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के कारण नाटक का नाम सार्थक है। 'रामचरितमानस' के कई स्थलों पर इस तार्किक और कवि का प्रभाव स्पष्ट लक्षित होता है। जयदेव-अमर काव्य 'गीतगोविन्द' के रचयिता जयदेव वंगाधिपति लक्ष्मणसेन (१११६ ई०) के सभारत्न थे। बंगाल के केन्दुबिल्व नामक स्थान में इनका जन्म हुआ था। वे राधा-कृष्ण की भक्ति के रस में पूर्णतया पगे हुए ये और उसी रस से पूर्ण 'गीतगोविन्द' नामक गीतिकाव्य मी है । १२ सर्गों का यह गीतिकाव्य इतना सरस व मधुर है कि कालिदास की कृतियों को भी मात करता है। भाव-सौष्ठव, कल्पनोत्कर्ष और सुललित पदावली के कारण रचना अपने ढंग की एक ही है। तिरुमलांबा (रानी)-राजा अच्युत राय की पत्नी तिरुमलांबा ने 'वरदाम्बिकापरिणयचम्पूर की रचना १५२९.४० के बीच में किसी समय की। इसमें अच्युत राय और वरदाम्बिका के प्रेम तथा परिणय का वर्णन है। सम्भव है, रानी ने नामान्तर से अपनी ही कथा अंकित की हो। कृति से कत्री की पुष्ट कल्पना तथा संस्कृत-भाषा पर पूर्ण अधिकार का परिचय मिलता है। त्रिविक्रम भट्ट-शांडिल्यगोत्री त्रिविक्रम वा सिंहादित्य, नेमादित्य ( देवादित्य ) के पुत्र थे। राष्ट्रकूट नृपात तृतीय इन्दु (९१४-९१६ ई०) के सभाकवि थे। 'नलचम्पू' ( दमयन्तीकथा) और 'मदालसाचम्पू' इनकी विख्यात कृतियाँ हैं। ये संस्कृत-साहित्य के सर्वश्रेष्ठ श्लेष-कवि हैं। 'नल चम्पू' में सरस तथा चमत्कारपूर्ण श्लेषों का प्राचुर्य है। इस कृति के कमनीय उद्धरणों को भोजराज तथा विश्वनाथ ने अनेकत्र उद्धृत किया है । नलचम्पू संस्कृत का प्रथम उपलब्ध चम्पू है। दंडो-कहा जाता है कि दंडी का जन्म भारवि की चौथी पीढ़ी में हुआ था। इनकी माता का नाम गौरी तथा पिता का वीरदत्त था। ये सप्तमी शती के उत्तरार्द्ध तथा अष्टमी के पूर्वाद्ध में विद्यमान थे और काशी के पल्लवनरेशों की सभा में रहते थे।
इनकी तीन रचनाएँ हैं-दशकुमारचरित, काव्यादर्श तथा अवन्तिसुन्दरीकथा (?)। एक किंवदन्ती के अनुसार इन्होंने 'काव्यादर्श' की रचना पल्लवनरेश के पुत्र के शिक्षार्थ की थी। 'दशकुमारचरित' नामक प्रख्यात गद्यकाव्य में दस कुमारों के रोमाञ्चजनक चरित प्रस्तुत किये गये हैं। छल-कपट, मारकाट तथा सत्यानृत से पारपूर्ण होने के कारण रचना अत्यन्त सजीव है। पात्रों के चरित्र सुन्दर शैली में हैं तथा हास्य और व्यंग्य से पूर्ण हैं। भाषाशैली के विचार से भी यह रचना स्तुत्य है। भाषा प्रवाहपूर्ण, परिष्कृत तथा मुहावरों से अलंकृत है। जो पदलालित्य दंडी में है वह अन्यत्र दुर्लभ है। कहा भी है-'दण्डिनः पदलालित्यम्'। कुछ आलोचक वाल्मीकि और व्यास के अनन्तर इन्हें ही तीसरा कवि मानते हैं
जाते जगति वाल्मीको कविरित्यभिधाऽभवत् ।
कवी इति ततो व्यासे कवयस्त्वयि दण्डिनि । दामोदर मिश्र-इनके महानाटक 'हनुमन्नाटक' की रचना ८५० ई० के पूर्व हुई थी। इसमें १४ अंक हैं और कथानक रामायण पर आधृत है। प्रस्तावना और प्राकृत का अभाव, पद्यों की प्रचुरता, गद्य को न्यूनता, पात्रों की बहुलता तथा विदूषक की अविद्यमानता इसकी मुख्य विशेषताएँ हैं। इसके दो संस्करण हैं-प्रथम दामोदर मिश्र कृत, द्वितीय जिसमें ९ अंक हैं,
मधुसूदन-रचित हैं। .. . दिङ्नाग-'कुन्दमाला' नाटक के रचयिता दिङ्नाग या धीरनाग ( अथवा वीरनाग ) पाँचवीं
शती के बौद्ध दार्शनिक दिङ्नाग से सर्वथा भिन्न हैं। ये १००० ई० के लगभग हुए हैं। 'कुन्दमाला' की कथा 'उत्तररामचरित' के समान वैदेहीवनवास पर आश्रित है। इस पर उत्तररामचरित का पर्याप्त प्रभाव पड़ा है। यह नाटक 'उत्तररामचरित'-सा सरस तो नहीं परन्तु क्रियाशीलता में उससे बढ़कर है। शैली प्रसादपूर्ण है तथा करुण-रस की व्यंजना अच्छी हुई है।
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