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( २३ )
सकता है | धवला टीका ८७३ विक्रमी संवत् ( = ८१६ ई० ) में लिखो गई थी । अतः धनञ्जय ७४०- ७९० ई० के मध्य अवश्य रहें होंगे ।
पुरुषोत्तमदेव – धनञ्जय के लगभग ४०० वर्षों के उपरान्त पुरुषोत्तमदेव ने तीन कोष-ग्रन्थों की रचना की । ये ग्रन्थ है- ( १ ) त्रिकाण्ड कोष, ( २ ) हारावली तथा ( ३ ) वर्णदेशना । इनमें से प्रथम तो 'अमरकोष' का पूरक ग्रन्थ है । इसका क्रम 'अमरकोष' के समान है। तदनुसार इसमें भी तीन काण्ड तथा पच्चीस वर्ग हैं। इसमें भी लोकव्यवहार में प्रयुक्त शब्दों के साथ ही 'अमरकोष' में अनुपलब्ध शब्दों का भी संग्रह किया गया है। हारावली में अप्रचलित तथा असामान्य शब्दों का समाकलन किया गया है । २७० पद्यात्मक 'लघुकोष' होने पर भी यह दो भागों में विभक्त है - ( क ) समानार्थक तथा ख) नानार्थक । समानार्थक भाग के तीन अंश हैं - पहले में पूरे श्लोक में समानार्थक शब्द हैं, दूसरे में अर्थ- श्लोक में तथा तीसरे में एक चरण में ही । नानार्थक खण्ड की भी यही सण है | वर्तनी अर्थात् शब्दों की शुद्धता बतलाना वर्णदेशना का मुख्य ध्येय है । इस ग्रन्थ की उपादेयता इस कारण सुविदित है । स्वयं ग्रन्थकार ने यह उल्लेख किया है कि गौड - लिपि में भिन्नता होने के फलस्वरूप शब्दों के रूपों में भ्रान्ति होना सम्भव है । इसके निराकरण हेतु 'वर्णदेशना' की उपयोगिता है | अमरसिंह की भाँति पुरुषोत्तमदेव भी बौद्ध थे । इन्होंने सर्वप्रथम बुद्ध को 'मुनीन्द्र' रूप में नमन किया है । इस कार्य में यह अमरसिंह से और आगे बढ़े । देवताओं के सम्बन्ध में इन्होंने बुद्ध के बाद बुद्ध के पुत्र राहुल का, अनुज देवदत्त का मायादेवी का तथा प्रत्येक बुद्ध का क्रमशः उल्लेख किया है । यह बंगाल के शासक राजा लक्ष्मणसेन ११७० - १२०० के समकालिक थे । इन्हीं के आदेश से पुरुषोत्तम देव ने पाणिनि की अष्टाध्यायी पर 'भाषावृत्ति' नामक वृत्ति लिखी | अतः इनका समय बारहवीं शती का उत्तरार्ध मानना युक्तिसंगत है ।
हलायुध - इनकी रचना अभिधान- रत्नमाला के नाम से प्रसिद्ध है । इस कोष में पाँच काण्ड हैं— स्वर्, भूमि, पाताल, सामान्य तथा अनेकार्थं । इनमें से प्रथम चार काण्डों में समानार्थक शब्दों का वर्णन है तथा अन्तिम काण्ड में नानार्थ एवं अव्ययों का । इन्होंने अमरसिंह को ही अपना आदर्श माना है । यह मान्यखेट के राजा कृष्णराज तृतीय ९५० ई० के समकालिक थे । अतः इनका समय दशम शती का उत्तरार्धं माना गया है ।
यादवप्रकाश द्वारा विरचित वैजयन्तो कोष बड़ी
महत्त्वपूर्ण रचना है । यह दो खण्डों में विभक्त है— समानार्थ तथा नानार्थं । समानार्थ खण्ड में पाँच भाग हैं— स्वर्ग, अन्तरिक्ष, भूमि, पाताल तथा सामान्य । नानार्थ- खण्ड में तीन भाग हैं, जिनमें ग्रन्थकार द्वारा शब्दों का चयन अक्षरक्रम से किया गया है ।
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