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[६८८]
न प्राणान्ते प्रकृतिविकृतिर्जायते चोत्त- । प्राणान्तकारी समय आ जाने पर भी उत्तम मानाम् ।
मनुष्यों के स्वभाव में विकार नहीं आता। न भयं चास्ति जाग्रतः।
जाननेवाले को कोई डर नहीं। न भवति पुनरुक्तं भाषितं सज्जनानाम् । सज्जन एक ही बात को बार-बार नहीं कहते । न भार्यायाः परं सुखम् ।
पत्नी से बड़ा कोई सुख नहीं। न भूतो न भविष्यति ।
न हुआ है न होगा। न मुक्तः परमा गतिः।
मोक्ष से ऊँची कोई स्थिति नहीं। नये च शौर्ये च वसन्ति संपदः । . संपदाएँ नीति और शूरवीरता में रहती हैं। न रत्नमन्विष्यति अग्यते हि तत् । रत्न किसी को नहीं खोजता, उसी की खोज की
(कुमार०)
जाती है। नवा वाणी मुखे मुखे।
प्रत्येक मुख में वाणी पृथक-पृथक् होती है। न शरीरं पुनः पुनः।
शरीर बार बार नहीं मिलता। न शान्तः परमं सुखम् । .
शान्ति से बड़ा कोई सुख नहीं । न शास्त्रं वेदतः परम् ।
वेद से बड़ा कोई शास्त्र नहीं। नस शक्नोति किं यस्य प्रज्ञा नापदि जिसकी बुद्धि विपत्ति में भी स्थिर रहती है, वह हीयते ? ( कथा० )
क्या नहीं कर सकता ? न सा सभा यत्र न सन्ति वृद्धाः। | वह सभा ही नहीं जिसमें वृद्ध न हों।। न सुवर्णे ध्वनिस्ताहग्याक कांस्ये काँसे से जैसी ध्वनि उत्पन्न होती है वैसी सोने प्रजायते ।
से नहीं। न स्पृशति पल्वलाम्भः पञ्जरशेषोऽपि हाथी की हड्डियाँ निकल आवे तो भी वह कुञ्जरः कापि।
जौहड़ का जल नहीं छूता। न स्वेच्छं व्यवहर्तव्यमात्मनो भूति- | वृद्धि के इच्छुक मनुष्य को स्वेच्छापूर्वक व्यवहार मिच्छता। (कथा)
नहीं करना चाहिए। न हि कृतमुपकारं साधवो विस्मरन्ति । श्रेष्ठ लोग किये हुये उपकार को नहीं भूलते। न हि तापयितुं शक्यं सागराम्भस्तृणो- समुद्र का जल तिनकों की मशाल से गर्म नहीं ल्कया।
किया जा सकता। न हि दुष्करसस्तीह किंचिदध्यवसायिनाम्। अध्यवसायी व्यक्ति के लिये जगत् में कोई भी
(कथा) कार्य दुष्कर नहीं। न हि नायों विनेय॑या।
स्त्रियाँ ईष्या-रहित नहीं होती। न हि प्रफुल्लं सहकारमेत्य वृक्षान्तरं काङ्गति | भँवरे पुष्पित आम्र-वृक्ष पर पहुँचकर अन्य षट्पदाली । ( रधु०)
वृक्ष की इच्छा नहीं करते। न हि वन्ध्याऽश्नुते दुःखं यथा हि सुत- | बाँझ को वह दुःख नहीं होता जो मृतपुत्रा पुत्रिणी।
नारी को। न हि सत्त्वावसादेन स्वल्पाप्यापद् विलं. उत्साह के त्याग से तो साधारण आपत्ति पर ध्यते । ( कथा०)
भी विजय नहीं मिलती। न हि सर्वविदः सर्वे ।
सब लोग सब कुछ नहीं जानते । न हि सिंहो गजास्कन्दी भयाद् गिरिगुहा- हाथियों पर आक्रमण करनेवाला सिंह डर के शयः । (रघु०)
कारण पर्वत-गुफा में नहीं रहता। न हि सुप्तस्य सिंहस्य प्रविशन्ति मुखे अगाः। सोये हुए सिंह के मुख में मृग स्वयं नहीं आ
धुसते। नातिपीडयितुं भग्नानिच्छन्ति हि महौजसः। ओजस्वी जन पराजितों को अत्यधिक पीड़ा
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नहीं देना चाहते।
नाधर्मश्विरसद्धये।
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। अधर्म चिरकाल तक धन नहीं देता।
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