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को हि वित्तं रहस्यं वा स्त्रीषु शक्नोति । स्त्रियाँ सम्पत्ति और गोपनीय बात को नहीं - गुहितुम् । ( कथा०)
छिपा सकती। को हि स्वशिरसश्छायां विधेश्योल्लकायेद् | अपने सिर की परछाई और विधि की गति का ___गतिम् ? ( कथा)
उल्लंघन कौन कर सकता है ? क्रियाणां खलु धाणां सत्पत्न्यो मूलकार- धार्मिक कृत्यों का मूल कारण श्रेष्ठ पत्नियाँ णम् । (कुमारसंभवे)
.. होती हैं। क्रियासिद्धिः सत्वे भवति महतां नोपकरणे। बड़े लोग स्वप्रताप से कार्य सिद्ध करते हैं, उप
करणों से नहीं। क्रुद्ध विधौ भजति मित्रममित्रभावम्।। | विधाता ऋद्ध हो तो मित्र भी अमित्र बन
जाता है। क्रोधो मूलमनर्थानाम् ।
क्रोध अनर्थो की जड़ है। क्वाश्रयोऽस्ति दुरात्मनाम् ?
दुष्टों को आश्रय कहाँ ? क्षणविध्वंसिनः कायाः का चिन्ता मरणे रणे।। जब शरीर क्षणभङ्गुर है तब रण में मरने में
चिन्ता कैसी। क्षणे क्षणे यनवतामुपैति तदेव रूपं रमणीय- वास्तविक सौन्दर्य वही है जो अनुक्षण नया-नया तायाः। ( शिशु०)
होता जाये। क्षमया किं न सिध्यति?
क्षमा से क्या नहीं सिद्ध होता? क्षान्तितुल्यं तपो नास्ति।
क्षमा के तुल्य कोई तप नहीं है। क्षारं पिबति पयोधेपत्यम्भोधरो मधुर- मेघ समुद्र का खारा पानी पीता है और मधुर मम्मः ।
जल बरसाता है। क्षितितले किं जन्म कीर्ति विना!
भूमि पर कीतिहीन जीवन क्या ! क्षीणा नरा निष्करुणा भवन्ति ।
निर्धन लोग निर्दय बन जाते हैं ! क्षधातुराणां न रुचिर्न पछम् ।
भूख से व्याकुल व्यक्ति न स्वाद देखते हैं न
पक्वता। ख(फ)टाटोपो भयङ्करः।
फण का विस्तार मात्र भी भयंकर होता है। गतस्य शोचनं नास्ति ।
बीती बात का शोक व्यर्थ है। गतानुगतिको लोको न लोकः पार- लोग भेड़ चाल चलते हैं, तत्त्व की पहचान नहीं मार्थिकः।
करते। गुणलुब्धाः स्वयमेव संपदः ।
सम्पत्तियाँ स्वयं गुणों की लोभी होती हैं। गुणान् भूषयते रूपम् ।
रूप गुणों को अलंकृत कर देता है। गुणाः पूजास्थानं गुणिषु न च लिङ्गं न च | गुणियों में गुण ही पूज्य होते हैं, न बाह्य चिह्न वयः।
____ और न आयु। गुणी गुणं घेत्ति न वेत्ति निर्गुणः । गुण का मूल्य गुणी जानता है, निर्गुण नहीं। गुणैर्विहीना बहु जल्पयन्ति ।
गुणहीन मनुष्य वाचाल होते हैं। गुरुतां नयन्ति हि गुणा न संहतिः। (किरात०)| गौरव गुणों से मिलता है, समूह से नहीं । गृहे या पुण्यनिष्पत्तिः साध्वनि भ्रमतः | गार्हस्थ्य में जो पुण्य किये जा सकते हैं वे कुतः। (कथा)
संन्यास में नहीं। ग्रामस्याथै कुलं त्यजेत् ।
गाँव की रक्षा के लिये कुल की बलि दे दे। चकास्ति योग्येन हि योग्यसंगमः ( नैषध०) योग्य से योग्य का मेल ही शोभा देता है। चक्रवत् परिवर्तन्ते दुःखानि च सुखानि च। दुःख और सुख (रथ के) चक्र के तुल्य घूमते हैं । चक्षःपूतं न्यसेत् पादम् ।
देखकर ही पग रखना चाहिए । चपलौ किल शूराणां रणे जयपराजयो। युद्ध में वीरों की जय या पराजय अनिश्चित
(कथा०) । होती है।
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