________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
[ ५७ ]
तथा 'भेडचाल' मुहावरे इसी के समानार्थक हैं । उदाहरण - 'विरलविरला एव जना जगति सविवेकमाचरन्ति प्रायस्त्वन्ध परम्परैवावलोक्यते ।'
६. अरण्यरोदनन्याय- उक्त न्याय का अर्थ है, निर्जन में रोने की कहावत । ग्राम, नगर आदि में रोनेवाले व्यक्ति से उसका कष्ट पूछा जाता है और उसे नष्ट करने का उद्योग भी किया जाता है । परन्तु सुनसान स्थान में रोना तो सर्वथा व्यर्थ है । इसी प्रकार किसी व्यर्थ कार्य के लिए या किसी क्रूर के समक्ष प्रार्थना के समय पर यह न्याय होता है । यथा - ' अरण्यरोदनमेव धनाढयेभ्यः साहाय्ययाचनं प्रायशो भवति ।'
७. अरुन्धतीप्रदर्शन न्याय - अरुन्धतीप्रदर्शन न्याय अर्थात् अरुन्धती नक्षत्र दिखाने का न्याय । इसकी व्याख्या स्वामी शंकराचार्य ने इस प्रकार की है - 'अरुन्धतीं दिदर्शयिषुस्तत्समीपस्थां स्थलांतर मुख्य प्रथममरुन्धतीति ग्राहयित्वा तां प्रत्याख्याय पश्चादरुन्धतीमेव ग्राहयति ।" अर्थात् किसी को अरुन्धती दिखाने का इच्छुक व्यक्ति पहले उसके समीपवर्ती किसी बड़े नक्षत्र कोही अरुन्धती बताता है और उसके बाद वास्तविक अरुन्धती को दिखाता है जिसका प्रकाश मन्द होता है । इस प्रकार जहाँ किसी सूक्ष्म वस्तु के स्पष्टीकरणार्थ पहले किसी स्थूल वस्तु को बताकर निषेध किया जाता है, वहाँ 'अरुन्धतीनक्षत्र न्याय' का प्रयोग होता है । यथा - ' अयमेव सूर्यो देव इति पूर्वमुद्दिश्य तत्पश्चात् - वास्तविको देवस्तदन्तर्वत्तति अरुन्धती - प्रदर्शनन्यायेन गुरुः शिष्यं ज्ञापयति ।"
८. अशोकवनिकान्याय - अशोकवनिकान्याय अर्थात् अशोक-नामक वृक्षों की वाटिका का न्याय । रावण ने अपहृत सीता को अशोकवाटिका में रखा था परन्तु यह कहना कठिन है कि अन्यत्र कहीं न रखकर वहीं क्यों रखा ? इसी प्रकार जहाँ किसी कार्य की निष्पत्ति के अनेक समान उपायों में से किसी एक का प्रयोग किया जाए, परन्तु यह न बताया जा सके कि अन्यों को छोड़ उसी को क्यों प्रयुक्त किया गया है, वहाँ 'अशोकवनिकान्याय' व्यवहृत होता है। जैसे— ‘प्रायो निर्विवेकाः स्वामिनः स्वसेवकान् अशोकवनिकान्यायेन विविधकार्येषु प्रवर्तयन्ति ।'
३. अश्मलोष्टन्याय -- अश्मलोष्टन्याय अर्थात् पत्थर और ढेले का न्याय । जिस प्रकार मिट्टी का ढेला रूई से कठोर होता है और पत्थर से कोमल, उसी प्रकार कोई मनुष्य अपने से छोटों की अपेक्षा तो महान् होता है और बड़ों की अपेक्षा क्षुद्र । उदाहरण - 'अस्मिन् संसारे सर्वं सापेक्षमश्मलोष्टवत, न हि किमपि अत्यन्तमुत्कृष्टमपकृष्टं वा कथयितुं पार्यते ।'
१०. अहिकुण्डलन्याय - अहिकुण्डलन्याय अर्थात् साँप की कुण्डलाकार स्थिति का न्याय । साँप स्वभावतः कुण्डली मार कर बैठता है, इसके लिए उसे प्रयास नहीं करना पड़ता। इसी प्रकार जहाँ किसी पदार्थ के स्वाभाविक धर्म का उल्लेख किया जाता है, वहाँ इस न्याय का प्रयोग होता है । जैसे- 'अहिकुण्डलवत् स्वाभाविकं हि कवेः काव्यं न हि तत्र तस्य महाप्रयासस्यापेक्षा ।'
११. आकाश मुष्टिहननन्याय - इस न्याय का शब्दार्थ है आकाश को मुक्के से पीटने की कहावत । जैसे आकाश को मुक्कों से पीटना असंभव है, वैसे ही किसी को असंभव कार्य करते देख इस उक्ति का प्रयोग किया जाता है । यथा - 'आकाशमुष्टिननमेव तवायमुद्योगो प्रधानमन्त्रिपदप्राप्तये । '
१२. आम्र से कपितृतर्पणन्याय- - इस न्याय का अर्थ है, आम सींचने और पितरों के तर्पण करने की कहावत | आशय वही है जो हिन्दी की कहावत 'एक पंथ दो काज' का है। जहाँ एक क्रिया से दो प्रयोजनों की सिद्धि अभीष्ट हो वहाँ इस न्याय का प्रयोग न्याय्य है । यथा - ' संसत्सदस्या सेकपितृतर्पणन्यायेन राष्ट्रसेवामपि कुर्वन्ति, पर्याप्तं वेतनं चापि प्राप्नुवन्ति ।'
For Private And Personal Use Only