________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
[ ७६७ ]
सहते या देते हैं । ऐसे ही अवसरों पर उक्त न्याय प्रयुक्त होता है । यथा--' को लाभोऽनेन - शिरोवेष्टनेन नासिकास्पर्शेन, प्रकृतं स्पष्टं ब्रूहि
७७. वपुच्छोनामनन्याय :-- इस न्याय का शब्दार्थ है -- कुत्ते की पूँछ को सीधा करने का दृष्टान्त । कुत्ते की पूँछ अनेक यत्न करने पर भी सीधी नहीं होती; प्रयत्न करने वाले का श्रम व्यर्थं - ही सिद्ध होता है। इसी प्रकार जहाँ काम के लिए किया हुआ उद्योग सर्वथा निष्फल रहे, वहाँ -यह न्याय व्यवहृत होता है। यथा - 'श्वपुच्छोनाम मेवैतद् महात्मा गांधी अकार्षीद् यद् मुस्लिमलीगिन: प्रेम्णा वशीकर्तुमयतत ।'
७८. शवोद्वर्तन न्याय :- इस न्याय का शब्दार्थ है— मृतक को उबटन लगाने का दृष्टान्त । सुगन्धित द्रव्य सजीव शरीर के शोभावर्द्धक हैं, निर्जीव के नहीं। इसी प्रकार जहाँ सर्वथा निष्फल उद्योग किया जाता हैं, वहाँ यह न्याय प्रयुक्त होता है । यथा - 'पाकिस्ताननिर्माणानन्तरं मुस्लिम लीगस्य पुनः भारते संस्थापनं शवोद्वर्तनमेव ।'
७६. सिंहावलोकन न्याय :- सिंहावलोकनन्याय अर्थात् सिंह के समान देखने का न्याय । चलता हुआ सिंह सामने तो देखता ही है, थोड़ी-थोड़ी देर बाद पीछे भी दृष्टिपात कर लेता है कि कोई भक्ष्य जन्तु पहुँच के भीतर पीछे भी है या नहीं। इसी प्रकार जब कोई व्यक्ति आगे-आगे कार्य करता हुआ पिछले कार्य पर भी कुछ दृक्पात करता है, तब सिंहावलोकन न्याय का प्रयोग होता है । जैसे -- ' सोत्साहैरपि छात्रैरधीतस्य सिंहावलोकनं कर्तव्यमेव ।'
८०. सिकता तैलन्याय : अर्थात् रेत से तेल निकालने की कहावत । जैसे गधे या शश के सिर पर सींग नहीं निकलते वैसे ही रेत से तेल की उत्पत्ति असम्भव है। इसी प्रकार की असम्भव बातों के लिए यह न्याय प्रयुक्त होता है । यथा - ' प्रतिनिविष्टमूर्ख जनचित्ताराधनं कविभिः सिकतासु तैलस्योपलब्ध्या उपमीयते ।'
८१. सुन्दोपसुन्दन्याय : - इस न्याय का अर्थ है - सुन्द और उपसुन्द की उपमा । महाभारत के आदिपर्व ( अध्याय २०९ - २१२ ) में सुन्दोपसुन्द नाम के दो अजेय असुर भाइयों की कथा आती है। उन्हें नष्ट करने के उद्देश्य से ब्रह्मा ने विश्वकर्मा को एक अद्वितीय सुन्दरी ( तिलोत्तमा ) निर्माण करने को कहा । ब्रह्मा ने तिलोत्तमा को उन भाइयों के पास कैला-सोधान ने भेजा । दोनों उसे देख मुग्ध हो गये और लगे अपनी-अपनी ओर खींचने । अन्ततः -दोनों क्रुद्ध होकर लड़ पड़े और दोनों ही मर गये । इन्हीं के समान जब दो समान बल वाले पदार्थ एक दूसरे के नाशक हों, तब इस न्याय का प्रयोग-स्थल होता है। जैसे -- 'यावदू सामरी - काराष्ट्र परस्परं युध्यमाने सुन्दोपसुन्दवत् न नश्यतः, शान्तिस्तावत् असिद्धस्वप्न एव ।' २. सूचीकटाहन्याय :- सूचीकटाहन्याय अर्थात् सूई और कड़ाहे का न्याय । किसी लोहार के पास जब एक व्यक्ति कड़ाहा बनवाने जा पहुँचे और दूसरा सूई, तब लोहार पहले सूई बनाता है। - क्योंकि उसे वह सहज ही अल्प काल में बना लेता है। इसी प्रकार इस न्याय का आशय यह है कि कठिन तथा दीर्घकालसाध्य कार्य पीछे करना चाहिए और सुकर तथा अल्पकालसाध्य कार्य पहले । जैसे—' श्रेणीमध्यापयन् शिक्षकः मुख्याध्यापकादागतां सूचना, प्रकृतं पाठ स्थगयित्वा, सूचीकटान्यायेन प्रथमं श्रावयति ।'
३. सूत्रबद्ध शकुनिन्याय :- इस न्याय का अर्थ है - सूत से बँधे हुए पक्षी का दृष्टान्त । सूत से बँधा हुआ पक्षी न इधर-उधर स्वच्छन्द उड़ सकता है, न कहीं यथेष्ट विश्राम कर सकता है । जिस पराधीन व्यक्ति की दशा उसके समान हो, उसके विषय में यह न्याय प्रयुक्त किया जाता है । यथा - 'कैकेयीमोहपाशबद्धस्य दशरथस्य दशा सूत्रबद्धशकुनेरिवासीत् । '
For Private And Personal Use Only