-करना, क्रि. स., प्रस्था (प्रे. प्रस्थापयति), 'सुन्दर। प्रहि ( स्वा, प. अ.), सं., प्रेष (प्रे.), रमणीयता, सं. स्त्री. (सं.) सुच्छविः (स्त्री.), | प्रचल (प्रे.)। मनोहरता, दे. 'सुन्दरता'। -होना, क्रि. अ., प्रस्था ( भ्वा. आ. अ.), रमता, वि. (हिं. रमना) विचरत-विहरतू. | अप,-स-गम् (भ्वा. प. अ.), प्रया (अ. प. अ.) । व्रजत् (शत्रंत)। | रवानी, सं.स्त्री. (फ़ा.) प्रवाहः, प्रगतिः (स्त्री.)। For Private And Personal Use Only Page #538 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir वायत [५०० ] रसीद - रवायत, सं. स्त्री. ( अ.) कथा २. लोको रसद, सं. स्त्री.(फा.) अन्नसामग्री, भक्ष्यजातम् । (स्त्री.)। रसना', सं. स्त्री. (सं.) रसा, जिह्रा, रसज्ञा, रवि, सं. पुं. (सं.) अर्कः, भानुः, दे. 'सूर्य'। | लोला, रसनेन्द्रियं २. कांची, मेखला ३. रज्जुः -वार, सं. पुं. (सं.) आदित्य, वारः वासरः। (स्त्री.) ४. अभीशुः-पुः, वल्गा । रवैया, सं. पुं. (फा. रविश) आचारः, आचरणं, रसना२, क्रि. अ., दे. 'रिसना' । चेष्टित, वृत्तिः (स्त्री.), व्यवहारः। रसनीय, वि. (सं.) आस्वाध, चपणीय २. रशना, सं. स्त्री. (सं.) कांची, दे. 'मेखला' स्वादु, रुच्य, रुचिकर । (१) २. जिह्वा ३. रज्जुः ( स्त्री.)। रसनेन्द्रिय, सं. स्त्री. (सं. न.) जिह्वा, रसा, रश्क, सं. पुं. (का.) ईर्ष्या, मात्सर्यम् । लोला, रसज्ञा। रश्मि, सं. स्त्री. (सं. पुं.) किरणः २. अश्वरज्जः रसम, सं. स्त्री. (अ. रस्म) प्रथा, परिपाटी-टि: (स्त्री.) ३. पक्ष्मन्-वल्गु (न.)। (स्त्री.), रीतिः (स्त्री.)। रस, सं. पुं. (सं.) आस्वादः २. षट् इति रसा', सं. स्त्री. (सं.) पृथिवी २. जिह्वा, रसना संख्या ३. शरीरस्थधातुविशेषः, रसिका, चर्म- ३. पाठा ४. रास्ना, एलापणी ५. द्राक्षा रक्त,-सारः,तेजः-अग्नि-आहार, संभवः ४. तत्त्वं, । नदी ७. रसातलम् । सारः ५. काव्यनाटकानुभवजः शृङ्गारादिदश--पति, सं. पुं. (सं.) नृपः, भूपः। विथो मानसानंदभेदः (काव्य.) ६. 'नव -पायी, वि. ( सं.-यिन् ) जिह्वापायिन् । इति संख्या ७. आनंदः, सुखं, आह्लादः, प्रमोदः | सं. पुं., श्वन, कुक्कुरः, सारमेयः। ८. अनुरागः ९. रतिः (स्त्री.), सुरतं | रसा, सं. पुं. (सं.रसः>) यू(जू)ष:- रस:, १०. उत्साहः, औत्सुक्यं ११. गुणः १२. द्रवः, दे. 'शोरबा'। सारः, रसः, आसवः, निर्यासः, सत्वं १३. जलं, | रसाई, सं. स्त्री. (मा.) दे. 'पहुँच' । २४. यू(जू)ष:-षं १५. दे. 'शरवत' १६, वीर्य | रसांजन, सं. पुं. (सं. न.) दे. रसौत'। १७. विष १६. पारदः ११. दे. 'शिंगरफ़' रसातल, सं पुं. (सं. न.) पातालं २. पाताल२०. धातुभस्मन् (न.) २१. आनंदरूपं ब्रह्मन् । विशेषः। (न.) २२-२३. गंध-शिला, रसः २४. प्रकारः; रसायन, सं. पुं. (सं. न.) जराव्याधिनाशरूपं २५. चित्ततरंगः, छंदः। कौषधं २. तक्रं ३. विषं ४. रस-विद्या-शास्त्रं-चूना या टपकना, क्रि. अ., रसः कणशः | सिद्धिः (स्त्रो.) ५. रसायनशास्त्रं दे. 'कैमिस्ट्री' निस्य॑द् (भ्वा. आ. से.)- (भ्वा. प. अ.)।। ६. धातुविद्या। -लेना, क्रि. अ,, नंद् ( भ्वा. प. से.), मुद् -बनाना, मु., (क्षुद्रधातून ) सुवर्णरूपेण परि(भ्वा. आ.से.)। णम् (प्रे.) अथवा सुवर्णीकृ । -कपूर, सं. पुं. ( सं. रसकर्पूरं ) कर्पूररसः । |-शास्त्र, सं. पुं. (सं.) दे. 'कैमिस्ट्री'। -गुल्ला , सं. पुं., *रसगोलः । रसाल, सं.पु. (सं.) इक्षुः, दे. 'गन्ना' २.आम्रः। -भरा, वि., रस,पूर्ण-मय-युक्त-वत्, सरस, वि., स्वादु, सुस्वाद २. सरस ३. मधुर रासिन्। ४. सुंदर। -भरी, सं. स्त्री., *रसबदरी । रसिक, सं. पुं. (सं.) रसास्वादिन, स्वाद-पति, सं. पुं. (सं.) चंद्रः २. नृपः ३. पारदः, ग्राहिन् २. प्रणयिन, अनुरागिन्, कामुकः रसराजः ४. श्रृंगाररसः, रसराजः । ३. सहृदयः, भावुकः, काव्यमर्मज्ञः ४. आनं. --सिंदूर, सं. पुं. (सं. न.) सिंदूररसः। . . दिन, विनोदिन ५. भक्तः, प्रेमिन् । रसज्ञ, सं. पं. (सं.) रस-स्वाद, विद्-ज्ञात | रसिकता, सं. स्त्री. (सं.) विनोदित्वं, परि २. काव्यमर्मशः, काव्यालोचकः ३. निपुणः, हासप्रियता २. सहृदयता, भावुकता ३. कामुकुशलः ४. अनुरागिन्, रिसकः, प्रेमिन् | कता, विलासिता। ५.गुणग्राहकः ६.रसवैधः ७. रसायनविद् (पु.) | रसिया, सं. पु., दे. 'रसिक'। रसद', वि. (सं.) सुखद, आनंदप्रद, २. स्वादु, रसीद, सं. स्त्री. (फा.) प्राप्ति:-उपलब्धिः सुरस । सं. पु. (सं.) चिकित्सकः वैधः, भिषज।। (स्त्री.) २. *प्राप्तिपत्रम् । For Private And Personal Use Only Page #539 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir रसीला [२०] राईफल -बुक, सं. स्त्री. (फा.+अं.) प्राप्तिपत्रपंजिका। रहने योग्य, वि., निवसनीय, वासार्ह । रसीला, वि. ( सं. रसः> ) दे. 'रसभरा'। रहनेवाला, सं. पुं., नि:, वासिन्, स्थ, वर्तिन, रसूल, सं. पुं. (अ.) ईशदूतः । ( तद्धित प्रत्यय से भी, उ., भारतीयाः, रसेंद्र, सं. पुं. (सं.) पारदः, दे. 'पारा'। पांचनदाः)। रसोइया, सं. स्त्री. (हिं. रसोई) पाचकः, । रह रह के, मु., पुनः पुनः, भूयो भूयः, पौन:सूदः, सूपकारः, बल्लवः, आरातिकः, आंधसिकः, | पुन्येन, वारं वारम् । औदनिकः, रन्धकः। रहम', सं. पुं. (अ.) कृपा, दया, करुणा, रसोई, सं. स्त्री. (सं. रसवती) पाकशाला, अनुकंपा। महानसं २. सिद्धान्नं, पक्वाहारः, भोजनम् । -दिल, वि., कृपालु, सकरुण । -घर, सं. पुं., दे. 'रसोई' (१)। रहम', सं. पु. ( अ. रहम ) गर्भाशयः, दे। -दार, सं. पु., दे. 'रसोइया'। रहमत, सं. स्त्री. (अ.) कृपा, अनुग्रहः । कच्ची-, सं. स्त्री. (घृतादिषु) *अपक्वभोजनम्। | रहमान, वि. (अ.) अतिशय-परम, कृपालुपक्की-, सं. स्त्री., (घृतादिषु ) *पक्वभोजनम् । दयालु । सं. पु., परमेश्वरः । रसौत, सं. स्त्री. ( सं. रसोदभूतं) रसांजनं, रसगर्ने, कृतकं, बालभैषज्यं, वजिनम् ।। रहस्य, वि. (सं.) गोप्य, गोपनीय, गुल्य रस्सा, सं. पुं. (हिं. रस्सी) स्थूलसंदानं, २. गुप्त, गूढ़, प्रच्छन्न । सं. पुं. (सं. न.) गुह्य, गोप्यं, ममन, गूढ़, मंत्रः, वाता। बृहद्रज्जुः (स्त्री.), स्थूलरश्मिः । रस्सी, सं. स्त्री. [सं. रश्मिः (पु.)] रज्जुः रहा-सहा, वि., 'बचाखुचा'। (स्त्री.), गुणः, दामन् (न.), वराटः, शुल्वा, रहा हुआ, वि., उषित, अव-, स्थित, अव-उत्वटी, रश(स)ना। परि-, शिष्ट, उपस्थित इ.। रहँट, सं. पु., दे. 'अरहर'। रहाइश, सं. स्त्री. ( हिं. रहना) वसती-तिः रहटा, सं. पुं., दे. 'चरखा। (स्त्री.), वासः, अवस्थानं, अवस्थितिः (स्त्री.)। रहते, क्रि. वि. (हिं. रहना ) उपस्थिती, रहित, वि. (सं.) हीन, विरहित, वर्जित, विद्यमानतायां, जीवने ( सब सप्तमी एक.)। | शून्य, वियुक्त, विनाभूत । रहन', सं. स्त्री. (हिं. रहना ) वासः, वसनं. रहीम, वि. (अ.) दयालु । सं. पुं., ईश्वरः । वसती-तिः (सं.), वस्तिः ( स्त्री.), स्थितिः राँग,गा, सं. पु. (सं. रंग:-ग) वंग, त्रपुः, ( स्त्री.) २. आचारः, व्यवहारः, चरितं, त्रपुषं, पूतिगंधं, कुरूप्यं, मधुरं, हिमं,पिच्चटम् । वर्तनं, वृत्तिः ( स्त्री.)। | रॉड, वि. ( सं. रंडा) विधवा दे. । २. वेश्या । -सहन, सं. स्त्री. दे. 'रहन' (२)। राँधना, क्रि. स. ( सं. रंधनं ) दे. 'पकाना' । रहन२, सं. स्त्री. (हिं. रखना ) आधानं, रॉपी, सं. स्त्री. (देश.) चर्मकारछुरिका, दे. 'गिरवी'। *चर्मकर्तनी। रहना, क्रि. अ. ( सं. राजनं> ) अधि-नि-प्रति, | राँभना, क्रि. अ., दे. 'रंभाना'। वस (भ्वा. प. अ.) २. अवस्था ( भ्वा. आ. | राई, सं. स्त्री. ( सं. राजी) रक्तसर्षपः.रक्तिका, अ.), वृत् ( भ्वा. आ. से.), स्था ( भ्वा. प. | आमरी.क्षवः.क्षवकः. क्षतकः। दे. 'सरसों' अ.) ३. जीव् ( भ्वा. प. से.), प्राणान् धृ के भेद २. अत्यल्प,-मात्रा-परिमाणम्।। (चु.) ४. विरम् (भ्वा. प. अ.), विश्रम् | --नोन उतारना, मु. रानीलवणधूमेन कुदृष्टि(दि. प. से.) ५. अव-उत्-परिः, शिष (कर्म.) प्रभावं नश (प्रे.)। ६. उज्झ-त्यज् (कर्म.) ७. विद् (दि. आ. अ.), -भर, मु., तिल-अणु-लेश-राजी, मात्रं, उपस्था (भ्वा. प. अ.) ८. मुधा कालं या | अत्यल्पम्। (प्रे.)। सं. पुं., अधि-नि-प्रति-, वसनं वसती- -से पर्वत करना, मु., अणुमपि पर्वतीकृ, तिः ( स्त्री.), अवस्थान, अवस्थितिः ( स्त्री.), | तिले तालं पश्यति, अत्युक्त्या व (चु.)। जीवनं, प्राणधारणं, अवशिष्टता, त्यागः, | राईफल, सं. स्त्री. (अ.) कुक्षिभृतास्त्रं, नालाउपस्थितिः (स्त्री.)। खभेदः। For Private And Personal Use Only Page #540 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir राका [५०२] राज राका, सं. स्त्री. (सं.) संपूर्णचंद्रा, पौर्णमासी | राष्ट्र', देशः, राज्य, विषयः, उपवर्तनं ३. अधि. २. पूर्णिमा, पूणों, पूर्णमासी। कारः, आधिपत्यं ४. शासन-राजत्व-राज्य, राकेश, सं. पुं. (सं.) राकापतिः, चंद्रः। कालः । सं. पुं. (सं. राजन ) नृपः २. मेमार'। राक्षस, सं. पुं. (सं.) निशा रजनी-रात्रिं-नक्तं, -करना, क्रि. स., प्र,-शास (अ. प. से.), चरः, क्रव्यादः-द् (पुं), रक्षस् (न.), ईश (अ. आ. से.), अधिष्ठा ( भ्वा. प. अ.), पलाशः-शिन्, भूतः, क्षपाटः, संन्ध्यावल:, । परि-पा (प्रे., पालयति ), तंत्र (चु. ग. ले.)। यातुः, यातुधानः, अस्र-कौण,-पः, कर्बुरः, -कर, सं. पुं. (सं.) राज, स्वं बलि:-शुल्क:दैत्यः, असुरः दानवः २. दुष्टप्राणिन्, पापः (कं.) धनम् । ३. विवाहभेदः (धर्म.)।। -काज, सं. पुं. (सं.कार्य ) शासन-,व्यवस्था-विवाह, सं. पुं. (सं.) विवाहभेदः, युद्धन कृत्यम् । कन्यां प्राप्य विवाहः। -कुमार, सं. पुं. (सं.) राज, पुत्र.-सुतः,सूनुः । राक्षसी, सं. स्त्री. (सं.) पिशाची, निशाचरी, | -कुमारी, सं. स्त्री. (सं.) राज-नृप, कन्यादानवी। वि., राक्षस-दानव, उचित-योग्य, सुता-पुत्री।। अमानुषिक। -कुल, सं. पुं.(सं.न.) राज-नृप,-वंशः अन्वयः । राख, सं. स्त्री. (सं. रक्ष> ) भसितं, भस्मन् | -गद्दी, सं. स्त्री., नृपासनं, राजसिंहासन (न.), भूतिः ( स्त्री.)। | २. राज्य-, अभिषेकः, *राजतिलकः कम् । राखी, सं. स्त्री. (सं. रक्षा> ) दे. 'रक्षाबंधन' | -गीर, सं. पुं., दे. 'मेमार'। २. दे. 'राख' । -गुरु, सं. पुं. (सं.) राज, शिक्षकः-पुरोहितः। राग, सं. पुं. (सं.) अभिमतविषयाभिलाषः, -गृह, सं. पुं. (सं. न.) नृप-राज,-प्रासादःमुखैषणा २. क्लेशः, कष्टं ३. मात्सर्य, ईर्ष्या भवन-मंदिरं-सदनं, सौधः, सुधामयं २, मगध४. प्रीतिः (स्त्री.), अनुरागः ५. अंगरागः । प्रांतस्य प्राचीनराजधानी। ६. लोहित-,रंगः-वर्णः ७. रंजन, आह्लादनं -तिलक, सं. पुं. ( सं. पुं. न. ) दे. 'राजगद्दी' ८. कथा ९. संगीतशास्त्रीयरागः (भैरवादि)। २. अभिषेकोत्सवः। -रंग, सं. पुं. ( सं.) विनोदः; विलासः-जीडा- | कौतुकं, संगीतं, रंजनम् । -दंड, सं. पुं. (सं.) राज-शासनं, प्रजापालनं अपना-अलापना, मु., (परविचारान् अश्रुत्वा) २. राज्यनियमविहितः आर्थिक-शारीरिक,-दंडः स्वकीयानेव विचारान् सरभसं श्रु (प्रे.)। ३. दे. 'राजकर। रागान्वित, वि. (सं.) अनुरक्त, आसक्त, |-दंत, सं. पुं. (सं.) पुरोवर्तिदंतचतुर्क २. उपरिश्रेणीमध्यवर्तिदंतद्वयम् । सकाम २. कुपित, क्रुद्ध । रागिनी, सं. स्त्री. ( सं. रागिणी) रागपत्नी -दरबार, सं. पु., दे. 'राजसभा'। (भैरवी, गुर्जरी आदि ) २. विदग्धा नारी। -दूत, सं. पुं. (सं.) नृप, वार्तिकः-सादेशिकः। रागी, सं. पुं. (सं.-गिन् ) रागविद् (पुं.), -द्रोह, सं. पुं. (सं.) नृपविरोधः, राज्यविगायकः, गात २. अनु, रागिन्-रक्तः, प्रेमिन् । प्लवः, प्रजाक्षोभः । वि.. रंजित, सराग २. लोहित-रक्त, वर्ण -द्रोही, सं. पुं. (सं.हिन् ) नृपविरोधिन् । ३. विषयासक्त, भोगिन् । -धानी, सं. स्त्री. (सं.) नृपनगरी। राघव. सं. पं. (सं.) रघुवंश्यः २. अजः। -नीति, सं. स्त्री. (सं.) नृप-राज.-नयः-विद्या. ३. दशरथ: ४. श्रीरामचंद्रः। शासनरीतिः (स्त्रो.) (संधिविग्रहलामदानादि)। राछ, सं. पुं. ( सं. रक्ष>) (शिल्पिनां ) उप- -गीतिक, वि. (सं.) राजशासनविषयक:करणं, साधन, यंत्र २. वरयात्रा ३. दे. 'जलूस' तंत्रणसंबंधिन् । ४. चक्री-पेषणी.कीलकः । -पथ, सं. पुं. (सं.) राज,-मार्गः-वर्मन् (न.), राज, सं. पुं. (सं. राज्यं) शासनं, शिष्टिः | महा-घंटा श्री, पथः । (स्त्री.), देश, प्रबंधः-व्यवस्था, प्रजापालनं, -पाट, सं. पुं., (सं.) राजसिंहासनं २. शासनाआधिपत्यं २. जनपदः, नीवृत् (पुं.), मंडलं, धिकारः २. जनपद:, राष्ट्रन् । For Private And Personal Use Only Page #541 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir राज़ [५०३ ] राज़ी - -पुत्र, सं. पुं. (सं.) राजकुमारः २. क्षत्रिय- | राजकीय, वि. (सं.) राज-प-,राज-राज्य, जाति-भेदः ३. बुधग्रहः । विषयक २. नृपोचित, राजाई । -पूत, सं. पुं. (सं. राजपुत्रः> ) क्षत्रियजाति- राजत, वि. ( सं. ) रौप्य:-प्यी-प्यम्, रूप्यमयःभेदः, *राजपुत्रः। यी-यं, रजत,मय निर्मित-कृत । -पूती, सं. स्त्री. (हिं. राजपूत) शौर्य, वीर्यम् । राजत्व, सं. पुं. (सं.न.) राजता, नृपत्वं, राज, -फोड़ा, सं . पुं., *राजस्फोटः, *स्फोटराजः, | | अधिकार:-आधिपत्यम् । दे. 'कारबंकल'। राजस, वि. (सं.) रजोगुण, उद्भूत-जनित--बाहा, सं. पुं., राज- महा-कुल्या । प्रधान-मय ( राजसी स्त्री.)। -भंडार, सं. पु. ( सं.-भांडार) राज-राज्य,- राजसिक, वि., दे० 'राजस' । कोषः(शः)-भांडागारः (रम्)। राजसी, वि. (सं. राजस> ) राज,-योग्य-अर्ह, -भक्त, सं. पुं. (सं.) राज्य-राज, भक्तः निष्ठः।। नृपोचित, राजकीय । -भक्ति, सं. स्त्री. (सं.) राज्य-राज,-भक्तिः | राजसूय, सं. पुं. (सं.) नृपाध्वरः, क्रतु, राज:(स्त्रो.) निष्ठा। उत्तमः । -भवन, । राजस्व, सं. पु. ( सं. पुं. न.) राज, धन-करः-मंदिर. सं. पुं. (सं.न.) दे. राजगृह'(१)। बलिः । -मजदूर, सं. पुं., पलगंडकार्मिकाः, गेहकार- | राजा, सं.पुं. (सं. राजन ) नृपः, भूपः, पार्थिवः, कर्मकाराः (प्रायः बहु.)। । नर-नृ-भू-मही, पालः पतिः, क्ष्मा-मही-भू, मृत् -महल, सं. पुं., दे. 'राजगृह' (१)। (पुं.), पार्थः, महींद्रः, नरेन्द्रः, प्रजेश्वरः, -मार्ग, सं. पुं. (सं.) दे. 'राजपथ'। भूमिपः, दंडधरः, अवनि,-पः-पतिः, इनः, -माष, सं. पुं. (सं.) बर्बटः-टी, नील-नृप, भूभुज् (पु.), राज् ( पुं.), महीक्षित् (पुं.), माषः, नृपोचितः। नाभिः, अर्थपतिः, प्रभुः २. स्वामिन् , अधि-मुद्ग, सं. पुं. (सं.) मुकुष्ठः, दे. 'मोठ'।। पतिः ३. उपाधिभेदः ४. धनाढ्यः । -यक्ष्मा, सं. पुं. (सं.-क्ष्मन्) राजयक्ष्मः, | राजाज्ञा, सं. स्त्री. (सं.) नृपादेशः, राजशादे. 'यक्ष्मा '। सनम् । -योग, सं. पुं. (सं.) अष्टांगयोगः। राजाधिकारी, सं. पुं. (सं.रिन् ) राज,-नियो-राजेश्वर, सं. पुं. (सं.) सम्राज् (पुं.), गिन-भृत्यः-कर्मकरः-पुरुषः २. न्यायाधीशः, राजाधिराजः। __ धर्माध्यक्षः। -रोग, सं. पुं. (सं. >) असाध्यव्याधिः राजाधिराज, सं. पु. (सं.) राजराजेश्वरः, २. दे. 'यक्ष्मा '। सम्राज ( पुं.)। -लक्षण, सं. पु. ( सं. न.) सहजं राजचिह्न | राजाधिष्ठान, सं. पुं. ( सं. न.) राजधानी, (सामुद्रिक)। नृपनगरी, राजपुरम् । -लक्ष्मी . सं. स्त्री. (सं.) राजश्रीः ( स्त्री.), | राजानक, सं. पु. ( सं. १) राजकः, साधारण, २. नृपच्छविः ( स्त्री.), नृपवैभवम् । नृपः भूपः-पार्थिवः, सामंतः। -वंशी, वि. ( सं. राजवंशः> ) राजवंश्य, राजाभियोग, सं. पुं. (सं.) प्रजया बलात् नृपकुलोद्भूत, राजकुलज। कार्यकारणम्, दे. 'बेगार'। -सत्ता, सं. स्त्री. (सं.) राज-,शक्ति: अधिकारः | राजि-जिका, सं. स्त्री. (सं.) श्रेणी, पंक्तिः (स्त्री.), राजता-त्वन् । (स्त्री.) २. रेखा ३. दे. 'राई'।.. -सभा, सं. स्त्री. (सं.) राज,-परिषद्-संसद् | राजी, सं. स्त्री. (सं.) दे. 'राजि' । ( दोनों स्त्री.) २. नृपतिसमाजः। राजी, वि. (अ.) एक-सह-सं,-मत-चित्त -हंस, सं. पुं. (सं.) मरालः २. कलहंसः, २. स्वस्थ ३. प्रसन्न ४. सुखिन्। कदंबः ३. नृपोत्तमः। |-करना, क्रि. स., प्रसद् (प्रे.), सं-परि-तुष राज, सं. पु. ( फ्रा.) रहस्य, गुह्यं, गोप्यम् । । (प्रे.), प्री (क्र. उ. अ.)। .. For Private And Personal Use Only Page #542 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir राजीव .५०४ ] राम -होना, क्रि. अ., प्रसद् (भ्वा. प. अ.) सं- राना, सं. पुं., दे. 'राणा' । परि तुष् (दि. प. अ.), प्री ( कर्म.)। रानी, सं. स्त्री. (सं. राशी) राजपत्नी, नृप-नामा, सं. . (अ.+फा.) समाधानं | कलत्रं २. स्वामिनी।। २. समाधानपत्रम् । छोटी-, सं. स्त्री., परिवृत्ती। राजीव, सं. पुं. (सं.न.) नीलकमलं २. पन, पट्ट-, सं. स्त्री., पट्ट, राशी-महिषी-देवी, महासरोजं, कमलम् । । पट्ट, राशी। राजेन्द्र, सं. पुं. (सं.) दे. 'राजाधिराज'। प्रिय परन्तु छोटी-, सं. स्त्री., वावाता। राज्ञी, सं. स्त्री. (सं.) राजपत्नी, दे. 'रानी'।राब, सं. स्त्री. (सं. द्रावक ) फाणितं, अर्द्धराज्य, सं. पुं. (सं. न.) दे. 'राज' (१.२)। वाततेक्षुरसः । -च्युत, वि. (सं.) राज्यभ्रष्ट, सिंहासनच्युत। राबड़ी, सं. स्त्री., दे, रबड़ी' । -ज्युति, सं. स्त्री. (सं.) राज्य, भ्रंशः मंगः, | राम, सं. पुं. (सं.) परशुरामः २. बल,रामः सिंहासनावरोपणम् । देवः ३. श्रीरामचंद्रः ४. परमेश्वरः ५. 'त्रि' -तंत्र, सं. पु. ( सं. न.) शासन,-प्रणाली- ति संख्या। व्यवस्था । -कली, सं. सो. (सं.) रामक(कि)री -पाल, सं. पुं. (सं.) राज्य-प्रदेश-प्रान्त, (रागिणी)। शासकः । (प्रादेशिक शासन का सवोच्च -कहानी, सं. स्त्री., बृहत्कथा २. करुणकथा । प्रवन्धक)। -जनी, सं. सी., हिदू नर्तकी २. वेश्या । -लक्ष्मी , सं. स्त्री. (सं.) दे. 'राजलक्ष्मी '। |-तरोई. सं. सी., दे. 'भिडी' । -व्यवस्था, सं. स्त्री. (सं.) राज्य, नियमः- -दत, सं. पुं. (सं.) हनुमत् (पु.), व्यवस्था। पवनपुत्रः। राज्याभिषेक, सं. पुं. (सं.) राज्य-सिंहासन, धनुष, सं. पुं. [सं..नुस् (न.)] इन्द्रचापः । आरोहणं, राजतिलक:-क २. सिंहासनारोहणे |-नवमी, सं. बी. (सं.) श्रीरामजन्मतिथिः, राजसूये वा नृपस्नानविशेषः । चैत्रशुक्लनवमी। राणा, सं. पुं. (सं. राजन् ) राजपुत्रनृपाणां | -नामी, सं. पुं. [सं. रामनामन् (न.)] उपाधिः। रामनामांकितवस्त्रं २. रामनामांकितहारभेदः। रात, सं. स्त्री. [सं. रात्री-विः (स्त्री.)] |-पुर, सं. पुं. (सं. न.) स्वर्गः २ अयोध्या। श(शा)वरी,निशा,निशीथिनी, वियामा, क्षणदा, -बाण, सं. पुं. (सं.) अजीर्णनाशक औषधक्षपा, विभावरी, रजनी, यामिनी, तमी, तम- विशेषः २. रामशरः, शरवृक्षभेदः। वि., स्विनी, श्यामा, घोरा, नक्तं, दोषा। अमोघ, सद्यः फलदायिन् । -दिन, क्रि. वि., नक्तदिनं, नक्तंदिवं, सदा, -रस, सं. पुं. (सं.) लवणं २. भंगासवः सर्वदा। (मदरास में)। -भर, क्रि. वि., यावन्नक्तं, निशांतं यावत्। -राज्य, सं. पुं. (सं. न.) धर्म्य-न्याय्य, आधी-, सं. स्त्री., मध्य-अर्ध,रात्रः, निशीथः, राज्यम् । निशा-रात्रि, मध्यम् । --राम, अव्य. (सं.) प्रणामः, नमस्कारः । रातों-, क्रि.वि., निशीथे एव । -लीला, सं. स्त्री. (सं.) रामायणाभिनयः । रात्रि-त्री, सं. स्त्री. (सं.) दे. 'रात' । -सखा, सं. स्त्री. ( सं.-खः ) सुग्रीवः । राज्यंध, सं. पुं. (सं.) निशांध: ( मनुष्य या -करके, मु., अत्यायासेन, अतिकृच्छ्रण, पशु आदि)। | यथाकथंचित्। राधा-धिका, सं. स्त्री. (सं.) रासेश्वरी, | -जाने, मु., न वेनि, न जाने, ईश्वरो जानाति रसिकेश्वरी, कृष्णप्रिया, वृषभानुतनया। २. ईश्वरः साक्षी, अहं सत्यं वच्मि । -रमण, सं. पुं. (सं.) राधावल्लभः, श्रीकृष्णः। -नाम सत्य है, मु., रामनाम(गोविन्दनाम)रान, सं. स्त्री. (फ्रा.) ऊरुः, सक्थि (न.)। । सत्यं, प्रेतवहनकालोचितवाक्यम् । For Private And Personal Use Only Page #543 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir रामचंद्र रामचंद्र, सं. पुं. ( सं . ) दशरथस्य ज्येष्ठसुतः, रघुनंदनः, सीतापतिः, रामभद्रः, रावणारिः । रामा, सं. स्त्री. (सं.) सुंदरनारी, सुन्दरी, वामा २ नारी ३. संगीतकुशला नारी ४. सीता ५. राधा ६. रुक्मिणी ७. लक्ष्मी: ८. शीतला । [ १०५ ] रामानंद, सं. पुं. (सं.) वैष्णवाचार्यविशेषः । रामानुज, सं. पुं. (सं.) लक्ष्मणः, सौमित्रिः २. श्रीवैष्णव सम्प्रदाय प्रवर्तकाचार्य: (सं. १०७३ - ११९४ ) । रामायण, सं. पुं. (सं. न. ) श्रीवाल्मीकिप्रणीतो महाकाव्य विशेषः २. रामचरितम् । रामायणी, वि. (सं. रामायणम् > ) रामायण, सम्बन्धिन्-विषयक, रामायणीय । सं. पुं. रामायण, पाठिन- पंडित: । राय', सं. पुं. ( सं. राजन) नृपः, भूपः २. सामंतः, नायकः ३. चारणः, वंदिन ४. राजकीयोपाधिभेदः, राजन् (पुं.) । - बहादुर, सं. पुं. (हिं. + फ़ा. ) *राजवीरः ( उपाधिभेदः ) । - साहब, सं. पुं. (हिं + फ्रा.) राजमहोदयः ( उपाधिभेद: ) । रायर, सं. स्त्री. ( फा . ) मतं, मतिः (स्त्री.) • आशयः, अभिप्रायः, विचारः तर्कः । —देना, क्रि. अ., निजमतं स्वमति प्रकटयति . ( ना. धा. ) । - पूछना या लेना, क्रि. स., परमतं प्रच्छ ( तु. प. अ. ), ( स्वहिताय ) परविचारं ज्ञा ( सन्नंत, जिज्ञासते ) " रायगा, वि, (सं.) व्यर्थ, निरर्थक, अपार्थक । रायज, वि. (सं.) दे. 'प्रचलित' । रायता, सं. पुं. ( सं. राज्यक्ता ) दाधिकव्यंजनभेदः, दाधेयम् । रायल, वि. ( अं.) राजकीय, राजोचित, नृपोचित्, राजाई । रार, सं. स्त्री. [सं. राटिः (स्त्री.)] दे. 'झगड़ ' । राल', सं. पुं. ( सं . ) शाल-साल, वृक्ष: २. सर्जसाल, -निर्यास:-रसः, सुर-यक्ष:- धूप:, सुरभिः, अग्निवल्लभः, दे. 'धूप' | राल, सं. स्त्री. (सं. लाला ) सृणि (णी) का, स्यंदिनी, द्राविका, मुखस्रावः । - गिरना चूना या टपकना, मु., लालायते रास ( ना. धा. ), लालायित (वि.) भू, अभिलक्षू ( स्वा. प. से. ) । राव, सं. पुं., दे. 'राय' । -चाव, सं. पुं., संगीतोत्सवः, दे. 'रागरंग' २. लालनम् । रावण, सं. पुं. (सं.) पौलस्त्य:, लंकेशः, दश, कंधर:- ग्रीवः- आनन:-आस्यः । रावल', सं. पुं. (सं. राजपुरं > ) अंतःपुरं, दे. 'रनवास' । रावल, सं. पुं. (सं. राजपुत्रः > ) नृपः २. सामंतः ३ संमानसूचकं संबोधनपदं, राजन् ! ४. योधः, भटः । रावी, सं. स्त्री. (सं. इरावती ) ऐरावती, पंचनद प्रान्तवर्तिनदीविशेषः । अत्यर्थं राशि, सं. स्त्री. (सं. पुं.) पुं (पिं)ज:, पुंजि: (स्त्री.), उत्करः, कूट:-टं, समुच्चयः, निकरः, दे. 'ढेर' २. ज्योतिष्चक्रस्य द्वादशांश: ३. उत्तराधिकारः । -चक्र, सं. पुं. (सं. न. ), ज्योतिश्चक्रं, भ,मंडल-पंजर:- चक्रम् । - भाग, सं. पुं. (सं.) राज्यंशः, भग्नांश: ( ज्यो. ) 1 - भोग, सं. पुं. (सं.) राशौ ग्रहावस्थिति: (स्त्री.) २. राशौ ग्रहावस्थितिकालः । राशी', सं. स्त्री. दे. 'राशि' । राशी, वि. (अ.) दे. 'रिश्वतखोर' । राष्ट्र, सं. पुं (सं. न. ) देशः, विषयः, जनपदः, दे. 'राज' (२) । २. राष्ट्रवासिनः राष्ट्रिकाः, जनाः, प्रजाः ( सब बहु. ), लोकः, जनता ३. राष्ट्रीय, उपद्रवः, दे. 'इति' । - पति, सं. पुं. ( सं . ) राष्ट्रिक, राष्ट्रिय:, राष्ट्रनायकः, प्रजातंत्रप्रधानः । - पाल, सं. पुं. ( सं . ) नृपः, भूप । २. कंसभ्रातृ । - विप्लव, सं. पुं. ( सं . ) राजद्रोह:, प्रजाक्षोभ:, क्रान्तिः (स्त्री.) 1 राष्ट्रीय वि. ( सं . ) देशीय, देश्य, राष्ट्रिय, जानपदक | राष्ट्रीयता, सं. स्त्री. ( सं . ) देशीयता, देशभक्तिः (स्त्री.) । For Private And Personal Use Only रास', सं. पुं. (सं.) कोलाहलः, कलकल:, महाध्वानः २. ध्वनिः शब्दः । सं. स्त्री. Page #544 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir रास [ ५०६ ] रिफ़ार्म (सं. पुं.), गोपानां नृत्य-क्रीडाभेद: २. नाटक | — लेना, मु., प्रस्था ( स्वा. आ. अ. ), प्रयारूपक, भेद: ३. श्रृंखला ४. प्रचलित गीतिकाभेद: ५. विलास : ६. ल. स्यं ७. नर्तकसमाज: । ( अ. प अ.) । राहत, सं. स्त्री. ( अ ) सुखं, आनंदः । राही, सं. पुं. ( फ़ा. ) पाथः पथिकः 1 राहु, सं. पुं. (सं.) विधुंतुदः, सैहिक:-केयः, तमस् (पु. न.), स्वर्भानुः, शीर्षकः, कबंध: । -ग्रास, सं. पुं. (सं.) राहु, ग्रसनं दर्शनं - स्पर्श:ग्राहः- उपरागः, सूर्य-चंद्र, ग्रहणम् । रिआयत, सं. स्त्री. (अ.) मूल्यन्यूनता २. अनुग्रहः, व्यवहार मार्दवं, प्रसादः ३. पक्षपातः । क्रीड़ा, सं. स्त्री. (सं.) रासविलासः, रासलीला २. कृष्णगोपिका नृत्यम् । - धारी, सं. पुं. (सं. रिन ) रासाभिनेतृ । - बिहारी, सं. पुं. ( सं .- रिन ) श्रीकृष्णः । रासर, सं. स्त्री. (अ.) दे. 'लगाम' । रास', सं. स्त्री. दे. 'राशि' ( १-२ ) । रासभ, सं. पुं. ( सं . ) गर्दभः २. अश्वतरः ( रासभी स्त्री. ) । रास्त, वि. ( फा . ) सरल २. उचित ३. अनुकूल ४. यथातथ। रास्ता, सं. पुं. (फ़ा.) मार्ग:, पथिन् (पुं.) २. रातिः (स्त्री.) । रास्ती, सं. स्त्री. (फ़ा. ) सत्यं तथ्यं, ऋतं २. आजवं, धर्मशीलता । राह, सं. स्त्री. (का.) पथिन् (पुं.), दे. 'मार्ग' २. प्रथा, रीतिः (स्त्री.) २. नियमः । - खर्च, सं. पुं. (फ़ा.) मार्गव्ययः । -गीर, सं. पुं. (फ्रा. ) यात्रिन् पथिकः । —चलता, सं. पुं. २. अपरिचितः । —जन, सं. पुं. (सं.) दस्युः परिपंथिन्, मार्ग तस्करः । —ज़नी, सं. स्त्री. (फ़ा. ) लुंठनं, मोषण, ३. सपक्षपात आचर -करना, क्रि. स., मूल्यं न्यूनीकृ २. अनुग्रह ( क्र. प. से. ) (भ्वा.प.से.) । रिआयती, वि., (अ.) प्रासादिक, आनुग्रहिक, न्यूनमूल्य | रिआया, सं. स्त्री. (अ.) प्रजा, दे. 1 रिक्शा, सं. स्त्री. ( अं. रिक्षा ) *नर, न्यानं - वाह्नम् । रिकाब, सं. स्त्री. दे. 'रकाब' | रिकाबी, सं. स्त्री. दे. 'तश्तरी' । 1 (फ़्रा. + हिं. ) पथिकः | रिकेट्स, सं. पुं. (अं.) बालग्रह: ( रोगभेदः ) । रिक्त, वि. (सं.) पर, शून्य, शून्यगर्भ २. निर्धन | हस्त, वि. ( सं . ) शून्यपाणि । अपहारः । वारी, सं. स्त्री. ( फ्रा. ) पथ, कर:-देयं, मार्ग शुल्कः-कम् । रिक्थ, सं. पुं. (सं. न. ) दायः, पैतृकधनम् । हारी, सं. पुं. (सं.- रिन) रिक्थिन्, दायादः । रिज़क, सं. पं. ( अ. रिजूक ) आ-उप, जीविका, वृत्तिः (स्त्री.) । रिज़र्व, वि. ( अं. ) रक्षित, निश्चित, नियत । -रीति, सं. स्त्री. (फ़ा. +सं.) परस्पर, रिजल्ट, सं. पुं. ( अं.) परीक्षा, फलं- परिणामः व्यवहारः-संसर्गः । २. परिणामः फलम् । - ताकना या देखना, मु., प्रतीक्ष (भ्वा. आ. रिझाना, क्रिं. स. ब. 'रीझना' के. प्र. रूप । से. ), प्रतिपा ( प्रे. प्रतिपालयति ) रिपु, सं. पुं. ( सं . ) अरिः, वैरिन्, दे. 'शत्रु' । -नापना, मु., व्यर्थं पर्यट् (भ्वा. प. से. ) । रिपोर्ट, सं. स्त्री. (अं. ) सूचना २. विवरणिका, - निकालना, मु., युक्ति चिंत् ( चु. ) उपाय विवरणं, प्रतिवेदनम् । क्लृप् ( प्रे.) । रिपोर्टर, सं. पुं. ( फ्रें. ) संवाद, दातृ-प्रेषकः, वृत्तान्त-समाचार, लेखकः । -पर आना, मु., सुपथे प्रवृत् (भ्वा. आ. से.), सन्मार्गं आलम्ब (भ्वा. आ. से. ) । -बताना, मु., स्वपदात् भ्रंशू च्यु ( प्रे.) रिपोर्टज, सं. पुं. (अं) घटनान्दोलनादीनां साहित्यिक विवरणं, साहित्यांगविशेषः, *रिपो तम् । २. मार्ग दृश् (प्रे.) । — रखना, मु., व्यवह (भ्वा. प. अ.), संसर्ग रिफ़ार्म, सं. पुं. ( अं.) संशोधनं, दोषापनयनं,. रक्ष (भ्वा.प.से.) । संस्करणम्, संस्कारः । *सूद्धारः । For Private And Personal Use Only Page #545 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir रिफ़ार्मर [ ५०७ ] रुक्म रिफार्मर, सं. पु. ( अं.) ( समाज-) संशोधकः-1 रीझ, सं. स्त्री. (हिं. रीझना) तुष्टिः तृप्तिः प्रीतिः संस्कारकः-दोषहर्ट, *मृद्धारकः । (स्त्री.), प्रसादः, २. दे. 'रीझना' सं. पुं.। रिफार्मेटरी, सं. स्त्री. (अं.) कारास्थबालक-रीझना, क्रि. अ. (सं. रंजनं ) अनुरंज-आसंज संस्कारकपाठशाला, *संशोधिका, *संस्कारिका, | (कर्म.), अनुरक्त-आसक्त-बद्धभाव (वि.) *सूद्धारिका। भू, वि-परि, मुह (दि. प. से.) २. तुष-तप्. रिब्बन, सं. पुं. ( अं.) पट्टिका । (दि. प. से.), प्रसद् (भ्वा. प. अ.)। सं. पुं., रिमझिम, सं. स्त्री. (अनु.) शीकर,वर्षः-पातः।। अनुरागः आसक्तिः (स्त्री.) २. तुष्टिः प्रीतिः -होना, क्रि. अ., मंद मंद वृष (भ्वा.प.से.)। (स्त्री.)। रियासत, सं. स्त्री. (अ.) देशीयराज्यं, राज्यं | राझा हुआ, वि., अनुरक्त, अ रीझा हुआ, वि., अनुरक्त, आसक्त, बद्धभाव, २. ऐश्वर्य, वैभवम् । वि,मुग्ध, प्रेमिन्, प्रणयिन् । रिवाज, सं. पुं. ( अ.) दे. 'रीति' । रीटार्ट, सं. पुं. (सं.) वकभाण्डम् । रिशवत, सं. स्त्री. ( अ. रिश्वत । उत्कोचः. रीठा, सं. पु. (सं. रिष्टः) अरिष्ट:-ष्टकः, मांगल्यः, आमिषं, ढौकन, लंबा २. उत्कोचदानादानम् । ___ कृष्णवर्णः, अर्थसाधनः, पीतफेनः, गुच्छफल:, -खाना, क्रि. अ., उत्कोचं ग्रह् (क्र. प. से.) | फेनि(णि)ल: २. रिष्ट-फेनि(णि)ल,-फलम् । आदा (जु. आ. अ.)। रीढ़, सं. स्त्री. (सं. रीढ़कः) पृष्ठवंशः, पृष्ठास्थि -खोर, सं. पुं. (अ.+फा.) उत्कोचग्राहिन्। (न.), कशे(से)रु(:)( पुं. न.), कशेरुका। -खोरी, सं. स्त्री. (अ.+फा.) उत्कोच, रीता, वि. ( सं. 'रिक्त' दे.)। आदान-ग्रहणम् । रीति, सं. स्त्री. (सं.) रूढ़िः (स्त्री.), आचारः,. -देना, क्रि. स., उत्कोचं दा। व्यवहारः प्रथा, परिपाटी-टिः (स्त्री.) रिश्ता, सं. पुं. (फा.) दे. 'संबंध'। २. संस्कारः, कृत्यं, विधिः, कल्पः ३. प्रकारः,. रिश्तेदार, सं. पु. ( फ़ा.) दे. 'संबंधी'। । विधा, पद्धतिः ( स्त्री.) ४. नियमः .. रसारिश्तेदारी, सं. स्त्री. (फा.) दे. 'संबंध'। दीनां उपकी पदसंघटना (काव्य., उ.) रिस, सं. स्त्री. (सं. रिष्> ) कोपः, क्रोधः। वैदी, गौड़ी इ.) ५. स्वभावः, प्रकृतिः (स्त्री.), रिसना, क्रि. अ. ( सं. रसः> ) बिंदुशः कण धर्मः । क्रमेण स्यद् ( भ्वा. आ. से.)-क्षरनगल (भ्वा.. -रिवाज, सं. पुं., रूढयः, आचारव्यवहाराः,. प. से.), री ( दि. आ. अ.) २. मंदं मंदं स्र संस्काराः ( तीनों बहु.)। (भ्वा. प. अ.)-प्रस्नु (अ. प. से.)-स्यद्, री। रीस, सं. स्त्री. ( सं. ईर्ष्या ) मात्सर्य २. स्पर्धा,. रिसालदार, सं. पु. (ता.) सादि-सेना, नीः विजिगीषा। (पुं.)पतिः । —करना, क्रि. अ., स्पर्ध (भ्वा. आ. से.),. रिसाला', सं. पुं. (अ.) सामयिक-, पत्रिका, । संघृष् ( भ्वा. प. से.)। (पं.) अनुकृ । "" | रुंड, सं. पुं. (सं. पुं. न.) कबंधः, निःशीर्षकायः २. पुस्त-ती। २. छिन्नपाणिपादो देहः। रिसाला, सं. पु. (फा.) तुरगवलं, सादिसैन्यं, अश्वारोहानीकम् । रु(रों) दवाना,क्रि. प्रे. ब. 'रौंदना' के प्रे.रूप । रिहा, वि. ( फ़ा.) निर-वि,-मुक्त, विमोचित, | रुधना, क्रि. अ. (सं. रुद्ध ) अव-उप,-रुध् ( कर्म.), प्रतिबाध-स्तंभ ( कम.)। रिहाई, सं. स्त्री. ( फा. ) ( बंधनादिभ्यः ) वि., रुकना, क्रि. अ., ब. 'रोकना' के कर्म. के रूप । मुक्तिः ( स्त्री.) उद्धारः, निस्तारः । रुकवाना. क्रि. प्रे., ब. रोकना' के प्रे. रूप । रींगना, क्रि. अ., दे. 'रंगना'। रुकाव, सं. पुं. । (हिं. रुकना) दे. 'रोक'। रीधना, क्रि. स. ( सं. रंधनं ) दे. 'पकाना'। | रुकावट, सं. स्त्री. १. एकना री, अव्य. ( सं. रे ) अरे, भोः, अयि, हे, दे. | रुक्का, सं. पुं. (अ. रुक्काह ) पत्रकं, लघुपत्रम् । 'अरी'। रुक्म; सं. पुं. (सं. न.) सुवर्णं, कांचन रीछ, सं. पुं. (सं. ऋक्षः) भल्लूकः, दे. 'भालू'। २. लोहं ३. रुक्मिणीभ्रातृ। वि. भास्वर ।' For Private And Personal Use Only Page #546 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir रुक्मिणी [५०८] -रथ, सं. पुं. (सं.) रुक्मवाहनः द्रोणाचार्यः। । रुद्ध, वि. (सं.) वेष्टित, वलयित, संवीत, रुक्मिणी, सं. स्त्री. (सं.) श्रीकृष्णस्य प्रथम- ___२. मुद्रित, अ,-पिहित, आ-सं-वृत ३. स्तंभित, पत्नी, विदर्भेशभीष्मपुत्री। निश्चलीकृत। रुक्मी, सं. पु. ( सं.-क्मिन् ) विदर्भेश्वरभीष्मस्य -कंठ, वि. (सं.) गद्गदस्वर, स्खलद्वचन ज्येष्ठपुत्रः। २. वक्तुमसमर्थ (प्रेमादि के कारण )। रुख, सं. पुं. (फा.) मुखं, वदनं, आननं, रुद्र, सं. पु. (सं.) शिवस्य रूपविशेष:, शिवः २. कपोलः, गल्ल: ३. मुख-मुद्रा आकृतिः २. गणदेवताभेदः ३. 'एकादश' इति संख्या (स्त्री.) ४. भावः, आशयः ५. कृपा-दया, ४. रसभेदः ( काव्य.)। वि., भीम, भयंकर. दृष्टिः (स्त्री.) ५. रथ-गज, नामकश्चतुरंगशारः। भीषण। क्रि. वि., प्रति ( द्वितीया के साथ ), दिशायां | रुद्राक्ष, सं. पुं. (सं.) (वृक्ष) तृणमेरुः, अमरः, २. समक्षं, पुरतः । पुष्पचामरः २. (फल) शिव-हर-नीलकंठ, अक्षं, -करना या देना, मु., अवधा ( ज. उ. अ.)। पावनं, भूतनाशनम् ।। मनोयुज (चु.) २. अभिमुखीभू। रुधिर, सं. पु. ( सं. न.) शोणितं, दे. 'रक्त' । -बदलना या फेरना, मु., पराङ्मुखीभू | रुपया, सं. पु., ( सं. रूप्यं ) रूप्यकं, रूपकः, २. मनोऽन्यत्र युज् (चु.), अन्यमनस्क | टककः, रजतमुद्रा २. धनम् । (वि.) भू। -उड़ाना, मु., धनं अपव्यय (चु.) अथवा रुख़सत, सं. स्त्री. (अ.) प्रस्थानं, प्रयाणं | वृथा क्षे (प्रे.)। २. अवकाशः दे. 'छुट्टी। -जोड़ना, मु., धनं संचि (स्वा: उ. अ.)। रुखाई, सं. स्त्री. (हिं. रूखा ) शुष्कता, शोषः, -तुड़ाना, मु., दे. 'भुनाना' । नीरसता २. रूक्षता, औदासीन्यं, स्नेहाभावः, । -वाला, वि., धनिक, धनाढ्य । उपेक्षा, रौक्ष्यम् । रुपहला, वि. (हिं. रूपा) रूप्य-रजत, मय, रुखानी, सं. स्त्री. (सं. रोकखानं ) *रोक | राजत २. रूप्य-रजत, वर्ण, धवल । खननी, वर्धक्युपकरणभेदः।। रुमाली, सं. स्त्री. (फा. रूमाल ) दे. 'लंगोट' । रुचना, क्रि. अ. ( सं. रोचनं ) रुच् (भ्वा. आ. | रुरुआ, सं. पुं. (हिं ररना) भीषणरव उल्लू कभेदः । से.), प्रिय-भद्र-रुचिकर प्रति-इ ( कर्म.)। रुलाई, सं. स्त्री. (हिं. रोना) दे. 'रुदन' इष्-अभिलए (कर्म.)। २. रोदनवृत्तिः ( स्त्री.), रुरुदिषा। रुचि, सं. स्त्री. (सं.) अभिरुचिः-प्रीतिः-तुष्टिः रुलाना, क्रि. स., ब. 'रोना' के प्रे. रूप । प्रवृत्तिः (स्त्री.), छंदः, कामः २. अनुरागः, | रुष्ट, वि. ( सं.) कुपित, ऋद्ध । प्रेमन् (पुं. न.) ३. किरणः ४. सौन्दर्य, | सँधना, क्रि. स. (सं. रोधनं ) ( रक्षार्थ कंटछविः (स्त्री.) ५. बुभुक्षा, जिघत्सा, क्षुधा कादिभिः) परि-,वेष्ट (भ्वा. आ. से., प्रे.), ६. आ, स्वादः । परिव ( स्वा. उ. से., प्रे.) २. परि-इ (अ. -कर, वि. (सं.) स्वादिष्ट, सुरस २. हृद्य, प. अ.), परिच्छद् (चु.), संवलयति ( ना. प्रिय, मनोहर, रुचिकारक । धा.) संवल (भ्वा. आ. से.) ३. अव-नि-वर्द्धक, वि. (सं.) रुचि-कारक-कर-कारिन् | सं-रुध ( रु. उ. अ.); पिधा (जु. उ. अ.)। २. पाचक, दीपक, अग्निवर्द्धक । हँ रूँ, सं. स्त्री. ( अनु.) शिशु, रुदितं-रुदनं, रुचिर, वि. (सं.) सुन्दर, मनोहर २. मधुर, ___ *रूँकारः। सुस्वादु। -करना, क्रि. अ., मंद मंदं रुद् (अ. प. से.)। रूठाना, क्रि. स., ब. 'रूठना' के प्रे. रूप। | रू, सं. पुं. (फ्रा.) मुखं, वदनं ( २-३) उपरिरुतवा, सं. पुं. (अ.) पदं, पदवी २. मानः, अंग्र,-भागः।। प्रतिष्ठा। | -स्याह, वि. (मा.) अपकीर्तिमत, कलंकित । रुदन, सं. पुं. (सं.) रुदितं, रोदन, विलपनं, -स्याही, सं. स्त्री. (फा.) अप-यशस् (न.), विलापः, नंदन, ऋदितं, अश्रुपातः। । कीर्तिः (स्त्री.)। For Private And Personal Use Only Page #547 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir रूई [ २०६ ] | रूई, सं. स्त्री. [ सं . रोमन् (न. ) ] ( पौदा ) कर्पास:-सं-सी, कार्पासी- सिका २ ( धूआ ) कार्पासः, तूल:-लं, पिचुः, पिचुलः पिचु तूलम् । -का गाला, सं. पुं., पिंचुपिंड :-डम् । - दार, वि., कार्पास ( -सी स्त्री. ), कार्पासिक ( -की स्त्री. ) । —दार वस्त्र, सं. पुं., कर्पासं, फालं, बादरं, तूलांबरम् | रूक्ष, वि. (सं.) दे. 'रूखा' । रूख, सं. पुं. ( सं . वृक्षः ) पादपः, तरुः । रूखा, वि. (सं. रूक्ष ) स्निग्धता - चिक्कणतामसृणता- श्लक्ष्णता,-शून्य-रहित २. घृत-तैल, हीन- रहित ३. विरस, स्वादहीन ४. शुक, निर्जल, नीरस ५. उदासीन, प्रेमहीन, विरक्त ६. कठोर, परुष ७. विषम, नतोन्नत । - सूखा, वि., रूक्षशुष्क ( भोजनादि ), विरस, निःस्वाद । रूखापन, सं. पुं., दे. 'रुखाई' । रूठन, सं. स्त्री. (हिं. रूठना ) दे. 'रूठना ' सं. पुं. रूठना, क्रि. अ. (सं. रुष्ट ) रुष ( दि. प. से. ) अप-वि-रंज् (भ्वा. उ. से. ) रज (ज्य ) ति ते, रुष्ट - कुपित - रुषित (वि.) भू । सं. पुं., रोषः, अप-वि, रागः, प्रीति प्रसाद-परितोष, अभावः । रूठा हुआ, वि., रुषित, कुपित, अप-वि, रक्त, कृतरोष | रूद, वि. (सं.) आ-अधि,-रूढ, उपर्यासीन २. प्रचलित, प्रसिद्ध ३. कठिन, कठोर ४. अविभाज्य (संख्या) ५. अशिष्ट, ग्राम्य । रूढ़ि, सं. स्त्री. (सं.) प्रथा, दे. 'रीति' (१) । २. ख्यातिः-प्रसिद्धिः (स्त्री.) ३. आ-अधि, रोह : ४. वृद्धि : ( स्त्री. ) 1 रैंकना रूपक, सं. पुं. (सं. न.) नाटकं २. अर्थालंकार -- भेद: ( काव्य ) । सं. पुं., दे. 'रुपया' । रूपवती, वि. (सं.) सुरूपिणी, वरवर्णिनी । रूपवान्, वि. ( सं . वत् ) सुन्दर, सुरूप, रूप-शालिन् । रूप, सं. पुं. (सं. न. ) आकार, आकृति:मूर्ति: (स्त्री.), संस्थानं २. प्रकृतिः, स्वभावः ३. मुख, सौन्दर्ये- छविः (स्त्री.)-वर्णः ४. कायः, देह: ५. वेश: - षः ६. दशा ७. लक्षणम् । - बिगाड़ना, क्रि. स., विरूपू ( चु. ), आकृति दुष (प्रे.) विकृ । - रंग, सं. पुं. (सं. न. ) वर्णाकारम् । -रेखा, सं. स्त्री. दे. 'रूप' ( १ ) । — भरना या बनाना, मु., वेषं ग्रह् (क्, प. से.), रूपं धृ ( भ्वा. प. अ., चु. ) । रूपा, सं. पुं. (सं. रूप्यं ) रजतं, श्वेतं, शुभ्रं, सितं, दे. 'चाँदी' | रूपी, वि. ( सं . पिन ) रूपान्वित, रूपधारिन् २. तुल्य, समान | रूपोपजीविनी, सं. स्त्री. (सं.) वेश्या, वारांगना । रूपोपजीवी, सं. पुं. (सं. विन्) दे. 'बहु-रूपिया' । रूपोश, वि. ( फा . ) ( दंडभयात् ) पलायित - गुप्त- गूढ- प्रच्छन्न । रूपोशी, सं. स्त्री. ( फा . ) ( दंडादिभयात् ) गुप्तिः (स्त्री.), अज्ञातवासः, प्रच्छन्नता । रूप्यक, सं. पुं. (सं. न. ) दे. 'रुपया' । रूबरू, क्रि.वि. ( फा . ) अभि-सं, मुखं मुखे,पुरः, पुरतः ( सब अव्य. ) । रूमाल, सं. पुं. (फ्रा.) वरकं, कर, वस्त्र- पूः (पुं.), कर्पटः । पर रूमाल भिगोना, मु., अत्यधिकं रुद्. ( अ. प. से.), अश्रुधाराः प्रवह् (प्रे.), वर्ष कृ | रूल, सं. पुं. (अं) नियम:, विधिः २. पत्ररेखा ३. *रेखादंडः । -दार, वि. ( अं+फ़ा ) रेखांकित, ( पत्रादि ) । रूलर, सं. पुं. ( अं. ) * रेखादंड: २ प्रमाण-पट्टिका ३. शासकः । रूस, सं. पुं. ( फा. ) *रूसः, देशविशेषः । रूसी, सं. पुं. ( फा . ) रूसवासिन् । सं. स्त्री. रूसभाषा । रूह, सं. स्त्री. (अ.) जीव-, आत्मन् (पुं.) २. तत्त्वं, सारः-रम् । — केवड़ा, सं. स्त्री, केतकीसारः । गुलाब, सं. स्त्री, जपा, -तत्वं-सारः । रैंक, सं. स्त्री. (हिं. रैंकना ) *रेंकारः, खरगर्दभ,-नादः, चि (ची) त्कार:-, हेष:-षा-षितम् । रेंकना, क्रि. अ. (अनु. ) आरट् (भ्वा.प.से.), रेंकृ, चीतकृ, हेषु-हेषु (भ्वा. आ. से.) २. परुषं गै (भ्वा. प. अ. ) । For Private And Personal Use Only Page #548 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir रंगटा [१०] रेवती - - रेंगटा, सं. पुं. (हि. रेकना) गर्दभार्भकः, । रेणुका, सं. स्त्री. (सं.) दे. 'रेणु' १, २, ३. रासभशावकः । | जमदग्निपत्नी, परशुरामजननी।। रेंगना, क्रि. अ. (सं. रिंगणं) रिंग-(भ्वा. प. से.), रेत, सं. पुं. [ सं.-तस् ( न.) ] वीर्य २. पारदः सृप ( भ्वा. प. अ.), उरसा गम् २. निभृतं- ३. जलम् । शनैः-अतिमंदं चल (भ्वा. प. से.)-सृप । सं. पुं., रेत, सं. स्त्री. ( सं. रेतजा) बालुका, सिकता, रिंगणं, सर्पणं, उरसा गमनं, शनैः चलनम्। । सिक्ता, शीतला, महा-,सूक्ष्मा। रेंगनेवाला, सं. पुं., उरोगामिन्, सपिन् । रेतना, क्रि. स. (हिं. रेत ) व्रश्चन्या घृष रेट-टा, सं. पुं. (देश.) सिंघाणं, सिंहाणं-नं, ( भ्वा. प. से.), लोहमार्जन्या श्लक्षणीकृ नासामलम् । | २. व्रश्चन्यादिभिः शनैःशनैः कृत् (तु. प. से.)। रेंड, सं. पुं. (सं. एरंडः ) अलंबकः, हस्तपर्णः । सं. पुं., लोहमार्जन्या घर्षणं-श्लक्ष्णीकरणंरेड़ी, सं. स्त्री. (हिं. रेंड) ऐरंडबीजम् ।। कर्तनं-छेदनम् । --का तेल, सं. पुं., एरंडतेलम् । रेतल-ला, वि., दे, 'रेतीला।। रेंदी, सं. स्त्री. ( देश.) क्षुद्रखर्बु)—ज २. क्षुद्र रेता, सं. पुं. (हिं. रेत ) दे. रेत' २. धूली-लिः तरबुजं (पं. रेडी)। (स्त्री.) ३. सिकतिलस्थलम् । रेंरें, सं. स्त्री. ( अनु.) दे. 'रूँ सैं'। रेतिया, सं. पुं. (हिं. रेतना ) ( लोहमार्जन्या ) रे, अव्य. (सं.) अरे, अयि, भोः ( सब अव्य.)। घर्षकः। रे, सं. पुं. (सं. ऋषभः) ऋषभस्वरः (संगीत)। रेती', सं. स्त्री. (हिं. रेतना) लोहमार्जनी, रेख, सं. स्त्री. (सं. रेखा) दे. 'रेखा' २. चिह्न व्रश्चन:*नी। | रेती२, सं. स्त्री. (हिं. रेत ) पुलिनं, सैकतं ३. संख्या, गणना ४. नवश्मश्रु ( न.), श्म २. सरिन्मध्ये सिकतिलद्वीपः-पम् । श्रद्धदः । रेखांश, सं. पुं. (सं.) द्राधिमांशः। रेतीला, वि. (हिं. रेत) सिकतिल, सैकत, बालुका-सिकता,-मय-युत । खा, सं. स्त्री. (सं.) रेषा, लेखा, दंडाकार | रेफ, सं. पुं. (सं.) रवर्णः, रकारः (र) २. वर्णालिपिः ( स्त्री.) २. चिह्न, अंकः ३. गणना, न्तरमूर्धस्थो रकारः ( उ., दर्प)। संख्या ४. आकारः ५. पाणिपादादिरेखा | रेल, सं. स्त्री. ( अं.) लोहपथभागः । (सामुद्रिक ) ६. हीरकदोषभेदः ७. भाग्यम् । की लाइन, सं. स्त्री., लोह-,पथः-सारणी-गणित, सं. पुं. (सं. न.) भू-ज्या,-मितिः मार्गः। (स्त्री.)। -गाड़ी, सं. स्त्री., वाष्पशकटी। कर्म-, सं. स्त्री. (सं.) भाग्यलेखः, दैवम् । रेलर, सं. स्त्री. (हिं. रेलना) धारा, प्रवाहः रेगिस्तान, सं.पु. (फ्रा.) मरुः, मरु,-स्थलं. २. आधिक्यं, बाहुल्यम् । भूमिः (स्त्री.), खिलं, धन्वन् (पु.), ऊपर:-रम् । -पेल, सं. स्त्री. जनौषः, जनसंमदः २. बाहुल्यं रेचक, वि. (सं.)वि-रेचक-रेचन, दे. 'दस्तावर'। रेलना, क्रि. स. (देश.) दे. 'धकेलना' । रेचन, सं. पुं. (सं. न.) वि.,रेकः, प्रस्कंदन, रेलवे, सं. स्त्री. ( अं.) लोहपथः २. लोहपथ. रेचना, विरेचनं, उदरशोधनम् । सं. पुं., । विभागः । सारकं वि, रेचक-रेचनम् । रेला, सं. पुं. ( देश.) दे. 'धक्का' २. दे. 'धावा' रेजा, सं. पुं. (फा.) लवः, लेशः, अणुः, कणः ।। ३. प्रवाहः, आप्लावः ४. पंक्तिः, राजिः (स्त्री.)। रेजीमेंट, सं. स्त्री. ( अं.) सैन्य, दलं-गुल्मम् । रेवंद, सं. पुं. (फ्रा.) पीतमूली, गन्धिनी। रेट, सं. पुं. ( अं.) अर्घः, मूल्यम् । रेवड़, सं. पु. ( देश.) ( अजमेषादीनां ) यूथं, रेडियम, सं. पुं. ( अं.) रेडियम, धातुभेदः। वृंद, समजः, कुलं, पण्ड:-डम् ।। २. तेजातु (न.)। रेवड़ी, सं. स्त्री. ( देश.) *गुडतिलगुली। रेणु, सं. स्त्री. (सं. पुं.) पांशुः-सुः, धूली-लिः | रेवती, सं. स्त्री. (सं.) नक्षत्रविशेषः २. बलदेव. (स्त्री.) २. बालुकः, सिकता ३. कणः-णिका। | पत्नी, रेवतपुत्री ३. गौः ( स्त्री.) ४. दुर्गा । -रूषित, वि. (सं.) धूलिधूसरित २. गर्ट - । -रमण, सं. पुं. (सं.) बल,-देवः रामः । For Private And Personal Use Only Page #549 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir रेवा [११] रोज़ रेवा, सं. स्त्री. (सं.) नर्मदा २. कामपत्नी, रतिः | २. नि-विनि-,वृ (प्रे.), नि-प्रति-षिध (भ्वा. (स्त्री.) ३. दुगा। प. से.), निवृत् (प्रे.) ३. वशीकृ, निग्रह रेश, सं. स्त्री. ( फा.) दाढ़िका, कूर्चः, कूर्चम् ।। (ऋ. प. से.), नियम् (भ्वा. प. अ.) --सफ़द. सं.पं. (फा.) वृद्धः, स्थविरः,जरठः। ४. प्रतियुध (दि. आ. अ.). शत्रसैन्यं प्रतिरेशम, सं. पुं. (फा.) कौशेयं, कीट,-जं-सूत्र, बंध-प्रतिरुध् । सं. पुं., अव-नि-प्रति-संरोध:कौशं, पट्टः-हम् । रोधन, निवारणं, नियमनं, निग्रहः-हणं, प्रति. -का कीड़ा, सं. पुं., तंतु-पट्ट, कीटः। योधन, नि-प्रति,-षेधः-षेधनम् । रेशमी, वि. ( फ्रा.) कौश, कौशिक, कौशेय, रोकनेवाला, सं. पुं., अव-नि-,रोधकः, निवापट्ट-, कौश-। रकः, प्रतिषेधकः, प्रतियोधः इ. । -कपड़ा, सं. पुं., कौशिक, चीन-पट्ट, अंशुकं, | रोका हुआ, वि.,अव-नि-, रुद्ध, निवारित, निगृ. दुकूलं, कौशांबरम् । हीत इ.। रेशा, सं. पुं. (फा.) (फलवल्कलादीनां) रोग, सं. पुं. (सं.) रुज् (स्त्री.), रुजा,व्याधिः, गुणः, तंतुः, सूत्रं २. नाडी, दे. 'रंग' ३. दे. गदः,अ(आ)मः, आमयः, उपतापः, मृत्युभत्यः। "जुकाम'। -कारक, वि. ( सं.) व्याधिजनक । रेशेदार, वि. ( फ़ा. ) सूत्र-तंतु, मत्-युक्त । -ग्रस्त, वि. (सं.) रोगाक्रांत, दे. 'रोगी'। रेहन, सं. पुं. (फा.) दे. 'गिरवी'। -नाशक, वि. ( सं.) रोग-गद, हारिन्-हर, बैदास, सं. पु. ( सं. राजदासः) भक्तविशेषः, स्वास्थ्यकर। श्रीरामानंदशिष्यविशेषः २. चर्मकारः । -निदान, सं. पुं. (सं. न.) रोग, निर्णयःरैन, सं. स्त्री. ( सं. रजनी ) दे. 'रात' । निरूपणम्। रैयत, सं. स्त्री. ( अ.) प्रजा, दे.। -राज, सं. पुं. (सं.) राज, यक्ष्मन् ( पुं.)रोआँ, सं. पुं., दे. 'रोंगटा' । यक्ष्मः । रोंगटा, सं. पुं. [सं. रोमन् (न.) ] लोमन् -लक्षण, सं. पुं. (सं. न.) व्याधिचिह्न २. रोग(न.), अंग-चर्म-त्वग् , जं, तनुरुहम् ।। निदानम् । रोंगटे खडे होना, मु., रोमांचः-रोमहर्ष:-रोमो--लगना, क्रि. अ., रोगेण ग्रस्-उपसृज-बाध द्गमः जन् (दि. आ. से.), दे. 'रोमांच। (कर्म.)। रोकी, सं. स्त्री. (सं. रोधक>) विरामः, रोग़न, सं. पुं. (फा. रोगन ) तैलं, दे. 'तेल' विरतिः (स्त्री.), गतिविच्छेदः, अवरोधः २. कुक्कुभः, रंगः, रागः, वर्णः-र्णकः-णिका। २. नि-प्रतिषेधः, प्रत्याख्यानं ३. बाधः-धा, -करना, क्रि. स., रंज (प्रे.), वर्ण (चु.), विघ्नः, प्रतिबंधः ४. वरणः, वृतिः (स्त्री.)। २. कुक्कुभेन लिप् ( तु. प. अ.)। -टोक, सं. स्त्री., दे. 'रोक' (२-३ )। -ज़र्द, सं. पुं. (फ्रा.) घृतं, आज्यम् । बेटोक. क्रि. वि., निरंतरायं, निर्विघ्नं, | रोगी, वि. (सं.) व्याधित, रुग्ण, रोग-युक्तनिर्बाधं ( सब अव्य.)। पीडित-आत-आक्रांत, आतुर, अभ्यांत, अभ्यरोकर, सं. पुं. (सं.) प्रस्तुतटंकैर्व्यवहारः २. टंकः, | मित, सामयः, आमयाविन्, मंद, विकृत । नाणकं, मुद्रा, दे. 'नकद' ३. दीप्तिः (स्त्री.)। [रोगिणी (स्त्री.) = रुग्णा, व्याधिता। रोकड़, सं. सी. ( सं. रोकः>) दे. 'रोक' (२) | रोचक, वि. (सं.) आहादक, मनोरंजक २.दे. २. मूलद्रव्यं, दे. 'पूंजी' । 'रुचिकर'(२)। -बही, सं. स्त्री. (हि. रोकड़) मूलद्रव्य- | रोचन, वि. (सं.) रोचक, रुचिकर २. दीप्तिआयव्यय,-लेखनपञ्जिका । __ मत्, छविमत् २. हृद्य, प्रिय । रोकडिया, सं. पुं. (हि. रोकड़+प्र-इया), रोचना, सं. स्त्री. (सं.) कोकनदं, रक्तकमलं आयव्यय-मूलद्रव्य-, लेखकः-प्रस्तोता । | २. गोरोचना ३. वरनारी, सुन्दरी ४. दे. रोकना, क्रि. स., (हिं. रोक ) अव-नि-प्रति-सं, 'वंशलोचन'। रुध ( रु. उ. अ.), अवस्था (प्रे.), प्रतिबंध | रोज़, सं. पुं. (फ़ा.) दिनं, दिवसः, अहन् (न.)। (क्र. प. अ.), वि, स्तंभ (क्र. प. से.)! क्रि. वि., दिने दिने, प्रति-अनु,-दिन-अहम् । For Private And Personal Use Only Page #550 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir रोज़गार [१२] रोमांचित -बरोज, ) (भ्वा. प. से.), परिदेव (भ्वा. आ. से.)। --मर्रा, क्रि. वि., दे., 'रोज़' क्रि. वि. सं. पु., दे. 'रुदन' । -रोज़, ) | रोनी, वि. स्त्री. (हिं. रोना) विषण्णा, शोकमयी। रोज़गार, सं. पुं. (फा.) आ-उप,-जीविका, रोनेवाला, सं. पुं., रोदकः, अश्रुमोचकः, आक्रवृत्तिः (स्त्री.), व्यवसायः २. वाणिज्यं, वणिक- दकः २. अनुशोचकः, परिदेवकः, विलापकः । कर्मन् (न.)। रोपना, क्रि. स. ( सं. रोपणं ) दे. 'बोना' । रोज़नामचा, सं. पु. (मा.) दे. 'डायरी' | रोब, सं. पुं. (अ. रुअब) आतंकः, तेजस्(न.), २. दैनिकायव्ययपंजिका, दैनिकलेखः । प्रतापः, प्रभावः, प्राबल्यम् । रोज़ा, सं. पुं.(फा.) व्रतं, उपवासः, उपोषणं -दाब, सं. पु. (अ.) दे 'रोब' । षितम् (इस्लाम)। --दार, वि. (अ.+फा.) तेजस्विन्, प्रतापिन, प्रभावशालिन्। रोज़ाना, क्रि. वि. (फ्रा.) प्रतिदिनं २.सर्वदा। -जमाना, मु., स्वप्रभावं जन् (प्रे.), स्वगौरव रोजी, सं. स्त्री. (फ्रा.) दैनिकान्नं, प्रात्याहिक प्रतिष्ठा (प्रे.), निजतेजसा अभिभू । भोजनं २. आ-उप,-जीविका, व्यवसायः। -में आना, मु., परतेजसा अभिभू ( कर्म.),. में आ रोजीना, वि. (फा.) प्रात्यहिक, दैनिक । सं. परप्रतापेन नम् (भ्वा. प. अ.)। पुं., प्रात्याहिक-दैनिक, वृत्तिः-भृतिः (स्त्री.)- रोबीला, (अ.) दे. 'रोबदार'। वेतनम् । | रोमंथ, सं. पुं. (सं.) उद्गीर्य चर्वणं, दे. रोट, सं. पुं. (हिं. रोटी) बृहत्-स्थूल,-रोटि(ट)का | 'जुगाली' । २. मिष्टस्थूलरोटिका। | रोम', सं. पुं. [सं. रोमन् (न.)] दे. 'रोंगटा" रोटी, सं. स्त्री. ( सं. रोटिका )रोटका २. भोजनं, | -कूप, सं. पुं. (सं. पुं. न.) लोम,-विवर-छिद्रं, सिद्धान्नम् । रोम, द्वारं गतः। -कपड़ा, मु., भोजन-वस्त्रं, निर्वाहसामग्री -राजी, सं. स्त्री. (सं.) रो(लो)मलता, रोमा२. ग्रासाच्छादनमात्रम् । ली, रोमावली-लि: (स्त्री.)। -दाल, मु., सामान्य-साधारण, भोजनं, अन्नो- | -हर्ष, सं. पुं. (सं.) रोमांचः। दकमात्रम् । -हर्षण,सं. पु. (सं. न.) रोम, उद्गमः उद्भेदः-दाल चलना, मु., जीवन निर्वह, सामान्य- हर्षः । वि. (सं.) रोमांचकर, भीषण । निर्वाहः भू। -रोम में, मु., सर्वदेहे, संपूर्ण शरीरे। किसी के यहाँ-तोड़ना, मु., परान्नेन जीव (भ्वा. |-रोम से, मु., सर्वात्मना, साभिनिवेशम् । प. से.), परापितं भुज (रु. आ. अ.)। रोमर, सं. पुं. ( सं. रोमकः) रोम, पत्तनंरोड़ा, सं. पुं. (सं. लोष्टः-ष्टं) लोष्टकः, लोष्टुः नगरं, रोमम् । पाषाण-प्रस्तर-इष्टका,-खण्ड:-शकलः। -वासी, सं. पुं(सं.-सिनः ) रोमकाः (प्रायः बहु.)। -अटकाना, या डालना, मु., बाधू (भ्वा. अ. | | रोमन, सं. पुं. (अं.) रोम, निवासिन्-वास्तव्यः । से.), अव-उप-नि-प्रति-सं-,रुध् ( रु. प. अ.), वि. रोम, सम्बन्धिन, विषयक। प्रतिबंध (ज. प. अ.)। -कैथलिक, सं. पुं., खिस्तसम्प्रदायविशेषः । रोदन, सं. पुं. (सं. न.) दे. 'रुदन'। | रोमांच, सं. पुं. (सं.) रोम, उद्गमः-उद्भेद:रोधन, सं. पुं. (सं.) अवरोधः दे. 'रोक" विकारः विक्रिया-हर्षः-हर्षणं, पुलकः, कंटकः-कं, २. दमनम् । रोना, क्रि. अ. (सं. रोदनं ) रुद् (अ. प. से., उद्धर्षणं, उल्लसनं, उल्बणकम् । | रोमांचित, वि. (सं.) हृष्टरो(लो)मन्, पुलकित,, अश्रणि पत् (प्रे.)-विमुच् (तु. प. अ.), कंटकित, सपुलक। आ-,कन्द (भ्वा. प. से.), क्रुश् (भ्वा. प. -करना. क्रि. स., कंटकयति-पुलकयति-रोमांअ.), शुच ( भ्वा. प. से.) २. दे. 'रूठना' | चयति (ना.धा.)। ३. अनुतप् (दि. आ. अ.), अनुशी (अ. आ. |-होना, क्रि. अ., पुलकित-कंटकित (वि.), से.) पश्चात्तापं कृ। क्रि. स., अनुशुच-विलप् | जन् (दि. आ. से.)। For Private And Personal Use Only Page #551 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir रोयां [१३] लंगर रोयां, सं. पुं., दे. रोंगटा' तथा 'रोम' (१)। |-पति, सं. पुं. (सं.) चन्द्रः २. वसुदेवः। रोलर, सं. पुं. (अं.) (१-२) समीकरण-पिंडी. रोहित, वि. (सं.) रक्त, लोहित। सं. पुं., करण,-यंत्रं ३.दे. 'बेलना। | रुधिरं, रक्तं २. रक्त, वर्णः-रंगः ( ३-४ ) मृगरोला', सं. पुं. (सं. रावणं) कोलाहल:, कलकल: | मीन,-भेदः ५. हरिश्चन्द्रपुत्रः। तुमुलं, महा, शब्दः-स्वनः-ध्वनः-घोषः-रवः- रोहू, सं. स्त्री. ( सं. रोहिषः ) (१-२) मीनरावः, निनादः, निस्वनः, उत्क्रोशः, उद्घोषः । मृग,-भेदः। २.तुमुलयुद्धम् । | रौंद(ध)ना, क्रि. स. (सं. मर्दनं ?) पादाभ्यां -डालना या मचाना, क्रि. स., कलकलं- मृद् (क्. प. से.)-क्षुद् (रु. प. अ.)। कोलाहलं कृ, वि,-रु ( अ. प. अ.), उस्कुश रौ, सं. स्त्री. (फा.) धारा, प्रवाहः, मंदाकः, (भ्वा. प. अ.)। स्रोतस् (न.)। रोला, सं. पुं. (सं.) चतुर्विंशतिमात्रिक- | रौशन, सं. पु. ( फ्रा.) दे. 'रोगन'। छन्दस् (न.)। रौज़ा, सं. पुं. (अ.) समाधिः, चैत्यः २. रोली, सं. स्त्री. ( सं. रोचनी> ) चूर्णहरिद्रा | उद्यानम् । निर्मितं तिलकोपयोगि रक्तचूर्णम् । रौद्र, वि. (सं.) रुद्र विषयक-संबंधिन् २. भीम, रोशन, वि. (फा.) प्रकाशित, प्रदीप्त २. भासुर, | भीषण ३. चंड, संरब्ध, कोपान्वित । सं. पु. प्रकाशमान ३. प्र-वि,-ख्यात ४. प्रकट, व्यक्त । (सं.) रुद्रोपासकः २. कोपः ३. रसभेदः -दान, सं. पुं. (फ़ा.) गवाक्षः-छदिर्वातायनम् ।। (काव्य.) ४. यमः। . -दिमाग़, वि., प्राश, बुद्धिमत् ।। रौनक, सं. स्त्री. (अ.) कांतिः-दीप्तिः-द्युतिः रोशनाई, सं. स्त्री. (मा.) दे. 'मसी' २. | (स्त्री.) २. श्रीः (स्त्री.), शोभा, छटा प्रकाशः। । ३. जन-ओघः-समुदायः । रोशनी, सं. स्त्री. (फा.) प्रकाशः, आलोकः | रौप्य, सं. पु. ( सं. न. ) रूप्यं, रजतम् । वि. २. दीपः ३. दीपमालिका ४. ज्ञानालोकः। । (सं.) राजत, रजतमय, रजतोपम। रोष, सं. पुं. (सं.) कोपः, क्रोधः, मन्युः। रौरव, वि. (सं.) भीम, घोर २. धूर्त, कापटिक रोहिणी, सं. स्त्री. (सं.) धेनुः (स्त्री.), गौः ३. रुरुसंबंधिन् । सं. पुं. (सं.) नरकविशेषः । (स्त्री.) २. तडित् ( स्त्री.), चपला ३. नक्षत्र- रौला, सं. पुं., दे. 'रोला' । विशेष: ४. बलदेवजननी। । रौशन, वि., दे. रोशन'। ल, देवनागरीवर्णमालाया अष्टाविंशो व्यंजनवर्णः, खो-खोड-लंग (भ्वा. प. से.), सलंगं चल लकारः। (भ्वा. प. से.)। सं. पुं., खंजनं, खोडनं-रणंलंक, सं. स्त्री. (सं. लंका, दे.)। लनं, लंगनं, लंग-विकल, गतिः (स्त्री.)। -नाथ-नायक-पति, सं. पुं. (सं.) रावणः, / लंगड़ापन, सं. पुं. (हिं. लंगड़ा) खंजता, दशाननः। पंगुता, खोड(रल)ता, लंगः, विकलगतिः लंका, सं. स्त्री. (सं.) रक्षःपुरी, रावणराज- | (स्त्री.)। धानी २. भारतदक्षिणवतिद्वीपविशेषः । लंगर, सं. . (फा.) लांगलं, पोतस्तंभनं -पति, सं. पुं. (सं.) दे. 'रावण' । २. महानसं, , पाकशाला ३. अनाथ-दरिद्र,लंग', सं. स्त्री., दे. 'लांग'। भोजनं ४. 'लंगोट' ५. लोहमयीस्थूललंग, सं. पुं. (सं.) दे. 'लँगड़ापन'। शृंखला ६. लंबकः, लोलकः ७. दुष्टधेननां लँगड़ा, वि. ( सं. लंग:> ) पंगु (-गू स्त्री.), गललगुडः । वि., भारवत्, गुरु २.खल, दुष्ट । खंज, श्रोण, खोड-र-ल, विचलगति २. एकपाद-/-खाना, सं. पुं. (फा.) *क्षेत्र, अनाथभोजनहीन ( मेज़ आदि)। सं. पुं., उत्तमाम्रभेदः। शाला। लँगड़ाना, क्रि. अ. (हिं. लगड़ा) खंज-खोल- | -गाह, सं. पुं. (फ़ा.) नौकाशयः, नौकाश्रयः। For Private And Personal Use Only Page #552 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir लंगूर [१४ । - का। -करना, मु., कुत्सितं चेष्ट (भ्वा. आ. से.), लंबा, वि. ( सं. लंब ) दीर्घ, दीर्घ, आकार-परिकुचेष्टां कृ। माण, आयत, आयामवत् २. उच्च, प्रांशु, तुंग, लंगूर, सं. पु. ( सं. लांगूलिन् ) कपिः, मर्कटः, । उच्छित ३. विशाल, महत्, बहु, अधिक । वानरः २. कपि-वानर, पुच्छं, लांगु(गू)लं -करना, क्रि. स., दीघी-लंबी-आयती-वितती ३. श्वेतलोमा कृष्णमुखो वानरभेदः। । कृ, आयम् (भ्वा. उ. अ.), विस्तु-प्रस (प्र.) -फल, सं. पुं. (हिं.+सं.) नारिकेलः, प्र-वि,-तन् (त. उ. से.)। मु., प्रस्था (प्रे.) लांगलिन्। २. भूमौ अवपत् (प्रे.)। लंगूल, सं. पु. ( सं. न.) लांगूलं, पुच्छं, दे. -चौड़ा, वि., विशाल, विपुल, महत्, बृहत्, 'पुच्छ । लबोरु, आयतविस्तृत। लँगोट-टा, सं. पुं. (सं. लिंग+हिं. ओट) -होना, क्रि. अ., दीधीभू , विस्त-प्रतन्पुटी, धटी, कौपीनं, लिंगावरणम् । आयम् ( कर्म.)। मु., प्रस्था (भ्वा. आ. अ.), -बंद, वि., ब्रह्मचारिन्, अध्वरेतस् । प्रया ( अ. प. अ.)। लैंगोटिया यार, सं. पुं. (हिं. फा.) सह-पांशु- लंबाई, सं. स्त्री. (हिं. लंबा) दीर्घता-त्वं, क्रीडिन् शैशव-बाल्य,-मित्रं सखि (पुं.)। दैर्व्य-ध, द्राधिमन् (पुं.), आयामः, आय–में मस्त, मु., दारिद्रयेऽपि प्रसन्न, अकिंचन मनं, आयतिः (स्त्री.) लंबता, आनाहः त्वेऽपि संतुष्ट । २. उच्चता। लँगोटी, सं. स्त्री. (हि. लँगोट) दे. 'कछनी' -चौड़ाई, सं. स्त्री., आनाहपरि(री)णाही, २. लघु,-पुटी-कौपीनं, धटिका । दीर्घत्वपृथुत्वे, आयामविस्तारौ ( सब दि.) लघन, स. पु. ( स. न. ) उपवास, उपाषण- | २. मान, प्र-परिमाणम् ।। षितं, अनाहार-,व्रतं २. दे. 'लाँघना' सं. पुं. लंबान, सं. स्त्री. (हिं. लंबा ) दे. 'लंबाई । प्लवनं ३. अति,-क्रमणं-क्रमः,नियम, भगः-उल्लं- | लंबी, वि. स्त्री. (हिं. लंबा) दीर्घा, आयता, घनं ४. घोटकानां अतित्वरितगतिः ( स्त्री.)। आयामवती। लंघना, क्रि. स. (सं. लंघन ) दे. 'लाँधना'। -तानना, मु., निश्चितं शी ( अ. प. से.)। लंच, सं. पुं. ( अं.) मध्याह्नमाध्यन्दिन,--सांस भरना, मु., दीधैं निःश्वस् (अ.प.से.)। भोजनम् । लंबोतरा, वि. (हिं. लंबा) दीर्घचतुरस्र लंठ, वि. (हिं. लठ्ठ ) जड, मूर्ख २, धृष्ट। . अंड,-आकार-आकृति । लंडूरा, वि. ( देश.) अलांगु(गू)ल, छिन्नपुच्छ, लंबोदर, वि. (सं.) तुंदिक-भ-ल-त। सं. पुं. लूमहीन (खगादि ) २. परित्यक्त, निराश्रय।। (सं.) गणेशः २. औदरिकः, धस्मरः। लंप. सं. पु. ( अं. लैंप ) दे. 'लालटेन'। लकड़बग्घा, सं. पुं. (हिं. लकड़+बाघ ) ईहालंपट, वि. (सं.) लिंपट, अभिक, कामिन्, | वृकः, *लगुडव्याघ्रः। कामुक, विषय-काम,-आसक्त, रतेच्छु, स्मरात, लकड़फोड़, सं. पुं. (हिं. . लकड़+फोड़ना) व्यभिचारिन्, दुराचारिन् । दार्वाधाटः, काष्ठकूटः। . लंपटता, सं. स्त्री. (सं.) व्यभिचारीः, विषया- | लकड़हारा, सं. पुं. (हिं. लकड़+हारा) सक्तिः ( स्त्री.), कामुकता, अभिकता, लोपट्यं, काष्ठिकः, काष्ठछिद, *लगुडहारः। दुराचारः। लकड़ा, सं. पुं. (सं. लकुटः) लगुड:-र:-ल:, लंब, सं. पुं. (सं.) लंबकः ( = अमूद )। वि. स्थूल-बृहत्, काष्ठ-दारु ( न.)। (सं.) दे. 'लंबा'। लकड़ी, सं. स्त्री. (हिं. लकड़ा ) काष्ठं, दारु -कर्ण, सं. पुं. (सं.) अजः २. गजः ३. खरः। (न.) २. इंधनं. एधः, दंडः, यष्टिः ( स्त्री). ४. शश: ५. राक्षसः ६. श्येनः । वि. (सं.)। वेत्रं ३. दे. 'गतका'। दीर्घश्रवण । -देना, मु., अंत्येष्टि कृ, शवं दह् (भ्वा.प.अ.)। -ग्रीव, सं. पुं. (सं.) उष्ट्रः, क्रमेलकः। लकब, सं. पुं. (अ.) उपाधिः, उपनामन् (न.)। लंबतडंग, वि. (सं. लंब+ताल:+अंग)| लकलक, सं. पु. ( अ.) लंबग्रीवो जलखगभेदः, ' तालतुंग, अत्युच्च, अत्युच्छ्रित । *लकलकः। For Private And Personal Use Only Page #553 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [१५] लकवा, सं. पुं. (अ.) अदितम् । मनोरथः, ईप्सितं ४. लक्ष्यार्थः । वि., दर्शनीय, लकीर, सं. स्त्री. ( सं. लेखा ) रेषा-खा, दंडाका- अवलोकनीय। रलिपि: (स्त्री.) २. पंक्ति:-श्रेणि:-आलिः (स्त्री.)। -वेधी, सं. पुं. (सं.-धिन् ) वेध्यवेधकः । -का फकीर, मु., विवेकशून्य, अंध, अनुगा- लखपती, सं. पुं. (सं. लक्षपतिः ) लक्ष, ईश्वरःमिन्-अनुयायिन्-अनुवर्तिन, परंपरानुसारिन्। अधीशः २. धनिकः धनाढ्यः । --पर चलना, मु., अंधवत् अनुगम् (भ्वा. लखेरा, सं. पुं. (हिं. लाख) लाक्षा-जतु, कारः -पोटना, प.अ.)-अनुया(अ.प.अ.)।। २. हिंदूपजातिभेदः३. कुक्कुभ, लेपकः-लेपिन् । लकट, सं. पुं. (सं.) लगुडः, यष्टिः (स्त्री.), लग, क्रि. वि. (सं. लग> ) दे. 'तक'. दंडः । २. समीपं पे । अव्य.,सह, साई २. दे. 'लिए'। लक्कड़, सं. पुं., दे. 'लकड़ा'। -भग, क्रि. वि. प्रायः, प्रायशः, प्रायेण,-प्राय, लक्का, सं. पुं. (अ.) व्यजनपुच्छः, पारावतः, -कल्प, उपः,आसन्न-1 कपोतभेदः । लगन', सं. स्त्री. (हिं. लगना) आसंग, प्रीतिः (स्त्री.), आ-प्र, सक्तिः ( स्त्री.), अभिनिवेशः, लक्ष, वि. तथा सं. पु. ( सं.) दे. 'लाख'।। दे. 'धुन' २. प्रेमन् (पुं. न.), अनुरागः, लक्षक, वि. (सं.) प्रकटयित, प्रकाशक । सं. स्नेहः ३. दे. 'लगना' सं. पुं.। पुं. (सं.) लक्ष्यार्थप्रकाशकः शब्दः। (सं. | लगन, सं. पुं. ( सं. लग्न ) राशीनामुदयः न.) दे. 'लाख'। (ज्यो.) २. ( विवाहस्य ) शुभमुहूर्तः-तम् । लक्षण, सं. पुं. (सं. न.) अंकः, चिह्न, लिंगं, -कुंडली, सं. स्त्री. (सं. लग्नकुंडली ) लांछन, व्यंजन; अभिज्ञानम् । २. परिभाषा, जन्मकुंडली। परिच्छेदः, निर्देशः ३. विशिष्टलिंगं, विशेषः -हंगना, क्रि. अ., अनुरंज् ( कर्म.), स्निह् ४. चरित्रं, आचारः। (दि. प. से.)। लक्षणा, सं. स्त्री. (सं.) शब्दशक्तिभेदः, शक्य | लगना, क्रि. अ. (सं.लगन) सं., युज् (कर्म.), संबंधः (सा.) २. सारसी ३. हंसी। लग ( भ्वा. प. से.), संहन्-संधा (कर्म.), लक्षित, वि. ( सं.) निर्दिष्ट, शापित २. दृष्ट, संश्लिष ( दि. प. अ.) संपृचवीक्षित ३. अनुमित, तार्केत ४. चिह्नित, संसज (कर्म.) २. आरोप-मूल (कर्म.) अंकित । ३. निवेश-स्थाप् (कर्म.) ४. आहन्-ताड. लक्ष्मण, सं. पुं. (सं.) रामानुजः, सौमित्रिः प्रह-व्यध ( कर्म.) ५. स्पृश-समालभ-परामृश २. दुर्योधनपुत्रविशेषः ३. सारसः। ( कर्म.) ६. विन्यस्-व्यवस्थाप-व्यूह ( कर्म.) लक्ष्मी, सं. स्त्री. (सं.) श्रीः, कमला, पद्मा, ७. दृश-लक्ष-प्रती (कर्म.), प्रति-,भा (अ. पद्मालया, हरि,-प्रिया-वल्लभा, इंदिरा, मा, प. अ.) ८. संबन्ध ( कर्म.), सम्बन्धः शातित्वं रमा, क्षीराब्धितनया, भार्गवी, लोकमातृ (स्त्री.) वृत् (भ्ग. आ. से.) ९. स्वादनसं धा २. धनं, संपद् (स्त्री.) ३. छविः (स्त्री.), १०. अनुरंज ( कर्म.), स्निह (दि.प. से.) शोभा ४. दुर्गा ५. सीता ६. वीरनारी ११. कर:-शुल्कः नियोज् ( कर्म.) १२. मूल्यं ७. गृहस्वामिनी। अपेक्ष (भ्वा. आ. से.), मूल्यकेन लभ (कर्म.) -नारायण, सं. पुं. (सं.) लक्ष्मीजनार्दनः, १३. व्यापृ (तु. आ. अ.), मग्न-व्यापूत शालग्रामभेदः। (वि.) वृत् १४. पण ( कर्म.) १५. पूतीभू, -पति, सं. पुं. (सं.) विष्णुः २. श्रीकृष्णः । ज (दि. प. से.), पूय (भ्वा. आ. से.)। ३. नृपः। सं.पं. तथा भाव, लगनं, सं., योगः, संधानं, लक्ष्मीश, सं. पुं. (सं.) विष्णुः २. आम्रवृक्षः | सं.-श्लेषः-श्लेषणं, संपर्कः, संसृष्टिः (स्त्री.), ३. धनाढ्यः। आरोपणं, मूलनं, निवेशः, स्थापनं, आघातः, लक्ष्य. सं. पुं. (सं. न.) शरव्यं, लक्षं, वेध्यं, प्रहारः, स्पर्शः, समालम्भः, विन्यासः, ब्यूहः, वेधं, प्रतिकायः २. निंदा-आक्षेप-उपालंभ,.. व्यवस्थितिः, प्रतीतिः ( स्त्री.), भानं, न्यायतिःविषयः ३. आशयः, उद्देशः, अभि- इष्ट, आसक्तिः (स्त्री.) १६. पूतीभावः, पूयनं इ. । For Private And Personal Use Only Page #554 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir लगवाना [१६] लट - लगा हुआ, वि., सं-, युक्त, लगित, लग्न, संहत, -दार, वि. (हिं.+फ़ा.) नम्य कुंचनीय, नमन संपृक्त, संसृष्ट, आरोपित, निवेशित, स्पृष्ट, कुंचन, शील, स्थितिस्थापक, प्रकृतिप्रापक । विन्यस्त, अनुरक्त, व्यापृत, मग्न इ.। लचकना, क्रि. अ. (हिं. लच अनु.) अव., लगवाना, क्रि. प्रे., ब. 'लगाना' के प्रे. रूप।। नम् (भ्वा. प. अ.), वक्रीभू । सं. पुं. तथा लगातार, क्रि. वि. (हि. लगना+तार)| भाव, अव,-नमनं नतिः-नामः, वक्रीभावः । सततं, अविच्छिन्नं, दे. 'निरंतर'। लचकाना, क्रि. स., ब. 'लचकना' के प्रे. रूप। लगान, सं. पुं. (हिं. लगाना ) भू-भूमि, करः, लचकीला, शस्यशुल्म,राजस्वम् । वि. (हिं. लचक) दे.'लचकदार'। लचलचा, J लगाना, क्रि. स., ब. 'लगना' के स. रूप। लचना, क्रि. अ., दे. 'लचकना'। लगाम, सं. स्त्री. ( फा.) कविकः का, खलीन: लचाना, क्रि. स., ब. 'लचकना' के प्रे. रूप। नं, कवि(वी)यं, कवी, पंचांगी २.वल्गा, रश्मिः , लचीला, वि., दे. 'लचकदार'। अवक्षेपणी, कुशा। लच्छा, सं. पुं. (सं. लंबगुच्छ:>) सूत्रस्तबकः, -चढ़ाना या देना, मु., संयम्(भ्वा. प. अ.), निग्रह (क्र. प. से.), वशीक. निव ( गुणगुच्छः, तंतुपंची २. सूत्राकाराः, पट्रिका काराः वा तनुदीर्घखंडाः ३. सूक्ष्मतंतुरूपः लगालगी, सं. स्त्री. (हिं. लगना) अनुरागः, पाणिपादभूषणभेदः ४. मिष्टान्नभेदः। प्रेमन् (पुं. न.) २. संबंधः, संपर्कः, संसर्गः, संगतिः (स्त्री.)। लच्छेदार, वि. (हिं.+फा.) गुच्छ-सूत्र-पट्टिका, लगाव, सं. पु. ) (हिं.लगाना) दे. 'लगालगी| । आकार २. श्रुतिमधुर, सुश्राव्य, सुखश्रव । लगावट,सं.स्त्री. । लजाना, क्रि. अ., दे. 'लज्जित होना' । १.२। लजालू , सं. पं., दे. 'लाजवंती'। लगुड-र-ल, सं. पुं. (सं.) दंडः, यष्टिः (स्त्री.) लज़ीज़, वि. ( अ. ) सुस्वादु, सुरस, स्वादिष्ट २. लोहमयोऽस्त्रभेदः । लग्गा, सं. पु. ( सं. लग्न> ) लंब, वेणु:-वंशः ( भक्ष्य)। २. नौदंडः ३. आकर्षणी। | लजीला, वि. (हिं. लाज ) दे. 'लज्जाशील' । लग्गी, सं. स्त्री. (हिं. लग्गा) मीनदंड: लज्ज़त, सं. स्त्री. (अ.) आ-,स्वादः, रसः । २-४. दे. 'लग्गा ' १.३। । -दार, वि. (अ.+फा.) दे. 'लज़ीज़' । लग्न', सं. (पुं. सं. न.) दे. 'लगन' (१.२)। लज्जा, सं. स्त्री. [ सं. ब्रीड:-डा, ह्रीः ( स्त्री.), , लग्न२, वि. (सं.) संयुक्त, संश्लिष्ट, संलगित, त्रपा, मंदाझं, शालीनता, लज्या २. मानः, संबद्ध २. आसक्त, मग्न, व्यापृत, पर, परायण, प्रतिष्ठा। निष्ठ ३. लज्जित। -कर, वि. (सं.) त्रपा-लज्जा, प्रद-जनकलघु, वि. (सं.) अल्प-ईषद्,-भार, सु-सुख, बाह्य | आवह, गर्हित। २. अणु, महत्त्व-बृहत्व, शून्य, क्षुद्र, तनु,अल्प,- -शील, वि. (सं.) ह्रीमत, शालीन, लज्जालु, आकार-आकृति-काय ३. निस्तत्व, निस्सार सलज्ज, विनीत, लज्जावत्, लज्जान्वित । ४. अल्प, स्तोक (मात्रा) ५. अधम, नीच -हीन, वि. (सं.) निर्लज, निनोंड, धृष्ट, ६. दुर्बल, निर्बल ६. कनीयस् , यवीयस्। निरप, अपत्रप, लज्जा-त्रपा, शून्य। -चेता, वि. (सं.-तस्) तुच्छ, क्षुद्रमति, लज्जालु, वि. (सं.) दे. 'लाजवंती' २. दे. क्षुद्राशय। ___ 'लज्जाशील'। -शंका, सं. स्त्री. (सं.) मूत्रोत्सर्गः, मेहनम् । लजित, वि. (सं.) होत, हीण, वीडित, त्रपित, लघुता, सं. स्त्री. (सं.) लघुत्वं, लाघवं, लघिमन् | त्रपा-लज्जा,-अन्वित । (पुं.), अल्पभारवत्वं २. अणुता, तनुता, | -करना, क्रि. स., लज्ज-त्रप-ब्रीड-ही (प्रे.)। क्षुद्रता ३. अधमता ४. कनीयस्त्वं ५. अल्पता। -होना, क्रि. अ., लज्ज् (तु. आ. से.), त्रप् लचक, सं. स्त्री. (हिं. लचकना) स्थितिस्था- (भ्वा. आ. से.), बीड (दि. प. से.), ही पकता-त्वं, नम्यता, कुंचनीयता २. दे. 'लच- | (जु. प. अ.)। कना' सं. पुं.। | लट,' सं. स्त्री. (सं. लट्वा)अलकः, चूर्णकुन्तलः, For Private And Personal Use Only Page #555 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir लट [283] कुरल: २. केशपाश:, कचपक्षः ३ जटा, सटा | लटापटी, सं. स्त्री. (हिं. लटपटाना ) दे. 'लटसंश्लिष्टकेशाः । पटाना' सं. पुं. २. कलहः, कलिः । लटी, सं. स्त्री. (हिं. लटा ) १-२ अभद्रअसत्य, वार्ता ३. भिक्षा (क्षु) को ४. वेश्या ५. पंजी. जि: (स्त्री.) । -शरी, सं. पुं., जटिन, जटिल : ( भिक्षु ) । लट, र २ सं. स्त्री. (हिं. लपट) ज्वाला, अग्निशिखा । लटक, सं. स्त्री. (हिं. लटकना ) दे. 'लटकना ' सं. पुं. । २. कुंचनीयता, नम्यता ३. आवेशः, आवेग : ४. हात्र:, विभ्रमः, मनोहरी ( रा ) अंगभंग: (स्त्री.) । - चाल, सं. स्त्री, सविभ्रमगतिः (स्त्री.) । लटकन, सं. पुं. (हिं. लटकना ) दे. 'लटकना' सं. पुं. २. हावः, विभ्रमः ३. प्रालंब:, लोलकः ४. नासिकाभूषणभेद: ५. उष्णीषलंबितो रत्नगुच्छः । लटकना, क्रि. अ. ( सं . लटनं > ) अव प्रलम्व (भ्वा. आ. से. ), उद्बन्ध ( कर्म. ) २. दोलायते ( ना. धा. ) । प्रेख ( भ्वा. प. से. ) ३. विलंबं कृ, चिरायति - ते ( ना. धा. ), विलम्बू (भ्वा. आ. से. ) । सं. पु. तथा भाव, अव-प्र,-लम्ब:-लम्बनं, उबंधनं २. खणं, दोलनं ३. विलम्बनं, कालक्षेपः । लटका, सं. पुं. (हिं. लटक ) गतिः (स्त्री.), चारः २. हावभावौ, विभ्रमः ३. सविलासं भाषणं ४. वागाधारः ( = तकिया कलाम ) ५. संक्षिप्त, -योगः-उपचार: - औषधं ६. चलद् ७. माया-यातु यष्टिः (स्त्री.) ८. अभिचारमंत्रः । लड़का लटूरी, सं. स्त्री. (हिं. लट ) दे. 'लट' (१) । ' –उतरवाना, चूडाकरणसंस्कार कृ ( प्रे.) । लटोरा, सं. पुं. ( देश. ) कलिंगः, धूम्राट:, खगभेदः । लट्टू, सं. पुं. (सं. लुंठनं > ) भ्रमरक:- कं, २. लंबकः, लंबसीसकम् । - होना, मु., अत्यधिकं स्निह् ( दि. प. से. ), अनुरंज (कर्म) । लट्ठ, सं. पुं. [ सं . लगुड-यष्टि: (स्त्री.)] स्थूलबृहद्, दंड: यष्टि:, लकुट:, लगुडः । - बाज़, वि. (हिं. + फ़ा. ) यष्टियोध-धिन्, दंडधर, इंडिक । - बाज़ी, सं. स्त्री. (हिं. + फ़ा. ) दंडाडि (अन्य ), यष्टियुद्धम् । -मार, वि. (हिं.) दे. 'लट्ठबाज़' २. कड, कठोर (वचन) । मारना, क्रि. स., दंडेन यष्ट्या प्रहृ ( भ्वा. प. अ. ) । मु., परुषं ब्रू ( अ. उ. से. ) । पीछे -- लिये फिरना, मु., सततं विरुध् ( रु. उ. अ. ) २. प्रतिकूलं आचर् (भ्वा.प.से.) । लट्ठा', सं. पुं. (हिं. लट्ठ ) दीर्घकाष्ठं २. तुला, छदिः, स्थूणा ३. सार्द्धपंचगजमितो भूमानदंड: । लट्ठम्—, सं. पुं., दे. 'लट्ठबाजी' । लट्ठा, सं. पुं. ( अं. लांगक्लाथ ) *लंबपटः । लठ, सं. पुं., दे. 'लट्ठ' | लठालठी, सं. स्त्री. दे. 'लट्ठबाजी' । लठैत, सं. पुं. (हिं. लठ ) दे. 'लट्ठबाज' । लड़ंत, सं. स्त्री. (हिं. लड़ना ) दे. 'लड़ाई' । लड़, सं. स्त्री. [ सं . यष्टिः (स्त्री.) ? ] आवलीलि: (स्त्री.), सरल, माला- हारः २. रज्जोः घटक सूक्ष्म तंतुः ३. श्रृंखल: लं- ला ४. श्रेणि:पंक्तिः (स्त्री.) । लटकाना, क्रि. स. ब. 'लटकना' के. प्रे. रूप । लटकाव, सं. पुं., दे. 'लटकना ' सं. पुं. । लटकीला, वि. (हिं. लटक ) दे. 'लचकदार' । लटपट-टा, वि. (हिं. लटपटाना ) प्रस्खलदविचलत् ( शत्रंत ), अस्थिरगतिक २. शिथिल, अपरिष्कृत, अस्तव्यस्त, अवस्रस्त ३, अस्पष्ट, त्रुट्यत् (शब्द) ४. क्रमहीन, असंगत ५. खिन्न, श्रांत, ग्लान, अशक्त ६. उदपेष,गाढ-घन ७. बलित ( बस्त्रादि ) । लटपटाना, क्रि. अ. ( सं . लड् + पत्) प्रस्खल ( भ्वा. प. से. ) २. पतत् चल् (भ्वा. प. से.) ३. चपलतया गम् ४. वेप (भ्वा. आ. से. ) ५. अनुरंज (कर्म.)। सं. पुं., प्रस्खलनं, दूषितगतिः (स्त्री.), कंपनं, अनुरागः । लड़ा, वि. (सं. लट्टः ) लंपट २. नीच ३. तुच्छ लड़का, सं. पुं. (हिं. लाड़ ) बालकः, कुमारः ४. पतित ५. दुष्ट । लड़कपन, सं. पुं. (हिं. लड़का ) बाल्यं, कौमारं २. चापल्य, चांचल्यम् । लड़कबुद्धि, सं. स्त्री. (हिं. + सं.), बालबुद्धि: (स्त्री.), अपक्वमति: (स्त्री.) । २. पुत्रः । For Private And Personal Use Only Page #556 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir लड़की [५१८ ] लथाड़ Mn. -बाला, सं. पुं., संततिः (स्त्री.), संतानः । लड़ाना, क्रि. स., ब. 'लड़ना' के प्रे. रूप । २. *परिवारः, कुटुंबम् । लड़ी, सं. स्त्री., दे. 'लड़' । -लड़की, सं. स्त्री., संततिः ( स्त्री.)। लड़ीला, वि., दे. 'लाडला' । लड़केवाला, मु., (विवाहे ) वरस्य जनकः लड्डू, सं. पुं. (सं. लड्डुः ) लड्डुकः, मोदकः । संरक्षको वा। -खिलाना, मु., निमंत्र (चु. आ. से.)। लड़कों का खेल, मु., सुकरकर्मन् (न.), |-मिलना, मु., सुफलं अधिगम् । सुसाध्यकार्यम् । | मन के-खाना, मु., मनोराज्यं विज़म्म (प्रे.)। लड़की, सं. स्त्री. (हिं. लड़का ) बालिका, लढ़ा, सं. पु. [हिं. लुढ़(ढक)ना ] कुमारी २. पुत्री। लढ़िया, सं. स्त्रो. बलदशकटी।। -चाला, मु. (विवाहे.) वध्वा जनकः संर- सी में रतिःक-वत्तिः (स्त्री.). क्षको वा। शीलं, कदभ्यासः, दुर्व्यसनं, दुष्प्रवृत्तिः (स्त्री.), लड़कौरी, वि. स्त्री. (हिं. लड़का ) बालोत्संगा, दे. 'आदत' (बुरी)। शिशुमती। लड़खड़ाना, क्रि. अ. ( सं. लड्+हिं. खड़ा) लतखोर-रा, वि. (हिं. लात+फा. खोर) पाद प्रहारसह, जंघाघातसह, कुकर्मिन् २. नीच, प्रस्खल ( भ्वा. प. से.), घूर्ण (भ्वा. आ. क्षुद्र । सं. पुं., दासः, किंकरः २. देहली, अवसे.) २. गद्गदवाचा भाष् ( भ्वा. आ. से.), ग्रहणी ३. दे. 'पायंदाज़' [लतखोरिन (स्त्री.) सगद्गदं ब् (अ.उ.से.) स्खल । सं. पुं., प्रस्ख लतपत, वि., दे. 'लथपथ' । लनं, धूर्णनं २. सगद्गदं भाषणं, स्खलनम्। लता, सं. स्त्री. (सं.) वल्ली, व(वे)ल्लिः-न(म). लड़ना, क्रि. अ. (सं. रणनं>) विग्रह (क्र. ततिः ( स्त्री.); (बहुत शाखाओं तथा पत्तों प. से. ), युध् (दि. आ. अ.), युद्धं-संग्राम वाली ) प्रतानिनी, गुल्मिनी, वीरुध ( स्त्री.), संगरं कृ २. विवद् (भ्वा. आ. से.), विप्र उलपः २. सुन्दरी, तन्वी, रोचना। । लप् (भ्वा. प. से.), कलहायन्ते ( ना. धा.)। -मंडप, सं. पुं. (सं.) लता,-भवनं-कुंजः-गृहं, ३. दंश् (भ्वा. प. अ.) ४. संघट ( भ्वा. | नि, कुंजः-जं, कुडंगः-गम् । . आ. से.), संमृद् (क्र. प. से.) ५. मल्लयुद्धं लताड़, सं. स्त्री., दे. 'लथाड़' । कृ, हस्ताहस्ति-मुष्टीमुष्टि युध् । सं. पुं. तथा लताड़ना, क्रि. स. (हिं. लात ) दे. 'रौंदना' । . भाव, विग्रहः, युद्धं, विवादः, विप्रलापः, लतिका, सं. स्त्री. (सं.) लघु, वल्ली-व्रतति:(स्त्री.)। कलहः, दंशनं, संघट्टनं, संमदः, मल्लयुद्धम् । | लतीफ्ना, सं. पुं. (अ.) दे. 'चुटकुला'।। लड़बड़ाना, क्रि. अ., दे. 'लड़खड़ाना'। लत्ता, सं. पुं. (सं. लक्तकः) नक्तकः, कर्मट:-टं, लदबावरा, वि. (हिं. लड़का+बावरा) मूर्ख, चीरं, पटच्चरं, जीर्णवसनं २. वस्त्रखंड: अज्ञ, बालबुद्धि २. अशिष्ट, ग्रामीण। ३. वस्त्रम् । लड़ाई, सं. स्त्री. (हिं. लड़ना) संग्रामः, दे. -कपड़ा, सं. पुं., परिधानं, वस्त्राणि-वासांसि 'युद्ध' २. मल्ल-बाहु,-युद्ध ३. वाग्युद्धं, कलहः | (न. बहु.)। ४. वादः, वादप्रतिवादः ५. संघट्टः, समाघातः ६. विरोधः, वैरम् । | लत्ती, सं. स्त्री. ( हिं. लात) पादप्रहारः, -करना, क्रि. स., दे. 'लड़ना'। लत्ताघातः, खुर, आघात:-क्षेपः। -का मैदान, रणक्षेत्रं, युद्धभूमिः (स्त्री.)। लत्ती२, सं. स्त्री. (हिं. लत्ता) *पतंगपुच्छे -मोल लेना, मु., कामतः कलहे प्रवृत् (भ्वा. २. लंबवस्त्रखंड:-डम् । आ. से.), युध ( सन्नतं, युयुत्सते)। लथड़ना, क्रि. अ., क. 'लथेड़ना' के कर्म. के लड़ाका, सं. पुं. (हिं. लड़ना) योधः, भटः, योद्धृ। वि., कलह-कलि, प्रिय, युयुत्सु, लथपथ, वि. ( अनु.) अति, क्लिन्न-उन्न-तिमितविवादिन् । आई २. ( पंकादिभिः ) लिप्त, दिग्ध, मलिन, लड़ाकू, वि. (हिं. लड़ना) सांग्रामिक (की | कलुप। स्त्री.), यौद्ध (द्धी स्त्री.)। | लथाड़, सं. स्त्री. ( अनु. लथपथ ) भूमौ पात For Private And Personal Use Only Page #557 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir लपेटवाँ यित्वा इतस्ततः कर्षणं २. पराजयः ३. हानिः । लपट, सं. स्त्री. (हिं. लौ+पट ) वह्निशिखा, (स्त्री.) ४. अधिक्षेपः, निर्भर्त्सनं ना, तर्जनम् ।। ज्वाला २. तप्तपवनः, धर्मानिलः ३. सुगन्धः, लथाढ़ना, क्रि. स., दे. 'लताड़ना' २. 'ल. सुवासः, दुर्गंधः, पूतिगंधः ४. सुगंधि-दुर्गधि, थेड़ना'। । पवनतरंगः। लथेड़ना, क्रि. स. ( अनु. लथपथ) पंकेन | लपटना क्रि. अ., दे. 'लिपटना' । मलिनयति ना. धा... कर्दमे कप ( भ्वा. लपड़शपड़, सं. स्त्री. ( सं. लपन+अनु.)प्र, प. अ.) २. संमिश् (चु.), संसृज् (तु. प. । जल्पः-पनं, निरर्थकशब्दाः (बहु.)। अ.) ३. निर्भर्स (चु.), अधिक्षिप (तु. प. लपन, सं. . (सं. न.) मुखं २. भाषणम् । अ.) ४. व्यथ् (प्रे.), पीड् (चु,)। लपलप, सं. पुं. (अनु.) लेहनं, लेहः। वि., लदना, क्रि. अ. (सं. लब्ध> ) ब. 'लादना' | क्षिप्र-शीघ्र, कारिन, आशु। क्रि.वि., क्षिप्रं, के कर्म. के रूप २. मृ (तु. आ. अ.)। । द्रुतं, झटिति (सब अव्य.)। लदवाना, -करना, क्रि. स., लिह (अ. उ. अ.), जिलदाना. क्रि.प्र., ब. 'लादना' के प्रे.रूप।। हाग्रेण पा (भ्वा, प. अ.)। लदा फंदा, वि. (हिं. लदना+फँदना) भारा -खाना, क्रि. स., सत्वरं भक्ष (चु.)। क्रांत, मारग्रस्त, पर्याहारपीडित । लपलपाना, क्रि. स. (अनु. लपलप) लदाव, सं. पुं. (हिं. लादना ) दे. 'लादना' (जिह्वा-खड्गादिकं) परिभ्रम् (प्रे.)-वि-धू सं. पुं. २. भारः, भरः, पर्याहारः ३. पटला. (स्वा. क्र. उ. से.)। क्रि. अ., खड्गवत् दिषु निराधार इष्टकाचयः। प्रकाश-भास्-द्युत् (भ्वा. आ. से.)। सं. पुं. तथा भाव, विधुवनं, विधूतिः ( स्त्री.), विधूननं, लदुवा, लद्, वि. (हिं. लादना ) धुरंधर, परिभ्रा(भ्र)मणं, प्रकाशनं, भासनं, द्योतनम् । धुरीण, धौरेय, धुर्य, पृष्ठय, स्थूरिन् (घोड़ा, लपलपाहट, सं. स्त्री. (हिं. लपलपाना ) (खबेल आदि)। गादीनां) द्युतिः-दीप्तिः (स्त्री.), प्रभा लद्धड़, वि. ( हिं. लदना ) अलस, मंथर। २. दे. 'लपलपाना' सं. पुं.। -पन, सं. पुं., आलस्यं, मन्थरत्वम् । लपसी, सं. स्त्री. (सं. लप्सिका) द्रवप्रायः लप', सं. स्त्री. (देश.) अंजलिः, करपुटः । संयावः ३. द्रवप्रायं भक्ष्यम् । २. अंजलि,-मितं-मात्रं वस्तु (न.)। लपेट, सं. स्त्री. (हिं. लपेटना) दे. 'लपेटना' लप, सं. स्त्री, (अनु.) वेत्र-यष्टि, शब्दः , | सं. पुं. व्यावर्तः, व्यावृत्तिः (स्त्री.) बंधनलपलपध्वनिः २. खड़गादीनां तरलप्रभा । चक्रं ३. परिधिः, परिणाहः, परिवेशः, मंडलं लपक, सं. स्त्री. (अनु.) ज्वाला, अग्निशिखा ४. कष्टं, क्लेशः, कृच्छ्, जालं ५. कु-दुष् , २. क्षणिक-अस्थिर, दीप्तिः (स्त्री.) प्रमा ३. वेगः, | प्रभावः ६. वेष्टनं, बंधनं ७. पुटः, मंगः, वलिः जवः, त्वरा, लाघवं ४. प्लुतिः (स्त्री.), झंपा। (स्त्री.)। लपकना, कि, अ. (हिं. लपक) धाव ( भ्वा. | लपेटना, क्रि. स. (हिं. लिपटना ) संवेष्ट (प्रे.), प. से.), द्रु (भ्वा. प. अ.), सत्वरं गम् । संपुटीक २. भ्रम्-धूर्ण (प्रे.) ३. व्यावृत् २. स्फुर् (तु. प. से.), तरलप्रभया प्रकाश (प्रे.), पुटीक, पुटयति (ना. धा.) ४. पिण्डी(भ्वा. आ. से.) ३. वल्ग (भ्वा. प. से.), वर्तुली-कृ ५. आच्छद् (चु.), परिवेष्ट ( भ्वा. उत, प्लु (भ्वा.प. अ.) ४. धृ (चु.), ग्रह आ. से., प्रे.) ६. संग्रंथ् (क्र. प. से.) (क्. प. से.)। सं. पुं., धावनं, स्फुरणं, उत्-, . ७. अन्तर्गण (चु.), संश्लिष् (प्रे.)। सं. प्लवन, धारणम् । पुं. तथा भाव, संवेष्टनं, संपुटीकरणं, भ्रामणं, लपकाना, क्रि. स., ब. 'लपकना' के प्रे. रूप।। घूर्णनं, व्यावर्तनं, पिण्डीकरणं, आच्छादनं, लपकी, सं. स्त्री. (हिं. लपकना) सरलसीवन- संग्रंथनं, संश्लेषणम् । भेदः। लपेटवाँ, वि. (हिं. लपेटना) सपुट, सभंग, लपझप, वि. ( अनु. लप+हिं. झपटना) | वलियुत २. व्यावृत्त, आकुंचित, ३. गूढार्थ, चपल, चंचल २. क्षिप्र, आशु। गुप्ताशय, व्यंग्य ४. वक्र । For Private And Personal Use Only Page #558 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir लप्पड़ [५२०) - लप्पड़, सं. पुं., दे. 'थप्पड़'। । लब्ध, वि. (सं.) अव-प्र, आप्त, अधिगत, लप्पा, सं. पु. (देश.) सौवर्ण-राजत,-तंतुजाला- | समासादित २. उप, अजिंत। सं. पुं. (सं. भरणभेदः। न.) फलं, लब्धिः (गणित) २. दासभेदः। लगा , सं. पुं. (फ़ा.ग ) लंपटः, व्यभिचारिन् -प्रतिष्ठ, वि. (सं.) लब्ध, कीर्ति-नामन्, २. कुपथगः, दुर्वृत्तः। वि-प्रख्यात । लफ़्टंट, सं. पुं. (अं. लेफ्टिनेंट ) गणाध्यक्षः | लब्धि, सं. स्त्री. (सं.) प्राप्तिः ( स्त्री.), लाभ: २. प्रतिपुरुषः। २. उत्तरं, लब्धांकः (गणित)। -गर्वनर, सं. पुं. ( अं.) उपप्रांताध्यक्षः, उप- | लभ्य, वि. (सं.) प्राप्य, अधिगम्य २. उचित । भोगपतिः। | लमछड़, सं. पु. (हि. लंबा+छड़) लंबयष्टिः -जनरल, सं. पुं. ( अं.) अक्षौहिणीयः ।। | (स्त्री.) २. कुंतः, प्रासः ३. लंबाग्न्यस्त्रम् । सेकंड-, सं. पु. ( अं.) गुल्मपः। वि., तनुलंब । लफ़्ज़, सं. पुं. (अ.) शब्दः, पदं २. उक्तिः | लमटंगा, वि. (हिं. लंबी+टांग) दीर्घजंघ (स्त्री.), भाषणम् । (-घा, घी स्त्री.) २. दे. 'लमढींग' । -बलफ़्ज़, क्रि. वि., शब्दशः, यथाशब्द, लमढींग, सं. पु. ( देश.) सारसः, पुष्कराह्वः । अक्षरशः। लमतडंग, वि., दे. 'लंबतडंग' । लफ़्जी , वि. (अ.) शाब्द-ब्दिक । लमहा, सं. पुं. (अ.) क्षणः, पलं, निमि(मे)षः । -तर्जुमा, सं. पुं. (अ.) अक्षरश:-शब्दश: लय, सं. पुं. (सं.) एकरूपता, ऐकरूप्यं, एकी. मूलशब्दानुवर्ति-भावोपेक्षक,-अनुवादः । सदृशी,-भावः, सायुज्यं, मग्नता, लीनता -बहस, सं. स्त्री. (अ.) भावोपेक्षक-शाब्दिक, वादप्रतिवादः। २. एकाग्रता, समाधिः, अनन्यमनस्कता लफ्फाज़, वि. (अ.) वावदूक, वाचाल, २. अनुरागः, प्रेमन् (पुं. न.) ४. महाप्रलयः, बहुभाषिन्, मुखर। कल्पांतः ५. अदर्शनं, कोपः, तिरोभावः ६. सं. लफ्फाज़ी, सं. स्त्री. (अ.) वावदूकता, श्लेषः, संमिश्रणं ७. नृत्यगीतवाद्यानां साम्य वाचालता, मुखरता, जल्पकता। (संगीत) ८. मूर्छा। सं. स्त्री., स्वरोद्गमलब, सं. पुं. (फा.) अधरः, ओष्ठः, दंतच्छदः | प्रकारः (२-३) दे. 'तर्ज' तथा 'सम' । २. स्यंदिनी, लाला ३. प्रान्तः, मुखं, कंठः, लरज़ना, क्रि. अ. (फा. जरज़ा) कंप-वेप धारः, कर्णः। (भ्वा. आ. से.) २. भी ( जु. प. अ.), वि-रेज़, वि., परि-,पूर्ण, संभृत । संत्रस् (भ्वा. दि. प. से.) । लबडधोधों. सं. स्त्री. (अन.) कोलाहल: लरज़ा, स. पु. ( फ्रा.) कपः, वपयुः २. भूकपः कलकलः २. अ-कु-दुर् व्यवस्था, संकुलं, ३. *कंपज्वरः। क्रमाभावः ३. अन्यायः, अधर्मः, अनीतिः (स्त्री.) ललक, सं. स्त्री. (सं. लल = चाहना>) ४. वाक्छलं, वाग्वंचना ।। उत्कटेच्छा, लालसा, अभिलाषातिशयः। लबलबा, सं. पुं. (अनु.) क्लोमं, पङक्रिया | ललकना, क्रि. अ. (हिं. ललक ) अत्यन्तं स्पृह (अं. पेनक्रियास) । वि., चिक्कण, संलग्नशील। (चु., चतुर्थी के साथ ), अतीव अमिलष-का रस, सं. पुं., क्लोमरसः। वांछ ( भ्वा. प. से.)। लबादा, सं. पुं. (फा.) पिचकंचकः २. | ललकार, सं. स्त्री. (हिं. अनु. लेले+सं. कारः) कंचुकः। समर-, आह्वान, युद्धाय आकारणं-णा, रणनिलवार, वि. (सं. लपनं>) मिथ्याभाषिन् | मंत्रणं २. आक्रमण, उत्तेजना प्रेरणा। २. जल्पाकः, वृथालापिन् । ललकारना, क्रि. स. (हिं. ललकार ) आह्व लबालब, क्रि. वि. (फ्रा.) आ, कंठ मुखं-कर्णन् । (भ्वा. आ. अ.), ( योद्धु ) आकृ उद्दीप-उत्तिज. वि., आकर्ण, परिपूर्ण । प्रचुद् (प्रे.)। सं. पुं. तथा भाव, दे. 'ललकार' । लबी, सं. स्त्री., दे. 'राब'। ललचना, क्रि. अ. (हिं. लालच ) दे. 'लल. लबेरा, सं. पु. ( देश.) दे. 'लसोड़ा'। चाना' कि.अ. For Private And Personal Use Only Page #559 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ललचाना [५२१) लस ललचाना, क्रि. अ. (हिं. ललचना ) (अत्यन्त)। प्रिये ! कान्ते ! वल्लमे ! ३. ( बालिकासंबोधलुभ् (दि. प. से.) स्पृह् (चु.)-कम् (भ्वा. | नपदं ) ललिते ! वत्से ! कन्यके। आ. से. )-अभिलष (भ्वा. दि. प. से.) २. मुह ललौहाँ, वि. (हिं. लाल ) आ-ईषद्, रक्त(दि. प. से.) । क्रि. स., अभिलाषां जन् (प्रे.), | लोहित । प्र., लुभ् (प्रे.) २. मुह (प्रे.) वशीकृ। | लल्लो, सं. स्त्री. ( सं. ललना ) जिह्वा-रसः । । ललचौहाँ, वि. (हिं. लालच) लोलुप-भ, गृध्नु, -चप्पो, सं. स्त्री., चाटु (पुं. न.), अत्यभिलापिन्, अत्याकांक्षिन् । -पत्तो, चादृक्तिः ( स्त्री.), उपच्छंदनम् । ललन, सं. पुं. (सं.) प्रिय-ललित,बाल:- -~-पत्तो करना, मु., मिथ्या प्रशंस् ( भ्वा. प. कुमारः २. कांत:, वल्लभ: ३. ( नायकसंबोधन से.), उपछंद (चु.), चाटुभिः तुष (प्रे.)। पदं ) ललन ! प्रियवर ! ४. विहारः, क्रीडा, । लवंग, सं. पुं. (सं. न.) दे. 'लौंग' । केलि: (स्त्री.)। -लता, सं. स्त्री. (सं.) श्रीपुष्पलता (२. राधाललना, सं. स्त्री. (सं.) कामिनी, रामा | सखीविशेषः।। २. जिह्वा । लव, सं. पुं. (सं.) परम ,अणुः, लेशः, कणः, लला-ल्ला, सं. पुं. ( सं. लल> ) दे. 'ललन' कणिका, क्षुद्रखंडः, बिंदुः २. काष्ठाद्वयं, षट (१-३) २, (बालकसंबोधनपदं) अंग! त्रिंशनिमेषमितः कालः ३. श्रीरामपुत्रः, वत्स ! *ललित ! लालितक! कुशभ्रात। ललाई, सं. स्त्री. (हिं. लाल ) दे. 'लाली'। -लेश, सं. पुं. (सं.) २. अत्यल्प,-मात्राललाट, सं. पुं. ( सं. न.) अलि(ली)कं, गोधिः संसर्गः। (पुं. स्त्री.) भालं, निटि(ट)लं, दे. 'माथा' २. भाग्यं, देवम् । लवण, सं. पुं. (सं. म. ) दे. 'नमक' । सं. पुं. -पटल, सं. पुं. ( सं. न.) ललाट-मस्तक, (१-३) राक्षस-रस-समुद्र, विशेषः । लि., पढें-फलकम् । लवणित, लावणिक, दे. 'नमकीन' २. सुन्दर । -रेखा, सं. स्त्री. (सं.) भाग्यलेखः । -भास्कर, सं. पुं. (सं.) पाचकचूर्णभेदः ललाटिका, सं. स्त्री. (सं.) पत्रपाश्या, ललाटा (वैद्यक)। भरणभेदः २. ललाट, चरी-चची, भालस्थचं. लवणाकर, सं. पुं. (सं.) लवणख(खा)निः दनं, तिलक:-कम् । (स्त्री.) २. सागरः। ललाम, वि. (सं.) रम्य, सुन्दर २. रक्त, | लवनि-नी, सं. स्त्री. (सं. लवनं ) शस्य, लावःलोहित ३. श्रेष्ठ, प्रधान । सं. पुं. (सं. न.) संचयः। आभूषणं २. रत्नं ३. चिह्न ४. ध्वजः | लवलीन, वि. (सं. लयः+लीन >) व्यग्र, नि, ५. शृंगं ६. अश्वः ७-८. अश्व, भूषणं,-भाल मग्न, पर,-परायण, निरत, लीन, आसक्त, व्यावृत। चिह्न ९. प्रभावः १०. केस(श)र:-र, दे. | 'अयाल'। | लवा, सं. पुं. (सं. लवः) लावः (बः), लावललित, वि. (सं.) सुंदर, मनोहर, रम्य, | (ब)कः, लघुजंगलः। २. ईप्सित, अभीष्ट ३. लोल, चंचल, कंप्र। . लश्कर, सं. पुं. (मा.) सेना, सैन्यं, अनीकं-कला, सं. स्त्री. (सं.) कोमल-उत्कृष्ट, कला- किनी २. जन, ओधः-सनर्दः ३. शिबि (वि)रं, शिल्पं ( काव्य, संगीत, चित्रकारी इ.)। निवेश: ४. नाविका:-नौवाहाः ( बहु.)। -लोचन, वि. ( सं.) सु, नेत्र-नयन। लश्करी, वि. (फा. लश्कर ) सैनिकः, सेनाललिता, सं. स्त्री. (सं.) रमणी, सुन्दरी | संबंधिन् २. पौत-थ, हौड । सं. पु., सैनिकः २. राधिकायाः सखीविशेषः। २. नाविकः। ललिताई, सं. स्त्री. (सं. ललित> ) सौन्दर्य, भाषा, सं. स्त्री., मिश्रित-सैनिक,-भाषा २. रम्यता। दे. 'उर्दू'। लली,ल्ली, सं. स्त्री. (हि. लला-ल्ला ) प्रिय- | लशुन, सं. पु. ( सं. न.) दे. 'लहसुन' । पुत्री, ललिततनुजा २. ( नायिकासंबोधनपदं) लस, सं. पुं. (सं. लस्> ) संलग्नशीलता, For Private And Personal Use Only Page #560 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra लसक www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [ ५२२ ] श्लेषण २. संश्लेषक, लेप: द्रव्यं इलेषः, ३. आकर्षणम् । लसक, वि. (सं.) नर्तक, लासक । लसदार, वि. (हिं + का.) संलग्नशील, सांद्र, श्यान, शीन, इलेषशील । लसना, क्रि. स. (सं. लसनं> ) लेपेन संश्लिष् (प्रे.)- संयुज् (चु.)। क्रि. अ., शुभ (भ्वा. आ. से.) २. विद् (दि. आ. अ.) । लसलसा, वि. (हिं. लस ) दे. 'लसदार' । लसलसाना, क्रि. अ. (सं. लस् > ) संश्लिष् ( कर्म. ). सांद्र - श्यान - शीन (वि.) भू । लसित, वि. (स.) सुशोभित, सश्रीक २ प्रकट, स्फुट ३. क्रीडाशील । लसाला, वि. (हिं. लस ) दे. 'लसदार' २. सुन्दर । लसुन, सं. पुं. (सं. लसुनं ) दे. 'लहसुन' । लसो (सू) ड़ा, सं. पुं. (हिं. लस ) (वृक्ष) श्लेष्मांत:-तकः, पिच्छिल, भूतद्रुमः शीतः, शेलुः, उद्दालकः २. ( फल ) इलेष्मांतक - पिच्छिल, - फलं, श्लेष्मांतकं इ. । लस्टमपस्टम, क्रि. वि. ( देश. ) शनै: शनै:, मंद मंद २. यथाकथंचित्, कथं, अपि-चित् । लस्सी, सं. स्त्री. (सं. रसः > वा हिं. लयस् ) दुग्धजलं. क्षीरनीरं २. तर्क, दे. 'छाछ' ।' लहँगा, सं. पुं. (हिं. लंक + अंगा ) दे. 'घघरा' । लहकना, क्रि. अ. (अनु.) इतस्तत: धू (कर्म.) प्र-वि-चल (भ्वा.प.से.) । सं. पुं., इतस्ततः विधूननं विचलनं, धूतिः -नि: (स्त्री.) । लहकाना, क्रि. स. ब. 'लहकना' के प्रे. 'रूप' । लहकौर-रि, सं. स्त्री. (हिं. लहना + कौर ) | कवललाभः, वैवाहिकरीतिभेदः । लहजा', सं. पुं. ( अ.. ज: ) ध्वनिः स्वरः । लहज़ा, सं. पुं. (अ.) क्षण:, पलम् । लहना, क्रि. स. ( सं. लभनं ) दे. 'लेना' सं. पुं., शोध्य-प्रतिदेय, ऋणं पर्युदंचनं २. आदेय लभ्य, धनं ३. भाग्यम् । - चुकाना, मु., ऋशुध् (प्र. ) । लहर, सं. स्त्री. [सं. लहरो-रि: ( स्त्री. ) ] उल्लोल:, कल्लोलः, ऊर्मि:-वीचिः (पुं. स्त्रां.), भंगः, दे. 'तरंग' । २. आ, वेगः, भाव, आवेशः ३. कामचारः, छंदः ४. सर्पदंशनमूर्च्छा ] लहू पीडादीनां पुनःपुनर्भवो वेगः ५. प्रति शब्दः - ध्वनिः ६. आनन्दलहरी, आनन्दातिशयः ७. जिह्म-वक्र कुटिल, गतिः (स्त्री.) ८. दे.. 'लपट' (४) । - बहर, सं. पुं. (हिं. + अ. ) आनंदमंगलं,. सौभाग्यं, अभ्युदयः । लहरना, क्रि. अ., दे. 'लहराना' क्रि. अ. । लहराना, क्रि. अ. (हिं. लहर ) इतस्तत: प्र- वि-चल् (भ्वा. प. से.), धू ( कर्म.), प्रकंप् ( भ्वा. आ. से. ), तरंगति-तरंगायते ( ना. धा. ), २. सर्पवत् व्रज् (भ्वा. आ. से. ) २. (चित्तं ) उल्लस् (भ्वा. प. से. ) ४. विराज (भ्वा. आ. से.)। क्रि. स. ब. 'लहराना " क्रि. अ. के प्रे. रूप । सं. पुं., धूतिः, धूनि:(स्त्री.), इतस्ततः विचलनं विधूननं - कंपनम् । लहरिया, सं. पुं. (हिं. लहर ) वक्ररेखावृंद २. वक्ररेखांकितवस्त्रं, *लहरीयः ३. तरंगः । -दार, वि. (हिं. + फा . ) वक्ररेखा, युत-अंकित, ममत, भंगिमत् । लहरी, सं. स्त्री. (सं.) तरंग:, दे. 'लहर' (१)। वि. (हिं. लहर ) स्वेच्छा, काम, चारिन्, आनंदिन् । लहलहा, वि. (हिं. लहलहाना ) स्फुटित, विकसित, सपत्रपुष्प, हरित, सरस, विकच २. आनंदित, मुदित ३. पुष्ट । लहलहाना, क्रि. अ. (हिं. लहरना) दे. 'लहराना' (१)। २. पत्रित पुष्पित- हरितसरस (वि.) जन् (दि. आ. से. ) ३. स्फुट्... ( तु.प.से.), विकस्-फुल्लू (५ा.प.से.) ४. मुदू (भ्वा. आ. से. ), हृप् (दि. प. से.) । लहलहाहट, सं. स्त्री. (हिं. लहलहाना ) धूति:-धूनि : (स्त्री.), इतस्ततो विचलनं, दोल:२. सरसता, विकचता, प्रफुल्लता, विकासः । लहसुन, सं. पुं. [ सं . लशु (शू) न:-नं ] रसु(सो) नः, महौषधं, महा-म्लेच्छ, कंदः, गृ'जन:-- नं, अरिष्टं, उग्रगंध:, भूतघ्नः । लहसुनिया, सं. पुं. (हिं. लहसुन ) धूम्ररत्न-भेदः, रुद्राक्षकं, वैदूर्यम् । लहू, सं. पुं. (सं. लोह :- हं) लोहितं दे. 'रक्त' । का प्यासा, वि., रक्तपिपासु, जिघांसु । की कै, सं. स्त्री, रक्त, वमनं छर्दिका -के घूँट पीना, मु., यथाकथंचित् सह् । (भ्वा. आ. से. ) । For Private And Personal Use Only Page #561 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir लांग [५२३ ] लाज -लुहान होना, मु., लोहितक्लिन्न-रुधिर-। (-क्तकः), द्रुम,-आमयः-व्याधिः, मुद्रिणी, स्नात-रक्तरंजित-शोणशोण (वि.) भू। जंतुका २. रक्तवर्णः कृमिभेदः। । लांग, सं. स्त्री. (सं. लांगूलं> ) कच्छ:-च्छं, -चपड़ा, सं. स्त्री., पत्रकलाक्षा। कच्छ(च्छा)टिका, कच्छाटी, कक्षा, दे. 'काँछ। लाख, वि. (सं. लक्षं) नियुतं, अयुतदशकं, -खुलना, मु., अत्यर्थ भी (जु. प. अ.), सहस्रशतकं २. असंख्य, अगण्य । सं. पुं. (सं.. साहसं धय मुच् (तु. प. अ.)। न.) उक्ता संख्या, तदंकाश्च (D२०००००)। लांगल, सं. पु. ( सं. न.) दे. 'हल' । क्रि. वि., असकृत, अनेकवारं, बहु, अधिकम् । लांगली, सं. पुं. (सं-लिन् ) बलरामः २. सर्पः। -टके की बात, मु., अत्युपयोगिवार्ता । लांगूल, सं. पुं. (सं. न.) पुच्छं २. शिश्नम् । -से खाक होना, मु., वैभवात् दारिद्रय उपलांगूली, सं. पुं. (सं.-लिन्) कपिः, वानरः। इ ( अ. प. अ.), वित्ततः परिक्षि ( कर्म.)। लाधना, क्रि. स. (सं. लंघनं) लंघ (चु.), लाखा, सं. पु. (हिं. लाख ) ओष्ठरंजको लाक्षि अतिक्रम् (भ्वा. दि. प. से.), तु (भ्वा. प. | करगः। से.) २. उत्प्लुत्य लंघ ( भ्वा. आ. से., चु.)। लाखी, सं. स्त्री. (हिं. लाख) लाक्षिकरंगः । वि., सं. पुं. तथा भाव, अतिक्रमणं, लंबन, तरणं, | लाक्षिक, लाक्षा,-निमित-रंजित-वर्ण-संबंधिन् । उत्प्लुत्य लंघनम् । लाग, सं. स्त्री. ( हिं. लगना ) संपर्कः, संसर्गः, लांछन, सं. पुं. ( सं. न.) कलंकः, दोषः, दूषणं, । संबधः २. प्रेमन् (पुं. न.), अनुरागः अपकीर्तिचिह्न २. चिह्न, लक्षण. लक्ष्मन् (न.), २. अभिनिवेशः, आसक्तिः ( स्त्री.) ४. युक्तिः लिंगम् । (स्त्री.), उपायः ५. इंद्रजालं, माया ६. प्रति. —लगाना, दुध् (प्रे.); कलंकयति, यशो मलि- योगिता, स्पर्धा ७. वैरं, शत्रुता ८. अभिचारः नयति ( दोनों ना. धा.)। ९. भूमिकरः १०. धातुभस्मन् (न.), दे. लाइन, सं. स्त्री. (अं.) पंक्तिः (स्त्री.)। 'भस्म' ११, *लागम् । २. रेखा ३. लोहमार्गः, ४. पत्तिसेना ५. दे. -डाँट, सं. स्त्री. (हिं.) वैरं, द्वेषः २. प्रति, "बारक' । योगिता-स्पर्धा। -डोरी, सं. स्त्री., दे. 'पेशलोमा' । -लपेट, सं. स्त्री. (हिं.) पक्षपातः, पक्षपातिता,, ला, अ. (अ.) विना, न, ऋते (सब अव्य.)। समदृष्टयभावः ( स्त्री.) २. मनोगुप्तिः संवृतिः -इलाज, वि. (अ.) असाध्य, निरुपाय, | (स्त्री.)। अचिकित्स्य, अप्रतिकार्य। लागत, सं. स्त्री. (हिं. लगना) व्ययः, विनि-~-इल्म, वि. (अ.) निरक्षर, शिक्षाशून्य, | योगः, विसर्जनं २. मूल्यं, अर्घः, अरे । विद्याविहीन, अज्ञ। -आना या बैठना, क्रि. अ., मूल्येन क्री-ग्रह लाइट, सं. स्त्री. ( अं.) प्रकाशः, आलोकः। । (कर्म.) २. व्ययेन सपद्-साध ( कर्म.)। -हाउस, सं. पु. ( अं.) प्रकाश-स्तम्भ:- लाघव, सं. . ( सं. न.) दे. 'लघुता' (१-५) । गृहम्, आकाशदीपः, दीपस्तम्भः । ६. क्षिप्रता, द्रुतता, दक्षता ७.. क्लीबता लाकड़ा काकड़ा, सं. पुं., दे. 'माता(छोटी)। । ८. आरोग्यम् । लाक्षणिक, वि. (सं.) लक्षणागम्य (अर्थ), लाक्षण लाचार, वि. (फा.) विवश, निरुपाय, २. लक्षणश, लाक्षण्य ३. गौण, अप्रधान | अगतिक । क्रि. वि., विवश-निरुपाय-अगतिक, ४. लक्षणसंबंधिन्। तया। लाक्षा, सं. स्त्री. (सं.) कीटजा, जतुका, दे. लाचारी, सं. स्त्री. (फ़ा.) विवशता, अगतिकता। 'लाख'। लाची, सं. स्त्री., दे. 'इलायची'। -गृह, सं. पुं. ( सं. न.) पांडवदाहाथै दुर्योध- लाज, सं. स्त्री. (से. लज्जा) दे. 'लज्जा' (१-२)। ननिर्मापितो जतुगृहविशेषः । -आना या करना, क्रि. अ., दे. 'लज्जित -रस, सं. पुं. (सं.) दे. 'महावर'। होना। लाख), सं. स्त्री. (सं. लाक्षा) राक्षा, यावः, -रखना, मु., प्रतिष्ठां रक्ष (भ्वा. प. से.), यावकः-कं, जतुक-का, जतु (न.) रक्ता, अलक्तः अपमानात् त्रै (भ्वा. आ. अ.)। For Private And Personal Use Only Page #562 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir लाजवंत [ १२४ ] लामा - लाजवंत, वि. (सं. लज्जावत्) दे. 'लज्जाशील' ।। लाड़ला, वि. (सं. लाड:> ) उप., लाडि(लि). लाजवंती, वि. (हिं. लाजवंत ) लज्जावती, त, चुबित, आलिंगित, प्रेम-लालन,-आस्पदंहोमती। सं. स्त्री., लजालुः (पुं. स्त्री.), पात्रं-भाजनं, प्रिय, अभिमत । संकोचिनी, स्पर्शलज्जा, महाभीता, महौषधिः । अत्यधिक-, वि., दुर्ललित, अतिलालित, (स्त्री.), रक्त,पादी-मूला।। लालन्दृपित। लाजवर्द, सं. पुं. (फा., मि. सं. राजावर्तः) । लाड़ा, सं. पुं. (हिं. लाड़) दे. 'वर' । नृपावर्तः, आवर्तमणिः २. (विदेशीय) नीलम् । लाड़ी, सं. स्त्री. (हिं. लाड़ा) दे. 'वधू' । लाजवदी, वि. (फा.) नीलवर्णः, आ-ईषत्-नील। लात, सं. स्त्री. ( देश.) जंघा, जावनी, प्रसृता लाजवाब, वि. (अ.) निरुत्तर, मूकी,-कृत- २. पादः, चरण:-णं, पदं ३. जंघा-पाद, प्रहारः भूत, वादे पराजित ३. अनुपम, अतुल । आघातः ४. खुर-पाष्णि,क्षेपः-आघातः। लाजा, सं. स्त्री. [सं. लाजा: (पुं. बहु.)] -चलाना, मु., पादेन-जंघया प्रह (भ्वा. प. अक्षताः (पुं. बहु.)२.तंडुलः । अ.)-तड (चु.)। लाज़िम, वि. (अ.) आवश्यक, अवश्य कर्तव्य -जाना, मु., ( गौ भैंस आदि ) दुग्धं न दद् २. उचित, युक्त। (भ्वा. आ. से.)। लाज़िमी, वि. ( अ. लाज़िम ) दे. 'लाज़िम'। -मारना, मु., तुच्छं मत्वा त्यज् (भ्वा. लाट', सं. पुं. (अं. लॉर्ड) शासकः, शासित प.अ.)। २. भोगपतिः, प्रांताध्यक्षः।। लाद, सं. स्त्री. (हिं. लादना) दे. 'लादना' लाटर, सं. स्त्री. (हिं. लटठा) स्तंभः, मेठिः । सं. पुं. २. उदरं ३. अंत्रम् । थिः, यूपः। लादना, क्रि.स. (हिं. लदना ) भारं न्यसलाट, सं. पुं. ( सं. बहु.) प्रांतविशेषः (गुज- (दि. प. से.), निधा (जु. उ. अ.)-आरुह् रात, अहमदाबाद के आसपास ) २. लाट (प्रे.)-निविश् (प्रे.), भाराक्रांतं कृ, भारेण प्रांतवा सिनः (बहु.) ३. ( लाटः ) अनुप्रास- | पूर (चु.) ३. रामा कु, समान पूर (चु.) ३. राशी कु, समा-चि (स्वा.उ.अ.)। भेदः (सा.) ४. जीर्णवसनभूषणादिकं | सं. पुं. भ(भा)र,न्यासः-निवेशन-आधान५. वसनानि-वासांसि (न, बहु.) ५. पंडितः । आरोपणम् । लाटरी, सं. स्त्री. ( अं.) गुटिकापातः, पाटकः, लादनेवाला, सं. पुं. भ(भा)र,-आरोपक:-नि*लात्री। वेशकः। लाटानुप्रास, सं. पुं. (सं.) शब्दालंकार भेदः | लादवा, वि. ( अ.) दे. 'लाइलाज'। (सा.)। लादा हुआ, वि., भार, अस्त-आक्रांत, आरोपित. लाटिका, लाटी, सं. स्त्री. (सं.) रीतिभेदः निदेशित-स,-भार। (सा.) २. प्राकृतभाषाविशेषः। | लादी, स्त्री. (हिं. लादना) भारः, पोटलिका । लाठ, सं. पुं., दे. 'लाट' (१-२)। लादू, वि. (हिं. लादना ) दे. 'लद्दू'। लाठी, सं. स्त्री. (सं. लकुटयष्टी> ) यष्टिक:- लानत, सं. स्त्री. ( अ. लअनत ) धिक्कारः, का, यष्टी-टि: (स्त्री.), पांडः, लगुडः, दंडः, | न्यक्कारः, निर: भर्त्सनं-ना, अधिक्षेपः, गरे । पशुध्नः २. वेत्रं, वेत्राष्टिः (स्त्री.)। -मलामत करना, क्रि. स., निर्भत्स (चु. -चलना, मु., दंडादंडि जन (दि. आ. से.)।| आ. से.), अधिक्षिप् (तु. प. अ.)।। -टेक के चलना, मु., यष्टिमवलंब्य दंडाश्रयेण | लानती, सं. स्त्री. ( अ. लानत>) निंद्य, गर्छ, .चल (भ्वा. प. से.)। निर्भर्त्सनीय, दुष्ट, खल। -बाँधना, मु., यष्टिं धृ (चु.)। लाना, क्रि. स. (हिं. लेना+आना ) आनी लाड़, स. पु. (सं. लाडः) लाडनं, उप-,लालनं, (भ्वा. प. अ.), उपा-आ,-हृ (भ्वा. प. अ.), २. परिष्वंगः, आलिंगनं, परिरंभणं ३. चुंबन, आवह् ( भ्वा. प अ.) २. उपस्था (प्रे.), पुरो निसनं ४. क्रोडीकरणम् इ.। निधा (जु. उ. अ.), उपन्यस् (दि. प. से.) -करना, क्रि. स., लल-लड-लाड (चु.), ३. उपह ( भ्वा. प. अ.), सम्-ऋ (प्रे.), चुंब-आलिंग ( भ्वा. प. से.), क्रोडीकृ इ.। | उपायनं दा ४. उत्पद्-जन् (प्रे.)। सं. पुं., For Private And Personal Use Only Page #563 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir लाने योग्य लाला आनयनं, आ-उपा-हरणं, आवहनं, उपस्थापन, । लाल, सं. पु. ( फ़ा.) पद्मरागः, दे. 'माणिक्य' उत्पादनं इ.। वि., रक्त, लोहित, शोण । लाने योग्य, वि., आनेय, उपाहार्य, उपस्थाप्य। -आलू , सं. पु., दे. 'रतालू' २. दे. 'अरुई। लानेवाला, सं. पुं., आनेतृ, आ-उपा,-हर्तृ- | -इलायची, सं. स्त्री., दे. 'इलायची' (बड़ी)। हारकः। -कुर्ती, सं. स्त्री., आंग्लसैन्यनिवेशः, शिबिलापता, वि. (अ. ला+हिं. पता) अलभ्य, | (वि)रम् । अदृश्य, तिरोहित, अन्तहित, गुप्त, प्रच्छन्न, /-चंदन, सं. पुं., रक्त-कु-देवी, चंदनं, रंजनं, अज्ञातवास। दे. 'चंदन' में। लापरवा-वाह, वि. (अ. ला+फा. परवाह )|-पानी, सं. स्त्री., सुरा, मद्यम् । निश्चित, अनवहित, प्रमत्त, प्रमादिन। |-पेठा, सं. पुं., दे. 'कुम्हड़ा'। लापरवाही, सं. स्त्री. ( अ.+फ्रा.) निश्चितता, -बुझक्कड़, सं. पुं., पंडितं-प्राशं,-मन्यः, प्राशअनवधानता, प्रमत्तता, प्रमादः । पंडित,-मानिन्-अभिमानिन्-वादिन् । लाफ, सं. स्त्री. (फ्रा.) आत्म-स्व,श्लाघा -मिर्च, सं. स्त्री., दे. 'मिर्च' में। प्रशंसा, विकथनम् । -मूली, सं. स्त्री., दे. 'शलजम' । -जन, वि., आत्मश्लाघिन्, विकत्थनशील। -शक्कर, सं. स्त्री., दे. 'खाँड' । --ज़नी, सं. स्त्री., आत्मश्लाघिता, विकत्थन -सागर, सं. पुं., रक्तसागरः। शीलता। -सुख, वि., अग्निरूप, अंगारवर्ण, अतिलोहित लाफिंग गैस, सं. स्त्री. ( अं.) हसनवातिः २. अति,-कुपित-संरब्ध । -पीला होना,-पीली आँखें निकालना, मु., (स्त्री.)। लाभ, सं. पुं. (सं.) अव-प्र,-आप्तिः, उप-, । अत्यंतं कुप् (दि. प. से. )-क्रुध (दि. प. लब्धिः ( दोनों स्त्री.), अधिगमः-मनं, आ | अ.), संरभातिशयेन लोहितलोचन-रक्तवदन सादनं ३. फलं, आयः, उदयः, वृद्धि: (स्त्री.), | (वि.)भू। लभ्यं ३. कल्याणं, उपकारः, हितम् । | लालच, सं. स्त्री. (सं. लालसा ) लोलुपता, दे. 'लोभ' । -उठाना, क्रि. अ., लाभं अधिगम्, अर्ज | लालची, वि. (हिं. लालच) लोलुप, दे. 'लोभी' । (भ्वा. प. से., प्रे.), लभ (भ्वा, आ. अ.) लालटेन, सं. स्त्री. ( अं, लैंटर्न) प्रदीपः-पकः, समासद् (प्रे.), विद् (तु. उ. वे.)। । प्रदीपकोशः(षः)। --दायक, वि. (सं.) लाभ,-कारक-कारिन्- | लालड़ी, सं. स्त्री. (फा. लाल ) मिथ्यामाजनक-प्रद, गुणकारिन, हित, हितकर, फल- | णिक्यं कृतकलोहितकम् । दायक, उपयोगिन् । लालन', सं. पुं. (सं. न.) दे. 'लाड' सं. पुं.। लाभालाभ, सं. पुं. ( सं.-भौ द्वि.) आयापायो, | -पालन, सं. पुं. (सं. न.) पालन-भरण, अधिगमापगमौ, वृद्धिक्षयौ, उपचयापचयौ। । पोषण, संवर्द्धनं, भरणं, रक्षणम् । लास, सं. पुं. (फा. लाम) संन्य, सेना | लालन२, सं. पुं. (हिं. लाला ) प्रिय-लालित, २. जनौधः ३. युद्धम् । पुत्रः कुमारः २. बालकः। लामजहब, वि. (अ.) धर्मविमुख, नास्तिक । | लालसा, सं. स्त्री. (सं.) उत्कटेच्छा, लिप्सालायक, वि. (अ.) योग्य, क्षम, समर्थ, शक्त | । आकांक्षा-वांछा-स्पृहा-इच्छा-अभिलाष,-अति२. अनुरूप, अनुकूल, उपयुक्त ३. गुणिन्, | शयः २. उत्कंठा, उत्सुकता ३. गर्भ-दोहदः । गुणवत्, सुशील, श्रेष्ठ, भद्र। लाला', सं. पुं. (सं. लालकः>) महाशयः, लाया हुआ, वि., आनीत, आ-उपा,-हृत, उप. | महोदयः, श्रीमत, श्रीयुतः २. (क्षत्रियवैश्यानां स्थापित, उपन्यस्त । संबोधनं) श्रीमन् ! महोदय ! श्रेष्ठिन् ३. कायलार, सं. स्त्री. ( सं. लाला ) दे. 'राल' (२)। । स्थः ४. शिशुः, बाल: ५. (बालसंबोधनपदं) लार्ड, सं. पुं. (अं.) जगदीशः २. स्वामिन् | वत्स ! अंग ! ललित ! लालितक ! ६. पितृ, ३. क्षेत्रपतिः ४. आंग्लदेशे उपाधिभेदः । । जनकः। For Private And Personal Use Only Page #564 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir लाला [५२६ ] लिखना -भैया करना, मु., सादरं संभाष ( भ्वा. आ. | ( मनुष्य) २. अदायिक, स्वाभि-प्रभु, हीन से.)-संबुध् (प्रे.) २. लड-लस् (चु.)। (धन)। लाला, स. स्त्री. (सं.) मुखत्रावः, दे.| -माल, सं. पुं. (अ.) अदायिक-स्वामिहीनं, ‘राल'(२)। रिक्थं-द्रव्यं धनम् । लाला', सं.पुं. (फा.) खस्खस-खसतिल,-पुष्पम् । | लाश, सं. स्त्री. (फा.) दे. 'शव' । लालाटिक, वि. (सं.) ललाट-भाल,-संबंधिन् लासा, सं. पुं. (हिं. लस) संश्लेषक, द्रव्यं-लेपः २. दैव,-आयत्त-निर्दिष्ट ३. सावधान। सं. पुं., २. द्रुमदुग्धं, क्षुपक्षीरम् । सावधानः सेवकः २. अलसः । -लगाना, मु., प्र-वि,-लुभ (प्रे.), प्रतृ-वंच् लालायित, वि. (स.) अत्यभिलाषिन्, अ. | न अ. (प्रे.) २. उत्तिज-उद्दीप् (प्रे.) ३. संश्लेषक द्रव्येण खगान बंध (क्र. प. अ.)। त्याकांक्षिन्, अत्युसुक, लालस। लासानी, वि. (अ.) अनुपम, अप्रतिम, लालित, वि. (सं.) लाडित, चुंबित, आलिंगित, अद्वितीय। क्रोडीकृत, प्रिय २. संवर्द्धित, पोषित । | लास्य, सं. पुं. (सं. न.) नृत्यं २. भाव-ताललालित्य, सं. स्त्री. (सं. न.) सौंदर्य, मनोज्ञता, | ___ लय-आश्रयं-नृत्यं ३. स्त्रीनृत्यं ४. तौर्यत्रिकम् । मनोहरता, छविः (स्त्री.), माधुर्यम् । | लाहौरी नमक, सं. पुं. (हिं.+i.) दे. 'सेंधा लालिमा, सं. स्त्री. ( फ़ा. लाल ) दे. 'लाली' । नमक' ( नमक के नीचे )। लाला, सं. स्त्री. ( फ़ा. लाल) रक्तत्वं-ता, लिंग, सं. पुं. (सं.) चिह्न, लक्षणं, अभिज्ञानं, लौहित्य, रक्तिभन्-लोहितिमन्-अरुणिमन् (पं.), लक्ष्मन् (न.) २. अनुमानकारणं, साधकअरुणता, लोहितता-त्वं, २. सम्मानः, प्रतिष्ठा हेतुः ३. मूल प्रकृतिः (स्त्री., सां.) ४. मेढ़:३. प्रिय, कन्य(न्यि)का-कुमारिका। ढ़, दे. 'लिंगेंद्रिय' ५. शिवमूर्ति-भेदः ६. शब्दलाले, सं. पुं. (सं. लाला> ) लालसा, उत्क रूपभेदः (व्या.) ७. पुराणविशेषः । टेच्छा। -देह, सं. पुं. (सं.) सूक्ष्म-लिंग, शरीरं ( १० (किसी चीज़ के.)-पड़ना, मु., अतिलालायित इन्द्रियाँ, ५ तन्मात्रा, मन, बुद्धि=१७ तत्त्व )। (वि.) भू , अत्यंत स्पृह (चु., चतुर्थी के साथ) -पुराण, सं. पुं. (सं. न.) शैवानां पुराण२. दुर्लभ-दुष्प्राप (वि.) वृत् (भ्वा. आ. से.), विशेषः। कृच्छेण लभ-प्राप् (कर्म.)। -वृत्ति, सं. पुं. (सं.) धर्मध्वजिन् , दांभिकः, लाव', सं. पुं. (सं.) कर्तनं, कृतनं, लवनं, लिंगिन् । छेदनम् २. लवः, लावकः, लघुजंगलः। -स्थ, सं. पुं. (सं.) ब्रह्मचारिन् । लाव.सं. स्त्री. ( देश.) दे. 'रस्सा, रस्सी'। लिंगेंद्रिय. सं. पं. ( सं. न.) शेफः शिश्न:लावक, सं. पुं. (सं.) लवः, लावकः, लघु-| नं, लिंग, उपस्थ:-स्थं, शेफस (न.), रागजंगलः २. छेदकः, छेत्तु, छेदकरः,-छिद्। | काम,-लता मेढ़:-द, मेहनं, शंकुः, काम-मदन, काम-लता मेटा लावण्य, सं. पुं. (सं. न.) लवणता-त्वं, क्षारता | अंकुशः, ध्वजः, कंदपमुषलः । २. विशिष्ट-सौंदर्य-रूपं, छविः (स्त्री.), चारुता, | लिंगोटी, सं. स्त्री., दे. 'लँगोटी'। श्रीः-कांतिः (स्त्री.)। | लिंट, सं. पुं. (अं.) व्रणोपयोगी श्लक्ष्णवस्त्रभेदः। लावनी, सं. स्त्री. (देश.) (१-२) छन्दो- लिंफ, सं. पुं. (अं.) देहरसः। गीतिका,-भेदः, *लावणी। लिए, अव्य. ( कारकचिह्न) (सं. लग्न या कृते) लावलशकर, सं. पुं. ( हिं+फा.) सपरिच्छदं | -अथै,-अर्थे-अर्थाय, कृते,-हेतोः, (प्रायःचतुर्थी सैन्यम् । विभक्ति, से, उ. राम के लिए रामाय )। लावल्द, वि. (अ.) निस्संतान, निरपत्य। लिखत, सं. स्त्री. ( सं. लिखितं ) लेखः, लिपिलावा', सं. पुं. (सं. लावः-बः) दे. 'लवा'। बद्ध-अक्षरांकित, विषयः २. लिखितपत्रं लावा, सं. पुं. (अं.) ज्वालामुखी-आग्नेय, ३. लिखितं दे. 'दस्तावेज़'। उद्गारः। लिखना, क्रि. स. (सं. लिखनं ) लिख (तु. लावारिस, वि. ( अ. ) अदायाद, दायादरहित । प. से.), लेखे वर्ण (चु.)-प्रतिपद् (प्रे.), For Private And Personal Use Only Page #565 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir लिखने योग्य [ ५२७ ] लियाकत चित्रणम् । पत्रे आरुह-निविश् (प्रे.), लिपिबद्ध (वि.)। आश्लिष् , परि,स्वंज् (भ्वा. आ. अ.), कृ. २. ( ग्रंथादि), प्रणी (भ्वा. प. अ.), उपगुह् ( भ्वा. उ. से.) २. लीन-मग्न-व्यापृतरच (चु.), निर्मा (जु. आ. अ.; अ. प. अ.), निरत-परायण (वि.) भू। सं. पुं., आसंगः, ग्रंथ ( क्र. प. से.), नि-प्र,-बंध् (क्र. प. अ.)। परिलगनं, श्लेषः २. आलिंगनं, परिरंभण, ३. वर्ण (चु.), आ-अभि,-लिख , चित्र (चु.)। परिष्वजनम् । सं. पुं.. लि(ले)खनं, पत्रे आरोपणं-निवेशनं | लिपटनेवाला, सं. पुं., आसंगिन्, संलग्नशील: २. रचनं, निर्माणं, प्रणयनं ३. आलिखनं, २, आलिंगनकर्तृ, परिरंभकः ३. आलिंगित। लिपटाना, क्रि. स., ब. 'लिपटना' के प्रे. रूप । लिखने योग्य, वि., लेख्य, लेखनीय, ! लिपटा हुआ, वि., परिलग्न, संसक्त, उपगूढ । लेखाई इ.। | लिपड़ी, सं. स्त्री. (सं. लेपः>) उपनाहः, लिखने वाला,.. पुं., दे. लेखकः। उत्कारिका, प्रलेपः। लिखवाई, सं. स्त्री., दे. 'लिखाई' (४)। लिपना, क्रि. अ., ब. 'लीपना' के कर्म. के रूप। लिखवाना, क्रि. प्रे., ब. 'लिखना' के प्रे. रूप । लिपवाना, लिपाना, क्रि. प्रे., व. 'लीपना' के लिखाई, सं. स्त्री. (हिं. लिखना) लिखनं, प्रे. रूप। लेखनं, अक्षरविन्यासः २. लिपिः ( स्त्री.)-पी, लिपाई, सं. स्त्री. (हिं. लीपना) प्र-वि-लेप:अक्षर रचना ३. लि(ले)खन,रीतिः ( स्त्री.) लेपनं, उपनाहनं, लिपः, लिपः, लिपी-पिः शैली ४. लि(लेखन, भृतिः ( स्त्री.)। (स्त्री.) २. लेपन-भत्या-कर्मण्या-भर्मण्या। -पढ़ाई, सं. स्त्री., विद्याभ्यासः, शिक्षा, लिपि, सं. स्त्री. (सं. लिपी-पिः, स्त्री.) लिपिका, लिखनपठनम् । लिबी-बिः-विः (स्त्री.), अक्षर,-विन्यासःलिखाना, क्रि. प्रे., ब. 'लिखना' के प्रे. रूप। | संस्थान-रचना, लिखितं, लि(ले)खनम् ।। -पढ़ाना, मु., शिक्ष (प्रे.), विद्याभ्यासं कृ | -कर, सं. पुं. (सं.) लेपकः, लेपकारः, पलगंडः, (प्रे.)। लिंपः. लिपिकरः २. लेखकः, पंजिकारः, लिखापढ़ी, सं. स्त्री. (हिं. लिखना+पढ़ना)| लिपिकारः। लेख-पत्र, व्यवहारः २. लिखितेन दृढीकरणम् । -कार, सं. पुं. (सं.) दे. 'लिपिकर'(२)। लिखावट, सं. स्त्री. (हिं. लिखना) लिपी-पिः -बद्ध, वि. (सं.) लिखित, अक्षरांकित, (स्त्री.), अक्षर,-विन्यासः-संस्थानं २. लेख- लेखनिवेशित। लेखन, प्रणाली-शैली। -सजा, सं. स्त्री., लेख,-साधनानि-उपकरणानि लिखा हुआ, वि. लिखित, लिपिबद्ध, लेख्यापित | (न. बहु.)। २. रचित, प्रणीत, निर्मित ३. चित्रित। | लिप्त, वि. (सं.) चर्चित, दिग्ध, लेपान्वित, लिखित, iव. (सं.) लेख-लिपि,-बद्ध, अंकित, | २. मग्न, लग्न, निरत, आसक्त, लीन । लेख्य, कृत-आरूद सं. पुं. (सं. न.) लि(ले)- लिप्सा , सं. स्त्री. (सं.) इच्छा, अभिलाषः, खन, लेखः २. लिपी-पिः ( स्त्री.) ३. लिखित, | ईप्सा २. लोभः, लोलुपता। । दे. 'दस्तावेजा ४. प्रमाणपत्रम् । लिप्सु, वि. (सं.) इच्छु-च्छुक, अभिलाषिन् -पाठक, सं. पुं. (सं.) हस्तलेख, पाठकः- __२. लोलुप-भ, गृध्नु। अध्येत। लिफ़ाफ़ा, सं. पुं. (अ.) पत्र,-पुट:-कोषः-आवे. लिटमस, सं. पुं. ( अं.) शेवलम् । टन-आवरणं २. आपातरमणीयवेशः ३. आडंलिटाना, क्रि. स., ब. 'लेटना' के प्रे. रूप। बरः ४. भंगुर-भिदुर, पदार्थः । लिथड़ना, क्रि. अ., ब. 'लथेड़ना' के कर्म. -खुलना, मु., रहस्यं विवृ (कर्म.), स्वरूप के रूप। प्रकटीभू। लिपटना, क्रि. अ. (सं. लिप्त>), आ-प्र-सं, -बनाना, मु. आडंबरं रच (चु.)। संज् (भ्वा. प. अ.), सं-परि, लग (भ्वा. प. लिबास, सं. पु. ( अ.) दे. 'वेश' । से.) संसक्त-परिलग्न (वि.) भू, श्लिष् | लियाकत, सं. स्त्री. (अ.) योग्यता, क्षमता (दि. प. अ.) २. आलिंग (भ्वा. प. से.), J २, गुणः, कला ३. सामर्थ्य ४. शीलम् । For Private And Personal Use Only Page #566 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir लिवाना [ ५२८ ] लुआक -पीटना. मु. दे. 'लकीर' के नीचे। लिवाना, क्रि.., ब. 'लेना' तथा 'लाना' के। उपनह (दि. प. अ.), अंज् (रु. प. वे.)। सं. पुं., अनु-प्र-वि, लेपः लेपनं; उपनाहनं, लिवा लाना, क्रि. स., सह आनी (भ्वा.प.अ.)। उपदेहनम् । लिसोड़ा, सं. पुं., दे. 'लसोड़ा। -पोतना, क्रि. स., शुध् (प्रे.), संस्कृ. । लिहाज़, सं. पुं. (अ.) अवेक्षणं. अवधानं लीपनेवाला. सं. पं. लेपकः. पलगंड: २. कृपा-दया, दृष्टिः, (स्त्री.) अनुग्रहः ३. पक्ष- २. उपदेहकः। पातः-तिता ४. लज्जा, त्रपा ५. प्रतिष्ठा-मर्यादा, हीपा हआ, वि., प्र-वि-लिप्त, दिग्ध, अक्त। विचारः ६. शीलसंकोचः। लोमू , सं. पुं. ( फा.) दे. 'निंबू' । -करना, किं. अवधा (जु. उ. अ.) २. आदृ | लीला, सं. स्त्री. (सं.) क्रीडा, केलिः ( स्त्री.), (तु. आ. अ.) ३. अनुग्रह (क्र. प. से.)। खेला, खेलनं, कूर्दनं, क्रीडनं २. विहारः, ४. मर्यादां पा (प्रे. पालयति)। विनोदः, रंजनं ३. शृङ्गारभावचेष्टा, विलासः, लिहाज़ा, अ. (अ.) अतः, अत एव (दोनों काम, क्रीडा-कलिः (स्त्री.) ४. हावभेदः (सा.) अव्य.)। ५. विचित्रव्यापारः, रहस्यकृत्यं ६. चरित्रालिहाफ़, सं. पुं. ( अ.) दे. 'रजाई। भिनयः ( उ. रामलीला इ.)। लीक, सं. स्त्री. (सं. लेखा ) रेषा-खा, दंडाकार | -गृह, सं. पुं. (सं. न.) विलास-क्रीडा,लिपी-पिः (स्त्री.) २. (शकटादीनां) चक्र भवनम्। मार्गः ३. दे. 'पगदंडी' ४. यशस् (न.), -पुरुषोत्तम, सं. पुं. (सं.) श्रीकृष्णः । प्रतिष्ठा ५. रीतिः (स्त्री.), लोकाचारः, प्रथा -स्थल, सं. पुं. (सं. न.) क्रीडाभूमिः (स्त्री.), ६. कलंकः, लांछनं ७. गणनाचिह्नम् । लीलावती, वि. स्त्री. (सं.) विलासिनी । -पर चलना, बनाने सं. स्त्री. (सं.) भास्कराचार्यभार्या २. गणित ग्रन्थविशेषः ( ३-४ ) रागिनी-छंदो, भेदः । -से बेलीक होना, मु., पथभ्रष्ट (वि.) भू,लंगी. सं. स्त्री. (हिं. लांग) *निष्कच्छ, रूढिं त्यज (भ्वा. प. अ.)। शाटी-धौतिका २. रेखोष्णीषः-षं, चित्रशिरोलीख, सं. स्त्री. (सं. लीक्षा ) लिक्षा, यूकांडं, | वेष्टनम् । लि(ली)का, लिख्यः। लुंचन, सं. पुं. (सं. न.) उत्पाटनं, उद्धरणं, लीचड़, वि. ( देश.) अलस, मंद, मंथर उत्कर्षणं, २. पृथक् करणं, अपनयनं ३. कर्तनं २. संलग्नशील, दृढ़ग्राहिन् ३. कृपण, कदर्य । छेदनम्। -पन, सं. पुं., आलस्यं, कार्पण्यं, संलग्न | लुंज-जा, वि. ( सं. लुंचनं>) करचरणविहीन, शीलता। लीची, सं. स्त्री. (चीनी-लीचू ) अलीचिका, | अपांग, व्यंग, विकल, विकलांग, श्रोण। सं. फलभेदः। पुं., स्थाणुः, ध्रुवः, शंकुः, अपत्रपादपः । लीडर, सं. पुं. ( अं.) दे. 'नेता'। लुंठक, सं. पुं. (स.) लुटा(ठा)कः, दे. 'लुटेरा'। लीद, सं. स्त्री. ( देश.) (गजाश्वादीनां ) अव- | लुंठन, सं. पु. ( सं. न.) अपहरणं, मोषणं. दे. स्करः, उच्चारः, शमलं, पुरीषं, फलम् । | 'लूटना' ( सं. पुं.)। लीन, वि. (सं.) लयप्राप्त, समाविष्ट, व्याप्त | लुंड', सं. पुं. (सं.) चौरः, तस्करः। २. तन्मय, नि-,मग्न, आसक्त, तद्गतचित्त, | लुंड, सं. पुं. (सं. रुंड:-डं ) कबंधः । निरत, व्यापृत,-पर,-परायण। ३. द्रवीभूत | -मुंड, वि. (सं. रुंडं+मुंड>) दे. 'लुज' वि. ४. तिरोहित, लुप्त । तथा सं. पुं. २. पोट्टलीवत् व्यावर्तित । लीनता, सं. सी. (सं.) तन्मयता, तत्परता, लुंडा, वि. ( सं. रुंड>) दे. 'लंडूरा'। निमग्नता, आसक्ति ( स्त्री.)। लुआठी, सं. स्त्री. (सं. उल्का+काष्ठं>) लीपन, सं. पुं. (सं. लेपनं ) दे. 'लिपाई(१)। अलातं, उल्का, प्रदीप्तकाष्ठम् । लीपना, क्रि. स. (सं. लेपनं ) अनु-प्र-वि, लुआब, सं. पुं. (अ.) संलग्नशीलः, फलसारः लिप ( तु. प. अ.) २. दिह ( अ. उ. अ.), ! २. लाला, स्यंदिनी। For Private And Personal Use Only Page #567 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [१२६ ] लुहारी -दार, वि. ( अ.+फ्रा.) संलग्नशील, दे. । लुटेरा, सं. पुं. (हिं. लूटना) मार्गतस्करः, 'लसदार'। हठमोषकः, पाटच्चरः, परिपंथिन्,लृट(टा,ठा)कः लुक, सं. पुं. ( सं. लोक:> ) कुक्कुभः ( =वा- २. वंचकः, प्रतारकः । निश ) २. ज्वाला। लुढ़कना, लुढ़ना, क्रि. अ. (सं. लठनं ) वि. लुकना, क्रि. अ. ( सं. लुक् = लोप>) दे.. लुट ( तु. प. से. ), वि-लुट (भ्वा. दि. प.से.) 'छिपना। २. यु (भ्वा. प. अ.), बहिःपत्-निर्गल -लुकछिपकर, मु., निभतं, रहसि, रहः (भ्वा. प. से.), निःस् (भ्वा. प. अ.) । सं. (सब अव्य.)। पुं., वि., लुठनं-लोटनं २. बहिः पतनं, निर्गलनं, लुकमा, सं. पुं. (अ.) कवलः, ग्रासः, गुडकः।। च्यवनम् । . लकमान, सं. पुं. (अ.)प्राचीनो वैध-विशेषः। लुढ़काना, लुढ़ाना, क्रि. स., ब. 'लुढ़कना' के -के पास दवा नहीं, मु., असाध्य-अप्रति- | प्रे.रूप। कार्य-निरुपाय,-रोगः-व्याधिः-आमयः । । लुढ़ियाना, क्रि. स. (हिं. लोढ़िया ) वत्तिका-को हिकमत सिखामा, मु., प्राज्ञाय प्रशां कारं सिव् (दि. प. से.)। दा ( जु. उ. अ.), चतुरमपि चातुर्य शिक्ष लुतरा, सं. पुं. (देश.) परोक्षनिंदकः, पिशुनः, (प्रे.)। कलहसाधकः । कर्णेजपः २. अपकारकः, कुचे. लुकाट, सं. पुं. (सं. लकु(क)चः) (वृक्ष) ष्टकः । [लुतरी ( स्त्री.)]। लिकुचः, शूरः, काश्यः, दृढवल्कलः, उहुः। लुत्फ़, सं. पुं. (अ.) आनंदः, मोदः २. रसः, २. ( फल ) लक(कु)चं, शूरं इ.। आ,स्वादः ३. उत्तमता ४. कृपा ५.रोचकता। लुकाना, क्रि. स. (हिं. लुकना) ब. 'छिपना' लु(लो)नाई, सं. स्त्री. (हिं. लोना) दे. के प्रे. रूप। 'लावण्य'(२)। लुगदी, सं. स्त्री. ( देश. ) आर्द्रगोलकः कम् । लुपरी-ड़ी, सं. स्त्री. (सं. लेपः>) दे. 'लिपड़ी' जुगाई, सं. स्त्री. (हिं. लोग) नारी २. पत्नी।। २. द्रवप्रायं भक्ष्य, लप्सिका। लुचपन, सं. पुं. (हिं. लुच्चा) लंपटता, लुप्त, वि. ( सं.) गुप्त, प्रच्छन्न, निभृत २. अंतकामुकता २. दुर्वृत्तं, दुराचारः, दौर्जन्यम् । हत, तिरोभूत, अदृष्ट ३. नष्ट, ध्वस्त । सं. पुं., लुच्चा, सं. . (हिं. लुचकना, सं. लुंचन से) लुप्तं, चौर्यधनम् । लुंचकः, अपहारकः, दुवृत्तः, दुराचारिन, कुपथ- लुब्ध, वि. ( सं. ) गृध्नु, गर्द्धन, दे. 'लोभी'। गामिन् २. लंपटः, कामुकः ३. क्षुद्रः, दुष्टः, २. मुग्ध, मोहित, हृत । सं. पुं.,दे. 'लुब्धक' । निर्लज्जः [ लुच्ची (स्त्री.)]। लुब्धक, सं. पुं. (सं.) व्याधः, दे. 'शिकारी' लुच्ची, सं. स्त्री. ( सं. चूलिक) पक्वान्नभेदः।। २. लंपटः ३. गृध्नुः । लुटना, क्रि. अ., ब. 'लूटना' के कर्म. के रूप।। लुब्बलुबाब, सं. पुं. (अ.) तत्त्वं, सारः, सारांशः लुटवाना, क्रि. स. ब. 'लूटना' के प्रे.रूप। २. दे. 'गूदा। लुटाना, क्रि. स. (हिं. लूटना) ब. 'लूटना' लुभाना, क्रि. अ. (हिं. लोम) विलुभ के प्रे. रूप। २. अमितं व्यय (चु.), अप (प्रे,), दुराचारे-कुमार्गे प्रवत् (प्रे.) व्ययं-अतिव्ययं कृ, अपव्यय (चु.) ३. मूल्यं २. वि., मुह (प्रे.), प्रलुम् (प्रे.) ३. सम्-, विना दा ४. मुष्टिभिः परिक्षिप् (तु. प. अ.)पर्यस् (दि. प. से.)। सं. पुं., अप-अति आकृष् (भ्वा. प. अ.)। क्रि. अ., दे. 'रीझना'। अमित, व्ययः २. मुधा विक्षेपः । लुहंडा, सं. पु. ( सं. लोहहंडी) *अयःस्थाली। लुटानेवाला, सं. पुं., अपव्ययिन्, विक्षेपिन् । लुहां(ह)गी, सं. स्त्री. (सं. लोहांग>), लुटारू, वि. (हिं. लुटाना) अप-अति-वृथा, *लोहांगी, लोहमुखी यष्टी-ष्टिः (स्त्री.)। व्ययिन, मुक्तहस्त, अर्थनाशिन् । | लुहार, सं. पुं. (सं. लो(लौ)हकारः) अयस्कारः, लुटिया, सं. स्त्री. (हिं. लोटा ) लघुकमंडलुः।। व्योकारः, कारः, कर्मकारः (लुहारिन स्त्री.)। -डुबाना, मु., आत्मानं न्यककृ (प्रे.)। लुहारी, सं. स्त्री. (हिं. लुहार ) लो(लो)हकारी, For Private And Personal Use Only Page #568 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [३०] लेखनी अयस्कारी २. लोहकारव्यवसायः, कर्मारता, लूनिया, वि. (हिं. लून ) लवण, क्षार । सं. अयःशिल्पम् । पुं., लवणकारः। लू , सं. स्त्री. (हिं. लूक ) धर्मवातः, उष्णानिल:, / लूम, सं. पुं. (सं. न. ) लांगूलं, पुच्छम् । तप्तपवनः। लूमड़ी, सं. स्त्री., दे. 'लोमड़ी' । -चलना, क्रि. अ., उष्णानिलः वा(अ.प.अ.)। लूला, वि. ( सं. लून>) छिन्न-लून, पाणि-मारना या लगना, मु., धर्मवातेन व्यथ । हस्त-कर २. अपांग, व्यंग ३. असक्त, असमर्थ । ( भ्वा. आ. से.)। लेंडी, सं. स्त्री. ( सं. लेंड>) बद्धमलं, विष्ठालूक, सं. स्त्री. ( सं. लोक>) ज्वाला २. दे. वर्तिः (स्त्री.) २. दे. 'मैंगनी'। "लु आठी' ३. दे. 'लू' ४. उल्का । लेंस, सं. पु. ( अं.) वीक्षम् । लूट, सं. स्त्री. (हिं. लूटना) वि-लुंट(ठ)नं, मेग्निफाइङ्ग लेंस, बृहदर्शकवीक्षम् ।। बलात् अपहरणं, मोषणं, लुटा-ठा, लुठितं, लेहड़ा, सं. पुं. (देश.) पशु, वृंद-यूथं कुलं. लुंटी-ठी-टि:-ठिः (स्त्री.) २. अन्याय्य-व्यवहारः समजः। ३. लोतं, लोत्रं, लोप्त्रंत्री, स्तेय-अपहृत-लुंठित, ले, लेकर, अव्य. (हिं. लेना ) आरभ्य, प्रभति, धनं, लुपम् । आ-, (पंचमी से भी; उ., गांव से ले(कर)-. का माल, सं. पुं., दे. 'लूट' (३)। आग्रामात्, ग्रामात्, कल से ले(कर) = श्वः -खसोट-पाट, सं. स्त्री. लुठनध्वंसनं, लुठालं. (प्रभृति-आरभ्य ) २. गृहीत्वा, आदाय। ठि (न.)। लेई', सं. स्त्री. ( सं. लेपः> ) संश्लेषकलेपः, -खूद, मार, सं. स्त्री.. मोषणहिंसनं लुठन- | २. *सुधेष्टकचूर्णलेपः । मारणं, लुंठामारम् । लेइ२, सं. स्त्री. (सं. लेहः ) अवलेहः, दे. २. -पड़ना या मचना, क्रि. अ., ब. 'लूटना' के | लप्सिका, द्रवप्रायसंयावः । कर्म. के रूप। लेकिन, अव्य. ( अ.) किंतु, परंतु २. तथापि । मचाना, क्रि. स., दे. 'लूटना' । -अगर, अन्य. (अ.+फा.) किंतु, यदि । लूटना, क्रि. स. (सं. लुठनं ) वि.,लुट-लुठ लेक्चर, सं. पुं. (अ.) व्याख्यान, भाषण (भ्वा. प. से., चु.), लुट् (भ्वा. दि. प. से.), । २. प्रपाठः, अध्यापनम् । बलात् अपह (भ्वा. प. अ.), प्रसह्य मुष -बाज़ी, सं. स्त्री. ( अं.+फा.) व्याख्यान(क्र. प. से.) २. चुर् (चु.), मुघ, अपह | प्राचुर्य्यम् । ३. विध्वंस-नश् (प्रे.) ४. छलेन अन्यायेन ---झाड़ना, मु., सोत्साहं व्याख्या (अ. प. अ.) वा आदा (जु. आ. अ.)-ह ५. अत्यधिक अथवा अधि-इ (प्रे., अध्यापयति)। अनुचित, मूल्यं आदा ६. मुह (प्रे.), वशी- लेक्चरार, सं. पु. ( अं. लेक्चरर ) व्याख्यात, कृ. मनो ह । सं. पुं., दे. 'लूट' । उपदेशकः, वक्तृ. २. अध्यापकः, उपाध्यायः । लूटने योग्य, वि., लुठनीय, लुठितव्य । लेक्टोमीटर, सं. पुं. ( अं.) दुग्धमापकम् । लूटनेवाला, सं. पुं., दे. 'लुटेरा'।। लेख, सं. पुं. (सं.) लिपी(बी)-पि:(विः) लूटा हुआ, वि., लुटि(ठि)त, बलात् अपहृत- (स्त्री.) २. लिखित-लिपिबद्ध, विषयः वार्ता ३. मुषित। प्रस्तावः, निबंधः ४. दे. 'लिखाई' (१-३)। लुता, सं. स्त्री. (सं.) मर्कटकः, ऊर्णनाभिः, | ५. गणनं, संकलनम् । दे. 'मकड़ी' २. पिपीलिका ३. मर्कटकमूत्र- लेखक, सं. पुं. (सं.) ग्रंथकारः, पुस्तक-लेखक:स्पर्शजः त्वग्रोगः। रचयित-प्रणेतृ २. लिपि( पी-बी) कारः, लूती, सं. स्त्री., दे. 'लुआठी' । मसिपण्यः, पंजीकारः, लिपिशः, वाणिकः। -लगाना, मु., कलह जन् (प्रे.), दे. 'चुगली | लेखन, सं. पुं. (सं. न.) दे. 'लिखाई (१)। करना'। | २. लेखन,-कला-विद्या ३. गणनं, संख्यानं लून, वि. (सं.) छिन्न, कृत्त । ४. भूर्जत्वच् ( स्त्री.)। लन, सं. पुं. (सं. लवणं ) दे. 'नमक' । लेखनी, सं. स्त्री. (सं.) अक्षर-वर्ण-जूली For Private And Personal Use Only Page #569 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir लेखा [ ५३१ ] लेनेवाला लिका, कलमः, चित्रकः, कराश्रयः, वणिका, | --देन, सं. पुं. (हिं.) आदानप्रदान, व्यवहारः शर्करी। २. कौसीद्य, वृद्धिजीवनं-विका । लेखा, सं. पुं. (सं. लेखः>) संकलनं, संख्यानं, लेना, क्रि. स. ( सं. लभनं ) आदा (जु. आ. गणन-ना १२. व्यय-मूल्य-निरूपणं-अनुमानं अ.), प्रति-इच् (तु. प. से.), प्रति-परि, ३. आयत्यय-देयादेय, विवरणं ४. अनुमानं, ग्रह् (क्र. प. से.) २. अधिगम् ( भ्वा. प. विचारः। अ.), आसद् (प्रे.), प्राप् ( स्वा. प. अ.), -डालना, मु., आयव्ययपंजिकायां नामन् (न.) लभ ( भ्वा. आ. अ. )३. धृ (भ्वा. प. अ., लिख ( तु. प. से.)। चु.), अव आ-लंब (भ्वा. आ. से.), ग्रह -पूरा या साफ करना, मु., अवशेष | ४. जि ( भ्वा. प. अ.), अभिभू (भ्वा. प. शुध् (प्रे.)। से.), वशीकृ ५. क्री (ऋ. उ. अ.) ६. ऋणं लेखिका, सं. स्त्री. (सं.) ग्रंथकत्री, पुस्तक- ग्रह ७. अंके-क्रोडे निधा (जु. उ. अ.) प्रणेत्री २. लिपिकारी, लिपिज्ञा। ८. स्वी-अंगी-कृ, प्रतिपद् (दि. आ. अ.) लेखे, क्रि. वि. (हिं. लेखा) विचारेण ९. प्रत्युद,गम्-ब्रज (भ्वा. प. से.)-या २. संबंधे। (अ. प. अ.) सत्कृ, संमन-संभू (प्रे.) लेख्य, वि. (सं.) लि(ले)खितव्य, ले(लि)खनाह, / १०. कार्यभार स्वीकृ ११. रुचि (स्वा. प. ले(लि खनीय। सं. पुं. ( सं. न.) लिखित- अ.), संग्रह ( क्र. प. से.) १२. उपहस लिपिबद्ध, विषयः, लेखः २. दे. 'दस्तावेज'।। ( भ्वा. प. से.), व्यंग्योक्तिभिः लज्ज (प्रे.)। लेजिस्लेटिव काउंसिल, सं. स्त्री. ( अं.)। सं. पुं., आदान, ग्रहणं, प्रतिग्रहः, अधिगमन, व्यवस्थापकसभा। प्रापणं, आसादनं, आलंबनं, धारणं, ऋणादानं, लेट', वि. ( अं.) चिरायित, विलंबित, काल- अंगीकरण, वशीकरणं, संचयः-यनं, क्रयर्ण, समय, अतीत । क्रयः इ.। लेट२, सं. स्त्री. ( देश.) दे. 'गच'। | लेने योग्य, वि. (सं.) आदेय, ग्राह्य, ग्रहीतव्य, लेटना, क्रि. अ. (हिं. लोटना) संविश (तु.. प्राप्य, आसादनीय, क्रेय, क्रयणीय इ.। प. अ.), शी (अ. आ. से.) २. विश्रम् | लेने वाला, सं. पुं., आदात, गृहीत, अधिगंतु, (दि. प. से.) ३. दे. 'मरना' । सं. पुं., आसादयितु, अंगीकर्तृ, क्रेत, ग्राहकः । संवेशः-शनं, शयनम् । | लिया हुआ, वि. (सं.) आत्त, आदत्त, गृहीत, लेटनेवाला, सं. पुं., संवेशेच्छुकः, शयालुः। प्राप्त, अधिगत, धृत, अंगीकृत, वशीकृत, लेटर, सं. पुं. (स्त्री.) (अं.) पत्रं, लेख:, लेख्यं, क्रीत इ.। । पत्रिका, पत्री, पत्रकं, लिखितं, सन्देशपत्रं । ले आना, मु., दे. ३. 'लाना'। २. अक्षरं, वर्णः, मातृका, अभिनिष्ठानः। ले च ना या ले जाना, मु., आदाय गम् -बाक्स, सं. पुं. (अ.) पत्रपेटिका।। २. आत्मना सहनी(वा. प. अ.)। लेटाना, क्रि. स., ब. 'लेटना के प्रे. रूप। | ले डूबना, मु., परमपि आत्मना सह क्षै. लेटा हुआ, वि., संविष्ट, शयान, शयित । | अवसद्-नश (प्रे.)। लेड, सं. पुं. (अं.) सीसं, सीसकम्, दे. 'सीसा'। ले देकर, मु., सर्व संकलय्य २. कृच्छण, लेडी, सं. स्त्री. ( अं.) महिला, कुलांगना, कथमपि । आर्या २. नारी, रमणी ३. लार्डोपाधिधार- लेना एक न देना दो, मु., न कोऽप्यर्थः, न कस्य पत्नी। । किमपि प्रयोजनम् । -डाक्टर, सं. स्त्री. ( अं.), जीवदा, चिकित्सा-/ लेना देना, मु., दानादानं, आदानप्रदानं जीविनी, चिकित्सिका, रोगहारिणी। २. कौसीधं, वृद्धिजीवनम् । लेन, सं. पुं. (हिं. लेना) आदानं, ग्रहणं, | लेने के देने पड़ना, मु., भद्रस्याभद्रं फलं. धारणं २. दे. 'लहना' (१-२).। | इष्टाशायामनिष्टप्रसंगः। . -दार, सं. पुं. (हिं.+फा.) उत्तमर्णः, ऋणदः, ले भागना, मु., सह नीत्वा पलाय ( भ्वा. महाजनः। | आ. से.), अपहृ ( भ्वा. उ. अ.)। For Private And Personal Use Only Page #570 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir लेन्स [५३२ ] लोकाचार ले भरना, मु.,दे.'ले डूबना'। | लैसंस, सं. पुं. ( अं. लाइसेंस ) अधिकारपत्रं. लेन्स, सं. पुं. (अं.) काचः । अनुज्ञालेखः। लेप, सं. पुं. (सं.) अभि,-अंजनं, उपदेहः, समा- लैस. सं. पं. ( अं. लेस) सज्ज, सन्नद्ध, सिद्ध लभः, उपनाहः, प्रलेपट्टिका २. लेपनं, सुधा । २. जालाभरणं, दे. 'फीता' । ३. लेपस्तरः ४. उद्वर्तनं, दे. 'उबटन' ५. संपर्कः, लोद, सं. पु., दे. 'मलमास । सम्बन्धः। | लोंदा, सं. पुं. (सं. लोष्टःष्टं) आर्द्र,पिंडः -चढ़ाना, क्रि. स., दे. 'लीपना' । (-डं )-धनः, क्लिन्नगोल: (-लं)-लोष्टः(-टं) । लेपक, सं. पुं. (सं.) लेपिन्, लेपकारः, पल |लो, अव्य. (हिं. लेना) दृश्यतां, प्रेक्ष्यतां, गंडः, लेप्यकृत् । लेपन, सं. पुं. ( सं. न.) दे. 'लिपाई' (१)। अवलोक्यतां । ( केवल इन्हीं रूपों में)। लेपना, क्रि. स.,दे. 'लीपना' । | लोई, सं. स्त्री. (सं. लोमीय) लौमी, नीशारः, लेपालक, सं. पुं. (हिं. लेना+पालना)। आविकं. ऊगायुः, कंबलभेदः । दत्तकः, दे। लोई२, सं. स्त्री., दे. 'पेड़ा' (गूंधे हुए आटे का)। लेबर, सं. पुं. ( अं.) परि-,श्रमः, आयासः, लोक, सं. पुं. (सं.) भुवनं, भूर्भुवःस्वरादयः प्रयासः २. श्रमिक कर्मकर,वर्गः । चतुदशस्थानविशेषाः २. जगत् (न.),जगती, -पार्टी, सं. स्त्री. ( अं.) श्रमिकदल: लम्।। विश्वं, चराचरं, ब्रह्मांडं, भुवनं, विष्टपं ३. नि-यूनियन, सं. स्त्री. (अं.) श्रमिक-कमकर, आ, वामः ४. दिशा, प्रदेशः ५. लोकः-काः, संघः-समाजः-सभा। जन:-नाः ६. समाज: ७. प्राणिन् । लेबुल, सं. पु. ( अं.) लेपपत्रम् ।। -कंटक, सं. पुं. (सं.) जनपीडकः । लेबोरेटरी, सं. स्त्री. ( अं.) प्रयोगशाला, -तंत्र, सं. पुं. (सं. न.) जन-प्रजा-तंत्रम् । २. रसायनशाला। -त्रय, सं. पु. ( सं. न.) त्रिभुवनं, त्रैलोक्यं, लेमोनेड, सं. पुं. ( अं.) जंबीर,-पेय-पानकम् ।। त्रिलोकी। लेरुवा, सं. . ( सं. लेहः> ) दे. 'बछड़ा'। -नाथ, सं. पुं. (सं.) ब्रह्मन् (पुं.) २. विष्णु: लेवा, वि. (हिं. लेना ) आ, दातृ-दायक । ३. शिवः ४. बुद्धः ५. लोकपालः । -देवा, सं. पुं., आदानप्रदानम् । --पति, सं. पुं. (सं.) ब्रह्मन् (पुं.) २. नृपः नाम-, सं. पुं., पुत्रः २. दायादः । ३. लोकपालः। लेश, सं. पुं. (सं.) दे. 'लव' २. चिह्न, लक्षणं | -परलोक, सं. पुं. (सं.को ) उभौ लोको. ३. संबंधः ४. अलंकारभेदः ( सा.) २. अल्प, लोकद्वयम्। स्तोक। -पाल, सं. पुं. (सं.) दिक्पालः २. नृपः। -मात्र, वि. (सं.) अणु-अल्प,मात्र (-त्रा, -प्रवाद, सं. पुं. (सं.) जन-लोक,-रवः-श्रुतिःत्री स्त्री.)। (स्त्री.)-प्रवादः। लेस, सं. पुं.,दे. 'लासा' (१)। --मर्यादा, सं. स्त्री. (सं.) लोक, आचार:-दार, वि. (हिं+फा.) दे. 'लसदार'। व्यवहारः, जगद्रीतिः ( स्त्री.)। लेहन, सं. पुं. ( सं. न.) जिह्वया स्वादनं स्व- |-यात्रा, सं. स्त्री. (सं.) जीवन, प्राणधारणं । दनं-रसनन् । -विश्रत, वि. (सं.) जगद्विख्यात । २. व्यवलेहाज़ा, क्रि. वि. ( अ.) अतः, अतएव ।। हारः, लौकिककृत्यानि (न. बहु.)। लेहिन, सं. पुं. (सं.) टंकणं-नं, रसशोधनः, -श्रति, सं. स्त्री. (सं.) दे. 'लोकावाद'। बिडम्। -संग्रह, सं. पुं. (सं.) लोक-जन, रंजनंलेह्य, वि. (सं.) लेहनीय, लेटव्य। सं. पुं. प्रसादनं २. लोकहितैषणा। ( सं. न.) दे. 'अवलेह' २. लेहनीयाहारः लोकांतर, सं. पु. ( सं. न.) पर-प्रेत,लोकः । ३. अमृतम् । | लोकाचार, सं. पुं. (सं.) जगद्रीतिः-रूढ़िः लन, सं. स्त्री., दे. 'लाइन' । (स्त्री.), लौकिकं, लोक,-मार्ग:-व्यवहारः । For Private And Personal Use Only Page #571 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir लोकाट [ ५३३ ] लोम लोकाट, सं. पुं. ( चीनी लुः + क्यू) लवकटं, । लोडन, सं. पुं. ( सं. न. ) मथनं, आ-विचैनम् । लोकालोक, सं. पुं. (सं.) चक्रवाल:, पर्वत विशेष: ( पुराणं ) । लोकपणा, सं. स्त्री. २. स्वर्गलिप्सा । (सं.) अभ्युदयाभिलाषः लोकोक्ति, सं. स्त्री. (सं.) आभाणकः, जनवादः, लौकिक, न्यायः २. अलंकारभेद: (सा० ) । लोकोत्तर, वि. (सं.) अलौकिक, अमानुष, अपार्थिव लोकातिशायिन, दिव्य, अतिविलक्षण अद्भुत । लोग, सं. पुं. (सं. लोक: ) लोक:- काः, जन:नाः, मानवाः, मनुष्याः, नराः, मानुषाः, मर्त्याः, मनुजा: ( सब बहु . ) । लोच', सं. स्त्री. (हिं. लचक दे. 'लचक' २. कोमलता, मृदुता । लोच, सं. पुं. [ सं . रुचिः (स्त्री.) ] अभिलाप:, इच्छा । लोचन, सं. पुं. (सं. न. ) नयनं, नेत्रम्, दे. 'आँख' । लोट, सं. स्त्री. (हिं. लोटना ) लु (लो)ठनं लोटनं, वेल्लनं, लुंटा, लुंठा, लोटः । - पोट, वि., लुटि (ठि )त, वेल्लित, स्खलित २. मुग्ध, बद्धभाव, अनुरागिन ३. वि., आकुल ४. व्यत्यस्त, विपर्यस्त । —जाना, मु., मूर्च्छ (भ्वा. प. से., मूच्छेति ) २. मृ ( तु. आ. अ. ) ३. विश्रम ( दि. प. से. ) ४. चकितो मुग्धो वा भू । -पोट होना, मु., ( पीडादिभिः ) वि-लुट् ( तु. प. से., भ्वा. आ. से. ) २. भाव अनुरागं बंधू ( क्र. प. अ. ), ३. सहसा विलुट्य वा मृ (तु. आ. अ. ) । — होना, मु., अनुरक्त- आसक्त (वि.) भू २. व्याकुलीभू । लोटन, सं. पुं. (सं. न. ) दे. 'लोट' २. *लोटनकोत: ३. लांगलभेद: ४. मार्गशर्करा । लोटना, क्रि. अ. (सं. लोटनं ) लुट् (भ्वा. दि. प.से.), लुठ् (भ्वा. आ. से., तु. प. से. ) २. पा परिवृत (प्रे. ) ३. आकुल व्याकुल (वि.) भू । सं. पुं. तथा भाव, दे. 'लोट' सं. स्त्री. । लोटा, सं. पं. (हि. लोटना ) कमंडलुः, दे. | 'लोडनम्, मंधः । लोडित, वि. ( सं . ) मथित, आ-वि-लोडित, व्याघट्टित | | लोढ़ा, सं. पुं, ( सं. लोष्ट:-ष्टं > ) दे. 'बट्टा' । लोथ-थि, सं. स्त्री. (सं. लोष्ट:-ष्टं > ) शवः, दे. | - पोथ, मु., अति, शिथिल - श्रांत-खिन्न । लोथड़ा, सं. पुं. (हिं. लोथ: ) पलल-मांस,पिंड: (डं ) | लोध, सं. स्त्री. (मं. लोध: ) (लाल ) लोध:, रक्तः, मार्जन:, तिरीटः, तिंदुकः । ( सफेद ) शुक्लः, महा, - शबरः, लोधः, शावरः । लोन, सं. पुं. (सं. लवणं) दे. 'नमक ' २. लावण्यं, विशिष्टसौन्दर्यम् । लोना, वि. (हि. लोन ) लवण दे. 'नमकीन ' २. सुन्दर, चारु । सं. पुं., *कुडय-भित्ति, - लवणं ३. लवणितकुडयस्य धूलि : (स्त्री.) । लोनिया, सं. पुं. (हिं. लोग ) दे. 'लूनिया' । सं. पुं. । लोप, सं. पुं. ( सं . ) वि., नाशः, क्षयः, वि, ध्वंसः ३. अदर्शनं, तिरोभावः, अंतर्धानं ३. अभाव:, अविद्यमानता ४. वर्णविनाशः ( व्या. ) ५. विच्छेदः, विरामः । लोपामुद्रा, सं. स्त्री. (सं.) अगस्त्यमुनिपत्नी, लोपः, वरप्रदा, कोशीतकी । लोबान, सं. पुं. (अ.) सुगंधिनिर्यासभेदः *लोबानम् । लोबिया, सं. पुं. ( सं. लोभ्यः मूँग ) क्षुधाभिजनक:, चप (ब)ल:, चर्बरः, सुकुमारः, शिविका, दीर्घ, शिम्बी-बीजः । लोभ, सं. पुं. (सं.) परद्रव्याभिलाषः, गृध्या, गृध्नता, स्पृहा, लौल्यं, लिप्सा, गर्द्ध:, तृष्णा, कांक्षा, शंसा, लोलुपता-मता, इच्छा, वांछा, मनोरथः, अभिलाषः कामः २, कार्पण्य, कदर्यता । लोभित, वि. ( सं . ) मोहित, आकृष्ट, हृतचित्त, लुब्ध, मुग्ध । लोभी, वि. (सं.- भिन) गृध्नु, गर्द्धन, लुब्ध, लोलुप-भ, लिप्सु, अभिलाषुक, तृष्णक । लोम, सं. पुं. (सं.) लोमन् (न.) दे. 'रोगटा' २. लांगूलं, पुच्छम् । For Private And Personal Use Only Page #572 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir लोमड़ - हर्षण, सं. पुं. (सं. न. ) रोमांचः, दे. | वि., दे. 'रोमहर्षण' । लोमड़, सं. पुं. (सं. लोमः > . ) *लोमशः, *लोमाश:, दे. 'गीदड़' । लोमड़ी, सं. स्त्री. (हिं. लोमड़ ) लोमशा, लोमाशिका, दे. गीदड़ी' ( संस्कृत में गीदड़लोमड़ तथा गीदड़ी लोमड़ी के लिए समान शब्दों का ही प्रयोग होता है । ) । लोमश, सं. पुं. ( सं. ) ऋषिविशेष: २. मेष:, दे. 'भेड़ा' । वि., बहुलोमान्वित, केशिन, केशिक २. ऊर्णामय (-यी स्त्री.), और्ण (-र्णी स्त्री. ) । - मार्जार, सं. पुं. (सं.) गंधमार्जार:, पूतिकः, मूत्रपातनः । लोरी, सं. स्त्री. ( सं. लोल > ) निद्रा-शयन-, गीतिका । -देना, क्रि. स., निद्रा-गीतिकया स्वप (प्रे.) । लोल, वि. ( सं . ) सकंप, कंपमान, वेपमान, कंपित, कंप २. चंचलचित्त ३. क्षणभंगुर, पल, क्षणिक ४. उत्सुक, उत्कंठित । लोला, सं. स्त्री. (सं.) जिह्वा, रसना २. लक्ष्मी:श्रीः (स्त्री.) । लोलुप, वि. (सं.) दे. 'लोभी' । लोलुपता, सं. स्त्री. दे. 'लोभ' । लोशन, सं. पुं. ( अं.) व्रणक्षालकं, धावनौषधं, *औषधजलम् । [ ५३४ ] लोष्ट, सं. पुं. (सं. पुं. न. ) लोष्ट:, मृत्तिकाखंड, दलि: (पुं. स्त्री. ), दलनी २. अश्मखंड-ड: । लोह, सं. पुं. ( सं. लोह:-हं ) लौहं, दे. 'लोहा ' २. रुधिरं ३. रक्तछागः । -कांत, सं. पुं. ( सं . ) अयस्कांतः, लोह, चुंबकः । -कार, सं. पुं. (सं.) अयस्कारः, दे. 'लुहार' । - किट्ट, सं. पुं. (सं. न. ) लोह, -मलं, मंडूर, लोह, कृष्णचूर्णं, अयो, मलं- रजस् (न.) । -चून, लौंडेबाज़ ( न. ) आयसं, कालं, कालायसं, लौहं, अश्मगिरि, सारः, दृढं, पिंडं २. अस्त्रं, शस्त्रं, ३. लोहमयद्रव्यम् । वि., रक्त, लोहित अति, दृढ-कीकस । २. लोहे का, वि., लौह ( ही स्त्री. ), लोह अयो,मय ( यी स्त्री. ), आयस ( -सी स्त्री.), लोह, आयस-, । लोहे का चना, मु., सुदुष्करं कर्मन् (न.) । लोहे के चने चबाना, मु., सुदुष्करं कर्म संपद् ( प्रे. ) । चूर, - चूर्ण, द्रावी, सं. पुं. ( सं . - विनू ) लोहितः, टंकणं न. दे. 'सोहागा' । लोहाँगी, सं. स्त्री. (सं. लोहांगी) लोहशीर्ष टी- दंड: लगुडः । लोहा, सं. पुं. (सं. लोह:- हं ) कृष्ण, अयस् - गहना या लेना, मु., युध् (दि. आ. अ. ) दे. 'लड़ना' । — बजना, मु., युद्धं प्रवृत् ( भ्वा. आ. से. ) । (किसी का) - मानना, मु., (अन्यस्य ) प्रभुत्वं *स्वीकृ २. वि-परा, जि ( कर्म. ) । लोहार, सं. पुं. ( सं. लोहकार : ) दे. 'लुहार' । — की स्याही, सं. स्त्री. दे, 'हीराकसीस' । लोहित, वि. ( सं . ) रक्त, शोण । सं. पुं. (सं.) मंगलग्रहः, कुजः, भौमः २. रक्तवर्ण: । (सं. न. ) रक्तं रुधिरम् । - चंदन, सं. पुं., केसरः-र, कश्मीरजं, कुंकुम । - नयन, वि., (सं.) रक्त-लोहित, नेत्र नयनक्षण, कुपित, क्रुद्ध | - शतपत्र, सं. पुं., कोकनदं, रक्त, उत्पलंनीरजम् । लोहिया, सं. (हिं. लोहा ) लोहपण्यविक्रेतु, लोहविक्रयिन् २. लोहितर्षभः ३. लोहगुलिका | लोहू, सं. पुं. (सं. लोहितं) दे. 'रक्त' तथा 'लहू' । लौ, अव्य. (हिं. लग) दे. 'तक' २. सदृश, तुल्य । } सं. पुं. (सं. लोहचूर्ण) कालक्षोदः । लौंडा, सं. पुं. (हिं. लोना ) ( लावण्य विशिष्ट :) बालक: दारकः । वि., अबोध, अज्ञ २. चपल, चंचल | लौंग, सं. पुं. ( सं. लवंग ) देवकुसुमं श्रीप्रसूनं-पुष्पं-संज्ञं, लवंगकं दिव्यं, शेखरं, लवं २. लवंगं (घ्राणभूषणभेदः ) | - पन, सं. पुं., बाल्यं २. चांचल्यम् । लौंडी-डिया, सं. स्त्री. (हिं. लौंडा ) कन्या, कुमारी २. पुत्री ३. दासी । लौंडेबाज़, वि. (हिं. + फ़ा. ) पुंमैथुनकारिन् । For Private And Personal Use Only Page #573 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir लौडेबाज़ी [५३५.] वकाल लौंडेबाज़ी, सं. स्त्री. (हिं.+फ़ा.) पुंमैथुनम् । | लौकिक, वि., (सं.) सांसारिक, ऐहिक, लौ', सं. स्त्री. (हिं. लपट ) कील:-ला, अग्नि- | प्रापंचिक, लौक्य २. व्यावहारिक, आचारिक । ज्वाला(ल:)ज्वाला, जिह्वा, शिखा २. दीपशिखा। लौकी, सं. स्त्री. (सं. लावु-वूः दोनों स्त्री.) लौ, सं. स्त्री. (हिं. लाग ) अभिलाष:, रागः / अलावु: बू: ( स्त्री.), दे. 'कद्दू'। २. चित्त-मनोवृत्ति:(स्त्री.) ३. कामना,वांछा। लौटना, क्रि. अ. (हिं. उलटना) दे. वापस -लगना, क्रि. अ., उद्यत (वि.) भू आना' तथा 'वापस जाना' । २. ( भक्त्यादिषु ) लीन-मग्न-निरत(वि.) भू। लौटफेर, सं. पुं. (हिं. लौटना+फेरना ) बृहत्. -लगाना, क्रि. स., सततं अभिलष ( भ्वा. प. महा, परिवर्तः-परिवर्तनम् । से.) २. आत्मानं भक्त्यादिषु निमस्ज-आसंज लौटाना, क्रि. स., दे. 'वापस करना'। (प्रे.) ३. आनेड (प्रे.)। लौह, सं. पुं. (सं. न.) दे. 'लोहा' (१) । वि., -लीन, वि. (सं.) मग्न, आसक्त, निरत। । दे. 'लोहे का' ('लोहा' में )। व, देवनागरोवर्णमालाया ऊनविंशो व्यंजनवर्णः, | -गृह, स. पु. ( सं. न.) कारा, कारा, गृहंवकारः। गारम् । वंक, वि. (सं.) अराल, वृजिन, कुंचित, वक्र, | वंद्य, वि. (सं.) दे. 'वंदनीय' । आनत, जिह्म, वेल्लित, आभुग्न, कुटिल। सं. | वंध्या, सं. स्त्री. (सं.) दे. 'बंध्या'। पुं. (सं.) नदीवक्रम् । वंश, सं. पुं. (सं.) कुलं, अन्वयः, अन्ववायः, बंकिम, वि. (सं.) ईषत्-किंचित,-अराल- गोत्रं, अभिजनः २. जातिः ( स्त्री.), वर्गः वक्र-वृजिन। ३. कुटुंब, गृहजनः, पुत्रकलत्रादीनि (न. वंग, सं. पुं. [सं. वंगाः (पुं. बहु.)] वंगप्रांतः बहु.) ४. वेणुः, दृढग्रंथिः, दे. 'बांस' । (बंगाल)। (सं. न.) वपुः, त्रपु ( न.), ५. मुरली, वंशी ६. पृष्ठास्थि (न.), पृष्ठवंशः रंग, नागज, कस्तीरं २.सीसं-सकं, सीसपत्रम् । ७. भुजादीनां लंबास्थि ( न.)। -भस्म, सं. पुं. [सं.-भस्मन् (न.)] रंगभस्मन् -ज, सं. पु. (सं.) पुत्रः २. संतानः । -धर, सं. पुं. (सं.) वंशजः, संततिः (स्त्री.)। वंगन, सं. पुं., दे. 'बैंगन'। -लोचन, सं. पुं. [सं.-लो(रो)चना]वंशशकरा, वंचक, वि. तथा सं. पुं. (सं.) कपटिन्, वंशज-जा, वांशी, शुभा। प्रतारक(:), धूर्त (:)। -हीन, वि. ( सं.) निर्वश २. अपुत्र । वंचना, सं. स्त्री. (सं.) वंचनं, प्रतारणं-णा, माया, कपट, कैतवं, वंचथः । वंशानुक्रम, सं. पुं. (सं.) वंश-, अन्वयः-क्रमः,. वंचित, वि. (सं.) प्रतारित. विप्रलब्ध परम्परा (स्त्री.)-अवलि:-विततिः। २. हीन, रहित। | वंशावली, सं. स्त्री. [सं.-ली-लि: (स्त्री.)] वंश, वंदन, सं. पुं. (सं. न.) वंदना, प्रणामः, क्रमः-श्रेणी-परंपरा। . प्रणतिः ( स्त्री.), नमस्कारः २. पूजा, अर्चा, | वंशी, सं. स्त्री. (सं.) वंशिका, मुरली दे.। आराधना २. स्तुतिः-नुतिः (स्त्री.)।। -धर, सं. पुं. (सं.) मुरलीधरः, श्रीकृष्णः -वार, सं. स्त्री. (सं. वंदनमाल्यं) वंदनमाला- व, अव्य: ( फ्रा.) च, दे. 'और'। लिका, तोरणस्रज ( स्त्री.)। वक, सं. . ( सं.) दे. 'बगला' २. राक्षसवंदना, सं. स्त्री. (सं.) दे. 'वंदन' (१-३)। विशेषः। वंदनीय, वि. (सं.) नमस्य, वंद्य २. पूज्य, -वृत्ति, सं. स्त्री. (अ.) विडालवृत्तिः, दंभः । अर्चनीय ३ स्तुत्य, न(ना)व्य । वकालत, सं. स्त्री. (अ.) अभिभाषकता-त्वं, वंदी, सं. पु. ( सं.-दिन् ) स्तुतिपाठकः, मा(म)- वाक्कीलत्वं, व्यवहारदर्शकता-त्वं २. परप्रातिगधः, चारणः, वंदथः २. कारागुप्तः, बंदी-दिः । निध्यं, परकार्यसाधकत्वं ३. दूतकर्मन् (न.) (स्त्री.)। ४. परपक्षमंडनम् । For Private And Personal Use Only Page #574 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [ ५३६ ] वकील —करना, क्र. अ., परिपक्षं समर्थ ( चु.) २. अभिभाषक वृत्ति उपजीव् (भ्वा. प. से. ) । —नामा, सं. पुं. ( अ. का. ) अभिभाषकता पत्रम् । वख़्फ़ा, सं. पुं. (अ.) अवकाशः २. उद्योगविश्रांतिः (स्त्री.) । वक्र, वि. (सं.) दे. 'वंक' २. छलिन, कपटिन, धूर्त । (सं. पुं.) शनैश्चरः २. मंगलः, भौमः । (सं. न. ) नदीवक्र, वंकः । गामी, वि. (सं.) कुटिलगति २. शठ, कुटिल । तुंड, सं. पुं. (सं.) गणेशः २. शुकः । वक्रता, सं. स्त्री. ( सं . ) जिह्मता, आनति: (स्त्री.), कौटिल्यं २. छल, कपटं, शाख्यम् । वकुल, सं. पुं. (सं.) दे. 'बकुल' । वकूफ़, सं. पुं. (अ.) ज्ञानं २. बुद्धि: (स्त्री.) । वक्रोक्ति, सं. स्त्री. (सं.) काकूक्ति: (स्त्री.) बे, वि. (का. + अ ) निर्बुद्धि । २. शब्दालंकारभेदः (सा.) ३. चमत्कृतवक्त, सं. पुं. (अ.) समय:, काल: २. अवसरः कुटिल, उक्ति: (स्त्री.) । ३. अवकाशः ४. ऋतु: ५. मृत्युकालः । —की चीज़, सं. स्त्री. कालानुकूलो रागः । -बेवक्त, क्रि. वि. कालेकाले वा, समयेऽ समये वा । वक्षःस्थल, सं. पुं. (सं. न. ) उरस्-वक्षस् (न.), अंकः, उत्संगः, उरःस्थलम् । वगैरह, अव्य. ( अ. )-आदि-प्रभृति | वचन, सं. पुं. (सं. न.) भाषा सरस्वती, वाणी दे. २. उक्तिः (स्त्री.), कथनं, भाषणं, वाक्यं ३. एकत्वादिबोधक: शब्दरूपभेदः (व्या.) ४. प्रतिज्ञा, संगरः । वकील, सं. पुं. (अं.) अभिभाषकः, व्यवहारदर्शकः, वाक्कील:, पक्षवादिन २. राज, दूत: ३. प्रतिनिधिः, प्रतिहस्तकः ४. पर पक्षपोषकः । -काटना, मु., येन केन प्रकारेण कालं या ( प्रे. यापयति ) २. मनो विनुद् ( प्रे.) । --पढ़ना, मु., आपद आपत् (भ्वा. प. से. ), उपनम् (भ्वा. प. अ. ) । वक्तनू फ़ौक़तन, त्रि.वि. (अ.) कदा कदा, यदा कदा २. यथाकालम् । वक्तव्य, वि. ( सं .) कथनीय, वचनीय २. हीन, कुत्सित । सं. पुं. (सं. न. ) कथनं, वचनं २. व्याख्यानम् । वक्ता, सं. पुं. (सं. वक्तु ) वाग्मिन् वाक्पटुः २. व्याख्यातृ, उपदेशकः ३. कथ (थि) क: । वक्तृता, सं. स्त्री. (सं.) वक्तृत्वं, वाग्मिता, वाक्पाटवं, भाषणकौशलं २. व्याख्यानं, भाषणं, कथनम् । वक्त्र, सं. पुं. (सं. न. ) मुखं, आस्यं, लपनं, वदनम् २. चंचु:-चूः (स्त्री.) ३. लम्बास्यं, प्रलम्बमुखम् ४. वाणाग्रम् ५. कार्यारम्भः ६. परिधानभेदः । वजह, सं. स्त्री. (अ.) कारणं, हेतुः । वज़न, सं. पुं. (अ.) भारः, गुरुत्वम् । वज़नी, वि. ( अ. वजन ) भारवत्, गुरु २. मान्य, प्रभावशालिन् । वज़ा, सं. स्त्री. (अ. वज्रअ ) रचना २. आकृति: (स्त्री.) ३. आचारः, व्यवहारः ४. दशा ५. रीति: (स्त्री.) । वज़ारत, सं. स्त्री. ( अ ) साचिव्यं, अमात्यत्वं, मंत्रित्वम् । वज़ीफ़ा, सं.पं. (अ.) (छात्र)-वृत्तिः भृतिः (स्त्री.) । वज़ीर, सं. पं. (अ.) अमात्यः सचिवः, मंत्रिन, मंत्रधर:, मंत्रज्ञः, धी-बुद्धि, सहायः । वज़ीरी, सं. स्त्री. दे. 'वज़ारत' । वज़ ू, सं. पुं. (अ.) प्रार्थनायाः पूर्वं अंगप्रक्षालनं (इस्लाम ), *अङ्गस्पर्शः । —ज, सं. पुं. (सं.) ब्राह्मणः विप्रः २. दन्तः, वजूद, सं. पुं. (अ.) अस्तित्व, सत्ता २. शरीरं ३. सृष्टिः (स्त्री.) ४. अभिव्यक्ति: ( स्त्री. ) । वज्र, सं. पुं. (सं. पुं. न. ) कुलिशं पविः, अशनि: ( पुं. स्त्री.), दंभोलि, हादिनी, शतधारं, अभ्रोत्थं, शंबः, गिरिकंटकः २. हीर:रं, हीरकः, रत्नं २. विद्युत् (स्त्री.) । वि., अति, दृढ संहत-कीकस - कठिन, दुर्भेद्य २. घोर, भीषण । दशनः, रदनः, खादनः । - तुंड, सं. पुं. (सं.) गणेशः, गजवदनः | -शोधन, सं. पुं. (सं. न. ) मुखशुद्धि: (स्त्री.) २. निंबुकं, जंबीरम् ३. मातुलुंगम् । वकूफ़, सं. पुं. (अ.) परोपकाराय दानं २. धर्मार्थ उत्सृष्टा संपद् (स्त्री.) । -नामा, सं. पुं. ( अ + फ़ा. ) दानपत्रम् | वज्र For Private And Personal Use Only " Page #575 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir वट [ ५३७ ] वत्राल - - -धर, सं. पुं. (सं.) इंद्रः, वज्रिन, वज्र, । काननं, गहनं, द(दावः, कांतार २. वाटिका पाणि: बाहु:-मुष्टिः। ३. जलम् । -पात, सं. पुं. (सं.) वज्राघातः । | -चर, सं. पु. ( सं. ) वन, चारिन्-विहारिन् --मय, वि. (सं.) दे. 'वज्र' वि. (१)। २. वन्य, पशु:-मनुष्यः । -हृदय, वि. (सं.) पाषाणहृदय, निष्क -मालो, सं. पु. ( सं.) श्रीकृष्णः २. वनपुष्परुण, निर्दय । मालाधारिन् । वट, सं. पुं. (सं.) न्यग्रोधः, वृक्षनाथः, रक्त- -राज, सं. पुं. (सं.) सिंहः । फल:, क्षीरिन, जटाल:, अवरोही, मह छायः । ---वास, सं. पु. (सं.) विपिनवसतिः (स्त्री.)। वटी, सं. स्त्री. (सं.) गुली-लिका, वटिका, -~वासी, सं. पुं. (सं.-सिन् ) आटविकः, निस्तली, दे. 'गोली' । वनेचरः, वनीकस , वनिन् । वद्ध, । सं. पुं. (सं.) बालकः, माणवकः | -स्थली, सं. स्त्री. (सं.) कानन भूमिः, वटुफ, J२. वर्णिन्, ब्रह्मचारिन् । अरण्यप्रदेशः। बड़ी, सं. स्त्री. ( सं. बंटी ) माषवटी। | वनस्पति, सं. स्त्री. ( सं. पुं.) पुष्पहीनः फलि. वणिक , सं. पुं. ( सं. वणिज) पण्याजीयः, । वृक्षः (उ. बड़, पीपल आदि ) २. वृक्षः, क्रयविक्रयिकः २. वैश्यः। पादपः ३. वटः, न्यग्रोधः । वतन, सं. पुं. (अ., जन्म, भूः-भूमिः ( दोनों शास्त्र, सं. पुं. (सं. न.) वनस्पतिविज्ञानम् । (स्त्री.), स्वदेशः २. निवासस्थान ३. जन्म- वनिता, सं. स्त्री. (सं.) नारी, रमणी स्थानम् । २. प्रिया, कांता। वतीरा. सं. पं. ( अ. प्रथा रीतिः । सोवनी, सं. स्त्री. ( सं.) वनं, दे। २. आचारः, वृत्तम्। वनी, सं. पुं. (सं.-निन् ) वानप्रस्थः दे. वत्स, सं. पु. ( सं. ) गोशिशुः, तर्णकः, दोषः. २. दे. 'वनवासी'। षकः, तंतुमः २. शिशुः, बालकः । वन्य, वि. (सं.) वन, उद्भव-उद्भूत-जात, वत्सतर, सं. पुं. (सं.) दम्यः, दुर्दीतः, गडिः।। आरण्यक, जांगल २. असभ्य, अशिष्ट वत्सतरी, सं. स्त्री. (सं.) त्रिहायणी गौः (स्त्री.)। ३. कर, हिस्त्र । वत्सर, सं. पुं. (सं.) अब्दः, हायनः, वर्षम् । वपनं, सं.पं. (सं. न.) केशमुंडनं २. बीजा. धानन् । वत्सल, वि. (सं.) अपत्यानुरागिन्, संत न | वपा, सं. स्त्री. (सं.) मेदस् ( न.), वसा। स्नेहिन, पुत्रप्रेमिन् २. स्नेहिन्, प्रेमिन् । वपु, सं. पुं. [सं. वपुस (न.)] शरीरम् । वत्सलता, सं. स्त्री. (सं.) ( सन्तानादिकस्य )। वप्र, सं. पुं. (सं. पु.न.) वरणः, साल:, प्राकारः अनुरागः स्नेहः । २.क्षेत्र ३. धूलि: (स्त्री.) ४. तुंगतट: बदन, सं. पुं. ( सं. न.) मुखं, आननम् । ५. गिरिशिखर ६. वल्मीकः क. मृत्तिकाचयः । वदान्य, वि. (सं.) बहुप्रद, दानशील, उदार -क्रीड़ा, सं. स्त्री. (सं.) वप्रक्रिया। २. वल्गुवाच , मधुरभाषिन् । वफा, सं. स्त्री. (अ.) प्रतिज्ञापालनं २. आज्ञा,बदाम, सं. पुं., दे. 'बादाम' । कारिता-अनुसरणं-पालनं ३. विश्वसनीयता वदावद, वि. (सं.) वाचाल, वाचाट। ४. सुशीलता। वध, सं. पुं. (सं.) घातः, हननं, हत्या, । -दार, वि. ( अ.+फा.) विश्वसनीय, विश्वाविशसनं, प्रमाथः, संहारः। स्य, स्वामिभक्त २. आशा,कारिन्-पालक वधक, सं. पुं. (सं.) नरघातकः, हंत, हिसकः | ३. कर्तव्यपालक । १. व्याधः, शाकुनिकः ३. मृत्युः । -दारी, सं. स्त्री. (अ.+फा.) दे. 'वका' । वधू , वधूटी, सं. स्त्री. (सं.) नवोढ़ा, नववधूः, वबा, सं. स्त्री. ( अ.) महा-,मारी, जन, मारः, पाणिगृहीता २. पत्नी ३. पुत्रवधूः। मारिका २. स्पर्शसंचारिरोगः ।। वध्य, वि. (सं.) वधार्ह, शीर्षच्छेद्य, हंतव्य । बबाल, सं. पुं. (अ.) भारः, भरः २. कष्टं, चन, सं. पु. ( सं. न.) अरण्य, विपिनं, अटवी, । विपद् (स्त्री.)। For Private And Personal Use Only Page #576 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir वमन वर्ण वमन, सं. पुं. ( सं. न. ) वम:, वमि: (स्त्री.), छर्दनं छर्दिका २. वांत वमन, द्रव्यम् । -करना, क्रि. स., उद्-, वम् (भ्वा. प. से. ), वरद, सं. पुं. (सं.) दे. 'वरदायक' ( 'वर' छद् (चु.) । २. भर्तृत्वेनांगीकरणं, पतित्वेन स्वीकरणं ३. पूजा ४. आवरणं, आच्छादनम् । वयःसंधि, सं. स्त्री. ( सं . पुं.) बाल्ययौवन मध्यकालः । [ ३८ ] वय, सं. स्त्री. [सं. वयस् (न.) आयुस् (न.), वयः क्रमः, अतीतजीवनकालः । वयस्क, वि. (सं.) प्रौढ़, प्राप्तव्यवहार, दे. 'बालिग़ ' । वयस्य, सं. पुं. (सं.) समवयस्क ः २. मित्रं, सखि (मुं.)। वरंच, अव्य. (सं.) अपि तु दे. 'बल्कि ' २. परंतु, किंतु । वर, सं. पुं. (सं.) वृति: (स्त्री.), तपोभिः देवेभ्यो याचितो मनोरथः २. ( देवादीनां ) अनुग्रहः, प्रसादः, आशिस् (स्त्री.) ३. जामातृ ४. परिणेतृ, वोढ़ ५. पतिः, भर्तृ । वि. (सं.)उत्तम श्रेष्ठ ( उ. ऋषिवरः =ऋषिश्रेष्ठः) । — मांगना, क्रिं. स., वरं याच् ( स्वा. आ. से. ) वृ ( स्वा. उ. से. ) - ( क्र. उ. से. ) । -दान, सं. पुं. ( सं . ) मनोरथपूरणं, अभीष्ट प्रदानं २. दे. 'वर' (२) । -दायक, सं. पुं. (सं.) वर-द:- प्रद:-दातृ, वांछितार्थदः, समर्द्धकः । 1 वराह, सं. पुं. (सं.) शूकरः, दे. 'सूअर' २. विष्णुः, विष्णोरवतारविशेषः । वयस्या, सं. स्त्री. (सं.) सखी दे. | वयोवृद्ध, वि. (सं.) स्थविर, जरठ-ण, जरित । वरिष्ठ, वि. (सं.) उत्तम, श्रेष्ठ, पूज्यतम । न्, वृद्ध । वरुण, सं. पुं. ( सं. ) पाशिन्, प्रचेतस्, अप्अपां पतिः, जलेश्वरः, मेघनादः २. जल ३. सूर्य: ४. ग्रह-विशेष: ( अं. नेपचून ) । वरुणालय, सं. पुं. (सं.) सागर: । वरूथिनी, सं. स्त्री. (सं.) सेना, सैन्यम् । वरे, क्रि. वि. [सं. अवारत: (अन्य ) ] इत:,. एतत्स्थानं प्रति, अत्र २. समीपं - पे-पतः, अतिकं- के ( सब १-२ अव्य. ) । वरेण्य, विं. ( सं . ) प्रधान, मुख्य २. वरणीय, सत्कार्यं । । वर्कशाप, सं. स्त्री. ( अं. ) प्रावेशनं, शिल्पशालं- शाला । वर्ग, सं. पुं. ( सं . ) ( सजातीयानां ) गणः, जाति: (स्त्री.), समूह, श्रेणी- णिः (स्त्री.) २. समस्थानवत् व्यंजनपंचकं (उ. कवर्ग:, इ.) ३. अध्यायः परिच्छेद: ४. सम-, चतुर्भुज:-- चतुरस्रः ५. समद्विघातः, वर्गफलं, कृतिः (स्त्री.) (उ. ३३= ९ वर्गीकः ) । - यात्रा, सं. स्त्री. (सं.) *जनेतं, परिणेतृप्रस्थानम् । दे. 'बरात' । - वर्णिनी, सं. स्त्री. (सं.) वर, अंगना-नारी, सुंदरी । के नीचे ) । वरदी, सं. स्त्री. (अ.) *नियतपरिधानं, विशिष्टवर्गीय - वेषः । वरक़, स. पुं. ( अ. ) ( पुस्तक - ) पत्र- पर्णे २.३. सुवर्ण रजत, - पत्रम् । गरदानी, सं. स्त्री. ( अ. + फ़ा. ) ग्रन्थे विहंगम दृष्टिः ( (at.), अध्ययनाडम्बरः, अध्ययनाभासः । वरन्, अन्य. ( सं . वरं > ) अपि तु । वरना, अव्य. (अ.) अन्यथा, इतरथा, नो चेत् । वराटिका, सं. स्त्री. (सं.) कपर्दिका, दे. 'कौड़ी' । वरानना, सं. स्त्री. (सं.) सुंदरी, वरवर्णिनी, सुवदना-नी । – फल, सं. पुं. ( सं. न. ) दे. 'वर्ग' (५) । - मूल, सं. पुं. (सं. न. ) पूरितसमानांकद्वय - याकः पदं (उ. ९ का वर्गमूल = ३ ) । वर्चस, सं. पुं. (सं. न.) तेजस् (न.), कांति:: (स्त्री.)। - स्याह करना, मु., अत्यन्तं - अत्यर्थं लिख वर्चस्वी, वि. (सं. स्विन्) तेजस्विन्, कांतिमत् । (तु, प. स.) 1 वर्जन, सं. पुं. (सं. न. ) त्यागः २. निषेधः । वरगलाना, क्रि. स. ( फ़ा. वरग़लानीदन ) वर्जनीय, वि. ( सं . ) त्याज्य, हेय, वर्ज्य २. निषेधार्ह । लुभ- विमुह् (प्रे.) २. प्रत- वन (प्रे. ) । वरजिश, सं. स्त्री. (फ़ा. ) व्यायामः, दे. | वरण, सं. पुं. (सं. न.) वृति: (स्त्री.), उद्ग्रहणं वर्जित, वि. (सं.) त्यक्त, उत्सृष्ट २. निषिद्ध, हेय । । वर्ण, सं. पुं. (सं.) आर्याणां ब्राह्मणादिविभाग For Private And Personal Use Only Page #577 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir वर्णन । ५३६ ] वली चतुष्टयं, जातिः (स्त्री.) २. रंगः, रागः। सं. पुं. (सं.) क्रियायाः कालभेदः (व्या.) ३. प्रकारः, विधा ४. अक्षरं ५. रूपं, आकारः ।। २. वृत्तांतः ३. प्रचलितव्यवहारः । -धर्म, सं. पुं. (सं.) ब्राह्मणादिकर्तव्यकलापः। वर्ती, सं. स्त्री. (सं.) वर्तिः-तिका (स्त्री.), दे. -नाश, सं. पुं. (सं.) वर्ण-अक्षर, लोपः-पातः। 'बत्ती' २. शलाका। (निरुक्तः ) ( उ., पृषतोदर से पृषोदर )। -वर्ती, वि. ( सं.-तिन् )-स्थ, वासिन् । -माला, सं. स्त्री. (सं.) वर्णसमाम्नायः,वर्तुल, वि. (सं.) गोल, मंडल-चक्र,-आकार। अक्षरश्रेणी ( उ. अ से ह तक)। वर्दी, सं. स्त्री., दे. 'वरदी'। -विकार, सं. पुं. (सं.) अक्षरविक्रिया (निरुक्त) वर्द्धन, सं. . ( सं. न.) वृद्धिः उन्नतिः (स्त्री.) (उ. गाली से गारी)। २. समृद्धिः (स्त्री.)। -विचार, सं. पुं. (सं.) व्याकरणांगविशेष:, / वर्मा, सं. पुं. (सं. वर्मन् ) क्षत्रियोपाधिः । शिक्षा। वर्वर, सं. पुं. (सं.) देशविशेषः २. वर्वरवासिन् -विपर्यय, सं. पुं. (सं.) अक्षरव्यत्यासः | ३. असभ्यः, ग्राम्यः ४. म्लेच्छः, बर्बरः, वर्वरः, (निरुक्त; उ. हिंस से सिंह )। अनार्यः। -वृत्त, सं. पुं. (सं. न.) अक्षरछंदस् (न.)। | वर्ष, सं. पुं. (सं. पुं. न.) अब्दः, हायनः, -श्रेष्ठ, सं. पुं. (सं.) ब्राह्मणः । समा, शरद् (स्त्री.), सं, वत्सरः, संवत् -संकर, सं. पुं. (सं.) वर्ण-जाति, मिश्रणं (अव्य.) २. मेधः ३. वृष्टिः (स्त्री.) ४. महा२. मिश्रजः, संकरजः, सांकरिकः। भूभागः। -हीन, वि. (सं.) बहिष्कृत, अपांक्तय । | -गांठ, सं. स्त्री. (सं+हिं.) वर्षवृद्धिः (स्त्री.), वर्णन, सं. पुं. (सं. न.) निरूपणं, विवरणं, जन्म,-दिवसः-दिन-तिथिः । व्याख्यानं, सविस्तरकथनं, वर्णना २. स्तवन, -फल, सं. पु. (सं. न.) वार्षिकग्रह-फलगुणकथनं ३. रंजनं, चित्रणम् । दर्शिका-पत्रिका। वर्षा, सं. स्त्री. [सं. वर्षाः ( स्त्री. बहु.)] -करना, क्रि. स., विवृ (स्वा. उ. से.), निरूप, प्रावृषा-प् (स्त्री.), मेघागमः, घनकालः, वण (चु.), सविस्तरं कथ (चु.), व्याख्या जलार्णवः, घनाकारः २. वृष्टिः ( स्त्री.), वर्षः(अ. प. अ.)। वर्णनीय, वि. (सं.) वर्णयितव्य, निरूपयि धै र्षणं, गोघृतं, परामृतम् । -काल, सं. पुं. (सं.) दे. 'वर्षा' (१)। तव्य, याख्येय, वये। -होना, क्रि, अ., वृष् (भ्वा. प. से.), वृष्टिः वर्णित, वि. (सं.) निरूपित, व्याख्यात भू । मु., अतिमात्रं अवपत् (भ्वा. प. से.)। २. उक्त, कथित । वलद, सं. पु. ( अ. वल्द ) पुत्रः २. संतानः । वर्णी, सं. पुं. (सं.-णिन्) ब्रह्मचारिन् २. लेखकः वलय, सं. पु. ( सं. पुं.न.) कटकः, आवापकः ३. चित्रकारः। २. वेष्टनं ३. मंडलम् । वश्य, वि. (स.) वणनाय, निरूपायतव्य, | वलयित, वि. (सं.) परिवेष्टित, परिवृत । प्रस्तुत, उपमेय, व्याख्यातव्य । वलवला, सं. पुं. (अ.) उत्साहः, औत्सुक्यम् । वर्तन, सं. पुं. (सं. न.) व्यवहारः, वृत्तं, | वलाहक, सं. पुं. (सं.) मेघः, जलदः चेष्टितं, आचरणं २. वृत्तिः (स्त्री.), आ-उप, | २. पर्वतः। १का २. पात्रम्, भोजन, ६. 'बत्तन' । वलि, सं. स्त्री. (सं.) दे. 'वली'। वर्तनी, सं. स्त्री. (सं.) मार्गः, पथः, पथिन् । वलित, वि. (सं.) न(ना)मित, आभुग्न २. पेषणभतः (स्त्री.) ३. त': (पुं. स्त्री.), २, आवर्जित, प्रह ३. वलयित, दे. ४. वलीमत, तर्कुटम् । ४. वसती-तिः ( स्त्री.), अवस्थितिः । वलिभ, वलिन .. आच्छादित ६. सहित (स्त्री.) ५. वर्णविन्यासः, शब्दाक्षरोच्चारणम् ।। ७. लग्न। वर्तमान, वि. (सं.) प्रचरि(लि)त, प्रचल, | वली, सं. स्त्री. ( सं.) वलिः (स्त्री.), बली-लि: सर्वसंमत २. उपस्थित, विद्यमान ३. आधु- | (स्त्री.), दे. 'झुरी' २. श्रेणी, अवली-लि: निक(-की), अधुना-इदानों, तन(-नी स्त्री.)। (स्त्री.) ३. रेखा ४. पुटः, भंगः। For Private And Personal Use Only Page #578 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir वली वली, सं. पुं. (अ.) स्वामिन् प्रभुः २ शासकः ३. साधुः । - अहद, सं. पुं. ( अ ) युवराजः । वल्कल, सं. पुं. ( सं. पुं. न. ) वल्क: कं, वृक्षत्वचा-च् (स्त्री.), चोचं, शल्कं, छल्ली २. वल्कल-वल्क, वसनं वस्त्रम् । वल्द, सं. पुं. (अ.) दे. 'वलद' । [ ५४० ] वल्दियत, सं. स्त्री. ( अ ) पितृनामन् (न.) । वल्मीक, सं. पुं. (सं.) वामलूरः, बल्मकूटं, कृमिशैलकः, नाकुः २. वाल्मीकिः मुनिः । वल्लभ, वि. ( सं . ) प्रियतम, दयित । सं. पुं. (सं.) नायकः, प्रियतमः, कांत: २. पतिः, भर्तृ । वल्लभा, वि. (सं.) प्रियतमा, कांता, दयिता । सं. स्त्री. (सं.) प्रिय-, पत्नी भार्या । वल्लरी-रि, सं. स्त्री. ( सं . ) लता, वल्ली-ल्लिः (स्त्री.) २. मंजरी । वशंवद, वि. (सं.) वशवर्तिन् अनुग, आज्ञा कारिन । सं. पुं. (सं.) सेवकः, दासः । श, सं. पुं. (सं. पुं. न. ) अधिकार:, प्रभुत्वं २. शक्तिः (स्त्री.), प्रभाव:, सामर्थ्य 3. अधीनता, आयत्तता ४ इच्छा, कामना । वि. (सं.) अधीन, आयत्त । - (में) करना, क्रि. स., वशीकृ, दम् (प्रे., दि. प. से. ), वशं नी ( भ्वा. प. अ. ), नियम् (भ्वा. प. अ. ) । वर्त्ती, वि. (सं.- वर्तिन् ) वशग, वशानुग, -वश, अधीन, आयत्त, परतंत्र । 'वशिष्ठ, सं. पं. दे. 'वसिष्ठ' । वशी, वि. ( सं . - शिन ) जितात्मन, संयमिन् २. अधीन, - आयत्त ३. शक्तिमत, समर्थ । वशीकरण, सं, पुं. ( सं. न. ) ( मणिमंत्रौषधादिभिः ) स्वायत्तीकरणं २ दम:-मनं, निग्रह:हां, वशीकारः । वशीकृत, विं. (सं.) वशं नीत २. मंत्रमोहित ३. मुग्ध । वशीभूत, वि. (सं.) अधीन, आयत्त २. परवशग । वश्य, वि. ( सं . ) विनेय, शिक्ष्य, दम्य । वश्यक, वि. (सं.) आज्ञा-वचन, अनुवर्तिन् ग्राहिन् - सेविन् - पालक वश्यका, सं. स्त्री. (सं.) आज्ञानुवर्तिनी पत्नी । वश्यता, सं. स्त्री. (सं.) अधीनता, परवशता, पराधीनता । वस्ति वश्या, सं. स्त्री. (सं.) वशवर्तिनी, आज्ञानुवर्तनी - पत्नी । वषट्, अन्य. ( सं .) देवनिमित्तकहविस्त्यागमंत्रः । कार, सं. पुं. ( सं . ) होम:, देवयज्ञः । वसंत, सं. पुं. (सं.) ऋतुराजः, दे. 'बसंत' २. शीतलारोग : ३. मसूरिकारोगः ४. रागभेदः ५. तालभेदः । - तिलक, सं. पुं. ( सं . क:-कं- का) वर्णवृत्त-भेदः । पंचमी, सं. स्त्री. (सं.) श्रीपंचमी, माघशुक्ल पंचमी । वसंती, वि., दे. 'बसंती' | वसती, सं. स्त्री. (सं.) वसति:- वस्तिः (स्त्री.), नि., वासः २. गृह, सद्मन् (न.) । वसन, सं. पुं. ( सं. न. ) वस्त्रं, वासस् (न.) 1 वसिष्ठ, सं. पुं. (सं.) ऋषिविशेषः २. सप्तर्षिमंडलांतर्गत नक्षत्रविशेषः । वसीका, सं. पुं. ( अ ) समय-प्रतिज्ञा-संविद्,लेख:- पत्रम् । नवीस, सं. पुं. (अ. +फा.) दे. 'अजनवीस' । वसीयत, सं. स्त्री. ( अ ) ( मरणासन्नस्य ) अंत्यादेशः २. रिक्थविभागव्यवस्था । -करना, क्रि. स., मृत्युपत्रेण दा (जु. उ. अ.)ऋ (., अर्पयति ) । नामा, सं. पुं. (अ. + फ़ा.) मृत्यु, पत्र लेखः । वसीला, सं. पुं. ( अ ) उपाय:, साधनं, २. साहाय्यं ३. संबंध: । वसुंधरा, सं. स्त्री. (सं.) वसुधा-दा, पृथिवी, दे. | वसु, सं. पुं. ( सं. न. ) धनं २ रत्नं ३. सुवर्ण ४. जलम् । ( सं. पुं. ) गणदेवताविशेषः, अष्टवसवः ( धरो ध्रुवश्च सोमश्च विष्णुश्चैवानिलोऽनलः । प्रत्यूषश्च प्रभातच वसवोऽष्टौ क्रमात् स्मृताः ) २. वकवृक्षः ३ रश्मिः । अष्ट इति संख्या ४. सूर्य: ५. विष्णुः ६. सज्जनः । वसुदेव, सं. पुं. (सं.) कृष्णपितृ, आनकदुंदुभिः । वसुधा, सं. स्त्री. (सं.) वसुदा, वसुमती, पृथिवी, दे. | वसूल, वि. ( अ ) प्राप्त, लब्ध २. समाहृत | वसूली, सं. स्त्री. ( अ. वसूल ) प्राप्तिः (स्त्री.), अभिगमः ३. समाहारः । वस्ति, सं. स्त्री. (सं. पुं. स्त्री. ) नाभेरधोभागः, दे. 'पेड़ ' २. मूत्राशयः ३. रेचनयंत्रं, शृङ्गकःकं, दे. 'पिचकारी' | For Private And Personal Use Only Page #579 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir वस्तु [ २४१ ] –कर्म, सं. पुं. [ सं.-र्मन् (न.) ] यंत्रेण मल- | मूत्रनिष्कासनम् । वस्तु, सं. स्त्री. (सं. न.) पदार्थ:, द्रव्यं २. सत्यं ३. वृत्तांत : ४. नाटकीयाख्यानं, कथावस्तु (न.)। वस्तुतः, अन्य. (सं.) यथार्थतः, तत्वतः, न, सत्यं, यथार्थम् । याथा वस्त्र, सं. पुं. (सं. न.) निवसनं, वासस् (न.), आच्छादनं चेल: लं, अंशुकं, अंबरं, पटः निचयः, परिधानं, छादं, वासं, कर्पटः । वस्फ़, सं. पुं. ( अ. ) सद्गुणः, विशेष:, धर्म: २. स्तुतिः (स्त्री.) । वरल, सं. पुं. ( सं . ) संगमः, समागमः, निलनम् | सर्व . ( सं . सः ) तद् तथा अदस् के रूप | वह, [ उ. स:, असौ (पुं.), सा, असौ (स्त्री.), तद्, अद: ( न. ) ] 1 बहन, सं. पुं. (सं. न. ) प्रापणं, स्थानांतरे नयनं, २. धारणं, उत्थापनम् । वहम, सं. पुं. ( अ ) भ्रमः, भ्रांति: ( स्त्री. ) २. मिथ्या, - शंका-संदेहः ३ मिथ्याधारणा ४. व्याधिकल्पना, कुक्षिरोगः । वहमी, वि. ( अ. वहम ) संशयात्मन्, शंकाशील, आशंकिन् । वहशो, वि. ( अ. ) वन्य, आरण्य २. असभ्य, अशिष्ट ३. दुर्दात, दुर्दमनीय | वहाँ, क्रि. वि. (हिं. वह) तत्र, तस्मिन् स्थाने । --से, क्रि. वि., ततः, तस्मात् स्थानात् । वहीं, क्रि. वि. (हि. वहां + ही ) तत्रैव, तस्मि - च्नेव स्थाने । वही, सर्व. (हिं. वह + ही ) स एव असावेव (पुं.), सैव, असावेव (स्त्री.), तदेव, अद एव (न.) इ. 1 वाग्देवी वाइस प्रेसिडेंट, सं. पुं. ( अं. ) उपसभापतिः, उपप्रधानः । वाइसराय, सं. पं. ( अं. ) राजतिनिधिः । वाक्, सं. पुं. [ सं . वाच् (स्त्री.)] वाणी, वाक्यं २. सरस्वती, शारदा ३. वागिन्द्रियं, वाक्शक्तिः (स्त्री.) । पटु, वि. (सं.) वाक् कुशल, वाग्मिन् । पटुता, सं. स्त्री. (सं.) वाकूपाटवं, वाग्मिता, " वाग्वैदग्ध्यम् । - पारुण्य, सं. पुं. ( सं. न. ) अप्रियवाक्योच्चारण, कटुभाषणम् । - संयम, सं. पुं. (सं.) वाग्यमः, मितवाच् (ait.) ! वाक, सं. पुं (सं.) वाक्यं वचनम्, उक्ति:(स्त्री.) । सं. स्त्री, वाणी, सरस्वती, शारदा । वाक़ई, क्रि. वि. (अ.) वस्तुत:, यथार्थतः । वि ., यथार्थ, सत्य । वाक़ा, वि. ( अ. ) स्थित,-वर्ति, स्थ' । बाक़ि (के) आ, सं. पुं. (अ.) घटना, वृतं वह्नि, सं. पुं. (सं.) अनल:, अग्निः, दे. 'आग' । वांछनीय, वि. (सं.) स्पृहणीय, कमनीय, काम्य २. वांछित, दे. । वांछा, सं. स्त्री. (सं.) इच्छा, अभिलाषः, २. समाचारः । वाकिफ़, वि. (अ.) परिचित, अभ्य २. ज्ञातृ, बोदूधृ, अभिज्ञ ३. अनुभविन् । कार, वि. ( अ. + फ्रा.) कार्याभिज्ञ, कुशल, निष्णात । वाकफ़ियत, सं. स्त्री. ( अ ) परिचयः, परि-ज्ञानं २. अनुभवः । वाक्य, सं. पुं. (सं. न. ) पदसमूहः, योग्यता-कांक्षासक्तियुक्तः पदोच्चयः २. कथनं, वचनं६. सूत्रं ४. आभाणकः । वागा, सं. स्त्री. (सं.) बल्गा, दे. 'लगाम' । वागीश, सं. पुं. (सं.) बृहस्पति: २. ब्रह्मन् (पुं.) ३. वाग्मिन्, कविः । वि. (सं.) सुवक्तृ,. सुव्याख्यातृ । वागुरा, सं. स्त्री. (सं.) मृगबंधनार्थं जालभेदः । वागुरिक, सं. पुं. ( सं . ) व्याधः, शाकुनिकः । वाग्जाल, सं. पुं. (सं. न. ) वाग्डंबर:, शब्दाडंबरः, वाक्प्रपंच: । वाग्दंड, सं. पुं. ( सं . ) निर्भर्त्सना, अधिक्षेपः । वाग्दत्ता, सं. स्रो. (सं.) *नियतवरा, *वाचा-पिता (कन्या) | कामना । वांछित, विं. (सं.) अभिलषित, अभीष्ट । वा, अव्य. (सं.) अथवा । २. दे. 'वह' । वाइदा, सं. पुं., दे. 'वादा' । वाग्दान, सं. पुं. (सं. न. ) कन्यादानप्रतिज्ञा । वाइस चान्सलर, सं. पुं. ( अं. ) विश्वविद्याल. वाग्दुष्ट, वि. ( सं . ) कटुभाषिन् २. अभिशप्त । यस्य उपाध्यक्षः, कुलपतिः । वाग्देवी, सं. स्त्री. ( सं . ) सरस्वती, दे. | For Private And Personal Use Only Page #580 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir वाग्मी [५४२ ] वात्स्यायन - - % - वाग्मो, सं. पु. ( सं. वाग्मिन् ) वाग्विदग्धः, ) करण, सं. पुं. (सं. न.) वीर्यवृद्धिकरः वाकपटुः, सुवक्त २. पंडितः, प्राज्ञः ३. बृह- प्रयोगः। स्पतिः। वाट, सं. पु. (सं.) मार्गः २. वास्तु ३.मंडपः। वाग्विलास, सं. पुं. (सं.) सानन्दो वार्तालापः।। वाटर, सं. पुं. (अं.) जलं, वारि (न.) २. वाङमय, वि. ( सं.) वाक्यात्मक २. वाग्विहित | जलाशयः ३. मूत्रम् ४. हीराभा।। ( पापादि)। सं. पुं. ( सं. न.) भाषा २./ -प्रूफ, वि. ( अं.) अक्लेद्य, जलाभेद्यम् । साहित्यम् । -फाल, सं. पु. (अं.) जलप्रपातः । 'वाच , सं. स्त्री. (सं.) वाणी २, वाक्यम् । -वर्क्स, सं. पु. ( अं.) * जलयंत्र २. जलयंवाच, सं. स्त्री. ( अं.) *घटिका । त्रालयः । वाचक, वि. (सं.) ज्ञापक, द्योतक, सूचक, / वाटिका, सं. स्त्री. (सं.) क्षुद्र,-आरामः बोधक २. पाठक, वाचयित ३. वक्त। उद्यानं, दे. 'बगीचा'। --लुप्ता, सं. स्त्री. ( सं. ) उपमालंकारभेदः। वाडवाग्नि, सं. स्त्री. (सं.) वाडवः, व(वा)इ. वाचन, सं. पुं. (सं.) पठनं, अध्ययन, वानलः । उच्चारणं २. कथनं ३. प्रतिपादनम्। वाण, सं. पुं. (सं.) बाणः, दे। वाचस्पति, सं. पुं. (सं.) बृहस्पतिः, मुविद्वस्। वाणिज्य, सं. पुं. (सं. न.) क्रयविक्रयः, वाचा, सं. स्त्री. (सं.) वाणी, गिरा २. वाक्यं, ! निगमः, वणिक्कमन् (न.), व्यापारः । वचनम् । वाणी, सं. स्त्री. (सं.) दे. 'वाणी' । वाचाट-ल, वि. (सं.) बहुभाषिन्, मुखर, वात, सं. पुं. (सं.) पवनः, वायुः, दे.। जल्प(ला)क२. वाक्पटु । २. देहस्थवायुः ३. रोगभेदः । वाचाल(ट)ता, सं. स्त्री. (सं.) मुग्वरता, -चक्र, सं. पुं. (सं.न.) चक्रवातः, वातावतः । बहुभाषिता २. वाग्वैदग्ध्यम् । -ज, वि. ( सं.) वातप्रकोपज ( रोगादि)। वाचिक, वि. (सं.) वाग्विषयक २. मौखिक। -जात, सं. पुं. (सं.) हनुमत्, मारुतिः। वाची, वि. ( सं.चिन् )-सूचक, बोधक । -तूल, सं. पुं. (सं. न.) वृद्धसूत्रकं, ग्रीष्मवाच्य, वि. (सं.) वचनीय, कथनीय २. | हासम् । अभिधेय, अभिधावृत्त्या बोध्य ( अर्थ.) ३. -ध्वज, सं. पुं. (सं.) वातरथः, मेघः । कुत्सित, होन। -पट, सं. पुं. (सं.) ध्वजः, पताका । वाच्यार्थ, सं. पुं. (सं.) अभिधेय-मूलशब्द, -पुत्र, सं. पुं. (सं.) हनुमत् २. भीमः । ३. महाधूर्तः। अर्थः, शब्दार्थः । -प्रकोप, सं. पुं. (सं.) ( शरीरे) वायुवृद्धिः वाच्यावाच्य, वि. (सं.) भद्राभद्र (वाक्य दि)। (स्त्री.)। वाज, सं. पुं. (अ.) उपदेशः, धार्मिक -रोग, सं. पुं. (सं.) वायु-वात, व्याधिः, व्याख्यानम् । चलातंकः, अनिलामयः, दे. 'गठिया'। वाजपेय, सं. पुं. (सं. पुं.न.) श्रौतयागभेदः। -वैरी, सं. पुं. (सं.-रिन् ) वातादः, दे। वाजपेयी, सं. पु. ( सं.-यिन् ) हुतवाजपेयः | वाताद, सं. पु. (सं.) नेत्रोपमफलः, वाताम्रः, २. ब्राह्मणोपाधिभेदः ३. सुकुलजः। वातवैरिन् । ( फल ) वातानं, वादामम् (दे. वाजसनेय, सं. पुं. (सं.) यजुर्वेदस्य शाखा- | बादाम)। विशेषः २. याज्ञवल्क्यः । वातायन, सं. पुं. (सं. न.) क्षुद्रखडकिका वाजिब-बी, वि. (अ.) उचित, योग्य, युक्त । २. दे. 'रोशनदान'। वाजी, सं. पुं. (सं..जिन् ) अश्वः, घोटकः | वातुल, सं. पं. (सं.) उन्मत्तः, दे. 'बावला'। २. आमिक्षामस्तु (न.), मोरटः (=फटे वात्सल्य, सं. पुं. (सं.) रसविशेषः (काव्य.)। हुए दूध का पानी) ३. पक्षिन् ४. बाणः । (सं. न.) पित्रोः अपत्यस्नेहः, वत्सलता। ५. वासकः। । वात्स्यायन, सं. पुं. (सं.) न्यायसूत्रभाष्य-कर, वि. (सं.) कामोद्दीपक ( औषधादि)। कारः २. कामसूत्रप्रणेत, पक्षिलः, मंदनागः । For Private And Personal Use Only Page #581 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra वाद www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [ १४३ ] वाद, सं. पुं. (सं.) वादानुवादः, वादप्रतिवादः, ऊहापोहः, *शास्त्रार्थः, दे. । २. सिद्धांतः, -राद्धांत: ३. कलह:, विवादः । -विवाद, सं. पुं. (सं.) दे. 'वाद' (१) । वादक, सं. पुं. (सं.) वाधवादयितृ २. वक्तृ ३. वादिन्, तार्किक । वादन, सं. पुं. (सं. न. ) वाद्य - वादित्र, ध्वननं २. वाद्यं, दे. । 'वादरायण, सं. पुं. (सं.) महर्षि वेदव्यासः । वादा, सं. पुं. ( अ. वाइदा ) नियतसमयः २. प्रतिज्ञा, वचनं, संगरः । वादानुवाद, सं. पुं. (सं.) दे. 'वाद' (१) । वादी, स. पुं. ( सं . - दिन ) अभियोक्तृ, अभिओगिन्, अर्थिन्, शिरोवर्तिन् दे. 'मुद्दई ' २. प्रस्तावकः, प्रस्तोतृ ३. वक्तृ । --प्रतिवादी, सं. पुं. ( सं . वादिप्रतिवादिनौ ) अर्थिप्रत्यर्थिन २. पक्षिप्रतिपक्षिणौ (सब द्वि.) । वाद्य, सं. पुं. (सं.) वादित्रं, आतोद्यम् । वानप्रस्थ, सं. पुं. (सं.) तृतीयाश्रमिन्, वैखानसः, आरण्यकः, तापसः २. तृतीयाश्रमः ३-४. मधूक- पलाश - वृक्षः । वानर, सं. पुं. (सं.) कपिः, मर्कटः, दे. 'बंदर' । वानरी, सं. स्त्री. ( सं . ) मर्कटी, वलीमुखी । वापस, वि. (फ़ा.) वि-प्रत्या- प्रतिनि, वृत्त, प्रति, गत आगत-यात-आयात | -आना, क्रि. अ., प्रत्यागम्, प्रत्यावृत् (भ्वा. आ. से. ) । -करना, क्रि. स., प्रतिगम्, प्रतिनिवृत् (प्रे.) २. प्रतिदा ( जु. उ. अ. ), प्रति ऋ (प्रे. प्रत्यर्पयति ) । ----जाना, क्रि. अ., प्रति गम्- निवृत् । वारंट २. प्रतिकूल, विरुद्ध, प्रतीप ३. कुटिल ४. दुष्ट, नीच ५. अभद्र, अमंगल | - देव, सं. पुं. (सं.) शिवः । वाबस्ता, वि. (फ़ा. ) बद्ध, संयत, २. लग्न, लिष्ट ३. संबद्ध, संग्रथित । वाम, वि. (सं.) सव्य, दक्षिणेतर, दे. 'बायाँ' - मार्ग, सं. पुं. ( सं . ) वामाचार:, वेदविरुद्धसंप्रदायविशेषः । -मार्गी, सं. पुं. ( सं . -गिन् ) वामाचारिन्, वेदविरोधिन् । - लोचन, सं. स्त्री. (सं.) वामाक्षी, सुंदरी, शोभना । वामन, वि. (सं.) खर्व, ह्रस्व, लघुकाय । सं. पु. ( सं . ) खट्टनः, खट्टेरकः, खर्वः, हस्वः २. विष्णुः ३. शिवः ४. पुराणग्रंथविशेषः । - अवतार, सं. पुं. (सं. वामनावतारः ) अदितिगर्भजो विष्णोः पंचमावतारः । वामनी, सं. स्त्री. ( सं . ) खर्वा, खट्टनी । वामा, सं. स्त्री. ( सं . ) नारी, रामा, २. दुर्गा, गौरी ३. लक्ष्मी, सरस्वती ४. स्कन्दानुचरी । वामी, सं. स्त्री. (सं.) बडवा, २. रासभी ३. श्रृंगाली । वायव्य, वि. ( सं . ) १.३. वायु, संबंधिन्देवताक- निर्मित, वायवीय । —कोण, सं. पुं. ( सं . ) पश्चिमोत्तर,-कोण:दिशा, वायवी । वायस, सं. पुं. (सं.) काकः, ध्वांक्षः । - वायु, सं. स्त्री. (सं. पुं.) वातः, पवन, अनिल:, गंधव (वा) हः, समीर:-रणः, मरुत्, मा (म) रुतः, श्वसन, मातरिश्वन्, सदागतिः, जगत्प्राणः, नभस्वत्, पवमानः प्रभंजनः, धूलिध्वज:, फणिप्रियः । - कोण, सं. पुं. (सं.) पश्चिमोत्तरदिशा, वायवी । -लेना, क्रि. स., प्रत्यादा, पुनः स्वीकृ । - होना, क्रि. अ., दे. 'वापस जाना' २. प्रतिदादा (कर्म.)। वापसी, वि. (फ़ा. वापस ) प्रत्या- प्रतिनि, वृत्त । सं. स्त्री, प्रति, गमनं- आगमनं - आवृत्तिः (स्त्री.) २. प्रति, दानं अर्पण-आदानम् । वापी, सं. स्त्री. (सं.) वापिः (स्त्री.) दीर्घिका, मंडल, सं. पुं. (सं. न. ) अंतरि (री)क्षं, वापिका । -पुत्र, सं. पुं. (सं.) पवन, सुतः पुत्रः, हनुमत् । - भक्षण, सं. पुं. (सं.) वायु, भक्ष:-भुज्, यतिभेदः २. पवनाशनः, सर्पः I गगनं २. वातावरणम् । वारंट, सं. पुं. ( अं. ) अधिकारपत्रम् | - गिरफ्तारी, सं. स्त्री. (अं. + फ़ा. ) *आसेधाधिकारपत्रम् । - गुल्म, सं. पुं. (सं.) वातचक्रं, चक्रवातः, वात्या २. जल, गुल्मः- आवर्तः ३. वातगुल्मः, उदरव्याधिभेदः । For Private And Personal Use Only Page #582 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir वारंवार [५४४ ] वावदूक - --तलाशी, सं. पुं. ( अं.+फा.) *अन्वेषणा- | -द, सं. पुं. (सं.) वारि,-धरः-बाहः, मेघः। धिकारपत्रम् । | -धि, सं. पुं. (सं.).वारिनिधिः, सागरः। --रिहाई, सं. पुं. ( अं.+फा.) ( कारागारा- -यंत्र, सं. पुं. (सं. न.) जलयंत्रं, दे. दिभ्यः) मोचनाधिकारपत्रम् । 'फवारा'। वारंवार, क्रि. वि., दे. 'बारंबार'। वारित, वि. (सं.) नि-अव,-रुद्ध, निवारित वार, सं. पुं. (सं.) पर्यायः, क्रमः २. अवसरः, २. निषिद्ध, प्रतिषिद्ध, प्रत्यादिष्ट ३. आच्छादित, समयः ३. सप्ताह,-दिन-दिवसः, वासरः, | आवृत। ४. द्वारं ५. आधातः, प्रहारः, आक्रमणं | वारिद', सं. पुं. (सं.) मेघः, जलदः । ६. आवरणं ७. समूहः ८. पारः रम् । वारिद, वि. (अ.) आगत, आयात २. प्रकट, - -करना, क्रि. स., अभिद्र (भ्वा. प. अ.), | अमित (स्वा प अ) आविर्भूत। अवस्कंद (भ्वा. प. अ.), आक्रम् (भ्वा. प. | वारिस, सं. पुं. (अ.) अंश, हरः-हारिन्-भाज ,. से., भ्वा. आ. अ.)। दायादः, दायिकः २. उत्तराधिकारिन् । -ख़ाली जाना, मु., लक्ष्यं न व्यध ( कर्म.), -होना, क्रि. अ., पैतृकसंपदाधिकारी जन् अस्त्रं अपलक्ष्यं पत् ( भ्वा. प. सं.) २. युक्तिः । (दि. आ. से.), दायादो भू । निष्फलीभू। वारीद्र, सं. पुं. (सं.) वारीशः, सागरः । वारक, वि. ( सं. ) निषेधक, प्रतिबंधक। वारुणो, सं. स्त्री. (सं.) मदिरा, मद्यं, सुरा वारण, सं. पुं. ( सं. न.) नि-प्रतिषेधः, । २. पश्चिमदिशा ३. वरुणानी । २. विघ्नः, अंतरायः। (सं. पुं.) गजः, वाण- वाडे, सं. पु. ( अं.) रक्षणं, गोपन २. पुरवारः, कवचः-चम् । विभागः ३. कारागारादीनां विभागः। वारदात, सं. स्त्री. ( अ.) दुर्घटना २. विप्लवः, | वार्डर, सं. पु. ( अं.) रक्षकः २. कारारक्षकः । संक्षोभः । वात्तो, सं. स्त्री. (सं.) विषयः, प्रसंगः २.किंववारना, क्रि. स. (सं. वारण>) अनिष्टवारणाय | दंती, जनश्रुतिः (स्त्री.) ३. समाचारः,. उत्सृज् (तु. प. अ.)-त्यज ( भ्वा. प. अ.)। वृत्तं ४. वार्तालापः, दे। सं. पुं., शांतिकरः उत्सर्गः, कष्टवारकं दानम् । | वात्तालाप, सं. पुं. (सं.) संलापः, संवादः, वारनारी, सं. स्त्री. (सं.) वारमुखी, वारांगना, संभाषणं, आलापः। वेश्या, वारविलासिनी। -करना, क्रि. अ., संलप्-संवद (भ्वा. प. से.), वारपार, सं. पुं. [सं. अवारपारौ-रे (पुं.न.)] | संभाष (भ्वा. आ. से.)। ( नद्यादीनां ) तटद्वयं २. अंतः, सीमा। क्रि. / वार्त्तिक, सं. पु. ( सं. न. ) उक्तानुक्तदुरुक्तार्थवि., अवारात् पारं यावत् २. निकटपार्थात् । प्रकाशको ग्रंथः;-टीका । (सं.पु.) चरः २. दूतः। परपावपर्यंतम् । वाक्य, सं. पुं. (सं. न.) वार्द्धकं, वृद्धत्वं, वारांगना, सं. स्त्री. (सं.) वारनारी, दे.। । __ वृद्धावस्था, स्थविरम् । वारा, सं. पुं. (सं. वारणं> ) मितव्ययः | वार्षिक, वि. (सं.) आब्दिक, वात्सरिक, सांव२. लाभः। त्सरिक २. प्रावृषेण्य। वाराणसी, सं. स्त्री. (सं.) काशी-शिका, | वालं टेयर, सं. .(अं.) स्वयंसेवकः, स्वेच्छाशिवपुरी, तपःस्थली, व(वा)रणसी। सेवकः। वारान्यारा, सं. पुं. (हिं. वार+न्यारा) वाल(लि)दैन, सं. पुं. (अ.) पितरौ, मातानिर्णयः, निश्चयः, निर्धारण २. समाधान, पितरौ ( दोनों दि.)। संधिः, शमः-मनम् । वालिद, सं. पुं. (अ.) पितृ, जनकः । वारापार, सं. पुं. तथा क्रि. वि., दे. 'वारपार'। वालिदा, सं. स्त्री. (अ.) मातृ (स्त्री.), जननी। वाराह, सं. पुं. (सं.) वराहः, दे.। वाल्मीकि, सं. पुं. (सं.) रामायणप्रणेतृमुनिवारि, सं. पुं. (सं. न. ) पानीयं, जलं, दे.। विशेषः, व(वा)ल्मीकः, प्राचेतसः, आद्यकविः, -चर, सं. पुं. (सं.) जलजन्तुः २. मत्स्यः । । कविज्येष्ठः । -ज, सं. पुं. (सं. न.) कमल,वारि-जातं-रुहम् । वावदूक, सं. पुं. (सं.) वाग्मिन् २. वाचालः। For Private And Personal Use Only Page #583 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir बावैला विकल्प वावैला, सं. पु. (अ.) विलापः २. कोलाहलः।। वाहक, सं. पुं. (सं.) भारवाहः, भारिकः वाष्प, सं. पुं. (सं.) उष्मन्, दे. 'भाप' | २. सारथिः, यंत्। २. अश्रु (न.)। वाहन, सं. पुं. (सं. न.) यानं, युग्यं, दे. वासंती, सं. स्त्री. (सं.) माधवी, प्रहसंती, | 'सवारी'। वसंतजा २. यूथी। वाहवाही, सं. स्त्री. ( फा.) ख्यातिः-विश्रुतिः वास, सं. पुं. (सं.) अव, स्थानं स्थितिः (स्त्री.) (स्त्री.), साधुवादः, प्रशंसा । नि-,वस्तिः (स्त्री.) २. गृहं, भवनं ३. सु-गंधः -लेना या लूटना, मु., यशः वितन् (त. उ. ४. दुर्-गंधः। से.), साधुवादान् लभ् (भ्वा. आ. अ.), वासक, सं. पुं. (सं.) अटरूपः, वैद्य-भिषङ, प्रशंसापात्रं भू।। मातृ (स्त्री.), वासा-सकः। | वाहिद, वि. (अ.) एक, एकाकिन, एकल, वासकेट, सं. स्त्री. ( अं. वेस्टकोट ) वासकटिः।। अद्वितीय। वासना, सं. स्त्री. (सं.) कामना, अभिलाषः, वाहिनी, सं. स्त्री. (सं.) सेना २. नदी वांछा २. संस्कारः, भावना, स्मृति हेतुः ३. शानं ३. सैन्यभेदः (= ८१ हस्ती, ८१ रथ, २४३ ४. प्रत्याशा ५. देहात्मबुद्धिजन्यो मिथ्यासं, घोड़े, ४०५ पैदल)। स्कारः (न्याय.)। -पति, सं. पुं. (सं. ) सेनापतिः । वासर, सं. स्त्री. (सं. पुं. न.) दिवसः, दिनम् । वाहियात, वि. ( अ. वाही+फा. यात ) वासव, सं. पुं. (सं.) इन्द्रः, दे। व्यर्थ, निरर्थक २. दुष्ट, खल । वासित, वि. (सं.) भावित, सुरभीकृत | वाहीतबाही, वि. (अ.+फा.) निरर्थक, निष्प्र२. वस्त्रवेष्टित ३. पर्युषित। योजन २. असंगत, असंबद्ध। सं. स्त्री., प्र-, वासी, सं. पुं. (सं-सिन ) निवासिन्, जल्पः-पनं २. गालिः (स्त्री.), अपभाषणम् । वास्तव्य। वाह्य, वि. ( सं.) वोढव्य २. वोढ । वासुदेव, सं. पुं. (सं.) श्रीकृष्णः । विंदु, सं. पु., दे. 'बिंदु'। वास्तव, वि. (सं.) सत्य, यथार्थ, अवितथ। विंध्याचल, सं. पुं. (सं.) विध्यः, पर्वतविशेषः । -में क्रि. वि., वस्तुतः, सत्यम्। . वि, उप. (सं.) वैशिष्टथनिषेधादिबोधकः वास्तविक, वि. (सं.) तथ्य, सत्य, ताविक, | | उपसर्गः (व्या.)। दे. 'वास्तव'। विकच, वि. (सं.) विकसित, उत्फुल्ल २. केशवास्ता, सं. पु. ( अं.) संबंधः, संपर्कः। हीन। -पड़ना, मु., व्यवहारावसरः जन् (दि./ विकट, वि. (सं.) कठिन, दुस्साध्य, दुष्कर आ. से.)। २. भीम, भीषण, भयप्रद ३. विशाल, विस्तीर्ण वास्तु, सं. पुं. ( सं. पुं. न.) वेश्मभूः, गृहपो- ४. दुर्गम ५. वक्र, कुटिल। तकः २. गृहं, सौधः। विकराल, वि. (सं.) दे. 'विकट' (२)। -विद्या, सं. स्त्री. (सं.) भवननिर्माणकला, विकल, वि. (सं.) विह्वल, उद्विग्न, वि-,आकुल, स्थापत्यम् । अशांत २. खंडित, अपूर्ण। वास्ते, अव्य. (अ.)-अर्थ,-निमित्तम्, चतुर्थी / विकलांग, वि. (सं.) अ.,पोगंड, अंगहीन, विभक्ति से भो (उ., तेरे वास्ते = त्वदर्थ, विकल-न्यून,-अङ्ग-इंद्रिय। तुभ्यम् । विकला, सं. स्त्री. (सं. न.) कलायाः षष्टितमो वाह', अव्य.(फा.) साधु, वरं, भद्रं, शोभनं भागः। २. अद्भुत, आश्चर्य ३. धिक् ४. हंत। . विकल्प, सं. पुं. (सं.) भ्रमः, भ्रांतिः (स्त्री.) वाह', अव्य., साधु-साधु इ.। . । २. संदेहः, संशयः ३. विभाषा (व्या.) -करना, क्रि. स., अभि-प्रति, नंदु ( भ्वा. प. ४. विरुद्ध-विपरीत, विचारः कल्पना ५. चित्तसे.), साधु-वादान् दा २. करतलध्वनि कृ.। वृत्तिभेदः (योग.) ६. अर्थालंकारभेदः (सा.) -होना, मु., अभि-प्रति-नंद् ( कर्म.)। । ७. अवांतरकल्पः ८. ऐच्छिकविषयः। For Private And Personal Use Only Page #584 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir विकसित [५४६ ] विधाव - विकसित, वि. (सं.) विकच, स्फुट-टित, स्मित, | विक्रीत, वि. ( सं.) विपणायित, मूल्येन दत्त, उज्जभ-भित, उन्निद्र, उन्मीलित, प्र-उत्-सं, कृतविक्रय। फुल्ल, भिन्न, उद्बुद्ध । विक्रेता, सं. पुं. (सं.-तृ ) विक्रयिन, विक्रयिकः, विकस्वर, वि. (सं.) विकासशील, विकश्वर, | विक्रायकः, विपणित। विकासिन्। विक्रेय, वि. (सं.) पण्य, पणितन्य,विक्रेतव्य । विकाम, वि. (सं.) निष्काम, निःस्पृह, विक्लव, वि. (सं.) भीत, त्रस्त २. भीरु, विकांक्ष। कातर, त्रस्नु ३. रुग्ण, रोगातं ४. विक्षुग्ध, विकार, सं. पुं. (सं.) परिणामः, विक्रिया, विह्वल ५. संतप्त, दुःखित ६. विरक्त, उदासीन।' विकृतिः ( स्त्री.), विकृत्या २. रोगः, आमयः | विक्लांत, वि. (सं.) श्रान्त, श्रमात, ग्लान, ३. दोषः, अवगुणः ४. मनो, वृत्तिः-(स्त्री.)। क्लान्त २. उत्साह, हीन-रहित, निर्-हत, वेगः ५. उपद्रवः, हानिः (स्त्री.)। उत्साह विकारी, वि. (सं.-रिन् ) विकारवत, परिणा- विक्षत, वि.(सं.) विशेषेण, व्रणित-विद्ध-भिन्नदेह । मिन् २. विकृत, परिवर्तित ३. कुवासनान्वित । विक्षिप्त, वि. (सं.) दे. 'विकीर्ण'(१) २. त्यक्त, विकाल, सं. पुं. (सं.) अतिकालः, विलंबः । उज्झित ३. उन्मत्त, वातुल । २, सायः-यं, दिनांतः। विक्षेप, सं. पुं. (सं.) (इतस्ततः ) विक्षेपणं, विकाश, सं. पुं. (सं.) क्रमशो वृद्धिः (स्त्री.), प्रासनं, निपातनं, प्रेरणं २. चित्तचांचल्यं, (२-४ ) दे. 'विकास' (१.३)। संयमाभावः २. विघ्नः, अंतरायः। विकास, सं. पुं. (सं.) क्रमशो वृद्धिः (स्त्री.), विक्षोभ, सं. पु. (सं.) मनोलौल्यं, चित्तक्रमिकोन्नतिः (स्त्री.) २. प्रसारः, विस्तारः | चांचल्यं, उद्वेगः, क्षोभः ।। ३. विकसन, प्रस्फुटनम्।। विख्यात, वि. (सं.) प्रसिद्ध, दे। -का सिद्धांत, सं. पुं. विकासवादः । विख्याति, सं. स्त्री. (सं.) प्रसिद्धिः (ली.), दे.। विकीर्ण, वि. (सं.) विक्षिप्त, व्यस्त, प्रसृत, विगत, वि. (सं.) वि.,अतीत, वीत, गत विश्लिष्ट २. विख्यात । २. उपांत्य, उपांत ३. निष्प्रभ ४. विरहित, विकृत, वि. (सं.) परिणत, परिवर्तित, विका विहीन । सान्वित, विकृतिमत् २. कुरूप, विरूप ३.अपूर्ण, | विगलित, वि. (सं.) शिथिल, श्लथ, सस्त विकल ४. रुग्ण ५. कृतक, कृत्रिम । २. अव-अध:-,पतित ३. विकृत ४. प्रस्तुत, स्यन्न । विकृति, सं. स्त्री, (सं.) (१.३) दे. 'विकार' | विगण, वि. (सं.) निर्गुण, गुणहोन । (१.३) । ४. परिवर्तनं-वृत्तिः (स्त्री.) ५. मनो | विग्रह, सं. पुं. (सं.) युद्धं, संग्रामः २. कलहः, विक्षोभः ६. धातुप्रत्ययज शब्दरूपं (व्या.) कलिः ३. शरीरं, कायः ४. विभागः ५. विश्ले. ७. माया ८. वैरूप्यं, कुरूपता। षण, पृथक्करणं ६. न्यासः, विस्तरः, समाविक्टोरिया, सं. स्त्री. ( अं.) सम्राशीविशेषः सांगविश्लेषणं ( व्या.) ७. आकारः, आकृतिः २. घोटकशकटीभेदः ३. उपग्रहविशेषः। (खी.)। विक्रम, सं. पुं. (सं.) शौर्य, पराक्रमः, वीर्य, विघटन, सं. पुं. (सं. न.) विश्लेषः-घणं, पृथक् , साहसं, पौरुषं २. विक्रमादित्यः, दे। करण-क्रिया, विच्छेदः, विभेदः २. त्रोटनं विक्रमादित्य, सं. पुं. (सं.) साहसांकः, । ३. वि-ध्वंसः-सनम्। शकारिः, विक्रमसंवत्प्रवर्तक उज्जयिन्या नृप- / विघटित, वि. (सं.) विश्लेषित, विश्लिष्ट विशेषः । २. त्रुटित, त्रोटिन ३. नष्ट, नाशित । -संवत् , सं. पुं. (सं. अव्य.) विक्रमाष्दः। विघटन, सं. पुं. (सं. न.) उद्घाटनं, भपावरणं विक्रमी, सं. पुं. (सं.मिन् ) पराक्रमिन्, वीरः, J २. प्रसय अवपातनं ३. घर्षणं (४.६ ) दे. शूरः २. सिंहः ३. विष्णुः । 'विघटन' (१-३)। विक्रय, सं. पुं.(सं.) विक्रयणं, विपण:-णनम् । विघात, सं. पुं. (सं.) विघ्नः २. आधातः,प्रहारः विक्रांत, सं. पुं. (सं.) दे. 'विक्रमी' (१.२)।। ३.खंडन, शकलीकरण ४. नाशः ५. वैफल्यम् । For Private And Personal Use Only Page #585 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir विघ्न [२४ विजेता - विघ्न, सं. पुं. (सं.) व्याघातः, अंतरायः,प्रत्यूहः, | विच्छिन्न, वि. (सं.) निकृत्त, विलून, विवृक्ण प्रतिबंधः, बाधः-धा, रोधः, प्रति-वि,-ष्टम्भः। । २. वियुक्त, विश्लिष्ट, पृथक्-स्थित ३. समाप्त, -कारी, वि. ( सं..रिन् ) बाधाजनकः विघ्न,- | अवसित। कर-कर्तृ, विघातिन्। विच्छेद, सं. पुं. (सं.) लवनं, लावः, कर्तनं, -नाशक, सं. पुं. (सं.) विघ्न, विनायकः- विच्छेदनं २. विश्लेष:-षणं, वियोजनं ३. क्रम, पतिः-राजः-नायकः, गणेशः। भंगः मञ्जनं ४. विरहः, वियोगः।। विचक्षण, वि. (सं.) विद्वस् , बुद्धिमत् | विछोह, सं. पुं. (सं. विक्षोमः>) वियोगः, २. कुशल, दक्ष, निपुण। विरहः। विचरण, सं. पुं. (सं.) चलनं, गमनं, २. भ्रमणं, विजन, वि. (सं.) निर्जन, विविक्त, निःशलाक, पर्यटनं, विहरणम् । एकांत। विचल, वि. (सं.) कंपमान, कंप्र २. चञ्चल, विजय, सं. पुं. (सं.) जयः, जयनं, वशी स्वायत्ती-करणम् । विचलता, सं. स्त्री. (सं.) अस्थैर्य, चाञ्चल्यं | -दशमी, सं. स्त्री. (सं.) दे. 'दशहरा'। २.वि.,आकुलता। -पताका, सं.स्त्री. (सं.) जयकेतुः २. जयचिह। विचलित, वि. (सं.) पतित, स्खलित २. लोल, -शील, वि. (सं.)विजयिन, सदाजयिन्, जिष्णु। अधीर, चन्चल । -श्री, सं. स्त्री. (सं.)जयलक्ष्मीः (स्त्री.)। विचार, सं. पुं. (सं.) मतिः (स्त्री.), कल्पना, विजया, सं. स्त्री. (सं.) भंगा, हर्षिणी, दे. 'भांग' भावना, संकल्पः, तर्कः, मतं, अभिप्रायः २. उमासखी ३. दुगा। २. चिंतनं, ध्यान, आलोचनं, विचारणं-णा, तत्त्व-निर्णयः, वितर्कः-कणं, मनसा कल्पनं, -दशमी, सं. स्त्री. (सं.) आश्विनशुक्लदशमी, विवेचनं ३. व्यवहारदर्शनं, विचारकरणम् । __ आर्यायी पर्वविशेषः, विजयोत्सवः। -शील, वि. (सं.) विचारवत, विवेकिन् विजयी, वि. ( सं.-यिन् ) वि., जेतु, जयिन्,समीक्ष्य-विमृश्य, कारिन् । जित, जिष्णु ( विजयिनी स्त्री.)। -शीलता, सं. स्त्री. (सं.) विवेकिता, बुद्धि विजयोत्सव, सं. पुं. (सं.) विजयदशमीमत्ता । विजयादशमी,-उत्सव:-पर्वन् (न.)क्षणः । विचारक, सं. पु. (सं.) विचार-धर्म-न्याय,- २. जय, उत्सवः-क्षण:-उद्धर्षः। अध्यक्षः, आधिकरणिकः २. विवेकिन, गुण- विजर, वि. ( सं.) अजर, निर्जर, वार्धक्यदोषज्ञः, विवेचकः, आलोचकः । रहित २. नूतन, नवीन । विचारणीय, वि. (सं.) विचार्य, चिंतनीय, विजल, वि. (सं.) अजल, निर्जल, जल-वारि.. विचारार्ह, ध्येय २. संदिग्ध ।। रहित। विचारना, क्रि. अ. ( सं. विचारणं ) विचर- | विजातीय, वि. (सं.) भिन्न-असमान.-जातिसभू (प्रे.), चिंत-तर्क (चु.) ध्ये (भ्वो.| वर्ण २. साम्यरहित, असम । प. अ.), विमृश् (तु. प. अ.), आ-पर्या,- विजिगीषा, सं. स्त्री. (सं.) विजयकामना लोच (चु.)। २. उत्कर्षः। विचारित, वि. (सं.) ध्यात, चिंतित, तकिंत, | विजिगीषु, वि. (सं.) जयाभिलाषिन् । पर्यालोचित, विमृष्ट २. निीत, निश्चित। विज़िट, सं. स्त्री. ( अं.) अभिगमः, अभ्यागमः, विचार्य, वि. (सं.) दे. 'विचारणीय'। दर्शनार्थ गमनं, दर्शनयात्रा।। विचिकित्सा, सं. स्त्री. ( सं.) संशयः, संदेहः । विज़िटर, सं. पुं. (अं.) दर्शकः, प्रेक्षकः २. विचित्र, वि. (सं.) कर्बुर-रित, कल्माष-षित, | अभ्यागतः, गृहागतः । शार, शबल २. विशिष्ट, विलक्षण, असाधारण विजिटिंग कार्ड, सं.पु. ( अं.) *दर्शकपत्रम। ३. अद्भुत, आश्चर्य, विस्मापक ४. सुन्दर। विजित, वि. (सं.) पसजित, अभि-परा, भूत. -बीर्य, सं.पुं. (सं.) चन्द्रवंशीयो नृपविशेषः। वशी-स्वायत्ती, कृत। -शाला, सं. स्त्री. (सं.) अद्भुतालयः। । विजेता, सं. पुं. ( सं.-तृ ) दे. 'विजयी। For Private And Personal Use Only Page #586 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [५४८] विदूर विज्ञ, वि. ( सं.) प्रवीण, कुशल, विशेषज्ञ । वितर्क, सं. पुं. (सं.) ऊहः-हनं, ऊहापोहः २. धीमत्, बुद्धिमत् ३. कोविद, पंडित । । २. सदेहः ३. अनुमानं ४. अर्थालंकारभेदः विज्ञता, सं. स्त्री. (सं.) प्रवीणता २. बुद्धिमत्ता (सा.)। ३. विद्वत्ता। वितल, सं. पुं. (सं. न.) पातालविशेषः । विज्ञप्ति, सं. स्त्री. (सं.) सूचनं, ख्यापनम् । वितस्ता, सं. स्त्री. (सं.) पंचनदप्रांतव विज्ञात, वि. (सं.) अवगत, अवबुद्ध २. प्रसिद्ध । नदविशेषः। विज्ञान, सं. पुं. (सं. न.) ज्ञानं, बोधः, अवगमः, वितस्ति, सं. स्त्री. ( सं. पुं. स्त्री.) द्वादशांगुलः, उपलब्धिः (स्त्री.) २. विषयविशेषस्य विशिष्ट- दे. 'बित्ता'। ज्ञानं ३. अध्यात्म, विद्या-ज्ञानं ४. कर्मन् ( न.) वितान, सं. पुं. (सं. पुं. न.) उल्लोचः, चंद्रातपः ५. आत्मानुभवः। २. विस्तारः ३. यज्ञः। -मयकोष, सं. पुं. (सं.) ज्ञानेन्द्रियसहिता | वितुंड, सं. पुं. (सं. वि.+तुंडं>)गजः, द्विपः । बुद्धिः (स्त्री.)। वितृष्ण, वि.(सं.) निःस्पृह, निष्काम, संतोषिन् । विज्ञापन, सं. पुं. (सं.न.) बोधनं, सूचनं, वित्त, सं. पुं. (सं. न.) संपत्तिः (स्त्रो.), धनं,दे.. घोषणं, ख्यापनं, विज्ञप्तिः ( स्त्री.), विज्ञापना -वान् , वि. ( सं.वत् ) धनाढ्य ।। २. विज्ञापनपत्रम् । -हीन, (वि.) निर्धन । विट, सं. पुं. (सं.) कामुकः, लंपटः २. धूतः विदग्ध, वि. (सं.) चतुर, दक्ष, कुशल २. । ३. नायकमेदः (सा.) ३. कामुकानुचरः।। व्युत्पन्न, पंडित ३. प्लुष्ट, व्युष्ट । सं. पुं. (सं.) विटप, सं. पुं. (सं. पुं. न.) शाखा, शाखा- रसिकः २. विद्वस् । पल्लवसमुदायः २. क्षुषः, गुल्म: मं ३. वृक्षः। विदग्धता, सं. स्त्री. (सं.) चातुर्य २. पांडित्यं, विटपी, सं. पुं. (सं-पिन् ) वृक्षः, पादपः। विद्वत्ता। विदा, सं. स्त्री. ( अ. विदाअ ) प्रस्थानं, प्रयाणं विटामिन, सं. पुं. ( अं.) खाद्यौजम् । । ३.गमनानुमतिः (स्त्री.), प्रस्थानानुज्ञः । विडंबना, सं. स्त्री. (सं.) अनु, करणं-कारः । 1-करना, क्रि. स., प्रस्था-प्रया (प्रे.) विसृज कृतिः ( स्त्री.) २. अव-उप, हासः, अवहेलना । (तु. प. अ.)। २. निर्भत्सनं-जा। -होना, क्रि. अ., प्रस्था (भ्वा. आ. अ.), -करना, क्रि. स., अव-उप,-हस (भ्वा.प.से.) | प्रया ( अ. प. अ.)। . २. सोपहासं अनुकृ, विटंबू (चु.) सावहासं विदाई, सं. स्त्री. (हिं. विदा) दे. 'विदा" अवमन् (दि. आ. अ.)। (१-२)। ३. 'प्रास्थानिकं धनं द्रव्यं वा। विडारना, क्रि. स. (हिं. डालना) विक | विदारक, वि.(सं.)विपाटक, विभेदक, विदारण। (तु. प. से.), विक्षिप ( तु. प. अ.) २. (वि., विदारण, सं. पुं.(सं. न.) विपाटन, विभेदनं, नश (प्रे.) ३. विद्रु-अपलाय् (प्रे.)। विदलने २. हननं ३. युद्धम् ।। वि(बि)डाल, सं. पुं. (सं.) मार्जारः, दीप्त, विदारीकंद, सं. पुं. (सं. पुं. न.) भूमिकुष्मांडः, लोचन-अक्षः, दे, 'बिल्ला'। विदारीनरका, वृष्य-स्वादु,-कंदा।। वितंडा, सं. स्त्री. (सं.) परपक्षब्युदासपूर्वकं विदित, वि. (सं.) अवगत, बुद्ध, ज्ञात, दे। स्वपक्षस्थापनं २. प्रतिपक्षस्थापनाहीनो जल्पः | विदिशा, सं. स्त्री. (सं.) दशार्णानां राजधानी, ३. व्यर्थ, कलहः-विवादः। नगरविशेषः (भेलसा) २. दिक्-दिशा, कोणः । वितत, वि. (सं.) विस्तृत, विस्तीर्ण । विदीर्ण, वि. (सं.) विपाटित, विदलित, विभिन्न चितथ, वि. (सं.) वितथ्य, असत्य, अनृत ! २. त्रुटित, भग्न ३. हत। २. व्यर्थ । । विदुर, सं. पुं. (सं.) धृतराष्ट्रस्य भ्राता मंत्री च । वितरण, सं. पुं. (सं. न.) दानं, अर्पणं, उत्सर्गः | विदुय, सं. पुं. ( सं. विद्वस् ) पंडितः, प्राज्ञः । २. विभाजनं, अंशनम् । . विदुषी, वि. (सं.) विप्रकृष्ट, सुदूरवर्तिन् । -करना, क्रि. स., अंश (चु.), विभज् विदूर, सं. पुं. (सं.) वैहासिकः, प्रहासिन, (भ्वा. उ. अ.)। | प्रीतिदः, वासंतिकः २. भंडः । For Private And Personal Use Only Page #587 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir - - विदेश [५४६ ] विदेश, सं. पं. (सं.) परदेशः, देशांतरम् । । विद्वत्ता, सं. स्त्री. (सं.) पांडित्यं, व्युत्पत्तिः विदेशी, वि. (सं. विदेशीय) अन्य-पर, देशीय, (स्त्री.), विद्वत्त्वं, विद्याप्रकर्षः। वै-पार, होशिक। विद्वान् , सं. पं. ( मं. विद्वस् ) पंडित, प्रायः, विदेह. वि. सं.) अकाय. अशरीर-रिन बहशतः विपश्चित. ज्ञानवत । सं. पुं. (सं.) जनकः, मिथिलेश्वरः। विद्वेष, सं. पुं. (सं.) वैरं, शत्रुता, विरोधः। --पुर, सं. पुं. ( सं. न.) जनकपुरी, मिथिला, विद्वेषी, सं. पुं. ( सं.-पिन ) वैरिन , विरोधिन् , विदेहा। शत्रुः । विद्ध, वि. ( मं. , सच्छिद्र, समुत्कीर्ण, सुषिर, विधवा, सं. स्त्री. (सं.) रंडा, मृतभर्तृका, वेधित, छिद्रित, निभिन्न २. क्षत, व्रणित विश्वस्ता, यतिनी, जालिका । ३. क्षिप्त, अस्त। -पन, सं. पुं. (सं.+हिं. ) वैधव्यं, दे.। विद्यमान, वि. (सं.) वर्तमान, भवत्, २.प्रत्यक्ष, विधवाश्रम, सं. पुं. (सं) विश्वस्तालयः। समक्ष, उपस्थित विधाता, सं. पुं. (सं.-तृ) ब्रह्मन् (पुं.), विद्यमानता, सं. स्त्री. (सं.) उपस्थितिः (स्त्री.), जगदुत्पादकः,सृष्टिकर्तृ, परमेश्वरः २. विधायकः, वर्तमानता। रचयित ३. व्यवस्थापकः, *प्रबन्धकः। विद्या, सं. स्त्री. (सं.) ज्ञान, विज्ञानं, बोधः विधात्री, सं. स्त्री. (सं.) रचयित्री, विधायिका २. अध्यात्मविद्या, परा विद्या ३. शास्त्रम्। २. व्यवस्थापिका। -दान, सं.पु. ( सं. न.) अध्यापनं २. पुस्तक- विधान, सं. पं. (सं. न.) अनुष्ठान, करणं, दानम् । संपादनं, निष्पादनं, साधनं २. व्यवस्था, -प्राप्ति, सं. स्त्री. (सं.) ज्ञानाधिगमः, आयोजनं, *प्रबन्ध: ३. रीतिः-पद्धतिः (स्त्री.), अध्ययनम् । प्रणाली ४. निर्माणं, रचनं ना ५. उपायः, -वान् , वि. (संवत् ) विद्वस् , प्राज्ञ।। युक्तिः ( स्त्री.) ६. पूजा, अर्चा ७. शासन -हीन, वि. ( सं.) अशिक्षित, निरक्षर, अश, पद्धतिः (स्त्री.), राज्यव्यवस्था ८. विधिः, अविद्य। नियमः, कल्पः। विद्यारंभ, सं. पुं. (सं.) १. वेदारम्भसंस्कारः -करना, क्रि. स., विधा, आदिश (तु. प. अ.), २. अध्ययनोपक्रमः, शिक्षाप्रारम्भः। शास् ( अ. प. से.)। विद्यार्जन, सं. पुं. ( सं. न.) ज्ञान-बोध-,प्राप्ति:--परिषद, सं. स्त्री. (सं.) विधि-अधिनियम, उपलब्धिः (दोनों स्त्री.) २. विद्यया धनोपा- निर्मात्री सभा। विधायक, सं. पुं. (सं.) अनुष्ठात, कर्तृ, निष्पाविद्यार्थी, सं. पुं. (सं.-र्थिन् ) छात्रः, शिष्यः, दकः, साधकः २. निर्मात, रचयित, विधातू, २. अधीयानः, अध्येतू, पाठकः।। ३. व्यवस्थापकः प्रबन्धकः, प्रस्तोत् । विद्यालय, सं. पुं. (सं.) पाठशाला, विद्या, विधि, सं. स्त्री. (सं. पुं.) (शास्त्राणा) आदेशः, गृहं-मन्दिरम् । नियोगः, नियमः, कल्पः, अनुशासनं २. रीतिः विद्युत्, सं. स्त्री. (सं.) चंचला, चपला, (स्त्री.), कार्यक्रमः, प्रणाली ३. व्यवस्था, तडित् (स्त्री.), दे. 'बिजली' । संगतिः (स्त्री.), क्रमः ४. आचारः, व्यवहारः -प्रिय, सं. पुं. (सं. न.) कांस्य २. कांस्य- ५. प्रकारः, रीतिः (स्त्री.) ६. भाग्यम् । पात्रम्। सं. पुं. (सं.) ब्रह्मन्, विधात (पुं.)। विद्रुम, सं. पुं. (सं.) प्रवालः, भोमीरः, -निषेध, सं. पुं. [सं.-धौ (दि.)] नियोग-प्रति दे. 'मूंगा' २. रत्नवृक्षः ३. पल्लवः-वं, किस(श)- धौ ( द्वि.)। लय:-यम् । -पूर्वक, क्रि. वि. (सं. ) यथाविधि, यथाविद्रोह, सं. पुं. (सं.) राज,-द्रोहः, विरोधः, शास्त्रं २. यथातथं, यथोचितम् ।। प्रजाक्षोभः, प्रकृतिप्रकोपः, राज्यविप्लवः। -वत् , क्रि. वि. (सं.) दे. 'विधिपूर्वक' । विद्रोही, सं. पुं. (सं.-हिन्) राज,द्रोहिन्- |-वशात् , अ. (सं.) दैवात, भाग्येन, भाग्यविरोधिन्-द्रह । दैव, वशात् । र्जनम्। For Private And Personal Use Only Page #588 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir विधु [५५० ] विपथ -वाहन, सं. पुं. (सं.) हंसः, मरालः, । २. वधः, हत्या ३. अव-अप, मानः, अनादरः, धवलपक्षः। अवधारणा। -हीन, वि. (सं.) अवैध, अविहित, विधि- विनिमय, सं. पुं. (सं.) परि, वर्तः-वृत्तिः विरुद्ध, अनियमित । (स्त्री.), प्रति-परि, दानम् । विधु, सं. पुं. (सं.) चन्द्रः, सोमः। -करना, क्रि. स., विनि-मे (भ्वा. आ. अ.), -वदनी, सं. स्त्री (सं.) चन्द्रमुखी २. सुन्दरी। प्रतिदा, परिवृत् (प्रे.)। विधुर, वि. (सं.) दुःखित, पीडित २. भीत, विनियोग, सं. पुं. (सं.) कृत्यविशेषे मंत्रप्रयोगः त्रस्त ३. वि-,आकुल ४. असमर्थ ५. परित्यक्त | २. उपयोगः, प्रयोगः ३. प्रेषणं ४. प्रवेशः । ६. विमूढ [ विधुरा (स्त्री.)]। विनीत, वि. ( सं.) दे, 'विनयशील' २. जितेंविधेय, वि. (सं.) अनुय, कर्तव्य, निष्पाद्य, द्रिय ३. शिक्षित ४. अपनीत ५. दडित साध्य २. वशवर्तिन, विनीत, वश्य. विनेय, ६. धार्मिक। वचनेस्थित ३. विधानाह, अनुशासनीय। विनोद, सं. पु. (सं.) कु(कौ)तूहलं, कौतुक, सं.पुं.(सं.न.) विशेषक, वाक्यांशभेदः (व्या.)। मनोरंजकव्यापारः २. खेला, क्रीडा, लीला विध्वंस, सं. पुं. (सं.) वि-नाशः, अवसादः,। ३. परिहासः, प्रमोदः ४. आनंदः, हर्षः।। निर्मूलन, उच्छेदः। विनोदी, वि. (सं.-दिन ) कु(कौतूहलिन्, विध्वंसी, वि. (सं.-सिन् ) विध्वंसकः, वि-, कौतुकिन् २. लीलामय, क्रीडाशील ३. आनंनाशकः, निर्मूलयित। दिन, उल्लासिन् ४. परिहासशील, प्रमोदप्रिय । विध्वस्त, वि. (सं.) वि-नष्ट, उच्छिन्न, निर्मू-विन्यास, सं. पुं. (सं.) स्थापनं, न्यसनं, निधानं लित, उत्सन्न । २. रचनं, परिष्करणं, अलंकरणं ३. प्रणिधानं, विनत, वि. (सं.) प्रणत. वंदमान २. आव- उत्खचनं, अनुव्यधनं ४. क्षेपः-पणम् । जिंत, प्रवण ३. वक्र, जिह्म ४. संकुचित ५.नम्र | विपंची, सं. स्त्री. (सं.) वीणाभेदः २. केलि: । (स्त्री.)। ६. शिष्ट । विपक्ष, सं. पुं. (सं.) प्रति-विरुद्ध-विपरीतविनती, सं. स्त्री. (सं.-तिः ) प्रार्थना, याच्या प्रतियोगि-विरोधि,-पक्षः २. विरोधिवर्गः, प्रति२. विनयः, नम्रता, शिष्टता ३. प्रवणता, द्वंद्विवर्गः ३. प्रतिवादिन, विरोधिन् ४. विरोधः ५. अपवादः, बाधकनियमः (व्या.) विनय, सं. स्त्री. (सं. पुं.) प्रश्रयः, नम्रता, ६. साध्याभाववान् पक्षः (न्या.)। वि. (सं.) शालीनता, सौजन्यं, दाक्षिण्यं २. शिक्षा विरुद्ध २. असहाय ३. निश्छद, निर्वाज। ३. निवेदनं, प्रार्थना ४. निर्भर्त्सना ५. नीतिः । नमसना . नातिः विपक्षी, सं. पुं. (सं.-क्षिन् ) प्रतिपक्षिन, प्रति(स्त्री.)। वादिन, पर, पक्षीयः-पक्ष्यः-पक्षपातिन् प्रति-शील, वि. (सं.) नम्र, विनीत, शिष्ट, द्वद्विन् २. शत्रुः, वैरिन् ३. निष्पतत्र, पक्षहीन दक्षिण, सभ्य, सुजन, सुशील । (पंछी आदि)। विनश्वर, वि. (सं.) क्षयिष्णु, नश्वर, अनित्य, विपणि,णी, सं. स्त्री. (सं.) आपण:, हट्टः, अस्थायिन्। | पण्य, शाला-वीथी, २. विक्रेयपदार्थाः (पु.) विनष्ट, वि. (सं.) वि-,ध्वस्त, अवसन्न, उच्छिन्न, ३. वाणिज्य, व्यापारः।। निर्मूलित २. मृत ३. विकृत ४. भ्रष्ट । विपत्ति, सं. स्त्री. (सं.) आपद्-विपद् -आपत्ति: विना, अव्य. (सं.) अन्तरेण, मुक्त्वा , वर्जयित्वा, (स्त्री.), व्यसनं, महा,-दुःख-कष्टं २. आपत्विहाय (सब द्वितीया के साथ)। ऋते (पञ्चमी | विपत, काल:-समयः। के साथ)। -आना या पड़ना, क्रि. अ., व्यसनं उपस्था विनायक, सं. पुं. (सं.) गणेशः, दे.। (भ्वा. प. अ.), कष्टं आ-समा-पत् (भ्वा. प. से.) विनाश, सं. पुं. (सं.) दे. 'विध्वंस तथा 'नाश'। विपद् उपनम् (भ्वा. प. अ.)। विनाशक, सं. पुं. (सं.) नाश-कर्तृ, विध्वंसकः। विपथ, सं. पुं. (सं.) कु,-पथ:-मार्गः २. कद्, विनिपात, सं. पुं. (सं.) विनाशः-ध्वंसः । आचारः-आचरणम् । प्रहता। For Private And Personal Use Only Page #589 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir विपद्-दा विभिन -ति, सं. स्त्री. (सं.) कुमार्ग-कुपथ, गमनं- | विप्रलंभ, सं. पुं. (सं.) वियोगः, विरहः, गतिः (स्त्री.)। रागिणोविच्छेदः २. छलं, वंचनं-ना। -गा, सं. स्त्री. (सं.). कुमार्गगामिनी नारी | विप्लव, सं. पुं. (सं.) उपद्रवः, डिंबः, डमरः २. नदी, सरित् (स्त्री.)। २. विद्रोहः, दे. ३. कुव्यवस्था, क्रमहीनता -गामी, वि. (सं.-मिन् ) कुमार्ग-गामिन, ४. आपद्-विपद् (स्त्री.) ५. विनाशः दुर्वृत्त, दुराचारिन्। आप्लावः, जलबृंहणम् । विपद्-दा, सं. स्त्री. (सं.) दे. 'विपत्ति' ।। | विफल, वि. (सं.) निष्फल, दे.। विपन्न, वि. (सं.) विपद्-आपद्ग्र स्त, विबुध, सं. पुं. (सं.) पंडितः,प्राशः २. देवः २. दुःखित ३. भ्रान्त ४. मृत। ३. चंद्रः ४. शिवः। विपरीत, वि. ( सं. ) विरुद्ध, प्रतीप, अप-प्रति.. विबोध, सं. पुं. (सं.) जागरणं २. सम्यग्ज्ञानं सव्य, प्रतिकूल, विलोमक २. रुष्ट, क्रुद्ध ३. कष्ट ३. सावधानता ४. विकासः ।। कर, दुःखप्रद। विभक्त, वि. (सं.) कृतविभाग, परिकल्पित विपरीतता, सं. स्त्री. (सं.) प्रतीपता, प्रति- २. पृथक्कृत, विश्लेषित ३. विभिन्न, प्राप्तकूलता, विरोधः, वैपरीत्यम् । विभाग। विपर्यय, सं. पुं. (सं.) व्यत्यासः, व्यत्ययः, विभक्ति, सं. स्त्री. (सं.) विभजनं, विभागः विपर्यासः, व्यतिक्रमः २. अव्यवस्था, क्रमाभावः २. वियोगः, पार्थक्यं ३. सुप्प्रत्ययः, तिङ् ३. भ्रांतिः (स्त्री.), स्खलितं ४. मिथ्याशानम् । प्रत्ययः ( व्या.)। विपर्यस्त, वि. (सं.) व्यत्यस्त, अधरोत्तर | विभव, सं. पुं. (सं.) धनं, संपत्तिः (स्त्री.) २. अव्यवस्थित, भग्नक्रम, संकुल, संकीर्ण। । २. ऐश्वर्य, प्रतापः ३. मोक्षः, निःश्रेयसम् । विपर्यास, सं. पुं. (सं.) दे. 'विपर्यय' (१,२,४)। -शाली, वि. (सं.लिन् ) धनाढ्य २. प्रताविपल, सं. पुं. (सं. न.) क्षणं, निमिषः, / निमिषः । पिन् । पलस्य षष्टितमो भागः। विभा, सं. स्त्री. (सं.) क्रांतिः (स्त्री.), प्रभा विपाक, सं. . (सं.) पचनं, पक्वता २. चरः | २. किरणः ३. सौन्दर्यम् । मोत्कर्षः, पूर्णता ३. फलं, परिणामः ४. कर्म विभाग, सं. पुं. (सं.) परिकल्पन, विभजनं, फलं ५. जठरे भोजनस्य रसरूपेण परिणतिः । अंशन, वंटनं २. अंशः, भागः, खंड:-डं, एक( स्त्री.) ६. स्वादः ७. दुर्गतिः (स्त्री.)। देशः ३. दायांशः, रिक्थभागः ४. प्रकरणं, विपिन, सं. पु. ( सं. न.) जंगलं, वनं, दे.। । अध्यायः ५. शाखा, कार्यक्षेत्रम् । २. उपवन, वाटिका। -करना, क्रि. स., दे. 'बाँटना'। विपुल, वि. (सं.) बहु, भूरि, प्रभूत, अत्यधिक विभाज, सं. पुं. (सं.) विभाजयितृ, विभाग-, २. विशाल, विस्तीर्ण ३. बृहत, महत् | परिकल्पकः, वंट(ड)कः। ४. अगाध, अतिगभीर । विभाजन, सं. पु. ( सं. न.) बंट(ड)नं, विभविपुलता, सं. स्त्री. (सं.) आधिक्यं, बहुत्वं, | जनं, विभाग-,परिकल्पनम् । अतिशयः २. विशालता, विस्तीर्णता ३. महत्ता, विभाजित, वि. (सं.) कृतविभाग, परिकल्पित, बृहत्ता। वंटित, पंडित। विपुला, सं. स्त्री. (सं.) पृथिवी, दे। |विभाज्य, वि. (सं.) विभजनीय, विभागाई, विप्र, सं. पुं. (सं.) ब्राह्मणः दे. २. पुरोहितः।। वंटि(डि)तव्य । विप्रतिपत्ति, सं. स्त्री. (सं.) विरोधः, विसं- | विभावना, सं. स्त्री. (सं.) अर्थालंकारभेदः वादः, असंगतिः (स्त्री.) २. परस्परविसंवादि- (सा.)। वाक्यम् (न्या.), कुख्यातिः (स्त्री.) ४. विकृतिः | विभावरी, सं. स्त्री. (सं.) शर्वरी, रात्री (स्त्री.) ५. असिद्धिः (स्त्री.)। २. दूती, कुट्टनी।। विप्रतिषेध, सं. पुं. (सं.) मिथोविरोधः, | विभाषा, सं. स्त्री. (सं.) विकल्पः (व्या.)। असंगतिः (स्त्री.)। | विभिना, वि. (सं.) विच्छिन्न, लून, कृन्त For Private And Personal Use Only Page #590 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir विभिन्नता [५५२] .. विरह - २. विभक्त, वियुक्त, पृथकस्थित ३. नाना-। विमुख, वि. (सं.) विरत, निरपेक्ष, निरीह, अनेक-बहु-वि,विध । औत्सुक्यहीन २. विरुद्ध, विपरीत, प्रतिकूल विभिन्नता, सं. स्त्री. (सं.) विविधता २. पृथ- ३. निराश, अपूर्णकाम ४. अवदन । कता-त्वम् । विमुखता, सं. स्त्री. (सं.) विरतिः (स्त्री.), विभीषण, सं. पुं. (सं.) रावणभ्रातृ। वि. औदासीन्यं २. विरोधः, विपरीतता। (सं.) भयंकर, भीम ।। विमूढ, वि. (सं.) अज्ञ, अज्ञानिन्, २. निस्संश, विभु, वि. (सं.) सर्वव्यापक, विश्वव्यापिन्, । मूच्छित ३. आ-व्या, कुल, विक्लव ३. अति, सवेग, सर्वगत, २. नित्य ३. सुमहत् ४. शक्ति- मुग्ध-मोहित। मत् । सं. पुं. (सं.) ईश्वरः २. स्वामिन | विमोक्ष, सं. पुं. (सं.) दे. 'मोक्ष' । ३. आत्मन् । वियोग, सं. पुं (सं.) विरहः, विप्रलंभः, विभूति, सं. स्त्री. (सं.) विभवः, ऐश्वर्य २. धनं. | विप्रयोगः २. विच्छेदः, विश्लेषः, विभेदः वित्तं ३. अलौकिक-दिव्य, शक्तिः-सिद्धिः (दोनों ३. पार्थक्यं, पृथग्भावः ४.व्यवकलनं (गणित.)। स्त्री.) ४. शिवधृतभस्मन् (न.) ५. लक्ष्मी: वियोगांत, वि. (सं.) दुःख, अन्त-पर्यवसायिन् (स्त्री.) ६. ( विविध ) सृष्टिः ( स्त्री.), वृद्धिः | । (नाटकादि)। ( स्त्री.), उत्कर्षः। वियोगिनी, वि. स्त्री. (सं.) विरहिणी, वियुक्ता, विभूषण, सं. पुं. (सं. न.) अलंकरणं, मंडनं प्रोषित,-पतिका-भर्तृका। २. आभूषणं, अलंकारः । वियोगी, वि. (सं.-गिन् ) विरहिन, वियुक्त । विभूषित, वि. (सं.) अलंकृत, मंडित २. युक्त, वियोजक, वि. (सं.) विश्लेषक, विच्छेदक । सहित ३. सुशोभित । विरंचि, सं. पुं. (सं.) विधात, ब्रह्मन् (पुं.)। विभ्रम, सं. पुं. (सं.) वि.,प्रांतिः ( स्त्री.), -सुत, सं. पुं. (सं.) नारदः। भ्रमः, स्खलितं २. संदेहः ३. भ्रमणं ४. स्त्रीणां विरक्त, वि. (सं.) विरत, विमुख, निरीह, हावभेदः ५. सौन्दर्यम् । निवृत्त २. उदासीन, निष्प्रयोजन ३. खिन्न, विमति, सं. स्त्री. (सं.) विपरीत-विरुद्ध-,मतं- | रुष्ट, वैरागिन्, वैरागिक । विचारः २. कुमतिः ( स्त्री.)। विरक्ति, सं. स्त्री. (सं.) विरतिः (स्त्री.), विमन, वि. (सं.-नस् ) खिन्न, विषण्ण, दुर्मनस्। विरागः, विमुखता, वैराग्यं, विरक्तता विमर्श, सं. पुं. (सं.) विचार:-रणं-रणा, मंत्रणं | २. औदासीन्यं ३. खेदः। णा. विवेचनं २. समीक्षा, आलोचना विरत, वि. (सं.) दे. विरक्त' (१, ४), साव३. परीक्षा ४. परामर्शः। काश, अव्यापृत-अतिव्यापृत,-पर,-परायण । विमल, वि. ( सं.) स्वच्छ, निर्मल, दे. विरति, सं. स्त्री. (सं.) दे. 'विरक्ति' (१-३ ) २. निदोष ३. सुन्दर । ४. विरामः, विच्छेदः, उपर(रा)मः । -मणि, सं. पुं. (सं.) दे. 'स्फटक'। विरद, सं. पुं., दे. "विरुद'। -मति, वि., (सं.) शुद्ध,-हृदय-चित्त । | विरल, वि. (सं.) घनता-निविडता, शून्य विमलता, सं. स्त्री. (सं.) निर्मलता, दे.। । २. दुलंभ, दुष् , प्राप-प्रापण ३. तनु ४. निर्जन विमला, सं. स्त्री. (सं.) सरस्वती, शारदा ५. अल्प ६. विप्रकृष्ट, दूरस्थ । २. सिद्धिविशेषः। -पातक, वि. (सं.) न्यून-अल्प-पातक-पाप, -पति, सं. पुं. (सं.) ब्रह्मन् (पुं.), विधिः। अकिल्विष-अनघ-पूत,प्राय-कल्प । विमांस, सं. पुं. (सं. पु. नं.) अस्वच्छ-अप- विरला, वि. (सं. विरल ) दे. 'विरल' (१-२) । वित्र-अभक्ष्य, मांसम् । (कुक्कुरादीनाम् )। विरव, वि. (सं.) निःशब्द, नीरव । विमाता, सं. स्त्री. (सं.-तृ) मातृसपत्नी। विरस, वि. (सं.) नीर, दे. २. अप्रिय। विमान, सं. पुं..(सं. पु. न.) देवरथः, वायु- विरसा, सं. पु. (अ.) दे. 'विरासत ?'। व्योम,-यानं २, रथः, वाहनं ३. घोटकः । विरह, सं. पुं. (सं.) दे. 'वियोग' (१-३)। ४. सप्तभूमिक गृहं ५, शवयानम् । । ४. वियोगजं दुःखम् । For Private And Personal Use Only Page #591 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir विरहिणी [१३] विलोयन -जनित, वि. (सं.) विरह,-ज-जन्य, वियोग, विपरीतता ३. विप्रतिपत्तिः ( स्त्री.), व्याघातः ज-उद्भूत । ४. अर्थालंकारभेदः ( सा.)। विरहिणी, वि. स्त्री. (सं.) वियोगिनी, दे.। -करना, क्रि. स., वि-प्रति-स्थ् ( रु. उ. अ.), विरही, वि. ( सं.-हिन् ) दे. 'वियोगी' । प्रतिकृ, प्रत्यवस्था ( भ्वा. आ. अ.). वि-प्रतिविराग, सं. पुं. (सं.) दे. 'वैराग्य' । हन ( अ. प. अ.) २. विप्रलप (भ्वा. प.से.), विरागी, वि. (सं.-गिन् ) दे. 'वैरागी'। प्रतिक्षिप् (तु. प. अ.)। विराजना, क्रि. अ. (सं. विरजन) शुभ- विरोधी, सं. पुं. (सं.-धिन् ) वैरिन, शत्रुः, विराज ( भ्वा. आ. से.), प्र.वि-भा ( अ. प. ३. विपक्षिन्, प्रतिद्वंद्विन् ४. विरोधकरः, अ.) २. वृत् (भ्वा. आ. से.), विद् (दि. | विघ्नकरः। आ. अ.), उपविश् (तु. प. अ.), आस् । विलंब, सं. पुं. (सं.) अतिकालः, वेलातिक्रमः, (अ. आ. से.)। काल,-क्षेपः-हरणं, दे. 'देर'। विराजमान, वि. (सं.) प्रकाशमान, शोभ- विलंबित, वि. (सं.) चिरायित, व्याक्षिप्त मान, भ्राजमान, भासुर २. विद्यमान, उप- २. प्रलंब, लंबमान। स्थित, वर्तमान ३. उपविष्ट, आसीन । विलक्षण, वि. (सं.) असाधारण, असामान्य, विराट् , सं. पुं. (सं.-राज् ) विश्वरूपं, ब्रह्मन् | अद्भुत, अपूर्व, विशिष्ट । (न.) २. क्षत्रियः। विलक्षणता, सं. स्त्री. (सं.) वैलक्षण्यं, विशिविराट, सं. पुं. (सं.) मत्स्यदेशः २. तद्दे- ष्टता इ.। शीयो राजविशेषः । विलय, सं. पुं. (सं.) विलयनं, द्रवीभवनं -पर्व, सं. पुं. [सं.र्वन् ( न.)] श्रीमहा- | २. लोपः, अदर्शनं ३. मृत्युः ४. वि., नाशः भारतस्य चतुर्थे पर्वन् (न.)। ५. प्रलयः। विराम, सं. पु. (सं.) दे. 'विरति' (४)। विलाप, सं. पुं. (सं.) परिवेदनं, ना, शोकजं २. विश्रामः, विश्रांतिः ( स्त्री.) ३. वाक्याव- वचनं, अनुशोचनोक्तिः ( स्त्री.) २. क्रंदनं, सानं ४. यतिः ( स्त्री.)। रु(रो)दनम् । विराव, सं. पुं. (सं.) शब्दः,ध्वनिः २.कलकलः। -करना, क्रि. अ., विलप-अनुशुच-परिदेव विरासत, सं. स्त्री. (अ.) दायः, पैतृकधनं, ( भ्वा. प. से.)। रिक्थं २. दायादत्वं, रिक्थहरत्वम् । । विलायत, सं. पु. ( अ.) वि-पर, देशः २. दूरविरुद, सं. पुं. (सं.) गुणोत्कर्षवर्णनं, यशः- देशः ( यूरोप, अमेरिका आदि )। कोर्तनं, प्रशस्तिः ( स्त्री.) २. यशस् ( न.), | विलायती, वि. (अ.) दे. 'विदेशी'। कीर्तिः ( स्त्री.)३. नृपोपाधिशब्दः । -बैंगन, सं. पुं. (अ+हिं.) दे. 'टमाटर'। विरुदावली, सं. स्त्री. (सं.) स्तवमाला, यशो- | विलास, सं. पु. ( सं.) विभ्रमः, लीला, हाववर्णनम् । भेदः दे. 'नखरा' २. आनन्दः, हर्षः ३. मनो, 'विरूद्ध, वि. (सं.) प्रतिकूल, विरोधिन्, विप- | रंजनं-विनोद: ४. सुखभोगः ५. कंप:-पनं, रीति, प्रतीप २. रुष्ट, खिन्न ३. अनुचित, गतिः ( स्त्री.) ६. आह्लादक-हर्षप्रद-मनोहरअन्याय्य। ललित, चेष्टा-क्रिया। विरूप, वि. (सं.) बहुरूप, नानाकार २. कुरूप, विलासिनी, सं. स्त्री. ( सं.) कामिनी, सुंदरी, कुदर्शन ३. परिवर्तित ४. निश्श्रीक, शोभा- वरांगना २. नारी ३. वेश्या ४. वर्णवृत्तभेदः । हीन ५. विरुद्ध ६. भिन्न । विलासी, वि. (सं.-सिन् ) भोगिन्, विषयविरेचक, वि. (सं.) सारक, मलभेदक, विरे- भोग,-आसक्त, कामिन् २. लीलापर, क्रीडाचकारक, दे. रेचक'। प्रिय, कौतुकिन् ३. सुखैषिन् । 'विरेचन, सं. पुं. (सं. न.) मलभेदकौषधं, दे. विलीन, वि. (सं.) अन्तर-तिरो,-हित, लुप्त 'रेचन' २. रेकः, रेचनं-ना, मलभेदः। २. नष्ट ३. गुप्त, गूढ़। विरोध, सं. पुं. (सं.) वैरं, शत्रुता-त्वं, वि, विलीयन, सं. पुं. (सं. विलयनं ) विलयनं, द्वेषः, सापल्य २. असंगतिः (स्त्री.), विसंवादः, | द्रवीभावः २. क्षरणं, गलनम् । For Private And Personal Use Only Page #592 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir विलुंठन विलुंठन, सं. पुं., विलुंटनं लुंटा, लुंठा २. चोरणं. मोषणम् ३. लुठनं, लोठनम् । विलोकना, क्रि. स. ( सं. विलोकनं ) दे. 'देखना' । विलोड़ना, क्रि. स., दे. 'बिलोना' । [ ५४ ] विलोम, वि. ( सं . ) प्रतिकूल, विपरीत, प्रतिलोम, प्रतीप २ स्वरावरोह: ( संगीत ) | विलोल, वि, (सं.) चल, अस्थिर २. सुंदर | विवक्षा, सं. स्त्री. (सं.) वक्तुमिच्छा, विवदिषा २. तात्पर्य ३. संदेहः । विवक्षित, वि. (सं.) वक्तुमिष्ट २ अपेक्षित । विवर, सं. पुं. (सं. न. ) छिद्रं, विलं २. गर्त:तं, अवटः, खातं ३. कंदरा, गुहा । विवरण, सं. पुं. (सं. न. ) व्याख्यानं, विवे चनं २. विस्तृत वर्णनं वृत्तांत : ३. टीका, भाष्यं, व्याख्या । विवर्जित, वि. (सं.) निषिद्ध, वर्जित २. उपे क्षित, अनादृत ३. वंचित, रहित । विवर्ण, वि. ( सं . ) निस्तेजस्, निष्प्रभ, कांतिहीन २. क्षुद्र, नीच । विवर्त, सं. पुं. (सं.) भ्रमः, भ्रांति: (स्त्री.) २. रूपांतरं दशांतरम् । विशिष्टता -(में) देना, क्रि. स., विवाहे दा, पाणि ग्रहू (प्रे. ), उद्वह् (प्रे. ) । विवाहित, वि. पुं. (सं.) ऊढ, परिणीत, निविष्ट, कृतविवाद, उपयत, स्त्रीमत् सपत्नीक । विवाहिता, सं. स्त्री. (सं.) पतिवत्नी, सभर्तृका, ऊढा, परिणीता, उपयता | विविक्त, वि. (सं.) पृथग्भूत, वियुक्त २. एकल, असहाय ३. पूत, निर्दोष ४. विवेकिन,, विवेकशील । विविध, वि. (सं.) अनेक-नाना बहु, विध-प्रकार - रूपजातीय | विवेक, सं. पुं. (सं.) परिच्छेद:, सदसज्ज्ञानं, मिथो व्यावृत्त्या वस्तुस्वरूप निश्चयः, पृथग्भावः, पृथगात्मता, विवेचनं २ भद्राभद्र- सदसद्, परिच्छेदशक्तिः (स्त्री.), ३. बुद्धि: -मति:(स्त्री.) ४. सत्यज्ञानम् । विवेकी, वि. (सं.- किन ) परिच्छेदक, विवेचक, गुणदोषज्ञ, विशेषज्ञ, विवेकवत् २. बुद्धि-मति, - मत् ३. ज्ञानिन् ४. न्यायशील ५ आधि-करणिक । -वाद, सं. पुं. (सं.) वेदांतसिद्धांतविशेषः । विवश, वि. (सं.) अगतिक, निरुपाय २. पराधीन ३. दुर्दात ४. निर्बल । विवस्वान्, सं. पुं. (सं. स्वत्) सूर्य : २. अरुण, सूर्य सारथिः । विवाद, सं. पुं. (सं.) वाद, अनुवाद:-प्रतिवादः, वाग्-वाद, युद्धं, तर्कवितर्कः २. कलहः, कलिः ३. मतभेदः ४. व्यवहारः, ऋणादि न्यायः, दे. 'मुकदमेबाजी' । —करना, कि. अ., विवद् (भ्वा. आ. से.), विप्रतिपद् ( दि. आ. अ. ), विप्रलम् (भ्वा. प.से.) । विवादास्पद वि. (सं.) विवाद - अह-ग्रस्त योग्य, संदिग्ध । विवाह, सं. पुं. (सं.) पाणिग्रहणं करणंपीडन, उपय (या) म:, परिणयः, उद्वाहः, दार,परिग्रहः- कर्मन् । -करना, क्रि. स., उद् वि वह् (भ्वा. उ. अ.), दारान् परिग्रह् (क्. प. से. ), परिणी (भ्वा. प. अ.) । विवेचक, वि. (सं. ) दे. ‘विवेकी' । विवेचन, सं. पुं. (सं. न. ) दे. 'विवेक' (१) । २. सम्यकू, परीक्षा-क्षणं, गुणदोषविचारणं, परि, आलोचनं- ना ३. अनुसंधानं ४. तर्कवितर्कः ५. मीमांसा | विवेचना, सं. स्त्री. (सं.) दे. 'विवेचन' । विशद, वि. (सं.) निर्मल, बिमल, स्वच्छ २. सु-वि., स्पष्ट, व्यक्त, प्रकट, स्फुट ३. सित, उज्ज्वल, श्वेत ४. सुंदर । विशाखा, सं. स्त्री. (सं.) राधा, नक्षत्रविशेषः । विशारद, वि. ( सं . ) कुशल, दक्ष, प्रवीण. २. विज्ञ, विशेषज्ञ, व्युत्पन्न, निष्णात । विशाल, वि. ( सं . ) विस्तृत, विस्तीर्ण, महत् बृहत, पृथु उरु २. भव्य, सुंदर ३, विख्यात । विशालता, सं. स्त्री. (सं.) प्रथमन्, विस्तारः, बृहत्ता, पृथुता । विशिख, सं. पुं. ( सं . ) बाणः, इषुः । वि . - (सं.) शिखाहीन | विशिष्ट, वि. (सं.) युत, युक्त, अन्वित, सहित २. विशेष-, असामान्य ३. अद्भुत, विलक्षण ३. अतिशिष्ट ४. यशस्विन् ५. प्रसिद्ध । विशिष्टता, सं. स्त्री. (सं.) दे. 'विशेषण' । For Private And Personal Use Only Page #593 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir विशिष्टाद्वैतवाद [१५] विश्वास विशिष्टाद्वैतवाद, सं. पुं. (सं.) भेदाभेदवादः,। २. विकसित ३. प्रकट ४. अपावृत ५. श्रांत द्वैताद्वैतवादः। ६. व्याकृत। विशीर्ण, वि. (सं.) शुष्क २. क्षीण ३. जीर्ण । विश्लेष, सं. पुं. (सं.) विघटन, विच्छेदः, विशील, वि. (सं.) दुश्चरित, दुःशील, पृथग्भावः २. विरहः, वियोगः। कुशील । विश्लेषण, सं. पुं. (सं. न.) व्यवच्छेदः, विशुद्ध, वि. (सं.) दे. 'शुद्ध' २. सत्य। व्याकृतिः (स्त्री.), पृथक्करणम् ।। विशुद्धि, सं. स्त्री. (सं.) शुद्धता, पवित्रता विश्वंभर, सं. पुं. (सं.) परमेश्वरः २. विष्णुः । २. संदेह-संशय, निवारणम्। ३. प्रति(ती)। विश्वंभरा, सं. स्त्री. (सं.) धरणी, पृथिवी, दे.। कारः, प्रतिशोधः ४. ऋणशोधनम् ५. परि- ii में न जगत ( न.. जगती ष्कारः ६. पूर्णज्ञानम् । (स्त्री.), त्रिभुवनं, ब्रह्मांड २. भू-पृथिवी, विशूचिका, सं. स्त्री., दे. 'विसूचिका'। लोकः । वि. (सं.) सर्व, सकल, समस्त । विशेष, वि. (सं.) असाधारण (-णी स्त्री.), -कर्ता, सं. पुं. (सं.t) परमेश्वरः । विशिष्ट, विलक्षण । सं. पुं. (सं.) सप्तपदार्थी. -कर्मा, सं. पुं. ( सं.मन् ) विश्वकृत, देव, तर्गतपदार्थविशेषः (वैशेषिक) २. अंतरं, भेदः | वकिः -शिल्पिन्, त्वष्ट २. परमेश्वरः ३. ब्रह्मन् ३. अर्थालंकारभेदः ( सा.)। (पु.) विधिः ४. सूर्यः ५. तक्षकः, वर्धकिः विशेषज्ञ, वि. ( सं.) प्रवीण, निपुण, विज्ञ, ६. लोहकारः ७. गृहकारकः, पलगंडः । पारंगत, पारदर्शिन। -कोश (-१), सं. . (सं.) सर्वविषय-बृहत, विशेषण, सं पुं. (सं. न.) संज्ञादीनां विशेष कोषः। ताबोधकं पदं ( व्या.) २. उपाधिः, गुणः, |-जित्, सं. पुं. (सं.) यज्ञ-याग, भेदः । विशेष्यधर्मः। वि. (सं.) जितविश्व, विश्वविजयिन् । विशेषतः, अव्य. (सं.) विशेषेण, प्रधानतः । |-देव, सं. पु. ( सं-वाः बहु.) देवगणभेदः। विशेषता, सं. स्त्री. (सं.) विशिष्टता, असा -नाथ, सं. पुं. (सं.) शिवः २. साहित्यधारणता, विलक्षणता। दर्पणकारः पंडितविशेषः। विशेष्य, सं. पुं. (सं. न.) विशेषणान्वितं -पति, सं. पुं. (सं.) ईश्वरः। संशादिपदं ( व्या.)। -बंधु, सं. पु. (सं.) शिवः २. जगत्सखः । विशोक, वि. ( सं. ) शोकहीन, प्रसन्न, मुदित, -विद्यालय, सं. पुं. (सं.) दे. 'यूनिवर्सिटी'। प्रहृष्ट । -व्यापी, वि. (सं.-पिन् ) विश्व-सर्व,-व्यापक विश्रंभ, सं. पुं. (सं.) विश्वासः, प्रत्ययः | (ईश्वरादि)। २. अनुरागः, प्रेमन् (पुं. न.)। -साक्षी,सं.पुं. (सं.क्षिन्) सर्वद्रष्टा जगदीश्वरः । विश्रब्ध, वि. (सं.) विश्वसनीय, विश्वासार्ह विश्वसनीय, वि. (सं.) विश्वास्य, विश्वास, २. शांत ३. निर्भय। योग्य-अर्ह, विश्रंभ, पात्रं-भाजनं आस्पदम् । विश्रांत, वि. (सं.) व्यपगतश्रम, क्लान्ति- विश्वसनीयता, सं. स्त्री. (सं.) विश्वास्यता, श्रान्ति,-शून्य । विश्वासपात्रता। विश्रांति, सं. स्त्री. (सं.) विश्रामः, दे.। विश्वस्त. वि. (सं.) दे. 'विश्वसनीय' ।। विश्राम, सं. पुं. (सं.) विश्रामः, विश्रांतिः | विश्वामित्र. सं. पं. (सं.) गायः, गाधिजः, (स्त्री.), श्रमोपशमः, कार्य-व्यापार, निवृत्तिः कौशिकः ( ब्रह्मर्षिविशेषः)। (स्त्री.) २. सुखं ३. शांतिः (स्त्री.)। विश्वास, सं. पुं. (सं.) प्रत्ययः, विश्रंभः, -करना, क्रि. अ., विश्रम् (दि. प. से.), | २. श्रद्धा, दे.।। आ-वि-रम् (भ्वा. प. अ.), कार्यात् निवृत् -करना, कि, अ., विश्वस् (अ. प. से.), (भ्वा. आ. से.)। | श्रद्धा (जु. उ. अ.), प्रति-इ ( अ. प. अ.)। विश्रत, वि. (सं.) विख्यात, प्रसिद्ध, दे। -दिलाना. क्रि. स., उपर्युक्त धातुओं के विश्लिष्ट, वि. (सं.) पृथग्भूत, भिन्न, विघटित ) प्रे. रूप । For Private And Personal Use Only Page #594 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 'विश्वेश्वर [ ५५६ ] विसाल - घात, सं. पुं. (सं.) विश्रमभंगः, प्रत्यय - विषयक, वि. ( सं . ) संबंधिन्, उद्दिश्य, भञ्जनं, समय, लंघनं-भंगः | अधिकृत्य, आश्रित्य । - घातक, वि. (सं.) विश्रभभञ्जक, विश्वास- त्रिषयी, वि. (सं. चिन ) भोग-विषय, आसक्त, घातिन् । लंपट, विषय, निरत-पर-परायण अधीन, कामिन्, विलासिन, रतहिण्डक, टांकर, औपस्थिक | विषाण, सं. पुं. ( सं. न. ) शृंगं, दे. 'सींग' २. गजदंतः ३. कोलदंतः । विषाद, सं. पुं. (सं.) अवसादः, दुःखं, शोकः, परि-सं, ताप, आधि: ( पुं.), आतिं: (स्त्री.) २. जाड चं ३. मौर्व्यम् । विपुत्र, सं. पुं. (सं. न. ) विषुवत् (न.), विषुपं, विषुणः, समरात्रिंदिवकालः [ = सौर चैत्र मास की नवीं ( २१ मार्च) तथा सौर आश्विन मास की नवीं ( २२ सितंबर ) ] | - रेखा, सं. स्त्री. ( सं . ) निरक्षः, भूकक्षा, भूमध्यरेखा, विषुवद्रेखा । -पात्र, सं.पुं. (सं.न.) विश्वास्यः, विश्वसनीयः । - विश्वेश्वर, सं. पुं. (सं.) परमेश्वरः २. शिवमू - तिविशेषः । विष, सं. पुं. ( सं. पुं. न. ) गरलं, जं (जां) गुलं, वेड:, कालकूटं, ह (हा ) लाहलं, गरं, गरदं, घोरं तीक्ष्णम् । —कन्या, सं. स्त्री. (सं.) मैथुनमात्रेण संभोक्तृहंत्री कुमारी नारी वा । -धर, सं. पुं. ( सं . ) सर्पः । - हर, वि. ( सं . ) विष, - नाशक - घातिन् । -की गांठ, मु., अपकारक, हानिप्रद । - देना, मु., विषेण मृ-हन् ( प्रे.) । - विषक्त, वि. (सं.) संस्थित, बद्धमूल, दृढबद्ध संलग्न | विषण्ण, वि. (सं.) शोकमग्न, परि-सं, तप्त, अवसन्न ! -मुख, वि. ( सं . ) विषण्णवदन, सशोकास्यः । आर्त्त, विदून । विषण्णता, सं. स्त्री. (सं.), संतप्तता, परितप्तता, अवसन्नता, शोकार्तता । - विषम, वि. (सं.) असम, नतोन्नत, पिंडलावृत, २. अयुग्म, दे. 'ताक' ३. विकट, कठिन, दुस्साध्य ४. अति तीव्र तीक्ष्ण ५. भीषण, धोर । - ज्वर, सं. पुं. ( सं . ) ज्वरभेदः २. दे. 'मलेरिया' । - नयन, सं. पुं. ( सं . ) विषमनेत्रः शिवः । - वाण, सं. पुं. ( सं . ) कंदर्पः कामः । जल, सं. पुं. (सं. न.) विषुपदं (२२ सितंबर) । महा---, सं. पुं. (सं. न. ) हरिपदं ( २१ मार्च ) | विषूचिका, सं. स्त्री. दे. 'हैजा' । विष्ठा, सं. स्त्री. (सं.) उच्चार:, गूथ:-थं, मल:लं, पुरीषं, शमलं, शकृत (न.), विष (स्त्री.) । विष्णु, सं. पुं. (सं.) चक्रिन्, चतुर्भुजः, चक्रपाणिः, जनार्दनः, त्रिविक्रमः, हरिः, हृषीकेशः, श्री, - पतिः- निवासः वत्सः-करः-धरः, वैकुंठः, माधवः, मधुसूदनः, पुरुषोत्तमः, पीतांबरः, दामोदरः, पद्मनाभः, नारायणः, केशवः, कृष्णः, गोपाल : इ. । २. अग्निः ३. आदित्यविशेषः । गुप्त, सं. पुं. (सं.) वैयाकरणविशेषः २. चाणक्यः । - पद, सं. पुं. ( सं. न. ) आकाश:- शं २. पद्मं ३. क्षीरोदः । -पदी, सं. स्त्री. ( सं . ) गंगा । - वृत्त, सं. पुं. (सं. न. ) असमचरणं वृत्तं पुराण, सं. पुं. ( सं . न . ) पुराणग्रंथविशेष: । ( छंद. ) । विसर्ग, सं. पुं. (सं.) विसर्जनीयः, वर्णविशेषः (= व्या.) २. दानं ३ त्यागः ४ मुक्तिः (स्त्री.), निःश्रेयसं ५. मृत्युः ६. प्रलयः ७. विरहः । - विषमता, सं. स्त्री. (सं.) वैषम्यं, समताऽभावः २. अयुग्मता ३. वैरं, विरोधः । विषय, सं. पुं. ( सं . ) गोचरः, इन्द्रियाः ( =शब्दस्पर्शरूपरसगंधाः ) २. देश:, जनपद: ३. प्रकरणं, प्रसंग: ४. उपभोगः, आस्वाद:दनं ५. सुरतं, मैथुनं ६. द्रव्यं, पदार्थ: ७. कार्य, व्यापारः, अर्थः । --सुख, सं. पुं. (सं. न. ) इंद्रियसौख्यम् । विसर्जन, सं. पुं. (सं. न.) परि-, त्यागः,उत्सर्गः, मोचनं, उज्झनं २. संप्रेषणं, प्रस्थापनं ३. प्रस्थानं, प्रयाणं ४. समाप्तिः (स्त्री.), अंत: ५. दानं, वितरणम् । . विसाल, सं. पुं. (अ.) संयोगः, संगमः । For Private And Personal Use Only Page #595 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir विसूचिका [५५७ ] . वीर विसूचिका, सं. स्त्री. (सं.) विसूची, दे. हैजा' | विह्वल, वि. (सं.) विक्लव, व्याकुल, दे.। २. अजीर्णरोगभेदः। विह्वलता, सं. स्त्री. (सं.) व्याकुलता, दे.। विस्तर, सं. पुं. (सं.) विस्तारः, दे. २. आसनं, वीची, सं. स्त्री. (सं.) लहरी, तरंगः, दे.। पीठम्। २. रश्मिः , मरीचिः, दीधितिः, (सब पुं.) विस्तार, सं. पुं. (सं.) विस्तरः, प्रस(स)रः, - ३. कान्तिः -दोप्तिः ( स्त्री.)। आयामः, विततिः ( स्त्री.), विग्रहः, व्यासः, -क्षोभ, सं. पुं. (सं.) लहरीविलासः। विस्तीर्णता २. विटपः, शाखा । -तरंग न्याय, सं. पुं. (सं.) दे. षष्ठ परिशिष्ट । -करना, क्रि. स., प्रस-विस्तृ (प्रे.), दे. -माली, सं. पुं. (सं.-लिन् ) सागरः, समुद्रः,. 'फैलाना'। अर्णवः। विस्तीर्ण, वि. (सं.) विस्तृत, प्रसृत, वितत, । वीज, सं. पुं. ( सं. न.) बीजं, दे.। आयत २. विपल, प्रचर ३. विशाल. महत. | वीजन, सं. पुं (सं. न.) व्यजनं. दे. 'पंखा। वृहत् । वीणा, सं. स्त्री. (सं.) वल्लकी, विपंची-चिका, विस्तृत, वि. (सं.) दे. 'विस्तीर्ण' । ध्वनिमाला, वंगमल्ली, परिवादिनी, घोषवती, विस्फोट, सं. पु. (सं.) सशब्द, भंगः-स्फुटनं- | कंठकूणिका २. विद्युत् (स्त्री.)। स्फोटनं २. पि(वि)टकः-क-का, स्फोटः-टकः। -दंड, सं. पुं. (सं.) प्रवालः। विस्फोटक, सं. पु. (सं.) दे. 'विस्फोट' (२)। -पाणि, सं. स्त्री. (सं.) सरस्वती। । २. स्फोटनशील ३. दे. 'चेचक' । वीत, वि. (सं.) प्रस्थित, प्रयात २. परित्यक्त विस्मय, सं. पुं. (सं.) आश्चर्य, चमत्कारः | ३. मुक्त ४. समाप्त ५. रहित, हीन । २. गर्वः ३. संदेहः । वि. (सं.) हृतदर्प।। -भय, वि. (सं.) विगत-निर, भय । विस्मरण, सं. पुं. (सं. न.) विरमृतिः (स्त्री.)-|-राग, वि. (सं.) विरक्त, निस्स्पृह। . स्मृति, नाशः-लोपः। |-शोक, वि. (सं.) निश्शोक। सं. पुं. (सं.) विस्मय, वि. (सं.) विस्मय-आश्चर्य,आपन्न- अशोकवृक्षः । अन्वित, चकित, विस्मयाकुल। वीथी, सं. स्त्री. (सं.) वीथिः (स्त्री.), वीथिका, विस्मृत, वि. (सं.) स्मृतिभ्रष्ट, स्मृतिपथात् | रथ्या, मार्गः २. पंक्ति ( स्त्री.) ३. रूपकभेदः अपेत। (सा.)। विस्शुति, सं. स्त्री. ( सं.) विस्मरणं, दे.।। वीर, सं. पुं. (सं.) शूरः, शौटीरः, सुविक्रमः, वित्रंभ, सं. पं. (सं.) विश्वासः, प्रत्ययः प्र-महा-सु, वीरः, जेतृ २. योधः, योद्ध, भटः, २. हत्या, वधः। सैनिकः ३. नायकः, अग्रणीः (पु.) ४. पुत्रः विहंग, विहंगम, विहग, सं. पुं. (सं.) खगः, | ५. पतिः ६. भ्रात। वि. (सं.) विक्रांत,. दे. 'पक्षी'। वीर्यवत्, साहसिक, पराक्रमिन्। विहरण, सं. पुं. (सं. न.) विचरणं, अटनं, | -केसरी, सं. पुं. (सं.रिन् ) वीर, पुंगवःभ्रमणं २. वियोगः ३. प्रसरणम् । उत्तमः। विहार, सं. पुं. (सं.) परिक्रमः-मणं, पर्यटन, गति, सं. स्त्री. (सं.) युद्धे मरणात स्वर्गपरिभ्रमणं, विहरणं, विचरणं २. सुरतं, लाभः २. स्वर्गः। संभोगः ३.सुरतालयः ४. संघारामः, आश्रमः, -चक्र, स. पुं., (सं. वीर+चंक्र) सैनिकानांमठः दे. आरक्षिणां-,सम्मानास्पदं स्वर्णमयं राजतं. वा विहारी, सं. पुं. ( सं.-रिन् ) भोगासक्तः पदकम् २. पुरस्कारविशेषः। २. विहारकृत् ३. श्रीकृष्णः। -पत्नी, सं. स्त्री. (सं.) वीरभार्या । विहित, वि. (सं.) (शास्त्रादिभिः ) आदिष्ट, -प्रसू, सं. स्त्री. (सं.) वीर, सू:-मातृ (स्त्री.)शिष्ट, उपदिष्ट २. न्याय्य, धर्म्य, उचित । जननी। ३. कृत, अनुष्ठित ४. दत्त । -भद्र, सं. पुं. (सं.) अश्वमेधाश्वः २. वीरो विहीन, वि. ( सं. ) परित्यक्त, उज्झित । त्तमः ३. शिवगणविशेषः । २. रहित, वंचित, हीन, वर्जित, शून्य। -लोक, सं. पु. (सं.) स्वर्गः । For Private And Personal Use Only Page #596 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir वीरता [५५८] वीरता, सं. स्त्री. (सं.) वीर्य, शूरता, शौर्य, | छात्र, सं. स्त्री. (सं.) शिक्षणोपजीविका । परा-वि, क्रमः, साहस, रणोत्साहः, ओजस्- | मनो, सं. स्त्री. (सं.) स्वभावः, प्रकृतिः धामन् (न.)। (स्त्री.), प्रवणता। वीरान, वि. ( फ्रा.) निर्मानुष, नि-वि, जन | वृथा, वि. (सं.) व्यर्थ, निरर्थक, मोघ । क्रि. २. निश्श्रीक, शोभाहीन । वि. (सं.) मुधा, व्यर्थ, निष्फलम् । वीराना, सं. पुं. (फ्रा.) विजनं, निर्जनप्रदेशः। वृद्ध, वि. (सं.) स्थविर, वयस्क, जोन, जीणं, वीरानी, सं. स्त्री. (फा.) विजनता, निर्जनता।। | जरित-न। सं. पुं. (सं.) जरठः, स्थविरः वीर्य, सं. पु. ( सं. न. ) शुक्र, रेतस-तेजस | इ., दे. 'बूढा' २. पंडितः । (न.) बीजं, चरमधातुः, इन्द्रियं २. दे. रज' वृद्धता, सं. स्त्री. (सं.) जरा, वार्द्धकं-क्यं, दे. 'बुढ़ापा'। ३. वीरता, दे. ४. बीजम् । वृद्धा, सं. स्त्री. (सं.) स्थविरा, जरती, दे. . के कीड़े, सं. पुं., शुक्रकीटाः । 'बुढ़िया'। --ज, सं. पुं. (सं.) पुत्रः, तनयः। | वृद्धावस्था, सं. स्त्री. (सं.) दे. 'वृद्धता'। .-विरहित, वि. (सं.) निःशक्त २. क्लीव | वृद्धि, सं. स्त्री. (सं.) वर्धन, हणं, उन्नतिः ३. भीरु। वीर्यवान, वि. (सं.-वत् ) बलवत्, दृढांग (स्त्री.), उत्कर्षः, उपचयः, आधिक्यं, विस्तारः २. कुशीद, वार्द्धष-व्यं, दे. 'मूद' ३. अभ्युदयः, २. मांसल। समृद्धिः (स्त्री.) ४. कृष्याद्यष्टवर्गोपचयः वुकूम, सं. पुं. (अ.) परिचयः २. ज्ञानम् ( राजनीति), स्फीतिः स्फातिः (स्त्री.) ३. बुद्धिः (स्त्री.)। ५. जीवभद्रा ( औषधविशेषः)।। बुज , सं. पुं. (अ.) अंगक्षालनम् (इस्लाम)। -जीवक, सं. ई. (सं.) कुसीदिन, वा षिकः । घृत, सं. पुं. (सं. न.) चू चुकः-कं, स्तन-कुच, -जीवन, सं..पुं. (सं. न.) कौसीचं, वृद्धिअगं २. प्रसवबंधनं, दे. 'बौंडी'। जीविका। वृंद, सं. पुं. (सं. न.) समूहः, निकरः २. कोटि वृश्चिक, सं. पुं. (सं.) श्वनः, पृदाकुः, दे. शतक, अर्बुदम् । "बिच्छू' २. अष्टमराशिः ( ज्यो.) ३. अग्रहावृंदा, सं. स्त्री. (सं.) तुलसी (पौदा) दे. २.राधा । । यणमासः। -वन, सं. पुं. (सं.) वृंदारण्यं २. तीर्थविशेषः। वृष, सं. पुं. (सं.) ऋषभः, वृषभः, दे. 'बैल' वृक, सं. पुं. (सं.) कोकः, ईहामृगः २. शृगालः। २. पुरुषप्रकारः (कामशास्त्र) ३. धर्मः वृक्ष, सं. पुं. (सं.) तरुः, पादपः, शाखिन, ४. द्वितीयराशिः (ज्यो.) ५. पतिः। विटपिन्, दुः, द्रमः, पलाशिन्, मही-क्षिति-भू, वृषभ, सं. पुं. (सं.) बलीवर्दः, उक्षन्, दे. रुहः-जः, अगः, नगः, विटपः। वृत्त, स. पुं. (सं. न.) चरितं, चरित्रं, आचारः, वृष्टि, सं. स्त्री. (सं.) वर्ष, वर्षणं, परामृतं, आचरणं.२. सद् , वृत्तं-आचारः ३. समाचारः, । दे. 'वर्षा'। वृत्तान्तः, उदंतः ४. वणिकछंदस् (न.) | वृहस्पति, सं. पुं. (सं.) सुराचार्यः, द्वे. 'बृह५. मंडलं., वर्तुलम् । स्पति' २. नवग्रहांतर्गतपंचमग्रहः ३. गुरुवारः। -खंड, सं. पुं. (सं. पुं. न.) मंडल-वतुल, वे, सर्व. (हिं. वह का बहु.) ते, अमी ( दोनों अंशः। - पुं. बहु.) ताः, अमूः (दोनों स्त्री. बहु.), वृत्ति, सं. स्त्री. (सं.) आजीवः-वनं-विका, | तानि, अमूनि ( दोनों न. बहु.)। जीवनं, जीविका २. उपजीविका, भतिः (स्त्री.) | वेग, सं. पुं. (सं)प्रवाहः, धारा, वेणी, ओघः ३. संक्षिप्तगंभीरव्याख्या, सूत्रार्थविवरणं, टीका । २. जवः, स्यदः, रयः, तरस-रंहस् (न.), ४. वृत्तं, वृत्तांतः ५. नाटकीयशैली (सा. रभसः, प्रसभः ३. मूत्रविष्ठादिनिर्गमप्रवृत्तिः कैशिकी इ.) ६. व्यवहारः ७. चित्तावस्था | (स्त्री.) ४. त्वरा, शीघ्रता ५. आनंदः (योग., क्षिप्तमूढादि) ७. स्वभावः, प्रकृतिः। ६. प्रवृत्तिः (स्त्री.) ७. उद्योगः ८. वृद्धिः (स्त्री.)। | (स्त्री.) ९. वीर्य, शुक्र १०. गुणभेदः (न्याय.)। For Private And Personal Use Only Page #597 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir वेगवान् [***] वेगवान्, वि. ( सं . वत् ) क्षिप्र द्रुत, शीघ्र | वेदांती, सं. पुं. ( सं . तिन ) वेदांतशास्त्रवेत्तृ "जवन, आशु | ब्रह्मवादिन | वेदाभ्यास, सं. पुं. (सं.) वेद, अध्ययनं - स्वाध्याय:- पाठः । वेणी, सं. स्त्री. (सं.) वेणि: (स्त्री.), प्रवेणीणिः, वेणिका २. जलौघः, तोयप्रवाहः । वेणु, सं. पुं. (सं.) वंशः, दे. 'बाँस' २. वंशी, दे. 'बाँसुरी' । वेदी, सं. स्त्री. (सं.) वेदिः, वेदिका, वितर्दीर्दिका ( सब स्त्री. ) । वेदी, सं. पुं. ( सं . - दिन) वेदोक्त, वि. (सं. ) वेदविहित, दे. । वेध, सं. पुं. (सं.) वेधनं, निर्भेदः न्दनं, व्यधः । यंत्रैर्ग्रहनक्षत्रावलोकनम् । पंडितः २. ज्ञातृ । --शाला, सं. स्त्री. ( सं .) मानमंदिरम् । वेधक, सं. पुं. (सं.) वेधनकरः, छिद्रकारः, वेधिन् । वेधना, क्रि. स. ( सं . वेधनं ) व्यध् ( दि. प. अ.), विघ्- समुत्कृ ( तु. प. से. ), छिद्रयति ( ना. धा. ) । सं. पुं., वेधः धनं, व्यधः - धनं, समुत्किरणं (दे. वेधक, विद्ध इ. ) । वेधनी, सं. स्त्री. (सं.) वेधनिका, आस्फोटनी, वृषदंशिका | वेधी, सं. पुं. (सं.-धिन् ) वेधकः, दे. | वेला, सं. स्त्री. (सं.) काल:, समयः २. सागरतरंग : ३. समुद्रतट:-टम् । ज्वेतन, सं. पुं. ( सं. न. ) भरण-ण्यं निर्वेशः, -भृतिः (स्त्री.), भृत्या, भर्मण्या, कर्मण्या २. मासिकं, मासिक भतिः (स्त्री.) । - भोगी, सं. पुं. (सं.गिन् ) वेतन-भृति, भुवैतनिकः । वेताल, सं. पुं. (सं.) द्वारपाल : २. भूतभेद: ३. भूताधिष्ठितशवः । वेत्ता, सं. पुं. (सं.-तृ ) ज्ञातृ, बोद्धृ, विद् । वेद, सं. पुं. (सं.) श्रुतिः (स्त्री.), छंदस् (न.), आम्नायः, निगमः, ब्रह्मन् (न.), प्रवचनं, आर्यधर्मग्रन्थविशेषाः (ऋग्, यजुः, साम, अथर्व = ४ वेद ) २. सत्यज्ञानम् । - त्रयी, सं. स्त्री. ( सं . ) वेदत्रयम् । - निंदक, सं. पुं. (सं.) श्रुतिविरोधिन्, नास्तिक: २. बुद्धः ३. बौद्धः । - पारग, सं. पुं. (सं.) वेद, -श:-विद-मूर्ति:वेत्त- ज्ञानिन् - दर्शिन् । मंत्र, सं. पु. ( सं .) श्रुति, वचनं वाक्यम् । -माता, सं. स्त्री. (सं.-तृ ) गायत्री, सावित्री २. सरस्वती ३. दुर्गा । ----वाक्य, सं. पुं. ( सं. न. ) वेद, -मंत्र:- वचनं २. प्रामाणिकवचनम् । -विद्, सं. पुं. (सं.) दे. 'वेदपारग' | -विहित, वि. (सं.) वेद, प्रतिपादित - आदिष्ट उक्त - व्यास, सं. पुं. ( सं . ) दे. 'व्यास' । - सम्मत, वि. (सं.) वेद, अनुकूल - अनुमोदित | वेदना, सं. स्त्री. (सं.) पीडा, व्यथा, यातना, संतापः २. वेदनं, अनुभवः, संवेदः, ज्ञानम् । वेदनीय, वि. (सं.) शातव्य, ज्ञेय, बोद्धव्य २. ज्ञापनीय, बोधयितव्य ३. कष्टप्रद, दुःखद । वेदांग, सं. पुं. (सं. न. ) श्रुत्यवयवषट्प्रकारशास्त्रं [ = शिक्षा, कल्पः, व्याकरणं, निरुक्तं, ज्योतिषं, छंदस् ( न. ) ] 1 - वेदांत, सं. पुं. ( सं . ) ब्रह्म-अध्यात्म, विद्या, ज्ञानकांड २. उपनिषद् (स्त्री.) ३. उत्तरमी-मांसा, दर्शनशास्त्रविशेषः । वेल्डिंग, सं. पुं. ( अं.) सन्धानम् । वेल्व, सं. पुं. ( अं.) कपाटः । —ट ब सं. स्त्री. (अं.), *कपाटनलिका । वेश, सं. पुं. ( सं. ) आकल्पः, प्रसाधनं, नेपथ्यं, प्रतिकर्मन् (न.), वेषः २. परिधानं, वस्त्राणि - वसनानि (न. बहु. ) ३. पट, कुटी - मंडपः ४. गृहम् । वेष्टन - धारी, सं. पुं. ( सं . - रिन ) वेषधरः, कपटछद्म-वेशिन २. दभिन । -भूषा, सं. स्त्री. (सं.) परिधानं, वस्त्राभरणम् । किसी का - धारना, मु., अन्यवेशं परिधा, वेषं परिवृत् (प्रे.), वेशांतरं विधा । वेश्या, सं. स्त्री. (सं.) वेश, युवती - वधूः (स्त्री.)वनिता-स्त्री, वार, अंगना-वधूः- विलासिनीनारी-स्त्री, गणिका, रूपाजीवा, साधारणस्त्री, पण्यांगना, कामरेखा, भोग्या, भुजिया, क्षुद्रा । - पन, सं. पुं. गणिकावृत्तिः (स्त्री.), वेश्याजीवः । 1 For Private And Personal Use Only वेष, सं. पुं. (सं.) दे. 'वेश' । वेष्टन, सं. पुं. ( सं. न. ) पुट:- टं, कोश:- षः, Page #598 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir वेष्टित वैसा प्रावरणं २. आच्छादनं, परिवेष्टनं ३. उष्णीष:- वैनतेय, सं. पुं. (सं.) गरुडः, दे। षम् । वैभव, सं. पुं. (सं. न.) वित्तं, धनं, विभवः, वेष्टित, वि. (सं.) वलयित, संवीत, कृतवेष्टन संपन-संपत्तिः (स्त्री.) ऐश्वर्य २. महिमन् २. रुद्ध। (पुं.), सामर्थ्यम् । वेसर, सं. पुं. (सं.) वेश(व)रः, अश्वतरः, -शाली, वि. (सं.लिन् ) समृद्ध, धनिन । वेगसरः, दे. 'खच्चर'। वैमनस्य, सं. पुं. (सं. न. ) वैरं, वि-द्वेषः वेसवार, सं. पुं. (सं.) उपरकरः, वेश (प)- २. अन्यमनस्कता। वारः। वैयाकरण, सं. पुं. (सं.) व्याकरण,-वेत्तृ-अध्येतू. वैकल्पिक, वि. (सं.) ऐच्छिक, रुच्यधीन पण्डितः। २. संदिग्ध, विकल्प्य ३. एकांगिन् । वैर, सं. पुं. ( सं. न. ) विरोधः, वि, द्वेषः, वैकुंठ, सं. पुं. ( सं. न.) स्वर्गः, विष्णुलोकः शत्रुतात्वं, सापत्न्यं, विपक्षता, द्वंद्वभावः । (सं. पुं.) विष्णुः । -करना, वि, द्विष ( अ. उ. अ.), विरुध वैजयंती. सं. स्त्री. (सं.) केतुः, पताका, ध्वजः।। (रु. प. अ.), वैरायते ( ना. धा.), अमित्रावैज्ञानिक, सं. पुं. (सं.) विज्ञान, वेत्त-विद।। यते (ना. था.)। वि. (सं.) विज्ञान, सम्बन्धिन्-विषयक-मूलक।। | वैराग, सं. पुं., दे. 'वैराग्य' । वैतनिक, सं. पु. (सं.) दे. 'वेतनभोगी। वैरागी, सं. पुं. ( सं.-गिन ) वैरागिकः, वैराग्य-- वैतरणी, सं. स्त्री. (सं.) यमद्वारवती नदी- | वत्, 'विरक्त' दे. । २. वैष्णवसंप्रदायविशेषः । विशेषः ( पुराण.)। वैराग्य, सं. पुं. (सं. पुं.) विरक्तिः ( स्त्री.), वैताल, वि. ( स.) वेताल, विषयक-सम्बन्धिन् । । वैरक्त-क्तयं, अनासक्तिः ( स्त्री.)। " सं. पुं. दे. 'वेताल' तथा 'वैतालिक'। वैरी, सं. पु. ( सं.-रिन् ) अरिः, शत्रुः, सपत्नः, वैतालिक, सं. पुं. (सं.) वैतालः स्तुतिपाठकः, रिपुः, अरातिः, जिघांसुः, द्वेष्ट्र, प्रत्यर्थिन, बोधकरः। परिपंथिन । वैद, वि. ( सं. ) वेद,-विषयक-सम्बन्धिन, श्रौत, | वैवाहिक, वि. (सं.) औदाहिक (की स्त्री.). छन्दस् २. वेद, अनुकूल-विहित-समर्थित ३. वैवाह (-ही स्त्री.)। वेदश । सं. पु. (सं.) वेदज्ञ-वेदनिष्णात,- वैशाख, सं. पुं. (सं.) माधवः, राधः, सौरविप्रः-ब्राह्मणः। । प्रथम-चांद्रद्वितीय,मासः। वैदिक, वि. (सं.) छांदस, श्रौत, वेद,-विषयक- वैशेषिक, सं. पुं. (सं. न.) कणादमुनिप्रणीतो संबंधिन्-उक्त-प्रतिपादित । दर्शनग्रंथविशेषः, औलूक्यदर्शनम् । वैदूर्य, सं. पु. ( सं. न.) केतुरत्न, विदूररत्न- वैश्य, सं. पुं. (सं.) ऊरुजः, अर्य्यः, विश, वणिज्, पणिकः, भूमिजीविन्, वार्तिकः, वैदेशिक, वि. (सं.) अन्य-पर-वि,देशीय। व्यवहर्तृ । सं. पुं. (सं.) पारदेशिकः, विदेशीयः। वैश्यानी, सं. स्त्री. ( सं. वैश्यः) वैश्या, अर्या, -मंत्री, सं. पुं. (सं.-त्रिन् ) पारदेशिकसचिवः। अर्याणी। वैदेही, सं. स्त्री. (सं.) विदेहतनया, जानकी, वैश्वदेव, सं. पुं. (सं.) विश्वदेवसंबंधियशः। सीता। वैश्वानर, सं. पुं. (सं.) अग्निः २. परमेश्वरः । वैद्य, सं. पुं. (सं.) भिषज् , अगदंकारः, रोग- वैषम्य, सं. पुं. ( सं. न. ) विषमता, दे. । हारिन, चिकित्सकः, आयुर्वेदिन् २. पंडितः। वैष्णव, सं. पु. ( सं.) विष्णु, उपासकः भक्तः, -राज, सं. पुं. (सं.) भिषग्वरः। काण: २. संप्रदायविशेषः । वि. (सं.) कार्ण, वैद्यक, सं. पु. ( सं. न.) आयुर्वेदः, चिकित्सा- हार, विष्णुसंबंधिन् । शास्त्रम् । वैसा, वि. (हिं. वह +सा) तादृश-क्ष, तत्, वैध, वि. (सं.) वैधिक (-की), धर्म्य, न्याय्य, तुल्य-सदृश, तथाविध। शास्त्र, संमत-अनुकूल २. उचित, युक्त। ऐसा-,वि. सामान्य, साधारण, प्राकृत। वैधव्य, सं. पुं. (सं. न.) रंडात्वम् । -का वैसा, क्रि. वि., पूर्ववत्, यथापूर्वम् । जम्। For Private And Personal Use Only Page #599 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir । ५६१] व्यवधान वैसे, क्रि. वि. (हिं. वैसा ) तथा, तद्वत, तत्स- | व्यग्रता, सं. स्त्री. (सं.) उद्वेगः, संभ्रमः, व्यादृशम् । कुलता दे. २. चिंता, रणरणकः, उत्कलिका -ही, क्रि. वि., मूल्यं विना, दे. 'मुफ्त' । । ३. व्यासक्तिः ( स्त्री.)। वोट, सं. पुं. ( अं.) मतं, छंदः, छंदस् (न.) व्यजन, सं. पु. ( सं. न.) तालवृंतक, दे. २. मतदर्शनं ३. मतदर्शनाधिकारः। 'पंखा'। वोटर, सं. पुं. ( अं.) मतदर्शकः २. मतदर्श- व्यतिक्रम, सं. पुं. (सं.) क्रम, भंगः-विपर्ययःनाधिकारिन् । विपर्यासः-व्यत्ययः २. अंतरायः, विघ्नः । व्यंग, वि. (सं.) अकाय, अशरीर २. विकल- | व्यतिरिक्त, वि. (सं.) भिन्न, अपर, इतर हीन, अंग ३. 'व्यंग्य। २. अधिक, विशिष्ट । क्रि. वि. ( सं. न.) व्यंगार्थ, सं. पुं., दे. 'व्यंग्य' । विना, अतिरिक्तम् । व्यंग्य, सं. पुं. (सं. न.) व्यंजनया बोध्योऽर्थः, व्यांतरेक, सं. पुं. (सं.) भेदः, भिन्नता, पृथगूढ़-गुप्त,-अर्थ:-आशयः २. उपालंभः, अधि- क्त्वं, अन्तरं २. वृद्धिः ( स्त्री.) ३. अतिक्रमःआ,-क्षेपः। मणं ४. अर्थालंकारभेदः ( का.)।। -कसना या छोड़ना, क्रि. स., उपालम् | व्यतीत, वि. (सं.) अतीत, गत, अतिक्रांत । (भ्वा. आ. अ.), अधि-आ,-क्षिप् (तु. प. अ.), व्यत्यय, । सं. पुं. (सं.) दे. 'व्यतिक्रमः' अव-उप-हस (भ्वा. प.से.)। | व्यत्यास, J (१)। व्यंजन, सं. पु. ( सं. न.) स्फुटी-प्रकटी, करणं- | | व्यथा, सं. स्त्री. (सं.) पीडा, वेदना, यातना भवन, प्रकाशनं २. दे. 'व्यंजना' ३. चिह्न, । २. कष्टं, क्लेशः, दुःखम् । लक्षणं ४. अर्द्धमात्रकं, ककारादयो वर्णाः व्यथित, वि. (सं.) पीडित, आर्त २. दुःखित, ५. अग, अवयवः ६.२मथुन.) ७. तमा, सं-परि-तप्त ३. शोकमग्न । तेमनं, निष्ठानं, अन्नोपकरणं ८. सिद्धान्नं व्यभिचार, सं. पुं. (सं.) जारकर्मन् (न.), ९. उपस्थः । पारदार्य, परयोषित्संगः। (स्त्री का) पतिलं. -कार, सं. पुं. (सं.) पाचकः, सूदः, रन्धकः। धनं, परपुरुपगमनं २. कदाचारः, दुराचारः, -संधि, सं. स्त्री. (सं. पुं.) व्यञ्जन, संयोगः दुर्वृत्तम् । सन्निकर्षः। व्यंजना, सं. स्त्री. (सं.) दे. 'व्यंजन' (१)। व्यभिचारिणी, सं. स्त्री. (सं.) जारिणी, पुंश्चली, २. शब्दशक्तिविशेषः (सा.)। बंधकी, परपुरुषगामिनी। व्यक्त, वि. (सं.) प्रकट -टित, स्फुट, विशद, व्यभिचारी, सं. पुं. ( सं.-रिन् ) पारदारिकः, स्पष्ट, प्रत्यक्ष, प्रकाशित। परस्त्रीगामिन्, जारः, भुजंगः, परतल्पगः, उपकरना, क्रि. स., व्यंज ( रु. प. से.,प्रे.)। पातः २. दुवृत्तः, दुराचारिन् ३. दे. 'संचारी' प्रकाश (प्रे.), प्रकटी-विशदी-स्पष्टीक। -होना, क्रि. अ. व्यंज ( कम.), प्रकटी- व्यय, सं. पुं. (सं.) वित्त-,विनियोगः, अर्थ.. स्पष्टी-आविर , भू, प्रकाश ( भ्वा. आ. से.)। | उत्सगः, २. दानं ३. परित्यागः। व्यक्ति, सं. स्त्री. (सं.) स्पष्टता, विशदता, -शील, वि. (सं.) मुक्तहस्त, अमितव्ययिन। स्फुटता, प्राकटयं, आविर-प्रादुर, भावः | व्यथे, वि. (सं.) विफल, निष्फल, मोष. २. मनुष्यः, मानवः ३. व्यष्टिः (स्त्री.), निरर्थक, निष्प्रयोजन, वृथा, मुधा-२. अपार्थक, पृथवत्वं ४. वस्तु ( न.), पदार्थः ५. भूतमात्र अर्थहीन । क्रि. वि. (सं. न.) निरर्थक, वृथा, ६. प्रकाशः। मुधा, निष्प्रयोजनं, निनिमित्तं, निष्फलम् । --गत, वि. ( सं.) व्यक्ति, स्थ, वर्तिन-संबंधिन्, | | व्यवच्छेद, सं. पुं. (सं. ) पार्थक्यं, पृथक्त्वं, वैयक्तिक, पुरुषविशेषानुबद्ध । २. विभागः, खंड:-. ३. विरामः, ४. निवृत्तिः व्यग्र, वि. (सं.) संभ्रांत, अधीर, व्याकुल, दे. (स्त्री.)। २. भीत, त्रस्त ३. व्यापृत, कार्यमग्न, व्यासक्त। व्यवधान, सं. पुं. (सं. न.) व्यवधा, आवरणं. For Private And Personal Use Only Page #600 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir व्यवसाय [ २६२ ] व्याज २. तिरस्करिणी, प्रतिसीरा ३. विभागः, खंडः। ४. क्षिप्त ५. प्रत्येक, पृथक-पृथक् ६. क्रमहीन, ४. विच्छेदः। अव्यवस्थित। व्यवसाय, सं. पुं. (सं.) वृत्तिः ( स्त्री.), उप- | व्याकरण, सं. पु. ( सं. न.) वेदांगविशेषः, आ-,जीविका, आजीवः २. व्यापारः, क्रय- शब्दशास्त्रं २. व्याकरणग्रंथः । विक्रयः ३. कार्य,-आरंभः उपक्रमः ४. निश्चयः | | व्याकुल, वि. (सं.) आकुल, व्यग्र, संभ्रांत, ५. प्रयत्नः, उद्यमः। विकल, विहस्त, मोहित, विक्षिप्त, वि-,मूढ, व्यवसायी, सं. पुं. (सं.-यिन् ) उद्यमिन्, कातर, विह्वल, अधीर, संभ्रांत-व्यस्त-विक्षिप्तउद्योगिन् २. क्रयविक्रयिकः, वणिज ३. वृत्ति- मूढ,-चित-मनस् २. अति, उत्क-उत्कंठ-उत्सुक । मत, व्यवसायविशिष्टः ४. अनुष्ठात् । -करना, क्रि. स., मुह-संभ्रम् (प्रे.), आकुलीव्यवस्था, सं. स्त्री. (सं.) शास्त्रनिरूपित, विहस्तीकृ, वि-सं, क्षुभ् (प्रे.)। विधिः-विधानं-निर्णयः २. रचना, विन्यासः, -होना, क्रि. अ., आकुलीभू, मुह (दि. प. क्रमेण स्थापनं, व्यूहनं ३. प्रबंधः, कार्यनिर्वा- | से.), २. अत्युस्सुक (वि.) भू । हणं, अवेक्षणं ४. स्थिरता। व्याकुलता, सं. स्त्री. (सं.) आ-व्या, कुलताव्यवस्थापक, सं. पुं. (सं.) व्यवस्थादायकः, कुलत्वं, व्या.,मोहः, व्यग्रता, संभ्रमः, विकलव्यवस्थापयित २. अधिष्ठात, अध्यक्षः, चालकः, ता, व्यस्तता, विह्वलता, सं.वि.-शोभः, चित्तवै. निर्वाहकः, प्रबंधकः। क्लव्यं-अशांतिः-अनिवृतिः (स्त्री.), उद्वेगः, -मंडल, सं. पु. (सं. न.) व्यवस्थापिका सभा। ब्याक्षेपः, उद्विग्नता २.उत्कंठातिशयः, लालसा। व्यवहार.सं. पं. ( सं. वत्तं. वर्तनं. चरितं. | व्याख्या , सं. स्त्री. (सं.) स्पष्टी-विशदी.करणं. आचारः, चेष्टितं २. कर्मन् (न.), कार्य | विवरणं, प्रकाशन, व्याख्यानं,प्रवचनं २. टीका, २. व्यवसायः, व्यापारः ३. कौसीचं, वृद्धिजी टिप्पणी, भाष्यं (विविधभेद) ३. विवरणात्मको ग्रन्थः । वनं ४. विवाद: ५. ग्लहः, पणः ६. अभियोगः, कार्य (=मुकदमा) ७. प्र-उप,-योगः। -करना, क्रि. स., व्याख्या (अ. प. अ.), करना, क्रि. अ., व्यवहू (भ्वा. उ. अ.), निरूप् (चु.), विवृ (स्वा. उ.से.), ब्याचक्ष वृत (भ्वा. आ. से.), आचर् (भ्वा. प. से.)। (अ. आ. अ.), स्फुटी विशदी-स्पष्टीक। -स्थान, सं. पुं. (सं. न.) व्याख्यानभवनं व्यवहारी, वि. ( सं.-रिन् ) व्यवहारक, व्यव- | सभाभवनम् २. विद्यालयः ।। हर्तृ २. प्रचलित, लौकिक । सं. पुं. (सं.) व्याख्याता, सं. पुं. (सं.-तृ.) भाष्य-व्याख्या. वादिन, कार्य-,अर्थिन् । टीका, कारः २. प्रवक्तू, उपदेशकः, व्याख्याव्यवहार्य, वि. (सं.) व्यवहरणीय २. उप नदाद, सञ्चारकः। योक्तव्य । व्याख्यान, सं. पुं. (सं. न.) दे. 'व्याख्या'(१) व्यवहित, वि. (सं.) व्यवधानविशिष्ट, सावरण, | २. भाषणं, उपदेशः, प्रवचनम् । तिरोहित। -देना, क्रि. स., व्याख्या ( अ. प. अ.), व्यवहृत, वि. (सं.) व्यापारित, उप-प्र-युक्त संभाष (भ्वा. आ. से.); उपदिश् (तु. प. २. आचरित, अनुष्ठित। अ.), प्रवच् ( अ. प. अ.)। व्यसन, सं. पुं. (सं. न.) दोषः, दुर्गुणः, -शाला, सं. स्त्री. (सं.) सभा-व्याख्यान, कुशील, दुर्वृत्तिः (स्त्री.) २. विपद्-विपत्तिः । स्थान-भवनम् २. शिक्षालयः। । स्त्री.) ३. दुःखं, कष्टं ३. अनिष्टं, अमंगलं | व्याघात, सं. पुं. (सं.) विघ्नः, दे. २. प्रहारः, ४. विषय, अनुरागः-आसक्तिः (स्त्री.) ५. दुर्- | आघातः३. अलंका दौर , भाग्यं ६. अभिरुचिः (स्त्री.)। | व्याघ्र , सं. पुं. (सं.) शार्दूलः, द्वीपिन्-ल:, ज्यसनी, वि. (सं.-निन् ) दुश्शील, दुर्वृत्त, मृगांतकः, हिंसारुः, चंद्रकिन् , भेलः, व्याडः विषयासक्त २. वेश्यागामिन् । २. पंच,-नखः-शिख:-आस्यः, सिंहः दे.। ज्यस्त. वि. (सं.) संभ्रांत, व्याकुल दे. | व्याज', सं. पुं., दे. 'ब्याज'। २. व्यासक्त, लीन, मग्न ३. व्याप्त व्याज', सं. पुं. (सं.) अप-व्यप,-देशः, For Private And Personal Use Only Page #601 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir व्याजोक्ति (५६३ ) कपट, छलं, छद्मन् (सं.), मिषं २. विघ्नः । व्यामोह, स. पुं. (सं.) वि-सं,मोहः, विवेक३. विलंबः। भ्रंशः। -निंदा, सं. स्त्री. (सं.) कपटकुत्सा २. अलंकार- व्यायाम, सं. पुं. (सं.) मल्लक्रीडा, बलवर्द्धकः, भेदः (सा.)। श्रमः २. परिश्रमः। -स्तुति, सं. स्त्री. (सं.) कपटप्रशंसा २. अलं. व्यायोग, सं. पु. (सं.) रूपक-नाटक, भेदः कारभेदः (सा.)। (सा.)। च्याजोक्ति, सं. स्त्री. (सं.) कपट-छल,वाक्यं | व्याल, सं. पं. (सं.) सर्पः, अहिः २. सिंहः २. अलंकारभेदः ( सा.)। ३. व्याघ्रः ४. हिंस्रपशुः । वि. (सं.) दुष्ट, व्याध, सं. पुं. (सं.) मृगयुः, मृगजीवनः, | अपकर्ता। लुब्धकः, द्रोहाटः, बलपांशुनः, आखेटकः, -ग्राही, सं. पुं. (सं.हिन् ) दे. 'संपेरा। मृगवधाजीवः २. शाकुनिकः, जालिकः, पक्षि- व्यावहारिक, वि. (सं.) वर्तन-व्यवहार,-विषग्राहकः, जीवांतकः। यक २. अभियोगसम्बन्धिन् ३. सामान्य, व्याधि, सं. पुं. (सं.) रोगः, दे. २. विपत्तिः । साधारण। (स्त्री.)। व्यास, सं. पुं. (सं.) पाराशरः-रिः-यः, कृष्ण,, व्यान, सं. पुं. (सं.) देहस्थवायुभेदः। द्वैपायनः, कानीनः, वादरायणः-णिः, सत्य, व्यापक, वि. (सं.) व्यापिन् , प्रसारिन् । भारतः-व्रतः-रतः, माठरः, वेदव्यासः, सात्य२. आच्छादक। वतः २. कथावाचकः ३. विष्कंभः, गोलस्य सर्व-, वि. (सं.) विश्वव्यापिन , सर्वग। मध्यरेखा ४. विस्तारः। व्यापकता, सं. स्त्री. (सं.) व्याप्तिः, दे.।। व्यासक्त, वि. (सं.) अत्यंतानुरक्त । व्यापना, क्रि. स. (सं. व्यापन ) व्याप ( स्वा. | व्याहृति, सं. स्त्री. (सं.) उक्तिः (स्त्री.) प. अ.), वि-अश् ( स्वा. आ. से.), अंत: २. मंत्रविशेषः (= भूः, भुवः, स्वः)। प्रस (भ्वा. प. अ.)। व्युत्पत्ति, सं. स्त्री. (सं.) विशिष्टशानं २. उद्व्यापादन, सं. पुं. (सं. न.) अपकार-अनिष्ट, गमस्थानं, मूलं ३. निरुक्तिः (स्त्री.), शब्द,चिन्ता-चिन्तनम् २. वयः, हत्या ३. नाशः, साधनं-सिद्धिः (स्त्री.), निर्वचनम् । ध्वंसः । व्यापार, सं. पुं. (सं.) वाणिज्य, वणिककर्मन व्युत्पल, वि. (सं.) निष्णात, प्रवीण, निपुण, (न.), क्रयविक्रयः, निगमः २. कार्य, कर्मन् | विशेषज्ञ, विज्ञ २. व्युत्पत्तियुत ३. संस्कृत । (न.)३. व्यापारः, इन्द्रियार्थसंयोगः (न्या.)/व्यूह, सं. पुं. (सं.) सैन्य-सेना,-विन्यास:४. व्यवसायः। संस्थानं २. सेना ३. समूहः ४. रचना, ५. -करना, क्रि. अ., क्रयविक्रय वाणिज्यं कृ, तर्कः ६. शरीरम् । पण (भ्वा. आ. से.)। -रचना, क्रि. स., व्यूह (भ्वा. प. से.), व्यापारी. सं. पुं. (सं.-रिन् ) वणिज, सैन्यं विन्यस् (दि. प.से.), व्यूह रच (चु.)। वणिजः, आपणिकः, नैगमः, क्रयविक्रयिणः, | व्योम, सं. पुं. [सं. मन् (न.)] आकाश:-शं पण्याजीवः, सार्थिकः, अष्ठिन्, व्यापारिन् । । २. जल ३. जलदः। व्यापी. वि. सं.-पिन् । दे. 'व्यापक'। -यान, सं. पुं. (सं. न.) विमानः-नं, वायुव्यापृत, वि. (सं.) कार्य,-संलग्न-लीन-रत | यानं, वातपोतः।। २. निहित, स्थापित। सं. पुं. (सं.) मंत्रिन, व्रज, सं. . (सं.) समूहः, समुदायः २. मथुउच्चकर्मचारिन्। रावृंदावनयोश्चतुष्याश्ववर्तिदेशः, व्रज, मंडलंव्याप्त, वि. (सं.) ओत-प्रोत, अंतःप्रस्त भूमिः (स्त्री.) ३. गोष्ठम् । २. भत, परिपूरित। -नाथ, सं. पुं. (सं.) श्रीकृष्णः, व्रज,व्याप्ति, सं. स्त्री. (सं.) व्यापनं, परिपूरणं, मोहनः-राजः-वल्लभः-ईश्वरः-इंद्रः। अंतःप्रसारः। |-भाषा, सं. सी. (सं.) शौरसेनीप्राकृतादुन्याम, सं. पुं. (सं.) व्यामनं, दैध्यमानभेदः। भूतो भाषाविशेषः । For Private And Personal Use Only Page #602 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir द्रण [५६४] व्रण, सं. पुं. (सं. पुं. न.) क्षत-तिः (स्त्री.), , व्रती, सं. पु. (सं.-तिन् ) व्रत,-धरः-स्थ: अरुस (न.), ईम:-मै २.दे. 'विस्फोट' (२.)। चारिन् २.यजमानः ३. ब्रह्मचारिन ४. तापसः, व्रत, सं. पुं. (सं. पु.न.) निय(या)मः, पुण्यक, तपस्विन्। २. उपवासः- उपोषणं, लंघनं ३. दृढ,-संकल्प:- व्रात्य, सं. पुं. (सं.) संस्कारहीनः २. सावित्रीअध्यवसाय:-निश्चयः-प्रतिज्ञा। पतितः ३. सांकरिकः, मिश्रजः । -रखना, क्रि. अ., उपवस् (भ्वा. प. अ.), लंघव्रीडा, सं. स्त्री. (सं.) त्रपा, लज्जा । (भ्वा.आ.से.), उपोषणं कृ, व्रतयति (ना. धा.)। ब्रीहि, सं. पुं. (सं.) शालिः, स्तंबकरिः -लेना, क्रि. अ., दृढ-संकल्पं कृ, सशपथं २. धान्यमात्रम् । प्रतिज्ञा (क् . आ. अ.), व्रतं धृ (चु.) चर्- बहु-, सं. पुं. (सं.) समासभेदः (भ्वा. प.से.)। । (व्या.)। दायिनी। श, देवनागरीवर्णमालायाः त्रिंशो व्यंजनवर्णः, -ध्वनि, सं. स्त्री. ( सं. पुं. ) कंबुनादः। शकारः। -पाणि, सं. पुं. (सं.) शंखधरः, विष्णुः शंकर, वि. (सं.) शुभ(भ)कर, मंगल्य, शुभ, । २. कृष्णः । शिव, भद्र। सं. पुं. (सं.) महादेवः, शिवः, शंखिनी, सं. स्त्री. (सं.) चतुर्विधनारीष्वन्यदे. । २. शंकराचार्यः। तमा २. यव-महा-भद्र, तिक्ता, सूक्ष्मपुष्पी शंकरा, सं. स्त्री. (सं.) पार्वती २. मंजिष्ठा ३. दे. 'सीप'।। ३. शमीवृक्षः। वि. स्त्री., सुख-मंगल, कारिणी- | शंठ, सं. पुं. (सं.) अविवाहितः, अकृतविवाहः, | कुमारः २. मूर्खः ३. क्लीवः । शंकराचार्य, सं. पुं. (सं.) अद्वैतमतप्रवर्तक | शंड, सं. पुं. ( सं. ) क्लीवः, छिन्नमुष्कः, षंडः, आचार्यविशेषः। नपुंस् (पुं.), नपुंसः-सकः (क) २. गोपतिः, शंकरी, सं. स्त्री. (सं.) पार्वती, उमा २. मंजिष्ठा, | बलीवर्दः ३. उन्मत्तः।। रक्ता ३. शमीवृक्षः ४. रागिणीभेदः । वि. स्त्री., शंतनु, सं. पु. (सं.) महाभीष्मः, प्रातीपः, मंगल कल्याण,कारिणी। भीष्मजनकः । शंका, सं. स्त्री. (सं.) भयं, भीतिः ( स्त्री.), शंबर, सं. पुं. (सं.) दैत्यविशेषः २. युद्धम् । त्रासः, दरः, साध्वसं २. संदेहः, संशयः, (सं. न.) जलं २. मेघः ३. धनम् । विकल्पः, आशंका ३. आक्षेपः। -सूदन, सं. पुं. (सं.) कामदेवः । शंकित, वि. (सं.) भीत, त्रस्त, ससाध्वस शंबुक-क, सं. पुं. (सं.) शंबूकः का, शंबुः, २. संदिग्ध, अनिश्चित ३. संशय-संदेह.-मग्न, जल,-शुक्तिः-( स्त्री.)-डिंबः, दुश्चरः, पंकमंडूकः, आशंकिन्, साशंक। घोंघः २. शंखः ३. क्षुद्रशंखः । शंकु, सं. पुं. (सं.) तीक्ष्णाग्र-निशितान,- | शंभु, सं. पुं. (सं.) महादेवः, शिवः दे. पदार्थः २. कील: ३. नागदंतकः, कोलकः । २. ब्रह्मन् ३.विष्णुः । ४. कुन्तः, प्रासः ५. (शरादीनां) फलं, फलकं -बीज, सं. पुं. (सं. न.) पारदः, दे. 'पारा'। ६. दशलक्षकोटिः (स्त्री.) ( संख्याविशेषः ) -भूषण, सं. पुं. ( सं. न.) चंद्रः । ७. मेदः ८. गोपुच्छाकारः सूक्ष्मायो यूपः। शऊर, सं. पुं. (अ.) विवेकः, सूक्ष्म,-दृष्टि:शख, सं. पुं. (सं. पुं. न..) कंबुः, कंबोजः, | बुद्धिः (स्त्री.) २. योग्यता, कौशलं ३. शिष्टता, अर्णोभवः, पावनध्वनिः, अंतःकुटिलः, महा- सुशीलता। सु-बहु-दीर्घ, नादः, मुखरः, हरिप्रिय: २. लक्ष-1-दार, वि. (अ.+फा.) विवेकिन् २. योग्य कोटिः (स्त्री.), दशनिखर्वसंख्या ३. गंडः। ३. शिष्ट । ४. गजगंड: गजदंतमध्यं वा ५. असुरविशेषः। शकी, सं. पुं. (सं.) जातिविशेषः २. शकादित्यः, -बजाना, क्रि. स., शंख ध्मा (भ्वा. प. अ.), शालिवाहनः ३. शालिवाहनप्रवर्तितः संवत्श्वासेन पूर् (चु.)। विशेषः। For Private And Personal Use Only Page #603 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir शक [५६५ ] शजर शकर, सं. पुं. (अ.) संदेहः, संशयः २. अवि- | शक्त, वि. ( सं.) समर्थ, क्षम, योग्य २. सबल, श्वासः, प्रत्ययाभावः। शक्तिमत् ३. धनिक ४. मधुरभाषिन् । -करना, क्रि. अ., दे. 'संदेह करना'। शक्ति, सं. स्त्री. (सं.) बलं, साम, प्रभावः, शकट, सं. पुं. ( सं. पुं. न.) वहनं, अक्षः, | तरस्-ओजस्-तेजस-ऊर्जस्-सहस् ( न.), शौर्य, अनस् ( न.) २. शरीरं, देहः।। पराक्रमः, शुष्मं, सह, स्थामन्-शुष्मन् --का भार, सं. पुं., शलाट:, शाकटीनः। (न.), प्राणः २. वशः, अधिकारः ३. शत्रुशकटिका, सं. स्त्री. (सं.) लघुशकट:-टं, विजयसाधनं प्रभु-मंत्र उत्साह, शक्तिः ( स्त्री.), शकटी २. शकटक्रीडनकम् । ४. माया, प्रकृतिः ( स्त्री.) ५. दुर्गा, भगवती शकर, सं. स्त्री. ( सं. शर्करा, फ्रा.) शार्कः, । ६. गौरी ७. लक्ष्मीः (स्त्री.) ८. काशः-सूः स्थूल-रक्त,-शर्करा, गुडचूर्णम् । (स्त्री.), शस्त्रभेदः ९. खड्गः १०. देव-कंद, सं. पुं. (सं. शर्कराकंदः दं) (लाल) ताबलम् । रक्तालुः, लोहितालुः, रक्त, कंदः-पिंडकः(सफेद) -धर, सं. पुं. (सं.) शक्ति, ग्रहः ध्वजःशर्करा-मधुर,-कंदः। पाणिः-भत्, कात्तिकेयः। -पारा, सं. पुं. (सं. फा.) शंखपाल:, शर्करा- |-वाला, वि., शक्ति,-मत्-शालिन्, बलवत्, पाल:। शक्त, बलिन्, पराक्रमिन, ऊर्जस्विन्, -बादाम, सं. पुं. (फा.) क्षुरमानिका, दे. / समर्थ। 'खुरमानी' तथा 'जर्द आलू। -हीन, वि. ( सं.) अशक्त, अबल, निर्बल, शकल', सं. स्त्री. (अ. शक्ल) आकारः, आकृतिः । बलहीन, असमर्थ २. नपुंसक, क्लीब । ( स्त्री.), रूपं २. मुख-मुद्रा ३. रचना, घटनं घटन शक्य, वि. (सं.) संभवनीय, संभाव्य, संभाना ४. उपायः ५. मूर्तिः (स्त्री.), दे, 'रूप'। वित २. संपाद्य, साध्य २. दे. 'शक्त' । सं. बिगाड़ना, मु., भशं तड् (चु.)। पुं. (सं.) वाच्यार्थः। शकल', सं. पुं. (सं. पुं. न.) खंडः-डं, लवः, " शक्यता, सं. स्त्री. (सं.) संभाव्यता, संभवः भागः। । २. साध्यता, संपादनीयता। शकील, वि. ( अ. शक्ल ) आकृतिमत्, सुंदर, शक्र, सं. पुं. (सं.) पुरन्दरः., दे. 'इन्द्र'। सुरूप, चारु। शकुंत, सं. पुं. (सं.) खगः, दे. 'पक्षी' २.कीट- | शक्राणी, सं. स्त्री. ( सं.) शची, इन्द्राणी। शक्ल, सं. स्त्री. (अ.) दे. 'शकल' (१)। भेदः ३. विश्वामित्रपुत्रः। शकुंतला, सं. स्त्री. (सं.) कण्वप्रतिपालिता शख्स, सं. पुं. (अ.) जनः, मनुष्यः, दे. 'व्यक्ति'। मेनकाविश्वामित्रयोः कन्या, दुष्यंतपत्नी शख्सियत, सं. स्त्री. (अ.) व्यक्तित्वं. दे. । २. श्रीकालिंदासप्रणीतं प्रख्यातनाटकम् । शकुन. सं. पुं. (सं. पुं. न.) फल-पूर्व, लक्षणं, शग़ल, सं. पुं. (अ.) व्यवसायः, उपजीविका अजन्यं, निमित्तं २. मंगल्यमुहूर्तः (-1), तत्र २. मनोविनोदः। भवं कार्य वा ३. पक्षिन् ४. गृध्रः ४. माङ्गलिक- | शगु(गू)न, स. पु., दे. 'शकुन' । गीतं ५. विवाहनिश्चायको वरोपहारः, *शकुन:- ) शगुनिया, सं. पुं. (हिं. शगुन ) निमित्तज्ञः, नम् । दैवज्ञः। -देखना या विचारना, मु., ( कार्यारंभात / शगूफ़ा, सं. पुं. (फा.) कोरकः-कं, कलिका प्राक ) शकुनैः फलं चिंत् (चु.)। । २. पुष्पं ३. विलक्षणवृत्तांतः। शकुनि, सं. पुं. (सं.) पक्षिन् २. गृध्रः । -खिलना, मु., अद्भुतं, संवृत (भ्वा.आ.से.)। ३. गांधारीभ्रात, सौवलकः ४. महादुष्टः। शचि ची, सं. स्त्री. (सं.) पौलोमी. ऐन्द्री. शक्कर, सं. स्त्री. (सं. शर्करा) दे. 'शकर' | दे. 'इन्द्राणी'। २. दे. 'चीनी'। -पति, सं. पुं. (सं.) शचीशः, बलभिद् , दे, शक्की, वि. (अ. शक ) संशयात्मन्, विश्वास- | 'इन्द्र'। विहीन, श्रद्धाशून्य, शंकाशील । शजर, सं. पुं. (अ.) पादपः, वृक्षः। For Private And Personal Use Only Page #604 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra शजरा www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [ ५६६ ] शजरा, सं. पुं. ( अ. ) वंशावली. लि: (स्त्री.), वंशवृक्षः २. वृक्षः ३. क्षेत्रमानचित्रम् । शठ, वि. (सं.) धूर्त्त, वंचक, प्रतारक, मायाविन २. दुर्वृत्त, दे. 'लुच् चा' । शठता, सं. स्त्री. (सं.) धूर्तता, माया, शाठ्यं, कपटं २. दुर्वृत्तं, दुराचारः, दौर्जन्यम् । शड़प्पा, सं. पुं. ( अनु. शड़ ) शड़प्कारः, द्रुतनिगरणध्वनिः । -मारना, मु., द्रुतं निगृ ( तु. प. से. ), शढप्कारैः भुज् (क्रू . आं. अ.) । शण, सं. पुं. ( सं. ) दीर्घ, शाखः -पल्लवः, माल्यपुष्पः, त्वक्सारः, वमनः, कटुतिक्तकः २. . भंगा, विजया ३. शणपुष्पी । शत, वि. [सं. शतं ( नित्य न. ) ] । सं. पुं., दशगुणितदशसंख्या तद्बोधका अङ्काश्च (१००), दे. 'सौ' । — कोटि, सं. पुं. (सं.), वज्रं, पविः । सं स्त्री. (सं.) अब्ज संख्या, अर्बुददशकं, अर्वम् । - ऋतु, सं. पुं. (सं.) शतमखः, इन्द्रः । —ध्नी, सं. स्त्री. (सं.) अस्त्रभेदः, लोहकंटकसंछन्ना महती शिला । —च्छंद, सं. पुं. ( सं. ) काष्ठकुट्टपक्षिन् । ( सं. न. ) शतदलपद्मम् । - दल, सं. पुं. ( सं. न. ) शतपत्रं, कमलम् । - पत्र, सं. पुं. ( सं . पुं. न. ) दे. 'शतच्छद' । —-पथ ब्राह्मण, सं. पुं. (सं. न. ) शुक्लयजुर्वे दस्य ब्राह्मणग्रंथ विशेषः । - पथिक, वि. ( सं .) नानामतावलंबिन्, नानापथगामिन् । - पद, सं. पुं. (सं.) शतपदी, कर्णकटी २. पिपीलिका । वि., शत-पद्-पाद् । - पदी, सं. स्त्री. (सं.) कर्णकीटी, शतपादिका, कर्ण, जलुका-जलौकस् (स्त्री.), शतपाद (स्त्री.) । - भिष, सं. पुं. (सं. शतभिषा ) नक्षत्रविशेष:, शतभिषज् (स्त्री.) । शनि शताब्द-ब्दी २. शतं शतवस्तुसमूहः । वि., शतसंख्याविशिष्ट, शत । -लक्ष, सं. पुं. (सं. न. ) कोटी - टि: (स्त्री.)। -वादन, सं. पुं. ( सं. न. ) अनेकवाद्यानां शतधा, अव्य. ( सं . ) शतप्रकारं २ शतखंडेषु ३. शतगुण-णित । शतद्रु, सं. स्त्री. (सं.) द्रि:-द्रः ( सब स्त्री. ) । शतरंज, सं. पुं. (फ़ा. ) चतुरंगम् । शितद्रुः, शतद्रः, शुतु - का मुहरा, सं. पुं., खेलनी, शारः - रिः । —की बिसात, सं. स्त्री, अष्टापदं, शारिफलम् । - बाज़, सं. पुं. ( फा ) चतुरंगक्रीडकः । बाज़ी, सं. स्त्री. ( फा . ) ( १-२ ) चतुरंग,क्रीडा - व्यसनम् । शतरंजी, सं. स्त्री. ( फ्रा.) विविधान्नरोटिका २. बहुवर्ण, कुथा-स्तरी ३. अष्टापदं, शारिफलम् । सं. पुं., चतुरंगचतुरः । शतशः, अ. ( सं .) शतं शतमिति कृत्वा २. शतकृत्वः (अव्य.) शतवारान् ३. अनेकधा, बहुधा, नानाप्रकारेण । शताब्दी, सं. स्त्री. (सं.) दे. 'शतक' (१) । शतिक, वि. (सं.) शतवान् २. शत, संबंधिन्शतायु, वि. ( सं . -स् ) शत, वर्ष-अब्द । विषयक | शती, सं. स्त्री. (सं.) शती, शताब्दी २. शतवस्तुसंग्रहः । शत्रुंजय, सं. पुं. (सं.) शत्रु- अमित्र, जित, शत्रुतपः, अरिंदमः, रिपुसूदनः । शत्रु, सं. पुं. (सं.) रिपुः, अरिः, सपत्नः, वैरिन्, द्वेषणः, द्विष, दुर्हृद् दौर्हृदः परः, शात्रवः, अरातिः प्रत्यर्थिन्, परिपंथिन्, प्रतिपक्ष:क्षिन्, द्वेषिन् जिघांसुः, घातकः, हिसकः, २. शत्रुसेना । शत्रुघ्न, सं. पुं. (सं.) लक्ष्मणानुजः, शत्रुमर्दनः । (अन्य ) दे. 'शत्रुंजय' । शत्रुता, सं. स्त्री. (सं.) वैरं, सापत्न्यं, विद्वेषः, प्रति-वि, पक्ष (क्षिता, विरोधः 1 -करना, क्रि. अ., वैरायते, अमित्रति, अमित्रयति, अमित्रायते ( सब ना. धा. ), वि., द्विष् ( अ. उ. अ. ) । युगपद् वादनम् । शहीद वि. (अ.) गंभीर, प्रबल, भयंकर, तीव्र वर्ष, वि. ( सं . ) शताब्द, शतायुस । सं. पुं. शनाख़्त, सं. स्त्री. (का.) दे. 'पहचान' ! ( सं. न. ) शताब्दी-ब्दम् । शनि, सं. पुं. ( सं . ) शनैश्वरः, सौरिः, मंदः, छायासुतः, ग्रहनायकः, वक्रः, पंगुः, सूर्यपुत्रः २. दौर्भाग्यं २. शनिवासरः । -सहस्र, सं. पुं. (सं. न. ) लक्षम् । शतक, सं. पुं. (सं. न. ) शतवर्षे, वर्षशतं, For Private And Personal Use Only Page #605 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir शनैः शयन (पुं. न.)। -प्रिय, सं. पुं. (सं.) नीलमणिः, दे. 'नीलम'।। सं. पुं., अर्जुनः २. दशरथः ३. बाणभेदः -वार, सं. पं. (सं.) शनि-शनैश्वर, वारः- ४. पायुः। वासरः। -वेधी, सं. स्त्री. (सं.-धिन् ) दे. 'शब्दभेदी' । शनैः, अव्य. (सं.) मंद, शनकैः । -शक्ति, सं. स्त्री. (सं.) शब्दानामर्थबोधक-शनैः, अव्य. (सं.) मंद मंदं, शनकैः शनकैः।। शक्तिः (स्त्री.) (=अभिधा, लक्षणा, व्यंजना)। शनैश्वर, सं. पु. (सं.) दे. 'शनि' (१.३)। |-शास्त्र, सं. पुं. (सं. न.) शब्दविद्या, व्याशपथ, सं. स्त्री. (सं.) दे. 'सौगंद' २. दिव्यं | करणम् । ३.प्रतिज्ञा। श्लेष, सं. पुं. (सं.) शब्दालंकारभेदः शफ, सं. पुं. (सं. न.) (गवादीनां) खुरः, दे.। | (सा.), अनेकार्थकपदप्रयोगः । शफ़क, सं. स्त्री. (अ.) संधा, संध्या, संध्यांशुः। -सौष्ठव, सं. पु. ( सं. न.) पदलालित्यम् । शफ़क़त, सं. स्त्री. (अ.) अनुग्रहः २. प्रेमन् शब्दाडंबर, सं. पुं. (सं.) शब्द-पद, जालं प्रपञ्चः । शफतालू , सं. पुं. (फा.) (पेड़ ) सप्तालुकः।। शब्दातीत, वि. ( सं.) शब्दातिग, अवर्णनीय, (फल) सप्तालुकं, आरूकं, दे. 'आड़। ( ईश्वरादि)। शफ़ा, सं. स्त्री. ( अ.) स्वास्थ्यं, नीरोगता। शब्दानुशासन, सं. पुं. ( सं. न.) दे. 'शब्द नाना, सं. पु. (अ.+फा.) चिकित्सालयः। शास्त्र'। शब, सं. स्त्री. (फ्रा.) रात्री-त्रिः (स्त्री.), रजनी। शब्दार्थ, सं. पु. (सं.) पदानुवती अर्थः, भावोशबनम, सं. स्त्री. (फ़ा.) अवश्यायः, दे. 'ओस। | पेक्षकोऽर्थः। शबल, वि. ( सं.) कबुर, कल्माष, नानावर्ण, | शब्दालंकार, सं. पुं. (सं.) अलंकारभेदः चित्र। (सा.), शब्दाश्रितो वाक्चमत्कारः। शबाब, सं. स्त्री. (अ.) यौवनं २. सौन्दर्या-शम, सं. पुं. ( सं.) प्र-,शांतिः (स्त्री.), शपथः, तिशयः। निश्चलत्वं, स्वास्थ्य, प्र-उप, शमः २. मोक्षः शबाहत, सं. स्त्री. (अ.) आकृतिः ( स्त्री.)/ ३. इन्द्रियनिग्रहः ४. निवृत्तिः, ( स्त्री.), वैराग्य २. समानता। ५.क्षमा। शवीह, सं. स्त्री. (अ.) चित्रं २. साम्यम् । शमन, सं. पुं. (सं. न.) दे. 'शम' (१)। शब्द, सं. पुं. (सं.) निन(ना)दः, वि-, र(रा)वः, २. यज्ञार्थ पशुहननं ३. दमनं, नाशनं निर-,घोषः, स्व(स्वा)नः, ध्वनिः, ध्व(ध्वा)नः ४. चर्वणं ५. हिंसा। २. पदं, सार्थकोऽक्षरसमूहः ३. ओ३म्, प्रणवः | शमनी, सं. स्त्री. ( सं.) निशा, रजनी। ४. भक्तिगीतम्। शमला, सं. पुं. (अ.) उष्णीष शिरोवेष्टन, -कोष, सं. पुं. [सं.-प:(शः)] अभिधानं, शब्द- शिखा-शिखरं-अग्रं-प्रान्तः । संग्रहः। शमशेर, सं. स्त्री. (का. ) असिः, खड्गः । -चातुर्य, सं. पुं. ( सं. न.) वाग्मिता, वाक् | -बहादुर, सं. पुं. (फ़ा.) आसिकः, खड्गिन् । पाटवम् । शमा, सं. पुं. (अ. शम) दे. 'मोम' -चित्र, सं. पुं. (सं. न.) अधमकाव्यभेदः, २. दीपिका ३. दीपः-पकः ।। अनुप्रासः । -दान, सं. पुं. (फा.) दीपि-दीपिका, वृक्षः-चोर, सं. पुं. (सं.) कुम्भिलः, शब्दतस्करः। ध्वजः। -चोरी, सं. स्त्री., शब्दचौर्य, कुंभिलत्वम् । शमी', सं. स्त्री. (सं.) शक्तु, फला-फली, शिवा, -पति, सं. पुं. (सं.) अनुयायिरहितो नेतृ। केशमथनी, पापशमनी, भद्रा, शं-शुभ, करी। -प्रमाण, सं. पुं. ( सं. न.) आप्तप्रमाणम्। | शमी२, वि. (सं.-मिन् ) शांत, क्षोभरहित, -विरोध, सं. पुं. (सं.) विरोधाभासः, मिथ्या- निश्चल। वैपरीत्यम् । शयन, सं. पुं. (सं. न.) संवेशः, स्वपनं, -ब्रह्मन् , सं. पुं. (सं. न.) चत्वारो वेदाः।। निद्राणं, सुप्तिः (स्त्री.), स्वापः २. शय्या -भेदी, वि. (सं.-दिन् ) शब्द, वेधिन-पातिन् ।। ३. संवेशनं, मैथुनम् । For Private And Personal Use Only Page #606 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir शयालु [ ५६८ ] श(सोराव -गृह, सं. पु. (सं. न.) शयन, आगारं- । शरबती, सं. पु. ( अ. शरबत ) दे. 'मीठी' मन्दिरम्। (फल) २. ईषत्पीतवर्णः । वि., रसपूर्ण, सरस, शयालु, वि. (सं.) निद्रालु, तंद्रालु २. सुषुप्सु, सुमधुर। निद्रावश। शरम, सं. स्त्री., दे, 'शर्म'। शय्या, सं. स्त्री. (सं.) आस्तरः, दे. 'बिछौना' शरह, सं. स्त्री. (अ.) टीका, व्याख्या, भाष्य २. खट्बा , पर्यकः, दे. 'खाट'। २. दे. 'भाव' ( मूल्य)। -गत, वि. (सं.) रुग्ण, रोगिन् । शरा, सं. स्त्री., दे. 'शर' । -गृह, सं. पुं. (सं. न.) दे. 'शयनगृह'। । शराकत, सं. स्त्री. (फा.) सहभागिता, दे. -मूत्र, सं. पुं. (सं. न.) *स्वप्नस्रावः, __'साझा' २. सहकारिता। शिशुरोगभेदः। शराफ़त, सं. स्त्री. (अ.) सज्जनता, सौजन्यं, -छादन, सं. पू. (सं. न.) पर्यंकप्रच्छदः। । यकपच्छदः। शीलम् । शर, सं. पुं. (सं.) इषुः, वाणः, दे.। २.शरकांडः, शराब, सं. स्त्री. (अ.) सुरा, मदिरा २. दे. दे. 'सरकंडा' ३. क्षीरशरः, दुग्धा, संतानी- 'शरबत' (हिकमत )। निका ४. दधिशरः, दधि, सारः-स्नेहः, कट्टर, -का ख़मीर, सं. पुं., मथपंकः, सुराकल्कः, कटवरं ५. उशीरः। मेदकः, जगलः। शरअ, सं. स्त्री. (अ.) धर्मः, मतं २. धर्मशास्त्रं | --का प्याला, सं. पुं., पान-मद्य-सुरा,-भाजन३. प्रथा ४. धामिकादेशः ५. ईशदर्शितमार्गः | भांडं-पात्रम् । (इस्लाम)। -के खमीर की झाग, सं. स्त्री., मय,-फेनःशरकांड, सं. पुं. (सं.) दे. 'सरकंडा'। मंडः, कार, उत्तरः-उत्तमः। शरण, सं. स्त्री. (सं. न.) आश्रयः, गतिः (स्त्री.)-के नशे में चर, वि., मत्त, क्षीब, मदोत्कट, २. आश्रय-त्राण, स्थानं ३. गृह. भवन मदोद्धत, समद, मदाढ्य, मदोन्मत्त, शौंड । ४. शरण्यः , रक्षित,त्रातृ ५.शरणागतरक्षणम् । -खाना, सं. पुं. (अ.+फा.) गंता, शुंडा, -देना, क्रि. स., अव-रक्ष (भ्वा. प. से.), सुरालयः। शरणं दा। -खींचना, क्रि. स., मद्यं संधा (जु, उ. अ.) -लेना, क्रि. अ., आश्रि ( भ्वा. उ. से.), सुरां उ-स्यद् (प्रे.)। सं. पुं., मद्य, संघानंशरणं प्रपद् (दि. आ. अ. ) इ-या ( दोनों अ. | अभिषवः। प. अ.)। -खींचने का स्थान, सं.पुं., संधानी, अभिषवशरणागत, वि. (सं.) शरणापन्न, अभिपन्न, शाला । शरणार्थिन , शरणैषिन् । सं. पुं. (सं.) शिष्यः । -खींचनेवाला, सं. पुं., सुराकारः, शौंडिकः, शरणार्थी, वि. (सं.-र्थिन् ) शरणेच्छुक, रक्षा- संधानिन् । भिलाषिन् । -खोर, सं. पुं. (अ.+फा.) पान,-आसक्त:शरण्य, वि. (सं.) शरणद, शरणागतरक्षक, रतः, मधु-मद्य-सुरा,-पः, पानशौंडः, सुरासुः। रक्षित, प्रातृ २. दुःखित, असहाय । |-खोरी, सं. स्त्री., सुरापान-णं, मद्यसेवनम् । शरद्, सं. स्त्री. (सं.) परि-वत्सरः, अब्दः, | -पीना, क्रि. स., सुरां पा ( भ्वा. प. अ.), वर्षः-र्षे २. वर्षावसानः, मेघांतः, कालप्रभातः- | मधं सेव ( भ्वा. आ. से.)। तं, प्रावृडत्ययः ( = आश्विन-कार्तिक )। शराबी, सं. पुं. ( अ. शराब ) दे. 'शराबखोर'। शरधि, सं. पु. (सं.) तृणः, इषुधिः, दे. | शराबोर, वि. (फा.) दे. 'लथपथ' । शरारत, सं. स्त्री. ( अ.) कुचेष्टा-ष्टितं, दुर्ललितं, शरफ, सं. पुं. (अ.) महत्त्वं, महत्ता २. दुष्टता, खलता, अपकारः । श्रेष्ठता ३. गुणः ४. प्रतिष्ठा । शरारती, वि. (अ. शरारत) कुचेष्टक, शरबत, सं. पुं. (अ.) शर्करोदकं, गुडोदकं, / दुर्ललित, दुष्ट, खल, अपकारक । पानकं, गौल्यं, सितोद, मिष्टोदं २. शर्करा- श(स)राव, सं. पुं. (सं. पुं. न.) वर्द्धमानकः, मधु, क्वाथः । । मार्तिकः, मृत्कांस्य, दे. 'कुल्हड़' । 'तरकश'। For Private And Personal Use Only Page #607 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir शरासन [ ६६ ] शरीअत, सं. स्त्री. (अ.) दे. 'शरअ' (२,५) । शरीक, वि. (अ.) संमिलित । सं. पुं., सहचर:- कारिन् - योगिन् २. सह भागिन्, अंशिन, अंशग्राहिन् ३. सहाय:-यकः ४. सजातीयः, सजातिः । शरासन, सं. पुं. ( सं. न. ) शरास्यं, शरावापः शर्म, सं. स्त्री. ( फा . ) दे. 'लज्जा' २. संकोचः,' दे. 'धनुष' । दे. 'लिहाज ' ३. मानः, प्रतिष्ठा ! -से गड़ना या पानी पानी होना, मु., अत्यर्थं लज्जू ( तु. आ. से. )-त्रप् (भ्वा. आ. से.), लज्जानतास्य (वि.) भू । शर्मसार, वि. ( फा . ) लज्जाशील २. होण, लज्जित | | शरीफ़, सं. पुं. (अ.) अभिजातः, कुलीनः, आर्यः, सुप्रतिष्ठः, भद्रजनः, सज्जनः । वि. (अ.) सभ्य, शिष्ट, सदाचारिन् २. कुलीन, अभिजात, अभिजनवत् ३. पवित्र, निर्दोष । शरीफ़ा, सं. पुं. (सं. श्रीफलं > ) ( फल ) सीताफल, वैदेहीवल्लभं, गंडगात्रं, कृष्ण बहुबीजम् । (वृक्ष) सीताफल : इ. पुं. रूप । शरीर', सं. पुं. (सं. न. ) कायः, देह: -हं, कलेवर:- रं, गात्रं, अंगं, क्षेत्रं, विग्रहः, संहननं, वपुस् (न.)। मूर्ति:-तनु:-नूः (स्त्री.) पुरं, चतुःशाखं, पिंड, स्कन्धः, पंजरः, इन्द्रियायतनं, पुद्गलः, करणम् । - त्याग, सं. पुं. (सं.) देहपातः, मृत्युः । -रक्षक, सं. पुं. (सं.) अंगरक्षकः, *तनुत्रः । - शास्त्र, सं. पुं. (सं. न. ) शरीर विज्ञानम् । - संस्कार, सं. पुं. (सं.) गर्भाधानादयः षोडश संस्काराः २. कायशुद्धिः ( (स्त्री.), देहपरिष्कारः । शरीर, वि. (अ.) दे. 'शरारती' । शरीरांत, सं. पुं. ( सं . ) देहपात: निधनम् । शरीरी, सं. पुं. (सं.-रिन ) शरीरवत्, देहिन २. जीवः, आत्मन् ३. प्राणिन्, जंतुः । शर्क, सं. पुं. (अ.) प्राची, पूर्वदिशा । शर्करा, सं. स्त्री. (सं.) दे. 'शंकर' २. सिकताकणः ३. अश्मरी, दे. 'पथरी' ३. अष्ठीला:पाषाण कला: ( बहु . ) ४. क ( ख ) पर: । शर्के, वि. ( अ. शर्क > ) प्राच्य, पूर्वीय । शर्त, सं. स्त्री. (अ.) पण, ग्लह : २. संकेत:, समयः, नियमः । करना, बाँधना या लगाना, मु., पण ( भ्वा. आ. से. ), ग्लह् (भ्वा. चु. उ. से. ) २. समयं नियमं कृ | बिला, क्रि. वि., समयं नियमं विना । शर्तिया, क्रि. वि. ( अ. ) ग्लन, पणेन, ग्लहपण - पूर्वकं २. निस्संशयं, निस्सन्देहम् । वि., अमोघ, अवंध्य । शव शर्मा, सं. पुं. (सं. शर्मन ) ब्राह्मणोपाधिभेदः । शर्माना, क्रि. अ. तथा क्रि. स. ( फ्रा. शर्म ) दे. 'लज्जित होना' २. दे. 'लज्जित करना' । शर्माशर्मा, क्रि.वि. (का. शर्मा ) लज्जया, हिया । शर्मिंदगी, सं. स्त्री. ( फा . ) लज्जा, त्रपा, व्रीडा | - उठाना, मु., दे. 'लज्जित होना' । शर्मिंदा, वि. ( फा . ) लज्जित, व्रीडित, त्रपित । शर्मीला, वि. (फ़ा. शर्म ) लज्जावत्, सलज्ज, दे. 'लज्जाशील' । शर्वरी, सं. स्त्री. (सं.) निशा, रात्री, ३. ‘रात' । - नाथ, सं. पुं. (सं.) शर्वरीदीपः, चन्द्रः । शलग़ (ज) म, सं. पुं. (फ़ा.) शिखा, मूलं-कंदः, गृञ्जनम् । शल (र)भ, सं. पुं. (सं.) पत्रांकः-गः, पतङ्गः, फडिगा, शिरिः, दे. 'टिड्डी' २. पतंगः दे. 'पतंगा' | शलाका, सं. स्त्री. (सं.) धातुकाष्ठादिनिर्मिता यष्टिका, दे. 'सलाख' २. बाणः ३. अस्थि (न.) ४. तृणं ५. शारिका ६. कज्जलशलाका ७. अक्षः, देवनः ८. दीपशलाका । शल्य, सं. पुं. (सं.) मद्रराजः, माद्रीभ्रातु २.३. बिल्व-लोभ, वृक्षः ४. सीमा ५. शलाका ६. शलल:- ली, शल्यकः ७. मीनभेदः (सं.न.) कुंतः, प्रासः २ इषुः, बाणः ३. कंटकः-कं ४. पीडाकारणं ५. दुर्वाक्यं ६. पापं ७. कष्टं ८. विषं ९. अस्थि ( न. ) १०. अस्त्रचिकित्सा ११. शंकुः । कर्ता, सं. पुं. (सं.-र्तृ) दे. 'सर्जन' । - क्रिया, सं. स्त्री. (सं.) दे. 'सर्जरी' । शव, सं. पुं. (सं. पुं. न.) कुणपः, क्षितिवर्द्धनः, मृतकः-कं, प्रेतम् । - दाह, सं. पुं. (सं.) अंत्येष्टि - मृतक - संस्कारः । - यान, सं. पुं. (सं. न. ) शवरथः खाटी - टिका, खोटः, काष्ठमल्लः, दे. 'अरथी' । For Private And Personal Use Only Page #608 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir शवर [१७० ] शवर, सं. पुं. ( सं.) म्लेच्छजातिभेदः २. शिवः । 'फसल' शष्पं, शादः ३. वृक्ष-लता, फर्ल. ३. जलम् । ४. धान्यं (शस्यं क्षेत्रगत प्राहुः, सतुषं धान्यशवरी, सं. स्त्री, (सं.) श्रमणानाम्नी तपस्विनी | मुच्यते। आमं वितुषमित्युक्तं, स्विन्नमन्न२. शवरजातेनारी। मुदाहृतम् ।।) वि. (सं.) उत्तम, श्रेष्ठ २. स्तुत्य, शश, सं. पुं. (सं.) शशकः, शूलिकः, रोम- प्रशंसनीय । कर्णः, मृदुरोमन् २. चंद्रलांछनं ३. पुरुषभेदः।। -भक्षक, वि. (सं.) तृण-शाक, भक्षक । -धर, सं. पुं. (सं.) शशभत्, चंद्रः। शस्यागार, सं. पुं. ( सं. नं.) धान्यागारम् । -भंग, सं. पुं. (सं. न.) शशकविषाणं, | कुशूलः। खपुष्पं, गगनकुसुमं, असंभवनीयवस्तु (न.)। शहंशाह, सं. पुं. (फा.) राजाधिराजः, दे.. शशक, सं. पुं. (सं.) दे. 'शश'(१)। 'सम्राट'। शशमाही, वि. (का.) पाण्मासिक-अर्द्धवार्षिक- शह, सं. स्त्री. (फा.) गुप्तोत्तेजना। (की स्त्री.)। -देना, मु., निभृतं उत्तिज-उद्दीप् (प्रे.)।' शशांक, सं. पुं. (सं.) शशधरः, चन्द्रः । शहज़ादा, सं. पुं. (फा.) राजकुमार:: शशी, सं. पुं. (सं. शशिन् ) शशधरः, सोमः, | २. युवराजः। दे. 'चाँद'। शहज़ोर, वि. (फ्रा.) बलिन्, शक्तिशालिन् । -कर, सं. पुं. (सं.) चन्द्रकिरणः। शहतीर, सं. पुं. (का.) तुला, स्थूणा,छद्याधारः।' --कला, सं. स्त्री. (सं.) चंद्रलेखा २ वृत्त शहतूत, सं. पुं. (फा.) (वृक्ष) ब्रह्मदारु:, भेदः (छंद.)। तूदः, तूतः, पूषः, ब्रह्मण्यः, तूलः, यूषः । (फल) -कांत, सं. पुं. (सं.) चंद्रकांतमणिः। (सं.न.) तूतं, तूलं, तूदं, पूष, यूषम्। कुमुदम् । शहद, सं. पुं. (अ.) माक्षिक, क्षौद्रं, मधु.. -कुल, सं. पुं. (सं. न.) चंद्रवंशः। | (न.) दे.। -पुत्र, सं. पुं. (सं.) शशिजः, बुधग्रः ।। -की मक्खी, सं. स्त्री., मधुमक्षिका। -प्रभा, सं. स्त्री. (सं.) कौमुदी, चंद्रिका।। -भूषण, सं. पुं. (सं.) शशि-चंद्र, मौलि: -लगाकर चाटना, मु., व्यर्थ पदार्थं निरर्थं शेखरः, शिवः। रक्ष (भ्वा. प. से.)। -वदना, सं. स्त्री. (सं.) वृत्तभेदः (छंद.) | शहनाइ, से | शहनाई, सं. स्त्री. (फ़ा.) सानेयी-यिका,. २. चंद्रमुखी-खा। (उपर्युक्त सभी समासों में| सानिका।। 'शशि' रूप रहेगा। उ. शशिकर इ.)। शहबाला, सं. पुं. (फा.) *सहबालः (पं.. शस्त्र, सं. पुं. (सं. न.) अस्त्रं, प्रहरणं, शत्रुघ्नं, सबाला), *वर, पृष्ठगः-सहचरः। हत्नु:, हेतिः (पुं. स्त्री.)। शहर, सं. पुं. (का.) नगरं, पुरम् । -बाँधना, क्रि. अ., शस्त्राणि धृ (चु.), सन्नह -पनाह, सं. स्त्री. (फा.) *नगरकोट्टः, वृत्तिः: (दि. उ. अ.)। (स्त्री.), प्राचीरं, दे.। -कर्म, सं. पुं. [सं.-मन(न.)] शल्य-शस्त्र.- शहरी, सं. पुं. (फा.) पौरः, नागरिकः, नगरक्रिया। पौर, जनः । वि., नगरीय, नागर, नागरेयक,. -गृह, सं. पुं. (सं.) शस्त्र, शाला-आगारम् । नागरिक दे.। -जीवी, सं. पुं. (सं.-विन् ) शस्त्रवृत्तिः, शहवत, सं. स्त्री. (अ.) संभोग-मैथुन, आयुधिकः। इच्छा । --धारी, वि. (सं.-रिन्) सशस्त्र,शस्त्र, भृत्-धर। |-परस्त, वि., कामुक, लंपट, कामातुर । -विद्या, सं. स्त्री. (सं.) धनुर्वेदः । -परस्ती, सं. स्त्री. कामुकता, लम्पटता, शस्त्रागार, सं. पुं. (सं. शस्त्र+आगार) शस्त्र- कामान्धता। शाला-गृहं-स्थानम् । शहसवार, सं. पुं.(फा.) कुशलसादिन् । शस्त्राभ्यास, सं. पुं. (सं.) अस्त्रशिक्षा, खुरली। शहादत, सं. स्त्री. ( अ.) साक्ष्य, दे. 'गवाही? शस्य, सं. पुं. (सं.) शस्य, क्षेत्रस्थं फलं, दे. २. प्रमाण ३. बलिदानम् । For Private And Personal Use Only Page #609 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir शहीद [२१] शान शहीद, सं. पुं. (अं.) *हुतात्मन्, धर्महतः, धर्म- । -मुनि, सं. पुं. (सं.) गौतमबुद्धः, सिद्धार्थः, पतंगः। | महाबोधिः, महामुनिः। शि. महामनिः। -होना, क्रि. अ., धर्मार्थ प्राणान् हा (जु. प. शान, सं. स्त्री. (फा.) दे. 'शाखा' (१)। अ.) परोपकाराय हन् ( कर्म.)। २. शृंगं, विषाणं ३. उपांगं ४. उपनदी। शांत, वि. (सं.) स्वस्थचित्त, प्रसन्न,-मानस- -दार, वि. (फा.) शाखायुत २. शृंगयुत । चेतस , निवृत, स्वस्थ, निरुद्वेग, आवेशशून्य, शाखां, सं. स्त्री. (सं.) विटप:-पं, शिखा, लंका, शमित, शमान्वित २. रुद्ध, वेग-गति-क्रिया, लता २. देहावयवः, शरीरांगं ( हाथ, पाँव रहित, विरत ३. सौम्य, गंभीर, धीर ४. निः- आदि ) ३. अंगुली, करशाखा ४. अंग, उपांगं शब्द, मौनिन् ५. जितेन्द्रिय, संयमशील । ५. वि.,भागः ६. वैदिकग्रंथ-भेदः। ६. शिथिल, निरुत्साह ७. श्रांत, क्लांत, खिन्न -नगर, सं. पुं. (सं. न. ) उपपुरं, शाखापुर, ८. निवापित, निर्वाण ( अग्न्यादि) ९.निर्विघ्न, | नगरप्रांतः। निर्बाध । सं. पुं. (सं.) रसविशेषः ( काव्य.) | शाखी, सं. पुं. (सं.खिन् ) वृक्षः २. वेदः। २. विरक्तः, योगिन्। वि., सशाख । -करना, क्रि. स., उप-प्र-शम् (प्रे.) २. प्रसद्- | शागिर्द, सं. पु. (फा.) शिष्यः, दे.। तुष (प्रे.)। शागिर्दी, सं. स्त्री. (फ्रा. शागिर्द ) शिष्यता -होना, क्रि. अ., शम् (दि. प. से.), शांत | २. सेव।। निश्चल (वि.) भू। शाटक, सं. पुं. (सं. पुं. न.) पटः, वस्त्रम् । शांतता, सं. स्त्री. (सं.) दे. 'शांति'। शाटिका, सं. स्त्री. (सं.) दे. 'धोती'। शांतनु, सं. पुं. (सं.) दे. 'शंतनु' २. कर्कटी । शाटी, सं. स्त्री. (सं.) दे. 'साड़ी'! शांता, सं. स्त्री. (सं.) दशरथतनया, ऋष्य शाध्य, सं. पुं. (सं. न.) दे. 'शठता' (१-२) शृंगभार्या । शाण, सं. . ( सं.) शाणी, सामकं। (छोटा) शांति, सं. स्त्री. (सं.) दे. 'शम' (१) । २. गतिक्रिया-वेग-क्षोभ,राहित्यं ३. नीरवता, नि: झामरः २. नि-,कषः सः, कषपट्टिका ३. माष चतुष्टयं, टंकः, निष्कः। शब्दता ४. रोगादीनां क्षयः-नाशः ५. मृत्युः ६. सौम्यता, गम्भीरता ७. वैराग्यं, तृष्णाक्षयः शाद, सं. पुं. (सं.) कर्दमः २. शष्पम् ।। ८. संकटनिवारणम् । शाद, वि. ( फा.) प्रसन्न, मुदित २. परिपूर्ण । -दायक, वि. ( सं.) शांति, प्रद-कर-दायिन्। शादाब, वि. (फा.) जलाढ्य, जलसिक्त। -पर्व, त. पुं. [सं.-पर्वन् (न.)] श्रीमन्महा शादियाना, सं. पु. ( फा.) मंगलवाद्यं २. दे. भारतस्य द्वादशपर्वन् । 'बधाई। शादूर, सं. पुं. दे. 'शायर' । शादी, सं. स्त्री. (का.) विवाहः, दे. २. हर्षः शाइस्तगी, सं.स्त्री. (फ्रा.) शिष्टता, सज्जनता। ३. आनन्दोत्सवः। शाइस्ता, वि. (का, तः ) शिष्ट, सुशील । -गमी, सं. स्त्री. (का+अ.) हर्षशोको, सुखशाक, सं. पुं. (सं. पुं. न.) दे. 'साग'। दु:खे। शाकाहार, सं.पु. (सं.) हरितकभोजनं, मांस-|-मगे, सं. स्त्री., हषोतिरेकजनितमृत्युः। त्यागः। शाद्वल, सं. पुं. (सं. पुं. न.) हरितः-तं, शष्पशाकाहारी, वि. (सं.-रिन ) हरितकभोजिन्, बहुलो देशः । वि., हरित, शल्पाच्छन्न । मांसत्यागिन् । | शान, सं. स्त्री. (अ.) श्रीः (स्त्री.), अभिख्या, शाक्त, सं. पुं. (सं.) शक्त्युपासकः, शाक्तिकः, औज्ज्वल्यं, शोभा, प्रभा, भव्यता, आडंबरः शाक्तेयः। २. विभूतिः-शक्तिः ( स्त्री.) ३. प्रतिष्ठा, गौरवं शाक्तिक, सं. पुं. (सं.) दे. 'शाक्त' । २. शक्ति- ४. विभ्रमः ५. महिमन् (पुं.)। कासू ,-धरः सैनिकः, शाक्तीकः।। –दार, वि. ( अ.+फा.) श्रीमत, शोभान्वित,, शाक्य, सं. पुं. (सं.) प्राचीनक्षत्रियजाति- भव्य, साडंबर, शोभन, सुप्रभ, समुज्ज्वल, विशेषः। वैभवशालिन्। For Private And Personal Use Only Page #610 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra शाप www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [ १७२ 7 -शौकत, सं. स्त्री. (अ.) दे. 'शान' (१) । - घटना, मु., लघूभू, महिमा अपचि ( कर्म . ) । -शाप, सं. पुं. ( सं. ) दे. 'सराप' २. धिक्कारः । शापित, वि. (सं.) शाप, ग्रस्त बद्ध - पीडित | शाबाश, अव्य. (फ़ा.) साधु, साधु साधु, शोभनं, सुष्ठु, भद्रम् । - शाबाशी, सं. स्त्री. ( फ़ा. शाबाश ) प्रशंसा, स्तुति: (स्त्री.), साधुवादः । -देना, क्रि. स,, अभि-प्रति नंद (भ्वा.प.से.), प्रोत्सह (प्रे.) । - शाब्दिक, वि. ( सं . ) मौखिक, लेखरहित २. शाब्द, शब्दप्रधान, शब्दसम्बन्धिन् । शाम', सं. स्त्री. ( फा . ) संध्या, दे. | - शाम, सं. स्त्री. ( देश. ) यष्ट्यादिमध्यवर्ती प्रांतवर्ती वा धातुवलयः । - जड़ना, क्रि. स., धातुवलयेन खच् (चु.) । शामत, सं. स्त्री. ( अ ) दौर्भाग्यं २. आपद् (स्त्री.) ३. दुर्दशा । —आना, क्रि. अ., आपदा ग्रस् ( कर्म.) । - का मारा, मु. दैवहतकः, दुर्दैव:- मंदभाग्यः । शामियाना, सं. पुं. ( फ़ा. शाम ) महावितान:, बृहदुल्लोचः । शामिल, वि. ( फा . ) दे. ' संमिलित ' । शामी, सं. स्त्री. ( देश. ) दे. 'शाम' (२) । शायक, वि. (अ.) प्रेमिन्, अनुरागिम् २. अभिलाषिन् । शायद, अव्य. (फ़ा. ) स्यात्, कदापि, कदाचित, नाम, सम्भाव्यते । शाय (इ) र, सं. पुं. (अ.) कविः, दे. | शाय (इ)रा, सं. स्त्री. (अ.) कवित्री, कविताकाव्य-कनीं । - सूत्र, सं. पुं. ( सं . त्राणि ) श्रीवेदव्यासप्रणीतानि वेदांतसूत्राणि ( न. बहु . ) । शार्क, सं. स्त्री. ( अ. ) जलकिराटः । शार्ट हैंड, सं. पुं. (अं.) शीघ्र -संक्षिप्त, लिपीपिः (स्त्री.) । शार्दूल, सं. पुं. (सं.) व्याघ्रः, दे. २. सिंहः, दे. | वि., उत्तम, श्रेष्ठ ( केवल समासांत में, उ. नरशार्दूल = नरोत्तम ) । -विक्रीडित, सं. पुं. (सं. न. ) वर्णवृत्तभेद: (छन्द) । शासम शाल), सं. पुं. ( सं . ) साल:, सर्ज:, शंकुवृक्षः, अश्वकर्णकः, चीरपर्णः, गंधवृक्षकः, रालनिर्यासः, अग्निवल्लभः, यक्षधूपः, सुरेष्टकः २. दे. 'राल' ३. मीनभेद: ( = गजाड़ मछली ) । शाल, सं. स्त्री. (फ़ा. ) १-२ और्ण-कौशेय - प्रावार:- रकः, दे. 'दुशाला' । शालग्राम, सं. पुं. (सं.) विष्णुमूर्तिभेद: २. शालबहुलो गंडकी तीरवर्तिग्रामविशेषः । शाला, सं. स्त्री. ( सं . ) गृहं, गेह:-हं, सदनं, अ (आ) गार:- रं २. स्थानं, स्थलं, ३. शाखा । शालि, सं. पुं. (सं.) व्रीहिश्रेष्ठः, धान्योत्तनः, सुकुमारकः, कैदारः नृपप्रियः २ . गंधमार्जारः । - धान, सं. पुं. (सं. शालिधान्यं ) * तंडुलोत्तमः, दे. 'वासमती चावल' । शालिवाहन, सं. पुं. ( सं . ) शकजातीयको नृपविशेषः, सातवाहनः । शालिहोत्र, सं. पुं. ( सं . ) पशुचिकित्साशास्त्रलेखक विशेषः २. घोटकः । (सं. न. ) पशुचिकित्साशास्त्रम् | शालीन, वि. (सं.) विनीत, नम्र २. लज्जाशील ३. समान ४. सदाचारिन् ५. धनाढ्य ६. व्यवहारकुशल ७. शालासंबंधिन् । शालीनता, सं. स्त्री. (सं.) विनयः २, लज्जा शायराना, वि. (अ.) कविसुलभ २. कविसदृश ३. कवित्वमय ४. अतिरंजित, अतिशयोक्ति- अत्युक्ति-युक्त ३. सदाचारः । शायरी, सं. स्त्री. (अ.) काव्यकला २. काव्यं, कविता | शावक, सं. पुं. (सं.) शाव:, अर्भकः, पोत:, पोतकः, डिंभ:- पृथुकः, खग-मृग, शिशुः २. शिशुः (कदाचित् ) । अविनाशिन् । शारदा, सं. स्त्री. (सं.) सरस्वती दे. २. दुर्गा शाश्वत, वि. (सं.) नित्य, अनन्त, अक्षय, ३. ब्राह्मी ४. प्राचीनलिपि विशेषः । शारीरिक, वि. (सं.) शारीर ( - री स्त्री. ), शासन, सं. पुं. ( सं. न. ) शास्तिः-शिष्टि: कायिक- दैहिक (की स्त्री. ) । - भाष्य, सं. पुं. (सं. न. ) श्रीशंकराचार्यप्रणीतं ब्रह्मसूत्रभाष्यम् । (स्त्री.), राज्यं, आधिपत्यं, अधिकारः २. आज्ञा, आदेशः ३. राजदत्तभूमि: (स्त्री.) ४. अधि. कारपत्रं ५. शास्त्रं ६. इन्द्रियनिग्रहः ७. निय For Private And Personal Use Only Page #611 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir शासित [५७३ ] शिकारी - - त्रणा, नियमनं ८. राज्य-,दण्डः ९. लिखित- | शिंघाण, सं. पुं. (स. न.) नासिकामलं, शिंघाप्रतिज्ञा। णकः-कं २. लोहमलं ३. काचपात्रम् । (सं.पु.) -करना, क्रि. स., प्र-,शास ( अ. प. से.), | शिंघाणकः, श्लेष्मन् । ईश ( अ. आ. से.), तंत्र (चु.), अधिष्ठा | शिंजन, सं. पु. ( सं. न.) शिंजितं, झणत्कारः, (भ्वा. प. से.), नियम्-विनी (भ्वा. प. अ.)। झणझणध्वनिः। सं.पु., ईशनं, अधिष्ठान, नियमन, नियंत्रणम्। शिकंजबी, सं. स्त्री. (फ्रा. शिंकजबी ) पानक, -कर्ता, सं. पुं. (सं.-र्तृ )शासकः, शासनधरः, | *अम्लगोल्यम् । शास्तू, शासित, अधिष्ठात, देशकः । शिकंजा, सं. पुं. (फा.) १-३. निपीडन-दृढी-पत्र, सं, पुं. (सं. न.) राजादेशपत्रम् । करण-निर्गालन,यंत्रं ४, ग्रन्थनिपीडनयंत्र -हर, सं. पं. (सं.) आशावाहकः २. शासन, ५. निगडः, हडिः ६. दे. 'कोल्हू'। हारक-हारिन्, राजदूतः। | शिकंजे में खींचना, मु., प्रमंथ् ( क. प. से.). शासित, वि. (सं.) कृतशासन, अधिकृत, यत् (प्रे.), अत्यर्थे अद् (प्रे.)-पीड (चु.).. अधिष्ठित, नियंत्रित २. दंडित, दे.। निगडयति ( ना. धा.)। शास्त्र, सं. पुं. (सं. न.) धर्मग्रंथः २. विज्ञानम्। | शिकन, सं. स्त्री. (फा. ) व(ब)ली-लि: (स्त्री.) -कार, सं. पुं. (सं.) शास्त्र,-कृत्-रचयितु, २. पुटः, भंगः । आचार्यः। -डालना, क्रि. स., वलिनं कृ. २. सपुटं विधा। -चक्ष, सं. पु. [सं.क्षुस् (न.)] व्याकरणं -पड़ना, क्रि. अ. वलिन-वलिभ-वलियत २. ज्ञानिन् । (वि.) भू २. सपुट-सभंग (वि.) जन् -ज्ञ, सं. पुं (सं.) शास्त्र, दर्शिन-दृष्टिः-विद् । (दि. आ. से.)। कोविदः वेत्तु। शिकम, सं. पुं. (फा.) उदरं, जठरम् । -वक्ता, सं. पुं. (सं.-क्त ) उपदेशकः । शिकरा, सं. पुं. (फा.) श्येनभेदः, *शीकरः। -विरुद्ध, वि. ( सं ) धर्मविरुद्ध, अधर्म्य । शिकवा, सं. पुं. (अ.) दे. 'शिकायत' । शास्त्रानुसार, क्रि. वि. ( सं. न.) यथाशास्त्र, शिकस्त, सं. स्त्री. (का.) अभि-परा, भवः, धर्मानुकूलम् । वि., शास्त्रोक्त, स्मार्त । पराजयः दे. २. वैफल्यम् । शास्त्री, सं. पुं. (सं.-स्त्रिन् ) उपाधिभेदः | -खाना, क्रि. अ., परिभू विजि ( कर्म.), दे. 'हारना'। २. धर्मशास्त्रज्ञः ३. दे. 'शास्त्रज्ञ' । शास्त्रीय, वि. (सं.) श्रौत, स्मार्त, शास्त्रविषयक शिकायत, सं. स्त्री. (अ.) ( सविलापा) विज्ञा-- २. शास्त्र, उक्त-विहित ।। पना, दु:खनिवेदनं २. परि(री)वादः, आक्षेपः,. दास्त्रोक्त, वि. (सं.) शास्त्र,-विहित-निर्दिष्ट गर्दा, निंदा ३. उपालम्भः, ४.आमयः, व्याधिः . अनुकूल। -करना, क्रि. अ., सशोक-सविलापं विज्ञाशास्य, वि. (सं.) नियंत्रणीय, नियन्तव्य, निविद् (प्रे.) २. आ-अधि-क्षिप् (तु. प. अ.),. शासन-अह-योग्य ३. शिक्षणीय, उपदेष्टव्य, गह (भ्वा. चु. आ. से.), अप-परि,बद् विनेय ३. दण्डय, दंडनीय । (भ्वा. प.से.) ३. उपालभ (भ्वा. आ. अ.)। शाह, सं. पुं. ( फ़ा.) महाराजः २. यवनभिक्ष शिकार, सं. पुं. (फ्रा.) आखेट: खेटन-टक,. पाधिः । वि., महत, बृहत्, प्रधान। मृगया, मृगव्यं, आच्छोदनं, पापद्धिः (स्त्री.) -जादा, सं. पुं. ( फ़ा. ) दे. 'शहजादा। २. मृग्य,-जंतुः-प्राणिन् ३. मृगयाहतो जीवः शाहिद, सं. पुं. (अ.) साक्षिन् , प्रत्यक्षदर्शिन्, । प नि । ४. मांसं ५. भक्ष्यं ६. प्रतारितः, वञ्चितः। देश्यः । -करना, क्रि. स., मृग (चु. आ. से., दि. प. शाही, वि. ( फ़ा.) राजकीय २. भूपोचित, | से.) मृगयां कृ, अनुधाव (भ्वा. प. से.) । मु.,. नृपयोग्य। छलेन धनादिकं ह (भ्वा. प. अ.)। शिंगरफ़, सं. पुं. (फा. शंगफ) हिंगुलं,-ल:, होना, क्रि. अ., आखेटे हन्-मार् ( कर्म.)। हिगुलुः,-लिः, रक्तपारदः, चूर्णपारदं, सुरंग, मु., वशवतीं जन् (दि. आ. से.)। रसोद्भवम् । । शिकारी, सं. पुं. (फ्रा.) व्याधः, लुब्धकः,, For Private And Personal Use Only Page #612 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir शिक्षक [५७४ ] शिला मृगयुः, आखेटकः, जीवांतकः, शाकुनिकः, -वान् , वि. ( सं.-वत् ) शिखिन्, चूड़ावत, जालिकः, वागुरिकः । वि., आखेटिक। शिखान्वित । सं. पुं., दीपकः २. अग्निः ३. -कुत्ता, सं. पुं., मृगदंशकः, मृगयाकुक्कुरः, | केतुग्रहः ४. उल्का, खोल्का। विश्वकद्रः। -सूत्र, सं. पु. ( सं.-३) चूडायज्ञोपवीते -ब्याह, सं. पुं., गांधर्व विवाहः। । (न.द्वि.)। -लिबास, सं. पुं., मृगया-आखेट, वेशः(षः)। शिखिनी, सं. स्त्री. ( सं.) मयूरी, शिखंडिनी, शिक्षक, सं. पु. (सं.) अध्यापकः, गुरुः, उपा- | केकिनी २. कुक्कुटी, कुक्कुटवधूः ( स्त्री.), ध्यायः, अनुशास्तू, उपदेशकः, आचार्यः। । पक्षिणी। -शिक्षण-सं. पुं. ( सं. न.) शिक्षा, अध्यापनं, शिखी, वि. (सं.-खिन् ) शिखावत्-चूडावत् । विद्यादान, पाठनं, अनु,-शासन-शिष्टिः (स्त्री.), सं. पुं. (सं.) मयूरः २. कुक्कुटः ३. दीपक: विनयः २. विद्या, उपादानं-ग्रहणं-अभ्यासः। । ४. अग्निः ५. पर्वतः ६. वाणः ७. वृक्षः शिक्षा, सं. स्त्री. (सं.) अध्ययनाध्यापनं, । ८. उल्का, केतुः।। पठनपाठनं । २.३. दे. 'शिक्षण' (१-२) शिगाफ, सं. पुं. (फा.) छिद्रं-बिलं २. विदरः, सोच भेदः। ४.निपुणता ५.उपदेशः, मंत्रः ६. वेदांगविशेषः । ७. नियंत्रणं ७. दंडः, कुफलम् । शिगार, शिगा(गा)ल, सं. पुं. (फा.) .-हीन, वि. (सं.) अशिक्षित, निरक्षर।। मृगालः, जंबुकः। "शिक्षार्थी, सं. पुं. (सं.-थिन् ) शिक्षाग्राहकः, शिवाय, क्रि. वि. (फा.) शीघ्रं, सत्वरम् । छात्रः । शिथिल, वि. (सं.) मंदबन्धन, श्लथ, स्रस्त, शिक्षालय, सं. पुं. (सं.) शिक्षणालयः, | दे. 'ढीला' २. अलस, मथर ३. उदासीन विद्यालयः। ४. दृढत्वशून्य ५.बंधनहीन, मुक्त ६. श्रांत, शिक्षित, वि. (सं.) साक्षर, अक्षराभिज्ञ, लेख- क्लात ७. अस्पष्ट (शब्दादि ) ८. उपेक्षित नवाचनक्षम, कृतविद्य २. पंडित, विश। (नियम)। [ शिक्षिता ( स्त्री.)=कृतविद्या पंडिता इ.]। शिथिलता, सं. स्त्री. (सं.) शैथिल्यं, श्लथता, शिखंड डक, सं. पु. (सं.) मयूरपुच्छं २. चूडा, स्रस्तता, दे. 'ढीलापन' २. आलस्यं ३. औदाशिखा ३. काकपक्षः। सीन्यं ४. दृढताऽभावः ४. श्रांतिः (स्त्री.) "शिखंडी, सं. पुं. (सं-डिन् ) मयूरः २. कुक्कुटः । ५. नियमभगः ६. शक्तिन्यूनता। ३. द्रुपदपुत्रविशेषः ४. विष्णुः ५. कृष्णः शिद्दत, सं. स्त्री. (अ.) उग्रता, तीव्रता, प्रचं. ६. शिवः ७. बाणः ८. गुञ्जा ९. स्वर्णयूथिका। डता २. आधिक्यम्। -शिखर, सं. पु. (सं. पुं. न.) गिरि, मस्तक-शृङ्ग, शिर, सं. पुं. (सं.) शिरस् ( न.) दे. 'सिर'। पर्वता, कूटं २. उच्चतमो भागः, दे. 'चोटी'। | शिर(रा) कत, सं. स्त्री. (अ.) दे. 'शराकत'। शिखरन, सं. स्त्री. ( सं. शिखरिणी) *दधिः | शिरस्त्राण, सं. पुं. (सं. न.) शीर्षण्यं, शिरस्त्र, सितोदकम् । दे. 'खोद'। 'शिखरिणी, सं. स्त्री. (सं.) वर्णवृत्तभेदः २. स्त्री-शिरा, सं. स्त्री. (सं.) सिरा, ईलिका, रक्त रत्नं ३. रोमराजी ४. द्राक्षाभेदः ५. दे. | वाहिनी नाड़ी ( Vein)। 'शिखरन'। शिरोधार्य, वि. (सं.) अंगी-स्वी, कार्य, पाल. शिखरी, सं. पुं. (सं..रिन् ) पर्वतः २. वृक्षः । यितव्य। ३. कोट्टः। -करना, मु., सादरं स्वी-अंगी, कृ । .शिखा, सं. स्त्री. (सं.) शिखंड:-डकः, चूडा | शिरोमणि, सं. '. स्त्री. (सं.) चूडामणिः, २.अग्निज्वाला,ज्वालः, अचिस् (न.) ३. दीप, शिरोरत्नं २. प्रधानः, मुख्यः । अचिस (न.)-शिखा ४. शिखरः-रं ५. किरणः शिला, सं. स्त्री. (सं.) शिला,-पट्टः-फलकं ६. शाखा। २. अश्मन-ग्रावन् (पुं.) ३. गंडशैल: ४. पे. -कंद, सं. पुं. (सं. पुं. न.) दे. 'शलजम'।। षणशिला, *शिला-पट्टी-पट्टिका, *शिला । For Private And Personal Use Only Page #613 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir शिलोंछ — जीत, सं. पुं. [ सं . - जतु अग- अद्रि- अश्म - शिला, जं, अश्म, जतुकं - लाक्षा उत्थं, शिला, -जित् (स्त्री.)- दद्रु:- मलं स्वेदः । - लेख, सं. पुं. (सं.) प्रस्तर लेख्यम् । - वृष्टि, सं. स्त्री. ( सं . ) करकासारः । शिलोंछ, सं. पुं. (सं.) उंछशिलं, उपात्तशस्यक्षेत्रात् शेषावचयनम् । [ ७५ ] शिष्य ( सं . ) (न.) ] गिरि- | -लोक, सं. पुं. ( सं . ) कैलासः, शिवशैलः । वाहन, सं. पुं. (सं.) शिववृषभः, नंदिन । -सुंदरी, सं. स्त्री. ( सं . ) दुर्गा | शिवा, सं. स्त्री. ३. शृगाली । शिवानी, सं. स्त्री. ( सं . ) पार्वती, गौरी, दुर्गा । शिवाला, सं. पुं. ( सं . - लयः ) शिव मंदिरं आयतनं २. देवालयः ३. श्मशानम् । दुर्गा २. पार्वती शिवि, सं. पुं. (सं.) उशीनरनृपपुत्रः, ययातिदौहित्रः २. हिंखपशुः ३. भूर्जवृक्षः । शिल्प, सं. पुं. ( सं. न. ) यंत्र, कला, हस्तकर्मन (न.) -शिल्पं व्यवसायः, शिल्पिकं, दे. 'दस्तकारी' । | शिविका, सं. स्त्री. (सं.) याप्ययानं, शिवीरथः, दे. 'पालकी' । 9 - विद्या, सं. स्त्री. (सं.) हस्तकौशलं २. गृहनिर्माण- वास्तु, कला | शिविर, सं. पुं. (सं. न. ) कटक:-कं, निवेशः, आगन्तुक सैन्यवासः २. पट, मंडप :-कुटी, दे. 'तंबू' ३. दुर्ग:-र्गम् । - शाला, सं. स्त्री. (सं.) शिल्प (हिप), गृहं शिवेतर, वि. ( सं . ) अशुभ, अमंगल, हानिगेहूं- शाला- आवेशनम् । - कला, सं. स्त्री. (सं.) दे. 'शिल्प' । -कार, सं. पुं. (सं.) शिल्पिन्, कारुः, शिल्पजीविन् शिल्पकारिन्, कर्मकारः । देवटः, -शास्त्र, सं. पुं. ( सं. न. ) हस्तव्यवसायशास्त्रं २. गृहनिर्माण वास्तु-शास्त्रम् । शिल्पी, सं. पुं. (सं.- पिन् ) दे. 'शिल्पकार' २. गृह, कारकः संवेशकः, पलगंडः ३. चित्र कारः । शिव, सं. पुं. (सं.) महादेव:, शंभुः, पशुपतिः, शूलिन्, महा-ईश्वरः, शंकरः, चंद्रशेखर, गिरीशः, मृडः, पिनाकिन, त्रिलोचनः, भूतेशः, धूर्जटि:, हरः, त्र्यंबकः, त्रिपुरारिः, गंगाधरः, वृषध्वजः, भवः, रुद्रः, उमापतिः, महानटः, भैरवः, पंचाननः, कंठेकालः, नंदीश्वरः २. परमेश्वरः ३. वेदः ४. शृगालः । (सं. न.) कल्याणं, मंगलम् । वि., कल्याण - मंगल, कारककारिन् । —दुम, सं. पुं. (सं.) बिल्ववृक्षः । -नंदन, सं. पुं. ( सं . ) गणेश: । - पुराण, सं. पुं. (सं. न. ) शैव पुराणं, पुराणग्रंथविशेषः । पुरी, सं. स्त्री. (सं.) काशी, शिवतीर्थम् । - बीज, सं. पुं. (सं. न. ) पारदः, शिववीर्यम् । -रात, सं. स्त्री. (सं. शिवरात्रि: ) शिवचतु देशी, फाल्गुनकृष्ण चतुर्दशी । - लिंग, सं. पुं. (सं. न. ) शिवप्रतिमाभेदः । -लिंगी, सं. स्त्री. ( सं . - लिंगिनी) शिव, वल्लीवल्लिका, ईश्वरलिंगी, चित्रफला । कारक । शिशिर, सं. पुं. ( सं. पुं. न. ) कंपनः शीतः, हिमकूट:, कोटन: ( माघ तथा फाल्गुन ) २. तुषारः, तुहिनम् । वि., शीत, शीतल, उष्णताशून्य । -कर, सं. पुं. (सं.) हिमांशु:, चंद्रः । काल, सं. पुं. (सं.) शीतर्तुः, शीतकालः । शिशु, सं. पुं. (सं.) स्तनंधयः, स्तनपः, बत्सः, बालकः, दारकः, उत्तानशयः, डिंभः, अपत्यम् । शिशुता, सं. स्त्री. (सं.) शिशुत्वं, शैशवं, बाल्यं दे. | शिशुपाल, सं. पुं. (सं.) चेदिराजः, दमघोषसुतः, चैद्यः I - वध, सं. पुं. (सं. न. ) महाकविमाघप्रणीतमहाकाव्यविशेषः । शिष्ट, विं. ( सं .) सभ्य, भद्र, श्रेष्ठ, सुशील २. धर्मशील ३. शांत ४. बुद्धिमत् ५. शालीन, व्यवहारनिपुण ६. प्रख्यात ७. आज्ञाकारिन् । शिष्टता, सं. स्त्री. (सं.) सभ्यता, भद्रता, सुशीलता, श्रेष्ठता २. अधीनता । शिष्टाचार, सं. पुं. (सं.) सदाचारः, सद्व्यवहारः २. सत्कारः, संमानः ३. विनयः, प्रश्रयः ४. उपचारः, आचारः, यथाविधि वर्तन ५. आतिथ्यं, आतिथेयम् । शिष्य, सं. पुं. (सं.) छात्रः, अंते-वासिन्, सद् For Private And Personal Use Only Page #614 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir शिस्त [ ५७६ ] शुक्र विद्यार्थिन, शिक्षार्थिन् २. अनु-गामिन् | शीरा, सं. पुं. ( फा ) दे. 'शरबत' २. दे. यायिन् । 'चाशनी' । शिस्त, सं. स्त्री. ( फा . ) शरव्यं, लक्ष्यम् । - बाँधना, मु., लक्ष्ये दृष्टि बंधू (क्. प. अ.) । शीकर, सं. पुं. (सं.) पवनादिप्रेरित, जलकणः, तुषारः २. अवश्यायः, दे. 'ओस' ३. स्वल्प वृष्टिः (स्त्री.), दे. 'फुहार ' ( १ ) । शीघ्र, क्रि. वि. (सं. शीघ्रं ) आशु, सद्यः, सपदि, अचिरेण अविलंबेन, झटिति । कारी, वि. (सं.-रिन् ) विलम्बासह, आशुकारिन् । - कोपी, वि. ( सं . पिन ) कोपन, आशुक्रोधिन् । -गामी, वि. (सं.-मिन् ) द्रुतगामिनू, आशु | - चेतन, वि. ( सं . ) तीव्रबुद्धि । वेधी, सं. पुं. (सं. धिन् ) लघुहस्तः । शीघ्रता, सं. स्त्री. (सं.) त्वरा, क्षिप्रता, लाघवं, तरस्- रंहस् (न.), जवः, वेगः, रंभसः-सम् | -करना, क्रि. अ., त्वर् (भ्वा. आ. से. ), सत्वरं झटिति कृ । शीत, वि. (सं.) शीतल, शिशिर, हिम, तुषार, उष्णत्वशून्य २. शिथिल, दीर्घसूत्रिन् । सं. पुं. (सं. न.) शीतः, शीतर्तुः, शीतकालं, शिशिरः, हिमागमः २. शीतता, हिमता, शैत्यं, ३. अब श्यायः, तुषारः ४ प्रतिश्यायः, दे. 'जुकाम ' ५. जलम् । -कटिबंध, सं. पुं. (सं.) कर्क मकर रेखा पर - वर्तन अतिशीतौ भूभागौ ( पुं.द्वि.) । काल, सं. पुं. (सं.) दे. 'शीत' सं. पुं. (१) 1 -किरण, सं. पुं. (सं.) शीत- हिम, कर:रश्मि:- अंशुः,- धुतिः, चंद्रः । शीतता, सं. स्त्री. (सं.) शैत्यं, शीतं- तलम् । शीतल, वि. ( सं. ) दे. ‘शीत' वि. । २. शांत, शमान्वित ३. संतुष्ट, प्रसन्न । शीतलता, सं. स्त्री. ( सं .) दे. शीतता' । शीतला, सं. स्त्री. ( सं . ) विस्फोटक रोगः, विस्फोटा, मसूरिका, शीतली, वसंतरोगः, दे. 'चेचक’२. वसंतविस्फोटकादीनामधिष्ठात्री देवी । सं. पुं. (सं. न. ) गर्दभः खरः । - वाहन, शीतांशु, सं. पुं. (सं.) चंद्र: २. कर्पूर:- रम् । शोर, सं. पुं. ( फा . ) क्षीरं, दुग्धं, दे. 'दूध' । शीताकुल, वि. (सं.) शीत-शैत्य - हिम, आकुलअर्दित-पीडित-विहल | शीरीं, वि. ( फा . ) मधुर २. प्रिय । शीरीनी, सं. स्त्री. (फ़ा.) मिष्टान्नं, दे. 'मिठाई' २. माधुर्यम् । शीर्ण, वि. (सं.) कृश, क्षीणतनु, क्षाम, २. भग्न, खंडित, ३. च्युत ४. जीर्ण, विदीर्ण ५. म्लान, विरस | शीर्णता, सं. स्त्री. ( सं . ) कृशता, दौर्बल्यं, जीर्णता, विदीर्णता । शीर्ष, सं. पुं. ( सं. न. ) शिरस् (न.), दे.. 'सिर' २. ललाट, दे. 'माथा' ३. शिखरं ४. अग्रभागः । शीर्षक, सं. पुं. (सं. न. ) अग्राक्षरपंक्तिः: शिरः पंक्ति: (स्त्री.) २. शिरस्त्रं, दे. 'खोद' । शील, सं. पुं. ( सं. न. ) चरित्रं, आचरणं, वृत्ति: (स्त्री.) ३. स्वभाव:, प्रकृति: ( स्त्री. ) ४. सदाचारः, सच्चरित्रम् ५. सत्, स्वभाव :-- प्रकृति: (स्त्री.) ६. हृदयमार्दवं ७. संकोच:,. आदरः वि. पर, परायण ( उ. दानशील ) । शीलवान, वि. (सं. वत् ) सदाचारिन्, सद्वृत्तः २. सत्स्वभाव, कोमलप्रकृति, सुशील । शीशम, सं. स्त्री. (फ़ा. ) शिंशपा, पिच्छि (च्छ)ला, पिंगला, कपिला, भस्मगर्भा । शीशमहल, सं. पुं. (फ़ा. शीशा + अ. महल), काच स्फटिक, भवनं २. काचकोष्ठः, आदशवासः । -का कुत्ता, मु., उन्मत्तः, वातुलः। शीशा, सं. पुं. ( फा ) काचः, दे. २. आदर्शः, मुकुरः, दर्पण:, दे. ३. काचफलकः-कम् । शीशी, सं. स्त्री. (फ़ा. शीशा ) काचकूपी । सुँघाना, औषधगंधेन मूच्छु (प्रे.) । शुंठी, सं. स्त्री. (सं.) कटुग्रंथिः, दे. 'सोंठ' । शुक, सं. पुं. ( सं .) कीर:, वक्रतुंड, दे. 'तोता " २. महर्षि व्यासपुत्रः । शुक्ति, सं. स्त्री. (सं.) मुक्कामातृ (स्त्री.), दे. 'सीपी' । - बीज, सं. पुं. ( सं. न. ) मौक्तिकं, शुक्तामणिः । शुक्र, सं. पुं. (सं.) सितः, श्वेतः, काव्यः, कविः, भार्गवः, दैत्यगुरुः २. अग्निः ३. ज्येष्ठ - मासः ४. शुक्रवासरः । ( सं. न. ) बीजं, वीर्य - For Private And Personal Use Only Page #615 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir शुक्र [५७७ ] शूर्प जीता। रेतस् ( न.) २. बलं, सामर्थ्यम् । वि. (सं.)। शुभ्रता, सं. स्त्री: (सं.) शुक्लता, भासुरता। भासुर, देदीप्यमान २. स्वच्छ, उज्ज्वल । शमार, सं. पुं. (फा.) 'गणनं', संकलनम् ।। शुक्र२, सं. पुं. (अ.) धन्यवादः, कृतज्ञता-शपाल, सं. पुं. (अ.) उदीची, दे. 'उत्तर' प्रकाशः। (दिशा)। —गज़ार, वि. ( अ.+फा.) कृतज्ञ, दे. शुमाली, वि. (अ.) उत्तर, उदीचीन, उत्तर, -गुज़ारी, सं. स्त्री. (अ.+फा.) कृतज्ञता। | दिश्य-संबंधिन्। शुक्ल, वि. (सं.) धवल, सित, श्वेत, दे. | शुरू, सं. पुं. (अ.) उपक्रमः, आरंभः दे. "समद। २. प्रभवः, आदिः। -पक्ष, सं. पुं. (सं.) शुक्लकः, दे. 'पक्ष' में। शुल्क, सं. पुं. (सं. पुं. न.) घट्टपथादीनां करः शुक्लता, सं. स्त्री. (सं.) धवलता, दे. 'सफेदी'।। २. वरात् ग्राह्योऽर्थः ३. युतकं, दे. 'दहेज़' शुग़ल, सं. पुं. (अ.) दे. 'शगल'। ४. पणः, ग्लह: ५. मूल्यं ६. भाट, भाटकं शुचि, वि. ( सं. ) वि-शुद्ध, पवित्र, पूत ७. प्रतिफलं, वेतनम् । २. उज्ज्वल, निर्मल ३. निदोष, निष्पाप | शुश्रषा, सं. स्त्री. (सं.) परिचर्या, सेवा दे. ४. शुद्ध मानस । २. श्रवणेच्छा । शुतुरमुरा, सं. पु. ( फ़ा.) * उष्ट्र कुक्कुटः। । शुष्क, वि. ( सं. ) निर्जल, आर्द्रतारहित, वान शुदनी, सं. स्त्री. (फा.) नियतिः (स्त्री.), २. वि-नी-अ,-रस, निःस्वाद ३. खेदकर, भवितव्यता। अरुचिकर ४. मोघ, निरर्थक ५. रूक्ष,स्नेहहीन शुद्ध, वि. (सं.) केवल, स्वच्छ, मिश्रणशून्य | ६. जीर्ण, शीर्ण। २. उज्ज्वल, श्वेत ३. त्रुटिरहित, यथातथ, शुष्कता, सं. स्त्री. (सं.) शोषः, शुष्कता निदाष ५.पूत, पवित्र, पावन, मध्य ।। २. नीरसता ३. अरोचकता ४. रूक्षता करना, क्रि. स., परि-पू (क् . उ. से.), | शुचीकृ । परि-वि-सं, शुध (प्रे.), निर्मली- शूकर, सं. पुं. (सं.) वराहः, दे. 'सूअर' । कृ २. प्रतिसमा-समा-धा (जु. उ. अ.), त्रुटि-शूद्र, सं. . (सं.) वृषलः, दासः, पादजः, रहितं विधा ( जु. उ. अ.)। पधः, पज्जा, जघन्यः, द्विजसेवकः, उपासकः, शुद्धता, सं. स्त्री. (सं.) शुचिता, शौचं, पवित्रता, चतुर्थः २. निकृष्टः ३. सेवकः । पूतता, वि, शुद्धिः ( स्त्री.) २. निर्दोषता, शूद्रक, सं. पुं. (सं.) मृच्छकटिकरचयिता यथार्थता। महाकविः २. शूद्रः ३. शंबुकः, तपस्विशूद्रशुद्धि, सं. स्त्री. (सं.) दे. 'शुद्धता' (१)। | विशेषः (रामायण)। २. स्वच्छता, नैर्मल्यं ३. वैदिकधर्मप्रवेशसं. शूद्रा, सं. स्त्री. (सं.) शूद्रजातः स्त्री। स्कारः। शूद्री, सं. स्त्री. (सं.) शुद्रस्य पत्नी । -पत्र, सं. पुं. ( सं. न.) त्रुटिदर्शकपत्रम् । शून्य, वि. (सं.) रिक्त, वशिक, शून्य-रिक्त,शुबहा, सं. पुं. (अ.) संदेहः २. भ्रमः । गर्भ-मध्य २. निराकार ३. असत् ४. रहित । शुभ, वि. (सं.) मंगल, हित, कल्याण २. उत्तम, सं. पुं. (सं. न.) आकाश:-शं, दे. २. बिंदः, भद्र । सं. पुं. (सं. न.) मंगल, हितं, कल्याणम् । ख ३.रिक्त-एकांत-निर्जन,स्थानं ४. अभावः । --कर्म, सं. पुं. (सं.-मन् न.) सुकृत्यं, पुण्यम् । शून्यता, सं. स्त्री. (स.) शून्यत्वं, रिक्तता। -घड़ी, सं. स्त्री., मांगलिकमुहूर्तः-तम् । | शूप, सं. पुं. (सं. शूर्पः-प) सूर्पः, कुल्यः, प्रस्फो-चिंतक, वि. (सं.) हितैषिन्, हितचितक। । टनं-नी, दे. 'छाज'। -दर्शन, वि. ( सं.) प्रिय-सु, दर्शन, सुन्दर । शूर, सं. पु. ( सं.) दे. 'वीर' । -फल, सं. पुं. ( सं. न.) सुपरिणामः । शूरण, सं. पुं. (सं.) दे. 'सूरन'। शुभ्र, वि. (सं.) श्वेत, शुक्ल, भासुर । । शूरता, सं. स्त्री. (सं.) दे. 'वीरता'। कर, सं. . (सं.) शुभ्र,-भानुः-रश्मिः , | शूर्प, सं. . ( सं. पुं. न.) दे. 'शूप' । चन्द्रः । |-कर्ण, सं. पुं. (सं.) गजः २. गणेशः। For Private And Personal Use Only Page #616 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir शू ल -- णखा, सं. स्त्री. (सं.) रावणभगिनी । शूल, सं. पुं. ( सं. पुं. न. ) उदरवेदना, जठरव्यथा, वातरोगभेदः २. पीडा, क्लेश: व्यथा ३. कुंतः, प्रासः ४. निशूलं, त्रिशीर्षक ५. ध्वजः ६. मृत्युः ७. अयः कीलः ८. शलाका ९. दे. 'सूली' । - धारी, सं. पुं. (सं.-रिन ) शूल, घर-ग्राहिन् - पाणिः शिवः । [ ७८ ] " शूली, सं. पुं. ( सं. लिन् ) शिवः शूलपाणि: २. शशकः ३. शूलार्त्तः । सं. स्त्री. दे. 'सूली' । श्रृंखला, सं. स्त्री. ( सं.) श्रृंखल:-लं, निगड, बंध, बंधनं २. क्रमः, परंपरा ३. श्रेणी, पंक्तिः (स्त्री.) ४. मेखला, पुंस्कटिवस्त्रबन्ध: ५. कांची, रश (स) ना। - बद्ध, वि. (सं.) शृङ्खलित, निगडित २. क्रम श्रेणी,-बद्ध । | श्रृंग, सं. पुं. (सं. न. ) विषाणं, दे. 'सींग' २. सानुः, कूट:- टं, शिखरं, शैलाभ्रं ३. वाथ भेदः ४. कामोत्तेजना ५. क्रीडाजलयंत्रं ( पिचकारी, दे. रघुवंश १६ ७० ) ६. दे. 'कंगूरा' । श्रृंगार, सं. पुं. (सं.) रसविशेष: (सा.) २. मैथुनस्पृहा ३. मंडनं, भूषणं, प्रसाधनं, अलंकरणं, परिष्करणं ४. संभोगः, मैथुनं ५. मंडन-प्रसाधन, साधनं द्रव्यं (चंदनादि ) दे. 'घोडश शृंगार' | -करना, क्रि. स., अलंकृ, परिष्कृ, प्रसाध् (प्रे.), भूष -मंड ( चु. ) । - योनि, सं. पुं. ( सं . ) मदन:, कंदर्पः । श्रृंगी, सं. पुं. (सं. गिन् ) गजः २. वृक्षः ३. पर्वतः ४. ऋषिविशेषः ५. शृङ्गवत् पशुः ६. वाद्यभेदः ७. महादेवः । शृगाल, सं. पुं. (सं.) गोमायुः, क्रोष्टुः, जंबु(बू ) कः, दे. 'गीदड़' । वि., भीरु २. खल ३. निष्ठुर । शेख, सं. पुं. (अ.) श्री मोहंमदवंश जानामुपाधिः २. यवनवर्गविशेषः ३. यवनोपदेशकः ४. वृद्धः । - चिल्ली, सं. पुं. ( अ. + हिं. ) मंद:, जड: २. भंडः, विदूषकः । शैतान बाज़, वि. (हिं. + फ्रा. ) विकत्थक, आत्मलापिन् २. दृप्त । - झड़ना या निकलना, मु., गर्व: खंड् (कर्म.) मदः व्यपगम् (भ्वा. प. अ.) लघूभू । - बघारना, मारना या - हाँकना, मु., विकत्थ् (भ्वा. आ. से. ), आत्मानं श्लाघ् (भ्वा. आ. से.) । शेप, सं. पुं. (सं.) शेप (फ) स् (न.), शेफःफं, मेढ़ २. मुष्कः, वृषणः, शुक्रग्रंथि: ३. पुच्छं, लांगूलं, लूमम् । शेमुषी, सं. स्त्री. (सं.) बुद्धि:- धीः-मतिः (स्त्री.), शेखर, सं. पुं. (सं.) शिरोमाल्यं, शीर्षमाला २. शिरोभूषणमात्रं ३. शीर्ष ४. किरीटः, मौलि: ५. पर्वताग्रं, सानुः । शेखी, सं. स्त्री. (अ. शेख ) दर्पः, गर्वः २. विकत्थनं, गर्वोक्तिः (स्त्री.) प्रज्ञा । शेयर, सं. पुं. ( अं. ) अंशः, भागः । - होल्डर, सं. पुं. (अं. ) अंशिन्, भागिन् । शेर', सं. पुं. ( फा . ) द्वीपिन्, भेल:, मृगतिकः, शार्दूलः, व्याघ्रः दे. २. केसरी, सिंह: दे. ३. वीरः शूरः । पंजा, सं. पुं. (फ्रा. + हिं.) दे. 'बघनखा' । -बच्चा, सं. पुं. ( फ़ा. + हिं. ) सिंहव्याघ्र,पोतः शावकः २. वीरः शूरः । --- बबर, सं. पुं. ( फा . ) दे. 'शेर' (२) । -मर्द, वि. (फ्रा.) वीर, निर्भय । होना, मु., भयं मुच् ( तु. प. अ. ), निर्भय (वि.) भू । शेर े, सं. पुं. (अ.) कवितायाश्चरणद्वयं ( उर्दू, फ़ारसी आदि) । शेरनी, सं. स्त्री. (फ़ा. शेर ) व्याघ्री, द्वीपिनी २. सिंही, केसरिणी इ. । शेरवानी, सं. स्त्री. ( देश ) *आजानुलंबी कंचुकभेदः । शेष, सं. पुं. (सं.) अनंतः, सर्पराजः, शेषनागः, फर्णीद्रः, फणीश्वरः २. परमेश्वरः ३. लक्ष्मणः ४. बलरामः ५. अंतरम् (गणित) ६. अन्तः ७. परिणामः ८. गजः ९. मृत्युः १०. नाशः । ( सं. पुं. न. ) अव परि, शेषः, उद्वर्तः, अवशिष्ट उपयुक्तेतर, वस्तु (न.) २. अध्याहार्य - शब्दः । वि., अवशिष्ट २. समाप्त ३. इतर, अपर, अन्य । नाग, सं. पुं. (सं.) दे. 'शेष' सं. पुं. (१) । -शायी, सं. पुं. (सं. शायिन् ) विष्णुः । शेषांश, सं. पुं. (सं.) १-२ अवशिष्ट अंतिम, भागः । शैतान, सं, पु. ( अ.) ईश्वर-विरोधी देवविशेषः For Private And Personal Use Only Page #617 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir शैतानी शोरबा e (सामी धर्म ) २. भूतः, प्रेतः ३. क्रूरः ४. दुष्टः, । शोणिमा, सं. स्त्री. (सं.-मन् पुं.) रक्तिमन्-, खलः ५. कामः, मदनः ६. क्रोधः । लोहितिमन्-अरुणिमन् (पुं.)। दे. 'लाली'। शैतानी, सं. स्त्री. (अ. शैतान ) दुष्टता, शोथ, सं. पुं. (सं.) शोफः, शोधकः, श्वयथुः । कुचेष्टा। शोध, सं. पुं. (सं.) शोधन, निस्तारः ( ऋणादि शैत्य, सं. पु. ( सं. न.) शीतता, शीतलत्वम् । | का) २. अनुसंधानं, अन्वेषणं ३. शुद्धिः (स्त्री.), शैथिल्य, सं. पुं. ( सं. न.) शिथिलता, दे.। । शुद्धिसंस्कारः ४. परीक्षा-क्षणम् । शैल. सं. पं. ( सं.) गिरिः, अदिः, पर्वतः, दे.। शोधक, सं. पुं. (सं.) पावन, शोधन, मलहर २. गंडशैल, दे. 'चट्टान' ३ दे. 'शिलाजीत'।। २. अन्वेषक, अनुसंधात ३. दे. 'सुधारक' । -कुमारी, सं. स्त्री. (सं.) अद्रितनया, शैल, | शोधन, सं. पुं. (सं. न.) पावनं, संस्करणं, कन्या-जा, दे. 'पार्वती'। निर्मली-वित्री-शुची,करणं, मार्जनं, प्रक्षालनं, शैली, सं. स्त्री. (सं.) भाषण-लेखन,-रीति:- धावनं २. प्रतिसमा-समा, धानं, त्रुटिनिरसनं सरणिः ( दोनों स्त्री.)-प्रकारः २. प्रथा, रीतिः । ३. धातूनां निर्दोषीकरणं ४. अन्वेषणं, अनुसं३. परिपाटिः (स्त्री.), प्रणाली ४. चर्या, वर्तन, धानं ५. परीक्षणं ६. ऋणनिस्तारणं ७. दंड: वृत्तिः (स्त्री.)। ८. प्रायश्चित्तं ९. विरेचनं १०. निंबूकं ११. व्यशैलेंद्र, सं. पुं. ( सं.) हिमगिरिः, हिमालयः।। वकलनम् । शैव, सं. पुं. (सं.) शिव, भक्तः-उपासकः-अनु- | शोधना, क्रि. स. (सं. शोधनं ) दे. 'शुद्ध यायिन् २. संप्रदायविशेषः। वि. (सं.) शिव- करना' (१-२) ३. औषधार्थ धातुं संस्कृ संबन्धिन् । ४. अन्विष् (दि. प. से.), अनुसंधा (जु. शैव्या, सं. स्त्री. (सं.) सत्यहरिश्चन्द्रपत्नी। । उ. अ.)। सं. पुं., दे. 'शोधन'। शैशव, सं. पुं. (सं. न.) शिशुता-त्वं, बाल्यम् । | शोधनी, सं. स्त्री. (सं.) सं., मार्जनो, बहुकरी। वि. (सं.) बाल-बाल्य-संबंधिन् । | शोधनीय, वि. (सं.) पवनीय, मार्जनीय शोक, सं. पुं. (सं.) आतिः ( स्त्री.) आधिः, २. निस्तायें, प्रत्यर्पयितव्य ३. अनुसंधेय । दुःखं, परितापः, खेदः, शुच ( स्त्री.), शुचा, शोभन, वि. ( सं.) सुंदर, रम्य, रमणीय, मन्युः, निस्समः, शोचनम् । २. उत्तम, श्रेष्ठ ३. उचित, उपयुक्त ४. मांगशोकात, वि. ( सं.) शोकिन्, शोक, आकुल- लिक, मंगल्य, मंगलीय। आतुर-ग्रस्त-उपहत-विह्वल, सशोक, परितप्त। शोभा, सं. स्त्री. (सं.) कांतिः-युतिः-दीप्तिः शोख, वि. (फा.) धृष्ट, वियात २. चंचल, (स्त्री.), भा, भासा, श्रीः (स्त्री.) २. छवी चपल ३. गाढ़, भासुर ( रस ) २. दुर्ललित, विः (स्त्री.), सुन्दरता, रुचिरता ३. भूषा, कुचेष्टक। परिष्क्रिया ४. वर्णः, रंग: ५. श्रेष्ठगुणः।। शोखी, सं. स्त्री. (फ्रा.) धाष्टथे, वैयात्यं । -देना, क्रि. अ., राज-शुभ ( भ्वा. आ. से.)। २. चाञ्चल्यं ३. गाढ़ता, प्रखरता। | शोभायमान, वि. ( सं. शोभमान ) राजमान, शोच, सं. पु. ( सं. शोचनं ) शोकः २. चिंता।। भ्राजमान, भासुर, देदीप्यमान, सुन्दर शोचनीय, वि. (सं.) आपन्न, दु:ख, आतं, २. विद्यमान, उपस्थित।। निरानंद २. सांशयिक, संदिग्ध । | शोभित, वि. (सं.) शोभान्वित, सुन्दर, शोण, सं. पुं. (सं.) रक्त-लोहित-वर्ण-रंगः छविमत । २. मंडित. भषित ३. उपस्थित. २. नदविशेषः, हिरण्यवाहः ३. माणिक्यं | विद्यमान । ४. रक्तक्षुः ५. अग्निः ६. लोहिताश्वः । सं. शोर, सं. पुं. (फा.) महारवः, कलकल:, न., रुचिरं २. सिंदूरम् । । कोलाहलः दे। -रत्न, सं. पुं. (सं. न.) पद्मरागमणिः, शोणि-|-मचाना, क्रि. अ., कोलाहलं कृ, उत्क्रुश् तोपलः। (भ्वा. प. अ.)। शोणित, सं. पुं. (सं. न.) रुधिरं, रक्तं दे.। | शोरबा, सं. पुं. (ना.) यूषः-पं, सूपः, लासः, वि. (सं.) लोहित, रक्त, शोण । *रसः २. मांसरसः, दे. 'यखनी'। For Private And Personal Use Only Page #618 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir शोरा [ ५८० शोरा, सं. पुं. (फा. शोर ) यवक्षारः, विपा- | -वासी, सं. पुं. ( सं..सिन् ) शिवः, किन, निपीतिन. पाक्यः। २. चांडालः। शोरे का तेज़ाब, सं. पुं., भूयिकाम्लः, पाक्य- | श्मश्रु, सं. पु. (सं. न ) कूर्चः, चे, चोटः, द्रावक, नत्रिक-यवक्षार, अम्लः । . . व्यंजनं, मुखरोमन् ( न.), शिंगिन् ( न.), शोला, सं. पुं. (अ.), ज्वाला, अचिस (न.)।| शिंघाणं, दे. 'दाढ़ी'। शोशा, सं. पु. (फा.) अद्भुत-विलक्षण, वार्ता -वर्धक, सं. पुं. (सं.) नापितः । २. व्यंग्योक्तिः (स्त्री.) ३. कलहोत्पादिका वार्ता ।। श्यांम, सं. पु. (सं.) श्रीकृष्णः २. कृष्णवर्णः । शोषक, वि. (सं.) रसाकर्षक, शोषणकर | वि. (सं.) काल, कृष्ण २. कालनील, कृष्ण२. क्षय-ध्वंस, कारिन् । मेचक। शोषण, सं. पुं. (सं. न.) रसाकर्षणं, शुष्की. | -सुंदर, सं. पुं. (सं.) श्रीकृष्णः । करणं २. क्षपणं ३. विनाशनं, वि, ध्वंसनं | श्यामता, सं. स्त्री. (सं.) कालिमन्-कृष्णिमन् ४. सारोद्धारः, ५. चूषणम् । | (पुं.) २. नीलता, मेचकता। शोहदा, सं. पुं. (अ.) दे. 'लुच्चा' । श्यामल, वि. (सं.) काल २. कालीन । शोहरत, सं. स्त्री. ( अ.) ख्यातिः-प्रसिद्धिः | श्यामा, सं. स्त्री. (सं.) राधा-थिका २. शकुनी, (स्त्री.)। कालिका, कृष्णा (खगभेदः ) ३. अप्रसूताशोहरा, सं. पुं. (अ.) शोहरत, दे। गना ४. ( तप्तकांचनवर्णाभा) नारी ५. कृष्णा शौक, सं. पुं. (अ.) अभि, रुचिः (स्त्री.), गौः ( स्त्री.) ६. यमुना ७. रात्री। प्रवृत्तिः (स्त्री.), प्रवणता २. लालसा, उत्कंठा, । | श्याल, सं. पुं. (सं.) श्यालकः, भार्या पत्नी, औत्सुक्यम् । भ्रात। -करना, मु., भुज ( रु. आ. अ.)। श्यालकी, सं. स्त्री. (सं.) श्यालिका, श्याली, -चर्राना, मु., तीव्रम् अभिल (भ्वा.प.से.)। भार्या-पत्नी, भगिनी। -पूरा करना, मु., कामं उपभोगेन शम् (प्रे.)। ।। श्येन, सं. पुं. (सं.) शशादः-दनः, कपोतारिः, -से, मु., सानंद; सहर्ष, समोदम्। खगतिकः, घाति-रण, पक्षिन्, नीलपिच्छः । श्येनी, सं. स्त्री. (सं.) इयेनिका, नीलपिच्छीशौकीन, सं. पुं. (अ. शौक ) प्रसाधन-शृङ्गारसुवेश, प्रियः, वेषाभिमानिन्, छेकः २. वेश्या श्रद्धा, सं. स्त्री. (सं.) आदरः, संमानः गामिन् ३. प्रेमिन्, अनुरागिन्, स्नेहिन्, अभि सत्कारः २. विश्वासः, प्रत्ययः, विश्रंभ: लाषिन् । ३. निष्ठा, आस्था, भक्तिः ( स्त्री.)। शौकीनी, सं. स्त्री. (हिं. शौकीन) वेषाभिमानः, -करना या—रखना, क्रि. अ. श्रद्धा (जु. उ. शृङ्गारप्रियता २. वेश्यागमनम् । अ.), विश्वस् ( अ. प.से.)। शौच, सं. पुं. (सं. न.) शुद्धता, शुद्धिः -हीन, वि. (सं.) अविश्वासिन, अश्रद्दधान (स्त्री.), पवित्रता, पूतता, शुचिता-त्वं, पुण्यता, । २. आस्था-निष्ठा-भक्ति, हीन । निपापता २. प्रातः, कृत्यानि-कायोणि (न. | श्रद्धालु, वि. (सं.) श्रद्धा, वत्-युक्त-अन्वित, बहु० ) ( शौच, स्नान, संध्या आदि ) ३. पुरी | अददधान, विश्वामिन प्रधान, विश्वासिन्, प्रत्ययिन् २. (स्त्री.) पोत्सर्गः, हदनम्। दोहदवती। शौरसेनी, सं. स्त्री. (सं.) १.२. प्राकृत-अप- | श्रद्वेय, वि. (सं.) विश्वास-श्रद्धा, पात्रं-आस्पदं, भ्रंश,-भाषाविशेषः। श्रद्धातव्य, पूज्य, सं-,मान्य, नमस्य । शौर्य, सं. पुं. (सं. न.) शूरता, वीरता, श्रम, सं. पुं. (स.) परिश्रमः, दे.। २. श्रांति: पराक्रमः। | (स्त्री.) ३. व्यायामः।। शौहर, सं. पुं. (फ्रा.) पतिः, भर्तृ। । -जल, सं. पुं. (सं. न.) प्र.-स्वेदः, श्रम,-कणाःश्मशान, सं. पुं. (सं. न.) पितृ, वनं-काननं, | शीकराः ( बहु.) दे. 'पसीना'। अंतशय्या, शतानकं, रुद्राक्रीडः, दाहसरः -जीवी, सं., पुं. (सं.-विन्) श्रमिकः, कर्मकरः, (पु.), शवसानम् । दे. 'मजदूर। For Private And Personal Use Only Page #619 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra श्रवण www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [ +5%) श्रवण, सं. पुं. ( सं . पुं. न. ) कर्णः, श्रवः, श्रोत्रं दे. 'कान' सं. न. निशमन, आकर्णनम् ( सं . पुं. स्त्री. ) श्रवणनक्षत्रम् ( ज्यो. ) । श्रवणा, सं. स्त्री. (सं.) श्रवण:-णं, नक्षत्रविशेषः । श्रव्य, वि. (सं.) दे. 'श्राव्य' । श्रांत, वि. (सं.) क्लांत, ग्लान, खिन्न, श्रमार्त्त, अवसन्न, जातश्रम २. शांत ३. निवृत्त । श्रांति, सं. स्त्री. (सं. स्त्री. ) श्रमः, आयासः, अवसादः खेदः । श्राद्ध, सं. पुं. (सं. न.) श्रद्धया क्रियमाणं कर्मन् (न.) २. पितॄन् उद्दिश्य श्रद्धया अन्नादिदानं ३. पितृ-आश्विनकृष्ण, पक्षः । श्राप, सं. पुं., दे. 'सराप' | श्रावण, सं. पुं. (सं.) श्रावणिकः, नभः (पुं.)। श्रावणी, सं. स्त्री. ( सं . ) श्रावणमासीयपूर्णिमा । श्राव्य, वि. ( सं . ) श्रव्य, श्रोतव्य, श्रवणार्ह, आकर्णनीय, निशमनीय | श्री, सं. स्त्री. (सं.) कमला, लक्ष्मी: दे. २. सरस्वती ३. धनं, संपद् (स्त्री.) ४. विभूतिः (स्त्री.), विभव: ५. यशस् (न.) ६. शोभा, प्रभा ७. कांति:-द्युतिः (स्त्री.) ८. नामपुरोवर्ति समानपद श्रीयुत श्रीमन् ९. वृद्धि: (स्त्री.) १०. साफल्यं, सिद्धिः (स्त्री.) ११. रागभेदः । वि., योग्य २. मनोज्ञ ३. उत्तम ४. मंगल | कंठ, सं. पुं. (सं.) शिवः, शंभुः । -खड, सं. पुं. (सं. पुं. न. ) हरिचंदनं २. दे. 'शिखरन' । - घर, सं. (सं.) विष्णुः, श्री, निवासः - निकेतनः । वि., तेजस्विन् । - पति, सं. पुं. ( सं . ) विष्णुः २. श्रीरामः ३. श्रीकृष्णः ४. कुबेर: ५. नृपः । श्रेयस्कर. पदं २. लक्ष्मीः (स्त्री.) ३. राधा । वि., धनाढ्या २ शोभान्विता ३. सुन्दरी । श्रीमान्, सं. पुं. (सं. श्रीमत् ) नरनामपुरोवर्तमानपदं, श्रीयुत, श्रीयुक्त । दे. 'श्रीमत् ' वि. तथा सं. पुं. - -पथ, सं. पुं. (सं.) राज, मार्गः पथः । -पाद, वि. (सं.) पूज्य २. संपन्न | -- पुष्प, सं. पुं. (सं. न. ) लवंगं, श्रीप्रसूनम् । - फल, सं. पुं. (सं.) बिल्ववृक्षः २ नारि केल: ३. राजादनीवृक्षः ४. आमलकः की । - फली, सं. स्त्री. (सं.) आमलकी २. नीली । श्रीमंत, वि. ( सं-मत् ) धनिक, धनाढ्य । श्रीमत्, वि. (सं.) धनवत्, धनिन्, श्रील, २. शोभान्वित, द्युतिमत् ३. छविमत, सुन्दर । सं. पुं., विष्णुः २. कुबेरः ३. शिवः । श्रीमती, सं. स्त्री. (सं.) स्त्रीनामपुरोवर्त्तिसंमान श्रीरस, सं. पुं. ( सं . ) श्रीवेष्टः, दे. 'श्रीवास' । श्रीराग, सं. पुं. (सं.) षड्रागमध्ये तृतीयो रागः । श्रीलं, वि. (सं.) लक्ष्मीवत, धनाढ्य २. श्री - शोभा, युक्त-युत ३. अनश्लील, भद्र । श्रीवत्स, सं. पुं. ( सं . ) विष्णुः २. विष्णुवक्षःस्थशुक्लवर्ण दक्षिणावर्त रोमावली | -लांछन, सं. पुं. ( सं . ) विष्णुः । श्रीवास, सं. पुं. (सं.) पायसः, वृकधूपः, श्रीवेष्टः, सरलद्रवः दे. 'गंधाविरोजा' तथा 'तारपीन' २. पद्मं ३. विष्णुः ४. शिवः । श्रीहर्ष, सं. पुं. (सं.) नैषधकान्यरचयिता २. सम्राट हर्षवर्द्धनः । शत्रुघ्न - पत्नी । वि., श्रुत, वि. (सं.) आकणित, श्रवणगोचरतां गत, निशान्त २ प्रख्यात । कीर्ति, सं. स्त्री. ( सं . ) कीर्तित, यशस्विन् । श्रुति, सं. स्त्री. (सं.) वेदः २.. कर्णः, दे. 'कान' ३. श्रवर्ण ४. ध्वनि: ५. किंवदंती । - कटु, सं. पुं. (सं.) (काव्ये दोषभेदः) कर्क - शशब्दप्रयोगः, दुःश्रवत्वम् । - पथ, सं. पुं. ( सं . ) कर्णः २. वेदोक्तमार्गः । श्रेणी, सं. स्त्री. (सं.) श्रेणि: (स्त्री.), कक्षा, वर्ग:, छात्रगणः २. पंक्ति:-, क्तिका, विजोली, आली - लि:, आबलि-ली, राजी-जि:, वीथीथिका, रेखा, लेखा, पाली- लि: ( सबै स्त्री. ) ३. क्रमः, परंपरा, शृङ्खला ४. समव्यबसायि संघः । : - बद्ध, वि. (सं.) पंक्ति, बद्ध-स्थ, वर्गीकृत | श्रेय, स. पुं. [सं. श्रेयस् (न.) ] कल्याणं, आनन्दः, मंगलं २. धर्मः सुकृतं ३. मोक्षः, समृद्धि : (स्त्री.) ४. कीर्तिः (स्त्री.), यशस् (न.) । वि., भद्रतर, साधीयस्, उत्कृष्टतर २. उत्तम, श्रेष्ठ ३. शुभंकर, मंगल ४. कीर्तिकर, यशोदायक । श्रेयस्कर, वि. (सं.) कल्याण-हित-मंगलकारक -कारिन । For Private And Personal Use Only Page #620 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [२२] श्वेतांवर - श्रेष्ठ, वि. (सं.) उत्तम, परम, प्रशस्ततम, वरेण्य, श्लोक, सं. पुं. (सं.) अनुष्टप्छंदस् (न.) मुख्य, प्रथम, अग्रि(ग्री)य ३. पूज्य, मान्य । २. पy, छंदस् (न.) ३. यशस (न.) ४. वृद्ध, ज्येष्ठ ५. अभिजात, अभिजनवत, ४. प्रशंसा । कुलीन ६. आर्य, महानुभाव, महाशय। श्वसुर, सं. पुं. (सं.) दे. 'ससुर' । श्रेष्ठता, सं. स्त्री. (सं.) औदार्य, माहात्म्य, | श्वशर्य, सं. पुं. (सं.) देवरः २. श्यालः। प्रधानता, भद्रता, आर्यत्वं, कुलीनता २. उन्त- श्वश्र , सं. स्त्री. (सं.) दे. 'सास' । मता, उत्कृष्टता। श्वान, सं. पुं. (सं.) श्वन, कुक्कुरः, दे. 'कुत्ता'। श्रोतव्य, वि. ( सं.) दे. 'श्रान्य'। -निद्रा, सं. स्त्री. (सं.) अगाढ़-कुक्कुर, श्रोता, सं. पुं. (सं.-४) श्रावकः, श्रवण-निश- निद्रा-स्वापः । मन, कर्तृ, आकर्णयित। | श्वानी, सं. स्त्री. ( सं.) कुक्कुरी, शुनी, सरमा, श्रोत्र, सं. पुं. (सं. न.) श्रवणः-णं, कर्णः, दे. भषी, सारमेयी। 'कान'। | श्वापद, सं. पुं. (सं.) हिंस्रपशुः । श्रोत्रिय, सं. पुं. (सं.) वेद, विद्-पाठकः, श्वास, सं. पुं. (सं.) प्राणा:-असवः (बहु.), छदिसः २. ब्राह्मणजातिभेदः। दे. 'सांस' २. श्वासरोगः, दे. 'दमा' । औत, वि. (सं.) श्रुति-वेद,विहित-प्रति -धारण, सं. पुं. (सं. न.) श्वासरोधः, प्राणापादित २. वैदिक, छांदस ३. यज्ञीय । (सं.. यामः। न.) गार्हपत्याहवनीयदक्षिणाग्नयः (बहु.)। -सूत्र, सं. पुं. (सं. न.) यज्ञविधायकग्रन्थ- श्वासोच्छ्वास, सं. पुं. (सं.) प्राण,-गतिः क्रिया, श्वसितोच्छ्वासितम् । विशेषः। श्लाघनीय, वि. (सं.) श्लाघ्य, प्रशंसनीय, दे. | श्वित्र, सं. पु. ( सं. न.) श्वेतं-त्रं. श्वेतकष्ठम । वि. (सं.) श्वेत २. श्वित्रिन् । २. उत्तम, श्रेष्ठ । श्लाघा, सं. स्त्री. (सं.) स्तुतिः-नुतिः (स्त्री.), श्वित्री, वि. ( सं.-त्रिन् ) श्वित्र-श्वेतकुष्ठ, युक्त । प्रशंसा, दे. २. चाटु (पुं. न.), चाटूक्तिः श्वेत, वि. (सं.) धवल, गौर, शुक्र-क्ल, दे. (स्त्री.) ३. इच्छा। 'सफेद' २. निर्मल, स्वच्छ ३. निर्दोष, निष्कलाध्य, वि. (सं.) श्लाघनीय, दे.।। लंक । सं. पुं. (सं.) शुक्लवर्णः २. शंख: श्लिष्ट, वि. (सं.) संयुक्त, संलग्न २. आलिंगित | ३. शुक्रग्रहः (सं. न.) रूप्यं, रजतम् । ३. अनेकार्थक, श्लेषयुक्त ( शब्दादि)। -कुष्ठ, सं. पु. ( सं. न.) दे. 'श्वित्र'। श्लीपद, सं. पुं. (सं. न.) पादवल्मीक, दे. -कृष्ण, वि. (सं.) सितासित, शुक्लश्याम 'फीलपाँव। २. पक्षविपक्ष। श्लील, वि. (सं.) उत्तम, उत्कृष्ट २. शुभ, भद्र। -केतु, सं. पुं. (सं.) उद्दालकपुत्रः । श्लेष, सं. पुं. (सं.) अनेकार्थकशब्दप्रयोगः, -प्रदर, सं. पुं. [सं. प्रदरभेदः ( स्त्रीरोग)]। शब्दालंकारभेदः (सा.) २. परिरंभः, आलि. श्वंतता, सं. स्त्री. (सं.) श्वेतिमन् (पं.). गनं ३. संयोगः, संधिः। शुक्लता, दे. 'सफेदी। श्लेष्मा, सं. पुं. (सं.-मन ) कफः, दे. 'बल. | श्वेतांबर, सं. पुं. (सं.) जैनसंप्रदायविशेषः, ग्राम। धवलवेषः। प, देवनागरीवर्णमालाया एकत्रिंशो व्यंजनवर्णः, | कर्माणि ( यजनं, याजनं, अध्ययन, अध्यापनं, षकारः। दानं, प्रतिग्रहः)। पंड, सं. पुं. (सं.) दे. 'शंड' (१.२)। -कोण. सं. पं. (सं. न । पदभजः । नि षट् , वि. ( सं. षष् ) सं. पुं., उक्ता संख्या, | षड्भुज । तद्बोधकांकश्च (६) २. दीपकरागपुत्रः। -पद, सं. पुं. (सं.) षडंघ्रिः, षट्चरणः, कर्म, सं. पुं. (सं.-मन् (न.) षट् ब्राह्मण- भ्रमरः। For Private And Personal Use Only Page #621 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir षट्क [] संकलन -पदी, सं. स्त्री. ( सं . ) भ्रमरी २. छन्दोभेदः । षष्ठी, सं. स्त्री. (सं.) शुक्लकृष्णपक्षयोः षष्ठी तिथि: (स्त्री.) २. संबन्धविभक्तिः (व्या.) ३. कात्यायनी, दुर्गा । (छप्पय ) ३. यूका । - शास्त्र, सं. पुं. (सं. न. ) सांख्ययोगन्यायवैशेषिकमीमांसा वेदांतशास्त्राणि (न. बहु . ) । - शास्त्री, सं. पुं. (सं. स्त्रिन्) षड्दर्शनविद् । षट्क, सं. पुं. (सं. न.) षट् इति संख्या २. षट्वस्तुसमूहः । षडंग, सं. पुं. ( सं. न. ) वेदांगषट्शास्त्राणि ( शिक्षा, कल्पः, व्याकरणं, निरुक्तं, छन्दस् (न.), ज्योतिषं ) २. षट् शरीरावयवाः (जंघे बाहू शिरो मध्यं षडंग मिदमुच्यते ) ) वि., घडवयवयुक्त | डंधि, सं. पुं. (सं.) भ्रमरः, षट्पदः । षडानन, सं. पुं. (सं.) कार्तिकेयः, षण्मुखः । षड्गुण, सं. पुं. (सं. न. ) षाड्गुण्यं, राज्यरक्षणस्य षडुपायाः (= संधिः, विग्रहः, यानं, आसनं, द्वैधीभावः, संश्रयः) । वि., गुणषट्कयुत २. षड्गुणित | षड्ज, सं. पुं. ( सं. ) स्वरसप्तके प्रथमः, चतुर्थो बा स्वरः ( संगीत ) । षड्दर्शन, सं. पुं. ( सं. न. ) दे. 'षट्शास्त्र' । षड्यंत्र, सं. पुं. (सं.) कूट:-टं, कूद-, युक्तिः (स्त्री.)- उपायः उपजापः, षडयंत्र, *षट्चक्रं, कुमंत्रणा । षड्रस, सं. पुं. (सं. -रसं, रसाः ) रसषट्कं (= = मधुरः, अम्लः, लवणः कटुः, तिक्तः, कषायः ) । षड्रिपु, सं. पुं. (सं. न. ) षड्वर्गः, विकारषट्कं ( = कामः क्रोधस्तथा लोभो मदमोहौ च मत्सरः ) । स, देवनागरीवर्णमालाया द्वात्रिंशो व्यंजनवर्णः सकारः । संकट, सं. पुं. (सं. न. ) आपद् - विपद् - आपत्ति :विपत्ति: (स्त्री.) २. दु:खं, कष्टं ३. जन, समूहःसंमर्दः ४. गिरिद्वारं, दे. 'दर्रा ' ५. संबाधपथः । संकटापन, वि. (सं.) आपद् - विपद् - आपत्ति | ग्रस्त | संकटोत्तीर्ण, वि. (सं.) कष्ट - क्लेश- विपत्ति, मुक्त-रहित । संकर, सं. पुं. (सं.) सम्मिश्रणं, संमिलनं षाड्गुण्य, सं. पुं. (सं. न. ) दे. 'षड्गुण' सं.पुं.। षोडश, वि. तथा ( सं . ) 'सोलह' । स कला, सं. स्त्री. ( सं . बहु. ) चंद्रमडण्डलस्य षडधिकदश भागाः (= अमृता, मानदा, पूषा, तुष्टिः पुष्टिः, रतिः धृतिः, शशिनी, चन्द्रिका, कांतिः, ज्योत्स्ना, श्रीः, प्रीतिः, अंगदा, पूर्णा, पूर्णामृता = १६ कला ) । -शृङ्गार, सं. पुं. (सं. बहु.) षोडशसंख्याकानि प्रसाधन साधनानि । (अंग शुची, मंजन, वसन, मांग, महावर, केश । तिलक भाल, तिल चिबुक में, भूषण, मेंहदीवेष । मिस्सी, काजल, अर्गजा, वीरी और सुगंध । पुष्पकली, युत हो कर तब नवसप्त निबन्ध 1 ) - संस्कार, सं. पुं. (सं. बहु.) धार्मिक कृत्यभेदः ( = गर्भाधानपुंसवनसीमन्तोन्नयनजातकर्म नामकरणनिष्क्रमणान्नप्राशनचूडाकर्म कर्णवेधोपनयन वेदारंभसमावर्तनविवाहवानप्रस्थसन्न्यासांत्येष्टिसंस्काराः ( स्वामी दयानन्द ) । षोडशी, सं. स्त्री. ( सं . ) षोडशवर्षा युवति: (स्त्री.) २. प्रेतक्रियाभेदः । षोडशोपचार, सं. पुं. (सं. बहु . ) षोडशपूजनं, ( = आसनं स्वागतं पाद्यमर्ध्यमाचमनीयकम् । मधुपर्काचमस्नानं वसनाभरणानि च ॥ गंधपुष्पे धूपदीप नैवेद्यं वंदनं तथा । प्रयोजयेदर्चनायां उपचारास्तु षोडश || ) २. सांकरिकः, मिश्रजः, संकरजः, ३. अधर्म्य - विवाहः । संकरता, सं. स्त्री. (सं.) संमिश्रता, सांक, क्रमभंगः, व्यतिकरः, अस्तव्यस्तता । संकल, सं. स्त्री. (सं.) श्रृंखला, दे. । संकलन, सं. पुं. (सं. न. ) संग्रहणं, संचयनं २. संचयः, राशिः ३. परिगणनं, परिसंख्या ३. संग्रह:, संग्रहग्रन्थः । करना, क्रि. स., संकल् ( चु. ), संग्रह् ( क्रू. प. से. ), समाह (भ्वा. प. अ. ) । For Private And Personal Use Only Page #622 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir संकलित [४] | संकलित, वि. (सं.) संगृहीत, संचित २ परि संख्यात, परिगणित ३. राशी- एकत्री, कृत । संकल्प, सं. पुं. (सं.) चिकीर्षा, भावः, विचार, इच्छा, कामः २. विशिष्टमन्त्रपूर्वक, दानं वितरण-उत्सर्जनं ३. मंत्रविशेष: ४. निश्चयः, अवधारणं, अध्यवसायः । -करना, क्रि. स., निश्चि ( स्वा. प. अ. ), दृष्टं अवधृ ( चु. ), संक्लृप (प्रे.) २. संकल्पमंत्रपूर्वकं वितृ ( भ्वा. प. से. ), दा । संकाश, वि. (सं.) तुल्य, सदृश २ निकट समीप, वर्तिन् । (सं. पुं.) सामीप्यं, नैकट्यम् । संकीर्ण, वि. (सं.) संबाध, संकट, संकुचित २. मिश्रित, संमिश्र, संसृष्ट ३. क्षुद्र, तुच्छ ४. संकुल, निचित, व्याप्त, समा-आ, कीर्ण । संकीर्णता, सं. स्त्री. (सं.) संबाधता २ मिश्रितत्वं ३. संकुलता ४. क्षुद्रता, नीचता । संकीर्तन, सं. पुं. (सं. न. ) ( देवादीनां ) गुणगानं, कीर्तिकथनम् । संकुचित, वि. ( सं .) संकीर्ण, संबाध २. सलज्ज, सत्रप ३. कदर्य, किंपचान ४. संहृत, संपिंडित, आकुंचित ५. मुद्रित, मीलित, मुकुलित । संकुल, वि. (सं.) आ-सं, कीर्ण, निचित, व्याप्त, कलिल, गहन, संभृत, सं- परि, पूर्ण, पूरित । सं. पुं. (सं. न.) युद्धं २. जन, ओध:संमर्दः ३. पशुकुलं, गो, वृंदं- कुलं, यूथं, निवहः ४. असंगतवाक्यम् । संकेत, सं. पुं. (सं.) इङ्गितं, संज्ञा, संज्ञानं, अंगविक्षेपः, प्रज्ञप्तिः (स्त्री.), आकारः, अभिप्राय व्यंजकचेष्टा २ ( प्रेमिणोः ) संकेतनिकेतनं, संमिलनस्थानं ३ शृंगारचेष्टा, हावः, विभ्रमः, विलासः ४. चिह्न ५. उपक्षेपः, आकूतं, उप न्यासः । करना, क्रि. स., इंगितेन सूच् ( चु. ), उपक्षिप ( तु. प. अ.), साकूतं उपन्यस् (दि. प.से.) । संकोच, सं. पुं. (सं.) आकुंचनं, संकोचनं, समाकर्षः, संपीडनं २. लज्जा, त्रपा ३. निश्चया भावः, विकल्पः, संशयः ४. संक्षेप :- पणम् । संकोचन, सं. पुं. (सं. न.) दे. 'संकोच' (१) । संकोचना, क्रि. स. (सं. संकोचनं ) संकुच् (प्रे.), आकुंच् (प्रे.), अल्पीकृ, संह (भ्वा. प. अ.)। क्रि. अ., लज्ज् ( तु. आ. से. ) त्रप् (भ्वा. आ. से. ) । संग संकोची, वि. (सं.-चिन ) लज्जालु, लज्जाशील, विनीत, शालीन । संक्रमण, सं. पुं. (सं. न.) गमनं, व्रजनं २. भ्रमणं, पर्यटनं ३. सूर्यस्य राश्यंतरप्रवेशः । संक्रांत, वि. (सं.) अतीत, गत २ प्रविष्ट, निविष्ट ३. प्राप्त, गृहीत ४. स्थानान्तरित ५. प्रति फलित-बिम्बित | संक्रांति, सं. स्त्री. (सं.) दे. 'संक्रमण' (३) । २- ३. सूर्य संक्रमण, समय:- दिवसः । संक्रामक, वि. ( सं .) स्पर्श, - जन्य-संचारिन् ( रोग ) संक्षिप्त, वि. ( सं . ) संहृत, समस्त, संकुचित, लघु, अल्पीभूत । करना, क्रि. स., संक्षिप् (तु. प. अ. ), समस् (दि. प. से.), समाह-संह (भ्वा. प. अ.) । - लिपि, सं. स्त्री. (सं.) दे. 'शार्टहैंड' | संक्षेप, सं. पुं. (सं.) सार:- रं, संग्रहः, समासः, समाहारः । संक्षेपण, सं. पुं. ( सं. न. ) संकोचनं, संहरणं २. संचयन, संग्रहणम् ३. प्रासनं, क्षेपणम् । संक्षेपतः, अन्य. (सं.) संक्षेपेण, समासेन, साररूपेण । संख, सं. पुं., दे. 'शंख' ( १-२ ) । संखिनी, सं. स्त्री. दे. 'शंखिनी' । संखिया, सं. पुं. ( सं. शृङ्गिकं ) फेनाश्मन, आख-गौरी, पाषाणः, शत, मल्लः, करवीरा, कुनटी, नाग, जिह्विका -मातृ (स्त्री.) 1 संख्या, सं. स्त्री. (सं.) गणना २. अंक : ३. बुद्धिः ( स्त्री. ) ४. विचारणा । ( अ. करना, क्रि. स., गण् ( चु. ) संख्या ( प. अ. ) । संग', सं. पुं. (सं.) मेल:, संमिलनं, समागमः २. संगतं -ति: (स्त्री.), साहचर्य, संसर्गः, संवासः, संपर्क: ३. विषय, अनुरागः- आसक्तिः (स्त्री.) ४. सरित्संगमः । क्रि. वि., सह, सार्द्धं, साकं समं (तृतीया के साथ ) । करना, क्रि. अ., संगम् (भ्वा. आ. अ.), सहचर् (भ्वा. प. से. ), संवस (भ्वा. प. अ. ) । संगर, सं. पुं. (फ्रा. ) पाषाण, प्रस्तरः, दे. 'पत्थर' । वि., कीकस, कर्कर, कक्खट, २ . कठोर | - ज़राअत, सं. पुं. ( फ़ा. +अ.) कर्षण, पाषाणः प्रस्तरः । For Private And Personal Use Only Page #623 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir संगठन [ 5 ] संवाराम - तराश, सं. पुं. ( फा . ) मूर्ति प्रतिमा, कारः । संगृहीत, वि. (सं.) संचित, समाहृत, एकत्रीकृत आश्मिकः, औपलिकः । २. संकलित, परिसंख्यात । संग्रह, सं. पुं. ( सं .) सञ्चय:-यनं, संग्रहणं, समा, हार:-हृतिः (स्त्री.) - हरणं, संकलनं, राशी - एकत्री, करणं २ संग्रहग्रंथ: ३. संक्षेपः ४. मुष्टि: (पुं. स्त्री. ) ५. निग्रहः, संयमः ६. रक्षा ७. बद्धकोष्ठः, दे. 'कबज' ८. स्वीकृति: (स्त्री.) ९. ग्रहणम् । संग्रहणी, सं. स्त्री. (सं.) ग्रहणी (अजीर्णभेदः) । संग्रहणीय, वि. (सं.) संचेतव्य, संचयनीय, नित्रेय | - तराशी, सं. स्त्री, मूति- प्रतिमा, निर्माणम् । - दिल, वि. (सं.) पाषाण कठोर, हृदय, निर्दय । - दिली, सं. स्त्री, निर्दयता, निष्करुणता । - मर्मर, सं. पुं. (फ्रा. + अ.) राजाश्मन् (पुं.), मणिशिला, मर्मर, उपलः-प्रस्तरः । - मूसा, सं. पुं. (फ़ा.) *मूषोपल:, *मूषाश्मन् ( कृष्णश्लक्ष्णप्रस्तरभेदः) । संगठन, सं. पुं. (सं. सं+हिं. गठना ) संघटनं-ना, संव्यवस्थानं, संविधानं, दे. 'संघटन' २. संस्था, संघः ३. ऐक्यं, संधिः, सं, हतिः (स्त्री.) योगः-गमः । संगठित, वि. (हिं. संगठन) संघटित, संविहित, संव्यवस्थापित । संग्राम, सं. पुं. (सं.) रणं, आहवः, युद्धं, दे. । संगत, सं. स्त्री. (सं. न. ) दे. 'संग' ( २ ) । —तुला, सं. स्त्री. ( सं . ) युद्धपरीक्षा । २. सहचरः, संगिन ३. मैथुनम् । -भूमि, सं. स्त्री. ( सं . ) युद्धक्षेत्रम् । —त्यु, सं. स्त्री. (सं. पुं.) वीरगति: (स्त्री.), रणमरणम् । -करना, क्रि. अ., दे. 'संग करना' । संगतरा, सं. पुं. (पु.) (वृक्ष) नारंगः, नागरंगः, ऐरावतः । (फल) नारंग इ., दे. 'नारंगी' । संगति, सं. स्त्री. (सं.) दे. 'संग' ( १-२ ) । ३. मैथुनं ४. संबन्ध: ५. संवाद:, विरोधाभाव:, आनुरूप्यं ६. ज्ञानं ७. युक्ति: (स्त्री.) । संगती, सं. पुं. (सं. संगतं > ) सहचरः, मित्रं, सहायः । संघ, सं. पुं. (सं.) सभा, समाज:, समितिः (स्त्री.), गोष्ठी, परिषद् - संसद् (स्त्री.) २. समूहः, गणः, वृंद, दल ३. प्राचीन प्रजातंत्रभेद: ४. बौद्धश्रमणसमाजः ५. विहार:, संगम, सं. पुं. (सं.) दे. 'संग' ( १-२ ) । ३. वेणी- णि: (स्त्री.) सरित, संयोग: समागम:-मेलकः ४. मैथुनं ५. ग्रहयोग : ( ज्यो. ) । संगर, सं. पुं. (सं.) युद्धं २. प्रतिज्ञा ३. नियमः ४. आपद् (स्त्री.) ५. अंगीकारः ६. विषम् । संगसार, सं. पुं. ( फा . ) *उपलभारः, प्राणदंडभेद: । वि., नष्ट, ध्वस्त । संगिनी, सं. स्त्री. (हिं. संगी) सहचरी, सहगामिनी २. पत्नी । संगी, सं. पुं. (हिं. संग ) सहचरः, सहायः २. मित्रं ३ बन्धुः । संगीत, सं. पुं. ( सं. न. ) प्रेक्षणार्थं नृत्यगीतबाधम् । - शास्त्र, सं. पुं. (सं. न. ) गंधर्व, विद्या वेद: । संगीन, सं. स्त्री. ( फा . ) * नान्यस्त्रसंगिनी । अश्म पाषाण, मय-रचित २. स्थूल ३. स्थायिन, दृढ ४. घोर, विकट ५. संकीर्ण । वि., संग्रहालय, सं. पुं. ( सं . ) अद्भुतालय: । संग्रहीता, वि. (सं.-तृ ) संग्राहक, संग्रहिन्, संचेतृ, संचयिन् । मठः ठम् । - चारी, वि. (सं.-रिन ) गण-यूथ, गामिन् । सं. पुं., मीनः । -शासन, सं. पुं. (सं. न. ) *संयुक्त तंत्रम् । संघटन, सं. पुं. (सं. न. ) दे. 'संगठन ' (१-३) ४. निर्माणं, रचनं ५. घटना, रचना | संघट्टन, सं. पुं. (सं. न. ) संघर्ष:- र्षण २. सं. घट्टः, संमर्दः ३. रचना, घटना ४. संमिलनं, संयोग: ५. दे. 'संगठनम्' । संघर्ष, सं. पुं. (सं.) संघृष्टि: (स्त्री.), सं-अभिआ-घर्ष:-र्षणं, आ-वि, घट्टनं, परस्पर, घर्षणंमर्दनं २. प्रतिस्पर्द्धा, विजिगीषा, प्रतियोगिता, अहमहमिका ३. सं, घट्ट:-मर्दः ४. युद्धम् । संघर्षण, सं. पुं. (सं. न. ) दे. 'संघर्ष' । संघात, सं. पुं. (सं.) समूहः वृंद २. हननं, वधः ३. आघात: ४, निविडसंयोगः ५. आवासः । संघाती, सं. पुं. ( सं. संघाः > ) सहचरः, मित्रम् | संघाराम, सं. पुं. (सं.) आश्रमः, मठः-ठम् । विहारः, For Private And Personal Use Only Page #624 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir संचय (२८६ संचय, सं. पुं. (सं.) राशिः, निकरः, पुंजः। नामन् ( न.), विशेष्यं ४. इंगितं, संज्ञान, जिः ( स्त्री.) २. आधिक्यं, बाहुल्यं ३. दे. संकेतः। 'संग्रह' (१)। -हीन, वि. (सं.) मूच्छित दे., अ-विगत, संचयी, वि. (सं.-यिन्) संचेतृ-संग्रहीत, संचयः | संग्रह,-कारक २. कृपण ।। संड-डा, सं. पु. [सं. शं(पं)ड: ] वृषभः संचार, सं. पुं. (सं.) संवि,चरण-चलनं, पीनो मानवः। व्रजनं, गमनं, अटनं, भ्रमणं, २. प्रचारः, -मुसंड-डा, वि. (सं.+ अनु.) मांसल, पीन, प्रसारः, प्रचरणं, प्रसरणं ३. पथप्रदर्शनं ४. प्र, | उपचित, दृढ़ांग (-गी स्त्री.)। चालनं चारण-सारणं ५. ग्रहाणां राश्यंतर- | संडसा-सी, सं. पुं. स्त्री. (सं.) दे. 'संडासा-सी' प्रवेशः। संडास, . पुं. (१) शौचकूपः, दे. 'पाखाना' । संचारिका, सं. स्त्री. (सं.) कुट्ट(ट्टि)नी, संडासा सं. पुं. (सं. संदशः ) संदंशकः, कंक,चुंदी, दूती-तिका। मुखः(-ख)-वदनम् । संचारित, वि. (सं.) प्रचालित, प्रसारित। संडासी, सं. स्त्री. (हिं. संडासा ) संदंशिका, संचारी, वि. (सं.-रिन ) संचरण-गमन-गति, सुचु(चू)टी। शील, चल २. परिवर्तनशील, परिवर्तिन् । सं. | संत, सं. पुं. (सं. सत् ) महात्मन, धर्मात्मन , पुं. (सं.) पवनः २. व्यभिचारिभावः (सा.)/ हरिभक्तः २. विरक्तजनः। वि., भद्र, धार्मिक, ३. आगंतुकः ४. धूपः, दे.।। श्रेष्ठ । संचालक, सं. पुं. (सं.) परिचालकः, चाल- -समागम, सं.पं. (सं.) सत्-साधु, संगः-संगतिः। यितृ २. अधिष्ठात, अध्यक्षः ३. निर्वाहकः, संतत, अव्य. (सं.-तं) सदा, सर्वदा, सततं, व्यवस्थापकः। निरंतरम् । संचालन, सं. पुं. (सं.) परिचालनं, प्रेरणं, संतति, सं. स्त्री. (सं.) संतानः, दे.। प्रवर्तनं २. निर्वाहः, व्यवस्था ३. अध्यक्षता,/-निरोध, सं. पुं. (सं.) गर्भनिरोधः, परि. निरीक्षणं ४. नियंत्रम् । वारायोजनम् । संचित, वि. (सं.) दे, 'संगृही' (१)। -होम, सं. पुं. (सं.) पुत्रेष्टियज्ञः । संजय, सं. पुं. (सं.) धृतराष्ट्रसचिवः २. शिवः | संतप्त, वि. (स.) उत्-अति-सु,-तप्त, ज्वलित, ३. ब्रह्मन् (पुं.)। दग्ध २.अति, दुःखित-पीडित-अदित ३.विषण्ण, संजाफ, सं. स्त्री. (फा.) अंचलः, दशा, चीरी विमनस्क ४. श्रांत, क्लांत, श्रमात । रिः( स्त्री.)-वस्त्रप्रांतः। | संतरा, सं. पु., दे. 'संगतरा' । संजीदगी, सं. स्त्री. (फा.) गंभीरता, गांभीर्यम् । संतरी, सं. पु. ( अं. सेंट्री) दे. 'सिपाही' संजीदा, वि. (फा.) शांत, ग(ग)भीर २. द्वारपालः। २. बुद्धिमत्। संतान, सं. पुं. (सं.) संततिः प्रसूतिः ( स्त्री.), संजीवक, वि. ( सं.) नव-पुनर् , जीवनदायक, प्रजा, प्रसवः, अपत्यं, तोकं, बीज २. अन्वयः, उज्जीवकः। वंशः ३. कल्पृवृक्षः ४. विस्तारः। (सं. न.) संजीवन, सं. पुं. ( सं. न.) दे. 'संजीवक' | अस्त्रभेदः। २. सम्यक् प्राणधारणं ३. नरकविशेषः। | संताप, सं. पुं. (सं.) (अनलादिजः) संजीवनी, वि. स्त्री. (सं.) उज्जीविका, नव- तापः, संज्वरः, प्रोषः, उष्णः-णं, दाहः, ऊष्मन पुनर् , जीवनदात्री। सं.स्त्री.(सं.) उज्जीवकोष- | धर्मः २. कष्टं, व्यथा ३. आधिः, मनोव्यथा धविशेषः (कल्पित) २. भेषजभेदः। ४. ज्वरः ५. शत्रुः ६. दाहनामको रोगः । -विद्या, सं. स्त्री. (सं.) मृतकजीवनप्रद- -देना, क्रि. स., परि-सं,-तप् (प्रे.), अद् (प्रे.), कल्पितविद्याविशेषः। पीड (चु.) २. दे. 'जलाना'। संज्ञा, सं. स्त्री. (सं.) चेतना, चैतन्यं, संतापित, वि. (सं.) दे. 'संतप्त' (२) । वेदनं, बोधः २. अभिधा-धानं, आख्या, दे. संतापी, वि. ( सं.-पिन ) दुःखदायिन् ।। 'नाम' ३. वस्तुबोधकः शब्दः (व्या.), संतुष्ट, वि. (सं.) संतृप्त, परि-, तुष्ट, वितृष्ण, For Private And Personal Use Only Page #625 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir संतोष [ ५८७] संपत्ति दैनिक,-पाठः । कृतार्थ २. अनुनीत, तोषित, प्रीत, सात्वित, संधि, सं. स्त्री. ( सं. पुं.) संयोगः, संमिलनं, प्रसादित। संगमः, संहतिः (स्त्री.) २. ग्रंथिः, पर्वन(न.), संतोष, सं. पु. (सं.) सं-परि,-तोषः-तुष्टिः (स्त्री.), | संधिस्थान ३. मित्रीकरणं, राज्यरक्षायाः गुणवितृष्णा, शांति:-तृप्तिः (स्त्री.), प्रीतिः, विशेषः ( राजनीति )४. मैत्री, सख्यं ५. वर्ण२. आनन्दः, हर्षः, सुखम् । द्वयमेलनं, संहिता (व्या.) ६. रूपकांगभेदः -करना, क्रि. अ., संतुष-संतृप (दि. प. अ.), | (सा.) ७. दे. 'सेंध' ८. युगसंधिः ९. वयःनंद (भ्वा. प. से.)। सन्धिः । संतोषी, वि. (सं.-पिन् ) दे. 'संतुष्ट' (१)।। -चौर, सं. पु. ( सं.) संधिहारकः । संथा, सं. पु. ( सं. संहिता> १) आह्निकं, -च्छेद, सं. पुं. (सं.) संहितपदविश्लेषणम् । -जीवक, सं. पुं. (सं.) विटः, संचारकः । संदर्भ, सं. पुं. (सं.) रचना, घटना, निर्मितिः -बंधन, सं. पुं. (सं.) स्नसा, स्नायुबंधः । (स्त्री.) २. प्रस्तावः, लेखः, प्र-नि,-बंधः -वेला, सं. स्त्री. (सं.) अहोरात्रमिलनसमयः, ३. भाष्य-टीका,-आत्मकग्रन्थः ४. लघु,-ग्रन्थः- संधिकाल: २. सायम् । पुस्तक ५. संग्रहः, संकलनं (ग्रंथ) ६. विस्तारः। संध्या, सं. स्त्री. (सं.) संधिकाल:, अहोरात्रसंदल, सं. पुं. (फ़ा.) मलयज, श्रीखंडं, संयोगसमयः २. सायंकाल:, दे. ३. उपासनाचंदनं, दे.। भेदः ४. युगसंधिः। संदली, वि. (फा. संदल ) चंदनवर्ण, ईष- | -कालिक, वि. (सं.) संध्याकालीन, विकालत्पीत २. चंदन,-मय-निर्मित । संधिकाल,-सम्बन्धिन् । संदिग्ध, वि. (सं.) संदेह-संशय,-युक्त-पूर्ण, -बल, सं. पुं. (सं.) निशाचरः, राक्षसः । निश्चयशून्य, सविकल्प. विकल्प्य ।। -राग, सं. पुं. (सं.) संध्या-विकाल-विका-व्यक्ति, सं.पुं.(सं. स्त्री.) शंकित-शंक्य, जनः। लक, रक्तिमन-शोणिमन्-रागः। संदक, सं. पं. (अ.) संपुटः, पेटा, मंजूषा, -वंदन, सं. पु. ( सं. न.) संध्योपासनम् । समुद्गः । संन्निकर्ष, सं. पुं. (सं.) सन्निधिः, सन्निधानं, | सामीप्यं २. इन्द्रियार्थसम्बन्धः। . । समुद्गकः। संनिपात, सं. पुं. (सं.) वातपित्तकफानां युगसंदूकची,सं.स्त्री. • J करण्डकः, संपुट(टि)कः । । पद् विकारः, विकारोत्पादकं मिलितदोषत्रयं संदेश, सं. पुं. (सं.) संवादः, वार्ता, वाचिकं, २. समाहारः, समूहः ३. समवपातः ४. समु. दिष्टं, आख्यायनी २. वंगप्रांतीयमिष्टान्नभेदः। । ड्यनं ५. संयोगः, मिश्रणम् ।। -भेजना, क्रि. स., संदिश् (तु. प. अ.), संनिवेश, सं. पुं. (सं.) समुपवेशः-शनं वाचिकं-दिष्टं प्रेष् (प्रे.)। २. उपवेशः-शनं, आसितं, निषदनं ३. आ-नि,-हर, सं. पुं., वार्ताहरः, वातिकः, सांदेशिकः, धानं, स्थापनं ४. प्रतिबन्धनं, उत्खचनं, प्रणिदूतः, आख्यायकः। धानं ५. गृहं ६. समूहः ७. रचना ८. संस्थानं संदेसा, सं. पुं., दे. 'संदेश' (१)। ९. प्रतिमादीनां स्थापनम् । संदेह, सं. पुं. (सं.) संशयः, विचिकित्सा, संनिहित, वि. (सं.) निकट-समीप,-स्थ-वर्तिन द्वापरः, विकल्पः, द्वैधं, आशंका, निश्चय निर्णय-, । २. ( समीपे ) स्थापित । अभावः २. प्रत्यय-विश्वास, अभावः ५. अर्था- संन्यास, सं. पुं. (सं.) आर्यजीवनस्य चतुर्थालंकारभेदः (सा.)। | श्रमः, प्रव्रज्या, वैराग्यं २. काम्यकर्मन्यासः संदोह, सं. पुं. (सं.) समूहः, निकरः। (गीता ) ३. जटामांसी। संधान, सं. पुं ( सं. न.) अभिषवः, संधानी, | संन्यासी, सं. पुं. (सं.-सिन् ) चतुर्थाश्रमिन, मधसज्जीकरणं, संधिका २. चापे बाणयोजन | परि, ब्राजकः-वाज, श्रमणः, भिक्षुः, मस्करिन्, ३. मदिराभेदः ४. संघट्टनं, संयोजनं ५. अन्वे- कर्मन्दिन्, पाराशरिन् । षणं ६. सजीवनं, दे. ७. संधिः ८. अवदशः संपत्ति, सं. स्त्री. (सं.) विभवः, वैभवं, ऐश्वर्य, ९. कांजिकं १०.संधानिका । | अर्थः, धनं, वित्तं, श्रीः-लक्ष्मीः-समृद्धिः (स्त्री.) पेटिका, | संदूकचा, सं. पु. ) (अ.+फा.) For Private And Personal Use Only Page #626 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir संपद्-दा [ ८] संभलमा . २. रिक्थं, दायः ३. सिद्धिः ( स्त्री.), सफलता, । संप्रति, अव्य. (सं.) अधुना, इदानी २. अद्यत्वे, पूर्णता ४. लाभः, प्राप्तिः (स्त्री.)। वर्तमाने। संपद-दा, सं. स्त्री. ( सं. संपद् ) दे. 'संपत्ति'। संप्रतिपत्ति, सं. स्त्री. (सं.) ऐकमत्यं, सांमत्या संपन्न, वि. (सं.) धनाढ्य, धनिक, धनिन् दे. २. स्वीकृतिः ( स्त्री.) ३. लाभः, प्राप्तिः (सी.) २. सिद्ध, निष्पन्न, पूर्ण ३. सहित, युक्त ४. प्रवेशः ५. सम्यक् बोधः ६. कार्यसिद्धिः ४. संमृद्ध, धनधान्ययुत । (स्त्री.)। संपराय सं. पुं. (सं.) उत्तरकालः २. युद्ध | संप्रदान, सं. पुं. (सं. न.) दानं, वितरण, ३. आपद् (स्त्री.)। विश्राणनं, प्रतिपादनं २. कारकभेदः, चतुर्थी. संपर्क, सं. पुं. (सं.) संसर्गः, सम्बन्धः, साह. ( व्या.) ३. दीक्षा, मंत्रोपदेशः ४. उपहारः। चर्य २. मिश्रणं दे. ३. संयोगः, मिलनं ४. संप्रदाय, सं. पुं. (सं.) मतं, धर्म,-शाखास्पर्शः ५. योगः, संकलनं (गणित)। पथ:-मार्गः २. आम्नायः गुरुपरंपरागतसदुपसंपात, सं. पुं. (सं.) सहपतनं २. समागमः देशः, गुरुमंत्रः ३. अनुयायिमंडलं ४. प्रथा, ३.संगमस्थानं ४. संवृत्तिः-समापत्तिः (स्त्री.)। रीतिः (स्त्री.)। संपादक, सं. पुं. (सं.), पत्र-पत्रिकादीनां. संप्रदायी, वि. (सं.-यिन् ) मतावलंबिन, संपादयित, संपादनकरः २.साधकः, निष्पादकः मतानुयायिन् । ३. अनुष्ठातृ, कर्तृ, निर्वर्तयित। संबंध, सं. पुं. (सं. न.) संयोगः, संश्लेषः, संपादकता, सं. स्त्री. (सं.) सम्पादकत्वम् । सम्मिलनं २. सम्पर्कः, संसर्गः ३. वन्धुता, संपादकीय, वि. (सं.) १-२ सम्पादक, सगोत्रता, सजातीयता, शातित्वं ४. प्रगाढसख्यं लिखित-सम्बन्धिन् । ५. षष्ठी, विभक्तिभेदः ( व्या.)। संपादन, सं. पुं. (सं. न.) मुद्रणाथै सज्जीकरणं संबंधक, वि. (सं.)-सम्बन्धिन्, विषयक २. उपयुक्त, योग्य । सं. पुं. (सं.) जन्मविवाह२. परिकल्पनं, प्रसाधनं, सज्जीकरण ३.साधनं सख्यादिजनितः सम्बन्धः ।। निष्पादनं, समापनं ४. करणं, निर्वर्तनं, अनु संबंधी, वि. (सं.-धिन) संबन्धविशिष्ट २. संपृक्त, ष्ठानम्। संपादित, वि. (सं.) मुद्रणार्थ सज्जीकृत संसृष्ट ३. प्रसंगगत । सं. पुं. (सं.) बंधुः, बांधवः, सगोत्रः, ज्ञातिः ( स्त्री.) २. दे. 'समधी'। २. निष्पादित, पूति गमित-नीत, संपूरित, संबद्ध, वि. (सं.) संयुक्त, संश्लिष्ट, संलग्न साधित ३. प्रस्तुत, सज्ज । २. सम्बन्धविशिष्ट ३. ( अ-) पिहित, संवृत संपुट, सं. पुं. (सं.) समुद्गकः, करंडकः, संपुट ४. संग्रथित, सन्नियंत्रित । (टि)का, मंजूषा, दे. 'डिब्बा' २. अअलिः, कर | संबल, सं. पुं. ( सं. पुं. न.) पाथेयं, संबल:हस्त-पाणि,-पुट: ३.*द्रोणं, पत्रपुटः, दे.'दोना'। लम् । संपूर्ण, वि. (सं.) व्याप्त, पूरित, पूर्ण, आकर्ण संबाध, वि. ( सं. ) संकीर्ण, संकुचित २. संकुल, भत २. समग्र, समस्त,सकल,कृत्स्न ३. समाप्त, परिपूर्ण । सं. पुं. (सं.) विश्नः, बाधः, बाधा अवसित । सं. पुं., सप्तस्वरयुतो रागः (संगीत)।। २. जन, समुदायः-समूहः संमर्दः ओघः । संपूर्णतः । क्रि. वि. (सं.) साकल्येन, साम- | संबोधन, सं. पु. (सं. नं.) आभिमुख्यविधानं, संपूर्णतया, J स्त्येन२.सम्यक ,सुष्ठ(सब अव्य.) आमंत्रणं, सम्बुद्धिः (स्त्री.), आकारणं, आह्वान संपूर्णता, सं. स्त्री. (सं.) समग्रता, कात्स्न्य, २. आह्वानार्थकः शब्दरूपभेदः (व्या., उ. साकल्यं २. समाप्तिः ( स्त्री.), अवसानम् । राम !) ३. प्रबोधनं निद्रात उत्थापनं ४.आख्यासंपृक्त, वि. (सं.) मिश्र, मिश्रित २. खचित पन, ज्ञापनं. ५. आकाशभाषितं ( नाटक )। ३. स्पृष्ट ४. संसृष्ट, जातसम्पर्क। सँभलना, क्रि. अ. (हिं. सम्भालना ) उत्तम्भसँपेरा, सं. पुं. (हि. साँप ) अ(आ)हितुंडिकः, उपस्तंभ-धृ-भ (सब कर्म.) २. निश्चलं-दृढं स्था गारुडिकः, जांगलिकः, जांगलिः, व्यालग्राहिन् । (भ्वा. प. अ.) ३. सावधान-अवहित-जागरूक सँपोला, सं. पुं. (हिं. साँप ) अहि-सर्प,-शावः-! (वि.) भू ४. पादप्रहारपराजयादिभ्यो रक्षशावकः। मुच् ( कर्म.) ५. उत्कर्ष या ( अ. प. अ.), For Private And Personal Use Only Page #627 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir संभव [५ ] संमिलन - अभिवृथ् ( भ्वा. आ. से.) ६. पुनः स्वास्थ्यं | संभावित, वि. (सं.) दे. 'संभव' वि. लभ् ( भ्वा. आ. अ.), प्रकृति आपद् (दि. २. कल्पित, उद्भावित ३. आदृत, सम्मानित । आ. अ.)। संभाव्य, वि. (सं.) दे. 'संभव' वि.। संभव, सं. पुं. (सं.) उत्पत्तिः ( स्त्री.), जन्मन् संभाषण, सं. पुं. (सं.) आ-सं,-लापः, वार्ता(न.) २. मेलः, समागमः ३. शक्यता, लापः, सं, कथा वादः-भाषा २. प्रवचनं, व्यासम्भवनीयता । वि. (सं.> ) शक्य, सम्भव- ख्यानम् । नीय, सम्भाव्य २. साध्य, सम्पाद्य । संभूत, वि. (सं.) ( सह-) जात-उत्पन्न-उद्भूत । संभवतः, क्रि. वि. (सं.) कदाचित्, स्यात्, | संभूति, सं. स्त्री. (स.) उद्भवः, उत्पत्तिः (स्त्री.) सम्भाव्यते, शक्यते (विधिलिङ से भी)। २. विभूतिः वृद्धिः ( स्त्री.) ३. क्षमता। संभार, सं. पुं. (सं.) संग्रहणं, सञ्चयन, संभोग, सं. पु. (सं.) रतिः ( स्त्री.), मैथुन समाहरणं ३. सामग्री, आवश्यकवस्तूनि (न. दे. २. सम्यक ,-उपयोगः-व्यवहारः-प्रयोगः बहु.) ३. सम्पत्तिः (स्त्री.) ४. राशिः, चयः ३. संयोगशृंगारः (सा.)। ५. भरणपोषणम् । | संभ्रम, सं. पुं. (सं.) व्याकुलता, वैक्लव्यं, सँभाल, सं. स्त्री. (सं. सम्भारः) पोषणं, भरणं, | व्यग्रता २. त्वरा-रिः (स्त्री.), रमसः, रभस् संवर्द्धनं, २. रक्षणं, त्राणं, पालनं ३. पर्यवेक्षणं, (न.), आ-सं, वेग: ३. आदरः, मानः ४. भ्रांति: अवेक्षा-क्षणं, अधिष्ठानं, कार्यनिर्वाहणम् । ( स्त्री.), भ्रमः, स्खलितम् । सँभालना, क्रि. स. (हिं. सँभाल ) उत्-उप-सं | संभ्रांत, वि. (सं.) व्याकुल, व्यग्र, उद्विग्न स्तंभ (क्र. प. से., प्रे.), आ-अव-लंब (भ्वा. २. प्रतिष्ठित, संमानित। आ. से.), संधू ( भ्वा. प. अ., चु.), २. ग्रह | -जन, सं. पुं. (सं.) सम्मान्य-पूज्य,-जन:(क. प. से.), धृ, विरम् (प्रे.), रुध् (रु. | मनुष्यः। उ. अ.) (पादप्रहारपराजयादिभ्यो ) रक्ष -मना, वि. (सं.-नसं ) वि-सं, भ्रान्त-क्षुब्ध, (भ्वा. प.से.)-त्रै ( भ्वा. आ. अ.)३. संवृध आकुल, व्याकुल । (चु.), पुष् (२.) ४. उपक, साहाय्यं विधा संमत, वि. (सं.) संप्रतिपन्न, २. समादृत, (जु. उ. अ.) ५. अधिष्ठा ( भ्वा. प. अ.), निर्वह-सम्पद् (प्रे.) ६. मनोवेगं नियम् (भ्वा. संमानित । प. अ.) ७. पर्यवेक्ष ( भ्वा. आ. से.) ८. प्रो संमति, सं. स्त्री. (सं.) संमतं, ऐकमत्यं, मतैक्यं, त्सह समाश्वस (प्रे.)। सं. पुं., आ-अव,-लंब: सांमत्यं, ऐक्यं २. अनुमतिः (स्त्री.)-तं, अनुज्ञा, लंबन, धारणं, उत्तम्भनं २. ग्रहणं ३. रक्षणं, अनुमोदनं ३. मतं-तिः (स्त्री.), अभिप्रायः, त्राणं ४. संवर्धन, पोषणं ५. साहाय्यदानं, उप आशयः, बुद्धिः (स्त्री.)। कारः ६. अधिष्ठान, निर्वाहणं ७. पर्यवेक्षणं | | संमन, सं. पु. ( अं. संमन्स ) (धर्माधिकारिणः) ८.प्रोत्साहनं इ. आह्वानपत्रम्। सँभालने योग्य, वि. धारयितव्य, उत्तम्भनीय, संमदें, सं. पुं. (सं.) युद्ध २. विवादः ३. जन,. रक्ष्य, वातव्य, पोष्य, पर्यवेक्षणीय, इ.। समुदायः-संकुलम् । सँभालनेवाला, सं. पुं., उत्तंभकः, धारकः, | संमान, सं. पुं. (सं.) सम्-,आदरः, सत्कारः, आधारः, आश्रयः, आलम्बनं, पोषकः, संवर्द्धकः, पूजा, अहणा, अभ्यर्चनं, संभावना, प्रतिष्ठा. रक्षकाः, प्रोत्साहकः इ.। गौरवं, अर्चा। सँभाला हुआ, वि., संस्तंभित, धृत, धारित, | -करना, क्रि. स., संमन् (प्रे.) आदृ (तु. रक्षित, संवर्धित, उपकृत, पर्यवेक्षित, प्रोत्सा- आ. अ.), मह-पूज् (चु. ), संभू (प्रे.)। हित इ.। संमानित, वि. (सं.) समादृत, सत्कृत, पूजित, संभावना, सं. स्त्री. (सं.) शक्यता, सम्भव- गौरवान्वित, अभ्यर्चित, पूज्य, उपास्य, नमस्य, नीयता, सम्भाव्यता, सम्भवः २. आदरः, | सं,-मान्य २. प्रधान, मुख्य, अग्रिय। सत्कारः ३. प्रतिष्ठा, मानः ४. कल्पना, अनु- | संमिलन, सं. पुं. ( सं. न.) संगमः, समागमः, मानम् । संगः, संयोगः, संगतं-तिः (स्त्री.)। For Private And Personal Use Only Page #628 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir संमिलित [१०] सँवारा हुआ संमिलित, वि. (सं.) संमिश्र, मिश्रित, संयुक्त, सं. पु. ( सं. न.) १.२, शब्द-वाक्य,-योजकसंहत, संयुक्त, समवेत। पदम्। संमिश्रण, सं. पुं. ( सं. न.) सपर्कः, संसर्गः, संरक्षक, सं. पु. (सं.) आश्रयदातृ, पुरस्कर्तृ, संयोगः, संमिलनं २. मिश्र, मिश्र-द्रव्यं, संनि- २. पोषकः, प्रतिपालकः, भरणकृत्, संवर्द्धकः, पातः, संकरः, नानाद्रव्यसमुदायः । संक्षिन ३. त्रात, गोप्त, पालकः, रक्षित संमुख, क्रि. वि. ( सं. संमुखं-खे ) अभिमुखंखे, | ५. सहायकः, उपकारकः । पुरः, पुरतः, पुरस्तात्, समक्षं, साक्षात्, संरक्षण, सं पुं. ( सं. न. ) गोपनं, रक्षा, त्राणं प्रत्यक्षम् । २. अवेक्षा, पर्यवेक्षणं ३. अधिकारः ४. रोधः, संमेलन, सं. पु. ( सं. न.) समाजः, सभा, | प्रतिबंधः। परिषद् ( स्त्री.) २. बृहदधिवेशनं ३. संमंत्रणं, | संलग्न, वि. (सं.) संयुक्ता, संहत, संश्लिष्ट, संवादः ४. दे. 'संमिलन'। संहित, संमिलित, संबद्ध । संयत, वि. (सं.) अव-नि-सं, रुद्ध, नियत, | संलाप, सं. पुं. (सं.) वार्तालापः, संवादः । निगृहीत २. नि-प्रति, बद्ध, नियंत्रित, पिनद्ध संवत् , सं. पुं. ( सं. अव्य.) वर्षः-एं, अब्दः, ३. वशं नीत, वशीकृत, दमित ४. क्रम-नियम, वत्सः, परि-वत्सरः २. विक्रमाब्दः ३. शाकः । बद्ध, व्यवस्थित ५. मित, समर्याद, सावधिक संवत्सर, सं. पुं. (सं.) दे. 'संवत्'। ६. जितेन्द्रिय, आत्म-इन्द्रिय, निग्रहिन् । संवरण, सं. पुं. (सं. न.) गोपनं, प्रच्छादनं, -मना, वि. (सं. नर्स) संयमशील, संयत, निगूहनम् । आत्मनिग्रहिन् । सँवरना, क्रि. अ. ( सं. संवर्णनं>) ब. 'सँवा. -प्राण, वि. (सं.) प्राणायामिन् , संयतवासः ।। रना' के कर्म, के रूप । -मुख, वि. (सं.) मित-अल्प,-भाषित: संवाद, सं. पुं. (सं.) दे. 'संभाषण' (१)। वादिन् । २. वृत्तं, वृत्तांतः, समाचारः ३. कथा, प्रसंगः संयम, सं. पुं. (सं.) इन्द्रिय, जयः-निग्रहः, ४. व्यवहारः, अभियोगः ५. ऐकमत्यं, संमतिः दमः, आत्मनियंत्रणं २. निग्रहः, निरोधः, (स्त्री.) ६. संदेशः, दे. ७. स्वीकृतिः, अनुमतिः नियंत्रणं-णा ३. पथ्यसेवनं, मिताशनं ४. परि. (स्त्री.)। मितता-त्वं, मर्यादापालनं ५. पिधानं, निमीलनं, -दाता, सं. पुं. (सं.-तृ) *वृत्तप्रेषकः, वृत्तांतसंवरणं ६. बंधनम् । लेखकः। संयमी, वि. ( सं.-मिन ) इन्द्रिय-आत्म-निग्र- | संवादी, वि. ( सं.-दिन ) संलापिन्, संभाषिन् हिन् , संयत, जितेन्द्रिय, दमिन् , संयमशील, | २. सदृश, समान, तुल्य । सं. पुं. (सं.) योगिन् २. मित-अल्प-संयत, आहार-भोजिन् । संगीते स्वरभेदः । संयुक्त, वि. ( सं.) समवेत, संहत, संलग्न, | सँवारना, क्रि. स. (सं. सवर्णनं> ) अलंकृ, संश्लिष्ट २. सहित, अन्वित, युक्त ३. संबद्ध, परिष्कृ, भूष-मंड (चु.), प्रसाध् (प्रे.)। संपृक्त ४. संमिलित, संमिश्रित । २. संस्कृ, सं-, शुध् (प्रे.) ३. व्यवस्था (प्रे.), संयोग, सं. पुं. (सं.) दे. 'संमिलन' २. संश्लेषः, विन्यस् (दि. प. से.), रच (चु.) ४. कार्य संमिश्रणं ३. संभोगशृंगारः (सा.) ४. संबंधः, सम्यक् संपद्-निष्पद् (प्रे.)। सं. पुं., अलं. संपर्कः ५. अनेकव्यंजनसंश्लेषः ६. योगः, परिष , करणं, मंडन, प्रसाधनं २. संस्कारः, संकलन (गणित) ७. दैवं, दैव, घटना-गतिः । शोधनं ३. व्ववस्थापनं ४. सम्यक संपादनं । (स्त्री.)-योगः। सँवारने योग्य, वि., अलंकार्य, परिष्करणीय, -से, मु., दैवात्, दैव,-योगातू-वशात्, अक- भूषयितव्य, संस्कार्य, व्यवस्थाप्य । स्मात् । सँवारनेवाला, सं. पुं., अलं-परिष-कर्तृ-कारकः, संयोगी, सं. पुं. (सं.-गिन् ) गृहस्थसाधु: । प्रसाधकः, मंडयित २. संशोधकः, संस्कर्तृ २. दयितायुतः । ३. व्यवस्थापकः, सुसंपादकः । संयोजक, वि. (सं.) संमेलक, संश्लेषक । । सँवारा हुआ, वि., अलं-परिघ - क त, मंडित, For Private And Personal Use Only Page #629 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir संवाहक [५६१] संस्मरण प्रसाधित २. संस्कृत, संशोधित ३. व्यवस्था- | ४. संग्रहणं, संचयनं ५. अलंकारमिश्रणभेदः पित ४. सुसंपादित । | (सा.)। संवाहक, सं. पुं. (सं.) अंग-शरीर-,मर्दकः- संस्करण, सं. पुं. (सं. न.) ग्रन्थमुद्रणवारः, संवाहकः। वि. (सं.) चालकः, चालयित। आवृत्तिः (सी.) २. संशोधनं ३. परिष्करणम् । संवेदना, सं. स्त्री. (सं.) संवेदनं, अनुभवः, | संस्कार, सं. पुं. (स.) परि-सं,-शोधनं, संस्कसुखदुःखादि-प्रतीतिः (स्त्री.)। रणं २.परिष् , कारः-करणं, परिमार्जनं ३. शौचं, संशय, सं. पुं. (सं.) संदेहः, दे.। शरीरशुद्धिः (स्त्री.) ४.मानसी शिक्षा ५. शिक्षासंशयात्मा, सं. पुं. (सं.स्मन् ) विश्वासहीन, संगत्यादीनां प्रभावः ६. पूर्वजन्मवासना संदेहशील, श्रद्धाशून्य, संशयालु ।। ७. पावनं, शुद्धिः (स्त्री.) ८. धार्मिककृत्यभेदः संशयापन्न, वि. ( सं.) संदिग्ध, अनिश्चित। । (दे. 'षोडशसंस्कार' ) २. अंत्येष्टिक्रिया, दाह. संशयालु, वि. ( सं. ) दे. 'संशयात्मा'। कर्मन् (न.)। संशोधक, सं. पुं. (सं.) संशोधयित, प्रति, | संस्कृत, वि. (सं.) सं-परि,-शोधित, निर्मली,समाधात २. संस्कर्तृ, संस्कारक, ३. निस्तारक | कृत २. परिष्कृत, परिमार्जित, परिमृष्ट (ऋणादि)। ३.पाचित, सिद्ध, पक्व ४. कृतसंस्कार, संस्कार- . संशोधन, सं. पुं. ( सं. न.) पावनं, निर्मली- पूत । सं. स्त्री. ( सं. न.), देववाणी, सुरगिर् करणं २. दोषनिवारणं, त्रुटिनिष्कासनं, | (स्त्री.), आर्याणां भाषाविशेषः। संस्कारः, प्रति-,समाधानं ३. निस्तारणं | संस्कृति, सं. स्त्री. (सं.) सभ्यता, आचार( ऋणादि)। विचाराः (बहु.) २. संस्क्रिया, संस्कारः, --करना, क्रि, स., सं.-परि-शुध् (प्रे.), पू| शुद्धिः ( स्त्री.) ३. परिष्कारः। (क्र. उ. से.) २. दोषान् निवृ (प्रे.), संस्कृ | संस्था, सं. स्त्री. (सं.) मंडलं, दल, गणः ३. निस्तु (प्रे.)। २. सभा, समाजः, परिषद् (स्त्री.)। संशोधित, वि. (सं.) सुपूत, सम्यक् निर्मली. संस्थागार, सं. पुं. (सं. पुं. न.) सभाभवनम् कृत २. संस्कृत, परशोधित ३. निस्तारित। । २. संसद्भवनम् । संसर्ग, सं. पुं. (सं.) संपर्कः, संबंधः २. साह- | संस्थान, सं. पु. ( सं. न.) चतुष्पथः, चतुष्कं चय, संगतिः (स्त्री.) ३. संयोगः संमिलनं । २. आकृतिः (स्त्री.), आकारः ३. रचना ४. स४. सुपरिचयः, अभ्यंतरत्वम् । निवेशः ५. स्थितिः ( स्त्री.), दशा ६. नाशः संसार, सं. पुं. (सं.) सृष्टिः ( स्त्री.), भुवनं, । ७. मृत्युः ८. आयोजन, व्यवस्था (९-१०), विश्वं, जगत् (न.)-ती, चराचर, संसृतिः। दे. 'ढाँचा' तथा 'खाका' । (स्त्री.) २. पुनर्जन्मन् (न.), प्रेत्यभावः, | संस्थापक, सं. पुं. (सं.) प्रवर्तकः, प्रवर्तयित, ३. भू-मय-इह,-लोकः ४. प्रपंचः, जगज्जालं | आरंभकः, प्रतिष्ठापकः । ५. सततपरिवर्तनं ६. गार्हस्थ्यम् । संस्थापन, सं. पुं. (सं.) प्रवर्तनं, प्रारंभणं, -चक्र, सं. पुं. (सं. न. ) १-२, दे. 'संसार' | प्रतिष्ठापनं, प्रारंभः २. निर्माणं ३. दृढी(२, ४)३. दशापरिवर्तः-तनम्।। करणम् । संसारी, वि. ( सं.-रिन् ) लौकिक, सांसारिक | संस्थापित, वि. ( सं.) प्रवर्तित, प्रतिष्ठापित, २. ऐहिक, प्रापंचिक ३. व्यवहारकुशल | प्रारब्ध २. निर्मित ३. दृढीकृत । ४. अमुक्तात्मन् । सं. पुं. (सं.) प्राणिन् | संस्पृष्ट, वि. ( सं.) स्पृष्ट, छुप्त, परामृष्ट २. २. जीवात्मन् । संपृक्त, जातसंपर्क ३. संयुक्त, संवद्ध । संसृति, सं. स्त्री. (सं.) दे. 'संसार' (१.२)। संस्फुट, वि. (सं.) अपावृत, व्यावृत, उद्संसृष्ट, वि. (सं.) मिश्रित, संश्लिष्ट २. संबद्ध, | घटित २. विकसित, उन्निद्र, स्फुटित,उन्मीलित । संलग्न। | संस्मरण, सं. पु. ( सं. न.) संस्मृतिः ( स्त्री.), संसृष्टि, सं. स्त्री. (सं.) संमिश्रणं, संश्लेषः | सम्यक , स्मरणं-अनुचिंतनं अनुबोधनं २. स्मा२. संबंधः, संपर्क, ३. सुपरिचयः, सौहाई । रकं, स्मारकघटना ३. संस्कारजं ज्ञानम् । For Private And Personal Use Only Page #630 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir संहत [५१२ ] -- सखरा, सं. पु. दे'रसोई कच्ची' । संहत, वि. (सं.) धन, दृढ, निबिड, अनंतरं । से.) २. संकुच-संह ( कर्म.), मुद्रित-संकु२. संयुक्त, संबद्ध ३. संमिलित, संमिश्रित चित (वि.) भू। ४. आहत ५. संगृहीत । सकुचाना, क्रि. अ. ( सं. संकोचनं ) दे. 'सकु: संहति, सं. स्त्री. (सं.) संगतिः ( स्त्री.), चना' । क्रि. स., ब. 'सकुचना' के प्रे. रूप । संमिलनं २. राशिः, चयः ३. गणः, समूहः | सकुचीला, वि. (सं. संकोच:>) संकोचशील ४. घनत्वं, निबिटता ५. संधिः, संयोगः। दे. 'लज्जाशील' ।। संहार, सं. पुं. (सं.) हिंसा-सनं, हननं, हत्या, | सकूनत, सं. स्त्री. ( अ.) नि.,वासः, निकेतन वथः, घातः २. विनाश:-ध्वंस: ३. (मुक्ता- निवासस्थानम् । स्वस्य ) संहरणं-संकोचनं-संहतिः (स्त्री.), सकृत् , अव्य. (सं.) एकवारं २. सदा ४. संग्रहः, संकोचः५. संक्षेपः, सारः ६. समाप्ति: ३. सह । (स्त्री.), अंतः ७. प्रलयः, कल्पांतः। सकोड़ना, क्रि. स., दे. 'सिकोड़ना। -करना, क्रि. स., मृ-व्यापद्-निषूद् (प्रे.) | सकोरा, सं. पुं. (हिं. कसोरा, दे.)। २. विनश-ध्वंस् (प्रे.)। संहारक, सं. पुं. (सं.) संहर्तृ, नाशकः २. संग्र- | सखरी, सं. स्त्री. . हीत, संचेत। सखा, सं. पुं. (सं. सखि) मित्रं, सुहृद, २. सह, संहिता, सं. स्त्री. (सं.) संधिः, वर्णसंनिकर्षः । चारिन-चरः, संगिन् ३. नायकसहचरः ( व्या. ) २. संयोगः, मिलनं ३. धर्मसंहिता, | स्मृतिः (स्त्री.), इतिजीविका ४. वेदानां | सखावत, सं. स्त्री. ( अ.) वदान्यता २. औमंत्रभागः। दाय॑म् । सईयाँ, सं. पु. ( सं. स्वामिन् ) पतिः २. कांतः सखित्व, सं. पुं. (सं. न.) सख्यं, मैत्री। ३. ईश्वरः । सखी, सं. स्त्री. (सं.) सहचरी, आली-लि:, सइयाँ, सं. स्त्री. (हिं. सखियां ) दे. 'सखी'। (स्त्री.), वयस्या, आधीची संगिनी २. नायिकायाः सहचरी (सा.)। सकता, सं. पुं. (अ.-तः) सन्न्यासः, मूर्छा सखी, वि. (अ.) दानशील, वदान्य । (रोगभेदः) २. यतिः (स्त्री.), विरामः । सखुन, सं. पुं. (फा.) वार्तालापः, संवादः (छन्द.)। सकना, क्रि. अ. (सं. शकनं) शक (स्वा. प.| २. काव्यं , कविता ३. वचनम् ।। अ.), प्रभू (भ्वा. प. से.), क्षम-समर्थ (वि.)। -तकिया, सं..(फा.) दे. 'तकिया कलाम' भू। (यह क्रिया सदा दूसरी क्रियाओं के | -दा, सं. पु. ( फा.) काव्यमर्मज्ञः, रसिकः साथ ही प्रयुक्त होती है)। २. वाक्पटुः ३. कविः। -दानी, सं. स्त्री. (फा.) काव्यमर्म शता, रसि. सकपकाना, क्रि. अ. (अनु. सकपक) कता २. वाक्पाटवं ३. काव्यकला। विस्मि (भ्वा. आ. अ.), विस्मयाकुलीभू । -शनास, सं. पुं. (फा.) दे. 'सखुनदों'। २. अभिशंक (भ्वा. आ. से.), दोलायते -साज़, सं. पुं. (फा.) कविः २. दे. 'गप्पी' । ( ना. धा.) ३. लज्ज (तु. आ. से.), त्रप् सख्त, वि.(फा.) कीकस, कर्कर, कक्खट, धन, (भ्वा. आ. से.)। दृढसंधि, संहत २. दुष्कर, कठिन, दुस्साध्य, सकर्मक, वि. (सं.) कर्मविशिष्ट ( व्या.)। । निर्दय, निष्करुण ४. चंड, परुष, कठोर, दुस्मह सकल, वि. (सं.) दे. 'सब। ५. कुशील, दुष्प्रकृति ६. कृपण ७. अतिशय, सकाम, वि. (सं.) फलाभिलाषिन , कामना- अत्यधिक । क्रि. वि., परुपं, निर्द, तीव्रम् । विशिष्ट २. लब्धकाम, पूर्णमनोरथ ३. कामुक, -सुस्त कहना, (मु.) भर्ल्स (चु. आ: से.); कामिन् । आक्रुश ( भ्वा. प. अ.)। . सकारण, वि. (सं.) सहेतुक, कारणविशिष्ट । सख्ती, सं. स्त्री. (फा.) कक्खटता, कीकसता, सकुचना, क्रि. अ. (सं.संकोचनं ) क्रीड (दि. धनता २. दुष्करता ३. निर्दयता ४. चंडती प. से.), ही (जु. प. अ.), लज्ज (तु. आ. । ५. कुशीलता ६. आधिक्यं इ.। For Private And Personal Use Only Page #631 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सख्य [ ५९३] सजना E -से, क्रि. वि., चंडं, घोरं २. निर्दयम् । जंगम-जडचेतन-सजीवनिजींव,-पदार्थाः (पुं. -करना, मु., बलं प्रयुज् ( रु. आ. अ.), बहु०)। निर्दयं व्यवहृ ( भ्वा. प. अ.)। | सचल, वि. ( सं.) चल, चर, जंगम, गतिसख्य, सं. पुं. ( सं. न.) सौहार्द, साप्तपदीनं, शील २. चेतन, प्राणिन् । मित्रता, दे.। सचाई, सं. स्त्री. ( हिं. सच ) सत्यता, अवितसगंध, वि, (सं.) गंध-वास,-वत्-युक्त, सुवास, थता २. याथाये, वास्तविकता। गंधित, वासित २. सुगंधि, सुगन्धित, सुगन्ध- सचान, सं. पुं (सं. संचानः अथवा सचवत, सुवासित ३. समान-तुल्य, गंध ४. गर्वित।। मानः>?) श्येनः, पत्रिन्, शशादनः, दे. सग, सं. पुं. (फा.) श्वानः, कुक्करः। 'बाज'। सगण, वि. (सं.) सदल, ससैन्य। सं. पं. सचित, वि. (सं.) चिंता,-पर-मग्न, उद्विग्न, (सं.) शिवः २. छन्दःशास्त्रीयगणभेदः, | व्याकुल । अन्तगुरुगणः। सचिव, सं. पुं. (सं.) मित्रं, सखि (पुं.) सगबग, वि. ( अनु.) अति-क्लिन्न-आई, दे. २. मंत्रिन्, अमात्यः ३. सहायः-यकः । 'लथपथ' २. आद्रीं-द्रवी, भूत ३. परिपूर्ण। | सचेत, वि., दे. 'सचेतन'। सगर्व, वि. (सं.) गविंत, दृप्त। क्रि.वि., सगर्व / सचेतन, वि. (सं.) चेतनवत्, ससंज्ञ, चेतनोसाभिमानम् । पपन्न २. सावधान ३. चतुर । सगा, वि. (सं. स्वक> ) सोदर, सहोदर सचेष्ट, वि. (सं.) उद्योगिन्, उत्साहिन्, सोदर्य, सयोनि, सगर्भ २. स्वकुलज । सं. पुं., सोत्साह,सोद्योग, उत्साह-उद्योग,-शील २. चेष्टसकुल्यः, सगोत्रः, बंधुः।। मान, कर्मोद्युक्त। -भाई, सं. पु., सोदरः, सहोदरः, सगर्व्यः । सच्चा, वि. ( सं. सत्य ) सत्य-यथार्थ, भाषिन्सगापन, सं. पुं. (हिं. सगा) सोदरता, सग वादिन् २. सत्य, यथार्थ, वास्तविक ३. वि., र्भता २. संबंधनै कट्यम् । शुद्ध, पवित्र, स्वच्छ, मिश्रणशून्य ४. यथा योग्य, यथोचित् । सगाई, सं. स्त्री. ( हिं. सगा ) दे. 'मंगनी'। सच्चाई, सं. बी., दे. 'सचाई' । सगुण, वि. (सं.) गुणिन्, गुणान्वित । सं. पुं. सच्चिदानंद, सं. पुं. (सं.) नित्यज्ञानसुखस्व(सं.) साकारेश्वरः २. अवतारपूजक-भक्त रूपं ब्रह्मन् (न.), परमेश्वरः । संप्रदायः। सज, सं. स्त्री. (सं. सज्जा ) अलंक्रिया,परिक्रिया सगुन, सं. पुं., दे. 'शकुन'। | प्रसाधनं, मंडनं २. रूपं, आकृतिः (स्त्री.) सगोती, सं. पुं. (सं. सगोत्र ) एक-सम-गोत्रः | ३. शोभा, छविः ( स्त्री.)। २. बंधुः, शातिः ( स्त्री.)। -धज, बज, सं. स्त्री. ( हिं. अनु.) दे. 'सज' सगोत्र, वि. (सं.) संबंधिन्, सजाति, सजा (१.३)। ४. परिकल्पनं, सज्जा, सज्जनं-ना। तीय, एक-स,गोत्र । (सं. न.) कुलम् । सजग, वि. ( सं. स+हिं. जागना ) जागरूक, सघन, वि. (सं.) निबिड, सद्रि, धन, अनन्तर, अवहित, सावधान। गाढ २. स्थूल, संहत । सजन, सं. पु. ( सं. सज्जनः) आर्यः, भद्रः, सच, वि. (सं. सत्य ) यथार्थ, अवितथ, दे. सत्पुरुषः २. पतिः, भर्तृ ३. उपपतिः, जारः 'सत्य' । सं. पुं., सत्यं, तथ्य, अवितथम् । क्रि. | ४. दयितः, कांतः। वि., वस्तुतः, यथार्थतः (दोनों अव्य.)। सजनपद, वि. (सं.) एक-समान, देशज:-बोलना, क्रि. स., सत्यं वद् ( भ्वा. प. से.) | देशीयः-देशवासिन् । - (अ. उ.)। सजना, क्रि. अ. (सं. सज्जनं ) सज्ज (भ्वा. -मुच, क्रि. वि. ( हिं. अनु. ) तत्त्वतः, उ. से.) सज्ज-परिकल्पित सिद्ध (वि.) भू वस्तुतः, सत्यं, सत्यतः २.अवश्य, निःसंदेहम् ।। २. आत्मानं मंड-भूष (चु.) अलंक ३. राज सचराचर, सं. पुं (सं.) चराचर-स्थावर- शुभ (भ्वा, आ. से.)। For Private And Personal Use Only Page #632 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सजनी [ १९४] %3 अश्रुपूर्ण ( नेत्र)। सजनी, सं. स्त्री. (हिं. सजन ) सखी, सहचरी| त्वं, सुशीलता, सौजन्यं, सुजनता-त्वं २. कुली २. उपपत्नी, जारिणी, भुजिष्या ३. कांता, | नता, आभिजात्यम् । प्रिया, दयिता। सजित, वि. (सं.) अलंकृत, भूषित, मंडित, सजल, वि. (सं.) उत्त, उन्न, तिमित, आर्द्र, परिष्कृत २. सन्नद्ध, सिद्ध, सज्ज, उद्यत । क्लिन्न, जलयुत, सनीर २. सवाष्प, सास्त्र, २. सवाष्प, सान्त्र सज्जी, सं. स्त्री. (सं. सी) सर्जि: (स्त्री.), सर्जिका, स्वर्जिकः, स्वर्जिन् । सज़ा, सं. स्त्री. (फा. ) दे. 'दंड। सटक, सं. स्त्री. (अनु. सट ) मृदुयष्टि : (स्त्री.) -याफ्ता , वि. (सं.) दंडित, भुक्तदंड २. अप- | २. धूमपानयंत्रस्य नम्यनाली ३. निभृताराधशील, पुराणपातकिन् । पसारः। -वार, वि. (फा.) दंडनीय, दंड य । सटकना, क्रि. अ., निभृतं अपया ( अनु. सट) सजा गोल गोल माजय | (अ. प. अ.), शनैः अपस (भ्वा. प. अ.)। सटना, क्रि. अ. (सं. स+स्था>) लग सजातीय J२. तुल्य, सदृश । ( भ्वा. प. से.), संस्पृश् (तु. प. अ.), सजाना, क्रि. स. (हिं. सजना) सज्जीकृ, लग्न-संस्पृष्ट-संन्निहित (वि.) भू २. श्लिष सज्ज-परिक्लुप् , (प्रे.) २. व्यवस्था (प्रे.), (दि. प. अ.) संज् (भ्वा. प. अ.)। क्रमशः निविश् (प्रे.) ३. मंड-भूष (चु.), स . , सटपटाना, क्रि. अ. ( अनु.) सटपटायते (ना. अलंकृ । दे. 'संवारना'। धा.), सटपटध्वनिः जन् (दि. आ. से.) सजावट, सं. स्त्री. (हिं. सजाना ) दे. 'सज' २. अशांत-पर्याकुल-चंचल (वि.) भू. दे, (२) २. शोभा, श्रीः (स्त्री.) ३. दे. 'सज- 'व्याकुल होना'। धज' (४)। सटपटाया हुआ, वि., संक्षुब्ध, संमूढ, अशांत, सजावल, सं. पुं. (तु. सजावुल ) *शुल्कलः, __ व्याकुल, संभ्रांत, अस्वस्थ । करसंग्राहकः २. राजकर्मचारिन् ३. दे. सटरपटर, वि. ( अनु.) क्षुद्र, तुच्छ, साधारण । 'सिपाही। सं. स्त्री., व्यर्थकार्य २. दुष्करकृत्यम् । सजा हुआ, वि., सज्ज, सिद्ध, संनद्ध २. भूषित 'सटाना, कि. स., ब. 'सटना' के प्रे. रूप । ३. शोभमान। सटा हुआ, (वि.), लग्न, संस्पृष्ट , संनिहित, सजीला, वि. ( हिं सजना ) सुवेशमानिन्, । २. सक्त, श्लिष्ट । वेशाभिमानिन्, अलंकृत २. छविमत, सटीक, वि. (सं.) सभाष्य, व्याख्यान्वित । मनोहर। सट्टा, सं. पुं. ( सं. सार्थ> ) समयलेखः, दे. सजीव, वि. (सं.) प्राणिन्, प्राणधारिन्, । 'इकरारनामा' २. संदिग्धफलव्यवहारः, खेला। चेतन, चैतन्यवत् २. क्षिप्र, लघु ३. ओज- सट्टा-बट्टा, सं. पुं. (हिं. सटना+अनु.) स्विन् । उपजापः,कूट:-टं, कूट, युक्तिः-उपायः २.संसर्गः, सजीवता, सं. स्त्री. (सं.) प्राणवत्ता, चैतन्यं | २. लाघवं, क्षिप्रता ३. ओजस्विता। सठियाना, क्रि. अ. (हिं. साठ ) षष्टिवर्ष सजीवन, सं. पुं., दे. 'संजीवनी', सं. स्त्री.।। (वि.) भू २. ज्या ( क्. प. अ.), ज (दि. १,२ । क्रू. प. से.) ३. वार्धक्येन बुद्धिः क्षि ( कर्म. ) -बूटी, सं. स्त्री. रुद्रवती (?)। -नश् (दि. प. से.)। -मूर, मूल, सं. पुं. 'संजीवनी बूटी' । | सठियाया हुआ, वि., षष्टिवर्ष २. जरठ, स्थसजन, सं. पुं. (सं.) आर्यः, भद्रः, सत्पुरुषः, | विर २. जरया मंदमति-नष्टबुद्धि । सु-साधु, जनः, महानुभावः, महाशयः २. कु- सड़क, सं. स्त्री. (अ. शरक) अध्वन्, पथिन्, लीनः, अभिजातः । वि., भद्र, सद्वृत्त २. महा- राज श्री,-पथः, मार्ग, दे । कुल, कुलीन। सड़न, सं. स्त्री, (हिं. सड़ना ) गलनं, विद्रसजनता, सं. स्त्री. (सं.) भद्रता-त्वं, आर्यता- वणं, विलयनम्, क्षरणम् । मेल:। For Private And Personal Use Only Page #633 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सड़ना [१५] सती सड़ना, क्रि. अ. (सं. शरणं>) विश (कर्म.), / सतरह, वि. (सं. सप्तदशन् ) सं. पुं., उक्ता ज़ (दि. प. से.), विगल ( भ्वा. प. से.) | संख्या तद्बोधको अंकौ (१७) च । २. पूय् (भ्वा. आ. से.), पूतीभू ३. फेनायते सतरहवा, वि. (हिं. सतरह ) सप्तदशः शो. (ना. धा.), उत्सिच् (कर्म.), अंतः क्षुभ् (दि. शं ( पुं. स्त्री. न.)। प. से.) ( खमीर आना.) ४. दुर्गत (वि.) | सतर्क, वि. ( सं.) सहेतुक, संयुक्तिक, उप. स्था ( भ्वा. प. अ.), अवसद् (भ्वा. प. अ.)। पत्तिमत् २. प्रमादरहित, जागरूक, सावधान। सं. पुं., जीणिः (स्त्री.), विगलनं, पूयनं, पूतिः सतर्कता, सं. स्त्री. (सं.) जागरूकता, साव( स्त्री. ), अवसादः, दुर्गतिः (स्त्री.); अभिषवः, । धानता। अंतःक्षोभः। सतलज, सं. स्त्री., दे. 'शतद्र'। सड़सठ, सं. पुं. तथा वि., दे. 'सतसठ'। सतलड़ा, सं. पुं. (हिं. सात+लड़) सप्तसड़ाक, सं. स्त्री. ( अनु. सड़) त्वरा २. कशा- | सूत्रो हारः २. सप्तगुणा माला । वि., सप्त,-सूत्रशब्दः । गुण-शुल्व। सड़ायँध, सं. स्त्री. (हिं. सडना+गंध सतवंती, वि. स्त्री. ( सं. सत्यवती> ) सुचदुर्गंध, पूतिः ( स्त्री.), पूतिगंध: । रित्रा, पतिव्रता, पतिपरायणा, सती, साध्वी । सड़ा हुआ, वि., जीर्ण, विशीर्ण, दूषित, विग- | सतसई, । सं. स्त्री. (सं. सप्तशती-तिका ) लित, पूति, पूतिगंध, पूतिक, उत्सिक्त, सफेन, | सतसैया, शतसप्तकपद्यात्मकः संग्रहः २. श्रीदुर्गत, अवसन्न । बिहारीलालरचितो हिंदीभाषायाः काव्यसड़ियल, वि. (हिं. सड़ना) पूति, पूतिगंध, विशेषः। कलुष २. जीर्ण, शीर्ण ३. क्षुद्र, तुच्छ ४. नि | सतसठ, वि. [ सं. सप्तषष्टिः (नित्य स्त्री.]) सं. रर्थक, व्यर्थ । पुं., उक्ता संख्या तद्बोधकांकौ (६७) च । सत् , सं. पु. ( सं.) ऋषिः २. सज्जनः। (सं. सतह, सं. स्त्री. ( अ.) तलं, पृष्ठं, उपरि-पृष्ठ, भागः। न.) ब्रह्मन् (न.) २. भद्रभू । वि. (सं.) सत्य, यथार्थ २. साधु, श्रेष्ठ ३. धीर ४.शाश्वत, सतहत्तर, वि. [ सं. सप्तसप्ततिः (नित्य स्त्री.)] नित्य ५. प्राज्ञ, पंडित, ६. पूज्य ७. पवित्र सं. पुं., उक्ता संख्या तद्बोधकांकी (७७) च। ४. उत्तम, उत्कृष्ट। सत्कर्म आदि, दे. आगे। सताना, क्रि. स. ( सं. संतापनं ) सं.-परि-तप् सत', सं. पुं. (सं. सत्त्वं) तत्त्वं, सारः २.निष्क (प्रे.), पीड (चु.), दुःखयति ( ना.धा.), घः, भावः ३. ऊर्जस् ( न.), सामथ्र्यम् ।। क्लिश् (क. प. से.) २. खिद्-आयस् उद्विज सत', वि. (सं. सप्तन् ) दे. 'सात'। (प्रे.)। सं. पुं., सं-परि,-तापनं, पीडनं, -मंजिला, वि. (हिं.+अ.) सप्त, भूमिक क्लेशनं, अर्दनं,आयासनं, उद्वेजनं, बाधनंइ.। सताने योग्य, वि., संताप्य, पीडनीय, उद्वेभौम ( महल आदि)। जनीय। -मासा, सं. पुं., सप्तमास्यः (शिशुः) २. रीति- सताने वाला, सं. पुं., सं-परि, तापकः-पीडकः, विशेषः, *साप्तमासिकम् । क्लेश-दुःख,-करः-आवहः, आयासकः,खेदकरः। -रंगा, वि., सप्त-वर्ण-रंग। सताया हुआ, वि., पीडित, संतापित, आयासित सतगुरु, सं. पु. ( सं. सत्+गुरुः) सद्गुरुः, | उद्वेजित, बाधित, इ. । सच्छिक्षकः २. परमेश्वरः। सतालू, सं. पुं., दे. 'शफ़तालू'। सतजुग, सं. पुं., दे. 'सत्ययुग' । सतावर, सं. स्त्री. (सं. शतावरी) शतमूली, सतत, अव्य. ( सं. सततं) निरन्तरं, सदा, | नारायणी, वरी, बहुसुता। सर्वदा, नित्यम् । सतासी, वि. [ सं. सप्ताशीतिः (नित्य स्त्री.)] -गति, सं. पु. ( सं.) पवनः, वायुः। सं. पुं., उक्ता संख्या तद्बोधकांकौ (८७) च) -ज्वर, सं. पुं. (सं.) स्यायि-स्थास्नु-नित्य- | सती, वि. स्त्री. (सं.) दे. 'सतवंती' । सं. स्त्री. जीर्ण,-ज्वर-तापः। (सं.) पतिव्रता नारी २. मृतभा सह दग्धा सतर, सं. स्त्री. (अ.) रेखा २. पंक्तिः (स्त्री.)।। नारी, सह,-गामिनी-मृता ३. दक्षकन्या। For Private And Personal Use Only Page #634 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सतीत्व सत्य --चौरा, सं. पु. ( सं.+हिं.) *सतीवेदिका। सत्ताईसवाँ, वि. (हिं. सत्ताईस ) सप्तविंशति-पुत्र, सं. पुं. (सं.) पतिव्रता-साध्वी,-पुत्र:- तमः-तमी-तम, सप्तविंश:-शी-शं (पुं. सी. न.)। तनयः। सत्तानवे, वि. [सं. सप्तनवतिः ( नित्य स्त्री.)] -व्रत, सं. पुं. (सं. न.), पातिव्रत-त्यम्, सं. पुं., उक्ता संख्या तद्बोधकांकौ(९७)च । सतीत्वम् । सत्तावन, वि. [ सं. सप्तपंचाशत् (नित्य स्त्री.)] -व्रता, सं. स्त्री. (सं.) पतिव्रता नारी। सं. पुं., उक्ता संख्या तद्बोधकांको (५७) च। -होना, मु., मृतभा सार्द्ध दह ( कर्म.)- सत्तासी, वि. [ सं. सप्ताशीतिः (नित्य स्त्री.)]] भस्मीभू। सं. पुं., उक्ता संख्या तद्बोधकांकौ (८७) च । सतीत्व, सं. पुं. (सं. न.) पातिव्रत्यं, साध्वीत्वं। सत्तू , सं. पुं. [ सं. सक्तु ( केवल पुं. बहु. में -बिगाड़ना या नष्ट करना, मु., सतीत्वं नश् । सक्तवः)] सक्तकः, शक्त (पुं. न.), भृष्टयव(प्रे.), बलात्कारेण गम् (भ्वा. आ. अ.)-अभि- चूर्णम् । गम् ( भ्वा. प. अ.), पातिव्रत्यं दुष (प्रे.)। सत्त्व, सं. पु. (सं.न.) प्रकृतेगुणविशेषः २.सत्ता, -हरण, सं. पुं. ( सं. न.) बलात्कारः, हठ- अस्तित्वं, भावः ३. सारः, तत्त्वं, मूलद्रव्यं संभोगः, बलान्मैथुनम् । ४. विशेषता, अंतःप्रकृतिः (स्त्री.) ५. चित्तसतीर्थ, सं. पुं. (सं.) सतीर्थ्यः, एकगुरुः। प्रवृत्तिः (स्त्री.) ६. चेतना, चैतन्यं ७. प्राणः सतून, सं. पुं. (फा.) स्थूणा, स्तंभः । ८. आत्मन् ९. प्राणिन् १०. गर्भः ११. प्रेतः, सतोगुण, सं. पुं., दे. 'सत्त्वगुण' ।। भूतः १२. शक्तिः (स्त्री.), वीयम् । सतोगुणी, वि. (हिं. सतोगुण) दे. 'सत्त्व -गुण, सं. पुं. (सं.) सत्कर्मसु प्रवर्तको गुणः, गुणी'। विवेकशीलप्रकृतिः ( स्त्री.)। सत्कर्म, सं. पुं. (सं.-मन (न. ) शुभ-सु-पुण्य,--गुणी, वि. (सं.) सात्विक, उत्तमप्रकृति, कार्य-कृत्यं कृतिः(स्त्री.)-क्रिया-कर्मन्, पुण्यम् । । विवेकशील। सत्कार, सं. पुं. (सं.) आदरः, संमानः, पूजा सत्पथ, सं. पुं. (सं.) सु-सन मार्गः २. सद्, २. आतिथ्य, अतिथिसेवा। वृत्तं-आचारः ३.सु,-संप्रदाय:-सिद्धांतः । सत्कार्य, सं. पुं. ( सं. न.) दे. 'सत्कर्म'। वि., सत्पात्र, सं. पुं. (सं.न.) सुपात्रं, दाना) जनः पूज्य, मान्य, आदरणीय । २. आर्यः, भद्रजनः ३. सु,-वरः-वोढ़ । सत्कृत, वि. (सं.) आदृत, संमानित, पूजित। सत्पुरुष, सं. पुं. (सं.) आर्यः, सद्वृत्ती सत्त, सं. पुं.. दे. 'सत"। मानवः, भद्रः। -सत्तम, वि. (सं.)-उत्तम,-श्रेष्ठ। सत्य, सं. पुं. (सं. न. ) तथ्यं, ऋ, तत्त्वं, सत्तर, वि. [सं.सप्ततिः (नित्य स्त्री.)] उक्ता | यथार्थ, अवितथं, भूत-परम-तत्त्व,-अर्थ: संख्या तद्बोधकांकौ (७०) च । २. शपथः ३. प्रतिज्ञा ४. कृतयुगम् । वि., तथ्य, सत्तरवाँ, वि. (हिं. सत्तर ) सप्ततितमः-तमी- अवितथ, वास्तविक, यथार्थ, ऋतु २. अकृत्रिम, तमं (पुं. स्त्री. न.)। अकृतक। सत्तरह, वि., तथा सं. पुं., दे. 'सतरह'।। -काम, वि. (सं.) सत्य,-प्रिय-अभिलाषिन् । सत्ता, सं. स्त्री. (सं.) सत्त्वं, अस्तित्वं, भावः, -नारायण, सं. पुं. (सं.) देवताविशेषः विद्यमानता २. शक्तिः ( स्त्री.), सामर्थ्य | ( = सत्यपीर हिं.)। ३. प्रभुत्वं, अधिकारः।। -प्रतिज्ञ, वि. (सं.) सत्य, व्रत-संगर संध-धारी, सं. पु. ( सं.-रिन्> ) अधिकारिन्, अभिसंध आधिकारिकः। -युग, सं. पुं. (सं. न. ) चतुर्युगेषु प्रथमयुगं, सत्तार, (सं. सप्तन्>) सप्तचिह्नांकितं क्रीडापत्रं, | कृतयुगं ( = १७२८००० वर्ष )। *सप्तकः । -युगी, वि. (सं. सत्ययुगं>) सत्ययुगसंबंधिन् सत्ताईस, वि. [सं. सप्तविंशतिः (नित्य स्त्री.)] | २. अति,-पुराण-प्राचीन ३. धर्मात्मन्, सद्सं. पुं., उक्ता संख्या तबोधकांको (२७) च ।। वृत्त, सरल । For Private And Personal Use Only Page #635 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सत्यतः [११७ सदाचार -लोक, सं. पुं. (सं.) सप्तलोकांतर्गत उच्चतमो । २. सोमयागभेदः ३. भवनं, समन् (न.), लोकः, ब्रह्मलोकः। । ४. धनं ५. दे. 'सदावर्त' । -वचन, सं. पुं. (सं. न.) सत्य-यथार्थ, कथनं- | सत्रह, वि. तथा सं. पुं., दे. 'सतरह' । भाषणं २. प्रतिज्ञा। सत्वर, अव्य. (सं.-रं) शीघ्रं, दे। -वादी, वि. ( सं.-दिन् ) तथ्य-सत्य,-भाषिन्, सत्संग, सं. पुं. (सं.) आर्य-सत्,-संगतिः (स्त्री.)यथार्थवक्त २. दे. 'सत्यप्रतिज्ञ' । समागमः-संसर्गः-संवासः-साहचर्यम् । -व्रत, सं. पुं. (सं. न.) सत्यभाषणप्रतिज्ञा । सत्संगी, वि. ( सं.गिन् ) सज्जनसहचर (-री वि., सत्य, वादिन-प्रतिज्ञ-सन्ध । स्त्री.) २. धार्मिक (-की स्त्री.)। -संकल्प, वि. ( सं.) दृढसंकल्प । | सथिया, सं. पुं. (सं. स्वस्तिकः ) मांगलिक-संध, वि. ( सं.) दे. 'सत्यप्रतिज्ञ' । सं. पुं. चिह्नविशेषः २. दे. 'जर्राह'। (सं.) श्रीरामः २. भरतः ३. जनमेजयः। | सदका, सं. पुं. (अ.-कह ) दानं, बलिः, उपहारः, सत्यतः, अव्य. (सं.) वस्तुतः, सत्यम् । दे. 'निछावर'। सत्यता, सं. स्त्री. (सं.) वास्तविकता, याथार्थ्य | सदन, सं. पु. ( सं. न.) भवनं, गृहं, दे. 'घर' २. जलम् । २. नित्यत्वम् । सत्यभामा, सं. स्त्री. (सं.) सत्राजित्पुत्री, जानी | सदमा, सं. पुं. (अ. सद्मह ) आघातः, प्रहारः श्रीकृष्णपत्नीविशेषः। २. दुःखं, शोकः ३. अत्याहितं, विपद् (स्त्री.) ४. महा, क्षतिः-हानिः ( दोनों स्त्री.)। सत्यवती, वि. स्त्री. (सं.) सत्य, भाषिणी -पहुँचना, क्रि. अ., आहन् ( कर्म.), शोकेन वादिनी २. धार्मिकी। सं. स्त्री. (सं.) व्यास विपदा वा ग्रस् ( कर्म.)। जननी, योजन-मत्स्य, गंधा,गंध-,काली । सदय, वि. (सं.) दयान्वित, दयालु, दे.। -सुत, सं. . (सं.) व्यासः, द्वैपायनः।। सदर, वि. ( अ.) प्रधान, मुख्य, विशिष्ट । सं. सत्यवान् , वि. (सं.-वत ) दे. 'सत्यवादी' पु., केंद्रस्थलं २. राजधानी ३. सैन्यनिवेशः, (१-२)। दे. 'छावनी' ४. सभा,-पतिः-अध्यक्षः।। सं. पुं., सावित्रीपतिः, नृपविशेषः । -नशीन, सं. पुं. (अ.+फा.) दे. 'सदर'(४)। सत्या, सं. स्त्री. (सं.) सत्यता, दे.। २. सीता | -बाजार.सं. पं. (अ.+फा.) प्रधानापण: ३. द्रौपदी ४. दे. 'सत्यवती' सं. स्त्री. ५.दुर्गा । | २. सैन्यापणः। सत्याकृति, सं. स्त्री. (सं.) सत्यापनं, सत्यं-|-बोर्ड. सं.पं. (अ.+अं जस्वपरिषद कारः, अग्राघः, दे. 'पेशगी। -मुकाम, सं. पुं. (अ.) मुख्यकार्यालयः। सत्याग्रह, सं. पुं. (सं.) निःशस्त्र-अहिंसात्मक, सदरी, सं. स्त्री. (अ.) दे. 'वास्कट'। विरोधः-प्रतिकारः २. तथ्यनिर्बधः । सदस्य, सं. पुं. (सं.) दे. 'सभासद्'। -आंदोलन, सं. पु. ( सं. न.) निःशस्त्र- | सदा, अव्य. (सं.) नित्यं, सर्वदा, अनिशं, विरोधांदोलनम् । सततं, सर्वकालं २. निरन्तरं, अनवच्छिन्नं, सत्याग्रही, सं. पुं. (सं.-हिन् ) अहिंसात्मक- | अविरतम् । विरोधिन् २. तथ्याभिनिवेशिन्। -गति, सं. पुं. (सं.) वायुः। सत्यानास, सं. पुं. (सं. सत्तानाशः> ) वि-|-बहार, वि. (सं.+फा.) *सदावसंत, नित्यध्वंस:-नाशः, सर्वनाशः। हरित, शश्वत्पत्र । -करना, क्रि. स., वि-नश-ध्वंस् (प्र.), समूलं | -वर्ते, सं.पुं.(सं.-व्रतं>) नैत्यिकभोजन, दानउच्छिद् (रु. प. अ.)। वितरण-उत्सर्गः, *सदाव्रतं २: नैत्यिकदानम् । सत्यानासी, वि. (हिं. सत्यानास ) सर्व-वि,---सुस्त्री, वि. ( सं.-खिन् ) सर्वदानंद । नाशक-ध्वंसक २. मंद-हत, भाग्य । -सुहागिन, वि. स्त्री. (सं+हिं.) नित्यसत्यानृत, सं. पुं. (सं. न.) वाणिज्यं २. सत्या- | सौभाग्यवती, अमरपतिका २. वेश्या। सत्यमिश्रणम् । सदाचार, सं. पुं. (सं.) सच्चर्या, सदाचरणं, सत्र, सं. पुं. (सं. न.) यशः, भागः, मखः | सच्चारित्र्यं, सद्वृत्तं-त्तिः (स्त्री.), सच्चरितं. सहः For Private And Personal Use Only Page #636 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सदाचारी [ ५६८ ] सनातन व्यवहारः २. शिष्टता, सौजन्यं, भद्रता ३.रीतिः । सधा हुआ, वि., विनीत, दांत, शिक्षित,वशग। (स्त्री.), प्रथा । सन् , सं. पुं. (अ.) दे. 'संवत्' (१,३)। सदाचारी, सं. पुं. (सं.-रिन् ) सवृत्त, सुच- |-ईसवी, सं. पुं., खिस्त, शाकः-संवत् (अव्य.)। रित-सच्चरित्र २. धर्मात्मन् , पुण्यात्मन् | -हिजरी, सं. पुं., यवन,-शाकः-संवत् । [सदाचारिणी-सद्वृत्ता आदि ( स्त्री.)]। सन', सं. पुं. (सं. शणः) दीर्घ, शाख:-पल्लवः, सदानन्द, वि. (सं.) आनन्दशील, नित्यानंद । | त्वकसारः, वमनः। सं. पुं. (सं.) परमेश्वरः। सनर, सं. स्त्री. ( अनु.) सणिति, सणत्कारः, सदार, वि. ( सं.) सपत्नीक, जायान्वित ।। शीघ्रनिर्गमनध्वनिः । वि., स्तब्ध २. निःशब्द । सदारत, सं. स्त्री. (अ.) सभा,-पतित्वं- -से, क्रि. वि., ससणत्कारम् । अध्यक्षता। सनई, सं. स्त्री. ( हिं. सन ) क्षुद्रशणः । सदाश्रित, वि. (सं.) परावलंबशील, पराव- | सनक, सं. स्त्री. (सं. शंका>) दृढालंबिन्। ग्रहः, उत्कटाभिनिवेशः, चित्तलहरी, छन्दः सदी, सं. स्त्री. (अ.) शताब्दी, शती २. शतम् । ३. उन्मादः, चित्तभ्रमः। सदुपदेश, सं. पुं. (सं.) सच्छिक्षा २. सन्म- | सनकना, क्रि. अ. (हिं. सनक ) उन्मद् श्रणा। (दि. प. से.), व्यामुह (दि. प.वे.)। सदृश, वि. (सं.) सरूप, तुल्याकार २. सम, | सनकी, वि. (हिं. सनक ) उत्कटाभिनिवेशिन, समान, तुल्य, सदृक्ष ३. योग्य, उचित । | दृढाग्रहिन् । सदृशता, सं. स्त्री. (सं.) समानता, तुल्यता। | सनद, सं. स्त्री. (अ.) प्रमाणपत्र २. प्रमाणम् । सदेह, क्रि.वि. ( सं. न.) सशरीरं, सकायम् ।। |-याफ्ता , वि. (अ.+फा.) प्रमाणपत्रधारिन् । सदैव, अव्य. (सं.) सर्वदैव, नित्यमेव ।। | सनना, क्रि. अ. (सं. संधानं> ) ब. 'सानना' सदोष, वि. (सं.) सापराध, अपराधिन्, | के कर्म. के रूप। दोषिन्, त्रुटि-दोष,युक्त। सनम, सं. पुं. (अं.) प्रियतमः, दयितः, वल्लभः । सद्गति, सं. स्त्री. (सं.) मोक्षः, मुक्तिः ( स्त्री.)| सनमान, सं. पुं., दे. 'संमान'। २. सुदशा, सुगतिः ( स्त्री.) ३. सदाचारः। | सनसनाना, क्रि. अ. (अनु. सनसन) सद्गुण, सं. पुं. (सं.) सु-गुणः, सल्लक्षणम्।। सणसणायते ( ना. धा.) २. ससणसणशब्दं सद्भाव, सं. पुं. (सं.) हित-शुभ, चिंता, । वा (अ. प. अ.)। हितैषणा-पिता २. सख्यं ३. निष्कपटता, सर- | सनसनाहट, सं. स्त्री. (हिं. सनसनाना) लता, ऋजुता ४. सत्ता, अस्तित्वम् । पवनवहनध्वनिः, वातगतिशब्दः २. (शरा. सधना, क्रि. अ. (हिं. साधना) विनी (कर्म.), | दीनां) सणसणायितं, सणसणत्कारः ३. दे. वशीभू , दम् (दि. प. से.) २. अभ्यस्त 'सनसनी'। (वि.) भू। सनसनी, सं. स्त्री. ( अतु. सनसन ) संवेदनसधर्मिणी, सं. स्त्री. ( सं.) धर्मपत्नी २. तुल्य- | नाडीनां स्पंदनभेदः, सणसणत्कृतिः (स्त्री.) मतावलंबिनी। २. स्तब्धता ३. संक्षोभः, उद्वेग: ४. नीरवता । सधर्मी, वि. (सं.-मिन्) सधर्मन्, सधर्म, समान- -खेज़, वि. ( अनु.+फ्रा.) संक्षोभजनक, धर्मानुयायिन् २. तुल्यगुण । उद्वेगकर। सधवा, सं. स्त्री. (सं.) सिन्दूरतिलका, सभ- | सनस्ट्रोक, सं. पु. ( अं.) अंशुधातः । र्तृका, सनाथा, पतिवत्नी, जीवत्पतिका, सौभा. सनातन, वि. (सं.) अति, पुराण-प्राचीनग्यवती। पुरातन २. क्रमागत, परंपरालब्ध ३. नित्य, सधाना, क्रि. स. (हिं. सधना) विनी ( भ्वा | शाश्वत [ सनातनी ( स्त्री. )] । सं. पुं., प. अ.), दम् (प्रे.), शिक्ष (प्रे.), वशी कृ।। प्राचीनकालः २. पुरातनी परंपरा ३. विष्णुः सं. पुं., विनयनं, दमनं, वशे करणम् । ४. ब्रह्मन् ५. शिवः । सधानेवाला, सं. पुं., विनेतृ, दयित। -धर्म, सं. पुं. (सं.) प्राचीन-पुरातन-धर्मः For Private And Personal Use Only Page #637 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सनातनी ( 8 ) सप्त २. परंपरागतो धर्मः ३. प्रतिमापूजनमृतक- सपत्नीक, वि. (सं.) सकलन, सपरिग्रह । श्राद्धादिविश्वासी हिंदूधर्मशाखाविशेषः, पौरा- | सपना, सं. पु., दे. 'स्वप्न' । णिकधर्मः। |-होना, मु., दुर्दश्य-दुर्लभ (वि.) भू। -धर्मी, सं. पुं. ( सं.-मिन् ) सनातनधर्मा- सपरदाई, सं. पुं. (सं. संप्रदायिन्>) दे. नुयायिन्, पुराणमतावलंबिन् । | 'साजिंदा'। -पुरुष, सं. पुं. (सं.) विष्णुः । सपर्या, सं. स्त्री. (सं.) पूजा-जनं, आराधनासनातनी, सं. पुं. (सं. सनातन) दे. 'सना- नम् । तनधर्मी' । वि., पुरातन, परंपरालब्ध। सपाट, वि. (सं.) सम, समरेख, समस्थ, सनाथ, वि. ( सं.) मातृपितृमत् २. सपतिक, | समतल । सभर्तृक, संरक्षकयुत, सहायवत् [ सनाथा | सपाटा, सं. पुं. (सं. सर्पणं>) चलनधाव(स्त्री.) जीवद्भर्तृका]। नोड्डयनादीनां ) जवः, वेगः, रयः २. त्वरितसनाभि, सं. पु. (सं.) सोदरः, सहोदरः | गतिः (स्त्री.), धावनम् । २. सपिंडः, सगोत्रः, सनाभ्यः । सैर---, सं. पुं., परिभ्रमण पर्यटन, विहरणम् । सनाय, सं. स्त्री. ( अ. सनाऽ ) स्वर्णपत्री-त्रिका, सपिंड, सं. पुं. (सं.) सनाभिः, सप्तपुरुषांतरेचनी, कल्याणी, मलहारिणी। गतज्ञातिः (पुं.), सगोत्रः, सवंशीयः, बंधुः । सनाह, सं. पुं. (सं. सनाहः ) तनुत्राणं, कवचः- | सपूत, सं. पुं. (सं. सुपुत्रः) सत्पुत्रः, सुतनयः । सपेरा, सं. पुं., दे. 'सँपेरा'। सनिद्र, वि. ( सं.) निद्रित, निद्राण, शयित, सपो(पे)ला, सं. पुं., 'सँपोला' । सुप्त, शयान। सप्त, वि. (सं. सप्तन ) सं. पं., उक्ता संख्या सनीचर, सं. पुं., दे. 'शनैश्चर' । तद्बोधकोऽकश्च (७)। सनीड, वि. (सं.) सकुलाय, सम-एक, नीड. -ऋषि, सं. पुं. [सं. सप्तर्षयः (बहु.) वासिन् २. सम्बन्धिन्, सम्बन्धकः, सम्पकिन् । =मरीचिः, अत्रिः, अंगिरस , पुलस्त्यः, पुलहः, सं. पुं., सामीप्यं, नैकट्यम् २. प्रातिवेश्यम्, क्रतुः, वसिष्ठः, अथवा गौतमः, भरद्वाजः, प्रतिवेशः। विश्वामित्रः, जमदग्निः, वसिष्ठः, कश्यपः ] । सनोबर, सं. पु. (अ.) द. 'चौड़' (वृक्ष )। -जिह्व, सं. पुं. (सं.) सप्तज्वालः, अग्निः । सन्न, वि. (सं. शून्य ) चकितचकित, अति- | -धातु, सं. पुं. [सं. सप्तधातवः ( बहु.) विस्मित २. स्तब्ध, जड़ीभूत, व्यामोहित = रसास्रमांसमेदोऽस्थिमज्जानः शुक्रसंयुताः।] ३.निःसंज्ञ, अचेतन ४.ससाध्वस, भयाभिभूत। -पदी. सं. स्त्री. (सं.) विवाहांगसप्तपदी. संनद्ध, वि. (सं.) बद्धकवच, धृतसंनाह गमनम् । २. सायुध, सशस्त्र ३. सज्ज, सिद्ध, उद्यत, शस्त्र ३. सज्ज, सिद्ध, उद्यत, | -पाताल, सं. पुं. (सं. न.) सप्तसंख्याकाधोउपक्लुप्त ४. संबद्ध, संलग्न । भुवनं ( = अतलं, वितलं, सुतलं, रसातलं, सन्नाटा, सं. पुं. (हिं. सुन्न ) निःशब्दता, नीर- तलातलं, महातलं, पातालम् )। वता २. निर्जनता, विजनता, विविक्तं ३. भय- -पुरी, सं. स्त्री. ( सं.) सप्तपुण्यनगराणि विस्मयादिजनिता निःस्तब्धता। वि., नीरव (न. ब.) ( = अयोध्या, मथुरा, माया ( हरि२. निर्जन। द्वारं) काशी, काँची, अवंतिका, ( उज्जयिनी), सन्मान, सं. पुं., दे. 'संमान'। द्वारका)। सन्मुख, अव्य., दे. 'संमुख' । -प्रकृति, सं. स्त्री. ( सं.-प्रकृतयः ( स्त्री. बहु.) सन्यास, सं. पु., दे. 'संन्यास' । राज्यस्य सप्तांगानि ( बहु.) ( नृपः, मंत्रिन्, सपक्ष, सं. . (सं.) स्वपक्ष,-पातिन्-अवलंबिन, सामंतः, देशः, कोशः, दुर्ग, सेना)। सहायकः, मित्रम् । --भुवन, सं. पुं. (सं. न.) सप्तोर्ध्वलोकाः (पुं. सपत्नी सं. स्त्री. (सं.) समानपतिका, समान- | बहु.) भूर्भुवः स्वर्महश्चैव जनश्च तप एव च भर्तृका। सत्यलोकश्च )। For Private And Personal Use Only Page #638 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सप्तक [ ६०० सबै -सप्ति, सं. पुं. (सं.) सूर्यः, सप्ताश्वः । स्करापसारण ४. निष्कपटता, आर्जवं ५. चित्तसप्तक, सं. पुं. (सं. न.) सप्तवस्तुसमूहः मानस, शुद्धिः (स्त्री.) ६. निर्दोषिता २. सप्तस्वरसमूहः ( संगीत )। ७. ऋणशोधनं ८. निर्णयः। सप्तमी, सं. स्त्री. (सं.) शुक्लकृष्णपक्षयोः -देना, मु., स्वनिर्दोषितां प्रमाणीक, आरोपिता. सप्तमतिथि: ( पुं. स्त्री.)। २. अधिकरणकार- पराधं निरस् (दि. प. से.)। कस्य विभक्तिः (स्त्री.)। सफीना, सं. पुं. (अ.) पुस्तकं २. दे. 'संमन'। सप्तर्षि, सं. पुं. [सं. सप्तर्षयः ( बहु.) ) दे. सफ्रीर, सं. स्त्री. ( अ.) राजदूतः। 'सप्तऋषि'। सफद, वि. ( फा. सुफ़ैद ) श्वेत, धवल, श्येत, सप्ताश्व, सं. पुं. (सं.) सूर्यः, भानुः, रविः, श्येन, शुक्र, सित, शुक्ल, शुभ्र, गौर (री अर्कः। स्त्री.) २. अंक-चिह-लेख, रहित (पत्रादि)। सप्ताह, सं. पुं. (सं.) सप्तदिवसात्मकः कालः, -स्याह, सं. पुं. (फा.) हिताहित, इष्टानिष्टम् । *दिनसप्तकं २. साप्ताहिकं कृत्यं ३. श्रीमद्भाग- | -पोश, सं. पुं. (फ्रा.) आर्यः, भद्रजनः । वि., वतादीनां साप्ताहिकी कथा। श्वेतवासस्। सप्रज, वि. (सं.) सबाल, सापत्य, ससन्तान, | रंग-पड़ना, मु., विवर्णतां आपद् (हि. अपत्यवकृत् । भा. भ.)। सन, सं. स्त्री. ( अ.) श्रेणी-णिः (स्त्री.), सफेदा, सं. पुं. (फा. सुफ़ैदा ) सीसकभस्मन् पंक्तिः (स्त्री.) २. लंबकटः। | (न.), श्वेतसीसं २. आम्रभेदः ३. *श्वेतः सार, सं. पुं. (अ.) यात्रा दे। (वृक्षभेदः)। -खर्च, सं. पुं. (अ+फा.) मार्गव्ययः। स दो,सं.स्त्री. (फा. सुफेदी) शुक्लता, श्वेतता, सफरमैना, सं. स्त्री. (सं. सैपर+माइनर) धवलता, धवलिमन, शुक्लिमन्, तिमन् खनकसौगिकाः ( पुं. बहु.)। २. सुधा, सुधालेपः ३. प्रत्यूषः, प्रभातम् । सफरी, वि. ( अ. सफर ) यात्रोपयोगिन् । -करना, क्रि. स., सुधया लिप (तु. प. अ.) सफ़री, सं. स्त्री. ( शफरी) शफरः, मत्स्यभेदः। थवलयति ( ना. धा.), सुधालेपं कृ।। सफल, वि. (सं.) फलिन्, फलवत्, फलित, -आना, मु., ज (दि. प. से.), ज्या (कसशस्य, फलयुत २. सार्थक, अमोघ, अर्थवत् । प. अ.); केशा धवलायते (ना. धा.)। २. निष्पन्न, सिद्ध, पूर्ण ४. कृत, कार्य-कृत्य | सब, वि. ( सं. सर्व) विश्व, समस्त, सकल, सफलमनोरथ, सिद्धार्थ, कृतार्थ, कृतिन, चरि- अखिल, निखिल, कृत्स्न, अशेष, निःशेष तार्थ, प्राप्त-पूर्ण-लब्ध, काम । २. पूर्ण, अनून, अखंड, समग्र। -होना, क्रि. अ., कृतकार्य-सफल (वि.) भू। -कहीं, क्रि. वि., सर्वत्र । सफलता, सं. स्त्री. (सं.) साफल्यं, अर्थ-मनो- -का सब, वि., समग्र, संपूर्ण । रथ,सिद्धिः ( स्त्री. ), कृत, कार्यता-कृत्यता -कुछ, सं. पुं., सर्वम् । २. पूर्णता, निष्पन्नता ३.फलवत्ता ४.सार्थकता। कोई, सर्व., सर्वे, विश्वे (पुं. बहु.)। सहा , सं. पुं. (अ.) पत्रं, पणे, पृष्ठम् । -से अच्छा,वि., उत्तम,परम, श्रेष्ठ, प्रशस्ततम । सफ्रा, वि. (अ.) अ-वि-निर् , मल, स्वच्छ, -हाल, सं. पुं., संपूर्ण,-वृत्तं-वृत्तांतः । २. शुचि, पूत, पवित्र ३. श्लक्ष्ण, मसूण ४.सम- -मिलाकर, मु., सर्व, समस्त २. सर्वाणि तल, समस्थ । संकलय्य-परिगणय्य। -चट, वि., अतिस्वच्छ, नितांतनिर्मल २.अति,- सब-, वि. (अ.) सहायक, उप-। श्लक्ष्ण-मसण। -इन्स्पेक्टर, सं. पुं. (अं.) उप निरीक्षकः-चट करना, क्रि. स., क्षुरेण मुंड् (भ्वा. प. से. अवेक्षकः चु.), केशान् सम्यक् आवप् (भ्वा. उ. अ.; -जज, सं. पुं. ( अं.) उपाधिकरणिकः, उपप्रे.) २. विनश्-विध्वंस (प्रे.)। न्यायाधीशः। सफाई, सं. स्त्री. (अ. साफ़) स्वच्छता, सबक़, सं. पुं.(फा.) पाठः, दे. । २. शिक्षा। निर्मलता २. शौचं, शुद्धिः (स्त्री.) ३. अव- | सबब, सं. पुं. (अ.) कारणं, हेतुः। For Private And Personal Use Only Page #639 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra सर्वर www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir t ६०१ 1 (अ.) मार्गः, पथिन् सबर, सं. पुं., दे. 'सम' । सबल, वि. (सं.) बलवत्, बलशालिन्, बलिन्, बीर्यवत्, शक्तिमत्, शक्त, प्रबल, ऊर्जित, ऊर्जस्वल, समर्थ २. ससैन्य । सबा, सं. स्त्री. (भ. ) प्रभातपवनः । सबाध, वि. (सं.) दुःखद, कष्टदायक २. हानिकारक, अहितकर । सबील, सं. स्त्री. २. उपाय ३. प्रपा, दे. । सबूत, सं. पुं., दे. 'सुबूत' । सब्ज्ञ, वि. ( फा . ) हरित-त्, प (पा) लाश, हरि वर्ण २. नब प्रत्यग्र, सरस ( फलशाकादि ) । -बाग़ दिखाना, सु., मोघाशाभिः वच्-प्रत ( प्रे. ) 1 सब्ज़ा, सं. पुं. (फ़ा. सब्जह) हरितत्वं, हारित्यं, शादः, शादवलता २. भंगा, विजया ३. हरिन्मणिः, मरकतम् । -ज़ार, सं. पुं. ( फ्रा. ) शाद्वल:- लम् | सब्जी, सं. स्त्री. (का.) दे. 'सब्जा' (१) २. शाकःकं, शि(सि) ग्रुः, हरितकः-कं ३. भंगा, विजया | प्रकरणं, सब्जेक्ट, सं. पुं. (अ.) विषयः, प्रसंग : २. प्रजा । - (क्ट्स) कमिटी, सं. स्त्री. ( अं. ) विषयसमितिः (स्त्री.) । सब, सं. पुं. (अ.) संतोषः, धैर्ये, तितिक्षा, सहिष्णुता । बे, वि. (फ़ा. +अ . ) संतोषहीन २. असहिष्णु | बेसब्री, सं. स्त्री, तितिक्षाभावः, असहिष्णुता २. धीरताभावः, व्याकुलता । सभा, सं. स्त्री. (सं.) समाज:, गोष्ठि : - (ष्ठी) -समितिः-परिषद्-संसद् पर्षद् (स्त्री.), समज्या, सदस् ( न. ), आस्थानं २. सभा भवनं गृहं आगार - मंडप :- निकेतनं, भास्थानं नी । - पति, सं. पुं. ( सं . ) सभाध्यक्षः, संसत्पतिः, ( सभायाः ) प्रधानः । -सद, सं. पुं. ( सं . -सद् ) सदस्यः, सभ्यः, सामाजिकः, परिष ( पर्ष) द्वल:, प ( प 1)रिषदः, पार्षद, सभास्तारः, प (पा)रिषद्यः । धर्म, सं. स्त्री. (सं.) धार्मिकपरिषद् (स्त्री.) । न्याय, सं. स्त्री. ( सं . ) व्यवहारमंडपः । समझ राज, सं. स्त्री. (सं.) राजकीयपरिषद् ( स्त्री. ) । सभागा, वि. (सं. सुभाग्यं ) सौभाग्य, वत्शालिन्, महाभाग, धन्य । सभाला, सं. पुं. ( सं . संभल : ) वरसखः, मित्रम् | परि सभ्य, सं. पुं. (सं.) सभासद्, दे. २. सज्जनः, भद्र पुरुषः । वि., शिष्ट, नागरिक, दक्षिण, भद्र, विनीत, सुशील, आर्यवृत्त, संस्कृत, संस्कृतिः (स्त्री.) । सभ्यता, सं. स्त्री. (सं.) शिष्टता, नागरिकता, दाक्षिण्यं, सुजनता, आर्यवृत्तिः (स्त्री.) २. सदस्यता । समंजस, वि. (सं.) उचित, न्याय्य, योग्य | सम, वि. ( सं . ) समान, तुल्य, सदृश-श, सदृक्ष, संनिभ, सविध, - उपम, - निभ, - प्रकार, - विध (समासांत में) २. समतल, दे. ३. युग्म, दे. 'जुफ़्त' । सं. पुं. ( सं . ) तालमानभेदः ( संगीत ) २. अर्थालंकारभेदः (सा.) । कक्ष, वि. ( सं . ) तुल्य, सदृश । -काल, अव्य. ( सं ..लं ) युगपद् (अन्य ), यौगपद्येन, एक-सम, कालं (-ठे) । -कालीन, वि. ( सं . ) एक, कालिक - कालीन, समकाल । कोण, सं. पुं. (सं.) नवत्यंशात्मकः कोणः । वि., तुल्याभिमुखकोण ( ( त्रिभुज अथवा चतुर्भुज ) । - चित्त, वि. (सं.) सम, चेतसू-बुद्धि, धीर, शांतमनस्क । - तल, वि. (सं.) सम, समस्थ, समरेख, सपाट । -दर्शी, वि. (सं.) सम, दर्शन दृश्-दृष्टि- बुद्धि । - भाव, वि. (सं.) सम, प्रकृति-गुण २. समता, तुल्यता । भूमि, सं. स्त्री. (सं.) सम-भूः (स्त्री.) -स्थली । वयस्क, वि. (सं.) सवयस्क, समायुष्क । समक्ष, अव्य. ( सं . क्षं) अग्रे, अग्रतः पुरः, पुरतः पुरस्तात् (सब अव्यं . ) । समग्र, वि. (सं.) दे. 'सब' ( १-२ ) । समझ, सं. स्त्री. (हिं. समझना ) बुद्धि: - धी:मतिः (स्त्री.), प्रज्ञा २. ज्ञानं, बोधः, उपलब्धिः (स्त्री.) । For Private And Personal Use Only Page #640 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra समझना www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [ ६०२ ] —में आना, क्रि. अ., अवगम्-बुध्- ज्ञा (कर्म.) । -दार, वि. (हिं. + फ्रा.) धीमत्, बुद्धिमत्, प्राज्ञ, विचक्षण । समझना, क्रि. स. (सं. संज्ञानं > ) ज्ञा ( क्र. उ. अ. ), बुध् (भ्वा. प. से.), अवगम्, बुद्धधा ग्रह ( क्रू. प. से. ) २. क्लृपू ( प्रे.), उत्प्रेक्ष (भ्वा. आ. से. ), तक (चु. ) ३. विचर् ( प्रे. ) ४. प्रतिकृ, निर्यत ( चु.)। सं. पुं., ज्ञानं, बोधनं, अवगमनं, उपलब्धिः ( स्त्री. ) । समझने योग्य, वि., ज्ञेय, अवगंतव्य, बोध्य | समझनेवाला, सं. पुं., ज्ञातृ, बोट, अवगंतु । समझाना, क्रि. प्रे. (हिं. समझना ) ब. 'समझना' (१) के प्रे. रूप २. विशदी स्पष्टीकृ व्याख्या ( अ. प. अ. ), व्याचक्ष ( अ. आ. ) ६. उपदिश ( तु. प. अ.), शिक्ष ( प्रे.) ४. निर्भत्स्ळे ( चु. आ. से. ) ५. प्रति इ (प्र.), अभिज्ञा (प्रे.) । - बुझाना, क्रि. प्रे, दे. 'समझाना' । समझा हुआ, वि., ज्ञात, बुद्ध, अवगत । समझौता, सं. पुं. (हिं. समझना ) संवि:, सं-समा,-धानं, कलह-विवाद, शमः -शांति: (स्त्री.), २. संमति: (स्त्री.), ऐकमत्यम् । समता, सं. स्त्री. ( सं . ) तुल्यता, सादृश्यं, समानता, साम्यं, समत्वम् । समद, वि. (सं.) मत्त, क्षीब, उन्मद, मदो द्धत २. मदोत्कट, मत्त ( गजादि ) ३. प्रसन्न, प्रहृष्ट । समध (धि)न, सं. स्त्री. (हिं. समधी ) १२. पुत्र-पुत्री - अपत्य, श्वश्रूः (स्त्री.), जामातृ- स्नुषा, - जननी । समधियान, -ना, सं. पुं. (हिं. समधी ) पुत्र - पुत्री, श्वशुरालयः । समधी, सं. पुं. ( सं. संबंधिन् > ) १२. पुत्र पुत्री - अपत्य, श्वशुरः, जामातृ स्नुषा, जनकः । समन्वय, सं. पुं. ( सं . ) संयोगः, मिलनं २. आनुरूप्यं, विरोधाभाव:, सवादः ३. कार्य कारणनिर्वाह: । समन्वित, वि. ( सं . ) संयुक्त, मिलित, संबद्ध २. युक्त, युत, सहित २. निबंध । समय, सं. पुं. (सं.) वेला, काल:, दिष्टः, अनेहसू २. प्रस्तावः, प्रसंग: ३. ऋतुः ४. अवकाश:, क्षण: ५. अवसरः, उचितसमयः । समाचार समर, सं. पुं. (सं. पुं. न. ) संग्रामः, युद्धं दे. भूमि, सं. स्त्री. (सं.) समरांगणं, युद्ध-रण, क्षेत्रम् | - शाखी, सं. पुं. ( सं . - यिन ) लब्धवीरगति, धराशायिन् । समर्थ, वि. (सं.) क्षम, योग्य, शक्त, सामर्थ्यंवत् २. बलिन्, सबल । समर्थक, वि. ( सं . ) समर्थनकार, साहाय्यकारिन्, उपोद्बलक, अनुमोदक | समर्थन, सं. पुं. (सं. न. ) दृढी प्रमाणी,करणं, उपोबलनं, अनुमोदनम् । करना, क्रि. स., समर्थं ( चु.), दृढीप्रमाणी-कृ, द्रढयति ( ना. धा. ), उपोद्वलयति ( ना. धा ) । समर्थित, वि. ( सं . ) उपोलित, दृढीकृत, अनुमोदित । समर्पक, वि. ( सं .) समर्पयितृ, समर्पणकर, उपहारिन्, उपहारक | 'समर्पण, सं. पुं. (सं.) उपहरणं, ससंमानं उत्सर्जनं ३. दानं, उत्सर्गः । करना, क्रि. स., सं. ऋ (प्रे., समर्पयति ), सादरं दा, उपहृ ( भ्वा. प. अ. ) । समर्पित, वि. (सं.) उपहृत, सादरं उत्सृष्ट-दत्त । समवाय, सं. पुं. ( सं . ) समूह : २. नित्य-गुणगुणि-जातिव्यक्ति अवयवावयवि, संबंध: (न्याय.) समवेत, वि. ( सं . ) संचित, संगृहीत २. युक्त, मिलित ३. नित्यंसंबंधविशिष्ट । समष्टि, सं. स्त्री. (सं.) संघः, समुदायः, समूहः । समस्त, वि. ( सं . ) समग्र, संपूर्ण, निःशेष, दे. 'सब' २. समासयुक्त ३. संक्षिप्त । समस्या, सं. स्त्री. (सं.) समासार्था, समाप्त्यर्था, (पद्यरचनाये) कांश: २. विकटप्रश्न: ३. कठिनावसरः । - पूर्ति, सं. स्त्री. ( सं . ) निर्दिष्टपद्यांशमाश्रित्य काव्यरचना | समाँ, सं. पुं. (सं. समय: ) काल:, वेला । बँधना, मु. ( संगीतादिमग्नतया ) स्तब्धीभू । समाख्या, सं. स्त्री. ( सं . ) यशस् ( न. ), नामन् (न.) । समागम, सं. पुं. (सं.) आगमन, आयानं २. संमिलनं, संयोगः २. मैथुनम् । समाचार, सं. पुं. ( सं . ) वृत्तं, वृत्तांतः, उदंतः, वार्ता | For Private And Personal Use Only Page #641 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समाज [ ६०३ ] समीचीन % 3D -पत्र, सं. पुं. (सं.) वृत्तपत्रम् । । —होना, क्रि. अ., समाप-अवसो (कर्म)., समाज, सं. पुं. (सं.) सभा, दे. २. समूहः, | निःशेषीभू , समाप्ति-अंतं गम् । संघः, दलं, समुदायः ३. आर्यसमाजः। समाप्ति, सं. स्त्री. (सं.) अंतः, परि-, अवसानं, -वाद, सं. पुं. (सं.) संपत्ती राज्याधिकारः निवृत्तिः-सिद्धिः ( स्त्री.), निःशेषता २. प्राप्तिः इति सिद्धान्तः । (स्त्री.)। समाजी, सं. पुं. (सं.-जिन् ) सभासद् २. आर्य- समारोह, सं. पुं. (सं.) आडंबरः, विभवः, समाज,-सदस्यः सभासद्, आर्यसामाजिकः । दे. 'धूमधाम' २. आडंबरमय उत्सवः । ३.दे. 'सपरदाई। | -से, क्रि. वि., साडंबरं, साटोपम् । समादृत, वि. (सं.) सम्मानित, पूजित, सत्कृत। समार्थक, वि. (सं.) समानार्थक, पर्यायवाचिन, समाधान, सं. पुं. (सं. न.) समाधिः, अंत- तुल्याशय ( शब्द )। ानं, प्रणिधानं २. शंका-संदेह, निवारणं | समालोचक, सं. पुं. (सं.) गुणदोष-निरूपक:३. शंकानिवारकमुत्तरं ४. आ-समा, श्वासनं, विवेचकः, आलोचकः । सांत्वनं ५. विरोधापहरणं ६. निराकरणं समालोचना, सं. स्त्री. (सं.) सं..,आलो७. अनुसंधानं ८. तपस् (न.) ९. ध्यानं चनं-ना, गुणदोष, निरूपणं-विवेचनं-दर्शनं१०. समर्थनं, दृढ़ीकरणं, उपोद्बलनम् ।। परीक्षणम् । -करना, क्रि. स., समाधा (जु. उ. अ.), -करना, क्रि. स., गुणदोषान् निरूप् (चु.)शंका निवृ (प्रे.)। विविच ( रु. उ. अ. )-विचर (प्रे.), समालोच शंका-, सं. पुं. (सं. न.) संदेहनिवारणम् । (प्रे.) २. छिद्राणि अन्विष् (दि. प. से.)। समाधि, सं. स्त्री. ( सं. पुं.) अंतर्धानं, समा. समावर्तन, म. पुं. (सं. न.) (गुरुकुलात ) धान, ब्रह्मणि स्थितिः ( स्त्री.), योगस्य चरम प्रत्यागमनं, प्रत्यावृत्तिः (स्त्री.) २. आर्याणां फलं २. प्रेतावटः, शव-अस्थि,-गर्तः ३. निद्रा संस्कारभेदः, समा-वर्तः-वृत्तिः (स्त्री.) (धर्म.)। ४. चित्तैकाग्रयं, अनन्यमनस्कता ५. योगः समाविष्ट, वि. (सं.) अंतर , गत-भूत-गणित ६. मौनं ७. प्रतिशोधः ८. अर्थालंकारभेदः । २. एकाग्रचित्त। (सा.)। समावेश, सं. पुं. (सं.) अंतर्भावः, अंतर्गणना। -लगाना, क्रि. अ., ब्रह्मणि मनो निविश (प्रे.) -करना, क्रि. स., अंतर्भू (प्रे.), अंतगंण् (चु.)। -समाधा (जु. उ. अ.), अंतः ध्या ( भ्वा. समास, सं. पुं. (सं.) पदसंयोगः (व्या.) प. अ.), समाहित-समाधिस्थ (वि.) भू। २. संक्षेपः ३. संमिश्रणं ४. संग्रहः । समान, वि. (सं.) तुल्य, सदृक्ष-श-श् , सम, -करना, क्रि. स., समस् (दि. प. से.), सन्निभ, सविध, सवर्ण,-उपम,-विध,-रूप, एकीकृ, संमिश् ( चु.)। समासोक्ति, सं. स्त्री. (सं.) अर्थालंकारभेदः -प्रकार। (सा.)। समानता, सं. स्त्री. (सं.) समता, साम्यं, समाहार. सं. पु. (सं.) संचयनं, संग्रहणं सादृश्यं, औपम्यं, सारूप्यं, सावर्ण्यम् । . २. चयः, राशिः ३. संक्षेपः । समाना, क्रि. अ. (सं. समावेशनम् ) प्रविश | -वंद्र. सं. पं. (सं.) द्वंद्वसमासभेदः (व्या.)। (तु. प. अ.), अन्तः या (अ. प. अ.), क्रि. समिति, सं. स्त्री. (सं.) परिषद् ( स्त्री.) स., प्रविश् (प्रे.), अन्तः स्था (प्रे.), धा-धृ. सभा, दे। भ ( कर्म.)। समिधा, सं. स्त्री. [सं. समिधू (स्त्री.)] समाप्त, वि. (सं.) अवसित, अंतं,गत-इत, | यशिय-होमीय, इंधनं-एधः २. एधः, इंधनं दे.। संपूरित, संपूर्ण, निःशेषीभूत । समीकरण, सं. पुं. (सं. न.) समानीकरणं, -करना, क्रि. स., समाप (स्वा. प, अ.,प्रे.), | समीक्रिया २. क्रियाभेदः। निर्वृत् (प्रे.), सं-पृ (प्रे.)-पूर् (चु.), पारं- समीक्षा, सं. स्त्री. (सं.) समालोचना, दे। अंतं गम् (प्रे.), निःशिष् (प्रे.), संपद् समीचीन, वि. (सं.) सत्य, यथार्थ, अवितथ (प्रे.)। | २. उचित, उपपन्न, योग्य, ३. न्याय्य, धर्म्य । For Private And Personal Use Only Page #642 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समीप समीप, क्रि. वि. ( सं . समीपं पे ) अंतिकं के कात्, आरात, निकषा, निकटं-टे, उपकंठ-ठे, समया, सविधे, सकाशं-शे-शात्, संनिधौ, | Å૦૪ ] उप- । -वर्ती, वि. (सं.- तिन) समीप, निकट, संनिहित, अंतिक, अभ्याश, आसन्न, उपकंठ, उपांत, अभ्यर्ण, अभ्यग्र, सविध, समीप निकट स्थवर्तिन् । समीपता, सं. स्त्री. (सं.) सामीप्यं, नैकट्यं, संनिधि: (पुं.), आसन्नता, संनिकर्षः । समीर, सं. पुं. (सं.) समीरः समीरणः, पवनः, वायुः दे. | . समीहा, सं. स्त्री. ( सं . ) उद्योगः, प्रयत्नः २. इच्छा ३. अनुसंधानम् । समुंदर, सं. पुं. (सं. समुद्रः ) सागरः । - झाग, सं. पुं., दे. 'समुद्रफेन' । - सोख, सं. पुं. ( सं . समुद्रशोष: ) क्षुपभेदः । समुचित, वि. (सं.) यथेष्ट, उचित दे. । समुच्चय, सं. पुं. (सं. समाहारः ) संमिलनं २. राशिः समूहः ३. अर्थालंकार-भेदः (सा.) । समुद, वि. (सं.) सहर्ष, सामोद, सानन्द । अ., सहर्षे, सानन्दम् । समुदाय, सं. पुं. (सं.) नि-सं, चयः, निकरः, राशिः २. गणः, संघः, वृंद, समूहः । समुद्र, सं. पुं (सं.) सागरः, अब्धिः, वारि अंभो-उद-जल-नीर- अंबु पाथो, -धि:, पारावारः, सरित्पतिः, सिंधुः, अर्णवः, रत्नाकरः, नीर-वारि जल, निधिः, मकरालयः, ऊर्मिमालिन् । —तट, सं. पुं. ( सं. पुं. न. ) सागर, तीरं-कूलं, रोधस (न.), वेला | - पत्नी, सं. स्त्री. (सं.) समुद्र, कांता-गा, नदी । - फेन, सं. पुं. (सं.) समुद्रकफः, जलहासः, सामुद्रम् । -यान, सं. पुं. (सं. न. ) पोतः । -लवण, सं. पुं. (सं. न. ) अक्षि (क्षी) वं, वशि (सि) रं, समुद्रकं, लवणाब्धिजम् । - वह्नि, सं. पुं. ( सं . ) वडवानलः, वाडवः । समुद्रगुप्त, सं. पुं. (सं.) गुप्तवंशीयः सम्रावि शेषः । समुद्री, वि. (सं.) समुद्रिय, समुद्रय । समुल्लास, सं. पुं. (सं.) परिच्छेदः, अध्याय: २. आनंद:, हर्षः । समोसा समूचा, वि. (सं. समुच्चयः > ) समस्त, समग्र, संपूर्ण | समूल, वि. ( सं . ) सकारण, सहेतुक २. मूलवत्-अन्वित। क्रि. वि. ( सं. न. ) मूलतः, सम्पूर्णतया, अशेषेण, साकल्येन । समूलोन्मूलन, सं. पुं. (सं. न. ) ( मूलतः ) उत्पाटनं - उच्छेदनं व्यपरोपणम् । — करना, क्रि. स., उत्पट् ( चु. ) विध्वंस्उत्सद् (प्रे.), आमूलं उत्खन (भ्वा. प. से. )व्यपरुहू (प्रे., व्यपरोपयति ) । समूह, सं. पुं. (सं.) निवह:, व्यूह:, संदोह:, विसरः, व्रजः, स्तोमः, ओघः, निकरः, व्रातः, वार:, संघातः, नि-प्र- सं, चयः, समुद (दा) यः, समवायः, गणः, संहतिः (स्त्री.), वृंद, निकुरंबं, कदंबक, समाहारः, समुच्चयः, -मंडलं, -जालं, - पूगः ग्रामः (समासांत में) । (सदृश पदार्थों का ) वर्ग: । (जंतुओं का ) संघः, सार्थ: । ( सजातीय जंतुओं का ) कुलम् (टेढ़े जंतुओं का ) यूथ:-थं । ( पशुओं का ) समज: । ( औरों का झुंड ) समाज: । (एक धर्मवालों का ) निकाय: । ( अन्नादि का ढेर ) पुंज:, पिजः, पुंजि: (स्त्री.), राशिः, उत्करः, कूट:-टं २. जनता, जनमेलकः, जनलोक, संघ:-समुदाय:- संमर्द :- संकुलं ३. बहुत्वं, बाहुल्यं, बहु-बृहत्, संख्या । समूहनी, सं. स्त्री. (सं.) संमार्जनी, 'दे. झाड़' । समृद्ध, वि. ( सं . ) धनिक-संपन्न | अति-शय-, धनाढ्य समृद्धि, सं. स्त्री. (सं.) एधा, अतिशय प्रचुर, संपद्-संपत्ति: ( दोनों स्त्री. ) वित्तं विभव:वैभवम् । समेटना, क्रि. स. (हिं. सिमटना ) एकत्र कृ, संग्रहू ( क्र. प. से.), संचि ( स्वा. उ. अ.), संनी समाहृ ( वा. प. अ.) २. आकुंच् (प्रे.), संकुच (तु.प.से.), संह (भ्वा. प. अ. ) सं. पुं. तथा भाव, एकत्र करणं संग्रहणं, संचयनं, संनयनं, समाहरणं, आकुञ्चनं, संकोचनम् । समेत, क्रि. वि. ( सं. न. ) सह, साकं, सार्धं, सहितं, समं ( सब तृतीया के साथ ) । वि. (सं.) संयुक्त | समोसा, सं. पुं. (फ्रा. ) *समोषः, त्रिकोणाकारः पक्वान्नभेदः । For Private And Personal Use Only Page #643 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra सम्यक www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [ ६०५ ] सम्यक्, क्रि. वि. (सं.) सर्वथा, सर्वप्रकारेण २. संपूर्णतया, सामस्त्येन, साद्यंतं, संपूर्ण ३. सुष्ठु साधु । सम्राज्ञी, सं. स्त्री. (सं.) सम्राट्पत्नी २. राजराजेश्वरी, अधि-महा-राजाधि, राजी । सम्राट्, सं. पुं. ( सं. सम्राज् ) महा-, राजाधिराज:, सार्वभौमः चक्रवर्तिन, मण्डलेश्वरः, एक, अधिपति:-राजः, अधि, ईश्वर:-राजः । सयाना, वि., दे. 'स्याना' । सयूथ्य, वि. ( सं . ) एक स-समान- अभिन्न, वर्ण गण-संघ । योनि, वि. ( सं .) सोदर, सहोदर, सगर्भ, सोदर्य २. निकट- समीप, सम्बन्धिन् । सं. पुं. (सं.) सहोदरः, सोदरः, सोदर्यः २. इन्द्रः, शचीपतिः । सर', सं. पुं. [सं. सरस् (न.) ] सरसी, कासारः, हृदः, सरोवरः, पद्माकरः, तटाक:-कं, तडागः- गं, जलाशयः । सर े, सं. पुं. ( फा . ) शिरस् (न.), दे. 'सिर' २. शिखरं, शिखा, अग्रम्। वि, पराजित, अभिभूत । -अंजाम, सं. पुं. ( फा . ) सामग्री, संभारः २. सिद्धि:, समाप्तिः (स्त्री.) । —कश, वि, ( फा . ) उद्धत, उद्दंड २. अवश्य ३. कु-दुश्, ष्टक | —कशी, सं. स्त्री. ( फ़ा. ) औद्धत्यं, उद्दण्डता २. कुचेष्टा, चापल्यम् । गना, गरोह, सं. पुं. ( का. ) अग्रणीः, सरदा - बराह, सं. पुं. ( फा . ) कार्याध्यक्षः, अधि ष्ठातृ, *प्रबन्धकः । - बराही, सं. स्त्री, अधिष्ठानं, प्रबन्धः, अवेक्षा २. अधिष्ठातृत्त्वम् । आश्रयः । - पेच, सं. पुं. ( फा . ) उष्णीषभूषणभेदः । - हद, सं. स्त्री. (फ्रा. + अ.) सीमन् (स्त्री.), सीमा, दे. २. सीमांतः, पर्यंतः, प्रांतः । -हदी सूबा, सं. पुं. (फ़ा. ) ( पश्चिमोत्तर - ) सीमाप्रांतः । -करना, मु., विजि (भ्वा. आ. अ.), अभिभू, वशीकृ । सर े, सं. पुं. ( अं. ) आंगलीयानामुपाधिभेदः, *शिरोमणिः २. भद्रः, आर्यः । सरकंडा, सं. पुं. (सं. शरकांड :) कांडः, तेजनः, गुंद्रकः, क्षुरिकापत्रः, उत्कटः । " सरकना, क्रि. अ. (सं. सरणं ) शनै:- मृदु चल (भ्वा. प. से. ) - सुप-सृ ( दोनों भवा. प. अ. ) २. सत्वरं सृ ३. अलक्षितं अती (अ. प. अ. ) ४. उरसा गम्-चल्। सं. पुं. तथा भाव, मृदु सरणं-सर्पणं-चलनं, इ. । सरकाना, क्रि. स., व. 'सरकना' के प्रे. रूप । सरकार, सं. स्त्री. ( फा . ) राज्य, संस्था-तंत्र शासक-अधिकारि, वर्गः, राजमंत्रिण: ( बहु. ) २. प्रभुः, स्वामिन् ३. राज्यं, राष्ट्रम् । सरकारी, वि. ( फा . ) आधिकारिक, राजकीय, राज्यसंबंधिन् । - नौकर, सं. पुं. ( फ़ा. ) राज्य,-भृत्यः-सेवकः परिचारकः । नौकरी, सं. स्त्री. ( फा . ) राज्य, सेवापरिचर्या । सरगम, सं. पुं. (हिं. सा+रे+गा + मा ) स्वर-, ग्राम: ( संगीत ) | सरघा, सं. स्त्री. (सं.) मधुमक्षिका, दे. | सरजा, सं. पुं. (फ्रा. सरजाह = उच्चपदाधिकारी, अ. शरजह् = शेर ) नायकः, अग्रणी: नरशार्दूलः २. सिंहः । नायकः । -- गर्म, त्रि. ( फा . ) उत्साहिन्, उत्साहवत् । - गर्मी, सं. स्त्री, उत्साहः, व्यग्रता । - ज़ोर, वि. ( फा . ) बलवत् २. उद्दण्ड । - ज़ोरी, सं. स्त्री, बलात्कारः २. उद्दण्डता । - ताज़, सं. पुं. ( फा . ) पुरोगः, नायकः, शिरो चूड़ा-मुकुट, मणिः । —पंच, सं. पुं. (फ्रा. + हिं. ) सभा, पतिः - सरणी, सं. स्त्री. (सं.) सरणि: (स्त्री.), पथिन्, अध्यक्षः, *पञ्च प्रधानः । मार्गः २. पंक्तिः (स्त्री.), रेखा ३. पद्या, पद्धति: (स्त्री.) ४. शैली, प्रकारः । सरद, वि., दे. 'सर्व' । - परस्त, सं. पुं. ( फा . ) त्रातृ, रक्षकः २. संरक्षकः, आश्रयदः । -परस्ती, सं. स्त्री, रक्षणं, त्राणं २. संरक्षणं, सरदई, वि. ( फ़ा. सर्दह ) हरित्पीत । सरदल, सं. पुं. (देश. ) द्वारोर्ध्वस्थूणा । सरदा, सं. पुं ( फा. सर्दह् ) शीतखर्बुजम् । For Private And Personal Use Only Page #644 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सरदार [ ६०६ ] सरदार, सं. पुं. (फ्रा.) नायकः, अग्रणीः, पुरोग:, । सरसठ, वि. तथा सं. पुं., दे. 'सड़सठ' | अध्यक्षः, प्रधानः २. शासकः ३. धनिकः । सरदारी, सं. स्त्री. ( फा . ) नायकत्वं, प्रधानत्वम् । सरसता, वि. (सं.) रसवत्ता, दे. 'रसीलापन' २. आर्द्रता, क्लिन्नता ३. हारित्यं, प्रत्यग्रता ४. सुंदरता ५. मधुरता ६. रसिकता, भावुकता । सरसब्ज़, वि. ( फा . ) हरित-त्, हरितपर्ण, सरस २. शाद्दल, शाद- तृण - आवृत । मैदान, सं. पुं. ( फा . ) शाद्वल:-लं, शाद्दलस्थलं -ली, तृणावृतभूमिः (स्त्री.), शादहरितः तम् । सरसर, सं. पुं. (अनु.) दे. 'सरसराहट' | सरसराना, क्रि. अ. ( अनु. सरसर ) सरसरा यते (ना. धा. ), सरसरध्वनि: जन् (दि. आ. से.) २. ससरसरशब्द वा ( अ. प. अ. ) ३. सृप् (भ्वा. प. अ. ), उरसा गम् । सरसराहट, सं. स्त्री. (हिं. सरसर) सरसरायितं, सरसरशब्दः, सर्पणध्वनिः २. कंडु:- डूः, खर्जु :- र्जू : ( चारों स्त्री. ) ३. पवनध्वनिः । सरमा, सं. स्त्री. ( सं. ) देवशुनी २. कुक्कुरी । सरसरी, वि. ( फा. सरासरी ) सत्वर, सरभस, सरमाया, सं. पुं. ( फा . ) दे. 'पूंजी' । —दार, सं. पुं. (फ़ा. ) दे. 'पूंजीपति' । सरयू, सं. स्त्री. ( सं . ) अयोध्यासमीपवर्तिनदीविशेषः । सरल, वि. ( सं. ) ऋजु, निर्व्याज, निष्कपट, निश्छल, साधु-सत्य, वृत्त-शील, शुद्ध, -मतिभाव-आत्मन्, दक्षिण, शुचि २. दे. 'सीधा' ३. सुकर, सुसाध्य ४. कृत्रिमतारहित, वास्तविक । (सं. पुं.) पीतः, धूपवृक्षकः, दे. 'चीड़' ५. सरलनिर्यासः, वृकधूपः, गंधा सरन, सं. स्त्री. दे. 'शरण' । सरना, क्रि. अ. (सं. सरणं) दे. 'सरकना' । २. कृ-अनुष्ठा (कर्म. ), संपद ( दि. आ. अ. ), साध् ( दि, प. अ. ) । सरनामा, सं. पुं. (फ़ा. ) ( निबंधादीनां ) शीर्षकं २. पत्रसंज्ञा, दे. 'पता' ३. पत्र, संबोधनं-प्रारम्भः । सरपट, क्रि. वि. (फ़ा. सर + हिं. पटकना ) आस्कंदितं-तकम् । क्रि. वि., जवेन, वेगेन । - भागना, क्रि. अ., आस्कंद (भ्वा. प. अ. ) २. द्रुतं सवेगं धाव् (भ्वा. प. से. ) । सरपत, सं. पुं. (सं. शरपत्रं ) कुशाकारो घासभेदः । बिरोजा' | सरलता, सं. स्त्री. ( सं . ) सारल्यं, निष्कापट्यं, आर्जवं साधुता, शुचिता, शुद्धभावः २. दे. 'सीधापन' ३. सुकरता, सुसाध्यता ४. बालिश्यं, मौर्यम् । , सरवर, सं. पुं., दे. 'सर' (१) । सरविस, सं. स्त्री. ( अं. सर्विस ) सेवा, दे. । सरशार, वि. ( फा . ) मग्न, लीन २. मत्त, क्षीब । सरस, त्रि. ( सं .) रस, युक्त- अन्वित, दे. 'रसीला' २. आर्द्र, उन्न, क्लिन्न ३. हरित, अभ्यग्र ४. सुन्दर ५. मधुर ६. भावपूर्ण, हृदिस्पृश् ७. भावुक, रसिक, सहृदय । सरहज त्वरित २. स्थूल । - तौर पर, क्रि. वि., सत्वरं, त्वरया २. स्थूलरूपेण, मनोयोगं विना । निगाह, सं. स्त्री विहंगमदृष्टिः (स्त्री.), विहंगावलोकनम् । सरसाई, सं. स्त्री. (हिं. सरस ) सरसता, रस,युक्तता पूर्णता २. शोभा ३. आधिक्यम् । सरसाम, सं. पुं. (फ़ा.) त्रिदोष, संनिपातः, दे. | सरसिज, सं. पुं. ( सं, न. ) पद्मं, अब्जं, कमल, दे. | योनि, सं. पुं. (सं.) चतुर्मुखः, ब्रह्मन् (पुं.)। सरोसरसिरुह, सं. पुं. (सं. न. ) कमलं, पंके, रुहम् । सरसी, सं. स्त्री. (सं.) दे. 'सर' (१) २. वापी | सरवन, सं. पुं. ( सं . श्रमण: ) अंधकमुनिपुत्रः रुह, सं. स्त्री. ( सं. न. ) पद्मं, कमलं, दे. | ( रामायण ) । सरसों, सं. स्त्री. (सं. सर्षपः ) (सफ़ेद ) सिद्धार्थः, सर्षपः, शुभकः, कदंबकः २. (काली) कृष्णिका, क्षवः, राजिका । —का तैल, सं. पुं., सर्षपस्नेहः, कटुतैलम् । सरस्वती, सं. स्त्री. (सं.) शारदा, भारती, वाग्देवी, ब्राह्मी, गीर्देवी, वर्णमातृका २. कुरुक्षेत्रसमीपवर्तिप्राचीननदीविशेषः ३. विद्या, ज्ञानम् । सरहज, सं. स्त्री. (सं. श्यालजाया) श्वशुर्यपत्नी । For Private And Personal Use Only Page #645 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सराप [ ६०७ ] ग्रहः, सराप, सं. पुं. (सं. शापः ) अभिशाप:, आक्रोश:, । अकरणि:- अजीवनि :- अजननिः (स्त्री.), अवनिग्रहः । - देना, क्रि. स., अभि., शप् (भ्वा. उ. अ. ), अभिशंस् (भ्वा. प. से. ), आक्रुश् (भ्वा. प. अ. ), शापं दा । सरापा हुआ, अभिशप्त । वि., अभि-शप्त, आक्रुष्ट, सरान, सं. पुं. ( अ. सर्राफ ) सुवर्णाजीविनू, कनकवणिज् २. टंक - नाणक, परिवर्तकः ३. श्रेष्ठिन्, कुसीदिकः । सराना, सं. पुं. ( अ. सर्राफ ) सुवर्णव्यवसायः, रत्नवाणिज्यं २. सुवर्णाजीवि, निगम:हट्ट : ३. धनागारं, दे. 'बैंक' । सराफ़ी, सं. स्त्री. (हिं. सराफ़ ) दे. 'सराफ़ा' (१) २. वर्णमालाभेदः, दे:. 'महाजनी ' ३. टंकपरिवर्तन-शुल्कः । सराबोर, वि., दे. 'लथपथ ' । सराय, सं. स्त्री. (फ़ा.) पांथगृहं, पथिकशाला, दे. 'मुसाफिरखाना' २. गृहम् । स्वार्थपरायणः । - का कुत्ता, मु., -की भठियारी, मु., निर्लज्जा कलहप्रिया च नारी । सरावन, सं. पुं. (सं. सरणं > ) मत्यं, कोटि(टी) श: । सरासर, क्रि. वि. ( फा . ) सर्वथा, पूर्णतया, सामस्त्येन २. साद्यंतं ३. साक्षात्, प्रत्यक्षम् । सराहना, क्रि. स. ( लाघनं ) लाघ् (भ्वा. आ. से. ), प्रशंसू ( भ्वा. प. से. ), ईड ( अ. आ. से. ), स्तु ( अ. प. अ.) कृत (चु.), नू ( तु. प. से. ) । सं. पुं. तथ भाव, प्रशंसा, श्लाघा, स्तवः वनं, कीर्तनं नुतिः स्तुतिः ( श्री. ) । सराहनीय, वि, (सं. श्लाघनीय) स्तुत्य, प्रशस्य, प्रशंसनीय २. उत्तम, श्रेष्ठ । सराहनेवाला, सं. पुं., प्रशंसकः, स्तावकः, सर्ग कफ, सं. पुं. ( सं . ) नदी-तदिनी सरित, - फेनः- डिंडीरः कफः | नावकः । सरि, सं. स्त्री. (सं.) निर्झरः, उत्सः प्रपातः २. जल-धारा, यन्त्रम् । (हि. ) नदी २. माला ३. समता । दि. तुल्य, सदृश । अन्य पर्यन्तम्, अवधि, आ । सरित् सं. (स्त्री.) निम्नगा नदी दे. २. सूत्रम् ३. दुर्गा । - पति, सं. पुं. ( सं . ) सागरः, समुद्रः । सुत, सं. पुं. ( सं . ) भीष्मः, गांगेयः । सरिता, सं. स्त्री. दे. 'सरित' । सरिश्ता, सं. पुं. ( फा . तह ) अधिकरणं, न्यायालयः, दे. २. शासन, विभागः ३. कार्या लयः । सरिश्तेदार, सं. पुं. (फ़ा-तहूदार ) शासन-, विभागाध्यक्षः, *पंजिकाध्यक्षः । सरिस, वि. (सं. सदृश, दे.) । सरीखा, वि. ( सं. सदृक्ष ) सदृश, दे. | सरीसृप, सं. पुं. (सं.) सर्पणशीलो जंतुः २. अहिः, सर्पः । सरूप, वि. (सं.) साकार, रूप, युक्त-अन्वित २. सदृश, तुल्य ३. सुंदर । सरूर, सं. पुं. (फ़ा. सुरूर ) आनंद:, उल्लासः २. ईषन्म (मा) दः, आमत्तता । सरे दस्त, क्रि. वि. ( फा . ) इदानों, अधुना २. वर्तमाने, अस्मिन् काले । सरे बाज़ार, क्रि. वि. ( फा . ) सर्व, समक्षंसंमुखं २. प्रकाशं प्रकटं, व्यक्तम् । सरेस, सं. पुं. (फ़ा. सरेश ) संश्लेषकद्रव्यभेदः, * श्लेषः । सरो, सं. पुं. (फ़ा. सर्व ) *सरुः, वृक्षभेदः । सरोकार, सं. पुं. (का.) संबंध:, संपर्क: २. अर्थः, प्रयोजनम् । 1 सरोज, सं. पुं. ( सं. न. ) पद्मं, कमलं, दे. सरोजिनी, सं. स्त्री. (सं.) कमलिनी, पद्मिनी, मृणालिनी २. पद्मवनं ३. कमलम् । सरोता, सं. पुं. (सं. सारपत्रं > ) *पूग, कर्तनीछेदनी । सरोरुह, सं. पुं. (सं. न. ) सरोजं, कमलं, दे. । सरोवर, सं. पुं. ( सं . ) दे. "सर" । सरोष, वि. (सं.) सकोप, रुष्ट, क्रुद्ध । सरोसामान, सं. पुं. ( फा. सर+व+ सामान) सामग्री, परिच्छदः । सरोही, सं. स्त्री. ( देश. ) राजस्थानप्रदेशे पुरविशेषः २. ( तत्र निर्मितः ) खड्गः । सर्कस, सं. पुं. ( अं. ) ( पशु-) क्रीडा, अंगणं(नं.)- रंग:-मण्डलम् । | सर्ग, सं. पुं. (सं.) (काव्यादीनां ) अध्यायः, परिच्छेदः, प्रकरणं २. सृष्टि:जगदुत्पत्तिः For Private And Personal Use Only Page #646 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सर्जन [६०८] (स्त्री.) ३. संसारः, जगत् (न.) ४. स्वभावः, | सर्व, सर्व. (सं.) सकल, समस्त । प्रकृतिः ( स्त्री.) ५. संततिः ( स्त्री.), संतानः -काम्य, वि. (सं.) सर्व, प्रिय-इष्ट । ६. उद्गमः, मूलं ७. प्रवाहः, स्रावः ८. क्षेपणं, -काल, अ० (सं.) सर्वदा, नित्यम् । प्रासनं ९. प्राणिन् १०. प्रवृत्तिः (स्त्री.)। -कालीन, वि. ( सं.) सार्वकालिक,सदातन् । सर्जन', सं. पुं. ( सं. न.) सृष्टिः-जगदुत्पत्तिः -जनीन, वि. (सं.) सार्वजनिक, विश्वजनीन । (स्त्री.) २. विसर्जनं, दे.।। -जित् , वि. (सं.) विश्व,जित्-विजेतृ सर्जन२, सं. पुं. ( अं.) शस्त्रवैधः, शल्य-चिकि- २. उत्तम, श्रेष्ठ । (सं. पुं.) यशभेदः त्सकः। २. मृत्युः । सर्जरी, सं. स्त्री. (अं.) शल्यचिकित्सा-शास्त्र, -ज्ञ, वि. (सं.) सर्व-विश्व-वेत्तृ-विद् । (सं. पुं.) परमेश्वरः। शस्त्रवैद्यकं २. शल्यक्रिया। सर्जि, सं. स्त्री. ( सं.) सज्जी, सज्जिका, सज्जि- |-ज्ञता, सं. स्त्री. (सं.) विश्ववेत्तत्वम्। . सज्जिका, क्षारः, क्षारः, कापोतः, सौवर्चलं, | |-तंत्र, वि. (सं.) सर्वशास्रसंमत । (सं. न.) रुचकं, दे. 'सज्जी'। | सर्वशास्त्रम् । सर्जू , सं. स्त्री. दे. 'सरयू'। -तंत्रस्वतंत्र, वि. (सं.) सर्वशास्त्रपारग। सर्टिफ्रिकेट, सं. पुं. ( अं.) प्रमाणपत्रं, दे.।। -दमन, सं. पुं. (सं.) भरतराजः, दुष्यंत पुत्रः। वि. (सं.) सर्वाभिभावक। सर्द, वि. ( फ़ा. मि. सं.शरद>) शीत, शीतल | -दर्शी, वि. (सं.-शिंन् ) विश्वद्रष्ट । दे. २. अलस, मंद ३. नपुंसक, निवीर्य ४. निःस्वाद, नीरस । -नाम, सं. पुं. (सं.-मन् ( न.) शब्दभेदः | (व्या.)। -ऋतु, सं. स्त्री. (फ़ा.+सं.) शरद् (स्त्री.) दे.। -नाश, सं. पु. (सं.) विध्वंसः, विनाशः, -खाना, सं. पुं., हिमगृहम् ।। समूलोच्छेदः । -मिजाज़, वि. ( फ़ा.+अ.) निरुत्साह -नियंता, सं. पुं. (सं.-तृ) विश्वनियामकः, २. रूक्ष । परमेश्वरः। -होना, मु., मृ. (तु. आ. अ.) २. शीतली -प्रिय, वि. (सं.) विश्व, प्रिय-इष्ट-वन्नभ । मंदी, भू। -भक्षी, सं. पुं. ( सं.-क्षिन् ) सर्वभक्षकः सर्दी, सं. सी. (फा.) शीतं, शैत्यं, हिमः २. अग्निः । २. प्रतिश्यायः। -भूत, सं. पुं. (सं. न.) चराचर, सर्वसृष्टिः -का बुखार, सं. पुं., शीतज्वरः। (स्त्री.)। -खाना, मु., शीतपीडित (वि.) भू। -मेध, सं. पुं. (सं.) सोमयागभेदः २. सार्वसर्प, सं. पुं. (सं.) अहिः, भुजगः, दे. 'साँप'। जनिकसत्रम् । -भक्षक, सं. पुं. (सं.) मयूरः। -वल्लभा, सं. स्त्री. (सं.) कुलटा, पुंश्चली। -मणि, सं. पुं. (सं.) भुजगफणजः। -व्यापक, वि. (सं.) विश्वव्यापिन्, विश्व-याग, सं. पु. (सं.) जनमेजयकृतो नाग- सर्व,ग-गत। यशः। -शक्तिमान , वि. (सं.-मत्) सर्वसामर्थ्ययुत । -राज, सं. पु. ( सं.) शेषनागः २. वासुकिः- (सं. पुं.) परमेश्वरः। केयः। --श्रेष्ठ, वि. (सं.) सर्व-,उत्तम, प्रशस्ततम । -लता, सं. स्त्री. (सं.) नागवल्ली, दे. 'पान'। -साक्षी, सं. पुं. (सं.-क्षिन् ) परमेश्वरः २. सर्पिणी, सं. स्त्री. (सं.) भुजगी, दे. 'सांपिन'। अग्निः ३. वायुः। सफ़, वि. (अ.) व्ययित, विनियोजित, दे. -साधारण, सं. पुं., जनाः, लोकाः, जनता, 'खर्च। पृथग-प्राकृत,-जनाः। वि. (सं.) साधारण, सफी, सं. पुं. (अ. सर्फ़ह ) व्ययः, विनियोगः सामान्य । २. मितव्ययः। -सामान्य, वि. (सं.) साधारण, प्राकृत, सर्राफ़, सं. स्त्री. (अ.) दे. 'सराफ'। प्रायिक। For Private And Personal Use Only Page #647 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सर्वत्र सर्वत्र, अन्य. (सं.) सर्वदिग्देशकाले । -ग, वि. ( सं . ) सर्वव्यापक | सलाजीत, सं. स्त्री. दे. 'शिलाजीत' । सलाद, सं. पुं. ( अं. सैलाड ) शिग्रुखाद्यम् । सर्वथा, अव्य. (सं.) सर्वप्रकार- रेण २. साम सलाम, सं. पुं. (अ.) प्रणाम:, दे. | - अलैक या अलैकम, प्रणामः, नमस्ते, नम [ ६०१ ] रत्येन ३. नितांतं, अत्यन्तम् । सर्वदा, अव्य. (स.) सदा, दे. | सर्वस्व, सं. पुं. (सं. न. ) समस्तसंपद् (स्त्री.), समग्रद्रव्यं, निखिलधनम् । सर्वांग, सं. पुं. (सं. न. ) समस्तशरीरं २. सर्ववेदांगानि (न. बहु. ) ३. समग्रावयवाः (पुं. बहु. ) । सर्वांगीण, वि. ( सं . ) सार्वदेहिक - सर्वोगिक ( की स्त्री . ) । सर्वात्मा, सं. पुं. (सं.- मन्) परमात्मन, ब्रह्मन् (न.) । सर्वाधिकार, सं. पुं. (सं.) पूर्ण प्रभुत्वं, ऐकाधि पत्यम् । सर्वे, सं. पुं ( अं. ) सर्वेक्षणम्, भूमापनम् । सर्वेयर, सं. पुं. ( अं. ) सर्वेक्षकः, भूमापकः । सर्वेश्वर, सं. पुं. (सं.) सर्वेशः, परमेशःश्वरः २. चक्रवर्तिन्, सार्वभौमः । सर्षप, सं. पुं. (सं.) दे. 'सरसों' । सलगम, सं. पुं., दे. 'शलग़मं' । सलज्ज, वि. (सं.) हीमत्, लज्जाशील दे. | सलतनत, सं. स्त्री. ( अ ) राज्यं २. साम्राज्यं ३. शासनम् । सलना, क्रि. अ. (सं. शल्यं ) ब. 'सालना ' के कर्म, के रूप | सलीका सलाख, सं. स्त्री. ( फ्रा. मि. सं. शलाका ) दे. 'सलाई ' २. धातु-दंड: यष्टिः (स्त्री.) ३, रेखा | ३६ स्कारः । दूर से करना, मु. ( अनिष्टं दुर्जनं वा दूरतः ) परिह (भ्वा. प. अ. ) हा ( जु. प. अ. ) । सलामत, वि. ( अ ) सुरक्षित, अक्षत, संकटमुक्त २. जीवत्, सजीव ३. स्वस्थ, नीरोग ४. विद्यमान, वर्तमान । क्रि. वि., सकुशलं, क्षेमेण । - रहना, क्रि. अ., स्वस्थ (वि.) जीव ( भ्वा. प. से. ) कुशली वृत (भ्वा. आ. से. ) । सलामती, सं. स्त्री. ( अ. सलामत ) स्वास्थ्य २. कुशलं, क्षेम: । — से, मु., ईश्वरकृपया । सलामी, सं. स्त्री. ( अ. सलाम ) नमस्क्रिया, अभिवादनं २. सैनिक, प्रणामः प्रणति: (स्त्री.)नमस्कारः ३. अग्न्यस्त्रैः संमानना संभावना ४. प्रवणं, निम्न-अवसर्पि, भूमिः (स्त्री.) । —उतारना, मु., अग्न्यस्त्रैः संभू संमन् (प्रे.) । सलाह, सं. स्त्री. ( अ ) अभिप्रायः तर्कः, मतं-तिः (स्त्री.) २. परामर्शः, मंत्रणा ३. उपदेशः, मंत्रः । - करना, क्रि. अ., विचर (प्रे.), संमंत्र ( चु. आ. से. ), परामृश ( तु. प. अ., तृतीया के साथ ) उपदेशार्थं प्रच्छ् (तु. प. अ. ) । —कार, सं. पुं. ( अ. + फा . ) उपदेष्टृ, मंत्रदः, परामर्शप्रदः, बुद्धिसहायः । सलफ़, वि. (अ.) प्राचीन, पुरातन, पुराण । सं. पुं., पूर्वजाः, पूर्वपुरुषाः, पितरः ( सभी बहु . ) । सलब, वि. ( अ. सल्ब ) नष्ट, उच्छिन्न । सलवाई, सं. स्त्री. (हिं. सलवाना ) वेधन,शुल्कं - मृतिः (स्त्री.) । सलवाना, क्रि. प्रे., ब. 'सालना' के प्रे. रूप । सलिल, सं. पुं. (सं. न.) अंबु, वारि, जलं दे. | सलहज, सं. स्त्री. दे. 'सरहज' । सलाई', सं. स्त्री. (सं. शलाका ) धात्वादिनिर्मिता तनुयष्टि: (स्त्री.) २. दीपू शलाका । सलाई, सं. स्त्री. (हिं. सालना ) वेध:- धनं २. दे. 'सवाई' | - निधि, सं. पुं. (सं.) सागरः, समुद्रः दे. | सलिलाहार, वि. ( सं . ) सलिल-जल-नीर,अशन- भोजन । सं. पुं. (सं.) जल-नीर,अशनम् - आहारः । सलीका, सं. पुं. (अ.) कौशलं, दाक्ष्यं, वैद चातुर्य २. समय- शिष्ट, आचारः, शिष्टता ३. आचार;, चरित्रं, व्यवहारः ४. सभ्यता । —देना, क्रि. स., उपदिश (तु. प. अ.), अनु. शास् ( अ. प. से. ), मंत्र ( चु. उ. से. ) । - ठहरना, मु., सर्वैः निश्वि-निणी (कर्म.), सांमत्यं जनू ( दि. आ. से. ) । For Private And Personal Use Only Page #648 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सलीस [६१०] -मंद, वि. (अ.+फा.) दक्ष, कुशल, विदग्ध, | -जवाब करना, मु., विवद (भ्वा. आ. से.), चतुर २. शिष्ट, शिष्टाचारिन् ३. सभ्य। विचर (प्रे.), तक (चु.), ऊहापोहं कृ । सलीस, वि. (अ.) सुगम, सुबोध २. दे. सवालिया, वि. ( अ. सवाल> ) प्रश्नात्मक, 'मुहावरेदार'। पृच्छापर। सलूक, सं. पुं. (अ.) व्यवहारः, वृत्तिः (स्त्री.), | सवाली, वि. (अ. सवाल> ) याचक, भिक्षुक, वर्तनं २. स्नेहः, सद्भावः ३. उपकारः। अर्थिन् । सलूना, वि. ( सं. सलवण ) ल(ला)वण, लाव- सविकल्प, वि. (सं.) संशय-संदेह-विकल्प, जिक । सं. पं., व्यंजनं, दे. 'भाजी युक्त, संदिग्ध २. साशंक, संशयान, संदिहान। सलोतर, सं. पुं. (सं. शालिहोत्र:> ) १.२. सं. पुं. (सं.) समाधिभेदः । पशु-अश्व,-चिकित्सा ।। | सविता, सं. पुं. (सं.-४) सूर्यः, भानुः । सलोतरी, सं. पुं. (हिं. सलोतर ) १.२. पशु. | सवित्री, सं. स्त्री. (सं.) साविका, दे. 'दाई' अश्व, चिकित्सकः-वैधः। २. जननी ३. गौः (स्त्री.)। सलोना, वि. ( सं. सलवण ) दे. 'सलूना' वि. | सवेरा, सं. पुं. [सं. सुवेला>(स्त्री.)] अरुणो. २. सुन्दर, लावण्यमय, छविमत् ३. स्वाद, दयः, अहर्मुखं, प्रातःकाल:, दे. विलम्ब-चिरतासरस। चिरव, अभावः। सलोनो, सं. स्त्री. (सं. श्रावणी) ऋषितर्पणी, सवैया, सं. पुं. (हिं. सवा) मालिनी, छंदोभेदः रक्षाबंधनं दे। २. सपादसेरात्मकं भारमानं ३. सपादगुणनसवन, सं. पु. (सं. न.) यज्ञस्नानं २. सोम- | सूची। पानं ३. यज्ञः ४. प्रसवः। | सव्य, वि. (सं.) वाम, दे. 'बायाँ' २. दक्षिण सवर्ण, वि. (सं.) तुल्य-समान-स-एक,-जाति- (कभी ही) ३. विरुद्ध, प्रतिकूल। जातीय-वर्ण २. सदृश, समान, तुल्य । -साची, सं. पुं. (सं.चिन् ) अर्जुनः । सवा, वि. (सं. सपाद) पादाधिक, पादोवं। | सशंक, वि. (सं.) दोलायमानं, संशयापन्न, सवाब, सं. पुं. (अ.) पुण्यं, सुकृतफलं २.हितं, संशयान २. भीत, उद्विग्न, त्रस्त ३. भीम, उपकारः। भयंकर । सवाया, वि., दे. 'सवा'। ससुर, सं. पुं. (सं. श्वशुर:) पतिपितृ २. जायासवार, सं. पुं. (फा.) सादिन, तुरगिन्, जनकः ३. ( गाली) दुष्टः, शठः, खलः । अश्व,-आरोहः-आरोहिन् । वि., आरूढ़, अधि- ससुराल, सं. स्त्री. ( सं. श्वशुरालयः) १-२. रूढ़, उपर्यासीन। पति-पत्नी,-पितृगृहं, श्वशुरगृहम् । -होना, क्रि. स. (अश्वादिकं ) अधि-अध्या- ससुरी, सं. स्त्री. (हिं. ससुर ) श्वश्रू: (स्त्री.), आ-समा-रुह (भ्वा. प. अ.), अधिस्था | दे. 'सास' २. दुष्टा, पापा। (भ्वा. प. अ.), अध्यास (अ. आ.से.)। सस्ता, वि. ( सं. स्वस्थ>) अल्प,-अर्घ-मूल्य, सवारी, सं. स्त्री. (फा.) अधि-अध्या-आ, सुखक्रेय २. सुलभ ३. सामान्य, साधारण, रोहणं, आ, रोहः-रूढं, (रथादिभिः) संचरणं- अवर। विहरणं २. यानं, वाहनं ३. आरोहकः, आरो- | -होना, क्रि. अ., अल्पमूल्य-सुखक्रेय (वि.) भू। हिन्, यात्रिन्, यात्रिकः ४. यात्रा, दे. | सस्ते छूटना, मु., स्तोकात् मुच् ( कर्म.)। 'जलूस'। सस्य, सं. पुं. (सं. न.) शस्य, धान्यं, मीत्यं, करना, क्रि. अ., अश्वादिभिः गम्-या | । नीहिः, स्तंबकरिः २. वृक्षादीनां फलम् । (अ. प. अ.)। सह, अव्य. (सं.) साकं, सार्ध, समं, सहितं सवाल, सं. पुं. (अ.) अनुयोगः, प्रश्नः दे.। (सब तृतीया के साथ ) दे. 'साथ' । २. निवेदनं, प्रार्थना ३. भिक्षायाच्या ४.गणित- |-कार, सं. पुं. (सं.) आम्रः, आनं २. सहाप्रश्नः ५. प्रार्थनाविषयः। यकः ३. सहयोगः। -जवाब, सं. पुं. (अ.) प्रश्नोत्तरं २. वाद- -कारिता, सं. स्त्री, (सं.) सहयोगिता प्रतिवादः ३. कलहः। । २, सहायता। For Private And Personal Use Only Page #649 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सहस्त्र - M -कारी, सं. पुं. ( सं.-रिन् ) सह, कृत्-कृत्वन्- । --पथ, सं. पुं. (सं. सहज+पथिन >) सहजयोगिन, सव्यवसायिन् २. सहायकः। पथनामा वैष्णवसंप्रदायविशेषः । -गमन, सं. पुं. ( सं. न.) सह, चरणं-ब्रजनं | -मित्र, सं. पुं. (सं. न.) स्वाभाविकसुहृद् २. पतिशवेन सह ज्वलनं, सह, मरणं-अनु- | २. भागिनेयः ३. भ्रातृष्वसेयः ४. पैतृष्वसेयः । गमनम्। -शत्रु, सं. पुं. (सं.) स्वाभाविकशत्रुः, सह-गामिनी, सं. स्त्री. (सं.) सह मृता, पत्या | जारिः २. पितृव्यपुत्रः ३. वैमात्रेयभ्रातृ । सह ज्वलिता नारी २. पत्नी ३. सहचरी। सहजन, सं. पुं., दे. 'सहिजन'। -गामी, सं. पु. ( सं.-मिन् ) संगिन्, सह,- | सहजिया, सं. पुं. (सं. सहज> ) सहजचरः-चारिन्-यायिन्-वर्तिन् २. अनुयायिन् । । मतानुयायिन् । -चर, सं. पुं. (सं.) दे. 'सहगामी' (१)। सहदेव, सं. पुं. (सं.) पांडुराजस्य पंचमपुत्रः। २. सेवकः ३. सखि, मित्रम् ।। सहन', सं. पुं. (सं. न.) सहिष्णुता, मर्षः, -चरी, सं. स्त्री. (सं.) पत्नी, भार्या २. सखी, | मर्षणं २. क्षमा, तितिक्षा, क्षांतिः ( स्त्री.)। वयस्या ३. सहगामिनी, संगिनी । | -करना, क्रि. अ. दे., 'सहना' । -चार, सं. पु. ( सं.) दे. 'सहगामिन्' (१)। -शील, वि. (सं.) सहिष्णु, तितिक्षु २. क्षमिन, २. संगः, संगतिः (स्त्री.)। क्षमित, सहन। --चारिणी, सं. स्त्री. (सं.) दे. 'सहचरी'(१-३)। । -शीलता, सं. स्त्री. (सं.) दे. 'सहन' (१-२)। -चारी, सं. पु. ( सं.-रिन् ) दे. 'सहगामिन्' सहन, सं. पुं. (अ.) अंगनं, प्रांगणं, अजिरं, (१)। २. सेवकः, अनुचरः। चत्वरम् । -जात, वि. (सं.) सहजन्मन्, यमज | सहना, क्रि. अ. (सं. सहनं ) क्षम्:सह (भ्वा. २. सोदर, सहोदर। आ. से.), तिज (सन्नन्त, तितिक्षते), मृष -जीवी, वि. ( सं.-विन् ) समकालीन २. मह. | | (दि. प. से., चु.)। सं. पुं. तथा भाव, सहनं, वासिन् । सहिष्णुता, सहनशीलता, क्षमा, मर्षणं, शान्तिः -धर्मिणी, सं. स्त्री. (सं.) सहधर्म, चरी- | (स्त्री.), तितिक्षा । चारिणी, धर्मपत्नी। सहनीय, वि. ( सं. ) मर्षणीय, सह्य, सोढव्य, -पाठी, सं. पुं. (सं.-ठिन् ) सह, अध्यायिन् 1- क्षमाह, क्षन्तव्य । पाठकः। सहने वाला, सं. पुं., सोढ़, क्षन्तु,-सहः । -भोज, सं. पुं. (सं.) सन्धिः (स्त्री.), सह | सहम. सं. पं. (फा.) भयं, त्रासः २. संकोचः, भक्षणं, संभक्षः। -भोजी, सं. पुं. (सं.-जिन् ) सहभक्षकः।। दे. 'लिहाज़'। --मत, वि. ( सं.) एक, मत-चित्त, संवादिन. | सहमना, क्रि. अ. ( फ़ा. सहम) दे. 'डरना'। संप्रतिपन्न । सहर, सं. स्त्री. (अ.) उषा, प्रभातम् । -योग, सं. पुं. (सं.) सह-कार:-कारिता- | सहरा, सं. . (अ.) मरुः, मरु, स्थल-भूमिः योगिता २. संगतिः (स्त्री.) ३. सहायता। । (स्त्री.) २. वर्न, निविडकाननम् । -योगी, सं. पुं. (सं.-गिन् ) दे. 'सहकारी' | सहरी, सं. स्त्री. ( सं. शफरी) मीनभेदः। (१-२) ३. समवयस्क ४. समकालीन । सहल, वि. (अ.) सरल, सुगम, सुकर, -वाद, सं. पुं. (सं.) वादप्रतिवादः, हेतु-,वादः।। सुसाध्य । -वास, सं. पुं. (सं.) सहवसतिः ( स्त्री.) | सहला(रा)ना, क्रि. स. (हिं-सहर - धीरे २. संगः ३. मैथुनम् । अथवा अनु०) मृदु (क्र. प. से.), घृष् (भ्वा. -वासी, सं. पुं. (सं.-सिन् ) सहवासकृत् | | प. से.)। सं. पुं. अंगमर्दनं, संवाहनम् । २. दे. 'सहगामी'। सहसा, अव्य. (सं.) अकस्मात्, एकपदे, सहज, वि. (सं.) सुगम, सरल, सुकर २. सह- | अकांड-डे, अतर्कितं, झटिति ( सब अव्य.)। जात, दे. ३. स्वाभाविक, प्राकृतिक ४. साधा- | सहस्त्र, वि. (सं. न.) दशशतं-तकम् । सं. पुं., रण । क्रि. वि., सौकर्येण, सुखम् ।। । दशशतसंख्या २, तद्बोधकांकाश्च (१०००)। For Private And Personal Use Only Page #650 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सहस्रांशु [६१२] सांगी -कर, सं. पुं. (सं.) सहस्र,किरणः-रश्मिः , ( सहिष्णु, वि. ( सं.) सदनशील, दे.। सूर्यः। सहिष्णुता, सं. स्त्री. (सं.) सहनशीलता, दे.। -दल, सं. पुं. (सं. न.) सहस्रपत्रं, कमलम् । | सही, वि. (फ़ा. सहीह) सत्य, यथार्थ २. प्रामा. -नयन, सं. पुं. (सं.) सहस्र,-लोचन:-नेत्रः- णिक ३. शुद्ध, निर्दोष । दृश् । सहीना, सं. पुं. (अ.) ग्रन्थः, पुस्तकम् -नाम, सं. पुं. [सं.-मन् ( न.)] सहस्र २. धर्म,-ग्रन्थ:-पुस्तकम् ३. पत्रम् ४.पत्रिका। नामयुतं देवस्तोत्रम् । -सलामत, वि. ( हिं+अ.) स्वस्थ, नीरोग -बाहु, सं . पुं. (सं.) शिवः, २. कार्तवीर्यो २. संपूर्ण, निर्दोष, त्रुटिरहित । ऽर्जुनः, नृपविशेषः ३. बलिनृपस्य ज्येष्ठसुतः। | सहूलियत, सं. स्त्री. ( फ़ा.) सुकरता, सुगमता सहस्रांशु, सं. पुं. (सं.) सूर्यः । २. शिष्टाचारः। सहस्राक्ष, सं. पुं. (सं.) इन्द्रः २. विष्णुः। सहृदय, वि. (सं.) समवेदना-सहानुभूति, सहाइ-ई, सं. पुं. (सं. सहायः ) सहायकः दे.। युक्त २. दयालु ३. रसिक ४. भद्र, महाशय सहाध्यायी, सं. पुं. (सं.-यिन्) दे. 'सहपाठी'। ५. सत्-साधु,-स्वभाव ६. प्रसन्नमनस्क, सहानुभूति, सं. स्त्री. (सं.) समवेदन-ना, आनंदिन । समदुःख(खि)ता २. समदुःखसुखता। सहृदयता, सं. स्त्री. (सं.) समवेदना, सहानु. —करना या दिखाना, क्रि. अ., सहानुभूति भूतिः ( स्त्री.) २. सज्जनता, सौजन्यं ३. रसिप्रकटयति (ना. धा.), प्रकाश (प्रे.)। कता-त्वं ४. अनुकोशः, दयालुता । सहाय, सं. . (सं.) सहायकः, दे. २. सहा- सहेजना, क्रि. स. (अ. सही+हिं. जांचना) यता, दे. ३. आश्रयः। सम्यक् परीक्ष-निरीक्ष ( भ्वा. आ. से.) सुष्टु सहायक, वि. (सं.) सहायः, उप, कर्तृ-कारिन्- | बोधयित्वा प्रतिपद् (प्रे.)-दा। कारकः, साहाय्यदः. अभिसरः, अनु, चरः- सहेली, सं. स्त्री. (सं. सह+हेलनं>) सखो, प्लवः २. उप-, ( उ. उपमंत्री)। आली-लि: (स्त्री.), संगिनी २. परिचारिका, सहायता, सं. स्त्री. (सं.) साहाय्यं, उप, कारः- | अनुचरी। कृतं-कृतिः ( स्त्री.) २. अनुग्रहः । | सहोक्ति, सं. स्त्री. (सं.) अर्थालंकारभेदः (सा.)। -करना, क्रि. स., साहाय्यं कृ, सहायकः भू, सहोदर, सं.पु. (सं.) सोदरः, सोदयंः, सहजः, उपक (षष्ठी के साथ ), अनुग्रह (क्र. प. से.)।। सगर्भः, समानोदर्यः, भ्रात। सहारना, क्रि. स. (हिं. सहारा) दे. सह्य, वि. (सं.) सहनीय, दे. । सं. पुं. (सं.) 'सहना' २. धृ (चु.), भ (जु. उ. अ.) सह्याद्रिः। ३. उत्तम्भ-उपस्कम्भ । (क. प. से.)। सं. पुं., साई, सं. पुं. (सं. स्वामिन् ) प्रभुः, ईश:. दे. 'सहना' सं. पुं. २. धारणं, उत्तम्भनं, । अधिकारिन् २. परमात्मन, परमेश्वरः उपस्तम्भः । ३. पतिः, भर्तृ ४. यवनभिक्षुः । सहारा, सं. पुं. (सं. सहाय> ) दे. सहा- | सांकड़, सांकल, सं. स्त्री. (सं. शृङ्खला, दे.)। यता (१) २. आश्रयः, अवलंबः, अवष्टंभः | सांकेतिक, वि. (सं.) संकेतात्मक, लाक्षणिक, ३.विश्वासः, प्रत्ययः, विश्रंभः। संकेत, सम्बन्धिन्-विषयक । -देना, क्रि. स., साहाय्यं कृ, उपक २. उत्तंभ- | सांख्य, सं. . ( सं. पुं. न.) महर्षिकपिल. उपस्तम्भ (क्र. प. से.) ३. शरणं-आश्रयं दा, प्रणीतो दर्शनग्रन्थविशेषः।। गुप् ( भ्वा. प. से.) ४. समाश्वस् (प्रे.)। | सांग', सं. '., दे. 'स्वांग' । -ढूंढ़ना, मु., आश्रयं अन्विष् (दि. प. से.)। सांग, सं. स्त्री. (सं, शक्तिः ) काशूः-सूः सहिजन, सं. पुं. (सं. शोभांजनः ) तीक्ष्णगंधः, (दोनों स्त्री.), अस्त्रभेदः । सु.,तीक्ष्णः, रुचिरांजनः। सांग', वि. ( सं.) संपूर्ण, सर्वांगयुत । सहित, वि. (सं.) समेत, युक्त, संगत, अन्वित, सांगी, सं. स्त्री. ( हिं. सांग ) दे. 'सांग' दे. 'साथ' तथा 'सह' । क्रि. वि., सार्क, साथै, २. शकटवाहकासनं, युगः-गं ३. शकटाधोवति. समं, सह । जालकम् । For Private And Personal Use Only Page #651 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [ ६१३ ] सांगोपांग सांगोपांग, वि. (सं.) अंगोपांगयुक्त, सं, पूर्ण, समग्र, समस्त साँच, वि. ( सं . सत्य ) अवितथ, यथार्थ । साँचा, सं. पुं. (सं. स्थातृ ) आकारसाधनं, संस्थानं, संस्थानपुरः २. दे. 'छापा' । साँचे में ढला होना, मु., सर्वांगसुंदर (वि.) वृत् (भ्वा. आ. से. ) । साँझ, सं. स्त्री. (सं. संध्या ) सायंकाल:, दे. | साँझा, सं. पुं., दे. 'साझा' । साँट, सं. स्त्री. (अनु. सट ) सूक्ष्म-तनु,-दंड:यष्टिः (स्त्री.) २. कशः-शा ३. यष्टि कशा, प्रहारचिह्न, नीलं ४. कंडनी । सांठी, सं. स्त्री. (हिं. गांठ का अनु.) मूलधनं', दे. 'पूँजी' । सांड-ड़, सं. पुं. (सं. षंड: ) श (षंढः, गोपतिः, वृषन्, वृषभ: २. दिवंगतस्मृत्यामुत्सृष्टोऽकितो वृषभः ३. वृषणाश्वः, वृषन् । वि., दृढांग, बलिन २. स्वैरिन, दुराचारिन् । साँड (ड़)नी, सं. स्त्री. (हिं. सांड ) उष्ट्री, दे. 'ऊँटनी' । -सवार, सं. पुं. (हि. + फ़ा. ) उष्ट्र, आरोह:आरोहिन् २. उष्ट्र-क्रमेलक, वाहकः । साँडा, सं. पु. ( सं . शयानकः ) कृकलाशः-सः, क्रकचपादः, प्रतिसूर्यः, सरटः-डः, गोधिका, चित्रकोलः । सांत, वि. (सं.) अंतवत्, नश्वर, नाशवत् । सांत्वना, सं. स्त्री. (सं.) सांत्वः त्वनं, आसमा,-श्वासनं २. शमः, शांति: (स्त्री.), ३. प्रणयः । -देना, क्रि. स., सां(शां) त्व् ( चु.), आ. समा, श्वस् ( प्रे.), शोकं शम् (प्रे.) । सांद्र, सं. पुं. (सं.) वनं २. राशि: । वि. (सं.) घन, निबिट, सुसंहत | सांद्रता, सं. स्त्री. (सं.) निविडता, घनता इ. । सांधिविग्रहिक, सं. पुं. (सं.) सन्धियुद्धमंत्रिन् । सांध्य, वि. ( सं. ) संध्या, सम्बन्धिन्- विषयक, वैकालिक, वैकालीन | सांनिध्य, सं. पुं. (सं. न. ) सामीप्यं, निकटता २. मोक्षभेदः । सांप, सं. पुं. ( सं. सर्प: ) भुज (जं)गः, भुजंगमः, अहिः, फण-विष, घरः, व्यालः, सरीसृपः, आशीविषः, कुंडलिन्, चक्षुःश्रवस्, फणिन, विलेशयः, उरगः, पन्नगः, पवनाशनः, दंष्ट्रिन, द्वि-जिह्न:- रसनः, पृदाकु:, चक्रिन्, दंदशुकः, भोगिन, गूढपाद्-दः, दीर्घपृष्ठः, जिह्मगः । ( धब्बोंवाला सांप ) मातुलाहिः, . मालुधानः । ( धारीदार सांप ) राजि (जी) ल: । (फनियर साँप ) भोग-फण, भत्-धरः, फणिन्, भोगिन् । —की लहर, मु., अहिदशव्यथा । -के मुँह में, मु., महासंकटे । छछूंदर की दशा, मु., द्वैधीभाव, दोलावृत्तिः (स्त्री.), संदेहः । - सूँघ जाना, मु., सर्पेण दंशू (कर्म.), मृ ( तु. आ. अ.) । कलेजे पर - लोटना, मु. ( ईर्ष्यादिभिः ) मनोऽत्यंतं संतप् ( कर्म. ) । सांपत्तिक, वि. (सं.) आर्थिक, दे. । सांपिन, सं. स्त्री. (हि. सांप ) सर्पिणी, सर्पी, पन्नगी, उरगी, भुजगी इ. । सांप्रत, अव्य. (सं.-तं ) अधुनैव, इदानीमेव, सद्यः, संप्रति । वि. (सं.) उचित, योग्य, २. प्रासंगिक, प्रास्ताविक । सांप्रदायिक, वि. (सं.) शाखागत, संप्रदायधर्म-मत, विषयक-संबंधिन् २ . परंपरीण, क्रमा गत । सांब, सं. पुं. (सं.) श्रीकृष्णपुत्रः । सांभर, सं. पुं. (सं. सांबरं ) संबरोद्भवं, रौमकं, वसुकं २. राजपुत्रस्थानप्रदेशे कासारविशेषः । सांमुख्य, सं. पुं. ( सं. न. ) दे. 'सामना' (२) । साँय साँय, सं. स्त्री. (अनु.) दे. 'सनसनाहट'(१) । साँवला, वि. ( सं . श्यामल ) कृष्ण, श्याम २. ईषच्छ्याम, आकृष्ण ३. कृष्णनील । सं. पुं., श्रीकृष्णः २. पतिः ३. प्रेमिन्, प्रणयिन् । साँवलापन, सं. पुं. (हिं. साँवला) श्यामलता, श्यामता, आ., कृष्णता, कृष्णनीलता । साँवाँ, सं. पुं. ( सं . श्यामाकः ) श्याम:-मकः, त्रिबीज:, अविप्रियः । साँस, सं. स्त्री. [ सं . श्वासः ( पुं. )] उच्छ्वासः, उच्छ्वसितं नि (निः) श्वासः, नि: (नि) श्व- सितं, आन:, आहरः, एतनः, असवः प्राणाः ( दोनों पुं. बहु.) २. दीर्घश्वासः, निश्वासः, उच्छ्वासः ३. विरामः ; विश्रामः ४. स्फोटः, भंग: ५. श्वास रोगः, दे. 'दमा' | For Private And Personal Use Only Page #652 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सांसारिक — रुकना, क्रि. अ., श्वासः निरुधू ( कर्म. ) । —लेना, क्रि. अ., अन्- प्राण श्वसू ( अ. प. से. ) २. जीव ( भ्वा. प. से. ) ३. विश्रम् ( दि. प. से. ) विरम् (भ्वा. प. अ. ) । - उखड़ना, मु., ( निधनकाले ) कष्टं श्वस् । कृच्छ्र [ ६१४ ] - खींचना, मु., श्वासमंतः निरुध् (रु.प.से.) । --चढ़ना या फूलना, मु., सवेगं प्राण । - तक न लेना, मु., मौनं आकल् ( चु. ) । -रहते, मु., यावज्जीवं वनं, आमृत्योः । गहरी या लंबी लेना, मु., दीर्घे श्वस् । सांसारिक, वि. ( सं . ) ऐहिक, लौकिक, प्रापंचिक, व्यावहारिक । सा, वि. ( सं . सदृश ) सम, समान, तुल्य, सदृश २. इव, मात्रं (उ. थोड़ा सा = किंचि दिव, किंचिन्मात्रं ) ३. आ, ईषत् (उ. काला सा=आ-ईषत्,-कृष्ण ) । साइक्लोपीडिया, सं. स्त्री. (अं.) (विषयविशेषनिरूपक: ) बृहद्ग्रंथः २. विश्वकोशः षः । साइत, सं. स्त्री. ( अ. साअत ) होरा, दे. 'घंटा' २. पलं, क्षण:-णं ३. मंगलमुहूर्त:, शुभलग्नम् । साइनबोर्ड, सं. पुं. (अं. ) चिह्न पट्टः-ट्टम् । साइन्स, सं. स्त्री. ( अं.) विज्ञानं, शास्त्रं २. रासायनिकविज्ञानं भौतिकविज्ञानं च | साइकन, सं. स्त्री. ( अं- ) उत्क्षेपणनाली । साई; सं. स्त्री., दे. 'पेशगी' । साईस, सं. पुं. (रईस का अनु.) अश्व, सेवकःपाल:- पालकः-रक्षकः, यावासिकः । साईसी, सं. स्त्री. (हि. साईस) अश्वसेवा, अश्वसेवकत्वम् । साक, सं. पुं., दे. 'साग' | साकांक्ष, वि. (सं.) इच्छु, इच्छुक, आकां क्षिन्, अभिलाषिन् । साका, सं. पुं. ( सं. शाकः ) संवत् (अन्य ), दे. २. यशस् (न.), कीर्तिः ख्यातिः (स्त्री.) ३. कीर्ति, चिह्न - स्मारकं ४. आतंकः प्रभावः ५. कीर्तिकर कर्मन् ( न. ) । साकार, वि. (सं.) आकारवत्, आकृतिमत्, रूपवत् २. स्थूल, मूर्त्त ३. मूर्तिमत् वपुष्मत्, देहधारिन् । साकारोपासना, सं. स्त्री. (सं.) मूर्त्यादिभि: प्रभुपूजनं, मूर्तिपूजा । सजिन - साकिन, वि. (अ.) नि, वासिन्, वास्तव्य । साक्री, सं. पुं. (अ.) सुरापरिवेषकः २. वल्लभः, प्रेमपात्रं, दे. 'माशूक' । साकूत, वि. (सं.) सार्थक. अर्थवत् साभिप्राय, सप्रयोजन । साकेत, सं. पुं. (सं. न. ) अयोध्या, दे. | साक्षर, वि. (सं.) शिक्षित, अक्षर, ज्ञ- अभिज्ञ । साक्षात्, अव्य. ( सं . ) पुरतः, अग्रतः, समक्षं, प्रत्यक्षम् । वि., मूर्तिमत्, साकार, विग्रहवत् । सं. पुं., सं. समागमः, मेल:, संमिलनम् । -करना, क्रि. स., साक्षात् कृ. स्वचक्षुभ्यि दृश् (भ्वा. प. अ. ), निजेन्द्रियैः अवगम् | -कार, सं. पुं. ( सं . ) दे. 'साक्षात्' । सं. पुं. २. प्रत्यक्षं, इंद्रियार्थसंनिकर्षजं ज्ञानम् । साक्षी, सं. पुं. (सं.- क्षिन) दे. 'गवाह' २. द्रष्टृ, प्रेक्षकः । सं. स्त्री, साक्ष्यम् । साक्ष्य, सं. पुं. ( सं. न. ) साक्षिता-त्वं, दे. 'गवाही' २. दृश्यम् । साख, सं. स्त्री. (हिं. साका) प्रभाव:, वश:- शं, आतंक: २. ( हट्टे) प्रतिष्ठा, प्रत्ययः, विश्वस नीयता । साग, सं. पु. ( सं. शाक:- कं ) शि(सि) ग्रु, ह (हा), रितकं २. व्यंजनं, अन्नोपस्करः, दे. 'भाजी' । -पात, सं. पुं., शाकपत्रं, कंदमूलं २ साधारण-नीरस, भोजनम् । सागर, सं. पुं. ( सं . ) समुद्रः, दे. २. महाह्रदः-तटाकः(-कम्) । सागवान, सं. पुं., दे. 'सागौन' । For Private And Personal Use Only सागू, सं. पुं. ( अं. सैगो ) सागुः, वृक्षभेदः । - दाना, सं. पुं. (हिं. + फ्रा. ) *सांगुदानः । सागौन, सं. पुं. ( सं. शाकवनं > ) गृहद्रुमः, श्रेष्ठकाष्ठः, शाकः, शाक, तरुः-वृक्षः, अर्णः । साज़, सं. पुं. (फ़ा, मि. सं. सज्जा ) सामग्री, उपकरणं २. ( अश्व - ) सज्जा- संनाह: ३. वाद्यं, वादित्रं ४. अस्त्रशस्त्रं ५ सुपरिचयः, प्रगाढसख्यम् । वि. ( फा . ) - कार: २. प्रतिसमाधातृ । ( उ. घड़ीसाज़ = घटीकारः, घटीप्रतिसमाधातृ ) 1 - बाज, सं. स्त्री, सुपरिचयः । - सामान, सं. पुं., सामग्री, उपकरण, परिच्छदः २. दे. 'ठाठबाट' । साजन, सं. पुं. (सं. सज्जनः ) भद्रजनः, आर्यः, सत्पुरुषः २. पतिः ३. वल्लभः ४. परमेश्वरः । Page #653 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir साजना [ ६१५ ] सादृश्य साजना, क्रि. स., दे. 'सजाना' । सात्त्विक, वि. (सं. सात्त्विक) १-३. सत्त्वगुण, साज़िदा, सं. . (फ़ा.) वाद्य-वादित्र-वादकः ।। संबंधिन्-निष्पादित-प्रधान ४. शुद्धात्मन्, साज़िश, सं. स्त्री. (फ्रा.) दे. 'षड्यंत्र'। निष्कपट, ऋजु, सरल । सं. पुं. (सं.) सत्त्वसाझा, सं. पुं. (सं. साहाय>) अंशिता, | गुणजा अष्टप्रकारा भावाः (=स्वेदः स्तंभोऽथ भागिता, भागधरत्वं २. अंशः, भागः। रोमांचः स्वरभंगोऽथ वेपथुः । वैवयंमश्रु प्रलय साझी, सं. पुं. (हिं. साझा ) दे. 'साझेदार'। । इत्यष्टौ सात्त्विकाः स्मृताः, सा.)। साझेदार, सं. पुं. (हिं. साझा) अंशकः, अंशिन, । साथ, अव्य. ( सं. सहितं ) सह, साकं, साध, भागधरः, अंशयित। सम, तृतीया से भी (उ. क्रोध के साथ क्रोधेन साझेदारी, सं. स्त्री. (हिं. साझेदार ) दे. | इ.), स-, -पूर्वकं, -पुरःसरं ( उ. आदर के 'साझा' (१)। साथ सादरं, आदर, पूर्वकं-पुरःसरं इ.), साटन, सं. पुं. ( अं. सैटिन ) *साटनं, कौशेय- सं, ( उ. साथ रहना-संवासः)। सं. पुं. वस्त्रभेदः। संगः, संगतिः (स्त्री.) सहचारः, साहचय, साटा, सं. पु. ( देश.) विनिमयः, परिवर्तः। । संसर्गः। साठ, वि. [ सं. षष्टिः (नित्य स्त्री.)] सं. पु.] -का, मु., व्यंजनं, अन्नोपस्करः । उक्ता संख्या तद्बोधकांको (६०) च। -छूटना, मु., विश्लिष् (दि. प. अ.), व्यपसाठवाँ, वि. (हिं. साठ) षष्टितमः-मी-मं | इ. (अ. प. अ.)। (पुं. स्त्री. न.)। -देना, मु., साहाय्यं कृ २. रक्ष (भ्वा. प. से.) साठा, वि. (हिं. साठ ) षष्टिवर्ष । ३. सह या (अ. प. अ.)। साठी, सं. पुं. (सं. षष्टिकः-का) स्निग्धतंडलः, -ही, मु., अपरं च, अन्यच्च, अपि च, किं च. पष्टिजः । -अतिरिक्तम् । साड़ी, सं. स्त्री. (सं. शाटी) नारीवस्त्रभेदः। । एक-, मु., युगपत, समकालं-ले, यौगपद्येन साढ़साती, सं. स्त्री. (हिं. साढ़े+सात ) २. संभूय, मिलित्वा । सार्द्धसप्तवर्ष (-मास-दिवस-)वर्तिनी शनिदशा। साथिन, सं. स्त्री. (हिं. साथी) सहचरी २. सखी। -आना या-चढ़ना, मु., दुर्दिनानि आपत् साथी, सं. पु. (हिं. साथ ) संगिन्, सहचरः (भ्वा. प. से.)। २. मित्रं, सखि (पुं.)। साढ , सं. पुं. (सं. श्यालीधवः) श्यालीपतिः, सादगी, सं. स्त्री. (फा.) साधुता, सरलता, जायानशिकः। आर्जवं, निष्कापट्य २. आडंबरहीनता । साढ़े, वि. ( सं. सार्ध) अध्यर्ध । सादर, वि. (सं.) सगौरव, सविनय । क्रि. सात, वि. ( सं. सप्तन ) सं. पुं., उक्ता संख्या, वि. (सं.) सप्रश्रयं, सविनयम् ।। तद्बोधकांकश्च (७)। सादा, वि. (फा.-दः) निष्कपट, निश्छल, -गुना, वि., सप्त,गुण-गुणित । सरल, ऋजु, माया,-रहित, निर्व्याज, शुद्धात्मन् -प्रकार का, वि., सप्त, विध-प्रकार । २. अज्ञ, मूर्ख ३. श्वेत, रंग-वर्ण,-हीन ४, अक्ष-फेरी, सं. स्त्री., दे. 'भाँवर'। रांकादिरहित, रेखारहित ५. शुद्ध, केवल -पांच, मु., शाठ्यं, कापट्यम् । ६. अलंकाररहित ७. विनीत-अनुद्धत, वेश(ष) -पांच करना, मु., प्रत-वंच (प्रे.), विप्रलभ | ८. अल्पावयव ( यंत्रादि)। (भ्वा. आ. अ.)। सादापन, सं. पुं. (फा. सादह ) दे. 'सादगी'। -पुरतों से, मु., अनादिकालात् । सादि, वि. ( सं.) सारम्भ, सोपक्रम, आरम्भ-समुद्र पार, मु., अति, दूर-दूरे। उपक्रम, वत-युक्त। सातवा, वि. (हिं. सात) सप्तमः-मी-मं | सादिक, वि. (अ.) सत्य, यथार्थ २. शुद्ध, (पुं. स्त्री. न.)। त्रुटिरहित। सात्यकि, सं. पु. (सं.) यादवयोधविशेषः, | सादृश्य, सं. पुं. (सं. न.) समता, समानता, श्रीकृष्णसारथिः। साम्यं, सदृशता, तुल्यता। For Private And Personal Use Only Page #654 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सांध [ ६१६ ] साफ साध', सं. पुं., दे. 'साधु' । सज्जनः, आर्यः ३. अभिजातः, कुलीनः । वि. साधर, सं. स्त्री. (सं. उत्साहः> ) अभि- | (सं.) भद्र, उत्तम, श्रेष्ठ २. यथार्थ, सत्य, लापः, कामना, लालसा, वाञ्छा। अवितथ ३.प्रशंसनीय, स्तुत्य ४. निपुण साधक, सं. पुं. (सं.) सं-निष ,-पादकः, समा- ५. अर्ह, योग्य ६. उचित, युक्त । पकः, सिद्धिकरः, निर्वर्तयितृ २. तपस्विन्, -वाद, सं. पुं. (सं.) साधु,वचनं-उक्तिः तापसः, योगिन् ३. करणं, साधनं ४. परहित- (स्त्री.), शंसात्मकं वचनम् । कारिन्, परकार्यसहायः ५. भक्तः, उपासकः -साधु, भव्य. (सं.) धन्य धन्य, सम्यक६. भूतापसारकः, दे. 'ओशा'। सम्यक् , शोभनं शोभनं, वरं वरम् । साधन, सं. पु. ( सं. न. ) निष्पादन, विधान, साधुता, सं. स्त्री. (सं.) सज्जनता, श्रेष्ठता, संपादनं, करणं, अनुष्ठानं, समापनं, निर्वर्तनं भद्रता, आर्यता २. सरलता, आर्जवं ३-४, २. उपकरणं, सामग्री ३. युक्तिः (स्त्री.), साधु, चरित-धर्मः। उपायः ४. उपासना, पूजा ५. सहायता साधू, सं. पुं., दे. 'साधु' । ६. धातुशोधनं ७. कारणं, हेतुः ८. धनं | साध्य, वि. (सं.), निष्पादनीय, करणीय, ९. पदार्थः १०. सिद्धिः ( स्त्री.)। अनुष्ठेय, समाप्तव्य २. शक्य, संभाव्य, संभवसाधना, सं. स्त्री. (सं.) सिद्धिः-निर्वृत्तिः-निष्पत्तिः नीय ३. सुकर, सुगम ४. प्रमाणयितन्य, (स्त्री.) २. आराधना, उपासना ३. अभ्यासः, सत्यापयितव्य, उपपादयितव्य ५. प्रतिकारार्ह, क्रियासातत्यं, नित्यानुष्ठानम् । क्रि. स. (सं.. प्रतिकार्य ६. शेय। सं. पुं. (सं.) देवता साधनं) साधु (स्वा. प. अ., प्रे.), सिध २. गणदेवताभेदः ३. साधनीयपदार्थः (न्या.)। (प्रे. साधयति) २. निवृत-संपद-समाप (प्रे.), साध्वस, सं. पुं. (सं. न.) भयं २. व्याकुलता। अनुष्ठा ( भ्वा. प. अ.) २. विनी ( भ्वा. साध्वी, सं. स्त्री. (सं.) सती, सच्चरित्रा २. पति, प. अ.), शिक्ष (प्रे.) ३. दम् (प्रे. दमयति)। व्रता-परायणा । वशीक ४. अभ्यस् ( दि. प. से.), अभ्यास- | सानंद, वि. (सं.) प्रहृष्ट, मुदित। क्रि. वि. (सं. व्यवहारं कृ ५. नियंत्र (चु.), अनुशास् (अ. | न.) सकुशलं, सहर्षम् । प.से.)। सं. पुं. तथा भाव, साधनं, निर्वर्तनं, सान, सं. पुं. (सं. शाणः) शाणी, शाणाश्मन् । सं-निष् , पादनं, अनुष्ठान,विनयनं, दे.'साधक', -देना, क्रि. स., तिज (प्रे.), नि:, शो (दि. 'साधन' इ.। प. अ.), तीक्ष्णीकृ, क्ष्णु (अ. प. से.)। साधर्म्य, सं. पु. (सं. न.) सधर्मता-त्वं, समान- सानना, क्रि. स. (हिं. सनना, सं. संधा से) तुल्य, धर्मता-गुणता। मर्दनेन संमिश्र (चु.), हस्ताभ्यां मृद (क्र. साधारण, वि. (सं.) सामान्य, विशिष्टता- । प. से., प्रे.)-संपीड (चु.) २. मलिनयति, रहित, प्रायिक, प्राकृत, मध्यम, अवर २. सुकर, कलुषयति-कलंकयति ( ना. था.) ३. संश्लिष् सुसाध्य ३. सार्वजनिक, सर्वजनीन ४. सदृश. (प्रे.), संबंधू (क्र. प. अ.)। तुल्य। सानी', सं. स्त्री. (हिं. सानना ) *सिक्तान्नम् । -धर्म, सं. पुं. (सं.) सार्वजनिकधर्मः २. चातु- सानी२, वि. ( अ.) द्वितीय, अपर २. तुल्य, वर्ण्यस्य सामान्यधर्मः। समान । -स्त्री, सं. स्त्री. ( सं.) वेश्या। ला--, वि. (अ.) अद्वितीय, अनुपम, अप्रतिम । साधारणतः, अव्य. (सं.) सामान्यतः, प्रायशः, | सापत्न्य, सं. पुं. (सं. न.) सपत्नीभावः, सदाप्रायेण, बहुशः (सब अव्य.)। रत्वम् । (सं. पुं.) सपत्नीसुतः २. शत्रुः । साधारणतया, अव्य. (सं.) दे. 'साधारणतः। साफ़, वि. (अ.) स्वच्छ, निर्मल दे.। २.शुद्ध, साधारणता, सं. स्त्री. (सं.) सामान्यता, | केवल ३. निर्दोष, त्रुटिहीन ४. स्पष्ट, विशद विशिष्टताऽभावः, साधारण्यम् । ५. श्वेत, उज्ज्वल, भास्वर ६. निष्कपट, साधु, सं. पुं. (सं.) सन्न्यासिन्, परिव्राजकः, निश्छल ७. सम, सम, तल-रेख ८. निर्विघ्न, महात्मन्, तापसः, मुनिः, यतिः २. सत्पुरुषः, । निर्बाध ९. अंकाक्षरशून्य, लेखरहित् । क्रि.वि., For Private And Personal Use Only Page #655 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra साफल्य सामान्यतः — करना, किं. स., प्रक्षल् ( चु. ), प्र-सं, मृज् (अ. प. से., प्र. ), धाव् (भ्वा. प. से., चु. ), निर्णिज् ( जु. उ. अ. ) २. शुध् ( प्रे. ), पू ( क्रू. उ. से. ), पवित्रीकृ ३. ( ऋणादिकं ) निस्तृ-शुभ् (.)-अपाकृ । निष्कलंकं निरपवादं २ प्रच्छन्नं निभृतं । सामग्री, सं. स्त्री. (सं.) उपकरणजातं, संभार:, ३. हानि-क्षति विना ४ अत्यंतं नितांत साधनसमूहः, आवश्यकद्रव्याणि ( न. बहु. ) ४. निराहारम् । २. परिच्छदः, उपस्करः । सामग्र्य, सं. पुं. ( सं. न. ) समग्रता, पूर्णता, समष्टिः (स्त्री.) २. अनुचर -सेवक, वर्ग:समुदाय: ३ उपकरणसंग्रहः ४. कोष: ५. परिच्छदः, उपस्करः । www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [ ] ६१७ - गो, वि., स्पष्ट यथार्थ, भाषिन् वादिन् । — गोई, सं. स्त्री. स्पष्ट यथार्थ, -भाषिता-वादिता । - दिल, वि. ( अ. + फ़ा. ) ऋजु, सरल, निष्कपट | साना, सं. पुं शिरोवेष्टनम् । - साफ़, अव्य. स्पष्टतः प्रकटम्, प्रकाशम्, स्फुटं व्यक्तम् ( सब अव्य.) । साफल्य, सं. पुं. ( सं. न. ) सफलता, दे. २. लाभः । साफी, सं. स्त्री. ( अ. साफ़ ) गालनी । साबन, सं. पुं., दे. 'साबुन' । ( अ. साफ़ ) उष्णीषः-षं, साबर, सं. पुं. (सं. शंबर : ) मृग-भेद: २. शंबरचर्मन् (न.) ३. वातमृगचर्मन् (न.) । साबिक, वि. ( अ. ) पुराण, पुरातन, पूर्व, प्राचीन, प्राक्तन । साबिका, सं. पुं. ( अ ) व्यवहारः, संबंध: २. परिचयः । साबित, वि. (अ.) प्रमाणित, सिद्ध दे. | साबु (बूत, वि. (फ्रा. सबूत ) संपूर्ण, समस्त, पूर्णाग २. निर्दोष ३. स्थिर । साबुन, सं. पुं. (अ.) *फेनलं, स्वफेनम् । साबूदाना, सं. पुं. दे. 'सागूदाना' । सामंजस्य, सं. पुं. (सं. न.) औचित्यं, योग्यता २. उपयुक्तता ३. अनुकूलता ४. आनुकूल्यं, आनुरूप्यम् । सामंत, सं. पुं. (सं.) वीरः, भटः, योधः, २. नायकः, गणाधिपतिः ३. क्षेत्र, पति: स्वामिन् । साम, सं. पुं. [सं. मनू (न.)] सामवेदः २. गेयवेदमंत्रः ३. प्रियवाक्यादिभिः सांत्वनं, मधुर भाषणं ४. उपायभेद: ( राजनीति ) । - वेद, सं. पुं. ( सं . ) आर्याणां प्रसिद्धो धर्मग्रंथविशेषः । सामक, सं. पुं., दे. 'साँवाँ' । सामना, सं. पुं. (हिं. सामने ) अग्र-पूर्व, भागः, मुखं २. सं ( समागमः, संमिलनं, दर्शनं, सांमुख्यं ३. विरोधः, विपक्षता । —करना, क्रि. स., वि-प्रतिरुधू (रु. उ. अ. ), प्रत्यव-स्था (भ्वा. आ. अ.), बाबू (भ्वा. आ. से. ) । सामने, क्रि.वि. ( सं . संमुखे ) अग्रतः, अग्रे, पुरः, पुरतः, समक्षं, अभि-सं, मुखं मुखे २ उपस्थितौ विद्यमानतायां ३. तुलनायां, प्रतियोगितायां, विरुद्धम् । -आना या - होना, क्रि. अ., अभि-सं, मुखी भू, संमुखं स्था ( स्वा. प. अ. ) । - - करना क्रि. स., अग्रे - पुरतः स्था ( प्रे. ), समक्षं नी (भ्वा. प. अ. ) । - से, क्रि. वि., अग्रतः, पुरस्तात्, पुरतः । आमने -, क्रि. वि. (अन्योन्यस्य ) संमुखं-खे, मुखामुख, प्रतिमुखम् । सामयिक, वि. (सं.) कालिक [-की (स्त्री.) ] काल-समय, -विषयक २. सांप्रतिक, इदानींतन, आधुनिक, वर्तमान ३. समयोचित, कालानुरूप । - पत्र, सं. पुं. (सं. न. ) समाचारपत्रं, दे. । सम, वि. (सं.) समकालीन, दे. । सामर्थ्य, सं. पुं. स्त्री. (सं. न. ) वीशक्तिः (स्त्री.), योग्यता, कार्यक्षमता २. बलं, शक्तिः (स्त्री.) ३. तेजस् (न.), पराक्रम: ४. शब्दसंबंध: ( व्या.) । सामाजिक, वि. (सं.) सामुदायिक, समाजजनसंघ, संबंधिन्, समाज । सामान, सं. पुं. ( फ्रा.) दे. 'सामग्री ' (१-२ ) । यंत्राणि, उपकरणानि ( दोनों न. बहु . ) ४. दे. 'प्रबंध' । सामान्य, वि. ( सं . ) दे. 'साधारण' । सं. पुं. (सं. न.) सादृश्यं, समानता २. साधारण, धर्म:गुण: (वैशेषिक) ३. अर्थालंकार - भेदः (सा.) । -निता, सं. स्त्री. ( सं . ) वेश्या, वारांगना । सामान्यतः, क्रि. वि. (सं.) दे. 'साधारणतः' । For Private And Personal Use Only Page #656 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [ ६८ ] सामान्यतया सामान्यतया, क्रि. वि. (सं.) दे. 'साधा. रणतया' | सामिग्री, सं. स्त्री. दे. 'सामग्री' । सामीप्य, सं पुं. (सं. न. ) सान्निध्यं, नैकट्यं २. मुक्तिभेदः । सामुदायिक, वि. (सं.) सामूहिक, सामवायिक | सामुद्रिक, सं.पुं. (सं. न.) *तनुचिह्न विज्ञानम् । वि. (सं.) सामुद्र, समुद्रीय । साम्य, सं. पुं. (सं. न. ) समता, समानता, तुल्यता । - वाद, सं. पुं. (सं.) समाज समष्टि, वादः, पाश्चात्यः सामाजिकसिद्धांतविशेषः । साम्राज्य, सं. पुं. (सं. न. ) आधिपत्यं, आधिराज्यं, पूर्णाधिकारः; दशलक्षाधिपत्यं २. महाविस्तृत, राज्यं विषयः-राष्ट्रम् । सायं, क्रि. वि. (सं.) दिनांते, सायंकाले । सं. पुं., दे. ‘सायंकाल' । -काल, सं. पुं. (सं.) सायाह्नः, साय:-यं, सायंसंध्यासमयः, रजनीमुखं, प्रदोष, दिवस. दिन, अंत: अवसानं, संध्या, वि-वै, कालः । –कालीन, वि. ( सं. ) सायंतन (नी स्त्री.), सायं-, प्रादोषिक-वैकालिक ( की स्त्री.), सायंभव । संध्या, सं. स्त्री. ( सं . ) पश्चिमा संध्या | सायंस, सं. स्त्री. दे. 'साइन्स' । सायक, सं. पुं. (सं.) इषु, बाणः २. खड्गः । सायण, सं. पुं. (सं.) चतुर्वेदभाष्यकारो माय णपुत्रः । सायत, सं. स्त्री. दे. 'साइत' । सायबान, सं. पुं. (फ़ा. साय: वान) प्रघ (घा) णः, अलिंद : २. तृणप्रच्छदिस्, *प्रच्छायवत् । सायल, सं. पुं. (अ.) प्रश्न- क (का) र:कर्तृ, प्रष्टृ, पृच्छ्कः २. याचकः, भिक्षुः ३. प्रार्थिन्, आवेदकः ४. पद-आकांक्षिन-अन्वेषिन् । साया, सं. पुं. ( फा . यह् ) दे. 'छाया' । सायुज्य, सं. पुं. (सं. न. ) एकीभावः, ऐक्यं, सारूप्यं २. मुक्तिभेदः । सारंग, सं. पुं. (सं.) मृगभेदः २. मृगः ३. वाद्यभेदः ४. रागिणीभेद: ५. धनुस् (न.) ६. इषुः ७. सर्पः ८. रात्री ९. रमणी १०. खडगः ११. मेघः १२. खगः १३. मयूरः १४. हंसः १५. चातकः १६. भ्रमरः १७. सागरः १८. कमलं १९. चंद्रः २०. श्रीकृष्णः, इ. । - पाणि, सं. पुं. ( सं . ) विष्णुः । सार्थ लोचना, सं. स्त्री. (सं.) मृगलोचनी, हरिणाक्षी, कुरंगाक्षी, मृगनयनी । सारंगिया, सं. पुं. (सं. सारंगी > ) सारंग (गी) वादक: । सारंगी, सं. स्त्री. (सं.) शारंगी, सारंगः, पिनाकी, वाद्यभेदः । सार, सं. पुं. ( सं . पुं. न. ) तत्त्वं, मुख्यांशः, स्थिरांश:, मूलं, मूलवस्तु (न.) २. भावः, तात्पर्य, निष्कर्षः, पिंडित-निष्कृष्ट निर्गलितअर्थः ३. मज्जा, अस्थि, जं-संभव-स्नेहः-तेजस् (न.) । ( सं . पुं.) रसः, द्रवः, निर्यासः २. संक्षेपः संग्रहः ३. शक्तिः (स्त्री.), बलं ४. वीर्य, पराक्रमः ५. वज्रक्षारं ६. वायुः ७. रोगः ८. पाशकः ९. दध्युत्तरं १०. अर्थालंकारभेदः (सा.) । (सं. न. ) जलं २. धनं ३. नवनीतं ४. अमृतं ५. लौहं ६. वनम् । वि. (सं.) उत्तम, श्रेष्ठ २. दृढ, बलवत् ३. न्याय्य, धर्म्य 1 गर्भित, वि. (सं.) तस्वपूर्ण, सार, युक्त-वत् । - वर्जित, वि. ( सं . ) निस्सार, तत्त्वहीन | सारथि थी, सं. पुं. (सं. थि: ) सूतः, हर्यंकषः, नियंतु, नियामक:, क्षत्तृ, प्राजितृ, दक्षिणस्थः, रथः, -नागरः- कुटुंबिन् । सारल्य, सं. पुं. (सं. न. ) सरलता, दे. | सारस, सं. पुं. (सं.) पुष्करालः, लक्ष्मणः, लक्षणः, कामिन्, रसिकः, सरसीकः २. हंसः ३. चंद्रः । (सारसी स्त्री. ) । सारस्वत, सं. पुं. (सं.) ब्राह्मण जातिभेदः २. व्याकरणग्रन्थविशेषः । वि. ( सं . ) सारस्वतीय | सारांश, सं. पुं. (सं.) सारः, निष्कर्षः, पिंडितार्थ: २. अभिप्रायः, आशयः ३. परिणामः, फलं ४. उपसंहारः । सारा, वि. (सं. सर्व ) संपूर्ण, समग्र, समस्त । सारिका, सं. स्त्री. (सं.) सारी, शारीरिका, चित्रलोचना, पीतपादा, कलहप्रिया, मधु रालापा । सारून्य, सं. पुं. (सं. न. ) तुल्य, सम-स-पक, रूपता, तुल्यता, समता २. मोक्षभेदः । सार्थ, वि. (सं.) सार्थक, साभिप्राय २. समान तुल्य, अर्थक- अर्थिन् ( शब्दादि ) ३. धनिन्, धनाढ्य । सं. पुं. (सं.) धनाढ्यः, धनिकः २. यात्रि- यात्रिक, समूहः-समुदायः For Private And Personal Use Only Page #657 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सार्थक (६१६ j साहस ३. तीर्थयात्रिकाः (बहु.) ४. पण्याजीवः, । सालिम, वि. (अ.) समग्र, सं., पूर्ण, अखंडित, साथिकः, व्यापारिन्। अक्षत। सार्थक, वि. (सं.) सार्थ, अर्थ, वत्-युक्त-पूर्ण | सालिस, सं. पुं. (अ.) निर्णत, मध्यस्थः, २.सकल, पूर्णकाम ३. गुणकारिन्, उपयोगिन, प्रमाणपुरुषः। हितकर। सालिसी, सं. स्त्री. ( अ.) माध्यस्थ्यं, निर्णयः सार्थकता, सं. स्त्री. (सं.) अर्थवत्ता २. सफ- २. दे. 'पंचायत'। लता, सिद्धिः ( स्त्री.)। | साली, सं. स्त्री. (सं. श्याली ) श्यालिका, सार्दूल, सं. पु. ( सं. शार्दूल: ) सिंहः। केलीकुंचिका, पत्नीभगिनी, ( छोटी ) यन्त्रणी, सार्वकालिक, वि. (सं.) सार्वसामयिक. | यन्त्रिणी, (बड़ी) कुली। शाश्वत-तिक। | सालू , सं. पु. ( देश.) मांगलिको रक्तपटभेदः । सार्वजनिक, वि. (सं.) सर्वजनहित, स(सा) सालोत्री, सं. पुं., दे. 'सलोतरी'। र्वजनीन, सार्वलौकिक । सावधान, वि. (सं.) अवहित, दत्तावधान, सार्वत्रिक, वि. (सं.) सर्वत्र,-भव-व्यापिन् । । समाहित, तन्द्रा-प्रमाद, रहित, जागरूक, दक्ष । सार्वदेशिक, वि. (सं.) सर्व-समग्र, देशविषयक। -करना, कि.स., प्राक् सूच् (चु.)-प्रबुध (प्रे.)। सार्वभौतिक, वि. (सं.) चराचरसंबंधिन्। | -होना, क्रि. अ., सावधान-अवहित-जागरूक (वि.) भू २. अवधा (जु. उ. अ.), मनो सार्वभौम, सं.पुं. (सं.) चक्रवर्तिन् , नृपाग्रणीः, | युज् (चु.)। सर्वभूमीश्वरः, एकजन्मन् । वि. (सं.) अखिल. | सावधानता, सं. स्त्री. (सं.) अवधान,दक्षता, भूमंडलविषयक। जागरूकता, मनोयोगः, अभिनिवेशः । सार्वलौकिक, वि. (सं.) सकलब्रह्मांडसंबंधिन् सावन, सं. पुं. (मं. श्रावणः ) नभः, नभस् २. सार्वभौम । (पुं.), श्रावणिकः। साल', सं. पुं. (सं.) सर्जः, चीरपर्णः, अग्नि- | की झड़ी, सं. स्त्री., श्रावणिकी सततवृष्टिः वल्लभः, रालनिर्यासः। | (स्त्री.)। साल२, सं. पुं. स्त्री. (हिं. सालना) छिद्रं, | -हरे न भादों सूखे, मु., अपरिवर्तिदशा, विवरं १. व्रणः, क्षतं ३. पीडा, व्यथा। सदैकरसता। साल, सं. पुं. (फा.) दे. 'वर्ष' । | सावनी, सं. स्त्री., दे. 'श्रावणी'। -गिरह, सं. स्त्री. (फ़ा.) जन्म, दिन-दिवसः, | सावित्री, सं. स्त्री. (सं.) गायत्री २. सरस्वती नववर्षारंभः। ३. ब्रह्मणः पत्नी ४. उपनयनसंस्कारः ५. दक्षसालग्राम, सं. पुं., दे. 'शालग्राम' । कन्या, धर्मस्थ पत्नी ६. सत्यवतो नृपस्य पत्नी सालन, सं. पुं. ( सं. सलवण> ) व्यंजनं, दे. ७. सधवा नारी ८. यमुना। 'भाजी'। --सूत्र, सं. पुं. (सं. न.) यज्ञोपवीतं, दे। सालना, क्रि. स. तथा क्रि. अ. (सं. शल्यं>)| साष्टांग, वि. (सं.) अष्टांगयुत । दे. 'चुभाना' तथा 'चुभना' । -प्रणाम, सं. पुं. (सं.) अष्टांगपातः, साष्टांगसालममिश्री, सं. स्त्री. (अ. सालब+मिस्त्री = नमस्कारः, दे. 'अष्टांग'। मिस्र देश का) सुधामूली, वीरकंदा, अमृतोत्था। |-करना, मु., दूरतः परिह ( भ्का. प. अ.)। सालसा, सं. पु. ( अं. सार्सापेरिल्ला) रक्तशो- | सास, सं. स्त्री. (सं. श्वश्रः) साधुधीः (स्त्री.), धकक्वाथभेदः। २. पति-पत्नी, प्रसूः ( स्त्री.)-जननी । साला, सं. पुं. (सं. श्याल:-लकः) श्वशुर्य्यः, | सास्ना, सं. स्त्री. (सं.) गलकंबलः। आत्मवीरः. वाक्कीरः, पत्नीभ्रात। साह, सं.पुं. (सं.साधुः)सज्जनः, सत्पुरुषः, आर्यः सालाना, वि. (का.) वार्षिक, दे.। २. वाणिजः, आपणिकः ३. धनिन्, श्रेष्ठिन् । सालिक, वि. (अ.) पथिकः, पान्थः, अध्वगः, साहब, सं. पुं., दे. 'साहिब'।। यात्रिन्, यात्रिकः। साहस, सं. पुं. (सं. न.) धृष्टता, निर्भीकता, सालिबमिश्री, सं. स्त्री., दे. 'सालममिश्री'। प्रगल्भता, धैर्य, धाष्टं यं २. लुठनं, बलात् अप For Private And Personal Use Only Page #658 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir साहसांक । ६२०] सिंधी हरणं ३. कुकृत्यं ४.द्वषः ५. करता, निर्दयता । साहूकारी, सं. स्त्री. (हिं. साहूकार ) दे. ६. क्रूर-घोर,-कर्मन् (न.) ७. परदारगमनं ___ 'साहूकारा'( १-२ )। ८. बलात्कारः ९. दंडः १०. अर्थ-धन, दंडः। | सिंगा, सं. पुं. (सं. शृंगं> ) दे. 'नरसिंहा। साहसांक, सं. पुं. (सं.) विक्रमादित्यः, सिंगार, सं. पुं. (सं. शृंगारः दे.)। शकारिः। -दान, सं. पुं. ( हिं.+का.) *शृङ्गारधानं, साहसिक, सं. पुं. (सं.) साहसिन, आतता- | प्रसाधनपिटकम् । यिन्, वधोद्यतः २. लुठकः, दस्युः ३. परत- | -हाट, सं. स्त्री., शृंगारहट्टः-वेश्यापणः। ल्पगः, परदारगामिन् । वि. (सं.) साहसवत, | सिगारिया, सं. पुं. (हिं. सिंगार) भृङ्गारकारः, पराक्रमिन्, वीर २. निर्भीक, प्रगल्भ प्रसाधकः। ३. मिथ्या, भाषिन्-वादिन् ४. परुषभाषिन्, सिंगिया, सं. पु. ( सं. शृंगिक) विषभेदः । कटुवादिन ५. हठकारिन् । सिंगौटी, सं. स्त्री. (हिं. सींग) (वृषादीनां) साहसी, वि. ( सं. सिन् ) दे. 'साहसिक' __ शृंगभूषणम् । वि.(१.२) । सिंगौटी, सं. स्त्री. (हिं. सिंगार ) दे. 'सिंगासाहाय्य, सं. पुं. ( सं. न.) सहायता, दे. । रदान'। साहित्य, सं. पुं. (सं. न.) वाङ्मय, सारस्वतं, सिंघ, सं. पुं., दे. 'सिंह'। ग्रंथसमूहः . संगतिः (स्त्री.), संमिलनं, सिंघण, सं. पुं. ( सं. न.) सिंघाणम्, शिंघणी, साह्यं ३-४. साहित्य-अलंकार,-शा त्रम् । शिंघाणकम्, नासिकामलम् २. अयोमल:-लं, साहित्यिक, वि.(सं.) साहित्यसंबंधिन, वाङ्मय- । अयोरसः। विषयक । सं. पुं., साहित्य, सेवकः, सेविन् । सिंघाड़ा, सं. पुं. (सं. शृंगाटः-टकः) संघाटिका, साहिब, सं. पुं. (अ.) मित्रं, सुहृद् २. प्रभुः, स्वामिन् ३. परमेश्वरः ४. महाशयः, श्रीमत जल-वारि, कंटकः-कुब्जकः, शृंग, कंदः-मूलः, ५. श्वेतवर्णो वैदेशिकः ।। | शुक्लदुग्धः। सिंघासन, सं. पुं., दे. 'सिंहासन'। -इक़बाल, वि. (अ.) संपन्न, समृद्ध ।। --जादा, सं. पुं. (अ.+फा.) पुत्रः, तनुजातः ।। | सिंचाई, सं. स्त्री. ( हिं. सींचना ) सेकः,सेचनं, -दिमाग़, वि. (अ.) धी-बुद्धि,-मत् । जलप्लावनं, सिक्तिः (स्त्री.) २. अभि-प्र, -सलामत, सं. स्त्री. (अ.) मिथः प्रणामः, उक्षण ३. सेचन-प्रोक्षण, मतिः ( स्त्री.) भत्या। पारस्परिकनमस्कारः २. परिचयः। सिंचित, वि., दे. 'सोचा हुआ'। साहिबा, सं. स्त्री. ( अ.) स्वामिनी, ईश्वरा-री | सिडिकेट, सं. पु. ( अं.) व्यापार-समितिः ३. आर्या, कुलांगना २. देवी, भट्टिनी ४. अत्र- (स्त्री.) व्यवहारसंघः २. विश्वविद्यालयतत्र, भवती, भद्रा, भवती, श्रीमती । प्रबन्धसमितिः ( स्त्री.)।। साहिल, सं. पुं. (अ.) वेला, तटः-टम् । | सिंदूर, सं. पुं. (सं. न.) सीमंतकं, मंगल्यं, साही, सं. स्त्री. (सं. शल्लकी) शल्यः, शल्यकः, | गणेशभूषणं, शृंगारकं, सौभाग्यं, नाग,-जंश्वाविध , क्रकचपादः, शल्यभृगः, विलेशयः, संभवं-गर्भ, अरुणं, शोणं, रक्तम् । छेदारः। सिंदूरिया-री, वि. ( सं. सिंदूरं> ) शोणसाहु-ह, सं. पुं. (सं. साधुः ) सज्जनः, आर्यः, ! सिंदूर, वर्ण। भद्रमानुषः २. कुसीदिक-दिन, वाद्ध षिकः।। | सिंध, सं. पुं. (सं. सिंधुः ) सिंधुखेलः, भारतसाहु(होल, सं. पुं. (का. शाकूल ) लंबकः, | वर्षस्य प्रांतविशेषः । सं. स्त्री. (सं. पुं.) पंचलंबसीसकम् । नदप्रांतवर्तिनदविशेषः। साहूकार, सं. पुं. (हिं. साहु) धनिकः, धनाढ्यः -सागर, सं. पुं. (सं. सिंधुसागरः) सिंधु२. सार्थवाहः, सार्थिकः, श्रेष्ठिन् ३. कुसीदिन, वितस्तामध्यवर्तिप्रदेशः। वाद्धषिकः। सिंधी, सं. स्त्री. ( हिं. सिध ) सैंधवी, सिंधुप्रांतसाहूकारा, सं. पुं. (हिं. साहूकार ), वृद्धि, भाषा। सं. पुं., सिंधु, देशीयः-वासिन्, सैंधवाः जीवन-जीविका २.अर्थव्यवसायः ३. अर्थापणः ।। (प्रायः बहु.) २. सेंधवः (घोड़ा)। For Private And Personal Use Only Page #659 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सिंधु [ ६२१ । सिटपिटाना - - सिंधु, सं. पुं. (सं.) सागरः २. नदः ३. नद- शृंखला, दे. 'कुंडी' २. गलभूषणभेदः ३.कांची, विशेष: ४. प्रांतविशेषः, सिंधुखेलः । मेखला। -कन्या, सं. स्त्री. (सं.) सिंधु,-जा-सूता, सिकता, सं. स्त्री. ( सं. बहु.) बालुकाः ( स्त्री. लक्ष्मी : (स्त्री.)। बहु.), दे. 'रेत' २. अश्मरी, दे. 'पथरी' -पुत्र, सं. पुं. (सं.) चंद्रः। । ३. शर्करा, सिता। -माता, सं. स्त्री. (सं.तृ.) सरस्वती (नदी)। -मेह, सं. पुं. (सं.) प्रमेहभेदः । सिधुर, सं. पुं. (सं.) गजः, द्विपः ।। सिकत्तर, सं. पुं. ( अं. सेक्रेटरी दे.)। -वदन, सं. पुं. (सं.) गजाननः, गणेशः। सिकलीगर, सं. पुं. (अ. सैकाल+फा. गर) सिंधोरा, सं. पु. ( सं. सिंदूरं> ) सिंदूरपुटः।। दे. 'सैकलगर'। सिंह, सं. पुं. (सं.) हरिः, हर्यक्षः, मृग, सिकहर, सं. पु. ( सं. शिक्यं+हर ) शिक्यं. राजः इन्द्रः-अधिपः, पंच,-आस्यः शिखः-मुखः, | क्या, शिच (स्त्री.), काचः, दे. 'छोंका' । केश(स)रिन्, महा, नादः-वीरः, नखिन्, | सिकुड़न, सं. स्त्री. (हिं. सिकुड़ना ) संकोचःक्रव्यादः २. लेयः, पंचमराशिः (ज्यो.) ३.वीरः, । चनं, आकुंचनं २. दे. 'शिकन' । श्रेष्ठः ( उ., पुरुषसिंह ) ४. दे. 'सिक्ख'। | सिकुड़ना, क्रि. अ. (हिं. सिकोड़ना ) संकुच् -क(श)सर से. पुं. (सं. पुं. न.) सटटा (भ्वा. तु. ५. से.), आकुंच ( भ्वा. आ. से; २. बकुलवृक्षः। तु. प. से.), संहृ (कर्म.) २. वलिमत् जन् -नाद, सं. पुं. (सं.) सिंह, गर्जन-गर्जना-ध्वनिः (दि. आ. से.) ३. अल्पी-न्यूनीभू। २.क्ष्वेडा, रणोत्साहजरवः ३. निःशंककथनम् । | सिकोडना, क्रि. स. ( सं. संकोचनं ) संकुच -पौर, सं. पुं. (सं.+हिं.) सिंहद्धारं, प्रवे (प्रे.) संह ( भ्वा. प. अ.), आकुंच (प्रे.) शनम् । | २. संक्षिप (तु.प.अ.), अल्पीकृ ३. वलिन(वि.) सिंहनी, सं. पु. ( हिं. सिंह ) नखिनी, सिंही, | कृ । सं. पुं. तथा भाव, संकोच:-चनं, संहरणं, पंचमुखी। आकुञ्चनं, संक्षेपः-पणं, अल्पीकरणम् । सिंहल, सं. पुं. (सं.) स्वर्णदीपः-पं ( सीलोन सिका, सं. पुं. (अ.) टंक:-कं, नाणकं, मुद्रा या लेका)। सिंहली, वि. (सं. सिंहल:>) सैंहल: २.सिंहल. २. पदकम् । वासिन् । -जमाना या बैठाना, मु., शासन-प्रभुत्वंसिंहावलोकन, . पुं. (सं. न.) सिंहावलोकित आधिपत्यं स्था (प्रे.), वशीकृ, अधि-ष्ठा २. पूर्व, अनुदर्शनं-वृत्तांतविमर्शः ३. पद्यरचना ( भ्वा. प. अ.) २. प्रतापं-प्रभावं प्रस (प्रे.)। रीतिभेदः । सिक्व, सं. पुं. (सं. शिष्यः) अंतेवासिन्, सिंहासन, सं. पुं. (सं.न.) नृप-राज,-आसनम् ।। छात्रः २. गुरुनानकमतान्यायिन .“सिक्खः । --पर बैठना, क्रि. अ., सिंहासने उपविश् । -मत, सं. पुं., शिष्य सिक्ख, मत-संप्रदाय:(तु. प. अ.), राज्ये अभिषिच ( कर्म.)। धर्मः, नानकपथः। -से उतारना, क्रि. स., राज्यात् भ्रंश- सिक्त, वि. (सं.) अभ्युक्षित २. कृतसेचन, च्यु (प्रे.)। आर्द्र, क्लिन्न, दे. 'सींचना' । सिंहिका, सं. स्त्री. (सं.) राहुमातृ, राक्षसी- | सिख, सं. स्त्री. ( सं. शिक्षा ) उपदेशः । विशेषः। सिखलाना । क्रि. स., ब. 'सीखना' के प्रे. -सूनु, सं. पुं. (सं.) सैहिकः, केयः, राहुः। सिखाना रूप । सिंहिनी, सं. स्त्री. दे. 'सिहनी'। सिगरेट, सं. पु. ( अं.) तमाखुवत्ती-त्तिः(स्त्री.)। सिंही, सं. स्त्री. (सं.) दे. 'सिंहनी' २. सिंहिका | सिगार, सं. पुं. ( अं. तमाखुशलाका। ३. शृंगं, वाद्यभेदः। सिजदा, सं. पुं. ( अ.) प्रणामः, नमस्कारः । सिआर, सं. पुं. ( सं. शृगालः ) दे. 'गीदड़' । । सिटकिनी, सं. स्त्री. ( अनु.) दे. 'चटकनी'। सिकंजबीन, सं. स्त्री. (फ़ा.) दे. 'शिकंजबीन' । | सिटपिटाना, क्रि. अ. ( अनु.) दे. 'सिट्टापिट्टी सिकड़ी, सं. स्त्री. (सं. शृंखला) द्वार-कपाट, भूलना' २. विक्लप ( भ्वा, आ. से.), दोला For Private And Personal Use Only Page #660 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सिटो [ ६२२ ] सिधाई यते ( ना. धा.), संशी ( अ. आ. से.)। । नक्षप्रं, रात्रिजं, उडु ( स्त्री. न. ) २. भाग्यं, सिटी, सं. स्त्री. ( अं.) नगरं-री, पुरं-री। दैवं ३. *त्रितारः, वाद्य भेदः । सिहा, सं. पुं.(देश.) कणिश, मंजरी, दे. 'भुट्टा' | -चमकना या बलंद होना, मु., भाग्यम् तथा 'बाली' ( अन्न की)। उत्+इ (अ. प. अ.), भाग्यं-पुण्यं फल सिट्टी, सं. स्त्री. ( अनु. सीटना ) वाकपाटवम्।। (भ्वा. प. से.)। -पिट्टी भूलना, मु., व्यामुह (दि. प. वे.), सितोपल, सं. पुं. (सं.) कठिनो, दे. खड़िया किंकर्तव्य नामूढ़ (वि.) जन् (दि. आ. से.), (सं. पुं.) स्फटिकः, सितमणिः । संभ्रम् (भ्वा. दि. प. से.)। सितोपला, सं. स्त्री. (सं.) शर्करा दे. 'शक्कर' सिठनी, सं. स्त्री. (सं. अशिष्टं >) वैवाहिक- २. दे. 'चीनी' ३. सिताखंडः, दे. 'मिस्री'। गालिः (स्त्री.), *गालिगीतिका । सिद्ध, वि. ( सं.) निष्-स, पन्न-पादित, साधित, सिड़, सं. स्त्री. (हिं. सिड़ी) उन्मादः, वातुल ता अनुष्ठित, कृत २. प्राप्त, उपलब्ध ३. कृतकृत्य, २. दे. 'धुन'। सफल ४. अतिकुशल, सुनिपुण ५. दिव्यशक्ति-बिल्ला, सं. पुं. (हिं. सिड़ी+बिल्ला) युत ६. योगविभूतिज्ञ ७. मोक्षाधिकारिन् उन्मत्तः २. मूर्खः। ८. प्रभाणित, साधित ९. निर्णीत १०. शोधित सिड़ी, वि. ( सं. शृणि:> ) उन्मत्त, वातुल | ११. अनुकूल १२. पक्व, भृत, श्राण १३. प्र. २. दृढाग्रहिन् ३. स्वेच्छाचारिन् । ख्यात १४. सज्जी,-भूत-कृत, उपक्लुप्त, १५. प्रसितंबर, सं. पु. ( अ.) भाद्रपदाश्विनं, आंग- | स्तुत, उपस्थित । सं. पुं. (सं.) मुनिः, ऋषिः, लीयो नवममासः। पुण्यजनः, योगिन्, महात्मन् २.देवयोनिभेदः। सित, वि. ( सं.) श्वेत, शुक्ल २. शुभ्र,भास्वर -करना, क्रि. स., साध (भ्वा. प. अ.या प्रे.), ३. निर्मल, स्वच्छ । सं. पुं. (सं.) शुक्रग्रहः सिध् (प्रे., साधयति ) संपद् (प्रे.) २. मंत्रैः २. शुक्लपक्षः ३. सिता, शर्करा ४. रजतम् । वशीकृ ३. प्रमाणीकृ, सत्याकृ । -च्छद, सं. पुं. (सं.) हंसः, सितपक्षः। -होना, क्रि. अ., सिध् (दि. प. अ.) सं.-भानु, सं. पुं. (सं.) सितांशुः, चंद्रः। निष् ,-पद् (दि. आ. अ.) २. मत्रैः वशीभू सितम, सं. पुं. (फा.) अर्दनं, पीडन, नैष्ठर्य, | ३. प्रमाणीकृ (कर्म.)। क्रौर्य २. अन्यायः, अनीतिः ( स्त्री.)। -हस्त, वि. (सं.) प्रवीण, कुशल, पटु, निपुण । —ार, सं. पुं. (फा.) निष्ठरः, करचित्तः, | सिद्धांत, सं. पुं. (सं.) राधान्तः, पूर्वपक्षं अनर्थकरः २. अन्यायशीलः । निरस्य स्थापितं मतं २. तत्त्वं, मतं, वादः।। -ढाना, क्रि. स., पीड् (चु.), अद् ( भ्वा. | -पक्ष, सं. पुं. (सं.) तर्कसंगत-युक्तियुक्त, पक्षः-मतम् । प. से.,प्रे.)। | सिद्धांती, सं. पुं. (सं.तिन्) मीमांसकः, तार्किकः सितरी-ली, सं. स्त्री. ( सं. शीतल >)शीतल. २. शास्त्रविद् ३. सिद्धान्त-नियम, निष्ठः । प्रस्वेदः। सिद्धार्थ, वि. (सं.) आप्त-पूर्ण, काम, कृतकृत्य । सिता, सं. पुं. (फ़ा.) स्थानं, स्थलम् २. / सं. पुं. (सं.) गौतमबुद्धः। निवासः, स्थानम् ३. देशः। | सिद्धि, सं. स्त्री. (सं.) निष्पत्तिः, समाप्तिः सितांशु, सं. पुं. (सं.) चन्द्रः, सोमः ।। | (स्त्री.), पूर्णता २. साफल्यं, कृतकार्यता सिता, सं. स्त्री. (सं.) दे. 'चीनी' २. दे. | ३. योगजा दिव्यशक्तिः (स्त्री.), विभूतिः (स्त्री.) 'शकर' २. मल्लिका ४. चंद्रिका ।। (योग की आठ सिद्धियाँ :-अणिमा लघिमा -खंड, सं. पुं. (सं.) मधुशर्कर। २. दे. प्राप्तिः प्राकाम्यं महिमा तथा । ईशित्वं च वशित्वं 'मिस्री'। च सर्वकामावसायिता ॥ ) ४. समृद्धिः ( स्त्री.), सितार, सं. पुं. (सं. सप्त+तार) वीणा, वल्लकी, | भाग्योदयः ५. निर्णयः ६. निश्चयः ७. मोक्षः विपंची, ( सात तारोंवाला ) परिवादिनी। ८. नैपुण्यं, दाक्ष्यम् , -बाज़, सं. पुं. (हिं+का.) वीणावादकः। | सिधाई, सं. स्त्री. (हिं. सीधा) सरलता, ऋजुता, सितारा, सं. पुं. (फा, रः) तारा, तारका, भ, ! सारल्य, आर्जवम् । For Private And Personal Use Only Page #661 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सिधारना [ ६२३ ] सिर सिधारना, किं. अ. ( सं. सिद्ध ) प्रस्था ( भ्वा. | सियापा, सं. पुं. (फा.सियाहपोश ) संविलापः, आ. अ.), प्रया ( अ. प. अ.) २. प्र-इ ( अ. संपरिदेवनं-ना। प. अ.), मृ (तु. आ. अ.), दे. 'मरना'। सियार, सं. पुं. (सं. शृगालः) जंबुकः, दे. सिन, सिन्न, सं. पुं. (अ.) वयस्-आयुस् | 'गीदड़' । ( न. ), दे. 'उम्र'। सिर, सं. पुं. [सं. शिरस् (न.)] शीर्षे, शीर्षक, सिनक, सं. स्त्री. (सं. सिंहा(घा)णक) नासा- | मस्तकः-कं, मूर्धन् (पृ.), मौलिः (पुं. स्त्री.), नासिका, मल, सिंघ(घा)णं, दे. 'रेट'। मुंड:-डं, उत्तम-बर, अंग, शिरं २.अग्रं,शिखरं, सिनकना, क्रि. स. (हिं. सिनक ) सिंघणं सु शिखा, सानु (पुं. न.) शृङ्गम् ।। (प्रे.), नासिकां शुध् (प्रे.)। -कटा, वि., छिन्न,-शीर्ष-मस्तक-शिर । सिनेट, सं. स्त्री., दे. 'सीनेट' । -का घूमना, सं. पुं., भ्र(भ्रा)मरं, भ्रमःमिः सिनेमा, सं. पुं. ( अं.) चलचित्र, गृह-शाला, | (स्त्री.), पूर्णिः ( स्त्री.)। २. चलचित्रम्, चित्रपटः । का दर्द, सं. पुं., शिरः, शूलं-पीडा, शिरोसिन्नी, सं. स्त्री. (फ्रा. शीरीनी ) दे. 'मिठाई'। वेदना । सिपर, सं. स्त्री. (फा.) खड्गरीटः, खेटकं, | -क बल, क्रि.वि., अवाकशिरं, अधोशीर्षम् । ढालं, दे.। -गुंथी, सं. स्त्री., *शिरग्रंथनं, आर्याणामौद्सिपाह, सं. स्त्री. (फा.) सेना, सैन्यम् । वाहिकरीतिविशेषः। -गिरी, सं. स्त्री. (फा.) युद्धव्यवसायः, -चढ़ा, वि., दुर्ललित, अतिलालित, दृप्त, सैनिकवृत्तिः (स्त्री.)। उसिक्त । -सालार, सं. पुं. (फा.) प्रधान, सेनापतिः- -मुंडा, सं. पुं., मुंडः,क्लृप्तकेशः,मुण्डितशिरः। सेनानीः-चमूपतिः। -आँखों पर होना, मु., शिरोधार्य(वि.)वृत् सिपाही, सं. पुं. (फ़ा.) सैनिकः, योधः, योद्ध, (भ्वा. आ. से.), सहर्ष स्वीकार्य(वि.)वृत् । भट: २. राजपुरुषः, यष्टि-दंड, धरः, रक्षिन, -आँखों पर बैठाना, मु., अत्यंत सत्कृ,अत्यर्थ शान्तिरक्षकः, रक्षापुरुषः । मन्-संभू (प्रे.)-आदृ (तु. आ. अ.)। सिपुर्द, दे. 'सुपुर्द। -उतारना या काटना, मु., शिरः छिद् सिप्रा, सं. स्त्री. (सं.) उज्जयिनीसमीपवर्तिनदी- (रु. प. अ.), मस्तक कृत् (तु. प. से.), विशेषः। शिरश्छेदं कृ। सिफत, सं. स्त्री. (अ.) गुणः, विशेषता २.लक्षणं | -गंजा करना, मु., बलवत् तड (चु.), ३. स्वभावः, धर्मः। परुष प्रह (भ्वा. प. अ.)। सिनर, सं. पुं. (अ.) शून्यं, बिंदुः, खम् ।। -चढ़ाना, मु., दृप्त-उत्सिक्तं-अवलिप्तं विधा सिफ्नारिश, सं. स्त्री.(फा.) गुणवर्णनं, प्रशंसनं (जु. उ. अ.) २. अत्यंत लल (चु.)। २. अनुशंसा, परकार्यसिद्ध्यर्थमनुरोधः -झुकाना, मु., नम् (भ्वा. प. अ.), अभिवद् ३. प्रशंसा,-पत्रं-लेखः। (प्रे.)। -करना, क्रि. स., प्रशंस् (भ्वा. प. से.), |-धुनना, मु., शुच् ( भ्वा. प. से.) सशीर्षतागुणान वर्ण (चु.) २. परकार्यसिद्ध्ये अनुरुध | डनं रुद् (अ. प. से.)। (रु. अ. अ.), अनुशंस् (भ्वा, प. से.)। -नीचा करना, मु., त्रप् (भ्वा. आ. से.), सिफारिशी, वि. (फा.) गुणश्लाधिन्, प्रशं- लज्ज् (तु. आ. से.)। सात्मक। -पर, मु., समीपं-पे, निकटं-टे। - टू, सं. पुं. (फा.+हिं.) परप्रभावलब्धा- -पर खून सवार होना, मु., जिघांसाविष्ट धिकारः, परानुग्रहनियुक्तः, गुणहीनः। (व.) वृत् (भ्वा. आ. से), वधोधत (वि.) भू। सिमटना, क्रि. अ. (सं. समित ) आकुंच. -पर पड़ना, मु., आ-समा-पत् (भ्वा. प. से.), संकुच संक्षिप-संह ( कर्म.), स्कुचित भू, दे. उपनम् ( भ्वा. प. अ., षष्ठी के साथ )। 'सिकुड़ना'। -पर लेना, मु., उत्तरदायित्वं उररीक, सिमेटना, क्रि. स., दे. 'समेटना'। ! भारं स्वीकृ । For Private And Personal Use Only Page #662 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सिरका [ ६२४ ] सिलिंडर -परस्ती करना, मु., अनु,-प्रति-पा (प्रे. | सिरोपाव, सं. पुं. ( सं. शिरःपाद> ) संमानपालयति ), संवृध् (प्रे.), साय्यं । वेशः-षः । -पीटना, मु., दे. 'सिर धुनना'। सिरोही, सं. स्त्री. ( देश०) सिरोहीनगर-भारी होना, मु., भ्रामरेण घूा वा पीड] निर्मित खड्गः, शिरोनी। ( कर्म.) २. शिरोवंदना वृत् । | सिफ, क्रि. वि. ( अ. ) दे. 'केवल' । -मारना, मु., अत्यंत प्रयत् ( भ्वा. आ. से.), सिरी. वि.. दे. “सिढ़ी' । भूरि परिश्रम् (दि. प. से.) २. सपरिश्रमं सिल, सिला, सं. स्त्री. (सं. शिला ) पाषाणः, अन्विष् (दि. प. से.) विचि (स्वा. उ. अ.)। प्रस्तरः, उपलः २. शैलः, शिलोच्चयः, महा-मुँडाना, मु., परिव्रज (भ्वा. प. से.), संन्यस् प्रस्तरः ३. शिला, पट्टः-फलकः । (दि. प. से.)। -बट्टा, सं. पुं., शिलावटकं, *पेषणपाषाणौ -मूंडना, मु., लुट ( भ्वा. प. से., चु.), छलेन अपहृ (भ्वा. प. अ.)। सिलना, क्रि. अ. ( हिं. सीना ) सिव ( कर्म.)। -सफ़ेद होना, मु., केशा धवलीभू , पलित- सिलपट, वि. (सं. शिलापट्टः>) सम, समस्थ, शीर्ष (वि.) जन् ( दि. आ. से.)। सपाट । -से कफन बाँधना, मु., निधनोद्यत (वि.) सिलबट्टा, सं. पुं. (सं. शिला+वटकः> ) भू, मरणाय सज्जीभू। शिलावटकं को, पेषण, पाषाणौ-प्रस्तरौ । -से पाँव तक, मु., आमूलचूलं, आपादशीर्षे, सिलवट, सं. स्त्री. (हिं. सिलना ) वलि:(स्त्री.), आनखशिखम् । वस्त्रभंगः, पुटचिह्नम् । -होना, मु., कलहायते (ना. पा.), कलहोद्यत | सिलवाई, सं. स्त्री. (हिं. सिलवाना ) सीवन(वि.) भू। सेवन स्यूति, भतिः-भृत्या-कर्मण्या। बिना--पैर का, वि., निराधार, निर्मूल | सिलवाना, (हिं. सीना ) सिव (प्रे.) । २. असंबद्ध, अप्रासंगिक, असंगत । सिलसिला, सं. पुं. (अ.) क्रमः, आनुपूर्वी, सिरका, सं. पुं. (फा.) शुक्तं, शौक्तिकम् । । परंपरा २. पंक्तिः राजि:-श्रेणिः (स्त्री.), सिरकी, सं. स्त्री. (हिं. सरकंडा) शरकांडः, ३. शृङ्खला ४. व्यवस्था, संविधानं, विन्यासः क्षुरिकापत्रः३.शरकांड, तिरस्करिणी-प्रतिसीरा। ५. वंशानुक्रमः, कुलपरंपरा। सिरजनहार, सं. पुं. (सं. सर्जनं>) स्रष्ट, -लेवार, क्रि. वि. (अ.+फ्रा.) क्रमेण, क्रमशः, जगत्कर्तृ, विधातृ ( सब पुं.)। यथाक्रम, आनुपा , अनुपूर्वशः। सिरताज, सं. पु. (हिं+फा.) किरीट:ट, | सिलह, सं. पु. ( अ. सिलाह ) अस्त्रं, शस्त्रम् । मु(म)कुटं दे. २. शिरोमणिः, अग्रणीः, पुरोगः, | -खाना, सं. पुं. (अ.+का.) शमशाला, श्रेष्ठः, मुख्यः , प्रधानम् । अस्त्रागारम् । सिरनामा, सं. पुं., दे. 'सरनामा'। -पोश, वि., सन्नद्ध, शस्त्रास्त्रसज्ज। सिरपेच, सं. पुं. (फा.) उष्णीषः-षं, दे. 'पगड़ी। सिला', सं. पुं. (अ.) पुरस्कारः, पारितोषिसिरहाना, सं. पुं. (सं. शिर+धानं>) कम् २. परिणामः, फलम् । शिरोधामन् ( न.), खट्वादीनां शिरो-अग्र,- | सिलार, सं. स्त्री., दे. 'शिला' । भागः २. उपधानं, खुरालिकः, उपबहः-हणं, सिलाई, सं. स्त्री. (हिं. सिलाना) संधिः, उच्छीर्ष, वालिशं, मसूरकः । सीवनं २. सी(से)वनं, स्युतिः ( स्त्री.) ३. दे. सिरा, सं. पुं. (सं. शिरस्> ) अंतः, प्रांतः, अवधिः, सीमा २. ऊर्ध्व-शीर्ष, भागः, शिखा, | सिलाजीत, सं. पुं. [सं. शिलाजतु ( न.)] शिखरं ३. अंत्य-अन्तिम,-भागः ४. आध- | अद्रिजं, अश्मजं, दे. 'शिलाजीत'। आदिम, भागः ५. अग्रं, अग्रभागः ६. अणी- | सिलारस, सं. पुं. (सं. सिल्लकीरसः ) श(स)लणिः (स्त्री.) अश्रिः-काटि: (स्त्री.)। । की,-द्रवः-रसः-निर्यासः । सिरिंज, सं.स्त्री.(अं.) शृंगकः-कं, दे. 'पिचकारी' सिलिंडर, सं. पुं. (अं.) रम्भं वर्तुलं (पात्रभेदः) । मिलव For Private And Personal Use Only Page #663 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सिली, सिल्ली [ ६२५ ] सीखने योग्य सिली, सिल्ली, सं. स्त्री. ( हिं. सिल ) शाणः | २. रक्तचूषणशृङ्ग, रक्तचूषणी ३. शृङ्गी, मीनणी, सामकः, शाणाश्मन् (पुं.)। भेदः। सिलौट, सिलौटा, सं. पुं. (हिं. सिल+बट्टा) -लगाना या तोड़ना, मु. शृङ्गेण रक्तं निष्कस् शिला,-पट्टः-फलकः २. दे. 'सिलबट्टा' । (प्रे.)। सिवई, सं. स्त्री., दे. 'सेंवई। | सींचना, क्रि. स. (सं. सेचनं ) अव, सिन् सिवान, सं. पु. ( सं. सीमांतः) सीमा, प्रांतः, | (तु. प. अ.), वारिणा आप्लु (प्रे.)-अभ्युक्ष पर्यतः। .(भ्वा. प. से.), अभिवृष् (भ्वा. प. से.), सिवाय, क्रि. वि. ( अ. सिवा ) अपि च, अपरं जलं दा २. अभि-प्र-सं, उश् , अव-आ-नि,, च २. ऋते, विना, अंतरेण, विहाय, वर्जयित्वा।। सिच् ३. अव-वि, कृ (तु. प. से.)। सं. पु., वि., अधिक, भूयस २. अपेक्षाधिक। अव-आ,सेकः-सेचनं, जलप्लावन, अभिवर्षणं, सिवार-ल, सं. स्त्री. पु. ( सं. शैवालं) शेपाल:-| अभ्युक्षणं, प्रोक्षणम् । लं, जल, केशः-नीली-नीलिका, शैवलं, सलिल- | सींचने योग्य, वि. अब-आ-,सेचनीय-सेक्तव्य, कुन्तलम् । अभ्युक्षणीय, अभिवर्षणीय । सिविल, वि. ( अं. ) नागरिक, पौर २. सभ्य, | सींचने वाला, सं. पुं., सेवकः, सेक्तू, प्रोक्षकः । शिष्ट । सींचा हुआ, वि., सिक्त, अभ्युक्षित, जल. -डिसओबिडिएंस, सं. स्त्री. ( अं.) सविनयावशा। सीह, सं. पु. ( देश.) शल्यः, शल्यकः, शल्लकी, -सर्जन, सं. पुं. (अं.) नागरिकः शस्त्रवैद्यः। । शल्यमृगः । -सर्विस, सं. स्त्री. ( अं.) नागरिकसेवा। सी, वि. स्त्री. ( हिं. सा ) समा, तुल्या, सदृशी, सिसकना, क्रि. अ. ( अनु.) सगद्गदं रुद् | सदृक्षी। ( अ. प. से.) २. निधनासन्न (वि.) कृत् | सी. आई.डी., सं. पु. ( अं.) गुप्तचरविभागः, (भ्वा. आ.से.)। अपसर्प-च(चा)र-प्रणिधि, विभागः। . सिसकी, सं. स्त्री. (हिं. सिसकना) गद्गदः-दं, | सीकर, सं. पुं. (सं.) कणः, द्रप्सः, पृषतः, लवः, गद्गदध्वनिः। बिंदुः, विपुष् (स्त्री.) २. शीकरः, तुषारः -भरना या लेना, क्रि. अ., दे. 'सिसकना । | ३. प्रस्वेदः, धर्मः, स्वेदजलम् । सिहरा, सं. पुं., दे. 'सेहरा'। सीख, सं. स्त्री. ( सं. शिक्षा) शिक्षणं, विनयन, सींक, सं. स्त्री. (सं. इषीका ) इषिका, तृण- | अध्यापन, अनुशासनं, बोधनं २. शिक्षाविषयः घास,-सूक्ष्मनालं-सूक्ष्मकांडम् । ३. मंत्रणा, परामर्शः, उपदेशः । सीकर, सं. पुं. (हिं. सींक ) इषीकापुष्पम् । | सीन, सं. स्त्री. ( फ़ा.) शलाका, धातु-लोह,सींकिया, सं. पुं. (हिं. सीक) सरेखो वस्त्रभेदः । | दंडः २. लघुसूक्ष्मयष्टिः (स्त्री.) ३. शंकुः, सींग, सं. पुं. ( सं. शृङ्ग) विषाणः-णं, कुणिका | शल्यं, महासूचिः (स्त्री.) ४. (मांसभर्जनाय) २. काल,लं-ला, शृङ्गमयो वाद्यभेदः। शूल: लम् । ( किसी के सिर पर)-होना मु., वैशिष्टय | सीखचा, सं. पुं. (फ्रा.) दे. 'सीख' (१, ४)। वृत् ( भ्वा. आ. से.)। | सीखना, क्रि. स. (सं. शिक्षण ) शिक्ष ( भ्वा. -दिखाना, मु., अंगुष्ठ दृश (प्रे.), किमप्य- | आ. से.), अधि-इ (अ. आ. अ.), अभ्यस दत्त्वा उपहस् (भ्वा. प. से.)। (दि. प. से.), अभ्यासेन विद्यां लभ् (भ्वा. -निकलना. मु.. ( पशुः ) युवा जन् (दि. | आ. अ.)-प्राप् ( स्वा. प. अ.), पठ ( भ्वा. आ. से.) २. उन्मद् (दि. प. से.), दे. | प. से.)। सं. पुं., शिक्षणं, अध्ययन, अभ्यासः, 'इतराना'। विद्या,-अर्जन-लाभः, प्राप्तिः (स्त्री.)। -समाना, मु., आश्रयः-शरणं लभ ( कर्म.)। | सीखने योग्य, वि., शिक्षणीय, अध्येतन्य, सींगी, सं. स्त्री. (हिं. सींग ) दे. 'सींग' (२)।। अभ्यसनीय । For Private And Personal Use Only Page #664 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सीखने वाला [ ६२६ ] सीना - - सीखने वाला, सं. पुं., छात्रः, शिष्यः, शिक्षकः । -द्रव्य, सं. पुं. ( सं. न.) कृषि-कर्षण, उप (क्वचित् ), अध्येत, विद्यार्थिन्, शिक्षार्थिन् । करणानि (न. बहु.)। सीखा हुआ, वि. ( मनुष्य ) शिक्षित, कृतविद्य, -पति, सं. पु. ( सं.) श्रीरामः, राघवः । पंडित, प्राश, बुध । (विषय) शिक्षित, शात, -फल, सं. पुं. (सं.) दे. 'शरीफ़ा' २. दे. बुद्ध, पठित, अधीत । 'कुम्हड़ा'। सीग़ा, सं. पुं. (अ.) शासन-विभाग: २. व्यव सीत्कार, सं. पुं. (सं.) सीत्, कृतं-कृतिः (स्त्री.), सायः, वृत्तिः (स्त्री.)। आनंदपीडादिजः सीच्छब्दः ।। सीझना, क्रि. अ. ( सं. सिद्ध> ) तापेन सिध् । सीध, सं. स्त्री. (हिं. सीधा) सरलायामः, (दि. प. अ.), ऊष्मणा श्री-पच ( कर्म.), अंजसायतिः (स्त्री.) २. लक्ष्यम् । सिद्ध (वि.) भू २. (तापादिभिः) मृद्भ, | सीधा', वि. (सं. शुद्ध>) सरल, वक्रतारहित, मार्दवं भज (भ्वा. आ. अ.) ३. कष्टं सह ऋजु, अंजस, प्रगुण २. नियाज, निष्कपट, (भ्वा. आ. से.) ४. ऋणं शुधू (दि. प. अ.), ऋणनिस्तारः जन् (दि. आ. से.) ५. शीतेन निश्छल ३. शिष्ट, सुशील ४. शांतस्वभाव, वि., गल (भ्वा. प. से.)। सौम्य, ५. सुकर, सुसाध्य ६. सुबोध, सुगम सीटी, सं. स्त्री. [ सं. शीत्कृतिः (स्त्री.)] शीत ७. दक्षिण, अपसव्य । क्रि. वि., सरलं, अवक्र, अजिह्मम् । कृतं-कारः, शीच्छब्दः २. शीत्करी, वाद्यभेदः। -बजाना, क्रि. अ., शोच्छब्दं कृ। क्रि. स., —करना, क्रि. स., सरली-प्रगुणी, कृ २. दम् शीकरी वद् (प्रे.)। (प्रे.), वशीकृ, विनी (भ्वा. प. अ.)। -देना, मु., शोच्छब्देन आकृ (प्रे.)। -पन, सं. पुं., सरलता, वक्रताऽभावः सीठना, सं. पु. (सं. अशिष्ट>) अश्लील-| २. आजेवं, सौम्यता, निष्पटता । गीत-तिः (स्त्री.), वैवाहिकगालिः ( स्त्री.)। -होना, सरली-प्रगुणी,-भू २. वशीभू । सीठनी, सं. स्त्री. (हिं. सीठना) दे. 'सीठना। ३. सन्मार्ग अवलंब ( भ्वा. आ. से.)। सीठा, वि. (सं. शिष्ट>) अरस, विरस, नीरस, | सीधार, सं. पुं. (सं. असिद्ध ) असिद्ध-अपक्व. स्वादहीन । आम,-अन्नम् । -पन, सं. पुं., नीरसता, निस्स्वादता। सीधी तरह, क्रि. वि., शांत, शान्त्या २.सम्यक्, सीठी, सं. स्त्री. (सं. शिष्टं ) ( पत्रपुष्पफला- सुचारुरूपेण ३. धर्मेण, न्यायेन। दीनां ) उच्छिष्टं, नौरसांशः २. निस्सारद्रव्यं | सीधे, क्रि. वि., सरल, अअसं २. दे. 'सीधी ३. नीरसपदार्थः। तरह। सीड़, सं. स्त्री. ( सं. शीतं>) क्लेदः, स्तमः, सीन, सं. पुं. ( अं.) दृश्य, दृक्पातविषयः आर्द्रता २. क्लिन्नभूमिः (स्त्री.)। २. ज(य)वनिका, अपटी। सीढ़ी, सं. स्त्री. (सं.श्रेणी>) सोपानः, पथ:- | सीनरी, सं. स्त्री. ( अं.) दृश्यप्रदेशः, प्राकृतिकमार्गः-पंक्तिः (स्त्री.) पद्धतिः (स्त्री.)-पदवी, दृश्यं २. रंगसज्जा। अधिरोह(हिणी, नि(निः) श्रेणी-णिः (स्त्री.), सीना', क्रि. स. (सं. सीवन) सिव (दि.प.से.)। नि(निः)श्रय(यि)णी २. काष्ठनिश्रेणी। सं. पुं., सेवन, सीवनं, स्मृतिः ( स्त्री.), ऊतिः-का डंडा, सं. पुं., सोपानदंडः। व्यूतिः ( स्त्री.)। -चढ़ना, मु., क्रमशः उत्कर्ष व्रज –पिरोना, सं. पुं., सूची(चि)-कर्मन् (न.) (भ्वा. प. से.)। -शिल्पम् । सीतल, वि., दे. 'शीतल' । | सीना', सं. पुं. (फ्रा.) उरस्-वक्षस् ( न.)। --पाटी, सं. स्त्री., *शीतलकटः । -ज़ोर, वि. (फा.) प्रबल, दुर्दम, उद्धत । सीवला, सं. स्त्री., दे. 'शीतला'। -जोरी, सं. स्त्री., औद्धत्यं, बलात्कारः । सीता, सं. स्त्री. (सं.) जानकी, मैथिली, -बंद, सं. पुं. (मा.) आंगिकः-क, दे. 'अंगिया'। वैदेही, अयोनिजा, भूसुता, पार्थिवी । २. फाल- |-उभार कर चलना, मु., साटोपं, चल रेखा, लांगलपद्धतिः (स्त्री.), हलिः (पुं.)। ( भ्वा. प. से.)। For Private And Personal Use Only Page #665 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सीने से लगाना [ ६२७ ] सीने से लगाना, मु., आलिंग (भ्वा. प. से.), | सीला' वि. ( सं. शीतल ) आर्द्र, क्लिन्न । उपगुह् ( भ्वा. ज. से.)। | सीला२, सं. पुं. (सं. शिलः-लं) मुनीनां जीवसीनियर, वि. ( अं.) वरीयस्-ज्यायस (-सी | नोपायभेदः, मंजर्यात्मकानेकधान्योच्चयनम् । स्त्री.)। सं. पुं., गुरुजनः। सीवन, सं. पुं. (सं. न.) सेवनं, स्यूतिः(स्त्री.), सीनेट, सं. स्त्री. (सं.) वृद्ध-प्रधान-महा, सभा ।। सूचीकर्मन् ( न.) २. सीवनं, ( स्यूति-) संधिः सीने योग्य, वि. सीवनीय, सीवितव्य, ३. लिंगमण्यधःसूत्रम् । सीवनाई। सीस, सं. पुं. (सं. शीर्ष ) दे. 'सिर' । सीने वाला, सं. पुं., सेवकः, सीवनकर्तृ,सीवकः। -फूल, सं. पुं. (हिं.) *शीर्षफुल्लं, शिरोभूषणसीप, सं. पुं. [ सं. शुक्तिः ( स्त्री.)] शुक्तिका- भेदः। .. मुक्ता, मातृ( स्त्री.) प्रमू(स्त्री.)-स्फोटः मौक्तिक- | सीसा, सं. पुं. (सं. सीसं) सीसकं, सिन्दूरप्रसवा, तौतिकः। कारणं, त्रपु (पुं. न.), महाबलं, बहुमलं, -सुत, सं. पुं. (सं. शुक्तिसुतः ) मौक्तिकं, सुवर्णारिः, जडम् । मुक्ता, शक्ति,जं-बीजम् । सीसे का दर्द, सं. पुं., सीसकशूलम् । सीपी, सं. स्त्री., दे, 'सीप' । | सी-सी, सं. स्त्रो. ( अनु.) सीत्, कारः कृतिः, -सा मुँह निकल आना, मु., अत्यन्तदुर्बल- (स्त्री.) कृतं, हर्षपीडाशीतादिजनितध्वनिः । अत्यधिकक्षीण (वि.) भू ।। सीह, सं. पुं., दे. 'सींह' । सीमंत, सं. पुं. ( सं. ) केशेषु वर्त्मन् ( न.), सुँघनी, सं. स्त्री. (हिं. सूंघना ) नस्य, दे. दे. 'माँग' । २. अस्थिसंधिः । 'नसवार। सीमंतिनी, सं. स्त्री. ( सं.) नारी, दे.। सुँघाना, क्रि. प्रे., बनाओ 'सूंघना' के प्रे. रूप । सीमन्तोन्नयन, सं. पुं. (सं. न.) गर्भस्थितेः । सुदर, वि. ( सं.) रुचिर, सुषम, चारु, शोभन, षष्ठेऽष्टमे वा मासे करणीयः संस्कारः (धर्म.)। कान्त, रुच्य, मंजु, मंजुल, मनोहर, मनोश, सीमांत, सं. पुं. (सं.), सीमा, सीमन् (स्त्री.), मनोरम, ( मनो-)हारि, रमणीय, रामणीयक, उपांतः, पर्यतः, प्रांतः २, ग्रामसीमा। बंधु(धूर, पेश(स)ल, वाम, (अभि-)राम, सीमा, सं. स्त्री. ( सं.) सीमन् (स्त्री.), अवधिः, नन्दित, सुमन, वल्गु, सुरूप, अभिरूप, आधाटः, प्रान्तः, पर्यन्तः, मर्यादा २. दे. दिव्य २. शुभ, भद्र, मंगल ३. उत्तम, श्रेष्ठ, 'सीमंत'(१)। उत्कृष्ट । ('सु' से भी रूप बनाते हैं, जैसेसीमित, वि. (सं.) परि, मित, ससीम, मर्या- सुमुखम् ।) दित । --कांड, सं. पु. ( सं. पुं. न. ) लंकावतिसुंदरसीया हुआ, वि., स्यूत, स्यून । पर्वतमधिकृत्य रचितंरामायणस्य पंचमं कांडम् । सीमेंट, सं. पुं. ( अं.) वज्रचूर्णम् । सुंदरता, सं. स्त्री. (सं.) सौन्दर्य, रुचिरता, सीर, सं. पु. (सं.) हलं, हालः २. सूर्यः । सुषमा, कांतिः (स्त्री.), मंजुता, मंजुलत्वं, ३. अर्कवृक्षः। सं. स्त्री., क्षेत्रपतेः आत्मकृष्ट- मनोज्ञता-त्वं, रमणीयता, अभिरूपता, लावण्यं, भूमिः ( स्त्री.)। शोभा, रूपं, अभिख्या, श्रीः-लक्ष्मीः (स्त्री.)। -ध्वज, सं. पुं. (सं.) जनकः २. बलरामः। | सुंदरी, सं.स्त्री. (सं.) रूपलावण्यसंपन्ना नारी, -में, मु., संभूय, एकत्र मिलित्वा। । रामा, वामा, रोचना, वरांगना, वरवर्णिनी, सीरम, सं. पुं. ( अं.) रक्तरसः।। | सिता । वि. (सं.) रूपवती, मनोज्ञा, रुचिरा। सीरा, सं. पुं. (फ़ा. शीरह) मधु-शर्करा,-क्वाथः, | सुंबा, सं. पुं. (सं. सूचकः) *लोहवेधनी, दे. 'चाशनी' २. लप्सिका। शतघ्नी, शोधनी। सीरा, वि. ( सं. शीतल ) शीत, शिशिर, सुंबुल, सं. पुं. (फा.) सुगंधितघासभेदः, उष्णत्वशून्य २. शांत, मौनिन् । सुबुलम् । सील, सं. स्त्री. ( सं. शीतल>) क्लेदः, स्तेमः, सु, उप. (सं.) सौन्दर्योत्कर्षभद्रत्वादिबोधकः आर्द्रता। उपसर्गः ( उ. सुपुत्रः इ.)। For Private And Personal Use Only Page #666 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सुकचाना [ ६२८] सुगम सुकचाना, क्रि. अ., दे. 'सकुचाना'। -चैन, सं. पुं. (सं.+हिं.) दे. 'सुख' । सुकड़ना, क्रि. अ., दे. 'सिकुड़ना' । -दायी, वि. (सं.-यिन् ) सुख,-द-प्रद-दायकसुकर, वि. (सं.) सु-सुख-अयत्न, साध्य-निष्पाद्य- | दातृ-आवह, दे. 'सुखकर'। कार्य, अनायास। -देना, क्रि. स., सुखयति (ना. धा.), सुखी कृ, सुकरता, सं. स्त्री. (सं.) सु-सुख, साध्यता, | | सुखं दा, निवृतं-सुखिनं कृ । सौकय्ये, सुकरत्वम् । -धाम, सं. पुं. [सं.-मन् (न.)] स्वर्गः, सुकर्म, सं. पुं. [सं.-मन (न.)] सु-सत्-उत्तम- स्वर्लोकः। पुण्य-श्रेष्ठ, कर्मन् (न.)-कृत्यं कार्यम् । -पाना,क्रि.अ., सुखमनुभू,सुखायते (ना.धा.), सकर्मी, वि. (सं.-मिन्) सुकर्मन्, सुकृत, | निवृत-सुखित (वि.) स्था (भ्वा. प. अ.), सक्रिय, सुकर्मशील २. धर्मात्मन, पुण्यात्मन् | सौख्यं लभ (भ्वा. आ. अ.)। ३. सदाचारिन्, सवृत्त । -पाल, सं. पुं. (सं.+हिं. पालकी) *सुखसुकवि, सं. पुं. (सं.) कविवरः, सुकाव्यकारः। शिबिका। सुकाल, सं.पुं.(सं.) सुसमयः २. सुभिक्षम् । -पूर्वक, क्रि.वि, (सं.क.) सुखेन, सौकर्येण, सुकुमार, वि. (सं.) अति-कोमल, मृदु, सुखं, लीलया, अनायासम् । मृदुल, प्र, तनु, परि-पेलव, श्लक्ष्ण, ललित। -लूटना, मु., सुखायते ( ना. धा.), यथेष्टसुखं सं. पुं. (सं.) सुन्दर-उत्तम,बालकः।। भुज (रु. आ. अ.)। सुकुमारता, सं. स्त्री. (सं.) सौकुमार्य, मार्दवं, -साध्य, वि. (सं.) सुकुर, अयत्नसाध्य । पेलवता, मृदुलता, तनुता। सुखांत, सं. पुं. (सं. न.) सुखप्रधानं नाटक सुकुमारी, सं. स्त्री. (सं.) सुन्दर श्रेष्ठ, कन्या रूपकं वा २. प्रहसनं (सा.)। २. दुहित (स्त्री.), पुत्री। वि. (सं.) कोम सुखागत, सं. पुं. (सं. न.) स्वागतम्, शुभालांगी, तन्वंगी, तनुगात्री। गमनम्। सुकुल, वि. (सं.) महाकुल, अभिजात, सर्व सुखाना,क्रि. स., बनाओ 'सूखना के प्रे.रूप। शज, कुलीन । सं. पुं. (सं. न.) सु-सद्, वंशः। सुखार्थी, वि. (सं.-र्थिन् ) सुखैषिन्, सुखेच्छुक, सुकुलीन, वि. (सं.) दे. 'सुकुल' वि.। सुखकामिन् । सुकृत, सं. पुं. (सं. न.) पुण्यं, सत्-सु-पुण्य, | सुखी, वि. (सं.-खिन् ) सुखित, निर्वृत,निश्चित, कार्य-कृत्यं-कर्मन् ( न.) वि. (सं.) सौभा स्वस्थ, सुस्थ, निरुद्वेग, शांत, आनंदित, मुदित, ग्यवत, भाग्यशालिन् २. धार्मिक, पुण्यात्मन् वीतचिंत, प्रसन्न, सानंद, संतुष्ट । ३. सुविहित। सुखेच्छा, सं. स्त्री. (सं.) सुख,-अभिलाष:सकृति, सं. स्त्री. (सं.) पुण्यं, सत्कृत्यम् ।। कामना-वांछा। सुकृती, वि. (सं..तिन् ) धार्मिक, पुण्यवत्, | सुख्यात, वि. ( सं.) प्रख्यात, प्रसिद्ध, विश्रत। सत्कर्मन् २.सौभाग्यशालिन् ३.प्राश, बुद्धिमत् । | सुख्याति, सं. स्त्री. (सं.) सुकीतिः-विश्रुतिः सुकेशी, सं. स्त्री. (सं.) सुन्दरकेशवती नारी, (स्त्री.), यशस् ( न.)। सुकेशिनी। सुगंध, सं. स्त्री. ( सं. पु. ) सु., वासः, सुरभिः, सुख, सं. पुं. (सं. न.) मुद् (स्त्री.), मुदा, सु.,गंधः, सौरभं-भ्यं, आमोदः, परिमलः।। मुदितं-ता, प्रीतिः (स्त्री.), हर्षः, आ-प्र-,मोदः, सुगंधि, सं. स्त्री. (सं.>) दे. 'सुगंध' सं. स्त्री. । संमदः, शर्मन् (न.), शा(सा)तं, आनंदः, | वि. (सं.) दे. 'सुगंधित' । आ,नंदथुः प्र-,मदः, भोगः, रभसः, निर्वृतिः सुगंधित, वि. (सं.) सुरभि, सुगंधि, सुवास, (स्त्री.), सौख्यं, जोषः। आमोद-परिमल, वत्-युक्त, सुवासित, सद्गंध, -कर, वि. (सं.) सुख, कार-कारिन्-कारक- | इष्टगंध, घ्राणतर्पण, सुगंधाट्य । आवह-दः-दायकः, सुखंकरः। सुगम, वि. (सं.) उपगम्य, उपसर्पणीय, सुगम्य, -की नींद सोना, मु., सुखं जीव (भ्वा. प. सुख,-गम्य-उपसर्य २.सुबोध, सुखज्ञेय ३. सुकर, से.)-वस् ( भ्वा. प. अ.) सुसाध्य, सरल ४. सुलभ, सुप्राप्य, सुप्राप । For Private And Personal Use Only Page #667 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समता [ ६२६] सुदिन सुगमता, सं. स्त्री. ( सं. ) सौकर्य, सुसाध्यता । | सुडौल, वि. (सं. सु+हिं. डौल ) सुरूप,सुरेख, । सुगम्य, वि. ( सं.) दे. 'सुगम' (१)। सदाकार, सदाकृति, सुन्दर, सुघटित । सुग्गा, सं. पु. ( सं. शुकः) दे. 'तोता' [सुग्गी | सुदंग, सं. पुं. (सं. स+हिं. ढंग ) सुरीति:.(स्त्री.) = शुकी ] । सुरूढ़िः (स्त्री.)। वि., सुरूप, सुंदर ३.सवृत्त । सुग्रीव, सं. '. (सं.) सुंकंठः, वानरेन्द्रः, सुत, सं. पुं. (सं.) आत्मजः, मू नुः, पुत्रः दे.। श्रीरामसखः । वि., सुकंठ, शोभनग्रीव । सुतनु, वि. (सं.) सुगात्र, सुन्दरशरीर । सं. सुघट, वि. (सं.) सुकर, सुखसाध्य २. सुंदर, | स्त्री. (सं.) कोमलांगी, कृशांगी, सुन्दरी। - मनोहर ३. सुघटित, सुरचित, सुरेख । सुतराम् , अव्य. ( सं. ) अतः २. अपितु सुघटित, वि. ( सं ) सुरचित, सुनिर्मित। ३. अगत्या ४. अत्यंतं ५. अवश्यम् । सुघड़, वि. ( सं. सुघट) सुंदर, सुरेख, सुघटित सुतली, सं. स्त्री. दे. 'सुतली'। २. निपुण, दक्ष, प्रवीण । | सुता, सं. स्त्री. (सं.) पुत्री, दुहित (स्त्री.), सुघड़(डा)ई, सं. स्त्री. ( हिं. सुघड़) सुंदरता, तनुजा। सुरूपता २. चातुर्य, कौशलम् । -पति, सं. पुं. (सं.) जामात ( पुं.), दे. सुघड़ता, सं. स्त्री., दे. 'सुघड़ई'। 'दामाद'। सुघड़ी, सं. स्त्री. ( सं. सुघटी ) सु-शुभ, काल: सुतारी, सं. स्त्री. (सं. सूत्रकारः>) आरा, समयः-मुहूतम् । चर्म, प्रभेदिका-प्रभेदिनी-वेधनी, *चर्म,-सूचीसुघर, वि., दे. 'सुघड़'। सीवनी। सचित, वि. ( सं. सुचित्त) सावकाश, निा - सतार्थी, वि. ( सं.र्थिन् ) पुत्र-सन्तान-सन्ततिपार २. निश्चिंत ३. सावधान । अपत्य, अभिलाषिन्-कामिन्-इच्छुक । सुचेत, वि. (सं. सुचेतस् ) अवहित, सावधान, | सुतिनी, सं. स्त्री. (सं.) पुत्रवती, सुतवती, प्रमादशून्य। प्रजावती, सन्तानवती, ससन्ताना । सुजन', सं. पुं. (सं.) आर्यः, सत्पुरुषः, सुतीक्ष्ण, वि. (सं.) अत्यन्त-अत्यधिक, शितभद्रजनः, सज्जनः दे.। शात-तीव्र-प्रखर । दे. 'तीक्ष्ण' । सं. पुं. (सं.) सुजन', सं. पु. (सं. स्वजनाः) आत्मीय-पारि अगस्त्यभ्रात, ऋषिविशेषः । २. शोभांजनः, वारिक,-जनाः,संबंधिनः, बांधवाः (सब बहु.)। तीक्ष्णगंधः, दे. 'सहिजन'। सुजनता, सं, स्त्री. (सं.) सौजन्यं, भद्रता, सुत्थन, सं. स्त्री. ( देश.) सुस्थूणा, *सूत्थानं, सज्जनता दे। जंधावस्त्रभेदः। सुजाति, सं. स्त्री. (सं.) सत्कुलं, सवंशः, सुथना, सं. पुं. । वरान्वयः । वि. ( सं.) अभिजात, कुलीन दे.। .'सुत्थन। सुथनी, सं. स्त्री. १ सुजान, वि. ( सं. सुजान ) प्राज्ञ, बुद्धिमत्, पंडित, विज्ञ २. प्रवीण, निपुण । सं. पुं., पतिः | सुथरा, वि. ( सं. स्वच्छ वा सुस्थ> ) स्वच्छ, २. प्रणयिन्, रमण: ३. परमात्मन् । निर्मल, विमल। सुजाना, क्रि. स., बनाओ 'सूजना' के प्रे. रूप। -पन, सं. पुं., स्वच्छता, नैर्मल्यम् । सुझाना, क्रि. स., बनाओ 'सूझना' के प्रे. रूप। सुदर्शन, वि. ( सं.) शोभन, सुरूप, सुन्दर, सुठि, वि. [ सं. सुष्टु ( अव्य.) ] सुंदर, वर, प्रियदर्शन [ सुदर्शना-नी (स्त्री.)] । सं. पुं. उत्कृष्ट २. अतिशय, बहु.। क्रि.वि.,सामग्र्येण, (सं.) सुदर्शनचक्रम् । संपूर्णतया, सम्यक् । -चक्र, सं. पुं. (सं. न.) विष्णुचक्रं, सुनाम, सुड़पना, क्रि. स. ( अनु. सुड़-सुड़) ससुड़ श्रीकृष्णस्यास्त्रविशेषः। सुड़शब्द पा (भ्वा. प. अ.)-आचम् (भ्वा. |-चूर्ण, सं. पुं. (सं. न.) ज्वरौषधभेदः। प. से.)। सुदामा, सं. पुं. (सं.-मन् ) श्रीकृष्णसखः । वि. सुड़कना, क्रि. सं. (अनु. सुड़सुड़) सशब्दं | (सं.) सुदात्। सत्वरं च निग (तु. प. से.) २. सशब्दं श्वस् | सु दिन, सं. पुं. ( सं. न.) शुभ, दिन-दिवसः(अ. प. से.)। पुण्याहम् । For Private And Personal Use Only Page #668 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सुदी [३०] “न लेना संस्कृ। सुदी, सं. स्त्री. ( सं. सुदि अव्य.) शुक्ल-सित, -कर, सं. पुं. (सं.) सुधा, घट:-दीधितिःपक्षः-अर्द्धमासः। (पु.)-धरः-आधार :-मयूखः रदिमः-योनिः (पुं.) सुदूर, वि. (सं.) अति-सु-बहु-दूर-दूरवर्तिन्- | -सूतिः ( पुं.) निधिः, चंद्रः । दूरस्थ, अतिविप्रकृष्ट, दवीयस् , दविष्ठ । क्रि. -कार, सं. पुं. (सं.) सुधाजीविन, पलगंडः, वि. (सं. न.) अतिदूर-रे। लेपकः। सुदृढ़, वि. (सं.) सुस्थिर, सुनिश्चल, सुधीर -धौत, वि. (सं.) सुधा-चूर्ण, सित-क्षालित२. अति, गाढ़-घन-कीकस, दुर्भध ३. अतिब- | धवलित। लिन्, सुशक्तिमत् । -निधि, सं. पुं. (सं.) दे. 'सुधाकर' । सुदेह, वि. (सं.) सुतनु, सुकाय, सुन्दर । सं. -भोजी, सं. पुं. (सं..जिन् ) सुधाभुज , देवः। पुं. (सं.) सुन्दरशरीरम् । -स्पर्धी, वि. (सं.-धिन् ) अमृत-पीयूष, उपमसुध, सं. स्त्री. [सं. शुद्ध-(बुद्धिः)>] स्मरणं, सदृश, सुमधुर । स्मृतिः (स्त्री.) २. संज्ञा, चैतन्यं, उपलब्धिः सुधाना, कि. प्रे., दे. 'सुधवाना' । (सी.), प्रति-बोधः, चेतना ३. अवधानं, सुधार, सं. पुं. (हिं. सुधारना) दोष, हरणंवृत्तज्ञानम्। अपनयनं, संशोधन, संस्करणं, प्रति-,समा-बुध, सं. स्त्री., चेतना, चैतन्यं, संज्ञा ।। धानम् । -दिलाना, मु., स्मृ (प्रे.)। -करना, क्रि. स., सं.,शुध् (प्रे.), निर्दोष-न रहना या बिसरना, मु., विस्मृ (कम.)। दोषरहितं विधा (ज. उ.अ.) क-प्रति-. समाधा, -बिसराना या बिसारना, मु., विस्मृ ( भ्वा. प. अ.)। सुधारक, सं. पुं. (हिं. सुधार ) संशोधकः, -रखना, मु., सावधान-जागरूक (वि.)स्था | दोषहारिन्, संस्कारकः । (भ्वा. प. अ.)। सुधारना, क्रि. स. (हिं. सुधारना ) दे. 'सुधार -लेना, मु., वृत्तान्तं ज्ञा (क्र. उ. अ.)। करना। बे-,वि., निःसंश, मूच्छित २. प्रमादिन् ।। सुधित, वि. (सं.) सुव्यवस्थित २. सु-सन्यक् , सुधना, क्रि. अ. (हिं. सोधना) शुध् (दि. प. | पक्व-सिद्ध-भृत। अ.) निर्भलीभू। सुधी, सं. पुं. (सं.) पंडितः, विद्वस् ( पुं.), सुध-बुध, सं. स्त्री. (सं. शुद्धबुद्धिः > ) दे. २. चतुर, सुबुद्धि। 'सुध' (२)। सुनना, क्रि. स. ( सं. श्रवणं) श्रु ( भ्वा, प. -जाती रहना या मारी जाना, मु., गतचे- अ., शृणोति ), आ-समा-कर्ण (चु.), निशम् तन-नष्टसंश-निःसंश-मूच्छित (वि.) भू। (दि. प. से. या प्रे. निशामयति ), श्रवण-ठिकाने न रहना, मु., विक्षिप्त (वि.) जन् | गोचरीकृ २. अवधा (जु. उ. अ.) ३. भसं(दि. आ. से.)। नावचनानि श्र। सं. पं.. श्रवणं. आ-समा,सुधरना, क्रि. अ. (हिं. सुधना) दोष-त्रुटि, कर्णनं, निश(शा)मनं, श्रुतिः ( स्त्री.)। रहित-हीन (वि.) भू , परि-वि-सं-, शुध् (दि. सुनने योग्य, वि., श्रोतव्य, श्राव्य, आ-समा, प. अ.), शुद्ध-निर्दोष (वि.) जन् (दि. आ. कर्णनीय, निशमनीय। से.), प्रतिसमाधा ( कर्म.)। सुनने वाला, सं. पुं., श्रावकः, आ-समा, कर्णसुधवाना, क्रि.प्रे. (हिं. सोधना) शुध् (प्रे.), यित-श्रोत (पुं.)। पू (प्रे.), दोष-मल, हीनं कृ (प्रे.)। सुन लेना, मु., छलेन यदृच्छया अलक्षितं सुधांशु, सं. पुं. (सं.) चंद्रः दे.। वा श्रु। सुधा, सं. स्त्री. (सं.) पीयूषं, अमृतं दे. २. मक- | सुना हुआ, वि., श्रुत, आ-समा, कर्णित, श्रवणरंदः, पुष्परसः ३. मधु (न.) ४. जलं गोचरीकृत । ५. दुग्धं ६. विषं ७. चूर्णः, दे. 'चूना'। सुनी अनसुनी कर देना, मु., श्रुत्वापि न अवधा -कंठ, सं. पुं. (सं.) पिकः, कोकिलः। । (जु, उ, अ.)-उपेक्ष ( भ्वा. आ. से.)। For Private And Personal Use Only Page #669 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सुनय [ ६३१ ] सुबुद्धि सुनय, सं. पु. (सं.) सु-उत्तम-श्रेष्ठ-नीतिः । सुपना, सं. पुं., दे. 'स्वप्न'। (स्त्री.)। सुपरि टेंडेंट, सं. पु. (अं.) पर्यवेक्षकः, अध्यक्षः । सुनयन, सं. पुं. (सं.) मृगः। वि. (सं.) | सुपर्ण, सं. पुं. (सं.) गरुडः २. कुक्कुटः सुलोचन। ३. किरण: ४. खगः। सुनयना, सं. स्त्री. (सं.) नारी। वि. (सं.) सुपात्र, सं. पुं. (सं. न.) योग्यजनः, अधिकारिसुलोचना-नी। व्यक्तिः (स्त्री.)। सुनवाई, सं. स्त्री. (हिं. सुनना ) श्रवणं, निश- | सुपारी, सं. स्त्री. (सं. सुप्रिय> ) क्रमुकं, पूगं, (शा)मनं २. व्यवहारदर्शनं, कार्य,-अवेक्षणं- क्रमुक-पूग, फलं, तांबूलम् । विचारणम् । -पाक, सं. पुं. (हिं.+सं.) पौष्टिकौषधभेदः । सुनसान, वि. ( सं. शून्यस्थानं>) निर्जन, | सुपास, सं. पुं. ( देश.) सौख्यं, सुख दे. । विजन, विविक्त, एकान्त २. उच्छिन्न, उद्ध्वस्त, | सुपुत्र, सं. पु. (सं.) सत्-उत्तम-श्रेष्ठ,-पुत्रः । जर्जर । सं. पुं., नीरवता, निःस्तब्धता । सुपुत्री, सं. स्त्री. (सं.) सत्-उत्तम-श्रेष्ठ,-पुत्री। सुनहरा-री, वि., दे. 'सुनहला'। सुपुर्द, सं. स्त्री., (फ्रा.) निक्षेपः, न्यासः । सुनहला, वि. (हिं. सोना ) हैम, सौवर्ण, |-करना, क्रि. स., निक्षिप् ( तु. प. अ.), सुवर्ण-कांचन-हेम-हिरण्य, वर्ण-आभ। न्यस् (दि. प. से.)। सुनाई, सं. स्त्री. (हिं. सुनना ) दे. 'सुनवाई | सुपूत, सं. पुं. ( सं. सुपुत्रः, दे.)। (१, २.) । ३. न्यायः। सुपूती, सं. स्त्री. (हिं. सुपूत) सुपुत्रत्वं २. सुपुसुनाना, क्रि. प्रे., ब, 'सुनना' के प्रे. रूप। . वती। सुनार, सं. पुं. (हिं. सोना) सुवर्ण-हेम, कारः, । सुप्त, वि. (सं.) निद्रित, निद्राण, शयित कलादः, नाडिंधमः, मौष्टिकः, हेमलः । २. जडीभूत, निश्चेष्ट, निःस्तब्ध ३. मुद्रित, सुनारी, सं. स्त्री. (हिं. सुनार ) सुवर्णकार, | मुकुलित ४. कर्णविमुख ५. अलस। व्यवसायः-वृत्तिः ( स्त्री.) २. सुवर्णकारपत्नी। सुप्ति, सं. स्त्री. (सं.) निद्रा, स्वप्नः, स्वापः, सुनावनी, सं. स्त्री. ( हिं. सुनाना ) मृत्युसमा- | शयनं, संवेशः २. सुप्तांगता, अंगजडता, स्तंभः चारः, निधनवृत्तम् । ३. तंद्रा, निद्रालुता-त्वम् । सुनीति, सं. स्त्री. (सं.) सुनयः, दे. २. ध्रुव- सप्रतिष्ठा, सं. स्त्री. (सं.) मुख्यातिः-सुविश्रुतिः जननी, उत्तानपादपत्नी। (स्त्री.)। सुनी-सुनाई, सं. स्त्री. (हिं. सुनना-सुनाना )। किंवदन्ती, जनप्रवादः। सुप्रतिष्ठित, वि. (सं.) सुकीर्तिमत्, सुविख्यात । सुप्रतीक, वि. (सं.) सुंदरांग, रूपवत्, सरूप, सुनेत्र, वि. (सं.) सु-सुन्दर, नयन-नेत्र-लोचन सुन्दर, सुरूप २. धार्मिक । सं. पुं. (सं.) ईक्षण। शिवः २. कामदेवः ३. दिग्गजविशेषः ४. यक्षसुन्न, वि. ( सं. शून्य> ) चेष्टा-क्रिया-चेतना विशेषः। स्पंदन, शून्य-हीन,जडीभूत, निःस्तब्ध, निश्चेष्ट, निजींव, निश्चल। सं. पु. ( सं. शून्यं ) बिंदुः, सुप्रदर्श, वि. (सं.) सुदर्शन, रूपवत्, सुन्दर। खम् । सुप्रसिद्ध, वि. ( सं.) सुविश्रुत, प्रख्यात । सुनत, सं. स्त्री. ( अ.) दे. 'खतना'। सुफल, सं. पुं. (सं. न.) सत्परिणामः २. सुन्दरसुन्ना, सं. पुं. ( सं. शून्यं ) बिंदुः, खम् । । फलं । वि. सफल, कृतार्थ २. सुन्दरफलयुक्त। सुनी, सं. पुं. (अ.) यवनसंप्रदायविशेषः। सुबह, सं. स्त्री. (अ.) प्रातः, दे.। सुपक्क, वि. (सं.) सुपरिणत २. सुसिद्ध, सुशृत, सुबास, सं. स्त्री.,दे. 'सुवास'। सुश्राण। सुबाहु, सं. '. (सं.) राक्षसविशेषः। वि. सपथ, सं. पुं. (सं.) सत्पथः, सन्मार्गः, (सं.) दृढ़-सुन्दर, बाहु-भुज। सुपन्थाः (पुं. एक.) २. सदाचारः, सवृत्तम् । सुबुक, वि. (फा.) लघु, अल्प-लघु, भार सुपथ्य, सं. पुं. (सं. न.) पथ्यं, स्वास्थ्य- २. सुन्दर। प्रदाहारः। । सुबुद्धि, सं. स्त्री. (सं.) सुमतिः (स्त्री.), For Private And Personal Use Only Page #670 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [६३२] सुरंग - सुधिषणा, सुधीः (स्त्री.)। वि. (सं.) बुद्धि- | सुमन, सं. पु. ( सं. सुमनस् न., स्त्री. बहु.) धी, मत्, पंडित, प्राय, बुध । पुष्पं, कुसुमं २. सुचित्तं, सुहृदयम् (सं. पुं.) सुबूत, सं. पुं. (अ.) प्रमाणं, साधनं, उपपत्तिः | देवः २. पंडितः ३. गोधूमः । वि. (सं.) सहृदय, (स्त्री.)। सुचित्त, दयालु। -तहरीरी, सं. पुं. (अ.) लेखप्रमाणं, साधन- -चाप, सं. पुं. (सं. सुमनश्चापः) कामदेवः। पत्रम्। सुमनस, सं. पुं., तथा वि. दे. 'सुमन' सं. पुं., सुभ, वि., दे. 'शुभ'। तथा वि.। सुभग, वि. (सं.) सुन्दर, मनोरम २. सौभा- | सुमरन, सं. पुं., दे. 'स्मरण' । ग्यवत्, धन्य ३. प्रिय, प्रियतम ४. सुख-आनंद, सुमरनी, सं. स्त्री. (हिं. सुमरना) (सप्तविंशप्रद ५. धनाढ्य, ऐश्वर्यशालिन् । तिगुटिकावती) जपमालिका।। सुभगा, वि. (सं.) सुन्दरी, रूपवती २. जीवित- सुमाटरा, सं. पुं. (सं. सुमात्रा) मलयद्वीपपतिका, सधवा। सं. स्त्री. (सं.) पतिप्रिया. | पुंजान्तर्वतिमहादीपविशेषः, सुवर्ण,-भूमिः (स्त्री.) भर्तृवल्लभा। द्वीपम् । सुभट्ट, सं. पुं. (सं.) सुसैनिकः, सुयोधः।। | सुमार्ग, सं. पुं. (सं.) दे. 'सुपथ' । सुभट्ट, सं. पुं. (सं.) सुविद्वस् (पुं.) पंडितवरः।। सुमित्रा, सं. स्त्री. (सं.) दशरथपत्नी २. माकसुभद्र, वि. (सं.) भाग्यवत् २. श्रेष्ठ । सं. प. | ण्डेयजननी । (सं. न.) सौभाग्यं २. कल्याणम् । -नंदन, सं. पुं. (सं.) लक्ष्मणः २. शत्रुघ्नः। सुभद्रा, सं. स्त्री. (सं.) श्रीकृष्णभगिनी, | सुमुख, सं. पुं. (सं. न.) सुवदनं, शोभनाननम् । अर्जुनस्य भार्या, अभिमन्युजननी । वि. (सं.) सुवदन, सुन्दरानन २. सुन्दर सुभाग, वि. ( सं.) सौभाग्यवत्, सुभाग्य ।। ३. प्रसन्न ४. कृपालु। सं. पुं. (सं.) सौभाग्य, सुदैवम् । | सुमुखी-खा, सं. स्त्री. (सं.) सुवदना-नी, सुन्दसुभागी, वि. (सं.सुभाग>) धन्य, महाभाग, रानना-नी २. सुन्दरी ३. दर्पणः । सुमेर-रू, सं. पुं. (सं. सुमेरुः ) मेरुः, हेमाद्रिः, सौ-,भाग्यवत्, सुभाग्य। सुभाग्य, वि. (सं.) दे. 'सुभागी'। सं. पुं. | रत्नसानुः, सुरालयः २. उत्तरध्रुवः ३. जपमा. (सं. न.) सौभाग्यं, दे.। लाया बृहद्गुटिका। सुभान, अव्य. (अ. सुबहान ) साधु-साधु, | सुयश, सं. पुं. [सं.-शस् (न.)] सुकीतिःबाढम् । सुख्याति:-सुविश्रुतिः-सुप्रसिद्धिः ( स्त्री.)।। -अल्ला, धन्योऽसि परमेश्वर ! ( आश्चर्यादि- | सुयोग, सं. पुं. (सं.) योज्य उचित, काल:, बोधकं वाक्यम्)। सु-सद्,-अवसरः। सुभाव, सं. पुं. (सं. स्वभावः, दे.)। | सुयोग्य, वि. (सं.) सुसमर्थ, सुशक्त, सुकुशल, सुभाषित, वि. ( सं.) सम्यगुक्त । सं. पुं. (सं. | सुनिष्णात, सुनिपुण । न.) सूक्तिः ( स्त्री.), वरवचनम् । सुयोधन, सं. पुं. (सं.) दुर्योधनः । सुभिक्ष, सं. पु. (सं. न.) सुकाल:, अन्न-भिक्षा,- | सुरंग, वि. (सं.) शोभन-सुन्दर-वर, वर्णः-रंग:बहुलकालः। रागः । वि., सुन्दर, सदाकृति, सुरूप । सुभीता, सं. पुं. (देश.) सौकर्य, सुगमता | सुरंग, सं. स्त्री. ( सं. सुरं(रु)गः-गा ) सुरं(रु) २. सदवसरः, सुयोगः ३. सुखं, सौख्यम् । गः-गा, अंतर-गूढ़-भौम,-मार्गः २. सन्धिः , सुभूषित, वि. (सं.) सम्यक् अलंकृत, सुमंडित। संधिला, सुरं(5)गः-गा, खानिकं ३. ख(खा)नीसुमंगल, वि. (सं.) सुमांगलिक, सुभद्र, शिव, निः ( स्त्री.), आकरः ४. पोतस्फोटिनी सुरंगा तम-तर। (यंत्रभेदः)। सुम, सं. पुं. (फ्रा.) शफः, विखः, खुरः दे.। -उड़ाना, क्रि. स., सुरुङ्ग सशब्दं स्फुट (प्रे.)। सुमति, सं. स्त्री. तथा वि. (सं.) दे. 'सुबुद्धि -लगाना, क्रि. स., संधिलां कृ अथवा खन् सं. स्त्री. तथा वि.। | (भ्वा. प. से.)। For Private And Personal Use Only Page #671 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सुरंगिया [ ६३३ ] सुरांगना - -बिछाना, मु., समुद्रे पथि वा सुरुंगाः न्यस् | -मिलाना, क्रि. स., तुल्यस्वरं कृ । (दि. प. से. ) निक्षिप ( तु. प. अ.)। बे-, वि., विस्वर। सुरंगिया, सं. पुं. (सं. सौरंगिकः) सुरुङ्ग- | बेसुरा, क्रि.वि., विस्वरं, अपस्वरम् । (गा)कारः। --में सुर मिलाना, मु., चाटक्तिभिः तुष् (प्रे.) सुर, सं. पु. (सं.) अमर, देवः, देवता दे. या उपच्छंद् (चु.)। २. सूर्यः ३. पंडितः। | सुरत', सं. स्त्री. [ सं. स्मृतिः (स्त्री.)] स्मरणं, -ज, सं. पुं. (सं.) देवद्विपः २. ऐरावतः। दे. 'सुध' (१-३)। -गाय, सं. स्त्री. (सं. गौः ) कामधेनुः (स्त्री.)। --संभालना, मु., सावधान-अवहित (वि.) भू। .-गायक, सं. पुं. (सं.) गंधर्वः। सुरत, सं. पुं. (सं. न.) काम-केली,-क्रीडा, -गिरि, सं. पुं. (सं.) सुमेरुः, सुरपर्वतः। संभोगः, मैथुनं, रतिक्रिया, निधुवनम् । ---गुरु, सं. पुं. (सं.) बृहस्पतिः ।। ग्लानि, सं. स्त्री. (सं.) रतिजशैथिल्यम् । -चाप, सं. पु. (सं.) सुर-इन्द्र, धनुस (न.)। | सुरता, सं. स्त्री. (सं.) देवत्वं, अमरत्वम् । -जन', सं. पुं. (सं.) देवगणः । २. देव-सुर, समूहः-समुदायः ३. पत्नी, भाया। -जन, वि. (सं. सुजन ) सज्जन २. चतुर। सुरति, सं. स्त्री., दे. 'सुरत' (१-२)। -तरु, सं. पुं. (सं.) कल्पवृक्षः, सुर, द्रमः- | सरभि, सं. स्त्री. ( सं. पुं.न.) सुगंधः, सौरभ, पादपः। नु, वासः । ( सं. स्त्री.) गौः (स्त्री.) २. काम-दारु, सं. पुं. (सं. न.) देवदारु (न.)। धेनुः (स्त्री.), सुरभी ३. पृथिवी ४. सुरा। --द्विष , सं. . (सं.) असुरः, राक्षसः २.राहुः। सरभित, वि. (सं.) सुरभि, सुगंधित दे। -धाम, सं. पुं. [सं.-मन् (न.)] स्वर्गः, नाकः, सुरभी, सं. स्त्री. (सं.) सुगंधः, दे. २. कामधेनुः देवलोकः। (स्त्री.)। -धुनी, सं. स्त्री. (सं.) गंगा, देवनदी। सुरमई, वि. (फा.) यामुनरंग, सौवीरवर्ण, -धूप, सं. पुं. (सं.) रालः । आ ईषत, कृष्ण-नील। -धेनु, सं. स्त्री. (सं.) कामधेनुः । | सुरमा, सं. पुं. (फ्रा.-मह् ) यामुनं, सौवीर, -ध्वज, सं. पुं. (सं.) इन्द्रध्वजः, सुरकेतुः। स्रोतोऽजन, कपोतांजनं, कृष्ण,अंजनम् । -नाथ, सं. पुं. (सं.)सुर, नायकः-पतिः-पालक:- -दानी, सं. स्त्री., यामुन-सौवीर-अंजन, इन्द्रः-ईशः। आधानी। -नारी, सं. स्त्री. (सं.) नुर-देव,-वधूः (स्त्री.)- | -लगाना, क्रि. स., (नेत्रयोः) सौवीरं निविश् बाला-अंगना । (प्रे.), या ऋ (प्रे. अर्पयति )। -पथ, सं. पुं. ( सं. न.) आकाशः-शम् । .) आकाशः-शम् । । सुरम्य, वि. (सं.) सुन्दर, दे। -पुर, सं. पु. (सं. न.) देवपुरी, अमरावती। | सरस, वि. (सं.) मधुर, स्वादु २. सरस, रस-मंदिर, सं. पुं. (सं. न.) देवालयः, मंदिरम्। युक्त ३. सुन्दर। -मणि, सं. स्त्री. (सं. पुं.) चिन्तामणिः। | सरसा, सं. स्त्री. (सं.) हनुमन्मार्गावरोधक -रिपु, सं. पुं. (सं.)दानवः, राक्षसः। नागमति (स्त्री.) २. राक्षसीविशेषः ३. -लोक, सं. पुं. (सं.) स्वर्गः, देवलोकः। । दुर्गा ४. नदीविशेष: ५. तुलसो ६. ब्राह्मी। -वल्ली, सं. स्त्री. (सं.) तुलसी, वृन्दा। सरसुराना, क्रि. अ. ( अनु. सुर+सुर>) -वाणी, सं. स्त्री. (सं.) देववाणी, सस्कृतभाषा।। सप् ( भ्वा. प. अ.), मन्दं निभूतं च गम् -श्रेष्ठ, सं. पुं. (सं.) इन्द्रः २. शिवः ३. विष्णुः २.कंड्रति अनुभू ३. सुरसुरायते (ना.धा.) । ४. गणेशः ५. धर्मः। सुरसुरी, सं. स्त्री. (सं.) सुरसुर-सर्पण, ध्वनिः -सरि, " सं. स्त्री. (सं.-सरित् ) गंगा, २. कंडूः-कंडूतिः-खर्जू: (स्त्री.) ३. कीटभेदः । -सरिता, सुरक्षित, वि. (सं.) सूत, स्ववित, सुत्रात, सुत्राण, सुपालित। सुर, सं. पु. (सं. स्वरः ) ध्वनिः, नादः, स्वनः, सुरांगना, सं. स्त्री. (सं.) देवी, देवपत्नी, दे. 'सुर'। अमरांगना ३. अपसरा, स्वर्वेश्या, नाकनर्तकी । -सरी, सुरसिंधुः। For Private And Personal Use Only Page #672 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 'सुरा [ ६३४ ] सुल्ताना कादंबरी, मद्यं दे. | सुरा, सं. स्त्री. (सं.) मदिरा, वारुणी, हाला, | सुलक्षण, सं. पुं. (सं. न. ) शुभ-भद्र-सु, लक्षणंचिह्न- लक्ष्मन (न.) । वि. (सं.) शुभ, शिव, मांगलिक, सुलक्ष्मयुत २. भाग्यवत्, धन्य । सुलगना, क्रि. अ. (अनु. सुलसुल>) (सधूमं ) ज्वल (भ्वा. प. से. ), दह् इंधू (कर्म), दीप ( दि. आ. से. ) २. अत्यंत संतम् ( कर्म. ), दुःखायते ( ना. धा. ) । सुराख, सं. पुं., दे. 'सूराख' । दे. 'सुराग' | सुराग़, सं. पुं. ( तु.) अन्वेषण, अनुसंधानं २. पद, चिह्न, लक्षणं, सूत्रं, संधानम् । - लगाना, क्रि. स. चिह्नः मृग् (चु. ) या अन्विष् (दि.प.से.) । - लेना, क्रि.स., निभृतं निरीक्ष (भ्वा.आ.से.) । सुरागाय, सं. स्त्री. [सं. सुरगौः > (स्त्री.) ] चमरः- समर:[-री (स्त्री.)], त्रिविष्टपदेशीयः संकरजो गोभेदः । सुरागी, सं. पुं. ( फ्रा. सुराग ) च (चा) र:, अपसर्पः, दे. 'भेदिया' । सुराही, सं. स्त्री. (सं.) *लंबग्रीवघटी, *सुराधिः। -दार, वि. ( अ. + फ़ा. ) सुराधिसदृश । सुरीला, वि. (हिं. सुर ) सु-मधुर स्वर-स्वन, कल, मंजुल, कर्णमधुर ( राग, कंठादि ) २. सुमधुर, कंठ ( गायकादि ) । सुरुखुरु, वि. ( फ़ा. सुखरू, दे.) । सुरुचि, सं. स्त्री. (सं.) उत्तम, रुचि:- अभिरुचि: शीलं २. ध्रुवभक्तस्य विमातृ (स्त्री.) । वि. (सं.) सुरुचि उत्तमाभिरुचि, विशिष्ट । सुरूप, वि. ( सं .) सुन्दर, रूपवत् २. बुद्धिमत्। सं.पुं. (सं.न.) वराकृतिः (स्त्री.), सुन्दराकारः । सुरेन्द्र, सं. पुं. (सं.) देवेशः, इन्द्रः, सुरेश: श्वरः । -चाप, सं. पुं. (सं.) इन्द्रधनुस् (न.) । सुख, वि. ( फा . ) रक्त, रो (लो) हित, शोण, शोणित, अरुण, कषाय, फल्गुन । - होना, क्रि. अ., रक्तायते - लोहितायते ( ना. धा. ) । -रू, वि. ( फा . ) तेजस्विन्, कांतिमत् २. प्रतिष्ठित, संमानित ३. कृतकार्य । - रूई, सं. स्त्री. कृतकार्यता २. यशस् (न.), कीर्तिः (स्त्री.) ३. संमानः, प्रतिष्ठा । सुर्खाब, सं. पुं. (फ़ा. ) कोकः, कुकः, चक्रः, चक्रवालः, रथांगः, रथांगनामकः । ~का पर लगाना, मु., वैलक्षण्यविशिष्ट (वि.) वृत् (भ्वा. आ. से. ) । सुर्खी, सं. स्त्री. ( फ़ा. ) रक्तिमन् - लोहितिमन्, अरुणिमन् (पुं.), शोणता, रक्तता २. ( लेखादीनां ) शीर्षकं ३. रुधिरं, रक्तं ४. इष्टकाचूर्णं ५. रक्तवर्णः । | सुलगाना, क्रि. स. (हिं. सुलगना) उद्दीप्प्रज्वल ( प्रे.), सम्-,इंधू ( रु. आ. से. ) २. संतप् (प्रे.), पीड़, ( चु. ) ३. उत्तिज्उद्दीप् ( प्रै. ) । सुलझना, क्रि. अ. (हिं. उलझना ) उग्रंथ ( कर्म. ), विश्लिष ( दि. प. अ. ), सरलीभू सुलझाना, क्रि. स. (हिं. सुलझना) उद्ग्रंथ् ( क्र. प. से. ), विश्लिष (प्रे.), सरलीकृ जटिलतां अपनी (भ्वा. प. अ.) २. विवाद शम् (प्रे. श (शा) मयति ) । सुलझाव, सं. पुं. (हिं. सुलझाना ) विश्लेषः, मोचनं, सरलीकरणं, जाटिल्यापनयनम् । सुलतान, सं. पुं., दे. 'सुल्तान' । सुलफ़ा, सं. पं. (फ़ा. ) तमाखुभेदः, सुलफ २. दे. 'चरस' | सुलभ, वि. (सं.) सुलभ्य, सुप्राप्य प २ सरल,. सुगम ३. सामान्य, साधारण । सुलभता, सं. स्त्री. ( सं . ) सुलभत्वं, सुप्राप्यताः २. सरलता । सुलह, सं. स्त्री. ( अ ) सख्यं, मैत्री, सौहार्दं २. शान्तिः (स्त्री), विप्लवाभावः ३. संधिः, संधानं ४. प्रसादनं, समाधनम् । -नामा, सं. पुं. ( अ + फा. ) संधिपत्रम् सुलाना, क्रि. स. ब. 'सोना' के प्रेरणार्थक रूप । सुलूक, सं. पुं., दे. 'सलूक' । सुलेमान, सं. पुं. (अ.) सुलेमानः, देवदूतो नृप विशेषः २ पर्वतविशेषः । सुलेमानी, वि. (अ.) सुलेमान संबंधिन् । सं. पुं. ( अ ) सिताक्षोऽश्वः २. कृष्णः प्रस्तरभेदः । सुलोचन, विं. (सं.) सुनयन, सुनेत्र । सं. पुं. (सं.) दैत्यविशेषः २. मृगः ३. चकोर: । सुलोचना, वि. स्त्री. (सं.) सुनयनी ना । सं. स्त्री. (सं.) मेघनादपत्नी | सुल्तान, सं. पुं. ( अ. ) नृपः, राजन्, सम्राज् । सुल्ताना, सं. स्त्री. (अ.) सम्-,राज्ञी, नृपपत्नी । For Private And Personal Use Only Page #673 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सुल्तानी [ ६३५) सुहबत सुल्तानी, वि. ( अ.) राजकीय २. रक्तवर्ण । | सुष्ट, वि. (सं. दुष्ट का अनु.) शुभ, भद्र सं. स्त्री., राज,-पदं-अधिकारः, रज्यं २. कौशे- २. सुंदर। यवस्त्रभेदः। सुष्टु, अव्य. (सं.) अत्यन्तं, सातिशयं २.सम्यक् , सुवर्ण, सं. पुं. (सं. न. ) स्वर्णं, कांचनं, सुचारु ३. यथायोग्य, अवितथम् । दे. सोना" । २. धनं, वित्तम् । वि. (सं.)। सुष्टुता, सं. स्त्री. (सं.)मंगलं, शिवं २. सौभाग्यं सुंदर-रम्य, वर्ण-रंग २, हेमवर्ण ३. कुलीन, ३. सौन्दर्यम् । अभिजात । सुसंगति, सं. स्त्री. (सं.) सु-सत्-साधु-उत्तम, -कार, सं. पुं. (सं.) दे. 'मुनार'। संगः-संगमः-समागमः-संगतिः। सुवास, सं. . (सं.) सुगंधः, दे, २. सु, | सुसजित, वि. ( सं.) सुप्रसाधित, सुमंडित, सदनं-भवनं-गृहं, सुंदर, निवासः-निलयः।। सुविचार, सं. पुं. (सं.) सद्विमर्शः २. सुनिर्णयः, सुभूषित, सुपरिष्कृत, स्वलंकृत । सुसताना, क्रि. अ. (फा. सुस्त ) विश्रम् सुन्यायः। (दि. प. से.), आ-विरम् (भ्वा. प. अ.), सुविधा, सं. स्त्री., दे. 'सुभीता'। कार्यात निवृत् ( भ्वा. आ. से.), श्रमं अपनी सुवृत्त, वि. (सं.) सदाचारिन्, सच्चरित्र | (भ्वा. प. अ.)। २. गुणिन् ३.साधु ४.सुच्छन्दोविशिष्ट(काव्य)। सुवेश-ष, वि. ( सं.) सुन्दरवेष-श, सुवसन, सुसमय, सं. पुं. (सं.) सुकालः २. सुभिक्षम् । सुवेशि(पि)न् २. सुन्दर, सुरूप । सुसर-रा, सं. पुं. (सं. श्वशुरः ) दे. 'ससुर'। सुशिक्षा, सं. स्त्री. (सं.) सच्छिक्षा, सुन्दर, सुसरार-ल, सं. स्त्री. (सं. श्वशुरालयः) दे. अनुशासनं-अनुशिष्टिः (स्त्री.)। 'ससुराल'। सुशिक्षित, वि. (सं.) सुविनीत, व्युत्पन्न, सुसरी, सं. स्त्री. (हिं. ससुर ) दे. 'ससुरी'। सुपाठित, सूपदिष्ट २. शिष्ट, संस्कृत, प्रबुद्ध । सुस्त, वि. (फा.) अलस(क), आलस(स्य), सुशील, वि. ( सं.) सत्-उत्तम, शील-स्वभाव कार्य-उद्योग, विमुख, मंद, मथ(द)र, शीतक, प्रकृति, शीलवत्, सभ्य, दक्षिण २. सच्चरित्र, तुंद, परिमृज परिमार्ज २. निर्बल ३. निस्तेसदाचारिन् ३. नम्र, विनीत ४. सरल, ऋजु । जस्क, हतप्रभ ४. मंद, गति-वेग ५. स्थूल-मंद, सुशीलता, सं. स्त्री. (सं.) शीलवत्ता, । बुद्धि ६. रुग्ण, दे. 'रोगी'। दाक्षिण्यं, सभ्यता, शिष्टता २. सच्चारित्र्यं. | सुस्ताना, क्रि. अ., दे. 'सुसताना' । सद्वृत्तिः ( स्त्री.) ३. नम्रता ४. आर्जवम् । सुस्ती, सं. स्त्री. (फा.) आलस्यं, मांद्य, उद्योग- . सुश्री, वि. (सं.) अति, सुंदर-रम्य-मनोहर कार्य, विमुखता-द्वेषः २. तेजोहीनता, निष्प्रभता २. महा-बहु,-धन, सुसंपन्न, सुसमृद्ध । ३. रोगः। सुषमा, सं. स्त्री. (सं.) शोभातिशयः, -करना, क्रि. अ., समयं व्यर्थ नी (भ्वा.प.अ.). सुंदरता, दे। अलस- निर्व्यापार-उद्योगशून्य (वि.) स्था -शाली, वि. (सं.) अतिसुंदर, सुषमित । ( भ्वा. प. अ.) २. विलंब ( भ्वा. आ. से.), सुषिर, सं. पुं. (सं. न.) विविरं, छिद्रं २. वंश्या चिरा(र)यति (ना. धा.)। दिवाद्यम् । वि. ( सं.) सच्छिद्र, सरंध्र। सुस्थिति, सं. स्त्री. (सं.) सुन्दर-सुखद,-स्थितिः सुषुप्त, वि. (सं.) गाढं शयित-सुप्त-निद्राण, | (स्त्री.)-अवस्था-दशा । २. सुखं, मंगलम् गादनिद्रामग्न। ३. स्वास्थ्यम्। सुषुप्ति, सं. स्त्री. (सं.) सु-गाढ,-निद्रा-स्वप्नः- सुस्थिर, वि. (सं.) अचल, निश्चल २. सुदृढ, स्वापः सुप्तिः ( स्त्री.)-शयनं-संवेशः २. अशानं ] धीर । (वे.) ३. चित्तवृत्तिभेदः ( यो.)। सुस्पर्श, वि. (सं.) कोमल, मृदुल, चिक्कण, सुषुप्सु, वि. ( सं.) शिशयिषु, निद्रा,आकुल- लक्ष्ण । आतुर । सुस्मिता, सं. स्त्री. (सं.) स्मेरमुखी, प्रसन्नसुषुम्ना, सं. स्त्री. ( सं.-णा) इडापिंगलामध्यगा प्रफुल्ल,मुखी-आनना-वदना । मध्यनाडी, नाडी, पृष्ठवंशः। सुहबत, सं. स्त्री., दे. 'संगत' । For Private And Personal Use Only Page #674 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [ ६३६ ] सुहाग सुहाग, सं. पुं. (सं. सौभाग्यं) सुभगत्वं, पतिवत्नीत्वं, २. वरस्य वैवाहिकवस्त्रं, दे. 'जामा ' ३. वैवाहिकं मंगलगीतम् । - पिटारा, सं. पुं., *सौभाग्यपिटाकः । - पूरा, सं. पुं., सौभाग्यपुटः । सुहागा, सं.पुं. (सं. सुभगः ) टंकणं- नं, कनकक्षारः, रसशोधन:, बिडं, लोहद्राविन्, स्वर्णपाचकः । सुहागिन-नी, सं. स्त्री. (हिं. सुहाग ) सधवा, पतिवत्नी, सनाथा, सभर्तृका, जीवत्पतिका । सुहाना, वि. (हिं. सुहाना ) शोभन, सुखकर | सुहाता, वि. (हिं. सहना ) सहनीय, सह्य | ३. कोष्ण, कदुष्ण ( जल ) । सुहाना, क्रि. अ. (सं. शोभनं ) विराज शुभ (भ्वा. आ. से. ) २. रुच् (भ्वा. आ. से.), रुचिकर वृत् (भ्वा. आ. से. ) । सुहावना, वि. (हिं. सुहाना ) शोभन, प्रियसुभग, दर्शन, सुन्दर दे. । [ सुहावनी (स्त्री.)= शोभनी ] । क्रि. अ., दे. 'मुहाना' । - पन, सं. पुं., सौन्दर्य, मनोहरता । सुहृद्, सं. पुं. (सं.) सखि, मित्र, वयस्यः । सुहृदय, वि. (सं.) सुचित्त, सुमनस्क २. सहदय, स्नेहशील । सूँघना, क्रि. स. (सं. शिधनं ) शिंघ् (भ्वा.प. से.), आ-उपासं, घ्रा (भ्वा, प. अ. ), घ्राणेन्द्रियेण गंधं ग्रह् ( क्रू. प. से. ) २. अत्यल्पं भक्षू ( चु. ) ३. ( सर्पादि का) दंशू (भ्वा. प. अ. ) । सं. पुं., उपा-आ, घ्राणं, प्रातं-तिः (स्त्री.) गन्धग्रहणम् । सिर, मु., शिरसि आ-समा- उपाघ्रा । सूँघनी, सं. स्त्री. (हिं. सूँघना ) नस्यं, दे. | 'नसवार' | सूँघने योग्य, वि, प्रातव्य, प्रेय, शिंघनीय । सूँघने वाला, सं. पुं., शिवकः, घ्रातृ, गंध. ग्राहकः । सूँघा सं. पुं. (हिं. सूँघना ) विश्वकदुः, मृगया कुक्कुरः, आखेटिकः २. * निधिप्रात् ३. च (चा)रः, अपसर्पः । सूँघाहुआ, वि., शिंधित, घ्रात, घ्राण, गृहीत गंध । सूँड, सं. स्त्री. (सं. शुंड :) शुंडा, दंड, शुंडार:, हस्ति, हस्तः, करि, करः । सूँस, सं. पुं. [सं. शिं (शि) शुमार : ] अंबुकपिः, शिशुकः, सूक्ष्म महावसः, असि,-पुच्छ:-प्लव:, उष्णवीर्य, उलु (लू) पिन् । सूँ-सूँ, सं. स्त्री. (अनु.) सूं, कार:-कृति: (स्त्री.) । -करना, क्रि. अ., नासिकया यूँ कॄ अथवा सूँध्वनि कृ सूअर, सं. पुं. [सं. सू. (शू) कर: ] वराहः, रोमशः, किरिः, दंष्ट्रिन, क्रोड, पोत्र-दंत-रदआयुधः, शूरः, कोल:, भेदन:, घोणिन, पोत्रिन २. ( गाली ) अधमजनः, गृध्नुः । - का मांस, सं. पुं., शूकर-वराह, मांसम् । सूअरी, सं. स्त्री. [सं. सू. (शू.) करी] कोली, वराही, शूरी इ. । सूआ', सं. पुं. (सं. शुकः) कीरः, दे. 'तोता' । सूआर, सं. पुं. (सं. सूचा) सूचकः, स्थूलबृहत, - सूची । सूई, सं. स्त्री. (सं. सूची) सूचिः (स्त्री.), व्यधनी, सूचिका, सी (से) वनी २. घटी सूची । - पिरोना, क्रि. स., सूची ससूत्रां कृ या सूत्रेण सनाथयति ( ना. धा. ) । -का काम, सं. पुं., सूचीकर्मन् (न.) । का नाका, सं. पुं., सूची, छिद्रं रंध्र-मुखं पाशः । —की नोक, सं. स्त्री, सूच्य, सूचिकाग्रम् | - तागा, सं. पुं., *सूची, सूत्रं डोरम् । - का भाला या फावड़ा बनाना, मु., अणुं पर्वतीकृ, अत्युक्त्या वर्ण ( चु. ) । सूकर, सं. पुं. (सं.) दे. 'सूअर' । सूकरी, सं. स्त्री. (सं.) दे. 'सूअरी' । सूक्त, सं. पुं. (सं. न. ) वेदमंत्र ऋक्, समूहः २. उत्तमकथनं ३. महावाक्यम् । वि. ( सं . ) साधु कथित सम्यगुक्त । सूक्ति, सं. स्त्री. ( सं . ) सुभाषितं, सुन्दरकथनं, सुन्दर-वर, वचनं वाक्यं उक्तिः (स्त्री.) । सूक्ष्म, वि. ( सं . ) अति अत्यंत, अल्प-क्षुद्र-तनुद- लघु स्तोक- खुल्ल क्षुल्ल २. दुर्वेध, गहन, गूढ ३. अति, तनु विरल- लक्ष्ण । For Private And Personal Use Only कोण, सं. पुं. ( सं . ) लघुकोण: । - दर्शक यंत्र, सं. पुं. (सं. न. ) अणुवीक्षणयंत्रम् | —दर्शिता, सं. स्त्री. (सं.) कुशाग्रबुद्धि: (स्त्री.)प्रत्युत्पन्नमतित्वम् । Page #675 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सूक्ष्मता [ ६३७ ] सूट -दर्शी, वि. ( सं.-शिन् ) कुशाग्र,-बुद्धि-मति, | कर्णेजपः १०. शिक्षकः । वि. (सं.) ज्ञापक, सूक्ष्मदृष्टि, गूढज्ञ, सुविचक्षण, प्रत्युत्पन्नमति । । बोधक, निर्देशक, निदर्शक । -भूत, सं. पुं. (सं. न.) अपंचीकृताकाशादि- सूचना, सं. स्त्री. ( सं.) विज्ञापना, आख्याभूतम् । पना, विज्ञप्तिः ( स्त्री.) २. दे. 'सूचनापत्र' -मति, वि. (सं.) तीक्ष्ण-तीव-कुशाग्र, बुद्धि- ३. वार्ता, संदेशः, ज्ञानं, बोधः। मति। -पत्र, सं. पुं. (सं. न.) विज्ञापन-विज्ञप्ति--- -शरीर, सं. पुं. (सं. न. ) सूक्ष्म-लिंग-, देहः | घोषणा-प्रसिद्धि, पत्रम् । शरीरम् । | सूचनीय, वि. (सं.) बोधनीय, ज्ञापनीय, सूक्ष्मता, सं. स्त्री. (सं.) सूक्ष्मत्वं, अति, शापयितव्य, आवेदनीय। लघुता-अल्पता-स्तोकता २. सु-अति,-तनुता- | सूचि, सं. स्त्री. (सं.) दे. 'सूई'। विरलता, श्लक्ष्णता ३. दुर्बोधता, गहनता, सूचित, वि. (सं.) ज्ञापित, बोधित, आन ख्यागूढता-त्वम् । | पित, कथित, प्रकाशित । सूखना, क्रि. अ. (सं. शोषणं) शुष (दि. प. | सूची, सं. स्त्री. (सं.) दे. 'सूई' २. अनुक्रमणीअ.), शोषं-शुष्कतां या ( अ. प. अ.), शुष्क णिका, नामावली-लि: (स्त्री.) परि,गणना संख्या। निर्जल-नीरस (वि.) भू २. कान्ति-प्रभा,-हीन (वि.) भू ३. नश् (दि. प. वे.) ४. कृश -कर्म, सं. पुं. [सं.-मन् (न.)] कलाभेदः। दुर्बल (वि.) जन् (दि. आ. से.) ५. भी -पत्र, सं. पुं. (सं. न.), सूचि(ची) पुस्तक पत्रकम् । (ज. प. अ.), सद (भ्वा. प. अ.) ६. विश (कर्म.), म्लै ( भ्वा. प. अ.)। सं. पुं., शुषः, -भेद्य, वि. (सं.) सीवनीच्छेद्य २. धन, शोषः, शोषणं, शुषी-षिः ( स्त्री.)। निविड ( अन्धकार )। सूजन, सं. स्त्री. (हिं. सूजना ) शोथः, शोफः,. सूखा, वि. ( स. शुष्क ) निर्जल, निरुदक, गंडः। अरस, विरस, नीरस, वान २. निष्प्रभ, सूजना, क्रि. अ. (का. सोज़िश) सशोथ-- कान्तिहीन ३. नष्ट, ध्वस्त ४. कुशांग, दुर्बल सशोफ (वि.) संजन् (दि. आ. से.), श्वि ५. विशीर्ण, म्लान ६. परुष, कठोर, निर्दय (भ्वा. प. से.), स्फाय (भ्वा. आ. से.)। ७. केवल, शुद्ध । सं. पुं., अनावृष्टिः (स्त्री.), | सं. पुं., दे. 'सूजन'। अवर्षणं, अवग्रा(ग्र)हः २. नदी, तीर-कूल सूजनी, सं. स्त्री. (फा. सोजनी) कुथभेदः ३. निर्जलस्थानं ४. शुष्कतमाखुः ५. (बाल- | *सूचिनी। कानां) कासभेदः, शोषः ६. दौर्बल्यं, कृशांगता | सूजा, सं. पु. ( सं. सूचा>) दे. 'सूआ' २. ७. भंगा, दे. 'भाँग'। वेधनी, वेधनिका। -पड़ना, क्रि. अ., वृष्टि-वर्ष,विघातः निरोधः । सूज़ाक, सं. पुं. (फा.) भृश-,उष्णवातः,. वृत् (भ्वा. आ. से.)। रतिजरोगभेदः। -जवाब देना, मु., स्पष्टं निराकृ वा प्रत्याख्या सूजा हुआ, वि., शून, स्फीत, सशोफ, शोथयुत । (अ. प. अ.)। सूजी, सं. स्त्री. (सं. शुचि> ) कणिकः । सूखा हुआ, वि., दे. 'सूखा' (१.५)। सूझ, सं. स्त्री. (हिं. सू झना) कल्पना, उद्भावना सूखकर कॉटा होना, मु., अतिकृश-अतिक्षीण | २. बोधः, शानं ३. दृष्टिः ( स्त्री.)। (वि.) जन्, अत्यंतं क्षि (भ्वा. प. अ.)। -बूझ, सं. स्त्री., बुद्धिः-मतिः ( स्त्री.)। सूखे खेत लहलहाना, मु., सुदिवसा आगम् । | सूझना, क्रि. अ. (सं. सुध्यानम् ) दृश-लक्ष सूचक, सं. पुं. (सं.) सूची-चिः ( स्त्री.), (कमें.), अवभास् (भ्वा. आ. से.), प्रतिमा दे. 'सू ई' २. दे. 'सूआ' ३. सू (सौ)चिकः, (अ. प. अ.) २. (मनसि विचारः) आविर्भू सौचिः, तुन्नवायः, सू अभिद्, दे. 'दरजी' | अथवा उत्पद् (दि. आ. अ.)। ४. सूत्रधारः ५. कथकः ६. कुक्कुरः ७. खलः, सूट, सं. पुं. (अ.) आङ्गल, वेशः(ष:)-परिधान विश्वासघातकः ८. गुप्त-,चर:-चारः ९. पिशुनः, । २. *समवेश:-षः । For Private And Personal Use Only Page #676 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [ ६३८ ] सूटा - केस, सं. पुं. ( अं. ) वेश (ष) कोषः । सूटा, सं. पुं. (अनु. ) ( तमाखुप्रभृतीनां ) धूम - कर्ष:- कृष्टिः (स्त्री.) । सूत', सं. पुं. ( सं . सूत्रं ) तन्तुः, डोर:, शुल्बं २. सूत्रं, यज्ञोपवीतं ३. मेखला, कांची । - धार, सं. पुं., दे. 'बढ़ई' | सूत े, सं. पुं. ( सं. ) वर्णसंकरजातिभेदः, क्षत्रियात् ब्राह्मणीसुतः २ सारथिः, यंतु, क्षत्त, हयंकषः ३. चारणः, वंदिन, वैतालिकः ४. पुरा वक्तृ, पौराणिकः । [ सूती (स्त्री.) ] वि. ( सं . ) प्रेरित २. उत्पन्न । ---पुत्र, सं. पुं. ( सं . ) सारथिज: २. सारथिः ३. कर्णः ४. कीचकः । सूतक, सं. पुं. (सं.) जन्माशौचम् २. मरणा शौचम् ३. सूर्य-चन्द्र, -ग्रहणं, उपरागः । सुतली, सं. स्त्री. (हि. सूत) सूत्रं, डोरः, गुणः, रज्जुः (स्त्री.), शुल्वं, शुल्लम् । सूति, सं. स्त्री. (सं.) प्रसूति: (स्त्री.), प्रसवः, जननम् २. सन्ततिः (स्त्री.), सन्तानः । -गृह, सं. पुं. (सं. न. ) दे. 'सूतिकागृह' । मारुत, सं. पुं. ( सं . ) प्रसव - प्रसूति, पीड़ावेदना, सू तिवातः । सूतिका, सं. स्त्री. (सं.) सद्य:-नव, प्रसूता, दे. 'जच्चा' । गृह, सं. पुं. (सं. न. ) अरिष्टं, सूतिकागारं प्रसव-सूति गृहं भवनं- आवास:- गेहम् । सूती, वि. (हिं. सूत) कार्पास, कार्पासिक, तूल- तूलक - पिचु-पिचुल, निर्मित- संबंधिन । — कपड़ा, सं. पुं., कार्पासं, फाल, बादरं, तूलांबरम् । सूत्र, सं. पुं. ( सं . न. ) तंतुः, डोर:, शुल्वं, शुल्ल २. यश, सूत्रं - उपवीतं ३. प्राचीनमानभेदः ४. रेखा-षा, लेखा ५.मेखला, कांची ६. नियमः, व्यवस्था ७. ससारं संक्षिप्तवचनं ८ कारणं, मूलं ९. संधानं. दे. 'सुराग' । — कंठ, सं. पुं. (सं.) ब्राह्मणः २. कपोतः ३. खंजनः, खंजरीटः । -कर्म, सं. पुं. [ सं . मनू (न.)] दारुकर्मन, तक्षशिल्पं २. लेपकर्मन, इष्टकान्यासः, वास्तुनिर्माणम् । -कार, सं. पुं. (सं.) सूत्र, कर्तृ-प्रणेतृ- रचयितृकृत् । सूप ग्रंथ, सं. पुं. (सं.) सूत्ररूपेण रचितं पुस्तकम् । - धार, सं. पुं. ( सं .) नाटकीयकथासूत्रसूचकः प्रधाननटः, नाट्यशाला व्यवस्थापकः, सूत्रभृत २. तक्षन, रथकारः ३. इन्द्रः [-धारी (स्त्री.) सूत्रधारपत्नी ] | -पात, सं. पुं. ( सं . ) उपक्रमः, प्र. आरंभः । सूथनी, सं. स्त्री. दे. 'सुत्थन' । सूद', सं. पुं. ( फा ) लाभ:, प्राप्तिः (स्त्री.), आय:, फलं, अर्थ: २. वृद्धि: (स्त्री.), वाद्धुष्यं, कला, कायिका, कारिका, कालिका । - खाना, क्रि. स., बार्द्धष्यं ग्रह् (क्. प. से.) । खोर, सं. पुं. ( फा . ) कुशी (शी-पी) द:-दकः, कुसीदिन, वाषिकः, वाषिन्, वृद्ध्याजीवः । खोरी, सं. स्त्री, कुसीदं, कौसी, वृद्धि, - जीवनं जीविका । -दर सूद, सं. पुं. ( फा . ) चक्रवृद्धि: (स्त्री.) । - पर देना, क्रि. स., कुसीदं कृ । - पर लेना, क्रि. स., वृद्ध्या ऋणं ग्रह् । -बट्टा, सं. पुं., हानिला मौ, आयापायौ । बे, वि., वृद्धि-कला, -रहित २. निष्फल, व्यर्थ । सूद, सं. पुं. (सं.) पाचकः, सूपकारः २. व्यं. जनं, दे. 'भाजी' ३. सारथ्यं ४ अपराधः ५. पापम् । सूदन, वि. (सं.) नाशक, घातक । सूदी, वि. (फ़ा. ) सवार्द्धष्य, सकल ( दत्त आदत्तं वा ) । सूना, वि. (सं. शून्य) निर्जन, विजन, विविक्त, जन-हीन- शून्य २. रिक्त, -विरहित, -हीन, वशिक, तुच्छ, निर्- । सं. पुं. ( सं. न. ) एकांतः, विविक्तं, निर्जनस्थानम् । - पन, सं. पुं., शून्यता, विजनता, विविक्तता २. रिक्तता ३. एकांतः । सूनु, सं. पुं. (सं.) पुत्रः २. अनुज: ३. दौहित्रः । सूप', सं. पुं. ( सं. शूर्प :- पै) प्रस्फोटनं- नी, कुल्यः, सूर्पः । सूप, सं. पुं. (सं., मि. अं. सूप ) पक्व सिद्ध, दाली-लि: (स्त्री.) २. दालीरसः ३. सरसं व्यंजनं ४, सूदः । -कार, सं. पुं. (सं.) सूदः, औदनिकः, आंसिकः, पाच (कु) कः, भक्ष्यंकारः । For Private And Personal Use Only Page #677 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [ ६३६ ] सूर्य सूफ, सं. पुं. (अ.) दे. 'ऊन' । । सूरमा, सं. पुं. (सं. शूरमानिन्> ) शूरः, सूफ्री, सं. पुं. (अ.) यवनसंप्रदायविशेषः। वीरः, योधः, भटः, विक्रमशीलः। वि., शुद्ध, पवित्र। -पन, सं. पुं., शौर्य, वीरत्वं,विक्रमः, साहसम्। सूबा, सं. पुं. (अ.) प्रांतः, प्रदेशः, देशभागः। सूरसागर, सं. पुं. (सं.) भक्त-सूरदासरचितः सूबेदार, सं. पु. (अ.+फा.) प्रान्त, अधिपतिः- श्रीकृष्णलीलावर्णनात्मकः काव्यविशेषः। शासकः-अध्यक्षः, भोगपतिः २. सेनाधिका- | सूराख, सं: पु. (फा.) छिद्रं, बिलं, विवरं, रिभेदः। रंधे, सुषिः ( स्त्री.)। सूबेदारी, सं. स्त्री. ( अ.+झा.) भोगपतित्वं, -करना, क्रि. स., छिद्रयति ( ना. धा.), प्रान्ताधिपतित्वं २-३. प्रान्ताधिपति-,पदं. समुत्कृ ( तु. प. से.)। कर्मन् (न.)। -दार, वि., सच्छिद्र, सरंध्र । सूम', वि. (अ. शूम अशुभ ) कृपण, मितंपच, सूर्य, सं. पुं. (सं.) सूरः, आदित्यः, भास्करः, दे. 'कंजूस'। दिन-प्रभा-विभा-दिवा, करः, भास्वत, विवस्वत्, सूमर, सं. पुं. (सं.) जलं, नीरम् २. दुग्धं, . उष्ण-तिग्म-चंड, रश्मिः, करः, अर्कः, मार्तण्डः, क्षीरम् ३. गगनं, आकाश:-शम् । मिहिरः, तरणिः, मित्रः, सवित, अंशु-मरीचि,सूय, सं. पुं. (सं. पुं. न.) सोम-सोमलता, | मालिन, सहस्रांशुः, रविः, दिन-अहः,-पतिः, निष्पीडनं संपीडनम् २. यज्ञः, यागः, मेधः, तपनः, पमिनीवल्लभः, दिनमणिः, सप्त, अश्वःमखः। सप्तिः, तापनः, ख-दिवा,-मणिः, पतंगः,ग्रहराजः, सूर', सं. पुं. (सं.) सूर्यः २. अर्कवृक्षः । तमोनुदः । ३. पंडितः। -कांत, सं. पुं. (सं.) सूर्य-तपन, मणिः , सूर, सं. पुं., दे. 'शूर'। रविकांतः, सूर्याश्मन, अग्निगर्भः, अर्क-दीप्त, सूर', सं. पुं., दे. 'सूअर'। उपलः। सूरज, सं. पु. ( सं. सूर्यः, दे.)। -ग्रहण, सं. पुं. (सं. न.) सूर्योपरागः, सूरत, सं. स्त्री. (फा.) रूपं, आकारः, आकृतिः | सूर्यग्रहः। (स्त्री.) २. सौन्दर्य, छविः ( स्त्री.) ३. युक्तिः | -घड़ा, सं. स्त्री. (सं. सूर्यघटी ) शंकुयंत्रम् । (स्त्री..), उपायः, विधिः ४. दशा, अवस्था। -तनय, सं. पुं. (सं.) सूर्य,-पुत्रः-सुतः-नंदनः, -दिखाना, मु., प्रकटति ( ना. धा.), संमुखं. कर्णः २. शनिः, शनैश्चरः ३. यमः ४. सुग्रीवः खे आया ( अ. प. अ.)। ५. अश्विनौ (द्वि.)। -बनाना, मु., वेषं परिवृत् (प्रे.) २. अन्यस्य -तनया, सं. स्त्री. (सं.) सूर्यपुत्री, सूर्यजा, रूपं ग्रह (क्र. प. से.)-धृ (चु.) ३. अरुचि यमुना, भानु, जा-तनया।। प्रकटयति (ना. धा.), विडंब (चु.) ४. चित्रं --मंडल, सं. पु. ( सं. न.) उपसूर्यक, परिधिः, लिख (भ्वा. प. से.)। परिवेशः, मंडलं, सूर्यबिंबम् । -बिगड़ना, मु., वदनं विवर्ण जन् (दि. -मुखी, सं. स्त्री. (सं.) सूर्यलता, आदित्यआ. से.)। भक्ता, वरदा,अर्ककान्ता, भास्करेष्टा, अर्कहिता। -बिगाड़ना, मु., मुखं विरूपयति (चु.),कुरूपं । | -मुखी का फूल, सं. पुं., सूर्यकमलं, वरदाविधा (जु. उ. अ.) २. दंड (चु.) ३. अप- पुष्पम् । अव-मन् (प्रे.), अवज्ञा (क्र. प. अ.)। । -रश्मि , सं. स्त्री. (सं. पुं.) रवि,-किरण:-शक्ल, सं.स्त्री. (फ़ा+अ.) आकृतिः (स्त्री.)। पाद: करः। सरदास, सं. पुं. (सं. सूर्यदासः) हिन्दीभाषायाः -लोक, सं. पुं. (सं.) सौरभुवनं, लोकश्रीकृष्णभक्तो महाकविविशेषः २. अंधः, | विशेषः। प्रज्ञाचक्षुष्कः । -वंश, सं. पुं. (सं.) रविकुलम् । सरन. सं.पं. सं. सू (शू )रणः] अर्शोघ्नः, ओल:- |-वंशी, वि. (सं.-शिन्) सूर्यवंश्य, रविकुलज। लः, वातारिः, सुवृत्तः, बहुरुच्य, कंदः, दे. -वार, सं. पुं. (सं.) रवि-आदित्य, बारः 'जमीकंद'। वासरः। For Private And Personal Use Only Page #678 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सूर्यास्त [ ६४० ] -संक्राति, सं. स्त्री. (सं.) रविसंक्रमणम् । | आँख-, मु., सौन्दर्य अवलोक् (भ्वा. आ. से., प्रातः का-सं. पुं., बाल, रविः-सूर्यः-अर्कः। चु. प. से.)। सूर्यास्त, सं. पुं. (सं.) अस्तः, अस्तमनं, | धूप-, मु., आतपं सेव ( भ्वा. आ. से.)। निम्लोचः, भानोरस्ताचलगमनं २. दिनांतः, | सेंटर, सं. पु. ( अं.) केन्द्र, मध्यबिंदुः, मध्य:सार्यकालः । ध्यं २. प्रधान मुख्य, स्थानम् । -होना, क्रि. अ., सूर्यः अस्तं इ-या ( अ. प. | सेंट्रल, वि. (अ.) केन्द्रीय, मध्य, मध्यम, अ.)-गम् । मध्यस्थ। सर्योदय. सं.पं. (सं.) भानूद्गमः २. प्रातः- | सेंटिग्रेड, वि. ( अं.) शतिक । कालः। सेंटिमीटर, सं. पु. ( अं.) शतिमानं, शतांश-होना, क्रि. अ., सूर्यः उत्-इ (अ. प. अ.) मानम् । उद्गम् । संत, सं. स्त्री. (सं. संहतिः किफायत सूल, सं. पुं., देखो 'शूल'। २. राशि>) व्ययाभावः-विनियोगाभावः । सूली, सं. स्त्री. (सं. शूल:-लं) शूला, तीक्ष्णाग्र- -मेंत, क्रि.वि. (हिं.+अनु.) मूल्यं विना स्थूणा २. शूलारोपणं, प्राणदंडप्रकारः ३. वध- | २. निष्प्रयोजनं, व्यर्थम् । पाशस्थूणा, दे. 'फाँसी' ४. दंडपाशवधः, कंठं | -का, मु., मूल्यं विना लब्ध, निर्मूल्य । उद्बध्य पातः, उबंधनं ५. प्राण-मृत्यु, दंडः। -में, मु., व्ययं-मूल्यं, विना २. व्यर्थम् । -चढ़ाना या-देना, क्रि. स., शूले आरुह् (ने. सेंद्रिय, वि. (सं.) सकरण, साक्ष, इन्द्रियवत्, आरोपयति) २. उदबध्य व्यापद (प्रे.) या हन् | सजीव । २. पुंस्त्वयुक्त, मैथुन-समर्थ, वीर्यवत ।। (अ. प. अ.)। | सेंध, सं. स्त्री. [ सं. संधिः(पुं.) ] संधिला, सुरं-चढ़ाने या-देनवाला, दंडपाशिकः, । (5)ग:-गा, खानिकम् । वधकः, *शूलारोपकः । -लगाना या सेंधना, संधिला कृ अथवा खन् सूस, सूसमार, सं. पुं. (सं. शिंशुमारः) दे. (भ्वा. प. से.)। 'तूंस। -लगाने वाला, सं. पुं., सुरं(रु)गयुज् , संधिसूहा, वि. (ह. साहना) रत, शाण, लाहत । । हारकः,संधिलाकारः। सृजन, सं. पुं. ( सं. सजेनं) उत्पादन, निर्माण, | सेंधा, सं. पु. (सं. सैंधवः-वं) शीतशिवं, माणि., रचनं २. सृष्टिः-उत्पत्तिः (स्त्री.) ३. मोचनम् । | मंथं-बंध, वशिरं, सिंधु(देश)जं, शिवं, सिद्ध, -हार, सं. पुं., स्रष्ट्र, उत्पादकः, विधात। । पथ्यम् । सजना, क्रि. स. ( सं. सर्जनं ) सृज (तु. प. सेंधिया, सं. पुं. (हिं. सेंध ) दे. 'सेंध लगाने अ.), उत्पद् (प्रे.), विधा (जु. प. अ.)। | जु.प. अ.)। | वाला। सष्टि. सं. स्त्री. ( सं.) संसार-उत्पत्तिः ( स्त्री.) | सेवई, सं. स्त्री. (सं. सेविका ) सूत्रिका । -सर्गः-निर्माणं-रचना २. जगत् (न.), संसारः, | -पूरना या-बटना,मु., सेविकाः व्यावृत(प्रे.) चराचरं वस्तुजातं ३. प्रकृतिः (स्त्री.), दे. सेंहुड़, सं. पुं., दे. 'थूहर'। 'कुदरत'। से, प्रत्य. (प्रा. सुंतो, पुं. हिं. सेंति ) करण-कर्ता, सं. पुं. (सं.-४) स्रष्ट, वेधस् , विधात, | । कारकचिह्न (प्रायः तृतीया से, 'स-' से या विश्वसृज् , ब्रह्मन् ( सब पुं.) २. ईश्वरः। । -पूर्व,-पूर्वकं आदि से अनुवाद करते हैं । उ., सेंक, सं. पुं. (हिं. सेंकना ) उ(ऊष्मन्, त(ता)- __ आदर से आदरेण, सादरं, आदरपूर्वकं इ.) पः, उष्ण:-णं-णा, उष्णता २. तापन, उष्णी- २. अपादानचिह्न (प्रायः पंचमी से 'आ.' से करणं, तापेन अंगारेषु वा भर्जनं ३. प्र-स्वेदनं, या '-प्रभति' '-आरभ्य' आदि से अनुवाद करते धर्मसेकः, ऊष्मणा तापनं-उष्णीकरणम् । हैं । उ., वृक्ष से गिरा-वृक्षात् अपतत्, जन्म सेंकना, क्रि. स. (सं. श्रेषणं ) ऊष्मणा अंगारः | से आजन्म, आजन्मनः, कल से लेकर श्व: वा भ्रस्ज ( तु. उ. अ.) २. तप (प्रे.), उष्णी प्रभति, श्व आरभ्य इ.)। कृ ३. ( उष्णजलादिभिः ) सं., सिच् (तु. प. | से२, वि. (हिं. 'सा' का बहु.) सम, समान. अ.)-सेकं कृ, प्र., स्विद् (प्रे.)। सदृश । For Private And Personal Use Only Page #679 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सेकंड [६४१] सेवित सेकंड, सं. पुं. ( अं. ) विकला, विपलं, क्षणः । । सेर', सं. पु. ( सं. ) सेटकम् । वि. ( अं.) द्वितीय। सेर२, वि. ('का.) तृप्त, संतुष्ट । सेक, सं. पुं. (सं.) दे. 'सिंचाई। सेराब, वि.(फा.) जलाप्लुत, अतिक्लिन्न २.सिक्त, सेक्रेटरी, सं. पुं.( अं.) मंत्रिन्, लेखनसचिवः।। प्लावित । सेक्श न, सं. पु. ( अं.) वि.,भागः। सेरी, सं. स्त्री. ( फा.) तृप्तिः (स्त्री.), संतोषः । से चक, सं. पुं. (सं.) मेघः, वारिदः। वि. | सेरु, सं. पुं. (हिं. सिर)खट्वायाः शीर्षपादपट्टौ। प्रोकक, सेक्तु। सेल, सं. पुं. ( अं.) जीवकोषः । सेचन, सं. पुं. (सं. न.) अव-आ-,सेकः- सेलखड़ी, सं. स्त्री., दे. 'खड़िया'। सेचनं, अभ्युक्षणं, प्रोक्षणम् । सेलूलोज़, सं. पुं. ( अं.) काष्ठौजम् । सेज, सं. स्त्री. (सं. शय्या, दे.)। सेवक, सं. पुं. (सं.) परि-अनु, चरः, किंकरः, -पाल, सं. पुं. (सं. शय्यापालः ) शयना- मृत्यः, भृतकः, कर्मक(का)रः अनुजीविन्, गाररक्षकः, शय्या,-अध्यक्षः-पालः । दासः, नियोज्यः, चेटः, चेटकः, डिंगरः, परि, सेठ, सं, पु. ( सं. श्रेष्ठिन् ) लक्षपतिः, कोटीश्वरः, कमिन-चारकः-जनः स्कंदः, प्रेष्यः, भुजिष्यः, धनाढ्यः । २. वणिग्वरः, सार्थवाहः ३. धनिमा- लाडीकः, शुश्रूषकः २. भक्तः, उपासकः, आरानिजनोपाधिः ४. क्षत्रियोपजातिभेदः [सेठानी धकः ३. शिष्यः, अन्तेवासिन् । (स्त्री.) धनाढ्या, धनाढ्यपत्नी । सेवकाई, सं. स्त्री. ( सं. सेवकः>) उप, चारःसेतु, सं. पुं. (सं.) वारणः, संवरः, दे. 'पुल'। चर्या-स्थानं, परिचर्या, शुश्रूषा, सेवकत्वं,कैंकर्य, -बंध, सं. पुं. (सं.) वारण संवर, बंधनं- सेवा, श्ववृत्तिः ( स्त्री.) २. आराधनं, पूजा । निर्माणं. २. श्रीरामनिर्मितः सेतुविशेषः। सेवती, सं. स्त्री. (सं. शेवन्ती) शतपत्री, सेना, क्रि. स. ( सं. सेवनं ) अंडात् उत्पद् (प्रे.), कर्णिका, चारुकेश(स)रा, महाकुमारी,गंधाढ्या, अंडेषु उपविश् ( तु. प. अ.) २. सेव् ( भ्वा. अतिमंजुला, तरुणी, भङ्गेष्टा, शिववल्लभा, राम. आ. से. ) ३. उपास् (अ. आ. से.)। तरुणी। सेना, सं. स्त्री. (सं.) सैन्यं, बलं, वाहिनी, सेवन, सं. पुं. (सं. न.) दे. 'सेवा' २. उपा चमू : ( स्त्री.), अनीकं-किनी, पृतना, ध्वजिनी, सनं, आराधनं, पूजनं ३. उपयोगः, प्रयोजनं, वरूथिनी, चक्र, गुल्मिनी। उपभोगः ४. सततवासः। . -पति, सं. पुं. (सं.) सेनानीः, वाहिनीपतिः, -करना, कि. स., उपभुज् (रु. आ. अ.),सेव सेना, वाहः-नायक:-पाल: अध्यक्ष:-अधीश:-- (भ्वा. आ. से.)। नाथः। सेवनीय, वि. (सं.) सेव्य, सेवितव्य, सेवा-व्यूह, सं. पुं. (सं.) सैन्यविन्यासः। परिचर्या-उपचार, अर्ह-योग्य २. पूज्य,आराध्य सेनानी, सं. पुं. (सं.-नीः ) दे. 'सेनापति'। । ३. उपयोगाई, प्रयोजनीय। सेनेट, सं. स्त्री. ( अं.) प्रधानव्यवस्थापिका सेवा, सं. स्त्री. (सं.) दे. 'सेवकाई' (१, २) सभा, २. विश्वविद्यालयस्य प्रबन्धकी सभा | ३. आश्रयः, शरणम् । ३. परिषद् (स्त्री.), सभा। -करना, कि. स., सेव् (भ्वा. आ. से.), सेफ, सं. पु. ( अं.) लोहपेटिका, रक्षामंजूषा।। अनु-उप-परि, चर् (भ्वा. प. से.), उपास सेब, सं. पु. (फा.) आता-सेवि-सिवितिकः- (अ. आ. से.), उपस्था (भ्वा. आ. अ.), सिंचितिका,,फलं, सेवं, मुष्टिप्रमाणबदरम् ।। श्रु ( सन्नन्त. शुश्रूषते)। सेम, सं. स्त्री. (सं. शिंबी) शिंबा, शिंबिका। वि. -टहल, सं. स्त्री. (सं.+हिं.) परिचर्या । (स्त्री.) सिंबा, सिंबिका, सिंबी-बिः ( स्त्री.)। -सुश्रूषा, सं. स्त्री. (सं.) उप, चारः-चर्या । सेमल, सं. पुं. [सं. शाल्मलिः ( . स्त्री.)] | सेविका, सं. स्त्री. (सं.) चेटी, दासी, भुजिष्या, शाल्मल: लिनी, तूलवृक्षः, दीर्घद्रुमः, रम्यपुष्पः | प्रेष्या, कर्मकरी, नियोज्या, परिचारिका।। दुरारोहा। | सेवित, वि. (सं.) शुश्रूषित, उप-परि, चरित ४१ For Private And Personal Use Only Page #680 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सेवी [६४२ । - २. उपासित, पूजित, आराधित ३. व्यवहृत, -करना, कि स., (शीर्षहस्तादिभिः) संशो प्रयुक्त ४. आश्रित ५. उपभुक्त, कृतोपभोग। संकेतं वा कृ-दा । सेवी, वि. (सं.-विन् ) सेवक, सेवापरायण -मारना, क्रि. स., सहावं अवलोक् (चु.) २. पूजक, आराधक ३. -भोजी। -भुज , २. निमेषेण संकेतं कृ।। -भक्षिन्, -पायिन। | सैना, सं. स्त्री., दे. 'सेना'। सेशन, सं. पुं. ( अं.) बहुदिवससमाप्यं अधि. सैनापत्य, सं. पुं. ( सं. न. ) सेनापति सेनावेशनं-संमेलनं २. सत्रं ( स्कूल आदि का)। | ध्यक्ष, कार्य-पदम्, सेनापतित्वम् । वि. (सं.) -कोर्ट, सं. स्त्री. ( अं.) दण्डसत्राधिकरणम् । सेनापति,-सम्बन्धिन-विषयक। -जज, सं. पुं. (अं.) दण्डसत्राधीशः। सैनिक, सं. पुं. (सं.) सेनाचरः, योधः, भटः, सेहत, सं. स्त्री. ( अ.) सुखं, सौख्यं २. रोग- सेन्यः, आयुधिकः, योद्धृ २. रक्षापुरुषः, दे. मुक्तिः (स्त्री.), दे. 'स्वास्थ्य' । 'संतरी' । वि. (सं.) सांग्रामिक, सामरिक, -खाना, सं. पुं. (अ.+का.) *शौचागारम् । आयुधिक, क्षात्र[-त्री (स्त्री.)] । सेहरा, सं. पु. ( सं. शेखरः) वरमुखावलंबि- -वाद, सं. पुं. (सं.) समरसमर्थकसिद्धान्तः, मालावली-स्रग्जालं .२. बर-पारणतू,-मुकुट २. वर-परिणेतृ,-मुकुट युद्धानुमोदकवादः।। ३. वरगुणवर्णनात्मकं गीतम् । सैनिटरी, वि. ( अं.) स्वास्थ्य-आरोग्य, कर. -बँधाई, सं. स्त्री., शेखरबंधनशुल्कम् । | रक्षक-विषयक। सेही, सं. स्त्री., दे. 'साही'। सैनिटेशन, सं. पु. ( अं.) आरोग्य स्वास्थ्य, सैंडपलाई फ्रीवर, सं. पुं. ( अं.) बालुकामक्षि- रक्षा-रक्षणम् । काज्वरः। सैन्य, सं. पुं. (सं. न.) दे. 'सेना'। सैंतालीस, वि. ( सं. सप्तचत्वारिंशत् ) सं. पुं., । सैरंधी, सं. स्त्री. (सं.) स्वतंत्रा शिल्पजीविनी उक्ता संख्या, तद्बोधकांकौ(४७) च। २. अंतःपुर, परिचारिका-दासी ३. द्रौपदी । सैंतालीसवाँ, वि. (हिं. सैतालीस ) सप्तचत्वा- | सैर, सं. स्त्री. (का.) सुख, पर्यटन, परि, रिंशत्तमः-मी-म, सप्तचत्वारिंशः शी-शं (पुं. भ्रमणं, विहारः, विहरणं, विचरणम् । सी.न.)। -करना, क्रि. अ., सुखं पर्यट-विचर् (भ्वा. संतीस, वि. ( सं. सप्तत्रिंशत् ) सं. पुं., उक्ता प.से.), विह (भ्वा. प. अ.), भ्रम् (भ्वा. संख्या, तदुबोधकांको(३७) च । प.से.)। संतोसवाँ, वि. (हिं. सैंतीस ) सप्तविंशत्तमः |-गाह, सं. स्त्री. (फ्रा.) भ्रमण-पर्यटन, स्थानं. मी-म, सप्तत्रिंशः-शी-शं (पुं. स्त्री. न.)। स्थली। सैंधव, सं. पुं. (सं.) ( सिंधोरदूरभवः ) घोटकः, -सपाटा, सं. पुं., दे. 'सैर'। सिंधुदेशीयोऽश्वः २. दे. 'संधा' ३. जयद्रथः सैलानी, वि. (फा. सैर ) पर्यटन-भ्रमण४. सिंधुदेशवासिन् । वि. (सं.) सिंधुदेशीय विहरण, शील, पर्यटक, यथेष्टविहारिन् २. २. समुद्रय, समुद्रीय, सामुद्रिक । आनंदिन, विनोदिन्, प्रमोदिन, उल्लासिन् । सैकड़ा, सं. पुं.(सं. शतकांड:-डं) शतं, शतकं सैलाब, सं. पु. (फा.) जल,-प्लावन-वृंहणं२. शतवस्तु, समुदायः-समूहः-समुच्चयः । कि. विप्लवः-प्रलयः-आप्लावः २. महा,-प्रवाहःवि., प्रतिशतम्। ओघः। सैकड़ों, वि., परःशत। सों, प्रत्य., दे. 'से'। सैकलगर, सं. पुं. ( अ. सैकल+गर ) शल, | साँचर नमक, सं. पुं. (सं. सौवर्चलं+का.) मार्ज:-मार्जक:-तेजकः । सौवर्चलं, रुचकं, रुच्यं, असं, कृष्णलवणं, सैद्धांतिक, सं. पु. (सं.) सिद्धांत, विद्-शः, तिलक, हृद्यगंधकम् ।। तत्त्वज्ञः, राद्धान्तिकः २. तांत्रिकः । वि. (सं.) | सोंटा, सं. पु. (सं. शुंड:>) लकुट:-डः, स्थूल, सिद्धान्त-राद्धान्त-तत्त्व, संबंधिन् । यष्टिः (स्त्री.) दण्डः २. मुसलः-लम् । सैन, सं. स्त्री. (सं. संशपन> ) संकेतः, संशा, -बरदार, सं. पुं. (हिं.+का.) दंड, धरःइङ्गित २. लक्षणं, चिह्नम् । भृत् । For Private And Personal Use Only Page #681 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सोंठ [ ६४३) सोनेवाका सोंठ, सं. स्त्री. [सं. शुंठी-ठिः ( स्त्री.)] महा- | धोने का-, धावनविक्षारः । विश्व, औषधं, विश्वभेषजं, कटुग्रन्थिः, कफारिः। | सोडियम, सं. पुं. ( अं.) क्षारातु ( न.), सोंधा, वि. ( सं. सुगन्ध ) सुगन्धित, दे.। । क्षारजम् । सोपना, क्रि. स., दे. 'सौंपना। सोत-ता', सं. पुं. (सं.)स्रोतस (न.) उत्सः , सोह, सं. स्त्री., दे. 'सौगंद' । वारिप्रवाहः, प्रस्रवणं, निर्- झरः २. नदीसो, सर्वं (सं. सः) देखो 'वह' । अव्य., अतः, शाखा, कुल्या । अत-एव, अनेन कारणेन, अस्मात् कारणात् । सोता, वि. (सं.) सुप्त, शयान, निद्रित । सोऽहं, वाक्यांश (सं. सः + अहं ) अहं ब्रह्मा- सोते-जागते, मु., अहर्निश, दिवानिशं, प्रतिस्मि (वे.)। क्षणं, सदा। सोआ, सं. पु. ( सं. शताहा ) सित-अति,- | सोदर, सं. पुं. (सं.) सहोदरः, सोदर्यः, भ्रातृ । च्छत्रा, शत, अक्षी-पुष्पिका, मधुरा, मधुरिका, | सोदरा, सं. स्त्री. (सं.) सहोदरा, सोदा, माधवी, मिशी-शिः [(स्त्री.) शाकभेदः] । | स्वस (स्त्री.)। . सोई, सर्व., दे. 'वहीं'। सोन, सं. पुं. (सं. शोणः) हिरण्यवाहः-हुः, सोखना, क्रि. स., दे. 'सुखाना'। शोणभद्रः, शोणा ( नदविशेषः)। सोख्ता , सं. पुं., दे. 'स्याहीचूस'। सोनजूही, सं. स्त्री. (सं. स्वर्णयूथी ) हरिणी, सोगंद, सं. स्त्री., दे. 'सौगंद'। पीतिका, हेमपुष्पिका, हैमा, स्वर्णयूथिका । सोग, सं. पुं. (सं. शोकः ) ( मृत्युजनितः) सोना', सं. पु. (सं. सुवर्ण) स्वर्ण, कनकं, परितापः, शुचा, दुःखम् । हिरण्यं, हेमन् ( न.), हाटकं, तपनीयं, शात-मनाना, मु., शोकचिह्नानि धृ (चु.), शुन् । कुंभ, चामीकर, जातरूपं, महारजतं, कांचनं, (भ्वा. प. से.)। रुक्म, कार्तस्वरं, जांबूनदं, अष्टापदं, भद्रं, सोच, सं. पुं. (सं. शोचनं ) शोकः, शुचा-च कर्बु(पू)रं, द्रविणं, पिंजरं, कलधौतं, लोहवरं, (स्त्री.), विषादः २. विचारः, विमर्शः, विचा- कल्याणं, मनोहरं, भास्कर, दीप्तं, मंगल्यं, रणं-णा ३. चिन्ता, रणरणकः, उत्कलिका, | निष्क, अग्निशिखं, २. महाघु-बहुमूल्य, बस्तु व्यग्रता ४. पश्चात् अनु, तापः । (न.)-द्रव्यम् । -विचार, सं. पुं. (हि.+सं.) विचारः-रणा, :-रणा, -(न)का तार, सं. पुं., कनकसूत्रम् । विमर्शः, आलोचना, समीक्षा, वितर्कः, विवे.| -(न)का पानी, सं. पुं., सुवर्णलेपः। चन-ना। -(ने)का वक्र, सं. पुं., सुवर्णपत्रम् । सोचना, क्रि. अ. ( सं. शोचनं ) विचर् (प्रे.), ! गहनों का- सं. पुं., शृंगिः, श्रृंगी, शृङ्गीविमृश् (तु. प. अ.), आ-पर्या-समा-लोच कनकम्। (चु.) २. चिन्तां कृ, चिन्त (चु.) ३. शुच सोना२, क्रि. अ. (सं. शयनं ) सं.,शी (अ. ( भ्वा. प. से.), दे. 'विचारना'। आ. से.), निद्रा (अ. प. अ.), संदिश (तु. सोच्छवास, वि. (सं.) प्रसन्न, प्रहृष्ट २. शिथिल, प. अ.), स्वप् (अ. प. अ.) २. ( अंगादि) श्लथ ३. उच्छवासयुक्त ४. सत्वरप्राण । अव्य. निश्चेष्ट निस्तब्ध-निश्चल (वि.) भू ३. दे. (सं. न.) सदीर्घश्वास, नि:श्वासपूर्वकं, सनिः- 'मरना' । सं. पुं., शयनं,निद्रा, गुडाका, तंद्रा, श्वासम् । तामसी, प्रमीला, संवेशः, सुप्तं-प्तिः (स्त्री.), सोज, सं. स्त्री. (हिं. सूजना) शोधः, शोफः, स्वप्नः, स्वापः, शी।। दे. 'सूजन'। सोनामाखी, सं. स्त्री. (सं. स्वर्णमाक्षिक) सोज़िश, सं. स्त्री. (फा.) पाकः, प्रदाहः माक्षिक, मधु-धातुः, तार्पिजं ( उपधातुभेदः)। २.शोथः। | सोने का कमरा. सं. पुं., स्वप्न-गृह-निकेतनं, सोटा, सं. पुं. दे. 'सोंटा'। शयन,-गृह-मदिरं-आगारम् ।। सोडा, सं. पुं. ( अं.) विक्षारः । सोने योग्य, वि., शयितव्य, शेय, शयनीय । -बाटर, सं. पुं. (अं.) विक्षारजलम् ।। सोनेवाला, सं. पुं., सुषुप्सुः, शिशयिषुः, खाने का-, *भक्ष्यविक्षारः। | निद्रालुः, शयालुः, तंद्रालुः । For Private And Personal Use Only Page #682 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सोया. [ ६४४ ] माह सोया हुआ, वि., निद्रित, निद्राण, शयित, । सोलह, वि. (सं. षोडशन् ) षडधिकदश। सुप्त, शयान, निद्रामग्न,। सं. पुं., उक्ता संख्या, तद्बोधकांको (१६) च । सोप, सं. पुं. (अं.) दे. 'साबुन'। सोलहो आने, मु., साकल्येन, अशेषतः, सोपान, सं. पु. (सं. न.) दे. 'सीढ़ी। पूर्वतया, सामस्त्येन । सोका, सं. पु. ( अं.) शय्या, पर्यकः, शय- सोलहवा, वि. (हिं. सोलह ) षोडशः-शी-र्श नीयम्, *उपवेश्यः, *आस्यः । (पुं. स्त्रो. न.)। सोम, सं. पुं. (सं.) सुधांशुः, चंद्रः, दे. 'चाँद' | सोशल, वि. (अं.) सामाजिक, समाजविषयक । २. सोमवारः ३. स्वर्गः ४. कर्पूरः ५. सोम- सोशलिजम, सं. पुं. (अं.) समाजवादः । लता। सोशलिस्ट, सं. पुं. ( अं.) समाजवादिन् । -कांत, सं. . (सं.) चंद्रकांतः।। सोसनी, (वि. ( फ्रा. सौसन ) रक्तनील । -ग्रह, सं. पुं. (सं.) चंद्रग्रहणम् । सोसाइ(य)टी, सं. स्त्री. (अं.) समाजः, सभा, -देव, सं. पुं. (सं.) सोमदेवता २. चंद्रदेवता | गोष्ठी २. संगतिः (स्त्री), संसर्गः । ३. कथासरित्सागरस्य रचयित। . सोहं-सोहंगम, वेदान्त-वाक्य, दे. 'सोऽहं'। -नाथ, सं. पुं. (सं.) ज्योतिर्लिङ्गविशेषः सोहन, वि. (सं.) शोभन, मनोहर, दे. 'सुंदर'। २. प्राचीनगरविशेषः । । । सं. पुं., नायकः, सुन्दरपुरुषः । -पान, सं. पुं. (सं. न.) सोमपीतं-तिः (स्त्री.)। -चिड़िया, सं. स्त्री., शोभनचटक: -पायी, वि. ( सं.-यिन् ) सोम, प-पा-पोतिन् । | ( का स्त्री.)। -पुत्र, सं. पुं. (सं.) सोमजः, बुधग्रहः।। -पपड़ी, सं. स्त्री., *शोभनपर्पटी। -यज्ञ, सं. पुं. (सं.) सोम,याग:-मखः-ऋतुः। -हलवा, सं. पुं., *शोभनसंयावः । -रोग, सं. ५. (सं.) स्त्रीरोगभेदः २. बहु सोहना', क्रि. अ. ( सं. शोभनं ) शुभ-विराज मूत्रता, मूत्रातिसारः। (भ्वा. आ. से.), ललित-सुंदर- शोभन (वि.) -लता, सं. स्त्री. (सं.) सोमवल्ली, सोमा, वृत् ( भ्वा, आ. से), विभा ( अ. प. अ.)। क्षीरी, द्विजप्रिया, गुल्म-यज्ञ, वल्ली, धमुलता, वि., शोभन, रम्य, सुंदर, मनोश । सोमक्षीरा, यशश्रेष्ठा २. गुडूची ३. ब्राह्मी।। सोहना, क्रि. स. (सं. शोधनं.) कुतृणानि उन्मूल (च.), क्षेत्रं कुतणरहितं का -वंश, सं. पुं. (सं.) चंद्रवंशः २.'युधिष्ठिरः । -वती, सं. स्त्री. (सं.) सोमवती अमावस्या । सोहबत, सं. स्त्री. ( अ.) संगतिः ( स्त्री.), -वल्ली , सं. स्त्री. (सं.) सोमलता २. गुडूची | संसर्गः २. मैथुनम् । ३. सोमराजी ४. पातालगरुड़ी ५.'ब्राह्मी | | सोह(हि)ला, सं. पुं. (हिं. सोहना) *पुत्र६. सुदर्शना। जन्मोत्सवगीतं २. मंगल्य-मांगलिक-शुभ, गीतं -वार, सं. पुं. (सं.) सौम-चंद्र, वारः वासरः ३. देवतास्तोत्रम् । दिनम् । सोहिनी, वि. स्त्री. (सं. शोभिनी) सुंदरी, मनोरमा, रम्या, सुरूपा । सं. स्त्री., रागिणीसोरठ, सं. पुं. (सं. सौराष्ट्रः ) प्रान्तविशेषः । भेदः। (गुजरात तथा दक्षिणी काठियावाड़) २. सौराष्ट्र- | सौंदर्य, सं. पुं. (सं. न.) रमणीयता, दे. राजधानी ( सूरत नगर ) ३. रागभेदः । | 'सुदरता'। सोरठा, सं. पुं. (हिं. सोरठ) हिन्दीकवितायाः सौंपना, क्रि. स. ( सं. समर्पणं ) न्यस् (दि. प. छंदोभेदः। से.), निक्षिप् (तु. प. अ.), सम्-ऋ (प्रे. सोल', वि. (?) शीत,, शीतल, शिशिर समर्पयति), प्रतिपद्-निविश् (प्रे.)। सं. पुं.,. २. तिक्ताम्लकषाय । सं. पुं. (?) शीतं, शैत्यं न्यासः, निक्षेपः, समर्पणं, प्रतिपादनम् । ३. तिक्ताम्लकषायः स्वादः । ..... :: सौंपने योग्य, वि., निक्षेप्तव्य, समर्पणीय । सोल , सं. स्त्री. (अं.) आत्मन्; जीवः, चेतनः। | सौंपने वाला, सं. पुं., निक्षेप्त, समर्पयित् । सोल', सं. पुं. (अं.). पाद- तलम् २. पादु- सौंपा हुआ, वि., निक्षिप्त, न्यस्त, समर्पित । कातलम् । | सौंफ, सं. स्त्री. (सं. शतपुष्पा) मधुरिका,, For Private And Personal Use Only Page #683 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [ ६४ ] सौभाग्य माधवी, माधुरी, मधुरा, सुगंधा, शतपत्रिका | सौतेला, वि. (हिं. सौत) सापत्न [-नी (स्त्री.)] अति-सित, छत्रा | सपत्नी, ज-संबंधिन । - पिता, सं. पुं., वि. मातृपतिः । - पुत्र, सं. पुं., सपत्नीपुत्रः सापत्न्यः । - बच्चा, सं, पुं., पर, - जातं अपत्यम् । भाई, सं. पुं., वैमात्रः, वैमात्रेयः, विभातृजः । सौतेली पुत्री, सं. स्त्री, सपत्नी, पुत्री -दुहितृ (स्त्री.) । सौतेली बहन, सं. स्त्री, वैमात्री, वैमात्रेयी, विमातृजा | सौतेली माता, सं. स्त्री, विमातृ (स्त्री.) । सौदा', सं. पुं. (अ.) भांडं, भांडानि (बहु.), पण्यं, क्रयविक्रयवस्तु (न.) २. आदान-प्रदानं, दानादानं, व्यवहारः ३. क्रयविक्रयौ ( द्वि ), नियमः, वाणिज्यं, व्यापारः, वणिक्कर्मन (न.) ४. क्रय-विक्रय, प्रतिज्ञा । -करना, क्रि. अ.. पण (भ्वा. आ. अ. ) । क्रयविक्रयं कृ, वाणिज्यं कृ, - सुलुफ़, सं. पुं., दे. 'सौदा' (१) । — सूत, सं. पुं., व्यवहारः । - का अ, सं. पुं., शतपुष्पासवः । सौंह, सं. स्त्री. दे. 'सौगंद' | सौ, वि. ( सं. शनं नित्य न. ) दशगुणितदशसंख्या । सं. पुं., उक्ता संख्या, तद्बोधकांकाः ( १०० ) च । — बात की एक बात, मु., सारः, तात्पर्य, सारांश: । - बिस्वे, मु., निश्चयेन, अवश्यं, निःसंशयम् । सौवाँ, वि., शततमः -मी-मम् | सौकन, सं. स्त्री. दे. 'सौत' । सौर्य, सं. पुं. (सं. न. ) सुकरता, सुसाध्यता २. दे. 'सुभीता' । सौकुमार्य, सं. पुं. (सं. न. ) कोमलता, दे. ''सुकुमारता ' २. यौवनं ३. काव्यगुणभेदः । सौखिक, वि. (सं.) सुखेच्छुक, सुखैषिन्, सुखकामिन् २. सुख-आनन्द-मोह, दायक प्रद ३. सुख-आनन्द, विषयक -सम्बन्धक । सौख्य, सं. पुं. ( सं. न. ) आनंदः, सुखं, दे. | सौगंद, सं. स्त्रो. (फा.) शपथ:, समय:, ! प्रतिज्ञा, वचनं, वाचा, संकल्पः । -खाना, क्रि. अ., शप् (भ्वा. दि. उ. अ.), सशपथं वद् (भ्वा. प. से. ) । - देना, क्रि. स., शप ( प्रे.), सशपथं वच् ( प्रे. ) 1 सौगंध, सं. पुं. (सं. न.) सुगंध:, दे. २. गांधिकः, दे. 'गंधी' ३. कत्तणम् । सं. स्त्री. दे. 'सौगंद' । वि. ( सं. ) सुगंधिंत दे. । सौगंधिक, वि. (सं. ) सुगंधि, सुगंधित, सुवास, सुरभि । सं. पुं. (सं.) गांधिकः, गंध, विक्रयिन् उपजीविन् वणिज् । २ गंध ( धि ) कः, गंधाश्मन् । ( सं. न. ) नील, कमलं- उत्पलं, कुवलयम् । २. पुण्डरीकं, सिताम्भोजं, श्वेतकमलम् । ३. सुगन्धिधासभेद: ४. पद्मरागः । सौग़ात, सं. स्त्री. ( तु. ) उपहारः, उपायनं, प्राभृतं तर्क २ दुर्लभवस्तु ( न. ) | सौजन्य, सं. पुं. (सं. न.) सज्जनता, सुजनता, दे. । सौत, सौत (ति) न, सं. स्त्री. (सं. सपत्नी ) समानपतिका । सौतिया डाह, सं. पुं., सापत्न्येर्ष्या २. सापयं ईर्ष्या । • सौदा, सं. पुं. (अ.) उन्मादः, दे. 'पागलपन' । सौदाई, सं. पुं. ( अ. सौदा ) उन्मत्तः, दे. 'पागल' । सौदागर, सं. मुं. (फा.) नैगमः, क्रयविक्रयिकः, पण्याजीव:, वणिज्, वाणिज्यकारिन्, सार्थवाहः, सार्थिकः । बच्चा, सं. पुं. . ( फा . + हिं. ) वणिज् २. वणिक्पुत्रः । सौदागरी, सं. स्त्री. (फ़ा.) दे. 'सौदा' (३) । सौदाम (मि)नी, सं. स्त्री. (सं.) सौदामनी, चपला, चंचला, तडित-विद्युत (स्त्री.), दे. 'बिजली' । सौध, सं. पुं. (सं. न. ) हर्म्यं, प्रासादः, भवनं, अट्टालिका | सौप्तिक, सं. पुं. (सं. न.) निशायुद्धं, रात्रिरणं, रात्रि-निशा, मारणं २. महाभारतीय पर्वविशेषः । सौभागिनी, सं. स्त्री. दे. 'सुहागिन' । सौभाग्य, सं. पुं. (सं. न. ) सु-भाग्यं भागधेयंदैवं शिष्टं - दिष्टिः (स्त्री.)- नियतिः (स्त्री.) २. सुखं, आनंदः ३. कल्याणं, कुशलं ४. दे. 'सुहाग' ( १ ) ५. ऐश्वर्य, विभवः ६. सौन्दर्य ७. शुभेच्छा ८. साकल्यं ९ सिंदूरम् । For Private And Personal Use Only Page #684 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सौभाग्यवती [ ६४६ ] स्टेशन -शुंठी, सं. स्त्री. (सं.) सूतिका रोगनाशकः | स्कंद, सं. पुं. (सं.) कार्तिकेयः, सेनानीः, शिखिवाहनः, षाण्मातुरः कुमारः, शक्तिधरः, स्वामिन्, द्वादशलोचनः । पाकभेद: ( आयु. ) 1 सौभाग्यवती, वि. स्त्री. (सं.) सधवा, दे. 'सुहागिन' २. भाग्यशालिनी । सौभाग्यवान्, वि. पुं. (सं. वत् ) महाभाग, सुभाग्य, सुभग, पुण्यवत्, धन्य २. सुखी संपन्नश्च । - पुराण, सं. पुं. (सं. न. ) पुराणग्रंथविशेष: । स्कंध, सं. पुं. (सं.) अंस:, भुज-शिरस् (न.)मूलं, दोः शिखरं, कत्स्वरं २. प्रकांड :-डं, दंड:, स्कंध (न.), प्रकांडकः, दे. 'तना' ३. शाखा ४. समूह: ५. सैन्यव्यूहः ६. ग्रन्थविभागः, खंड-डं, पर्वन् (न.) । स्कंधावार, सं. पुं. (सं.) शिवि (बि) रं, कटकः, २, सेना, आवास:- स्थानं ३. राजधानी ४. सेना ५. यात्रि- वणिङ, निवेश: । सौमित्रि, सं. पुं. ( सं .) सौमित्रः, लक्ष्मणः । सौम्य, वि. (सं.) सोमसंबंधिन् २. सौमिक, चान्द्र ३. शीतस्निग्ध ४. नम्र, सुशील, शांत ५. शुभ, मंगल्य ६. प्रसन्न, प्रहृष्ट ७. प्रियदर्शन, सुन्दर ८. उज्ज्वल, भासुर । - दर्शन, वि. (सं.) प्रियदर्शन, सुभगाकार ।। स्कर्वी, सं. स्त्री. ( अं.) शीतादः । - वार, सं. पुं. (सं.) बुधवासरः । स्कारले टिना, सं. पुं. (अं.) आरक्तज्वरः, उदर्धः, लोहितज्वरः । सौम्यता, सं. स्त्री. (सं.) शीतलता, शीतस्निग्धता २. सुशीलता, साधुत्वं ३. सौन्दर्यं स्कालर, सं. पुं. ( अं.) छात्रः, विद्यार्थिन २. सुविद्वस्, भट्टः, प्रकांडपंडित: । ४. उदारता, परोपकारिता । - शिप, सं. पुं. ( अं.) छात्रवृत्तिः (स्त्री.) २. पांडित्यं विद्वत्ता । सौर', वि. ( सं . ) सौर्य, सूर्य-विषयक संबंधिन् २. भानुज ३. सूर्यानुसारिन् । - मास, सं. पुं. (सं.) सूर्यैकराशिभोगावच्छि• नकालः । -संवत्सर, सं. पुं. (सं.) सूर्यस्य द्वादशराशि भोगावच्छिन्नकालः । सौर, सं. स्त्री. ( देश० सौंड़ ) दे. 'चादर' । सौरथ, सं. पुं. (सं.) वीरः, भटः, योधः, योद्धृ । सौरभ, सं. पुं. (सं. न.) सुगंध:, दे. २. कुंकुमं, दे. 'केसर' ३. आम्रम् | -वाह, सं. पुं. (सं.) वायुः, पवनः । सौरभित, वि. (सं.) सुरभि, सुगंधित दे. | सौराष्ट्र, सं. पुं. ( सं . ) प्रान्तविशेष: (गुजरातकाठियावाड़ | सौरी, सं. स्त्री. (सं. सूतिकागार) दे. 'सूतिका स्कीम, सं. स्त्री. ( अं. ) योजना, आयोजनं, व्यवस्थितविचारः, प्रयोगः, युक्तिः (स्त्री.) । स्कूल, सं. पुं. ( अं. ) विद्यालय:, पाठशाला । -- मास्टर, सं. पुं. (अं.) शिक्षकः, अध्यापकः । स्खलन, सं. पुं. (सं. न. ) पतनं, भ्रंशः, स्रंसः, स्रंसनं २. सन्मार्गात् च्युति: (स्त्री.) च्यवनंविचलनं भ्रंशः, उन्मार्गगमनम् । स्खलित, वि. (सं.) पतित, च्युत, भ्रष्ट, २. स्रस्त, मृदु सृप्त ३. विचलित ४ भ्रांत ५. उन्मार्गगत । स्टांप, सं. पुं. ( अं. स्टैंप ) ( आधिकरणिकं ) मुद्राङ्कितपत्र २ पत्र शुल्कमुद्रा, दे. 'डाक का टिकट' ३. मुद्रा ४. मुद्रांकः । स्टार्च, सं. पु. ( अं.) श्वेतसारः । स्टीम, सं. स्त्री. ( अं. ) बाष्पः । - इंजन, सं. पुं. (अं. ) बाष्पयंत्रम् | स्टीमर, सं. पुं. ( अं. ) बाष्पपोतः । स्टूल, सं. पुं. ( अं.) *उच्चपीठम् । स्टेज, सं. पुं. ( अं.) रंग, मंच:- भूमिः (स्त्री.)पीठं २. मंच: । मैनेजर, सं. पुं. ( अं.) रंगमंच प्रबंधकः, गृह' | सौष्ठव, सं. पुं. ( सं. न.) सौन्दर्ये, सुषमा, लावण्यं २. लाघवं क्षिप्रता ३ गुण, अतिशय: उत्कर्षः, वैशिष्टयं ४ उपयुक्तता, उपयोगिता । सौहँ, सं. स्त्री. ( सं. शपथः ) दे. 'सौगंद' । सौहाँजना, सं. पुं. (सं. शोभाजनः ) तीक्ष्ण सूत्रधारः । गंध:, सु-, तीक्ष्णः, रुचिरांजनः । सौहार्द, सं. पुं. ( सं. न. ) सख्यं, साप्तपदीनं, स्टेथिस्कोप, सं. स्त्री. ( अं. ) उर: परीक्षणी । सौहार्थ, अजय । दे. 'मित्रता' । स्टेशन, सं. पुं. (अं.) (वाष्पशकट्या :) स्थानम् । For Private And Personal Use Only Page #685 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir स्टेशनरी [ ६४७] स्त्री - स्टेशनरी, सं. स्त्री. ( अं.) लेखनसामग्री। स्तुत, वि. (सं.) प्रशंसित, प्रशस्त, श्लाघित, स्टैंड, सं. पुं. ( अं.) आधारः, स्थापकम् । ईडित, कीर्तित। स्तंभ, सं. पुं. (सं.) स्थूणा, स्थाणुः, यूपः, स्तुति, सं. स्त्री. (सं.) स्त(स्ता)वः, गुण, वर्णनंमेठिः-थिः २. तरुस्कंधः, प्रकांड:-डं ३. सात्त्विक- कीर्तनं-कथनं, श्लाघा, नुतिः (स्त्री.), ईडा, भावभेदः ४. प्रतिबंधः २. मूर्छा, जाडयम् । प्रशंसा दे। स्तंभक, वि. (सं.) स्तंभकर, रोधक २. जाड्य, करना, क्रि. स., नु (अ. प. से.), स्तु कर-जनक ३. वीर्यरोधक ४. मलावष्टंभक । (अ. प. अ.), ईड ( अ. आ. से.), इलाघ स्तंभन, सं. पु. ( सं. न.) अव,रोधः-रोधनं, | (भ्वा. आ. से.), प्रशंस् ( स्वा. प. से.)। निवारणं २. शुक्रपातविलंबः ३. स्तंभक -पाठक, सं. पुं. (सं.) मागधः, चारणः, (औषधं ) ४. जडी-निश्चेष्टी, करण ५.(सं. पुं.) वैतालिकः। मदनबाणविशेषः। स्तुत्य, वि. (सं.) नव्य, नाव्य, नवितव्य, स्तंभित, वि. (सं.) अवरुद्ध, निवारित प्रशस्य, प्रशंसनीय, स्तोतव्य, स्तवनीय, प्रशं. २. जडी, भूत-कृत, निस्तब्ध ३. स्थित, साह। विरत। स्तूप, सं. पुं. (सं.) मृदादि,-कूट:-राशिः स्तनंधय, सं. पुं. स्त्री. (सं.) उत्तानशयः-या, २. बौद्धचैत्यः । स्तेन, सं. पुं. (सं.) चौरः, तस्करः । डिभः-भा, स्तनपः-पा, स्तनंधयः-या-यी, स्तन, पायकः ( पायिका )-पायिन् ( -पायिनी)। स्तेय, सं. पु. ( सं. न.) चौर्य, परद्रव्यहरणं, स्तैन्यम् । स्तन, सं. पुं. (सं.) कु(कू)चः, उरो-उरसि,-जः, स्तोतव्य, वि. (सं.) दे. 'स्तुत्य' । वक्षो,-ज:-रुहः । स्तोता, वि. (सं.-४) प्रशंसक, स्तावक, नवित, -चूचुक, सं. पु. ( सं. न. ) स्तन, मुखं-अग्रं नावक, वर्णक, स्तुतिवादक । शिखा-वृतं, मेचकम् । स्तोत्र, सं. पु. (सं. न.) छन्दोबद्धं देवगुण-पान, सं. पुं. (सं.) स्तन्य-धीतिः (स्त्री.)। कीर्तनं, स्तवः, स्तुतिः ( स्त्री.)। -पायी, सं. पुं., दे. 'स्तनधय'। स्तोम, सं. पुं. (सं.) स्तुतिः ( स्त्री.), स्तवः स्तन्य, सं. पुं. (सं. न.) क्षीरं, दुग्धम् । २. यज्ञः ३. राशिः । स्तब्ध, वि. ( सं. ) निश्चली-जडी, भूत, निश्चेष्ट, स्त्री, सं. स्त्री. (सं.) कनिता, महिला, रामा, सुप्त, निस्स्यंद २. दृढ निरुद्ध ३. दृढ़ स्थिर नारी, दे. २. पत्नी, भार्या ३. स्त्रीलिंगी जीवः । ४. मंद, अलस ५. दुराग्रहिन् ६. दृप्त । -ग्रह, सं. पुं. (सं.) चंद्रबुधशुक्रग्रहाः (ज्यो.)। -दृष्टि, वि. (सं.) स्तब्धनयन, निनिमेष । -जित, स्त्री, वश-विजित-वश्य । -बाहु, वि. (सं.) जड-निस्तब्ध, निश्चेष्ट, -धन, सं. पुं. (सं. न.) स्त्रीस्वत्वास्पदीभूतं हस्त-कर-बाहु-भुज। धनं ( माता, पिता, भाई तथा पति से प्राप्त, -मति, वि. (सं.) मंदबुद्धि, जड। विवाह-संस्कार के समय प्राप्त और जहेज )। स्तब्धता, सं. स्त्री. (स.) जडता, स्पंदन-हीनता -धर्म, सं.पुं. (सं.) ऋतुः, पुष्प, रजस् (न.) २. स्थिरता, दृढ़ता ३. बधिरता, श्रवणशून्यता। २. मैथुनं ३. स्त्रीकर्तव्यं ४. स्त्रीसंबंधि स्तर, सं. पुं. (सं.) दे. 'परत' २. शय्या, विधानम्। आस्तरः, तल्पः ल्पम् । -पुंसलक्षणा, सं. स्त्री. (सं) पोटा ( स्तन. स्तव, सं. पु. (मं.) स्तावः, स्तुतिः (स्त्री.) श्मश्रवादियुक्ता)। दे. । २. स्तोत्रं ३. ईश्वरप्रार्थना। -पुरुष, सं. पुं. (सं.) स्त्री,-पुरुषौ-पुंसौ, स्तवक, सं. पुं. (सं.) पुष्प-कुसुम, गुच्छः- मिथुनं, द्वन्द्वं, युग्मम् । स्तबकः २. राशिः अध्यायः, परिच्छेदः -राज्यं, सं. पु. ( सं. न.) प्राचीनप्रदेश४. स्तवः ५. स्तोत्। विशेषः (महाभारत )। स्तवन, सं. पु. ( सं. न.) गुणकीर्तनं, स्तुतिः -लंपट, वि. पुं. (सं.) स्त्री, लोल:-शौंड:(स्त्री.)। | चौरः, कामुकः। For Private And Personal Use Only Page #686 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [ ६४८ ] स्त्रीत्व मुद्राभेद: - लिंग, सं. पुं. (सं. न. ) योनिः (स्त्री.), भगं, स्त्रीचिह्नं २. शब्दलिंगभेदः ( व्या. ) । व्रत, सं. पुं. (सं. न. ) पत्नीव्रतं, एकपत्नी ५. नाटकव्यापारस्थलविशेष: ६. आलवालं, आवालवालम् ७. सुराफेनः । स्थानी, वि. ( सं . - निनू ) सस्थान, पदयुक्त २. स्थायिन ३. उचित, उपयुक्त । परायणता । -समागम, सं. पुं. (सं.) स्त्री - संसर्ग :- स्थानीय, वि. (सं.) स्थानिक, स्थानविशेष - सम्भोगः । संबंधिन् । - स्वभाव, सं. पुं. (सं.) महल्लक:, दे. स्थापक, सं. पुं. (सं.) स्थापयितृ, संस्थापकः, 'खोजा' २. नारीशीलम् । प्रवर्तकः, प्रारंभकः, स्थापनकरः २. निधायकः ३.उत्थापकः, उन्नायकः ४. मूर्ति प्रतिमा, कारः । स्थापत्य, सं. पुं. (सं. न. ) वास्तु-विद्या- शिल्पंकला २. सूत्रकर्मन् (न.), भवननिर्माणम् । स्थापनं, सं. पुं. (सं. न. ) निधानं न्यसनं, निवेशनं २. उत्थापनं, उन्नयनं, उन्नमनं ३. संस्थापनं, प्रवर्तनं, प्रारंभणं ४. प्रतिपादनं, साधनम् । स्थापना, सं. स्त्री. ( सं .) ( मंदिरे ) मूर्तिप्रतिष्ठापनं- निवेशनं २-३. दे. 'स्थापनं (३-४) ४. विचारांगविशेषः ( न्या० ) । " स्थापित, वि. (सं.) संस्थापित, प्रवर्तित २. निहित, निवेशित, न्यस्त ३ उत्थापित, उन्नीत, उन्नमित ४. स्थिर, दृढ ५. निश्चित | स्थायित्व, सं. पुं. (सं. न. ) स्थायिता, स्थिरता, स्थैर्य, ध्रुवता, नैत्यम् । स्थायी, वि. ( सं . - यिन् ) ध्रुव, नित्य, शाश्वत, अक्षय २. चिरस्थायिन, दृढ ३. स्थिर, स्थास्नु, स्थायुक, स्थितिशील ४. विश्वसनीय । -भाव, सं. पुं. ( सं . ) रसस्य भावविशेषः ( सा. ) ( ९ स्थायिभाव = रति, हास्न, शोक, क्रोध, उत्साह, भय, जुगुप्सा, विस्मय और निर्वेद ) | स्थाली, सं. स्त्री. (सं.) उखा, पिठरः-री, दे. 'पतीला' | - पुलाक न्याय, सं. पुं. ( सं . ) न्यायभेदः, अंशगुणज्ञानेन पूर्णगुणज्ञानानुमानम् । स्थावर, वि. (सं.) अचल, निश्चल, स्थिर २. स्थविर, स्थातृ, स्थाणु, स्थायुक स्थास्नु, स्थितिशील । (सं. न. ) अजंगम-अचल,संपत्ति: (स्त्री.) । स्त्रीत्व, सं. पुं. (सं. न. ) नारीत्वं, स्त्री-नारी, - धर्मः भावः । स्त्रैण, वि. (सं.) स्त्रीजित, रमगीरत ३. स्त्री - संबंधि-योग्य | स्थगित, वि. (सं.) विलंबित, व्याक्षिप्त, दे. 'मुलतवी' २. आच्छादित ३ गुप्त ४ अव-, रुद्ध | स्थपति, सं. पुं. (सं.) वास्तुशिल्पिन् २. तक्षन् । स्थल, सं. पुं. (सं. न. ) भूमि: (त्री.), भूभागः, स्थली २. शुष्क - निर्जल, - भूभिः ३ स्थानं ४. अवसरः । -कमल, सं. पुं. (सं. न.) पद्मा, पद्मचारिणी, अतिचरा, स्थलरुहा -चर, वि. (सं.) स्थल, -ग-गामिन-चारिन्, भू, चर-चारिन् । स्थली, सं. स्त्री. (सं.) शुष्क, भूमि: (स्त्री.)भूभाग: २. समोन्नतभूः (स्त्री.) ३. स्थानं, स्थैलम् । स्थविर, सं. पुं. ( सं . ) वृद्धः २. ब्रह्मन् (पुं.) । स्थाणु, सं. पुं. (सं.) अशाखवृक्षः, ध्रुवः, शंकुः २. स्तंभ:, स्थूणा ३. शिवः ४. स्थावर पदार्थः । वि. (सं.) अचल, स्थिर । स्थाण्वीश्वर, सं. पुं. (सं. न. ) कुरुक्षेत्रं, स्थानेश्वरनगरम्, स्थाणुतीर्थम् । २. स्थानेश्वरस्य लिंगविशेषः । स्थान, सं. पुं. (सं. न. ) स्थलं २. आ-निवासः, गृहं ३ भूमिः (स्त्री.), स्थली, भूभागः ४. पदं, दे. 'पदवी' ५. वर्णोच्चारणस्थानं ( व्या. ) ६. राज्यं, देश : ७. देवालयः, मंदिरं ८. अवसरः ९. दशा १०. परिच्छेदः अध्याय: । - च्युत, वि. (सं.) स्थानभ्रष्ट २. पद, च्युत स्थिति भ्रष्ट । स्थानक, सं. पुं. (सं. न. ) स्थानं, स्थलम् २. पदं, स्थितिः (स्त्री.) ३-४. शरक्षेप- नृत्य | स्थित, वि. (सं.) विद्यमान, वर्तमान २. उपविष्ट, आसीन ३. उत्थित ४. अवलंबित | - प्रज्ञ, वि. (सं.) स्थिर स्थित, बुद्धि-धी- प्रज्ञ, ब्रह्मबुद्धिसंपन्न २. आत्मसंतोषिन् । स्थिति, सं. स्त्री. (सं.) अवष्टंभः, आधारः, आलंबः २. निवासः, अवस्थानं ३. दशा, For Private And Personal Use Only Page #687 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir स्थिर [६४६ स्पिरिट - अवस्था ४. पदं, दे. 'पदवी' ५. अस्तित्वं, सत्ता । स्नुषा, सं. स्त्री. (सं.) पुत्र-वधूः ( स्त्री.)। ६. मर्यादा। | स्नेह, सं. पुं. (सं.) प्रेमन् (पुं. न.), अनु, -स्थापकता, सं. स्त्री. (सं.) कुंचनीयता, रानः, प्रीतिः (स्त्री.) प्रणयः २. चिक्कणपदा: नम्यता, दे. 'लचक'। (घृततैलादि)। स्थिर, वि. (सं.) अचल, निश्चल, अविचल | -करना, क्रि. स., दे. 'प्रेम करना। २. निश्चित, स्थिराकृत ३. शात ४. दृढ़, | -संस्कृत, वि. ( सं.) घृत-तैल,-पक्व-श्राण । बलवत् ५. स्थायिन, शाश्वत, ध्रुव ६. नियत, -सार, सं. पुं. (सं.) मज्जा, दे.। वि., तेल, ७. विश्वसनीय ८. स्थायुक, स्थास्नु। । प्रधान-बहुल । -चित्त, वि. (सं.) दृढसंकल्प, स्थिर, मति- | स्नेहनीय, वि. (सं.) स्नेह्य, तैलाई २. प्रेम, धी-बुद्धि । पात्र-भाजन, अनुराग,-अर्ह-योग्य । स्थिरता, सं. स्त्री. (सं.) निश्चलता, अचलता, स्नेही, सं. पुं. (सं. = हिन् ) स्नेहशीलः, अनुस्थिरत्वं २. दृढता, बलवत्ता ३. स्थायित्वं, रागिन, प्रणयिन, प्रेमिन्, मित्रम् । वि. (सं.) ध्रुवता ४. धैर्य, धीरता ५. चिरस्थायिता, | चिक्कण, मसूण। स्थास्नुता। स्पंज, सं. पुं. ( अं.) छिद्रिष्ठं, *स्फण्टम् । स्थूणा, सं. स्त्री. (सं.) गृहस्तंभः, दे. 'स्तंभ' स्पंदन, सं. पुं. (सं, न.) स्पंदः, ईषत्कंपनं, (१.२.)। प्रस्फुरणं, क्षिप्रकंपः । स्थूल, वि. ( सं.) पीन, पीवर ( -रा-री स्त्री.) स्पर्धा, सं. स्त्री. (सं.) विजिगीषा, संघर्षः, पुष्ट, मांसल, मेदुर, भिन्न, मेदस्विन, पीवस, | अहमहमिका, ईर्ष्या, सापत्न्यम् । पीवन् २.स्पष्ट, सुबोध ३. मूर्ख, जड ४. विषम, -करना, क्रि. अ., प्रतिस्पर्ध (भ्वा. आ. नतोन्नत। से.), संवृष ( भ्वा. प. से.), विजि(सन्नंत--बुद्धि, वि. ( सं.) मंदमति, जड । विजिगीषते), अभिभवितुं यत् (भ्वा. आ. से.), स्थूलता, सं. स्त्री. (सं.) पीनता, पीवरता, ईष्य (भ्वा. प. से.)। मेदुरता, स्थूलत्वं २. गुरुता-त्वं, भारवत्ता स्पर्श, सं. पं. (सं.) सं-स्पर्शः-र्शनं, संसर्गः, ३. विषमता ४. महाकायता। संपर्कः, परामर्शः २. त्वगिन्द्रिय ग्राह्यगुणविशेषः स्थैर्य, सं. पुं. ( सं. न.) दे. 'स्थिरता' । ३. कादिवर्गपंचकं ( व्या.) ४. वायुः । स्थौल्य, सं. पुं. (सं. न.) दे. 'स्थूलता'। -करना, क्रि. स., सं.,स्पृश् (तु. प. अ.), स्नात, वि. (सं.) कृतस्नान, दे. 'नहाया हुआ। । स्नातक, सं. पु. ( सं.) आप्लुतवतिन् । | स्पष्ट, वि. (सं.) परि-,स्फुट, प्रकट, व्यक्त, स्नान, सं. पुं. (सं. न.) आप्ल(प्ला)वः, । प्रत्यक, उल्वण, उदिक्त, विशद, सुबोध, स्पष्टार्थ। अभिषेकः, उपस्पर्श:-र्शनं, अवगाहनम् । सं. पुं. (सं.) वर्णोच्चारणप्रयत्नप्रकारः (व्या.)। --करना, क्रि. अ., स्ना (अ. प. अ.), अवगाह | -कथन, सं. पुं. (सं. न.) सरल-निष्कपट,. (भ्वा. आ. से.), दे. 'नहाना' । भापणं २. कथनप्रकारभेदः परवचनानामवित-गृह, सं. पुं. (सं. न.) स्नान, शाला-आगारं। थोपन्यासः ( व्या.)। स्नायु, सं. स्त्री. (सं. पुं.) वस्नसा, स्नसा, -वक्ता, सं. पुं. (सं.क्तृ ) स्पष्टवादिन् । नसा, ज्ञानतंतुः, नाडी-डिका-डिः (स्त्री.), वायु- स्पष्टतया, क्रि. वि. (सं.) प्रकटं, स्पष्टं, व्यक्तं, वाहिनी नाडी, वातरज्जुः (स्त्री.)। स्फुटं, प्रत्यक्षम् । स्निग्ध, वि. (सं.) चिक्कण, चिक्क, चक्कण, स्पष्टता, सं. स्त्री. (सं.) वैशय, विशदता, मसूण, लक्ष्ण, अमृष्ट २.सस्नेह, सतैल, तैलाक्त। | स्फुटता, उल्वणता, सुबोधता, सरलता, आर्जवं, स्निग्धता, सं. स्त्री. (सं.) चिक्कणता, मसृणत्वं, | सारल्यं, निर्व्याजता।। श्लक्ष्णता २. तैलवत्ता, स्नेहवत्ता ३. प्रियता। | स्पिरिट, सं. स्त्री. (प्रे.) जीव,-आत्मन्, देहिन्, स्नीढ, वि. (सं.) मृदुल, कोमल, स्निग्ध | जीवः २. प्राण-जीवन, शक्तिः (स्त्री.), वीर्य २. अनुरक्त, आसक्त। । ३. तत्त्वं, सत्त्वं, सारः ४. मघसारः। For Private And Personal Use Only Page #688 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir स्पीच [६०] विध। -लेप, सं. पुं., सारप्रदीपः । स्मरणं, धारणा, चिन्ता, आ-,ध्यानं, आध्या,, मेथिलेटिड-, मिथिलितमद्यसारः। चर्चा, चिंतितिः ( स्त्री.), चिन्तः, चिंतिया। रेक्टिफाइड-, शुद्धमयसारः। स्मरणीय, वि. (सं.) आध्येय, अनुचिंतनीय, स्पीच, सं. स्त्री. ( अं.) व्याख्यानं, कथनम् । स्मर्तव्य, स्मरणार्ह, मनसि धारणीय । स्पृहा, सं. स्त्री. ( स.) कामना, इच्छा दे। स्मशान, सं. पुं., दे. 'श्मशान' । स्पेक्टरास्कोप, सं. स्त्री. (अं.) रश्मिवर्णदर्शकम् । | स्मारक, वि. (सं.) अनुबोधक, स्मृतिकर । सं.. स्पेशल, वि. ( अं.) विशिष्ट, विलक्षण, असा- | पु. ( सं. न.) स्मृति-स्मरण,-चिह्न ३. स्मारमान्य, असाधारण, सविशेष, विशेष । . कदान, स्नेहाभिज्ञानम् ।। -गाड़ी, सं. स्त्री. (अं.+हिं.) विशिष्टशकटी। | स्मार्त्त, वि. (सं.) स्मृति, विहित-संबंधिन स्फटिक, सं. स्त्री. (सं.) स्फाट(टि)कं, भासुरः, । २. स्मरणसंबंधिन् । स्फाटिकोपल:, धौतशिलं, सितोपलः, विमल, स्मित, सं. पुं. (सं. न.) ईषद्धास्यं, मंदहासः, स्वच्छ-मणिः, स्वच्छः, अमर-निस्तुष,-रत्नं, दे. 'मुसकराहट' ।। शिवप्रियः। स्मृति, सं. स्त्री. (सं.) दे. 'स्मरणशक्तिः स्फुट, वि. ( सं.) व्यक्त, प्रकट, प्रकाशित, दे. २. स्मरणं, आध्यानं, अनु, चिंतन-बोधः ३. स्पष्ट २. विकसित ३. शुक्ल ४. नाना-बहु-वि, आर्यधर्मशास्त्राणि ( मनुस्मृति आदि )। -कार, सं. पु. ( सं.) धर्मशास्त्रकारः । स्फुरण, सं. पुं. ( सं. न.) स्फुरणा, स्फुरित, -वर्द्धिनी, सं. स्त्री. ( सं.) ब्राह्मी। स्फुलनं, स्फुरः-रणा, स्फ(स्फा)रणं, इषत्- | स्यंदन, सं. पुं. ( सं. ) रथः, दे. । किंचिच्, चलनम् । स्यात् , अव्य. (सं.) दे. 'शायद' । स्फुलिंग, सं. पुं. (सं.) अग्निकणः, दे. स्यानपन, सं. पुं. (हिं. स्याना) नैपुण्यं, दाक्ष्य, 'चिनगारी'। चातुर्य २. कैतवं, शाठय, व्याजः । स्फूर्ति, सं. स्त्री. (सं.) क्षिप्रता, शीघ्रता, आशु- | स्याना, वि. ( सं. सज्ञान ) चतुर, बुद्धिमत् कारिता त्वं, त्वरा २. स्फुरणं ३.मानसी प्रेरणा। २. धूर्त, कापटिक ३. वयस्क, युवन् । सं. पुं., स्फोटक, सं. पुं. (सं.) पिडकः, गंडः। वि., वृद्धः २. ग्रामणीः ३, चिकित्सकः। स्फोटः। -पन, सं. पुं., दे. 'स्यानपन' । स्फोटन, सं. पुं. (सं. न.) सशब्द, भेदन-विदा. | स्यानी, वि.(स्त्री.) (हिं. स्याना) चतुरा, दक्षा, रणं २. प्रकाशन, प्रख्यापनं ३. शब्दः, ध्वनिः । बुद्धिमती । सं. स्त्री., युवती-तिः (स्त्री.), ४. आकस्मिक, भंजन-विदलनं-स्फुटनम्। समकन्या, परिणेया, उद्व ह्या।। स्मय, सं. पुं. (सं.) अभिमानः, दर्पः। | स्यार, सं. पुं. (सं. शृगाल:) जंबुकः, दे.. स्मर, मं. पुं. (सं.) कंदर्पः, मदनः, कामः 'गीदड़'। २. स्मृतिः ( स्त्री.), स्मरणम् । स्याह, वि. (फा.) काल, कृष्ण, असित । स्मरण, सं. पुं. (सं. न.) आध्यानं, अनुचिंतनं, -दिल, वि. ( फ़ा. ) दुष्ट, खल, पाप । २. स्मृतिः ( स्त्री.)। स्याही, सं. स्त्री. ( फा.) मशी,-पी-सी, मशिः -करना, क्रि. स., अनु-सं-, रमृ (भ्वा. प. अ.), पि:-सिः (सब स्त्री.), मेला २. कालिमन् अनुचिंत् (चु.), अनुबुध् (भ्वा. प. से.), (पुं.), कृष्णता, श्यामता ३. कज्जलभेदः ४. आध्यै (भ्वा. प. अ.) २. कंठस्थं-मुखस्थं च । कलंकः, लांछनम् । -दिलाना या-कराना, क्रि. प्रे., ब. 'स्मरण | ~चट, -चूस, सं. पुं., मसी, शोषक-चूसकं करना' के प्रे. रूप। (पत्रम् )। -रखना, क्रि. स., चित्ते-चेतसि-मनसि निधा -जाना, मु., यौवनं अति-इ ( अ. प. अ.)। (जु. उ. अ.), मनसि धू (चु.)। -लगाना, मु०. अपवद्-परिवद्-निन्द् (भ्वा. -पत्र, सं. पुं. (सं. न.) स्मारण-स्मारक, पत्रम् ।। प. से, ), कलंक (ना. धा., कलंकयति )। -शक्ति, सं. स्त्री. (सं.) स्मृति (स्त्री.), । स्यूत, वि. (सं.) स्यून, निष्यूत २. व्यूत, For Private And Personal Use Only Page #689 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [११] स्वयं व्यूत, प्रोत, पुटित, पुटित ३. विद्ध। सं. पुं.। होन-रहित २. शुभ्र, श्वेत, उज्ज्वल ३. पवित्र, (सं.) स्योतः, प्रसेवः। शुचि, वि.,शुद्ध ४. स्पष्ट, विशद ५. स्वस्थ, स्रवण, सं. पुं. (सं. न.) स(स्रा)वः, प्रस्रावः, निरामय ६. निष्कपट, ऋजु ७. पारदर्शक । २. गर्भ, पातः-स्रावः ३. मूत्रं ४. प्रस्वेदः। स्वच्छता, सं. स्त्री. (सं.) निर्मलता, विमलता स्रष्टा, सं. पुं. (सं.-ष्ट) विश्वसृज् , ब्रह्मन्, । २. उज्ज्वलता ३. पवित्रता ४. पारदर्शकता । चतुमुखः । वि. (सं.) रचयित, निर्मात। । स्वतंत्र, वि. (सं.) ६. 'स्वच्छंद' वि. तथा नुवा, सं. पुं. (सं. स्त्री.) स्रवः, स्त्रच (स्त्री.), | क्रि. वि.। स्रः (स्त्री.) (यज्ञपात्रभेदः)। स्वतंत्रता, सं. स्त्री. (सं.) दे. 'स्वच्छंदता'। स्रोत, सं. पुं. (सं. न.) स्रोतस् (न.), प्रवाहः, स्वतः, अव्य. (सं.) स्वेच्छया, स्वयमेव, स्वेच्छा ओघः, धारा, मंदाकः २. नदी ३. देहछिद्राणि | पूर्व, कामतः ( सब अव्य.)। (न. बहु.) ४. वंशपरंपरा।। -प्रमाण, वि. (सं.) स्वतःसिद्ध, स्वयंसिद्ध, स्लीपर, सं. पुं. ( अं. स्लिप्पर ) फर्फरीका। प्रमाणान्तरनिरपेक्ष। फुल-, सं. पु. ( अं.) पूर्णफफरीका। स्वत्व, सं. पुं. (सं. न.) शक्तिः ( स्त्री.), स्लेट, सं. स्त्री. ( अं.) लेखन-शिला, अश्म- अधिकारः, वशः २. आधिपत्यं, स्वामित्वं, पाषाण, पट्टिका, पाषाणी। प्रभुत्वम् । स्व, सं. पुं. (सं.) आत्मन् २. बंधः, झातिः स्वप्न, सं. '. (सं.) स्वापः, प्रसुप्तस्य ज्ञानं (पु.) २. धनम् । वि. (सं.) स्वीय, स्वकीय, २. निद्रा २. असंभवकल्पना, वृथा-मिथ्याआत्मीय, स्वक, निज, स्व-,निज-,आत्म-। । वासना, आभासः, स्वप्नसृष्टिः ( स्त्री.)। -कार्य, सं. पुं. (सं. न.) निजकृत्यम्। -देखना, स्वप्नं दृश (भ्वा. प. अ.), स्व-कुटुंब, सं. पुं. ( सं. न.) निजपरिवारः।। प्नायते (ना, धा.) -जन, सं. पुं. (सं.) बंधुवर्गः, बांधवाः (बहु.)। -दोष, सं. पुं. (सं.) निद्रायां शुक्रपातः । -देश, सं. पुं. (सं.) जन्म-मातृ, भूमिः -में बोलना,क्रि. अ. उत्स्वप्नायते (ना. धा.)। (स्त्री.)। --लेना, मु., असंभवकल्पनां कृ, मनसा क्लुप् -देशी, वि. (सं.शीय) निजदेश-,संबंधिन्- (प्रे.)। निर्मित। स्वभाव, सं. पुं. (सं.) धर्मः, गुणः, प्रकृतिः-धर्म, सं. पुं. (सं.) निजकर्तव्यं २. सहज- | संसिद्धिः ( स्त्री.) स्वरूपं, नि-,सर्गः, भावः, गुणः। २. प्रकृतिः-मनोवृत्तिः ( स्त्री.), शीलं ३. अ. -राज, सं. पुं. ( सं. राज्यं ) निजशासनम्। | भ्यासः, नित्यव्यवहारः।। स्वकीय, वि. (सं.) स्व, निज, आत्मीय, स्वीय। -सिद्ध, वि. (सं.) सहज, प्राकृतिक, स्वकीया, सं. स्त्री. (सं.) नायिकाभेदः (सा.), | स्वाभाविक । स्वीया, स्वामिन्येवानुरक्ता। स्वभावतः, अव्य. (सं.) प्रकृत्या, जन्मतः, स्वगत, सं. पुं. (सं. न.) आत्म-मनोगतं, | निसर्गतः । अश्राव्यं, नाट्ययोक्तिभेदः (सा.)। स्वयं, अव्य. (सं.) आत्मना २. स्वत एव, स्वच्छंद, वि. (सं.) स्वतंत्र, स्वाधीन, स्वायत्त, विनाऽऽयासं, प्रयत्नं विना। २. नियंत्रण-शून्य, स्वैर-रिन्, निरंकुश, स्व.! -भू , सं. पुं. (सं.) ब्रह्मन् (पुं.) २. काल: रुचिः । क्रि. वि. (सं.न.) स्वातंत्र्येण स्वच्छंदतः । ३. कामदेवः ४. विष्णु: ५. शिवः । वि. (सं.) ३. स्वैरं, निरंकुशं, यथेष्टम् ।। स्वयं, जात-भत, स्वज, स्वयोनि। -चारिणी, सं. स्त्री. (सं.) वेश्या । -वर, सं. पुं. (सं.) स्वयंवरणं, स्वेच्छया -चारी, वि. (सं.-रिन् ) स्वेच्छाचारिन्, | पतिवरणम् ।। स्वैर, स्वैरिन् । -वरा, सं. स्त्री. (सं.) पतिवरा, वा । स्वच्छंदता, सं. स्त्री. (सं.) स्वातंत्र्य, स्वाधीनता, | -सिद्ध, वि. (सं.) स्वतःसिद्ध २. स्वतः स्वतंत्रता २. स्वैर(रि)ता, निरंकुशता। | सफल। स्वच्छ, वि. (सं.) अमल, निर्मल, विमल, मल, -सेवक, सं. पुं. (सं.) स्वेच्छासेवकः । For Private And Personal Use Only Page #690 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [ ६५२ ] -सेविका, सं. पुं. ( सं. ) स्वेच्छासेविका। । स्वर्य, वि. (सं.) दे. 'स्वर्गीय' ( १, २)। स्वर , सं. पुं. (सं. अव्य.) स्वर्गः २. परलोकः स्वर्ण, सं. पुं. ( सं. न. ) दे. 'सोना' (१)। ३. आकाश:-शम् । स्वलोक, सं. पुं. (सं.) दे. 'स्वर्ग' (१)। स्वर, सं. पुं. (सं.) ध्वनिः, शब्दः, नि-,स्व- | स्वल्प, वि. (सं.) अत्यल्प, अतिस्तोक । (स्वा)नः, नि-नादः, घोषः, श्वेडः, विरुतं, स्वशुर, सं. पुं. (सं. श्वशुरः ) दे. 'ससुर' । विर(रा)वः, हादः. २. षड्जादयः सप्त- स्वस्ति, अव्य. (सं.) कल्याण-मंगलं-भद्रं स्वराः (संगीत) ३. उदात्तादिस्वरत्रिक (या.) भूयात् (असीस)। सं. स्त्री. (सं.) कल्याणं, ४. अच , मात्रा (व्या.) ५. उच्छवासः । । मंगलं २. सुखम् । -भंग, सं. पुं. (सं.) स्वर, क्षयः भेदः, गल- -वाचन, सं. पुं. (सं.न.) मंगल्यमंत्रपाठः रोगभेदः। २. धार्मिककृत्यभेदः ( गणेशपूजनादि )। -संक्रम, सं. पुं. (सं.) स्वरारोहावरोही | स्वस्तिक, सं. पुं. (सं.) मंगल्यचिह्न भेदः (संगीत)। (卐) २. मंगलद्रव्यं ३. चतुष्पथः । स्वरूप, सं. पुं. ( सं. न.) निजरूपं, आकारः, स्वस्तिका, सं. स्त्री.,दे. 'स्वस्तिक' (१)। आकृतिः ( स्त्री.) २. मूर्तिः (स्त्री.), चित्रं इ. स्वस्त्ययन, सं. पुं. (सं. न.) कार्यारम्भ ३. प्रकृतिः (स्त्री.), स्वभावः ४. देवादिभिः मंगल्यमंत्रपाठः २. समृद्धिसाधनम् ३. दलाये धृतं रूपं ५. देवादिरूपधारिन् । वि. (सं.) नीयमानो मंगल्यजलकलश: । ४. दानप्राप्त्यतुल्य, सम २. सुंदर, मनोज्ञ ३. पंडित, प्राश । नन्तरं विप्रस्याशीर्वादः। क्रि. वि., रूपेण, रीत्या ( उ. प्रमाण-स्वरूप:= स्वस्थ, वि. (सं.) अनामय, निरामय, नीरोग, प्रमाणरूपेण)। अरोग, कुशल, कुशलिन, सुस्थ, आरोग्यवत्, स्वर्ग, सं. पु. (सं.) स्वर-देव-अमर-सुर-ऊर्ध्व, नीरुज-ज, निर्व्याधि, व्याधि-रोग, रहित २. लोकः, स्वर् ( अव्य.), नाकः, त्रिदिवः, 'सावधान' दे। त्रिदशालयः, मन्दरः, शुक्रभवनं, सुखाधारः -चित्त, वि., शान्तमनस्क । २. ईश्वरः ३. सुखं ४. सुखदं स्थानं स्वांग, सं. पुं. ( सं. स्वाग> ) ( उपहासाथै ) ५. आकाश:-शम् ।। अनु, करणं-कारः कृतिः (स्त्री.), विडंबनं २. -काम, वि. (सं.) स्वर्ग-,लिप्सु-इच्छुक । वेषांतर, छम-कृतक-कपट, वेषः। -~-गमन, सं. पु. ( सं. न.) स्वर-स्वर्ग,गतिः -रचना, क्रि. स., वेषं परिवृत् (प्रे.), (स्त्री.)-लाभः, निधनं, मरणम् । वेषान्तरं रच् (चु.) २. नट् (चु.), अभिनी -गामी, वि. ( सं.-मिन् ) स्वर्गमनकर्तृ २. स्व- (भ्वा. प. अ.)। र्गस्थ, स्वर्गत, मृत। स्वांगी, सं. पुं. (सं. स्वांगं> ) नटः, अभिनेत, -तरु, सं. पुं. (सं.) कल्पवृक्षः । शैलूषः, रंगाजीवः २. मंड: ३.दे. 'बहुरूपिया' । -धेनु, सं. स्त्री. (सं.) कामधेनुः । स्वागत, सं. पुं. (सं. न.) उपचारः, समानः, -नदी, सं. स्त्री. (सं.) स्वर्गापगा, मंदाकिनी। संभावना, सत्कारः-कृतिः (स्त्री.) क्रिया, -पति, सं. पुं.(सं.) इन्द्रः । प्रत्युद्गमनं, प्रत्युद्वजनं, प्रत्युत्थानं, प्रत्युद्-, -पुरी, सं. स्त्री. (सं.) अमरावती। गमः-गतिः ( स्त्री.)। -लोक, सं. पुं. (सं.) दे. 'स्वर्ग' (१)। -करना, क्रि. स., प्रत्युद्गम् ( भ्वा. प. अ.), -वधू , सं. स्त्री. (सं.) स्वर्गस्त्री, अप्सरस । प्रत्युद्वज (भ्वा. प. से.)। ( स्त्री.)। -समिति, सं. स्त्री. (सं.) स्वागतकारिणी -वास, सं. पुं. (सं.) स्वर्गवासः २. मरणं, सभा। निधनम् । स्वातंत्र्य, सं. पुं. (सं. न.) दे. 'स्वतन्त्रता'। -वासी, वि. (सं.-सिन् ) देवलोकवासिन् । स्वाति, सं. स्त्री. (सं.) स्वाती, पञ्चदशं २. दिवंगत, प्रेत, मृत, स्वर्यात, स्वर्गस्थ। नक्षत्रम् । स्वर्गीय, वि. (सं.) स्वर्य, दिव्य, दैव २. दे. | स्वाद, सं. पुं. (सं.) आस्वादः, रसः २. आनंदः, 'स्वर्गवासी' (२)। । रसानुभूतिः ( स्त्री.) ३. इच्छा ४. माधुर्यम् । For Private And Personal Use Only Page #691 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir स्वादिष्ट - लेना, क्रि. स., आस्वाद (भ्वा. आ. से.), रस् ( चु.) २. ईषत् खादू (भ्वा. प. से. ) । सं. पुं., आस्वादनं, रसनम् । स्वादिष्ट, वि. (सं. स्वादिष्ठ ) सरस, सुरस, रुच्य, रुचिकर ( -री स्त्री. ) स्वादु २. मिष्ट | स्वादीला, वि. (सं. स्वादः > ) दे. 'स्वादिष्ट' । स्वादु, वि. ( सं. ) ‘स्वादिष्ठ' २. मधुर, मिष्ट, ३. मनोश । स्वादुता, सं. स्त्री. (सं.) सुरसता, स्वादवत्ता २. मधुरता । स्वाधिपत्य, सं. पुं. (सं. न. ) निजप्रभुत्वम् । स्वाधीन, वि. (सं.) दे. 'स्वतंत्र' । स्वाधीनता, सं. स्त्री. (सं.) दे. 'स्वतंत्रता' । स्वान, सं. स्वाध्याय, सं. पु. (स.) वेदाध्ययनं ताशा. स्त्रानुशीलनं २. अध्ययनं विषयविशेषानु शीलनम् । | [ ६३ ] स्वाप, सं. पुं. (सं.) निद्रा २. स्वप्नः ३. अज्ञानं ४. निस्पंदता, स्पर्शाज्ञता । स्वाभाविक, वि. ( सं . ) स्वभावसिद्ध, सहज, प्राकृतिक, नैसर्गिक, कृत्रिमता, रहित । स्वामित्व, सं. पुं. (सं. न. ) स्वामिता, प्रभुतात्वं स्वाम्यम् । स्वामिनी, सं. स्त्री. (सं.) गेहिनी, गृहिणी, गृहपत्नी, कटुम्बिनी, पुरंभी २. ईशित्री, ईश्वरी, स्वत्ववती, अधिकारिणी ३. श्रीराधा । स्वामी, सं. पुं. (सं. मिन) प्रभुः, अधि, -प:पतिः-भूः, ईश्वरः, ईशितृ, परिवृढः, नायकः, नेतृ, आर्यः, पालकः २. गृहपतिः, कुटुम्बिन, गृहिन ३. पतिः, भर्तृ, धवः ४. परमेश्वरः ४. नृपः ५. कार्तिकेयः ६. परिव्राजकोपाधिः । स्वाम्य, सं. पुं. (सं. न. ) स्वामित्वं, प्रभुत्वं, आधिपत्यं, अधिकारः । स्वोपार्जित - परायण, वि. ( सं . ) स्वार्थ- स्वहित-स्वलाभपर-परायण-निष्ठ | स्वायत्त, वि. ( सं .) आत्मवश, निजाधिकारस्थ | —शासन, सं. पुं. (सं. न. ) स्थानिक स्वराज्यं । स्वाराज्य, सं. पुं. ( सं. न. ) स्वाधीनशासनं २. स्वर्गलोकः ३. ब्रह्मणा तादात्म्यम् । स्वार्थ, सं. पुं. (सं.) निजोद्देश्यं, आत्मप्रयोजनं २. आत्महितं, निजलाभः ३. स्वधनम् । -त्याग, सं. पुं. ( सं . ) निजलाभोत्सर्गः । - त्यागी, वि. (सं.-गिन् ) निजलाभोत्सर्गिन् । -परायणता, सं. पुं. (सं.) स्वार्थ- स्वहितस्वलाभ, परता- निष्ठा-बुद्धि:-दृष्टि: ( दोनों स्त्री. ) -साधक, वि. (सं.) दे. 'स्वार्थपरायण' | - साधन, सं. पुं. (सं. न. ) निजहित निर्वहणम् । स्वार्थी, वि. ( सं . थिन् ) दे. 'स्वार्थपरायण' । स्वावमानना, सं. स्त्री. (सं.) स्वावमाननम्, आत्म-भर्त्सना -गह निन्दा | स्वावलंबन, सं. पुं. (सं. न. ) आत्मनिर्भरता, स्वाश्रयः । स्वावलंबी, वि. (सं.- बिन ) आत्मनिष्ठ, आत्माश्रय, आत्मश्रित, स्वाश्रित । स्वास, सं. पुं. स्वासा, सं. स्त्री. } (सं. श्वासः ) दे. 'साँस'। स्वास्थ्य, सं. पुं. ( सं. न. ) आरोग्यं, स्वस्थता, कुशलं, नीरोगता, अरोगिता । -- कर, वि. (सं.) आरोग्य, प्रद-वर्द्धक । स्वाहा, अन्य. (सं.) हविर्दान, मंत्र:- शब्दः । करना, मु. नश् (प्रे.), अपव्यय् (चु. ) २. भस्मसात्कृ । स्वीकार, सं. पुं. ( सं . ) अंगीकारः २. स्वीकरणं, अंगीकरणं, ग्रहणं, आदानं ३. वचनं, प्रतिज्ञा । स्वीकार्य, वि. (सं.) स्वीकरणीय, अंगीकार्य । स्वीकृत, वि. ( सं . ) आदत, अंगीकृत, प्रतिगृहीत, २ प्रशस्त, अनु-सं, मत । स्वीकृति, सं. स्त्री. (सं.) सं.- अनुमति: (स्त्री.), अनुमोदनं २. आदानं, स्वीकारः, प्रतिग्रहः । स्वीय, वि . ( सं . ) स्वकीय, निज, आत्मीय । स्वेच्छा, सं. स्त्री. (सं.) निजाभिलाषः,स्वरुचिः (स्त्री.), स्वच्छंद: । - चारी, वि. (सं.) स्वैर, प्रतिनिविष्ट, निरकुश, स्वच्छंद । - शुत्यु, सं. पुं. ( सं . ) भीष्म: २. स्वेच्छया मरणम् । वि. (सं.) स्वायत्तनिधनम् । स्वेद, सं. पुं. ( सं . ) धर्मः, निदाघः प्रस्वेदः, स्वेद धर्म, जलं उदकं २. वापः ३. ताप, उष्मन् ४. स्वेदनं ५. धर्मकारकमौषधम् । स्वेदज, वि. (सं.) धर्मजात (जूँ, लीख आदि) । स्वैर, वि. (सं.) दे. 'स्वच्छंद' । स्वोपार्जित, वि. (सं.) आत्म-निज स्वअर्जित - उपार्जित । For Private And Personal Use Only Page #692 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 還 [ ६२४ ] ह 'ह, देवनागरी वर्णमालायास्त्रयस्त्रिंशो व्यंजनवर्णः | हँसमुख, वि. (हिं. हँसना + सं . मुखं > ) हास्य मुख( खा, खी स्त्री. ), स्मेरानन(-ना, नी स्त्री.), प्रसन्न - प्रफुल्ल - हास्य वदन ( - ना, नी स्त्री. ) । २. नर्मगर्भ, विनोदप्रिय, हास्यशील, विनोदिन् । हकारः । हँकवाना, क्रि. प्रे., ब. 'हाँकना' के प्रे. रूप | हँकाना, क्रि. स. तथा प्रे. दे. 'हाँकना' तथा 'हॅकवाना' । हँकारना, क्रि. स., दे. 'पुकारना' २. दे. 'ललकारना' । हंगामा, सं. पुं. (फ्रा.-मह् ) कोलाहल:, तुमुल:लं, कलकलः २. संमईः, विप्लवः । हंजीरों, सं. स्त्री. (पं.) गण्डमाला, गलांकुर: । इंटर, सं. पुं. (अं.) कशः-शा, दे. 'कोड़ा' । हंडा, सं. पुं. (सं.) धातुमयं बृहज्जलभांडम् । हँडिया, सं. स्त्री. (सं. इंडिका ) हंडी । हंडी, सं. स्त्री. (सं.) इंडिका । हंता, सं. पुं. (सं.-तृ ) घातकः, मारकः, वधकारिन - हन् ( समासान्त में ) । हंस, सं. पुं. ( सं . ) मराल:, मानसौकस, च (व) कांगः, क्षीराशः, नीलाक्षः, चक्रपक्षः, राजहंसः, श्वेतगरुत्, कलकंठः, सित, -च्छदः • पक्षः, धवलपक्षः, मानसालय: २. सूर्यः ३. परमात्मन् ४. शुद्धात्मन् ५. परिव्राजकभेदः । — गति, सं. स्त्री. (सं.) कलमंदगतिः । - गामिनी, वि. स्त्री. ( सं .) कलकंठगामिनी । - नादिनी, बि. स्त्री. (सं.) मधुर. चारु- प्रिय,भाषिणी, हंसगद्गदा । - वाहन, सं. पुं. (सं.) ब्रह्मन् (पुं.), हंसरथ: । - वाहनी, सं. स्त्री. (सं.) सरस्वती । : हँसना, क्रि. अ. ( सं . हसनं ) प्र. वि., हसू (भ्वा. प. से. ), हास्यं कृ २. ( मंद-मंद हँसना ), स्मि ( भ्वा. आ. अ. ) ३. ( ऊंचा हँसना ), अट्टहासं कृ ४. नर्मालापं कु, परिहस ५. मुद् (भ्वा. आ. से.), हृष् ( दि. प. से. ) । क्रि. स., अव उप, हस् । सं. पुं., हास:, हास्य, इसनं, हसितम् । - खेलना, सं. पुं., विनोदः, प्रमोदः, आनंदः, परिहासः । - बोलना, सं. पुं., हास्यालाप:, सुखसंभाषणं । हँसने योग्य, वि., हासा (स्या ) ६, हसितव्य, हास्य, हासकर (री स्त्री. ), हास्यास्पदम् । हँसने वाला, सं. पुं., हासकः, हासिन् । हँसली, सं. स्त्री. (सं. अंसल > ) जत्रु (न.), जत्रुकं, ग्रीवास्थि (न.) २.ग्रैवेयं, कंठाभरणभेदः । हँसाई, सं. स्त्री. (हिं. हँसना ) हसनं, हास: २. अवहासः, उपहासः, लोक, निन्दा - अपवादः । हँसाना, क्रि. स. ब. 'हँसना' के प्रे. रूप । हंसिनी, सं. स्त्री. दे. 'हंसी' । हँसिया, सं. पुं. ( सं . हंस: > ) लवाकः, लवाणकः, लविः । हंसी, सं. स्त्री. (सं.) वरटा-टी, च (व) क्रांगी, हंसिका, व (वा) रला, वराली, मंजुगमना, मृदुगामिनी । हँसी, सं. स्त्री. (हिं. हँसना ) हास:, हास्य, इसितं, हसनं, हसितिः (स्त्री.) २. परिहासः, नर्मन (न.), कौतुक, लीला, विनोदः ३. उपअव, -हास: ४, लोक, अपवाद:- निंदा, अपकीर्तिः (स्त्री.) । --खुशी, सं. स्त्री. आनंदः, मोदः । -खेल, सं. पुं., विनोदः, कौतुकं २. सुकरसुसाध्य, कार्ये, साधारणवार्ता । -ठट्ठा, सं. पुं., दे. 'हँसी' (२) । उड़ाना, मु., उप-अव, हसू ( भ्वा. प. से. ), सव्यंग्यं निन्दु (भ्वा. प. से. ) । - खेल समझना, मु., सुकरं सुसाध्यं मन् (दि. आ. अ.) । में उड़ाना, मु. साधारणं मत्वा उपेक्ष (भ्वा. आ. से. ) । - में खाँसी, मु., विनोदे कलह:, परिहासः, उपद्रवे परिणतः | हँसोड़, वि. (हिं. हँसना ) हास्य-परिहास- विनोद,प्रिय- शील, नर्मगर्भ, विनोदिन, कौतुकिन् । पन, सं. पुं., हास्यशीलता, विनोदप्रियता, नर्मगर्भता । हँसीहाँ, वि. (हिं. हँसना ) हासोन्मुख २. परि हासयुक्त | हक़, वि. (अ.) सत्य, ऋत, अवितथ, तथ्य, For Private And Personal Use Only Page #693 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir हकबकाना [ ६५ ] - यथार्थ २. उचित, न्याय्य, धर्म्य । सं. पुं. (अ.) | हक्का-बक्का, वि. (अनु. हक बक. ) विस्मयापन्न, आश्चर्यचकित, संभ्रान्त, जडी-आकुली-निश्चेष्टी, भूत, निस्तब्ध | अधिकारः, स्वत्वं २. प्रभुत्वं शक्तिः (स्त्री.) ३. कर्तव्यं, धर्मः ४. सत्यं, ऋतं, तथ्यं ५. परमात्मन् ६. देयं, परिशोध्यं ७. ग्राह्यं प्राप्यम् । - अदा करना, मु., कर्तव्यं पा (मे., पालयति - ते ) । -दार, सं. पुं. ( अ. + फा. ) अधिकारिन्, स्वत्ववत् । " - होना, क्रि. अ., दे., ' हकबकाना' । हगना, क्रि. अ. (सं. हदनं ) हद् (भ्वा. आ. अ. ), पुरीपं-मलं उत्सृज् (तु. प. अ.), उच्चर् (भ्वा.प.से.) । सं. पुं., हदनं, मल, उच्चार:, रेकः, पुरोषत्सर्गः । हजः । हगाना, क्रि. प्रे., ब. 'हगना' के प्रे. रूप । हचकोला, सं. पुं. (अनु. हचक ) उद्घातः, उत्क्षेपः, उच्छलनं, संक्षोभः । हज, सं. पुं. ( अ. ) मक्कायात्रा, हज़ (-ज्ज़ ), सं. पुं. (अ.) सुखं, आनन्द:, हर्षः २. लाभ:, प्राप्ति (स्त्री.) । हज़म, सं. पुं. ( अ. ) जठरे पचनं वि-परि पाक:, परिणाम: (वि., (जठरे ) पक्व, परिणत, जीर्ण २. सकपट अपहृत, छलेन आत्मसात्कृत | - होना, क्रि. अ., दे. 'पचना' । भु., कपटाप नाहक, अव्य. ( अ. + फ़ा. + अ.) बलात्, सरभस (दोनों अव्य.) २. व्यर्थ, निष्प्रयोजनं । - मालिकाना, सं. पुं. ( अ. + फ्रा.) स्वाम्यधिकारः । | --मौरूसी, सं. पुं. ( अ. ) परंपरागत पैतृक, अधिकारः । - शुफ़ा, सं. पुं. ( अ ) प्रतिवेशाधिकारः । हकबकाना, क्रि. अ. (अनु. हक्का बक्का) निश्रेष्टी निस्तब्धी जडी, भू, व्य!मुहू ( दि. प. वे. ) । हकला, वि. (हिं. हकलाना ) अव्यक्त- गद्गद वादिन, स्खलितस्वर । हकलाना, क्रि. अ. (अनु. हक) गद्गदवाचा बद् ( भ्वा. प. से. ), स्खलद्वाक्यैः - अस्फुटवर्णैः .भाष (भ्वा. आ. से.), स्खल (वा. प. से.) । सं. पुं., स्खलनं, गद्गद अस्पष्ट अव्यक्त,भाषणम् । हक़ारत, सं. स्त्री. ( अ.), क्षुद्रता, तुच्छता, लघुता । -की नजर से देखना, मु., अवमन ( दि. आ. अ. ), उपेक्ष ( भ्वा. आ. से. ) । हक़ीक़त, सं. स्त्री. (अ.) तथ्यं तत्त्वं सत्यं २. तथ्यवार्त्ता, सत्यवृत्तान्तः । —में, मु., तत्त्वतः, वस्तुत: । हक़ीक़ी, वि. ( अ. ) सत्य, यथार्थ २. निज, आत्मीय, सोदर ३. ईश्वरीय, पारमार्थिक । हक्क्रीम, सं. पुं. (अ.) आचार्य:, विद्वस् २. वैद्यः, चिकित्सकः । -नीम—, सं. पुं., मिथ्या-कु-अनुभवशून्य, वैद्यः । नीम हकीम खतरे जान, लोकोक्ति, ईषज्ज्ञानं भयंकरम्, अल्पबोधो भयावहः । 'हक्कीमी, सं. स्त्री. ( अ. हकीम ) ( यावनं ) चिकित्साशास्त्र २. (यावनी) वैद्यवृत्तिः (स्त्री) । हक़ीर, वि. (अ.) तुच्छ, क्षुद्र २. उपेक्ष्य । हक्क क, सं. पुं. ( अ., हक़ का बहु. ) स्वत्वानि, अधिकारा: (दोनों बहु० ) । हकूमत, सं. स्त्री. दे. 'हुकुमत्' । हटना हृतवस्तुनः स्वपार्श्व स्थितिः (स्त्री.) । हज़रत, सं. पुं. (अ.) महात्मन, महाजनः २. महाशय ! महोदय ! श्रीमन् ! ( संबोधनवचनं ) ३. धूर्त्त, कितव ( व्यंग्य ) | हजामत, सं. स्त्री. (अ.) केशादीनां वपनं, मुण्डनं, क्षौरं २. प्रवृद्धाः श्मश्रुकेशाः (बह.) । -बनना, क्रि. अ., मुण्ड-प-क्षुर्-खुर् ( कर्म. ) । मु., बंच्-शठ्-विप्रलम् ( कर्म . ) । - बनाना, क्रि. स. मुण्ड (भ्वा. प. से., चु. ) क्षुरेण कृT ( तु.प.से.)-छिंदू (रु. प. अ.), क्षुर-खुर् (तु. प. से. ) । मु., धनं हृ ( भ्वा. प. अ. ) २. तड् ( चु. ) । हज़ार, वि. तथा सं. पुं. ( का . ) दे. 'सहस्र' । क्रि. वि., सहस्र- बहु-असंख्य, वारम् । हज़ारा, (फ़ा. ) सहस्रदलं ( पुष्पं ) २. धारायंत्र, दे. 'फौवारा' । हज़ारी, सं. पुं. (फ़ा. ) सहस्रिन्, सहस्रयोधा ध्यक्षः । दस--, सं. पुं., दशसहस्रिन् । पंच, सं. पुं., पंचसहस्रिन् । - बाजारी, सं. पुं., उच्चनीच विविध सधनाधन, जनाः । हज्जाम, सं. पुं. ( अ. ) नापित:, 'दे. 'नाई' । हट, सं. स्त्री. दे. 'हठ' । हटना, क्रि. अ. (सं. घट्टनं> ) स्थानान्तरं या For Private And Personal Use Only Page #694 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir हटनेवाला [ ६६ ] , या इ ( अ. प. अ. ), अपसृ ३. कर्तव्यात् विमखीभू, कर्तव्यं त्यज् (भ्वा. प. अ. ) ४. दूरीभू, नेत्रागोचर (वि.) जन् (दि. आ. से.) ४. स्थगित ( वि . ) जन्, व्याक्षिप ( कर्म. ) ५. नश् ( दि. प. वे.), शम् ( दि. प. से. ) ६. विचलित (वि.) भू, प्रतिज्ञाभंगं कृ । सं. पुं. तथा भाव, स्थानान्तरगमनं, अप, सरणंसृतिः (स्त्री.), कर्तव्यत्यागः, व्याक्षेपः, विलंब:, शमनं नाश:, ( संकटादि का ), विचलनं, प्रतिज्ञाभंगः | ( अ. प. अ. ), सृ ( भ्वा. प. अ. ) २. अप | हठात् अव्य. (सं.) दुराग्रहेण, सनिर्बंध २. बलात्, सरभसं ३. अवश्यम् । हठी, वि. ( सं . हठिन ) दे. 'हठीला' | हठीला, वि. ( सं . हठ: > ) दुराग्रहिन्, प्रति निविष्ट, निर्बंधपर २. दृढप्रतिज्ञ, सत्यसंकल्प हड़, सं. स्त्री. ( सं . हरीतकी) अभया, अमृता, पथ्या, श्रेयसी, शिवा, रसायनफला, प्राणदा, देवी, दिव्या । हड़क, सं. स्त्री. (अनु. ) उत्कटेच्छा, तीव्राभि लाषः । हटनेवाला, सं. पुं., स्थानान्तरगामिन, अपयात, अपसर्तु, कर्तव्यविमुख, शमनोन्मुखः, प्रतिज्ञाविरोधिन् । पीछे न हटना, मु., पराङ्मुख (वि.) न जनू, सज्ज (वि.) स्था ( वा. प. अ. ) । हटवाना, क्रि. प्रे., ब. 'हटाना' के प्रे. रूप । हटाना, क्रि. स. (हिं. हटना ) स्थानान्तरं नी ( भ्वा. प. अ. ), अप-, सृ ( प्रे.) २. दूरीकृ, अपनी ३. पलायू (प्रे.) ४. प्रतिज्ञाभंगं कृ ( प्र . ) । सं. पुं. तथा भाव, स्थानान्तरे नयनं, अपसारणं, अपनयनं इ. । हटा हुआ, वि., स्थानान्तरगत, अप-यात- इतगत-सृत, दूरीभूत कर्तव्यविमुखीभूत, शांत, नष्ट विचलित । हट्ट, सं. पुं. (सं.) आपणः, निगमः, पण्यभूमि: ( स्त्री. ) वीथिका, क्रयविक्रयस्थानं २. पण्यशाला, दे. 'दुकान' । हट्टा-कट्टा, वि. (सं. हृष्ट + अनु. ) हृष्ट-पुष्ट, मांसल, दृढांग, प्र-महा, बल, महा-स्थूल, कार्य । हट्टी, सं. स्त्री. (सं.) क्षुद्र, आपण निगम: २. पण्यशाला (दे. 'हट्ट' ) । हठ, सं. स्त्री. पुं. (सं.) बलात्कार:, रभसः २. दुराग्रहः, निर्बंधः, प्रतिनिवेशः ३. दृढप्रतिज्ञा-संकल्पः ४. अवश्यंभाविता, अनिवार्यता । -करना, क्रि. अ., दुराग्रहं कृ, प्रतिनिविष्ट (वि.) वृत् (भ्वा. आ. से. ) । | - धर्मी, सं. स्त्री. ( सं . हठधर्म:) हठः, दुराग्रहः २. विचारसंकीर्णता, दे. 'कट्टरपन' । वि., दुराग्रहिन्, प्रतिनिविष्ट, निर्बंधपर । -योग, सं. पुं. ( सं . ) योगभेदः, हठ विद्या । - योगी, सं. पुं. (सं. गिन् ) हठयोगाभ्यासिन् । हड़काया, वि. ( देश. हड़काना ) उन्मत्त, वातुल ( प्रायः कुत्तों के लिए ) २. अत्युत्सुक, अतीच्छुक । हड़गोला, सं. पुं. (हिं. हाड़ + गिलना ? ) *हड्डगिलः, खगभेदः । हड़ताल, सं. स्त्री. (सं. हट्टः+ताल: ) *हट्टतालं, (विरोधादिप्रकाशनार्थ) संभूय व्यवसायकर्म- त्यागः । करना, क्रि. अ. संभूय व्यवसाय त्यज् (भ्वा. प. अ.), हट्ट तालं कृ । हड़प, वि. (अनु. ) निगीर्ण, जठरक्षिप्त, ग्रसित २. कपटापहृत । करना, मु., दे. 'हड़पना' (२) । हड़पना, क्रि. स. (अनु. हड़प ) आस्ये निक्षिप् ( तु. प. अ. ), निगृ ( तु. प. से.), ग्रस् (भ्वा. आ. से. ), सत्वरं भक्ष ( चु.) २. कप -- टेन अप (भ्वा. प. अ. ), अन्यायेन आदा (जु. आ. अ.) । हड़बड़ाना, क्रि. अ. ( अनु. हड़ + बड़ ) त्वर् (भ्वा. आ. से. ), ससंभ्रमं विधा (जु.उ.अ.), आतुर, आकुल (वि.) जन् ( दि. आ. से. ) । हड़बड़िया, वि. (हिं. हड़बड़ी ) त्वरित तूर्ण - क्षिप्र अशु, कारिन, त्वराकुल । हड़बड़ी, सं. स्त्री. (अनु. ) त्वरा, तूर्णि: (स्त्री.), रमसः सं, क्षिप्रता, शीघ्रता, २. संभ्रमः, त्वरा - आतुरता-आकुलता । हड़हड़ाना, क्रि. स. (अनु. हड़ + हड़ ) वर् (प्रे.), त्वरितुं प्रवृत् (प्रे.) । क्रि. अ., कप्वे (भ्वा. आ. से. ) २. सशब्दं चलू (भ्वा. प. से. ) । हड्डा, सं. पुं. ( सं . इडाचिका) वरटा, दे. 'भिड़' । हड्डी, सं. स्त्री. (सं. हड्ड ) अस्थि (न.) आदिकं, कुल्यं. कीकसं, मेदोभवं, मज्जाकरं, For Private And Personal Use Only Page #695 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir हत [ ६७ ] हथेली - विड्ड, कर्करः, श्वदयितं (प्राय: बहु.) २. वंशः | करना, क्रि. स., हन् ( अ. प. अ. तथा प्रे. कुलम् । घातर्यात ), व्यापद् ( प्रे. ), दे. 'मारना' । हत्यारा, सं. पुं. ( सं . हत्याकारः ) घातकः, मारकः, वधकारिन, हंतु, हनः, प्राणहरः । हत्यारी, सं. स्त्री. (हिं. हत्यारा ) प्राण, हरीहारिणी, वधकारिणी, घातिका २. हत्या, पापं - अपराध:-दोषः पातकम् । हथ, सं. पुं. ( सं. हस्तः ) करः, पाणिः I कंडा, सं. पुं. ( सं. हस्तकांड:-डं> ) हस्तaraj, करकौशलं, इन्द्रजालं २. गुप्तचेष्टा, प्रच्छन्न, -प्रयोग: प्रयुक्तिः (स्त्री.), प्रतारणा, छल:-लम् । कड़ी, सं. स्त्री. (सं. हस्तकटक:-कं>) हस्त,पाश:-निगडः, करबंधनी । कड़ी लगाना, क्रि. स., पाणिपाशेन बंध ( क्र. प. अ. ) -संयम् (प्रे. ) । - छुट, वि., ताडनशील । - लेना, सं. पुं., पाणि-कर, पीडनं, पाणिग्रहणम् । - सार, सं. स्त्री. गज- हरित, शाला, दे. 'फीलखाना । हथनाल, सं. स्त्री. (हिं. ) *हस्तिनालम्, गजनेयशतघ्नी । हड्डियाँ गढ़ना या तोड़ना, मु., परुषं तड़ ( चु. ) । हड्डियाँ निकल आना, मु., अतिकृश- अतिक्षीण अस्थिशेष (वि.) जन् ( दि. आ. से. ) । हत, बि. (सं.) प्रमापित, निषूदित, नि-, हिंसित, निहत, क्षणित, निर्वापित, विशसित, मारित, प्रति-, घातित, प्रमथित, आलंभित, पिंजित, वधित, व्यापादित, पंचत्वं- परलोक, - गमित-नीत प्रेषित २. ताडित, प्रहृत, आहत, ३. रहित, विहीन ( उ. श्रीहत ) ४. नाशित, नष्ट, ध्वस्त, ध्वंसित ५ पीडित, ग्रस्त ६. निकृष्ट, उपयोगानर्ह ७. गुणित ( गणित ) ८. व्यथित, अर्दित । - प्रभ, वि. ( सं . ) निष्प्रभ, कान्तिहीन | बुद्धि, वि. (सं.) मूर्ख, निर्बुद्धि | - भागी, वि. (सं.-गिन् ) हत-मंद, भाग्य, दुर्दैव । वीर्य, वि. (सं.) निर्बल, अशक्त । - हृदय, वि. ( सं . ) हताश, भग्न, चित्तहृदय उत्साह | हतक, सं. स्त्री. ( अ. हतक = फाड़ना) अपमानः, निरादर : तिरस्कारः, अवज्ञा, मानहानिः (स्त्री.) । — इज्ज़ती, सं. स्त्री. ( अ. हतक + इज्जत > ) मानहानिः (स्त्री.), अवधीरणा । — करना, क्रि. स. ( संमुखं-खे ) अप-अवमन् (प्रे.), अवज्ञा (क्र. प. अ. ), तिरस्कृ | हताश, वि. (सं.) निराश, त्यक्ताश, आशा,अतीत-हीन- रहित, निरपेक्ष । हताहत, वि. (सं.) मृतक्षत, प्रेतव्रणित, क्षतमृत व्रणितप्रेत । हतोत्साह, वि. ( सं . ) निर्भग्न उत्साह, मनोहत, भग्नोद्यम, विषण्ण, अवसन्न, खिन्न, प्रति, बद्ध-हत, स्खलितधैर्य । हत्था, सं. पुं. ) ( सं . हस्तः > ) मुष्टि: (स्त्री.), हत्थी, सं.स्त्री. J वारंग, दंड: । हत्या, सं. स्त्री. (सं.) हननं, वधः, घातः, सूदनं हिंसनं, हिंसा, मारणम् । ४२ हथ (थ) नी, सं. स्त्री. ( सं . हस्तिनी) करिणी, करेणु:-: (दोनों स्त्री.), इभी, मातंगी, गजयोषित, क-, रेणुका, व (वा) सा, कचा, कटंभरा । हथिया, सं. पुं. ( सं. हस्ता ) हस्तः, त्रयोदश नक्षत्रम् | हथियाना, क्रि. स. (हिं. हाथ ) बलात् ग्रहू ( क्रू. प. से. ) - (चु. ) - आदा (जु. आ. अ.) २. चुर् (चु.), मुष (क्र. प. से.) ३. कपटेन स्वायत्तीकृ । हथियार, सं. पुं. (हिं. हथियाना ) अस्त्रं, शस्त्रं, आयुधं, हेति: ( पुं. स्त्री. ), हत्तुः २. उपकरणं, यंत्र, दे. 'औज़ार' । बंद, वि., सशस्त्र, सायुध, सन्नद्ध, सज्ज - बाँधना, मु., शस्त्रास्त्राणि धृ ( चु.), सन्नह् ( दि. प. अ. ), सज्जीभू । हथेली, सं. स्त्री. ( सं . हस्ततलं ) करतल:, तल:-लं, प्रतलः, ताल, प्रपाणिः प्रहस्तः, फफेरीकः । For Private And Personal Use Only Page #696 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir हथौड़ा [६५८] --खुजलाना, मु., वित्तलाभ: संभाव्यते। -जोली, सं. पु. (फ्रा.+हिं.) सहचरः, सखि -पर सिर रखना, मु., जीवनमोहं त्यज् | (पु.)। (भ्वा. प. अ.), प्राणान् अवगण (चु.)। --दर्द, सं. पुं. (फा.) समदुःखः, समवेदनः, -में आना, मु., स्वाधिकार आया (अ.प.अ.)। | सहानुभूति, मत्-युक्तः, सानुकंपः । हथौड़ा, सं.पु. (हिं. हाथ ) महा, धनः-विधनः। -दर्दी, सं.स्त्री., सहानुभूतिः (स्त्री.), अनुकंपा, हथौड़ी, सं. स्त्री. (हिं. हथौड़ा) वि.,धनः, | समवेदना। द्रुघणः, अयोधनः। -निवाला, सं. पु. ( फा. ) सह, भोक्तृ (पुं.) हथ्यार, सं. पुं., दे. 'हथियार'। भोजकः। हद, सं. स्त्री. ( अ.) सीमा, दे.। -प्याला, सं. पुं. (मा.) सहपायिन् । -करना, मु., सीमा-मर्यादा अतिक्रम् (भ्वा. -राह, अव्य. (का.) सह, साकम् । प. से.)-उल्लंघ ( भ्वा. आ. से.)। -राही, सं. पुं. (का.) सह, चारिन्-गामिन, -से ज्यादा, मु., असीम, निःसीम, अमित, I मित्रम् ।। अपरिमित । -वतन, सं. पुं. (फ़ा.+अ.) सम-एक, देशीयः, हनन, सं. पुं. (सं. न.) दे. 'हत्या' २. ताडनं, । देशभ्रात। प्रहरणं ३. गुणनं, गुणाकारः, पूरणं (गणित)। -वार, वि. (फा.) सम, सम,-तल-रेख, सपाट । हननीय, वि. (सं.) हन्तव्य, वधार्ह, शीर्ष -सबक्र, सं. पुं. (का.) सहपाठिन् । च्छेद्य, वध्य । -सर, सं. पुं. (फा.) सम,-गुण:-बल:-पदः। हनु, सं. स्त्री. ( सं. पुं. स्त्री.) हनूः ( स्त्री.), -सरी, सं. स्त्री. (फा.) समता, समानता । कपोलद्वय-परमुखभागः २. चि(च-चु)बुकम्।।-साया, सं. पु. (फा.) प्रति, वासिन्-वेशिन की जकड़ाहट, सं. स्त्री., हनुग्रहः। . | वेशः। हनुमान, सं. पु. (सं. हनुमत्) मारुतिः, पवन- | हमल, सं. पुं. ( अ.) गर्भः, दे. । पुत्रः, वायुसुतः, आंजन: नेयः, कपीन्द्रः। हमला, सं. पुं. (अ.) युद्धयात्रा, यानं हप, सं. पुं. (अनु.) त्वरितनिगरणात्मको हपिति २. अवस्कंदः, आक्रमः, आक्रमणं दे. ३. प्रहारः शब्दः। ४. क्रूरव्यंग्यम् । -कर जाना, मु., सत्वरं निग (तु. प. से.)। -आवर, ( हमलावर ) वि. पु., आक्रामक, हफ़्ता , सं. पुं. (फा.) सप्ताहः, दे। आक्रमण, कारिन्-कर्तृ-कारः, अवस्कन्दकृत । हबर दबर, क्रि. वि. ( अनु. हड़ बड़ ) शीघ्र, | हमाक़त, सं. स्त्री. (अ.) मूढ़ता, अज्ञता, सत्वरं, ससंभ्रमम् । मूर्खता, मूर्खत्वं, मौय॑म् । हबशी, सं. पुं. (अ.) हब्शीयः, हब्शदेश- हमाम, सं. पुं. (अ. हम्माम ) स्नानागारम् । वासिन् २. कृष्णांगः, कुरूपः। हमारा, सर्व, (हिं. हम ) अस्माकं, अस्मदीयःहब्बा डब्बा, सं. पुं. (हिं. हाँफ+ अनु. डब्बा) या यं ( पुं. स्त्री. न.)। शिशूनां श्वासरोगभेदः, श्वसनकः। हमाहमी, सं. स्त्री. ( हिं. हम ) स्वार्थः, स्वार्थ. हब्स, सं. पुं. (अ.) कारावासः। परता २. अहमनिका, अहमहमिका । -बेजा, सं. पुं. (अ.+फा.) अन्याय्यकारा- | हमें, सर्व. (हिं. हम ) अस्मान् , नः २. अस्मवासः। भ्यं, नः। हम', सर्व. ( सं. अहम् >) वयम् ( बहु.)। हमेल, सं. स्त्री. (अ. हमायल) *टंक-मुद्रा,सं. पुं., अहंकारः। माला। हमर, अन्य. (फ़ा.) सह, साकं २. सम, तुल्य। हमेशा, अव्य. (फा.) सदा, नित्यम् । -असर, सं. पुं. (फा.+अ.) एक-सम,- हय, सं. पुं. (सं.) अश्वः, घोटकः (हया स्त्री.) । कालीन-कालं, सह, वर्तिन-जीविन् । | -ग्रीव, सं. पुं. (सं.) विष्णोः अवतारविशेषः -जिंस, सं. पुं. (का.) सजात-तीय, सवर्ग- २. वेदहारी राक्षसविशेषः । गीय। हया, सं. स्त्री. ( अ.) लज्जा, त्रपा। For Private And Personal Use Only Page #697 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra हयात www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [ ६५ ] -दार, वि. ( अ. +फा. ) लज्जाशील । बे, वि. ( फ्रा. + अ . ) निर्लज्ज । बेहयाई, सं. स्त्री. निर्लज्जता । हयात, सं. स्त्री. ( अ ) जीवनं प्राणधारणम् । हर), सं. पुं. ( सं .) शिवः, महादेवः २. अग्निः ३. भाजकः, छेदः, हार : ( गणित ) । वि. ( सं . ) हारक, मोपक २. नाशक, अंतक ३. मारक, घातक ४. वाहक, प्रापक - गिरि, सं. पुं. ( सं . ) कैलासः । -द्वार, सं. पुं., दे. 'हरिद्वार' | - भजन, सं. पुं. ( सं . न . ) हरजप:, ईशभक्तिः (स्त्री.) । हर र वि. ( फा . ) प्रति, अनु, सर्व, दे. 'प्रति' । -एक, वि. तथा क्रि. वि., दे. 'प्रत्येक' । - कोई, सर्व, सर्वः, सर्वे ( बहु . ) सर्वजन: । -- गिज़, अव्य. (फ़ा. ) कदापि कदाचिदपि । चंद, अव्य. ( फ्रा.) बहु- अनेक, वारं २. यद्यपि । -- जाई, सं. पुं. ( फा . ) गेह- गृह, शून्य-हीन २. स्वेच्छाचारिन्, यथेच्छविहारिन् । " - दम, क्रि. वि. प्रति क्षणं- पलं, सदा । - बार, क्रि. वि., प्रति, वारं-अवसरम् । -रोज़, क्रि. वि., प्रति-अनु, दिनं-दिवसम् । - वक्त, क्रि. वि., सदा सर्वदा, नित्यम् । - हाल में, मु., सर्वदशासु, अखिलावस्थासु । हरकत, सं. स्त्री. (अ. ) गतिः (स्त्री.), चलनं, स्पंदः २. क्रिया, चेष्टा, व्यापारः ३. कुकृत्यं, कुचेष्टा । करना, क्रि. अ., चल (भ्वा. प. से.), स्पंद्चेष्ट (भ्वा. आ. से. ), सृ ( भ्वा. प. अ. ) २. कुचेष्टां कृ, कुत्सितं चेष्ट् । हरकारा, सं. पुं. ( फा . ) संदेश- वार्ता, - हर: . २. पत्रवाहकः, दे. 'डाकिया' । हरज-जा, सं. पुं., दे. 'हर्ज' २. दे. 'हरजाना' | हरजाना, सं. पुं. ( फा . ) हानि-क्षति - पूरणंपूर्ति: - निष्कृति: ( दोनों स्त्री . ) २. क्षतिपूरक हरामज़दगी चोरणं, मोषणं २. नाशनं, ध्वंसनं, अपसारणं ३. वहनं, नयनं, प्रापणम् । हरताल, सं. स्त्री. (सं. हरितालं) पिंजरं, पिंगं, पीतकं, नट, -मंडनं भूषणं, तालं -लकं, गौरीललितं, वर्णकं, रोमहृत् (न.) चित्रगंध, गोदंतम् । द्रव्यम् । - देना, क्रि. स., निष्कृतिं दा, क्षतिं पूर् (चु.) । हरण, सं.पुं. (सं. न.) अप, हरणं- हारः, सहसा,आकलनं- आच्छेदः, आकस्मिक, ग्रहणं धारणं, - लगाना, मु., नश (प्र. ) । हरन - ना, सं. पुं., दे. 'हिरन' । हरना, क्रि. स. ( सं . हरणं ) अप-हृ (भ्वा. प. अ.), चुर्-स्तेन् ( चु.), मुष् (क्रू. प. से.), २. आच्छिद् ( रु. प. अ.), आक्रम्य ग्रह ( क्. प. से. ) धृ ( चु.) आकल् (चु.), लुंद-ठू (भ्वा. प. से., चु. ) ३. दूरीकृ, अपसृ (प्रे. ) ४. नश-ध्वंस् (प्रे. ) ५. नी-वहू ( भ्वा. प. अ.) । सं. पुं. तथा भाव, दे. 'हरण' सं. पुं. ( १-३ ) । हरनी, सं. स्त्री. दे. 'हिरनी' । हरने योग्य, वि. अपहरणीय- हर्तव्य-हार्य, चोरयतव्य, मोषणीय, आच्छेदनीय, लुंठनीय, अपसार्य, नाशयितव्य, नेय, वोढव्य । हरने वाला, सं. पुं., अप-, हारक:- हर्तृ, चौरः, तेनः, दस्युः, लुंटाकः, अपसारकः, नाशकः, नेतृ, वाहकः । हरनौटा, सं. पुं., दे. 'हिरनौट' । हरफ़, सं. पुं. (अ.) अक्षरं, वर्णः । हरफारेवड़ी, सं. स्त्री. (सं. हरिपर्वरी ) लवली, सुगन्धमूला, कोमलवल्कला । हरबा, सं. पुं. (अ.) आयुधं, अस्त्रं, शस्त्रं, हेति: (पुं. स्त्री. ), हत्नुः । हरबोंग, वि. (सं. हलं + देश. बोंग = लठ ) अशिष्ट, असभ्य, ग्राम्य, उद्धत, वियात २. मूर्ख, निर्बुद्धि:, जड, मूढ । सं.पुं., कुशासनं, अनीतिः (स्त्री.), विप्लवः । हरम, सं. पुं. (अ.) अंतःपुरं, शुद्धांतः, अवरोधः, पराविद्धः । सं. स्त्री. (अ.) पत्नी, भार्या २. दासी ३. उपपत्नी । सं. स्त्री. ( अ. + फ़ा. ) दे. -सरा, - सराय, J 'हरम' (सं. पुं.)। हरामज़दगी, सं. स्त्री. ( फा . हरामजादह् ) दौरात्म्यं दौर्जन्यं, दुष्टता, खलता, कुचेष्टा, पापम् । , For Private And Personal Use Only Page #698 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir हरसिंगार [ ६६०] हरिद्रा. हरसिंगार, सं. पुं. ( सं. हारशृङ्गारः) पारि- | हरास, सं. पुं. (फा. हिरास ) भयं, त्रासः २. जातः-तकः, प्राजक्तः, रागपुष्पी, खरपत्रकः। । आशंका ३. विषादः ४. नैराश्य, निराशता। हरा, वि. (सं. हरित ) हरित, प(पा)लाश हरा हुआ, वि., अप-,हृत, चोरित, स्तेनित, २. प्रसन्न, प्रहृष्ट,प्रफुल्ल ३. अभि,नव, प्रत्यग्र, | मुषित, मुष्ट, २. आच्छिन्न, सहसा आकलित४. आम, अपक्व, अपरिणत ५. (व्रणादि) गृहीत-धृत ३. दूरीकृत, अपसारित ४. नाशित. अविरोपित, अशुष्क । सं. पुं., हरितः, पलाश- | ध्वंसित ५. नीत, ऊढ । हरिद् ,वर्णः। हरि, सं. पुं. (सं.) श्री,कर:-धरः-निवासः। -पन, सं. पुं., हरितत्वं, पलाशत्वं २. अपरि- पतिः-वत्सः, विष्णुः दे. २. इन्द्रः ३. अश्वः णतिः (स्त्री.), अपक्वता ३. नवता, प्रत्यग्रता।। ४. कपिः ५. सिंहः ६. सूर्यः ७. चन्द्रः -बाग़, मु., आपातरमणीया वार्ता । ८. मंडूकः ९. सर्पः १०. अग्निः ११. मयूरः -भरा, मु., सरस, शोषरहित, हरिततरुल- १२. श्रीकृष्णः १३. श्रीरामः १४. शिवः तामिः आच्छादित (वि.)। १५. यमः। वि. (सं.) (१.२) पिंगलहराना, क्रि. स. (हिं. हारना) अभि-परि- हरित, वर्ण। परा,-भ (भ्वा. प. से.), जि ( भ्वा. प. अ.) -कथा, सं. स्त्री. (सं.) भगवच्चरितवर्णनम् । वि-परा-जि (भ्वा. आ. अ.), दम् (प्रे.) -कीर्तन, सं. पुं. (सं. न.) भगवद्गुणगानम् । २. ( शत्रं ) विफली-मोघी ३. क्लम्-श्रम-|-गीतिका, सं. स्त्री. (सं.) हारगाता, छदाखिद्-आयस् ( सब प्रे.)। भेदः। प्राण-, मु., मृ (प्रे.), हन् ( अ. प. अ.)। -चंदन, सं. पुं. (सं. पुं. न.) तैलपणिक, मन-, मु., मनः चेतः हृ (भ्वा. प. अ.), गोशीर्ष ( चंदनभेदः) २. स्वर्गस्थवृक्षविशेषः मुह (प्रे.)। ३. पमपरागः ४. कुंकुम ५. चन्द्रिका । हराम, वि. (अ.) अधर्म्य, अन्याय्य, अवैध, -चाप, सं. पुं. (सं.) इन्द्र-हरि, धनुस (न.)। न्याय-धर्म-नियम-विधि, विरुद्ध, निषिद्ध,दूषित। -जन, सं. पुं. (सं.) भगवद्भक्तः, ईशसेवकः । सं. पुं., शूकरः २. अधर्मः पादोष -ताल, सं. पुं. (सं. न.) दे. 'हरताल'। ३. व्यभिचारः, जारकर्मन् (न.)। -द्वार, सं. पुं. (सं. न.) प्रख्याततीर्थविशेषः, -कार, सं. पुं. (अ.+फा.) व्यभिचारिन् , गंगाद्वारम् । औपस्थिकः २. पापः, पापाचारिन्। -धाम, सं. पु. [सं.-मन् (न.)] विष्णुलोकः, वैकुंठं, हरि, पदं-पुरम् । -कारी, सं.स्त्री., पापं, अधर्मः २. व्यभिचारः, -भक्त. सं. पं. (दे.) 'हरिजन' । जारकर्मन् (न.)। -भक्ति, सं. स्त्री. (सं.) हरि, भजन-प्रेमन -खोर, सं. पुं. (अ. +फा.) पापाजीविन , (पु.न.)-सेवनम् । पापभक्षिन् २. परपिंडादः, परान्नपुष्टः ३.| -वंश, सं. पुं.(सं.) श्रीकृष्णसंतानः २. पुराअलसः, उद्योगविमुखः। णग्रंथविशेषः। . -खोरी, सं. स्त्री., पाप,-आजीवः-आजीवनं | -वाहन, सं. पुं. (सं.) गरुडः २. सूर्य: २. परान्नभोजनं ३. आलस्य, उद्योगविमुखता।। ३. इन्द्रः। -जादा, सं. पुं. (अ.+फा.) जार,-ज-जात- हरिण, सं. पुं. (सं.) मृगः, कुरंगः। उत्पन्न, विजात (जारजा स्त्री.) २. दुष्ट, खल, | -कलंक, सं. पुं. (सं.) मृगांकः, चन्द्रः। पापिन् ( गाली)। -नयना, सं. स्त्रो., मृग-हरिण- नयनी-नेत्रा.. हरामी, वि., दे. 'हरामजादा' (१-२)। नेत्री-अक्षी। हरारत, सं. स्त्री. (अ.) तापः, दाहः, उष्मन् । हरिणी, सं. स्त्री. (सं.) दे. 'हिरनी'। . २. मंद-ईषज्,ज्वरः, ज्वरांशः। | हरित, वि. (सं.) हरित, प(पा)लाश, हरित(द)हरावल, सं. पुं. (तु.) सेना, मुखं-अग्रं, अग्रा- वर्ण २. कपिल, पिंग, पिंगल, पिशंग। नीक, नासीरचराः (बहु.)। | हरिद्रा, सं. स्त्री. (सं.) दे. 'हल्दी'। For Private And Personal Use Only Page #699 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir हरिन [ ६६१] हलदी - हरिन, सं. पुं. (सं. हरिणः ) दे. 'हिरन'। --वाहा, सं. पुं. (संहः) हलग्राहिन, परहलहरियाला, वि. (हिं. हरा) हरित, हरिद्वर्ण | चालकः । २.शाहल। -वाही, सं. स्त्री. (हिं. हलवाहा) कृषिः (स्त्री), हरियाली, सं. स्त्री. (हिं. हरा ) हरितत्व, कर्षणम् । विस्तारः-प्रसारः, हरीतिमन् (पुं.) २. तरु- हल', सं. पुं. (अ.) विवरणं, व्याख्यानं, साधनं लता, समूहः-विस्तारः, शादः, शादलता। २. निर्णयः, समाधानं, समाधिः ३. गणनं, हरिश्चन्द्र, सं. पुं. (सं.) त्रिशंकुजः, त्रेतायुगे | संख्यानं ४. द्रावणं, विलयनम् । नृपविशेषः । -करना, क्रि. स., विवृ (स्वा. उ. से.), हरि(री)स, सं. स्त्री. (सं. हलीषा) हल-लांगल, व्याख्या (अ. प. अ.), विशदयति (ना. धा.), दंडः। स्पष्टीकृ, उत्तरं दा २. विद्रु-विली (प्रे.), हरीतकी, सं. स्त्री. (सं.) दे. 'हड़' । द्रवीकृ। हरीफ़, सं. पुं. (अ.) शत्रु: २. प्रति, इन्दिन्- हलक, सं. पुं. (अ.) कंठः, गलः, निगरणः । स्पद्धिन् । हलका', सं. पुं. (अ.) वृत्तं, वर्तुलं, मंडलं हरीश, सं. पु. (सं.) वानरेन्द्रः २. सुग्रीवः २. परिधिः ३. समूहः, निकरः ४. ग्रामादि. ३. हनुमत् । समूहः ५. चक्रवलयः-यम् । हर्ज, सं. पुं. (अ.) विघ्नः, अन्तरायः २. हानि:- हलका, वि. (सं. लघुक) लघु, अल्प-लघुक्षतिः (स्त्री.)। स्तोक, भार-तोल, सु-सुख, वाह्य २. विरल, हतो, सं. . ( सं. हर्तृ ) दे. 'हरनेवाला'। घनता-रहित ३. गाध ४. अल्प, स्तोक ५. अल्प, ह , सं. पुं., दे. 'हरफ़'। मूल्य-अर्घ ६. मंद, सह्य ७. तुच्छ, नीच, क्षुद्र हये, सं. पुं. (सं. न.) प्रासादः, राजभवनं | ८. सुकर, सुसाध्य ९. निश्चित, कृतकार्य २. विशालभवन, धनिगृहं ३. न(ना)रकः । । १०. सूक्ष्म, तनु ११. निकृष्ट, अपकृष्ट । हर्रा, सं. पुं., दे. 'हड़। -पन, सं. पुं., लघुता, लाघवं, अल्पभारता, हर्ष, सं. पुं. (सं.) पुलकः, रोमांचः दे.।। सुखवाह्यता २. क्षुद्रत्वं, तुच्छता ३. अव,-मान:२. आनंदः, प्र.,मोदः, आह्लादः, उल्लासः।। हेलना, प्रतिष्ठाऽभावः। -विषाद, सं. पुं. (सं.-दौ द्वि.) मोदखेदौ, -करना, मु., लघयति (ना. धा.), लघूक आनंदविषादौ। २. अवगण (चु.) अवमन् (प्रे.), तृणाय हर्षित, वि. (सं.) हृष्ट, हृषित, प्रीत, प्र, मन् (दि. आ. अ.)। मुदित, प्रसन्न, प्रफुल्ल, आनंदित। हलचल, (हिं हिलना+चलना ) संक्षोमः, हल , सं. पुं. (सं.) शुद्ध-स्वरहीन,-व्यंजनं, संरंभः, संभ्रमः, संकुलं, कोलाहलः २. उपद्रवः, (क् से ह तक अक्षर )। विप्लवः, संमर्दः ३. कंपः, स्पंदः। हलंत, वि. (सं.) शुव्यंजनान्त (शब्द)। -मचना, क्रि.अ., संक्षोभः संजन् (दि.आ.से.) प्रवृत् ( भ्वा. आ. से.)। हल', सं. पुं. ( सं. न.) लांगलं, हालः, हलिः, हलदिया, सं. पु. (हिं. हलदी) पाण्डु, रोगःगोदारणं, सीरः, सीरकः। आमयः, पाण्डुकः, कामला। --चलाना या जोतना, क्रि. स., हल (भ्वा. | हलदी, सं. स्त्री. (सं. हलद्दो) हरिद्रा, पीतिका, प.से.), कृष ( भ्वा. प. अ., तु. उ. अ.)। पीता, कांचनी, वर्णवती, पिंजा, वर-वर्णिनी, -जीवी, सं. . (सं.-विन् ) हालिकः, लांग- रंजनी, भद्रा, मंगला, शोभा। लिन्, कृषाणः, कृषिकः।। -उठना या चढ़ना, मु., विवाहात् प्राक, वर-धर, सं. पुं. (सं.) हल, पाणिः-भत्, । वध्वोः तैलहरिद्राभ्यंजनम् । बलदेवः। -लगा के बैठना, मु., निरुथम एकत्र स्था -मुख, सं. पुं. (सं. न.) निरीषः-घ, फाल:- | (भ्वा. प. अ.) २. दपविलिप्त (वि.) वृत् | (भ्वा. आ. से.)। For Private And Personal Use Only Page #700 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra हलफ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [ ६६२ ] -लगी न फिटकरी, मु., व्ययं विनैव । हलफ़, सं. पुं. (अ.) शपथ:, दे. 'सौगंद' | - नामा, सं. पुं. ( अ. + फ़ा. ) शपथपत्रम् । हलवा, सं. पुं. (अ.) काटाहः, संयावः, मोहनभोगः । – सोहन, सं. पुं., शोभन, संयावः काटाह:मोहनभोगः । हलवाई (य) न, सं. स्त्री. (हिं. हलवाई ) कांदविकी, मिष्टान्न विक्रेत्री (खांडिकी, खांडविकी ) २. कांदविक मिष्टान्नविक्रेतृ-खाडिक, पत्नी । हलवाई, सं. पुं. ( अ. हलवा ) खांडिकः, खांडविकः, कांदविकः, मिष्टान्नविकेट । हलाक, वि. (अ.) हत, मारित । --करना, मु., हन् ( अ. प. अ. ) । हलाकत, सं. स्त्री. (अ.) वध:, हत्या : मृत्युः ३. विनाशः । हल्ल, वि. ( अ. ) धर्म्य, न्याय्य, वैध, शारू विधि-धर्म, अनुकूल विहित, उचित । सं. पुं. (अ.) भक्ष्य, पशु:-जंतु : ( इस्लाम ) । - खोर, सं. पुं. ( अ. + फ़ा.) धर्म-पुण्य, आजीविन २. खलपूः (पुं.), संमार्जकः, दे. 'भंगी' । -खोरी, सं. स्त्री, धर्म-पुण्य, - आजीव:- आजीवनम् । — करना, मु., न्यायेन धर्मेण व्यवहृ (स्वा.प.अ.) २. शनैः शनैः हन् (अ. प. अ.) (इस्लाम) | —का, मु., शास्त्रानुकूल, वैध, धर्म्य । — की कमाई, मु., पुण्यलक्ष्मीः, न्यायोपार्जित धनम् । - हलाहल, सं. पुं. (सं. न. ) हाल (ला)हलं, हाहलं, समुद्रमंथनजो विषविशेषः २. कालकूटं, महाविषं ३. गरल :- लं, विषं दे. | इली, सं. पुं. (सं. लिनू ) बलदेवः २. कृषाणः । हलीम, वि. (अ.) नम्र, विनीत २. शान्त, शमान्वित। हवाई -करना, क्रि, अ. कोलाहलं कृ, उत्कुश (भ्वा. प. अ.) २. आक्रम् (भ्वा. प. से., भ्वा. आ. अ. ) । हवन, सं. पुं. ( सं. न. ) होम:, होत्रं, यज्ञ: दे. २. अग्निः ३. हवनी, होमकुंडम् । -करना, क्रि. स., हु ( जु. उ. अ. ), यज् (भ्वा. उ. अ. ), होमकुंडे हविः क्षिप् ( तु. प. अ. ) । हलीमी, सं. स्त्री. ( अ. हलीम ) नम्रता, विनयः २. शान्तिः (स्त्री.), प्रसादः । हरका, वि., दे. 'हलका' । हल्दी, सं. स्त्री. दे. 'हलदी' । हल्ला, सं. पुं. (अनु. ) कोलाहल:, कलकल:, तुमुलं, उत्क्रोशः, विर (रा) वः २. आक्रमः, अवस्कन्दः । . - कुंड, सं. पुं. (सं. न.) हवन-यज्ञ- होम, कुंडम् । हवलदार, सं. पुं. ( अ. हवाल: + फा. दार ) *हवालदारः, सेनाधिकारिभेदः । हवस, सं. स्त्री. (फ़ा. ) कामना, लालसा २. तृष्णा, दे. | हवा, सं. स्त्री. (अ.) मरुत, पवनः, वायु: दे। २. भूत, प्रेतः ३. ख्यातिः, प्रसिद्धि: (स्त्री.) ४ विश्वासः, प्रत्ययः ५. उत्कटेच्छा । -ख़ोरी, सं. स्त्री. ( अ + फ़ा) पर्यटनं, श्रमणं, वायुसेवनम् । — चक्की, सं. स्त्री. ( अ. + हिं. ) वायुचक्री, पवनपेषणी । -दार, वि. ( अ. + फ़ा. ) प्रवात, सुवात, पवनपूर्ण | - उखड़ना, मु.,यशः- प्रत्ययः नश् (दि.प.वे.) । - करना, मु., वीज् ( चु. ) । - खाना, मु., पर्यट् (भ्वा. प. से.), वायुं सेव् (भ्वा. आ. से. ) । - बँधना, मु., ख्यातिः कीर्तिः जनू (दि.आ.से.) । - बाँधना, मु., विकत्थ् (भ्वा. आ. से. ), आत्मानं श्लाघ् (भ्वा. आ. से. ) । - से बातें करना, मु., अतिवेगेन धावू (भ्वा.प.से.) । - से लड़ना, मु., नित्यं कलहोद्यत (वि.) वृत् भ्वा. आ. से. ) । 1 - हो जाना, मु., सत्वरं पलाय (भ्वा. आ. से.) २. तिरोभू, विली ( कर्म. ) | हवाई, वि. ( अ. हवा ) वायव ( -वी स्त्री. ). वायव्य-वायवीय ( -या स्त्री. ) २. नभःस्थ, गगन, गामिन् चारिन् ३. निर्मूल, निराधार । सं. स्त्री, *वायवी, अग्निक्रीडनकभेदः । –अड्डा, सं. पुं., विमान, वायुयान, स्थानंनिवेश: । For Private And Personal Use Only Page #701 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir हवाल [ ६६३) - -किला, महल, सं. पुं., खपुष्पं, गगन--क्षेप, सं. पुं. (सं.) प्रति, बंधन-रोधनं कुसुमम् । २. परकायें,-चर्चा-प्रतिघातः । -चक्की, सं. स्त्री., दे. 'हवाचकी'। -क्षेप करना, क्रि. स., परकार्येषु व्याप -जहाज, सं. पं. (हिं.+अ.) वायु.व्योम- (त. आ. अ. ). परकार्याणि चर्च (तप से। यानं, विमानः-नं, पवनपोतः । निरूप् (चु.)। हवाल, सं. पुं. ( अ. अहवाल ) दशा, अवस्था —ात, वि.(सं.)प्राप्त, लब्ध, अधिगत, हस्तस्थ । २. परिणामः, गतिः (स्त्री.)३.वृत्त, समाचारः। -तल, सं. पु. (सं.न.) करतलः, दे. 'हथेली' । हवाला, सं. पुं. (अ.) उल्लेखः, निर्देशः, संकेतः -त्राण, सं. पुं. (सं. न.) करत्राणं दे. २. उदाहरणं, दृष्टान्तः ३. रक्षा, रक्षणं, 'दस्ताना'। अधिकारः। -पृष्ठ, सं. पुं. (सं. न.) कर-पाणि,-पृष्ठम् । -देना, क्रि. स., निर्दिश् (तु. प. अ.),उल्लिख -मैथुन, सं. पुं. ( सं. न.) हस्तेन शुक्रपातनं(तु. प. से.)। इन्द्रियसंचालनम् । -करना, मु., दे. 'सौंपना'। -रेखा, सं, स्त्री. ( सं.) करतल,रेखा-रेषा । हवालात, सं. पुं. स्त्री. (अ.) गुप्तिः ( स्त्री.), -लाधव, सं. पुं. (सं. न.) हस्त, कौशलनिरोधः २. *गुप्तिगृहम् । चापल्यम्। -करना, मु. गुप्तिगृहे निरुधू ( रु. प. अ.)। -लिखित, वि. (सं.) हस्तेन लिपिबद्ध । हवास, सं. पुं. (अ.) इन्द्रियाणि-हृषीकाणि -लिपि, सं. स्त्री. (सं.) लेखनशैली । (न. बहु.) २, उपलब्धिः ( स्त्री.), संवेदनं -सूत्र, सं. पुं. (सं.न.) मंगल्यं करसूत्रं, सूत्र३. संज्ञा, चैतन्यं, दे. 'होश' । मयं, कंकणे-वलयम् । हवि, सं. पुं. [सं. हविस् (न.)] हवनसामग्री, -हस्ति , सं. पुं. (सं.तिन् ) दे. 'हाथी' । हव्यं, सान्नाय्यं, हवनीयं, होमीयद्रव्यम् । हस्तिनी. सं. स्त्री. (सं.) दे. 'हथनी' २. स्त्री. हवेली, सं. स्त्री. (अ.) हम्य, भवन, धनिगृहं | भेदः ( कामशास्त्र)। २. पत्नी । हस्ती ', सं. पुं., दे. 'हाथी'। हन्य, सं. पु. ( सं. न. ) दे. 'हवि' । हस्ती२, सं. स्त्री. (का.) सत्ता, अस्तित्वम् । हशमत, सं. स्त्री. (अ.) गौरवं, महिमन् | हस्ते, अव्य. (सं.) द्वारा, द्वारण। २. विभवः, ऐश्वर्यम् । हहा, सं. स्त्री. ( अनु.) अट्ट, हास्य-हासः हसितं, हसद, सं. पु. ( अ.) ईर्ष्या, मत्सरः।। हहाकारः, हीही (अव्य.), हास्यध्वनिः हसब, अव्य. (अ.)-अनुसार, यथा-। २. दैन्यसूचकध्वनिः, अयि ( अव्य.), हहा. -तौफीक, अव्य. (अ.) सामर्थ्यानुसारं.। कृतिः ( स्त्री.) ३. अनुनयातिशयः, सप्रणियथाशक्ति ( दोनों अव्य.)। पातं प्रार्थनम् । हसरत, सं. स्त्री. (अ.) शोकः, आधिः, दुःखम् ।। -खाना, मु., पादयोः पतित्वा अनुनी ( भ्वा. हसीन, वि. (अ.) सुन्दर, सुरूप। प. अ.)-प्रार्थ (चु. आ. से.)। हस्त, सं. पुं. (सं.) करः, पाणिः, दे. 'हाथ' । हाँ, अन्य. ( सं. आम् ) ओम्, एवं, अथ किं २. चतुर्विशत्यंगुलिपरिमाण ३. हस्तलिपिः २. तथेति, बाढं, साधु (सब अव्य.) ३. तथापि (स्त्री.), लेखनशैली ४. नक्षत्रविशेषः ५.शुंडा, | -हाँ, अव्य., आमाम्, ओमोम् २. न न, -कार्य, सं. पुं. (सं. न.) करकर्मन् ( न.) | मा मा, न, नहि, नो। २. हस्तशिल्पं, दे. 'दस्तकारी' । -करना, मु., अंगी-स्वी,क, अनुज्ञा (क्. उ. -कौशलं, सं. पुं. (स. न.) पाणिपाटवं,हस्त-, अ.), अनुमन् (दि. आ. अ.)। लाघवं-चापल्यम् । -जी हाँ जी करना, मु., चाटुभिः प्रसद् -क्रिया, सं. स्त्री. (सं.) दे. 'हस्तकार्य(१-२)।। (प्रे.)-उपच्छंद (चु.)-स्तु ( अ. प. अ.)। शहाँ। For Private And Personal Use Only Page #702 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir हाँक [६६४] हाजी –में हाँ मिलाना, मु., अविचार्यैव द्रढयति- । हाईकोर्ट, सं. पुं. (अं.) प्रधानन्यायालयः, सत्यापयति (ना. था. ) २. दे. 'हाँ जी हाँ उच्चाधिकरणम् । जी करना'। | हाई-स्कूल, सं. पुं. ( अं.) उच्च-,विद्यालयः । हॉक, सं. स्त्री. ( सं. हुंकारः) हुंकृतिः ( स्त्री.), | हाउस, सं. पु. ( अं.) गृहं, गेहः-हं, अ(आ) आकारणं-णा, उच्चैराहानं, तारस्वरेण संबोधनं | गार:-रम् २. सभा, परिषद् ३. नृपवंशः । २. गर्जन-ना, युद्धाह्वानं, सिंहनादः, श्वेडा. | हाऊ, सं. पुं. (अनु.) दे. 'हौवा' । समरार्थमाकारणं-णा ३.प्रोत्साहन- शब्दः-ध्वनिः हाकिम, सं. पुं. (अ.) शासकः, शासित, ४. रक्षार्थ-सहायतार्थ,आह्वानं-आकारणम् । । अधिकारिन्, नियोगिन्, आधिकारिकः । -पुकार, सं. स्त्री., कोलाहलः, उत्क्रोशः। हाकिमी, सं. स्त्री. (अ. हाकिम ) शासनं, -देना या लगाना, मु., उच्चैः आकृ (प्रे.), अधिकारः, प्रभुत्वं, आधिपत्यं, शिष्टिः (स्त्री.), तारस्वरेण आह्वे (भ्वा. प. अ.), शब्दायते राज्यम् । (ना. धा.)। हॉकी, सं. स्त्री. ( अं.) आंगलक्रीडाभेदः । होकना, क्रि. स. (हिं. हाँक ) दे. 'हाँक देना | हाजत, सं. स्त्री. ( अ.) आवश्यकता, अपेक्षा २. सिंहनादं कृ, युद्धाय आकृ (प्रे.) ३. वि. २. कामना, लालसा ३. मल-मूत्र, उत्सिसक्षा कत्थ् (भ्वा. आ. से.), आत्मानं श्लाघ् ४. गुप्तिः ( स्त्री.), दे. 'हवालात' (१)। (भ्वा. आ. से.) ४. नुद्-प्रणुद् (तु. प. अ., | हाज़मा, सं. पुं. (अ.) पचनं, वि-परि-,पाकः, प्रे.) प्रेर् (प्रे.), चर्-चल (प्रे.), चुद् (चु.), पक्तिः (स्त्री.) २. जठर, अग्नि:-अनलः, अज् (भ्वा. प. से.) ५. अपस-निष्कस् (प्रे.) पाचनशक्तिः (स्त्री.)। ६. वीज् (चु.)। सं. पुं. तथा भाव, दे. 'हाँक -बिगड़ना, मु., अग्निमांचं जन् (दि. आ. (१-२) ३. विकत्थनं, आत्मश्लाघन-घा ४ से.), अन्नं न पच ( कम.)। प्रणोदनं, प्रेरणं, प्रचोदनं, प्रचालनं, प्राजनं हाज़िम, वि. (अ.) पाचक, पाचन, अग्नि५. अपसारणं, निष्कासनं ६. वीजनम् । वर्द्धक। हाँकनेवाला, सं. पुं., प्रेरकः, वाहकः, चालकः, हाज़िर, वि ( अ.) उपस्थित, पुरःस्थित, वर्तप्रमोदकः, प्रचोदकः इ.। मान, विद्यमान २. संनद्ध, सज्ज, उद्यत । हाँडी, सं. स्त्री. ( सं. हंडी) हंडिका २. काच, -करना, क्रि. स., उप-पुर:-संमुखं स्था (प्रे.)। हंडी-हंडिका। -जवाब, वि. ( अ.) प्रत्युत्पन्नमति, विदग्ध । -पकना, मु., उपजप ( कर्म.), कूट, रच -जवाबी, सं. स्त्री., प्रत्युत्पन्नमतिता-त्वं, वैद( कर्म.), उपजापः कृ ( कर्म.)। ग्ध्य म् । -व नाज़िर, वि., प्रत्यक्षदर्शक । हाँफ(प)ना, क्रि. अ. ( अनु-हँफ हँफ या सं. हाफिका> ) सकष्टं श्वस् ( अ. प. से.), | उपस्थित (वि.) भू। -होना, क्रि. अ., उपस्था (भ्वा, उ. अ.), दो सत्वरं प्राण (अ.प.से.)। सं. पुं., कृच्छ्रश्वासः, | गैर-वि., अनुपस्थित, अविद्यमान । त्वरितप्राणनम् । हाँसी, सं. स्त्री., दे. 'हँसी' । हाज़िरी, सं. स्त्री. ( अ.) उपस्थिति ( स्त्री.), विद्यमानता। हा, अव्य. (सं.) हर्षशोकभयविस्मयक्रोधनिंदा -का रजिस्टर, सं. पुं., उपस्थितिपंजिका । सूचकमव्ययम् । -लेना, क्रि. स. उपस्थिति अंक (चु.)। हाइडोजन, सं. पुं. (अं.) उदजनन्, आद्र- हाजिरीन, सं. पुं. (अ. 'हाजिर' का बहु.) जनम् । उपस्थितजनाः ( बहु० ) श्रोतृवर्गः । हाइड्रोफोबिया, सं. पुं. (अं.) अलकेरोगः, -(ने) जलसा, सं. पुं., सभ्याः सदस्याः आलर्क, जल, भयं-संत्रासः । (बहु.)। हाइफ़न, सं. पु. ( अं.) समासचिह्न (.)। हाजी, सं. पुं. (अ.) मक्कायात्रिन, हाजिन (उ. राज-सेवक)। २. कृत-मकायात्रः-हजः। For Private And Personal Use Only Page #703 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir हाट [६६६] हाट, सं. स्त्री., दे. 'हट्ट' (१-२ )। -मिलाना, मु., करौ स्पृश् (तु. प. अ.) हाटक, सं. पुं. ( सं. न.) नुवर्ण, दे. 'सोना'। २. मल्लयुद्धाय सज्ज (वि.) भू। हाता, सं. पुं., दे. 'इहाता' । -में रखना, मु., वशे-अधिकारे स्था (प्रे.)। हातिम, सं. पुं. (अ.) अरबदेशीयोऽत्युदारः । -लगना, मु., दे. 'हाथ आना' २. आरभ् सामतविशेषः २. मुक्तहस्तमनुष्यः ३. निपुण- ( कर्म.)। दक्ष-मनुभ्यः। -समेटना, मु., दानात्, वितरणात् निवृत् हाथ, सं. पुं. ( सं. हस्तः) करः, पाणिः, शयः, (भ्वा. आ. से.)-विरम् (भ्वा. प. अ.)। पंचशाखः, भुजादलः, शमः, कुलिः २. चतु- | -साफ़ करना, मु., हन् (अ. प. अ.) विशत्यंगुलिपरिमाणं ३. वारः, दे. 'दाँव' | २. अन्यायेन हृ ( भ्वा. प. अ.)। ४. कर्मकरः ५. दंडः, मुष्टिः ( स्त्री.), वारंगः -से जाना, मु., दे. 'हाथ धोना' । ६. वशः, अधिकारः। हाथों-हाथ, मु., सत्वर, शीघ्र २. कर-हस्त, परं.-आना, मु., अधिगम्-उपलभ ( कर्म.)। । परया। .-उठाना, मु., तड (चु.), प्रह (भ्वा. प. अ.)। हाथा, सं. पुं. (सं. हस्तः> ) दे. 'हत्थी' -की चालाकी, मु., हस्तकौशल, दे.। २. कुडयापित मंगल्यं हस्तचिह्नम् ।। -की मैल, मु., तुच्छ-क्षुद्र-असार, वस्तु(न.)। -पाई, सं. स्त्री., हस्ताहस्ति (अव्य.), संमर्दः, .-खींचना, मु., परिहृ-विरम् (भ्वा. प. अ.), कलहः। वर्ज (चु.)। --पाई करना, क्रि. अ., हस्ताहस्ति युध् -चढ़ना, मु., दे. 'हाथ आना' २. वशं आया (दि. आ. से.), कलहायते ( ना. धा.)। (अ. प. अ.)। -बाही, सं. स्त्री., दे. 'हाथापाई। -जोड़ना, मु., हस्तौ समानीय अथवा अंजलि | हाथी, सं. पुं. (सं. हस्तिन् ) करिन, दन्तिन्, बद्ध्वा अथवा सांजलि प्रार्थ (चु. आ. से.)। दन्तावलः, द्विपः, अनेकपः, द्विरदः, गजः, -अनुनी ( भ्वा. प. अ.)-याच (भ्वा. आ. से.) | नागः, कुंजरः, वारणः, इभः, स्तम्बरमः, -डालना, मु., दे. हस्तक्षेप करना'। म(मा)तंगः, पद्मिन्, पुष्करिन, महामृगः, -धोना, मु., वियुज् ( कर्म.), वंचित-विरहित- कशूर्पर्णः, सिंधुरः, महामदः, सिन्दूरतिलकः, विहीन ( वि.) भू। रदनिन्, महाबलः, द्रुमारिः। --तंग होना, मु., दारिद्रयेण-निर्धनतया पीड -खाना, सं. पुं. (हि+फा.) गजगृहं, (कर्म.)। हस्तिशाला। -पर हाथ धरे रहना, मु., निरुद्योग-निरुद्यम -दाँत, सं. पुं. ( सं. हस्तिदंतः ) गजदंतः। स्था ( भ्वा. प. अ.)। -पाँव, मं. पुं., श्लोपदः-दं, शिलीपदः-दं, -पसारना, मु., याच ( भ्वा. आ. से.)। पापा)द, गंडीरः-वल्मीकः । -पाँव फूलना मु., भयेन निस्तब्धीभू, -बान, सं.पुं.. आधोरणः,हस्तिपकः, हास्तिकः, शोकेन जडीभू। दे. 'महावत'। -पाँव मारना, मु., प्र-, यत् (भ्वा. आ.से.), -पर चढ़ना या बाँधना, मु., सुसमृद्ध (वि.) उद्युज (रु. उ. अ.)। वृत् ( भ्वा. आ. से.)। -फेरना, मु., लल (चु.)। हादसा, सं. पुं. (अ.) दुर्घटना, दे.। -बढ़ाना, मु., ग्रहीतुं-आदातुं प्रयत् (भ्वा. | हानि, सं. स्त्री. (सं.) क्षतिः (स्त्री.), अप, आ. से.)। चयः-हारः, अपायः २. क्षयः, नाशः, अभावः, -बाँधना, मु., दे. 'हाथ जोड़ना'। ३. स्वास्थ्यबाधा ४. अनिष्टं, अहितं, अशुभम् । -मलना, मु., अनुशी (अ. आ. से.), -करना, क्रि. स., हानि कृ, नश् (प्रे.), क्षि पश्चात्तापं कृ २. निराश-दुःखित (वि.) भू। (प्रे.), अपचि (भ्वा. उ. अ.), क्षतिं जन् (प्रे.)। -मारना, मु., छलेन अपह (भ्वा. प. अ.) | -कारक, वि. (सं.) हानि,कर-कार-कारिन्, २. असिना प्रहृ (भ्वा.प. अ.)। अपचय-क्षय, कारिन्, नाशक, अनिष्टोत्पादक । For Private And Personal Use Only Page #704 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir हाफ्रिज़ [६६६ ] -होना, क्रि. अ., क्षतिः जन् (दि. आ. से.), । (कर्म.), अभि-परा-परि, भू (कर्म.) अभिभूतनश् (दि. प. वे.), वियुज ( कर्म.), वि-परि, पराजित (वि.) भू २. विफल (वि.) जन् हा ( कर्म.), वियुक्त होन-रहित (वि.) भू।। (दि. आ. से.) ३. श्रम् क्लम् (दि. प. से.), हाफ्रिज, सं. पुं. (अ.) रक्षकः, त्रातृ २. खिद् (दि. आ. अ.)। क्रि. स., हा (ज. प. *कुरानपाठिन्। अ.. प्रे. हापयति ), अप, हृ (प्रे.) २. नशहाफ्रिज़ा, सं. पुं. (अ.) स्मृतिः, दे. 'स्मरण- | क्षि (प्र.) ३. त्यज ( भ्वा. प. अ.) ४. दा शक्ति '। (जु. उ. अ.)। सं. . तथा भाव, दे. 'हार"! हामिल, वि. ( अ.) भारवाह-हक, मारिन् २. हारने योग्य, वि., अभिभवनीय, पराजेय । नेत, प्रापक। -वाला, सं. पुं.,. आसन्नपराजय, पराजित, हामिला, सं. स्त्री. (अ.) गर्भिणी, गर्भवती, कल्प-प्राय ! अन्तर्वत्नी, ससत्त्वा। हारा हुआ, वि., वि-परा-,जित, अभि-परा-- हामी, सं. स्त्री. ( हिं. हाँ) अनुमतिः स्वीकृतिः । परि, भूत २. हृत, हारित, नष्ट, ३. श्रान्त, (स्त्री.), स्वीकारः, अनुशा। क्लान्त, खिन्न ४. अकृतकार्य । -भरना, मु., स्वी-अंगी, कृ, अनुज्ञा (क्र. उ. | हारमोन, सं. पुं. (अं.) जीवनरसः। अ.), अनुमन् (दि. आ. अ.)। हारमोनियम, सं. पु. ( अं.) *गधुरध्वनम् । हाय, अव्य. ( सं. हा ) आ:, अहह, कष्ट, हत -हारा, प्रत्य. (सं.त्यार>) (प्रायः कर्तृवाचक ( सब अव्य.)। सं. स्त्री., नि-दीर्घ श्वासः, प्रत्ययों, (-अक, तृच , न आदि) से अनुवाद उच्छ्वसितं २. कष्टं, पीड़ा)। किया जाता है । उ. देनेहारा दायकः, दातृ -हाय, अव्य. (सं. हा हा) आः आः इ.। सं. इ०)। स्त्री., शोकः २. व्याकुलता। हारिल, सं. पुं. ( सं. हरितालकः ) हरितवर्णः -पड़ना, मु., दुष्कृतं शापः फल (भ्वा.प.से.)। पीतपादः नीलचंचुः चटकभेदः, हारि(री)तः, -मारना, मु., दीर्घ श्वस (अ. प. से.), हारीकः । (शोकेन) हा-हा कृ, निश्वासमुच (तु.प.अ.)। हारी, वि. (सं.-हारिन् ) अप, हर्ट हारकर, हार', सं. स्त्री. ( सं. हारिः) पराजयः, परि- आच्छेदक, बलात् ग्रहीत २. वाहक, प्रापक, परा-अभि, भवः २. श्रांतिः, क्लांतिः (स्त्री.), नायक,-हर ३. लुटक, लुंठक, मोषक, चौर आयासः ३. हानिः-क्षतिः (स्त्री.)। ४. नाशक, ध्वंसक ५. संग्राहक, समाहर्तृ. -जीत, सं. स्त्री., जयपराजयो ( पुं. द्वि.)। (कर आदि) ( कर आदि ) मनो-चेतो,-हर । --खाना, मु., दे. 'हारना'। हारीत, सं. पुं. (सं.) चौरः, लुंठकः, कितवः -देना, मु., दे. 'हराना' । २. स्मृतिकारविशेषः ३. दे. 'हारिल'। हार, सं. पुं. (सं.) कंठ, भूषा-आभरण- | हार्ट फेल, सं. पु. ( अं.) हृत्स्यन्दनविरोधः, माला, ग्रैवं, 7वेयकं २. दे. 'मोतियों का हार'। हृदयावरोधः। -का मनका, सं. पुं., हार-,-गुटिका-गुलिका- हार्दिक, वि. (सं.) हृदय,-संबंधिन्-विषयक, अक्षः। चैत्तर-प्ती स्त्री.), चैत्तिक (-की स्त्री.), मानस फूलो का-, स. ५., माला, माल्यं, स्त्रज (स्त्री.)/ -सी स्त्री.), मानसिक(-की स्त्री.) २.नियाज, निष्कपट ३. स्नेहशील, स्निग्थ, स्नेहिन् . मोतियों का-, सं. पुं., मुक्तावली-लि: (स्त्री.), | अनुरागवत्, अनुरागिन् । मुक्ता,-लता-माला, मौक्तिकसरः, हारा। हाल', सं. पुं. (अ.) अवस्था, दशा २. परि.. रत्नों का, सं. पुं. मणिमाला, रत्नावली-लिः स्थितिः ( स्त्री.) ३. समाचारः, वृत्तांतः (स्त्री.)। ४. विवरणं, इतिवृत्तं ५. चरित्रं, कथा सोने का-, सं. पुं., कनकसूत्रम् । ६. समाधिः, ईशैकाग्रता ७. वर्तमानकालः । -हार, प्रत्य., दे. 'हारा। वि., वर्तमान, विद्यमान, उपस्थित। अन्य.,. हारना, क्रि. अ. (सं. हारणं> ) परा.,जि अधुनैव २. शीघ्रं, त्वरितम् । आपीडः । For Private And Personal Use Only Page #705 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir हिंसक -का, मु., अभि-,नव, नूतन, अचिर, प्रत्यग्र ।। -ही ही, . -बेहाल होना, मु., शुभात् अशुभं, मंगलात् सं. स्त्री., परिहासः, विनोदः । -ठी ठी, . अमंगलं, क्रमशो विकारवृद्धिः ( स्त्री.)। -खाना, मु., सदैन्यं आक (प्रे.)-प्रार्थ -में, मु., वर्तमाने, आधुनिकसमये, इदानींतने (चु. आ. से.)। काले। -ही ही करना, मु., हस् (भ्वा. प. से.) हाल', सं. स्त्री. (सं. हल्लनं) कंपः, कंपनं परिहम , विनोदवाक्यानि उदीर (प्रे.)। २. संघट्टः, समाचातः ३. लौहं चक्रवलयम् । हाहाकार, सं. पुं. (सं.) हाहा, रवः शब्दःहाल', सं. पु. ( अं.) मुख-,शाला, बाह्यकोष्ठः, ध्वनिः २. आ-वि, क्रोशः, आ.,क्रन्दनं, क्रान्दितं, आस्थानी। चीत्कारः, भयजः कोलाहलः। हालत, सं. स्त्री. (अ.) दशा, अवस्था, स्थितिः -करना, क्रि. अ., हा हा कृ, हा हा ध्वनि (स्त्री.) २. आर्थिकावस्था ३. परिस्थितिः उत्पद् (प्रे.) २. आ-वि,-कश् (भ्वा. प. अ.), (स्त्री.)। आ., केंद् ( भ्वा. प. से.)। हालहूल, सं. स्त्री. (सं. हल्लनम् >) कलकलः, हिंजीर, सं. पुं. (सं.) गजपद, बन्धन-शृंखलाकोलाहल: २, उपद्रवः, संमदः। रज्जुः ( स्त्री.)। हालाँ कि, अव्य. (फ्रा.) यद्यपि ( अव्य.)। हाला, सं. स्त्री. (सं.) मद्यं, सुरा दे.।। | हिंडोल, सं. पुं. ( सं. हिंदोल: ) रागभेदः । हालाहल, सं. पुं., दे. 'लाहल'। हिंडोला, सं. पुं. (सं. हिंदोल:-ला ) हिंदोलकः,. हाली, अव्य. (अ. हाल ) शीघ्र, सत्वरम् । । २. दोल:-ला-लिका, पंखा, आन्दोल:, हिन्दोल: हाव, स. पु. (सं.) शृङ्गारभावजाचेष्टा (लीला | ३. दोला,गीत-गीतिका। विभ्रम, विलास आदि ) आह्वानम् । | हिंद, सं. पुं. (फ्रा.) भारत, भारतवर्ष, -भाव, सं. पुं. (सं.) पुरुषमनोहारी स्त्रीचेष्टा | आर्यावतः। भेदः, विभ्रमः, विलासः, लीला । हिंदवाना, सं. पुं., दे. 'तरबूज' । हावनदस्ता, सं. पुं. (फा.) उलूखल-खल्ल, हिंदवी, सं. स्त्री. (फा.) भारतीयभाषा मुसलं.ले-लौ (द्वि.)। २. हिन्दीभाषा। हाशिया, सं. पु. ( अ.-यह ) प्रांतः, उपांतः, | हिंदसा, सं. पुं. (अ.) अंकः ( गणित )। सीमा २. वस्त्रप्रांतः, चीरी-रिः ( स्त्री.), दशा। हिदा, वि. (का.) भारताय, भारत, वायहास, सं. पुं. (सं.) दे. 'हँसी' (१.४)। देशीय । सं. पुं., भारतः, भारतवासिन्, -कर, वि. (सं.) हास्यजनक २. अव-उप, भारतवर्षवासिन्, भारतीयः। सं. स्त्री.. उत्तरहास्य। भारतस्य मुख्यभाषा, हिंदीभाषा । हासिद, वि. ( अ.) ईर्षा(ा)लु, ईपुर्यु । | हिंदुस्तान, सं. पुं. (फ़ा. हिंदोस्तान) दे. 'हिंद' हासिल, वि. (अ.) लब्ध, अधिगत, प्राप्त दे.।। २. उत्तरभारतस्य मध्यमभागः (दिल्ली से हास्य, वि. (सं.) हास,-कर-जनक-उत्पादक. | पटने तक)। हास,-योग्य-आस्पद २. अव-उप, हास्य, अव- हिंदुस्तानी, वि. (फ़ा. हिन्दोस्तानी) दे. 'हिंदी'' उप,-हासाह। सं. पुं. (सं.न.) दे. 'हसी' (१.४)। वि.। सं. पुं., दे. हिंदी' सं. पुं. । सं. स्त्री., -कर, वि. ( सं.) दे. 'हास्य' वि. (१-२)। अखिल भारतीय भाषा, हिन्दुस्थानी । हास्यास्पद, सं. पं. (सं. न.) हासविषयः हिंदू , सं. पुं. (फ़ा.) आर्यः, वेद-स्मृति-पुराण, २. उपहासविषयः । वि., दे. 'हास्य' (वि.१-२)। अनुयायिन्-अनुगामिन्, *हिन्दुः । हास्योत्पादक, वि. (सं.) दे. 'हास्य -पन, सं. पुं., *हिंदुत्व, आर्यत्वम् । (वि. १.२)। हिंदोस्तान, सं. पुं. (मा.) दे. 'हिंदुस्तान' । हा हा, सं. पु. ( अनु.) हास(स्य), शब्दः- | हिंसक, वि. (सं.) घात(तु)क, धातन, हिंस्र, ध्वनिः, अट्टहासः, अनुनय-दैन्य, शब्दः-ध्वनिः | शरारु, हन्तु, हिंसालु, वध-हिंसा, शील ३. अहह, कष्ट, हा हंत । । २. मांसभक्षक, व्याद (पशु)। rer For Private And Personal Use Only Page #706 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir हिंसनीय [ ६६८ ] हिनहिनाइट वध्य । हिंसनीय, वि. (सं.) हन्तव्य, व्यापादनीय, | हिचर - पि (मि)चर, सं. स्त्री. दे. 'हिचक' मारणीय, २. दे. 'टालमटूल' । हिंसा, सं. स्त्री. (सं.) अप, कार:-कृति: (स्त्री.) हिजड़ा, सं. पुं., दे. 'हीजड़ा' | क्रिया करणं, पीडा, बाधा, अर्दनं २. वधः, हिजरी, सं. पुं. (अ.) यवन संवत् ( अव्य. ) हत्या, हननं, हिंसनं, घातः, मारणं, निषूदनम् । ( यह १५/७/६२२ ई० अर्थात् श्रावण शुक्लर, - करना, क्रि. स., पीट् ( चु. ), अपकृ, व्यथ् संवत् ६७९ वि. से चला है ) । ( प्रे.), अद् (भ्वा. प. से., प्र. ) २. इन् ( अ. प. अ. ), हिंस् ( रु. प. से. ), व्यापद् मृ (प्रे.), निषूद् (चु. ) । | हिजाब, सं. पुं. (अ.) अवगुंठनं २. लज्जा । हिज्जे, सं. पुं. (अ. हिज्जह्) *शब्दाक्षरोच्चारणं । — करना, क्रि. स., शब्दाक्षराणि उच्चर् (प्रे.) । हिज्र, सं. पुं. (अ.) वियोग:, विरहः । हित, वि. (सं.) लाभ, प्रद-दायक, उप, कारिनयोगिनू, हितकर २ अनुकूल, योग्य २. हितेच्छुछुक, हितैषिन् । सं. पुं. (सं. न. ) लाभ:, अर्थः २. मंगलं, भद्रं ३. अनुकूलता ४. स्वास्थ्य. लाभ: ५. स्नेहः, अनुरागः ६. मैत्री, हितेच्छा ७. मित्रं ८. संबंध, बंधुता ९. संबंधिन्, बंधुः । अन्य, लाभाय हिताय २. कारणात्, हेतोः ३. अर्थे कृते । हिंसात्मक, वि. (सं.) पीडा- बाधा, आत्मक युक्त-दायक २. हत्यात्मक, जीववधयुक्त । हिंसालु, वि. (सं.) हिंसक, घातक, हिंस्र, बधशील। सं. पुं. ( सं . ) हिंसक, -कुक्कुर:भषकः-शुनसः, अलर्कः, मत्तश्वन् । हिंख, वि. (सं.) दे. 'हिंसक ' । " हिकमत, सं. स्त्री. (अ.) तत्वज्ञानं, दर्शन २. शिल्पं, कलाकौशलं ३ उपायः, युक्तिः ( स्त्री. ) ४. नीति: (स्त्री.), नयः ५. मित. व्ययः ६. चिकित्सा, वैद्यकम् । हिकमती, वि. ( अ. हिकमत) कर्मकुशल, कार्यपटुः २. चतुर, विदग्ध ३. मितव्ययिन् । हिकायत, सं. स्त्री. (अ.) कथा, आख्यानम् । हिकारत, सं. स्त्री. ( अ. ) तिरस्कारः, अवगणना । — की नजर से देखना, मु., लघयति (ना. धा.), अवमन् ( दि. आ. अ. ), अवगण ( चु. ) । 'हिचक, सं. स्त्री. (हिं. हिचकना ) आ-वि. परि-, शंका, संदेहः, संशयः, विकल्पः, निश्चय निर्णय, अभावः । हिचकना, क्रि. अ. ( अनु. हिच ) दोलायते ( ना. धा. ), विक्लृप् (भ्वा. आ. से. ), आ-वि, शंक (भ्वा. आ. से. ), संशी (अ. आ. से. ) २. दे. 'हिचकी आना''। हिचकिचाना, क्रि. अ., दे. 'हिचकना' । हिचकिचाहट, सं. स्त्री. दे. 'हिचक' । safear, सं. स्त्री. दे. 'हिचक' । हिचकी, सं. स्त्री. (अनु. हिच ) हि ( है ) का, हिक्का, हिमा, झिणिका । - आना, क्रि. अ., हिक्क् (भ्वा. उ. से. ) । - लगना, मु., मरणोन्मुख (वि.) वृत (भ्वा. आ. से. ) २. हिक्क् । - कर, वि. (सं.) हित, कर्तृ - कारक- कारिन् २. लाभ, दायक-प्रद, उपयोगिन्, फलावह ३. स्वास्थ्य, कर प्रद । -काम, सं. पुं. (सं.) हित, -कामना - इच्छा | वि. ( सं . ) हितैषिन् । -कारी, वि. (सं.-रिन ) दे. 'हितकर' | -चिंतक, वि. (सं.) हितेच्छु-च्छुक, हितैषिन् । - चिंतन, सं. पुं. (सं. न.) हितेच्छा, उपचिकीर्षा । वादी, वि. (सं.-दिन ) सत्परामर्शिन् । हिताहित, सं. पुं. (सं. न. ) हानिलाभौ - उपकारापकारों (पुं.द्वि.), इष्टानिष्टे - भद्राभद्रे ( न. द्वि.) । हितू सं. पुं. ( सं . हितः ) मित्र, हितैषिन्, सुहृद् २. संबंधिन्, बंधुः । हितैषी, वि. ( सं . - षिन) हितचिंतक, दे. | हितोपदेश, सं. पुं. ( सं .) सत्परामर्शदानं २. विष्णुशर्म रचितो नीतिग्रंथविशेषः । हिदायत, सं. स्त्री. (अ.) पथप्रदर्शनं २. शिक्षा, अनुशिष्टः (स्त्री.) । हिनहिनाना, क्रि. अ. (अनु. हिनहिन ) हे हेषु (भ्वा. आ. से. ) । हिनहिनाहट, सं. स्त्री. (हिं. हिनहिनाना ) हेषा, हेषा, हे ( है ) षितम् । For Private And Personal Use Only Page #707 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir हिना हिना, सं. स्त्री. (अ.) दे. 'मेहंदी' । हिफ़ाज़त, सं. स्त्री. (अ.) रक्षा, २. निरीक्षणम् । हिफ़्ज़, वि. (अ.) कंठस्थ, मुखस्थ । -करना, क्रि. स., कंठस्थं कृ । हिब्बा, सं. पुं. (अ.) दानम् । [ ६६६ ] दे. । -नामा, सं. पुं. ( अ. + फ्रा.) दानपत्रम् । हिम, सं. पुं. (सं. न.) आकाश-ख, वाष्पः, अवश्यायः, नीहारः, तुषारः, तुहिनं, प्रालेयं, मिहिका, रजनीजलं, इन्द्राग्निधूमः, कुज्झटिका २. हिम- राशि: (पु.)-संहतिः (स्त्री.), हिमानी ३. शीतं, शैत्यं ४. कमले ५. नवनीतं ६. मौक्तिकं ( सं. पुं. ) हेमन्तर्तुः । २. चंदनतरुः ३. कर्पूरः ४. चंद्रः ५. हिमालयः । वि. (सं.) शीत, शीतल, शिशिर । -कण, सं. पुं (सं.) तुषार, लव:-बिंदु: । - कर, सं. पुं. (सं.) हिम, किरण:-दीधिति:भानुः मयूखः -रश्मिः रुचिः, चंद्रः । - गिरि, सं. पुं. ( सं . ) हिमालय:. दे. | —गृह, सं. पुं. ( सं. न. ) शीत-शीतल- शिशिर, गृहं- अगार कोष्ठः । —जा, सं. स्त्री. (सं.) पार्वती, उमा, गौरी, भवानी। - पात, सं. पुं. (सं.) हिम-तुषार, वृष्टि: (स्त्री.) वर्ष:-संपातः । हिमामदस्ता, सं. पुं., दे. 'हावनदस्ता' । हिमायत, सं. स्त्री. (अ.) सं-रक्षा-रक्षणं हिरासत अद्रिः-शैलः, नग,-पतिः-अधिपः, उमा-भवानी,गुरुः, हिमवत्, मेना- मेनका, धवः प्राणेशः, अद्रि-राजः । २. पक्षपातः ३. साहाय्यं, सहायता । - करना, क्रि. स., साहाय्यं कृ, संरक्ष (भ्वा. प. से. ) । हिमायती, वि. (अ.) साहाय्यकारिन्, सहायक २. समर्थक, अनुमोदक ३. सपक्ष ४. रक्षक, त्रातृ । हिमालय, सं. पुं. ( सं . ) हिम, अचल:-प्रस्थ: हिम्मत, सं. स्त्री. (अ.) साहस, धैर्ये २. पराविक्रमः, शौर्य, वीरता । - पड़ना, मु., साहसं विदू ( दि. आ. अ. ) । - हारना, मु., धैर्यं त्यज् (भ्वा. प. अ.), साहस मुच् (तु. प. अ.), अधीर - निस्साहस (वि.) जन ( दि. आ. से. ) । हिम्मती, वि. ( फ़ा. हिम्मत ) धीर, धैर्यवत्, साहसिन, साहसिक २. वीर, शूर, पराक्रमिन् । हिया, सं. पुं. ( सं . हृदयं ) मानसं २. बक्षस् ( न. ) । हिरण्य, सं. पुं. (सं. न. ) सुवर्णे, दे. 'सोना१" २. धनं ३. शुक्रं ४. रजतं ५. अमृतम् । . - कशिपु, सं. पं. (सं.) हिरण्याक्ष भ्रातृ, दैत्यविशेषः, प्रह्लादपितृ । ष्यः । हिमांशु, सं. पुं. (सं.) चंद्र:, दे. 'हिमकर' २. कर्पूरः । - हो जाना, मु., अतिवेगेन धाव् (भ्वा. प. से. ), पलाय (भ्वा. आ. से. ) । हिमाक़त, सं. स्त्री. (अ.) मूर्खता, दे. | हिमाचल, सं. पुं. (सं.) हिमाद्रि:, हिमा - हिरनी, सं. स्त्री. (सं. हरिणी ) मृगी, कुरंगी, लय: दे. | एणी । - गर्भ, सं. पुं. (सं.) सृष्टिकारणं ज्योतिर्मयांटं २. ब्रह्मन् (पुं. ) ३. प्राण-सूत्र, आत्मन् सूक्ष्मशरीरयुतात्मन् ४. विष्णुः । हिरण्याक्ष, सं. पुं. (सं.) हिरण्यकशिपुभ्रातृ, दैत्यविशेषः । हिरन, सं. पुं. ( सं . हरिणः, ) कुरंग:-गमः, एणः, एणकः, कृष्णसारः, पृपत-तः, अ-, जिनयोनिः, चारु-सु, लोचनः, रुरुः, रोहितः, वननः, चलनः, प्लाविन्, मरुकः, लिगुः, ऋ(रि)श्य: हिरनौटा, सं. पुं. (हिं. हिरन ) हरिण मृग, पोतः- शावः-शावकः शिशुः कुरंगकः । हिरफ़त, सं. स्त्री. (अ.) व्यवसायः २. शिल्पं, हस्तकार्ये, दे. ‘दस्तकारी' ३. चातुर्य ४. माया, धूर्तता । हिरमज़ो, सं. स्त्री. (अ.) सौराष्ट्री, रक्तमृत्तिकाभेदः । हिरास, सं. स्त्री. (फ्रा.) दे. 'हरास' | हिरासत, सं. स्त्री. (अ.) निरोधः, बंधनं २. कारा, गुप्तिः (स्त्री.) । For Private And Personal Use Only Page #708 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir हिर्स हिर्स, सं. स्त्री. (अ.) लोभः, तृष्णा, लिप्सा । हिर्सी, वि. (अ. हिर्स) लुब्ध, गृध्नु, लोलुप । हिलना', क्रि. अ. (सं. हल्लनं) चल-चर् (भ्वा. प. से. ), इ-या ( अ. प. अ.), गम् २. सृ-सृप् (भ्वा. प. अ. ) ३. कंप् वेप-स्पंद (भ्वा. आ. से. ) ४. दोलायते ( ना. धा. ) प्रेख (भ्वा. प.से.), इतस्ततः वि-सं, चल ५. ( जले ) प्रविश् ( तु. प. अ.) । सं. पुं. तथा भाव, चलनं, चरणं, अयनं, यानं, गमनं, सरणं, सर्पणं, कंपः, वेपनं, स्पदनं, चेष्टा, चेष्टतं, क्रिया, प्रवृत्तिः, व्यापारः । [ ६७० ] - डोलना, मु., अट्-भ्रम् (भ्वा. प. से. ) २. श्रम् (दि. प. से.), प्रयत् (भ्वा आ. से. ) । हिलनेवाला, वि., चर, चल, जंगम, चलनगमन, शील, कंपमान, वेपमान, चेष्टमान, स्पंदमान | हिला हुआ, वि., चलित, सृत, यात, इत इ. । हिलना, क्रि. अ. (हिं. हिलगना, सं. अधिलग्न ) सुपरिचित-बद्धसख्य-रूढसौहृद् (वि.) जन ( दि. आ. से. ) । ...Janei व्यवस्था ६. विचारः, (स्त्री.), विधिः । हिलोरना, क्रि. स. (हिं. हिलोर ) तरंगयतिउल्लालयति (ना. धा.), इतस्तत: चलू (प्रे.)विधू (स्वा. उ. से. ) । हिलोल, सं. पुं., दे. 'हिलोर' । हिसाब, सं. एं. (अ.) गणनं-ना, संख्यानं २.आयव्यय-देयादेय,-लेख:- विवरणं ३. गणितं, विद्या ४. अर्ध-मूल्य-मानं प्रमाण ५. नियमः, होन मतं ७. रीतिः - करना या लगाना, क्रि. स., गण् ( चु. ), संख्या ( अ. प. अ. ) । - किताब, सं. पुं. (अ.) दे. 'हिसाव (२) । - चलना, मु., व्यवहारः- दानादानं वृत् (भ्वा. आ. से. ) । - दार, सं. पुं. ( अ. + का.) अंशिन्, अंशग्राहिन, सह, भागिन् । -मिलना, क्रि. अ., परस्परं सख्येन वृत् (भ्वा. आ. से. )-व्यवहृ-अस् ( दोनों भवा. प. अ. ) । हिलमिलकर, मु., सौमनस्येन, सौहार्देन २. सं भूय मिलित्वा । दारी, सं. स्त्री, सहभागिता, अंशिता । हींग, सं. स्त्री. [सं. हिंगु ( पुं. न. ) ] र (रा)मठ, बाल्हीकं, जंतु, नं-नाशनं, सूपधूपनं, उग्रगंध, रक्षोनं, जरणं, अगूढगंधम् । ह्रींसना, क्रि. अ. (सं. हेपणं) दे. 'हिनहिनाना' २. दे. 'रैंकना' । हिल-मिला, मु., सुपरिचित, गाढसौहृद, बद्ध ही, अन्य. (सं. हिं. ) एव, अवश्यं, केबलं ( सब अव्य. ) । सख्य । हिलाना, क्रि. स., व. 'हिलना' ( १-२ ) के प्रे. हीक, सं. स्त्री. (सं. हिक्का ) दे. 'हिचकी' चुकाना या चुकता करना, मु., ऋणं निस्तृशुध् (प्रे.) । बंद करना, मु., व्यवहारं त्यज् (भ्वा.प.अ.) । हिस्टीरिया, सं. पुं. (अं.) योषापस्मार:, बातगर्भाशय, उन्मादः, हर्षमोहः । हिस्सा, सं. पुं. ( अ ) विभागः, अंशः २. वंट:, उद्धारः ३. खंड : डं, एकदेश: ४. अंगं, अवयवः । --करना, क्रि. स., अंशू (चु. ), विभज् (भ्वा. उ. अ. ) । रूप । हिलोर-रा, सं. पुं. ( सं . हिल्लोल: ) उल्लोल:, तरगः, भंगः, ऊर्मि: ( पुं. स्त्री. ) 1 हिलोरे लेना, मु., तरंगायते ( ना. धा. ), तरं हीन, वि. (सं.) वि-रहित, शून्य, वर्जित, गित (वि.) भू । वंचित, वियुक्त, अ-, निर्, वि-, (उ. धनहीन = अधन इ. ) २. परित्यक्त, उत्सृष्ट ३ अपकृष्ट, निकृष्ट, नीच, अधम ४. क्षुद्र, तुच्छ ५. कुत्सित, निंद्य, असत्, दुष्ट, कु. ६. दीन, दरिद्र, अकिंचन ७. अल्प, ऊन, स्तोक । दुर्गंध: । हीजड़ा, सं. पुं. (देश. ) शं (पं) ड:-ढः, तृतीया प्रकृतिः, क्लीव:, नपुंसकः । - जाति, वि. ( सं . ) नीच, वर्ण-जाति २. अपांक्तेय, पतित । -यान, सं. पुं. ( सं. न. ) बौद्ध संप्रदायभेदः । For Private And Personal Use Only Page #709 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir हीनता [ ६७१ ] हुड़दंग-गा हीनता, सं. स्त्री. (सं.) अभाव:, राहित्यं, | हुकूमत, सं. स्त्री. (अ.) शासनं राज्यं त्रुटि: (स्त्री.), न्यूनता २. क्षुद्रता, तुच्छता २. अधिकारः, प्रभुत्वम् । ३. नि-अप कृष्टता । हुक्का, सं. पुं. (अ.) *धूमपानयंत्रम् । हीमोग्लोबिन, सं. पुं. (अं. ) रक्तकणः, रक्त- | - पानी, सं. पुं. ( अ. + हिं . ) सामाजिक व्यवहारः । रकम् । 'हीर', सं. पुं. (सं.) शिवः २. इन्द्रवज्रं ३. सर्पः - गुड़गुड़ाना, भु, धूमपानं कु । ४. हार: ५. सिंहः ६. हीरकः । होर, सं. पुं. (हिं. हीरा ) सारः, सारांश:, अन्तर्भागः, तत्रं २. वीर्ये, शुक्रं ३. बलं, शक्तिः (स्त्री.) । हीरक, सं. पुं. (सं.) दे. 'हीरा' । हुक्म, सं. पुं. (अ.) आदेशः, आज्ञा दे. २. अनुमतिः (स्त्री.) ३. प्रभुत्वं, अधिकारः ४. नियम:, विधि, उपदेश: (धर्मशास्त्रादि का ) ५. क्रीडापत्र रंगभेदः । -मन, सं. पुं. (हिं. + सं. मणिः ) हेमवर्ण: नामा, सं. पुं. ( अ. + फ़ा. ) आज्ञापत्रम् । कल्पितः शुकभेद:, *हीरमणिः । -बरदार, सं. पुं. ( अ. + फ्रा.) आज्ञा, पालकहीला, सं. पुं. ( अ. हील : ) व्याज:, अनुसारिन्- अनुवर्तिन् अधीन । छद्मन् (न.)व्यपदेशः, मिषं, २. साधनं, उपायः । --करना, क्रि. अ., वि., अपदिश् (तु. प., (अ.), कपटं झन् कृ । -- बाज़, बि., कापटिकटाद्मिक (-की स्त्री. ) । - हवाला, सं. पुं., दे. 'हीला' । हीरा, सं. पुं. (सं. हीर: ) हीरकः, वज्र- जं, • रत्नमुख्यं, सूचीमुखं दधीच्यस्थि (न.), वरारकम् । हीही, अव्य. (सं.) हर्षाश्चर्यसूचकमव्ययं, ( हर्ष ) हन्त २. ( आश्चर्य ) अहह । -पानी बंद करना, मु., समाजात् बहिष्अपांक्ती कृ, जातेः निष्कक्षू ( प्रे. ) । हुक्काम, सं, पुं. ( अ. हाकिम का बहु . ) शासकअधिकारि, वर्गः: वृन्दम् । हुंकार, सं. पुं. (सं.) हुंकृति: (स्त्री.), हुंकृतं, भर्त्सनाशब्दः २. गर्जनं-ना, निनादः, हुहुतं ३. चीत्कार:, उत्क्रोशः । हुंकारना, क्रि. अ. ( सं . हुंकार > ) निर्भत्स् ( चु. आ. अ. ), तज्' (चु.), अधिक्षिप् (तु. प. अ. ) २. गजू-ग - निनद् (भ्वा. प. से..) ३. चीत्कृ, उत्कुश् (भ्वा. प. अ.) । हुडाबन, सं. पुं. (हिं. हुंडी ) * विधिपत्र शुल्क: ल्कम् । - - निकलना, मु., उपायः ज्ञा ( कर्म. ), हुजूर, सं. पुं. (सं.) सामीप्यं, संनिधिः २. साधनं प्राप् (कर्म) । न्याय, आलय: सभा ३. ( संबोधनशब्द ) भगवन् ! श्रीमन् ! ( संबोधन एक ), भगवन्त: ! श्रीमन्तः ! (संबोधन बहु. ) । हुंडी, सं. स्त्री. (देश ) *विधिपत्रं, धनार्पणादेशपत्रम् | हुक्मी, वि. ( अ. हुक्म ) आज्ञा-पालकअनुवर्तिन २ अमोघ, सफल, सिद्धिकर ३. लक्ष्य, भेदिन-वेधिन ४. विकल्परहित, अवश्यकर्तव्य, अनिवार्य | हुजूम, सं. पुं. (अ.) जन, समूहः-समुदाय:मर्द :-ओः । हुँ, अव्य. (सं.) ओं, आं, २. साधु, बाटं, हुजूरी, सं. की. ( अ. हुजूर > ) निकटता, समीपता २. उपस्थितिः (स्त्री.), विद्यमानता अस्तु । ३. राज-राजकीय, सभा । सं. पुं. विशिष्ट, - सेवकः भत्यः २. राजसभासद्, सभ्यः, सभिकः । हुज्जत, सं. स्रो. (अ.) कुतर्कः, व्यर्थयुक्तिः (स्त्री.) २. विवाद:, वाग्युद्धम् । कुतार्किक करना, क्रि. अ., व्यर्थं तर्क (चु.) २. विवद् (भ्वा. आ. से. ), वाग्युद्धं कृ । हुज्जती, वि. ( अ. हुज्जत २. कलह - विवाद, प्रिय 1 हुड़दंग-गा, सं. पुं. (अनु. हुड़ + हिं. दंगा ) उपद्रवः, तुमुलं, संक्षोभः । For Private And Personal Use Only Page #710 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir हुडदंगी [ ६७२] हृदय % 3D हड़दंगी, वि. (हिं. हुड़दंग) कुचेष्टित, कुचेष्टक, । हू, सं. पु. ( अनु.) शृगाल-जम्बुक, रावः रुतंकुचेष्टाप्रिय, उपद्रविन्, उद्दण्ड । शब्दः ध्वनिः, हूकारः। हत, वि. (सं.) वषट्कृत, सविधि अग्नौ क्षिप्त। |-रव, सं. पुं. (सं.) शृगालः, सृगालः, जम्बु-भुज, सं. पुं. (सं.) अग्निः । (म्बू)कः, भूरिमायः। हुताशन, सं. पुं. (सं.) हुतवहः, हुताशः, | हूक, सं. स्त्री. (अनु.) हृद्ग्रहः, हल्लेखः, हृदयअग्निः । पीडा, वक्षोवेदना २. पीडा, व्यथा, आतिः हुदहुद, सं. पुं. (अ.) दाघाटः, काष्ठकूटः, | (स्त्री.), वेदना ३. आधिः, सं-परि,तापः, दे. 'कठफोड़ा'। दुःखं ४. आशंका। हनर, सं. पुं. (का.) कला, शिल्पं २. दाक्ष्यं, हूकना, क्रि. अ. (हिं. हूक ) व्यथ् (भ्वा. आ. कौशलं ३. गुणः, विशिष्टधर्मः । से.), पीड ( कर्म.)। -मंद, वि. (फा.) कला, विद् कुशल २. दक्ष, हूड, वि, ( सं. हूण:>) उद्दण्ड, असभ्य, निपुण ३. गुणिन् । ग्राम्य २. प्रमत्त, निरवधान ३. मंदबुद्धि, मूछे हुमा, सं. स्त्री. (फा.) कल्पितखगभेदः, ४. दुराग्राहिन् । *राज्यदः, हुमा। हूण, सं. पुं. (सं.) हूनः, म्लेच्छजातिविशेषः । हरमत, सं. स्त्री. (फा.) आदरः, संमानः।। हूबहू, वि. ( अ.) पूर्णतया तुल्य सम-समानहुर्रा, सं. पुं. ( अं.) हर्षनादः, जयशब्दः, जय- सदृश । जयकारः। हर, सं. स्त्री. ( अ.) स्वर्-स्वर्ग, वधूः (स्त्री.) हलास, सं. पुं. (सं. उल्लासः) आनंदः, आ- स्त्री, अप्सरस (न.), अप्सरा, दिव्यांगना । हादः २. उत्साहः। हूल, सं. स्त्री. (सं. शूल:-लं ) दे. 'हूक' (१) हुलिया, सं. पु. ( अ.-यः ) आकारः, आकृतिः (खड्गादीनां ) वेधः, आघातः, प्रहारः, निवे (स्त्री.) २. आकार-रूपरेखा, विवरणम् ।। शनम् । हल्लड़, सं. पुं. ( अनु, हुल हुल) कोलाहल:, |-देना या मारना, क्रि. स., दे. 'हूलना' । कलकल: २.संक्षोभः, उपद्रवः ३. प्रजाविप्लवः, हलना, क्रि. स. (हिं. हूल ) शस्त्रायं सहसा व्यवस्थाभंगः। निविश (प्रे.), अप-,व्यध् (दि. प. अ.) हश , अव्य. ( अनु.) शान्तं, मौनं, तूष्णी | २. प्रेर्-प्रणुद्-प्रचल (प्रे.)। (सब अव्य.)। हूहा, सं. पुं. ( अनु.) किंवदन्ती, जनप्रवादः हस्न, सं. पुं. (अ.) लावण्यं, सौन्दर्यम् । । २. आडंबरः, विजम्भणम् । . -परस्त, वि. ( अ.+फा.) सौन्दयोपासक। हृत, वि. (सं.) नीत, प्रापित २. गृहीत, -परस्ती, सं. स्त्री., सौन्दर्योपासना। आदत्त ३. चोरित, स्तेनित, मुषित । हैं, क्रि. अ. ( हिं. होना ) अस्मि-वते ( लट्, हृत्कंप, सं. पुं. (सं.) हृदय, कंपन-स्फुरणंउत्तम. एक.)। स्पंदनम् । हैं२, अव्य. (सं. पुं.) आम्, ओम्, तथा २. साधु, हृपिंड, सं. पुं. (सं. पुं. न.) हृदयं, दे.। सुष्ठु ३. अवधानतासूचकशब्दः, हुंकारः। | हृद् , सं. पुं. (सं. न.) हृदयं, दे.। -करना या हूँकारी भरना, क्रि. अ., हुंक | हृदयंगम, वि. (सं.) सम्यक् , ज्ञात-बुद्ध-अवगत २. आमिति उच्चर (प्रे.) ३. अनुमन् (दि. २. करुण, रोमहर्षण ३. सुन्दर, मनोहर । आ. अ.), अनुज्ञा (क्र. उ. अ.) ४. स्वी- हृदय, सं. पुं. (सं. न.) हृद् (नं.), हृत्पिडः डं, अंगी, कृ। बुक्का, अग्रमांसं २. वक्षस-उरस (न.)३.मनस-हाँ करना, मु., अप-व्यप-दिश् (तु. प. अ.), चेतस् (न.), मानसं, चित्तं ४. सारः, सारांशः, शाठयेन परिह (भ्वा. प. अ.), अस्पष्टं तत्त्वं ५. रहस्यं ६. प्रियजनः, प्राणाधारः (दे. व्याह । 'दिल', 'कलेजा', 'मन', 'जी')। For Private And Personal Use Only Page #711 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir हृदयेश्वर [ ६७३] -ग्राही, वि. ( सं.-हिन् ) हृदयहारिन, मनो- | हेठ, क्रि. वि. ( सं. अधःस्थ> ) नीचैः, अधः मोहक २. रुचिकर, प्रिय। । (दोनों अव्य.)। -वान् , वि. (सं.-वत् ) सहृदय, हृदयालु हेठा, वि.(हिं. हेठ) अवर, अधर २. ऊन, २. भावुक, रसिक। हीन ३. तुच्छ, क्षुद्र। -विदारक, वि. (सं.) हृदयवेधिन, शोक-|-पन, सं. पुं., तुच्छता, क्षुद्रता, ऊनता। जनक, करुणोत्पादक । हेठी, सं. स्त्री. (हिं. हेठा) मानहानिः (स्त्री.), -स्पर्शी, वि. (सं.-शिन्) हृदिस्पृश् , प्रभावो- अवधीरणा, अपमानः । त्पादक २. दयोत्पादक, करुणाजनक। हेड', सं. पुं. (सं.) तिरस्कारः, अवज्ञा, -हारी, वि. (सं.-रिन् ) चेतोहर, मनो· | अपमानः। हारिन् । -ज, सं. पुं. (सं.) क्रोधः, कोपः, रोषः। हृदयेश्वर, सं. पुं. (सं.) वल्लभः, प्रियतमः, | हेडर, सं. पुं. ( अं.) शिरस् (न.), शीर्ष, प्रेमपात्रं २. पतिः, भर्तृ। मुण्डं, मस्तकम् २. मुख्यः, प्रधानः, अध्यक्षः । हृदयेश्वरी, सं. स्त्री. (सं.) हृदयेशा, प्राणेशा, -कार्टर, सं. पुं. ( अं.) मुख्यालयः, मुख्यकान्ता २, पत्नी, भार्या । कार्यालयः। हृद्गत, वि. ( सं.) आन्तर, आभ्यन्तर,अभिः, हेडिंग, सं. स्त्री. (अं.) शीर्षकं, शिरःपंक्तिः अन्तर, हृद्य, अन्तर् , वर्तिन-गत, मानस, चैत्त (स्त्री.), नामन् ( न.), संज्ञा । २. अवगत, शात, बुद्ध ३. प्रिय, रुचिकर। | हेत, सं. पुं., दे. 'हेतु(१, २) । हृद्य, वि. (सं.) (१.२ ) दे. 'हृद्गत' (१-३) हेतु, सं. पु. (सं.) प्रयोजनं, अभिप्रायः, निमित्तं, २. सुन्दर ३. शान्तिप्रद ४. स्वादु, सुरस। । उद्देशः २. कारणं, बीजं, मूलं ३. युक्तिः -उपहृषीक, सं. पुं. (सं. न.) इन्द्रियं, दे। पत्तिः (स्त्री.), प्रमाणं ४. अर्थालंकारभेदः हृषीकेश, सं. पुं. (सं.) विष्णुः २. श्रीकृष्णः | (सा.)। ३. तीर्थविशेषः । -वाद, सं. पुं. (सं.) ऊहापोहः, तर्कः हृष्ट, वि. (सं.) हर्षित, सुप्रसन्न, प्रमुदित, | २. कुतर्कः, नास्तिकता, नास्तिक्यम् । आनंदित, प्रीत, पुष्ट, प्रमनस्। -~वादी, वि. (सं..दिन् ) तार्किकः २. -पुष्ट, वि. (सं.) दृढ़,-अंग-देह-तनु, पीन, नास्तिकः। मांसल, बलवत् । -विद्या, सं. स्त्री. (सं.) तर्क-हेतु, शास्त्रम् । हंगा, सं. पु. ( सं. अभ्यंगः>) मत्यं, कोटि-|-हेतुमद्भाव, सं. पुं. (सं.) कार्यकारण,-भाव(टी)शः। संबंधः। हेहें, सं. स्त्री. (अनु.) मन्दहासध्वनिः २. दैन्य- | हेत्वाभास, सं. पुं. (सं.) असद्-दुष्ट,-हेतुः । सूचकशब्दः। हेमंत, सं. पुं. (सं.) हैमनः, उष्मासहः, हे, अव्य. (सं.) अंग, भोः, हहो, हुंहो, अरे, शरदन्तः, हिमागमः, अग्रहायणपौषमासात्मकः अये, अयि, पाट् , प्याट् ( सब अव्य.)। ऋतुः। हेकड़, वि. (हिं. हिया+कड़ा ) दे. 'हृष्टपुष्ट' हेम, सं. पुं. [सं.-मन् ( न.)] सुवर्ण, दे. २. प्रचंड, उग्र ३. उइंड, वियात, धृष्ट । हेकड़ी, सं. स्त्री. (हिं. हेकड़ ) उग्रता, चंडता, -गिरि, सं. पुं. (सं.) सुमेरुः, हेम, अचल: उइंडता २. बलं, बलात्कारः, रभस् (न.), अद्रिः । रभसः। -चंद्र, सं. पुं. (सं.) जैनाचार्यविशेषः। हेच, वि. (मा.) तुच्छ, क्षुद्र २. निस्सार, हेय, वि. ( सं.) त्याज्य, त्यक्तव्य, उत्सर्जनीय, तत्त्वहीन। हातव्य २. निकृष्ट, अपकृष्ट, गद्य, निन्छ । ४३ 'सोना'। For Private And Personal Use Only Page #712 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir हेरना | ६७४ ] होनहार हेरना, क्रि. स. ( सं . आखेट: > ) अन्विष् | हैरान, वि. (अ.) चकित, विस्मित २. आकुल, उद्विग्न । (दि. प. से.), गवेषु (भ्वा. आ. से., चु. प. से.) २. दृश् ( भ्वा. प. अ. ) ३. विचर् ( प्रे. ) । - फेरना, क्रि. स. (अनु. + हिं. ) परिवृत्विपर्यस् (प्रे.), अन्यथा - वि, कृ, विनिमे (भ्वा. आ. अ. ) । हेर-फेर, सं. पुं. (हिं. हेरना + फेरना) परिवर्त:र्तनं, परिवृत्तिः (स्त्री.), विनिमय : २. विकार:, विक्रिया, विकृतिः (स्त्री.) ३. विपर्यास:, क्रमाभाव:, अव्यवस्था ४. वकोक्तिः (स्त्री.), वागाडंबर: ५. कपट, छलं ६ अन्तरं, भेदः । हेरा-फेरी, सं. स्त्री. दे. 'हेर-फेर' | हेलमेल, सं. पुं. (हिं. हिलना + मिलना ) दृढ़-गाढ, सौहृदं-सौहार्दृ-सख्यं - मैत्री २. संगतिः (स्त्री.), संपर्क: ३. परिचयः । हैवान, सं. पुं. (अ.) पशुः, चरिः, मृगः २. जडः, मूर्ख, असभ्यः । हैवानियत, सं. स्त्री. (अ.) पशुता-त्वं २. अशिष्टता, असभ्यता ३. क्रूरता । हैवानी, वि. ( अ. हैवान) पाशव, पशु-तुल्यसम २. क्रूर, निष्ठर । हैसियत, सं. स्त्री. (अ.) सामर्थ्य, योग्यता २. आर्थिकावस्था, धनबलं ३. धनं, वित्तं ४. संमानः । प्रतिष्ठा ४. मूल्यं, अर्ध: । है है, अन्य. ( सं . हा हा ) हंत, हा इन्त, कष्टं, दुःखम् । हेला', सं. स्त्री. (सं.) अव-अप, मान:, अवज्ञा, तिरस्कारः २. प्रमादः, उपेक्षा ३. क्रीडा, खेला ४. सुकर-सुसाध्य, कार्ये ५. शृंगारचेष्टा, केलिः (स्त्री.) -ली ६. नारीणां सुरतलालसा । हेला, सं. पुं. दे. 'हल्ला' । हैं', अन्य. (अनु.) (निषेध) मा, मास्म, अलं २. ( आश्चर्य ) अहो, ही । —हैं, अव्य. (अनु.) मा मा, अलं अलं २. ही ही । हैं?, क्रि. अ. (हिं. होना ) सन्ति-विद्यन्तेवर्तन्ते ( लट्, बहु. ) 1 हैंडबेग, सं. पुं. ( अं. ) (चर्ममयी ) करपेटिका २. कर, प्रसेवः संपुटः । हैंडल, सं. पुं. (अं. ) मुष्टि: (स्त्री.), वारंग : । है, क्रि. अ., (हिं. होना ) अस्ति-विद्यते वर्तते ( लट् ) । हैकल, सं. स्त्री. (सं.हः+गलः>) अश्वग्रैवेयकं २. 'हमेल' | हैजा, सं. पुं. ( अ ज ) विषूचिका, दे. | हैट, सं. पुं. ( अं. ) गुरुङ-आंगल, शिरस्त्राणं शीर्षकम् । हैफ़, अव्य. (अ.) हा, हन्त, खेदः, शोकः । हैबत, सं. स्त्री. (अ.) त्रासः, भयम् । - नाक, वि. (अ.) भीम, भयंकर । हैरत, सं. स्त्री. (अ.) आश्चर्य, विस्मयः । होंठ, सं. पुं. (सं. ओष्ठः ) दंत-रद-दशन, च्छदः, दे. 'ओठ' । - फटना, सं. पुं., ओष्ठभेदः । - काटना या चबाना, मु., क्रुध् (दि. प. अ.), आन्तरक्षोभं प्रकटयति ( ना. धा. ) । - हिलाना, मु., वक्तुं उपक्रम (भ्वा. आ. अ.) । हो, अभ्य. ( सं . ) 'हे' । होटल, सं. पुं. (अं.) भोजनशाला २. पाथ शाला । होड़, सं. स्त्री. (सं. हारः = युद्ध ) पणः, ग्लद्दः २. प्रतिस्पर्द्धा, विजिगीषा ३. आग्रहः । —बदना, बाँधना या लगाना, क्रि. स., ग्लहू (भ्वा. प. से, चु.), दिव् ( दि. प. से.), पण (भ्वा. आ. से.) २. विजिगीषते (सन्नन्त), स्पर्ध (भ्वा. आ. से. ) । होड़ाबादी, सं. स्त्री. होड़ होड़ी, सं. स्त्री. } (हिं. होड़ ) दे. 'होड़ ' ( १-२ ) । होता, सं. पुं. ( सं . होतृ ) ऋत्विग्भेद:, होत्रिन्, होमकर्तृ, यष्टृ । होत्र, सं. पुं. ( सं. न. ) यशः, यागः, मखः हवनम् २. यज्ञ-हवन,-सामग्री, हविस् (न.), (हिं. होड़ + बदना) हव्यम् । होत्री, सं. पुं. (सं. त्रिन्), होट, याजकः, यष्टृ, ऋत्विग्भेदः, होमकर्तृ । होनहार, वि. (हिं. होना ) सल्लक्षण, उन्नतिशील, आशाजनक, सिद्धिसूचक २. भाविन्, For Private And Personal Use Only Page #713 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir होना [६७५ ] हौंकना भविष्यत्, भवितव्य। सं. स्त्री., भवितव्यता, | होला', सं. पुं. (सं. होलकः ) तृणाग्निभष्टानियतिः ( स्त्री.), भाग्यं, दैवं, विधिः । पक्वशमीधान्यम् । होना, कि अ. ( सं. भवनं ) भू , अस् (अ. प.), होला, सं. पु. ( सं. होली ) सिक्खानां होलि. वृत ( भ्वा. आ. अ.), विद् ( दि. आ. अ.), कोत्सवः। अवस्था ( भ्वा. आ. अ.) २. भू , जन् (दि. होली, सं. स्त्री. (सं.) होलिका, होलाका, आ. से.), संपद् (दि. आ.अ.), परिणम् | २. होलिकादहनार्थस्तृणकाष्ठराशिः ३. होलि( भ्वा. प. अ.) ३. कृ.अनुष्ठा-विधा ( कर्म.) कागीतम् । ४. रच-निर्मा ( कम.) ५. घट-संवृत् (भ्वा. -खेलना, मु., होलिकोत्सवे रम् (भ्वा. आ. आ. से.), समापद् (दि. आ. अ.), आपत् अ.), खेल-क्रीड् (न्वा. प. से.), अन्योन्यं (भ्वा. प. से.) ६. (रोगादिभिः) पीड रंज (प्रे.)। ( कर्म.) ७. अति-व्यति,-इ ( अ. प. अ.), व्यतिक्रन् ( भ्वा. प. से.) ८. उत्पद् (दि. होल्डर, सं. पुं. (अं.) लेखनीदंडः २. लेखनी। आ. अ.), जन् (दि. आ. मे.) ९. जीव ( भ्वा. प. से.)। सं. पुं. तथा भाव, सत्ता, होश, सं. पुं. ( फा.) संज्ञा, चैतन्यं २. स्मरणं, अस्तित्वं, अव-,स्थितिः (स्त्री.), सद्भावः, | स्मृतिः ( स्त्री.) ३. बुद्धिः मतिः (स्त्री.)। वर्तन, विद्यमानता इ.। -मंद, वि. (का.) धी बुद्धि-मति, मत् । होने योग्य, भवितव्य, शक्य, संभाव्य, संभव--हवास, सं. पुं. (झा+अ.) संशावुद्धी नीय, संपादनीय, साध्य । २. चैतन्यम् । होनेवाला, भाविन्, भविष्यत् , भवितव्य, -उड़ना या जाता रहना, मु., (मायादिभिः) दे. 'होने योग्य। निस्तब्धी-जड़ी-अत्याकुली,-भू । हुआ हुआ, वि., भूत, वृत्त, जात, संपन्न, |-करना, मु., सावधान-अवहित (वि.) भू। निष्पन्न, अनुष्ठित, विहित, रचित, निर्मित, |-ठिकाने होना, मु., मोहः-भ्रान्तिः ( स्त्री.) उत्पन्न इ.। नश ( दि. प. वे.) २. चेतः स्वास्थ्यं आपद् ( जो ) हुआ सो हुआ, मु., अतीतं विस्मर (दि. आ. अ.) ३. गवनाशः जन् (दि. आ. २. यद् भूतं न तद्भावि । से.) दंडं भुक्त्वा अनुतप् (दि. आ. अ.)। हो आना, मु., दृष्ट्वा-मिलित्वा आगम् -दंग होना, मु., आश्चर्यस्तब्धः (वि.) जन् (भ्वा. प. अ.)। (दि. आ. से.), चकितचकित (वि.) भू। होकर या होते हुए, मु., मध्यतः, मार्गेण । -दिलाना, मु., स्मृ (प्रे.)। हो चुकना या-जाना, मु., सं. निष् , पद् (दि. -में आना, मु., प्रकृति आपद् (दि. आ. अ.), आ. अ.), समाप् ( स्वा. प. अ.)। संशा लभ ( भ्वा. आ. अ.)। हो न हो, मु., निःसंदेहं, निःसंशयम् । -सँभालना, मु., प्रौढ-प्राप्तवयस्क (वि.) होनी, सं. स्त्री. (हिं. होना) उत्पत्तिः (स्त्री.),/ जन् २. सावधानो भू। जन्मन् ( न.) २. वृत्तं, वृत्तांतः ३. दे. 'होन- होशियार, वि.(फा.) बुद्धिमत, चतुर, प्रश हार' सं. स्त्री. ४. संभाव्य-शक्य, वार्ता। २. निपुण, कुशल ३. सावधान, अवहित होम, सं. पु. ( सं.) देव यज्ञः, दे. 'हवन'।। ४. धूतं, मायाविन् ५. पक्वबुद्धि । होमना, क्रि. स., दे. 'हवन करना' । होशियारी, सं. स्त्री. (फा.) बुद्धि-धी,-मत्ता, होमियोपैथी, सं. स्त्री. ( अं.) समचिकित्सा, | २. दक्षता, नैपुण्यं ३. सावधानता। चिकित्सापद्धतिविशेषः । होस्टल, सं. पुं. (अं. होस्टेल ) छात्रावासः, होरा, सं. स्त्री. (सं., यूनानी से लिया गया)। छात्रालयः । लग्नं २. राश्य ३. जन्मपत्रिका ४. जातकं, | हाँकना, क्रि. अ. (सं. हुकरणं) हुंकृ, गर्ज जातकशास्त्रं ५. दे. 'घंटा' (= ६० मिनट )।। (भ्वा. प. से.) २. दे. हाँफ(प)ना'। For Private And Personal Use Only Page #714 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir हौआ [ ६७६) हौआ, सं. पुं. (अनु. हौ) भूतः, पिशाचः,, -पस्त होना, मु., हतोत्साह-भग्नहृदय डाकिनी, शिशुत्रासाथै काल्पनिकं भयभूलम् ।। (वि.) भू । सं. स्त्री., दे. 'हौवा'। हृद, सं. पुं. (सं.) अगाधजलाशयः, महाहोका. सं. पुं. (अनु. हाव) औदरिकता, तडागः २. तटाकः, कासारः, सरसी ३. नादः। घस्मरता २. लोभ-तृष्णा, अतिशयः। हसित, वि. (सं.) अल्पी-न्यूनी, कृत-भूत, हौज़, सं. पुं. (अ.) कुंडं, जलाशयः, क्षुद्र. संक्षिप्त, संकुचित। तडागः २. बृहन्मृद्भाडं, दे. 'नाँद'। हसिमा, सं. स्त्री. (सं.-मन् पुं.) हस्वता, हौदा, सं. पु. (का. हौजह ) परिस्तो(टो)मः, | अल्पता,क्षुद्रता। प्रवेणी, भास्तरणं, कुथः-था-थम् । हस्व, वि. (सं.) लघु, क्षुद्र, दभ्र, अल्प, होल, सं. पुं. (अ.) भयं, संत्रासः। दैर्ध्य-आयाम, शून्य २. ऊन, न्यून, हीन ३. -नाक, वि. (अ.+फा.) भयंकर, त्रासन ।। खर्व, न्यंच ४. अवनत, नीच ५. क्षुद्र, होले, क्रि. वि. (हिं. हरुआ ) शनैः, शनकैः, तुच्छ। सं. पुं. (सं.) वामनः २. लघुवर्णः मंद २. मृदु, कोमलम् ( सब अव्य.)। (अ. इ. उ. इ.)। हौवा, सं. स्त्री. (अ.) आदमपत्नी, *हव्वा, हास, सं. पुं. (सं.) अपकर्षः, अवनतिः (स्त्री.), पृथिव्या प्रथमा नारी मानवजातेः जननी च। क्षयः, अधोगतिः ( स्त्री.), अपचयः, ध्वंसः, सं. पुं., दे. 'हौआ'। भ्रंशः। हौस, सं. स्त्री., दे. 'हवस'। -होना, क्रि. अ., क्षि ( कर्म.), हस ( भ्वा. हौसला, सं. पुं. (अ.) लालसा, उत्कंठा प. से.), अपचि ( कर्म.)। साहसं, उत्साहः ३. हर्षः, प्रफुल्लता। ही, सं. स्त्री. (सं.) लज्जा, त्रपा, ब्रीडा । -मंद, वि. (फा.) उत्कंठित, अत्यभिलापिन् ह्लाद, सं. पुं. ( सं.) आनंदः, प्र, मोदः, हर्पः। २. साहसिन्, उत्साहिन् ३. हृष्ट, प्रफुल्ल । ह्विस्की, सं. स्त्री. ( अं.) आंग्लमद्यभेदः । -निकालना, मु., आकांक्षा-वाञ्छां-स्पृहा संपद् ह्वेल, सं. पुं. ( अं.) तिमिगल:, तिमिः, हेल. (प्रे.)-सम्पूर (प्रे.)। । मत्स्यः । For Private And Personal Use Only Page #715 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रथम परिशिष्ट संस्कृत-सूक्तियों का हिन्दी-अनुवाद संस्कृत हिन्दी अकालमेघवद् वित्तमकस्मादेति याति च। धन अकाल-मेघ के समान अकस्मात आता. (कथासरित्सागर ) । जाता है। अक्षोभ्यतैव महतां महत्त्वस्य हि लक्षणम् ।। क्षुब्ध न होना हो बड़ों के बड़प्पन का चिह्न है। (कथा०) अगच्छन् वैनतेयोऽपि पदमेकं न गच्छति । | बिना चले तो गरुड़ भी पग-भर भी नहीं जा सकता। अगुणस्य हतं रूपम् । निर्गुण व्यक्ति का रूप किस काम का ? अङ्कमारुह्य सुप्तं हि हत्वा किं नाम पौरुषम् ? गोद में सोये हुए की हत्या में कहाँ की वीरता है। अङ्गीकृतं सुकृतिनः परिपालयन्ति । श्रेष्ठ लोग कही हुई बात को पूरा करते हैं। अचिन्त्यं हि फलं सूते सद्यः सुकृतपादपः। पुण्यरूपी वृक्ष शीघ्र ही अचिन्त्य फल देता है। (कथा०) अजीणे भोजनं विषम् । अपच में भोजन विष तुल्य होता है। अज्ञता कस्य नामेह नोपहासाय जायते? | अज्ञान के कारण किसका उपहास नहीं होता ? अतिदानाद् बलिर्बद्धः। अत्यधिक दान से बलि को बँधना पड़ा। अतिपरिचयादवज्ञा, संततगमनादनादरो बहुत मेल-जोल से अवज्ञा होती है और किसी भवति। के यहाँ अधिक जाने से अनादर । अतिभुक्तिरतीवोक्तिः सद्यः प्राणापहारिणी।। बहुत खाने और बहुत बोलने से तुरन्त मृत्यु हो जाती है। अतिलोभो न कर्तव्यः। अत्यधिक लोभ नहीं करना चाहिए। अति सर्वत्र वर्जयेत् । सब बातों में 'अति' त्याज्य है । अतृणे पतितो वह्निः स्वयमेवोपशाम्यति । | जो आग तृणादि पर नहीं पड़ी, वह स्वयमेव बुझ जाती है। अधरेष्वशुतं हि चोषितां हृदि हालाहलमेव | स्त्रियों के ओठों में तो अमृत रहता है किंतु केवलम् । हृदय में भयंकर विष । अधर्मविषवृक्षस्य पच्यते स्वादु किं फलम् ? क्या कभी अधर्मरूपी विषवृक्ष पर सरस फल (कथा०) ___लग सकते हैं ? अधिकस्याधिकं फलम् । जितना गुड़ उतना मीठा । अनध्वा वाजिनां जरा। सदा बँधे रहनेवाले घोड़े बूढ़े हो जाते हैं। अनन्यगामिनी पुंसां कीर्तिरेका पतिव्रता। पुरुषों की स्थायी कीति पतिव्रता नारी के समान होती है। अनपेक्ष्य गुणागुणौ जनः स्वरुचि निश्चयतोऽ- वस्तुतः मनुष्य गुण-दोष की उपेक्षा करके रुचि नुधावति । (शिशुपालवधे ) के अनुसार ही कार्य करता है। अनवसरे याचितमिति सत्पात्रमपि कुप्यते | यदि कुअवसर पर माँगा जाए तो दानी मनुष्य दाता। सत्पात्र पर भी क्रोध करता है। For Private And Personal Use Only Page #716 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir । ६७८ अनार्यः परदारव्यवहारः। (अभिज्ञानशाकुन्तले), पराई स्त्रियों से सम्बन्ध रखना आर्योचित नहीं। अनार्यसंगमावरं विरोधोऽपि समं महा- अनार्यों ( दुष्टों ) के साथ मेल-जोल की अपेक्षा त्मभिः । (किरातार्जुनीये) महात्माओं से वैर अच्छा। अनाश्रया न शोभन्ते पण्डिता वनिता | विद्वान्, स्त्रियाँ और लताएँ. आश्रय के विना लताः। शोभा नहीं देती। अनिर्वर्णनीयं परकलत्रम् । ( अभिज्ञान०) पराई स्त्रियों की ओर ताकना न चाहिए । अनुकूलेऽपि कलत्रे नीचः परदारलम्पटो पत्नी के अनुकूल होने पर भी नीच मनुष्य भवति । परदाराभिगमन करता है। अनुत्सेकः खलु विक्रमालंकारः। नव्रता वीरता का भूषण है। अनुभवति हि मूर्ना पादपस्तीव्रमुष्णं वृक्ष स्वयं तो कड़ी धूप सहता है, परन्तु शरणा शमयति परितापं छायया संश्रिता. गतों के ताप को छाया से शान्त कर नाम् । ( अभिज्ञान०) देता है। अनुसृत्य सतां वर्त्म यत्स्वल्पमपि तद् बहु । सज्जनों के मार्ग पर चलते हुए थोड़ा भी मिले तो बहुत समझिए। अनुहंकुरुते धनध्वनि नहि गोमायुरुतानि | सिंह मेघ गर्जन सुनकर तो दहाड़ता है, गीदड़ों केसरी। (शिशु०) । की ध्वनि सुनकर नहीं। अन्तःसारविहीनानामुपदेशो न विद्यते। जबुद्धि मनुष्य को शिक्षा देना व्यर्थ है। अन्यायं कुरुते यदा क्षितिपतिः कस्तं जब राजा ही अन्याय करने लग पड़े तब उसे निरोर्बु क्षमः? कौन रोक सकता है ? अपथे पदमर्पयन्ति हि श्रुतवन्तोऽपि रजो. रजोगुण से अभिभूत विद्वान् भी कुमार्गगामी निमीलिताः । (रघुवंशे) बन जाते हैं। अपन्थानं तु गच्छन्तं सोदरोऽपि विमुञ्चति । कुपथगामी का साथ सगा भाई भी नहीं देता। . अपायो मस्तकस्थो हि विषयग्रस्तचेतसाम्। विपत्तियाँ विषयी लोगों के सिर पर मँडराती (कथा०) रहती है। अपि धन्वन्तरिवैद्यः किं करोति गतायुषि। जब आयु समाप्त हो जाती है तब वैद्य धन्वन्तरि भी कुछ नहीं कर सकता। अपि स्वदेहात् किमुतेन्द्रियार्थाद्यशोधनानां यशस्वी लोग, भोगों की तो बात ही क्या, हि यशो गरीयः । ( रघु०) ___ स्वशरीर से भी यश को श्रेष्ठ समझते हैं । अपुत्रस्य गृहं शून्यम् । पुत्रहीन व्यक्ति के लिए घर सूना होता है ।। अपेक्षन्ते हि विपदः किं पेलवमपेलवम् ! विपत्तियाँ लक्ष्य की कोमलता वा कठोरता नहीं (कथा०) देखा करती। अप्रकटीकृतशक्तिः शक्तोऽपि जनस्तिरस्क्रियां जो बलवान् निज बल को कभी प्रकट नहीं लभते। करता वह तिरस्कार का भाजन बनता है। अप्राप्यं नाम नेहास्ति धीरस्य व्यव- धीर और व्यवसायी व्यक्ति के लिए संसार में सायिनः । (कथा) । कोई भी वस्तु अप्राप्य नहीं । अप्रियस्य च पथ्यस्य वक्ता श्रोता च कड़वी परन्तु हितकर बात कहने और सुनने दुर्लभः। । वाले व्यक्ति दुर्लभ है। अबला यत्र प्रबला। | जहाँ स्त्री सबल हो । अभद्रं भद्रं वा विधिलिखितमुन्मूलयति | बुरा हो या भला, विधाता के लेख को कौन का? मिटा सकता है ? अभितप्तमयोऽपि मार्दवं भजते कैव कथा | तपाने पर लोहा भी पिघल जाता है, प्राणियों शरीरिषु ! ( रघु०) की तो बात ही क्या ? अभोगस्य हतं धनम् । | जो भोगता नहीं, उसका धन व्यर्थ है। For Private And Personal Use Only Page #717 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [ ६७६ ] अमर्षणः शोणितकाङ्क्षया किं पदा स्पृशन्तं । क्या उग्र सर्प पाँव से छूनेवाले व्यक्ति को लहू दशति द्विजिह्वः ? ( रघु०) पीने की इच्छा से काटता है ? अस्मृतं क्षीरभोजनम् । खीर-रूपी भोजन अमृत है। अमृतं प्रियदर्शनम् । प्रिय पदार्थ का दर्शन अमृत है। अमृतं राजसंमानम्। राजा से प्राप्त सम्मान अमृत है। अमृतं शिशिरे वह्निः। जाड़ों में अग्नि अमृत है। अम्बुगर्भो हि जीमूतश्चातकैरभिनन्द्यते ।(रघु०) पपीहे जलपूर्ण बादल की ही प्रशंसा करते हैं । अयशोभीरवः किं न कुर्वते बत साधवः! | अपयश से डरने वाले सज्जन क्या नहीं करते ! . (कथा) अयातपूर्वा परिवादगोचरं सतां हि वाणी सज्जनों की वाणी, निन्दा के मार्ग से अपरिचित __गुणमेव भाषते। (किरातार्जुनीय ) होने के कारण, गुणों का ही वर्णन करती है। अरुंतुदत्वं महतां ह्यगोचरः। (किरात०) बड़े लोग किसी का जी नहीं दुखाते। अर्थमनर्थ भावय नित्यं, सदा ही धन को दुःखरूप समझो, वस्तुतः उससे नास्ति ततः सुखलेशः सत्यम् । तनिक भी सुख नहीं। अर्थातुराणां न गुरुन बंधुः। धन के लोभी गुरु और बन्धु तक का ध्यान नहीं करते। अर्थो हि कन्या परकीय एव । (अभिज्ञान०) कन्या पराया ही धन है। अधों घटो घोषमुपैति नूनम् । अधजल गगरी छलकत जाए। अल्पविद्यो महागी। थोड़ी विद्या वाला व्यक्ति बहुत ही गर्वीला होता है। अल्पश्च कालो बहवश्च विघ्नाः । समय थोड़ा है और विघ्न बहुत ।। अल्पीयसोऽप्यामयतुल्यवृत्तमहापकाराय रोग की तरह स्वभाव वाले छोटे से शत्रु की रिपोर्विवृद्धिः । (किरात.) उन्नति से भी भारी अनिष्ट होता है। अवस्तुनि कृतक्लेशो मूल् यात्यवहास्य- तुच्छ वस्तु के लिए कष्ट उठाने वाला मूर्ख ताम् । (कथा) __ उपहासास्पद बनता है। अविद्याजीवनं शून्यम् । अविद्यापूर्ण जीवन सूना है। अविनीता रिपुभार्या । नम्रता-रहित पत्नी शत्रु है। अव्यवस्थितचित्तस्य प्रसादोऽपि भयंकरः। जिसका मन ठिकाने न हो, उसकी कृपा भी भयावनी होती है। अशीलस्य हतं कुलम् । शीलरहित व्यक्ति की कुलीनता व्यर्थ है। अश्नुते स हि कल्याणं, व्यसने यो न | जो विपत्ति में विमूढ़ नहीं होता वह अवश्य ही मुह्यति । कल्याणभागी बनता है। अश्रेयसे न वा कस्य विश्वासो दुर्जने जने? दुष्ट जन पर विश्वास करने से किसका अनिष्ट नहीं होता? असन्तुष्टा द्विजा नष्टाः। संतोष-हीन-ब्राह्मण नष्ट हो जाते हैं। असन्मैत्री हि दोषाय कूलच्छायेव सेविता। दुर्जनों की मित्रता कगार की छाया के समान (किरात०) ___अनर्थकारिणी होती है। असारे दग्धसंसारे सारं सारङ्गलोचनाः। इस दुःखपूर्ण निस्सार संसार में साररूप तो केवल मृगनयनियाँ ही हैं। असिद्धार्था निवर्तन्ते न हि धीराः कृतो- | उद्यमी धीर कार्यसिद्धि से पूर्व नहीं रुकते। द्यमाः। (कथा) असिद्धेस्तु हता विद्या। | सिद्धि के बिना विद्या व्यर्थ है। For Private And Personal Use Only Page #718 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [ ६८० ] अस्थिरं जीवितं लोके । अस्थिरः पुत्रदाराश्च । अस्थिरे धनयौवने | स्वयं लोकविद्विष्टम् । अहितो देहजो व्याधिः । अहो चित्राकारा नियतिरिव नीतिर्नयविदः । अहो दुरन्ता बलवद्विरोधिता । ( किरात ० ) अहो दैवाभिशप्तानां प्राप्तोऽप्यर्थः पलायते । ( कथा० ) अहो रूपम्, अहो ध्वनिः । आकण्ठजलमग्नोऽपि श्वा लिहत्येव जिह्वया । आचारः प्रथमो धर्मः । आज्ञा गुरूणां ह्यविचारणीया । ( रघु० ) जगत् में जीवन अस्थिर है । पुत्र और कलत्र अस्थिर हैं । धन और यौवन अस्थिर हैं । लोकविरुद्ध आचरण सुखदायक नहीं होता | शरीर में उत्पन्न रोग शत्रु है । नीतिज्ञ की नीति नियति के समान विचित्र रूपों वाली होती है । बलवान् से विरोध करने का परिणाम बुरा ही होता है । हा ! देव से शापित लोगों के बने हुए काम भी बिगड़ जाते हैं । वाह ! क्या रूप है और क्या स्वर ! गले तक पानी में डूबा हुआ भी कुत्ता जल को जीभ से ही चाटता है । आचार सर्वोत्तम धर्म है । गुरुजनों की आज्ञा का बिना विचारे ही पालन करना चाहिए । आत्मार्थे पृथिवीं त्यजेत् । आदानं हि विसर्गाय सतां वारिमुचामिव । ( रघु० ) आपत्काले च कष्टेऽपि नोत्साहस्त्यज्यते बुधैः । (कथा० ) आपत्सु धीरान् पुरुषान् स्वयमायान्ति संपदः । ( कथा० ) आपदि स्फुरति प्रज्ञा यस्य धीरः स एव हि। ( कथा० ) आपद्यपि सतीवृत्तं किं मुञ्चन्ति कुलस्त्रियः ? ( कथा० ) आपन्नार्तिप्रशमनफलाः संपदो ह्युत्तमानाम् ( मेघदूते ) आमुखापाति कल्याणं कार्यसिद्धिं हि शंसति । ( कथा० ) । आये दुःखं व्यये दुःखं धिगर्थाः कष्टसंश्रयाः । धन का आगम और व्यय दोनों ही दुःखपूर्ण | आरब्धे हि सुदुष्करेऽपि महतां मध्ये विरामः कुतः । ( कथा० ) होते हैं; इस दुःखदायक धन को धिक्कार है । आरम्भ किये हुए अत्यन्त कठिन काम में भी बड़े लोग बीच में नहीं रुकते । आर्जवं हि कुटिलेषु न नीतिः । कुटिलों के साथ सरलता का व्यवहार नीति नहीं है। ( नैषधीयचरिते ) आलस्योपहता विद्या । आवेष्टितो महासपैंश्चन्दनः किं विषायते ? आलस्य विद्या का विनाशक है । सर्पों से परिवेष्टित चन्दन क्या विषैला हो जाता है ? आहार और व्यवहार में संकोच छोड़कर सुखी रहे । आहारे व्यवहारे च त्यक्तलज्जः सुखी भवेत् । अपने रक्षार्थ पृथ्वी को भी त्याग दे । मेघों के समान सत्पुरुषों का आदान भी प्रदान के लिए ही होता है । विपत्ति और कष्ट के समय में भी बुद्धिमान् उत्साह नहीं छोड़ते । आपत्तियों में धैर्य रखने वालों के पास सम्पत्तियाँ स्वयमेव आती हैं । जिसकी बुद्धि आपत्ति में चमकती है, वह धीर है । क्या कुलीन ललनाएँ आपत्ति में भी सतीत्व का त्याग करती हैं ? उत्तम जनों का धन दुखियों के दुःख दूर करने पर ही सफल होता है । कार्यारम्भ में होने वाला मंगल, कार्यसिद्धि का सूचक होता है । For Private And Personal Use Only Page #719 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [६८१] आहुः सप्तपदी मैत्री। | सात पग साथ-साथ चलने को मैत्री कहते हैं। इतो भ्रष्टस्ततो भ्रष्टः। न इधर के रहे न उधर के रहे । इदं च नास्ति न परं च लभ्यते। न यह रहा, न वह मिला। इन्द्रोऽपि लघुतां याति स्वयं प्रख्या- अपने मुंह मियाँ निठू बनकर इन्र भी गौरवपितैर्गुणः। हीन हो जाता है। इन्धनौषधगप्यग्निस्त्विषा नात्येति पूष- ईधन के बहुत बड़े ढेर को जलानेवाली आग भी णम् । (शिशु०) अपनी ज्योति से सूर्य को मात नहीं कर सकती। इष्टं धर्मेण योजयेत् । अभिलापा धर्मानुसारिणी चाहिए । इहामुत्र च नारोणां परमा हि गतिः पतिः। | लोक और परलोक में स्त्रियों का परम आश्रय (कथा) । पति ही है। ईर्ष्या हि विवेकपरिपन्थिनी । ( कथा०) । | ईर्ष्या विवेक की शत्रु है। ईश्वराणां हि विनोदरसिकं मनः । (किरात०) | धनाढ्य लोग विनोदी होते हैं । उत्सवप्रियाः खलु मनुष्याः । (अभिज्ञान०) | मनुष्य उत्सवप्रिय होते हैं। उत्साहैकधने हि वीरहृदये नाप्नोति खेदो- वीरों के उत्साहपूर्ण हृदय में खेद के लिये ___ऽन्तरम् । (कथा) ___ अवकाश कहाँ! उदारचरितानां तु वसुधैव कुटुम्बकम् । | उदारचरित लोगों के लिये तो सारी भूमि ही कुटुम्ब है। उदारस्य तृणं वित्तम्। उदार व्यक्ति के लिये धन तृणतुल्य है। उदिते तु सहस्रांशी न खद्योतो न चन्द्रमाः। सूर्य के उदय पर न जुगुनू की चमक रहती है, न चाँद की। उदिते परमानन्दे नाहं न त्वं न वै जगत् । ब्रह्मानन्द की प्राप्ति होने पर मैं, तू और जगत् का ज्ञान नहीं रहता। उद्योगः पुरुषलक्षणम् । उद्योग ही पुरुष का लक्षण है। उन्नतो न सहते तिरस्क्रियाम् । उच्च व्यक्ति तिरस्कार नहीं सहता। उपदेशो हि मूर्खाणां प्रकोपाय न शान्तये ।। मूर्ख लोग उपदेश से प्रकुपित होते हैं, शांत नहीं। उप्तं सुकृतबीजं हि सुक्षेत्रेषु महत्फलम्। उत्तम पात्रों में बोया हुआ पुण्यरूपो बीज महान् (कथा०) । फल देता है। उष्णत्वमग्न्यातपसंप्रयोगाच्छैत्यं हि यत् सा जल का स्वाभाविक गुण तो शीतलता है, उसमें प्रकृतिलस्य ( रघु०) ___गर्मी तो अग्नि या धूप के संसर्ग से आती है। उष्णो दहति चाङ्गारः शीतः कृष्णायते | गर्म अङ्गार हाथ को जलाता है, ठण्ढा कलुषित करम् । करता है। ऋणकर्ता पिता शत्रुः । ऋण लेनेवाला पिता शत्रु है। ऋद्धिश्चित्तविकारिणी। | ऐश्वर्य चित्त को विकृत कर देता है। एको हि दोषो गुणसन्निपाते निमज तीन्दोः गुण-समुदाय में अकेला दोष ऐसे छिप जाता किरणेष्विवाङ्कः । ( कुमर०) . है जैसे किरणों में चाँद का कलंक । क उष्णोदकेन नवमल्लिका सिञ्चति ! अभि०) | मोतिये के पौधे को गर्म जल से कौन सींचता है ! कणशः क्षणशश्चैव विद्यामर्थञ्च साधयेत् । विद्या और धन का संग्रह क्षण-क्षण में कण-कण करके करते रहना चाहिए। कण्ठे सुधा वसति वै खलु सज्जनानाम् ।(कथा०) अमृत सज्जनों के कण्ठ में ही रहता है। . कमलवनभूषा मधुकरः। भ्रमर कमल-समूह का अलंकार है। कर्तव्यं हि सतां वचः । ( कथा०) सत्पुरुषों के वचनानुसार चलना चाहिए। . कर्तव्यो महदाश्रयः। | आश्रय बड़ों का ही लेना चाहिए। For Private And Personal Use Only Page #720 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [ ६८२] कुर्वतः! कर्मणो गहना गतिः। कर्म की गति गहन है। कर्मणो ज्ञानमतिरिच्यते। कर्म से ज्ञान बढ़कर है। कर्मदोषाद दरिद्रता। दरिद्रता कर्म-दोष का फल है। कर्मानुगो गच्छति जीव एकः । अकेला जीव कर्मानुसार गति पाता है। कर्मायत्तं फलं पुंसाम् । मनुष्य को फल की प्राप्ति कर्मानुसार होती है। कलासीमा काव्यम् । कला की सीमा काज्य है। कवयः किं न पश्यन्ति ! कवि क्या नहीं देखते ! कवले पतिता सद्यो वमयति ननु मक्षिकान-ग्रास में गिरी हुई मक्खी भोजनकर्ता को तुरन्त भोक्तारम् । वमन करा देती है। कष्टं निर्धनिकस्य जीवितमहो दारैरपि | हा ! निर्धन का जीवन इतना दुःखपूर्ण होता त्यज्यते। है कि पत्नी भी उसका साथ छोड़ देती है। कष्टः खलु पराश्रयः। दूसरे का भरोसा दुःखदायक होता है । कष्टादपि कष्टतरं परगृहवासः परान्नं च। पराये घर में निवास और पराये अन्न से निर्वाह सबसे बड़े दुःख हैं। कस्त्यागः स्वकुटुम्बपोषणविधावर्थव्ययं | अपने कुटुम्ब के पालन में ही धन व्यय करने. वाले व्यक्ति का त्याग भी कोई त्याग है ! कस्य नेष्टं हि यौवनम् ? ( कथा ) यौवन किसे अच्छा नहीं लगता ? कस्यचित् किमपि नो हरणीयम् । किसी का भी कुछ भी चुराना नहीं चाहिए। कस्य नोच्छखलं बाल्यं गुरुशासनवर्जितम् ? | गुरु का शासन न होने से किसका बचपन उच्छ (कथा०) हल नहीं हो जाता ? कस्य सत्संगो न भवेच्छुभः ? ( कथा० ) सत्सङ्ग किसका भला नहीं करता ? कः कालस्य न गोचरान्तरगतः। काल के क्षेत्र से बाहर कौन है ! कः परः प्रियवादिनाम् । मधुरभाषी का कोई शत्रु नहीं होता । कः पैतामहगोलकेऽत्र निखिलैः सम्मानितो | इस ब्राह्मण में सर्वसम्मानित कौन है ? वर्तते? कः प्राज्ञो वाञ्छति स्नेहं वेश्यासु सिकता- | कौन-सा विद्वान् वेश्याओं और रेत से स्नेह सुच? ( कथा०) (प्रेम, तेल ) चाहता है ? कः सूनूविनयं विना! विनय से रहित पुत्र क्या ! काकाः किमपराध्यन्ति हंसैर्जग्धेषु शालिपु! | जब धानों को हंस खा गये तब कौए क्या (कथा.) अपराध करेंगे! कान्ता रूपवती शत्रुः । सुरूपा पत्नी शत्रु है। कामं व्यसनवृक्षस्य मूलं दुर्जनसंगतिः। बुरी संगत व्यसन-रूपी वृक्ष की जड़ है। (कथा०) कामातुराणां न भयं न लजा। कामपीड़ित व्यक्ति भय और लज्जा से रहित होते हैं। कामिनश्च कुतो विद्या? कामी को विद्या कहाँ ? कायः कस्य न वल्लभः ? शरीर किसे प्यारा नहीं होता ? कालस्य कुटिला गतिः। काल की चाल टेढ़ी होती है। काले खलु समारब्धाः फलं बध्नन्ति | समय पर प्रयुक्त नीतियाँ अवश्य फल लाती हैं। नीतयः । (रघु०) काले दत्तं वरं ह्यल्पमकाले बहुनापि किम् ! समय पर दिया हुआ थोड़ा भी दान असमय (कथा) । पर दिये हुए बड़े दान से अच्छा होता है ।। For Private And Personal Use Only Page #721 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [ ६८३ | कालेन फलते तीर्थ, सद्यः साधुसमागमः । का विद्या कवितां विना ? काश्मीरजस्य कटुतापि नितान्तरस्या । का बिजनी विना हंस, करन हंसोऽब्जिनीं विना ? ( कथा० ) किं हि न भवेदीश्वरेच्छया ? ( कथा० ) किं किं करोति न निरर्गलतां गता स्त्री ? किञ्चित्कालोपभोग्यानि यौवनानि धनानि च। कुराजान्तानि राष्ट्राणि । कुरूपता शोलतया विराजते । कुरूपी बहुचेष्टिकः । कुलवधूः का स्वामिभक्तिं विना ? कुले कश्चिद्धन्यः प्रभवति नरः श्लाध्य महिमा | कुवत्रता शुभ्रतया विराजते । कुवाक्यान्तं च सौहृदम् । कुशिष्य मध्यापयतः कुतो यशः ? कृतघ्नानां शिवं कुतः ? कृतार्थः स्वामिनं द्वेष्टि । कृपणानुसारि च धनम् । ad कस्यास्ति सौहृदम् ? केचिदज्ञानतो नष्टाः । केचिन्नष्टाः प्रसादतः । केवलोऽपि सुभगो नवाम्बुदः किं पुनस्त्रिदशचापलाञ्छितः ? (खु० ) केषां न स्यादभिमतफला प्रार्थना ह्युत्तमेषु ! ( मेघ० ) hari नैषा कथय कविताकामिनी कौतुकाय ! को जानाति जनो जनार्दनमनोवृत्तिः कदा कीदृशी ? कोऽतिभारः समर्थानाम् । को धर्मः कृपया विना ? को न याति वशं लोके मुखे पिण्डेन पूरितः । तीर्थ का फल विलम्ब से परन्तु सत्संगति का फल शीघ्र प्राप्त होता है। कविता के बिना विद्या कैसी ? केसर की कड़वाहट भी अत्यन्त प्यारी होती है । हंस-हीन सरसी कैसी और सरसी-हीन हंस कैसा ? ईश्वर की इच्छा से क्या नहीं हो सकता ? निरंकुश नारी क्या-क्या नहीं करती ? यौवन तथा सम्पदा के सुख कुछ ही काल तक लूटे जा सकते हैं । बुरे राजाओं से राष्ट्रों का नाश हो जाता है । सुन्दर शील से कुरूपता भी खिल उठती है । कुरूप मनुष्य बहुत चेष्टाएँ करता है । पतिभक्ति-विहीन कुलवधू कैसी ? कुल में कोई ही धन्य व्यक्ति यशस्वी प्रभु होता है। फटे-पुराने वस्त्र भी स्वच्छ रहने से खिल उठते हैं। कुवचनों से मित्रता नष्ट हो जाती है । कुशिष्य के अध्यापक को यश कहाँ ? कृतघ्नों का कल्याण कहाँ ? पूर्ण- मनोरथ व्यक्ति स्वामी से द्वेष करता है । धन कृपण के पीछे चलता है। निर्बल या निर्धन से कौन मित्रता करता है ? कई लोग अज्ञान से नष्ट हो गये । कई लोग प्रमाद से नष्ट हो गये । नया मेघ वैसे भी सुन्दर होता है; परन्तु जब वह इन्द्रधनुष से युक्त हो तब तो बात ही क्या ? उत्तम जनों के समक्ष की हुई किनकी प्रार्थना सफल नहीं होती ! कहो तो, यह कविता-कामिनी किन के मन में कौतुक उत्पन्न नहीं करती ! कौन जानता है कि भगवान् के मन की वृत्ति कब कैसी होती है ? बलवानों के लिये कोई भी भार अधिक नहीं है । दया के बिना धर्म कैसा ? संसार में जिसके मुँह में ग्रास डाल दो, वहीं वश में हो जाता है। को नाम राज्ञां प्रियः ! कोsर्थान् प्राप्य न गर्वितः ! aise तो गौरवम् ? को विदेशः समर्थानाम् । राजाओं का प्यारा कौन होता है ! धन पाकर कौन गर्वित नहीं होता ! किस याचक को गौरव प्राप्त हुआ ? समर्थ व्यक्ति के लिये विदेश कौन-सा है । कोहि मार्गममार्ग वा व्यसनान्धो निरीक्षते ? कौन व्यसनान्ध मनुष्य सुपथ - कुपथ का ध्यान ( कथा० ) रखता है ? For Private And Personal Use Only Page #722 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [६८४] को हि वित्तं रहस्यं वा स्त्रीषु शक्नोति । स्त्रियाँ सम्पत्ति और गोपनीय बात को नहीं - गुहितुम् । ( कथा०) छिपा सकती। को हि स्वशिरसश्छायां विधेश्योल्लकायेद् | अपने सिर की परछाई और विधि की गति का ___गतिम् ? ( कथा) उल्लंघन कौन कर सकता है ? क्रियाणां खलु धाणां सत्पत्न्यो मूलकार- धार्मिक कृत्यों का मूल कारण श्रेष्ठ पत्नियाँ णम् । (कुमारसंभवे) .. होती हैं। क्रियासिद्धिः सत्वे भवति महतां नोपकरणे। बड़े लोग स्वप्रताप से कार्य सिद्ध करते हैं, उप करणों से नहीं। क्रुद्ध विधौ भजति मित्रममित्रभावम्।। | विधाता ऋद्ध हो तो मित्र भी अमित्र बन जाता है। क्रोधो मूलमनर्थानाम् । क्रोध अनर्थो की जड़ है। क्वाश्रयोऽस्ति दुरात्मनाम् ? दुष्टों को आश्रय कहाँ ? क्षणविध्वंसिनः कायाः का चिन्ता मरणे रणे।। जब शरीर क्षणभङ्गुर है तब रण में मरने में चिन्ता कैसी। क्षणे क्षणे यनवतामुपैति तदेव रूपं रमणीय- वास्तविक सौन्दर्य वही है जो अनुक्षण नया-नया तायाः। ( शिशु०) होता जाये। क्षमया किं न सिध्यति? क्षमा से क्या नहीं सिद्ध होता? क्षान्तितुल्यं तपो नास्ति। क्षमा के तुल्य कोई तप नहीं है। क्षारं पिबति पयोधेपत्यम्भोधरो मधुर- मेघ समुद्र का खारा पानी पीता है और मधुर मम्मः । जल बरसाता है। क्षितितले किं जन्म कीर्ति विना! भूमि पर कीतिहीन जीवन क्या ! क्षीणा नरा निष्करुणा भवन्ति । निर्धन लोग निर्दय बन जाते हैं ! क्षधातुराणां न रुचिर्न पछम् । भूख से व्याकुल व्यक्ति न स्वाद देखते हैं न पक्वता। ख(फ)टाटोपो भयङ्करः। फण का विस्तार मात्र भी भयंकर होता है। गतस्य शोचनं नास्ति । बीती बात का शोक व्यर्थ है। गतानुगतिको लोको न लोकः पार- लोग भेड़ चाल चलते हैं, तत्त्व की पहचान नहीं मार्थिकः। करते। गुणलुब्धाः स्वयमेव संपदः । सम्पत्तियाँ स्वयं गुणों की लोभी होती हैं। गुणान् भूषयते रूपम् । रूप गुणों को अलंकृत कर देता है। गुणाः पूजास्थानं गुणिषु न च लिङ्गं न च | गुणियों में गुण ही पूज्य होते हैं, न बाह्य चिह्न वयः। ____ और न आयु। गुणी गुणं घेत्ति न वेत्ति निर्गुणः । गुण का मूल्य गुणी जानता है, निर्गुण नहीं। गुणैर्विहीना बहु जल्पयन्ति । गुणहीन मनुष्य वाचाल होते हैं। गुरुतां नयन्ति हि गुणा न संहतिः। (किरात०)| गौरव गुणों से मिलता है, समूह से नहीं । गृहे या पुण्यनिष्पत्तिः साध्वनि भ्रमतः | गार्हस्थ्य में जो पुण्य किये जा सकते हैं वे कुतः। (कथा) संन्यास में नहीं। ग्रामस्याथै कुलं त्यजेत् । गाँव की रक्षा के लिये कुल की बलि दे दे। चकास्ति योग्येन हि योग्यसंगमः ( नैषध०) योग्य से योग्य का मेल ही शोभा देता है। चक्रवत् परिवर्तन्ते दुःखानि च सुखानि च। दुःख और सुख (रथ के) चक्र के तुल्य घूमते हैं । चक्षःपूतं न्यसेत् पादम् । देखकर ही पग रखना चाहिए । चपलौ किल शूराणां रणे जयपराजयो। युद्ध में वीरों की जय या पराजय अनिश्चित (कथा०) । होती है। For Private And Personal Use Only Page #723 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [ ६८५ ] - - - - म चाण्डालोऽपि नरः पूज्यो यस्यास्ति विपुलं । अति धनवान् चाण्डाल भी पूज्य है। - धनम् । चित्तमेतदमलीकरणीयम् । इस चित्त को निर्मल करना चाहिए। चित्त वाचि क्रियायां च साधूनामेकरूपता। सज्जनों के मन, वाणी और कर्म में समानता रहती है। चित्रा गतिः कर्मणाम्। कर्मों की गति न्यारी। चिन्ता जरा मनुष्याणाम् । चिन्ता मनुष्यों का बुढ़ापा है। चिन्तासमं नास्ति शरीरशोषणम् । चिन्ता के समान शरीर को कोई भी नहीं सुखाता। चौराणामनृतं बलम् । झूठ ही चोरां का बल है। चौरे गते वा किमु सावधानम् ! चोर के भाग जाने पर सावधानता से क्या! छिद्रेष्वना बहुलीभवन्ति । दोषों के कारण अनेक विपत्तियाँ आ घेरती हैं। जठरं को न बिभर्ति केवलम् ! केवल अपना पेट कौन नहीं भर लेता ! जपतो नास्ति पातकम् ! जप करने वाला पाप-मुक्त रहता है। जरा रूपं हरति । बुढ़ापा सौन्दर्य का नाशक है। जलबिन्दुनिपातेन क्रमशः पूर्यते घटः।। बूंद-बूंद करके घड़ा भर जाता है। जातस्य हि ध्रुवो सुत्युः। उत्पन्न व्यक्ति की मृत्यु अटल है। जातापत्या पति द्वष्टि। संतानवती नारी पति से द्वेष करती है। जातो जातो नवाचाराः। प्रत्येक जाति के आचरण अलग-अलग होते हैं । जानन्ति पशवो गन्धात् । पशु गन्ध से पहचान जाते हैं । जामाता दशमो ग्रहः। दामाद दसवाँ ग्रह है। जारस्त्रीणां पतिः शत्रः। कुलटा को पति शत्रु प्रतीत होता है। जितक्रोधेन सर्व हि जगदेतद् विजीयते। क्रोध का विजेता जगद्विजयी होता है । (कथा०) जीवन् हि धीरोऽभिमतं किं नाम न यदा- धैर्यशाली व्यक्ति जीवित रहे तो प्रत्येक अभी.. प्नुयात् । (कथा) प्राप्त कर लेता है। जीवो जीवस्य जीवनम् । प्राणी प्राणी का जीवन है। ज्ञानस्याभरणं क्षमा । क्षमा ज्ञान का भूषण है। ज्येष्ठभ्राता पितुः समः। बड़ा भाई पिता के तुल्य है। झटिति पराशयवेदिनो हि विज्ञाः । (नैषध०) विद्वान लोग दूसरे के भाव को तुरन्त जान जाते हैं। तक्रान्तं खलु भोजनम् ।। भोजन के अन्त में मछे का सेवन करे। तपोऽधीनानि श्रेयांसि, झपायोऽन्यो न | सुख-सुविधाएँ तपस्या से ही प्राप्त होती हैं, विद्यते । (कथा) किसी अन्य उपाय से नहीं। तपोऽधीना हि संपदः । ( कथा०) संपत्तियाँ तप के अधीन हैं। तमस्तपति धर्माशी कथमाविर्भविष्यति ? | सूर्य के चमकने पर अन्धकार कैसे प्रकट होगा ? (अभिज्ञान०) तस्करस्य कुतो धर्मः! चोर का धर्म कहाँ! तस्य तदेव मधुरं यस्य मनो यत्र संलग्नम्। जिसका मन जिसमें लगा हो, उसे वही प्रिय होता है। तिष्ठत्येकां निशां चन्द्रः श्रीमान् संपूर्ण- १. शोभान्वित पूर्ण चाँद तो एक ही रात रहता मंडलः। है। २. चार दिन की चाँदनी और फिर. अँधेरी रात है। For Private And Personal Use Only Page #724 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [६८६ ] ताम् ? तुष्यन्ति भोजनैर्विप्राः । । ब्राह्मण सुंदर भोजन से प्रसन्न होते हैं। तेजसां हि न वयः समीक्ष्यते । ( रधु०) तेजस्वियों की उमर नहीं देखी जाती। त्यजन्त्युत्तमसत्त्वा हि प्राणानपि न सत्प- उत्तम प्रकृति के लोग प्राण त्याग देते हैं, थम् । (कथा० ) सन्मार्ग नहीं। त्यजेदेकं कुलस्वार्थे । कुटुम्ब की रक्षार्थ एक सम्बन्धी का त्याग कर देना चाहिए। त्यागाजगति पूज्यन्ते पशुपाषाणपादपाः। पशु, पत्थर और पेड़ त्याग के कारण ही संसार में पूजे जाते हैं। त्रिभुवनविषये कस्य दोषो न चास्ति ! तीनों लोकों में कौन निर्दोष है ! त्रैलोक्ये दीपको धर्मः। धर्म तीनों लोकों का दीपक है। दया मांसाशिनः कुतः! मांसभक्षक में दया कहाँ ! दयितं जनः खलु गुणीति मन्यते । (शिशु०) लोग प्रिय मनुष्य को गुणी समझते हैं । दरिद्रता धीरतया विराजते। निर्धनता धैर्य से शोभा पाती है । दर्दुरा यत्र वक्तारस्तत्र मौनं हि शोभनम् । जहाँ मेढक वक्ता हों वहाँ मौन ही अच्छा । दशाननोऽहरत्सीतां बन्धनं च महोदधेः । सीता तो चुराई रावण ने और बाँधा गया समुद्र। दारिद्रयदोषेण करोति पापम् । मनुष्य दरिद्रता के कारण पाप करता है। दारिद्रयदोषो गुणराशिनाशी । दरिद्रता अनेक गुणों की नाशिका है। दारिद्रयं परमाञ्जनम् । ( भागवते ) दरिद्रता सबसे उत्तम सुर्मा है। दुग्धधौतोऽपि किं याति वायसः कलहंस- दूध से धोने पर क्या कौआ हंस बन जाता है ? दुरधीता विषं विद्या। बुरी तरह से पढ़ी हुई विद्या विष है। दुर्जनस्य कुतः क्षमा? में क्षमा कहाँ ? दुर्जनस्यार्जितं वित्तं भुज्यते राजतस्करैः। दुर्जन की कमाई राजा और चोर ने खाई । दुर्जया हि विषया विदुषापि । (नैषध०) विद्वान् भी विषयों को कठिनता से जानता है। दुर्बलस्य बलं राजा। राजा दुर्बल का बल है। दुर्मन्त्री राज्यनाशाय । कुमंत्री से राज्य का नाश होता है। दुर्लभं क्षेमकृत् सुतः। कल्याणकारी पुत्र दुर्लभ है। दुर्लभं भारते जन्म मनुष्यं तत्र दुर्लभम्। | भारत में जन्म दुर्लभ है और फिर मनुष्य-जन्म ___ तो और भी दुर्लभ है। दुर्लभः स गुरुलों के शिष्यचिन्तापहारकः। शिष्यों की चिन्ता का नाशक गुरु जगत् में दुर्लभ है। दुष्टेऽपि पत्यौ साध्वीनां नान्यथावृत्ति पति के दुष्ट होने पर भी सती स्त्रियों का मन मानसम् । (कथा) अन्यत्र नहीं जाता। दूरतः पर्वता रम्याः। दूर के ढोल सुहावने । देवो दुर्बलघातकः। गरीब को खुदा की मार। देहस्नेहो हि दुस्त्यजः। शरीर का प्रेम छोड़ना कठिन है। दैवमेव हि साहाय्यं कुरुते सत्वशालिनाम् । दैव भी पराक्रमी लोगों की ही सहायता (कथा०) करता है। दैवी विचित्रा गतिः। दैव की गति अद्भुत है। दोषग्राही गुणत्यागी पल्लोलीव हि दुर्जनः। दुष्ट मनुष्य छलनी के समान दोषों का ग्रहण ___ करते हैं और गुणों का त्याग । दोषोऽपि गुणतां याति प्रभोर्भवति चेत्कृपा। प्रभु की कृपा हो तो दोष भी गुण हो जाता है। द्रव्येण सर्वे वशाः। | धन से सब अधीन हो जाते हैं। For Private And Personal Use Only Page #725 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir धर्मक्षयकरः क्रोधः । धर्मस्य तत्त्वं निहितं गुहायाम् । धर्मः कीर्तिर्द्वयं स्थिरम् । धर्मः स नो यत्र न सत्यमस्ति । 'धर्मेण हीनाः पशुभिः समानाः । धिक् कलत्रमपुत्रकम् । धिक् पुत्रमविनीतं च । धिगाशा सर्वदोषभूः । धिगृहं गृहिणीशून्यम् । 'धिग्जीवितं चोद्यमवर्जितस्य । "धिग्जीवितं व्यर्थमनोरथस्य । 'धिग्जीवितं शास्त्रकलोज्झितस्य । [ ६८७ ] धनं सर्वप्रयोजनम् । धन सर्वप्रमुख प्रयोजन है । धनानि जीवितं चैव परार्थे प्राज्ञ उत्सृजेत् । बुद्धिमान मानव परोपकार के लिए धन और जीवन त्याग दे । क्रोध धर्म का नाशक है । धर्म का तत्त्व गुफा में छिपा है । 1 धर्म और कीर्ति ही दो स्थिर पदार्थ हैं। । जिसमें सत्य नहीं, वह धर्म नहीं । धर्महीन जन पशुतुल्य हैं । अपुत्र नारी धिक्कार्य है। धूर्ताः क्रीडन्ति बालिशैः । ( कथा० ) फलाय महते महतां सह संगमः । (कथा०) न काचस्य कृते जातु युक्ता मुक्तामणेः क्षतिः । ( कथा० ) न कामसदृशो रिपुः । न कूपखननं युक्तं प्रदीप्ते वह्निना गृहे । न खलु स उपरतो यस्य वल्लभो जनः स्मरति । न चापत्यसमः स्नेहः । न जाने संसारः किमस्सृतमयः किं विषमयः । न ज्ञानात् परमं चक्षुः । न तोषात् परमं सुखम् । न तोषो महतां भुषा । ( कथा० ) न दरिद्रस्तथा दुःखी लब्धक्षोणधनो ! यथा । अनम्र पुत्र धिक्कार्य है । I सब दोषों की जननी आशा धिक्कार्यं है । गृहिणीहत घर धिक्कार्य है । उद्यमहीन का जीवन धिक्कार्य है। विफल- मनोरथ मनुष्य का जीवन धिक्कार्य है । शास्त्र तथा कला से रहित मानव का जीवन धिक्कार्य है । 1 धूर्त लोग मूर्खों को ही उल्लू बनाते हैं। बड़ों की संगति का फल बड़ा होता है । काँच की प्राप्ति के लिए मोती की हानि उचित नहीं । न च धर्मो दयापरः । दया से बड़ा कोई धर्म नहीं । न चलति खलु वाक्यं सजनानां कदाचित् । सज्जनों की बात कभी झूठी नहीं होती । न च विद्यासमो बन्धुः । विद्या के समान बन्धु नहीं । न च व्याधिसमो रिपुः । न धर्मवृद्धेषु वयः समीक्ष्यते । ( कुमार० ) न धर्मसदृशं मित्रम् | न नश्यति तमो नाम कृतया दीपवार्तया । agarasपि निष्का गिरयः । ( अभि० ) ननु वक्तृविशेषनिःस्पृहा गुणगृह्या वचने विपश्चितः । ( किरात ० ) न पुत्रात् परमो लाभः । | " काम के समान शत्रु नहीं । घर में आग लगने पर कुआँ खोदना उचित नहीं । जिसका स्मरण प्रियजन करते हैं, उसे मरा न समझिए । रोग के तुल्य शत्रु नहीं । सन्तति के प्रति प्रेम अप्रतिम है । न जाने यह जगत् अमृतमय है या विषमय । ज्ञान से बड़ी आँख नहीं । संतोष से बड़ा सुख नहीं । बड़े लोगों की प्रसन्नता व्यर्थ नहीं होती । निर्धन उतना दुःखी नहीं होता जितना धन को पाकर खोनेवाला । धर्म-वृद्धों की उमर नहीं देखी जाती । धर्म के समान मित्र नहीं । दीपक की बात करने से अँधेरा नष्ट नहीं होता । आँधी से पर्वत कभी नहीं हिलते । गुणग्राही लोग बात का गुण ग्रहण करते हैं, वक्ता विशेष का ध्यान नहीं करते । पुत्र-प्राप्ति से बड़ा कोई लाभ नहीं । For Private And Personal Use Only Page #726 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [६८८] न प्राणान्ते प्रकृतिविकृतिर्जायते चोत्त- । प्राणान्तकारी समय आ जाने पर भी उत्तम मानाम् । मनुष्यों के स्वभाव में विकार नहीं आता। न भयं चास्ति जाग्रतः। जाननेवाले को कोई डर नहीं। न भवति पुनरुक्तं भाषितं सज्जनानाम् । सज्जन एक ही बात को बार-बार नहीं कहते । न भार्यायाः परं सुखम् । पत्नी से बड़ा कोई सुख नहीं। न भूतो न भविष्यति । न हुआ है न होगा। न मुक्तः परमा गतिः। मोक्ष से ऊँची कोई स्थिति नहीं। नये च शौर्ये च वसन्ति संपदः । . संपदाएँ नीति और शूरवीरता में रहती हैं। न रत्नमन्विष्यति अग्यते हि तत् । रत्न किसी को नहीं खोजता, उसी की खोज की (कुमार०) जाती है। नवा वाणी मुखे मुखे। प्रत्येक मुख में वाणी पृथक-पृथक् होती है। न शरीरं पुनः पुनः। शरीर बार बार नहीं मिलता। न शान्तः परमं सुखम् । . शान्ति से बड़ा कोई सुख नहीं । न शास्त्रं वेदतः परम् । वेद से बड़ा कोई शास्त्र नहीं। नस शक्नोति किं यस्य प्रज्ञा नापदि जिसकी बुद्धि विपत्ति में भी स्थिर रहती है, वह हीयते ? ( कथा० ) क्या नहीं कर सकता ? न सा सभा यत्र न सन्ति वृद्धाः। | वह सभा ही नहीं जिसमें वृद्ध न हों।। न सुवर्णे ध्वनिस्ताहग्याक कांस्ये काँसे से जैसी ध्वनि उत्पन्न होती है वैसी सोने प्रजायते । से नहीं। न स्पृशति पल्वलाम्भः पञ्जरशेषोऽपि हाथी की हड्डियाँ निकल आवे तो भी वह कुञ्जरः कापि। जौहड़ का जल नहीं छूता। न स्वेच्छं व्यवहर्तव्यमात्मनो भूति- | वृद्धि के इच्छुक मनुष्य को स्वेच्छापूर्वक व्यवहार मिच्छता। (कथा) नहीं करना चाहिए। न हि कृतमुपकारं साधवो विस्मरन्ति । श्रेष्ठ लोग किये हुये उपकार को नहीं भूलते। न हि तापयितुं शक्यं सागराम्भस्तृणो- समुद्र का जल तिनकों की मशाल से गर्म नहीं ल्कया। किया जा सकता। न हि दुष्करसस्तीह किंचिदध्यवसायिनाम्। अध्यवसायी व्यक्ति के लिये जगत् में कोई भी (कथा) कार्य दुष्कर नहीं। न हि नायों विनेय॑या। स्त्रियाँ ईष्या-रहित नहीं होती। न हि प्रफुल्लं सहकारमेत्य वृक्षान्तरं काङ्गति | भँवरे पुष्पित आम्र-वृक्ष पर पहुँचकर अन्य षट्पदाली । ( रधु०) वृक्ष की इच्छा नहीं करते। न हि वन्ध्याऽश्नुते दुःखं यथा हि सुत- | बाँझ को वह दुःख नहीं होता जो मृतपुत्रा पुत्रिणी। नारी को। न हि सत्त्वावसादेन स्वल्पाप्यापद् विलं. उत्साह के त्याग से तो साधारण आपत्ति पर ध्यते । ( कथा०) भी विजय नहीं मिलती। न हि सर्वविदः सर्वे । सब लोग सब कुछ नहीं जानते । न हि सिंहो गजास्कन्दी भयाद् गिरिगुहा- हाथियों पर आक्रमण करनेवाला सिंह डर के शयः । (रघु०) कारण पर्वत-गुफा में नहीं रहता। न हि सुप्तस्य सिंहस्य प्रविशन्ति मुखे अगाः। सोये हुए सिंह के मुख में मृग स्वयं नहीं आ धुसते। नातिपीडयितुं भग्नानिच्छन्ति हि महौजसः। ओजस्वी जन पराजितों को अत्यधिक पीड़ा त °) नहीं देना चाहते। नाधर्मश्विरसद्धये। क । अधर्म चिरकाल तक धन नहीं देता। For Private And Personal Use Only Page #727 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [६ ] - - - नानृतात्पातकं परम् । झूट से बड़ा कोई पाप नहीं। नारीणां भूषणं पतिः। पति स्त्रियों का भूषण है। नार्कातपैलजमेति हिमैस्तु दाहम् । (नैषध०) कमल धूप से नहीं, पाले से झुलसता है। नाल्पीयान् बहु सुकृतं हिनस्ति दोषः। थोड़े से दोष से बहुत से पुण्यों का नाश नहीं (किरात०) _होता। नासमोक्ष्य परं स्थानं पूर्वमायतनं त्यजेत् । | दूसरे स्थान को देखे बिना पहले को न छोड़े। नास्ति कामसमो व्याधिः। काम के समान कोई रोग नहीं। नास्ति क्रोधसमो वह्निः। क्रोध के समान कोई तेज नहीं। नास्ति चक्षुःसमं तेजः। नेत्र के समान कोई आग नहीं । नास्ति आत्मसमं बलम् । आत्मा के तुल्य कोई बल नहीं । नास्ति प्राणसमं भयम् । प्राणभय के तुल्य कोई भय नहीं। नास्ति बन्धुसमं बलम् । बन्धु के तुल्य कोई बल नहीं। नास्ति मेघसमं तोयम्। मेघ के समान कोई जल नहीं। नास्ति मोहसमो रिपुः। मोह के समान कोई शत्रु नहीं। नास्त्यदेयं महात्मनाम् । ऐसी कोई वस्तु नहीं जिसे महात्मा लोग न दे सके। नास्त्यहो स्वामिभक्तानां पुत्रे वात्मनि वा | अहो ! स्वामिभक्तों को न पुत्र का मोह होता है स्पृहा । ( कथा० ) . न प्राणों का। निःसारस्य पदार्थस्य प्रायेणाडम्बरो महान । | प्रायः निकम्मी वस्तु का आडम्बर बहुत होता है। निजेऽप्यपत्ये करुणा कठिनप्रकृतेः कुतः? कठोर स्वभाववाले व्यक्ति को अपनी सन्तति (प्रसन्नराघवे) पर भी दया नहीं आती। निरस्तपादपे देशे एरण्डोऽपि द्रमायते । | वृक्षहीन देश में एरण्ड भी वृक्ष माना जाता है। निद्रव्यं पुरुषं त्यजन्ति गणिकाः। | वेश्याएँ निर्धन पुरुष को छोड़ देती हैं। निर्धनता सर्वापदामास्पदम् । दरिद्रता सब दुःखों का कारण है। निर्धनस्य कुतः सुखम् ? निर्धन को सुख कहाँ ? निर्वाणदीपे किमु तैलदानम् ? दीपक बुझ जाने पर तेल डालने से क्या ? निवसन्ति पराक्रमाश्रया समृद्धियाँ पराक्रम के आश्रय पर रहती हैं, . न विषादेन समं सशुद्धयः। (किरात०) विषाद के साथ नहीं। निवसन्नन्तदारुणि लंध्यो वह्निनं तु ज्वलितः। लकड़ी के अन्दर विद्यमान अग्नि पर से कूदा जा सकता है, जलती पर से नहीं। निवृत्तरागस्य गृहं तपोवनम् । राग-रहित के लिए घर ही तपोवन है। निष्प्रज्ञास्त्ववसीदन्ति लोकोपहसिताः । बुद्धिहीन व्यक्ति दुःख उठाते हैं तथा लोगों के सदा । (कथा) उपहासास्पद बनते हैं । निसर्गसिद्धो हि नारीणां सपत्नीषु हि स्त्रियों की सौतों के प्रति ईर्ष्या स्वाभाविक है । मत्सरः । (कथा) निःस्पृहस्य तृणं जगत्। कामनारहित के लिये जगत् तृणतुल्य है। नीचाश्रयो हि महतामपमानहेतुः। नीच का आश्रय लेना बड़े लोगों के लिये अप मानजनक होता है। नीचैर्गच्छत्युपरि च दशा चक्रनेमिक्रमेण। पहिये के हाल के समान मनुष्य की अवस्था (मेघ०) । ऊँची-नीची होती रहती है। नीचैरनीचैरतिनीचनीचैः नीचे, ऊँचे और अत्यन्त नीचे, सभी उपायों से सर्वैरुपायैः फलमेव साध्यम् । अभीष्ट-सिद्धि करनी चाहिए। For Private And Personal Use Only Page #728 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir नीचो वदति, न कुरुते, वदति न साधुः करोत्येव । नैकत्र सर्वो गुणसंनिपातः । न्याय्यां वृत्ति समाचरेत् । न्याय्यात्पथः प्रविचलन्ति पदं न धीराः । पठतो नास्ति मूर्खत्वम् । पदं हि सर्वत्र गुणैर्निधीयते । पदं सहेत भ्रमरस्य पेलवं [ ६६० ] पो हि नभसि क्षिप्तः क्षेप्तुः पतति मूर्धनि । ( कथा० ) पञ्चभिर्मिलितैः किं यज्जगतीह न साध्यते । ( नैषध० ) शिरीषपुष्पं, न पुनः पतत्रिणः । (कुमार ०) पद्मपत्रस्थितं वारिधत्ते मुक्ताफलश्रियम् । परोऽपि हितवान् बन्धुः । पर्वतानां भयं वज्रात् । परेङ्गितज्ञानफला हि बुद्धयः । परोपकारजं पुण्यं न स्यात्क्रतुशतैरपि । परोपकाराय सतां विभूतयः । परोपकारार्थमिदं शरीरम् । परोपदेश वेलायां शिष्टाः सर्वे भवन्ति वै । नीच मनुष्य कहता है, करता नहीं। सज्जन कहता नहीं, कर देता है । सभी गुण एकत्र नहीं रहते । जीवकोपार्जन न्याय के अनुसार करना चाहिए। धीर लोग न्याय के मार्ग से तनिक भी विचलित नहीं होते । आकाश में फेंका हुआ कीचड़ फेंकनेवाले के सिर पर ही पड़ता है । पयःपानं भुजंगानां केवलं विषवर्धनम् । पयोगते किं खलु सेतुबंध: ? परदुःखेनापि दुःखिता विरलाः । परबुद्धिर्विनाशाय । दूसरों के मतानुसार आचरण विनाशकारी होता है। | क्या भँवरा दूसरे से मुक्त कमल से प्रेम करता है ? परभुक्ते हि कमले किमलेर्जायते रतिः ? ( कथा० ) परमं लाभमरातिभङ्गमाहुः । ( किरात० ) परलोकगतस्य को बन्धुः ? परवृद्धिमत्सरि मनो हि मानिनाम् । (शिशु० ) परसदननिविष्टः को लघुत्वं न याति ? परहितनिरतानामादरो नात्मकायें । संसार में ऐसा कौन-सा काम है जिसे पाँच मनुष्य मिलकर नहीं कर सकते ? अध्ययनशील मनुष्य मूर्ख नहीं रहता । गुण सर्वत्र अपना स्थान बना लेते हैं । शिरीष का फूल भ्रमर के कोमल चरण को तो सह लेता है, पक्षी के चरण को नहीं । कमल-पत्र पर पड़ा हुआ जल मोती की शोभा धारण कर लेता है । साँपों को दूध पिलाने से उनका विष हो बढ़ता है। बाढ़ के उतर जाने पर बाँध बाँधने से क्या लाभ ? दूसरों के दुःख से दुःखित होनेवाले लोग थोड़े ही हैं। शत्रु का नाश सब से बड़ा लाभ कहा जाता है । दिवंगत व्यक्ति का बन्धु कौन है ? मानी मनुष्यों का मन दूसरों की उन्नति से ईर्ष्या करता है । दूसरे के घर जाने से किसका गौरव क्षीण नहीं होता ? परोपकारपरायण लोग अपने कार्यों की परवाह नहीं करते । बुद्धियाँ वही हैं जो दूसरों के सङ्केत समझ जाती हैं। परोपकार-जन्य पुण्य सैकड़ों यशों के पुण्य से श्रेष्ठ है। सज्जनों को सम्पत्तियाँ परोपकार के लिए होती हैं। यह शरीर परोपकार के लिए है । दूसरों को उपदेश देते समय तो सब सभ्य बन जाते हैं । हितकारक बेगाना भी बन्धु ही है । पर्वतों को वज्र से भय होता है 1 For Private And Personal Use Only Page #729 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra [ ६६१ ] पाणौ पयसा दग्धे तक्रं फूत्कृत्य पामरः । दूध का जला छाछ को फूंक-फूंक कर पीता है । पिबति । पात्रत्वाद् धनमाप्नोति । पापप्रभावान्नरकं प्रयाति । पितृदोषेण मूर्खता । पिपासितैः काव्यरसो न पीयते । पीत्वा मोहमय प्रसादमदिराम् उन्मत्तभूतं जगत् । मनुष्य योग्य होने पर धन प्राप्त करता है । पाप के प्रभाव से नरक को जाता है । मूर्खता पिता के दोष से होती हैं । प्यासे काव्यरस नहीं पिया करते । मोहमयी प्रमाद- मदिरा पीकर जगत् उन्मत्त हो गया है। पुण्यवन्तो हि सन्तानं पश्यन्त्युच्चैः कृता- वंश को ऊँचा करनेवाली सन्तान पुण्यवानों के घर ही होती है । मूर्ख पुत्रशत्रु है । वयम् । (कथा० ) पुत्रः शत्रुरपण्डितः । www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पुत्रप्रयोजना द्वाराः । पुत्रहीनं गृहं शून्यम् । पत्नी पुत्र को जन्म देने के लिए ही होती है । पुत्रहीन घर सूना है । पुत्रादपि भयं यत्र तत्र सौख्यं हि कीदृशम् ? जहाँ पुत्र से भी भय हो वहाँ सुख कैसा ? पुनर्दरिद्री पुनरेव पापी । पुनर्धनाढ्यः पुनरेव भोगी । पुरुषा अपि बाणा अपि गुणच्युता कस्य न भयाय ? पूज्यं वाक्यं सस्य । पूर्वपुण्यतया विद्या । प्रच्छन्नमप्यूहयते हि चेष्टा । ( किरात० ) प्रजानामपि दीनानां राजैव सद्यः पिता । प्रज्ञाबलं च सर्वेषु मुख्य कार्येषु साधनम् । ( कथा० ) फिर दरिद्री, फिर पापी । फिर धनी, फिर भोगी । प्राणैरपि हि भृत्यानां स्वामिसंरक्षणं व्रतम् । ( कथा० ) प्राप्नोतीष्टमविक्लवः । ( कथा० ) प्राप्यते किं यशः शुभ्र मनङ्गीकृत्य साहसम् ? ( कथा० ) प्रायः श्वश्रूस्नुपयोर्न दृश्यते सौहृदं लोके । पुरुष भी और बाण भी गुण ( गुण, धनुष की डोरी) से रहित हो जाने पर किसके लिए भयंकर नहीं होते ? धनाढ्य का वाक्य पूज्य होता है । विद्या पिछले पुण्यों से मिलती है। चेष्टा गुप्त बात को भी व्यक्त कर देती है । राजा दीन प्रजाओं का दयालु पिता है । सब कार्यों में बुद्धिबल सबसे बड़ा साधन है । प्रणामातः सतां कोपः । सज्जनों का क्रोध प्रणाम से समाप्त हो जाता है । प्रतिबध्नाति हि श्रेयः पूज्यपूजाव्यतिक्रमः । पूज्यों की पूजा में उलट-फेर कल्याणों का बाधक ( रघुवंश ० ) होता है । प्राणव्ययाय शूराणां जायते हि रणोत्सवः । ( कथा० ) प्राणिनां हि निकृष्टापि जन्मभूमिः परा प्रिया । ( कथा० ) प्राणेभ्योऽप्यर्थमात्रा हि कृपणस्य गरी कंजूस को थोड़ा-सा भी धन प्राणों से अधिक युद्ध का मेला शूरवीरों के प्राणधन के व्ययार्थ होता है । प्राणियों को अपनी निकृष्ट जन्मभूमि भी अत्यन्त प्यारी लगती है । यसी । (कथा० ) प्यारा लगता है । प्राण देकर भी स्वामी की रक्षा करना सेवकों व्रत है। धीर अभीष्ट को पा लेता है । जान जोखिम में डाले बिना कहीं शुभ्र यश प्राप्त हो सकता है ? संसार में प्राय: सास-बहू में सौहार्द नहीं देखा जाता । For Private And Personal Use Only Page #730 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [६६२] प्रायः समानविद्याः परस्परयशः पुरोभागाः।। प्रायः समान विद्यावाले लोग एक दूसरे के यश को सह नहीं सकते। प्रायः समासनविपत्तिकाले जब अपत्ति आने को होती है तब मनुष्यों की धियोऽपि पुंसां मलिनीभवन्ति । बुद्धि प्रायः मलिन हो जाती है। प्रायः स्त्रियो भवन्तीह निसर्गविषमाः स्त्रियाँ स्वभाव से ही प्रायः कठोर और शठ शठाः । (कथा) हुआ करती हैं। प्रायः स्वं महिमानं क्रोधात्प्रतिपद्यते हि क्रोध आने पर ही प्रायः मनुष्य अपने महत्त्व ___ को प्राप्त करता है। प्रायेण गृहिणीनेत्राः कन्यार्थेषु कुटुम्बिनः। | कुटुम्बी पुरुष कन्याओं के मामलों में प्रायः (कुमारसंभवे) गृहिणी के ही मतानुसार चलते हैं। प्रायेण भार्यादौःशील्यं स्नेहान्धो नेक्षते | प्रेमान्ध पुरुष पत्नी की दुःशीलता की प्रायः जनः । (कथा) उपेक्षा कर जाता है। प्रायेण भूमिपतयः प्रमदा लताश्च | राजा, स्त्रियाँ और लताएँ जो भी पास हो प्राय: __ यः पार्श्वतो भवति तं परिवेष्टयन्ति । । उसीसे लिपट जाती हैं। प्रायेण साधुवृत्तानामस्थायिन्यो विपत्तयः। सदाचारियों की विपत्तियाँ प्रायः अस्थायी होती हैं। प्रायेण सामग्र्यविधौ गुणानां विधाता प्रायः सभी गुणों को एकत्र नहीं रखता।। पराङ्मुखी विश्वसृजः प्रवृत्तिः । (कुमार०) प्रायेणाधममध्यमोत्तमगुणः संसर्गतोजायते। अधम, मध्यम और उत्तम गुण प्रायः संसर्ग से ही आता है। प्रायो गच्छति यत्र भाग्यरहितस्तत्रैव | भाग्यहीन मनुष्य जहाँ जाता है, प्रायः वहीं यान्त्यापदः। आपत्तियाँ भी जा पहुँचती हैं। प्रारभ्य चोत्तमजना न परित्यजन्ति । । | श्रेष्ठ लोग कार्य आरंभ करके बीच में नहीं छोड़ते। प्रासादशिखरस्थोऽपि काकः किंगरुडायते ? | महल की चोटी पर बैठा हुआ कौआ क्या ___गरुड़ बन जाता है ? प्रियबन्धविनाशोत्थः शोकाग्निः कं न प्रिय बन्धु की मृत्यु का शोक किसे संतप्त नहीं तापयेत् ? (कथा) करता? प्रियमांसमृगाधिपोज्झितः किमवद्यः करि. मांसभक्षक सिंह से त्यक्त, हाथी के मस्तक से. कुम्भजो मणिः ? (शिशु०) निकला हुआ रत्न क्या निन्ध होता है ? प्रियानाशे कृत्स्नं किल जगदरण्यं हि कान्ता की मृत्यु पर सारा संसार कान्तार ही भवति । बन जाता है। फलं भाग्यानुसारतः। फल भाग्य के अनुसार होता है। बताश्रितानुरोधेन किं न कुर्वन्ति साधवः ? | आश्रितों के आग्रह पर सज्जन क्या नहीं करते। (कथा० ) बधिरस्य गानम् । बहिरे के सामने गाना। बधिरान्मन्दकर्णः श्रेयान् । बहिरे की अपेक्षा ऊँचा सुननेवाला अच्छा। बन्धुः को नाम दुष्टानाम् ? दुष्टों का बन्धु कौन ? बन्धुरप्यहितः परः। अहितकर बन्धु भी शत्रु है। बलं मूर्खस्य मौनित्वम् । मौन मूर्ख का बल है। बली बलं वेत्ति न वेत्ति निर्बलः । बलवान् ही बल को जानता है, निर्बल नहीं । बलीयसी केवलमीश्वरेच्छा। ईश्वर की इच्छा ही बलवती है । बहुरत्ना वसुन्धरा । पृथ्वी में बहुत रत्न हैं। For Private And Personal Use Only Page #731 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [ ६६३ ] बहुवचनमपसारं यः कथयति विप्र | जो अल्प-सार को बहुत शब्दों से कहता है, वही विप्रलापी है। लापी सः । बहुविघ्नास्तु सदा कल्याण सिद्धयः । ( कथा० ) बह्वा हि मेदिनी । बालानां रोदनं बलम् । बुद्धयः कुब्जगामिन्यो भवन्ति महतामपि । बड़ों की बुद्धि भी कुमार्गगामिनी हो जाती है । बुद्धिः कर्मानुसारिणी । बुद्धि कर्मों के अनुसार होती है । बुद्धिर्नाम च सर्वत्र मुख्यं मित्रं न पौरुषम् || सब स्थानों पर बुद्धि ही मुख्य मित्र है, पुरु( कथा० ) षार्थ नहीं । बुद्धेः फलमनाग्रहः । भुक्षितः किं न करोति पापम् ? बुभुक्षितं न प्रतिभाति किंचित् । बुभुक्षितैव्याकरणं न भुज्यते । ते हि फलेन साधवो न तु कण्ठेन निजोपयोगिताम् । ( नैषध० ) भक्त्या हि तुष्यन्ति महानुभावाः । भद्रकृत्प्राप्नुयाद्भद्रमभद्रं चाप्यभद्रकृत् । ( कथा० ) भये सीमा शुत्युः । भर्तृमार्गानुसरणं स्त्रीणां च परमं व्रतम् । भवन्तिक्लेशबहुलाः सर्वस्यापीह सिद्धयः । ( कथा० ) भवन्त्युदयकाले हि सरकल्याणपरम्पराः । ( कथा० ) भवितव्यता बलवती | ( अभिज्ञान० ) भवितव्यं भवत्येव कर्मणामीदृशी गतिः । भवेन्न यस्य यत्कर्म स तत्कुर्वन् विनश्यति । ( कथा० ) कल्याणों की सिद्धि में सदा अनेक विघ्न पड़ते हैं । पृथ्वी आश्चर्यों से पूर्ण है । रोना ही बच्चों का बल है । भस्मीभूतस्य भूतस्य पुनरागमनं कुतः ? ( नैपध० ) भाग्येनैव हि लभ्यते पुनरसौ सर्वोत्तमः सेवकः । भार्यासमं नास्ति शरीरतोषणम् । हठ का न होना ही बुद्धि का फल है । भूखा मनुष्य कौन-सा पाप नहीं करता ? भूखे को कुछ नहीं सूझता । भूखे लोग व्याकरण नहीं खाया करते । |श्रेष्ठ लोग अपनी उपयोगिता बाणी से नहीं, फल से कहते हैं । महानुभाव लोग भक्ति ( श्रद्धा ) से ही प्रसन्न होते हैं। भले का भला और बुरे का बुरा होता है । सबसे बड़ा भय मृत्यु है । पति- निर्दिष्ट मार्ग पर चलना स्त्रियों का परम व्रत है। संसार में सबके कार्य अनेक कष्ट उठाने पर ही सिद्ध होते हैं । जब अच्छे दिन आते हैं तब सभी काम शुभ होते जाते हैं । होनहार बलवती है । कर्मों की गति ऐसी है कि होनी होकर ही रहती है । १. जिसका काम उसी को साजे, और करे तो डफली बाजे | २. जो काम जिसका न हो, उसे करने पर मनुष्य नष्ट हो जाता है । भस्मीभूत प्राणी लौटकर कैसे आ सकता है ? सर्वोत्तम सेवक भाग्य से ही प्राप्त होता है । पत्नी के समान शारीरिक सुख देनेवाला कोई नहीं । भिक्षुको भिक्षुकं दृष्ट्वा श्वानवद् गुगुरायते । भिखारी, भिखारी को देखकर कुत्ते के समान भिन्नरुचिर्हि लोकः । गुर्राता है । लोगों की रुचि भिन्न-भिन्न है । For Private And Personal Use Only Page #732 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [६६४] - भीता इव हि धीराणां दूरे यान्ति विपत्तयः। विपत्तियाँ मानो धीरों से डरकर ही दूर भाग ( कथा०) जाती हैं। भूयोऽपि सिक्तः पयसा घृतेन । दूध और घी से निरन्तर मीचा जाने पर भी न निम्बवृक्षो मधुरत्वमेति । नाम का वृक्ष मधुर नहीं होता। भोगो भूषयते धनम्। भोग धन को अलंकृत करता है। भ्रष्टस्य का वा गतिः? पतित की क्या गति होती होगी? मतिरेव बलाद् गरीयसी। बल से बुद्धि ही बड़ी है। मदमूढबुद्धिषु विवेकिता कुतः ? ( शिशु०) । मद से मूढ़ बुद्धिवालों में विवेक कहाँ ? मद्यपस्य कुतः सत्यम् ? ( कथा०) शराबी में सत्य कहाँ ? मधुरविधुरमिश्राः सृष्टयो हा विधातुः। | विधाता की रचनाएँ मुखपूर्ण, दुःखपूर्ण तथा (प्रसन्नराघवे) मिली-जुली है। मनःपूतं समाचरेत् । आचरण ऐसा करे जिसकी पवित्रता का मन साक्षी हो। मन एव मनुष्याणां कारणं बन्धमोक्षयोः। मन ही मनुष्यों के बंधन और मुक्ति का कारण है। मनस्येकं वचस्येकं कर्मण्येकं महात्मनाम् । महात्माओं के मन, वचन और कर्म में एक रूपता होती है। मनस्वी कार्यार्थी न गणयति दुःखं न च मनरवी कार्यकर्ता दुःख सुख की चिन्ता नहीं सुखम् । किया करता। मनोरथानामगतिर्न विद्यते । ( कुमार०) मनोरथ सर्वत्र पहुँच जाते हैं। मरणं प्रकृतिः शरीरिणाम् । मृत्यु प्राणियों का स्वभाव है । मर्दनं गुणवर्धनम् । मालिश गुणवर्द्धक है। मर्मवाक्यमपि नोच्चरणीयम् । दुःखदायक बात न कहनी चाहिए। महाजनो येन गतः सः पन्थाः। जिस मार्ग से कोई महापुरुष गया हो वहीं सुमार्ग है। महान् महत्येव करोति विक्रमम् । बड़ा मनुष्य बड़े पर ही पराक्रम दिखाता है। महीपतीनां विनयो हि भूषणम् । नम्रता राजाओं का भूषण है। मातर्लक्ष्मि, तव प्रसादवशतो दोषा अपि | हे लक्ष्मी माता, आपकी कृपा से दोष भी गुण स्युगुणाः। __हो जाते हैं। माता दुश्वारिणी रिपुः। दुश्चरित्र। माता शत्रु है। मातापितृभ्यां शप्तः सन् न जातु सुखम- माता-पिता से शापित जन कभी सुख नहीं श्नुते। (कथा०) पाता। मातृजङ्घा हि वत्सस्य स्तम्भीभवति बन्धने। बछड़े को बाँधने के लिए माता की टाँग ही स्तम्भ बन जाती है। मात्रा समं नास्ति शरीरपोषणम् । माता के समान शरीर का पोषक कोई नहीं। माने म्लाने कुतः सुखम् ? सम्मान दृषित होने पर सुख कहाँ ? मितं च सारं च वचो हि वाग्मिता । महत्त्वपूर्ण बात थोड़े शब्दों में कहना ही ___ वाग्मिता है। मूढः परप्रत्ययनेयबुद्धिः। मृढ़ दूसरे के विश्वास का अनुसरण करता है। मुर्खस्य किं शास्त्रकथाप्रसंगः? मूर्ख का शास्त्रों की कथाओं से क्या सम्बन्ध ? मूर्खस्य हृदयं शून्यम्। मूर्ख का हृदय विचाररहित होता है। मूर्खाणां बोधको रिपुः। मूर्ख लोग समझानेवाले को शत्रु समझते हैं। मूखैर्हि संगः कस्यास्ति शर्मणे? ( कथा०) मूर्ख-सङ्गति किसे सुख देती है ? For Private And Personal Use Only Page #733 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra नृत्य : सर्वत्र तुल्यता । मेघो गिरिजलधिवर्षी च । www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir मौत के सामने सब समान हैं । मेव पर्वत और सागर दोनों स्थानों पर बरसता है । मोहान्धमविवेकं हि श्रीश्चिराय न सेवते । मोहग्रस्त और विवेकहीन के पास लक्ष्मी अधिक ( कथा० ) मौनं विधेयं सततं सुधीभिः । मौनं सर्वार्थसाधकम् । मौनिनः कलहो नास्ति । यतः सत्यं ततो धर्मः । यतो धर्मस्ततो धनम् । यतो रूपं ततः शीलम् । यत्ने कृते यदि न सिध्यति कोऽत्र दोषः ? [ ६५ ] यत्र विद्वज्जनो नास्ति श्लाघ्यस्तत्राल्पधीरपि । यथा देशस्तथा भाषा । यथा बीजं तथाङ्कुरः । यथा भूमिस्तथा तोयम् । यत्राकृतिस्तत्र गुणा वसन्ति । यत्रास्ति लक्ष्मीर्विनयो न तत्र । यथा चित्तं तथा वाचो यथा वाचस्तथा क्रिया | यथा राजा तथा प्रजा । यथा वृक्षस्तथा फलम् । यथाशक्य तिथेः ः पूजा धर्मो हि गृहमेधि नाम् । (कथा० ) यथौषधं स्वादु हितं च दुर्लभम् । यदि वात्यन्तसुता न कस्य परिभूतये ? ( कथा० ) यदेव रोचते यस्मै भवेत्तत्तस्य सुन्दरम् । यात्रा निजभालपट्टलिखितं तन्मार्जितुं कः क्षमः ? यद्यपि शुद्धं लोकविरुद्धं नो करणीयं नाचरणीयम् । यद्वा तद्वा भविष्यति । यशः पुण्यैरवाप्यते । यशस्तु रक्ष्यं परतो यशोधनैः । (रघु० ) यः क्रियावान् स पण्डितः । याचनान्तं हि गौरवम् । याच्या मोघा वरमविगुणे नाधमे लब्धकामा । (मेघ० ) नहीं ठहरती । बुद्धिमानों को निरन्तर चुप रहना चाहिए | मौन से सब काम सिद्ध होते हैं । मौनी का किसी से कलह नहीं होता । जहाँ सत्य है वहाँ धर्म है । जहाँ धर्म है वहाँ धन है । जहाँ रूप है वहाँ शील है । यदि यत्न करने पर भी सिद्धि न हो तो इसमें यत्नकर्ता का क्या दोष ? जहाँ विद्वान् नहीं होता वहाँ अल्पबुद्धि भी श्लाघ्य होता है । जहाँ रूप तहाँ गुण भी है । जहाँ लक्ष्मी होती है वहाँ नम्रता नहीं । जैसा मन वैसी वाणी, जैसी वाणी वैसी क्रिया । जैसा देश वैसी भाषा । जैसा बीज वैसा अङ्कुर | जैसी भूमि वैसा जल | जैसा राजा वैसी प्रजा । जैसा वृक्ष वैसा फल | अतिथि की यथाशक्ति सेवा करना गृहस्थों का धर्म है। जैसे स्वादिष्ट और गुणकारी दवा दुर्लभ है । अत्यधिक कोमलता से किसका निरादर नहीं होता ? जो जिसे अच्छा लगता है, वही उसके लिये सुन्दर होता है । | विधाता ने भाग्य में जो लिख दिया है, उसे कौन मिटा सकता है ? लोकविरुद्ध शुद्ध बात भी न करनी चाहिये । कुछ न कुछ तो होगा ही । यश पुण्यों से ही मिलता है । यशस्वियों को शत्रु से यश की रक्षा करनी चाहिए । जिसके कर्म अच्छे, वही पण्डित है । याचना गौरव को समाप्त कर देती हैं । नीच से याचना के सफल होने की अपेक्षा गुणी से उसका विफल होना अच्छा । For Private And Personal Use Only Page #734 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [ ६९६] यादृशो यः कृतो धात्रा भवेत्तादृश एव सः। विधाता ने जिसे जैसा बना दिया वह वैसा ही (कथा०) होता है। यादृशास्तन्तवः कामं तादृशो जायते पटः। जैसे तागे होते हैं वैसा कपड़ा बनता है । ( कथा०) यानरत्नं हि तुरगः। वाहनों में घोड़ा रत्न है। यान्ति न्यायप्रवृत्तस्य तिर्यञ्चोऽपि सहाय- | न्यायानुसार चलनेवाले की सहायता पशु-पक्षी ताम् । ( अनर्घराघवे) भी करते हैं। या यस्य प्रकृतिः स्वभावजनिता केनापि न | जो जिसका सहज स्वभाव है, वह छोड़ा नहीं ___त्यज्यते । जा सकता। युक्तियुक्तं प्रगृह्णीयाद् बालादपि विचक्षणः। बुद्धिमान् को बच्चे की भी युक्ति युक्त बात मान लेनी चाहिए। युद्धस्य वार्ता रम्या स्यात् । युद्ध के समाचार रोचक होते हैं। ये तु घ्नन्ति निरर्थकं परहितं ते के न | जो दूसरों के कार्यों को व्यर्थ हो नष्ट करते हैं, वे जानीमहे। किस कोटि के होते हैं, हम नहीं जानते । येन केन प्रकारेण प्रसिद्धः पुरुषो भवेत् । मनुष्य को किसी भी उपाय से प्रसिद्धि प्राप्त करनी चाहिए। यो यद् वपति बीजं हि लभते सोऽपि | जैसा बोएगा वैसा काटेगा। तत्फलम् । (कथा) रक्षन्ति पुण्यानि पुराकृतानि । पूर्व पुण्य मनुष्य की रक्षा करते हैं । रत्नदीपस्य हि शिखा वात्ययापि न नश्यति । रत्नों के दीये को लौ आँधी से भी नहीं बुझतो । रत्नव्ययेन पाषाणं को हि रक्षितुमर्हति । कौन इतना समर्थ है जो पत्थर के रक्षार्थ रत्न (कथा०) व्यय करे। वनेऽपि दोषा प्रभवन्ति रागिणाम्। | वन में भी दोष रागयुक्तों को दबा लेते हैं। वरं हि मानिनो सुत्युः, न दैन्यं स्वजना. प्रतिष्ठित व्यक्ति की मृत्यु अन् श्री किन्तु सम्बन्धियों ___ ग्रतः । ( कथा० ) के सामने दीनता बुरी।। वरं क्लेब्यं पुंसां न च परकलत्राभिगमनम् । | पुरुषों का नपुंसक होना अच्छा, परस्त्री गमन बुरा। वरंभिक्षाशित्वं न च परधनास्वादनसुखम् । | भीख माँग कर खाना अच्छा, पराये धन के भोग का सुख बुरा। वरं मौनं कार्य न च वचनमुक्तं यदनृतम् । | झूठ बोलने की अपेक्षा चुप रहना अच्छा। वर्तमानेन कालेन वर्तयन्ति विचक्षणाः । बुद्धिमान् वर्तमान काल के अनुसार व्यवहार करते हैं। वस्त्रपूतं पिबेजलम् । वस्त्र से छानकर ही जल पीना चाहिए। वस्त्राणामातपो जरा। धूप वस्त्रों का बुढ़ापा है। वामे विधौ न हि फलन्त्यभिवान्छितानि । | भाग्य विपरीत हो तो अभीष्ट सिद्ध नहीं होते। वासः प्रधानं खलु योग्यतायाः। योग्यता से भी परिधान प्रधान होता है। वासोविहीनं विजहाति लक्ष्मीः । वस्त्रविहीन को लक्ष्मी छोड़ जाती है। विकारहेतौ सति विक्रियन्ते विकारक वस्तुओं को विद्यमानता में भी जिनके येषां न चेतांसि त एव धीराः। (कुमार०) चित्त विकृत नहीं होते, वे ही धीर हैं। विक्रीते करिणि किमङ्कशे विवादः? हाथी के बेच देने पर अंकुश के बारे में विवाद कैसा? विचित्ररूपाः खलु चित्तवृत्तयः। (किरात०) । चित्त की वृत्तियों के रूप विचित्र होते हैं । For Private And Personal Use Only Page #735 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra [ ६६७ ] विदेशे बन्धुलाभो हि मरावस्तनिर्झरः । | विदेश में बन्धु से समागम मरुभूमि में अमृत ( कथा० ) स्रोत के समान है । विद्या के लिए व्याकुल व्यक्तियों को न सुख रुचता है न नींद | विद्यातुराणां न सुखं न निद्रा । www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir विद्या ददाति विनयम् । विद्या मित्रं प्रवासेषु | विद्यारत्न सरसकविता | विद्या रूपं कुरूपिणाम् । 'विद्यासमं नास्ति शरीरभूषणम् । विद्या सर्वस्य भूषणम् । विद्वान् कुलीनो न करोति गर्वम् । विद्वान् सर्वत्र पूज्यते । विनयाद् याति पात्रताम् । विनयो हि सतीव्रतम् । ( कथा० ) विना मलयमन्यत्र चन्दनं न प्ररोहति । विनाशकाले विपरीत बुद्धिः । विना हि गुर्वादेशेन संपूर्णाः सिद्धयः कुतः ? गुरु के उपदेश के बिना सम्पूर्ण सिद्धियाँ कहाँ ? ( कथा० ) विभूषणं मौनमपण्डितानाम् । विमलं कलुषीभवच्च चेतः विप्रियमध्याकर्ण्य ब्रूते प्रियमेव सर्वदा कटु बात भी सुनकर सज्जन सदा प्रिय बात ही सुजनः । कहते हैं । मौन मूर्खों का भूषण है । १. दिल, दिल का साक्षी है । कथयत्येव हितैषिणं रिपुं वा । (किरात०) २. निर्मल या मलिन होता हुआ मन हितैषी या शत्रु को बता देता है । विरक्तस्य तृणं भार्या । विलासिनी हि सर्वस्य संध्येव क्षणरागिणी । विद्या से नम्रता आती है । विदेश में विद्या मित्र है 1 1 सरस कविता करना ही उत्तम विद्या है कुरूप लोगों का रूप विद्या है। विद्या के समान शरीर का कोई भूषण नहीं । विद्या सबका भूषण है । कुलीन विद्वान् अभिमान नहीं करता । विद्वान की सब जगह पूजा होती है । विनय से मनुष्य योग्य बनता है । विनय ही सतियों का व्रत है । ( कथा० ) विवक्षितं ह्यनुत्तमनुतापं जनयति । (अभिज्ञा० ) विश्वासः कुटिलेषु कः ? ( कथा० ) विषं गोष्टी दरिद्रस्य । विषयाकृष्यमाणा हि तिष्ठन्ति सुपथे कथम् ( कथा० ) विषयिणः कस्यापदोऽस्तं गताः ? चन्दन मलय पर्वत के सिवा कहीं नहीं उगता । विनाश के समय बुद्धि फिर जाती है । विरक्त को पत्नी तृणसम लगती है । संध्या के समान सब के साथ बेश्या का राग ( प्रेम, लाली) क्षणस्थायी होता है । अकथित अभिलषित बात पश्चात्ताप उत्पन्न करती है । कपटियों पर क्या विश्वास ? निर्धन की बात-चीत विष है । ? विषयासक्त लोग सुमार्ग पर कैसे रह सकते हैं ? उचित नहीं । किस विषयी व्यक्ति को आपत्तियाँ समाप्त हो गई हैं ? विषवृक्षोऽपि संवर्ध्य स्वयं छेत्तुमसांप्रतम् | अपने पाले पोसे हुए विप-वृक्ष को भी उखाड़ना ( कुमार० ) वीरो हि स्वाम्यमर्हति । ( कथा० ) वृक्षं क्षीणफलं त्यजन्ति विहगाः । वृथा दीपो दिवापि च । वृथा वृष्टिः समुद्रेषु । वृद्धस्य तरुणी विषम् । वीर ही स्वामी बनने के योग्य होता है । फल-हीन वृक्ष को पक्षी छोड़ जाते हैं । दिन में दीपक व्यर्थ है । समुद्रों में वर्षा व्यर्थ है । बूढ़े के लिए युवती विष है । For Private And Personal Use Only Page #736 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [ ६६८] वृद्धा न ते ये न वदन्ति धर्मम् । | जो धर्म की बात नहीं कहते, वे वृद्ध नहीं। वृद्धा नारी पतिव्रता। वृद्धा स्त्री पतिव्रता होती है। वेदाजानन्ति पण्डिताः। बुद्धिमान् लोग वेद से ज्ञान पाते हैं। वेश्याङ्गनेव नृपनीतिरनेकरूपा । वेश्या के समान राजनीति भी अनेक स्प धारण करती है। व्याघ्रस्य चोपवासस्य पारणं पशुमारणम् । भेड़िए के उपवास की पारणा पशु-वध होती है। व्याधितस्यौषधं मित्रम्। औषध रोग का मित्र है । व्रताभिरक्षा हि सतामलंक्रिया। (किरात०) व्रत का पालन सज्जनों का भूषण है। शनोरपि गुणा वाच्या दोषा वाच्या शत्रु के भी गुणों का और गुरु के भी दोषों का गुरोरपि । कथन करना चाहिए। शरीरमायं खलु धर्मसाधनम् । ( कुमार०) | धर्म का प्रथम साधन शरीर ही है। शाम्येत् प्रत्युपकारेण नोपकारेण दुर्जनः ! दुष्ट जन उपकार से नहीं, अपकार से ही शान्त (कुमार०) ___ होता है। शास्त्राद् रूढिर्बलीयसी। शास्त्रों से रीति बलवती है। शीलं परं भूषणम् । शील सर्वोत्तम भूषण है। शीलं भूषयते कुलम् । शील कुल को अलंकृत करता है। शील हि विदुषां धनम् । ( कथा०) शील ही विद्वानों का धन है। शुभकृन्न हि सीदति । ( कथा ) शुभ कार्य करने वाला दुःखी नहीं होता। शुभस्य शीघ्रम् । भला काम शीघ्र ही कर देना चाहिए। शुष्कन्धने वह्निरुपैति वृद्धिम् । सूखे ईधन में आग तुरन्त फैल जाती है। शूरं कृतज्ञं दृढसौहृदं च वीर, कृतज्ञ और दृढ़ मित्र के पास रहने के __लक्ष्मीः स्वयं याति निवासहेतोः। लिए लक्ष्मी स्वयं जाती है। शूरस्य मरणं तृणम् । वीर के लिए मृत्यु तृणवत् है। शोभन्ते विद्यया विप्राः। ब्राह्मण विद्या से सुशोभित होते हैं। श्यालको गृहनाशाय। साला घर का नाश कर देता है। श्रद्धया न विना दानम् । श्रद्धा-रहित दान दान नहीं। श्रेयसि केन तृप्यते ? (शिशु०) मंगल से कौन तृप्त होता है ? श्रोत्रस्य भूषणं शास्त्रम् । शास्त्र कान का भूषण है। संसर्गजा दोषगुणा भवन्ति । दोष और गुण संगति से होते हैं। सकलं शीलेन कुर्याद्वशम् । शाल से सब को वशीभूत करना चाहिए। सकलगुणभूषा च विनयः। नम्रता सब गुणों का भूषण है । सकलगुणसीमा वितरणम् । दान सब गुणों को सीमा है। सकलसुखसीमा सुवदना । सुमुखी सर्व सुखों की सीमा है । स क्षत्रियस्त्राणसहः सतां यः। सज्जनों की रक्षा में समर्थ व्यक्ति क्षत्रिय है। संकटे हि परीक्ष्यन्ते प्राज्ञाः शूराश्च संगरे। बुद्धिमानों की परीक्षा संकट में और शूरों की (कथा) परीक्षा संग्राम में होती है। सतां महासंमुखधाबि पौरुषम् । (नैषध०) | सज्जनों का पौरुष बड़ों पर ही प्रकट होता है । सतां हि सङ्गः सकलं प्रसूते । सत्संगति से सब कुछ प्राप्त होता है। सतां हि सन्देहपदेषु वस्तुषु प्रमाणमन्तः- संदिग्ध विषयों में सत्पुरुषों का अन्तःकरण ही करणप्रवृत्तयः । ( अभिज्ञान०) प्रमाण होता है। स तु निरवधिरेकः सज्जनानां विवेकः। सज्जनों के विवेक की सीमा नहीं होती। सत्वाधीना हि सिद्धयः । ( कथा ) | सफलताएँ उत्साह के अधीन हैं । For Private And Personal Use Only Page #737 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सत्पुत्र एव कुलसद्मनि कोऽपि दीपः । सत्यपूतां वदेद् वाणीम् । सत्यं कण्ठस्य भूषणम् । सत्यं न तद् यच्छलमभ्युपैति । सत्यमेव जयते । मक्षरम् । स धार्मिको यः परमर्म न स्पृशेत् । सन्तः परीक्ष्यान्यतरद् भजन्ते । [ ६६ ] अच्छा पुत्र ही वंश का विलक्षण दीपक है । सत्य से शोधित वाणी बोलनी चाहिए। सत्य कण्ठ का भूषण है । वह सत्य नहीं जो हल का आश्रय लेता है । सत्य की ही विजय होती है। सत्येन धार्यते पृथ्वी । पृथ्वी को सत्य ही धारण किये हुए हैं | सदसद्वा न हि विदुः कुस्त्रीवचनमोहिताः । बुरी नारियों के वचन से मोहित लोग अच्छाई ( कथा० ) या बुराई नहीं समझते । सुभाषित सभा का भूषण है । सदो भूषा सूक्तिः । सद्भिः कुर्वीत संगतिम् । सद्भिर्विवाद मैत्री च | सज्जनों का संग करना चाहिए। झगड़ा और मैत्री सज्जनों से ही करनी चाहिए । सद्भिस्तु लीलया प्रोक्तं शिलालिखित- सज्जनों की स्वाभाविक बात भी पत्थर की लकीर होती है । धार्मिक वही है जो दूसरे का जी नहीं दुखाता | सज्जन परीक्षा के अनन्तर ही कोई बात स्वीकार करते हैं । संततिः शुद्धवंश्या हि परत्रेह च शर्मणे । ( रघु० ) संतोष एव पुरुषस्य परं निधानम् । संतोषतुल्यं धनमस्ति नान्यत् । संधिं कृत्वा तु हन्तव्यः संप्राप्तेऽवसरे पुनः । सन्धि करके भी अवसर प्राप्त होने पर शत्रु को ( कथा० ) मार देना चाहिए | विद्वान सभा का रत्न है । समय पर किया हुआ सब कुछ उपकारक होता है । सभारत्नं विद्वान् । समये हि सर्वमुपकारि कृतम् । ( शिशु० ) समानशीलव्यसनेषु सख्यम् । सम्पूर्णकुम्भो न करोति शब्दम् । सम्भावितस्य चाकीर्तिर्मरणादतिरिच्यते । ( भगवद्गीता ) सरित्पतिर्न हि समुपैति रिक्तताम् । (शिशु० सरित्पूरप्रपूर्णोऽपि क्षारो न मधुरायते । ) सर्वः कालवशेन नश्यति । सर्वः कृच्छ्रगतोऽपि वाञ्छति जनः सत्वानु- | रूपं फलम् । सर्वः कान्तमात्मीयं पश्यति । ( अभिज्ञान० ) | सर्वः प्रियः खलु भवत्यनुरूपचेष्टः । (शिशु० ) | सर्व कार्यवशाज्जनोऽभिरमते तत्कस्य शुद्ध वंश की सन्तान लोक-परलोक में सुख-दायक होती है । I संतोष ही मनुष्य का सर्वोत्तम कोष है। संतोष के समान धन नहीं । को वल्लभः ? सर्व जीवराज्य ( कथा० ). सर्वरत्नमुपद्रवेण सहितं निर्दोषमेकं यशः । समान शील तथा व्यसन वालों में मैत्री होती है। भरा हुआ घड़ा शब्द नहीं करता । सम्मानित मनुष्य के लिए अपयश मृत्यु से भी बुरा होता है । समुद्र कभी खाली नहीं होता । नदियों के जलसमूह से भर जाने पर भी समुद्र मीठा नहीं होता । समय पाकर सब नष्ट होते हैं । विपत्ति पड़ने पर भी सब लोग अपनी योग्यतानुसार फल चाहते हैं । सबको अपनी वस्तु सुन्दर दिखाई देती है । अनुकूल चेष्टाओंवाले सब व्यक्ति प्यारे लगते हैं। लोग सभी को कार्य-वश प्यारे लगते हैं, वैसे कौन किसका प्रिय है ? जीवित मनुष्य सब कुछ पा लेते हैं । सब रत्नों में कोई न कोई दोष होता है, निर्दोष तो केवल यश है । For Private And Personal Use Only Page #738 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [७०० ] - - सर्व शून्यं दरिद्रस्य। दरिद्र के लिए सब कुछ सूना है। सर्व सावधि नावधिः कुलभुवां प्रेम्णः सबकी सीमा है परन्तु कुलीन नारियों के प्रेम परं केवलम् । की सीमा नहीं। सर्वनाशाय मातुलः। मामा सर्वनाश कर देता है। सर्वलोकप्रतिष्ठायां यतन्ते बहवो जनाः। बहुत से व्यक्ति लोगों में प्रतिष्ठा पाने के लिए उद्योग करते हैं। सांगे दुर्जनो विषम् । दुष्टजन के सभी अंगों में विष रहता है। सर्वारम्भास्तण्डुलप्रस्थमूलाः। सभी उद्योग दूसरी भर धान के लिए हैं। सर्वा स्ववस्थासु रमणीयत्वमाकृतिविशेषा- | सुंदर व्यक्ति सभी दशाओं में सुंदर लगते हैं। __णाम् । (अभिज्ञा०) सर्व गुणाः काञ्चनमाश्रयन्ते । सभी गुण धन पर आश्रित रहते हैं। सलजा गणिका नष्टा। लज्जाशील वेश्या नष्ट हो जाती है। स सुहृद्व्यसने यः स्यात् । जो विपत्ति में सहायक है, वही मित्र है। सहते विपत्सहस्रं मानी नैवापमानलेशमपि। मानी मानव सहस्रों कष्ट सह लेता है, परन्तु तनिक-सा भी अपमान नहीं। सहसा विदधीत न क्रियाम् कोई भी कार्य एकाएक न करना चाहिए, अविवेकः परमापदां पदम् । __ अविवेक भारी आपत्तियों का कारण है। सहस्रषु च पण्डितः। सहस्रों में कोई एक विद्वान् होता है। -सागरं वर्जयित्वा कुत्र महानद्यवतरति ? बड़ी नदी सागर के सिवा कहाँ आश्रय लेती है ? ( अभिशा०) साधने हि नियमोऽन्यजनानां साधारण जन साधनों से कार्य सिद्ध करते हैं, योगिनां तु तपसाखिलसिद्धिः। (नैषध०)। योगियों को तप से सब सिद्धियाँ मिलती हैं। साधुः सीदति दुर्जनः प्रभवति प्राप्तौ कलौ इस कलियुग नाम के बुरे युग में सज्जन दुःख पाते हैं और दुर्जन अधिकार जमाते हैं। साधूनां दुर्जनाद् भयम् । सज्जनों को दुर्जनों से भय होता है। सानुकूले जगन्नाथे विप्रियः सुप्रियो भवेत् । भगवान् अनुकूल हो तो विरोधी भी मित्र बन जाते हैं। सामानाधिकरण्यं हि तेजस्तिमिरयोः कुतः ? | प्रकाश और अन्धकार एकत्र कैसे रह सकते हैं ? (शिशुपालवधे) सारं गृह्णन्ति पण्डिताः। बुद्धिमान सारग्राही होते हैं। सिद्धिर्भूषयते विद्याम् । सिद्धि विद्या को अलंकृत करती है। सुकविता यद्यस्ति राज्येन किम् ? यदि सुंदर काव्य रचना आती हो तो राज्य मे क्या लाभ है? सुकृती चानुभूयैव दुःखमप्यश्नुते सुखम् । सुकमी मनुष्य दुःख सहकर भी सुख भोगता है। (कथा०) सुखमास्ते निःस्पृहः पुरुषः। कामनारहित मनुष्य सुखी रहता है। सुखार्थिनः कुतो विद्या? सुखैषी को विद्या कहाँ ? सुतप्तमपि पानीयं शमयत्येव पावकम् । पानी भले ही खूब गर्म हो फिर भी अग्नि को शान्त कर ही देता है। सुलभा रम्यता लोके दुर्लभं हि गुणार्जनम्। संसार में सुन्दरता सुलभ है, गुण-धारण दुर्लभ । (किरात.) सुलभो हि द्विषां भङ्गो, दुर्लभा सत्स्ववा- शत्रु का नाश करना सरल है, सज्जनों में च्यता । (किरात०) प्रशंसा दुर्लभ। For Private And Personal Use Only Page #739 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [७०१] सूर्यापाये न खलु कमलं पुष्यति स्वामभि- । सूर्य के अस्त हो जाने पर कमल अपनी शोभा ख्याम् । ( शिशु०) को घारण नहीं करता । सूर्य तपत्यावरणाय दृष्टेः कल्पेत लोकस्य | जब सूर्य चमक रहा हो तब रात्रि लोगों की कथं तमिस्रा ? ( रघुवंशे) दृष्टि कैसे बंद कर सकती है ? सेवाधर्मः परमगहनो योगिनामप्यगम्यः। । सेवा-रूपी धर्म अत्यन्त कठिन है, योगी भी वहाँ तक नहीं पहुँच सकते। स्तोत्रं कस्य न तुष्टये ? ( कुमार० ) प्रशंसा से कौन प्रसन्न नहीं होता ? स्त्रियश्चरित्रं पुरुषस्य भाग्यं देवो न जानाति | स्त्री के चरित्र और पुरुष के भाग्य को भगवान __ कुतो मनुष्यः ? भी नहीं जानता, मनुष्य भ [ क्या जानेगा?' स्त्रियो नष्टा हाभर्तृकाः। पति-हीन स्त्रियाँ नष्ट हो जाती हैं। स्त्रीणां पतिः प्राणा न बान्धवाः । ( कथा०) स्त्रियों का जीवन पति है, बन्धु नहीं। स्त्रीणां प्रियालोकफलो हि वेषः । (कुमार०) | स्त्रियाँ सौन्दर्यवर्द्धक परिधान पहनती हैं। स्त्री पुंवच्च प्रभवति यदा तद्धि गेहं विनष्टम् । जब स्त्री पुरुषवत् प्रभावशाली हो जाती है तब घर नष्ट हो जाता है। स्त्रीबुद्धिः प्रलयावहा। | स्त्री की बुद्धि प्रलयकारिणी होती है। स्त्रीभिः कस्य न खण्डितं भुवि मनः ? | भूमि पर स्त्रियों ने किस के हृदय को खण्डित नहीं किया ? स्त्री विनश्यति रूपेण। स्त्री रूप से नष्ट होती है। स्त्रीषु वाकसंयमः कुतः ? (कथा) स्त्रियों में वाणी का संयम कहाँ ? स्नापितोऽपि बहुशो नदीजलैगर्दभः किमु नदी के जल से बहुत बार नहाने पर भी __ हयो भवेत् क्वचित् ? __क्या कहीं गधा भी घोड़ा बनता है ? स्नुषात्वं पापानां फलमधनगेहेषु सुदृशाम् । निर्धन घरों की पुत्रवधू बनना सुन्दरियों के पापों का फल है। स्पृशन्ति न नृशंसानां हृदयं बन्धुबुद्धयः। । सम्बन्धियों की सीख क्रूर जनों के हृदय को (नैषध०) प्रभावित नहीं करती। स्पृशन्त्यास्तारुण्यं किमिव न हि रम्यं | यौवन में प्रविष्ट होती हुई मृगनयनी की कौन-सी सुगदृशः? बात सुंदर नहीं होती? स्वकर्मसूत्रग्रथितो हि लोकः। संसार अपने कर्मों के सूत्र से गूंथा हुआ है। स्वगृहे पूज्यते मूर्खः । मूर्ख अपने घर में ही पूजा जाता है। स्वग्रामे पूज्यते प्रभुः। ग्रामपति अपने गाँव में ही पूजा जाता है। स्वदेशजातस्य नरस्य नूनं अपने देश के गुणी व्यक्ति की भी उपेक्षा की: गुणाधिकस्यापि भवेदवज्ञा। __ जाती है। स्वदेशे पूज्यते राजा। राजा की पूजा अपने ही देश में होती है। स्वधर्मे निधनं श्रेयः परधर्मो भयावहः। अपने धर्म में मरना अच्छा है, पर-धर्म भयंकर होता है। स्वपन्त्यज्ञा हि निश्चेष्टाः, कुतो निद्रा | अज्ञानी गहरी नींद में सोते हैं, विवेकियों को विवेकिनाम् ? ___ नींद कहाँ ? स्वपदाच्च्यवमानस्य कस्याज्ञां को हि | अपनी पदवी से च्युत हुए की आज्ञा कौन' मन्यते ? ( कथा०) ___ मानता है ? स्वभाव एवैष परोपकारिणाम् । परोपकारियों का यह स्वभाव ही है। स्वभावतः सर्वमिदं हि सिद्धम् । यह सब स्वभाव से ही सिद्ध है। For Private And Personal Use Only Page #740 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [ ७०२ ] स्वभावस्वच्छानां पतनमपि भाग्यं हि । स्वभावतः पवित्र व्यक्तियों का पतन भी भवति । भाग्यार्थ ही होता है । पवन स्वयमेव अग्नि का सारथि बन जाता है । स्वयमेव हि वातोऽग्नेः सारथ्यं प्रतिपद्यते । ( रघु० ) स्वसुखं नास्ति साध्वीनां तासां भर्तृसुखं सुखम् । (कथा० ) स्वस्थः को वा न पण्डितः ? स्वस्थे चित्ते बुद्धयः संभवन्ति । स्वादुभिस्तु विषयर्हतस्ततो दुःखमिन्द्रियगणो निवार्यते । (रघु० ) स्वाधाना दयिता सुतावधि | हंसो हि क्षीरमादते तन्मिश्रा वर्जयत्यपः । ( अभिशा० ) हो पद्मसरः कुतः कतिपयैह सैर्विना श्रीस्तव ? हतं ज्ञानं क्रियाहीनम् । हतं निर्नायकं सैन्यम् | महतश्चाज्ञानतो नरः । हरति मनो मधुरा हि यौवनश्रीः । ( किरात ० ) पुनः । ( कथा० ) - हितप्रयोजनं मित्रम् | हितभुक्, मितभुक्, शाकभुक् । सत्त्रियों का अपना कोई सुख नहीं होता, वे पति के सुख को ही अपना सुख समझती हैं । कौन स्वस्थ मनुष्य बुद्धिमान् नहीं ? स्वस्थ चित्त में ही सुविचार उत्पन्न होते हैं । स्वादिष्ट विषयों से आकर्षित इन्द्रियों को उनसे हटाना कठिन है। सन्तान से पूर्व ही स्त्री स्वाधीन होती है । - हितं मनोहारि च दुर्लभं वचः । (किरात ० ) - हितोपदेशो मूर्खस्य कोपायैव न शान्तये । ( कथा० ) हेम्नः संलक्ष्यते ह्यग्नौ विशुद्धिः श्यामिकापि वा । ( रघुवंशे० ) अर्थो हि लोके पुरुषस्य बन्धुः । हंस दूध ले लेता है और उसमें मिले जल को छोड़ देता है । अरे कमलसर ! कुछ हंसों के बिना तुम्हारी शोभा कहाँ ? क्रिया-रहित ज्ञान व्यर्थ है । सेनानी के बिना सेना निकम्मी है । हस्तस्य भूषणं दानम् । दान हाथ का गहना है । - हितः परोऽपि स्वीकार्यों हेयः स्वोऽप्यहितः हितकारक बेगाना भी स्वीकार्य है और अहित मनुष्य अज्ञान से मारा जाता है । यौवन की मधुर शोभा मन को हर लेती है। 1 कारक अपना भी त्याज्य । मित्र भलाई के लिए ही होता है । हितकर वस्तु खानेवाला, थोड़ा खानेवाला, साग-सब्जी खानेवाला ( स्वस्थ रहता है ) । हितकर तथा मनोहर वचन दुर्लभ है । हितकारक उपदेश मूर्ख को कुपित करता है, शान्त नहीं । सुवर्ण की खराई खोटाई अग्नि में ही परखी जाती है । संसार में धन ही मनुष्य का बन्धु है । For Private And Personal Use Only Page #741 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir द्वितीय परिशिष्ट हिन्दी सूक्तियों के संस्कृत-पर्याय संस्कृत हिन्दी अंगूर खट्टे हैं। १. अलभ्यं हीनमुच्यते । २. दुष्प्रापा द्राक्षा अम्लाः। अंडा सिखावे बच्चे को तू ची ची मत कर। १. बाल: शिक्षयति वृद्धान् । २. वृद्धानां मन्त्रदो बालः । अंडे सेवे कोई बच्चे लेवे कोई। पश्येह मधुकरीणां सञ्चितमर्थ हरन्त्यन्ये । अंडे होंगे तो बच्चे बहुतेरे हो जायेंगे। स्थिरे मूले ध्रुवा वृद्धिः। अन्तःकरण के अनुसार आचरण करे। मनःपूतं समाचरेत् । ( मनु०) अंतड़ी में रूप बुकची में छब्ब । १. रूपमन्ने छविर्वसने । २. निराहारे कुतो रूपं निर्वसने च कुतश्छविः । अंत बुरे का बुरा । १. दुरितस्य दुःखम् । २. दुष्टस्य कष्टम् । अंत भले का भला। १. भद्रस्य भद्रम् । २. शुभस्य शुभम् । अंत मता सो गता। अन्ते मतिः सा गतिः । अंदर से काले बाहर से गोरे । १. विषकुम्भाः पयोमुखाः। २. अंतः शाक्ता बहिः शैवाः। अंधा क्या चाहे ? दो आँखें। इष्टलाभः परं सुखम् । अंधा क्या जाने बसंत की बहार ? १. गुणान्वसन्तस्य न वेत्ति वायसः। २. लोचनाभ्यां विहीनस्य दर्पणः किं करिष्यति? ३. न भेकः कोकनदिनीकिअल्कास्वादकोविदः । (कथासरित्सागर) अंधा गुरु बहरा चेला, दोनों नरक में | अन्धस्यान्धानुलग्नस्य विनिपातः पदे पदे । ठेलमठेला। ॐधा बाँटे रेवड़ियाँ फिर फिर अपनों ही को। | विवेकरहितः खलु पक्षपाती। अंधी पीसे कुत्ता खाय। | पश्येह मधुकरीणां सञ्चितमर्थ हरन्त्यन्ये । (पंचतंत्र) अंधे के आगे रोवे अपने दीदे खोवे । | १. अर रोदनं व्यर्थ भस्मनि हुतमेव च । २. अरण्यरुदितमिव निष्प्रयोजनम् । अंधे के हाथ बटेर लगना। अन्धस्य वर्तकीलाभः । अंधे को अंधा कहने से बुरा मानता है। न यात्सत्यमप्रियम् । अंधे को अँधेरे में बड़े दूर की सूझी। बालिशस्य मतिस्फूतिः । अंधे को सब अंधे ही दीखते हैं। १. पित्तेन दूने रसने सिताऽपि तिक्तायते । २. पश्यति पित्तोपहतः शशिशुभ्रं शङ्खमपि पीतम् अंधेर नगरी चौपट राजा, नृपे मूढे नयः कुतः ? ____टके सेर भाजी टके सेर खाजा। अंधों ने गाँव लूटा दौड़ियो रे लँगड़े। १. अयं बन्ध्यासुतो याति खपुष्पकृतशेखरः । | २. अन्धैलुण्ठितो ग्रामः पंगो रे धाव सत्वरम् । For Private And Personal Use Only Page #742 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [७०४ ] अंधो में काना राजा। । १. निरस्तपादपे देश एरण्डोऽपि द्रुमायते। २. यत्र विद्वज्जनो नास्ति इलाध्यस्तत्राल्पधीरपि। अकेला चना भाड़ नहीं फोड़ सकता। उत्पतितोऽपि चणकः शक्तः किं भ्राष्ट्रकं भतुम्? अक्ल बड़ी कि भैंस? १. बुद्धिर्यस्य बलं तस्य निर्बुद्धेस्तु कुतो बलम् । (पंचतंत्र) २. मतिरेव बलाद् गरीयसी। ३. प्रज्ञा नाम बलं श्रेष्ठं निष्प्रज्ञस्य बलेन किम् ?: अक्लमंद को इशारा, अहमक को फटकारा।। विशाय संज्ञा, मूढाय दण्डः । अक्लमंद को इशारा ही काफ़ी है। १. अनुक्तमप्यूहति पण्डितो जनः । २. परेगितज्ञानफला हि बुद्धयः । अच्छी बात बच्चे की भी मान लेनी चाहिए। युक्तियुक्तं प्रगृह्णीयाद् बालादपि विचक्षणः । अच्छी वस्तु स्वयमेव प्रसिद्ध हो जाती है। न हि कस्तूरिकामोदः शपथेन विभाव्यते । अच्छी संतान सुख की खान । १. संततिः शुद्धवंश्या हि परत्रेह च शर्मणे ।(रघु०) २. सुखमूलं नुसन्ततिः। अटका बनिया देय उधार। परवशैः किन्न क्रियते ? अटकेगा सो भटकेगा। संशयात्मा विनश्यति। अढ़ाई पाव कंगनी चौबारे रसोई। निस्सारस्य पदार्थस्य प्रायेणाडम्बरो महान् । अति का भला न बोलना, अति की भली न | अति सर्वत्र वर्जयेत् । चुप्प । अति का भला न बरसना, अति की भली न धुप्प। अदले का बदला । १. कृते प्रतिकृति कुर्यात् । २. भद्रो भद्रे खलः खले। ३. शठे शाठ्यं समाचरेत् । अधजल गगरी छलकत जाय । अझै घटो घोषमुपैति नूनम् । अधिकार बड़ा है न कि बल। स्थानं प्रधानं न बलं प्रधानम् । ( पंचतंत्र) अधेला न दे, अधेली दे। १. अल्पस्य हेतोबहु हातुमिच्छन् विचारमूढ:: __ प्रतिभासि मे त्वम् । ( रघुवंश) २. पणमदत्वा निष्कं प्रयच्छति । अनहोनी होती नहीं होनी होवनहार। न यद् भावि न तद् भावि भावि चेन्न तदन्यथा । (हितोपदेश) अपना अपना गोर गर। निजो निज एव परः परश्च ।। अपना टैंटर न देखे | खलः सर्षपमात्राणि परच्छिद्राणि पश्यति । दूसरों की फुल्ली निहारे। आत्मनो बिल्वमात्राणि पश्यन्नपि न पश्यति ।। (महाभारत ) अपना पेट तो कुत्ता भी भर लेता है। १. जठरं को न बिभर्ति केवलम् ? २. काकोऽपि जीवति चिराय बलिञ्च भुङ्क्ते। अपना पैसा खोटा तो परखया का क्या | १. आत्मीयाः सदोषाश्चेत् को लाभः परदूषणैः ? दोष? २. समले सुवर्णे निकषो न निन्द्यः । अपना वही जो आए काम । १. स एव बन्धुः सहायको यः। २. परोऽपि हितकरः स्वीयः। अपना हाथ जगन्नाथ । स्वातन्त्र्यमिष्टप्रदम् । अपनी अपनी डफली अपना अपना राग। | स्वार्थसिद्धौ हि ये मग्नास्तेषां साम्मत्यं कुतः For Private And Personal Use Only Page #743 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [ ७०५ ] अपनी इज्जत अपने हाथ । १. लोके गुरुत्वं विपरीततां वा स्वचेष्टितान्येव नरं नयन्ति। २. निजाधीनं स्वगौरवम् । अपनी करनी पार उतरनी। कृत्यैः स्वकीयैः खलु सिद्धिलब्धिः। अपनी ग़रज़ बावली होती है। १. अर्थार्थी जीवलोकोऽयं श्मशानमपि सेवते । (पंचतंत्र) २. किन्न कुर्वन्ति स्वार्थिनः? अपनी गली में कुत्ता भी शेर होता है। | निजसदननिविष्टः श्वा न सिंहायते किम् ? अपनी छाछ को कोई खट्टी नहीं कहता। १. सर्वः खल्वात्मीयं कान्तं पश्यति । २. न हि कश्चिन्निजं तक्रमम्लमित्यभिभाषते । अपनी देह किसे प्यारी नहीं? ( अशेषदोषदुष्टोऽपि ) कायः कस्य न वल्लभः ? (पंचतंत्र) अपनी नाक कटे तो कटे दूसरों का सगुन | आत्मक्षत्याऽपि विघ्नन्ति परकर्माणि दुर्जनाः । तो बिगड़े। अपनी पगड़ी अपने हाथ। दे. 'अपनी इज्जत अपने हाथ' । अपनी बुद्धि पराया धन कई गुना दोखता है। स्वमतिः परधनञ्चैव वृद्धवृद्धं हि दृश्यते । अपने गरीवान में मैंह डालकर देखना। | विरूपो यावदादशे पश्यति नात्मनो मुखम् । मन्यते तावदात्मानमन्येभ्यो रूपवत्तरम् । (महाभारत) अपने दही को कोई खट्टा नहीं कहता। दे. 'अपनी छाछ को." अपने पाँव पर आप कुल्हाड़ा मारना। १. दुःखसहनं स्वदोषेण । २.स्वकरणांगारकर्षणम्। अपने मुँह मियाँ मिळू । इन्द्रोऽपि लघुतां याति स्वयं प्रख्यापितैर्गुणैः । अपयश से मौत भली। सम्भावितस्य चाकीतिमरणादतिरिच्यते । (गीता) अब पछताए होत क्या जब चिड़ियाँ चुग | १. निर्वाणदीपे किमु तैलदानम् ? गई खेत। २. गतस्य शोचनं नास्ति । ३. गतं शोचन्त्यपण्डिताः। ४. गते शोको निरर्थकः। अभी दिल्ली दूर है। अद्यापि दूरतः सिद्धिः। अमीर को जानप्यारी,गरीब को जान भारी। धनाढ्यो रक्षति प्राणान् निर्धनस्त्यक्तुमिच्छति । अरहर की टही गुजराती ताला। पाषाणे मृगमदलेपः। अलखामोशी नीमरजा। मौनं स्वीकारलक्षणम् । अल्पाहारी सदा सुखी। अल्पाहारी सदासुखी। अशरनियाँ लुटीं, कोयलों पर मुहर । १. निष्कापव्ययः, पणरक्षणम् । २. चन्दनदाहः, शमीरक्षा । अस्सी की आमद चौरासी का खर्च । १. अल्प आयो व्ययो महान्। २. न्यूनायेऽधिकव्ययः। आँख और कान में चार अंगुल का फ्रक श्रवणे दर्शने चैव वर्तते महदन्तरम् । __ होता है। आँख न दीदा काढ़े कसीदा। | अन्धो वीक्षितुमुद्यतः। आँख से दूर दिल से दूर। | १. दूरता स्नेहनाशिनी। २. नयनदूरं मनोदूरम् । आखों के अंधे नाम नयन-सुख । १. यस्य पार्श्वे धनन्नास्ति सोऽपि धनपाल उच्यते। | २. वित्तेन हीनो नाम्ना नरेशः । For Private And Personal Use Only Page #744 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir । ७०६ ] । ३. ज्ञानेन हीनोऽपि सुबोधसंशः। ४. गुणविरहितोऽपि गुणाकराख्यः । आँधी के आम । अल्पार्घद्रव्यम् । आई को कौन टारे? १. अपि धन्वन्तरिवैयः किं करोति गतायुपि ? २. मृत्योर्नास्ति भेषजम् । आई तो ईद-बरात न आई तो जुम्मेरात । सघृतं भोजनं वित्ते, दारिद्रये शुष्कमेव च । आई थी आग लेने मालिक बन बैठी। | १. सूचीप्रवेशे मुसलप्रवेशः। २. अनलाथै समायाता सजाता गृहस्वामिनी । आई है जान के साथ जायगी जनाज़ के साथ जीवनसंगिनी रुजा। आए की खुशी न गए का ग़म । १. सन्तुष्टः सदासुखी। २. लामालाभयोः समः। आग पानी का मेल कैसे हो सकता है ? | १. सामानाधिकरण्यं हि तेजस्तिमिरयोः कुतः? २. जलानलयोः सङ्गमः कुतः ? आग लगने पर कूआँ नहीं खोदा जाता। १. सन्दीप्ते भवने तु कूपखननं प्रत्युधमः कीदृशः? (नीतिशतक) २. न कूपखननं युक्तं प्रदीप्ते बहिना गृहे । आग लगा पानी को दौड़े। १. अन्तर्दुष्टः क्षमायुक्तः सर्वानर्थकरः किल । २. विषकुम्भः पयोमुखः । आगे कूआँ पीछे खाई। इतः कूपन्ततस्तटी। आगे जगह देखकर पाँव रखा जाता है। १. दृष्टिपूर्त न्यसेत्पादम् । ( मनु०) २. नासमीक्ष्य परं स्थानं पूर्वमायतनं त्यजेद । आगे दौड़ पीछे चौड़। पूर्वाधीतं तु विस्मृत्य अग्रस्थं प्रत्युत्सुकः। आगे नाथ न पीछे पगहा, सब से भला | का चिन्ता बन्धुहीनस्य ? कुम्हार का गदहा। आज का काम कल पर मत छोड़ो। यदध कार्य न श्वः कुर्यात् । आदत सिर के साथ जाती है। अभ्यासो हि दुस्त्यजः। आदि बुरा अंत बुरा। १. दुरारम्भो दुरन्तः स्यात् । २. दुर्वाजात्सुफलं कुतः ? आधा तीतर आधा बटेर। विषमयोगो न युज्यते। आधी छोड़ सारी को धावे, यो ध्रुवाणि परित्यज्य अध्रुवाणि निषेवते । ऐसा डूबे थाह न पावे । ध्रुवाणि तस्य नश्यन्ति अध्रुवं नष्टमेव तु ॥ भाप मरे जग परलै। १. आत्मप्रलये जगत्प्रलयः। २. आत्मनाशे जगन्नाशः। आप मरे बिना स्वर्ग नहीं मिलता। १. नात्मयत्नं विना सिद्धिः। २. यावन्न निधनं तावन्न स्वर्गः। भाप हारे बहू को मारे। निजापराधे भत्यस्य भर्सनम् । मा बला, गले लग। विपत्ते ! परिष्वजस्व माम् । आमों की कमाई नींबू में गवाई। इतो लाभस्ततः क्षतिः। आम के आम गुठलियों के दाम । एका क्रिया द्वयर्थकरी प्रसिद्धा। आम बोओ आम खाओ। यादृशमुप्यते बीजं तादृशं फलमाप्यते । आयगा सो जायगा राजा रंक फकीर । जातस्य हि ध्रुवो मृत्युः। आरत काह न करइ कुकर्मू। | आत्तों जनः किन्न करोति पापम् । For Private And Personal Use Only Page #745 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir आलस्य बुरी बला है । आलिम वह क्या असल न हो जिसका यः क्रियावान् स पण्डितः । किताब पर | आस-पास बरसे दिल्ली पड़ी तरसे । आस्मान पर थूका अपने सिर । आस्मान से गिरा खजूर में अटका । आहारे ब्यौहारे लज्जा न कारे । इक चुप हज़ार सुख । इक नागिन अरु पंख लगाई । इधर कूआँ उधर खाई । इधर बाघ उधर खाई । इलाज लाख, एक पथ्य । इश्क नाज़ ुक़ मिज़ाज है बेहद । अक्ल का बोझ उठा नहीं सकता ॥ [ ७०७ ] ईश्वर की माया कहीं धूप कहीं छाया । ईश्वर के नियम अटल हैं । ईश्वर के रंग (खेल) न्यारे हैं । इस घर का बाबा आदम ही निराला है । गृहमेतद् विलक्षणम् । इस हाथ दे उस हाथ ले । ईंट का जवाब पत्थर से । ईश्वर की निगाह सीधी हो तो किसी वस्तु की कमी नहीं रहती । १. अगच्छन् वैनतेयोऽपि पदमेकं न गच्छति । २. आलस्यं हि मनुष्याणां शरीरस्थो महारिपुः । ईश्वर के सिवा कोई निर्दोष नहीं । ईश्वर पर भरोसा रखना चाहिए । ईश्वर से क्या दूर है ? उखली में सिर दिया तो मूसलों का डर क्या? उतर गई लोई तो क्या करेगा कोई ? हा निर्धना दृष्टा निःस्पृहाणां धनं बहु | पङ्को हि नभसि क्षिप्तः क्षेप्तुः पतति मूर्धनि । तो मुक्तस्ततो बद्ध: । आहारे व्यवहारे च त्यक्तलज्जः सुखी भवेत् । मौनं सर्वसुखप्रदम् । दे. 'एक तो करेला " १. इतोऽन्धकूपस्ततो दन्दशूकः । २. इतः कूपस्ततस्तटी । इतो व्याघ्रस्ततस्तटी । पथ्ये सति गदार्तस्य किमौषधनिषेवणैः ? अनुरागान्धमनस विचार सहता कुतः । ( कथा ) उदार मनुष्य पान का विचार नहीं करते । उधार का खाना फूस का तापना बराबर है ? क्षमः । ईश्वर की निगाह सीधी हो तो कोई बाल भी बाँका नहीं कर सकता । ईश्वर की निगाह सीधी हो तो शत्रु भी मित्र बन जाता है । | सानुकूले जगन्नाथे विप्रियः सुप्रियो भवेत् । १. इतो देयं ततो ग्राह्यम् । २. त्वरितं फलं कर्मणाम् । १. शठे शाठ्यं समाचरेत् । २. कृते प्रतिकृतिं कुर्यात् । ( चाणक्यनीतिः ) १. प्रसन्ने हि किमप्राप्यमस्तीह परमेश्वरे । २. विधिर्हि घटयत्यर्थानचिन्त्यानपि संमुखः । (कथा.) श्रीकृष्णस्य कृपालवो यदि भवेत् कः कं निहन्तुं देवी विचित्रा गतिः । ध्रुवाः परमेशनियमाः । १. विधेविचित्राणि विचेष्टितानि । २. अहो विधेरचिन्त्यैव गतिरद्भुतकर्मणाम्। (कथा. ) ३. अहो नवनवाश्चर्यनिर्माण रसिको विधिः । ( कथा० ) ४. देवी विचित्रा गतिः । ५. मधुर विधुरमिश्राः सृष्टयो हा विधातुः । त्रिभुवनविषये कस्य दोषो न चास्ति । रामधाम शरणीकरणीयम् । किं हि न भवेदीश्वरेच्छया १ रणे योद्धुं प्रवृत्तस्य शत्रुशस्त्रात्तु किं भयम् । १. निर्लज्जस्य कुतो भयम् ? २. मानहीनमनुष्याणां लोकोऽयं किं करिष्यति १ मेघो गिरिजलधिवर्षी च । उद्धारभोजनं तृणतापसेवनम् । For Private And Personal Use Only Page #746 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [७०८] - उधार दिया गाहक खोया। उद्धारः केतृलोपकः। उधार मुहब्बत की कैंची है। उद्धारः स्नेहनाशकः । उधो मन माने की बात । तस्य तदेव हि मधुरं यस्य मनो यत्र संलग्नम् । उन्नीस-बीस का तो फ्रक होता ही है। समयोरप्यल्पमन्तरन् । उपजहिं एक संग जल माहीं, न सोदरास्तुल्यगुणा भवन्ति । जलज जोंक जिमि गुन बिलगाहीं। उलटा चोर कोतवाल को डांटे । दोषी पृच्छकमवक्षिपेत् । उलटे बाँस बरेली को। गङ्गां हिमाचलं नयति। ऊँट के मुँह में जीरा । १. दाशेरस्य मुखे जीरः । २. न स्तोकेन घस्मरतृप्तिः । ऊँट की चोरी और झके झके। न महान्ति कर्माणि भवन्ति गूढम् । ऊँची दुकान फीका पकवान । निस्सारस्य पदार्थस्य प्रायेणाडम्बरो महान् । ऊँट घोड़े बहे जायें, गधा कहे कितना पानी? | यत्र शूरगति स्ति कातरः किं करिष्यति ? ऊँट तो कूदे बोरे भी कूदे। नृत्यति पिनाकपाणी नृत्यन्त्यन्येऽपि भूतवेतालाः। ऊँट रे ऊँट तेरी कौन सी कल सीधी? । १. सर्वपापमयो जनः । २. सर्वदोषयुतो नरः । ऊँटों के विवाह में गधे गये । उष्ट्राणां विवाहे तु गीतं गायन्ति गर्दभाः । ऊधो का लेना न माधो का देना। निश्चिन्तो नरः सुखी। ऊपर से पानी देना नीचे से जड़ काटना । १. अन्तर्दुष्टः क्षमायुक्त: सर्वाऽनर्थकरः किल । | २. क्षालयन्नपि वृक्षाधि नदीवेगो निकृन्तति। ३. अन्तः शत्रुः बहिः सुहृद् । एक अंडा वह भी गंदा। काकमांसं शुनोच्छिष्टमतिस्वल्पञ्च तत्पुनः । एक अनार सौ बीमार। एकः कपोतपोतः श्येनाः शतशोऽभिधावन्ति । एक और एक ग्यारह होते हैं। १. संहतिः कार्यसाधिका । २. समवायो दुरत्ययः ३. एकचित्ते द्वयोरेव किमसाध्यं भवेदिति । (कथासरित्सागर) एक कहो दस सुनो। गाल्या उत्तरं दश। एक कान से सुनना दूसरे से निकाल देना? | अवधानरहितं श्रवगं हि व्यर्थम् । एक के दूने से सौ के सवाए भले । विक्रयाधिक्ये लाभाधिक्यम् । एक चुप हज़ार को हराए। १. मौनं सर्वार्थसाधनम् । २. मौनं विश्वजिद् ध्रुवम् । एकता में बड़ी शक्ति है। १. समवायो दुरत्ययः। २. संहतिः कार्यसाधिका। एक तो करेला कडुआ दूसरे नीम चढ़ा। १. अयमपरो गण्डस्योपरि स्फोटः । २. मर्कटस्य सुरापानं ततो वृश्चिकदंशनम् । एक तो चोरी दूसरे सीनाजोरी। अपराधित्वेऽपि धृष्टता। एक थैली के चट्टे-बट्टे । दुष्टत्वे सर्वे समाः। एक दिन मेहमान, दो दिन मेहमान, तीसरे | १. प्राधुणिको दिनद्वयम्, यमदूतस्ततः परम् । दिन बलाए जान । २. प्राहुणपूजा दिनद्वयम् । एक नज़ीर न सौ नसीहत । कृतिरुपदेशशताद् वरीयसी। एक पंथ दो काज । १. एका क्रिया द्वयर्थकरी प्रसिद्धा । (महाभाष्य) २. देहल्यां दीपः। एक परहेज़, न सौ हकीम। पथ्यं भिषकशताद् वरम् । एक पुण्य दूसरे फलियाँ। १. एका क्रिया द्वयर्थकरी प्रसिद्धा । २. एकं कृत्यं लोकपरलोकफलदम् । For Private And Personal Use Only Page #747 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [ ७०६ ] एक बार मरना फिर मरने से क्या डरना? क्षणविध्वंसिनः कायाः का चिन्ता मरणे रणे। एक बोटी सौ कुत्ते। दे. 'एक अनार सौ बीमार' । एक मछली सारे जल को गंदा करती है। एकेनैव कुपुत्रेण मलिनं जायते कुलम् । एक म्यान में दो तलवारें नहीं समा सकतीं। १. नैकस्मिन्नेव कान्तारे सिंहयोर्वसतिः क्वचित् । २. बलवतो कत्र शासनम् । एक हमाम में सब नंगे। सर्वे सहवासिनः समाः। एक हाथ से ताली नहीं बजती। १. नटेकेन हस्तेन तालिका संप्रपद्यते। (पंचतंत्र) २. नैकाकी कलहे क्षमः। एक ही लकड़ी से सबको हाँकना । योग्यायोग्योविवेकाभावः । एकै साधे सब सधे, सब साधे सब जाय । एकलक्ष्ये सर्वसिद्धिलक्ष्याधिक्येन काचन । ऐब करने को भी हुनर चाहिए । | पापं कौशलापेक्षि। ऐसे बूढ़े बैल को कौन बाँध भुस देय । वृत्तिहीनाय वृद्धाय को जनो भोजनं दद्यात् । ओछे की प्रीत बालू की भीत । अस्थिरं क्षुद्रसौहृदम् । ओछे के मुँह लगना अपनी इज्ज़त खोना । क्षुद्रसंगतिर्माननाशिनी। ओस चाटे प्यास नहीं बुझती। १. न तारालोकेन तमिस्रनाशः। ' २. प्रालेयलेहान्न तृषाविनाशः। और बात खोटी सही दाल रोटी। अन्नपानं परित्यज्य सर्वमन्यन्निरर्थकम् । कड़वी दवाई का फल मीठा । यत्तदने विषमिव परिणामेऽमृतोपमम् । कड़वे बोल न बोल। मर्मवाक्यमपि नोचरणीयम् । कन्या पराया धन होती है। अर्थो हि कन्या परकीय एव । ( अभिशान०) करमगति टारे नाहि टरे । १. भवितव्यं भवत्येव कर्मणामीदृशी गतिः । २. भवितव्यानां द्वाराणि भवन्ति सर्वत्र । (अभिज्ञान०) करम प्रधान बिस्व रचि राखा, स्वकर्मसूत्रप्रथितो हि लोकः । जो जस करहिं सो तस फल चाखा। दे. 'जैसी करनी वैसी भरनी'। करमों की गति न्यारी। | १. चित्रा गतिः कर्मणाम् । २. गहना कर्मणो गतिः। कल की छोड़ो आज की बात करो। | वर्तमानने कालेन वर्तयन्ति विचक्षणाः। कह रहीम परकाज हित संपति सँचर्हि | १. आदानं हि विसर्गाय सतां वारिमुचामिव। (रघु.) सुजान। २. आपन्नात्तिप्रशमनफलाः संपदो झुत्तमानाम् । ३. परोपकाराय सतां विभूतयः। का करै अद्वितीय जन यद्यपि होय समर्थ । असहायः समर्थोऽपि तेजस्वी किं करिष्यति । _ (पंचतंत्रम् ) सबलोऽप्येकलोऽबलः। काल सबको खा जाता है। सर्वः कालवशेन नश्यति । काला अक्षर भैंस बराबर । निरक्षरभट्टाचार्यः। काठ की बिल्ली तो बन गई परन्तु म्याऊँ | सुलभा रम्यता लोके दुर्लभं हि गुणार्जनम् । कौन करेगा? कुत्ता कुत्ते का बैरी। १. भिक्षुको भिक्षुकं दृष्ट्वा श्वानवद् गुर्मुरायते । २. याचको याचकं दृष्ट्वा श्वानवद् गुर्मुरायते । कुत्ते की दुम बारह बरस नली में रखो तो तरुणीकच इवं नीचः कौटिल्यं नैव विजहाति । भी टेढ़ी की टेढ़ी। For Private And Personal Use Only Page #748 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [७१०] D क्याबूढ़ा क्या जवान मौत केलिएसब समान मृत्योः सर्वत्र तुल्यता । खूटे के बल बछड़ा कूदे। अन्यस्माल्लब्धपदो नीचः प्रायेण दु:महो भवति । ख्वाजे का गवाह मैंढक । अहो रूपमहो ध्वनिः। गंगा गए गंगाराम जमुना गए जमुनादास । भजन्ति वैतसी वृत्तिं मानवाः कालवेदिनः । ग़रीब को न दा की मार। देवो दुर्बलघातकः । बारीब को संसार सूना। १. सर्वे शून्यं दरिद्रस्य। २. सर्वशून्या दरिद्रता । ग़रीब को सुख कहाँ ? १. निर्धनस्य कुतः सुखम् ? २. निर्धनता सर्वापदामास्पदम् । गुणी गुणों से भादर पाते हैं, आयु तथा गुणाः पूजास्थानं गुणिषु न च लिङ्गं न च वयः । लक्षणों से नहीं। गुरु बिना गत नहीं। विना हि गुर्वादेशेन सम्पूर्णाः सिद्धयः कुतः ? गुस्सा बड़ा चंडाल है। १. धर्मक्षयकरः क्रोधः। २. क्रोधो मूलमनर्थानाम् । गेहूँ के साथ घुन भी पिस जाता है। अपेक्षन्ते हि विपदः किं पेलवमपेलबम् ? घर का जोगी जोगड़ा बाहर जोगी सिद्ध । स्वदेशजातस्य नरस्य नूनं गुणाधिकस्यापि भवे दवज्ञा। घोड़ों का घर कितनी दूर? किं दूरं व्यवसायिनाम् ? चुपड़ी और दो दो? यथौषधं स्वादु हितं च दुर्लभम् । चमड़ी जाय दमड़ी न जाय । प्राणेभ्योऽप्यर्थमात्रा हि कृपणस्य गरीयसी। (कथा चार दिन की चाँदनी औ फिर अँधेरी रात । तिष्ठत्येकां निशां चन्द्रः श्रीमान् संपूर्णमण्डलः । जगत् मेड़-चाल है। गतानुगतिको लोको न लोकः पारमार्थिकः । जब बुरे दिन आते हैं बुद्धि मारी जाती है। | १. विनाशकाले विपरीत बुद्धिः । २. प्रायः समापन्न विपत्तिकाले थियोऽपि पुंसा मलिना भवन्ति । जब भाग्य ही सीधा न हो तो काम कैसे ! १. वक्रे विधौ वद कथं व्यवसायसिद्धिः । सिद्ध हो। २. वामे विधौ न हि फलन्त्यभिवाञ्छितानि । जब लग पैसा गाँठ में तब लगताको यार! अम्बुगर्भो हि जीमूतश्चातकर भिनन्धते । ( रघु.) ज़बाँ शीरी मुल्क गीरी। कः परः प्रियवादिनाम् ? मसात के वक्त गधे को भी बाप कहा महानपि प्रसङ्गेन नीचं सेवितुमिच्छति । जाता है। जहाँ न जाय रवि वहाँ जाय कवि । कवयः किं न पश्यन्ति ? जान किसे प्यारी नहीं। कायः कस्य न वल्लभः ! जान है तो जहान है। आत्मार्थे पृथिवीं त्यजेत् । जिसका काम उसी को साजे, अज्ञता कस्य नामेह नोपहासाय जायते । और करे तो डफली बाजे। (कथासरित्सागर) जिसका खाएँ उसी का गीत गाएँ। को न याति वशं लोके मुखे पिण्डेन पूरितः ? जिसकी लाठी उसकी भैंस । औचित्यं गणयति को विशेषकायः । जिसके घर दाने उस के कमले (मूर्ख) लक्ष्मीर्यस्य गृहे स एव भजति प्रायो जगद्भी स्याने। वन्द्यताम् । जितना गुड़ डालोगे उतना मीठा होगा। । अधिकस्याधिक फलम् । जितने मुँह उतनी बातें। नवा वाणी मुखे मुखे। जिनको कछू न चाहिए तेई साहंसाह। । सुखमास्ते निःस्पृहः पुरुषः । For Private And Personal Use Only Page #749 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [ ७११] जीभ रोगों की जड़ है। रसमूला हि व्याधयः। जीवन का क्या भरोसा है ? अस्थिरं जीवितं लोके। जैसा कारण वैसा कार्य। १. यथा बीजं तथाङ्करः। २.यथा वृक्षस्तथा फलम् । ३. यादृशास्तन्तवः कामं तादृशो जायते पटः । जैसा मुंह वैसी चपेड़। पात्रानुसारं फलम् । जैसी करनी वैसी भरनी। १. भद्रकृत्प्राप्नुयाद् भद्रं, अभद्रञ्चाप्यभद्रकृत् । (कथा) २. भद्रमभद्रं वा कृतमात्मनि कल्प्यते । (कथा०) ३. यो यद्धपति बीजं हि लभते सोऽपि तत्फलम् । ४. कर्मायत्तं फलं पुंसाम् । दे. 'करम प्रधान..." जैसी संगत वैसी रंगत। १. संसर्गजा दोषगुणा भवन्ति। . २. प्रायेणाधममध्यमोत्तमगुणः संसर्गतो जायते । जैसे को तैसा। १. शठे शाठ्यं समाचरेत् । २. आर्जवं हि कुटिलेषु न नीतिः । (नैषध. ) जो अपनी सहायता करते हैं ईश्वर भी दैवमेव हि साहाय्यं कुरुते सत्त्वशालिनाम् । उनकी सहायता करता है। जो गरजते हैं वे बरसते नहीं। नीचो वदति न कुरुते, वदति न साधुः करोत्येव । जो तुव को काँटा बुवै ताहि बोव तू फूल । क्षारं पिबति पयोधेपत्यम्भोधरो मधुरमम्भः । जो पैदा हुआ सो मरेगा। १. कः कालस्य न गोचरान्तरगतः। २. जातस्य हि ध्रुवो मृत्युः । (गीता) ३. मरणं प्रकृतिः शरीरिणाम् । ४. उत्पद्यन्ते विलीयन्ते। जो सुख छज के चौबारे, वह न बलन न प्राणिनां हि निकृष्टाऽपि जन्मभूमिः परा प्रिया । बुखारे। (कथा) जो है जिसको भावता सो ताही के पास । न हि विचलति मैत्री दूरतोऽपि स्थितानाम् । ज्ञान से बड़ा कोई सुख नहीं। नास्ति ज्ञानात्परं सुखम् । डूबा बंस कबीर का उपजे पूत कमाल। कुपुत्रेण कुलं नष्टम् । तृष्णा बूढ़ी नहीं होती। तृष्णका तरुणायते। थोथा चना बाजे घना। १. अझै घटो घोषमुपैति नूनम् । २. गुणैविहीना बहु जल्पयन्ति । ३. अल्पज्ञानी महाभिमानी। ४. न सुवर्ण ध्वनिस्तादृग् यादृक्कांस्ये प्रजायते । दमड़ी की बुढ़िया टका सिरमुड़ाई। १. न काचस्य कृते जातु युक्ता मुक्तामणेः क्षतिः । (कथा) २. रत्नव्ययेन पाषाणं को हि रक्षितुमर्हति? (कथा.) दया धर्म का मूल है। १. धर्मस्य मूलं दया। २. को धर्मः कृपया विना ? दिल दिल का साक्षी होता है। विमलं कलुषीभवच्च चेतः कथयत्येव हितैषिणं रिपुं वा। दुधार गाय की लात भली। काश्मीरजस्य कटुतापि नितान्तरम्या। दूध का जला छाछ भी फूंक कर पीता है। | पाणी पयसा दग्धे तक्र फूत्कृत्य पामरः पिबति । दूर के ढोल सुहावने। दूरतः पर्वता रम्याः । धन जोबन का गरब न कीजै। १. अस्थिरे धनयौवने। २. किञ्चित्कालोपभोग्यानि यौवनानि धनानि च । For Private And Personal Use Only Page #750 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir धर्महीन नर पशू समाना । धर्मेण हीनाः पशुभिः समानाः। न इधर के रहे न उधर के रहे। १. इतो भ्रष्टस्ततो भ्रष्टः। २. इदं च नास्ति न परं च लभ्यते । ३. उभयतो भ्रष्टः। नदी नाव संजोगी मेले। असंभाव्या अपि नृणां भवन्तीह समागमाः। (कथा) नहिं अस कोउ जग माहीं, प्रभुता पाइ ऋद्धिश्चित्तविकारिणी। जाहि मद नाहीं। नहीं यह जन्म बारंबार । भस्मीभूतस्य भूतस्य (देहस्य) पुनरागमनं कुतः? नहीं शील सम गहना दूजा । १. शीलं परं भूषणम् । २. शीलं हि सर्वस्य नरस्य भूषणम् । न होने की अपेक्षा थोड़ी अच्छी। १. बधिरान्मन्दकर्णः श्रेयान् । २. अभावादल्पता वरा। निरन्तर ख़र्च से कारूँ का खजाना भी भक्ष्यमाणो निरुदयः सुमेरुरपि हीयते । समाप्त हो जाता है। पर उपदेस कुसल बहुतेरे, जे आचरहिं ते | १. परोपदेशवेलायां शिष्टाः सर्वे भवन्ति वै। नर न घनेरे। २. परोपदेशे पाण्डित्यं सर्वेषां सुकरं नृणाम् । धर्म स्वीयमनुष्ठानं कस्यचित्तु महात्मनः ।। पर घर कबहुँ न जाइए जात घटत है जोत । | परसदननिविष्टः को लघुत्वं न याति ? परहित सरिस धरम नहिं भाई। परोपकारजं पुण्यं न स्यात् क्रतुशतैरपि । पराधीन सपने सुख नाहीं। कष्टः खलु पराश्रयः। परोपकारी लोग स्वार्थ की चिन्ता नहीं करते। १. परहितनिरतानामादरो नात्मकार्ये । २. परार्थप्रतिपन्ना हि नेक्षन्ते स्वार्थमुत्तमाः।(कथा.) पहले तोलो पीछे बोलो। युक्तं न वा युक्तमिदं विचिन्त्य वदेद् विपश्चिन्म हतोऽनुरोधात् । पाप का भांडा फूट ही जाता है। नाधर्मश्चिरमृद्धये । (कथा.) पैसा पापियों को पूज्य बना देता है। चाण्डालोऽपि नरः पूज्यो यस्यास्ति विपुलं धनम् । पैसा रहा न पास यार मुख से नहि बोलें। | वृक्षं क्षीणफलं त्यजन्ति विहगाः । पैसा हाथ की मैल है। उदारस्य तृणं वित्तम् । पैसे से दोष भी गुण बन जाते हैं। मातर्लक्ष्मि तव प्रसादवशतो दोषा अपि स्युर्गुणाः। प्रभुता पाइ काहि मद नाहीं। १. कोऽर्थान् प्राप्य न गर्वितः ? २. यत्रास्ति लक्ष्मीविनयो न तत्र । प्राण जायँ पर धर्म न जाई। त्यजन्त्युत्तमसत्वा हि प्राणानपि न सत्पथम् । (कथा) प्राण जायँ पर वचन न जाई । न चलति खलु वाक्यं सज्जनानां कदाचित् । बंदर क्या जाने अदरक का स्वाद ? १. न भेकः कोकनदिनीकिंजल्कास्वादकोविदः । २. किमिष्टमन्नं खरसूकराणाम् ? बड़ों का मार्ग ही ठीक मार्ग है। महाजनो येन गतः स पन्थाः। बड़ों की बड़ी बातें। अहह महतां निस्सीमानश्चरित्रविभूतयः । बड़ों की संगत से बहुत लाभ होता है। ध्रुवं फलाय महते महतां सह संगमः । ( कथा ) बढ़ीहुई(आयु)के इलाज़ हैं घटी हुई के नहीं। प्रतिकारविधानमायुषः सति शेषे हि फलाय कल्पते। बदनाम जो होंगे तो क्या नाम न होगा? | येन केन प्रकारेण प्रसिद्धः पुरुषो भवेत् । बहुत निबलमिलि बल करें, करें जु चाहै सोया बहूनामप्यसाराणां संहतिः कार्यसाधिका । For Private And Personal Use Only Page #751 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra बातों से काम नहीं चलता । बाप पर बेटा तुम पर घोड़ा । बिन घरनी घर भूत का डेरा | www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir बिना विचारे जो करे सो पाछे पछताय । बीती बात का शोक न करना चाहिए । [ ७१३ । बुरी संगत का बुरा फल । बूँद-बूँद पड़ने से घड़ा भर जाता है। भले काम में देर कैसी ? भों का संग करना चाहिए। असन्मैत्री हि दोषाय कूलच्छायेव सेविता । ( किरात० ) जलविन्दुनिपातेन क्रमशः पूर्यते घटः । शुभस्य शीघ्रम् । १. सद्भिः कुर्वीत संगतिम् । २. सद्भिरेव सहासीत । भाग्य का मारा जहाँ जाता है विपत्ति भी १. प्रायो गच्छति यत्र भाग्यरहितस्तत्रापद वहीं उसे जा घेरती है । भूख में सब कुछ स्वादु लगता है । -भैंस के आगे बीन बजे भैंस खड़ी पगुराय । मन के हारे हार है मन के जीते जीत। न नश्यति तमो नाम कृतया दीपवर्तिया । कार्ये निदानाद्धिगुणानधीते । ( नैषध० ) १. प्रियानाशे कृत्स्नं किल जगदरण्यं हि भवति । २. भार्याहीनं गृहस्थस्य शून्यमेव गृहं मतम् । ३. धिग्गृहं गृहिणीशून्यम् । १. सहसा विदधीत न क्रियामविवेकः परमापद पदम् । २. सहसा हि कृतं पापं ( कार्य ) कथं मा भूद्विपत्तये । ( कथा० ) १. गतस्य शोचनं नास्ति । २. गते शोको निरर्थकः ३. गतं शोचन्त्यपंडिता: । भाजनम् । २. प्रायो गच्छति यत्र दैवहतकस्तत्रैव यान्त्यापदः । (नीति० ) क्षुधातुराणां न रुचिर्न पक्वम् । मित्र की पहचान विपद में ही होती है। १. अन्धस्य दीपः । २. बधिरस्य गीतम् । १. जिते चित्ते जितं जगत् । २. जितचित्तेन सर्वं हि जगदेतद्विजीयते । ३. जितं जगत्केन ? मनो हि येन । ( शंकराचार्य ) निवृत्तरागस्य गृहं तपोवनम् । मन चंगा तो कठौती में गंगा । मनस्वी लोग सुख-दुःख की परवाह नहीं करते। मनस्वी कार्याथीं न गणयति दुःखं न च सुखम् । मरता क्या न करता । १. बुभुक्षितः किन्न करोति पापम् ? २. क्षीणा जना निष्करुणा भवन्ति । ३. दारिद्रयदोषेण करोति पापम् । महात्माओं के मन, वाणी तथा कर्म में | मनस्येकं वचस्येकं कर्मण्येकं महात्मनाम् । समानता होती है । : माँगन गए सो मर गए । १. याचनान्तं हि गौरवम् । २. याचनान्मरणं वरम् ३. वरं हि मानिनो मृत्युर्न दैन्यं स्वजनाग्रतः । ( कथा० ) ४. कोऽथ गतो गौरवम् ? १. हेम्नः संलक्ष्यते ह्यग्नौ विशुद्धिः श्यामिकापि वा । ( रघु० ) २. मित्रस्य निकषो विपत् । ३. स सुहृद् व्यसने यः स्यात् । For Private And Personal Use Only Page #752 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [ ७१४ ] - मुक्ति तथा बंधन का कारण मन ही है। । मन एव मनुष्याणां कारणं बन्धमोक्षयोः । मूरख का बल मौन । बलं मूर्खस्य मौनित्वम् । मुर्ख लोग भेड़-चाल चलते हैं। मूढः परप्रत्ययनेयबुद्धिः । ( कालिदास ) मूखों की संगत से कौन सुख पाता है ? मूखैहिं संगः कस्यास्ति शर्मणे ? ( कथा०) मेरे मन कछु और है बिधना के कछु और। को जानाति जनो जनार्दनमनोवृत्तिः कदा कीदृशी ! मोह की फाँसी बड़ी प्रबल है। नास्ति मोहसमो रिपुः। मौत का कोई इलाज़ नहीं। | अपि धन्वन्तरिर्वैद्यः किं करोति गतायुषि ? योग्य, योग्य के साथ ही फबता है। चकास्ति योग्येन हि योग्यसंगमः । रखिए मेलि कपूर में हींग न होय सुगंध । किं मर्दितोऽपि कस्तूर्यो, लशुनो याति सौरभम् ?' राम भए जेहि दाहिने सबै दाहिने ताहि। । १. ग्रावाणोऽप्यातां सम्यग भजन्त्यभिमुखे विधौ । २. ईशेऽनुकूले सर्वेऽनुकूलाः। | ३. दोषोऽपि गुणतां याति प्रभोर्भवति चेत्कृपा। राम राम जपना पराया माल अपना । | अहो विश्वास्य वञ्च्यन्ते धूतॆश्छद्मभिरीश्वराः। रोग तथा शत्रु को छोटा न समझो। | अल्पीयसोऽप्यामयतुल्यवृत्तेमहापकाराय रिपोविं वृद्धिः । (किरात.) लालच बुरी बला है। नास्ति तृष्णासमो व्याधिः । लोकमयोदा का पालन अवश्य करना चाहिए। यद्यपि शुद्धं लोकविरुद्धं नो करणीयं नाचरणीयम्। लोभ पापों की खान । १. लोभः पापस्य कारणम् । २. लोभमूलानि पापानि । ३. पापानामाकरो लोभः । विद्या पुण्य कर्मों से आती है। पूर्वपुण्यतया विद्या। विधाता ऋद्ध हो तो मित्रभी शत्रु बन जाते हैं। क्रुद्धे विधौ भजति मित्रममित्रभावम् । विधि का लिखा मिटाया नहीं जा सकता। १. अभई भद्रं वा विधिलिखितमुन्मूलयति कः ? २. यद्देवेनललाटपत्रलिखितं तत्प्रोक्षितुं कः क्षमः ? ३. यद्धात्रा निजभालपट्टलिखितं तन्मार्जितुंकः क्षमः ४. लिखितमपि ललाटे प्रोज्झितुं कः समर्थः १ . ५, शिरसि लिखितं लङ्कयति कः ? शूरवीर मौत की परवाह नहीं करते। शूरस्य मरणं तृणम् । शेर भूखा मर जाता है परन्तु घास नहीं खाता। १. न प्राणान्ते प्रकृतिविकृतिर्जायते चोत्तमानाम् । २. न स्पृशति पल्वलाम्भः पअरशेषोऽपि कुञ्जरः क्वापि। ३. सर्वः कृच्छ्रगतोऽपि वाञ्छति जनः सत्त्वानुरूपं फलम् । संगठन में बड़ी शक्ति है। पञ्चभिमिलितैः किं यज्जगतीह न साध्यते । (नैषध.) संतसमागम बड़ा दुर्लभ है। पुण्यै रेव हि लभ्यते सुकृतिभिः सत्संगतिर्दुर्लभा ।। संतों के कारज आप सँवारे । देवेनैव हि साध्यन्ते सदाः शुभकर्मणाम् । (कथा.) संतोष सबसे बड़ा धन है। १. संतोषतुल्यं धनमस्ति नान्यत् । २. संतोष एव पुरुषस्य परं निधानम् । ३. संतोषः परमं धनम् । संतोष सबसे बड़ा सुख है। १. न तोषात् परमं सुखम् । २. संतोषः परमं सुखम् । संसार में धन-सा सम्बन्धी कोई नहीं। | अर्थो हि लोके पुरुषस्य बन्धुः। For Private And Personal Use Only Page #753 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [७१५] सच की ही जीत होतो है। सत्यमेव जयते । सदाचार सब से बड़ा धर्म है। आचारः परमो (प्रथमो) धर्मः । सबको काम प्यारा है, चाम प्यारा नहीं। | सर्व कार्यवशाज्जनोऽभिरमते तत्कस्य को वल्लभः ? सब लोग गुण तो किसी में नहीं होते। नैकत्र सर्वो गुणसंनिपातः। सब सब कुछ नहीं जानते । १. न हि सर्वविदः सर्वे । २.सर्वे सर्व न जानन्ति ।" साँच बराबर तप नहीं झूठ बराबर पाप । नास्ति सत्यात्परो धर्मः, नानृतात् पातकं परम् । साँप निकल गया लकीर पोटा करो। १. चौरे गते वा किमु सावधानम् ? २. पयोगते किं खलु सेतुबन्धः । सार सार को गहि रहे थोथा देय उड़ाय । १. सारं गृह्णन्ति पण्डिताः। २. हंसो यथा क्षीरमिवाम्बुमध्यात् । ३. हंसो हि क्षीरमादत्ते तन्मिश्रा वर्जयत्यपः । (अभिज्ञान.) सारी जाती देखकर आधी लेय बचाय । १. सर्वनाशे समुत्पन्ने, अर्द्ध त्यजति पण्डितः । २. ग्रामस्याथै कुलं त्यजेत् । ३. त्यजेदेकं कुलस्यार्थे । सारी रात रोते रहे मरा एक भी नहीं। | परमार्थमविज्ञाय न भेतव्यं क्वचिन्नृभिः । (कथा.) सास-बहू में मेल कहाँ ? | प्रायः श्वश्रुस्नुषयोर्न दृश्यते सौहृदं लोके ।। सीख न दीजै बानरा जो बए का घर जाय। १. उपदेशो हि मूर्खाणां प्रकोपाय न शान्तये । २. हितोपदेशो मूर्खस्य कोपायैव न शान्तये ।। (कथा.) ३. मूर्खाणां बोधको रिपुः। सीधी उँगलियों से घी नहीं निकलता। | १. आवं हि कुटिलेषु न नीतिः । ( नैषध.) २. शाम्येत् प्रत्यपकारेण नोपकारेण दुर्जनः । सुख-दुःख सब के साथ लगे हुए हैं। कस्यात्यन्तं सुखमुपनतं दुःखमेकान्ततो वा । नीचैर्गच्छत्युपरि च दशा चक्रनेमिक्रमेण । (मेघ.) सुत बिना सूना गेह । १. अपुत्रस्य गृहं शून्यम् । २. पुत्रहीनं गृहं शून्यम् । सूरदास जाको जासों हित सोई ताहि सुहाता यदेव रोचते यस्मै भवेत् तत्तस्य सुन्दरम् । सोने में सुगन्ध । केवलोऽपि सुभगो नवाम्बुदः, किं पुनस्त्रिदशचाप ___लाञ्छितः । ( रघु.) स्वभाव नहीं बदलता। १. यादृशो यः कृतो धात्रा भवेत्तादृश एव सः । २. या यस्य प्रकृतिः स्वभाव जनिता केनापि न त्यज्यते। ३. स्नापितोऽपि बहुशो नदीजलैगर्दभः किमु यो भवेत् क्वचित् ? होनहार फिरती नहीं होवे बिस्से बीस । १. प्राचीनकर्म बलवन्मुनयो वदन्ति । २. साध्यासाध्यविचारं हि नेक्षते भवितव्यता। (कथा.); ३. हतविधिपरिपाकः केन वा लङ्घनीयः ? ४. भवितव्यता बलवती। ५. विधिरहो बलवानिति मे मतिः। हो बिधना प्रतिकूल जबै तब उँट चढ़े पर अहो विधौ विपर्यस्ते न विपर्यस्यतीह किम् । कूकर काटत । For Private And Personal Use Only Page #754 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तृतीय परिशिष्ट अंग्रेजी संस्कृत शब्दावली | Amenity-सुख-सुविधा। Academy-१. शिक्षालयः २. साहित्य- | Anniversary-वार्षिकोत्सवः । विज्ञान-कला, परिषद् ( स्त्री.)। Appeal-पुनरावेदनम्, पुनन्यायप्रार्थना। Accountancy-लेखा-संख्यान, कर्मन् (न.)। Application-आवेदनपत्रम् । Account-१. लेखा २. विवरणम् । Appointment-नियुक्तिः ( स्त्री.)। Accountant--लेखापालः । Archaeologist--पुरातत्त्वज्ञः । Accountant general-महालेखापालः । | Architect--वास्तुकारः। Acknowledgment-प्राप्तिपत्रम् । Aristocracy-अभिजात-कुलीन,-तन्त्रम् । Act-अधिनियमः। Assembly-सभा। Acting---१. कार्यकारिन् २. अभिनयः। Assembly, legislative-विधानसभा । Adhoc committee-तदर्थसमितिः (स्त्री.)। Assessment officer-करनिर्धारणाधि. Adjournment motion-स्थगनप्रस्तावः। कारिन् । Administration-प्रशासनम् । Assistant controller/director/ Administrator-प्रशासकः । secretary-सहायक, नियंत्रकः-निदेशकःAdult-वयस्कः, प्रौढ़ः । सचिवः। Adult franchise-~~-वयस्कमताधिकारः। Assosiate member-सहसदस्यः । Advance-अग्रिमधनम् । Atlas-मानचित्रावली। Advocate-अधिवक्त (पुं.)। Atmosphere-१. वायुमण्डलम् २. वाताAdvocate general-महाधिवक्त । वरणम् । Aesthetics-सौन्दर्यशास्त्रम् । Attesting officer.-साक्ष्यांकनाधिकारिन् । Affidavit-शपथपत्रम् । Attorney general-महान्यायवादिन् । Affiliation-*सम्बन्धनम्, सम्बद्धीकरणन् । | Audience-श्रोतृवर्गः। Agency-अभिकरणो। Audit-लेखापरीक्षा । Agenda-कार्यसूची। Auditor-लेखापरीक्षकः । Agent-अभिकर्तृ (पु.)। Authority.--१.प्राधिकारिन् २.प्राधिकारः। Agitation-आन्दोलनम् । Autocracy---एकतन्त्रम् । Agreement-१. सविदा २. साम्मत्यम् । Autonomy-स्वायत्तशासनम्, स्वायत्तता। Air-conditioned-नियन्त्रिताताप । | Aviation-विमाननम्, विमानयात्रा। Air-port-वायुपत्तनम् । Air-tight-*पवन-वात,रोधक। Balance sheet-तुलनपत्रम् । All India Radio-आकाशवाणी।। Ballot-box-मतपेटिका । Allotment officer-आवंटनाधिकारिन् । | Ballot-paper-मतपत्रम्, शलाका । Alphabetically--वर्णक्रमानुसारं, वर्ण- | Bank-अधिकोषः। मालाक्रमेण । Banker--अधिकोषिन् । For Private And Personal Use Only Page #755 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [ ७१७ ] Basic Education-आधारिकशिक्षा। । Century-१. शती २. शताब्दी। Bibliography-ग्रन्थसूची। Cess-उपकरः। Bill-१. विधेयकम् २. प्राप्यकम् । Chairman-सभापतिः। Biology---जीवविज्ञानम् । Chamber of Commerce वाणिज्यBirth control--सन्ततिनिरोधः । मंडलम् । Black-out-बहिरन्धकारः। Chancellor-कुलाधिपतिः । Blood-pressure-रक्तचापः। Chancellor, Pro-vice-उपकुलपतिः । Board-मण्डली। Chancellor, Vice-कुलपतिः। Board, District-मण्डल-मण्डली-पालिका। Charge d' Affairs-कार्यदूतः । Board, Municipal-नगर-,मण्डली-पालिका Charge-sheet-आरोपपत्रम् । Board of Directors-निदेशकमंडली।। Chart--१. रेखापत्रम् २. चित्रफलकम् । Body-निकायः। Charter-अधिकारपत्रम् । Bonafied-विश्वस्त, प्रामाणिक, सदाशय । Chartered Accountant-अधिकार-- Bonafides-विश्वस्तता, सदाशयता, प्रामा- पत्रितलेखपालः। णिकता। Cheque-*चेकम्, देयादेशः। Bond--बन्धपत्रम् । Cheque, Bearer--वाहकचेकम् । Bonus-अधिलाभांशः । Cheque, Blank-निरंक चेकम् । Booking-office--टिकटगृहम् । Cheque, Crossed-रेखितचेकम् । Broad-cast--प्रसारणम् । Cheque, Order-आदेशचेकम् । Budget-आयव्ययकम् । Chief Commissioner-मुख्यायुक्तः । Bye-election-उपनिर्वाचनम् । Chief Judge-मुख्यन्यायाधीशः । Bye-law-उपविधिः। Chief Justice-मुख्यन्यायाधिपतिः। By-post-पत्रविभागेन। Chief Minister--मुख्यमंत्रिन् (पुं.)। C Chief of Air staff-वायुसेनाध्यक्षः। Cabinet--मन्त्रिमण्डलम् । Chief of Army staff-स्थलसेनाध्यक्षः।' Cadet-सैन्यछात्रः। Chief of Naval staff-नौसेनाध्यक्षः। Calculator-गणकः । Chlef of Protocal-नयाचारप्रमुखः । Calendar-तिथिपत्रम्, पंचांगम् । C. I. D. गुप्तचरविभागः । Calory-उष्णाङ्कः। Circular-परिपत्रम् । Candidate-१. परीक्षार्थी २. अभ्यर्थी | Citizen-नागरिकः। ३. पदार्थी। Citizen-ship-नागरिकता। Cantonment-कटक:-कम् । Civil-नागरिक, असैनिक । Capital--मूलधनम् । Civil Code--व्यवहार-संहिता। Capsule-पुटी। Civil Court--व्यवहार न्यायालयः, व्यवहाCase-काण्डः-डम् । रालयः। Cash-Memo-विक्रय पत्रम्, विक्रयिका । Civilization-सभ्यता । Casting vote-निर्णायक मतम् । Civil Service--नागरिकसेवा । Casuality-हताहत । Clause--खण्ड:-डम् । Cell-१. कोशाणु: २, कुटी। Clock tower-घण्टा,-गृहम्-स्तम्भः । Census-जनगणना। Code-संहिता। Central Investigation Agency Collector-समाहर्तृ, संग्राहकः । केन्द्रियान्वेषणाभिकरणी। Commerce वाणिज्यम् । For Private And Personal Use Only Page #756 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [७१८) - Commission--१. आयोगः २. वर्तनम् । । Copyright-प्रकाशनाधिकारः । Commissioner-आयुक्तः।। Corporation-निगमः । Committee---समितिः (स्त्री.)। Cost-परिव्ययः। Committee, Executive, working-| Cottage Industry-कुटीरोद्योगः । कार्यकारिणी समितिः ( स्त्री.), कार्यसमितिः । Council-परिषद् (स्त्री.)। Committee, Select-प्रवरसमितिः Council, Advisory-परामर्शपरिषद् (स्त्री.)। । (स्त्री.)। Committee, Standing-स्थायिसमितिः | Council of Ministers-मंत्रिपरिषद् (स्त्री.)। (स्त्री.)। Commonwealth-राष्टमण्डलम् । Council of States-राज्यपरिषद् (स्त्री.)। Communication -संचारः । Court-न्यायालयः। Communique-विज्ञप्तिः ( स्त्री.)। Court, Criminal-दण्डन्यायालयः। Communism-साम्यवादः। Court, District-मण्डलन्यायालयः। Community Development-FTH | Court, Federal संघीयन्यायालयः । दायिक विकासः। Court, High-~-उच्चन्यायालयः। Company-समवायः । Court, Martial सेनान्यायालयः । Compensation-प्रतिकरः, क्षतिपूर्तिः Court of Appeal-पुनर्विचारन्यायालयः। (स्त्री.)। Court of Wards-प्रतिपालकाधिकरणम् । Complaint--१. अभियोगः २. परिवादः, Court, Revenue-राजस्वन्यायालयः। परिवेदना। Court, Session—सत्रन्यायालयः। Computor-संगणकम् । Court, Subordinate-अधीनन्यायालयः। Confederacy--राज्यसंघः। Court, Supreme-उच्चतमन्यायालयः। Confederation-राज्यमण्डलम् । Credential-प्रत्ययपत्रम् । Conference-सम्मेलनम् । Credit-१. प्रत्ययः (हिं. साख) Constituency-निर्वाचनक्षेत्रम् । २. आकलनम्। .Constituent Assembly-संविधानसभा। Constitution-संविधानम् । Criminal Law-दण्डविधिः (पुं.)। Culture-संस्कृतिः (स्त्री.)। Consul-वाणिज्यदूतः । Currency-चलार्थः, मुद्रा। Context--सन्दर्भः, प्रसंगः, प्रकरणम् । Custodian-अभिरक्षकः । Continent-महाद्वीपः-पम् । .Contingency fund-आकस्मिकतानिधिः, Custody-अभिरक्षा। सांयोगिकनिधिः। Custom duty-सीमा, शुल्कः-शुल्कम् । D .Contract-संविदा। Contribution--अंशदानम् । Daily diary-दैनिकी। Control नियन्त्रणम् । Debit-विकलनम्। Controller Genera-महानियन्त्रकः । Decentralization-विकेन्द्रीयकरणम् । Convassing-उपार्थनम् । Declaration-घोषणा। Convener-संयोजकः। Decree-आशप्तिः (सी.)। .Convention-१.रूढि:(स्त्री.) २.संगमनम्। | Deed-विलेखः। Co-operation-सहयोगः। सहकारिता। Defence-रक्षा। .Co-operative society-सहकारिसंस्था। | Delegate-प्रतिनिधिः। Co-ordination-समन्वयः। Delegation-प्रतिनिधिमण्डलम् । .Copy-१.प्रतिलिपिः(स्त्री.) २.*प्रतिः (स्त्री.)। | Democracy-लोकतन्त्रम् । For Private And Personal Use Only Page #757 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [ ७१६ ] - - - - Demonstrator-निदर्शकः। | Election, Tribunal निर्वाचनाधिकDeputation-शिष्टमण्डलम् । Deputy Commissioner-उपायुक्त। Elector-निर्वाचकः । .Deputy Speaker-उपाध्यक्षः । Electoral Roll निर्वाचकसूची। Designer-रूपकारः। Electorate--१. निर्वाचनक्षेत्रम् । Despatcher-प्रेषकः। २. निर्वाचकसमूहः । Developinent Block-विकासखंड:-टम् । | Electorate, Joint-संयुक्तनिर्वाचनपद्धतिः Diplomacy-राजनयः, कूटनीतिः (स्त्री.)। (स्त्री.)। Directorate-निदेशालयः । Electorate, Separate-पृथनिर्वाचनDirector General महानिदेशकः ।। पद्धतिः ( स्त्री.)। 'Dicector, Managing-प्रबन्धनिदेशकः। Electorate, Separate —queferatante Disposal-~-व्ययनम् । पद्धतिः ( स्त्री.)। Disqualification-अनर्हता, अयोग्यता। Embassy-राज-, दूतावासः । District-~~-मण्डलम् । Emergeney-आपातः । District Board-मण्डलमण्डली। Emigration-परावासः । Dividend-लाभांशः । Emporium-आपणः । Division-प्रभागः। Employment Exchange-नियोजनDivorce-विवाहविच्छेदः, विविच्छेदः । कार्यालयः। Document-प्रलेखः । Enfranchisement-मताधिकारदानम् । Draft-१. प्रारूपम् २. धनार्पणादेशः। Enquiry clerk-पृच्छलिपिकः । Draftsman-प्रारूपकारः । Equator-भूमध्यरेखा । Drainage-जलनिष्कासः। Establishment Officer-स्थापनाDrive-अभियानम् । धिकारिन्। Duplicate Copy---अनुलिपिः ( स्त्री.)। Estates-सम्पद् (स्त्री.)। Duty-१. शुल्कः-कम्, २, कर्तव्यम् । Excise-उत्पादशुल्कः-कम् । Duty, Custom-सीमाशुल्कः कम् । Executive Engineer-कार्यपालकाभि'Duty, Death-मरणशुल्क:-कम् । यन्तु। Duty, Estate-संपत्तिशुल्क:-कम् । Ex-officio-पदेन । Duty, Excise-उत्पाद शुल्क:-कम् । Duty, Export-निर्यातशुल्कः-कम् ।। F Duty, Import-आयातशुल्कः-कम् । । Family Planning Centre-परिवार. Duty, Stamp-मुद्राशुल्कः-कम् । नियोजनकेन्द्रम् । Duty, Succession-उत्तराधिकारशुल्कः- Federal-संघीय। Federation--संघः । __E Fermentation-किण्वनम् । Election--निर्वाचनम् । Feudalism-सामन्तवादः। Election, Bye-उपनिर्वाचनम् । Finance-वित्तम् । Election Commission-निर्वाचना-| Financial-वित्तीय । योगः। Financial Year-वित्तवर्षः-र्षम् । Election, Direct-प्रत्यक्षनिर्वाचनम् । | Fine-अर्थदण्डः । Election, Indirect-परोक्षनिर्वाचनम् । | Fire Service-अग्निशमनसेवा। Election, Compaign-निर्वाचनाभि. | Flying Squad-उड्डयनदल:-लम् । यानम्। | Foreign Exchange-विदेशीयविनिमयः। For Private And Personal Use Only Page #758 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [ ७२० ] Forensic Science — न्यायवैद्यकविज्ञानम् || Horticulturist Form — प्रपत्रम् | Formula---सूत्रम् Franchise - मताधिकारः । Freedom of press - मुद्रणस्वातन्त्र्यम् । Freedom of speech - भाषणस्वातन्त्र्यम् । Function -- कृत्यम् । Fund - निधिः । G Gallery – दीर्घा । Gate-keeper द्वारपालः । Gate pass - द्वारपत्रम् | Gazette ----राजपत्रम् | Gazetteer - राजपत्रित- विवरणम् । Geologist - भू, विज्ञानिन् - वैज्ञानिकः । Germ - कीटाणु: । Glacier - हिमनदी । Government- शासनम् । Government, Hereditary — पैतृक शासनम् । Government, Interim — अन्तरिम शासनम् । Government, local self---- स्थानीयस्वा यत्तशासनम् । Government, Parliamentary — संसदीयशासनम् । Government, Presidential — राष्ट्र पतीय प्रधानीय शासनम् । Government, self-- स्वशासनम् । Government, unitary - एकीयशासनम् । Governor- १. राज्यपालः २. शासकः । Grant - अनुदानम् । Grant-in-aid—— सहायकानुदानम् । Gratuity — उपदानम् । Guarantee --प्रत्याभूतिः (स्त्री.) । H Habeas corpus - बन्दिप्रत्यक्षीकरणम् । Handicrafts-- हस्तशिल्पम् हस्तकला | Head Quarter —— मुख्यालय:, कार्यालयः | प्रधान Hereditary - पैतृक, आनुवंशिक । Honorarium - मानदेयम् । उद्यानकृषिविशेषज्ञः । Hostess सत्कारिणी । House - १. सदनम् २. गृहम् । House of people - लोकसभा । Housing Department - आवासविभागः । I Illiteracy — निरक्षरता । Immigrant--आवासिन् । Improvement Trust——नगरसूद्धार मण्डलम् । Incharge-प्रभारिन् । Indian Administrative Serviceभारतीय प्रशासनिक सेवा । Indian Council of Agricultural Research — भारतीय कृष्यनुसन्धान परिषद् (स्त्री.) । Indian Council of Medical Research — भारतीय चिकित्सानुसन्धान परिषद्(स्त्री.) 1 In due course — यथासमयम् । Industry — उद्योगः । Industry, cottage - कुटीरोद्योगः । In order of merit — योग्यताक्रमेण | Inquiry - परिप्रश्नः । Inspection — निरीक्षणम् । Institute—संस्थानम् । Institution - संस्था | Insurance भीमा । International—अन्तर्राष्ट्री (ष्ट्रिय | In toto — पूर्णत: पूर्णतया । Investigator——अन्वेषकः । J Judge — न्यायाधीशः । Judge, additional - अपर अतिरिक्त, न्यायाधीशः । Judge, extra - अतिरिक्तन्यायाधीशः । ' | Judiciary - न्यायपालिका । | Justice – १. न्यायः २. न्यायपतिः, न्यायाधिपतिः । Justice, chief मुख्य, न्यायपतिः न्यायाधिपतिः न्यायाधीशः । L Labour Commissioner — श्रमायुक्तः For Private And Personal Use Only Page #759 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [ ७२१ ] Land-revenue— भूराजस्वम् । Latitude अक्षांश: । Law - विधि: (पुं.) । Law & order - विधिव्यवस्थे ( स्त्री. द्वि.) । Law Commission – विधि आयोगः । Major — बयस्क | Majority - १. बहुमतम् २. बहुसंख्या । Mandamus- परमादेशः । Manifesto - आविष्यपत्रम् । Legation — दूतावासः । Legislation - विधानम् । Legislative assembly - विधानसभा । Legislative council - विधान परिषद् (स्त्री.) । Legislature -- विधानमण्डलम् । Letter of Introduction-परिचयपत्रम् | Levy - - १. आरोपणम् २. उद्ग्रहणम् । Liaision officer--- सम्पर्काधिकारिन् । Licence - अनुज्ञप्तिः (स्त्री.) । Lieutenant governor —— उपराज्यपालः । Life Insurance Corporation जीवनभीमानिगमः । Literacy - साक्षरता । Local board - स्थानीय मण्डली | I.ocal body--स्थानीय निकायः । Local government-- स्थानीयशासनम् । Longitude —-रेखांशः । M Marketing officer - पणनाधिकारिन् । Maternity home - प्रसवशाला । Matriarchy—मातृतन्त्रम् । Medical Science — आयुर्· चिकित्सा, विज्ञानम् । Member- सदस्यः । Memo-- शाप: । Memorandum -- ज्ञापकम्, स्मृतिपत्रम् | Meteorological Department--ऋतु विज्ञान विभागः । Minerelogist - खनिज, विज्ञानिन् - वैज्ञानिकः । Minister - मंत्रिन । Ministry - १. मंत्रालय: २. मंत्रिमंडलम् । Minor - अवयस्क । Minority—१. अल्पसंख्यक वर्ग : २. अल्प मतम् । Mission - १. उद्देश्यम्, लक्ष्यम् २. प्रचारकमण्डलम् । Monopoly – एकाधिकारः । Motion - प्रस्तावः । Motion of no-confidence —अविश्वासप्रस्तावः । Multipurpose --बहूद्देशीय । Municipal area - नगरक्षेत्रम् । Municipal commissioner-नगरपालः, नगरपालिकासदस्यः । | Municipal corporation-नगरनिगमः, नगरमहापालिका | Municipality — नगरपालिका । Museum - संग्रहालयः । N Migration - प्रत्रजनम्, प्रवासः । Military Engineering Service ( M. E. S. ) सैनिकयान्त्रिकसेवा । ४६ Nation---राष्ट्रम् । Nationalization - राष्ट्रीयकरणम् | Nationality -- राष्ट्रीयता । National Physical Laboratoryराष्ट्रीय भौतिकप्रयोगशाला । Nomination——-मनोनयनम् । Nominee--मनोनीत | Notice १ . सूचना २. सूचनापत्रम् । Notification अधिसूचना । Notified area-( अधि - ) सूचितक्षेत्रम् | 0 Oasis- मरूधानम् । Observatry - वेधशाला । Office — १. कार्यालयः २. पदम् । Officer - अधिकारिन् । Officer-incharge - प्रभाराधिकारिन् । Official Language — राजभाषा । Meteorologist ऋतु, विज्ञानिन् - वैज्ञानिकः । Officiating-स्थानापन्न | Oligarchy — अल्पतन्त्रम् । Ordinance —अध्यादेशः । Organization --संघटनम् । For Private And Personal Use Only Page #760 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [ ७२२ ] Out door patients Department - | Promissory note -- वचनपत्रम् | बहिरंगरोगविभागः । Proof reader- मुद्रितपत्रशोधकः । Provident fund - भविष्यनिधिः (पुं. ) । Provision - १. उपबन्धः २. अन्नसामग्री । Provisional अन्तःकालीन । P Pact वचनपत्रम् । Parliament - संसद् (स्त्री.) । Parliamentary_secretary - संसदीय - Proxy — प्रतिपत्री । सचिवः । Pass - पारणम् । Passport - पारपत्रम् | Patents —— एकत्वम् । Patriarchy - पितृतन्त्रम् । Patron - संरक्षकः । Penalty - शास्ति: (स्त्री.) । Pending-१. लम्बित २. लम्बमान । Pension - निवृत्तिवेतनम् | Personal Assistant वैयक्तिक सहायकः । Petition- याचिका । Planning Commission योजनायोगः । Plebiscite — जनमतसंग्रहः । Police - आरक्षकः । Police force- आरक्षकबलम् | Police station - आरक्षकस्थानम् । Poll - मतदानम् । Polling station- मतदानस्थानम् । Portfolio –संविभागः । Ports department --- पत्तनविभागः । Post -- १. पदम् २. पत्रम् । Post office पत्रालयः । Preference —अधिमानम् । Prerogative — परमाधिकारः । President-- १. राष्ट्रपति: २. प्रधानः । Prime Minister - प्रधानमंत्रिन् । Post & Telegraph Depatt.- पत्रतार विभागः । Private Secretary -- निजसचिवः | Privilege - विशेषाधिकारः । Privy purse - राजवृत्तिः (स्त्री.) । Procedure -- प्रक्रिया । Proceedings~* १. कार्यावली, कृत्यावली * २. कृत्यावली विवरणम् । Proclamation-- उद्घोषणा । Project-- प्रायोजना । Public Health -- लोकस्वास्थ्यम् । Publicity—प्रचारः । Public Relations संर्पकाधिकारिन् । Officer -जन Public Service Commission-लोक सेवाऽऽयोगः । Public Services लोकसेवाः । Public Works Department -लोक निर्माणविभागः । Q Quality Control Officer —कोटिनियंत्राधिकारिन् | Quarantine - संगरोधः । Quorum-गणपूर्ति: (स्त्री.) । Quota - अभ्यंशः, नियतांशः । R Railway Board—* रेलपथमंडळी । Receptionist - स्वागतकरः । Recommendation -अनुशंसा | Record - अभिलेखः । Records-keeper -- अभिलेखपालः । Recruitment--* सैन्यप्रवेशः । Reference - निर्देशः । Referendum - परिपृच्छा । Regent - राजपः । Regional-क्षेत्रीय | Register - पंजी । Registered - पंजीकृत । Registrar - पंजीकारः, कुलसचिवः । Registration—पञ्जीकरणम् । Regulation - विनियमः । Rehabilitation Ministry - पुनर्वास मंत्रालय: । Reminder - अनुस्मारकम् । Report - प्रतिवेदनम् । Representation - प्रतिनिधानम् । For Private And Personal Use Only Page #761 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra Representative- प्रतिनिधिः । Republic—गणराज्यम् । www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir Review - पुनर्विलोकनम् । Revision - पुनरीक्षणम् । Rule - नियमः | [ ७२३ ] Requisition - अधिग्रहणम् । Reservation---रक्षणम्, प्रारक्षणम् । State, Unitary – एकीयराष्ट्रम् । Reserved seat--रक्षित - प्रारक्षित स्थानम् । State, Welfare — हितकारिराष्ट्रम् | Statistician-- सांख्यिकः । Retirement -- निवृत्तिः (स्त्री.) । Returning officer - निर्वाचनाधिकारिन् । Statistics सांख्यिकी । Revenue --- राजस्वम् । S Safeguard - सुरक्षणम् । Sales Tax — विक्रयकरः । Savings ---व्यावृत्तिः (स्त्री.) । Savings bank——* व्यावृत्त्याधिकोषः । Schedule- अनुसूची । Scheduled caste — अनुसूचितजातिः - State, Totalitarian — एकदलराष्ट्रम् | State Trading Corporation - राज्यव्यापार निगमः । ( स्त्री . ) । Scheduled Tribe -- अनुसूचित जनजातिः (स्त्री.) । Secondary Education Board - माध्यमिक शिक्षा मंडली | Secretariate—सचिवालयः । Section officer—अनुभागाधिकारिन् । Secular-धमनिरपेक्ष, ऐहिक । Security - १. प्रतिभूति: (स्त्री.) २. सुरक्षा । Security council—सुरक्षापरिषद् (स्त्री.) । Self-determination - आत्मनिर्णयः । Session——सत्रम् । Sitting — उपवेश:, *उपविष्टिः (स्त्री.) । Small Scale Industries- लघुद्योगाः । Socialism --- समाजवादः । Social Welfare - समाजकल्याणम् । Sovereign —प्रभुः । Sovereign democratic republic संपूर्णप्रभुत्वसम्पन्नलोकतंत्रात्मक गणराज्यम् । Speaker-- १. अध्यक्षः ( लोकसभादीनाम् ) २. वक्तृ ( पुं. ) । Staff - कर्मचारिवृन्दम् । State - १. राज्यम् । २. राष्ट्रम् । State, Buffer—अन्तःस्थराष्ट्रम् । Statute - संविधि: ( पुं. ) । Stenographer — आशुलिपिकः । Steno-typist - आशुटंककः । Stock Exchange — श्रेष्ठिचत्वरम् । Store keeper —भाण्डारिन् । Subcontinent — उपमहाद्वीपः-पम् । Suffrage - मताधिकारः । Suffrage, Universal सर्वमताधिकारः । Summon—आह्वानम् । Superintendent--अधीक्षकः । Supervisor - पर्यवेक्षकः 1 Supplies -- पूतिः, संभरणम् । Suspension - निलम्बनम् । Surcharge --अधिकरः । Survey - सर्वेक्षणम् । Syndicate - अभिषद् (स्त्री.) । T Tabulator — तालिक-सारणी, कारः । Tariff — शुल्कसूची । Tax - करः । Tax, Direct — प्रत्यक्षकरः । Tax, मनोरञ्जनकरः । | Tax, Indirect- परोक्षकरः । Tax, Export — निर्यातकरः । Tax, Income-- आयकरः । Tax, Sales -- विक्रयकरः । Tax, Super — अतिकरः । Tax, Terminal – सीमाकरः । Technician--- प्रविधिज्ञः । Technique – प्रविधिः । Tele communication - दूरसञ्चारः । Telegraphist—-तारसंकेतकः । Telephone Exchange - दूरभाषकेन्द्रम् | Tenure---पदावधिः ( पुं. ) कार्यकालः । Entertainment-- प्रमोदकरः, For Private And Personal Use Only Page #762 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [ ७२४ ॥ - - Territory-राज्यक्षेत्रम् । Terrorism-आतङ्कवादः । Under Secretary-अवरसचिवः । Terrorist.--आतङ्कवादिन । Union-संघः। Theocracy-धर्मतन्त्रम् । Union Public Service CommiTheory-सिद्धान्तः। ssion-संघलोकसेवायोगः । Through proper channel-विधिवत् ।। Unit-एककम् । Time keeper-समयपालः । United Nations Organization-- Toll-पथकरः। Totalitarianism--एकदलवादः। संयुक्तराष्ट्रसंघः। Tourist-पर्यटकः । Tourist Depatt---पर्यटनविभागः । Vacancy-१. रिक्तस्थानम् २. रिक्तिः Tracer-अनुरेखकः। (स्त्री.) ३. रिक्तता। Tractor-कर्षकरथः । Verification officer-सत्यापनाधिकाTrade mark-व्यापारचिह्नम् । रिन् । Trade Union-कार्मिकसंघः । Vito-प्रतिषेध-रोध, अधिकारः। Traffic यातायातम् । Vice President-उपराष्ट्रपतिः । Training-प्रशिक्षणम् । Village Industry-ग्रामोद्योगः । Training, Technical-प्रविधि-प्रशि- | Visas-~-दृष्टांकः ।। क्षणम् । Vote-मतम् । Tramcar-रथ्यायानम् । Vote by ballot---गुप्तमतदानम् । Transfer-१. स्थानान्तरणम् २. हस्तान्त- Vote of censure-निन्दाप्रस्तावः। रणम् । Voter-मतदातृ ( पुं.)। Transition-संक्रमणम् । Vote, Single Transfarabie- fies. Transport-परिवहणम् । संक्रमणीयमतम् । Treaty-संधिः (पं.)। Tribe-जनजातिः ( स्त्री.)। Tribunal-न्यायाधिकरणम् । Warrant-अधिपत्रम् । Will-इच्छापत्रम् । Tropic of Cancer-ककरेखा। Tropic of Capricorn---मकररेखा । Wireless operator-*वितार प्रचालकः। Trust-न्यासः। Works Manager-कर्मशालाप्रबन्धकः । Trustee-न्यास-निक्षेप,-धारिन् । Writ-आदेशलेखः। Tube well-नलकूपः । Typist-~-टंककः। | Zonal Council-आंचलिकपरिषद् (स्त्री.)। W For Private And Personal Use Only Page #763 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir चतुर्थ परिशिष्ट छन्दःपरिचय छन्द-संस्कृत में रचना प्रायः दो प्रकार की होती है---गद्य और पद्य । छन्द-रहित रचना को गद्य कहते हैं और छन्दोबद्ध रचना को पद्य । जो रचना अक्षर, मात्रा, गति, यति आदि के नियमों से युक्त होती है, उसे छन्द कहते हैं। जिन ग्रन्थों में छन्दों के स्वरूप तथा प्रकार आदि का विवेचन रहता है, उन्हें छन्दः-शास्त्र कहते हैं। वर्ण या अक्षर-छन्दःशास्त्र की दृष्टि से केवल व्यंजन ( क ख आदि ) अक्षर या वर्ण नहीं कहलाते । अकेला स्वर या व्यंजन-सहित स्वर अक्षर कहलाता है। 'आ', 'का' और 'काम्' में छन्दः-शास्त्र की दृष्टि से एक ही अक्षर है क्योंकि उनमें स्वर तो केवल एक 'आ' ही है। छन्द में अक्षर गिनते समय व्यंजनों की ओर ध्यान नहीं दिया जाता। गुरु, लघु-हस्व अक्षरों ( अ, इ, उ, ऋ, लु) को छन्दः शास्त्र में लघु कहते हैं और दीर्घ अक्षरों (आ, ई, ऊ, ऋ, ए, ऐ, ओ, औ ) को गुरु । इसी प्रकार क, कि आदि लघु अक्षर हैं और का, की आदि गुरु । छन्दः शास्त्र में निम्नलिखित को गुरु अक्षर माना गया है सानुस्वारश्च दीर्घश्च विसर्गी च गुरुभवेत् । वर्णः संयोगपूर्वश्च तथा पादान्तगोऽपि वा। अर्थात् अनुस्वार-युक्त, दीर्घ, विसर्गयुक्त और संयुक्त अक्षरों से पूर्व वर्ण गुरु होता है। छन्द के पाद या चरण का अन्तिम अक्षर आवश्यकतानुसार लघु या गुरु माना जा सकता है । सो इस श्लोक के अनुसार 'कंस' में 'क', 'काल' में 'का', 'दुःख' में 'दुः' और 'युक्त' में 'यु' गुरु अक्षर हैं। छन्द के चरणों की लम्बाई और गति को ठीक रखने के लिए अक्षरों के गुरु-लघु के भेद को सम्यक् हृदयंगम कर लेना चाहिए । गुरु का चिह्न (5) है और लघु का (1)। गण-छन्दः-शास्त्र में तीन-तीन अक्षरों के समूह को गण कहा गया है। उन गणों के नाम, स्वरूप तथा उदाहरणों को निम्नलिखित तालिका से समझ लेना चाहिए गण-नाम उदाहरण 최 १.मगण २. नगण ३. भगण ४. यगण ५. जगण ६. रगण ७. सगण ८.तगण संक्षिप्तनाम लक्षण तीनों अक्षर गुरु तीनों अक्षर लघु प्रथम अक्षर गुरु प्रथम अक्षर लघु मध्यम अक्षर गुरु मध्यम अक्षर लघु अन्तिम अक्षर गुरु त । अन्तिम अक्षर लघु 서 의 소국 555 मान्धाता, विद्यार्थी निगम, सरल 5।। | भारत, कृत्रिम ISS | यशोदा, सुमित्रा । । | जिगीषु, जवान | राधिका, राक्षसी ।। | सविता, कमला । तारेश, आकाश For Private And Personal Use Only Page #764 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [७२६ ] गणों का स्वरूप स्मरण रखने के लिए निम्नलिखित श्लोक कण्ठस्थ कर लेना चाहिए मस्त्रिगुरुस्त्रिलघुश्च नकारो भादिगुरू, पुमरादिलधुर्यः । जो गुरुमध्यगतो, रलमध्यः सोऽन्तगुरुः, कथितोऽन्तलघुस्तः॥ अर्थमगण में तीनों गुरु, नगण में तीनों लघु, भगण में आदि का अक्षर गुरु, यगण में आदि का लघु, जगण में मध्यम गुरु, नगण में मध्यम लधु, सगण में अन्तिम गुरु और तगण में अन्तिम लघु होता है। मात्रा-हस्व या लघु अक्षर के उच्चारण में जितना समय लगता है उसे एक मात्रा कहते हैं और दीर्घ या गुरु के उच्चारण-काल को दो मात्रा। इसलिए जब छंदों में मात्राओं की गिनती की जाती है तब लघु की एक और गुरु की दो मात्राएँ गिनी जाती हैं। छन्दःशास्त्र में एक अक्षर की मात्राएँ दो से अधिक नहीं होती परन्तु संगीत में स्वर को यथेष्ट मात्राओं तक बढ़ाया जा सकता है। एक ही शब्द में अक्षरों और मात्राओं की संख्या समान भी हो सकती है और भिन्न भिन्न भी। जैसे-'कल' में दो अक्षर हैं और दो ही मात्राएँ, 'काल' में दो अक्षर और तीन मात्राएँ, 'काला' में दो अक्षर और चार मात्राएँ। गति-छन्दों में अक्षरों या मात्राओं की नियत संख्या से ही काम नहीं बनता, उनमें गति अर्थात् लय या प्रवाह का भी ध्यान रखना पड़ता है। वार्णिक छन्दों में तो प्रायः गणों का क्रम प्रवाह को अक्षुण्ण रखता है परन्तु मात्रिक छन्दों में इसकी ओर विशेष ध्यान देने की आवश्यकता रहती ही है। जैसे ___ अज्ञः सुखमाराध्यः सुखतरमाराध्यते विशेषज्ञः। ज्ञानलवदुर्विदग्धं ब्रह्मापि नरं तं न रञ्जयति ॥ ( भर्तृहरि । यदि उपर्युक्त आर्या छन्द को यों पढ़ें 'आराध्यः सुखमशः विशेषशः आराध्यते सुखतरम्' तो कान तुरन्त बता देते हैं कि इसमें भार्या छन्द की गति नहीं रही। यति-जिन छन्दों के एक-एक चरण में अक्षरों या मात्राओं की संख्या थोड़ी होती है उन्हें पढ़ने में तो कोई कठिनाई नहीं होती; परन्तु लम्बे चरणों के पाठ में बीच में रुकना ही पड़ता है । उस विश्राम-स्थल को ही यति या विराम कहते हैं। कुशल कवि इस बात का ध्यान रखते है कि यति किसी शब्द की समाप्ति पर ही आए परन्तु कभी-कभी वह किसी शब्द के मध्य में भी आ जाती है। चरण-अधिकतर छन्दों में चार चरण, पाद या पंक्तियाँ होती हैं, परन्तु कभी-कभी छन्द न्यूनाधिक चरणों के भी दिखाई देते हैं । छन्दों के भेद-रन्दों के मुख्य भेद दो हैं-वणिक छन्द और मात्रिक छन्द। मात्रिक छन्द को जाति छन्द भी कहा जाता है। वणिक छन्दों में वर्गों को संख्या और गणक्रम पर विशेष ध्यान रहता है तथा मात्रिक छन्दों में मात्राओं की संख्या और गति पर। वर्णवृत्तों के चरणों में गुरुलघु-क्रम प्रायः समान होता है, परन्तु भात्रिक छन्दों में यह बन्धन नहीं होता। उक्त दोनों भेदों के तीन-तीन अवान्तर भेद भी होते हैं-सम छन्द, अर्द्धसम छन्द और विषम छन्द । सम छन्दों के चारों चरणों में वर्णों या मात्राओं की संख्या समान होती है। अर्द्धसम छन्दों में प्रथम For Private And Personal Use Only Page #765 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra [ ७२७ ] और तृतीय चरणों की तथा द्वितीय और चतुर्थ चरणों की अक्षर या मात्रा -संख्या समान होती है । जो छन्द उक्त दोनों वर्गों में नहीं आते, उन्हें विषम कहते हैं । नीचे संस्कृत के कुछ प्रसिद्ध छन्दों का परिचय प्रस्तुत किया जाता है । विस्तार के लिए छन्दः शास्त्र, वृत्तरत्नाकर, छन्दोमन्जरी आदि ग्रन्थ द्रष्टव्य हैं । www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir (क) वर्णवृत्त, समछन्द प्रति चरण ८ अक्षरवाले छन्द (१) अनुष्टुप् ( अन्य नाम - श्लोक ) लक्षण - श्लोके षष्ठं गुरु ज्ञेयं, सर्वत्र लघु पञ्चमम् । द्विचतुः पादयोर्हस्वं, सप्तमं दीर्घमन्ययोः ॥ अर्थ — इसके प्रत्येक पाद का पाँचवाँ वर्ण लघु होता है और छठा गुरु । सम ( द्वितीय तथा चतुर्थ ) चरणों का सातवाँ वर्ण लघु होता है और विषम ( प्रथम तथा तृतीय ) चरणों का सातवाँ वर्ण गुरु । शेष वर्णों के विषय में लघु-गुरु की स्वतंत्रता है । उदाहरण उदाहरण -- यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत । । ऽ। Is s अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम् ॥ Iss IS I लक्षण - मो मो गो गो विद्युन्माला । अर्थ-मगण, मगण और दो गुरु के क्रम से इसके प्रत्येक चरण में ८ वर्ण होते हैं; अर्थात् सब चरणों के सब वर्ण गुरु । म म (२) विद्युन्माला गु गु ( क ) मौनं ध्यानं भूमौ शय्या गुर्वी तस्याः कामाऽवस्था । Sss, s s s s s मेघोत्सङ्गे नृत्तासक्ता; यस्मिन्काले विद्युन्माला ॥ ( ख ) गंगा माता तेरी धारा; काटै फंदा मेरा सारा । विद्युन्माला जैसी सोहै; वीचीमाला तेरी मोहै | ( सुधादेवी ) प्रति चरण १० अक्षरवाले छन्द ( १ ) स्वमवती ( अन्य नाम - चम्पकमाला ) लक्षण-भ्मौ सगयुक्तौ रुक्मवतीयम् । अर्थ- स्वमवती के प्रत्येक पाद में भगण, मगण, सगण और गुरु के क्रम से १० वर्ण होते हैं । For Private And Personal Use Only Page #766 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra उदाहरण भ म म गु (क) भग्नमसत्यैः काय सहस्रैः; मोहमयी गुर्वी तव माया । www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ऽ ।।, ऽ ऽ ऽ, ।। ऽ,ऽ स्वप्न विलासा योगवियोगा; रुक्मवती हा कस्य कृते श्रीः ॥ ( ख ) शान्ति नहीं तो जीवन क्या है, कान्ति नहीं तो प्रेम नहीं तो आदर क्या है, प्यास नहीं तो यौवन क्या है ! सागर क्या है ! स भ त ( २ ) मत्ता लक्षण - मत्ता ज्ञेया मभसगयुक्ता ( विराम ४, ६ ) । अर्थ --- मत्ता के प्रत्येक चरण में मगण, भगण, सगण और गुरु के क्रम से १० वर्ण होते : उदाहरण [ ७२८] त स गु पीत्वा मत्ता मधु मधुपाली; कालिन्दीये तटवनकुञ्ज । ऽ ऽ ऽ ऽ । ।, ।। s, s 'उद्दीन्यन्तीव्रजजनरामा ः; कामासक्ता मधुजिति चक्रे ॥ प्रति चरण ११ अक्षरवाले छन्द ( १ ) इन्द्रवज्रा लक्षण – स्यादिन्द्रवज्रा यदि तौ जगौ गः । ( विराम पादान्त में ) अर्थ - इन्द्रवज्रा के प्रत्येक चरण में दो तगण, जगण और दो गुरु के क्रम से ११ वर्ण होते हैं । उदाहरण -- ज ( रामनरेश त्रिपाठ (क) गोष्ठे गिरिं सव्यकरेण धृत्वा, SS 1, s ऽ ।, । ऽ। s s रुष्टेन्द्रवज्राहतभुक्तवृष्ट 1 यो गोकुलं गोपकुलं च सुस्थं, चक्रे स नो रक्षतु चक्रपाणिः || ( ख ) मैं जो नया ग्रन्थ विलोकता हूँ, भाता मुझे सो नव मित्र-सा है । देखूँ उसे मैं नित बार बार, मानो मिला मित्र मुझे पुराना ॥ ( गिरधर शर्मा ) (२) उपेन्द्रवज्रा लक्षण - उपेन्द्रवज्रा जतजास्ततो गौ । (विराम पादान्त में ) अर्थ - उपेन्द्रवज्रा के प्रत्येक पाद में जगण, तगण, जगण और दो गुरु अक्षरों के क्रम से ११ वर्ण होते हैं । For Private And Personal Use Only Page #767 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [ ७२६ ] उदाहारण ----- -गुगु (क) जितो जगत्येष भवभ्रमस्तै । ।,551, ISI, SS गुरूदितं ये गिरिशं स्मरन्ति । उपास्यमानं कमलासनाये रुपेन्द्रबजायुधवारिनाथैः ॥ ख ) बड़ा कि छोटा कुछ काम कीजै, परन्तु पूर्वापर सोच लीजै । विना विचारे यदि काम होगा, कभी न अच्छा परिणाम होणा।। (मैथिलीशरण गुप्त) (३) उपजाति लक्षण-जिस छन्द के कुछ चरण इन्द्रवज्रा के हों और कुछ उपेन्द्रवज्रा के, उसे उपजाति कहते हैं। इसके १३ भेद होते हैं । टि-समान-संख्यक अक्षर तथा समान यतिवाले अन्य छन्दों के भी इसी प्रकार के मिश्रण का नाम उपजाति ही है। जैसे वंशस्थ और इन्द्रवंशा ( १२.१२ अक्षरों के छंद ) के मिश्रण से भी उपजाति छन्द बनता है। उदाहरण-(क) उत्साहसम्पन्नमदीर्घसूत्रं, (इन्द्र.) क्रियाविधिज्ञं व्यसनेष्वसक्तम् । (उपे.) शूरं कृतज्ञं दृढ़सौहृदं च, लक्ष्मीः स्वयं वाञ्छति वासहेतोः॥ (उ.) ( ख ) इच्छा न मेरी कुछ भी बनूँ मैं, (इ.) कुबेर का भी जग में कुबेर। (उ.) इच्छा मुझे एक यही सदा है, (इ.) नये नये उत्तम ग्रंथ देखू ॥ (उ.) ( गिरधर शर्मा) (४) दोधक ( अन्य नाम-बन्धु) लक्षण-दोधकनामनि भत्रयतो गौ । ( विराम पाद के अन्त में ) अर्थ-दोधक छन्द के प्रत्येक चरण में तीन भगण और दो गुरु के क्रम से ११ वर्ण होते हैं। भ भ भ - - -गु गु (क) दोधकमर्थविरोधकमुग्रं 5।।, STI, S।।, ss, स्त्रीचपलं युधि कातरचित्तम् । स्वार्थपरं मतिहीनममात्यं मुञ्चति यो नृपतिः स सुखी स्यात् ॥ For Private And Personal Use Only Page #768 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [ ७३० ] ( ख ) पाकर मानव-देह धरा में, पाशववृत्ति तजो जितना 1 पुच्छ विषाण विहीन पशु जो, होन न चाहत प्रेम करो तो ॥ ( रामबहोरी शुक्ल ) ( ५ ) शालिनी लक्षण - शालिन्युक्ता तौ तगौ गोऽब्धिलोकैः ॥ ( ४, ७ पर विराम ) अर्थ - शालिनी के प्रत्येक पाद में मगण, दो तगण और दो गुरु के क्रम से ११ अक्षर होते हैं । अब्धि ( ४ ) और लोक ( ७ ) पर विराम होता है । उदाहरण म त त गुगु ( क ) अंधो हन्ति ज्ञानवृद्धिं विधत्ते s ss, s s 1, s s 1, ऽ ऽ, धर्मं दत्ते काममर्थ च सूते । मुक्तिं दत्ते सर्वदोपास्यमाना, पुंसां श्रद्धाशालिनी विष्णुभक्तिः ॥ ( ख ) कैसी कैसी ठोकरें खा रहा है, तीखी पीड़ा चित्त में ला रहा है तौ भी प्यारे ! हाल तेरा वही है, विद्वानों की पद्धती क्या यही है | ( छन्दशिक्षा ) ( ६ ) रथोद्धता लक्षण - रान्नराविह रथोद्धता लगौ । (विराम पाद के अन्त में ) अर्थ -- रथोद्धता के प्रत्येक चरण में रगण, नगण, रगण और लघु-गुरु के क्रम से ११ अक्षर होते हैं। उदाहरण न र ल गु किं त्वया सुभट ! दूरवर्जितं ऽ । ऽ, ।।।, 15, 15 नात्मनो न सुहृदां प्रियं कृतम् । यत्पलायनपरायणस्य ते याति धूलिरधुना रथोद्धता ॥ ( ७ ) स्वागता लक्षण --- स्वागतेति रनभाद्गुरुयुग्मम् । ( पादान्त में विराम ). अर्थ-स्वागता के प्रत्येक पाद में रगण, नगण, भगण और दो गुरु के क्रम से ११ वर्णं होते हैं For Private And Personal Use Only Page #769 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [ ७३१] - - उदाहरण र न भ - -गुगु (क) रत्नभङ्गविमलैर्गुणतुङ्गे SIS, ||1,511,ss रथिनामभिमतार्पणसक्तैः। स्वागताऽभिमुखनम्रशिरस्कैः जीव्यते जगति साधुभिरेव ॥ (ख) रानि ! भोगि गहि नाथ कन्हाई, साथ गोप जन आवत धाई। स्वागतार्थ सुनि आतुर माता, धाइ देखि मुद सुन्दर गाता ।। ( भानु कवि ) प्रति चरण १२ अक्षरवाले छन्द (१) वंशस्थ ( नामान्तर-वंशस्थविल तथा वंशस्तनित) लक्षण-जतौ तु वंशस्थमुदीरितं जरौ । ( पादान्त में विराम ) अर्थ-वंशस्थ के प्रत्येक पाद में जगण, तगण, जगण और रगण के क्रम से १२ अक्षर होते हैं ! उदाहरण (क) जनस्य तीव्रातपजार्तिवारणा ।।, 551,SI, SIS जयन्ति सन्तः सततं समुन्नताः । सितातपत्रप्रतिमा विभान्ति ये विशालवंशस्थतया गुणोचिताः॥ ( सुवृत्ततिलक) (ख) स्वरूप होता जिसका न भव्य है, न वाक्य होते जिसके मनोज्ञ है। अतीव प्यारा बनता सदैव हैं। मनुष्य सो भी गुण के प्रभाव से ।। ( हरिऔध ) (२) इन्द्रवंशा लक्षण-स्यादिन्द्रवंशा ततजैरसंयुतैः । (पादान्त में विराम ) अर्थ-इन्द्रवंशा के प्रत्येक पाद में दो तगण, जगण और रगण के क्रम से १२ वर्ण होते हैं । उदाहरण --- - - - (क) कुर्वीत यो देवगुरुर्द्विजन्मना 551, ss,SI, Sts मुर्वीपतिः पालनमर्थलिप्सया। तस्येन्द्रवंशेऽपि गृहीतजन्मन सआयते श्रीः प्रतिकूलवर्तिनी ॥ For Private And Personal Use Only Page #770 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [ ७३२ ] ( ख ) यों ही बड़ा हेतु हुए बिना कहीं, होते बड़े लोग कठोर यों नहीं । उदाहरण- वे हेतु भी यों रहते सुगुप्त हैं, ज्यों अद्रि अम्भोनिधि में प्रलुप्त हैं || ( चन्द्रहास ) ( ३ ) तोटक लक्षण -- इह तोटकमम्बुधिसः प्रथितम् । ( पादान्त में विराम ) अर्थ - तोटक के प्रत्येक चरण में चार सगण होते हैं । उदाहरण स स स स LLLL (क) त्यज तोटकमर्थनियोगकरं 11 ऽ, । । ऽ, ।। ऽ, ।। ऽ प्रमदाऽधिकृतं व्यसनोपहतम् । उपधाभिरशुद्धमतिं सचिवं नरनायक ! भीरुकमायुधिकम् ॥ (छन्दोवृत्ति ) ( ख ) अब लों न कहीं वह देश मिला, इसका न जिसे उपदेश मिला । उस गौरव के गुण अस्त हुए, गुरु के गुरु शिष्य समस्त हुए || ( नाथूराम शंकर ) (४) द्रुतविलम्बित लक्षण -- द्रुतविलम्बितमाह नभौ भरौ । ( पादान्त में विराम ) अर्थ - द्रुतविलम्बित के प्रत्येक चरण में नगण, भगण, भगण और रगण के क्रम से १२ अक्षर होते हैं । न भ भ र 1 7 ( क ) तरणिजापुलिने नववल्लवी ।।, ऽ । ।, ऽ । ऽ । ॥, ऽ परिषदा सह केलिकुतूहलात् । द्रुतविलम्बितचारुविहारिणं हरिमहं हृदयेन सदा वहे || (छन्दोमंजरी ) ( ख ) मन ! रमा रमणी रमणीयता, मिल गई यदि ये विधि योग से । पर जिसे न मिली कविता-सुधा रसिकता सिकता-सम है उसे ॥ ( रामचरित उपाध्याय ) (५) मौक्तिकदाम लक्षण -- चतुर्जगणं वद मौक्तिकदाम । ( पादान्त में विराम ) अर्थ – मौक्तिकदाम (हिन्दी, मोतियदाम ) बंद के प्रत्येक चरण में चार जगण के क्रम से २२ अक्षर होते हैं । For Private And Personal Use Only Page #771 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir - were w eream उदाहरण (क) मया तव किञ्चिदकारि कदापि, । 5 ।।s I, ISI, I S। विलासिनि ! वाक्यमनुस्मरताऽपि । तथापि मनस्तव नाश्वसनाय, व्रजामि कुतो भवदीमपहाय ॥ ( वाणीभूषण) (ख) बड़े जन को नहिं माँगन जोग, फबै छल साधन में लघु लोग । रमापति विष्णु असंग अनूप, धों एहि कारण वामन रूप ।। ( देवीप्रसाद पूर्ण ) (६) भुजङ्गप्रयात लक्षण-भुजंगप्रयातं भवेद्यैश्चतुर्भिः । ( पादान्त में विराम ) अर्थ-भुजंगप्रयात के प्रत्येक चरण में चार यगण के क्रम से १२ वर्ण होते हैं। उदाहरण ___ य य य य (क) धनैर्निष्कुलीनाः कुलीना भवन्ति, 155,ss, । ss, Iss धनरापदं मानवा निस्तरन्ति । धनेभ्यः परो बान्धवो नास्ति लोके, धनान्यर्जयध्वम् धनान्यर्जयध्वम् ॥ (ख ) अजन्मा न आरंभ तेरा हुआ है, किसी से नहीं जन्म तेरा हुआ है। रहेगा सदा अन्त तेरा न होगा, किसी काल में नाश तेरा न होगा ॥ ( नाथूरामशकर ), (७) स्रग्विणी लक्षण-रैश्चतुर्भिर्युता स्रग्विणी सम्मता । ( पादान्त में यति ) अर्थ-स्रग्विणी के प्रत्येक पाद में चार रगण के क्रम से १२ अक्षर होते हैं। उदाहरण (क) इन्द्रनीलोपलेनेव या निर्मिता s। 5, SIS, S। s, s Is शातकुम्भद्रवालंकृता शोभते । नव्यमेघच्छविः पीतवासा हरेमूतिरास्तां जयायोरसि स्रग्विणी॥ For Private And Personal Use Only Page #772 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [ ७३४ ) - - (ख) वे गृही धन्य हैं जो मनोहारिणी, मिष्टभाषी सुशीला सदाचारिणी। धर्मशीला सती धीरताधारिणी, सुन्दरीयुक्त हैं प्रेमशृङ्गारिणी ॥ ( रामनरेश त्रिपाठी ) प्रति चरण १३ अक्षरवाले छन्द (१) प्रहषिणी लक्षण-व्याशाभिर्मनजरगाः प्रहर्षिणीयम् । (विराम ३, १०) अर्थ-प्रहर्षिणी छन्द के प्रत्येक पाद में मगण, नगण, जगण, रगण और गुरु के क्रम से १३ वर्ण होते हैं। तीन और आशा ( दिशा १०) पर यति होती है। उदाहरण -- -- - --गु (क) ते रेखाध्वजकुलिशातपत्रचिह्न, sss ||1,151, Sts,s सम्राजश्चरणयुगं प्रसादलभ्यम् । प्रस्थानप्रणतिभिरंगुलीषु चक्रः मौलिस्रकच्युतमकरन्दरेणुगौरम् ॥ (रघुवंश ४।८८) (ख ) मानो जू, रँग रहि प्रेम में तुम्हारे, प्राणों के, तुमहिं अधार हो हमारे। वैसो ही, विचरहु रास हे कन्हाई, भावै जो, शरद प्रहर्षिणी जुन्हाई ॥ ( भानुकवि) (२) रुचिरा ( नामान्तर अतिरुचिरा) लक्षण-चतुर्ग्रहरतिरुचिरा जभस्जगाः। (विराम ४, ९ पर ) अर्थ-रुचिरा या अतिरुचिरा छन्द के प्रत्येक चरण में जगण, भगण, सगण, जगण और शुरु के क्रम से १३ वर्ण होते हैं । चार और ग्रह (९) पर यति होती है। उदाहरण ज भ स ज -- -- - गु कदा मुखं वरतनु कारणाइते, 15 1,511,115,SI,s तवागतं क्षणमपि कोपपात्रताम् । अपर्वणि ग्रहकलुषेन्दुमण्डला, विभावरी कथय कथं भविष्यति ॥ (मालविकाग्निमित्रम् ११३ ) प्रति चरण १४ अक्षरवाले छन्द (१) वसन्ततिलका ( अन्य नाम-सिंहोन्नता तथा उद्धर्षिणी) लक्षण-उक्ता वसन्ततिलका तभजा जगौ गः। अर्थ-वसन्ततिलका छन्द के प्रत्येक पाद में तगण, भगण, दो जगण और दो गुरु के क्रम से १४ वर्ण होते हैं। For Private And Personal Use Only Page #773 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [ ७३५ ] - - - उदाहरण (क) जाड्यं धियो हरति सिञ्चति वाचि सत्यं, ss 1 ।।।5।। 51, ss मानोन्नति दिशति पापमपाकरोति । चेतः प्रसादयति दिक्षु तनोति कीर्ति, सत्संगतिः कथय किं न करोति पुंसाम् ॥ (नीतिशतक) ( ख ) रोगी दुखी विपत-आपत में पड़े की, सेवा अनेक करते निज हस्त से थे। ऐसा निकेत व्रज में न मुझे दिखाया, कोई जहाँ दुखित हो पर वे न होवें ॥ ( हरिऔध ) प्रति चरण १५ वर्णवाले छन्द (१) मालिनी लक्षण-ननमयययुतेयं मालिनी भोगिलोकैः । (विराम ८, ७ पर ) अर्थ-मालिनी के प्रत्येक चरण में नगण, नगण, मगण और दो यगण के क्रम से १५ अक्षर होते हैं । भोगी ( ८ ), लोक (७) पर यति होती है। उदाहरण न न म य य (क) मनसि वचसि काये, पुण्यपीयूषपूर्णा ।।।, ।।।, sss, Iss, Iss त्रिभुवनमुपकारश्रेणिभिः प्रीणयन्तः। परगुणपरमाणन् , पर्वतीकृत्य नित्यं निजहृदि विकसन्तः, सन्ति सन्तः कियन्तः ॥ (नीतिशतक ) (ख ) सहृदय जन के जो, कंठ का हार होता, मुदित मधुकरी का, जीवनाधार होता। वह कुसुम रँगीला, धूल में जा पड़ा है, नियति नियम तेरा, भी बड़ा ही कड़ा है ।। (रूपनारायण पांडेय) (२) चामर ( अन्य नाम-तूणक) लक्षण-तूणकं समानिका पदद्वयं विनान्तियम् ॥ (विराम ८, ७) अर्थ-तूणक या चामर छंद के प्रत्येक चरण में रगण, जगण, रगण, जगण और रगण के क्रम से १५ अक्षर होते हैं । आठवें और पादान्त में यति होती है । उदाहरण र ज र ज र (क)सा सुवर्णकेतकं विकाशि भृङ्गपूरितं, SIS, ISI, Is, I SI, Sts पंचबाणबाणजालपूर्णहेतितूणकम् । राधिका वितळ माधवाद्यमासि माधवे, मोहमेति निर्भरं त्वया विना कलानिधे ॥ For Private And Personal Use Only Page #774 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [ ७३६ ] - - (ख ) मत्त-दन्ति-राज-राजि, वाजिराज राजि कै, हेम हीर मुक्त चीर, चार साज साजि के। वेष वेषवाहिनी, अशेष वस्तु सोधि यो दाइजो विदेहराज, भाँति भाँति को दियो ।। ( केशवदास ) प्रति चरण १६ वर्णवाले छन्द पंचचामर लक्षण-जरौ जरौ ततो जगौ च पंचचामरं वदेत् ॥ (८, ८ या ४, ४, ४, ४ पर विराम ) अर्थ-पंचचामर छन्द के प्रत्येक पाद में जगण, रगण, जगण, रगण, जगण और गुरु के क्रम से १६ वर्ण होते हैं। ८, ८ या ४, ४, ४, ४ पर यति होती है। उदाहरण (क)सुरदुमूलमण्डपे विचित्ररत्ननिर्मिते ।5।।s, ISI, SIS,ISI,S लसद्वितानभूषिते सलीलविभ्रमालसम् । सुरांगनाभवल्लवीकरप्रपंचचामर स्फुरत्समीरवीजितं सदाच्युतं भजामि तम् ॥ (ख) उसी उदार की कथा सरस्वती बखानती, उसी उदार से धरा कृतार्थ भाव मानती । उसी उदार की सदा सजीव कीर्ति कूजती, तथा उसी उदार को समस्त सृष्टि पूजती ॥ ( मैथिलीशरण गुप्त ) प्रति चरण १७ वर्णवाले छन्द . (१) शिखरिणी लक्षण-रसै रुदैश्छिमा यमनसभला गः शिखरिणी । (६, ११ पर विराम ) मर्थ-जिस छन्द के प्रत्येक चरण में यगण, मगण, नगण, सगण, भगण और लघु-गुरु के क्रम से १७ अक्षर हों तथा रस (६ ) और रुद्र ( ११) पर यति हो उसे शिखरिणी कहते हैं। उदाहरण य म न स भ (क) करे श्लाघ्यस्त्यागः, शिरसि गुरुपादप्रणयिता, . 1ss, sss, ।।।, 115,51115 मुखे सत्या वाणी, विजयिभुजयोर्वीर्यमतुलम् । हृदि स्वच्छा वृत्तिः, श्रुतमधिगतं च श्रवणयो विनाप्यैश्वर्येण, प्रकृतिमहतां मण्डनमिदम् ॥ ( भर्तृहरि) (ख) छटा कैसी प्यारी, प्रकृति-तिय के चन्द्रमुख की नया नीला ओढ़े, बसन चटकीला गगन का। जरी-सल्मा-रूपी, जिस पर सितारे सब जड़े गले में स्वगंगा, अतिललित माला सम पड़ी ॥ ( सत्यशरण रतूड़ी) For Private And Personal Use Only Page #775 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra [ ७३७ ] ( २ ) पृथ्वी लक्षण – जसौ जसयला वसु ग्रहयतिश्च पृथ्वी गुरुः । ( ८, ९ पर विराम ) अर्थ - पृथ्वी छन्द के प्रत्येक पाद में जगण, सगण, जगण, सगण, यगण और लघु-गुरु के क्रम से १७ वर्ण होते हैं । वसु ( ८ ) और ग्रह ( ९ ) पर यति होती है। उदाहरण ज स ४७ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 10. स य - ल गु (क) लभेत सिकतासु तैलमपि यत्मतः पीडयन् 151, 115, 1 51, 11 5, 155, 15 पिबेच भृगतृष्णिकासु सलिलं पिपासादितः । कदाचिदपि पर्यट शशविषाणामासादयेत् न तु प्रतिनिविष्टमूर्खजनचित्तमाराधयेत् ॥ (भर्तृहरि ) (ख) अगस्त ऋषिराज जू, वचन एक मेरे सुनो, प्रशस्त सब भाँति भूतल सुदेश जी में गुनौ । सुनीर तरुखंड मंडित समृद्ध शोभा धरै, तहाँ हम निवास की, बिमल पर्णशाला करें ॥ ( रामचन्द्रिका ) ( ३ ) हरिणी लक्षण— समरसलागः षड वेदेह हरिणी मता । ( ६, ४, ७ पर विराम ) अर्थ- हरिणी के प्रत्येक चरण में नगण, सगण, मगण, रगण, सगण और लघु-गुरु के क्रम से १७ अक्षर होते हैं । छठे, दसवें और सत्रहवें अक्षर के बाद विराम होता है । उदाहरण- न स म र लगु वहति भुवनश्रेणीं शेषः फणाफलकस्थितां, ।।।, 11 s s s S, ऽ । ऽ, I s, 1 s कमठपतिना मध्येपृष्ठं सदा स च धार्यते । तमपि कुरुते क्रोडाधीनं पयोधिरनादरा दहह महतां निःसीमानश्चरित्रविभूतयः ॥ ( भर्तृहरि ) (क) मौनान्मुकः ( ४ ) मन्दाक्रान्ता लक्षण – मन्दाक्रान्ताम्बुधिरसनगैर्मो भनौ तो गयुग्मम् । ( ४, ६, ७ पर विराम ) अर्थ - मन्दाक्रान्ता के प्रत्येक पाद में मगण, भगण, नगण, दो तगण और दो गुरु के क्रम से १७ अक्षर होते हैं । अम्बुधि ( सागर ४ ), रस ( ६ ) और नग ( ७ ) पर यति होती है । I उदाहरण- स म भ न त त गु गु. प्रवचनपटुर्बान को जल्पको वा ऽ ऽ ऽ ऽ, 11,111, SS 1, S SS S धृष्टः पार्श्वे भवति च वसन्दूरतो ऽप्यप्रगल्भः । क्षान्त्या भीरुर्यदि न सहते प्रायशो नाभिजातः, सेवाधर्मः परमगहनो योगिनामप्यगम्यः ॥ ( भर्तृहरि ) For Private And Personal Use Only Page #776 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra [ ७३८ ] ( ख ) जो लेवेगा, नृपति मुझ से, दंड दूँगी करोड़ों, लोटा थाली, सहित तनके, वस्त्र भी बेंच दूँगी । जो माँगेगा, हृदय वह तो, काढ़ दूँगी उसे भी बेटा तेरा गमन मथुरा, मैं न आँखों लखूँगी ॥ ( हरिऔध ) प्रतिचरण १९ वर्णवाले छन्द www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir (१) शार्दूलविक्रीडित लक्षण --- सूर्याश्वर्मसजस्तताः सगुरवः शार्दूलविक्रीडितम् । ( १२, ७ पर विराम ) अर्थ - शार्दूलविक्रीडित छन्द के प्रत्येक चरण में मगण, सगण, जगण, सगण, दो तगण और गुरु के क्रम से १९ वर्ण होते हैं । यति सूर्य ( १२ ) और अश्व ( ७ ) पर होती है। उदाहरण म स ज स ਰ त 77 गु ( क ) केयूराणि न भूषयन्ति पुरुषं हारा न चन्द्रोज्ज्वलाः, S S S, 1 IS, 11, 11, SS 1, s s I, s न स्नानं न विलेपनं न कुसुमं नालंकृता मूर्धजाः । वाण्येका समलङ्करोति पुरुषं या संस्कृता धार्यते, क्षीयन्ते खलु भूषणानि सततं वाग्भूषणं भूषणम् ॥ ( भर्तृहरि) ज ( ख ) छोटे और बड़े जहाज जल में, देखो वहाँ वे खड़े, सो भी दृश्य विचित्र किन्तु हमको, वे हानिकारी बड़े । ले जाते वरवस्तु देशभर की जाने कहाँ को कहाँ, लाते केवल ऊपरी चटक की चीजें विदेशी यहाँ || ( कन्हैयालाल पोद्दार ) प्रति चरण २० वर्णवाले छन्द ( १ ) गीतिका लक्षण -- सजजा भरौ सलगा यदा कथिता तदा खलु गीतिका । ( ५, ७, ८ पर विराम ) अर्थ- गीतिका छन्द के प्रत्येक चरण में सगण, जगण, जगण, भगण, रगण, सगण और लघु-गुरु के क्रम से २० वर्ण होते हैं। पाँचवें, बारहवें और बीसवें अक्षर के बाद यति होती है । उदाहरण- स ज भ र स MM/ JAC लगु (क) करतालचं चलकंकणस्वनमिश्रणेन मनोरमा, ।। ऽ, 1 ऽ ।, । ऽ 1, 511, 515, 115, 15 रमणीय वेणुनिनादरंगिमसंगमेन सुखावहा । बहुलानुराग निवासराससमुद्भवा तव रागिणं, faraौ हरिं खलु वल्लवीजनचारुचामरगीतिका ॥ ( ख ) सज जीभ री ! सुलगे मुहीं सुन मो कहा चित लायकै, नय काल लक्खन जानकी सह राम को नित गायकै । पद मो शरीर हि राम के कल धाम को लय धावद्दू, कर बीन लै अति दीन है नित गीति कान सुनावहू || ( भानु कवि ) For Private And Personal Use Only Page #777 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [ ७३६ ] - प्रति चरण २१ वर्णवाले छन्द (१) स्रग्धरा लक्षण-नभ्नर्यानां त्रयेण त्रिमुनियतियुता स्रग्धरा कीर्तितेयम् । (७, ७, ७ पर विराम) अर्थ-स्रग्धरा के प्रत्येक पाद में मगण, रगण, भगण, नगण और तीन यगण के क्रम से २१ अक्षर होते हैं । सातवें, चौदहवें और इक्कीसवें अक्षर के अन्त में यति होती है। उदाहरण म र भ न य य य (क) प्राणाधातानिवृत्तिः, परधनहरणे संयमः, सत्यवाक्यं, sss, ss, s ।।।।।।ss,Is S, Iss काले शक्त्या प्रदान, युवतिजनकथा, मूकभावः परेषाम् । तृष्णास्रोतोविभंगो, गुरुषु च विनयः, सर्वभूतानुकम्पा, सामान्यं सर्वशास्त्रेष्वनुपहतविधिः, श्रेयसामेष पन्थाः। (भर्तृहरि ) ( ख ) नाना फूलों-फलों से, अनुपम जग की, वाटिका है विचित्रा, भोक्ता हैं सैकड़ों ही, मधुप शुक तथा कोकिला गानशीला । कौए भी हैं अनेकों, पर धन हरने में सदा अग्रगामी, कोई है एक माली, सुधि इन सबकी, जो सदा ले रहा है ।। (रामनरेश त्रिपाठी) (ख)वर्णवृत्त, अब्दसम छन्द (१) वियोगिनी ( अन्य नाम-सुन्दरी) लक्षण-विषमे ससजा गुरुः समे, सभरा लोऽथ गुरुर्वियोगिनी। अर्थ-वियोगिनी के विषम ( प्रथम, तृतीय ) चरणों में दो सगण, जगण और गुरु के क्रम से १०-१० अक्षर और सम ( द्वितीय, चतुर्थ) चरणों में सगण, भगण, रगण, लघु और गुरु के क्रम से ११-११ अक्षर होते हैं । ( १०, ११, १०, ११)। उदाहरण स स . ज (क) सहसा विदधीत न क्रियाम् , ।।5, 115, Is Is अविवेकः परमापदां पदम् । वृणुते हि विनुश्यकारिणं स भ .र - ~ -लगु गुणलुब्धाः स्वयमेव संपदः ॥ (किरातार्जुनीय २।३०) ।।s, ।।, Sss (ख) चिर-काल रसाल ही रहा, जिस भाव कवीन्द्र का कहा। जय हो उस कालिदास की, कविता-केलि-कला-विलास की ॥ ( छन्दरत्नावली ) For Private And Personal Use Only Page #778 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra [ ७४० ] ( २ ) हरिणप्लुता लक्षण - सयुगात् सलघू विषमे गुरुर्युजि नभौ भरकौ हरिणप्लुता । अर्थ- हरिणप्लुता छन्द के विषम चरणों में तीन सगण और लघु-गुरु के क्रम से ११-११ अक्षर और सम चरणों में नगण, दो भगण और रगण के क्रम से १२-१२ अक्षर होते हैं । ( ११, १२, ११, १२ ) उदाहरण www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir उदाहरण- स स स लगु स्फुटफेनचया हरिणप्लुता, ।। ऽ।। ऽ।। ऽ, 1ऽ वलिमनोज्ञतटा तरणेः सुता । कलहंसकुलारवशालिनी, न भ भ र विहरतो हरति स्म हरेर्मनः ॥ ( छन्दोमअरी ) ।।।,ऽ ।।,ऽ 11,51s (३) अपरवक्त्र लक्षण - अयुजि ननरला गुरुः समे । तदपरवक्त्रमिदं नजौ जरौ ॥ अर्थ - अपरवक्त्र वृत्त के विषम चरणों में दो नगण, एक रगग और लघु-गुरु के क्रम से -११-११ अक्षर और समचरणों में नगण, दो जगण और रगण के क्रम से १२-१२ अक्षर होते हैं। ( ११, १२, ११, १२ ) न न र लगु 1 स्फुटसुमधुरवेणुगीतिभि।।।, ।।1,515, 15 स्तमपरवक्त्रमवेत्य माधवम् । गयुवतिगणैः समं स्थिता न ज ज र व्रजवनिता धृतचित्तविभ्रमा ॥ ( छन्दोमञ्जरी ) ।।।, ।ऽ ।, । ऽ 1, 5 1 5 (४) पुष्पिताग्रा (नामान्तर औपच्छन्दसिक) लक्षण - अयुजि नयुगरे फतो यकारो, युजि च नजौ जरगाश्च पुष्पिताग्रा । अर्थ - पुष्पिताग्रा के विषम चरणों में दो नगण, रगण और यगण के क्रम से १२-१२ अक्षर तथा सम चरणों में नग़ण, दो जगण, रगण और गुरु के क्रम से १३-१३ अक्षर होते हैं । ( १२, १३, १२, १३ ) For Private And Personal Use Only Page #779 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [ ७४१ ] नपामामामालाPARAN उदाहरण न न र य (क) अथ मदनवधूरुपप्लवान्तं ।। ।।।।, sis,ss व्यसनकृशा परिपालयांबभूव । शशिन इव दिवातनस्य लेखा न ज ज र --- -----गु किरण परिक्षयधूसरा प्रदोषम् ॥ (बुमारसम्भव ४।४६) ।।।, ।।,151, sss (ख ) प्रभु सम नहिं अन्य कोइ दाता, सुध न जु ध्यावत तीन लोक त्राता। सकल असत कामना विहाई, हरि नित स्वहु मित्त चित्त लाई ॥ (भानुकवि ) (ग)वर्णवृत्त, विषम छन्, उद्गता लक्षण-प्रथमे सजौ यदि सलौ च नसजगुरुकाण्यनन्तरम् । यद्यथ भनजलगाः स्युरथो सजसा जगौ च भवतीयमुद्गता ॥ अर्थ-उद्गता के प्रथम चरण में सगण, जगण, सगण और लघु के क्रम से १० अक्षर, द्वितीय चरण में नगण, सगण, जगण और गुरु के क्रम से १० अक्षर, तृतीय चरण में भगण, नगण, जगण और लघु-गुरु के क्रम से ११ अक्षर तथा चतुर्थ चरण में सगण, जगण, सगण, जगण और गुरु के क्रम से १३ अक्षर होते हैं । (१०, १०, ११, १३) उदाहरण । स ज स अथ वासवस्य वचनेन, ।। ,SI, 15, न स ज - - --गु रुचिरवदनस्त्रिलोचनम्। ।।।।।s, I s, Is भ न ज ल गु क्लान्तिरहितमभिराधयितुं, ।।।।।, ISI, Is स ज स ज -- -- -- -गु विधिवत्तपांसि विदधे धनंजयः ॥ (किरातार्जुनीय १२६१) ।!s,ISI, SI,S For Private And Personal Use Only Page #780 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [२] (घ) मात्रिक वा जाति छन्द आर्या (विषम छन्द) लक्षण–यस्याः पादे प्रथमे, द्वादशमात्रास्तथा तृतीयेऽपि । अष्टादश द्वितीये, चतुर्थके पञ्चदश सार्या ॥ अर्थ आर्याछन्द के प्रथम और तृतीय चरण में १२-१२ मात्रायें, द्वितीय में १८ तथा चतुर्थ में १५ मात्रायें होती हैं । (१२, १८, १२, १५ मात्रायें ) उदाहरण ss ।।।।।।।। (क) सिंहः शिशुरपि निपतति, ।।।।।। । ।।।ss मदमलिनकपोलभित्तिषु गजेषु । ।।।।sss प्रकृतिरियं सस्ववतां, 15SIsss . न खलु वयस्तेजस हेतुः। = १५ (ख) कवि निर्धन भी होकर, शठ की सेवा कभी न करता है । रत्नाकर में जाकर, हंस कभी क्या विचरता है ॥ ( रामचरित उपाध्यायः) For Private And Personal Use Only Page #781 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पञ्चम परिशिष्ट संस्कृत-साहित्यकारों का संक्षिप्त परिचय अनंगहर्ष-ये चेदिदेश के कलचुरीवंशीय नृप नरेन्द्रवर्धन के पुत्र थे। वास्तविक नाम माउराज (मातृराज ) था। समय अष्टम शतक का उत्तरार्द्ध है। इनकी कृति 'तापस वत्सराज' (नाटक) में उदयन तथा वासवदत्ता की प्रसिद्ध कथा है। 'मायुराजसमो जज्ञे नान्यः कलचुरिः कविः' (राजशेखर)। अप्पय दीक्षित-इनका जन्म भारद्वाजगोत्रीय रंगराज के गृह में १५५४ ई० में काञ्ची के समीप मद्यपलम में हुआ था। ये अनेक वर्षों तक वेल्लोर और विजयनगर की राजसभाओं में सम्मानित रहे। प्रख्यात वैयाकरण भट्ठोजीदीक्षित को वेदान्त इन्हीं ने पढ़ाया था। पूर्व तथा उत्तरमीमांसा के ये पारदृश्वा पंडित जे । १६२६ ई० में इन्होंने ग्यारह विद्वान् पुत्रों की उपस्थिति में चिदम्बरम् में सहर्ष प्राणविसर्जन किया। काव्य, अलंकार, तर्क, दर्शन आदि अनेक विषयों पर इन्होंने १०४ ग्रंथों की रचना की जिनमें से काव्यकृतियाँ निम्नलिखित हैं-शिवपंचाशिका, दशकुमारचरितसंग्रह, पंचरत्नस्तव, शिवकर्णामृत, वैराग्यशतक, भक्तामरस्तव, शान्तिस्तव, रामायणतात्पर्यनिर्णय, भरतस्तव, वरदराजस्तव, आदित्यस्तोत्ररत्न आदि। वसुमतीचित्रसेनविलास (नाटक), चित्रमीमांसा, वृत्तिवात्तिक, कुवलयानन्द (अलंकार ) आदि के अतिरिक्त इन्होंने कई ग्रंथों पर टीकाएँ भी रची हैं । अमरुक-इस कवि का वंश, देश, काल आदि अज्ञात है। आनन्दवर्द्धन ने 'ध्वन्यालोक' में इन के 'अमरुकशतक' के शृङ्गारी मुक्तकों की सरसता की मुक्तकंठ से प्रशंसा की है। अतः ये नवमी शताब्दी से पूर्व विद्यमान थे। ये शब्द-कवि न थे, रस-कवि थे। हिन्दी के बिहारी, पद्माकर आदि कवियों पर इनके काव्य का पर्याप्त प्रभाव लक्षित होता है। अश्वघोष-संस्कृत के बौद्ध कवियों में सर्वश्रेष्ठ हैं। इनका जन्म साकेत में सम्भवतः ब्राह्मणवंश में सुवर्णाक्षी के गर्भ से हुआ था। परम्परानुसार ये महाराज कनिष्क (७८ ई० ) के गुरु तथा आश्रित कवि थे। ये दार्शनिक तथा संगीतज्ञ भी थे। बौद्ध बनने के बाद इन्होंने बौद्ध-धर्म के प्रचार में भरसक सहयोग दिया। 'सौन्दरानन्द' तथा 'बुद्धिचरित' इनके प्रख्यात महाकाव्य हैं । 'सौन्दरानन्द' के १८ सर्ग हैं। उनमें बुद्ध के उपदेश से उनके अनुज नन्द द्वारा पत्नी सुंदरी के परित्याग तथा दीक्षाग्रहण की कथा है। 'बुद्धचरित' के २८ सर्गों में से १७ उपलब्ध हैं और बुद्धचरित-विषयक हैं । वैदी रीति में रचित ये महाकाव्य संस्कृत काव्यसाहित्य के अलंकार हैं। अश्वघोष संस्कृत के प्रथम बौद्ध नाटककार हैं। इनके तीन नाटक उपलब्ध हुए हैं। 'शारिपुत्रप्रकरण' नौ अंकों में है और पूर्ण है। इसमें बुद्ध के उपदेश से शारिपुत्र और मौद्गल्यायन के दीक्षित होने का उल्लेख है। शेष दो नाटक लुप्तनामक और खण्डित हैं। उनमें एक का कथानक 'प्रबोधचन्द्रोदय' के समान रूपकात्मक है और दूसरे का 'मृच्छकटिक' के तुल्य वेश्यानायकप्रणयात्मक। आर्यशूर-ये बौद्धकवि सम्भवतः पाँचवीं शताब्दी में विद्यमान थे। 'जातकमाला' तथा 'पारमितासमास' इनकी दो प्रख्यात कृतियाँ हैं। इनकी कीति का आधार-स्तम्भ 'जातक-माला' है जिसमें महात्मा बुद्ध के ३४ जन्मों की कथाएँ गद्य-पद्यमयी सरस भाषा में वर्णित हैं। दूसरे काव्य में दान, शील, क्षान्ति आदि विषयों पर रचना की गई है। 'जातकमाला', 'पालिजातक' के आधार पर रचित स्वतंत्र कृति है। इसके 'पद्यभाग के समान गद्यभाग भी मुश्लिष्ट, सुन्दर तथा सरस For Private And Personal Use Only Page #782 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [ ७४४ । है।' जातकमाला के कुछ अंश का चीनी में अनुवाद ९६० और ११२७ ई० के मध्य में किया गया था। कल्हण (कल्याण)-इनके पिता चणपक काश्मीरनरेश हर्ष (१०४८-२१०१ ई०) के प्रधानमंत्री थे। ये अलंकदत्त नामक व्यक्ति के आश्रित थे। इन्होंने राज-दरबार से दूर रहकर अपनी प्रख्यात ऐतिहासिक काव्यकृति 'राजतरंगिणी' की रचना सुस्सल के तनुज राजा जयसिंह (११२७-५९ ई०) के शासनकाल में की थी। राजतरंगिणी' का निमितिकाल ११४८-११५० ई० है। इसमें काश्मीर के राजनीतिक इतिहास, भौगोलिक विवरण, सामाजिक व्यवस्था, साहित्यिक समृद्धि आदि का सविस्तर और रोचक उल्लेख किया गया है। 'राजतरंगिणी' काव्य तथा इतिहास दोनों दृष्टियों से महत्त्वपूर्ण कृति है जिसमें काश्मीर के प्राचीन काल से लेकर बारहवीं शती तक का विश्वसनीय वृत्त प्रस्तुत किया गया है। कविराज सूरि-जयन्तपुरी के राजा कामदेव (१९८२-९७ ई० ) के सभापंडित माधवभट्ट की ही उपाधि कविराज थी। इनकी रचना 'राघवपांडवीय' अपने ढंग की अपूर्व कृति है जिसका अनुकरण परवत्ती अनेक कवियों ने किया। इसका प्रत्येक पद्य लिष्ट है और रामायण तथा महाभारत दोनों से सम्बन्धित अर्थ व्यक्त करता है। इसी के अनुकरण पर हरदत्त ने 'राषव. नैषधीय', चिदंबर ने 'राघवपाण्डवयादवीय' और विद्यामाधव ने 'पार्वतीरुक्मणीय' नामक कान्यों की सृष्टि की। इस प्रकार की लिष्ट रचनाएँ संस्कृत के अतिरक्त सभी भाषाओं में अलभ्य हैं और सम्भवतः अलभ्य रहेंगी। कालिदास कुछ विद्वान इन्हें ई० पू० प्रथम शताब्दी में मानते हैं तो कुछ छठी शती ईसवी में । कोई इनकी जन्मभूमि काश्मीर मानता है, कोई बंगाल और कोई उज्जयिनी। बहुमत उज्जयिनी के प्रति विशेष पक्षपात तथा सूक्ष्म भौगोलिक परिचय के आधार पर कालिदास उज्जयिनीकासी प्रतीत होते हैं। कृतियाँ-ऋतुसंहार, कुमारसम्भव, मालविकाग्निमित्र, विक्रमोर्वशीय, रघुवंश, अभिज्ञानशाकुन्तल, मेघदूत । ___'कुमारसम्भव' तथा 'रघुवंश' महाकाव्य हैं। 'कुमारसम्भव' के १७ सर्गों में शिव-पार्वती के विवाह, कार्तिकेय की उत्पत्ति तथा तारकासुर के वध की कथा है। 'रघुवंश' के १९ सर्गों में सूर्यवंशी राजाओं का कीर्तिगान है। मालविकाग्निमित्र, विक्रमोर्वशीय और अभिज्ञानशाकुन्तल-तीनों नाटक हैं। प्रथम में राजा अग्निमित्र और मालविका की, द्वितीय में राजा पुरूरवा और अप्सरा उर्वशी की तथा तृतीय में राजा दुध्यन्त और शकुन्तला की प्रेमकथा का वर्णन है। 'ऋतुसंहार' और 'मेघदूत' संस्कृत गीतिकाव्य की प्राचीनतम कृतियाँ हैं। ऋतुसंहार के १४४ फ्यों में षड्ऋतुओं का सुन्दर वर्णन है तथा उनका प्रेमियों के हृदय पर प्रभाव अंकित किया गया है। 'मेघदूत' के १२१ पद्यों में एक निर्वासित विरही यक्ष की मनोव्यथा का हृदयस्पशी चित्रण किया गया है। कालिदास की सर्वप्रियता का कारण है उनकी प्रसादपूर्ण, लालित्योपेत, परिष्कृत शैली । इन्होंने सभी ग्रन्थ वैदी रीति में लिखे हैं। उपमाओं में ये अपना जोड़ नहीं रखते। भाव, रस, भाषा, शैली, छंद, अलंकार जिस किसी भी दृष्टि से देखें कालिदाप उत्कृष्टतम ठहरते हैं। कुमारदास–सिंहल की जनश्रुति के अनुसार कुमारदास ने वहाँ ५१७-५२६ ई० तक शासन किया था । आधुनिक विद्वान् इन्हें ६५० और ७५० ई० के बीच में मानते हैं। इनके महाकाव्य 'जानकीहरण' के २५ में से १५ सर्ग ही प्राप्त हैं। कथा रामायण की पुरानी ही है परन्तु वर्णनशैली अभिरूप है । प्रसाद, सुकुमारता, शब्दसौष्ठव तथा नादसौन्दर्य कृति के उल्लेख्य गुण हैं। राजशेखर ( ९०० ई० ) ने इसकी प्रशंसा में यों लिखा है-- जानकीहरणं कर्तुं रघुवंशे स्थिते सति । कविः कुमारदासश्च रावणश्च यदि क्षमः॥ For Private And Personal Use Only Page #783 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [७४५) रघुवंश की विद्यमानता में जानकीहरण करना या तो रावण का काम है या फिर कुमारदास का । कृष्ण मिश्र-प्रबोधचन्द्रोदय' नामक रूपक नाटक के रचयिता कृष्ण मिश्र जेजाकमुक्ति के राजा कीर्तिवर्मा के शासनकाल में ११०० ई० के लगभग विद्यमान थे। भास के 'बालचरित' के समान इस नाटक में विवेक, मोह, ज्ञान, विद्या आदि भावों को स्त्री-पुरुष पात्रों के रूप में कल्पित किया गया है। इसी कृति के अनुकरण पर यशःपाल ने 'मोहपराजय', वेंकटनाथ ने 'संकल्पसूर्योदय' तथा कविकर्णपूर ने 'चैतन्य चन्द्रोदय' की रचना की। हिन्दी कवि केशवदास ने 'विज्ञानगीता' में इसका छन्दोबद्ध अनुवाद किया है। दार्शनिक दृष्टि से कृति महत्त्वपूर्ण है। क्षेमेन्द्र-सिन्धु के पौत्र तथा प्रकाशेन्द्र के पुत्र क्षेमेन्द्र का जन्म काश्मीर के एक धनाढ्य और उदार परिवार में हुआ था। इन्होंने आचार्य अभिनवगुप्त से साहित्याध्ययन किया था। ये ११वीं शती के मध्य में विराजमान थे। शैवमंडल में रहते हुए भी ये परम वैष्णव थे और इसका कारण था भागवताचार्य सोमपाद की शिक्षा। __इनके बृहदाकार अनेक ग्रंथों में से प्रमुख ये हैं--रामायणमञ्जरी, भारतमञ्जरी तथा बृहत्कथामञ्जरी। ये क्रमशः रामायण, महाभारत और गुणाढ्य की बृहत्कथा के आधार पर रचित स्वतंत्र काव्यकृतियाँ हैं। 'दशावतारचरित' में विष्णु के दशावतारों का तथा 'बोधिसत्त्वाबदान' कल्पलता' में जातक कथाओं का सरल-सुन्दर वर्णन है। अल्पाकार कृतियों में कलाविलास, चतुर्वर्गसंग्रह, चारुचर्या, नीतिकल्पतरु, समयमातृका और सेव्यसेवकोपदेश व्यवहारविषयक सुन्दर काव्यकृतियाँ हैं। इनकी रचनाएँ साहित्यिकता से पूर्ण भी हैं और लोकोपकार की भावना से ओत-प्रोत भी। गोवर्धनाचार्य-ये बंगाल के अन्तिम हिन्दनरेश लक्ष्मणसेन (१११६ ई०) की सभा के प्रतिष्ठित कवि थे। 'आर्यासप्तशती' इनकी एकमात्र रचना है जो 'हाल' की 'गाथासप्तशती' के अनुकरण पर रचित है। 'गाथासप्तशती' तो हालकृत संग्रह है परन्तु 'आर्यासप्तशती' केवल आचार्य की रचना है। इसमें संयोग तथा वियोग-शृंगार की विविध दशाओं का मार्मिक चित्रण पुष्ट आर्या छन्द में किया गया है। नागरिक ललनाओं की शृङ्गारिक चेष्टाओं तथा ग्रामीण रमणियों की स्वाभाविक उक्तियों का उल्लेख अत्यन्त रमणीय है। हिन्दी के बिहारी आदि शृङ्गारी कवि भी इसके प्रभाव से अछूते नहीं रहे । जगन्नाथ (पंडितराज)-आंध्र ब्राह्मण जगन्नाथ काशीनिवासी पेरुभट्ट तथा लक्ष्मीदेवी के पुत्र थे। इन्होंने काव्य और अलंकार का अध्ययन अपने पिता से किया और न्याय, व्याकरण आदि विषयों का ज्ञानेन्द्रभिक्षु, महेशाचार्य, खण्डदेव, शेष वीरेश्वर आदि से। दिल्लीश्वर शाहजहाँ ( शासन १६२८-६६ ई० ) ने इन्हें दाराशिकोह के शिक्षार्थ दिल्ली में बुलवा लिया था। उसके पश्चात् वृद्धावस्था में इनका स्वर्गवास १६७४ ई० में मथुरा में हुआ। कहते हैं, किसी यवनी के प्रेमजाल में फंसने के कारण इन्हें स्वजातीयों का कोपभाजन भी बनना पड़ा था। गंगालहरी, सुधालहरी, अमृतलहरी, करुणालहरी और लक्ष्मीलहरी इनके सरस काव्यस्तोत्र हैं । 'जगदाभरण' में दाराशिकोह का, 'आसफविलास' (गधकान्य ) में नवाब आसफ़खाँ का और • 'प्राणाभरण' में कामरूपाधिपति प्राणनारायण का वर्णन है। इनकी अन्य कृतियाँ 'चित्रमीमांसा खंडन', मनोरमाकुचमर्दन' तथा 'भामिनीविलास' हैं। इनकी सर्वोत्तम कृति 'रसगंगाधर' नामक अलंकार-शास्त्र है जिसमें इनके प्रकाण्ड पाण्डित्य तथा अप्रतिम काव्य-प्रतिभा का पूर्ण परिचय प्राप्त होता है। इन्हें अपने पाण्डित्य और कवित्व पर जो अभिमान था, वह अनुचित न था। जयदेव-सात अंकों के प्रसिद्ध संस्कृत नाटक 'प्रसन्नराघव' के कर्ता जयदेव का परिचय अभी तिमिराच्छन्न है । सुनते हैं, ये मिथिलावासी थे। ये १४वीं शती से पूर्व हुए हैं। 'प्रसन्नराधव' में रामायणीय कथा सुचारु रीति से चित्रित की गई है। मंजुल पदावली तथा प्रसादोपेत कविता For Private And Personal Use Only Page #784 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir । ७४६ ] के कारण नाटक का नाम सार्थक है। 'रामचरितमानस' के कई स्थलों पर इस तार्किक और कवि का प्रभाव स्पष्ट लक्षित होता है। जयदेव-अमर काव्य 'गीतगोविन्द' के रचयिता जयदेव वंगाधिपति लक्ष्मणसेन (१११६ ई०) के सभारत्न थे। बंगाल के केन्दुबिल्व नामक स्थान में इनका जन्म हुआ था। वे राधा-कृष्ण की भक्ति के रस में पूर्णतया पगे हुए ये और उसी रस से पूर्ण 'गीतगोविन्द' नामक गीतिकाव्य मी है । १२ सर्गों का यह गीतिकाव्य इतना सरस व मधुर है कि कालिदास की कृतियों को भी मात करता है। भाव-सौष्ठव, कल्पनोत्कर्ष और सुललित पदावली के कारण रचना अपने ढंग की एक ही है। तिरुमलांबा (रानी)-राजा अच्युत राय की पत्नी तिरुमलांबा ने 'वरदाम्बिकापरिणयचम्पूर की रचना १५२९.४० के बीच में किसी समय की। इसमें अच्युत राय और वरदाम्बिका के प्रेम तथा परिणय का वर्णन है। सम्भव है, रानी ने नामान्तर से अपनी ही कथा अंकित की हो। कृति से कत्री की पुष्ट कल्पना तथा संस्कृत-भाषा पर पूर्ण अधिकार का परिचय मिलता है। त्रिविक्रम भट्ट-शांडिल्यगोत्री त्रिविक्रम वा सिंहादित्य, नेमादित्य ( देवादित्य ) के पुत्र थे। राष्ट्रकूट नृपात तृतीय इन्दु (९१४-९१६ ई०) के सभाकवि थे। 'नलचम्पू' ( दमयन्तीकथा) और 'मदालसाचम्पू' इनकी विख्यात कृतियाँ हैं। ये संस्कृत-साहित्य के सर्वश्रेष्ठ श्लेष-कवि हैं। 'नल चम्पू' में सरस तथा चमत्कारपूर्ण श्लेषों का प्राचुर्य है। इस कृति के कमनीय उद्धरणों को भोजराज तथा विश्वनाथ ने अनेकत्र उद्धृत किया है । नलचम्पू संस्कृत का प्रथम उपलब्ध चम्पू है। दंडो-कहा जाता है कि दंडी का जन्म भारवि की चौथी पीढ़ी में हुआ था। इनकी माता का नाम गौरी तथा पिता का वीरदत्त था। ये सप्तमी शती के उत्तरार्द्ध तथा अष्टमी के पूर्वाद्ध में विद्यमान थे और काशी के पल्लवनरेशों की सभा में रहते थे। इनकी तीन रचनाएँ हैं-दशकुमारचरित, काव्यादर्श तथा अवन्तिसुन्दरीकथा (?)। एक किंवदन्ती के अनुसार इन्होंने 'काव्यादर्श' की रचना पल्लवनरेश के पुत्र के शिक्षार्थ की थी। 'दशकुमारचरित' नामक प्रख्यात गद्यकाव्य में दस कुमारों के रोमाञ्चजनक चरित प्रस्तुत किये गये हैं। छल-कपट, मारकाट तथा सत्यानृत से पारपूर्ण होने के कारण रचना अत्यन्त सजीव है। पात्रों के चरित्र सुन्दर शैली में हैं तथा हास्य और व्यंग्य से पूर्ण हैं। भाषाशैली के विचार से भी यह रचना स्तुत्य है। भाषा प्रवाहपूर्ण, परिष्कृत तथा मुहावरों से अलंकृत है। जो पदलालित्य दंडी में है वह अन्यत्र दुर्लभ है। कहा भी है-'दण्डिनः पदलालित्यम्'। कुछ आलोचक वाल्मीकि और व्यास के अनन्तर इन्हें ही तीसरा कवि मानते हैं जाते जगति वाल्मीको कविरित्यभिधाऽभवत् । कवी इति ततो व्यासे कवयस्त्वयि दण्डिनि । दामोदर मिश्र-इनके महानाटक 'हनुमन्नाटक' की रचना ८५० ई० के पूर्व हुई थी। इसमें १४ अंक हैं और कथानक रामायण पर आधृत है। प्रस्तावना और प्राकृत का अभाव, पद्यों की प्रचुरता, गद्य को न्यूनता, पात्रों की बहुलता तथा विदूषक की अविद्यमानता इसकी मुख्य विशेषताएँ हैं। इसके दो संस्करण हैं-प्रथम दामोदर मिश्र कृत, द्वितीय जिसमें ९ अंक हैं, मधुसूदन-रचित हैं। .. . दिङ्नाग-'कुन्दमाला' नाटक के रचयिता दिङ्नाग या धीरनाग ( अथवा वीरनाग ) पाँचवीं शती के बौद्ध दार्शनिक दिङ्नाग से सर्वथा भिन्न हैं। ये १००० ई० के लगभग हुए हैं। 'कुन्दमाला' की कथा 'उत्तररामचरित' के समान वैदेहीवनवास पर आश्रित है। इस पर उत्तररामचरित का पर्याप्त प्रभाव पड़ा है। यह नाटक 'उत्तररामचरित'-सा सरस तो नहीं परन्तु क्रियाशीलता में उससे बढ़कर है। शैली प्रसादपूर्ण है तथा करुण-रस की व्यंजना अच्छी हुई है। For Private And Personal Use Only Page #785 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [ ७४७ ] धोयी - जयदेव ने 'गीतगोविन्द' ( १-४ ) में धोयी को 'श्रुतिधर' लिखा है । ये गोवर्धनाचार्य तथा जयदेव के साथ राजा लक्ष्मणसेन ( १११६ ई० ) की सभा में विद्यमान थे । मन्दाक्रान्ता छन्द में लिखे हुए इनके 'पवनदूत' में १०४ पथ हैं। मलयाचल में कुवलयवतीनाम्नी गन्धर्व कन्या दिग्विजयी लक्ष्मणसेन पर आसक्त हो गई और उसने उनके विदेश जाने पर पवन द्वारा संदेश भेजा । 'मेघदूत' का प्रभाव इस कृति पर स्पष्ट दिखाई देता है । काव्य में भावसौष्ठव तथा वाक्यविन्यास मनोरम हैं नारायणपण्डित - ये बंगाल के राजा धवलचन्द्र के आश्रित थे। इन्होंने १४वीं शती से पूर्व 'हितोपदेश' की रचना बहुत सीमा तक 'पंचतंत्र' के आधार पर की। कई श्लोक कामन्दकीयनीतिसार से लिए गए हैं। हितोपदेश में नीति- सम्बन्धी रोचक गद्य-पद्यमयी कथाएँ हैं । भाषा सरल एवं सुबोध है । 1 पद्मगुप्त — ये धारानरेश मुंज तथा उनके पुत्र सिन्धुराज ( नवसाहसांक ) के सभा-कवि थे। इन्होंने 'नवसाहसांक-चरित' काव्य को रचना सं० २००५ ई० के आस-पास की थी । काव्यका विषय कृति नाम से ही अनुमित हो जाता है। उसमें सिन्धुराज और शशिप्रभा के विवाह आदि का उल्लेख है । ऐतिहासिक तथ्यों की दृष्टि से भी कृति महत्वपूर्ण है। कृति में १८ सर्ग तथा १९ प्रकार के छन्द हैं और कुल १५०० पद्य हैं। भाषा व शैली कालिदास से प्रभावित है।" काव्य का माधुर्य तथा वर्णनकौशल प्रशस्य है । बाणभट्ट - बाणभट्ट के पूर्वज अत्यन्त विद्वान थे और सोनतीरवत्ती प्रीतिकूट नगर में रहते थे । बाण का जन्म वात्स्यायनगोत्री चित्रभानु के गृह में हुआ था। कुसंगति में पड़कर बाण पहले तो आवारा घूमते रहे परन्तु सँभलने पर महान विद्वान् तथा सम्राट हर्षवर्धन के सभारत्न बन गये । बाण अपनी ' कादम्बरी' को पूर्ण नहीं कर पाये थे कि काल का निमंत्रण आ पहुँचा । उस अपूर्ण कृति को इनके पुत्र पुलिन या पुलिन्दभट्ट ने पूर्ण किया। कहते हैं बाण का विवाह मयूर कवि की पुत्री से हुआ था और उनकी एक धिक सन्तान थी । वाण का स्फुरण सातवीं शती में हुआ। उनकी प्रख्यात कृतियाँ ये हैं १. ' चण्डीशतक' में देवी भगवती की प्रशंसा है। २. ‘हर्षचरित' के प्रथम दो उच्छ्वासों में कवि का आत्मचरित है और शेष छह में हर्ष का चरित। यह रचना बड़ी ओजस्विनी तथा समासबहुला है । संस्कृत की प्राचीनतम उपलब्ध आख्यायिका यही है । ३. 'कादम्बरी' इनकी उत्कृष्टतम कृति है। दो-तिहाई भाग ( पूर्वाद्ध ) बाणकृत है और उत्तरार्द्ध पुलिन्दरचित । भाव, भाषा, कल्पना, वर्णन, रस- सभी दृष्टियों से कादम्बरी अनुपम है । ४. 'पार्वतीपरिणय' नाटक में शिव-पार्वती के विवाह का वर्णन है, कई लोग इसे किसी अन्य बाण की कृति कहते हैं । ५. 'मुकुटताडितक' नाटक को इनकी रचना कहा गया है परन्तु अभी तक प्राप्त नहीं हुआ । किसी ने तो समग्र संसार को ही बाण का जूठा कहा है – 'बाणोच्छिष्टं जगत् सर्वम् । गोवर्द्धनाचार्य ने तो बाण को वाणी का अवतार ही माना है जाता शिखण्डिनी प्राग् यथा शिखण्डी तथावगच्छामि । प्रागल्भ्यमधिकमाप्तुं बाणो वाणी बभूवेति ॥ बिहण - अपने ऐतिहासिक महाकाव्य 'विक्रमांकदेवचरित' में बिहण ने स्वपरिचय भी प्रस्तुत किया है । बिरूण ज्येष्ठकलश और नागदेवी के पुत्र तथा इष्टराय और आनन्द के भाई थे । -आश्रयदाता की खोज में ये काश्मीर से निकलकर मथुरा, प्रयाग, काशी आदि होते हुए कल्याणनगर के चालुक्यवंशीय विक्रमादित्य षष्ठ (१८६६ - ११२७ ) की सभा में जा For Private And Personal Use Only Page #786 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [७ ] - - - पहुँचे। उक्त काव्य में कवि ने निज आश्रयदाता तथा उसके वंश का विस्तृत वर्णन किया है। १८ सर्गों के इस काव्य में माधुर्य एवं प्रसाद की भाषा प्रचुर है तथा वैदी रीति प्रयुक्त की गई है । यह काव्य अनूठी सूक्तियों तथा वीर, शृङ्गार और करुण रस से पूर्ण है। भट्टनारायण-इनका विशेष वृत्त अभी तक अविदित है। सुनते हैं, ये उन पाँच कनौजिया ब्राह्मणों में से थे जिन्हें बंगनरेश 'आदिशूर' ने वंग में वैदिकधर्म-प्रचारार्थ बुलाया था। आदिशूर ७१५ ई० में गौड़ाधिपति के पद पर आसीन हुए थे। इनका नाटक 'वेणीसंहार' ८०० ई० से पूर्व रचा जा चुका था। कवि की उक्त एकमात्र कृति का विषय है महाभारत का युद्ध । रचना में गौड़ी रीति तथा ओजगुण विशिष्ट रूप से मिलता है। नाटकीय सिद्धान्तों के प्रदर्शनार्थ नाटक अत्यन्तोपयोगी है। भट्टि वा भट्टिस्वामी-'भट्टिकाव्य' ( रावणवध ) के रचयिता का विशेष वृत्त अज्ञात है। इस महाकाव्य के अन्तिम पद्य से ज्ञात होता है कि वलभी-नरेश श्रीधरसेन की सभा में कवि समादृत या । भट्टि का समय छठी शती का उत्तरार्द्ध तथा सप्तमी का पूर्वार्द्ध है । उक्त महा-काव्य की रचना सरलता से व्याकरण सिखाने को की गई थी। इसके २२ सर्गों में “१६२४ श्लोक हैं। इसके प्रकीर्ण, प्रसन्न, अलंकार और तिङन्त नामक चार भागों में व्याकरण तथा अलंकारों का सुन्दर निरूपण हुआ है। राम-कथा के साथ-साथ पाठक को व्याकरण-शान भी पूर्णतया हो जाता है । काव्यत्व की दृष्टि से भी ग्रन्थ उपादेय है। कवि ने इसके उद्देश्य के विषय में स्वयं लिखा है दीपतुल्यः प्रबन्धोऽयं शब्दलक्षणचक्षुषाम् । हस्तादर्श इवान्धानां भवेद् व्याकरणाद् ऋते ॥ और इस उद्देश्य की पूर्ति में कृति सफल हुई है। ‘भर्तृहरि-भर्तृहरि का नाम जितना प्रसिद्ध है, उतना ही जीवन-चरित अबुद्ध । कुछ लोग रहें महाराज विक्रमादित्य का अग्रज मानते हैं परन्तु अधिकतर विद्वान् इन्हें प्रख्यात व्याकरण भर्तृहरि से अभिन्न कहते हैं। कुछ लोग इन्हें बौद्ध कहते हैं परन्तु इनकी कृतियाँ इन्हें अद्वैतवादी वैदिकधी घोषित करती हैं। इनका समय सप्तमी शती कहा जाता है। इनके तीन शतक प्रसिद्ध हैं-नीतिशतक, भृङ्गारशतक और वैराग्यशतक। भर्तृहरि ने जो पर्याप्त सांसारिक अनुभव प्राप्त किया था उसी को स्वकृतियों में अंकित कर अक्षय यश प्राप्त किया है । धार्मिक कृतियों में जेसे गीता प्रख्यात है, लौकिक कृतियों में वैसे ही इनकी शतकत्रयी। भवभूति-इनके नाटकों की प्रस्तावना से विदित होता है कि इनका जन्म विदर्भ ( बरार ) के पद्मपुर नगर में उदुम्बरवंशी विप्र-परिवार में हुआ था। इनका परिवार कृष्णयजुर्वेद का अध्येता तथा सोमयाजी था। ये भट्टगोपाल के पौत्र तथा नीलकण्ठ के पुत्र थे। इनकी जननी का नाम जतुकर्णी था तथा इनका निजी नाम श्रीकण्ठ था। भवभूति इनका प्राश-प्रदत्त नाम था और ये ज्ञाननिधि के शिष्य थे। इनका जीवन-काल सम्भवतः ६५०.७५० ई० के मध्य में होगा । ये प्रख्यात मीमांसक कुमारिल भट्ट के भी शिष्य थे और दार्शनिक जगत् में भट्ट उम्बेक के नाम से विख्यात थे। इनके तीन रूपक प्राप्त हुए हैं—महावीरचरित, मालतीमाधव और उत्तररामचरित । महावीरचरित के छह अंकों में श्रीराम का चरित प्रस्तुत किया गया है। नाटक वीररस-प्रधान है। मालतीमाधव दस अंकों का विशाल 'प्रकरण' है। इसमें मालती तथा माधव की काल्पनिक प्रेम-कथा को भावपूर्ण ढङ्ग से उपन्यस्त किया गया है। उत्तररामचरित में सीताजीवन का बहुत ही करुणाजनक वर्णन है। सात अंकों की यह रचना भवभूति की सर्वोत्कृष्ट कृति है। इसमें कवि ने -राम के विलाप से निर्जीव पत्थरों तक को रुलाया है। कवि ने अपने कल्पना-बल से वाल्मीकीय For Private And Personal Use Only Page #787 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir .. [७ ] रामायण के कई प्रसंगों में परिवर्तन कर दिये हैं। इनकी कविता में भाव तथा भाषा का अतुल्य सामजस्य है। भाषा में भावानुकूल परिवर्तन करने में ये विशेष निपुण थे। यों तो सभी रसों की अभिव्यक्ति में ये कुशल थे परन्तु करुणरस की व्यंजना में तो विशेष दक्ष थे। नाटककारों में कालिदास के पश्चात् इन्हीं का नाम लिया जाता हैं। भारवि–'अवन्तिसुन्दरीकथा' के अनुसार ये दाक्षिणात्य थे और पुलकेशी द्वितीय के अनुज विष्णुवर्धन ( शासनकाल ६१५ ई०) के सभाकवि थे। कुछ विद्वान् इन्हें त्रावणकोरवासी बताते हैं । इनका समय ६०० ई० के लगभग है। ___ 'किरातार्जुनीय' महाकाव्य हो इनकी एकमात्र प्राप्त कृति हैं। महाकाव्य के सभी लक्षण इसमें पूर्णतया विद्यमान है। इसका कथानक, जो महाभारत के वनपर्व पर आधृत है, इस प्रकार है-द्यत में पराजित पाण्डव जब द्वैतवन में रह रहे थे तब उनके गुप्तचर ने दुर्योधन के सुव्यवस्थित शासन की स्तुति की। इस पर द्रौपदी और मीमसेन ने युधिष्ठिर को युद्धार्थ उत्तेजित किया परन्तु धर्मपुत्र ने प्रतिज्ञाभंग अनुचित माना। वेदव्यास की प्रेरणा से अर्जुन शिवजी से पाशुपतास्त्र प्राप्त करने को इन्द्रकील पर्वत पर पहुँचे। उन्की उग्र तपस्या को अप्सराएँ भी भग्न न कर सकी। पीछे अर्जुन ने किरातवेशी शिव को अपनी शक्ति से प्रसन्न कर पाशुपतास्त्र की प्राप्ति की। समग्र संस्कृत-वाङ्मय में किरातार्जुनीय-सा ओजःपूर्ण काव्य अन्य नहीं हैं। १८ सों के इस महाकाव्य में प्रधान रस वीर है, अन्य रस गौण। अर्थगौरव अर्थात् थोड़े शब्दों में विशाल और गंभीर अर्थ को सन्निविष्ट कर देना भारवि की उल्लेख्य विशेषता है जिसके कारण 'भारवेरर्थगौरवम्' उक्ति प्रख्यात हो चुकी है। भारवि का काव्य आपाततः कठिन है परन्तु अर्थव्यक्त होने पर वैसे ही आनन्ददायक सिद्ध होता है जैसे नारियल की जटा और खोल तोड़ देने पर उसका फल । इन्हीं गुणों के कारण महाकाव्यों की बृहत्वयी (किरात, माघ और नैषध ) में 'किरातार्जुनीय' का स्थान प्रमुख है। भास-प्रख्यात नाटककार भास के काल के सम्बन्ध में विद्वानों में ऐकमत्य नहीं है। कुछ इन्हें तीसरी शती ईसवी का बताते हैं तो कुछ ई० पू० दूसरी शती का। इनके तेरह नाटक प्राप्त हुए हैं जिनका संक्षिप्त परिचय इस प्रकार है १. प्रतिमा नाटक-इसमें राम-वनवास से रावणवध तक की घटनाओं का उल्लेख है। केकय से लौटते हुरु भरत देवकुल में दशरथ की प्रतिमा देखकर उनकी मृत्यु का अनुमान करते हैं। अतएव नाटक को उक्त नाम दिया गया है। २. अभिषेक नाटक-राम के राज्याभिषेक का वृत्त है। ३. पञ्चरात्र महाभारत से सम्बन्धित एक कल्पित घटना के आधार पर रचा गया है। दर्योधन की शर्त के अनुसार द्रोण ने पाण्डवों को पाँच रातों में ढूँढ़ लिया और दुर्योधन ने उन्हें आधा राज्य दे दिया, यही कथानक-सार है। - ४-८. मध्यमव्यायोग, दूतघटोत्कच, कर्णभार, दूतवाक्य, ऊरुभंग के कथानक महाभारत के विशिष्ट प्रसंगों से सम्बन्धित हैं। ९. बालचरित—का सम्बन्ध बालकृष्ण की लीलाओं से है। १०. दरिद्रचारुदत्त-इसमें निर्धन परन्तु चरित्रवान् चारुदत्त और गुणग्राहिणी वेश्या वसन्तसेना के प्रणय का चित्रण है। ११. अविमारक में एक प्राचीन आख्यायिका को नाटकीय रूप दिया गया है। १२. प्रतिज्ञायौगन्धरायण-इसमें मन्त्री यौगन्धरायण को नीति से वत्सराज उदयन के कारामुक्त होने तथा अवन्तिकुमारी वासवदत्ता से उनके विवाह का वर्णन हैं। For Private And Personal Use Only Page #788 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [७०] . - १३. स्वप्नवासवदत्त-इसे 'प्रतिज्ञायौगन्धरायण' का उत्तरार्द्ध कहना उचित है। इसमें उदयन का मगधकुमारी पद्मावती से विवाह और वासवदत्ता से पुनर्मिलन वर्णित है। यही भास की सर्वोत्तम कृति है। भास नवों रसों की व्यंजना में कुशल हैं। उनके चरित्र-चित्रण मनोवैज्ञानिक हैं और संवाद चुस्त तथा संक्षिप्त । सबसे बड़ी बात यह है कि ये नाटक अभिनय के लिए अत्यन्त उपयुक्त हैं। भोज-सिंधुल के पुत्र परमार-वंशीय राजा भोज की राजधानी मालवा की धार या धारानगरी थी, जहाँ इन्होंने १०१८-१०६३ ई. तक शासन किया। पिता की मृत्यु के अनन्तर बालक भोज, राज्यलोलुप चाचा मंज के हाथों कालकवलित होने को थे वे परन्त भाग्यवश दच गये। ये बहुत उदार, विद्वान तथा विद्वानों के आश्रयदाता थे। भोजप्रबन्ध आदि कई ग्रंथों में इनके गुणों की कथाएँ लिखित हैं। ___शृङ्गारमंजरी ( आख्यायिका ), विद्याविनोद (काव्य), शिवदत्त (स्तोत्र), शिवतत्त्वरत्नकलिका ( शिवस्तोत्रव्याख्या ), सुभाषित, संगीतप्रकाशित, शृङ्गारप्रकाश, रामायणचम्पू और सरस्वतीकंठाभरण इनकी कृतियाँ कही जाती हैं। अंखक-काश्मीरनरेश महाकवि मंखक प्रख्यात आलंकारिक रुय्यक के शिष्य थे और गुरु-शिष्य दोनों ही काशीनरेश राजा जयसिंह (११२९-५० ई.) के सभापंडित थे। स्वर्गीय पिता की आशानुसार ही मंखक ने 'श्रीकण्ठचरित' नामक २५ सर्गों के सुन्दर महाकाव्य की रचना की जिसमें शंकर और त्रिपुर का युद्ध वर्णित है। इनकी शैली कालिदासानुसारिणी है। प्राकृतिक दृश्यों, सरस भावों तथा प्रभावक कल्पनाओं को कोमल पदावली में व्यक्त करने में मंखक विशेष कुशल हैं। मयूरभट्ट ये बाणभट्ट के सगे सम्बन्धी थे और वाराणसी के पूर्व में रहते थे। बाण के समान ये भी हर्षवर्द्धन की सभा के कवि थे। इन्होंने अपने कुष्ठ रोग के निवारणार्थ स्रग्धरा वृत्त में 'सूर्यशतक' स्तोत्र का प्रणयन किया जो वस्तुतः प्रौढ़ और मार्मिक कृति है। ये सूर्यदेव के रथ, अश्व आदि उपकरणों के वर्णन में तथा अनुप्रासमयी भाषा के प्रयोग में विशेष सफल हुए हैं। माघ-महाकवि माघ के पितामह सुप्रभदेव गुजरात के वर्मलात नामक राजा को मुख्यमंत्री थे और पिता दत्तक प्रकाण्ड विद्वान् तथा वदान्य । माघ का जन्म भीनमाल नगर में हुआ था ओर ये धारा के भोज से भिन्न किसी अन्य राजा भोज के मित्र थे। सुसम्पन्न कुल में उत्पन्न होने पर भी, कहते हैं इनकी मृत्यु अत्यधिक उदारता के कारण, दरिद्रता-वश हुई थी। ये सातवीं शती के उत्तरार्द्ध में विद्यमान थे। ये अपने एकमात्र उपलब्ध महाकाव्य 'शिशुपाल-वध के कारण अमर हो गये हैं । बीस सर्गों के इस महाकाव्य में युधिष्ठिर के राजसूय यज्ञ में श्रीकृष्ण के हाथों शिशुपाल के वध का विस्तृत वृत्त वणित है। काव्य के अध्ययन से माघ की राजनीतिशता और अलंकारप्रियता का अच्छा परिचय प्राप्त हो जाता है । माघ केवल रससिद्ध कवि ही नहीं, सर्वशास्त्रविद् गम्भीर विद्वान् भी थे। शास्त्रीय सिद्धान्तों का जितना सुन्दर सरस प्रतिपादन शिशुपालवध में उपलब्ध होता है, किसी अन्य काव्य में नहीं। माघ का पांडित्य सर्वतोमुखी है, बेद तथा दर्शन से लेकर राजनीति तक की विशेषज्ञता इनके ही काव्य में दिखाई देती है। नव-नव शब्दों के प्रयोग तथा व्याकरणानुरूप नव-नव शब्दरूपों के व्यवहार के कारण भी माघ विशेष प्रख्यात हैं। किसी भारतीय आलोचक का मत है उपमा कालिदासस्य, भारवेरर्थगौरवम् । दण्डिनः पदलालित्यं, माघे सन्ति त्रयो गुणाः॥ अरारि-'अनवराघव' नाटक के रचयिता मुरारि मौदगल्यगोत्री वर्धमानक तथा तन्तुमती के पुत्र थे। ये संभवतः माहिष्मती ( दक्षिण में स्थित मान्धाता नगरी) के निवासी थे और ८०० ई० For Private And Personal Use Only Page #789 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [ १] के लगभग व मान थे। 'अनर्घराघव' सात-अंकों का और भवभूति के महावीरचरित से प्रभावित नाटक है। उसमे ताड़कावध से लेकर रामराज्याभिषेक तक की घटनाएँ वर्णित हैं। कविता प्रौढ़ तथा पांडित्यपूर्ण है, वर्णन प्रशस्य हैं और शब्दराशि विशाल है। इनकी उपमाओं की मौलिकता देखकर ही कहा गया है-'मुरारेस्तृतीयः पन्थाः'। रत्नाकर-काश्मीरी महाकवि रत्नाकर, अमृतभानु के पुत्र और काश्मीर-नरेश जयापीड (८०० ई० ) के सभापण्डित थे। इनके 'हरविजय' महाकाव्य में ५० सर्ग तथा ४३२१ पथ हैं। आकार के कारण ही नहीं, काव्योचित अन्य गुणों के कारण भी यह महाकाव्य संस्कृतवाङमय में विशिष्ट स्थान रखता है। यह महाकाव्य ललित, मधुर, प्रसादोपेत भाषा तथा चित्र, यमक और शेष के चमत्कारों से मंडित है। इस महाकाव्य में शंकर द्वारा अन्धक असुर के वध का वर्णन है । रत्नाकर ने 'शिशुपालवधा को मात करने के लिए इस काव्य का प्रणयन किया था और उनका प्रयास व्यर्थ नहीं हुआ। राजशेखर-ये 'महाराष्ट्रचूड़ामणि' कविवर अकालजलद के प्रपौत्र तथा दुर्दुक और शीलवती के पुत्र थे। ये स्वयं यायावर क्षत्रिय थे और इनकी पत्नी अवन्तिसुन्दरी चौहान, संस्कृत और प्राकृत की प्रकाण्ड विदुषी थीं। राजशेखर महाराष्ट्र, सम्भवतः विदर्भ के रहनेवाले थे और कन्नौज-नरेश महेन्द्रपाल के गुरु थे। अतः इनका काल नवीं शती का उत्तरार्ध तथा दशमी का 'पूर्वार्द्ध माना जाता है। राजशेखर धुरंधर विद्वान थे और अपने को वाल्मीकि तथा भवभूति का अवतार समझते थे। ये भूगोल के बहुत बड़े पण्डित थे परन्तु इनका इस विषय का ग्रन्थ "भुवनकोष' आज अप्राप्य है। ये संस्कृत, प्राकृत; पैशाची तथा अपभ्रंश के दिग्गज विद्वान तथा लेखक थे। इनके चार नाटक उपलब्ध हैं—कर्पूरमंजरी, विद्धशालभंजिका, बालरामायण और बालभारत अथवा प्रचण्डपाण्डव । कर्पूरमंजरी प्राकृत में लिखित एक 'सट्टक' है जिसमें चण्डपाल तथा राजकुमारी कर्पूरमंजरी का विवाह चित्रित किया गया है। विद्धशालभंजिका चार अङ्कों की प्रेमाख्यानात्मक नाटिका है। बालरामायण दश अङ्कों का महानाटक है। बालमहाभारत के दो ही अंक प्राप्त हैं। भाषा-कौशल तथा सुन्दर उक्तियों से युक्त होने पर भी इनके नाटक नाटकीय कला की दृष्टि से उत्कृष्ट नहीं माने जाते। इनका महाकाव्य 'हरविलास' तो आज उपलब्ध नहीं है परन्तु 'काव्यमीमांसा' इनका अलंकारविषयक प्रौढ़ ग्रन्थ है। वत्सराज-कालिंजर-नरेश परमर्दिदेव (१९६३-१२०३ ई०) के मन्त्री वत्सराज के छह रूपक उपलब्ध हुए हैं-१. किरातार्जुनीय-ज्यायोग, २. कपूरचरित, ३. हास्यचूड़ामणि, ४. रुक्मिणीहरण, ५. त्रिपुरदाह और ६. समुद्रमंथन । किरातार्जुनीय-व्यायोग की रचना भारवि के किरातार्जुनीय के आधार पर हुई है। कपुरचरित 'भाण' में घतकर कपूर ने स्वरोचक अनुभव -वर्णित किये हैं। हास्यचूडामणि एकांकी प्रहसन है। रुक्मिणीहरण चतुरात्मक 'ईहामृग है। त्रिपुरदाह चतुरंकी 'डिम' है जिसमें शिव द्वारा त्रिपुर असुर के पुर के विध्वंस का वर्णन है। समुद्रमंथन भ्यंकी 'समवकार' है जिसमें समुद्रमंथन तथा लक्ष्मी विष्णु के विवाह का चित्रण है। भास के पश्चात् वत्सराज ने ही अनेक प्रकार के रूपकों की रचना की है। इनके लवा. कार नाटकों की शैली सरल और सशक्त है। उनमें नाटकीय क्रियाशीलता और रोचकता प्रचुर है। बाल्मीकि कहते हैं वाल्मीकि पहले एक दस्यु थे परन्तु सत्संगति से ऋषि बन गये। वे भारत के आदिकवि माने जाते हैं और रामायण आदिकाव्य । श्रद्धालु लोगों का विश्वास है कि रामायण की रचना श्री राम के आविर्भाव से सहस्रों वर्ष पूर्व की जा चुकी थी परन्तु आधुनिक विद्वान इसे आज से प्रायः ढाई सहस्र वर्ष पूर्व की कृति बताते हैं। अधिकतर विद्वान इसके उत्तरकाण्ड को पूर्णतः और बालकाण्ड को अंशतः प्रक्षिप्त मानते हैं। रामायण में २४०० श्लोक हैं जिनमें बहुलता अनुष्टुभ् छन्द की हैं। उत्तरी भारत, बंगाल तथा काश्मीर में रामायण के For Private And Personal Use Only Page #790 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [ ७५२ ] जो संस्करण प्राप्त होते हैं उनमें पर्याप्त पाठभेद हैं । सच्चा कवि और उत्तम महाकाव्य कैसा होना चाहिए, यह हमें वाल्मीकि रामायण से ही विदित होता है । सामान्य मनुष्य गृहस्थ बनता है परन्तु गार्हस्थ्य को सफल बनाना कितना दुष्कर है, इसे गृहस्थ ही जानते हैं । इसी उच्च उद्देश्य की सिद्धि का मार्ग वाल्मीकि ने दशरथ, राम, लक्ष्मण, सीता, भरत आदि के दिव्य चरित्रों से प्रशस्त किया है। किसी विद्वान का यह विचार अत्युक्तियुक्त नहीं है कि संसार भर के साहित्य में सदाचार और काव्यत्व का जितना सुन्दर मिश्रण वाल्मीकि रामायण में हुआ है, उतना अन्यत्र कहीं नहीं । रामायण करुणरस-प्रधान महाकाव्य है । इसमें बाह्य प्रकृति तथा मानवीय प्रकृति का अत्यन्त मनोरम चित्रण हुआ है। यह प्राचीन भारत की सभ्यता का उज्ज्वल दर्पण है । यही कारण है कि इसके उदात्त आदर्शों तथा पवित्र कथा के आधार पर परवर्त्ती असंख्य कवियों ने अपने काव्य, नाटक, चम्पू आदि की रचना की तथा इस पर तिलक, शृङ्गारतिलक, रामायणकूट, वाल्मीकितात्पर्यतरणि, विवेकतिलक आदि अनेक टीकाएँ लिखकर विद्वानों ने अपने प्रयास को सफल समझा । विशाखदत्त - इनके पितामहं बटेश्वरदन्त अथवा वत्सराज कहीं के सामन्त थे और पिता भास्करदन्त वा पृथु ने महाराज- पदवी प्राप्त की थी। विशाखदत्त राजनीति, दर्शन और ज्योतिष के विशेषज्ञ थे। ये वैदिकधर्मावलम्बी थे परन्तु साम्प्रदायिक कट्टरता से रहित थे। इन्होंने अपने प्रख्यात राजनीतिक तथा कूटनीतिक नाटक 'मुद्राराक्षस' की रचना छठी शती ईसवी के उत्तरार्द्ध में की थी। नाटक में चाणक्य का समग्र उद्योग इसी उद्देश्य की सिद्धि के लिए है कि राक्षस को चन्द्रगुप्त मौर्य का प्रधान मन्त्री बना दिया जाय और अन्ततः वे उसमें सफल होते हैं । राजनीतिक चालों तथा चरित्र चित्रण की दृष्टि से नाटक विशेष महत्वपूर्ण है। विशाखदत्त की दूसरी रचना ‘देवीचन्द्रगुप्त' के कुछ ही उद्धरण अन्य कृतियों में प्राप्त हुए हैं। उन्हीं के आधार ' पर चन्द्रगुप्त के अग्रज रामगुप्त की सत्ता ऐतिहासिकों ने स्वीकृत की है। विष्णुशर्मा - महिलारोप्य के शासक अमरशक्ति अपने मूर्ख राजकुमारों को चतुर बनाने के लिए योग्य शिक्षक की खोज में थे। इस कार्य को विष्णुशर्मा नामक ब्राह्मण ने पंचतंत्र की रचना द्वारा छह मास में ही पूर्ण कर दिया। 'पंचतंत्र' का रचना काल ३०० ई० के लगभग माना जाता है। छठी शती में इसका पहलवी भाषा में अनुवाद भी हो गया था। कदाचित् आरम्भ में इसके बारह भाग थे परन्तु वर्तमान में इसके पाँच भाग हैं - मित्रभेद, मित्र-सम्प्राप्ति,. काकोलूकीय, लब्धप्रणाश, अपरीक्षितकारक। इस कथा-ग्रन्थ में कथाएँ गद्य में हैं और शिक्षामंत्र पद्यों में । एक-एक मुख्य कथा के अन्तर्गत अनेक गौण कथाएँ दी गई हैं । - सदाचार, Doraeर और नीति के शिक्षार्थं यह कृति अत्यन्त उपयोगी है और यही कारण है कि अनेक विदेशी भाषाओं तक में अनूदित हो चुकी है। कटाध्वरि-ये मद्रास प्रान्त के श्रीवैष्णव थे । इन्होंने अपने 'विश्वगुणादर्शचम्पू' में मद्रास में अंग्रेजों के दुराचार का भी वर्णन किया है जिससे ये सत्रहवीं शती के मध्य के प्रतीत होते हैं । इनका यशोविस्तारक काव्य तो “लक्ष्मीसहस्र" है जिसको एक सहस्र ललित व भावपूर्णं पद्यों की रचना कहते हैं, इन्होंने एक ही रात में कर दी थी । काव्य में श्लेष तथा अन्यालंकारों की छटा अवलोकनीय है । इस अत्यन्त सरस व उत्प्रेक्षाबहुल रचना से कवि अमर हो गया है । व्यास - व्यासजी का पूरा नाम कृष्णद्वैपायन व्यास था । ये पराशर और सत्यवती के पुत्र थे । सुनते हैं, रंग से कृष्ण होने के कारण कृष्ण, द्वीप में उत्पन्न होने के कारण द्वैपायन तथा वैदिक मन्त्रों को वर्तमान व्यवस्थित रूप देने के कारण ये व्यास कहलाए । भारतीय परंपरा इन्हें महाभारत, १८ पुराणों तथा ब्रह्मसूत्रों का कर्ता मानती है, परन्तु आधुनिक विद्वान् महाभारत को न एककर्तृक मानते हैं न एककालीन । उनका मत है कि महाभारत के विभिन्न अंशों की रचना अनेक विद्वानों द्वारा समय-समय पर होती रही और उसे वर्तमान रूप ३२० ई० पू० तथा ५० ई० के मध्य में किसी समय प्राप्त हुआ । For Private And Personal Use Only Page #791 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [ ७५३ ] अनुसन्धायकों का मत है कि पहले महाभारत का नाम 'जय' था और उसमें ८८०० श्लोक थे । पीछे इसके परिवर्द्धित रूप का नाम 'भारत' पड़ा और इलोकसंख्या २४००० हो गई । अन्त में जब सौतिने अनेक प्रसंग और बढ़ाए तब इसका नाम 'महाभारत' हो गया और श्लोकसंख्या एक लाख के लगभग तक जा पहुँची । अस्तु, महाभारत संसार का बृहत्तम काव्य माना जाता है परन्तु इसका वास्तविक महत्व बृहदाकारता के कारण न होकर एक विश्वकोश-सा होने के कारण है । स्वयं महाभारत में लिखा है कि यह सर्वप्रधान काव्य, समग्र दर्शन-सार, स्मृति, इतिहास, चरित्र चित्रण की खान तथा पंचम वेद है। यह भी कहा गया है कि धर्म चार्थे च कामे च मोक्षे च भरतर्षभ । यदिहास्ति तदन्यत्र यन्नेहास्ति न तत् क्वचित् ॥ भाव यह कि धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष-विषयक जितनी जानकारी इसमें है उतनी अन्यत्र नहीं । शंकराचार्य - स्वामी शंकराचार्य ( ७८८-८२० ई०) दक्षिण के नाम्बूद्री ब्राह्मण थे। ये प्रकाण्ड पण्डित और दिग्गज दार्शनिक थे। इन्होंने अल्पावस्था में ही संन्यास लेकर ब्राह्मण धर्म के पुनरुत्थान में महनीय सहयोग दिया। आज इनकी विद्वत्ता की संसार मुक्तकण्ठ से प्रशंसा करता है । इनके नाम से बहुत से ग्रन्थ प्रचलित हैं परन्तु निम्नलिखित ग्रन्थों के शंकर-कृत होने में सन्देह नहीं किया जाता - ब्रह्मसूत्र भाष्य, गीता भाष्य, उपनिषदों के भाष्य, उपदेशसाहस्री, आत्मबोध, हस्तामलक । यद्यपि इनकी विश्वव्यापी कीर्ति के आधार इनके दार्शनिक ग्रन्थ ही हैं तथापि अनेक देवी-देवताओं के जो स्तोत्र इन्होंने लिखे हैं वे अत्यन्त सरस हैं और पाठकों को भक्तिरस में तन्मय करने में सर्वथा समर्थ है। इनकी कविता का परम माधुर्य 'आनन्दलहरी' में लिया जा सकता है जो भाव, भाषा, रस, अलंकार, साहित्य, तंत्र आदि सभी दृष्टियों से अपूर्व है । शक्तिभद्र - मालाबार जनश्रुति शक्तिभद्र को स्वामी शंकराचार्य ( ७८८-८२० ई० ) का शिष्य बताती है, अत: इन्हें नवीं शती के प्रारम्भ का कवि माना जा सकता है। इनका 'आश्चर्यचूडामणि' नाटक उत्तररामचरित के बाद सर्वोत्तम रामनाटक समझा जाता है। नाटक अद्भुत रस-प्रधान है और सरल, आडंबररहित भाषा में लिखा गया है । शिवस्वामी - काश्मीरी महाकवि शिवस्वामी आनन्दवर्धन तथा रत्नाकर के समकालीन थे और विख्यात काश्मीरनरेश अवन्तिवर्मा ( ८५५-८८४ ई० ) के शासनकाल में विद्यमान थे । शैव होते हुए भी इन्होंने बौद्धाचार्य चन्द्रभित्र को प्रेरणा से बौद्ध साहित्य में प्रसिद्ध कफ्फिण के आख्यान के आधार पर एक सुन्दर महाकाव्य 'कफ्फिण्याभ्युदयम्' की रचना की। इसमें दाक्षिणात्य नरेश कफ्फिण द्वारा श्रावस्ती-नरेश प्रसेनजित् की पराजय तथा अन्त में कफ्फिण के बुद्ध की शरण में जाने का उल्लेख है। शिवस्वामी ने अपने को 'यमककवि' कहा है और उनके काव्य में यमक, उपमा, उत्प्रेक्षा तथा इलेष की अद्भुत छटा द्रष्टव्य है । निस्सन्देह यह काव्य संस्कृत वाङ्मय का एक उज्ज्वल रत्न है । शूद्रक - महाराज विक्रमादित्य के समान ही महाराज शूद्रक के विषय में अनेक दन्तकथाएँ भारत में प्रचलित हैं । इनका उल्लेख कादम्बरी, कथासरित्सागर आदि अनेक ग्रन्थों में हुआ है । 'मृच्छकटिक' में इन्होंने अपना जो परिचय दिया है उससे ये शिवजी के कृपापात्र, अश्वमेधयाजी, युद्धकुशल, वेदज्ञ, हाथियों से बाहुयुद्ध करने के प्रेमी विदित होते हैं । शतायु हो जाने पर पुत्र को सिंहासनासीन कर इन्होंने अग्निप्रवेश द्वारा प्राणत्याग किया था । इन्होंने 'मृच्छकटिक' की रचना पाँचवीं शती में की थी। इस 'प्रकरण' के दस अंकों में उज्जयिनी की प्रख्यात वेश्या वसन्तसेना और उदारमना सेठ चारुदत्त के प्रेम का सुन्दर वर्णन જઃ For Private And Personal Use Only Page #792 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [७५४ ] - किया गया है। कृति का प्रेमि प्रेमविषयक अंश भास-कृत 'दरिद्र चारुदत्त' से बहुत अधिक प्रभावित है परन्तु राजनीतिक भाग कवि की निजी सम्पदा है। 'मृच्छकटिक' की सबसे बड़ी विशेषता उसकी प्राकृत भाषा है। जितनी प्राकृत इस नाटक में प्रयुक्त हुई है उतनी अन्य किसी में भी नहीं । नाटक में पात्रों का चरित्र तथा समाज का चित्र सरल शैली में सम्यक् चित्रित किया गया है । नाटक का प्रधान रस शृङ्गार है। श्रीहर्ष-श्रीहर्ष का जन्म हीर पण्डित और मामल्लदेवी के गृह में हुआ था। हीर पण्डित कान्यकुब्जेश्वर जयचंद्र के पिता विजयचंद्र की सभा के प्रधान पण्डित थे परन्तु संयोगवश मैथिल नैयायिक उदयनाचार्य से शास्त्रार्थ में पराजित हो गये थे। मरणासन्न हीर ने पुत्र को कहा-- 'यदि तुम सुपुत्र हो तो मेरे विजेता को पराजित करना' श्रीहर्ष ने गंगातट पर विन्तामणि मंत्र का वर्ष-भर जप किया और सफलमनोरथ हुए। श्रीहर्ष जयचंद्र की सभा के रत्न तो थे ही, सम्भवतः विजयचन्द्र की सभा को भी सुभूषित करते रहे होंगे, क्योंकि उन्होंने 'विजयप्रशस्ति' उन्हीं के नाम पर रची है। ये रससिद्ध कवि ही न थे, प्रकाण्ड पण्डित भी थे, जैसा कि इनके 'खण्डनखण्डखाद्य' से सिद्ध होता है। इनका सिद्ध योगी होना नैषधकान्य के अन्त्य श्लोक से सिद्ध होता है-- यः साक्षात् कुरुते समाधिषु परं ब्रह्म प्रमोदार्णवम् । इनका आविर्भावकाल बारहवीं शती का उत्तरार्द्ध है। श्रीहर्ष ने अपनी कृतियों का उल्लेख 'नैषध' में इस कम से किया है-१) स्थैर्यविचारणप्रकरण (दर्शन), (२) विजयप्रशस्ति, (३) खण्डनखण्ड खाध (वेदान्त), (४) गौडोर्वीशकुलप्रशस्ति, (५) अर्णवव गन, (६) छिन्दप्रशस्ति, (७) शिवशक्तिसिद्धि, (८) नवसाहसांकचरित चम्पू, (९) नैष. धीयचरित । सुविख्यात 'नैषधीय चरित' में २२ सर्ग हैं और २८३० श्लोक । इसमें नल-दमयन्ती की कथा का सरस तथा सुविस्तृत वर्णन है। नैषध में वैदग्ध्य तथा पाण्डित्य का अद्भुत मिश्रण है । वक्रोक्ति के प्रयोग में श्रीहर्ष विशेष कुशल हैं। भाव-पक्ष तथा कला-पक्ष दोनों की अभिव्यक्ति नैषधकाव्य में मार्मिक ढंग से की गई है। किसी आलोचक का यह पद्य नैषध के महाभाष्य का सच्चा निदर्शक है तावद्धा भारवे ति यावन्माघस्य नोदयः । उदिते नैषधे काव्ये क माघः क च भारविः ॥ सुबन्धु-अविदित-वृत्त सुबन्धु अपने एकमात्र गध काव्य 'वासवदत्ता' से अक्षय कीर्ति के भागी बने हैं। इस काव्य की कथा का वासवदत्ता की प्राचीन कथा से राई-रत्ती मात्र का भी सम्बन्ध नहीं है। पूर्ण कथानक कवि के उर्वर मस्तिष्क की कल्पना है। अनुमानतः इसकी रचना सातवीं शती के प्रथम चरण में की गई थी। अति संक्षेप में कथा यह है कि राजकुमार चिन्तामणि स्वप्न में एक सुन्दर कन्या को देखकर मुग्ध हो जाता है और जगने पर मित्र मकरन्द के साथ उसकी खोज में निकल पड़ता है। उधर कुसुमपुर की राजकुमारी वासवदत्ता भी स्वप्न में एक सुरूप युवक को देखकर स्वयंवर में आये युवकों का विचार त्याग देती है। कई विघ्न-बाधाओं के अनन्तर प्रेमियों का सुखद मिलन हो जाता है। 'वासवदत्ता' एक वर्णनबहुल आख्यायिका है जिसमें उपमा, उत्प्रेक्षा और विरोषाभास की बहुलता है परन्तु सभंग या अभंग श्लेष तो प्रतिपद पाया जाता है जहाँ कवि की कल्पना प्रशंसनीय है, वहाँ श्लेष की 'अति' तथा तज्जनित दुरूहता अरुचिकर हो गई है। सोड्ढल-ये गुजरात के लाटप्रदेश के निवासी थे और कोकगाधीश मुम्मुणिराज (१०६० ई०) के आश्रित थे। इनका 'उदयसुन्दरीकथा' चम्पूकाव्य है जिसमें प्रतिष्ठान-नरेश मलयवाहन और नागनृप शिखण्डतिलक की पुत्री उदयसुन्दरी के विवाह का वर्णन है। कृति बाण के हर्षचरित For Private And Personal Use Only Page #793 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [ ७५५ ] से प्रभावित है और उसमें भाषा का माधुर्य और लालित्य प्रशंसनीय है। लेखक कमनीय कल्पनाएँ करने में कुशल है। सोमदेव सूरि-ये जैनकवि राष्ट्रकूटनरेश कृष्णराजदेव के समकालीन थे। ९५८ ई० में रचित इनके 'यशस्तिलकचम्पू' में अवन्ति-नरेश यशोधर की कथा का वर्णन है। रानी की सकपट चालों से राजा की विरक्ति, वध तथा पुनर्जन्म की घटनाओं का रोचक उल्लेख है । जैनधर्म के पालन के महत्व को सम्यक् व्यक्त किया गया है। इसमें अनेक अशात काव्यकारों और कृतियों का उल्लेख है, अतएव साहित्य के इतिहास के विचार से भी कृति महत्त्वपूर्ण है। हरिचन्द- जैनकवियों में हरिचन्द का नाम विशेष उल्लेख्य है। ये कायस्थ अद्रिदेव तथा रथ्यादेवी के तनुज थे। सम्भवतः इनका समय ग्यारहवीं शती है। इनके 'धर्मशाभ्युदय' नामक महाकाव्य में पन्द्रहवें तीर्थकर धर्मनाथजी का चरित्र वर्णित है। वैदर्भी रीति में उपनिबद्ध इस काव्य की भाषा अतिसुन्दर और अलंकृत है। जैनसाहित्य में २१ सर्गों के इस महाकाव्य का वही स्थान है जो नैषध और शिशुपालवध का ब्राह्मण-साहित्य में। हर्षवर्धन-ये थानेसर के महाराज प्रभाकरवर्द्धन के द्वितीय पुत्र थे और अग्रज राज्यवर्धन के पश्चात् सिंहासनासीन हुए थे। इन्होंने ६०६-६४८ तक शासन किया था। बाणभट्ट, मयूरभट्ट और दिवाकर इन्हीं के सभापंडित थे। इनके तीन रूपक मिलते हैं--रत्नावली, प्रियदर्शिका और नागानन्द । प्रथम दो संस्कृत की प्राचीनतम नाटिकाएँ हैं और वत्सराज उदयन की प्रणयकथाओं के आधार पर प्रणीत हैं । नागानन्द का आधार एक बौद्ध कथानक है जिसमें नागों को गरुड़ से बचाने के लिए जीमूतवाहन आत्मसमर्पण कर देता है। इस उच्चादर्श के कारण नागानन्द विद्वत्समाज में विशेष सम्मानित है। हेमचन्द्र-प्रसिद्ध जैनमुनि हेमचन्द्र का जन्म ढंदुक में १०८८ ई० में हुआ। इनके पिता का नाम छछिगश्रेणी और माता का पाहिनी था। इनकी माता ने इन्हें पाँच वर्ष के वय में ही देवेन्द्र सूरि को सौंप दिया और ये विद्याध्ययन में संलग्न हो गये। ये संस्कृत और प्राकृत वाङमय के विभिज्ञ विभागों में ऐसे निष्णात हो गये कि 'कलिकालसर्वज्ञ' कहाने लगे। इनके संस्कृत-प्राकृत ग्रन्थों की पक्तिसंख्या साढ़े तीन करोड़ है। ये गुजराज में राजा जयसिंह और कुमारपाल की सभा में रहे थे और इनकी प्रेरणा से जैनधर्म राज्यधर्म बन गया था। इन्होंने अनशन-समाधि से ११७३ ई० में प्राणत्याग किया। इनके 'कुमारपालचरित' में २८ सर्ग हैपहले २० संस्कृत में और अन्तिम ८ प्राकृत में। 'त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित' और 'स्थविरावलीचरित' में जैन सन्तों की जीवनियाँ हैं। कुछ अन्य कृतियाँ ये हैं--काव्यानुशासन, छन्दोऽनुशासन, देशीनाममाला, अभिधानचिन्तामणि, अनेकार्थसंग्रह, निघंटुशेष, शब्दानुशासन, योगशाला For Private And Personal Use Only Page #794 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir षष्ठ परिशिष्ट न्याय संस्कृत का शब्द 'न्याय' प्रक्रिया, रीति, नियम, योजना, औचित्य, विधि, समता, धार्मिकता, अभियोग, निर्णय, नीति, तर्क आदि अनेक अर्थों में प्रयुक्त होता है। प्रस्तुत प्रसंग में 'न्याय' से अभिप्राय उन आमाणकों या लोकोक्तियों का है जिनका प्रयोग वर्ण्य-विषय के स्पष्टीकरण के लिए दृष्टान्त-रूप में किया जाता है। नीचे कुछ ऐसे न्यायों के अर्थ और प्रयोग अकारादि क्रम से प्रस्तुत किये जा रहे हैं जिनका प्रयोग प्रायः संस्कृत ग्रन्थों में और यदा-कदा हिन्दी रचनाओं में भी दृष्टिगोचर होता है। आशा है, पाठक इनका आशय हृदयंगम कर इनके उचित प्रयोग से स्व-निबन्धों तथा संवादों को रोचक तथा विशद बनाने में समर्थ हो सकेंगे। १. अजातपुन्ननामोत्कीर्तनन्याय-इस न्याय का अर्थ है, पुत्रजन्म से पहले ही उसका नाम घोषित करने की कहावत । बच्चे की उत्पत्ति से पूर्व तो यह जानना भी दुष्कर होता है कि पुत्र होगा वा पुत्री। इसलिए पहले ही उसका नाम बताते फिरना बहुत बड़ी मूर्खता माना जाता है। इसी प्रकार असिद्ध कार्य से सम्बन्धित भावी बातों की घोषणा करना अन्याय्य होता है। यथा-'यद्यपीदानीं यावत् परीक्षा परिणामोऽपि न घोषितस्तथापि रामेणाग्रिमकक्षायाः पुस्तकानि क्रीतानि । अजातपुत्रनामोत्कीर्तनं ह्येतत् ।' २. अन्धगजन्याय-अन्धगजन्याय अर्थात् अंधों और हाथी का दृष्टान्त । कुछ अंधों के मन में हाथी का आकार-प्रकार जानने की इच्छा उत्पन्न हुई। एक ने उसकी सूंड छुई और समझा कि वह सर्पवत् होता है। दूसरे ने उसकी टाँग टटोली और सोचा कि वह स्तम्भ-समान होता है। इसी प्रकार जहाँ वस्तु के आंशिक ज्ञान से उसके पूर्ण स्वरूप का मिथ्या अनुमान किया जाता है, वहाँ यह न्याय व्यवहृत होता है। जैसे तदेतदद्वयं ब्रह्म निर्विकारं कुबुद्धिभिः । जात्यन्धगजदृष्ट्येव कोटिश: परिकल्प्यते ।। (नैष्कर्म्यसिद्धिः २१९३) ३. अन्धचटकन्याय-अन्धचटकन्याय अर्थात् प्रशाचक्षु द्वारा चिड़िया के पकड़े जाने की कहावत । यह न्याय घुणाक्षरन्याय का पर्याय है। अन्धा वैसे तो किसी चिड़िया को नहीं पकड़ सकता, संयोगवश उसके हाथ आ जाए तो बात दूसरी है। इसी प्रकार आकस्मिक घटनाओं के लिए, इस न्याय का प्रयोग किया जाता है। जैसे---'सम्यग जानामि कृष्णचन्द्र, नासौ मेधावी न च परिश्रमी, यत्तु स उच्चपदं प्राप्तवान् तत्तु अन्धचटकन्यायेनैव ।' १. अन्धदर्पणन्याय-इस न्याय का अर्थ है, अन्धे को दर्पण दिखाने की कहावत । दर्पण चक्षुष्मान् के लिए ही उपयोगी है, प्रज्ञाचक्षु के लिए नहीं। किसी के लिए वस्तुविशेष की व्यर्थता सूचित करने के लिए यह न्याय प्रयुक्त किया जाता है । यथा यस्य नास्ति स्वयं प्रज्ञा शास्त्रं तस्य करोति किम् । लोचनाभ्यां विहीनस्य दर्पणः किं . करिष्यति ॥ (हितोपदेश ३।११५) १. अन्धपरम्परान्याय-अन्धपरम्परान्याय अर्थात् अन्धे के पीछे अन्धों के चलने की कहावत । इस न्याय का प्रयोग वहाँ किया जाता है जहाँ सामान्य जन अग्रगामी का अनुगमन बिना सोचे-विचारे ही करने लगते हैं और परिणाम-रूप में दुःख उठाते हैं। हिन्दी के 'भेड़िया-धंसान' For Private And Personal Use Only Page #795 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [ ५७ ] तथा 'भेडचाल' मुहावरे इसी के समानार्थक हैं । उदाहरण - 'विरलविरला एव जना जगति सविवेकमाचरन्ति प्रायस्त्वन्ध परम्परैवावलोक्यते ।' ६. अरण्यरोदनन्याय- उक्त न्याय का अर्थ है, निर्जन में रोने की कहावत । ग्राम, नगर आदि में रोनेवाले व्यक्ति से उसका कष्ट पूछा जाता है और उसे नष्ट करने का उद्योग भी किया जाता है । परन्तु सुनसान स्थान में रोना तो सर्वथा व्यर्थ है । इसी प्रकार किसी व्यर्थ कार्य के लिए या किसी क्रूर के समक्ष प्रार्थना के समय पर यह न्याय होता है । यथा - ' अरण्यरोदनमेव धनाढयेभ्यः साहाय्ययाचनं प्रायशो भवति ।' ७. अरुन्धतीप्रदर्शन न्याय - अरुन्धतीप्रदर्शन न्याय अर्थात् अरुन्धती नक्षत्र दिखाने का न्याय । इसकी व्याख्या स्वामी शंकराचार्य ने इस प्रकार की है - 'अरुन्धतीं दिदर्शयिषुस्तत्समीपस्थां स्थलांतर मुख्य प्रथममरुन्धतीति ग्राहयित्वा तां प्रत्याख्याय पश्चादरुन्धतीमेव ग्राहयति ।" अर्थात् किसी को अरुन्धती दिखाने का इच्छुक व्यक्ति पहले उसके समीपवर्ती किसी बड़े नक्षत्र कोही अरुन्धती बताता है और उसके बाद वास्तविक अरुन्धती को दिखाता है जिसका प्रकाश मन्द होता है । इस प्रकार जहाँ किसी सूक्ष्म वस्तु के स्पष्टीकरणार्थ पहले किसी स्थूल वस्तु को बताकर निषेध किया जाता है, वहाँ 'अरुन्धतीनक्षत्र न्याय' का प्रयोग होता है । यथा - ' अयमेव सूर्यो देव इति पूर्वमुद्दिश्य तत्पश्चात् - वास्तविको देवस्तदन्तर्वत्तति अरुन्धती - प्रदर्शनन्यायेन गुरुः शिष्यं ज्ञापयति ।" ८. अशोकवनिकान्याय - अशोकवनिकान्याय अर्थात् अशोक-नामक वृक्षों की वाटिका का न्याय । रावण ने अपहृत सीता को अशोकवाटिका में रखा था परन्तु यह कहना कठिन है कि अन्यत्र कहीं न रखकर वहीं क्यों रखा ? इसी प्रकार जहाँ किसी कार्य की निष्पत्ति के अनेक समान उपायों में से किसी एक का प्रयोग किया जाए, परन्तु यह न बताया जा सके कि अन्यों को छोड़ उसी को क्यों प्रयुक्त किया गया है, वहाँ 'अशोकवनिकान्याय' व्यवहृत होता है। जैसे— ‘प्रायो निर्विवेकाः स्वामिनः स्वसेवकान् अशोकवनिकान्यायेन विविधकार्येषु प्रवर्तयन्ति ।' ३. अश्मलोष्टन्याय -- अश्मलोष्टन्याय अर्थात् पत्थर और ढेले का न्याय । जिस प्रकार मिट्टी का ढेला रूई से कठोर होता है और पत्थर से कोमल, उसी प्रकार कोई मनुष्य अपने से छोटों की अपेक्षा तो महान् होता है और बड़ों की अपेक्षा क्षुद्र । उदाहरण - 'अस्मिन् संसारे सर्वं सापेक्षमश्मलोष्टवत, न हि किमपि अत्यन्तमुत्कृष्टमपकृष्टं वा कथयितुं पार्यते ।' १०. अहिकुण्डलन्याय - अहिकुण्डलन्याय अर्थात् साँप की कुण्डलाकार स्थिति का न्याय । साँप स्वभावतः कुण्डली मार कर बैठता है, इसके लिए उसे प्रयास नहीं करना पड़ता। इसी प्रकार जहाँ किसी पदार्थ के स्वाभाविक धर्म का उल्लेख किया जाता है, वहाँ इस न्याय का प्रयोग होता है । जैसे- 'अहिकुण्डलवत् स्वाभाविकं हि कवेः काव्यं न हि तत्र तस्य महाप्रयासस्यापेक्षा ।' ११. आकाश मुष्टिहननन्याय - इस न्याय का शब्दार्थ है आकाश को मुक्के से पीटने की कहावत । जैसे आकाश को मुक्कों से पीटना असंभव है, वैसे ही किसी को असंभव कार्य करते देख इस उक्ति का प्रयोग किया जाता है । यथा - 'आकाशमुष्टिननमेव तवायमुद्योगो प्रधानमन्त्रिपदप्राप्तये । ' १२. आम्र से कपितृतर्पणन्याय- - इस न्याय का अर्थ है, आम सींचने और पितरों के तर्पण करने की कहावत | आशय वही है जो हिन्दी की कहावत 'एक पंथ दो काज' का है। जहाँ एक क्रिया से दो प्रयोजनों की सिद्धि अभीष्ट हो वहाँ इस न्याय का प्रयोग न्याय्य है । यथा - ' संसत्सदस्या सेकपितृतर्पणन्यायेन राष्ट्रसेवामपि कुर्वन्ति, पर्याप्तं वेतनं चापि प्राप्नुवन्ति ।' For Private And Personal Use Only Page #796 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [७५८] - १३. आशामोदकतृप्तन्याय-इस न्याय का अर्थ है--प्रत्याशित लड्डुओं से तृप्त मनुष्य का दृष्टान्त । लड्डू खाने पर ही प्रसन्नता का प्रकाशन उचित है। जो मनुष्य काल्पनिक लड्डुओं से तृप्ति का अनुभव कर मुदित होता है, वह सयाना नहीं माना जाता। सो वास्तविक और काल्प. निक प्रसन्नता में भेद करना ही समीचीन है। जैसे-को नाम व्यवहारपटुर्मानवो जगत्याशामोदकैस्तृप्तो दृश्यते। १४. इषुकारन्याय-इस न्याय का अर्थ है, बाण बनानेवाले का दृष्टान्त । यह न्याय महाभारत के शान्तिपर्व के १७८३ अध्याय के निम्नलिखित श्लोक पर आधृत है-'इषुकारो नरः कश्चिदिषावासक्तमानसः । समीपेनापि गच्छन्तं राजानं नावबुद्धवान् ।' भाव यह कि एक बाणनिर्माता वाणनिर्माण में इतना निमग्न था कि वह पास से जाते हुए राजा को भी न देख सका। इसी प्रकार की एकाग्रचित्तता के लिए यह न्याय व्यवहृत होता है। यथा-'विद्याव्रतः स्वग्रन्थाध्ययन इत्थं निमग्न आसीत् यदिषुकारन्यायेन कक्षायामागतमध्यापकमपि न ज्ञातवान् ।' १६. इषुवेगक्षयन्याय :-इस न्याय का अर्थ है-बाणवेग के नाश का दृष्टान्त। धनुष से फेंके हुए बाण की गति क्रमशः क्षीण होती जाती है और अन्ततः समाप्त हो जाती हैं। इसी प्रकार जहाँ किसी पदार्थ में कारणवशात् जात-क्रिया आदि का क्रमशः हास और अन्त में विनाश हो जाता है, वहाँ यह न्याय प्रयुक्त होता है, यथा--'इयं सृष्टिरिषुवेगक्षयन्यायेन कालेन स्वयमेव प्रलयमुपैति।' १६. उत्खातदंष्ट्रोरगन्याय :-उक्त न्याय का अर्थ है, निर्दन्त किये हुए सर्प का दृष्टान्त । दाँत उखाड़ देने पर सर्प की भयंकरता नष्ट हो जाती है। इसी प्रकार जहाँ किसी घातक पदार्थ के मनिष्टकर अङ्ग का निवारण कर उसको घातकता नष्ट कर दी जाती है, वहाँ इस न्याय का व्यवहार होता है। यथा-'इन्द्रप्रदत्तशक्त्या घटोत्कचं हत्वा कर्णः पाण्डवेभ्य उत्खातदंष्ट्रोरगवत् निरुपद्रवः संजातः।' १७. उष्ट्रलगुडन्याय :-उक्त न्याय का अर्थ है- ऊँट और लकड़ी का दृष्टान्त । ऊँट पर लकड़ी का भार प्रायः लादा जाता है। आवश्यकता के समय उन्हीं में से एक लकड़ी निकालकर ( उष्ट्रचालक ) ऊँट को पीट भी देता है। इसी प्रकार जहाँ विरोधी की युक्ति से ही विरोधी की उक्ति का खंडन कर दिया जाये अथवा वैरियों के उपकरण से ही वैरियों का नाश कर दिया जाये, वहाँ यह न्याय व्यवहृत होता है। जैसे—'शक्तो गृहस्थ उष्ट्रल गुडन्यायेन चौरशस्त्रेणैव चौरं गतासुमकरोत् ।' १८. ऊपरवृष्टिन्याय :-इस न्याय का अर्थ है, बंजर में वर्षा का दृष्टान्त । भूमि उर्वरा हो तो वृष्टि सफल होती है। ऊषर में बरसना न बरसना बराबर है। इसी प्रकार जहाँ कोई कार्य सर्वथा बेकार हो वहाँ यह न्याय प्रयुक्त होता है । यथा-'इमाः सुधास्यन्दिन्यः सूक्तयोऽरसिकेभ्य कपरवृष्टिवन्निष्फलाः।' १६. एकवृन्तगतफलद्वयन्याय :-उक्त न्याय का अर्थ है, एक डंठल पर लगे दो फलों की उक्ति। जैसे एक डंठल पर कभी-कभी दो भी फल लग जाते हैं, वैसे ही जब श्लेष आदि के बल से कोई शब्द दो अर्थ देता है या एक क्रिया फलयुग्म की साधिका होती है, तब यह न्याय व्यवहृत होता है। यथा- एकवृन्तगतफलद्वयन्यायेन देवदत्त आङ्गलदेशमप्यपश्यद् भारतीयबालचराणां प्रतिनिधित्वमपि चाकरोत् ॥' २०. कदंबकोरक(गोलक)न्याय :-कदंबकोरकन्याय अर्थात् कदंब की कलियों का न्याय । कहा जाता है कि कदंब की सब कलियाँ एक साथ विकसित हो उठती हैं। इसी प्रकार जहाँ For Private And Personal Use Only Page #797 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [ ७५ ] कुछ व्यक्ति एकदम उठ खड़े हों या सब लोग एक साथ ही कार्य में जुट जायँ वहाँ इस न्याय का व्यवहार किया जाता है । यथा-' - श्रीकृष्णचन्द्रमवलोक्य कदम्बकोरकन्यायेन प्रहृष्टा बभूवुः पाण्डवाः ।' २१. कफोणिगुडन्याय : – उक्त न्याय का शब्दार्थ है कोहनी और गुड़ की कहावत । यदि किसी की कोहनी पर कुछ गुड़ लगा दिया जाय और उसे जिह्वा से चाटने को कहा जाय तो वह अपने उद्योग में कदापि सफल न होने के कारण उपहासास्पद बनेगा । इसी प्रकार इस उक्ति का प्रयोग तरसानेवाली परन्तु अलभ्य वस्तु के विषय में होता है । यथा- 'सरोवरे पतितं प्रतिबिम्बं वीक्ष्य कफोणिगुडन्यायेन चन्द्रग्रहणाय प्रयतते शिशुः ।' २२. कम्बलनिर्णेजनन्याय :- अर्थ है- - कम्बल स्वच्छ करने का दृष्टान्त । कई बार मनुष्य कम्बल की मिट्टी झाड़ने के लिए उसे अपने पाँव पर झटकते हैं। इस एक क्रिया के दो फल होते हैं । कम्बल भी स्वच्छ हो जाता है और पाँव भी झड़े जाते हैं । इस प्रकार यह न्याय हिन्दी के 'एक पंथ दो काज' का समानार्थक है । उदाहरण - 'ह्यः सायमहं भ्रमणार्थं नागच्छम्, प्रदर्शनीक्षेत्र एवाभ्रमम् एवं कम्बल निर्णेजनन्यायेन भ्रमणमपि जातं, नवज्ञानञ्चाप्युपलब्धम् ।' १३. करि बृंहिन्याय : - इस न्याय का अर्थ है - हाथी की चिंघाड़ का न्याय प्रश्न होता है, 'चिघाड़' के साथ 'हाथी' शब्द के प्रयोग की आवश्यकता नहीं क्योंकि 'चिग्धाड़' शब्द हाथी की चीख के लिए ही प्रयुक्त होता है। उत्तर यह है कि ऐसे वाक्यों में फालतू प्रतीत होने वाला शब्द विशिष्टता का सूचक होता है। यहाँ 'करि' शब्द मस्त या प्रबल हाथी के लिए व्यवहृत हुआ है। ऐसे ही अवसरों पर जहाँ कोई शब्द व्यर्थ प्रतीत होता हुआ भी विशिष्टतासूचक हो, यह न्याय प्रयुक्त होता है । यथा - 'किं कवेस्तस्य काव्येन किं काण्डेन धनुष्मतः । परस्य हृदये लग्नं न घूर्णयति यच्छिरः । इति । अस्मिन् श्लोके 'कवेः' इति पदं करिबृंहितन्यायेन प्रयुक्तम् । २४. काकतालीयन्याय : - काकतालीयन्याय अर्थात कौए और ताड़ के फल की कहावत । एक कौआ ताड़ के वृक्ष पर बैठा ही था कि एकाएक ऊपर की शाखा से उसका भारी फल टटकर कौए के सिर पर आ लगा जिससे वह मर गया । इस प्रकार की आकस्मिक घटना के लिए यह न्याय प्रयुक्त होता है । यथा - 'अपहृतं ममेदं पुस्तकं काकतालीयन्यायेन पुनरधिगतमापणात् । ' २५. काकदधिघातकन्याय :- इस न्याय का शब्दार्थ है - दही को बिगाड़ने वाले कौओं का दृष्टान्त । आशय यह है कि जब किसी को कौओं से दही की रक्षा करने के लिए कहा जाता है तब वह रक्षक कुत्तों आदि से भी दही को बचाता ही है । इसलिए जहाँ एक वस्तु अनेक का प्रतिनिधित्व करती है, अर्थात् उपलक्षण होती है, वहाँ यह न्याय व्यवहृत होता है । यथा'अश्लीलोऽयं मदनमोहनाख्योपन्यासो नाध्येतव्य इति तातेनोपदिष्टः सुपुत्रोऽन्यानपि कुग्रन्थान्नाधीते काकदधिघातकन्यायेन ।' २६. काकदन्तगवेषणन्याय : – काकदन्तगवेषणन्याय अर्थात् कौए के दाँत की खोज का न्याय । चिड़िया के दूध तथा शश के सींग के समान कौए के दाँत नहीं होते। इसलिए इस न्याय का प्रयोग वहाँ किया जाता है जहाँ कोई किसी नितान्त निरर्थक कार्य के लिए उद्योगशील हो । उदाहरण सामान्येषु सार्वजनिक पुस्तकालयेषु पुरातनग्रन्थरत्नानामन्वेषणं तु काकदन्तगवेषणमेव ।' २७. काकाक्षिगोलकन्याय :- काकाक्षिगोलकन्याय अर्थात् कौए की आँख के डेले का न्याय । जैसे कि कौए के पर्याय 'एकाक्ष:', 'एव दृष्टिः' आदि संस्कृत शब्द से व्यक्त होता है कि लोगों का यह विश्वास रहा है कि कौआ दो आँखें रखता हुआ भी देखता एक ही आँख से है। तात्पर्य यह है कि उसे जिधर देखना होता है, उधर की आँख में उसकी पुतली चली जाती है। इसी For Private And Personal Use Only Page #798 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir । ७६० ] %3 - प्रकार इस न्याय का व्यवहार वहाँ होता है। जहाँ वाक्य के किसी शब्द का अन्वय एक से अधिक तरफ किया जाय अथवा कोई व्यक्ति आवश्यकतानुसार एक से अधिक पक्षों से सम्बन्ध रखे । यथा-'बलिनोद्विषतोर्मध्ये वाचात्मानं समर्पयन् । द्वैधीभावेन वर्तेत काकाक्षिवदलक्षितः॥" (कामन्दकीय नीतिसार : ९।२४) २८. कुल्याप्रणयनन्याय :-शब्दार्थ है-कूलनिर्माण का न्याय। किसान लोग अपने खेतों की सिंचाई के लिए ही नदी-नालों से कूल निकालते हैं। परन्तु प्यास लगने पर उसमें से पानी पी भी लेते हैं। इसी प्रकार जहाँ एक उद्देश्य से किये हुए कार्य से दूसरा कार्य भी सिद्ध कर लिया जाय वहाँ इस न्याय का प्रयोग करते हैं। यथा-'सद्भावेन देशसेवायां रता नेतारः कदाचित् कुल्याप्रणयनन्यायेन संसत्सदस्या अपि जायन्ते ।' २६. कूपमंडूकन्यायः-इस न्याय का अर्थ है कुएँ के मेढक की कहावत। कूएँ का मेढक कूएँ में रहता है, इसलिए कूएँ से विस्तृत या विशाल स्थान का अनुमान नहीं कर सकता। इस न्याय का प्रयोग उस अनुभवहीन व्यक्ति के लिए किया जाता है जिसका पालन-पोषण संकुचित वातावरण में हुआ हो और जो सार्वजनिक जीवन तथा मानव जाति की गतिविधि से अनभिज्ञ हो। यथा-'अद्य खलु देशभक्तोऽपि कूपमंडूक एव मन्यते युगधर्मस्य 'वसुधैव कुटुम्बकम्' इति लक्षणात् ।' ३०. कूपयंत्रघटिकान्यायः-कूपयंत्रघटिकान्याय अर्थात् अरहट की घड़ियों ( लोटों) का न्याय । अरहर की माला के साथ बँधे हुए लोटों को दशा समान नहीं होती। जब कुछ लोटे नीचे पानी से भरते हैं, तभी ऊपर के लोटे रिक्त होते हैं। कुछ पूर्ण लोटे एक ओर से ऊपर को आते हैं तो कुछ रिक्त नीचे को जाते हैं । संसार में मनुष्यों के भाग्य की दशा भी इसी प्रकार भिन्न-भिन्न है। इसी अर्थ में इस न्याय का प्रयोग यों होता है-'कूपयन्त्रघटिका इव अन्योऽन्यमुपतिष्ठन्ते रायः।' ३१. क्षीरनीरन्यायः-इस न्याय का अर्थ हैं-दूध और पानी का दृष्टान्त । जब दूध और पानी परस्पर मिल जाते हैं तब यह जानना दुष्कर होता है कि उसमें दूध या पानी कितना और कहाँ है। इसी प्रकार जब दो या अधिक पदार्थों में घनिष्ठ सम्बन्ध बताना हो तब दूध-पानी की उपमा दी जाती है। यथा-'क्षीरनीरन्यायेन संगतानामेव मित्राणां मैत्री श्रेयस्करी भवति ।' ३२. गगनरोमन्थन्यायः-इस न्याय का अर्थ है, आकाश की जुगाली या पागुर करने का न्याय । यदि कोई पशु नीले आकाश को घास का मैदान मानकर मुँह हिलाता हुआ यह समझने लगे कि घास की जुगाली कर रहा हूँ तो उसका यह उद्योग नितान्त निष्फल होगा। इसी प्रकार के निरर्थक उद्योग के विषय में इस न्याय का प्रयोग होता है। जैसे–'लोकसेवां विना शाश्वतयशोऽभिलाषो ननु गगनरोमन्थ इव ।' ३३. गड्डरिकाप्रवाहन्याय:-इस न्याय का अर्थ है भेड़ियाधसान । यदि भेड़ों के झंड में से एक भेड़ नदी आदि में गिर जाए तो शेष भेड़ें भी रोके नहीं रुकती और नदी में कूद पड़ती हैं । इसी प्रकार जहाँ लोग समझाने पर भी सत्पथ का अनुसरण न करें और अन्धाधुन्ध किसी के पीछे चलते जाएँ, वहाँ यह न्याय प्रयुक्त होता है। जैसे-'न जातु गड्डरिकाप्रवाहं विचरन्ति केसरिणः । ३४. गुडजिबिकान्यायः-उक्त न्याय का अर्थ है, गुड़ को जिह्वा पर लगाने की कहावत । प्रायः बालक कड़वी दवाई प्रसन्नतापूर्वक नहीं पीते। जब उनके हित के लिए उन्हें वह पिलानी अनिवार्य होती है तब बुद्धिमान् मनुष्य पहले उनकी जिह्वा पर गुड़ का लेप कर देते हैं इससे औषध को कड़वाहट लुप्त या न्यून हो जाती है। इसी प्रकार जब किसी मनुष्य को किसी दुष्कर कार्य में प्रवृत्त करना होता है तब कोई प्रलोभन आदि दे दिया जाता है। ऐसे ही अवसर इस न्याय के For Private And Personal Use Only Page #799 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir क प्रयोगार्थ उपयुक्त होते हैं। जैसे- 'न हि लोकाः प्रायशो विना गुडजिह्विकां दुष्करकर्मसु प्रवर्तन्ते ।' ३५. घट्टकुटी प्रभातन्याय :- घट्टकुटी प्रभातन्त्राय अर्थात् चुंगी को चौकी के समीप सबेरा होने का न्याय । चुंगी से बचने के लिए गाड़ीवान आदि रात को उन मार्गों से निकलने का यत्न करते थे जिनसे चुंगी देने से बच जायँ । परतु कभी-कभी दुर्भाग्यवश प्रभात वहाँ हो जाता था जहाँ चुङ्गी की चौकी समीप होती थी। इस प्रकार उनके किये कराये पर पानी फिर जाता था । इस कहावत का प्रयोग ऐसे ही अवसरों पर किया जाता है जिन पर परिहार्य वस्तु अवश्य ही समक्ष आ जाती हैं । यथा - ' कानिचिद् वस्तून्येकाक्येव केतुमहं मध्याह्ने आपण मगच्छन्, परन्तु घट्टकुटी न्यायेन मोहनस्तत्र मां विफलमनोरथं व्यदधात् ।' 1 ३६. घुणाक्षरन्याय :- घुणाक्षरन्याय अर्थात् घुन या किसी अन्य कीड़े द्वारा लकड़ी आदि में कोई अक्षर बन जाने का न्याय । घुन आदि कीड़े लकड़ी, पुस्तक के पन्ने आदि को खाते रहते हैं। कभी-कभी उनके खाने से कोई अक्षर- सा बन जाता है, जिसे देख कौतुक होता है। इसी प्रकार दैवयोग से होने वाली बातों के लिए इस न्याय का व्यवहार होता है। पूर्वोक्त अन्धचटकन्याय का आशय भी इसी प्रकार का है। यथा- प्राचीन हस्तलिखितग्रन्थान्वेषणाय गतेन मया तत्र 'विमाननिर्माणम्' अपि घुणाक्षरन्यायेनाधिगतम् । ' ३७. चन्दनन्याय :- इस न्याय का अर्थ है, चन्दन के तेल की उपमा । यदि शरीर के किसी एक भाग पर चन्दन के तेल की बूँद या चन्दन का लेप लगाया जाए तो उसके आह्लादक अनुभव होता है। इसी प्रकार जहाँ एकत्र स्थित पदार्थ व्यापक प्रभाव व्यवहार होता है यथा - ' चन्दनन्यायेन प्रसरति दिग्दिगन्तं युगा में प्रभाव का समग्र शरीर डाले वहाँ इस न्याय का घुगञ्च महात्मनां कीर्तिः ।' । ३८. चौरापराधान्माण्डव्यनिग्रहन्याय :- इस न्याय का अर्थ है, चोरों के अपराध पर माण्डव्य को दण्ड देने की कहावत । महाभारत के आदिपर्व में ऋषि अणीमाण्डव्य के मौनव्रत से सम्बन्धित तप की कथा आती है। जब वे तपोमग्न थे तब चोर, राई हुई सम्पत्ति के सहित उनके आश्रम में आ छिपे । राज-कर्मचारियों ने चोरों के साथ उन्हें भी पकड़ लिया और लगे सूली पर चढ़ाने । अन्त में मुनिजी छोड़ तो दिये गये परन्तु सूली की अणी के शरीर में रह जाने के कारण अणीमाण्डव्य कहलाने लगे। इसी प्रकार जहाँ 'करे कोई और भरे कोई' का व्यवहार होता है वहाँ उक्त न्याय प्रयुक्त होता है । जैसे- 'कदाचित्तु नृपः कुख्यातदुष्टापराधेन सर्वानेव ग्रामवासिनः चौरापराध माण्डव्य निग्रहन्यायेन दण्डयति ।' ३६. छत्रिन्याय :- उक्त न्याय का अर्थ है, छातेवालों की कहावत । आशय यह है कि यदि किसी जाते हुए जन समुदाय में अनेक लोगों ने छत्रियाँ तानी हुई हों तो हम उन सबको 'छाते वाले लोग' कह देते हैं चाहे सबके पास छत्रियाँ न भी हों। इसी प्रकार जहाँ कुछ एक के सम्बन्ध में कही हुई बात सब पर चरितार्थ कर दी जाती है, वहाँ इस न्याय का व्यवहार उचित होता है। जैसे- 'पुरा देवा राहुं सुरमेव मेनिरे छत्रिन्यायेन ।' - ४०. जामातृशु द्विन्याय :-- इस न्याय का अर्थ है - जमाई कृत पुनरीक्षण की कहावत । मेरुतुंग के 'प्रबन्धचिन्तामणि' में कहानी यों दी गई है कि विक्रमादित्य ने राजकुमारी के लिए वर ढूँढ़ने का काम वररुचि को सौंपा। राजकुमारी ने वररुचि से पढ़ते समय एक दिन उनकी अवज्ञा की थी, इसलिए चतुराई से वररुचि ने एक मूढ़ को राजा का जामाता बना दिया । वररुचि के उपदेशानुसार जामाता चुप ही रहता था परन्तु राजकुमारी ने परीक्षार्थ एक पुस्तक उसे दोहराने को दी । उसने अक्षरों के ऊपर के बिन्दु और मात्राएँ नखच्छेदिनी से मिटा डाली । कुमारी पहचान गई कि यह तो कोई चरवाहा है। तब से मूर्ख से शोधन कार्य कराने के सम्बन्ध For Private And Personal Use Only Page #800 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [ ७६२ ] में यह न्याय चल पड़ा है। यथा--'कैश्चित् अयोग्यजनैः कारितं कार्य जामातृशुद्धिवदुपहासास्पदमेव भवति ।' ४१. तिलतण्डुलन्याय :-उक्त न्याय का अर्थ है-तिल और चावल की उपमा । दूध और पानी भी मिलते हैं तथा तिल और चावल भी। परन्तु प्रथम मेल में दूध-पानी का पार्थक्य अशेय होता है, द्वितीय में स्पष्ट । तिल-चावल की तरह जहाँ मेल तो हो परन्तु दोनों पदार्थ पृथक पृथक् प्रतीत भी होते हों, वहाँ तिलतण्डुलन्याय का प्रयोग किया जाता है । जैसे- 'कथं नाम मौनमेवापण्डितानामशताया आच्छादनं भवितुमर्हति विदुषां समाजे, तिलतण्डुलयोः स्पष्ट पृथग्दर्शनात् ।' ४२. तुलोन्नमनन्याय :-इस न्याय का अर्थ है-तुला को उठाने की कहावत । आशय यह है कि जब तुला का एक पलड़ा हाथ से उठाया जाता है तब दूसरा स्वयमेव नीचे चला जाता हैं। इसी प्रकार जहाँ एक क्रिया से दूसरी क्रिया करना भी अभिप्रेत होता है वहाँ इस न्याय का व्यवहार होता है। जैसे-'आततायिनमायान्तं हन्यादेवाविचारयन, तेन हि तुलोन्नयनन्यायेन दुष्टनाशो जायते देवप्रसादश्च ।' ४३. तृणभक्षणन्याय :-इस न्याय का शब्दार्थ है-तिनका खाने का न्याय। भारत में यह रीति रही है कि जब कोई व्यक्ति किसी के सम्मुख दाँतों से तिनका दबा लेता था तब इसका माशय होता था-पराजय की स्वीकृति । ऐसी दशा में वह अवध्य माना जाता है। हिन्दी में यह उक्ति 'दाँतों तले तिनका दबाना' के रूप में प्रचलित है। पराजय की स्वीकृति के अर्थ में. इमका प्रयोग यों होता है-'आयः पराजिता रिपवः खलु तृणभक्षणन्यायेन निजप्राणानरक्षन् ।' ४४. दग्धेन्धनवह्निन्याय :-इस न्याय का अर्थ हैं-उस अग्नि का दृष्टान्त जो ईधन को जलाकर स्वयं भी बुझ गई हो। इसी प्रकार जहाँ कोई वस्तु अपने कार्य को सम्पन्न कर स्वयं भी समाप्त हो जाए, वहाँ यह न्याय प्रयुक्त होता है। 'जलकतकरेणुन्याय' का आशय भी ऐसा ही है। यथा-'पाण्डवानां कोपः दुर्योधनादोन विनाश्य दग्धेन्धनवह्निन्यायेन शान्तः ।' ४५. देहलीदीपकन्याय :-देहलीदोपकन्याय अर्थात् दहलीज में रखे हुए दीपक का न्याय । कमरे के कोने में रखा हुआ दीपक तो कमरे को ही आलोकित करता है परन्तु दहलीज पर रखा हुआ अन्दर और बाहर दोनों ओर प्रकाश देता है। इसी प्रकार जहाँ कोई शब्द, वाक्यांश या कोई अन्य वस्तु दो तरफ अपना प्रभाव डाल रही हो, वहाँ यह न्याय प्रयुक्त होता है। उदाहरण-'भवति हि पितृतर्पणार्थं श्रपितस्य भोजनस्यातिथ्युपकारकत्वं देहलीदीपकन्यायेन ।' ४६. धान्यपलालन्याय :-इस न्याय का अर्थ हैं-अनाज और भूसे का दृष्टान्त । जिस प्रकार लोग अनाज को ग्रहण कर लेते हैं और भूसे को त्याग देते हैं, उसी प्रकार जहाँ सारसहित वस्तु को लिया तथा निस्सार को छोड़ दिया जाता है, वहाँ इस न्याय का व्यवहार होता है। जैसे'ग्राह्यो बुधैः सारः निस्सारम् अपास्य फल्गु-धान्य-पलालन्यायेन ।' ४७. नष्टाश्वदग्धरथन्याय :-इस न्याय का अर्थ है-लुप्त घोड़ों और जले रथ की कहावत । कहावत की आधार-कथा इस प्रकार है कि दो यात्री अपने अपने रथों में यात्रा करते हुए रात को एक गाँव में ठहरे । दैवयोग से रात को गाँव में आग लगी जिससे एक के घोड़े लुप्त हो गये और दूसरे का रथ जल गया। तब एक के घोड़ों को दूसरे के रथ में जोड़ दिया गया और यात्रा जारी रही। इसी प्रकार यह न्याय वहाँ व्यवहृत होता है जहाँ पारस्परिक लाभ के लिए मिल जुलकर काम किया जाए। जैसे-'अपटुरहमितिहासे तथा पुतस्त्वं तु गणिते, मन्ये नष्टाश्वदग्धरथन्या-- येनैवावा परीक्षामुत्तरिष्यावः।' For Private And Personal Use Only Page #801 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [ ७६३ ] - - - ४८. नासिकाग्रेण कर्णमूलकर्षणन्याय :-इस न्याय का शब्दार्थ है-नक की नोक से कान के अधोभाग को खींचने की कहावत । जैसे नाक के अग्रभाग से कान के निचले भाग को खींचना असम्भव है, वैसे ही अशक्य विषयों में यह न्याय प्रयुक्त किया जाता है। यथा'यो वै विद्यार्थी परिश्रमं विनैव विद्वान् भवितुमिच्छति, स खलु नासिकाग्रेण कर्णमूलं कर्षति ।। ४६. नृपनापितपुत्रन्याय :- नृपनापितपुत्रन्याय अर्थात् राजा और नाई के बेटे की कहावत । कहा जाता है, कि एक राजा ने अपने भाई को राज्य-भर में से सुन्दरतम बालक लाने का आदेश दिया। वह नाई सारे देश में बहुत घूमा-फिरा परन्तु उसे ऐसा कोई बालक दिखाई न दिया जैसा कि राजा चाहता था। विवश होकर वह घर लौट आया। उसका अपना पत्र नसरूप थान सलक्षण परन्तु उसे वही सुन्दरतम प्रतीत हुआ। इसलिए वह उसे ही लेकर राजा के समक्ष जा उपस्थित हुआ। पहले तो राजा, यह समझकर कि यह मेरा उपहास कर रहा है, क्रुद्ध हुआ; परन्तु कुछ सोचने पर उसे इस मनोवैज्ञानिक तथ्य का बोध हुआ कि प्रत्येक व्यक्ति आत्मीय पदार्थ को ही सर्वोत्तम समझता है । अतः इस न्याय का प्रयोग उन्हीं अवसरों पर होता है जिनमें कोई व्यक्ति अपनी बुरी वस्तु को भी अच्छी समझता है। जैसे—'अकाव्यमपि स्वं कुकवयः नृपनापित पुत्रन्यायेन सत्काव्यपदे गणयन्ति ।' २०. पंकाक्षालनन्याय :-पंकप्रक्षालनन्याय अर्थात् कीचड़ धोने का न्याय । शरीर पर लगे कीचड़ को सभ्य मनुष्य तुरन्त को डालता है। परन्तु उससे कहीं अच्छी बात यह है कि कीचड़ लगने ही न दिया जाय। इसी प्रकार परिस्थितियों से पहले ही बचना उत्तम है, जिनमें पड़ने के पश्चात फिर उनके प्रभाव को मिटाने का यत्न किया जाय। जैसे-'पश्चाच्यागाद्धि वित्तस्य वरं पूर्वमसङ्ग्रहः । प्रक्षालनाद्धि पंकस्य दूरादस्पर्शनं वरम् ।' २१. पंबिंधन्याय :-इस न्याय का अर्थ है लँगड़े और अंधे की कहावत । न अंधा मार्ग देख सकता है न पंगु पथ पर चल सकता हैं। परन्तु यदि पंगु अंधे के कंधों पर बैठ जाय तो दोनों निर्विघ्न यात्रा कर सकते हैं। इसी प्रकार जहाँ पारस्परिक लाभार्थ सहयोग किया जाय, वहाँ उक्त न्याय प्रयुक्त किया जाता है। यथा-'सुवक्ताऽपि देवदत्तो न पण्डितः, सुपण्डितोऽपि यशदत्तो वक्तृत्वविहीनः, तथापि तौ पंग्वन्धन्यायेन संगत्य स्वदेशसेवायां संलग्नौ दृश्येते।' ५२. पिष्टपेषणन्याय :-पिष्टपेषणन्याय अर्थात् पीसी हुई वस्तु को पुनः पीसने का न्याय। गेहूँ, मकई आदि को तो पीसा जाता है परन्तु उनके आटे को पीसना निरर्थक होता है। साथ ही वह पेषण पेषक की मूर्खता का घोतक माना जाता है। इसी प्रकार के अनावश्यक और अनर्थक कार्यों के सम्बन्ध में उक्त न्याय का प्रयोग इस प्रकार किया जाता है-'महान् दोष एवायं यदिद. मुक्तस्य पुनः पुनर्वचनम्, पिष्टपेषणं हि तत् ।' २३. पृष्टलगुडन्याय :-इस न्याय का अर्थ है, मोटे डंडे का दृष्टान्त । आशय यह है कि यदि भौंकने वाले कुत्ते की ओर मोटा डंडा फेंका जाय तो वह सभवतः दूसरे कुत्तों को भी लग कर शान्त कर देगा। इसी प्रकार जहाँ एक क्रिया से एकाधिक कार्यों की सिद्धि हो जाय, वहाँ इस न्याय का प्रयोग होता है। जैसे-'हीरोशीमानागासाकीनगरयोरणुबमाभ्यां विध्वस्तयोर्महायुद्धं पुष्टलगुडन्यायेन निमिषेण समाप्तिमगात् ।' ५४. प्रधानमल्लनिबर्हणन्याय :-इस न्याय का अर्थ है, मुख्य शत्रु के विनाश की कहावत । आशय यह है कि जब प्रबलतम वैरी का विनाश कर दिया जाता हैं तब सामान्य वैरी स्वयमेव वश में हो जाते हैं। इसी प्रकार जब भारी बाधाएँ मिटा दी जाती हैं तब सामान्य विन्न बाधक नहीं बन सकते । जैसे-'हतयोभीष्मद्रोणयोनिश्चित एवाभूत् पाण्डवानां विजयः प्रधानमल्लनि: बहणन्यायेन ।' For Private And Personal Use Only Page #802 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [ ७६४ ] ५५. प्रपानकरसन्याय :- प्रपानकर सन्याय अर्थात् शर्बत की उपमा । शर्बत बनाने के लिए अनेक द्रव्यों को मिश्रित करना पड़ता है । शर्बत का स्वाद उनमें से किसी एक के भी तुल्य नहीं होता। इसी प्रकार जहाँ अनेक वस्तुओं के संयोग से एक विलक्षण पदार्थ निर्मित हो जाय वहाँ यह न्याय प्रयुक्त किया जाता है। यथा - 'अभिमन्युः किल प्रपानकरसन्यायेन वृष्णींश्च पाण्डवांश्च गुणैरत्यरिच्यत ।' ५६. फलवत्सहकारन्याय :-- इस न्याय का अर्थ है- आम के फलित पेड़ का दृष्टान्त | आम का फलवान् वृक्ष फल ही नहीं देता, थके-माँद्रे यात्रियों को सुगन्ध और छाया भी प्रदान करता है । इसी प्रकार जहाँ कोई क्रिया अभीष्ट फल के अतिरिक्त भी कोई फल दे, वहाँ इस न्याय का प्रयोग किया जाता है । यथा - 'पुत्रोत्पत्तिर्हि नाम प्रस्नवयित्री मातृवक्षसः, प्रशमयित्री पितृनेत्रयोविकाशयित्री च भवति वंशस्य फलवत्सहकारन्यायेन ।' ५७. बहुराज देशन्याय : - इस न्याय का शब्दार्थ है - अनेक राजाओं के देश की कहावत । जहाँ एकाधिक राजाओं का शासन होता है वहाँ उनकी परस्पर विरोधी आज्ञाओं के कारण प्रजा अति पीड़ित हो उठती है । यथा - 'यस्मिन् कुले मातापित्रोर्वैमत्यं विद्यते तत्रातिदुःखिता भवति संत तिर्बहु राजकदेशवत् । ' ५८. बीजाङ्कुरन्याय : – बीजांकुरन्याय अर्थात् बीज और अँखुए का न्याय । इस न्याय का उद्गम बीज और अंकुर के पारस्परिक कारण-कार्यभाव से हुआ है। बीज से अंकुर उत्पन्न होता है अतः बीज कारण है, अंकुर कार्य । परन्तु आगे चलकर उसी अंकुर से बीज भी उत्पन्न होते हैं; इसलिए अंकुर कारण और बीज कार्य बन जाता है। इस प्रकार जहाँ दो पदार्थ एक दूसरे कारण और कार्य भी हों, वहाँ यह न्याय प्रयुक्त किया जाता है। जैसे— 'स्वास्थ्येन वित्तमधिगम्यते वित्तेन च पुनः स्वास्थ्यं बीजाङ्कवत् । ' ५६. मण्डूकप्लुतिन्याय :- उक्त न्याय का अर्थ है, मेंढक की छलाँग की लोकोक्ति । मेंढक सर्पवत् समग्र मार्ग का स्पर्श करता हुआ नहीं चलता, छलाँगें लगाता जाता है, जिससे मध्यवर्ती स्थान अस्पृष्ट रह जाता है । इसी प्रकार जहाँ कोई नियम सब पर समानरूप से लागू न हो, बीच-बीच में कई वस्तुओं को छोड़ता जाए, अथवा कोई काम बीच-बीच में छोड़कर किया जाए वहाँ इस न्याय का प्रयोग होता है । यथा - 'अस्माकमध्यापकः पाठ्यपुस्तकं मण्डूकप्लुतिन्यायेन पाठयति न तु यथाक्रमम् ।' ६०. मात्स्यन्याय : मात्स्य न्याय अर्थात् मछलियों का दृष्टान्त । प्राय: यह देखा जाता है कि बड़ी मछलियाँ छोटी मछलियों को हड़प जाती हैं। इस प्रकार जहाँ बलवान् निर्बल को मारने या सताने लग जाएँ वहाँ इस न्याय का प्रयोग किया जाता है। हिन्दी की लोकोक्ति 'जिसकी लाठी, उसकी भैंस' भी इसी आशय को व्यक्त करती है। उदाहरण देखिए- 'सुशासकाभावे यदि राष्ट्र मास्त्यन्यायः प्रवर्तेत, तहिं किमाश्चर्यम् ।' ६०. रथकारन्याय : - इस न्याय का अर्थ है - रथकार ( रथ बनानेवाले ) का दृष्टान्त । शास्त्र में कहा गया है कि रथकार वर्षाऋतु में अग्नि की स्थापना करे । प्रश्न उठता है, रथकार का अर्थ रथ बनाने वाला कोई भी व्यक्ति है या विशेष उपजाति का मनुष्य । जैमिनि ने निर्णय किया है कि केवल जातिविशेष का व्यक्ति ही । इस प्रकार इस न्याय का भाव यह है कि शब्दों का रूढ़ या प्रचलित अर्थ यौगिक अर्थों से बलवान् होता है । यथा- 'अद्य तु रथकारन्यायेन कार्यपटुरेव कुशलो मन्यते न पूर्ववत गुरोः कृते कुशानयनदक्ष एव ।' ६२. राजपुरप्रवेशन्याय :- इस न्याय का शब्दार्थ है - राजधानी में प्रवेश का दृष्टान्त | राजपुर में प्रवेश करने का नियम यह है कि पंक्ति बनाकर पर्याय से प्रविष्ट हुआ जाए। जो उच्छृङ्खल For Private And Personal Use Only Page #803 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [ ७६५ ) -wromemawaa इस नियम को भंग करता है, उसके पिटने को आशंका रहती है। इसी प्रकार जहाँ किसी कार्य को नियमानुसार करना अभीष्ट हो, वहाँ इस न्याय का प्रयोग करते हैं । दृष्टान्त लीजिए'यस्मिन् तु विद्यालये छात्रा राजपुरप्रवेशन्यायेन स्वकक्षाः प्रविशन्ति न तत्र कोलाहलो जायते ।' ६३. रुमाक्षिप्तकाष्ठन्याय :--इस न्याय का अर्थ है, नमक की खान और लकड़ी का दृष्टान्त । यह प्रसिद्ध है कि जो वस्तु नमक की खान में फेंकी जाती है, नमक बन जाती है । इसी प्रकार जहाँ कुसंगति के प्रबल प्रभाव से अन्य वस्तु भी वैसी बन जाए, वहाँ इस न्याय का प्रयोग उचित है । यथा--'विनीता अपि जना अधिकार प्राप्य रुमाक्षिप्तकाष्ठन्यायेन दृप्ता भवन्ति ।' ६४. लोहचुंबकन्याय :-लोहचुम्बकन्याय अर्थात् लोहे और चुम्बक का न्याय। यह न्याय उस सम्बन्ध को व्यक्त करता है जिसके कारण दो पदार्थ दूर होते हुए भी, स्वआवा: एक-दूसरे के समीप जाने का उद्योग करते हैं। जैसे-'दूरस्था अपि सज्जना लोहचुम्बकवत् मिथो मिलितुं वान्छन्ति ।' ६५. बकबन्धनन्याय :-इस न्याय का अर्थ है, बगुले को पकड़ने का दृष्टान्त । किसी ने बगुला पकड़ने की रीति यह बताई कि जब बगुला बैठा हो तो चुपके से उसके सिर पर मक्खन रख देना चाहिए। जब मक्खन धूप से पिघलकर उसकी आंखों में पड़ेगा तो वह अन्धा हो जायगा और झट पकड़ लिया जाएगा। वस्तुतः यह विधि हास्यास्पद है क्योंकि बगुला तभी क्यों न पकड़ लिया जाए जब उसके सिर पर मक्खन रखा जाए। इसी प्रकार जहाँ सहज सरल विधि को छोड़कर किसी हास्यास्पद ढंग को स्वीकृत किया जाता है वहाँ उक्त न्याय प्रयुक्त होता है। जैसे-'बकबन्धनन्यायपर्याय एवायं यद् गलघण्टिकारावेश अवगते मार्जारागमे मूषाणामात्मरक्षाविचारः।' ६६. वनसिंहन्याय :-इस न्याय का शब्दार्थ है-वन और. सिंह का दृष्टान्त । सिंह न हो तो लोग वन को ही काट डालें और वन न हो तो सिंह को ही मार डाले। ये दोनों वस्तुतः एक-दूसरे के रक्षक हैं। इसी प्रकार जहाँ पदार्थ परस्पर रक्षक हों वहाँ इस न्याय का प्रयोग किया जाता है। जैसे-'न जातु सेव्यसेवको अन्योऽन्यं हन्तुं पारयतः-वनसिंहवदन्योऽन्याश्रयित्वात् ।' ६७. बधिमन्याय :-वह्निधूमन्याय अर्थात् अग्नि और धूएँ के निरन्तर साथ-साथ रहने का न्याय । जहाँ धूआँ होता है वहाँ अग्नि होती ही है। इसी प्रकार जहाँ एक पदार्थ का दूसरे से अनिवार्य साहचर्य बताया जाए वहाँ यह न्याय व्यवहृत होता है। जैसे-'यत्र योगेश्वरः कृष्णः यत्र च धनुर्धरः पार्थः, तत्र विजयो वह्निधूमन्यायेन निश्चित एव ।' ६८. विषकृमिन्याय :-विषकृमिन्याय अर्थात् विष के कीड़ों का न्याय। साधारण प्राणी तो विष के प्रभाव से मर जाते हैं, परन्तु विष के कीड़े विष में ही उत्पन्न होते हैं, उसी को खाते हैं और फिर भी जीवित रहते हैं। इस न्याय का प्रयोग उन अवसरों पर होता है जिन पर सामान्य प्राणी तो प्राणों से हाथ धो बैठते हैं परन्तु व्यक्तिविशेष सुरक्षित रहते हैं। जैसे-'हरिजनानां कर्म कुर्वन्तः सामान्यास्तु अचिरात् कालकवलिता भवेयुः ते च हरिजनाः पुनः विषकृमिन्यायेन दीर्घजीविनो भवन्ति ।' ६१. विषवृक्षन्याय :-विषवृक्षन्याय अर्थात् विषैले पेड़ का न्याय । कालिदास ने 'कुमारसम्भव' में कहा है-'विषवृक्षोऽपि संवर्ध्य स्वयं छेत्तुमसांप्रतम्' अर्थात् यदि विष का वृक्ष भी स्वयं लगाया और पाला-पोसा गया हो तो उसे काटना या उखाड़ना उचित नहीं होता। इसी प्रकार जिस व्यक्ति का स्वयं पालन-पोषण किया हो, वह बड़ा होने पर अनिष्टकर भी सिद्ध हो, तो भी उसका विध्वंस समीचीन नहीं। यही इस न्याय का आशय है। उदाहरण द्रष्टव्य है-'विषवृक्षन्यायमनुसरता पित्रा कुपुत्रस्याप्यहितं कर्तुं न पार्यते।' For Private And Personal Use Only Page #804 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [७६६ ] ७०. वीचितरंगन्याय :-वीचितरंगन्याय अर्थात् तरंग और तरंग का न्याय। नदी, सरोवर, समुद्र आदि में हम देखते हैं कि तरंगे क्रमशः एक दूसरी को तब तक आगे-आगे ढकेलती जाती हैं जब तक वे सब तट तक नहीं जा पहुँचतीं । इसी प्रकार जब कुछ वस्तुएँ या व्यक्ति एक-दूसरे की सहायता से गन्तव्य तक जा पहुँचते हैं, तब इस न्याय का निम्नलिखित प्रकार से प्रयोग किया जाता है-'वोचितरंगन्यायेन अन्योऽन्योपकारि खलु सकलमिह जीवितम् ।' ७१. वृद्ध कुमारीवाक्य(वर)न्याय :-वृद्धकुमारोवाक्यन्याय अर्थात् बूढ़ी कन्या के वर का न्याय । पतंजलि ने महाभाष्य में लिखा है कि जब इन्द्र ने एक बूढ़ी कन्या को वर माँगने को कहा तब वह बोली-'पुत्रा मे बहुक्षीरघृतमोदनं काञ्चनपाठयां भुजीरन्' अर्थात् मेरे पुत्र सुवर्ण -के पात्रों में प्रभूत दूध और घी से युक्त चावल खावें। अब यदि यह वर प्राप्त हो जाए तो पति, सन्तान, गौ, दूध, घी, सुवर्ण आदि सभी पदार्थ स्वतः एव प्राप्त हो जाते हैं। इसी प्रकार जहाँ कोई ऐसी वस्तु माँगी जाए जिसके साथ अनेक उपयोगी द्रव्यों की प्राप्ति अनिवार्य हो जाए, वहाँ इस न्याय का प्रयोग होता है। जैसे-'स्वपौत्रं राजसिंहासनस्थमीक्षितुमिच्छामीति वरं देवं याचमानेनान्धवृद्धेन आत्मनः कृते यौवनं नेत्रे पत्नी पुत्रः पौत्रश्च वृतः।' .७२. व्यालनकुलन्याय :-इस न्याय का अर्थ है-साँप और नेवले की कहावत। साँप और नेवले में जन्मजात वैर होता है। वे जहाँ एक-दूसरे को देखते हैं, लड़ पड़ते हैं। उन्हीं की तरह जब दो वस्तुओं में स्वाभाविक वैर हो तब व्यालनकुलन्याय ( अहिनकुलन्याय) का व्यवहार होता है । यथा-'अद्यत्वे तु रूसामरीकयोर्दशाव्यालनकुलबद् दृश्यते।' ७३. शतपनपत्रशतभेदन्याय :-उक्त न्याय का अर्थ है-कमल के सौ पत्रों को छेदने का दृष्टान्त । जब कोई व्यक्ति कमल के सौ कोमल पत्रों को सूए से छेदता है तब ऐसा लगता है कि सब पत्र एक-साथ ही छिद गये हैं। परन्तु वस्तुतः छिदते एक दूसरे के अनन्तर ही हैं । इसी प्रकार जहाँ क्रमशः होने वाली अनेक क्रियाओं का एक साथ होना कहा जाता है, वहाँ यह न्याय व्यवहृत होता है। जैसे-'पतिं मृतं श्रुत्वा सा साध्वी कम्पिता मूच्छिता मृता च शतपत्रपत्रशतभेदन्यायेन ।' ७४. शलभन्याय :-इस न्याय का अर्थ है पतंगे का दृष्टान्त । मूर्ख पतंगा जलते हुए दीपक को देख ऐसा मुग्ध होता है कि प्राणों तक को चिन्ता नहीं करता। इसी प्रकार मूर्ख लोग विषयों से आकृष्ट होकर प्राणों से हाथ धो बैठते हैं। आजकल इसका प्रयोग प्रशंसा के लिए भी किया जाता है। दोनों के दृष्टान्त एक ही वाक्य में देखें-विषयेषु शलभायन्ते मूढाः, प्रमदासु कामुकाः, राष्ट्रसेवायां च राष्ट्रभक्ताः। ७५. शाखाचन्द्रन्याय :-शाखाचन्द्रन्याय अर्थात वृक्ष की शाखा भौर चाँद का न्याय । आकाश में चन्द्र तो बहुत दूर होता है परन्तु प्रतिपदा आदि के दिन किसी को दिखाने के लिए प्रायः कहा जाता है--'देखो, वह वृक्ष की शाखा के ऊपर है। इसी प्रकार जहाँ कोई पदार्थ हो तो बहुत दूरवती पर उसको दिखाने के लिए ऐसे पदार्थ की ओर संकेत किया जाय जो उसके समीप प्रतीत होता हो, वहाँ यह न्याय प्रयुक्त होता है। जैसे-'शाखा चन्द्रन्यायेन पेरिसनगरमपि रोमसमीपवर्तिनमेव ज्ञापयति कोऽपि मानचित्रे ।' ७६. शिरोवेष्टनेन नासिकास्पर्शन्याय :-उक्त न्याय का अर्थ है--बाहु को सिर के पीछे से लाकर नाक को छूने का दृष्टान्त । नाक को सामने से छूना सुकर है, बाहु पीछे से लाकर छूना दुष्कर । जब उद्देश्य केवल नासिकास्पर्श हो तो बाहु को सिर के पीछे से लाकर छूने में कोई लाभ नहीं है। इसी प्रकार कई लोग किसी कार्य को सीधे ढङ्ग से नहीं करते, घुमा-फिराकर व्यर्थ कष्ट For Private And Personal Use Only Page #805 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [ ७६७ ] सहते या देते हैं । ऐसे ही अवसरों पर उक्त न्याय प्रयुक्त होता है । यथा--' को लाभोऽनेन - शिरोवेष्टनेन नासिकास्पर्शेन, प्रकृतं स्पष्टं ब्रूहि ७७. वपुच्छोनामनन्याय :-- इस न्याय का शब्दार्थ है -- कुत्ते की पूँछ को सीधा करने का दृष्टान्त । कुत्ते की पूँछ अनेक यत्न करने पर भी सीधी नहीं होती; प्रयत्न करने वाले का श्रम व्यर्थं - ही सिद्ध होता है। इसी प्रकार जहाँ काम के लिए किया हुआ उद्योग सर्वथा निष्फल रहे, वहाँ -यह न्याय व्यवहृत होता है। यथा - 'श्वपुच्छोनाम मेवैतद् महात्मा गांधी अकार्षीद् यद् मुस्लिमलीगिन: प्रेम्णा वशीकर्तुमयतत ।' ७८. शवोद्वर्तन न्याय :- इस न्याय का शब्दार्थ है— मृतक को उबटन लगाने का दृष्टान्त । सुगन्धित द्रव्य सजीव शरीर के शोभावर्द्धक हैं, निर्जीव के नहीं। इसी प्रकार जहाँ सर्वथा निष्फल उद्योग किया जाता हैं, वहाँ यह न्याय प्रयुक्त होता है । यथा - 'पाकिस्ताननिर्माणानन्तरं मुस्लिम लीगस्य पुनः भारते संस्थापनं शवोद्वर्तनमेव ।' ७६. सिंहावलोकन न्याय :- सिंहावलोकनन्याय अर्थात् सिंह के समान देखने का न्याय । चलता हुआ सिंह सामने तो देखता ही है, थोड़ी-थोड़ी देर बाद पीछे भी दृष्टिपात कर लेता है कि कोई भक्ष्य जन्तु पहुँच के भीतर पीछे भी है या नहीं। इसी प्रकार जब कोई व्यक्ति आगे-आगे कार्य करता हुआ पिछले कार्य पर भी कुछ दृक्पात करता है, तब सिंहावलोकन न्याय का प्रयोग होता है । जैसे -- ' सोत्साहैरपि छात्रैरधीतस्य सिंहावलोकनं कर्तव्यमेव ।' ८०. सिकता तैलन्याय : अर्थात् रेत से तेल निकालने की कहावत । जैसे गधे या शश के सिर पर सींग नहीं निकलते वैसे ही रेत से तेल की उत्पत्ति असम्भव है। इसी प्रकार की असम्भव बातों के लिए यह न्याय प्रयुक्त होता है । यथा - ' प्रतिनिविष्टमूर्ख जनचित्ताराधनं कविभिः सिकतासु तैलस्योपलब्ध्या उपमीयते ।' ८१. सुन्दोपसुन्दन्याय : - इस न्याय का अर्थ है - सुन्द और उपसुन्द की उपमा । महाभारत के आदिपर्व ( अध्याय २०९ - २१२ ) में सुन्दोपसुन्द नाम के दो अजेय असुर भाइयों की कथा आती है। उन्हें नष्ट करने के उद्देश्य से ब्रह्मा ने विश्वकर्मा को एक अद्वितीय सुन्दरी ( तिलोत्तमा ) निर्माण करने को कहा । ब्रह्मा ने तिलोत्तमा को उन भाइयों के पास कैला-सोधान ने भेजा । दोनों उसे देख मुग्ध हो गये और लगे अपनी-अपनी ओर खींचने । अन्ततः -दोनों क्रुद्ध होकर लड़ पड़े और दोनों ही मर गये । इन्हीं के समान जब दो समान बल वाले पदार्थ एक दूसरे के नाशक हों, तब इस न्याय का प्रयोग-स्थल होता है। जैसे -- 'यावदू सामरी - काराष्ट्र परस्परं युध्यमाने सुन्दोपसुन्दवत् न नश्यतः, शान्तिस्तावत् असिद्धस्वप्न एव ।' २. सूचीकटाहन्याय :- सूचीकटाहन्याय अर्थात् सूई और कड़ाहे का न्याय । किसी लोहार के पास जब एक व्यक्ति कड़ाहा बनवाने जा पहुँचे और दूसरा सूई, तब लोहार पहले सूई बनाता है। - क्योंकि उसे वह सहज ही अल्प काल में बना लेता है। इसी प्रकार इस न्याय का आशय यह है कि कठिन तथा दीर्घकालसाध्य कार्य पीछे करना चाहिए और सुकर तथा अल्पकालसाध्य कार्य पहले । जैसे—' श्रेणीमध्यापयन् शिक्षकः मुख्याध्यापकादागतां सूचना, प्रकृतं पाठ स्थगयित्वा, सूचीकटान्यायेन प्रथमं श्रावयति ।' ३. सूत्रबद्ध शकुनिन्याय :- इस न्याय का अर्थ है - सूत से बँधे हुए पक्षी का दृष्टान्त । सूत से बँधा हुआ पक्षी न इधर-उधर स्वच्छन्द उड़ सकता है, न कहीं यथेष्ट विश्राम कर सकता है । जिस पराधीन व्यक्ति की दशा उसके समान हो, उसके विषय में यह न्याय प्रयुक्त किया जाता है । यथा - 'कैकेयीमोहपाशबद्धस्य दशरथस्य दशा सूत्रबद्धशकुनेरिवासीत् । ' For Private And Personal Use Only Page #806 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [ ७६८ ] ४.सोपानारोहणन्याय :-सोपानारोहणन्याय अर्थात् सीढियाँ चढ़ने का दृष्टान्त । जैसे मनुष्य छत पर एकाएक नहीं जा पहुँचता, एक-एक सीढ़ी चढ़कर ही पहुँचता है, वैसे ही ज्ञानादि की प्राप्ति भी क्रमशः ही होती है। ऐसे ही अवसर इस न्याय के प्रयोगार्थ उचित हैं । जैसे'सोपानारोहणन्यायेनैव भवति विद्योपचयो विद्यार्थिनां, धनवृद्धिश्च सज्जनानाम् ।' ८५. स्थालीपुलाकन्याय :- स्थालीपुलाकन्याय अर्थात् देगचे और पुलाव का न्याय । जब किसी देगचे में चावल पकाये जाते हैं तब पाचक प्रत्येक दाने को निकाल कर नहीं देखता कि वह गल गया है या नहीं। दो चार दाने देखकर ही अनुमान कर लेता है कि सब के सब गल गये या कुछ कसर है। इसी प्रकार जहाँ किसी समुदाय के दो-चार व्यक्तियों से सबके सम्बन्ध में कुछ अनुमान किया जाता है, वहाँ इस न्याय का इस प्रकार व्यवहार किया जाता है-'विद्यालयनिरीक्षकाः स्थालीपुलाकन्यायेनैव विद्यार्थिनां योग्यता परीक्षन्ते ।' ८६. स्थावरजंगमविषन्याय :-अथ है-स्थावर और जगम विष का दृष्टान्त । पौधों और खनिज द्रन्यों के विष स्थावर विष कहलाते हैं तथा प्राणियों के विष जंगम विष । कहते हैं, विष को विष नष्ट करता है, जैसे कि महाभारत की कथा में भीमसेन को दुर्योधन द्वारा दिया हुआ स्थावर विध नदी में साँपों के जंगम विष से दूर हो गया था। इसी प्रकार जहाँ एक वस्तु का प्रतिकार दूसरी से हो जाय, वहाँ य: न्याय प्रयोक्तव्य है। यथा-'वर्तमाने बहूनां रोगाणां चिकित्सा स्थावर जंगमविषन्यायेनैव विधीयते।' २७. स्थूणानिखननन्यायः-स्थूगानिखननन्याय अर्थात् खंबा गाड़ने का न्याय । जैसे भूमि में खंबा गाड़ना हो तो उसे बार-बार हिलाकर गहरा ठोंका जाता है; वैसे ही अपने पक्ष के सुसमर्थन के लिए जब कोई वक्ता, लेखक आदि अनेक युक्तियाँ, दृष्टान्त आदि प्रस्तुत करता है तब यह न्याय प्रयुक्त होता है । यथा-'स्थूगानिखननन्यायेन समर्थयात प्रवक्ता स्वकीय पक्षं दृष्टान्तपरम्परया।' म. स्वामिभृत्यन्याय :-स्वामिभृत्यन्याय अर्थात् मालिक और नौकर का न्याय। स्वामी और सेवक में पोषक तथा पोष्य या धारक और धार्य का सम्बन्ध होता है। इसी प्रकार का सम्बन्ध जहाँ दो वस्तुओं या व्यक्तियों में दिखाई दे, वहाँ उक्त न्याय व्यवहृत होता है। यथा-'इह लोके सर्वत्र जीवेश्वरयोः व्यवहारः स्वामिभृत्यन्याय इव दृश्यते।' ९. स्वेदजनिमित्तेन शाकटत्यागन्याय:-इस न्याय का अर्थ है-पसीने से उत्पन्न कीड़ों के कारण वस्त्र फेंक देने का न्याय । इसी को कहीं पर 'यूकाभिया कन्थात्यागन्यायः' भी कहते हैं जिसका हिन्दी रूपान्तर 'जुओं के डर से गुदड़ी नहीं फेंकी जाती है। आशय यह है कि सामान्य भयों से भीत होकर भारी हानि सहन करना बुद्धिमत्ता नहीं है। यथा-परीक्षायां वैफल्यमपि संभवतीति भयेन परीक्षायां छात्रा न सम्मिलिता भवेयुरिति न, स्वेदजनिमित्तेन त्यागन्यायेन ।' १०.हृदनक्रन्याय :--हृदनक्रन्याय का अर्थ है-झील और मगर का दृष्टान्त । इसका आशय 'वनसिंहन्याय' के समान है । विस्तारार्थ वहीं देखिए । For Private And Personal Use Only Page #807 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सप्तम परिशिष्ट प्राचीन भारत का भौगोलिक परिचय मातृ संस्कृति से अपना सम्बन्ध स्थापित करने के लिए जहाँ मातृभाषा का परिचय आवश्यक है, वहाँ मातृभूमि के विषय में भी कुछ-न-कुछ ज्ञान अपरिहार्य है। इसी ध्येय से प्रस्तुत अनुक्रमगी हम जोड़ रहे हैं। जिस वृद्ध भारत के विषय में हम सदा गर्व अनुभव करते हैं, उसके तीर्थादि स्थानों के सम्बन्ध में परिचयात्मक संकेत प्राचीन साहित्य में जहाँ-तहाँ बिखरे पड़े हैं। संस्कृत-नाटकों के कथा-प्रवाह को भी, उनकी पृष्ठभूमि के अभाव में, समझ सकना असम्भव है। हमारी विभिन्न बोलियों, रीति-वृत्तियों, कवि-समयोक्तियों के मूलोद्गम भी तो लोक-संस्कृति के यही उर्वर प्रदेश ही थे। राष्ट्र को एक सूत्र में पिरोने का जितना श्रेय अश्वमेध की परम्परा को अक्षुण्ण रखने वाले हमारे चक्रवती सम्राटों को रहा है, उतना ही श्रेय इस देश के महाकवियों (वाल्मीकि, व्यास ) को भी है। मेघदूत का संदेशहर बादल स्वयं कवि का उदार हृदय है, जिसके मुक्त व्योम में उमड़ने-उड़ने में भारत, मानो एक घोंसले में आबद्ध हो गया है। हमारे प्राचीन भूगोल को लेकर कोई क्रमबद्ध अनुसन्धान अभी तक नहीं किया गया। श्री नन्दूलाल दे की 'दि जिओग्राफिकल डिक्शनरी ऑव एन्शेण्ट एण्ड मिडीवल इण्डिया' (प्रथम संस्करण १८८९, द्वितीय १९२७) आज स्वयं संशोधन चाहती हैं । डा. वासुदेवशरण अग्रवाल ने जिस प्रकार पाणिनिकालीन तथा बाणकालीन भारतवर्ष के सांस्कृतिक रूप को एकत्रित करने का यत्न किया है। जिस प्रकार डा० ऑरेलस्टाइन ने काश्मीर के विस्मृत नामों का उद्धार किया था, उसी प्रकार की बृहत्तर-भारत की क्रमिक कहानी के लेखक को अभी जन्म लेना है। प्राचीन भारत के कुछ एक नामों का तुलनात्मक उल्लेख हम कर रहे हैं, इस आशा से कि कोई अज्ञात युवक, एक ही सही, उस 'प्रथम प्रभात' के संस्पर्श से पुलकित होकर अनुसन्धान की इस अछूती दिशा में प्रयत्नशील हो जाए। अंग-प्राचीन भारत के १६ 'राजनीतिक' जनपदों में एक, जो कभी रोमपाद ( रामायण ) तथा कर्ण ( महाभारत ) के शासन में था । आजकल भागलपुर के आसपास का प्रदेश । अंजनगिरि-पंजाब की 'सुलेमान' पर्वतमाला ( वराह०)। अगस्त्याश्रम-नासिक, कोल्हापुर (बम्बई ), उत्तरप्रदेश, गढ़वाल, सतपुड़ा आदि में ऋषि अगस्त्य के नाम से प्रसिद्ध आश्रम। अगस्त्य ही वे 'चरित्र-विजयी' वीर थे, जिन्होंने सर्वप्रथम आर्य सभ्यता का दक्षिण में प्रवेश संभव किया था। लोगों का विश्वास है कि अगस्त्य आज भी ताम्रपर्णी के उद्गम स्रोत (तिनिवेली में ) 'अगस्त्यकूट' पर समाधिस्थ हैं। अचिन्त-मध्यभारत में एलोरा के प्रायः ६० मील उत्तरपूर्व की ओर 'अजिण्ठा' ('अजन्ता' उच्चारण अशुद्ध है) नामक गुहा-समूह, जहाँ (बौद्धों के) योगाचार्य मत के संस्थापक आर्य असंग का प्रथम 'आश्रम' था। गुहाओं में भव्यचित्रकला का अङ्कन विहार के स्थविर 'अचल' के आदेश पर ५वी-६ठी शती में सम्पन्न हुआ था। अचि(जि)रावती-अवध की राप्ती (रेवती) नदी, जिस पर कभी श्रावस्ती नगर बसा हुआ था । २. इरावती (रावी)। (वराह०) • संकेतों के विवरण के लिए ग्रन्थारम्भ में संकेत-सूची देखिए । - ४६ For Private And Personal Use Only Page #808 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [ ७७० ] अच्छोद - काश्मीर का एक सरोवर ( आधु० अच्छावत ), जिसके तट पर कभी 'सिद्धाश्रम' अवस्थित था । ( कादम्बरी ) अनन्तनाग — जेहलम के दक्षिण तट पर स्थित ( काश्मीर की ) प्राचीन राजधानी । ( आधु० इस्लामाबाद ) अनन्तशयन - त्रावनकोर का पद्मनाभपुर, जहाँ एक मन्दिर में विष्णु की शेषनाग पर प्रसुप्त मुद्रा में अंकित मूति सुरक्षित है । ( पद्म० उत्तर ० ) अनहिलपत्तन - वलभी साम्राज्य के विध्वंस पर 'वनराज' द्वारा गुजरात ( उत्तर- बड़ोदा ) में ( ७४६ ई० ) प्रतिष्ठापित एक ( आधु० अनिहिलबाळ ) नगर । अनुराधपुर - सिंहल (सीलोन ) की पुरानी राजधानी, जहाँ महिन्द तथा संघमित्रा द्वारा रोपित athaवृक्ष की शाखा से विकसित 'अश्वत्थ' आज भी विद्यमान है । ( महावंश ) अनूप - दक्षिण मालव देश, हैहय, महिष ( माहिषक ) | ( हरिवंश० ) अन्तर्वेद - गंगा तथा यमुना के अन्तर्गत दोआब । ( भविष्य० ) अपग -- अफ़ग़ानिस्तान । ( ब्रह्माण्ड० ) अपरान्त ( क ) - कोंकण तथा मालावार, पश्चिमी घाट । ( रघु०, ब्रह्म० ) अभिसारा (रि) - पेशावर डिविजन में एक जिला, उरशा ( आधु० हजारा ), जिसे अर्जुन ने (सभापर्व०, पद्म० ) अपनी त्तर- दिग्विजय में जीता था। अमरकण्टक - गोंडवाना में मेकल पर्वतमाला का एक भाग, जो नर्मदा तथा शोग का उद्गमस्थ मेघदूत ) | है; आम्रकूट (?) (पद्म०, स्कन्द ०, अमरावती - भान्ध्र में कृष्णा के तट पर, बेजवाड़ा के प्रायः २० मील पश्चिम की ओर स्थित प्रसिद्ध बौद्धस्तूप ( का भव्य स्थान ) जिसे चतुर्थ शती के अन्त में आन्ध्रों ने निर्मित किया था । अम्बर - जयपुर ( के समीप प्राचीन नगर आमेर ) । इसकी मूल प्रतिष्ठा मान्धाता के पुत्र अम्बरीष ने की थी तथा 'वर्तमान' रूपान्तर मानसिंह ने अकबर के दिनों में किया था । ( भविष्य० ) अयोध्या- 'राम-राज्य का पुनीत धर्मक्षेत्र', अवध । बौद्धयुग में सरयू नदी अयोध्या को उत्तरकोसल तथा दक्षिणकोसल में विभक्त करती थी । अयोध्या के ध्वस्त तीर्थों का पुनरुद्धार देवीं शती में किसी गुप्त 'विक्रमादित्य' ने किया था । अरण्य -सैन्धव, दण्डक, नैमिष, कुरुजंगल, अपरावृत, जम्बुमार्ग, पुष्कर, हिमालय तथा अरण्य का नौ तीर्थ वनों में परिगणन होता है । ( देवी० ) अरुणाचल - कैलास के पश्चिम में एक पर्वतमाला । २. दक्षिण भारत में सुरक्षित 'अष्टमूर्ति' ( शिवजी महाराज ) की पाँच 'भौतिक' मूर्तियों में एक- 'अग्नि प्रतिमा' जहाँ प्रतिष्ठित है । ( ब्रह्माण्ड ० ) अरुणोद(गढ़वाल। ( स्कन्द० ) अर्धगंगा-कावेरी । ( हरिवंश ० ) अर्बुद - ( राजपूताना की ) सिरोही रियासत में अरवळी पर्वतमाला की 'आबू' शाखा, जहाँ से वशिष्ठ ने विश्वामित्र के विरुद्ध युद्ध करने के लिए 'परमार' जैसे वीर को एक 'अग्निकुण्ड' से उत्पन्न किया था । ( महाभा०, पद्म० ) अलका - यक्षपति कुबेर की राजधानी, जिसका नामकरण, संभवतः, गढ़वाल में बहती अलकनन्दा ( अपरनन्दा, वसुधारा ) नामक नदी के अनुकरण पर हुआ था । ( स्कन्द ० ) भवन्ती - मालव राज्य की 'राजधानी' उज्जयिनी (उज्जैन), जिसे ७-८वीं सदी से मालवा कहते आते हैं । कभी यह संवत्प्रवर्तक विक्रमादित्य की 'राजधानी' थी । २. सिप्रा ( नदी का एक नाम ), जिस पर प्राचीन उज्जैन स्थित था । For Private And Personal Use Only Page #809 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir (७७१) भविमुक्त-काशी, वाराणसी (बनारस )। (शिव०, मत्स्य०)।। अश्मक-( दशकुमारचरित में ) विदर्भ के अधीन एक राज्य, जो अर्थशास्त्र के टीकाकार भट्टस्वामी के अनुसार, महाराष्ट्र है-और कभी अवन्ती-साम्राज्य के उत्तर-पश्चिम में था। (कूर्मः हर्ष०, जातक०) वक्ष (अश्मन्वती आमू) की सभ्यता का देश-ऑक्सियाना, 'पाताल'। अश्मन्वती-वक्षु ( आक्सस ), इक्षु, यक्षु, आमू दरिया । ( रघु०) असिक्नो-चनाब की एक धारा । अहिच्छत्र-रोहीलखण्ड में बरेली से २० मील पश्चिम की ओर, आधुनिक रामनगर, अहिक्षेत्र, छन्त्रवती । ( महा०) आदर्शावली-अरवळी पर्वतमाला । (दे० आर्यावर्त ) आनर्स-गुजरात ( तथा मालवदेश का कुछ अंश), जिसको राजधानी कभी कुशस्थली (द्वारिका) थी। उत्तर गुजरात की राजधानी का नाम भी कभी आनर्तपुर (भानन्दपुर, आधु० वाळनगर ) रहा था। (भागवत०) आन्ध्र-गोदावरी तथा कृष्णा नदियों का 'मध्यदेश', राज. अमरावती। सदियों यहाँ वेङ्गी के पल्लवों तथा कल्याणपुर के चोलों का उत्थान-पतन होता रहा। स्वयं आन्धों का राजवंश, इतिहास में, सातवाहन अथवा सातकर्णि के नाम से अधिक प्रसिद्ध है। (गरुड०, अनर्घराषव) आपगा-(पश्चिमी पंजाब की ) रावी के पश्चिम में एक सरिता। २. कुरुक्षेत्र में चितांग नदी की एक सहायिका, जिसे ओघवती तथा 'आपगा' भी कहते हैं। (वामन.) भाभीर--नर्मदा के मुहाने के गिद, गुजरात का दक्षिणपूर्वीय भाग। (ब्रह्माण्ड०, महाभा०) भाम्रकूट-अमरकण्टक । भाजिकीया-ज्यास (विपाशा) को एक धारा । आर्यावर्त्त-(मनु के अनुसार ) हिमाद्रि तथा विन्ध्य के मध्य में स्थित देश, उत्तरापथ । पतञ्जलि के समय में आर्यावर्त की चार 'पार्वती' मर्यादाएँ थीं-१. उत्तर में हिमालय, २. दक्षिण में पारियात्र, ३. पश्चिम में आदर्शावली, तथा ४. पूर्व में कालकवन । राजशेखर के बालरामायण के अनुसार दक्षिणभारत तथा उत्तरभारत की स्वाभाविक विभाजन-रेखा है-नर्मदा । आशापल्ली-अलबेरूनी का येस्साबल अथवा आसाबल, आजकल का अहमदाबाद । इन्द्रपुर-इन्दौर । ( स्कन्दगुप्त के अभिलेख; शंकरविजय ) । इन्द्रप्रस्थ-पुरानी दिल्ली, बृहत्स्थलखाण्डवप्रस्थ ( महाभा०)। कहते हैं पुराने किलें का निर्माण ( कलियुग ६५३ में ? ) युधिष्ठिर ने किया था, लोकभाषा में उसे आज भी 'इन्द्रपत' कहते है। महाभारतकाल में यह युधिष्ठिर की राजधानी थी; किले का पुननिर्माण हुमायूँ का किया बतलाते हैं। इ(ऐ) रावतो-रावी ( पंजाब ) २. ( अवध की ) राप्ती (अचिरावती)। (गरुड०) इसिपत्तन-ऋषिपत्तन, सारनाथ । उदण्ड(न्त)पुर-पटना जिले का 'बिहार' शहर, जो कभी बंगाल के पाल राजाओं की राजधानी था । यहाँ बोधिसत्त्व अवलोकितेश्वर की चन्दनमयी मूत्ति से सुशोभित एक प्रसिद्ध बौद्ध विहार भी है। (द्वाविंश अवदान) उग्र-केरल ( देवीपु०)। बिहार में महास्थान ( पद्म०)। उच्च-वरण, बुलन्दशहर, जहाँ जनमेजय ने 'नागसत्र' ( अर्थात् पुराणों के प्रवचन) का प्रचलन किया था। उजयिनी-प्राचीन-मालवदेश ( अर्थात् अवन्ती) की राजधानी । तीसरी सदी ई० पू० में बिन्दुसार के शासनकाल में अशोक यहाँ राज्यपाल थे। विक्रमादित्य संवत्प्रवर्तक ने शकों को For Private And Personal Use Only Page #810 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [ ७७२] -- - (५७ ई० पू०) पराजित कर इसे अपनी राजधानी बनाया था। चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य (द्वि०) ने मुराष्ट्र-मालव देश के शकों को भारत से निर्वासित कर उज्जैन की प्राचीन परम्पराओं को अन्ततः समाप्त कर दिया। गाथाओं में उदयन की प्रेम-लीलाओं का भी इधर से ही सम्बन्ध रहा है। शहर के मध्य में कभी यहाँ कालप्रियनाथ भगवान् का एक मन्दिर था, जहाँ शिवपुराण के प्रसिद्ध १२ ज्योतिलिङ्गों में एक की प्रतिष्ठा थी। उ(ओ):-उड़ीसा, उत्कल (उत्-कलिंग, अर्थात् कलिंग का उत्तर भाग)। इसकी दक्षिणी सीमा पर जगन्नाथ (पुरी)का प्रख्यात मन्दिर था। पुराणों के युग में उत्कल तथा कलिंग का विभाजन हो चुका था। उत्तरकुरु-गढ़वाल तथा हूणदेश का उत्तरीय भाग, जो हिमालय के परतर प्रदेशों का एक पुंज था-और जिसे अर्जुन ने अपनी दिग्विजय में युधिष्ठिर के साम्राज्य का अङ्ग बना लिया था। उत्तरापथ-काश्मीर तथा काबुल का एक राज्य' । २. उत्तर भारत (भारतवर्षे)। उत्तरमद्र-फारस में 'मद' प्रान्त, जिसमें अवस्ता का 'आर्यानन बाजों' (आर्य-अपवर्ग) भी सम्मिलित था। उत्तरविदेह-नेपाल का दक्षिण भाग, जिसकी राजधानी गन्धवती थी। ( स्वयम्भू पुराण) उत्पलारण्य-कानपुर से १४ मील दूर (आधु० बिठूर'), 'वाल्मीकि-आश्रम', जहाँ सीता ने प्रवास में लव तथा कुश को जन्म दिया था। यहीं पर, सरस्वती तथा दृषद्वती के 'मध्यदेश' (ब्रह्मावर्त) में ध्रुव के पिता उत्तानपाद ने 'प्रतिष्ठान' की स्थापना की थी। उदयगिरि-उड़ीसा में भुवनेश्वर के पाँच मील पूर्व एक पर्वत, जिसकी प्रसिद्ध गुहाओं में ई० ५०० पू०-५०० ई० के सहस्र वर्षों में भारतीय कलाकार अपना सर्वस्व उँडेलते रहे । उदीच्य (भूमि)-सरस्वती के उत्तर-पश्चिम का प्रदेश । ( अमरकोश) उरग (पुर)-काश्मीर के पश्चिम में, जेहलम तथा सिन्ध नदियों के बीच का प्रदेश ( हज़ारा); उरशा, अभिसारा ( मत्स्य० )। २. त्रिचनापल्ली = उरैपुर, जो छठी शती में पाण्डवों की. राजधानी थी; नागपत्तन (?)। (रघु०) ११वीं शती में चोकों का सम्पूर्ण तमिल देश पर प्रभुत्व जम चुका था। 'पवनदूत' का कवि इसे, ताम्रपर्णी पर प्रतिष्ठित करता हुआ, भुजंगपुर नाम से स्मरण करता है। ठरविल्व (ल्ल)-'गया' के ६ मील दक्षिण में, 'बुद्धगया', जहाँ ६ठी शती ई० पू० में भगवान बुद्ध ने बोध प्राप्त किया था। यहीं से बोधिवृक्ष की शाखाओं का देश-विदेश में प्रतिरोपण हुआ था। आज यहाँ एक महान् विहार भी है, जिसकी स्थापना छठी शती ई० पू० में अमरदेक ने की थी। शक्षपर्वत-विन्ध्य की पूर्वं शाखा जो शोण, शुक्तिमती, नर्मदा, महानदी आदि का उद्गम है। ऋषिपत्तन ( काशी में) इसिपत्तन; सारनाथ । (ललितविस्तर) ऋष्यमूक-किष्किन्धा में (तुङ्गभद्रा पर ) पम्पा का उद्गमस्रोत । (ऋष्य) श्रृंगगिरि-मैसूर में बैलूर के उत्तर में एक पर्वतशृङ्ग, जहाँ स्वामी शंकराचार्य ने वैदिक धर्म के पुनरुद्धार के लिए (चार मठों में, दक्षिण में ) 'शृङ्गेरी' का प्रसिद्ध मठ स्थापित किया था। (शंकरविजय) एल(पुर-एलोरा। एरण्डपल्ल-खानदेश । ( हरिषेणप्रशस्ति) एरिकिण-एरण। औदुम्बर-जि० गुरदासपुर । कण्वाश्रम-सहारनपुर तथा गढ़वाल में से गुज़रती मालिनी ('चुका') नदी के किनारे ऋषि कण्व का आश्रम था, जहाँ शकुन्तला का भरण-पोषण हुआ था। (कोटद्वार से ५ किलोमीटर. की दूरी पर) । (शतपथ.) For Private And Personal Use Only Page #811 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [ ७७३ ] कनक-त्रावनकोर । ( पद्म०) कनिष्कपुर-श्रीनगर से दस मील दक्षिण की ओर कनिष्क की बसाई नगरी, जहाँ ७८ ई० में अन्तिम यौद्धसंगीति' का अधिवेशन तथा 'शक संवत्' का प्रवर्तन हुआ था। कन्या(कुमारी)- केप कौमोरिन' (सु)कुमारी। कपिलवास्तु-शाक्यों की राजधानी, भगवान् बुद्ध की जन्मभूमि-जो आज फैजाबाद से २५ मील उत्तरपूर्व में, 'भुइला' के नाम से विदित है। कपिलाश्रम-बंगाल में सागर-संगम' तीर्थ, जहाँ महाराज सगर के अश्वमेधीय अश्व का इन्द्र ने अपहरण किया था। कपिशा-कुभा ( काबुल ) नदी के नाम पर उसका 'उत्तरप्रदेश' भी 'कपिशा' कहलाने लगा; कभी कपिशा नगरी 'गान्धार' साम्राज्य की राजधानी थी। २. रघुवंश में उड़ीसा की 'स्वर्गरेखा' ( नदी ) को कवि ने 'कपिशा' (पलाशिनी) कहा है। कम्बोज-(पूर्वी ) अफगानिस्तान । अपग। (राजत०, मार्कण्डेय०) यास्क के अनुसार 'ग़लचा' भाषावर्ग का प्रदेश, जहाँ आज भी (!) Vशु ( गतौ ) का क्रियात्मक प्रयोग ( मात्र 'शव = प्रेत' नहीं ) होता है; और जिसे अर्जुन ने अपनी दिग्विजय में युधिष्ठिर के साम्राज्य में जोड़ा था । ( महा०) करतोया-रंगपुर, दीनाजपुर, बोगरा में से गुजरती हुई एक तीर्थ नदी सदानीरा, जो कमी बंगाल तथा कामरूप ( आसाम ) की विभाजक रेखा थी। ( स्कन्द) कर्ण सुवण-( बंगाल में ) मुर्शिदाबाद जिले में, रंगामाटो ( कानसोना ), जो की आदिशर की राजधानी थी। कट-कुन्तलदेश, राज० कल्याणपुर । कर्तपुर-कुमाऊँ, गढ़वाल, अलमोड़ा, कांगड़ा का पर्वतीय राज्य–जिसे समुद्रगुप्त ने विजित कर गुप्त साम्राज्य का अंग कर लिया था। (हरिषेण०) कलकुण्ड-( हैदराबाद में हीरों की खानों के लिए प्रसिद्ध ) गोलकुण्डा; 'सर्वदर्शनसंग्रह'-कार माधवाचार्य की जन्मभूमि । कलळि(टि)-(केरल में ) शंकराचार्य की जन्मभूमि । कलिंग-'उत्तरी सरकार' का इलाका, जिसकी 'युद्धविजय' से खिन्न हुए अशोक में 'धर्मविजय' की प्रेरणा जगी थी। 'कलिंगविजय', भारत ही की नहीं, विश्व-भर को आत्मा में एक नवल चेतना-स्पर्श का मुहूर्त है। ( एच० जी० वेल्स) कलिंगनगर-(उड़ीसा में ) भुवनेश्वर (पुरी)। (दशकुमार०) कल्याणपुर-(निजाम साम्राज्य में ) बीदर के ६ मील पश्चिम में, चालुक्यों ( के कुन्तलदेश) की राजधानी। काञ्ची (पुर)-कांजिवेरम्, जो शंकराचार्य द्वारा स्थापित 'विष्णुकाञ्ची' मन्दिर के लिए तथा 'नालन्दा विश्वविद्यालय' के लिए प्रसिद्ध है। अष्टमूर्ति शिव की 'भौतिक' मूत्तियों में 'आकाश. तच' की प्रतीक मूर्ति (चिदम्बरम् ) इधर दक्षिण में हो क्यों मिलती है ? ( दे० अरुणाचल) कान्यकुब्ज-विश्वामित्र की जन्मभूमि ( रामायण ), तथा ( बौद्धयुग ) में दक्षिण-पाञ्चालों की राजधानी--कन्नौज। हर्षवर्धन से पूर्व यह कुछ समय तक मौखरियों की राजधानी भी रहा। इसी के ( 'त्रिकोग' दुर्ग के) दक्षिण-पश्चिम में स्थित 'रंग-महल' से हो पृथ्वीराज ने संयोगिता का हरण किया था । ( भविष्य०) कामरूप-असम ( अहोम, उच्चारण 'आसाम' नहीं) जिसकी राजधानी थी-प्राग्ज्योतिष । कुछ विद्वान् प्राग्ज्योतिष का कामाख्या अपिवा गोहाटी से एकीकरण करते हैं । ( मेघदूत, For Private And Personal Use Only Page #812 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [७७४ ] कालिका पु० ) कुछ हो, 'कामदहन' का सारा का सारा वातावरण ( तीर्थों तथा लोकवाङमय की साक्षी पर ) इधर ही अधिक उचित उतरता है । ( मेघदूत ) काम्पिल्य-दक्षिण पंचाल (द्रुपददेश) की राजधानी । कार्तिकेयपुर-( कुमाऊँ में ) बैजनाथ (वैद्यनाथ) तीर्थ । ( देवो पु०) कालीघाट-सती से सम्बद्ध इसी 'पीठ' के आधार पर 'कलकत्ता' का नामकरण हुआ प्रतीत होता है। काश्यपपुर-उपनिषदों के 'चरैवेति' युग में ऋषि कश्यप द्वारा संस्थापित ( उपनिवेशित) नगरों, प्रदेशों का 'सर्वनाम', यथा-काश्मीर, मुलतान । काश्यपीगंगा-गुजरात की साबरमती (नदी)। ( पद्म०) किम्पुरुष (देश) नेपाल। किरात (देश)-नेपाल के सुदूरपूर्व की ओर किरातों की बस्ती--(त्रिपुरा) तिपारा, जहाँ 'त्रिपुरेश्वरी' का तीर्थमन्दिर है । ( ब्रह्म०)। किष्किन्धा-तुङ्गभद्रा के दक्षिण तट पर धारवाळ में आज भी इसे उसी पुराने नाम से लोग जानते हैं। लोकगाथा के अनुसार, यहीं (राक्षस ) बाली का ध्वंस हुआ था। अयोध्या से किष्किन्धा तथा किष्किन्धा से लंका-कुल दो सौ मील की दूरी थी। 'लंका'-सिंहल (सीलोन) नहीं है। कुण्डग्राम-वैशाली का एक और नाम, जो महावीर की जन्मभूमि था और आधुनिक मुजफ्फरपुर ( तिरहुत ) में अवस्थित था । ( जैनसूत्र ) कुण्डिनपुर-विदर्भ की प्राचीन राजधानी, बीदर (?) । (मालतीमाधव ) कुन्तल (देश)-नर्मदा, तुङ्गभद्रा, पश्चिमसागर और गोदावरी से सीमित इस प्राचीन देश ने, चालुक्यों तथा मराठों के हाथ कई उत्थान-पतन देखे, कई राजधानियाँ ( कल्याण, नासिक) बदली । (दशकुमार०, तारातन्त्र ) (कुन्ती) भोज-मालवदेश का एक पुराना नगर, जहाँ पाण्डवों की माता का बाल्यकाल, 'कुन्तीभोज' की छत्रछाया में बीता था। कुभा (कुहु)-काबुल ( नदी)। कुमारवन-कुमाऊँ, कूर्माचल। (विराटपर्व) कुम्भधोण-तंजोर जिले में चोलों की राजधानी तथा विद्यापीठ रहा है। (चैतन्यचरित०) कुरुक्षेत्र-'महा'भारतों का धर्मक्षेत्र भी, युद्धक्षेत्र भी-थानेसर। . कुरुजांगल-रितनापुर के दक्षिण पश्चिम का 'आरण्यक' प्रदेश । कृलिन्द (देश)-कभी सतलज तथा गंगा के बीच का सारा प्रदेश 'कुलिन्द' कहलाता था, आज गढ़वाल के साथ ( उत्तर ) दिल्ली तथा सहारनपुर उसमें शामिल करने होंगे। ( महा०) कुलूत-कुल्लू ; कभी कुलिन्द का ही एकांश था। (बृहत्संहिता) कुश(भवन)पुर-अवध में गोमती के तट पर, सुलतानपुर । इक्ष्वाकुओं की पुरानी राजधानी अयोध्या को छोड़कर, कुश इधर आ बसा था । ( रघु० ) कुशाग्रपुर-मगध की प्राचीन राजधानी, राजगृह, गिरिवज्र । कुशस्थली-द्वारिका। इतिहास में आनों की राजधानी भी रही है। प्रसिद्ध विद्वान् कीथ ने इसे (मुन्शीजी की 'हिस्टरी आव गुजरात' पर संमति देते हुए ) श्रीकृष्ण, दयानन्द तथा गांधी की जन्मभूमि होने का श्रेय दिया है। कुशीनगर-जहाँ भगवान बुद्ध का महापरिनिर्वाण हुआ था, गोरखपुर के निकट आधु० 'कसिया' गाँव ( विल्सन)। For Private And Personal Use Only Page #813 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [ ७७५ ] कुसुमपुर-पाटलिपुत्र (पटना)। ( मुद्राराक्षस ) कूर्माचल-कुमाऊँ । कुमारवन । केकय-व्यास तथा सतलज के बीच का प्रदेश, जिसकी एक राजकुमारी ( कैकेयी ) की ईर्ष्या से राम को वनवास मिला था। कोसल-अयोध्या। जब कोसल साम्राज्य की ( उत्तर, दक्षिण ) दो भागों में विभक्त कर दिया गया, उनकी राजधानियाँ भी क्रमशः कुशावती तथा श्रावस्ती बन गई। भगवान् बुद्ध के समय में कोसल एक बलशाली साम्राज्य था, कपिलवस्तु तथा बनारस उसके अन्तर्गत थे। किन्तु, ३०० ई० पू० में इसका मगध में समावेश हो गया और इसकी राजधानी भी तब श्रावस्ती न रहकर पाटलिपुत्र हो गई। कहीं-कहीं दक्षिण-कोसल की प्रतिष्ठा 'महाकोसल' नाम से भी मिलती है। कौशाम्बी-इलाहाबाद के प्रायः ३० मील पश्चिम की ओर 'कोसम' जो कभी वत्सदेश की राजधानी थी। (बृहत्कथा, भास) कोड़ (देश)-कुर्ग । (कावेरीमाहात्म्य ) क्रौञ्च (-रन्ध्र, पर्वत)-तिब्बत तथा भारत' में (कुमाऊँ की घाटी में ) प्रवेशद्वार, जिसका 'उद्घाटन' परशुराम ने किया था। कुछ विद्वानों के अनुसार यह 'बर्मा-आसाम' को पूर्वीय पर्वतमाला का घोतक है। रामायण के अनुसार क्रौंचपर्वत कैलास का वह भाग है जहाँ मानसरोवर झील शोभायमान है। तो क्या 'कैलास' शिव-पार्वती के दस क्रीड़ा शैलों का एक सामान्य नाम है और तथैव क्या मानसरोवर का भी? खप(स)-किष्टवाक तथा वितस्ता के बीच का इलाका, जिस पर कभी खसों का साम्राज्य' था। कुछ विद्वानों के अनुसार इन पार्वतीय खसों को परास्त करके ही चन्द्रगुप्त द्वितीय 'विक्रमादित्य' बने थे, किन्तु अधिक सम्भव यही है कि शकाधिपति किदार को वक्षु तक खदेड़ कर चन्द्रगुप्त ने शकों का नामशेष तो किया ही था, साथ ही गुप्तों की डूब चुकी प्रतिष्ठा का उद्धार करके वे वराह-अवतार भी कहलाये। ( देवीचन्द्रगुप्त, हर्षचरित, रघुवंश १३) । गजसाइय-हस्तिनापुर । ( भागवत०) गजेन्द्रमोक्ष-गंगा तथा गण्डकी के संगम पर प्रसिद्ध तीर्थ ( भागवत० )। शोणपुर । गन्धमादन-कैलास की दक्षिणी शाखा, जहाँ कभी हनुमान् का आवास था-बदरिकाश्रम भी यही स्थित है। ( कालिका०, विक्रमो०) गाधिपुर-कान्यकुब्ज ( कन्नौज ) जिसे विश्वामित्र के पिता ने बसाया था। गान्धार, गन्धर्वदेश-काबुल नदी के साथ-साथ बसा हुआ कुनार तथा सिन्ध नदियों का 'मध्यदेश', जिसमें कभी पेशाबर तथा रावलपिण्डी समाविष्ट होते थे। पुरुषपुर ( पेशावर ) तथा समशिला इसकी दो राजधानियाँ थीं।। गिरिकर्णिका-(गुजरात में ) साबरमती। गिरिनगर-गिरिनार-जूनागढ़ में एक पर्वतमाला, जहाँ नेमिनाथ तथा पार्श्वनाथ के प्रसिद्ध जैन मन्दिर हैं। कभी ऋषि दत्तात्रेय का आवास था। अशोक के कुछ शिलालेख यहाँ भी अभिलिखित हुए थे। सुदर्शन झील का तथा उसके उद्धारक रुद्रदामन् का नाम भी इससे सम्बद्ध है । ( स्कन्द०, बृहत्सं०) गिरिवज्र-(बिहार में) मगध की प्राचीन राजधानी-राजगृह-वसु' के द्वारा संस्थापिता होने से इसे वसुमती भी कहा जाता है (रामायण)। 'बुद्धयुग' में इसे कुसुमपुर भी कहने लगे थे। प्रसिद्ध विश्वविद्यालय 'विक्रमशिला (विहार ) यही स्थित था। (महावग्ग) गृध्र कूट-गिरिन्गर' के दक्षिण की ओर रत्नगिरि शृङ्खला का एक भाग, जहाँ तपोमन बुद्ध पर For Private And Personal Use Only Page #814 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [ ७७६ ] देवदत्त ने शिला फेंकी थी। यहीं, जीवक वन में, अजातशत्रु तथा उसके प्रधानमन्त्री वर्षकार ने स्वयं भगवान् की सेवा में उपस्थित हो, 'पाटलिपुत्र' की स्थापना-योजना बनाई थी। ( चुल्लवग्ग ) गुप्तकाशी (उड़ीसा में ) भुवनेश्वर । (कुमाऊँ में ) शोणितपुर ( हरिवंश ) | गोकर्ण - ( उत्तर गो०) गंगोत्तरी से ८ मील दूर, भगीरथ का 'तपोवन' । ( दक्षिण गो० ) करवाल में गेंडिया तीर्थ । गोकुल - कृष्ण के बाल्यकाल की क्रीड़ाभूमि - ब्रज गोकुल मथुरा से ६ मील पर है । गो (गौतमी - गोदावरी । ( शिव० ) गोनर्द ( द ) - पंजाब, क्योंकि काश्मीर के राजा गोनर्द ने इसे जीत लिया था । एक 'गोनर्द ' अवध में भी है, (गोंडा ), जहाँ महाभाष्यकार पतंजलि ने जन्म ग्रहण किया था । गोपकवन - आधु० गोआ । ( विक्रमांकदेवचरित ) | गोपाद्रि - १. रोहतास ( पर्वत ) । २. काश्मीर में 'तख्ते सुलेमान', जिसे शास्त्रों में 'शङ्कराचार्य' पर्वत भी कहा गया है । ३. ग्वालियर । ( राजतरंगिणी ) गोवर्धन - वृन्दावन से १८ मील दूर, वही पर्वत जिसे ( 'पैथो' ग्राम में) बाल कृष्ण ने अपनी उंगली पर उठा लिया था । गौड़ - ( मगध साम्राज्य से मुक्त हुए ) बंगाल की प्रतिष्ठा ( ७वीं सदी में ) इस नाम से हुई थी। यह अंग देश के दक्षिण में था । ( हर्ष० ) गोमती, चर्मण्वती (दे० 'रन्तिपुर ) । गोमल । घर्घरा- - घग्गर नदी, जो कुमाऊँ से निकल कर सरयू में आ मिलती है । ( पद्म० ) चक्षु -- वक्षु ( इक्षु ) और आमू नामक नदी जो महाभारत, रघुवंश तथा चन्द्र के महरौली अभिलेख के अनुसार 'शाकद्वीप' में बहती थी । चन्दनगिरि, मलयगिरि- - मालाबार घाट । ( त्रिकाण्ड० ) चन्दना - साबरमती । चन्द्रभागा -- चनाब ( चन्द्रिका), जिसकी एक शाखा असिक्नी थी । चम्पा - श्यामाद्वीप (ह्यून्सांग ) । २. अंग तथा मगध के बीच रहनेवाली चम्पा नदी (पद्म० ) । ३. चम्ब । रियासत ( राजतरंगिणी ) । ४. अंग देश की राजधानी ( जिसका पुराना नाम ' मालिनी' था ) । चम्पारण्य - ( मध्य भारत में ) राजिम के पाँच मील उत्तर में, जैनों का एक तीर्थ (जैमिनि भारत ) । २. पटना डिवीज़न में 'चम्पारन' । ( शक्तिसंग्रह तन्त्र ) चरणादि - (मिर्जापुर में ) चुनार का प्रसिद्ध अजेय दुर्ग, जिसे बंगाल के पाल राजाओं ने ८- १२वीं सदियों में बनवाया था । चरित्रपुर - ( उड़ीसा में ) पुरी का तीर्थ, तीर्थपुरी । चर्मवती - 'रन्तिपुर' गोमती नदी । चिताभूमि - सन्थाल परगना में, वैद्यनाथ अथवा देवघर, जहाँ १२ ज्योतिर्लिंगों में एक ( रावण द्वारा स्थापित ) है | चित्रकूट - बुन्देलखण्ड में पयस्विनी मन्दाकिनी के तट पर वह पर्वत- तीर्थ, जहाँ भगवान् रामचन्द्र ने अपने प्रवास की कुछ आद्यावधि बिताई थी । चिदम्बरम्, चित्तम्बलम् - दक्षिण में शिव की पाँच भौतिक मूर्तियों में 'आकाश तत्त्व' क प्रतिष्ठा स्थान | ( देवी भाग० ) । चेदि - 'काली - सिन्धु' तथा तोंस के मध्यगत, बुन्देलखण्ड तथा मध्यप्रान्त का कुछ भाग, जो कभी 'शिशुपाल' की राजधानी था। For Private And Personal Use Only Page #815 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [ ५७७ ] चैत्यगिरि-भोलसा से तीन मील उत्तर की ओर, बेननगर–जहाँ अशोक का ससुराल था। (कपिलवस्तु में लुम्बिनी, सारनाथ में बोधगया, काशी में मृगदाव, श्रावस्ती में जेतवन, मगध में राजगृह वैशाली, कुशीनगर आदि बौद्धों के ८ तीर्थ 'चैत्य' कहाते हैं।) कुछ विद्वानों ने इसकी स्थिति-समता सांची तथा विदिशा से भी की है । ( नहावश ) चोल-पिनाकिनी ( पेन्नार ) तथा कुर्ग नदियों के बीच में कोरोमण्डोल घाट जिसकी राजधानी, कावेरी पर अवस्थित, 'उदैपुर' थी। च्यवन-(बंगाल के शाहाबाद जिले में ) च्यवन ऋषि का आश्रम । जन(क)स्थान-गोदावरी तधा कृष्णा के बीच का प्रदेश (जनकपुर-विदेह) तथा औरंगाबाद जो 'पहले' दण्डकारण्य का एक भाग था-दण्डकारण्य में पंचवटी ( नासिक ) भी शामिल थी। ( भवभूति) जमदग्नि-गाजीपुर में ( 'जमानिया' नाम से प्रसिद्ध ) ऋषि परशुराम का आश्रम । जाबालिपुर--जबलपुर । (प्रबन्धचिन्तामणि) जयपुर-प्राचीन मत्स्य देश, विराटनगर । जाह्नवी-गंगा। किन्तु, जह का आश्रम आजकल, सुलतानगंज (भागलपुर ) के संनुख गंगा से निकल रही एक चट्टान पर था, ऐसा बताते हैं । जीर्णनगर-पूना जिले का जुनेर-जो कभी क्षत्रप राजा नहपान की राजधानी था। जूर्णनगर-यवननगर, जूनागढ़ । जेतवन (विहार)-श्रावस्ती से १ मील दक्षिण की ओर जोगिनीभरिया' नाम का टीला, जहाँ कभी उपवन के अन्दर श्रावस्ती के श्रेष्ठो दानवीर 'अनाथ-पिण्डक' सुदत्त ने एक 'विहार' स्थापित किया था । (चुल्लबग्ग) ज्वालामुखी-कांगड़ा में एक 'पीठ', जहाँ 'सती' की जिला गिरी थी। ज्यालामुखी पर्वत की ऊँचाई ३२८४' है, जहाँ १८८२' पर महेश्वरी की एक 'मूर्ति स्थापित है। झाळखण्ड-छोटा नागपुर, जिसको राजा मधुसिंह की पराजय के अनन्तर अकबर ने १५८५ ई० में मुग़ल साम्राज्य में मिला लिया था। 'टक्क-व्यास तथा सिन्धु के मध्य का प्रदेश, पंजाब । ( मृच्छकटिक) तक्षशिला-जिला रावलपिण्डी का एक प्राचीन नगर, जहाँ बौद्धयुग में एक प्रसिद्ध विश्व. विद्यालय था। पाणिनि तक्षशिलाविद्यापीठ में 'आचार्य' थे। 'दिव्यावदान' में अंकित है कि बुद्ध किसी पूर्वजन्म में 'भद्रशिला' के राजा थे, जहाँ एक ब्राह्मण भिक्षु ने उनका सिर काट डाला था। तब से भद्रशिला को लोग 'तक्षशिला' कहने लगे। बौद्धयुग में यहाँ पाणिनि के 'संस्कृत व्याकरण' का अध्यक्ष नियुक्त होना ( तथा धनुर्वेद का पाठ्यक्रम में समावेश ) हमारी बौद्ध 'पाली' तथा अहिंसा-विषयक धारणाओं को एकदम निर्मूल सिद्ध कर देता है । तपनी-ताप्ती; तामती । ( मेवदूत) तमसा-( अवध में ) तोंस नदी, जिसके तट पर वाल्मीकि का 'आदि' जीवन बीता था। तालवन-कावेरी पर चोळ राजाओं की पुरानी राजधानी, 'तळकाळ'। तीसरी सदी से यहाँ गंगवंश का राज्य रहा था, जिसे ११वीं सदी में चोलों ने तमिक देश से उखाड़ फेंका। ताम्रपर्णी-(बौद्ध वाङमय में ) सिंहल द्वीप। २. दक्षिण में अगस्त्यकूट पर्वत से उद्भूत ताम्रपर्णी नदी । ( रघुवंश) ताम्रलिप्ती-प्राचीन सुह्म देश की एक नदी एवं राजधानी; मौर्यकाल से लेकर गुप्तों के पान तक ( एक सहस्र वर्ष १ ) इसका यथावत् ऐतिहासिक महत्त्व रहा । ( महा०, रघु०) तीरभुक्ति-तिरहुत । ( देवीभाग० ) For Private And Personal Use Only Page #816 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [ ७८ ] तुंगभद्रा - मैसूर के दक्षिण-पश्चिमी सीमान्त पर कृष्णा की सहायक नदी । सुण्डीरमण्डल - द्रविड़ देश का एक भाग, 'तोण्डमण्डल' ( कोरोमण्डल ? ) जिसकी राजधानी काञ्चीपुर थी । (मल्लिकामारुत ) तुरुष्क—पूर्वी तुर्किस्तान | (गरुड़० ) तुषार - यूनानी लेखकों का 'वेक्ट्रिया' तथा अरबी लेखकों का 'तुखारिस्तान', जिसमें बलख तथा बदख्शां शामिल थे । तृष्णा - तिस्तानदी । शाल्मलि द्वीप ( क ल्दिआ ) में 'टाइग्रिस नदी' । त्रिक कुट्, त्रिविष्टप- ( तिब्बत ) । २. त्रिकूट ( सिंहल में भी ? ) । ३. जुनर । त्रि (क) लिंग - तेलंगाना । त्रिगते - जालन्धर - 'रावी - व्यास - सतलज' का 'ति- आब' | त्रिपदी (ति) - तिरुपति, वेङ्कटगिरिं । रामानुज ने यहाँ विश्वनाथ की मूर्ति स्थापित की थी, 'रसगंगाधर' के रचयिता पण्डितराज जगन्नाथ की जन्मभूमि । त्रिपुरा - किरात देश, तिपारा- जो कामरूप के अन्तर्गत था । त्रिपुरी - जबलपुर से सात मील पश्चिम में, नर्मदा तट पर, 'तिओर' जहाँ महादेव ने त्रिपुरासुर वध किया था (लिङ्ग ० ) । २. कळन्चुरियों की राजधानी - चेदिनगर । ३. शोणितपुर । त्रिवेणी - (प्रयाग में ) गंगा-यमुना- सरस्वती का, तथा पूर्व की ओर गण्डकी देविका - ब्रह्मपु६. का 'संगम-तीर्थ' । ( बंगाल में 'मुक्त' त्रिवेणी, इलाहाबाद में 'युक्त' - त्रिवेणी ) ! त्रिशिरपल्ली - 'त्रिचनापल्ली', जहाँ रावण का सेनापति रहा करता था । त्र्यम्बक-नासिक से २० मील पर, प्रसिद्ध गोदावरी तीर्थ । दक्षिण- गंगा - गोदावरी अथवा कावेरी अथवा नर्मदा अथवा तुङ्गभद्रा । दक्षिणगिरि - दशार्ण ( कालिदास ), जिसकी राजधानी 'चेतिय' थी, भूपाल राज्य । दक्षिण-मथुरा - मदुरा अथवा मीनाक्षी, पाण्ड्यों की प्राचीन राजधानी । दक्षिणापथ - दाक्षिणात्य जनपद, अर्थात् 'विन्ध्य के दक्षिण का भारत' । दण्डकारण्य - विन्ध्य तथा शिवालय के मध्य का 'महाकान्तार' अथवा 'महाराष्ट्र', जो जनस्थान के पश्चिम में था । ( भवभूति ) दर्दुरे - ( मद्रास में ) नीलगिरि पर्वतमाला । दर्भवती -- ( गुजरात में ) दभोई। दशपुर - ( मालवा में ) मन्दसोर ( मन्ददशपुर ) अर्थात् दासोर । दशार्ण - 'पूर्वी मालव' देश | ( दक्षिणगिरि ) जिसकी राजधानी ( अशोक के समय में ) 'चैत्य गिरि' थी । दाशेरक - मालवा | ( त्रिकाण्ड० ) दुर्जयलिंग - दार्जिलिंग | दुर्वासाश्रम - भागलपुर से १५ मील की दूरी पर; 'कलहग्राम' के निकट, 'खड़ी पहाड़' पर दुर्वासा ऋषि का आश्रम । हृषद्वती - - अम्बाला और सरहिन्द के मध्य की नदी, घग्गर । देवगिरि - निजाम राज्य में, दौलताबाद । ३. महाराष्ट्र ( देवराष्ट्र ? ) में | शिवालय । ३० अर- वक्री की एक शाखा । ( मेघदूत ) देवपत्तन - प्रभास = सारनाथ । देवपुर (-- मध्यभारत में, महानदी तथा पैड़ी के संगम पर, राजिम । देवराष्ट्र, महाराष्ट्र ( ? ) - समुद्रगुप्त की दक्षिण - विजय के समय इसका राजा कुबेर था । For Private And Personal Use Only Page #817 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [ ७७६ । देवीकोट-कुमाऊँ में स्थित शोणितपुर । द्रमिक-पूर्वी घाट पर पल्लवों का देश; जिसके नाम-भ्रंश द्रविड़, तामिल आदि हैं। द्रोणादि-कूर्माचल ( कुमाऊँ ) पर द्रोणाचार्य का तपोवन । द्वारावती-द्वारिका, कुशस्थली । द्वैतवन-( उत्तर प्रदेश में ) 'देवबन्द' तपोवन, जहाँ जुए में हारे पाण्डव वनवासी थे । (किराता०) (बहु)धजक बहुधान्यक-रोहितक; आधु० रोहतक । धन(म)कटक-(मद्रास में ) आन्ध्रभृत्यों, सातकर्णियों ( सातवाहनों) की राजधानी, धारणिकोट, धान्यवतीपुर। धर्मारण्य-गया से ५ मील की दूरी पर, बौद्धों का प्रसिद्ध तीर्थस्थान, जहाँ आज धर्मेश्वर को अपित एक मन्दिर है । मिर्जापुर के मोहरपुर को भी कुछ विद्वान् “धर्मारण्य' समझते हैं । जहाँ अहल्यापति गौतम द्वारा अभिशप्त इन्द्र ने तप किया था। धवलगिरि-उड़ीसा की 'धौली' पर्वतमाला, जहाँ अशोक के कुछ अभिलेख उपलब्ध हुए हैं। धारा (नगर)-मालवा में राजा भोज की प्राचीन राजधानी 'धार' । नगरकोट-कांगड़ा । (तीर्थ) नगरहार--जलालाबाद के ५ मील पश्चिम की ओर, सक्खर तथा काबुल से संगम पर अवस्थित,. ऐतिहासिक नगर। नन्दिकुण्ड-साभ्रमती ( साबरमती ) का उद्गम स्रोत । नन्दिग्राम-(अवध में ) 'नन्दगाँव', जहाँ भरत ने राम के बिछोह में १४ वर्ष काटे थे। इसका एक और नाम 'भादरासा' (भ्रातृदर्शन) भी है। नलपुर-ग्वालियर से ४० मील दक्षिण-पश्चिम की ओर काली-सिन्धु पर, राजा नल को राजधानी, 'नरनाव। नलिनी-ब्रह्मपुत्र नदी । ( रत्ना० पम०) नवद्वीप-( बंगाल में) चैतन्य महाप्रभु की जन्मभूमि 'नदिया', कभी यहाँ विश्वविख्याता 'नवद्वीप' विद्यापीठ था। नवराष्ट्र-बम्बई के भडोच जिले में, नौसारी । नागनदी-अचिरावती, राप्ती । नाट(क)-लाट । (गुजरात) नारायणी-गण्डक नदी। नालन्दा-पटना में, राजगृह के दक्षिण-पश्चिम की ओर अवस्थित, प्राचीन बौद्ध विश्वविद्यालय । नासिक्य-पञ्चवटी । ( नासिक) निच्छवी-लिच्छवि ( तिरहुत ), तीरभुक्ति । निर्विन्ध्य (1)-चम्बल की एक धारा, 'नेबुज' । ( मेघदूत ) निवृत्ति-पुण्डदेश का पूर्वीय भाग, जिसकी राजधानी पुण्ड्वर्धन थी; गौड़। (त्रिकाण्ड० ) निषध-राजा नल की राजधानी-मारवाड़ तथा जोधपुर का प्रदेश। २. नागों की 'निषाद भूमि'। (ब्रह्माण्ड०) नीच-भूपाल में, भीलसा के दक्षिण की ओर की गिरिशृङ्खला, नीचाक्ष । ( मेवदूत, देवो०) नीलगिरि-पुरी ( उड़ीसा ) की गिरिशृङ्खला, जहाँ जगन्नाथ का प्रसिद्ध मन्दिर है। हरिद्वार की नील धारा पर छाये चण्डी पर्वत को भी 'नीलगिरि कहते हैं। किन्तु इन्द्रनील पर्वत, जहाँ अर्जुन ने पाशुपत अस्त्र की सिद्धि के लिये तप किया था, तो द्वैतवन के निकट ही कहीं होना चाहिए । (किराता०) For Private And Personal Use Only Page #818 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [ ७८ ] नि (ने) रंजना ( रा ) - फल्गु नदी ( अश्वघोष ), जिसके तट पर भगवान् बुद्ध को बोध प्राप्त हुआ था । पंचकेदार - गढ़वाल की पर्वतमाला पर केदारनाथ, तुङ्गनाथ, रुद्रनाथ, मध्यमेश्वर, कल्पेश्वर नाम के ( महादेव के अंगांग के द्योतक ) पाँच शृङ्ग । ( बदरीविशाल० ) पंचगौड़ - बंगाल से प्राचीन विभाग- पुण्ड्र, राढ़, मगध, तीरभुक्ति, वारेन्द्र । ( राजत० ) पंचग्राम - ३० पाणिप्रस्थ । ; पंचतीर्थ - हरिद्वार की पश्चिमी घाटी में (सप्त-, सीता, अमृत, राम, सूर्य ) कुण्ड | ( स्कन्द० पंचद्रविड़ - द्राविड़, कर्णाट, गुजरात, महाराष्ट्र, आन्ध्र - दक्षिण के जिस विभाग का आधार, भूगोल नहीं, ब्राह्मणों का 'अन्तर्जातीय भेद' है । पंचनद — पंजाब | कुरुक्षेत्र में एक तीर्थस्थान । कृष्णा, वेन, तुङ्ग, भद्रा, कोन ( नदियों का ) 'दक्षिणी' पंचाल | पंचप्रयाग - विभिन्न संगमों पर अवस्थित देव, कर्ण, रुद्र, नन्द तथा विष्णु – 'प्रयाग' तीर्थ । पंचबदरी - बदरीनाथ, वृद्धबदरी, भविष्यबदरी, आदिबदरी, पाण्डुकेश्वर आदि । पंचवटी - नासिक्य ( नासिक ), जहाँ रावण ने सीता का अपहरण किया था । यहीं शूर्पणखा तथा मारीच के काण्ड हुए थे । • पंचाल - रोहिलखण्ड, जो पहले गंगा की धारा द्वारा दक्षिण तथा उत्तर पंचालों में विभक्त था । उत्तर पंचाल की राजधानी अहिच्छत्रा थी, दक्षिण ( जहाँ की द्रौपदी थी ) की कांपिल्य । पद्मक्षेत्र - उड़ीसा में, 'कोणार्क' नाम से प्रसिद्ध सूर्य-मन्दिर । पद्मपुर, पद्मावती-भवभूति की जन्म तथा दीक्षाभूमि, आधु० पद्मपवाया ( विजयनगर विद्यानगर ) | ( उत्तरचरित ) पम्पा - किष्किन्धा में, तुङ्गभद्रा की एक धारा । यहाँ पर ऋष्यमूक के चरणों में 'पम्पा' सरोवर भी है। पयस्विनी - त्रावनकोर में, पापनाशिनी नदी । परुष्णी - इरावती ( पंजाब की रावी ) नदी । पर्णाशा - राजपूताना में, चम्बल की एक धारा, बनास । पलक्कड़ - पालघाट, दशनपुर । पलाशिनी - कपिशा, सुवर्णरेखा । पल्लव - दक्षिण में, कोरोमण्डल से सीमित देश - राज० काञ्ची । पवमान - पारियात्र की, एवं हिन्दूकुश की, एक पर्वतमाला । पशुपतिनाथ - ( नेपाल ) मृगस्थली में, महादेव का प्रसिद्ध मन्दिर । पश्चिम सागर — अरब सागर । ( अ ? ) पल (न) व प्राचीन पार्थ (फारस ) राज्य का 'मद' प्रदेश । यहीं की 'पहवी' लिपि "मैं ज ेन्द ' अवस्ता' को सर्वप्रथम लेखबद्ध किया गया था। पहव देश कभी ( अरबी ?) घोड़ों के लिए भी विख्यात था । पाटलिपुत्र-पटना, जिसका मूल निर्माण अजातशत्रु ( ४८० ई० पू० ) ने किया था। मगध की प्राचीन राजधानी गिरिवज्र ( राजगृह ) का त्याग कर, पाटलिपुत्र को नयी राजधानी उदयाश्व ने बनाया था । पाठेय्य - बुद्ध-युग में 'पश्चिमी' भारत - जिसमें कुरु, पंचाल, अवन्ती, गान्धार, कम्बोज, शूरसेन आदि सम्मिलित थे । ( महाबग्ग ) प्राणिप्रस्थ - पानीपत । पाणि, शोण, इन्द्र, तिल, भाग—ये पाँच 'प्रस्थ' ग्राम ) लेकर भी For Private And Personal Use Only Page #819 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra [ ७८ ] युधिष्ठिर सन्तुष्ट था, किन्तु दुर्योधन न माना। इन 'पाँच ग्रामों' के नाम महाभारत में तथा वेणीसंहार में कुछ भिन्न हैं । www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पाण्डू (पाण्ड्य ) - दक्षिण के आधु० तिन्नेवेल्ली तथा मदुरा डिवीजन - जो समय-समय पर अपनी राजधानी - उरैपुर > मदुरा > कोल्कई- बदलते रहे । यहाँ के राजा पुरु ने २६ ई० पू० में अपने दूत रोम भेजे थे । पाताल - ( रामायण में ) अश्मन्वती ( आमू) के उत्तर में और बलख के द० पू० अश्मक = 'औक्सियाना' देश | पापनाशिनी - पयस्विनी । पारस द्र - सिंहरू । ( अर्थशास्त्र ) पारसीक, पारस्य — फारस । ( रघु०, विष्णु० ) पारस्कर - सिन्ध में 'थल पारकर' । ( पाणिनि ) पारिया (पा) त्र - विन्ध्य की पश्चिमी शाखा, जो कभी आर्यावर्त्त की दक्षिणी सीमा थी । ( महाभाष्य ) पावनी - ( कुरुक्षेत्र में घर्वरा = दृषद्वती ) घागर नदी, जो पंजाब के हिन्दी - पंजाबी जनपदों की प्राकृतिक 'सीमा' है 1 पिनाकिनी - (मद्रास में ) नन्दिदुर्ग से उद्गत, 'पेन्नार' नदी । पिष्टपुर — गोदावरी जि० में, 'पिठापुर' । ( हरिषेणप्रशस्ति ) पुण्ड्रवर्धन - पंचगौड़ (बंगाल) में, गंगा तथा हेमाद्रिकूट का 'मध्यदेश' । पुण्यपत्तन- पुणे, पूना, पुनक | पुरुषपुर — गान्धार देश की (एक) राजधानी, पेशावर । ( विप० स्त्रीराज्य ) पुरुषोत्तम क्षेत्र - ( बिहार में ) पुरी । पुलिन्द - भारत की पूर्वीय ( कामरूप ) तथा पश्चिमीय ( बुन्देलखण्ड, सागर ) सीमाओं पर कभी पुलिन्दों तथा शबरों के घर थे । पुष्कर - अजमेर से ६ मील दूर झील 'पोखड़ा' । महाभारत के समय में यहाँ उत्सव संकेतों की सात ( म्लेच्छ ? ) जातियाँ रहा करती थीं । पुष्करद्वीप - मध्य एशिया में, 'बोखारा' । पुष्करावती - प्राचीन गान्धार की राजधानी - जिसे भरत ने अपने पुत्र के नाम से बसाया था और जिस (अष्टनगर ) पर सिकन्दर का पहला आक्रमण हुआ था । पुष्करावती नगर - रंगून । ( दीपवंश ) पुष्पपुर - कुसुमपुर, पटना । पूर्वगंगा-नर्मदा | पृथूदक -- करनाल में, सरस्वती नदी पर, 'पेहोवा' – जहाँ प्रसिद्ध 'ब्रह्मयोनितीर्थ' अवस्थित है । पृष्ठचम्पा - बिहार । पौरव - जेहलम के पूर्व में, पौरवों का राज्य – जहाँ सिकन्दर पुरु की 'अग्निपरीक्षा' पर चकित रह गया था। प्रतिष्ठान - उत्पलारण्य ( बिठूर ), जहाँ के ( राजा उत्तानपाद के पुत्र ) ध्रुव ने मथुरा में घोर तपस्या की थी । पालिग्रन्थों में गोदावरी के तट पर अश्व ( श्म) ल ( महाराष्ट्र ) की (राजधानी) - का उल्लेख 'ब्रह्मपुरी' प्रतिष्ठान नाम से हुआ है। इलाहाबाद के संमुख गंगा-पार झूसी को आज भी 'प्रतिष्ठानपुर' कहते हैं। जिला गुरदासपुर ( औदुम्बर ) की राजधानी पठानकोट का भी पुराना नाम 'प्रतिष्ठान ( कोट ? )' ही था । For Private And Personal Use Only Page #820 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir (७८२) प्रत्यग्रह-अहिच्छत्र। प्रभास-काठियावाड़ ( जूनागढ़) में सोमनाथ का प्रसिद्ध तीर्थ, प्राचीन नाम देवपत्तन । यही भगवान कृष्ण का प्राणोत्सर्ग हुआ था। प्रयाग-प्राचीन कोसल का वह भाग, जिसकी राजधानी प्रतिष्ठान (झूसी) थी। इतिहास में पुरूरवा ( दुष्यन्त), नहुष, ययाति, पुरु, भरत का सम्पर्क इधर से ही अधिक रहा है, आधुनिक इलाहाबाद। अवरपुर-प्रवरसेन द्वितीय द्वारा प्रतिष्ठापित ( काश्मीर की राजधानी) श्रीनगर । प्रस्थल-फिरोजपुर-पटियाला-सिरसा के अन्तर्गत प्रदेश । (मार्क०) प्रस्रवण- गोदावरी के तट पर, जनस्थान में शोभायमान ( औरंगाबाद ) की पहाड़ियाँ, जिन्हें रामायण में माल्यवान् (गिरि ) भी कहा गया है। प्रह्लादपुरी-मुलतान ! प्राग्योतिष-प्राचीन 'कामरूप' की राजधानी-कामाख्या, गोहाटी। प्राध्य-(सरस्वती के ) दक्षिण-पूर्व का भारतवर्ष । फल्गु-निरंजना नदी-भगवान बुद्ध के नव जन्म एवं बोध की भूमि । ( अश्वमेध ) बंग-बंगाल', किन्तु दे० पंचगौड़। बदरी-बदरिकाश्रम, बदरीनाथ । दे० पंचबदरी। बालुकेश्वर-(बम्बई के निकट ) 'मालाबार हिल'। बालोक्ष-बलोचिस्तान । ( अवदानकल्पलता) 'बिन्दुसर-गंगोत्तरी के दो मील दक्षिण की ओर, 'रुद्र हिमालय' पर प्रसिद्ध सरोवर, जो भगीरथ की तपोभूमि था। बेस्सनगर-वैश्यनगर (१) भूपाल में, साँची के निकट, भीलसा से तीन मील पर, चैत्यनगर, जो प्राचीन दशार्ण की राजधानी था । दे० चैत्यगिरि। ब्रह्मकुण्ड-ब्रह्मपुत्र का उद्गम स्रोत । ब्रह्मदेश-बर्मा। ब्रह्मनाल-काशी मैं, 'मणिकर्णिका' कुण्ड । ब्रह्मर्षिदेश-ब्रह्मावर्त तथा यमुना के अन्तर्गत देश-जिसमें कुरुक्षेत्र, मत्स्य, पंचाल तथा शूरसेन समाविष्ट थे। (मनुसं०) ब्रह्मसर-रामहद। ब्रह्मावर्त्त-सरस्वती तथा दृषद्वती का 'मध्यप्रदेश', जो आर्यों का प्रथम 'उपनिवेश' था। भद्रा-यारकंद, तथा यारकंद की ज़रफ़्शा नदी। भरु (भृगु) कच्छ ?-भडोच, जहाँ वामन ने राजा बली का अभिमान भंग किया था। भारतवर्ष-भरत के नाम से 'भारतवर्ष कहलाने से पूर्व हमारे देश का नाम 'हिमा अपिवा 'हैमवत' था। अर्थात् मूल अर्थों में भारतवर्ष 'उत्तर भारत का नाम था । मार्कण्डेय तथा विष्णुपुराण के अनुसार भारतवर्ष की सीमाएँ थी--उत्तर में हिमालय, दक्षिण में समुद्र, पश्चिम में यवन तथा पूर्व में किरात । दक्षिणापथ में प्रथम प्रवेश अगस्त्य ने, पश्चात् अशोक के धर्म ने तथा समुद्रगुप्त की बाहुओं ने किया था। भार्गव-पश्चिमी आसाम । ( ब्रह्माण्ड०) ' भास्करक्षेत्र-प्रयाग । (प्रायश्चित्ततच्च ) भीम(7)-विदर्भ ( देश, एवं नदी)। भोज (पाल)-मध्यभारत में, राजा भोज के बनाये ( झीलों के ) पालों ( बाँधों ) के नाम पर 'भूपाल' (देश)। For Private And Personal Use Only Page #821 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir । ७८३ ] - भोटांग-काश्मीर-कामरूप के अन्तर्गत देश, भूटान, तिब्बत । ( तारातन्त्र )। मातृदर्शन-( अवध में ) नन्दिग्राम, श्रादरसा-जहाँ भरत ने राम के वियोग में १४ वर्ष काटे थे। ( अर्चावतार ) मगध-दक्षिण बिहार, जिसकी राजधानी गिरिवज्र थी। अजातशत्रु ने वैशाली के वृज्जियों की उन्नति पर रोक रखने के लिए 'पादलिग्राम' को नई राजधानी में परिणत कर दिया था। यहीं पर भीम ने जरासन्ध का वध किया था। मणिकर्णिका-कुल्लू की घाटी में व्यास की एक धारा, जिसके निकट कुण्डों के गरम पानी में सब्जियाँ आग के बिना उबाली जा सकती हैं। मणितट-(आसाम में ) मणिपुर । ( मेघ० ) मत्स्य-जयपुर का प्राचीन क्षेत्र, जिसमें आधु० अलवर तथा भरतपुर शामिल थे। पाण्डों का अज्ञातवास इधर ही विराट के महलों में गुजरा था। मद्र-रावी चनाब का मध्यदेश, जिसकी राजधानी शाकल ( स्यालकोट ) थी। शल्य तथा , अश्वपति ( सावित्री का पिता) यहाँ के राजा रहे। 'माद्री' कन्यार अपने रूप-लावण्य के लिए प्रसिद्ध थीं। मधुपुरी-मधुरा (मथुरा)। इसे शत्रुघ्न ने बसाया था। मधु ( राक्षस ) की नगरी संभवतः आजकल की ‘महोली' है ( जहाँ 'मधुवन' तीर्थ भी है)। मध्यदेश-हिमगिरि, विन्ध्य, सरस्वती और प्रयाग के अन्तर्गत देश (जिसमें अन्तर्वेद सम्मिलित था ), बौद्ध ग्रन्थों का 'मज्झिमदेश'। इसमें कुरु, पंचाल, मत्स्य, यौधेय, कुन्ती, शूरसेन आदि का समावेश होता था । ( मनु०) मध्यमराष्ट्र-दक्षिणकोसल, महाकोसल । ( अर्थशास्त्र ) मन्दाकिनी-गढ़वाल में, केदारपति से उद्गत, कालीगंगा । (मन्दाग्नि) मन्दारगिरि-भागलपुर की एक पहाड़ी, जो 'समुद्रमन्थन' में मंथन-दण्ड के रूप में प्रयुक्त हुई थी। -मरु(-धन्व,-स्थल)-राजपूताना, मारवाड़। मरुद्वृधा-मरुवदवां, असिनी ( चनाब को एक धारा, 'आंस' ) के पश्चिम में । मयूर-हरिद्वार के निकट, मायापुरी। मलयागिरि-पश्चिमी घाट का दक्षिण भाग, 'बावनकोर हिल्ज़' । मलयालम्-मल्लार, मालाबार-जिसके अन्तर्गत कोचीन-त्रावनकोर का सारा प्रदेश था। (राजाबली)। मल्लदेश-मालव-देश, मुलतान । मल्लराष्ट्र-महाराष्ट्र। महती, महिता-(मालवा में ) माही नदी। महाकोसल-दक्षिणकोसल । महाकौशिक-नेपाल में सात 'कोसियों' से निर्मित एक और 'सप्तसिन्धु' देश, जहाँ 'तामोर अरुण-सुन' की 'त्रि-वेणी' भी है । महाराष्ट्र-कृष्णा-गोदावरी के इस 'मध्यदेश' को पहले 'दक्खिन' भी कहा करते थे, अश्मक भी। अशोक ने यहाँ महाधर्मरक्षित को भेजा था। 'आन्ध्रभृत्य, क्षत्रप, राष्ट्रकूट, चालुक्यकितने ही राजवंशों के उत्थान-पतन के अनन्तर, इतिहास में, मराठों का युग आता है। महावन-व्रज, गोकुल । महिष(मण्डल)-अनूपदेश अथवा हैहय राज्य ( आधु० मैसूर से कुछ अधिक ), राज. माहिष्मती। यहीं शंकर तथा मण्डन मिश्र का प्रसिद्ध शास्त्रार्थ हुआ था। (दीपवंश) For Private And Personal Use Only Page #822 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [ ४ ] महेन्द्र-उड़ीसा से मदुरा तक व्यापक पर्वतशृङ्खला । महोत्सव-बुन्देलखण्ड का 'महोबा', जिसके नाम पर कभी-कभी सारे के सारे बुन्देलखण्ड भी 'महोत्सव' कह देते थे। (प्रबोधचन्द्रोदय ) महोदधि-बंगाल की खाड़ी । ( रघु०) महोदय-कान्यकुब्ज, गाधिपुर । मातंग-कामरूप में, दक्षिण-पूर्व की ओर, हीरों की खानों के लिए प्रसिद्ध एक 'पट्टी'। मानस-च्छिमी तिब्बत (हूणदेश) में कैलास के चरणों में प्रसिद्ध पुण्य स्रोत । मायापुरी-मयूर । हरिद्वार-कनखल-मायापुरी की त्रिपुरी। मारकण्ड-समरकन्द । मारव-मारवाड़, मरुस्थलों मार्तिकावन-अलवर (शाल्ब)। माल(.)-(विदेह के पूर्व तथा मगध के उत्तर-पश्चिम में ) एक 'श्यामल' देश । मालिनी-हस्तिनापुर के निकट की 'मन्दाकिनी', जिस पर कण्व ऋषि का आश्रम था। माल्यवत्-तुङ्गभद्रा पर प्रस्रवण गिरि। मित्रवन-मुलतान। मिथिला-जनकपुर, विदेह । 'नवद्वीप' विश्वविद्यालय की स्थापना ने मिथिला एवं विक्रमशिला को स्मृतिशेष कर दिया था। मीनाक्षी-मदुरा। मवेणी-इलाहाबाद की 'युक्तवेणी' के विपरीत, हुगली पर त्रिवेणी का 'विप्रलम्भ' संगम। मुण्डा-छोटा नागपुर में, जि० राची। लागिरि-(बिहार में ) मुंगेर, जहाँ कभी मुद्गल ऋषि का आश्रम था और जहाँ युद्ध के महान शिष्य मोग्गलायन ने 'श्रुतविंशकोटि' श्रेष्ठी को धर्म में दीक्षित किया था । ( भारतब्राह्मण) मरला-भीमा की एक धारा । नर्मदा । केरल = मालाबार । म(मौजवत्-काश्मीर में एक पर्वत, जिस पर सोम बहुत था। मलस्थान-मालवस्थान (?), मुलतान । प्रसिद्ध ऐतिहासिक फूशे ने नाम-'व्युत्पत्ति के आधार पर इसे 'सृष्टि का उद्गम' माना है ? पौराणिक गाथाओं के अनुसार यहाँ नृसिंह से द्वारा हिरण्यकशिपु का वध हुआ था, सो, इसका एक नाम प्रह्लादपुरी ( अर्थात् 'होली' का मूल स्थान) भी है। हर्षचरित के अनुसार मालवदेश, रामायण के अनुसार मल्लदेश भी। यूनानियों ने इसी को हिरण्यपुरी (हिरण्यकशिपु की पुरी, होला - हिरण्य = Aura?) कहा है। मूषिक-सिन्ध का ऊपर का भाग, राज० 'अलोर। मु(मि)गदाव-सारनाथ, 'धम्मचकपवत्तन' का 'खुला विहार' । मृत्तिकावती-पर्णाशा ( बनास ) पर भोज-राजाओं का एक देश, मार्त = मारवाड़। मेकल-विन्ध्य का एकांश, अमरकण्टक शृङ्खला, 'मेकलकन्यका' (नर्मदा) का उद्भव । मेघना (द)-पू० बङ्गाल की एक नदी । आसाम में, 'समुद्रोन्मुख' ब्रह्मपुत्र । मेदपात-मेवाड़। मेहलु-क्रमु ( काबुल ) की एक धारा । मैनाक-'शिवालिक' शृङ्खला। मोक्षदा-हरिद्वार, मथुरा, काशी, काञ्ची आदि ( सात ) 'मोक्ष-दा' पुरी मानी गई हैं। मौलि-रोहतास हिल्ज'। मौलिस्ना(स्था ?)न-मालवा, मल्ल, मूल-स्थान, मुलतान । For Private And Personal Use Only Page #823 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [७८५] सार-उड़ीसा में वैतरणी नदी पर, ययातिपुर-जो छठी-दसवीं सदियों में केसरी राजवंश राजधानी था। --'जावा' दीप, जिसे गुजरात के एक राजकुमार ने सातवीं सदी के आरम्भ में बसाया ( ब्रह्माण्ड०) ननगर, जूर्णनगर-गुजरात का जूनागढ़ । वंक्षु नदी का क्षेत्र, अश्मक 'आक्सियाना', जहाँ 4वीं सदी ई० में) हूणों की एक उपजाति 'ज्वाँ-ज्वाँ' ( यवनी) रहा करती थी। (रघु०) कवेणी-बंगाल की 'विप्रलम्धा' मुक्तवेणी के विपरीत, प्रयाग की 'सम्भोगिनी' त्रिवेणी। धेय-बहावलपुर का जोहियावाड़, जो महाभारत तथा गुप्तयुग में यौधेयों का सीमान्त था। बाइबिल में इन्हें 'हुद' तथा १६वीं सदी के यात्रावृत्तों में 'आयुध' कहा गया है। नहीप-सिंहल। नपुर-विलासपुर के १५ मील उत्तर, (मयूर ध्वज हैहयों की ) दक्षिणकोसल की राजधानी । धस्था-अवध की राप्ती (रेवती) नदी। न्तिपुर-गोमती-तट पर, रिन्ताम्बूर' । गोमती (चर्मग्वती) के तट पर रन्तिदेव का दैनिक गोसहस्र-साव' ( यज्ञ) होता था। -अवस्ता की 'रन्हा' नदी, अथवा यूनानियों की 'जक्साटिस'---जो शकों-नागों-हूणों का दूल-आवास थी। तल-कैस्पियन सागर के उत्तर की ओर, हूण-राज्य, पश्चिमी तात्र । हूणों की विभिन्न जातियों के आधार पर रसातल के सात लोक थे--अतल, नितल, वितल, तलातल, महातल, : तल, पाताल (?)। जारह-मगध की प्राचीन राजधानी, जिसे (गिरिवज्र के उत्तर में) बिम्बिसार ने बसाया था। राजपुरी-(काश्मीर में) पुंछ के द० पू०, 'राजौरी' । राढ़-पंचगौड़ का पश्चिमी प्रदेश । रामगिरि-कालिदास के यक्ष की तथा रामायण के शम्बूक की तपोभूमि-मध्यभारत में, 'रामटेक' पर्वतशृङ्खला। रामणीयक-आमीनिया। ( महा०) रामदासपुर-अमृतसर-गुरु नानक का, रामदास द्वारा प्रस्तुत, 'शान्तिनिकेतन' । रामहृद-(कुरुक्षेत्र में ) 'ब्रह्मसर' तीर्थ, जो राजा कुरु की तपोभूमि, पुरूरवा-उर्वशी की संकेत. भूमि तथा वृत्र की मृत्युभूमि था। यही 'प्रतिशा'-भंग कर कृष्ण ने भीष्म के विरुद्ध 'सुदर्शन चक्र' उठाया था-चक्रतीर्थ ।। रामेश्वरम्-सिहल तथा भारत के मध्य, सेतुबन्ध । रावणहद-कैलास के निकट, 'अनवतप्त' सरोवर, रावण की तपोभूमि । रेवती-अचिरावती ( राप्ती)। रेवा नर्मदारैवत(तक)-जैन सन्त नेमिनाथ की जन्मभूमि, गुजरात का गिरिनार पर्वत । रोह (हि)-अफगानिस्तान । रोहितक-बंगाल के शाहाबाद जिले में विन्ध्य की एक शाखा, रोहिताश्म(श्व)। पंजाब के 'रोहतक' का संस्थापक रोहिताश्व (हरिश्चन्द्र का पुत्र) नहीं था--अपितु यह नाम ही स्वयं 'बहु-धमक' का पर्याय एवं अपभ्रंश है। लंका-विन्ध्याचल, जो कि भारत की रीढ़ (तु० पंजाबी में 'लक' ) हैं। रावण की 'लङ्का' ( गोंडवाना ?) कहीं विन्ध्य-शिखर पर थी-जहाँ के गोंड आजकल भी अपने को रावण के वंशज बताते हैं, जहाँ के ओरावा आज भी अपने को वानरों के वंशज बतलाते हैं, जहाँ हर टीले ( शृङ्ग) को 'लंका' तथा हर नदी को 'गोदा' कहते हैं। स्वयं रामायण के अनुसार अयोध्या For Private And Personal Use Only Page #824 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir - - किष्किन्ध्या-लंका २०० मील का अन्तर था। वराहमिहिर के अनुसार उज्जयिनी और लंका एका ही अक्षांश पर स्थित थीं, पुराणों के अनुसार भी लंका तथा सिंहल दो भिन्न-भिन्न द्वीप। सादृश्य का प्रथम 'आरोप', संभवतः, धर्मकीत्ति में मिलता है; और आज तो 'सेतुबन्ध' अदिः कितने ही 'तीर्थों' ने इतिहास की स्पष्टता एवं परम्परा को सर्वथा धूमिल कर दिया है। ल(न)वपुर-लवकोट, लोभपुर, लौहोर ( राजत०), लाहौर । ला(ना)ट (देश)-दक्षिण गुजरात ( माही-ताप्ती का दोआब )। ली(नी) लांजल (न)-जुद्ध तथा सुजाता की तपोभूमि-पुनर्भवभूमि-निरंजना(रा), फल्गु । ( अश्वघोष ) लुम्बि(झि)नी-नेपाल की तराई में, 'रुम्मेनदेई'---भगवान् बुद्ध का जन्म-तपोवन, जिसका स्थान बौद्धों के ८ चैत्यों में प्रथम है। लोध्रकानन-कुमाऊँ में, गर्ग ऋषि का आश्रम, 'लोधमूना' । ( रधु०) लौहित्य-ब्रह्मपुत्र नदी, जहाँ परशुराम ने मातृहत्या के पाप को धोया था; कालिदास के दिनों में प्राग्ज्योतिष की सीमा। वंक्ष-वक्षु, इक्षु, चक्षु-औक्सस् अर्थात् आमू दरिया । वंश-वत्स (देश)। वटपद्रपुर-गायकवाड़ की राजधानी, बड़ोदा। वत्स-इलाहाबाद के पश्चिम में उदयन का राज्य; राज कौशाम्बी। वन-ब्रजमण्डल के १२ वनों-वृन्दा, मधु, कुमुद आदि का सर्वनाम; वामनपुराण में अनुसार कुरुक्षेत्र के ७ वनों का। वरदा-मध्यभारत में 'वर्षा' नदी। बराहक्षेत्र-काश्मीर में, जेहलम के तट पर, 'बारामूला'। वर्धमान (कोटि) काशी तथा प्रयाग का मध्यवर्ती, अस्थिक (ग्राम), जहाँ महावीर ने 'कैवल्य' 'सिद्धि पाकर प्रथम 'वर्षा' बिताई थी। वर्ष-वराह पुराण में वर्णित-नील, निषध, श्वेत, हेम, हिमवत्, शृङ्गवत्-६ पर्वत । वलभि-वलभि-युग में सुराष्ट्र की राजधानी । वशिष्ठाश्रम-अवध में अर्बुद ( आबू) पर्वत पर, तथैव कामरूप में, वशिष्ठ का तपोवन । वसुधारा-अलकनन्दा। वाकाटक-हैदराबाद-दक्खिन में, कैलकिल यवनों का-तथा अनन्तर ( वाकाटक ) विन्ध्य शक्ति द्वारा संस्थापित गुप्तकालीन-राज्य । वातापिपुर-बीजापुर में, 'बादामी'-जो छठी सदी में महाराष्ट्र-राज पुलकेशी की राजधानी थी । वामनस्थली-जूनागढ़ के निकट, बनथाली। राजस्थान की 'वनस्थली' ( ? )। वाराणसी-'वरुणा' तथा 'अस्सी' के संगम पर अवस्थित होने से, काशी का यथार्थ नाम । वाल्मीकि-आश्रम-कानपुर से १४ मील दूर, बिठूर (उत्पलारण्य)-जहाँ भगवान राम के यज्ञिय अश्व को लव-कुश ने बाँध लिया था। वाशिष्ठी-गोमती नदी; चर्मण्वती (?)। वाहीक-व्यास तथा सतलज का दोआब ( केकय के उत्तर में ), पंजाब। वालीक-श()कद्वीप, बैक्ट्रिया की राजधानी, बलख । चन्द्रगुप्त द्वितीय ने, शकाधिपति को बलख तक खदेड़ कर, मानो वराह-अवतार द्वारा पृथ्वी का उद्धार करते हुए ध्रुवस्वामिनी तथा गुप्रसाम्राज्य की 'लाज रक्खी' थी। ( मेहरौली अभिलेख, मुद्राराक्षस, रघुवंश) विक्रमपुर-ढाका में, 'बल्लालपुरी'-आदिशर की तथा सेन राजाओं की राजधानी । For Private And Personal Use Only Page #825 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [७८७ ] - विक्रमशिला-आठवीं सदी के राजा धर्मपाल द्वारा स्थापित बौद्ध विहार, जिसका महत्त्व, आखिर, 'नवद्वीप विद्यापीठ' की स्थापना के अनन्तर ही कुछ घटा था। विजयनगर-बंगाल के राजशाही डिवीजन में, सेन राजाओं की राजधानी । विद्यानगर । वितस्ता-वि-तमसा (?), जेहलम (नदी)। विदिशा-मालवा में बेतवा (वेत्रवती) नदी पर भीलसा, जो प्राचीन दशार्ण की राजधानी थी; विशाला। (मेघ०) विडेहट-दरभंगा में जनकपुरी, तीरभुक्ति ( तिरहुत ), मिथिला, जनस्थान । विद्यासागर-तुगभद्रा पर विजयनगर के ब्राह्मण राजाओं की राजधानी, विजयनगर । विनशन--कुरुक्षेत्र ( सरहिन्द, पटियाला ) में जहाँ सरस्वती लुप्त हो जाती हैं, वह तीर्थ । विनाशिनी-गुजरात में बनास नदी। विनीतपुर-उड़ीसा में, कटक । विन्ध्यपाद-ताप्ती आदि का उद्गम, 'सतपुड़ा' पर्वतश्रेणी । विपाशा-व्यास नदी। विराटनगर-मत्स्यदेश, जयपुर-पाण्डवों का अज्ञातवासगृह । विशाला-अवन्ती की राजधानी, उज्जैन ( उज्जयिनी)। बौद्ध युग में वैशाली की राजधानी, बसाढ़। विशाखा (पत्तन)-विजगापट्टम् । विश्वामित्राश्रम-जहाँ ताटका का वध हुआ था, बिहार के शाहाबाद जिले में बक्सर, वेदगर्भपुरी। वीतभयपत्तन-प्राचीन 'बीचिग्राम', अलाहाबाद से ११ मील दक्षिण-पश्चिम, 'विठा'-जहाँ कई ऐतिहासिक मुद्राएँ मिली हैं। वृद्ध काशी-मद्रास का तीर्थ, 'पुदुवेलिगोपुरम् । वेंकटगिरि-मद्रास में, तिरुपति के निकट, 'तिरुमलई' पर्वत । वेंगी-गोदा-कृष्णा के अन्तर्गत, आन्ध्रों की राजधानी । वेणी-कृष्णा नदी। वेत्रवती-बेतवा नदी। वेदारण्य-तंजोर में, अगस्त्य का तपोवन । वेदगर्भपुरी-बक्सर, 'जहाँ विश्वामित्र को 'गायत्री ने आलोकित किया था।' वेन-मध्यभारतीय गंगा, गोदावरी की एक धारा । वैकुण्ठ-ताम्रलिप्ती पर एक तीर्थ । वैतरणी-परशुराम के भगीरथ प्रयत्न से 'अवतारित', उड़ीसा की गंगा-जहाँ कभी ययातिपुर बसा था। वैशाली-मगध-विदेह के मध्य का प्राचीन साम्राज्य, जो आजकल मुजफ्फरपुर जिले का दक्षिणी भाग ठहरता है । बौद्ध युग में यह वृज्जियों-लिच्छवियों की राजधानी थी। व्याघ्रसरोवर-बक्सर, विश्वामित्राश्रम । शकरतीर्थ-नेपाल में, जहाँ शिव ने 'पार्वती-विजय' के लिए तप किया था। शंकराचार्य-काश्मीर में, 'तख्ते-सुलेमान ; सन्धिमान गिरि । शंकास्य-कान्यकुब्ज । शंकस्थान-सीस्तान, शकों का मूल देश जहाँ से वे मध्य एशिया की ओर बढ़े। शतद्रु-सतलज। For Private And Personal Use Only Page #826 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [655] शम्बूकाश्रम - मध्यभारत में, रामगिरि ( रामटेक ) 1 ( रामा० ) शर्यणावत् - रामद, ब्रह्मसरोवर । शाकंभरि - पश्चिमी राजपूताना में, 'सांभर' - जहाँ शर्मिष्ठा ने देवयानी को 'देओदानी' कुप ढकेल दिया था । शाकद्वीप - मध्यएशिया में 'शक - भूमि', 'तारतरी' - बोखारा तथा समरकन्द के मध्यगत 'साइथिया' अथवा 'सोदियाना' । शाकल - मद्र देश की राजधानी, स्यालकोट । शान्ति - साँची । ( महा० ) शार्ङ्गनाथ - सारनाथ । शालातुर - प्राचीन गान्धार में, पाणिनि की जन्मभूमि । शाल्मली ( द्वीप ) - काल्दिया । मैसोपोटामिया । सीरिया । ब्रह्माण्ड० ) शाल्व - कुरुक्षेत्र के निकट सत्यवान् के पिता द्युम्नसेन का राज्य, जिसमें जोधपुर, जयपुर, अलवर शामिल थे - मार्तिकावत । शाल्वपुर = सौभनगर (अलवर) उसकी राजधानी थी। शिवालय - एलोरा । शिरोवन - प्राचीन चेर (केरल) की राजधानी, तळवाळ' । शुक्तिमती - ( उड़ीसा में ) सुवर्णरेखा नदी । शूद्रक - सिन्ध तथा सतलज के मध्यगत देश, राज० उच्च । शूरसेन - कृष्ण के बाबा के नाम से विख्यात राज्य, राज० मथुरा । शूर्पारक - सुपारग, सूरत । शृङ्गगिरि शृङ्गेरी, दक्षिण में जहाँ वैदिक धर्म के पुनरुद्धार के लिए शंकराचार्य ने अपने चार मठों में एक स्थापित किया था । शेषाद्रि - त्रिपदी, तिरुपति, तिरुमलाई । शैवाल - शिवालय, एलोरा । रामटेक । ( रामगिरि ) शोण - गोंडवाना में अमरकण्टक से उद्गत नदी, जो मगध की पश्चिमी ( प्राकृतिक ) सीमा थी । शोणप्रस्थ- सोनीपत | शोणितपुर- कुमाऊँ में, केदारगंगा ( मन्दाकिनी ) के तट पर, एक नगर । आसाम में, आधु० तेजपुर' । शौरिपुर - नेमिनाथ की जन्मभूमि, मथुरा । मध्यदेश की 'शौरसेनी' हमारी ( वर्तमान ) 'राष्ट्र'भाषा' की जननी थी । श्रवणाश्रम - अवध में, जहाँ दशरथ ने शिकार करते हुए अन्धे माता-पिता के इकलौते बेटे श्रवण को भूल से मार डाला था । में श्रावस्ती - अवध में, गोंडा जिले में, राप्ती नदी के तट पर, आधु० 'सहेत महेत' । बुद्ध-युग श्रावस्ती गौरव के शिखर पर थी । श्रीपथ - जयपुर से ९० मील उत्तर में, 'विआना' - ' पथयमपुरी' | श्रीप ( 1 ) द - सिंहल का 'एडम्स ब्रिज' । श्रीकण्ठ, कुरुजांगल, महाकान्तार - जिसकी राजधानी विलासपुर थी । श्रीक्षेत्र - उड़ीसा में, पुरी । श्रीनगर-काश्मीर की राजधानी, जिसकी स्थापना ५वीं सदी में प्रवरसेन द्वितीय ने की थी । श्रीरंगपट्टन - ( मैसूर में ) आधु० 'सेरिंगपटम्' । श्रीशैल - कृष्णा के दक्षिण में एक तीर्थ पर्वत । श्रीस्थानक - ( बम्बई में ) 'थाना', जो कभी उत्तरी कोङ्कण की राजधानी था । श्रीहट्ट - सिल्हेत । ( योगिनी० ) For Private And Personal Use Only Page #827 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [ ७ER ] श्लेष्मातक-नेपाल में, पशुपतिनाथ के उत्तर-पूर्व, उत्तर-गोकर्ण । पष्ठी-बम्बई से १० मील उत्तर की ओर, साल्सेत द्वीप । संगम (तीर्थ)-रामेश्वरम् । संध्या-मालवा में, यमुना की धारा, सिन्धु । सदानीरा-प्राचीन पुण्ड्र की एक नदी, जो 'पार्वती-परिणय' के क्षण में शिव के हाथ से छू पसीने से जनमी थी-करतोया । गण्डकी । राप्ती । सपादलक्ष-शाकम्भरि। सप्तकुलाचल-महेन्द्र, मलय, सह्य, शुक्तिमान्, गन्धमादन, विन्ध्य, पारियात्र । सप्तगंगा-गंगा, कावेरी, गोदावरी, ताम्रपर्णी, सिन्धु, सरयू, नर्मदा । सप्तगंडकी-गंडकी के 'सप्तमुख' । सप्तगोदावरी-गोदावरी के 'सप्तमुख' । सप्तद्वीप-जम्बु, प्लक्ष, शाल्मली, कुश, क्रौञ्च, काक, पुष्कर । सप्तमोक्षदापुरी-दे० मोक्षदा । सप्तर्ष-महाराष्ट्र में सतारा। सप्तसागर-जम्बुद्वीप ( भारत ) की 'समुद्रीय' सीमाएँ-लवण, क्षीर, सुरा, घृत, इक्षु, दधि, स्वादु । सप्तसिन्धु-पंजाब, प्राचीन भारतवर्ष । ( उत्तरापथ) समतट-बग अर्थात् पूर्वी बंगाल । समन्तपंचक-कुरुक्षेत्र। सरयू-(अवध में ) घागरा नदी। सरोवर-ब्रह्माण्डपुराण के मानस आदि १२ तीर्थसर, विशे० नारायणसर । सह्यादि-कावेरी के उत्तर में, पश्चिमी घाट को उत्तरी श्रृंखला ( मलयादि )। कावेरी का पक नाम सह्याद्रि-जा भी है । सांची-भीलसा के द० पू० में, प्रसिद्ध बौद्ध तीर्थ, शान्ति । साकेत-अवध, अयोध्या। सागरसंगम-'गंगामुख' पर कपिलाश्रम, जहाँ सगर के सहस्र पुत्र 'भस्म' हुए थे। साभ्रमती-साबरमती। साम्बपुर-मुलतान। सारस्वत-अजमेर में, पुष्कर सरोवर। सिंहल–सीलोन । लंका कुछ और धी-विन्ध्यपाद' में । सिद्धपुर-कपिल ऋषि की जन्मभूमि, भगीरथ की तपोभूमि-बिन्दुसर । सिद्धाश्रम-शाहाबाद में, बक्सर-जहाँ विष्णु ने वामनावतार ग्रहण किया था। सिप्रा-मालवा में, क्षिप्रा नदी-जिस पर उज्जैन बसा था । सुगन्धा-गोदावरी पर, नासिक । सुदर्शन-जम्बू द्वीप। काठियावाड़ की प्रसिद्ध ऐतिहासिक झील, जिसका मौर्यकाल में निर्माण तथा, गुप्त युग तक, कितनी ही बार 'उद्धार' हुआ था। सुदाम()पुरी-गांधी तथा कृष्ण की 'जन्मभूमि', पोरबन्दर । ( कीथ ) सुपारग-शूपारक, सूरत। सुब्रह्मण्य-मद्रास में, कुमारस्वामी ( तीर्थ )। For Private And Personal Use Only Page #828 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [७६० ) सुभद्रा-इरावती नदी । (सु)मागधी-पटना की शोण नदी, जिस पर कभी राजगृह बसा हुआ था। सुमनकूट-श्रीप(1)द। सुमेरु-गढ़वाल में, बदरीनाथ के निकट, पंचपर्वत ( रुद्र हिमा० )-स्वर्णगिरि अथवा हेमकूट नहीं। सरथ (अद्रि)-नर्मदा आदि का स्रोत, अमरकण्टक । सु(सौराष्ट्र-सूर्यपुर, सुपारग ( सूरत ), काठियावाड़ तथा गुजरात का कुछ अंश । सुवास्तु-गन्धर्वदेश की नदी, स्वात । सुवर्णभूमि-ब्रह्मदेश (बर्मा) सुवर्णगिरि-(मैसूर में ) मास्की। अशोक के समय में चार राज्यपाल क्षेत्र थे— तक्षशिला, उज्जैन, तोसाली तथा सुवर्णगिरि । सुवर्णग्राम-( ढाका में ) सोनारगाँव । सुवर्णरेखा-गिरिनार की पलाशिनी । उड़ीसा की कपिशा । सुह्म-बंग तथा कलिंग के अन्तर्गत देश, राढ़, दे० पंचगौड़। सूर्यनगर-श्रीनगर । सूर्यपुर-सूरत । यहीं शंकराचार्य ने अपनी 'वेदान्त-टीका' रची थी। सेतुबन्ध-भारत तथा सिंहल के वीच में, श्रीप(1)द। सोम पर्वत-अमरकण्टक । सौमनगर-शाल्वपुर ( अलवर)। सौवीर-सिन्ध तथा मद्र का अन्तर्देश ( यौधेय?)। स्त्रीराज्य-कुमाऊँ अथवा गढ़वाल का पुराना नाम । महाभारत-युग में यहाँ स्त्रियों का अनुशासन होता था-प्रमीला ने इधर ही अर्जुन से लोहा लिया था । (विप० पुरुषपुर) स्थाने(बी)श्वर-थानेसर (कुरुक्षेत्र), स्थाणुतीर्थ । स्रुघ्न-जौनसर जिले में, कालसी । हंसद्वार-क्रौञ्चद्वार। हत्याहरण-अवध में, हरदोई से २८ मील उत्तर-पूर्व, एक तीर्थ-जहाँ भगवान् राम ने (रावण की) ब्रह्महत्या का पाप-प्रक्षालन किया था। हरकेल-बंग; दे० 'पंचगौड़ । हरक्षेत्र-भुवनेश्वर । हरिवर्ष-उत्तर कुरु, जिसमें तिब्बत का पश्चिमी भाग शामिल था। हस्तिनापुर-कुरुओं की प्राचीन राजधानी, गजसाह्रय; किन्तु जनमेजय के दो पीढ़ी बाद, नवी राजधानी कौशाम्बी हो गई थी। हिरण्यपर्वत-मुद्ग(ल)गिरि, मुंगेर । हिरण्यबाहु-शोण नदी। हृषीकेश-बदरीनाथ तथा हरिद्वार के मध्य स्थित प्रसिद्ध तीर्थ, 'ऋषिकेश' । हेमकूट-कैलास। हैमवत-भारतवर्ष । हैमवती-गंजम के निकट, महेन्द्र से उद्गत ऋषिकुल्या नदी। इरावती । शतदु (सतलुज), जो वशिष्ठ के दृष्टिपात से सौ-सौ धाराओं में फूट गई। हैहय-अनूपदेश अथवा 'माहिष्मती राज्य' अथवा मालवदेश । हादिनी-ब्रह्मपुत्र नदी। For Private And Personal Use Only Page #829 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra [ ७६१] सहायक ग्रन्थों की सूची हिंदी -ग्रन्थ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १. हिन्दी शब्दसागर - नागरी प्रचारिणी सभा, काशी । २. भाषा शब्दकोश -- डा. रमाशंकर शुक्ल । ३. हिन्दुस्तानी कोश - श्री रामनरेश त्रिपाठी । ४. प्रामाणिक हिन्दी कोश - श्री रामचन्द्र वर्मा । ५. हिन्दी पर्यायवाची कोश | ६. पारिभाषिक शब्दकोश - श्री मुकुन्दीलाल श्रीवास्तव । ७. भारत भूमि और उसके निवासी - श्री जयचन्द्र विद्यालंकार | ८. भारत के इतिहास की रूपरेखा ९. इतिहास-प्रवेश १०. इतिहास-मीमांसा ११. पाणिनिकालीन भारतवर्ष --- १२. हर्षचरित का सांस्कृतिक अध्ययन १. पद्मचन्द्रकोश | २. संस्कृत-हिन्दी कोश- आप्टे । ३. वाचस्पत्य कोश । ४. शब्दकल्पद्रुम । ५. शब्दार्थचिन्तामणि । 13 "" " १३. भारत ब्राह्मण ( बँगला ) - घोषाल १४. केन्द्रीय सचिवालय हिन्दी परिषद की शब्द सूचियाँ । १५. बृहत् हिन्दी कोश - कालिका प्रसाद | " संस्कृत-ग्रन्थ डा. वासुदेवशरण अग्रवाल । "" ६. अमरसिंह, हेमचन्द्र, केशव, हलायुध आदि कोश । ७. सिद्धान्तकौमुदी । ८. सुभाषितरत्नभांडागार । ९. सुभाषितरत्नाकर । " " For Private And Personal Use Only Page #830 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [ 48? ] अंग्रेजी ग्रन्थ 1. Sanskrit-English Dictionary-Monier Williams. 2. English-Sanskrit Dictionary-Monier Williams. 3. Handy English-Sanskrit Dictionary—B. D. Mulguokar. 4. Practical Sanskrit-English Dictionary-V.S. Apte. 5. English-Sanskrit Dictionary-V. S. Apte. 6. Twentieth Century English-Hindi Dictionary–Sukh Sampatti Ray. 7. Hindustani Proverbs ---Fallow—( 1886 ). 8. New Hindustani English Dictionary—( 1879). 9. Technical Terms in Hindi ( Social Sciences - Government of India. 10. Glossary of Equivalents for Constitutional Terms. 11. A Dictionary of Geographical Names of Ancient & Mediaeval India. ( 1927 ) Nandu Lal Dey. 12. J. R. A. S. 13. Indian Historical Quarterly. 14. Concise Oxford Dictionary-H. W. Fowler. 15. Standard Illustrated Dictionary-R. C. Pathak. : For Private And Personal Use Only Page #831 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir For Private And Personal Use Only