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[ ७३७ ]
( २ ) पृथ्वी
लक्षण – जसौ जसयला वसु ग्रहयतिश्च पृथ्वी गुरुः । ( ८, ९ पर विराम )
अर्थ - पृथ्वी छन्द के प्रत्येक पाद में जगण, सगण, जगण, सगण, यगण और लघु-गुरु के क्रम
से १७ वर्ण होते हैं । वसु ( ८ ) और ग्रह ( ९ ) पर यति होती है।
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(क) लभेत सिकतासु तैलमपि यत्मतः पीडयन् 151, 115, 1 51, 11 5, 155, 15 पिबेच भृगतृष्णिकासु सलिलं पिपासादितः । कदाचिदपि पर्यट शशविषाणामासादयेत्
न तु प्रतिनिविष्टमूर्खजनचित्तमाराधयेत् ॥ (भर्तृहरि )
(ख) अगस्त ऋषिराज जू, वचन एक मेरे सुनो,
प्रशस्त सब भाँति भूतल सुदेश जी में गुनौ ।
सुनीर तरुखंड मंडित समृद्ध शोभा धरै,
तहाँ हम निवास की, बिमल पर्णशाला करें ॥ ( रामचन्द्रिका ) ( ३ ) हरिणी
लक्षण— समरसलागः षड वेदेह हरिणी मता । ( ६, ४, ७ पर विराम ) अर्थ- हरिणी के प्रत्येक चरण में नगण, सगण, मगण, रगण, सगण और लघु-गुरु के क्रम से १७ अक्षर होते हैं । छठे, दसवें और सत्रहवें अक्षर के बाद विराम होता है ।
उदाहरण-
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लगु वहति भुवनश्रेणीं शेषः फणाफलकस्थितां, ।।।, 11 s s s S, ऽ । ऽ, I s, 1 s कमठपतिना मध्येपृष्ठं सदा स च धार्यते ।
तमपि कुरुते क्रोडाधीनं पयोधिरनादरा
दहह महतां निःसीमानश्चरित्रविभूतयः ॥ ( भर्तृहरि )
(क) मौनान्मुकः
( ४ ) मन्दाक्रान्ता
लक्षण – मन्दाक्रान्ताम्बुधिरसनगैर्मो भनौ तो गयुग्मम् । ( ४, ६, ७ पर विराम ) अर्थ - मन्दाक्रान्ता के प्रत्येक पाद में मगण, भगण, नगण, दो तगण और दो गुरु के क्रम से १७ अक्षर होते हैं । अम्बुधि ( सागर ४ ), रस ( ६ ) और नग ( ७ ) पर यति होती है ।
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गु गु. प्रवचनपटुर्बान को जल्पको वा
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धृष्टः पार्श्वे भवति च वसन्दूरतो ऽप्यप्रगल्भः । क्षान्त्या भीरुर्यदि न सहते प्रायशो नाभिजातः, सेवाधर्मः परमगहनो योगिनामप्यगम्यः ॥ ( भर्तृहरि )
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