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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir संस्कृत - कोषग्रन्थों का उद्भव एवं विकास संस्कृत वाङ्मय की अन्य शाखाओं के समान 'कोषविद्या' का भी अपना विशेष महत्त्व है। वैदिक युग से लेकर अद्यावधि कोषग्रन्थों की रचना होते रहना ही इसका ज्वलन्त प्रमाण है । आरम्भ में कोषग्रन्थों का निर्माण विशेष उद्देश्य को अभिलक्षित कर प्रारम्भ हुआ था । यह उद्देश्य भी व्यावहारिक था । इस कारण शब्दों के समाकलन की इस विधा में कोषकारों को सफलता मिलती चली आ रही है । जनसाधारण की शब्दज्ञानसम्बन्धी पिपासा को शान्त करने में कोषग्रन्थों ने सुमधुर स्रोतस्विनी के समान अपनी सार्थकता सिद्ध की है । कोषकारों ने 'शब्द' की इयत्ता निर्धारित करने के अनेक प्रयत्न किये किन्तु वे इसका अन्त न पा सके । 'शब्द' 'वस्तुतः नित्य है । नित्य शब्द का अन्त कहाँ ? 'शब्द' की व्यापकता का एक मात्र कारण उसके विस्तृत प्रयोग का होना है । इस सम्बन्ध में महाभाष्यकार पतञ्जलि ने इस ओर संकेत भी किया है कि शब्दों के प्रयोग का क्षेत्र बहुत विस्तृत है। सात द्वीपों से युक्त विशाल भूखण्ड में भारतीय वाङ्मय का विस्तार कुछ कम नहीं है । वेदों की ही कई शाखायें हैं । इनमें से यजुर्वेद की १०१ शाखायें हैं । सामवेद की एक हजार शाखाएँ हैं । ऋग्वेद के इक्कीस प्रकार हैं । अथर्ववेद नौ शाखाओं का है । इसके अतिरिक्त इतिहास, पुराण, वैद्यक इत्यादि सभी विषयों में शब्दों के प्रयोग का ही क्षेत्र है"महान् हि शब्दस्य प्रयोगविषयः । सप्तद्वीपा वसुमती । त्रयो लोकाः । चत्वारो वेबाः साङ्गाः सरहस्याः बहुधा विभिन्नाः । एकशतमध्वर्यु शाखाः, सहस्रवर्मा सामवेदः, एकविंशतिधा बाह्वृच्यं, नवधाऽथर्वणो वेदः, वाको वाक्यम्, इतिहासः, पुराणम्, वैद्यकम् - इत्येतावान् शब्दस्य प्रयोगविषयः " ( महाभाष्य पस्पशाह्निक ) । यह जानते हुए भी प्राचीन समय में शब्द की इयत्ता निर्धारित करने का प्रयत्न अवश्य किया गया होगा । इसी को पतञ्जलि ने इस अर्थवाद - गर्भित वाक्य के द्वारा यह सिद्ध कर दिखाया है कि शब्द का प्रतिपद- पाठ सम्भव नहीं है । तदनुसार उन्होंने इस आख्यान की ओर ध्यान आकृष्ट किया कि 'बृहस्पति ने इन्द्र को देवों के एक हजार वर्षं तक प्रत्येक शब्द का उच्चारण कर शब्दशास्त्र पढ़ाया, फिर भी शब्द समाप्त नहीं हुए' । इस प्रसङ्ग में भाष्यकार ने दूसरा आख्यानक प्रस्तुत करते हुए यह बताया है कि जब बृहस्पति सदृश ख्यातनामा व्याख्याता, इन्द्र जैसा विज्ञ शिष्य, देवों के एक सहस्र वर्ष की अवधि अध्ययनकाल नियत किया गया तो भी शब्दों का अन्त आजकल की बात ही क्या ? जो सब तरह निरोगी ज्ञात नहीं हुआ । फिर रहकर चिरायु होता है, For Private And Personal Use Only
SR No.091001
Book TitleAdarsha Hindi Sanskrit kosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamsarup
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year1979
Total Pages831
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size15 MB
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