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स्वीकार किया हैं। उससे आरम्भ होने वाले शब्दों को अन्त में रखा है। इस कोश में लगभग ३५०० श्लोक हैं। इस कोश का दूसरा नाम राजकोश भी है।
हर्षकीर्ति- इन्होंने समानार्थक शब्दों के शारदीयाभिधानमाला नामक कोश की रचना की। यह तीन काण्डों में विभक्त है तथा प्रत्येक काण्ड को भी वर्गों में विभक्त किया गया है। प्रथम काण्ड के तीन वर्ग हैं-देववर्ग, व्योमवर्ग तथा धरावर्ग। द्वितीय काण्ड चार वर्गों में विभक्त किया गया है--अङ्गवर्ग, संयोगादिवर्ग, संगीतवर्ग तथा पण्डितवर्ग। तृतीय काण्ड के पाँच वर्ग हैं-ब्रह्म, राज, वैश्य, शूद्र तथा संकीर्ण । पूरे ग्रन्थ में केवल ४३५ श्लोक हैं । कोश के अतिरिक्त हर्षकीति ने अनेक ( शास्त्रीय विषयों पर ) ग्रन्थों की रचना की ! यह जैनधर्मावलम्बी थे। इनके गुरु चन्द्रकीति रहे, जिन्होंने जहाँगीर ( १७ वो शती ) से विशेष सम्मान प्राप्त किया। इन्होंने एक दूसरे कोश को भी रचना की। उस कोश का नाम है-शब्दानेकार्थ । इण्डिया आफिस लाइब्रेरी में इस पुस्तक का रचनाकाल वि० सं० १६६५ लिखा है । अत: इनका समय सत्रहवीं शती का आरम्भिक चरण मानना युक्तिसंगत प्रतीत होता है ।
नवीन ढंग के कोष विदेशी भाषाओं के सम्पर्क में आने पर कुछ विद्वानों ने विशिष्ट कोशों का संस्कृत में संकलन किया। इस पद्धति का सर्वप्रथम प्रयोग शब्दकल्पद्रम नामक प्रख्यात कोष में किया गया। इस कोष को सुप्रसिद्ध मनीषी राजा राधाकान्तदेव ने मान्य पण्डितों की सहायता से अनेक खण्डों में १८२२ तथा १८५८ ई. के बीच प्रकाशित किया। इसमें शब्दों का चयन वर्णक्रम से है तथा पुराण, धर्मशास्त्र आदि प्रमाण-ग्रन्थों के उद्धरणों का समावेश होने से इसकी प्रामाणिकता बहुत बड़ गई है। वस्तुतः यह संस्कृत का विश्वकोष है। इसमें वैदिक शब्दों का प्रायः अभाव है। शब्दों की व्युत्पत्ति देने से इस कोष की उपादेयता बढ़ गई है। प्रस्तुत कोष में रचना-क्रम से आये हुए शास्त्रोपयोगी साब्दों के प्रसङ्ग में प्रमाणों के अतिरिक्त उनकी प्रायोगिक उपयोगिता को भी वतलाया गया है। उन पदार्थों के लक्षण, स्वरूप तथा चित्रादि देकर कोप को सर्वाङ्गपूर्ण बनाया है। इन सब विषयों का समावेश सात काण्डों में किया गया है । राजा राधाकान्तदेव ने कोष के आरम्भ में 'मुखबन्धन' ( भूमिका ) लिखते हुए प्रसङ्गवश यह सूचित किया है कि लौकिक कोषों का आदिम स्वरूप 'अग्निपुराण' में वर्णित कोष-प्रकरण है। इस प्रकरण का क्रम इस प्रकार है-स्वर्गपातालादिवर्ग, अव्ययवर्ग, नानार्थवर्ग, भूवर्ग, पुर-वर्ग, अद्रि-वर्ग, वनौषधिवर्ग, सिंहादिवर्ग, मनुष्यवर्ग, ब्रह्मवर्ग, क्षत्रियवर्ग, वैश्यवर्ग तथा शूद्रवर्ग । इसके अतिरिक्त शेष-भाग में सामान्य नामलिङ्गों का वर्णन है। राधाकान्त देव के
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