________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
( १० )
१९४७ की मई में जब साम्प्रदायिक दंगों के कारण डी. ए. बी. कालेज, लाहौर, पूर्व वर्षों की अपेक्षा कुछ शीघ्र ही बन्द हो गया तब कालेज के छात्रावास को अपने घर से अधिक सुरक्षित समझ मैं कोश की पांडुलिपि को एक बक्स में बन्द कर वहीं छोड़ बैजनाथ ( पूर्वी पंजाब ) चला आया । बाद में वहाँ जो लूट-मार हुई, उसके वृत्त सुन-सुनकर यही विचार आता था कि मेरा 'कोश' भी लुट ही गया होगा। मैं इसकी खोज में, जान जोखिम में डालकर, सितम्बर १९४७ में लाहौर गया परन्तु कुछ पता न चला। दूसरी बार जब दिसम्बर १९४७ में फिर गया तो सौभाग्यवश यह सुरक्षित मिल गया। उन दिनों लाहौर का डी. ए. वी. कालेज और उसका छात्रावास शरणार्थी-कैम्प बना हुआ था । किसी शरणार्थी भाई ने बक्स को तो छोड़ा न था, परन्तु कोश को छेड़ा न था । कैम्प के स्वयंसेवकों ने इसे कोई काम की वस्तु समझ, सँभाल रखा था । इस अवसर पर मैं उस अज्ञात शरणार्थी भाई को जिसने इसे ज्यों-का-त्यों रहने दिया और उन अपरिचित स्वयंसेवकों को जिन्होंने इसे कई मास तक सँभाले रखा, हार्दिक धन्यवाद देना अपना पवित्र कर्तव्य समझता हूँ ।
कोश के प्रूफ, मेरे मित्र श्री हरिवंशलाल शास्त्री यदि परिश्रमपूर्वक न देखते तो इस सूक्ष्मबृहत्कार्य में बहुत त्रुटियाँ रह जातीं। दो परिशिष्टों के सम्पादन में मेरे मित्र प्रो० लाजपतराय एम. ए. ने मेरा हाथ बँटाया है। इन दोनों सज्जनों के प्रति भी मैं कृतज्ञता प्रकट करता हूँ । अन्त में कोश के प्रकाशकों के प्रति भी अपना आभार प्रदर्शित करता हूँ जिन्होंने इसे सुन्दर रूप में थोड़े ही समय में प्रकाशित कर दिया है।
मनुष्य को अपनी तथा अपनी कृतियों की त्रुटियाँ स्वभावतः ही कम दिखाई देती हैं। इसी नियम के अनुसार मैं भी प्रस्तुत पुस्तक की न्यूनताओं और भ्रान्तियों से अंशत: ही परिचित हूँ । अतः सब ज्ञाताज्ञात भूलों के लिए क्षमा-याचना करता हुआ मैं विद्वद्वृन्द से निवेदन करता हूँ कि कृष्णकवि की निम्नांकित सूक्ति
डी - १४१, शारदानिकेतन, राजेन्द्र नगर, दिल्ली दीपावली, सं० २०१४
दोषान्निरस्य गृह्णन्तु गुणमस्या मनीषिणः । पांसूनपास्य मञ्जर्या मकरन्दमिवालयः ॥
के अनुसार मिलिन्दवत् अरविन्द के मकरन्द का पान और पराग का परित्याग कर मुझे मेरी त्रुटियों से परिचित करायें तथा ऐसे अमूल्य सुझाव भेजें जिनसे कोश का आगामी संस्करण अधिक निर्दोष और उपयोगी हो सके । प्रभु से प्रार्थना है कि उस देववाणी संस्कृत का भूतल पर अधिकाधिक प्रसार हो जिसकी साहित्य-सुधा का आनन्द आज भारतभूमि के भी इने-गिने ही लोग ले रहे हैं ।
For Private And Personal Use Only
विनीत, रामसरूप