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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [ ७५ ] कुछ व्यक्ति एकदम उठ खड़े हों या सब लोग एक साथ ही कार्य में जुट जायँ वहाँ इस न्याय का व्यवहार किया जाता है । यथा-' - श्रीकृष्णचन्द्रमवलोक्य कदम्बकोरकन्यायेन प्रहृष्टा बभूवुः पाण्डवाः ।' २१. कफोणिगुडन्याय : – उक्त न्याय का शब्दार्थ है कोहनी और गुड़ की कहावत । यदि किसी की कोहनी पर कुछ गुड़ लगा दिया जाय और उसे जिह्वा से चाटने को कहा जाय तो वह अपने उद्योग में कदापि सफल न होने के कारण उपहासास्पद बनेगा । इसी प्रकार इस उक्ति का प्रयोग तरसानेवाली परन्तु अलभ्य वस्तु के विषय में होता है । यथा- 'सरोवरे पतितं प्रतिबिम्बं वीक्ष्य कफोणिगुडन्यायेन चन्द्रग्रहणाय प्रयतते शिशुः ।' २२. कम्बलनिर्णेजनन्याय :- अर्थ है- - कम्बल स्वच्छ करने का दृष्टान्त । कई बार मनुष्य कम्बल की मिट्टी झाड़ने के लिए उसे अपने पाँव पर झटकते हैं। इस एक क्रिया के दो फल होते हैं । कम्बल भी स्वच्छ हो जाता है और पाँव भी झड़े जाते हैं । इस प्रकार यह न्याय हिन्दी के 'एक पंथ दो काज' का समानार्थक है । उदाहरण - 'ह्यः सायमहं भ्रमणार्थं नागच्छम्, प्रदर्शनीक्षेत्र एवाभ्रमम् एवं कम्बल निर्णेजनन्यायेन भ्रमणमपि जातं, नवज्ञानञ्चाप्युपलब्धम् ।' १३. करि बृंहिन्याय : - इस न्याय का अर्थ है - हाथी की चिंघाड़ का न्याय प्रश्न होता है, 'चिघाड़' के साथ 'हाथी' शब्द के प्रयोग की आवश्यकता नहीं क्योंकि 'चिग्धाड़' शब्द हाथी की चीख के लिए ही प्रयुक्त होता है। उत्तर यह है कि ऐसे वाक्यों में फालतू प्रतीत होने वाला शब्द विशिष्टता का सूचक होता है। यहाँ 'करि' शब्द मस्त या प्रबल हाथी के लिए व्यवहृत हुआ है। ऐसे ही अवसरों पर जहाँ कोई शब्द व्यर्थ प्रतीत होता हुआ भी विशिष्टतासूचक हो, यह न्याय प्रयुक्त होता है । यथा - 'किं कवेस्तस्य काव्येन किं काण्डेन धनुष्मतः । परस्य हृदये लग्नं न घूर्णयति यच्छिरः । इति । अस्मिन् श्लोके 'कवेः' इति पदं करिबृंहितन्यायेन प्रयुक्तम् । २४. काकतालीयन्याय : - काकतालीयन्याय अर्थात कौए और ताड़ के फल की कहावत । एक कौआ ताड़ के वृक्ष पर बैठा ही था कि एकाएक ऊपर की शाखा से उसका भारी फल टटकर कौए के सिर पर आ लगा जिससे वह मर गया । इस प्रकार की आकस्मिक घटना के लिए यह न्याय प्रयुक्त होता है । यथा - 'अपहृतं ममेदं पुस्तकं काकतालीयन्यायेन पुनरधिगतमापणात् । ' २५. काकदधिघातकन्याय :- इस न्याय का शब्दार्थ है - दही को बिगाड़ने वाले कौओं का दृष्टान्त । आशय यह है कि जब किसी को कौओं से दही की रक्षा करने के लिए कहा जाता है तब वह रक्षक कुत्तों आदि से भी दही को बचाता ही है । इसलिए जहाँ एक वस्तु अनेक का प्रतिनिधित्व करती है, अर्थात् उपलक्षण होती है, वहाँ यह न्याय व्यवहृत होता है । यथा'अश्लीलोऽयं मदनमोहनाख्योपन्यासो नाध्येतव्य इति तातेनोपदिष्टः सुपुत्रोऽन्यानपि कुग्रन्थान्नाधीते काकदधिघातकन्यायेन ।' २६. काकदन्तगवेषणन्याय : – काकदन्तगवेषणन्याय अर्थात् कौए के दाँत की खोज का न्याय । चिड़िया के दूध तथा शश के सींग के समान कौए के दाँत नहीं होते। इसलिए इस न्याय का प्रयोग वहाँ किया जाता है जहाँ कोई किसी नितान्त निरर्थक कार्य के लिए उद्योगशील हो । उदाहरण सामान्येषु सार्वजनिक पुस्तकालयेषु पुरातनग्रन्थरत्नानामन्वेषणं तु काकदन्तगवेषणमेव ।' २७. काकाक्षिगोलकन्याय :- काकाक्षिगोलकन्याय अर्थात् कौए की आँख के डेले का न्याय । जैसे कि कौए के पर्याय 'एकाक्ष:', 'एव दृष्टिः' आदि संस्कृत शब्द से व्यक्त होता है कि लोगों का यह विश्वास रहा है कि कौआ दो आँखें रखता हुआ भी देखता एक ही आँख से है। तात्पर्य यह है कि उसे जिधर देखना होता है, उधर की आँख में उसकी पुतली चली जाती है। इसी For Private And Personal Use Only
SR No.091001
Book TitleAdarsha Hindi Sanskrit kosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamsarup
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year1979
Total Pages831
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size15 MB
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